हर्षि शर्मा की कविताएँ

 

हर्षि शर्मा

नाम : हर्षि शर्मा
उम्र : 13 वर्ष 
कक्षा : 9
माता का नाम : किरण शर्मा
पिता का नाम : ओम प्रकाश शर्मा
विद्यालय : केन्द्रीय विद्यालय ए. एफ. एस बोरझार

पहली बार उन नवागत रचनाकारों का स्वागत करता है जिन्होंने लेखन की दुनिया में अभी पहला ही कदम रखा है और जिनके लेखन में भविष्य की संभावनाएँ छिपी हुईं हैं हर्षि शर्मा ऐसी ही रचनाकार हैं जिन्होंने छोटी उम्र में ही कविताएँ लिखनी शुरू कर दी हैं संयोगवश इनके शिक्षक इन्द्रमणि उपाध्याय की नजर इनके लेखन पर पड़ी और उन्होंने हर्षि को और बढिया लिखने के लिए प्रोत्साहित किया इसी क्रम में मित्र इन्द्रमणि ने हर्षि की ये कविताएँ मुझे भेजीं जिनमें काफी उम्मीदें दिखायीं पड़ीं इन कविताओं में मुझे किंचित हल्के-फुल्के सुधार जरुर करने पड़े लेकिन हर्षि के भावों को जस का तस रखा गया है तो आइए पढ़ते हैं हर्षि शर्मा की कविताएँ     

हर्षि शर्मा की कविताएँ
भ्रष्टाचार
आज जन-जन में आक्रोश है,
सबमें आज जोश है,
कुछ कर दिखने की सबने ठानी है,
और नेता …
      गलती तो सबसे होती है,
      चलो, आज हमने भी मानी है”
बंद करो यह अत्याचार,
बंद करो यह भ्रष्टाचार,
तुम्हारे भाषणों से हमारी भूख नहीं मिटेगी,
महंगाई कम करो तब कुछ राहत मिलेगी,
तुम्हें तो बस आता है
जनता को मूर्ख बनाना,
और अब तो तुम्हारे अफसरों ने भी सीख लिया इसे,
मुश्किल है तुम्हारी गलतियों का छुपना,
मुश्किल है तुम्हारा बच के जाना,
अब तो कुबूल लो अपनी गलतियों को,
तुम्हें ही भरना है जुर्माना,
इतनी बारी कविता लिखी,
तू भी कुछ असर दिखाना,
वरना सब गाएँगे,
वही पुराना अफसाना –
“हममें बहुत गुस्सा है, हम यह सब और नहीं सहेंगे, 
उन्होंने हमारा विश्वास तोड़ा है
उन्होंने हमारा पैसा चुराया है
अब हम जनता वही करेंगे जो हम सबसे अच्छा समझते हैं…” 
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नष्ट होता जीवन
मैं देखती हूँ,
एक लंबी सी सड़क की बत्ती
जिस पर हज़ारों कीड़े जा रहे हैं
सोचती हूँ ,
क्या वो नहीं जानते
कि उसके पास जाने से
उनकी मृत्यु निश्चित है, 
यदि नहीं जानते
तो दूसरों को देख कर ही
चौकन्ने क्यों नहीं हो जाते?
शायद वो जीना ही नहीं चाहते,
या फिर उसे अपने जीने का
एकमात्र सहारा समझते हैं वो 
इस जगत की तेज़ रोशनी में,
हज़ारों लोग से ही जीते हैं,
कीड़ों की तरह 
जो जीवन ही नष्ट कर दे,
वो जीने का सहारा
कैसे हो सकता है?
ये चमचमाती रोशनी
बहूत अद्भुत प्रतीत होती हैं उन्हें,
इस चमक-दमक में
गुम हो जाते हैं वो,
रास्ता भी धुंधला जाता हैं,
शायद उन्हें दिखता ही नहीं
कि उन्होंने कौन सा रास्ता पकड़ लिया है,
वजह जो भी हो,
यहाँ गलती तो उनकी ही है,
जो रास्ता ही नहीं दिखता,
वहाँ जाने की गलती,
जगत के चमक-दमक से,
आकृष्ट हो जाने की गलती,
दूसरों से सीख
ना पाने की गलती,
अमूल्य जीवन
तबाह कर जाने की गलती
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मौसम की मस्ती
रितुराज बन-ठन कर आता
था वो सब पे रौब जमाता,
खुद को सबसे सुंदर बतलाता
घृणा भाव आ कर उपजाता
तपते सूरज की तेज़ धूप से
सब जल्दी जाते हैं ऊब से,
फिर भी गर्मी न मौका छोड़े
मुँह मिया मिट्ठू की चादर ओढ़े
बोले…
पूरा साल बच्चे करते,
छुट्टियों की खोज,
मैं आती तो हो जाती है,
रोज़ सबकी मौज,
मैं आती तो परोसने भी,
खूब मज़ा करती हैं,
अचार-पापड़ सुखाने के लिए,
रोज़ मीठी बनती हैं
लोग नगर सब अस्त-व्यस्त हैं
कुछ तो खुद में ही मस्त-मस्त हैं,  
इतने मे वर्षा जो आई
सारे लोग भयभीत हैं भाई
वर्षा आई, बोली …
मैं भी किसी से कम नहीं हूँ,
माना सर्वगुणसम्पन्न नहीं हूँ,
मैं जो आती सब थम जाते
सब मुझ पे ही नज़र टिकाते
इतने में ठंडी भी आई
कमर तोड़ वो सर्दी लाई,
बोली मैं तो सबसे निराली
हर घर में बनवाऊँ चाय की प्याली
मैं आऊँ तो सब कितना सुंदर
सब लोग दिखते रज़ाई के अंदर,
सबके गल हो जाते लाल-लाल
कुछ तो बचते हैं बाल-बाल
यहीं हुआ बहस का अंत,
साल बीता और समय भी खत्म,
मगर कोई परिणाम न निकला,
आप ही बताइये …
आखिर कौन है सर्वोत्तम! 
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समय
समय के पंछी उड़ गए,
हम पीछे ही रह गए,
हम से वो यह भी कह गए,
क्यों किया ना तुमने,
इसको इस्तेमाल?
समय को इस्तेमाल?
क्यों ना था तब ऐतबार?
इस से ऐतबार?
वक्त किसी के लिए रुकता नहीं
अगर तुम रुके,
तो ये और तेज़ी से भागेगा
ज़िंदगी में हमेशा चलते रहो,
गलती हो, तो भी दौड़ते रहो,
कूदो, चोट खाओ, गिरो भी,
मगर …
      कभी रुको मत 

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बच्चे
क्या तुमने देखा हैं सूरज को
बिना चमचमाते हुए?
क्या तुमने देखा है फूलों को
बिना महकते हुए?
क्या तुमने देखा है तारों को
बिना टिमटिमाते हुए?
क्या तुमने देखा है लहरों को
खुद-ब-खुद ठहर जाते हुए?
क्या तुमने देखा है लोगों को
लोकल ट्रेन में बिना धक्के खाते हुए?
नहीं तो सुन लो 
जैसे लगेंगे ये सब
अपनी खूबियाँ छुपाते हुए,
वैसे ही लगते है बच्चे
रोज़ काम पर जाते हुए!
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)