अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह ‘यही दुनिया है पर शशिभूषण मिश्र द्वारा लिखी गयी समीक्षा

अजय पाण्डेय
युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय कुछ उन कवियों में से हैं जो चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करते हैं। वे कविता के साथ-साथ जीवन में भी ईमानदारी बरते जाने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में सघनता और तरलता है। इन कविताओं में जो पैनापन है वह हमारा ध्यान अनायास ही अपनी तरफ खींचता है। अजय की अधिकाँश कविताएँ आकार में तो छोटी हैं, लेकिन उनका कैनवास बहुत बड़ा है। ये ‘देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’ की तरह हैं। पिछले वर्ष पुस्तक मेले के समय अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ का विमोचन हुआ था। युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने अजय कुमार पाण्डेय के इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है जो ‘पूर्वग्रह’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। पहली बार के पाठकों के लिए इसे हम आज यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 
       
जीवन की संभावना तलाशती कविताएँ 
डॉ0 शशिभूषण मिश्र             
‘यही दुनिया है’ युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह है। इस रचना में अपने समय के जागरूक और संवेदनशील कवि के रूप में वह मनुष्य-जीवन के बुनियादी सवालों से मुठभेड़ करते हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएँ हमें न केवल इन सवालों से वाबस्ता कराती हैं अपितु अन्दर की ताकत से अपने पक्ष में खड़े होने की मांग भी करती हैं। लेखकीय तटस्थता और जनपक्षीय प्रतिबद्धता के अभाव में कोई भी रचना न तो समाज में अपना सार्थक हस्तक्षेप कर पाती है और न ही मनुष्य के संकट में उसका मार्गदर्शन कर पाती है। रचना की सार्थकता तभी है जब उसकी भावान्विति के संस्पर्श से पाठक अपने अन्दर बेचैनी महसूस कर सके और मनुष्य जीवन की गरिमा बचाए रखने की जद्दोजहद खुद को शामिल कर पाए। संग्रह में कुल 93 कविताएँ हैं जिनमें से ज्यादातर आकार में छोटी होते हुए भी संवाद बहुल हैं।
इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की यात्रा के आधे पड़ाव तक पहुंचने के बाद भी जब हम अपने समकाल पर नज़र दौड़ाने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि खरीदने-बेचने और अधिक से अधिक दिखाने की अंधी प्रतिस्पर्धा के कारण आपसी रिश्तों के बारीक रेशे छिन्न-भिन्न हो गए हैं। भूमंडलीकरण के पूंजीवादी केकड़ों ने अपने जहरीले पंजों से हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। ऐसे बेहद जटिल समय में कवि ने अपनी अभिकल्पना के सहारे परिवार को केंद्र में रख कर संबंधों के संसार को आत्मीय छुअन से पुनर्निर्मित करने की कोशिश की है। ये कविताएँ हमें जीवन के उन अनुभवों तक ले जाती हैं जिन्हें किताबी ज्ञान से नहीं अर्जित किया जा सकता। जीवन के गहरे प्रवाह में उतर कर मर्म को भेदती ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कविता है – ‘माँ के लिए’। माँ अपने शिशु को जितनी मृदुता और आर्दतापूर्ण जतन से पालती है, उतनी ही सचेतता और सततता के साथ जीवन रूपी विकास के हर पड़ाव पर स्नेह की बूँदों की बारिश करती उदारता के रंग भरती है। वह खुद अन्दर ही अन्दर धीमी लौ की तरह जलते हुए भी जीवनपर्यंत हमारी दुनिया में वत्सलता का शीतल जल उड़ेलती रहती है। माँ की इस दुनिया के पीछे की एक और दुनिया है जिसमें उसकी आत्मा का रसायन छीज चुका है। उसकी आँखों के कोरों में अटकी उदासी को हम शायद ही कभी महसूस कर पातें हों, पर कवि इसे महसूसता है –
‘मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता

माँ के लिए

जो बचपन में नींद के लिए दी गई

उसकी थपकियों की मुलायमियत बताए

जो बताए लोरी की मिठास में मिश्री की मात्रा

और मेरे बचपन से गीले

उस आँचल को

अभी तक

कोई भी हवा

क्यों न सुखा सकी? ’ (पृष्ठ-13)
माँ पर कई कविताएँ हैं ; जिनमें, ‘माँ :एक नदी’, ‘वात्सल्य’, ‘असह्य दिनों में माँ’, ‘बँटवारा’ मुख्य रूप से हमारा ध्यान खींचती हैं। माँ के जीवन के उन तमाम अँधेरे कोनो तक धंस कर कवि ने उसके मन पर पड़ी उन उदासियों की तरल रक्तिम रेखाओं की निशानदेही की है जो प्रायः एक पुरुष पूरे जीवन नहीं कर पाता –
‘असह्य दिनों में

अपनी अनुपस्थिति में भी

और हमने जब भी देखा

और जहां देखा एक माँ को

यमराज से लड़ते देखा

कहीं कोई ईश्वर तो दिखा ही नहीं

फिर कैसे कहूं

बुरे वक्त में आता है वही काम?’ (पृष्ठ-82)
माँ पर लिखी इन कविताओं में कहीं भावनाओं का लहराता संसार है तो कहीं उसके वात्सल्य की स्निग्धता –
‘माँ की गोद में

उसके आँचल से ढका एक बच्चा

नींद में आँख बंद किए

दूध पी रहा है

और माँ

उसकी रगों में

नींद सी उतर रही है।’ (पृष्ठ-24)
कवि यहाँ अनकहे की बुनियाद रचने की कोशिश कर रहा है। माँ के व्यक्तित्वांकन की यह अन्यतम  कविता है। माँ जब भी उदास होती है या कठिन परिस्थितियों में असहज होती है तब उसकी बेटी सखी सहेली बन उसके साथ खड़ी होती है पर यह बेटी जब ब्याह कर विदा कर दी जाती है तो माँ जीवन में एक बार फिर अँधेरा गहराने लगता है। ऐसे घुप्प वर्तमान से भाग कर वह स्मृतियों के सहारे अपने भूत में लौटती है और कुछ समय के लिए ही सही अपने सारे कष्ट भूल जाती है –
‘एक माँ

इस समय

बेटी के ख्यालों में खोई है

एक खामोश नदी बह रही है।’ (पृष्ठ-49)
माँ का खामोश नदी के रूप में बहने का बिम्ब अत्यन्त प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।  
संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें स्त्री की जिन्दगी के अक्षांश-देशांतर की परिधियों तक प्रवेश करते हुए कवि उसके उलट –पुलट संसार की शिनाख्त करता है। अपने परिवार के खातिर वह कितने विराम चिन्हों को रौंदती जीती रहती है। यहाँ स्त्री के उलझे-अनमने जीवन का मर्म बिंधा है। कवि का अनुभव संसार स्त्री-जीवन के उजले-गंदले प्रवाह में धंस कर उस सत्य को समझ पाता है जहाँ स्त्री एक स्वप्न को पूर्ण करने में अपने कितने स्वप्नों को स्वाहा कर देती है। स्वप्नों के टूटने की पीड़ा का बोध कितना गाढ़ा होता है यहाँ यह समझ पाना मुश्किल नहीं है। एक स्त्री किस तरह पीड़ा के इस बोध को परिवार–समाज के पूरे होने वाले स्वप्न के स्वाद के साथ घुला –मिला कर एकमेक हो जाती है। ‘अच्छी औरतें’, ‘तुम्हारा होना’, ‘रिक्त मन बज उठा’, ‘कोठे पर’, ‘नई साजिश’, ‘बेटी आई है’, ‘वह औरत’, ‘मेरे भीतर तुम्हारी उपस्थिति का सबूत,’ ‘तुम’, ‘स्त्री और नदी’, जैसी कविताएँ स्त्री-जीवन की अनुभूतियों का दस्तावेज हैं। एक पुरुष द्वारा नारी मन के अंतर्द्वंदों का ऐसा सजीव चित्रण हमें नए सिरे से आश्वस्त करता है कि स्त्रियाँ ही स्त्रीवादी नहीं हो सकती हैं पुरुष भी हो सकते हैं। यहाँ हिंदी की प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर निर्मला जैन का वाक्यांश सहज ही याद आता है जिसमें उन्होंने कहा है कि मानव के वृहद अनुभवबोध को स्वानुभूति और सहानुभूति के दायरे में बांधना मुश्किल है। यहाँ स्त्री विमर्श नहीं, बल्कि घटनाओं, चरित्रों एवं संवेदनात्मक अनुभूतियों के माध्यम से रूपाकार ग्रहण करता एक स्त्रियोचित विवेक है –
‘जब भी गढ़ते हो

नारी सौन्दर्य का

कोई नया प्रतिमान

एक नई साजिश रच रहे होते हो

उनके खिलाफ।’ (पृष्ठ-74)
  
इन कविताओं में कहीं प्रेम का उजास है तो कहीं जीवन-सौंदर्य  
‘चाँद कहीं घर में ही होता है

जब तुम होती हो घर में

अंट नहीं पाती चांदनी ।’ (पृष्ठ-19)
दरअसल जीवन में किसी को पाने की लालसा जहां ख़त्म होती है सौंदर्य वहीं से शुरू होता है। संबंधों का यह संसार बेहद सहज तरीके से हमें अपना बना लेता है और हम इससे इस कदर जुड़ते जाते हैं जैसे अपने ही जीवन का कोई हिस्सा रहा हो जो हमारी मुट्ठियों के सुराखों से रिस चुका है।
‘स्त्री और नदी’ अपनी विषयवस्तु और कहन दोनों ही आयामों में बहुत संश्लिष्ट और प्रभावी कविता है। नदी जो निरन्तर एक यात्रा में रहती है, कभी न ख़त्म होने वाली अनथक यात्रा। यह कहा जा सकता है कि सागर से मिल कर तो उसकी यह यात्रा पूरी हो जाती है! फिर वह कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा कैसे? बाहरी तौर पर तो सागर से मिलने के बाद उसकी यात्रा का अंत हो जाता है पर उसकी यात्रा यहाँ भी ख़त्म नहीं होती। स्त्री की यात्रा भी कभी पूरी नहीं होती क्योंकि वह स्वयं जीवनदायिनी है, जीवन देने वाली शक्ति ही यदि रुक गई तो सृजन संभव ही नहीं हो पाएगा। कितने–कितने रूपों में वह अवतरित होती रहती है और मानवजाति को जीवन और आकार देती उसका पालन- पोषण करती है। इसीलिए कवि ने स्त्री और नदी को अभिन्न माना है  
‘जब कोई नदी सूखती है

उसे एक स्त्री में

बहते हुए पाता  हूँ

इसीलिए कह रहा हूँ

जब तक स्त्रियाँ हैं

दुनिया की तमाम नदियों के

सूखने की चिंता से बाहर हूँ मैं।’ (पृष्ठ-113)
संबंधों के इस वितान में माँ ही नहीं पिता भी हैं जिनका जिक्र बार –बार आता है। ‘पिता’, ‘पिता और पहाड़’, ‘बंटवारा’, ऐसी कविताएँ हैं जिनमें हम पिता के उस जीवन से परिचित होतें हैं जहां दरकते रिश्तों की संकटमयी  परिस्थितियों के बरक्श दुर्धर्षता और जीवटता का संकल्प पैबस्त है। ताउम्र परिवार की जिम्मेदारी ढोते हुए पिता अपने हिस्से का जीवन भी नहीं जी पाते, मानों उनका जीवन भी परिवार के सदस्यों की मानिंद कई हिस्सों में बंटा हो और इन्हीं हिस्सों से मिल कर ही उनका समूचा अस्तित्व बनता हो। परिवार को समेटने और एक करने में ही उनका जीवन गुजर जाता है और पिता का अस्तित्व कभी पूर्ण नहीं हो पाता  
‘पहले उनके भाइयों ने उनको बांटा

बाद में हम भाइयों ने

ता-उम्र

और…सम्पूर्ण नहीं हो पाए पिता।’ (पृष्ठ-14)
‘पिता और पहाड़’ पूंजीभूत अनुभवों की कविता है। यह जीवनानुभव  वक्त की खुरदुरी पगडंडियों से गुजरते हुए ही मिलता है क्योंकि जीवन कोई सपाट रास्ता नहीं है। संग्रह में बच्चों पर कई अच्छी कविताएँ हैं जो हमें भविष्य की उम्मीदों तक ले जाती हैं, जिनमें- ‘बच्चे का खेल’, ‘बच्चा बड़ा हो गया है’, ‘बच्चे’, ‘बच्चे के दांत’, ‘सवाल’, ‘बड़ा होना’ प्रमुख हैं। 
      
आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है! इसका निर्धारण कर पाना मुश्किल है, ऐसा इसलिए भी कि चुनौतियां बहुआयामी हैं। मनुष्यता को बचाए रखने की संभावनाएं विरल हैं किन्तु कवि इस संभावना को जिलाए रखने में अहर्निश तत्पर है।संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते अपनी अंतर्वस्तु संरचना, और शिल्प में बेजोड़ है। कवि यहाँ एक वृहत्तर जीवन की अर्थ-लय और गति को पकड़ने की कोशिश करता है  
‘सरहद दो मुल्कों के बीच से नहीं

लोगों के सीने से गुजरती है

अपनी जमीन से दर-बदर लोग

लाख समेट लें सब कुछ वहाँ से

मगर बहुत कुछ छूट जाता है वहीं

…उनका अपना मौरूसी शहर

उनको याद करता है

जैसे किसी माँ का मन

परदेश गए बेटे को

लौट आने को कहता है

और गाँव पर पड़े पिता की बूढ़ी आँखें

नींद न आने तक

उसका रास्ता निहारती हैं।’
विस्थापन की इस पीड़ा के अवसाद से घिरे व्यक्ति के सामने मानो अंतिम शक्ति भी निफल हो चुकी हो। परिस्थितियों की विवशता समूचे परिवार को बेरहमी से विच्छिन्न कर देती है। ऐसे में कवि जीवन में एक नवीन संभावना का विधान रचता है –
‘तुम्हारे पस्त पड़े

मकान की देहरी पर

स्कूलों के हजारों बच्चे

हरी –हरी दूब पर

हँस रहे हैं
लड़ रहे हैं

गिलहरियों सा कुलाँच रहे हैं

अगर आ सको

तो आकर देखो

वर्षों पहले तुमने जो देखे थे सपने

उन्हें कागजों पर उकेरते हुए

और चटख रंग उनमें भरते हुए

यहाँ से विदा हो गए

वे आज जी उठे हैं

बड़े हो रहे हैं।’ (पृष्ठ-120 )।
समाज के समक्ष सकारात्मक और अग्रगामी विकल्प विकसित किये जाने में ऐसी कविता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह कविता अपने रूप गठन और अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी है कि जहां यह इति ग्रहण करती है वहीं से एक नई शुरुआत होती है। लगता है अपने ठाँव से एक लम्बी यात्रा में मिले अनुभव यहाँ आकर पूंजीभूत हो गए हों
‘बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते

व्यक्ति की मौत सपनो की मौत नहीं होती

मरने के बाद भी

वे जवान होते हैं

आकार लेते हैं।’ (पृष्ठ-120)
इस कविता के सन्देश को  इस काव्य संग्रह का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। जीवन की नवीन संभावनाओं के उपस्थापन में इस कविता का अपना अलग ही महत्व है।
भूमंडलीकरण ने हमारी जीवन –शैली में इस कदर परिवर्तन किया है कि हम अपने आसपास की दुनिया से, उस दुनिया में उपस्थित छोटी-छोटी चीजों से कट गए हैं। बाजारीकरण की अंधी दौड़ ने ऐसी तमाम चीजों को जीवन से ख़ारिज कर दिया है जो हमारे सामूहिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं –
‘उन दिनों

नोन –मिर्चे की चटनी संग

खेत में मटर और चने का साग खाने

और अंगुलियाँ चाटने में

अद्भुत स्वाद था

यह तब की बात है जब लोगों का

अंकल चिप्स और रिलायंस से

परिचय नहीं हुआ था

और

‘तोर बरफी से मीठ हमार लावाही मितवा’

सारा गाँव गाता था।’ (पृष्ठ-78)
यहाँ एक–एक शब्द सजग कर्म में नियोजित है। ‘जुगाली’, ‘जो जितना बड़ा है’, ‘वैश्वीकरण’, ‘चुप्पी’, ‘त्रासदी’ जैसी कविताओं में आज व्यक्ति के अन्दर पैदा हो चुकी आत्मनिर्वासन की प्रवृत्ति को समकालीन सन्दर्भों के साथ उभारा गया है।
संकलन की कई कविताएँ विषय के क्षैतिज फैलाव को तो व्यक्त करती हैं पर उसके ऊर्ध्वगामी विस्तार का पूरा आकलन नहीं कर पातीं। दरअसल कविता से जीवन की उक्तियाँ पुनर्परिभाषित होंने लगें तो यह उसकी सफलता है, किन्तु यदि उक्तियों से कविता ही परिभाषित होने लगे तो ऐसी  कविता जीवन की अर्थवत्ता को प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो पाती। कविता ही उक्ति को सार्थक बनाते हुए उसे नयी परिस्थितियों की गहन सम्बद्धता में व्याख्यायित करे जिससे जीवन की ठस सोच और तमाम अंतर्विरोध अनावृत्त हो सकें। संग्रह की ज्यादातर कविताएँ अपने गहरे आशय के बीच सहज, सजग और आत्मीय पठनीयता से लैस हैं। 
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‘यही दुनिया है’ (काव्य संग्रह), लेखक, अजय कुमार पाण्डेय, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2015, पृष्ठ-120, मूल्य- 300 रुपए
समीक्षक- डॉ० शशिभूषण मिश्र, 
सहायक प्रोफेसर- हिंदी, 
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बाँदा (उ.प्र.)
मो. – 9457815024,
ई-मेल – sbmishradu@gmail.com                                                       

सत्यनारायण पटेल के उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ की शशिभूषण मिश्र द्वारा की गयी समीक्षा ‘विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिए का समाज’


सत्य नारायण पटेल

सत्यनारायण पटेल का उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ अपने कहन और शिल्प के लिए इधर काफी चर्चा में रहा है। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक शशि भूषन मिश्र ने। आइए आज पढ़ते हैं सत्यनारायण पटेल के उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ की शशिभूषण मिश्र द्वारा की गयी समीक्षा ‘विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिए का समाज’    

विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिए का समाज
 
                                                             
डॉ० शशिभूषण मिश्र  
               
सत्यनारायण पटेल हमारे संक्रमित समय के ऐसे युवा कथाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन जीवन के गत्यात्मक यथार्थ को पूरी  विश्वसनीयता के साथ रेखांकित किया है। विकास की जमीनी सच्चाइयों, हाशिए के समाज के संकटमय जीवन और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी ग्रामीण राजनीति  से साक्षात्कार कराने वाला उनका उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ उल्लेखनीय हस्तक्षेप दर्ज कराता है। 320 पृष्ठों में विन्यस्त इस रचना में हमारे समय के अंतर्विरोधों में उलझे विवश ग्रामीण यथार्थ की गहन पड़ताल की गई है। अनूठी कथा-भाषा में यह रचना हमसे बोलती-बतियाती अपने सुख-दुःख साझा करती हमें अपना हिस्सा बना लेती है। उपन्यास पढ़ते हुए  हम  असंख्य बेबस चेहरों  पर पड़े जख्मों की निशानदेही कर पाते हैं जो विकास के राजनीतिक समाजशास्त्र ने दिए हैं। रचना में प्रवेश करते ही पाठक का सामना आपदग्रस्त जीवन जी रहे समाज के ऐसे हिस्से से होता है जिनके जीवन में निरुपायता और अन्धकार का साम्राज्य पसरा पड़ा है। समय  के अनगिनत उतार-चढ़ावों से जूझ रहे समाज  के स्वप्नों का चित्रण लेखक ने जिस अचूक और मर्मभेदनी दृष्टि से किया है उसके चलते उपन्यास शुरुआत से अंत तक बेहद पठनीय बना रहता है। पिछले दो दशकों के समूचे कालखंड को समेटते हुए उपन्यास के डिटेल्स अप-टू-डेट हैं। अपने समकाल पर समग्र दृष्टि से विचार करते हुए सत्यनारायण पटेल ने सत्ता-व्यवस्था की कारगुजारियों और इन्हें चलाने वाली प्रतिगामी शक्तियों की पहचान की है।
उपन्यास मृत्यु से शुरू हो कर समय की तकलीफों-हकीकतों से मुठभेड़ करता आगे बढ़ता है और जीवन-संघर्षों की अनथक यात्रा का स्पर्श कर मृत्यु पर समाप्त होता है। उपन्यास की शुरुआत गाँव  के युवा हम्माल  कैलाश की मृत्यु के प्रशमित वातावरण में  होती है। कैलाश के जीवन के अंत के साथ उसकी पत्नी झब्बू के जीवन में अन्धकार छा जाता है। इक्कीस–बाईस साल की उसकी उमर थी और आगे का पूरा जीवन –“जब झब्बू राड़ी-रांड हुई, तब उसकी गोद में तीन–चार बरस की रोशनी थी। आँखों में सपनों की किरिच और सामने पसरी अमावस की रात सरीखी जिन्दगी जो अकेले अपने पैरों पर ढोनी थी।” (पृष्ठ-13) कैलाश की इस मौत ने झब्बू को ही बेसहारा नहीं कर दिया था उसके झोपड़े के सामने वाले नीम के पेड़ में रहने-पलने वाले पक्षी और जीव भी स्तब्ध थे, मानो आज वो सब बे-आवाज हो गए हों। उपन्यास कैलाश की मृत्यु के कारणों की पड़ताल करने के क्रम में विकास के खोखले दावों की खुरदुरी सचाई  से रू-ब-रू कराता है। दरअसल गाँव और महानगर को जोड़ने वाला रास्ता मौत को आमंत्रित करता छोटी-छोटी खाइयों में तब्दील हो गया है। उसी रास्ते  से लौट रहे ट्रैक्टर की ट्राली पलटने से कैलाश सहित कई साथियों की मौत होती है। ट्राली में लदी खाद की बोरियों के बहाने लेखन ने व्यवस्था की नीतियों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है – “बोरियां भी मानो बोरियां नहीं, बल्कि जीती-जागती आम–आवाम हों, जिसे व्यवस्था की काली नीतियों की रस्सियों से बाँध, ट्राली में भर, किसी अंधी गहरी विकास की खाई में डालने ले जाया जा रहा हो और रस्सियों में बंधी बोरियां भीतर ही भीतर कसमसातीं, छटपटातीं शायद ट्राली के बाड़े से मुक्ति की जुगत तलाश रहीं हों।” (पृष्ठ-09) कहन का बिलकुल भिन्न  अंदाज और भाषा का बेधक तेवर पूरे औपन्यासिक विधान को ताजगी से भर देता है। व्यंग्य का गहरा बोध समूची रचना की अर्थ-लय में अंतर्भुक्त है।
कैलाश के न रहने के बाद झब्बू ने अपने डोकरा-डोकरी (माँ-पिता) के प्रस्ताव को (मायके में रहने) ठुकराते हुए गाँव के झोपड़े में रहने का निर्णय किया। झब्बू के सामने गाँव में हजारों प्रलोभन थे पर उनको नकारती वह सिलाई सीखती है और आत्मनिर्भर बनती है। गाँव में उन झोपड़ियों के पास कलाली (देशी शराब) खुलने के साथ एक नए संकट की शुरुआत होती है। झब्बू के नेतृत्व में झोपड़े की औरतें साहसिक और सामूहिक प्रतिरोध करती हैं जिसके चलते जाम सिंह को कलाली वहाँ से हटानी पड़ती है। कलाली हटवाने की कीमत झब्बू को सामूहिक दुष्कर्म की यातना भुगत कर चुकानी पड़ी। इस घटना के साथ जीवन, समाज और व्यवस्था के क्रूर, अमानुषिक और क्षरणशील हिस्से परत-दर-परत उघड़ते जाते हैं। झब्बू अपने साथ हुई बर्बरता के खिलाफ थाने, कचहरी ,कोर्ट सब जगह का चक्कर काट कर थक जाती है। उपन्यास अन्याय से उपजी उन मूक विवशताओं को दर्ज कराता चलता है जिनके कारण न्याय के पक्ष में कोई आवाज तक नहीं उठाता। जब ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा तंत्र ही नाभि-नालबद्ध हो, ऐसे में न्याय की उम्मीद करना बेमानी है। जाम सिंह जैसों के हाथ इतने लम्बे हैं कि मंत्री, विधायक, नेता और वकील सब उसकी मुट्ठी में हैं। झब्बू के साथ हुए अन्याय के कई प्रसंगों में लेखक ने न्याय के लिए लड़ रही स्त्री की विवशता को गहरे आशय के साथ व्यक्त किया है। मनुष्यता को ख़ारिज करने वाली ऐसी असह्य स्थितियां विचलित करने वाली हैं। अंत में रस्मपूर्ति के रूप में न्यायालय का जो ‘फैसला’ आता है उससे न्याय कि समूची अवधारणा निचुड़ चुकी होती है। उपन्यास यह प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ जाता है कि आज की न्याय व्यवस्था से आखिरकार मानवीय चेहरा क्यों गायब  है? 
  
पुलिस की कार्यप्रणाली और रुतबे से जिसका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है वह भी इस वर्दी के दुस्साहसी कारनामों से भलीभांति परिचित होता है। न्याय की उम्मीद का पहला दरवाजा पुलिस स्टेशन ही होता है किन्तु क्या मजाल कि  किसी ताकतवर व्यक्ति के दबाव, जोर-जुगाड़ के बिना यहाँ एफ.आई.आर. दर्ज हो जाए। कानूनी, संवैधानिक या खुद के लिए लिए आफत बन जाने वाले प्रकरणों को छोड़ कर यह खाकी वर्दी भी गरीब-गुरबों से जाम सिंह की ही तरह ही पेश आती है। जाम सिंह जैसी दबंगई का जज्बा यहाँ भी है पर नौकरी का  सवाल है! इसलिए सूंघ कर, बहुत चालाकी के साथ अपना हाथ बचाते हुए सेवा-पानी का रास्ता निकाल कर कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाया जाता है। कुल मिला कर यहाँ की दुनिया सीधे-सरल-कमजोर नागरिक के लिए जाम सिंह जैसों की दुनिया से बहुत अलग नहीं है। मगर यही पुलिस माल-पानी की समुचित व्यवस्था करने वालों की सेवा में कभी देरी नहीं करती। उपन्यास हास्य-व्यंग्य के कई वर्णनों के माध्यम से पुलिस व्यवस्था की कलई खोलता चलता है। देश-दुनिया की संस्थाओं से सहायता के नाम पर तिकड़म भिड़ा कर अधिक से अधिक फण्ड का जुगाड़ करने वाले गैर सरकारी संगठन हमारे देश में  कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। ऐसे संगठनों के कारण ईमानदारी से काम करने वाले संगठनों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है। रफ़ीक भाई के रूप में हम आज के एन. जी. ओ. की सोच, सरोकार और कार्य प्रणाली को व्यावसायिकता के सन्दर्भ में भलीभांति समझ सकते हैं। व्यावसायिकता ने जीवन के हरेक हिस्से की मूल्य चेतना का क्षरण किया है जिसे अनावृत्त करने का लेखकीय उपक्रम यहाँ काफी हद तक सफल हुआ है।
उपन्यास गाँव के स्कूल के माध्यम से सरकारी शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामियों को सचेत ढंग से उद्घाटित करता है। शिक्षक का चरित्र, पद की नैतिकता, विद्यार्थी-शिक्षक सम्बन्ध जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं की नोटिस लेते हुए चिंताजनक स्थितियों की ओर हमारा ध्यान खींचा गया है। स्कूल के दुबे मास्टर का चरित्र किसी शिक्षक के लिए तो शर्मनाक है ही वरन किसी आम नागरिक से भी इस तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती। आज जिस तरह सरकारी स्कूलों से लोगों का विश्वास घटता जा रहा है उसके पीछे दुबे जैसे शिक्षकों का काफी हद तक हाथ है। शिक्षा प्रणाली की इससे दुखद परिणति कौर क्या हो सकती है जहाँ राधली जैसी गरीब लड़कियों को पढ़ाई छोडनी पड़ती हो! मिड-डे-मील योजना भी यहाँ हाँफती नजर आ रही है – “जब मिड–डे-मील शुरू हुया था, तब सभी बच्चे मिड-डे-मील खा लिया करते। लेकिन जब एक बार बेंगन की सब्जी के साथ चूहा भी रंधा गया और माणक पटेल के लड़के की थाली में चूहा परोसा गया। तब गाँव में हल्ला मच गया। …दुबे मास्टर ने सब संभाल लिया। किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ लेकिन फिर ठाकुर, पटेल और ब्राह्मण घरों के बच्चों में से मिड-डे-मील कुछ खाते, कुछ नहीं खाते।” (पृष्ठ-224)तिवारी मैडम के रूप में नई पीढ़ी के जागरूक, जिम्मेदार और संवेदनशील शिक्षक की छवि देख कर हम इस बात से आश्वस्त तो हो ही सकते हैं कि शिक्षा-व्यवस्था में अगर दुबे जैसे शिक्षक हैं तो उनका प्रतिपक्ष रचने वाली तिवारी मैडम जैसी शिक्षिका भी हैं। 
उपन्यासकार ने समाज के गंदले-उजले प्रवाह में तह तक धंस कर उन मूल कारणों को पहचाना है जिनके चलते मानवीय अस्मिता क्षत-विक्षत हुई है। कुरीतियाँ तब पैदा होतीं हैं जब मनुष्यता को अपदस्थ कर दिया जाता है। रामरति के माध्यम से लेखक ने समाज की दुखती नब्ज टटोली है। कितनी हैरान करने वाली घृणित परंपरा को हमारा समाज  सदियों से मानता आया है कि, जो हमारे समाज की गंदगी साफ़ कर हमारे परिवेश को रहने लायक बनाता आया है, उसे हम मानवीय गरिमा के साथ जीने तक नहीं देते- “रोज सुबह टोपला, खपच्ची और झाड़ू उठाती। टपले में नीचे राख डालती। पंद्रह कच्चे टट्टीघरों का मैला सोर कर भरती। …जब शुरू-शुरू में साग रोटी लेती। हाथ आगे बढ़ा देती। आगे बढ़ा हाथ देख कोई पटेलन डांट देती। कोई ठकुराइन झिड़क देती। तब उसे समझ नहीं थी कि हाथ बढ़ा कर हक़ लेते। दया और भीख तो लूगड़ी का खोला फैला कर माँगी जाती। …जग्या व रामरति ने अपने मन में गाँठ बाँध ली। हम आत्मा के माथे पर जो ढो रहे वो हमारी औलाद को न ढोना पड़े।” (पृष्ठ-54) जग्या और रामरति की संकल्प शक्ति उनके मुक्ति के स्वप्न को संभावनाशील परिणति की ओर ले जाती है।
‘गाँव भीतर गाँव’ में उठाए गए सवाल पाठक के अंतर्मन को झकझोरते ही नहीं हैं वरन उसकी भयावहता से दो-चार कराकर उन स्थितियों और इनके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ खड़े होने की जरूरतों से रू-ब-रू कराते हैं। ग्राम स्वराज की परिकल्पना से उपजी पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। झब्बू और सरपंच संतोष पटेल के वार्तालाप में यह तस्वीर बहुत साफ़ देखी जा  सकती है। गाँव के विकास और गरीबों के हित का सवाल जब झब्बू उठाती है तो तिलमिलाते हुए सरपंच के जवाब में पंचायतों में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खुलने लगती हैं। झब्बू सरपंची करते हुए यह भलीभांति समझ जाती है कि पूरा तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है। कुछ कहने जाओ तो ये दबंग लाठी-तमंचे निकाल लेते हैं। केंद्र-राज्य के सत्ता-शिखरों से जिला, जनपद और ग्राम पंचायतों तक बहता भ्रष्टाचार और उसमें ऊबता-डूबता विकास का गुब्बारा जिसकी ताक लगाए सभी बैठे हैं। अंतर्राष्ट्रीय धन प्रदाता संगठनों, संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक संगठनों, केन्द्र और राज्य की योजनाओं के धन कलश विकास के गंगा जल में उतरा रहे हैं और सब गोते लगा रहे हैं कि काश! यह धन कलश उनकी मुट्ठी में आ जाए! जो लोग मर गए हैं उनके नाम पर भी वृद्धावस्था और विधवा पेंशन आ रही है। अचानक से गाँव में हांथी सूंड खूब नजर आने लगी है। मर चुके लोगों के नाम पर भी मस्टर रोल बन रहा है। उपन्यास पंचायतों में मची लूट की सोनोग्राफी है।
झब्बू गाँव में बहुत कुछ करने का इरादा लिए सरपंच बनी थी और सरपंच बनने के बाद गाँव के लिए कुछ न कुछ करती रहती थी, किन्तु बहुत कम समय में वह अपने लक्ष्य से विचलित हो गयी। उपन्यास झब्बू का पक्ष रखते हुए यहाँ पाठक को कन्विन्स करने की कोशिश करता है कि उसके  जैसे सीधे सादे और बलहीन लोगों को सत्ता में काबिज धूर्त और ताकतवर लोग किस तरह अपने मकड़जाल में फंसाते हैं। भला कैसे कोई सरपंच समझौता करने से मना कर दे जब पूरी योजना ही गायक मंत्री जैसे लोग तय कर रहे हों। गायक मंत्री की मौजूदगी में यह तय हुआ कि रेती और गिट्टी की खदानों का ठेका नए सिरे से नीलाम होगा। ठेका संतोष पटेल लेगा। मुनाफे में झब्बू भी पच्चीस प्रतिशत की भागीदार होगी। कई सुनियोजित हत्यायों के बाद झब्बू को भी मार दिया जाता है। इस प्रसंग का अंत जिस तरह से होता है वह विषयवस्तु का सही ट्रीटमेंट नहीं है। लेखक यहाँ ‘ठस यथार्थ’ का अतिक्रमण नहीं कर पाता जिससे आगे होने या हो सकने वाले सम्भवनशील यथार्थ का संकेत यहाँ मिल पाता। झब्बू की मृत्यु से उपन्यास क्या सन्देश देना चाहता है? बात केवल झब्बू की मृत्यु की ही नहीं है वरन सरपंच बनने के बाद उसके अन्दर गाँव के लिए बहुत कुछ करने की जो लालसा थी, जो स्वप्न थे उनका विस्तार किया जा सकता था बजाए जाम सिंह और माखन शुक्ला की लम्बी चर्चाओं के। जग्या द्वारा अर्जुन सिंह की हत्या के साथ जिस तरह उपन्यास अपनी इति ग्रहण करता है वह प्रतिरोध का संकेत अवश्य है पर हत्या किसी सकारात्मक और अग्रगामी विजन का विकल्प कभी नहीं बन सकती। 
      
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि नयी सदी के इन डेढ़ दशको में नई पीढ़ी के युवा कथाकारों के जो उपन्यास आए हैं उनमें इतनी परिपक्व और संश्लिष्ट राजनीतिक चेतना की उपस्थिति विरल है। उपन्यास के शिल्प पर बहुत विस्तार से चर्चा की गुंजाइश है क्योंकि कथा का टटकापन उसकी वस्तु से ज्यादा उसके शिल्प में अन्तर्निहित होता है। ‘गाँव भीतर गाँव’ साझीदार जीवन–संस्कृति के महीन धागों के छिन्न-भिन्न होने के परिणामस्वरूप गाँव के भीतर जन्म ले चुके अनंत गाँवों के बनने-विकसित होने के कारणों की पहचान गहरे कंसर्न के साथ करता है। यह एक जरूरी रचना है जिससे गुजरते हुए हमारे अनुभव में बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है।
(लमही के नए अंक से साभार)

समीक्ष्य पुस्तक : गाँव भीतर गाँव, लेखक-सत्यनारायण पटेल,

प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा          

प्र.सं. : 2015, पृष्ठ : 320, मूल्य : 200/-रुपए

सम्पर्क –

सहायक प्रोफेसर – हिंदी                                

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बांदा, 
उ. प्र.                   
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