हरीश चन्द्र पाण्डे |
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
हरीश चन्द्र पाण्डे |
रवीन्द्र कालिया, संतोष चतुर्वेदी और हरीश चन्द्र पाण्डे |
आशीष मिश्र |
हरीश चन्द्र पाण्डे आज सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि अपने-आप में एक मुकम्मल पता है. चुपचाप सृजनरत हरीश जी अपनी कविताओं में ऐसे अछूते विषयों को उठाते हैं जिससे गुजर कर लगता है अरे यह तो हमारे घर-परिवार या आस-पास का जीवन, समस्या या अनुभूति है. फिर हम उनकी कविताओं में अनायास ही बहते जाते हैं. अभी हाल ही में पहल-96 में हरीश जी की बेजोड़ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. पहली बार के लिए इन कविताओं को अपनी एक टिप्पणी के साथ भेजा युवा कवि शिवानन्द मिश्र ने जिसे हम यहाँ पर जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं
‘एक बुरुँश कहीं खिलता है’, भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं’ और ‘असहमति’ जैसे काव्य संग्रहों के रचनाकार वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. उनकी कविताओं में भावनाएँ छल-छल करती बहती हैं. हम उनकी हाल की लिखी कविताओं से गुजरते हुए, मानव मन के कोमल पक्ष के साथ-साथ यथार्थ के उस कड़वे सच से भी दो-चार होते हैं जिससे हम कहीं न कहीं मुंह मोड़ लेते हैं. वही कड़वा सच जब हमारे समक्ष अपना भयावह रूप ले कर खड़ा होता है तब हमारे पास उससे बचने का कोई विकल्प नहीं होता. कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ हमारे लिए भविष्य के प्रति एक चेतावनी तो हैं ही, साथ ही कहीं न कहीं ये हमें सजग और सचेत भी करती हैं. ‘सहेलियां’ कविता में घर पर मिलने आई बेटी की सहेलियों का अपनापन, उनका चहकना, पुराने दिनों को याद करते हुए भावनाओं के ज्वार में डूबना-उतराना देख कर हरीश चन्द्र पाण्डे जी कहते हैं, “जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं/ पखेरू चहकने लगे हैं/ किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं/ खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे/ संसार के सारे कलुष धुल गए हों………..वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं/ उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू/ भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा………….. ये सब सजो लेंगी इन पलों को/ हम समो लेंगे” फिर कैसे भयावह समय में हम जी रहे हैं उसकी तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं, ”यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा/ एसिड की बोतल खरीद रहा है…..” ‘कछार-कथा’, आदमी को अपनी हद में रहने की नसीहत देती है. लेकिन क्या करें उन लोगों का…..”जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे/ कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर/ कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर/ पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी/ और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर/ उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी/ और आदमियों से कहा ये लो जमीन” कछार में बस जाना इतना आसान भी तो नहीं था. लोग डरे भी थे मगर वाह रे भ्रष्ट ‘तंत्र’ “ढेर सारे घर बने कछार में/ तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए/ लंबे-चौड़े-भव्य” और “कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब” “पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना/ उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से/….हरहराकर चला आया घरों के भीतर” और इस अफरातफरी में भी हरीश चन्द्र पाण्डे की ही नजर है जो ढूंढ़ रही है…….” जाने उन बिंदियों का क्या होगा/ जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां”
सहेलियां
आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है
सहेलियां घर पर आएंगी
खाना होगा
गपशप होगी खूब
चीजें तरतीब पा रही हैं
ओने-कोने साफ हो रहे हैं
खुद की भी सँवार हो रही है
पिता तक पहुँचती आवाज में माँ से कह रही है
-यही पहन कर न आ जाना बाहर
नोयडा से रुचि आई है
बैंग्लोर से आयशा
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु
सरोजनी से दिव्या
शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर ….
… …ग्यारह बजे आ जाना था उन्हें
बारह बज गए हैं
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए
वे शायद आ रही हैं
मोड़ की उस ओर जहां आंखें नहीं पहुंच रहीं
आवाजों का एक बवंडर आ रहा है
हाँ, वे आ गई हैं
कॉल बेल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका
गेट का दरवाजा पीट रही हैं थप-थप-थप्प
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है
अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है
वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक आर्केस्ट्रा बज रहा है
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से
वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं
धम्म- धम्म- धम्म सोफों पर ऐसे गिर रही हैं
जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं
थोड़ा ठंडा-वंडा
थोड़ा चाय-बिस्कुट
थोड़े गिले-शिकवे…
और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं
एक ग्रुप फोटो के साथ….
वे कॉलेज के अंतिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से
साड़ी कुछ मां ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी
ऊपर कंधे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर
एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले
कई बार गिरते-गिरते बची है
तीसरी खुद को कम
देखने वालों को अधिक देख रही है
मरी-मरी जा रही है
भरी-भरी जा रही है
कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुंभ लगा है
वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं
उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू
भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा
वे उचक-उचक कर चहक रही हैं
चहक-चहक कर मंद हो रही हैं
….अब उनकी बातों की जद में सहपाठिनें हैं
वे चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जो
और वे दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं
अभी यह कमरा कमरा नहीं
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है
…..धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है
अब एक बार में एक स्वर मुखर है
अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लंबी सुरंग में प्रवेश कर गई है
….चुप्प
और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं
पखेरू चहकने लगे हैं
किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे
संसार के सारे कलुष धुल गए हों
भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं
ये सब सजो लेंगी इन पलों को
हम समो लेंगे
…..समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं
अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं
इस छोर पर एक मां कई बेटियों को विदा कर रही है
उस छोर पर कई मांएं आंखें बिछए खड़ी हैं
यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा
एसिड की बोतल खरीद रहा है…..
कछार-कथा
कछारों ने कहा
हमें भी बस्तियां बना लो …
जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया
लोग थे
जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे
कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर
कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर
पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर
उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी
और आदमियों से कहा ये लो जमीन
डरे थे लोग पहले-पहल
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए
बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था
…जाओ मौज करो
कछार एक बस्ती है अब
ढेर सारे घर बने कछार में
तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए
लंबे-चौड़े-भव्य
यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलजार है
बच्चे गलियों में खेल रहे हैं
दुकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं
डाक विभाग डाक बांट रहा है
राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है
मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं
कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब
पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना
उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से
….हरहराकर चला आया घरों के भीतर
यह भी ना पूछा लोगों से
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में
लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ
अखबारों ने कहा
जल ने हथिया लिया है थल
अनींद ने नींद हथिया ली है
अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय
औरतें जिन खिड़्कियों को अवांछित नजरों से बचाने
फटाक से बंद कर देती थीं
लोफर पानी उन्हे धक्का देकर भीतर घुस गया है
उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है
जाने उन बिंदियों का क्या होगा
जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां
पानी छत की ओर सीढ़ियों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलांगते
न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर …
अजगर की तरह बढ़ा
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते
उसकी रीढ़ चरमराते
वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते
फिलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है
यह चिंताओं का टीला है एक
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है
उऋणता के लिए छ्टपटाती आत्माओं का जमघट है
यहां से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए
बढ़्ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं
वे बार-बार अपनी जमीन के अग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं
जिन्हे भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे
(पहल-96 से साभार)
सम्पर्क
हरीश चन्द्र पाण्डे
मोबाईल – 09455623176
शिवानन्द मिश्र
मोबाईल – 8004905851
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
गुल्लक
मिटटी का है
हाथ से छूटा नहीं की
टूटा
सबसे कमजोर निर्मिती है जो
उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण
बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है
कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं
जब मदद के सारे श्रोत हाथ खडा कर देते हैं
जब कर्ज का मतलब भद्दी गली हो जाता है
अपने अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
जैसे दुनिया के सारे कर्ज इसी से पट जायेंगे
ये वही गुल्लक हैं
जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुंचती है
जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी अंगुलियाँ
जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें… …
और अब जब छंट गये हैं संकट के बादल
वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
मंद-मंद मुस्कराते
किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
कितने आंवों पर तप रहे होंगे
और कितनी मिटटी गुथी जा रही होगी उनके लिए
पर जो चीज बनते-बनते फूटती भी रहती है
उसकी संख्या का क्या हिसाब
किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम
मिटटी के हैं ये
हाथ से छूटे नहीं कि
टूटे
पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
दुनिया से मुखातिब हो कर
कि ऐ दुनिया वालों
भले ही कच्चे हों गुल्लक
पर यह बात पक्की है
जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
वहां की अर्थव्यवस्था चाहें जितनी वयस्क हो
कभी भी भरभरा कर गिर सकती है.
किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्म गुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह प्रवाहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें खिची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उज्जर था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह बरतते थे
वे जड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे बिचौलिए नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपने संरक्षित ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्स उनके बच्चों की तरह थे
वे क्यों करते आत्महत्या
जो पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा भूगोल के प्रायद्वीप नाप् डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में फंस गए
जो आरूणी की तरह शरीर को ही मेड बना लेते थे मिटटी में जीवन द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है आत्महत्या को हत्या कहना
और दुर्नीति को नीति
सम्पर्क –
अ/114, गोविन्दपुर कालोनी
इलाहाबाद २११००४
उत्तर प्रदेश
हरीश चन्द्र पाण्डे
अनुभव और पक्षधरता
समकालीन कविता में ऐसे रचनाकारों की अच्छी तादाद है जिनकी कविताये बोलती हैं कि उनकी
जड़ें गाँवो में है या फिर शहर में रहते हुए भी गाँव उन्हें बुलाता रहता है. निपट स्मृतियों के गाँव नास्टेलजिक हो सकते हैं. पर गाँव से सतत जुड़ाव रखने वाले रचनाकार के लेखन में विकास और विकृतियों
की अद्यतनता दिखाई देती है. ऐसे रचनाकार की रचनाएं लेखक की सहयात्रा या सहद्रष्टा होती है और इसीलिए विश्वसनीय भी. संतोष कुमार चतुर्वेदी एक ऐसे ही रचनाकार है. कहा जा सकता है की वे गाँव और शहर, दोनों को एक साथ जीने वाले कवि हैं. उनका पहला कविता संग्रह ‘पहली बार’ इसका प्रमाण है. अगर गाँव में ‘गाँव की औरतें’ हैं, ‘धूप में पथरा जाने की चिंता किये बगैर पिता’ हैं, बरगद का कटता हुआ पेड़ हैं. और गाँव की चुनावी राजनीति है तो शहर में बाजार है, साम्प्रदायिकता है, प्रतिस्पर्धा और जीवन-यापन के संघर्ष हैं. साथ ही गाँव में होती वह शहरी घुसपैठ है जो विशाल बरगद को काट कर बंगले में बरगद का बोनसाई उगाती है.
यूँ तो यथार्थ के नाम पर निरी अभिधात्मकता अक्सर देखने को मिलती है लेकिन कविता में सांकेतिकता और विम्बधर्मिता का अपना स्थान है. आज जब कविता के नाम पर अतिशय गद्यात्मकता के आरोप लग रहे हैं तो यह बात और विचारणीय हो जाती है. संतोष चतुर्वेदी ने अपनी कुछ कविताओं में सांकेतिकता का अच्छा प्रयोग किया है. ऐसी ही एक कविता है- ‘अकेले कहीं नहीं’. पिता की सामाजिकता को यह कविता बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित करती है. कवि को अपने दिवंगत पिता की एक ऐसी तस्वीर की दरकार है जिसे टांग कर माला चढ़ाई जा सके, फूल अर्पित किये जा सकें. लेकिन जितनी तस्वीरें हैं सब में पिता किसी न किसी के साथ हैं- ‘अजीब सी उलझन है/ कि इतने सालों के बाद भी/ अकेले कहीं नहीं…. अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं/ जिस पर चढ़ा सकें हम फूल- मालाएं.’
एक लम्बी कविता है- ‘बरगद’. इसका पूर्वार्ध वर्णनात्मक और परिचयात्मक है जिसमें बरगद के अपने इतिहास से ले कर गाँव के इतिहास और पारस्परिकता की झलकियाँ हैं. अपने मिथकीय सन्दर्भों से ले कर गाँव के लोकविश्वास, परम्पराएं इस बरगद से जुड़तीं हैं. यही बरगद गिलहरियों, चमगादड़ों, मधुमखियों, जोगियों, सपेरों के लिए आश्रय स्थल भी है और आल्हा, बिरहा, चैती, कजरी, भजन, वीडियो, नौटन्की -मंडलियों और ताश की गड्डियों के खुलने का सहज प्लेटफॉर्म भी.
कविता का उतरार्ध कवि के अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करता हुआ है- ‘एक दिन कहीं से आये रघुबर प्रसाद/ खरीदी वह जमीन जिसमें खडा था बरगद/ कुछ नहीं बोला वह/ न बेचने वाले से/ न रघुबर प्रसाद से/ खडा-खडा देखता-सुनता रहा/अपना मोल-भाव.’ रघुबर प्रसाद ने शुरू में नहीं काटा उसे, बल्कि पास ही में एक आलीशान हवेली बनायी. बरगद कटा शुभ- अशुभ के चक्कर में (शुभ नहीं होता/ घर के पश्चिम में बरगद) वह कटा पत्नी के बुरे सपनों में आ कर… यानी वह अंधविश्वासों की भेंट चढ़ा. कवि बरगद के कटने को पेड़ का कटना नहीं, ‘खूनी वारदात’ का होना कहता है. (इस खूनी वारदात पर/ चुप्पी साध ली दुनिया की सारी अदालतों ने.)
संतोष चतुर्वेदी का यह संग्रह काव्य विषयों की वैविध्यता लिए हुए है. ‘अयोध्या-2003’ और ‘गुजरात’ जैसे विषय हैं, राजनीति है और प्रेम पगी कवितायेँ हैं. ‘रोशनी वाले मजदूर’ और ‘चित्र में दुःख’ कवि की एक उल्लेखनीय कविता है- ‘प्रतियोगिता में अव्वल चुना गया वह चित्र/ जिसमें एक बूढ़ा माथे पर हाथ टिकाये/ भारी हड्डियों के साथ बैठा था चुक्का मुक्का.’ ‘आकर्षक लग रहा है दुःख चित्र में’ कहते हुए कवि ने एक विडम्बना को उकेरा है और उसे बाजार की नियति से जोड़ दिया है.
कवि की कल्पना में यह सुन्दर दुःख चित्र में प्रवेश करता है और प्रशंसा बटोरता है. (लेकिन उदास का उदास रहा बूढ़ा). यहाँ तक की सिद्दार्थ इसी बूढ़े को देख कर बुद्ध हो गए. और अवतार हो गए. लेकिन यह बूढ़ा अपने दुःख और उदासी के साथ वैसा ही बैठा रहा. कवि ने इसे अनुवादहीन कहा है. इन कविताओं के कवि का धैर्य में विश्वास है, वही उससे कहलवाता है- ‘बार-बार होता हूँ पंक्तिबद्ध/कई बार पीछे किये जाने के बावजूद’ और उसकी पक्षधरता उससे कहलवाती है -‘भूख का इतिहास बहुत पुराना है मगर आज भी जब लगती है/ बिलकुल ताजा नजर आती है.’ संग्रह में और भी कई ऐसी कविताएं हैं जो कवि के सामर्थ्य की ओर इंगित करती हैं.
पहली बार: संतोष कुमार चतुर्वेदी
भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
(द पब्लिक एजेंडा, ३० सितम्बर २०११ के अंक से साभार)