अजेय मेरे लिए बहुत ख़ास आत्मीय कवि हैं। इस कवि में राजनीति की खुली घोषणा भले न मिलती हो पर मैं देख सकता हूँ की वे कविता में मेरे प्रिय एक मेनीफेस्टो का पालन करते हैं। हमारी ज़मीन भी एक ही है। उसने लोग हिमालय के सर्वहारा हैं, कविता के भीतर उनका संघर्ष पूंजी और सामंती ढांचों से टकराने का है। वे सवाल उठाते हैं और सवाल उठाने और उनसे जूझने वाली कविता एक निश्चित राजनीति की कविता होती है। जब आज के संभावनाशील जूझारू कहाए जाने वाले युवा कवि अपनी कविता के उत्तर आधुनिक पाठ के लिए भरपूर उत्सुक हैं, तब अजेय खुद को मनुष्यता के सामान्य किन्तु जटिल सन्दर्भों में पढ़े जाने कीचुनौती पेश करते हैं। ये मेरी पढ़त के कुछ सिरे उनकी कविता में इसी तरह खुलते हैं।
आज की हिन्दी कविता में अजेय की आवाज हमारे सीमित कर दिए गए भूगोल में भले सुदूर हिमाचल की आवाज के रूप में स्थापित की जा रही हो लेकिन कविता में विचार की अनंत भूमिका स्वीकारने वाले मुझ जैसे पाठकों के लिए वह बहुत निकट की आवाज है। कई बार तो खुद हमारे भीतर की आवाज। समकालीन हिन्दी कविता की आत्मा जिस प्रगतिशील आन्दोलन में वास करती है अजेय की कवितायें ठीक वहीं जन्म लेती हैं। बहुत दूर मुख्य धारा से कटे हुए अब तक अनाम से रहे स्थान के कवि अजेय किसी लोक विशेष को नहीं, उसमें रहने-बसने वाले मनुष्य और उसकी उत्कट जीवनशक्ति को आकार दिया है। मुझे बखूबी याद है कि अजेय को पहली बार हमारे समय की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘पहल’ ने अपने शुरुआती पन्नों में कविता में बिलकुल कुछ नया पा लेने के उत्सव की तरह छापा था इसके बाद अजेय ने निरंतर उस विश्वास को बनाए रखा है, जिसे पहल के सम्पादक ज्ञान जी ने रेखांकित किया था- कहना ही होगा कि ज्ञानरंजन और पहल की अत्यंत विचारवान और सक्रिय भूमिका से ही अस्सी के बाद की हिन्दी कविता का स्वरूप और भविष्य निर्धारित हुआ है और अजेय इसी कविता संसार के कवि हैं।
ये कवितायें बर्फ से ढकीं उस जमीन का एहसास कराती हैं, जहां मनुष्य और प्रकृति आपस में घुल-मिल जाते हैं। भोज वन और व्यूस की टहनियों के प्रदेश की इन कविताओं में आदमी को ज़िंदा रखने वाली एक आंच है, एक गुनगुना सुखद अहसास है और मनुष्यता के पक्ष में एक लम्बी और जरूरी जिरह भी। हमें अब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए की बिना बहस के कोई भी कविता मर जाती है। यह देखना सुखद है कि अंतिम निष्कर्ष की भंगिमा के बजाय अजेय की ये कवितायें अपनी पढ़त में बहस की बहुत सारी गुंजाइश छोड़ती है- इसे इन कविताओं की मनुष्यता कहा जाना चाहिए। ऐसे वक्त में जब कवि विद्वत जन अपने से बाहर की जगहों का सम्मान करना छोड़ रहे हैं, तब अजेय की कविता विशवास दिलाती है की किसी भी तरह की रुढ़िवादी निजता और कट्टरता से बाहर संभव करने के लिए एक बहुत बड़ा संसार हमेशा मौजूद है और हमेशा रहेगा। अजेय की पंक्ति का ही सहारा लें तो वे ‘सामूहिक ऊर्जा से आविष्ट स्नायुतंत्र’ के कवि हैं और यह भी सोंचे कि आज की कविता में कितने ऐसे कवि हैं।
‘पहली बार’ के लिए मुझे चार कवितायें चुनने और उन पर टिप्पणी लिखने का काम मुझे दिया गया है और मैंने छह कवितायें चुनी हैं। पहली कविता में ईश्वर को बीडी और चाय पीने बुलाते अजेय अंशतः ही सही पर कुमार विकल की परम्परा में जाते इकलौते युवा कवि के रूप में उपस्थित होते हैं। ‘ब्यूस की टहनियां’ हिमाचल की जनजातीय स्त्रीयों का रूपक बनाती है। इन टहनियों में वह जरूरी लोच है, जिससे घर-संसार संभव होता है और उसका सूख जाना भी, जहां वे टूट जाती हैं। ‘अतिजीवन‘ जंगल में ज़िंदा रहने के अभिलाषियों के लिए लिखी गयी कविता है, जिसमें कुछ हिंसक सीखें हैं, लेकिन देखना होगा की यह हिंसा नहीं नागार्जुन की परम्परा में प्रतिहिंसा है -परम्परा, जिसे मैं प्रगतिशील कहता हूँ और मेरे दो-एक अत्यंत प्रतिभा संपन्न युवा कवि साथी कैनन की तरह देखते हैं। यही कारण है की अजेय मुझे अपने साथियों में विचार और परम्परा के आईने में सबसे निकट के साथी लगते रहे हैं। ‘एक बुद्ध कविता में करुना ढूंढ रहा था’ बहुत बड़े वैचारिक विन्यास की कविता है। इसमें इतिहास, राजनीति, समाज और कविता के रेशे बहुत जुड़े हुए हैं, उनसे जो अंतर्वस्तु इस कविता को मिली है, वो आज की कविता में दुर्लभ है। यह कविता एक बड़े नैरेशन को संभव करती है। और बुद् के महाआख्यान को अपने ढंग से आम आदमी और जनजीवन के उसी संघर्ष पथ पर लाती है जिसे बुद्ध ने अपना माना था। इस कविता में पर्याप्त लोकेल हैं पर उसका परावर्तन कहीं अधिक सुलझे हुए विचार संसार में मौजूद है, जहां से हम इसे देख पाते हैं। कविता में करुणा की ये खोज हमारे समय के विकट बौद्धिक आग्रहों के बीच एक विरल मानवीय खोज है। ‘इस गाँव को उन बच्चों की नजर से देखना है’ शीर्षक कविता भी अपने लोकेल को जानने का आग्रह जरूर करती है पर बताती है की जनता का जीवन और उस पर आये संकट हमारी विचार भूमि पर कहाँ-कहाँ उपस्थित हैं। ‘जो अंधों की स्मृति में नहीं है’ नामक कविता पुरास्मृतियों के सहारे एक सामाजिक नए की तलाश है और यहाँ मेरी चुनी अंतिम कविता ‘अपनी आँखों से देखना है‘ हम सभी कवियों की घोषणा बनती है।
अधिक कुछ नहीं कहते हुए अपनी इस टिप्पणी में मैं दरअसल इन कविताओं का चयनकर्ता और प्रस्तोता भर हूं। स्पष्ट है कि अजेय की कविताएं अब सुचिंतित और विस्तृत आलोचना लेख की मांग करती हैं। उनका पहला कविता संकलन ‘इन सपनों को कौन गाएगा’ भी दखल प्रकाशन से आने को है, सो सभी कविताएं एक साथ मिलने पर इस तरह की आलोचना लिखे जाने की सहूलियत मिलेगी….अभी के लिए बहुत संकोच के साथ ये आधी-अधूरी टिप्पणी अजेय की छह कविताओं के साथ ….
–शिरीष कुमार मौर्य
इस गाँव को उन बच्चों की नज़र से देखना है
इस गाँव तक पहुँच गया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग
जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप
पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ
इस गाँव की आँखों में
झौंक दी गई है ढेर सारी धूल
बदरंग कर दी गई है
इस गाँव की हरी भरी देह
चैन गायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है
बड़े बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर
इस काले चिकने लम्बे चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी
इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के क्रिकेट खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !
जो उनके खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौन्दता आगे निकल जाना चाहता है !
मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह
शेवेर्ले की काली खिड़की से नहीं देखना है
मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !
पल-लमो, जून 7, 2010
जो अन्धों की स्मृति में नहीं है
हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बसाईं.
भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए
ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं
प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर …..
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !
बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010
अपनी आँखों से देखता हूँ
लौटाता हूँ
ये चश्मे तेरे दिए हुए
कि सोचता हूँ
अब अपनी ही आँखों से देखूँगा
मैं अपनी धरती
लोग देखूँगा यहाँ के
सच देखूँगा हूँ उन का
और पकता चला जाऊँगा
उन के घावों और खरोंचों के साथ
देखूँगा उन के बच्चे
हँसी देखूँगा उन की
और खिलखिला उट्ठूँगा
दो घड़ी तितलियों और फूलों के साथ
औरतें देखूँगा उन की
और उनकी रुलाई देखूँगा
और बूँद बूँद रिसने लग जाऊँगा
अँधेरी गुफाओं और भूतहे खोहों में
अपनी धरती देखूँगा
अपनी ही आँखों से
देखूँगा उस का कोई छूटा हुआ सपना
और लहरा कर उड़ जाऊँगा
अचानक उस के नए आकाश में
लौटाता हूँ ये चश्मे तेरे दिए हुए
ये भी और वो भी
ये सारे के सारे ले लो
ये जो अच्छे खासे नज़ारे को धुँधला बना देते थे
और वो भी जो धुँधले को ज़्यादा ही शफ्फाक़ दिखा देते थे
यह लो जो छोटे को बड़ा दिखाता था
और यह भी रक्खो जो बड़े को छोटा कर देता था
संभालो यह जो दूर को पास लाता था
और यह वाला जो पास को दूर कर देता था
ये जो उलझनों और सवालों पर झीना परदा देते थे
और वो भी जो सीधे सादे मुद्दों को बेवजह उलझा देते थे
नहीं चाहिए जो रंगों को धूल में राख में छिपा देता था
और वो भी जो मटमैले को ज़बरन हरा बना देता था
देखना चाहता हूँ आज अपनी यह धरती
मेरी अपनी ही आँखों से
जिस के लिए वे बनीं हैं
और देखना चाहता हूँ ठीक वैसी ही , उतनी ही
जैसी कि जितनी कि वह है
धुन्ध को धुन्ध और रोशनी को रोशनी देखना चाहता हूँ
और कोशिश करता हूँ जानने की
क्या यही एक सही तरीक़ा है देखने का !
सितम्बर 15,2011
एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है
धुर हिमालय में यह एक भीषण जनवरी है
आधी रात से आगे का कोई वक़्त है
आधा घुसा हुआ बैठा हूँ
चादर और कम्बल और् रज़ाई में
सर पर कनटोप और दस्ताने हाथ में
एक नंगा कंप्यूटर हैंग हो गया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .
तमाम कविताएं पहुँच रहीं हैं मुझ तक हवा में
कविता कोरवा की पहाड़ियों से
कविता चम्बल की घाटियों से
भीम बैठका की गुफा से कविता
स्वात और दज़ला से कविता
कविता कर्गिल और पुलवामा से
मरयुल , जङ-थङ , अमदो और खम से
कविता उन सभी देशों से
जहाँ मैं जा नहीं पाया
जबकि मेरे अपने ही देश थे वे.
कविताओं के उस पार एशिया की धूसर पीठ है
कविताओं के इस पार एक हरा भरा गोण्ड्वाना है
कविताओं के टीथिस मे ज़बर्दस्त खलबली है
कविताओं की थार पर खेजड़ी की पत्तियाँ हैं
कविताओं की फाट पर ब्यूँस की टहनियाँ हैं
कविताओं के खड्ड में बल्ह के लबाणे हैं
कविताओं की धूल में दुमका की खदाने हैं
कविता का कलरव भरतपुर के घना में
कविता का अवसाद पातालकोट की खोह में
कविता का इश्क़ चिनाब के पत्तनों में
कविता की भूख विदर्भ के गाँवों में
कविता की तराई में जारी है लड़ाई
पानी पानी चिल्ला रही है वैशाली
विचलित रहती है कुशीनारा रात भर
सूख गया है हज़ारों इच्छिरावतियों का जल
जब कि कविता है सरसराती आम्रपालि
मेरा चेहरा डूब जाना चाहता है उस की संदल- माँसल गोद में
कि हार कर स्खलित हो चुके हैं
मेरी आत्मा की प्रथम पंक्ति पर तैनात सभी लिच्छवि योद्धा
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.
सहसा ही
एक ढहता हुआ बुद्ध हूँ मैं अधलेटा
हिमालय के आर पार फैल गया एक भगवा चीवर
आधा कंबल में आधा कंबल के बाहर
सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिन्दुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है
मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है
दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ
और मेरा छोटा सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों बीच.
सिल्क रूट पर मेराथन दौड़ रहीं हैं कविताएं
गोबी में पोलो खेल रहा है गेसर खान
क़ज़्ज़ाकों और हूणों की कविता में लूट लिए गए हैं
ज़िन्दादिल खुश मिजाज़ जिप्सी
यारकन्द के भोले भाले घोड़े
क्या लाद लिए जा रहे हैं बिला- उज़्र अपनी पीठ पर
दोआबा और अम्बरसर की मण्डियों में
न यह संगतराश बाल्तियों का माल- असबाब
न ही फॉरबिडन सिटी का रेशम
और न ही जङ्पा घूमंतुओं का
मक्खन, ऊन और नमक है
जब कि पिछले एक दशक से
या हो सकता है उस से भी बहुत पहले से
कविता में सुरंगें ही सुरंगें बन रही हैं !
खैबर के उस पार से
बामियान की ताज़ा रेत आ रही है कविता में
मेरी आँखों को चुभ रही है
करआ-कोरम के नुकीले खंजर
मेरी पसलियों में खुभ रहे हैं
कविता में दहाड़ रहा है टोरा बोरा
एक मासूम फिदायीन चेहरा
जो दिल्ली के संसद भवन तक पहुँच गया है
कविता का सिर उड़ा दिया गया है
फिर भी ज़िन्दा है कविता
सियाचिन के बंकर में बैठा
एक सिपाही आँखें भिगो रहा है
कविता में एक धर्म है नफरत का
कविता मे एक मर्म है परबत का
कविता में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
तुरत जो नाम आता है तिब्बत का
कविता के पठारों से गायब है शङरीला
कविता के कोहरे से झाँक रहा शंभाला
कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.
अरे , नहीं मालूम था मुझे
हवा से पैदा होतीं हैं कविताएं !
क़तई मालूम नहीं था कि
हवा जो सदियों पहले लन्दन के सभागारों
और मेनचेस्टर के कारखानों से चलनी शुरू हुई थी
आज पॆंटागन और ट्विन –टॉवर्ज़ से होते हुए
बीजिंग के तह्खानों में जमा हो गई है
कि हवा जो अपने सूरज को अस्त नही देखना चाहती
आज मेरे गाँव की छोटी छोटी खिड़कियो को हड़का रही है
हवा के सामने कविता की क्या बिसात ?
हवा चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज हवा ने कविता को खरीद लिया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .
दूर गाज़ा पट्टी से आती है जब
एक भारी भरकम अरब कविता
कम्प्यूटर के आभासी पृष्ट पर
तैर जाती हैं सहारा की मरीचिकाएं
शैं- शैं करता
मनीकरण का खौलता चश्मा बन जाता है उस का सी पी यू
कि भीतर मदरबोर्ड पर लेट रही है
एक खूबसूरत अधनंगी यहूदी कविता
पीली जटाओं वाली
कविता की नींद में भूगर्भ की तपिश
कविता के व्यामोह में मलाणा की क्रीम
कविता के कुण्ड में देशी माश की पोटलियाँ
कविता की पठाल पे कोदरे की मोटी नमकीन रोटियाँ
कविता की गंध में ,
आह !
कैसा यह अपनापा
कविता का तीर्थ यह कितना गुनगुना ….
जबकि धुर हिमालय में
यह एक ठण्डा और बेरहम सरकारी क्वार्टर है
कि जिसका सीमॆंट चटक गया है कविता के तनाव से
जो मेरी भृकुटियों पर शिशिर गाँठ सा तना हुआ है
जब कि एक माँ की बगल में एक बच्चा सो रहा है
और एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.
08.01.2010
शिरीष कुमार मौर्य हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। सम्प्रति कुमायूं विश्वविद्यालय के नैनीताल कैम्पस में अध्यापन करते हैं। इनका पहला कविता संकलन ‘पहला कदम’ 1994 में छपा। अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 2004 पहला अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार मिल चुका है।