हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ.


हरीश चन्द्र पाण्डे

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ प्रायः ही ऐसी साधारण बातों को ले कर शुरू होती हैं जो हमें एकबारगी अत्यन्त साधारण लग सकती हैं. लेकिन ज्यों-ज्यों हम पंक्ति दर पंक्ति उनकी कविताओं में आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों जैसे जीवन में आश्चर्य-लोक की सैर करते चलते हैं. यह आश्चर्य-लोक भी ऐसा जो बिल्कुल हमारे समय और समाज का होता है. इन कविताओं में विडंबनाओं को उभारने का हरीश जी का बिल्कुल अपना व्यंग्य-बोध होता है जो अन्दर तक हिला डालता है. आज जब देश अपना 68 वाँ गणतन्त्र-दिवस मना रहा है ऐसे में उनकी एक कविता ‘लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते’ हमारे देश ही नहीं समाज की एक ऐसी विकृति को खोल कर हमारे सामने रख देता है, जो यथार्थ है और जिसे हम अपने सामने ही रोजाना घटित होते देखते हैं. बल्कि कह लें कि हम खुद को ही उस पात्र के रूप में पाते हैं जो इस घटना के लिए उत्तरदायी है.इस कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए – ‘श्रम कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं कराया जा सकता है/ पर कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से/ एक उस रंग के लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है/ वह अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है/ चीख-चीख कर बेच रहा है.’ ये कविताएँ इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुईं हैं और हमें वरिष्ठ साथी कामरेड के. के. पाण्डेय ने पहली बार के लिए उपलब्ध कराई हैं.तो आज प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की दो तारो-ताज़ी कविताएँ.
हरीश चंद्र पांडेय की कविताएं
मछुआरे
मछुआरे मछलियां ही नहीं खाते
जैसे आलू की खेती वाले केवल आलू नहीं खाते
मछलियों को पहले रुपयों में बदलना होता है
इस पुल से होकर ही भूख के उस पार जाया जा सकता है
यह पुल टूटता है तो कोई नहीं कहता कि एक पुल टूट गया है
यही सुनाई देता है
एक मछुआरा डूब गया गहरे समुद्र में
नौका और जाल का ऋण पानी में रहकर ही चुकाना है
जो भागा मछुआरा तो जल-सीमा पार धर लिया जाएगा उधर
मछुआरे के कर्ज के लिए कोई बट्टा खाता नहीं होता किसी बैलेंस शीट में
कोई एयरपोर्ट मछुआरे के भागने के लिए नहीं होता…
लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते
लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते
वरना एक लड़का कब से कहे जा रहा है- झंडे ले लो, झंडे ले लो
पूर्व-संध्या पर ले आया था झंडों को उधारी पर
कि बच्चे खरीदेंगे या उन के लिए उनके मां-बाप
कोई ड्राइवर भी ले सकता है स्टेयरिंग के पास फहराने
किसी मेज या छत पर फहर सकते हैं
पर साइकिल के हैंडिल पर फहरते झंडे का जवाब नहीं
आगे जो बैठा हो नन्हा बच्चा
और नीचे गतिशील युगल-चक्रों की संगत हो
लड़के के गले में उभर आई नसें जताती हैं
कि सुबह-सुबह उसने अपने गले से कितना काम लिया है
अपने आजू-बाजू उसने दो झंडे फहरा रखे हैं
दूर से ये खुले हुए डैने लगते हैं
श्रम कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं कराया जा सकता है
पर कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से
एक उस रंग के लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है
वह अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है
चीख-चीख कर बेच रहा है
सब सुनते हैं पर लाउडस्पीकर नहीं सुनते
पता नहीं कैसे हैं ये लाउड स्पीकर
जो बोलते तो हैं पार्षद से प्रधानमंत्री तक के लिए
पर सुनते नहीं किसी के लिए भी।
सम्पर्क

हरीश चन्द्र पाण्डे

मोबाईल- 09455623176
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है.)

आशीष मिश्र का हरीश चन्द्र पाण्डे पर आलेख ‘शब्द जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं’


कविता लिखने के लिए जिस सूक्ष्म अन्वेषण दृष्टि की जरुरत होती है वह आजकल कम कवियों में दिखायी पड़ती है। इसीलिए आजकल की कविताओं में उस धार की प्रायः कमी दिखायी पड़ती है जिसकी अपेक्षा एक पाठक कविता को पढ़ते समय कवि से करता है। कविता कितनी परिश्रम की माँग करती है इसे एक बेहतर कविता पढ़ कर जाना-समझा जा सकता है। एक जमाने में लोग ‘हंस’ को राजेन्द्र यादव का सम्पादकीय पढने के लिए खरीदते थे। उनका सम्पादकीय लम्बा-चौड़ा होने के साथ-साथ धारा से बिल्कुल अलग कुछ विद्रोही किस्म का और विचारोत्तेजक होता था। बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि ‘हंस’ पत्रिका के उसी दौर में सम्पादक राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के जनवरी 2004 अंक में अपनी सम्पादकीय ‘मेरी तेरी उसकी बात’ की जगह कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की एक छोटी सी कविता ‘अखबार पढ़ते हुए’ प्रकाशित की थी। हंस का सम्पादकीय पृष्ठ कुछ इस तरह था।  
मेरी तेरी उसकी बात
‘अखबार पढ़ते हुए’
हरीश चन्द्र पाण्डे
ट्रक के नीचे आ गया एक आदमी
वह अपने बाएँ चल रहा था
एक लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में
वह कहीं बाहर से आया था
एक नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से
एक औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए
एक नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए
ये कल की तारीख़ में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं
कल की तारीख़ में मेरे बच कर निकल जाने के समाचार है।
‘नए वर्ष की इसी शुभकामना के साथ’
राजेन्द्र यादव
1-1-2004
कविता को लगातार खारिज करने वाले एक कहानीकार सम्पादक द्वारा अपनी सम्पादकीय की जगह इस कविता को प्रस्तुत करना ही बता देता है कि हरीश जी की एक कवि के रूप में ख्याति क्या और कैसी रही है। चुप रहना उनका स्वभाव ही नहीं वह प्रतिबद्धता है जो एक मनुष्य के रूप में हममें होनी चाहिए। लेकिन जहाँ बोलना चाहिए वहाँ मैंने उन्हें मजबूती से बोलते और अपने कहे पर दृढ़ और अटल रहते भी देखा है। हरीश जी पर इस दौर के प्रायः सभी छोटे-बड़े रचनाकारों ने लिखा है। ‘पाखी’ के एक अंक में जब नामवर जी से अपनी पसंद के कवि का नाम बताने के लिए कहा गया तो थोड़े ना-नुकुर के पश्चात उन्होंने चार कवियों देवी प्रसाद मिश्र, अष्टभुजा शुक्ल, हरीश चन्द्र पाण्डे, गीत चतुर्वेदी का नाम मुख्य तौर पर लिया था।
      
मुझे अच्छी तरह याद है कि मार्कंडेय जी ने एक बार ‘कथा’ के ‘समालोचन’ खण्ड के लिए कवि हरीश जी का चयन किया था। हरीश जी पर केदार नाथ सिंह और मंगलेश डबराल से आलेख लिखवाना तय किया गया। सम्पादकगण यह भलीभांति जानते हैं कि इन दोनों रचनाकारों से लिखवाना कितना कठिन और दुष्कर होता है। लेकिन मैंने जब इस बावत दोनों रचनाकारों से आग्रह किया तो न केवल उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया बल्कि निश्चित समय सीमा के अंतर्गत लिख कर भेजा भी।
     
दो साल पहले हरीश जी ने अपनी उम्र का साठवाँ पड़ाव चुपके से पार कर लिया। तभी मैंने अनहद में उन पर कुछ विशेष देने की योजना बनायी थी। अनहद के छठें अंक में यह योजना क्रियान्वित भी हुई। इस अंक में मैंने बिल्कुल युवा आलोचक आशीष मिश्र से हरीश जी पर एक आलेख लिखने के लिए आग्रह किया। अनहद के अंक में यह आलेख छपा भी है। अभी कुछ दिन पहले ही आशीष को तीसरा अनुनाद सम्मान दिया गया। संयोगवश आज आशीष का जन्मदिन भी है। आशीष को सम्मान और जन्मदिन की बधाई देते हुए आज ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत है उन्हीं का एक आलेख ‘शब्द जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं’।  
शब्द जहाँ भिगोये चने की तरह अँखुआ रहे हैं 
आशीष मिश्र 
मनुष्य के लिए सबसे प्रिय व काम्य जीवन है। पर उपभोग की अनन्त चाहतों और छिछले दैनंदिन जीवन के नीचे यह काम्यता दुर्लक्षित हो जाती है। आचार्य शुक्ल सभ्यता के बढ़ने के साथ कविता की कठिनाई के बारे में लिखते हैं। इस प्रक्रिया में वे कविता को जीवन की इस काम्यता से जोड़ते हुए यही व्यंजित कर रहे होते हैं। आज परिस्थितियाँ आचार्य शुक्ल की कल्पना से भी ज़्यादा जटिल हैं। और कविता क्या है में जिस संकट का हलका-सा आभास मिलता है वह पूंजीवाद की प्राथमिक अवस्था का संकट है। पूंजीवाद की इस अवस्था में पूँजी का प्रपंच और जीवन की काम्यता एक द्वन्द्वात्मकता में होती है। उत्तर-पूंजीवादी दौर में यह द्वंद्वात्मकता नष्ट होने लगती है। अब जीवन की काम्यता से हमारा जीवन-बोध प्रभावित नहीं होता बल्कि उत्पादन की शक्तियाँ निर्धारित करती हैं। माध्यम निर्मित आभासी दुनिया वस्तु-सत्ता को ही निर्धारित, निर्देशित और नियंत्रित करती है। आज सामूहिक अवचेतन को आच्छादित कर उसे एकायामी बनाते जाने की अकल्पनीय क्षमता इन नियामक शक्तियों के पास है। और मुक्ति की धारणा किन्हीं सार्वभौमिक मूल्य में नहीं वस्तुओं के उपभोग में है। इस संरचना से जल्दबाज़ प्रतिक्रिया इसी संरचना के एक दूसरी अंधी गली तक ले जाती  है। मनुष्य की सारी इच्छाएँ, पहचान और प्रतिक्रिया, अर्थात उसके चेतन-अवचेतन के गहनतम हलके तक बाज़ार से जुड़ गये हैं। और उसके चारों तरफ़ दुनिया नहीं, उसकी निर्मितियाँ, उसकी सपाट छवियाँ ही फैली हुई हैं। इस समय जो चीज़ हमें जीवन का स्मरण कराये वह सुन्दर है। जो उस अलक्षित से हमें जोड़े वही सुन्दर है। शुक्ल जी के शब्दों में जो उस प्रच्छन्न को उद्घाटित करे वही कविता है। शीर्षासन कर रहे इस भाव-बोध का प्रतिरोध ही आज सौन्दर्य और कविता का सार है। बिना इस प्रतिरोध के कविता सम्भव ही नहीं। अगर कलाएँ हमारी निर्मित आत्मबद्धता के दायरे का परिहार करती हुई जीवन तक नहीं ले जा सकतीं तो उनकी सार्थकता का क्या मानी है! कलाओं की समाकृति, रंग, अनुपात और अंगों का समलयत्व आदि अपने आप में मूल्य नहीं रखतीं। उनका मूल्य इस निर्मित आत्मबद्धता के परिहार, जीवन को रचने और दुनिया को उसकी वस्तुवत्ता उपलब्ध करा सकने की सक्षमता के कारण है। हरीश चन्द्र पाण्डे उन विरल कवियों में हैं जो बिना किसी घोषणा के अपनी कविता में यही करते हैं। वे कविता को माध्यम नहीं, सोचने और महसूसने की मौलिक भूमि की तरह लेते हैं। वे कविता में छुद्र उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं हैं। न सतही नारेबाज़ी, न ओछी स्वीकार्यता और न पल्लवग्राहियों को आश्वस्त करने की चाह है। हरीश चन्द्र पाण्डे हमारे सामान्य अनुभव की अमानवीयता और उसमें दिपदिपाते मद्धम जीवन- दोनों को ही उसकी द्वंद्वात्मकता में रचने और गहराई में उतरने के विश्वासी हैं।
यह आत्मविश्वास व तज्जनित धैर्य ही है जो हरीश चन्द्र पाण्डे को रेडीमेड अवधारणाओं के बजाए संवेदनशीलता और सजग ऐंद्रियबोध के जरिए जीवन में उतरने का पंथ प्रशस्त करता है। वे जानते हैं कि कविता में विचार-तत्त्व अन्य अनुशासनों से अलग, सहजतः भाव-सम्बन्धों के बीच से पैदा होता है। और जीवन-मूल्य की तरह सौंदर्य-बोध के स्तर पर रचा जाता है। जो  संवेदनात्मक दिशा से व्यंजित होता है और वह उसी रास्ते उपलब्ध भी किया जा सकता है। एक अर्थ में सारी कलाएँ जीवन-जहान सम्बन्धी अवधारणाओं को ढीला करती हैं, उससे ग्रहणशीलता का आग्रह करती हैं। वे तर्क, विचार,अवधारणा, रूढ और सर्वग्राह्य संकेत-व्यवस्था से बाहर एक सार्थक अतर्क, एक वस्तुनिष्ठ केऑस और अपरिचित-परिचित संवेद्य दुनिया रचती हैं। विचार अन्ततः एक बन्द व्यवस्था में परिणत हो जाता है और कलाएँ निरन्तर बाहर की तरफ़ खुलती हैं। कविता के भीतर की दुनिया अन्य कलाओं की अपेक्षा, जीवन्त हलचल से भरी दुनिया होती है। दूसरी तरफ़, विचारधारा निर्धारक, सत्ताक-ठस्सपन से भरते जाते हैं। यह लगातार अपने भीतर के प्रतिपक्ष को काटता हुआ एब्सोल्यूट सच बनने की प्रक्रिया में लगा रहता है। 
“उसकी आराधना में
फूल चढ़े थे सबसे पहले
फिर जानवर चढ़े
और फिर आदमी ही आदमी।‘’
हरीश चन्द्र पाण्डे मनुष्य के नाम पर मनुष्य की कोई धारणा-अवधारणा रचने के बजाय एकदम खुले ढंग से छोटे-छोटे भाव-सन्दर्भों को अनावृत करते हुए अपनी भाव-दृष्टि से समकालीन मनुष्य के अस्तित्व के कोने-अंतरों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। यह मनुष्य, यह जीवन जो उनकी कविताओं में रचा गया है, समय के स्पष्ट फ्रेम का जीवन है। पर यह समय किसी राज्य द्वारा उद्घोषित, किसी प्रधानमंत्री, किसी पूँजीपति, किसी पार्टी द्वारा घोषित और किसी अकादमी अध्यक्ष द्वारा अनुशंसित समय नहीं है। यह मानवीय संवेदनाओं का संवेद्य और विशिष्ट रूपाकार है। मनुष्य की चाहतों, विश्वासों और उसकी कशमकश को अवधारणाओं से अलग, मौलिक ढंग से पकड़ने की सफल कोशिश है। एक अर्थ में इस अमूर्त और अमानवीय सभ्यता में मूर्तता और मानवीयता के पुनर्खोज की कविता है। इन कविताओं में छोटे-छोटे एकान्त और पखेरुओं की ढेर सारी चहचहाहटें हैं। दुख और अवसाद को महसूसना, सुख में चहकना, प्रेम और घृणा में असामान्य होना इस कवि-व्यक्तित्त्व की विशिष्टता है। झूठी स्थितिप्रज्ञता इस कवि-व्यक्तित्त्व का काम्य नहीं है। गहरे अर्थों में कविता मात्र ही इस स्थितिप्रज्ञता का विरोध रचती है। 
 
      हमारी इच्छाएँ व्यक्त हों पेड़ों की तरह
      बरसात में जैसे वल्कल हो जाते हैं भारी और मोटे
      जैसे पतझड़ में झरने लगते हैं पत्ते
      जैसे फूल टंग जाते हैं वसंत में
      परिस्थितियाँ गुजरें हममें से ऋतुओं की तरह
      हमें पौधों से पेड़ बनाते हुए
      हरा हो हो के लौटे हमारा पीलापन
      जड़ें हमारी महसूस करें अपनी एक पत्ती का गिरना
      एक एक फूल का हँसना महसूस हो जाए
      न तरस के जियेँ हम न मरें अघा-अघा कर
      रूढ़ियों से न हों स्थापित
      विस्थापित न हों अनबरसे मेघों से”
हमारी इच्छाएँ व्यक्त हों पेड़ों की तरह! मनुष्य की इच्छाएँ पेड़ों की तरह व्यक्त हों – इसकी क्या व्यंजना हो सकती है? मनुष्यों की तरह व्यक्त होने के क्या मायने हैं? अगर इच्छाएँ मनुष्यों की तरह व्यक्त हों तो कवि को क्या दिक़्क़त है? पूरी कविता से यह व्यंजित हो रहा है कि मनुष्य की तरह होना श्रेणीकृत, सत्ताक और आत्मदमनकारी संरचना है। पेड़ों की तरह होना इस संरचना की आलोचना करते हुए भी संरचना मात्र से विश्रृंखलित नहीं है। आख़िर तरह यहाँ भी है और पूरी कविता इसी तरह का बखान है। यह कविता सभ्यता की आलोचना करती हुई एक सार्थक जीवन-बोध अर्जित करती है। यह मनुष्य की प्रकृति से इंटीमेसी की पुनर्खोज है। और मनुष्य की आन्तरिक दुनिया की खोज के साथ प्रकृति का पुनर्स्थापन भी है। यह इंटीमेसी हमारे जीवन का सौंदर्य है। नितान्त लौकिक सौन्दर्य। यहाँ मनुष्य को उसकी कालबद्धता के साथ सम्मान्य समझा गया है। हरा हो हो के उसके पीलेपन का लौटना उसकी प्रकृति है। यह असार का सार ही उसका सौंदर्य है।
हरीश चन्द्र पाण्डे मनुष्य की तरह सोचते हैं। उनका संकट नागरिक होने का नहीं मनुष्य होने का संकट है। हमारे समय में माध्यम निर्मित दुनिया हमारे अस्तित्व को नागरिकता में ही रिड्यूस कर देना चाहती है। बल्कि नागरिकता में भी नहीं; उपभोक्ता में। इस नागरिकता का सार उपभोक्ता है। हरीश चन्द्र पाण्डे चीज़ों को मनुष्य की दृष्टि-बिन्दु से देखते हैं। यह मनुष्य कोई निरपेक्ष तत्त्व नहीं है। जैसा की ऊपर स्पष्ट किया गया- देश-काल के फ्रेम का मनुष्य है। रोज के संघर्षों से दो-चार होता मनुष्य है। यह कवि नागरिक भी है पर नागरिकता के संकटों को बहुत गहराई से मनुष्यता की भूमि पर परखना और देखना चाहता है। वह दैनन्दिन जीवन और घटमान को मानवीय सार और उसकी मूलभूत संवेदनाओं के धरातल पर परखना चाहता है। इन कविताओं का कवि नागरिक संकट को नागरिकता के सामान्य-बोध के धरातल पर समझ और राजनीतिक भर्त्सना कर कवि-दायित्व से निर्भार नहीं हो लेता। वह इस दैनन्दिन सामान्य को मनुष्यता की अपनी अर्जित भूमि से देखता है। संभवतः यह कविता मात्र का तरीक़ा है। यहीं कविता रोज के प्रेस कान्फ्रेंस और पैनल डिस्कसन से अलग होती है। और इसी अर्थ में कविता दुनिया को ज़्यादा मूलगामी ढंग से समझने का प्रयास हो सकती है। वे जानते हैं कि कविता का रास्ता राजनीति के कागज़ पर कुएँ खोदने और वृक्ष लगाने से अलग है। हरीश चन्द्र पाण्डे कई बार अपने समय पर तीखी प्रतिक्रिया भी करते हैं पर वह भी मनुष्यता की एक अर्जित भूमि से पैदा होती है। हमारा सामान्य दैनन्दिन जीवन दमन और अमानवीयता के अलक्षित महीन सूत्रों से बुना गया होता है। अधिकांशतः हमारा ध्यान उन सूत्रों पर नहीं होता। सूत्रों द्वारा निर्मित दृश्य संस्थानों पर होता है। ये संस्थान दृश्य और गम्य लगते हैं पर इनका कारण सर्वसामान्य लगते दैनन्दिन जीवन में ही छिपा है। यह हमारा रोज का जीवन-व्यवहार, जिस पर हमारा ध्यान नहीं जाता, दमन और क्रूरता के रेशों से ही बुना है। अन्तःवृत्तियों और संस्थानों के बीच द्वन्द्वात्मक संबंध होता है, दोनों एक-दूसरे के लिए आधार बनते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे को पढ़ते हुए ये अन्तःसूत्र दृश्य हो उठते हैं। आदमी और झोले की स्थानापन्नता उद्घाटित हो जाती है।
      “सुनो!
      जो आदमी इस यात्रा में झोला नहीं बन सकता
      इसी तरह खड़ा रहेगा यात्रा भर   
      झोला बन कर।”
यह झोले का यमक नहीं है। अलंकार और छविमयता हरीश चन्द्र पाण्डे का काम्य नहीं। यह ऐसा समय है जब झोला मनुष्य के पद पर बैठा हुआ है और संवेदनशील मनुष्य विस्थापित हो कर झोले की तरह लटका हुआ है! इस कविता का शीर्षक है- ‘आदमी और झोला’। बहुत चाक्षुष विवरण में आगे बढ़ती है और इन अंतिम पंक्तियों में सघन विडम्बना में बदल जाती है। यह हमारे रोज का इतना सामान्य अनुभव है कि हमारा इस क्रूरता पर ध्यान ही नहीं जाता। हरीश चन्द्र पाण्डे इसे देख पाते हैं क्योंकि वे इसे अपनी अर्जित मनुष्यता के धरातल से देखते हैं। इसी तरह पोखरण परमाणु परीक्षण पर बुद्ध मुस्कराये हैं शीर्षक कविता सब-कुछ उलट देने वाले समय की शिनाख़्त करती है-
     “इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिम्ब
     कि पृथ्वी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
     और कहा जाय
     बुद्ध मुस्कराये हैं।”
यह कविता फ़ासिज़्म के सांस्कृतिक निहितार्थों को खोलती है। लाफिंग बुद्धा के उदात्त बिम्ब को संहारक अस्त्र में बदल दिया गया। यह एक सांस्कृतिक परंपरा से लड़ने का तरीक़ा था। फ़ासिज़्म सिर्फ विचारधारा में नहीं बल्कि बहुत धूर्तता से निर्मित छवियों और उन्माद में छिपा होता है। राजनीति इस घटना के वैश्विक और आर्थिक हित को विश्लेषित करती है। कविता इसे सांस्कृतिक और मानवीय सन्दर्भ-बिन्दु से देखती है। वह इस त्रासद समय को दर्ज़ करती है जहाँ हमें और हमारी भाषा को निर्मित किया जा सकता है। सांस्कृतिक धारा के उदात्त बिन्दुओं को धुँधला किया जा सकता है, बदला जा सकता है, मिटाया जा सकता है। राजनीति घटमान के गहन निहितार्थ को समझने में सक्षम नहीं होती पर जब इसे कविता में संस्कृति और मनुष्यता की भूमि से देखा जाता है तो वह व्यंजित हो उठता है।
हरीश चन्द्र पाण्डे की संवेदना का भूगोल भी विस्तृत है- पहाड़ से लेकर मैदान तक। पर वे इस विस्तृत अनुभव-संसार से विशिष्ट छविपूर्ण और चमकदार चीजें नहीं चुनते। वे अधिकतर ऐसे विषयों को कविता में पकड़ने की कोशिश करते हैं जिनसे हमारा दैनन्दिन जुड़ाव तो होता है, इसके बावजूद वह हमारी पकड़ से बाहर रहता है! और वे विषय के आन्तरिक भाव-सम्बन्धों को जिस तरह खोलते हैं, वह उनके करुणाक्षम भावदृष्टि का प्रमाण और वस्तु-स्थिति को तटस्थ ढंग से खोल पाने की फ़ितरत दोनों है। वे जानते हैं कि सुन्दरता के अपने मायने हैं। वहाँ भी हित और हिंसा के तनाव काम करते हैं। सौन्दर्य और संवेदनशीलता भी हिंसा, दमन और क्रूरता के महीन तारों से बुनी इस संरचना का ही प्रभावोत्पाद है। चीजें एक निर्मित दायरे में ही अपना रूपाकार ग्रहण करती हैं। ऐसा कोई भाव नहीं जो इस दायरे को छोड़ कर उन्मुक्त हो जाए। उनकी पहली पुस्तिका में एक कविता है- कसाई बाड़े की ओर। जिसमें
कसाई बैठाता है रिक्शे पर
गोद में बिठाता है बकरी को प्यार से।
जब एकबार बकरी के कान पर बैठ जाती है मक्खी
बकरी संवेदनशील है
कसाई उससे भी अधिक संवेदनशील
कसाई मक्खी भगाता है।
कसाई हल्के से बकरी का कान मलता है और बकरी सोचती है दुनिया का सबसे नेक आदमी मेरे पास है। इस कविता का अन्तिम बन्द सौंदर्य और संवेदन के प्रति, उसके निहितार्थों और प्रतिफलन के प्रति और सजग करता है-
     “कसाई अनजाने में भी सहलाता है कान
     उसकी आँखें बकरी के कान पर हैं
     उसका रिक्शा
     कसाई बाड़े की ओर जा रहा है…. ।“
वस्तु-स्थिति के अन्तःसूत्रों को पूरी करुणा और सावधानी के साथ इस तरह खोल कर रख देने की क्षमता हिन्दी कविता में बहुत विरल है। कविता से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि कसाई का बकरी से प्रेम निरर्थक है, जल्दबाज़ी होगी। यह तो है ही। पर कविता में और गहराई में उतर सकने के खिड़की-दरवाज़े भी हैं। आख़िर यह गलत तो नहीं है कि कसाई बकरी के कान से मक्खी उड़ाता है। और उसका कान प्यार से मलते हुए दिखाई पड़ता है। पर साथ ही रिक्शा धीरे-धीरे कसाई बाड़े की तरफ़ चला जा रहा है। दरअसल चीजें अपनी सीमाओं के साथ इसी तरह व्यवस्थित होती हैं। यहाँ हरीश चन्द्र पाण्डे कसाई को विलेन नहीं बना रहे हैं बल्कि एक विडम्बना बोध पैदा करना चाहते हैं। इसी जोड़ की एक दूसरी कविता है- अधूरा मकान
हमारे चारों तरफ़ मौजूद दुनिया ही हमारे भावों, विचारों, स्वप्न और चाहतों का अधिष्ठान होती है। यह परत दर परत, जो कई बार विवादी भी हो सकते हैं, हमारे मन में जमा होता है। कोई भी वस्तु हमारे भाव-सम्बन्धों से जुड़, हमारे सपनों और कल्पनाओं में घुलकर, अपनी एक वस्तुसत्ता के बावजूद, बड़े थल-काल में फैलने लगती है। हरीश चन्द्र पाण्डे इन वस्तु-सम्बन्धों को बहुत सूक्ष्म ढंग से पकड़ते हैं। और काव्य-वस्तु बड़े मानवीय संदर्भों को खोलने लगती है। अधूरा मकान हमारे समकालीन सामाजिक यथार्थ में ढलने लगता है। यह जो अधूरा मकान है इसे दो कमरे का मक़ान बनना थाफ़िलहाल एक कमरे के बाद काम बन्द है / जो कमरा अभी बनना है वह नक़्शे के हिसाब से बड़ा कमरा है। यह एक ज़रूरी व सहज विवरण है पर पूरी कविता के सन्दर्भ में नई व्यंजना से दीप्त हो उठता है। वे घट्य की कारणता और उसके नियोजनीय सन्दर्भों को जिस गहराई से रचते हैं उसे कविता का सत्कार्यवादकहा जाना चाहिए
     “भविष्य का कमरा अभी बिखरा है अपने चारों ओर
     रेत है एक कोने पर और उसे हवा से बचाया जाना है
     एक कोने पर सरिया है इसे पानी से बचाया जाना है
     ईंटें बिखरी हुईं और कुछ बने दरवाजे भी
     ये बरसों से जमा अपनी पहली तारीख़ें हैं
     बहने या जंग लगने से इन्हें बचाया जाना है।”
इन पंक्तियों के पीछे की भाव-दृष्टि एक विस्तृत सन्दर्भ को उद्घाटित करती है। ज़रूरी नहीं कि पाठक इस सामाजिक सन्दर्भ से पढ़ते ही परिचित हो जाए और हमारे समय की व्यंजना को उपलब्ध कर ले। यह सब उसमें धीरे-धीरे खुलेंगी। यह मकान के अधूरेपन की ख़ुशबू है!
     “अधूरा मकान यह
     आधा सच है आधा सपना
     आधा हँसी है आधा रोना
     यह ताजा कटे बकरे की छटपटाती देह है
     एक कामना है जो मरते आदमी को मरने भी नहीं देती।”
अधूरा मकान यह ताज़ा कटे बकरे की छटपटाती देह है! यह एक कामना है जो मरते आदमी को मरने भी नहीं देती। अधूरे घर के पूरे होने की तड़प को, एक छोटी-सी मानवीय चाहत को इतने मार्मिक ढंग से रच पाना हरीश चन्द्र पाण्डे को हिन्दी कविता की उपलब्धि बनाता है। 
रवीन्द्र कालिया, संतोष चतुर्वेदी और हरीश चन्द्र पाण्डे
कविता में हरीश चन्द्र पाण्डे अपनी छापें नहीं लादते। वे स्थितियों और घटनाओं को सजाते नहीं, सिर्फ़ उसे दृश्य करते हैं। उसका पुनर्सैयोजन करते हैं जिससे भाव-छवियाँ स्पष्ट हो जाएँ। जिससे मूल भावदृष्टि दीप्त हो उठे। दुनिया की वस्तुवत्ता का इतना सम्मान करने वाला इस पीढ़ी में ऐसा दूसरा कोई कवि नहीं है। वे जानते हैं कि जीवन मक्का काशी में है। जीवन दिल्ली मुम्बई में है। यहाँ इस जगह भी है जीवन, पिराई के बाद गन्ने के सूखे छिलकों में भी। उस बच्चे में भी जो इसे गाते हुए बटोरे लिए जा रहा है। बस इसे किसी घड़ीसाज़ की चिमटी से पकड़ लेने की ज़रूरत है। हरीश चन्द्र पाण्डे इसी विस्थापित जीवन की वस्तुवत्ता को जगह दिलाना चाहते हैं। और उनकी कविता इसी प्रयास की फलश्रुति है। कविताएं पढ़ते हुए, हरीश चन्द्र पाण्डे कई अर्थों में केदार नाथ सिंह के सहगामी लगते हैं। पर कविता में वस्तु-सत्ता के प्रति व्यवहार की ज़मीन पर दोनों अलग रास्ते जाते दिखाई देते हैं। केदार नाथ सिंह वस्तु-सत्ता को पीस कर चूर्ण बना देते हैं और उसे अपने मनोवांक्षित ढंग से रचते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे वस्तुवत्ता को रुखड़े और उसके विसंवादी स्वरों के साथ जगह दिलाने का प्रयास करते हैं। चीज़ों के बारे में बोलने के बजाय चीज़ों को ही खड़ा कर देते हैं। सभी कविताएं एक सहज विवरण से शुरू होती हैं। महराजिन बुआ’ सारे विश्वासों के बीच विधवा हुईं / अब मरघट की स्वामिनी हैं।बीच-बीच में वस्तु-स्थिति को तीक्ष्ण बनाने के लिए सहज-सामान्य बिम्बों का उपयोग करते हैं-
     “पंडों के शहर में
     मर्दों के पेशे को
     मर्दों से छीन कर
     जबड़े में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह।”
सामन्तवाद और पितृसत्ता के खिलाफ़ खुद को रच रही स्त्री का बहुत सशक्त बिम्ब है। हरीश चन्द्र पाण्डे बहुत गहराई से सभ्यता द्वारा किए जा रहे अमूर्तिकरण का प्रति-दुनिया रचते हैं। सभ्यता के क्रम में चीजें अमूर्त होतीं, प्रतीक और संकेतों में बदलती जाती हैं। सभ्यता और प्रबंधन का काम इस प्रक्रिया से ही सम्भव हो पाता है। शुरुआत में कैलेंडर सिर्फ़ एक संकेतक होता है- महीने और ऋतु-चक्र का। कैलेंडर से बाहर दुनिया की वास्तविकता बहुत बड़ी होती है। कुछ समय तक दोनों बराबर और साथ-साथ होते हैं। पर इससे आगे सिर्फ़ कैलेंडर बचता है। इससे बाहर ऋतु-चक्र खो जाता है, वस्तुवत्ता खो जाती है। कभी चैत्र कहने से रवि की फ़सल और उससे जुड़ा पूरा श्रम सामने होता था, तवे-सी जलती धरती उपस्थित हो जाती थी। सावन कहते कजरी और झापस से तर हो जाते पर आज सिर्फ़ कैलेंडर पर एक शब्द है, बारहों महीने जैसा ही एक महीना। जो सारहीन और सपाट है। अब देश नहीं सिर्फ़ उसका नक़्शा बचता है। घड़ी से बाहर समय की संकल्पना ही नहीं बचती। आदमी पहचान-संख्या में बदल जाता है। दुनिया नहीं बचती सिर्फ़ उसका सिमुलक्रा बचता है। और कलाएँ ठस, सपाट और बड़बोली होकर रह जाती हैं। कविता नहीं पेस्टीशे बचता है। पर संवेदनशील कविता अपनी प्रकृति में ही इसका विरोध रचती है। कविता चीज़ों को फिर से लौटा लेना चाहती है। हरीश चन्द्र पाण्डे घड़ी की उपयोगिता जानते हैं पर घड़ी द्वारा विस्थापित दुनिया को अनिवार्य मानते हैं।
इधर सबसे ऊँची पहाड़ी के माथे पर धूप का टीका लगा
कि पूरी घाटी में सात बज गये। जाड़ों के दिनों में धूप नहीं
हल्द्वानी जाने वाली बस बजाती ये सात
कई विकल्प थे सात बजाने के
केवल घड़ी के पास नहीं थे सात बजाने के लिए
कोई घड़ी नहीं रच सकती समय को।
     “तब किसने रचा होगा ये समय?
     चाँद तारे सूर्य जंगलों ने
     हरकारों ने
     औरतों ने
     या फिर सबके श्रमदान से रचा गया होगा ये समय।”
कोई घड़ी नहीं रच सकती समय को। इसे घड़ी के बाहर विस्तृत दुनिया ने रचा है। घड़ी तो उसे नक़ल कर, उसे संकेतित करने और मापने के लिए बनाया गया यन्त्र है। पर यह घड़ी बहुत गुमनाम तरीक़े से इस दुनिया को विस्थापित कर देती है। अपने कारण और संकेतित दोनों को विस्थापित कर देती है। कविता इस दुनिया को पुनः स्थापित करती है। कविता इस प्रच्छन्नता को उद्घाटित करती है। इसी तरह की दार्शनिक गहराई युक्त कविता है- ‘पर्दा’।
जिसे बच्चों की तालियों के बीच
एक स्थान को दो भागों में बाँटते हुए टांग दिया गया था।
हमारे अविभाज्य अखण्ड दृश्य-जगत को
दो लोकों में बँटता
आत्महत्या की परिणति सा
लटका हुआ है परदा।
यह परदा संकेतों, बिम्बों, छवियों और प्रतीकों से बनी बेजान पर सक्रिय,प्रभावी दुनिया का है।
     “इस परदे की अपनी एक अलग सत्ता है
     वर्षों से लटक रहा है जो दरवाज़े पर
     इसमें कुलाचें भरते हिरनों के पाँव
     जमीन को छू नहीं पाये हैं अभी तक
     बन्दरों की वो लम्बी छलाँग
     हवा में ही है अभी भी
     सूर्य बादलों की गिरफ़्त से
     बाहर नहीं निकल पाया है।”
इस परदे पर दुनिया चटकपूर्ण तो है पर ठहरी हुई और असार है। अन्तिम दो पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में बहुत व्यंजक बन जाती हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे सभ्यता के इस गहन संकट को समझते हैं। और यह कहने दीजिए कि कि इस तरह की समझ उनकी पीढ़ी में बहुत विरल है। वे कविता में दो चीजें एक साथ करते हैं। एक तो वे दुनिया के रूप-रस-गन्ध को फिर से रचने का प्रयास करते हैं। और दूसरे, पूँजी द्वारा अपने हित-सोधन में नष्ट होते जीवन-संदर्भों को कविता में बचा लेना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि ये स्वाद कैसे आकार लेता है? जो फल न डाल पर रह सका और न पक्षियों की चोंच में आ सका इसलिए धरती पर गिर गया,
      नीचे टपक पड़े उस अंश का स्वाद कैसा होगा ये जमीन ही जाने।
     “क्या पता ज़मीन ही हो वह अंश
     जो किसी अनअंटी चोंच से गिर पड़ा हो
     पकते हुए ललछोंहे सूर्य को कुतरते वक़्त।” 
इसकी व्यंजना है कि धरती माटीपाथर का ढूह नहीं, रूप-रस-गन्ध का आगार है। सौन्दर्य और प्रेम का अधिष्ठान है। इन पंक्तियों पर इसलिए भी ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि यह अतियथार्थवादी संरचना इनकी कविताओं में विरल है पर धीरे-धीरे सघन होता गया है। सम्भव है कि दुनिया की विस्थापित वस्तुवत्ता को लौटाने के लिए यह संरचना अनिवार्य हो। आम और पत्तियाँ, जंगल में बछड़े का पहला दिन, प्यास आदि इसी तरह की कविताएं हैं।
    
      “परदेस में लड़कों
     ससुराल में लड़कियों के एकान्त में
     बहता रहा।”
हरीश चन्द्र पाण्डे एकान्त में बहते इस धारे के पानी को रचते हैं। इस पर विश्वास करते हैं। कवि जानता है कि इसके सूख जाने का ख़बर ले कर आये पोस्टकार्ड का सिर्फ़ एक कोना नहीं नष्ट हुआ है, यह जीवन का नष्ट हुआ हिस्सा है। फिर भी कवि जानता है कि एकान्त में बहता यह धारे का पानी उच्छलित होगा और न हो तो कम अज कम उसका स्वप्न, स्मृति और उसे पाने की इच्छा तो ज़रूर बनी रहे। रेगिस्तान से आईं औरतें, जहाँ थानों के दूध से होता हुआ आँख के पानी तक पहुँच गया था अकाल। यहाँ पाणी से खेलती हुई भी अपनी जमीन पर लौटना चाहती हैं। वे पहाड़ और रेत के रिश्ते को समझती हैं फिर भी रेत में लौटना चाहती हैं-
     “वे भी लौटेंगी अपने घर …..ज़रूर लौटेंगी
     जैसे हर तेज झोंके से निपटने के बाद
     डाल लौटती है अपने मुख्य तने की ओर।”
जब वे लौटेंगी तब उनके लिए उसी रेत में देवदारु जैसे जंगल लहरा रहे होंगे। हरीश चन्द्र पाण्डे कविता में बार-बार जीवन की तरफ़ लौटने का प्रयास करते हैं। एक अर्थ में उनकी कविताएं हर बार नये तरीक़े से लौटने के प्रयास की सफ़ल फलश्रुति हैं। वे चाकचिक्य के हिंसा और उसके मानवद्रोही सार को समझते हैं। किसी भी तरह के चाकचिक्य में मानवीय सामान्य से दूर जाने या फिर उसे ढकने का प्रयास होता है। सहजता हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का ख़ास गुण है। उनकी पीढ़ी की कविताएं देखते हुए यह गुण और भी ख़ास लगता है। इस पीढ़ी के अधिकांश कवि भाषा में तरह-तरह का जादू करने का प्रयास करते हैं। जो मूलतः दो तरीक़े से किया जा रहा है। पहला, चौंकाने का प्रयास। दूसरा, भाषा में लोक-बिम्बों की तहें डालते हुए एक विशिष्ट छविमयता अर्जित करने का प्रयास। यह दोनों ही रतिज प्रभावोत्पात हैं और पाठकों में एक ख़ास उत्तेजना में परिणत होते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे इस रूप-विधि से बचते हैं। वे इसकी प्रतिपत्तियों से अवगत हैं। पाण्डे जी बहुत हल्के बिम्बात्मक विवरण में आगे बढ़ते हैं। और दुनिया की वस्तुवत्ता का सम्मान करते हुए व्याघाती तत्त्वों को भी नहीं बरजते। जिससे जीवन के प्रति सघन अनुराग के बावजूद कविता प्रगीतात्मकता से बच जाती है। वे देहात जाती आख़िरी बस के साथ अपने परिवेश को पकड़ते हैं। उसकी गरीबी, उसका कर्दम भी देख सकते हैं-
     देखना एक दिन
     इसका मालिक बड़े मालिक में बदल जाएगा
     ये देहात टाउन एरिया हो जाएगा,
     और ये बस ख़ून की उल्टियाँ करते-करते
     बैठ जाएगी एक जगह
     दिहाड़ी मज़दूर सी।”
मालिक बड़े मालिक में बदल जाएगा और देहात टाउन एरिया हो जाएगा तो फ़िर बस ख़ून की उल्टियाँ करते-करते क्यों बैठ जाएगी? जहाँ हर वर्ष भारत के कई पूँजीपति वैश्विक पूँजीपतियों की पंक्ति में बैठ जाते हैं, वहाँ मज़दूर ख़ून की उल्टियाँ करते करते क्यों मरते हैं? यहाँ बिम्ब भी साध्य है। बिम्बों का सबसे सचेत प्रयोग वह है जब वह माध्यम मात्र न रह कर अपनी सत्यता और सघनता से स्वयं साध्य बन जाए। अपनी सहजता के बावजूद इस श्लिष्टता के कारण ये कविताएं पाठक से सजगता की माँग करती हैं।
     बड़ी सावधानी से खोलो इन्हें
     कोई कोना कटे ना, फटे ना
     ऐसे खोलो चिट्ठी जैसे पोटली खोली जाती है
     इसमें के शब्द
     हमारे लिए भिगोये गये चने हैं।”
आशीष मिश्र
सम्पर्क –
आशीष मिश्र –
मोबाईल – 08010343309
                     
                      
                                                                        

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ

हरीश चन्द्र पाण्डे आज सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि अपने-आप में एक मुकम्मल पता है. चुपचाप सृजनरत हरीश जी अपनी कविताओं में ऐसे अछूते विषयों को उठाते हैं जिससे गुजर कर लगता है अरे यह तो हमारे घर-परिवार या आस-पास का जीवन, समस्या या अनुभूति है. फिर हम उनकी कविताओं में अनायास ही बहते जाते हैं. अभी हाल ही में पहल-96 में हरीश जी की बेजोड़ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. पहली बार के लिए इन कविताओं को अपनी एक टिप्पणी के साथ भेजा युवा कवि शिवानन्द मिश्र ने जिसे हम यहाँ पर जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं   

‘एक बुरुँश कहीं खिलता है’, भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं’ और ‘असहमति’ जैसे काव्य संग्रहों के रचनाकार वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. उनकी कविताओं में भावनाएँ छल-छल करती बहती हैं. हम उनकी हाल की लिखी कविताओं से गुजरते हुए, मानव मन के कोमल पक्ष के साथ-साथ यथार्थ के उस कड़वे सच से भी दो-चार होते हैं जिससे हम कहीं न कहीं मुंह मोड़ लेते हैं. वही कड़वा सच जब हमारे समक्ष अपना भयावह रूप ले कर खड़ा होता है तब हमारे पास उससे बचने का कोई विकल्प नहीं होता. कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ हमारे लिए भविष्य के प्रति एक चेतावनी तो हैं ही, साथ ही कहीं न कहीं ये हमें सजग और सचेत भी करती हैं. ‘सहेलियां’ कविता में घर पर मिलने आई बेटी की सहेलियों का अपनापन, उनका चहकना, पुराने दिनों को याद करते हुए भावनाओं के ज्वार में डूबना-उतराना देख कर हरीश चन्द्र पाण्डे जी कहते हैं, “जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं/ पखेरू चहकने लगे हैं/ किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं/ खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे/ संसार के सारे कलुष धुल गए हों………..वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं/ उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू/ भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा………….. ये सब सजो लेंगी इन पलों को/ हम समो लेंगे” फिर कैसे भयावह समय में हम जी रहे हैं उसकी तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं,  ”यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा/ एसिड की बोतल खरीद रहा है…..” ‘कछार-कथा’, आदमी को अपनी हद में रहने की नसीहत देती है. लेकिन क्या करें उन लोगों का…..”जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे/ कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर/ कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर/ पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी/ और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर/ उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी/ और आदमियों से कहा ये लो जमीन” कछार में बस जाना इतना आसान भी तो नहीं था. लोग डरे भी थे मगर वाह रे भ्रष्ट ‘तंत्र’ “ढेर सारे घर बने कछार में/ तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए/ लंबे-चौड़े-भव्य” और “कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब” “पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना/ उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से/….हरहराकर चला आया घरों के भीतर” और इस अफरातफरी में भी हरीश चन्द्र पाण्डे की ही नजर है जो ढूंढ़ रही है…….” जाने उन बिंदियों का क्या होगा/ जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां”

सार्वजनिक नल 
इस नल में 
घंटों से यूं ही पानी बह रहा है 
बहाव की एक ही लय है एक ही ध्वनि 
और सततता भी ऐसी कि 
ध्वनि एक धुन हो गई है 
बरबादी का भी अपना एक संगीत हुआ करता है 
ढीली पेंचों के अपने-अपने रिसाव हैं 
अधिक कसाव से फेल हो गई चूड़ियों के अपने 
सुबह-शाम के बहाव तो चिड़ियों की चहचहाहट में डूब जाते हैं 
पर रात की टपकन तक सुनाई पड़ती है 
पहले मेरी नींद मे सुराख कर देती थी यह टपकन 
अब यही मेरी ठपकी बन गई है 
मैं अब इस टपकन के साये में सोने लगा हूँ 
हाल अब यह है 
जैसे ही बंद होती है टपकन 
मेरी नींद खुल जाती है…


उत्खनन


केवल सभ्यताएँ नहीं मिलती

उत्खनन में सभ्यताओं के कटे हाथ भी मिलते हैं 

आप इतिहास में दर्ज एक कलात्मक मूंठ को ढूँढने निकलते हैं

उसकी जगह कलम किया हुआ सिर मिलता है

चाहे से, न चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी

यह बिल्कुल संभव है कि कभी

गांधी को अपने तरीके से खोजने निकले लोगों के हाथ

चश्मे के एक जोड़े के पहले

कटी छातियों के जोड़ियों से मिलें

शायद ही कोई बता पाए

ये इधर से उधर भागती स्त्रियों के हैं

या उधर से इधर भागती

और शायद ही मिले चीख पुकारों का संग्रहालय ‘

मिलेगा तो कोई यह कहते हुए मिलेगा पीछे मुड़ते हुए

कि बर्बरों को फांसी पर लटका दिया गया है

और वह भी इस वजन से कहेगा

जैसे मंशाओं को फांसी पर लटका दिया गया है

उत्खनन में मंशाओं की बड़ी भूमिका होती है


सहेलियां 

आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है 
सहेलियां घर पर आएंगी 

खाना होगा 
गपशप होगी खूब 

चीजें तरतीब पा रही हैं 
ओने-कोने साफ हो रहे हैं 
खुद की भी सँवार हो रही है 
पिता तक पहुँचती आवाज में माँ से कह रही है
-यही पहन कर न आ जाना बाहर 

नोयडा से रुचि आई है 
बैंग्लोर से आयशा 
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु 
सरोजनी से दिव्या 

शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर ….

… …ग्यारह बजे आ जाना था उन्हें 
बारह बज गए हैं 
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए 

वे शायद आ रही हैं 
मोड़ की उस ओर जहां आंखें नहीं पहुंच रहीं 
आवाजों का एक बवंडर आ रहा है 

 हाँ, वे आ गई हैं 
कॉल बेल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका 
गेट का दरवाजा पीट रही हैं थप-थप-थप्प 
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है 

अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है 

वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं 
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे 
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक आर्केस्ट्रा बज रहा है 
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से 

वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं 
धम्म- धम्म- धम्म सोफों पर ऐसे गिर रही हैं 
जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं

 थोड़ा ठंडा-वंडा 
थोड़ा चाय-बिस्कुट 
थोड़े गिले-शिकवे…

और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं 
एक ग्रुप फोटो के साथ…. 
वे कॉलेज के अंतिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी 
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए 
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से 
साड़ी कुछ मां ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी 
ऊपर कंधे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर 

 एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है 
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले 
कई बार गिरते-गिरते बची है 
तीसरी खुद को कम 
देखने वालों को अधिक देख रही है 
मरी-मरी जा रही है 
भरी-भरी जा रही है 

कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुंभ लगा है 
वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं 
उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू 
भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा 

वे उचक-उचक कर चहक रही हैं 
चहक-चहक कर मंद हो रही हैं

 ….अब उनकी बातों की जद में सहपाठिनें हैं 
वे चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जो 
और वे दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में 
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं 

अभी यह कमरा कमरा नहीं 
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है 

…..धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है 
अब एक बार में एक स्वर मुखर है 
अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें 
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लंबी सुरंग में प्रवेश कर गई है
 ….चुप्प 
और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं 
पखेरू चहकने लगे हैं 
किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं 
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे 
संसार के सारे कलुष धुल गए हों 

भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं 
ये सब सजो लेंगी इन पलों को 
हम समो लेंगे 

…..समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं 

अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं 
इस छोर पर एक मां कई बेटियों को विदा कर रही है 
उस छोर पर कई मांएं आंखें बिछए खड़ी हैं 

यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा 
एसिड की बोतल खरीद रहा है….. 

कछार-कथा 

कछारों ने कहा 
हमें भी बस्तियां बना लो …
जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया 

लोग थे 
जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे 
कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर 
कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर 

पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी 
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर 

उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी 
और आदमियों से कहा ये लो जमीन 

डरे थे लोग पहले-पहल 
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए 
बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन 
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं 
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था
…जाओ मौज करो 

कछार एक बस्ती है अब 

ढेर सारे घर बने कछार में 
तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए 
लंबे-चौड़े-भव्य 

यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलजार है 

बच्चे गलियों में खेल रहे हैं 
दुकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं 
डाक विभाग डाक बांट रहा है 
राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है 
मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं 

कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब 

पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना 
उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से 
….हरहराकर चला आया घरों के भीतर 

यह भी ना पूछा लोगों से 
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था 
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ 
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में 
लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा 
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है 
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ 
 अखबारों ने कहा 
जल ने हथिया लिया है थल 
अनींद ने नींद हथिया ली है 

अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय 

औरतें जिन खिड़्कियों को अवांछित नजरों से बचाने 
फटाक से बंद कर देती थीं 
लोफर पानी उन्हे धक्का देकर भीतर घुस गया है 
उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है 
जाने उन बिंदियों का क्या होगा 
जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां 

पानी छत की ओर सीढ़ियों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलांगते 
न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर …
अजगर की तरह बढ़ा 
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते 
उसकी रीढ़ चरमराते 

वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा 
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते 

फिलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है 
यह चिंताओं का टीला है एक 
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है 
उऋणता के लिए छ्टपटाती आत्माओं का जमघट है 
यहां से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए 
बढ़्ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं 

वे बार-बार अपनी जमीन के अग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं 
जिन्हे भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे 

(पहल-96 से साभार)

सम्पर्क 

हरीश चन्द्र पाण्डे 
मोबाईल – 09455623176

शिवानन्द मिश्र
मोबाईल – 8004905851

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

हरीश चंद्र पाण्डे के कहानी संग्रह ‘दस चक्र राजा’ पर रमेश प्रजापति की समीक्षा


हरीश चन्द्र पाण्डे की ख्याति आम तौर पर एक कवि की है। इसमें कोई संशय भी नहीं कि हरीश जी हमारे समय के बेहतरीन कवियों में से एक हैं। लेकिन अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से हरीश जी का एक कहानी संग्रह आया है दस चक्र राजा’ ऐसा लगता है कि कवि जो बातें अपनी कविताओं में नहीं कह पाया है उसे उसने अपनी कहानियों में कहा है। इस संकलन की एक समीक्षा लिखी है हमारे मित्र कवि रमेश प्प्रजापति ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा     
स्त्री जीवन का यथार्थ
रमेश प्रजापति
सुपरिचित कवि हरीश चंद्र पाण्डे के पहले कहानी संग्रह दस चक्र राजा’ की कहानियाँ मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में धटित होने वाली रोज़मर्रा के जीवन की उठा-पटक से ओत-प्रोत है। इनके केंद्र में स्त्रियों के सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष निहित हैं। वर्तमान समय की कठोरता से टकराते हुए सामाजिक परिवेश की जटिलताओं को सामने रखने में सक्षम हुई हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री जीवन के संघर्ष को अभिव्यक्त करती ये कहानियाँ स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती हैं। 
इस संग्रह की कहानियों में स्त्री के वैयक्तिक संबंधों की अनुगूँज, पीड़ा, बेचैनी और छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकता है। दायरा’ कहानी में निम्न मध्य वर्ग की स्त्री के भावात्मक स्पंदन और अंतर्मन की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। यह निम्नवर्गीय समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति और पारिवारिक के साथ-साथ विडम्बना और सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करती है। 
 सन्धि-पत्र’ कहानी में दफ्तर और परिवार के बीच जूझते व्यक्ति की त्रासदी है। इस उत्तर आधुनिक समय में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए एक परिवार किस तरह खटता और उसका दबाव महसूस करता है। यह कहानी उसका बखूबी बखान करती है। हरीश चंद्र पाण्डे की ये कहानियाँ वैचारिकता के नए मूल्यों को स्थापित करती है। साथ ही निम्न मध्यवर्गीय समाज के अन्तर्द्वंद्वों को चित्रित करती हुई पाठकों के अंतस में दबी संवेदनाओं की कोमल भूमि को कुरेदती हैं।
उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के इय भयावह दौर में बौद्धिक वैचारिकता से दूर हरीश चंद्र पांडे की कहानियाँ उन सामाजिक वर्गों के जीवन संघर्षों के प्रति अधिक जवाबदेह लगती है जो अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहते हैं। संग्रह की दस चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर भाग्यवाद को नकारती है वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला चित्रण प्रस्तुत करके नरैण दा और साबुली जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को बड़ी ही संजीदगी से अभिव्यक्त करती है-साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे…एक सपना टूटता है तो दूसरा उगा लेती है। ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार में शामिल हो गई।‘ सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने को बुनतीं इन कहानियाँ में संबंधों की कोमलता एवं जीवन की सहजता को अन्तःकरण में पुष्ट करने के लिए ऐसे वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदनाओं और विचारों की तरंगें उद्वेलित होती रहे। 
हरीश चंद्र पांडे की इन कहानियों में स्त्री-जीवन के संघर्षों और संत्रासों को सजगता से चित्रित किया है। संग्रह की दश चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर भाग्यवाद को नकारती है, वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला बखान करती है। यह कहानी नरैण दा और साबुली जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को संजीदगी से व्यक्त करती है-साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे…एक सपना टूटता है,तो दूसरा उगा लेती है। ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार में शामिल हो गई।‘
सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने में बुनी इन कहानियों में संबंधों की कोमलता और जीवन की सहजता निहित है। इनमें ऐसे भावप्रवण कथ्य और वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदना और विचारों की तरंगें उद्वेलित होती रहे।
प्रतीक्षा’ कहानी में कथाकार हरीश चन्द्र पाण्डे ने स्त्री जीवन की सामाजिक विडंबना को चित्रित किया है इस कहानी में ललिता का पति गौरदत्त जीवन की कड़ुवी सच्चाइयों से या विक्षिप्त होने के कारण मुँह छुपाते हुए बार-बार आँखों से औझल हो जाता है। जग पुरुष जीवन की सच्चाई से दूर भागते हैं तो परिवार की जिम्मेदारी को एक स्त्री ही अपने कंधों पर ढोती हुई आगे बढ़ती है। कहानी की पात्रा ललिता ने इस जिम्मेदारी को वहन करके पुरुषसत्तात्मक समाज को यही दिखाने का भरसक प्रयास किया है। कुंता’ कहानी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री-जीवन के उस यथार्थ को चित्रित करती है, जिनमें स्त्री का जीवन कष्टकारी हो जाता है। इस कहानी की नायिका कुंता की लम्बाई मात्र तीन फुट है। ब्याह-शादी में बिचौलिया पंडित नित्यानंद बड़ी चालाकी से उसकी शादी राधावल्लभ के साथ करा देता है। कुंता का देवर एक दिन उसको मायके छोड़ देता है। कुंता बूढ़ी होने तक ससुराल न जाने की जिद्द ठान लेती है। यह जिद्द उसकी लम्बाई से बहुत बड़ी होती है-तीन फुट की कुंता बौनी और जिद इतनी लम्बी कि जब तक ससुराल से कोई बुलाने नहीं आएगा, वह नहीं जाएगी। कोई का मतलब पति स्वयं।ऐसा होता भी है जब तक राधावल्लभ उसे खुद लेने नहीं आता वह अपनी ससुराल जाती नहीं है। इसी जिद के कारण उसे अपनी यौवनावस्था मायके में ही बितानी पड़ती है।
हरीश चंद्र पांडे ने अपनी कहानियों में प्रतिदिन, जीवन की वास्तविक विद्रूपताओं और जटिलताओं के रूबरू होकर साहसपूर्ण एंग से सामाजिक चुनौतियों का सामना करते दिखाई देते हैं। इन कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ-साथ निम्नवर्गीय समाज का टूटा हुआ स्वर भी सुनाई देता है। वह फूल छूना चाहती है कहानी स्त्री सशक्तिकरण को एक नए संदर्भ के साथ पाठकों के सामने रखने में सक्षम हुई है। घरेलू कार्यों में व्यस्त और दिनभर की भाग-दौड़ से त्रस्त, स्त्री की आज़ादी को संबंधों की ऐसी कोमल रस्सी ने जकड़ लिया है, जिसे चाह कर भी वह तोड़ना नहीं चाहती। या कहे उससे मुक्त होना ही नहीं चाहती है। ऐसी स्थिति को स्त्री ने अपनी नियति मान लिया है। ऐसा ही सामाजिक विसंगतियाँ इस कहानी कीयुवती पुष्पा के सामने उपस्थित होती हैं।
बफर स्टेट’ कहानी निम्न मध्यवर्ग के स्त्री जीवन की उन कटु अनुभूतियों को व्यक्त करती है, जिनसे वे सफर करते हुए आए दिन टकराती रहती हैं। सफर चाहे बस का हो या ट्रेन का। इलाहाबाद जंक्शन से रेलगाड़ी में अपने तीन बच्चों के साथ बैठी रूपाली गंतव्य तक पहुँचने में अपनी तेरह-चौदह वर्ष की बड़ी बेटी को आदमी की शक्ल में छिपे ख़ूँख़ार भेड़िओं की नज़रों से बचाती हुई जिस विकट मानसिक पीड़ा से गुजरती है, उसे कथाकार ने बड़ी मार्मिकता से उभारा है।
ढाल’ कहानी की नायिका कुसुम दफ्तर में हैदर बाबू और लम्बू बाबू के अभद्र व्यवहार से पीड़ित होती है। यह कहानी दफ्तर में कार्य करने वाली स्त्रियों की वस्तु-स्थिति से अवगत कराती है। संग्रह की दायरा’,  वापसी’,  क्रमश’,  साथी,  यात्रा’  और गड्ढ़ा’ कहानियाँ भी स्त्ऱी-जीवन के सच्चे यथार्थ को मजबूती के साथ अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। स्वदेश’  कहानी अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का बहुत ही संजीदगी से जायजा लेती है। सर्दी में ऊनी कपड़ों को़ बेच कर आजीविका के लिए संघर्ष करने वाले तिब्बतियों के प्रवास की स्थिति को यथार्थ के धरातल से उठाती हुई कुछ जरूरी प्रश्न खड़े करती है। 
संग्रह की कहानियों में स्त्री-जीवन के जटिल और मारक यथार्थ की सच्ची तस्वीर है। समाज में तेजी से बदलते सामाजिक और मानवीय मूल्यों के बीच विलुप्त होती संवेदना के बरक्स मनुष्यता के अंकुरों को बचाए रखने की जद्दोजहद इन कहानियों में दिखाई देती है।
कुल मिलाकर हरीश चंद्र पांडे की कहानियों का कथ्य सामाजिक जीवन में घटित होने वाली रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं। इस बदलते सामाजिक परिदृश्य में आम आदमी का जीवन बड़ा ही दूभर होता जा रहा है। आम आदमी की इसी पीड़ा और त्रासदी को रचनाकार ने बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। इस असंवेदनशील समय में ये कहानियाँ इसलिए भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं कि इनमें समय की नब्ज को मजबूती से पकड़ने का प्रयास किया गया है। इसलिए ये कहानियाँ स्त्री-जीवन के बदलते-बिगड़ते संबंधों के बीच उनके जीवन के सच्चे यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं। साथ ही उन स्थितियों-परिस्थितियों पर भी करारी चोट करती है, जिनके कारण समाज में स्त्रियों की ऐसी दशा हुई है।  इन कहानियों की भाषा में ताज़गी और काव्यात्मकता लेखक के कवि होने का सबूत देती है। 
पुस्तक-दस चक्र राजा (कहानी-संग्रह), लेखक-हरीश चंद्र पांडे, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, 1-बी नेता जी सुभाष मार्ग,दरियागंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण-प्रथम, 2013, पृष्ठ-120 मूल्य-250 रूपए।
  
 
सम्पर्क

रमेश प्रजापति,

20-सी,बी-पॉकेट, एल.आई.जी.,

डी.डी.ए. फ्लैट्स, न्यू जाफराबाद,

शाहदरा, दिल्ली-110032

मो- 09891592625

हरीश चन्द्र पाण्डे

गुल्लक

मिटटी का है
हाथ से छूटा नहीं की
                            टूटा

सबसे कमजोर निर्मिती है जो
उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण

बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है

कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं

जब मदद के सारे श्रोत हाथ खडा कर देते हैं
जब कर्ज का मतलब भद्दी गली हो जाता है
अपने अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
जैसे दुनिया के सारे कर्ज इसी से पट जायेंगे

ये वही गुल्लक हैं
जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुंचती है
जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी अंगुलियाँ
जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें… …

और अब जब छंट गये हैं संकट के बादल
वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
मंद-मंद मुस्कराते

किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
कितने आंवों पर तप रहे होंगे
और कितनी मिटटी गुथी जा रही होगी उनके लिए

पर जो चीज बनते-बनते फूटती भी रहती है
उसकी संख्या का क्या हिसाब
किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम

मिटटी के हैं ये
हाथ से छूटे नहीं कि
                            टूटे
पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
दुनिया से मुखातिब हो कर
कि ऐ दुनिया वालों
भले ही कच्चे हों गुल्लक
पर यह बात पक्की है
जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
वहां की अर्थव्यवस्था चाहें जितनी वयस्क हो
कभी भी भरभरा कर गिर सकती है.

किसान और आत्महत्या

उन्हें धर्म गुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की

क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती

वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह प्रवाहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें खिची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उज्जर था
वे क्यों करते आत्महत्या

वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह बरतते थे
वे जड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे बिचौलिए नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपने संरक्षित ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्स उनके बच्चों की तरह थे
वे क्यों करते आत्महत्या

जो पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा भूगोल के प्रायद्वीप नाप् डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में फंस गए
जो आरूणी की तरह शरीर को ही मेड बना लेते थे मिटटी में जीवन द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए

कितना आसान है आत्महत्या को हत्या कहना
और दुर्नीति को नीति

सम्पर्क –


अ/114, गोविन्दपुर कालोनी
इलाहाबाद २११००४
उत्तर प्रदेश

हरीश चन्द्र पांडे

हरीश चन्द्र पाण्डे

अनुभव और पक्षधरता

समकालीन  कविता  में ऐसे  रचनाकारों  की अच्छी तादाद है जिनकी कविताये बोलती हैं कि उनकी
जड़ें गाँवो में है या फिर शहर में रहते हुए भी गाँव उन्हें बुलाता रहता है. निपट स्मृतियों के गाँव नास्टेलजिक  हो सकते हैं. पर गाँव से सतत जुड़ाव रखने वाले रचनाकार के लेखन में विकास और विकृतियों
की अद्यतनता दिखाई देती है. ऐसे रचनाकार की रचनाएं लेखक की सहयात्रा या सहद्रष्टा होती है और इसीलिए विश्वसनीय भी. संतोष कुमार चतुर्वेदी एक ऐसे ही रचनाकार है. कहा जा सकता है की वे गाँव और शहर, दोनों को एक साथ जीने वाले कवि हैं. उनका पहला कविता संग्रह ‘पहली बार’ इसका प्रमाण है. अगर गाँव में ‘गाँव की औरतें’ हैं, ‘धूप में पथरा जाने की चिंता किये बगैर पिता’ हैं, बरगद का कटता हुआ पेड़ हैं. और गाँव की चुनावी राजनीति है तो शहर में बाजार है, साम्प्रदायिकता है, प्रतिस्पर्धा और जीवन-यापन के संघर्ष हैं. साथ ही गाँव में होती वह शहरी घुसपैठ है जो विशाल बरगद को काट कर बंगले में बरगद का बोनसाई उगाती है.

यूँ तो यथार्थ के नाम पर निरी अभिधात्मकता अक्सर देखने को मिलती है लेकिन कविता में सांकेतिकता और विम्बधर्मिता का अपना स्थान है. आज जब कविता के नाम पर अतिशय गद्यात्मकता के आरोप लग रहे हैं तो यह बात और विचारणीय हो जाती है. संतोष चतुर्वेदी ने अपनी कुछ कविताओं में सांकेतिकता का अच्छा प्रयोग किया है. ऐसी ही एक कविता है- ‘अकेले कहीं नहीं’. पिता की सामाजिकता को यह कविता बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित करती है. कवि को अपने दिवंगत पिता की एक ऐसी तस्वीर की दरकार है जिसे टांग कर माला चढ़ाई जा सके, फूल अर्पित किये जा सकें. लेकिन जितनी तस्वीरें हैं सब में पिता किसी न किसी के साथ हैं- ‘अजीब सी उलझन है/ कि  इतने सालों के बाद भी/ अकेले कहीं नहीं…. अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं/ जिस पर चढ़ा सकें हम फूल- मालाएं.’

एक लम्बी कविता है- ‘बरगद’.  इसका पूर्वार्ध वर्णनात्मक और परिचयात्मक है जिसमें बरगद के अपने इतिहास से ले कर गाँव के इतिहास और पारस्परिकता की झलकियाँ हैं. अपने मिथकीय सन्दर्भों से ले कर गाँव के लोकविश्वास, परम्पराएं इस बरगद से जुड़तीं हैं. यही बरगद गिलहरियों, चमगादड़ों, मधुमखियों, जोगियों, सपेरों के लिए आश्रय स्थल भी है और आल्हा, बिरहा, चैती, कजरी, भजन, वीडियो, नौटन्की -मंडलियों और ताश की गड्डियों के खुलने का सहज प्लेटफॉर्म भी.

कविता का उतरार्ध कवि के अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करता हुआ है- ‘एक दिन कहीं से आये रघुबर प्रसाद/ खरीदी वह जमीन जिसमें खडा था बरगद/ कुछ नहीं बोला वह/ न बेचने वाले से/ न रघुबर प्रसाद से/ खडा-खडा देखता-सुनता रहा/अपना मोल-भाव.’  रघुबर प्रसाद ने शुरू में नहीं काटा उसे, बल्कि पास ही में एक आलीशान हवेली बनायी.  बरगद कटा शुभ- अशुभ के चक्कर में (शुभ नहीं होता/ घर के पश्चिम में बरगद) वह कटा पत्नी के बुरे सपनों में आ कर… यानी वह अंधविश्वासों की भेंट चढ़ा.  कवि बरगद के कटने को पेड़ का कटना नहीं,  ‘खूनी वारदात’  का होना कहता है. (इस खूनी वारदात पर/ चुप्पी साध ली दुनिया की सारी अदालतों ने.)

संतोष चतुर्वेदी का यह संग्रह काव्य विषयों की वैविध्यता लिए हुए है. ‘अयोध्या-2003’ और ‘गुजरात’ जैसे विषय हैं, राजनीति है और प्रेम पगी कवितायेँ हैं. ‘रोशनी वाले मजदूर’ और ‘चित्र में दुःख’ कवि की एक उल्लेखनीय कविता है- ‘प्रतियोगिता में अव्वल चुना गया वह चित्र/ जिसमें एक बूढ़ा माथे पर हाथ टिकाये/ भारी हड्डियों के साथ बैठा था चुक्का मुक्का.’  ‘आकर्षक लग रहा है दुःख चित्र में’ कहते हुए कवि ने एक विडम्बना को उकेरा है और उसे बाजार की नियति से जोड़ दिया है.

कवि की कल्पना में यह सुन्दर दुःख चित्र में प्रवेश करता है और प्रशंसा बटोरता है. (लेकिन उदास का उदास रहा बूढ़ा). यहाँ तक की सिद्दार्थ इसी बूढ़े को देख कर बुद्ध हो गए. और अवतार हो गए. लेकिन यह बूढ़ा अपने दुःख और उदासी के साथ वैसा ही बैठा रहा. कवि ने इसे अनुवादहीन कहा है. इन कविताओं के कवि का धैर्य में विश्वास है, वही उससे कहलवाता है-  ‘बार-बार होता हूँ पंक्तिबद्ध/कई बार पीछे किये जाने के बावजूद’ और उसकी पक्षधरता उससे कहलवाती है -‘भूख का इतिहास बहुत पुराना है मगर आज भी जब लगती है/ बिलकुल ताजा नजर आती है.’  संग्रह में और भी कई ऐसी कविताएं हैं जो कवि के सामर्थ्य की ओर इंगित करती हैं. 
 

पहली बार: संतोष कुमार चतुर्वेदी
भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली

 
(द पब्लिक एजेंडा, ३० सितम्बर २०११ के अंक से साभार)

          

हरीश चन्द्र पाण्डे

हरीश चन्द्र पाण्डे हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके बिना आज की कविता का कोई वितान नहीं बन सकता. वे बड़े सधे अंदाज में जिन्दगी के विविध  पहलुओं को अपनी कविता में  रूपायित करते हैं. पाण्डे जी की कविता दृश्य की निर्मिती करती है कुछ इस तरह के दृश्य की जिसमें कोई कांट-छांट नहीं की जा सकती.
दिसंबर १९५२ में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के सदीगाँव में जन्मे पाण्डे जी के  अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’, ‘एक बुरुंश कहीं खिलता है’ और ‘भूमिकाये ख़त्म नहीं होती’.          पाण्डे  जी  का एक कहानी संकलन जल्दी ही आने वाला है.
सम्पर्क-  अ/ ११४, गोविंदपुर कोलोनी, इलाहाबाद, २११००४
मोबाइल – 09455623176 
प्रस्तुत है हरीश जी की 2 कविताएं
पानी
देह अपना समय लेती ही है
निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों
भीतर का पानी लड़  रहा है बाहरी आग से  
घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
पानी देह का साथ दे रहा है
यह वही पानी था जो अंजुरी में रखते ही
खुद  ब खुद छीर जाता था              बूंद बूंद 
 यह देह की दीर्घ संगत का आंतरिक सखा भाव था
जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में
बाहर नदियाँ हैं               भीतर लहू है
लेकिन केवल ढलान की तरफ        भागता हुआ नहीं
बाहर समुद्र है नमकीन
भीतर आँखें हैं
जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं 
अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी 
बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में 
गुलाब खिले हुए हैं 
कोपलों की           खेपें फूटी हुई हैं  
वसंत दिख रहा है पुरमपुर
जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का
जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार 
उसके न होने का मतलब ही 
पतझड़ है 
रेगिस्तान है 
उसी को सबसे किफायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है 
वूज़ू 
बैठक का कमरा
चली आ रही है गर्म-गर्म चाय भीतर से
लजीज खाना चला आ रहा है     भाप उठाता   
धुल के चली आ रही हैं चादरें पर्दें
पेंटिंग    पूरी हो कर चली आ रही है
संवर के आ रही है लड़की 
जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन 
गन्दी चादरें जा रही हैं     परदे जा रहे हैं 
मुंह लटकाए लड़की जा रही है 
पढ़ लिया गया अखबार भी 
खिला हुआ है  कमल-सा बाहर का कमरा 
अपने भीतर के कमरों की कीमत पर ही खिलता है कोई 
बैठक का कमरा 
साफ़ सुथरा       संभ्रांत 
जिसे रोना है                    भीतर जा कर रोये 
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाये भीतर  
जो आये बाहर               आंसू पोंछ के आये
हंसी दबा के
अदब से
जिसे छींकना है वही जाए भीतर 
खांसी वही जुकाम वहीँ 
हंसी ठटठा         मार पीट वहीँ 
वही जलेगा भात 
बूढी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीँ रोयेगा पूरा घर 
वहीँ से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की ख़ुशबू
अभी अभी ये आया गेहूं का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर 
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान सर पर उठाएगा
निष्प्राण मुस्कराहट लिए    अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा
जो भी जाएगा  घर से बाहर      कभी, कहीं 
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा