सलमान रिज़वी आज़मी


 

सलमान रिज़वी आज़मी
जन्म स्थान- आजमगढ़
शिक्षा- मास्टर्स इन कम्युनिकेशन एंड जर्नलिज़म ( मुंबई
विश्वविद्यालय )
पत्रकारिता करते हुए देश के कई न्यूज़ चैनलों के साथ कार्यरत रह चुके हैं
सामाजिक मुद्दों पर लेखन
फ़िलहाल विदेश में दूसरी नौकरी से जुड़े हैं

कभी कश्मीर की खूबसूरती को देख कर एक मुग़ल बादशाह ने कहा था- ‘अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।’ आजादी के समय इस स्वर्ग को बंटवारे का दंश झेलना पड़ा और कश्मीर भी अनचाहे ही विभाजित हो गया। फिर एक समय ऐसा आया जब हमारा प्यारा कश्मीर, उसकी खूबसूरती, उसकी मेहमानवाजी यानी उसका सब कुछ दहशतगर्दी के आलम में  ऐसे खो गया जैसे उसका वजूद ही खो गया हो। लेकिन कश्मीर का भी अपना दर्द है। वह अपनी शोख़ फ़िजाओं में जीना चाहता है। वह सारी सियासत को भुला कर उस दिल्ली यानी उस भारत का होना चाहता है जिसने उसे नामालूम कितने जख्म दिए हैं। 

युवा शायर सलमान रिज़वी आज़मी की कुछ इसी भावभूमि पर आधारित नज्में पेश हैं पहली बार के पाठकों के लिए। आप आगे भी इनकी नज्में पहली बार पर पढ़ते रहेंगे। 
       

1-

अजब एहसास था दरिया को सागर कह गया कोई
भुला के सब वफ़ादारी को बाबर कह गया कोई
वो जितनें बुज़दिलों ने आग बस्ती को लगायी थी
चुनावी वक़्त था उनको दिलावर कह गया कोई
घरो को लूट कर जिनके महल में रौनक़े लौटी
अजब मज़लूमियत उसको सख़ावर कह गया कोई
फटें कपड़ों में वो मज़लूम क़ाबिल शख्स दिखता था
लिबासें देख कर उसके बराबर कह गया कोई…..

2-

ज़ुल्म जब दरबार में पहुँचा तो रहबर हो गया
बेकसों मज़लूम उस दिन से ही बेघर हो गया
जितनें थे ज़ुल्मत कदे सब जश्न में डूबे रहे
बोलती आवाज़ भी ज़ालिम का लश्कर हो गया
दुनियाँ भर के गीदड़ों ने झुण्ड में हमला किया
झूठ सर ऐसा चढ़ा जैसे सिकंदर हो गया
साज़िशों के जाम में कुछ अपने भी डूबे रहे
मौजे दरिया ख़ाक थी सब कुछ समंदर हो गया
मुल्क की फ़िक्रों को साज़िश के तहत बाटा गया
इस तरह नज़रें लगी हर और बंजर हो गया
हक़ और बातिल की समझ जिनको नज़र आयी नहीं
आज उनकी राह में हर ओर मंज़र हो गया
ख़ून जिस बच्चे ने अब तक ठीक से देखा नहीं
उसके बस्ते से मिला काग़ज़ भी ख़ंजर हो गया…..

3-

सवाल करती है कश्मीर ज़मानें वालों…..
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मेरे सीनें पे फ़क़त आग लगाने वालों…..
ख़ून चीखों का समाँ रोज़ सजाने वालों…..
माओं बहनों की सदा रोज़ दबाने वालों…..
घर के गुलशन को मेरे रोज़ जलाने वालों…..
मेरी इज्ज़त को सरे राह उड़ाने वालों…..
रोटियाँ रोज़ सियासत की पकाने वालों…..
मेरा आँचल मेरे आंसू से भिगाने वालों…..
मेरे बच्चों का मुक़द्दर भी उड़ाने वालों…..
गोलियाँ बम की सदा रोज़ सुनाने वालों…..
मेरी रोती हुई आवाज़ दबाने वालों…..
चीड़ गुलमोहर के बागों को कटाने वालों…..
ज़ाफरानों के शजर नज़र लगाने वालों…..
मेरी पुरशोख सी झीलों को सुखाने वालों…..
नौजवाँ लाल की मय्यत भी उठाने वालों…..
बूढ़ी आँखों को जवाँ ख़ून दिखाने वालों…..
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हाथ को जोड़ फ़क़त एक गुज़ारिश ये है…..
मैं भी हिस्सा हूँ तेरे जिस्म का परवाना हूँ…..
दिल्ली मैं तेरी तरह तेरा ही दीवाना हूँ…..
क्यूँ मेरी आह को सुनतें नहीं अफ़साना हूँ…..
अब तो बस ख़ून और चीख़ें नहीं सुनना मुझको…..
दिल में ताक़त नहीं ये देख के बेगाना हूँ…..
मुझको लौटा दो मेरी शोख़ फ़िज़ायें दिल्ली…..
मेरी ग़लती तो मुझे काश बताओ दिल्ली…..
मेरी आवाज़ को ना और दबाओ दिल्ली…..
आख़री तुझसे मेरी एक गुज़ारिश ये है…..
सियासतों का ये बाज़ार हटाओ दिल्ली…..
ख़त्म कर सारे गिले अपना बनाओ दिल्ली…..
मुझको अब और ना सड़कों पे गिराना है लहू…..
मेरी फरियाद सुनों मुझको मेरा हक़ दे दो…..
मेरी सब आह और फ़रियाद मिटा दो दिल्ली…..
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मेरी जन्नत सी फ़िज़ा मुझको दिला दो दिल्ली…..
मेरी जन्नत सी फ़िज़ा मुझको दिला दो दिल्ली…..

4-

सहरा है मेरी आँख सहर ताक रही है…..
अंधियारों में फ़िक्रों का शजर ताक रही है…..
बंजर है ज़मीं फ़िक्र की पथरीली डगर है…..
बस ख़्वाब की मानिंद समर ताक रही है…..
फ़तवों के और उपदेश के खेतों में फसल है…..
बस ढोंग की क़ीमत का असर ताक रही है…..
धर्मों के पुजारी नें सियासत की लगा भीड़…..
भगवान के मंदिर में लहर ताक रही है…..
रंगों से मुझे जोड़ ज़माना है डराता…..
हर सिम्त में बस तेग़ो-तबर ताक रही है…..
क़ातिल सभी आज़ाद हैं मज़लूम छुपा है…..
गाँधी तेरी माटी भी हशर ताक रही है…..
सलमान अँधेरा है और शैतानों का मजमा…..
देवों की ज़मीं आज सहर ताक रही है…..

5-

आपको मेरा पसीना भी ख़ून लगता है…..
हम मुस्कुराएँ तो चेहरा भी जून लगता है…..
शहर से माओं ने बुलवा लिया है बेटों को…..
ये मामता की कसक का जुनून लगता है…..
हमारी टोपियाँ दाढ़ी ही क्यूँ बग़ावत है…..
हमें तो उससे फ़क़त ही सुकून लगता है…..
ज़मीं भी शिबली की हर रोज़ ज़ुल्म सहती है…..
हमारा फूल भी अब ख़ून ख़ून लगता है…..
अजब ख़ुशी है फ़क़त जालिमों की बस्तीं में…..
उन्हें पता है हमें ही क़नून लगता है…..

6-

हर बरस तेरी अदाओं का समाँ बिकता है
दूर मज़दूर का बस्ती में मकाँ बिकता है
तेरे बच्चों नें लिबासों की दुकानें खोलीं
उसके फटते हुए कपड़ों से बदन दिखता है
जिन ज़मीनों पे बड़ी शान से बनवाया महल
हाथ खोलोगे कभी उसमें से ख़ूँ रिसता है
दूध की नदियाँ बहा डाली फ़क़त शान रहे
लिख रखा मुफ़लिसी तक़दीर कभी मिटता है
एक राशन की दुकाँ खुल गयी बस्ती में नयी
कितनी चक्की है एक इंसान वही पिसता है
एक दफ़ा पास में आओ तो मेरा हाल सुनो
घर जवाँ बेटी है और पास नहीं रिश्ता है
हर शिफ़ाखानें सभी पांच सितारा दिखते
उन दवा ख़ानों में मज़दूर कहा टिकता है
आंकड़े कहते हैं हर ओर ही खुशहाली है
जिसकी मर्ज़ी है जहाँ जो भी वही लिखता है…..


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