भालचन्द्र जोशी की कहानी ‘पिशाच’

भाल चन्द्र जोशी

भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है देश की अर्थव्यवस्था आज भी बहुत हद तक खेती किसानी पर अवलम्बित है लेकिन उदारवाद और पूँजीवाद ने किसानों को दिनोंदिन दिवालिया बनाने का ही काम किया है समाज में आज भी सामंत और साहूकार हैं जो किसानों की लाचारी का फायदा उठाने से नहीं चूकते राजनीतिज्ञ किसानों की भलाई की तमाम घोनाएँ करते हैं लेकिन नतीजा वही ढांक के तीन पात। एक समय में किसानी को उत्तम व्यवसाय माने जाने वाले देश में ही आज परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गयीं हैं कि किसान आत्महत्या करने के लिए विवश है नाटक आत्महत्या के बाद भी चलता रहता है। राजनीतिज्ञों के इशारे पर नौकरशाही किसानों की आत्महत्या को दूसरी शक्ल दे कर अपने को बचाने के लिए उद्यत रहती है मीडिया भी अब पिछलग्गू की भूमिका निभाने लगी है इन्हीं परिप्रेक्ष्यों को ले कर भालचन्द्र जोशी की कहानी की एक उम्दा कहानी आयी है ‘पिशाच’। कथादेश के हालिया अंक में छपी यह कहानी पढ़ कर किसानों की दारुण स्थिति के बारे में हमें पता चल जाता है आइए पढ़ते हैं भालचन्द्र जोशी की कहानी ‘पिशाच 
 
पिशाच

भालचन्द्र जोशी
‘‘दिन बुढ़ने को आया, घर चलें?’’ 
वे दोनों खेत की जिस मेड़ पर बैठे हैं, वह बाएँ जा कर पीछे दक्षिण दिशा में मुड़ गई थी। जिस जगह से मेड़ के पीछे पलटी थी, वहीं कोने पर आम का एक किशोर पेड़ है। वे दोनों जहाँ बैठे हैं, वहाँ नीम का घना पेड़ है। आम का पेड़ भी है लेकिन हट कर। नीम की छाया से परहेज पालता हुआ, थोड़ी दूर। खेत की मेड़ खेत से थोड़ी ऊँचाई पर है। कुएँ की खुदाई में निकले पत्थरों को खेत की मेड़ पर लम्बी दूरी तक दीवार की तरह जमा दिया है।
उसने सिर पर से गमछा उतार कर कंधे पर डाल लिया। एक धूसर रोशनी हरे खेत में जाने की जल्दी में फिसल रही है। उसने एक गहरी साँस लेकर रोशनी की हड़बड़ी को महसूसा। फिर दोनों हाथ पीछे मेड़ पर टिका दिए। पत्नी ने उसकी हताशा और दुःख को ठेलने की नाकाम कोशिश में कहा, -‘‘दिन बुढ़ने को आया, घर चलें?’’ उसने गरदन घुमा कर पत्नी की ओर देखा, वह कातर भाव से उसे देख रही है। वह इस बात से बेपरवाह है कि खुद उसका चेहरा भी दुःख से सना है। वह बोला कुछ नहीं, एक लम्बी और गहरी साँस छोड़ी जैसे उस पर साँस का भारी वजन हो जो साँस छोड़ते ही हल्का महसूस करेगा।
वह धीरे से उठ खड़ा हुआ। पलटने से पहले उसने एक बार फिर खेत की ओर देखा। पौधे खासे बड़े हो गए हैं। पूरा खेत गहरे और हरे पौधों से भरा-भरा लग रहा है लेकिन वह जानता है कि यह घनी और भरी-भरी हरियाली कितनी डरावनी है!
वह पलटने को हुआ तो देखा, कुछेक लड़के-लड़कियाँ खेत की दूसरी मेड़ से आ रहे हैं। वह जानता है, कालेज के लड़के-लड़कियाँ हैं। कालेज की ओर से श्रमदान करने गाँव आए हैं। शाम को घूमने निकले हैं।
तभी पीछे चल रहा लड़का दौड़ कर आगे आया और आगे चल रही लड़की से कैमरा ले कर उन दोनों के पास आ गया और चहक बोला, -‘‘आप किसान हो?’’ उसके प्रश्न में किसी अद्भुत के हासिल की दबी खुशी थी। गहरी हताशा के बावजूद वह मुस्करा दिया। बोला, – ‘‘हाँ!’’ लड़का खुश हो गया, उसने कहा, -‘‘मैं आपका फोटो खींच लूँ।’’
‘‘क्या करोगे ?’’ उसने मुस्करा कर पूछा।
‘‘फेसबुक पर डाल दूँगा। अ रीअल फार्मर इन रीअल फार्म! अ लवली फार्म विथ ग्रेट ग्रीनरी….!’’ लड़का उत्साह में बोला, -‘‘देखना, दर्जनों कमेंट्स आएँगे। सैकड़ों लाइक क्लिक करेंगे !’’
वह कुछ नहीं समझा इसलिए बोला भी कुछ नहीं। लड़का भी उसकी नासमझी को समझ गया और बोला, -‘‘कम्प्यूटर में आपका फोटो डालूँगा। दुनिया भर के लोग देखेंगे। यू नो… मेरी एफबी फ्रेण्डलिस्ट कितनी बड़ी है? सेवन हण्डरेट …. सात सौ….! सात सौ दोस्त हैं मेरे।’’ अपने कहे पर वह खुश हो कर थिरकने लगा।
उसे अचरज हुआ। शादी-ब्याह या दुःख-सुख में तो इसका घर भर जाता होगा। खुशनसीब है छोरा… खुशी में शामिल होने के लिए कितने दोस्त? दुःख में सहारा देने के लिए इतने दोस्त … ! अपने अचरज को लड़के पर प्रकट किया तो लड़का खुश होने के बजाए हकबका गया।
‘‘अरे, नहीं… नहीं। ये सारे दोस्त सुख-दुःख में मिलते-जुलते नहीं है। सिर्फ कम्प्यूटर पर दोस्ती है।’’ लड़के ने समझाया।
उसे सुन कर अजीब-सा लगा। परिचितों का इतना बड़ा संसार, दोस्तों की इतनी बड़ी बिरादरी लेकिन सिर्फ छाया। लगभग ढपोलशंख जैसी! जो है लेकिन दिखाई नहीं देता। जो कहता है लेकिन करता नहीं। सिर्फ बातें और बातें….!
लड़का और वह लड़की उन दोनों की फोटो खींचते रहे। पत्नी उसे अचरज और थकान से देखती रही। फोटो खींच कर लड़के और लड़कियाँ जाने लगे तभी वह लड़का फिर पलट कर आया, -‘‘यह आपकी पत्नी है?’’
उसने अपनी पत्नी परमा की ओर संकेत करके पूछा। उसके हाँ कहने पर बोला, -‘‘ये क्या करती है?’’
‘‘घर के सारे कामकाज और खेत पर काम भी करती है। यह भी किसान है।’’ उसने कहा तो लड़का मजाक समझा।
‘‘औरत किसान कैसे हो सकती है? मर्द ही किसान होता है।’’ लड़के ने उसके कथन को मजाक समझने पर उसकी स्वीकृति चाही।
‘‘ऐसा किसने कहा ? कोई नियम-कायदा बन गया है, ऐसा क्या?’’ उसने पूछा तो लड़का सोच में पड़ गया। फिर सिर झटक कर बोला, -‘‘ऐसा कहीं लिखा तो नहीं है। पर ऐसा ही माना जाता है।’’ लड़का कुछ देर उसके जवाब की प्रतीक्षा करता रहा फिर उसे चुप देख कर वह असमंजस से देखने लगा।
‘‘आपका नाम क्या है किसान?’’ लड़के ने बहुत विनम्रता से कहा, – ‘‘मुझे एफ.बी. पर आपका नाम भी डालना पड़ेगा।’’
वह दूर खेत में दूसरी मेड़ पर आम के पेड़ को घूरने लगा जैसे नाम वहीं कहीं हो और बहुत शक्ति के साथ उसे लाना पड़ेगा। 
‘‘गोकुल…!’’ उसने कहा तो उसे खुद अपना नाम अजनबी लगा। लड़का कुछ देर तक चुप रहा फिर थोड़े संकोच से बोला, – ‘‘कोई प्राब्लम? मतलब कोई दिक्कत? शानदार बड़े और घने पौधों की फसल है। फिर भी उदास हो?’’
गोकुल उस लड़के को चुपचाप देखता रहा। एक तो शहरी लड़का! फिर ज्यादा पढ़ा-लिखा…!
‘‘तुम खेती बाड़ी के बारे में कितना जानते हो?’’ उसने लड़के से कहा तो न चाहते हुए भी स्वर में खिन्नता चली आई। फिर लड़के के बोलने से पहले कहा, -‘‘इस फसल में तुम्हें क्या शानदार दिखा?’’
‘‘घने और बड़े-बड़े पौधे हैं… पूरा खेत हरा-भरा है।’’ लड़के ने उसकी उदासी पर अचरज प्रकट किया।
‘‘पहले तो तुम्हें यह बता दूँ, जो कि तुम जानते नहीं हो कि यह कपास की फसल है। और ये पौधे बड़े और घने हैं तो भी इसमे कपास के घेटे नहीं लगे हैं। फूल नहीं आए हैं। अरे, इसमें कपास नहीं लग पाया। बगैर कपास के पौधे किस काम के?’’ कहते-कहते वह लड़के की नादानी का बहाना लेकर अपनी लाचारी पर मुस्करा दिया। उसकी मुस्कान कुछ ऐसी थी कि पत्नी के अलावा वह लड़की भी थोड़ा डर गई। लड़का कुछ देर हतप्रभ खड़ा रहा। उसने मुँह से सिर्फ इतना निकला, – ‘‘ओह!’’ लड़की ने लड़के का हाथ इतने धीरे सी खींचा कि जैसे अनचाने किसी अपराध में शामिल हो गए हों और अब भागने में भलाई समझी! लड़का और लड़की दोनों धीरे से पलटे और चल दिए।
गोकुल ने पत्नी का हाथ पकड़ा और घर की ओर चल दिया। घर हल्के अँधेरे में खिसक गया है। घर पहुँचे तो देखा, छोटी बेटी चूल्हा जलाने की कोशिश में तवे पर जल रही रोटी को भूल चुकी है। घर में धुआँ भर चुका है। परमा ने चारे का गट्ठर आँगन में फेंका और बेटी की मदद के लिए दौड़ पड़ी। लोहे की फूँकनी से जोर से फूँक मारी तो भक्क से चूल्हा जल गया। तब बेटी को भी तवे पर जल रही रोटी का खयाल आया। उसने खिसिया कर माँ की ओर देखा। माँ ने उसे आँखों से आश्वस्त किया।
‘‘मैं रोटी बना दूँ?’’ माँ ने पूछा। 
‘‘नहीं माँ, मैं बना लूँगी। वो तो बस चूल्हा नहीं जल रहा था।’’ उसने माँ को आश्वस्त किया। परमा पलट गई। बेटी बारह साल की हो गई है। अभी खाना बनाना नहीं सीखेगी तो फिर कब? साल-दो-साल में ब्याह हो जाएगा। पराए घर जाएगी तो मैके की नाक कट जाएगी। छोरी को रसोई का काम नहीं आता है। सोचते हुए वह घर के आँगन से चारे का गट्ठर उठाकर पीछे बँधे जानवरों को चारा देने चली गई।
गोकुल आँगन में खटिया पर लेट गया। उसके अकेले के खेत की दशा ऐसी नहीं थी। गाँव के बारह किसान और भी थे जिनके खेत ऐसे ही बर्बाद हो गए हैं।
कृषि विभाग के अफसर के बहकावे में आ कर उन्होंने खराब बीज ले लिया था। अफसर ने गोकुल सहित तेरह किसानों को समझाया था। आम फसल से तीन गुना कपास पैदा होने की बात बताई। अखबार में छपी धार जिले की कोई खबर भी दिखाई। खबर में एक किसान हँसता हुआ खेत में खड़ा था। खेत में कपास की ऐसी फसल थी, जिसमें सफेद कपास की बहार आई हुई थी। बीज महँगे थे। इन बीजों के लिए, इस फसल के लिए अलग से खाद की जरूरत थी। इतना पैसा कहाँ से आएगा? उसका हल भी अफसर के पास था। अगले दिन वह एक बैंक के अफसर के साथ आया। उसने बताया कि सरकार अब किसानों को कम ब्याज पर कर्जा दे रही है। तुम भी ले लो। पैसा फसल आने पर चुका देना।
‘‘गोकुल भाई, ये कपास नहीं, समझो पैसे की नहर खोद रहे हो। कलदार का पेड़ लगा रहे हो। इस बीज की फसल इतनी आएगी कि घर की दशा बदल जाएगी।’’ अफसर ने उसे अग्रिम बधाई देते हुए एक सपना भी दे दिया।
उसे बदले में क्या करना था? सिर्फ कर्जे के कागजों पर अपना फोटू और अँगूठा लगाना था। उसमें क्या जाता है? कोई धन तो माँगता नहीं है। क्या देना पड़ा? उसने सोचा था, खेत और घर के कागज और बस नीली स्याही में अँगूठा। अँगूठे का निशान। आसान काम था। उसने कर दिया। उसके साथी किसानों ने भी कर दिया।
उस समय बैंक अफसर ने जिस विनम्रता, आदर और प्रेम से समझाया था तो उसे लगा कि कोई उसका सगे वाला उसका भला करने के लिए मिल गया है। बैंक अफसर की वाणी बहुत मीठी थी। उसकी बातों में ऐसा जादू था और उसने भविष्य का इतना खूबसूरत सपना दिखाया कि उसे लगा था, इस फसल के बाद वह अपनी दोनों बेटियों के हाथ पीले कर देगा। माँ-बाप को तीरथ करा लाएगा। हर बरसात में गिर जाने वाली कच्ची दीवार को पक्की दीवार बना लेगा। एक बैल अब बूढ़ा हो गया है। दम भरता है। उसकी जगह इसी मेले में दूसरा बैल खरीद लेगा। गाँव के बनिए का कर्ज पिछले पाँच साल से बाकी है, इस साल चुका देगा। दो साल से ज्यादा हो गए, परमा के लिए एक लुगड़ा तक नहीं खरीदा है, इस बार एक अच्छा लुगड़ा खरीद कर देगा। खुद भी एक नई कमीज खरीद लेगा। कईं साल हुए बच्चों के पास जूते-चप्पल नहीं है, वह भी खरीदेगा। सपनों में ऐसी कईं बातें शामिल थीं। बिल्कुल छोटी-छोटी जो सुनने पर किसी को मामूली और अजीब लग सकती हैं लेकिन वे उसके सपनों में शामिल हैं।
उसने गहरी साँस ली। कितनी खबर भेजी, खुद कितनी बार कृषि विभाग गया, वो अफसर कभी मिला नहीं। एक बार मिला तो ऐसे अचरज से उसकी बात सुनी जैसे उसने कोई नामुमकिन बात कह दी हो। बोला, – ‘‘बीज तो नम्बर एक है। ऐसा कैसे हो गया? मैं खुद गाँव आऊँगा। कल ही आता हूँ।’’ लेकिन महीना गुजर गया आज तक नहीं आया।
करवट ले कर उसने आँगन की छोटी-सी दीवार के पार देखा, राम अवतार मिस्त्री का घर है। लगभग खण्डहर हो चुका घर है। पत्नी मर गई है। बच्चे दूसरे शहरों में चले गए हैं। बड़े से घर में अकेला रहता है। हर बारिश में घर की कोई एक दीवार या हिस्सा गिर जाता है। राम अवतार मलबा तक नहीं हटाता है। खण्डहर मे तब्दील होता घर बहुत डरावना लगने लगा तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि राम अवतार की घरवाली का प्रेत उस घर में घूमता रहता है। रात को आवाजें आती हैं। घर में घूमता हुआ प्रेत भी बहुत से लोगों ने देखा। घर के सामने रहने वाले गोकुल को कभी प्रेत तो नहीं दिखा लेकिन उसने यह जरूर देखा कि रात में कंदील लेकर राम अवतार घर में जाने क्या टटोलता रहता है। सामान उलटता-पलटता रहता है।
शाम के धुँधलके में रात का अँधेरा घुलने लगा है। गोकुल ने देखा, राम अवतार अपने घर के भीतर गिरे दीवार के मलबे पर बैठा जमीन में जाने क्या ध्यान से देख रहा है। उसे इस बात की परवाह नहीं कि गली में निकलते लोग उसे देख कर हँसते या फिर डर जाते हैं। रात को तो बच्चे घर के करीब नहीं जाते लेकिन दिन में रात अवतार को चिढ़ाते हैं। राम अवतार किसी बात पर ध्यान नहीं देता है। वह सोया रहता है या फिर मिट्टी खोदता रहता है। वह शहर जाकर गृहस्थी का सामान लाता है या किसी से बुलाता होगा क्योंकि गाँव मे किसी दुकान पर उसे किसी ने जाते हुए नहीं देखा। उसका खाना वह खुद बनाता है या कोई और बना कर देता है यह तक किसी को नहीं मालूम। सारा घर लगभग खुला हुआ था लेकिन जीवन ढँका-छिपा। रहस्यमय।
भीतर से बेटी ने आवाज दी तो वह समझ गया, रोटी बन गई होगी। वह उठ कर आँगन के कोने में रखे बर्तन से पानी निकाल कर हाथ-मुँह धोने लगा। भीतर आ कर चुपचाप बैठ गया। बेटी ने थाली परोस कर दी तो वह चुपचाप खाने लगा। बेटी ज्वार के रोटे अच्छे बना लेती है। अमाड़ी की भाजी भी अच्छी बनाई है। एकदम तेज-तर्रार। छोरी जिस घर में जाएगी उसके भाग खुल जाएँगे। सोच कर मन को तसल्ली हुई। दिन भर की चिंताओं के बाद सुख का यह छोटा-सा टुकड़ा उसके पास आया।
खाना खा कर वह तमाखू मसलता हुआ बाहर आ गया। गली में अँधेरा था लेकिन उसे अँधेरे में चलने का अभ्यास था। चलता हुआ वह गौरीशंकर के घर तक आया। गौरीशंकर ने भी उसी अफसर के दिलाए हुए बीज खरीदे हैं। उसने सोचा, गौरीशंकर से पूछने पर पता चले कि परेशानी का कोई निकाल लगा या नहीं? कोई हल नहीं खोज पाएँगे तो दोनों साथ बैठ कर कलपेंगे। साथ बैठकर दुख मनाने से दुख कम तो नहीं होगा शायद हल्का हो जाए।
गौरीशंकर घर के बाहर ओटले पर बैठा था। चुपचाप बीड़ी पी रहा था। उसे देख कर थोड़ा परे सरक कर बोला, -‘‘आ बैठ !’’
गोकुल उसके पास जाकर बैठ गया। देर तक दोनों में बातें होती रहीं। बेनतीजा। गौरीशंकर ने बताया कि वह तो खेत पर नहीं जाता है। खेत देख कर कलेजा जलाओ, क्या मतलब?
गोकुल काफी देर बाद लौटा। आँगन में उसका बिस्तर लगा दिया था। चुपचाप सो गया। अगले दिन की सुबह उसके लिए सुखद अचरज भरी रही। कृषि विभाग का वह अफसर और बैंक मैनेजर दोनों उसके घर आए। उसे कहा कि वे उसका खेत देखना चाहते हैं।
‘‘चिंता मत करो। बीज में कोई खराबी नहीं है। चल कर देखते हैं। बीज खराब हुआ तो पूरा हर्जाना दिलाऊँगा।’’ अफसर उसे दिलासा देते हुए बोला। मन में फिर उम्मीद जाग गई। 
सभी लोग खेत पर आए। कृषि विभाग का अफसर और बैंक मैनेजर दोनों पूरे खेत में घूमते रहे। इतना बड़ा खेत। दोपहर हो गई। अंत में बहुत गंभीरता से बोला, -‘‘मैंने तो पहले ही कहा था। बीज में कोई खराबी नहीं है। छोटा कीड़ा लगा है, फूल नहीं बनने दे रहा है। दवाइयों का छिड़काव करना पड़ेगा।’’
‘‘मुझे कीड़ा दिखाई नहीं दिया?’’ गोकुल ने डरते हुए कहा। वह अफसर की नजर और समझ पर एकाएक प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहता था।
‘‘ऐसे बीजों की फसल पर ऐसे ही कीड़ा लगता है। कीड़ा नहीं दिखता लेकिन फसल के रंग को देख कर मैंने बताया।’’ अफसर उसे समझाने लगा, -‘‘फिर गौरीशंकर से पूछो, उसकी फसल पर तो कीड़े का असर साफ दिखाई दे रहा है। पत्ते मुरझा कर गिरने लगे हैं। पत्तों में छेद होने लगे हैं।’’ फिर वह गौरीशंकर की ओर पलटा जो उनके साथ ही आया था, -‘‘क्यों गौरीशंकर ठीक है ना?’’
‘‘जी! ठीक है साबजी!’’ गौरीशंकर ने सहमति दी लेकिन गोकुल को उसकी सहमति में असमंजस दिखा। इतने साल हो गए उसे किसानी करते हुए, गोकुल ने सोचा। ऐसी कौन-सी बीमारी हे पौधों पर जो उसे दिखाई नहीं दी लेकिन अफसर को दिखाई दे गई ?
‘‘बीमारी होती तो पौधा इतना बड़ा हो जाता?’’ उसने अपनी शंका प्रकट की।
‘‘तुम्हें हम पर भरोसा नहीं? हम झूठ बोल रहे हैं क्या? तुम्हारी भलाई के लिए तुम्हारे बुलावे पर इतनी दूर आए हैं और तुम भरोसा नहीं करते हो?’’ अफसर भड़क कर बोला।
अफसर के गुस्से को देखकर गोकुल सहम गया।
‘‘साब जी, मेरे मतलब यह नहीं था, मैं तो सिर्फ पूछ रहा था।’’ वह गिड़गिड़ाया।
अफसर तुरंत नरम पड़ गया, – ‘‘मैं भी तुम्हें समझा रहा हूँ मेरे भाई। सरकार ने खेती-किसानी का वैज्ञानिक बनाया है हमको। मुझे इतनी बड़ी नौकरी दी है। पाँच साल तक कालेज में पढ़ाई की और ट्रेनिंग ली है। अब बताओ, खेती के बारे में मैं ज्यादा जानता हूँ या तुम?’’ अफसर ने गोकुल के कंधे पर प्यार से हाथ धरा। गोकुल का मन गीला हो गया।
‘‘खेती के बारे में तो आप ज्यादा जानते हैं। मैं तो अनपढ़ हूँ।’’ गोकुल भीगी आवाज में बोला।
‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुनो! इन पर दवाइयाँ स्प्रे करना होंगी। दवाइयाँ थोड़ी महँगी हैं, लेकिन फसल ऐसी फलेगी कि दुनिया देखती रह जाएगी। कपास रखने की तुम्हारे घर में जगह कम पड़ जाएगी।’’ अफसर ने बहुत प्यार से समझाया।
गोकुल ने बताना चाहा कि दवाइयों के पैसे नहीं है लेकिन उसके बोलने से पहले ही बैंक मैनेजर बोल पड़ा, – ‘‘पैसे की तुम चिंता मत करो।’’ जैसे वह उसके मन की बात समझ गया हो। – ‘‘पैसा तो तुम्हें बैंक से फिर मिल जाएगा। तुम एक आवेदन भेज दो।’’ 
गोकुल को पछतावा होने लगा। व्यर्थ ही इन भले लोगों के बारे में वह गलत सोच रहा था। उसकी चिंता में इतनी दूर दौड़े चले आए। बस एक छोटा-सा कर्जा और कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। उसने अपने पश्चाताप को मिटाने के लिए दोनों अफसरों से आग्रह किया कि उसके घर खाना खा कर जाएँ।
उसने गाँव के बनिए से सामान खरीदा और परमा ने दाल-बाटी और लड्डू बनाए। घर में तो जैसा त्यौहार का दिन आ गया। मर चुकी उम्मीद को जैसे फिर से साँसें मिल गईं।
बैंक से फिर से कर्ज मिल गया। दवाइयाँ आ गईं। छिड़काव हो गया। फसल पकने की प्रतीक्षा शुरू हो गई। वह और शेष बारह किसान रोज एक दूसरे के खेतों में जाकर फसलों को ध्यान से देखते। फिर एक दूसरे को तसल्ली देते कि जल्दी ही फसल पक जाएगी। अभी कुछ दिन तो धीरज धरना पड़ेगा।
गाँव में कईं तरह की बातें होतीं। कुछ लोग उनसे ईष्र्या भी करते तो कुछ लोग उन पर हँसते भी थे। उनका कहना था कि वे कृषि विभाग के अफसर के चक्कर में फँस गए हैं। नम्बर एक का धूर्त है। उसने बैंक के कर्ज में किसानों को गाड़ कर खाद-बीज की दुकानों से लेकर दवाई दुकान वाले से भी कमीशन ले लिया है। बैंक को तो कर्ज पर ब्याज मिल रहा है। फँस गए हैं सब के सब। वे सुन कर डर भी जाते थे फिर एक दूसरे को तसल्ली भी देते थे।
एक दूसरे को दी हुई तसल्ली कब तक काम आती है? धीरज कब तक धरा रहता? समय गुजरता गया लेकिन फसल में फूल और फल नहीं आए। दिन के बाद जब महीने गुजर गए तो गोकुल की चिंता बढ़ी। वह शहर में कृषि विभाग के दफ्तर गया। पता चला कि अफसर का तबादला हो गया है। बैंक का अफसर छुट्टी पर था। उसकी पत्नी को बच्चा होने वाला था।
कृषि विभाग में उस अफसर की जगह आए दूसरे अफसर से उसने अपनी व्यथा कही। उसने तत्काल उसे पानी पिलाया। चपरासी को चाय के लिए बोला फिर दिलासा दिया, -‘‘तुम्हारे साथ बुरा हुआ। मैं गाँव में तुम्हारी फसल देखने आऊँगा। जल्दी ही, बल्कि कल ही।’’
सचमुच अफसर दूसरे ही दिन उसका खेत देखने आ गया। अफसर ने पूरे खेत का चक्कर लगाया। फिर मेड़ पर खड़ा होकर कुछ देर सोचता रहा।
‘‘देखो भाई, यह फसल तो बेकाम है। बर्बाद हो गई है। एकदम साफ दिखाई दे रहा है कि नकली बीज था। राठौड़ तो बदमाश था, चूना लगा गया तुमको।’’ उसने पिछले अफसर को कोसा और गोकुल के पास आ कर खड़ा हो गया, -‘‘कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। बड़े नेताओं का हाथ था उस पर। सभी को हिस्सा देता था।’’
गोकुल की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। छले जाने की आशंका तो थी अब पुष्टि हो गई। वह धम्म से मेड़ पर बैठ गया। नया अफसर उसके निकट आया और बोला, -‘‘देखो, मैं तुमको अँधेरे में नहीं रखना चाहता हूँ। मेरी तो आदत है साफ बात करने की। गरीब को लूटा है सभी ने मिल कर।’’ फिर गोकुल का हाथ पकड़ कर उसे धीरे से खड़ा किया, -‘‘हिम्मत हारने से कुछ नहीं होगा। इस फसल को निकाल कर फेंको। मैं तुम्हें एकदम असली बीज दिलाता हूँ। एकदम बढ़िया। सौ टंच। पास के कुएँ से पानी खरीद लेना। महीने-दो-महीने में तो फसल शानदार तैयार!’’ 
गोकुल की आँखें डबडबा आईं। सिर्फ इनकार में सिर हिला।
‘‘मैं तो तुम्हारे भले के लिए कह रहा था। पैसा नहीं हो तो चिंता मत करो। सहकारी समिति से कर्जा दिला दूँगा।’’ अफसर ने सहानुभूति में उसके कंधे पर हाथ धर दिया, -‘‘देखो सरकार किसानों के लिए कितना करना चाहती है। तुम लोगों को फायदा उठाना चाहिए।’’
गोकुल ने धीरे से कंधे से अफसर का हाथ हटाया। वह चुपचाप वापस पलट गया। अफसर भी धीरे-धीरे उसके पीछे चल दिया। समझ गया कि अब नहीं मानेगा। गोकुल तो देख भी नहीं पाया कि अफसर उसके पीछे-पीछे घर तक नहीं आया। थोड़ी दूर के बाद वह शहर लौट गया।
गोकुल घर आकर नंगी खटिया पर लेट गया। शाम भी नहीं हुई थी लेकिन उसे लगा, घना अँधेरा हो गया है। उसे इस नए अफसर की बेशर्मी पर अचरज हुआ। एक बार धोखा देने के बाद यह भी एक नई भाषा में, नई सहानुभूति की तह चिपका कर फिर से और गहरी खाई में धकेलने की कोशिश कर रहा था। वह गले तक कर्ज में धँसा है। सरकारी अमला उसे और कितना नीचे धकेलना चाहता है? क्या इस तरह की सरकारी नौकरियों में छल और बेशर्मी की विषेषज्ञता के बगैर, कोई काम नहीं होता? कहते हैं ये लोग ऊपर तक हिस्सा देते हैं।
अब उसे गाँव के सरपंच की बात पर भरोसा होने लगा कि बड़े नेताओ को हिस्सा दिए बगैर अफसर इतने बेलगाम और निर्दय नहीं हो सकते हैं। निर्दयता का क्रम कितना बड़ा और कितना लम्बा होता जा रहा है। नेताओं की बदमाशी और निर्दयता की बातें वह सुनता था तो इन्हें किस्से समझता था लेकिन अब वह खुद इसी तरह का एक किस्सा हो गया है। 
पूरी दोपहर वह यूँ ही नंगी खटिया पर पड़ा रहा। परमा को लगा थका है, सो रहा है। शाम को उसने देखा तो गोकुल की देह बुखार में तप रही थी। परमा ने कहा, -‘‘डाकतर को दिखा दो। देह में ताप है।’’
‘‘दिखा दूँगा।’’ कह कर वह चुपचाप दीवार को घूरने लगा। वह परमा को कैसे बताए, ताप देह में नहीं, मन में है। मन का ताप देह में फैल रहा है। परमा समझ गई, पति दुखी है। दुख का कारण भी उसे पता चल गया था। उसे लगा था कि समय बीतेगा और दिन भर सो लेने पर पति का दुख शाम तक कम हो जाएगा। वह नहीं जानती थी कि समय ऐसे दुखों से परास्त हो जाता है और दुख कम नहीं कर पाता खुद गुजर जाता है। समय लेकिन कैसे गुजर रहा है? कर्ज का कुँआ गहरा होता जा रहा है। दुखी की नदी चौड़ी होती जा रही है। दिन पिछले दिनों की सीढ़ियों पर पैर रखते आगे बढ़ते गए। खेत की फसल सूख गई तो काट कर घर ले आए। चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी काम आएगी, यह सोच कर। ऐसे ही बीतते समय में अगली बुआई का समय आ गया। इस बार उसने गाँव के बनिए से कर्ज लिया। बनिए ने जो खाद-बीज की दुकान बताई, वहीं से खाद बीज लाया। बीते दुख के दिन, पिछला कर्ज स्मृतियों की तह में उतरने लगा। लेकिन कहते हैं कि सरकार कुछ नहीं भूलती। उसकी याददाश्त बहुत अच्छी होती हैं कितने भी साल गुजर जाए, उसे सब याद रहता है।
एक दिन बैंक का नोटिस आया। कर्ज की मूल रकम और ब्याज मिला कर इतनी बड़ी राशि थी कि वह स्तब्ध रह गया। वह बैंक गया तो बैंक मैनेजर उसे पहचाना भी नहीं।
फसल बर्बाद हो गई तो बैंक क्या करे? नकली बीज कृषि विभाग ने दिया तो बैंक क्या करे? बैंक के पास ऐसे ढेरों सवाल थे जिनमें सिर्फ बैंक के लिए चिंता थी। गोकुल की परेशानी के लिए उनके पास समय था न फिक्र। ऐसे पचासों केस हैं, किस-किस के दुखड़े सुने और किस-किस की परेशानी देखे? बैंक मैनेजर का जवाब था।
नोटिस का जवाब गोकुल ने भेजा नहीं, एकाध महीना चैन से गुजरा कि एक दिन कहर टूटा। बैक की गाड़ी, बैंक वसूली के हट्टे-कट्टे आदमी। सभी एक साथ आए। वह कुछ कहता, टोकता तब तक तो वे लोग घर में घुस गए। गाय, बैल सभी को हाँक कर बाहर लाए और गाड़ी में चढ़ा दिया। हल, बक्खर, और खेती के दूसरे औजार इकट्ठा किए और गाड़ी में रख लिया। फिर सामान की लिस्ट बनाई, पंचनामा बनाया तथा एक और नोटिस उसको थमा कर चल दिए।
नोटिस घर खाली करने के लिए था। तीन दिन में। साथ ही खेत की फसल जब्त करने की सूचना थी। एकाएक जिस तेजी से आए थे, उतनी ही तेजी से चले गए। जैसे लुटेरों का गिरोह था। एकाएक आक्रमण किया, सब कुछ लूटा और चल दिए। बस फर्क इतना था कि ये लोग सब कुछ लूट कर भागे नहीं थे, इत्मीनान के साथ गए थे। गाँव वालों को यह सूचना दे कर, पंचनामा बना कर कि इतने समय से कर्जा नहीं चुकाया तो वसूली हमारी मजबूरी है।
लूट उनकी मजबूरी थी। सरकारी मजबूरी में कौन बोलता? फिर कर्जा लिया है तो चुकाना तो पड़ेगा। सरपंच के कहते ही सभी ने सहमति में सिर हिलाए थे।
परमा ने उसे दिलासा दिया। अच्छे दिन जीवन में नहीं है तो क्या हुआ, दुख के दिन भी नहीं रहेंगे। ऐसा कहीं होता है कि पूरा जीवन बीत जाए तो और सुख का एक दिन भी नसीब न हो। भगवान सब देखता है! पहली बार उसे सन्देह हुआ। भगवान यदि देखता है तो चुप क्यों है?
वह शाम को गौरीशंकर के यहाँ गया। वहाँ भी यही हाल था। उसने बताया कि मेरे पास
ज्यादा जानवर तो थे नहीं। दो बैल थे, ले गए। मकान की जब्ती भी आएगी। कर्जा लेने वाले सभी लोगों के यहाँ बैंक की गाड़ी जाएगी। ऊपर से यमदूत चल पड़े हैं, कोई नहीं बचेगा।
गौरीशंकर ने ही बताया कि बैंक की जब्ती की गाड़ी और आदमी चले गए हैं। बैंक मैनेजर गाँव में ही रुका है। कृषि विभाग का नया अफसर भी आ गया है। हरिदास बीज खाद के लिए बैंक से कर्जा ले रहा है। आज दोनों अफसरों को दारु-मुर्गे की दावत दे रहा है। पुराना अफसर दाल-बाटी और लड्डू का शौकीन था, यह दारु-मुर्गे का शौकीन है।
देर तक दोनों बातें करते रहे। फिर दोनों को पता नहीं चला किस बात पर और कैसे दोनों रोने लगे। देर तक रोते रहे। रात के अँधेरे में उनकी रोने की आवाज दूर तक नहीं जा रही थी। बस, दोनों एक दूसरे को सुन पा रहे थे।
काफी रात गए गोकुल उठा और घर की ओर चल दिया। गली में सन्नाटा फैला था। लोग कहते हैं, रोने से मन हल्का हो जाता है। उसका मन भारी हो गया था। भारी कदमों से अपने भारी मन को बोझ उठाए वह चुपचाप चल रहा था। राम अवतार के घर के आगे उसे अँधेरा कुछ ज्यादा लगा। उसने देखा, रामअवतार के घर के आँगन में खड़े नीम के पेड़ की सबसे ऊँची शाख से उतर कर एक पिशाच  हवा में तैरता हुआ नीचे आया। वह डर कर खड़ा हो गया। उसे लगा, उसका भ्रम है। फिर उसने देखा, पिशाच टूटी दीवार के पास खड़ा है। गोकुल का डर बढ़ने लगा। गाँव के लोग कहते हैं, उस पिशाच  की नजरें किसी पर पड़ गई या किसी ने उससे नजरें मिला लीं तो उसका बचना मुश्किल है। पिशाच कलेजा खा जाता है। खून पी जाता है। जिंदा नहीं छोड़ता है। एक-एक करके उसे सारी बातें याद आ गईं। इतने सालों से वह उसके पड़ोस में रहता है लेकिन पहली बार उसे पिशाच नजर आया।
तभी एक छोटी-सी चिंगारी चमकी। गोकुल भीतर तक लरज गया। पिशाच के मुँह से आग की एक लपट उठी। उसे लगा, आज जिंदगी का आखिरी दिन है। तभी उसने उस लपट को धीमे होते देखा, जलती हुई तीली थी। अब उसने ध्यान से देखा, दीवार से टेक लगाए कोई आदमी खड़ा होकर सिगरेट जला रहा है। जलती तीली की रोशनी में उसने देखा, बैंक मैनेजर है। बैंक मैनेजर नशे में हल्के-से डोल रहा था। शायद पेशाब करने के लिए इधर अँधेरे में निकल आया था।
तीली बुझने के बाद अँधेरे में बैंक मैनेजर किसी पिशाच की भाँति नजर आने लगा।
वह सिर झुकाए आगे बड़ा। उसने बैंक मैनेजर से नजरें नहीं मिलाई। उसे लगा, दो जलती हुई आँखें उसकी पीठ पर टिकी हैं। वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ने लगा। घर पहुँचा तो घर के भीतर दाखिल होते ही उसने घबराकर दरवाजा बंद कर लिया। भय और दुख के अतिरेक में वह हाँफ रहा था। कल या परसों… घर भी बैंक वाले जब्त कर लेंगे या नीलाम कर देंगे, पता नहीं क्या करेंगे। खेत की फसल भी बैंक वाले लेंगे। घर में क्या बचा रहेगा? घर ही कहाँ बचा रहेगा?
घर न खेत! रहने का ठिकाना न खाने का। बच्चों और बूढ़े-माँ बाप को लेकर वह कहाँ जाएगा? क्या ज्यादा फसल लेने की इच्छा अपराध है? उसने सोचा, अच्छे दिनों की कल्पना भी उसके लिए गलत है? उसके पुरखे भी खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करते रहे और कितना मिला? घर में दो रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था। उसने अपने पुरखों से हट कर अच्छे दिनों के सपनें देख लिए। सपनें देखना इतना बड़ा अपराध हो गया कि वह सपनों से भी बेदखल हुआ और घर और खेत से भी। उसके पुरखे दो रोटी के सपने में खुश थे। उसने दो रोटी से थोड़ी बड़ी खुशी का सपना देख लिया। कितना बड़ा सपना? बेटियों के ब्याह कर सके। माँ-बाप तीरथ जा सके। पत्नी के लिए अच्छी साड़ी खरीद ले, बस। उसके सपनों की चहारदीवारी इतनी ही थी फिर भी सपने अपराध की सीमा में चले गए।
उसने आँगन के पार गवानमें देखा! एक भी जानवर नहीं है। पता नहीं कहाँ बँधे होंगे? क्या खाया होगा?
वह आँगन की दीवार के पास टिक कर बैठ गया। गली के पार अँधेरे में देखा, कुछ दिखाई नहीं दिया। गली में सन्नाटा था। परमा भीतर बच्चों के पास थी। फिर धीरे से उठ कर उसके पास आ गई। अब एक ही दुख के मलबे पर दोनों बैठ गए। बहुत देर तक परमा उसे दिलासा देती रही ऐसा दिलासा जिस पर खुद उसे भरोसा नहीं था। रात गए वह उठ कर बच्चों के पास चली गई।
सुबह अभी ठीक से हुई नहीं थी। अँधेरे की मोटी तह थोड़ी कम जरूर हो गई थी। जानवरों को चारा डालने और दूध निकालने की रोज की दिनचर्या में परमा की नींद खुल गई। उठ कर आँगन तक आई, तब उसे याद आया, जानवर तो बैंक वाले ले गए। मुँह पर पानी के छींटे मार कर वह आँगन में बैठ गई। तब उसने देखा, खटिया पर गोकुल नहीं है। उसने सोचा, लोटा लेकर जंगल की तरफ गया होगा। इस काम के लिए एक पुराना लोटा घर में गोकुल के लिए रख छोड़ा था। लोटा अपनी जगह पर था। फिर गोकुल कहाँ गया? घर कौन-सा बड़ा था? सभी दूर देखा, गोकुल कहीं नहीं था। अब उसे थोड़ी चिंता हुई। वह नंगे पैर अँधेरे में गौरीशंकर के घर गई। उसे उठाया और बताया तो वह भी चिंतित हो गया। आसपास के दो-चार घर में भी जाग हो गई। सभी खोजने लगे।
एकाएक परमा कुछ सोच कर चौक पड़ी। उसने गौरीशंकर बताया।
‘‘जरूर खेत में गए होंगे!’’
सभी लोग खेत में पहुँचे। खेत की चारों मेड़ घूम गए। गोकुल कहीं नहीं था। परमा रूआँसी हो गई। खेत की मेड़ पर बैठ गई। सभी ने तसल्ली दी, मिल जाएगा। कहीं और गया होगा!
‘‘कहाँ?’’
परमा के इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। गोकुल के खेत की फसल कटी हुई थी। आसपास के खेतों में फसल थी। दूसरे लोग आसपास के खेतों में तलाशने लगे। कपास की फसल कोई इतनी बड़ी तो होती नहीं कि बैठा हुआ आदमी न दिखाई दे। खोज तो सिर्फ भय और आशंका को परास्त करने के लिए हो रही थी।
फिर गोकुल मिला। गौरीशंकर को दिखाई दिया। गोकुल के खेत से लगे सुंदरभाई के खेत के कुएँ में लेटा था। जल की सतह पर। मुर्दा। रात को किसी समय वह खेत में आया था, दुख और तनाव के अतिरेक में कुएँ में शरण खोज ली। दुख के अँधेरे से भाग कर कुएँ के अँधेरे जल में छिपी मृत्यु की शरण में मुक्ति खोज ली थी।
जरा-भी डर नहीं लगा। जरा भी नहीं सोचा? एक बार भी कलेजा नहीं काँपा कि उसके बाद इतने बड़े घर को मैं कैसे सम्भालूँगी? उसके बगैर कैसे जियूँगी? मरने से उसको तकलीफों से छुटकारा मिल जाएगा? परमा चीख-चीखकर विलाप करने लगी। गौरीशंकर ने उसे सहारा देकर कुएँ से दूर हटाया। दूसरे लोगों ने लाश कुएँ से निकाली।
गोकुल की लाश लेकर घर तक पहुँचे तो परमा बेहोष हो चुकी थी। लाश को आँगन में रखकर परमा को भीतर लिटाया। सुबह ठीक से नहीं हुई थी पर पूरे गाँव मे शोर हो गया। सभी गोकुल के घर के पास इकट्ठा होने लगे।
गौरीशंकर ने देखा, गोकुल की लाश का चेहरा पानी में धुलकर थोड़ा सफेद हो गया था। चेहरे पर अब रात का दुख और तनाव नहीं था। चेहरा एकदम शांत था। क्या सारे दुखों से छुटकारे के लिए यही एक आखिरी हल बचा है ? गौरीशंकर ने सोचा। इसके अलावा अब कोई रास्ता नहीं है? सरपंच आ गया था। उसने बताया पुलिस को खबर हो गई है। पुलिस आती ही होगी? यानी लाश का क्रिया-कर्म शाम तक होगा और यदि पोस्टमार्टम देर से हुआ तो कल ही आग नसीब होगी गोकुल की लाश को।
गौरीशंकर ने आँगन के पार गली की दूसरी तरफ देखा। राम अवतार का मकान अभी भी अँधेरे में डूबा है। उसे लगा इस मकान को दिन की रोशनी में भी अँधेरे से छुटकारा नहीं मिलता होगा। राम अवतार के घर की बाहरी टूटी दीवार के भीतर उनके बड़े से मलबानुमा कमरे में उसे दिखाई दिया। एक क्षण को लगा, वही पिशाच  है। फिर उसने ध्यान से देखा, रामअवतार था। मलबे पर बैठा नीचे मिट्टी में जाने क्या खोद रहा था।
सुबह अपने साथ गाँव के लिए नवीन और अचरज भरी सुबह ले कर आई। गाँव में पुलिस फोर्स आ गई। गाँव में कोने-कोने पर पुलिस का जवान तैनात हो गया। गोकुल के घर को पुलिस ने घेर लिया था। थानेदार से लेकर पुलिस का बड़ा अफसर तक मौजूद। पटवारी से लेकर कलेक्टर तक हलकान हो रहे थे। सरपंच ने गोकुल की आत्महत्या की खबर थाने पर की थी। पटवारी ने तहसीलदार को बताया था। तहसील ने कलेक्टर से। थानेदार ने एस. पी. को। पूरा प्रशासन हरकत में आ गया। कलेक्टर ने मुख्यमंत्री से बात की। प्रशासन को सख्त ताकीद की गई कि गाँव में मीडिया नहीं पहुँचने पाए। चुनाव सिर पर हैं। किसान की आत्महत्या की खबर आग की भाँति फैल जाएगी। किसानों के लिए की जा रही कर्जे की माफी की घोषणा या फिर शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज देने की लुभावनी घोषणा पर यह मुर्दा किसान अकेला सब पर भारी पड़ेगा। इस जिले का नहीं, प्रदेश के चुनाव पर असर डालेगा। एक गरीब, लाचार किसान की मृत्यु का भूत सारे राजनीतिज्ञों को डराने लगा। राजनीतिज्ञों ने जिला प्रशासन को धमकाया। डर की ऐसी लम्बी सिहरन बढ़ी कि पूरा गाँव दहशत में आ गया। भारी भीड़ के बावजूद गाँव में सन्नाटा था। पत्रकार या पत्रकार-सा लगने वाला आदमी गाँव से मीलों दूर रोक दिया गया।
गोकुल की विधवा को सुबह पाँच बजे रोने से रोक कर कलेक्टर ने बाहर आँगन में बुलाया। कलेक्टर के साथ दिक्कत यह थी कि उसे निमाड़ी बोली तो दूर हिन्दी भी ठीक से नहीं आती थी। कान्वेंटी स्कूलों की चमकीली और अंग्रेजी से लिथड़ी हुई क्लाससे तालीम पाए कलेक्टर ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसी अपरिचित और दुत्कार में पली बोली को पुचकारना पड़ेगा। गोकुल की विधवा रोए जा रही थी। वह जोर-जोर से बैंक के अफसर और कृषि विभाग के अफसर को गालियाँ दे रही थी। गालियाँ किसी बोली, किसी भाषा के अधीन नहीं होती है। वह सारी बोलियों और भावनाओं में एक जैसे आदर और स्वीकार के साथ मौजूद होती है। कलेक्टर गालियों को समझ रहा था लेकिन उसका सन्दर्भ नहीं पकड़ पा रहा था। वह परमा के दुःख को पहचान रहा था लेकिन दुर्भाग्य यह था कि उसके गुस्से को नहीं समझ पा रहा था।
कलेक्टर ने पटवारी से कहा। पटवारी ने परमा को समझाया। परमा क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गई। पटवारी थोड़ा परे सरक गया। परमा उस पर झपटने वाली थी। उसके गुस्से में पटवारी की हरकत भी जुड़ गई। पटवारी के बाद तहसीलदार आया। उसने भी आत्मीयता की ऐसी भाषा में जो जुबान से बाहर आते ही बनावटीपन के कारण अशालीन लग रही थी। उसने परमा को समझाया कि, – ‘‘इसे गोकुल की आत्महत्या मत कहो। अभी कुछ देर बाद शहर से पत्रकार आएँगे। तुम उन्हें बता देना कि गोकुल पागल था। बीमार था। पागलपन में उसने कई बार पहले भी मरने की कोशिश की थी। पागलपन बढ़ गया तो उसने फंदा लगा लिया।‘‘
परमा को लगा, सामने रामअवतार के घर रात में फिरने वाला पिशाच उसके सामने कई रूपों में आकर बैठा है। उसने कोई सख्त बात करने के लिए मुँह खोला तो तहसीलदार उसकी भंगिमा देख कर तुरन्त बोला, -‘‘पागल मत बनो। गुस्सा मत करो। समझने की कोशिश करो। तुम्हे गाँव में रहना है। घर, खेत सभी कुछ कर्जे में दबा है। मरने वाला तो चला गया। तुम अपने घर-परिवार की फिकर पालो।‘‘ तहसीलदार की भाषा में एक ऐसी कोमलता थी जो प्रलोभन के प्रकाश में भविष्य के अंधकार को विकराल करके बता रही थी। कलेक्टर एक कोने में खड़ा बेचैनी से सारी कार्रवाई को देख रहा था। परमा धाड़ मार कर जोर से रोने लगी तो कलेक्टर समझ गया कि यह गँवारू औरत नहीं मानेगी वह बेचैनी और गुस्से में होंठ चबाने लगा। फिर उसने आँगन से बाहर जा कर थानेदार को संकेत से पास बुलाया। थानेदार दौड़ा आया। कलेक्टर ने बहुत धीमी आवाज में उसे कुछ समझाया। तब तक एस. पी. के कदम भी उन तक पहुँच गए थे। इसी बीच क्षेत्र का विधायक भी पहुँच गया। आती ही उसने कलेक्टर और एस. पी. से कहा, – ‘‘आप चिंता मत करो। मैं समझाऊँगा तो औरत मान जाएगी।‘‘
थानेदार ने आश्वस्ति देने वाली मुद्रा में सिर हिलाया और घर के भीतर दाखिल हुआ। उसके पीछे कलेक्टर, एस.पी. और विधायक भी दाखिल हुए। अब आँगन में तहसीलदार थानेदार, एस. पी., कलेक्टर और विधायक परमा के आसपास खड़े थे। परमा दीवार से पीठ टिकाए बैठी अपमान और दुःख से भरी रो रही थी। बेटी डरी सहमी भीतर के दरवाजे पर खड़ी थी। गोकुल के बूढ़े माँ-बाप भीतर के कमरे में लगभग बंद कर दिए गए थे। जहाँ से कभी-कभी माँ की चीख की शक्ल में रुलाई का कोई टुकड़ा बाहर आ जाता है। अपाहिज बाप लगभग गूँगा हो चुका था।
थानेदार, तहसीलदार और विधायक परमा के पास उकड़ू होकर बैठ गए। दोनों ने अलग-अलग मोर्चा नए हथियारों के साथ सँभाला। तहसीलदार के पास प्रलोभन और आत्मीयता की भाषा की कोशिश थी जिसमें उसे खासी कठिनाई आ रही थी क्योंकि इतने बरसों की अफसरी में उसे कभी किसी से इतनी कोमलता से बात करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। थानेदार के पास धमकी, डर और आतंक की परिचित और मनपसंद भाषा थी जिसमें वह दक्ष था। उसने कहा, – ‘‘देख बाई, कल को किसी ने कह दिया कि गोकुल ने कर्जे के मारे आत्महत्या नहीं की। उसकी तो हत्या की गई है, तब? तब क्या करेगी? कहने वाले की जबान पकड़ेंगे क्या? कहने वाले तो यह भी कह सकते हैं कि तूने ही गोकुल को निबटा दिया। चक्कर था तेरा किसी के साथ। देख लिया उसने। ये बाहर खड़ा है, क्या नाम उसका? रात भर से वो लाश के पास बैठा है …. गौरी शंकर …. उसी ने फंदा कस दिया ….।‘‘
शर्म, दुःख और आतंक से परमा की आँखें बंद हो गई। –‘‘दरोगा, नरक जाएगा तू। हाथ…. हाथ भर के कीड़े पड़ेंगे तुझे।‘‘
‘‘वो मैं निबट लूँगा। कीड़ों से भी और नरक की तकलीफों से भी।‘‘ थानेदार ने लापरवाही से उसकी घृणा को दुत्कारा, -‘‘तू अपनी सोच। तुझे जेल हो गई तो तेरे बच्चों का क्या होगा? मरने वाले के बूढ़े माँ-बाप गलियों में भीख माँगेंगे। और देखता हूँ कौन भीख देगा?‘‘ कहते-कहते थानेदार के स्वर में गुर्राहट उतर आई।
आँखों से बहते आँसूओं के बीच परमा की पूरी देह पसीने से नहा गई। उसने देखा, थानेदार बहुत अर्थपूर्ण नजरों से उसकी बेटी को घूर रहा था।
‘‘मालूम है ना, अनाथ लड़कियाँ कहाँ जाकर बैठती हैं? कहाँ गायब होती हैं, कहाँ बिकती हैं? थानेदार ने एक ऐसी क्रूर आवाज में कहा जो अदेखे चाकू-सी उसकी छाती में उतरती चली गई। एकाएक दृश्य में तहसीलदार प्रकट हुआ। जैसे यहीं से उसका रोल शुरु होता हो।
‘‘कैसी बात कर रहे हो थानेदार साहब! ये इज्जतदार लोग हैं। अपनी इज्जत के लिए जान देने वाले। गोकुल ने इज्जत के वास्ते ही तो जान दी। आप इसे डराओ मत। ऐसा कुछ नहीं होगा।‘‘ कहकर उसने एक कमीनी सहानुभूति के साथ परमा को सान्त्वना दी। जिसमें ऐसा कुछ हो जाने की संभावना की पुष्टि थी।
परमा डर और दुःख के मारे काँपने लगी। वह कोशिश कर रही थी अपने भय की थरथराहट पर काबू पाने की लेकिन नाकाम हो रही थी। कलेक्टर को उसका भय देखकर अब थोड़ी उम्मीद बँधी कि शायद यह बेवकूफ औरत मान जाएगी।
तभी विधायक ने पुचकार के स्वर में कहा, -‘‘और तुम कर्जे की चिन्ता मत करो। बैंक को बोल देंगे। कर्जा माफ हो जाएगा। कृषि विभाग और बैंक दोनों जगह से तुम्हारी कर्जे की वसूली रोक देंगे। दो दिनों में तो तुम्हे सारे कर्जे से छुटकारा मिल जाएगा।‘‘ फिर परमा की ओर उम्मीद से देखते हुए बोला, – ‘‘और तूझे दो बोल बोलना है। इसमें किस बात का दुःख और क्यों? मरने वाला कौन सुनने बैठा है कि तूने उसे पागल कहा है।‘‘
इधर थानेदार और तहसीलदार परमा को समझा रहे थे तभी कुशल प्रशासन का बेस्ट अवार्ड ले चुके कलेक्टर को एक और उपाय सूझा। उसने पटवारी और एक सिपाही को भीतर कमरे में गोकुल के माँ-बाप के पास भेजा।
थानेदार और तहसीलदार के संवादों का दुहराव भीतर कमरे में होने लगा। सुबह से दोपहर हो गई। भीतर के कमरे से गोकुल के माँ-बाप ने आकर परमा को समझाया।
डर, दुःख और आतंक ने आखिरकार परमा को तोड़ दिया। उसे टूटते देख कर एस. पी. ने मन ही मन अपनी पीठ थपथपाई। कलेक्टर के चेहरे पर एक लुच्ची खुशी प्रकट हुई। परमा ने थानेदार की ओर देखा, – ‘‘दरोगा, यह तो आज मुझे मालूम हो गया कि भगवान इस दुनिया में नहीं है।‘‘ कह कर उसने अपनी बेटी की ओर संकेत किया और बोली, -‘‘तू इस बच्ची की माँ की हाय से डरना। तू मरने वाले की विधवा के शाप से डरना।‘‘
थानेदार कुछ बोलने वाला ही था कि उसे परमा ने रोक दिया, -‘‘अभी नहीं, घर जा कर सोचना। तू इंसान होगा तो तुझे डर लगेगा।‘‘
कलेक्टर ने अपनी खुशी को बहुत प्रयास करके दबाया और थानेदार को संकेत किया कि इसे बोलने दो। वह जानता है, दुःख में आदमी गलत-सलत बोलता है। खास बात तो यह है कि हमारा काम हो जाएगा।
परमा फिर तहसीलदार की ओर पलटी, – ‘‘तुम्हारी जबान बहुत मीठी है साहबजी !‘‘ तहसीलदार अपनी इस प्रशंसा से थोड़ा मुस्कराया तभी परमा ने कहा, – ‘‘पर इस जुबान से ऐसा मीठा मत बोलो। इससे तो गूँ खाना अच्छा।‘‘
तहसीलदार के चेहरे से खुशी उड़ गई। वह तिलमिलाया, – ‘‘पागल हो गई है क्या? कुछ भी बक रही है।‘‘ वह गुस्से में उबलने लगा। तभी कलेक्टर ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ धरा और धीमे लेकिन सख्त स्वर में बोला, – ‘‘उस औरत को बार-बार पागल मत कहो। कोई सुन लेगा। हमें मीडिया के सामने उसका बयान चाहिए। एक स्वस्थ और होशो हवास में खड़ी औरत का बयान। समझे! तुम गुस्से में या भूल में भी उसे पागल मत कहो। पागल औरत का बयान दो कौड़ी का। सारी मेहनत बेकार जाएगी।‘‘ तहसीलदार ने सहमति में सिर हिलाया और वापस परमा को समझाने लगा। परमा कलेक्टर की बातें सुन रही थीं लेकिन उसके लिए इन बातों का एकाएक कोई अर्थ नहीं था।
‘‘और ये कर्जे की माफी वाली बात इस गाँव में दुबारा मत करना।‘‘ परमा ने विधायक के गुस्से की परवाह किए बगैर उसे कहा, – ‘‘ऐसे में तो गाँव के दूसरे किसान भी कर्जे से छुटकारा पाने के लिए फाँसी पर चढ़ने लगेंगे। उन लोगों को कर्जे से छुटकारे के लिए ये आसान लगेगा। गाँव में कर्जे में डूबे और भी किसान हैं। मेरे कर्जे की चिन्ता तुम मत करो। घर-खेत बिक जाएँगे तो मजदूरी करूँगी। नहीं तो दरोगा ने दूसरी राह बता दी है। खुद बिक जाऊँगी और घर को पाल लूँगी। पर तुम्हारी दी हुई कर्जे की माफी नहीं लूँगी।‘‘
विधायक चुप रहा। तहसीलदार और थानेदार भी चुप हो गए। एस. पी. ने इशारा किया। थानेदार बाहर दौड़ा। तुरंत गाँव की काकड़ पर रोके गए मीडिया के लोगों को गाँव में प्रवेश दिया। एक बड़ी भीड़ गोकुल के घर के सामने आ गई। दर्जनों कैमरे और माइक लिए वे परमा को घेर कर खड़े हो गए।
लाश आँगन के कोने में रखी थी। परमा ने सिर्फ वो वाक्य बोले जो उसे बताए थे।
‘‘मेरा पति पागल था। पागलपन में उसने आत्महत्या कर ली।‘‘ उसके बाद वह जोर से रोने लगी तो कलेक्टर को अवसर मिल गया।
‘‘देखिये, वह गहरे दुःख में है। बाकी बातें फिर। अभी मरने वाले की विधवा को दुःख में ज्यादा परेशान नहीं करना है।‘‘ कह कर कलेक्टर ने तहसीलदार को इशारा किया। तहसीलदार पत्रकारों को घर से चलने के लिए मनुहार करने लगा। गाँव के लोग भी इकट्ठा हो गए थे। पत्रकारों के पीछे भीड़ खड़ी थी। बच्चे भी कौतुहल से पत्रकारों को देख रहे थे।
गौरीशंकर जो इतनी देर से घर के बाहर था, भीतर आ गया था। वह कलेक्टर के पास आ कर खड़ा हो गया।
‘‘साहब, आप लोगों की डूटी पूरी हो गई हो, आप लोगों का काम हो गया हो तो हम मिट्टी को मसान ले जाने की तैयारी करें।‘‘  गौरीशंकर ने लाश की ओर संकेत करके कलेक्टर से कहा।
‘‘बिल्कुल….. बिल्कुल……! हमारे लायक भी कोई काम हो तो बताओ !‘‘ कलेक्टर के स्वर में मिश्री घुल गई।
‘‘बस साहब, घर और आँगन से भीड़ हट जाए। आप लोग आँगन से बाहर हो जाएँ तो हम लोग यह आँगन गंगाजल छिड़क कर पवित्र कर लें। फिर इस जमीन पर अर्थी तैयार करेंगे ।‘‘ गौरीशंकर ने हाथ जोड़ कर कहा।
कलेक्टर ने गौरीशंकर को ध्यान से देखा। उसे लगा वह आँगन पवित्र करने की बात उसकी उपस्थिति से जोड़ कर व्यंग्य में कह रहा है। लेकिन गौरीशंकर का चेहरा भावहीन था। वहाँ सिर्फ दुःख था। कलेक्टर को जिससे कोई मतलब नहीं था। उसने पटवारी को संकेत किया। पटवारी परमा को भीतर ले जाने लगा। भीतर जाते जाते परमा विधायक के पास रुक गई। सारे कैमरे उसकी ओर पलट गए। विधायक तस्वीर खिंचाने के लिए अपनी स्थायी मुस्कान के साथ खड़ा रहा। तभी परमा ने पूरी शक्ति से विधायक के मुँह पर थूका। विधायक का पूरा मुँह थूक से भर गया। सारे कैमरे हरकत में थे। कलेक्टर हक्का-बक्का रह गया। वह आगे बढ़ा तो परमा ने जोर से खखारा और मुँह में थूक इकट्ठा किया और कलेक्टर के मुँह पर थूका। कलेक्टर का चेहरा भी थूक से भर गया और थूक का रेला बह कर उसकी उजली टाई और कमीज पर गिरने लगा। गाँव के बच्चे जो इस बीच वहाँ भीड़ देख कर इकट्ठा हो गए थे हँसने लगे फिर जाने क्या सोच कर जोर जोर से ताली बजा कर कूदने लगे।
परमा ने भी कलेक्टर के पास जाकर धीमे लेकिन सख्त स्वर में कहा, -‘‘अब पागल बोल कर देख मुझे। बोल पागल …..।‘‘
जो सचमुच उसे गुस्से में पागल बोलने ही वाला था कि मन मसोस कर चुप रह गया। जेब से रूमाल निकाल कर चेहरे पर गिरा थूक पोंछने लगा। विधायक अपने कुर्ते से थूक पोछ चुका था। बच्चे अभी भी कूद रहे थे और तालियाँ बजा रहे थे।
                            
सम्पर्क-

13, एच.आई.जी. 
ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कालोनी,  
जैतापुर खरगोन 451001 
(म.प्र.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

मोबाइल नम्बर – 08989432087

रोहिणी अग्रवाल की किताब ‘हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ की भालचन्द्र जोशी द्वारा की गयी समीक्षा

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की चर्चित एवं मुखर आलोचक हैं। उनकी आलोचना में स्पष्ट तौर पर एक वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। हाल ही में रोहिणी जी की आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है इस किताब की समीक्षा की है हमारे समय के चर्चित कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षाकहानी और आलोचना: अपेक्षाओं के द्वन्द्व’        
कहानी और आलोचना: अपेक्षाओं के द्वन्द्व
भालचन्द्र जोशी
हिन्दी कहानी की आलोचना में अभी तक प्रायः यही होता आया कि रचना से पहले उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता की पड़ताल की जाती रही है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? फिर इसका इतना प्रचलन बढ़ा कि वह अपने मूल अर्थ को छोड़ कर, वैचारिकता को छोड़ कर विचार के सामान्यीकरण तक बढ़ गया। इस मूढ़ सामान्यीकरण के चलते विचार को इस हद तक केन्द्र में रखा गया कि वह जिद पर जा कर ठहर गया और संवेदना की अदेखी ही नहीं की गई, बल्कि उसकी अनुपस्थिति को गंभीर शून्यता नहीं माना गया, बल्कि प्रतिबद्धता को नारे में तब्दील करने के कौशल को रचना की प्रभावी उपस्थिति’ का स्वीकार प्रदान किया गया।

कविता में इस जिद और आग्रह के कारण जो नुकसान होने थे वे तो हुए ही लेकिन कहानी में यह दुराग्रह आते ही अधिकांश कहानियों से बल्कि अधिकांश महत्वपूर्ण मानवीय मार्मिकता तक पहुँच रखने वाली कहानियों का धैर्य और विश्वास दरकने लगा। कहानी के लिए हाथ में कलम उठाते ही उसके सामने एक भय पहले सामने खड़ा हो जाता था कि कहानी में संभावना नहीं है हालाँकि रचना फिर भी अपनी संवेदनात्मक सम्प्रेषणीयता गुम नहीं होने देगी फिर भी वह उसमें प्रतिबद्धता के लिए जगह खाली कराने के लिए कहानी की कथावस्तु से धक्का-मुक्की करके संवेदना को कम करके रचनाकार वह जगह तैयार करके उसमें प्रतिबद्धता को स्थापित करता था। इस तरह के भक्तिभाव से रचना में प्रतिबद्धता की मूर्ति स्थापनासे वह इस तरह से संतुष्ट हो जाता था कि चलो, रचना में संवेदनात्मक ज्ञान’ चाहे न हो लेकिन ज्ञानात्मक संवेदना’ तो है। यह संतुष्टि कभी सप्रयास हासिल की जाती थी तो कभी स्वतः आ जाती थी। मकान मालिक के निर्मम और धमकी भरी शैली में जरूरी संवेदना की जगह खाली कराकर वह इस उपलब्धि पर अपनी भीतर के लेखक और संगठन को संतुष्ट कर देता था कि मेरी प्राथमिकता में प्रतिबद्धता’ है और एक प्रतिबद्ध लेखक’ का प्रमाण पत्र हासिल करके खुश हो जाता था। वैचारिक दबाव और आग्रह में मुक्तिबोध की जटिलता’ और विचार’ की अनिवार्य उपस्थिति को जंग लगी तलवार की तरह इस्तेमाल करते रहे। ऐसी रचनाओं की पीठ थपथपाने के उत्साह में आलोचना प्रायः इस बात को विस्मृत करती रही या उनकी ज्ञान की परिधि से बाहर रही कि ज्ञान और संवेदना के जिस अंतर्द्वन्द की बात मुक्तिबोध करते थे उसमें संवेदना की मार्मिक उपस्थिति की उपेक्षा नहीं करते थे। मुक्तिबोध ने अपनी कहानियों में भी अनुभव और यथार्थ की अदेखी नहीं कि बावजूद एक जटिल फैंटेसी में रचना की निर्मिति की प्रक्रिया को, वैचारिकता को उसकी मुनासिब, सहज और उसकी तयशुदा जगह पर रख कर। यही कारण है कि ‘‘साहित्य में भी मुक्तिबोध जैसी प्रतिबद्धताएँ आत्मघाती ईमानदारी के साथ फिर कहाँ देखने को मिलीं।‘‘ (आईने प्रतिबिम्बित अक्स से सवाल कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ (पृष्ठ-8) रोहिणी अग्रवाल जब इस प्रतिबद्धता और आत्मघाती ईमानदारी’ की बात करती हैं तो वह भी अपने समय की रचनात्मकता के अक्स को उसकी पक्षधरता की अपेक्षा उसकी उपस्थिति की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में देखती हैं।

दरअस्ल संवेदना और ज्ञान रेल की पटरियों पर दौड़ रहे दो समान्तर पहियों की भाँति हैं। यह ऐसा कुछ है रचनात्मकता संवेदना और ज्ञान को सहयात्री की तरह साथ रखकर अपनी यात्रा पूरी करे। इसमें ध्येय से भटकने का खतरा भी नहीं है और किसी एक ही सीट पर आधिपत्य जमाने या धकेल कर सीट सौंपने की संभावना का खतरा भी नहीं है। मार्क्स के चिंतन को अब इस नए सन्दर्भ में भी देखें जो कि किसानों, मजदूरों और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों की सत्ता में बड़े बदलाव की सकारात्मकता देख रहे थे। जाहिर है कि इसके पीछे उनकी मंशा सामाजिक अन्याय और श्रमिकों के शोषण के समाप्त होने का स्वप्न था। इस स्वप्न से उपजे सन् 1857 के गदर से लेकर राष्ट्रीय एकता के लिए किए जा रहे आज के संघर्षों  तक (जिसमें कि अब काफी बिखराव और भ्रम की गुंजाइश बन गई है) मुक्तिबोध राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में ही सारी चीजों और स्थितियों को देख रहे थे। रोहिणी अग्रवाल मुक्तिबोध की वैचारिकता’, ‘दार्शनिकता’ और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल, गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की बेतरह उलझी महीन परतों की सतत् जाँच की हठपूर्ण, अपराजेय संकल्प को देखती है। इसमें रोहिणी जी एक नया पद सम्मुख रखती हैं –रोमानी आदर्शवाद’ दरअस्ल रोमानी आदर्शवाद को मुक्तिबोध ने नेहरू के भविष्य के स्वप्नों में दाखिल हो कर निकाला था और उस पर भरोसा भी था। जाहिर है कि जहाँ नेहरू का स्वप्न भंग हुआ वहीं मुक्तिबोध भी स्तब्ध और अकेले हो गए। वह स्वप्न भंग एक राजनेता का नहीं, समूचे राष्ट्र का स्वप्न भंग था जो नेहरू की आँख से देख रहा था। ठीक इसी समय मुक्तिबोध वैचारिकता से अधिक दार्शनिकता के करीब आए और अभिव्यक्ति के खतरे’ उठा कर वैचारिकता और दार्शनिकता के सघन तल में जटिल और गूढ़ रहस्यों की परतों को सैकड़ों साल पहले डूबे सर्जनात्मकता के पक्ष में किसी जहाज के मलबे को उलट-पलट कर देख रहे थे और समझ रहे थे। यह पड़ताल विचार के बेहद गहरे और अँधेरे जल में थी इसलिए यह एक किस्म की जटिलता को भी स्वतः सामने रखती है।

रोहिणी अग्रवाल अपने लेखन में नए तथ्यों के साथ मुक्तिबोध की रचनात्म्कता के लिए बहुत खूबसूरत विशेषण इस्तेमाल करती हैं जो एक सार्थक सुख भी देता है। जैसे कि – आत्मघाती ईमानदारी’ और वह भी प्रतिबद्धताओं के साथ। यह साहस सिर्फ मुक्तिबोध में ही था जो अचरज है कि अपने समय की गहरी हताशा से उपजा था। वह जटिल समय आज भी स्वस्थ साँसें ले रहा है। यही कारण है कि मुक्तिबोध आज भी उतने ही जरूरी लगते है अपने हर पाठ में क्योंकि वे देख रहे थे कि ‘‘गरीबी आज भी आम आदमी के ललाट पर श्मशान की निर्जनता और भयावहता की लिपि लिख रही थी।” (लेख-वही, पृष्ठ-9) मुक्तिबोध जिस भयावह भविष्य को देख रहे थे आज बाजार ने मुक्तिबोध की आकुल स्वप्नदृष्टि से ज्यादा भयावह और अपराजेय स्थिति में खुद स्थापित कर रहा है।

हिन्दी में ज्ञानरंजन एक मात्र ऐसे लेखक हैं जो भीतर से बेहद उत्तेजित और उदग्र रहने वाले और वैचारिक चिंगारी को लावा में तब्दील कर देने की प्रभावी क्षमता स्पष्ट कर चुके हैं। बहुत जल्दी वे कहानी में अभिव्यक्ति और भाषा की नवीन प्रस्तुति में शिखर पर पहुँच गए। फिर वे वहीं ठहर गए क्योंकि आगे से नीचे जाने का रास्ता शुरु हो जाता है। लिखते रहने के बाद एकाएक उनका लेखन छूट गया लेकिन फिर भी वे अकेले नहीं रहे और न कभी अपने न लिखने के कारण’ गिनाए। उनके पास जितना लिखा हुआ है, उससे ज्यादा अधूरा लेखन उनके पास धरा है। उनके स्वभाव की फक्कड़ता और भीतर की उदग्र उत्तेजना को कोई ठौर नहीं मिलने का लाभ उनके आलस्य ने उठाया। हालाँकि ठीक इसी बात के लिए वे दूसरों को डाँटते फटकारते हैं। खासकर मुझे उनके गुस्से का अधिक शिकार होना पड़ा क्योंकि मेरा आलस्य उनके आलस्य से बड़ा हो रहा था इसलिए हर बार मिलने पर या फोन पर झुँझलाते रहे कि, – ‘‘उपन्यास जल्दी पूरा करो। तुम हिन्दी में दूसरे ज्ञानरंजन मत बन जाना।” यानी वे अपनी रचनात्मकता पर मानसिक उदासी और दैहिक आलस्य को पहचान चुके थे। अब सम्भवतः वे अपने आलस्य को एंजाय करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि मन के भीतर बैठी कोई नकारात्मकता या निष्क्रिय ग्रंथि व्यक्ति को खुशी देने लगती है।
रोहिणी अग्रवाल भी कहती हैं कि ‘‘सादगी ज्ञानरंजन की कहानियों की अप्रतिम विशेषता है।”(ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-26) दरअस्ल ज्ञानरंजन की सादगी चेखव और प्रेमचंद की सादगी से बेहद भिन्न है। ज्ञानरंजन सादगी को कहानी का अंतिम निर्णायक बिन्दु स्थापित नहीं करते और न प्रेमचंद की भाँति सादगी से किसी आदर्श की अपेक्षा रचते हैं।

ज्ञानरंजन अपनी सादगी में मानवीय गरिमा अपने उस अनुभव संसार के सामने खड़ा करते हैं, जहाँ किसी लिरिकलनेसया बौद्धिक आतंक के नाटकीय रूपान्तरण की जरूरत भी नहीं है और जगह वे बनने भी नहीं देते हैं। ज्ञानरंजन की तो प्रेम कहानियों के नायक भी परम्परागत प्रेमी की तरह व्यवहार नहीं करते, बल्कि हमेशा एक ठण्डी उदासी या फिर हालात को ले कर एक आक्रोश की लपट लेती हुई उद्विग्नता है। यही कारण है कि ऊपर से न लगते हुए भी ज्ञानरंजन की रचनात्मकता मार्मिक मानवीयता की पक्षधरता को कहानी के रचाव का अदृश्य हिस्सा बनाती है। ज्ञानरंजन की कहानियों में निर्मल वर्मा की कहानियों जैसी अकेलेपन की मोहक और ठण्डी उदासी नहीं है, बल्कि निरन्तर जटिल और अपराजेय होते जा रहे समय को लेकर एक क्रूर ठण्डी उदासी है जो विवशता से नहीं बल्कि समूह की निष्क्रियता से पैदा हुई है। इसलिए ज्ञानरंजन की कहानियों में अपने समय की क्रूरता और आक्रामकता के प्रति एक ध्येययुक्त उद्दण्ड अवहेलना भी है। साथ ही हर कहानी की संरचना का रूपायन है। ज्ञानरंजन के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी अपेक्षाओं के लिए जिम्मेदार के पास एक उपेक्षा भाव से जाते हैं। यही वह अंतर्द्वन्द है जो कहानी के मौन में मुखर का रचाव करती है। इसी से उनका विजन साफ नजर आता है। कहानी के साथ ज्ञानरंजन कितनी भी निर्ममता से पेश आए लेकिन कहानी में अपने विजन की उपस्थिति को ले कर वे बेहद सजग बल्कि अति सतर्क लेखक हैं। यही कारण है कि रोहिणी अग्रवाल ज्ञानरंजन की कहानियों में सादगी देखती हैं सपाट बयानगी नहीं। रोहिणी जी स्थितियों के द्वन्द्वात्मक टकराव को भी अस्वीकार करती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि ज्ञानरंजन की कहानियों की स्थितियों की द्वन्द्वात्मकता उनकी कहानी के अण्डरटोन में है। उनकी किसी भी कहानी में सीधे-सीधे उग्र और आक्रमकता नहीं है। इसलिए ये कहानियाँ ‘‘गतिहीन शैथिल्य के बीच से गुजर कर देखे हुए जीवन को देखने का नाट्य करती हैं।” (ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-26) इसलिए ज्ञानरंजन की कहानियों में भाषा और शिल्प की जगलरी नहीं है, बल्कि रचाव की अनिवार्यता में विजन’ की तीव्रता और उपस्थिति को सार्थक प्रमाणित करके ही दम लेने का साहस और प्रतीज्ञा है। ज्ञानरंजन की आक्रमकता अन्य कहानीकारों की तरह भाषा से पैदा होकर भाषा में नहीं मर जाती, बल्कि एक धीमी गति की कहानी के विजन के रचाव में अपना आक्रोश प्रकट करते हैं।

बहुत पहले शिव प्रसाद सिंह ने निर्मल वर्मा को लेकर कहा था कि ‘‘मुखौटा मार्क्सवादी और चेहरा एक रूमानी आउट साइडर का”  इसके साथ ही उन्होंने लिखा कि ‘‘इसे वस्तुस्थिति का सही अवरोध ही माना जाए लेखक के प्रति उपेक्षा भाव नहीं, क्योंकि मुखौटा के भीतर जो चेहरा है वही सच्चा है, इसलिए प्रीतिकर भी।”

निर्मल वर्मा की कहानियों में अकेलेपन का एक उजाड़ और विखण्डित परिवार की पीड़ा पूरी मार्मिकता से प्रकट होती है लेकिन ज्ञानरंजन के यहाँ सामूहिक परिवार में भी आंतरिक विघटन की पीड़ा एक डरावने आतंक में ज्यादा मार्मिकता से उद्घाटित होती है। ज्ञानरंजन की कहानियों में चीजों और स्थितियों को लेकर उपेक्षा का सीधे-सीधे व्यंग्य में रूपान्तरण नहीं है, बल्कि व्यंग्य को वे एक आक्रोश के उपकरण और नैतिक हस्तक्षेप का हथियार बनाते हैं। ज्ञानरंजन की कहानियाँ कथन की सघनता के बावजूद शिल्प के प्रति सजग रहती हैं और उसकी अनावश्यक जरूरत को कई बार खारिज भी कर देती है क्योंकि धीरे-धीरे कहानी खुद अपना शिल्प तैयार करने लगती है। इसी के भीतर कहानी अपने होने की सार्थकता भी रख देती है। रोहिणी अग्रवाल भी इस बात को रेखांकित करती हैं। जब कहानी में भाई के प्रति कथन दोहराती है कि ‘‘वह आत्महत्या कर ले और बहुत ही घिसटती हुई निर्मम समस्या का समाधान हो जाए।” (ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-27) इस वाक्य ही नहीं, इस कहानी में लेखक को अमानवीय, क्रूर, संवेदनहीनता आदि से बचाने के कोई स्पष्ट प्रयास नहीं है, बल्कि कहानी के सहज बहाव में ही व्यवस्था के बर्बर चेहरे का उद्घाटन है। रोहिणी जी इसलिए इस बात को मार्क करती हैं कि घरके नाम से बिदकने वाला नैरेटर का बार-बार दावा करना कि उसे अपने शहर से घातक लगावहै (अनुभव) या आत्महत्या की पैरवी करते नैरेटर (आत्महत्या) का एक सार्थक आत्महत्याकरने का प्रयास ताकि युगों-युगों तक वह अमर रहे। ज्ञानरंजन एक चौकन्नी सादगी के साथ इस युक्तियों को कहानी में धर देते हैं, क्योंकि इन्हीं के जरिए वे सतह पर दिखते-दिखते अर्थ को धकिया कर उसके गहरे व्यंग्यार्थ की निष्पत्ति और आत्मसार्थकता की तलाश की कहानी बन जाती है।’
रोहिणी जी ने ज्ञानरंजन के बारे में एक बात बहुत महत्वपूर्ण कही है कि उनका नायक चहल-कदमी करते हुए इस कहानी से उस कहानी की जमीन पर आराम से चला आता है।‘ (लेख – वही, पृष्ठ-27) लेकिन मुझे लगता है कि इस चहल-कदमी में पिछली कहानी या कहें पिछले रास्तों के मोह का दुहराव नहीं है। ज्ञानरंजन की कहानियाँ क्रूर और संवेदनहीन होते समाज को लेकर एक पारम्परिक और औपचारिक विरोध दर्ज नहीं करती, बल्कि एक उदग्र विवेक के साथ भाषा की संयम सीमा पर जाकर मुठभेड़ का एक मार्मिक और जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती हैं।

संजीव एक ऐसे कथाकार हैं जो अनुसंधान के श्रम को कथा-कौशल में तब्दील करने की कोशिश निरन्तर करते रहते हैं। संजीव खुद अपनी रचनात्मकता को लेकर कहते हैं कि ‘‘मेरे लिए साहित्य कोई निष्क्रिय उत्पाद नहीं है। मनुष्य की ऊर्जा को मनुष्य के लिए इस्तेमाल करते हुए उसे मनुष्य बनाए रखना है।” इसके आगे रोहिणी जी जोड़ती हैं कि ‘‘जनधर्मी साहित्य एवं आन्दोलन पर अगाध आस्था के साथ वे अमेरिकी साम्राज्यवाद और बाजारवाद के मायावी दैत्य को पछाड़ देना चाहते हैं, लेकिन कब और कैसे, नहीं जानते।” इसे रोहिणी जी विफलता चाहे न माने लेकिन एक भ्रमित प्रतिबद्धलेखक के लिए यह कोई सुखद सूचना भी नहीं है। कथ्य की जानकारियों से सम्पन्न सूचना-समूह’ रचना में विश्वसनीयता तो पैदा कर देगा लेकिन उस प्रतिबद्धता उसकी मूल्यवत्ता का संघर्ष सूचना समूह’ के दखल से रचनात्मकता में मानवीय मार्मिकता की उपस्थिति के लिए जगह तंग नहीं करेगा?

जिस मूल्यवत्ता और उसकी यथार्थ के साथ अर्थपूर्ण सम्बद्धता को केन्द्र में रख कर नई कहानीकी पीढ़ी ने पूर्ववर्ती पीढ़ी के प्रति नकार भाव पैदा किया जो लगभग पक्ष रखने के लिए भी किसी अन्य लेखक को अवसर और जगह नहीं दी गई। संजीव के पास कहानी के रचाव और फैलाव की गति के संतुलन का अद्भुत कौशल है। जाहिर है कि वे उपलब्ध सूचनाओं को कहानी के रचाव में इस्तेमाल करते हैं। अब कहानी खुद अपने आपको जब संतुष्ट मानेगी जब उन सूचनाओं में संवेदना का एक महीन तार भी जुड़ा हो। किसी भी व्यक्ति या समाज की कितनी भी प्रामाणिक सूचनाएँ, जानकारियाँ जुटा कर एक कथ्य का हिस्सा बना लें लेकिन उसकी प्रभावी कथ्यात्मक उपस्थिति तब बनेगी जब उस व्यक्ति या समाज से आपका जुड़ाव कितनी देर और कितनी दूर तक का था। ऐसी रचनाओं के लिए एक लम्बे और गहरे लगाव के साथ उस समाज का लम्बे समय तक अंतरंग हिस्सा बन कर रहने पर ही उस रचना में उस समाज, उस समय और उसके सुख-दुख सम्पूर्ण संवेदन-आवेग के साथ प्रकट होते हैं। सम्भवतः इसी बात के संकेत दूसरे सन्दर्भ में रोहिणी जी के इस कथन में मिलते हैं कि, – ‘‘जंगली बहू (प्रेरणा स्त्रोत’ कहानी की नायिका) मुझे उबार लेती है। बताती है कि तिलिस्म और कुछ नहीं, अपने ही अज्ञान और रोमान की मानसिक रचना है, कि तिलिस्म तोड़ना कठिन नहीं होता, कठिन होता है तिलिस्म की मायावी दुनिया छोड़कर खुरदरी जमीन पर खड़े होना।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-36)

संजीव की कहानियों में यथार्थ नहीं अति-यथार्थ है। वे देश के किसी भी हिस्से, समाज या व्यक्तियों के बीच उनकी जीवन पद्धति को समझने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में जीवन यथार्थ उतना सतही नहीं लगता है जैसा और लोग किसी दूरस्थ जंगली इलाके या किसी समाज विशेष में पर्यटकों की-सी उत्सुकता और अनुभव का इस्तेमाल करके अपनी शहरी भद्रता को उनसे एक निश्चित दूरी बनाकर उस समाज को रचना का हिस्सा बनाते हैं उसे समूचे भारतीय परिवेश की स्थितियों और व्यक्तियों के सन्दर्भ में कथा का हिस्सा बनाते हैं।

संजीव जानकारी और सूचनाओं को आरोपित नहीं करते हैं, बल्कि अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं कि वे सूचना समूह से निथरा हुआ यथार्थ जीवन यथार्थ की छायाप्रति लगे। कई बार उनकी रचना में यह श्रम ही प्रमुख ध्येय हो जाता है।

संजीव के साथ एक और विशेष बात यह है कि उनकी रचनाएँ ज्यादा यथार्थवादी लगती हैं कि वे अदेखे समाज में जा कर, उनकी पीड़ा और सुख-दुख की, उन अनुभूतियों को अपने समाज या परिवेश में देखते-समझते हैं। इसी से उनका जीवन और अपने समय के प्रति अंतरंगता और लगाव-अलगाव यथार्थ की जमीन पर प्रकट होता है। उपन्यासों में सावधान नीचे आग है’ तथा कहानियों में अपराध’ तथा मैं चोर हूँ मुझ पर थूको’ जैसी अनेक रचनाएँ हैं जो अपने कथ्य को प्रस्तुति की सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुँचाकर दम लेती है। रोहिणी जी खुद लिखती हैं कि ‘‘संजीव पुरुषों की दुनिया में वर्ग-वर्ण की लड़ाई के बीच अपने फुल फार्म में हैं।” रोहिणी जी यह भी मानती हैं कि, ‘‘वास्तविक अपराधियों की शिनाख्त में असफल रह जाने की पीड़ा के जरिए उभरा व्यंग्य, ‘प्रेतमुक्ति’ में तमाम दीनता के बावजूद विद्रोह की चिंगारियाँ ढूँढने की लालसा हो या कदर’ में अपनी खोई अस्मिता और आत्मभिमान पाने का संकल्प –संजीव की बारीक नजर से समस्या का कोई भी कोण और पक्ष नहीं छूटता।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-39)

संजीव हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील लेखक हैं। इधर उनके भीतर एक अजीब-सी ग्रंथि बढ़ गई है कि सूचनाओं के समूह का यथार्थ ही रचनाओं का यथार्थ होता है। बहुत हद तक यह सच भी है। संजीव को इस कार्य और श्रम मे महारत हासिल है, लेकिन अभ्यास रचना में यथार्थ की अनिवार्य उपस्थिति को विकल्प की भाँति प्रस्तुत करने की लत घातक होती है। रोहिणी जी का मानना है कि ‘‘स्त्री को लेकर दुविधाग्रस्त हैं संजीव। वे उसे स्त्री से इतर मनुष्य रूप में नहीं देख पाते। बेहद संजीदगी के साथ देखना चाहते हैं, लेकिन चेतना पर कुण्डली मार कर बैठे संस्कार आड़े आ जाते हैं।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38) अब इस जगह दिक्कत यह है कि ऐसी रचनाओं में या ऐसे समय में संजीव का पाला रोहिणी अग्रवाल जैसी स्त्री स्वतन्त्रता की घनघोर पक्षधर आलोचक से पड़ गया है। रोहिणी अग्रवाल स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर इतनी सजग, सतर्क और बेहद आक्रामक आलोचक हैं कि पति-पत्नी या महिला-पुरुष की गाढ़ी दोस्ती के बीच स्त्री को लेकर सामान्य से परिहास से भी इतनी आहत और उत्तेजित हो जाती हैं कि उनकी स्त्री-पक्षधरता जिद से आगे जा कर असहमति बल्कि उससे भी आगे जाकर भर्त्सना भाव पर ठहरती है। 

रोहिणी जी ‘मानपत्र’ कहानी के सन्दर्भ में लिखती हैं कि, – ‘‘बाहरी स्थिति में हेर-फेर भले ही दिखाई दे, नियति में फर्क नहीं आता। रो-रो कर तिल-तिल मरती इस पत्नी के प्रति सबकी मुखर सहानुभूति है क्योंकि उसके आँसुओं में रिरियाहट नहीं है, परिवर्तन की ज्वाला नहीं है। कहानी में वह पति दीपंकर को उसकी ज्यादतियों का चित्र उकेर कर मानपत्रदे रही है। विडम्बना! यथास्थितिवाद के पोषण का स्त्री-पक्ष”(प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38-39)

संजीव की कहानियों में मध्य वर्ग की स्त्री पात्र प्रमुख या केन्द्र में होते हुए भी वह उस जटिल संरचना से स्त्री की मुक्ति की राह नहीं खोज पाते या उसकी गढ़ी गई नियति पर ऊँगली उठाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संजीव की कहानियों में स्त्री पात्र कोई विशेष मंशा से ऐसी स्थिति में बरामद होती है जो आत्मकेन्द्रित हो एक अर्थहीन गर्व से भरी हों। संजीव कथ्य के यथार्थ-रचाव में इतने संलग्न हो जाते हैं कि उस भ्रम की निष्ठा में एक अबोध चूक हो जाती है कि वे न चाहते हुए भी स्त्री मात्र या एक स्त्री की समूची दुनिया के दुख-दर्द की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं। यही कारण है संजीव की कहानियाँ विशेषकर महिला केन्द्रित कहानियों में अंतर्वस्तु के समान्तर विस्तार का एक मासूम अभाव नजर आता है। संभवतः इसी कारण मनुष्यता के प्रबल पक्षधरता के बावजूद उनकी कहानियों में स्त्री-संसार इतना व्यापक और विस्तारित नहीं है। संजीव के पास मनुष्यता के लिए बहुत समर्पित, सजग और बहुत अर्थपूर्ण बनावट एवं बुनावट की कहानियाँ हैं, लेकिन श्रम से हासिल अपनी सूचनाओं के कथ्यात्मक रूपान्तरण में वे इतने तल्लीन हो जाते हैं कि स्त्री की उपस्थिति अजान, अदेखी रह जाती है। कई बार तो वह परम्परा से हासिल नैतिकता और दार्शनिकता के साथ स्त्री सन्दर्भ में किसी पक्षधरता के अन्तद्र्वन्द्व में भी नहीं पड़ते हैं। संजीव के यहाँ चीजें या तो हैं या नहीं हैं। यही कारण है कि इस असावधानी या चूक का संकेत रोहिणी अग्रवाल भी करती हैं, -‘‘एकाएक आरोहण’ कहानी की एक पंक्ति मेरी स्मृति में अटक जाती है शैला (भूप की पत्नी और नौ वर्षीय महीप की माँ) को ‘‘जाणे क्या सूझा कि एक दिन हयांई से कूद गई सूपिण (नदी) माँ।” यह वही शैला है जिसके साथ भाई के प्रेम के किस्से बेहद नास्टेल्जिक अंदाज से याद करता है नैरेटर रूप। यह वही शैला है जिसके साथ गृहस्थी करते हुए भूप ने खेतों का घेरा ही नहीं फैलाया, बल्कि उसे सींचने के लिए झरने का मुँह भी मोड़ दिया। प्रेम और श्रम के ताने-बाने से सिरजी शैला जाणे क्या सूझाके पागलपन से रची स्त्री नहीं थी कि नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेती। शैला ने आत्महत्या की, यह एक तथ्य है, लेकिन शैला ने आत्महत्या क्यों की? इसकी तहकीकात नहीं करता लेखक। (प्रतिबद्धता का सर्जनात्म्कता का गान, पृष्ठ-39)  रोहिणी जी का प्रिय कथन यहाँ भी है कि ‘‘कहानी (लिखना और पढ़ना दोनों) वक्त काटने के लिए खाली बैठे व्यक्ति का शगल नहीं है। साहित्यिक विधा के रूप में कहानी यथार्थ की कितनी ही अचिन्ही और गूढ़ परतों को खोलते हुए जिस सघन संश्लिष्ट अर्थ की व्यन्जना करती है, वह टी.वी. सीरियलों के जरिए उभरते कथा-संसार का विलोम रचती है।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-47)

रोहिणी जी कथावस्तु की अनिवार्यता को लेकर जितनी सजग है उतनी ही शिल्प की उपयोगिता के प्रति लेखक के स्पष्टीकरण की दरकार रखती हैं, जो कथा का हिस्सा बन कर ही आए। वे इस बात पर जोर देती हैं कि कहानी सिर्फ ब्यौरों का संग्रह भर नहीं होती। मेरे विचार से इस बात से कोई भी असहमत नहीं होगा। उनकी इस बात से भी शायद ही कोई असहमत हो कि ‘‘साहित्यिक विधा कहानी पल और पलायन को जीवन मूल्य बनाए जाने वाली हर ताकत का विरोध करती है ताकि जीवन की निरन्तरता के बीच मनुष्य के अन्तर्मन में पलते शाश्वत सत्यों का साक्षात्कार कर सके जो एक ओर अमूर्त मनोवृत्तियों और मनोवेगों के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं तो दूसरी ओर स्थूल तिकड़मों और उष्म सम्बन्धों के संजाल में अपने को बचाए रखते हैं।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी के तंत्र पर बात, पृष्ठ-45)
दरअस्ल इस कहानी (भालचन्द्र जोशी की कहानी ‘पालवा’) का नायक (रोहिणी जी के कथनानुसार नैरेटर) अपनी अबोध जिज्ञासाओं में ही वर्ग भेद, स्त्री स्वतन्त्रता और मानवीय अस्मिता के सवालों से टकराता है लेकिन वह कहानी में कहीं भी हताश नहीं है। दूसरी बात कि ‘‘अलबत्ता इस छोटी-सी वय में भी इतना जरूर जानता है कि ताकत और दमन में गहरा अन्तर्सम्बन्ध है। साथ ही अपनी भीतर पैदा होती इस लालसा को भी स्वाद ले कर भोग लेना चाहता है कि वह भी बड़ा होकर सभी पर हुक्म चलाएगा।” (लेख – वही, पृष्ठ-51)

रोहिणी जी स्त्री स्वतन्त्रता की बहुत सजग और गहरी समझ से भरी जिद्दी लेखक हैं। उनके भीतर स्त्री-स्वतन्त्रता की पक्षधरता इतने आक्रोश और गहरी आसक्ति के साथ मौजूद है कि कई बार वे कहानी की सहज गति में शामिल यथार्थ को लेखकीय टिप्पणी मान लेती हैं। इस कहानी में बिन्नू का चरित्र और उसकी बड़ों को मुश्किल में डाल देने वाली जिज्ञासाएँ एक अबोध मन का सहज प्रकटन है। वह भी बड़ा होकर हुक्म चलाएगा’ की इच्छा खुद की अवहेलना से पैदा हुई क्षण भर की इच्छा है इसमें किसी लालसा को भी स्वाद लेकर भोग लेना चाहता है’ जैसी कोई स्थायी धारणा या ग्रन्थि नहीं है। वह क्षण का सच है। एक अबोध बच्चे के मन में पैदा हुआ क्षण का सच। वह भविष्य में निर्धारित करता समय का निर्णायक सच नहीं है। एक अबोध मन की सहज प्रतिक्रिया जो अपने बचपन की मासूमियत के चलते, खासकर गाँव के सामंती माहौल में अपने प्रतिकार का हिस्सा है। 

इसी प्रसंग में मैं रोहिणी जी के इस कथन का उल्लेख करना चाहूँगा कि ‘‘समाज में जो हो रहा है उसे यथावत दिखा देना ही क्या साहित्य है?के प्रश्न के जवाब में यही कहा जा सकता है कि दरअस्ल वह यथार्थ का छायाचित्र नहीं, बच्चे की जिज्ञासाओं और इन्हीं के बीच गाँव में शोषण का गहरा शिकार बनी स्त्री का गद्यात्मक रूपान्तरण नहीं है, बल्कि उसे कथा की तीव्र जरूरत और पुरुष की दमनकारी मानसिकता को कथ्यात्मक हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करने की अनिवार्यता थी (चाहे तो कौशल भी कह लें) यह अनिवार्यता उस नास्टेल्जिया से जन्मी है जिससे कथ्य और भाषा के अन्तद्र्वन्द्व में शिल्प नास्टेल्जिया से पाठकीय सजगता का नाता भी नहीं टूटने देता है। सम्भवतः यही वजह है कि रोहिणी जी कहती हैं, – ‘‘मैं सोचती हूँ भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह पालवाके सन्दर्भ में मुझे कहानी के तंत्र की ये तमाम बारीकियाँ क्यों याद आ रही है? क्या इसलिए कि कोई भी समर्थ रचना जिस अनायास भाव से जीवन की संश्लिष्टता का अवगाहन करती हैं, उसी अनायास भाव से और किंचित अधिकार पूर्वक भी, अपने पारम्परिक फाॅर्म में हस्तक्षेप करते हुए उसे समृद्ध भी करती चलती है ? लेकिन फिलहाल मैं पालवाकहानी के रेशे-रेशे में बुने नास्टेल्जिया से अभिभूत हूँ जो मुझे दूर कहीं दृष्टि ओझल होती पगडंडियों में छूटे बचपन की स्मृतियों में ले जा रहा है।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-49)

मैं सोचता हूँ, दरअस्ल ऐसी कहानियों का एक अपना खतरा भी है कि मामूली-सी बहक या पात्रों से निजी मोह इतने जतन से सँवारी और कठिन बुनावट से तैयार कहानी की आंतरिक संरचना, जिस पर कहानी के कहे को छिपाने और अनकहे को उद्घाटित करने की जरूरी जिम्मेदारी है, को खण्डित कर देगा। इसलिए इस कहानी में ऊपर से सब कुछ ढँका हुआ लगता है और भीतर से उघड़ा हुआ। बच्चे बिन्नू की निर्भिकता में उसे अबोध मन की शक्ति का साथ है। रोहिणी जी इसे दूसरी तरह से स्वीकार करती हैं कि, – ‘‘पालवा कहानी की ताकत यही है कि वह विलुप्त होती ईमानदारी और निर्भीकता दोनों को धारदार औजार की तरह इस्तेमाल कर विघटनकारी मौजूदा समाज व्यवस्था की खुर्दबीनी जाँच करने लगती है। न किसी भी तरह का रोमान नहीं। न ही पूर्वग्रह कि पुराना सब अच्छा, नया सब गर्हित। यथार्थ की खुरदरी जमीन पर खड़े होकर वह बिन्नू की मासूमियत से उपजे नोकदार सवालों को हवा में उछाल देती है कि, -‘‘अरे! इनका (बड़ों का) ऐसा करना बुरा है या मेरा पूछना? जब इनकी कोई बात बुरी होगी, तभी तो मेरा पूछना बुरा होगा।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-50)

रोहिणी जी की इस बात से आसान सहमति बनती है कि भालचन्द्र जोशी बिन्नू को नैरेटर बनाते हैं क्योंकि जिस सिस्टम के दोगले और अमानवीय तंत्र को वे कहानी में उद्घाटित करना चाहते हैं, बिन्नू अपनी अबोधता के कारण उस सिस्टम का हिस्सा नहीं है, और इस प्रकार बेहद वस्तुगत ढँग से वह उस पर टिप्पणी करता है। दूसरे बच्चे की आब्जर्वेशन पावर वयस्क के मुकाबले कुछ अधिक प्रखर होती है जो नजरअन्दाज कर देने वाली दैनंदिन सच्चाइयों को पूरी भयावहता और परिप्रेक्ष्य के साथ उजागर करती है।” (लेख-वही, पृष्ठ-50)

इस कहानी की पड़ताल में रोहिणीजी की उस आलोचना दक्षता का बड़ा दृश्य निकल कर आता है जो इस तरह की रचनाओं की अपेक्षा में रहता है। ऊपर से सरल लगने वाले वाक्य भीतर कहीं बहुत गहरे अर्थों की पोटली लिए प्रकट होते हैं। फिर उनकी कहानी की जरूरत में उसकी जगह की नाप कर उसकी व्याख्या करती हैं। जिसमें वह किसी प्रकार का लिहाज नहीं पालती हैं। जब वह कहती हैं कि भालचन्द्र जोशी ज्ञानरंजन की परम्परा के समर्थ कहानीकार जान पड़ते हैं।” (लेख-वही, पृष्ठ-58) मेरे लिए यह एक बड़ा काम्पलिमेंट है। किसी भी लेखक को अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के महत्वपूर्ण, चर्चित, गम्भीर और बड़े कद के रचनाकार की कड़ी में देखा जाता है तो यह उसके लिए निश्चित रूप से खुशी की बात होगी, क्योंकि रोहिणी जी ऐसा कहती हैं तो यह वाक्य एक गहरे विश्लेषण और दक्ष आलोचना दृष्टि से गुजर कर आया है। फिर वह एक लेकिनकी स्थिति निर्मित करती हैं जो समय के संकट और अन्वेषण के द्वन्द्वको खँगालती है।

इस लेकिन में रोहिणी जी इस बात का उल्लेख करना भूल जाती हैं कि ज्ञानरंजन और भाल चन्द्र जोशी की मनुष्यता के पक्ष में वैचारिकी समान है। दोनों की सर्जनात्मकता में मनुष्यता के प्रति गहरी आस्था है और विचार के प्रति निष्ठा भी एक है। यह बात दीगर है कि भाषा के स्तर पर दोनों जुदा हैं जो कि स्वाभाविक भी है और जरूरी भी। रोहिणी जी जिस स्वस्थ-समग्र जंग की तत्परता के अन्वेषणकी बात करती हैं, उसका प्रकटन प्रत्येक रचनाकार के पास भिन्न रहेगा और होना भी चाहिए। महत्वपूर्ण वह विजन है जिसमें यह संघर्ष एक भिन्न जटिलता के साथ समाहित होता है तो वह दोनों की रचनाओं में मौजूद है। ज्ञानरंजन जी को समझ में आ रहा था कि परिवार या समाज आने वाले समय की टूटन की विभाजन रेखा पर खड़ा है। इसी से उनकी रचनात्मकता उदासी से उद्विगनता तक का सफर तय करती है। यही वजह है कि ज्ञानरंजन की भविष्य की पहचान-दृष्टि की परिणति बाद की पीढ़ी ने देखी और भुगती है। ज्ञानरंजन की पीढ़ी का समय, परिवार और समाज की टूटन इतनी गहरी और पृथक्करण इतना उतावला और जटिल नहीं था। एक ही देश, समाज और समय में कारक तत्व भी अलग थे। आज बाजार समय ने सब कुछ एक सार कर दिया है। एक ही समय, देश और समाज में पीड़ा, दुख और संघर्ष के कारक तत्वों को एक कठोर और जटिल समय-केन्द्रपर खड़ा कर दिया है। इसी समय-केन्द्र’ पर दोनों लेखकों के तेवर और उद्विगनता एक है।

बहरहाल एक अच्छे आलोचक के पास पढ़ने और फिर सुनने का कितना धैर्य है और फिर विश्लेषण के लिए कितनी सतर्कता है यह कोई रोहिणी अग्रवाल की आलोचना पढ़ कर समझ सकता है। बहुत महीन-सी लगभग अलक्षित रह जाने वाली बारीक-सी चीजों को भी वे उसकी पूरी सारगर्भिता में पकड़ती हैं और प्रकट करती हैं। ‘‘बेशक व्यंग्य भालचन्द्र जोशी की कहानियों में आंतरिक लय की तहर मौजूद है और इसका टारगेट अपनी क्षुद्रताओं में लथपथ आम आदमी ही है जो अपनी तमाम अकर्मण्यता के बीच इस भ्रांति का शिकार भी है कि पालवा खोदने की जिम्मेदारी भरा काम वह अकेले अपने दम पर कर रहा है।”(लेख-वही, पृष्ठ-57)

रोहिणी अग्रवाल की आलोचकीय दृष्टि बहुत पैनी और साफ है जिससे रचना की अँतडि़यों को टटोल कर रचना का छिपा आशय बाहर निकाल लेने में दक्ष है। बस, दिक्कत तब आती है जब रचना के भीतर एक से अधिक आशय छिपे या दबे हों तब उनकी दक्षता सशंकित होकर अपनी ताकत पर भरोसे का हाथ छोड़ देती है या फिर जो भी आशय उनके हाथ लगता है, उसे वे आलोचकीय कौशल से कुबूलवा लेती हैं। इस कार्य में वे इसलिए निष्णात नहीं हैं कि वे रचना का अर्थ बदल दें, बल्कि इसलिए निष्णात हैं कि अनेक अर्थों में से एक भी अर्थ हाथ लगा तो उससे वे शेष अर्थों तक पहुँच जाती हैं।

इसलिए किंचित भी अचरज नहीं कि एक पाठक की हैसियत से कि क्षुद्र के भीतर घिरते विराट को न देख सकने की अन्तर्दृष्टिकी बात वे कहानीके सन्दर्भ में कह रही हैं या समग्रता में। पालवा’ से ले कर जंगल’ तक जो धैर्य लेखक के पास है उसकी अदेखी आलोचना में क्यों कर हुई? लेखक का काम लिखना है प्राध्यापक की भूमिका में आने का नहीं। जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि इन कहानियों में जितना उजागर है उससे कहीं ज्यादा छिपा हुआ है जो उस पाठकीय श्रम की माँग करता है। जो कहानी में रसवाद’ की उम्मीद रखकर नहीं पढ़ते हैं। पाठक का कान पकड़ कर उसे रचना का ध्येय बताने की अपेक्षा पाठक पर भरोसा करना ज्यादा उचित है क्योंकि पाठक की समझ पर सन्देह करना यानी रचना की निरर्थक जटिलता या नाकामी से उपजी सपाटगी का पक्षधर होना है। पाठकीय भरोसे की पीठ से टिककर लेखक अपने भीतर के तमाम कथ्यात्मक हिडन विश्लेषण में झाँकने और परखने का आमंत्रण भी देता है। रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण और आलोचना की निर्भिक समझ से भरी बेहद गम्भीर और गहन ज्ञान से भरी खतरनाक आलोचक हैं। जिनके पास आलोचना के नए उपकरण हैं। वह तार्किक ज्ञान भी है जो सिर्फ अध्ययन से नहीं वरन् आलोचना की नवीन जिज्ञासाओं से भरी होने के कारण उन विश्लेषणों से हासिल किया है जेा श्रम इधर के समय में कम ही लोग कर पा रहे हैं।

रोहिणी जी कंटेंट की अपेक्षा फार्म को तरजीह देने की बात करती हैं। वह इस कारण कि उनका मत है कि ‘‘वह फार्म जो रचयिता के रूप में लेखक की घटनाओं और ब्यौरों के दलदल में लिथड़े पत्रकार से अलगाता है और एक दार्शनिक चिंतक के रूप में उसकी भूमिका और महत्ता को सुनिश्चित करता है।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-59) इस बात से किसी को भी इंकार नहीं होगा कि रोहिणी जी ने आलोचना की पृथक भाषा निर्मित की है। जो शास्त्राभ्यासी आत्ममुग्ध जड़ता और महाविद्यालयीन कथित शोध के प्रश्रय में पलने वाली परम्परागत रूढ़ आलोचना भाषा का प्रतिकार रचती है। साथ ही आलोचना-रचना का तृप्ति सुख भी जुटाती है। रोहिणीजी का आलोचना संस्कार उस जटिलता में प्रकट होता है जो सामान्य पाठक या विद्यार्थी को भयभीत कर सकता है लेकिन रचना की जटिलता को तोड़ने के लिए एक दूसरी जटिलता में दाखिल हो कर ही यह सम्भव है। कई बार इससे उलट भी हो जाता है कि रचना का अतिसरलीकरण को व्याख्यायित करने के लिए आलोचना को इसी भाषा की अनिवार्यता सौंपनी पड़ती है।

इस पुस्तक का उल्लेखनीय पक्ष यही है कि यह कहानी पर ही नहीं, वरन् उस पूरी सर्जनात्मक प्रक्रिया की भी पड़ताल करती है जो परोक्ष में रचना का आधार स्थल है। यही कारण है कि रोहिणी जी इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुँच जाती है कि ‘‘सन्दर्भों से जुड़ते ही क्रन्दन और हताशा अपने-आप जिजीविषा और संघर्ष का रूप ले लेते हैं। हर देश काल का मनुष्य मूलतः एक ही है। वह कष्ट से मुक्ति चाहता है। मुक्तिकामी संघर्ष यदि मुक्ति की ओर खुलता है तो भी भय क्या क्योंकि मृत्यु से अंतरंग सन्निकटता ही जिजीविषा को गहराती है। यही जीवन का राग है – सृजनात्मकता से भरपूर।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-70)

रोहिणी जी के पास फैंटेसी को लेकर कोई भ्रम नहीं है और न भ्रम फैलाने की आलोचकीय चतुराई। ‘‘यथार्थ के घुटन भरे माहौल से मुक्ति पाने का मार्ग है कल्पना, अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति का माध्यम। भौतिक जगत में वायुमण्डल के अधीन है कल्पना का व्योम – उसके गुरुत्वाकर्षण से बँधा जहाँ परित्राण की इच्छा में जमीन से ऊपर उठने की लालसा भरी दिलेरी तो है, लेकिन गुरुत्वाकर्षण के नियम और दबाव से मुक्त होने की सामर्थ्य नहीं, लेकिन फैंटेसी सबसे पहले वायुमण्डल को चीर कर किसी दूसरे ही ग्रह में जा निकलती है, जहाँ न नियम वर्जनाएँ हैं, न अब तक के पढ़े-सुने तर्क और कार्य-कारण श्रंखला  के दबाव, न ही अपनी भौतिक इयत्ता में अलग-अलग स्पेस और पहचान के लिए चराचर जगत है।(फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)

इस पूरी कवायद में प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या फैंटैसी कहानी-लेखन की सुविधा गली है? या फिर अंतरिक्ष में, पूरे ब्रह्माण्ड में घूमते-फिरते, यथार्थ और कल्पना का घालमेल करने की स्वतन्त्रत हासिल करने की सुविधाजनक युक्ति।

मुझे इस बात का सुखद अचरज है कि रोहिणी जी ने हिन्दी कहानी में फैंटेसी की न सिर्फ पक्षधरता रखी बल्कि उसे प्रमाणित भी किया। मेरी तो खुद यह मान्यता है कि फैंटेसी दो धारी तलवार पर चलने जैसा काम है क्योंकि रचना में यह एक या दो वाक्यों से रचना को सहारा देना पर्याप्त नहीं है। पूरी रचना का भार आसानी से, धैर्यपूर्वक और उसकी अनिवार्य उपस्थिति को प्रमाणित करते हुए चलती है तो वह रचना को एक संभाव्य-सफलता तक पहुँचाती है, बल्कि उसके अभीष्ट को सुपूर्द करके आती है। यही कारण है कि यह प्रायः लेखकों-आलोचकों के इस भ्रम और जिद को तोड़ती है कि फैंटेसी कहानी रचाव की सुविधा है। ‘‘यह पागलखाने की पागल हरकतों का कोलाज नहीं” (फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72) ‘‘गहराई में यह यथार्थ की अदृश्य कुटिलता का भयावह विस्तार करती है ताकि आतंक और त्रास की सृष्टि करती व्यवस्था को कई-कई कोणों से देख कर वह उसका और उसके साथ अपने अन्तःसम्बन्धों का रेशा-रेशा विश्लेषण कर सके।” (फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)

हिन्दी कथा आलोचना में कम ही या लगभग ऊँगलियों पर गिने जा सकते वाले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने फैंटेसी की पक्षधरता में इतनी दृढ़ता से अपना तार्किक बयान लिखित में दिया हो।

दरअस्ल यह पुस्तक सिर्फ कथाकारों, उपन्यासकारों के लिखे को विश्लेषित ही नहीं करती, बल्कि एक आलोचक की सबसे बड़ी कठिनाई को आसान करती है। उसके सुरक्षित आलोचना दुर्ग से बाहर आती है और विश्लेषण को आलोचकीय विचार में भी तब्दील करती है। क्या रक्तरंजित खेल खेलकर ही संस्कृति जनमानस में अपनी जड़ें दूर तक जमा पाती हैं ? यह सवाल ही एक विचार की शक्ल में आया है। सभी को निरुत्तर करने के भरोसे के साथ। फैंटेसी को प्रायः एक जटिल रूपक की तरह देखा जाता है। कहानी को लेकर उसकी जटिलता जो जाहिर है फैंटेसी ने पैदा की है उसकी तह में जा कर अर्थ टटोलने के श्रम की अपेक्षा उसे एक जटिल और अर्थहीनकहन में रिड्यूज किया जाता रहा है। क्या कहानीकार का सारा श्रम एक अर्थहीन की रचना में व्यय किए जाने की नासमझ कोशिश है ? फैंटेसी के रचाव की जटिलता में सार्थकता की तह पर पाठक या आलोचक का हाथ (दृष्टि) नहीं टिक पाता है ? निश्चित रूप से जब एक कहानीकार एक लम्बे धैर्य और श्रम के साथ फैंटेसी को कथारूप के लिए चयन करता है तो वह पृथक से कोई विचार उसमें समाहित नहीं करता है। वह कहानी की आंतरिक संरचना की इसी बनावट की अनिवार्यता की माँग और उसमें रचनात्मक संघर्ष की अभिव्यक्ति के माध्यम का चयन है।

इसी के चलते रोहिणी जी छिन्नमस्ताके सन्दर्भ में ‘‘वक्त के भीतर मानीखेज हस्तक्षेप करने की ताकत रखती हैं, इसलिए एक दूसरे के तालमेल में अपना उल्लू सीधा करते विकास और संस्कृति के मूल मंतव्यों को जानना भी बेहद जरूरी हो जाता है।” के संकेत हो स्पष्ट रूप से पकड़ लेती है। (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पत्थरों का खेत, पृष्ठ-86)

रोहिणी अग्रवाल की यह पुस्तक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें विविधता है। विविधता से मेरा आशय विषय विविधता से नहीं है, बल्कि भिन्न मूड, मिजाज और भाषा-शिल्प के रचनाकारों को उनकी रचनाओं के सन्दर्भ में ही देख कर एक निर्भय पड़ताल की है। मेरे लिए यह बहुत सुखद अनुभव है कि मैत्रेयी पुष्पा जो कहानी या उपन्यास भूमि पर उतरते ही एक गहरे उद्घोष के साथ स्त्री-स्वतन्त्रताका झण्डा गाड़ती हैं। ऐसा नहीं कि यह बुरी बात है लेकिन कुछ समय बाद लेखक अनचाहे भी यह गैरजरूरी उत्साह रचना के रचाव में दुहाराव की स्थिति पैदा कर देता है।
अर्चना वर्मा स्त्री-स्वतन्त्रता की बहुत सजग और स्पष्ट पक्षधर हैं, लेकिन वह अपनी पक्षधरता को कहानी में नारा या परचम नहीं बनाती हैं। उनका कथा-कौशल उनकी निबन्ध-रचनाओं से बिल्कुल भिन्न है वर्ना प्रायः यह होता है कि लेखक की कोई एक पक्षधरता इस हद तक रचना में हस्तक्षेप करती है कि वह कहानी के मूलार्थ को खण्डित करके भिन्न आशय को भी जगह देती है और कहानी प्रायः निबन्धात्मक हो जाती है। ऐसा घालमेल न हो, अर्चना वर्मा इन अर्थों में बेहद सजग लेखिका हैं। अर्चना जी अपने निबन्धों की जटिल भाषा की आक्रमकता (जैसा कि उन पर आरोप लगता रहता है) को कहानी में अपने पात्रों से पहले ही छीन कर अलग धर देती हैं या पात्रों के पास न हो तो अपने पास रचना-सुविधा के लिए सौंपती नहीं हैं। वह कहानी में अपने पात्रों को उनके सहज और वास्तविक माहौल और भाषा के साथ रचना का हिस्सा बनाती है और अपने भीतर बैठे विचारक को चुप्पी का जामा पहना कर कहानी में दाखिल होती हैं जब रोहिणी जी कहती हैं कि ‘‘अर्चना वर्मा की कहानियाँ एक तल्लीन दायित्व-बोध के साथ स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी को भारतीय सन्दर्भों में गढ़ती हैं तो दूसरी ओर उतनी ही दृढ़ आतुरता के साथ स्त्री-विमर्श के संग जोड़ दी गई कुछ भ्रामक संरचनाओं को भी निरस्त करती हैं।” (अँधेरे तहखाने में छिपे आलोम वृत्त उर्फ सह सर्जक पाठक संग संलाप, पृष्ठ-96)  इसी कारण अर्चना वर्मा की कहानियों में जो थोड़ी बहुत जटिलता नजर आती है वह कहानीकार की जिद या ललक नहीं है, बल्कि एक जटिल समय की बहुअर्थी और अर्थगर्भित परतों तक पहुँचने का श्रम है, जिसका रास्ता इसी भाषा की जटिलता से जाता है। ऐसे में रोहिणीजी जो खुद भी जिद की हद तक स्त्री स्वतन्त्रता की पक्षधर हैं जो कि कभी-कभी अपनी जिद और भाषा-सामथ्र्य के जरिए असंभाव्य को भी प्रमाणित करने का प्रण ले लेती हैं।

नई पीढ़ी के लेखकों में रोहिणीजी ने अल्पना मिश्र, कैलाश वानखेड़े, सत्यनारायण पटेल, कुणाल सिंह, रवि बुले, चंदन पाण्डेय, तरुण भटनागर, प्रभात रंजन, मोहम्मद आरिफ, वन्दना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शर्मिला वोहरा आदि की कहानियों की पड़ताल के साथ उनके लिए पीठ थपथपाने की उदारता के बाद वह यह लिखना भी नहीं भूलती हैं कि ‘‘बेहद सजगता के साथ कहानी-दर-कहानी अपने पात्रों के साथ असंलग्नता शायद इसीलिए पुष्ट करता जा रहा है कि – कथाशैली के रूप में कम, अपने बचाव की युक्ति के रूप में अधिक। जब आप किसी के साथ इन्वाल्व ही नहीं तो आप वह’ कैसे हो सकते हैं? आप लेखक हैं, ‘कैरीकेचरबना कर युगीन विकृतियों पर ठठाकर हँसते हुए। शायद यह प्रश्न लेखक को मथता भी हो कि ‘‘कहानी आगे है कि यथार्थ? लेकिन यथार्थ की असंलग्न शिनाख्त करने के बाद कहानी रचने की आत्मपरक तरलता कमोबेश उसमें नहीं (जगमगाहटों में छिपी अँधेरी दुनिया, पृष्ठ-167)

नई पीढ़ी के कहानीकारों में जो सृजन से ज्यादा स्व के प्रकटन की आतुरता का उल्लेख हमेशा होता आया है। मैंसे कहानी को आगे न जाने देने की भूल अंततः कहानी को और फिर लेखक को भुगतनी पड़ती है। रोहिणी जी इसीलिए कहती हैं कि ‘‘अखबार में छपी खबर पढ़ कर अचानक खबर बन गए किसी परिचित की याद आती है उसे और सतह पर डालती घटनाओं के जरिए जिसे कहानी में लगता है, वह जमाने भर की विकृतियों और विडम्बनाओं का लुंजपुंज रूप जरूर होता है, लेकिन अपनी हस्ती को बचाने और पाने के लिए अपनी ही हदों को तोड़ता-बनाता मनुष्य नहीं बन पाता। (लेख-वही, पृष्ठ-163)

नई पीढ़ी के अधिकांश लेखकों के साथ हुआ यह है कि जिस हार्दिक उतावली से उनका (रचनाओं) का स्वागत हुआ, उसी उत्साह से बाद में उनकी समर्थ रचनाएँ सामने नहीं आ पाईं। बाजार की गिरफ्त में उनकी इच्छाओं को निजी लोकप्रियता की गैर जरूरी सर्जनात्मक लालसाओं ने लेखन के अतिरिक्त चर्चा में बने रहनेकी लोभी युक्तियों में फँसा दिया।

अलबत्ता एक बात जरूर रही कि इसी पीढ़ी से या इसके आसपास की पीढ़ी से बहुत सजग, समर्थ और अध्ययन के रास्ते आलोचना-विवेक तक पहुँचे उल्लेखनीय  आलोचक सामने आए।
रोहिणी जी को तमाम विश्लेषणों और प्रशंसा-उपाधियों के साथ यह भी स्मरण रहा कि साहित्य आत्मान्वेषण (एक्सप्लोरेशन) की समुन्नत यात्रा है, अनावरण (एक्सपोज) की क्षणिक मरिचिका नहीं। (लेख-वही, पृष्ठ-162) नई पीढ़ी के लिए यह एक महत्वपूर्ण संकेत-संदेश है, लेकिन प्रायः कुछेक लेखकों के साथ यह हो रहा है कि वे बाजार के खिलाफ लिखने की कोशिश में बाजार की जगमगाहट में दृष्टिचुंधियाने लगती है और कहानी अंततः बाजार की पक्षधर बन जाती है। फिर एक ऐसी किशोर चेतना नजर आती है जो अति उत्साह में रचना को यथार्थ के एक्सप्लोरेशन की अपेक्षा एक्सपोज करने की भ्रामक संतुष्टि हासिल कर लेती है।

रोहिणी जी के पास आलोचना की एक सजग-सतर्क और तीक्ष्ण दृष्टि है तो लेखक की चूक को रेखांकित करने की निर्मम-सी प्रतीत होने वाला विश्लेषण भी है। वे मूल्यांकन और विश्लेषण की महीन-सी विभाजन रेखा पर चहल कदमी करती हैं और सुविधा अनुसार दोनों का लाभ उठाती हैं। आलोच्य रचना के पक्ष-विपक्ष में ईमानदार इस्तेमाल को प्रमाणित भी करती है। यही कारण है कि रोहिणी जी की भाषा फतवा देने की अपेक्षा चुनौती और चेतावनी देती प्रतीत होती है। इसीलिए उनके आलोचना-समीकरण अधिक दूर तक जा कर एक सार्थक आलोचना-भूमि की तलाश में सफल होते हैं जो समीक्षा को न्याय के पक्ष में सर्वमान्य प्रमाणित करती हैं। वे बहुत निर्भय होकर यह भी स्पष्ट करती हैं कि इस बाजार-समय के दमन और शोषण की निर्भिक वाचाल सक्रियता के खिलाफ किसी भी लेखक को खासकर नई पीढ़ी के पास एक स्पष्ट चेतना होनी चाहिए जो आगे जाकर एक निर्भीक प्रतिरोध रचने में सहायक हो तथा बाजार का हिस्सा हो चुके लेखकों की अश्लील स्वीकृति और सहमति के साथ शामिल-उत्सव की एक चुनौतीपूर्ण प्रतिपक्ष रचे।

सबसे उल्लेखनीय इस पुस्तक में मुझे यही बात लगी कि प्रत्येक आलोचना-लेख में एक भिन्न भाषा और पड़ताल की तरीका है। जरूरी होने के बावजूद दुहराव नहीं हैं। वे उस दुहराव की अनिवार्यता के लिए एक भिन्न भाषा में नए मुहावरे के साथ रचना में दाखिल होती हैं। यह एक कठिन कार्य है। जो इस जटिलता को सुलझा लेता है अपनी आलोचना-रचना में पारंगत हो जाता है। महज इसीलिए नहीं कि वह भिन्न रचना के लिए भाषा का भिन्न मुहावरा गढ़ा है, बल्कि साथ ही उस भाषा के भिन्न मुहावरे से परम्परागत प्राध्यापकीय आलोचना से खुद को पृथक भी किया और आलोचना भाषा को समृद्ध भी किया है। 

रोहिणी अग्रवाल की यह पुस्तक आलोचना दुर्गम बीहड़ और उजाड़ में पूरे हासिल की उम्मीद के साथ उतरती है और सर्जनात्मक सार्थकता की खोज के साथ लौटती है। इस पुस्तक में इतिहास-बोध की गम्भीर उपस्थिति और फतवे जारी करने की गैर जरूरी उत्तेजक वाचालता नहीं है। यह पुस्तक एक तरह से आलोचना का भी प्रतिपक्ष रचती है, क्योंकि इसमें परम्परागत आलोचना उपकरणों की अरूचि स्पष्ट दिखाई देती है। इतिहास बोध से जिस आलोचना दृष्टि को विकसित किया है, वह हिन्दी कहानी के विकास के जाने पहचाने रास्ते के अलावा नए रास्तों के खोज की आतुर उम्मीद भी पैदा करती हैं। इसी कारण विरासत से मिली आलोचना दृष्टि को विकसित करने और एक नए आलोचना-व्याकरण के साथ आज की सर्जनात्मकता को देखती-परखती ही नहीं हैं, बल्कि कहानीकारों द्वारा नए शिल्प और भाषा के नाम अलक्षित रखे जा रहे सृजनात्मक प्रमाद को बहुत सहजता से चुनकर अलग कर देती हैं। इसी के सहारे वे नई सर्जनात्मकता की कमियों को उजागर करके उन्हें भविष्य के लिए सचेत भी करती हैं और सप्रयास आ रही लेखकीय चालाकी को पकड़ कर रचना की चालाकी के कपड़े ही नहीं उतारती, बल्कि उसकी देह से उसकी भरमाने वाले चतुराई की त्वचा तक को खींच कर पृथक कर देती हैं। ऐसी निपूर्णता और साहस आज की पीठ थपथपाने वाली आलोचना क्षेत्र में एक बड़ी उम्मीद है।

इस पुस्तक में आलोचना रूचि और चयन की भिन्नता है, लेकिन आलोचना की आस्था असंदिग्ध है।
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समीक्ष्य पुस्तक –
हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग – (लेखक) रोहिणी अग्रवाल
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 395/-
 

भालचंद्र जोशी

सम्पर्क –
भालचन्द्र जोशी
एनी‘ 13, एच.आई.जी., ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कालोनी
जेतापुर, खरगोन 451001 (म.प्र.)
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भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह ‘जल में धूप’ पर मनीषा कुलश्रेष्ठ की समीक्षा

आज तरह-तरह के विमर्श हैं और उन विमर्शों पर कविताएँ और कहानियाँ लिखना फैशन में है। लेकिन कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो इस फैशनेबल परिपाटी से दूर रह कर अपनी रचनाधर्मिता में लगातार लगे हुए हैं। ऐसे रचनाकारों की रचनाओं में अनुभव की ताप दिखाई पड़ती है। ऐसे रचनाकारों की रचनाएँ पाठकों को सहज ही आकृष्ट करतीं हैं। ऐसे रचनाकारों में कहानीकार भालचन्द्र जोशी का नाम प्रमुख है। भालचन्द्र जोशी का एक संग्रह जल में धूप नाम से बोधि प्रकाशन से आया है इस संग्रह पर कहानीकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने एक समीक्षा लिखी है। पहलीबार के पाठकों के लिए आज प्रस्तुत है मनीषा की यह समीक्षा – “प्रेम से मोहभंग का मौलिक द्वंद्व : जल में धूप।”
     
प्रेम से मोहभंग का मौलिक द्वंद्व : जल में धूप 
मनीषा कुलश्रेष्ठ


प्रेम कहानियों पर अपनी कलम साधना, या प्रेम कहानी में भाषा का बरतना, अंत पर सधी हुई लैंडिंग करना हर लेखक के बस की बात नहीं, या फिर किसी सधे हुए लेखक की भी हर प्रेम। मेरे हिसाब से हम कहानी का वर्गीकरण करें तो प्रेम कहानी, कहानी की ही एक उपविधा है, और इसे साधना हरेक के बस की बात नहीं,  प्रेम कहानी का असल तत्व द्वंद्व है, प्रेम कहानी एक मौलिक एंगल की मांग करती है, ज्यादातर प्रेम एक ही पैटर्न के होते हैं, बस उस पर मसालों का बघार से बनी प्रेम कहानियां आकर्षित नहीं करती। बात उसी मौलिक द्वंद्व की है।  जहां मौलिकता मिलती है, नया कोण, वही प्रेम-कहानी सफल हो जाती  है।

प्रेम कहानियाँ किसी भी लेखक की कसौटी है।  हर प्रेम कथा को एक विरला कोण चुनना होता है, पुराने मुद्दों पर बदल कर लिखी गई कहानियां हिंदी बहुत से लेखक लिखते आए हैं। लेकिन जल में धूप कहानी संग्रह के लेखक पूरे संग्रह को प्रेम में मोहभंगका कोण देते हैं, मोहभंग भी हर कहानी में अलग कहीं तटस्थ, कहीं मार्मिक, कहीं “अच्छा है संभल जाएं” की तर्ज पर। अमूमन प्रेम कहानियों में यूं होता है कि तल में जीवन, समय का संक्रमण, समाज प्रस्तुत रहता है। यहाँ उलटा है, जीवन, समय, समाज अपने  पूरे प्रतिरोध के साथ प्रस्तुत हैं, तल में प्रेम बह रहा है।

इस संग्रह की पहली कहानी, ‘जंगलशीर्षक से है। जहां जंगल नेपथ्य में अपने त्रिआयामी स्वरूप में है।  भालचंद्र जोशी भाषा बरतने में माहिर लेखक हैं, वे प्रकृति को तरह तरह से बरतते हैं। यहां जंगल पूरा सजग है, वहीं गुह्य और अभेद है, स्त्री मन की तरह।  यहां जंगल का आमंत्रण है, जंगल का विरोध है, जंगल का सहयोग है, वहीं कभी न मिटने वाली आदिमता है, शोषण के विरुद्ध और प्रेम के सापेक्ष।

अपर्णा, भानु और शरद के बीच प्रेम कहीं भी ठोस और ओवरटोन होकर नहीं आता, सामान्य तौर पर दो लड़कों और एक लड़की की तिगड्डी दोस्ती में, एक का प्रेम मुखर होता है, दूसरे का मूक।
 
इस कहानी में भी लड़की का मौन दोनों को कोई थाह नहीं देता। इस मानसिकता के पीछे लड़कियों की बरसों की डिज़ास्टर मैनेजनमेंटकी मूल प्रवृत्ति छिपी रहती है।  यहाँ अपर्णा जानती है, प्रेम बावरा है, भानु भी। वहाँ रिश्ते का स्थायित्व सदा ख़तरे में रहेगा। जीवन कुछ और मांग करता है, बसाव की। और जो बसने के लिए बना ही नहीं उस यायावर से प्रेम करना तो आसान है पर उसे बाँधना मुश्किल। भानु उसे हमेशा चौंकाता है, जंगल और आदिवासियों का पक्षधर भानु नक्सलवाद की पैरवी करता है।  अकसर गायब हो जाता है।  वह प्रेम की क्षणों की उदात्तता को जीता है, पर वह कोई निभाव का वादा नहीं करता। उसके सरोकार बड़े हैं, प्रेम से बहुत बड़े, कई-कई जीवन, उनके आने वाली पौध-बीज का संरक्षण, एक भावुक मन के टूटने से कहीं बड़े सरोकार हैं, यह भानु और अपर्णा दोनों जानते हैं। सदा उनके जंगलों की पिकनिक का तीसरा साथी बचपनका दोस्त शरद अपर्णा को पसंद करता है, कनखियों से देखता है। लेकिन भांपता रहता है भानु अपर्णा के बीच का प्रेम संलाप।

वह अवसर नहीं खोजता पर बाल उसके पाले में गिरती है तो छोड़ता भी नहीं। विवाह कर अपर्णा के साथ सुखद दांपत्य बिताता है। लेकिन शरद को वह जंगल हान्ट करता है, जहां उसने भानु अपर्णा का तरल, आकृतिविहीन, नामविहीन प्रेम देखा होता है, वह ठिठका हुआ प्रेम, जो कोई दैहिक आकार नहीं पाता।

लेकिन रात के सन्नाटे में जंगल का कोई हिस्सा मेरे मन में ठिठक गया था।”
वह अपर्णा से वैसे ही जंगल में, दैहिक प्रेम करता है।

दांपत्य है ही ऐसी शै कि, वहाँ अगर कोई ज्ञात तीसरा कोण हो तो, उस कोण के होने के निशान किसी बच्चे की कापी पर रबर से मिटे निशान होते हैं, मिट कर भी दिखते हैं। भानु का दिया भाग्यशाली पंख ज़रूर उनके बीच सुख बन कर रहता है। लेकिन अपर्णा के मन की किसी अवचेतन गुफ़ा में भानु की स्मृति भी पंख की तरह रहती है, यही वजह है कि वह भानु की मृत्यु की खबर पर जैसे सहज प्रतिक्रिया करती है, वह चौंकाने वाली है।

यहाँ या तो भानु इतना उसके भीतर छूटा हुआ है कि वह भानु के एनकाउंटर की अखबार में छपी खबर सुन कर कब? कहाँ? ‘ कहती है और पूरी खबर सुने बिना “रुको ज़रा, तवे पर परांठा है, जल जाएगा।” कह कर दौड़ कर भीतर चली जाती है।
या वह भानु का उस रोज़ ही तर्पण कर आई थी, जब वह जंगल में शरद के साथ थी।

वह यहां भी थाह नहीं देती उस प्रेम की।
प्रेम की तरह जंगल को अभिव्यक्ति देना कठिन होता है, यहां कहानीकार अपने विविध अनुभव, लेखनी की मौलिकता और सधाव का पता देता है।

दृश्यांकन में भालचंद्र जोशी, जितने मौलिक, उतने परिपक्व हैं। भीषण यथार्थ के  चित्रांकन जैसे दृश्य आजकल हिंदी कहानी में सिमटते जा रहे हैं, वह सामर्थ्य किस्सागोई का चुक रहा है, उसे बचाने में अगर हम कुछ कहानीकारों को गिनेंगे तो उनमें भालचंद्र जोशी भी शामिल होंगे।  यहां मुझे कृष्ण बलदेव वैद का कहा वाक्य याद आ रहा है।  “हमारे यहां यथार्थवादी कहानी ऐसे लिखी जाती है कि कीचड़ में चलो और पाजामे के पांयचे उठा लो।

कथाकार – भाल चन्द्र जोशी


भालचंद्र बिलकुल पांयचे नहीं उठाते, अलबत्ता उनकी कहानी चरसाका दलित नायक किशन ज़रूर अपनी सवर्ण प्रेमिका सविता के आने पर अपने घर के टूटे हिस्से में पड़ी गंदगी पर राख और टोकरी ज़रूर ढकता है। यह एक अनूठी कहानी है, जो ऐसे दृश्यांकनों में पूरी होती है। जहाँ अपने दलित और गंवई होने को लगातार ढकने का प्रयास किशन पूरी कहानी में करता है, घर किराए पर लेने के लिए अपना सरनेम शर्मालगाता है। उसके पिता कहते है – “अड़नाम बदली लियो तो जाति बी बदली गई?”

जबकि उसकी सवर्ण प्रेमिका को उसकी जाति से कोई आपत्ति नहीं है।  वह प्रेम करती है, दलितों के पक्ष में बहस करती वह पूर्ण समर्पण करती है, लेकिन उसकी सभ्रांतता, उसकी सुरुचि, उसके बदबूदार घर में परफ्यूम लगा कर आने पर नायक मन ही मन कुंठित ही रहता है, उसके भद्रलोक के आलोक में अपने अनगढ़पन पर। वह हमेशा सविता के सवर्ण और सभ्रांत होने से भीतर आतंकित रहता है। यही वजह है कि गांव के सौ बंदिशों, वर्ग भेद की साफ़ सीमा रेखाओं के बावजूद सविता के उससे हर बार मिलने पर कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही है, जिससे वह दिनोंदिन परेशान रहता है।  नायक की इस कुंठा की पराकाष्ठा और कहानी का अंत रोचक मगर आयरनीकल है। यह कहानी उन लेखकों के लिए एक मिसाल है, जो पोज़ लेकर लिखते हैं, कहानी के इनग्रेडिएंट्स तौल माप कर दलित स्वर की कहानी को मुख्यधारा से अलगा देते हैं। प्रेम यहाँ बिलकुल आजकल के प्रेम जैसा है, मुखर, आवेगमय, सदेह और आत्मसजग।  जिसमें हल्की-हल्की मानसिक जटिलताएं दोनों ओर हैं, दलित और सवर्ण होने की। वर्ग विभेद का तनाव भी प्रेम के साथ चलता रहता है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर बारीकी से लिखी इस कहानी में प्रेम के एक दम नए शेड हैं। प्रेमिका से मिलने के लिए उसकी मरणासन्न दादी की मृत्यु की बेसब्र प्रतीक्षा।  हड़बड़ाहट, छुपाव-दुरावप्रेम के अंतरंग पलों में सदियों के दमन का वह भाव अंतत: मिलन के क्षणों में प्रेमालाप की क्रूरता में उभरता है, जिसे भीतर कहीं बदले का भाव न कह कर, मज्जा और रज्जुओं में धंसा वह शमन ही है। यह लंबी कहानी बहुत से ऐसे दृश्य उकेरती है, जो हिंदी कहानी में दुर्लभ हैं। ऎसे विरोधाभास हैं, जो मनोवैज्ञानिक स्तर पर जाकर ही रेखांकित हो सकते हैं। 

“शायद कुछ उल्टी-सुल्टी दिशा के हुक हैं, जो भूलभुलैया का खेल रचकर उसमें पराजय की फीलिंग पैदा कर रहे हैं। अचानक उसके हाथों की व्यस्त उंगलियों को सविता की उंगलियों के गरम पोरों ने टोका। अपने भीतर एक अभिजात स्त्री के रहस्य को न समझ पाने की अनगढ़ता चुभने लगी।” हांलाकि यहाँ सवर्ण प्रेमिका को पाने का थ्रिल और उसके साथ अनघड़ रोमांस है साथ-साथ चलते हैं। नायक के मन थोड़ी अवचेतनात्मक क्रूरता है लेकिन उसका दैहिक प्रेम बलात्कार नहीं है। (यह यहाँ अवश्य उल्लेखनीय है कि चरसाकहानी, उदयप्रकाश की पीली छतरी वाली लड़कीसे पहले लिखी गई है।) अंत में जब नायिका से प्रेम करके सीढ़ी उतरता है तो वह झूठी पत्तलों के टोकरे से टकराता है, और जूठन से लिथड़ जाता है तो, देखे जाने पर लड़की के भाई कहते हैं – ‘अरे! मंगत भलईं का छोरा है जूठन उठाने आया है। तो उसका मन ठहाके लगाने का करता है – ‘जूठी पत्तलें आंगन में हैं, झूठी देह छत पर

भालचंद्र जोशी के यहां इन प्रेम कहानियों में यथार्थ भी है, और कहानी भी संक्रमण काल में अपना स्वरूप बदलते प्रेम की। वे ऎसा इंगित भी करते हैं इस संग्रह की भूमिका में। भालचन्द्र जोशी की इन कहानियों में हमारे समय का प्रेम अपनी संक्रमण काल की तिर्यक गति के साथ कुछ इस तरह से आता है कि रूमानियत को यथार्थ की तात्कालिकता लाउड होने ही नहीं देतीं, यही वजह है कि ये सारी प्रेम कहानियां मुकम्मल तौर पर आधुनिक कहानी के रूप में स्वायत्त हो उठती हैं।

इस संग्रह की एक कहानी कहीं भी अंधेरावह स्वप्न, अवचेतन और तल के भीतर प्रेम की कथा है। जो एक काव्यात्मक आयरनी है, एक मरते हुई मरीज़ की और उसके साथ सपना साझा करते उसके किसी हमदर्द की। हम भालचंद्र जोशी को यथार्थ की बारीक बुनावट वाला कथाकार मानते हैं, लेकिन यहाँ वे अमूर्तन लिखते हैं और खरे उतरते हैं।
 
सबसे पहले ज़रूरीएक कस्बाई बेरोज़गार पढे-लिखे लड़के और लड़के की नौकरी की प्रतीक्षा में बड़ी होती लड़की के दिन प्रति हालात के प्रति उदासीन होते जाते प्रेम की कहानी है, इस कहानी में कस्बाई उदासी, विवशता और संवादों में आती तल्खी की बहुत सटीक अभिव्यक्ति हुई है कि प्रेमी की नौकरी की प्रतीक्षा में लड़की है या पैसों की वजह से उसका खुद कहीं ब्याह न होने की विवशता है कि वह हर साल कह देती है – “इस साल मेरी शादी हो जाएगी।”

“यह बात तुमने पिछले साल भी कही थी।”
”इस बार कपास की फसल अच्छी हुई है, पिछले साल एकदम बिगड़ गई थी।”
भालचंद्र जोशी अपनी कहानियों के दृश्यों मॆं कस्बाई मन यूँ उकेरते हैं कि वह किसी यथार्थवादी फिल्म की तरह मानस पर चलते हैं। उस पर कमाल ये कि बिम्ब हों कि भाषा का बर्ताव प्रवाह में बिना टूटे बहता, एकदम मौलिक और अनूठा। “बैलगाड़ी के गुज़रते ही खामोशी कुछ देर कुचली रही। फिर वापस बल खाने लगी।
 
उनकी कहानियों में एक बात और जो मुझे आकर्षित करती है और जोड़ती है, वह है उनका विवरणों, चरित्र-चित्रणों में इस क़दर निपुण होना कि एक रेखाचित्र उभर आए। उनके भीतर एक स्त्री मन है जो परिधानों और आस-पास के माहौल को बहुत डीटेलके साथ खींचता है, वह कम से कम उनके महिला पाठकों को बहुत संतोषप्रद लगता होगा। मसलन जब वे मौसम बदलता हैकहानी में नायक पूर्व मगर वर्तमान में विवाहित प्रेमिका से संभावित मिलन के अवसर की तलाश में उसके रिश्तेदार के यहाँ विवाह समारोह में शामिल होने जाता है। उस विवाह-घर, समारोह के महीन खाके जो लेखक खींचते हैं, आप पल-पल नायक के द्वंद्व में साथ होते हैं। वहाँ भी जब वह नायिका के लंबे बालों को पॉनिटेल में बदले देखता है, वहाँ भी जब वह लाल चूड़ियों के बीच सजी एक-एक पीली चूड़ी पर गौर करता है। इस कहानी में नायिका से बहुत संक्षिप्त औपचारिक मुलाकात और विवाह समारोह की अफ़रा-तफरी और मौसम का षड्यंत्र उसके हौसले पस्त कर देता है।

मुझे यह बात बहुत आशावान करती है कि हिंदी में ऎसे कथाकार विरल ही सही पर हैं जो विमर्शों की फैशनेबल कहानियाँ नहीं लिखते। भालचंद्र एक ऎसे लेखक हैं जो सामाजिक वास्तविकता को उसके ऊपरी लक्षणों के आधार पर पहचानने की बजाय उसके मूलवर्ती चरित्र में रेखांकित करते हैं। यही उनकी लोकप्रियता की वजह भी है।

यथार्थ को लिखते समय भालचंद्र जोशी का गल्पकार कतई रूखा और सतही नहीं होता, वह तल को प्रतिबिंबित करता है सतह पर, फंतासी का प्रयोग या कल्पना का स्फूर्त संचरण बहुत सुघड़ कलात्मकता के साथ आता है, जो कि शिल्प-युक्ति के निहिथार्थ नहीं होता बल्कि यथार्थ की तथ्यात्मक रूखेपन से निज़ात दिलवाने के अनायास आता है। कथात्मक यथार्थ को वे अनूठे विन्यास में पिरोते हैं। नए कथ्यात्मक परिवेश से पहचान करवाने इस प्रक्रिया में उनकी कथा-भाषा सिंक्रोनाईज़ होकर पठनीयता का पूरा आनंद देती है। 


मनीषा कुलश्रेष्ठ

जल में धूप (प्रेम से मोहभंग की कुछ प्रेम कहानियाँ)
लेखक : भालचंद्र जोशी

पृष्ठ संख्या – 96

मूल्य – 10 रु.
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन

वन्दना शुक्ल के कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश’ और कैलाश वानखेड़े के संग्रह ‘सत्यापन’ पर भालचन्द्र जोशी की समीक्षा।

इधर दो युवा कहानीकारों के महत्वपूर्ण कहानी संग्रह आये हैं। पहला संग्रह है वन्दना शुक्ल का ‘उड़ानों के सारांश’ जबकि दूसरा संग्रह है ‘सत्यापन’ जिसके कहानीकार हैं कैलाश वानखेड़े। यह संयोग मात्र नहीं कि ये दोनों कहानीकार हमारे समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सदियों से  दमन और उत्पीडन का सामना करते आये हैं। स्वाभाविक रूप से ये अभिव्यक्तियाँ इन कहानीकारों की रचनाओं में बेबाकी और एक लेखकीय गरिमा के साथ आयीं हैं। दोनों कहानी संग्रहों में बातें या घटनाक्रम सहज रूप में आये हैं। इन दोनों संग्रहों की एक समीक्षा लिखी है हमारे प्रिय कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आईये जानते हैं इन संग्रहों के बारे में।     
आश्वस्ति की उड़ान और रचनात्मक धैर्य का सत्यापन
भालचन्द्र जोशी

हिन्दी कहानी में नवलेखन खासकर नई सदी की पीढ़ी के कहानीकारों की इधर खासी चर्चा है। सूचना और संचार माध्यमों के फैलते संजाल ने इस चर्चा को गति दी है। लेकिन यह भी हुआ है कि इस गति में प्रायः रचना छूट जाती है और रचनाकार को केन्द्र में रखने की कोशिश होती है। प्रायः तो लेखक भी यही चाहता और करता है। इन कहानीकारों के साथ दुखद स्थिति यह है कि इस आभासी संसार ने एक ऐसा घटाटोप तैयार कर दिया है जिसमें यह सोच पुख्ता हो रहा है कि रचना को रचना कौशल से नहीं प्रचार से महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। ऐसी रचना लेकिन दूर तक और देर तक साथ नहीं देती है। ऐसे समय में जब हिन्दी कहानी में एक समृद्ध कथा -परम्परा मौजूद है तब ऐसे आग्रह और धारणा को बल मिलना दुखद है।
एक और बात जो प्रमुख रूप से नजर आती है वह शिल्प के प्रति जिद की हद तक आग्रह और रुझान! भूमण्डलीकरण के इस दौर मे जिस तेजी से स्थितियाँ बदल रही हैं। उसमें शिल्प के प्रति अतिशय आग्रही होना, संकेत और प्रतीकों के प्रति रुझान के अर्थ को समझा जा सकता है। लेकिन यह आग्रह कहानी के फॉर्म में बदलाव को प्रयोगशीलता की जिद में प्रस्तुत करें तो इसका क्या अर्थ है?

यह अचरज तब और बढ़ जाता है। जब इस प्रयोगशीलता को लेखक के साथ आलोचक और समीक्षकों की सहमति भी मिल जाती है। इन सब धतकरम में रचना और यहाँ तक कि कहानी की संभावित हानि की अनदेखी हो रही है।

इन सब उत्साह और उपक्रमों के बावजूद कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो चुपचाप धैर्य से रचना कर्म में जुटे हैं। जिनके लिए रचना ही अभीष्ट है। ये इस भीड़ का हिस्सा हैं लेकिन इसलिए भी भीड़ से अलग हैं कि इनके पास रचनात्मकता के लिए जरूरी धैर्य शेष है। अनेक ऐसे नए लेखक हैं जो इस बाजार समय में अधिक तटस्थता और लेखकीय ईमानदारी के साथ अपनी रचनात्मकता के प्रति निष्ठावान हैं।

कई बार अनायास ऐसी रचनाएँ भी सम्मुख आ जाती हैं जो इसी लेखकीय धैर्य का परिचय देती हैं। इन रचनाओं में परम्परा से अलगाव की उदग्रता नहीं समान्तर सहमति की राह होती है। पिछले दिनों कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह सत्यापनऔर वंदना शुक्ल का कहानी संग्रह उड़ानों के सारांशपढ़ कर लगा कि नई पीढ़ी के भीड़ भरे माहौल में आश्वस्ति देने वाले नाम शेष हैं। इन दोनों संग्रह का उल्लेख करने का कारण है। कैलाश वानखेड़े के संग्रह की अधिकांश कहानियाँ दलित उत्पीड़न की कहानियाँ हैं बावजूद इसके इन कहानियों में उस तरह की आक्रामकता नहीं है जिसने दलित लेखन से सम्बद्ध अनेक नवोदित कहानीकारों का अहित किया है।

  (चित्र : वन्दना शुक्ल)

वंदना शुक्ल के संग्रह में स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर प्रचलित ओर कुख्यात तलवारें नहीं खींची गई हैं। साथ ही स्त्री लेखन के चिर-परिचित घर-परिवार के परम्परागत कथानक नहीं हैं जिसमें स्त्री शोषण या स्त्री के त्याग की कथित करूण और महान कथाएँ होती हैं। प्रसंगवश याद आ रहा है कि कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका ने कहीं लिखा था कि एक युवा लेखिका ने उनसे जिज्ञासा प्रकट की थी कि क्या सेक्स का तड़का लगाने से रचना लोकप्रिय हो जाती है?‘ यह बाजार इच्छा इधर की अधिकांश लेखिकाओं की रचनाओं में नजर आती है।

वंदना शुक्ल की कहानियाँ यह तसल्ली देती हैं कि इन कहानियों में प्रेम दृश्यों की जरूरत में गहरे रसवाद में डूबे गैर जरूरी वर्णन नहीं हैं।

वंदना शुक्ल के कहानी संग्रह की एक कहानी शहर में अजनबीएक ओर शिक्षा पद्धति और भाषा के दखल की कहानी है लेकिन इसी के समान्तर पीढ़ियों के सोच और उस सोच के हस्तान्तरण की कहानी भी है। वर्तमान में जिस तरह बच्चों पर माता-पिता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दबाव है उसकी अनुगूँज भी इसमें मौजूद है लेकिन उस इच्छा के विस्तार में जहाँ उस दबाव का दुष्परिणाम है तो दूसरी ओर साधनहीन लेकिन मेधावी बच्चों तक ज्ञान की पहुँच बनाने की इच्छा के परिणाम का संकेत भी है।

हालाँकि इसी कथानक के आसपास वंदना शुक्ल की एक कहानी युग‘ (कथादेश – अक्टूबर 2012) भी है जो इस संग्रह में तो नहीं है लेकिन शहर में अजनबीके आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से थोड़ा आगे जाकर इस परम्परागत यथार्थ की छवि को किंचित ध्वस्त करती है। शहर में अजनबीका आदर्श के प्रति आस्थावान पिता युगतक आते-आते गरीबी और अभाव से परास्त हो जाता है। लेकिन उनके परास्त होने में जो हड़बड़ी है वह थोड़ी असहज लगती है। हालाँकि लेखिका ने उसके लिए पृष्ठभूमि पर्याप्त तैयार भी की थी लेकिन निर्णय एक छलाँग लगाने की भाँति है। जहाँ पिता अपने पुराने संस्कारों को तिलांजलि देकर बेटी को मेले-ठेले और चुनावों में गायकी के लिए भेजने को तैयार हो जाता है। यह मूल्यों की गिरावट है जो शहर में अजनबीके पिता से चलकर युगके पिता तक आते-आते स्पष्ट होती है। इसी तरह यह वंदना शुक्ल के लेखन के यथार्थ की यात्रा भी है। शहर में अजनबीके सामाजिक सन्दर्भ और एक किस्म का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद युगमें दाखिल होकर बौद्धिक आत्म सजगता की पैरवी के बहाने अपने समय के सच की तस्वीर बनाने लगता है।

शहर में अजनबीका पिता श्री माधव सच्चिदानंद जोशी एम.ए. बी.एड. की पारिवारिक परम्परा एक आदर्शवादी धरोहर रही …… अपने दोनों पुत्रों को गाँधी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया था जहाँ बिल्कुल हिन्दी माध्यम में शिक्षा दी जाती थी। …..खास बात यह थी कि यहाँ नैतिक शिक्षा का एक अलग पीरियड का प्रावधान था (शहर में अजनबी – पेज 75) नैतिक शिक्षा का प्रबल पक्षधर यह पिता युगमें हिन्दी का शिक्षक है और बेटी के अंग्रेजी स्कूल में दाखिले से ग्लानि से भर जाते हैं क्योंकि मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुओं की प्रवाहशीलता उनकी प्रतिष्ठा का प्रमाण पत्र थी और गर्व की वजह भी।युग के मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुहैं यानी बदलाव की भूमिका लेखिका की निजी सहमति से तैयार हो रही है। शहर में अजनबीका यथार्थवाद युगके यथार्थवाद में निषेध की ध्वनि रखता है और हम अगली कहानी जल कुम्भियाँपढ़ते हैं तो वह ध्वनि एक बड़ा आकार ग्रहण करती है। लगभग एक से पात्रों के साथ कथानक में भिन्न धरातल दोनों कहानियों में मौजूद हैं।

जलकुम्भियाँमें लेखिका के पास स्थितियाँ ज्यादा स्पष्ट हैं बल्कि ऐसा मन बना लिया। माँ-बाप द्वारा बेटे की मर्जी के खिलाफ एक अपढ़ लड़की से विवाह का दबाव और बेटे की प्रेमिका का विद्रोह के लिए दबाव। यह अन्तर्द्वन्द्व दूसरी दिशा में जा सकता था लेकिन नायक की प्रेमिका स्वाति के चरित्र की प्रस्तुति में ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई कि पाठक की सहानुभूति स्वाति के जरिये नायक के अन्तर्द्वन्द्व तक पहुँचे। स्वाति को जिस तरह चतुर, चालाक और स्वार्थी बताया गया है वहाँ से नायक के भीतर उस तरह के अन्तर्द्वन्द्व की जगह नहीं बन पाती है। लेकिन यह जगह बहुत खूबसूरती से दूसरी जगह तैयार होती है। मूरिया जिससे नायक की शादी जबरन की जाती है, उसके अपढ़ होने से और उसकी असहाय उपस्थिति से वह अन्तर्द्वन्द्व तैयार होता है। यह एक कठिन काम था जिसमें एक दुनियादार नायक जो शहरी चमक-दमक से प्रभावित और उसी चमक में रहने का आकांक्षी है। उसी नायक की शादी एक अपढ़ लड़की से, वह भी जबरन, अपहरण करके कर दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में अपढ़ और गँवार पत्नी के प्रति घृणा, पहले करूणा में फिर प्रेम में तब्दील होती है। यह एक क्रमिक परिवर्तन था जिसमें लेखकीय धैर्य के साथ भाषा के उस कौशल की दरकार थी जो नायक में जरूरी अन्तर्द्वन्द्व के बगैर अधूरा रह जाता।

इसी संग्रह में आवाजेंकहानी बहुत ही खूबसूरत बुनावट की कहानी है। स्मृतियों के भीतर ठहर गए छुट्टन मियाँ ऐसे उलाहनों से वक्ती तौर पर सिर्फ हड़बड़ा जाते हैं, मुक्त नहीं होते, ‘अब इस कदर दीवाने ना होइए अब्बू कि धूप छाँव का मतलब ही भूल जाइएगा।‘ (आवाजें – पेज 73) लेकिन छुट्टन मियाँ भूलते नहीं। स्मृतियों में दुःख के कारण भी छिपे हैं लेकिन वह छुट्टन मियाँ भूलने के विरूद्ध हैं। स्मृतियों की धुँध में तैरती आवाजें उन आवाजों से उपजती बेबसी अकेलापन और इस अकेलेपन में यह अफसोस कि धीर-धीरे सब चले गए बुजुर्ग, रस्मों-रिवाज, मिरासिनें, महफिलें, रौनक, ठाठ-बाट, इज्जत, मेहमाननवाजी, किस्से, बतौले, गम्मतें।‘ (आवाजें – पेज 68) दरअसल यह कहानी इस धारणा को पुख्ता करती है कि जो कलाकार जीवन भर कला में जीता है उसी में मरना चाहता है। संगीतकार के लिए संगीत से बड़ा कोई साथी नहीं। संगीत की कोरी रूमानियत से बाहर आकर एक मानवीय मार्मिकता में कहानी तब दाखिल होती है जब भाषा की बुनावट और बनावट स्मृतियों की उन्हीं गलियों में साथ निकल पड़ती हैं जहाँ कलात्मक लय एक उदात्त मानवीयता से संलग्न होती है।

यह कम अचरज नहीं है कि गहरी पीड़ा, अकेलेपन का बोझ और बेबसी से भरी इस कहानी को पढ़ कर मन हल्का हो जाता है। कहानी हमें एक ऐसा अकेलापन सौंप देती है जिसके साथ कुछ देर रहना भला लगता है। 

दरअसल वंदना की ये कहानियाँ महिला लेखन में अन्तर्वस्तु के विस्तार का खूबसूरत उदाहरण है। बारीक बुनावट और करूणा के मानवीय पक्ष को एक नैतिक दार्शनिकता में बदलने के लिए कहानियों में परम्परागत यथार्थ के निषेध का आग्रह गैर जरूरी नहीं लगता है।

कैलाश वानखेड़े की कहानियों में भी यही लौटनाहै। इसी वापसी में अन्तर्वस्तु प्रकट होती है। कई बार तो यह मोह इतना अधिक है कि कुछ कहानियों को साथ जोड़ दें तो थोड़े कथानक विस्तार में उपन्यास हो सकता है। वंदना के पास कथा की भिन्नता है लेकिन कैलाश के पास कथ्य को लेकर एक सामाजिक पीड़ा जिसे एक किस्म का दायित्व-बोझ भी कह सकते हैं, उसका दबाव है। प्रश्न यह हो सकता है क्या इस तरह रचना संसार व्यापक और सम्पन्न बन पाएगा? कैलाश वानखेड़े को अपने जीवनानुभवों को कथा-यथार्थ में रूपान्तरण के लिए जिस रचना-कौशल की जरूरत है उसके संकेत कहानियों में नजर आते हैं।
 

  (चित्र : कैलाश वानखेड़े)

सत्यापितकहानी में नायक को महज अपना प्रमाण पत्र अपना फोटो परिचय सत्यापित कराना है। यह एक बेहद मामूली काम है लेकिन एक दलित युवक के लिए यह अपने अस्तित्व के पहचान का प्रश्न हो जाता है। निरन्तर अस्वीकार का अपमान उस वर्ग बोध से जुड़ता है। जहाँ दलित अपनी पहचान और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत् है। उस संघर्ष का अहम हिस्सा यही है कि जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है।‘ (सत्यापित – पृष्ठ 17) यहीं से विचार और अनुभव के द्वन्द्व का दृश्य बनता है। यही संघर्ष तुम लोग‘, ‘घण्टी‘, ‘स्कॉलरशिप‘, कितने बुष कित्ते मनुऔर खापामें भी मौजूद है। खापाकहानी में नायक की पीड़ा और संघर्ष का एक मूक साझीदार वह आम बेचने वाला बूढ़ा भी है। यह साझा पीड़ा कहानी का ऐसा धरातल तैयार करती है जिसमें निज का संघर्ष बहुलता की ओर विस्तार लेने के उपक्रम दर्शाता है। नानक दुनिया सब संसारकहावत इसी कहानी का अदृश्य हिस्सा है। जिसे नायक समझता है। पीड़ा, अपमान और संघर्ष के अकेलेपन में उसे अपना दिलासा बनाता है। कितने बुष कित्ते मनुका नायक भी अपने आक्रोश की दिशा खोज रहा है लेकिन तसल्ली की बात है कि वह अबूझ आक्रोश के हिस्से में जाने से पहले उसके कारक तत्व तलाशने इतिहास में दाखिल होना चाहता है। वह अपमान की अंधी सुरंग में भटक नहीं रहा है। वह अपमान की आवाज को उसके मूल अर्थों में खोजना चाहता है। लेकिन जबान कहीं खो गई है। किसी पुराने सड़ते हुए ग्रंथों के किसी श्लोक में। दब गई किसी मंदिर के गर्भगृह में।‘ (कितने बुष कित्ते मनु – पेज 97)

कैलाश वानखेड़े दलित लेखन की धारा में इसलिए थोड़े अलग हटकर उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं कि उनके पास दिशाहीन और अकारण आक्रोश नहीं है। प्रायः दलित पक्षधरता की कहानियों में आक्रोश वर्ग के लिए नहीं, व्यक्ति के लिए है। कैलाश के पास एक संयत आक्रोश है जो अनुभव और विचार के द्वन्द्व में जड़ों को टटोलकर चीजों और स्थितियों को विश्लेषित कर रहे हैं। इन कहानियों में पीड़ा के साथ एक ऐसी लेखकीय आत्मीयता संलग्न है जो पूरी सामाजिक संरचना के प्रति आक्रोश रखती है जहाँ दलित के अस्तित्व को अर्थहीन बनाए जाने का षड़यंत्र है। लेखक का जोर प्रतिशोध की अपेक्षा अस्तित्व और प्रतिष्ठा की स्थापना के संघर्ष पर है। इसलिए यह एक भावुक आक्रोश की अपेक्षा संयत बौद्धिक और संवेदन प्रतिकार है।

थोड़े बदलाव के साथ एक प्रमाण पत्र की उम्मीद घण्टीमें भी है। यह जाति के लिए नहीं, श्रम, निष्ठा और समर्पण की निरन्तरता के लिए प्रमाण पत्र चाहिए। वही सबसे कठिन काम है। लेकिन बेगारी की तरह किए जा रहे काम को जो धरमकी तरह स्वीकार कर चुका था वहीं वृद्ध चपरासी अपने बेटे की प्रतिष्ठा के लिए अफसर को तमाचा मार देता है। यह तमाचा एक निजी अपमान का प्रतिकार भर नहीं बल्कि यह वर्ग की प्रतिष्ठा की रक्षा में संचित क्रोध का उद्घाटन है।

इसी संग्रह की कहानी अन्तरदेशीय पत्रअपने गठन और ट्रीटमेंट में पठनीय है। यह कहानी स्मृतियों में सेंध लगाती है। अन्तर्देशीय पत्र जो आज सूचना एवं संचार माध्यमों के सैलाब में एक अचरज की भाँति लगता है। वह कहानी के साथ-साथ हमारी स्मृतियों को भी टटोलकर उसके नए रूप प्रकट करता है। यह कहानी बेहद कोमल और प्रभावी है।

कैलाश वानखेड़े की रचनात्मकता में लोकतंत्र के लिए एक ऐसा उदार स्पेस है जहाँ न्याय, समता और मानवीयता को साँस लेने में सुविधा है। यह ऐसी दलित पक्षधरता है जिसमें एक किस्म की उत्तेजना तो है लेकिन प्रतिशोध की उदग्रता नहीं है। दलित चेतना और संवेदना के युग्म में कहानियाँ उस मानवीय मार्मिकता की खोज करती है जेा यथार्थ से नाता नहीं तोड़ती है। सामाजिक संरचना की विसंगतियों से बेहद अमानवीय परिणाम सामने आए हैं उस पीड़ा की अभिव्यक्ति के बेहद कारूणिक दृश्य इन कहानियों में हैं। कैलाश वानखेड़े की सफलता यही है कि उनका दृष्टिकोण समाज सापेक्ष है लेकिन वो निजकी अवहेलना भी नहीं करते हैं। वे दलित चेतना को पूरी पक्षधरता और रक्षा संकल्प के साथ यथार्थ से सम्बद्ध करते हैं। यथार्थ जीवन के परिवेश से असंतृप्त होने के खतरे वे जानते हैं। यही कारण है कि पक्षधरता, सम्बद्धता और नैतिक उत्तरदायित्व के द्वन्द्व का वे एक रचना दृष्टि में विलय करते हैं। जाहिर है कि रचना अंततः एक क्रिएटिव-विजन का ही परिणाम है। जरूरी है कि कैलाश इस विजन के लिए धैर्य बनाए रखे। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे धीरे-धीरे एक असरदार भाषा विकसित कर रहे हैं। किंचित अचरज जरूर होता है कि इन कहानियों में राजनीतिक चेतना की उपस्थिति नहीं है जो दलित उत्पीड़न का एक बड़ा कारण रही है। फिर भी कैलाश वानखेड़े अपने पहले संग्रह से अपनी रचनात्मकता में आश्वस्ति को सत्यापित करते हैं।

कैलाश वानखेड़े की अधिकांश कहानियों में दो कहानियाँ समानान्तर चलती हैं। संभवतः यह हर पात्र के साथ न्याय रखने की इच्छा भी है और विचारों के समस्त आवेग को एक ही कहानी में रखने का मोह भी।
                                                                                                
समीक्ष्य संग्रह-

उड़ानों के सारांश – लेखक: वंदना शुक्ल

प्रकाशकअंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद

मूल्य रु. 250/-

वर्ष 2013

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सत्यापन (कहानी संग्रह)- लेखक: कैलाश वानखेड़े

प्रकाशक – आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा

मूल्य- रु 80/-

वर्ष – 2013

समीक्षक-

भालचन्द्र जोशी

13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड

कॉलोनी, जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)

मोबाइल नम्बर – 08989432087
(कथादेश के दिसंबर 2013 अंक से साभार)

लेखक की गरिमा और पुरस्कार की प्रतिष्ठा का प्रश्न

(संदर्भ: लमही सम्मान)
 
भालचन्द्र जोशी

अभी हाल ही में लमही सम्मान को ले कर साहित्य जगत में काफी बावेला खड़ा हुआ था। फेसबुक पर इसको ले कर तमाम बातें और बहसें हुईं। कुछ समय बाद यद्यपि यह बावेला ठंडा पड़ गया लेकिन इस मसले ने लेखकीय गरिमा जैसे महत्वपूर्ण सवाल को हमारे सामने उठा दिया। इस पूरे मसले पर कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने यह विचारपूर्ण और बहसतलब आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।  

    
पिछले कुछ समय से हिन्दी साहित्य का परिदृश्य इतना उग्र और आक्रामक हो गया है कि असहमति का अर्थ शत्रुता से आगे बढ़ गया है। इस हद तक कि असहमत को भावनात्मक स्तर पर रक्तरंजित और जख्मी देखने पर ही एक क्रूर तुष्टि मिलती है। साहित्य के लिए जरूरी समझी जाने वाली विनम्रता पर हाँका लगा हुआ है। असहमति के तर्क की जगह एक उग्र तेवर आकार ले रहा है। यह भी पूरे मन से प्रयास हो रहे हैं कि उग्रता को सच के तर्क के विकल्प में प्रतिष्ठित किया जाए।

हाल ही में लमही सम्मान मिलने की घोषणा और सम्मान प्रदान किए जाने के बाद तक एक घमासान-सा मच गया है। किसी भी सम्मान या पुरस्कार का किसी को भी मिलना या न मिलना अपने आप में एक बहस का विषय हो सकता है। जिसमें तार्किक आपत्ति शामिल की जा सकती है। लेकिन लमही सम्मान के बाद जिस तरह से सम्मानित लेखक को आसान टारगेट बना कर आक्रमण का दौर शुरू हुआ उसने लेखक के साथ सम्मान को भी अपमानित किया। खासकर जिस तरह फेसबुक पर यह दौर शुरू हुआ वह चकित करने के साथ बहुत दुःखद भी रहा। जिन आपत्तियों में शालीन तर्क और भद्र भाषा थी ऐसे अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो शेष तो कंठ शुष्क कर देने वाला दृश्य था।

एक समय था जब किसी पुरस्कार, घटना या लेखक की किसी हरकत आदि से साहित्य में असहमति बनती भी तो अपनी असहमति प्रकट करने के लिए ज्यादा मंच और पत्रिकाएँ नहीं थीं। सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान या एकाध और इस तरह से। लघु-पत्रिकाओं की आज जैसी बाढ़ नहीं थी जो साहित्य में जरूरी भद्र तटों को ध्वंस्त करने की उद्दाम इच्छा में बहुत वेगवती हो जाती हैं। उस समय एक दिक्कत भी थी कि साहित्य में मुख्य परिदृश्य पर स्थित पत्रिकाएँ यदि उन असहमति को स्थान नहीं देती थीं तो सारा घटनाक्रम अनदेखा रह जाता था। सम्पादक की अधिकार सीमा कई बार जरूरी असहमतियों को भी अप्रकट रहने देती थी और प्रायः लेखक इस मनमानी पर कुढ़ कर रह जाते थे। प्रायः ऐसा सम्पादक की मनमानी या जिद की अपेक्षा साहित्य में शिष्टता की स्थापित छवि की रक्षा के लिए किया जाता था। इसी की आड़ में अनेक लेखकों, सम्पादकों और साहित्यिक संस्थानों की उद्दण्डता और अराजकता छिपी रह जाती थी।

सूचना और संचार माध्यम से इस नवीन तकनालॉजी के युग में इंटरनेट और खासकर फेसबुक के माध्यम ने एक ओर जहाँ प्रत्येक लेखक और यहाँ तक कि पाठकों को भी किसी भी घटना या विचार को लेकर अपनी सहमति-असहमति में त्वरित प्रकट करने की स्वतन्त्रता और सुविधा उपलब्ध कराई वह भी बगैर किसी तरह के पराए सम्पादन की दखल के। यह अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि है। जाहिर है कि इससे साहित्य का लोकतंत्र विस्तारित भी हुआ और ज्यादा अधिकार सम्पन्न भी लेकिन इसी के साथ अराजक अभिव्यक्ति के खतरे भी बढ़े हैं। साहित्य की इस नवीन स्वायत्तता के लिए ‘आजादी की लड़ाई‘ की तरह कोई मूल्य नहीं चुकाया गया था। किसी लम्बी लड़ाई के दौरान सम्भावित उपलब्धता को लेकर एक लिखित-अलिखित लोकाचार बन जाता है। ऐसी कोई स्थिति इस नई स्वायत्तता में नहीं बन पाई इसलिए स्वतन्त्रता का गरिमा-उत्सव अनेक लोगों के लिए अराजकता की अभिव्यक्ति की उपलब्धता की भीषण प्रसन्नता में तब्दील हो गया। फेसबुक तो नई पीढ़ी के अनेक लेखकों-पाठकों के लिए असहमति से अधिक प्रतिशोध का मंच बन गया। व्यक्तिगत हताशा को एक सार्वजनिक कुंठा में प्रदर्शित करने का रंगीन पर्दा मिल गया। अब इस माध्यम में सामान्य और शिष्ट हास्य के स्थान पर अश्लील और अशिष्ट ईर्ष्या की तरंगें बहने लगी हैं। लोग अब मजाक नहीं करते, मजाक उड़ाने लगे हैं – अपमान की हद तक।


लमही पुरस्कार से सम्मानित लेखिका इसी का दारूण शिकार बनी हैं। लमही सम्मान के निर्णायकों में से एक सम्मानित निर्णायक का कथन है कि तय तो यह हुआ था कि वरिष्ठ लेखकों को प्रायः सम्मान मिलता रहता है लेकिन नई पीढ़ी के लेखकों के लिए भी ऐसी शुरूआत होनी चाहिए। इसीलिए लमही सम्मान शिवमूर्ति के बाद नई पीढ़ी के लेखक के लिए चयन किया जाना तय किया गया। इससे नई पीढ़ी के लेखक को साहित्यिक स्वीकार और सम्मान की एक परम्परा शुरू की जा सके।


इस कथन में कोई बुराई नहीं है। वरिष्ठ लेखकों के लिए अनेक अवसर सुलभ हैं ऐसे में नई पीढ़ी के साथ ऐसी शुरूआत भली लगती है। फिर यह तर्क कि वरिष्ठ पीढ़ी के लेखकों के बाद एकदम नई पीढ़ी की लेखक को यह सम्मान दिया जाना असहज लगता है, इस कथन को उक्त तर्क के साथ समाप्त मान लिया जाना चाहिए। नई पीढ़ी के लेखकों में सम्मानित लेखक के नाम का ही चयन क्यों किया गया है ? यह ऐसी बहस है जिसमें कोई सुचिंतित तर्क और विश्लेषण की अपेक्षा अपवाद छोड़ कर अनेक लेखकों का निजी क्रोध, इच्छाएँ, कुंठाएँ, विवादप्रियता और विनोदप्रियता ही सामने आई।

इस नाम के चयन में इतने बड़े विवाद में क्या यह कम अचरज की बात नहीं है? सम्मानित लेखिका कोई गुलशन नंदा के स्तर की लेखिका तो है नहीं। वह अपने लेखन में जैसा श्रम और संघर्ष कर रही है। क्या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों का श्रम और संघर्ष उससे पृथक है ? इसका आशय यह कदापि नहीं है कि मैं सम्मानित लेखक को लमही सम्मान दिये जाने के निर्णय को श्रेष्ठता का अंतिम निर्णय प्रमाणित करना चाहता हूँ। इस बारे में मेरा अपना कोई पक्ष या विपक्ष नहीं है। यह सम्मानित लेखिका को लेकर कोई निजी पक्षधरता या बचाव नहीं है। मैं तो एक-दो मामूली-सी औपाचारिक मुलाकातों को छोड़ दिया जाए तो उनसे मिला भी नहीं हूँ। दरअसल यह एक लेखक की गरिमा ओर सम्मान की रक्षा का प्रश्न है। यदि यह पुरस्कार या सम्मान नई पीढ़ी के किसी लेखक को दिया जाना था तो सम्मानित लेखक का नाम क्या उस पंक्ति में अंतिम स्थान पर है?
सबसे ज्यादा अचरज तो होता है विजय राय की उस आत्मग्लानि को जान कर जिसे वे आत्मज्ञान की तरह प्रस्तुत करके लमही सम्मान दिये जाने की अपनी भूल स्वीकार कर रहे हैं। साथ ही इस भूल में निर्णायकों के दबाव और अपनी विवशता का मासूम खेद भी प्रकट कर रहे हैं। अभी हिन्दी साहित्य में बंदूक की नोक पर पुरस्कार के निर्णय के लिए स्वीकृति हासिल करने का चलन पैदा नहीं हुआ है। इसलिए निर्णायकों के दबाव से पैदा हुई उनकी विवशता समझने में हर किसी को कठिनाई आ रही है। इस तरह विजय राय ने लेखक के साथ ही दिये जाने वाले सम्मान की प्रतिष्ठा को भी क्षति पहुँचाई है। कई महीनों तक वे निरन्तर इस तरह दबाव में रहे कि उन्हें अपनी विवशता बताने का अवसर ही नहीं मिला यह बात यदि सच है तो बहुत चिंतित करने वाली है।
यह जानने की उत्सुकता भी बनी हुई है कि “लमही सम्मान” के पीछे आखिर योजना क्या थी? किस विचार या उद्देश्य को लेकर यह सम्मान स्थापित किया गया? इसके पीछे क्या दृष्टि काम कर रही है? लमही सम्मान को लेकर यह बात भी आग्रह की भाँति सामने आई है कि यह प्रेमचन्द परम्परा का सम्मान है। इस सन्दर्भ में सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखने में कठिनाई आएगी। फिर यह भी अपने आप में थोड़ा कष्टप्रद विचार है कि सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखा जाए। यह एक नई रूढ़ि को स्थापित करने का आग्रह है। परम्परा के प्रति खासकर प्रेमचन्द की परम्परा के प्रति सम्मान निर्विवाद है और होना भी चाहिए लेकिन उससे पृथक, उसके समान्तर नवीन के अस्वीकार की जिद थोड़ी असहज लगती है। प्रेमचन्द की रचनाओं में बड़े राष्ट्रीय सन्दर्भ और गहरे सामाजिक सरोकार की एक ऐसी आत्मीय पहचान का भरोसा है जो आज भी अखण्डित है। ग्रामीण समाज की गहरी समझ और उसकी मार्मिक संवेदन अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में बहुत प्रामाणिक ढंग से उपस्थित है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यही सरोकार भिन्न सन्दर्भों में एक नवीन शिल्प और भाषा में प्रकट हो तो यह प्रेमचन्द परम्परा का अस्वीकार है। प्रेमचन्द परम्परा के प्रति सम्मान के साथ भी हम नवीन को स्वीकार करते हैं। तो यह वैचारिक उदारता अनेक सम्भावनाओं के दरवाजे खोलेगी।

दरअस्ल लमही सम्मान को ले कर खुद संयोजक की मनःस्थिति बहुत अस्थिर और दुविधा में प्रतीत होती है। तमाम स्थितियों के बीच एक वैचारिक हड़बड़ी, दृष्टि को लेकर भटकाव और निर्णयों को लेकर असमन्जस नजर आता है जो उनक प्रतिक्रियाओं में प्रकट भी हुआ है।

इस पूरे प्रकरण में, इस सम्मान की पूरी प्रक्रिया को लेकर अनेक आरोप और सन्देह सामने आए हैं। हालाँकि यह आरोप तो महत्वहीन है कि सम्मान में निर्णायकों में कोई कथाकार नहीं हैं। साहित्य में खासकर आभासी दुनिया में मौजूद अधिकांश लेखकों-पाठकों को इस मसले में सम्मानित पुस्तक के प्रकाशक की भूमिका प्रकाशकीय उत्साह नहीं बल्कि अकारण की अतिरेकपूर्ण व्यवसायिक महत्वाकांक्षाओं का हस्तक्षेप लगी और नागवार गुजरा, खासकर सम्मान समारोह के निमंत्रण पत्र को ले कर। हर किसी को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का स्वाभाविक अधिकार है लेकिन उसमें एक सामाजिक दायित्व बोध और लेखकों के सम्मान का रक्षा भाव शामिल होना चाहिए। यह मसला एक सुखद मोड़ पर एक कटु सबक के साथ खत्म हो जाए तो बेहतर है।
दरअस्ल इस बात की निरन्तर अनदेखी हुई है कि एक लेखक की गरिमा को आहत किया गया है। मैं यह बात सम्मानित लेखिका के सन्दर्भ में नहीं बल्कि ‘लेखक जाति‘ के सन्दर्भ में कह रहा हूँ।


लेखकों की दुनिया कोई बहुत बड़ी नहीं है। तमाम इच्छाओं, आकांक्षाओं, रोष और कुंठा के बावजूद अपने सुख-दुःख के साथ इसी दुनिया में रहना है। जिस दुनिया में हमें रहना है उसे अपनी लेखक-आबादी से तो घना किया जा सकता है लेकिन इस हद तक ईर्ष्या, द्वेष, पीड़ा और रोष के साथ जगह तंग कैसे की जा सकती है? हमारी अपनी दुनिया खुशहाल और खूबसूरत नहीं है तो शेष दुनिया की चिंता में अकारण दुबले हुए जा रहे हैं।
मेरी पीड़ा यह है कि लेखन की दुनिया में गुस्से को इतना आक्रामक और निजी पहले कभी नहीं देखा था। इंटरनेट या फेसबुक तो एक माध्यम की अपेक्षा एक वधस्थल में तब्दील हो गए हैं। जहाँ हर कोई हाथ में गंडासा लिए फुफकार रहा है। जहाँ साहित्यिक भूल या गलती के लिए चरित्र वध किए जा रहे हैं। लेखकीय गरिमा का हत्याभिलाषी ‘माउस‘ क्रोध में चीखता हुआ उँगलियों के स्पर्श से वध-इच्छा में पीछा कर रहा है। ऐसी हत्याओं को पसंद-नापसंद करने वालों की अंधी भीड़ बढ़ती जा रही है। बौद्धिक वर्ग के रूप में ख्यात समाज का संवेदनशील तबका लेखकीय गरिमा और सामान्य सहिष्णुता से परे जाकर इस वधस्थल पर हो रही हत्याओं के रक्तिम छीटों और आहत आर्तनाद से जिस तरह प्रसन्नता में चीत्कार कर रहा है वह चकित कर देने वाला है। गहरा दुःख देने वाला है। इस आभासी दुनिया में हम जाने-अनजाने एक ऐसी क्रूरता के सम्बंधी हो रहे हैं जहाँ प्रेम और मैत्री के लिए जगह तंग हो रही है। खासकर उनके लिए जो लेखक होने के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते हैं। ऐेस लोग जो साहित्य में प्रेम और मैत्री की मुनादी के साथ दाखिल हुए थे उन्हें इस भीड़ में शामिल देख कर स्वाभाविक दुःख है। हम लोग यदि लेखन की दुनिया में हैं तो चाहे-अनचाहे ही एक गहरी वैचारिक गरिमा के हामीदार भी हैं। हमारी नैतिक अन्तश्चेतना हमारे लेखक होने के साथ नालबद्ध है या होना है।
एक ऐसा घटाटोप तैयार हो गया है जिसमें लेखक होने की अंतिम सार्थकता पुरस्कार है। हमारी लेखकों की दुनिया को अकारण इतना घना और सँकरा किया जा रहा है कि किसी रास्ते निकलने पर एक दूसरे की व्यक्तित्व हत्या किए बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं रह गया है। क्या साहित्य की दुनिया भी राजनीति की भाँति गलीच होकर गाली में तब्दील हो जाना चाहिए? हमारे पास अभी राजनीति के प्रति अपनी हिकारत का नैतिक जवाब है। मैं चाहता हूँ इसे निर्वैकल्पिक और तर्कातीत बचा कर रखा जाए। मैं असहमति या रोष के विपक्ष में नहीं हूँ। लेकिन एक जरूरी भाषा संयम और सहिष्णुता के साथ विपक्ष तैयार हो। जो इस तरह षड़यंत्र से आहत होते हैं, उनकी चोखी पीड़ा और वैध रोष समय को भी प्रतिकार के लिए अवसर दे। एक सहिष्णु धैर्य भी प्रतिकार का हिस्सा होता है।


हमारी दुनिया में क्या ऐसा समय आ चुका है जब लेखकीय आस्था और मूल्य-बोध जैसे पद विदा करके अधिकांश लेखक प्रतिकार के एक हुल्लड़-उत्सव में शामिल हो गए हैं ? लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते हैं, हमारे पास शब्दों की दुनिया की एक लम्बी और बड़ी विरासत है उसे न नष्ट किया जा सकता है और न बेदखल। अंततः वह हम सबकी विरासत और जिम्मेदारी है।

                       

सम्पर्क –
भालचन्द्र जोशी
13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, 

जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)
                                

मोबाइल नम्बर – 08989432087

भालचन्द्र जोशी

भालचंद्र जोशी हमारे समय के सुपरिचित कहानीकार हैं। भाल चन्द्र जी ने अपनी कहानियों में उन साहसिक विषयों को उठाने का जोखिम मोल लिया है जिससे आमतौर पर कहानीकार बचते रहे हैं। ‘चरसा’ इनकी ऐसी ही एक कहानी है जिसमें अछूत  जाति के युवक किशन ने अपने ही गाँव की ब्राहमण युवती सविता से प्रेम करने का दुस्साहस किया है। इस प्रेम कहानी के जरिये भाल चन्द्र जी हमारे सामाजिक धारणाओं की उधेड़ बुन करते हुए अन्ततः वहाँ ला खडा करते हैं जो हमें एकबारगी हिकारत से भर देता है। तो आईए पढ़ते हैं भालचंद्र जी की यह कहानी।  
     
चरसा

    दफ्तर से निकल कर वह चौड़ी भीड़ भरी सड़क पर आया तो उसका मन खिन्न था। भीड़ से बच कर वह पैदल चलता हुआ सड़क किनारे की इमारतों को अकारण घूरने लगा। सड़क का रास्ता तय करके वह अपने मुहल्ले की गली में दाखिल हुआ। कुछेक बूढ़े शाम होने से पहले ही ओटलों पर आ बैठे हैं। उसने गरदन झुकाई और आगे बढ़ गया। आभिजात्य मकानों की एक लम्बी कतार के बीच से गुजरते हुए उसने सोचा, आज भी केशव का फोन नहीं आया। हालांकि केशव को उसके दफ्तर का फोन नम्बर और घर का पता, दोनों मालूम हैं। केशव इतनी महत्वपूर्ण बात भूल जाए, ऐसा कभी नहीं हो सकता है। गाँव से चलते हुए उसने केशव से कहा था कि सविता की दादी की मौत की खबर उसे तुरन्त करना।

कहीं ऐसा तो नहीं डोकरी अभी जिन्दा हो? उसने सोचा और झुँझला गया। अकारण। फिलहाल डोकरी की मौत ही एकमात्र वजह है जो सविता को भोपाल बुला सकती है, वर्ना तो सविता से मिलने के दूर-दूर तक कोई अवसर नहीं हैं। पिछले दस-बारह दिनों में कोई सौ बार सोच कर तय किया गया कि गाँव अविलम्ब जाए, लेकिन हुआ यह कि हर दफा मन मान कर रह जाना पड़ा। अजीब बेकली थी कि दफ्तर में फोन का बेसब्र इंतजार रहता। फिर दफ्तर से लौटते समय रास्ते भर सोचते हुए घर आता कि जाते ही घर पर टेलीग्राम रखा मिलेगा। लेकिन उसके लिए न दफ्तर में फोन आया और न ही घर पर कोई टेलीग्राम। रोज वह अपने दो कमरों के मकान का ताला इसी जख्मी उम्मीद में खोलता है कि अभी अपने घर के दरवाजे की देहरी पर खड़ा मकान-मालिक शायद उसे कहेगा- ‘‘रुकिए, किशन बाबू, आपका टेलीग्राम आया है, ले जाइए।‘‘ मगर ऐसा कुछ भी नहीं होता। मकान-मालिक से दुआ-सलाम होती और वह कुछ देर जेब में चाबी टटोलने का अभिनय करता। गालिबन वह एक छोटी-सी जगह बना रहा हो, जहाँ मकान मालिक भूल रहे खयाल को उठा कर रख दे, लेकिन मकान-मालिक उसकी जानिब नीरस मुस्कुराहट के साथ देखता रहता। शुरू के दिनों में तो वह मकान-मालिक से पूछ भी लिया करता था कि कोई तार वगैरा तो नहीं आया ? पहली दफा इस सवाल पर मकान-मालिक को अचरज हुआ होगा कि ज्यादातर किराएदार चिट्ठी-पत्री का पूछते हैं, टेलीग्राम का नहीं। फिर भला टेलीग्राम का इस तरह इंतजार कौन करता है ? उसने गौर किया कि मकाने-मालिक उम्र से पहले बाल सफेद हो जाने  वाला बूढ़ा है, जिसे पूरा मोहल्ला गुप्ता जी कहता है। गुप्ता जी ने टेलीग्राम को ले कर उसकी अनपेक्षित प्रतीक्षा के लिए सहसा जिज्ञासा प्रकट की थी लेकिन वह टाल गया था। उसे लगा, उनके पूछने में कोई चतुराई है। इस बीच जाने क्या हुआ कि गुप्ता जी ने उससे पूछना बन्द कर दिया था। पर अब गुप्ता जी उसके दफ्तर के लौटने के समय जान-बूझ कर दरवाजे पर खड़े रहते हैं। शायद वे जेब से चाबी टटोलने के उसके अभिनय को समझने लगे हैं और उसके अभिनय करने की युक्ति का आनन्द उठाते हैं और निगाह मिल जाए तो वे मुस्कराने लगते। कभी वे बगैर पूछे हीं कह देते कि तार नहीं आया है। फिर अजीब-सी रहस्यमय हँसी हँसते। बहरहाल इसी रहस्यमय हँसी की मार से बचने के लिए अब उसने बूढ़े की ओर देखना भी बंद कर दिया है। फिर भी उसे अपनी पीठ पर बूढ़े की मुस्कुराहर धँसती लगती है। जैसे कोई बेनाम-सी- तीखी चीज उसकी पीठ में धीरे-धीरे घोंपी जा रही है।

आज भी ताला खोल कर वह भीतर आया तो बूढ़ा मकान-मालिक दरवाजे से झाँकता हुआ, थोड़ा आगे झुक गया। उसने दरवाजा टिका दिया। पलट कर आया और कमरे के कोने में बिछे पलंग पर पस्त-सा बैठ गया। कुछ पल गुजारने के बाद जूते उतार कर उसने पलंग के नीचे खिसकाए फिर तकिए को पीछे दीवार से टिका कर वह अधलेटा हो गया।

यह मकान महज उसे इसलिए मिला था कि उसने अपना नाम किशन शर्मा बताया था। हालाँकि वह गाँव से जब चला था तो उसे ‘भायजी‘ (पिताजी) ने कहा था कि मकान हरिजन मोहल्ले में लेना। दुःख-सुख में ‘अपने लोग‘ काम आते हैं लेकिन उसने ज्यादा किराया दे कर सवर्णो के मुहल्ले में मकान लिया था। वह इस भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता था कि उपनाम बदल लेने से या सवर्णो के मुहल्ले में मकान लेने से, वर्ग बदल जाता है।

अब पिछले कई दिनों से वह बहुत आसानी से गुप्ता जी के घर जाकर उठता-बैठता है। खुद एतमादी के साथ नाश्ते की प्लेट उठा लेता है। कभी-कभी उनके आग्रह पर निद्र्वन्द्व होकर खाना भी खा लेता है। कई बार जब मकान-मालिक की बैठक में आरक्षण को लेकर बहस होती है तो वह भी बेहिचक राजनीति को कोसने लग जाता है। बल्कि अपनी आलोचनाओं को, स्वर के आरोह-अवरोह से आक्रामक बना देता है। वह कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता है जिससे उसके सवर्ण होने का प्रमाण प्रकट होता। ऐसे में कई बार स्थिति बहुत अजीब-सी हो जाती थी। एक बार ऐसा अवसर आया था। गुप्ता जी के घर दिल्ली से उनके रिश्तेदार आए थे। उनके साथ खाना-खाते हुए फिल्मों की बात होने लगी।

-‘‘आपको मालूम है मेरा खास हीरो कौन है ?‘‘ गुप्ता जी के लड़के ने बहुत उत्साह से पूछा फिर खुद ही जवाद देते हुए बोला, -‘‘मिथुन चक्रवर्ती!‘‘
-‘‘कोई नई बात नहीं है।‘‘ गुप्ता जी का बड़ा लड़का व्यंग्य से बोला, -‘‘तेरा ही नहीं, सभी भंळई लोगों को प्रिय हीरो है!‘‘
सभी हँसने लगे छोटा भाई रूठ गया। उसे अपमान महसूस हुआ। चूंकि भंळई चमारों से भी गई-गुजरी जाति मानी जाती है। दिक्कत की बात तो यह रही कि किशन को भी सभी के साथ हँसना पड़ा। बेशक वह खुल कर ही हँसा था, लेकिन उसे भीतर-ही-भीतर लगा था जैसे हँसी लहुलुहान होकर फर्श पर गिर गई है। उस हँसी की छटपटाहट उसने देर तक अनुभव की थी। अलबत्ता उसने स्थिति की इस विद्रूपता पर कचोट भी अनुभव की थी कि उस हीरो को दूसरे या तीसरे दर्जे का सिद्ध करने के लिए उसे ‘अपनी जाति‘ से जोड़ देना पड़ा था, उसे याद आया, उस हीरो को गाँव में भंळई मोहल्ले के सब के सब लोग ‘दिलो जान‘ से चाहते हैं।

-‘‘आपका प्रिय हीरो कौन-सा है ?‘‘ अचानक गुप्ता जी के बड़े लड़के ने पूछा था, जो किराने की दुकान चलाता था। वह रोटी का कौर तोड़ते हुए रुक गया था। मिथुन चक्रवर्ती को प्रिय हीरो बताना तो बहुत मुर्खता होती। वह दिलीप कुमार बोलते-बोलते रुक गया। उसने सोचा, दिल्ली से आए इन भगवा बनियो के सामने एक मुसलमान हीरो का नाम बोलना ठीक रहेगा ? उसने पानी का गिलास उठा कर पानी पिया और अकारण मुस्कुराते हुए बोला था, -‘‘जितेन्द्र!‘‘ राधेश्याम तो कुछ नही बोला लेकिन दिल्ली से आए उनके रिश्तेदार हँसने लगे थे। उनमें से एक गोरे रंग की मोटी सी महिला बोली, -‘‘ये तो चवन्नी क्लास की पसंद का हीरो है!‘ कहकर उसे क्षण भर देखा जैसे मन-ही-मन तौल कर देखा और फिर बोली, -‘‘आपको भी पसन्द आया तो ये, जितेन्द्र!‘‘

उसके स्वर में स्पष्ट रूप से हिकारत थी। उसके लिए या जितेन्द्र के लिए या शायद दोनों के लिए। प्रकट में तो वह शालीनता से मुस्कुरा दिया लेकिन मन-ही-मन उबलकर रह गया। अब अभिनेताओं में भी वर्ग-भेद दाखिल हो गया ? सवर्ण जितेन्द्र पैसा कमा कर सम्पन्न हुआ लेकिन खराब फिल्मों ने उसका वर्ग बदल दिया। अब आदमी कैसे उलवे ? कैसे आगे बढ़े ? उसे प्रोफेसर मुजमेर की बात याद आई कि अब व्यवसाय का ज्वार-भाटा ही वर्ग तय करेगा। क्या सचमुच ?

उसने मोटी महिला को देखा जो अपने दाएँ हाथ की सोने की चूडि़यों को बाएँ हाथ से पीछे सरकाते हुए उसकी ओर देखते हुए मुस्कुरा रही थी। कुढ़कर रह गया था वह। स्साली मुटल्ली! आई बड़ी क्लास की बात करने वाली। कम्मर पकड़ कर हिलाता या इसका घाघरा खँखोरता तो चवन्नी तो छोड़ो दुअन्नी क्लास के नीचे टपक पड़े। और सभी जितेन्द्र क्लास के ही गिरते। पूरा एक खीड़ा भर जाता। लेकिन बोला कुछ नहीं। चुपचाप खाना खाता रहा था। अलबत्ता रोटी के कौर को जबड़े के नीचे कुछ ज्यादा ही ताकत से दबा दिया। एक तल्खी थी जो दाँतों में उतर आई थी। उस शाम वह खाना खा कर गुप्ताजी के घर से बाहर आया तो उसे लगा था कि उल्टी हो जाएगी लेकिन वह वापस निगल गया। ऐसे समय उसे भाबी और भायजी की याद आती है। वह अपनी माँ को भाबी और पिता जी को भाय जी कहता है। वह खुद ही क्यों ? उसके मुहल्ले में हर कोई अपने माँ-बाप को भाबी और भाय जी कहता है। उसने सविता से यह बात एकाध बार कही भी थी कि वह जब से हुस्यार हुआ है इस बात के लिए ललाता ही रहा कि वह भी भाबी-भायजी को मम्मी-पापा कह सके।

सविता ने उसे चेताया था कि अब तो भूल से भी मत कहना, पूरा मोहल्ला बल्कि पूरा गाँव तुम्हारे माँ-बाप को मम्मी-पापा कहकर चिढ़ाएगा। एक बार चिड़ावनी पड़ी तो तुम्हारे माँ-बाप जिंदगी भर तुम्हें कोसेंगे। सम्बोधन के लिए पूरा माहौल चाहिए। वह बोला तो कुछ नहीं था लेकिन उसे लगा कि शायद सविता की बात में कहीं कुछ छुपा हुआ और क्षीण-सा व्यंग्य है। हालाँकि वह इस व्यंग्य को ताड़ नहीं पाया था। लेकिन उसे लगा कि सविता शायद यह समझ रही है कि सम्बोधन के चुनाव के बहाने चालाकी के साथ उससे वह छीना जा रहा है, जो उसके लगे हाथ था, जिसे सिर्फ थोड़ी-सी एडि़याँ ऊँची करके छुआ जा सकता था। लेकिन सविता की हिदायत के बाद लगा, जैसे मम्मी-पापा शब्द नहीं, शाख पर लगे फल हैं जिन्हें अब उचक कर छुआ भर जा सकता है, अपने लिए तोड़ कर रखे नहीं जा सकते हैं। वह उस समय तो चुप हो गया लेकिन समझ गया कि यह इसकी जात बोल रही है। फिर भी उसने भाबी-भाय जी को दुखी करना ठीक नहीं समझा। उसे याद है।

अपना उपनाम उसने शहर की जिला कोर्ट में अर्जी देकर बदलवाया था। यह बी.ए. करने से पहले की बात है। भाय जी बहुत गुस्सा हुए थे। कहा था – ‘‘अड़नाम बदली लियो तो काई जात बी बदली गई ? ‘‘ उसके बाद भाय जी गुस्से में बहुत देर तक चिल्लाते रहे थे। भाय जी के गुस्से में अस्फुट निर्णय के साथ दुःख का सार यही निकला था कि क्या अड़नाम बदल लेने से जात बदल जाएगी ? मुझे तो जिंदगी भर चरसा का काम करना है। मरे हुए ढोरों की खाल ही खींचना है। और फिर क्या खराबी है अपनी जात में ? मैं तो अड़नाम नहीं बदलूँगा। फिर इस तरह तो तू हमको भी बदल देगा ? कोरट देगी तेरे को बामण, रजपूत माँ-बाप ? उसके भायजी देर तक चिल्लाते रहे थे। फिर आए दिन घर में किच-किच होने लगी। इस दाताकिच्ची से बचने के लिए तब वह एम.ए. करने भोपाल चला गया था। बी.ए. वह अपने नजदीक के शहर के कालेज से कर चुका था। भोपाल में वह होस्टल में निःशुल्क रहता था बाकी खर्च के लिए उसने कुछ ट्यूशन की और कुछ भाय जी ने कर्जा लेकर पैसा भेजा।

कालेज में ही उसकी मुलाकात सविता से हुई। वह भी अपने डिप्टी-कलेक्टर भाई के घर रह कर एम.ए. कर रही थी। उसी की क्लास में थी। डिप्टी-कलेक्टर भाई के बारे में उसे गाँव में ही मालूम पड़ गया था। इस तरह वह सविता के बारे में भी जान गया था कि वह उसी के गाँव की है। वह पढ़ाई में तेज था। उसके नोट्स पूरी क्लास में ईर्ष्या के कारण थे। प्रोफेसर अकसर उसकी तारीफ करते थे। इसी से प्रभावित हो कर सविता उससे मिल लिया करती थी। अकसर नोट्स माँग कर ले जाती थी। कभी केंटीन में मुलाकात हो जाती थी लेकिन ये मुलाकातें मामूली ही रहीं। एक बार कालेज के वार्षिकोत्सव में जब वह दलित पक्ष को ले कर बोला तो उसे प्रथम पुरस्कार मिला। केंटीन में सविता ने उसे बधाई दी और अचरज प्रकट किया कि वह बावजूद अपर कास्ट होने के, लोअर कास्ट के लोगों के प्रति इतना सिम्पैथिक एटीट्यूड रखता है। फिर भी दोनों के बीच सिर्फ एक रस्मी किस्म की बौद्धिक घनिष्ठता ही रही। वह तो यूँ हुआ कि अगले बरस अन्तर-विश्वविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने दोनों रीवा गए। तब उसने मंच पर सविता को दलितों के पक्ष में उनकी सामाजिक स्थिति पर बोलते हुए सुना। सविता उसके बोलने के बाद मंच पर गई थी। तब उसे लगा कि उसके खुद के पास तो महज एक आक्रामक भाषा है जो तर्क में घेरे में कमजोर पड़ती है लेकिन सविता के बोलने से, उसकी समझ और अध्ययन से वह आतंकित हो गया। उसी शाम वे दोनों एक होटल में खाना खाने गए। सविता के साथ अर्थशास्त्र की जो प्रोफेसर रीवा गई थी वह होटल में साथ नहीं जा पाई थी या सविता प्रोफेसर से अनुमति लेकर साथ अकेले गई थी, उसने यह सब नहीं पूछा था। उसने बधाई दी। वह मुस्कुरा दी थी। फिर बोली थी, -‘‘आपका स्पीच भी अच्छा था लेकिन आप राजनीतिज्ञों की तरह बोलते हैं।‘‘

उसने थोड़े अचरज से उसे देखते हुए पूछा, -‘‘मैं समझा नहीं!‘‘
-‘‘दरअसल आपकी स्पीच में राजनीतिज्ञों की जुबान मिली हुई है। इसलिए आपके बोलने में बाडी-लैंग्वेज, जोश, आक्रामकता और उस तरह की नाटकीयता तो खूब रहती है जिस पर ताली पड़े लेकिन कोई निष्कर्ष निकल सके ऐसे बात नजर नहीं आती है।‘‘ कहते हुए वह रुक कर उसे देखने लगी। फिर उसके चेहरे पर गुस्से की जगह उत्सुकता टिकी हुई देखकर बोली, -‘‘हम एक पूरी सोशलाजी को समझे बगैर जो गुस्सा करेंगे वो एकतरफा होगा।‘‘

-‘‘लेकिन आज जब पार्टियाँ….!‘‘ उसने कुछ कहना चाहा लेकिन उसकी बात काट कर वह तत्काल बोली,-‘‘आप राजनीति की बात न करें, इट्स जस्ट रबिश! अधिकांश राजनीतिज्ञ लुच्चे हैं, लफंगे हैं और अपढ़ हैं। अधिकांश पार्टियाँ बेईमान है। ये लोग इतिहास के प्रेत इसलिए जगाते रहते हैं कि ये डाउनट्रोडन समाजशास्त्रीय विवेचन या अर्थशास्त्र की ओर न जाएँ।‘‘ कहते-कहते वह चुप हो गई।

वेटर टेबल पर खाना लगाने लगा।
-‘‘तुम्हें बहुत सहानुभूति है इनसे।‘‘ वह प्रशंसा-भाव से उसकी ओर देखते हुए बोला,-‘‘नहीं, सहानुभूति नहीं। मैं सच को सच की तरह देखना  चाहती हूँ। सहानुभूति में उपकार भाव शामिल रहता है। दरअसल दलितों को इसी से मुक्त होना चाहिए। यू नो आएम एलर्जिक टू दिस एटीट्यूड। मुझे गाँधीजी द्वारा हरिजनोद्धार जैसे शब्द से भी चिढ़ है-उद्धार ? क्यों ? क्या पापी हैं, पुण्यवान आएँ और जिनका उद्धार करें ?‘‘ कह कर उसने जब उसकी ओर देखा तो उसको सविता के चेहरे पर गर्व की एक अछड़ती छाया नजर आई। सविता के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था जैसे ऐसा ‘सच‘ तो दलित स्वयं नहीं जानते। उसके पास सच को जान चुके व्यक्ति की-सी तुष्टि और तसल्ली थी। तभी खाना लग गया। वह चुप हो गई। दोनों खाना खाने लगे। वह सोचने लगा आज नहीं तो कल इसे मालूम हो जाएगा कि वह उसके गाँव का रहने वाला है और कौन है ?

बहस लगभग खत्म हो चुकी थी। बहस ही नहीं जैसे सारे प्रश्न ही खत्म हो गए हों। दोनों के दरमियान जैसे एक रुका हुआ और बहुप्रतीक्षित फैसला आ जाने के बाद की खामोशी थी। उसने सोचा, कैसा फैसला ? दरअसल फैसला तो उसके भीतर हो गया था, कि सविता से ज्यादा देर और दूर तक अपनी जात छिपाई नहीं जा सकेगी।

-‘‘आप कुछ कहना चाह रहे थे ?‘‘ सविता ने बेसाख्ता पूछा। जैसे उसने उसकी संवादोत्सुक मुद्रा को पहले पहचान लिया हो।
-‘‘कहना यही चाहता था, सविता, जब तुम समाज के वर्ग भेद को लेकर इतनी ‘इनडेप्थ‘ सोचती हो, तो फिर तुमने अपने नाम के पीछे यह शास्त्री सरनेम कैसा लगा रखा है ?‘‘

-‘‘ठीक वैसे ही लगा रखा है जैसे तुमने शर्मा लगा रखा है!‘‘ सविता ने कहा और जोर से हँसी – इस उम्मीद मे भी कि उसके इस कथन के साथ उसकी भी हँसी फूट पड़ेगी। लेकिन उसका  चेहरा ऐसा हो आया, जैसे अचानक किसी अदृश्य शक्ति ने उसके भीतर की सारी हँसी एकाएक छीन ली हो! उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सविता ने उसकी इस अनपेक्षित मुद्रा को देखकर जैसे पूछना चाहा कि उसे एकाएक यह क्या हो गया?

उसे लगा, वह बहुप्रतीक्षित घड़ी आ गई है – जब उसे फलाँग लगानी है। एक दीवार के पार। फिर वह गिर कर इस पार रह जाए या उस पार चला जाए। उसने एक लम्बी साँस ली, फिर सविता की आँखों में सीधी आँखे डाल कर देखते हुए बोला, ‘सविता‘ उसने जब सविता सम्बोधन किया तो लगा, जैसे फेफड़े में भरी सारी साँस ही इस एक सम्बोधन में डाल दी हो। फिर आगे बोलने के लिए दूसरी साँस लेते हुए कहा, -‘‘मैंने अपने नाम के पीछे शर्मा ऐसे ही नहीं लगाया बल्कि कोर्ट में एफिडेविट देकर लगाया है।‘‘

-‘‘क्या मतलब ?‘‘ सविता की आँखों में अचरज था।
-‘‘ऐसा इसलिए, सविता कि भंळई मोहल्ले में पैदा होने से जो सरनेम मुझसे चिपक गया था, मैं उससे तंग आ चुका था। उसने मेरा जीना मुहाल कर दिया था, इसलिए मैंने उसे अपने से नोच कर कोर्ट के पास बहते नाले में फेंक दिया। मैं तुम्हारे गाँव के मंगत भंळई का लड़का किसन्या हूँ।‘‘ कहते-कहते उसके स्वर की तल्खी धीरे-धीरे मुलायम हो कर दुःख के पास ठहर गई। इस बीच छोटे-छोटे पलों में एक घमासान गुजर गया। आकाश को छूता एक बवंडर निकल गया और वे दोनों उसके गुजर चुकने के बाद के सन्नाटे में बैठे हैं – धूल और मिट्टी से सने।

-‘‘सुनो किशन! ‘‘सम्भवतः वह पहली बार उसका नाम ले कर बोली, -‘‘तुम अपने पुराने सरनेम के साथ या यूँ कहें, अपनी आरिजिनल आइडेंटिटी के साथ प्रतिष्ठा हासिल करो। बार-बार वहीं जा कर पहचान क्यों तलाश करते हो, जो इन सारी स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं।‘‘ कहकर वह कुछ पल रुकी और उसकी ओर देखने लगी थी। फिर सविता ने अपना हाथ बढ़ा कर उसके हाथ पर हाथ रख दिया और बहुत कोमल स्वर में बोली, -‘‘यह छल है। मेरे साथ नहीं। खुद अपने साथ भी। कम-से-कम तुम्हें तो ऐसी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का शिकार नहीं बनना चाहिए।‘‘

वह कुछ नहीं बोला था। खाना वह समाप्त कर चुका था। और पेपर-नैपकिन से हाथ पोंछ रहा था। वह पहले ही खाना खत्म करके, कुर्सी से टेक लगाए उसे देख रही थी।
कुछ देर तक वह सोचती रही और फिर इतना बोली, -‘‘खैर! छोड़ो।‘‘ इसके बाद उसने पर्स से कुछ नोट निकाले और लापरवाही से उस प्लेट में डाल दिए जिसे बिल के साथ वेटर अभी कुछ देर पहले रख गया था।
वह कुर्सी खींच कर उठ गई। दोनों चुपचाप होटल से बाहर आ गए।
इसके बाद पूरे रास्ते वह चुप रही। वह भी कुछ बोल नहीं पाया।

इसके बाद वह कई दिनों तक उससे नहीं मिली। आखिर उसी ने हिम्मत करके सविता को अंग्रेजी में एक पत्र लिखा। उसी पत्र में उसने संकोच के साथ प्रेम निवेदन की पंक्तियाँ लिखीं तो तत्काल उसे थोड़ा भय लगा। अपने भय को सांत्वना देने के लिए उसने पत्र में यह भी जोड़ दिया कि कोई भूल या गलती हुई हो तो क्षमा चाहता हूँ।

बहुत दिनों तक वह पत्र के जवाब का इंतजार करता रहा। कोई जवाब नहीं आया। क्लास में भी कोई बात नहीं हो पाई। खुद उसकी हिम्मत नहीं हुई बात करने की। आखिर एक दिन वह केंटीन में आई और उसे एक लिफाफा थमा कर चली गई। उसने जल्दी से लिफाफा खोला। लिखा था, ‘पत्र पढ़ कर अच्छा लगा। लेकिन यह बात खुद भी कह सकते थे और गलती तो कोई पत्र में है नहीं। ग्रामर की कुछेक गलतियाँ हैं। अगली बार ठीक कर लेना।‘ अपने स्वभाव के चलते पहले तो उसे यह बात थोड़ी बुरी लगी कि पत्र में ग्रामर की गलतियों का उल्लेख किया गया। लेकिन अगली मुलाकात के बाद यह दुःख जाता रहा।

इसके बाद मुलाकातें बढ़ती गयीं। एम.ए. करके वह घर वापस आ गया था। सविता भी गाँव वापस आ गई थी। फिर गाँव में भी मुलाकातें होने लगीं। केशव को तो उसने पहले ही बता दिया था। केशव की याद आते ही जैसे वह अतीत से बाहर आ गया।
केशव ने तार क्यों नहीं भेजा ?

गाँव में केशव उसका सबसे करीबी दोस्त है। गाँव में वही दोस्त बचा है। शेष तो इधर-उधर नौकरी की तलाश में निकल गए हैं। केशव नाम गाँव के स्कूल के गुरु जी ने रखा था। लेकिन वह नाम घर और मुहल्ले में कोई नहीं बोल पाया इसलिए जैसा आम होता है, नाम को जुबान पर आसानी से चढ़ाने के लिऐ केशव से केसू और केस्या कर दिया। लेकिन वह हमेशा उसे केशव नाम से पुकारता है।

उसका बिगड़ा नाम उसने कम ही पुकारा। इस तरह उसने यह जता दिया कि उसे भी किशन कह कर बुलाया जाए। किसन्या या किसनू उसे पसन्द नहीं है। अब बहुत कम लोग उसे केशव के नाम से पुकारते हैं। केशव की याद आते ही उसे  फिर याद आया कि केशव ने उसे खबर क्यों नहीं दी ?
वह उठा और कमीज उतार कर कुर्सी पर डाल दी। एक डावाँडोल मेज पर रखे गैस-चूल्हे पर उसने चाय बनाई और प्याला ले कर बन्द खिड़की के सामने बैठ गया। खिड़की उसने जान-बूझ कर नहीं खोली। खिड़की खुलते ही उसे गली से गुजरते हुए किसी-न-किसी व्यक्ति से निरर्थक बातचीत में शामिल होना पड़ेगा।

उसने चाय का घूँट गले से नीचे उतारा तो जैसे घूँट का सहारा लेकर वह उदासी के इस ठंडेपन से बच निकला। इसका मतलब है कि डोकरी अभी जिन्दा है! गाँव से चलते हुए उसने केशव से कह दिया था कि सविता की दादी के मरने की खबर उसे तुरन्त करना। फोन करके। तार भेज कर। दोनों माध्यम से। सविता की बीमार दादी को देखने और मिलने के लिए वह उसके घर चाहकर भी नहीं जा पाया था। एक बूढ़ी बीमार औरत से मिलने या हालचाल जानने के लिए गाँव की औरतें जाती हैं। बूढ़े मर्द जाते हैं। उसकी उम्र के युवकों की वहाँ एक बार की उपस्थिति भी थोड़ा खलने वाली बात थी, खासकर उसकी जाति के लोग तो नहीं जाते हैं।

सविता के छोटे भाई से उसकी मामूली-सी जान-पहचान है। जो किसी गली के कोने पर मिलने पर, कब आए ? कब तक हो? से आगे नहीं जाती थी। इस तिनके के बराबर दोस्ती के सहारे उस घर कैसे जाया जा सकता है ?
वह प्याले को मेज पर रख कर, मेज का कोना खुरचने लगा। फिर उसे लगा कि यह आदत उसे सविता से मिली है। वह भी बात करते हुए इसी तरह गोबर लीपी हुई दीवार को लकड़ी के टुकड़े से खुरचती रहती है। उसके जाने के बाद केशव की माँ देर तक बड़बड़ाती रहती कि इतनी मेहनत से उसने दीवार लीप कर तैयार की थी और यह छोरी खुरच कर चली गई।

केशव के पिता गाँव के इकलौते दर्जी हैं। इसी बलिराम दर्जी के पास गाँव की औरतों के पोलके, ठंड के दिनों की पूरी आस्तीन की बंडी, मर्दों के कमीज और जेब वाली बनियान से लेकर बच्चों के कुरते-पाजामें तक सिलते हैं। बलि काका के यहाँ सविता अपनी दादी और माँ के पोलके और बंडी सिलवाने या उधड़ी सिलाई ठीक कराने आती रहती है। वही घर उनके मिलने और बात करने का ठिया है। आगे के कमरे में काका सिलाई करते हैं। पिछले कमरे के बाद खपरैल की ढलवाँ छत एक ओर दीवार पर टिकी है तथा खुले हिस्से की तरफ कोई दीवार नहीं है। सिर्फ लकड़ी के खम्भों पर टिकी है। यानी दीवार न होने से उस तरफ खुला हिस्सा है और बरसात के दिनों में पानी की आछट भीतर उस ढलवाँ छत के नीचे तक आती है। वहीं कोने में उनका चूल्हा जलता है उसके बाद खुली जगह है जिसे मिट्टी की दीवार से घेर कर सुरक्षित कर दिया हे। एक बड़े आँगन जैसा, इसी घर से सटा हुआ, इसी ढंग से बना हुआ बाजू में उसका मकान था। दोनों मकानों के पिछले खुले हिस्से में, बीच में मिट्टी की एक कामन दीवार है। उसी दीवार में एक आल्या यानी ताक था, जिसकी मिट्टी सविता ने खुरच दी थी। और आल्या तोड़ कर दीवार में आर-पार बड़ा सुराख कर दिया था। यह कहते हुए कि बात करते हुए कम से कम चेहरा तो दिखता रहे। वह आगे के कमरे में काका को कपड़े थमा देती और काकी से बात करने के बहाने पीछे आ जाती। काकी से बातें करते हुए वह बीच-बीच में उससे भी बात कर लेती। वह दीवार के दूसरी तरफ खड़ा रहता। और फिर कुछ देर बाद काकी सिर्फ चूल्हा फूँकते रह जाती और बहुत स्वाभाविक ढंग से बातचीत उसके और सविता के बीच होने लगती और काकी को पता भी नहीं लगता कि स्वाभाविकता बहुत श्रम से पैदा हुई है। और वह अनजाने में नहीं बल्कि यत्नपूर्वक वार्तालाप से बाहर कर दी गई है।

एक दीवार के दोनों तरफ खड़े होकर दोनों बातें करते। कुछ दिनों बाद यह स्थिति असुविधाजनक हो गई। बावजूद आल्या तोड़ देने से। यह मुश्किल आसान हुई बरसात में जब दीवार का कुछ हिस्सा गिर पड़ा। दीवार फिर से बनाने के लिए पीली पाँढर मिट्टी की जरूरत थी। काकी ने कई बार कोशिश की कि गाँव के बाहर आम-बैड़ी से मिट्टी ले आए लेकिन केशव ने हर बार यह कह कर रोक दिया कि मैं ले आऊँगा। लेकिन वह खुद कभी लाया नहीं, माँ को लाने दिया नहीं। बस इस नाटी दीवार पर सविता कुहनियाँ टिकाए बात करती है या फिर कभी-कभी मौज में आकर उछल कर दीवार पर बैठ भी जाती है। हालाँकि इस दीवार के टूटने के बाद उसका घर नंगा हो गया था। इस सुविधा के बावजूद कि दोनों अब बहुत करीब खड़े हो कर, एक-दूसरे को देखते हुए बातें कर सकते हैं, उसे यह संकोच और शर्म बनी रहती थी कि वह उसके घर की असलियत देख रही है। पिछवाड़े बाँस पर फटी हुई गोदडि़याँ टँगी रहतीं, कभी-कभी गोदडि़यों को धो कर बाँस पर डाल दिया जाता जिनमें से पानी टपकता रहता और तेज दुर्गन्ध खुले पिछवाड़े में फैलती रहती। उसको लगता जैसे उसका बाप मरे हुए जानवरों की खाल खींच कर लाया है वह चमार कुंड में डालने के बजाए घर लाकर बाँस पर लटका दी है जिसमें से पानी टपक रहा है और दुर्गन्ध चारों तरफ न फैलकर खास उस दीवार की तरफ फैलती है जहाँ वह खड़ा हो कर सविता से बातें करता है। मरे हुए जानवर की खाल-सी उन गीली गोदडि़यों की दुर्गन्ध सचमुच इतनी तेज रहती कि जिसे दबाने में सविता पर छिड़का हुआ वह आयातित परफ्यूम भी नाकाम रहता जो निश्चित ही उसका डिप्टी-कलेक्टर भाई भेजता है। उसको तो संदेह है कि वह परफ्यूम का इस्तेमाल इसी दुर्गन्ध के कारण करती है। उससे मिलने यहाँ आती तब विशेष रूप से परफ्यूम स्प्रे करके आती है। वर्ना और मौकों पर परफ्यूम इस्तेमाल क्यों नहीं करती है ? यह बात अलादी है कि उसने खुद से यह कभी नहीं पूछा कि इस गाँव में और किस अवसर पर वह सविता के साथ था ?

वह मरे हुए जानवरों की खाल खींचने की छुरी भी सविता के आने पर भीतर कमरे में रख आता, लेकिन इस सम्पूर्ण दृश्य के स्क्रीन पर कोई एक सुराख हो तो वह थेगला लगा दे। यहाँ तो अनगिनत सुराख हैं।
छोटे भाई-बहन जो पिछवाड़े का दरवाजा खोलकर दूसरी ओर के खलिहानों की तरफ टट्टी बैठने नहीं जा पाते हैं, वे पिछवाड़े के इसी हिस्से में टट्टी बैठ लेते हैं। जिसे भाबी घर का सारा काम निबटाने के बाद टीन के पुराने डिब्बे से बने खापरे से निकाल कर फेंक आती है। ऐसी  स्थितियाँ रोज बनती हैं। कभी रात को बच्चा अँधेरे में डर के कारण बाहर खलिहानों की तरफ नहीं जाता। कभी सबसे छोटा भाई जोर से टट्टी लगने पर जल्दी में वहीं बैठ जाता है। काम में व्यस्त भाबी इतना भर करती  कि गूँ के इन ढेरों पर, जिसे झल्लाहट में वह ‘कुयड़ा‘ कहती है, राख डाल देती है। हालाँकि राख डाल देने से टट्टी साफ दिखाई नहीं देती लेकिन राख डालने की इस लोकप्रिय विधि को गाँव में हर कोई जानता है। राख के ऐसे कुयड़े को देख कर कोई भी बेहिचक कह सकता है कि इसके नीचे गूँ का ढेर है।

सविता के आने की सम्भावना पर वह उन कुयड़ों पर घर में रखी बाँस की टोपलियाँ औंधी रख देता। कई बार कुयड़ों की संख्या ज्यादा होती तो वह भाबी की आँख बचा कर खापरे से गूँ के कुयड़े साफ करके पीछे फेंक आता। भाबी देख लेती तो निश्चय ही उसे अचरज होता कि उसे यह सब करने की क्या जरूरत है ? किस बात की चिन्ता है और किस बात की लाज ? और किससे ? फिर क्या बताता वह ?

दीवार से टिक कर वह सविता से बात करता तब भी उसे हमेशा इस बात का अंदेशा रहता कि सविता दीवार के पार ये औंधी पड़ी टोपलियों को न देखे, जो कि नामुमकिन था। लेकिन ऐसा अवसर एक बार भी नहीं आया कि उसने इस औंधी पड़ी टोपलियों के बारे में कुछ पूछा हो। वह बात करते हुए जरूर इस चिन्ता में रहता कि सविता बस अब अचरज प्रकट करके पूछने ही वाली है। उसका आधा ध्यान सविता पर रहता तो आधा ध्यान टोपलियों के नीचे गूँ के कुयड़ों पर। इसी भटकाव में वह कई बार सविता की ड्रेस या बुंदे या चूडि़यों की तारीफ करना भूल जाता। जब वह खुद कहकर इस तरफ ध्यान आकर्षित करती तो वह शर्मिन्दा हो जाता है और जरूरत से ज्यादा तारीफ पर उतावला हो जाता। शुरू में तो वह सविता के आने से पहले ही पिछवाड़े में पड़ी ऐसी तमाम आपत्तिजनक और शर्म देने वाली चीजें और सामान हटा देता था लेकिन ऐसा वह बार-बार नहीं कर पाया उसने फिर भाबी के लुगड़े का पर्दा बना कर दीवार के पास टाँग दिया जिसे हटाकर वह तो दीवार के पास आ जाता लेकिन सविता पर्दे के पार नहीं देख पाती है अलबत्ता केशव को यह नागवार गुजरा था। उसने कहा भी कि अकेले इस दीवार के गिरने से काम नहीं चलेगा। एक दीवार जो तेरे भीतर है, जिसे इस लुगड़े के पर्दे से ढाँक रहा  है, गिरना चाहिए। बात सच थी इसलिए आसानी से अमल में नहीं लाई जा सकती थी। वह टाल गया। अब होता यह कि दीवार के दूसरी तरफ सविता, इस तरफ वह खुद और उसके पीछे परदा। लेकिन मिलने का यह अवसर कभी-कभार ही आता था। अब कोई रोज-रोज तो सविता की माँ या दादी पोलके या बंडी सिलवाती नहीं थी। पोलके या बंडी की सिलाई उधड़ती भी कम ही थी, जो उधड़ती उसमें भी सविता का कौशल शामिल रहता था।

इसी बीच उसकी नौकरी लग गई। नौकरी यानी कृषि विभाग में मामूली सी क्लर्की। घर में तो ऐसी खुशी समाई कि उसे भाबी-भाय जी की इस खुशी की रक्षा के लिए ही नौकरी पर जाना जरूरी लगा। फिर नौकरी के लिए कोई ज्यादा दूर भी नहीं जाना था। गाँव से मुश्किल से चार घंटे की यात्रा थी। सविता की स्मृतियाँ, थोड़ा-सा सामान और कपड़े-लत्ते एक पुराने बैग में भर कर वह शहर आ गया। शहर आने से पहले वह सविता को  मिला था। वह दीवार के दूसरी तरफ खड़ी चुपचाप अपने हेयर-क्लिप से गोबर लीपी दीवार को खुरच रही थी। वह उदास थी। उसने उसे समझाया कि वह कोई ज्यादा दूर नहीं जा रहा है। अकसर गाँव आता रहेगा। सविता ने चुपचाप गरदन हिलाई। फिर वह धीरे-धीरे बोलने लगी। तब उसे मालूम हुआ कि सविता की उदासी की वजह सिर्फ उसका शहर जाना ही नहीं है। वह इसलिए भी उदास है कि उसकी दादी बीमार है और उसे बीमार दादी को छोड़ कर भाई के पास भोपाल जाना है। पी.एस.सी. की तैयारी के लिए कोचिंग-क्लास में एडमिशन ले लिया है। उसकी जाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी लेकिन परिवार का और खासकर डिप्टी-कलेक्टर भाई का दबाव था। उसे जाना पड़ेगा। वह जाने की बात पर फिर उदास हो गई। उसे अचरज हुआ! अस्सी बरस की बीमार स्त्री से इतनी मोह-माया कि रोने की हद तक उदास है। उसके शहर जाने की या उसके दूर जाने के दुःख को भी इस दुःख ने पीछे धकेल दिया। उसका अचरज भी स्वाभाविक था। गाँव में इस उम्र के बीमार का  लोग इलाज नहीं कराते हैं, उसके हाथों दान-पुण्य शुरू करा देते हैं। गाँव में इस उम्र के बीमार व्यक्ति का उपचार पैसों का अपव्यय माना जाता है। ऐसे बीमार के लिए कोई दुःखी नहीं होता है। गरीब हुआ तो चिन्तित हो जाएगा। कि तेरहवीं की पंगत के लिए पैसों का इंतजाम करना है और सम्पन्न हुआ तेा खुश हो जाता है कि पूरे गाँव को जिमा कर धाक जमाने का अवसर आया। फिर भी उसने अपना अचरज प्रकट नहीं किया। सविता ही बताने लगी कि उसे सबसे ज्यादा लाड़-प्यार दादी से ही मिला है। यूँ समझो कि माँ ने नहीं, दादी ने पाल-पोस कर बड़ा किया है। फिर वह दादी की बारे में बोलती रही, बताती रही। वह कुढ़ता रहा। कल उसे शहर जाना है और यह दादी-पुराण लेकर बैठी है। उसे दादी से  ईर्ष्या होने लगी। ऐसे नाजुक समय में यह बीमार बुढि़या उनके बीच आ गई थी। उसकी खिन्नता से बेखबर वह फिर दीवार खुरचने लगी थी।

शहर लौटते समय उसने बस-स्टैंड पर केशव से कहा था कि सविता की दादी के मरने की खबर उसे तुरन्त करना। दादी के मरते ही वह भोपाल से हर-हालत में वापस आएगी। वह इस बार बात का कोई निकाल लगाना चाहता है। सविता वापस भोपाल चली गई तो मुश्किल हो जाएगी और दीवार फिर ऊँची मत बनाना। वह गाँव से इतनी दूर नहीं जा रहा है कि दीवार फिर से ऊँची कर देने का कारण समझ में आने लगे। ऐसा कहकर वो हँसने लगा था। वह जानता था कि उसके सविता से मिलने-जुलने को लेकर केशव कोई खास खुश नहीं है। हालाँकि केशव ने कभी अपना एतराज जाहिर भी नहीं किया लेकिन वह उसकी चुप्पी में छुपा एतराज समझता है। वह कभी भी इस चर्चा को गम्भीरता की ओर नहीं जाने देता है। उसे मालूम है कि गम्भीरता के रास्ते में केशव को अपने एतराज जाहिर करने के ज्यादा अवसर हैं। वह ऐसा मौका नहीं आने देता था इसलिए आज भी वह इतना कह कर हँसने लगा। उसे लगता है उसकी हँसी चर्चा के गम्भीर रास्ते बन्द कर देती है। जब वह बस पर चढ़ा और बस चलने लगी तो केशव ने उसका हाथ पकड़ कर सिर्फ इतना कहा, -‘‘यह तुम्हारी खुशफहमी है कि हँसी हमेशा तुम्हारी मददगार होगी। मेरे साथ बात करते हुए जो हँसी तुम्हारी मदद करती है, देखना, जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो, वहाँ दुःख के दरवाजे यही हँसी खोलेगी।‘‘

तभी बस चल पड़ी थी। उसने जाहिर किया जैसे आखिरी बात वह सुन नहीं पाया। केशव हँस पड़ा था।
इन तमाम बातों के बावजूद उसको लगता है कि केशव उसे खबर जरूर करेगा। केशव उससे असहमत है, नाराज नहीं। केशव की असहमति में भय शामिल है। इस भय को वह भी समझता है लेकिन याद नहीं रखना चाहता है। भय की गठरी बना कर सिर पर नहीं रखना चाहता है।

उसने उठकर दरवाजे को हल्का-सा खोल दिया जैसे तार या टेलीफोन न आए तो खबर खुद ही हवा पर सवार होकर दरवाजे की सँकरी दरार से भीतर आ जाएगी। उसे मालूम था कि फोन तो केशव गाँव के बनिये की दुकान से कर देगा लेकिन टेलीग्राम के लिए उसे पास के कस्बे में तार-घर तक जाना पड़ेगा।

पास का कस्बा मानपुर कौन दूर है ? चला जाएगा। पैरों में कोई मेहँदी नहीं लगी है कि मिट जाएगी। उसने हल्के से रोष को जगह देकर केशव के उपकार की जगी तंग की। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह किस पर गुस्सा करे ? केशव पर गुस्से की कोई वजह नहीं है। केशव तो तभी खबर करेगा जब दादी मरेगी। अब उसे दादी पर गुस्सा आने लगा। फिर लगा, दादी मृत्यु के आगे विवश है। मृत्यु पर गुस्सा करने पर उसे डर लगने लगा। उसे लगा मृत्यु ब्राह्मणों की तरफदारी करती है। अकारण दादी का समय बढ़ा रहीं है। उसे लगा, जरूर सविता अपनी दादी के लिए प्रार्थना कर रही होगी। बाकी घर के लोग तो दान-पुण्य कर रहे होंगे, प्रार्थना नहीं। दान-पुण्य से मुत्यु आने का रास्ता सुगम होता है। उम्र नहीं बढ़ती है। यह जरूर सविता की प्रार्थना का असर ही है। प्रेम करने वालों की प्रार्थना में असर होता है। इतना निश्छल मन और किसका हो सकता है ? ऐसे ही लोग प्रार्थना को बहुत ऊपर या दूर तक भेजने की ताकत और सहजता रखते हैं।

वह सोच कर आश्वस्त हुआ और फिर पलंग पर जाकर लेट गया। खाना वह रात को बनाएगा। इतने दिनों में उसने घर पर खाना बनाने की व्यवस्था कर ली थी। जबकि वह गाँव से आया था तो सोचा था कि यह नौकरी कोई ज्यादा समय तक नहीं करूँगा। शहर आने में यह बात भी सुविधाजनक लग रही थी कि वह पी.एस.सी. की तैयारी कर लेगा। किसी कोचिंग-क्लास में प्रवेश ले लेगा। इस बरस तो वह फार्म नहीं भर रहा है। लेकिन इस बरस तैयारी करके अगली बार एग्जाम जरूर देगा। उसने तय किया कि यदि वह पी.एस.सी. कर लेता है तो कहीं भी डिप्टी-कलेक्टर हो जाएगा। सविता के बड़े भाई की तरह। केशव तो कई बार उससे मजाक में कह चुका है कि तेरी और सविता के भाई की हेला-आटी सिर्फ इसलिए है कि वह डिप्टी-कलेक्टर है। वह उसकी बात काट देता कि दुश्मनी जैसी कोई बात नहीं है। वह तो सोचता है कि भंळई मोहल्ले से बामण-सेरी तक, यही एक नौकरी उसका हाथ पकड़ कर, बगैर किसी अवरोध के ले जा सकती है। हालाँकि मन के किसी कोने में यह बात थी कि एक भोला भ्रम वह अरसे से पोस रहा है। सविता के भाई की डिप्टी-कलेक्टरी उसे हमेशा आर लगाती है। हमेशा चुनौती देती है। लेकिन इधर जब उसने खाने की व्यवस्था घर पर की तो उसे लगा इससे थोड़ा पैसा जरूर बचेगा लेकिन समय ज्यादा खर्च होगा। लेकिन क्या किया जाए? यदि नौकरी करते हुए थोड़ा पैसा भी घर नहीं भेज पाया तो माँ-बाप दुःखी हो जाएँगे। उसे केशव ने भी याद दिलाया था। मोहल्ले वाले तो ऐसी बात का रास्ता ही देखते हैं। आते-जाते भाबी-भाय जी को टोला मारेंगे। वह कहना चाहता था कि ऐसे उलाहनों और तानों की वह परवाह नहीं करता है। लेकिन वह बोल नहीं पाया। वह जानता है, भाबी-भाय जी परवाह करते हैं और भाबी-भाय जी तो ऐसे खिसाणे पड़ेंगे जैसे गाँव की बीच हतई पर धोती का कस्टा खुल गया हो। इस तरह न चाहते हुए भी वह इस मामूली सी अनचाही नौकरी की व्यस्तता में फँसने लगा है। फिर भी उसके भीतर यह भोली-सी उम्मीद है कि व्यस्तताएँ और परेशानियाँ क्षणिक हैं और वह अपनी तयशुदा राह पर चल देगा। सोच के इस रास्ते में भी जो चिन्ता और तर्क के दरवाजे हैं, वह उस तरफ पीठ करके बैठना चाहता है। वह पलंग पर उठ बैठा और हँसने लगा। हालाँकि केशव यहाँ नहीं है। शायद यह हँसी खुद उसके लिए है।

कमरे में अँधेरा फैला है। इसी अँधेरे में उसकी हँसी घुली हुई है। उसने पलंग पर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ा कर ट्यूब-लाईट जला दी। पलक झपकते ही रोशनी कमरे का अँधेरा निगल गई। साथ ही उसकी हँसी भी। 
वह पलंग से नीचे उतरा और रोटी बनाने के लिए टीन के डिब्बे से आटा निकालने लगा। सुबह लौकी खरीदी थी लेकिन सब्जी बनाने का विचार छोड़ दिया। रोटी को अचार के साथ खा लेने का निर्णय लेकर उसे थोड़ी राहत मिली। अब रात के खाने से वह जल्दी निबट जाएगा। कल तो वह शाम के लिए रोटियाँ सुबह ही बना कर दफ्तर जाएगा ताकि लौटने पर एक काम कम हो जाए।

लेकिन यदि कल दफ्तर में केशव का फोन आ गया तो? फिर तो शाम होने से पहले ही गाँव चल देगा। रोटी यूँ ही रखी रह जाएगी। उसने कल सुबह ज्यादा रोटियाँ बनाने का निर्णय निरस्त कर दिया। खाना खा कर उसने सोचा, चैक तक घूम कर आए। फिर यह विचार भी छोड़ दिया। यदि बाहर जाते ही अभी यहाँ तार आ जाएगा, तब? शहरों में तो शाम को या रात को भी तार वितरित होते हैं। वह वापस कुर्सी पर बैठ गया। रिकामा क्या करें? उसने सोचा, अगले महीने वह किश्तों पर एक रेडियो जरूर ले आएगा। समय कट जाया करेगा। उसने उठ कर दरवाजा बंद किया और सोचा निरात से पलंग पर लेट कर सविता से बात की जाए। अकेले में, सविता की अनुपस्थिति में वह जितनी बातें सविता से कर लेता था कभी सविता के सामने आने पर भी नहीं कर पाता है। ऐसा, गाँव में भी कई बार हुआ है। उससे बातें करते हुए एक किस्म का संकोच हमेशा आड़े आ जाता, जबकि अपने मुहल्ले की लड़कियों से वह बेझिझक बातें कर लेता है। मजाक कर लेता है। उसे लगता है उनके बीच एक अकेली वह मिट्टी की दीवार नहीं है।
     

वह बहुत देर तक सोचता रहा कि नींद ने उसे दबोचा और सपनों में धकेल दिया। जैसा कि वह तय करके सोया था कि सविता के साथ बहुत सारा वक्त गुजारेगा, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने पी.एस.सी. के फार्म भर दिए बल्कि अगले ही पल वह परीक्षा हाल में बैठा है। घबराया-सा। एकाएक होने जा रही परीक्षा में कुछ भी तैयारी करके नही आया है। परीक्षा हाल में चलते हुए पंखों के बावजूद वह पसीने से तर-ब-तर है। परीक्षा हाल में घूमते हुए प्राध्यापक को देख कर वह हतप्रभ रह गया। सविता का डिप्टी-कलेक्टर भाई है। और उसके हाथ में कागजों को रोल किया हुआ पुलिंदा है। फिर उसे एकाएक लगा कि कागजों का रोल नहीं, उसके हाथ में खाल खींचने की छुरी है।

घबराहट में वह उठ बैठा। टेबल के नीचे कोने में मटके से पानी निकाल कर पिया, रस्सी पर टँगे पंचे को खींच कर उसने पसीना पोंछा। सूती, लाल पंचा जब उसने वापस रस्सी पर टाँगा तो उसकी चड्डी-बनियान भी अँधेरे में गाढ़ी परछाई की तरह डोलने लगे। उसने घड़ी देखी। भोर का सपना था।

सुबह जब तैयार हो कर वह दफ्तर जाने लगा तो रात के सपने की थकान उस पर थी। वह ताला लगा कर गली में पलटा तो गुप्ता जी के मकान की ओर देखा। वह दरवाजे पर नजर नहीं आए। वह तेजी से गली पार कर गया। वह अकारण मकान-मालिक को किसी संदेह में नहीं डालना चाहता है। बूढ़ा सनकी है। इस मकान से निकाल देगा तो फिर कहीं किसी और मुहल्ले में जगह खोजनी होगी जो एक मुश्किल काम है। ऐसे व्यस्त समय में वह टाइम खोटी नहीं करना चाहता है। मकान खोजने में जाति को लेकर मकान-मालिक के जिन प्रश्नों से गुजरना पड़ता है वह अलग से एक तनाव झेलने वाला काम है। यह समय अभी ऐसे तनाव को नहीं सौंपना चाहता है। दफ्तर पहुँचकर वह कुर्सी पर बैठ गया। दफ्तर के लोगों से मामूली-सा परिचय हुआ था। उन्हीं से दुआ-सलाम होने लगी। नौकरी पर आए अभी उसे दिन ही कितने हुए हैं ? कोई काम उसे अभी तक बताया नहीं गया है। वह पूरे दिना लगभग फालतू रहता था। आज भी यही उम्मीद कर रहा था लेकिन आज उसकी टेबल पर काम आया। बल्कि उसे काम समझाया गया। बीज के लिए किसानों के जो आवेदन आए थे उसकी समरी बनाने का काम उसे सौंपा गया। वह बहुत रुचि लेकर काम समझने लगा। उसे लगा, फोन के इंतजार और समय काटने के लिए यह काम भी बुरा नहीं है।

शाम हो गई लेकिन फोन नहीं आया। बहुत हताशा के साथ वह उठा और सहकर्मियों से औपचारिक विदाई लेने लगा। तभी पास के कमरे में बैठने वाली लेखापाल मिसेज राय को चलते-चलते जैसे कुछ याद आया। वह ठिठक कर बोली, -‘‘सुबह आपको कोई पूछ रहा था।‘‘

-‘‘कौन ? कब आया था ? आपको कब मिला ?‘‘ उसने आतुरता से कई सवाल किए और मिसेज राव का लगभग रास्ता रोक कर खड़ा हो गया।

-‘‘कोई आया नहीं था, सिर्फ फोन आया था।‘‘ वह अपना हैण्ड-बैग खोल कर रूमाल निकालते हुए बोली।

-‘‘फोन आया था ?‘‘ अचरज और आवेश मं लगभग उसकी चीख निकल गई, -‘‘मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं ? और फिर मैं तो यहीं था। कब आया फोन ?‘‘ वह अपने पर नियंत्रण रखने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला।

-‘‘भई, फोन सुबह आया था। लगभग दस बजे। आप आए नहीं थे। फिर मैं भूल गई।‘‘ वह आवेश में थर-थर काँपती हुई उसकी देह को अचरज से देखते हुए बोली, -‘‘और फिर फोन करने वाले ने सिर्फ आपका नाम पूछा। यह सुनते ही कि आप नहीं आए फोन रख दिया।‘‘ मिसेज राव ने सफाई-सी दी।

‘थारी गोर खोदूँ! तुख सपाटो आव ऽ! थारी माय ख बैड़ी प का वांदरा लइ जाय, रांड!‘ वह गुस्से में मन-ही-मन अपने गाँव की और खासकर अपने मुहल्ले की झगड़ालू औरतों की भाँति गालियाँ देने लगा। फिर कुढ़ते-कलपते हुए छुट्टी की अर्जी लिख कर दी और घर की ओर चल दिया। गुस्सा केशव पर भी कम नहीं आ रहा है। स्साला…… दर्जी…….! दो रूपट्टी ले कर कोई सामने खड़ा हो गया होगा तो उसका पेंट या पजामा रफू करने रुक गया होगा। मेरी ‘तयमल‘ को, मेरे धीरज को स्साला दो रूपए की सिलाई करने के वास्ते उधेड़ कर रख देगा। इसी ‘माजने‘ का है। वर्ना क्या दुबारा फोन नहीं कर सकता था। गुस्से का रेला केशव की तरफ रलकने लगा। सबह फोन मिल जाता तो छुट्टी लेकर उसी समय गाँव चल देता। अब यदि घर जा कर बैग तैयार करके बस-स्टैण्ड जाऊँगा तब तक आखिरी बस भी निकल चुकी होगी। फिर भी वह तेज-तेज कदमों से, लगभग दौड़ते हुए घर पहुँचा। ताला खोल कर घर में दाखिल हुआ ही था कि मकान-मालिक पुकार लगाता हुआ आया कि ‘‘तुम्हारा तार आया है।‘‘ वह बैग तलाश करके अपने कपड़े उसमें रखने ही वाला था तार का नाम सुन कर ठिठक गया। अब उसे पक्का यकीन हो गया कि बात वहीं है। सुबह भी फोन निश्चय ही केशव ने किया होगा और कोई तो तार करने से रहा। और किस बात के लिए ? नाते-रिश्तेदारों में तो मरने के बाद तार करने की सजगता और आधुनिकता आई नहीं है और फिर खबर करेंगे भी तो वहाँ गाँव में करेंगे। यहाँ कोई खबर नहीं करेगा। अनसुने फोन के बावजूद उसकी खुशी के पंख कटे नहीं थे। वह पलट कर दरवाजे तक आ गया। उसने देखा मकान मालिक के चेहरे पर आज कोई मुस्कान नहीं है।

-‘‘तुम्हारा तार है! कोई मर गया है।‘‘ कहते हुए बूढ़ा इस उम्मीद में खड़ा रह गया कि अभी इस रो देने वाले लड़के को सांत्वना और बुजुर्ग दिलासे की जरूरत पड़ेगी। हाथ में तार लेने के बाद उसने तार पढ़ा। ‘शी इज नो मोर‘ बस इतना लिखा था। जो उसके लिए पर्याप्त है। न चाहते हुए भी उसके रोम-रोम से प्रसन्नता के फव्वारे छूटना चाहते हैं जिसे वह जबरन दबा रहा है और इस नाकाम कोशिश में खुशी रिस-रिस कर उसकी आँखों से बाहर आ रही है। चेहरे पर खुशी दबाने के बावजूद मुस्कान बार-बार फिसल कर चेहरे पर फैल रही है। बूढ़ा अचरज से उसे देख रहा है। उसने जल्दी से बूढ़े को विदा किया वर्ना उसे लगा कि वह अभी खुशी के मारे घर में नाचने लगेगा और बूढ़ा मुहल्ले में तरह-तरह की बातें करेगा।

उसने जल्दी-जल्दी कपड़े समेटे और बैग तैयार करके बस स्टैण्ड तक लगभग दौड़ता आया। जैसे कि उसे शक था। बस निकल चुकी थी। वह थके कदमों से वापस घर आया। ताला खोल कर भीतर आया और बैग कुर्सी पर रख कर पलंग पर बैठ गया। अब इत्मीनान से बैठने पर जब उसने सोचा तो उसे उपनी खुशी पर लज्जा भी आई। वह मृत्यु पर प्रसन्नता प्रकट कर रहा है। उसने सिर झुका लिया। हालाँकि यहाँ इस शर्म को कौन देखने वाला है ? फिर उसने खुद को समझाया कि बूढ़े-आड़े की मौत का क्या शोक ? बुढि़या बहुत बीमार थी। तकलीफ से छुटकारा मिला। सविता के पिता दीनानाथ शास्त्री खुद भी गाँव में किसी की मौत पर घर तक बैठने जाते हैं तो इसी तरह समझाते हैं। मृत्यु तो एक तरह से छुटकारा है। पुरानी और जर्जर देह से। पुराना और जर्जर मकान छोड़ने जैसा। हम लोग इधर शोक मना रहे हैं, उधर आत्मा नया चोला धारण कर रही है। आत्मा पुराना चोला छोड़ कर, नया चोला धारण करती है। यह तो जैसे कायान्तरण है। तुम व्यर्थ शोक मना रहे हो। आत्मा को देह छोड़ते हुए कोई शोक नहीं था। इतनी उमर तो नसीब वालों को मिलती है। ईश्वर का आभार मानो, भरा -पूरा परिवार, नाती-पोते छोड़कर गया, जाने वाला….. वगैरह…. वगैरह जाने कितनी बातें होती है, समझाने के लिए। बामणदाजी दीनानाथ शास्त्री तो इसके सिद्धहस्त हैं। हालाँकि गिने-चुने घर हैं जहाँ बामणदाजी जाते हैं। कुछेक अहीरों, और कुछेक राजपूतों के घर जाते हैं। बाकी छोटी जात के किसानों के घर इस तरह गमी में या कथा-पूजा के लिए उनका बेटा हरिप्रसाद जाता है। चमार टोले और भंळई मुहल्ले की तरफ तो मुँह कर के बामणदाजी पानी भी नहीं पीते हैं। भंळई लोगों का तो खैर अलग से पंडित है लेकिन चमार टोले में भी बामणदाजी अपने लड़के को पूजा-पाठ के लिए नहीं भेजते हैं। चमार अपने आप को भंळई से ऊपर समझते हैं इसलिए वे भंळई लोगों के पंडित को नहीं बुलाते हैं।

चमार टोले में बामणदाजी के छोटे भाई जो कुछेक साल पहले ही बामणदाजी से जमीन-जायदाद में हिस्सा लेकर अलग हो गए थे, पूजा-पाठ के लिए आते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे कोई चमारों को अपने सामने पाट पर बैठ कर पूजा करने देते हैं या कराते हैं। पहले किसी सवर्ण मजदूर को भेज कर एक कमरे को गोबर से लिपाते हैं। फिर दूर एक कोने में चमार दम्पत्ति नहा धो कर बैठ जाता है। चमार दम्पत्ति अपने सामने पलास के पत्तों का दोना रख लेता है। और ताम्बे के एक लोटे में पानी और पूजा का सामान। दूर दूसरे कोने में बामणदाजी के छोटे भाई पंडित सिरजू महाराज बैठते हैं। वे साथ में अपने छोटे बेटे को लाते हैं जो ठीक उनके सामने बैठ कर पूजा की विधि पूरी करता है। यानी परात में रखे गणेश जी पर जल चढ़ाना हो या कुंकू-चावल चढ़ाना हो, चमार दम्पत्ति की ओर से सिरजू महाराज का बेटा जल चढ़ाता है या कुंकू-चावल चढ़ाता है। दूर कोने में बैठे चमार दम्पत्ति हाथ जोड़ लेते या फिर अपने सामने दोने में जल चढ़ाने की विधि दोहराते हैं। चमार दम्पत्ति न तो महाराज जी को छू सकता है और न ही पास में फटक सकता है। पूजा में जो सिक्कों की चढ़ोत्री रहती है उसे भी सिरजू महाराज अलग रखते है। और गंगा जल से धो कर घर लाते हैं। इस तरह चमार दम्पति की इस पूजा की विधि में सिर्फ दर्शक की-सी उपस्थिति रहती या फिर दूर कोने में बैठकर सिरजू महाराज के लड़के द्वारा की जा रही पूजा विधि को सामने रखे दोने में दोहराते रहने का काम रहता है। वे इसी में प्रसन्न रहते हैं। वे इसी को पूजा-पाठ मानते हैं। न तो भगवान को छू कर पूजा कर पाते हैं और पंडित को छूना तो दूर, सामने भी नहीं बैठ सकते हैं। ऐसा हर चमार को करना होता है। क्योंकि यही उसके भाग्य में लिखा है। ‘पूरबला जनम‘ के पाप हैं जो उसे इस तरह दिन देखने पड़ रहे हैं। ऐसा उसे पंडित जी समझाते हैं। उनके बाप-दादों को भी यही समझाया था। ऐसा बरसों से होता आया है। आज भी हो रहा है। भंळई लोगों के भाग तो अभी चमारों जैसे भी नहीं जागे हैं। उनके घर तो कोई ब्राह्मण इस तरह दूर बैठ कर पूजा कराने नहीं आता है। सोचता हुआ वह आटे से भरे टीन के कंसरे पर रखी इतिहास की किताब को उठा कर उस पर लगा आटा झाड़ने लगा। यह किताब वह पी.एस.सी. की तैयारी के लिए लाया है। एक बार गाँव से वापस आ जाऊँ फिर पढ़ाई की तैयारी जोरों से करूँगा। ऐसा सोचते हुए किताब उसने वापस कंसरे पर पटक दी। अब उसका अपराध-बोध थोड़ा कम हुआ। अपनी प्रसन्नता के पक्ष में तर्क और निरर्थक स्मृतियाँ जुटा कर उसके मन का संकोच थोड़ा जाता रहा।

अब कठिन काम है, रात बिताना। वह जानता है, कितनी भी कोशिश कर ले रात को नींद नहीं आएगी। एक बार तो उसका मन हुआ कोने की कलाली से थोड़ी शराब ले आए। नींद जल्दी आ जाएगी। फिर सोचा यदि नशे में सुबह नींद जल्दी न खुली तो ? उसने मदिरापान का विचार त्याग दिया। सुबह तो हर हाल में उसे पहली बस पकड़नी है।

उसे खुद याद नहीं रहा कि रात कितनी देर तक वह कमरे के चक्कर काटता रहा फिर सोया! सुबह नींद बस के जाने से काफी पहले खुली। तैयार हो कर वह बस-स्टैण्ड पहुँचा तो देखा, बस अब उसकी आँखों के सामने है। इतनी सुबह भी बस-स्टैण्ड पर दुकानें खुल गई हैं। खासकर चाय की दुकानें। अलसाए और उनींदे से मैले-कुचैले लड़के चाय के भगोने धो रहे हैं। कोने की गैस-भट्टी पर सफेद बालों वाला बूढ़ा चाय उबाल रहा है। दो कुत्ते पास ही मँडरा रहे हैं। एक सफेद कुरता-पाजामे वाला आदमी छींट के कपड़े का झोला टाँगे बेंच पर बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा है। एक किसान ढीली-सी पगड़ी बाँधे बूढ़े को भट्टी पर चाय का पतीला हिलाते हुए देख रहा है। वह शायद चाय पी चुका है। तभी बस ने हार्न दिया। सुबह की खामोशी मं हार्न इतनी तेज आवाज में बजा कि अलसाया-सा कुत्ता और ढीली पगड़ी वाला किसान एक साथ चौंक गए। किसान धीरे से उठ खड़ा हुआ।

जिस समय वह गाँव जाने वाली सड़क पर बस से उतरा तो मुश्किल से दस बजे थे। बस चली गई तब उसने गाँव जाने वाली सड़क पर नजर डाली। दूर एक बैलगाड़ी जा रही है। बस से इस जगह उतरने वाला वह अकेला था। चुपचाप रास्ते पर उतर गया। थोड़ी दूर जाने पर देखा, आम के पेड़ के नीचे, चरवाहे ताश खेल रहे हैं। वह ठिठक कर देखने लगा। वे खेल में मस्त हैं। उसने देखा पैसे किसी के पास नहीं हैं। वे लोग बगैर पैसे के ताश खेल रहे हैं। वह तुरन्त आगे बढ़ गया। उसे मालूम है बगैर रुपए-पैसे के खेल में हारने वालों को खड़ा करके बाकी जीतने वाले तीन-चार बार जोर से भंळई….भंळई….भंळई…. कहते हैं। यह खेल वह बचपन से देख रहा है। हारने वाला भी जानता है कि भंळई कह भर देने से उसकी जात नहीं बदलेगी। लेकिन कोई ऐसा न कह पाए इस कारण सभी जी-जान से जीत के लिए खेलते हैं। बेईमानी तक करते हैं। हार-जीत के लिए लड़ाई-झगड़े तक होते हैं कि कोई उसको भंळई न बोल पाए। कितनी अजीब बात थी कि हारने वाला इस सम्बोधन के अपमान को रुपए-पैसे की हार से भी बड़ा मानता है। एक जाति का सम्बोधन हारने वाले के लिए एक बड़ी सजा की तरह है।

गाँव के करीब जब वह तलाव-बैड़ी से नीचे उतर रहा था उसने देखा, तालाब का पानी बिल्कुल सूख गया है।  बैड़ी से नीचे उतरते ही गाँव के बाहर फैले टपरे शुरू हो जाते हैं। यहाँ से गाँव के लिए दो रास्ते हैं। बाईं ओर के अर्धवृत्ताकार  रास्ते से पहले आदिवासियों के कुछ टपरे पड़ते हैं फिर राजपूतों के मकान हैं। फिर वही रास्ता दाईं ओर पलटता है। तो बामण-सेरी आ जाती है। आगे जाने पर हतई और फिर मंदिर के पास गाँव का दूसरा सिरा जहाँ नाले के पास पनघटिया कुआँ है। इसी तरह दाईं ओर से जाने पर सबसे पहले भंळई मुहल्ला फिर चमार मुहल्ला फिर काछियों के मकान। कुछ अहीरों के और बाईं ओर घूमते ही फिर बामण-सेरी आ जाती है। बामण-सेरी की ओर न पलटते हुए दाईं ओर चले जाओ तो फिर वही हतई वाला रास्ता मिल जाता है।

ठीक इसी जगह पर जहाँ से दो रास्ते अलग होते हैं। गाँव के इस किनारे पर एक कुआँ है। जो गाँव में किसी समय रहने वाले महाजन परिवार का था। जिनका खंडहर हो रहा मकान अभी भी है, जिसमें कुत्ते और सूअरों ने अस्थाई निवास बना लिया है। इस कुएँ में कभी पानी था जो राजपूतों के काम आता था। हालाँकि भंळई मुहल्ले के ज्यादा नजदीक था लेकिन महाजनों के कुएँ में तो वे मरने की इच्छा के लए भी नहीं झाँक सकते थे। इसलिए बाईं ओर से फिर राजपूतों के लिए स्वतः ही उपयोगी हो गया। अब तो पिछले दो बरसों से सूखे ने इस कुएँ पर कब्जा जमा रखा है।

पहले तो उसने सोचा कि बाईं ओर वाले रास्ते से चला जाए जहाँ से बामण-सेरी होता हुआ आखिर में उसका मुहल्ला आ जाएगा। लेकिन उधर से जाने में एतराज उठेगा। ब्राह्मणों को ही नहीं, बाकी गाँव वालों को भी एतराज होगा कि बिना कारण भंळई का छोरा बामण-सेरी से क्यों निकला ? कोई भी बामण दो बात सुना कर माजना उतार देगा और एक बार इज्जत गई तो जिंदगी भर गाँव में ऐसी किसी घटना पर लोग उसी का उदाहरण देंगे। मन मार कर वह दूसरे रास्ते से घर की ओर चल दिया।

भाबी घर के छान की झाड़ू निकाल रही है। भायजी घर नहीं है। चार छोटे भाई-बहन भाबी के आस-पास दौड़ रहे हैं। उसने भाबी का उघड़ा पेट देखा। उभरा हुआ है। उसका मन गुस्से और शर्म से भर गया। उसके बाप को और कोई काम नहीं जैसे। जब चाहे चढ़ बैठता है। भाबी तो जैसे कुत्ते, बिल्लियों की तरह बच्चे पैदा कर रही है। और एक भाई, एक बहन अभी घर में है। बल्कि कहें भाबी की गोद में ही है। स्साला बच्चा गोद से नीचे उतरा नहीं कि अगला बच्चा गोद में तैयार। कैसी औरत है यह ? कंडे थापने और बच्चे पैदा करने में कोई फर्क नहीं समझती है। फिर असली दुश्मन तो बाप है। दारू पीकर आएगा और ऊपर चढ़ जाएगा तो कैसे उतार पाए भला। भाबी हाथ की झाड़ू नीचे रखकर खुशी और अचरज से उसे देखने लगी।

-‘‘इत्ती जल्दी वापस आयो, पछो पाँय ? असो काई करत?‘‘ भाबी ने उसके हाथ से बैग ले कर खूँटी पर टाँग दिया।

-‘‘हओ, ….. अभी थोड़ा दिन छुट्टी छे!‘‘ उसने टालते हुए कहा, -‘‘चलो, अच्छो हुयो!‘‘ भाबी खुश हो कर बोली फिर पलटते हुए पूछा, -‘‘चाय लाऊँ?‘‘ और जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर पीछे एक-ढाली में चाय बनाने चली गई। वह भी भाबी के पीछे एक ढाली में आया तो देखा, छत के आड़े को टेका देने के लिए लकड़ी की मोटी बल्ली का खम्भा लगाया है। जिस पर कील ठोक कर एक तस्वीर लटका दी है मिथुन चक्रवर्ती की। तस्वीर जिस फ्रेम में लगी है वह टूटे हुए आईने की है। टूटा हुआ शीशा फेंक कर खाली फ्रेम में मिथुन चक्रवर्ती की तस्वीर किसी अखबार से काटकर चिपका दी गई है। वह आगे बढ़ा और गुस्से में तस्वीर उतारी और पीछे का दरवाजा खोलकर बाहर रूखड़े पर फेंक दी। दरवाजा बंद करके वापस लौटने लगा तो उसने केशव के घर की ओर देखा। वह पीछे दीवार के पास आकर पड़ोस में केशव के घर झाँकने लगा। कोई नजर नहीं आया तो उसने जोर से आवाज लगाई, -‘‘केशव-ओ-केशव….!‘‘  कोई प्रत्युत्तर नहीं आया तो वह भाबी से पूछने के लिए पलटा तो भाबी ने चूल्हे को फूँक मारते हुए जानकारी दी, केस्या तो नाई के छोरे के साथ महुए के पत्ते लेने गया है। पत्तलें बनानी हैं। तूझे शायद मालूम नहीं। बामणदाजी की डोकरी खुटी गई ! चार गाँव की पंगत है। खूब पत्तलें लगेंगी। वह कुछ नहीं बोला। चाय पी कर वह फिर आगे मुख्य दरवाजे की तरफ न जाते हुए इसी पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर बाहर खलिहानों की ओर निकल गया। उसे मालूम था, केशव महुए के पत्ते लेने किस जंगल की तरफ गया होगा। घाट के ऊपर पटेल के खेत के पास महुए के बहुत सारे पेड़ हैं।

उसने देखा, केशव पेड़ पर चढ़ा है और पेड़ के ऊपर से पत्ते नीचे फेंक रहा है, कालू नाई का लड़का राजू, नीचे खड़ा पत्ते इकठ्ठा कर रहा है। पहले केशव ने उसे दूर से देखा और कुर्राटी मारकर खुशी से चिल्लाया फिर राजू ने देखा तो उसने आवाज दे कर बुलाया। वह करीब पहुँचा तब तक केशव नीचे उतर आया था। पहले तो उसने भी चाहा कि पत्ते समेटने में मदद कर दे लेकिन फिर झिझक कर रुक गया। फिर राजू से पूछा, -‘‘पलास के पत्ते क्यों नहीं लाया ! गाँव के पास बहुत मिल जाते। आजकल तो पत्तलें पलास के पत्तों की भी बनाते हैं !‘‘

राजू हँसने लगा। उसकी हँसी में अजीब-सा व्यंग्य था। बोला, -‘‘चार दिन शहर क्या हो आया। गाँव की रीत भूल गया। तुझे मालूम तो है ना, पंगत किसके यहाँ है ?‘‘ कह कर वह कुछ क्षण रुका फिर खुद ही जवाब दिया, -‘‘बामणदाजी के घर। चार गाँव की पंगत है, लायण देंगे। पहले ही बोल दिया कि बामण के घर की पंगत में पलास के पत्ते की पत्तल नहीं चलेगी।‘‘ कह कर वह पत्तों को टाट के बोरे में भरने लगा। केशव ने राजू के पास एक ही थैला देखा तो पूछने लगा कि इतने सारे पत्ते एक ही थैले में कैसे जाएँगे, घर से दो थैले लाना चाहिए था। इस बात पर राजू सिर हिला कर बड़बड़ाने लगा। फिर उसने बताया कि घर पर थैले तो दो हैं लेकिन कल थैला बद्री भाई ले गए थे। सुकला लाने के लिए। कहने लगे, ढोर भूखे हैं। किरसाण के लिए ढोर तो देवता हैं। वो जो थैला ले गए, आज तक वापस नहीं किया। घर पर डोकरा अलग गुस्सा कर रहा है कि वे लोग किरसाणी करते हैं तो क्या हम भंळईपणा करते हैं ?आगे केशव ने उसकी बड़बड़ाहट नही सुनी। वह चौंक उसको  देखने लगा। हालाँकि इस तरह जाति को लेकर की गई टिप्पणियों का गाँव में कोई बुरा नहीं मानता है। यह गाँव की बोली में घुली-मिली चीज है लेकिन केशव यह भी जानता है कि किशन को ऐसी बातें जल्दी चिपक जाती हैं। जैसे किसी ने डाव लगा दिया हो। गरम-गरम चिमटा चोटा दिया हो ! उसका ध्यान बँटाने के लिए केशव उसके करीब आ गया। उसने किशन के कंधे पर हाथ धरा और लाड़ में आ कर उसकी कमर में हाथ डाल दिया। राजू ने थैले का मुँह बाँधा और पीठ पर रख चल दिया। दोनों ने उसको चलते रहने का संकेत किया कि चलते रहो, हम लोग आराम से आएँगे।

सहसा उसको याद आया।

-‘‘केशव तूने सुबह दफ्तर में फोन किया। फिर बाद में क्यों नहीं किया ?‘‘ वह चलत-चलते ठिठक गया।

-‘‘मुझे लगा तू इतने में समझ जाएगा। घड़ी-घड़ी बनिए की दुकान पर जाने से क्या मतलब ?‘‘ केशव ने उसके कंधे को हल्के से धक्का दे कर चलते रहने का संकेत किया। दोनों फिर चलने लगे। वह सिर्फ सिर हिला कर रह गया। फिर चलते हुए वह रुका और नीचे झुककर उसने महुआ का फूल उठाकर मुँह में रख लिया। फूल की मिठास जुबान से फिसलकर गले की तरफ रेंग गई। उसने केशव के कंधे पर फिर से हाथ धर दिया। जिसके हाथों में अभी भी महुए का पत्ता है।

-‘‘डोकरी कल कब मरी ?‘‘ सहसा उसने केशव से पूछा।

-‘‘तुझे किसने कहा कि कल मरी ?‘‘ केशव ने सिर को थोड़ा तिरछा करके उसकी ओर देखते हुए पूछा।

-‘‘तेरा फोन और तार कल ही तो आया !‘‘ उसने केशव के कंधे से हाथ हटाते हुए जवाब दिया।

-‘‘फोन से क्या होता है ? डोकरी तो तेरे जाते ही निपट गई थी। और सविता उसी दिन दाह-संस्कार से पहले आ गई थी। कल तो तेरहवीं है।‘‘ केशव सपाट स्वर में बोला, -‘‘वर्ना पत्तल-दोने बनाने के लिए इतने दिन पहले पत्ते लेने आ जाते ?‘‘

-‘‘क्या ?‘‘ वह सहसा चीख पड़ा, -‘‘तूने मुझे इतने दिनों बाद खबर की ? तू जानता है मैंने एक-एक दिन कैसे काटा है ? किस तरह तेरे फोन का, तेरे तार का रास्ता देखा है ? मैं तो तभी आ जाता !‘‘ आवेश में वह चलते-चलते रुक गया। केशव दो कदम आगे चल कर रुक गया। फिर बहुत इत्मीनान से उसकी तरफ देखते हुए बोला, -‘‘जल्दी आकर तू यहाँ क्या उखाड़ लेता?‘‘

-‘‘मिलता उससे और क्या ?‘‘ अब उसके स्वर में कुढ़न आ गई थी।

-‘‘कैसे मिलता ? तू इस गाँव में नवादा है क्या ? अभी राजू ने क्या गलत कहा कि चार दिन शहर में रहा तो गाँव की रीत भूल गया।‘‘ केशव थोड़े रोष में उलाहने के स्वर में बोला, -‘‘तूझे मालूम तो है ना किस घर में सोग है ?‘‘ फिर खुद ही जवाब दिया, -‘‘ पंडित दीनानाथ शास्त्री के घर। पूरे गाँव को सोग मनाने का हुकुम है। उसके घर से तो दसा तक कोई औरत घर के बाहर क्या, बैठक में भी नहीं आ सकती है। मिलना तो दूर, देखना मुश्किल है। गाँव में रेडिया-टेप सब बंद है। उनके घर के आगे तो चिडि़या भी चहचहाकर नहीं निकल सकती है।‘‘

-‘‘लेकिन खबर तो करता!‘‘ वह फिर उसी टेक पर आ गया।

-‘‘इसीलिए नहीं की। आठ-दस दिन गाँव में फालतू पड़ा रहता। उधर नई नौकरी से इतनी छुट्टी मिलती क्या ?‘‘ फिर वह सहसा मुस्कुराने लगा और बोला, -‘‘धेला का चरसा और उसके लिए तू सौ रुपए की भैंस मारेगा ?‘‘

-‘‘मैं कहाँ नौकरी छोड़ रहा हूँ ?‘‘ उसने प्रतिवाद किया फिर बोला, -‘‘और तू सविता को चरसा मत बोल।‘‘

-‘‘क्यों उसकी देह पर चमड़े की जगह प्लास्टिक है क्या ?‘‘ केशव हँस कर बोला।

-‘‘कम-से-कम धेले का चरसा मत बोल।‘‘ उसने फिर प्रतिवाद किया।

-‘‘धेले का नहीं तो फिर कितना ? तू ही बता दे ?‘‘ केशव उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला।

-‘‘स्साले दर्जी….. धेले-कौड़ी से भी आगे सोचेगा ?‘‘ थोड़े गुस्से के बाद वह मुग्ध भाव से बोला, -‘‘अनमोल है वह !‘‘

-‘‘क्या अनमोल है उसमें ?‘‘ केशव मुँह बिचका कर बोला।

-‘‘बामण का चमड़ा है। यही अनमोल है।‘‘ अब उसके चेहरे से मुग्धभाव नदारद था और उसकी बोली में थोर के काँटे जैसा पैनापन आ गया था। वह रुक गया। केशव ने देखा, उसके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान है। तत्काल वह सहज भी हो गया। बोला, -‘‘कुछ जुगाड़ कर, मिला दे उससे !‘‘ केशव पलट कर रुक गया था। उसकी ओर देखते हुए बोला, -‘‘आज बारहवाँ है। शायद तेरहवीं तक कभी उसको घर से निकलने का मौका मिल जाए !‘‘ कहकर बिना यह देखे कि वह आ रहा है या नहीं, केशव पलटकर चल दिया। कुछ देर वह चुपचाप खड़ा रहा फिर वह भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। केशव की बात बहुत व्यावहारिक और उचित थी लेकिन भावुकता ऐसी बातों के पास कहाँ ठहरती है ?

घर तक दोनों चुपचाप आए। घर के निकट आकर केशव घर में दाखिल होने से पहले उसकी ओर पलटकर बोला, -‘‘शाम तक उसका रास्ता देख मैं उसको खबर भेजने की जुगत करता हूँ। शाम को मिलेंगे।‘‘ कह कर वह अपने घर में चला गया। वह घर के भीतर आया। पीछे की एक ढाली में जहाँ कोने में चूल्हा है और दूसरे केाने में एक खटिया बिछी है जिस पर गोदड़ी पड़ी है, उसने गोदड़ी को लपेट कर एक ओर सरका दिया और नंगी खटिया पर लेट गया।

पता नहीं केशव उसे कैसे खबर करेगा ? और वह कब आएगी ? भाबी की पुकार पर उसकी निंद्रा टूटी। रोटी खाने के लिए बुला रही है। टीन के पतीले से दाल निकाल कर कटोरी में डाली और टीन की तश्तरी में रोटी रख दी। बहुत अनिच्छा से खा कर वह उठा। इसी बीच भाबी ने उससे बात करने की कोशिश की जिसे वह बस हुंकारा देकर सुनता रहा। भाबी कुछ देर तक अपनी कमर पर हाथ धर कर उसे देखती रही फिर तनिक रोष और व्यस्तता के साथ आगे कमरे में चली गई। वह वापस नंगी खटिया पर आ कर सो गया। इस बार नींद ने मुरव्वत नहीं की।

अँधेरा होने को आया तब उसकी नींद खुली। वह घबरा कर उठा। उसे खुद पर गुस्सा भी आया। कैसे सो गया भला वह ? वह आकर चली तो नहीं गई ? लेकिन वह आती तो दीवार के दूसरी तरफ से हमेशा की भाँति कोई बर्तन बजाती। इसका मतलब है कि वह नहीं आई। वह उठकर दीवार तक आया और केशव को आवाज लगाई। केशव आगे के कमरे से निकलकर पिछवाड़े आ गया। उसके पूछने से पहले ही इनकार में गरदन हिलाने लगा। बोला, -‘‘कोई जुगत नहीं बैठी। रात को राजू के साथ जाऊँगा। सामने पड़ी तो इशारा कर दूँगा।‘‘ कहकर उसने लोटा उठा कर पानी भरा और उससे बोला, -‘‘चल, टट्टी बैठने चलते हैं, वहीं बैड़ी पर बातें करेंगे। उसने सिर हिलाया और पास पड़े टीन के टामलोट में पानी भर कर हाथ में थामा और पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर आ गया।‘‘

उसको केशव का साथ हमेशा अच्छा लगता है। दोनों ने साथ ही बी.ए. किया था। फिर केशव ने पढ़ाई छोड़ दी। और उसने एम.ए. किया। दोस्ती पर जुड़ाव की ऐसी सिलाई लगी कि कोई भी राँपी इसे काट नहीं पाई। उसने केशव से कई बार कहा कि पी.एस.सी. करे तो डिप्टी-कलेक्टर आराम से बन जाए। वह पढ़ाई में उससे भी तेज था।

सहसा चलते हुए उसने केशव से कहा, -‘‘मैं सोचता हूँ पिछवाड़े इतना लम्बा-चौड़ा हिस्सा खाली है। वहाँ एक छोटा-सा लेट्रीन-रूम बना लिया जाए।‘‘ फिर एतराज में केशव का मुँह खुलता देख तुरन्त बोल उठा, अब तू फिर से मेरे शहर जाने को मत कोसना। यार, हम लोग शहरी चोंचलों के नाम पर कब तक हर सुविधा से परहेज पालते रहेंगे ?‘‘ केशव ने क्षण भर उसकी ओर देखा फिर मुस्करा कर बोला -‘‘अपने बाप से पूछ लेना। हाँ कर दे तो मुझे भला क्या एतराज होगा ?‘‘

-‘‘दुनिया बदल रही है केशव, छोटी हो रही है।‘‘ उसने उसकी मुस्कुराहट पर कुढ़ते हुए कहा।

-‘‘किधर बदल गई है भाई ? मेरा बाप कल भी दर्जी था, आज भी है। तेरा बाप कल भी चरसा का काम करता था, आज भी करता है।‘‘ केशव ने हँस कर कहा। कुछ क्षण चुप रहकर किशन की ओर बगैर देखे फिर कहा, -‘‘तुझे याद है किशन एक बार गाँव में बीमारी फैली थी। भंळई मुहल्ले से लेकर चमार टोले और फिर अहीर मुहल्ले तक गई थी। लेकिन बामण-सेरी और राजपूत मुहल्ले बचे रह गए थे। इस बार लगता है बीमारी उधर के मुहल्ले से अन्दर आई है।‘‘ कहकर वह हँसने लगा फिर अँधेरे में पानी के डबरे से बचते हुए आगे बढ़ा और बोला, -‘‘बामणदाजी का घर तो छोड़, वह तो बड़ा घर है लेकिन रामेसर दादाजी मंदिर के पुजारी न होते तो भीख माँगने की नौबत थी। न गाँव में घर न जंगल में खेत। उनकी औलाद को भी नहाने के लिए साबुन चाहिए।‘‘

-‘‘यार तू साबुन में से कुछ ज्यादा ही झाग निकाल रहा है।‘‘ वह हँस कर बोला।

-‘‘लेकिन तू ये बता‘‘ चलते हुए वह टामलोट को इस हाथ से उस हाथ में लेते हुए बोला, -‘‘ तुझे ये अचरज नहीं होता कि इस गाँव में साबुन मिलने लगा है ? इस बात का अचरज नहीं होता कि गणेश उत्सव पर भुसावल से रांडें बुलाने के लिए न केवल जवान छोरे बल्कि कई बूढ़े भी इंकार कर गए थे कि ये राँडें पुराने गानों पर पुरानी चाल से नाचती हैं। सनीमा जैसा नहीं नाचती हैं।‘‘

बैड़ी आ गई थी। केशव उभरी हुई चट्टानों पर ऐसी जगह बैठ गया जहाँ से किशन उसे धुँधला-सा नजर आता लेकिन आवाज साफ सुनाई देती रहे। नंगे दिखने का संकोच भी न रहे और बातों की सुविधा रहे।

-‘‘बीमारियाँ घर देखकर नहीं आती हैं। अब इस भ्रम में मत रहना।‘‘ उसने चट्टान के पीछे से ऊँची आवाज में कहा, -‘‘मोट, रेहट को पुराना कह कर डीजल पम्प आए फिर वो भी पुराने पड़े और बिजली पम्प आए तो डीजल पम्प कचरे में चले गए। अब बिजली कब तक टिकती है देखना ? नहीं तो भूखे मरने की नौबत है ! क्या करोगे तब ?‘‘

-‘‘केक खाकर दिन काटेंगे !‘‘ केशव उधर से हँसकर बोला। दोनों हँसने लगे।

रात के करीब पहुँच चुकी शाम के अँधेरे में दोनों की हँसी चट्टानों से फूटती हुई लग रही है। कुछ देर चुप रहकर वह गरदन घुमाकर केशव की ओर अँधेरे में घूरता हुआ बोला, -‘‘रात को कब जाएगा बामणदाजी के घर ?‘‘

-‘‘तू धीरज रख। मैंने राजू को बोल रखा है। मेरे बगैर नहीं जाएगा।‘‘ केशव की आवाज आई।

-‘‘तू जानता है कितने दिन हो गए। उसको देखा भी नहीं।‘‘ उसने उदास आवाज में कहा।

कुछ देर चुप्पी रही। फिर जब केशव बोला तो उसकी आवाज एकदम बदली हुई थी।

-‘‘किशन कभी-कभी मुझे बहुत डर लगता है ! पता नहीं क्या होगा ?‘‘

-‘‘क्या होगा ? क्या कर लेंगे वो लोग ?‘‘ अँधेरे का लाभ उठाकर बहुत साहस के साथ बोला।

कुछ देर तक खामोशी रही। उसे केशव के पोंद धोने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। कुछ देर बाद वह पाजामें का नाड़ा बाँधते हुए उसके पास आ गया। तब तक वह भी निवृत्त होकर उठ खड़ा हुआ था। कुछ देर तक केशव खड़ा उसे घूरता रहा फिर बोला, -‘‘तेरा बाप भी ऐसी सफाई से जानवरों की खाल नहीं खींचता होगा। ऐसी सफाई से तेरी खाल खींच कर वे लोग, तेरे बाप के हाथ में दे देंगे।‘‘ कहकर कुछ क्षण वह रुका रहा फिर चल पड़ा।

-‘‘तुझे मालूम है देश आजाद हुए कितने साल हो गए हैं ?‘‘ वह व्यंग्य से बोला।

-‘‘मालूम है, तीस साल से ज्यादा हो गए।‘‘ केशव भी वैसे ही व्यंग्य से बोला, -‘‘लेकिन उधर दिल्ली में आजाद हुआ है, इधर अपने गाँव में नहीं।‘‘ फिर उसे समझाते हुए ऐसे बोला जैसे धमका रहा हो, -‘‘मिर्ची की ऐसी धूणी देंगे कि तेरा ये इश्क का भूत घड़ेक में उतर जाएगा। जामली का पाँच आकड्या बड़वा दाजी भी भूत नहीं उतार पाए। ऐसा शर्तिया उतारेंगे।‘‘ कहकर वह हँसने लगा।

वह कुछ नहीं बोला। झुँझलाकर पैर की ठोकर से जमीन पर पड़े पत्थर को दूर उछालने की कोशिश की। पत्थर थोड़ी दूर लुढ़ककर रह गया। फिर जैसे केशव उसके नजदीक आकर उसे  समझाने वाले ढंग से, बुजुर्गों की तरह बोला, -‘‘किशन ! छोटो दग्गड़ गाँड पोछण्यो !‘‘ फिर लोकोक्ति का विस्तार करते हुए बोला, -‘‘लोगों की निगाहों में छोटे पत्थर की बस यही बखत है। पोंछ कर फेंक दिया।‘‘ कहते हुए उसने अपना पैर डबरे में पड़ने से बचाया लेकिन खुद को खिन्नता के रुखड़े पर गिरने से नहीं बचा पाया। दोनों चुप हो गए।

चाँद दूर महुए के पेड़ों के पीछे से निकलकर अब बैड़ी के ऊपर आ गया। बैड़ी पर पूरे चाँद की रोशनी फैल गई। दोनों नीचे उतरने लगे। नीचे रास्ते के पहले दाईं ढलान पर बैल का कटा हुआ सिर पड़ा है। निश्चित ही इस बैल की खाल उतरी हुई देह का पिंजर भी कहीं पड़ा होगा उसे मालूम है, खाल खींचने से पहले जानवर का सिर काटकर अलग कर देते हैं। बैल का मुँह खुला हुआ है। दाँत बाहर नजर आ रहे हैं। उसने पलट कर केशव से कहा, -‘‘इस बैल को देख, खुला मुँह कैसा लगता है ? जैसे हँस रहा हो। जानवर हँसते हैं क्या ?‘‘

-‘‘नहीं यार, मरते समय दर्द या चीख के मारे मुँह खुला रह गया होगा।‘‘ केशव ने एक नजर बैल के कटे हुए सिर पर डाली और कहा।

-‘‘तो क्या पीड़ा की बढ़त में चेहरा हँसता हुआ हो जाता है ?‘‘ अचरज से उसने कहा और चुप हो गया। केशव ने भी कोई जवाब नहीं दिया। बैड़ी से नीचे उतरते ही, गाँव के रास्ते पर दोनों ओर रुखड़ों की कतार शुरू हो जाती है। गाँव के अधिकतर लोगों के घर का गोबर-पूँजा और कचरा वे अपने-अपने रुखड़ों पर डालते हैं। बाद में यही कचरा खाद की तरह खेतों में चला जाता है। इन्हीं रुखड़ों के किनारों पर कुछ औरतें टट्टी बैठ रही थीं, जो इन दोनों को देखते ही खड़ी हो गई। इन दोनों ने भी उन औरतों की ओर नहीं देखा और न औरतों ने इनकी ओर नजरें उठाई। यह गाँव का अलिखित और अघोषित कायदा है। दोनों खामोशी से इतने निस्पृह होकर चलते रहे जैसे औरतों की वहाँ उपस्थिति की उन्हें खबर ही न हो। ऐसी तल्लीनता और निस्पृहता बताना भी जरूरी है। वे दोनों निकले जब तक औरतें अपने-अपने लोटे को घूरती रहीं। उन दोनों के थोड़ा आगे निकलते ही औरतें फिर नीचे बैठ गईं।

फिर घर तक दोनों चुपचाप आए। पिछवाड़े से घर में दाखिल होकर वह कोने में रखे तपेले से पानी निकालकर राख से हाथ धोने लगा। फिर पैरों पर पानी डाल कर वह भीतर कमरे में आया तो देखा, भायजी खटिया पर बैठा है और हाथ में एल्युमिनियम का मैला-सा गिलास है जिसमें निश्चित ही महुए की शराब है। वह फिर उस कमरे से निकल कर पिछवाड़े आ गया। चूल्हा लगभग ठंडा पड़ा है। यानी भाबी खाना देर से बनाएगी। उसने टीन के पतीलों और तश्तरियों को देखा तो तय किया कि अगली बार शहर से स्टील के कुछ ढंग के बरतन ले आएगा। फिर वह खुद ही बुझ रहे चूल्हे को लकड़ी से खखोड़ने लगा और चाय बनाने के लिए पतीली में पानी डाला। तभी भाबी भीतर आ गई। भाबी ने उसके हाथ से पतीली लेकर उसे झिड़कने लगी कि, क्या मुझे नहीं कह सकता था ? वह कुछ नहीं बोला, वहाँ से उठकर फिर से खटिया पर आ बैठा। भाबी ने चाय बना कर दी तो चाय पीते हुए उसने सोचा कि भाबी के लिए अगली बार एकाध लुगड़ा ले आएगा।

चाय पी कर वह उठा और उसी पिछवाड़े के हिस्से में आ गया। बिखरे कुयड़ों से बचते हुए वह दीवार के करीब आकर दूसरी तरफ केशव के घर में झाँकने लगा। केशव पिछवाड़े ही था। अपनी भाबी से चाय बनाने के लिए गरज कर रहा है। उसकी भाबी उसे चाय की अपेक्षा दूध पीने का आग्रह कर रही है।

-‘‘चाय पीकर क्यों कलेजा जलाता है  ? दूध पी ले।‘‘ कहकर केशव की भाबी पतीली धोने खुले में आ गई। केशव भी उसके पीछे आया और उसको देखकर दीवार के करीब आ गया।

-‘‘दूध ही बनाऊँगी उसमें बोर और विटा डाल दूँगी, बदन को ताकत मिलेगी।‘‘ केशव की भाबी ने इकतरफा निर्णय के साथ लालच भी दिया। उसे बोर और विटा पर आश्चर्य नहीं हुआ। निमाड़ी में और के लिए न का उच्चारण है। जैसे चाय और दूध के लिए चाय न दूध इसी तर्ज पर उसकी भाबी बोर्नविटा को बोर न विटा और फिर बोर और विटा के संशोधन तक ले आई थी।

उसने तो केशव के कंधे पर हाथ मारा कि आखिर बोर्नविटा इस टपरे में दाखिल हो ही गया। केशव हँसने लगा। उसकी हँसी जैसे हँसी। केशव की भाबी ने दूध का कप लाकर केशव को थमा दिया। यह गाँव का एक अघोषित और अलिखित शिष्टाचार है, जो जातीय सूत्रों से मिलता है। केशव की भाबी ने उससे की पूछने की जरूरत भी नहीं समझी। केशव ने हाथ में कप ले लिया। लेकिन दूध पीने की अपेक्षा उसे दीवार पर रख दिया। केशव अपनी भाबी की तरह मुरव्वत नहीं तोड़ पाया। -‘‘तू घर ही रहना। मैं अभी आकर बताता हूँ।‘‘ कहकर केशव ने कप उठा लिया। वह वापस पलट गया। केशव पलटकर भीतर चला गया। वह भी पलटकर भीतर जाने लगा तो बेखयाली में उसका पैर राख ढँके गूँ के कुयड़े पर पड़ ही गया। झल्लाकर वह वहीं खड़ा हो गया। फिर लँगड़ाता हुआ वह पीछे दरवाजे के पास रखे मटके से पानी निकाल कर पैर पर डालने लगा। साथ ही पैर को पत्थर पर रगड़ता भी जा रहा था। पैर धोकर वह सावधानी से भीतर आया।

भाबी खाना बनाने की तैयारी कर रही है। वह खटिया पर लेट गया। पता नहीं कितनी देर इस तरह लेटा रहा जब भाबी ने उसे खाने के लिए उठाया। तब उसे मालूम हुआ वह लेटे-लेटे एक झपकी ले चुका है। भाबी ने काँच की एक बोतल में घासलेट भरकर ढक्कन में छेद करके एक बत्ती खोंस दी थी। वही जल रही है।

दाल-रोटी और प्याज के टुकड़े। ऐसा नहीं कि खाने में स्वाद नहीं है लेकिन उसका मन उचट रहा है। जल्दी से खाना खाकर उठा फिर खटिया पर आकर बैठ गया। पता नहीं कब केशव आवाज दे ! उसने सोचा खटिया इस ढलवाँ छत से बाहर निकाल कर पिछवाड़े की खुली चार-दीवारी में डाल दे वहाँ से केशव की आवाज साफ सुनाई दे जाएगी। फिर उसे अपनी नासमझी पर हँसी आई। पिछवाड़े में और इस ढलवाँ छत वाले बगैर दरवाजे के हिस्से में दूरी ही कितनी है ? यहाँ भी आसानी से आवाज सुनाई दे जाएगी।

भाबी और बच्चों ने खाना खाया और भीतर चले गए। भायजी अभी खाना खाने की स्थिति में नहीं थे। वह पीछे अकेला रह गया। इतनी देर हो गई अभी तक आया नहीं ? उसे केशव पर गुस्सा आने लगा। स्साला पायड़ा कहीं दारू पीने न बैठ गया हो। किसी ने हाथ पकड़ा कि बैठ, ‘नाख ले‘ जरा सी तो ‘नाखने‘ बैठ गया होगा। वह कुढ़ने लगा। तभी दीवार के पास आहट हुई। वह दौड़ कर दीवार के करीब पहुँचा। केशव था। उसने धीरे से कहा, -‘‘डोकरी को लेकर डोकरा पटेलदाजी के घर गया है। जल्दी से बात कर ले।‘‘ इतना कह कर आगे के कमरे में चला गया। वह धीरे से चलती हुई दीवार के करीब आई। चाँद की रोशनी में उसने देखा, बगैर बिंदिया और श्रृंगार के सादी-सी सूती साड़ी में उसका लावण्य चाँदनी का मोहताज नहीं था। उसे मालूम है कि गमी के घर में स्त्रियाँ श्रृंगार नहीं करती हैं। बिंदिया नहीं लगाती हैं और साधारण साड़ी पहनती हैं। लेकिन यह अनिवार्यता विवाहित स्त्रियों के लिए है। सविता को यह सब करने की क्या जरूरत है ? हालाँकि उसके पतले और गोरे हाथ चूडि़यों के बगैर भी बहुत मोहक लग रहे हैं। एक हाथ उसने दीवार पर रख दिया। लम्बे बालों को खींच कर उसने जूड़े की शक्ल में बाँध लिया था। हीरे की एक लौंग उसकी नाक पर चमक रहीं है। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में डर तो नहीं लेकिन एक किस्म की जल्दी और आकुलता है। उसके गोरे चेहरे से दुःख का पीलापन अब झरने लगा है।

सविता ने हाथ दीवार पर रखा है। जहाँ पहले ही चाँदनी रखी थी। सविता का हाथ जैसे अब चाँदनी पर रखा था। लेकिन चाँदनी सविता के हाथ पर है। उसने अपना हाथ सविता के हाथ पर धर दिया।

उसने जब दीवार पर अपना हाथ रखा तो लगा, दीवार की छाबन गीले और गर्म हाथ में बदल गई है। बेसाख्ता उसने अपना हाथ खींच लिया। पलभर के लिए बेसाख्ता खींच लिए हाथ को लेकर उसे लगा, जैसे दिमाग के बजाए स्वयं हाथ ने निर्णय ले लिया हो, वहाँ से हटने का। दिमाग द्वारा सोचे जाने से पहले हाथ द्वारा स्वयं हटने का सोचना याद करते हुए वह बचपन के उस गोशे में चला गया, जहाँ ब्राह्मण सेरी की सुंदर और सजी-धजी लड़कियाँ सिर पर जवारे लिए नदी में खमाने के लिए समूह में जा रहीं थीं। वे गणगौर पूजा के दिन थे। गणगौर की पूजा के दिनों में जवारे बोने के बाद पूर्णिमा को कुँआरी लड़कियाँ उन्हें नदी के पानी में सिराने के लिए जाया करती हैं।

उन जाती हुई लड़कियों के पीछे तमाशाई बच्चों के झुंड में वह भी शामिल था। पता नहीं क्या था उनके पास कि उनके झुंड से एक आलौकिक-सी गंध पीछे छूटती जा रही थी, जो पीछे चल रहे भंळई मुहल्ले के बच्चों को खींचती जा रही थी। उसे लगा, वह उनके ब्राह्मण होने की गन्ध है। रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों में लिपटी ब्राह्मण-लड़कियों की देह से ऐसी गंध हमेशा फैलती रहती है। बौरा देने वाली गंध, भरमाने वाली गंध। जो उन लड़कियों के ब्राह्मण होने के कारण ही उसे खींचती रहती है। ब्राह्मण-लड़कियों को देख कर वह अकसर सोचता था, इन लड़कियों को कौन बनाता है ? यदि इन्हें भगवान बनाता है तो भंळई लड़कियों को कौन बनाता है ? अचानक जाने क्या हुआ कि एक लड़की उसकी तरफ देखकर मुस्काई तो वह मन्त्र मुग्ध-सा उसके पीछे लगभग हाथ भर की दूरी पर चलने लगा। चलते हुए जैसे उसने सैकड़ों फूलों के भीतर अपनी नाक उतार दी हो। पूरे शरीर को पार करती वह बेकाबू इच्छा उसके हाथ में उतर आई कि वह उसे छू दे और, उसने हाथ भर का फासला तेजी से पूरा करते हुए उसके हाथ को छू दिया।

बस छूना भर था कि वह चीखी और फिर तो तहोबाल मच गया। उसके साथ की लड़की ने इतनी बेकदरी से दुत्कारा, जैसे कि लोग गीदे हुए कुत्तों को दुतकारते हैं।

उसके बाद वह लड़कियों के झुंड से ही नहीं, गणगौर के लिए नदी किनारे आई भीड़ से ही अलग हो गया था। लड़कियाँ नदी में जवारे खमा रही थीं और वह उस वेगवती नदी के बहते पानी को किनारे से टकराता देखता रहा था।

बाद इसके दूसरे दिन स्कूल में ब्राह्मण सेरी के लड़कों ने उसको जम कर पीटा था। उस दिन की पिटाई ही थी कि उसने उसके भीतर ऐसा भय भर दिया था कि वह ब्राह्मण लड़की की तो छोडि़ए, उसके घर की दीवार की छाँह तक को छूने में डरने लगा था। या कहें, बामणों की ‘छावळी भी नहीं दाबी‘ बल्कि उस छाया से डरने लगा, यों तो कालेज में, एकाध दफा ऐसा क्षण उपस्थित भी हुआ कि वह सविता के हाथ को छू दे, लेकिन तुरन्त उसके भीतर वह पुरानी और भूली हुई दुत्कार जाने कहाँ से उठकर गूँज गई थी।

अभी भी, सविता के हाथ पर विसर-भूले में रख दिए गए अपने हाथ के साथ वहीं अनुगूँज फिर से शरीर के कतरे-कतरे में गूँज उठी।

-‘‘बहुत मुश्किल से समय निकाल कर आई हूँ ! चाँदनी की सतह पर उसका चेहरा थरथरा रहा है।

-‘‘मैं मुश्किल से तो नहीं लेकिन दूर से आया हूँ।‘‘ वह धीरे से बोला, -‘‘दादी की मौत का जानकर बड़ा दुःख हुआ !‘‘

-‘‘ओ हाँ…!‘‘ वह इस तरह चौंकी जैसे उसे याद आया हो कि उनके बीच यह औपचरिकता तो बाकी थी। -‘‘बहुत याद आती है !‘‘ अनायास वह बोली।

-‘‘किसकी ?‘‘ वह चौंक पड़ा।

वह चुप रही। वह समझ नहीं पाया कि यह बात उसने दादी के बारे में कही या उसको कह रही है।

-‘‘और सुनाओ, पढ़ाई शुरू कर दी ?‘‘ वह औपचारिक जिज्ञासा से सहसा पूछने लगी।

-‘‘नहीं अभी शुरू नहीं की है। मैं अगली बार फार्म भरूँगा।‘‘ उसने उस जिज्ञासा की उँगली पकड़ कर आगे बढ़ते हुए कहा,

-‘‘तुम सुनाओ, फार्म तो भर दिया होगा। पढ़ाई शुरू की या नहीं ?‘‘

-‘‘फार्म तो भर दिया है, बस, पढ़ाई शुरू नहीं की है। किताबें जरूर खरीद ली हैं। वैसे सुना है इस बार सिलेबस थोड़ा कम कर दिया है। बहुत-सा कोर्स संक्षिप्त किया है।‘‘ वह उसी तरह भटकी हुई आवाज में खुरदरी दीवार को घूरते हुए बोली।

-‘‘यह तो अच्छी बात है !‘‘ वह उसको खुश करने के लिए मुस्कुराते हुए बोला।

-‘‘हाँ अच्छा तो है। जितने भंळई मरे, उतनी छीत टली !‘‘ वह खोए हुए स्वर में बोली, वह सकते में आ गया। उसने देखा, सविता के चेहरे पर यह खबर कहीं नहीं थी कि वह क्या बोल गई है। उसके मन में यह विचार फिर मजबूत होने लगा कि, सवर्णों के सिर्फ विचार बदलते हैं, संस्कार नहीं। कुछ चीजें तो इनके खून में घुल-मिल गई हैं।

-‘‘क्या करते हो वहाँ दिनभर !‘‘ वह अचानक सिर उठाकर उसकी ओर देखने लगी।

-‘‘तुमको याद करता हूँ दिन-रात।‘‘ वह हँसकर बोला, हालाँकि यह सच है लेकिन उसकी हँसी ने उसे मजाक की तरफ मोड़ दिया।

-‘‘रात को सोते नहीं हो ?‘‘ सविता के चेहरे पर मुस्कान आते-आते रह गई।

-‘‘सोते हुए तो तुमसे मिलता हूँ। कल भी सपने में आई थीं !‘‘

वह उसकी नेल-पालिश पर उँगली फिराता हुआ बोला। उसकी उँगली हल्के से काँपी।

-‘‘क्या था सपना ?‘‘ उसके चेहरे पर एक ठंडी उत्सुकता थी। वह चुप हो गया। फिर उसकी नेल-पालिश को सहलाना बंद करते हुए बोला, -‘‘बहुत भयानक सपना था ! मुझे खुद पर अचरज हो रहा था। मैं सपने में भी अचरज में था।‘‘

-‘‘अच्छा ! क्या हुआ सपने में, बताओ ?‘‘ उसके स्वर का ठंडापन पिघला। उसने बता दिया।

क्षणभर के लिए जैसे वह स्थिर हो गई। फिर हँस पड़ी।

-‘‘तुम पी.एस.सी. में इतिहास लेकर बैठ रहे हो ना ?‘‘ वह हँसते हुए बोली, -‘‘यही तुम्हें तंग कर रहा है।‘‘

-‘‘तो तुम बचाओ मुझे इतिहास से !‘‘ वह मुस्कुरा कर बोला।

-‘‘सच पूछा जाए तो मैं ही बचा सकती हूँ तुम्हें !‘‘ सविता भी अजीब अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराकर बोली।

फिर सहसा जैसे वह चौंक गई, -‘‘मैं चलूँ। बहुत समय हो गया। घर पर मेरी खोज शुरू हो जाएगी।‘‘

-‘‘लेकिन इतनी जल्दी ?‘‘ वह किंचित घबराहट में बोला, -‘‘बड़ी मुश्किल से तो तुम आई हो। तुम्हें क्या पता तुमसे मिलने के लिए कितने जतन करने पड़ते हैं ? अब मैं तो तुम्हारे घर नहीं आ सकता हूँ। तुम तो रुको कुछ देर…..!‘‘

-‘‘क्यों नहीं आ सकते ?‘‘ उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और फैल गईं !

उसे सविता के प्रश्न पर अचरज हुआ। इस प्रश्न के जवाब में उसके लिए अपमान छिपा है। सविता जानती है कि वह क्यों नहीं आ सकता है।

-‘‘क्यों नहीं आ सकते ?‘‘ उसने प्रश्न दोहराया फिर बोली, -‘‘तुम्हें आना चाहिए।‘‘

अब तक वह सँभल गया था। मजाक का सहारा लेकर बोला, -‘‘आ जाऊँगा लेकिन खाली हाथ नहीं लौटूँगा।‘‘

सविता के चेहरे पर तनाव दरक गया वह भी मुस्कुराकर बोली, -‘‘हमारे घर से आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा है।‘‘ वह सहसा सविता को ध्यान से देखने लगा। उसके स्वर में दर्प नहीं था और चेहरा भी देवताओं की मूर्तियों की भाँति निर्विकार है। जहाँ से कुछ भी पढ़ना असम्भव है। वहाँ सिर्फ मनचाहे अर्थ निकालने की मोहलत है। फिर वह मुस्कुराई और बोली, -‘‘अधिकार के लिए सबसे पहले याचना को खारिज करना पड़ता है। वर्ना दूरियाँ अनंत लगती हैं।‘‘

-‘‘तो मैं आज आऊँ ?‘‘उसने याचना को खारिज करने का मन बनाया तो संदेह को सवाल में उतार दिया।

-‘‘आज नहीं कल ! कल तक मेहमानों की भीड़ खत्म हो जाएगी।‘‘ अब सविता को चेहरा आमंत्रण देती गम्भीरता से भरा लगा। वह चुप रहा तो वह फिर बोली, -‘‘यह मत समझो कि मेरा यहाँ आना भी कोई आसान है। लेकिन मुश्किलें बताना भी मुझे उपकार जताने की तरह लगता है। भय और खतरा कम-ज्यादा करके मत देखो। यह दोनों जगह है।‘‘ कहकर वह चुप हो गई।

-‘‘तो मैं कल आऊँगा।‘‘ उसने अपनी हिचक को निर्णय की तरह सुनाया। लेकिन आवाज ने आशंका को पकड़े रखा।

-‘‘तुम चिंता मत करो।‘‘ सविता ने उसकी आशंका को दुत्कारा। सहसा वह हँसने लगी ऐसा कमाल वह नहीं दिखा पाया। वह चुप रहा तो सविता बोली, -‘‘कल तेरहवीं की पंगत दस या ग्यारह बजे तक निबट जाएगी। तुम तब आना। मैं छत पर रहूँगी। तब तक सभी सो जाते हैं।‘‘ उसने इस बार बहुत सावधानी से बात सुनी और चेहरा पढ़ा लेकिन इस बार भी उसे असफलता हाथ लगी। वह समझ नहीं पाया कि यह आश्वासन है या सूचना भर। सविता की हँसी उसे हमेशा भ्रमित करती है। फिर भी उसने तय किया कि वह इस हँसी की चुनौती स्वीकार करेगा और जाएगा।

उसने देखा, सविता का चेहरा फिर भावहीन है। कुछ देर पहले की हँसी भी उसके चेहरे से उखड़ गई है। वहाँ हँसी नहीं है तो कोई दुःख या खिन्नता भी नहीं है।

तभी कोई आहट हुई।

-‘‘मैं चलती हूँ। कल रात आना !‘‘ कहकर वह, पीछे के दरवाजे से यह-जा, वह-जा। वह दीवार के पास चुपचाप खड़ा रह गया। चाँदनी वह दीवार पर ही छोड़ गई थी। अब उसका हाथ खुरदरी दीवार पर रखा है। खाली-खाली सा। चाँदनी अब उसके हाथ पर है। चाँदनी को किसी के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसका हाथ वैसा नहीं दमक रहा है। जैसा सविता का हाथ दमक रहा था। तभी चाँदनी में केशव प्रकट हुआ। एकाएक।

-‘‘गई क्या ? डोकरी आने वाली है।‘‘ कहते हुए यह देखकर वह आश्वस्त हो गया कि वह चली गई है।

वह दीवार से हटकर एक-ढाली में आकर खड़ा हो गया। फिर खटिया पर बगैर कपड़े बदले लेट गया। वह जानता है। कितनी भी कोशिश कर ले, नींद नहीं आएगी। नींद की कोशिश में वह उठ कर टहलने लगा। फिर सहसा वह रुक गया और खटिया के पास की दीवार के ताक में रखी महुए के शराब की मटमैली-सी बोतल निकाल लाया। चूल्हे के पास से एक कप उठाकर उसने एक कप शराब पी और बोतल वापस रख दी। जब वह खटिया पर लेटा तो उसे लगा कि महुए की तरलता ने उसका काम आसान कर दिया ?

सुबह जब नींद खुली तो धूप खटिया पर चढ़ने की कोशिश में थी। भाबी ने उसे उठाया भी नहीं था। नौकरी-पेशा बेटे के प्रति इस तरह का लाड़ अकसर जताया जाता है। वह काफी देर तक अलसाया-सा लेटा रहा। भाबी ने बताया कि पतीले में पानी निकाल दिया है चाहे तो नहा ले। उसने छुटके को कहा कि टामलोट में पानी भर दे वह टट्टी जाएगा।

बैड़ी से लौटकर आया तो उसने राख से हाथ धोए। भाबी से कहा कि बैग से उसके कपड़े निकाल दे। वह नहाएगा। नहा कर कपड़े बदले और वह निरुद्देश्य-सा बाहर निकल पड़ा। मुहल्ले में सभी परिचितों के घर से मिल कर वापस लौटा तो दो बज रहे थे। खाना खाकर वह केशव को आवाज देने दीवार के करीब चला आया।

केशव नहीं मिला तो वह अकेला ही गाँव से बाहर निकल आया। इतनी तेज दोपहरी में वह कहाँ जाएगा, उसे खुद नहीं मालूम है। वह महुए के जंगल में निकल आया। यहाँ चारों तरफ छाया है। वह पेड़ से नीचे गिरे हुए पत्तों पर बैठ गया। एक अजीब-सी थकान वह महसूस कर रहा है। बहुत ही परिचित-सी मादक और मीठी खुशबू पेड़ों से उतर रही है। अधलेटा हुआ तो उसकी आँखें बन्द हो गई। काफी देर तक वह लेटा रहा फिर उठा और थके कदमों से घर की ओर चल दिया।

घर आकर फिर खटिया पर लेट गया। करवट लेकर भाबी से कहा कि चाय पिएगा। भाबी ने चाय बनाई तो उसने उठ कर हाथ-मुँह धोया और चाय पीने लगा।

हालाँकि सविता के जाने के बाद उसने सोचा था कि कल सविता के आमंत्रण में औपचारिक तसल्ली थी या चुनौती ? या फिर महज मजाक ? लेकिन वहाँ जाने की बेचैनी अब उसके भीतर इतनी ज्यादा है कि किसी भी आशंका और तर्क उसे दबा नहीं सकता है।

शाम हो रही है। उसे रात की प्रतीक्षा है।

पूरा गाँव बामणदाजी के घर जीमने के लिए इकट्ठा हो रहा है। दोपहर से पंगतें जीम रही हैं। रात तक क्रम जारी रहेगा। वह खटिया पर फिर से लेट गया। उसने लाख सिर पटका। करवटें बदलीं। मिन्नतें कीं लेकिन रात अपने समय पर ही आई। रात ग्यारह बजे तक पंगतें खत्म हो गई लेकिन सविता के घर में जाग है। वह बारह बजे के बाद घर से निकला। अब गाँव में सन्नाटा है। उसे खुद अपने घर से तो कोई दिक्कत नहीं है। वह पिछवाड़े का किवाड़ खोलकर बाहर आ गया। आज पता नहीं क्यों मन में आतुरता, उत्सुकता और रोमांच के साथ संशय भी है। बामण-सेरी में पैर रखा तो दिल जोर से धड़कने लगा। किवाड़ की कुंडी भीतर से खुली है। उसने निःशब्द भीतर पैर रखा। अजीब-सी सिहरन दौड़ी भीतर। अँधेरे में भी उसे मालूम है कि ऊपर जाने की सीढि़याँ किधर हैं। सविता ने कई बार घर का भूगोल बताया है। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। सीढि़यों पर जूठी पत्तलों का ढेर है। शायद ब्राहम्मण परिवार की औरतों की पंगत छत पर बैठी होगी। ऐसा आम होता है। फिर पत्तलें इकट्ठी करके इधर बाहर छत की आखिरी सीढ़ी पर डाल दी होंगी।

वह कोने में खड़ी है, छत पर बनी छोटी-सी, लगभग तीन फीट ऊँची पेरापेट दीवार के पास। वह थोड़ा करीब गया तो हतप्रभ रह गया। वह लाल साड़ी पहने हुए है। माथे पर बिंदिया। पैरों में पाजेब। हाथों में ढेर सारी चूडि़याँ। उसे लगा छत पर चाँद की नहीं, उसी के सौन्दर्य की चाँदनी बिखरी है। आज उसके गोरे चेहरे पर एक मोहक और मादक गुलाबी आभा है। उसे लगा जैसे वह फिर महुए के जंगल में आ गया है।

वह उस दीवार पर हाथ टेककर जोर-जोर से साँसें लेने लगा। छत पर चारों तरफ जूठन फैली है। जिस जगह वे लोग खड़े हैं। अपेक्षाकृत कम है लेकिन फिर भी चावल, दाल और मिठाई की जूठन फैली हुई है। सफाई तो सुबह ही होगी। सविता ने आगे बढ़कर उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। वह पलटा तो उसका चेहरा उसके चेहरे के बेहद करीब हो गया। उसकी साँसें उसके चेहरे पर लपट सी टकरा रही हैं।

बाहर दूर-दूर तक रात की साँय-साँय है। फिर उसे लगा रात की नहीं शायद उसके भीतर की साँय-साँय है, जो खून में खलल पैदा होने से उठ रही है।

छत के दाएं हिस्से में आँगन के पेड़ की छाँह है। जिससे अँधेरा नीला हो आया है। उसने एक लपक-सी अनुभव की और सविता को अपनी गिरफ्त में ले लिया। और धीरे-धीरे छत पर गिरती पेड़ की छाँह में ले आया। छाँह के नीचे आते ही उसे लगा, जैसे पूरे संसार की आँखों से ओझल कर लिया है। यह छाँह की वजह थी या खुद सविता के व्यवहार की कि वह खुद को अधिक सुरक्षित और साहसी की तरह अनुभव करने लगा। वह तेजी से अपना दाहिना हाथ निकालकर उसके ब्लाऊज के बटनों को खोलने को उद्धत हुआ तो हाथ साड़ी में उलझ गया। उसे यह सोचकर झुँझलाहट-सी अनुभव हुई कि बाहर से लड़की के देह से सरल ढंग से लिपटी लगने वाली दो-चार मीटर की साड़ी दरअसल कितनी-कितनी पर्तों और तहों में उलझी हुई रहती है। उसे यकायक सविता की देह को निरावृत्त करना मुश्किल लगा।

पलभर के भीतर यह भी लगा कि उसमें सभ्य और सुंदर लड़कियों को साहस के साथ निरावृत्त करने की सूझबूझ नहीं है। और सविता उसकी इस असफलता पर मन में उपहास कर रही होगी। ‘रुको !‘ सविता ने कहा तो वह डर-सा गया। जैसे वह आग्रह नही आदेश हो। फिर हुआ यह कि सविता ने क्षण भर में बाएं हाथ से साड़ी का कोई सिरा और पल्लू कुछ ऐसी युक्ति से इधर-उधर किया कि उसके उरोज ठीक सामने आ गए। भीतर की धक-धक अचानक दोगुनी हो गई। उँगलियों के पोरों तक में जैसे उसके भय की सूचना पहुँच रही है। उसने मार्क किया कि उस नीले अँधेरे को चाँदनी थोड़ा-थोड़ा पारदर्शी बना रही है। उसी में उसने देखना चाहा कि सविता की आँखों में आमंत्रण की तीव्रता कहाँ तक है, पर वहाँ उसकी मुँदी पलकों के भीरत झाँकने की कोई सहूलियत नहीं है। बल्कि उसकी मुँदी आँखों का यह अर्थ था कि जैसे वह उसे पर्त-दर-पर्त निशंक होकर खोलने का मौका उपलब्ध करा रही है।

उसने ब्लाऊज के बटन खोलने की सोची, पर वहाँ बटन नहीं, कुछ और ही था, जिसे खोलने में उसे दिक्कत आ रही है। शायद उल्टी-सुल्टी दिशा के हुक हैं, जो भूल भूलैया का खेल रचकर उसमें पराजय की फीलिंग पैदा कर रहे हैं। अचानक उसके हाथों की व्यस्त उँगलियों को सविता की उँगलियों के गर्म पोरों ने टोका। अपनी भीतर एक आभिजात्य स्त्री के रहस्य को न समझ पाने की अनगढ़ता चुभने लगी।

क्षण भर बाद ही उसने पाया कि सविता ने जादू की तरह उसकी उँगलियों का उपयोग किया और अब पिस्सी गेहूँ के आटे के पींड के रंग की त्वचा वाले वक्ष उसके सामने हैं, जिसके बीच भूरे अँधेरे के दो गोल धब्बे हैं। उसने ज्यों ही अपना थरथराया दायाँ हाथ वहाँ रखा-सविता का मुँह खुल गया। जैसे उसने बाहर रात की ठंडी हवा को भीतर लेना चाहा हो। आँखों पर ढँकी पलकें आधी खुल आई हैं। उसने उसे खींचकर अपनी सुविधा के लिए थोड़ा तिरछा किया तो चेहरा पेड़ की छाँह से बाहर निकलकर चाँदनी में आ गया। वह चेहरे की तरफ देखता हुआ ठिठक-सा गया, गोरे रंग के चेहरे को घने और काले बालों के ओरा ने घेरकर उसे बहुत अलौकिक और अप्रतिम बना दिया है। त्वचा चाँदनी सोखकर जैसे और गौरवर्णी हो गई हो।

उसे लगा, छत पर चाँदनी से नहीं, जैसे सविता की देह से रोशनी फैली है। जैसे स्वप्नलोक का दरवाजा धीरे-धीरे खुल रहा हो।

उसने सोचा, सचमुच ब्राह्मण-त्वचा ही असली त्वचा है। अकल्पनीय, और यह अलौकिक, परम्परा से रक्षित और वर्जित देह उसकी देह में पिघल रही है। उसे लगा, वह एक पवित्रता को कुचलते हुए अपनी कई पीढि़यों को पवित्र कर रहा है। सार रहा है।

उसने एक बनैली लपक के साथ उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। रखते ही नाभि के नीचे से गर्म पानी की एक लकीर बिजली की सी गति से कौंधती हुई पूरे शरीर में फैल गई, धीरे-धीरे वह शरीर से उठ कर होंठों में सिमट आई। वह सविता के होंठों को बेतरह चूमने लगा। चूमते हुए उसे लगा जैसे वह उसका चुम्बन नहीं ले रहा है, बल्कि उसकी अभी तक की उम्र की पवित्रता को सोखकर अपने भीतर जमा कर रहा है-उसके सालों की भी नहीं, शताब्दियों से संचित पवित्रता को, जो उसकी त्वचा के रेशे-रेशे में जमा थी।

वह और तेजी से होंठों का इस्तेमाल इस तरह कर रहा है, गालिबन उसकी देह ही नहीं, उसके देह के नीचे उसके घर और जमीन के नीचे पाताल तक पहुँची पवित्रता को उलीचकर अपने अन्दर कर लेगा। इसी बीच अचानक उसे लगा कि वह भीतर से इतना अधिक भर आया है कि वह उलीचा हुआ अपनी तरलता के साथ बाहर उफनने वाला है। उसकी साँस फूल आई और वह सविता की बगल में ढुलक आया। सविता ने बाएँ हाथ से उसकी पीठ पर उँगलियों की भाषा में ऐसी कुछ इबारत लिखी, जिसका अर्थ था कि उसमें अभी ऐसा कुछ है, अर्थात जो होंठों से उलीचने के लिए शेष और प्रतीक्षित है। फिर शाइस्तगी से सविता का हाथ उसकी पीठ से सरकते हुए देह के नीचे जाने लगा।

वह तृप्ति के किनारे लेटा हुआ था और भीतर की वेगवती बाढ़ किनारों को छूकर मंथर हो गई थी। तभी अचानक जाने ऐसा क्या हुआ कि सविता ने अपनी देह की मुद्रा बदली और पिंडलियों से कुछ इस तरह हरकत की कि उसकी साड़ी का हिस्सा अलग हुआ और उसने पाया, उसकी शेष देह बिल्कुल निर्वस्त्र है। बाद उसके गोरे और कोमल हाथ अचानक उसकी देह में सृष्टि के सुख का छोर तलाशते हुए उस ओर जाने लगे, जहाँ से गर्म लहर उठने के बाद एक गुजर चुका सन्नाटा भर शेष था। फिर सविता के होंठ एक बेकली से जैसे उसके शरीर के चप्पे-चप्पे की तफ्तीश कर रहे हों।

उसने सविता के वक्ष से हाथ उठाकर कमर की तरफ नाभि से काफी नीचे रखा तो बिजली की गति से सविता ने उसके हाथ को झटक कर दूर कर दिया। उसके ऐसे हाथ झटकते ही यक-ब-यक उसके तमाम रोओं की जड़ों के भीतर से एक दुत्कार सी उठी। जो बचपन की उस दुत्कार की तरह ही है जो उसने नदी में जवारे सिराने जाने वाली लड़की के स्पर्श पर अनुभव की थी। उसे लगा जैसे सविता ने उसे उसकी ब्राह्मणी पवित्रता से धकेल कर बाहर कर दिया हो। वह समझ नहीं पा रहा है कि एकाएक सविता के भीतर क्या जाग गया था ? जाने कैसा-कैसा तो भी भय भीतर घिरा और उसने पाया कि किनारों पर उफनती नदी एकाएक रेत की नदी हो गई है। बाहर छत की चाँदनी फीकी पजमुर्दा लगने लगी। उसने आँखें मूँद लीं, जैसे अब सविता की तरफ देखने का हौंसला हाथ से फिसल गया है और उसके आभिजात्य ने बहुत चालाकी से कुचल दिया है। उसके भीतर एक हिकारत और गुस्सा एकत्र होने लगा। उसे लगा, उसके भीतर गुजर रहे इस अप्रत्याशित क्षणों को शायद सविता ने भाँप लिया है और करवट बदल कर अब उसने उसकी पूरी देह को ढाँप लिया, उसकी देह पर झुकी सविता की आँखों में असीम अनुराग है। गोया वे आँखें पूछ रही हों कि अचानक तुम्हें क्या हो गया था ? फिर सविता ने बहुत आहिस्ता से बगल से उसका हाथ खींच कर अपने वक्ष पर धर दिया। तब उसे लगा, सविता की ब्राह्मणी पवित्रता ने नहीं, बल्कि एक दग्ध और प्रतीक्षित कामिनी ने उसकी अनगढ़ दैहिक समझ को दुत्कारा था।

सविता के होंठ उसके होठ पर इस  तरह और इतनी तत्परता से आ जुड़े जैसे वे उसके द्वारा पी गई पवित्रता को फिर से अपने अन्दर सोख कर उसे खाली कर देगी। लेकिन, उसकी काया का करिश्मा ही कुछ अलग था कि उसमें सतह से ऊपर उठने का साहस भर आया।

अब की बार जब सविता ने उसको अपनी ओर खींचा तो उसके होंठों को अपने होंठ के भीतर लेते हुए उसे ऐसी फीलिंग हुई जैसे वह किसी निषिद्ध की कठोर लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर उसके भीतर दाखिल हो गया हो। उसे सविता की देह में पुरानी परिचित ब्राह्मण गंध आने लगी, जिसे वह पसीने की गंध से कुचलने की कोशिश कर रहा है। वह उसे आपादमस्तक चूम रहा है और उसके थूक की जूठन सविता की समूची देह पर फैलने लगी।

बाद इसके उसके खून में एक तट को तोड़ती-सी लहर उठती अनुभव की। फिर तट टूटा और चट्टानें चटकीं और जैसे गुनगुनी नदी का स्त्रोत फूट पड़ा हो। सविता की साँसों का अन्धड़ उस नदी का अन्धड़ बन गया।

सविता के कपड़े अस्त-व्यस्त हैं। छत पर बरसती चाँदनी में खून से भीगी उसकी साड़ी का ढरका हुआ पल्ला उधड़ी हुई रक्तरंजित खाल की तरह फैला हुआ है। उसे पहली बार मूर्छित-सी पड़ी सविता को देख कर एक तसल्ली हुई जैसे उसने ब्राह्मणी पवित्रता के कवच को उसकी देह से छीलकर हमेशा-हमेशा के लिए अलग कर दिया हो।

वह थके कदमों से सीढि़यों की ओर बढ़ गया। कुछ सीढि़याँ ही उतरा था कि सीढि़यों पर रखी पत्तलों पर पैर फिसला। तमाम पत्तलों की जूठन में लिथड़ता, फिसलता नीचे आँगन में जा कर गिरा। उसने खुद पर निगाह डाली। सारे कपड़े जूठन से तर-ब-तर हैं। कमीज से दाल टपककर फर्श पर गिर रही है। उसने अपनी कमीज उतार दी। उसका काला नंगा जिस्म आँगन में चाँद की रोशनी में अंजन की काली लाट की तरह खड़ा है।

सहसा दाएँ किनारे का कमरा खुला और सविता का डिप्टी-कलेक्टर भाई बाहर आया। पीछे के कमरे से सविता के पिता बामणदाजी की घबराई आवाज आई, -‘‘क्या हुआ ? कौन है ?‘‘

तब तक उसने अपनी देह पर आ गिरी जूठी पत्तलों को उठाकर एक तरफ ढेर लगाना शुरू कर दिया। डिप्टी कलेक्टर ने एक नजर उसे देखा फिर भीतर की ओर गरदन घुमाकर जोर से कहा, -‘‘कुछ नहीं हुआ। मंगत भंळई का छोरा है। जूठन उठाने आया है। आप सो जाइए।‘‘

-‘‘अरे, तो उसे कहो सुबह आ जाए। जूठन किसी दूसरे को थोड़े ही देंगे।‘‘ बामणदाजी की आवाज एक अजीब-सी लापरवाही में डूबती हुई मंद पड़ गई।

उसे लगा जैसे उसने कमीज नहीं उतारी है। इस चाँदनी भरे आँगन में उसकी खींची हुई खाल उसके हाथ में झूल रही है। पीड़ा के अतिरेक में उसने चीखना चाहा लेकिन चीख नहीं निकली मुँह खुला-का-खुला रह गया।

तभी डिप्टी-कलेक्टर भाई अपने नाइट गाउन की रस्सियाँ कसते हुए उसके करीब आया और आश्चर्य से देखने लगा और बोला, -‘‘हँस क्यों रहा है ?‘‘ वह कुछ नहीं बोला। यह सुनकर वह जूठन से लथपथ पत्तलों को वहीं छोड़कर सीधा खड़ा हो गया। और खुद एतमादी के साथ लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ उनके घर के अहाते से बाहर निकल गया।

अब उसकी इच्छा खूब जोर से ठहाका लगाने की हुई। वह कहना चाहता था कि अब जूठन को लेने के लिए वह लौटेगा नही ! बामण सेरी को पार करते हए उसे लगा, जूठी पत्तलें घर के आँगन में छूटी हुई हैं और जूठी देह छत पर। दूर निकल जाने के बाद उसने मुड़कर बामणदाजी के घर की ओर देखा पजमुर्दा चाँदनी में वह बेरौनक लग रहा है। छत के पीछे सिर झुकाए पेड़ खड़ा है, जो अपनी छाँह को बढ़ाकर सविता की तरफ करने की कोशिश में लगा है। उसे तसल्ली हुई कि ठंडी चाँदनी के बाद सिर्फ गूँगा पेड़ ही तो है, जो गवाह बना रह सकता है।

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