हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ

हरीश चन्द्र पाण्डे आज सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि अपने-आप में एक मुकम्मल पता है. चुपचाप सृजनरत हरीश जी अपनी कविताओं में ऐसे अछूते विषयों को उठाते हैं जिससे गुजर कर लगता है अरे यह तो हमारे घर-परिवार या आस-पास का जीवन, समस्या या अनुभूति है. फिर हम उनकी कविताओं में अनायास ही बहते जाते हैं. अभी हाल ही में पहल-96 में हरीश जी की बेजोड़ कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. पहली बार के लिए इन कविताओं को अपनी एक टिप्पणी के साथ भेजा युवा कवि शिवानन्द मिश्र ने जिसे हम यहाँ पर जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं   

‘एक बुरुँश कहीं खिलता है’, भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं’ और ‘असहमति’ जैसे काव्य संग्रहों के रचनाकार वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. उनकी कविताओं में भावनाएँ छल-छल करती बहती हैं. हम उनकी हाल की लिखी कविताओं से गुजरते हुए, मानव मन के कोमल पक्ष के साथ-साथ यथार्थ के उस कड़वे सच से भी दो-चार होते हैं जिससे हम कहीं न कहीं मुंह मोड़ लेते हैं. वही कड़वा सच जब हमारे समक्ष अपना भयावह रूप ले कर खड़ा होता है तब हमारे पास उससे बचने का कोई विकल्प नहीं होता. कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ हमारे लिए भविष्य के प्रति एक चेतावनी तो हैं ही, साथ ही कहीं न कहीं ये हमें सजग और सचेत भी करती हैं. ‘सहेलियां’ कविता में घर पर मिलने आई बेटी की सहेलियों का अपनापन, उनका चहकना, पुराने दिनों को याद करते हुए भावनाओं के ज्वार में डूबना-उतराना देख कर हरीश चन्द्र पाण्डे जी कहते हैं, “जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं/ पखेरू चहकने लगे हैं/ किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं/ खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे/ संसार के सारे कलुष धुल गए हों………..वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं/ उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू/ भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा………….. ये सब सजो लेंगी इन पलों को/ हम समो लेंगे” फिर कैसे भयावह समय में हम जी रहे हैं उसकी तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं,  ”यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा/ एसिड की बोतल खरीद रहा है…..” ‘कछार-कथा’, आदमी को अपनी हद में रहने की नसीहत देती है. लेकिन क्या करें उन लोगों का…..”जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे/ कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर/ कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर/ पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी/ और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर/ उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी/ और आदमियों से कहा ये लो जमीन” कछार में बस जाना इतना आसान भी तो नहीं था. लोग डरे भी थे मगर वाह रे भ्रष्ट ‘तंत्र’ “ढेर सारे घर बने कछार में/ तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए/ लंबे-चौड़े-भव्य” और “कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब” “पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना/ उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से/….हरहराकर चला आया घरों के भीतर” और इस अफरातफरी में भी हरीश चन्द्र पाण्डे की ही नजर है जो ढूंढ़ रही है…….” जाने उन बिंदियों का क्या होगा/ जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां”

सार्वजनिक नल 
इस नल में 
घंटों से यूं ही पानी बह रहा है 
बहाव की एक ही लय है एक ही ध्वनि 
और सततता भी ऐसी कि 
ध्वनि एक धुन हो गई है 
बरबादी का भी अपना एक संगीत हुआ करता है 
ढीली पेंचों के अपने-अपने रिसाव हैं 
अधिक कसाव से फेल हो गई चूड़ियों के अपने 
सुबह-शाम के बहाव तो चिड़ियों की चहचहाहट में डूब जाते हैं 
पर रात की टपकन तक सुनाई पड़ती है 
पहले मेरी नींद मे सुराख कर देती थी यह टपकन 
अब यही मेरी ठपकी बन गई है 
मैं अब इस टपकन के साये में सोने लगा हूँ 
हाल अब यह है 
जैसे ही बंद होती है टपकन 
मेरी नींद खुल जाती है…


उत्खनन


केवल सभ्यताएँ नहीं मिलती

उत्खनन में सभ्यताओं के कटे हाथ भी मिलते हैं 

आप इतिहास में दर्ज एक कलात्मक मूंठ को ढूँढने निकलते हैं

उसकी जगह कलम किया हुआ सिर मिलता है

चाहे से, न चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी

यह बिल्कुल संभव है कि कभी

गांधी को अपने तरीके से खोजने निकले लोगों के हाथ

चश्मे के एक जोड़े के पहले

कटी छातियों के जोड़ियों से मिलें

शायद ही कोई बता पाए

ये इधर से उधर भागती स्त्रियों के हैं

या उधर से इधर भागती

और शायद ही मिले चीख पुकारों का संग्रहालय ‘

मिलेगा तो कोई यह कहते हुए मिलेगा पीछे मुड़ते हुए

कि बर्बरों को फांसी पर लटका दिया गया है

और वह भी इस वजन से कहेगा

जैसे मंशाओं को फांसी पर लटका दिया गया है

उत्खनन में मंशाओं की बड़ी भूमिका होती है


सहेलियां 

आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है 
सहेलियां घर पर आएंगी 

खाना होगा 
गपशप होगी खूब 

चीजें तरतीब पा रही हैं 
ओने-कोने साफ हो रहे हैं 
खुद की भी सँवार हो रही है 
पिता तक पहुँचती आवाज में माँ से कह रही है
-यही पहन कर न आ जाना बाहर 

नोयडा से रुचि आई है 
बैंग्लोर से आयशा 
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु 
सरोजनी से दिव्या 

शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर ….

… …ग्यारह बजे आ जाना था उन्हें 
बारह बज गए हैं 
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए 

वे शायद आ रही हैं 
मोड़ की उस ओर जहां आंखें नहीं पहुंच रहीं 
आवाजों का एक बवंडर आ रहा है 

 हाँ, वे आ गई हैं 
कॉल बेल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका 
गेट का दरवाजा पीट रही हैं थप-थप-थप्प 
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है 

अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है 

वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं 
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे 
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक आर्केस्ट्रा बज रहा है 
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से 

वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं 
धम्म- धम्म- धम्म सोफों पर ऐसे गिर रही हैं 
जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं

 थोड़ा ठंडा-वंडा 
थोड़ा चाय-बिस्कुट 
थोड़े गिले-शिकवे…

और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं 
एक ग्रुप फोटो के साथ…. 
वे कॉलेज के अंतिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी 
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए 
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से 
साड़ी कुछ मां ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी 
ऊपर कंधे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर 

 एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है 
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले 
कई बार गिरते-गिरते बची है 
तीसरी खुद को कम 
देखने वालों को अधिक देख रही है 
मरी-मरी जा रही है 
भरी-भरी जा रही है 

कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुंभ लगा है 
वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं 
उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू 
भीतर ही मंझधार हैं भीतर ही किनारा 

वे उचक-उचक कर चहक रही हैं 
चहक-चहक कर मंद हो रही हैं

 ….अब उनकी बातों की जद में सहपाठिनें हैं 
वे चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जो 
और वे दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में 
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं 

अभी यह कमरा कमरा नहीं 
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है 

…..धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है 
अब एक बार में एक स्वर मुखर है 
अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें 
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लंबी सुरंग में प्रवेश कर गई है
 ….चुप्प 
और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं 
पखेरू चहकने लगे हैं 
किसी ने मोती की लड़ियां तोड़ कर बिखेर दी हैं 
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे 
संसार के सारे कलुष धुल गए हों 

भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं 
ये सब सजो लेंगी इन पलों को 
हम समो लेंगे 

…..समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं 

अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं 
इस छोर पर एक मां कई बेटियों को विदा कर रही है 
उस छोर पर कई मांएं आंखें बिछए खड़ी हैं 

यहीं कहीं एक लड़्का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा 
एसिड की बोतल खरीद रहा है….. 

कछार-कथा 

कछारों ने कहा 
हमें भी बस्तियां बना लो …
जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया 

लोग थे 
जो कब से आंखों में दो-एक कमरे लिये घूम रहे थे 
कितने-कितने घर बदल चुके थे फौरी नोटिसों पर 
कितनी-कितनी बार लौट आए थे जमीनों के टुकड़े देख-देख कर 

पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज सुनी 
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आंखों में डूब कर 

उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी 
और आदमियों से कहा ये लो जमीन 

डरे थे लोग पहले-पहल 
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे आ गए 
बिजली वालों ने एकांत में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन 
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं 
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था
…जाओ मौज करो 

कछार एक बस्ती है अब 

ढेर सारे घर बने कछार में 
तो सिविल लाइंस में भी कुछ घर बन गए 
लंबे-चौड़े-भव्य 

यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलजार है 

बच्चे गलियों में खेल रहे हैं 
दुकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं 
डाक विभाग डाक बांट रहा है 
राशन कार्डों पर राशन मिल रहा है 
मतदाता सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं 

कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब 

पर सावन-भादो के पानी ने यह सब नहीं माना 
उसने न बिजली वालों से पूछा न जल-कल से ना नगरपालिका से न दलालों से 
….हरहराकर चला आया घरों के भीतर 

यह भी ना पूछा लोगों से 
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था 
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ 
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में 
लोगों ने चीख-चीख कर कहा, बार-बार कहा 
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है 
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ 
 अखबारों ने कहा 
जल ने हथिया लिया है थल 
अनींद ने नींद हथिया ली है 

अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय 

औरतें जिन खिड़्कियों को अवांछित नजरों से बचाने 
फटाक से बंद कर देती थीं 
लोफर पानी उन्हे धक्का देकर भीतर घुस गया है 
उनके एकांत में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है 
जाने उन बिंदियों का क्या होगा 
जो दरवाजों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहां-तहां 

पानी छत की ओर सीढ़ियों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलांगते 
न ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर …
अजगर की तरह बढ़ा 
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते 
उसकी रीढ़ चरमराते 

वह नाक, कान, मुंह, रंध्र-रंध्र से घुसा 
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते 

फिलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है 
यह चिंताओं का टीला है एक 
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है 
उऋणता के लिए छ्टपटाती आत्माओं का जमघट है 
यहां से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए 
बढ़्ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं 

वे बार-बार अपनी जमीन के अग्रीमेंट पेपर टटोल रहे हैं 
जिन्हे भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे 

(पहल-96 से साभार)

सम्पर्क 

हरीश चन्द्र पाण्डे 
मोबाईल – 09455623176

शिवानन्द मिश्र
मोबाईल – 8004905851

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

अमरकान्त जी पर शिवानन्द मिश्र का संस्मरण ‘आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!’




अमरकान्त जी हमारे लिए सिर्फ लेखक ही नहीं बल्कि हम सब के अभिभावक भी थे। हम सब उन्हें सम्मान और आत्मीयता से दादा कहते थे। वे हमसे उसी अधिकार से बातें भी करते थे जैसे घर का बुजुर्ग किया करता है। जब भी उनसे भेंट होती वे हमसे बलिया के बारे में जरुर पूछते। वे उस घर के बारे में भी जरुर पूछते जिसमें बैठ कर उन्होंने हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य की उत्कृष्ट कहानियाँ लिखीं। उनकी बातों में उनका बलिया, नगरा और भगमलपुर जरुर आता। फिर वे कविता-कहानी की बात करते कथाकार रवीन्द्र कालिया विश्व के जिन चार उत्कृष्ट कथाकारों का जिक्र करते हैं उनमें चेखव, अर्नेस्ट हेमिग्वे और मंटो के साथ अमरकान्त का नाम शामिल है। अमरकान्त जी आज हमारे बीच नहीं हैं। पिछली फरवरी हम सब के लिए क़यामत ले कर आई और दादा सत्रह विगत फरवरी को हमें अकेले छोड़ कर उस सफ़र पर निकल गए जिससे आज तक कोई भी वापस नहीं लौटा। आज उनके नवासीवें (89वें) जन्मदिन पर हम उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कथाकार शिवानन्द मिश्र का यह संस्मरण 
            
‘आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!
शिवानन्द मिश्र

                अमरकांत जी का हमारे बीच से जाना मुझे उस दिन की याद दिला गया जब मैं उनसे पहली बार मिला था। मैंने उनके प्रति लिखी कुछ पंक्तियाँ एक पन्ने पर नोट कर ली थीं। मैंने वो पन्ना अमरकांत जी को पढ़ने को दिया। उसमें लिखा था,
                वट वृक्ष सा अवलम्ब दें, हम लता सम लग बढ़ चलें।
                पारस सदृश सानिध्य से बिन ज्ञान भी प्रतिमान हम कुछ गढ़ चलें।।
                प्रतिक्रिया थी, अच्छा! ………. आपने लिखी है? देखें। एक बाल सुलभ निश्छल मुस्कान के साथ पढ़ते रहे। कहा, अच्छी है। अवलम्ब मत लीजिए, खुद आगे बढ़िए। फिर वही निश्छल मुस्कान। पंक्तियाँ अच्छी हैं मेरे लिए तो यही टिप्पणी बहुत थी। मुझे गुरूमंत्र मिल गया था। मैं खुश था। मैं बोला, लेकिन आपके स्नेह का सदा आकांक्षी रहूँगा। इस बार हंसे।
                फिर तो अमरकांत जी के नेह छॉव में जुड़ाने का अवसर सहज ही सुलभ होता रहा। मैं उनके यहाँ जब भी जाता, मुझ जैसे साधारण व्यक्ति से भी उसी आत्मीयता से मिलते, जैसे कोई अपने परिजनों से मिलता है। उनसे मिल कर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं हिंदी साहित्य के इतने बड़े हस्ताक्षर से मिल रहा हूँ जिसके सामने मेरी कोई हैंसियत नहीं। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे हर छोटे-बड़े के साथ बड़ी ही आत्मीयता के साथ मिलते थे। बड़े ही सहृदय व्यक्ति थे अमरकांत जी। सच पूछिए तो आज के दौर में ऐसे लोगों का मिलना मुश्किल है जिन्हें घमंड छू तक न गया हो।
                ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उनके यहाँ गया होऊँ और उनसे बिना मिले वापस आना हुआ हो। इस बात के लिए उनके कनिष्ठ पुत्र अरविन्द विंदु और उनकी पुत्रवधू रीता जी का सदा ऋणी रहूँगा। अमरकांत जी को जैसे ही इस बात की भनक लगती कि मैं उनके यहाँ पहुँचा हूँ, वे खुद ही अंदर से तखत और कुर्सियों का टेक लेते हुए धीरे-धीरे बैठक वाले कमरे में आ जाते। पूछते, और बताइए, क्या हाल है बलिया का? बात कुछ इस तरह से शुरू होती और फिर मेरे अंदर का पाठक, लेखक अमरकांत की रचनाओं की चर्चा करने का मोह त्याग नहीं कर पाता। मैं किसी रचना से एक दृश्य चुनता, उसके शिल्प और उसकी रचना प्रक्रिया के बारे में अपनी उत्सुकता जाहिर करता। फिर वही बाल-सुलभ निश्छल मुस्कान हृदय उपवन से ताजगी लिए आती और चेहरे पर स्पष्ट छा जाती। अब अमरकांत जी वाचक और हम स्रोता की स्थिति में होते। आँखें उनको बोलते हुए देख कर अघातीं और कान सुन कर तृप्त होते रहते। अमरकांत जी के पास स्मृतियों की अकूत सम्पदा थी। और जबर्दस्त याददास्त के मालिक थे अमरकांत जी। एक-एक घटना पूरी तफ्सील से बयान करते। इसके पीछे उनका हर छोटी-बड़ी घटना का सूक्ष्मावलोकन छिपा है। यूँ ही बात-बात में एक दिन अमरकांत जी जयदत्त पंत जी के साथ बिताए दिनों को याद कर रहे थे। जयदत्त पंत जी इलाहाबाद में ही पहाड़ी लोगों के एक लॉज में रहा करते थे और कुछ महीने अमरकांत जी ने वहाँ उनके साथ बिताए थे। वहीं एक पहाड़ी रहा करते थे खेमानन्द जोशी। उन्हीं दिनों उनकी पत्नी पहले-पहल पहाड़ से आयी थीं। वो जब चलती थीं तो उनका पैर हमेशा थोड़ा ऊपर उठ जाता था। अमरकांत जी ने इसे गौर किया और जब ये बात उन्होंने पंत जी ओर जोशी जी से बताई तो वे लोग हॅसने लगे। उन्होंने बताया कि पहाड़ों पर ऊँचे-नीचे रास्ते होते हैं और चलते समय हमेशा चढ़ना-उतरना पड़ता है, ऐसे में उनकी पत्नी को भी थोड़ा पैर उठा कर चलने की आदत पड़ गई है और अब मैदान में भी चलती हैं तो पैर थोड़ा उठ जाता है। सच्चाई चाहे जो रही हो, एक बात जरूर थी कि अमरकांत जी का अपने आसपास होने वाली हर छोटी-बड़ी बात पर बड़ा ही ‘क्लोज ऑब्जर्वेशन होता था और वे अपने लेखन में उन्हें बड़ी ही खूबसूरती के साथ पिरोते थे। अमरकांत जी ने अपनी कहानी कलाप्रेमी में सुमेर की मालती रंजन से पहली मुलाकात में मालती रंजन को प्रभावित करने की सुमेर की चेष्टाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है- पहली ही मुलाकात में उसने बीमा कंपनी के एजेंट, कमजोर शिष्य, अंग्रेजी के प्रोफेसर और सियार के गुणों का अद्भुत मिला-जुला प्रदर्शन किया। ऐसा वर्णन वही कर सकता है जिसने ऐसी मुलाकातों में मिलने वालों के हाव-भाव को गहराई से पढ़ा हो।
                हर चीज को सूक्ष्मता से देखने और उसका विस्तार से आद्योपांत वर्णन अमरकांत की खासियत थी। नामवर सिंह कहते हैं मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि कोई भी कला ब्यौरे में, डिटेल्स में होती है। अमरकांत भी उसी विस्तार में जाते हैं इनकी कहानियॉं पूरे शरीर में होती हैं।अमरकांत ने जब भी लिखा उसमें पूर्णता रखी। कुछ छूटने न पाये, इस भाव से। मजे ले-ले कर। जैसे, किसी रचना का पात्र उपवन में खड़ा है तो उपवन की खुशबू पाठक तक भी पहुँचे, इस भाव से। पात्र को कोई कांटा चुभता है तो उसकी चुभन पाठक तक भी पहुँचे। इस विस्तार में वो पात्र के मनोभावों तक पहुँचते हैं और पाठक से उसे एकाकार कराते हैं। जो पात्र सोच रहा है, पाठक सोचे, वहॉं तक पहुँचे। याद करिए ग्रामसेविका के लखना को । पॉंच साल का, बिन मॉं का बच्चा शरारत करता है और अपने पिता की मार से बचने के लिए गॉंव से दूर, तालाब किनारे छिप जाता है। फिर उसका अकेले तालाब में तैरना, पीपल की डाल पर बैठ कर बेवजह पैर हिला-हिला कर खुशी प्रकट करना। लेखक पूरे तफ्सील में जा कर पात्रों की हर छोटी-बड़ी गतिविधियों के माध्यम से पात्र की सोच और मनोदशा से पाठक को एकाकार कराता है।
                ऐसी कितनी ही अनौपचारिक मुलाकातों में मुझे अमरकांत जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है। मसलन, एक बार मैंने अमरकांत जी के उपन्यासों पर कुछ लिखा था और जब उन्हें पढ़ने को दिया तो उन्होंने हंसते हुए कहा, आपने तो इसमें मेरे लिये बहुत अच्छा-अच्छा लिख दिया है। मैंने कहा, ये जो कुछ भी लिखा है, श्रद्धावश है और मैं आलोचनात्मक नहीं हो पाया हूँ। बड़ी ही बेबाकी से उन्होंने कहा,  कोई भी चीज श्रद्धा या घृणा से नहीं लिखी जा सकती। उसके लिए निष्पक्ष होना पड़ता है। ये सारे सूत्रवाक्य मैंने आज भी गाँठ बांध कर रखे हैं। एक बार उन्होंने पूछा था मुझसे कि कब लिखते हो? मैंने कहा जब मूड होता है तभी लिखता हूँ। डाँटते हुए उन्होंने कहा था, मूड का क्या है? मूड तो बनाने से बनता है। मैंने जिंदगी और ज़ोंक और डिप्टी कलक्टरी’ जैसी  कहानियाँ बलिया में अपने बैठक के कमरे में खिड़की के पास चारपाई पर बैठे-बैठे लिखी है। खिड़कीबाहर बरामदे में खुलती थी जहाँ मेरे पिता जी मुवक्किलों से बात करते थे। बाहर शोर-शराबा होता रहता था और मैं अंदर बैठ कर लिखता था। जब शोर ज्यादा होने लगता था तो मैं खिड़की अंदर से बंद कर लेता था। इतनी विपरीत परिस्थिति तो नहीं ही रहती होंगी? रोज लिखा करो। इससे प्रवाह बना रहता है। अच्छे-अच्छे शब्द सहज रूप से आते हैं। अमरकांत जी नये शब्दों के गढ़न को लेकर भी जागरूक किया करते थे। उनका कहना था कि नये शब्दों का गढ़न भी साहित्यकार की जिम्मेदारी बनती है। याद करिये –‘ जिंदगी और जोंक में मरणासन्न रजुआ के प्रति भीड़ की अकर्मण्य सहानुभूति। यहाँ ‘अकर्मण्य सहानुभूति भीड़ का चरित्र स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। एक शब्द’ और पूरी मनोदशा, सोच और वातावरण का चित्र पाठक के समक्ष साकार, ये अमरकान्त ही कर सकते हैं।
                और वैसे भी अमरकांत जी ने जो कर दिखाया वो अमरकांत ही कर सकते थे। नामवर सिंह जी के शब्दों में कहें तो वह ऐतिहासिक घटना थी जब ज्ञानपीठ पहली बार पुरस्कार देने के लिए खुद दिल्ली के तख्त से उतर कर इलाहाबाद आया। कुंआ खुद चल कर प्यासे के पास आया।
                13 मार्च 2012 की शाम मैं नहीं भूल सकता। इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में तिल रखने की जगह नहीं थी। अवसर वर्ष 2009 के ज्ञानपीठ सम्मान से अमरकांत जी को सम्मानित किए जाने का था। सभागार हिन्दी के नामचीन रचनाकारों, आलोचकों, साहित्य प्रेमियों और मीडियाकर्मियों से खचाखच भरा हुआ था। ज्यादातर लोगों को बैठने की जगह तक नहीं मिली थी लेकिन इसका मलाल किसी के चेहरे पर नहीं था। लोगों में खुशी इस बात की थी कि वे अपने प्रिय लेखक को सम्मानित होता हुआ देख रहे थे। इस अवसर पर उनकी कही बातें कई मायनों में आने वाली पीढ़ियों को सीख दे गई जैसे, पुरस्कार लेखक के लिए चुनौती है। संतोष की मंजिल नहीं है वो। बल्कि उस चुनौती को स्वीकार करते हुए अगले कदम बढ़ाने जरूरी होते हैं। पुरस्कार का यही मतलब हो सकता है एक लेखक के लिए।
                अमरकांत जी उस दिन काफी लय में थे। उन्होंने कहा कि जब मैंने लिखना शुरू किया तो अंग्रेजी का जमाना था। सारी पाठ्य पुस्तकें अंग्रेजी में थी और हिन्दी को कोई पूछने वाला नहीं था। जो हिंदी पढ़ाते थे वे भी संस्कृत पढ़ाने वाले थे और संस्कृत के ही तरीके से हिंदी पढ़ाते थे। हम लोगों ने जब लिखना शुरू किया था तो स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ हिंदी थी।
                उसी रौ में अमरकांत जी बोलते रहे, हिंदी को बड़ी हीनता की दृष्टि से देखा जाता है यहाँ पर। आप देख लीजिए अंग्रेजी के जितने अखबार हैं, इस ज्ञानपीठ पुरस्कार के बारे में कहीं चर्चा ही नहीं है। आज भी देख लीजिए शासन से लेकर हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी की उपेक्षा हो रही है। क्या हिन्दी में सोचा नहीं सोचा जाता या लिखा नहीं जाता या किताबें नहीं लिखी जाती या सिर्फ नकल ही की जाती है अंग्रेजी की? यहाँ मौलिक लेखन भी हो रहा है, मौलिक रूप से हिंदी में सोचा भी जा रहा है। बहुत तरह की किताबें भी लिखी जा रही हैं। इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए।
                ऐसी ही बेबाकी से अपनी बात रखते थे अमरकांत जी। अभी पिछले साल, दिसम्बर माह में कवि निलय उपाध्याय जी का इलाहाबाद आना हुआ था। निलय जी के साथ कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे और मैं, तीनों अमरकांत जी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे। बातों-बातों में निलम जी ने अमरकांत जी से पूछा कि, अब तो लगभग सभी साहित्यकार या तो दिल्ली चले गये या फिर इधर-उधर। एक समय था जब इलाहाबाद दिग्गज साहित्यकारों से भरा था। आप अब के इलाहाबाद को कैसे देखते है? अमरकांत जी का ठसक भरा जवाब था,  वे आज भी यहीं (इलाहाबाद) का मुँह देखते हैं!
                आज अमरकांत जी हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने पीछे जीता-जागता विशाल रचना संसार छोड़ गये हैं हमें राह दिखाने को। 
सम्पर्क-
मोबाईल  8004905851

शिवानन्द मिश्र की नववर्ष पर कविताएँ


 
शिवानन्द मिश्र युवा कवि हैं आज जब उनसे मेरा मिलना हुआ तो उन्होंने नव वर्ष पर लिखी गयी अपनी कुछ पंक्तियाँ सुनाई जिसके लिखने की शुरुआत उन्होंने वर्ष २००४ से किया था। तब से वे अनवरत नव वर्ष पर कुछ न कुछ लिखते रहे हैं। वर्ष २०१३ में शिवानन्द ने दो कविताएँ लिखी थींइन समस्त कविताओं को एक साथ प्रस्तुत करने का मेरा आशय यह था कि देखा जाय कि एक कवि अपने लेखन के प्रारम्भिक वर्षों में किस तरह अपना रचनागत विकास करता है पहली बार के सभी रचनाकारों, पाठकों और शुभेच्छुओं को नव वर्ष की बधाई एवं शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं शिवानन्द की ये कविताएँ।
   
2004

बीते दिन गये सौंप कर, कुछ खट्टे-मीठे पल  

उनसे भी अच्छा होगा, वो आने वाला पल

जो हुईं गलतियाँ फिर ना हों, ऐसा अपना प्रयास रहे

नव शिखर चढ़ें नूतन राहों, पर चलने का उल्लास रहे

निज कर्म कुशल करते जाएं, चाहे जो भी आए प्रतिफल

2005

वर दो प्रभु ऐसा कर्म करूँ, यह नया वर्ष बीते हर्षित  

उपमेय नहीं उपमान बनूँ, हों स्वजन मेरे मुझपर गर्वित

अधुनातन करने की इच्छा, मन में हो जागृत नित प्रतिपल।।
 

2006

जीवन के पथरीले पथ पर, आशाओं के कुटज उगाएं

चट्टानों पर बन कर निर्झर, बूदों के नव स्वर बिखराएं

श्रोता बन कर यह सुने प्रकृति, संगीत सजल कल-कल छ्ल-छल।।

2007

हों पूर्ण सभी इप्सित अभिष्ट, बस यही चाहता हूँ इस वर्ष  

हो सृजन विगत से भी उत्कृष्ट, आए जीवन में वह उत्कर्ष

नियति को भी अपने पाले में, करने का हो मुझमें बल।।
 

2008

है निकट लक्ष्य मत हो हताश, कहता है पथ का हर पत्थर  

मत सोच विगत कर फिर प्रयास, कुछ और सजग हो कर तत्पर

अब तम का दम घुटने को है, चहुँ बिखर रही रवि रश्मि धवल।।

2009

इस विगत नवागत समय संधि पर, सोच रहा है मन बरबस

क्या पाया और क्या खोया, सब परे हटा कर यश-अपयश

कुछ रहे साथ ना रहे मगर, विश्वास स्वयम पर रहे अटल।।

2010

कर्तव्यों के ताने बाने में, उलझा है ऐसे मन

ना जाने कितने युग बीते, कब बीता बचपन यौवन

इस उलझन में उलझ-सुलझ कर, वश में है यह मन चंचल।।

2011

हैं हाथ बधे जंजीरों में, और पाँवों में बेड़ी जकड़ी

पर देख जरा जीवट मेरा, मैंने भी है यह जिद पकड़ी

बेबस बन बैठ नहीं सकता, देखोगे मुझको सदा सचल।।

2012

सोच रहा हूँ कितने अरसे, हुए हमें छोड़े जंगल  

पलता रहा एक वहशीपन, अंतस में सबके हर पल

कैसे कह दूँ अच्छा होगा, ऐसे में आने वाला पल।।

2013

चलता ही रहेगा समय चक्र, तू रहे ना रहे अलग बात

उगता ही रहेगा सूरज नव, आते ही रहेंगे दिन ये रात

तू छाप छोड़ जा अपना कुछ, इस समय संधि के वक्षस्थल।।

2013

नहीं कोई शिकस्त नहीं खाई, मैं हार गया बस अपनों से

वो होने मुकम्मल आए थे, नहिं कोई शिकायत सपनों से

टूटे निद्रा नियति की बस, बरबस मैं बजा रहा साँकल।।

2014

कुछ इनकी सुन, कुछ उनकी सुन, सच्ची है धुन तू मन की सुन

जब लगने लगे खाली-खाली, कुछ नए-नए तू सपने बुन

साकार सृजन सरिता सुमधुर, संगीत सुनाएगी छ्ल-छ्ल।।
सम्पर्क-
मोबाईल- 08004905851

कोरे यथार्थ से नहीं बनती कहानी

                                 

बहुत दिनों बाद आज एक बार फिर ठेठ जनवादी तरीके से जलेस की गोष्ठी का आयोजन एक दिसंबर २०१३ को इलाहाबाद के नया कटरा के समया माई पार्क में किया गया। आयोजन में युवा कहानीकार शिवानन्द मिश्र ने अपनी कहानी ‘लौट आओ भईया’ का पाठ किया। इसके पश्चात् शहर के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी पर अपनी बातें रखीं।

गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि प्रो.  राजेंद्र कुमार ने कहा कि कैसे मान लिया जाए कि कहानी का काम संदेश देना है। कहानी का काम तो इशारा भर करना है कि उधर निगाह चली जाए। रही बात यथार्थ कीए तो कोरे यथार्थ से कहानी नहीं बनती इसके लिए उसमें कल्पना भी होनी चाहिए। वस्तुतः कहानी को एक ऐसे द्वार की तरह होना चाहिए जिससे होकर स्थिति विशेष का अनुभवपाठक तक पहुँचे। शिवानन्द की कहानी का अंत एक द्वंद ले कर आती है। कहानी का शीर्षक रूमानी बोध वाला है और अंत यथार्थपरक। कहानी उस विसंगति की ओर इशारा करती है कि तमाम विकास के बाद भी समाज अभी भी उसी जातिगत जकडन में ठहरा हुआ है जहाँ हम पहले थे।’लौट आओ भइया’ इसी ठहराव को शिद्दत से रेखांकित करती है। यह कहानी गाँव.समाज के उन प्रश्नों पर भी ध्यान आकृष्ट कराती है जिन्हें आज तक हल हो जाना चाहिए था। गाँव.समाज के ऐसे प्रश्न जिन्हें अब तक हल हो जाना चाहिए था, वे दुर्भाग्यवश आज भी हमारे बीच बने हुए हैं। शिवानन्द की कहानी इसी जकड़न की तरफ इशारा कराती है। कहानी का काम न तो कोई समाधान ढूँढना है न ही कोई सन्देश देना, अपितु वह आज के विडंबनाओं की तरफ इशारा कर दे तो यही उसकी सफलता है।

अपनी बात रखते हुए विचारक रामप्यारे राय ने कहा कि यह कहानी जाति व्यवस्था एवं सामंती व्यवस्था पर प्रहार तो करती ही हैए श्रमिक जीवन की पीड़ा और शोषण को भी करीने से व्यक्त करती है। जहां तक नक्सलवाद की बात है इसे समस्या की तरह देखा ही क्यों जाता है। शिवानंद की यह पहली कहानी होने के बावजूद एक पुष्ट एवं सफल कहानी है। 

चर्चित कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इस कथाकार ने छोटे.छोटे प्रसंगों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली है। लेकिन इस कहानी के शीर्षक ‘लौट आओ भइया’ पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि किसी भी रचना का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। इस कहानीकार की सोच और कथन में एक फांक नजर आती है। कहानी में जब पात्र बोलते है तो अवधी और भोजपुरी बोलियों का घालमेल देखने को मिलता है जिससे स्थानीयता को ले कर भ्रम की स्थिति बनती है। कथाकार को इसके प्रति सजग होना होगा। फिर भी इस कथाकार कि सफलता इस बात में है कि उस ने छोटे-छोटे प्रसंगों को भी बखूबी समेटा है।

युवा कवि और अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक अरुण आदित्य के अनुसार यह कहानी ‘लौट आओ भइया’ निम्न.मध्यम वर्ग के सुख.दुख का कोलाज है। यह वैचारिक आग्रहों को तुष्ट करती है। कहानी की भाषा आकर्षक है और इसमें कविता जैसी लय है। इस कहानी में विचार एवं भावनाएं तो हैं लेकिन विषय का बिखराव अधिक है। यह कहानी कुछ नया नहीं कह पाती न ही इसमें शिल्प में ही कोई नयापन दिखायी पड़ता है। नक्सलवादी बन गए पात्र के बारे में भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किन कारणों कि वजह से इस तरफ मुड़ा है। उसका जिक्र आखिर के दो पृष्ठों में आता है और समाप्त हो जाता है। यही नहीं कहानी का शीर्षक भी भ्रामक है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसके लौट आने का आह्वान किया गया है।  शिवानन्द को इस सब पहलुओं की तरफ ध्यान देना होगा।

शहर की वरिष्ठ कथाकार उर्मिला जैन ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ग्रामीण वर्ग की जद्दोजहद का इस कहानी में बेहतर चित्रण किया गया है। कहानी में पात्रों का चरित्र.चित्रण बखूबी किया गया है और इसमें प्रयुक्त देशज शब्दों का इस्तेमाल अनूठा है। शिवानन्द की कहानी में एक चित्रात्मकता भी देखने को मिलती है जो उनकी सफलता मानी जायेगी।

कथाकार नीलम शंकर ने कहा कि यह कहानी आज के विकास योजनाओं की हकीकत और अधूरेपन को व्यक्त करती है। इसके साथ साथ मुझे लगता है कि यह मूलतः विस्थापन की कहानी है। किस तरह गाँव वीरान होते जा रहे हैं और शहर आबाद होते जा रहे हैं यह इस कहानी में स्पष्टतया महसूस किया जा सकता है। कहानी में जगरदेव की चुप्पी मन के बीमार होने को प्रदर्शित करती है ना कि उस की शारीरिक अस्वस्थता को। कहानी लघु व कुटीर उद्योग के क्षरण और विकास योजनाओं के अधूरेपन को भी रेखांकित करती है। खुथ्थी का डर और दर्द का प्रयोग पहली बार देखने को मिलता है।

जन नाट्य मंच के के. के. पाण्डेय ने कहा कि जिस तरह से कहानीकार ने नक्सलवादियों की मीटिंग में बाहरी लोगों के आने का जिक्र करता है वह भ्रामक है। लगता है कि कहानीकार इस तरह की गतिविधियों के बारे में सुनी-सुनाई बातों को अपनी कहानी का आधार बनाया है। वस्तुतः ग्रामीण परिवेश वाली मीटिंग्स में सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं। शायद ही कोई इक्का .दुक्का अपरिचित इन मीटिंग्स में शामिल होता हो।

गोष्ठी के प्रारम्भ में कवि नन्दल हितैषी ने कहा कि कहानी की बुनावट और मंजरकशी अच्छी लगी। कहानी में कुछ आरोपित या प्रत्यारोपित जैसा नहीं लगता।  कहीं.कहीं कुछ वर्णन अधिक होना चाहिए था। फिर भी कहा जा सकता है कि इस  कहानी की खूबी इसकी सहजता और बोधगम्यता है।

महेंद्र राजा जैन ने  कहानी में आई कुछ कुछ भाषागत त्रुटियों की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि ये त्रुटियाँ कहानी को पढ़ते समय अवरोध पैदा करती हैं  हैं जिन्हे दूर कर लिया जाना चाहिए। इससे रचना में एक मजबूती आ जाएगी। प्रगतिशील लेखक संघ के सुरेन्द्र राही ने कहानी के वैचारिक पक्ष पर जोर डालते हुए कहा कि वैचारिकता ही किसी रचना को समृद्ध करती है और यह सुखद है कि शिवानन्द की कहानी में दिखाई पड़ती है।  कहानीकार चंद्रप्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मेरे समझ से इस कहानी का शीर्षक ‘खुत्थी’ ही होनी चाहिए क्योंकि समाज की समस्या खुत्थी ही है जो जब.तब विसंगतियों के रूप में चुभती रहती है। नवोदित रचनाकार  गायत्री सिंह ने कहा कि  कहानी में गाँव का चित्रण बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया है। साथ ही इसमें बाल मनोविज्ञान का चित्रण सहज रूप में किया गया है। कवि दीपेन्द्र सिवाच ने कहा कि कहानी में बच्चियों के साथ बनिये के मोल-भाव को गन्ना किसानों की दशा के साथ जोड़ कर देखे जाने की आवश्यकता है। साथ ही इस कहानी में यथार्थ और व्यवहार का द्वंद भी दिखायी पड़ता है। कवि हीरा लाल ने कहा कि लय को साधने में यह शिवानन्द जी की यह पहली कहानी पूरी तरह से सफल है। कहानी में अनावश्यक कम है और सार्थक बहुत है। युवा आलोचक रमाकान्त राय ने वैचारिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा कि कहानी में खुत्थी का इतना बेहतर प्रयोग मैंने पहली बार देखा है। यह खुत्थी शुरू में लड़कियों को चुभता है और अंत में यही खुत्थी उनकी माँ को चुभता है। यह चुभना स्त्रियों के साथ होता है। यह स्त्री जीवन की विडम्बना को प्रदर्शित करता है ।    

गोष्ठी में शामिल प्रमुख लोगों में अनिल सिद्धार्थ, अरिंदम घोष, संगम लाल और राजन तथा कई अन्य नये रचनाकार भी शामिल थे।

इस गोष्ठी का संचालन एवं संयोजन जनवादी लेखक संघ के सचिव संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया।

शिवानन्द मिश्र की कहानी

जिम्मेदारी महसूस करने की चीज होती है। जो इसे उठाता है वही इसके महत्व को जान-समझ सकता है। चाहें वो जिम्मेदारी घर-परिवार की हो या समाज की। शिवानन्द मिश्र एक नवोदित कहानीकार हैं और ‘लौट आओ भइया!’ इनकी पहली कहानी है। अपनी पहली ही कहानी में शिवानन्द ने यह परिचय दे दिया है कि  उनमें भविष्य का एक बेहतर कहानीकार छुपा हुआ है और वे इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। तो आईये पढ़ते हैं शिवानन्द की यह पहली कहानी 

लौट आओ भइया!
   
    सूरज को निकले कुछ ही देर हुआ था। सुबह और दोपहर के बीच का वक्त रहा होगा। सूरज की चमक तेज थी मगर दोपहर की चिलचिलाहट नहीं थी उसमें। दूर तक फैले, खुदखुदी दाढ़ी जैसे दिखते अरहर के खेतों में कटाई हुए अभी कुछ ही रोज़ हुए होंगे । ऐसे में अरहर के कटे-फटे नुकीले ठूँठ अपनी दुर्दशा कम और भभकी देते अधिक नजर आ रहे थे, कि पगडंडी छोड़ पाँव खेतों में गये नहीं, कि छिले नहीं। इन सब बातों से बेखबर दो बच्चियाँ जिनकी उमर पाँच-साल रही होगी, हवा में उड़ते सेमल के बीज के पीछे सर उठाए भाग रही थीं। रूई के फाहे सजाए बीज हवा में तैरता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरता। बच्चियाँ उसे फूँक कर ऊपर उठा देतीं। जब बीज तेजी से ऊपर जाता, बच्चियों के चेहरे की मुस्कान गहरी हो जाती। जब बीज धीरे-धीरे नीचे उतरता तो उनकी एकाग्रता देखते बनती। ऐसे ही जब एक बार बीज नीचे आया तो दोनों से चूक हुई। फाहा नीचे जमीन पर गिरने ही वाला था कि छोटी वाली ने उसे लपक कर मुठ्ठी में पकड़ लिया। बड़ी ने डांटते हुए कहा, ’’ का रे? पकड़ काहे लिया तूने ? अब ई उड़ीगा कैसे ?’’ छोटी ने मुठ्ठी खोली। फाहे के रेशे उसकी हथेली में चिपक गये थे। सहमी छोटी ने धीरे से सर उठाया। नन्हीं, बहन सी आँखों में फाहे के अब न उड़ पाने का दुःख तो था ही, एक अनजाना डर भी था कि बड़ी अब क्या करेगी?’’ सब चौपट कर दीस। चल हट्ट। अब न खेलब तोर संग।’’ बड़ी ने छोटी को धक्का दिया। छोटी खेतों के मेड़ से नीचे लड़खड़ाई। अरहर के ठूंठ से लग कर उसका पैर छिल गया। खून की कुछ बूंदें चुहचुहा आई। अब डरने की बारी बड़ी की थी। छोटी ने दहाड़े मार कर रोना शुरू कर दिया। बड़ी ने डर कर बस्ती की तरफ देखा। पास में ही सात-आठ फूस की मड़इयों और बिना पलस्तर वाले, इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत बने अधबने ईंट के मकानों की एक बस्ती है। बस्ती से ही लगी एक सड़क जाती है जो आगे जा कर गंगा पर पुल में तब्दील हो जाती है। बस्ती और घने गाँव के बीच एक प्राइमरी पाठशाला है जो इस बस्ती को गाँव से अलग होते हुए भी जोड़े हुए है। ये बच्चियाँ उसी बस्ती की थीं जो खेलते हुए खेतों तक निकल आई थीं। बड़ी ने छोटी को पुचकारते हुए कहा, ’’अरे हम जान-बूझकर थोड़े न धक्का दिये रहे। इ तो हाथ लग गवा रहा हमार। चल चुप हो जा। हम आपन हिस्सा का दाल तोका देइब …………………. अउर आपन गुडि़या से भी खेले देब।’’

    ’’हटो, तुम्हार गुडि़या भी कउनो गुडि़या है। एक तो माटी की है, ऊपर से नाक भी टूटी है ओहका। हम न खेलब तोहार गुडि़या से।’’ छोटी ने हाथ झटकते हुए प्रस्ताव को अस्विकार कर दिया। इस बीच छोटी अपने छिले हुए पैर का दर्द भूल चुकी थी। बहरहाल, बड़ी ने दाल के हिस्से पर सौदा पटा लिया था। बड़ी को अपने हिस्से में से कुछ दाल छोटी को देने थे। बदले में छोटी किसी को यह नहीं बताएगी कि उसका पैर बड़ी के धक्का देने से छिला है।

    अब दोनों बच्चियाँ पूरी तन्मयता से अरहर कटे खेतों में बिखरे अरहर के दाने बीनने लगीं। दोनों ने अपने फ्रॉक ऊपर की ओर मोड़ कर कच्छे में खंस, थैली जैसा बना लिया था और अरहर के दाने अपनी नन्ही उंगलियों से उठा कर उस अस्थाई धोकरी में डालने लगीं। सूरज की तपिस तेज होने लगी थी। दोनों के चेहरे पसीने से नहाए हुए थे। धूल सने उलझे बालों में चुनचुनाहट होने लगी थी, जिसे जब-तब, दोनों अपने हाथ की दसों उगलियों से, खुजला लिया करती थीं। कुछ देर बाद जब दोनों की थैलियों में मुठ्ठी भर अरहर के दाने हो गये, तो दोनों पास के सूखे पीपल की छाँव में आ गईं। कभी ये पीपल काफी घना हुआ करता था। बहुत सारी शाखाओं से भरा-पूरा ये पीपल, हल्की सी हवा चलने पर भी ऐसे झूमता, जैसे कोई संगीत बज रहा हो और इसकी छाँव में बैठे, मानुष-जावर सबका मन हल्का हो उठता। कुछ सालों में इसके आस-पास के पेड़ कटते चले गये और ये पीपल भी मानो उनका विछोह सह न सका हो। अब तो बस इसका मोटा सा तना और दो-एक शाखाएं ही बची हैं जिसकी ओट में दोनों, बच्चियों ने अपनी फ्रॉक से पसीने पोंछे। कुछ देर सुस्ताईं। बड़ी ने छोटी के जुंए बीने। तब तक दोपहरी घनी हो गई थी। चारों तरफ एक डरावना, भांय-भांय करता सन्नाटा पसरा था। दोनो लड़कियाँ गाँव की तरफ मुड़ीं। गाँव शुरू होने से पहले ही हरिकिशुन बनिये की दुकान पड़ती थी। हरिकिशुन बनिया अपने छोटे से किराने की दुकान के बीच में टाट पर नंग-धड़ंग, एक गमछा लपेटे हुए लेटा हुआ था। बूढ़ा शरीर, हड्डियों का ढांचा, पोपले मुंह में जहाँ-तहाँ बचे इक्का-दुक्का दाँत, अनवरत चलता मुंह, जैसे बुढ़ऊ ने मुंह में लेमनचूस ले रखा हो। ये है हरिकिशुन बनिये का व्यक्तित्व। जब दोनों बच्चियाँ दुकान पर पहुंची, हरिकिशुन दुकान के बीचोबीच बिछे टाट पर लेटा हुआ था। पोपला मुंह ऐसे खुला था जैसे बुढ्ढा मर गया हो और मक्खियाँ बिना रोक-टोक के नाक और मुंह पर अपना आधिपत्य जमाये हुए थीं। दोनों बच्चियों ने कुछ देर ये मंज़र देखा, फिर आपस में आँखों-2 में कुछ सवाल-जवाब किया। बड़ी ने गला साफ करते हुए कहा, ’’हरकुसुन बाबा!’’……………… कोई प्रतिक्रिया नहीं। उन दोनों को लगा जैसे पूरी कायनात में वही दोनो जाग रही हैं या फिर ये मक्खियाँ, जो पूरी तन्मयता से अपने कार्य में जुटी हैं। बड़ी ने अबकी जरा जोर से आवाज़ लगाई, ’’हरकुशुन बाबा, रहर लोगे? ’’हरिकिशुन कनमनाया। मुंह पर हाथ से हवा की। मक्खियों ने मैदान छोड़ा। हरिकिशुन ने बिट्ठा बना कर, तकिये की जगह रखे अंगौछे से मुंह के एक किनारे बह चले लार को पोंछा, फिर एक डंडी पर अटके गोल सीसे वाले गांधी चश्में को ठीक करते हुए, आँखें सिकोड़, उन्हें घूर कर देखा। नींद उचट जाने की खिन्नता चेहरे पर थी। नाक चढ़ाए, खीझ कर पूछा, ’’का है?’’ बड़ी ने फ्रॅाक में पोटलीनुमा बटोर कर रखे अरहर के दानों की तरफ इशारा करते हुए कहा, ’’रहर!’’
    ’’रहर?……………तो?’’
    ’’ले लो।’’
    ’’ले लो,……………..काहे ले लो? ई मुठ्ठी भर रहर का हम करबे का? पता ना इस भरी दुपहरिया में कहाँ छिछियाय रही हैं? कवने क् बिटिया हो जी तुम सब? मां-बाप मर गये का तुम्हारे? कउनो देखे वाला है कि ना?’’ बड़ी ने दाँत भींचे। छोटी ने भकुआ कर बड़ी को देखा। लड़कियों को मालूम था, बुड्ढा पहले ऐसे ही भगाता है फिर अरहर ले लेता है। और फिर फोंफी-टाफी के साथ कुछ सिक्के भी देता है। बड़ी चुप रही। दोनो वैसे ही खड़ी रहीं। तब तक हरिकिशुन लेमनचूस, मसाले, हल्दी आदि के मर्तबानों को खोलता बंद करता रहा। मर्तबानों को हल्का उछाल कर उसमें रखी चीजों को जैसे ताजा़ कर रहा हो।

    थोड़ी देर की व्यस्तता के बाद बोला ’’आज ले लेइत है। कल से मत आना। चवन्नी भर का अरहर अउर बदले में चाही कुबेर का खजाना। हुंह………………… लाओ।’’ लड़कियों के चेहरे पर चमक जागी। दोनों ने अपने फ्रॅाक में रखे अरहर के दाने बुढ़उ की तराजू में उड़ेल दिये।

    कुछ देर बाद जब दोनों उस दुकान से बाहर आईं तो दोनों के हाथ में चटपटी चूरन, फोंफी और मुठ्ठी में कुछ सिक्के थे। सूरज की तपिश ने अब भठ्ठी का रूप ले लिया था। बच्चियाँ जब बस्ती की ओर लौट चलीं, रास्ते के किनारे उगी घांस पर उचकते-पैर रखते। रास्ते में पड़ने वाले स्कूल की खिड़की से झाँक कर दोनों ने बारी-बारी एक-दूसरे का नाम पुकारा। गर्मियों की छुटिटयाँ थी। स्कूल बाहर से बंद था। खाली क्लास रूम में आवाज़ टकरा कर दुबारा सुनाई दे रही थी। इस खेल का मजा ले कर दोनों घर चलीं।

    उन दोनों के लिए दिन की शुरूआत जितनी अच्छी थी, शायद अब उसमें पसंद न आने वाला मोड़ पूर्व निर्धारित था। जब वो घर के दरवाजे पर पहुंचीं, उन्हें अपनी माँ की तेज़-चिड़चिड़ी आवाज़ सुनाई पड़ी, जो किसी बात को ले कर इन दोनों से बड़ी लगभग 12-13 साल की एक लड़की पर बरस रही थी, ’’एतने शान रहा, तो कउनो रजवाड़ा के घर पैदा होती, छिनाल! कुम्हार के घर पैदा हो कर बाम्हन-ठाकुर से मुकबिला?’’ जूठन बो तमतमाए मुंह से दाँत पीसे अपनी बड़ी लड़की पर बरस रही थी। बीच-बीच में कटोरी से पानी ले कर सिलबट्टे पर रखे मसालों में डालती, फिर हड़बड़-हड़बड़, झल्लाते हुए दो-चार बार उसे बट्टे से पीसती। दुबली-पतली, कृषकाय, हड्डियों का ढांचा, जिसे जिंदगी ने जिम्मेदारियों के सिलबट्टे पर आँसुओं संग पीस दिया हो और अब जैसे उसकी सिठ्ठी बची हो, जूठन बो दिखती है।

    यूँ तो गिनने को घर में कई मुंडियाँ हैं लेकिन अर्थोपार्जन में जूठन बो और बड़ी लड़की का ही योगदान रहता है। जूठन के बाबूजी कभी राजमिस्त्री का काम करते थे, अब झेलंगा बंसखट पर लेटे, खांसते रहते हैं और मूक दर्शक बने घर के कलह के पाषाण-साक्षी बन रहते हैं। 60-70 साल की आयु शय्यासीन हो, अंत समय की प्रतीक्षा की नहीं होती। ये तो जगरदेव के जन्म के साथ ही हर चीज़ में कटौती एक अपरिहार्यता सी बन गयी हो जैसे, बचपन में माँ के असमय गुज़र जाने से लड़कपन में कटौती, बाप के साथ काम पर गया तो मजूरी में कटौती, दिन रात बिना आराम खटते-खटते अब उमर में कटौती। जगरदेव की बीमारी का पता नहीं। पता भी तब चलता जब किसी डाक्टर वैद्य के पास जाते। जब कभी ऐसी बात आती कि जगरदेव को किसी डाक्टर को दिखाया जाए, तो जूठन हर बार यही कहते, ’’हम तो कब से कह रहे हैं बाबू से कि चलो सदर हास्पिटल तुमका दिखाय लाइत है, दवा दिला देइत है, लेकिन बाबू हैं कि चलने का नामै नहीं लेते। अब इनसे इस उमर में ज़ोर जबरदस्ती तो किहा नै जा सकत न?’ जगरदेव चुप्प, छप्पर निहारते रहते। जगरदेव कभी इतने चुप नहीं रहे। पहले जब काम पर होते तो हाथ के साथ-साथ जबान भी सारा दिन चलती रहती। एक-एक ईंट, करनी-बंसुली के सहारे चुनते जाते और साथ के हेल्फर-मजूर इनकी बातों का रस लेते जाते। जगरदेव मकान गढ़ने में ही नहीं, बात गढ़ने में भी उतने ही माहिर थे। अपने अनुभव के गारे मसाले से वे जाने कितनी गूढ़ बातें कह जाते। इन्हीं सब बातों की वज़ह से कभी जगरदेव को मजूरों की कमी नहीं महसूस हुई। कटिया-दंवरी के समय भी इनकी बात पर मजूर-जन सब छोड़-छाड़ कर इनके साथ हमेशा खड़े रहते थे। थोड़ा बहुत खेत जगरदेव के पुरखे भी छोड़ गये थे, लेकिन उतना नहीं जिससे कि घर के सारे प्राणियों का साल भर का खर्चा चल सके। सो, खेत हमेशा अधिया-बटइया ही रहा जिसमें तुरहे सब्जियाँ उगाया करते थे। खैर, जब कभी जगरदेव काम पर नहीं जा पाते, मजूर-जन शाम को इनसे आ कर कहते जरूर, ’’मजा नै आवा तुम्हरे बिन चाचा। कसम से, काम में मने नहीं लगा रचिको।’’ वक्त की मार! जगरदेव ने अथक परिश्रम किया, लेकिन अपने बेटे जूठन को कभी काम पर ले जाने के पक्षधर नहीं रहे। ये उनकी हार्दिक इच्छा थी कि बेटा पढ़-लिख कर काबिल बने, उनकी तरह ईंट-गारे में जिनगी न बरबाद करे। लेकिन जूठन को नहीं पढ़ना था, नहीं पढ़े। घर से जाते पढ़ने, खेल-कूद कर चले आते। जब ये बात जगरदेव को पता चली तो बेमन से उन्होंने जूठन की पढ़ाई छुड़वा दी। उजियार गाँव के उपधिया जी जगरदेव को बहुत मानते थे। उनसे हथजोरी-बिनती कर के उन्होंने जूठन को उनके स्टीमर घाठ पर लगवा दिया। लेकिन जिसे हरामखोरी की लत लग जाए, उससे सृष्टि के रचइता ब्रह़मा भी काम नहीं ले सकते। जूठन वहाँ से भी भाग खड़े हुए। ये सोचकर कि, जिम्मेदारियों से भागते जूठन के पाँव में अब बेडि़याँ डाल दी जाय, जगरदेव ने जूठन की शादी करा दी। इसके महीने दो महीने बाद ही, जगरदेव बो भी नाती-पोता खेलाने की आस लिए चल बसीं। तभी से जगरदेव चुप से रहने लगे थे। इस बीच अच्छा ये रहा कि जूठन की भागदौड़ बन्द हो गई और वो अपने पिता के साथ अनियमित रूप से राजमिस्त्री का काम करने लगे। इधर काम की निरंतरता ने जगरदेव को तोड़ कर रख दिया। अक्सर बीमार रहते हुए आखिरकार उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। जूठन का भी काम पर जाना बन्द हो गया। ऐसे में जूठन बो ने घर संभालने के लिए घर से बाहर कदम रखा। आस-पास के बड़े घरों में चौका-बासन का काम शुरू किया। अब जूठन के निठल्लेपन को और उन्मुक्तता मिल चुकी थी। इस घटनाक्रम ने दो बातों को अप्रत्यक्ष रूप से जन्म दिया, एक तो जूठन बो का चिड़चिड़ापन और दूसरा, खाट पर पड़े जगरदेव की चुप्पी। अब कुछ बातों ने इस घर में नियमित दिनचर्या का रूप ले लिया था। जूठन बो का मुंह अंधेरे घर से काम पर जाना, वापस आ कर बच्चों पर बड़बड़ाते-झल्लाते अपनी भड़ास निकालना, जगरदेव का खाट पर पड़े-पड़े खांसना, जूठन का दबे पाँव चोरों की तरह घर आना, खीसें निपोर, झेंपी हंसी हंसते हुए बीबी की पटकी हुई थाली से जैसे-तैसे कुछ उदरस्थ करना और उसी तरह दबे पाँव चोरों की तरह वापस लौट जाना।

    आज भी जूठन बो का चिल्लाना और जगरदेव का खाट पर पड़े-पड़े खांसना उसी दिनचर्या का हिस्सा था। हुआ ये था कि कल पड़ोस के पाण्डेय जी के यहाँ उनकी बिटिया का जन्मदिन था और उसने जूठन बो की बड़ी बेटी बबली से भी शाम को आने के लिए बोला, लेकिन बबली ने हाँ या ना कुछ भी नहीं कहा और घर चली गई। बात तो तिल बराबर की थी कि एक ने बुलाया और दूसरा नहीं गया मगर जहाँ अहम् को ठेस पहुंचे, वहाँ तिल का ताड़ बनते कब देर लगती है। पाण्डे जी की बिटिया को बात लग गई। जरा सी नौकरानी और बुलाने पर न आए। चलो आए-न-आए, वज़ह तो बताए। कोई बहाना ही बना दे तो चलेगा। यहाँ तो उसने उस बुलावे पर, जो आग्रह या आदेश जो भी रहा हो, कान ही नहीं धरे।

    सारी तैयारियाँ हो गई, मेहमान भी आ गये। पाण्डे जी की बिटिया ने अपने कमरे से बाहर निकलने से इन्कार कर दिया। वज़ह? जब तक बबली आ कर मेरे तिरस्कार के लिए माफी नहीं मांग लेती, मैं अपने कमरे से बाहर नहीं निकलुंगी।’ जूठन बो को दौड़ कर अपने घर अपने घर जाना पड़ा।, और बड़ी देर बाद जब जूठन बो पसीने में तर-ब-तर वापस लौटी, उनके साथ नतमस्तक बबली थी जो दरवाजे पर खड़ी जमीन ताक रही थी।’’ जा माफी मांग ले।’’…………’’ …………..’’’  कुछ देर स्तब्धता में बीतें। ’’अब जा भी!’’ ’’अजीब लड़की है।’’ इधर बबली के पैरों के आस-पास की जमीन पर कुद बूंदें गिरीं। ’’अरे! रो रही है बदमास! ……….. उधर सोना जइसन लड़की के मन को ठेस पहुंचा के ई तमासा?’’  ’’चल सीधी तरह, चलकर माफी मांग बेचारी से। आज ओकर जन्मदिन है अउर अइसन दुःख दिहिस तू ओके।’’

    बबली गई अंदर, ’’चलो संध्या दीदी हम आइ गएन हैं!’’ इतना कह फफक कर रो पड़ी बबली।
    पाण्डे जी के घर कथा का यह अध्याय तो समाप्त हो गया लेकिन उसका अगला अंक जूठन बो के यहाँ आज जारी था। आज बबली पाण्डे जी के यहाँ बर्तन मांजने नहीं गई। हार कर, जूठन बो को जाना पड़ा उनके यहाँ चौका-बासन करने। ’’आज बबली के तबियत कुछ ठीक नै न!’’ जूठन बो ने बहाना बनाया। और घर आ कर बेटी पर भड़ास उतारना शुरू किया। ’’केतनी बार समझावा, कुछ तौर तरीका सीख ले अबहिने से। बड़कवों का कान मत काट। इज्जत-बेइज्जत का कुछ ख्याल कर। मगर ई महारानी हैं कि हमार नाक कटावे पर तुली हैं।’’ ’’नाक कटावे पर तुली है? अरे काम करते हैं तो मजूरी मिलती है। कौनो गुलाम हैं का हम उनके, जो उनकी बोली-कुबोली भी सुनते रहें और उनके बुलावें पर भी जांय। बड़कवा होंगे अपने घर के।’’ बबली के इस बोल ने बुझ चली आग पर सूखी घास का काम किया और जूठन बो की क्रोधाग्नि भड़क उठी। जूठन बो ने पास रखी कटोरी, जिसमें से पानी ले कर मसाले में डाल रही थी, चला कर बबली को दे मारा। कटोरी पहले बबली को लगी, फिर दरवाजे से होते हुए घर के बाहर चली गई। इसी बीच इन दोनों बच्चियों का घर में आना हुआ। दोनों सहमी सी कभी एक दूसरे को देखती, तो कभी अपनी माँ को, जो अभी भी गुस्से से हाँफ रही थी और धारा प्रवाह बबली को गालियाँ दिये जा रही थी।

    जगरदेव की खांसी बढ़ी। झल्लाई जूठन बो का ध्यान बटा, ’’मरियो जाते, जान छूटत। जाने कहवां का पाप भोग रही हूँ। हर तरफ से ई सब हमका मार डाले पर तुले हैं।’’ फिर बैठे-बैठे भोकार पार कर रोने लगी। कुद देर रोने के बाद, वैसे ही बैठी शून्य में ताकती रही।

    इस बीच बड़ी, बाहर से जा कर माँ की फेंकी कटोरी ले आई। सिलबट्टे पर पिसे-अधपिसे मसाले को उठाया और चूल्हा सुलगा, सब्जी भूंज-भांज कर कड़ाही में पानी डाल, छिपुली से ढॅंक दिया। माँ के पास आ कर बोली, ’सब्जी थोड़ी देर में बन जाए तो उतार देना। आँटा गूंथ कर रख दिया है, रोटी सेंक देना।’’

    बबली अपनी दोनों छोटी बहनों को ले कर सरकारी नलके पर नहाने चली गई। जब तीनों वापस लौटीं, खाना बन गया था। सब ने खाना खाया और जूठन बो अपनी तीनों बेटियों के साथ जमीन पर कथरी बिछा कर सो गई। कथरी पर लेटी जूठन बो के कानों में बबली की कही बात गूंज रही थी, ’’अरे काम करते हैं तो मजूरी मिलती है। कौनो गुलाम हैं का हम उनके, जो उनकी बोली कुबोली भी सुनें और उनके बुलावे पर भी जाएं।’’ ’ठीक ही तो कहती हैं बबली। आज ई कुम्हार की बिटिया न हो कर कवनो बाम्हन-ठाकुर की बिटिया होत, तो का केहू अइसे बोल के निकल जात?’’ ’’जूठन बो ने सोचा, ’मैंने अनायास ही इस पर हाथ उठाया, अलबत्ता ई मुंहफट हुई जा रही है, सो उमर ही अइसी है, का करे कोई? धीरे-धीरे मरियादा सीख जाएगी, एही में तिरिया का गुजर है।’ जूठन बो ने पास लेटी बबली के चेहरे पर आ गई लटों को हटा कर दुलार से उसके सर पर हाथ फेरा।

    ’’अइसने उमस भरा गर्मी के दिन रहा तब। जइसे काल्हे के बात होय।’’
    जूठन बो ने करवट बदलते हुए सोचा, ’’एहका बड़ा भाई भी तो अइसने बात करत रहा। आपन हक के बात, समाज मां बराबरी के बात। तब सांझ होते बिसेसर के दुआर पर मोहल्ला के सब मरद जुट जात रहेन, फिर जाने कवन खुसुर-फुसुर होत रहा उन लोगन माँ। अजीब उमस आ बेचैनी रही मउसम में। तब जाने कहाँ-कहाँ से अनजान मनई आवत रहेन बिसेसर के दुउरे, जिनका इ आपन दूर का रिश्तेदार बतावत रहा, सबसे। फिर उहाँ घंटन बैठकी जमी रहती थी लमटेन की बेमरिही बीमार रौशनी में। हम आपन राजू का खोजत जब पहुंचत रहे ओहर, तो सब चुप होइ जात रहने, हठाते। फिर एक दिन अइसही संझा का जो निकला हमार लाल लौट के नै आवा अबहिन तक। लोग कहत हैं, नक्सलैट होई गवा है हमार रजुआ।’’ जूठन बो ने डबडबा आई आँखों को आँचल से पोंछा और बबली की तरफ करवट बदली।

    दिन ढले आँख खुली सबकी। मुंडेरों से होते हुए सूरज पेड़ों के पीछे जा छिपा था। परछाइयाँ लम्बी हो चली थीं। मुंह हाथ धोकर माँ-बेटी अपने-अपने काम पर चली गईं। दोनो बच्चियाँ फिर निकल गईं खेलने। रह गये जगरदेव, एक-टक छप्पर निहारते। जाने क्या छुपा था वहाँ। घंटों नज़र वहीं टिकी रहती।

    शाम तक जगरदेव का कुनबा लौट आया था घर। चूल्हा सुलगा, धुँआ उठा, ढिबरी जली, खटर-पटर, ठक्क-छन्न………… फिर एक-एक करके सबके आगे थाली परसी गई। क्षुधा-पूर्ति कर सबने अपनी खाट, अपने बिछावन डाले और पड़ रहे आँगन-ओसारे।

अभी पहली ही झपकी लगी थी कि गली में कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आई। जगरदेवे खांसे। कुछ देरे टोह लेते रहे फिर करवट बदली। थोड़ी देर बाद दरवाजे की सांगल बजी। ’इतनी रात गए?’ मन में कुछ सवाल-जवाब के साथ जूठन बो अपनी चारपाई से उठीं। दरवाजा आधा ही खोला था कि कोई मुंह ढके तेजी से घर में घुसा और दरवाजा अंदर से बंद कर जड़वत खड़ी जूठन बो से धीरे से बोला, ’’माई। हम हईं राजू।’’ इतना सुनना था कि जूठन बो के मुंह से सिकारी सी निकली, ’’कहाँ चले गये रहे मोर लाल? अइसन जुलुम काहे किये अपनी माई पर?’ ’’आने वाले ने जूठन बो के मुंह पर हाथ रखा और बांह पकड़ कर आँगन से अंदर को ले चला। ’’कौन है बबली की माई?’’ जूठन ने दबी जबान में पूछा, ’’रजुआ है का?’’

    ’’चुप रहो! जब जान ही गए हो तो तिखार काहे रहे हो? रात के अंधेरे में अपने ही घर मुंह ढक कर आने वाला जूठन का बेटा राजू था।’’ चल बैठ, सब्जी बचल है अउर एक-दो रोटी भी होगी। खा तब तक, एक- आध रोटी अउर सेंक देइत है। हाथ-मुंह धो लें।’’ जूठन बो राजू की तरफ पीढ़ा सरकाते हुए बोली।

    ’’ना माई! खाना न खाइब। बस बबली का सुनि के चला आवा रहा। का हुआ रहा पांडे के घर? कुछ उल्टा-सीधा बोले थे इ सब बबली को?’’

    ’’अरे बच्चन का नोक-झोंक रहा, कउनों वैसी बात नहीं रही रे। सब बीत गवा, जवन भवा रहा। अब सब ठीक है।’’

    ’’कैसे ठीक है? हम कित्ती बार समझाए रहे, ई घर-घर चैका- बासन ना किया करो, लेकिन तुम सब करबो अपने मन का।’’

    ’’जब इत्ती फिकर थी तो घर छोड़कर काहे चले गए थे। झंडा उठाए। तुमको कुछ पता है कि कैसे चलता है ई घर? अउर तुम्हारे चलते कितनी परेसानी उठानी पड़ती है हम सब का। अभी परसो, पुलिस आई रही घर पर। दिन भर थाना मां बैठाए रहे हमका।’’ जूठन बोले। ’’अब चुप भी रहो, लगे कोसने इसको। आपन निठल्लापन नजर नहीं आवत। सगरी समसिया की जड़ तुम्हई हो। एतने कामकाजी रहते तो हमका पैर न निकाले पड़त घर से। बडे़ आए समझदारी अउर जिम्मेदारी समझावे वाले। ’’ फिर बेटे की तरफ दुलार से देखते हुए जूठन को बोली, ’’चल मोर भइया, कुछ खा ले। इनकी बात का बुरा नै मानत।’’

    माँ की बात का जवाब न दे कर राजू भर्राए गले से बोला, ’’बाबू तुम नहीं समझोगे, हम घर काहे छोड़े? तुम समझ ही नहीं सकते। कभी कउनो जिम्मेदारी उठाए हो? जब तक बाबा का जांगर चला, तुम्हार देख-भाल किए। जब इ खाट पर पड़ गए तब माई ने घर संभाला। तुम तो हमेसा आसरित रहे। तुम का जानो जिम्मेदारी का होती है? जिम्मेदारी से भागने को आजादी नहीं कहिते। हम घर काहे छोड़ें हैं, ई हम तुमका ठीक से समझा नहीं पाएंगे। बहुत बड़ी जिम्मेदारी उठाए हैं हम लोग।

    ’’ई तोर बड़की-बड़की बात हमरी समझ में नै आवत रे बाबू। कोहांर के हाथ में गोली-बंदूक नाहीं अच्छा लागत मोर लाल। ई सब छोड़ के घरे आई जाव मोरे भइया।’’ बेटे से गिड़गिड़ाते हुए जूठन बो ने कहा।

    ’’कोहांर का काम सिरजन है माई! चाहे इ चाक पर माटी के घड़ा बनावे के होय, चाहे अब समाज। अब माटी-पानी सब एक में मिलावे के होई, जरूरत पड़ी तो सब ठोंक-पीट के एक किहा जाई…………… एक नया आकार देवे के हौ।’’ कुछ देर राजू एक-टक शून्य में निहारता रहा। सब कुछ कितना शान्त था, बस ढिबरी की लौ एक लय में नाच रही थी।

    राजू एक झटके से उठा, ’’माई, अब चले दे! नाहीं, अब बहुत देर होई जाई!’’ और दरवाजे की तरफ बढ़ा। जूठन बो लपक कर उसके आगे आ गई, ’’अरे, हमार नाहीं तो अपनी बहिनियन का खियाल कर मोर लाल। मति जा, तोर हाथ जोड़त हैं, गोड़े परत हैं, भइया।’’ खुसुर-फुसुर सुन कर लड़कियाँ भी उठ बैठीं। माँ को भाई के सामने गिड़गिड़ाते और रोकते देख, दबी आवाज़ में रोने लगी। जूठन बो ने सचमुच अपने बेटे के पैर पकड़ लिए। ’’माई, ई का? चल उठ! ई का कर रही है? बहुत बड़ा काम है रे, हमका ना रोक। नाहीं, सब चौपट हो जाएगा।’’

    राजू नहीं माना। उसने फिर अपना मुंह ढका और जैसे आया था वैसे ही चल दिया। पीछे-पीछे जूठन बो दौड़ी। इन दोनों के पीछे तीनों लड़कियाँ अपनी माँ के पीछे, पगडंडी पकड़े घुप्प अंधरे में, अंदाजे पर दौड़े चले जा रही थीं। अंधेरे में जूठन बो का पैर किसी चीज़ से टकराया और वो अरहर के खेतों में लुढ़की। पैर किसी ढूंठ पर पड़ा और पीड़ा से, ’’माई रे!’’ कह कर वहीं बैठ गई। बबली, सहारा देकर अपनी माँ को उसी पीपल के पेड़े तक ले आई। लहूलुहान, पसीने में लथपथ, वेदना भरे स्वर में जूठन बो बुदबुदाईं, ’’लौट आओ भइया।’’

सम्पर्क-
शिवानन्द मिश्रा
मो0-8004905851

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)