शैलेन्द्र जय

युवा कवि शैलेन्द्र जय का पूरा नाम शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव है. इनका जन्म ४ फरवरी १९७१ को प्रयाग में हुआ. इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की. और आजकल इलाहाबाद के सिविल कोर्ट में कार्यरत हैं.


इन्होंने कविताओं के अलावा कुछ नाटक भी लिखे हैं. इनकी कवितायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. आकाशवाणी इलाहाबाद से समय समय पर इनकी कविताओं का प्रसारण होता रहता है.


अभी तक इनका एक काव्य संग्रह ‘स्याही की लकीरें’ प्रकाशित हुआ है.

न तो शैलेन्द्र जय को नया कवि कह कर नजर अंदाज किया जा सकता है और न तो इनकी कविताओं को कवि का पहला प्रयास कह कर एक झटके में फैसला दिया जा सकता है. क्योंकि शैलेन्द्र की कविताओं में आदमी और कविता की भरपूर संवेदना रची-बसी है. अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों स्तर पर ये कविताएँ पूरी तरह से खरी उतरती हैं और अपने रचनाकार को सम्पूर्ण बनाती हैं. शैलेन्द्र की कवितायें हारे थके, टूटे और बिखरे आदमी को उसके परिवेश से, जहां कोसो दूर दिखायी देती हैं वहीं ये कवितायें नए समाज की संरचना में लगे आदमी के लिए सहायक साबित होती हैं.


                                                                                       स्व श्री कैलाश गौतम

स्याही की लकीरें

टेबुल लैम्प के नीचे
सिमटता ज्ञान
असुविधाओं से आहत मन
स्वयं को पहचानने में लगा मस्तिष्क
तथा जल में पडी बालू जैसे उदासीन लोग
क्या करूँ मैं
आक्रोश की प्रतिच्छाया ही उतर पाती है कागज़ पर
खुरदुरापन कागज़ का सोख लेता है
खींची गयी स्याही की लकीरों को
एक दिन भी नहीं बीतता
प्रारम्भ हो जाता है फिर लेना संकल्प
युगों के लिए
जीवन की रिक्तियां भरी जाती हैं दुश्चिंताओं से
और पड़ा रहता हूँ मैं एक तरफ
सिर्फ तमाशबीन बन कर

मेरी कविता

जानता हूँ
मेरी कविता में वह चिंगारी नहीं
जो ले ले रूप अग्नि शिखा का
और राख कर दे जलाकर
उन दोयम दर्जे की चीजों को
बन कर मानक जो
चिढा रही है मुंह
अपने से किसी योग्य को
फिर भी लिखता हूँ मैं कविता
न जाने क्यों.




लिखता हूँ कविता
जो सुनसान अकेली राह में
सुख देती है किसी साहचर्य का
कविता रखती है क्षमता
उस चलनी की
जो कर सके अलग
चोकर को दानों से

इच्छाएँ हार नहीं मानतीं

बहुत छकाती हैं इच्छाएँ मुझे
अहंकार भरती हैं मेरे अंदर
तो कभी वासना जगाती हैं
विनम्रता की चादर से ढकती हैं कभी
तो कभी विश्वास का छिलका निकाल कर
हीनता की परतों की
अनुभूति करातीं हैं
इतना विरोधाभास लिए क्यों होती हैं इच्छाएँ
नाजुक भी होती हैं कठोर भी
किसी संकल्प के लिए करती हैं प्रेरित
तो कभी निराशा की ओर ले चलती हैं

हारने की स्थिति में पहुँच जाता हूँ कभी कभी
लेकिन इच्छाएँ हैं कि हार नहीं मानतीं

एक कविता लिख कर

जानता हूँ मैं
बड़े आदमी हो तुम
बहुत चालाक और सफल
शायद कल्पना भी न कर सकूं मैं
तुम जैसा होने की.
क्योंकि मैं नहीं कर सकता वह
जो तुम कर रहे हो
पर क्या तुमसे निर्धारित हो गयी मेरी सीमाएं



एक कविता लिख कर
जो आनंद पा लेता हूँ मैं
लाखों रुपये गलत तरीके से कमा कर
नहीं पा सकते तुम




मैं कविता का अर्थ जानता हूँ
इसलिए कीमत भी
लेकिन तुम तो यह भी नहीं जानते
कि तुम क्या कर रहे हो.
क्या पा रहे हो
और क्या खो रहे हो.

एक बाजी थी मेरे हाथ

एक बाजी थी मेरे हाथ
चाहता तो जीत जाता
लेकिन मेरी विनम्रता ने
विपक्षी को जिता दिया




एक बाजी थी मेरे हाथ
चाहता तो जीत जाता
लेकिन मेरी भावनाओं ने
मुझसे गलती करा दी

एक बाजी थी मेरे हाथ
चाहता तो जीत जाता
लेकिन मेरे सिद्धांतों ने
आखिरकार रोक लिया मुझको

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७६-ए/१, पुष्पांजलि नगर,
भावापुर, इलाहाबाद




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