युवा कवि और आलोचक शिरीष कुमार मौर्य से अनिल कार्की की बातचीत


लीक से अलग हट कर काम करने वाले युवा रचनाकारों में शिरीष कुमार मौर्य का नाम अग्रणी है. कविता और आलोचना के साथ-साथ शिरीष ने कला के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किये हैं. शिरीष से उनके रचना कर्म पर बात की है युवा रंगकर्मी अनिल कार्की ने. तो आईए पढ़ते हैं यह साक्षात्कार 
   

युवा कवि और आलोचक शिरीष कुमार मौर्य से अनिल कार्की की बातचीत
 

अनिल कार्की : एक कवि के रुप में आपने लेखन की शुरुआत कब से की, लिखने की क्यों जरूरत महसूस हुयी आपको?
शिरीष कुमार मौर्य : अनिल यह पहला औपचारिक सवाल होता है,जिसे पूछने की रवायत है। मैंने लेखन की शुरूआत जाहिर है कि कविता से की।1991के आसपास। लिखने की ज़रूरत, बल्कि उसे प्रेरणा कहना होगा, उस वैचारिकी में सहज ही उपस्थित थी, जिसे साम्‍यवाद कहते हैं  और जो मेरे लिए जीवन शैली की तरह 17 की उम्र में तब भी थी। हम कुछ दोस्‍त थे जो छात्र-राजनीति करते और दुनिया भर का साहित्‍य खोजते-पढ़ते थे। गिरीश मैंदोला नाम के दोस्‍त ने तब छप रही कविताएं देख कर कहा कि तुझे भी कविता लिखनी चाहिए, तेरे बात करने में कविता सुनाई देती है। मैं उस कमबख्‍़त की सलाह को गम्‍भीरता से ले बैठा और आज जो मेरी हालत हुई है, सब देख ही रहे हैं। 1992 में समकालीन जनमत में पहली बार कविताएं छपीं। 1994 के अंत में कथ्‍यरूप  के सम्‍पादक श्री अनिल श्रीवास्‍तव ने भरपूर प्रोत्‍साहन के साथ ‘पहला क़दम’ नाम से कविता-पुस्तिका छाप दी। अपने बदलते हुए जीवन में लगातार लिखते हुए महसूस होता है कि अपने लुटे-पिटे जनों के बीच रहने-बसने के लिए लिखना ज़रूरी ही था,हमेशा रहेगा। यह सब कुछ अनायास हुआ, इसमें जानने को ज्‍़यादा कुछ है नहीं।
अनिल कार्की : एक कवि के लिहाज से आप कविता के भीतर विचार को किस तरह देखते हैं ?
शिरीष कुमार मौर्य : मैं कविता के भीतर विचार से ज्‍़यादा अपने प्रिय विचार के भीतर उस कविता को देखता हूं, जो पूरी शिद्दत से मेहनतकश जीवन के अंतिम छोर तक सुनाई देती है। विचार मेरे लिए ज़रूरी है, जैसा पहले ही कहा वो जीवन को जीने की तरह है – जीना लेकिन मनुष्‍यता और गरिमा के साथ जीना। संसार के कचरे को देख पाने की निगाह और उसे साफ़ करने का संकल्‍प जहां नहीं है, वहां कविता भी कमोबेश नहीं है।   

अनिल कार्की : कविता में स्थापित होने के बावजूद आप आलोचना की ओर क्यों बढ़े,इसकी क्या वजहें-जरूरतें आपको महसूस हुई? 
शिरीष कुमार मौर्य : हां, कोई इरादा न होते हुए भी मुझे इधर आलोचना लिखने की ज़रूरत महसूस हुई। हमारे वरिष्‍ठ आलोचक अब अपनी रूढ़ियों और औज़ारों से इतना बंध चुके हैं कि वे भर निगाह कुछ देखने की कोशिश ही नहीं करते। उन्‍होंने अपने समय में इतना शानदार काम किया पर अब ….. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भाई वे आखिर कब तक काम करते रह सकते हैं। नए लोग भी कुछ करें। नए लोगों का ये हुआ कि उन्‍होंने बहुधा कविता-कहानी जैसी लोकप्रिय विधाओं में जाना-रहना पसन्‍द किया, जहां नाम और पुरस्‍कार बहुत जल्‍दी मिलते हैं। फिर यह भी जानिए कि मैंने कविता से आकर आलोचना लिखने की कोशिश करके कोई नया काम नहीं किया है। अस्‍सी के हमारे लगभग सभी अग्रजों ने यह काम किया – अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, विजय कुमार और बाद में लीलाधर मंडलोई, विनोद दास आदि। दिलचस्‍प होगा याद दिलाना कि ‘आलोचना की पहली किताब’ वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु खरे ने लिखी – (देखिए मेरी हंसी पर मत जाइए, मैं गम्‍भीरता से कह रहा हूं।) मेरे मित्रों में पंकज चतुर्वेदी, जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव और अनिल त्रिपाठी यह काम मुझसे पहले से कर रहे हैं और युवा आलोचना का स्‍थापित नाम हैं। इतना सब होने के बावजूद मुझे महसूस हुआ कि आलोचना दरअसल एक सैद्धान्तिक संघर्ष है, जिसका हिस्‍सेदार मुझे होना ही है। मैंने अपने लिए सिर्फ़ कविता की आलोचना की राह चुनी है। मैं अपनी बात अपनी तरह से कहना चाहता हूं – मैं आलोचना के परम्‍परागत शिल्‍प में नहीं बोल सकता इसलिए संवाद करने जैसे एक शिल्‍प को चुन रहा हूं, जिसमें नेम ड्रापिंग यानी अमुक ने कहा है-तमुक ने कहा है जैसा कुछ नहीं होगा। एक विकट समय और समाज में रहते-बसते हुए मैं इस सैद्धान्तिक संघर्ष को कैसे अंजाम दूं – यही  चुनौती है। और इसी ‘सैद्धान्तिक संघर्ष’ में वे सभी वजहें-ज़रूरते हैं, जिनके बारे में आपने पूछा।
अनिल कार्की : इस भूमंडलीकरण के समय में कविता की क्या जिम्मेदारी है. अपने जन के प्रति और स्वयं के प्रति?
शिरीष कुमार मौर्य : जिम्‍मेदारी ही जिम्‍मेदारी है भाई। यह जिम्‍मेदारी मनुष्‍यता के पक्ष में प्रतिरोध की सैद्धान्तिकी को बचाए रखने की है। वैश्‍वीकरण के पीछे छुपे दुश्‍चक्रों की असलियत समझने की है। एकध्रुवीय,लगभग एकतरफ़ा होती जाती दुनिया में मनुष्‍य मात्र के स्‍वर की स्‍वतंत्रता को बचाने की है। एक खोखली अवधारणा तीसरी दुनिया के देशों को लगातार लूट रही है। आवारा विदेशी पूंजी नए शिकार ढूंढ रही है,जो पहले समृद्धता का भ्रम पैदा करती है,फिर और ग़रीब करके छोड़ जाती है। विदेशी पूंजी निवेश के आत्‍ममुग्‍ध शिकारों का बुरा हाल होता है। यह किसी देश को उसके ही बाशिन्‍दों के विरुद्ध अनाचार की अंतिम हदों तक ले जाती है। जिम्‍मेदारी कवि की है कि कविता इस क्रूर समय में अपने जन को सम्‍बोधित हो – कुछ न हो तो उसे सावधान ही करे। वैचारिक और साहित्यिक इलाक़े में यह दुश्‍चक्र उत्‍तरआधुनिकता के रूप में प्रकट हो रहा है। नए लेखक उससे प्रभावित हैं,वे उत्‍तरआधुनिक विचारकों के आप्‍तवचनों को जीवनसूत्र की तरह उद्धृत कर रहे हैं। पाठ से अर्थ खंरोचे जा रहे हैं,कृतियां लहूलुहान हैं। यही कारण है कि अर्थ समेटती इस दुनिया में मैं अभिप्रायों का कवि कहलाना पसन्‍द करता हूं।  

अनिल कार्की : आपकी कविताएं एक ख़ास पैरामीटर पर नहीं चलती, वह यथार्थ को कई-कई पक्षों से देखती है और संभावित पक्षों को पाठकों के लिए छोड़ देती है। ख़ास कर आपके नये संग्रह ‘दंतकथा और अन्य कविताओं में’ ऐसा किसी ख़ास वजह से है या आप उत्तर समय में कविता को लेकर बने बनाए सांचों को अपनी तरह से विचार के साथ परिभाषित करना चाहते है?
शिरीष कुमार मौर्य : मुझे अपनी कविता पर बात करना अच्‍छा नहीं लगता। इतना भर कह सकता हूं कि मैं सिखाया हुआ नहीं लिखता – इससे मेरी कविता में जो हुआ है, उसे आपने अपने प्रश्‍न में ख़ुद स्‍पष्‍ट कर दिया। मैं कविता को सांचों से बाहर निकालने की विनम्र इच्‍छा रखता हूं, ख़ुद ही अपने लिए सांचा बनाता दिखने लूंग तो खीझ भी जाता हूं – शायद वह खीझ मेरी कविता में भी छुप नहीं पाती। आप मुझे खीझा हुआ कवि कह सकते हैं,खिझाने वाला न बन जाऊं,इसके लिए दुआ कीजिए।   
अनिल कार्की : वर्तमान में लेखक-संगठनों को लेकर आपकी क्या राय है?
शिरीष कुमार मौर्य : एक वाक्‍य में कहूंगा – बहुत सकारात्‍मक राय नहीं है
अनिल कार्की : क्‍यों सकारात्‍मक राय नहीं है?
शिरीष कुमार मौर्य : उनके सदस्‍य साहित्‍य में बेवजह की उठापटक बहुत करते हैं। संगठनों का ढांचा घुटन भरा है (हालांकि मेरा अनुभव केवल जसम का है)। वहां प्रतिभाहीन, प्रतिभाओं को डिक्‍टेट करने की इच्‍छा ही नहीं, ताक़त भी रखते हैं। एक छोटा उदाहरण दूंगा – 2008 में रामनगर में वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल के काव्‍यपाठ के आयोजन के प्रस्‍ताव को इसलिए धिक्‍कारा गया कि उस प्रस्‍ताव को बनाने की प्रक्रिया में जसम-उत्‍तराखंड की एक नामालूम ईकाई के सम्‍मुख आरम्भिक प्रस्‍ताव पेश नहीं किया गया था। वह आयोजन ही न हो सका। जसम को ही मैंने अज्ञेय के मुद्दे पर अपने ही विचार से इतना डिरेल्‍ड होते देखा है कि जी भर गया। मैं इस बारे में अधिक बोलना ही नहीं चाहता। लेकिन आप इस न बोलने की इच्‍छाको प्रतिक्रिया की तरह नहीं, हताशा और ऊब की तरह देखें-यह अनुरोध है मेरा। 

   

अनिल कार्की : इधर एक जो बड़ी बात ख़ासकर कविता के क्षेत्र में लगातार दिख रही है वह है जनपद और केंद्र की दो भिन्न धाराएँ, और यह भी सच है कि हिंदी कविता में भी अन्य विधाओं की तरह ही लोक का पक्ष लगातार कमजोर हुआ है. जबकि आप उन कवियों में अगुवा हैं जो जनपद और केंद्र को एक साथ लिख रहे हैं. फिर भी जनपद और केंद्र का बटवारा क्या उचित है? और इसमें केंद्र की जनपद के प्रति और जनपद की केंद्र के प्रति क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए. आप आज के इस जनपद को प्रगतिवादी कविता के पास पाते हैं या उत्तर-आधुनिकता के समीप?
शिरीष कुमार मौर्य : पहली बात तो यह कि मैं कहीं से अगुआ नहीं हूं। मेरी कविता आपको ऐसा आभास देती है तो यह मेरे लिए संतोष की बात है। लोक की ऊर्जा को हिंदी में लोक के स्‍वयभूं पहरेदारों ने हर लिया है। हर लोकवादी को आज सबसे पहले ज्‍यां ल्‍योतार को ठीक से पढ़ना  चाहिए यानी पोस्‍टमाडर्न कंडीशंस को,उसके बाद एक बार फिर मार्क्‍स को पढ़ें तो ख़ुद ही बात साफ़ हो जाएगी। खेद का विषय है कि कुछ कवियों को छोड़ प्रगति की ओर जाने की इच्‍छा रखने वाली जनपद की कथित कविता उत्‍तरआधुनिक खांचे में ही  अट रही है। मैं किसी बंटवारे को नहीं मानता। कहूंगा कि मैं किसी विखंडन,किसी विभेद को नहीं मानता। हां,मैं मानता हूं कवि में उसका जनपद बोलता है,जिसे बोलना चाहिए,लेकिन इस बोलने का विस्‍तार खोता जा रहा है। लोग कुंए में हूंक लगा रहे हैं। जनपद की कविता आज अपने ही क़ैद में है। उसमें ज़रूरी राजनीतिक समझ का अभाव है। हां,अष्‍टभुजा शुक्‍ल और केशव तिवारी जैसे अपवाद और शानदार कवि आपको अवश्‍य मिलेंगे। आप जनपद से शुरू कर कविता को कहां तक पहुंचा पाते हैं,असल सवाल यह है। अभी तो जीवन सिंह जैसे लोकधर्मी आलोचक को भी ये कथित लोकवादी कवि सुन नहीं पा रहे,बाहर की आवाज़ सुनना तो दूर की बात है। आप वृहद् सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों से मुंह मोड़ कर कब तक इतनी कट्टरता से अपने जनपद को अपनी ताक़त की जगह क़ैदख़ाना बनाए रखेंगे। खेतों में अनाज उगाने की रीति जिन्‍हें मालूम नहीं,वे वहां कविता उगाने के फेर में हैं । जनपदों में जो अशिक्षा,अनाचार,अमानवीय रिवाज़ और सामन्‍ती कचरा है,उसका प्रतिरोध किस स्‍तर पर इस तरह की कविता में सम्‍भव हो रहा है,यह जांचने-परखने का समय आ पहुंचा है। मेरे लिए मेरा जनपद (उसे पहाड़ कहिए) बड़ी ताक़त है,जिसके बूते मैं खड़ा रह पाया हूं। बात अधिक खिंचेगी,शायद यहां उतना अवकाश नहीं। 

 

अनिल कार्की : जी,अंत में एक सवाल और – लेखन को लेकर आपकी आगामी योजनाएं क्या है? 
शिरीष कुमार मौर्य :  कविता केन्द्रित आलोचना पर तीन पुस्‍तकें हैं,इसमें से दो प्रिंट में जा चुकी है। तीसरे हिस्‍से पर आजकल काम कर रहा हूं। एक कविता संकलन भी प्रकाशनाधीन है। कविताएं लगातार लिख ही रहा हूं। दरअसल योजना बनाकर काम हो नहीं पाता। मेरे जीवन में तो योजनाएं अतीत की खूंटियों पर टंगी मिलती हैं और योजनाओं से इतर कुछ नया काम सामने आ जाता है। अपने विद्यार्थियों के साथ रचनात्‍मक लेखन को लेकर सुव्‍यवस्थित काम करने का भी इरादा है। शायद आप जानते हों कि एक अरसे तक मैंने हिंदी की पत्रिकाओं के लिए स्‍केच बनाए हैं – इसी के किंचित विस्‍तार में पेंटिंग करने की एक दबी हुई इच्‍छा भी न जाने कब से कुलबुला रही है। मेरे सैद्धान्तिक संघर्ष की ज़रूरतें मुझे जहां ले जाएंगी,मैं वहां जाऊंगा – ये योजना नहीं,संकल्‍प है।
धन्‍यवाद।    
***
(जनसंदेश टाइम्‍स से  साभार)  
24जून  2014,नैनीताल। 

अनिल कार्की : 9456757646

अनिल युवा कवि-कथाकार-रंगकर्मी हैं। कविता के लिए हिंदी युग्‍म का पुरस्‍कार पा चुके हैं। उनकी क‍हानी नया मुंशी की एन.एस.डी. के सुभाष चन्‍द्रा के निर्देशन में रंगमंच पर प्रस्‍तुति काफी सफल रही है। एन.एस.डी. की ही नैनीताल में आयोजित बाल कार्यशाला एक अन्‍य कहानी का मंचन। अनिल लिखते ख़ूब हैं पर छपने में संकोची हैं। जल्‍द उनकी कहानियां राष्‍ट्रीय फ़लक पर उपस्थित होंगी।  

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स प्रख्यात चित्रकार पिकासो की हैं, जिसे हमने गूगल से साभार लिया है )  

शिरीष कुमार मौर्य की 15 नई कविताएं


साहित्य की जो सबसे बड़ी खूबी है वह यही है कि वह हर समय में शोषण और अत्याचार के खिलाफ खड़ा रहता है. सत्ता जो एक मद जैसा होता है, उसको उसकी सीमा का अहसास यह साहित्य ही कराता है. यह इसलिए भी काबिलेगौर है कि अभी-अभी हुए आम चुनावों में मीडिया (जिसे अब तक लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता रहा है) ने जो संदिग्ध भूमिका निभायी और जिस तरह यह एक व्यक्ति और दल की कठपुतली बन कर रह गया उससे इसकी निष्पक्षता की तरफ उंगलियाँ उठने लगी हैं. ऐसे में साहित्य प्रतिरोध के सबसे मजबूत स्तम्भ के रूप में उभर कर सामने आता है. शिरीष कुमार मौर्य हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो अपनी कविताओं के माध्यम से अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराते हैं. आज जब सत्ता के समक्ष घुटने टेकने की होड़ मची हुई है शिरीष यह कहने का साहस रखते हैं कि ‘सत्‍ताओं समक्ष खड़े रहना मैंने कभी सीखा नहीं /लड़ना सीखा है /आप एक लड़ने वाले कवि को बुलाना तो /नहीं ही चाहते होंगे /चाहें तो मेरे न आ पाने पर अपना आभार प्रकट कर सकते हैं /मुझे अच्‍छा लगेगा।’ शुक्र है कुम्भन दास की परम्परा अपने उसी अंदाज में कुछ कवि बचाए हुए हैं. ऐसे ही स्वर वाले कवि शिरीष की पन्द्रह नयी कविताएँ पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं. आईए पढ़ते हैं शिरीष की कविताएँ

       
शिरीष कुमार मौर्य की  15 नई कविताएं
1

दिल्‍ली में कविता-पाठ
प्रिय आयोजक मुझे माफ़ करना

मैं नहीं आ सकता

आदरणीय श्रोतागण ख़ुश रहना

मैं नहीं आ सका

मैं आ भी जाता तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

मैं हिन्‍दी के सीमान्‍तों की कुछ अनगढ़ बातें सुनाता अटपट अंदाज़ में

मैं वो आवाज़ हूं जिसके आगे उत्‍तरआधुनिक माइक अकसर भर्रा उठते हैं

आपके लिए अच्‍छा है मेरा न आना

अध्‍यक्ष महोदय अवमानना से बच गए

संचालक महोदय अवहेलना से

न आने के सिवा और मैं कुछ नहीं कर सकता था आपके कवितापाठ की

अपूर्व सफलता के लिए

तस्‍वीरें दिखाती हैं

कविता-पाठ अत्‍यन्‍त सफल रहा

ख़बरें बताती हैं मंच पर थे कई चांद-तारे

सभागार भरा था

एक आदमी के बैठने लायक भी जगह नहीं बची थी

आप इसे यूं समझ लें

कि मैं कवि नहीं

बस वही एक आदमी हूं जिसके बैठने लायक जगह नहीं बची थी

राजधानी के सभागार में

नहीं आया अच्‍छा हुआ आपके और मेरे लिए

आपका धैर्य भले नहीं थकता

पर मेरे पांव थक जाते खड़े-खड़े

सत्‍ताओं समक्ष खड़े रहना मैंने कभी सीखा नहीं

लड़ना सीखा है

आप एक लड़ने वाले कवि को बुलाना तो

नहीं ही चाहते होंगे

चाहें तो मेरे न आ पाने पर अपना आभार प्रकट कर सकते हैं

मुझे अच्‍छा लगेगा।
***
2

भूला हुआ नहीं भूला
मैं राजाओं की शक्ति और वैभव भूल गया

उस शक्ति और वैभव के तले पिसे अपने जनों को नहीं भूला

सैकड़ों बरस बाद भी वे मेरी नींद में कराहते हैं

मैं इतिहास की तारीख़ें भूल गया

अन्‍याय और अनाचार के प्रसंग नहीं भूला

आज भी कोसता हूं उन्‍हें

मैं कुछ पुराने दोस्‍तों के नाम भूल गया

चेहरे नहीं भूला

इतने बरस बाद भी पहचान सकता हूं उन्‍हें

तमाम बदलावों के बावजूद

मैं शैशव में ही छूट गए मैदान के बसन्‍त भूल गया

धूप में झुलसते दु:ख याद हैं उनके

वो आज भी मेरी आवाज़ में बजते हैं 

बड़े शहरों के वे मोड़ मुझे कभी याद नहीं हुए

जो मंजिल तक पहुंचाते हैं

मेरे पहाड़ी गांव को दूसरे कई-कई गांवों को जोड़ती

हर एक छरहरी पगडंडी याद है मुझे

किन पुरखे या अग्रज कवियों को कौन-से पुरस्‍कार-सम्‍मान मिले

याद रखना मैं ज़रूरी नहीं समझता

उनकी रोशनी से भरी कई कविताएं और उनके साथ हुई

हिंसा के प्रसंग मैं हमेशा याद रखता हूं

भूल जाना हमेशा ही कोई रोग नहीं

एक नेमत भी है

यही बात न भूलने के लिए भी कही जा सकती है

क्‍योंकि बहुत कुछ भूला हुआ नहीं भी भूला

उस भूले हुए की याद बाक़ी है

तो सांसों में तेज़ चलने की चिंगारियां बाक़ी हैं

वही इस थकते हुए हताश हृदय को चलाती हैं। 
*** 
3

खुला घाव
मैं खुला घाव हूं कोई साफ़ कर देता

कोई दवा लगा देता है

मैं सबका आभार नहीं मान सकता

पर उसे महसूस करता हूं

सच कहूं तो सहानुभूति पसन्‍द नहीं मुझे

खुले घाव जल्‍दी भरते हैं

गुमचोटें देर में ठीक होती हैं

पर खुले घाव को लपेट कर रखना होता है

मैं कभी प्रेम लपेटता

कभी स्‍वप्‍न लपेटता हूं कई सारे

कभी कोई अपनी कराहती हुई कविता भी लपेट लेता हूं

लेकिन हर पट्टी के अंदर घुटता हुआ घाव तंग करता है

वह ताज़ा हवा के लिए तड़पता है

प्रेम, स्‍वप्‍न और कविता ऐसी पट्टियां हैं जो लिपट जाएं

तो खुलने में दिक्‍कत करती हैं

मैं इनमें से किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता

पर घाव के चीख़ पड़ने पर इन्‍हें जगह-जगह से काटकर

खोल देना पड़ता है 

खुला घाव खुला ही रहना चाहता है

खुला घाव तुरत इलाज चाहता है अपने में बंधा रहना नहीं चाहता

गुमचोटों की तरह बरसों टीसना नहीं चाहता

उसकी ओर से मैं क्षमा मांग लेता हूं – 

ओ मेरे प्रेम !

हे मेरे स्‍वप्‍नों !!

अरी मेरी कविता !!!

बना रहे प्रेम पर घाव को न छुपाए

बने रहेंगे मेरे स्‍वप्‍न सही राह चले तो झूटे आवरण नहीं बन जाएंगे

उघाड़ेंगे ही मुझे भीतर तक

बनी रहे कविता लगभग जैसी वह जीवन में है विकल पुकारती

यह खुला घाव खुला घाव ही है

बस कीड़े न पड़ें इसमें

वे जब ख़ूब छक चुकने के बाद भी

आसपास बिलबिलाते हैं

तो उनकी असमाप्‍त भूख मैं महसूस कर पाता हूं

उनका जैविक आचरण रहा है मृत्‍यु के बाद देह को खा जाना

पर अब जीवन भी उनकी भूख में शामिल हैं

विचारहीन मनुष्‍यता उनका सामना नहीं कर सकती 

वह जीवित रहते खा ली जाएगी

खुले घाव और बिलबिलाते कीड़ों के इस जुगुप्‍सा भरे प्रसंग में

मैं अपनी कोई चिन्‍ता नहीं करता

अपनी चिन्‍ता करना अपनी वैचारिकी के खिलाफ़ जाना है 

लगातार लगते घावों से ही अब तक जीवन कई भटकावों से बचा है

कुछ और सधा है

मेरे अपनो 

आश्‍वस्‍त रहो

मेरा होना एक खुला घाव तो है 

लेकिन विचारों से बंधा है।   
***  
4

हाशिया
मुझे हाशिए के जीवन को कविता में लाने के लिए पहचाना गया –

ऐसा मुझे मिले पुरस्‍कार के मानपत्र पर लिखा है

जिस पर दो बड़े आलोचकों और दो बड़े कवियों के नाम हैं

उस वक्‍़त पुरस्‍कृत होते हुए

मैं देख पा रहा था हाशिए पर भी नहीं बच रही थी जगह

और रहा जीवन तो उसे हाशिए पर मान लेना मेरे हठ के खिलाफ़ जाता है

मैंने पूरे पन्‍ने पढ़े थे

उन पर लिखा बहुत कुछ ग़लत भी पढ़ा था

मैंने उस ग़लत पर ही सही लिखने से शुरूआत करने की छोटी-सी कोशिश की थी

हाशिया मेरे जीवन में महज इसलिए आया था

क्‍योंकि पहाड़ के एक कोने में मेरा रहवास था और कोने अकसर हाशिए मान लिए जाते हैं

बड़े शहर पन्‍ना हो जाते हैं

मैं दरअसल लिखे हुए पर लिख रहा हूं अब तक

यानी पन्‍ने पर लिख रहा हूं

साफ़ पन्‍ना मेरे समय में मिलेगा नहीं 

लिख-लिखकर साफ़ करना पड़ेगा

कुछ पुरखे सहारा देंगे

कुछ अग्रज मान रखेंगे

कुछ साथी साथ-साथ लिखते रहेंगे

तो मैं लिखे हुए पन्‍नों पर भी कविता लिख कर दिखा दूंगा

कवि न कहलाया तो क्‍या हुआ

कुछ साफ़-सफ़ाई का काम ही अपने हिस्‍से में लिखा लूंगा।
****
5

वसन्‍त
(सत्‍यानन्‍द निरूपम के लिए)

हर बरस की तरह

इस बरस भी वसन्‍त खोजेगा मुझे

मैं पिछले सभी पतझरों में

थोड़ा-थोड़ा मिलूंगा उसे

उनमें भी

जिनकी मुझे याद नहीं

प्रेम के महान क्षणों के बाद मरे हुए वसन्‍त

अब भी मेरे हैं

मिलूंगा कहीं तो वे भी मिलेंगे

द्वन्‍द्व के रस्‍तों पर

सीधे चलने और लड़ने के सुन्‍दर वसन्‍त

लाल हैं पहले की तरह

उनसे ताज़ा रक्‍त छलकता है तो नए हो जाते हैं

मेरे पीले-भूरे पतझरों में

उनकी आंखें चमकती हैं

वसन्‍त खोजेगा मुझे

और मैं अपने उन्‍हीं पीले-भूरे पतझरों के साथ

मिट्टी में दबा मिलूंगा

साथी,

ये पतझर सर्दियों भर

मिट्टी में

अपनी ऊष्‍मा उगलते

गलते-पिघलते हैं

महज मेरे नहीं

दुनिया के सारे वसन्‍त

अपने-अपने पतझरों पर ही पलते हैं।
*** 
6

कुछ फूल रात में ही खिलते हैं
कुछ बिम्‍ब बहुत रोशनी में

अपनी चमक खो देते हैं

कुछ प्रतीक इतिहास में झूट हो जाते हैं

वर्तमान में अनाचारियों के काम आते है

कुछ मिथक सड़ जाते हैं पुराकथाओं में

नए प्रसंगों में उनकी दुर्गंध आती है

कुछ भाषा परिनिष्‍ठण में दम तोड़ देती है

कविता के मैदान में नुचे हुए मिलते हैं कुछ पंख

सारे ही सुख दु:ख से परिभाषित होते हैं

गो परिभाषा करना कवि का काम नहीं है 


घुप्‍प अंधेरे में

माचिस की तीली जला

वह काग़ज़ पर कुछ शब्‍द लिखता है

यह समूची सृष्टि पर छाया एक अंधेरा है

और सब जानते हैं

कि कुछ फूल सिर्फ़ रात ही में खिलते हैं
***
7

हेर रहे हम

अरे पहाड़ी रस्‍ते

कल वो भी थी संग तिरे

हम उसके साथ-साथ चलते थे

उसकी वह चाल बावली-सी

बच्‍चों-सी पगथलियां

ख़ुद वो बच्‍ची-सी

उसकी वह ख़ुशियां

बहुत नहीं मांगा था उसने

अब हेर रहे हम पथ का साथी

आया

आकर चला गया

क्‍यों चला गया

उसके जाने में क्‍या मजबूरी थी

मैं सब कुछ अनुभव कर पाता हूं

कभी खीझ कर पांव ज़ोर से रख दूं तुझ पर

मत बुरा मानना साथी

अब हम दो ही हैं 

मारी लंगड़ी गए साल जब तूने मुझे गिराया था

मैंने भी हंसकर सहलाया था

घाव

पड़ा रहा था बिस्‍तर पर

तू याद बहुत आया था

मगर लगी जो चोट

बहुत भीतर

तेरा-मेरा जीवन रहते तक टीसेगी

क्‍या वो लौटेगी

चल एक बार तू-मैं मिलकर पूछें

उससे

अरी बावरी

क्‍या तूने फिर से ख़ुद को जोड़ लिया

क्‍या तू फिर से टूटेगी

****
 

8

दिनचर्या

आज सुबह सूरज नहीं निकला अपनी हैसियत के हिसाब से

बहुत मोटी थी बादलों की परत

उस नीम उजाले से मैंने

उजाला नहीं बादलों में संचित गई रात का

नम अंधेरा मांगा

उसमें मेरे हिस्‍से का जल था

काम पर जाते हुए बुद्ध मूर्ति-सा शांत और एकाग्र था रास्‍ता

उस विराट शांति से मैंने

सन्‍नाटा नहीं गए दिन की थोड़ी हलचल मांगी

मेरे कुछ लोग जो फंस गए थे उसमें आज दिख भी नहीं रहे थे दूर-दूर तक

उनके लिए चिन्तित हुआ

दिन भर बांयें पांव का अंगूठा दुखता रहा था

मैंने रोज़ शाम के अपने भुने हुए चने नहीं मांगे

कुछ गाजर काटीं और

शाम में मिला दिया एक अजीब-सा रंग

रात बादल छंट गए

बालकनी में खड़े हुए देख रहा हूं

भरपूर निकला है पूनम का चांद

मैं उससे क्‍या मांगू

थोड़ा उजाला मैंने कई सुबहों से बचा कर रखा है

उस उजाले से अब मैं एक कविता मांग रहा हूं

अपने हिस्‍से की रात को

कुछ रोशन करने के लिए

शर्म की बात है

पर जिन्‍हें अब तब गले में लटकाए घूम रहा था

वे भी कम पड़ गईं भूख मिटाने को

*** 

9

काव्‍यालोचना

एक रास्‍ते पर मैं रोज़ आता-जाता रहा

अपनी ज़रूरत के हिसाब से उसे बिगाड़ता-बनाता रहा

अब उस पर श्रम और सौन्‍दर्य खोजने का एक काम लिया है

सार्थक-निरर्थक होने के फेर में नहीं पड़ा कभी

जीवन और कविता में जो कुछ जानना था

ज्‍़यादातर अभिप्रायों से जान लिया  है  

*** 

10

काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय में सुरक्षित है रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी

पुख्‍़ता ख़बर है

कि काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय में सम्‍भालकर रखी गई है

रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी

रामचन्‍द्र शुक्‍ल की कुर्सी को सम्‍भालने की इच्‍छा रखने वाले भक्‍तजन

जीवनपर्यन्‍त रामचन्‍द्र शुक्‍ल को नहीं एक आचार्यनुमा कुर्सी को पढ़ते रहे हैं

अपने लिए भी महज एक कुर्सी ही गढ़ते रहे हैं 

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11

विद्रोहिणी

उसने मां के पेट से फेमिनिज्‍़म नहीं पढ़ा था

उसके वहां रहते मां के पेट में कुछ भोजन आता था

सुबह-शाम

और अपमान में पिए हुए ग़ुस्‍से के कई घूंट

वह मां का जीवन था

वह जन्‍मते ही अभागी कहाई

यह पुराकथा है

फिर फिर दोहराई जाए ज़रूरी नहीं

स्‍कूल जा पायी इतनी बड़भागी थी

बड़ी पढ़ाई का हठ ठाने शहर जाने को अड़ी तो

बिगड़ैल कहाई

पर उसने बिगड़ी बात बनाई

नौकरी मिलना सरल नहीं था  मिली

पढ़ते हुए एकाध बार और नौकरी करते दो-तीन बार प्रेम में पड़ी

शादी को मना करती विद्रोही कहलाने लगी थी तब तक

रिश्‍तों के दमघोंटूं ताने-बाने में जिसे सरलता के लिए अतिव्‍याप्ति के बावजूद

समाज कह लेते हैं

अभी उसका प्रेम टूटा है जिसे वो अंतिम कहती है

शादी करने को तैयार थी पर बच्‍चे के लिए दूर-दूर तक नहीं

टूटकर अलग हो चुका है भावुक प्रेमी

कोई गूढ़ राजनीति नहीं है यह

कि चरम पर पहुंचे और सही राह पर हो

तो विद्रोह से

राज पलट जाते हैं

संसार बदल जाता है

स्‍त्री विद्रोही हो जाए

तो थम जाता है संसार का बनना

उसे बदलने की नहीं

बचाने की ज़रूरत बचती है।  

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12

अपनी भाषा में वास

हैरां हूं कि किसे ग़ैर बताऊं,अपना कहूं किसे 

मैं किसी और भाषा की कविता के मर्म में बिंधा हूं

बंधा हूं किसी और की गरदन के दर्द में

न मुझे लिखने के लिए बाध्‍य किया गया न लटकाया फांसी पर

दूसरों के अनुभवों में बिंधना और बंधना हो रहा है 

इतना होने पर भी प्रवास पर नहीं हूं

मेरा वास अपनी ही भाषा के भीतर है

वह भाषा मेरी भाषा में प्रवासी है

इन दिनों

आप चाहें तो सुविधा के लिए उसे अंग्रेज़ी कह सकते हैं

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13

मैं बहुत मजबूर आदमी हूं

मिले हुए जीवन को सुविधाओं से जीता हुआ मैं बहुत मजबूर आदमी हूं

यही मेरी मजबूरी है

मेरी मजबूरी सरल नहीं है

मेरे सिरहाने वह आकाश तक खड़ी है

मेरे पैताने बैठी है पाताल तक

मेरी बगल में क्षितिज तक लेटी है

पर यह एक छोटी मजबूरी है

मजबूरियां जिन्‍हें कहते हैं वे मेरे दरवाज़े के बाहर खड़ी हैं

वहां से न जाने कहां-कहां तक फैली हैं

चीड़ की कच्‍ची डाल टूटने से मरे लकड़ी तोड़ने वाले की मजबूरी

हम पक्‍के बरामदों में आग तापते हुए अपनी चमड़ी से लील जाते हैं

उधर जिन कच्‍चे घरों को वाकई आग की ज़रूरत है

वे सर्द और नम हवाओं में सील जाते हैं

हमारे घरों में मटर-पनीर की सब्‍ज़ी बच जाती है

असंख्‍य रसोईघरों में बासी रोटियां भी खप जाती हैं

मजबूरियां जिन्‍हें कहते हैं

वे सरल होती हैं उनसे पार पाना जटिल होता है

अपनी मजबूरी कहते अब शर्म आने लगी है

जैसे इसी कविता के भीतर और बाहर

मैं बहुत मजबूर आदमी नहीं हूं

यह शीर्षक एक बेशर्म धोखा है

और मैं अपनी मजबूरी में दरअसल एक बेशर्म आदमी हूं

आदमी की जगह कवि कहता

पर कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है

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14

लोकसभा चुनाव 2014

चढ़ती रातों में कुछ पढ़ते हुए

तमतमा जाता चेहरा

हाथ की नसें तन जातीं

पांवों में कुछ ऐंठता

कभी आंखों में नमी महसूस होती

गालों पर आंसू की लकीर भी दिखती

लेकिन पागल नहीं था मैं कि अकेला बैठा गुस्‍साता या रोता

सामान्‍य मनुष्‍य ही था

सामान्‍य मनुष्‍य जैसी ही थीं ये हरक़तें भी

आजकल सामान्‍य होना पागल होना है

और पागलों की तरह दहाड़ना-चीख़ना-हुंकारना

सामान्‍यों में रहबरी के सर्वोच्‍च मुकाम हैं 

संयोग मत जानिएगा

पर जून 2014 में मुझे अपने साइको-सोमैटिक पुनर्क्षीण के लिए

दिल्‍ली के अधपगले डाक्‍टर के पास जाना है

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15

अधमकहानी

स्‍त्री देह में धंस जाने की लालसा पुरुषों में पुरानी है

और मन टटोलने का कायदा अब भी उतना प्रचलित नहीं

लाखों वर्षो में मनुष्‍य के मस्तिष्‍क का विकास इस दिशा में बेकार ही गया है  

जब भी

नाभि से दाना चुगती है होटों की चिडिया

तो डबडबा जाती हैं उसकी आंखें

कुछ प्रेम कुछ पछतावे से

प्राक्-ऐतिहासिक तथ्‍य की तरह याद आता है कि यह भी एक मनुष्‍य ही है

इसे अब प्रेम चाहिए

लानतों से भरा कोई पछतावा नहीं
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सम्पर्क-
मोबाईल – 09412963674
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

वीरेन डंगवाल पर शिरीष कुमार मौर्य का आलेख

वीरेन डंगवाल हमारे समय के महत्वपूर्ण और अपनी तरह के अनूठे कवि हैं। व्यवहार का उनका फक्कड़ाना अंदाज उनकी कविताओं में भी स्पष्ट तौर दिखायी पड़ता है। मुक्त छंद की कवितायें हो कर भी छंद में ऐसी बिधी हुई कि जुबान पर सहज ही चढ़ जाती हैं। वीरेन दा की कविताओं पर एक समग्र पड़ताल करने की ईमानदार कोशिश की है हमारे कवि मित्र शिरीष कुमार मौर्य ने। आज शिरीष का जन्मदिन भी है। इस अवसर पर शिरीष को जन्मदिन की बधाई एवं शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं शिरीष द्वारा अपने प्रिय कवि पर लिखा गया आलेख आईये पढ़ते हैं शिरीष का यह जरुरी आलेख।
  
ख्‍़वाब की तफ़सील और अंधेरों की शिकस्‍त
(वीरेन डंगवाल की कविता पर अपर्याप्‍त–सा कुछ)

(एक टूटी-बिखरी नींद थी और एक अटूट ख़्वाब था अट्ठारह की नई उम्र का जब मैं वीरेन डंगवाल के पहले संग्रह इसी दुनिया में की समीक्षा करना चाहता था, स्‍नातक स्‍तर की पढ़ाई और वाम छात्र-राजनीति करते हुए …फिर एक टूटा-बिखरा ख़्वाब था और एक अटूट नींद थी अट्ठाइस की उम्र के सद्गृहस्थ जीवन में जब वीरेन डंगवाल के दूसरे संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा की समीक्षा करना चाहता था, एक महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हुए। अब न वैसे ख़्वाब हैं, न वैसी नींद है … पढ़ना भी बदलने लगा है और पढ़ाना भी … इधर वीरेन डंगवाल का तीसरा संग्रह (स्‍याही ताल) भी 2009 में आ चुका है … और अब मैं किसी भी लेखन-योजना से बाहर कुछ लिखने बैठा हूँ, वीरेन डंगवाल के सभी तीन  संकलनों को सामने रख कर। जाहिर है वे दो समीक्षाएँ कभी हो न सकीं और कह नहीं सकता कि अब जो होगा, उसमें कितना महज कहना होगा- कितना लिखना..)

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पहली बात जो वीरेन डंगवाल की कविता को देखते ही बहुत स्‍पष्‍ट सामने आती है, वो ये कि जब समकालीन हिंदी कविता पाठ और अर्थ के नए अनुशासनों में अपना वजूद खोने के कगार पर खड़ी है, तब वीरेन डंगवाल कविता में कही गई बात को अर्थ के साथ (बल्कि उससे अलग और ज्‍़यादा) अभिप्राय और आशय पर लाना चाहते हैं। भाषा में दिपते अर्थ, अभिप्राय, आशय और राग के मोह के चलते वे एक अलग छोर पर खड़े दिखाई देते हैं, जो जन के ज्‍़यादा निकट की जगह है। वे हमारे वरिष्‍ठों में अकेले हैं जो हिंदी पट्टी के बचे हुए मार्क्‍सवाद – जनवाद के सामर्थ्‍य के साथ उत्‍तरआधुनिक पदों को भरपूर चुनौती दे रहे हैं। इस तरह वीरेन डंगवाल और उनकी कविता के बारे में जैसे ही सोचना शुरू करता हूं तो उन्हीं के शब्दों में आलम कुछ ऐसा होता है – लाल-झर-झर-लाल-झर-झर लाल…. समकालीन कविता के बने-बनाए खाँचें में वीरेन डंगवाल की कविता ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया है। अपने समय की कविता में जितनी उथल-पुथल निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन और धूमिल ने की थी, वैसी ही वीरेन डंगवाल ने अस्सी के दशक की पीढ़ी में कर दिखाई है। वे अपने पुरखों से सबसे ज़्यादा सीखने लेकिन उस सीख को व्यक्तित्व में पूरी तरह अपना बनाके बिलकुल अलग अंदाज़ में व्यक्त करने वाले कवि हैं।

मुझे वीरेन डंगवाल की कविता में सबसे ज़्यादा नागार्जुन नज़र आते हैं पर याद रखें कि मैं प्रभाव की बात नहीं कर रहा हूं। किसी को वीरेन डंगवाल और नागार्जुन एक बिलकुल अटपटा युग्म लग सकता है और ऐसा लगने पर मैं तुरत यही कहूंगा कि हाँ ! यही तो है वह बीज शब्द ‘अटपटा’ जो दोनों कवियों को जोड़ देता है बल्कि दो ही नहीं, और जो नाम मैंने ऊपर लिए उन्हें भी।

अपने ही भीतर अजब तोड़फोड़ का एक अटपटापन निराला का, विराट बौद्धिक छटपटाहट और चिंताओं से भरा एक अटपटापन मुक्तिबोध का, कविता को सामाजिक कला में बदल देने और सामान्य पाठकों में भी उस बदलाव का ख़्वाब देखते रहने का एक अटपटापन शमशेर का, हमारे महादेश की समूची जनता को अपने हृदय में धारण किए कबीरनुमा मुँहफट-औघड़ एक अटपटापन नागार्जुन का, सहजता को ही कविता का प्राण मान लेने के बावजूद बहुत कुछ जटिल रच जाने का एक अटपटापन त्रिलोचन का और ठेठ उजड्ड गँवईं संवेदना का सहारा लेकर नक्सलबाड़ी और लोकतंत्र तक के तमाम गूढ़ प्रश्नों से टकराने का एक अटपटापन धूमिल का। इतने अलग-अलग कवियों में घिरकर भी अपनी बिलकुल अलग राह बनाने का फ़ितूर जैसा अटपटापन वीरेन डंगवाल का। वैसा ही दिल भी उनका, मोह और निर्मोह से एक साथ भरा। 

इस कवि की कविता समीक्षा से परे जा चुकी है, यह जान लेना अब ज़रूरी हो चला है। समकालीन आलोचना की जो हालत है, उसमें वीरेन डंगवाल का एक विकट नासमझ और मुखर विरोध मैं वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल के आलेख में देख चुका हूं, जो कुछ बरस पहले उन्हीं के द्वारा सम्पादित कसौटी नामक पत्रिका में छपा था…… और फिर कुछ युवा आलोचकों द्वारा उनका मूल्यांकन करते समय पूजा-वंदना की स्थिति में आ जाना भी किसी से छुपा नहीं है। मेरे सामने बड़ा संकट विरोध नहीं, वंदना है। जब कोई अग्रज कवि एक समूची युवा पीढ़ी द्वारा लगभग वंदनीय मान लिया जाए तो ख़तरे की घंटी नहीं, दमकल का हूटर बजने लगता है मेरे भीतर। मेरा मानना है कि अपने समय और समाज की तमाम कमज़ोरियों से भरी उनकी कविता एक ऐसी विकट चुनौती है, जिससे हारकर उसकी वंदना भर कर लेना आलोचना की हार तो है ही, कवि के साथ भी अन्याय है। यह अन्याय मैं नहीं करूँगा, ऐसा कोई वादा भी नहीं कर सकता – यह एक अटपटापन मेरा भी।

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शुरूआत के लिए कवि के पहले संग्रह इसी दुनिया में की बात करूं … यह साधारण नाम वाला बहुत असाधारण संग्रह हैं, किंतु पहले संग्रह के रोमांच से बहुत दूर। ग़ौर करने की बात है कि 44 साल की कविउम्र में रोमांच उस तरह सम्‍भव भी नहीं पर विचार की संगत के उल्‍लास में पूरा संग्रह पाठकों के आगे इसी दुनिया में किसी और दुनिया की तरह खुलता है। वीरेन डंगवाल का यह संग्रह 1991 में आया। इसके आने की अन्‍तर्कथा इतनी है कि कवि के कविमित्र और प्रकाशक नीलाभ उनकी कविताओं का हस्‍तलिखित एक रजिस्‍टर उठा ले गए, जिसे उन्‍होंने संकलन के रूप में संयोजित किया। तब तक भी वीरेन डंगवाल की कविताएं अपने पाठकों में ख़ूब लोकप्रिय थीं। उनके साथी हमउम्र कवि कविता संकलनों की संख्‍या और अनुपात में उनसे बहुत आगे थे पर यही बात कविता की स्‍थापना और विकास के सन्‍दर्भ में नहीं कही जाएगी। 44 की उम्र में वीरेन डंगवाल अपनी कविता को किताब के रूप में सेलिब्रेट करने के मामले में निर्मोही साबित हुए थे लेकिन अब ये बहुप्रतीक्षित संकलन परिदृश्‍य पर मौजूद था और इसे सेलिब्रेट करने वाले जन भी। इसके लिए उन्‍हें रघुवीर सहाय स्‍मृति पुरस्‍कार(1992) और श्रीकान्‍त वर्मा स्‍मृति पुरस्‍कार(1993) दिया गया, यह उनके योगदान को यत्‍किंचित रेखांकित करने जैसा था, जबकि कवि किसी भी पुरस्‍कार-सम्‍मान की हदबंदी में अंटने के अनुशासन से बाहर खड़ा था। एक भले और मित्रसम्‍पन्‍न संसार को याद करते हुए मैं नीलाभ के प्रकाशकीय वक्‍तव्‍य का शुरूआती अंश उद्धृत करना चाहूंगा – वीरेन डंगवाल की लापरवाही और अपनी कविताओं को लेकर उसकी उदासीनता एक किंवदंती बन चुकी है। लेकिन जो वीरेन को नज़दीक से जानते हैं और उसकी कविताओं से परिचित हैं, उन्‍हें बख़ूबी मालूम है कि वीरेन की प्रकट लापरवाही और उदासीनता के नीचे गहरी संवेदना, लगाव और सामाजिक चिंता मौजूद है। यही नहीं, बल्कि वह कविता और कविकर्म को लेकर उतना लापरवाह और उदासीन भी नहीं है, जितना वह ऊपरी तौर पर नज़र आता है। यह ज़रूर है, और उल्‍लेखनीय भी, कि वीरेन डंगवाल कविता के कंज्‍़यूरिज्‍़म, चर्चा-पुरस्‍कार की उठा-पटक या राजधानियों के मौजूदा कवि-समाज की आत्‍मविभोर परस्‍पर पीठ-खुजाऊ मंडलियों से अलग है। यह बात उसके व्‍यवहार में भी झलकती है और कविताओं में भी।  नीलाभ का ये कथन आज कविता में वीरेन डंगवाल के महत्‍व को जानने के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है। इसमें कोई आलोचना-तत्‍व नहीं है, तब भी इसकी राह पर हमें न सिर्फ़ वीरेन डंगवाल की कविता, बल्कि उनकी समूची पीढ़ी की कविता की पहचान के कुछ आरम्भिक सूत्र मिलते हैं। वीरेन डंगवाल कविता लिखने के प्रति उदासीन या लापरवाह नहीं है, वे तो अपने हमउम्रों में ख़ुद के लिए सबसे कठिन उत्‍तरदायित्‍वों के निर्वहन का संकल्‍प लेने वाले कवि हैं। वे शुरूआत से जानते थे कि पीठ-खुजाऊ मंडलियों के कारण उनसे बाहर दरअसल कविता किस गति को प्राप्‍त हो रही है –

कवि का सौभाग्‍य है पढ़ लिया जाना
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्‍य है
हां, स्‍वाद भी अच्‍छा और तासीर में भी
                                          (इसी दुनिया में)

कोई हैरत नहीं कि इलाहाबाद में अपने लम्‍बे रहवास के कारण कवि को अमरूद याद आया और इसमें इलाहाबाद की मिली-जुली कवि-परम्‍परा भी पीछे कहीं गूंजती है। यह कविता की हक़ीक़त हो चली थी जो बाद में और कठोर रूपाकारों में सामने आयी। इस संकट की भनक तब वीरेन डंगवाल के साथी कवियों में दिखाई नहीं दी थी, वे नई लोकप्रियता, आलोचकीय-प्रकाशकीय मान्‍यता और आगे चल पड़ने के उल्‍लास से भरे थे और वीरेन डंगवाल समय को आंकने-भांपने के अपने कर्म में लीन, ताकि आने वाली नौजवान पीढ़ी पीछे मुड़कर देखे तो उसे ये कुछ निर्मम आत्‍ममूल्‍यांकन के दृश्‍य भी दिखाई दें –

सफल होते ही बिला जाएगा
खोने का दु:ख और पाने का उल्‍लास

तब आएगी ईर्ष्‍या
लालच का बैंड-बाजा बजाती।
                                       (इसी दुनिया में)

इस संग्रह के मुखर राजनीतिक स्‍वर बहुत क़ीमती हैं। इसमें साहित्‍य की तुष्टि के लिए नहीं, जनता के अटूट जीवन संघर्षों के बीच रहने-सहने की इच्‍छा की राजनीति है। वीरेन डंगवाल अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक मार्क्‍सवादी कवि हैं, जबकि उनकी कविताओं में नारे नहीं हैं। वे अधिक मार्क्‍सवादी इसलिए हैं क्‍योंकि उनके यहां जन का दु:ख-दर्द और विकट संघर्ष अधिक बेधने वाले साबित हुए हैं। कविता में उनकी पुकारें ओज से भरी हैं। वे लगातार क्रूर और निरंकुश सत्‍ताओं को चुनौती देते हैं। अपनों की भीड़ में बिलकुल अलग आवाज़ में बोलती इसी दुनिया में की कुछ पुरानी कविता नए वक्‍़त में दस्‍तावेज़ बन गई है।
***
जगहों को लेकर अपने एक मोह में मेरा ध्‍यान अकसर इस तरफ़ गया है कि हमारी समकालीन हिंदी कविता जगहों को किस तरह ट्रीट और सेलिब्रेट कर पा रही है। जगहें हर किसी के जीवन में बहुत ख़ास होती हैं। आदमी जहां कुछ देर को भी बसता है, उस जगह को जाने-अनजाने अपने भीतर बसा लेता है। जगहें महज भूगोल नहीं होतीं। वे समाज और संस्‍कृति होती हैं। साहित्‍य में उनका एक ख़ास मोल होना चाहिए। जगहों में विचार और मानवीय रिश्‍तों के आकार बनते हैं। हमारे प्रिय वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह ने जगहों को नास्‍टेल्जिया के शिल्‍प में व्‍यक्‍त किया पर वे उससे बाहर बेहतर गूंजती हैं और इस गूंज को वीरेन डंगवाल की कविता में कहीं साफ़ और सही स्‍वर में सुना जा सकता है। इन जगहों में कुछ शहर हैं। कहना अतिरेक न होगा कि हिंदी में आज अगर कोई सच्‍चे अर्थ में शहरों का कवि है तो वो वीरेन डंगवाल हैं। शहरों को अकसर सत्‍ता और शोषणकेन्‍द्रों के रूप में स्‍थापित किया गया है और उसमें बसने वाले हमारे लाखों-लाख जन अनदेखे ही रह गए। ये उम्रभर के लिए भव्‍य इमारतों और भागती हुई सड़कों के बीच फंसे हुए लोग हैं, जिनके जीवन में आसपास की तथाकथित भव्‍यता के बरअक्‍स एक स्‍थाई होती जाती जर्जरता है। वीरेन डंगवाल की कविता ने शहरों को धिक्‍कारने की जगह इस प्रिय आत्‍मीय जर्जरता को पहचाना है। ढहने के दृश्‍यों को आकार दिए हैं और जूझने की हदें आज़मा कर देखी हैं। नामों से देखें तो इलाहाबाद उनका प्रिय शहर है। वे इस शहर को अपने और कविता के भीतर बसाए बैठे हैं। इसी क्रम में बाद में चलकर कानपुर भी आता है, बरेली के दृश्‍य कई कविताओं में लगातार बने रहते हैं। नागपुर पर भी कविता है और रॉकलैंड डायरी के समूचे रचाव में जाएं तो दिल्‍ली पर भी। जिस भी शहर- जिस भी जगह कवि जाता है, उसे अपने भीतर बसाता है। वीरेन डंगवाल की यह स्‍थानप्रियता उनकी कविता की एक बहुत बड़ी दिशा है, जिस पर कभी विचार नहीं हुआ।     

इलाहाबाद एक अद्भुत जगह है। हिंदी के भूगोल में ये एक दोआबा अलग चमकता है। ये एक ऐसा शहर है, जो कहीं न कहीं एक खंरोंच-सी लगा देता है ज़ेहन पर। वीरेन डंगवाल के पहले संग्रह में इलाहाबाद :1970 नाम की कविता है तो तीसरे संग्रह में इलाहाबाद और वहां पनपी रचनात्‍मक और वैचारिक प्रिय मित्रताओं की कसक भरी याद में टीसती ऊधो, मोहि ब्रज मौजूद है, जिसे अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रमेन्‍द्र त्रिपाठी और ज्ञान भाई को समर्पित किया गया है। लगभग अड़तीस-चालीस बरस का फ़र्क़ दोनों के रचनाकाल में है। इतने बरस तेज़ी से बदलते ज़माने में न सिर्फ़ व्‍यक्ति के बल्कि शहर के इतिहास में भी मायने रखते हैं। 70 का दौर इलाहाबाद से लिख-पढ़कर आजीविका के लिए दूसरे शहरों की ओर चले जाने के अहसास का था और दूसरी कविता का दौर, जिस ओर गए, उधर कुछ पा लेने के बाद मुड़ कर देखने और अपने भीतर शहर को याद करने का है, जहां उस तरह लौटना और रहना-बसना कभी होगा नहीं।

मैं ले जाता हूं तुझे अपने साथ
जैसे किनारे को ले जाता है जल

एक उचक्‍कापन, एक अवसाद, एक शरारत,
एक डर, एक क्षोभ, एक फिरकी, एक पिचका हुआ टोप
चूतड़ों पर एक ज़बरदस्‍त लात
खुरचना बंद दरवाज़ों को पंजों की दीनता से

विचित्र पहेली है जीवन

जहां के हो चुके हैं समझा किए
तौलिया बिछाकर इतमीनान की सांस छोड़ते हुए
वहीं से कर दिए गए अपरिहार्य बाहर
                                    (इलाहाबाद : 1970, इसी दुनिया में)

कविता के इस शुरूआती नोट में ही अर्थ से परे कितने ही नाज़ुक अभिप्रायों की दुनिया खुलती है। इस लम्‍बी कविता का अंत इसमें न होकर स्‍याही ताल की कविता में मौजूद है…बल्कि उसे भी अंत कहना अभी जल्‍दबाज़ी होगा, क्‍योंकि जानता हूं अभी बहुत इलाहाबाद बाक़ी है कविमन में। ऊधो, मोहि ब्रज की शुरूआत ऐसी किसी भी कविता की हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरे में अब तक असम्‍भव रही एक अद्वितीय शुरूआत है (गो वीरेन डंगवाल किसी भी तरह के प्रचलित से बाहर एक असम्‍भव के ही कवि साबित भी हुए हैं) –

गोड़ रही माई ओ मउसी ऊ देखौ
            आपन – आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
             सिगरे बस रेत ही रेत
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
             हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
             किन बैरन लगाई ई आग
                                             (स्‍याही ताल)

                     
किन बैरन…. अकसर भीमसेन जोशी के राग दरबारी के मंद्र गम्‍भीर सुरों में सुनता रहा हूं लोक के बिलखते भावघर से सजग वैचारिकी ओर बढ़ता ये सुलगता हुआ सवाल। और इधर शहर और प्रिय राजनीति की कितनी परतों को खोलता कैसा ये कविता के आखिर का उलाहना –

कुर्ते पर पहिने जींस जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बख़त तुम्‍हारा ठीक नहीं  
                                              (ऊधो, मोहि ब्रज, स्‍याही ताल)

इलाहाबाद वीरेन डंगवाल के शहरों का स्‍थाई है मगर राग से वीतराग में बदलते इस किस्‍से के कुछ और भी पड़ाव भी हैं – जैसे कानपुर …कवि के शब्‍दों में कानपूर। दस टुकड़ों में ये लम्‍बी कविता स्‍याही ताल में है, जो पहली बार पहल में छपी और चर्चित हुई। कविता की शुरूआत प्रेम के बारे में एक असम्‍बद्ध लगते बयान से होती है –

प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं
वह तुझे ख़ुश और तबाह करेगा
                                               (कानपूर, स्‍याही ताल)

लेकिन वीरेन डंगवाल असम्‍बद्ध नज़र आने वाली चीज़ों/बातों में रागपूर्ण सम्‍बद्धता सम्‍भव करते हैं। वे असम्‍बद्धता के बारे में हमारे भ्रमों को लगातार तोड़ते चलते हैं। सम्‍बद्धता – असम्‍बद्धता अकसर हमारे सोच-विचार के दायरे से बाहर स्‍वत: घटित होने वाला तथ्‍य है, हम कभी उसे देख पाते हैं, कभी नहीं – वीरेन डंगवाल की कविता इसे देखने की समझ देती है। बहुत दूर घटित हुए किसी और प्रेम की खातिर कवि इस शहर में है, जहां वो पहले कभी नहीं था। प्रेम में ख़ुशी और तबाही एक साथ हैं और इसे प्रेम पर व्‍यंग्‍य समझने की भूल न की जाए। सायास लिखी जा रही प्रेम-कविताओं में व्‍यर्थ हो रहा हमारे समय का कवित्‍व प्रेम की उस मूल समझ से दूर जा रहा है, जिसे यहां दो छोटी पंक्तियों में कह दिया गया है।  शहर के ब्‍यौरों में उतरने से पहले वीरेन डंगवाल पहले अपने भीतर की हलचलों में राह खोजते हैं और इस बहुत लम्‍बी कविता के अंत की उर्दू क्‍लासिक की-सी इन पंक्तियों में फिर वहीं लौट आते हैं, मानो किसी उदात्‍त राग के बड़े ख़याल में सुरों को जहां से जगाया गया था, वहीं लाते हुए उनका स्‍थायी प्रभाव बनाकर छोड़ा जा रहा हो – गा/सुन चुकने के बाद जैसे राग की स्‍मृतियां बरक़रार रहती है –

रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक
सुबह होने में अभी देर है माना काफ़ी
पर न ये नींद रहे नींद फ़क़त नींद नहीं
ये बने ख्‍़वाब की तफ़सील अंधेरों की शिकस्‍त
                                                   (वही)

अंधेरों की शिकस्‍त का दावा करने / इच्‍छा रखने वाले बहुत कवि हमारे समय में मौजूद हैं पर ख्‍़वाब की तफ़सील देने वाले बिरले ही होते हैं, वीरेन डंगवाल उनमें हैं…फिलहाल अकेले….

वीरेन डंगवाल की कविता में मौजूदा शहर हैं और ऐसा शहर भी है, जो कहीं नहीं है पर जानना मुश्किल नहीं कि यह तो एक बार फिर वही इलाहाबाद है, जो एक उम्र के बाद उस तरह नहीं रहा जैसा कभी कवि के जीवन में था। अलबत्‍ता इसे नाम न देकर कवि ने सबका बना दिया है। यह कविता जो शहर कहीं था ही नहीं दूसरे संग्रह दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा में है। इसमें पीड़ा अधिक घनीभूत हुई है, क्‍योंकि शहर तो है पर इस तरह जैसे था ही नहीं। होने का नहीं होना कविता में ऐसे अभिप्रायों को स्‍वर देता है, जो इतनी टीस के साथ कम ही देखे गए हैं। इस शहर की याद भी अतीव सुन्‍दर प्रेम है। मुहल्‍ले भरपूर बूढ़े, सजीले पान, मिठाई की दुकानें, सूरमा मच्‍छर और मेला साल में एक बार ज़बरदस्‍त हमें बताते हैं कि यह इलाहाबाद है। यह समझ कविता में ही सम्‍भव हो सकती है कि जहां हम क़दम नहीं रख सकते वहां भी अकसर जाना होता है अपनी फ़रेबसम्‍भवा भाषा के साथ। यही और ऐसा ही है इलाहाबाद, जिसे निराला, शमशेर और वीरेन डंगवाल ने लगभग अमर बना दिया है कविता के भीतर और बाहर भी।

***

वीरेन डंगवाल की कविता में असाधारण का साधारणीकरण और साधारण का असाधारणीकरण विचार के बहुत सधे हुए ताने-बाने में मुमकिन होने वाली प्रक्रियाएं हैं। उनके कोई शास्‍त्रीय हल या व्‍याख्‍याएं मौजूं ही नहीं हैं। यहां वे बहुचर्चित कविताएं हैं, जिन्‍हें अतिसाधारण चीज़ों और जीवों का सन्‍दर्भ लेते हुए लिखा गया है। समोसा-जलेबी आम आदमी के जीवन में उपस्थित व्‍यंजन हैं, जिनसे कवि अपनी कविता के लिए व्‍यंजना प्राप्‍त कर लेता है। पपीता है, जिसकी कोमलता घाव की तरह लगती है। साइकिल पर एक आख्‍यान है। साम्राज्‍यवादी ताक़त की प्रतीक इलाहाबाद के कम्‍पनी बाग़ की तोप है, जिसका मुंह बंद हो चुका है। रेल आलोक धन्‍वा की कविता में भी है और वीरेन डंगवाल की कविता में भी – यहां आशिक जैसी उसांसें और सीटी भरपूर वाले भाप इंजन की आत्‍मीय स्‍मृति है, रेल का विकट खेल और उपूरे दपूरे मपूरे का खिलंदड़ापन है, इसमें आम आदमी की यात्राओं का आसरा तिनतल्‍ला शयनयान है। ऊंट जैसा मेहनतकश संतोषी पशु है, जो सिर्फ़ मरुथलों में नहीं, पूरब के मैदानों में भी आम आदमी का संगी रहा है। यहीं राजसी वैभव से बाहर आ चुका हाथी भी है। बारिश में भीगा अद्भुद मोद भरा सूअर का बच्‍चा है। जीते-जी कहीं न गिरने का साहस साधे झिल्‍ली डैनों वाली मक्‍खी, पुरखों की बेटी छिपकली और सृष्टि के हर स्‍वाद की मर्मज्ञ कुत्‍ते की जीभ के संदर्भ मनुष्‍य की कथा कहने के लिए हैं। ये वो छोटे जीव हैं, जिनका जीवट बहुत बड़ा है। जाहिर है कि वीरेन डंगवाल कविता में वस्‍तुओं और जीवों से व्‍यवहार की एक नई कला विकसित कर चुके हैं। इस कला पर कवि की निजी छाप है, उसकी कोई नक़ल तैयार कर पाना एक नामुमकिन चुनौती है। यहां से हमें यह समझ भी मिलती है कि कविता में वस्‍तुएं और विषय निजी नहीं होते पर कला होती है।
 
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रात हमेशा से कवियों का लक्ष्‍य रही है। रात पर और उसके अलग-अलग रचावों पर हमारे पास कविताएं हैं पर वीरेन डंगवाल के यहां एक पूरी रातगाड़ी मौजूद है, जो मुश्किल में पड़े देश की रात को लादे है। इस रात के अपने कई ब्‍यौरे हैं, जिन्‍हें यहां दूंगा तो लेख अपनी तय सीमा से बाहर निकले जाएगा पर इतना तो ज़रूरी होगा

इस क़दर तेज़ वक्‍़त की रफ़्तार
और ये सुस्‍त जिन्‍दगी का चलन
           अब तो डब्‍बे भी पांच ए.सी. के
           पांच में ठुंसा हुआ बाक़ी वतन
           आत्‍मग्रस्‍त छिछलापन ही जैसे रह आया जीवन में शेष
           प्‍यारे मंगलेश
           अपने लोग फंसे रहे चीं-चीं-चीं-टुट-पुट में जीवन की
           भीषणतम मुश्किल में दीन और देश
            …
           कोमलता अगर दीख गई  आंखों में, चेहरे पर
           पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्‍यार
           बिस्‍कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग और बटमार
           माया ने धरे कोटि रूप
           ….
रात विकट  विकट रात  विकट रात
दिन शीराज़ा
शाम रुलाई फूटने से ठीक पहले का लम्‍बा पल
सुबह  भूख की चौंध में खुलती नींद
दांत सबसे विचित्र हड्डी
                                            (रात-गाड़ी, दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा)

   
यहां सिर्फ़ बाहरी दृश्‍य नहीं हैं, यह रात आत्‍मग्रस्‍त छिछलेपन की भी है। रात पर एक छोटी कविता स्‍याही ताल है –  
 
मेरे मुंतजि़र थे                                                                      
रात के फैले हुए सियह बाज़ू                                                          
स्याह होंठ                                                                              
थरथराते स्याह वक्ष                                                                  
डबडबाता हुआ स्याह पेट                                                                  
और जंघाएँ स्याह                                                                                                      
मैं नमक की खोज में निकला था                                                       
रात ने मुझे जा गिराया                                                                      
स्याही के ताल में।
                                             (स्‍याही ताल)

इस कविता का मतलब क्या है? रात है, समझ में आता है। विकट रात है, जिसमें सब कुछ स्याह है, यह भी समझ में आता है। फिर उस रात का संक्षिप्त किंतु तीव्र ऐंद्रिक विवरण, जहाँ वक्ष, डबडबाता हुआ पेट, जो अकसर प्रौढ़ावस्था में होता है और जंघाएँ भी हैं। ये सब अंग स्‍याह हैं और अंतत: नमक की खोज में निकले कवि को रात स्याही के ताल में जा गिराती है…यह उस रात की विडम्बना है या कवि की, कुछ साफ़ समझ नहीं आता। यह रात विकट तो है पर मुक्तिबोध की रातों की तरह भयावह और क्रूर नहीं….यहाँ ऐंद्रिक मिलन जैसा कुछ होते-होते रह गया-सा लगता है। इस कविता के अंत में रात कवि को स्याही के ताल में जा गिराती है … कविता कुल मिलाकर एक अनोखा-आत्मीय-करुण और कलात्मक वातावरण रच देती है, जिसमें पाठक का घिर जाना तय है। ऐसा होना शमशेर की गहरी याद दिलाता है। यही कवि का अटपटापन और फि़तूर भी है। यहाँ मुझे दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा में संकलित शमशेर वाली कविता की यह पंक्तियाँ भी याद आती हैं –

अकेलापन शाम का तारा था                                                       
इकलौता                                                                                         
जिसे मैंने गटका                                                                       
नींद की गोली की तरह                                                                  
मगर मैं सोया नहीं
                                       (शमशेर, दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा)

इस रात्रिकथा में हृदयस्‍थ सूर्य के ताप से प्रेरित भोर के हस्‍तक्षेप लगातार बने रहते हैं । यहीं से कवि अपनी अलग राह का साक्ष्‍य प्रस्‍तुत करता है –

इसीलिए एक अलग रास्‍ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्‍का यक़ीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्‍यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब 

 (कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा,स्‍याही ताल)      

समकालीन क्रूरताओं-निमर्मताओं और हत्‍यारी सम्‍भावनाओं के बीच वीरेन डंगवाल उम्‍मीद को कहीं कोई नश्‍तर नहीं लगने देते, फिर चाहे जो उम्‍मीद है / भले ही वह फ़िलहाल तकलीफ़ जैसी हो।  आस या उम्‍मीदें उनके यहां महाख्‍यान होने के क़रीब आती हैं। वे विसंगतियों, विडम्‍बनाओं, विफलताओं और तमाम अनाचारों के बीच मनुष्‍यता के पक्ष में जुझारूपन और लड़ाकूपन के चित्रों को अपना ख़ास गाढ़ा लाल रंग देते हैं। रॉकलैंड डायरी कैंसर से लड़ते हुए कवि की निजी-व्‍यथाकथा हो सकती थी लेकिन यह वीरेन डंगवाल का हृदय नहीं, जो दु:खों में निजता को साधे। इस लम्‍बी कविता के अंत में फिर कवि का वही लाल चमकता-भभकता दिल है, जो जनसंघर्षों के हर सम्‍भव पथ को आलोकित करता है –

मेरी बंद आंखों में
छूटते स्‍फुल्लिंग
मेरे दिल में वही ज़िद कसी हुई
किसी नवजात की गुलाबी मुट्ठी की तरह
मेरी रातों में मेरे प्राणों में
वही-वही पुकार :
‘हज़ार जुल्‍मों के सताए मेरे लोगो
तुम्‍हारी बद्दुआ हूं मैं
तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्‍हारी लालसा’

वीरेन डंगवाल के यहां उम्‍मीद दिलासा की तरह नहीं है, वह हमारे काल में यक़ीन की तरह धंसी हुई है। देखना होगा कि अब तक समकालीन कविता में असम्भव रही यही वीरेन डंगवाल की कला है, जो अपनी पूरी ताक़त के साथ एक भरपूर समर्पित सामाजिक और राजनीतिक कृत्य में बदल जाती है। यह जानना कितना सुखद और आश्वस्तिप्रद है कि इस कला को पूर्णता में पाकर भी कवि सोता नहीं, निरन्तर जागता और जगाता है। इसी कला से उनके सभी संग्रह बने है। कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा  तीसरे संग्रह की पहली कविता है, जिसकी पंक्तियों को पहले मैंने उद्धृत किया -हर समर्थ कवि अपने समाज का विश्लेषण करने और उसके बारे में कोई राजनीतिक बयान देने में रुचि रखता है, लेकिन वीरेन डंगवाल स्थूल विश्लेषण से कहीं आगे उसके रग-रेशे में प्रवेश करके ख़ुद को उसके साथ रच लेने के उस हद तक हामी हैं, जहाँ बयान देने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती, वह उस रचाव के बीच से ख़ुद ही निकलकर आता है। यह कविता इसका एक बड़ा उदाहरण है। कविता लगातार दिल में गूंजती है। बरेली से लगा हुआ रामगंगा के कछार पर बसा कटरी गाँव। वहाँ रहती रुक्मिनी और उसकी माँ की यह काव्य-कथा। नदी की पतली धार के साथ बसा हुआ साग-सब्जी उगाते नाव खेते मल्लाहों-केवटों के जीवन की छोटी-बड़ी लतरों से बना एक हरा कच्चा संसार। कलुआ गिरोह। 5-10 हज़ार की फिरौती के लिए मारे जाते लोग, गो अपहरण अब सिर्फ उच्च वर्ग की घटना नहीं रही। कच्ची खेंचने की भट्टियाँ। चौदह बरस की रुक्मिनी को ताकता नौजवान ग्राम प्रधान। पतेलों के बीच बरसों पहले हुई मौत से उठकर आता दीखता रुक्मिनी का किशोर भाई। पतवार चलाता 10 बरस पहले मर खप गया सबसे मजबूत बाँहों वाला उसका बाप नरेसा। एक पूरा उपन्यास भी नाकाफ़ी होता इतना कुछ कह पाने को। अपने कथन की पुष्टि के लिए नहीं बस एक सूचना के लिए बताना चाह रहा हूं कि अभी बया (अंक 18) में चर्चित युवा कथाकार अनिल यादव ने इस कविता को आधार बनाते हुए कटरी की रुकुमिनी नाम से ही एक अद्भुत कहानी लिखी है। यह कविता और कहानी के बीच अपनी तरह का पहला पुल है, जिसे शायद वीरेन डंगवाल की कविता और अनिल यादव की अलग विद्रोही समझ ही मुमकिन कर सकती है। संक्षेप में कहूं तो यह कविता हमारे समय की मनुष्यनिर्मित विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच कवि की अछोर करुणा का सघनतम आख्यान प्रस्तुत करती हुई सदी के आरम्भ की सबसे महत्वपूर्ण कविता मानी जाएगी। मैं सिर्फ आने वाले कुछ दिन नहीं, बल्कि पूरी उमर इसके असर में रहूंगा। निजी सम्‍बन्‍धों के बावजूद कवि से कह नहीं सकता और भाग्य को भी नहीं मानता पर कहना ऐसे ही पड़ेगा कि हमारा सौभाग्य है कि हम उन्हें अपने बीच पा रहे हैं। सुकांत भट्टाचार्य की कविता से आया इस कविता का उपशीर्षक ‘क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमय’ भी कुछ कहता है, जो महज आज की कविता नहीं बल्कि उसकी भाषा पर विमर्श छेड़नेवाली आलोचना को भी द्वन्‍द्व की एक राह देता है, जिसे लोग भूल रहे हैं। गद्य अलग है और कविता अलग लेकिन वह कैसा अजब शिल्प है, जिसमें गढ़ा गया गद्य भी अंततः कविता बनने को अभिशप्त है। उसे कविता होना होगा क्योंकि कविता में ही मनुष्य की सर्वकालिक अभिव्यक्ति की मुक्ति है। कहानी-उपन्यास-नाटक-निबंध होते रहेंगे, उनका अपना अलग महत्व है, पर कविता उन्हें एकसाथ एक साँस में रच लेने वाली विधा सिद्ध हुई है। इस कविता की गूंज में मैं स्त्रियों के गुमनाम रहे संसार का पता भी पाता हूं। इसी दुनिया में सड़क पर सात कविताओं की आखिरी कविता में दारूण दृश्‍य आता है,जहां एक औरत को नंगा करके पीट रहे हैं सिपाही – आततायियों की राह बनीं इन सड़कों पर कवि को उम्‍मीद है एक दिन इन्‍हीं पर चलकर आएंगे हमारे भी जन। इसी संग्रह में भाषा (सिंह) और समता (राय) पर दो कविताएं हैं। भाषा तब बच्‍ची थी, कवि ने सत्‍ताओं के बारे में उसके पूछे जिन सवालों का उल्‍लेख किया और उम्‍मीद दिखायी, वह अब साकार हो चुकी है –भाषा जन और जनान्‍दोलनों को समर्पित एक जुझारू पत्रकार बनी हैं, उनके बचपन के सवाल बाद के जीवन में उसी दिशा में बढ़ कर उन्‍हें वामपंथी पत्रकारिता में एक मुकाम दिला चुके हैं। समता भी  प्रतिबद्ध कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ता हैं – इस मामले में वीरेन डंगवाल विचार के पक्ष में भविष्‍यदृष्‍टा कवि साबित हुए हैं। यहां उनका इन्‍वाल्‍वमेंट बहुत गहरा है। गर्भवती पत्‍नी के अनुभव संसार पर उनकी कविता अपनी तरह की अकेली कविता है। मेरे ग़रीब देश की बेटी पी.टी.उषा के बहाने उन्‍होंने जिन ख़तरनाक खाऊ लोगों को रेखांकित किया, उनका बढ़ते जाना हमारे नए उदारवादी देश की सबसे बड़ी विडम्‍बना बन चुका है। वीरेन डंगवाल की पुरानी कविता वन्‍या में जंगल जाते हुए ठेकेदारों और जंगलात के अफ़सरों से डरती किशोरी के डर अब वास्‍तविकता में बदल चुके हैं  और उत्‍तराखंड बनने  के बाद इनमें अब भूमाफिया और शराबमाफिया -तस्‍कर भी शामिल हो गए हैं। जिस सिपाही रामसिंह को उसके जीवन और भविष्‍य के प्रति कवि 1980 में चेतावनी दे रहा था, वह अब स्‍याही ताल की कविता गंगोत्री से हरसिल के रस्‍ते पर में अपनी बेटी को एक बोतल शराब के लिए दिल्‍ली के तस्‍कर की लम्‍बी गाड़ी में घुमा रहा है। निरीह लड़कियों के सुखद स्‍वप्‍न अब स्‍थायी दु:स्‍वप्‍नों में बदल गए हैं। इक्‍कीसवीं सदी की शुरूआत में विकास और  आम आदमी की समृद्धि की मासूम इच्‍छाओं के साथ अस्तित्‍व में आए नए राज्‍यों में सत्‍ता और लोलुपता के नए दुश्‍चक्रों में सबसे बड़ी क़ीमत अपने मनुष्‍य होने के ज़रूरी सम्‍मान और गरिमा की बलि देकर औरतों ने चुकायी है। यहां उनकी एक कविता को इधर स्‍त्री संसार पर लिखी जा रही सुनियोजित कविताओं के सामने रखकर ज़रूर देखा जाना चाहिए –

रक्‍त से भरा तसला हैं
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में

हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्‍यार किए जाने की अभिलाषा
सब्‍ज़ी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्‍चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्‍माएं

हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्‍ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं

हम हैं इच्‍छा मृग

वंचित स्‍वप्‍नों की चरागाह में तो
चौकडियां मार लेने दो हमें कमबख्‍़तो 
                                  (हम औरतें, इसी दुनिया में)

वंचित स्‍वप्‍नों की चरागाह में चौकड़ी मार सकने का हक़ साबुत-सलामत रखना चाहतीं इन इच्‍छा-मृगों द्वारा अपने नरक की बेतरतीबी में ही थोड़ी खीझ भरी प्रसन्‍नता के साथ अपनी अपरिहार्यता तसल्‍ली ढूंढने का दृश्‍य दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा में आता है। इन कविताओं के पाठक के हैसियत से मुझे कहना होगा कि वीरेन डंगवाल ने अपनी कविभाषा में, स्‍पष्‍ट दिखायी देने वाले रूपों के साथ ही इन छुपे हुए रूपिमों को भी भरपूर चमकाया है। 
 
***
  
वीरेन डंगवाल ने कविता में छंद का महत्‍व को भी ख़ूब पहचाना और उसके मर्म को बेहतर मांजा और आज़माया है। उनके तीनों कविता संग्रहों में ऐसी कविताएं हैं। हिंदी में एक निश्चित राजनीति और वैचारिकी में छंदमुक्‍तता जन की हामी रही है किंतु उसका निकट का साथी अब भी छंद ही है। मेरी पढ़त में यह क्रम एक अद्भुत कविता इतने भले नहीं बन जाना साथी से शुरू होता है, जिसे हम छात्र-राजनीति के दौर में मुहावरे की तरह दोहराते थे। अंधकार की सत्‍ता में चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन के बीच संस्‍कृति के दर्पण में मुस्‍काती शक्‍लों की असलियत समझना हमने सीखा, कहना होगा कि यह समझ अब भी काम आती है। मैं इन कविताओं की सूची नहीं दे रहा पर ये याद आ रही हैं। दुश्‍चक्र में स्रष्‍टा में हमारा समाज है, जिसके पाठ के सफल हमलावर प्रयोग हमने कालेपन की संतानों की अभिजात महफ़िलों में किए हैं। छंदयुक्‍त इन कविताओं के अलावा मैंने देखा है कि वीरेन डंगवाल की कविता में शब्‍दों की जगह का चयन हमेशा एक लय पाने की इच्‍छा से संचालित रहा है। शिल्‍प की तोड़फोड़ के बीच भी यह लय बनी रहती है। कुछ कद्दू चमकाए मैंने जैसी कविता व्‍यंग्‍य के भीतरी घरों में भी वही लय खोज लाती है। वीरेन डंगवाल का बहुत अलग और प्रखर कवि-कौशल है, जिसमें कविता के शिल्‍प का बदलाव उसी लय में बंधा रहता है, जिसमें वह पाठकों के लिए अधिकाधिक ग्राह्य होती जाती है।

***

कविता ही नहीं मनुष्‍यता के स्‍तर पर वीरेन डंगवाल बड़े हैं। उनकी कविता की अपवाद असफलताएं और विकट उलझनें दरअसल मनुष्‍य बने रहने के द्वन्‍द्व की हैं – यदि यहां समझौता हुआ होता तो ये कविताएं ज्‍़यादा कटी-छंटी, सधी और चमकीली हो सकती थीं, इनमें भरपूर आप्‍तवचन हो सकते थे, इनमें विचार के स्‍तर पर सीख, नारे और जाहिर प्रेरणाएं हो सकती थीं …. तब इन पर आलोचना भी बहुत आसान होती। इस तरह के एक झूटे और धूर्त होते जाते अकादमिक संसार में इन कविताओं की स्‍वीकार्यता भी बढ़ती लेकिन फिर ये हमारी न होतीं, न ये कवि हमारा होता। जब से आलोचना महज बुद्धि व्‍यवसाय के रूप में स्‍थापित हुई है, तब से उसकी अपनी मुश्किलें बढ़ीं और विश्‍वसनीयता घटी है – दिक्‍कत यह है कि इस बात को अभी पहचाना/स्‍वीकारा नहीं जा रहा है। मैं अपने आसपास देखता हूं कि जिन लोगों ने इस तरह के एकेडेमिक्‍स में अपनी जगह बना ली है, वे इस कवि की अतीव (और विवश) मौखिक प्रशंसा करते हुए भी उसे समझ नहीं पाते और इस तथ्‍य को गाहे-बगाहे जताते भी चलते हैं। वीरेन डंगवाल दरअसल जीवन के सहज उल्‍लास और असाधारण मुश्किलों के कवि हैं – इन दोनों को अपना बनाए बिना उन पर आलोचना सम्‍भव नहीं और जाहिर है कि इन दो चीज़ों को अपनाना भी इतना सरल नहीं।

***

यहां मैंने जो कुछ लिखा, वह अपर्याप्‍त तो है ही, बिखरा हुआ भी है – इससे बाहर अभी वीरेन डंगवाल को कितनी ही तरह से देखा जाना बाक़ी है। एक अच्‍छे-प्रिय कवि पर काफ़ी कुछ लिखा जाना हमेशा बाक़ी ही रहता है। लिखते हुए उस कवि के प्रति दूसरे कवि का गहरा प्‍यार और सम्‍मान भी बांध-सा देता है, जैसे मैं बंध गया हूं … इन पृष्‍ठों को लिखना मेरे लिए मुश्किल होता गया है और अपनी बहक को सम्‍भालना भी। लेकिन इसे भी समझा जाए कि यही बात आलोचक कहाए जाने वाले लेखकों के लिए उसी तरह नहीं कही जा सकती। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि सियाराम शर्मा और पंकज चतुर्वेदी को छोड़ बाक़ी ओजस्‍वी वामपंथी आलोचकों ने वीरेन डंगवाल के सन्‍दर्भ में मुझे बहुत निराश किया है। बोल कर उन्‍हें बड़ा बताने वाले कई आलोचक और चिंतक कवि परिदृश्‍य पर मौजूद रहे हैं, पर उन्‍होंने लिखकर कभी यह काम नहीं किया। जिन बातों का अभिलेख होना चाहिए, वे वायु में विलीन हो रही हैं। बहुत बड़े आलोचक तो जैसे सन्‍नाटे में हैं। सबको ये जो चुप-सी लगी है, उसके चलते अपनी बात के अंत में मुझे अचूक कहन वाले पुरखे ग़ालिब की याद आ रही है –

दिल-ए-हसरतज़द: था मायद: -ए-लज्‍़ज़त-ए-दर्द
काम यारों का,  बक़द्र-ए-लब-ओ-दन्‍दां  निकला

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संपर्क-  
शिरीष कुमार मौर्य,
हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर, 
कुमाऊं विश्‍वविद्यालय, नैनीताल- 263002

फोन – 09412963674

शिरीष कुमार मौर्य


शिरीष कुमार मौर्य हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। आज की कविता का अगर कोई वितान बनाना हो तो शिरीष के बिना एक तो वह बनेगा ही नहीं और अगर तब भी बनाने की किसी ने कोई कोशिश की तब वह निश्चित तौर पर अधूरा होगा। बिना किसी शोरोगुल के शिरीष लगातार अपने रचना कर्म में लगातार सक्रिय हैं। आज जब कुछ चुनिन्दा लोग अपनी सुविधा के मुताबिक़ परिभाषाएं गढ़ने में मशगूल हैं शिरीष हमारी इस प्रकृति, हमारे इस जीवन और हमारे इस समाज, जो प्रायः अनदेखा रह जाता है, को अपनी कवि नज़रों से देखते और शिद्दत से महसूस करते हैं। वे बेहिचक यह कहते हैं कि ‘पक्षी आकाश को चीरते नहीं उसकी पृष्‍ठभूमि में उड़ान भरते हैं/ धरती पर फसल को उजाड़ नहीं डालते अपनी ज़रूरत भर दाना चुगते हैं/ केंचुए मिट्टी की परतों में विकल करवटें बदलते हैं/असंख्‍य लोग अब भी धरती पर चलते हैं उसे रौंदते नहीं।’ बड़ी सादगी से वे अपना प्रतिवाद सामने रखते हैं। तो आईये पढ़ते हैं शिरीष की कुछ तरो-ताज़ी कविताएँ जो उन्होंने विशेष तौर पर पहली बार के लिए भेजी है।       
मैं स्‍वप्‍न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था
(चन्‍द्रकुंवर बर्त्‍वाल की विकल स्‍मृति और वीरेन डंगवाल की सुकूनदेह उपस्थिति के लिए)
मैं स्‍वप्‍न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था

साफ़ कर दूं
कि अपनी मृत्‍यु का स्‍वप्‍न नहीं देख रहा था
स्‍वप्‍न में अपनी मृत्‍यु देख रहा था

मृत्‍यु कोई बनता हुआ बिम्‍ब नहीं थी स्‍वप्‍न में
घट रही घटना थी
उसमें सुकून नहीं था बेसम्‍भाल छटपटाहट थी
उसमें आखिरी शब्‍द बोलना जैसा कुछ नहीं था
घुटती-डूबती हुई
एक चीख़ थी

मेरे और उसके बीच सहमति नहीं थी
भरपूर ज़ोर-ज़बरदस्‍ती थी
वह अपने आगोश में नहीं ले रही थी मुझे
किसी सिद्धहस्‍त अपराधी की तरह
लूट रही थी

मैं मदद की पुकार नहीं लगा रहा था
लड़ रहा था
गालियां बक रहा था
एक गाली स्‍वप्‍न और नींद के बाहर छिटक गई थी
नोच-खसोट में एक खंरोंच माथे पर उभर आई थी
कुछ बाल तकिए पर गिर गए थे
ओढ़ना ज़मीन पर था आंखें खुलते हुए पलट गई थीं

मेरे जीवन ने झकझोर जगाया मुझको
कहा – किससे लड़ते हो
किसके लिए लड़ते हो
अपनी नींदें
अपने स्‍वप्‍न किन फितूरों में बरबाद करते हो
जानता हूं तुम्‍हारे शरीर में मृत्‍यु कुछ अधिक उपस्थित है
पर उससे लड़ना बेकार है 

मेरे लिए लड़ो मेरी तरह लड़ो
मैं अपने लिए अपराधी की तरह नहीं लड़ता
तुम्‍हारे शरीर पर लगा हर घाव दरअस्‍ल मेरे ही वजूद पर
लगता है
मन पर लगी खंरोंचों से रक्‍त नहीं अवसाद
रिसता है
इस अवसाद से तुम अपने लिए कुछ ज़रूरी
विलोम बना सकते हो
कुछ नहीं कई दिन इस समाज में यूं ही लड़ते हुए बिता सकते हो

जर्जर स्‍वप्‍नों में बिस्‍तर पर रोग-जरा-मरण से लड़ते नहीं
मज़बूत क़दम चलते
धरा पर दिखो 

अचानक गालियों पर उतरते हुए फिर कहा उसने-

साले लिखो
एड़ियां रगड़-रगड़ मरने से पहले
और सिर्फ़ लिखो नहीं जैसा लिखते हो वैसे ही बसो मेरे भीतर
लिखने के अलावा कई ज़रूरी काम हैं
मनुष्‍यवत्
उन्‍हें भी करो बल्कि पहले उन्‍हें ही करो

इस तरह
हो सकता है तुम बच जाओ कुछ और दिन के लिए
संसार में
अपने चूतियापे साकार करने की खातिर 

बाक़ी सब ठीक है

(प्‍यारे दोस्‍त डी एस के लिए)
बाक़ी सब ठीक है एक असाधारण वाक्‍य है
जिसे साधारण प्रश्‍न के रूप में पूछता और उत्‍तर के रूप में बोलता है रोज़ मेरा एक दोस्‍त
वह इसकी असाधारणता पहचानता है

इसमें बहुत सारा उजड़ जाने के बाद बचे हुए की कुछ सम्‍भावनाएं निवास करती हैं
बाक़ी होना बाक़ी रहना बाक़ी बचना
भाषा के प्रिय शब्‍द-युग्‍म हैं
बिना किसी निकट सामासिक सम्‍बन्‍ध के
स्थिति और क्रिया के बीच सम्‍बन्‍ध के एक अभिप्राय से
महान सामाजिक सम्‍बन्‍धों के बारे में बताते

प्रेम बाक़ी सब ठीक है में आता है
बहुत सारे उजड़े हुए की राख के भीतर प्रेम छुपी हुई गरमाहट हो सकता है
उसकी बदौलत गुज़ारी जा सकती है किसी सर्द जीवन की रात
उसे कुरेद कुछ लपटें दुबारा भड़कायी जा सकती हैं
नए ईधन के सहारे
जिन्‍होंने पुराना ईधन बचा रखा है उन्‍हें मैं सलाम करता हूं

शराब पीकर उत्‍पात मचाते बाप के घर
विरोध में छटपटाता
संकोच में कुछ न कह पाता जवान बेटा
एक पारिवारिक बाक़ी सब ठीक है
उसकी प्रशंसा होती है वह खुला विरोध करे तो एक समूची पीढ़ी का
बाकी़ सब ठीक है हो सकता है
पर वो अपने बाप की लगातार असफलताएं और अपमान पहचानता है
पीढ़ी के विरुद्ध न जा कर मानवीय सम्‍बन्‍धों का बाक़ी सब ठीक है हो जाता है
यह उसका निजी बाक़ी सब ठीक है भी है 

पक्षी आकाश को चीरते नहीं उसकी पृष्‍ठभूमि में उड़ान भरते हैं
धरती पर फसल को उजाड़ नहीं डालते अपनी ज़रूरत भर दाना चुगते हैं
केंचुए मिट्टी की परतों में विकल करवटें बदलते हैं
असंख्‍य लोग अब भी धरती पर चलते हैं उसे रौंदते नहीं

भूस्‍खलन में उजड़े हुए पेड़ जब कट कर बन रहे घर का हिस्‍सा हो जाते हैं तो
बाक़ी सब ठीक है की श्रेणी में  आ जाते हैं
मनुष्‍य की जिजीविषा उजाड़ से सम्‍भावनाएं बटोर लाने में हमेशा ही उत्‍कट साबित हुई है
बाढ़ में लुढ़की चट्टानें भी घरों की दीवार में लग जाती हैं
घर प्रकृति में घुल-मिल जाते हैं जिन घरों में कल विलाप था आज नामकरण है
यह सब मेरे जनों का बाक़ी सब ठीक है है

बाक़ी सब ठीक है अंधेरे में झिलमिलाता हमारा स्‍वप्‍न है
जीवन से लथपथ लालसा
एक मनुष्‍योचित लालच 

बाकी़ सब ठीक है एक दोस्‍त को
दिन की समाप्ति के बाद दी जा सकने वाली बड़ी सांत्‍वना है
जो दी जाती रहेगी हमेशा 
जब तक हममें से
हर एक
एक-दूसरे से इस वाक्‍य को सहज ही प्रश्‍न की तरह पूछेगा
उत्‍तर में कहेगा
जीवन में बाक़ी सब ठीक ही रहेगा

जो लाशों को ठग लेते हैं
(मित्र, शोध-विद्यार्थी, कवि और पुलिस कप्‍तान अमित श्रीवास्‍तव के लिए)
कप्‍तान बहुत मुश्किल है तुम्‍हारी नौकरी
दिन भर चोरों, हत्‍यारों, बलात्‍कारियों,  दंगाईयों और ठगों से पाला से पड़ता है
जाने कितनों को तुम पकड़ते हो
जाने कितनों से ठगे जाते हो

लाशें कुछ बोलती नहीं
लाशें मुंह नहीं खोलतीं नहीं जातीं थाना-कचहरी
लाशें गवाह नहीं हो सकतीं शपथ नहीं ले सकतीं सच बोलने की
किसी को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकतीं ऐसा सोच कर
वे लाशों को ठगते हैं
सफ़ेद कलफ़ लगे कुर्ते उनकी करतूतें ढंकते हैं
वैसे जो बोल सकते हैं
उन जीवितों की भी कौन सुनता है
उन्‍हें कितना न्‍याय मिलता है यह अलग से सोचने की बात है

गुजरात की लाशें
न्‍याय के इंतज़ार में कंकाल हो चुकी ठगी गई हैं
मिट्टी की परतों के नीचे
ऊपर विकास के बोर्ड लगे हैं
छत्‍तीसगढ़ की लाशें धुंआ हो चुकी हैं
वायुमंडल में विलीन हो चुके उनके शरीरों के
ठगे गए कार्बन-कण
अब कोई डेटिंग संभव नहीं उनकी 
दिल्‍ली में जीवित स्त्रियां लाश हुईं
देह-भाषा में लाश होने से पहले भी उन्‍हें
लाश ही समझा गया
कुछ जो लाश नहीं हुईं लाशों की तरह पड़ी हैं
भविष्‍य के बिस्‍तरों पर
सड़कों पर लाशों की तरह खड़ी हैं
वे चलती हैं तो मृत्‍यु झरती है धूल और बालों की तरह

मनुष्‍य में पाशविकता के सारे सन्‍दर्भ ग़लत हैं
पाशविकता मनुष्‍यता जैसी ही चीज़ है
उसका हत्‍या, बलात्‍कारों, दंगों, मुक़दमों और ठगी से
दूर-दूर तक कोई रिश्‍ता नहीं

जो बाढ़ में डूब मर गए
पहले ही ठगे जा चुके थे उन्‍हें लाश की तरह ही देखा गया था
जिन्‍होंने आत्‍महत्‍या की अपने खेतों की बगल में उन्‍हें लाश समझकर ही
ठगा गया था

जो ढहते पहाड़ों के साए में रह रहे हैं
प्रकृति नहीं विकास के हाथों ठगे गए हैं उनका लाश होना तय है
उनके हिस्‍से के मुआवजे भी तय हैं विस्‍थापन के नाम पर

हमें दो सौ रुपए किलो हमारे ही आलू बेचते चिप्‍स के पैकटों ने ठगा
तो हम समझ नहीं पाए
बहुराष्‍ट्रीय, उदारीकरण और भूमंडल पर प्रवचन देते महानुभावों ने
वही चिप्‍स खाए
उनके मेज़ों पर रखीं मिनरल का दावा करती बोतलों में बंद
हमारे ही पानी की लाश
 
पता नहीं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं हम
कि सबसे बड़े ठगतंत्र में
संविधान जो आदमी को बचाने के लिए बनाया गया था
उसी से ठग लिया जनता को
जनता के लिए जनता के द्वारा जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने
अब वह एक किताब नहीं कलपती आत्‍मा है
अपनी पवित्रता से लगातार पिटती हुई

कप्‍तान
मैं तुम्‍हें किसी मुश्किल में डालना नहीं चाहता
बस इतना पूछना चाहता हूं
कि दंड संहिता की कौन-सी धारा लगती है उन पर
जो लाशों को ठगते हैं
और ठगते-ठगते जीवितों को भी लाश कर देते हैं

इस बार कवि की तरह नहीं
कप्‍तान की ही तरह बोलना या बोलना तुम्‍हारे सामने खड़े किसी सताए हुए की तरह
कवियों को छोड़ो
वो तो अकसर बिम्‍बों को ठग लेते हैं
भाषा को हर लेते हैं
फिर भाषान्‍तर कर लेते हैं 
तुम्‍हें अब सिर्फ़ कविता नहीं कविता में आलोचना भी लिखनी है

अच्‍छा चलो एक विद्यार्थी की तरह इतना भर बताओ
कविता जीवन की आलोचना है किसने कहा था
हो सकता है मैं तुम्‍हारे जवाब को अध्‍यापक की तरह नहीं
कवि की तरह सुनूं

या फिर कवि की लाश की तरह
अंतिम बार ठगे जाने से पहले।
  

उन्‍हें बोलने दो

कुलीन पतियो

उन्‍हें बोलने दो वे जितना बोलती हैं

उससे अधिक चुप रहतीं हैं

घर उनके लिए संसार है

बाहर के संसार में बिना कुछ कहे

बिना बसे वे चली जाती हैं एक दिन

उनके बाद घर में पक्षियों के झरे हुए पुराने पंख मिलते हैं किताबों के बीच

जिन्‍हें कभी उन्‍होंने पढ़ा था

कभी मत भूलना

कि अपने लिए संसार के नाम पर उन्‍होंने

सिर्फ़ तुम्‍हारा घर ही गढ़ा था

उन्‍हें बोलने दो अधिकारियो

दफ़्तरों में बुनाई लाना अब उन्‍होंने छोड़ दिया है

वे अपना काम बेहतर जानती हैं

वे जो लिखती हैं उसमें उन्‍हें किसी डिक्टेशन की ज़रूरत भी नहीं रही

तुम उनके लिए महज एक हस्‍ताक्षर बन चुके हो

तुम्‍हारी कुर्सियां तक अब उनके पास जा रही हैं

देश के कुछ दफ़्तरों से अब डिक्‍टेट कराती हुई उनकी आवाज़ आ रही है

कवियो तुम तो शर्म करो

अपनी कविता की नई बयानबाजियों से डरो

रघुवीर सहाय की कविता में जो बक-बक करती प्‍यारी औरतें थीं

या दु:ख के बने देह

या कंकाल लड़कियां

यहां तक कि भाषा तक के लिए स्त्रियों के वे रूपक

वो दुहाजू की बीवी

चन्‍द्रकान्‍त देवताले की आधी कविताओं के विरल स्‍त्री-संस्‍मरण

असद ज़ैदी की बहनें और मैं यूं ही किसी द्वार से निकल कर नहीं चला आया के

विरल मानवीय बोध से संस्‍कारित आदमी

अब कहां गई ये सब छवियां

विकट दिन हैं समाज में

उन्‍हें बोलने दो

वे चुप हो गईं तो दुनिया चुप हो जाएगी

हमारे भी बोलने की बहुत कम वजहें रह जाएंगी

गो वे किसी अनुमति की मोहताज़ नहीं हैं

बोलते हुए उनके चेहरे दुनिया के सुंदरतम दृश्‍यों में हैं

नरों के अ-दृश्‍यों में नारी के अभिलेख

कुछ शर्म बचाए हुए हैं

कुछ समाज

कुछ सम्‍भावनाएं जो सुखद हैं

उनके दु:खों पर अब भी जो प्रवेश निषेध है की तख्तियां लगी हैं

उन्‍हें भर हटा पाए तो

एक ऐतिहासिक बोझ हट जाएगा

दिल कुछ हल्‍का हो जाएगा

पूरी सुबह भले न हो पर अंधेरे को छांटता

कुछ धुंधलका हो जाएगा

उन्‍हें बोलने दो

अपने ठस अहंकार में जहां-तहां मत अड़ो

इस क़दर मत चरो समाज को

कुछ बचा भी रहने दो

सम्‍पादको-आलोचको

उन्‍होंने लिखना शुरू किया है तो उन्‍हें लिखने दो

हासिल करने दो अपने अभिप्राय

अभी से मत खोजो उनमें सधा हुआ शिल्‍प और सटीक विचारधारा

इस देश में हज़ारों साल का संताप उनका

अपने आप में एक अनगढ़ विचार है

उनका होना ख़ुद एक शिल्‍प है इस पृथिवी पर 

कठोर हृदयो अब तो उन्‍हें बोलने दो

कितना भी छटपटाओ

तुमसे कभी नहीं खुलेंगी तुम्‍हारी और तुम्‍हारे समाज की सारी गुत्थियां

हटो,

ज़रा उन्‍हें खोलने दो। 

कि वह इतना मीठा मूतता है
हम पाकिस्‍तान को कुचल कर रख देंगे

उस पर परमाणु बम फोड़ देंगे

अब तो हमारी अग्नि भी दस हज़ार किलोमीटर तक वार करेगी

अख़बार में छपा है

दफ़्तर में कह कर कोई ख़ुश हो रहा है

वाइफ प्राइमरी में सरकारी टीचर हो गई हैं

कुछ घंटे नौकरी पर जाएंगी बीसेक हज़ार तनख्‍़वाह पाएंगी

घर भी पहले जैसे ही संभालेंगी

उन्‍हें कपड़े-बरतन धोने और रोज़ के झाड़ू-पोंछे में कोई परेशानी नहीं होती

और भाई खाना तो वो बहुत मन से और लाजवाब बनाती हैं

दोस्‍त से कह कर कोई ख़ुश हो रहा है

कब तक ये लोक और जनता के दु:ख-दर्द विचारें

विश्‍व कविता थोड़ा पढ़ वहां से हिन्‍दी के लिए अब अपरिचित रही

कुछ भंगिमाएं, सूक्तियां और बिम्‍ब

नए विन्‍यास के साथ अपनी कविता में उतारें

बहुत हो चुकी समाज और राजनीति की कविता

अब वैश्विक सार्वभौम उत्‍तरआधुनिक आदि हो जाएं

कोई अंग्रेज़ी अनुवाद कर दे ढेर-सा

तो पश्चिम को जाएं

ख़ुद से ही कह कर कोई खु़श रहा है

मैं परेशान हूं

कोई अपने पेशाब पर ढेर सारी चींटियां रेंगते देख

यह सोच कर ख़ुश कैसे हो सकता है

कि वह इतना मीठा मूतता है? 
  
शिरीष कुमार मौर्य हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। इनका जन्म 13 दिसंबर 1973 को हुआ। वर्ष 2007 से उत्तराखंड के कुमायूँ विश्वविद्यालय नैनीताल के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर पद पर कार्यरत हैं। शिरीष एक बहुत जरुरी ब्लॉग अनुनाद के मोडरेटर हैं।

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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)