उमा शंकर सिंह परमार |
मूल्य: रूपये 395/
(‘लहक’ से साभार)
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
उमा शंकर सिंह परमार |
मूल्य: रूपये 395/
(‘लहक’ से साभार)
अजय कुमार पाण्डेय |
उमाशंकर सिंह परमार |
उमाशंकर सिंह परमार |
उमाशंकर सिंह परमार |
–
कैलाश गौतम |
‘सपने चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
(उतरे नहीं ताल में पंछी)
कैलाश इस परिस्थिति से एक प्रतिबद्ध कवि की तरह निजात चाहते है़। उनकी कई कविताएं आवाहन गीत की तरह है जिनमे जागरण गीत गाते उन्हे देखा जा सकता है। जनता के पक्ष में जागरण गीत गाना हिन्दी कविता की पुरानी परम्परा है। जयशंकर प्रसाद की ‘बीती विभावरी अब जाग री‘। महादेवी वर्मा का गीत ‘जाग तुझको दूर जाना‘। निराला का ‘अब तो जागो एक बार ‘। इसी तरह त्रिलोचन, केदार, और विजेन्द्र ने भी जागरण गीत गाए हैं। जागरण गीत वही कवि गाता है जिसका जनशक्ति में अटूट विश्वास होता है और कवि समझता है उसके गीत जन गीत है। जनता के लिए हैं। गीत जनता की सोच में परिवर्तन कर सकते हैं।
‘जागो मेरी नींद
जागो मेरी नींद सुहागिन
आज चांदनी में ।
(कविता लौट पडी)।
इस जागरण के अलावा कविता में जनविद्रोह के प्रतीक बादल भी उनकी कविता में मिलते हैं। उनका बादल सौन्दर्यधर्मी नहीं है न किसी किसान ललना के वस्त्र ठीक करके किसी प्रेमी का सन्देश भेजने वाला दूत है। कैलाश का बादल निराला के बादल राग जैसा क्रान्तिकारी व विप्लवधर्मी है। बादल कविता का एक अंश देखिए
‘सोच रहा परदेशी कितनी लम्बी दूरी है
तीज के मुंह में बार बार बौछार जरूरी है
मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ न
छमछम और छमाछम बादल राग सुनाओ न।
बादल राग आप समझ रहे होंगें। यह वही बादल राग है जिसे निराला नें सुना था। इसलिए कैलाश निराला का ही शब्द बादल राग प्रयोग कर रहे हैं। एक बादल राग जो ‘अस्थिर सुख पर दुख की छाया है।‘ जो अम्बर में भी राग अमर भर देता है जिसकी गरज से बडे बडे पूंजीपति घबरा जाते हैं। एक ऐसा राग जो बडे बडे परिवर्तनों का सूचक है। कैलाश क्रान्ति या परिवर्तन की बात केवल प्रतीकों में नही करते। वह सीधे सीधे भी परिवर्तनों की प्रस्तावना करते हैं। यह आरोप भी उनपर लग सकता है कि जब क्रान्ति की बात आती थी तो कैलाश छायावादी भंगिमा में प्रतीके सुरक्षित गढ में खडे जाते थे। दरअसल प्रतीकों में बात कहने की परम्परा रही तो उन्होने केवल इस परम्परा को वहन करने के लिए प्रतीकों में बात की। इस बात को वो अपनी कई में अभिधा रूप में भी कहते हैं। जो कवि सबसे अलहदा दृष्टि लेकर अंसगतियों के खुलासों में संकोच नहीं कर सकता वह क्रान्ति में कैसे करेगा। कैलाश ने गीतों के फार्मेट का भी प्रयोग परम्परा के निर्वहन हेतु किया है वो काव्य रुपों में परम्परा और कथ्य में आधुनिक युगबोध लेकर चलते थे। यही उनका अलहदापन है जो सब कवियों से उन्हे अलग कर देता है। यही अलहदापन उनकी पहचान बन गयी है। उनकी एक कविता है ‘पनप रहा विद्रोह‘। इस कविता में वो आक्रोश की सीमाएं भी तोड देते हैं। वो भी एक नए भाषिक अन्दाज में
‘कडिंयां टूट रही कैदी की
अब फाटक भी टूटेगा
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
सबका भांडा फूटेगा
( पनप रहा विद्रोह )
भांडा फूटना मतलब रहस्य उजागर होना है। शोषक और शोषित के मध्य अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव पूर्ण परिवर्तनों का सूचक है। ये भांडा फूटना। कैलाश इस परिवर्तनों पर कतई युटोपियाई नहीं हैं। उन्होंने जनता की चेतना व प्रतिरोध का उल्लेख अपनी कविताओं मे किया है। कहा जाता है कि जब पू़ंजीवाद अपनी चरम अवस्था में होता है तो प्रतिरोध स्वत: जन्म लेता है कैलाश ने एक कविता में इस स्थिति को दिखाया है। आप भी देखिए
‘बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा
कहूंगा कहूंगा कहू़गा कहू़गा
कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई
अकेले तुम्ही सब उडाओगे भाई (कविता लौट पडी)
अर्थात अब जनता कहने से चूकने वाली नहीं है। अब हद है पीडाओं का सिलसिला सहते सहते पानी सर से ऊपर हो चला है। यह स्थिति कवि का बयान भर नही मानना चाहिए। इसे जनता की मनोस्थिति से जोडकर देखा जाना चाहिए। यह बयान आम आदमी का है जिससे कवि को उम्मीदें हैं। क्रान्ति का इतना सख्त कवि शायद ही कोई हो जो सीधे सीधे जनता बनकर समूची व्यवस्था को ललकार रहा है। कैलाश जनपक्ष के ही नहीं जनक्रान्ति के भी कवि हैं। पर आश्चर्य है हिन्दी की बुर्जुवा आलोचकीय दृष्टि ने इन्हे क्यों जमात से बाहर कर देने का कुत्सित षडयंत्र किया। शायद उन्होने कैलाश को पढा नही होगा। लोकधर्मी कवि की सबसे बडी विशेषता होती है कि वह अपने ‘लोक‘ की परम्परा रीतियों के साथ साथ चरित्रों का भी उल्लेख करता है। ये चरित्र लोक की विसंगतियों और त्रासदियों के भोक्ता होते हैं। इनके माध्यम से कवि या लेखक अपने सरोकारों की अभिव्यंजना करता है। ये चरित्र ही कवि के वैयक्तिक और सामाजिक सवालों का जवाब देते हैं। सब कुल मिलाकर लोक के अन्दर उठने वाले हर अन्तर्सघर्ष के प्रति कवि की दृष्टि इन चरित्रों में ही समाहित रहती है। कैलाश के चरित्र वर्गीय आधार पर गढे गए हैं अर्थात समाज की वर्गीय विभेदों को ध्यान मे रखते हुए कैलाश गौतम ने चरित्रों का प्रयोग किया है। एक ओर जहां गया तिवारी और गौरी ठाकुर, व महतो जैसे पूंजीवादी सामन्ती चरित्र आए हैं तो दूसरी तरफ संघर्षरत समुदायों के चरित्र भी उपस्थित हैं। संघर्षरत चरित्रों में स्त्री चरित्रों का कैलाश जी ने गजब प्रयोग किया है। प्रयोगकविता और रीतिकविता के स्त्रीवादी विमर्श से अलग चरित्र इनकी कविता मे उपलब्ध हैं। इनके स्त्री चरित्र मेहनतकश समुदाय से हैं जिन पर कवि ने रौमैन्टिसिज्म नहीं देखा न ही जबरिया नखसिख थोपा है। न प्रेम की गहराई मापी। अपितु उनके दैनिक जीवन मे आने वाली दिक्कतों का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत किया है। बडकी भौजी, नौरंगिया, ऐसे ही अलहदा चरित्र हैं। नौरंगिया का चरित्र देखिए और इस पर गौर करिए कि असली जनवादी स्त्री विमर्श कैलाश गौतम मे है कि नहीं। परम्परागत बुर्जुवा स्त्री विमर्श को तार तार करती हुई ये कविता उम्दा चरित्र संस्कार करते हुए स्त्री के प्रति वर्गीय दृष्टि का खुबसूरत रेखांकन करती है
‘देवी देवता नहीं जानती
छक्का पंजा नहीं मानती
ताकतवर से लोहा लेती
अपने बूते करती खेती
मरद निखट्टू जनखा जोईला
लाल न होता ऐसा कोईला
उसको भी वो शान से जीती
संग संग खाती संग संग पीती
गांव गली की चर्चा में वह
सुर्खी सी अखबार की है
नौरंगिया गंगा पार की है
(कविता लौट पडी )
ऐसा चरित्र है किसी के स्त्री विमर्श में? अगर है भी तो कैलाश का विमर्श क्या किसी बडे कवि से कम जनवादी है। क्या इसमे संघर्षों की कमी है। उनकी कई कविताओं में भी छोटे छोटे चरित्र आ गए हैं जो विषय की प्रमाणिकता को कफी हद तक सिद्ध कर देते हैं। मुन्ना, बच्चा बाबू, आदि ऐसे ही चरित्र है। एक कविता है कचेहरी जिसमे एक चरित्र का उल्लेख आया है तिवारी। यह तिवारी भृष्ट व्यवस्था का आधुनिक कर्णधार है जो सरकारी आफिसों में निजी रिश्तों और परिचयों को भी ताक मे रखकर जोंक की तरह जनता को चूस रहा है।
‘कचहरी हमारी तुम्हारी नही हैं
अलहमद से कोई यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचेहरी की महिमा निराली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
(कचहरी )
बडे से लेकर छोटे हर स्तर के चरित्रों का संस्कार कैलाश जी ने किया है। उनके चरित्र युगबोध की प्रमाणिक अवस्थितियों के साथ उनकी कविताओं में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इस दृष्टिकोण से भी कैलाश किसी भी कवि से कमतर नही ठहरते। अब कवि की भाषा और लयात्मक बंधों पर भी चर्चा हो जाय।
‘बचपन के अलबम में खोई
अगवारे पिछवारे
अमराई ही अमराई
सरसों लदी कियारी
फागुन धूप नहाई है
(कविता लौट पडी)
ऐसी रचनात्मक भाषा के साथ अगर काव्यत्व का सौन्दर्य भी जुडा हो तो कवि को जमात से बाहर घोषित करने का कोई कारण नहीं बनता है। कविता मे लयात्मक प्रवाह का प्रयोग अपने तरह की अनूठी परम्परा है। सम्पूर्ण छायावादी कविता इस लयात्मक संगति भरी है। निराला मुक्त छन्द के जनक कहे जाते हैं उनके मुक्त छन्दों में भी उत्कृष्ट लयात्मक संगति के दर्शन होते हैं। कैलाश छन्द के समर्थक थे। उनकी कविता में प्रयुक्त हुए लयात्मक बन्ध क्लासिकल और लोकछन्द दोनो कोटियों के हैं। इस सन्दर्भ में वो केवल फार्मेट में जकड कर नही बैठ जाते हैं कि छन्द और लय के फेर मे अपने अर्थ की बुनावट को गडबड कर दें। उनकी कविता में लयात्मक संगीत की बुनावट का आधार अर्थ संगीत है। शब्द संगति के साथ साथ अर्थ संगति के मिलने से उनकी कविता सर्वग्राह हो जाती है। केवल शब्द बन्धों के द्वारा हम लयात्मक कारीगरी तो कर सकते हैं पर कविता की सम्प्रेषण क्षमता का नुकसान हो सकता है। ऐसी शब्द संगति के जादूगर रीतिकाल में खूब हुए है। नई कविता में भी बहुत से कवि हुए हैं जो शब्दों के अनावश्यक प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। पर कैलाश ने शब्द संगति को अर्थसंगति के उपर प्रभावी नही होने दिया है अर्थसंगति ही प्रभावी रही है। दूसरी बात उनके शब्द और लयात्मक बन्ध दोनो लोकोपार्जित हैं इसलिए सम्प्रेषण की भंगता का सवाल ही नही खडा हो सकता है। यदि उनके शब्द अभिजन व पेशेवर काव्यभाषा के होते तो एकबारगी अर्थ भंग की रीतिशास्त्रीय परम्परा का दोष उन पर लग सकता था।लगभग सभी लोकधर्मी कवियों की तरह कैलाश ने भी संगीत और लय का आन्तरीकरण किया है। यह लय शब्दों के साथ अर्थ और उनके रचनात्मक सरोकारों में रच बस गयी है। इसलिए कविता सौन्दर्य की पराकाष्ठा पार करके अपने कथ्य को भी गरिमामय प्रभाविकता प्रदत्त करती है।
‘तेज धूप में नंगे पांव
वह भी रेगिस्तान में
मेरे जैसे जाने कितने
हैं इस हिन्दुस्तान में।
(तेज धूप में )
इस कविता में रेगिस्तान और हिन्दुस्तान में केवल लयात्मक अन्त्यानुप्रास भर नहीं आया है बल्कि दोनो में अर्थ संगति भी बेहतरीन है। रेगिस्तान का आशय है तपती जमीन। जिसमे नंगे पांव चलना कष्टप्रद है। ठीक वही हालत हिन्दुस्तान में है जिसमे जीवन को सही तरीके जीना कठिन हो गया है। यह बिम्ब सामयिक हिन्दुस्तान के दर्द को बयां कर रहा है यह बता रहा है कि खतरों की व्यापकता इतनी गहरी है कि मनुष्य के लिए जीवन का संकट खडा हो गया है। कैलाश की लगभग समस्त कविताएं इसी भाव संगीत, अर्थसंगीत, और शब्द संगीत की मनोहारी भूमिका लेकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं। आज के समय जब गद्य और कविता के बीच अन्तर खत्म होता जा रहा है ऐसे समय कविता को उसकी मूल संगीतात्मक लोकधर्मी धारा से जोड देना एक बडा अवदान है। शायद इसीलिए अपने आखिरी संग्रह का नाम उन्होने ‘कविता लौट पडी‘ रखा है जिसकी भूमिका में उन्होने गीतों की जनवादी भूमिका पर जोर दिया है।
‘पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला।
मैं मोम हूं उसने मुझे छूकर नहीं देखा।
आँखों मे रहा दिल में उतर कर नहीं देखा।
किस्ती के मुसाफिर ने समन्दर नहीं देखा ।‘
वाकई में इन किस्ती के मुसाफिरों ने समन्दर की अवहेलना करके हिन्दी कविता की जनधर्मी रीति की ही अवहेलना की है।
उमाशंकर सिंह परमार |
सम्पर्क-
मोबाईल – 09838610776
वीरेन डंगवाल |
उमाशंकर सिंह परमार |
सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
मोबाईल – 09838610776
हरेप्रकाश उपाध्याय |
उमाशंकर सिंह परमार जनवादी लेखक संघ बाँदा के जिला सचिव हैं और इन दिनों आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने में जुटे हुए हैं।
यह सच है कि जन-समूह का श्रम ही समस्त मानवीय अभिव्यक्तियों का उत्पादक है। सभी विचारों का जन्मदाता है। इन विचारों को प्रेषित करने के लिए मेहनत-कश वर्ग अपनी एक भाषा गढ़ता है। यह भाषा विशाल जन-समुदाय के मध्य कलात्मक सृजन का आधार होती है। यह भाषा उत्पादक समुदाय की भाषा से अलग होती है। उत्पादक समुदाय की भाषा और उनके द्वारा सृजित मूल्य आम जन के विरुद्ध होते हैं। उसमें वो शक्ति नहीं होती जिससे जन-समुदाय अपने मूल्यों व संस्कृति को सहेज सके। अस्तु अभिजन और लोक के मध्य कभी भी भाषाई एकरूपता नहीं रही। अभिजन और लोक आर्थिक–सांस्कृतिक अलगाव के साथ-साथ भाषाई रूप में अलग ही रहे। दोनों का अपना साहित्य रहा, अपनी भाषा रही, अपनी संस्कृति रही, दोनों संस्कृतियों का आपसी टकराव भी रहा। उत्पादक स्वामी वर्ग की सबसे बड़ी खासियत है कि वो सर्वाधिकारवादी होता है। आर्थिक संसाधनों के साथ ही वो सम्पूर्ण सांस्कृतिक उपागमों को भी अपने स्वामित्व में रखना चाहता है। उसका यही चरित्र “वर्गीय-द्वंद” को जन्म देता है। भाषा की उत्पत्ति में प्रयुक्त “भाषायी मरण” का सिद्धांत इसी वर्गीय द्वंद का वैज्ञानिक अभिकथन है। यह सिद्धांत भाषाई सृजन और सामाजीकरण का वस्तुपरक रेखांकन है। भाषा की उत्पत्ति में अभिजन और लोक की भूमिका का समुचित मूल्यांकन है। लोक की ऐतिहासिक भूमिका को कमतर आंकने के लिए पूंजीवादी भाषा–वैज्ञानिकों ने “भाषाई मरण” के सिद्धांत को हमेशा नकारा है क्योंकि भाषा की उत्पत्ति में लोक की भूमिका को नज़र अंदाज़ करके ही अभिजन-वर्ग के मंसूबों को भाषा के जातिगत चरित्र पर थोपा जा सकता है। और लोक द्वारा सृजित वर्ग-चेतन मूल्यों को नष्ट किया जा सकता है। अभिजन वर्ग की तमाम साजिशों और नकारात्मक वृत्तियों के बावजूद भी इतिहास को नकारा नहीं जा सकता, जब भी हिंदी के विकास की चर्चा होती है तो लोक अपनी पूर्ण सत्ता के साथ भाषाई उत्पादन-भूमि के रूप में स्थापित मिलता है।
कोई भी भाषा व्यापक जनसमुदाय के आपसी व्यवहार से उत्पन्न होती है। वहीं विकास करती है, वहीँ से उर्जा अर्जित करती है। जब यह जनभाषा सत्ता और शक्ति पोषित अभिजन के संपर्क में आती है तो अपनी सहजता को खो कर कठोर व्याकरणिक नियमों में आबद्ध होने लगती है। यह संकुचन भाषा को विद्वानों और पंडितों की भाषा बना देता है। इस तरह भाषा जन समुदाय की समझ और संवेदना से दूर होती चली जाती है। कालांतर में भाषा केवल पढ़े-लिखे और सत्ता के इर्द-गिर्द बैठे अभिजन वर्ग की भाषा बन कर रह जाती है और लोक अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक नयी भाषा की खोज कर लेता है। भाषा का नियमो में आबद्ध होना व विशिष्ट जन के बीच सीमित हो जाना ही लोक द्वारा नयी खोज का कारण बनता है। भाषा का जन-समुदाय से दूर होना ही “भाषा की मृत्यु” है। जिन्दा भाषा वह है जो आम-प्रचलन में हो। यही कारण है कि हमारे देश में भी एक ही समय, एक ही भू-भाग पर, दो भाषाओँ का प्रयोग होता रहा। एक भाषा जो अभिजन वर्ग की भाषा रही और दूसरी भाषा जो आम जनता की भाषा रही। आम जनता की भाषा ही कालांतर में बुर्जुवा वर्ग की भाषा बनती है और भाषाई मृत्यु को प्राप्त होती है। यही है “भाषायी मरण” का सिद्धांत, यह सिद्धांत समस्त आर्य –भाषाओँ के विकास में लागू होता है और हिंदी के विकास में भी लागू होता है।
हिंदी का वर्तमान स्वरूप एक क्षण की देन नहीं है, अपितु सदियों से चल रहे भाषाई लोक द्वंद का नतीजा है। हिंदी का वर्तमान स्वरूप तमाम भाषाई संघर्षो में लोक की भूमिका का जीवंत उदाहरण है। अभिजन और लोक के मध्य इस भाषागत द्वंद को नकारा नहीं जा सकता। इसको नकारने का आशय होगा कि हम भाषा के विकास में एतिहासिक तकाजों को नकार रहे हैं।
चित्रात्मक और संकेतात्मक भाषा को छोड़ दिया जाय तो “वैदिक संस्कृत” पहली भाषा है जो संगठित स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। वैदिक संस्कृत उत्तर वैदिक काल तक अभिजन-वर्ग की भाषा बन गयी। तब जन-सामान्य में प्रयुक्त भाषा “लोकिक संस्कृत” कहलाई। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अपने स्वरूप को लेकर काफी अंतर है। जब लौकिक संस्कृत व्याकरणिक नियमों व विधि-निषेधों को वहां करने लगी व सत्ताधारी सामंतों और पुरोहितों की भाषा बन गयी तो “लोक” ने अपनी अभिव्यक्ति हेतु “प्राकृत” और अपभ्रंश का प्रयोग शुरू किया। शीघ्र ही प्राकृत और अपभ्रंश भी नियमों और विधि-निषेधों की संवाहक हो गयीं तब लोक ने “अवहट्ट” या ‘पुरानी हिंदी’ में अपनी अभिव्यक्ति की। जाहिर है एक के बाद एक भाषा आती गयी, रूढ़ होती गयी, जैसे-जैसे भाषा पर अभिजन काबिज़ होते गए वैसे वैसे लोक ने पुरानी भाषा से भी सहज और परिष्कृत भाषा की खोज की। लोक ने अभिजन भाषा के खिलाफ जन-भाषा की खोज में पुरानी भाषा को नकारते हुए भी प्रगतिशील तत्त्वों को नयी भाषा में सहेजा, और “बहते नीर” के मुहावरे को सार्थक करते हुए सामंती विचारों व संस्कृति को नकारा। हिंदी का वह स्वरूप जो आज हमारे सामने उपस्थित है इसका विकास सरल-रेखीय गति से नहीं हुआ। इसके पीछे लोक और अभिजन के संघर्षों का इतिहास है। तमाम मतों, विचारों, भाषाओँ, संस्कृतियों का पारस्परिक समूहन है।
यास्क ने भी वैदिक भाषा को लोक भाषा से श्रेष्ठ कहा है। इसका अर्थ है की वैदिक भाषा पुरोहित और राजाओं की भाषा थी और संस्कृत आम जनता की भाषा थी। इसीलिए वैदिक नीतिकार संस्कृत को “लौकिक” कह कर निंदा करते रहे। यास्क के निरुक्त में वैदिक संस्कृत से भिन्न भाषा जो आम-जनता के बीच बोल-चाल में प्रयुक्त होती थी स्थान-स्थान उसे “लोक भाषा” कहा गया है। वैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति में उन धातुओं का प्रयोग किया है जो लोक-व्यवहार में प्रचलित थे। “भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगम:कृतो भाष्यंते” अर्थात मैं भाषाई धातुओं से भाष्य लिख रहा हूँ। इससे सिद्ध है कि वैदिक संस्कृत मात्र पुरोहितों और सामंतों की भाषा थी। आम जनता के लोकव्यवहार में लोकिक संस्कृत का प्रयोग होता था। संस्कृत वैदिक संस्कृत की तरह केवल धार्मिक नहीं रही उसमें जनरंजन और और लोकवृत्तों का भी उपयोग हुआ। प्राचीन संस्कृत में तो कई नाटक ऐसे मिलते है जिसमें आम जन जीवन का जीवंत वर्णन है। यही नहीं कहीं-कहीं तो वैदिक संस्कृत की स्थापित परम्पराओं का खुल कर विरोध भी किया गया है। इस दृष्टि से शूद्रक का “मृच्छकटिकम” उल्लेखनीय है। इस नाटक में नायक किसी राजा-महाराजा को न बना कर एक आम गरीब ब्राह्मण ‘चारुदत्त’ को बनाया गया है और नायिका एक सामान्य सी वेश्या ‘बसंतसेना’ को बनाया गया है। पतंजलि के महाभाष्य में तत्कालीन मुहावरों का उल्लेख आया है जो आज भी हिंदी की लोक-भाषाओँ में प्रचलित है। जैसे “पृष्ठ कुरु पादौ कुरु” का हूबहू भोजपुरी अनुवाद “गोडों कईली मूड़ों कईली” जैसा मुहावरा मिलता है। प्राचीन संस्कृत के ऐसे तमाम वाक्य-खंड आज भी लोक-जीवन में प्रचलित मिल जाते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि वैदिक संस्कृत जब अभिजन वर्ग की भाषा थी तो लौकिक संस्कृत आम जन जीवन में रच-बस गयी थी। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत के आचार्यों ने लौकिक संस्कृत को कमतर करके आँका है।
प्राकृत की बड़ी विशेषता यह रही कि इसने भौगोलिक आधार पर अपना विकास किया। प्राकृत के सारे भेद भौगोलिक ही रहे। विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर इसके उपभेदों का नामकरण हुआ। यही प्रवृत्ति अपभ्रंसों और आधुनिक हिंदी बोलियों की भी रही। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत का ही परिष्कृत रूप है। एक ही समय दोनों अलग-अलग वर्गों के बीच लोकप्रिय रहीं। जिस समय प्राकृत लोक से दूर हट रही थी उसी समय अपभ्रंस लोक-भाषा का स्थान ले रही थी। चूंकि अपभ्रंस प्राकृत की अपेक्षा अधिक सुगठित थी, सहज थी, इसलिए आम जीवन की भाषा बनने में इसे समय नहीं लगा। यह भाषा साहित्य में भी धार्मिक कल्पनाओं की अपेक्षा लोक-जीवन के अधिक निकट रही इसलिए संस्कृत के अपभ्रंस को अधिक संकुचित दृष्टि से मूल्यांकित किया। जब भी अभिजन सत्ता के विरुद्ध कोई लोक आन्दोलन खड़ा होता है तो अभिजन इसे अपने वर्चस्व के विरुद्ध खतरा ही समझता है। यह अभिजन का वर्ग-चरित्र है। अपनी सत्ता को बरक़रार रखने के लिए अभिजन लोक के खिलाफ तमाम तरह की साज़िसें और दुष्प्रचार करता है। संस्कृत के विरुद्ध और समान्तर लोक-भाषाओँ का उभारना संस्कृत आचार्यों को रास नहीं आया अत: प्राकृत व अपभ्रंस की निंदा करना कोई नई बात नहीं थी। आज भी अभिजन के इस वर्ग-चरित्र को देखा जा सकता है।
अपभ्रंस में लगभग वही ध्वनियाँ थीं जो प्राकृत और संस्कृत में प्रयुक्त होतीं थी। स्वरों का अनुनासिक रूप भी बिलकुल संस्कृत और पालि जैसा था। फिर भी कुछ बातों की समानता रखते हुए भी अपभ्रंस संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर निकल गयी। वह प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा आधुनिक भाषाओँ के अधिक निकट चली गयी। संस्कृत और पालि संयोगात्मकभाषा रही लेकिन अपभ्रंस वियोगात्मक भाषा थी। इसका यह लक्षण हिंदी ने पूर्ण रूप से अंगीकार कर लिया। अपभ्रंस में नपुंसक लिंग लगभग लुप्त हो चला और हिंदी तक आते-आते विलुप्त हो गया। अपभ्रंस की बहुत सी विशेषताएं हैं जो हिंदी में यथावत विद्यमान हैं। इसलिए अपभ्रंस प्राचीन भाषाओँ की अपेक्षा हिंदी के अधिक निकट है। सातवीं शताब्दी से ही अपभ्रंस को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी थी। १०वीं सदी तक अपभ्रंस का परिष्कृत स्वरूप सामने आया। अपभ्रंस का विशाल साहित्य-भण्डार इसी परिनिष्ठित भाषा में लिखा गया। १० वीं सदी में ही जब अपभ्रंस रूढ़ हो चली और तमाम नियमों, उपनियमों में आबद्ध होने लगी तो यह भी जनसामान्य से दूर हटने लगी। अपभ्रंस में भी जादू-टोना, झाड-फूंक, तंत्र-मंत्र, अश्लीलता, साधना का कुरुचिपूर्ण लोकविरोधी साहित्य लिखा गया। आदिकाल का सिद्ध साहित्य और सरहपा का का लेखन इसका बड़ा उदाहरण है। अपभ्रंस के इस रूप में आते ही लोक ने जिस देश –भाषा का विकास किया उसी देशभाषा में आधुनिक हिंदी भाषा के सूत्र मिल जाते हैं।
“एक थाल मोती भरा, सबके सर पर औंधा धरा,
चारों और वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।”
यह तत्कालीन लोक की भाषा थी जिसे अमीर खुसरो ने अपनी कविता में उतारा। इस भाषा को हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी कह सकते हैं, जिसकी यात्रा अमीर खुसरो से आरम्भ हो कर आज खड़ी बोली मानक हिंदी में समाप्त हुई। यह यात्रा किसी कवि की देन नहीं है वरन लोक की उस परंपरा की देन है जो अनंत काल तक अपने ह्रदय में सामासिक संस्कृति को समाहित किये रही और जब अपने अनुकूल अवसर देखा तो लोक ने ही हिंदी की जातीय भाषा के रूप में इस हिन्दुस्तानी को प्रतिष्ठित कर दिया।
कहानीकार हरनोट जी |
केशव तिवारी |
मोबाईल- 09838610776
बेहतर भविष्य के नाम पर पूँजीवाद और उदारवाद का जो तिलिस्म हमारे देश में खड़ा किया गया अब उसकी पोल खुलने लगी है. इसके परिणामस्वरूप किसान आत्महत्याओं की तरफ अग्रसर हुए हैं. कर्मचारियों की नौकरियाँ खतरे में है और बेरोजगारों को रोजगार देने के नाम पर भयावह शोषण किया जा रहा है. साहित्यकारों ने वास्तविकता की जमीन पर खड़े हो कर इसका सशक्त विरोध कर अपनी जनपक्षधरता स्पष्ट कर दी है. राजकुमार राकेश ऐसी ही प्रतिबद्धता वाले कहानीकार हैं जो अपनी रचनाओं के मार्फत आम जनता के साथ खड़े हैं. अभी हाल ही में राकेश का एक नया कहानी संग्रह ‘एडवांस स्टडी’ प्रकाशित हुआ है. इस पर पहली बार के लिए एक समीक्षा लिखी है आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने. तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.
एडवांस स्टडी – नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग
उमाशंकर सिंह परमार
रहता है हमारे पास