उमाशंकर सिंह परमार की किताब ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ पर नासिर अहमद सिकन्दर की समीक्षा

उमा शंकर सिंह परमार


युवा आलोचक उमा शंकर सिंह परमार की हाल ही में दो महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं. ये हैं – ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ और ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’. इन पुस्तकों, विशेष तौर पर दूसरी पुस्तक को आधार बना कर कवि-आलोचक नासिर अहमद सिकन्दर ने एक समीक्षा लिखी है. इस समीक्षा को हम पहली बार के पाठकों लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइए आज पढ़ते हैं उमाशंकर सिंह परमार की किताब पर नासिर अहमद सिकन्दर की यह समीक्षा –  ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य – अध्ययन का बयान’.  

‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य : अध्ययन का बयान’

नासिर अहमद सिकंदर
युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की पहली आलोचना पुस्तक ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’, 2016 में प्रकाशित हुई थी इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने समकालीन कविता के कई महत्वपूर्ण और अलक्षित कवियों की कविताओं को तो परखा ही था, साथ ही भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कविता के प्रतिरोध को भी रेखांकित किया था उन्होंने साठोत्तरी हिन्दी कविता की आधुनिकता की अवधारणा के बरक्स आई लोक कविता को भी वर्गीय दृष्टि से विवेचित किया था कविता के नए संकट और लोक, लोक स्वरूप और चेतना, हिन्दी भाषा का विकास और लोक की भूमिका, हिन्दी कविता- लोक और प्रतिरोध जैसे कई लेख इस पुस्तक में संकलित हैं                      
हाल ही में उनकी दूसरी आलोचना पुस्तक ‘सुधीर सक्सेना : प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है पहली आलोचना पुस्तक में जहाँ कई कवियों के माध्यम से काव्य परिदृश्य उपस्थित था, वहीं इस पुस्तक में एक कवि का चयन कर उसके समूचे कवि कर्म के माध्यम से काव्य-परिदृश्य को देखा गया है वैसे आलोचना परम्परा से जुड़ कर, मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि कोई आलोचक अपने आलोचना-कर्म  में किसी कवि का चयन कर या आधार बना कर न केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करने का प्रयास करता है, बल्कि उसकी कविता में उपस्थित सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ कथ्य, शिल्प, भाषा, संरचना आदि का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है साथ ही वह अपने आलोचनात्मक मूल्यों का निर्धारण भी कविता के ही मार्फत करता हैआलोचक की इस द्विपक्षीय प्रक्रिया में कवि का व्यक्तित्व, स्वभाव, आचरण, व्यवहार, जीवन-शैली आदि भी केन्द्र में होते हैं

आलोचना कर्म का यह दायित्व हमारी हिन्दी आलोचना के प्रसिद्ध आलोचक राम चंद्र शुक्ल भी, भक्तिकालीन कवियों तुलसी-सूर-जायसी के माध्यम से निभाते हैं, तो हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर के माध्यम सेमार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा निराला और केदार नाथ अग्रवाल को केन्द्र में रखते हैं तो नामवर सिंह मुक्तिबोध को साठोत्तरी हिन्दी कविता पर दृष्टि डाली जाए तो बड़े कवि शलभ श्रीराम सिंह को केन्द्र में रख कर कवि आलोचक शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने भी यह प्रक्रिया अपनी पुस्तक ‘कविता के दुर्दिन’ में अपनाईयही स्वरूप आलोचक उमाशंकर की इस नई आलोचना पुस्तक में भी दिखलाई पड़ता हैइस पुस्तक में उन्होंने आठवें दशक के उत्तरार्ध के महत्वपूर्ण कवि सुधीर सक्सेना को केन्द्र में रखा है इस पुस्तक में उन्होंने सुधीर सक्सेना के व्यक्तित्व, कृतित्व के अलावा समकालीन कविता के परिदृश्य, काव्य प्रवृत्तियों, प्रतिरोध की कविता आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए हैंउन्होंने अपनी इस पुस्तक को 15 उप-शीर्षकों में विभाजित किया है आलोचना-कृति होने के बावजूद इन अध्यायों के नामकरण साहित्यिक अवधारणाओं या आलोचना की प्रचलित मूल्यांकन पद्धतियों के आधार पर नहीं बल्कि सृजनात्मक वाक्यांशों के आधार पर किए गए हैं जैसे :- ‘बचा है कविता में यकीन’, ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द’, ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’, ‘हमारे दौर में आंसू जुबाँ नहीं होते’, ‘गझिन अनुभूतियों का अंगराग’, ‘बाबर की आंखों में था समरकंद’, ‘सुखन की शम्मा जलाओ बहुत अंधेरा है’, ‘खुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही’, ‘हर कतरे में दरिया’, ‘यह धरती के चेहरे’, ‘फलक के नजारे आदि’इन खंडों के ज्यादातर शीर्षक किसी शेर के मिसरे हैं या फिर काव्य पंक्तियांयहाँ गौर करें तो जिस पहले खण्ड का शीर्षक उन्होंने ‘बचा है कविता में यकीन’ रखा है उसका शीर्षक ‘युगबोध, विचारधारा और परम्परा’ बड़ी आसानी से रखा जा सकता था क्योंकि इस खण्ड  की शुरुआत ही यूं होती है “सुधीर सक्सेना के रचना-कर्म का मूल्यांकन युग-बोध और विचारधारा के बगैर संभव नहीं है लेकिन इसका आशय यह नहीं है इससे परम्परा को द्वितीयक बनने का खतरा है दरअसल हम परम्परा का अन्वेषण तभी कर सकते हैं जब युग-बोध और विचार-धारा के ऐतिहासिक सन्दर्भों को आलोचना के औजारों में सम्मिलित करें (पृष्ठ 9)                      
इसी प्रकार दूसरे खण्ड ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द’ के स्थान पर शीर्षक ‘समकालीन काव्य परिदृश्य’ तथा तीसरे खण्ड का शीर्षक ‘मुलाकातों के दिलचस्प दौर में’ की जगह ‘व्यक्तित्व का रचनात्मक रूपांतरण’ रखा जा सकता थाऐसा शायद इसलिए भी किया गया कि वे इस किताब को आलोचना की सैद्धांतिकी से अलग अपने अध्ययन का बयान बनाना चाहते थेउन्होंने अपनी इस पुस्तक की शुरुआत में ही इसे बड़ी विनम्रता से स्वीकार भी किया है – “यह किताब मेरे अलग-अलग समय में लिखे गए अलग-अलग नोट्स और डायरी का एकत्र मैटर है यह अध्ययन नितांत निजी है इस किताब को मेरे अध्ययन का बयान माना जाए न कि सुधीर सक्सेना की कविता का पूरा मूल्यांकन समझा जाए” (पृष्ठ-16) 

बावजूद इसके इस खण्ड में उन्होंने सुधीर सक्सेना की समस्त किताबों पर न केवल टिप्पणियां की हैं, बल्कि काव्य परिदृश्य में कलावादी और जनवादी कविता के बीच चल रहे संघर्षों की भी पड़ताल की है इस काव्य दौर में पुरस्कार, सम्मान तथा अवसरवादी प्रवृतियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है कामायनी, परिवर्तन, सरोज-स्मृति, असाध्य-वीणा, समय-देवता मुक्ति-प्रसंग, अंधेरे में, पटकथा जैसी लंबी कविताओं के साथ सुधीर सक्सेना की लंबी कविताओं ‘बीसवीं सदी : इक्कीसवीं सदी’ तथा ‘धूसर में बिलासपुर’ की भी चर्चा इस खण्ड में है उनकी लम्बी कविताओं पर वे लिखते हैं “निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, विजेंद्र की परम्परा में सबसे सशक्त लंबी कविताएं सुधीर सक्सेना ने लिखी हैं सुधीर सक्सेना चरित्र युग-बोध के मामले में विजेंद्र का अतिक्रमण भी कर देते हैं और नाटकीयता भाषा बिम्ब के सन्दर्भों में मुक्तिबोध के निकट दिखते हैंधूसर में बिलासपुर’ उन्हें विजेंद्र जैसा तो ‘बीसवीं सदी और इक्कीसवीं  सदी’ धूमिल जैसा सिद्ध करती है (पृष्ठ 15)
इस पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द ‘समकालीन कविता के लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य का आकलन प्रस्तुत करता है इस खण्ड में उन्होंने  वरिष्ठ कवियों विजेंद्र, केदार, विष्णु खरे,कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी के साथ हरीश चन्द्र पाण्डेय, एकांत श्रीवास्तव, बुद्धि लाल पाल, सुरेश सेन निशांत आदि कई कवियों की काव्य कला का जिक्र किया है इस खण्ड में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि “कवि बड़ा वही होगा जो मीडियाकर नहीं होगा, जिसकी पक्षधरता स्पष्ट होगी, जो साहित्य की अंदरुनी राजनीति से प्रभावित नहीं होगा लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य पर काव्य आंदोलनों पर तथा साहित्यिक राजनीति पर उनका यह मत बिल्कुल उचित भी लगता है उन्होंने अशोक बाजपेई, केदारनाथ सिंह, अष्टभुजा शुक्ल जैसे कवियों के बरक्स मान बहादुर सिंह, सुधीर सक्सेना, हरीश चंद्र पांडे जैसे कवियों को रखने का प्रयास किया है जो उनकी आलोचनात्मक दृष्टि के हिसाब से उचित लगता है क्योंकि वे ‘कविता में लोक की अवधारणा तथा उसके द्वंद्वात्मक तरीके’ के हिमायती है न कि ‘नास्टेल्जिया’ या ‘काल्पनिक मानवेतर सौन्दर्य’ के

    

पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’ व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित है। पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’ व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित है हालाँकि यह बहस बहुत पुरानी है लेकिन आलोचक चंचल चौहान ने ‘सापेक्ष’ संपादक महावीर अग्रवाल को दिए साक्षात्कार में इसे पुनः केन्द्र में ला दिया है वे लिखते हैं “हिन्दी आलोचना की इस बुरी आदत का मैं कटु आलोचक रहा हूँ जिसमें रचनाकार के ‘जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच अंतर्संबंध’ की तलाश की जाती रही है जिए गए जीवन का कविता से संबंधित तलाशने वाली हिन्दी आलोचना या बायो क्रिटिसिज्म में नगेंद्र से ले कर प्रकाश चंद्र गुप्त, राम विलास शर्मा और आज के उनकी पद्धति या लोक को पीटते हुए बहुत से दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के प्राध्यापकीय आलोचक शामिल हैं” इस पुस्तक का तीसरा खण्ड इसी जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच अंतर्संबंध से ताल्लुक रखता है आलोचक उमाशंकर कवि के व्यक्तित्व को भी महत्वपूर्ण मानते हैं वे लिखते हैं “यदि किसी कवि की पहचान करनी है तो उसके व्यक्तित्व की पहचान भी जरूरी है कविता केवल भाषा की सरंचना नहीं है बल्कि एक प्रतिबद्धता और मनुष्यता का तकाजा भी हैयदि कवि के पास एक अदद व्यक्तित्व नहीं है तो वह लंबे समय तक कवि  नहीं रह सकता” (पृष्ठ 29)
                       
इस पुस्तक का ‘हमारे दौर में आंसू जबां नहीं होता’ शीर्षक अध्याय पूर्व अध्यायों से अलग है पूर्व अध्यायों में जहाँ कवि का समय है, समकालीन काव्य परिदृश्य है, काव्य प्रवृत्तियां हैं तो इस अध्याय में वे सुधीर सक्सेना की कविताओं को विश्लेषित भी करते हैं और उनकी कविताओं के माध्यम से अपने आलोचनात्मक मूल्यों की स्थापना भी करते हैं उनके आलोचनात्मक मूल्य एक तरह से राम विलास शर्मा के आलोचनात्मक मूल्यों की तरह होते हैं जिसका सीधा रिश्ता मार्क्सवादी आलोचना से भी है जहाँ जनपक्षीय चेतना या वर्गीय दृष्टि पर आधारित सामाजिक राजनैतिक चिन्तन शामिल रहता है जैसे :-
1. आज आवश्यकता है कि हम विमर्शों को जनवादी तरीके से देखें नए हाशिये  की पहचान करें अस्मिताओं के सवालों को कविता और कथा में स्थान दे जरूरी नहीं कि हम विचारधारा को ही हाशिए पर ढकेल दें विचारधारा बेहद जरूरी औजार है (पृष्ठ-46)
2. मानव समुदाय की मूल प्रवृत्ति उत्पादनपरक है इसी के लिए वह श्रम का आधार ग्रहण करता है इन्हीं तत्वों की भूमि पर वह साहित्य और कला का सृजन करता है (पृष्ठ-47)
3. भूमंडलीकरण के परिवर्तनकारी सामाजिक दबावों ने सबसे अधिक वर्गीय चेतना का नुकसान किया है (पृष्ठ 52) इस खण्ड में वे अपने आलोचनात्मक मानों के साथ सुधीर सक्सेना की कविता को भी विश्लेषित करते चलते हैं और उन्हें लोकधर्मी कवि के रुप में स्थापित करते हैं आगे ‘गझिन  अनुभूतियों का अंगराग’ अध्याय में वे सुधीर सक्सेना की लोकधर्मी छवि को हिन्दी कविता की वैश्विक पृष्ठभूमि तथा वर्गीय दृष्टि पर ले जाते हैं वे लिखते हैं:- “सुधीर सक्सेना अपनी पीढ़ी के इकलौते कवि हैं, जिन्होंने वैश्विक चरित्र ले कर, वैश्विक सन्दर्भों व  घटनाओं पर सबसे अधिक कविताएं लिखी हैं “(पृष्ठ-59) 
सुधीर सक्सेना के अब तक 10 कविता संग्रह ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘काल को भी नहीं पता’, ‘समरकंद में बाबर’, ‘किरच किरच यकीन’, ‘किताबें दीवार नहीं होती’, ‘ईश्वर हां नहीं तो’, ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’, ‘कुछ भी नहीं है अंतिम’, ‘बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी’ (लम्बी कविता), ‘धूसर में बिलासपुर’ (लम्बी कविता) शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं इस पुस्तक के आगे के अध्यायों में प्रत्येक काव्य संग्रह की कविताओं का विश्लेषण किया गया है जैसे ‘बाबर की आंखों में था समरकंद’ नामक खण्ड में कविता संग्रह ‘समरकंद में बाबर’ ‘सुखन की शम्मा जलाओ’ में ‘किरच किरच यकीन’ ‘प्रेम को पंथ कराल महा’ में काव्य-संग्रह ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ ‘खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही’ खण्ड में कविता संग्रह “इश्वर हाँ नहीं तो’, ‘मैं तो ख़ुद से अभी मिला नहीं’ शीर्षक खण्ड में  ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ की कविताओं को केन्द्र में रखा गया है कवि के काव्य संग्रहों पर केन्द्रित यह अध्याय पुस्तक समीक्षा की तरह नहीं लिखे गए हैं बल्कि यहाँ भी भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उत्तर आधुनिकता, लोक-चेतना आदि से जुड़ कर समय को रेखांकित करते हुए कविताओं की व्याख्या की गई है उनकी आलोचना-दृष्टि भक्ति काल से ले कर आज तक की कविता पर टिकती है उनकी आलोचना का विचार पक्ष सामाजिकता और यथार्थ परखता का पक्षधर है आलोचना के भीतर आंदोलनों और सौंदर्यात्मक अवधारणाओं को भी वे आम फहम भाषा में ही संप्रेषित करते हैं मैंने प्रारंभ में ही उल्लेख किया था कि कोई आलोचक किसी कवि का चयन कर न केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करता है बल्कि अपने आलोचनात्मक मानों को भी कविता के मार्फत व्यक्त करना उसका ध्येय होता है उमाशंकर सिंह परमार इस रूप में अपनी आलोचना पुस्तक ‘सुधीर सक्सेना प्रतिरोध का स्थापत्य’ में सफल हुए हैं।
आलोचना पुस्तक : “सुधीर सक्सेना – प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य “

आलोचक : उमा शंकर सिंह परमार

प्रकाशक : ‘लोकमित्र’, शाहदरा, दिल्ली –110032

मूल्य: रूपये 395/
(‘लहक’ से साभार)

                  
नासिर अहमद सिकंदर

सम्पर्क-                                         

नासिर अहमद सिकंदर

क्वार्टर न 3 /सी ,सड़क 45

सेक्टर 10 , भिलाई नगर

जिला दुर्ग , ( छ ग)

490006

मोबाईल – 9827489585

अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह की उमाशंकर सिंह परमार द्वारा की गयी समीक्षा

अजय कुमार पाण्डेय

कवि अजय कुमार पाण्डेय का एक कविता संग्रह “यही दुनियां है” पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ। अजय पाण्डेय अधिकतर छोटी कविताएँ लिखते हैं। छोटी होने के बावजूद उनकी कविताएं अधिक मारक या कह लें प्रभावकारी होती हैंइस संग्रह की जो और जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हो पायी क्योंकि अजय लिखने में विश्वास करते हैं, समीक्षाएं लिखने-लिखवाने में नहीं। आज साहित्य भी जोड़-जुगाड़ की जगह बन गया है। अजय इन सबसे विरत हैं। उनके संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है उमाशंकर परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा             
अस्मिता के सवालों से मुठभेड़ करती कविताएँ 
उमाशंकर सिंह परमार
 
हाल के कुछ वर्षों में विश्वव्यापी पूँजीगत परिवर्तनों द्वारा अनेक विमर्श सुझाए गए हैं। ये तमाम विमर्श जनवादी चिन्तन के विपरीत अपनी पहचान बनाते हुए तमाम अस्मिताओं व अवधारणाओं को बाजार के साथ जोडने का काम कर रहे हैं। जनवादी चिन्तन सामूहिकता की अवधारणा पर समय और वस्तु की परख करता है। उसके लिए इतिहास के द्वन्दात्मक प्रतिफलन और वैचारिकता से अन्तर ग्रथित युग-बोध दोनो को नकारना बेहद कठिन है। यदि इतिहास और विचार दोनो को अस्वीकृत किया गया तो लेखन और उसके सरोकार व सामाजिक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व सब के सब खतरे में आ जाएंगे। जनवादी समझ के यही आधारभूत बिन्दु हैं। लेकिन हम नवउदारवाद द्वारा पैदा किए गए नये हाशिए व उनकी अस्मिता का सवाल साधारण तौर पर टाल नहीं सकते हैं। क्योंकि यह नयी सामाजिक संरचना के अनुकूल है और  नयी अस्मिताओं के  उभार व उनके समक्ष व्याप्त जीवन के खतरनाक संकटों का आईना है। हम हाशिए की उपेक्षा करके वर्तमान में प्रभावी भूमंडलीकृत दमनकारी शक्तियों के साथ पक्षपात ही करेंगे। अत:  आज की कविता के समझ सबसे बडा संकट अस्तित्वबोध और हाशिए की तमाम अस्मिताओं की पहचान का है। हाशिए का अस्तित्बोध आज का जरूरी विमर्श है और भूमंडलीकरण के साहित्यिक संस्करण उत्तर आधुनिकता के विरुद्ध यदि मुकम्मल लोकधर्मी हस्तक्षेप करना है तो अस्मिताओं की बात करना आज की कविता का मुख्य अभिकथन होना चाहिए। यह दौर विश्वव्यापी परिवर्तनों का दौर है हमारे परम्परागत समाजों की आधारिक सरंचनाएं आज बदल रही है़ ये परिवर्तन पूँजीगत परिवर्तनों से सम्बद्ध है। जो कुछ पुराना था वह या तो टूट गया है या टूटने वाला है। इन परिवर्तनों ने केवल तोडा भर नहीं है बल्कि नयी संरचनाएं भी उत्पन्न कर दी हैं। यदि परिवर्तन केवल टूटने तक होता तो आज का कवि अपने अतीत को बचाने की बेचैनीपूर्ण जिद द्वारा अपने उत्तर दायित्व का निर्वहन कर लेता। पर कविता के समक्ष असली संकट तो नयी अस्मिताओं के उभार का है। अजय की कविता हाशिए की अस्मिताओं पर उसी शिद्दत के साथ बात करती है जितनी की आज के विमर्शों में है। आज का कोई भी विमर्श बाजार व सर्वअधिकारवाद का प्रतिरोध नहीं करता सब घूम फिर कर बाजार के पक्ष में तर्क बनकर उपस्थित हो जाते हैं। लेकिन अजय  के हाशिए लोक जीवन की कठिन जिजीविषा से गढे गए हैं। उनका विजन भले ही आधुनिक हो पर यथार्थ वही है जो लोक में घटित है। इसलिए अजय द्वारा किया गया अस्मिताओं का विमर्श जनवादी नवसंरचना का बेहतरीन उदाहरण है। अजय की कविता में लोक की इस नई बहुलता का मिलना भविष्य में उत्तर आधुनिकता के विरूद्ध एक नयी संरचना का आगाज है। 
अजय कुमार पांडेय का युग उदारीकरण के फलस्वरूप उपजे व्यक्ति व समाज के स्तर पर छाए तमाम संकटों का युग है। वह जिस पीढी के कवि है उस पीढी ने बाजारवाद का दंश सबसे अधिक भोगा है। जाहिर उनकी कविता उनकी निजी अनुभूतियों से निर्मित संकल्पों व विकल्पों द्वारा निसृत है। यदि कवि अपनी कविता से पृथक हो कर लिखता है तो कविता यथार्थ को उस रूप में अंगीकार नहीं कर पाती जैसा होना चाहिए। कविता यथार्थ का बीहड और सच्चा दर्शन तभी करा सकती है जब कवि अपनी कविता में उपस्थित हो कर संवाद करता है। यह लोकधर्मी कविता की जरूरी शर्त है कि कवि की जमीन और कविता की जमीन में कोई फर्क न हो। कवि की अनुभूति व कवि की चेतना के बीच कोई फर्क न हो। कवि का परिवेश और कविता के अन्तरग्रथित परिवेश में कोई फर्क न हो। यदि कवि कविता से पृथक होकर अन्य पुरुष बन कर आता है या नेपथ्य में चला जाता है तो कवि के सरोकारों की कायरतापूर्ण मौत के साथ साथ कविता भी महज वदतोव्याघात बन जाती है। मैने अजय पांडेय को बहुत पढा है उनका व्यक्तित्व  व उनके अनुभव उनकी कविता में गहरे तक उतर गये हैं। बुनावट की अन्तर तहों में अनुभवों का जटिल अन्तर्जाल है। बेचैनियों व ऊब की सघन प्रतिच्छाया है। समय के कटु अनुभवों में बौखलाए आदमी की तडप और चीख उनकी समूची अस्मिता के साथ विद्यमान है। अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह “यही दुनियां है” इसी साल प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में उनकी लगभग चौरानबे कविताएं संग्रहित हैं जो समय समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कविताओं का रचनाकाल भारत में बाजारवादी साम्राज्य के विस्तार व घोर पूँजीवादी संक्रमण का काल है। चूंकि अजय की उपस्थिति ही उनकी कविता की वैयक्तिकता है इसलिए जाहिर है अजय ने इस नये युग के हर एक सन्दर्भ को परखा है। देखा है। अजय की कविता का समाजशास्त्र पुरातन समाजशास्त्र से अलग है। उनका समाजशास्त्र आज के नयी सामाजिक संरचनाओं के बरक्स जनवादी नजरिए का समाजशास्त्र है। इसका मूल कारण है कि आज भूमंडलीकरण ने सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत कुछ बदल दिया है और हमारी परम्परागत विरासत में पाए जाने वाले कई प्रगतिशील सांस्कृतिक मूल्य व  परम्परागत सामाजिक संरचनाएं विखंडन की ओर बढ रही है़। इस विखंडन व ध्वंस के दौरान भी आवारा पूँजी नयी अस्मिता और हाशिये उत्पन्न कर रही है। यह एक ऐसी दोहरी स्थिति है जब हम जब पुराने मूल्यों को खोते जा रहे हैं और नये विमर्शों को पहचान नहीं पा रहे है़ या फिर नये विमर्शों को अपने पुरातन नजरिए से देखने की कोशिश कर रहे हैं। 
अजय के इस संग्रह में कहीं भी युग की अवहेलना नहीं है़। नवजात सामाजिक संरचनाओं व इस समाज के सांस्कृतिक व आर्थिक विमर्शों की अजय को खासी पहचान है। नये सन्दर्भों व नये मूल्यों की कहीं भी अवहेलना नहीं है। युग के प्रति जैसी संवेदनशीलता अजय की “यही दुनियां है” में दिखती है वैसी चेतना बहुत कम कवियों में दिखाई देती है। अजय के इस संग्रह का मूल अभिकथन अस्मिता के सवालों का घेराव है। समूचा संग्रह हाशिए के विमर्शों में उलझा है। नव उदारवाद के प्रतिरोध में लिखे गये मैने बहुत से संग्रह पढे हैं पर जिस तरह का समाजशास्त्रीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अजय की कविता में प्राप्त होता है वह कहीं नहीं मिलता है। पहली बार किसी कवि ने उत्तर आधुनिकता के बिखंडनवादी विमर्शों का जवाब उसी के औजारों से दिया है। अजय कुमार पांडेय अपने समय की जटिल स्थितियों को केवल नव संरचनाओं का या निजत्व बोध का स्वरूप नहीं देते है़ वह आधुनिक विमर्शों में रहते हुए भी जडताओं को तोडते हैं। मतलब अस्मिताओं के जिन सवालों को विश्वपूँजी के विकट साम्राज्य ने पैदा किया है वो उन सवालों को महानगरीय मध्यमवर्गीय चिन्तन से दूर करके लोक के यथार्थ व ऐतिहासिक प्रतिफलन के आधार पर देखते हैं। उत्तर आधुनिकता ऐतिहासिक चेतना को नकारती है पर अजय पांडेय ने ऐतिहासिकता की अनिवार्यता द्वारा ही उपभुक्त विसंगतियों को उकेरा है। देखिए एक कविता जिसमें भ्रम और यथार्थ का सच्चा विभेद उपस्थित है। दरअसल बाजार यही कहता है जो हमारे द्वारा निर्मित है वही सच है। आदमी पृथक सत्ता है व चेतन सत्ता है वह जो भी अनुभव करता है वही एक मात्र आनुभविक सत्य है। यह दर्शन बाजार के पक्ष में बडा तर्क है। अजय पांडेय बडी चतुराई से बाजार द्वारा विनिर्मित संरचनाओं को भ्रम की श्रेणी में खडा कर देते है और इतिहास की भूमिका का जोरदार रेखांकन करते हुए उसे भूख से जोड देते हैं। अजय का कहना है
“यह तुम जान लो

जो तुम सोचते हो

जो तुम समझते हो वह

नहीं है असल

अपनी आँखों देखी

और कानो सुनी

होने का तुम्हारा

दावा भी महज भ्रम है

यह तुम्हारे सामने का वैभव

आभासी नजारा है। (यही दुनिया है पृष्ठ ३०)।
केवल आभासी संकेत ही नहीं करते बल्कि यथार्थ का वैज्ञानिक और सुधरा पक्ष भी समूची ऐतिहासिक भूमिका के साथ उपस्थित कर देते हैं। इसी कविता के अन्त में वे कहते है़
“कुछ भी नहीं है शाश्वत

सब कुछ है परिवर्तनशील

शाश्वत है तो

सिर्फ सदियों से जारी

भूख के खिलाफ आदमी की जंग।
इस जंग का संकेत अजय के प्रतिरोध की तार्किक अवस्थिति को पुख्ता करता है। समय व सत्ता द्वारा जो इतिहास और भ्रम सिखाया जा रहा है उसकी टूटन ऐतिहासिक चेतना की वर्गीय दृष्टि से ही सम्भव है और अजय पांडेय यही कर रहे  हैं। अजय  पाण्डेय की कविता में उत्तर आधुनिकता द्वारा सुझाए गए हर एक विमर्श का जनवादी स्वरूप प्राप्त होता है। अजय की  कविता नव विकसित अस्मिताओं की बात करते समय सामाजिक सरंचना व सांस्कृतिक संरचना के समान्तर एक मुकम्मल साहित्य संरचना का उदाहरण प्रस्तुत करती है। केवल वैयक्तिक अनुभव की स्वायत्तता का खाका खींचने वाली कविताएं अक्सर सामाजिक सोदेश्यों के प्रति असफल हो जाती हैं। जब तक लोक की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को युग और समाज के आयामों से न जोडा जाए तो सच्चे अर्थों में लोकधर्मी कहलाने की हकदार नहीं होती है। अनुभव तभी यथार्थ हो सकते है जब उन्हें जमीन के समूचे परिवेश से जोडकर एक संस्कृतिक विद्रोह का स्वरूप दिया है। आज की  कविता का यही सरोकार है। देखिए एक कविता जिसमें अजय ने परिवेश की जटिल बनावट को जटिल अनुभूतियों द्वारा बेहद सहज ढंग से उदघाटित कर दिया है
“बड़ा कठिन है

जान पाना

कैसे

एक एक ईंट

जोड़ कर खड़ा करता है इमारत

और सारा जीवन सड़कों पर

घिस घिस

फुटपाथ

बन जाता है मजदूर।” (यही दुनिया है, पृष्ठ २५) 
यह परिवेश व्यक्ति के हक में काबिज़ पूंजीवादी बाजारवादी शक्तियों की समूची पहचान जता देती है। आदमी अपने द्वारा किये गए कार्यों से कैसे पृथक कर दिया जाता है उसे अपने हक़ और कैसे उसकी चेतना से काट कर उसके परिवेश को भी बदल दिया जाता है इस कविता में देखा जा सकता है। केवल अलगाव ही नहीं हो रहा है। केवल व्यक्ति की चेतना का पार्थक्य नहीं हो रहा है बल्कि नयी सरंचनाओं में सर्वोच्चतम अवस्था को प्राप्त वर्ग की मनुष्यता दृष्टि भी खोखली हो चुकी है। खोखलापन व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था का भी है। व्यक्ति का खोखलापन वैयक्तिक जीवन का संकट बनता है तो व्यवस्था का खोखलापन सामूहिक चेतना का संकट बन कर उभरता है। अजय पांडेय ने अपने कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ में आवारा पूँजी द्वारा उत्पन्न इस गिरावट को बडे गहरे से रेखांकित किया है। अजय समझते हैं कि मूल्यों में गिरावट ही वैयक्तिक पहचान का भीषण संकट बन कर उभरी है। जब मूल्य ही नहीं प्रासंगिक रह गये तो अस्मिता की बात करना ही बेमानी है देखिए अजय की एक कविता जिसमें मूल्यों के अपक्षरण का संकेत किया गया है 
“जो जितना बडा है

अन्दर से

उतना ही सडा है

और हिमालय सा गुरूर लिए धेले पर खडा है।”

(यही दुनियां है, पृष्ठ 35)
यह वैयक्तिक खोखलेपन का संकेत है। अजय व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था के खोखलेपन का भी संकेत करते हैं। खोखलापन यदि व्यक्ति तक सीमित रहता तो बात बन सकती थी मगर जब यह व्यवस्था में उतर आता है तो आम आदमी के लिए बेहद खतरनाक स्थिति हो जाती है। और सबसे खतरनाक स्थिति होती है लोकतन्त्र का अपराधी हो जाना। इस अवस्था में अपराध और कानून में फर्क नहीं रह जाता है। लोकतन्त्र चंद अभिजात्यों व अपराधियों के हाथ में खिलवाड बन कर रह जाता है। जब राजनीति में अपराधियों का बाहुल्य हो जाए तब सामान्य आदमी के जीवन पर अपने बचाए रखने का संकट छा जाता है। इस लोकतान्त्रिक खोखलेपन व अपराधीकरण का संकेत करते हुए अजय कहते हैं
“चुनाव की घोषणा हुई

समर्पण किया

जेल गया

चुनाव लडा

और जीत गया

इस लोकतन्त्र पर

वह थूक गया”।
इस कविता में अजय की चिन्ता मोहभंग के रूप में उपस्थित हो रही है। हाल के वर्षों में सत्ता और पूँजी के आपसी तालमेंल से जिस तरह से घोटाले हुए हैं। किसानों की जमीने छीनी गयीं हैं। मजदूरों और किसानों के प्रतिरोध को सेना और पुलिसबल द्वारा दबाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आवारा पूँजी के दौर में लोकतन्त्र महज छलावा है। विश्वव्यापी शोषणतन्त्र का हिस्सा है। ऐसे में जनकल्याण की बात करना हाशिए पर पडी अस्मिताओं की बात करना बेहद कठिन है। पूँजी और सत्ता का मिलना व्यक्ति के अस्तित्व व जीवन बोध के लिए खतरा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की वर्गीय चेतना नष्ट हो कर आदमी को नियति का गुलाम बना देती है। सत्ता और शक्ति का आदेश उसकी निजी उपस्थिति और स्वतन्त्रता पर भारी पडता है। यह स्थिति व्यक्ति को मशीनी कल पुर्जे में तब्दील कर देता है। व्यक्ति जीवन भर शोषण और जलालत के लिए अभिशप्त हो जाता है। अजय इस खतरनाक नियतिबोध से परिचित हैं। जब व्यक्ति अपनी चेतना से रहित कर दिया जाता है तो वह वाह्य परिवेश से हो रहे टकरावों में खुद को कमजोर मान लेता है। पूँजीवाद बडी कारीगरी से व्यक्ति को कमजोर करता है। बडी शिद्दत से उसकी अस्मिता का लोप करता है। देखिए अजय कि एक कविता जिसमें चेतना से पृथक व्यक्तित्व का रेखांकन है
“उसने कहा झुको

हम झुक गए

उसने कहा बैठो

हम बैठ गए

उसने कहा लेटो

हम लेट गए और

उसने कहा उठो

हम उठ गए

इसके क्रियान्वयन में

हमारे घुटने

छिलते रहे दुखते रहे

लहूलुहान होते रहे”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 69)
यह स्थिति वर्चस्ववाद की है जब व्यक्ति की चेतना और श्रम सब कुछ पूँजीवादी ताकतो के साथ में केन्द्रित हो जाए तो उसका अस्तित्व महज भ्रम हो जाता है। अस्तित्व व अलगाव की बात करना उत्तर आधुनिक विमर्शों का जवाब देने के लिए सही दर्शन है। अलगाव की स्थिति तमाम हाशिए व अस्मिताओं को एक सूत्र में बाँध देती है। कोई भी समूह हो या व्यक्ति विचार हो वह इस अलगाव की अवस्थिति से अछूता नहीं है। व्यक्ति की नियतिपूर्ण गुलामी आदमी को “फालतू” होने का मिथ्या भ्रम पैदा करती है। जब व्यक्ति खुद को फालतू समझ लेता है तो जीवन को खत्म करने की ओर एक कदम बढा देता है।

पुराने समय में विरक्ति होती थी जीवन और जगत के प्रति तब आदमी वैराग्य की ओर कदम बढाता था। पर आज फालतू बोध से उत्पन्न हताशा आदमी को आत्महनन की ओर ढकेल रही है। फालतू होने का मतलब है कि व्यक्ति अपने को कहीं भी हिस्सेदार नहीं पाता है। न तो वह व्यवस्था का भागीदार होता है न वह अपने समूह का भागीदार रह जाता है। वह व्यवस्था द्वारा तय की गयी नियति का प्यादा बन कर रह जाता है। यह फालतूपन का बोध नियति बन कर आज की पीढी में छा गया है। अलगाव का अन्तिम तकाजा यही फालतू बोध है। अकेलापन इसी फालतूपन की देन है। जब व्यक्ति अपने लिए हो रहे निर्णयों में खुद को हिस्सेदार नहीं पाता। अपनी चेतना को नियति का गुलाम महसूस करता है तो उसे लगने लगता है कि जब सब कुछ स्वत: वगैर सहमति के चन्द स्वार्थीयों द्वारा ही तय हो रहा है तो उसकी जरूरत क्या है? अजय इस फालतूपन को रेखांकित करने से नहीं चूके हैं। 
अजय बखूबी समझते हैं वर्चस्ववादी शक्तियों द्वारा व्यक्ति को अकेला व फालतू कर देना समाज की अन्दरूनी तहों में पल रहे प्रतिरोध को नष्ट करने की जरूरी प्रक्रिया है। देखिए अजय की एक कविता जिसमें फालतू बोध को बडे सधे अन्दाज में व्यंजित कर दिया गया है 
“ओ भाई

यूँ तो मैं

उगा हूं वहां

जहां फेंक दी जाती हैं

घर की सबसे फालतू चीजें

कभी उपयोग में

न आने के विश्वास में

ओ भाई

यहाँ उगने का

अपना अलग अहसास है।” (यही दुनिया है, पृष्ठ ८७)  
फालतू होने का अहसास व्यक्ति के सामूहिक जीवन के अहसास का हनन है यह स्थिति तभी आती है जब हम दूसरों की थोपी गयी स्थिति और निर्णय को अपना कहने के लिए या अपना स्वीकार करने के लिए अभिशप्त होते है़। जैसा कि उपर के उदाहरणो में अजय ने दिखाया है कि व्यक्ति की अपनी चेतना व चिन्तन से पृथक कर उसे मशीन का पुर्जा बना देने की साजिश इस पूँजीवादी वर्चस्ववाद का जरूरी तकाजा है। 
अजय पांडेय के कविता संग्रह “यही दुनिया है” में सबसे महत्वपूर्ण सवाल स्त्री को लेकर खडे किए गए हैं। स्त्री सम्बन्धी कविताओं पर चर्चा किए बगैर अजय की चेतना और अस्मिताओं के विमर्श का यथार्थ नहीं समझा जा सकता है। अजय ही क्यों कोई भी कवि हो जो खुद को समकालीन कहे और आधी आबादी के इस पक्ष से रहित हो उसे समकालीन कहने में संकोच होता है। स्त्री विमर्श आधुनिक विश्वपूँजी द्वारा उत्पन्न सबसे सशक्त विमर्श है जिसका जवाब देने में जनवादी और लोकधर्मी कविता भी असहज हो सकती है या यूं कहा जाय कि जनवादी लेखन स्त्री विमर्श की  देहवादी अवधारणा का मुकम्मल जवाब नहीं खोज पाया है। बहुत से लोकधर्मी लेखक आलोचक और कवि भी “देहविमर्श” की अनजाने में स्वीकृति दे जाते हैं। इस सन्दर्भ में अजय के सवाल और समस्या दोनो अलग है़। अजय हाशिए पर ढकेली गयी अस्मिताओं के पक्ष में अधिक संवेदनशील हैं। उन्हें इनकी विकास की चिन्ता है। इसलिए स्त्री के साथ साथ वो बच्चों पर भी बराबर कविता लिख रहे हैं। आज देह के नाम पर स्त्री की यौनिकता व सम्भोग बिम्बों का प्रतिचित्रण उसके परिवेश में सदियों से काबिज उत्पीडनकारी रूपों को खारिज करता है। ऐतिहासिक आग्रहों को अस्वीकार करता है। मगर अजय यह नहीं भूलते कि स्त्री विरोधी संस्कृति हमारी ही देन है। पुरुष प्रधान समाज में जाति धर्म संचालित मानसिकता की क्रूरतम अभिव्यक्तियां आज भी मौजूद हैं। एक मात्र संस्कार और संस्कृति के तर्क से इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पुरुषों द्वारा गढे गए शुचिता के भयावह सिद्धांत व स्त्री धर्म की मीमांसा ही उसे सामन्ती उत्पीडन व अलगाव की आग झोंक रही है। यह अलगाव स्त्री के उपस्थिति के खिलाफ उसकी निजी अस्मिता व अस्तित्व के विरुद्ध ठोस तर्क है। अजय अपनी एक कविता में कहते हैं
“अच्छी औरतें

अकेली कहीं नहीं जाती हैं

पति के बाद खाती हैं

अच्छी औरतें

हर मामले में

अनुशासित होती हैं

यानी आदमी होने की

शर्तों से निर्वासित होती हैं। (यही दुनिया है, पृष्ठ 12)
अच्छी औरत होने के तर्क ही स्त्री के आदमी होने का लोप है। यह स्त्री के पक्ष में देह से इतर विमर्श है जो उनकी आजादी और हक के लिए मनुष्य होने की स्वीकृति माँग रही है। एक तरफ आदमी की चेतना को पूँजी ने नष्ट किया है तो स्त्री की चेतना को पुरुष ने नष्ट किया है। यहाँ पुरुष और स्त्री दोनो अलग अलग वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इसका आशय यह नहीं कि स्त्री पूँजीवादी शक्तियों से पीडित नहीं है। बाजार का प्रभाव स्त्री और पुरुष दोनो में है। पर जब स्त्री की बात आती है तो वह दोहरे उत्पीडन से ग्रसित होती है वहां लिंग और जाति के सवालों से हमें जूझना होगा। अजय ने स्त्री के पक्ष में बाजारवादी खतरों का भी उल्लेख किया है। अजय पांडेय ने बाजार के स्त्रीवादी पक्ष को सिरे से अस्वीकार किया है। नारी सौन्दर्य एक ऐसी अवधारणा थी जो स्त्री की देह को वस्तु बना रही थी। प्राचीन काल से ही दैहिक सौन्दर्य के चमकते जाल में स्त्री को फँसा कर प्रतिक्रियावादी ताकतों ने देह को उपभोग की नियति से जोड दिया था। और आज बाजार ने उसकी देह को विज्ञापन व मार्केटिंग का जरिया बना रहा है। सौन्दर्य के इस पुरुषवादी वर्चस्ववाद का अजय विरोध करते है। वो समझते हैं उत्तर आधुनिकता के स्त्री-विमर्श का सारा दरमोदार सौन्दर्य बोध की नींव पर खडा है। सौन्दर्य बोध के नव जात प्रतिमानों ने स्त्री को देह से पृथक नहीं होने दिया। उसे चेतना नहीं बनने दिया गया। इस उपभोक्तावादी बाजारी संस्कृति में देह का वस्तु में तब्दील हो जाना एक प्रकार की अपसंस्कृति है। एक ऐसी अपसंस्कृति जो इसकी तहों में अन्तर्निहित अनैतिकता व अमानवीय गैर-लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों को भी जायज ठहरा रही है। अजय लिखते हैं
“सभ्यता के विमर्शकारों सृजनहारों 

क्यों नहीं गढ पाए

नारी सौन्दर्य के

वैवेविक प्रतिमान

जब भी गढते हो

नारी सौन्दर्य का

कोई नया प्रतिमान

एक नई साजिश

रच रहे होते हो

उसके खिलाफ”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 74)
इस कविता में अजय ने बेहद जरूरी बात कह दी है यह उन लोगो के लिए एक सबक है जो स्त्री की देह को चेतना समझ कर जबरिया उसे बाजार के भोगवादी अन्धेरे में धकेल रहे हैं। दरअसल देह की चर्चा देह की आजादी चर्चा है न कि वह स्त्री की अस्मिता व परिवेश से मुक्त करने की चर्चा है। इस मामले अजय की स्त्री सम्बन्धी कविताएं जनवादी स्त्री विमर्श का पक्ष लेती हैं। वो समस्त सामन्ती बन्धनों को धता बता कर स्त्री के मनुष्य होने के अधिकार की मांग करते हैं।
व्यवस्था से लगातार गायब हो रहे आदमी के पक्ष में विमर्श के नाम पर भोथरी नारेबाजी खूब देखने को मिलती है। आजकल बहुत से कवि सपाटबयानी के बहाने कविता को बैनर अथवा पोस्टर की तरह प्रयोग कर रहे हैं। मगर नीतियों से अनुपस्थित लोक के सन्दर्भ में आज उत्तर आधुनिकता के पास कोई माकूल प्रत्युत्तर नहीं है। उपस्थिति का तर्क वजूद और आस्मिता की रक्षा का तर्क है। उपस्थिति का रास्ता संघर्षों से होकर ही गुजरता है। वैश्विक परिदृष्य में जब तक बडा सामूहिक सचेतन परिवर्तन न होगा तब तक उपस्थिति की बात बेमानी है। मगर मध्यमवर्गीय राजधानी केन्द्रित सत्ता सेवी जमातें इस सुलभ मार्ग को सिरे से नकारती है। या यूं कहा जाए कि उत्तर आधुनिकता ने प्रतिरोध के प्रतिपक्ष में ही तमाम असंगत विमर्श पैदा किए हैं तो यह गलत नहीं होगा। यदि हाशिए पैदा किए गये तो उनका हल भी होना चाहिए वगैर हल के कोई भी विचारधारा सफल व पूर्ण नहीं कही जा सकती है। 
अजय कुमार पांडेय भूमंडलीकृत विचारों की इस कमजोरी से सुपरिचित हैं तभी वो जन के पक्ष में उपस्थिति का संघर्षरत हल खोजते हैं। ये हल ही अजय को लोकधर्मी काव्य चेतना की जमात में और मजबूती से खडा कर देता है। उनका कहना है। 
“अपनी उपस्थिति के लिए

लहराओ

लहराओ अपने हाथों की

बन्द मुट्ठियां हवा की ओर

कि अब भी बदल सकते हो

हवा की दिशा

और मौसम का मिजाज”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 22)
यहाँ अजय अस्मिताओं की उपस्थिति हेतु बन्द मुट्ठी लहराने की बात करते हैं ये सचेतन संघर्षों की पीठिका है। यह संघर्ष अचानक या फैशन के रूप में नहीं आया है। अजय पहले हाशिए के कारण खोजते हैं। फिर अलगाव व फालतूपन को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति की नियति व टूटन का वाजिक तर्क देते है़ फिर अन्त में व्यक्ति उपस्थिति के लिए जनवादी तर्क देते हैं। मतलब समूचे तर्क के साथ अस्मिताओं का संघर्ष प्रस्तावित करते हैं। यही सर्वांगता उन्हें अपनी पीढी से पृथक करके एक अलग पायदान पर खडा देती है।
अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ भूमंडलीकृत विश्व में मनुष्य के वजूद पर छाए मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक व सांस्कृतिक खतरों का प्रलेख है। यह संग्रह किसी भी जगह तटस्थता व आय्यासी का शिकार नहीं होता पूरी कविताओं में मनुष्य की उपस्थिति के प्रति आक्रोश मय बेचैनी मिलती है। भले ही कविता के विषय वैविध्य पूर्ण हों परन्तु अन्तश्चेतना में अनुपस्थित अस्मिताओं के पक्ष में मुकम्मल प्रतिरोध का आवेगशील जेहादी तेवर दिखाई पडता है। कविताओं की संवादी भंगिमा व बोलचाल की शैली उनके तेवर को जनपक्षीय बनाते हुए आक्रोश व बेचैनी की नयी भाषा गढ रही है ऐसी भाषा जनभाषा कहलाती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अजय कुमार पांडेय की कविता अस्मिता के पक्ष में सृजन करती हुए भी तमाम रीतिशास्त्रीय बुर्जुवा कलात्मक मूल्यों से रहित होते हुए भी अपने कहन की संवादी भंगिमाओं व चिन्तन की सामयिक जरूरत के हिसाब से अन्त तक कविता बनी रहती है। यदि आज के युगबोध व हिन्दी साहित्य में प्रभावी आधुनिक रूपवाद के प्रतिरोध में इन कविताओं को परखा जाए तो ऐसी कविता आज की जरूरत है और भविष्य की भी जरूरत है।
उमाशंकर सिंह परमार
सम्पर्क –

मोबाईल – 09838610776

नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा।


नासिर अहमद सिकन्दर

नासिर अहमद सिकन्दर का एक कविता संग्रह पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। “अच्छा आदमी होता है अच्छा” नाम के इस संग्रह में नासिर ने अपनी छोटी कविताओं के माध्यम से कविता में लय और छंद को साधने की सफल कोशिश की है। नासिर की इन कविताओं के गहरे अभिधार्थ भी हैं जिनमें व्यंग्य का पुट है। नासिर के इस संग्रह की एक पड़ताल की है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” पर उमाशंकर सिंह परमार की यह समीक्षा। 
                     
युग–बोध का प्रतिरोधी शिल्प
उमाशंकर सिंह परमार
नासिर अहमद सिकन्दर का नया कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” उदभावना प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के पूर्व नासिर के तीन और कविता संग्रह अलग-अलग समय में प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह में छोटी और मध्यम सब मिला कर 98 कविताएं हैं। इस किताब में बडी कविताएं न के बराबर हैं अन्त में ही एक कविता है “चिट्ठी पत्री और प्रधानमन्त्री” जिसे आकार में बडा होने के कारण लम्बी कह सकते हैं। अधिकांश कविताओं का रचनाकाल वर्ष 2011-12 का है कुछेक 1995-96 की भी हैं पर 2011-12 की लिखीं कविताओं की संख्या अधिक है। और लगभग सभी कवितायें छोटी है। वर्ष 2011-12 का समय पूँजीवाद व बाजारवाद के पूरे अधिपत्य का समय है। 1991 से 2000 तक का समय बाजार के आगमन का समय है, 2000 से 2010 तक का समय विस्तार और अधिपत्य का समय है। और 2010 के बाद का समय बाजारवाद की समूची सांस्कृतिक उपलब्धियों व विश्वविजय की उदघोषणा का युग है। जाहिर है नासिर जैसा सजग कवि अपने समय की मूल चेतना का ही रेखांकन करेगा। 
नासिर का युग पूँजी द्वारा ध्वस्त किए जा रहे मानवीय मूल्यों व प्रतिरोध की लोकतान्त्रिक परम्पराओं के विघटन का युग है। श्रम और पूँजी के रिश्तों में बढती खांई का युग है। उत्पादन प्रक्रिया से श्रम को पृथक कर उसे अचेतन कर देने का युग है। सत्ता पाने के लिए मनुष्य की आपसी समरसता व भ्रातत्व को नष्ट कर साम्प्रदायिक, जातिवादी हथकंडों को अपनाने का युग है। नासिर इस युग की इन नयी संरचनाओं से वाकिफ हैं। इसलिए उनके इस संग्रह में छोटी कविताओं की बहुलता है। छोटी कविता आकार में जरूर छोटी होती हैं पर प्रतिरोध के समय वही कारगर होती हैं। लम्बी कविता अपने कथ्य व कहन को जल्दी व्यक्त नहीं कर पाती जबकि छोटी कविता दो या तीन पंक्तियों में ही अपना काम खतम कर देती है। छोटी कविता प्रतिरोध की बेहद जरूरी रणनीति है। यह दागो और भूल जाओ की नीति पर काम करती है। इतिहास देखिए जब भी कोई बडा प्रतिरोध हुआ है जो क्रान्ति गीत के रूप में छोटी कविता ही रही है। छोटी कविता लिखने के अपने रचनात्मक खतरे भीं हैं। छोटी कविता लिखना सरल और सहज काम नहीं है। पहला खतरा भाषा का होता है। छोटी कविता में यदि भाषा का अर्थवान प्रयोग नहीं है यदि शब्द शक्तियां अपना काम नहीं कर पा रहीं तो छोटी कविता बेहद फूहड मजाक बन कर रह जाती है। और दूसरा सबसे बडा रचनात्मक जोखिम होता है कविताओं का आपसी सामन्यजस्य स्थापित कर रचना को युग का प्रबोध देना। दूसरा जोखिम बहुत से कवियों में है़। नासिर के संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में कविताएं तो छोटी हैं और वैविध्यपूर्ण भी हैं, अलग अलग विषयों पर है़ लेकिन युग के प्रति सजगता इतनी गहरी है कि हर छोटी कविता अगली छोटी कविता का हिस्सा प्रतीत होती है। जैसे कई अवान्तर कथाएं मिल कर एक बडी कथा का निर्माण करती हैं। कई खंड कथाएं मिल कर एक महाकाव्य का निर्णाण करती हैं वैसे ही इस संग्रह की समस्त छोटी कविताएं एक बहुत बडी कविता का निर्माण कर रही है। हर छोटी कविता दूसरी छोटी कविता से कुछ इस तरह अन्तर्ग्रथित है कि उसे अलग कर पाना सम्भव नहीं हैं। ये अलगाव सम्भव नहीं है इसलिए इसे युग की गाथा कह रहा हूं। बाजारीकृत हिन्दुस्तानी लोक की चीख कह रहा हूं। उदारीकृत मनुष्यता की बेचैनी कह रहा हूं। इस संग्रह में हाशिए पर ढकेली जा रही अस्मिताओं व छद्म अस्मिताओं के उभार की कथा है तो दूसरी ओर बाजार द्वारा ध्वन्स किए जा रहे संवैधानिक मूल्यों व नव निर्मित अमानवीय मूल्यों के आपसी संघर्षों की कथा है। एक तरफ बाजार के खतरनाक इरादे हैं तो दूसरी ओर मनुष्यता को बचाने की जद्दोजेहद है।
नासिर अहमद सिकन्दर हमारे समय के बेहद जरूरी कवि हैं। उनका लेखन वैविध्यपूर्ण एवं वैचारिक परिपक्वता से युक्त है। छत्तीसगढ के जमीनी अनुभव व वहां की मिट्टी  की गन्ध उनकी कविताओं में रच बस गयी है। राजधानी से दूर, राजसत्ता व राजसचिवालय से दूर किसी पथरीली जमीन में रह कर वहां की भाषा व संस्कृति को निचोड कर कविता द्वारा युग का ठेठ आसव तैयार कर देना एक लोकधर्मी कवि के लिए बडा रचनात्मक संघर्ष है। अनुभवों व संघर्षों की असलियत व जीवटता देखनी है तो हमें सत्ता केन्द्रों से दूर जाना होगा। राजधानी का राजसी जीवन जी कर हम लोक व युग की सही पडताल नहीं कर सकते हैं। आज का युग भूमंडलीकरण का है। बाजार के इरादे खतरनाक हैं प्रतिरोध को नष्ट करना उसकी पहली प्राथमिकता है। बाजार समझता है कि प्रतिरोध की असली जमीन राजधानी नहीं है। छोटे छोटे गाँव और शहर हैं जहां पूँजी का प्रवाह एकतरफा होता है। इसलिए प्रतिरोध खतम करने के लिए सबसे पहले लोक में जन्मी कविता को साहित्य की मुख्य धारा से अलग करो इस बात का संकेत नासिर जी ने अपने कविता “संग्रह अच्छा आदमी होता है अच्छा” में किया है। कविता का नाम है “दिल्ली का देश” यह दिल्ली देश की दिल्ली नहीं है। यदि देश की दिल्ली होती तो पूरे देश का सामाजिक मानचित्र दिल्ली में दिखता। दिल्ली में जो दिखता है वह केवल दिल्ली का देश है । पूरा भारतीय लोक अलग और दिल्ली अलग। नासिर लिखते हैं 
“दिल्ली में राजघाट  
दिल्ली में कुतुबमीनार
दिल्ली में प्रधान मन्त्री
दिल्ली में सरकार
दिल्ली में बडे कवि
दिल्ली में आलोचक बडे
दिल्ली का देश”।
यह व्यंग्य कविता है। आकार में छोटी होने के बावजूद भी राजधानी केन्द्रित अभिजात्य नजरिए पर करारा प्रहार करती है। अभिजात्य होने का नजरिया केवल सत्ता पर ही प्रभावी नहीं है साहित्य पर भी यह दृष्टि प्रभावी है। इसलिए दिल्ली में रहने वाला कवि बडा कवि और दिल्ली से दूर रहने वाला कवि छोटा कवि है। कविता का यह अभिजन विभाजन आज के चमकते दमकते बाजार की देन है। सत्ता  शक्ति और पूँजी तीनों का आपसी विलयन ही बाजारवाद का सफेद सच है। साम्राज्यवाद, फासीवाद के बाद अब बाजारवाद वही कर रहा है जो पहले औपनवेशिक सत्ताएं किया करती थीं। यदि यह कहा जाए कि साम्राज्यवाद का आधुनिक व नवपरिवर्तित स्वरूप बाजारवाद है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बस अन्तर यह था कि साम्राज्यवाद में एक केन्द्र होता था जिससे उसकी विरोधी शक्तियों व प्रतिरोधी अवधारणाओं की पहचान हो जाती थी। पर इस बाजारवाद का कोई केन्द्र नहीं है। यह विश्वव्यापी और बहुरूपी है जिससे न तो इसका सही स्वरूप ज्ञात हो पा रहा है न बाजार प्रतिरोधी व समर्थक अवधारणाओं की सही पहचान स्पष्ट हो पा रही है। पहचान की यह नई चुनौती परम्परागत अवधारणाओं के समक्ष आज की सबसे बडी रचनात्मक चुनौती है। जब पहचान की समस्त शक्तियां बेदम हो जाती हैं तब कविता की जिम्मेदारी और बढ जाती है। अस्मिताओं की पहचान व उनके शब्दांकन हेतु कविता को अपनी अन्दरूनी तहों में उतरना होता है। कविता समाज के अन्दर, व्यक्ति के अन्दर, संस्कृति के अन्दर, मूल्यों के अन्दर, विचारधाराओं के अन्दर, परम्परा के अन्दर झांकती है। और सब का मूल्यांकन करते हुए बाजार के खतरों के बरक्स एक मुकम्मल सौन्दर्य बोध व सांस्कृतिक प्रतिरोध की बेचैनीपूर्ण आस्था का प्रतिपादन करती है। इस स्थिति में कविता कवि के अनुभवगत सूक्ष्म संवेगों पर बात करती है वह मनुष्य के परिवेश से ही बाजार के खतरों को खोजते हुए हाशिए में दबी कुचली अस्मिताओं के महत्व को उजागर करती है। इसलिए आज की कविता द्वारा वर्णित परिवेश को देशकाल से जोडना व उथले भौतिक संकुचित विषय से जोडना सरासर गलत है। बाजार के दौर में बाजार के खतरों से उत्पन्न कविता नवनिर्मित समाज का आईना होती है। नासिर अहमद सिकन्दर ने एक जगह लिखा है
“मैने एक कविता लिखी
मेंरे ही अनुभव थे इसमें  
मेंरी ही थी जीवन दृष्टि
मैने दिया शीर्षक इसका
कविता की सामाजिक भूमिका। 
(अच्छा आदमी होता है अच्छा पृष्ठ-12)
यह आज के युग का तकाजा है आज व्यक्ति के अनुभव नितान्त निजी  नहीं हो सकते है। व्यक्ति का परिवेश भी निजी नहीं होता है। सब कुछ एक दूसरे से जुडा है हर एक परिस्थिति हर जगह है। जो एक जगह है वही सब जगह है।
साहित्य एक व्यापक सांस्कृतिक प्रक्रिया का हिस्सा है। कवि का मुख्य काम इस प्रक्रिया के तहत समाज और साहित्य के अन्दरूनी रिश्तों की पडताल करते हुए मनुष्य विरोधी शक्तियों की पहचान करना है। इस बात को हम दूसरे ढंग से कह सकते हैं कि कवि अपने युग और परिवेश में व्याप्त समानान्तर शक्तियों को सीधे रचनात्मक चुनौती देता है। आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वह युग भूमंडलीकरण का युग है। भूमंडलीकरण ने हमारे परम्परागत सामाजिक ताने बाने को तोडकर संरचनाओं को अपने अनुरूप ढाल रहा है। परम्परागत संरचनाओं में उसकी अवधारणाओं के मुफीद नहीं रहा उसे या तो वह नष्ट कर रहा है या फिर हाशिए में ढकेल रहा है। इससे नयी किस्म की संरचनाएं और हाशिए उत्पन्न हो रहे हैं। ये नयी संरचनाएं व हाशिए आज की मूलभूत समस्या है। नवनिर्मित हाशिए केवल परम्परागत वर्गीय संरचना के तहत पहचान में नहीं आ सकते हैं। यदि हम इन संरचनाओं को महज पूँजी व स्वामित्व के मानक से निर्धारित करेगें तो हम नयी अस्मिताओं के उभार को नहीं समझ सकते हैं। क्योंकि आज सत्ता व व्यवस्था भी बाजार की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। सत्ता बाजार की अगवानी करने वाली एजेन्ट है। ऐसे में लोक और तन्त्र दोनो का पार्थक्य स्पष्ट दिखने लगता है। सत्ता अपनी उपस्थिति के लिए केवल उत्पादन व वितरण की प्रक्रिया का सहारा नहीं लेती न यह मुद्दों पर आधारित मतदान व्यवस्था का युग है। अब बाजार का युग है। मुद्दे बाजार में उत्पाद की तरह उपस्थित किए जाते हैं और चुनाव खतम होने के बाद मुद्दे अगले चुनाव तक सुसुप्त अवस्था में चले जाते हैं। नासिर की इन छोटी कविताओं में चाहे बदलता परिवेश हो या मूल्यों का संकट हो या निराशा में डूब कर घबराने की अवस्था हो या संवैधानिक लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज हो सब कुछ बडे धीरज से देखा गया है और धीरज से देखते हुए निजी अनुभवों के स्तर पर जीते हुए संवेदनात्मक तरीके से कहा भी गया है। कविताओं में कवि का परिवेश और धैर्य दोनो बेहद सूक्ष्म तरीके से अन्तर्ग्रथित है। कविताएं पढ कर ही नासिर के व्यक्तित्व को पढा जा सकता है। एक अच्छे लोकधर्मी कवि की यही विशेषता होती है कि वह अपनी कविताओं में कितना उपस्थित रहता है। यदि हम कविता पढ कर कवि के लोक की पहचान नहीं कर सके तो कविता और कवि दोनो किसी काम के नहीं हैं। नासिर अपनी कई कविताओं में उपस्थित से दिखते हैं। ऐसा आभास होने लगता है कि संवाद की भंगिमा कविता नहीं दे रही नासिर ही संवाद कर रहे हैं 
“काम की कहां कम्बख्त
नाम ही के चर्चे हैं
कहने को सरकारी नौकरी
दुनिया भर के खर्चे हैं”
 
(अच्छा आदमी होता है अच्छा, पृष्ठ-33)
और इतना ही नहीं अपनी एक कविता चन्द्राकर बाबू में भी अपनी नौकरी की व्यथा कथा कहते दिख जाते हैं 
“अपना जीपीएफ निकालते
बैंक से भी ऋण लेने को
आवेदन देते
नान रिफन्डेबल लोन पर भी
नजर गडाए”। (पृष्ठ 37)  
वाकई मध्यम वर्ग में जो उच्च मध्यम वर्ग था वह तो बुर्जुवा बन गया पर निम्न मध्यम वर्ग, जिसमें छोटे सरकारी कर्मचारी भी हैं, बडी तेजी से हाशिए की तरफ बढ रहा है। एक सरकारी वेतनभोगी कर्मचारी  जब पाई पाई को मुहताज हो सकता है तो आम किसानों और मजदूरों की दुर्दशा का अनुमान करना कोई कठिन काम नहीं है। जो पहले से धनवान थे उनका लगातार धनवान होते जाना और गरीबों का लगातार गरीब होते जाना इस आर्थिक उदारीकरण का एक काला सच है। आर्थिक असमानता की  खाईं इतनी बढ चुकी है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सबसे बडा हिस्सा चन्द पूँजीपतियों के हाथ में ही सीमित हो जाता है। आदमी और आदमी के बीच यह भेद प्राकृतिक नहीं है व्यवस्था की देन है। नासिर एक जगह कहते हैं 
“आदमी तुम भी 
आदमी हम भी
तुम्हारा हमारा
अलग अलग नसीब क्यों” (पृष्ठ 71)
ऐसा नहीं है कि अमीरी और गरीबी आज की देन है। हर युग में गरीब थे हर समय अमीर थे। पर आजकल अमीरी और गरीबी वकायदा सुचिंतित नीतियों का हिस्सा है। यह एक व्यवस्थागत नीतियो की साजिस का अहम अंग है। “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में गिरावट के दौर में अच्छे आदमी की तलाश है। यह तलाश एकांगी नहीं हैं विभिन्न सन्दर्भों व सवालों के परिप्रेक्ष्य में आदमियत की तलाश है नासिर में। आज के समय के प्रति जो बेचैनी दिखती है उसे केवल परिवेश के बदलाव से जोड कर देखना इस कविता संग्रह का कुपाठ होगा। नासिर की कविता घनीभूत क्षणों में सम्प्रेषण की कथा नहीं हैं बल्कि पीडा के विभिन्न स्तरों में घटित मानवीय टकरावों व उसमें निहित नये मूल्यों की कहानी है। इसलिए ये कविताएं परिवेश से उदभूत प्रमाणिक अनुभवों की जुबानी हैं जो अनुभव की विविधता के साथ साथ सन्दर्भों की विविधता भी समाहित करती हैं। आज के सन्दर्भ में सबसे बडा सवाल स्त्री और बच्चों का सवाल है। स्त्री तो पुरातन काल से ही गम्भीर सवाल रही है व्यवस्था के बदलते ढांचों में भी उसकी स्वायत्तता व उसकी आजादी की बात करना शुचितापूर्ण गरिमा के सामन्ती मूल्यों के खिलाफ रहा है। यह स्थिति तथाकथित आधुनिक समाजों में आज भी उपस्थित है। नासिर ने कई कविताओं में पुरुष के सामन्ती वर्चस्व व स्त्री की सहनशील ममतामयी व्यक्तित्व का उल्लेख किया है। देखिए एक कविता जिसमें नासिर ने पुरुष वर्चस्ववाद व स्त्री विरोध में बजबजाते मूल्यहीन सम्बन्धों के दलदल का खाका खींचा है। स्त्री कितने भी ऊंचे पर न हो पुरुषवर्चस्वाद उसे आजादी का मनौवैज्ञानिक आभास भी नहीं देना चाहता है। 
“पारिवारिक
सामाजिक
कार्यालयीन कार्यकलाप में भी
प्रधान साहब में
झलक रहा था
वे पुरुष हैं 
मैडम स्त्री।
यह एक आफिस का बिम्ब है जिसमें प्रधान और मैडम दोनो में असहमति के कारण बहस हो गयी। इस बहस में प्रधान का चरित्र और स्त्री के आचरण उन दोनो की पहचान करा देती है कि एक पुरुष है दूसरी स्त्री। नासिर कुछ कविताओं में स्त्री के वात्सल्यमय स्वरूप का भी उल्लेख करते हैं। पर सबसे ज्यादा कविताएं उनकी बच्चियों और बच्चों पर हैं। पढे-लिखे युवा इस उदारीकृत व्यवस्था में एक गम्भीर समस्या बन कर उभरे हैं। पढ लिख कर बेरोजगार होना भी एक हाशिये का निर्माण है। इस हाशिए कि चर्चा इधर कुछ वर्षों में और तेज हुई है आज की नौजवान पीढी इस दंश को सबसे अधिक भुगत रही है। बेरोजगारी पर मैने बहुत सी कविताएं पढीं हैं लेकिन नासिर ने जिस तरह से इस समस्या की भयावहता को रेखांकित किया है ऐसा रेखांकन दुर्लभ है। वैश्विक स्तर पर व्याप्त बाजारवाद कहीं न कहीं मन्दी का शिकार होता रहता है। मन्दी की अवस्था में बेरोजगारी लाजिमी है। बेरोजगारी जनसंख्या से अधिक व्यवस्था पर निर्भर करती है। यह समस्या आज वैश्विक स्तर पर बडा संकट है। हजारों लाखों युवाओं का बेरोजगार हो कर फालतू हो जाना एक प्रकार का अवर्गीय संघर्ष है। यह नये किस्म का संवर्ग है जो परम्परागत वर्गीय खांचे में नहीं अट रहा है। एक अभिवावक जो खुद इस पीडा को सह चुका हो जब वह अपने दो साल के बच्चे को देखता है तो उसे बेरोजगार नौजवान का स्मरण हो आता है यही नासिर की कविता कहती है।  
“फोटो फ्रेम में मढी
मेंरे दो साल के
बच्चे की तस्वीर
जो अभी
मेंरे तीन कमरे वाले मकान के
एक कमरे में
बेरोजगार
युवक सा बैठा है।
इस कविता में केवल बेरोजगारी की पीडा व उसकी भयावहता ही नहीं है इसमें एक  दो साल के बच्चे के भविष्य को लेकर एक अभिवावक की चिन्ता भी है। उसकी चिन्ता भविष्य की अवश्यमभावी परिस्थितियों की जटिलता से है। इस कविता का कहन रिश्तों की गहराई के साथ साथ बाजारवाद के भयावह खतरों को भी मूर्त कर देता है। नासिर के समय का यथार्थ बहुत भीषण गलित रुग्ण और बीमार है इसलिए उसका बोध भी भयावह संकट पैदा करता है। जितना ही यथार्थ को अपने आस पास और भीतर अनुभव करते जाईए वह उतना ही कष्टकारक होता जाता है। चारों तरफ तिकडम, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, छल, बेईमानी, अवसरवाद,  भृष्टाचार ही दिखाई देता है। ये संकट केवल युग के संकट नहीं हैं ये मनुष्यता के अवमूल्यन के खतरे भी हैं। भारतीय लोकतन्त्र की आदतो में शुमार खतरे हैं। इन खतरों के कारण ही आज आम जनता का लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति मोहभंग हो रहा है। नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में इन समस्त असंगतियों और विसगंतियों का उल्लेख आया है। यदि इन विसंगतियों की चर्चा न होती तो संग्रह युग का आईना न बन पाता जैसा कि नासिर ने भी कहा है 
“कविता के आगे
समाज जैसा
दिखता वैसा / (पृष्ठ76)
जाहिर है कविता का यथार्थ युग का यथार्थ है। यदि कविता इस यथार्थ से बचती है तो कविता छद्म हो सकती है। नासिर ने हर एक विसंगतियों की ओर संकेत किया है। कविताएं छोटी होने के कारण ये असंगतियां भी सूत्र की तरह उपस्थिति हुईं हैं जैसे 
“हम तुम
प्रेम कर रहे थे
धर्म
जाल बुन रहा था (पृष्ठ17)
धर्म की अनुपयुक्तता व मानव के बरक्स इसकी जरूरत का मूल्यांकन वो कई कविताओं में करते हैं। नासिर भली प्रकार के जानते है़ कि धर्म सर्वदा सत्ता और व्यवस्था के पक्ष में रहता है। वह समाज में पहले से व्याप्त बुर्जुवा विभेदों का कारण है। इसलिए नासिर धर्म के द्वारा किए गये विखंडनों के बरक्स वो मनुष्यता को प्रस्तुत करते हैं  
“सुन्नी है
शिया है
सवर्ण है
दलित है
काले हैं
गोरे हैं
होना तो यह चाहिए
कि आदमी है।
नासिर आज कि तमाम प्रतिक्रियावादी, जातिवादी, नस्लवादी अवधारणाओं का घोर विरोध करते हैं। अपने युग की असंगतियों व मानवीय यातनाओं का खाका खींचते समय नासिर अहमद सिंकदर कही भी भावुक अवैज्ञानिकता शिकार नहीं होते हैं। बदलते एतिहासिक सन्दर्भों को देख कर अधिकांश कवि अतीतोन्मुख होकर पुरानी व्यवस्था का रागमाला गाने लगते हैं। ऐसी अतीत धर्मिता कदम पीछे खींचने जैसा है। यह यह अति काल्पनिकता है। लेकिन जिस कवि के पास इतिहास की द्वन्दवादी दृष्टि होती है वह व्यापक परिवर्तनों के बरक्स भविष्य के लिए अपने मूल्यों के आग्रह बदले बगैर गतिमान जीवन की सिफारिश करते हैं। ऐसे कवि मनुष्यता के प्रति चिन्तातुर होते हैं। नासिर भी भविष्य के लिए क्रान्ति की पीठिका तैयार करते हैं। मनुष्यता के हरे रंग के लिए आँखों में लाल रंग की कल्पना करना इस बात का प्रमाण है। लाल रंग आक्रोश और क्रान्ति का प्रतीक है। यदि आक्रोश आँखो में है तो मुट्ठी भींच जाना वांछित प्रहार के लिए विध्वसांत्मक आस्था प्रतिपादन है। उनकी एक कविता है “सामूहिक गान”। इस कविता में लय की भंगिमा देखिए जो एक अलग प्रतिरोध की गूँज बनकर उभर रही है।  
“आवाज उठेगी
तो अक्स बनेगा
जो आपकी
लाल आँखों में दिखेगा
हांथ पाँव की हरकत में लरजेगा
मुट्ठियों में भिंचेगा।”
यह प्रतिरोध की सकारात्मक उदघोषणा है। मनुष्यता को बचाए रखने के लिए कवि की बेचैनी है। ऐसी कई कविताएं उनके इस संग्रह में हैं जो संघर्ष का आवाहन और आक्रोश की जोरदार सिफारिश करती है।
अब थोडी सी चर्चा “अच्छा आदमी होता है अच्छा” के कलापक्ष पर भी हो जाए। नासिर की कविताई को हम कला का विरोध एकदम नहीं कह सकते हैं। लेकिन यह विशुद्ध कलावाद भी नहीं है। कला जब तक एक माध्यम बनकर रहती है तब तक उसे कला ही कहते है लेकिन कलात्मक प्रयोग कवि के लिए साध्य हो जाएं तो कला कलावाद में तब्दील हो जाती है। नासिर के इस संग्रह में सन्दर्भ ही अधिक मुखर हैं समाज व युग को परखने के लिए यथार्थवादी पद्धति व सीधे कहने की टेक्निक को अपनाया गया है। सीधे कहन का प्रभाव बहुत ही प्रहारपूर्ण होता है चुटीला व्यंग्य बनाता है। इसे कहें तो हम सपाट कथन कह सकते है़। आज की कविता में यदि सपाट कथनों की भंगिमा नहीं हैं तो मै नहीं समझता कि वह विसंगतियों के खिलाफ युद्धक भूमिका का निर्वहन कर सकती है। अब सपाट कथन को कला कहें या कवि की आदत दोनो गलत है़। वह न तो कला है न आदत बल्कि कवि का तरीका है। यदि हम नासिर की कविताओं को रीतिकालीन मानकों पर कसेंगे तो खाक ही हाथ लगेगा। लय को छोड कर अलंकरण की ऐसी कोई भी ऐसी पद्धति नहीं है जो अभिजात्य रीति से हो सब कुछ नई दृष्टि व आधुनिक सामाजिक विजन के अनुकूल है यह कविता का नया सौन्दर्यशास्त्र है। आज कविता को सामाजिक सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से परखने की जरूरत है। यही आज की जरूरी कला है। भले ही यह कला परम्परागत न हो लेकिन कविता के कार्यपद्धति की जरूरी शर्त है। नासिर भी इस नयी कला का एक संकेत अपने संग्रह  “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में कर रहे हैं 
“कहर है
बला है
आप कहते हैं
कविता कला है।
यहां छिछले कलावाद का प्रतिरोध है। नासिर से यही उम्मीद की जा सकती है जो व्यक्ति आरम्भ से ही अभिजात्य संस्कृति का विरोध कर रहा हो वह कैसे अभिजात्य कला मानकों को स्वीकार कर सकता है। कविता जब तक कहर बनकर टूट न पडे जब तक बला बनकर उभर न जाए तो कैसी कला। नासिर ने इस संग्रह को लय के सृजक कवि केदारनाथ अग्रवाल को समर्पित किया है। और उनकी लयात्मक पद्धति का भी स्मरण किया है। जाहिर है नासिर की कविताओं में लय बन्धों का अभाव नहीं है। यह सच भी है जैसे उपर का उदाहरण देखिए कहर है शब्द के बाद बला आया है। ठीक अगली पंक्ति में कला शब्द का प्रयोग तुकबद्ध लयात्मक भंगिमा दे रहा है। ‘अच्छा आदमी होता है अच्छा’ में कोई कविता ऐसी नहीं है जिसमें लयात्मक बन्ध न हों। ये लयात्मक बन्ध किसी छन्द शास्त्र या पिंगल शास्त्र की अनुकृति नहीं हैं बल्कि स्वाभाविक कहन की एक बेहतरीन पद्धति है। 
“न आलोचक की जरूरत
न बिम्बों की फिक्र
सीधी सच्ची बात का
बस हो जाए जिक्र।
देखिए इस कविता का बन्ध लय ताल तुक तीनो छन्दोपागमों का सफलतापूर्वक कविताकरण किया गया है। दरअसल लय की ये भंगिमाएं अक्सर भाषा के साथ तय की जाती हैं। यदि कवि जनभाषा का प्रयोग कर रहा है तो जन की समझ में  आने वाली लय का ही वह संधान करेगा। ऐसी लय भाषा के हल्के व इकहरे प्रयोगों से भी उत्पन्न हो जाती है। लय के साथ नासिर बिम्ब प्रतीक व्यंजना अप्रस्तुत विधान जैसे काव्य तत्वों का सफलतापूर्वक बगैर किसी हो हल्ले के प्रयोग कर लेते हैं। बिम्बों और प्रतीकों से बडी शक्ति उनकी कविता में व्यंजना की दिखाई देती है। व्यंजना उनकी भाषा की जान है। व्यंजना हटा दीजिए आधा संग्रह चरमरा कर बैठ जाएगा। व्यंजना का एक उदाहरण देखिए 
“रक्त में भले
थोडा हीमोग्लोबिन कम हो जाए
पर लाल रहे
उबाल रहे  (अच्छा आदमी होता है अच्छा)
यहां पर व्यंजना का कौशलपूर्ण प्रयोग बेहतरीन लग रहा है। व्यंजना के कारण ही नासिर की ये छोटी कविताएं सूक्ति की तरह दिख रही हैं। एक एक कथन पर पीडा और यन्त्रणा की छाप दिख रही है। व्यंजना भले ही शब्दों का खेल न हो पर अर्थ की छवि का निखार जरूर कर देती है। नासिर के इस संग्रह में सांकेतिक अर्थों को जिस तरह से भाषा की बुनावट से जोडा गया है इससे संग्रह की गरिमा व काव्यात्मकता दोनो बढ गयी है।
नासिर अहमद सिकन्दर अपने कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में इस दुनिया को अपनी आँखों से ही देखते हैं। अपनी जमीन की भीतरी तहों में उतरकर वो व्यवस्था के क्रिया कलापों का मूल्यांकन करते हैं। इसलिए उनका निजी लोक हिन्दुस्तानी दर्द को बयां कर सकने में सक्षम हुआ है। वैश्विक पूँजीकृत परिवर्तनों व विखंडित होते मूल्यों के आलोक में अलगावग्रस्त मनुष्यता को देखना समय के क्रूर चेहरे को ऐतिहासिक प्रमाणिकता से युक्त कर देता है। संग्रह की कविताएं वर्गीय टकरावों का तकाजा है व विकास की ऐतिहासिक परिणिति है। आज के दौर में परिव्याप्त खतरों को समझने व परखने के बाद भी यदि मनुष्य अपनी चेतना की तलाश में ऐसी यथार्थवादी युगबोध से युक्त लोकधर्मी कविता न लिखे तो यह स्थिति कवित्व की निरर्थकता है। मुझे इस सन्दर्भ में मशहूर शायर फैज अहमद फैज की एक शेर याद आ रही है।
                          तेरे दस्ते.सितम का अज़्ज़ नहीं
                        दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की
उमाशंकर सिंह परमार
सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू जनपद बांदा
मोबाईल –9838610776

सुधीर सक्सेना के संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा “धूसर में बिलासपुर : गुमशुदा मूल्यों की तलाश।“


उमाशंकर सिंह परमार

कवियों के लिए लम्बी कविता लिखना हमेशा चुनौती भरा होता है। न केवल विषय एवं कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प और प्रवहमानता के स्तर पर भी। ‘गद्य’ में हाथ आजमाने की तरह ही लम्बी कविता लिखना भी कवि के लिए उसका निकष होता है। सुपरिचित कवि सुधीर सक्सेना ने अभी हाल ही में ‘धूसर में बिलासपुर’ नामक एक लम्बी कविता लिखी है। इस कविता पर एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा “धूसर में बिलासपुर : गुमशुदा मूल्यों की तलाश।“        
धूसर में बिलासपुर ‘गुमशुदा मूल्यों की तलाश’   
उमाशंकर सिंह परमार
लम्बी कविता जीवन के समग्र सन्दर्भों की जटिल अभिव्यक्ति होती है छोटी कविता की अपेक्षा ये अपनी समकालीनता को अधिक सज़गता से संजोती हैयुगबोध की गहन अर्थवत्ता अपने गहरे मानवीय और सामाजिक द्वंदों व त्रासदियों को व्यापक स्तर व्यंजित करती चली जाती हैछोटी कविता जीवन के खंडित अनुभवों से बनती है वह व्यक्ति की सम्पूर्ण मनोसंरचना की संवाहक नहीं बन सकती है, क्योंकि कवियों का चिंतन-मनन रचनात्मक सरोकार लघु कविता के सीमित दायरे में नहीं अटता हैइसके विपरीत लम्बी कविता कवि द्वारा भोगी गयी आत्मपीडन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति होती है जिसमे कवि का युग, जीवन,  समाज, भविष्य की चिंता निरंतर द्वंदात्मकता के साथ कविता में अंतर्ग्रथित हो जाती है लम्बी कविता में सबसे बड़ा खतरा विन्यास का होता है शिल्प यदि कविता की उद्दातता को वेग और तीव्रता के साथ नही प्रेषित कर पाता तो कविता लम्बी कविता किसी भी कवि के लिए चुनौती बन सकती हैलम्बी कविता का अपना एक खास शिल्प होता है जो उसे महाकाव्यात्मक गौरव और व्यक्तित्व से युक्त करता हैशिल्प और युग-बोध की समग्रता ही कविता को लम्बी कविता बनाती है निराला की “राम की शक्ति पूजा” अपने अर्थगौरव के कारण मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ अस्मिता की खोज के कारण ही महाकाव्य कहलाती हैं लम्बी कविताओं का इतिहास देखा जाय तो दो चार कवि ही सफल रेखांकित किये जा सकते है इसका मूल कारण है कि शिल्प की मौलिकता व युगबोध को आलोचना के दायरे से काट कर लम्बी कविता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है बहुत सी कविताएँ युग की विसंगतियों की अभिव्यक्ति में चूक जाती है और उनका ध्वनित अर्थ लम्बी कविता के लिए लाजिमी सूक्ष्म अर्थ की परतों को कट देता है और कविता केवल कवि का एकान्तिक आत्मालाप बन कर रह जाती है नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ इस बात का उदहारण हैइस कविता की  मिथकीय साझेदारी वर्गीय दृष्टि के अभाव में मिथकीय मीमांसा बन कर रह जाती है दृष्टि और विज़न यदि जनपक्षीय नहीं है तो कोई भी रचना कमजोर हो सकती है या अपनी उपयोगिता नष्ट कर सकती है निराला, मुक्तिबोध, विजेन्द्र के बाद दृष्टि और सृजनात्मक मूल्यों से युक्त बेहतरीन कविता मैंने पढ़ी है तो वह है “धूसर में विलासपुर” ये कविता लोकदृष्टि संपन्न वरिष्ठ कवि/ पत्रकार सुधीर सक्सेना की नवीन रचना है सुधीर सक्सेना नवीन युगबोध और नवीन संवेदन के यथार्थवादी कवि है संयम, सुरुचि, साहस और खरापन उनकी कविताओं को समकालीन कवियों की लम्बी कतार से अलग कर देता है उनकी कविताएँ  परिवेश के साथ कहीं भी समझौतापरक दृष्टि नहीं रखती इस मायने में वो कहीं कहीं धूमिल के निकट पहुँच जाते हैं बेलौस सपाटबयानी, आक्रोश, अनास्था उन्हें तनाव और झटपटाहट का कवि बना देती है सुधीर हिन्दुस्तान के जाने-माने पत्रकार हैं उन्होंने हिन्दुतान की राजनैतिक और व्यवस्थागत परिवर्तनों का दौर देखा है जनतांत्रिक और जनविरोधी मूल्यों की उनको समझ है यही कारण है उनकी कविताओं में हिन्दुस्तान का परिवेश मूर्तमान हो गया है और भाषा आम हिन्दुतानी की रोजमर्रा की सक्रियताओं को समाहित करती है भाषा और दृष्टि का यह अद्भुत सामूहन बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है“धूसर में बिलासपुर” का प्रकाशन अभी 2015 में हुआ है। यह एकदम नई रचना है इस कविता की भूमिका में सुधीर सक्सेना जी ने एक बड़ी बात कह दी है जिससे कविता के अंत:सूत्रों को भलीभाँति समझा जा सकता है उन्होंने कहा है “हर व्यक्ति का अपना बिलासपुर होता है बिलासपुर होना अपनेपन का होना है आत्मीयता और अंतरंगता का होना है कुछ शहर बरसों गुजार कर भी अपने नही होते” (पृष्ठ 5) बिलासपुर शहर है उनका अपना शहर है उनकी यादों में रचा बसा शहर है यह शहर कवि को ऊब और संत्रास की उदासी में भी मनुष्य होने का बोध देता है इसलिए यह कविता सुधीर के शब्दों में “धूसर में बिलासपुर” में बिलासपुर की याद है बिलासपुर के अक्स हैं सपने हैं चहरे हैं मोहरे हैं मोहल्ले हैं” (पृष्ठ 5)
‘धूसर में बिलासपुर’ एक नगर का आख्यान है। इसका नायक परम्परागत नायकत्व से पृथक एक भू-क्षेत्र है। भूमि या अंचल को नायक बनाने की कलात्मक प्रक्रिया कथासाहित्य मे खूब मिलती है। परन्तु कविता में किसी भूमि का चारित्रिक संस्कार बहुत कम मिलता है। इसका मूल कारण है कि जैविक चरित्र में अनुभव व सम्वेदनाओं की नाटकीयतापूर्ण अर्थछवियों की संस्थापना सहज होती है। और कविता मे भी बेवजह अमूर्तन व संकेतात्मक विवरणों की कमी आती है। नायकत्व के मामले मे सक्सेना जी ने बहुत बडा जोखिम लिया है। अंचल या नगर मे व्यक्तित्व का आरोपण किसी भी लेखक या कवि के लिए दुष्कर कार्य है। ‘धूसर में बिलासपुर’ में बिलासपुर के प्रति कवि का सम्मोहन जमीनी है। वह बिलासपुर को देखता भर नहीं है। अपने अन्दर बिलासपुर को जीता भी है। यह बिलासपुर एक मित्र या सुह्रद बान्धवों जैसा है। उसके हर एक पहलू में कवि की रचनात्मक अनुरक्तिपूर्ण आवाजाही है। बिलासपुर का वह पक्ष जो कवि की स्मृतियों का सूत्र है बिलासपुर और कवि के अन्तर्ग्रथित सम्बन्धों का प्रतिफलन है। हर इंसान देखता है। सामान्य तौर पर देखने और कविता के नजरिए से देखने में फर्क होता है। सामान्य वस्तुएँ या घटनाएँ व्यक्ति पर प्रभाव तो डालती हैं पर आम आदमी इससे चरित्र नही गढ पाता, क्योंकि घटना एक अस्थायी बिम्ब के रूप मे प्रकट होती है और अदृश्य हो जाती है। घटना और वस्तु स्मृति के अंग तभी बनते हैं जब दृष्टा आत्मपरक स्वनुभूत तथ्य के रूप मे ग्रहण करे। सक्सेना जी में बिलासपुर का वैविध्यपूर्ण पक्ष आत्मचिन्तन की अवस्था को प्राप्त हो रहा है। कवि बिलासपुर से कहीं भी पृथक नहीं है। कवि की उपस्थिति शब्द और अर्थवत है। यही कारण है कि वह धूसरपनको चिन्हित कर लेता है। कविता की बिनाईकोई विशिष्ट नजरिया नहीं है यही आत्मचिन्तन की दशा है। जिसमें वैयक्तिक पीडाएं, त्रासदी, संघर्ष, टकराव, मूल्य, अस्मिता, सब कुछ वस्तु मे समाहित हो जाता है। जैसे सक्सेना जी की समस्त वैचारिक अवस्थितियां बिलासपुर मे समाहित हो गयीं हैं। बिलासपुर को देखना ही कविता का पाठ है वो कहते हैं
पुतलियों के लिए आसां नहीं धूसर की शिनाख्त 
आँखों से नहीं
अलबत्ता कविता की बिनाई से सब कुछ साफ़-साफ़ नजर आता है
कविता की आँख से देखने में अचेतन अमूर्त भी चेतन हो उठता है जब तक व्यक्ति अचेतन को खुद से पृथक करके देखता है। तब तक वह सम्पूर्णता व सत्यता का अवलोकन नहीं करता। सारी अवस्थितियाँ तभी साफ-साफ समझ में आती है जब नजरिया कविता का हो अर्थात आत्मासक्ति की दशा हो।
बिलासपुर का व्यक्तित्व तय करने में सक्सेना जी ने पुराणों, इतिहास, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र सबका सहारा लिया है। जब वो अतीत में उतरते हैं तो कविता का कलात्मक सौन्दर्य देखते बनता है। इतिहास और मिथक का खूबसूरत आमेलन जब भावपरकता के साथ व्यक्त होता है तो कविता की व्यंजना और बढ जाती है। देखिए अतीत का एक कलात्मक बिम्ब जिसमे बिलासपुर एक जीता जागता नागरिक जैसा मूर्त हो जाता है। एक प्रकार से यहां मानवीयकरण होगा जब भौतिक सत्ता पर चेतन सत्ता को अभिरोपित करते है़ या अचेतन मे व्यक्ति को रोपित करते है़ तो प्रकृति का मानवीयकरण हो जाता है।
अलबत्ता बसा था शुरू में देह पृथुल
रेल पांत और नदी की धार के दरम्यान
ललाट चमकीला
कटि क्षीण नहीं
जाल आबनूसी अलक (पृष्ठ 15)
ये किसी व्यक्ति का चित्र नहीं है। बिलासपुर का चित्र है एक ऐसे बिलासपुर का चित्र जो कवि का आत्मीय है जिसमे कवि का व्यक्तित्व समाया है। जहां कवि समूचा हिन्दुस्तान देखता है। यहीं श्रीकान्त वर्मा, प्रमोद वर्मा, सत्यदेव दुबे जैसे कवि मित्रों को देखता है। इन्द्र प्रोविजनल स्टोर की दुकान भी देखता है जहां इन्दर बाबू तमाम किस्से कथा सुनाया करते थे। कवि भूगोल देखता है इतिहास मे उतर कर तमाम सामन्ती वैभव व हिन्दुस्तान का अतीत देखता है। मुगल काल के संघर्ष और आजादी की लडाई मे बिलासपुर का बलिदान स्मरण करता है। कवि को माखनलाल चतुर्वेदी की कविता चाह नही सुरबाला कीभी याद आती है। पानी की बहुतायत मात्रा जिससे पूरे शहर की आत्मा तक तृप्त हो जाती थी। कवि की आत्मीयतापूर्ण स्मृति से बची नहीं है। आरपा का पानी बिलासपुर का जीवन है जिसकी बढी मात्रा बिलासपुर की शान शौकत का प्रतीक बन कर उभर गया है। आरपा का पतन उसके पानी का घटना बिलासपुर का पतन बन गया है। यहां आरपा का पानी वही अर्थ रखता है जो आम लोक-जीवन में पानी की अर्थव्यंजना रखती है। मतलब शान और ईमान। जी हां, शान और ईमान की ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना करता हुआ आरपा का पानी बिलासपुर को विशिष्ट व्यक्तित्व बना देता है। बिलासपुर के इतिहास का विवेचन करते समय सक्सेना जी परिवेशगत यातनाओं, घुटन, त्रासदियों का भी बोध साथ ही देते चलते हैं यह एक नयी बात है अधिकांश कवि जब अतीत मे उतरते हैं तो भावुक रौमैन्टिसिज्म का शिकार हो जाते हैं। फलतः पराजय – इतिहास को आधुनिकता से पृथक कर के जय, पाप-पुण्य – की इकहरी मान्यताओं का ककहरा बना डालते हैं। अक्सर ऐसा तभी होता है जब हम इतिहास को घटनापरक मान कर वर्गीय दृष्टि की उपेक्षा करते हैं। अयथार्थ और सपाट मूल्य इतिहास-दृष्टि नहीं है। 
आज के मनुष्य का आसन्न संकट इतिहास की गौरवजीविता नही है। सबसे बडा संकट भूमंडलीकरण द्वारा किए गए बदलावों के समानान्तर खडे जीवन स्रोतो की भयावह स्थितियां हैं, जिसे कवि बखूबी समझ रहा है। यही कारण है वो इतिहास और मिथकों से मनुष्यता के कटु परिवर्तनों की नींव मजबूत करते हैं। सुधीर सक्सेना युग सन्दर्भित बदलावों मे खो गये अपने बिलासपुर की बेहद जमीनी पीठिका तय करते हैं
युग बदला
बदलीं मान्यताएँ
आया नया बहुत सारा
नयी हवा नयी सोच
मगर उतरा तो उतरता ही गया
आरपा का पानी (पृष्ठ – 33)
यहां युग के साथ आरपा का पानी उतरना बडी घटना है। पानी का अर्थ इस कविता में मनुष्यता के सन्दर्भ में है। पानी का घटना जैसे बिलासपुर का मान घटना है। आज का बिलासपुर अब कवि के लिए अपना नहीं रह गया है। वह भूमंडलीकरण के खेल मे उलझ कर पूंजीवादी शोषकों के हाथ मे निजी सम्पत्ति बन चुका है। असली बिलासपुर जिससे कवि की आत्मीयता थी, वह शहर से पलायन कर चुका है।
हम पाते हैं
कि विलासपुर चला गया है
जम्मू के ईंट-भट्ठों में
पंजाब के खेतों में
असम के चाय बागानों में
 (पृष्ठ – 40)
यह स्थिति समूचे हिन्दुस्तान की है। श्रमिक जनता का पलायन व दूर जा कर रोजी रोटी कमाना भूमंडलीकृत, उदारीकृत लोकतन्त्र का बडा संकट है। श्रमिकों के पलायन को कवि बिलासपुर का पलायन कहता है। इसका आशय है कि सुधीर सक्सेना आम जन में ही बिलासपुर देखते हैं। उन्हें बिलासपुर के अभिजात्य शोषक श्रेष्ठि जन से कोई संवेदना नहीं है। यही सच्चे लोकधर्मी कवि की पहचान है जो आम जन मे हिन्दुस्तान का आरोपण कर दे। श्रमिकों, मजदूरों का रोजगार छिन गया है। परम्परागत उत्पादन व रोजगार के साधनों, संसाधनों पर पूँजीवादी शक्तियों का अधिकार हो चुका है। इसलिए आजीविका की तलाश मे बिलासपुर पलायन कर चुका है। इस शोषण और एकाधिकार की चर्चा भी सक्सेना जी ने की है। लोक के सन्दर्भ में आद्यौगीकरण एक बदलावपूर्ण सांस्कृतिक प्रतिफलन है। इससे गांव के जंगल और पहाड व व्यक्ति की सांस्कृतिक अस्मिता बडी तेजी से लुप्त हो रही हैं। भूमि और जंगल के विनाश ने आम आदमी के लिए रोजगार का बडा संकट खडा दिया है। पलायन, आत्महत्या, बन्धुवागिरी इसके अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष उपलक्षण बन चुके हैं। भारतीय गांव अपने मूलस्वरूप में अहस्तक्षेपकी नीति पर काम करते थे वो अपने उत्पादन और वितरण, बाजार के स्तर पर आत्मनिर्भर रहते थे शहर की जरूरत कम होती थी। पर गांव के छोटे-छोटे उत्पादन उपक्रम बर्बाद हो जाने के कारण यह आत्मनिर्भरता पूंजीवादी परनिर्भरता मे बदल गयी है। गाँव का पलायन शहर की ओर बढा है। यही हाल छोटे शहरों का भी रहा यहाँ पर भी परनिर्भरता एक अकाट्य तर्क बन कर उभरी है। जब कोई बेरोजगार बड़े शहर की ओर पलायन करता है तो वह अकेले पलायन नही करता अपने रिश्तों की मजबूत डोरी तोड कर समूची संस्कृति से अलगाव की घोषणा करता है। सुधीर इस अवस्थिति से परिचित हैं। वो बदलावों के व्यापक असर को देख रहे हैं यही कारण है उन्हें बिलासपुर धूसर दीखता है अनुपस्थित दीखता है ये स्थिति हिन्दुस्तानी गांवो से लेकर छोटे शहरों तक आम है आजकल जंगल भी इस दंश को भुगत रहे हैं। भूमंडलीकरण की आग मे जल रहे मानवीय रिश्ते आज का कटु सत्य बन गये हैं स्वाभाविक है सक्सेना जी जैसा संवेदनशील कवि इस स्थिति को अनदेखा नहीं कर सकता है बिलासपुर का समय कवि का समय है। बिलासपुर का वर्तमान आज अभी का वर्तमान है। श्रेष्ठिजन भले ही पुरातन शब्द हो पर कवि ने इसे मांज धो कर एकदम नया कर दिया है। अब यह पूंजीपतिया ‘अभिजन’ का अर्थ दे रहा है जो सत्ता और शक्ति के साथ-साथ सम्पत्ति का बडा हिस्सा जिसके स्वामित्व में है। इस वर्ग की सक्सेना जी तीखी आलोचना करते हुए अपनी जनपक्षधरता का प्रमाण दे देते है। इस वर्ग ने बाजार के चमत्कार का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है। सार्वजनिक सम्पत्ति पर इनका कब्जा है।
श्रेष्ठिजन लगाते हैं बोलियां
/ वे जानते हैं सार्वजनिक सम्पत्ति को  /
निजी सम्पत्ति में बदलने के गुर ।( पृष्ठ 38 )
 
इतना ही नहीं इस वर्ग का प्रमाण उसके लूट संसाधनों की व्यूह व्यवस्था से भी देते हैं।
वो लिखते हैं
 
श्रेष्ठिजन अर्थ की तलाश में बिछाते हैं जाल 
कम्प्यूटर, पामटाप, सेलफोन, आनलाईन ट्रेडिंग 
ई-बिडिंग
ये समूचा विकास बिलासपुर के लिए खतरा है क्योंकि इससे शोषण की भयावहता बढ़ी है और बिलासपुर का वह वर्ग जिससे बिलासपुर आत्मीय था पलायन कर चुका है। सुधीर सक्सेना अपनी लम्बी कविता के माध्यम से विकास के पीछे छिपी पूंजीवादी मन्तव्यों की पोल परत दर परत खोल कर रख देते हैं। भूमंडलीकरण का सर्वाधिक प्रभाव नगरों के स्थापत्य पर पड़ा है। अपने मूल से रहित हो कर नगर और गांव शोषण और बाजार की छोटी सी ईकाई बन कर रह गए हैं। खेत फैक्ट्रियों में, घर शापिंग माल मे तब्दील होते जा रहे हैं। बिलासपुर के पलायन का यह भी एक कारण है कि उसे उसकी परम्परागत सम्पत्ति और आजीविका से रातों रात बेदखल कर दिया गया है।
शहर है कि अजगैब है /रातों रात ढहते हैं पुराने मकानात  /
रातों रात उन्ही से उगते है़ माल और मल्टी 
धर्मशालाएं और टाकीजें दम तोडती हैं 
उभरते हैं रातों-रात पब, बार और रेस्तरां (पृष्ठ-42)
यही है बाजारवाद का काला सच जिसमे आदमी की चेतना को उसके वजूद से अलग कर बाजार के हवाले कर दिया जाता है। आदमी का रोजगार और घर छीन कर बाजार बना दिया जाता है।
बाजारवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में मध्यमवर्गीय कुंठाओं और अश्लीलता का पोषक है तो राजनीति में जातीय संघर्षों और फासिज्म का मुख्य सूत्राधार है। क्योंकि बगैर सत्ता के पूँजीवादी मंसूबों को कामयाबी नहीं प्राप्त होती है। सत्ता के निर्बाध भोग हेतु इस बाजारवाद ने हिन्दुस्तान का चरित्र बदल दिया है। सहजता, आत्मीयता, बन्धुत्व जैसे शब्द अब अतीत की डायरी में सडे हुए पन्ने की तरह हो चुके हैं। बिलासपुर की सियासत की चर्चा करते समय कवि ने बाजार के इस खतरनाक पहलू को उकेरने में कोई चूक नहीं किया है।
सियासत शगल है शहर का  
शहर की तासीर में घुली है सियासत
(पृष्ठ – 17)
जिस शहर की सामाजिक परिस्थितियां सियासत से जुडी हों जहां एक से बढ कर एक जननेता रहनुमा उत्पन्न हुए हों, जहां छेदीलाल का जनपक्षीय प्रतिरोध हुआ हो, जो शहर बडे-बडे जनान्दोलनों मे आगे बढ कर रहा हो, वहां सियासत की गरिमा समझी जा सकती है। लेकिन भूमंडलीकरण ने इस सियासत का मानवतापूर्ण तत्व निगल लिया है। अब जाति और सम्प्रदाय के बगैर आदमी की पहचान खो चुकी है। लोग जाति देख कर ही राजनैतिक पक्षधरता का अनुमान करते है। 
मगर अब वक्त लगता है 
बताना पडता है
कुल गोत्र / गांव ठाँव का नाम दक्षिण या वाम ।( पृष्ठ 41 )
इसके आगे वो कहते हैं कि 
कारिंदे इतने सयाने हैं
कि बूझ लेते हैं
कि सत्ता के केन्द्र से कौन सा कोण बनाता है
आपका वजूद (पृष्ठ-42)
ये स्थिति भारतीय राजनीति का कटुतम सच है। व्यक्ति की जाति और धर्म का राजनैतिक नारों और पक्षधरता में तब्दील हो जाना जनचेतना के क्षरण का सबसे बडा कारण है। आदमी के रक्त सम्बन्धों से सियासत के बदलाव तय हो जाना संवैधानिक मूल्यों का पतन है। इस नजरिए से सुधीर सक्सेना की लम्बी कविता धूसर में बिलासपुरको केवल बिलासपुर का चरित्र न समझा जाय। इसे हिन्दुस्तान का भूमंडलीकृत लोकतन्त्र समझा जाय।
आज की कविता में सबसे गंभीर आक्षेप लगाया जाता है की वो लोक से अलगाव का शिकार है। सुधीर सक्सेना की ये लम्बी कविता इस आलोचकीय मिथक को तोडती है। ‘धूसर में बिलासपुर’ केवल लोक का विषयपरक आख्यान ही नहीं प्रस्तुत करती अपितु लोक से अपनी ऊर्जा उपार्जित करते हुए लोक की सामयिक त्रासदियो का मुकम्मल विवेचन भी करती है। लेखक की स्मृतियों का बार-बार अतीत में जाना अतीत के अवशेषों की पड़ताल करना उन्हें पूंजीवादी बाजारवादी परिवेश के बरक्स चिन्हित करना कवि के अंतरतम में उपस्थित बिलासपुर के सूक्ष्म आक्रोश की प्रतिक्रया है। बिलासपुर के प्रति अभिव्यंजित नास्टेल्जिया यथार्थ की अभिव्यक्ति को धारदार बना रहा है। भूमंडलीकरण द्वारा किये गए अमानवीय अलगावों, बदलावों के बीच मनुष्यता की जमीन तलाशते हुए कवि ने बिलासपुर में युग के समूचे तेवरों को समाहित कर दिया है। बाज़ार के दौर में सक्सेना जिस मूल्य की खोज कर रहे हैं, मूल्य को समूचा हिंदुस्तान खोज रहा है। ‘धूसर में बिलासपुर’ का अभिकथन हिन्दुस्तानी आवाम का अभिकथन है।
उमाशंकर सिंह परमार
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–                                                          

उमाशंकर सिंह परमार का आलेख ‘“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”

महेश चन्द्र पुनेठा

युवा कवियों में महेश चन्द्र पुनेठा अपनी अलग तरह के कहन और व्यंजना के लिए जाने जाते हैं वे कुछ उन दुर्लभ कवियों में से हैं जिनके व्यवहार और सिद्धान्त में आपको कोई फांक नहीं दिखायी पड़ेगी उनकी कविताएँ पढ़ते हुए हम यह बराबर महसूस भी करते हैं महेश की कविताओं पर एक सारगर्भित आलेख लिखा है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने हम हर महीने उमाशंकर का कवियों पर लिखा गया आलेख पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उसी कड़ी में प्रस्तुत है यह आलेख
       
“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”
उमाशंकर सिंह परमार
महेश चन्द्र पुनेठा हमारे समय के उन चंद कवियों में है जिनका स्थाई पता उनके लेखन में मौजूद रहता है एक बेहतरीन लोकधर्मी कविता की तरह उनकी कविता कवि की जमीन से ही अपनी उर्जा पानी उपार्जित करती है किसी एक कविता को पढ़ कर पाठक आसानी से अंदाज़ा लगा सकता है की कवि का जीवन अनुभूतियों की ऊबड़ खाबड़ भौगोलिक भूमि से जुडा है जिसमे उनकी कविता और उनकी भाषाई खनिजता दोनों सन्निहित हैं पहाड़ उनकी कविता की जान है पहाड़ी जमीन के उतार चढ़ाव उनकी कविता के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आयाम तय करते है लोकधर्मी दृष्टि और कठिन जीवन की जिजीविषा ने उनकी कविता को समाज और परिवेश के अन्दर घटित होने वाले बदलावों से पूर्ण संसक्त कर दिया है बदलावों से मौलिक आसक्ति उनको आधुनिक यातनाओं का सीधा सपाट भोक्ता बना कर पेश कर रही है एक ऐसा भोक्ता जो समय के घेरे में कैद होकर पूँजी द्वारा सुनिश्चित की गयी नियति में छटपटा रहा है उनकी कविताओं में बेचैनी है, अनास्था है, मूल्यों और विचारों के प्रति प्रतिबद्धता है आम लोकमानस की चेतन वेदना है महेश की जमीन खूबसूरत, बर्फीले, रंगीन पहाड़ों की जमीन नहीं है उनकी जमीन घोर नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न , वर्चस्ववादी निजी पूँजी के व्यापक हस्तक्षेप की भूमि है एक जमीन है जिसे पूँजी ग्रसित लोकतंत्र ने सामान्य मनुष्यता से खारिज कर जटिलतम बना दिया है जिस जमीन की देह में केवल समय के खंजरों से उकेरे गए दर्दनाक घाव हैं अपने पहले कविता संग्रह “भय अतल में” में महेश ने जिस भय को अतल में बताया है वह भय अब समय के साथ यात्रा करता हुआ सतह तक आ गया है भय के प्रति कवि जरा भी लापरवाह नही है वह भय के पूरे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझता है और अपनी जनमुखी प्रतिबद्धता के साथ उत्पादक पूँजी के आक्रांतकारी साम्राज्य को भोगते हुए प्रतिरोध का मुकम्मल स्वर रचता है
  महेश उन कवियों में से हैं जो लिखते कम है उनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच लगभग पांच वर्षों का अंतराल है पहला कविता संग्रह ‘भय अतल में’ २०१० में प्रकाशित हुआ था तो दूसरा कविता संग्रह २०१५ में साहित्य भण्डार प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ सन २०१० में जब उनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो उस समय उन्होंने भूमंडलीकरण के उस स्वरूप को नही देखा था जो आज है उस समय विश्व पूँजी अपना अस्तित्व कायम कर रही थी उसके पास जनता के प्रतिरोध को शांत करने के लिए लुभावने वादे थे स्वप्नों की चमकीली दुकाने थीं अचानक कोई भी आदमी पूँजी के इस छल पर फ़िदा हो जाय सत्ता और सत्ता सामंतों द्वारा आम जनमानस को समझाया गया कि हिन्दुस्तानी आवाम का सच्चा हित विदेशी पूँजी के निवेश पर है यहाँ तक की इसे नीतिगत मामला बना दिया गया अलग मंत्रालय गठित कर दिया गया हिन्दुस्तानी लोकतंत्र ने वैश्विक पूँजी के समक्ष घुटने टेकते हुए अपने अस्तित्व को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया कवि इन स्थितियों से अपरिचित नहीं था वह हिन्दुस्तान का भविष्य पढ़ रहा था इसलिए उसका भय उस समय अतल में था आज विश्व पूँजी अपने पूरे वर्चस्व के साथ हिंदुस्तान का चरित्र बन चुका है अधिकारों के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र को भी लील चुकी है इंसान को इंसानियत से पृथक कर चुकी है जनता पूँजी के कुचक्र में बुरी तरह जकड़ चुकी है औपनवेशिक संस्थाएं आज फिर जीवित हो कर अपना अस्तित्व पा चुकी है स्वतंत्रता और गुलामी के बीच अंतर बहुत क्षीण है ऐसे भयावह परिवेश से मुक्त होने की कामना करता कवि व्यवस्था के प्रति अनास्था और समय के प्रति बेचैनी का स्वर लेकर आता है सन २०१५ में आया उनका संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में स्वतंत्रता की बेचैनी है झटपटाहट है यहाँ पर कवि अपने वजूद को समय की संगतियों, असंगतियों, को सौंपता हुआ अपनी जमीनी अपेक्षाओं को सीधे-सीधे व्यक्त करता है व्यक्ति और समाज के संशयग्रस्त संबंधों में उत्पन्न दलदल को ख़त्म कर के कवि नए बदलाव करना चाहता है महेश की जिस कविता का सफ़र लोकवेदना से आरम्भ हुआ था अब वह लोकयुद्ध तक पहुँच गया है इस युद्ध में पक्ष है जनता प्रतिपक्ष है पूँजी हथियार है कविता, और योद्धा है कविता इसलिए महेश चन्द्र पुनेठा कविता को अपने अस्तित्व से पृथक कर के नहीं देखते उनकी कविता उनका अस्तित्व है उनकी प्रतिबद्धता है
 
 अपने कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में महेश कविता पर बहुत जरूरी बातें कहते हैं वो कविता को कवि की प्रतिबद्धता से जोड़कर देखने के आदी है जब समय खतरनाक हो तो कोई भी जनपक्षीय कवि कविता से जीवन को अलग नहीं कर सकता है ऐसे में कविता समय के विरुद्ध हथियार  की तरह प्रयुक्त होती है महेश का युद्ध पूँजी के विरुद्ध आम जनता का लोकयुद्ध है स्वाभाविक है कविता उनके लिए जीवन और मरण का विषय होगी कवि स्वयं को खत्म कर देगा पर मुक्ति की आशा से लबरेज जुझारू कविता को खत्म नहीं होने देगा कविता के प्रति कवि का इतना सघन लगाव हिंदी में बहुत कम मिलता है महेश ने कहा है –
मैं न लिख पाऊं एक अच्छी कविता 

दुनियां एक इंच इधर से उधर नहीं होगी

गर मैं न जी पाऊं कविता

दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ जाएगा

इसलिए मेरी पहली कोशिश है

कि मरने ना पाए मेरे भीतर की कविता (पृष्ठ ७)
कविता उनके लिए बदलाव का सन्देश है व्यक्तित्व की पहचान है अगर कविता जनजागरण नहीं कर सकी तो संसार में अंधेरापन और बढ़ जाएगा इसलिए कवि अपने अन्दर की कविता को मरने नहीं देना चाहता है कविता के प्रति महेश की यह दृष्टि संघर्ष की दृष्टि है इस संघर्ष दृष्टि के विपरीत दृष्टि “कलादृष्टि“ होती है कुछ लोग अब भी “कला के लिए कला” के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं उनके लिए कविता जीवन संदर्भों से पृथक हो कर धनिक सामंतों के मनोरंजन हेतु प्रयुक्त होती है विश्व पूँजी ने केवल सामाजिक बदलाव ही नहीं किये बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक बदलावों की भूमिका भी तैयार की है साम्यवादी सौन्दर्यशास्त्र के विरुद्ध गढा गया रूसी रूपवाद आज विश्वपूँजी के कंधे पर सवार हो कर “उत्तर आधुनिकतावाद” के रूप में कलावाद का नया बुर्जुवा तर्क ले कर उपस्थित है साहित्य को जीवन से पृथक करने की इस पूंजीवादी कुचाल को महेश बखूबी समझते है इसलिए उन्होंने अपने संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह में” कलावाद की तीव्र भर्त्सना की है कलावाद कविता से जीवन को पृथक करने की बुर्जुवा नीति है कवि समझता है यदि कला जीवन से अलग राह अपनाएगी कवि द्वारा देखा जा रहा व्यापक बदलावों का स्वप्न खंडित हो जायेगा इसलिए कवि कलावादियों को समय संदर्भों में जोड़ कर परखता है और उनके रचनात्मक अंतर्विरोधों को उजागर करता है। 
“जिस वक्त में

कुचले जा रहे हैं फूल

मसली जा रही हैं कलियाँ

उजाड़े जा रहे वन कानन

वे विमर्श कर रहे हैं

फूलों के रंग रूप पर“ (पृष्ठ ९)
जब फूल कुचले जा रहें है, कलियाँ मसली जा रही है जब फूलों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो उस समय फूलों के रंग रूप यौवन पर अपनी अतृप्त प्यास बुझाना महफ़िलों में वाहवाही करना किसी कवि की पहचान नहीं है बल्कि फूलों के अस्तित्व को खत्म करने वाले समूहों में सम्मिलित व्यक्ति की पहचान है कलावाद के विरोध द्वारा महेश अपनी प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट कर देते हैं उनकी आस्था जन के प्रति है उनकी कविता जन के प्रति है ऐसे छद्म लेखकों और जनविरोधी पत्रकारों को महेश ने देखा परखा है उन्हें अपने समय की पूरी पहचान है आज जिस तरह से जनता के आक्रोश को अपराध कह कर दबा दिया जाता है वह किसी से छुपा नहीं है सत्ता और पूँजी अपने इर्द गिर्द लेखकों और बुद्धिजीवियों की लम्बी फौज तैयार कर चुकी है जो कविता में शोषण का विरोध करते खुद को जनपक्षीय कहलाना पसंद करते हैं यदि मामला पूँजी और सत्ता की मुखालफत का हुआ तो उनका चरित्र खुल कर सामने आ जाता है वही लोग सबसे पहले जन अधिकारों की मांग को अपराध साबित करने में लग जाते हैं महेश की यह कविता पूँजी के सांस्कृतिक चरित्र का मूल्यांकन करती है
“परन्तु जब अपने हक हकूक के लिए  

या शोषण उत्पीडन के खिलाफ  

जनता होगी संघर्षरत

तब वे सबसे आगे होंगे

उन्हें बर्बर जंगली और असभ्य साबित करने में“ (पृष्ठ ३२)
समाज के सांस्कृतिक ठेकेदारों का चरित्र आज हम सभी देख रहे हैं सरकारें उनका उपयोग जिस तरह से अपने हित में कर रही हैं, जिस तरह से जनांदोलनो को दबाने और बर्बाद करने में उनका उपयोग हो रहा है हम सभी देख रहे हैं अस्तु महेश द्वारा पूँजी के इस सांस्कृतिक अपहरण का विरोध वाजिब और सामयिक है
 

 
 महेश की पक्षधरता किसी स्वप्न की युटोपिआई कल्पना नहीं है वह समय के कटु अनुभवों द्वारा पुष्ट की गयी है ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ की कविताओं का मूल प्रतिपाद्य समय है महेश आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्त विसंगतियों के सजीव भोक्ता है पूँजी ने व्यक्ति को नियति का गुलाम बनाया है व्यक्ति के अवचेतन में स्थापित मूलभूत मानवीय गुणों को विनष्ट किया है इससे व्यक्ति अपने को सताया हुआ मसहूस कर रहा है अपने द्वारा स्थापित संबंधों की व्यर्थता का उसे अहसास होने लगा है वह समझ चुका है कि व्यक्ति के निजी संबंधों की कोई अहमियत नहीं है संसार की भाग दौड़ में केवल पूँजी द्वारा स्थापित सम्बन्ध ही टिक सकते हैं यह असंगति और टूटन, अलगाव, पूँजी की अनिवार्य दशाएं हैं मनुष्य को इस अवस्था में लाने का श्रेय जनतंत्र का है ऐसे जनतंत्र का  जिसमें हम पूँजी की बराबर सहभागिता देख रहे हैं जनतंत्र में जो अराज़कता पैदा हुई है वह विश्व पूँजी की देन है इस अराज़क सामंती जनतंत्र में व्यक्ति लाखों अपमान सह कर भी रह रहा है इसमें रहते हुए वह कभी अपने को इंसान समझेगा इसमें शक है महेश आवारा पूँजी के इस घातक खेल में रचे बसे समय को विवेचित करने से नही चूकते तमाम पीडाओं, असम्वेदनाओं, कटुताओं, को भोगते हुए भी उनकी विवेचना विशाल मानव समुदाय के पक्ष में होती है साठ के दशक का सामाजिक व्यर्थता बोध आज लोकतान्त्रिक व्यर्थताबोध में बदल चुका है लोकतंत्र बाज़ार का छल बन कर जनतांत्रिक अधिकारों को भी बाज़ार की दृष्टि देख रहा है उनकी कविता “वे आ रहे है सपने बोने” में लोकतान्त्रिक छल का बाजारवादी हथकंडा देखिए  – 
“वे जो तुम्हारी आँखों में

सपने बोने की बात कर रहे हैं

तुम समझ सकते हो

वो तुम्हारी आँखों को क्या समझ रहे हैं

वे जानते हैं अच्छी तरह

जैसा बोया जाएगा बीज

वैसी ही लहलहाएगी फसल

वे यह भी जानते हैं

सबसे फायदेमंद कौन सी फसल है उनके लिए” (पृष्ठ २९)
इस आवारा पूँजी का प्रभाव केवल हमारे परिवेश पर ही नहीं पड़ा है बल्कि हमारे चरित्र को भी बदल दिया गया है महेश व्यक्ति के चरित्र पर  पूँजी के अधिपत्य पर चिंतित हैं पतन पर पर घोर निराशा है विश्व पूँजी के इस प्रभाव को कई कवियों ने रेखांकित किया है संतोष चतुर्वेदी और शम्भू यादव की कविताओ में मानवीय मूल्यों पर पड़े पूँजी के इस प्रभाव का प्रतिरोध देखा जा सकता है| वर्ष २०१४ में कथाकार राजकुमार राकेश का कहानी संग्रह “एडवांस स्टडी” प्रकाशित हुआ इस संग्रह की एक कहानी है “सपने पूँजी और समाजवाद” इस कहानी में राकेश जी ने पूँजी द्वारा पारिवारिक और वैयक्तिक संबंधों में घोर गिरावट को दर्ज किया है महेश की कविता “क्या हुआ तुम्हें” का मूल विषय यही वैयक्तिक मूल्यों की गिरावट है बाज़ार के गणित ने आदमी के चरित्र का गणित बिगाड़ दिया है इस चीज का संकेत महेश की कई कविताओं में मिलता है एक उदाहरण देखिए –
“तुम तो ऐसे नही थे नत्थू

क्या हुआ तुम्हें

बाज़ार का गणित तो

जानते ही नहीं थे तुम

न किसी की जेब में हाथ डालते हुए

न गर्दन दबोचते“ (पृष्ठ ३६)
नत्थू एक सामान्य आदमी का प्रतीक है जो सीधा और भोला था बाज़ार की नीतियाँ और मुनाफाखोरी ने उसको बेरहम कर दिया है उसे भी अब किसी की गर्दन दबोचते और हत्या करते कोई संकोच नही होता है इस कविता का मूल तर्क है कि बाज़ार में टिके रहने के लिए हमें निर्दय होना पड़ेगा यह समय और तंत्र इंसान को निर्दय बनाना चाहता है और बना चुका है समय की भयावह असंगतियों का सुस्पष्ट विवेचन करते समय बहुत से कवि आक्रोश के शिकार हो जाते हैं पर महेश की खासियत यही है कि वो असंगतियों पर भी चोट करते समय गंभीर ही रहते हैं  जैसे उन्होंने बड़े ही सधे अंदाज़ में पूँजी द्वारा रचित जातीयता और साम्प्रदायिकता का सच विवेचित किया है एक कवि/ लेखक / कलाकार की काव्यकृति को फिरकापरस्त ताकतें खारिज करके सत्ता की भावना के अनुरूप साम्प्रदायिक करार देती हैं  इस साज़िश की महेश को पहचान है उन्होंने एम एफ हुसैन के ऊपर कट्टरपंथियों के हमले देखे हैं पूँजी अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए साम्प्रदायिकता का फासीवादी विचार प्रचारित करती है जिसमें प्रतिरोध से युक्त हर अभिव्यक्ति को जातीय रंग में रंग कर देखा जाता है –
“उन्हें क्या करना तुम्हारे रंगों रेखाओं चित्रों से

उनके तो अपने रंग

अपनी रेखा

अपने चित्र हैं

उन्हें कोई लेना देना नही चित्रकार एम एफ हुसैन से

उनके मतलब का तो बस मकबूल फ़िदा हुसैन है (पृष्ठ ३८)
उन्हें चित्रकार से कोई वास्ता नहीं है उनका वास्ता तो चित्रकार के हिन्दू या मुसलमान होने से है क्योंकि हिन्दू या मुसलमान होने पर ही सांप्रदायिक दंगों का व्यूह रचा जा सकता है जिसके सहारे पूंजी सता पर काबिज़ हो सकती है
सबसे बड़ी बात यह है कि महेश की कविता दिल्ली में बैठे कवियों की नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक से कोसों दूर है सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के सूक्ष्म से सूक्ष्म निजी से निजी अनुभव और ठेठ पहाड़ी स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी उनकी कविता का अभिकथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव उनकी कविता का परिदृश्य है उनकी दृष्टि भी एकांगी या एकदिशागामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में जनपक्षधर है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामाणिक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ महेश की कविता में मौजूद हैं इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्तिपरक औजार भी हैं। लोक अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोकचेतना मिथक आदि से ताकत लेने में उनकी कोई सानी नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मक स्वप्नों की संरचना में महेश की कविता समाज में व्यापक बदलावों की जोरदार वकालत करती है बदलाव में उनका और उनकी कविता का अटूट विश्वास है उनका कहना है की सुन्दर हिन्दुस्तान का सपना हर हिन्दुस्तानी देखता है वो सपना मेरी भी आँखें देखती है वह सपना मेरी आँखों में कभी मर नहीं  सकता। 
 

“कभी नहीं मर सकता

मेरी आँखों में

सुन्दर  दुनिया का सपना“ (पृष्ठ २०)
इस सपने को देखने का उन्हें हक है क्योंकि उनको विश्वास है पूँजीवाद लाख कोशिश कर ले हमारे अन्दर की वर्गीय चेतना को नष्ट नहीं कर सकता जब तक हम अपने वजूद के प्रति चिंतित है अपनी जमीन के प्रति हम संवेदनशील है तब तक हम पूँजी के खतरनाक इरादों का प्रतिरोध करेंगे अभी भी हम डरे नहीं हैं क्योंकि हम सब में परिवर्तन की चेतना हिलोरें ले रही हैं। 
 

“पर इतने वर्षों बाद भी

बचा हुआ है इसमें

बहुत कुछ

बहुत कुछ

बहुत कुछ ऐसा

खोना नहीं चाहते हम

जिसे कभी” ( पृष्ठ १६)  
स्वप्न आम आदमी की ऊर्जा का स्रोत हैस्वप्न जिन्दगी की जिजीविषा हैसंघर्षों के प्राण हैंजिस दिन स्वप्नों की मौत होगी आम आदमी की भी मौत होगी स्वप्न ही आदमी को हथियार देते हैं स्वप्न ही खतरों से लड़ने का जज्बा देते हैं इसलिए पंजाबी कवि पाश ने कहा है कि
“बहुत बुरा होता है सपनो का मर जाना” 
बदलाव की प्रबल आकांक्षा रखने वाला कवि कभी भी अपने सपनो को मरने नहीं देगा वह छद्म कवियों की तरह प्रकृति से मस्ती और यौवन नही खोजेगा वह आनंद और भोग की चरम वासनाओं में नहीं डूबेगा वह प्रकृति में भी क्रांति देखेगा वह चेतन और अचेतन में बदलाव का सूत्र तलाशेगा महेश का लोक क्रांतिधर्मी लोक है वह लोक की आस्था लेकर सामन्ती सौन्दर्य दृष्टि से संसार को नहीं देखते बल्कि अपनी वर्गीय दृष्टि से संसार को देखते है देखिये नदी की सुन्दरता की बजाय कवि उसमे क्या देख रहा है। 
 
“नदी के पास

नहीं है कोई कलम

नहीं कोई तूलिका

न ही हथौड़ा छीनी

फिर भी लिखती है

नयी इबारत

सीखना चाहता हूँ मैं भी नदी से

यह नायाब हुनर” (पृष्ठ १७)
इसी कविता को कहते हैं लोकधर्मी कविता इस दृष्टि को कहते हैं – लोकधर्मी सौन्दर्य दृष्टि
आवारा पूँजी ने सत्ता के साथ मिल कर एक नया मध्यम वर्ग तैयार कर लिया है एक ऐसा वर्ग जो महानगरों में रहता है और शहरी मध्यमवर्गीय चिंतन को ही कविता की मूल मनोभूमि समझता है इस वर्ग ने पूँजी के साथ मिल कर “कविता” को लोक से काटने का काम किया है समकालीन कविता में बहुत कम ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को दूर दराज़ के अंचलों की तरफ मोड़ा है वास्तव में असली हिन्दुस्तान गाँव और कस्बों में, पहाड़ों और जंगलों में बसता है जहां का जीवन और परिवेश दोनों कठिन है आज जबकि पूँजीवाद ने सब कुछ बदल दिया है तो पहाड़ों, जंगलों, गावों में भी इन खतरनाक बदलावों को देखा जा सकता है महेश की कवितायें इसलिए आत्मीयतापूर्ण हैं कि उन्होंने अपनी जमीन और अपनी भाषा अपने परिवेश को ही हिन्दुस्तान समझा है अपनी कविता का कहन तलाशने के लिए वो नागर्जुन, केदार, त्रिलोचन, विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह की परम्परा का अनुसरण करते हैं कविता के बिम्ब पहाड़ों की वनस्पति से, पहाड़ों की गंध से, अपनी बेचैनी और ग्रामीण बोध से ही अपना राष्ट्रीय बोध तलाशते हैं पहाड़ों की जमीन में ही खड़ी हो कर उनकी कविता अपने समय का ताना बाना बुनती है यही वह भूमि है जिसने कवि को अडिग रह कर लड़ने की सलाह दी है अपनी जमीन से जुडाव, अपनी जड़ों को पहचानना महेश के काव्यानुभव की पहली शर्त है देखिये पहाड़ों की टूटन को कवि ने किस कलात्मक अंदाज़ से पूंजीवादी लूट से जोड़ा है
“मुझे कूटा – मुझे लूटा

मुझे छेड़ा – मुझे उघेडा

मुझे काटा मुझे पीटा

मुझे तोड़ा मुझे फोड़ा

क्या क्या न किया जा रहा मेरे साथ ( पृष्ठ ७९) 
महेश केवल पहाड़ो टूटन से ही दुखी नही है उनका असली दुःख व्यापक जनसमुदाय के पक्ष में है पहाड़ों की अकूत सम्पत्ति की लूटन से वो दुखी हैं उन्होंने पिथौरागढ़ के उन कई स्थलों का उल्लेख किया है जहां पूँजी ने अपने पैर पसार कर मौलिकता को खंडित करने का दुस्साहस किया है मुनस्यारी के रास्ते में मिलने वाले विर्थी जलप्रपात का उल्लेख देखिये और पहाड़ों की लूट का नतीजा भी देखिये जिसके कारण एक पूरा गावं जमीदोज हो गया था। 
 
“बार-बार बिरथी फाल की और देख रहा है

उसकी आँखों में एक भय तैर रहा है

उसे ला झेकला की काली रात

याद आ रही है

उस रात भी ऐसा ही उफान था

ऐसी ही फुंकार

जब जमीदोज हो गया था पूरा गाँव” ( पृष्ठ ८७)
महेश जब लोक की गहराइयों में उतरते हैं तो उनकी कविता उन्ही की जमीन से चरित्र गढ़ लेती है ये चरित्र कल्पनाजन्य नहीं होते अपितु उन्ही के आस पास विद्यमान सजीव व्यक्ति होते हैं उनकी कई कविताओं में चरित्रों का समावेश है यह लोकधर्मी कवि की सबसे बड़ी पहचान है यदि कवि अपनी कविता में सजीव चरित्र नही समाविष्ट कर पाया तो कविता नकली प्रतीत होती हैनागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, विजेन्द्र , केशव, जितने भी लोकधर्मी कवि हैं सबकी कविताएँ चरित्र का सृज़न करती हैं“चरित्र”  गढ़न के मायने में महेश किसी से कम नही हैंउनके चरित्र लोकजीवन के मूर्त भोक्ता है कवि की जमीनी आसक्ति और उनकी दृष्टि के निर्धारक हैं इस संदर्भ में उनकी किसी एक कविता का उदाहरण देना उचित नहीं रहेगा क्योंकि “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में अनेक चरित्र हैं उनकी कविता “माँ का अंतर्द्वंद” इस मायने में सबसे अलग है माँ एक ऐसा चरित्र है जहाँ भावुकता, भी अपना केंद्र स्थापित करती है इस कविता के द्वारा कवि ने पहाड़ी जीवन की कठिन जिजीविषा और जीवन संतुलन का खाका खीचा हैमाँ के माध्यम से कवि अपने पूंजीवादी साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद पर तीखे प्रहार करता है  सम्पूर्ण रीतियों और पहाड़ी कुरीतियों की अप्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करता है माँ के बाद उनकी कविता का दूसरा चरित्र जो वर्गीय वर्चस्ववाद की कथनीय भंगिमा से लैस है वह “सरुली” है सरुली मेहनतश स्त्री है पुरुष के सामन्ती संस्कारों और समाज के पूंजीवादी वर्चस्ववाद ने उसको शोषण की नियति से बांध कर रख दिया है जिसके जीवन का आरम्भ मेहनत है और अंत भी मेहनत हैआधुनिक स्त्री विमर्श की तरह महेश का स्त्री चरित्र देह मुक्ति की घिसी पिटी लकीरों से आबद्ध नहीं है उसके  सामने सबसे बड़ा संकट सामंती वर्चस्ववाद है जिसके वगैर टूटे मुक्ति की कोई आशा नही की जा सकती मेहनतकश स्त्री के कव्य बिम्ब आज की कविता से गायब होते जा रहे हैं महेश की कविता में स्त्री के इन चरित्रों से उनकी लोकदृष्टि और आधुनिक दृष्टि के संतुलित सामंजस्य को देखा जा सकता है महेश की दो कवितायें उनके दो सांस्कृतिक मित्रों को समर्पित है एक कविता उनके कवि मित्र केशव तिवारी को (खुरदरापन) और दूसरी उनके चित्रकार मित्र रोहित जोशी के लिए समर्पित है (हवा)| दोनों कविताओं में कवि ने अपनी जमीनी भंगिमाओ को पूरे विस्तार के साथ समेटा हैकेशव और रोहित के बाद तीसरा चरित्र जो उनकी कविता में उपस्थित है वह है “शेर सिंह पांगती” जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता “ट्राइवेल हेरिटेज म्यूजियम” में किया हैशेर सिंह पहाड़ी मज़बूत इरादों के प्रतीक हैं जिन्होंने अपने निजी संघर्षों से म्युज़ियम की स्थापना किया है इस कविता में महेश ने शेर सिंह पांगती का जिस तरह से चारित्रिक विस्तार किया है वह उनके ठोस जमीनी अनुभव और पाठकीय संवेदना को झकझोर देने वाली रचनाधर्मिता का उदाहरण है
महेश अपनी कविताओं में भौगोलिक और सामाजिक परमपराओं का विशद विवेचन करते हैं उनकी अपनी पहाड़ी लोक रीतियाँ उनकी कविता में समां गयी है उन्होंने पहाड़ी जीवन के हर पहलू को जिया है बोली व्यवहार, स्वभाव का सम्पूर्ण परिवेश देखा हैस्वाभाविक है उनकी कविता मे उनका लोक प्रसुप्त होकर नहीं आएगा बल्कि जाग्रत होकर आएगापहाड़ी जीवन का ऐसा कोई कोना नही है जिसको महेश ने न देखा हो उत्पादन, धर्म, विश्वास, त्यौहार, साधन, विधि, जंत्र, मंत्र, विलास, चिकित्सा, औषधि, कला, कौशल, खेती, भेंडें, सब को देखते सुनते और अपनी कविता में उतारते चलते हैं “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में पहाड़ी जीवन अपने पूर्ण उपांगों के साथ सज़ीव हो उठा है “खतडवा संक्रांति” कविता में इस पहाड़ी लोक त्यौहार का जैसा वर्णन उन्होंने किया है उससे पहाड़ी आस्थाओं का बिम्ब सजीव हो जाता है  यह पहाड़ों का एक पशु त्यौहार है कवि ने अपनी कविता भूमि को स्पष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी हैउनकी कविताओं को पढ़ कर अनजाना सा पाठक भी उनकी जमीन का अनुमान कर सकता है यह उनकी बड़ी सफलता है
 
भाषा अकेले कवि का उत्पाद नहीं होती उसके परिवेश और परिवेश में रहने वाले वर्गीय समूहों का सामूहिक उत्पाद होती हैकवि की भाषा बहुत कुछ उसकी भौगोलिक अवस्थिति व जीवन संदर्भों से निर्मित होती है जब व्यक्ति किसी पर आक्रोशित होता है तो वह अपनी उस भाषा में आक्रोश व्यक्त करता है जिसे वो दैनिक व्यवहार में प्रयोग करता है यदि छोटे-छोटे जीवन अनुभवों में भी भाषा अभिजात्य रहे तो कवि कवि की कविता और उसकी सच्चाई संदेह के घेरे में आ जाती है भाषा कवि की मनोस्थिति के अनुसार अपना नियत सम्बन्ध खोज लेती हैकहा जाता है कि काव्य भाषा सामान्य भाषा के भीतर की भाषा की भाषा है लेकिन हम कहेंगे की काव्य भाषा कवि के भीतर की भाषा है जिस भाषा में वो अपने परिवेश को जीता है जिस भाषा में वो अपने अनुभव उपार्जित करता है उसी भाषा को व्यक्त करने में ही कवि सफलता निहित है भाषा भी विषय की तरह यथार्थ होना चाहिए उपरी परतों पर थोपी हुई नहीं होनी चाहिए महेश की काव्य भाषा इस मायने में एक प्रतिमान बन कर उपस्थित होती हैउनकी भाषा का कारखाना वही है जहाँ से उनके अनुभव जन्म लेते है उनकी भाषा में लोक सौन्दर्य देखते ही बनता है “लोक” की पीड़ा, उसकी हार, उसकी टूटन, उसका व्यवहार उन्ही की भाषा में देख कर कविता स्वयम लोक गान बन जाती हैजैसे विजेन्द्र की कविताओं में उनका राजस्थान झलकता है मान बहादुर सिंह की कविता में उनका अवध प्रकट हो जाता है उसी तरह महेश की कविताओं में उनके पहाड़ प्रकट हो जाते जाते हैं उनके इस देशीपन को उनकी बेचैनी से जोड कर देखे जाने की जरुरत हैमहेश की कविता तभी अपना सार्थक अर्थ देगी जब हम उनके पहाड़ को समझेंगे उनकी भाषा में डूबेंगे धौल, टुटका, ठैरा, रौखड, बौज्यू, टैम, ओखल, गोंठ, नौले, सोन, असौज, गाडू, लवार, भेकुने, जीबू, भौत, जैसे शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता को साथ लिए उनके संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में विराजमान हैंमहेश की इस भाषा ने उनके चरित्रों को एक नई पहचान दी है महेश ने भाषा के उन सभी अभिजात्य संकेतों को नकार दिया है जिनसे अनुभूतियाँ धूमिल हो सकती है उन्होंने अपने समय और लोकानुभव के अनुरूप एक ऐसी भाषा की तलाश की है जिसके फ्रेम में पूँजी द्वारा त्रसित इंसान का चित्र उकेरा जा सकता है उन्होंने भाषा और व्यक्ति के बीच दीवार का काम नही किया कविता के बीच में आये देशज शब्द आज के पूंजीवादी सामंती आतंक को अभिव्यंजित कर देती है भाषा का इतना सुनहला प्रयोग एक प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि ही कर सकता हैमहेश की भाषा द्वारा निर्मित अर्थ संकेत और शिल्प छवियाँ भी उनकी जमीनी जरूरतों और सरोकारों की व्यंजना करती हैंअमूमन प्रतीक और बिम्ब अर्थ की सूक्ष्म सांकेतिकता की व्यंजन करते है लेकिन उनका अधिकाधिक प्रयोग कविता को पोस्टर की तरह ग्राफिक बना देता है लेकिन महेश के बिम्ब और प्रतीक उनकी भाषा की तह से उत्पन्न है वहां यह दोष छू तक नहीं गया है बिम्बों का संवेदी प्रयोग उनकी कविता और उनकी भाषा को संदर्भ भाषा के रूप में रूप में स्थापित कर देता है और बिम्बों में आयी लोक छवि उनकी कविता के वितान को व्यापकता और विविधता से भर देती है देखिए एक उदाहरण
 

“सहस्रबाहु की तरह भुजाएं फैलाए

आसमान से सर लड़ाए

खड़ा हुआ पेड़”

गाये सभी ने गुण

पत्ती फूल फल और तने के

पर जड़ें याद नही आई किसी को” (पृष्ठ २८)
अर्थात पेड़ की डाली और शाखा पत्ती की चर्चा सभी करते है पर जिन जड़ों में वो टिका है उनकी चर्चा कोई नहीं करना चाहता यह एक अर्थ संकेत है जिसके मायने है कि हम पूँजी द्वारा तय किये गए उपरी आवरण को ही देख पाते है और जिन स्तंभों में मनुष्य का वजूद टिका है उन जड़ों की और कोई नहीं देखना चाहता है
 
महेश की भाषा का संघटन कविता के परम्परागत तत्वों से भी हुआ है ऐसे तत्वों में प्रतीक विधान मुख्य है प्रतीक मानव स्वभाव का एक विशिष्ट अंग है काव्य या कला में नए अर्थों की उद्भावना या अर्थ की गहराई को आम पाठक तक प्रेषित करने के लिए कवि प्रतीकों का प्रयोग करता हैमहेश में प्रतीक अपने अर्थ को बदल कर आज के पूंजीवादी परिवेश का अर्थ पा रहे हैं ध्यान से देखने पर उनके प्रतीक अन्योक्ति विधान जैसे प्रतीत होते हैं बिम्ब की सफलता उसक चित्र विधान में निहित होती है पर प्रतीक की सफलता उसके द्वारा निर्मित अर्थ संकेतों से तय होती है महेश के प्रतीक हर तरह के हैं मिथकों से लेकर इतिहास तक, शहर से ले कर निर्ज़न पहाड़ों तक उनके प्रतीक खोजे जा सकते हैं पर उनकी सार्थकता उनकी प्रतिबद्धता, और उनकी कविता के सामयिक संदर्भों को देख कर ही तय की जा सकती है जैसे एक कविता है “शैतान” यहाँ शैतान पूंजीवादी वर्चस्ववाद का प्रतीक बन कर उपस्थित है औपनवेशिक काल में पूँजीवाद साम्राज्यवादियों के रूप में उपस्थित था तो आज वह बाजारवाद के रूप में  उपस्थित हैदोनों का चेहरा और चरित्र एक है
“लेकिन शैतान फिर से लौट आया है। 
 

रूप बदल कर

राजधानी तक हैं लम्बे हाथ

चेहरे से नही लगता है वह

बिलकुल भी शैतान सा

आवाज़ किसी देवदूत सी” (पृष्ठ ९१)
इस प्रतीक को कोई अलग अर्थ देना असंभव है महेश की कविता की यही खासियत है कि जिस प्रतीक में उन्होंने जिस अर्थ संधान कर दिया है उससे इतर अर्थ की कल्पना नही की जा सकती है उनकी काव्य भाषा की तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है उनकी कविता में आये अप्रस्तुत –विधानअप्रस्तुत विधान के अंतर्गत उपमा पर आधारित अलंकारों का समावेश होता है उनके अप्रस्तुत विधान की सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उपमान लोक से लिए गए हैंजिसके कारण कविता में एक खास किस्म के संदर्भ उपस्थित हो गए हैं जो कवि की मूल अंतर्वस्तु से एकदम हिलमिल जाते हैं और दूसरी विशेषता है की जिस लिंग का प्रस्तुत है उसी लिंग का अप्रस्तुत भी है अर्थात अप्रस्तुत विधान में महेश ने लिंग साम्य का खूबसूरत प्रयोग किया हैउपमादि अलंकारों में लिंग साम्य का प्रयोग बहुत कम कवियों ने किया है उपमा के सबसे बड़े कवि कालिदास माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने उपमेय के लिंगानुसार ही उपमान का लिंग रखा हैयही विशेषता महेश की कविता में मिलती है उनके अप्रस्तुत विधान ही उन्हें अपने समकालीनों से पृथक कर देता है एक बानगी देखिये – 

“खुशबू फ़ैल जाती है चारों ओर

रात की रानी सी”
अर्थात खुशबू में रात रानी की संभावना दोनों में अद्भुत लिंग साम्य है महेश का कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” अपने प्रतिपाद्य और काव्य कला दोनों की दृष्टि से अनूठा है लोक की गहन भाषाई मुद्रा से लैस उनकी कविता अपने समय का सच्चा इतिहास लिख रही है
विचारणीय बिन्दु यह है कि महेश पुनेठा ने जिस कलात्मक उत्कृष्टता के साथ अपनी कथ्यात्मक प्रभावपूर्णता का निर्वहन किया है वह आज की कविता में दुर्लभ है उनका मानव पूँजीवादी बाजारवादी परिवेश से टूट रहा है और लोकतंत्र मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन चुका है उनका मानव उस लोकतन्त्र का वाशिन्दा है जहाँ मुठ्ठी भर लोग लोकतान्त्रिक तानाशाही से आम आदमी को मौत के मुँह में ढकेल रहे हैं। जहाँ अपने हक और अधिकारों की मांग करना सत्ता के खिफाफ भयानक अपराध है जहाँ बाज़ार से लूट कर अपनी जान खपा देना ही देशभक्ति है सामाजिक परिवर्तनों का सूत्रधार मानव अपनी  वर्गीय समझ और चेतना नष्ट कर चुका है वह अलगाव का शिकार है। उसका अलगाव अपने आप से है अपने परिवार से है अपने सरोकार से है उसकी सोच पर खतरनाक पहरे है वह मानव अपनी मनुष्यता खो चुका है। महेश उस मानव को परिवर्तन और बदलाव की सीख देते हैं उससे अंधेरों में उजालों की उम्मीद करते हैं महेश की कविता के संदर्भ में मुझे फ़िराक गोरखपुरी साहब के ये अलफ़ाज़ याद आ रहे हैं

“गुजश्ता अहद की, यादों को फिर करो ताज़ा

बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”
(रस्साकसी से साभार) 
   
सम्पर्क-
मोबाईल- 09838610776 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 
                                                       

उमाशंकर सिंह परमार का आलेख “मैं मोम हूँ मुझे छूकर नहीं देखा”

कैलाश गौतम

कैलाश गौतम का नाम आते ही उनकी वह बेलौस हँसी याद आती है जो पूरी तरह निश्छल हुआ करती थी। इस मामले में हम खुशनसीब हैं कि हमने गौतम जी की वह हँसी अपने आँखों देखी थी निराला के शब्दों में कहें तो उनकी ‘वह हँसी बहुत कुछ कहती थी‘। कैलाश गौतम वस्तुतः जनता के कवि थे। मंचों की हकीकत जानते हुए भी मंचों से जुड़े हुए थे। सही मायनों में वे जन कवि थे। जनता का दुःख-दर्द, जनता का जीवन अपने रुखड़ अंदाज में वहाँ साफ़-साफ़ दिख जाता है। दुर्भाग्यवश वे आलोचकों की फेहरिश्त से बाहर ही रहे या यूँ कहें कि ‘बाहर कर दिए गए’। लेकिन इस तेवर का कवि आलोचकों की चिन्ता करे भी तो क्यों? ऐसे ही तेवर वाले जन-कवि कैलाश गौतम के गीतों पर एक आलोचकीय नजर डाली है उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं उमाशंकर का यह आलेख ‘मैं मोम हूँ मुझे छू कर नहीं देखा’।           


मैं मोम हूँ मुझे छूकर नहीं देखा
(सन्दर्भ : कैलाश गौतम के गीत)
उमाशंकर सिंह परमार  
किसी ने कहा था शौक ए दीदार अगर है तो नजर पैदा कर इसका आशय है कि व्यक्ति किसी वस्तु या घटना को किस रूप में ग्रहण करता है यह उसके नजरिए पर निर्भर करता है। अर्थात जैसा दृष्टिकोण होगा वैसे ही घटनाओं को हम देखते हैं। दृष्टिकोण बहुधा विचारों पर निर्भर करता है। यदि विचार वैज्ञानिक व तर्कसंगत हैं तो वस्तु या घटना के परिप्रेक्ष्य में हमारा नजरिया परिपक्व होगा व रचनात्मक सरोकारों से पूर्ण होगा। यदि विचार अतार्किक, अवैज्ञानिक और अन्धविश्वासपूर्ण हैं तो हम वस्तु या घटना के प्रति गलत बोध अर्जित करेंगे। किसी कवि या लेखक की रचना-प्रक्रिया तय करने में दृष्टिकोण का बडा योगदान होता है। दृष्टिकोण यथार्थ को ग्रहण करके उसके रचनात्मक पहलू को कलाया कविताके रूप में बदलने की सृजनात्मक उत्प्रेरण का काम करता है। कवि या लेखक समाज से अव्यवस्थित संवेदनाएं ग्रहण करता है पर उन्हें अपने विचारों और नजरिए से सुव्यवस्थित कर देता है। यही सुव्यवस्थित संवेदनाएं ज्ञान कहलाती हैं, जिनका उपयोग रचना में किया जाता है। कवि की संवेदना यदि काल्पनिक नहीं है तो वह रचना अवश्य प्रभावी होगी। यथार्थ रचना को सामयिक बनाता है। सामयिक सापेक्षता किसी भी कवि के लिए जरूरी मूल्य है इस मूल्य के अभाव कविता और कवि दोनों छद्म की श्रेणीं में आ जाते हैं। कहने का आशय है कि यथार्थ, दृष्टि, और समय सापेक्षता तीनों तत्व आपस में अन्तर्सम्बन्धित हैं। एक का अभाव दूसरे से पृथक कर सकता है। यही तीनों तत्व किसी कवि की प्रतिबद्धता, लोकधर्मिता, का निर्धारण करते हैं। विचार यदि लोकधर्मी हैं तो समय सापेक्षता किसी रचना को मानवता के उद्दात  चरित्र का आख्यान बना देती है। प्रगतिशील आन्दोलन से लेकर अब तक जितने भी जनपक्षीय कवि रहे सब यथार्थवादी रहे। शायद ही किसी ने अयथार्थ मूल्यों को तरजीह दी हो। हर कवि के अपने रचनात्मक सरोकार रहे हैं। अपने सरोकारों के तहत ही उनकी कविताएं अपने समय के साथ संवाद करती रहीं हैं।
यदि आलोचकीय मापदंड वैचारिक सरोकारों से निर्मित हैं तो कवि के मूल्यांकन में गड़बड़ी नहीं हो सकती है। वैचारिक आयाम युगबोध को तरजीह देते हैं। फार्मेट या शिल्प को तरजीह नहीं देते हैं। जब रचना में कंटेंट को प्राथमिकता देना आज की जरूरत है तो शिल्प के स्तर पर प्रभावी कंटेंट को नकार देना कहां तक उचित है। हमारी जरूरत कंटेंट है। वह किसी भी फार्मेट में आए। यदि कंटेंट समय सापेक्ष व जनपक्षीय नहीं है तो शिल्प के कोई मायने नहीं है। ऐसी  रचना और उसके रचनाकार को खारिज कर देना चाहिए। परन्तु हिन्दी आलोचना रीतिशास्त्र का विरोध करते-करते अपने द्वारा खुद एक रीतिशास्त्र गढ बैठी है। वह रीतिशास्त्र है  कि कोई भी कवि हो यदि वह गीत और छन्द के मार्फत कविता कह रहा है तो चाहे उसकी प्रतिबद्धता और युगसापेक्षता कितनी भी  स्पष्ट  हो वह कविता की जमात से बहिष्कृत कर दिया जायगा। इस रीतिशास्त्र ने कविता की समीक्षा में संकुचित दृष्टि अपनाई है। विचारों, युगबोध और दृष्टि जैसे आलोचकीय मूल्यों को नकार कर अब शिल्प के आधार पर कवि होने या न होने का निर्णय दिया जाने लगा है। इसका प्रतिफल यह हुआ कि बहुत से कवि जिनकी कविता में  जनसंवेदना का लोकधर्मी स्वरूप प्राप्त होता है जिनके गीत जन-जन की जुबान में गाए जाते रहे वह कविता के दायरे में नहीं आ सकते। यह हिन्दी आलोचना की कमजोरी कहिए या इन कवियों की आदतजो एक दूसरे की मिथकीय शास्त्रावली से बराबर दूर ही रहे। गोरख पांडेय, कृष्ण मुरारी पहरिया, महेश्वर तिवारी, ओंकार सिंह ओंकार, कैलाश गौतम ऐसे ही कवि रहे जो आलोचकों के बुर्जुवा रीतिशास्त्र के शिकार रहे हैं। इन पर नहीं लिखा पढा गया। या यूं कहिए कि ऐसे कवियों को पढने-लिखने के लायक नहीं समझा गया। या तो इन कवियों को सिरे से नकारा गया है या छोटा-मोटा आलेख लिख कर खानापूर्ति कर दी गयी है। आज जब अनेक छद्म कविताएं पुरस्कृत होकर साहित्य के ऊंचे पायदान पर विराजमान हो रहीं हैं। जिन्हें कविता की रचना-प्रक्रिया का भी नहीं पता वो बड़े-बड़े पुरस्कार लेकर चर्चित हो रहे हैं तो इन कवियों का क्या दोष है? इनकी कविता किसी भी  पुरस्कृत बडे कवि की कविता से श्रेष्ठ है। हर दृष्टिकोण से श्रेष्ठ है। शिल्प की बात छोड दी जाय (क्योंकि शिल्प के स्तर पर तो समकालीन कविता का कोई भी कवि इस धारा के कवियों के समकक्ष नहीं है) तो कंटेंट के स्तर पर भी ये कवि उन्नीस नहीं बैठेंगें  बीस ही ठहरेंगे। इस परम्परा के कवियों मे सबसे महत्वपूर्ण कवि कैलाश गौतम हैं। जनवादी दृष्टि से ग्राम्य संस्कृति और लोकाचारों का जितना यथार्थवादी व लोकधर्मी विवेचन इस कवि ने किया है वह किसी भी प्रतिबद्ध कवि से किसी भी कोण से कमतर नहीं है। कैलाश गौतम आकाशवाणी इलाहाबाद में नौकरी करते थे। वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद हिन्दुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष बने। इसी पद पर रहते हुए ९ दिसम्बर २००६ को इनका देहावसान हो गया। इन्होंने हरेक विधा पर अपनी कलम चलाई कुछ रचनाएं प्रकाशित हुईं और कुछ रचनाएं अप्रकाशित रह गयीं। प्रकाशित रचनाओं में कविताएं अधिक प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने इनके गीत सुने हैं वह कभी इनकी वाचन शैली भूल नहीं सकते हैं। इनका व्यक्तित्व आकर्षक और मिलनसार था। अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं का जितना विश्वास इस कवि ने कमाया शायद उतना विश्वास और प्रेम कोई दूसरा अर्जित नहीं कर सकता है। इनके कविता संग्रहों में कविता लौट पडी, सीली माचिस की तीलियां, तीन चौथाई आन्हर, सिर पर आग, चिन्ता नये जूते की हैं। कैलाश गौतम ने बाल कविताओं की भी रचना की जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं तो कुछ अप्रकाशित हैं। इंडियन प्रेस इलाहाबाद से इनकी सम्पूर्ण रचनाओं का पुन: प्रकाशन होने जा रहा है। अरिन्दम घोष जी ने मुझे बताया था जल्दी ही बाजार में इनकी कविताएं उपलब्ध होंगी।
कैलाश गौतम की कविता लोकधर्मी कविता है। लोकधर्मी कविता के सभी मौलिक लक्षण इनकी कविता में उपलब्ध हैं। विचार, प्रतिबद्धता और संघर्ष के स्तर में कविता उत्कृष्ट है। बस कमी है तो वही जिसकी मैनें ऊपर चर्चा की है कि इनकी कविता छन्द और लय के अदभुद बन्धों में बंधी है। केवल छन्द और लयात्मक बन्धों के आधार पर युग के तपते हुए कंटेंट को खारिज करना गलत है। लयात्मक बन्धों का प्रयोग लोकधर्मी कविता की अपनी खासियत रही है। त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन के लयात्मक बन्ध सभी ने देखे और पढे होंगे। यदि लयबद्धता के आधार पर खारिज करना है तो सभी खारिज हो सकते हैं। विजेन्द्र की कविता में उत्कृष्ट लयात्मक बन्धों का प्रयोग मिलता है। आधुनिक कवियों में केशव तिवारी की कविता देखी जा सकती है जहां लोक छन्दों की लयात्मक भंगिमा उपस्थित है। लय लोकधर्मी कविता में मुख्य शैल्पिक आधार है। लोकधर्मी कवि ग्राम्य गीतों, लोकगीतों, परम्परागत छन्दों को अपने विषयानुसार भाषा से संस्सकारित करके कविता रचता है। कवि का यह प्रयोग उसकी जमीन से जोडकर यथार्थ का ही विस्तार करता है। यह कोई दोष नहीं है न ही कविता के लिए कोई संकट है बल्कि जन से जोडने का सहज शैल्पिक उपागम भर है। लय का सबसे बडा विरोध बुर्जुवा काव्यधारा प्रयोगवाद और नयी कविता ने किया था। पर लय का पूर्णत: विनाश नहीं कर सके क्योंकि लोकधर्मी कविता अपनी जमीन से पृथक नहीं हो सकती। जब तक वो जमीन से और आम जनजीवन से जुडी है तब तक वो लोगों के बीच प्रचलित गीतों, छन्दों की लयात्मक भंगिमाएं ग्रहण करती रहेगी। लयात्मक बन्धों का दुरुपयोग भी हुआ है। बहुत से मंचीय कवि लय के आवरण में अपनी फूहड कुंठाओं को कविता में तब्दील कर देते रहे हैं। ऐसी कविताओं से कैलाश गौतम की कविता को अलग देखना पडेगा हालांकि कैलाश भी मंच से गीत गाते थे पर उनकी चेतना लोकधर्मी थी और वो भी कविता की मंचीय कुरीतियों की तीखी आलोचना करते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है कुछ गीतकारों नें गीतों को ऐसा मांजना-भांजना  शुरू किया कि वे कवि कम विदूषक ज्यादा हो गए। उनके गीत भी स्कूल कालेजों की ड्रेस जैसे हो गए।‘ (भूमिका कविता लौट पडी) कैलाश की यह टिप्पणी उनकी प्रतिबद्धता को जाहिर कर देती है कि उनके गीतों में लय का आशय क्या था। उनके यहां लय केवल कविता को कविता बनाए रखने का आग्रह था उसमें वो किसी भी प्रकार की कलाकारी, कसीदाकारी के खिलाफ थे। उन्होंने आगे लिखा है वे रचनाकार ज्यादा श्रेष्ठ हैं जिन्होने हर तरह की छींटाकशी एवं आंच को सहते हुए अपने को सक्रिय बनाए रखा और प्रकाशन से लेकर मंच तक गीतों को न केवल जीवित रखा बल्कि उसके माध्यम से मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं, व संकल्पों को जनमानस में नये सिरे से स्थापित किया (भूमिका कविता लौट पडी) इस स्वीकारोक्ति के बाद इस बात की गुंजाइश कम रह जाती है कि कैलाश गौतम किस तरह की कविता के समर्थक थे। उनकी प्रतिबद्धता मानवीय मूल्यों के प्रति थी न कि धार्मिक और   अन्य अयथार्थ मूल्यों के प्रति। उनकी कविता का लक्ष्य  जनमानस को प्रभावित करना था। जनता में मानवीय मूल्यों के प्रति लगाव उत्पन्न करना था। उनके मानवीय मूल्य उनकी कविता में उपस्थित हैं। उनको वही मानवीय मूल्य स्वीकार थे जिनकी स्थापना के लिए अब तक की लोकधर्मी काव्य परम्परा ने संघर्ष किया। कैलाश गौतम के रचनात्मक सरोकार लोकधर्मी कविता के इतिहास में  एक अलग सी शिल्पगत नवीनता के साथ उपस्थित होते हैं। 
कैलाश गौतम के लिए कविता की सार्थकता जीवन के प्रति संवेदना और जनपक्षीयता है। इस सरोकार के लिए वो किसी भी फार्मेट और भाषा का प्रयोग करते हैं। लेकिन उनकी भाषा और फार्मेट भी उसी जमीन के हैं जहां से वो जुडे हैं। चन्दौली में पैदा हुए और कर्मभूमि इलाहाबाद रही। इलाहाबाद उनके साथ जुड गया है। मातृ भाषा भोजपुरी की प्रवाहमयता और इलाहाबादी विनोदप्रियता दोनों उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। यहीं की भाषा, यहीं के शब्द, यहीं के लोकगीत, यहीं के स्थान, खेत, नदी, बाग, गांव सडक, मेला हाट, थाना, कोट, कचेहरी सब कुछ उनकी कविता में उपलब्ध है। एक प्रतिबद्ध लोकधर्मी की खासियत होती है कि वो चरित्र का सृजन करता है। बगैर चरित्र के कविता जनपक्षीय होने में आशंका उत्पन्न करती है लगभग सभी लोकधर्मी कवियों ने चरित्र रचे हैं। कैलाश की कविताओं में भी चरित्र हैं। ये चरित्र बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे विजेन्द्र की कविता में हैं। उन्हीं की जमीन का चरित्र है। बिल्कुल गांव का पडोसी जैसा बोलता ओर आचरण करता। इस दृष्टिकोण से कैलाश गौतम लोकधर्मी कविता के परम्परागत मापदंडों में भी खरे उतरते हैं। कैलाश की कविता को महज मनोरंजन जैसी अवधारणा कतई नहीं मानते। जैसा कि मंचीय कवियों के बारे में अक्सर कहा जाता है। कविता उनके लिए जीवन है वही जीवन का संघर्ष है। कविता ही सरोकार है कविता ही जिजीविषा है। इस प्रतिबद्धता की बात उन्होने अपनी एक कविता कविता मेरी जीवन शैलीमें कही है। उन्होंने कहा है 
आलम्बन का आधार यही
यही सहारा है
कविता मेरी जीवन शैली
जीवन धारा है  (कविता लौट पड़ी) 
इस प्रतिबद्धता और जीवन संवेदना की स्वीकारोक्ति होने के बाद कौन सा तर्क शेष है आलोचकों के पास जो इस कवि को खारिज करने के लिए गढा जाय। शायद उनका प्रतिपाद्य? पर प्रतिपाद्य को समझने के लिए कैलाश को युग से जोड कर देखना होगा जैसा कि सभी कवियों को देखा जाता है। यदि युग की पीडाएं, विसंगतियां, विद्रूपता और असंगति कविता मे उपस्थित है तो कैलाश को मुख्यधारा से वंचित रखने का कोई कारण नहीं बनता है। 
कैलाश गौतम की कविता बुर्जुवा आग्रहों की कविता नहीं है उसका मूल स्रोत है जीवन का यथार्थबोध। इस यथार्थ के तिक्त अनुभवों को ढोने वाला विशाल जनसमुदाय उनकी कविता का हेतु है। जो जाने-अनजाने में समय के खतरनाक संकटों को भुगत रहा है। इस त्रासद अवस्था में आम आदमी की अवस्थिति व्यवस्था के सापेक्ष निर्रथक हो जाती है। इस निरर्थकता के अन्वेषण में कैलाश केवल बिम्ब बना कर आलोचना नहीं करते बल्कि  यहां कैलाश की दृष्टि असंगतियों पर केन्द्रित हो जाती है। यहीं पर उनकी कविता लोकधर्मी कविता या सामान्य कविता से पृथक मार्ग अख्तियार कर लेती है। उनकी कविता के केन्द्र में व्यवस्थाजन्य असंगतियां रहती हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे धूमिल ने अपनी दृष्टि असंगतियों पर केन्द्रित की है। धूमिल के व्यंग्य से कैलाश का व्यंग्य किसी भी स्तर मे कम नहीं है। इस असंगति के विवेचन मे धूमिल की भाषा भदेस हो जाती है पर कैलाश की भाषा लोकभाषा बन जाती है। उदाहरण के लिए गांव को लिया जा सकता है जो कैलाश की कविताओं में कई जगह आया है। जिस देश में गांव को लोकतन्त्र की आधारभूत ईकाई समझ कर लोकतन्त्र में रामराज की कल्पना की गयी हो उस गांव पर पहुंचते ही अधिकांश कवि रोमैन्टिसिज्म का शिकार हो जाते हैं।  उनकी नजर में गांव वालों का भोलापन आता है, गांव की प्राकृतिक खूबसूरती व सुखमय परिवेश का वर्णन करते वो अघाते नहीं हैं। यहां पर कैलाश गांव में पूंजीवादी व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई के दर्शन करते हैं। आजादी के बाद प्रदूषण की तरह फैली लोकतान्त्रिक मूल्यहीनता, लालच, स्वार्थपरकता के दर्शन करते हैं। जो आज के गांवों का काला सच है। रागदरबारी और गोदान के गांव में अन्तर युग और समय का अन्तर है। रागदरबारी का गांव शिवपालगंज ही कैलाश गौतम का गांव है। वही तिकडम, कमीनगी सब दिखता है
गांव गया था
गांव से भागा
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था गांव से भागा  
(गांव से भागा ) 
ऐसा गांव कहीं है हिन्दी कविता में? अगर है तो रागदरबारी मे है जहां स्पष्ट रूप से वर्गीय ढांचा भी प्रकट हो गया है। कैलाश गौतम केवल गांव की असंगति पर ही ध्यान नहीं केन्द्रित करते वो ग्रामीण समाजों मे पू़ंजीकृत वर्गीय भेद भी देख लेते हैं। जिस चालाकी से जमींदारों ने लोकतन्त्र का पुरोधा होने का ढोंग रचा उससे भारतीय सामाजिक व्यवस्था मे विशेष फर्क नहीं पडा बल्कि वर्गीय ढांचा जैसा ब्रितानी काल में था वही रहा। बस शासन का नामकरण नया हो गया। शोषण और जलालत की पद्धतियां अपरिवर्तित रहीं। सबसे बडा मजाक तो जनतन्त्र के साथ हो रहा है। इस जनतन्त्र को सामन्तों ने नये हथियार के रूप में प्रयोग किया है। इस जनतन्त्र ने जनता को भीड मे तब्दील कर दिया है। कैलाश गौतम जैसा सचेत कवि इस असंगति को कैसे अनदेखा कर सकता है वह शोषण और वर्गीय वर्चस्ववाद का उल्लेख अपनी कई कविताओं में करते हैंउनकी एक कविता है तेज धूप में।इस कविता में गांव की वर्गीय विंगतियां और शोषण का नजारा देखिए 
जोता बोया सींचा पाला
बडे जतन से देखा भाला
कटी फसल तो
साथ महाजन भी
उतरे खलिहान में  
किसान की फसल कटते देर नहीं कि महाजन भी अपना तगादा लेकर खडे हो जाते हैं। यह गांव आज का सच्चा हिन्दुस्तानी गांव है। किसानों की आत्महत्याओं को देखते हुए इस स्थिति से कहीं भी कोई इंकार नहीं कर सकता है। जनता का हक छीन कर बडे धनपति बन चुके जमींदार ही अन्तत: चुनाव लडते हैं। पानी की तरह पैसा बहा कर और जनता को सब्जबाग दिखा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। शोषण की उपज से धनपति बन चुके  और ग्रामीण जनता को धोखा देने वाले कई चरित्रों का उल्लेख कैलाश गौतम ने किया है इन चरित्रों के आचरण और वैभव देखकर लोकतन्त्रिक व्यवस्था के प्रति अनास्था का बुनियादी भाव घर कर जाता है। आजादी के बाद पुराने सामन्तों का नवपूंजीवाद के संवाहक के रूप उदय व्यक्ति और व्यवस्था के बीच मूल तनावों का कारक रहा है। इस नवोदित वर्ग के चरित्र को कैलाश जी ने अपनी कविताओं में खूब उतारा है। चाहे महतो हो या गया तिवारी अथवा गौरी ठाकुर ये सभी व्यवस्था की अव्यवस्थित अवस्था के फासीवादी और शोषित चरित्र बन कर उभरते हैं। ऐसे चरित्रों ने आजादी और लोकतन्त्र के मायने बदलकर समूची राजनीति को मटमैला कर दिया है। एक ऐसे चरित्र महतो का वर्णन देखिए
 
खूनी कातिल चोर लफंगे
हर हर गंगे हर हर गंगे
गूंज रही महतो की जै जै
महतो मे बहुतों की जै जै।
(महतो कविता )
यहां महतो सामन्तवाद का घिनौना चेहरा है जो लोकतन्त्र के इर्द गिर्द फैले पडे हैं। इनके पीछे हजारों अपराधियों का हजूम है जो महतो की जै जै के साथ अपनी भी उपस्थिति दर्ज कर अपना भी महत्व जनसेवक के रूप मे दिखा रहे हैं। महतो राजनीति और अपराधीकरण की एक जीवन्त मिसाल है जो पहली बार अपनी समूची सत्ता को बरकरार रखते हुए कविता में उपस्थिति है। इसी तरह का दूसरे चरित्र जो गौरी ठाकुर और गया तिवारी हैं जो इसी लोकतान्त्रिक सामन्तवाद के प्रतीक बन कर कैलाश की कविता में आए हैं। इनकी जमीन कवि ने अपनी जमीन मे दिखाई है इनकी सत्ता कवि की कर्मभूमि है। ऐसे नेता केवल इलाहाबाद या हंडिया का चरित्र नही बयां करते अपित समूची  हिन्दुस्तानी राजनीति का चरित्र बयां करते हैं
 
गौरी ठाकुर गया तिवारी
गांव मुरैना पोस्ट भिखारी
हंडिया गंगा पार निवासी
सात साल से काशीवासी
काशी में रंग छांट रहे हैं
जमकर चांदी काट रहे हैं
हरदल सिर आंखों पर रखता
अदभुद है ये खद्दरधारी । 
 (कविता लौट पडी )
चांदी काटना मतलब लूटना चोरी करना भ्रष्टाचार करना। जनता की कमाई को काली कमाई में तब्दील करना है। ऐसे ही कर्म आजकल के जनप्रतिनिधियों के हैं। आज भी हमारी व्यवस्था में गौरी ठाकुर और गया तिवारी समाप्त नहीं हुए हैं बल्कि उदारीकृत लोकतन्त्र में और सबल होकर जनता के हक पर काबिज हैं। लोकतन्त्र के बैनर तले फल फूल रहे पूंजीवाद की कैलाश गम्भीर और वाजिब आलोचना करते हैं। उनकी कई कविताओं में पूंजीवाद और लूट का घोर प्रतिरोध किया गया है। यह प्रतिरोध गांव की जनता के सबसे निकटस्थ संकटों का प्रतिरोध है। शहर से लेकर गांव तक क्षेत्रीय नेताओं का जो नया बुर्जुवा वर्ग पैदा हो गया है उसने जनता के हिस्से की आजादी को लूट लिया है। असली आजादी इसी वर्ग की है। आम आदमी की नही है तहसीलों, कचेहरी, सरकारी दफ्तरों में दलाल के रूप में यही वर्ग रहता है। यही वर्ग गांव मे महाजनी करता है। यही वर्ग चुनाव लडता है। समस्त उत्पादन का नब्बे फीसदी पूंजीपतियों के साथ मिलकर यही वर्ग डकारता है। कैलाश गौतम ने इस वर्ग की आलोचना की है इस वर्ग की पहचान कुछ ही कवि कर पाए हैं। जिन्हें गांवों में आम की डार में झूला डालना है, जिन्हे खेतों में हरियाली की रंगीन अदाएं देखना है,  जिन्हे पेड़ों के पत्तो और बारिश की छम-छम में मधुरिम संगीत के दर्शन करने हैं,  वो इस वर्ग को नहीं पहचान सकते गौरी ठाकुर से वही रूबरू होगा जो गांव में पिकनिक की दृष्टि ले कर नहीं जाएगा बल्कि वर्गीय दृष्टि लेकर जाएगा। देश में चाहे गेहूं कम हो चाहे पेट्रोल इस वर्ग को कभी समस्या नहीं रहती। इसका पेट हमेशा भरा रहता है। इस वर्ग पर चोट करते हुए कैलाश कहते हैं कि
सौ में दस की भरी तिजोरी
नब्बे खाली पेट
झुग्गी वाला देख रहा है
साठ लाख का गेट
अन्धी है सरकार व्यवस्था
अन्धा है कानून
कुर्सी वाला देश बेचता
रिक्शे वाला खून  
(कविता लौट पडी
ये है भारत का नव बुर्जुवा वर्ग जो आजादी प्राप्त होने के साथ ही समूची व्यवस्था में काबिज हो गया है। इस वर्ग के चरित्र को कैलाश गौतम बडे यथार्थवादी तरीके से तर्क के साथ प्रस्तुत करते हैं। प्रजातन्त्र के प्रति इस रोष को हम मोहभंगया अनास्था कह सकते हैं जो उन्नीस सौ साठ के बाद कविता का मूल स्वर रहा साठ के दशक में जो मोहभंग मिलता है उस मोहभंग से कैलाश को अलग नही किया जा सकता। क्योंकि ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों परिदृश्य विकराल होता गया और मोहभंग अनास्था में बदलता गया। जितने भी मुख्यधारा के कवि रहे हैं वो सब मोहभंग से अनास्था तक का सफर तय किए हैं। यही मोहभंग और अनास्था कैलाश में भी है और सर्वाधिक प्रमाणिक तथ्यों व चरित्रों के साथ है तो कैलाश मुख्य धारा में क्यों नहीं रखे गये यह प्रश्न सालता है।

 

कैलाश बखूबी समझते हैं लोकतान्त्रिक अवमूल्यन का शिकार संस्थाएं अब आम जनता के काम की नहीं रहीं क्योंकी आज का यह संकट जिसे आदमी भुगतने को अभिशप्त है द्वन्दात्मक इतिहास का संकट है संस्थाओं का अन्त इनका उपचार नहीं है वर्गीय अन्त इनका उपचार है वो कहीं-कहीं तो खुलकर क्रान्ति और व्यापक परिवर्तनों की बात करते हैं इस समय वर्गीय वर्चस्ववाद ने ऐसा संकट खडा कर दिया है कि मनुष्य का अपने आप से ही विश्वास उठ गया है एक ओर आदमी विकास के मिथ्या दावों के बीच तेजी से पुरातन को छोड रहा है तो दूसरी ओर नयापन के लिए उसके पास कोई साकार कल्पना नहीं कर पा रहा है परिस्थितियों ने इस कदर जकड लिया है कि उसकी चिन्तन पद्धति में बदलाव की उम्मीदें गायब हो चुकी हैं उनकी कविता उतरे नहीं ताल में पंछीमें इस तथ्य की व्यंजना है न केवल इस कविता बल्कि अपनी कई कविताओं में वो टूटे हुए सपनों की बात करते हैं टूटे हुए सपने मतलब सारी उम्मीदें टूटकर बिखर चुकी हैं आदमी त्रासद अकेलेपन से जूझ रहा है यह अकेलापन साठ के दशक की कविता में खूब रहा उम्मीदों का हश्र उल्लेख करते हुए वो कहते हैं  

सपने चकनाचूर हुए  
जितनी दूर नहीं सोचे थे 
उतनी दूर हुए
 (उतरे नहीं ताल में पंछी)  

कैलाश इस परिस्थिति से एक प्रतिबद्ध कवि की तरह निजात चाहते है़ उनकी कई कविताएं आवाहन गीत की तरह है जिनमे जागरण गीत गाते उन्हे देखा जा सकता है  जनता के पक्ष में जागरण गीत गाना हिन्दी कविता की पुरानी परम्परा है जयशंकर प्रसाद की बीती विभावरी अब जाग री  महादेवी वर्मा का गीत जाग तुझको दूर जाना  निराला का अब तो जागो एक बार   इसी तरह त्रिलोचन, केदार, और विजेन्द्र ने भी जागरण गीत गाए हैं जागरण गीत वही कवि गाता है जिसका  जनशक्ति में अटूट विश्वास होता है और कवि समझता है उसके गीत जन गीत है जनता के लिए हैं गीत जनता की सोच में परिवर्तन कर सकते हैं

जागो मेरी नींद
 जागो मेरी नींद सुहागिन 
आज चांदनी में ।  
(कविता लौट पडी)

इस जागरण के अलावा कविता में जनविद्रोह के प्रतीक बादल भी उनकी कविता में मिलते हैं उनका बादल सौन्दर्यधर्मी नहीं है न किसी किसान ललना के वस्त्र ठीक करके किसी प्रेमी का सन्देश भेजने वाला दूत है कैलाश का बादल निराला  के बादल राग जैसा क्रान्तिकारी व विप्लवधर्मी है बादल कविता का एक अंश देखिए  

सोच रहा परदेशी कितनी लम्बी दूरी है  
तीज के मुंह में बार बार बौछार जरूरी है  
मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ न 
 छमछम और छमाछम बादल राग सुनाओ न। 

बादल राग आप समझ रहे होंगें यह वही बादल राग है जिसे निराला नें सुना था इसलिए कैलाश निराला का ही शब्द बादल राग प्रयोग कर रहे हैं एक बादल राग जो अस्थिर सुख पर दुख की छाया हैजो अम्बर में भी राग अमर भर देता है जिसकी गरज से बडे बडे पूंजीपति घबरा जाते हैं एक ऐसा राग जो बडे बडे परिवर्तनों का सूचक हैकैलाश क्रान्ति या परिवर्तन की बात केवल प्रतीकों में नही करते वह सीधे सीधे भी परिवर्तनों की प्रस्तावना करते हैं। यह आरोप भी उनपर लग सकता है कि जब क्रान्ति की बात आती थी तो कैलाश छायावादी भंगिमा में प्रतीके सुरक्षित गढ में खडे जाते थे दरअसल प्रतीकों में बात कहने की परम्परा रही तो उन्होने केवल इस परम्परा को वहन करने के लिए प्रतीकों में बात की इस  बात को वो अपनी कई में अभिधा रूप में भी कहते हैं। जो कवि सबसे अलहदा दृष्टि लेकर अंसगतियों के खुलासों में संकोच नहीं कर सकता वह क्रान्ति में कैसे करेगा। कैलाश ने गीतों के फार्मेट का भी प्रयोग परम्परा के निर्वहन हेतु किया है वो काव्य रुपों में परम्परा और कथ्य में आधुनिक युगबोध लेकर चलते थे यही उनका अलहदापन है जो सब कवियों से उन्हे अलग कर देता है यही अलहदापन उनकी पहचान बन गयी हैउनकी एक कविता है पनप रहा विद्रोह  इस कविता में वो आक्रोश की सीमाएं भी तोड देते हैं वो भी एक नए भाषिक अन्दाज में

कडिंयां टूट रही कैदी की  
अब फाटक भी टूटेगा  
पर उपदेश कुशल बहुतेरे  
सबका भांडा फूटेगा  
( पनप रहा विद्रोह )  

भांडा फूटना मतलब रहस्य उजागर होना है शोषक और शोषित के मध्य अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव पूर्ण परिवर्तनों का सूचक है ये भांडा फूटना। कैलाश इस परिवर्तनों पर कतई युटोपियाई नहीं हैं। उन्होंने जनता की चेतना व प्रतिरोध का उल्लेख अपनी कविताओं मे किया है कहा जाता है कि जब पू़ंजीवाद अपनी चरम अवस्था में होता है तो प्रतिरोध स्वत: जन्म लेता है कैलाश ने एक कविता में इस स्थिति को दिखाया है आप भी देखिए 

बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा 
कहूंगा कहूंगा कहू़गा कहू़गा  
कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई  
अकेले तुम्ही सब उडाओगे भाई (कविता लौट पडी)  

अर्थात अब जनता कहने से चूकने वाली नहीं है अब हद है पीडाओं का सिलसिला सहते सहते पानी सर से ऊपर हो चला है यह स्थिति कवि का बयान भर नही मानना चाहिए इसे जनता की मनोस्थिति से जोडकर देखा जाना चाहिए यह बयान आम आदमी का है जिससे कवि को उम्मीदें हैं।  क्रान्ति का इतना सख्त कवि शायद ही कोई हो जो सीधे सीधे जनता बनकर समूची व्यवस्था को ललकार रहा है कैलाश जनपक्ष के ही नहीं जनक्रान्ति के भी कवि हैं पर आश्चर्य है हिन्दी की बुर्जुवा आलोचकीय दृष्टि ने इन्हे क्यों जमात से बाहर कर देने का कुत्सित षडयंत्र किया।  शायद उन्होने कैलाश को पढा नही होगा लोकधर्मी कवि की सबसे बडी विशेषता होती है कि वह अपने लोककी परम्परा रीतियों के साथ साथ चरित्रों का भी उल्लेख करता है ये चरित्र लोक की विसंगतियों और त्रासदियों के भोक्ता होते हैं इनके माध्यम से कवि या लेखक अपने सरोकारों  की अभिव्यंजना करता है ये चरित्र ही कवि के वैयक्तिक और सामाजिक सवालों का जवाब देते हैं सब कुल मिलाकर लोक के अन्दर उठने वाले हर अन्तर्सघर्ष के प्रति कवि की दृष्टि इन चरित्रों में ही समाहित रहती है। कैलाश के चरित्र वर्गीय आधार पर गढे गए हैं अर्थात समाज की वर्गीय विभेदों को ध्यान मे रखते हुए कैलाश गौतम ने चरित्रों का प्रयोग किया है एक ओर जहां गया तिवारी और गौरी ठाकुर, व महतो जैसे पूंजीवादी सामन्ती चरित्र आए हैं तो दूसरी तरफ संघर्षरत समुदायों के चरित्र भी उपस्थित हैं संघर्षरत चरित्रों में स्त्री चरित्रों का कैलाश जी ने गजब प्रयोग किया है प्रयोगकविता और रीतिकविता के स्त्रीवादी विमर्श से अलग चरित्र इनकी कविता मे उपलब्ध हैं इनके स्त्री चरित्र मेहनतकश समुदाय से हैं जिन पर कवि ने रौमैन्टिसिज्म नहीं देखा न ही जबरिया नखसिख थोपा है न प्रेम की गहराई मापी अपितु  उनके दैनिक जीवन मे आने वाली दिक्कतों का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत किया है। बडकी भौजी, नौरंगिया, ऐसे ही अलहदा चरित्र हैं। नौरंगिया का चरित्र देखिए और इस पर गौर  करिए कि असली जनवादी स्त्री विमर्श कैलाश गौतम मे है कि नहीं। परम्परागत बुर्जुवा स्त्री विमर्श को तार तार करती हुई ये कविता उम्दा चरित्र संस्कार करते हुए स्त्री के प्रति वर्गीय दृष्टि का खुबसूरत रेखांकन करती है  

देवी देवता नहीं जानती 
 छक्का पंजा नहीं मानती  
ताकतवर से लोहा लेती 
 अपने बूते करती खेती  
मरद निखट्टू जनखा जोईला 
 लाल न होता ऐसा कोईला  
उसको भी वो शान से जीती 
 संग संग खाती संग संग पीती  

गांव गली की चर्चा में वह 
 सुर्खी सी अखबार की है 
 नौरंगिया गंगा पार की है 
 (कविता लौट पडी

 ऐसा चरित्र है किसी के स्त्री विमर्श में? अगर है भी तो कैलाश का विमर्श क्या किसी बडे कवि से कम जनवादी है। क्या इसमे संघर्षों की कमी है। उनकी कई कविताओं में भी छोटे छोटे चरित्र आ गए हैं जो विषय की प्रमाणिकता को कफी हद तक सिद्ध कर देते हैं। मुन्ना, बच्चा बाबू, आदि ऐसे ही चरित्र है। एक कविता है कचेहरी जिसमे एक चरित्र का उल्लेख आया है तिवारी यह तिवारी भृष्ट व्यवस्था का आधुनिक कर्णधार है जो सरकारी आफिसों में निजी रिश्तों और परिचयों को भी ताक मे रखकर जोंक की तरह जनता को चूस रहा है

कचहरी हमारी तुम्हारी नही हैं
अलहमद से कोई यारी नहीं है  
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है  
कचेहरी की महिमा निराली है बेटे
 पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
 (कचहरी )  

बडे से लेकर छोटे हर स्तर के चरित्रों का संस्कार कैलाश जी ने किया है उनके चरित्र युगबोध की प्रमाणिक अवस्थितियों के साथ उनकी कविताओं में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इस दृष्टिकोण से भी कैलाश किसी भी कवि से कमतर नही ठहरते अब कवि की भाषा और लयात्मक बंधों पर भी चर्चा हो जाय
 

जब तक कवि अपनी भाषा को रचनात्मक उर्वरा गतिमयता से युक्त नहीं करता तो कविता पाठक से  सीधे संवाद नहीं कर सकती। कैलाश गौतम की भाषा सबसे अलग है भाषा के सम्बन्ध में उनकी अपनी रचनात्मक बाध्यताएं भी थी। वो जनसामान्य के लिए कविता लिखते थे आम आदमी के बीच सीधे जाकर पढते थे इसलिए उन्हे पेशेवर काव्य भाषा की जरूरत नहीं पडी उनको ऐसी भाषा खोजनी पडी जो जनभाषा बन सके इसके लिए उन्होने लोकभाषा से शब्द खोजे हैं लोकभाषा को कविता संचार की अन्दरूनी भाषा बनाने का काम कैलाश गौतम ने किया है उनकी भाषा परिवेश और व्यवस्था मे घिरे हुए आदमी का बखूबी बयां भी कर देती है। सशक्त भाषा का कविता में वही स्थान होता है जितना कि प्रभावक अर्थ सम्प्रेषण का महत्व होता है। कैलाश लोकभाषा का प्रयोग बहुस्तरीय ढंग से करते हैं जिससे विषय की तल्खी व प्रमाणिकता के अतिरिक्त नयापन, चमक, ऊर्जा, सर्जनात्मकता सब गुण समाहित हो गए हैं कैलाश गौतम के सभी योगदानों अगर नकार कर केवल भाषा पर ही ध्यान केन्द्रित रखा जाय तो उनकी भाषा ही अपनी गतिमयता, ध्वान्यात्मकता, अर्थगम्भीरता से पाठक को चमत्कृत कर देती है भाषा के लिहाज से ऐसे सर्जनात्मक प्रयोग केवल धूमिल में ही मिलते हैं गान्ही जी‘ कविता की टोन का उदाहरण इस सन्दर्भ में दिया जा सकता है नौरंगिया गंगा पार की हैऔर बडकी भौजी, अमौसा का मेला, उनकी सर्जनात्मक भाषा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं इनके अलावा वो शब्द जो आम जन के बीच ही प्रचलित है चाहे वो तत्सम हों या तदभव, देशी हो या विदेशी सभी का कैलाश ने प्रयोग किया है अन्हेरे, खद्दर, खपरा, चोकर, दालान, फौरन, टिकोरे, पिसान, मसोस, छाजन, भीत, गोजर, जैसे शब्द अपनी लाजवाब अर्थवत्ता के  साथ कैलाश की कविता में उपस्थित हैं

बचपन के अलबम में खोई  
अगवारे पिछवारे 
 अमराई ही अमराई  
सरसों लदी कियारी  
फागुन धूप नहाई है
 (कविता लौट पडी)  

ऐसी रचनात्मक भाषा के साथ अगर काव्यत्व का सौन्दर्य भी जुडा हो तो कवि को जमात से बाहर घोषित करने का कोई कारण नहीं बनता है कविता मे लयात्मक प्रवाह का प्रयोग अपने तरह की अनूठी परम्परा है सम्पूर्ण छायावादी कविता इस लयात्मक संगति भरी है निराला मुक्त छन्द के जनक कहे जाते हैं उनके मुक्त छन्दों में भी उत्कृष्ट लयात्मक संगति के दर्शन होते हैं। कैलाश छन्द के समर्थक थे उनकी कविता में प्रयुक्त हुए लयात्मक बन्ध क्लासिकल और लोकछन्द दोनो कोटियों के हैं इस सन्दर्भ में वो केवल फार्मेट में जकड कर नही बैठ जाते हैं कि छन्द और लय के फेर मे अपने अर्थ की बुनावट को गडबड कर दें उनकी कविता में लयात्मक संगीत की  बुनावट का आधार अर्थ संगीत है। शब्द संगति के साथ साथ अर्थ संगति के मिलने से उनकी कविता सर्वग्राह हो जाती है। केवल शब्द बन्धों के द्वारा हम लयात्मक कारीगरी तो कर सकते हैं पर कविता की सम्प्रेषण क्षमता का नुकसान हो सकता है ऐसी शब्द संगति के जादूगर रीतिकाल में खूब हुए है नई कविता में भी बहुत से कवि हुए हैं जो शब्दों के अनावश्यक प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। पर कैलाश ने शब्द संगति को अर्थसंगति के उपर प्रभावी नही होने दिया है अर्थसंगति ही प्रभावी रही है। दूसरी बात उनके शब्द और लयात्मक बन्ध दोनो लोकोपार्जित हैं इसलिए सम्प्रेषण की भंगता का सवाल ही नही खडा हो सकता है यदि उनके शब्द अभिजन व पेशेवर काव्यभाषा के होते तो एकबारगी अर्थ भंग की रीतिशास्त्रीय परम्परा का दोष उन पर लग सकता थालगभग सभी लोकधर्मी कवियों की तरह कैलाश ने भी संगीत और लय का आन्तरीकरण किया है यह लय शब्दों के साथ अर्थ और उनके रचनात्मक सरोकारों में रच बस गयी है इसलिए कविता सौन्दर्य की पराकाष्ठा पार करके अपने कथ्य को भी गरिमामय प्रभाविकता प्रदत्त करती है

तेज धूप में नंगे पांव
 वह भी रेगिस्तान में 
 मेरे जैसे जाने कितने 
 हैं इस हिन्दुस्तान में। 
 (तेज धूप में

इस कविता में रेगिस्तान और हिन्दुस्तान में केवल लयात्मक अन्त्यानुप्रास भर नहीं आया है बल्कि दोनो में अर्थ संगति भी बेहतरीन है रेगिस्तान का आशय है तपती जमीन जिसमे नंगे पांव चलना कष्टप्रद है ठीक वही हालत हिन्दुस्तान में है जिसमे जीवन को सही तरीके जीना कठिन हो गया है। यह बिम्ब सामयिक हिन्दुस्तान के दर्द को बयां कर रहा है यह बता रहा है कि खतरों की व्यापकता इतनी गहरी है कि मनुष्य के लिए जीवन का संकट खडा हो गया है। कैलाश की लगभग समस्त कविताएं इसी भाव संगीत, अर्थसंगीत, और शब्द संगीत की मनोहारी भूमिका लेकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं। आज के समय जब गद्य और कविता के बीच अन्तर खत्म होता जा रहा है ऐसे समय कविता को उसकी मूल संगीतात्मक लोकधर्मी धारा से जोड देना एक बडा अवदान है शायद इसीलिए अपने आखिरी संग्रह का नाम उन्होने कविता लौट पडीरखा है जिसकी भूमिका में उन्होने गीतों की जनवादी भूमिका पर जोर दिया है
 

विचार और कला के हर एक  मापदंड में कैलाश गौतम खरे उतरते हैं उनकी प्रतिबद्धता, लोकधर्मिता, जनपक्षधरता पर कोई सवाल नहीं खडा किया जा सकता है और भाषा के मामले में ऐसी  रंगत पायी जाती है जो शायद ही किसी कवि मे दिखे सर्जनात्मक भाषा के सन्दर्भ में वो धूमिल की बराबरी करते हैं अपने लयात्मक बन्धों, गीतों के द्वारा एक तरफ वो अपनी जमीनी लोक बद्धता का संस्कार करते हैं तो दूसरी ओर जीवन और परिवेश की पाशविक परिस्थितियों, पूंजी द्वारा निर्मित विभेदों, नव जात सामन्ती समुदायों, असंगतियों की तीखी आलोचना करके सामयिक एवं जरूरी प्रतिरोध का सृजन करते हैं कैलाश गौतम काव्यालोचन के परम्परागत मूल्यों से लेकर आधुनिक मापदंडों तक सब मे श्रेष्ठ हैं उनकी कविता अकाट्य है उनके अभिमत अकाट्य है कैलाश गौतम जैसे जनकवि को केवल मंचों में जाने के कारण और उनके फार्मेट के कारण हिन्दी कविता की मुख्यधारा से बहिस्कृत करके आलोचकों ने बडे लोकधर्मी कवि को गुमनामी के अन्धकार मे ढकेल दिया है इस वाकये पर मुझे बशीर बद्र का एक शेर याद याद आ रहा है कि

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला। 
मैं मोम हूं उसने मुझे छूकर नहीं देखा। 
आँखों मे रहा दिल में उतर कर नहीं देखा। 
किस्ती के मुसाफिर ने समन्दर नहीं देखा । 

वाकई में इन किस्ती के मुसाफिरों ने समन्दर की अवहेलना करके हिन्दी कविता की जनधर्मी रीति की ही अवहेलना की है। 

उमाशंकर सिंह परमार

सम्पर्क-

उमाशंकर सिंह परमार

मोबाईल – 09838610776

                                     

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है।)

उमा शंकर सिंह परमार का आलेख "अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”


वीरेन डंगवाल


विगत 28 सितम्बर को हम सबके प्यारे कवि वीरेन डंगवाल नहीं रहे। पांच अगस्त 1947 को शुरू हुआ उनके जीवन का सफर 28 सितम्बर को सुबह 4 बजे समाप्त हो गया वीरेन दा न केवल एक बेहतर कवि थे बल्कि एक उम्दा इंसान भी थे उनसे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति सहज ही उनका मुरीद हो जाता था जीवन में अटूट विश्वास रखने वाला हम सबका प्यारा यह कवि पिछले कुछ समय से कैंसर से जूझ रहा था पहली बार परिवार की तरफ से वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उमाशंकर सिंह परमार का एक श्रद्धांजलि आलेख साथ में वीरेन डंगवाल की कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं इनका चयन उमाशंकर ने ही किया है         

“अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”
उमाशंकर सिंह परमार 

दिनांक २८-०९- २०१५ की सुबह पांच बजे मेरे फोन की घंटी बजी मैंने देखा तो निलय उपाध्याय का फोन था। जैसे फोन उठाया निलय जी ने कहा की वीरेन दा नहीं रहे। तुरत मित्रों को फोन किया। इस दुखद खबर की पुष्टि की। पता चला की आज सुबह चार बजे हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल अपनी बीमारी से जूझते हुए अंतत: मृत्यु के हाथों पराजित हो गए। आखिर कार मौत पर किसका जोर चल सकता है। दुःख इस बात का रहा की वीरेन दा अभी और जी सकते थे। बीमारी से टूट जाने के बाद भी उनमे रचनात्मक ऊर्जा अभी बहुत शेष थी। विचारों और प्रतिबद्धता को उन्होंने हमेशा जिया और इन्हीं मूल्यों को उन्होंने अपनी कविताओं में उकेरा। वीरेन दा हिन्दी के उन कवियों में थे जिन्होने कविता के साथ साथ अपने व्यक्तित्व को भी जनसाधारण के लिए समर्पित रखा। आज जब अधिकांश लोग बहुत थोडे से लालच में अपनी प्रतिबद्धता और काव्य-सरोकारों के प्रतिपक्ष में खडे हो जाते हैं, ऐसे समय अपने व्यक्तित्व को  अन्धेरोंके खिलाफ रखना एवं अपने चाहने वालों को उजाले का खुशनुमा अहसासपूर्ण स्वप्न देना वीरेन दा ही कर सकते थे। वीरेन दा पेशे से शिक्षक थे। शिक्षक के गुणों ने उनके व्यक्तित्व को कर्मठ बनाया वो बड़े पत्रकार थे| ‘अमर उजाला’ जैसे बडे कारपोरेट पत्र का सम्पादन करने के बाद भी उनके विचारों और उनके सरोकारों पर अमर उजालाका प्रभाव नही पडा। जब वीरेन दा अमर उजाला कानपुर के सम्पादक थे उस समय वो रात दिन मेहनत करते थे। अमर उजाला की पाठक संख्या मे भारी बढोत्तरी हुई थी। वीरेन दा के बाद आने वाले सम्पादकों के लिए वह पाठक संख्या कई वर्षों तक  चुनौती बनी रही। अमर उजाला के व्यापक प्रचार प्रसार में वीरेन दा के योगदान कोई भी इंकार नहीं कर सकता। वीरन डंगवाल का जन्म ५ अगस्त १९४७ को उत्तराखंड के टिहरी गढवाल जिले में कीर्तिनगर स्थान में हुआ था लेकिन पिता श्री रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल की नौकरी यू पी में थी। उस समय तक उत्तराखंड और यूपी दोनो एक थे। वीरेन जी की रुचि  बचपन से ही कविता में थी। कहते हैं कि पहली कविता उन्होने बाईस वर्ष की उम्र मे लिखी जो उस समय किसी लघु पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी। तब से लेकर वो मृत्युपर्यन्त लिखते रहे और विभिन्न पत्रिकाओं में छपते भी रहे।
नैनीताल, कानपुर, बरेली आदि शहरो में पढ़ते हुए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की और वर्ष १९७१ से बरेली कालेज मे हिन्दी का प्राध्यापन शुरू कर दिया। उनकी पत्नी रीता भी बरेली मे ही शिक्षक थी इसलिए वो स्थाई रूप से बरेली मे ही रहने लगे। लिखते बहुत कम थे। बाईस वर्ष से लिखते-लिखते उनका पहला कविता संग्रह  १९९२ मे आया था इसी दुनियाँनाम से। इस संग्रह में उनकी अब तक की लिखी समस्त चर्चित कविताएं संग्रहीत थी। स्तरीय और लघु पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहने से संग्रह आने के पूर्व ही उनकी पहचान बडे कवि के रुप हो गयी थी। इस संग्रह पर उन्हें  रघुवीर सहाय सम्मान, और श्रीकान्त वर्मा सम्मान जैसे सम्मान भी मिले। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह “दुष्चक्र मे सृष्टा” रहा जो वर्ष २००२ मे छप कर आया। इसी संग्रह पर उन्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। मौलिक कविताओं के अतिरिक्त उन्होने विश्व के जनपक्षधर कवियों के अनुवाद भी किए। उनके जैसे भावपूर्ण और भाषा की व्यंजना  शक्ति से युक्त मौलिक अनुवाद देखने मे कम आते हैं। वीरेन दा के अनुवाद विशेषकर जो उन्होने पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत की कविताओं के किए वे आज भी अनुवाद के लिए स्थापित मानक की तरह हैं। जनपद और लोक के कवि वीरेन दा जनकवि थे। उत्तराखंड के काव्य प्रेमी उन्हे इंसानियत के लिए लडने वाले योद्धा की तरह मानते हैं। जैसे गिर्दा के जनगीत वहां की जनता मे लोकप्रिय रहे ठीक वैसे ही वीरेन दा की कविताएं उनके पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। वीरेन डंगवाल की कविताओ मे लोकतत्व, जनपक्षीय चेतना, मोहभंग, बेचैनी सब कुछ मौजूद है। समय के प्रति सजग दृष्टि ने उनकी कविता को कभी काल और देश की सीमाओं में नहीं बांधा| किसी एक जमीन व समुदाय की विशिष्ट अवस्थिति पर हम उनकी कविताओं का संकुचन नहीं कर सकते। उनकी कविताओं की व्यापक विषय भूमि व व्यापक जन दृष्टि ने उनकी कविता को हिन्दुस्तान का समय चित्र बना दिया है। सत्तर के दशक का मोहभंग और आज के भूमंडलीकृत लोकतन्त्र के प्रति बेचैनीपूर्ण  अनास्था उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। वीरेन दा की कविताएं अपेक्षाकृत छोटी होती थीं। छोटी कविताएं अपने कलेवर और ख़ास गुम्फन के कारण बडी कविताओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और मारक होती हैं। वीरेन दा की छोटी कविताएँ जीवन के संघर्षरत क्षणों का तिक्त अनुभव हैं। छोटी-छोटी लडाईयां, छोटे-छोटे पराजय, छोटे-छोटे रचनात्मक व्यूह उनकी सामान्य से विषयों की कविताओं में अपनी समग्रता के साथ उभर आए हैं। इन्ही छोटी-छोटी संरचनाओं से वे बडे परिवर्तन का स्वप्न सिरजते हैं। 
वीरेन दा की बेचैनी समूचे हिन्दुस्तान की बेचैनी है। उनके पहले संग्रह मे ही इस बेचैनी को परखा जा सकता है। इस बेचैनी के कारणों की खोज मे वो  व्यवस्था की तह में चले जाते हैं। और अपनी जनपक्षीय मनोदृष्टि से वैज्ञानिक तरीके से द्वन्दात्मक अवस्थितियों का परीक्षण करते हैं। जब वो खतरों के मूल में पहुंचते हैं तो वर्गीय विभेदों और पूंजीकृत विसंगतियों पर उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है ‘जिएँ कैसे ज़िंदगीकविता में उन्होने कहा है हवा तो खैर भरी ही है, कुलीन केशों की गन्ध से यह भारतीय समाज का मौलिक सच है। कुलीनता की गन्ध हवा में भरने का मतलब है। चतुर्दिक अभिजात्य का प्रभाव है। सत्ता, उत्पादन, वितरण, स्वामित्व, सब कुलीनता की गन्ध से युक्त हैं। उनकी इस जनदृष्टि का सबसे बेहतरीन उदाहरण लम्बी कविता “रामसिंह” है। रामसिंह वीरेन दा की सर्वाधिक चर्चित कविताओं मे है। इस कविता के द्वारा कविताओं के सहारे कैसे चरित्र स्थापित किए जाते है इस बात को उनहोंने समझा दिया है। अपनी बुनावट व गम्भीरता के लिहाज से यह कविता महाकाव्यात्मक है और यथार्थ द्वारा विनिर्मित बेचैनी का जितना सफल चारित्रिक पहलू इस कविता मे उपलब्ध है वह बहुत कम दिखता है। इस कविता का मूल प्रतिपाद्य मनुष्यता है जो फौजियों के सहारे एक जनपक्षीय अभियान की तरह बुना गया है। एक आम आदमी की चिन्तन प्रक्रिया कितना बडा परिवर्तन कर सकती है उस परिवर्तन की व्यापक सम्भावनाओं की कविता है। रामसिंह की ये  पंक्तियां व्यवस्था के कारणों पर सवाल उठाती हुई एक टीस पैदा कर देती हैं।
कौन है वे कौन हैं / जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते है़। सैनिक का लडना अपने लिए और अपनो के लिए लडना नहीं है मजलूम शोषित जनता की लडाई नही है यह लडाई, यह सैन्यीकरण, यह युद्धोन्माद सब विश्व की वर्चस्ववादी शक्तियों का अपने विस्तारण द्वारा रचा गया खेल है। इसी दृष्टि से वो थोथे राष्टवाद, दंगे और फसाद को भी देखते हैं। युद्ध से केवल जनता मरती है जनता की नजर में ये युद्ध मनुष्यता विरोधी साजिश है| वीरेन जी के व्यक्तित्व और काव्य सरोकारों को उनकी कविता कवि एक, और कवि दो से भली भांति समझा जा सकता है। कवि अपने व्यक्तित्व का रेखांकन व सामाजिक उत्तरदायित्व को किस सहज अन्दाज से सन्तुलित करता है ये कविताएं इस बात का बेहतरीन उदाहरण हैं जब तक कविता से कवि की पसंद नापसंद, खान-पान, रहन-सहन का पता न चले तो कविता में विचारों को ठूसने से भर से काम नहीं चलता है। एक श्रेष्ठ लोकधर्मी कवि की पहचान उसकी कविता में अन्तर्निहित उसके निजी व्यक्तित्व से भी होती है वीरेन दा का मनमौजीपन, फक्कडपन उनकी कविताओं मे उतर आया है विशेषकर छोटी-छोटी कविताओं में जहां जीवन के सम्पर्क में आने वाली हर एक जरूरी गैर जरूरी चीजों से कविता रची गयी है। हजार जुल्मों से सताए गए मेरे लोगो /मैं तुम्हारी बददुआ हूं / सघन अन्धेरे में तनिक दूर पर झिल मिलाती /तुम्हारी लालसा / (कवि दो) कविता का यह अंश कविता के प्रति कवि की प्रतिबद्धता का प्रभावशाली रेखांकन है। सघन अन्धेरा बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि मुक्तिबोध मे है इस सघन अन्धेरे को उनकी रामसिंह कविता से जोडकर पढा जाय तो अन्धेरे की व्यापकता उजागर हो जाती है। मुक्तिबोध के अन्धेरे में उभरने वाले चरित्रों को वीरेन दा भी देखते हैं राम सिंह कविता में खडा किया गया सवाल और अन्धेरें में कविता का रात्रिकालीन जुलूस एक की तथ्य की अभिव्यंजना करते है़। पर वीरेन दा की कविताओं में जहां भी अन्धेरा आता है, वह भले ही कठिन हो सघन हो वहां पर एक उजाले की क्षीण किरण का उल्लेख जरूर होता है। इसलिए उन्हे उजाले के स्वप्न का कवि कहा जाता है। उनकी एक कविता ‘आयेंगे उजले दिन जरुर आयेंगे’  अन्धकार के विरुद्ध उजाले की जबरदस्त सम्भावनाओं की कविता है। सब कुछ स्याह होने के बाद समाजिक निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया में विश्वास रखते हुए बदलाव का स्वप्न देखना आशावादी जज्बे का प्रमाण है। संकट बडा है और घना संकट है घातक परिस्थितियां मौजूद है इन परिस्थितियों से भयाक्रान्त होकर बैठ जाना बदलाव की उम्मीदों पर पानी फेर देता है। संकटों में इतनी शक्ति नहीं है कि आम आदमी की चेतना को नष्ट कर सकें  पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं / जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे”। चूहों से अभय रहने की हिदायत भी निराधार नहीं है वह भी सतर्क प्रमाणिकता के साथ है| क्योंकि अभी समर शेष है अभी जनयुद्ध शेष है उसे होना है होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार / तब कहीं ये मेघ छिन्न भिन्न हो पाएंगे। यह तसल्ली मिथ्या नहीं है क्योंकि हर सपने के मूल में सच्चाई होती है मैं नही तसल्ली झूठ मूठ की देता हूं / हर सपने के पीछे सच्चाई होती है /हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है /हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है। यह एक वैज्ञानिक तर्क है जिस व्यक्ति को इतिहास का संवादी ज्ञान है वह इस तर्क से और वीरेन दा के स्वप्न से इंकार नहीं कर सकता है। चीजें और परिवेश परिवर्तन शील है़ जगत का मूलभूत चरित्र बदलाव है। हर समय एक सा नही रहता कभी न कभी परिवर्तन होता ही है। इसलिए जो भी आज है वह भी बदलेगा। मनुष्यता अपने मूल संस्कारों को जरूर पाएगी पूंजीवादी शक्तियों द्वारा तयशुदा जडता एक दिन खत्म होगीजीवन के प्रति उम्मीदों का समय अवश्य आएगा यह कविता उनकी क्रान्तिचेतस समझ और  वैचारिक मनोस्थिति से भली भांति परिचित करा देती  है।
 
वीरेन दा का युग हिन्दी कविता के दो अतिवादी ध्रुवों मे विभक्त था एक ओर प्रयोगवादी वैयक्तिक कु़ंठाओं और यौन बिम्बों से मोहजाल में बँधी कविता थी दूसरी ओर नक्सलवादी आन्दोलन से प्रभावित जुमलेबाजी थी। इन दोनो धाराओं को लगभग अस्वीकार करते हुए उन्होने हाशिए पर पडे लोगों की वस्तुस्थिति और परिवेशगत विकृतियों को अपना विषय बनाया। वैचारिक पुष्टता, तर्क, लोकभाषा, लोकसौन्दर्य की नयी दृष्टि लेकर तत्कालीन हिन्दी कविता में जनवादी लोकतान्त्रिक परम्परा को बरकारार रखा। वैचारिकता के कारण ही उनकी कविता में यथार्थ का वास्तविक बोध उत्पन्न हो रहा है यह वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी अब तक की कविताओं मे भी देखी जा सकती है। यह सच है उनके विषय अनुभूत थे पर अनुभवों की अपने समय के साथ प्रमाणिकता स्थापित करने मे विचारों का ही योग है। उनकी कई कविताओं में देखा जा सकता है जहां परिवेश अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है वहां उनकी भाषा विद्रोह की भंगिमा अख्तियार कर लेती है। जहां परिवेश से संघर्षरत आम आदमी टूटता है पराजित होता है वहां पर वो स्वप्नों की नयी ऊर्जा लेकर वैज्ञानिक तर्क से नियति का परीक्षण करते हैं और बदलाव की उम्मीदों से कविता को भर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वो आदमी की मनोस्थिति पढ रहे हैं। जैसे पढते हैं वैसे कविता रचते हैं।
वीरेन डंगवाल के काव्य में संवेदना और समय का जो गठबन्धन दिखाई देता है वह भाषा के स्तर में भी है। बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनको उन्होने नये सन्दर्भ देकर नवीन अर्थवत्ता का संधान किया है। एक बडे कवि की पहचान होती है कि वह अपने प्रयोगों से शब्दकोष मे वृद्धि करता है कि नही इस दिशा मे त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार और विजेन्द्र जैसे ही वीरेन डंगवाल ने भी बहुत से लोकशब्दों को काव्यभाषा का स्वरूप दिया अपने इस गुण के कारण वो आज की समस्याओं को सही अभिव्यक्ति दे सके है़। वीरेन दा भाषा के स्तर पर भी संवेदनशील थे शिल्प के स्तर पर जो लयात्मक विधान मिलता है वह भाषा के स्तर पर संवेदनात्मक विधान में बदल जाता है। यही संवेदना वैचारिक सूत्रता में बँधकर एक मुकम्मल कविता का रूप धारण करती है। वीरेन दा की कविताओं पर बहुत लिखा पढा गया लेकिन उनकी रचना प्रक्रिया की पहचान और उनकी  सामयिक सार्थकता को पहचानने के लिए उनकी कोई भी रचना कोई भी एक कविता पढी जा सकती है लगभग हर कविता में उनका अलहदा स्वर अपनी अलहदा बुनावट के साथ उपलब्ध है। आज जब कि कविता में यथार्थ और विद्रोह के बहाने राजनैतिक नारेबाजी और रटे रटे रटाए जुमलों की भरमार हो रही है वहां वीरेन दा की कविता अपने समय के साथियों और समय के बाद के साथियों के बीच आसानी से पहचानी जा सकती है, जो अपने सधे अन्दाज में भविष्य मे भी भ्रमित जीवन दृष्टि को सही दिशा देती रहेगी उनकी प्रतिनिधि कविताएं रामसिंह‘ , कवि एक, कवि दो, उजले दिन, और बांदा मे लिखी एक कविता जिनका मैने उल्लेख किया है आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन कविताओं के माध्यम से मैं वीरेन दा के अवदानो का स्मरण करता करता हूं। अपनी रचनात्मक सेवाओं से हिन्दी साहित्य की जो उन्होंने सेवा की हिंदी कविता की जनवादी धरा की पहचान स्थापित करने में जो मदद की उसकी भरपाई निकट भविष्य में असंभव है जिस सहज ढंग से वो जीवन को जीते रहे, जिस सहज ढंग से जीवन को देखते रहे उसी सहज ढंग से मौत से लड़ते हुए  चले जाने वाले प्रतिबद्ध, और संवेदनशील कवि को नमन करता हूं। उनके इस दुखन  निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ
कवि – १
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह.तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
कवि – २
मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़
मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह
हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो!
मैं तुम्हारी बददुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगा कर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा।
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चींए चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर हम इतने लाख बरस
तब इसके आगे भी चलकर जायेंगे
आयेंगे,
उजले दिन जरुर आएँगे
बाँदा 
मै रात, मै चाँद, मै मोटे काँच का गिलास
मै लहर खुद पर टूटती हुई
मै नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मै नींद, मै अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मै चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मै इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बास।
मै खपडैल, मै खपडैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मै केदार, मै केदार, मै कम बूढा केदार।
रामसिंह
(1970 में इलाहाबाद में लिखी गई कविता)
दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफ़दार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह, वक़्त ख़राब है
खुश होओ, तनो, बस, घर में बैठो, घर चलो।
तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कनटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात-रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थीए बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़।
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो
किसका उठा हुआ हाथ
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो,  इन्हें संगीन भोंक दोए इन्हें.. इन्हें इन्हें
वे तुम पर खुश होते हैं .. तुम्हें बख़्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगीं तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लडकियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं
सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है
बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएँगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव
इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कन्धे से लटका ट्राँजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो
ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार
कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है
कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं
आँखे मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो ।

उमाशंकर सिंह परमार

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हरेप्रकाश उपाध्याय के उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा



हरेप्रकाश उपाध्याय एक सुपरिचित कवि हैं ‘खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ’ हरेप्रकाश का चर्चित संग्रह है। हाल ही में इनका एक नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है – ‘बखेड़ापुर’यह उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ है। युवा आलोचक उमाशंकर परमार ने इस उपन्यास की एक समीक्षा की है। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा। 
                     
बखेड़ापुर – द्वन्द का व्यंग्यपूर्ण स्थापत्य
उमाशंकर सिंह परमार
हरेप्रकाश उपाध्याय हमारे समय के जागरूक कवि एवं कथाकार के रूप में जाने जाते हैं “बखेडापुर” ज्ञानपीठ प्रकाशन से वर्ष २०१४ में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास है इस उपन्यास ने अपनी व्यंग्य परकता और विलक्षण भाषिक संरचना के कारण बहुत ही कम समय में अपनी एवं अपने लेखक की पहचान स्थापित कर दी है उपन्यासकार ने कथानक को जिस अंदाज़ में प्रस्तुत किया है वह कोई नई बात नहीं पर तमाम अवांतर कथाओं को समेटते हुए किसी गावं के चरित्र को उभारना व उसी गांव को “नायक” के रूप में स्थापित कर देना किसी कला से कम नहीं है यह लक्षण आंचलिक उपन्यासों में पाया जाता है, रेणु के मैला आँचल का “मेरीगंज” इसी प्रकार का नायक है श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का “शिवपालगंज” भी इसी प्रकार का नायक है इन दोनों उपन्यासों में मूर्त रूप से कोई भी पात्र नायक बनाने की योग्यता नहीं रखता है बल्कि सारे पात्र अपने गांव के चरित्र व व्यक्तित्व निर्माण में सहायक बनकर रह जाते हैं साथी हरेप्रकाश का बखेडापुर भी इसी तरह के नायक का प्रतिनिधित्व करता है उपन्यास में प्रयुक्त कथानक, चरित्र, व्यक्तित्व, सबका आमेलन अंतत: “बखेडापुर” में ही हो जाता है
हरेप्रकाश ने इस उपन्यास में हिन्दुस्तानी गांवों की मूल नब्ज़ को पकड़ा है आज़ादी के बाद से अब तक गांवों के विकास के जितने दावे सरकारी आंकड़ों में किये गए हैं, जितना पैसा पानी की तरह बहाया गया है, जमीनी स्तर पर इन दावों की सच्चाई और दम तोडती सरकारी योजनाओं की हकीकत का पूरा खुलासा कर दिया है इस तथ्य की खोज के लिए लेखक ने सीधे तौर पर किसी कारण को उत्तरदायी नहीं ठहराया न ही वो ज़ाहिर तौर पर अपनी टिप्पणी में कोई संकेत करते हैं उन्होंने कथा का ताना-बाना ऐसा बुना है कि सारे कारण पाठक के जेहन में उतर जाते हैं उपन्यास का मूल कथ्य “वर्गीय-द्वन्द” के “जातीय-द्वन्द” में बदलने की गाथा है इस परिवर्तन में मूल में लेखक ने सामंतवाद, अंधविश्वास और पारस्परिक स्वार्थपरकता में को खोजा है सही भी है ये तीनो कारण हमारे समाजों में “यथास्थिति-वादी” जड़ता के लिए उत्तरदायी हैं इस जड़ता को यदि कोई तोड़ सकता है तो वह है आधुनिकता और आधुनिकता की संकल्पना तभी हो सकती है जब “शिक्षा” का व्यापक प्रसार हो लेकिन “बखेडापुर” की शिक्षा-व्यवस्था को “समाज का सामंती ढांचे” और “स्वार्थ-परकता” ने इस कदर तबाह कर दिया है कि बखेडापुर में शिक्षा के मायने ही बदल गए हैं यहाँ शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य है आवारा लड़कों के विवाह में पर्याप्त दहेज़ ऐंठ लेना और शिक्षक अपने निजी घरेलू कामों की अपेक्षा शिक्षण को हीनतर कार्य मानता है शिक्षा के लिए किये गए तमाम सरकारी प्रयास जमीनी स्तर में कितने निरीह हो जाते है लेखक ने इसे बखूबी दिखाने का प्रयास किया है बखेडापुर के पंचमा मास्टर, हेड सर, संगीता मैडम हर हिन्दुस्तानी स्कूल में देखे जा सकते हैं
बखेडापुर “सामंती” उत्पीडन और शोषण को जीवंत करने वाला एक उम्दा प्रलेख है व्यंग्य और भाषाई रंगीनियत के आवरण में लेखक ने गरीबी और जलालत की दर्दनाक गाथा लिख दी है यह गाथा केवल “बखेडापुर” की ही नहीं है अपितु असमान वितरण एवं जातीय संघर्षों से त्रस्त सम्पूर्ण भारतीय गावों की है आदर्शवादी आवरण में छिपे चरित्रों का खतरनाक पतन है विश्वास के सहारे कामुकता का अभिजनवादी नंगा नाच है लेखक की प्रतिबद्धता को उपन्यास के इस बिंदु में खोजा जा सकता है उपन्यास में जितने भी अभिजात्य पात्र आये हैं लेखक किसी प्रति भी संवेदनशील नहीं है “संगीता मैडम” के प्रति भी नहीं क्योंकि वह भी अंतत: सामंतवादी राजनेताओं के हाथ में कठपुतली बन जाती है लेखक की संवेदना खुले तौर पर रूप चौधरी और परवतिया के साथ है ये दोनों सामंती परिवेश के प्रतिरोध में खड़े हैं जागरूक हैं, वर्ग चेतन हैं परवतिया की वर्ग चेतना जातीय उत्पीडन की कोख से पैदा हुई है तो रूप चौधरी की चेतना सामाजिक ताने-बाने की अनिवार्य बुनावट है रूप चौधरी और परवतिया का विवाह संपन्न कर के लेखक ने “जड़तावादी” समाजों में टूट रहीं रूढ़िवादी मायताओं के आलोक में जातीय टूटन का सकारात्मक सन्देश दिया है भुअरा की मौत इस उपन्यास में एक बड़ी घटना है, भुअरा का दोष इतना है कि वह नीची जाति का है, गरीब है गरीबी का कारण भी समाज का सामंतवादी ढांचा है बखेडापुर में भुअरा की मौत केवल भुअरा की मौत नहीं है वह बहुआयामी घटना है सम्पूर्ण व्यवस्था की मौत है, मनुष्यता की मौत है, संवेदना की मौत है, भुअरा की मौत के साथ ही सत्ता और व्यवस्था में काबिज़ बुर्जुवा वर्ग की स्वार्थपरकता और जातीय नफरतों का काला चिटठा खुल जाता है जिस व्यवस्था के सरंक्षण हेतु “ग्राम स्वराज” जैसी अवधारणाओं को “राम-राज़” जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है उस व्यवस्था का खूनी चेहरा भुअरा की मौत के साथ ही पाठक को कारुणिक संवेदनायुक्त आक्रोश से भर देता है बीमार पिता की रक्षा के लिए परवतिया द्वारा देवनारायण की चिरौरी व देवानारण द्वारा बार-बार धकियाया जाना सामंतवादी मनोवृत्ति का घिनौना स्वरूप दिखा देता है, परवतिया का यह कथन कि “बचा लीजिये ए डगडर चाचा ……आप ही भगवान् हैं ए डगडर चाचा जान बचा लीजिये बाबू के बाबू बिना हम लोग कईसे जियेंगे, कईसे उबार होगा हो डगडर चाचा” यह कथन पूरी उपन्यास की वस्तु को व्यवस्थाजन्य कारुणिक त्रासदी की और ले जाता है भुअरा की कथा से आरम्भ व्यवस्था के विरुद्ध वर्ग-चेतन संघर्ष, जातीय संघर्षों में तब्दील होने लगता है जिसकी परिणिति खूनी-खेलो से निकलकर अंतत: लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीति में होती है सैद्धांतिक रूप से “लोकतंत्र” जनता का जनता के लिए समझा जाता है लेकिन जब यही लोकतंत्र व्यवहार की जमीन में उतरता है तो मुट्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन कर रह जाता है चुनावी राजनीति में वही लोग सफल होते हैं जिनके हाथ में शक्ति है, धन है, तिकड़म हैसाधनविहीन आम जनता के लिए “चुनाव” महज़ एक छलावा बन कर रह जाता है बखेडापुर की राजनीति का खाका लेखक ने कुछ ऐसा ही खींचा है रूप चौधरी के विरुद्ध संगीता मैडम उच्च जाती के लोगों की प्रतिनिधि बनकर उतरती हैं, फिर क्या शराब, मुर्गा, जातिवाद, धमकी, धनबल, बाहुबल, बूथ कैप्चरिंग, सारे के सारे अलोकतांत्रिक साधनों के द्वारा अंतत: वही लोग जीतते हैं जिनके विरुद्ध सचेतन वर्ग संघर्ष की शुरुआत हुई थी

हरेप्रकाश उपाध्याय
बखेडापुर का कथानक जड़तावादी सामन्ती ग्रामीण परिवेश का पूरा साक्षात्कार करा देता है जनकल्याण एवं एक अभियान के रूप में  शुरू की गयीं योजनाओं का हस्र जमीनी स्तर पर क्या होता है लेखक ने इस तथ्य को तार्किक ढंग से अंजाम दिया है परिवार नियोजन की असफलता एवं इसके पीछे छिपे कारणों की खोज में लेखक मूल तह तक पहुँच गया है समस्त सामाजिक विसंगतियों, आदतों के परिप्रेक्ष्य में यदि बखेडापुर को देखा जाय तो वह भारतीय गांवों का बिम्ब बन जाता है हर एक गांव बखेडापुर है, हर एक स्कूल में हेड सर जौर पंचमा मास्टर हैं, हर गांव में लोटन बहू है, यही जातीय संघर्ष, यही चुनाव, यही चारित्रिक पतन, यही सामन्ती ढांचा हर एक गांव का मिलेगा यह उपन्यास अशिक्षा, अन्धविश्वास, जातीयता जैसे सामन्ती बीमारियों के बीच जकडे हुए भारतीय गांवों में वर्गीय-द्वन्द का मुकम्मल खाका खींचता है
बखेडापुर के माध्यम से लेखक ने पूरे देश की सामाजिक व राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन किया है इस मूल्यांकन में मुख्य औजार है व्यंग्य और भाषाई भंगिमा यहाँ व्यंग्य हँसाने के लिए नहीं आया अपितु पीड़ा महसूस कराने के लिए आया है यह व्यंग्य एक प्रश्नचिन्ह भी उठाता है कि देश ने आज़ादी के बाद कौन सी उपलब्धि हासिल की है? क्या मूल्यहीनता और वर्गीय वर्चस्ववाद ही हमारी उपलब्धियां हैं? बखेडापुर का व्यंग्य भले ही पाठक को हँसा दे लेकिन वह सामाजिक मूल्यहीनता और संवेदनाओं में भयंकर गिरावट को ही ध्वनित करता है संगीता मैडम के लिए “बुलेरो” शब्द का प्रयोग परिहास बोधक है पर हमारे समाज की मनोवृत्ति को ही दिखाता है ऐसे गंभीर वाक्य बखेडापुर में कई जगह आये हैं जैसे  पचमा मास्साब के विचार ही देखिये व्यंग्य के सहारे लेखक ने “लालच” का विवेचन व दहेज़ की संभावनाएं खोज डाली हैं “भगवान् बेटा दिए हैं तो आँख का अंधा और गाँठ का भरपूर कहीं समधी भी पैदा कियें होंगें” “आजकल तो फ्री में कोई हगता भी नहीं है” कहीं-कहीं तो व्यवस्था के उत्तरदायी पक्ष की मूर्खताओं को दिखाने के लिए भी हरेप्रकाश ने व्यंग्य का सहारा लिया है संगीता मैडम कमर में पेन (दर्द) की शिकायत करती है तो पचमा मास्साब की समझ देखिये “जी कमर में पेन लाने की क्या जरूरत है एक लेडीज पर्स रखिये” जाहिर है ये व्यंग्य बेमतलब नहीं है इसका एक खास मकसद है और वह है भारतीय गावों का कटु एवं यथार्थ सच दिखाना व्यंग्य का इतना सार्थक प्रयोग मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा है राग दरबारी में भी व्यंग्य है पर राग दरबारी का व्यंग्य मात्रा में इतना अधिक हो गया है कि वह लेखकीय सन्देश का भी खंडन करने लगता है बखेड़ापुर में व्यंग्य को लेखक ने अपने उद्देश्य पूर्ति का हथियार बनाया है बेशक यह हथियार काफी तीखा और प्रभावी सिद्ध हुआ है व्यंग्य यहाँ दोधारी तलवार की तरह आया है एक और तो वह वर्गीय वर्चस्ववाद का पूरा खाका खींच देता है तो दूसरी और वह सामाजिक एवं जातीय विसंगतियों में करारा प्रहार करता है हरेप्रकाश की दृष्टि पैनी है इसी दृष्टि के कारण वो व्यंग्य सामाजिक अंतर्विरोधों से जोड़ पाते हैं व्यंग्य की भीतरी तहों में बह रही मानवीयता की कारुणिक नदी लेखक को समकालीन सरोकारों से जोड़ कर कृति को मनुष्यता की उदात्त जमीन पर खड़ा कर देती है
कोई भी उपन्यासकार हो भाषा के सहारे ही अपने विज़न को मूर्त रूप देता है उपन्यास की भाषा विषय, और शिल्प, तीनो में सामंजस्य होना आवश्यक है यदि तीनो में अंतर्विरोध है तो मैं उसे श्रेष्ठ कथाकार नहीं मानता और न ही वह कृति पाठक को आकर्षित कर सकती है यदि कथ्य के अनुसार भाषा में भी घात-प्रतिघात उत्पन्न करना है तो चारित्रिक एवं शैल्पिक विविधता के अनुसार भाषा को भी विविधतापूर्ण होना चाहिए इस अवस्था में भाषा निरंतर बदलावों की मांग करती है यह बदलाव दो प्रकार से कार्य करता है, पहला एकरसता टूटती है तो दूसरा अनेकरंगी कथानक में यथार्थ का पूर्ण अंकन करने में सहायता मिलती है बखेडापुर की भाषा इसी टेक्निक के सहारे कथ्य को गतिशील बनाती है लेखक कथावस्तु से गुजरते हुए पाठक को भाषाई गतिशीलता से जोड़ देता है और खुद दूर हट कर नेपथ्य में चला जाता है इस अवस्था में भाषा ही पाठक को गतिशील रखती है और पाठक के साथ औपन्यासिक चरित्रों का पूर्ण संवाद कराती है बखेड़ापुर की सबसे बड़ी खासियत है की लोकजीवन के की भाषा का सृजनात्मक प्रयोग जितना हो सकता था लेखक ने किया है कई ऐसे स्थल आते हैं जहाँ पाठक सीधे पात्रों की अंतरचेतना में पैठ बना लेता है और पात्रो का पारस्परिक संवाद पाठकीय संवाद बन जाता है देखिये एक संवाद, कितनी सजीवता है, स्वाभाविकता है, अपनापन है, ”अभिए से चाप के रखिएगा, तो मिरमिरा जाएँगे” इस वाक्य में ग्रामीण अनभिज्ञता और सह्ज़ता को भाषा के सहारे सफलतापूर्वक व्यंग से जोड़ा गया है ऐसे उदहारण बखेडापुर में कई स्थलों में आये हैं इस रूप के अलावा एक दूसरा रूप भी है जहाँ पात्र की भाषा ही अपना रंग दिखाती है और भाषा स्वयम पाठक के साथ संवाद स्थापित कर लेती है “अरे दूर तोहनियो सब न रोज़ एके बतिया करता है” यह उदहारण बता रहा है कि किस प्रकार का पात्र इस भाषा का प्रयोग कर रहा है भाषा के सहारे चरित्रों को उभारने की कला बहुत कम लेखकों में पाई जाती है यही कहलाता है भाषा का सृजनात्मक प्रयोग मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि लेखक इसमें सिद्धहस्त है
व्यंग्य के द्वारा द्वन्द का सफल विवेचन हिंदी के लिए एक नयी पद्धति है बखेडापुर में व्यंग्य के सहारे परिवेश की जटिलताओं और विद्यमान वर्गीय-द्वंदों का भयावह यथार्थ सामने लाया गया है इस उपन्यास को मात्र “विवेचन” न समझा जाय अपितु यह धसकती मनुष्यता के बीच मानवीय मूल्यों की खोज का सार्थक प्रयास है बखेडापुर पाठक के जेहन में मानवता के प्रति पीड़ा उत्पन्न करता है यही इसकी सफलता है रागदरबारी ने यदि व्यंग्य को शिल्प के मुकाम तक पहुँचाया है तो बखेडापुर व्यंग्य के रचनात्मक प्रयोग की पराकाष्ठा है सही मायनों में बखेडापुर द्वन्द का व्यंग्यपूर्ण स्थापत्य है

उमाशंकर सिंह परमार जनवादी लेखक संघ बाँदा के जिला सचिव हैं और इन दिनों आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने में जुटे हुए हैं  


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उमाशंकर सिंह परमार का आलेख ‘हिंदी भाषा का विकास और लोक की भूमिका’

 

उमाशंकर सिंह परमार

मनुष्य दुनिया का एक मात्र प्राणी है जिसने आपसी संवाद के लिए भाषा ईजाद किया है. यह भाषा भी एक-दो दिन में या अचानक ही नहीं बन गयी अपितु इसके बनने में एक लम्बा समय लगा. किसी भी भाषा के विकास में लोक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. धीरे-धीरे अभिजात वर्ग जब इसे व्याकरणिक नियमों उपनियमों से घेरने-बाँधने लगता है तब भाषा क्लिष्ट होती चली जाती है. भाषा खासकर हिन्दी की विकास यात्रा पर एक रोचक नजर डाली है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने अपने आलेख ‘हिन्दी भाषा का विकास और लोक की भूमिका’ में. आइए पढ़ते हैं यह आलेख.
         
हिंदी भाषा का विकास और लोक की भूमिका
उमाशंकर सिंह परमार
भाषा एक सामाजिक क्रिया हैवह किसी एक व्यक्ति की निजी अभिव्यक्ति नहीं है, समाज में आपसी विचार-विनिमय का सामूहिक माध्यम हैयह कहा जा सकता है की “मनुष्य और मनुष्य के बीच अपने अभिमत और इच्छा की अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त किये गए ध्वनि व संकेत भाषा संज्ञा से अभिहित किये जातें हैं”इच्छा के अंतर्गत विशाल जन-समुदाय के विचारों का भी समावेश होता है, और विचार समाज सापेक्ष्य ही होते हैं उनका कोई न कोई प्रयोजन होता हैकालांतर में यही विचार विहंगम जन-समुदाय का चरित्र बन जाते हैंअत: सैद्धांतिक रूप से भी भाषा को किसी वर्ग विशेष की आदतों व चरित्र से नहीं जोड़ा जा सकता है यह बात दीगर है इतिहास और अन्य सामाजिक विज्ञानों की तरह भाषा का भी विकास ‘द्वंदात्मक-प्रक्रिया” से ही होता हैकिसी खास  वर्ग का चरित्र द्वंद में एक पक्ष हो सकता है, पर पूरे समुदाय का चरित्र नहीं बन सकतापूरे समुदाय का चरित्र बनने के लिए द्वंदात्मक टकरावों से गुजरते हुए किसी भी वाद को “संवाद” की स्थिति में आना पड़ेगा यही इतिहास का तकाज़ा है समाज के मूलभूत परिवर्तनों का तकाज़ा है
भाषा के विकास का अध्ययन समाज के वर्गीय-विभेदों के आलोक में ही किया जा सकता है। बगैर वर्गीय-चरित्र को बूझे हुए हम भाषाई विकास के सूत्र नहीं खोज सकते हैं जिस प्रकार वैचारिक एवं सांस्कृतिक विकास का मूल उत्स विद्यमान “वर्गीय-द्वंद” है उसी प्रकार भाषाई विकास और उत्पत्ति का भी मूलाधार यही अंतर्द्वंद है। 

यह सच है कि जन-समूह का श्रम ही समस्त मानवीय अभिव्यक्तियों का उत्पादक हैसभी विचारों का जन्मदाता हैइन विचारों को प्रेषित करने के लिए मेहनत-कश वर्ग अपनी एक भाषा गढ़ता है यह भाषा विशाल जन-समुदाय के मध्य कलात्मक सृजन का आधार होती हैयह भाषा उत्पादक समुदाय की भाषा से अलग होती हैउत्पादक समुदाय की भाषा और उनके द्वारा सृजित मूल्य आम जन के विरुद्ध होते हैं उसमें वो शक्ति नहीं होती जिससे जन-समुदाय अपने मूल्यों व संस्कृति को सहेज सकेअस्तु अभिजन और लोक के मध्य कभी भी भाषाई एकरूपता नहीं रहीअभिजन और लोक आर्थिक–सांस्कृतिक अलगाव के साथ-साथ भाषाई रूप में अलग ही रहेदोनों का अपना साहित्य रहा, अपनी भाषा रही, अपनी संस्कृति रही, दोनों संस्कृतियों का आपसी टकराव भी रहा उत्पादक स्वामी वर्ग की सबसे बड़ी खासियत है कि वो सर्वाधिकारवादी होता है आर्थिक संसाधनों के साथ ही वो सम्पूर्ण सांस्कृतिक उपागमों को भी अपने स्वामित्व में रखना चाहता है उसका यही चरित्र “वर्गीय-द्वंद” को जन्म देता है भाषा की उत्पत्ति में प्रयुक्त “भाषायी मरण” का सिद्धांत इसी वर्गीय द्वंद का वैज्ञानिक अभिकथन हैयह सिद्धांत भाषाई सृजन और सामाजीकरण का वस्तुपरक रेखांकन है भाषा की उत्पत्ति में अभिजन और लोक की भूमिका का समुचित मूल्यांकन हैलोक की ऐतिहासिक भूमिका को कमतर आंकने के लिए पूंजीवादी भाषा–वैज्ञानिकों ने “भाषाई मरण” के सिद्धांत को हमेशा नकारा है क्योंकि भाषा की उत्पत्ति में लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ करके ही अभिजन-वर्ग के मंसूबों को भाषा के जातिगत चरित्र पर थोपा जा सकता हैऔर लोक द्वारा सृजित वर्ग-चेतन मूल्यों को नष्ट किया जा सकता हैअभिजन वर्ग की तमाम साजिशों और नकारात्मक वृत्तियों के बावजूद भी इतिहास को नकारा नहीं जा सकता, जब भी हिंदी के विकास की चर्चा होती है तो लोक अपनी पूर्ण सत्ता के साथ भाषाई उत्पादन-भूमि के रूप में स्थापित मिलता है

 
भाषा नदी की तरह प्रवाहमान हैभाषा के अपने गुण और स्वभाव होते हैं जो जनसमुदाय का सांस्कृतिक स्वभाव होता है, यही भाषा की प्रकृति होती हैइस प्रकृति का उपार्जन भाषा अपने पूर्ववर्ती इतिहास से करती हैइस प्रकार भाषा परम्परागत और उपार्जित दोनों प्रक्रियाओं का समुच्चय होती हैजाहिर है कि यह समुच्चय भौगोलिक व जातीय संस्कारों की सृजनात्मक परिणिति है अत: विश्व में भौगोलिक विभेदों के साथ-साथ भाषाई विभेद भी पाए जाते हैं विभिन्न प्रकार की भाषाएँ, संस्कृतियाँ, विश्व के अलग-अलग हिस्सों में लोक और अभिजन के मध्य विद्यमान अंत:संघर्षों का परिणाम हैजैसा कि मैंने ऊपर बताया है कि अभिजन वर्ग की आदतें व सांस्कृतिक सरोकार जन सामान्य से भिन्न होते हैंजब बुर्जुवा-वर्ग लोक की सांस्कृतिक सरंचनाओं में काबिज़ हो जाता है तो लोक अपने लिए एक नयी संस्कृति की खोज कर लेता हैइस नयी संस्कृति का वर्ग-चरित्र बुर्जुवा वर्ग-चरित्र से पूर्णतया भिन्न होता है इस सांस्कृतिक “अन्वेषण” में भाषा का अहम् स्थान हैक्योंकि भाषा ही वह माध्यम है जिसमे सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखा जा सकता है 

कोई भी भाषा व्यापक जनसमुदाय के आपसी व्यवहार से उत्पन्न होती हैवहीं विकास करती है, वहीँ से उर्जा अर्जित करती है जब यह जनभाषा सत्ता और शक्ति पोषित अभिजन के संपर्क में आती है तो अपनी सहजता को खो कर कठोर व्याकरणिक नियमों में आबद्ध होने लगती हैयह संकुचन भाषा को विद्वानों और पंडितों की भाषा बना देता है इस तरह भाषा जन समुदाय की समझ और संवेदना से दूर होती चली जाती हैकालांतर में भाषा केवल पढ़े-लिखे और सत्ता के इर्द-गिर्द बैठे अभिजन वर्ग की भाषा बन कर रह जाती है और लोक अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक नयी भाषा की खोज कर लेता है भाषा का नियमो में आबद्ध होना व विशिष्ट जन के बीच सीमित हो जाना ही लोक द्वारा नयी खोज का कारण बनता हैभाषा का जन-समुदाय से दूर होना ही “भाषा की मृत्यु” हैजिन्दा भाषा वह है जो आम-प्रचलन में होयही कारण है कि हमारे देश में भी एक ही समय, एक ही भू-भाग पर, दो भाषाओँ का प्रयोग होता रहा एक भाषा जो अभिजन वर्ग की भाषा रही और दूसरी भाषा जो आम जनता की भाषा रही आम जनता की भाषा ही कालांतर में बुर्जुवा वर्ग की भाषा बनती है और भाषाई मृत्यु को प्राप्त होती हैयही है “भाषायी मरण” का सिद्धांत, यह सिद्धांत समस्त आर्य –भाषाओँ के विकास में लागू होता है और हिंदी के विकास में भी लागू होता है 

हिंदी का वर्तमान स्वरूप एक क्षण की देन नहीं है, अपितु सदियों से चल रहे भाषाई लोक द्वंद का नतीजा है हिंदी का वर्तमान स्वरूप तमाम भाषाई संघर्षो में लोक की भूमिका का जीवंत उदाहरण हैअभिजन और लोक के मध्य इस भाषागत द्वंद को नकारा नहीं जा सकता इसको नकारने का आशय होगा कि हम भाषा के विकास में एतिहासिक तकाजों को नकार रहे हैं 

चित्रात्मक और संकेतात्मक भाषा को छोड़ दिया जाय तो “वैदिक संस्कृत” पहली भाषा है जो संगठित स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित होती है वैदिक संस्कृत उत्तर वैदिक काल तक अभिजन-वर्ग की भाषा बन गयी तब जन-सामान्य में प्रयुक्त भाषा “लोकिक संस्कृत” कहलाई वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अपने स्वरूप को लेकर काफी अंतर हैजब लौकिक संस्कृत व्याकरणिक नियमों व विधि-निषेधों को वहां करने लगी व सत्ताधारी सामंतों और पुरोहितों की भाषा बन गयी तो “लोक” ने अपनी अभिव्यक्ति हेतु “प्राकृत” और अपभ्रंश का प्रयोग शुरू किया शीघ्र ही प्राकृत और अपभ्रंश भी नियमों और विधि-निषेधों की संवाहक हो गयीं तब लोक ने “अवहट्ट” या ‘पुरानी हिंदी’ में अपनी अभिव्यक्ति कीजाहिर है एक के बाद एक भाषा आती गयी, रूढ़ होती गयी, जैसे-जैसे भाषा पर अभिजन काबिज़ होते गए वैसे वैसे लोक ने पुरानी भाषा से भी सहज और परिष्कृत भाषा की खोज कीलोक ने अभिजन भाषा के खिलाफ जन-भाषा की खोज में पुरानी भाषा को नकारते हुए भी प्रगतिशील तत्त्वों को नयी भाषा में सहेजा, और “बहते नीर” के मुहावरे को सार्थक करते हुए सामंती विचारों व संस्कृति को नकाराहिंदी का वह स्वरूप जो आज हमारे सामने उपस्थित है इसका विकास सरल-रेखीय गति से नहीं हुआ इसके पीछे लोक और अभिजन के संघर्षों का इतिहास हैतमाम मतों, विचारों, भाषाओँ, संस्कृतियों का पारस्परिक समूहन है

वैदिक साहित्य मूल रूप में धर्म-प्रधान साहित्य हैदेवताओं की उपासना और उनका पूजन यज्ञ, कमनीय स्तुतियाँ, इस साहित्य की मुख्य विशेषता हैइसमें आम लोक जीवन का सर्वथा अभाव ही दिखता हैवैदिक संस्कृत जन-भाषा रही या नहीं यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है पर इतना जरूर कहना चाहूँगा कि वैदिक संस्कृत अपने उच्चारण, और पाठन के कठिन नियमों से आम जनता के बीच लोकप्रिय नहीं रही यदि यह भाषा जन-भाषा रही होती तो इसमें धर्म–उपासना की प्रधानता नहीं होती वेदों में आम जन जीवन के चित्र भी उपस्थित होते जैसा कि लौकिक संस्कृत में है लौकिक संस्कृत का नाम ही सिद्ध कर देता है कि यह आम जनता की भाषा थी महाभारत में “वैदिकाच्च वैदिक: लोकाच्च लौकिक:” कह कर दोनों भाषाओँ के वर्गीय स्वरूप का संकेत कर दिया गया है 

यास्क ने भी वैदिक भाषा को लोक भाषा से श्रेष्ठ कहा हैइसका अर्थ है की वैदिक भाषा पुरोहित और राजाओं की भाषा थी और संस्कृत आम जनता की भाषा थी इसीलिए वैदिक नीतिकार संस्कृत को “लौकिक” कह कर निंदा करते रहे यास्क के निरुक्त में वैदिक संस्कृत से भिन्न भाषा जो आम-जनता के बीच बोल-चाल में प्रयुक्त होती थी स्थान-स्थान उसे “लोक भाषा” कहा गया हैवैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति में उन धातुओं का प्रयोग किया है जो लोक-व्यवहार में प्रचलित थे “भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगम:कृतो भाष्यंते” अर्थात मैं भाषाई धातुओं से भाष्य लिख रहा हूँइससे सिद्ध है कि वैदिक संस्कृत मात्र पुरोहितों और सामंतों की भाषा थी आम जनता के लोकव्यवहार में लोकिक संस्कृत का प्रयोग होता थासंस्कृत वैदिक संस्कृत की तरह केवल धार्मिक नहीं रही उसमें  जनरंजन और और लोकवृत्तों का भी उपयोग हुआप्राचीन संस्कृत में तो कई नाटक ऐसे मिलते है जिसमें आम जन जीवन का जीवंत वर्णन हैयही नहीं कहीं-कहीं तो वैदिक संस्कृत की स्थापित परम्पराओं का खुल कर विरोध भी किया गया है इस दृष्टि से शूद्रक का “मृच्छकटिकम” उल्लेखनीय हैइस नाटक में नायक किसी राजा-महाराजा को न बना कर एक आम गरीब ब्राह्मण ‘चारुदत्त’ को बनाया गया है और नायिका एक सामान्य सी वेश्या ‘बसंतसेना’ को बनाया गया हैपतंजलि के महाभाष्य में तत्कालीन मुहावरों का उल्लेख आया है जो आज भी हिंदी की लोक-भाषाओँ में प्रचलित है जैसे “पृष्ठ कुरु पादौ कुरु” का हूबहू भोजपुरी अनुवाद “गोडों कईली मूड़ों कईली” जैसा मुहावरा मिलता हैप्राचीन संस्कृत के ऐसे तमाम वाक्य-खंड आज भी लोक-जीवन में प्रचलित मिल जाते हैंइससे सिद्ध हो जाता है कि वैदिक संस्कृत जब अभिजन वर्ग की भाषा थी तो लौकिक संस्कृत आम जन जीवन में रच-बस गयी थी यही कारण है कि वैदिक संस्कृत के आचार्यों ने लौकिक संस्कृत को कमतर करके आँका है

संस्कृत का यह लोकजीवी स्वरूप अधिक दिनों तक नही रहा पाणिनि और कात्यायन जैसे व्याकरणाचार्यों ने संस्कृत के बिगड़ते हुए स्वरूप का परिष्कार करने के बहाने से इसका परिमार्जन और संस्कार किया जिससे यह नियमबद्ध और पांडित्यपूर्ण हो गयीइस तरह संस्कृत धीरे-धीरे लोक-जीवन से दूर हटने लगीकोरे उपदेश, गूढ़ –दर्शन, सूत्र-साहित्य इत्यादि की व्याख्या में संस्कृत के आचार्यों ने अपनी सारी उर्जा झोंक दी जिसका प्रतिफल यह हुआ कि संस्कृत जो कभी आम जन की भाषा थी, विद्वानों और पंडितों की भाषा बन कर रह गयी बाद के सत्ताधारी राजाओं ने तो बाकायदा अपने मनोरंजन हेतु इसी भाषा में कठिन आलंकारिक काव्य लिखवायेसामंती सत्ता को बरक़रार रखने के लिए स्मृति शास्त्र जैसी जनविरोधी रचनाएँ लिखी-लिखवायी गयीं वैदिक आचार्यों ने संस्कृत की तीखी आलोचना कहीं नहीं की पर संस्कृत आचार्यों ने तो “देशी भाषाओँ” की आलोचना में मर्यादा की सारी हदें तोड़ दीं इसका मूल कारण था कि संस्कृत उच्च-वर्गीय सामन्ती वर्ग की भाषा बन चुकी थी और जिन भाषाओँ को उन्होंने गाली दी है वे भाषाएँ आम लोक जीवन में जनभाषा का रूप धारण कर चुकी थींअत: अभिजन द्वारा लोक-भाषा और लोक-जीवन की आलोचना कोई नयी बात नहीं है क्योंकि बुर्जुवा शक्तियां कभी भी लोक-सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकती हैं और लोक तमाम संघर्षों के बाद भी बुर्जुवा संस्कृति का वाहक नहीं हो सकता संस्कृत और लोक-भाषाओँ के आपसी द्वंद के मूल में अभिजन का यही वर्ग-चरित्र रहा है
लगभग ५०० ई. पू. से १००० ईस्वी तक जब संस्कृत और वैदिक संस्कृत राज-सत्ता के इर्द-गिर्द अपना विकास कर रही थी इसी काल में आम जन समुदाय एक और लोकभाषा का विकास कर रहा था जब तक संस्कृत का साम्राज्य स्थापित रहा तब तक यह लोक-भाषा बोलचाल की भाषा के रूप में दबी पडी रही संस्कृत के पूर्ण अभिजात्य होते ही अपना अनुकूल समय पाकर इस लोकभाषा ने अपना सर उठाया इस लोकभाषा का विकसित स्वरूप “प्राकृत” कहलायाइस भाषा का पहला विकास “पालि” के रूप में सामने आया और दूसरा विकास अनेक प्रकार की प्राकृतों के रूप में हुआ अपनी अंतिम अवस्था में प्राकृत ने अपभ्रंशों का विकास कियापालि पहली देश-भाषा थी जिसका मुकम्मल साहित्य मिलता है इसको पुरानी प्राकृत भी कहते हैं। ब्राह्मणवाद और धार्मिक अतिशयता का प्रतीक बन चुकी संस्कृत के विरुद्ध बौद्धों ने पालि को ही अपनाया और सामंतवादी विचारों का प्रतिरोध करते हुए पालि को जन-जन के बीच प्रचारित कियापालि में तत्कालीन अनेक भाषाओँ के तत्व वर्तमान हैं इस भाषा में संस्कृत के शिष्ट शब्दों का लोक में प्रचलित स्वरूप बहुतायत मात्रा में मिलता है ऐसे शब्दों को “तद्भव” कहा जाता है यही तद्भव कालांतर में थोड़े परिवर्तन के साथ हिंदी में भी आयेपाली के बाद दूसरी महत्वपूर्ण प्राकृत अर्ध-मागधी रही जिसका उपयोग जैन साहित्य में किया गया सन ५०० ई. तक प्राकृत जन-सामान्य के बीच विद्यमान रही। ज्यों ही हेमचंद वररुची जैसे प्राकृत व्याकरण आचार्यों के नियम लागू हुए एवं बौद्धों के दर्शन का भार इस पर पड़ा तो यह भाषा भी अपना लोकवादी स्वरूप खोने लगी अपने अवसान तक आते-आते प्राकृत केवल धार्मिक उपदेशों और राजा महराजाओं तक ही सीमित रह गयी

प्राकृत की बड़ी विशेषता यह रही कि इसने भौगोलिक आधार पर अपना विकास किया प्राकृत के सारे भेद भौगोलिक ही रहे विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर इसके उपभेदों का नामकरण हुआ यही प्रवृत्ति अपभ्रंसों और आधुनिक हिंदी बोलियों की भी रहीचूंकि अपभ्रंस प्राकृत का ही परिष्कृत रूप है एक ही समय दोनों अलग-अलग वर्गों के बीच लोकप्रिय रहीं जिस समय प्राकृत लोक से दूर हट रही थी उसी समय अपभ्रंस लोक-भाषा का स्थान ले रही थीचूंकि अपभ्रंस प्राकृत की अपेक्षा अधिक सुगठित थी, सहज थी, इसलिए आम जीवन की भाषा बनने में इसे समय नहीं लगा यह भाषा साहित्य में भी धार्मिक कल्पनाओं की अपेक्षा लोक-जीवन के अधिक निकट रही इसलिए संस्कृत के अपभ्रंस को अधिक संकुचित दृष्टि से मूल्यांकित कियाजब भी अभिजन सत्ता के विरुद्ध कोई लोक आन्दोलन खड़ा होता है तो अभिजन इसे अपने वर्चस्व के विरुद्ध खतरा ही समझता हैयह अभिजन का वर्ग-चरित्र हैअपनी सत्ता को बरक़रार रखने के लिए अभिजन लोक के खिलाफ तमाम तरह की साज़िसें और दुष्प्रचार करता हैसंस्कृत के विरुद्ध और समान्तर लोक-भाषाओँ का उभारना संस्कृत आचार्यों को रास नहीं आया अत: प्राकृत व अपभ्रंस की निंदा करना कोई नई बात नहीं थी आज भी अभिजन के इस वर्ग-चरित्र को देखा जा सकता है

जब प्राकृत साहित्य की भाषा बन कर राजदरबारों तक पहुँच गयी तो लोक-जीवन के आम व्यवहार ने अपभ्रंस को आम-चलन की भाषा बनायाअपभ्रंस संस्कृत आचार्यो के अभिमत में “मूर्खों की भाषा” है अपभ्रंस भी उन्हीं का दिया नाम है जिसका अर्थ है “गिरा हुआ” या “भ्रष्ट”अर्थात संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंस नीची कौम के लोगों या अशिक्षित लोगों की भाषा है जब प्राकृत और अपभ्रंस संस्कृत की राह में आगे बढ़ने लगी तो अभिजन विचारकों ने व्यंग्य में इसका यह नामकरण किया आज यही नामकरण इसकी पहचान बन गया है दंडी ने अपभ्रंस को अभीरों (निम्न कोटि के लोग) की भाषा कह कर जबकि भर्तिहरी ने अशुद्ध कह कर तत्कालीन लोक के विरुद्ध अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया हैअपभ्रंस मध्यकालीन आर्यभाषाओं का चरम-विकास हैजब प्राकृत व्याकरण के खांचे में ढल गयी तो प्राकृत के खिलाफ अपभ्रंस ने विद्रोह किया यह विद्रोह स्थापित भाषाओँ के खिलाफ लोक-विद्रोह था जिसमे पांडित्य हारा और जन सहजता जीती अपभ्रंस ही, ग्राम-भाषा, जनभाषा, लोकभाषा, अवहट्ट, अवहंस के नाम से जानी जाती हैआधुनिक भारतीय भाषाओँ की उत्पत्ति इन्ही अपभ्रंसों से हुईएक प्रकार से अपभ्रंस प्राकृत भाषाओँ और आधुनिक भाषाओँ के बीच की कड़ी हैअपभ्रंस का जन्म और विकास मध्य-देश में हुआ हिंदी का भी विकास मध्य-देश में हुआ अस्तु हिंदी का ध्वनि-परक ढांचा अपभ्रंस के ढाँचे से काफी प्रभावित हैउत्तर भारत में अपभ्रंस के सात भेद प्रचलित थे जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओँ का जन्म हुआ ये सातो अपभ्रंस हैं- शौरशेनी (पश्चिमी हिंदी), पैशाची (लहंदा पंजाबी), ब्रचाड (सिन्धी), खस (पहाड़ी भाषाएँ), महाराष्ट्री (मराठी), अर्ध-मागधी (पूर्वी हिंदी), मागधी (बिहारी, असमिया, बंगाली) अपभ्रंस से उत्पन्न होने वाली आधुनिक भाषाओँ का विवरण (कोष्ठ के अन्दर) देखने से पता चलता है कि अपभ्रंस ही वर्तमान हिंदी और उसकी बोलियों की जननी है 

अपभ्रंस में लगभग वही ध्वनियाँ थीं जो प्राकृत और संस्कृत में प्रयुक्त होतीं थीस्वरों का अनुनासिक रूप भी बिलकुल संस्कृत और पालि जैसा थाफिर भी कुछ बातों की समानता रखते हुए भी अपभ्रंस संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर निकल गयी वह प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा आधुनिक भाषाओँ के अधिक निकट चली गयीसंस्कृत और पालि संयोगात्मकभाषा रही लेकिन अपभ्रंस वियोगात्मक भाषा थी इसका यह लक्षण हिंदी ने पूर्ण रूप से अंगीकार कर लियाअपभ्रंस में नपुंसक लिंग लगभग लुप्त हो चला और हिंदी तक आते-आते विलुप्त हो गयाअपभ्रंस की  बहुत सी विशेषताएं हैं जो हिंदी में यथावत विद्यमान हैं इसलिए अपभ्रंस प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा हिंदी के अधिक निकट हैसातवीं शताब्दी से ही अपभ्रंस को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी थी१०वीं सदी तक अपभ्रंस का परिष्कृत स्वरूप सामने आया अपभ्रंस का विशाल साहित्य-भण्डार इसी परिनिष्ठित भाषा में लिखा गया १० वीं सदी में ही जब अपभ्रंस रूढ़ हो चली और तमाम नियमों, उपनियमों में आबद्ध होने लगी तो यह भी जनसामान्य से दूर हटने लगी अपभ्रंस में भी जादू-टोना, झाड-फूंक, तंत्र-मंत्र, अश्लीलता, साधना का कुरुचिपूर्ण लोकविरोधी साहित्य लिखा गया आदिकाल का सिद्ध साहित्य और सरहपा का का लेखन इसका बड़ा उदाहरण है अपभ्रंस के इस रूप में आते ही लोक ने जिस देश –भाषा का विकास किया उसी देशभाषा में आधुनिक हिंदी भाषा के सूत्र मिल जाते हैं

अपभ्रंस से ले कर आज तक की यात्रा में हिंदी भाषा के कई पड़ाव आये और बगैर इन पड़ावों को समझे हम हिंदी के विकास में लोक की भूमिका का अंदाजा नहीं कर सकते क्योंकि किसी भी भाषा के विकास में लोक ही वह कारक है जो भाषा को आम-चलन में ला कर जन-मानस का खाका खींचता हैजब कभी भाषा आम जन से दूर जा कर अभिजन की गोद में विराजमान होती है तो लोक अपनी अभिव्यक्ति का नया संकेत तलाश करने लगता हैआधुनिक हिंदी के विकास में ज्यों ज्यों लोक सामंती शक्तियों के प्रतिरोध में रचनात्मक होता गया, त्यों-त्यों भाषा भी अपना वजूद खोजती गयी आदिकाल की वीर-गाथात्मक कविता को छोड़ दिया जाय तो जितना भी लौकिक साहित्य है, लोक का दीप्यमान उदाहरण है, जो सामन्ती सत्ता से दूर रह कर तत्कालीन मुख्य-धारा से अलग आम-जनमानस की सर्वांग वृत्तियों का सुन्दर चित्रण करता हैभक्ति काल और रीति काल में अवधी और ब्रज भाषा की प्रधानता भी बदलती सामाजिक परिस्थितियों और राजनीतिक हालातों में लोक द्वारा खोजा गया नया माध्यम है अपभ्रंस से ले कर हिंदी तक आते-आते भाषाई विकास के छ; पडाव आए पहला पड़ाव अवहट्ट, दूसरा पुरानी हिंदी, तीसरा हिन्दवी, चौथा ब्रज भाषा, पांचवा अवधी, छठवा खड़ी-बोली। इस तरह हिंदी आज जिस मुकाम पर खड़ी है वहां तक पहुचने में उसे तमाम संघर्षों से होकर गुजरना पड़ाइन संघर्षो में कभी-कभी तो भाषागत भटकावों का भी सामना करना पड़ा जैसे अमीर खुसरो की हिन्दवी के बाद अचानक ब्रज और अवधी भाषा का उदभव एक प्रकार का भटकाव ही हैहिंदी का जो वर्तमान रूप है उसे खुसरो ने आकार दिया था अस्तु खुसरो की धारा से भटक कर दूसरी भाषाओं का आश्रय लेना भटकाव ही कहा जायेगा
अवहट्ट, अपभ्रंस और और आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है आरम्भ में विद्वान् अवहट्ट को अपभ्रंस का ही एक रूप मानते रहे परन्तु जब आगे चलकर विस्तार से अध्ययन किया गया तो अवहट्ट अपभ्रंस से आगे बढ़ी हुई भाषा निकली अवहट्ट और अपभ्रंस के अंतर का मूल कारण “लोकतत्व” है अवहट्ट व्याकरण के नियमो में आबद्ध हो कर चलने वाली भाषा नहीं रहीइसके साहित्य में लोकानुभव ही लोकाभिव्यक्ति का स्थान पाते रहे इस भाषा के बड़े कवि विद्यापति अपनी भाषा को हमेशा “देशिलबयना” ही कहते रहेअवहट्ट अपभ्रंस की अपेक्षा अधिक उदार थी इसने अपने शब्द-शास्त्र में स्थापित भाषाओँ का मुँह नहीं ताका अपितु शब्दों की खोज हेतु इसने लोक-व्यवहार का आश्रय लिया इससे अवहट्ट की लोक-आसक्ति ही झलकती हैइतना ही नहीं अवहट्ट ने आधुनिक हिंदी की तरह विदेशी शब्दावलियों को भी अपनाया अवहट्ट ने अपना स्वरूप किसी परिष्कृत भाषा की तरह नहीं रखा अपितु जनभाषा की तरह रखा अपनी इसी लोक आसक्ति के कारण अवहट्ट आगे आने वाली भाषाओँ का आदर्श बन सकीपुरानी हिंदी इसका बढ़िया उदाहरण है पुरानी हिंदी का असली स्वरूप क्या है इस पर पर्याप्त मतभेद हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपभ्रंस मिश्रित देशी भाषा को पुरानी हिंदी माना है इनका स्वरूप डिंगल और पिंगल के रूप देखा जा सकता हैडिंगल व पिंगल भक्तिकालीन, रीतिकालीन भाषा के पूर्व आगे आने वाली भाषा का संकेत हैडिंगल राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंस है तो पिंगल ब्रिज मिश्रित अपभ्रंस हैभाषा वैज्ञानिकों के अनुसार परिनिष्ठित अपभ्रंस जब व्याकरणबद्ध हो गयी तो कई लोकभाषाओं का विकास हुआ इसमें विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के आधार पर पुरानी हिंदी के भी कई रूप सामने आये इनमें  डिंगल और पिंगल मुख्य रहींपर ये दोनों भाषाएँ अधिक समय तक अपना लोकव्यापी रूप बरकरार नहीं रख पायीं डिंगल राजदरबारों की भाषा हो कर अभिजन के हाथों खेलने लगी चारणों ने इसको अतिशयोक्ति की भाषा बना कर क्लिष्ट बना डाला शब्दों का द्वित्व इसकी कठिनता का मूल कारण रहा जबकि पिंगल निरंतर लोक से अनुप्राणित होती रही और आगे चलकर ब्रजभाषा के रूप में सम्पूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र की भाषा बनकर उभरीहम पिंगल को पुरानी हिंदी की प्रतिनिधि भाषा कह सकते है जिसने अपना लोकवादी स्वरूप नहीं खोया सुकोमल और मृदु भावों की अभिव्यक्ति के लिए पिंगल का आदिकाल में व्यापक प्रयोग हुआ यह कभी भी राजदरबारों की प्रतिनिधि भाषा नहीं बन सकी इसलिए डिंगल की तरह लोक से दूर होकर अकाल मौत का शिकार नहीं बनीलोक से जुड़ाव होने के कारण यह परिवर्तित रूपों में ब्रज भाषा के रूप में आधुनिक काल तक काव्य की भाषा बनी रही तमाम परिवर्तनों के वावजूद एक भाषा का लम्बे समय तक कविता में उपस्थित रहना तभी संभव है जब आम जनता के सरोकारों की अभिव्यक्ति की क्षमता हो पिंगल इस क्षमता से पूर्ण थी लोक इसे आत्मसात कर चुका था लोक ने ही इसे ब्रजभाषा के रूप में नया संस्कार दिया नई उर्जा दी ब्रजभाषा का काव्यभाषा के रूप में जो व्यापक प्रयोग हुआ वह लोक की ही देन है हालांकि पिंगल कही जाने भाषा का कोई स्वतंत्र ग्रन्थ प्राचीन-काल में नहीं  मिलता इसका आरंभिक रूप डिंगल में ही समाहित है पर पुरानी हिंदी की प्रतीक भाषा पिंगल अपभ्रंस की सीमाओं से बाहर निकल कर आगे चलकर हिंदी की मुख्य भाषा बनकर प्रतिष्ठित हुई
हिंदी की इस विकासयात्रा में अमीर खुसरो का विवेचन न हो तो तो हिंदी में “लोकोन्मुखी” हस्तक्षेप का पूरा खाका नहीं खींचा जा सकता हैअमीर खुसरो विलक्षण “लोक-कवि” थे उन्होंने कल्पना से बहुत दूर तत्कालीन जमीनी कविता का प्रारूप सामने रखा उनकी लोकानुभूति मंडित साहित्य में कहीं भविष्य की खड़ी बोली झांकती है तो कहीं ब्रज-भाषा के दर्शन होते हैंउनकी काव्य-भाषा परवर्ती कालों में विकसित होने वाली भाषाओं का प्राचीन संकेत है आधुनिक हिंदी के पद पर आरूढ़ होने वाली खड़ी बोली का भी निखरा हुआ स्वरूप अमीर खुसरो में प्राप्त हो जाता हैजिस समय खुसरो कविता लिख रहे थे उस समय हिन्दू डिंगल और पिंगल में अपनी रचना लिख रहे थे और मुसलमान अरबी फ़ारसी में अपनी कवितायेँ लिख रहे थेहिन्दू और मुसलमान दोनों जानते थे कि जनता की भाषा न तो अपभ्रंश है और न ही अरबी फ़ारसी पर दोनों जातियों के कवि उन भाषाओ पर आसक्त थे जिन्हें जनता नहीं समझती थी यही कारण था कि लोक का जो प्यार अमीर खुसरो को मिला वह न तो डिंगल को मिल सका न ही अपभ्रंस कोक्योंकि अमीर खुसरो ने जनता नब्ज़ को पकड़ा और जनता की ही भाषा में जनता के बीच के आपसी वार्तालाप को अपनी कविता में उतारातत्कालीन जनभाषा में रचना करके खुसरो ने हिंदी और उर्दू के भविष्य की रह खोल दी खुसरो की भाषा देख कर कोई अनुमान नही कर सकता की यह इतनी पुरानी भाषा है

“एक थाल मोती भरा, सबके सर पर औंधा धरा,
चारों और वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे” 

यह तत्कालीन लोक की भाषा थी जिसे अमीर खुसरो ने अपनी कविता में उतारा इस भाषा को हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी कह सकते हैं, जिसकी यात्रा अमीर खुसरो से आरम्भ हो कर आज खड़ी बोली मानक हिंदी में समाप्त हुई यह यात्रा किसी कवि की देन नहीं है वरन लोक की उस परंपरा की देन है जो अनंत काल तक अपने ह्रदय में सामासिक संस्कृति को समाहित किये रही और जब अपने अनुकूल अवसर देखा तो लोक ने ही हिंदी की जातीय भाषा के रूप में इस हिन्दुस्तानी को प्रतिष्ठित कर दिया

यह हिंदी के विकास की संक्षिप्त रूप रेखा है वैदिक संस्कृत से लेकर हिन्दवी और हिन्दुस्तानी तक के भाषाई विकास में हम लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते और न ही भक्ति काल व रीति काल में काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित अवधी व ब्रज को समझने में हम लोक की भूमिका से इनकार कर सकते हैं हिंदी की उत्पत्ति और विकास एक लोकजन्य परिघटना हैइसे राजसत्ता और अभिजात्य से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता तमाम भाषाओँ और बोलियों में एक भी भाषा नहीं है जिसे अभिजन और सामंतों ने विकसित किया हो या उत्पन्न किया हो समस्त भाषाएँ लोक से ही उत्पन्न होती है लोक द्वारा ही विकसित होती है लोक द्वारा ही साहित्य भाषा बनती है किसी जाति की निजी पहचान बनती हैजब भी कोई भाषा लोक से दूर हट कर सामन्ती शक्तियों के हाथ में खिलौना बन जाती है तो लोक उसका परित्याग कर एक नयी भाषा की खोज कर लेता है यह प्रक्रिया निरंतर गतिमान रहती है भाषा बनती रहती है, विकसित होती रहती है, लोक-विमुख होती रहती है मरण को भी प्राप्त होती रहती हैलोक की सबसे बड़ी खासियत है कि वह अकृत्रिम भाषा को ही अपनाता है जबकि अभिजन सुसंस्कृत व परिनिष्ठित भाषा के व्यवहार पर जोर देता है यही कारण है कि अति शुद्धतावाद के कारण भाषा कालांतर में पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बन कर रह जाती है लोक से दूर होने लगती है यह चाहे लोक का चरित्र कहिये या लोक की विशेषता लोक केवल सहज व बोधगम्य भाषा को ही अपनाता है और उन शब्दों का चयन करता है जिसमे उसकी माटी की सुगंध हो उसके परिक्षेत्र का प्रतिबिम्ब हो लोक का यही गुण उसे अभिजन और जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ खड़ा कर देता हैभाषा और संस्कृति दोनों स्तरों पर लोक और अभिजन एक दूसरे के विरुद्ध खड़े रहे दोनों वर्गों के संघर्ष ने इतिहास का निर्माण किया, भाषा की खोज की, शब्दों का गठन किया, संस्कृति की नयी परिभाषाएं खोजी, अपनी लोकधर्मी चेतना के साथ आज भी लोक संघर्ष-रत है       
सम्पर्क-
मोबाईल- 09838610776           
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)                                                         

उमाशंकर सिंह परमार का आलेख ‘लोक’ – स्वरूप और चेतना

‘लोक’ को ले कर सामान्य जनमानस में बहुत कुछ भ्रम की स्थिति बनी रहती है। ‘लोक’ के अर्थ और इसके विभिन्न पहलुओं पर युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने एक शोधपरक आलेख लिखा है। इस आलेख को हम पहली बार पर आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख ‘लोक – स्वरुप और चेतना।
      
लोक’  – स्वरूप और चेतना
उमाशंकर सिंह परमार
मनुष्य के सामाजिक संबंधो व स्तरों का निर्धारण उत्पादन प्रक्रिया से तय होता है। उत्पादन प्रक्रिया से सुनिश्चित सम्बन्ध अनिवार्य होते हैं और इच्छाशक्ति के बाहर भी होते हैं। उत्पादन के इन सम्बन्ध सूत्रों द्वारा सामाजिक ढांचे का ताना बाना बुना जाता है। यही वह बुनियाद है जिसमें राजनैतिक व सांस्कृतिक प्रासाद खडा होता है। ज्यों ही इस बुनियाद में बदलाव आता है त्यों ही बुनियाद पर टिके सामाजिक राजनैतिक प्रासाद बदलने लगते हैं। यह बदलाव व्यवस्था पर होता है। वर्गीय संबंध परिवर्तन से अछूते रहते हैं। कहने का आशय यह है कि वर्गीय संबंधो में परिवर्तन नहीं आता केवल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक पहलू ही परिवर्तन के दायरे में आते हैं। एक वर्ग जब दूसरे वर्ग की सांस्कृतिक संपदाओं में काबिज हो जाता है तो दूसरा वर्ग अपने लिये नवीन परिवेश व परम्परा की खोज करता है। दोनों वर्गों का द्वंद सनातन और बुनियादी है। संपूर्ण भाषायी एवं सास्कृतिक विकास के मूल में यही द्वंद है। एक वर्ग होता है सुविधाभोगी तो दूसरा वर्ग होता है सुविधाविहीन। एक वर्ग सत्ता और संपत्ति से रहित होता है तो दूसरा सत्ता और संपत्ति का स्वामी होता है। पहला वर्ग श्रेष्ठ है। जो श्रेष्ठ है वही परिष्कृत है, अल्पसंख्यक है, अभिजात्य है, वही है भद्रलोक या अभिजन। ठीक अभिजन के विपरीत जो दूसरा वर्ग है वह बहुसंख्यक है, साधनविहीन है, श्रम प्रधान है, पर वह श्रेष्ठ नहीं है। यही तो लोक है। इस प्रकार लोक व भद्रलोक का विभाजन क्षेत्रीयता के आधार पर नहीं अपितु उत्पादन प्रक्रिया व संपत्ति के स्वामित्व के आधार पर तय किया गया है। ‘लोक’ शब्द के उच्चारण से जन सामान्य के समूहों का ही बोध नहीं होता अपितु विभिन्न समूहों के आपसी उत्पादन संबंधो का भी बोध होता है। सामाज के विभिन्न वर्गों के मध्य विद्यमान आर्थिक संस्तरों का बोध होता है।
                  
ब्दकोषों में लोक के अनेक अर्थ मिलेंगे जिसमें समान्यतया दो ही अर्थ प्रचलित पाये जाते हैं। पहला जिसमें इहि लोक, परलोक, त्रिलोक, इत्यादि का बोध होता है और दूसरा लोक का अर्थ होता है आम जनता या जन सामान्य। इसमें लोक का वही अर्थ है जो हिन्दी शब्द लोग का है। प्रथम अर्थ की साहित्य व अन्य समाजशास्त्रीय विधाओं में कोई प्रासंगिकता नहीं है। दूसरे अर्थ में वह अभिप्राय नहीं द्योतित होता जिस अभिप्राय के साथ लोक का साहित्य में प्रयोग होता है। साहित्य में प्रयुक्त लोक शब्द का अर्थ समझने हेतु लोक की प्राचीन एवं अत्याधुनिक अवधारणाओं का मूल्यांकन आवश्यक है। लोक की अवधारणा पूर्णतया भारतीय है यह संस्कृत के लोकृदर्शने’ धातु में धत्र’ प्रत्यय जोड देने से निष्पन्न होता है। इस धातु का व्याकरणिक अर्थ है देखना। इस प्रकार लोक का निष्पन्न अर्थ है देखने वाला अर्थात दर्शक समुदाय। यहाँ पर दर्शक शब्द से सिद्ध है कि लोक भोक्ता या कर्ता समुदाय नहीं है वह केवल देखता है, अनुकरण करता है। ऋग्वेद में लोक के लिये जन शब्द का उल्लेख मिलता है। जन शब्द से ही आधुनिक काल में जनता, जनमत, जनतन्त्र जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई है ऋग्वेद में ही शासक वर्ग के लिये राजन शब्द का प्रयोग है। ‘राजन’ और ‘जन’ दोनों भिन्न समुदाय हैं। ऋग्वेद में ‘जन’ और ‘राजन’ शब्द के भिन्न प्रयोग से द्योतित होता है कि लोक (जन) को शासक वर्ग से भिन्न माना गया है। ‘जन’ शब्द आधुनिक काल में भले ही ‘लोक’ से भिन्न अर्थ रखता हो पर भारतीय परम्परा में ‘जन’ और ‘लोक’ को हजारों साल तक एक ही समझा गया है। ऋग्वेद में ही पुरुष सूक्त में सूक्तकार ऋषि पुरुष की व्यापकता की चर्चा करते हुये श्रोत्रातधा लोकः अकल्पयन’ अर्थात् यह पार्थिव जीवों के अर्थ में ऐसा कहता है। इसी सूक्त में आगे पार्थिव और दिव्य का अंतर भी आया है जिसे अथर्वेद में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया गया है। यहाँ पार्थिव और दिव्य का विभाजन ध्यान देने योग्य है। दिव्य का अर्थ है दैवीय या आलौकिक अर्थात् जो लोक की तरह पार्थिव या जमीनी नहीं है यहाँ पार्थिव का अर्थ व सरोकार सामान्य या लोक जैसा ही है जो श्रेष्ठ या अलौकिक से भिन्न है। नाट्यशास्त्र के रचनाकार आचार्य भरत ने ‘लोक’ शब्द का बहुत ही सटीक प्रयोग किया है। नाटक की उपयोगिता का वर्णन करते हुये उन्होने लोकानुरंजितम्’ शब्द का उपयोग किया है। अर्थात् नाटक की रचना लोक के मनोरंजन के लिये है। वाल्मीकि ने रामायण में लोक और लोकोत्तर दोनों भेदों का उल्लेख किया है ‘लोक’ का रामायण में वहीं अर्थ है जो अथर्वेद में पार्थिव का है और लोकोत्तर उस जनसमूह को कहा गया है जो लोक से श्रेष्ठ है। सबसे स्पष्ट और प्रवृत्तिगत् भेद हमें महाभारत में प्राप्त होता है। महाभारत में लोकविधि, वेदविधि या लोककाव्य, वेदकाव्य जैसे विभेदों का उल्लेख है। यहाँ वेदविधि अभिजन वर्ग से सम्बन्धित है और लोकविधि का संबंध जनसामान्य से है। महाभारत में कहा गया है कि वेदाच्च वैदिकः शब्दः लोकाच्च लौकिकः’ लोकवेद और अभिजन या श्रेष्ठ का विभाजन महाभारत में भाषा के आधार पर किया गया है। इतिहास गवाह है कि जब भाषा व साहित्य में अभिजात्य वर्ग काबिज हो जाता है और नियमों, नीतियों की आरूढ़िता से आम जनमानस के लिये भाषा व साहित्य दुरूह हो जाता है तो लोक अभिजात्यवर्गीय भाषा एवं साहित्य के समांतर अपनी अलग भाषा व अलग साहित्य की उत्पत्ति करता है। वैदिक संस्कृत व साहित्य जब पाण्डित्यपूर्ण हो कर के अभिजात्य वर्ग तक सीमित हो गयी। तब लोक ने संस्कृत नामक भाषा को खोजा एवं अपने साहित्य का सृजन किया। उस समय के समस्त काव्यशास्त्री लोक और वेद के इस विभेद का उल्लेख करते हैं। इसलिए पाणिनि ने संस्कृत को लौकिक संस्कृत’ की संज्ञा दी है। यह संस्कृत जब उच्चवर्गीय कुलों में सीमित होकर रह गयी। तब लोक ने पालि, प्राकृत, अपभ्रंश की खोज की। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। भाषा एवं साहित्य का सृजन लोक और अभिजन के इसी द्वंद पर आधारित है। इस विभाजन से स्पष्ट है कि भारतीय परंपरा में लोक निष्क्रिय समुदाय नहीं है सक्रिय है। चेतन है। इस लोक में गरीब, मजदूर, छोटे किसान, निम्नवर्गीय शहरी शिक्षित, अशिक्षित, निम्न मध्यम वर्ग सभी सम्मलित हैं। हमारा सामाज वर्गों में विभाजित है। जिसमें अधिकांश जनता श्रम करने वाली है। समाज का एक अत्यल्प हिस्सा संपत्तिशाली है यह संपत्तिशाली वर्ग दूसरे के श्रम से लाभ अर्जित करता है। यही वर्ग उत्पादन के साधनों पर काबिज है यही सामाज के आचार-विचार, न्याय-कानून, सत्ता-स्वामित्व, लाभ-वितरण का नियन्त्रक है। वर्ग विभाजित सामाज में प्रभुत्वशाली वर्ग की ही विचारधारा प्रभावी होती है। इस प्रभुत्वशाली वर्ग को छोड़ कर अन्य समस्त समुदायों को लोक कहा जाता है। इस वर्ग में अधिकांश जनता श्रम करने वाली है व जीविकोपार्जन के लिये अन्य छोटे-छोटे साधनों के द्वारा कार्य करते हैं। यह जनता गाँव शहर दोनों में रहती है। गाँव का कृषि मजदूर व निम्नमध्यमवर्गीय किसान, सीमांत किसान, दलित व जंगलों में उन्मुक्त रूप से रहने वाले आदिवासी समूह भी लोक के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार लोक में वह समस्त जनता समाहित है जो अभिजन नहीं है, स्वामी नहीं है। भद्रलोक (अभिजन) के समानांतर लोक अपना साहित्य, अपनी मान्यता, अपने विचार, अपनी सृजनशीलता के साथ डट कर खड़ा रहता है। समस्त जनविद्रोह, पुनर्जागरण, नवजागरण व जनआंदोलन इसी लोक की कोख से उत्पन्न होते हैं। अतः लोक को अचेतन कहना और वर्गीय स्थिति से अलग देखना अनुचित है। यदि लोक वर्ग चेतस न होता तो साहित्य एवं इतिहास में जनआन्दोलन न होते और ना ही भाषाई संस्कृति की खोज होती। भाषा जड़वत होती, न भक्ति काल होता, न प्रगतिशील आन्दोलन होता और ना ही राष्ट्रीय आन्दोलन में लोक की क्रान्तिकारी भूमिका होती। कहने का आशय यह है कि लोक वर्गचेतस रहा है। यही वर्ग चेतना समय-समय पर विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से अभिव्यक्त होती रही है।
कुछ लोग लोक को अंग्रेजी शब्द ‘फोक’ का अनुवाद मानते हैं। उनका कहना है कि लोक की अवधारणा फोक से ली गयी है। एवं ‘फोक’ ही लोक का समुचित अर्थ देता है। ‘फोक’ और ‘लोक’ दोनों को एक समझना ही गलत इतिहास बोध है। ‘लोक’ शब्द ‘फोक’ से अधिक व्यापक एवं सर्वसमावेशी है। लोक मूल है। पूर्ववर्ती है और ‘फोक’ परवर्ती है। ‘लोक’ शब्द का जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है। उल्लेख भारतीय परंपरा में तब से है जब अंग्रेजी का अस्तित्व ही नहीं था। दूसरी बात ‘फोक’ का अर्थ है आदिम समाज के सदस्य या निरक्षर गंवार’ ग्रामीण है। ‘फोक’ में ग्राम पर अधिक जोर दिया जाता है यही कारण है कि फोकलोर’ का अर्थ ग्राम गीत से लिया जाता है जबकि ‘लोक’ में गाँव और शहर दोनों समाहित हैं। फोक में समाज की अचेतन, वर्गविहीन, द्वंदरहित अवस्था का ज्ञान होता है। जबकि लोक के साथ ऐसा नहीं है। लोक चेतन, वर्गचेतन, द्वंदयुक्त समाज का बोध देता है। तीसरी बात यह है कि लोक में निरक्षर व साक्षर, पढे-लिखे व्यक्ति समाहित हैं। जबकि ‘फोक’ में केवल निरक्षर ही आते हैं। चौथी बात लोक में ग्राम के साथ-साथ शहर का भी बोध होता है। जबकि ‘फोक’ में केवल गाँव का बोध होता है। इस प्रकार विद्यमान तमाम अंतरों के कारण ‘फोक’ को लोक नहीं कहा जा सकता ‘फोक’ अपने आप में अस्पष्ट अवधारणा है। अंग्रेजी शासन ने अपने औपनिवेशिक मंतव्यों की पूर्ति हेतु भारतीय साहित्य एवं संस्कृति को हमेशा कमतर ही आंका है अंग्रेजो ने भारतीय साहित्य को अवैज्ञानिक कहा है। वो हमेशा भारत को आदिम समूहो का देश मानते रहे व अपने वैज्ञानिक विश्लेषण में हिन्दुस्तानी साहित्य एवं जनता के बारे में ईर्ष्यापूर्ण विचारों का प्रतिपादन करते रहे। अतः यदि उन्होने ‘लोक’ का अनुवाद फोक किया है तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। इस अनुवाद के पीछे अंग्रेजो की उपनिवेशवादी मानसिकता ही है। नहीं तो ‘लोक’ का ‘फोक’ से कोई संबंध ही नहीं है। दोनों एक दूसरे के विपरित अवधारणाएँ है।
लोक की निजी संपत्ति केवल अपना श्रम होता है यदि संपत्ति का स्वामित्व होता भी है तो प्रभुत्वशाली वर्ग की तुलना में नगण्य होती है या वह संपत्ति इतनी कम होती है कि उसमें बगैर श्रम के कोई उत्पादन नहीं किया जा सकता। लोक श्रम प्रधान है। सर्वहारा कि अवधारणा भी इसी श्रम से जुडी है सर्वहारा लोक का वह हिस्सा है जो केवल श्रम से ही जीवन यापन करता है। श्रम द्वारा उत्पादित मूल्यों के आंशिक भुगतान द्वारा वह बसर करता है। सामान्यतया संपूर्ण लोक ही परिवर्तनधर्मी होता है लेकिन जब राजनैतिक परिवर्तन (क्रान्ति) की बात होती है तो यही सर्वहारा बुर्जुवा वर्ग के खिलाफ क्रान्ति का नेतृत्व करता है। जनक्रान्ति के समय संपूर्ण लोक सर्वहारा के पीछे खडा होता है। और सर्वहारा लोक के अग्रगामी दस्ते की तरह कार्य करता है। आज नवउदारवादी व्यवस्था के कारण लोक के स्वरूप में परिवर्तन आता जा रहा है। छोटे, निम्न, मध्यमवर्गीय एवं सीमांत किसान नवउदारवादी विश्व व्यवस्था में उलझ कर बड़ी तेजी के साथ भूमिहीन होते जा रहे हैं। लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं। अमीर गरीब के मध्य खाई बढती जा रही है। संपत्ति मुट्ठी भर लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गयी है। अतः नवउदारवादी व्यवस्था को देखते हुए यदि संपूर्ण लोक को सर्वहारा कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि आज सभी लोग श्रमिक हैं सभी सर्वहारा है। वर्तमान में संपूर्ण लोक सर्वहारा बन चुका है।
प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपनी सत्ता व व्यवस्था की सुरक्षा हेतु हमेशा ‘लोक’ को अपनी साजिशों का शिकार बनाया है। ‘लोक’ के क्रान्तिकारी पक्ष को प्रभुत्वशाली वर्ग ने दबाया है या नष्ट करने का प्रयास किया है। अतः उस साहित्य को व सांस्कृतिक उपादानों को प्रभुत्वशाली वर्ग ने ‘लोक’ से दूर रखा है जिससे क्रान्ति चेतना जागृत हो सकती है। प्रभुत्वशाली वर्ग ने ऐसे साहित्य को नष्ट कर अपने बुर्जुवा साहित्य, अश्लील एवं धार्मिक अन्धविश्वासपूर्ण साहित्य को लोक के नाम से प्रचारित किया। क्योंकि बुर्जुवा वर्ग समझता था कि खुद की सत्ता व शक्ति को तभी तक संरक्षित रखा जा सकता है जब तक लोक पौराणिक, धार्मिक, अन्धविश्वासपूर्ण, सामंतपोषी साहित्य में उलझा रहेगा व वैज्ञानिक क्रान्तिकारी साहित्य से दूर रहेगा। अतः लोक पर ये आरोप लगाना कि वो क्रान्तिचेतस नहीं था, लोक के प्रति जागरूक नहीं था, अनुचित है। क्योंकि लोक सामाजिक रूप से चेतन था और राजनैतिक रूप से सजग भी था। लोक साहित्य में लोक के प्रति जागरूकता पायी जाती है। इसमें राष्ट्र के प्रति संवेदना व वर्गीय पीडाओं का द्वंद भी झलकता है। ऐसी ही संवेदनाओं के कारण लोक में औपनिवेशिक शासन के प्रति जबरदस्त आक्रोश देखने को मिलता है। वर्गीय पीड़ाओं के अन्तर्गत बुन्देली लोक साहित्य में महाजनों की सूदखोरी, भूस्वामी द्वारा मजदूरी दबा जाना, उत्पीडन व अकाल के कारण देश छोड कर पलायन बखूबी दिखाया गया है। एवं राजस्थानी लोक साहित्य में देश के प्रति अपनी जमीन के प्रति एक उम्दा संवेदना देखने को मिलती है। लोक की समाज और परिवेश के प्रति सजगता देखने के लिये बुदेली एवं राजस्थानी साहित्य का अध्ययन किया जा सकता है। लोक अपनी जमीन से जुडा रहता है। वह खुद ही कटुताओं का भोक्ता होता है उसकी रचना कोरी कल्पना की रजत बालुका नहीं है। वास्तविकता के मजबूत धरातल पर है। औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों की उसे समझ है और क्रान्तिकारी आक्रोश भी है। 1857 से लेकर 1947 तक जितने भी किसान आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन, जन आन्दोलन हुए उन सब में लोक की यही राष्ट्रवादी चेतना काम करती रही। यदि लोक औपनिवेशिक शासन के शोषण तंत्र को न समझता होता तो क्या कोल विद्रोह, मुण्डा विद्रोह, नील आन्दोलन इत्यादि इतने व्यापक होते। इतिहास इन आन्दोलनो का गवाह है इस विषय में इतिहास के साथ-साथ वरिष्ठ लोकधर्मी कवि विजेन्द्र जी की कविता विरसा मुण्डा’ ही आदिवासियों में लोक चेतना समझने के लिये पर्याप्त है। ये सारे आन्दोलन भारतीय इतिहास में एक बडी उपस्थिति के साथ दर्ज हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान के तत्कालीन लोक गीतों और लोक साहित्य का अध्ययन किया जा सकता है जिसमें लोक की औपनिवेशिक शासन के प्रति समझ एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में शहीदों के प्रति भावुकता दिखायी गयी है। देखें एक उदाहरण “देश के कारणवां केतने गइले जेल खनवां” ऐसे गीतों में अभिव्यक्त संवेदना अभिजन साहित्य नहीं दे सकता। यह वेदना केवल लोक ही दे सकता है जिसने आजादी की लडाई में अपने प्राणों की आहुति दी।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लोक ही आम जनता है जो गाँवों से ले कर शहर तक व्याप्त है। यही लोक आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक हमारी रचना धर्मिता का हेतु रहा है। लोक ही कविता का विषय है व लेखक का सरोकार है इसी लोक को विषय बना कर लिखा गया साहित्य लोकधर्मी साहित्य कहलाता है। लोक से इतर लिखा गया साहित्य सामंतवादी लोक विमुख एवं प्रतिक्रियावादी साहित्य ही हो सकता है क्योंकि लोक ही पक्षधरता है। लोक को अस्वीकार करने का आशय है पक्षधर न होना व प्रतिबद्ध न होना। 
सम्पर्क-

जिला सचिव,
जनवादी लेखक संघ (बांदा)
मोबाईल – 09838610776
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

एस आर हरनोट के कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लाक गिर रहा है’ पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा


 एस आर हरनोट हमारे समय के चर्चित कथाकारों में से हैं। हाल ही में इनका एक कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लाक गिर रहा है’ प्रकाशित हुआ है और पाठकों के बीच काफी सराहा गया है। इस संग्रह की एक समीक्षा पहली बार के लिए लिखी है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा।      
लिटन ब्लॉक गिर रहा है- मनुष्य और मनुष्यता का द्वन्द
उमाशंकर सिंह परमार
      पहाडी लोक जीवन की कथा भूमि लेकर सार्वदेशिक, सार्वभौमिक, कहानियों की रचना करने वाले एस. आर. हरनोट उन विरले कथाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी कहानियों का सूत्र सामंती संस्कृति और जन संस्कृति के मध्य विद्यमान टकरावों में खोजा है, उनकी कहानियां जन संस्कृति व जन सरोकारों का अभासी समाज खोजती है। इस खोज में कहीं-कहीं मनुष्य कटघरे में खडा हो जाता है या फिर व्यवस्था कटघरे में खडी हो जाती है लेकिन मनुष्य वहीं पुनर्विचार के दायरे में आता है जब वह मनुष्यता की क्षय करता है। हरनोट जी की कहानियों का ध्वंस स्वरूप व्यवस्था है तो सृजन पक्ष मनुष्यता है उनका सम्पूर्ण साहित्य मनुष्यता का रेखांकन है इस रेखांकन में मनुष्य बाधा बन कर उपस्थित होता है तो हरनोट जी मनुष्य को भी बख्शते नहीं हैं बल्कि निर्मम समीक्षा करते हैं। मनुष्य और मनुष्यता के बीच विद्यमान अंतर्विरोधों के मध्य सामंजस्य बैठाने का उद्योग करते हैं।  
      अभी हाल में ही (वर्ष 2014) आधार प्रकाशन पंचकुलाहरियाणा से उनका नया कहानी संग्रह लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ प्रकाशित हुआ है। यह कहानी संग्रह उनकी मनुष्यता की खोज का विस्तार है, यह कहानी संग्रह शैल्पिक व विषयपरक विविधता के बावजूद भी एक सूत्रबद्ध निष्कर्ष का प्रतिपादन करता है वह निष्कर्ष है छोटी-छोटी मुठभेडों से व्यापक संघर्ष की पीठिका तैयार करना व नष्ट प्राय मनुष्यता की खोज करके सम्पूर्ण सांस्कृतिक, राजनैतिक, जैविकीय, प्रकृतिक उपागमों का पुनःसंस्कार करना इस संग्रह का निष्कर्ष है।
      इस संग्रह में नौ कहानियां हैं संग्रह आने के पूर्व ये कहानियां हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कहानियों की पर्याप्त समीक्षा हो चुकी है फिर भी एक संग्रह के रूप में एक साथ आना ही इन कहानियों में एक रचनात्मक अंतर्संबंध स्थापित कर देता है। मेरा मानना है कि पीडित बहुसंख्यकों के प्रति लगाव यदि लेखक की अपनी रचना दृष्टि है तो प्रतिबद्धता अनिवार्य नहीं रह जाती क्योंकि प्रतिबद्धता से ज्यादा महत्वपूर्ण सृजनात्मक जीवनदृष्टि होती है। क्योंकि यही जीवनदृष्टि लेखन को जन सरोकारों से जोडती है। लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ पढने के बाद मैं कह सकता हूं कि सृजनात्मक जीवन दृष्टि यदि कहीं देखना है तो हरनोट जी को पढने से बेहतर कुछ नहीं है। इस संग्रह की दूसरी विशेषता जो मुझे आकर्षित करती है वह है चरित्र से लेकर भाषा तक सादगी का खूबसूरत समावेश किया गया है। उन्होने सादगी का समावेश तो अपनी हर रचना में किया है पर इस संग्रह में उन्होने सादगी को ही शिल्प बना डाला है। हर एक कहानी अपनी सादगी और सहजता के बूते पाठक को मोहपाश में बांधने की कूवत रखती है।
राल्फ फॉक्स ने कहा है कि व्यक्ति और समाज के बीच विद्यमान असंतुलन के कारण उत्पन्न टकरावों से कहानी का जन्म होता है जहां असंतुलन नहीं है वहां कहानी की कल्पना नहीं की जा सकती, असंतुलन के कारण ही कहानी संतुलन का सृजन करती है हरनोट जी का लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ इसी असंतुलन को लेकर चलता है वो टकरावों को केवल सामाजिक द्वन्द से जोड कर नहीं देखते अपितु उसे बहुआयामी, बहुस्पर्शी बना देते हैं। धर्म, संस्कृति, आस्था, जाति परम्परायें, राजनीतिगांव, कस्बेहर, इतिहास, भूगोल, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहीं उन्होने टकरावग्रस्त मनुष्यता की खोज न की हो। समस्त भाव भूमियों में लडते हुये अंत में अपनी कहानी को ही लडाकू बना कर छोड देते हैं। यही कारण है कि हरनोट के चरित्र शान्त है लेकिन कहानियां जूझती है। इस संग्रह की कहानियां मनुष्य और मनुष्यता को नियति के यूटोपीयाई विसंगतियों से बाहर निकाल कर समकालीन जमीन पर खडा करती हैं। समकालीन सरोकारों से जोडने के लिये वो संस्कृति व पर्यावरण के मानक पर कसने से नहीं चूकते मनुष्यता के प्रति लेखक का लगाव जमीनी है जिसके कारण उनकी कहानियों का रचित संसार व्यापक व गहरा हो गया है। मामूली व उपेक्षित समझे जाने वाले वर्ग के बुनियादी सवालों को उठा कर मनुष्य और मनुष्य के बीच विद्यमान अंतर्विरोधों को व्यापक जमीनी स्पर्श देना इस संग्रह की खासियत बन गयी है। इसका मूल कारण लेखक की जीवन दृष्टि है। जिसका आधार सामाज का पीडित और उपेक्षित तबका है। लेखक भी उसी समाज में रह रहा है जहां कहानी उत्पन्न हो रही है। वह अपनी आंखो से समाज का कटु सत्य देखता है, वह अनुभूत करता है, वह बार-बार विसंगतियो से टकराता है एवं उन परिस्थितियों से जूझता है जिससे मनुष्य का क्षरण होता है स्वाभाविक है कि लेखक देखा हुआ सच अनदेखा नहीं कर सकता यही देखा हुआ सच लेखक की जीवनदृष्टि बन जाती है। वह देखता है कि सामंतवादी सामाज में क्या अंतर्विरोध है? वह पूंजी और सत्ता का गठजोड भी देखता है वो कानूनी दांवपेंच, भ्रष्टाचार और उत्पीडन की पराकाष्ठा भी देखता है वह अपने आसपास के माहौल में सरकारी योजनाओं की दर्दनाक मौत भी देखता है वो दलित वर्ग की सांस्कृतिक परम्पराओं की जडता का हिंसात्मक रूप भी देखता है। वो शोषितों, वंचितों और आम आदमी की विकास के नाम पर तिल-तिल कर मौत भी देखता है। यह देखना किसी भी लेखक के लिये युगबोध का विजन तय कर सकता है हरनोट जी की कहानियां इसी विजन को लेकर चलती है।
      संग्रह की आखिरी कहानी लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ में लिटन ब्लॉक की टूटन केवल सांस्कृतिक, ऐतिहासिक इमारत की टूटन नहीं है वह टूटन बहुआयामी है समाज के सबसे उपेक्षित तबके की टूटन है नसमू और कुबडी’ को चरित्र के रूप में सवांर कर उन्होने सत्ता और पूंजी के अदृश्य गठजोड को परत दर परत खोल कर धर दिया है। भूख और रोटी जैसी सामान्य आवश्यकता किसी की मौत का कारण बन सकती है इसको न केवल सिद्ध किया है अपितु एक कदम आगे बढकर विकास के दांवों का खोखलापन उजागर करते हुये वो जता देते हैं कि कुबडी की मौत एक बेघर भूखे की मौत ही नहीं है वरन् मनुष्यता की भी मौत है। संग्रह की पहली कहानी आभीप्रकृति और मानव के द्वन्द का उदाहरण है। प्रकृति की विभिन्न संरचनाओं के मध्य विद्यमान पारस्परिक निर्भरता व विनिर्मित जैविक परिवेश को स्वच्छंदतावादी परिवेश के परिप्रेक्ष्य में देखते हुये लेखक ने प्रकृति के प्रति मानवीय कूरता को विलुप्त होती मानवीय चेतना से जोड कर देखा है आभी’ के यूटोपीआई परिवेश की वकालत करते हुये हरनोट जी अमानवीय विकासपरक नारों को काला चिट्ठा खोल कर रख देते हैं। मनुष्य और मनुष्यता के बीच यह अंतर्द्वन्द उनकी कहानी हक्वाई’ में खूबसूरत शैल्पिक गठन एवं भाषाई सादगी के साथ अभिव्यक्त हुआ है इस कहानी में जनसंस्कृति और अभिजात्य संस्कृति का द्वन्द पूरे वजूद के साथ विद्यमान है भागीराम का बेघर होना समूची जनसंस्कृति का पतन है साथ ही पूंजीवादी सरोंकारों से सनी हुयी मनुष्यता की क्रूरतम दावेदारी भी है। उनकी कहानी लोग नहीं जानते कि उनके पहाड खतरे में हैं’ यह एक अलग भाव भूमि और निहितार्थ लेकर यात्रा करती है इस कहानी में लेखक नें परम्परागत जन क्रान्ति के मायने ही बदल दिये हैं। इस कहानी में औद्योगिक पूंजीवाद व भूमण्डलीकरण के कुचक्र में नष्ट हो रही प्राकृतिक संम्पदाओं और समाजिक संरचनाओं की सुरक्षा हेतु लेखक ने आस्था और धर्म को हथियार बनाने की जबरदस्त योजना तैयार की है। उन्होने इस कहानी के माध्यम से सिद्ध किया है कि जो मनुष्य वर्ग चेतना से अनभिज्ञ है जिसे क्रान्ति की समझ नहीं है जो पूंजीवादी हथकण्डो में उलझ चुका है जिसे जडता ने चौतरफा घेर रखा है उसे केवल आस्था और धर्म के सहारे ही वर्गीय चेतना समझायी जा सकती है। उसकी मनुष्यता की संस्कार किया जा सकता है। यह कहानी आस्था और धर्म की पूंजीवादी संकल्पना का खण्डन करती है। 
कहानीकार हरनोट जी
            उनकी कहानी ‘शहर में रतिराम’ जो बयां पत्रिका में ‘स्खलन’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है, मनुष्यता की नयी परिभाषा देती हुयी प्रतीत होती है। रतिराम की ग्राम-सहजता व ईमानदारी नयी बाजारवादी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कैसे असामयिक हो जाती है इस तथ्य को उन्होने बडे ही तार्किक अंदाज में दिखाया है। रतिराम की सहजता ही मनुष्यता है पर बाजारवाद ने उसे इस कदर पीडित किया है कि रतिराम खुद को असहाय पाता है। रतिराम का असहाय होना मनुष्यता का स्वाभाविक रूदन है, मनुष्यता का शोकगान है अंत में रतिराम का आक्रोश देखते ही बनता है। उसे लगा कि वह पेशाबघर में नहीं किसी ऊंचे पहाड पर खडा होकर पूरे शहर पर मूत रहा है (पृष्ठ 56) लोग नहीं जानते कि उनके पहाड खतरे में हैं’ कहानी में हरनोट जी ने जिस आस्था और परम्परा को क्रान्ति चेतना व वर्गीय द्वन्द से जोडकर देखा हैउसके ठीक उलट अपनी कहानी आस्थाओं के भूत’ में वो आस्था के सामंतवादी दकियानूसी स्वरूप पर करारा प्रहार करते हैं। आस्था के प्रति इस पक्षधरता व प्रतिरोध का मानक उनकी मनुष्यता है जब यही आस्था मनुष्यता की खोज करती है तो वो उसमें क्रान्ति की संभावना तलाशते हैं। जहीं आस्था पूंजीवाद की सहायक बनकर सामने आती है वहां वो खण्डन करने से भी नहीं चूकते आस्थाओं के भूत’  में चुन्नी का संघर्ष सामंतवादी परिवेश में जकडी मनुष्यता का संघर्ष है। आस्था पर चुन्नी की जीत मानवता की जीत है। इस संग्रह की कहानी गाली’ स्वतंत्रता के बाद हिन्दुस्तानी गांवो की जीवंत राजनैतिक तस्वीर खींचती है कहानी का शिल्प तमाम अंतर्विरोधों को एक सूत्र में पिरोता हुआ गांधीवादी सपने की दुर्दशा अभिव्यजिंत कर रहा है। ग्राम प्रधान की हत्या के मायने आज के लोकतांत्रिक समाज में चाहे जो हों लेकिन मुस्कीराम आरंभ से लेकर अंत तक पाठक की संवेदना का पात्र बना रहता है। राजनैतिक कुटिलता में फंसे मुस्कीराम का दोष केवल इतना है कि उसने सच बोलने का दुस्साहस किया है। यह सच वहीं है जहां मनुष्यता झूठ के सामने लाचार हो जाती है। कहानी जूजू’ विकास के साथ बदलती संवेदनाओं का नया खाका खींच रही है। एक ऐसा खाका जहां मनुष्यता को निजी लिप्सा ने लील लिया है। उनकी कहानी मांए’ एक अलग कहानी हैइस कहानी में पशु की पशुता को नकार कर मनुष्यता की प्रतिष्ठा की गयी है। मनुष्य की वेदना चाहत व संवेदनाओं को बहुउद्देशीय स्वार्थपरकता से जोड कर दिखाया गया है साथ ही पशुओं की निश्छलता व प्रेम के समक्ष तुलनात्मक मूल्यांकन किया गया है। ‘मांए’ कहानी में हरनोट जी परम्परा, विकास, कुरीति, राजनीति, प्रचार, मीडिया सब पर एक साथ प्रहार करते नजर आते हैं। मनुष्यता की प्रतिष्ठा करने हेतु उन्होने बंदर की ममता का जिस तरह से चित्रण किया है इससे पाठक के समक्ष खण्डित मनुष्यता की दर्दनाक चीख रह-रह कर सुनाई देती है। 
      कहा जाता है कि भाषा कभी भी सरोकारों से कटकर नहीं चल सकती लेखक प्रतिबद्ध है या नहीं इसका फर्क भाषा से जोड कर नहीं देखा जा सकता। लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ की भाषा ने न तो प्रतिबद्धता को नकारा है और न ही तीखे भाव बोध को नकारा है। भाषा के कथा बिम्बों ने इस संग्रह को जनापेक्षी बनाने में कोई कसर नहीं छोडी इसका कारण है कि हरनोट जी ने भाषा का सबसे मजबूत दुर्ग बोलचाल की भाषा अपनाई है। जिस कथ्य में भाषा रूढि बन कर उपस्थित होती है वहां प्रतिबद्धता एक विज्ञापन लगने लगती है। हरनोट जी इस खतरे से दूर हैं। क्योंकि उनकी भाषा न तो आरोपित है और न हीं प्रचारधर्मी है वरन् जीवंत संवेदनाओं की लगावपूर्ण सादगी से सुगठित है। यदि सादगी का नकार इन कहानियों में होता तो निश्चित है कि लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ की खोज अप्रमाणिक हो जाती है।
      यही बात शिल्प के संबंध में कही जा सकती है शिल्प वह साधन है जिसके द्वारा लेखक अपने विषय की छानबीन करना है उसका विकास करता है, उसको प्रस्तुत करता है। हरनोट जी का शिल्प वही है जिसे अधिकांश कहानीकार अपनाते रहे हैं। इसे कहानी का क्लासिकल शिल्प” कहा जा सकता है। इसमें घटना का आरम्भ एक बिन्दु से हो कर तमाम बिन्दुओ को स्वयं में समाहित करता हुआ एक बडे विजन की ओर बढता जाता है। और अंत में लेखक अपने सरोकरों से लैस निष्कर्ष का बडी सावधानी से प्रतिपादन कर देता है हरनोट जी की सबसे बडी विशेषता है कि बीच-बीच में कथा मूर्तन के सहारे बडा ही रोचक वातावरण सृजित करते हैं। इस प्रक्रिया से कहानी की सम्प्रेषणीयता व अभिव्यंजना कई गुना बढ जाती है विषेशकर जब वो प्रकृति व परम्परागत समुदायों की अहस्तक्षेपपूर्ण अवस्थाओं की ओर पाठक को ढकेलते हैं। तो उनकी कथा मूर्तन क्रिया बडी शिद्दत के साथ पाठक के साथ साथ चलने लगती है। इस प्रक्रिया से उन्होने वर्गीय द्वन्द, वर्गीय चेतना की पहचान भौतिक द्वन्द का सहज मूर्तन उपेक्षित समुदायों की पीड़ाओं को बखूबी दिखाया है।
हरनोट जी की कथा प्रवृत्ति किसी भी सैद्धातिक और भाषिक चौखटे पर जकडे जाने में विश्वास नहीं करतीवो मुक्त रचनाधर्मिता के कायल हैं। उनकी रचनादृष्टि पीडित, वंचित, शोषित समुदाय के प्रति लगाव से नियंत्रित है। यही कारण है कि उनका कहानी संग्रह लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ अलग-अलग कथा भूमियों को सहेज कर भी एक सार्वभौमिक निष्कर्ष का प्रतिपादन कर रहा है। वो सार्वभौमिक निष्कर्ष है तमाम अंतर्विरोधों में गुमशुदा मनुष्य की खोज। उन्होने समय के साथ मनुष्य के टकरावों को दिखाने के लिये वातावरण का सृजन अपने पहाडी अंचल में ही किया है  एक सहज परिवेश, सहज चरित्र, सहज शिल्प, सहज भाषा के द्वारा मनुष्य और मनुष्यता के टकरावों का सांगोपांग विवेचन अपने आप में अनूठी प्रक्रिया है। हरनोट जी इसमें पूर्ण रूप से सफल रहें है। उन्होने अपनी कहानी की वस्तु वहीं से लिया है जहां असंतुलन है, जहां अंतर्विरोध है इस असंतुलन के दौर में उनके चरित्र मोह भंग का शिकार नहीं हुये बल्कि मनुष्यता के साथ डट कर खडे रहे। इस प्रकार लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ अपने अलहदा समस्या के कारण अपने समकालीन संग्रहों से अलग दिखाई पडता है। उत्पीडक व्यवस्था, संस्कारहीनता, लोकतांत्रिक तानाशाही, संवेदनहीनता को मुंह चिढाते हुये मनुष्य और मनुष्यता के द्वन्द का चित्रण करते हुये मनुष्यता की सम्भाव्य भंगिमा को स्वीकार करते हुये यह संग्रह मनुष्य व मनुष्यता के बीच द्वन्द का अद्भुद प्रलेख बन गया है।

सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
जिला सचिव, जनवादी लेखक संघ बांदा,
हिन्दी प्रवक्ता,
आदर्श किसान इंटर कालेज भभुवा, बांदा, उत्तर प्रदेश
मोबाईल – 09838610776
 

केशव तिवारी के संग्रह ‘तो काहे का मैं’ उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा



हिन्दी कविता में केशव तिवारी अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। केशव न केवल अपनी अपनी भाषा और शिल्प के तौर पर बल्कि अपने कहन के तौर पर भी औरों से अलग से नजर आते हैं। हाल ही में उनका तीसरा संग्रह ‘तो काहे का मैं’ इलाहाबाद के साहित्य भण्डार प्रकाशन से छप कर आया है। इस संग्रह की हमारे लिए एक समीक्षा लिखी है युवा कवि आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। उमाशंकर संस्कृत के अध्येता हैं और आज कल लोक और कविता को ले कर एक गंभीर काम में जुटे हुए हैंतो आइए पढ़ते हैं केशव तिवारी के संग्रह पर उमाशंकर परमार की यह समीक्षा।
      
‘तो काहे का मैं’ – एक जमीनी हस्तक्षेप
उमाशंकर सिंह परमार
केशव तिवारी जमीन से जुडे कवि हैं उनकी कविता जीवन के विभिन्न सन्दर्भों में जमीनी तर्क का मुकम्मल प्रयोग है। अवध उनकी जन्म भूमि रही और बुन्देलखण्ड उनकी कर्म भूमि रही। दोनो भूमियों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश व जनजीवन की यथार्थता तो केशव ने नजदीक से देखा। स्वभाविक है कि लोक से उनका सीधा जुडाव उनकी कविता को भी जमीनी सच से जोड देगा। एक ओर जहां वो जमीन से जुडी संस्कृति और परम्पराओं का वहां की वर्गीय स्थिति के दायरे में रख कर मूल्यांकन करते हैं तो दूसरी ओर समाज में अन्तरभूत वर्गीय द्वन्द का उल्लेख करने से नही चूकते। वर्गीय असमानता के कारणों का केशव बडी शिद्दत के साथ खुलासा करते हैं।
केशव के अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वर्ष 2005 में उनका पहला कविता संग्रह इस मिट्टी से बना’  2010 में दूसरा कविता संग्रह आसान नही विदा कहना’  रायल प्रकाशन जोधपुर से प्रकाशित हुआ। उपरोक्त दोनो कविता संग्रहो में केशव विद्यमान सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय विसंगतियों के विरुद्ध सार्थक जमीनी हस्तक्षेप का जोरदार तर्क ले कर हिन्दी कविता में उभरते हैं व जमीन से दूर खडी कविता को पुनः जमीन पर खडा करने का उद्योग करते हैं। केशव ने कविता को नागार्जुन एवं त्रिलोचन की परम्परा से जोडते हुये कविता को लोक का पर्याय बनाने की कोशिश की। उनके लिये कविता होने का अर्थ ही लेाक वेदना, लोक राग, लोक धर्मिता, लोक द्वन्द है। उनका तीसरा कविता संग्रह तो काहे का मैं’ वर्ष 2014 में प्रकाशित हुआ। यह संग्रह भी उनके जमीनी सरोकारो को विस्तार देता है। इस संग्रह में केशव ने मिट्टी से जुडे तमाम भाव रूपो, ब्द रूपो, वस्तु रूपो को कविता से जोडते हुए तमाम सामाजिक जडताओं के विरूद्ध मानवता के उदात्त स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। इस संग्रह में केशव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी समाहित है। एक ओर जहां वो लोक के सन्दर्भ में नयी जीवन दृष्टि व नये सरोकार लेकर जमीनी टकरावों से डट कर मुकाबला करने का साहस करते हैं तो दूसरी ओर शिल्प के माध्यम से लोक नाद, लोक ताल, लोक सौन्दर्य को कविता में गुम्फित कर भाषा में नयी स्फूर्ति का संचार करते हैं।
तो काहे का मैं’  जीवन के तमाम सन्दर्भो में जमीन का सार्थक हस्तक्षेप है। इस हस्तक्षेप को समझने के लिये केशव के मैं को समझना जरूरी है। इसी मैं’  में केशव की जमीनी दृष्टि व लोकधर्मिता समाहित है। केशव का मैं’  प्रयोगवादी, व्यक्तिवादी मैं’ नही है यह बुन्देलखण्ड का खारूस मैं’  है। एक ऐसा मैं है जो खेतो, किसानो, गांववासियों के बीच रहकर सम्पूर्ण लोक परिवेश से संवेदनात्मक लगाव कर चुका है और अपने चतुर्दिक व्याप्त खतरो से लोक को आगाह करता हुआ खुद को उत्सर्ग के लिये प्रस्तुत कर रहा है। अर्थात् प्रिय जनो को अभयबोध दे रहा है। उनके सम्भावित खतरो से निपटने के लिये डट कर खडा है। यह मैं’  कायर नही है षूरवीर है। लडाकू व्यक्तित्व का मूर्त विधान है यही मैं’  की जमीनी दृष्टि का निर्माण कर रहा है। इस दृष्टि में अन्तरमुखी भाव लेस मात्र ही नही है कही भी उनकी वैयक्तिकता वाह्य दृश्य पर हावी नही हुई। यही कारण है कि लोक की चेतना, लोक की संवेदना, लोक के संघर्ष, कठोरता, विषमता से कवि स्वयं जूझना चाहता है जूझने का यही भाव उनकी कविता को लोकरंजित विद्रोह बना देती है। देखिये लोक से जुडी पीडा की मार्मिक अनुभूति कवि कैसे करता है।
वे जानती भी नही कब
आगे बढकर निकल आयी
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गांव – गांव घूमती
जिन्दगी के चिकारे का
तना तार है मोमिना (पृष्ठ 74)
गांव में खाट बीनने वाली महिला का नाम है मोमिना। वह गरीब है, लाचार है विधवा है, उपेक्षित है। उसके दो बच्चे हैं। उनके पालन पोषण के लिये वह गांव-गांव घूम कर खटिया बीनती है। उस मोमिना के प्रति कवि इतना संवेदनशील है कि वह जिन्दगी के चिकारे का तना तार कह देता है। अर्थात् भयावह परिस्थितयों से मोमिना खुद को बचाये हुये वर्गीय पीडाओं से अकेले ही जूझ रही है। मोमिना का यह क्रान्तिकारी पक्ष वैयक्तिक मैं’  नही देख सकता। वही मैं देख सकता है जो जमीन पर मोमिना के साथ खडा हो। केशव का मैं’  जमीन के प्रति अगाध प्रेम रखता है। वह अपनी उस भूमि को जिस पर खडा है जहां कविता के चरित्र खोज रहा है जहां कविता लिख रहा है वहां के लोक को केशव को समेट कर चलते हैं। यही जमीनी लगाव कवि को सम्पूर्ण सांस्कृतिक व सांसारिक अन्तरवस्तु से जोडते हुए स्वदेश अनुराग व देश के प्रति अदम्य प्रेम में बदल देता है। लोकधर्मी कविता का देश प्रेम इसी लगाव की पैदाइश है। ऐसा देश प्रेम केदार नाथ अग्रवाल व बाबा नागार्जुन में भी देखा जा सकता है। जहां कवि अपने गांव अपने खेत, अपने जंगल, अपनी नदी का गीत गाते मिल जाते हैं। केशव ने भी अपनी जमीन का गीत गाया है। देखिये कविता कल रात’  इसमे कवि ने स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया है कि जैसे मैं अपने अवध और बुन्देलखण्ड को चाहता हूँ वैसा ही अन्य सभी अपनी जमीन को चाहते होंगे –
सोचता हूँ जैसे मैं अपने अवध
और बुन्देलखण्ड को चाहता हूँ
मेवाती मेवात को
भोजपुरिया भोजपुर को चाहता होगा (पृष्ठ 27)
केशव का यह जमीनी जुडाव जब यथार्थ की मुख्य धारा में उतरता है तो आम जन जीवन के अभाव, व्यथाओं और पीडाओं से विद्रोही और आक्रामक हो जाता है। सामाजिक विसंगतियों एवं सामंतवादी परम्पराओं के प्रति कवि का आक्रामक होना जमीनी जुडाव के ही कारण है जिस जमीन को कवि अपने व्यक्तित्व में समाहित कर चुका है तो भला उस जमीन के बाशिन्दो का दुःख वो कैसे अनदेखा कर सकता है। केशव की यह आक्रामकता भावुक तो है ही पर पूर्ण वैज्ञानिक भी है। वर्गीय समाजो के आपसी टकरावों और सम्पत्ति के असमान साजिशपूर्ण वितरण की कोख से उत्पन्न आक्रामकता है यह। यह आक्रामकता केशव की अपनी पहचान है। इनकी कविता खेत जगाये जा रहे हैं’  देखिए कम उत्पादन व अकाल से अनुत्पादक भूमि को पुनः उत्पादन हेतु तैयार करना खेत जगाना कहा जाता है। बुन्देलखण्ड में किसानो की भुखमरी का सबसे बडा कारण यही अकाल है और यही प्राकृतिक आपदाएँ हैं इनके कारण हजारो एकड भूमि परती के रूप में सूनी पडी रहीं। जहां एक ओर मुठ्ठी भर लोग किसानो के उत्पाद से मौज कर रहे हैं तो दूसरी ओर खाद बीज और पानी के आभाव में उत्पादनहीन किसान भूखों मर रहे हैं। इस कविता में केशव ने इसी विसंगति का संकेत किया है।   
मैं उनको भी जानता हूँ
जो इन खेतो के साथ -साथ जाग रहे हैं
और उनको भी जो लगातार
सडते हुये अनाज पर
गलतबयानी करते जा रहे हैं  (पृष्ठ 57)
केशव की यह वर्ग दृष्टि केवल अमीरी गरीबी का ही विवेचन नही करती वह इसे हक से जोड कर देखती है। सम्पत्ति का हक, जमीन का हक, रोजगार का हक, जीवन जीने का हक, सोचने का हक, आदि केशव हक को बहु स्पर्शी, बहु आयामी बना देते हैं। यही हक तो वर्ग संघर्ष का कारण है। यदि आम जनता को उसका हक प्राप्त हो जाये तो संघर्ष व व्याप्त विसंगतियां स्वतः निर्मूल साबित हो जायेंगी। इसी हक को वो स्त्री समुदाय से भी जोडते हैं। केशव की जमीनी दृष्टि स्त्री की वर्ग अवस्थिति से भलि भांति परिचित है। स्त्री सम्पत्ति के हक से वंचित है ही वह अपनी देह का भी मालिकाना हक नही रखती। सम्पूर्ण स्त्री विमर्श इसी देह के हक से जुडा है। केशव ने अपनी कविता ‘शिवकली के लिये’  में स्त्री विमर्श को नया लोक रंजित जमीनी आयाम दिया है। केशव की दृष्टि में देह का हक परम्परागत पूंजीवादी उन्मुक्त भोग का हक नही है। यह हक सामन्ती कैदखानो में कैद स्त्री की मुक्ति की लालसा है। स्वतंत्रता की अदम्य इच्छा है। तमाम बन्धनों को तोड कर समाज के साथ कदम ताल करने की अभिलाषा है।
केशव तिवारी
एक औरत अपनी देह का
मलिकाना हक मांग  रही है
औरत की देह के इजारेदारो
सुन रहे हो
#    #     #    #
तुम्हारे रचे व्यूह के बीच मुनादी करती
तुम्हारे गौरव पर पैर रख
निकल जाना चाहती है एक औरत  (पृष्ठ 75)
 व्यूह शब्द पुरूष समाज द्वारा रची गयी साजिशों का संकेत है जिन्हे परम्परागत सामंती अवधारणाओं से परिपुष्ट कर दिया गया है। दूसरी पंक्ति में गौरव शब्द मिथ्या अभिमान का संसूचक है जो पितृसत्तात्मक अभिमान को मर्दवादी घातक हथियार बना देता है। यह स्त्री इसी व्यूह और गौरव को तोडना चाहती है। सम्पूर्ण उत्पीडक परिवेश को नष्ट कर पैरो तले रौंदना चाहती है। कुछ लोग कहते हैं कि लोकधर्मी कविता में स्त्री विमर्श का क्रांतिचेतस विवेचन नही है ऐसे लोगो को केशव की तो काहे का मैं’  पढना चाहिये शायद ही स्त्री विमर्श का इससे ज्यादा वर्गचेतस वर्णन कही मिले।
अब कुछ चर्चा केशव की काव्य कला पर हो जाये कोई भी कवि जो लोक की विशाल भाव भूमि को कविता का विषय बनाता है, वह कलात्मक चमत्कारो के प्रति सम्मोहन नही रखता। उसके लिये कला के लिये कला’ का सिद्धान्त अस्वीकार है। केशव कला को उपादेय नही मानते वह उतनी ही कला का समावेश अपनी कविता में करते हैं जिससे उनके जमीनी सरोकारो को बल मिले, अभिव्यक्ति मिले एवं प्रभावपूर्ण अनुभूति का प्रकाशन हो। अतः यथार्थ की प्रमाणिक व लोक जीवन से जुडी जमीनी हकीकतो को प्रमाणिक अभिव्यक्ति यदि कला से मिलती है तो मैं उसका प्रयोग गलत नही मानता। केशव ने कला के इसी स्वरूप को स्वीकार किया है। केशव जमीन से जुडे कवि हैं उन्होने लोक के हर पहलू को अपनी कविता का विशय बनाया है। अतः लोक की भाषा एवं संरचनागत उपागमो को वो अस्वीकार कर सकते हैं। केशव की कविता में लोक काव्य प्रवृत्तियों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। विशेषकर लोक सृजित लयात्मक बन्धो का कुशलतम प्रयोग केशव में बहुतायत मिलता है। हालांकि लयात्मक बन्धो का प्रयोग केदार नाथ अग्रवाल, विजेन्द्र, नागार्जुन, त्रिलोचन में भी देखने आया है। यहां तक की निराला के मुक्त छन्द की अवधारण भी इसी लयात्मक बन्ध पर आधारित है। केशव ने बुन्देली लोक गीतो में प्रयुक्त ताल को इन लयात्मक बन्धो में बडी कुशलता के साथ प्रयोग करते हैं। ताल के साथ मिल कर ये लयात्मक बन्ध एक विशिष्ट प्रकार के छन्द को जन्म देते हैं। यह न तो गीत है न मात्रा व वर्णो के बन्धन से सम्बद्ध कोई क्लासिकल छन्द यह एक दम अलहदा है। ताल-लय-छन्द इस ताल-लय-छन्द में बुन्देलखण्डी गीतो का आरोह अवरोह स्पष्ट देखा जा सकता है।
किसी बेइमान की आंखो में
न खटकू तो काहे का मैं
मित्रो को गाढे में याद न आऊॅं
तो काहे का मैं  (पृष्ठ 48)
यहां पर किसी बेइमान की आंखो में न खटकू’  में आरोह पूर्ण विराम या यति के साथ तो काहे का मैं’  प्रयुक्त पूर्ण विराम सम्पूर्ण पंक्ति को एक लयबढ व अंतिम विराम को ताल बद्ध कर देता है। शब्दो की संगति व प्रवाहशीलता स्वतः लय ताल का सृजन कर रही है। दूसरी बात जो केशव की कला का मुख्य आकर्षण है वह है उनका अप्रस्तुत विधान या उपमा विधान। केशव की उपमाये तब और बलवती व अर्थवती हो जाती हैं जब वो यथार्थ का तीखापन या लोक की रंगत लेकर आती हैं। अर्थात् यथार्थ के प्रस्तुत को अमूर्त अयथार्थ पर आरोपित करके केशव यथार्थ का उपस्थित पक्ष और भी प्रभावी बना देते हैं। दूसरी चीज जो उनके अप्रस्तुत विधान को लोक से जोडती है वह है उपमान के रूप में लोक की वस्तुओं व परम्पराओं को प्रस्तुत कर देना। केशव की कलात्मक लोक र्मिता का सारा दारोमदार उनके लोक जन्य अप्रस्तुत विधान में ही समाहित है। देखिए उदाहरण –
तुम्हारा नाम जैसे होंठो पर
रच – रच जाये देशी महोबिया पान  (पृष्ठ 29)
यहां महोबिया पान’  केवल अप्रस्तुत विधान ही नही है अपितु समूची बुन्देली लोक संस्कृति की ध्वन्यात्मक व्यंजना कर रहा है। बुन्देलखण्ड में रहने वाले लोग इस पान की खासियत और रूमानियत से भलि भांति परिचित हैं। यह उपमान कोई अभिजात्यशास्त्रीय उपमान नही है अपितु उस लोक का उपमान है जहां केशव की कविता लिखी गयी। केशव का यह जमीनी जुडाव उपमा में ही नही उनके रूपक विधान में भी देखने को मिलता है। उनका रूपक विधान भी उपमा विधान की तरह मात्र सांकेतिक नही है अपितु लोक को यथार्थ की दृष्टि से देखने का नजरिया है।
ए सांवरी सूरत वाली लडकी
तेरी आंखो के उदास जंगल में
एक पहाडी मैना
पंख फुलाये उड रही है  (तो काहे का मैं)
आँखों में उदास जंगल का अभिरोपण बहुत कुछ कह देता है। केवल उदास आंख कह देने से आंखो की वीरानगी कदाचित उपस्थित नही होती। लेकिन जंगल शब्द के आरोपण से आंखो का सूनापन, वीरानगी, निर्जनता सबकुछ अभिव्यक्त हो जाता है। उपमा और रूपक दोनो के सम्मिलित क्रमबद्ध रेखांकन से बिम्ब का सृजन होता है। बिम्ब आज की कविता का सबसे कारगर हथियार है। केशव इस कला को बडे ही सचेत ढंग से प्रयोग करते हैं। बिम्ब को शब्दचित्र भी कहा जाता है अर्थात् अमूर्त कथ्य को शब्द संगठन के द्वारा मूर्त आकार देना या प्रगाढ अनुभूतियों का वस्तुगत संप्रेषण द्वारा बनाया गया सचेष्ट शब्द चित्र बिम्ब कहलाता है। हर एक कवि अपनी विचारधारा के अनुरूप बिम्बों की रचना करता है। कवि का व्यक्तित्व उसके वैचारिक सरोकार बिम्बो से भली भांति पहचाने जा सकते हैं केशव लोकधर्मी कवि हैं। उनका जमीन से जुडाव ही सम्पूर्ण काव्य यात्रा का आधार है। उनके बिम्बो में गहन, वैचारिक विमर्श व सामयिक विद्रूपताओं के विरूद्ध एक जोरदार आवाज का आगाज है। केशव के अधिकांश बिम्ब व्यंग्य लेकर चलते हैं। उन्हे सर्वाधिक सफलता ऐसे बिम्बो के चित्रण में मिली है जो एकदम सादे हैं एवं लोक जीवन से जुडे हैं। प्रस्तुत हैं उदाहरण –
गठिया का मरीज एक
बूढा चला जा रहा है
लाठी टेकते धन खेतों की ओर  (पृष्ठ 71)
 इस कविता को पढते ही गठिया के रोगी बूढे का चित्र आंखो के सामने प्रस्तुत हो जाता है यह सम्वेदना ही केशव की कविता की जान है। केशव की एक और कलात्मक विशेषता है जो उनकी कविता को मुहावरा बना देती है। वह है व्यंग्यपरकता। केशव जब अपनी पूर्ण लय में होते हैं तो व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं व सुविधाभोगियों के विरूद्व मोर्चा खोल देते हैं। जब भी वो बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ कलम चलाते हैं या पूंजीवादी षक्तियों के हांथ खिलौना बन चुके लोकतंत्र का भयावह चेहरा सबके सामने रखते हैं तो अक्सर उनके शब्द तीखा व्यंग्य उत्पन्न करते हैं।
विसेसर की जवानी और
बुढापे के बीच
इस देश का राजनैतिक इतिहास
फैला पडा था
प्रजातंत्र के नाम पर एक
पूरी पीढी को
गन्ने की तरह
चूसा जा चुका था
लोकतंत्र की इतनी कठोर समीक्षा केशव ही कर सकते हैं। परन्तु इस व्यंग्य के पीछे कारण भी विशेसर के प्रति अटूट संवेदना है यही संवेदना कठोर आलोचना हेतु प्रेरित करती है।
इस प्रकार केशव की कवितायें सम्पूर्ण लोक जीवन की सम्यक पडताल करती हुई पूंजीवादी शक्तियों के कुत्सित खेल को भी उजागर करती हैं व केशव के वैचारिेक आधार को पुख्ता जमीनी सरोकार देते हैं। केशव का यह संग्रह तो काहे का मैं’  जीवन के प्रति विद्वमान तमाम दृष्टियों को बौना साबित कर रहा है। आदर्शवाद, आध्यात्मवाद, वस्तुवाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद को धता बताते हुये जीवन के प्रति जमीनी दृष्टि का प्रतिपादन कर रहा है। कुछ भी हो लोक को सम्पूर्णता से समझने के लिये यही जमीनी दृष्टि कारगर है। यही कारण है कि केशव बगैर किसी मिथकीय संकल्पना के वगैर किसी यूटोपियायी उद्भावना के ठोस जमीनी मूल्यों के साथ दिल में उतर जाते हैं। 
                                    

सम्पर्क-
जिला सचिव,
जनवादी लेखक संघ,
बांदा उत्तर प्रदेश

मोबाईल- 09838610776

राज कुमार राकेश के कहानी संग्रह ‘एडवांस स्टडी’ पर उमा शंकर सिंह परमार की समीक्षा

बेहतर भविष्य के नाम पर पूँजीवाद और उदारवाद का जो तिलिस्म हमारे देश में खड़ा किया गया अब उसकी पोल खुलने लगी है. इसके परिणामस्वरूप किसान आत्महत्याओं की तरफ अग्रसर हुए हैं. कर्मचारियों की नौकरियाँ खतरे में है और बेरोजगारों को रोजगार देने के नाम पर भयावह शोषण किया जा रहा है. साहित्यकारों ने वास्तविकता की जमीन पर खड़े हो कर इसका सशक्त विरोध कर अपनी जनपक्षधरता स्पष्ट कर दी है. राजकुमार राकेश ऐसी ही प्रतिबद्धता वाले कहानीकार हैं जो अपनी रचनाओं के मार्फत आम जनता के साथ खड़े हैं. अभी हाल ही में राकेश का एक नया कहानी संग्रह ‘एडवांस स्टडी’ प्रकाशित हुआ है. इस पर पहली बार के लिए एक समीक्षा लिखी है आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने. तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.
           
एडवांस स्टडी – नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग

उमा शंकर सिंह परमार
 
अमरीकी साम्राज्यवाद का पुराना स्वरूप जो कभी शक्ति के सहारे विकासशील देशों को बाजार की तरह प्रयोग करता था आज वही अमरीकी साम्राज्यवाद आर्थिक साम्राज्यवाद का स्वरूप धारण कर चुका है। विश्व पूँजी के इसी आर्थिक साम्राज्यवाद को नवउदारवाद कहा जाता है। इस नवउदारवाद को भारतीय बाजार में खड़ा करने के लिए भारतीय पूँजीपतियों व सरकारों ने विश्व पूँजी के समक्ष घुटने टेकते हुए वर्ष-1991 में समाजवादी समाज”  की अवधारणा को धता बताते हुए अपरिमित पूँजीनिवेश का रास्ता अपना लिया। इस नई व्यवस्था ने आते ही हमारे देश के वर्गीय ढ़ाचें में असंतुलन उत्पन्न कर दिया एवं मुक्ति के विकल्पों की खोज में बढ़ रही जनता के कदमों को बांध दिया। किसान, मजदूर, व्यापारी, लघु सीमान्त उत्पादक, कामगार वर्ग की अवस्था बद् से बद्तर होती जा रही है। छोटे उद्योगों के विनाश से बेरोजगारों की फौज अनवरत बढ़ने लगी है, यही कारण है कि नवउदारवादी व्यवस्था के साथ ही अपराधीकरण का ग्राफ भी बढ़ा है। इस व्यवस्था ने केवल वर्गीय असंतुलन ही नही अपितु प्रतिरोध की क्षमता का भी ह्रास किया है। जनता को यह समझाने की कोशिश की गयी कि लोकतन्त्र की सुरक्षा एवं रक्षा विश्व पूँजी के संरक्षण में ही निहित है, विश्व पूँजी को दर-किनार करने का अर्थ है लोकतन्त्र और संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होना। क्योंकि स़त्ता और पूँजी के आपसी गठजोड ने बाजारवाद को भारतीय नैतिकता व अनिवार्यता घोषित करने का झूठा प्रचार करने में कोई कसर नही छोड़ी है। इस कुप्रचार ने किसानों और मजदूरों की राजनैतिक ताकत का अन्त किया है, जिसका परिणाम यह निकला कि वर्गीय प्रतिरोध खत्म होता गया और वर्गीय असंतुलन बढ़ता गया, जिसका दर्दनाक पहलू आज हम सबके सामने उपस्थित है। 
      भारतीय समाज में नवउदारवादी व्यवस्था का पहला प्रभाव वर्गीय चेतना के अंत के रूप में आया एवं दूसरा प्रभाव अलगाव के स्वरूप में आया। अलगाव के फलस्वरूप पारिवारिक, वैयक्तिक, सामाजिक चरित्र में भयंकर गिरावट देखी जा रही है, इन दोनों प्रभावों के कारण नैतिकता के सन्दर्भ में सामूहिक नजरिया भी बदल गया है, मानवीय संवेदना, दया, करूणा, सहानुभूति जैसे भारतीय संस्कार लुप्त होकर फायदा, मुनाफा, ब्याज जैसी अवधारणाओं के समक्ष बौने हो चुके है। व्यक्ति एक वस्तु है। अतः वह अकेला है। दूसरे व्यक्तियों से उसके संबंधों का निर्धारण प्रेम व रिश्ते नही करते हैं, बाजार करता है। व्यक्ति की चेतना को जकड़ कर बैठा हुआ बाजारवाद घुटन, संत्रास, पीड़ा, मृत्युबोध, आत्म हनन जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहा है, यही अलगाव का त्रासदीपूर्ण सच है। 
                पूँजीवाद का यह नया चेहरा भूमण्डलीकरण जब से अस्तित्व में आया है तब से ही प्रगतिशील जनवादी लेखकों/कवियों में इसको लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। विभिन्न साहित्यिक व सांस्कृतिक उपागमों में इसको लेकर जनता के बीच फैली बेचैनी का उल्लेख बार-बार किया गया है, लेकिन पिछले एक दशक से हिन्दी साहित्यकारों में इसको लेकर जबरदस्त आक्रोश देखने में आया है, कारण है नवउदारवाद ने अपना असली विनाशकारी रूप 2001 के बाद और भी स्पष्ट कर दिया है। इस अन्तराल में कई लेखक तो ऐसे रहे जिन्होनें नवउदारवाद के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर को ही अपनी रचना धर्मिता घोषित की है। ऐसे लेखकों में साथी राजकुमार राकेश अग्रणी है, इनकी सम्पूर्ण साहित्य यात्रा नवउदारवाद के खिलाफ प्रतिरोध से सनी है। ज्यो-ज्यो समय बढ़ता गया भूमण्लीकरण के प्रतिगामी प्रभाव व्यापक रूप धारण करते गये त्यो-त्यों राजकुमार राकेश का प्रतिरोधात्मक स्वर और मुखरित होता गया। साउथ ब्लाक में गाँधी (2002), निर्वासित प्रेतों की जीवनी (2004), धर्म क्षेत्र (2013) जैसी कृतियों में निरन्तर विकासमान प्रतिरोध का स्वर साफ सुना जा सकता है, लेकिन 2014 में आधार प्रकाशन पंचकुला से प्रकाशित उनका नया कहानी संग्रह एडवांस स्टडी”  नवउदारवाद के खोखले दावों और त्रासदीपूर्ण प्रभावों का काला चिठ्ठा बन गया है। यह उनकी रचनाधर्मिता का उत्कृष्ट उदाहरण है एवं नवउदारवादी व्यवस्था का सांगोपांग अध्ययन है। संग्रह में कुल नौ कहानियाँ हैं। हर एक कहानी अलग-अलग पृष्ठभूमि का कथानक लेकर चलती हैं, कहानियों के चरित्र का गुम्फन परिवेशगत औजारों से इस प्रकार किया गया है कि वे वाद”  का रूप धारण कर लेते है। तमाम प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, पारिवारिक द्वन्दों से टकराता हुआ चरित्र अन्तोगत्वा भूमण्डलीकरण के महायज्ञ में आहूति की तरह स्वाहा हो जाता है। चरित्र के इस संस्कार में राजकुमार राकेश कल्पना, फन्टेसी, मिथक जैसे साहित्यिक उपागमों को कथानक में फेटकर यथार्थ का सबसे प्रभावी चित्र प्रस्तुत करते हैं। एडवांस स्टडी की कहानियाँ भूमण्डलीकरण के दोनों प्रभावों का साथ लेकर चलती है, जैसा मैने बताया है कि भूमण्डलीकरण का प्रभाव हमारे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में दो प्रकार से आया है एक अलगाव और दूसरा प्रतिरोधहीनता। राजकुमार राकेश इन दानों प्रभावों को अपना कथ्य बनाते है। कथ्य के अनुरूप चरित्र का संस्कार करते है और फिर चरित्र को यथार्थ का कटु उपभोक्ता बनाते हुए भूमण्डीलकरण का प्रतिक्रियावादी, फांसीवादी चरित्र उजागर कर देते है।
                इन कहानियों में राजकुमार राकेश ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि उत्पादक वर्ग अपना चरित्र नहीं बदलना चाहता। वह साधनों का परिवर्तन तो कर लेता है पर चरित्र को अपरिवर्तित रखना चाहता है। नये संबंधों का परिष्कृत रूप तो उसे नागवार है। वह केवल मुनाफा की कामना करता है। यही मुनाफा बाजार की खोज व बाजार निर्माण का कार्य करता है। उत्पादक वर्ग पहले गाँव फिर कस्बे और फिर पूरा शहर पूरा देश बाजार बना देता है। जब मुनाफाखोरी की लत पड़ जाती है तो उत्पादक वर्ग, उत्पादन संबंधों का विश्वव्यापी आधार देने की कोशिश करता है, सत्ता के साथ पूँजी का गठजोड़ स्थापित होता है, उद्योगों का आधुनकीकरण होता है, मशीनीकरण होता है छोटे-मोटे उद्योग नष्ट हो जाते है एवं तथाकथित विकास के द्वारा विश्वव्यापी उत्पादन होने लगता है। नई आवश्यकतायें सृजित करने के लिए सरकारी प्रचार के साधनों का खुलकर प्रयोग होता है, सरकारे आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बैंक के माध्यम से फाइनेन्स कम्पनियों के माध्यम से सस्ते दरों पर कर्ज देती है, कर्ज लेना इस नवउदारवादी व्यवस्था में मजबूरी नही है, स्टेटस सिम्बल है, कुप्रचारित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निम्न मध्यमवर्गीय जनमानस कर्ज के महाजाल में उलझ जाता है और अंत में घुटन, त्रासदी, अलगाव जैसी समस्याओं में बह कर भीषण त्रासदी का शिकार होता है। राजकुमार राकेश नवउदारवादी व्यवस्था का ताना बाना बुनते समय उत्पादक और श्रम के बीच बढ़ते अन्तराल का जिक्र करने से नही चूकते इस कथा प्रक्रिया में वें उन पहलुओं पर भी गौर फरमाते है जिनसे त्रासदी भयावह हो जाती है व प्रतिरोध गैर कानूनी नक्सलवाद बन जाता है। 
                राकेश जी की किस्सागोई का सबसे अच्छा उदाहरण अबू मलंग का कंकाल” लगी। यह कहानी अपनी विशिष्ट शब्द भंगिमा के कारण पाठक को संमोहन में बांध देती है अबू मलंग उदारवादी विश्व व्यवस्था में खुद को न्यौछावर कर दिया है उसका पुत्र दास कबीर पीढ़ी दर पीढ़ी वर्गीय उत्पीड़न का प्रतीक है। मै नामक पात्र जिसे लेखक से जोड कर देखा जा सकता है वह समय का सच्चा अन्वेषक बनकर इस कहानी में आया है। अबू मलंग के कंकाल की खोज पूरी व्यवस्था का पोस्टमार्टम है। यह पोस्टमार्टम सिद्ध कर देता है कि बाजारवाद और मुनाफाखोरी को जब राजनैतिक आश्रय उपलब्ध हो जाता है तब लोकतन्त्र फासीवाद से भी बद्तर हो जाता है कहानी का सबसे प्रभावकारी दृश्य डाक बगले की मीटिंग और अय्यासी का दृश्य है। जिसमें नकाब पहने हुए ठेकेदार, अधिकारी, पंडित, पत्रकार सबके सब इस व्यवस्था को चूस रहे है, यह फन्टेसीमय चित्र पूरी कहानी को बहुआयामी बना देता है। जिस प्रकार अन्धेरे में” कविता में रात्रिकालीन जुलूस निकलता है जिसमें समाज का अपराधी बुर्जुवा सफेद पोसाकों में लैस अपना-अपना मन्तव्य घोषित कर देते है, इसी प्रकार इस कहानी में रात्र को डाक बगले का दृश्य सत्ता और बुर्जुवा के व्यापक गठजोड़ को व्यक्त करता है। लेखक ने इस कहानी के द्वारा शोषण और उत्पीड़न के राजनैतिक समाजशास्त्र का पूरा खाका खीच दिया है। 
                भूमण्डलीकरण की आग में जलकर खांक हो चुकी मानवीय संवेदनाओं और टूटने की कगार पर खड़ी रिश्तों की बुनियादे नवउदारवादी व्यवस्था का असली सच है। यह बिखराव और टूटन इस व्यवस्था का निष्कर्ष है, इस संबंध में राजकुमार राकेश की दूसरी कहानी सितारो पार” उल्लेखनीय है। इस कहानी में कथाकार ने अवसाद और अलगाव का अमानवीय पहलू प्रस्तुत किया है। रिश्ते अमूमन विश्वास और धर्म के सुरक्षा घेरे में बधे होते है इसी बंधन में सामाजिक संरचना की बुनियाद टिकी होती है स्वाभाविक है जब रिश्ते टूटेगे तो सामाजिक संरचना भी टूटेगी कहानी में सिद्ध किया गया है कि नवउदारवादी आर्थिक प्रभावों ने धर्म और आस्था को भी बाजार के रहम पर छोड़ दिया है। फलतः धर्म और आस्था की बुनियाद पर बनने वाले रिश्ते भी बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होने लगे है। बाजार की चकाचौध आवश्यकता उत्पन्न करती है, इस आवश्यकता के कारण गैर जरूरी वस्तु भी जरूरी हो जाती है, सरकारे और उत्पादक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर्ज को भी एक आवश्यकता बना देते है। मनुष्य आवश्यकताओं के जाल में उलझ कर खुद एक वस्तु बन जाता है वह बिकने को तत्पर हो जाता है। कहानी में डिंगा सिंह सरीन ऐसा ही बाजारग्रस्त चरित्र है। जिसकी पत्नी सुलभा के पड़ोसी व्यापारी सर्वेकर के साथ अवैध संबंध है, डिंगा सिंह का अवसाद और टूटन तब और बढ़ जाता है जब उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी सुलभा फ्रिज और कूलर इत्यादि की ऐसो आराम के चाहत में अपना चरित्र बेच चुकी है। जालान  मोटर्स के मालिक की मौत का रहस्य इस व्यवस्था का सबसे घिनौना रूप है, उसकी मौत सबित कर देती है कि बाजार में देह और वस्तु का कोई अन्तर नही है, भोग की उद्दाम लालसा लिए हुए जालान की मौत यही बाजार करती है, डिंगा सिंह का अवसाद एवं जालान मोटर्स मालिक की मौत सिद्ध कर देते है कि जीवन और मौत ईश्वरीय कारण से नही बाजार के उतार-चढ़ाव से आते है। पूँजीवादी व्यवस्था के मूल चरित्र अलगाव का इससे उम्दा वर्णन शायद ही कही मिले।

 (चित्र : कहानीकार राजकुमार राकेश)
               
 साथी राजकुमार राकेश के कथा साहित्य में प्रयोग धर्मिता मुख्य औजार है, उनकी हर एक कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से अलग कथासूत्र एवं गठन लेकर उपस्थित होती है, कही पर इतिहास का रूपक द्वारा अन्वेषण है तो कहीं अवान्तर कथाओं के माध्यम से एक लम्बी कहानी की बुनावट है। नवउदारवादी व्यवस्था का भारत में पदार्पण होते ही समाजवाद व साम्यवाद जैसी विचारधाराओं का हाशिये पर चला जाना कैसे संभव हुआ इस प्रश्न का उत्तर उन्होनें अपनी अनूठी कहानी सपने समाज और पूँजी”  में बड़ी शिद्दत के साथ दिखाया है। भारत के आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों की गहन पड़ताल करती हुई यह कहानी व्यवस्था द्वारा किये गये दावों की असलियत भी खोलकर रख देती है। मिस्टर दीपांकर मुखोपध्याय एक प्रतीकात्मक चरित्र है, वह सम्पूर्ण जनता के प्रतीक बनकर आये है, उनका पहला प्रेम राष्ट्रीकरण एवं समाजवादी समाज के नारों के बीच पनपा पर इजहार न कर पाने के कारण वे परवान नही चढ़ सका, इसी बीच बंगाल में साम्यवादी शासन आया वैयक्तिक नफा-नुकसान जैसी बाते खत्म हुई सामूहिक लाभ, सामूहिक हानि का नारा दिया गया, नौकरी से निकाले जाने का खतरा खत्म हो गया तभी दीपांकर का विवाह मालिनी से सम्पन्न हुआ। मालिनी साम्यवाद का प्रतीक है, दीपांकर का मालिनी से मोह भंग क्या हुआ देश में कट्टरतावाद और साम्प्रदायिकता का झंण्डा बुलंद हो गया। दीपांकर को भी जेल जाना पड़ा, नौकरी से हाथ धोना पड़ा। बीच-बीच में समाजवाद की प्रतीक सांत्वना दिलासा देती रही। दीपांकर बाबू थक हारकर आत्महत्या की ओर प्रवृत्त हुए तो उनके जीवन में मिसेज अरगडे का आगमन हुआ। मिसेज अरगडे और दीपांकर बाबू का मिलना ही नवउदारवाद का आगमन है। विदेशी कम्पनियों के स्वागत में देशी कम्पनिया बंद हो गयी, जनता बेरोजगार होकर इधर-उधर पलायन करने लगी ,विज्ञापनों में फीलगुड का नारा आता रहा, जनता गरीबी, लाचारी से मरती रही और अंत में सांत्वना जो कि समाजवाद का प्रतीक है पूँजीवाद के हाथों खुद को सौपकर दीपांकर पर बलात्कार का मुकदमा कर देती है। इस कहानी में लेखक ने राजनैतिक विचारधाराओं के अवमूल्यन की स्पष्ट व्याख्या की है सबसे बड़ा क्षय तो सांत्वना का हुआ जो समाजवाद की प्रतीक है, वह आज पूँजीवाद के हाथों साम्यवाद के खिलाफ एक हथियार बन चुकी है। समाजवाद आज जनता की पक्षधरता नही कर रहा वह पूँजीवाद की पक्षधरता कर रहा है। राजकुमार राकेश की इस कहानी का अंतिम सन्देश यह है कि साम्यवाद के प्रति एक निष्ठता ही हमारे सपनों को सार्थक कर सकता है। 
                साम्राज्यवाद के बदले हुए स्वरूप में ऊपरी आकर्षण का आभाव नही है सबकुछ अच्छा है सब कुछ विकासपूर्ण है ऐसा ही प्रतीत होता है। लगता है जीवन स्तर सुधर गया है, विकास का विज्ञापन और रूपहले पर्दे की दुनिया दोनों नई बाजारी संस्कृति के पुरोधा बनकर उभरे है। राजकुमार राकेश ने रूपहले पर्दे की दुनिया को माध्यम बनाकर अपनी कहानी विलाप” में संत्रास, घुटन एवं अमानवीय परिवेश का यथार्थ परक चित्र उपस्थित किया है। इस कथा के द्वारा वह विश्व पूँजी द्वारा निर्मित नई वर्ग व्यवस्था का संकेत भी कर देते है। सुरभि जामलपुर नामक एक साधारण गाँव की नवयुवती है वह उच्च जीवन एवं नामवर हस्ती बनने की अदंम्य इच्छा रखती है यही इच्छा उसे गाँव छोडने को मजबूर कर देती है वह बम्बई जाती है एक संपादक के यहाँ नौकरी करती है एवं कई पुरूषों के सम्पर्क में आते -आते अन्ततः वह राकेश भट्ट नामक निर्देशक यहाँ तीन वर्ष के कान्ट्रेक्ट पर अभिनेत्री बन जाती है। वह अभिनेत्री नही एक बधुवा मजदूर है, राकेश भट्ट का भय उसे इस कदर जकड़कर रखता है कि वह अपने माँ और प्रेमी से चाहकर भी नही मिल पाती है। अपने अस्तित्व एवं स्वतन्त्रता की मधुमय अनुभूति के लिए झटपटाती रहती है। यह कहानी गुलामी और बधुंवा मजदूरी को इस नई विश्व व्यवस्था से जोड़कर नये स्वरूप में प्रस्तुत करती है। सुरभि की महत्वाकांक्षाएँ अन्तोगत्वा जलालत की जिन्दगी जीने का बाध्य कर देती हैं यह कहानी इन्सान से मजदूर बनने की नवउदारवादी प्रक्रिया का उम्दा उदाहरण है। 
                इस संग्रह की सबसे आकर्षक कहानी अश्वमेध” है अश्वमेध एक पौराणिक यज्ञ है जिसे राजा विश्वविजय के उपरान्त किया करता था, इस कहानी के माध्यम से राकेश जी ने दिखाया है कि पूँजीवाद ने आज अपना विस्तार कर लिया है। वह सम्पूर्ण संसाधनों का सर्वाधिकार संपन्न स्वामी है और प्रतिरोध हीनता उसके स्वामित्व को बल दे रही है, प्रतिरोध की समाप्ति ही अश्वमेघ है यह पूँजीवाद की विजय है। इस कहानी की कथाभूमि गाँव से लेकर शहर तक फैली है, गाँव की संस्कृति को लेखक ने देव संस्कृति कहा है, शहर की संस्कृति को विकास संस्कृति कहा है देव संस्कृति अन्धविश्वास, कुतर्क, खाप निर्णय के सहारे प्रतिरोध को खत्म करती है, तो विकास की संस्कृति कानून, पुलिस, प्रशासन के बल पर प्रतिरोध को समाप्त करती है। यह दोनों संस्कृतियाँ पूँजीवाद के दोहरे चेहरे है, लेखक एक स्थान पर कहता है कि बलात्कार, डकैती के खिलाफ खड़े होना आसान है पर देव संस्कृति के विरूद्ध खड़े होना असंभव है। देव संस्कृति सामान्ती पक्ष धरता रखती है तो विकास की संस्कृति बहु राष्ट्रीय निगमों की पक्षधरता करती है। इन दोनों संस्कृतियों का ध्वजावाहक आलमगीर” है, जो सत्ता, धर्म और पूँजी का तिहरा चरित्र है। कैसे गाँव के गाँव उजड़ कर नष्ट हो गये, कैसे शहर की बस्तियाँ उजड़ गई इस उजाड़ में किसका हित साधन हुआ और कौन तडीपार हुआ अश्वमेध कहानी में सब दिखाया गया है। इस कहानी में पूँजी के महायज्ञ में तिल-तिल आहुति बन रही आम जनता की करूण गाथा है। 2008 के बाद ऐसी ही करूण गाथायें ऐसी ही अश्वमेध अक्सर समाचार पत्रों में दिखाई देते रहे। इस कहानी में राकेश ने पूँजी के उत्पीडक चरित्र व साधनों का तर्क संगत उदाहरण प्रस्तुत किया है।
                नवउदारवाद ने केवल बाजार ही व्यापक नही किया अपितु उत्पादन प्रक्रिया का बदलाव भी व्यापक कर लेता है विश्व पूँजी ने विकासशील देशों को कच्चे माल की तरह प्रयोग किया है। विकासशील देशों को आर्थिक रूप से विकलांग करने के लिए उत्पादक वर्ग किस प्रकार से फर्जीवाड़ा छल, प्रपंच, झूठ का सहारा लेता है इस तथ्य का खुलासा राजकुमार राकेश ने अपनी कहानी दादागिरी”  में जबरदस्त ढंग से किया है। यह कहानी ऊपरी तौर पर देखने में भोपाल गैस त्रासदी से उत्प्रेरित लगती है पर लेखक ने सीधे तौर पर इस भ्रम का खण्डन किया है, कुछ भी हो यह कहानी भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले विनाशकारी त्रासदियों का दर्दनाक खाका खीचतीं है। रामनाथ कहानी का केन्द्रीय पात्र है वह आम भारतीय की तरह अपनी जमीन और संस्कारों को सहेज कर रखना चाहता है, लेकिन पूँजीपतियों के एजेन्ट के रूप में उसकी पत्नी और बेटा जमीन को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नीलाम कर देते है। रामनाथ की सौतेली माँ आन्दोलन करती है लेकिन यह आन्दोलन उसकी मौत के साथ ही दम तोड़ देता है। कारखाना खुलता है। इस कहानी का सबसे बडा टर्निंग प्वाइन्ट मिल में जहरीली गैस का रिसाव है, जिसके कारण हजारों लोग मारे जाते है, कम्पनी मालिक और उसके एजेन्ट विदेश भाग जाते है, बेचारा रामनाथ इस सम्पूर्ण त्रासदी का द्वोष ढोते हुए जेल भेज दिया जाता है, जो व्यक्ति व्यवस्था के प्रतिरोध में है उसी को व्यवस्था का सूत्राधार बना दिया जाता है। न्याय और सत्ता के इसी बुर्जुवा चरित्र को राकेश जी ने अपनी कहानी दादागिरी में दिखाया है। 
                सामान्यतया व्यक्ति की सोच का निर्धारण सामाजिक स्तरों पर व्यक्ति के निजी संघर्ष से होता है, अनुभव व अनुभवहीनता जैसे शब्द इसी आनुभविक संघर्षों के अन्तर को दिखाते है। जनरेशन गैप एक सामान्य अनिवार्यता है। वृद्धों का अतीत के प्रति मोह और युवाओं का भविष्य के प्रति उत्साही होना इसी जनरेशन गैप का नतीजा है। हमारे परम्परागत पारिवारिक ढ़ाचे में यह गैप रिश्तों के दायरे से बाहर नही जाता था,  वृद्धों का सम्मान एवं उनके अनुभव का सम्मान करने की आदत सर्वदा से रही है, नई विश्व व्यवस्था ने जनरेशन गैप को खतरनाक अवस्था तक ला दिया है। एक बेटा अपने पिता की हर सोच को अपने विकास के मार्ग में खतरा समझता है यही कारण है कि हमारा पारिवारिक ढ़ाचा छिन्न-भिन्न होने के साथ-साथ सामाजिक ढ़ाचा भी ध्वस्त होता जा रहा है। राजकुमार राकेश की कहानी एडवांस स्टडी”  इसी बिखराव को प्रस्तुत करती है। प्रेमशंकर का अदम्य उत्साह व कुछ नया कर गुजरने की भावना उसके बेटा दयाशंकर द्वारा गैर वाजिब आरोप युक्त जासूसी टूटे रिश्तों की एक बानगी भर है। दयाशंकर द्वारा मंगला के संबंधों पर खोज अपने पिता पर चारित्रिक सन्देह ही नही वरन गिरती हुई नैतिक दीवारों का प्रतिनिधित्व करता है। त्रासदी, पीडा, घुटन, अस्त्विबोध को साथ लेकर चलती यह कहानी प्रयोग धर्मिता का बढ़िया उदाहरण है।
                व्यंग्यपरकता और विभिन्न कथा शैलियों के लिहाज से यदि देखा जाय तो इस संग्रह की सबसे उम्दा कहानी हत्या”  है। इस कहानी की कथा भूमि बदलते गांवों की दास्तान व सरकारी ऑफिसों में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करती है। सरकारी ऑफिसों की उबाऊ प्रक्रिया व जनप्रतिनिधियों का भ्रष्टाचार जरूरतमंद व्यक्तियों के लिए कैसे मौत का ताना बाना बुन देता है हत्या कहानी में सफलतापूर्वक दिखाया गया है। जगबीर सिंह दंडी एक रिटायर्ड बाबू है, वह सेवानिवृत्ति के उपरान्त अपने गांव लौटता है गांव का बदला हुआ चरित्र व गांववासियों की स्वार्थपरकता के कारण वह गांव में अपने पैर नही जमा पाता और शिमला वापस लौटने को मजबूर हो जाता है। शिमला भी उसे पराया जैसे प्रातीत होता है, वही लोग जो उसके सहकर्मी थे उसको न पहचानने का ढ़ोग करते है और उसकी पेन्शन जारी करने के लिए रिश्वत लेते है, काम न होने पर जगबीर सिंह डाकू से नेता बने तहसीलदार सिंह के पास जाता है उसे भी दो हजार रू0 रिश्वत देता है, उसका काम नही होता उसकी पेंशन जारी नही होती। पेंशन ऑफिस के चक्कर काटते-काटते उसके प्राण पखेरू उड जाते है। उसकी लाश लावारिस घोषित करके अस्पताल में रख दी जाती है। लेखक उसकी लाश को उसके पुत्रों तक पहुँचाता है वह जानता है कि जगबीर सिंह की मौत अस्वाभाविक है वह मौत के कारणों की खोज करता है, खोज के बाद तीन कथा रूप कारणों के रूप में प्रस्तावित करता है। यह तीनों कथारूप एक दूसरे से अन्तर संबंधित है, ये तीनों कथारूप सम्पूर्ण कहानी में अलग-अलग शैली का आनन्द देते है मै शैली, रिर्पोताज शैली, वसीयतशैली इन शैलियों में लिखे गये ये कथारूप आराम से सिद्ध कर देते है कि जगबीर की मौत आत्म हत्या नही ईश्वरीय कोप नही वरन हत्या है। यह हत्या जगबीर की ही नही हर आम इन्सान को इस हत्या से गुजरना पड़ता है। ऑफिसों में हर रोज ऐसी हत्यायें होती है। जुमलेबाजी और व्यंग श्रीलाल शुक्ल की याद दिला देता है यह कहानी व्यंग्यपरकता के साथ-साथ एक अनूठे कथा गुम्फन का उदाहरण भी है।
                राजकुमार राकेश की ‘एडवांस स्टडी’ नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रयोग पूर्ण प्रतिरोध का स्वर है। इसकी प्रयोगधर्मिता मिथक कल्पना फन्टेसी विसंगति, बिड़म्बना, लीजेन्ड इत्यादि अपरूपों को बड़े ही सजग ढंग से यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए तैयार करती है, इन उपागमों से प्रयोगवाद में साहित्य में मध्यम वर्गीय कुंठाओं से युक्त क्रान्ति विरोधी साहित्य लिखा गया। इन्ही उपागमों से राजकुमार राकेश ने नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ समाज के अन्तस में सुलग रहे प्रतिरोध के स्वर को उकेरा है। एडवांस स्टडी पढ़ने के बाद फरवरी 2014 में इलाहाबाद साझा संस्कृति संगम में घोषित घोषणा पत्र स्मरण हो आता है, यदि आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप नई उत्पादन प्रक्रियाओं व इनके फलस्वरूप निर्मित नये वर्गीय संबंधों व विलुप्त होती क्रान्ति चेतना का अध्ययन करना है तो एडवांस स्टडी से बेहतर कोई पुस्तक नही है, यह पुस्तक भूमण्डलीकरण का श्वेत पत्र है।

सम्पर्क 

उमाशंकर सिंह परमार

जिला सचिव, जनवादी लेखक संघ बाँदा

मोबाइल नं0-9838610776

    

संतोष चतुर्वेदी के संग्रह ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है’ पर आचार्य उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा


आज उमाशंकर सिंह परमार का जन्मदिन है। आज के दिन उन्होंने पहली बार पर लगाने के लिए एक समीक्षा भेजी जो मेरे ही नवीनतम संग्रह पर है। शुरूआती एक-दो पोस्टों के बाद आम तौर पर अपने ही ब्लॉग पर मैं अपनी कविताएँ और समीक्षा देने से बचता रहा हूँ. लेकिन आज उमाशंकर के आग्रह को टाल नहीं पाया। उमाशंकर को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए हम यह कामना करते हैं कि उनकी रचनात्मकता इसी तरह बनी रहे और आगे भी हमें उनके और बेहतर आलेख पढने को मिले। तो आईए पढ़ते हैं उमाशंकर की यह समीक्षादक्खिन का भी अपना पूरब होता है : नव उदारवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर’     
दक्खिन का भी अपना पूरब होता है : नव उदारवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर
उमाशंकर सिंह परमार
संतोष कुमार चतुर्वेदी समकालीन कवियों में एक सुपरिचित नाम है। उनका पहला काव्य संग्रह ‘पहली बार’ ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और अब दूसरा काब्य संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता है साहित्य भण्डार प्रकाशन इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित हुआ। अपने संग्रह ‘पहली बार’ से ही वे अपनी अपनी अलग छाप लेकर आये और अपने समकालीन कवियों के साथ अपनी अलग पहचान स्थापित कर लिया। उनका दूसरा काव्य संग्रह इसी पहचान का विस्तार है और कविता के क्षेत्र में  उनकी अलग छाप को और भी पुख्ता कर रहा है।
                संतोष की अलग पहचान का मूल कारण उनका विषय चयन और विषय चयन की चारित्रिक सार्थकता का गुम्फंन है। वो समाज के उन उपांगों और क्रियाओं से अपने विषय को खोजते है जहाँ पर हम सामान्यीकरण का शिकार हो जाते है। जिस विषय को हम उपेक्षित और अभद्र समझ कर महत्वहीन कर देते है, संतोष उसी विषय में अपने चरित्र की खोज कर लेते है। उस चरित्र के साथ समाज का सामंजस्य बैठाते हुए उसकी निजी और सामाजिक विशेषताओं का उद्घाटन करके टाइप का रूप दे देते है और उस टाइप को एक समूह का प्रतिनिधित्व देकर उसका यर्थाथवादी निचोड़ हम सबके सामने पेश कर देते है। यह कला उनको बाकी सारे कवियों से अलग कर देती है। उपेक्षित से उपेक्षित विषय की खोज और उसे चरित्र का स्वरूप देकर वर्गीय चेतना का संस्कार करना संतोष की विशिष्ट पहचान बन गयी है। इस श्रमसाध्य क्रिया में उन सभी पहलुओं पर भी गौर फरमाते है जो वर्गीय यर्थाथ को वर्गीय स्वर बना सकते है। 
                ऊपर से देखने में साधारण सी प्रतीकात्मक कवितायें उनकी चारित्रिक शल्य क्रिया के कारण उपेक्षितों की आवाज बन जाती है। यह सच उनकी सम्पूर्ण यात्रा का सच है, जिन वर्गीय विसंगतियों का कवि साक्षात्कार करता है उनकी सम्पूर्ण संस्कृति का खुलासा भी कर देता है। भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप नवनिर्मित वर्गीय सम्बन्धों का जिक्र भी वे अपने ढंग से करते है। द्वन्दवाद का भौतिक और ऐतिहासिक पहलू उनके कथ्य अभिकथन का मूल हथियार है वें भली- भाँति जानते है कि जब उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होता है तो प्रक्रियागत संबंध भी बदल जाते है। उत्पादक और श्रम के बीच सम्बन्धों का नया रूप सामने आता है, इन बदले हुए संबंधों के बीच समस्याओं का स्वरूप भी नया हो जाता है। अक्सर हम परमपरागत औजारों से इन संबंधों के प्रति न्याय नही कर पाते इस उपेक्षित वर्ग के प्रति न्याय तभी हो सकता है, जब हम उत्पादन और उत्पादक के संबंधों को परिवर्तन के दायरे से देखे, कहने का आशय है कि-वर्गीय चेतना की पहचान के लिए वर्गीय परिवर्तन को दरकिनार नही किया जा सकता, यही एतिहासिक द्वन्दवाद का तकाजा भी है।
                संतोष ने इन बदले हुए उत्पादन संबंधों के बीच उपेक्षितों के स्वर को बखूबी उकेरा है, उनकी कविताएं इस आवाज को वगैर किसी कलात्मक कलाबाजी के यर्थाथ की दंशपरक वस्तु स्थिति से जोड़ कर देखा है। इस तथ्य को सहजता से देखा जा सकता है मोछू नेटुवा” एक ऐसा ही उपेक्षित जनजाति का चरित्र है, वह सपेरा है, सांपों को पकड़ कर करतब दिखा कर वह अपने परिवार का पेट पालता है। आज के वैज्ञानिक चकाचौध से भरे युग में सांप अब रोजगार का साधन नही रह गया, वह उद्योगों का आधार बन गया है। बडी-बड़ी मशीनों से उसका जहर निकाल कर दवायें बनाई जाती है और खाल से विलासिता के साधन बनाये जाते है, इस आद्योगिक विकास ने मोछू नेटुवा का रोजगार छीन लिया है, वह दाने-दाने को मोहताज है। वह दुःखी है कि अब उसके परिवार को कहाँ से रोटी का जुगाड़ होगा क्योंकि आदमी वगैर किसी चमत्कार के रोटी नही दे सकता वह तो बाजार की तरह ‘वस्तु दो पैसे लो की अवस्था में आ चुका है। इस बाजार के जहर से सांपों का जहर खत्म हो गया है, आदमी ही जहरीला हो गया है।
पीढ़ियों से धन्धा करते आये मोछू नेटुवा,

चिन्तित हैं अब इस बात पर

कि बेअसर होता जा रहा है सांप का असर

और लगातार जहरीला होता जा रहा है आदमी             (पृष्ठ 35)
मोछू नेटुवा का दर्द इस नव उदारवादी व्यवस्था में फंसी हुई एक संस्कृति का दर्द है, एक समुदाय का दर्द है। नवउदारवादी व्यवस्था के समग्र अध्ययन के वगैर संतोष के इस संग्रह को समझना कठिन है वों उपेक्षितों का विषय तो अवश्य लेते है और उसमें चारित्रिक संस्कार भी कर देते है और उन संस्कारों को समस्याओं का सार्वभैमिक स्वरूप दे देते है, उनकी समस्यायें नवउदारवादी विश्व व्यस्था के तहत समाज में निर्मित नये उत्पादन संबंधों और वर्गीय संबंधों के कारण उत्पन्न पीड़ायें होती है। संतोष का यह नया संग्रह नवउदारवादी व्यवस्था का ‘दर्द गान’  बन गया है।
                इन पीडाओं के सहारे वे हमारे नैतिक रिश्तों की टूटन को भी अन्वेषित भी कर लेते है। पूँजीजन्य स्वार्थ में मानवीय संवेदनाओं को खण्डित कर दिया है। सब कुछ बदला है पर तमाम दावों के बावजूद भी वहाँ परिवर्तन देखा जा रहा जहाँ होना चाहिए “माँ का घर”  कविता में माँ का नाम और उसके असली घर को खोजना आज भी टेढ़ी खीर है। माँ एक नारी है वह माँ होने के बावजूद भी सम्पत्ति से स्वामित्व से बेदखल है, जहाँ भी जाओ, जहाँ भी देखो हर जगह पुरूष ही खड़ा है। कहीं बेटा के रूप में तो कहीं भाई के रूप में तो कहीं पिता के रूप में तो कहीं पति के रूप में, माँ अपनी स्वतन्त्रता के साथ कहीं दिखती ही नहीं, ऐसा दृश्य पुरातन समय में भी था और आधुनिकतम समय में भी है। माँ को चिर उपेक्षिता के रूप में देखा जाना वास्तव में एक नई बात है। माँ पर मैने बहुत सी मार्मिक कवितायें देखी है पर व्यवस्था में कैद और अपनी पहचान का संकट झेलती माँ का चित्र पहली बार देख रहा हूँ।
                                                               
लेकिन सोलहो आने सच सही है कि

मेरे गाँव में नही जानता कोई भी मेरी माँ को

पड़ोसी भी नही पहचान सकता माँ को ठीक-ठाक

मेरे करीबी दोस्तो तक को नही पता मेरी माँ का नाम       (पृष्ठ 18)
यह कविता पुरूष की वर्चस्ववादी सोच का सटीक रेखाकंन करती है, इस कविता में स्त्री विमर्श को स्त्री हक से जोड कर देखा गया है।
                सन्तोष चतुर्वेदी के इस संग्रह में अधाधुन्ध विकास और तीव्र औद्योगीकरण का प्रखर विरोध किया गया है। भूमण्डलीकरण का सबसे बड़ा कारण तीव्र औद्योगिक विकास ही रहा है। जब उत्पादन की अधिकता हो गयी तो नये बाजार की खोज में विश्व को ही बाजार बना दिया गया। हमारे समय का सबसे बड़ा कटुसत्य ही यह है कि कोई भी कलाकार, कविता,रिश्ता संस्कृति, धर्म इस नई प्रतिक्रियावादी बुर्जुवा मार से बच नही पाया। इंसानियत और मानवता के खुशनुमा पहलू तो जैसे परिदृश्य से ओझल हो गये है। उनकी कविता प्रश्न वाचक चिन्ह”  इस उदारवादी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देती है, न केवल प्रश्नचिन्ह वरन विकास के दावों को खोखला सिद्ध करती हुई मानवता के नये स्वरूप पर भी तंज कसती है। चाहे मोछू नेटुवा”  हो या माँ का घर”  या फिर पानी का रंग”  उन्होंने आधुनिक समय की मनुष्यता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। बाजार द्वारा गढे गये नये रिश्तो की धज्जियाँ उड़ा दी है।
                                                                दुनिया में

                                                                जितने भी रहस्य उजागर हुए

                                                                जितने भी भेद खुले

                                                                जितने भी अविष्कार हुए

                                                                जितने भी भण्डाफोड़ हुए

                                                                जितनी भी खोजे हुईं अब जक

                                                                सब के पीछे कही न कही रहा

                                                                अवाक मुह बाये खड़ा

                                                                यही प्रश्न वाचक चिन्ह                   (पृष्ठ 121)
विकास की यात्रा का सबसे पूर्व पहलू मुनाफाखोरी होता है। अतिशय लाभ की कामना ने नैतिक संवेदनाओं को लील लिया है, बस एक ही धुन होती है लूटो, कमाओ, खाओं हम अपनी स्वाभाविकता को भूल कर अपनी जैविकीय आवश्यकताओं को दर-किनार कर इस दौड़ में लगातार दौड़ते जा रहे है क्योंकि भय है यदि हम पीछे रहे तो मर-खप जायेगे, जिन्दा नही रहेगें। विकास की यह भागदौड़ स्पेन्सर के विकासवादी सिद्धान्त योग्यतम की उत्तरजीविता”  को तरजीह देती है, जहाँ कमजोर को समाज में रहने का हक नही दिया जाता है जीता वही है जो शक्तिशाली है। अतः औद्योगीकरण और इसी क्रम में अन्धाधुन्ध यह भागदौड़ अन्ततः हमारी संस्कृति को नष्ट कर हमारे सामने मरखप जाने वाले वातावरण का पोषण करता हुआ दिखाई पड़ता है।  “राग-नींद”  कविता में संतोष ने इस भागदौड़ का क्रूरतम चित्र प्रस्तुत किया है। इस कविता में अतिशय लाभ , अतिशय मुनाफाखोरी पर प्रकारान्तर से कटाक्ष भी किया है।
                                                                जब भी देखा

                                                                अपने शहर को

                                                                दौड़ते भागते जग को देखा

                                                                *       *      *    *

                                                                कही पर नींद का नामो निशान नही

                                                                कही पर नींद की परछाई नही

                                                                कही पर पर लोरी गाती कोई माँ नही

                                                                कही पर कोई सपना नही

                                                                उफ कितना भयावह है यह सब कुछ
‘उफ’ शब्द से कवि की वेदना ही नही अपितु समूचे समुदाय की वेदना व्यन्जित हो जाती है। भूमण्डलीकरण की दौड़ में फंसे हुए व्यक्ति जिनके हक व अधिकार छीने जा चके है, जिनकी क्रान्ति चेतना को नष्ट किया जा चुका है, जिनके पास स्वप्न देखने का अधिकार नही है, जिनको माँ की लोरी सुनने की फुर्सत नही है। यह वेदना उन सब की वेदना है। राग नींद”  कविता में संतोष ने नवउदारवादी व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। संतोष ने आगाह किया है कि अभी समय है हमको निहत्था किया जा रहा है, हमे अकेला किया जा रहा है, हमारे रिश्तो को बाजार के हवाले किया जा रहा है। ये पूँजीवादी शक्तियाँ हमारी क्रान्ति चेतना को नष्ट कर हमे असहायकर देना चाहती है। वे हमे अकेला कर देना चाहते है”  कविता में देखिए
                                                                वे हमें अकेला कर देना चाहते है

                                                                बिल्कुल अकेला

                                                                बिल्कुल निहत्था

                                                                बिल्कुल निरूपाय                           (पृष्ठ 124)
यहाँ वह’  का आशय क्रान्ति विरोधी पूँजीवादी शक्तियों से है जो भूमण्डलीकरण के द्वारा और भी शक्तिशाली हो कर सर्वहारा चेतना को अपने सामने टिकने नही देना चाहती। इस अतिशय अधाधुन्ध भागदौड़ के खतरों से आगाह करते हुए भी कवि क्रान्ति चेतना की पहचान कराने से चूकते नही। वे जानते है कि
                                                                भगदड़ में

                                                                आदमी हो जाता है आदिम

                                                                दूसरों को कुचल कर बचाना चाहता है

                                                                अपनी जान                           (पृष्ठ 77)
यहाँ पर मुनाफाखोरी और लाभ के कारण आदमी मूल्यहीन है, उसकी कीमत नगण्य है, वह मात्र एक वस्तु है जो यूज एण्ड थ्रो’  के सिद्धान्त के अनुसार जीवन जी रहा है। फिर भी वह एक आदमी है और आदमी की सबसे बडी आवश्यकता भूख है, भूख केवल क्षुधा नही है अपितु जीवन के परिवर्तन की धूमिल हो चुकी आशा भी है। क्रान्ति के सुन्दरतम रूप का निर्मल चेहरा भी है,  इस आपाधापी और भगदड़ से जूझने के लिए भूख की आग को पहचानना जरूरी है और कवि इसकी पहचान भी कराता है। यह आग सार्वभौमिक सच है। नमी के विपरीत वातावरण में भी जलती है। कही दावानल के रूप में, जंगल को जलाती हुई, तो कही बडवानल के रूप में समुद्र को जलाती हुई आग दिख जाती है। आवश्यकता है आग को प्रज्ज्वलित करने की देखे उनकी कविता जीवन का राग आग”
                                                                आग में एक भूख

                                                                भूख में एक आग

                                                                रोटी में एक ताप

                                                                और ताप में शामिल है

                                                                कहीं न कहीं यह आग                   (पृष्ठ 22)
संतोष का यह कविता संग्रह नव उदारवादी व्यवस्था के लगभग हर पहलू को उजागर करता है, बहुत सी कविताये है जो बाजारवाद के बोझ में दब चुके आम आदमी आवाज को नया स्वर देती है। दशमलव, उलार, हाशियां, चाभी, विषम संख्यायें इत्यादि कवितायें अपने कथ्यात्मक वस्तु के कारण महाकाव्य कही जा सकती है। इनकी रचना भले ही स्वतंत्र हो पर अपनी अन्तरवस्तु की गंभीरता इन्हें महाकाव्य का स्वरूप दे देती है। पूँजीवादी भागदौड़ में उलझी मानवता का दर्द और वेदना संतोष की कविताओं में खुलेआम देखी जा सकती है। वर्ष 2000 के बाद हमारे देश में जिन आर्थिक नीतियों को को हमारी समस्याओं की दवा कहा गया, वही नीतियां हमारे सामाजिक संबंधों, मानवीय चेतना व क्रान्ति चेतना की संहारक बन गयी है। आर्थिक उदारीकरण के इन अमानवीय निष्कर्षो का प्रतिपादन करती हुई संतोष की कवितायें आम आदमी की वेदना का गान बन गयी है। नवउदारवादी व्यवस्था में आम आदमी की चीख बन गयी है आम आदमी के पक्ष में खड़ी ये कवितायें नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ एक सकारामक प्रतिरोध का स्वर है।
                कोई भी कवि संप्रेषण की निर्वाधता हेतु कुछ उठा नही रखता। इसका आशय यह नही है कि कवि अपनी समस्त बौद्धिक प्रक्रिया को कल्पना के दायरे में समेट कर अपना सारा ध्यान कलात्मक गुणों की वृद्धि में लगा दे। यदि कोई कवि ऐसा करता भी है तो वह अपनी रचना के साथ अन्याय करता है, जिस प्रकार भौतिक प्रकृति परस्पर विरोधी प्रयासों से विकसित होती है उसी प्रकार कवि की रचना प्रक्रिया भी सामाजिक स्तरों पर टकराव का शिकार होती है। इस टकराव से वह अपनी संवेदना को प्रभावित करता है और अपनी प्रेषण क्षमता को भी प्रभावित करता है। संक्षेप में कहा जाये तो यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार वास्तविक प्रकृति का सुन्दरतम विकास द्धन्द के द्वारा होता है उसी प्रकार श्रेष्ठ कलात्मक विकास भी लेखक के संघर्षो और तकाजों के साथ होता है। अपने संघर्ष को प्रेषित करने के लिए लेखक उन माध्यमों का सहारा लेता है जिनका असर यथार्थ की ईमानदारी पर न पड़े दक्खिन का भी अपना पूरब होता है”  कविता संग्रह में संतोष ने कलात्मक उपागमों का सहारा वहीँ तक लिया है जहाँ तक अनुभूति में बाधा न बने वरन सहायक की भूमिका अदा करें। कला कही भी थोपी हुई न प्रतीत हो, स्वाभाविक लगे। कहीं-कहीं कवि कला को दर-किनार भी कर देता है लेकिन वह तभी करता जब कविता यथार्थ के भार से बोझिल हो जाती है। देखिए एक सपाट बयानी प्रतीकबद्ध कविता के रूप में यह एक निपट बयान है जहाँ कोई कलात्मकता नही है और कला का न होना ही कला बन गया है दशमलव”  कविता में दशमलव की अपरिहार्यता को माटी जैसा कहना उपमा की याद दिला देता है।
                                                                तुम मिट्टी की तरह ही

                                                                अपरिहार्य

                                                                अनिवार्य हो दुनिया के लिए

                                                                दशमलव                        (पृष्ठ 22)
दशमलव की अनिवार्यता को मिट्टी से जोड़ कर अनिवार्यता को और परिभाषित करने की आवश्यकता नही है। इसमें एक अभिव्यंजना है जो मिट्टी की तरह” वाक्यांश के कारण गौरवपूर्ण हो जाता है और अभिव्यक्त हो जाता है। संतोष व्यंजना के माहिर खिलाड़ी है, प्रतीकों का उत्थान और विकास व्यंजना के अभाव में असंभव है संतोष का काम यही व्यंजना करती है। व्यंजना में और प्रतीक में वही संबंध है जो शब्द और अर्थ में है। जहाँ व्यंजना है वहाँ प्रतीक है। जहाँ प्रतीक है वहाँ व्यंजना है। संतोष की कविताओं में प्रतीकबद्ध व्यंजना के उदाहरण बहुतायत मिलते है। संतोष ने अपनी कविताओं में प्रतीकों का अर्थ ही व्यंजना सिद्ध कर दिया है। पानी का रंग” कविता में व्यंजना का उत्कृष्टतम देखा जा सकता है। एक उदाहरण-
                                                                बचाये रखना चाहते हो

                                                                तो बचा लो

                                                                अपनी आँखों में थोड़ा सा पानी

                                                                जहाँ से फूटते आये है

                                                                रंगों के तमाम सोते                          (पृष्ठ 47)
आँखों में थोड़ा सा पानी”  वाक्यांश लक्षणापरक व्यंजना का खूबसूरत उदाहरण है इसका आशय शर्म या हया है जिसे वर्गीय समझ भी कह सकते है, वर्गीय चेतना कह सकते है, इसी वर्गीय चेतना के द्वारा हम अपने विभिन्न रंगों के सपने सिद्ध कर सकते है। जिसके लिए कवि ने रंगों के तमाम सोते” वाक्य चुना है। अर्थवत्तापूर्ण, सरोकारपूर्ण, वाजिब व्यंजना का इससे उत्तम उदाहरण अन्यत्र शायद ही मिले।
                व्यंजना के साथ-साथ संतोष ने अपनेी रचना प्रक्रिया में अलंकारिकता को बहिष्कृत नही किया है। जिस प्रकार वे विषय चयन के प्रति प्रयोगधर्मी है उसी प्रकार अलंकारिकता उत्पन्न करने पर भी सिद्धहस्थ है। संतोष की उपमा ही देखिए जिसमें लिंग साम्य एवं धर्म साम्य की खूबसूरत विशेषता विद्यमान है। सबसे अच्छी उपमा वे मानी जाती है जिसमें लिंग साम्य हो। कालीदास उपमा के सबसे बडे कवि इस लिए है क्योंकि उनकी उपमा में लिंग साम्य ही पाया जाता है। संतोष की उपमा का एक उदाहरण देखिए-
                                                               
आकाश अपने नीलेपन के साथ

                             रहता है हमारे पास

                            अपना छाता ताने                               (पृष्ठ 69)
यहाँ पर आकाश प्रस्तुत है तो छाता अप्रस्तुत दोनों पुलिंग है। आकाश जो हमारे ऊपर औधा पड़ा रहता है छाता भी हमारे ऊपर औधा रहता है। यहाँ पर लिंग साम्य और धर्म साम्य दोनों उपस्थित है। यह उपमा का सुन्दर उदाहरण है, उपमा के साथ-साथ संतोष में रूपक विधान की मनोहारी छटा देखने को मिलती है। बिम्ब विधान में तो रूपक होते ही है पर बिम्बों के अलावा फुटकर रूपक भी बगैर किसी तारतम्य के अलंकार के रूप में उपलब्ध हो जाते है विशेषकर उन स्थलों में जहाँ प्रकृति के सुरम्य वातावरण का चित्र होता है। सुरमई-सांझ”  ऐसा ही रूपक है। सुरमई कह देना ही उसके घनत्व और विस्तार को दिखा देता है।
                                               
                                                                सुरमई सांझ

                                                                घर लौटते पक्षियों के उल्लास में

                                                                कहाँ देती है अवकाश                    (पृष्ठ 69)
अब थोडी सी चर्चा संतोष के बिम्ब विधान पर भी हो जाय। बिम्ब को शब्द चित्र भी कहा जाता है इसकी खासियत एैन्द्रिकता है। अर्थात रंग, ध्वनि, वस्तु, एवं वातावरण किसी भी रूप में हो सकता है अधिकतर कवि बिम्बों को अनभूत से जोड़ देते है और कल्पना या फैन्टेसी के ही सहारे अयथार्थ को भी यथार्थ बनाने की कोशिश करते हैं। संतोष के बिम्ब इससे अलग है। उनके बिम्ब यथार्थमूलक हैं,  जो कविता की समय सापेक्षता को सिद्ध कर देते है। ऐसे बिम्ब जो यर्थाथपरक है उनमें कहीं भी बनावटीपन नहीं है। कृत्रिमता नही है। एकदम सहज समवेद्य हैं। भूमण्डलीकरण के रास्ते से हमारे सोच और व्यवस्था को जकड़ कर बैठा हुआ बाजार आज की सच्चाई है। बाजार आज के बुर्जुवा का सबसे बड़ा हथियार है समय के साथ पूँजीवाद ने खुद को बदला है उसने पुराने वर्गीय ढ़ाचे को बदल कर खुद को बाजार का करता-धरता सिद्ध कर दिया है। हर वस्तु की कीमत ही उसकी महत्ता है उसकी मूल्यवत्ता है जो कीमत के दायरे में है वही सामयिक है वही जरूरत में है जो कीमत से बाहर है वह समय से भी बाहर है। आदमियत की स्थानापन्न हो चुकी कीमतों को दिखाने के लिए संतोष ने खूबसूरत बिम्ब रचा है। बाजार की पोल खोलता हुआ आम आदमी के पक्ष में खड़ी कविता का उदाहरण पेश करता हुआ यह बिम्ब नव उदारवाद के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर है। यहाँ पर एक बानगी देखिए
                                                                बाजार की अगवानी में

                                                                जब पलक पावडे बिछाये है खडे

                                                                सत्ता, शासक और दलाल

                                                                कुछ चीजे और कुछ लोग है

                                                                कीमतों के दौर में आज भी

                                                                कीमतों के दौड से बाहर                  (पृष्ठ 118)
पलक पावड़े विछाये’ ‘सत्ता, शासक और दलाल’ यह बिम्ब पूँजीवाद के बाजारवादी हथकण्डे का अनुभुक्त स्वरूप भली-भाँति अभिज्ञापित कर देता है। कुछ लोग जो आज के बाजारवादी वातावरण से बाहर है वों मूल्यहीन होकर जीवन जी रहे है।‘ बाजारवाद का इससे भयावह और यर्थाथ चित्र शायद ही कोई दे सके। न कोई रूपक, न कोई अप्रस्तुत विधान, न कोई बनावट एक सीधे-सादे चित्र द्वारा भूमण्डलीकरण की अमानवीय व्यवस्था का उन्होनें साक्षात्कार कराया है। ऐसे कई बिम्ब इस संग्रह दक्खिन का भी अपनी पूरब होता है’ में उपलब्ध है।
                सब कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यदि संतोष के कथ्य को ध्यान में रखा जाय व अभिव्यंजना के हस्ताक्षेप को स्वीकार किया जाय तो कलात्मक पराकाष्ठा के दर्शन हो सकते है। मै कोरी कलाबाजी का समर्थक नही हूँ , कला को वही तक उपादेय मानता हूँ जहाँ तक कथ्य की अनुभूति में बाधा न पडे वरन सहायक की भूमिका अदा करें। संतोष में जो शैल्पिक विशिष्टता पायी जाती है वह उनकी साध्यता नही है बल्कि कथ्यात्मक साधन है। विभिन्न शैलियों से अन्तर टकराव करता हुआ उनका कथ्य और भी निखर गया है। समकालीन कविता में अग्रज संतोष का यह संग्रह समीक्षा के हर फार्मूलें में फिट है। वर्ष 2000 के बाद आर्थिक उदारीकरण का कुप्रभाव हमारे समाज में स्पष्ट देखा जा सकता है। राजनीति, समाजनीति, शिक्षा, कला सबकुछ बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित है। अपने स्वरूप को खोता हुआ मानव बाजार के हाथ में कठपुतली बन चुका है, गाँव, खेत, किसान सब के सब बाजार की कोख से पैदा विकास की भागदौड़ में अपने आप को टिकाने की जद्दोजहद कर रहे है। खरीदने की बेचैनी और बिकने की लालसा सिर चढ़ कर बोल रही है, मशीनों ने रोजगार छीन लिया है, शहरों ने गाँव छीन लिया है, लाभ ने नैतिकता छीन ली है अतः इस परिवेश से कवि का कुपित होना स्वभविक है। नव उदारवाद के खिलाफ संतोष की कविताएं एक मुकम्मल तर्क प्रस्तुत करती है। उन्होंने बाजार की भगदड़ में सब कुछ गवा चुके आम आदमी के पक्ष में एक जोरदार आवाज का आगाज किया है। इसी उपेक्षित, शोषित, अभद्र, आम आदमी की पक्षधरता संतोष के इस कविता संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता है”  में उपलब्ध है। इस संग्रह को नव उदारवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर कहा जा सकता है यही स्वर उन्हें अपने समकालीनों के साथ अग्रिम पक्तिं पर खड़ा कर देता है। उनकी कविताओं को उपेक्षितों के साथ कदम दर कदम चलते देखा जा सकता है। पूँजीवाद के खिलाफ लड़ते देखा जा सकता है। अग्रज संतोष को एक उम्दा संग्रह लिखने के लिए बधाई और विश्वास है कि आगे भी विश्व पूँजीवाद के खिलाफ सांस्कृतिक हस्ताक्षेप का मुकम्मल स्वर गूँजता रहेगा, जो आज का लेखकीय सरोकार है। 
सम्पर्क-

उमाशंकर सिंह परमार

जिला सचिव

जनवादी लेखक संघ बाँदा (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल नं0- 9838610776
 

रतीनाथ योगेश्वर के कविता संग्रह ‘थैंक्यू मरजीना’ पर उमाशंकर परमार की समीक्षा




किसी भी कवि का पहला कविता संग्रह उसके लिए महत्वपूर्ण होता है। रतीनाथ योगेश्वर ऐसे कवि हैं जो दो दशकों से लिख रहे हैं लेकिन पहला संग्रह ‘थैंक्यूमरजीना’ अभी-अभी इलाहाबाद के साहित्य भण्डार से प्रकाशित हुआ है। साहित्य भण्डार ने एक अनूठी पहल के अंतर्गत इस वर्ष पचास किताबें पचास रूपये मूल्य पर प्रकाशित की हैं। इस श्रंखला का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत किया गया है। रतीनाथ योगेश्वर को उनके संग्रह की बधाई देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके संग्रह ‘थैंक्यूमरजीना’ पर उमाशंकर परमार की समीक्षा।  
थैंक्यू मरजीना-गुमशुदा मनुष्य की तलाश
आचार्य उमाशंकर सिंह परमार
 
साथी रतीनाथ योगेश्वर समकालीन हिन्दी कविता के उभरते कवि है। उनका प्रथम काव्य संग्रह थैंक्यू मरजीना” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के 68 कवितायें लगभग दो दशकों के अन्तराल में लिखी गयी हैं। ऊपरी तौर पर देखने में हर एक कविता अलग-अलग विषय भूमि पर खड़ी दिखाई देती है। कविताओं का स्वनहित परिवेश एवं अन्तर वस्तु अलग-अलग हैं। इस अलगाव के बावजूद भी इनके बीच निहित कथ्यात्मक अन्तर संबंध सब को जोड़ देता है। अलग-अलग खाचे से गढ़ी गई कवितायें अपने प्रयोग धर्मी शिल्प को बरकरार रखते हुए एक ही मूल स्वर बया करती है। वह मूल स्वर है -वैयक्तिक और सामाजिक द्वन्दों के मध्य गुमशुदा मनुष्य का अन्वेषण।
                थैंक्यू मरजीना” की कवितायें पूँजी से आक्रान्त परिवेश व व्यवस्था के कुचक्र में सोई हुई मनुष्यता की खोज और जागरण का गीत गाती है। ये कवितायें अलगाव को ले कर चलती है यह अलगाव आज हमारे समाज का सबसे बड़ा सच है। व्यक्ति, परिवार, समाज तीनों स्तरों पर अलगाव अपने पूरे वर्चस्व के साथ विद्यमान है। इस अलगाव के कारण हम अपने मनुष्य होने का अहसास खो चुके है। हम अपनी संस्कृति से दूर जा चुके है रिश्तों से ले कर वर्गीय चेतना तक के संबंध हम भूल चके हैं। वर्गीय सच से अनभिज्ञता हमारी विसंगतियों का मूल कारण है। रतीनाथ की कविताएँ इस अलगाव युक्त खतरनाक परिवेश में मनुष्य की खोज कर मनुष्यता को रेखांकित करती हैं। एक ऐसा समाज जहाँ शोषण, उत्पीडन को नियत मानकर बुर्जुवा हित के लिए इन्सानियत को भी वस्तु समझ कर बाजार के हवाले कर दिया जाय, ऐसा समाज जहाँ रिश्तों की पवित्रता वैयक्तिक चेतना न करके उत्पादन के प्रक्रियागत संबंध तय करें, ऐसा समाज जहाँ स्वप्न देखना भी खतरनाक है, ऐसा समाज जहाँ असहमति अपराध है, जाहिर है ऐसे समाज में वैयक्तिक चेतना और वर्गीय समझ कहा तक टिकेगी। कवि अस्तित्व को बचाने के लिए जद्दोजहद् कर रहा है, वह संघर्ष का स्वप्न देख रहा हैं, वह संघर्ष की पीठिका तय कर रहा है। रतीनाथ की कवितायें ऐसे समाज का चित्र बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, वर्गीय विभेद की सच्चाई व सामाजिक खोखलापन रतीनाथ की नजरों से ओझल नही है, वो बडी शिद्दत के साथ ऐसे समाज का खाका खीचते हैं।

कटी टाट-पट्टियों पर बैठा कतलाता सत्य

वर्तमानी चाँटे की चोट से

सारी संवेदनायें

यथार्थ के गालों पर झेलता

फँस कर रह गया है, भय आतंक का उलझाव

विचित्र-विचित्र आशंकाओं के बीच

लगड़ा भविष्य (पृष्ठ-18)
लगड़ा भविष्य का आशय है कि हमारा भविष्य भी इस परिवेश में मुक्त नहीं है। वह हमारी चेतना को भी अपने जाल में फॅंसा चुका है, आज जरूरत है चेतना की पहचान की, वह अपनी कई कविताओं में खोई हुई वर्गीय चेतना का जिक्र करते हैं, वे बार-बार कहते है-लोहे का सूर्य उगाओदेखिये लोहा का सूर्य कविता में कवि ने सीधे-सीधे शब्दों मे कह दिया है कि आत्मा को ठंडी होने से बचाओ, हमारे अन्दर लोहा है लोहे का सूर्य उगाओ –

भीतर अपने लोहा भी है

जाना तुमने

अपने रक्त सरोवर से

एक लोहा का सूर्य उगाओ

तो जाने। (पृष्ठ-23)
यही तो खोज है चेतना की कवि ने चेतना की पहचान बखूबी करा दी हैं, लेकिन वह चेतना की खोज से ही संतुष्ट नही है, वह समझता है कि व्यक्ति को जब तक अपनी शक्ति का अहसास न होगा, तो सामाजिक विसंगतियों की मार में विखरता रहेगा। माता-पिता और वह कविता में पिता की सीख के माध्यम से कवि ने आदमी को शक्ति की पहचान कराई हैं। पिता कहते है-
बेटा डरना मत, अकेला आदमी

सबसे ज्यादा ताकतवर होता है

वह सोचता है

और खतरनाक भी (पृष्ठ –25)
आदमी इसलिए ताकतवर होता है क्योंकि वह सोचता है, जो सोचता है वही खतरनाक होता है हम संकटग्रस्त क्यों है? क्योंकि हम सोचते नही जब सोच लेगे तो संकट खत्म हो जायेगा, क्योंकि सोचने पर हम खतरनाक हो जाते है, ताकतवर हो जाते है। 
                मानवता के ऊपर हावी बाजारवाद की पहचान में कवि को बखूबी हैं, बाजार में वस्तु का मूल्य उपयोगिता तय करती है आदमी भी एक वस्तु है, अतः मानवता की कसौटी व आदमी की मूल्यवत्ता भी उपयोगिता ही तय करती है, उपभोक्तावादी बाजार के इस फण्डे से पारिवारिक ढ़ाचा भी बिखर रहा है। मानवीय रिश्ते व संवेदनायें सब कुछ बाजार तय करता है, उपयोगिता खत्म तो मूल्यवत्ता खत्म, झोले जैसा कविता में मानवीयता पर बाजार का असर देखिए। 

जब-जब खाली हुआ मैं,

टांग दिया गया मुझे

दीवार में ठुकी किसी कील पर

या फेंक दिया गया मुझे,

घर के किसी कोने में (पृष्ठ-29)
यह पूँजीवादी अलगाव का उपयोगितावादी सच है। जब पूँजीवाद अपनी चरम सीमा में होता है तो रोटी और पानी के लिए संघर्ष लाजमी है। आम आदमी की मूलभूत अवश्यकताओं पर भी सुविधाभोगी वर्ग काबिज हो जाता है। ‘रोटी दो’ कविता में कवि ने देखिए क्या लिखा है?
रोटी की धनात्विक शक्ति,

कम कर दी तुमने,

रोटी हमारे कद से

दो गुनी ऊँचाई छत से।। (पृष्ठ-31)
जीवन की मूलभूत अवश्यकताओं पर काबिज बुर्जुवा शक्ति के खिलाफ एक दीर्घकालिक संघर्ष का आगाज नही हो पा रहा, क्योंकि कि हम क्रान्ति और परिवर्तन की कल्पना से है कांप जाते हैं। क्रान्ति के प्रति यह भय एवं दुराव कवि ने मध्यम वर्गीय संस्कारों से और प्रतिक्रियावादी विचारों से जोड़ कर देखा है। आम आदमी लाख शोषण के बाद भी अपनी समूची शक्ति के साथ खड़ा नहीं होना चाहता, क्योंकि हमारी सोच मध्यमवर्गीय है। हमारे संस्कार ही हमारा प्रतिरोध करते है-
मै जानता हूँ

तुम सब डर रहे हो

कारण कुछ भी हो सकता है

संस्कार या विचार।।
भय और त्रास की दोहरी मार झेलता कवि अपने आप को हारा नही समझता वह पूँजीवादी, बाजारवादी, सामान्तवादी संस्कारों में कैद मानव के मुक्त होने की प्रबल आशा करता है। ‘लामबन्द होंगे विचार’ कविता में खुल कर कहते है-

अन्याय के खिलाफ

अपने हक की लड़ाई के लिए

लामबन्द होगे विचार

उन्हीं के साथ

कन्धे से कन्धा मिला कर

खडी होगी कविताएँ।। (पृष्ठ-104)
मनुष्यता के प्रति यह आशावादी दृष्टिकोण ‘थैक्यू मरजीना’ कविता में बहुत ही अनोखे अन्दाज में व्यक्त हुआ है। तमाम हारों, पराजयों, संघर्षों के बाद संकटग्रस्त मनुष्य को अपनी सत्ता व संवेदना का अहसास कराती यह कविता एक स्वभाविक द्वन्द रहित परिवेश का चित्र भी प्रस्तुत करती है।
थैंक्यू मरजीना’

तेरी हिकमत थी कि बच गया मै

वरना लुटेरों ने तो लगा दिया था

दरबाजे पर

कट्टम, कुट्टम का निशान।। (पृष्ठ-70)
यह कविता यह फन्टेसी है जहाँ किंवदन्ति बन चुकी मरजीना एक जिजीविषा बन कर उभरती है। वह मनुष्य की मनुष्यता है, एक उद्देश्य है, एक क्रान्ति है।

                थैंक्यू मरजीना’ का रचनाकार रंगमंचों से जुड़ा है, और एक प्रसिद्ध चित्रकार भी है। कला पक्ष को देखते समय उनकी रंगमंची प्रतिभा एवं चित्र कला का मूर्त विधान अनदेखा नही किया जा सकता। ये दोनों पक्ष उनकी कविताओं में सिर चढ़ कर बोलते है। रंगमंचों में वाचिक विक्षेप का बड़ा महत्व है। इस वाचिक विक्षेप से ही कलाकार अपने कथ्य को दर्शक तक सम्प्रेषित करता है। शब्दों की विशिष्ट भंगिमा और उनके मध्य विद्यमान आरोह-अवरोह की गत्यात्मक अवस्था रतीनाथ की कविताओं की खास पहचान है। उनका शिल्प दो मोर्चें ले कर चलता है पहला शब्द चयन एवं दूसरा शब्द गुम्फन वो दोनों मोर्चों में सफल है। कथ्य के अनुरूप कम से कम शब्दों का प्रयोग और उनके मध्य लयात्मक आरोह-अवरोह मात्र कथ्य का संकेत करते है,  बाकी काम व्यजंना कर जाती है। वे सब कुछ नही कहते व्यजंना द्वारा कहलाते है व्यंजना का यह कलात्मक प्रयोग बिरले कवियों में मिलता है, देखिए एक उदाहरण-

दो हाथ और दो पैर

बराबर चार पैर

नाल ठुकेगी, जीन कसेगी

लगाम लगेगी

चाबुक हवा में लहरायेगा

सटा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ क  (पृष्ठ-59)
पूँजीवाद परिवेश की अमानवीय परिस्थियाँ मनुष्य को कैसे जानवर बना देती है इस तथ्य को रतीनाथ ने खूबसूरत अन्दाज में व्यक्त किया है। यहाँ शब्द चुप है लेकिन व्यजंना बोल रही है।
                जैसा कि मैने बताया है कि रतीनाथ एक चित्रकार है, चित्र कला की मूर्त विधायनी कला (बिम्ब विधान) कविता की जान है, वे अपने शब्दों द्वारा यथार्थ का बिम्ब सृजित करते है, जिसकी संवेद्यता से कठिन सी प्रतीत होने वाली कविता भी सहजगे हो जाती है। पूँजीवादी बाजार के कटघरें में कैद मानवता की झट-पटाहट का चित्रण वे बिम्ब विधान के द्वारा ही करते है। इस शब्द चित्रों के माध्यम से अपना मंतव्य कह देने की कला अज्ञेय में भी मिलती है, लेकिन रतीनाथ के बिम्ब यर्थाथ की विसंगति को प्रदर्शित करते है और अज्ञेय के बिम्ब मनोवैज्ञानिक कुण्ठाओं को व्यक्त करते है।
काज बटन सीखने

दर्जी के घर बैठाये गये

मासूम बच्चे के दिमाग में

किताब फडफड़ा रही है।।  (पृष्ठ-43)
बालश्रम व बाल अपराध का इससे सुन्दर शब्द चित्र कहा मिल सकता है, यहाँ किताबे फड़फड़ा रही हैं शब्द अपनी अर्थवत्ता से वह सब कह देता है जो कवि का मंतव्य है। इन शब्द चित्रों के माध्यम से उनका कथ्य और भी प्रभावी बन गया है। रतीनाथ की कवितायें कलात्मक रूप से उत्कृष्ट है बिम्ब परखता के साथ-साथ अमूर्त विधान और रूपक विधान भी उनकी कविताओं को श्रेष्ठ कलात्मक पराकाष्ठा तक ले जाता हैअमूर्त विधान और बिम्ब विधान दोनों में रूपक विधान समान्य होता है, वगैर रूपक विधान के न तो अर्मूत विधान संभव है न ही बिम्ब विधान। देखिए समय को कुत्ते से आरोपित करने वाला अमूर्त विधान है-

समय का काला कुत्ता

गन्धाते जुराबों की तरह

अपने दाँत में दबा

उठा ले जायेगा बडे बूढों को (पृष्ठ-54)
यथार्थ की असह्य कटु त्रासदी का सांगोपांग विवेचन करने के लिए कवि उपमाओं का सहारा लेता है लेकिन अनावश्य रूप में नही लेता वह मात्र व्यंजना की उच्चतम अनुभूति के लिए उपमा का सहारा लेता है। थैक्यू मरजीना में व्यंजनाधर्मी उपमाये कई स्थलों पर दिखाइ देती है, इन उपमाओं के कारण व्यंजना और भी मारक बन जाती है। देखिए एक उपमा जिसमें कायरता को बीज बताया गया है-
देख रहा हूँ मैं

भीतर-भीतर कुछ जलते

पलते कायरता का बीज (पृष्ठ-58)
थैंक्यू मरजीना’ के प्रतीक विधान पर मै कोई टिप्पणी नही करूँगा, क्योंकि आज की कविता में प्रतीक विधान सामान्य बात है, आज की परिस्थितियाँ इतनी जटिल है कि कोई भी कवि प्रतीकों को दरकिनार नही कर सकता। यही वह माध्यम है जो कविता को विसंगति का स्वर देता है। लेकिन रतीनाथ का शिल्प वैशिष्ट्य प्रतीकों पर टिका नही है, जहाँ प्रतीक का प्रयोग हो सकता है वहा वह बिम्ब का सहारा ले लेते है और बिम्ब में व्यंजना का तड़का लगा कर अपने शब्द गुम्फन से कविता को उत्कृष्ट कलात्मक ऊँचाई तक ले जाते है।
                विचारणीय बिन्दु यह है कि कलात्मक उत्कृष्टता के साथ -साथ उन्होंने अपनी कथ्यात्मक प्रभावपूर्णता का बखूबी निर्वहन किया है। उनका मानव जो पूँजीवादी, बाजारवादी और मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन चुका है, उनका मानव उस लोकतन्त्र का वाशिन्दा है जहाँ मुठ्ठी भर लोग लोकतान्त्रिक तानाशाही से आम आदमी को मौत के मुह में ढ़केल रहे है। जहाँ मानव की वर्गीय समझ और चेतना नष्ट हो चुकी है, वह अलगाव का शिकार है। उसकी सोच पर खतरनाक पहरे है, वह मानव मनुष्यता खो चुका है। रतीनाथ की कविताएँ उस खोए हुए मानव को खोजती है, उसकी आत्मा को ठंडी होने से बचाती है। वह परिवर्तन और बदलाव की सीख देती है, वह कहती हैं कि यहाँ आदमी को जानवर बनाने में कोई कसर नही है, बस अपने-आप को संभालो, अपने खोए हुए मनुष्य को पहचानो, बदलो दुनिया को बदलो, बदलाव ही वह हथियार है जिससे मनुष्यता अपनी सत्ता को पुनः पा सकती है। इसी चेतना का नाम मरजीना है, मरजीना हमें मनुष्यता से मिलाती है, वह हमें मानव बनाती है, और हमारे मानव होने को परिभाषित करती है। ‘थैंक्यू मरजीना’
                                                                                                                               

सम्पर्क

उमाशंकर सिंह परमार

प्रवक्ता, हिन्दी

आदर्श किसान इण्टर कालेज,

भभुवा (बाँदा)
मोबाईल-09838610776

बाँदा में जलेस का जिला सम्मेलन

(चित्र: गोष्ठी को संबोधित करते हुए चंचल चौहान) 
कवि केदार नाथ अग्रवाल के जनपद बाँदा में 6 अक्टूबर 2013 को जनवादी लेखक संघ का जनपदीय सम्मलेन आयोजित किया गया इस सम्मलेन के पहले सत्र में साम्प्रदायिकता के बढ़ते हुए खतरे पर रचनाकारों ने गंभीर विमर्श किया जबकि दूसरे सत्र में एक कविता पाठ का आयोजन भी किया गया जिसमें अनेक प्रख्यात कवियों ने भाग लिया। इस आयोजन की रपट पहली बार के लिए भेजी है बाँदा की ज.ले.स. इकाई के सचिव उमाशंकर सिंह परिहार ने। तो आईये पढ़ते हैं यह रपट     
उमाशंकर सिंह परमार
      हमारे देश और समाज में इज़ारेदार पूँजीपतियों और बड़े भू-स्वामियों के ऐसे गठजोड़ का शासन चल रहा है जो अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी से समझौता करके उसकी बताई गयी रीति नीति पर चल रहा है। यह विचार 6 अक्टूबर 2013 को बाँदा के डी.सी.डी.एफ. सभागार में सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो0 चंचल चौहान (दिल्ली) ने जनवादी लेखक संघ द्वारा आयोजित जिला सम्मेलन के अवसर पर  सेमिनार में व्यक्त किए। जलेस के राष्ट्रीय महासचिव प्रो0 चौहान ने आगे कहा कि मौजूदा दौर में साम्प्रदायिक फासीवाद की विचारधारा का उभार भारत की आजादी के दौर से विकसित मानवीय मूल्यों के विनाश का कारण बन सकता है। उन्होंने विकास के नाम पर गुजरात की कहानी को झूठ पर आधारित बताते हुए कहा कि शुरू से विकसित राज्य होने के बावजूद वह अब पीछे जा रहा है और जी.डी.पी. के आधार पर पाँचवे नम्बर पर चला गया है। 

(चित्र: गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए अनिल सिंह) 

      साम्प्रदायिकता का प्रक्षेपक्ष और जनवाद को खतराविषयक इस सेमिनार में आगे बोलते हुए प्रख्यात कवि डॉ0 अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद) ने कहा कि साम्प्रदायिकता का प्रसार लोकतन्त्र की हत्या करके गरीबी को बढ़ाने वाला है, क्योंकि उससे हमेशा गरीब तबका ही प्रभावित होता है। इलाहाबाद से आये डॉ0 विवेक निराला ने कहा कि साम्प्रदायिकता के साथ यह आश्चर्यजनक सत्य है कि यह खुद को भी साम्प्रदायिक कहलाना पसन्द नहीं करती। आज भी साम्प्रदायिक ताकतें हिन्दू राष्ट्रकी कोई परिभाषा तय नहीं कर सकीं और हिन्दू राष्ट्र के ढांचे में दलित, आदिवासी, पिछड़े समूह एवम् स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं बन सकी। सेमिनार में वरिष्ठ पत्रकार बी.डी. गुप्त, एडवोकेट रणवीर सिंह चौहान, प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह एवम् गोपाल गोयल ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अनिल शर्मा (उरई) ने कहा कि जनवाद का सांगठित विकास ही मनुष्य की तकलीफों से निजात दिला सकता है। उन्होंने डी.सी.डी.एफ. परिसर में कवि केदारनाथ अग्रवाल की स्मृति में एक बड़ा सभागार एवम् कवि कृष्ण मुरारी पहारिया की मूर्ति लगाने का प्रस्ताव रखा जिस पर उपस्थित लोगों ने उत्साह व्यक्त किया। 

      प्रारम्भ में सुधीर सिंह ने विषय का प्रवर्तन किया तथा डी.सी.डी.एफ. के संचालक लाल खाँ ने चंचल चौहान को शाल ओढा कर सम्मान किया। भारतीय दर्शन की विद्वान श्रीमती शान्ति खरे को भी चंचल चौहान व अनिल शर्मा द्वारा शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। संचालन उमाशंकर परमार ने किया। 

      गोपाल गोयल, केशव तिवारी, जयकांत शर्मा की अध्यक्षता में हुए सांगठनिक सत्र में संयोजक आचार्य उमाशंकर सिंह परमार ने रिपोर्ट रखी जिसे सभी ने स्वीकृत किया। इसके बाद सर्वसम्मति से जिला समिति का चुनाव हुआ जिसमें केशव तिवारी अध्यक्ष, जयकांत शर्मा एवं गोपाल गोयल उपाध्यक्ष, उमाशंकर सिंह परमार सचिव, प्रद्युम्न सिंह को कोषाध्यक्ष व कालीचरन सिंह को संयुक्त सचिव चुना गया।

      अपरान्ह कविता सत्र में अध्यक्षता करते हुए डॉ0 अनिल कुमार सिंह ने अपनी कविता में कहा कि,

 सड़ी हुई लाशों पर जश्न कुत्ते और गिद्ध मनाते हैं

जिन्दगी शतरंज का खेल नहीं है

जिन्दगी हमारी शह देकर

जीत लेना चाहते हैं आप…..।

महाकवि निराला के प्रपौत्र विवेक निराला ने अपनी संकटग्रस्तकविता में कहा कि,

किसानों के पास कर्ज था/ उद्योगपतियों के पास मर्ज

मगर सरकार को किसी से

कोई हर्ज नहीं था

खुदगर्ज सिर्फ हिन्दी का कवि था…..।

इलाहाबाद से आये हुए कवि डॉ0 संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद) ने कविता में पढ़ा कि,

वैसे आदमी किसी पत्थर की तरह नहीं गिरता

वह जब भी गिरता है

एक बीज की तरह गिरता है

और वृक्ष की तरह उठ खड़ा होता है हमेशा….।

इलाहाबाद के रतीनाथ योगेश्वर ने रोटीकविता में कहा कि,

हमारे बौने हाथ

रोटी तक नहीं पहुँच रहे हैं

पर मुझे मालूम है

रोटी कैसे मिलेगी

मैं तवे पर चढ़कर

रोटी पा लूँगा….।

कवि श्रीरंग ने कहा कि,

वे लोग

जिन्हें भूखे रहने की आदत नहीं थी

करने लगे उपवास/ जाने लगे हैं मंदिर

करने लगे हैं सजदे

जबकि शैतान ठहाके लगा रहा है

फिर एक बार कामयाब हुई उसकी चाल।

फतेहपुर के प्रेमनंदन का दुःख था,

 गोभी, आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर

दूध, दही, मक्खन, मलाई

भागे जा रहे हैं शहर की ओर

देख रहे हैं किसानों के बच्चे

ललचाई हुई नजरों से गाँव में….।

कवि केशव तिवारी, रणवीर चौहान, अनिल शर्मा, सुनील द्विवेदी, सुनील चित्रकूटी, कालीचरन सिंह आदि स्थानीय कवियों ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया। उपस्थित लोगों में आनन्द सिन्हा, राम विशाल सिंह, यावर खान, रामचन्द्र सरस, चन्द्रपाल कश्यप, अशोक त्रिपाठी आदि प्रमुख स्थानीय गणमान्य व्यक्ति शामिल थे। 
संपर्क-
मोबाईल- 09838610776