अरुणाभ सौरभ

युवा कवि अरुणाभ सौरभ को मैथिली में बेहतर रचनाधर्मिता के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी युवा लेखक पुरस्कार प्रदान किया गया है। सम्मान गुवाहाटी में 22 मार्च 2013 को प्रदान किया  गया । इस अवसर के लिए अरुणाभ ने अपना जो वक्तव्य तैयार किया वह पहली बार के लिए पाठकों के लिए प्रस्तुत है। एक बार फिर हम अपने युवा साथी अरुणाभ को इस महत्वपूर्ण पुरस्कार के लिए बधाई देते हुए उनके रचनात्मक जीवन के लिए शुभकामनाएं व्यक्त कर रहे हैं। एक युवा कवि किस तरह अपनी बोली-बानी से जुड़ कर महत्वपूर्ण रचनाएँ लिख सकता है, वह इस आलेख को पढ़ने से स्पष्ट होता है।  तो आईये रूबरू होते हैं सीधे-सीधे अरुणाभ के वक्तव्य से।  

अपनी रचनाशीलता के विषय में
                                                
अपने लिखने को ले कर हर रचनाकार को एक संशय एक द्वंद्व हमेशा बना रहता है। मेरे साथ भी यह गंभीर सवाल है,पर जिसके एवज मे मैं इतना ही कह सकता हूँ कि लिखना मेरे लिए एक चुनौती की तरह है। हर युग मे जितनी चुनौतियाँ गंभीर होंगी उतनी ही रचनात्मक जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती जाएंगी। मैं अपनी मातृभाषा मैथिली और हिन्दी मे समान रूप से लिखता हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ मुझे मेरी मातृभाषा के लिए सम्मान मिला है जो मेरे लिए बहुत गौरवपूर्ण है। मैं उस भाषा की रचनाशीलता से जुड़ा हूँ जो जनकवि विद्यापति की रचनात्मक भाषा है। जिसमे विद्यापति ने अपना सर्वोत्तम दिया है।जिसको कालांतर मे भी आधुनिक काल मे नवजागरण के बाद हरिमोहन झा, मणिपद्म, यात्री, राजकमल चौधरी, फणीश्वर नाथ रेणु आदि ना जाने कितने महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपनी भाषिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।

                  मैथिली एक जनभाषा है। जो अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय संस्कारों, विशिष्ट संस्कृतियों के कारण मशहूर है। मैं उस क्षेत्र से हूँ जो क्षेत्र प्रतिवर्ष प्रलयंकारी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का साक्षी रहा है, जिस क्षेत्र ने न जाने कितने संताप को अपने अंदर समाहित किया है। अविकास की पीड़ा, उद्योग धंधों का अभाव,बढ़ते हुए पलायन, और उन सब के बीच गाँव और देहात के प्रति बार-बार मोह, आस्था, मुझे अपने उस क्षेत्र की तरफ खींच ले जाती हैं जो दुख-दर्द मे भी गीत गाने का  अभ्यस्त है। मिथिलाञ्चल के भी अत्यंत हाशिये के क्षेत्र कोसी अंचल का मैं हूँ जो मेरी जन्मभूमि भी है और रचनाभूमि भी। वही बाढ़, उससे उपजे विस्थापन की पीड़ा और उस सबके बीच पनपे गरीबी का मैं भुक्तभोगी हूँ जाहिर सी बात है कि मेरी रचनाओं मे वही बातें आएंगी जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। इसीलिए मैथिली मेरे लिए सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, मैथिली मेरे लिए उस जीवन की तरह है जिसके जीने का मैं आदी रह चुका हूँ। जो जीवन अपनी उपलब्धियों और सीमाओं मे एक पहचान है।

         आज भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने समस्त भारतीय जीवन को एकांगी बनाने पर मजबूर कर दिया है। इसीलिए आज इस युग मे ग्लोबल बनाम लोकल का संघर्ष भी तेज़ हुआ है।इस ग्लोबल बनाम लोकल के संघर्ष मे लोकल की जीत हो स्थानीय संघर्षों की जीत हो ,जीत हो उस विराट सामासिक संस्कृति की जो अपनी प्रचुरता मे ना जाने कितने लोक की पीड़ा को आत्मसात कर रही है। इसीलिए मेरी कवितायें उस लोक-जीवन का हिस्सा है,जो हर स्तर पर उस वैश्वीकृत ग्राम की अवधारणाओं को चुनौती दे रहा है, स्थानीय संघर्षों को अभिव्यक्ति देने की मुहिम मे शामिल है।उस लोक गीत की तरह है जिसे जीवन गा रहा है।

        ग्लोबल हस्तक्षेप मे लोकल को बचाना मेरी नैतिक ज़िम्मेदारी है, अपने विचार संस्कृति, कला, दर्शन को बचाना भी मेरी रचनाशीलता का अनिवार्य हिस्सा है। जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, संप्रदाय से ऊपर उठ कर विराट सामासिक संस्कृति का हिस्सा होना ही मेरी रचनात्मक पहचान है। इसके साथ-साथ प्रगतिशील कला मूल्यों की सर्जना करना एक रचनात्मक कार्य है। यह सब कुछ मेरी ज़िंदगी और कविताई दोनों का हिस्सा है। उस भाषा मे जहां अभिव्यक्ति का स्थानीय स्वरूप वही है जो मेरे आस-पास की बनती-बिगड़ती दुनिया है। उस दुनिया मे हम सब जी रहे होते हैं,पल-बढ़ रहे होते हैं। इसीलिए उस दुनिया मे प्रवेश करने, उसकी विसंगतियों से जूझने, उसके अंदर पसर रही विद्रूपताओं की पहचान करने, उसमे उठ रहे सवालों से जूझने, और उसकी बारीक समझ रखने की जब-जब कोशिश करता हूँ कविता बनती जाती है। इसीलिए मैथिली मेरे लिए प्रतिरोध की ही भाषा है। जो मिथिला के संघर्षशील आमजन की भाषा है, जिस भाषा मे पला-बढ़ा और शिक्षा-रोजगार हेतु उस क्षेत्र से पलायन को अपनी नियति मान लिया पर दिल के कोने मे पल रही भाषा मुझे लिखने पर विवश करती रही। जब-जब मैथिली मे लिखता हूँ अपने आस-पास के लोगों से जुड़ता हूँ। अपने गाँव को जीता हूँ, बार-बार विस्थापित होकर भी अपना गाँव जाता हूँ। वहाँ के लोकगीतों मे, लोककथाओं मे, और अपने गाँव के खेतों मे, खलिहानों मे बगीचों मे खो जाता हूँ। किसानी जीवन मे पाला गया हूँ और आज गाँव मे भी शहरी जीवन के ताम-झाम पसर रहे हैं। उस गाँव की संवेदना को बचाने की पूरी कोशिश मे ताक़त के साथ जुट जाता हूँ। फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ हिन्दी उपन्यास मेरे लिए प्रेरणा स्रोत की तरह है, जिसमे आज़ादी के बाद अभाव मे पल रहे ग्रामीण जन की पीड़ा को सार्थक, और कलात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। इतना ही नही गाँव की कलाओं, लोकगीतों, लोककथाओं और संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़ है- मैला आँचल’. फिर हरिमोहन झा, यात्री,राजकमल चौधरी और आज के मैथिली के लेखकों की रचनाओं से जुड़ना सुखद अनुभूति की तरह रहा। इसके अलावा अंग्रेजी, और रूसी साहित्य को गंभीरता से पढ़ते हुए मैंने अपने साहित्यिक ज्ञान का परिष्कार किया।

                  शुरुआती दौर में यानि इंटरमीडिएट तक मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा, जिस विज्ञान ने चीजों को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि दी। मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ, अभी भी हूँ पर हिन्दी और अंग्रेजी नहीं पढ़ा होता तो शायद मैथिली भी नही लिख पाता। इसीलिए मेरा हिन्दी और अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है, बशर्ते भाषिक राजनीति में प्रवृत्तियाँ साम्राज्यवादी नहीं हो। साथ ही आरंभिक दौर मे छात्र आंदोलन, वैकल्पिक समाजवाद मे आस्था आदि मेरे लिए जीवन जीने का तरीक़ा बन गया। इसी सब के बल पर आज निर्भ्रांत होकर आपके सामने हूँ।

                इसके अलावा साहित्य को पढ़ने की एक आदत  बचपन से ही रही। बी.ए करते-करते पत्र-पत्रिकाओं से नियमित रूप से जुड़ गया। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़कर मेरी चेतना की निर्मिति हुई है। इसीलिए बी.ए करते समय ही मैथिली की पत्रिकाओं को पुस्तकों को पहली बार देखा, एक आकर्षण अपनी मातृभाषा के प्रति हो गया सोचा क्यूँ ना इस अपनी भाषा को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बानाऊ। और फिर हिन्दी और मैथिली मे समान रूप से रचने लगा। पर शुरू से ही मैं स्पष्ट था कि जो चीज़ हिन्दी मे लिखूँ वो सिर्फ हिन्दी मे लिखूँ पर जो मैथिली मे लिखूँ वो भी सिर्फ मैथिली मे ही हो। जिस चीज़ को मैथिली मे नहीं लिख सकता उसे ही हिन्दी मे लिखता हूँ और जिसको हिन्दी मे नहीं लिख सकता उसे मैथिली मे लिखता हूँ। मैथिली मेरी उस माँ की तरह है जिसने मुझे अपना दूध पिला कर पाला है, तो हिन्दी मुझे दो वक़्त की रोटी खिलाने तैयार होने और जिम्मेदारियाँ सिखलाने वाली माँ की तरह है। दोनों ही भाषाएँ मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम इसीलिए है। पर अपनी मौलिकता मे पूरी ऊर्जा के साथ मैथिली मेरे संस्कार की भाषा है।

              जब से मैथिली में लिखना शुरू किया उस समय मैथिली मे पत्र-पत्रिकाओं का अभाव तो था ही, वैसे यह अभाव आज भी है। मैथिली मे लिखने वालों की कमी नहीं है, कमी है पत्रिकाओं की, प्रकाशकों की, पाठकों तक पहुचाने वाले नेटवर्क की। मैथिली मे हर युग मे अच्छी रचनाएँ लिखी गयी है, पर व्यापक पाठक वर्ग का अभाव, उचित प्रकाशन तंत्र के अभाव मे और वहाँ के लोगों के अंदर मैथिली को लेकर, मिथिला की संस्कृतियों को ले कर निष्क्रियता ने मैथिली मे काम करने के विश्वाश को बढ़ा दिया। एम.ए करने के दौरान 2008 मे बी.एच.यू से ही ‘नवतुरिया’ नामक मैथिली पत्रिका की शुरुआत किया अपने मित्रों से चंदा ले-ले कर और अपने खर्च के पैसों से जैसे-तैसे। मित्रों को छोड़ दिया जाय तो आम पाठकों तक पहुँचाने मे असफल रहा। पर इससे मित्रों का एक नेटवर्क ज़रूर तैयार हुआ बी.एच.यू में। ये वे मैथिली भाषी थे जो पढ़ने के लिए बनारस आए थे। उन्हें लिखना और मैथिली मे लिखी हुई चीजों को देखने का बहुत शौक था।

     सवाल मेरे लिए लिखने और मातृभाषा मे लिखने को लेकर है तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि पूरी समझदारी और विवेक से लिया गया यह व्यक्तिगत निर्णय है, ताकि मैं लोकल होकर अपने आपको बचाए रखूँ। हमेशा बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ ही निर्णायक नहीं होती है कभी-कभी गुरिल्ला वार से भी कई लड़ाइयाँ जीती गईं हैं। साहित्य-संस्कृति का काम ही जीवन को बचाना और बेहतर बनाना है इसीलिए। आज उपनिवेशवादी ताक़तें जीवन को बेचने की मुहिम मे शामिल है,और साहित्य बचाने का संकल्प लेकर चलता है, इसी विसंगतियों से लड़ने मे एक छोटा सा हस्तक्षेप मैं लिख कर, नाटकों में अभिनय कर, बेहतर मानुषी प्रवृत्तियों को आत्मसात कर पूरा करना चाहता हूँ। मेरी मातृभाषा मे लिखने की प्रक्रिया भी यही है, मेरी मंशा भी यही है। विश्व के महान लेखक रसूल हमज़ातोंव ने ‘मेरा दागिस्तान’ मे अपनी मातृभाषा आवार के संदर्भ मे एक कविता लिखी है जिसकी ये पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रभावित करती हैं-

‘’मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहे कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है,
बड़े समारोहों मे इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है।‘’

अंततः मैं यही कहना चाहता हूँ कि मेरी मैथिली मेरे संघर्षशील आम-जन की, अंतिम जन की भाषा है जो अपनी मिठास मे कोयल की कूक की तरह, मिश्री की तरह मीठी है जिसमे लिखना उस जीवन मे शामिल होना है जिस जीवन का साक्षी हूँ, भोक्ता हूँ और जो जीवन मुझे मिला है उसे पूरी गंभीरता से जीते हुए अपना हिस्सा तय कर रहा हूँ। अपने लोकजीवन में गहराई से जुड़ना ही अब मेरी रचनात्मकता भी है और रचनात्मक पहचान भी।
        

(इस वक्तव्य में प्रयुक्त पेंटिंग्स ‘मधुबनी पेंटिंग्स’ हैं जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)

संपर्क-
ई-मेल: arunabhsaurabh@gmail.com
मोबाईल:  09957833171

अरुणाभ सौरभ




जन्म;09 फरबरी 1985 बिहार के सहरसा जिला के चैनपुर गाँव में.

शिक्षा;प्रारभिक शिक्षा ननिहाल में.फिर भागलपुर और पटना में.
बी.ए.आनर्स (हिंदी), एम ए(हिंदी) बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, बी.एड.  जामिया मिल्लिया इस्लामिया,नई दिल्ली 
शिक्षा में एम .ए ;टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसल साइंस मुंबई 
हिंदी की लम्बी कविताओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन विषय पर पी-एच. डी. उपाधि हेतु शोधरत.

प्रकाशित रचनाएं…वागर्थ,वसुधा,वर्तमान साहित्य,सर्वनाम,बया,पक्षधर,कल के लिए,युवा संवाद,संवदिया,समसामयिक सृजन,जनपथ,रू,कथोपकथन,हिंदुस्तान,दैनिक जागरण,सेंटिनल आदि प्रतिष्ठित पात्र पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित.
समसामयिक सृजन ,पाखी, युवा संवाद,सेंटिनल,प्रभात खबर,परिंदे,सम्प्रति पथ,आदि में आलेख एवं समीक्षा प्रकाशित,.
मातृभाषा मैथिली में भी समान गति से लेखन.

असमिया की कुछ  विशिष्ट रचनाओं का मैथिली एवं अंग्रेजी में अनुवाद.

मैथिली कविता संग्रह..एतवे टा नहि २०११ मैथिली में बहुचर्चित.
हिंदी में कोसी की नई ज़मीं पुस्तक के पहले खंड में कई कवितायें.

रंगकर्म,साहित्यिक आयोजन,यात्रा,गायन,में विशेष सक्रियता 
सम्प्रति;अध्यापन एवं स्वतन्त्र लेखन.


जीवन और गतिशीलता एक सिक्के के दो पहलू हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना तक नहीं की जा सकती. एक कवि इसी मायने में विशिष्ट होता है कि उसकी नजर इस जीवन और इस से जुडी गतिशीलता पर बराबर टिकी होती है. नाउम्मीदी में भी वह उम्मीद तलाश लेता है. अरुणाभ सौरभ ऐसे ही युवा कवि हैं जो अपनी आंचलिक भाषा की सुगंध के साथ ही अपनी बिलकुल टटकी काव्य भाषा निर्मित करते हुए बाउम्मीद नजर आते हैं.

जीशा के भरतनाट्यम में रत पाँव यह इत्मीनान दिलाते हैं कि उनकी दुनिया बहुत खूबसूरत है. वह बहुत संभावनाओं से भरी हुई है. कवि को यह देख  कर  भरोसा होता है कि किसी की दुनिया आसानी से नहीं मरती.
जिस कवि के पास वह लुक्का है जो रात के गहनतम अन्धकार को फाड़ने के लिए व्याकुल है, जिसका दर्द ही उसे सीधे खड़े होने की ताकत प्रदान करता है  उसे भला कोई निराशा क्या रोक पायेगी. 

यह कवि महसूस करता है कि उसका समय जटिल यथार्थ का समय है. इस समय के लिए पुराने मुहावरे अप्रासंगिक हो गए हैं और इसे नए मुहावरे की दरकार है. कभी भारतेन्दु ने टके सेर भाजी टके सेर खाजा का मुहावरा रचा था आज तो हालत यह है कि अंधेर नगरी और चौपट राजा दोनों विद्यमान हैं जबकि जीवन के लिए जरूरी कोई भी सामान आम आदमी की पहुँच से ही बाहर हो गया है. यह वही आम आदमी है जिसके बहुमूल्य मत से आज के राजा लोकतंत्र के पहरुए बन कर अपनी पुरानी अकड और हनक  के साथ  गद्दी पर विराजमान हैं. लेकिन आज उसी आम आदमी को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है. महंगाई ने आज आम आदमी का जीवन कैसे दूभर कर दिया है इसे अपनी इस काव्य पंक्ति से बिना कुछ अतिरिक्त कहे अरुणाभ  ने  खूबसूरती से कह डाला है. इसी अंदाज वाले कवि अरुणाभ सौरभ की कवितायें पहली बार पर प्रस्तुत हैं.                                                

यह भरतनाट्यम का एक पोज नही है
                                                            
यह कविता प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखिका अरुंधति राय के लिए ,जो कहती हैं ,कि- ‘’मेरी दुनिया मर गयी है /मैं उसका मर्सिया लिख रही हूँ ।‘’
जीशा भट्टाचार्य एक स्कूली छात्रा है ,जो मेरे स्कूल मे दसवीं मे पढ़ती है और भरतनाट्यम करती है उसकी माँ मुझे उसकी एक फोटो देती है जिसमे जीशा अपनी उस बहन के साथ है जो चलने फिरने मे असमर्थ है। यह कविता जीशा के भरतनाट्यम और उसके जज्बे पर आधारित है……

तुम समय के खिलंदड़ेपन से अनजान
समय मे ताल भरने के निमित्त
भर देती हो कुछ ध्वनि
जबकि तुम अपनी बेहद सुंदर आँखों से
गोल-गोल देखती हो दुनिया
कभी कह नही सकती होकि –
 ‘’मेरी दुनिया मर गयी है…..
मैं उसका मर्सिया लिख रही हूँ ।‘’

इस समय मे
जबकि टेलीविज़न से चलने वाली गोली ने
छलनी कर दी संगीत की छाती
और तुम गा रही हो…..
‘’मधुकर निकर करम्बित कोकिल ….’’

जब नृत्य करने वाले पावों को काट कर
बाज़ार मे बेचा जा रहा है
लेगपीस
तुम भरतनाट्यम के एक पोज मे
थिरका देती हो पाँव

तुम्हें नृत्य करनी है –ताउम्र
गाना है –ताउम्र
अबकी अरुंधति जी से कहीं भेट हुई तो कह दूँगा ,कि
किसी की दुनिया आसानी से नहीं मरती
जिसकी शिनाख्त पर मर्सिये कि कवायद हो
और एक लड़की ने
चौदह साल की उम्र मे ठान लिया है कि
वो अपनी दुनिया मे जम के जियेगी
एक ऐसी दुनिया गढ़ेगी जिसमे
गा सके खुलेआम
निःस्वार्थ कर सके  भरतनाट्यम

शायद उसके बुलंद हौसले को मिल ही जाय मंज़िल

वैसे शुक्रिया मेरी बच्ची
मैं गर्व से कहता हूँ कि
ईश्वर की कोई औकात है तो
मुझे ही नही ,
हर किसी  को
एक बिटिया ऐसी ही दे जो बिलकुल इसी कि तरह हो
बिलकुल इस लड़की की तरह……

गीत जिसका शौक
नृत्य जिसकी मंज़िल………………….

                                       लुक्का                                                                     
शाम की धुंधलकी के बाद
गहराता अंधकार
आम के घने बगीचे मे
पसर कर ऊंघती रात
वनबिलाड़ और लोमड़ी के
हू हू …..हू……ऊ…..हू……में
कि जैसे स्वरों में धुन मिलाता संगतकार

एक तरफ भकभका कर जलता लुक्का-
कि अंधेरे को चुनौती दे कर आता हो अंजोर
किरणों के साथ रात की गेसूओं से बाहर आता सूर्य
पानी की छती पर चकचक
चिड़ियों की चहकन
द्रुतविलंबित मे माल-मवेशी की बाऊँ…बा…..उ….ऊं…..
राग भैरवी
अहिल्या विलावल
टटकी ओस-बूंद का टपकनागिरनासूखनाबिखरना,
बिखर कर खो जाना

इसी तरह लुक्का
गहनतम अंधकार फाड़ने को व्याकुल
वह लुक्का
कच्चे बाँस की मोटी लाठी में
कपड़े लपेट कर
आग जलाने के बाद
भकभका कर जला है

मेरा बदन दिन भर की रखबारी से
गत्तर-गत्तर टूट रहा है
घुटना पैर को फाड़ कर निकलना चाहता है
दर्द बढ़ता जाता है

ये वो दर्द है जो मुझे
सीधे खड़े होने की ताकत देता है
अलसुबह रोजाना
तबतलक जब सूर्य को
माया लपेटने का समय मिले
मैं लुक्के में कपड़े लपेटूँ
करियायी रात मे लुक्का की रोशनी में    
बगीचे की रखबारी के बहाने
दीना –भद्री की लोकगाथा सुनाऊँ
राजा सलहेस की कथा
कि रुका हुआ समय,
मछलियों के साथ
दो-दो फीट ऊपर
पानी की छाती पर
        उछल जाये ….

                                                                     

  मूर्तन




पत्तों पर बरखा बूंदन की
टपटप टघार
कारी बदरिया के सपने हज़ार
कमरतोड़ आई महंगाई की मार
हिन्दी पट्टी  का सूखा संसार
प्यार मोहब्बत ना दिल की बुखार
कल्पना लोक मे क्या करते हो यार…..??
यूटोपियन सुपरस्टार……….


ऐ सुनो श्वेता                                             
सुनो श्वेता
कुछ ही दिन पहले
आटाचक्की पर –
गेहूं पिसवाने गए थे हमलोग सगुनी (दूध वाली बुढ़िया) के पास
कुछ पैसे बचे हैं
जिन्हें लाना है वापिस
अभी-अभी धान की दुनाई-कटाई होनी है
और नर्गल्ला पे चोर -नुकइया ,ढेंगा-पानी ,
डेश-कोश, कनिया-पुतरा ,अथरो-पथरो……
खेलना बाकी रह गया है – हमारा

नानी से कहानी सुननी है
बिहूला- बिसहरा की, नैका- बनिजारा की
शेखचिल्ली और गोनू झा की
या वो वाली कहानी जिसमे पाताल-लोक के अंदर
लग्गी लगाकर बैगन तोड़ते हो – बौने
कहानी के उस पाताललोक  मे  भी जाना बाकी है

आधी रात मे
अपने सपनों को दबा कर
चेंहा कर उठ उठ जाना
और पेड़ों की झुरमुटों के बीच
छिपे चाँद को निहारना चुपचाप
और चाँदनी रात मे अट्ठागोटी खेल कर
मखाना का खीर पकाना भी बाकी है

और भी बाकी है / बहुत कुछ बाकी है
श्वेता !
ऐ सुनो श्वेता !!
तुम कितनी बड़ी हो गई अचानक
इतनी जल्दी इतनी बड़ी कि…………….
……………..अब…………………………….
            ……………….ब्याहने जा रही हो ……………………


मायाजाल इंद्रजाल और हम


बेहोशी के पहले की
धुधली स्मृतियों से
बेहोशी टूट जाती है
निहारता हूँ निच्छ्छ आकाश
कि उसके नीलेपन को कैद कर लिया है
बाज़ार ने

कडकड़ाता दर्द उभरता है
पैरों की एड़ियों से शुरू होकर
पूरी देह मे-
अगिनबान सा

आँखों के सामने
नर्तन करते-
तमाम टोने- टोटके संग-
-यमराज प्रति क्षण प्रतिफल
मर्त्यलोक के सबसे बड़े श्मशान में
कुबेर का कुरूप शिष्य
सौन्दर्य का घोषित साधक बन
कुबेर के साथ नर्तन करते हैं……
हम सबको यमराज लाठी भांज कर
लहूलुहान कर देते हैं
कुबेर जेब का धन चूस कर
खोखला करते हैं
झूठ –मूठ सार्वजनिक इश्तेहार है –
जेबकतरों से सावधान

और हम’- उपभोक्ता
लुटपिट कर घर वापस आ कर यम -कुबेर के मायाजाल मे
फँसते चले जाते हैं
विराट इंद्रजाल मे
बेहोशी मे रोजाना खोजता हूँ कुछ और
पर दिखता है अंधेर नगरी
चौपट राजा भी
पर भूल से भी  मिलता नही
 टके सेर भाजी, टके सेर खाजा ……


वादा


भुरभुरी रेतीली ज़मीन पर
पड़ती जेठ की धूप
नदी किनारे कि तपती ज़मीन पर
 भागता कदम-
मेरा और तुम्हारा
और जेठ की  दोपहरी से
अपने आप हो जाती शाम
और गहराती शाम मे
पानी की छत पर
नाव मे जुगलबंदी करते हम
हौले-हौले बहते पानी से
सुनता कुछ –अनबोला निर्वात –

तुम मुझसे लिपटती
लिपट कर चूमती
चूम कर अपने नाखून से
मेरे वक्ष पर लिख देती
प्यार की  लंबी रक्तिम रेखा
………………………………..
……………….सि….स…कि…याँ ….छूटने पर
तुम विदा मांगती

और जेठ की दोपहरी से
नदी किनारे से
रेतीली ज़मीन से
पानी की छत और नाव से
वादा करते कि….
       -हम फिर मिलेंगे साथियों

 



पता.
द्वारा हिंदी विभाग केंद्रीय विद्यालय
ए.फ.एस बोरझार, 
mauntain shadow 
अजारा गुवाहाटी ७८१०१७ 
असम


फ़ोन;०९९५७८३३१७१


email arunabhsaurabh@gmail .com