महेश चंद्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’

मुक्तिबोध

अपने एक वक्तव्य के दौरान एक दफे नामवर सिंह ने कहा था – ‘जो युग जितना ही आत्म-सजग होता है उसके मूल्यांकन का काम उतना ही कठिन हो जाता है।’ इस वक्तव्य में युग की जगह अगर रचनाकार कर दिया जाए तो मुक्तिबोध के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक सर्वथा उपयुक्त वक्तव्य होगा। ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध रचनाकार होने के साथ-साथ एक शिक्षक भी थे। इन नाते वे अपनी भूमिकाओं से अच्छी तरह वाकिफ थेवस्तुतः शिक्षा और मनोविज्ञान का रचना के साथ चोली दामन का सम्बन्ध है। स्पष्ट तौर पर कहें तो शिक्षा और मनोविज्ञान की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही अपनी रचनाओं के साथ ईमानदारी बरत पाता है। मुक्तिबोध की रचनाओं में अगर यह है तो उसके पीछे उनके शिक्षा के इस समझ की बड़ी भूमिका है। उनकी रचना में ‘ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान’ की बात इन्हीं सन्दर्भों में आती है कवि महेश चन्द्र पुनेठा भी एक सजग शिक्षक हैं और इन दिनों ‘दीवार’ पत्रिका के माध्यम से शैक्षणिक क्षेत्र में विद्यार्थियों की अधिकाधिक भागीदारी के लिए के लिए ईमानदारी से सामूहिक तौर पर प्रयासरत हैं। महेश पुनेठा ने अपने एक आलेख में मुक्तिबोध के शैक्षणिक आयाम को समझने की महत्वपूर्ण कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’      


शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध

महेश चंद्र पुनेठा

ज्ञान को ले कर बहुत भ्रम हैं। सामान्यतः सूचना, जानकारी या तथ्यों को ही ज्ञान मान लिया जाता है। इनको याद कर लेना ज्ञानी हो जाना। इस अवधारणा के अनुसार एक ज्ञान प्रदानकर्त्ता है तो दूसरा प्राप्तकर्ता, जिसे पाओले फ्रेरे बैंकिंग प्रणालीकहते हैं। इसमें शिक्षक जमाकर्ता और विद्यार्थी का मस्तिष्क बैंक की भूमिका में होता है। शिक्षक बच्चे के मस्तिष्क रूपी बैंक में सूचना-जानकारी या तथ्य रूपी धन को लगातार जमा करता जाता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता है कि उसे लेने के लिए बच्चा तैयार है या नहीं। शिक्षक द्वारा कही बात ही अंतिम मानी जाती है। दरअसल यह ज्ञान की बहुत पुरानी अवधारणा है। यह तब की है जब शिक्षा की मौखिक परंपरा हुआ करती थी। सूचना, जानकारी या तथ्यों को रखने का रटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इनके हस्तांतरण का यही एकमात्र उपाय हुआ करता था। जो जितनी अधिक सूचना, जानकारी या तथ्यों को याद रख पाता था वह उतना ही अधिक ज्ञानी माना जाता था। ज्ञान का यह सीमित और आधा अधूरा अर्थ है। वस्तुतः जो लिया या दिया जाता है वह ज्ञान न हो कर केवल सूचना या जानकारी है।

ज्ञान कभी दिया नहीं जा सकता है। ज्ञान का तो निर्माण या सृजन होता है। इसलिए आप दूसरों को सूचना या जानकारी तो दे सकते हैं ज्ञान नहीं। ज्ञान के साथ बोध का गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान निर्माण की एक पूरी प्रक्रिया है, जो अवलोकन, प्रयोग-परीक्षण, विष्लेशण से होती हुई निष्कर्ष तक पहुंचती है। ज्ञान द्वंद्व और संश्लेषण से उत्पन्न होता है। अनुभवों और तर्कों की उसमें विशेष भूमिका रहती है। यह माना जाता है कि मनुष्य की सारी अवधारणाएं उनके अपने अनुभवों के आधार पर बनती हैं। शिक्षा में यह ज्ञान की यह अवधारणा रचनात्मकतावाद के नाम से जानी जाती है, जो अपेक्षाकृत नई मानी जाती है। भारतीय शिक्षा में इस अवधारणा की गूंज बीसवीं सदी के अंतिम दशक से सुनाई देना प्रारम्भ होती है। लेकिन मुक्तिबोध ज्ञान को ले कर इस तरह की बातें पांचवे दशक में लिखे अपने निबंधों में कहने लगे थे। ज्ञान, बोध, सृजनशीलता, सीखने जैसी अवधारणाओं को ले कर उनके निबंधों में बहुत सारी बातें मिलती हैं। मुक्तिबोध ज्ञान और जानकारी के बीच के इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। भले ही उनकी यह बात सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ नहीं बल्कि रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में आती है। लेकिन सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी वह सटीक बैठती है। 

मुक्तिबोध ज्ञान के विकास के बारे में कहते हैं- ‘‘बुद्धि स्वयं अनुभूत विशिष्टों का सामान्यीकरण करती हुई हमें जो ज्ञान प्रस्तुत करती है,  उस ज्ञान में निबद्ध स्वसे ऊपर उठने, अपने से तटस्थ रहने, जो है उसे अनुमान के आधार पर और भी विस्तृत करने की होती है। ….. ज्ञान व्यवस्था … जीवानुनभवों और तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों के आधार पर होती है। …..तर्कसंगत (और अनुभव सिद्ध) निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर, हम अपनी ज्ञान-व्यवस्था, तथा उस ज्ञान-व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव-व्यवस्था, विकसित  करते हैं। …..बोध और ज्ञान द्वारा ही ये अनुभव परिमार्जित होते हैं, यानी पूर्व-प्राप्त ज्ञान द्वारा मूल्यांकित और विश्लेषित हो कर, प्रांजल हो कर,  अंतःकरण में व्याख्यात हो कर, व्यवस्था-बद्ध होते जाते हैं।’’ वह पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर सिद्धान्त व्यवस्था का विकास करने की बात करते हैं। यहीं पर द्वंद्व और संश्लेषण की प्रक्रिया चलती है। उनके लिए ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध नहीं, वरन् उत्थानशील और ह्रासशील शक्तियों का बोध भी है। …..ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। इस लिए वे ज्ञान को काल-सापेक्ष और स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। उसे जीवन में उतारने की बात कहते हैं- ‘‘ज्ञान-रूपी दांत जिंदगी-रूपी नाशपाती में गड़ना चाहिए, जिस से कि संपूर्ण आत्मा जीवन का रसास्वादन कर सके।’’

आज सब से बड़ी दिक्कत शिक्षा की यही है कि वह न संवेदना को ज्ञान में बदल पा रही है और न ज्ञान से संवेदना पैदा कर पा रही है। फलस्वरूप आज की शिक्षा एक सफल व्यक्ति तो तैयार कर ले रही है लेकिन सार्थक व्यक्ति नहीं। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अपने समाज के प्रति जिम्मेदार और हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हो, जिस के लिए शिक्षित होना धनोपार्जन करने में सक्षम होना न हो कर समाज की बेहतरी के लिए सोचना हो। ऐसे में यह महत्वपूर्ण बात है कि मुक्तिबोध ज्ञान को संवेदना के साथ जोड़कर देखते हैं। चांद का मुंह टेढ़ा है कविता की ये पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं- 

ज्वलंत अनुभव ऐसे
ऐसे कि विद्युत धाराएं झकझोर
ज्ञान को वेदन-रूप में लहराएं
ज्ञान की पीड़ा
रूधिर प्रवाहों की गतियों में परिणित हो कर
अंतःकरण को व्याकुल कर दे।

इस लिए वह यह आवश्यकता महसूस करते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्य काल से ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करे, जो संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति करे। संवेदनात्मक उद्देश्यों से उनका आशय स्व से ऊपर उठना, खुद की घेरेबंदी तोड़ कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना है। दूसरे के मर्म में प्रवेश कर पाना तभी संभव है, जब शिक्षा दिमाग के साथ-साथ दिल से भी जुड़ी हो,  वह बच्चे की संवेदना का विस्तार करे। इसी कारण ज्ञानात्मक-संवेदना और संवेदनात्मक-ज्ञान की अवधारणा उनकी रचना-प्रक्रिया और आलोचना की आधार रही।
  
मुक्तिबोध अनुभव को, सीखने और रचना के लिए बहुत जरूरी मानते हैं। कोई भी रचना अनुभव-रक्त तालमें डूब कर ही ज्ञान में बदलती है। देखिए भूरी-भूरी खाक धूलकविता की ये पंक्तियां-

नीला पौधा
यह आत्मज
रक्त-सिंचिता हृदय धरित्री का
आत्मा के कोमल आलबाल में
यह जवान हो रहा
कि अनुभव-रक्त ताल में डूबे उसके पदतल
जड़ें ज्ञान-संविधा की पीतीं।’ 

वह अनुभव को पकाने की बात करते हैं। देखा जाय तो शिक्षा एक तरह से अनुभवों को पकाने का ही काम तो करती है। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वास्तविक जीवन जीते समय, संवेदनात्मक अनुभव करना और साथ ही ठीक उसी अनुभव के कल्पना चित्र प्रेक्षित करना- ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते। उस के लिए मुझे घर जा कर अपने में विलीन होना पड़ेगा।’’ वह सिद्धान्त की नजर से दुनिया को देखने की अपेक्षा अनुभव की कसौटी पर सिद्धान्त को कसने तथा विचारों को आचारों में परिणित करने के हिमायती रहे। यही है ज्ञान निर्माण या सृजन की प्रक्रिया। ज्ञान अनुभव से ही शुरू होता है। ज्ञान के सिद्धान्त का भौतिक रूप यही है। जब व्यक्ति अनुभवों से सीखना छोड़ देता है, उस में जड़वाद आ जाता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है उन्होंने, आज तमाम शिक्षाविद् इसी बात को तो कह रहे हैं ‘‘यह सही है कि प्रयोगों में गलती हो सकती है। भूलें हो सकती हैं। किंतु उसके बिना चारा नहीं है। यह भी सही है कि कुछ लोग अपने प्रयोगों से इतने मोहबद्ध होते हैं कि उसमें हुई भूलों से इंकार करके उन्हीं भूलों को जारी रखना चाहते हैं। वे अपनी भूलों से सीखना नहीं चाहते हैं। अतः वह जड़वादी हो जाते हैं।’’ पर इस का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध प्रयोग और अनुसंधान के नाम पर अब तक मानव जाति को प्राप्त ज्ञान का अर्थात सिद्धांतों से इंकार करते हों। उनका स्पष्ट मानना था, ‘‘इसका अर्थ यह कि बदली हुई परिस्थिति में परिवर्तित यथार्थ के नए रूपों का, उन के पूरे अंतःसंबंधों के साथ अनुशीलन किया जाए उनको हृदयगंम किया जाए।’’ आज इसे ही सीखने का सही तरीका माना जा रहा है। वास्तविक अर्थों में सीखना इसी तरह होता है। यही सीखना स्थाई होता है। सीखने का मतलब कुछ जानकारियों को रट देना नहीं है। सीखना तो व्यवहार में परिवर्तन का नाम है। ऐसा परिवर्तन जो  चेतना को अधिकाधिक यथार्थ संगत बना दे, जिस के लिए मुक्तिबोध अतिशय संवेदनशील, जिज्ञासु तथा आत्म-निरपेक्ष मन की आवश्यकता पर बल देते हैं। वह अनुभवों से सीखने की ही नहीं बल्कि अनुभव-सत्य को जन तक पहुंचाने की बात भी कहते हैं-

तब हम भी अपने अनुभव
सारांशों को उन तक पहुंचाते हैं जिस में
जिस पहुंचाने के द्वारा हम, सब साथी मिल
दंडक वन में से लंका का पथ खोज निकाल सकें। (‘भूरी-भूरी खाक धूल’)

देखा जाय तो यही शिक्षा का असली उद्देश्य भी है। यदि शिक्षित होने पर हम जनहित में कुछ कर नहीं पाए तो उसकी क्या सार्थकता है?

आज शिक्षण में ‘पीयर लर्निंग’ पर बहुत बल दिया जा रहा है। एन. सी. एफ. 2005 में कहा गया है कि सहभागितापूर्ण सीखना और अध्यापन, पढ़ाई, भावनाएं एवं अनुभव को कक्षा में एक निश्चित और महत्वपूर्ण जगह मिलनी चाहिए। सहभागिता एक सशक्त रणनीति है। यह माना गया है कि समूह में या अपने साथियों से सीखना अधिक अच्छी तरह से होता है। उक्त दस्तावेज इसके पीछे यह तर्क देता है कि जब बच्चे और शिक्षक अपने व्यक्तिगत या सामूहिक अनुभव बांटते हैं,  उन पर चर्चा करते हैं और उन में परखे जाने का भय नहीं होता है,  तो इससे उन्हें उन लोगों के बारे में भी जानने का अवसर मिलता जो उनके सामजिक यथार्थ का हिस्सा नहीं होते। इससे वे विभिन्नताओं से डरने के बजाय उन्हें समझ पाते हैं। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध अपने एक निबंध समीक्षा की समस्याएंमें लिखते हैं- ‘‘जहां तक वास्तविक ज्ञान का प्रश्न है- वह ज्ञान स्पर्द्धा त्मक प्रयासों से नहीं, सहकार्यात्मक प्रयासों से प्राप्त और विकसित हो सकता है।’’ यह अच्छी बात है कि मुक्तिबोध प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्धा  को नकारते हैं। हो भी क्यों न! यह एक पूँजीवादी मूल्य है और मुक्तिबोध समाजवादी समाज के समर्थक रहे। प्रतिस्पर्द्धा  से कभी भी एक समतामूलक या सहकारी समाज नहीं बन सकता है। सब को साथ लेकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ही एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकती है।

सीखने के लिए स्वतन्त्रता और भयमुक्त वातावरण का होना बहुत जरूरी है। दबाव या भय में कुछ भी सीखना संभव नहीं है। स्वतन्त्रता बच्चे को चिंतन और उसे सृजन के लिए प्रेरित करती है। बच्चे में सृजनशीलता के विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना पहली षर्त है। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध भी कहते हैं- ‘‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य कला के लिए, दर्शन के लिए, विज्ञान के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना गतिमान नहीं हो सकती।’’ मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक हैं। उनका मानना है कि भले ही यह एक आदर्श है फिर भी मानव की गरिमा और मानवोचित जीवन प्रदान करने के लिए बहुत जरूरी है। यह जनता के जीवन और उसकी मानवोचित आकाक्षांओं से सीधे-सीधे जुड़ा है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। यह सच भी है। हम अपने चारों ओर अतीत से लेकर वर्तमान तक दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि दुनिया में जितने भी बड़े सृजन हुए हैं, वे सभी किसी न किसी स्वातन्त्र-व्यक्तित्व की देन हैं। इन व्यक्तित्वों को यदि सृजन की आजादी नहीं मिली होती तो इतनी बड़ी उपलब्धि उनके खातों में नहीं होती। हर सृजन के मूल में स्वतन्त्रता ही है। मुक्तिबोध इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। 
  
इस प्रकार ज्ञान की बदली अवधारणा और बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से विष्लेशण करें तो हम पाते हैं कि मुक्तिबोध का चिंतन बहुत तर्कसंगत और प्रगतिशील है। इसमें शिक्षा और मनोविज्ञान को ले कर उनकी  गहरी समझ परिलक्षित होती है। एक लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच से लैस समाज बनाने की दिशा में उनका यह चिंतन बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। आज जब ज्ञान को एक खास तरह के खांचे में फिट करने और तैयार माल की तरह हस्तांतरित करने की कोशिश हो रही है मुक्तिबोध के ये विचार अधिक प्रासंगिक हो उठते हैं।

महेश चन्द्र पुनेठा

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी,
न्यू पियाना,
पो. डिग्री कालेज,
जिला-पिथौरागढ़ 262502

मोबाईल- 9411707470

अच्युतानंद मिश्र का आलेख ‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है’


मुक्तिबोध

आजाद भारत, जिसके सपने बुनते हमारे तमाम सेनानी अपनी आहुति दे बैठे, उनके लिए एक यूटोपिया ही साबित हुआ जिन्होंने उससे तमाम उम्मीदें पाल रखीं थीं.  शासकों के रंग-रूप तो जरुर बदल गए, लेकिन उनका चरित्र नहीं बदला. कुल मिला कर वह लोकतंत्र ही लहुलुहान होता रहा जिसे आजाद भारत का आधार बनाया गया था. मुक्तिबोध ने इस विरोधाभास को महसूस करते हुए इसे अपनी काव्यात्मक संवेदना में ढालने की एक ईमानदार कोशिश की थी. उनके यहां लम्बी कविताओं का एक लंबा सिलसिला यूं ही नहीं मिलता. चुकि दुःख और पीड़ा का सिलसिला इतना लम्बा, कह लें अंतहीन है इसलिए उनके यहाँ काव्यात्मक वितान भी अक्सर लम्बा दीखता है. युवा कवि अच्युता नन्द मिश्र ने मुक्तिबोध की लम्बी कविता  ‘अँधेरे में’ को  समझने के क्रम में   यह आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

 

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है 
अच्युतानंद मिश्र 
मुक्तिबोध की कविता की मूल संवेदना स्वातंत्र्योत्तर भारत की चेतना से निर्मित है, यानि उसके भूगोल को हम पचास के दशक के भारत में इंगित कर सकते हैं। पचास के पूर्व राष्ट्रीय संघर्ष न सिर्फ हमारे राजनीतिक जीवन, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में भी मौजूद था। वहाँ व्यक्ति से राष्ट्र की ओर, एक दृष्टिकोण, सतत प्रेरणा की तरह मौजूद था। इसे हम तमाम जटिलताओं के साथ निराला की कविता में देखते हैं, जहाँ वे अपने निजी संघर्षों को राष्ट्रीय संघर्ष की चेतना से जोड़ते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे जीवन में एक विराट शून्य प्रवेश करता है। राष्ट्रीय संघर्ष की परिणति और निजी जीवन के संकट दोनों में एक बड़ा फांक संभवतः पहली बार मुक्तिबोध देखते हैं। इसलिए मुक्तिबोध की कविता में भयवाह दृश्य हैं, आशंकाएं हैं, चेतावनी है लेकिन निराला की तरह उनके पास राष्ट्रीय मुक्ति का विकल्प मौजूद नहीं था। मुक्तिबोध की कविताओं को हम निराला की कविताओं की क्रमिकता में नहीं पढ़ सकते। वहाँ एक क्रम भंग है। निराला की कविताओं से जैसा रिश्ता त्रिलोचन या नागार्जुन या केदारनाथ अगरवाल का बनता है, वैसा मुक्तिबोध का नहीं। मुक्तिबोध राष्ट्र से व्यक्ति की तरफ आते हैं और पाते हैं कि 
शून्यों से घिरी हुयी पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव यथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुखों का क्रम है 
मुक्तिबोध का यह दुःख निराला के दुःख से एकदम भिन्न हैवहाँ निजता का सार्वजनीकरण है। यहाँ निज और सार्वजनिक के बीच कोई सरलीकृत सम्बन्ध नहीं 
लोगों एक ज़माने में

तुम मेरे ही थे

बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे

क्रन्तिकारी रवि थे!!

अब कहाँ गये वे स्वप्न

उन्हें किसी कचरे के ढूह में

यत्नपूर्वक जला दिया

उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में

स्वयं को गला दिया धातु-सा 
मुक्तिबोध निज की तलाश में भटकते हैंमुक्तिबोध की कविता यह प्रश्न पूछती है कि देश का मतलब क्या? व्यक्ति और देश के बीच कौन सा सम्बन्ध है?
कामायनी में वे व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के बीच त्रिकोणात्मक सम्बन्ध की बात करते हुए प्रसाद की विश्व-दृष्टि की और इशारा करते हैं। उन्हें लगता है कि यह त्रिकोणात्मक सम्बन्ध संकटग्रस्त हो गया है।  लेकिन इसे किसी एक की तरफ से नहीं कहा जा सकता। मुक्तिबोध न तो व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं न समाज की और न ही राष्ट्र की। फिर अभिव्यक्ति का तरीका क्या होगा? अचानक उनके मन में एक फैंटसी जगती है, वे कहते हैं –
अरे! जन-संग-ऊष्मा के

बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

प्रयासी प्रेरणा के श्रोत

सक्रिय वेदना की ज्योति

सब साहाय्य उनसे लो।  

तुम्हारी मुक्ति उनसे प्रेम में होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

ह्रदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-उभर

विकसते जायेंगे निज के

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते 
लेकिन यह मुक्तिबोध द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर नहीं है। यह तो उस क्रम में समाज और राष्ट्र की और से उनके मन में आई एक बात है, मुक्तिबोध का मन कई तरह के विरोधाभासों और द्वंद्वों से भरा है। उनके पास कोई सीधा सादा समाधान नहीं है – कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।  
प्रसाद अपने मन की बात को ऐतिहासिक पात्रों चरित्रों द्वारा कहलवाते हैं। कामायनी में इड़ा, मनु और श्रद्धा को प्रसाद के मानसिक के विभाजन के रूप में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध इसके लिए फंतासी को रचते हैं। मुक्तिबोध का मूल संकट है व्यक्ति -राष्ट्र और समाज के परस्पर सम्बन्धों का आज़ादी के बाद अर्थ। मुक्तिबोध की समूची कविता इसी प्रश्न का जवाब तलाशती है। मुक्तिबोध वस्तुतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। आज़ादी के उपरांत हमारे सामाजिक जीवन में घट रहे बड़े परिवर्तनों को मुक्तिबोध उसकी संपूर्ण जटिलता के साथ देखने का प्रयत्न करते हैं
मुक्तिबोध हिंदी कविता में क्रमभंग को रचते हैं। इसके सामानांतर आज़ादी के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भी एक क्रमभंग आता है। ऐसा नहीं है कि उसकी शुरुआत आजादी के बाद ही होती है। यह टूटन समाज में पहले से ही मौजूद था लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के विराट लक्ष्य में वह ओझल हो गया था।  आज़ादी के बाद यह संकट गहरा हो गया। व्यक्ति और समाज के बीच मौजूद सेतु टूट गया। ‘अँधेरे में’ कविता व्यक्ति और समाज की इस टूटन को बेहद जटिलता एवं संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।  आज जिस तरह की स्थितियां हैं, जो कुछ घट रहा है, उसकी आशंका मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में पहले ही व्यक्त किया था। अक्सर मुक्तिबोध पर बात करते हुए कुछ सूत्र गढ़ लिए जाते हैं जैसे मध्य वर्ग की आलोचना का प्रश्न, दरअसल मुक्तिबोध एक खास तरह के वर्ग द्वंद्ध को रचते हैं। मुक्तिबोध न तो किसी के पक्ष में खड़े हैं और न ही विरोध में। मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में में जो अपराध-बोध है, आत्मग्लानि है वह दरअसल मुक्तिबोध के भीतर का अंतर्द्वंध ही है जिसके आलोक में वे बाहर की दुनिया को देखते हैं, इसीलिए मुक्तिबोध को दीवारों पर झड़े हुए पलस्तरों में मानवीय आकृतियाँ नज़र आती हैं। वे उनसे संवाद करते हैं। वे एक तार्किक विपर्यय को रचते हैं। मुक्तिबोध स्वप्न के भीतर स्वप्न को इसलिए लाते हैं ताकि उसमे समय की एकरैखिकीय अनुशासनात्मकता को भंग किया जा सके। एक व्यक्ति के भीतर एक समाज एक राष्ट्र की खोज और उस सबमे मौजूद वर्तमान की तलाश। मुझे लगता है मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में इसे खोजने की कोशिश करती है। वहाँ व्यक्तित्व की खोज का अर्थ पर्सनल की तलाश नहीं है, बल्कि मुक्तिबोध के लिए व्यक्तित्व का संदर्भ बहुत व्यापक है। वे उसे समाज और राष्ट्र का प्रतीक बना देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा न कर सकने की जटिलता उन्हें एक अबूझ रहस्यमयता की और ले जाती है, जिसके अलोक में यानि अँधेरे में के विराट प्रकाश में वे उसे व्याख्यायित करते हैं। 
वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पाई गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह निज–संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

ह्रदय रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा। 
यह है मुक्तिबोध के उस व्यक्तित्व की पहचान, लेकिन ज्ञान का तनाव इंगित करता है कि ज्ञान और संवेदना के संतुलन का निर्वाह कर पाना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। मुक्तिबोध के लिए मूल संकट है ज्ञान और संवेदना का की युगीन द्वंद्वात्मकता। वे युग को इस द्वंद्व के आलोक में चिन्हित करते हैं। 
इसी ज्ञान के दवाब में एक दिशा निकलती है, आत्मविकास एक मार्ग खुलता है और उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति-
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ भी पढ़ी थी

भाई वह !

उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन  
यह सब कुछ मुक्तिबोध के उस रहस्यमय व्यक्ति की परिणति है। इसलिए उसमे एक आत्मग्लानि है। अपनी आत्मा के आईने में आत्मविकास को देख कर मुक्तिबोध का मन डर जाता है। वे भागते हैं। और फिर अचानक कुछ और घटने लगता है। 
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ एक विशाल अनिश्चयात्मकता को रचती है, यह अनिश्चयात्मकता ही हमारा वर्तमान है। 
अच्युतानंद मिश्र
सम्पर्क – 

G-12/1

FIRST FLOOR

MALVIYA NAGAR

NEW DELHI- 110017
MOBILE 9213166256  

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत

मुक्तिबोध
मुक्तिबोध जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं द्वारा मुक्तिबोध विशेषांक निकाले जा रहे हैं। यह स्वाभाविक होने के साथ-साथ हम सब का दायित्व भी है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने  वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ का अभी-अभी मुक्तिबोध अंक आया है। इस अंक में मुक्तिबोध के नजदीक रहे कवि विनोद कुमार शुक्ल से साक्षात्कार लिया है घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर रु-ब-रु होते हैं इस महत्वपूर्ण बातचीत से       

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत
प्रश्न: मुक्तिबोध से आपकी मुलाकात कब और किस तरह हुई?
विनोद कुमार शुक्ल : सन् 1958 में मुक्तिबोध जी से मेरी मुलाकात राजनांदगांव में हुई। मेरे परिवार से उनके संबंध पहले से थे, चचेरे बड़े भाई बैकुण्ठ नाथ शुक्ल उनके पिता याने मेरे चाचा शिवबिहारी जी बैकुण्ठपुर में जंगल के ठेकेदार थे। उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी ‘हंस’ में बनारस में थे। हंस के ग्राहकों की सूची में बैकुण्ठ नाथ का नाम भी था। मुक्तिबोध जी हंस के ग्राहकों की सूची देखते थे तो उनको ये बड़ा अजीब लगता था कि एक ग्राहक बैकुण्ठ नाथ शुक्ल जिसका शहर बैकुण्ठपुर है यह उन्हें याद रहा।
जब वे सन् 1958 में नांदगांव (राजनांदगांव) आये और मेरी उनसे कई बार मुलाकात हो चुकी थी कुछ समय बीत गया था तब उन्होंने ही मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई से मेरा परिचय था। बैकुण्ठ नाथ जिनको हम रज्जन दादा कहते थे, नागपुर वकालत पढ़ने चले गए उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी भी नागपुर आ गए। बैकुण्ठ नाथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन दिनों अंडरग्राउंड भी रहे। इस कारण भी उनका परिचय मुक्तिबोध जी से हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी में एक पारसी लड़की कैटी’, बैकुण्ठ नाथ से विवाह करना चाहती थी। मैंने सुना था मुक्तिबोध जी ने मध्यस्थता भी की पर विवाह नहीं हो सका। बैकुण्ठ नाथ के साथ मुक्तिबोध जी के पत्र व्यवहार सहित मिलने-जुलने की लम्बी घनिष्टता थी। इन को 32-33 की उम्र में ब्लड कैंसर हो गया। शादी हुए कुछ महीने ही हुए थे भाभी के पेट में छः महीने का बच्चा था कि उनकी मृत्यु हो गई। तब तक मैं मुक्तिबोध जी को नहीं जानता था और तब तक जब तक यानि वे नांदगांव नहीं आये। एक कवि के रूप में मैंने उनका नाम भी नहीं सुना था लेकिन बाबू जी से यानि बैकुण्ठनाथ के पिता से मैंने कई बार सुना। एक टिन की पेटी ले कर वे बैठे थे और मुक्तिबोध जी की चिट्ठियाँ जो उन्होंने बैकुण्ठ नाथ को लिखी थी, फाड़ते जाते थे और मुक्तिबोध जी को कोसते कि मेरे बेटे को कम्युनिस्ट बना कर बिगाड़ दिया, लेकिन वे पहले से ही कम्युनिस्ट थे। अगर मेरा मुक्तिबोध जी से पहले परिचय हो जाता तो उनकी चिट्ठियों को बचाने की जतन करता।
सन् 1958 में मुक्तिबोध जी नांदगांव आये। उनके चाहने वालो ने उन्हें दिग्विजय महाविद्यालय लाने की कोशिश की। मेरे सबसे छोटे चाचा किशोरी लाल शुक्ल दिग्विजय महाविद्यालय की स्थापना में जिनका योगदान था अवैतनिक प्राचार्य थे। मुक्तिबोध जी ने आवेदन किया था और बैकुण्ठ की पत्नी जो उनकी मृत्यु के बाद मायके लखनऊ लौट कर चली गई थी हिन्दी में एम. ए. पहले से थी वहीं रहते हुए बाद में पी-एच. डी. भी कर ली थी। मुक्तिबोध केवल एम.ए. थे। भाभी ने भी उसी पद के लिए आवेदन किया था। जब यह बात मुक्तिबोध जी को मालूम हुई वे चाचा जी से आकर मिले, उन्होंने कहा कि मैं अपना आवेदन पत्र वापस लेना चाहता हूँ, बैकुण्ठ की पत्नी ने भी आवेदन किया है ऐसा मैंने सुना है, उन्हें अधिक आवश्यकता है नौकरी की। पर चाचा जी ने उनका आवेदन नहीं लौटाया और उन्होंने कहा मैं जानता हूँ कि कौन योग्य है, और मुक्तिबोध जी नियुक्त हुए।
मेरे बड़े भाई संतोष उनके विद्यार्थी थे। बड़े भाई के कारण उन्हें मेरे परिवार की जानकारी हो गई थी कि मेरे पिता नहीं हैं। मैं कविताएं मुक्तिबोध जी के मिलने से पहले भी लिखता था क्योंकि एक चचेरे बड़े भाई भगवती प्रसाद भी कविता लिखते थे, सभी बड़े भाई कविता लिखते थे। भगवती प्रसाद ने भाभी के गहने बेचकर अपने दो खण्ड काव्य इलाहाबाद से छपवाये थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगती थी। जब मेरे बड़े भाई संतोष ने मुक्तिबोध जी से कहा कि मेरा भाई भी कविताएं लिखता है तब उन्होंने कहा कि वह मुझ से आकर मिल ले। मुक्तिबोध जी को मैं जानता नहीं था इक्के-दुक्के हिन्दी के कवियों को जिनके नाम नांदगांव तक पहुँच गए थे, जैसे भवानी प्रसाद मिश्र को जानता था। बड़े भाई के दो-तीन बार कहने के बाद मैं मुक्तिबोध जी से मिलने गया। मैं जबलपुर के कृषि महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में था। छुट्टियों में घर आया था जब मुक्तिबोध जी से मिला जैसा कि उन्होंने बड़े भाई से कहा था कि कविताएं ले कर मिलूँ। कविताएं देखने के पहले मुक्तिबोध जी ने कहा कविता लिखते जाना सबसे कठिन काम होता है तुम बाद में सोचना पहले अच्छी तरह से अपनी पढ़ाई करो नौकरी करो, घर की सहायता करो बस इतना ही मिलना था, उनसे यह पहला मिलना। जब नांदगांव में शुरू-शुरू में आये थे तो बसंतपुर में रहते थे, जो नांदगांव से लगा हुआ था अब नांदगांव का हिस्सा है। धुँधलके शाम का समय था अंधेरा अधिक था जब मैं उनसे मिला। जहां वे रहते थे सामने के बरामदे में जाफरी लगी थी मुक्तिबोध आये तो उनके हाथ में जलती हुई कंदील थी वहां तब या तो बिजली नहीं थी या बिजली चली गई थी। मुक्तिबोध जी के आने के पहले कंदील का हिलता-ढुलता उजाला पहले आया फिर उनके साथ-साथ आया। एक बारगी उस दृश्य को जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि कंदील का उजाला उनके साथ था जैसे कोई पालतू उनके साथ होता है। मुक्तिबोध से मिलने पर हर मुलाकात के बाद मैं अपने आपको बदला हुआ महसूस करता था। मुझे लगता कि मुक्तिबोध के पास होने से सोच को संजीवनी मिलती हो, मेरी दृष्टि में कुछ दूरबीन के तत्त्व आ जाते। जब मैं बाहर की ओर देखता, मैं दूर-दूर तक देख सकता था। कभी मन में झांकता तो माइक्रोस्कोपिक दृष्टि आ जाती। मैं बहुत सूक्ष्मता से मन के खरोंच के कई स्लाइड देख पाता था। मनुष्य को पहचानने की समझ अपने पहचानने से शुरू होती है। मुक्तिबोध जी बड़े भाई से पूछते थे कि मैं छुट्टियों में कब नांदगांव आ रहा हूँ और उनसे कहते जब आये नई कविताएं साथ ले कर आये। सब कविताएं लेकर आये। मुक्तिबोध से जब मिलता तो अपनी कविताओं के साथ मिलता जब तक कविताएं नहीं होती मैं मुक्तिबोध जी से मिलने में संकोच करता था। मुझे लगता था कुछ अधिक कविताओं के साथ उनसे मिलूँ और जा नहीं पाता था। जबलपुर में रहते हुए तथा छुट्टियों में घर आने पर कविताएं लिखता था। लिखी कविताएं दिखाने योग्य हैं, यह मुझे कभी नहीं लगा। कई बार कविताएं दिखाने के बाद एक बार कविताओं में से उन्होंने आठ कविताएं कृति के संपादक श्रीकांत वर्मा को भेजी और पत्र लिखा कि मैं युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल की कृतिके लिए कुछ कविताएं भेज रहा हूँ उन्हें स्क्रीनिंग करके देख लेना आज कल लिखी जा रही कविताओं से मैं दूर हूँ छापने योग्य लगें तो छापना। फिर ये आठ कविताएं कृतिमें प्रकाशित हुई। मेरे पास अंक नहीं आया था। एक दिन जैसे ही मैं उनके घर गया उन्होंने शांता जी को पुकार कर कहा ’’विनोद आया है इसका संग्रह छपा है कुछ मीठा बना दो’’ मुझे समझ में नहीं आया। शांता जी ने रवे का हलवा बनाया, उन्हों ने बताया कृतिमें मेरी आठों कविताएं प्रकाशित हुई है उन आठ कविताओं को उन्होंने संग्रह कहा था। आज जब इस बात का स्मरण करता हूँ कि संग्रह उनकी आंतरिक इच्छा थी जो वे अपनी कविताओं के देख नहीं सके थे। मैं उनकी लम्बी कविताओं को सोचता हूँ, उन की एक-एक लम्बी कविता, कविता संग्रह की तरह होती थी। एक लम्बी कविता, कविता से ही लम्बी होती है, मैंने अपनी लम्बी कविताओं के संग्रह को भी कविता से लम्बी कविता कहा। वैसे मैं यह मानता हूँ कि एक जिन्दगी मिलती है और एक जिन्दगी की कविता कविताएं नहीं होती केवल एक कविता होती है। कविता या रचना कभी भी रचनाकार के घर में सुरक्षित नहीं होती। हमेशा पाठकों के बीच ही सुरक्षित होती है। लिखी जाने के बाद कविता रचनाकार के घर की नहीं होती वह पाठकों के घर की होती है। अपनी लिखी कविताओं के साथ रचनाकार बार-बार लिखने को तत्पर रहता है। वह जब भी अपनी रचना को देखता है उसे फिर सुधार लेना चाहता है। मुझे लगता है रचनाकार को आलोचक की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए, मेरी रचना को कोई अगर खराब कहता है तो मैं उस स्वीकार कर लेता हूँ। इसका कारण है कि मैं हमेशा एक अच्छी कविता लिखने की कोशिश करता हूँ जो लिखी नहीं गई है, और अच्छी कविता हमेशा लिखे जाने को बची रहती है यही कारण है हमारा छोड़ा हुआ रास्ता आने वाली पीढ़ी का रास्ता नहीं होता। जीवन का पठार बहुत ऊबड़-खाबड़ है आने वाले रचनाकार अपना रास्ता खुद बनाते हैं लेकिन उन्हें ताकत हमेशा लिखी जा चुकी रचनाओं से मिलती है क्योंकि लिखी जा चुकी रचना आगे आने वाली रचना को रास्ता दिखाती है और रास्ता दिखाना ही कविता की परंपरा बनाती है। दूसरे की रचना का प्रभाव जरूर पड़ता है, मुक्तिबोध जी से जब भी मैं मिलता, वे यह जरूर पूछते थे कि मैंने क्या पढ़ा। रचनाकार को दूसरे की रचना का ईमानदार पाठक होना चाहिए। बिना ईमानदार पाठक हुए आलोचक की आलोचना भी गलत होती है। रचना तो संसार के अनुभवों का अपना संसार होता है और किताब पढ़ना दूसरों के अनुभवों को अपना अनुभव बना लेना है। 

प्रश्न: मुक्तिबोध भी अपनी कविता आपको सुनाते थे?
विनोद कुमार शुक्ल : बाद-बाद में मुक्तिबोध जो को शायद ऐसा लगने लगा कि मुझे वे अपनी कविताएं सुना सकते हैं, मुक्तिबोध जी कविता लिखने की जहां टेबिल थी ऊपर की मंजिल में वहां खिड़की थी जिसमें मुर्गी जाली (बड़ी लोहे की जाली) लगी थी। उससे रानी तालाब दिखाई देता था। मुक्तिबोध जी के टेबिल के चारों तरफ उनके कविता लिखे कागज बिखरे रहते थे बड़े अक्षरों में लिखे, लम्बी-लम्बी कविताएं लिखते थे। आस पास ढेर सारे बिखरे कागज कविताओं से भरे हुए। जब भी मैं मुक्तिबोध जी के घर जाता तो इस तरह का दृश्य बार-बार का दृश्य होता था। नांदगांव में रहते हुए मुक्तिबोध जी ने बहुत कविताएं लिखी एक-दो बार उनसे मैंने सुना भी कि ऐसी स्थितियाँ बनी कि लम्बी होने के कारण एक-दो पत्रिकाओं ने उन्हें लौटा दिया। मुक्तिबोध कहते, विनोद सुनो! मैं तुम्हें कविता सुनाता हूँ, वे कहते सुनाने में छंद की लय बनती है कि नहीं? मैंने देखा है शास्त्रीय गायक जब गाते हैं तो जांघ पर ताल देते हैं। मुक्तिबोध जी भी सुनाते हुए एक जांघ में हाथ धीरे-धीरे ठोकते हुए ताल में लयबद्ध होते थे। मुक्तिबोध के कविताओं के शब्द मुक्तिबोध जी के उच्चारण में धातु की झनझनाहट की तरह होते थे और मैं जब उनके चेहरे की तरफ देखता था तो उनके सांवले चेहरे में इस्पाती चमक होती। मैंने मुक्तिबोध जी को तीखे नाक-नक्श का कहा है। उनके चेहरे की चमक में इस्पात का मेकअप या यह कह ले कि लोहे के चेहरे में एक अच्छे मनुष्य का प्राण रहता है। मुक्तिबोध जी एक बहुत अच्छे मनुष्य थे, उनको देखकर अच्छी कविता लिखने के मापदंड में मैं यह शामिल करना चाहता हूँ कि अच्छा कवि होने के लिए अच्छा मनुष्य भी होना चाहिए, अच्छा कवि, अच्छा पिता, अच्छा पति, अच्छा पड़ोसी, अच्छा भाई। ऐसा भी हुआ कि मुक्तिबोध जी के माता-पिता भी आये थे और मैं उनसे मिलने गया। और उन्होंने कहा मुझे अपने पिता को समय देना है आज तुम जाओ।

प्रश्न: वर्तमान समय में आप हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण एवं बड़े कवि के रूप में    स्थापित हैं, यहां से आप हिन्दी कविता में मुक्तिबोध जी का क्या स्थान देखते है? 
विनोद कुमार शुक्ल : कविता में कोई स्थायी और महत्वपूर्ण स्थान कम से कम मेरा नहीं है। मैं एक घर-घुसवा आदमी कविता में खानाबदोश हूँ लोगों से बात करने का मेरे पास यही तरीका है कि कविता लिखूँ। यह जरूर है जैसा मैंने पहले भी कहा है कि मैं मिट्टी का लोंदा था और मुक्तिबोध सबसे बड़े कुम्हार थे और उनके हाथों छुआ गया, अपने बड़े भाई संतोष का केवल एक ही सबसे बड़ा बड़प्पन जानता हूँ कि उन्होंने मुझे मुक्तिबोध जी से मिलवाया। यह संयोग था कि कविता के संसार में डरते-डरते संभवतः भटकते हुए मैं सबसे पहले जिन से मिला वे मुक्तिबोध थे उन्होंने मुझे अंदर बुलाया उन्हीं के कारण मेरा परसाई जी से जबलपुर में मिलना-जुलना हुआ। मैंने श्रीकांत वर्मा के बारे में उन्हीं से सुना। शमशेर जी का उनसे मिलने नांदगांव आते सुना। मैंने यह कहा भी है कि बीते हुए साल की तरफ 50 वर्षों तक मैं अपना दाहिना हाथ फैलाता हूँ और आने वाले पचास वर्षों तक मैं अपना बांयाँ हाथ फैलाता हूँ मैंने मुक्तिबोध को समीप से देखा और इस बीते पचास वर्ष और आने वाले पचास वर्ष में मैं मुक्तिबोध जी को अकेला पाता हूँ कि वे ही हैं और मुझे कोई दूसरा नहीं दिख रहा। मैं दूसरा नहीं देख पाया।

प्रश्न: मुक्तिबोध जी की बीमारी के विषय में बताइ?
विनोद कुमार शुक्ल : मुक्तिबोध जी के साथ मैं किले के आसपास घूमता भी था। उन्हें टिपरिया होटल में चाय पीना बहुत अच्छा लगता था वे सिंगल चाय बुलवाते थे और कहते थे चाय बिलकुल गर्म देना और साथ में पानी भी। चाय पीने के पहले वे पानी जरूर पीते थे फिर गर्म-गर्म चाय एक दो लोगों ने कहा भी इतना गर्म चाय मत पिया करो दांत खराब हो जायेगें। वे चाय पीते मुझे भी पिलाते थे। एक-दो बार घूमने वे केवल नीम की पत्ती तोड़ने गए। रानी सागर की तरफ नीम के पेड़ थे नीचे के नीम की पत्तियों को मैं तोड़ लेता था ऊपर तोड़ नहीं पाता था तो मुक्तिबोध तोड़ते थे, वे मुझसे लंबे थे। उनके पैरों में एग्जिमा था। नीम की पत्तियों को पीस कर उसका लेप लगाते थे कोमल पत्तियों को पीस कर उसकी गोलियाँ भी खाते थे। वे एग्जिमा से बहुत परेशान थे।
जबलपुर में रहते हुए उनके गिर पड़ने की बात भी मैंने सुनी थी फिर यह भी सुना था जबलपुर में ही रहते हुए कि उन्हें मेनोन्जाइटिस हो गया है। तब शायद मैं नौकरी करने लगा था। वे भोपाल फिर दिल्ली गये मैं शायद ग्वालियर में था। नांदगांव से सोचो तब ग्वालियर भोपाल इंदौर पास लगते थे लेकिन ग्वालियर से भोपाल दूर था। मैं जिन परिस्थितियों में नौकरी कर रहा था उसमें छुट्टिया ले कर जाना भी कठिन था उनकी बीमारी के समय उनसे मैं नहीं मिल सका लेकिन उनका बीमारी के समाचार रेडियों में आया करते थे तथा समाचार पत्रों में। सुनता था किस तरह श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी और परसाई जी उनकी चिन्ता कर रहे हैं। मुझे लगने लगा था जिस तरह उनकी फिक्र हो रही है और जैसी चिन्ता है और अच्छे से अच्छा उनका इलाज हो रहा है वे अच्छे हो जायेगें।

विनोद कुमार शुक्ल
सम्पर्क-
घनश्याम त्रिपाठी
मोबाईल – 07587159660

अंजन कुमार 
मोबाईल – 09179356307


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

अनिल कुमार सिंह का आलेख ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता’

मुक्तिबोध


मध्यवर्गीय विडम्बनाओं को देखने-पहचानने के लिए आपको जरुरी तौर पर मुक्तिबोध के पास जाना पड़ेगा। उनके लेखन के गहन आशय हैं। जीवन की तल्ख़ अनुभूतियाँ हैंयह वर्ष मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। हमारी कोशिश है कि इस महाकवि को याद करते हुए हर माह कम से कम एक आलेख ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत किया जाए कवि अनिल कुमार सिंह ने मुक्तिबोध की कविता के बहाने से एक आलेख लिखा है। आज इसी क्रम में पहली बार पर पढ़िए अनिल कुमार सिंह का यह आलेख – ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ : मुक्तिबोध की कविता’  
    

जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता

अनिल कुमार सिंह
मुक्तिबोध की अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता है मैं तुम लोगों से दूर हूँ। यह डायरी शैली में लिखी कविता है, जिसे पढ़ते हुए एक साहित्यिक की डायरीके आत्मपरक, सुचिन्तित निबन्धों की याद सहज ही आ जाती है। फिर भी यह गद्य नहीं है। गहन आशयों से लैस यह कविता मुक्तिबोध की एक नागरिक और कवि के रूप में बेचैनियों का सख्त दस्तावेज़ है। निम्न मध्य वर्गीय जीवन की  विसंगतियाँ जहाँ व्यक्ति को तोड़ देती हैं, वहीं इसी उर्वर जमीन से नए आदर्श एवं बदलाव की आकांक्षाओं के अंकुर भी फूट निकलते हैं। यह काँपता हुआ आत्मविश्वास अपनी अकिंचनता और पार्थिवता में भी मुक्ति के सपने दिखा जाता है। आकस्मिक नहीं कि मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ उनकी स्वप्न-कथाओं का ही विस्तार लगती हैं। निम्नवर्गीय मानवीय जीवन के रक्ताल’, भयावह यथार्थ को उसके नंगे रूप में प्रस्तुत करने को मुक्तिबोध कला नहीं मानते, ‘‘अपने को पीसने वाली परिस्थितियों और प्रवृत्तियों को उनके नंगे पाशविक रंग में पेश मत करो। यह कला नहीं है।’’1 इसीलिए उनकी काव्य अभिव्यक्ति में जीवन संघर्ष का यथार्थ उनकी कलात्मक अभिरुचि से रगड़ खाता ही रहता है। इस प्रक्रिया में विचार स्फुलिंग’ ‘चकमक की चिंगारियोंकी तरह हवा में उड़ते रहते हैं। मुक्तिबोध अपनी शब्दावली में इसे संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं। यहाँ संवेदना और ज्ञान का संतुलन है। यह ज्ञान सहज हासिल नहीं है, बल्कि शमशेर के शब्दों में ‘‘भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को अनथक गहरे’’2 खोदते हुए मिला है।
विचार स्फुलिंगो से मुक्तिबोध की कविता बनती है। उसका अपना अँगूठा स्थापत्य है जो किसी भी दूसरे की तरह नहीं है। उसमें व्यक्त यथार्थ सबका है किन्तु उसकी सबसे प्रामाणिक और सशक्त अभिव्यक्ति मुक्तिबोध ही संभव कर पाये हैं; वह जमीनी है, ठोस है, पथरीली घाटी में बहती नदी का शोर तथा व्याप्ति है उसमें। पहाड़ के अनगढ़, भारी भरकम पत्थरों की तरह बिम्ब और प्रतीकों का मूल सन्दर्भ उनका अपना ही जीवन और परिवेश है। इसीलिए वह अर्थ से इतना प्रदीप्त है कि पाठक को सहज ही अपनी रौ में बहा लिए जाता है। शमशेर के शब्दों में ‘‘वे बहुत जागे हुए होश के चित्र हैं।’’3 शब्द उसके बहाव में घिस कर एकदम सही जगह पर जम जाते हैं। इस कविता की जमीन मुक्तिबोध की जीवन स्थितियों की तरह ही उबड़खाबड़पन लिए हुए हैं। चूंकि यह भारतीय जीवन का यथार्थ है। इसलिए उस में हम अपनी शक्लें फौरन पहचान लेते हैं। मुक्तिबोध जैसे कवि की जटिल संवेदनाओं के साधारणीकरण का यही रहस्य है। वे हमारी अपनी बातें ही हमारे कान में फुसफुसाती हैं। हम उन्हें अनसुना करते हुए भी उनके बेचैन दंश को झेलते रहते हैं। कविता की मुक्ति व्यक्ति की मुक्ति से एकमेक हो जाती है। ये उड़ते हुए विचार स्फुलिंग जीवन की गहरी घाटियों में उतर कर हासिल किए गए अनुभव के प्रत्यक्षीकरण हैं।
मुक्तिबोध आजाद भारत के सबसे महत्वपूर्ण कवि एवं विचारक हैं। यद्यपि तारसप्तक का प्रकाशन 1943 में हुआ था और उसमें संकलित कविताएं उसी दौर की हैं; फिर भी मुक्तिबोध जैसे विचारक और कवि पर राजनैतिक, गुलामी का कोई दबाव नजर नहीं आता। इसमें साबित होता है कि जनचेतना राजनैतिक-आर्थिक दमन व गुलामी के दौर में भी अपनी कूबत और आजादख़्याली से लोगों का नेतृत्व कर सकती है। औपनिवेशिक या आज के दौर में पूंजीवादी और पुनरुत्थानवादियों के गठजोड़ द्वारा प्रायोजित फासिस्ट राजनैतिक दमन जनता को पस्तहिम्मत नहीं करते बल्कि वह ‘‘हठ इनकार का सिर तान…खुद मुख्तार’’ परिवर्तन और आजादी के संघर्ष की इक नई मुहिम में शामिल हो जाती है। 1942 के आंदोलन ने भारतीय अवाम की इस स्वातंत्र्य चेतना को एक नया तात्कालिक आत्मविश्वास दिया था। वह मानसिक रूप से स्वंतत्र हो चुकी थी; भले ही आजादी 1947 में मिली हो। यही दौर है जब मुक्तिबोध मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध पर इसका असर अलग तरीके से दिखाई पड़ता है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से ही वे देख रहे थे कि अंग्रेजी शासन के कमजोर पड़ते जाने के साथ ही देश में प्रतिगामी ताकतों का एक नया समूह उभर कर सामने आ रहा है। इस देशी बुर्जुवाजी का पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और दूसरी तरफ पुनरुत्थानवादियों से। एक तरह से कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को इस बुर्जुवा वर्ग का संरक्षण प्राप्त है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में इस वर्ग को जो संरक्षण विदेशी शासन से था वह आजाद भारत में कांग्रेस शासन से मिलने लगा। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का रूमानी समाजवाद अपनी अनथक कोशिशों के बावजूद इस प्रतिगामी बाढ़ को रोकने में उत्तरोत्तर निष्प्रभावी होता गया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बना उनका विराट नैतिक और सामाजिक व्यक्तित्व प्रतिरोध की एक क्षीण आवाज बन कर रह गया था। इसकी बड़ी वजह खुद कांग्रेस के भीतर मौजूद प्रतिगामी सोच की ताकतें ही थी। नेहरू की 1964 में हुई मृत्यु के बाद पार्टी के भीतर मौजूद इन प्रतिगामी ताकतों ने मुनाफाखोर पूँजीपतियों से समझौता करने में जरा सी देर न की। देश को आजाद कराने के संघर्ष के दौरान अर्जित उच्च नैतिक आदर्शों का स्थान कोटा परमिट राज ने ले लिया। यही मुक्तिबोध की रचनाशीलता का दौर भी है। आदर्शों के पतन तथा लूटखसोट के अंधेरे समय में मुक्तिबोध को मार्क्सवादी दर्शन में मुक्ति का रास्ता दिखाई पड़ा। लेकिन यह उनके लिए केवल फैशन के रूप में नहीं था, जैसा कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है ‘‘मुक्तिबोध ने एक व्यवस्थित विश्व-दृष्टि अर्जित करने के लिए गहन आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप मार्क्सवादी दर्शन को अपनाया था।’’4 कोई भी रचनाकार गहन आंतरिक संघर्षके बिना नये जीवनानुभवों से लैस नहीं हो सकता। इस आंतरिक संघर्ष के ताप पर तपे हुए निजी अनुभव अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाशते हैं। निजी अनुभवों की आत्मपरकता भी सार्वजनीन हो सकती है, व्यक्तिगत नहीं। इसीलिए वह पूरे समाज पर लागू होती है। क्यों कि ‘‘मुक्तिबोध अनुभूति की ईमानदारी को सुव्यवस्थित और अनुशासित करने वाली अनुभूति की सच्चाई को महत्वपूर्ण मानते हैं; इसलिए वे आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यपरायणताकी बात करते हैं।’’5 मुक्तिबोध के लिए व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेपहै। उनका मत है कि ‘‘हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी आत्मा है। आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है।’’6
आत्मा या आत्मपरकता वाली शैली की आड़ लेकर कुछ आलोचक मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी सिद्ध करने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन मुक्तिबोध को सावधानी से पढ़ने वाला पाठक जानता है कि यह आलोचकों का बौद्धिक विक्षेपमात्र है। मुक्तिबोध का जीवनानुभव उनके सौन्दर्य अनुभव से अभिन्न है। जीवनानुभवों से अर्जित दृष्टि कभी थोपी हुई नहीं रहती बल्कि अंतर का निजतेजस्व आलोकबन कर अभिव्यक्त होती है।

मैं तुम लोगों से दूर हूँ’, मुक्तिबोध की अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया तथा काव्य व्यक्तित्व की बनावट को समझने के भी महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन हुआ था। सप्तक के कवि प्रयोगशील होते हुए भी विचारों में गहरी मतभिन्नता लिए हुए थे। अज्ञेय स्वयं आधुनिकतावादी होने के साथ अंग्रेजी के कवि टी.एस. इलिएट के विचारों से प्रभावित थे। वे इलियट के प्रसिद्ध निबंध ^Tradition and Individiual Talent* से खास तौर पर प्रेरित थे। टी. एस. इलियट का मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति सीधे न होकर वस्तुनिष्ठ सम्बद्धताओं के जरिए होनी चाहिए। इसे वे कलाकार का व्यक्तित्व से पलायन ¼Escape From Personality½ कहते थे। अज्ञेय उनके कविता सम्बन्धी विचारों को हिन्दी में ला रहे थे। अज्ञेय की वैयक्तिक स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद एवं मुक्तिबोध के निज ¼Self½ में भारी अंतर है। आधुनिकतावाद से मुक्तिबोध भी प्रभाविात थे, किन्तु उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा का संबल मिल गया था। इसलिए मुक्तिबोध ने व्यक्तिवादी अनुभूति की ईमानदारी के भावगत तथा आत्मगत पक्ष का विरोध करते हुए कहा कि ‘‘अनुभूति की ईमानदारी का नारा देने वाले लोग, असल में, भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू, केवल आत्मगत पक्ष के चित्रण को ही महत्व दे कर उसे भाव-सत्य या आत्मसत्य की उपाधि देते हैं। किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है।’’7 मार्क्सवाद और आधुनिकतावाद का सबसे ज्यादा सधा हुआ संतुलन पूरे आधुनिक हिंदी साहित्य में हमें सिर्फ मुक्तिबोध में ही प्राप्त होता है। मार्क्सवादी विचारधारा को आलोक ने ही मुक्तिबोध को आधुनिकतावाद की आड़ में चल रहे शीतयुद्ध के प्रभावों को लक्षित कर लेने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने समझ लिया कि नयी कविता का व्यक्तिवाद, प्रगतिवाद तथा समाज-विरोधी है। नयी कविता के व्यक्तिवादी आभिजात्य में हाशिये पर पड़े लोग सिर्फ अन्य है। इस अन्य के अपने निजी कष्टों, जीवन संघर्ष का व्यक्तिवादियों के लिए कोई मूल्य नहीं है। इसी लिए मुक्तिबोध इन लोगों से खुद को अलगाते हुए लिखते हैं-
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।8
तुम्हारे और मेरे के बीच की यह खाई बढ़ती ही गई है। मुक्तिबोध के समय में इसके आशय कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। आज न्यस्त स्वार्थों के बैंड दल अपनी ही धुन पर थिरक रहे हैं। उन्हें किसी की परवाह नहीं; इसीलिए मुक्तिबोध की यह घृणा हमें बिलकुल असली और अपनी लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था ने नई कविता के व्यक्तिवाद को आज के सामाजिक विलगाव में बदल दिया है। हर कोई सिर्फ और सिर्फ अपना है। सबका अपना व्यक्तिगत संघर्ष है, एक तरफ पद और प्रतिष्ठा के लिए तो दूसरी तरफ रोटी के टुकड़े के लिए। अस्मिता की राजनीति ने कोढ़ में खाज का काम किया है। न्याय और अधिकार के सामूहिक संघर्षों की जगह जातियों और धर्म संप्रदायों के संघर्ष में ले ली है। लेकिन मुक्ति तो पीड़ितों के साहचर्य और सामूहिक संघर्ष में ही मिलने वाली है। इसलिए मुक्तिबोध का मैं अकेला नहीं महसूस करता। वह जानता है कि अपने लोगों के बीच चलते-फिरते साथके साथ-साथ साहचर्य का बढ़ा हुआ हाथ हमेशा उपस्थित रहता है। यह साहचर्य मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं और झूठ में डूबे लोगों के लिए गर्हित है; क्यों कि उनके लिए यह असुविधा उत्पन्न करता है। ईमानदारी और नैतिकता, सामान्य जन का साहचर्य किसी को भी दुनियावी अर्थ में अकेला और अभिशप्त बना सकती है। मुक्तिबोध को अनुभव है कि मध्यवर्गीय समझौतों की दुनिया से दूरी बना कर तथा पीड़ित और दुखियारे लोगों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उनका मैंदूसरों के सतत आघात के लिए निरापद हो गया है। यह आघात सार्वजनिक ही नहीं अकेले में भी हैं। क्योंकि हमलावर सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान से ही परिचालित नहीं है बल्कि वे हमारे अपने बीच के समझौतावादी लोग हैं। जनपक्षधरता और साहचर्य का जो अन्न-जल हमारे लिए जीवनदायिनी है वह उनके लिए किसी विष से कम नहीं। यह द्वन्द्व सिर्फ समाज में नहीं व्यक्ति के भीतर भी है; जहाँ अपने मध्यवर्गीय संस्कारों से लड़ कर मुक्ति पाने के संघर्ष में व्यक्ति लहूलुहान हो रहा है। दुश्मन भीतर भी हैं। इस संघर्ष में महाकाव्यात्मकता का औदात्य नहीं बल्कि गहरा टुच्चापन संगुम्फित है। इस झमेले से बाहर आने की व्याकुलता कवि को छलनी किए डाल रही है। मुक्तिबोध के लिए ‘‘सच्चा व्यक्ति-स्वातंत्र्य अगर किसी को है तो धनिक वर्ग को है, क्योंकि वह दूसरों की स्वतंत्रता खरीद कर अपनी स्वतंत्रता बढ़ाता है, और अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था-सम्पूर्ण समाज व्यवस्था का पदाधीश बन कर, प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः स्वयं या विक्रीता आत्माओं द्वारा अपने प्रभाव और जीवन को स्थायी बनाता है।9
मुक्तिबोध विक्रीता आत्माओं में बदल जाने से बेहतर असफल हो जाने को मानते हैं। छल-छद्म धनके चक्करदार जीनोंपर मिलने वाली सफलता के शीर्ष पर चढ़ने की बजाय वे जीवनकी सीधी-सादी पटरीपर दौड़ने में विश्वास रखते हैं लेकिन उन्हें हमेशा लगता है कि उनके प्रयास अपर्याप्त हैं। वे खिन्न होते हैं अपने कर्मों की सार्थकता पर भी-
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज कोई भीतर, चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता 10
    
जाहिर है कि ऐसे में जनसमाज की कर्मनिष्ठा भी अन्य हो जाती है। इससे बच निकलने की छटपटाहट या आत्म-संघर्ष ही हमें आगे ले जा सकती है, नए रास्ते दिखा सकती है। हम जैसे भी हैं उससे बेहतर होने की आकांक्षा ही हमें भविष्योन्मुख बना सकती है।
कवि को लगता है कि रेफ्रिजरेटरों, विटैमिनों तथा रेडियोग्रैमों की सुविधा के बाहर भी एक अलग दुनिया गतिशील है; जहाँ भूखी बच्ची मुनिया को माँ की छाती से भी खुराक नहीं मिलती। जहाँ चारों तरफ दिमाग को सुन्न कर देने वाली भयानक गरीबी तथा भूख है। इस नंगे यथार्थ में कवि महसूस करता है कि-
          शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
          शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम हैं
          सत्य केवल एक है जो कि
          दुःखों का क्रम है। 11
यह दुख सत्य है क्यों कि यह सबका है। उन सब का जिसे यह व्यवस्था अन्यसमझती आयी है। चूंकि यह दुख सबका और सत्य है इस लिए इससे बाहर ले जाने वाला रास्ता भी सबका होगा। इस रास्ते की तलाश कवि को खुद करनी  होगी। अपने मध्यवर्गीय सुरक्षित खोल से बाहर आ कर जन सामान्य में घुल मिल जाना होगा; वर्ना तो स्थितियाँ जस की तस ही रहेंगी-
          मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
          शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
          तेलिया लिबास में, पुर्जे सुधारता हूँ
          तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।12
सन्दर्भ:

1.   सड़क को लेकर एक बातचीत, एक साहित्यिक की डायरी, अप्रैल 1957
2.   भूमिका, शमशेर,चाँद का मुंह टेढ़ा है।‘
3.   वही।
4.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय
5.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजेर पाण्डेय. पृ. 228
6.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृ. 28
7.   एक साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृ. 133
8.   चाँद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृ. 133
9.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृष्ठ 179
10.  चांद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृष्ठ 121
11.  वही, पृ. 122
12.  वही, पृ. 122

अनिल कुमार सिंह

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वैभव सिंह का आलेख ‘अंधेरे मेः आत्मसंघर्ष के निहितार्थ’


मुक्तिबोध

हिन्दी की कालजयी कविताओं की जब भी बात की जायेगी ‘अँधेरे में’ कविता की चर्चा जरुर की जाएगी। इस कविता का वितान महाकाव्यात्मक है। काफी लम्बी कविता होने के बावजूद जब हम इसमें प्रवेश करते हैं तो प्रायः वही स्थितियां पाते हैं, मुक्तिबोध जिसके भुक्तभोगी थे। हमारे यहाँ आज भी वही दुरभि-संधियाँ होती हैं। देश की सर्वसाधारण जनता ‘अँधेरे में’ जीने-रहने के लिए आज भी अभिशप्त है। अपने को जनता का सेवक कहने वाले नेता और नौकरशाह कैसे उसी सामन्तवादी दृष्टिकोण का परिचय देने लगते हैं यह कहने-बताने की बात नहीं। आज मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस विशेष अवसर पर मुक्तिबोध को नमन करते हुए युवा आलोचक वैभव सिंह का आलेख ‘अँधेरे में : आत्मसंघर्ष के निहितार्थ’ हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।           

अंधेरे में : आत्मसंघर्ष के निहितार्थ
वैभव सिंह
मुक्तिबोध की लंबी कविता अंधेरे में हिन्दी में क्लासिकल कविता का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। विडंबना यह कि इस कविता का प्रकाशन मुक्तिबोध के जीवन काल में नहीं हो सका। इसका प्रकाशन 1964 में उनकी मृत्यु के कुछ समयोपरांत हैदराबाद से बद्री विशाल पित्ती के संपादन में छपने वाली हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में हुआ। तब यह आशंका के द्वीपः अंधेरे में नाम से प्रकाशित हुई थी पर बाद में यह अंधेरे में नाम से ही चर्चित हुई। अशोक वाजपेयी के अनुसार इस कविता का सबसे पहले पाठ 16 नवंबर 1959 को सागर में मुक्तिबोध ने किया था और तब अशोक वाजपेयी स्वयं बीए के छात्र थे। 6 सितंबर 1914 के हिंदुस्तान अखबार के अंक में उन्होंने लिखा – हमने ऐसी विचलित करने वाली कविता पहले कभी नहीं सुनी थी, न ही पढी थी। उनमें नियमित छंद नहीं था पर उसकी संरचना में लय के कई रूप थे और वे कई अप्रत्याशित मोड़ों पर आ कर चकित करते थे। हमारे समय का अंधेरा उस दोपहर मानो उस कविता के माध्यम से उस कमरे में छा गया था और कविता हमारे सामने उसे रोशन कर रही थी। हमें तब यह पता तक न था कि हमारे समय का एक क्लैसिक हमारे सामने पढ़ा जा रहा है। बाद में आपात काल के दौरान चित्र श्रृंखलाओं की आधार रचना के रूप में इस कविता का प्रयोग किया गया था।
हिन्दी में तानाशाहों व तानाशाही के खिलाफ सार्थक अभिव्यक्ति को तलाशने के विषय पर अंधेरे में जैसी उदात्त रचना दूसरी नहीं लिखी गई है। आजादी के बाद का ईमानदार बुद्धिजीवी उस संभावित आतंक को भांप रहा था जो उसके खिलाफ कभी दबे-छिपे और कभी खुल कर निर्मित हो रहा था। लोकतांत्रिक राजसत्ता या तो बुद्धिजीवियों को पालतू बना लेने या फिर उनके दमन के फार्मूले पर चलती है। असहिष्णुता का जो विराट तांडव शुरू हुआ है, उसके विकास की अपनी ऐतिहासिक प्रक्रिया है। आज जिस दाहक माहौल से आज का बुद्धिजीवी गुजर रहा है और उसकी जुबान पर ताला जड़ने की तैयारी चल रही है, आजादी के ठीक बाद वैसा ही आतंक मुक्तिबोध के अनुभव जगत का भी हिस्सा बन गया था। मुक्तिबोध नेहरू के प्रशंसक थे और दून घाटी में नेहरू नामक निबंध में उन्होंने नेहरू के आराम और स्वास्थ्य के बारे में अपनी चिंता प्रकट की थी। पर फिर भी वे भारतीय गणतन्त्र में पनपती फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रति संवेदनशील हो गए थे। उन्होंने अपने अस्तित्व को ओर लपकती अग्नि-शिखाओं से संघर्ष की नियति को पहचान लिया था और उसे अंधेरे में व्यक्त किया। शमशेर ने इसीलिए इस कविता को दहकता इस्पाती दस्तावेज कहा था। उन्होंने मुक्तिबोध की ताकत को पहचान लिया था। मुक्तिबोध जब मृत्य-शैय्या पर पड़े थे तो शमशेर उनके पहले काव्य संग्रह चांद का मुँह टेढ़ा है की भूमिका में यह बात लिख रहे थे- एकाएक क्यों सन 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो उठे। आगे वह लिखते हैं- मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था। उनकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी अटूट सचाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावना के केंद्रीय मंच पर सामने आ गए। और अब हमने उनके कवि और विचारक-रूप को एक नयी आश्चर्य-दृष्टि से देखा।
पूंजीवाद की बढ़ती ताकत के कारण गहरा घना अंधकार फैल रहा है और यही घुटन भरा हत्यारा अंधकार उन की अंधेरे में कविता का मुख्य वातावरण है। रात के पक्षी की चीख है और जंगल से आते सियारों का शोर है जो सूने अंधकार को और आतंककारी बना देता है। इसी अंधकार में कोई उससे बार-बार मिलने आता है तो उसकी खोई हुई परम अभिव्यक्ति है। इस परम अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता के बाद शिक्षित-ईमानदार मध्य वर्ग द्वारा समाज में विचारधारात्मक हस्तक्षेप की बौद्धिक आकांक्षा के रूपक के तौर पर भी देखा जा सकता है। लेकिन ताज्जुब की बात है अंधकार से ज्यादा कविता में प्रकाश के बिंब उभरते हैं। मशाल, मणि तेज, तेजस्क्रिय बिंब, स्वर्णिम लाल चिनगियों, वस्तुओं का निज निज आलोक, जलते जंगल, भड़की आग, दियासलाई की लौ, रेडियोएक्टिव रत्न, नीली गैसलाइट, द्युतिमान मणियां वहां जगमगाती हैं। प्रकाश के बिंब उभारने की तल्लीनता तो ऐसी है कि कहीं बंदूक चलती है तो भी कवि को आलोक पैदा होता दिखता है और मकान के ऊपर गेरुआ प्रकाश सा छा जाता है। वेदना भी दहकती और जलती हुई लगती है। यानी, अंधकार व्यंजित करती कविता में रोशनी के उदाहरणों की अलग से सूची बनाई जा सकती है। न तो यह विरोधाभास है, न असंगति। न ही किसी काव्य-रूढि का पालन करने की कृत्रिम कोशिश जैसा कि पुरानी कविताओं में हमें दिखता था। अंधकार के ऐसे भयावह प्रकोप, जो सामान्य अंधकार नहीं बल्कि विचार व मनुष्यता के अभाव के कारण छाया अंधकार है, को उभारने के लिए प्रकाश-बिंब पैदा किए गए हैं ताकि अंधकार की एकरसता भंग हो और अंधकार अधिक प्राकृतिक लगे। ऐसा न लगे कि कवि अपनी संवेदना को किसी दिखावे के अंधकार के हवाले कर चुका है या वह किसी छटपटाहट की बीमारी की गिरफ्त में है जिसे आत्मसंघर्ष नहीं माना जा सकता है। रोशनी के लक्षण या उदाहरण उसके गहरे आत्मसंघर्ष को व्यक्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आत्म-संघर्ष की मुख्य विशेषता यह होती है कि वह परस्पर विरोधी मनोदशाओं के मध्य स्वयं को पाता है और अपनी उन मनोदशाओं के बीच नैतिक मूल्य व निर्णय को भी जन्म देता है। सामान्य रूप से व्यक्ति अपने भीतरी विचारों के बारे में उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक, उत्कृष्ट-निकृष्ट आदि का तेजी से निर्णय नहीं करता है पर आत्म-संघर्ष में यह एक विशेष तीव्रता के साथ घटित होता है। इसी आत्मसंघर्ष में आलोक व अंधकार के विरोधी चित्र साथ आते हैं और उनके सहारे जो नाटकीयता पैदा होती है वह वास्तविकता के तीखेपन को व्यक्त कर देती है। इस आत्मसंघर्ष का एक पक्ष ज्ञान व अनुसंधान की नयी मध्यवर्गीय स्थितियों से भी जुड़ता प्रतीत होता है। भारतेंदु युग से लेकर छायावाद तक निरंतर ज्ञान-अनुसंधान की चेष्टाएं साहित्यिकों के भीतर विकसित होती दिखती है पर स्वतन्त्रता के बाद सहज ही उनका उद्देश्य बदल गया। न्याय, समानता, शांति व मुक्ति के उद्देश्य व्यक्ति की अनुसंधानी वृत्ति का अभिन्न अंग बन गए। अनुसंधानी वृत्ति के सहज बौद्धिक दबाव के कारण वह अपने परिवेश से ठोस मूर्तगत व भौतिक परिचय कायम करने की तरफ तेजी से बढ़ता है। नयी स्थितियों का सामना करने की चेष्टा उसके अहं को सहलाती है तो झकझोरती भी है। मुक्तिबोध की कविताओं की तरह ही उनकी कथाओं में ऐसे पात्र बहुत हैं जो शहर की गलियों, छोटे चायखानों, रेल पटरियों, मजदूर बस्तियों आदि को रहस्यमय भाव से देखते हैं और उनसे जुड़ने की ललक उनमें जाहिर होने लगती है। सड़क पर पैदल चलते या सड़क पर भागते पात्र कई स्थानों पर आते हैं जो अपने शहरों को किसी खोजी निगाहों से निहार रहे हैं। उनकी अंधेरे में नाम से कहानी भी है। वैसे अंधेरा शब्द का प्रयोग कर हिन्दी में ही कई महान रचनाएं लिखी गई हैं। अंधकार शब्द ने आत्मभ्रम से लेकर सत्ता के खिलाफ इंसानी भावभंगिमा तक को उभारने में सहायता की है। भारतेंदु का अंधेर नगरी, मोहन राकेश का ‘अंधेरे बंद कमरे’, निर्मल वर्मा की कहानी ‘अंधेरे में’ आदि ऐसी ही रचनाएं है। दुष्यंत ने गजल में बेपनाह अंधेरे की बात करते हुए कहा –
मैं इन बेपनाह अंधेरों को कैसे सुबह कह दूं

मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
मुक्तिबोध ने अंधेरे में शीर्षक से कहानी भी लिखी और कविता भी। मुक्तिबोध की अंधेरे में नामक कहानी का पात्र शहर की गलियों और संरचना से सहानुभूति का भाव प्रकट करता चलता है। उनकी अंधेरे में कविता में भी आत्म-विस्तार की बेचैनी दिखती है जीवन-जगत से संबंधों को लेकर वैसा ही दुविधामय संघर्ष। पूरी कविता किसी शहर के ऊपर छाए डर, हादसे व आतंक को व्यक्त करते हुए उस शहर के यथार्थ का अनुसंधान कर रही है और प्रकारांतर में यह कवि मन की दशा है कि वह अपनी आत्मा का सूक्ष्म निरीक्षण करता चल रहा है। अंधेरे में कहानी का युवक पात्र अपने ही मध्यवर्ग के ढीले-ढाले, सुस्त, आत्मसंतोषियों के जीवन के पाप के बारे में चिंतित हो रहा है तो अंधेरे में कविता में भी वही आत्मधिक्कार का भाव जगह-जगह छलकता दिखता है। उससे पैदा होने वाले असहनीय दर्द की लहर पूरी कविता में निरंतर उठती और गिरती रहती है।
क्या कहूं

मस्तक कुंड में जलती

सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती

मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात
यानी अगर उनकी रचना प्रक्रिया को ध्यान से देखें तो उनकी कहानियां और कविताएँ शिल्प में भिन्न हैं लेकिन रचना प्रक्रिया के स्तर पर उनमें समानता है। भीतरी वेदना, बेचैनी, अपराध बोध और संघर्ष को रचनात्मक की दोनों ही ही विधाओं में एक साथ व्यक्त कर रहे थे। कहानियां और कविताएँ विधाओं के बंटवारे को नहीं बल्कि पूरक होने के तथ्य को सिद्ध करती हैं। अंधेरे में कविता का शीर्षक लेखक के साथ-साथ पूरे समाज की मनोदशा और संघर्ष की बेबाक बयानी करने वाला शीर्षक था और कविता का पूरा विन्यास और उसकी अर्थसंकुलता में निजी-सामाजिक, राजनीतिक-घरेलू, भीतरी-बाहरी जैसे समस्त पारंपरिक द्वैत निरर्थक हो गए थे और ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक अंधकार हर जगह उतर आया है। उस अंधकार से संघर्ष की व्याकुलता भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है। जीवन की सारी मौज-मस्ती और बेफिक्री कहीं हवा हो चुकी है। बहुत सारी सामाजिक विकृतियों का उपहास उड़ा कर बच निकलने के बजाय उनके सबसे खतरनाक रूपों का सामना करने की मजबूरी दरपेश है। ऐसे जटिल दुष्ट समय में समाज के आततायी वर्गों से संघर्ष का मोर्चा केवल जनांदोलन, क्रांति या सामूहिक संघर्ष के जरिए नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के स्तर पर उसकी दुर्लभ ईमानदारी के कारण आत्म-संघर्ष के माध्यम से भी समृद्ध हो रहा है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि मुक्तिबोध के लेखन में आत्मसंघर्ष है पर उनके लेखन को तथा अंधेरे में कविता को केवल आत्म-संघर्ष की कसौटी पर कसना एक सीमा तक हीठीक है क्योंकि उनका लेखन आत्म-संघर्ष के साथ-साथ समाज में जो विभिन्न स्तरों पर उठापठक, स्वार्थसंघर्ष, नेपथ्य में चलते षडयंत्र हैं, उन्हें भी उजागर करता हैं। कई बार तो लगता है कि आत्म-संघर्ष केवल रचनात्मक प्रयोग की तरह है। वह सुचिंतित पद्धति या माध्यम का भी रूप ले लेता है और इस तरह आत्म-संघर्ष समाज के जटिल संघर्षों का आईना बन जाता है।
मुक्तिबोध का एक दुर्लभ चित्र
यह कविता मुख्य रूप से किसी लेखक कीगहरे निजी आवेग में लिखी डायरी की तरह भी लगती है। ऐसी डायरी जिसमें कोई अपनी उलझनों को व्यक्त कर रहा है। उसके भय, आशंकाएं, हौसला और संभावना सब चित्रित हो रहे हैं और गद्य के कई दिलचस्प उदाहरण काव्य-सौंदर्य को भी जन्म दे रहे हैं। कविता का शिल्प निःसंदेह प्रयोगशील है और नामवर सिंह ने नयी समीक्षा की शब्दावली का प्रयोग कर उसका विश्लेषण पहले ही कर दिया है। पर मुख्य बात यह है कि इसमें किन्हीं लंबे प्रसंगों में आए सामान्य कथन बहुअर्थी ध्वनियों के रूप में प्रकट होते हैं और विडंबना की सृष्टि करते हैं। कोई कथन किसी एक अर्थ में समाप्त नहीं होता है बल्कि वह मौलिक अर्थ-संधानों को आमंत्रित करता प्रतीत होता है। जैसे कि कविता में आती है यह पंक्ति-
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिए वे

मेरे ही विवेक-रत्नों को ले कर

बढ़ रहे लोग अंधेरे में सोत्साह

किंतु मैं अकेला

बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।
यहाँ बौद्धिक जुगाली में व्यस्त विद्वान वर्ग के तनाव, विवशता और स्वार्थ के बारे में मुक्तिबोध बार-बार किसी विवेचन की मांग करने लगते हैं। इस में मुक्तिबोध की अपनी दिक्कतें भी शामिल हैं क्योंकि जन की बात करने वाले मुक्तिबोध खुद भी देश के करोड़ों किसानों की संवेदनाओं से कटे हुए थे। फिर भी मुक्तिबोध जानते हैं कि प्रश्न पूछने की कला से भी बड़ी होती है बार-बार अपने लिए सही प्रश्न तलाशने की कला। ‘अंधेरे में’ कविता भी उत्तर से अधिक प्रश्न की साधना करने वाली लंबी कविता है। कविता में छायावादी कविता खासकर निराला ने सरोज स्मृतिराम की शक्तिपूजा लिख कर लंबी कविता की संरचना में आत्मसंघर्ष की संवेदना को व्यक्त करने की जो परंपरा डाली, उसका प्रभाव भी इस पर दिखता है। छायावाद की ये कविताएँ या मुक्तिबोध की लंबी कविताएँ इस दावे को मिथ्या साबित करती थीं कि लंबी कविता का ढांचा प्रायः किसी सामाजिक, मिथकीय या कथात्मक विषयवस्तु के ज्यादा अनुकूल है। पर मुक्तिबोध को खासतौर पर इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने लंबी कविता के शिल्प का इस्तेमाल आत्मसंघर्ष और सामाजिक चेतना के सहसंबंधों को उभारने में किया है, न कि उन्हें परस्पर विरोधी दिखाने के लिए।
आलोचकों को मुक्तिबोध के शिल्प से काफी शिकायत रही हैं। जैसे कि मुक्तिबोध के अयथार्थवादी शिल्प के प्रति नामवर सिंह ने अपना आकर्षण व्यक्त किया। इसके बावजूद नामवर सिंह को लगा था कि मुक्तिबोध के पास गहरी चिंतन शक्ति तथा बड़ा विषय लेने का सामर्थ्य तो है पर उसे वहन करने लायक कलात्मक सामर्थ्य नहीं है। उन्हें यह भी लगा था कि मुक्तिबोध न तो दूसरे प्रयोगशील कवियों की तरह लय में कोई प्रयोग करते हैं और वे बिंबों को भी अनायास ज्यादा खींचते हैं जिससे एकरसता पैदा होती है। विरोधी बिंबों का ज्यादा ही प्रयोग करते हैं और कोमल चित्रों को प्रस्तुत करते हुए अचानक कोई कठोर चित्र रखते हैं जिससे उनकी कविता का पाठक सकपका जाता है और उसकी संवेदना झकझोरने का कवि-उद्देश्य पूरा हो जाता है। उनका मानना था कि यह शिल्प अब पुराना हो गया है। ये सारी शिकायतें एक तरफ। मुख्य बात यह है कि मुक्तिबोध के पास जो गहरी अनुभूति तथा उसे व्यक्त करने की दुर्लभ कशमकश है, वह उनके शिल्प के ऊबड़ खाबड़पन को भी आकर्षक बना देती है। अनुभूतियों की तीव्रता थोड़े मुश्किल, चक्करदार या न तराशे गए शिल्प में भी स्निग्धता भर देती हैं। उनके चिंतन की इंटेनसिटी स्वयं में काव्य-शिल्प का रूप ले लेती है और उस चिंतन की गहनता के सामने कविता के लय संबंधी दोष तथा बिंबों की असंगतता के सवाल जरूरी होते हुए भी बेमानी लगने लगते हैं। विचाराकुल मन का जो स्थापत्य कविता में ढल कर आता है, वह कला के स्थापत्य को अप्रासंगिक बना देता है।
  
मुक्तिबोध को हमेशा लगता था कि व्यक्ति के भीतर सचाई के पक्ष में खड़े होने और साहसपूर्ण अभिव्यक्ति की जो अपार संभावनाएं हैं, उसका उसे उपयोग नहीं करने दिया जाता है। वह बौद्धिकता को अपनी ईमानदारी से अर्जित तो करना चाहता है पर शीघ्र ही उसे अहसास होने लगता है कि वर्तमान समाज का जैसा रूप व गठन है उसमें उस ईमानदार बौद्धिकता के लिए स्वीकृति का अभाव है। इस कारण वह उस बौद्धिकता के बोझ को उठाने से खुद ही इनकार कर देता है। उसका नैतिकता बोध कुछ दूर तक सही राह दिखाता है पर नैतिकता के रास्ते पर चलने के जोखम उसे समाज के दूसरे लोगों जैसा बन जाने के लिए विवश कर देते हैं। वह रोज समाज से अपने संबंधों पर विचार करता है और यह महसूस करता है कि समाज से वैचारिक संबंध के स्थान पर स्वार्थपूर्ण संबंध बनाने की चेष्टा ही ज्यादा हितकर साबित हो सकती है। यथार्थ को पहचानने, उसकी समस्याओं पर विचार करने और उसे बदलने के लिए वह जागरूक होता है तो उस जागरूकता को वह स्वयं ही नष्ट भी कर देता है। लेकिन नष्ट कर देने के बावजूद वह किसी अपराध बोध का शिकार होता चला जाता है। अंधेरे में कविता में पंक्ति आती है-
पाता हूं निज की खोज के भीतर

विलुब्ध नेत्रों से देखता हूं द्युतियां

मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर

विभोर आंखों से देखता हूं उनको

पाता हूं अकस्मात

दीप्ति से वलयित रत्न वे नहीं हैं

अनुभव, वेदना, विवेक निष्कर्ष

मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं
कविता के इस खंड में बाहरी चेतन मन और अवचेतन के झगड़े का चित्र उभरता है। बाहरी सामाजिक चेतन मन बहुत सारी ईमानदारी व ईमानदारी से जुड़े संकल्प व विचारों को मन के किसी भीतरी कोने में दबा देता है और उसका मुखौटा ही उसका कवच बन जाता है। इस सत्य को वह अपनी कहानी क्लाड ईथरली में भी लिखते हैं। यह कहानी उन्होंने 1959 के आसपास लिखी थी। कथानायक क्लाड ईथरली वह व्यक्ति था जिसने दूसरे महायुद्ध में जापान के हिरोशिमा नगर में ऐटम बम बरसाए थे और, कथावस्तु के अनुसार, वह इस पाप का प्रायश्चित करना चाहता था लेकिन उसे पागलखाने में डाल दिया गया। इस कहानी में पंक्ति आती है- हमारे अपने-अपने मन-ह्रदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उस पागलखाने में पड़े रहें। सहज ही समझा जा सकता है कि काव्य और कथा, दोनों में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष निरंतर तीव्र होता जा रहा था और वे जितने प्रश्न संसार व समाज से पूछते थे, उतने ही प्रश्न मानव-मन से भी पूछते थे। जितना उन्हें बाहरी बेईमानियां चिंतित करती थीं, उतना ही उन बेईमानियों के साथ सामंजस्य कायम कर लेने की मानव-चेतना की प्रवृत्ति उन्हें परेशान करती थी। उन्हें मनुष्य अंतिम तौर पर पशुवत, मक्कार या धूर्त नहीं लगता था बल्कि ऐसा प्राणी लगता था जिसमें बेहतर होने की हमेशा संभावनाएं हैं और उन संभावनाओं के बारे में मनुष्य को स्मरण कराना जरूरी है। इसीलिए उसके मन के उन कोनों में भी प्रवेश करना होगा जहां उसने अपने ही उदात्त आदर्शों को दबा कर, कैद कर के रखा है। वे कवियों की उस महान परंपरा का ही विस्तार करते हैं जिन्होंने वेदना को गरिमापूर्ण भाव समझा और सार्थक जीवन व रचनात्मकता के लिए संचालक शक्ति के रूप में वेदना के महत्त्व को समझा।
अंधेरे में कविता बहुत सारे सामाजिक, वैश्विक और विचारधारात्मक प्रसंगों को विस्तृत फलक पर उठाती है। यह करते हुए वह सधे हुए व्यंग्य का सहारा लेती है और प्रायः वे जिस कुलीन आभिजात्यता के बारे में जीवन भर लिखते रहे, उसके खिलाफ कई सार्थक वक्तव्य देती है। यह व्यंग्य उस व्यक्ति का नहीं है जो बड़ी सरलता से, तटस्थ हो कर व्यंग्य की चोट कर रहा है बल्कि उसका व्यंग्य है जो घात-प्रतिघात तथा त्रासदियों के बीच है और उसके मुँह से निकले व्यंग्य में पीड़ा के सीधे साक्षात्कार का सच प्रकट हो रहा है। इस स्तर पर उनकी कविता व कहानियों में अदभुत एकता नजर आती है। जैसे कि अंधेरे में वे कई स्थान पर महानगरीय बौद्धिकता पर प्रहार करते हैं और वहां घूमते-टहलते अवसरवादियों पर निशाना कसते हैं। यह तत्कालीन भारत के छोटे शहरों के आदर्शवाद का महानगरों के खिलाफ प्रतिरोध है। उन्हें साहित्यिक, चिंतक, नर्तक, शिल्पकार आदि की चुप्पी खटकती है और अक्सर तो फासीवादी जुलूस में कवियों व आलोचकों का शामिल होना घनघोर आश्चर्य में डाल देता है। आश्चर्य के भाव के सहारे वे यथार्थ को व्यक्त करने की शैली अपनाते हैं और उसमें सफल भी हो जाते हैं। ‘क्लाड ईथरली’ का पात्र कहता है- तुमने लाल ओठ वाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखीं, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे। शानदार मोटरों में घूमने वाले अतिशिक्षित लोग नहीं देखे? नफीस किस्म की वेश्यावृत्ति नहीं देखी? सेमिनार नहीं देखे?’ यह पात्र यह बताना चाहता है कि भारत के भीतर एक अमेरिका बसा हुआ है। अंधेरे में कविता में भी बौद्धिकों और अय्याश उच्चवर्ग की भ्रष्ट हमजोली उन्हें दिखती है। रचनाकारों का वर्ग लोकतन्त्र विरोधी शक्तियों के गुट में शामिल हो गया है और मूल्य-निष्ठाएं किन्हीं वर्गीय निष्ठाओं के आगे दम तोड़ चुकी हैं। वे सब एक साथ एक जुलूस में शामिल होकर किसी खूंखार उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकले हैं।
भाई वाह!

उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कवि गण

मंत्री भी, उद्योगपति और विद्धान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

बनता है बलवन

हाय, हाय!!
कुल मिला कर कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कहानियां हों या उनकी कविताएँ, मध्य वर्ग की सच्ची बौद्धिक स्वतन्त्रता की खोज करने वाली रचनाएं हैं। वे हमें इस सचाई से रूबरू कराती हैं कि मध्य वर्ग बौद्धिक आजादी तो चाहता है पर वह बौद्धिक जोखम लेने से बचता है। खुद को बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करने वाले लोग अपनी बौद्धिकता का निर्मम परीक्षण करने से बचना चाहते थे। कविता का मकसद उन भ्रमों को तोड़ना भी है जिसके अंतर्गत मान लिया जाता है स्वतन्त्रता को लेकर चिंता करना व्यर्थ है जब वह औपचारिक रूपों में मिली हुई है। पर वही स्वतन्त्रता निरंतर निगरानी, सौदेबाजी, समझौते या कांट-छांट के अधीन रहती है और मुक्तिबोध हमें इसी दिशा में सचेत करना चाहते हैं। यह भी कह सकते हैं कि उनका लेखन वस्तुतः समाज के संघर्षों के केवल असंबद्ध टुकड़े या ध्यानाकर्षक चित्र नहीं निर्मित करता है बल्कि उसे सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। लेखन से हमें पूंजीवाद, मध्य वर्ग की बनावट, निम्नवर्ग के रोजाना के संघर्ष, राजनीतिक तानाशाही आदि के बारे में केवल सृजनात्मक विवरण नहीं बल्कि स्पष्ट वैचारिक तथा विचारधारात्मक अंतर्दृष्टि भी प्राप्त होती है। 
वैभव सिंह
 
सम्पर्क –

मोबाईल – 09711312374

आशुतोष कुमार का आलेख ‘मुक्तिबोध की कविताएँ: ‘कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?’

युवा आलोचक आशुतोष कुमार का एक महत्वपूर्ण आलेख आलोचना के मुक्तिबोध अंक में प्रकाशित हुआ है. यह आलेख मुक्तिबोध के रचना-कर्म को जानने-समझने के लिए एक जरुरी आलेख है. आशुतोष कुमार उन कुछ विरल आलोचकों में से हैं जो अत्यन्त कम लिखते हैं. फेसबुक पर सक्रियता के साथ-साथ प्राध्यापन कर्म और अन्य सामाजिक सक्रियताओं के चलते भी वे लेखन को कम समय दे पाते हैं लेकिन जब भी लिखते हैं तो डूब के लिखते हैं.  आज पहली बार पर प्रस्तुत है आशुतोष कुमार का आलेख ‘मुक्तिबोध की कविताएँ : कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?’  

मुक्तिबोध की कविताएँ: कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?
आशुतोष कुमार
 तड़िन्मय वायलिन  
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, मुक्तिबोध की कविताएँ और अधिक समकालीन होती जाती हैं। यह गुण मुक्तिबोध को हिंदी के दूसरे बड़े कवियों से अलग करता है। और कवियों को प्रासंगिक बने रहने के लिए पुनर्पाठ की जरूरत पड़ती है। मुक्तिबोध के साथ ऐसा लगता है, जैसे उनका पहला ही पाठ निरंतर जारी है। कुछ उसी तरह, जैसे मुक्तिबोध को लगता था कि उनकी कविताओं की रचना एक लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया है।
मुक्तिबोध की कविताओं के इस गुण का कारण उनका भविष्यदर्शी होना है। भविष्यदृष्टि इतिहास-दृष्टि की कोख में जन्म लेती है। भविष्य वही देख सकता है, जिसे इतिहास की गहरी पहचान हो। जो इतिहास की चाल समझता हो। इतिहास के साथ जीवित संवाद करने वाली कविताएँ हमेशा सजीव बनी रहती हैं।  
उस दिन[१] कुछ कम चर्चित कविता है। लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं की भविष्य दृष्टि को समझने के लिहाज से बेजोड़ है। यह कविता पर्सिपोलिस की महान लाइब्रेरी के सिकंदर  द्वारा जलाए जाने की घटना का संदर्भ लेती है. यह घटना 330 ईसवी पूर्व घटित हुई थी। कहा जाता है कि पर्सिपोलिस के दहन के पीछे एक सदी पहले  एथेंस के एक्रोपोलिस (सर्वोच्च धामिक केंद्र) के फारसियों द्वारा किये गए विनाश का बदला लेने की भावना थी।
…… 
इतने में अँधेरे भीतरी घर से 
निकल कर काल पीड़ित सत्य (ऊंचा क़द
जमा कर नाक पर टूटा हुआ चश्मा
दिखा अखबार) कहता है 
सुना तुमने!!
धधकती जा रही है ग्रंथशाला भी 
हमारे पर्सिपोलिस की!!
कहाँ फ्रामरोज़ (पण्डितराज)
केटायून (कवयित्री)
कहाँ बहराम (संपादक)
कहाँ रुस्तम 
उन्होंने सिर्फ नालिश की 
अरे रे, सिर्फ़ नालिश की अंधेरी उस अदालत में 
जहां मुंशी और मुंसिफ पी रहे थे 
लुटेरे के अर्दली के साथ 
रम, शैम्पेन, ह्विस्की -जब 
उड़ेले जा रहे थे खून कैरोसीन के पीपे 
लगाई जा रही थी सींक माचिस की 
कहाँ थे तुम 
कहाँ थे तुम 
कि जब दस मंजिलों, दस गुंबदों वाली 
सुलगती जा रही थी लायब्रेरी पर्सिपोलिस की 
हमारे गहन जीवन-ज्ञान 
मानव-मूल्य के उस एक्रोपोलिस की!!
लाइब्रेरी का जलाया जाना जीवन-ज्ञान और मानव-मूल्य की विरासत को नष्ट करना है।  सदियों की प्रगति को मटियामेट कर मनुष्यता को पीछे धकेलने की कोशिश करना है। यही कारण है कि सदियों बाद भी पर्सिपोलिस की घटना मनुष्यता की स्मृति में एक असहनीय घृणित अपराध की तरह दर्ज़ है। बदले की भावना इस तरह के अपराध को औचित्य प्रदान नहीं कर सकती। भारत में पिछले कुछ दशकों में ऐसी  बहुत सारी घटनाएं घटी हैं, जिन्हें पर्सिपोलिस के समतुल्य कहा जा सकता है। देश ने आपातकाल देखा और विशेष कानूनों की शक्ल में अघोषित आपातकाल से भी रू-ब-रू हुआ। एम. एफ. हुसैन, यू. आर. अनंतमूर्ति, गिरीश कर्नाड, अरुंधति राय, पेरुमल मुरुगन और शीतल साठे जैसे कितने ही कलाकारों और लेखकों के खिलाफ नफरत और हिंसा की मुहिम चलाई गयी। हुसैन को अपने जीवन के उत्तरकाल में देश छोड़ कर जाने के लिए मजबूर किया गया। मुरुगन इतने मजबूर हुए कि उन्होंने अपनी लेखकीय मृत्यु की घोषणा कर दी। 
अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ जब ऐसी मुहिम चलाई जाती है, और नालिशों-शिकायतों के सिवा कोई  प्रभावशाली प्रतिरोध सम्भव नहीं हो पाता, तब लेखकों-कलाकारों की बड़ी संख्या अपने आप को सत्ता के अनुकूल बनाने में जुट जाती है। सेल्फसेंसरशिप काम करने लगती है। जीवन ज्ञान और मानव मूल्य के विध्वंस का एक रूप यह है।  
दूसरा रूप है -पाठ्यक्रम और शिक्षा के ढाँचे में बदलाव। शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य के रूप में नैतिक शिक्षा पर जोर देना, नैतिक शिक्षा को भी बुनियादपरस्त और रूढ़िवादी ढंग से परिभाषित करना, आधुनिक ज्ञान विज्ञान के ऊपर मिथकों और धर्मशास्त्रों को महत्व देना, श्रेष्ठ अकादमिक संस्थानों की कमान वफादारी के आधार पर नाकाबिल लोगों के हाथों में दे देना। ये सारी घटनाएं ज्ञान-निर्माण की संस्थाओं और शोध के वातावरण को नष्ट करती हैं। यह सब कुछ होता रहा है, लेकिन बौद्धिक नेतृत्व उसके मुकाबले की रणनीति बनाने में असफल रहा। उसका विरोध नालिशों और अपीलों तक महदूद रहा। उत्तरोत्तर बिगड़ती जाती इस परिस्थिति में मुक्तिबोध की कविता अधिकाधिक प्रासंगिक होती जान पड़े तो हैरानी क्या!
लेकिन तब के पर्सिपोलिस और आज के भारत में बड़ा अंतर यह है कि वहां विनाश मचाने वाले विदेशी आक्रमणकारी थे, जबकि यहाँ अपने ही लोग हैं। यह कविता सन तिरेसठ में लिखी गयी थी। कुछ ही महीने पहले भारत चीन युद्ध हो कर चुका था, जिसमें भारतीय पक्ष को अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा था। ऐसे समय में हमारे बीच के किसी नव साम्राज्यवादीकी कल्पना करना आसान न रहा होगा। यानी कविता के अगले अंश से २०१४-१५ का पाठक जितनी आसानी से जुड़ सकता है, उस तरह उस जमाने के पाठक का जुड़ पाना नामुमकिन लगता है। ख़ासतौर पर इसलिए, कि आज हम एक के बाद एक सरकारों को देश में नए वैश्विक साम्राज्यवाद के अनुकूल नीतियां लागू करते देखते हैं। साथ ही, कमजोर पड़ोसियों के बीच भारत को लोकल  सुपरपावर के रूप में स्थापित करने के सपने बेचते भी। 
……. 
क्षितिज पर पोत डामर जब
गुलाबों, सूर्यमुखियों, पारिजातों पर 
छिड़क कर स्याह, गाढ़ा, कोलतारी द्रव 
हमीं में से विदेशी-सा 
हमारे बीच का ही एक 
नव-साम्राज्यवादी.… 
लोभ के आवेश में आ कर 
उजाड़े जा रहा है 
ज़िंदगी की बस्तियां 
पददलित मानव मूल्य 
हैं आक्रांत आत्माएं 
तुम्हे क्या चाहिए 
पिस्तौल या वायलिन!!
पिस्तौल  या वायलिन की बहस स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत है। हिंसा और अहिंसा की बहस स्वतंत्रता के बाद क्रांति और कला की बहस बन गई है। कविता इस बहस में एक पक्ष चुनने की जगह उसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करती है।
……. 
मूर्खों, तुम्हारे हाथ में दुर्भाग्य या सौभाग्य से 
पिस्तौल या वायलिन। …. 
अथवा अन्य कोई अस्त्र आ भी जाए 
वह छूंछा खिलौना ही रहेगा, क्योंकि 
तुम में हैं कहाँ जनगुण। …. 
सहज व्यक्तित्व का ही वह समर्पणशील भोला भाव 
जो इस ज़िंदगी की धमन भट्टी में परीक्षित हो 
बने इस्पात !!…. 
बौद्धिकों की बहस अप्रासंगिक इसलिए है कि यह निरी अकादमिक बहस है। इस्पात की तरह ठोस बनने के लिए उसे ज़िंदगी की धमन भट्टी से गुजरना चाहिए। लेकिन जनता से दूर हो चुका बुद्धिजीवी न तो इतना भोला है, न समर्पणशील कि वह धमन भट्टी से गुजरना मंजूर करे। 

युवा मुक्तिबोध का एक दुर्लभ चित्र
लेकिन मुक्तिबोध की कविता भविष्य के भविष्य तक झाँक सकती है। 
… 
कोई कर रहा होगा 
ऐसा अस्त्र आविष्कार निस्संदेह 
जिसके तड़िन्मय परमाणुओं में से 
मधुर आत्मीय कोई वायलिन स्वर और 
उसकी हर लहर में से 
उभरता एक ज्ञानावेश दीपित स्वप्न 
मुक्तिबोध की तमाम कविताऐं गवाह हैं कि वे सचमुच एक ऐसे तड़िन्मय अस्त्र की तलाश में थे, जिससे वायलिन के स्वर निकलते हों। ज़िंदगी की बस्तियां उजाड़ने वाली व्यवस्था शांतिपूर्ण तरीकों से नहीं बदली जा सकती। हथियारों की  आलोचना का मुकाबला आलोचना के हथियारों से नहीं किया जा सकता, इसे समझने के लिए कार्ल मार्क्स होने की जरूरत नहीं है। हिंसा और पशुबल पर आधारित तंत्र को नितांत अहिंसक तरीकों से छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। लेकिन संदेह नहीं कि ऐसे परिवर्तनकारी अस्त्र की मूल प्रकृति मधुर और आत्मीयताव्यंजक होगी। आखिर वह व्यवस्था में अन्तर्निहित उत्पीड़न और आतंक के अंत का उपकरण होगा।
ध्यान  से सुनें तो मुक्तिबोध की कविता ऐसी ही तड़िन्मय वायलिन है। उसमें एक ओर तो बदलाव के लिए कठिन वैचारिक संघर्ष करने का माद्दा है तो दूसरी ओर संवेदना के गहनतम धरातलों तक पहुँचने की ज़िद। एक ओर ज्ञानात्मक संवेदन है, दूसरी ओर संवेदनात्मक ज्ञान। एक ओर आक्रोश और संकल्प है तो दूसरी ओर जीवन ज्ञान और मानव मूल्य। एक ओर सभ्यता-समीक्षा है तो दूसरी ओर आत्म-आलोचन। एक ओर समाज और समय है तो दूसरी ओर व्यक्ति और परिवार। एक ओर वह राजनीतिक है, दूसरी ओर  एकांतिक। एक ओर इतिहास है, दूसरी ओर भविष्य। एक ओर यथार्थ है, दूसरी ओर फैंटेसी। एक ओर जीवन है, दूसरी ओर कला। वह एक ओर से तड़िन्मय है और दूसरी ओर  से संगीतमय। 

मुक्तिबोध
एक ओर प्रगतिवाद है, दूसरी ओर नई कविता।  
ये दोनों ओर  अलग अलग नहीं, अकेले नहीं। एक दूसरे से जुड़े हुए, एक दूसरे पर निर्भर हैं। उनके बीच की द्वन्दात्मक एकता ही मुक्तिबोध की कविता का मार्क्सवाद है। यह उनकी कविता का मूल स्वभाव है, अंतःप्रकृति है। मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी भविष्यदृष्टि के बिना न उनकी कविता संभव है, न उस कविता का आशंसन। उनकी कविता मार्क्सवाद से समस्याकुलित नहीं है। जैसा कि कुँअर नारायण सोचते हैं।[२]और न वहमार्क्सवाद के बावज़ूदकविता है। जैसा कि निर्मल वर्मा[३]और अशोक वाजपेयी[४] को लगता है। 
उनकी समस्त रचनाशीलता के पीछे केन्द्रीय चिंता है -आधुनिकता की भारतीय परियोजना की ऐतिहासिक विफलता। इस विफलता में भारतीय बौद्धिक की भूमिका। वह भूमिका, जोरक्तपायी वर्गअर्थात स्वामी वर्ग के साथ उसकी नाभिनालबद्धता से निर्धारित होती है।[५] 
इस विफलता का प्रतिकार उनकी कविता का बुनियादी सम्वेदनात्मक उद्देश्य है। यही कारण है कि बौद्धिक उद्यम और वैचारिक संघर्ष उनकी कविता की असली जमीन है।  
ये सारी विशेषताएं ऊपर उद्धृत कविता उस दिनमें अनायास लक्षित की जा सकती हैं।
  
भूल-गलती 
‘भूल-गलती’ मुक्तिबोध की सब से लोकप्रिय कविताओं में है। इस कविता में एक मध्यकालीन सुल्तानी दरबार का चित्र है। यह एक गतिशील बिम्ब है, जिसमें भूल-गलतीतख़्त नशीन है। जंजीरों में जकड़ा हुआ ईमानतख़्त के सामने पेश किया गया है। वह घायल है। उसके बदन पर जुल्म के साफ़ निशान हैं। लेकिन जिन्हें बोलना चाहिए, जो बोल सकते थे, खामोश रहे।  
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश!!
उस दिनकविता में फ्रामरोज़, केटायून, बहराम और रुस्तम, जिहोने अंधेरी अदालतों में नालिश करने के सिवा कुछ न किया। इस कविता में मनसबदारों और सिपहसालारों के अलावा अल गज़ाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी के साथ शाइर और सूफी भी हैं। सभी कतार बांधे, सर झुकाए, हाथ बांधे बेजुबां बेबस सलाममें खड़े हैं। 
‘भूल-ग़लती’ लोकप्रिय तो है, लेकिन इस पर आलोचकीय सम्वाद कम हुआ है। सवाल है, आखिर यह किसकी भूल-गलती है, और क्या है। रामविलास शर्मा इसे मानव- मन में पैठे शैतान के रूप में देखा है।[६] यह इतनी अनैतिहासिक व्याख्या है कि इसे गंभीरता नहीं लिया जा सकता। 
कुछ लोगों का मानना है कि इसमें नेहरू सरकार को निशाने पर लिया गया है। कोई कहता है विकास के पश्चिमी माडल‘[७] के लिए उनके अनुराग के चलते तो कोई कहता है तेलंगाना जैसे क्रांतिकारी आंदोलनों के सैन्य दमन के उनके फैसलों के कारण[८] कविता में नेहरू का ज़िक्र नहीं है। कविता की रचना के समय को ध्यान में रख कर इसका संबंध नेहरू से जोड़ा जाता है।  
लेकिन क्लासिकी मेयार की कविताओं का कालबोध इतना तात्कालिक नहीं होता। वे इतिहास के एक बड़े फलक पर युग-परिवर्तन की आहटों को सुनने और समझने की कोशिश से बड़ी होती हैं। 
भूल-गलतीमुक्तिबोध की बहुत सारी कविताओं की तरह एक फैंटेसी है। कामायनी के संदर्भ में फैंटेसी पर विचार करते हुए मुक्तिबोध ने दिखाया है कि किसी गहन जीवन-समस्यासे प्रेरितदीर्घकालीन क्रिया-प्रतिक्रियाओं‘  से निर्मित जीवन की एक ऐसी पुनर्रचना  है, जिसमें जीवन- आलोचनात्मक व्याख्यान के सूत्रसमाए होते हैं। [९]
यह जीवन समस्या जितनी निजी होती है, उतनी ही सार्वजनीन, लेकिन वह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं होती।  
‘भूलगलती’ की फैंटेसी में मध्ययुग का वातावरण है। इस कविता में अरबी-फारसी शब्दों का बाहुल्य है, जैसा मुक्तिबोध की किसी कविता में नहीं मिलता।  अरबी-फारसी भाषाएँ मध्य-युग के इस्लामी नव -जागरण की भाषाएँ हैं। अल गजाली, इब्ने-सिन्ना, अल बरूनी उस नव जागरण के बौद्धिक प्रतिनिधि हैं। लेकिन, जाहिर है, इस फैंटेसी में ये ऐतिहासिक चरित्र समाज की बौद्धिकता मात्र के प्रतिनिधि हैं। इस कविता में वे गुलामों की तरह हाथ बांधे सर झुकाए खड़े हैं। अपने समय में उनकी ऐसी स्थिति कभी भी नहीं थी। मध्य युग के वातावरण के बावजूद कविता हमारेसमय की है। यह हमारी चेतना के रक्तप्लावित स्वर‘, ‘मेरी-आपकी कमजोरियोंऔरहम सब कैदजैसे वाक्यांशों से स्पस्ट है। 
वह ‘भूल-गलती’ भी हमारी ही है, जो जिरह-बख्तर पहन कर दिल के तख़्त पर बैठी है। कैद कर लाया गया ईमान भी हमारा ही है। और वह जो अजीब कराह-सा निकल कर भाग गया है, ताकि सचाई के लिए लश्कर मुहैया कर सके, वह भी हमारी ही चेतना का कोई स्वर है।हम कौन है? आधुनिक भारत के अल ग़ज़ाली। आधुनिकता की भारतीय परियोजना के प्रतिनिधि। भारत का आधुनिक बौद्धिक नेतृत्व।  
इस आधुनिक भारतीय बौद्धिक की भूल-गलती सिर्फ यह नहीं है कि वह पर्सिपोलिस की लाइब्रेरी के विध्वंस का सक्रिय प्रतिरोध नहीं करता। उससे भी ज़्यादा यह कि उसने अपने ही ईमान को क़ैद में डाल दिया है। क्योंकि उस ईमान को ज़िन्दगी की शर्म की-सी शर्त नामंजूर थी! समाज में बौद्धिक की भूमिका क्या है? अपने समय और समाज की गहन आलोचना प्रस्तुत करना, प्रतिगामी मूल्यों और विचारों के विरुद्ध तर्कपूर्ण संघर्ष करना, वैज्ञानिक चिंतन के  विकास के लिए ठोस तर्क मुहैया करना। अगर बौद्धिक यह भूमिका नहीं निभाता तो अपने ईमान के साथ गद्दारी करता है। किसी भी परम्परागत समाज के आधुनिक रूपांतरण की प्रक्रिया में बौद्धिक की यह भूमिका केंद्रीय और अपरिहार्य है।  क्या  पुनर्जागरण और ज्ञानोदय के कलाकारों और चिंतकों के बिना यूरप में आधुनिक चेतना का विकास हो सकता था? आधुनिक मनुष्य-केंद्रित जनतांत्रिक वैज्ञानिक चेतना का विकास पूर्व-आधुनिक ईश्वरोन्मुख सामंती रहस्यवादी चेतना से मुकम्मल संघर्ष किये बिना नहीं हो सकता।  
भारतीय बौद्धिक ने यह जरूरी ऐतिहासिक भूमिका ठीक से नहीं निभाई। बौद्धिक ईमान की रक्षा करने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। कठिनाइयाँ उठानी पड़ सकती हैं। यंत्रणाएं सहनी पड़ सकती हैं। जान से भी हाथ  धोना पड़ सकता है। सभी युगों में युगांतरकारी बौद्धिकों-चिंतकों-वैज्ञानिकों ने यह कीमत चुकाई है। तभी युग परिवर्तन संभव हुआ है। 
ज़िंदगी की शर्म की-सी शर्त को मंजूर कर, अपने ही ईमान को क़ैद कर, भारतीय बौद्धिक ने जो -भूल गलती की, उस की कीमत भारतीय जनता को चुकानी पड़ रही है। यह कीमत भयानक है और उसके बहुविध चित्र मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में खींचे हैं।  
उतनी ही विशदता से उन्होंने इस बौद्धिक भूल-गलती के भी चित्र खींचे हैं। इस भूल-गलती के कारण आधुनिकता की समूची परियोजना के विफल हो जाने का खतरा पैदा हुआ। आधुनिकता के नाम पर मध्यकालीन सामंती चेतना के ही तख्तनशीन हो जाने का खतरा पैदा हुआ। भारतीय दिल के तख़्त पर! जिसका अर्थ है आधुनिकता, वैज्ञानिकता और लोकतंत्र की संभावनाओं का क्रूर समापन।
 मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता    
यह बात और है कि उसका राज स्थायी नहीं हो सकता। मुक्तिबोध का मार्क्सवादी आशावाद कहता है कि सुल्तानी जिरह बख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का एक दिन जरूर हमारी चेतना का रक्त-प्लावित स्वर हमारी हार का बदला चुकाने आएगा। इतिहास  के प्रवाह के विरुद्ध खड़ी चेतना दीर्घजीवी नहीं हो सकती। 
यह बौद्धिक भूल-गलती मात्र मध्यवर्गीय अपराध-बोध नहीं है। मुक्तिबोध की कविताओं में अक्सर मिलने वाले अपराध-बोध को अनेक आलोचकों ने लक्षित किया है। बकौल नामवर सिंह “मुक्तिबोध की रचनाओं में आत्म भर्त्सना का स्वर असंदिग्ध है, लेकिन इस आत्म भर्त्सना को स्वयं मुक्तिबोध की आत्मभर्त्सना कहना भारी भ्रम है। वस्तुतः मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में मैंके द्वारा अपने पूरे वर्ग – मध्यवर्ग – की आत्मभर्त्सना को अभिव्यक्त किया है।”[१०] लेकिन इसे महज मध्यवर्गीय अवसरवाद और कायरता की भर्त्सना  समझना भी भ्रम है। यह अधिक गहरा,  युगव्यापी, अपराधबोध है। यह भारतीय आधुनिकता की समूची परियोजना की विफलता का ऐतिहासिक अपराध-बोध है।  इसके अनेक रूप हैं। अनेक कविताओं में  इसके अलग-अलग आयाम प्रकट हुए हैं। इस ऐतिहासिक भूल-गलती पर ध्यान देने से स्पस्ट होगा कि मुक्तिबोध की कविताओं में मिलने वाले जिस आत्मसंघर्षकी बहुत चर्चा की जाती है, वह भी महज मध्यवर्गीय आत्मसंघर्ष नहीं है। वह एक बृहत्तर बौद्धिक-वैचारिक आत्मसंघर्ष है। 
मुक्तिबोध के ही शब्दों में कहें तो यह उनकी रचनाशीलता की केंद्रीय जीवन-समस्याहै। इसीलिए यह अनेक रूपों में उनकी कविताओं, कहानियों और डायरियों में प्रकट होती है। यह आधुनिक भारतीय बौद्धिकता की वह अनेकस्तरीय ऐतिहासिक विफलता है, जिस  ने भारतीय जन के सभी समकालीन संकट उत्पन्न किये हैं। इसका एक रूप है  मध्यकालीन सामंती चेतना के साथ समझौता। यह समझौता सब से ज़्यादा घनीभूत था उत्तर भारत में। ‘भूल-गलती’ कविता में मध्यकालीन सुल्तानी दरबार के रूपक  के जरिए इस समझौते की परिणतियों को चित्रित किया गया है।   
मुक्तिबोध के चिंतन में इस जीवन- समस्या की केन्द्रीयता का पता उनकी महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार से भी चलता है। मुक्तिबोध कामायनी को मध्यकालीन सामंती समाज के विध्वंस, पूंजीवादी आधुनिक समाज के नव निर्माण और उसके आंतरिक संघर्षों की फैंटेसी के रूप में पढ़ने का आग्रह करते हैं। मुक्तिबोध ने कामायनी की आलोचना मुख्य रूप से मनु के कमजोर चरित्र के कारण की है। वे मानते हैं कि मनु स्वयं जयशंकर प्रसाद के मन की कुछ निगूढ़ प्रवृत्तियों का प्रतिनधि है। यही कारण है की उसकी समस्या को पहचान कर भी प्रसाद जी उसे अपनी प्रचुर लेखकीय सहानुभूति प्रदान करते हैं।  मनु-चरित्र की कमजोरी का कारण यह है कि वह आधुनिक युग में पुराने पतनशील सामंत वर्ग की संतान है। उसके वर्ग के वर्चस्व का अंत हो चुका है।  लेकिन उसके व्यक्तित्व पर सामंती संस्कृति की गहरी छायाएँ हैं। उस संस्कृति  से लड़ने की कौन कहे, मनु का रुख उसके प्रति पर्याप्त रूप से आलोचनात्मक भी नहीं है। यही कारण है कि अपनी खुद की कमजोरियों-गलतियों-अपराधों के प्रति भी उसके मन में कोई गम्भीर, जीवन-परिवर्तनकारी-पश्चाताप नहीं है। इसी मनु को नयी भारतीय संस्कृति का नेतृत्व करना है। इसी मनु को भारत में आधुनिक सभ्यता का निर्माण करना है। 
कौन है यह मनु? उत्तर भारत में आधुनिकता की परियोजना को आगे बढाने वाले, अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने वाले, शुरुआती  पीढ़ियों के लोग उच्च जातियोंवर्गों के लोग थे। मैकाले की अंग्रेज़ी शिक्षा ने आधुनिक विचारों से इनका परिचय कराया। इन्होंने अपनी आधुनिकता पुरानी सामंती संस्कृति से संघर्ष करते हुए हासिल न की थी। उलटे वे उसी संस्कृति में आपादमस्तक डूबे हुए थे। उनकी आधुनिकता ओढी हुई थी, सतही थी। मुक्तिबोध का ख्याल था कि जयशंकर प्रसाद और उनके काव्य नायक मनु दोनों इसी वर्ग के प्रतिनिधि थे। मुक्तिबोध स्वयं को इस वर्ग से सम्बद्ध नहीं करते। संस्कृति-नेतृत्व-कारी उच्च वर्ग के मुकाबले वे अपने को साधारण जन से जोड़ते हैं। इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध की जीवन समस्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है। इससे यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि मुक्तिबोध की कविताओं में दिखने वाला अपराधबोध उनके अपने निम्नमध्यवर्ग का अपराधबोध है।   
मुक्तिबोध मध्य वर्ग को दो हिस्सों, उच्च मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग, में बाँट कर देखते हैं। संस्कृति का नेतृत्व उच्चमध्यवर्ग के हाथों में है, जिसका संश्रय शासक वर्गों के साथ है। यह समझौता मध्यकालीन सामंती  संस्कृति के साथ उसके बौद्धिक समझौते के रूप में भी प्रकट होता है। निम्न मध्य वर्ग उत्पीडित जनसाधारण का हिस्सा है। लेकिन यह वर्ग प्रभु  वर्ग के सांस्कृतिक प्रभाव में रहता है। समय-समय पर उत्पीड़ित वर्ग प्रभु वर्ग के खिलाफ बगावत का झंडा उठाता है। लेकिन आखिरकार हर बगावत व्यवस्था के पक्ष में समायोजित कर ली जाती है। ठीक वैसे ही जैसे भक्ति काल में निम्नवर्गीय संतों के सांस्कृतिक विद्रोह को सगुण भक्ति ने समायोजित कर लिया। 
आधुनिक भारत के वर्चस्वशाली बौद्धिक की  शिनाख्त करते हुए पुनर्विचारमें मुक्तिबोध लिखते हैं —आज संस्कृति का नेतृत्व उच्च वर्गो के हाथों में है – जिनमें उच्च मध्य वर्ग भी शामिल है! संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथों में होता है, वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भावधारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है कि उसकी एक परम्परा बन जाती है। यह परम्परा भी इतनी पुष्ट, इतनी भावोन्मेषपूर्ण और विश्व-दृष्टि -समन्वित होती है कि  समाज का प्रत्येक वर्ग आच्छन्न हो जाता है। यहाँ तक कि जब अनेक सामाजिकराजनीतिक कारणों से निम्न जन श्रेणियाँ उद्बुद्ध हो कर, सचेत और सक्रिय हो कर अपने आप को प्रस्थापित करने लगती हैं, तब वे उन पुराने चले आ रहे भावों-प्रभावों को इस प्रकार संपादित और संशोधित कर लेती हैं, कि  जिससे वे अपनी ज्ञान की परिधि में ज्ञान की ज्वाला प्रदीप्त कर सकें। किन्तु अंततः संस्कृति का नेतृत्व करने वाले पुराने विधाताओं से हारना ही पड़ता है। मेरा मतलब निर्गुणवादी संतों और उस श्रेणी में आने वाले लोगों से है। समाज के भीतर निम्न जन श्रेणियों का वह विद्रोह था, जिसने धार्मिकसामाजिक धरातल पर स्वयं को प्रस्थापित किया था। आगे चल कर, सगुण भक्ति और पौराणिक धर्म की विजय हुई, तब निम्न जन श्रेणियों को पीछे हटना पड़ा। यह आवश्यक नहीं है कि आगे चल कर ये निम्न जन श्रेणियाँ चुपचाप बैठीं रहें।  शायद वह ज़माना आ रहा है, जब वे स्वयं संस्कृति का नेतृत्व करेंगी, और वर्तमान नेतृत्व अधःपतित हो कर धराशायी हो जाएगा। इस बात से वे डरें जो  समाज उत्पीड़क हैं या उनके साथ हैं, हम नहीं, क्योंकि हम पददलित हैं, और अविनाशी हैं – हम चाहे जहां उग आते हैं। गरीब, उत्पीड़ित, शोषित मध्यवर्ग को ध्यान में रख कर मैं यह बात कह रहा हूँ।” [११] (बल मेरा) 
पुनर्विचारके अखीर में आया यह विश्लेषण सांस्कृतिक वर्चस्वकी अंतोनियो ग्राम्शी की अवधारणा से कितना मिलता-जुलता है! मुक्तिबोध ने कहीं ग्राम्शी का उल्लेख नहीं किया है। इस बात की संभावना नहीं के बराबर है कि  उन्हें ग्राम्शी को पढने का अवसर मिला होगा। वे एक विकट अध्येता थे, लेकिन उनके समय तक ग्राम्शी की पुस्तकें भारत में सुलभ न थीं। यह देखना दिलचस्प है कि मुक्तिबोध का चिन्तन अनेक आयामों में ग्राम्शी के समानांतर चलता है। यह संयोग नहीं है। सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के जिन प्रश्नों ने ग्राम्शी के चिंतन को प्रेरित किया था, मुक्तिबोध ने भी अपने समय में उनका सामना किया। अन्याय और उत्पीड़न के शिकार विशाल जनसमूह उत्पीड़कों के एक छोटे से समूह के सामने असहाय क्यों दिखाई देते हैं? संगठित हो कर क्रांतिकारी कार्रवाइयों के जरिए वे तख्तापलट क्यों नहीं कर देते? क्या उन्हें महज सैन्य शक्ति और राज्य मशीनरी के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है? समय-समय पर उठने वाले व्यवस्था-विरोधी आंदोलन और विचार धीरे-धीरे नाकाम क्यों हो जाते हैं? व्यवस्था अपने भीतर कोई बुनियादी बदलाव किये बगैर उन्हें समायोजित कैसे कर लेती हैं? जनता की दुश्मन सत्ताएं और पार्टियां जनता का समर्थन और सहयोग कैसे हासिल कर लेती हैं? ग्राम्शी ने अपनी आँखों के सामने मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवाद के बढ़ते हुए प्रभाव को देखा था। मुक्तिबोध आज़ाद भारत में व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को फूलतेफलते देख रहे थे, लोकतंत्र के भीतर से फासीवादी दमन के फैलते हुए पंजों को महसूस कर रहे थे।  यह सब भारत की आज़ादी के लिए हुए राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत के बावजूद हो रहा था। उन्होंने मध्यकाल में भी निर्गुण भक्त कवियों के वैचारिक विप्लव को तुलसीदास की मर्यादावादी यथास्थितिवादी विचारधारा के हाथों निष्प्रभावी होते देखा था। उनका प्रसिद्ध लेख मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलूइन्ही चिंताओं से प्रेरित था।
ग्राम्शी की तरह मुक्तिबोध भी महसूस करते थे कि सांस्कृतिक वर्चस्व सामाजिकराजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने का मुख्य उपकरण है। सांस्कृतिक वर्चस्व के जरिए ही उत्पीड़ित जनता से यथास्थिति के पक्ष में सहमति हासिल की जाती है। यह सहमति  ही आर्थिक-सामाजिक -राजनीतिक वर्चस्व का मुख्य आधार होती है, भौतिक शक्ति नहीं। सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण उत्पीड़ित-जन प्रभु वर्गों के विचारों से आच्छन्न होते हैं। मुक्ति अभियान के लिए इन्ही विचारों में संशोधित-संपादित कर के अपने अनुकूल बनाना पड़ता है। प्रभु वर्ग पहले तो इन संशोधनों को नकारने और निरस्त करने की कोशिश करता है।  इसके बावजूद अगर वे लोकप्रियता हासिल कर लेते हैं तो उनके कुछ तत्वों को  सिद्धांत के स्तर मान्यता देते हुए उन्हें एक नया रूप दे दिया जाता है। उसमें नए तत्व जोड़ दिए जाते हैं, ताकि उसकी विद्रोही अंतर्वस्तु निरस्त हो जाए। निर्गुण कवियों ने जिस भक्ति को वर्णाश्रम के विरुद्ध विद्रोह का साधन बनाया था, सगुण भक्त कवियों ने अंततः उसे वर्णाश्रम को पुनर्स्थापित करने का साधन बना लिया!
इसलिए सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक-बौद्धिक-वैचारिक संघर्ष प्राथमिक महत्व की वस्तु है। इसके बिना राजनैतिक संघर्ष का विफल होना अपरिहार्य है। ग्राम्शी की तरह मुक्तिबोध भी सामाजिक परिवर्तन में बुद्धिजीवी की भूमिका के निर्णायक महत्व को महसूस करते थे। सामाजिक-परिवर्तन में बौद्धिक की भूमिका उनकी बहुत सारी कविताओं की मुख्य थीम यों  ही नहीं है। आधुनिक छायावादी बौद्धिकता-जिसने एक समय उत्तर भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व हासिल किया था -सामंती संस्कारों की विरासत के खिलाफ  आमूलपरिवर्तनकारी संघर्ष नहीं कर पाई। इसने स्वाधीनता, वैयक्तिकता और विश्वमानवतावाद के सिद्धांतों का गुणगान तो किया, लेकिन समता और संघर्ष को प्राथमिक मूल्य बोध के रूप में स्थापित किये बिना। नतीजतन अराजक व्यक्तिवाद, खोखली करुणाशीलता, अतिशय भावुकता, कृत्रिम समरसता और पलायनवादी कायरता जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला। इन प्रवृत्तियों ने आगे चल कर लोकतंत्र के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यबोध को नष्ट करने में भूमिका निभाई और फासीवाद के लिए रास्ता हमवार किया। यों  यह ऐतिहासिक बौद्धिक भूलगलती जनता के दीर्घकालीन दमन और उत्पीड़न का एक आधारभूत कारण थी। 
मुक्तिबोध अकेले कवि हैं, जिन्होंने इसका साक्षात्कार करने, इसे समझने, अनेक स्तरों पर इससे जम कर जूझने और इसके पार जाने का उद्यम कविता में किया। 
ब्रह्मराक्षसएक और प्रसिद्ध कविता है, जिसमें एक और तरह की बौद्धिक विफलता चित्रित है। यह भी आधुनिकता की भारतीय परियोजना से जुडी हुई विफलता है, लेकिन यह उस तरह की बौद्धिक बेईमानी नहीं है, जैसी भूल -गलतीमें चित्रित है।कामायनीमें मुक्तिबोध ने जिस बौद्धिक पाखण्ड को लक्षित किया था, यह उससे भी अलग है। यह असल में एक त्रासदी है। एक नीच त्रासदी।
पिस गया वह भीतरी
बाहरी दो कठिन पाटों बीच 
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
इस कविता के विषय में आलोचकीय आम सहमति  है कि यह जनसमाज से दूर जा पड़े बौद्धिक का चित्र है। वह ज्ञान की एकांत साधना में  लीन है। उसका  जीवन-कर्म अध्ययन और शोध तक सीमित है। कविता की फैंटेसी में इस तथ्य को शहर से दूर किसी खंडहर के किनारे बावड़ी में उसके रहने से सूचित किया गया है। वह गहन संदेह में है। पाप की छाया से ग्रस्त है। लगातार  अपने को स्वच्छ करने की कोशिश करता है, लेकिन कुछ न कुछ मैल बचा ही रह जाता है।  कौन है यह ब्रह्म-राक्षस? बहुत सारे अनुमानों में एक यह भी है कि यह मुक्तिबोध का आत्म-चित्र भी हो सकता है।[१२] यानी यह उनके अपने व्यक्तित्व के दो हिस्सों के बीच का संवाद हो सकता है। कविता में कवि को खोजने की आलोचना-पद्धति भ्रामक हो सकती है। बेहतर है, उस जीवन-समस्या की खोज की जाए, जिसके दबाव में वह काव्य-फैंटेसी रची गई है। और उसे निजी समस्या के रूप में न देख कर युग-विशेष की जीवन -गुत्थी के रूप में देखा जाए। 
भूल –गलती‘  के आलम-फ़ाज़िल लोगों से ब्रह्म-राक्षस इस मायने में अलग है कि उसने अपने   ईमान का सौदा नहीं किया है। वह एक शुद्ध ज्ञान-साधकहै। वह ज्ञान के लिए ज्ञान की साधना करता है, जीवन के लिए नहीं। जीवन की हलचल को अपनी ज्ञान-साधना के लिए बाधा समझ उस से दूर रहना चाहता है। आधुनिक युग में ज्ञान का विशेषीकरण एक सामान्य प्रवृत्ति है। जीवन से पैदा होने वाली समस्याओं का हल तलाशते हुए जिस ज्ञान का उत्पादन होता है, वह जीवनोपयोगी होता है। जब ज्ञान का क्षेत्र अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त होने लगता है, तब विशेषीकरण का दौर शुरू होता है। अलग-अलग शाखाओं के विशेषज्ञ अपने अपने अध्ययन और शोध की समस्याओं के हल तलाशते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। यहाँ शुद्ध बौद्धिक प्रेरणा  इतनी प्रबल होती है कि  अक्सर सामाजिक सार्थकता की चिंता नहीं की जाती। इस तरह की ज्ञान-साधना  जनविरोधी सत्ताओं द्वारा अपने हित में इस्तेमाल की जा सकती है।   
बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन का जीवन इसका उदाहरण है। उनकी युगांतरकारी खोजों का इस्तेमाल एटम बम बनाने के लिए किया गया। यह उनका उद्देश्य नहीं था। लेकिन विश्व-युद्ध की परिस्थितियों में उन्हें इसके लिए सहमत होना पड़ा।[१३] आज दुनिया परमाणु-विनाश का जो खतरा झेल रही है, क्या उसके लिए किसी रूप में आइंस्टीन की ज्ञान-साधना को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?  और कोई ऐसा माने, न माने लेकिन खुद आइंस्टीन इस पाप की छाया से कभी मुक्त न हो सके। उन्होंने अपना सारा शेष जीवन शांति और अहिंसा के प्रचार में लगाया, लेकिन क्या उन्हें इस पाप-छाया से पूर्ण मुक्ति मिल सकी होगी?
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने –
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
आइंस्टीन ही इस कविता के चरित-नायक हैं, ऐसा कहना जाहिरा तौर पर हास्यास्पद होगा। लेकिन वे आधुनिक बौद्धिकता की एक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि जरूर हैं। यह कविता ऐसी समाज-निरपेक्ष बौद्धिकता और उसके आंतरिक पापबोध को को मार्मिक ढंग से उजागर करने की कारण अविस्मरणीय है। आइंस्टीन और ब्रह्मराक्षस में मूलभूत अंतर यह है कि महान वैज्ञानिक को सांसारिक यश और सराहना की कमी न थी। लेकिन ब्रह्मराक्षस बाहरी दुनिया में भी मिसफिट था।  न उसे आंतरिक संतोष मिला, न सांसारिक सफलता। वह बाहरी और भीतरी दोनों पाटों के बीच पिस कर मारा गया। ब्रह्मराक्षस की ट्रेजेडी किसी महान उद्देश्य के लिए संघर्ष करते घटित नहीं हुई, इसलिए नीच ट्रेजेडी कही गई। शायद यह भी उसके उसके पापबोध का एक कारण है। तथापि काव्य-वाचक इसे एक मार्मिक विडंबना के रूप में देखता है, अपराध के रूप में नहीं। ब्रह्मराक्षस का गहन पापबोध ही उसकी मुक्ति का उपकरण है। ग्राम्शी का कथन है –ग्लानि-बोध एक क्रांतिकारी भावना है।ग्राम्शी का आशय यह है कि ग्लानिबोध से ही परिवर्तन की वास्तविक प्रेरणा जन्म ले सकती है।[१४] इस ग्लानिबोध के अनेक रूप मुक्तिबोध की कविताओं में देखे जाते रहे हैं। 
ग्राम्शी के वर्गीकरण के अनुसार देखेंगे तो लगेगा कि ब्रह्मराक्षस एक परम्परागत बौद्धिकहै। वह ज्ञानोदय के युग में उभरी तर्कणा का प्रतिनिधि है। उसका समर्पण केवल ज्ञान और तर्कणा के प्रति है। ग्राम्शी ने लक्षित किया था कि  यह आधुनिक बौद्धिक राज्य की संस्थाओं और संस्थानों से जुड़ा होता है, यहीं पलता-बढ़ता है। वह चाहे-न चाहे, राजसत्ता अपने हित में उसकी उपलब्धियों का इस्तेमाल करती है। अगर अपनी ज्ञानसाधना के ऐसे इस्तेमाल से उसे ग्लानि महसूस होती है। उसमें उसे पाप की छाया दिखाई देती हैं। तब उसे अपनी भूमिका में एक क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए तैयार होना चाहिए।  उसे आंगिक बौद्धिककी भूमिका में आना चाहिए। आंगिक बौद्धिकसचेत रूप से स्वयं को अपने वर्ग-समाज यानी सर्वहारा के वर्ग-समाज से प्रतिबद्ध करता है। उसका बौद्धिक उद्यम विशुद्ध ज्ञान के लिए नहीं, बल्कि सर्वहारा के क्रांतिकारी अभियान की जरूरतों से निर्देशित होता है। इतना ही नहीं, वह स्वयं उस वर्ग से अंगांगि भाव से जुड़ा होता है। इस तरह उसकी चिंताएं, प्रेरणाएं, उलझनें, कशमकश और उपलब्धियां सब उस वर्ग के लिए होती हैं। उनका श्रेय भी  उस वर्ग को ही होता है।  
मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंएक परम्परागत बौद्धिक के आंगिक बौद्धिकमें रूपांतरित होने की कथा है। कविता के शुरुआत में काव्य वाचक, जो अँधेरे  कमरों में लगातार चक्कर काटता हुआ दिखाई देता है, जिसका गहरा असंतोष  ‘शब्दाभिव्यक्ति अभाव का संकेतहै, ‘रंगीन काव्य-चमत्कारभी जिसे ठंढा दिखाई देता है, जिसके मस्तक-कुण्ड में जलती/ सत-चित वेदना-सचाई और गलतीहै, ‘मस्तक-शिराओं में तनाव दिन-रातहै, वही जब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने के लिए तैयार हो जाता‘  है, तब वह सबसे पहले परम्परागत बौद्धिकता के स्थापित मठों और गढ़ों को तोड़ने के लिए प्रस्तुत होता है, और स्वयं को उभरती हुई जनक्रांति से सम्बद्ध करता है।  क्या ये गढ़ और मठ वही नहीं हैं, जिनकी गहरी अंधेरी बावड़ियों मेंब्रह्म-राक्षसअपनी नीच त्रासदी का शिकार हुआ था? शहर से दूर स्थित खंडहरों से निकल कर, शहर के भीतर मार्च कर रही कतारों में शामिल होकर, उसे अपनी परम-अभिव्यक्तिरूपी मुक्ति मिलती है। यह एक आंगिक बुद्धिजीवी का उदय है। उस बुद्धिजीवी का, जिसे गहरा ग्लानिबोध है कि दमनकारी सर्वनियन्ता (फासीवादी) सत्ता के प्रभावी होने की कुछ जिम्मेदारी उसकी अपनी भूल -गलतियों‘  पर भी है!  
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार… पहाड़… समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा।

मुक्तिबोध का एक और दुर्लभ चित्र

समय में झरता तिमिर 
                                       
मुक्तिबोध की कविताओं के साथ आलोचकीय संवाद की शुरुआत नामवर सिंह के लेख अँधेरे में : परम अभिव्यक्ति की खोजसे हुई। यह लेख उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “कविता के नए प्रतिमानके परिशिष्ट में शामिल किया गया था। इस लेख में प्रस्तावित किया गया था कि इस कविता का मूल कथ्य अस्मिता की खोज है, जो आधुनिक मानव की सब से ज्वलंत समस्या है।[१५] लेकिन वहीं यह भी जोड़ा गया था कि यह अस्मिता की कोई व्यक्तिवादी खोज नहीं है। यह आधुनिक मनुष्य की मानवीय अस्मिता की सामाजिक खोज है। आधुनिक मनुष्य आत्मनिर्वासन का शिकार है। पुस्तक के दूसरे संस्करण एक नया लेख जोड़ा गया – अँधेरे में :पुनश्च‘.  इस लेख में इस आत्मनिर्वासन और उसके कारणों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। इनकी व्याख्या युवा मार्क्स की रचना १८४४ की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियांमें उल्लिखित अलगाव/ आत्म-निर्वासन तथा रै-करण‘ (री-इ फिकेशन) के आधार पर की गयी है।
नामवर सिंह की  इन व्याख्याओं पर तब से आज तक बहस जारी है। लेकिन वे आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं। इन व्याख्याओं में सचाई का अंश मौजूद है। इसमें संदेह नहीं कि  ‘अँधेरे मेंका काव्य-नायक अपनी खोई हुई परम अभिव्यक्तिकी खोज में है। इस परम अभिव्यक्ति को मनुष्य की मानवीय अस्मिता का रूपक मान  लेने में विशेष कठिनाई नहीं है। दूसरे संस्करण में रामविलास शर्मा द्वारा की गयी मुक्तिबोध की कविताओं की अस्तित्ववादी व्याख्याओं का खंडन किया गया। यह इतना तर्कसंगत और विश्वसनीय है कि हिन्दी में यह सर्वानुमति बन गयी है कि मुक्तिबोध के मामले में रामविलास जी से चूक हुई।  
तो भी मैं मुक्तिबोध के पाठकों-आलोचकों के सामने एक छोटा-सा प्रश्न रखना चाहता हूँ। अँधेरे में कविता में  चित्रित आत्म-निर्वासन क्या एक सामान्य सार्वभौमिक आत्म निर्वासन है, जो  पूंजीवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपरिहार्य नियति है? अथवा  वह,  विशेष रूप से,  एक बौद्धिक का आत्मनिर्वासन है? इस छोटे-से प्रश्न के उत्तर पर इस कविता की, और मुक्तिबोध की अनेक महत्वपूर्ण कविताओं की, व्याख्या निर्भर करती है। उत्तर अलग होने पर व्याख्या की दिशा में गंभीर  अंतर पड़ सकता है। अगर इस एक सामान्य मध्यवर्गीय आत्म निर्वासन समझा जाए तो यह एक हताश मध्यवर्गीय व्यक्ति की अस्मिता की खोज की कविता के रूप में पढ़ी जा सकती है। लेकिन अगर यह एक बौद्धिक का आत्मनिर्वासन है तो इस कविता को आधुनिकता की भारतीय परियोजना और उसमें आधुनिक भारतीय बौद्धकिता की भूमिका की पड़ताल के रूप में पढ़ना होगा। और तब इस कविता के अभिप्राय महत्वपूर्ण अर्थों में बदल जाएंगे।  
पहले यह देख लिया जाए कि स्वयं नामवर सिंह की व्याख्या में स्पष्ट संकेत हैं कि  मुक्तिबोध कविताओं का मैंएक बौद्धिक है। यह बात अलग है कि उन्होंने इस संकेत का तर्कसंगत विकास नहीं किया। उनकी व्याख्या की धुरी यही है की यह मैंसम्पूर्ण मध्यवर्ग का प्रतिनिधि है। ऊपर दिए गए उनके उद्धरण में यही बात कही गयी है। लेकिन इसी लेख अँधेरे में:पुनश्च” में उन्होंने यह भी कहा है -“क्रान्ति निश्चय जनता करेगी, किन्तु जैसा कि मेरे लोगशीर्षक कविता में मुक्तिबोध ने कहा है, ‘किसी की खोज है उनको/ किसी नेतृत्व की‘ .…परम्परा से अग्रगामी बुद्धिजीवी ही यह नेतृत्व प्रदान करते आये हैं।  किन्तु मुक्तिबोध देखते हैं कि बहुत से बुद्धिजीवी सत्ता के हाथो बिक गए हैं। …….फिर भी कुछ लोग अभी ज़िंदा हैं और ये अपने वर्ग के पूर्वोक्त सभी लोगों से भिन्न हैं। इनकी आत्मा की एकता में दुई है। ये न तो सत्ता से समझौता करना चाहते हैं, न असंगता अपनाना चाहते हैं। मुक्तिबोध के शब्दों में ये आत्मचेतसभी हैं और विश्वचेतस‘  भी। इसीलिए इनमें भयानक आत्म-संघर्ष चलता रहता है। इनमें आत्मसमीक्षा इतनी तीव्र है कि ये वर्तमान व्यवस्था के बने रहने के लिए अपने आप को जिम्मेदार ठहराते हैं। उस व्यवस्था को तोड़ने के लिए स्वयं भी टूटने को तैयार। मुक्तिबोध के कविताओं का काव्य नायक -मैं- सामान्यतः इन्ही लोगों का प्रतिनिधि है। …” [१६]   
अँधेरे मेंका काव्य नायक एक बौद्धिक है, इसके संकेत कविता में भी खूब हैं। शुरुआत में ही, जब गुंजान जंगलों से आती हवा मशाल बुझा देती है, नायक यह महसूस करता है कि उसे अँधेरे में पकड कर मौत की सजा दे दी गयी है।
……
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिंदु के अँधियारे खड्डे में
       गिरा दिया गया मैं
       अचेतन स्थिति में !…
लिपिचिह्नों से जुड़े हुए ये प्रतीक क्या स्पस्ट संकेत नहीं देते कि यह एक लेखक की  अभिव्यक्ति है? उसकी आत्मा में भीषण सत-चित-वेदना दहकती है। विचार उसके विचरण-सहचर हैं। वह अपनी पूर्णतम परम अभिव्यक्तिकी खोज कर रहा है। वह रात के अँधेरे में उन सचाइयों का जुलूस देख लेता है, जो दिन के उजाले में छुपी रहती हैं। उसे सितारों के बीच ताल्स्तॉय-नुमा कोई व्यक्ति घूमता दिखाई देता है। एक सिरफिरा पागल भी उसके ही व्यक्तित्व का हिस्सा है। अपने आत्मोद्बोधन में वह अपने को सिद्धांतवादी और आदर्शवादी कहता है। लेकिन यह भी  कहता है कि उसने 
लोक-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य -त्याग दिये,
हृदय के मंतव्य – मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!”
लोकहित उसके पिता हैं। जनमन-करुणा मां हैं। क्या यह एक बुद्धिजीवी की साफ़ शिनाख्त नहीं है? उसे प्राकृत गुहा में विचारों के रक्तिम मणि मिलते हैं। लेकिन उसने
उन्हें गुहा-वास दे दिया
लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित
जनोपयोग से वर्जित किया और
निषिद्ध कर दिया
अन्यथा बच्चे भीख मांगते‘!
इतना ही नहीं जब उसे अँधेरे कमरे में ले जाया जाता है, स्टूल पर बिठा कर उसकी सीस की हड्डी तोडी जाती है। मस्तक-यंत्र का परीक्षण किया जाता है। उस प्रिंटिंग प्रेस का पता लगाया जाता है, जहां ख्यालों के पर्चे छपते हैं। रिहा हो जाने के बाद भी वह महसूस करता है अपने
 
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती-
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात‘!
इस नतीजे पर पहुंचता  है कि
अब
अभिव्यक्ति  के
खतरे उठाने ही होंगे
इस संकल्प के साथ जब वह जनसाधारण के बीच पहुंचता है, तब देखता  है
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे,
मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर,
बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।
किन्तु मैं अकेला।
बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।
अंततः जब वह जनयूथ में शामिल हो जाता है, तभी उसके मन में अपनी परम अभिव्यक्ति अनिवारको वापिस पा लेने की उम्मीद जगती है। 
अंतोनियो ग्राम्शी से मुक्तिबोध का परिचय रहा हो या न रहा हो, ‘अँधेरे मेंकविता ग्राम्शीय अर्थों में एकपरम्परागत बुद्धिजीवीके आंगिक बुद्धिजीवीमें रूपांतरित होने की गाथा है। साथ ही वह भारतीय लोकतंत्र के भीतर से फासीवाद के प्रकट होने की फैंटेसी है। और इस प्रक्रिया में भारतीय बौद्धिक की विभिन्न विडम्बना-भरी विभिन्न भूमिकाओं की सत्यकथा है। कविता साफ़ संकेत करती है कि भारतीय बौद्धिक का अवसरवाद, अपनी ही बौद्धिकता के साथ उसका विश्वासघात, भारतीय लोकतंत्र के फासीकरण का एक आधारभूत कारण है। लेकिन फासीवाद का यह आपात संकट उसे अपनी भूमिका की गम्भीर पुनर्समीक्षा करने के लिए विवश करता है। इसी क्रम में वह ग्राम्शीय ग्लानिबोध से गुजरता है और साधारण जन के पक्ष में अपनी क्रांतिकारी भूमिका के लिए स्वयं को तैयार करता है।
कविता में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चित्रित है, जिसका पूर्ण सैन्यीकरण हो चुका है। मार्शल लॉ सिविल लॉ को विस्थापित कर चुका है। सैनिक शासन एक अपवाद नहीं,  स्थायी व्यवस्था प्रतीत होती है। कविता के आरम्भिक हिस्से में ही चित्रित मृत्युदल की शोभायात्रा इस विषय में कोई संशय नहीं रहने देती। यह चित्र दिखाता है कि जो हुआ है, वह कोई सैनिक-विद्रोह नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी फौजी जनरल ने बगावत कर के सत्ता हथिया ली हो। दिन के वक़्त सब कुछ सामान्य दिखाई देता है। अपनी अपनी जगहों पर मंत्री, उद्योगपति, पत्रकार, विद्वान्, कवि, आलोचक, विचारक और डोमा जी उस्ताद जैसे लोकल मवाली अपना अपना काम करते, षड्यंत्र रचते, दिखाई देते हैं। लेकिन जैसे ही रात घिरती है, वे एक ऐसे जुलूस में शरीक हो जाते हैं, जो पूरी तरह एक सैनिक मार्च है। फौजी संगीतबैंड है, गैस लाइटें हैं, कैवलरी है, कठोर फौजी अनुशासन है, खिंचे हुए चेहरे हैं। यह फैंटेसी क्या यह नहीं दिखाती कि जो व्यवस्था दिन में लोकतांत्रिक प्रतीत होती है, जिसमें मंत्री-पत्रकार-विद्वान्-मवाली सबके लिये जगह है, वही व्यवस्था रात के अँधेरे में फौजी जुलूस में बदल जाती है। ऊपर से जो लोकतंत्र जैसा दिखता है, वह भीतर से सैन्य तंत्र में बदल चुका है। एक ऐसे सैन्य तन्त्र में, जिसमें किसी भी असहमति की गुंजाइश नहीं है। जिसमें स्वतंत्र चेतना रखने वाले कलाकारों और नागरिकों के लिए हत्या, गिरफ्तारी और यातना की निश्चित व्यवस्था है। जिसमें लोगों की बाहरी गतिविधियों पर ही नहीं, उनके लिखने-पढने पर ही नहीं, उनके सोच-विचार की प्रक्रिया को भी नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। व्यवस्था के वे सभी पाए, जिन पर लोकतांत्रिक आजादियों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है, इस दमन तंत्र के साथ एकजुट हैं। अगर किसी को उनकी इस एकजुटता की भनक लग जाए तो, उसका ज़िंदा बच कर निकल जाना नामुमकिन है। यह निहायत जरूरी है कि सचाई पर पर्दा डाला जाए। यह जरूरी है कि लोकतंत्र का वहम बना कर रखा जाए। जरूरी  है कि व्यवस्था के प्रति जनता का समर्थन और सहयोग बना रहे। क्या ये सारी विशेषताएं फासीवादी राज्य की सुपरिचित विशेषताएं नहीं हैं? सैनिक शासन और फासीवाद में बुनियादी फर्क यही है कि फासीवाद लोकतंत्र के ढाँचे के भीतर से आता है, लोकतंत्र के सारतत्व को नष्ट कर के उसके बाहरी रूप को बनाए रखता है, जबकि सैनिक शासन लोकतंत्र को निरस्त या स्थगित करता हुआ आता है। अँधेरे मेंकविता इसी फासीवाद को चित्रित करती है। यह इशारा करते हुए लोकतंत्र की मान्यताप्राप्त एजेंसियों ने ही इसे साकार किया है।
अगर हम इस कविता को महज मध्यमवर्गीय अस्मिता की खोज की कविता के रूप में पढेंगे, तो पूंजीवाद तो हमें दिख जाएगा, लेकिन लोकतन्त्र के फासीकरण की यह पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया कुछ ओझल हो जायेगी। इस प्रक्रिया में बौद्धिक वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका ओझल हो जायेगी। यह ओझल हो जाएगा कि बौद्धिक वर्ग के निर्णायक सहयोग के बिना यह प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती। और यह भी कि बौद्धिक वर्ग की नयी क्रांतिकारी भूमिका के बगैर, विद्रोही जनसाधारण के साथ उनके एकजुट हुए बगैर, जनक्रांति की कोशिशें अधूरी रहेंगी। 
अँधेरे मेंकविता में तिलक और गांधी जी के आगमन पर बहुत कुछ कहा गया है। मुक्तिबोध की प्रगतिशीलता पर भी सवाल उठाये जाते हैं। उग्रराष्ट्रवाद,  सामाजिक सुधारों के विषय में उदासीनता और धार्मिक प्रतीकों के आग्रह के चलते तिलक को दक्षिणपंथी ठहराने की कोशिश भी की जाती है। गांधी जी भी संदेह से बरी नहीं हैं। वर्णाश्रम के लिए सहनशीलता, अहिंसा के लिए धार्मिक जूनून, उद्योगीकरण के बारे में उनके संशय, ब्रह्मचर्य आदि से जुड़े अतिवादी विचार – इन सब के चलते उनकी आलोचना होती रही है। कविता में इन दोनों विभूतियों को जिस आदर और प्रेम से याद किया गया है, उस बारे में उलझन महसूस करने वालों की कमी नहीं है। 
तिलक और गांधी जी का चयन मानीखेज है। ये दो लोग, एक के बाद एक, स्वतन्त्रता संग्राम के दो ऐतिहासिक दौरों के नायक रहे हैं। एक तरह से आज़ादी और आधुनिकता की भारतीय परियोजना के दो सब से महत्वपूर्ण नायक रहे हैं। यह कहने का आशय भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को कमतर बताना कतई नहीं है। अलग-अलग समयों में इन दोनों की केन्द्रीयता की तरफ इशारा करना है। 
सवाल है, तिलक इतने तनाव में क्यों हैं कि उनकी मूर्ति के मस्तक कोष फूट पड़ते हैं, नासिका से दिमाग का खून बहने लगता है? कविता में जो सन्दर्भ आया है, उससे स्पस्ट है कि चौराहों पर सैनिक बन्दूकों और तोपों का दृश्य ही इस तनाव का वास्तविक कारण है। यह दृश्य आज़ादी के स्वप्न की मुकम्मल विफलता है। आधुनिकता की परियोजना का भी। चौराहे पर तिलक की मूर्ति लगाई इसलिए गयी है कि उन्होंने सब के लिए आज़ादी का सपना देखा था। उनकी घोषणा थी कि आज़ादी प्रत्येक व्यक्ति का जन्म-सिद्ध अधिकार है। लेकिन उनकी ही आँखों के सामने इस सपने का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। मुक्तिबोध के समय तक अफ्स्पा आज की तरह स्थायी व्यवस्था न समझी जाती होगी। यूएपीए या पोटा जैसे काले-क़ानूनों का आज जैसा जलवा न रहा होगा। लेकिन लोकतंत्र के फासीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। यह तिलक जैसे आज़ादी के सिद्धान्तकारों के मस्तक कोषों के फूट जाने का पर्याप्त कारण है। क्या इस तनाव में पश्चाताप की छाया भी है? क्या कहीं यह अहसास भी है कि जो परिणति सामने आई है, उस के लिए किसी रूप में  वे खुद भी जिम्मेदार हो सकते हैं
गांधी जी के प्रसंग में यह बात अधिक स्पष्ट है। 
….
वे कह रहे हैं –
दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुरगा
यदि बाँग दे उठे जोरदार
बन जाये मसीहा”
वे कह रहे हैं –
मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण
गुण हैं,
जनता के गुणों से ही संभव
भावी का उद्भव…
गंभीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,
जाने क्या कह गये!!
मैं अति उद्विग्न!
……
निशाना दिन रात बांग देने वाले नेताओं पर है। वे कचरे के ढेर पर दाने चुगने के लिए चढ़ते हैं। लेकिन बांग लगाते-लगाते खुद को मसीहा समझने लगते हैं। लेकिन क्या इसमें यह भी निहित नहीं है कि भावी का उद्भव किसी मसीहाके बस के बात नहीं है? कि पिछले दौर ने भी मसीहा तो बहुत पैदा किये लेकिन जनता के गुणों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका? लोकतंत्र की जो जिम्मेदारी जनता के हाथों में आनी चाहिए थी, वह मसीहाओं/ महापुरुषों की मुट्ठियों में ही सिमटी रह गई? क्या इसी के चलते लोकतंत्र का फासीकरण इतनी आसानी से और इतनी जल्दी किया जा सका? क्या यह इसलिए हुआ कि सामंती मूल्य व्यवस्था को ध्वस्त कर लोकतांत्रिक चेतना को स्थापित करने का काम जिन बौद्धिकों और समाज-नेताओं को करना था, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई? वे या  तो सत्ताधारी वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध हो कर मृतदल की शोभायात्रा में शामिल हो गए या असंग हो कर अपनी विचार-मणियों को गुहवास दे दिया?
ऐसे बहुत सारे सवाल सामने खड़े हो जायेंगे, अगर हम अँधेरे मेंको आधुनिकता की भारतीय परियोजना की विफलता और उसमें भारतीय बौद्धिक की भूमिका की  काव्यात्मक जांच-पड़ताल के रूप में देखें। मानव-अस्मिता-विमर्श का ढांचा, तत्वतः गलत न होते हुए भी, इस व्यापक परिप्रेक्ष्य को पाठक की आँखों से ओझल कर देता है। इस ढाँचे में वर्तमान तो सामने रहता है, लेकिन अतीत से भविष्य तक की ऐतिहासिक प्रक्रियाएं नहीं। यह तिमिर में झरते समय को  दिखा देता है, लेकिन समय में झरते तिमिर को नहीं।[१७] 

बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या ?[१८]
                              —————————————-
मुक्तिबोध के पाठक जानते हैं कि उनकी कविताओं में प्रश्न-चिह्नों की बहुतायत रहती है। लेकिन जहां ये चिह्न न हों, प्रश्न वहाँ भी मौजूद रहते हैं। उनकी कविता सवाल पैदा करने वाली कविता है। बेचैन करने वाली,  चिंता में डालने वाली कविता है। लेकिन सवाल और सवाल में भी फर्क होता है। छलमय प्रश्न छलमय उत्तरों तक ले जाते हैं। मुक्तिबोध की कविता वे सवाल पूछती है, जिनसे ये सब छलनाएँ उजागर हो जाएं। वे अपनी कविताओं में मनुष्यता के इतिहास और उसकी नियति के चित्र खींचते हैं। इन चित्रों में गति और आवेग होता है। इतिहास की टेढ़ीमेढ़ी चालें होती हैं। बारीक से बारीक अवलोकन होते हैं। जटिलताओं की बढ़ती हुई भीड़ होती है। इन्ही सब के बीच से सब से बुनियादी सवाल पैदा होते हैं। पढने वाले के पास ज़रा-सा धीरज हो तो ये सवाल उसे घेर लेते हैं। 
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्‍तरी की तुंग प्रतिमाएं
गिरा कर तोड़ देता हूं हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्‍तर और भी छलमय,
समस्‍या एक-
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी,सुन्‍दर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे?[१९]
मुक्तिबोध इस अर्थ में आधुनिक, गैर-रोमानी, कवि हैं कि वे प्रश्नोत्तरी नहीं बनाते। कृत्रिम उत्तरों के लिए कृत्रिम प्रश्न नहीं उठाते. बल्कि ऐसे सभी प्रश्नोत्तरियो को कविता के हथौड़े से तोड़ देते हैं। अज्ञेय की प्रसिद्द कविता असाध्य वीणामें प्रश्न उठाया गया है –वीणा सचमुच क्या है असाध्य?’ वीणा को साध लेने वाले कलाकार के मुख से उत्तर दिलवाया गया  –
श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था‘.
इस रहस्यवादी उत्तर तक पहुँचने के लिए प्रश्न भी ख़ास तरह से, रहस्यवादी ढब में,  गढा गया। रहस्य का उत्तर रहस्य! कविता में जो कथा कही गयी है, उसमें अंतर्निहित असली सवाल कुछ और था। पूछा यह भी जा सकता था – वीणा क्यों है असाध्य? तब शायद बात यहाँ तक जाती कि जंगलों-गाँवों में स्वतः गूंजने वाली वीणा  दरबारों में आ कर खामोश या मौनक्यों हो जाती है!
अज्ञेय की कविता में जो प्रश्नोत्तरी है, उसकी तुलना इस प्रश्न से कीजिए – कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?’ या इस से
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी, सुन्‍दर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे
ये ऐसे प्रश्न नहीं हैं, जिनके उत्तर आसानी से खोजे जा सकें। ये और और प्रश्न पैदा करने वाले हैं। अज्ञेय और मुक्तिबोध का अंतर इतने से ही प्रकट हो जाता है। इसके बावजूद पिछले कुछ समय से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि आज़ादी के बाद अज्ञेय हिन्दी के सब से बड़े कवि हैं। विडम्बना यह कि और तो और, स्वयं नामवर सिंह भी इस आयत को दुहराने लगे हैं।[२०] वही नामवर सिंह, जिन्हें नई कविता के केंद्र से अज्ञेय को विस्थापित कर मुक्तिबोध को स्थापित करने का श्रेय प्राप्त है।
अँधेरे में कविता के अंत को ले कर सवाल उठाये  जाते रहे हैं। नामवर सिंह ने अँधेरे में :पुनश्चमें इसका ज़िक्र किया है। कहा जाता है कि इस कविता का अंत रोमानी है। शायद क्रांतिकारी जनयूथ के दृश्य के कारण। जिस से जुड़ कर काव्यनायक के मन में अपनी खोयी हुई अभिव्यक्ति को दुबारा पा लेने की उम्मीद पैदा होती है। नामवर सिंह इस दृश्य का का बचाव करते हैं। यह कहते हुए कि यह युग की विकासमान शक्तियों के वैज्ञानिक बोध पर आधारित है।  यह भी कहा जाता है कि यह अंत कविता के समूचे प्रवाह से अनुस्यूत नहीं होता। जबरन जोड़ा गया जान पड़ता है। मुक्तिबोध के मार्क्सवादी आशावाद का नमूना  है। दोनों आपत्तियां इस कविता को अस्मिता की खोजकी कविता के रूप में पढने से पैदा होती हैं। अगर हम इसे परम्परागत बुद्धिजीवीके आंगिक बुद्धिजीवीमें रूपांतरित होने की गाथा की तरह पढ़ें, तो यह अंत न केवल अप्रत्याशित नहीं लगेगा, बल्कि स्वाभाविक और अनिवार्य प्रतीत होगा। फासीवादी दमन का त्रासद अनुभव इस रूपांतरण का आधारभूत कारण है।  उस अनुभव के बाद रूपांतरण का घटित न होना अधिक अस्वाभाविक है। 
समग्रता में पढ़ी जाए तो अँधेरे मेंकविता में कोई  बना-बनाया उत्तर नहीं मिलेगा। यह एक विराट प्रश्न चिह्न है भारत की आज़ादी के बाद के समूचे इतिहास पर।  ऐसा क्योंकर हुआ कि आज़ादी और लोकतंत्र का स्वप्न शुरुआत से ही फासीवाद के दुस्स्वप्न में बदलता चला गया? कौन-सी ऐतिहासिक भूल-गलतियाँ इसके लिए जिम्मेदार थीं? कविता इस समग्र इतिहास को एक फैंटेसी में बदलती है। कुछ इस तरह कि उसमें छुपे हुए भयानक प्रश्न उभर कर सामने आ जाएं  यह एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ आलोचनात्मक सम्वाद करती है। मुक्तिबोध की कविता कम से कम छः आयामों वाली कविता है। देश के तीन और काल के तीन।
काल के तीन  आयामों में  इतिहास के साथ आलोचनात्मक संवाद करने वाले मुक्तिबोध हिन्दी-उर्दू के पहले कवि नहीं हैं। निराला, जयशंकर प्रसाद, तुलसीदास ने ऐसा किया है। कबीर, फैज़, फ़िराक, इकबाल, ग़ालिब और मीर ने भी, कुछ अलग तरह से, ऐसा किया है। निराला, प्रसाद और तुलसीदास ने मुक्तिबोध की तरह ही फैंटेसी के जरिये इतिहास से मुठभेड़ करते हैं। ये सभी मुक्तिबोध के पूर्वज कवि हैं। कविता का उत्तराधिकार भाषा और शैली तक सीमित नहीं होता। भाषा और शैली की समानताएं प्रभाव दिखाती हैं, उत्तराधिकार नहीं। उत्तराधिकार रचना-प्रक्रिया का मामला है। ये तीन कवि इतिहास के साथ संवाद की प्रक्रिया में फैंटेसी का निर्माण करते हैं। ये अलग बात है कि तीनों एक ही तरह से फैंटेसी का निर्माण नहीं करते। 
तुलसीदास, जयशंकर प्रसाद और मुक्तिबोध में एक महत्वपूर्ण समानता और है। तीनों इतिहास की निर्माण- प्रक्रिया में शासन-सत्ता की धुरी पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। शासन- सत्ता इतिहास की गति और दिशा को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तीनों कवियों को इसका गहरा बोध है। तीनों इस अर्थ में राजनीतिक कवि हैं। तुलसीदास इसे बुरी और अच्छी सत्ता, लंका और रामराज्य के रूप में ग्रहण करते हैं। लंका का विध्वंस करने के लिए रामराज्य की परिकल्पना सामने रखते हैं। कोई इस परिकल्पना से सहमत हो या असहमत, लेकिन तुलसीदास को इस बात का श्रेय जरूर है कि उन्होंने मनुष्य के जीवन में सत्ता की भूमिका के महत्व को समझा। और उसके स्वरूप पर विचार किया। 
जयशंकर प्रसाद को इस बात का बेहतर बोध है कि सत्ता का एक आतंककारी दमनकारी स्वभाव होता है। उसे अच्छी या बुरी सत्ता के खांचे में फिट करना मुश्किल है। मुक्तिबोध ने कामायनी की तीखी आलोचना करते हुए भी प्रसाद जी की इस महत्ता को स्वीकार किया है -“प्रसाद जी की महत्ता इसी में है कि उन्होंने व्यक्तिवाद, राष्ट्रवाद, पूंजीवाद के उपस्थित स्वरुप को ध्यान में रख कर व्यक्तिवाद को शासन-सत्ता से सम्बद्ध कर दिया।”[२१] स्पष्ट करने के लिए उन्होंने कामायनी से अनेक उदाहरण दिए हैं। जैसे – 
भाव राष्ट्र के नियम यहाँ पर 
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोष नहीं है 
जैसे कशाघात प्रेरित से —
प्रतिक्षण करते ही जाते हैं 
भीति-विवश ये सब कम्पित-से। 
यहा शासनादेश घोषणा 
विजयों की हुंकार सुनाती 
यहाँ भूख से विकल दलित को 
पद-तल में फिर-फिर गिरवाती ![२२]
निराला भी राम की शक्तिपूजामें शक्ति और अन्याय के समीकरण का उद्घाटन करते हैं – अन्याय जिधर है, उधर शक्ति‘ ! लेकिन वे इस समीकरण को स्थायी नहीं मानते। न्याय का पक्ष भी कोशिश करे तो शक्ति को अपनी ओर खींच सकता है।  जयशंकर प्रसाद की दृष्टि, अगर निराला के ही शब्दों को कुछ बदल कर कहें  तो, यह है कि है शक्ति जिधर, अन्याय उधर! मुक्तिबोध इस काव्य- राजनीतिक दृष्टि के साथ अधिक आत्मीयता महसूस करते हैं। वे प्रसाद की आलोचना इस बात के लिए करते हैं कि सत्ता-शक्ति के इस अन्याय को पहचान कर भी प्रसाद जी  वास्तविक समाधान की दिशा में नहीं बढ़ते, एक तरह की काल्पनिक समरसता में पलायन कर जाते हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि अपनी कविता में अपनी तरह से मुक्तिबोध ने प्रसाद जी के इस अधूरे कार्य को उसके संगतपूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचाने की कोशिश की है?
मुक्तिबोध ने अपनी कविता और आलोचना में नयी कविता की राजनीति-विमुख, व्यक्तिस्वातंत्र्य-केन्द्रित, जड़ीभूत सौन्दर्य-दृष्टि की कठोर आलोचना की। उन्होंने राजनीतिक दृष्टि को, शक्ति-समीकरणों की चेतना को, कविता के केंद्र में स्थापित किया। लेकिन वे प्रगतिशील कविता की इकहरी राजनीतिक दृष्टि के भी कायल न थे। उन्हें ऐसी कविता की तलाश थी, जिसमें व्यक्तिजीवन की आन्तरिकता और उसके सामाजिक यथार्थ में फांक न हो। वे कवि और आलोचक दोनों के लिए भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की दोहरी यात्रा पर जोर देते थे। मुक्तिबोध के बाद की हिन्दी कविता उनके दिखाए इस तीसरे रास्ते की खोज करती दिखाई देती है। वह नयी कविता की एकान्तिक निजता और प्रगतिवाद की इकहरी सामाजिकता से बचते हुए अधिक आत्मीय काव्य-राजनीतिक दृष्टि का विकास करती है, जिसमें मनुष्य के आतंरिक जीवन की यातनाओं और उल्लास  की अनदेखी नहीं की जाती। इसे यों भी कह सकते हैं कि वह निजी यातनाओं के राजनीतिक अभिप्राय खोजती हुई कविता है। रघुवीर सहाय इस काव्य-प्रवृत्ति की श्रेष्ठ उपलब्धि हैं। उनकी सब से प्रसिद्ध कविता रामदास मुक्तिबोध की अँधेरे मेंके एक दृश्य की तरह पढ़ी जा सकती है, भले ही यह दृश्य एक अलग काव्य-कालखंड में घटित होता है।
मृत्यु दल की शोभा यात्रा का एक दर्शक रामदास भी हो सकता है, जिसे भीड़ के सामने मार डाला जाता है और भीड़  मूक दर्शक बनी रहती है। यह सच है कि मुक्तिबोध की कविता में साधारण लोगों की भीड़ का ऐसा तटस्थ व्यवहार कभी न होता। जनता के गुणों पर मुक्तिबोध को जितना अगाध विश्वास है, उतना रघुवीर सहाय को नहीं है। लोकतंत्र की जिस त्रासदी के लिए मुक्तिबोध मुख्यतः नाभिनालबद्ध बौद्धिक वर्ग को जिम्मेदार  समझते हैं,   रघुवीर सहाय उसकी जिम्मेदारी से साधारण जन को भी पूरी तरह बरी नहीं करते। इसे लोकतंत्र के फासीकरण की अगली अवस्था के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसमें सत्ता का आतंक अधिक  व्यापक और आतंरिक हुआ है। दोनों कवियों में इस अंतर के बावजूद लोकतंत्र के फासीकरण की मूल चिंता साझा है। रामदास का हत्यारा उन्ही गलियों से निकल कर बाहर आता है, जहां लोगों की घनी आबादी है। इसमें  इशारा है कि फासीवाद कहीं बाहर से नहीं, लोकतांत्रिक निजाम के भीतर से ही निकल कर आता है। यह इशारा अँधेरे मेंकविता के अभिप्राय के एकदम मेल में है।
रघुवीर सहाय के साथ कवियों की एक पूरी पीढी, और बाद की कई पीढियां, कमोबेश कविता के इसी तीसरे रास्ते का अनुकरण करती हैं। यह तीसरा रास्ता मुक्तिबोध का दिखाया हुआ है। वे आज़ादी के बाद की हिन्दी कविता के सबसे महत्वपूर्ण प्रस्थान विन्दु हैं। ऐसे में अशोक वाजपेयी की यह स्थापना आश्चर्यजनक ही कही जायेगी कि मुक्तिबोध एक ऐसे कवि हैं, जिनका न कोई पूर्वज है, न वंशज। उनके लेखे ‘….इस बीहड़ भूगोल में ऊंचे तापमान के साथ मुक्तिबोध ने अपनी राह बनाने की कोशिश की। न वह राह ऐसी थी, जिस पर किसी पहले के पदचिह्न हों, न वह ऐसी बन पाई जिस पर बाद का कोई चलने की हिम्मत कर सके।“[२३]
अशोक वाजपेयी को मुक्तिबोध की कविता दुस्साहसपूर्ण विफलता  की गाथालगती है।[२४] रामविलास शर्मा को भी कुछ ऐसा ही  लगता था। कुछ लोग केवल वायलिन के मधुर संगीत से आनंदित हो सकते हैं। कुछ दूसरे लोग केवल तड़ित झंझा से प्रभावित हो पाते हैं। मुक्तिबोध की तड़िन्मय वायलिन बाकी लोगों के लिए है।
सन्दर्भ
[१]. नेमिचन्द्र जैन सम्पादित, मुक्तिबोध रचनावली, भाग -२, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १९८५, पृ ३८६-३९० 
[२]. मुक्तिबोध के सामने एक भविष्य है और उस तक पहुँचने के निश्चित तरीके हैं।  इनसे उनके विचारों या कथ्य की कुछ  निश्चित सीमाएं बनती हैं, पर उनकी कविताओं के स्वरूप की सीमाएं नहीं बनतीं क्योंकि वे ज़्यादातर स्वतंत्र रूप से विकसित होती लगती हैं।”
कुँअर नारायण, ‘मुक्तिबोध की कविता की बनावट‘, राजेन्द्र मिश्र संपादित तिमिर में झरता समय‘ (२०१४. वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) में संकलित  
[ ] सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि जिस मार्क्सवाद में मुक्तिबोध ने मानव मुक्ति का स्वप्न देखा था  –स्वयं उसका दर्शन आधुनिक सभ्यता के उन भौतिक मूल्यों का घोर समर्थक था – जो उस स्वप्न को इतने निर्मम ढंग से विकृत करते थे।”
निर्मल वर्मा, ‘मुक्तिबोध की गद्य कथा‘, वही 
[४] “….  उनकी मार्क्सवादी उम्मीद के भोलेपन के बावजूद उनकी कविता अंतःकरण का दस्तावेज़ बनी रहती है।”
अशोक वाजपेयी, “सूर्य को छूने उड़ा पक्षी :दुस्साहस और विफलता की गाथा”, वही 
[५] “​सब चुपसाहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक् चिन्तकशिल्पकारनर्तक चुप हैं उनके ख़याल से यह सब गप है मात्र किंवदन्ती। रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंसे 
 [६] शर्मा, रामविलास- नयी कविता और अस्तित्ववाद‘ (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। आवृति -२००३, पृष्ठ-१३८)  
[७] विनीता रघुवंशी, वर्तमान साहित्य, अगस्त २००६ 
[८] गोपाल प्रधान, ‘भाष्य : भूल गलती”, समालोचन (ब्लॉग), १४.०४.२०११ 
[९]  देखिये कामायनी : एक पुनर्विचार” का प्रथमतः”
[१०] सिंह, नामवर; ‘ अँधेरे में‘:पुनश्च‘, कविता के नए प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १९८२, पृष्ठ २३१ 
[११] मुक्तिबोध, ‘कामायनी : एक पुनर्विचार‘  (नेमिचन्द्र जैन संपादित मुक्तिबोध रचनावली -४‘, राजकमल पेपरबैक, १९८५, पृष्ठ ३३०) 
[१२] जोशी, राजेश; वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएं (एक कवि की नोटबुक‘,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २००४), पृष्ठ-१४ 
[१३] आइंस्टीन, अल्बर्ट : on my participation in atomic bomb project ,http://www.atomicarchive.com/Docs/Hiroshima/EinsteinResponse.shtml
[१४]  डबराल, मंगलेश; ‘भविष्य की ओर जाती कविता‘ ( पहल, जुलाई, २०१३)​
[१५] सिंह , नामवर: कविता के नये प्रतिमान , राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , प्रथम संस्करण -१९६८। 
[१६]  सिंह, नामवर: कविता के नये प्रतिमान , राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, ​१९८२, पृष्ठ २२२. 
[१७]तिमिर में झरता समयराजेन्द्र मिश्र द्वारा सम्पादित और वाणी प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुक्तिबोध विमर्श संचयन है. प्रथम संस्करण२०१४. इस संचयन में नामवर सिंह का लेख अँधेरे में :पुनश्चभी संकलित है
[१८] मुक्तिबोध, ‘अन्तःकरण​ का आयतन‘ (नेमीचन्द्र जैन सम्पादित, मुक्तिबोध रचनावली, भाग -२, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली , १९८५, पृष्ठ १४६)
[१९] मुक्तिबोध, ‘चकमक की चिंगारियां‘ (नेमीचन्द्र जैन सम्पादित, मुक्तिबोध रचनावली, भाग -२, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १९८५, पृष्ठ २४३)
[२०] सिंह, नामवर;’अज्ञेय : संकलित कविताएँ ‘ (भूमिका देखिये), नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, २०१४ 
[२१ ] मुक्तिबोध, ‘कामायनी : एक पुनर्विचार (नेमीचन्द्र जैन सम्पादित, मुक्तिबोध रचनावली, भाग -४, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १९८५)  पृष्ठ-२५३
[२२ ] वही, पृष्ठ २५३ 
[२३] वाजपेयी, अशोक; ‘सूर्य को छूने उड़ा पक्षी : दुस्साहस और विफलता की गाथा‘, राजेन्द्र मिश्र संपादित तिमिर में झरता समय‘ (२०१४. वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) में संकलित, पृष्ठ २७९ 
[२४] वही, पृष्ठ २७६ 
आशुतोष कुमार

सम्पर्क-
मोबाईल – 09953056075

ई-मेल ashuvandana@gmail.com

संजीव कुमार का आलेख ‘निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?’


मुक्तिबोध 

मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू होने वाला है। उनके कृतिकार रूप को विश्लेषित करने के प्रयास आरम्भ हो चुके हैं। मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में हमेशा उन वंचितों की बात करने की कोशिश की है जिनकी बातें प्रायः अनसुनी रह जाती हैं। ऐसे वंचित जिनकी कथाएं प्रायः अस्त-व्यस्त या अधूरी ही दिखाई पड़ती हैं। बावजूद इसके इनकी अस्त-व्यस्तता ही इनका सौन्दर्य होती हैं। मुक्तिबोध की ऐसी कुछ कहानियाँ हैं जो अधूरी लगती हैं, लेकिन सवाल यह है कि मुक्तिबोध ने ऐसा सायास किया या फिर उन्हें समय ही नहीं मिल पाया इन्हें पूरी कर पाने का। इसकी तहकीकात करने की कोशिश की है युवा आलोचक संजीव कुमार ने इस आलेख में। तो आइए पढ़ते हैं संजीव कुमार का यह आलेख ‘निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?
        
निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?
संजीव कुमार
गजानन माधव मुक्तिबोध का पूरा कथा-साहित्य मुक्तिबोध रचनावली खंड-3 के 360 पृष्ठों में संकलित है। लगभग 120 पृष्ठों यानी एक तिहाई हिस्से में उनकी अपूर्ण रचनाएं हैं — छोटी-बड़ी कुल 21 अधूरी कहानियां और एक अधूरे उपन्यास के कुछ असंबद्ध टुकड़े! शेष दो तिहाई हिस्से में भी एकाधिक स्थलों पर पूर्णता का मामला संदिग्ध है। चाबुक शीर्षक कहानी तो बिलाशक अधूरी है; इस कहानी के एक बड़े हिस्से का कहानी की शुरुआत के साथ कोई तालमेल न देख उसे उपसंहार शीर्षक के साथ अलग से छापा गया है। खुद उपसंहारकहानी के अन्त  में संपादक ने लिखा है, ‘संभवतः अपूर्ण कहानी का अंशविद्रूपके अन्त  में लिखा है, ‘संभवतः किसी लंबी कहानी का अंश। इसी तरह एक दाखि़ल-दफ़्तर सांझजहाँ ख़त्म होती है, उसके आगे का भी एक अधूरा टुकड़ा पांडुलिपियों में मिला है जो रचनावली में संकलित है। विपात्र ज्ञानोदय में कहानी के रूप में प्रकाशित हुई थी और फिर यथावत ‘काठ का सपना’ में संकलित हुई। उपन्यास की शक्ल में शाया होने पर उसमें एक बड़ा हिस्सा और जुड़ा जो कि उन्हीं पात्रों और परिवेश को ले कर एक अलग तरह के बरताव और मिज़ाज के साथ आगे चलता है। रचनावली के संपादक श्री नेमिचंद जैन के मत में, ऐसा जान पड़ता है कि यह इसी लंबी कथा का एक अलग प्रारूप है।… इसे मिला कर विपात्रको एक लघु उपन्यास मानने की बजाय उसी कथा का एक अन्य रूप मानना अधिक समीचीन होगा।
मुक्तिबोध के यहाँ अधूरी कहानियों की इस बड़ी तादाद का कारण क्या है? एक तो यह कि उन्हें लेखक की मृत्यु के बाद उसकी पांडुलिपियों में से किसी तरह उपराया गया है। जिन लेखकों की रचनाओं को उनके जीवित रहते उनकी देख-रेख में ही प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनका आधा-अधूरापन इस तरह सामने नहीं आ पाता। मुक्तिबोध का सृजन-संसार इस सौभाग्य से वंचित रहा। इसीलिए उसकी स्थिति ऐसी है जैसे किसी कारीगर का शो-रूम ही नहीं, उसके हुनर का इंतज़ार करती आड़ी-टेढ़ी चीज़ों से अंटा पड़ा वर्कशाप भी हमारे सामने आ गया हो।… पर अधूरी कहानियों की बड़ी संख्या सिर्फ़ इस वजह से नहीं है। ज़्यादा बड़ी वजह, संभवतः, मुक्तिबोध के रचनात्मक मिज़ाज में निहित है। यह बात तब समझ में आती है जब आप पाते हैं कि उनकी साबुत और संपूर्ण कहानियों में से भी अनेक अधूरी ही जान पड़ती हैं। उनका अन्त समापन का वह बोध नहीं दे पाता जिसकी हम एक कहानी से उम्मीद करते हैं। वे जहाँ ख़त्म होती हैं, वहाँ कथा-प्रसंगों के कई लावारिस धागे हमारी उंगलियों में उलझे रह जाते हैं। उंगलियां हिलाएं भी तो कहीं कोई हरक़त नहीं होती, क्योंकि इन धागों के दूसरे छोर हवा में लटके होते हैं। इससे लगता है कि मुक्तिबोध स्वभावतःकहानीकार नहीं हैं। कहानीकार से जुदा क़िस्म के सृजन-स्वभाव के चलते वे अक्सर अटकाव या भटकाव के शिकार होते हैं। पहली स्थिति में कहानी अधूरी छूट जाती है, दूसरी स्थिति में वह पूरी होकर भी कोई आश्वस्तिकर समापन अर्जित नहीं कर पाती।… अलबत्ता, कुछ प्रीतिकर अपवाद भी हैं, जिनसे गुज़रते हुए यह अहसास होता है कि स्वभाव जैसा कोई सत्य अगर है तो बहुलांश के अर्थ में ही। बचा हुआ अल्पांश  भी कभी-कभी निर्णायक हो जाता है।
मुक्तिबोध के स्वभावतःकहानीकार न होने के इस नुक़्ते पर हम वापस लौटेंगे, उससे पहले यह देखें कि मुक्तिबोध खुद अपनी कहानियों के अधूरे छूट जाने की इस समस्या पर क्या सोचते हैं। उनकी एक कहानी है, भूत का उपचार। इसमें वाचक बताता है कि उसने एक कहानी लिखी, जिसके चार पन्ने लिखने के बाद उसे मालूम हो गया कि कहानी इस तरह आगे बढ़ायी नहीं जा सकती।
मुख्य पात्र की ज़िंदगी थी, मैं भाष्यकर्ता दर्शक की हैसियत से एक पात्र बना हुआ था। कहानी बढ़ सकती थी बशर्ते कि मैं मूर्खता को ही कला मान लेता।
मूर्खता को ही कला मान लेने का यह तंज कहानी की उन चिराचरित रूढ़ियों को लेकर है जिन्हें अपनाने की छूट मुख्य पात्र ने उसे नहीं दी। वह लेखक बने हुए इस वाचक से बहस कर बैठा। लेखक ने सोचा था कि कहानी दुनियादार न हो पाने के कारण असफल रहनेवाले इस गणितप्रेमी, कलाभिरुचिसंपन्न, निम्नमध्यवर्गीय पात्र की जिंदगी के बारे में होगी। उस ज़िंदगी में अवसन्नता और पीड़ा होगी और दुनियादारी के मोर्चे पर अपनी परम-श्लाघ्यपराजय का पछतावा होगा। पात्र ने बहस छेड़ कर उसकी सारी कल्पना को ध्वस्त कर दिया। गणित की पहेलियों में उलझा कर उसने उसे यह अहसास कराया कि वह गणित की बहुत स्थूल समझ रखता है और उसी तरह मुनष्य-स्वभाव के भी स्थूल गणित को ही जानता है। स्थूल गणित का सत्य सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं होता, उसी तरह मनुष्य-स्वभाव के बारे में स्थूल प्रेक्षणों के सत्य सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं होते। अवसन्नता’, ‘पीड़ाऔर पराजय-बोधजैसी चीज़ को वह एक निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के बारे में इसी तरह के फ़ॉर्मूलाबद्ध सत्य का दर्जा देता है। वह शुद्ध तार्किक भावोंकी दुनिया में नयी-नयी संगतियों की खोजसे प्राप्त होने वाले आनन्द की बात करता है और उसे ही अपने भीतर के जीवनके रूप में पहचानने पर ज़ोर देता है। 
मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो! जो भीतर का है, वह धुआं या कुहरा है, यह ग़लत है। आप मुझे ऐसे पेंट करना चाहते हो जैसे मैं दुख के, असंगति के, कष्ट के, एक गटर का एक कीड़ा यानी निम्न मध्यवर्गीय हूँ।… ईश्वर के लिए, आप मुझे ग़लत चित्रित न कीजिए। ठीक है कि मैं तंग गलियों में रहता हूँ, और बच्चे को कपड़े नहीं हैं, या कि मैं फटेहाल हूँ। किन्तु मुझ पर दया करने की कुचेष्टा न कीजिए।… क्षमा कीजिए, लेकिन यह सच है कि आप लोग मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यन्त महत्वपूर्ण मान कर चलते हैं–विशेषकर उन अवस्थाओं को जहाँ वह अवसन्न है, और बाहरी पीड़ाओं से दुखी है। मैं इस अवसन्नता और पीड़ा का समर्थक नहीं, भयानक विरोधी हूँ। ये पीड़ाएं दूर होनी चाहिए। लेकिन उन्हें अलग हटाने के लिए मन में एक भव्यता लगती है– चाहे वह भव्यता पीड़ा दूर करने संबंधी हो, या गणितशास्त्रीय कल्पना की एक नयी अभिव्यक्ति। उस भव्य भावना को यदि उतारा जाए तो क्या कहना!… इसलिए जनाबेआली, मैं इस बात का विरोध करता हूँ कि आप निम्न मध्यवर्गीय कह कर मुझे ज़लील करें, मेरे फटेहाल कपड़ों की तरफ़ जान-बूझकर लोगों का ध्यान इस उद्देश्य से खिंचवायें कि वे मुझ पर दया करें। उन सालों की ऐसी-तैसी!
इस चुनौती का सामना होने पर वाचक परेशान हो उठता है। उसे लगता है कि यह ऐसा भूत है जो उसका पिंड नहीं छोड़ेगा। मार भगानायानी कहानी को अधूरा छोड़ देना ही इस भूत का उपचार है।
गणित और विज्ञान के उलझे सवालों में एक अजीब विश्वात्मक रोमांसदेखने वाला यह पात्र अपने लेखक के सामने जो चुनौती पेश कर रहा है, वह क्या है? वह किसी पात्र को चली आती रूढ़ियों की मदद से चित्रित न करने की चुनौती है। इन रूढ़ियों में फंसा लेखक मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यन्त महत्वपूर्ण मान करउनके चित्रण पर अपने रचनात्मक दायित्व की इतिश्री समझ लेता है। ऐसा नहीं कि वे विशेष अवस्थाएं असत्य हैं। वे भी सत्य हैं, पर उनकी सत्यता स्थूल और सुविदित है। उनका बार-बार वर्णन हुआ है, इसलिए वे बहुत जानी-पहचानी अवस्थाएं हैं, पर किसी पात्र विशेष की दुनिया उन्हीं पर ख़त्म नहीं हो जाती। यह पात्र लेखक को सुपरिचित और सुविदित से आगे जाने की, उन सत्यों को पहचानने की चुनौती देता है जिन तक पहुँचने का रास्ता फॉर्मूलों से हो कर नहीं जाता। वह एक तरह से आसान मार्ग अपना कर संतुष्ट हो जाने के लिए उसे बरजता है।
यह बहसतलब हो सकता है कि एक कहानी के अधूरे छूट जाने का जो विशिष्ट सन्दर्भ इस कहानी में आया है, उसे विशिष्ट ही रहने दिया जाए या सृजनशीलता के व्यापक सन्दर्भ में उससे कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले जाएं। विशिष्ट ही रहने देने का मतलब होगा, सिर्फ़ एक नयी हिकमत के रूप में इस कहानी की व्याख्या करना, जो कि ग़लत भी नहीं है। एक कहानी क्योंकर अधूरी रह गयी, यह बताते हुए लेखक, दरअसल, कहानी पूरी ही कर रहा है। एक पात्र का चित्रण करने में वह अपने को असमर्थ बता रहा है, पर इसी बहाने वह उसका चित्रण भी कर रहा है। यह युक्ति कुछ-कुछ वैसी ही है जैसे सारी बात बता कर यह कहना कि ये बातें मैं आपको नहीं बताऊंगा।
विशिष्ट ही रहने देने का एक और मतलब होगा, एक ख़ास तरह के निम्न मध्यवर्गीय पात्र की कहानी के रूप में इसकी व्याख्या करना–एक ऐसे पात्र की कहानी जो ग़रीब और तंगहाल तो है, पर उसका ज्ञान-व्यसन उसे इस तंगहाली की पीड़ा में गर्क़ नहीं होने देता।
पर यह कहानी सृजनशीलता के व्यापक सन्दर्भ में कुछ सामान्य निष्कर्ष निकालने के सुराग भी सौंपती है, बल्कि कहना चाहिए, उसके लिए उकसाती है। जब वाचक कहता है कि कहानी पूरी हो जाती बशर्ते कि मैं मूर्खता को ही कला मान लेता’, या कहानी का पात्र उससे कहता है कि स्थूल गणित मानव-स्वभाव का भी होता है, सो आपने जान लिया, लेकिन आपमें ऑब्जेक्टिव इमैजिनेशन नहीं है’, या मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो’, तो ये बातें अपने विशिष्ट सन्दर्भ से परे औसत रचनाशीलता पर खड़ा किया गया सामान्य सवाल बन जाती हैं। यहाँ सहज उपलब्ध समीकरणों से काम न चला कर कहीं गहरे पैठने की एक चुनौती हर लेखक के सामने पेश की जा रही है। खुद भूत का उपचारकहानी का वाचक इसी चुनौती से घबरा कर अपनी कहानी अधूरी छोड़ देने की बात कह रहा है (भले ही हम यह जानते हों कि उसके लिए कहानी अधूरी छोड़ने की यह कहानी, दरअसल, अपनी कहानी को पूरा करने की ही युक्ति है)। इस तरह पूर्वोक्त विशिष्ट सन्दर्भ  से परे यहाँ मुक्तिबोध अपनी अन्य अधूरी छूट गयी कहानियों के बारे में भी एक वक्तव्य दे रहे हैं। वह यह कि उपलब्ध समीकरणों से काम चला लेने की फ़ितरत होती तो वे भी पूरी हो जातीं। अधूरेपन का कारण, वस्तुतः, मानव-स्वभाव के स्थूल गणित से आगे जाने और नयी-नयी संगतियों की खोजकरने का आग्रह है जो हर बार सध नहीं पाता।
निस्संदेह, ‘स्वभावतःकहानीकार न होने के जिस नुक्ते को पीछे उठाया गया था और जिस पर बात होना अभी बाक़ी है, उसके अलावा उक्त आग्रह भी मुक्तिबोध के यहाँ अधूरी कहानियों की बड़ी संख्या का एक कारण रहा होगा। चरित्रों और कथा-स्थितियों की कल्पना के मामले में वे आसान रास्ते का चुनाव करने वाले कहानीकार नहीं हैं। वे हर जगह उस जटिलता में उतरते दिखाई पड़ते हैं जहाँ व्यक्ति और टाइप, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जैसे लोकप्रिय/प्रचलित वर्गीकरण विश्लेषण की दृष्टि से कारगर नहीं रह जाते। कैसे? एक ओर आप पाते हैं कि वे वर्गीय प्रश्न के प्रति बेहद सजग कथाकार हैं और उनकी बहुत कम कहानियां ऐसी हैं जहाँ मौजूदा समाज-व्यवस्था के भीतर पात्र की वर्गीय अवस्थिति के मसले को अनछुआ छोड़ दिया गया हो, पर दूसरी ओर, पारंपरिक अर्थ में प्रतिनिधि कहे जाने वाले पात्र उनके यहाँ  नहीं मिलेंगे जिसकी कि वर्गीय प्रश्न के प्रति सजग कथाकार से सामान्यतः उम्मीद की जाती है। एक ओर, वे जिन समस्याओं से लगातार टकराते हैं, वे पूँजी के तंत्र में उगी ठेठ सामाजिक-ऐतिहासिक समस्याएं हैं और इसी रूप में इनकी पहचान वे बतौर कथाकार करते भी हैं, पर दूसरी ओर, उनकी कथा बाहर के घटनासंकुल संसार में उतनी नहीं चलती जितनी अन्दर के भाव-विचारमय संसार में, यानी वे मैन इन एक्शनके नहीं, ‘मैन इन कंटेम्प्लेशनके कथाकार लगते हैं जो कि मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का गुण बताया जाता है। ग़रज़ कि मुक्तिबोध के लिए मार्क्सवादी होने का मतलब व्यक्ति-मनोविज्ञान की बारीकियों में उतरने और उसकी अशेष संभावनाओं के प्रति अपने को खुला रखने की दुश्वारियों से पीछा छुड़ा लेना नहीं है और पात्र के मनोविज्ञान में, उसके भाव और विचार की दुनिया में गोता लगाने का मतलब उसे पूँजी और सत्ता के गठजोड़ पर टिके ठोस सामाजिक परिप्रेक्ष्य से काट देना नहीं है। 
मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियां, ‘भूत का उपचारकी तरह ही, इस बात का उदाहरण हैं। उनकी कहानियों में निम्नमध्यवर्गीय अभावग्रस्त जीवन के दारुण चित्र बहुतायत से हैं, इन चित्रों को व्यवस्था में निहित अन्याय और छल के परिणाम के रूप में प्रस्तुत करने का सचेत प्रयास भी है, लेकिन इसके लिए कहानी घटनाओं की श्रृंखला का सहारा उतना नहीं लेती जितना मानसिक प्रतिक्रियाओं का। व्यवस्था की आलोचना किसी पात्र के आत्मनिष्ठ अवलोकन-बिंदु से प्रस्तुत की जाती है जहाँ उसके विद्रूप को झेलते व्यक्ति का मन केन्द्र  में होता है और आलोचनात्मक यथार्थवाद एक तरह का मनोवैज्ञानिक रचना-विधान हासिल कर लेता है। पता नहीं, इसके लिए अन्तर्मुखी यथार्थवाद जैसा कोई पद गढ़ा जा सकता है या नहीं, पर यह सच है कि मुक्तिबोध के यहाँ अन्यायपूर्ण समाजार्थिक व्यवस्था की आलोचना और जटिल मनोवैज्ञानिक चित्रण के बीच कोई फांक नहीं मिलती। ये परस्पर विरोधी विशेषज्ञताएं न रह कर पूरक बन जाती हैं। उपसंहारकहानी को इसके नमूने के तौर पर पढ़ सकते हैं।
उपसंहाररामलाल नामक एक ग़रीब निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानी है। उसका पेशा क्या है, यह ठीक-ठीक पता नहीं चलता, पर अनुमान लगाने की गुंजाइश है कि वह बहुत कम वेतन पर किसी अख़बार में नौकरी करता है। उसकी ग़रीबी के बारे में उसके एक ख़ैरख़्वाह की राय है कि जो आदमी ग़रीब बना रहना चाहता है, उसका कोई इलाज है? कितनी ही नौकरियां छोड़ीं उसने। मात्र भावुकतावश।… दिमाग़ी फितूर उस पर आज भी सवार है।… भाई, अगर रोटी कमाना हो तो उसका तरीक़ा सीखो। दुनिया की फ़िक्र छोड़ कर अपनी बढ़ती की चिन्ता करो।कहानी के किसी और हिस्से से नहीं, सिर्फ़ अन्त में आई हुई एक पात्र की इस टिप्पणी से पता चलता है कि रामलाल उसूलों वाला आदमी है (भावुकता’, ‘दिमाग़ी फितूर’, ‘दुनिया की फ़िक्र’–ये सब उसी ओर इशारा करते हैं) और समझौता न करना उसकी दुर्दशा का कारण है। इसीलिए इस दुनियादार पात्र की निगाह में, ‘वह एक निकम्मा और दयनीय व्यक्ति है।उसका पारिवारिक जीवन भयावह अभावों से घिरा है। उसकी अपनी हालत यह है कि कठिनाइयों ने… शरीर को भी झुलसा दिया। उसे कमज़ोरी और रोग का घर बना दिया। तनख़्वाह की बड़ी रक़म डॉक्टरों के पास जाने लगी और कर्ज़ का पहाड़ ऊंचा होता चला गया। चिन्ता का धुआं दिलोदिमाग़ में हमेशा के लिए भर उठा और आत्मा की लौ धुआंने लगी। जीवन में जीवन की अभिरुचि जाती रही।पत्नी की दशा : ‘…जब विवाहित हो कर आयी थी तो उसका रूप ही कुछ और था।… स्वास्थ्य ऐसा कि जो किसी वृक्ष का स्वास्थ्य होता है, जिसमें बड़ी शक्ति और बहुत आत्म-सामर्थ्य स्वाभाविक रहता है, शाखा के या धड़ के कट जाने के बावजूद जो विकसित और सवंर्द्धित होता रहता है।… किन्तु आज आठ साल बाद, वह एक ऐसा खोखला घर हो गयी जिसे ज़रा-सी आंधी का हल्का-सा थप्पड़ ढहा सकता है।उसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं जो बाबूजी के अफ़सर बन जाने की झूठी उम्मीद जगाये जाने पर खुशी में नाचनेलगते हैं और आपस में होड़ लगाने लगते हैं कि बाबूजी उसके जूते ला देंगे, उसकी कमीज़ ला देंगे।
अभावग्रस्त गृहस्थी के ऐसे चित्र कहानी में कई तरह से और कई बार आये हैं। इन अभावों से पैदा होनेवाले अवसाद और इन दोनों–यानी अभाव और अवसाद–से लड़ने की कोशिशों पर कहानी केंद्रित है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से स्थूल घटनाएं नगण्य हैं। कहानी का बड़ा हिस्सा मनोभावों के धरातल पर चलता है। रामलाल किसी से कर्ज़ मांगने के लिए घर से निकला है, पर मन की अव्याख्येय गति कुछ ऐसी है कि जिस दिशा में जाना था, उससे ठीक उल्टी दिशा में काफ़ी दूर तक निकल जाता है। फिर उसके मन में एकाएक चुभती हुई आँखों  का एक बिंब उभरता है और उसे अपने कर्तव्य की याद दिला देता है। ये आंखें उसकी पत्नी की हैं, जैसा कि हमें थोड़ी देर बाद बताया जाता है।
किसी तेज़ रोशनी सी चमकती हुईं वे आंखें– मानो किसी पागल की हों। फिर भी वे सचेत थीं, अपनी हताशा में सम्मिलित प्रतिरोध से भरी हुईं, संपूर्ण निरपेक्ष, किन्तु किसी को उसके कर्तव्य का भान कराती हुईं, निराश, और किसी अमूर्त (यानी तुरंत समझ में न आ सकने वाले कि क्यों ऐसा है)… क्रोध और क्षोभ में जलती हुईं।
 
पीले, कृश, सुघड़ चेहरे की वे आंखें रामलाल के अंतःकरण में गड़ी जा रही थीं। मानो किन्हीं तेज़ किरणों की वे लंबी चमकती हुई आलपिनें हों। उनकी वह दृढ़ एकाग्र निरंतर दृष्टि हृदय को आह्लाद देने वाली न थी। चेतना की गहरी तहों को ज़बरदस्ती झकझोर, विचारों और वेदनाओं की अराजक स्थिति उत्पन्न कर, वे उस तमोलीन गहराई में से एक केंद्रीय सत्य का उद्घाटन करती थीं, जो रामलाल के लाख प्रयत्नों के बावजूद छिप न सका। उन आँखों की तेज़ रोशनी  के एक पल के भीतर ही रामलाल कई बार जन्मा और कई बार मर गया–उसके कई पुनर्जन्म हुए।
चुभती हुई आँखों  का यह वर्णन आगे भी चलता है। ये आंखें रामलाल के अन्दर   कहीं बहुत गहरा घाव कर देती हैं। उसके बाद रामलाल किसी आंतरिक प्रवृत्ति सेसाइकिल से उतर पड़ता है, और बहुत बेचैनी से अपनी जेबें टटोलने लगता है, जैसे उसके पास दस रुपये का कोई नोट रहा हो जिसे किसी ने उड़ा लिया। ‘…यह सब करते हुए भी उसका सचेत मन कह रहा था कि क्या तमाशा कर रहे हो! तुम्हारा कुछ खोया नहीं।
रामलाल के घर से निकलने के बाद का यह पूरा प्रकरण पात्र के जटिल मनोविज्ञान में मुक्तिबोध की दिलचस्पी का एक नमूना है। सचेत मनकुछ और कह रहा हो, आंतरिक प्रवृत्ति कुछ और करवा रही हो–यह स्थिति सामान्यतः व्यवस्थागत अन्याय और छल के प्रश्नों से टकराने वाले लेखकों के यहाँ  नहीं मिलती। उनके यहाँ  ऐसे जटिल मनोवैज्ञानिक प्रसंग नहीं मिलते कि पात्र घर से निकलें कहीं और के लिए और चल पड़ें ठीक उल्टी दिशा में, फिर एक निरावलंब प्रत्यक्ष के रूप में एक शुद्ध मानसिक परिघटना से जूझते हुए गहरी ग्लानि का अनुभव करें, फिर कोई ऐसी हरकत करने लगें जिसका खुद उनकी सजग बुद्धि के लिए कोई अर्थ न हो। मुक्तिबोध यहाँ विशुद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार नज़र आते हैं। फ़र्क़ यही है कि मनोवैज्ञानिक पेचीदगियों का चित्रण उनके लिए अन्यायपूर्ण असमानता की बुनियाद पर क़ायम समाज की विद्रूपता को उजागर करने का साधन है। जब रामलाल बेचैनी से अपनी जेबें टटोलता है, जैसे उसका दस रुपये का नोट किसी ने उड़ा लिया हो, तब हमारा ध्यान असामान्य मनोविज्ञान की पोथियों की ओर नहीं बल्कि उस व्यवस्था की ओर जाता है जिसने मेहनतकशों को उनके प्राप्य से, उनके वाजिब हक़ से वंचित कर रखा है और इस तरह चुपके से जेब ख़ाली कर जाने वाले गिरहकट का किरदार निभा रही है। 
कहानी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, रामलाल जैसों को अपना निरीह शिकार  बनाने वाली व्यवस्था के कई ठोस सन्दर्भ  कहानी में आते जाते हैं। कॉफ़ी हाउस में बैठे-बैठे रामलाल ब्लिट्ज़अख़बार देखता है जिसमें किसी क़स्बे के एक ग्रामीण शिक्षक की आत्महत्या की ख़बर छपी है। उस शिक्षक की जेब में मिले पुरजे पर लिखा था कि चालीस रुपये माहवार की तनख़्वाह पर वह अपने प्यारे परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, इसलिए खुदकुशी कर रहा है। उसी के साथ यह ख़बर भी छपी थी कि इस खुदकुशी के बाद जगह-जगह आंदोलन भड़क उठे हैं।
उसको पढ़ते-पढ़ते उसे भी जोश आ गया। उसके दिल की सारी नाउम्मीदी एक विश्वव्यापी अंगार के रूप में रूपांतरित हो कर उसके दिल को गरमी और आत्मा को किरण प्रदान करने लगी। बीमार को जैसे सेहत प्राप्त होती है, भूखे को जैसे अन्न मिल जाता है, निस्सहाय को जैसे कोई उद्धारक अभिन्न-हृदय मित्र के दर्शन  होते हैं– बिल्कुल उसी तरह रामलाल को एक सत्य के दर्शन प्राप्त हुए, वह सत्य जिसका वह स्वयं एक अंग है। रामलाल ने अपने-आपको प्राप्त कर लिया, अपने-आपको खोज लिया।
क्या रामलाल स्वयं टीचर देशपांडे नहीं है, जो रेल के नीचे कट कर मर गया? क्या उसने कभी नहीं सोचा था कि अपनी उलझनों की दुनिया से फ़रार होने का निश्चय कर डाले?… रामलाल स्वयं देशपांडे है, और बिलखता परिवार भी है जो आज किसी गाँव   में– दूर किसी गाँव में, जिंदगी की सियाह चट्टानों पर बीज बोने की पागल कोशिश कर रहा है। रामलाल वह बेचैन नौजवान भी है जिसने देशपांडे की खुदकुशी की ख़बर सुन, इंकलाब की आग लगाने की हिम्मत और जुर्रत की और गिरफ़्तार हुआ।…
खुदकुशी की ख़बर पर रामलाल की इस मानसिक उथल-पुथल का वर्णन कहानी में ख़ासा लंबा है, जिसमें वह पूरी व्यवस्था में मूलबद्ध अन्याय और अपराध की पहचान करता है, और साथ-ही-साथ उसका अन्त  कर देने वाली सामूहिक लहर का हिस्सा बनने की ज़रूरत महसूस करता है।
रामलाल ने बौद्धिक रूप से भी कुछ निष्कर्ष निकाले। एक तो यह कि वह स्वयं विशाल भव्य उपन्यास हो सकता है और उसका अंगभूत एक पात्र भी। पर अभी वह कुछ नहीं। पर उसे होना चाहिए। नवीन शक्तियों की ऊष्मा उसमें ज़रूरत से ज़्यादा हो सकती है, और यकायक भड़क सकती है, पर अभी तक वह अपने को उससे बचाता आ रहा है… पर कब तलक? उसे उलझ ही जाना चाहिए। यही धर्म है।
इस तरह मेहनतकशों की दुर्दशा और व्यवस्थाविरोधी संघर्ष की ज़रूरत को रेखांकित करने वाला आलोचनात्मक यथार्थवादी कथ्य यहाँ ऐसी कथा-स्थितियों पर निर्भर है जिन्हें मुख्यतः एक विचारशील पात्र की आत्मनिष्ठ प्रतिक्रियाओं से बुना गया है। हां, इसके बाद जब रामलाल की मेज पर और लोग आ जाते हैं, तब निश्चित रूप से कथा की प्रकृति बदल जाती है। अब एकाधिक आत्मनिष्ठ प्रतिक्रियाएं वार्तालाप के रूप में सामने आने लगती हैं। कांग्रेसी हुकूमत के जुल्मों पर, इंदौर में मज़दूरों और ग्वालियर में विद्यार्थियों पर गोली चलने की घटनाओं पर बातचीत होती है, जिसमें परस्पर विरुद्ध मत व्यक्त किये जाते हैं। इन सभी मसलों पर सरकार और व्यवस्था के पक्ष में दलील देने वाला व्यक्ति वही है जो कहानी के अन्त  में रामलाल के बारे में यह राय व्यक्त करता है कि वह एक निकम्मा और दयनीय व्यक्ति है क्योंकि दुनियादार नहीं है। वार्तालाप वाले इस हिस्से के बारे में हम कह सकते हैं कि यहाँ भी कहानी प्रतिक्रियाओं से ही बुनी जा रही है, पर अब कम-से-कम वह बाहर चल रही है, भीतर नहीं। बाहर चलने के कारण यहाँ मुख़्तलिफ़ क़िस्म की प्रतिक्रियाओं का टकराव, उन्हें व्यक्त करने के क्रम में सामने आने वाली भाव-भंगिमाएं, बहस के समानांतर चल रहे कुछ और क्रिया-व्यापार– ये सब कहानी का हिस्सा बनते हैं। रामलाल की भयावह ग़रीबी और उससे जूझते हुए रामलाल के अन्तर्जगत को सामने रख कर कहानीकार जिस यथार्थ के प्रति अपने पाठक को संवेदनशील बनाना चाहता है, उसका अब एक नयी परिधि में विस्तार होता है।
इस पूरे विवेचन का उद्देश्य उपसंहारकहानी की समीक्षा करना नहीं है। वैसे भी यह कोई मुकम्मल कहानी नहीं, ‘संभवतः अपूर्ण कहानी का अंश है, लिहाज़ा कहानी की कसौटी पर इसे परखने का कोई मतलब नहीं। यहाँ उद्देश्य सिर्फ़ यह दिखाना है कि मुक्तिबोध के यहाँ  गहरी सामाजिक चेतना वाला कथ्य पात्र के मनोजगत की सूक्ष्म गतिकी के चित्रण में बाधक नहीं बनता, और इसका उलट भी सच है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि ये उनके लिए दो अलग-अलग चीज़ें हैं ही नहीं, जिनमें तालमेल बिठाने के लिए उन्हें सचेत रूप से प्रयास करना पड़ रहा हो। उनकी कहानी-कला में यह द्वैत मिट जाता है। द्वैत का मिटना आलोचना के लिए इस लिहाज से एक बुरी ख़बर या चुनौती है कि इसकी वजह से तयशुदा वर्गीकरण की सहूलियत छिन जाती है। मुक्तिबोध प्रेमचंद परंपरा के कहानीकार हैं या नहीं, इस पर विचार करके देखिए, सहूलियत छिनने का मतलब समझ में आ जाएगा।
मुक्तिबोध के यहाँ सामाजिक स्थितियों के चित्रण का सहचर और साधन बनने वाला यह अन्तर्जगत बहुत वैविध्यपूर्ण नहीं है। हम बार-बार दुहराये जानेवाले कुछ मनोभावों की पहचान कर सकते हैं। अवसाद, ग्लानि और अपराध-बोध, निरुपायता की तड़प, आत्मसम्मान को बचाने की जद्दोजहद– इन्हीं के क्रमचय-संचय से उनके पात्रों का अन्तर्जगत बनता है। वे इन्हीं मनोभावों के कथाकार हैं, और चूंकि इन मनोभावों का सन्दर्भ उनके यहाँ अन्यायपूर्ण व्यवस्था है, इसलिए वे अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कथाकार हैं। पक्षी और दीमक’, ‘विपात्र’, ‘समझौता’, ‘विद्रूप’, ‘एक दाखि़ल-दफ़्तर सांझ’, ‘जलना’, ‘काठ का सपना’, ‘जंक्शन’, ‘अंधेरे में’, ‘नयी जिंदगी’, ‘जिंदगी की क़तरन’, ‘क्लाड ईथरली’–इन सारी कहानियों को देखें तो कहीं गहरे अवसाद के धूसर चित्र मिलेंगे, कहीं अपनी पारिवारिक-सामाजिक ज़िम्मेदारियों को न निभा पाने या प्रकारांतर से व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध मिलेगा, कहीं अपनी स्वतंत्रता को बेच खाने की ग्लानि और निरुपायता का अहसास, तो कहीं स्वतंत्रता को बचाने की पीड़ा भरी जद्दोजहद।[i]ऐसी ही मिलती-जुलती स्थितियां मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियों में हैं, भले ही इन स्थितियों की परिस्थितियां और तीव्रता, और कई बार प्रकृति भी, भिन्न हो। परिस्थितियों और तीव्रता पर तो शायद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, अलबत्ता प्रकृति की भिन्नता को एक उदाहरण से स्पष्ट कर देना उचित होगा। व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध पक्षी और दीमकमें भी है और क्लाड ईथरली में भी, पर दोनों जगह इस बोध की प्रकृति के अन्त र को चिह्नित किया जा सकता है। पक्षी और दीमकमें मुख्य पात्र (स्वयं वाचक) का अपराध-बोध शुरू से ही बहुत साफ़ है। उसे पता है कि श्यामला के सामने वह जिन बातों को छुपा जाता है, वे अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करनेमें बाधक हैं। अपनी सुविधाओं के लिए किए गए समझौते को ले कर उसके दिल के किसी कोने में कोई अंधियारा गटर एकदम फूट निकलता है। वह गटर है आत्मालोचन, दुःख और ग्लानि का।अपने व्यक्तित्व– क़ीमती फ़ाउंटेनपेन जैसे नीरव-शब्दांकनवादी व्यक्तित्व’–के विलोम के रूप में वह श्यामला को देखता है, जिसमें बारीक बेइमानियों का सूफ़ियाना अंदाज़बिल्कुल नहीं है। विलोम व्यक्तित्व वाली इस स्त्री की चाहत और खुद को उसके लिए काम्य बनाने की फ़िक्र में ही वह अपने-आपको बदलने का संकल्प लेता है। क्लाड ईथरलीमें भी वाचक के अन्दर   व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध है, पर वह अवचेतन की परतों में दबा हुआ है जिसे कहानी के अन्त  में एक रूपक के साधर्म्य के सहारे सामने आना है। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने वाले विमान-चालक क्लाड ईथरली की कहानी और उस कहानी को बताने वाले सी.आई.डी. के अधिकारी की विस्तृत व्याख्या उस अहसास को चेतना की सतह पर ले आती है। यह किसी अपराध में सीधे-सीधे शामिल होने की ग्लानि नहीं, समाज में व्याप्त अन्याय का अनुभव करनेवाले किन्तु उसका विरोध न करने वाले लोगों के अंतःकरण में ख्बसी, व्यक्तिगत पाप-भावनाहै। इस तरह सामाजिक दायित्व के स्तर पर अपनी नकारात्मक भूमिका का अपराध-बोध दोनों कहानियों के केन्द्र में है, पर एक जगह वह स्पष्ट और प्रत्यक्ष है, दूसरी जगह धुंधला और परोक्ष। स्पष्ट और प्रत्यक्ष वहाँ  है जहाँ नकारात्मक भूमिका सुपरिभाषित और ठोस है; कहानी को इसी भूमिका से बाहर आने के संकल्प पर ख़त्म होना है। धुंधला और परोक्ष वहाँ  है जहाँ नकारात्मक भूमिका अपेक्षाकृत अमूर्त है। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने वाले विमान-चालक क्लॉड ईथरली का अपराध-बोध निस्संदेह किसी धुंधलके में नहीं है, पर वह कहानी के भीतर की कहानी है। उस विमान-चालक के बहाने वाचक के अपराध-बोध का उभरना और आधुनिक समाज के सचेत-जागरूक-संवेदनशील जन के अपराध-बोध के रूप में स्थापित होना ही कहानी की पूरी प्रक्रिया है– ‘‘इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत, जागरूक, संवेदनशील जन क्लॉड ईथरली हैं’’। यहाँ सामाजिक दायित्व के स्तर पर अपनी नकारात्मक भूमिका का ज्ञान हस्तामलकवत नहीं, व्याख्यासापेक्ष है। इसीलिए पक्षी और दीमकजहाँ अपनी भूमिका और तत्संबंधी अपराध-भावना से मुक्त होने के संकल्प पर ख़त्म होती है, वहीं क्लॉड ईथरलीउस भूमिका और तत्संबंधी अपराध-भावना की पहचान पर–‘‘उसने मेरे दिल में ख़ंजर मार दिया। हां, यह सच था! बिल्कुल सच! अवचेतन के अंधेरे तहख़ाने में पड़ी हुई आत्मा विद्रोह करती है। समस्त पापाचारों के लिए अपने-आपको ज़िम्मेदार समझती है।’’  
बहरहाल, इस तरह के अन्तरों के साथ ग्लानि, अपराध-बोध, अवसाद, निरुपायता और घुटन की स्थितियां-मनःस्थितियां बार-बार मुक्तिबोध की कहानियों का विषय बनती हैं। इन्हीं की अनुकूलता में उनका पूरा कहानी-संसार ख़ासा धूसर और मटमैला-सा है। वहाँ  खिले और खुले दिन का प्रसन्न प्रकाश बमुश्किल मिलता है। एक ख़ास तरह की प्रकाश-व्यवस्था, जिसमें वस्तुगत परिवेश से लेकर आत्मगत मनःस्थिति तक, सब कुछ बुझा-बुझा-सा जान पड़ता है, इस कहानी-संसार की पहचान है। जहाँ मनःस्थिति में यह बुझा-बुझापन न हो, वहाँ  भी प्रकाश-व्यवस्था में सियाह छायाएं बहुतायत से हैं। वातावरण को ले कर यह मुक्तिबोध की ख़ास पसंद है। 
रात में तालाब के रुंधे, बुरे बासते पानी के विस्तार की गहराई सियाह हो उठती है, जिसकी ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी  के बल्बों के रेखाबद्ध निष्कंप प्रतिबिंब वर्तमान मानवी सभ्यता के सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते से प्रतीत होते हैं।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
‘…मैंने तालाब के पूरे सियाह फैलाव को देखा, उसकी अथाह काली गहराई पर एक पल नज़र गड़ायी। सूनी सड़कों और गुमसुम बंगलों की ओर दृष्टि फेरी और फिर अंधेरे में अर्ध-लुप्त किन्तु समीपस्थ मित्र की ओर निहारा।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
मध्यवर्गीय समाज की सांवली गहराइयों की रुंधी हवा की गंध से मैं इस तरह वाक़िफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुंदर की नमकीन हवा से।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
इतने में परछाईं-सा एक व्यक्ति न दिख सकने वाली गैलरी में से आता हुआ दिखायी दिया।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
स्टेशन पर बिजली की रोशनी  थी, परंतु वह रात के अंधियाले को चीर न सकती थी, और इसीलिए मानो रात अपने सघन रेशमी अंधियाले से तंबूनुमा घर हो गयी थी जिसमें बिजली के दीये जलते हों।’ (‘अंधेरे में’)
सड़क के आधे भाग पर चांदनी बिछी थी और आधा भाग चंद्र के तिरछे होने के कारण छायाच्छन्न होकर काला हो गया था। उसका कालापन चांदनी से अधिक उठा हुआ मालूम होता था।’ (‘अंधेरे में’)
हल्का, धुंधला प्रकाश , जो बादलों से उतर न पाता था, बहुत ही निर्जीव-सा था। रात भर जलते रहने का दम भरने वाले म्यूनिसिपैलिटी के कंदील की सूरत मरी हुई, बुझी हुई थी।’ (‘उपसंहार’)
रात भर की बरसात के कारण सुबह भी गीली, धुंधली और मैली थी। निर्जीव था उसका प्रकाश ।… वह अन्दर   के कोठे में चला गया। वह एक अंधेरा कमरा था – मानो एक बड़ा-सा संदूक हो।’ (‘उपसंहार’)
अंधेरी रात में सड़क पर बिजली के बल्ब के नीचे दो छायाएं दीख रही थीं।’ (‘नयी जिंदगी’)
अंधेरे से भरा, धुंधला, संकरा प्रदीर्घ कॉरिडोर और पत्थर की दीवारें।’ (‘समझौता’)
दूर, सिर्फ़ एक कमरा खुला है। भीतर से कॉरिडोर में रोशनी  का एक ख़याल फैला हुआ है। रोशनी नहीं, क्योंकि कमरे पर एक हरा परदा है। पहुँचने पर बाहर, धुंधले अंधेरे में एक आदमी बैठा हुआ दिखायी देता है।’ (‘समझौता’)
बिल्ली जैसे दूध की आलमारी की तरफ़ नज़र दौड़ाती है, उसी तरह मैंने बिजली के बटन के लिए अंधेरे-भरी पत्थर की दीवार पर नज़र दौड़ायी। हां, वो वहीं है। बटन दबाया। रोशनी ने आंख खोली। लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़-सा, उकताया-उकताया-सा फैला।’ (‘समझौता’)
‘…ज्यों ही उसे ख़याल आया कि उसका पति चाय बना रहा है, उसके मन में तेजाबी काला गटर बहने लगा।… काले सल्फ्यूरिक एसिड की भयानक बू-बास वाला वह गटर उसके भीतर-भीतर बहता ही गया…।’ (‘जलना’)
पिता बच्ची को लिये घर में प्रवेश करते हैं, तो एक ठंडा, सूना, मटियाली बास-भरा अंधेरा प्रस्तुत होता है, जिसके पिछवाड़े के अंतिम छोर में आसमान की नीलाई का एक छोटा चौकोर टुकड़ा खड़ा हुआ है। वह दरवाज़ा है।’ (‘काठ का सपना’)
अंधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया।’ (‘काठ का सपना’)
मैंने किवाड़ खोलते ही पाया कि वहाँ सचमुच कोई नहीं था, केवल काला अंधेरा जो अन्दर के प्रकाश से फट गया था।’ (‘विद्रूप’)
सामने अंधेरे में एक सिंधी की चाय की दूकान पड़ती थी। उसके भीतर के कमरे में एकान्त था। उस एकान्त के लिए मैं तड़प उठा। एकान्त मेरा रक्षक है। वह मुझे त्राण देता है और बहते हुए खून को अपने फावे से पोंछ देता है। जगत मेरी इच्छा समझ गया। अंधेरे भरे एकान्त कमरे में जिसके ऊपर एक रोशनदान से धुंधला  प्रकाश आ रहा था। हम दोनों जाकर धप्-से बैठ गये।’ (‘विपात्र’)
लगता था, हम किसी अंधेरी सुरंग में भटकते-भटकते अब यहाँ पहुंच कर एक दीवार का सामना कर रहे थे, जिसके आगे रास्ता नहीं था।’ (‘विपात्र’)
धरड़-खरड़, खरड़-धरड़ मशीन चलती है, चलती है, उसमें स्याही लगी है, लेकिन काग़ज़ नहीं है, इसलिए कुछ नहीं छपता। पुस्तक नहीं, पर्चा नहीं, अख़बार नहीं। पर, पूरी मशीन रफ़्तार के साथ धरड़-धरड़, खरड़-खरड़ चलती रहती है, सूने, अंधेरे-अकेले में।… एक अजीब भयानक काला-काला सांड़ पल-क्षण की हरी-हरी घास चरता जा रहा है। ख़याली धुंध में जीते रहने की आदत बन गयी है।’ (‘विपात्र’)
काली-मटमैली छायाओं वाली इस प्रकाश -व्यवस्था को अगर वातावरण के संबंध में मुक्तिबोध की ख़ास पसंद न कहना चाहें– पसंदशब्द के प्रियतावाले आशय को देखते हुए–तो एक तरह की मनोग्रस्ति कह सकते हैं। यह मनोग्रस्ति उनके पूरे कहानी-संसार को अवसाद और घुटन का एक विराट बिंब बना देती है। 
यह बिंब शायद बहुत विकर्षक होता और उसमें कोई सकारात्मक ऊर्जा नज़र न आती अगर उसकी पृष्ठभूमि में मौजूदा व्यवस्था की आलोचना और अपना जमीर, अपनी स्वतंत्रता, अपना आत्मसम्मान बचाये रखने का संघर्ष न होता। मुक्तिबोध की कोई कहानी इस आलोचना से वंचित नहीं है। जहाँ ऐसा लगता है कि वे सिर्फ़ अभावग्रस्त निम्नमध्यवर्गीय जीवन के अवसाद को अपना विषय बना रहे हैं, वहाँ भी व्यवस्था की आलोचना का यह पक्ष एक लगभग निराकार उपस्थिति की तरह कहानी में मौजूद रहता है। काठ का सपनाअभावग्रस्त जीवन के अवसाद में डूबी हुई एक छोटी-सी कहानी है जिसमें मुक्तिबोध की दूसरी कहानियों की तरह मौक़ा मिलते ही विश्लेषण की दिशा में निकल भागने का लोभ बिल्कुल नहीं है; इसके बावजूद कहानी में यह व्यंजना व्याप्त है कि अभावों की पृष्ठभूमि वह अन्यायपूर्ण व्यवस्था है जिससे व्यक्तिगत स्तर पर पार नहीं पाया जा सकता और जहाँ सफल-संपन्न जीवन ऐसी शर्तों पर ही संभव है जो एक अच्छे-सच्चे इंसान के लिए अस्वीकार्य हैं। बच्ची को सुलाने के बाद पुरुष और स्त्री जब अपने तथाकथित बिस्तरों परलेट जाते हैं, उस समय का यह हिस्सा देखें:
अंधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया। नहीं, उसे हटाना पड़ेगा ही– सरोज के पिता सोच रहे हैं। और उनकी आंखें बग़ल में पड़े हुए बिस्तर की ओर गयीं।
वहाँ  भी एक हलचल है। वहाँ  भी बेचैनी है। लेकिन कैसी?
…लेकिन उन दोनों में न स्वीकार है, न अस्वीकार! सिर्फ़ एक संदेह है, ये संदेह साधार है कि इस निष्क्रियता में एक अलगाव है–एक भीतरी अलगाव है। अलगाव में विरोध है, विरोध में आलोचना है, आलोचना में करुणा है। आलोचना पूर्णतः स्वीकारणीय है, क्योंकि उसका संकेत कर्तव्य-कर्म की ओर है, जिसे इस पुरुष ने कभी पूरा नहीं किया। वह पूरा नहीं कर सकता।
कर्तव्य-कर्म को पूरा करना केवल उसके संकल्प द्वारा ही नहीं हो सकता। उसके लिए और भी कुछ चाहिए। फिर भी, वह पुरुष मन-ही-मन यह वचन देता है, यह प्रतिज्ञा करता है कि कल ज़रूर वह कुछ-न-कुछ करेगा, विजयी हो कर लौटेगा।
इसी तरह शुरुआत का वह हिस्सा जहाँ पुरुष बाहर से आता है और अपनी बेटी को इंतज़ार करता हुआ पाता है:
नन्हीं बालिका सरोज का पीला चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ़ एक फ्राक और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्तव्य की जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेंगे, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से वे चिढ़ जाते हैं।
 ‘काठ का सपनाव्यवस्था में मूलबद्ध अन्याय को सीधे-सीधे अभिधा में नहीं कहती, पर उसकी ध्वनि पूरी कहानी में गूंजती है। यह अपने प्रिय विषय के साथ मुक्तिबोध के बरताव का एक छोर है। इससे ठीक उलट छोर पर है विपात्र’, और मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियां इन दो छोरों के बीच है। विपात्रमें उनके इस प्रिय विषय की सबसे मुखर, यहाँ  तक कि लगभग वाचाल, उपस्थिति देखने को मिलती है। प्रथम पुरुष वाचक और उसका पढ़ाकू मित्र जगत एक अकादमिक संस्थान में काम करते हैं जहाँ विज्ञान वालों को यह मालूम नहीं था कि हाल ही में कौन-कौन महत्वपूर्ण आविष्कार हो रहे हैं, और हिंदी वालों को यह ज्ञात नहीं था कि आजकल इस क्षेत्र में क्या चल रहा है।इस संस्थान में सबसे बड़ी योग्यता है, संस्थान के निदेशक का दरबारी होना। वाचक और उसका मित्र इस माहौल से घृणा करते हैं, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। जगत तो फिर भी अपना कोई उपाय निकाल सकता है, पर अपेक्षाकृत बड़ी उम्र में नौकरी पाने वाला, लंबे-चौड़े परिवार का भरण-पोषण करने वाला वाचक बिल्कुल निरुपाय है और चापलूसी, अयोग्यता, मध्यवर्गीय स्वार्थपरता के इस दमघोंटू माहौल में किसी तरह अपने दिन काट रहा है। चूंकि लंबी कहानी/उपन्यासिका का अधिकांश, वाचक, जगत और कुछ दूसरे सहकर्मियों के वार्तालाप के रूप में ही बुना गया है, इसलिए उक्त स्थितियों को लेकर सीधी टिप्पणियां बहुतायत से हैं, जिनमें पूँजीवादी तंत्र के भीतर व्यक्ति-स्वातंत्र्य के छद्म पर, वर्गीय तनावों और वर्ग-च्युत होने के मध्यवर्गीय भय पर, आदमी-आदमी के बीच फ़ासलों और भेदों के दलदलपर खुल कर विचार किया गया है। मुक्तिबोध इस लंबी कहानी/उपन्यासिका में मानो अपने कहानी-संसार की मार्गदर्शिका तैयार कर रहे हैं। यहाँ बहसों में पिरोये गये लंबे चिन्तनपरक अंश    वह पूरा वैचारिक आधार मुहैया करा देते हैं जिन पर मुक्तिबोध के कहानी-संसार का बड़ा हिस्सा टिका है। इस वैचारिक आधार को संवादात्मक विचारके रूप में ही यथासंभव मुकम्मल ढंग से रख दिया जाए, संभवतः इसी चिन्ता के तहत मुक्तिबोध ने एक अलग ड्राफ़्ट भी तैयार किया जिसमें कार्य-व्यापार और भी कम हो गये हैं तथा वैचारिक आदान-प्रदान ने और लंबी जगह घेर ली है। मुक्तिबोध को मानो यह लोभ था कि व्यवस्था के भीतर मिसफ़िटठहरनेवाले इन लोगों के संवादों को व्यवस्था की सबसे सारगर्भित और संपूर्ण आलोचना का माध्यम बनाया जा सकता है। विपात्रके दोनों हिस्सों– या नेमि जी के शब्दों में, इस लंबी कथा के दोनों अलग प्रारूपों–को पढ़ते हुए लगता है कि मुक्तिबोध इस मौक़े को हाथ से जाने नहीं देना चाहते, इसीलिए वैचारिक आदान-प्रदान वाला कथात्मक ढांचा अगले प्रारूप में और भी इकहरा हो जाता है।
यही उपयुक्त अवसर है कि हम मुक्तिबोध की कहानी-कला की दुर्लंघ्य सीमाओं पर बात शुरू करें। पीछे कहा गया था कि मुक्तिबोध स्वभावतःकहानीकार नहीं हैं। असल में, वे बुनियादी तौर पर विचारक हैं, और हालांकि विचारक होने का अर्थ अनिवार्यतः कथाकार न होना नहीं है, पर मुक्तिबोध के यहाँ  उनका विचारक उनके कथाकार के साथ रचनात्मक सहअस्तित्व बना पाने में प्रायः विफल रहा है।[ii]  उनकी बहुत कम कहानियां ऐसी हैं जिन्हें पढ़ कर लगता है कि इन्हें कहानी ही होना था। उन बहुत कम कहानियों में पक्षी और दीमकया काठ का सपनाको शामिल किया जा सकता है। बहुतेरी कहानियां ऐसी हैं जो अपने कहानी होने की अनिवार्यता का बोध नहीं करा पातीं। मसलन, ‘क्लॉड ईथरलीजैसी चर्चित कहानी में सारा कार्य-व्यापार एक ग़ैर-ज़रूरी इंतज़ाम की तरह जान पड़ता है। कहानी में जिस तरह से आज की यानी आधुनिक सभ्यता की निगाह में पागलपन का मतलब समझाया गया है, अमरीकी संस्कृति और आत्मा के संकट का हमारी संस्कृति और आत्मा का संकट बन जाने के रुझान की व्याख्या की गयी है, हिरोशिमा पर ऐटम बम गिरानेवाले विमान-चालक के अपराध-बोध को आधुनिक समाज के सचेत-संवेदनशील  जनों के व्यापक अपराध-बोध का रूपक बनाने की कोशिश की गई है–वह सब अपनी पद्धति में पूरी तरह निबंधात्मक है। जिन संवादों का सहारा लेकर ये व्याख्याएं सामने आई हैं या रूपक निर्मित किये गये हैं, उन्हें अलग निकाल कर निबंध की शक्ल दे दें, लेखक के अभिप्रेत का कुछ नहीं बिगड़ेगा। कहानी की पूरी जान उसके भीतर आसन जमा कर बैठे निबंध में है, उन कथा-स्थितियों में नहीं जिनके बहाने यह निबंध लिखा जा रहा है। यह निबंध कमाल का है, इसमें क्या शक, पर वह जिन पात्रों और परिस्थितियों के बीच संवाद के रूप में अपनी जगह बनाता है, वे अपने होने की कोई अनिवार्यता, यहाँ तक कि ढीला-ढाला औचित्य भी, सिद्ध नहीं कर पाते। आप सोचिए कि क्या कफ़नको बुधिया की मौत और चंदे की रक़म से की गई घीसू-माधो की मौज-मस्ती से अलग करके सोच सकते हैं, भले ही बाप-बेटों का मधुशाला-संवाद हम याद रखें चाहे न रखें? ऐसा ही सभी महत्वपूर्ण कहानियों के साथ होता है, यहाँ तक कि महत्वहीन कहानियों के साथ भी, अगर वे सचमुच कहानी हैं। उनका भू्रण ही ऐसे कार्यव्यापार के रूप में निर्मित होता है जिसका विमर्श आयातित या आरोपित नहीं होता, स्वयं उसका अन्तरंग होता है। पर क्लॉड ईथरलीजैसी कहानी एक जटिल चिन्तन -सूत्र के लिए जुगाड़े गए कार्यव्यापार का उदाहरण है। जुगाड़ यह न होता, कुछ और होता, तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था। ऐसे में कहानी कहने की ज़रूरत क्या है? सीधे विचार करने वाली विधा–मसलन, डायरी या निबंध–क्या उसका सबसे स्वाभाविक आश्रय न होती?
यही स्थिति कमोबेश विपात्रकी है। यहाँ पात्र और परिस्थितियां ग़ैर-ज़रूरी नहीं हैं, पर इतनी क्षीण हैं कि संवादों के स्तर पर चलने वाला अनवरत विमर्श एक तरह की स्वतंत्र सत्ता अर्जित कर लेता है, ख़ास तौर से दूसरे प्रारूप में। अपने समय और उसके भीतर के सामाजिक संबंधों, वर्गीय तनावों और ताक़त की संरचनाओं पर इन विचारों की गहराई से कोई इंकार नहीं। वाचक के आत्मालाप या उसकी और जगत की बातचीत से असंख्य उद्धरणीय अंश इस गहराई को दिखाने के लिए प्रस्तुत किये जा सकते हैं।[iii]पर बात फिर वही है, कि इसकी रचना के पीछे कथाकार वाली कल्पनाशीलता अनुपस्थित है। एक सधा हुआ विचारक मानो भटक कर इधर आ गया हो, किसी रचनात्मक दबाव के कारण उतना नहीं जितना कि विचारों के निबंधन के लिए एक अलग फ़ॉर्म आज़माने के लोभ में।
कथाकार वाली कल्पनाशीलता का यह अभाव मुक्तिबोध के कहानी-संसार में अपूर्ण रचनाओं की बड़ी संख्या, और पूर्ण कही जाने वाली कहानियों में भी अधूरेपन की प्रतीति, का कारण है। ऐसा जान पड़ता है कि उनकी ज़्यादातर कहानियों का भू्रण चिन्तन सूत्रों से निर्मित हुआ है, कथा-स्थितियों की कौंध से नहीं। कथा-स्थितियों की कौंध में जिस तरह आदि-अन्त, धुंधली शक्ल में ही सही, मौजूद रहते हैं और लिखे जाने के क्रम में एक व्यवस्था अर्जित करते हैं, वैसा मुक्तिबोध के यहाँ नहीं होता। इसीलिए कहानियां शुरू होने के बाद या तो पूरी नहीं होतीं, या फिर कहानीकार की ओर से पूरेपन का प्रमाण पत्र पाकर भी–कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो– समापन का संतोष नहीं दे पातीं, जैसा कि बिल्कुल अलग-अलग मिज़ाज वाले कहानीकारों के यहाँ मिल जाता है, चाहे वे बाक़ायदा घटना को केन्द्र में रखने वाले प्रेमचंद हों या घटनाविहीनता के उस्ताद, निर्मल वर्मा।
टिप्पणियां 


[i] .  पक्षी और दीमकका प्रथम पुरुष वाचक एक नेता का विश्वासपात्र बन कर साधन-संपन्न जीवन जी रहा है और अपने को उस जी-चटोर पक्षी के समान महसूस करता है जिसने दीमकों को हासिल करने के बदले दीमक बेचने वाले को अपने पंख दे दिये। विपात्रका प्रथम पुरुष वाचक और उसका पढ़ाकू मित्र, दोनों जिस संस्थान में काम करते हैं, उसके सर्वेसर्वा के दरबार में बैठने की मजबूरी से त्रस्त हैं, लेकिन वहाँ से छुटकारा पाने की कोई सूरत उन्हें नज़र नहीं आती। वाचक को लगता है, ‘सच है कि हम श्रम बेच कर पैसा कमाते हैं। लेकिन श्रम के साथ-ही-साथ हम न केवल श्रम के घंटों में, बल्कि उसके बाहर भी अपना-अपना संघर्ष-स्वातंत्र्य, विचार-स्वातंत्र्य और लिखित अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य भी बेच देते हैं। और यदि हम इस स्वतंत्रता का प्रयोग करने लगते हैं तो पेट पर लात मार दी जाती है। यह यथार्थ है। इस यथार्थ के नियमों को ध्यान में रखकर ही पेट पाला जा सकता है, अपना और बाल-बच्चों का।वह अपने एक सहकर्मी की टिप्पणी से खुद को एबी लॉर्ड जैसा महसूस करता है जिसने संत बने रहने के लिए अपनी जननेन्द्रिय को चाकू से काट दिया था। काठ का सपनामें अभावग्रस्त परिवार का भयंकर अवसाद है। विद्रूपका सर्वटे बड़ी मुश्किल से जीवन जीने लायक चीज़ें जुटा पाता है, पर खुद को दयनीय नहीं बनने देना चाहता, अपना आत्मगौरव बचाये रखने का हर जतन करता है, लेकिन वाचक की राय में, ‘वह जिसे आत्मगौरव समझता है, यदि उसकी रक्षा करता तो अपने परिवार का पालन-पोषण उसके लिए असंभव हो जाता। वह कई बार अपने को वेश्या कह चुका है।’ ‘जलनाके चुन्नीलाल के लिए अपनी मास्टरी की तनख़्वाह से परिवार की सभी ज़रूरतें पूरी कर पाना मुमकिन नहीं होता, वह भयंकर ग्लानि के बोध से ग्रस्त है, पर अपने बच्चों को दुनियादार बनाने के बजाय पढ़ा-लिखा क्रांतिकारी बनाने की बात सोचता है। ऐेसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
[ii] . विचारक और कथाकार कोई आत्यंतिक रूप से भिन्न श्रेणियां नहीं हैं, पर इतना अंतर तो है ही कि जहां सामान्यीकरण और अमूर्तन विचारक की विशेषता होती है, वहीं विशिष्ट और मूर्त को बरतना कथाकार की। सामान्यीकरण और अमूर्तन शुद्ध रूप से भाषा के भीतर होता है। चूंकि अवधारणाओं और तर्कों का अस्तित्व भाषा में ही संभव है, इसलिए भाषा के द्वारा हम विचार को व्यक्त नहीं करते, विचार करते हैं। दूसरी ओर, कथाकार चरित्रों और कथास्थितियों को भाषा के द्वारा व्यक्त करता है जिसका मतलब यह है कि, जिस भी हद तक और जिस भी रूप में सही, वे चरित्र और स्थितियां भाषा में घटित होने के पहले से मौजूद रही हैं। इसीलिए चरित्रों और कथा-स्थितियों को दिखाया जा सकता है। विचार को दिखाया नहीं जा सकता। ज्यों ही हम उसे दिखाने की कोई सूरत निकालते हैं, वह विचार नहीं रह जाता।
कथाकार और विचारक के इस अंतर को चिह्नित करने का मतलब यह नहीं कि ये इतनी ही विशुद्ध श्रेणियों के रूप में व्यवहार में भी पाये जाते हैं। असल में तो विशुद्ध श्रेणियां स्वयं में विचारमात्र हैं, व्यवहार में हमारा सामना सिर्फ़ मिलावट से हो सकता है। पर मिलावट में किसका रंग ज़्यादा गहरा है, इससे रचनाकार के विधागत चयन का औचित्य प्रमाणित होता है। और इस पैमाने पर हम कह सकते हैं कि कथात्मक विधाओं में विशिष्ट और मूर्त के साथ अधिक गहरा विनियोजन/एनगेजमेंट होना चाहिए। मामला ये नहीं है कि आपने कथा का वायदा किया है, इसलिए अब वायदा निभाने के वास्ते आपको सामान्य और अमूर्त का रंग हल्का रखना ही होगा। मामला ये है कि विशिष्ट और मूर्त के साथ यह विनियोजन सत्य या यथार्थ को आयत्त करने की कथा की अपनी पद्धति है जिसका अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए। यह पद्धति एक स्तर पर अधिक संष्लिष्ट है, इतनी कि विचार-सूत्र के रूप में हम जब भी उसका निचोड़ निकालने की कोशिश करते हैं, किसी डिग्री तक घटाववाद के शिकार होने से बच नहीं पाते। महान रचनाओं के पाठ और पुनर्पाठ का सिलसिला, इसीलिए, कभी थमता नहीं। वे अधिक संष्लिष्ट होने के कारण मुक्तमुखी होती हैं। उनमें हमेशा कई तरीक़ों से पढ़े और समझे जाने की संभावना निहित होती है।
[iii] . विपात्रके कई हिस्से बहुत गहन वैचारिक निबंधों के रूप में अलग किये जा सकते हैं, पाठ्यक्रमों में पढ़ने-पढ़ाने के ख़याल से भी। वैचारिक वैभव से संपन्न ऐसे गद्य के नमूने हिंदी में विरल हैं। कुछ उद्धरण मिसाल के तौर पर देख सकते हैं-
यह एक मानी हुई बात है कि कोई भी व्यक्ति चाहे जितना भी आत्मालोचन कर सकने का सामर्थ्य रखता हो, वह अपने स्वद्वारा निजका परिष्कार और विकास नहीं कर सकता। मुक्ति कभी अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।
दरमियानी फ़ासले ग़लत हैं–चाहे वे अक्षांश वाले हों, चाहे देशान्तर वाले। लेकिन अक्षांश वाले फ़ासले सबसे ख़तरनाक हैं, क्योंकि इस प्रकार की दूरी ऊंच-नीच की भावना से बनती है। ऊंची नसैनी की सर्वोच्च सीढ़ी पर चढ़ा हुआ व्यक्ति जब उसी निसैनी की निचली सीढ़ी पर खड़े हुए व्यक्ति को अपने से नीचा और हीन समझने लगता है, तब निसैनी पर ही हाथापाई की नौबत आ जाती है। यदि ऐसी हाथापाई हुई तो दोनों को चोट लगती है। इससे तो अच्छा है कि ऊंच-नीच पैदा करने वाली ख़तरनाक निसैनी टूट जाए!
व्यक्तिबद्ध वेदना और व्यक्तिबद्ध वासना–साहित्य के अनेक उद्गम स्रोतों में से स्वयं दो हैं। मज़ेदार बात यह है कि इन दो स्रोतों ने साहित्य में जो उपमाएं और प्रतीक प्रदान किए हैं, उनमें भावों का औदार्य न सही तो भावों की तीव्रता बहुत अधिक होती है। काव्यकला द्वारा ऐसे कलाकार अपनी व्यक्तिबद्ध वेदना या व्यक्तिबद्ध वासना का उदात्तीकरण और आदर्शीकरण भले ही कर लें, उनके व्यक्ति-चरित्र की मूल-ग्रंथि तो बनी ही रहती है। दूसरे शब्दों में, कला तथा साहित्य में प्रकट जो सौंदर्य है वह इस बात का विश्वसनीय प्रमाण नहीं हो सकता कि उस सौंदर्य के सृजनकर्ता का वास्तविक निज चरित्र उदार, उदात्त और उच्च है। असल में हमारे वाक्-सिद्ध साहित्यिक अपने-आपको बहुत प्रकटकरते हैं, इस तरह अपने-आपको खूब छिपाते हैं। हमारा आत्मप्रकटीकरण बहुत कुछ अंशों में वस्त्र-परिधान है, वास्तविक आत्मोद्घाटन नहीं। हमारी उच्चानुभूति के तथाकथित क्षण सुंदर क्षौम वस्त्रों द्वारा आत्म-प्रच्छादन हैं।
जिस समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता ख़रीदी और बेची जा सकती है, उस समाज में ख़रीदने और बेचने की स्वतंत्रता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं। इसलिए पश्चिमी देश उन देशों को भी स्वतंत्र (फ्ऱी) कहते हैं जहां पूरी तरह सैनिक तानाशाही है। वे ऐसा क्यों कहते हैं? वे ऐसा इसलिए कहते हैं कि उन देशों में ख़रीदने और ख़रीदे जाने, बेचने और बेचे जाने की, यानी कि मुनाफ़ा कमाने की, व्यापार की, निजी पूंजी से आदमी को गुलाम बनाने की, स्वतंत्रता है।’’
संजीव कुमार
सम्पर्क- 

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दिल्ली-110092

मो. 9818577833

(आलोचना से साभार)
(मुक्तिबोध के सभी चित्र गूगल के सौजन्य से)

जीवन सिंह का आलेख ‘मुक्तिबोध-पूंजी बाज़ार का समय और मुक्तिबोध की कविता

मुक्तिबोध

स्वतन्त्रता के बाद के भारतीय काव्य परिदृश्य को जिन दो कवियों ने अधिकाधिक प्रभावित किया है उनमें निराला के साथ-साथ मुक्तिबोध का नाम भी बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।  
मुक्तिबोध (13 नवम्बर 1917 से 11 सितम्बर 1964) ने प्रगतिशीलता के साथ-साथ नयी कविता को वह स्वरुप प्रदान किया जो उसकी विशिष्टता के रूप में आज भी रेखांकित की जाती है। अपनी कविताओं में मुक्तिबोध ने विज्ञान का जिस तरह से उपयोग किया वह हमें चकित करता है। और यह विशिष्टता उन्हें औरों से अलगाती है। वर्ष 2014 मुक्तिबोध के निधन का पचासवां वर्ष है। अपने समय में मुक्तिबोध ने जो चिन्ताएं व्यक्त की थीं वे आज विकराल रूप धारण कर हमारे सामने खड़ी हैं। प्रख्यात आलोचक जीवन सिंह ने पूँजी बाजार के आज के समय में मुक्तिबोध को कविता के महत्व को आंकने का प्रयास किया है अपने इस आलेख में। तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख।       
पूंजी बाज़ार का समय और मुक्तिबोध की कविता
जीवन सिंह
सितम्बर 2014 में मुक्तिबोध का देहावसान हुए पचास वर्ष हो रहे हैं। गौरतलब है कि समय के बदलने और आगे खिसकने के बावजूद मुक्तिबोध की कविता और संस्कृति–चिंतन आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक हुए है। इस बीच यद्यपि गंगा में बहुत पानी बह चुका है। इसी अवधि में  दुनिया में विचलित कर देने वाले ऐसे श्रम–विरोधी परिवर्तन हुए हैं,  जिनसे बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विश्व के मेहनतकश की फलती-फूलती संस्कृति के मार्ग में   गंभीर अवरोध पैदा हुए और विश्व स्तर पर समग्रता की बजाय विखंडन की विश्व-दृष्टि प्रभावी हुई। मुक्तिबोध के जमाने में ऐसा नहीं था। उस समय विश्व की श्रम-चेतना के अनुरूप भारत की श्रमशील जनता का भी एक सपना था, जो औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ाई लड़ते हुए भारत के सामान्य मेहनतकश ने देखा था और उसके तत्कालीन मध्यवर्गीय नेतृत्त्व ने उसे ऐसा दिखाया भी था। यह सपना था -भारतीय समाज को समाजवादी समाज बनाने का। जब कि उसी अवधि में इसके विपरीत देशी पूंजीपति वर्ग कुछ अलग तरह से सोचता था। उसको एक ऐसे समाज की जरूरत थी, जिसमें उसकी पूंजी अबाध गति से मुनाफ़ा बटोर सके। कहना न होगा कि उसे समाजवादी समाज की जगह पूंजीपरस्त व्यक्तिवादी समाज की जरूरत थी। इसलिए देश को आजादी मिलने के प्रारंभिक दिनों से ही हमारे यहां राजनीतिक व्यवहार में श्रम और पूंजी की टकराहटें  शुरू हो गयी थी। गौरतलब है कि आज़ादी पाने के लिए सतत चले संघर्ष के बावजूद,  साम्राज्यवादी ब्रिटेन और अमरीकी पूंजी से देशी पूंजी की दोस्ती अभी तक बनी हुई थी और वह गहरे होने की कोशिशों में लग गयी थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि जैसे श्रम अपनी संस्कृति का अलग से निर्माण करता है  वैसे ही पूँजी भी अपनी मुनाफाखोर सभ्यता से एक अलग व्यक्तिवादी संस्कृति का निर्माण करती है। पहली जहां पूरे समाज की परवाह करती है वहीं दूसरी  अकेले व्यक्ति की। इस तरह पूंजी स्वयं श्रम की संस्कृति के विरुद्ध अपनी व्यक्तिवादी संस्कृति का निर्माण करती है। साहित्य आदि कलाओं में वही रूपवाद को प्रतिष्ठित करती है, जबकि श्रम-संस्कृति को अपनी एक नयी समाजवादी संस्कृति का निर्माण करना होता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध इसी श्रम–संस्कृति की रचना अपनी नयी कवितामें कुछ अलग तरह से करते हैं, जिसमें समाजवादी संस्कृति और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई विरोध नहीं होता। वे व्यक्ति और समाज की द्वंद्वात्मकता में रिश्तों का अवलोकन और परीक्षण करते हैं। यही वजह रही कि उनकी कविताओं में विश्लेषण की जो ज्ञानात्मक पद्धति उभर कर आती है वह दूसरे कवियों के यहां नहीं है। वे स्वयं उस समय की नयी परिस्थितियों में अपनी कविता की एक नयी पद्धति का निर्माण करते हैं। इसीलिये वे अलग तरह के कवि की तरह दिखाई देते हैं सबसे अलग। जबकि उस समय के कई अन्य कवियों का झुकाव पूंजी की व्यक्तिवादी संस्कृति की तरफ होने लगता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध अपनी कविता, आलोचना और जीवन के तीनों स्तरों पर इस लड़ाई का अपना मोर्चा संभालते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य में जो सौंदर्य नामक प्रभावशाली गुण पैदा होता है, वह वास्तविक जीवन और कवि-जीवन के मूल्यों की एकता होने से। ऐसा नहीं हो सकता कि वास्तविक जीवन में कवि के मूल्य कुछ और हों और कवि-जीवन में कुछ और। इसके विपरीत उस समय के जीवन का यथार्थ यह रहा कि कवि-जीवन और वास्तविक जीवन में बढ़ते हुए अलगाव को कुछ कवि–चिंतक जायज ठहरा रहे थे। यह संघर्ष आज तक चला आ रहा है। आज बहुत कम साहित्यकार होंगे, जो बाज़ार, निजीकरण, उपभोक्तावाद से बच कर वास्तव  में श्रम की संस्कृति की रचना में  प्रवृत्त होंगे। श्रम की संस्कृति की रचना जब तक रचनाकार अपने जीवन में नहीं करता, तब तक वह अपनी रचना को भी विश्वसनीय और प्रामाणिक नहीं बना पाता। मुक्तिबोध मानते हैं कि अपनी नासमझी या अनुभव के अभाव में एक निष्ठावान और आत्मविश्वासी व्यक्ति भी स्वयं से और अपनी कविता से फ्रॉड कर सकता है। यह फ्रॉड तब होता है, जब लेखक यह जानता ही नहीं कि वह फ्रॉड कर रहा है। लेखक को पूरा विश्वास होता है कि जो बात वह कह रहा है, सही कह रहा है अर्थात जहां लेखक ईमानदारी से मूर्ख होता है। लेखक को यह भी विश्वास होता है कि उसकी बात केवल सच्ची ही नहीं, सुन्दर भी है और कल्याणकारी भी।“  यह उन्होंने अपनी डायरी में अपने मित्र यशराज के मुख से कहलवाया है। वे जान रहे थे कि उनके कई साथी–सहचर कवि किस तरह देश को आजादी मिलते ही पद, पुरस्कार, और प्रतिष्ठा के प्रलोभन में स्वयं से ही फ्रॉड करने लगे थे। देखा जाय तो अनभवहीनता में व्यक्ति सबसे ज्यादा फ्रॉड करता है और एक जमाने में अर्जित अपने जीवनानुभवों की ही कमाई जीवन भर खाता रहता है।
     
 ऐसी स्थिति में इन शुरुआती दिनों में ही जीवन के स्तर पर  श्रम और पूंजी के दर्शन में भी संघर्ष की स्थितियां बन गयी थी। ऐसे माहौल में जब तक श्रम–शक्तियां जागरूक और संगठित न हों, तब तक वे शासक वर्ग में शामिल होकर श्रम-संस्कृति के लिए कुछ नहीं कर पाती। यह कहना प्रीतिकर होगा कि मुक्तिबोध ने इस यथार्थ को अपनी विश्व-दृष्टि से समझ लिया था, जिसे आमतौर पर उस समय के दूसरे कवि अनदेखा कर रहे थे। मुक्तिबोध कदाचित उन कवियों में हैं जो अपने फ्रॉड के प्रति भी काफी सजग हैं। इसीलिये वे तत्कालीन अवसरवाद की गिरफ्त में आने से बच सके। जबकि उसी समय एक वर्ग ऐसे कवियों का था, जो सफलता हांसिल  करने को ही अपने जीवन का ध्येय बनाकर काव्य-रचना में प्रवृत्त हो रहा था। जबकि इसके विपरीत मुक्तिबोध अपने जीवन में सफलता की जगह सार्थकता क़ो ज़ीवन क़ा लक्ष्य मानते थे। और इसी वजह से वे सफल या सार्थक जीवनोद्देश्य का सवाल अपनी कविताओं में बहुत शिद्दत से उठाते हैं। उनका मतलब स्पष्ट था कि निरतर धन-अर्जित करना,ऊंचे पद हासिल करना, पुरस्कार पाना, विदेश भ्रमण की लालसा और  पूंजी-संचय को एकमात्र जीवनोद्देश्य मानना, सफलता का प्रमाण तो हो सकता है, सार्थकता का नहीं। व्यक्ति के इस मनोविज्ञान के बारे में उनकी एक महत्त्वपूर्ण कविता है-कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं “—-
इस कविता में मुक्तिबोध ने एक जरूरी सवाल उठाते हुए कहा है कि पूंजी -बाज़ार पर आधारित व्यवस्था व्यक्ति का जीवन–उद्देश्य पूरी तरह बदल देती है। वह पूरी तरह अपना समर्पण पूंजी के लिये कर देता हैं। पूंजी की अपनी विशेषता होती है कि अपनी व्यवस्था में वह सबसे पहले जीवन की सार्थकता का सवाल गायब कर उसके स्थान पर सफलता को एकमात्र जीवनोद्देश्य बनाकर इस तरह प्रस्तुत करती है कि लोग सफलता को ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बना लेते हैं। आज तक यही हो रहा है और इसी से समाज में सारी व्यवस्थाएं पूंजी-बाज़ार के आस पास केंद्रित होने लगी हैं। उत्तरआधुनिक समय में जब से सटोरिया पूंजी का वर्चस्व कायम हुआ है तब से यह प्रवृत्ति तेजी से फ़ैली और गहरी हुई है। यही कारण है कि समाज में संबंधों के स्तर पर तेजी से अलगाव और अजनबीपन बढ़ रहा है। इसीलिये मुक्तिबोध उस विकास को नकारते हैं जो पूनो की चांदनी की तरह मनुष्यहीन-निर्जन प्रसारों में फ़ैली हुई नज़र आती है। जो एक वर्ग के हित  के लिए काम करती है। यह आकस्मिक नहीं कि पूंजी-बाज़ार की सभ्यता में आकंठ डूबे उच्च-शासक एवं उसके सहायक उच्च-मध्य वर्ग के  स्वभाव एवं चरित्र की तुलना वे घुग्घुओं, चमगादड़ों, भूत-प्रेतों और पिशाचों से करते हैं। वे कहते हैं —
सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं और चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिशाचों और बेतालों के लिए ही ——
मनुष्य के लिए नहीं—फ़ैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति–यश रेशम की पूनों की चांदनी।
आज पूरे देश को इसी पूनो की चांदनी के झूठे सब्जबाग दिखला कर धोखे में रखने का काम किया जा रहा है। यहां पर सूखे हुए कुए पर झुके हुए झाड़ों में बैठे हुए घुग्घू और चमगादड़ शायद ही अपने अलावा किसी दूसरे को पसंद करते हों और अपने अलावा किसी का ख्याल करते हों। उनका एकांत सूखे कुओं की  तरह भयानक और अंदर से बेहद वीभत्स होता हैं जो यह भी संकेत करता है कि आवारा वित्तीय पूंजी का विस्तार आत्मकेंद्रिकता और स्वार्थभाव को प्रचंड  तरीके से फैलाने और मन की खंदकों को गहराने का काम करता है। जैसाकि आज पता चल रहा हैं क़ि पूंजीवादी व्यवस्था, समाज के भीतर एक ऐसे जंगल का निर्माण करती जाती है, जिसमें व्यक्तियों का रूपांतरण मनुष्य बनने के बजाय घुग्घुओं, चमगादड़ों, सियारों आदि में होने लगता है। वह स्वयं से ही कटता  चला जाता है। हर व्यक्ति अपने लिए जीने लगता है। पारिवारिकता टूटने लगतीं हैं और वह व्यक्ति को अकेला करती जाती है। यहाँ पर प्रसिद्ध विचारक थियोडोर अडोर्नो की एक बात इसे पुष्ट करती है —-”पूंजीपति अपने जीवन का लक्ष्य पूंजी का संचय मानता है और इस प्रक्रिया में वह सुख की चिंता से स्वयं को वंचित भी करता है। अगर कभी वह कला के अनुभव की कोशिश भी करता है, तो उससे कोई निर्णायक आनंद प्राप्त करने का लक्ष्य उसके सामने नहीं होता, बल्कि वह एक प्रकार से सार्थकताओं से शून्य जीवन को सजावट से ढंकने की कोशिश करता है। दिक्कत की बात यह है कि व्यक्ति इसके कारणों को सहज तौर पर नहीं समझ पाता। यदि वह कोई सार्थक अभिव्यक्ति करता भी है तो वह केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित होकर रह जाता है। इसी वजह से पूंजी के शासन के शोषण के विरुद्ध विकल्प का एक बौद्धिक तंत्र तो अवश्य बनता दिखाई देता है किन्तु वास्तविक जीवन के स्तर पर वैसा होता नज़र नहीं आता। वास्तविक जीवन में उसका उलटा ही ज्यादा होता दिखाई देता है। मानवतावादी शक्तियां पिछड़ती जाती हैं और उनकी जगह घनघोर रूप से सांप्रदायिक संकीर्ण शक्तियों का दबदबा कायम होने लगता है। इसीलिये मुक्तिबोध अपने रूपक में निर्जनता पसंद प्राणियों का एक पूरा कुनबा प्रस्तुत करते हैं। ये सभी चालाक, स्वार्थी ,धूर्त आत्ममुग्ध और निर्जनता को पसंद करने वाले प्राणी हैं। बिलकुल, यही हाल समाज के उच्च और उच्चमध्य वर्ग का रहता है, जो अपने सिवा और किसी को न चाहता है, न उसे किसी गिनती में रखता है। उसके सहायक वर्ग भी उसी की चाकरी और गुलामी करते रहने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लेने को अपने जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानते हैं। 

देखने की बात यह है कि मुक्तिबोध यहाँ न केवल पारम्परिक लोक-प्रतीकों, बिम्बों और रूपकों से अपने काव्य-शिल्प की संरचना कर रहे  हैं वरन उनकी पूर्वनिर्धारित अर्थपद्धति को तोड़ भी रहे हैं। पूनों की चांदनी का प्रतीकार्थ यहां अब तक चले आते साहित्यिक प्रतीकार्थ से कितना भिन्न, नया और अलग हट कर है कि एक ही जगह पर वे जिससे परम्परा और नवीनता का ऐसा द्वंद्व रचते हैं कि उनकी भाव और विचारधारा स्पष्ट तौर पर यहां जीवन के एक निराले सांगरूपक में बदल जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि मुक्तिबोध अपने समय के लोक जीवन के नज़दीक रह कर भूत-प्रेत-पिशाचों की लोक प्रचलित कहानियों को यहां एकत्र कर उसकी भयानक वीभत्सता और उसके फैलाये जाल को प्रकट कर देते हैं। कहना न होगा कि यह उन्ही की बात को उन्ही की भाषा में उनको लौटा देना है किन्तु उसका नया काव्य–पाठ रच कर। ये पारम्परिक प्रतीक सामान्य जन की जिंदगी में प्रचलित लोक–कथाओं की तरह  पाठक के नज़दीक ले जाने का काम भी करते हैं। कहना न होगा कि प्रतीकों और बिम्बों की ऐसी लोक-दृश्यात्मकता बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है। हालांकि, इस तरह के प्रतीकों से यहां किसी तरह के अद्भुत परिदृश्य का संयोजन करना कवि का उद्देश्य नहीं रहा है, वरन यह देश के उस उच्च और उसके सहायक उच्च मध्य वर्ग के जीवन के वीभत्स यथार्थ का अंकन करने की कला का हिस्सा है, जो आज व्यवस्था का सञ्चालन कर रहा है। एक महाकवि की लोकजीवन से निकटता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि वह जंगल के सूखे कुओं और उन पर झुके हुए झाड़ों में छिपी हुई जंगली हरकतों का रूपक उस जिंदगी के पास ले जाकर सजीव तौर पर रख देता है, जहां सभ्यता और उसके विकास की दुन्दुभियां बजाई जा रही हैं और ढोल पीटे जा रहे हैं। सवाल पैदा हुए बिना नहीं रहता कि क्या आज से पचास साल पहले की पूंजीवादी व्यवस्था का यह  वीभत्स यथार्थ आज पहले से और ज्यादा वीभत्स होकर व्यापक स्तरों तक नहीं उभरा  है? क्या आज की पूनों की चांदनी वास्तविक मनुष्य के लिए है या उन्ही घुग्घुओं-चमगादड़ों-बेतालों के लिए? वर्गीय जीवन के इस भयावह यथार्थ को आज कितने कवि हैं जो इस तरह के लोक-रूपक में बाँध पाने की सामर्थ्य रखते हैं? यहां जैसे वीभत्स, भयानक और रौद्र रूपों का एक भयावह जंगल हमारी आँखों के सामने घूम जाता  है। दरअसल, ऐसा लोक–रूपक वही बना सकता है, जिसने स्वयं इस तरह के जीवन की मार झेली है। असल बात यह है कि यहां लोक–जीवन की सर्वहारा सैद्धांतिकी न होकर, जीवन में उसके व्यावहारिक और यथार्थ रिश्तों का एक ऐसा सम्पूर्ण आख्यान है, जो साहित्य-रचना के लिए कुछ अलग किस्म के जीवनानुभवों की मांग करता है। इसी वजह से मुक्तिबोध अपने जमाने में भी कुछ अलग तरह से सोचने-समझने और काव्य-रचना करने वाले कवियों में माने जाते थे। इसी वजह से उनकी काव्य–भूमि को समझे जाने की प्रक्रिया, परम्परा से चली आती कविता से कुछ अलग हट कर होती है। यह मात्र संयोग नहीं है कि वे नयी कविता की उस प्रगतिशील धारा के कवि हैं, जो समाजवादी सपने और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई अंतर्विरोध नहीं देखती। वे मानते थे कि यदि समाजवादी सपने के साथ सापेक्षतया व्यक्ति-स्वाधीनता नहीं होगी तो एक दिन सपनों का यह सभा–भवन ढह जाएगा। मुक्तिबोध की यह भी खासियत रही कि वे हिंदी के साथ मराठी-मनीषा को भी लेकर चलते थे और उसका  सही मायने में एक भारतीय रूपक रचते थे। उनकी शिल्प-संरचना इस मामले में  कुछ विलक्षण और भिन्न है कि इसमें  हिंदी के साथ उनके मराठी होने का संस्कार भी समाविष्ट है। उनकी बिम्ब–रचना की प्रणाली और  उनके गहरे तथा व्यापक मनोभावों को ग्रहण कर पाने में पाठक को भी इसीलिये तकलीफ हो सकती है कि यथार्थ की गवेषणा वे व्यक्ति के मनोभावों तक पंहुच कर अपनी जमीन पर  एक भिन्न तरीके से करते हैं।  वे उन कवियों में हैं जो आत्मबद्धता के खतरों से सजग रहकर, आत्मपरकता के बिना काव्य-सृष्टि को अपंग मानते हैं। वे मानते हैं कि साहित्यकार की आत्मसमृद्धि उसके द्वारा वस्तुपरक जीवन को अधिकतम स्तर तक हृदयंगम किये बिना संभव नहीं है। इसीलिये उनके रचना-संसार की आत्मपरकता में वस्तुपरकता रीढ़ का काम करती है और इसी तरह वस्तुगतता में आत्मपरकता की भूमिका रहती है। आमतौर पर यह देखने में आता है कि हर युग एक ही तरह की काव्य–टोन और काव्य-प्रवृत्तियों को शब्द बदल कर प्रस्तुत करता है। लेकिन मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते। वे अपने जीवनानुभवों की रोशनी में प्राप्त वस्तुतत्त्व की रचना कुछ अलग तरह से करते हैं, जीवन में गहरे उतर कर। वे व्यक्ति की मानस-तरंगों को उसके कार्य–कारन संबंधों तक समझने का प्रयास करते हैं। यह आकस्मिक नहीं कि उनको साहित्य से ज्यादा चिंता, जीवन की रहती है। उनके लिए वही रचना सबसे सार्थक होती है जो  काल-दर-काल न केवल कविता की समझदारी को आगे बढ़ाती  है वरन जिंदगी के आपसी रिश्तों की सही समझ भी पैदा करती है और उनका निर्वहन कार्य-कारण संबंधों तक ले जाकर करती है। इसीलिये वे किसी भी स्थिति पर अपनी दो टूक राय देने से नहीं चूकते
पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ एक आँख से
सफलताकी आँख से
दुनिया को निहारती फ़ैली है
पूनों की चांदनी।
  
कहने का तात्पर्य यह है कि इस खंडित चांदनी की एक आँख से जीवन–सत्य को नहीं समझा जा सकता। यह जान कर आश्चर्य होगा कि यह उस मुक्तिबोध की काव्य–संरचना और भाषा नहीं है, जो फैंटेसी की कला के लिए जाने जाते है और अपने विशिष्ट एवं श्रृंखलाबद्ध रूपक निर्माण के लिए। सच तो यह है कि उन्होंने शिल्प और भाषा के स्तर पर कई तरह के प्रयोग किये हैं। एक भाषाप्रयोग यह भी है, जहां न समास बहुलता है, न संधि और न ही तत्समता का कोई आग्रह। यहाँ एक खुली और संवादपरक भाषा में कवि अपने भावरूपक को रख रहा है। कहना न होगा कि  इस तरह की खुली शब्द–संरचना वाली कविताओं में एक दूसरी तरह के मुक्तिबोध हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। वे आगे इसी कविता में अपने पाठक को सुनाते हुए कहते हैं —
मैं पुकार कर कहता हूँ —-
सुनो, सुनने वालो
पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।
उसके विद्रूप शत
शाखा–व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अन्धेरा है, अन्धेरा है घनघोर —
वृक्ष के तने से लिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक जबरदस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
 
यहां कवि–भाषा पहले से बदली हुई है। उसमें सामासिकता और तत्समता की एक हल्की–सी नयी परत बनी है। लेकिन पूरा रूपक अपनी जगह पर स्पष्ट है, कहीं कोई अस्पष्टताअमूर्तता नहीं। यह विक्षोभ को व्यक्त करने वाली सबसे सटीक भाषा है क्यों कि वह ऐसे समय के बियाबान जंगल की बात कर रहा है, जहां मरी हुई आत्मा का एक जबरदस्त पिशाच शासन कर रहा है और लोग उसी की  तरफदारी में खड़े हुए हैं, जो स्वयं मृतात्मा बनते जाते हैं।  क्या यह सच नहीं है कि आज के पूंजी और उपभोक्ता बाज़ार की यह व्यवस्था व्यक्ति की आत्मा का शिकार सबसे पहले करती है। आत्मा मर जाने के बाद फिर व्यक्ति में रह ही क्या जाता है। जिंदगी में समझौता करते रहने के सिवाय कोई रास्ता लोगों को न दिखाई देता है, न वे देखना चाहते हैं? ऐसे माहौल में समझौता-प्रवीण चाटुकार आगे बढ़ते जाते हैं और आत्मकेंद्रिकता और स्वार्थभावना ही समाज की धुरी का काम करने लगते हैं। स्वार्थभावना के इस विकराल बरगद पर सफलता और भद्रता की पूनों की चांदनी फैलती जाती है। इस वातावरण में जो शामिल हो जाता है वह भी घुग्घू और सियार बनता जाता है। दरअसल, आज धीरे–धीरे व्यवस्था ने मध्यवर्ग को इसी चांदनी का भोक्ता बना देने में सफलता हासिल कर ली है। यहां मुक्तिबोध साफ़ शब्दों में आगाह करते हैं-
पशुओं के राज्य में 
जो पूनों की चांदनी है 
नहीं वह तुम्हारे लिए 
नहीं वह हमारे लिए।  
क्या आज के विकास की अवधारणा का इस पूनों की चांदनी से कोई मेल दिखाई नहीं देता? क्या आज के माहौल पर यह कविता कोई सार्थक और संवेदनशील–जागरूक टिप्पणी नहीं करती? क्या यह आज लिखी जा रही कविताओं से कहीं पिछड़ी हुई संवेदना और चेतना की कविता नज़र आती है? कुछ भौतिकतावादी चिंतक यहां आत्मा शब्द के प्रयोग पर एतराज कर सकते हैं किन्तु सोचने की बात यह है कि मुक्तिबोध के यहां आत्मा अपने भौतिक और पारम्परिक भाषिक प्रतीक की ही आधुनिक वाहक होकर आती है। यही उनकी कविता में भारतीयता को नए अर्थ में प्रयुक्त करने का प्रमाण है। मुक्तिबोध अपने भाषिक व्यवहार में किसी तरह का एकांत आग्रहवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाते। सामान्य जन के लिए आत्मा शब्द आज भी चूंकि बहुत गंभीर अर्थ रखता है, इसलिए वे उसकी शब्दवत्ता को व्यावहारिक तौर पर स्वीकार करते हैं।

 

यह बात विचारणीय है कि आज का श्रम-विरोधी पूंजी-बाज़ार जिसे विकास-विकास कह कर आसमान सिर पर उठाये हुए है, मुक्तिबोध ने आज से पचास-साठ साल पहले इसे जंगल के सियारों का विकास कहा है। तस्वीर साफ़ है कि आज यह देश की 125 करोड़ जनता में ऊपर के एक विशिष्ट वर्ग  का विकास है। विकास के भोक्ता उस छोटे से वर्ग की तुलना मुक्तिबोध घुग्घुओं, चमगादड़ों, सियारों, भूतों, प्रेतों, पिशाचों और बेतालों से करते हैं, जहाँ वास्तविक श्रमशील मनुष्य होता ही नहीं। इस विकास–प्रक्रिया से सच्चा श्रमशील मनुष्य बाहर रहता है। इसीलिये वे कहते हैं कि पूनों की यह चांदनी कुछ भूत-पिशाचों के लिए है। इस कविता में कवि सबसे ज्यादा आत्मा को मरने और बिकने से बचाने की सलाह देता है लेकिन यह सलाह उसके अपने उस वर्ग को है, जिसका अभी ईमान बचा हुआ है, सोचने–समझने की बुद्धि बची हुई है, ह्रदय के सरोकार बचे हुए हैं। वह अब भी आत्मा के भवन बनाने की हैसियत रखता है। आत्मा बची रहेगी तो आगे सब कुछ हो जाएगा। आत्मा ही मर गयी तो फिर कुछ भी बचा पाना मुश्किल होगा। कहना न होगा कि आवारा पूंजी के खुले खेल ने व्यक्ति की आत्मा पर ही सबसे संघातक प्रहार किया है। पूंजी-बाज़ार, धन का ही व्यापार नहीं करता, आत्मा का भी व्यापार करता है। धन्नासेठों के बड़े–बड़े प्रकाशन-भवन और बड़ी पूंजी के पुरस्कार, विदेश यात्राओं के प्रलोभन, ऊंचे पद आदि साहित्यकार, बुद्धिजीवी, चिंतक,  पत्रकार आदि की आत्मा को भी खरीद लेते हैं।  कहना न होगा कि आत्मा का मरना यहां मनुष्यता का मर जाना है। अब यह प्रत्यक्ष है कि अपनी आत्मा को मारकर न जाने कितने लोग इस व्यवस्था को साधे रखने का काम करते हैं। 
     
सच तो यह है कि मुक्तिबोध अपने समय में आरम्भ से ही पूंजी के बढ़ते  वर्चस्व के प्रति बहुत सावधान और चिंतित थे।  उन्होंने स्वयं अनुभव किया था कि देश को आज़ादी मिलने के बाद पैदा हुए मध्यवर्गीय अवसरवाद ने कितने ही उनके साथी-सहचरों की आत्मा को अपना ग्रास बना लिया था। इसीलिये ही अपने युग के ऐसे अन्य कई सहचर कवि-मित्रों से उन्होंने अपना रास्ता अलग कर लिया था। इस सवाल को लेकर वे सर्वाधिक गंभीर और चिंतित रहे कि व्यक्ति अवसर  के अनुरूप अपना रास्ता कैसे बदल लेता है? तारसप्तक में उनके विचारधारात्मक स्तर पर सहचर-साथी रहे कवि अपना रास्ता बदल रहे थे। यह सब उन्होंने देखा ही नहीं, भोगा भी था। उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध उस समय के उन बहुत कम साहित्यकारों में से एक थे, जो अपनी जगह पर अडिग और खतरे उठाने के लिए तैयार रहे। इसी अडिगता ने उनकी कविता-कहानी को अंत तक न केवल जीवित रखा वरन उनकी मृत्यु के बाद शीर्ष पर पंहुचाया। उनकी कविता और आलोचना ने एक बड़े और नए रोशनदान का काम किया। देखा जाय तो कवि के साथ उन्होंने आलोचक का दायित्त्व जिस  तरह से सम्भाला, वह चकित करता है। अपने साहित्य-कर्म में वे विरले ईमानदार लोगों में एक हैं। जैसा कि कहा जा चुका है कि बाज़ार-पूंजी का वर्चस्व जिस कदर देश में बढ़ा है, इस तथ्य को मुक्तिबोध ने अपने समय में ही भाँप लिया था। सौभाग्य की बात यह है कि गरीबी में दिन गुजारते रहने के बावजूद उन्होंने अपनी जीवन–दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया। यही कारण है कि व्यावहारिक जीवन-सचाई की मौलिकता, समग्रता और भावनाओं के अंतर्संबंधन की जो ताकत उनकी कविता में है, वैसा विरल कवियों के लिए ही सम्भव हो पाता है।  मुझे यहां मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ द्वारा एक साक्षात्कार में शायरी के बारे में कही गयी यह बात बहुत उचित एवं बेहद प्रासंगिक लगती है कि अच्छी शायरी करने के लिए तकलीफ और गम जरूरी हैं। तभी शायरी में जिंदगी की असलियत सामने आ पाती है।इसीलिये वे कहते हैं कि ‘“अच्छी शायरी वो है, जो कला के निकष   पर ही नहीं, जिंदगी की कसौटी पर भी खरी उतरे।  अडोर्नो भी कहते हैं कि यातना की आवाज बनना ही सच की वास्तविक शर्त है।“  कहना न होगा कि मुक्तिबोध की कविता इन कसौटियों पर खरी उतरती है। उनके यहां यह मालूम ही नहीं पड़ता कि कहां वह कला है और कहाँ जिंदगी।  वह सर्वत्र यातना की आवाज के रूप में सुनाई पड़ती है। जैसे कबीर, तुलसी, मीरा, निराला, प्रेमचंद के यहां है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध को भक्तिकाल की कविता की न केवल गहरी जानकारी थी वरन मराठी और हिंदी संतकाव्य परम्परा से उनका गहरा लगाव भी था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि वे अपनी कविताओं में आत्मा की बात बहुत करते हैं। यह संयोगवश नहीं है। यही बिंदु है जो उनको पूरी भारतीय चिंतन परम्परा से जोड़ देता है। हालांकि वे यहां आत्मा की पारम्परिक धारणा को नए और भौतिक अर्थ में प्रस्तुत करते हैं।  इस तरह वे अपनी जमीन पर बहुत मजबूती से खड़े होकर प्रतीकार्थों में तबदीली करते हैं। यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि उनके प्रतीक, उनके रूपक, उनके बिम्ब उनके आसपास के लोक जीवन से आते हैं और विश्व में विकसित नयी वैज्ञानिक चेतना से भी। उन्होंने इसी कविता में आत्मा की इंजीनियरिंग की है। आत्मा के भवन बनाने का एक सांगरूपक इसी कविता के बीच में आता है। ऐसे रूपक उपनिषदों में, वाल्मीकि, कबीर ,सूर, तुलसी आदि की रचनाओं में खूब आये हैं। त्रिलोचन के यहां भी एक सॉनेट में तुलसी का वह पूरा रूपक आया है, जहां उनके राम, अस्त्र-बल के सामने आत्मबल को तरजीह देते हैं। मुक्तिबोध भी अपना रूपक कुछ इसी तरह से बनाते हैं। वे अपने सहचर वर्ग को उसकी ताकत का अहसास कराते हुए कहते हैं —
तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ एक चीज है –
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गैंती है,
ह्रदय की तगारी है-तसला है
नए नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
ह्रदय की तगारी में ढोते हैं हमी लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।   
 कैसी विडम्बना है कि आज की इंजीनियरिंग में और सब कुछ सिखाया जाता है, नहीं सिखाया जाता तो वह है आत्मा की इंजीनियरिंग करना। इसीलिये कवि को आत्मा का इंजीनियर कहा जा सकता है। अपनी एक दूसरी कविता-  हर चीज, जब अपनी“- में मुक्तिबोध कहते हैं कि इस पूंजी के प्रभुत्त्व वाले समय में आदमी, आदमी के बीच तेजी से अलगाव बढ़ रहा है जिससे हवा सिर पर से लहराती हुई गुजर रही है,पहचाने भी ज़रा-सी छूती हैं और उड़ जाती हैं, वे दिल में बस नहीं पाती। और यह दुनिया, लोगों को अपने स्वार्थ से अलग अलग रूपों में नज़र आती है। आज जो आधुनिक वैज्ञानिक जीवन-दर्शन मानवता को हासिल हुआ है, उसे लगभग छोड़ा जा रहा है। वे पूंजी के इस वर्चस्वी समय में एक मंदिर के रूपक के माध्यम से अपनी भावना को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं ——
                                           
उन्ही में से एक में
मेहराबदार ताक
ताक में अन्धेरा
अँधेरे में देव–देवताओं की मूर्तियां —
पुरानी मूर्तियां जो जरूरत पड़ने पर
फिर काम आ सकें,
दाम ला सकें।
यहां मेहराबदार ताक /ताक में अन्धेरा /अँधेरे में पुरानी देव–मूर्तियांआज के यथार्थ को व्यक्त करने वाला यह रूपक जैसे हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा है। यह बतलाना  उचित  होगा कि कविता  का निष्कर्ष यहां दाम लाने पर है।  काम आना और दाम लाना —यही तो बाज़ार–पूंजी का दर्शन होता है। पूंजीवादी व्यवस्था दाम, दंड और भेद के बल से ही व्यक्ति से  अपनी गुलामी कराती है।  इसी दुष्चक्र में व्यक्ति फंस जाता है या फंसा लिया जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था ,फिर चाहे वह लोकतंत्र के नाम से चलती है ,एक तरह की निरंकुश सत्ता हासिल कर लेने का माध्यम होती है , जो पिछले सामंतवाद से समझौता तक करने में कोई परहेज़ नहीं करती। इसी लिए वे इस व्यवस्था के लिएसल्तनतसंज्ञा का प्रयोग करते हैं। आज के बाज़ार का यह रूपक उन्होंने प्रस्तुत कर लिखा था  ——
इस सल्तनत में
हर आदमी उचक कर चढ़ जाना चाहता है
धक्का देते हुए बढ़ जाना चाहता है ,
हर एक को अपनी -अपनी /पडी हुई है।
चढ़ने की सीढ़ियां
सिर पर चढ़ी हुई हैं।
    
क्या ऐसा मानना सही नहीं होगा कि लोकतंत्र की प्रक्रियाएं अन्ततः अपनी एक सल्तनत बनाती हैं। आज से पहले ही मुक्तिबोध यह जान गए थे कि पूंजीपरस्त यह व्यवस्था भविष्य के मनुष्य को क्या बनाने जा रही है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें नफरत और नफासत दोनों का दिखावा साथ साथ चलता हैं और व्यक्ति अपनी बीवी के साथ भी सियासत करने से नहीं चूकता। पूरा जीवन एक पहिये की तरह घूम रहा है। वे लिखते हैं —–
चक्के हैं, चक्के हैं, चक्के हैं,
सब लोग सब कहीं जा रहे हैं,
लेकिन कोई कहीं नहीं जा रहा है।
रफ़्तारें तेज हैं
लेकिन ,देखो तो। जबर्दस्त
तेजी के भीतर एक
जमीन –जुड़ा
अटल चबूतरा —–
लंबा-सा घाट  है
घाट तो पहले से वहीं का वहीं है
सिर्फ लहरें दौड़ रही हैं
गति आभास हैं
यह उल्लेख करना यहां सही होगा कि मुक्तिबोध के जीवन काल में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को समाजवादी समाज रचना के राजनीतिक प्रतीक पुरुष के रूप में देखा जाता था। मुक्तिबोध इस वजह से उनको बहुत मानते थे।  यद्यपि उन परिस्थितियों की आलोचना भी खूब करते थे, जो समाजवादी समाज रचना के आड़े आ रही थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके लिए उन्होंने कभी नेहरू की आलोचना नहीं की और न ही उनको इसके लिए जिम्मेदार माना। कदाचित यह उनकी सबसे बड़ी दुविधा थी। मुक्तिबोध इस यथार्थ को भली भाँति समझ रहे थे कि स्वतंत्र भारत की अर्थ व्यवस्था में देशी पूंजी और साम्राज्यवादी पूंजी का जो भीतरी गठजोड़ चल रहा है, आगे चल कर वह समाजवादी समाज की रचना में बहुत बड़ा रोड़ा बन सकता है,  फिर भी उनको नेहरू की विचारधारा और उनके सपने पर पूरा भरोसा था, जैसा कि उस समय के अन्य अनेक वामपंथियों को भी था। वे उस समय सोवियत संघ की विश्व-भूमिका को भी आशान्वित होकर देख रहे थे, यद्यपि देशी–विदेशी बुर्जुआ पूंजी के स्वतंत्र भारत में बढ़ते गठजोड़ के प्रति उनके मन में आशंकाएं भी कम नहीं थीं। यह उस समय के उनके राजनीतिक-आर्थिक रिश्तों पर लिखे लेखों में व्यक्त विचारों और पक्षधरता से जाहिर हो जाता है। इस मामले में मुक्तिबोध बेहद सजग, संवेनशील और ज्ञान-गवेषक रचनाकार थे। उनकी रचना-दृष्टि की सबसे बड़ी खूबी उनकी वह सजग और संवेदनशील विश्व-दृष्टि है, जो कभी-कभी और किसी-किसी को ही सुलभ हुआ करती है। यही कारण है कि उनकी काव्य–अनुभूतियाँ अपने समय के प्रति जितनी आचरणधर्मी, संवेदनापूर्ण, बहुआयामी, चौकन्नी और जन-निष्ठ हैं, उतनी उस समय के बहुत कम रचनाकारों की थी। देश ही नहीं वरन पूरी -दुनिया के रिश्तों पर उनकी पैनी नज़र यह जाहिर करती है कि आज की नव–उदारवादी जनविरोधी अर्थव्यवस्था की बुनियाद के पत्थर उसी आरम्भकाल में लगा दिए गए थे , यद्यपि उस समय उनके ऊपर समाजवाद का प्लास्टर कर दिया गया था।

आज  की  नयी परिस्थितियों में तेज़ी से बढ़ते  निजीकरण के उफान और उसकी आमतौर पर मान ली गयी स्वीकृति ने सार्वजनिक उत्पादन-क्षेत्र और उससे सम्बंधित चिंतन–व्यवहार के हाथ–पाँव फुला दिए हैं। मुक्तिबोध जब तक जीवित थे- आशंका के द्वीप अँधेरे में होने के बावजूद आशा के कुछ प्रज्ज्वलित दीप भी बचे हुए थे। हालांकि  मुक्तिबोध की सारी आशंकाएं आज सच साबित हुई हैं। अब यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि ऐसा दूरदर्शी और मानव मन का पारखी कवि कभी कभी ही हुआ करता है। जो कवि मानव मन को बहुत ऊपरी सतह पर जानता है वह उसके उन अज्ञातअँधेरे कोनों की खबर नहीं ले पाता, जो समाज को कु या सु गति प्रदान करते हैं। मुक्तिबोध की एक प्रदीर्घ कविता है – भविष्यधारा” –जिसमें उस सारी प्रक्रिया को जगह दी गयी है, जो व्यक्ति मन में उत्पादन के स्वामित्त्व संबंधों के साथ चलती और बदलती रहती है। इस तरह के विषय अन्य कवियों के यहां बहुत कम आये है जहाँ मानव मन को लगातार टटोला गया हो। इस कविता में मुक्तिबोध, साहित्यकार और वैज्ञानिक का सहसा सम्बन्ध नहीं जोड़ते वरन उसकी आज के वैज्ञानिक युग में बहुत बड़ी जरूरत मानते हैं। विज्ञान-दृष्टि का अभाव ही व्यक्ति को वर्गचेतना से हटाकर भेद–बुद्धि की ओर ले जाता है और वह अपने स्वार्थों के वशीभूत हो अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों से किनारा कर लेता है। कवि को दृष्टा इसी अर्थ में कहा गया है कि जो कुछ ऊपरी सामान्य जीवन -सतह पर दिखाई नहीं दे रहा है, उसे भी वह सतहों के भीतर तक प्रविष्ट हो देख-जान और समझ ले। मुक्तिबोध ऐसे ही अति–विरल कवियों में हैं, जो अनचीन्हे को चीन्ह लेते हैं। इस भविष्यधारा कविता में वे अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के सवाल को उठाते हुए कहते हैं कि हमारा आज का यह वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में प्रज्वलित गैस स्टोव के पास क्यों सो गया है? वैज्ञानिक के सो जाने को मुक्तिबोध एक भयानक घटना के रूप में देखते हैं। यह तथ्य है कि व्यक्ति के भीतर का वैज्ञानिक अक्सर सोया हुआ मिलता है। यहां तक कि स्वयं विज्ञान की दुनिया से सम्बद्ध लोगों का  भी यही हाल है। इतिहास–गति बतलाती है कि विज्ञान ही है जो नव आविष्कृत समीकरण सूत्र निकाल कर समाज को देता है, किन्तु समाज में ऐसी ताकतें सक्रिय रहती हैं, जो विज्ञान चेतना को बेहोशी की दवा पिला देती हैं। वे आस्था के नाम पर व्यक्ति के भीतर के वैज्ञानिक की ह्त्या करने से भी बाज नहीं आती। ऐसी परिस्थितियों का निर्माण स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था अपने उन्ही साधनों से करती है, जो विज्ञान ने उसे सुलभ कराये हैं। मुक्तिबोध अपनी इस-भविष्यधारा-कविता में इस परिस्थिति का चित्रण करते हुए लिखते हैं
जल रहा गैस स्टोव पास
सूना कमरा गहरा उदास
नीली अरुणिम लौ की कलिका
पर एक परीक्षण -नलिका वैसी-की-वैसी
यंत्र पर रखी।।
वह कौन जबरदस्ती जिसने कर डाला है
यों अंतर्मुख वैज्ञानिक को ?
बलात काट दी स्वाभाविक  
विजयिष्णु वृत्तियाँ बाह्योन्मुख
धोखा वैज्ञानिक सूक्ष्म बुद्धि को दिया?
यहां सब कुछ स्पष्ट, गद्यात्मक और विवरणपरक है। यह वैज्ञानिक एक प्रदीर्घ और टूटी नसेनी पर अपने पैर रखकर एक जादुई दीपक के ऐसे जीवन-सत्य को लेकर आसमान में चढ़ रहा है, जो पूंजी की व्यवस्था के काम का नहीं रहा है। क्योंकि मनुष्य की गति उसके अनुरूप नहीं है।
 
जैसा कि प्रारम्भ में भी कहा जा चुका है कि मुक्तिबोध की कविता कई मामलों में उनके अपने जमाने से आज ज्यादा प्रासंगिक और अर्थवान हो गयी है, जो अपने उद्देश्य में लोकधर्मी है, किन्तु सबसे ज्यादा खबर उन कारकों की लेती है, जो जनोद्देश्य तक पंहुचने में बाधक बनते हैं। वे आदर्श के हवाई किले बनाने वाले कवियों में नहीं हैं, बल्कि अपने सपने के साथ यथार्थ की गहराइयों में उतरने वाले कवियों में हैं। मुक्तिबोध चीजों को समग्रता में जांचने-परखने वाले कवियों की परम्परा में आते हैं-जैसे आदि कवि वाल्मीकि, तुलसी, निराला और गद्य में प्रेमचंद। ये पेड़ के मूल को पकड़ते हैं, जबकि अधिकांश उसकी शाखा-प्रशाखाओं, पल्लवों-पुष्पों तक ही सीमित रह कर अपनी काव्य यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं या फिर जीवन भर उसी को दुहराते रहते हैं। मुक्तिबोध ने भावानुभूत ज्ञान को कला का विषय माना है। जो ज्ञान भावानुभूत नहीं है, वह शास्त्र का विषय हो सकता है, कला का नहीं। इसी तरह कविता में जो भाव-ज्ञानानुभूत नहीं है, वह कोरा भावोच्छवास है, जो उसके पाठक को दिग्भ्रमित करने के अलावा किसी काम का नहीं। सच्ची भावानुभूति तब तक सम्भव नहीं है, जब तक कि कवि की अपनी जीवन–क्रियाएँ पूरी तरह उसके अपने समय के  रिश्तों की पेचीदगियों की अंतर्गुहाओ को न जानती हों। सच तो यह है कि जब तक श्रमिक-किसान वर्ग के जीवन-संघर्षों से कवि-जीवन का गंभीर साहचर्य न हो और उन कारणों की गहरी छानबीन करने की विवेक-बुद्धि न हो, तब तक उसकी कविता में एक तरह का आधा-अधूरापन बना रहेगा। कहना न होगा कि मुक्तिबोध ने निराला की तरह स्वयं को अपने समय के जीवन में भाव , ज्ञान और आचरण के तीनों स्तरों पर एकाकार कर लिया था, तभी वे साहित्य के आकाश की ऊंचाइयों को छू सके थे।
जैसा  कि बतलाया जा चुका है कि मुक्तिबोध का ज़माना हूबहू आज जैसा नहीं था, देश की जनता ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी से उनके समय में ही मुक्त हुई थी, उन्होंने औपनिवेशिक पराधीनता का वह क्रूर काल देखा था, जिसमें हिन्दुस्तान के नागरिक को ब्रिटिश सत्ता की अनुकम्पा पर अपने दिन काटने पड़ते थे। ब्रिटिश शासक देश की श्रम-अर्जित पूंजी और यहां के प्राकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूट कर, जहाँ भारत को विपन्न बनाते थे वहीं अपने देश ब्रिटेन को संपन्न। इसी लूटी हुई सम्पन्नता की ताकत से इंग्लैंड का तेजी से औद्योगिक विकास हुआ। जैसाकि अतिरिक्त पूंजी संचित हो जाने और पूंजीवादी व्यवस्था में हुआ करता है। किन्तु उनके शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध लगातार संघर्ष होते रहे, तभी जा कर उनकी  गुलामी से मुक्ति हासिल हुई। उस समय तक भारतीय जनता में एक अलग तरह का जज्बा बना हुआ था। 1857 और उससे भी  पहले से भारत में जो जन–संघर्ष स्वाधीनता के लिए अनवरत चले, उनकी परिणति 1947 में मुक्तिबोध की आँखों के सामने हुई। देश को औपनिवेशिक तंत्र से मुक्ति मिली। लेकिन यह कहना भी गलत नहीं है कि मुक्तिबोध के लिए यह अभी पूरी मुक्ति नहीं थी। क्योंकि  इस मुक्ति में जो हिस्सेदारी देशी और विदेशी पूंजी को यहां मिल गयी थी, वह श्रम को नहीं मिली थी। मुक्तिबोध की विचारधारा से यह मुक्ति तो थी किन्तु इसका सबसे ज्यादा फायदा उस देशी पूंजी को मिलने की पूरी सम्भावना थी जो उस समय सबसे आगे और नेतृत्त्वकारी भूमिका में थी। किसान–मजदूर सरीखे मेहनतकश वर्ग को  अपने वर्ग की ताकत का न पूरा राजनीतिक बोध था और न ही निचले स्तर पर उसे आर्थिक संबंधों की पेचीदगियों की जानकारी थी। उसका प्रतिनिधित्त्व वह मध्यवर्ग करता था, जो अपनी सुविधाओं के जाल में खुद फंसा रहता है। मुक्तिबोध के शब्दों मे कहें तो उच्च-मध्य वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो जितना देश से लेता है, उसकी तुलना में देता बहुत कम है। इस बारे में उनकी प्रसिद्ध कविता-अँधेरे में -से वास्तविकता की उदघाटक ये काव्य पंक्तियाँ आज भी मन को भीतर तक झकझोर देती है
                                              अब तक क्या किया,
                                              जीवन क्या जिया।.
                                             
                                             बताओ तो किस किस के लिए तुम दौड़ गए,
                                             करुणा के दृश्यों से हाय।  मुंह मोड़ गए,
                                            बन गए पत्थर,
                                             
                                            बहुत  बहुत ज्यादा लिया,
                                            दिया बहुत -बहुत कम,
                                             मर गया देश, अरे., जीवित रह गए तुम ।।  
अपने लिए ही जीवित रहने की यह प्रबल स्वार्थ-भावना उच्च-मध्य वर्ग की बहुत बड़ी कमजोरी रही है। इसी वजह से देश का तत्कालीन मेहनतकश वर्ग एक बड़ी राजनीतिक हस्तक्षेपकारी भूमिका में नहीं आ पाया था। आया भी था तो बहुत खंडित और आधे–अधूरे रूप में। जबकि स्वाधीनता संघर्षों में वह और उसकी विचारधारा कभी पीछे नहीं रही थी। इसके बावजूद वह पूर्ण नेतृत्त्वकारी भूमिका में नहीं आ पाया था। उस समय पूंजीपति वर्ग और उसकी विचारधारा को पुष्ट करने वाले उच्च और उच्च–मध्यवर्गीय राजनेता ही खासतौर से देशी शासकवर्ग में प्रतिष्ठित हुए। महात्मा गांधी सर्वधर्म समभावी की तरह अर्थनीति में भी सर्व-अर्थ-समभावी की विचारधारा को मानकर चलते  थे, जिसका मतलब था पूंजी के हाथ में सत्ता का केंद्रित होते जाना।
स्वतंत्र और नियंत्रणहीन पूंजी से निजी बाज़ार का विस्तार होता है। पूंजी हमेशा खुले बाज़ार में ही फलती-फूलती है। पूंजी का मतलब होता है बाज़ार और बाज़ार का मतलब होता है पूंजी। समझने की बात यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े चिंतक शब्दों की बाज़ीगरी बहुत किया करते हैं। जब एक शाब्दिक धारणा बहुत बदनाम हो जाती है तो वे अपनी हेरफेर करने वाली छल बुद्धि से उसे बदल देते हैं। जब पूंजीवाद शब्द बहुत बदनाम हुआ तो उसकी जगह मुद्रा की तरह एक नया सिक्का चला दिया बाज़ार। जबकि बाज़ार और पूंजी दोनों का मतलब एक ही होता है। बाज़ार तो हर युग में रहा है किन्तु जहाँ उसकी  नकेल समाज के हाथों में रही है वहाँ उसे जन-हित में काम करने को मज़बूर होना पड़ता है। नियंत्रणहीन बाज़ार अतिरिक्त पूंजी पैदा करता है, और वही अतिरिक्त पूंजी, बाज़ार का विस्तार करती हऔर यह श्रम-पूंजी के स्थान पर उसे  सटोरिया पूंजी में बदलती जाती है। इससे श्रम, उद्योग और पूंजी का अलगाव कर दिया जाता है। यही कारण है कि पूंजी बाज़ार अपने विस्तार के लिए अपनी सामरिक ताकत को भी निरंतर बढ़ाता जाता है। युद्ध और बाज़ार दोनों का एक रिश्ता बन जाता है। हथियारों का व्यापार इसीलिये बढ़ती पूंजी के साथ साथ बढ़ता जाता है। इसीलिये मुक्तिबोध ने काव्य–सृजन के साथ साथ समाज के उत्पादन-संबंधों पर भी बहुत गहराई से विचार व मनन किया है, जिससे उनकी संवेदना का ज्ञानात्मक स्वरुप निर्मित हुआ। उनकी कविता की संवेदना का धरातल ज्ञानात्मकता से बनता है। कहा जा सकता है कि उनकी कविता–नदी का एक तट यदि उसकी भावधारा से बनता है तो दूसरा तट ज्ञानधारा से। दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। मुक्तिबोध मानते हैं कि हर कलाकार एक बाह्य जगत में रहता है और वह उसके अनुरोधों और आग्रहों को स्वीकार भी करता है किन्तु उनको पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाता या व्यक्त कर पाने की कोशिश नहीं करता। वह चुप हो जाता है या अपनी दिशा बदल लेता है। मुक्तिबोध इस मामले में बहुत सजग हैं और जमाने से आगे चलने और अलग रास्ता अख्तियार करने की  वजह से वे अपने समय में उपेक्षित भी रहते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि काल के अश्व पर वे ही सवारी करते हैं।
      
मुक्तिबोध अपने जीवन में साहित्य के साथ राजनीतिक—सामाजिक और आर्थिकसांस्कृतिक जीवन के प्रति भी सजग और विचारशील रहने वाले रचनाकार थे। कहने की जरूरत नहीं कि देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से ही अपनी सीमाओं के साथ देशी पूंजी का बाज़ार फलने–फूलने लगा था। जाहिर है कि आज के नव–उदारवादी बाज़ार की बुनियाद का एक बड़ा पत्थर उसी समय लगा दिया गया था, जिसे मुक्तिबोध की अंतर्दृष्टि ने दूर से देख लिया था। यह कदाचित सभी को मालूम है कि मुक्तिबोध ने स्कूल शिक्षक होने के बाद 1956 से 1958 तक नागपुर से प्रकाशित दो साप्ताहिक पत्रों –‘नया खून’ और ‘सारथी’-में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लगातार लेख लिखे थे, जिनमें से अधिकांश किसी छद्मनाम से लिखे गए थे। मुक्तिबोध इस तथ्य से बाख़बर थे कि देश को आज़ादी मिल जाने के बाद भी यहां की अर्थव्यवस्था में विदेश पूंजी की दखलंदाज़ी बनी हुई है। इसमें सबसे ज्यादा पूंजी थी ब्रिटेन की और इसके बाद अमरीका की। 3 अक्टूबर 1954 के सारथी साप्ताहिक के अंक में मुक्तिबोध ने यौगन्धरायण के नाम से-अंग्रेज गए, परन्तु इतनी अंगरेजी पूंजी क्यों?’ शीर्षक एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने बतलाया है कि बिड़ला और टाटा विदेशी पूंजी के आमंत्रण को भारत के लिए (यानी स्वयं उनके लिए) हितकर समझते हैं। बिड़ला महोदय स्वयं अनेक ब्रिटिश उद्योगपतियों से पूंजीबद्ध हैं। तो टाटा महोदय अमरीकी पूंजीपतियों से। अपने मुनाफे की वृद्धि के लिए भारत शासन पर निर्णायक प्रभाव रखते हुए वे साम्राज्यवादी पूंजी को बुलाते हैं, उस पूंजी के जूनियर पार्टनर की हैसियत से काम करते हैं और उनसे पूंजीबद्ध हो जाते हैं। पंचवर्षीय योजना ने उनको इस कार्य में अधिक उत्साहित किया है। स्पष्ट बात यह है कि ये कल के राष्ट्रवादी  पूंजीपति आज भारत को केवल औपनिवेशिक क्षेत्र बनाये रखने की ओर ही कदम बढ़ा रहे हैं, कि उसके वास्तविक औद्योगीकरण की ओर। “(मुक्तिबोध रचनावली भाग–6 ,राजकमल पेपरबैक, पृष्ठ 66-67) इसी सम्बन्ध में उनका एक दूसरा लेख नया खून साप्ताहिक में 1955 में प्रकाशित हुआ, जिसमें वे कुछ सवाल समाजवादी समाज रचना को लेकर उठाते हैं. इस आलेख में मुक्तिबोध अपने पाठकों का ध्यान उन आठ बिन्दुओं की तरफ  आकर्षित करते हैं, जो समाजवादी समाज रचना के मार्ग में रोड़ों की तरह दिखाई देते हैं। पहले सवाल में वे पूछते हैं कि अगर देश में  पूंजीवादी समाज-रचना के स्थान पर समाजवादी ढंग की समाज–रचना लाने की ओर प्रयत्न किया जा रहा है तो (यह महत्त्वपूर्ण बात है) देश के गरीब वर्ग अधिकाधिक गरीब और श्रीमान वर्ग अधिकाधिक श्रीमान क्यों होते जा रहे हैं। गरीब वर्गों और धनी वर्गों के बीच की खाई अब पहले से ज्यादा बढ़ गयी है। यहां तक कि मध्यवर्ग और निम्नमध्य वर्ग के बीच भेद की दीवार और न फांदी जा सकने वाली खाई पडी हुई है, जो बढ़ती जा रही है।“ (मुक्तिबोध रचनावली, छठा भाग, पेपरबैक, पृष्ठ 67-68 ) आज सड़सठ साल बाद यह सवाल अपनी भयानकता के साथ हमारे सामने गरीब वर्ग को चिढ़ाता हुआ उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है।  इस बढ़ती भयानक खाई को लेकर आज पूंजीपति वर्ग के ही कुछ बुद्धि-विमर्शी समय समय पर अपनी चिंता जाहिर करते रहते हैं।
उस समय की एक समस्या और सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि  नयी सत्ता और उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के मोह जाल में मध्यवर्ग के फंसते जाने की प्रबल संभावनाएं सामने थी, जिनमें अनेक साहित्यकार उलझ भी गए थे। मुक्तिबोध का पहला और स्वयं के स्तर पर यही संघर्ष था कि वे अपने साथी अन्य लेखकों की तरह नयी सत्ता से समझौता कर लें या फिर अपने उसी रास्ते पर चलते रहें, जो औपनिवेशिक काल के समय से ही सोच लिया गया था। वह रास्ता वह नहीं था, जिस पर देश की स्वाधीन देशी सरकार चल रही थी। यह रास्ता देशी पूंजी और देशी बाज़ार की प्रभुता में बना था यद्यपि इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था नाम दिया गया था। यह राजनीति में नेहरू युग के नाम से जाना जाता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की ही यद्यपि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां थी, जिसमें निजी पूंजी को अपना विकास येन-केन-प्रकारेण करते चले जाने की पूरी छूट मिली रहती है, जिससे कालांतर में निजी पूंजी इतनी सशक्त और प्रभत्त्व संपन्न हो जाती है कि एक दिन पूरी सत्ता वही हस्तगत कर लेती है। मुक्तिबोध की कविता आज इन नए जीवन–सन्दर्भों में और अधिक प्रासंगिक हो गयी है। यह उसकी महाकाव्यात्मकता का एक सबूत है।
महान आलोचक और विचारक रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध के बारे में यह राय रही है कि वे देश के मज़दूर जीवन से तो वाक़िफ़ थे, किसान जीवन से नहीं। यह सम्भव है कि मुक्तिबोध, किसान-जीवन के सीधे संपर्क में नहीं रहे हों क्योंकि वे अपने समय के मध्यवर्गीय परिवार से आते थे, जो आमतौर  पर आज की तरह कस्बों और शहरों में अपनी जिंदगी बसर करता है किन्तु यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके जीवन काल तक हमारे देश के किसान-श्रमिक जीवन में वैसी फाँक, खाई और अलगाव पैदा नहीं हुआ था कि वे आपस में एक दूसरे को जान न सकें, जैसा कि आज नज़र आता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका समय ऐसा समय था, जब आज जैसा श्रम-विभाजन नहीं हुआ था, जिसमें मजदूर वर्ग, किसान समुदाय से अलगाव की स्थिति में आ जाता है। हमारे देश में मजदूर भी यद्यपि आता किसान समुदाय से ही है किन्तु शहर में रहते हुए और खेतीकिसानी से कटते चले जाने के कारण उसकी समस्याएं कुछ अलग किस्म की हो जाती हैं। हमारे देश में एक बड़ा श्रमिक समुदाय ऐसा भी है, जो संगठित रूप में कभी सामने नहीं आया। खेतिहर किसान ऐसे ही श्रमिक वर्ग की श्रेणी में आता है। इन सबका साबका हर रोज शहर से पड़ता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध इनकी एकता के पोषक रचनाकार हैं। उनकी कई कवितायेँ ऐसी हैं जिनमें किसान समुदाय के जीवन से सम्बंधित रूपक आये हैं। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वे किसान जीवन से वाकिफ नहीं थे। उस समय की उत्पादक शक्तियों से उनकी गहरी और वास्तविक सहानुभूति भी थी और उनकी जानकारी भी। उनकी अल्प-चर्चित एक कविता है-इसी बैलगाड़ी को“- इस कविता में कवि शहरी और ग्रामीण मेहनतकश और मध्यवर्ग के बीच केवल आबोहवा का फर्क देखता है अन्यथा जिंदगी की बैलगाड़ी को दोनों-तीनों ही अपनी अपनी तरह से खींच रहे हैं यद्यपि वर्तमान में मध्यवर्ग पूंजी बाज़ार का पहले से ज्यादा क्रीतदास बनता जा रहा है।  मुक्तिबोध कहते हैं —
इसी बैलगाड़ी को पहाड़ी ढालों पर
चढ़ाता-उतारता बढ़ाता हूँ मैं
इसी बैलगाड़ी को
बहुत दूर तुम
खींच रहे हो शहरी अँधेरे में
वही बैलगाड़ी
वही हांकना
सिर्फ एक फर्क है
                  फर्क आबोहवा का
मुक्तिबोध की कविता की खूबी यह है कि वे उन जीवन मूल्यों की खोज और रचना करते हुए खासतौर से नज़र आते हैं जो व्यक्ति के आतंरिक सौंदर्य को उदघाटित करते हैं। कविता जीवन की जटिलताओं के बीच उसकी आतंरिक उदात्तता को खोज कर उसकी  रचनात्मक परिणति का नाम है। जहां बाहर और भीतर के  सौंदर्य का फर्क मिट जाता है। जैसे महाकवि रवीन्द्र दो मजदूरों को एक दूसरे के कन्धों पर हाथ धरे हँसते हँसते चले जाते हुए देख कर अनिर्वचनीय सौंदर्य का अनुभव करते हैं।  वे कहते हैं कि उनको देखकर मेरे मन में यह विचार नहीं उठा कि ये मामूली मजदूर हैं। उस दिन मैंने उनकी अंतरात्मा को देखा, जहां चिरकाल कामानव है।यहीं महाकवि सौंदर्य को परिभाषित भी करते हैं। वे कहते हैं -”बाह्य रूप से जो नगण्य लगता है, उसका जब हम आतंरिक अर्थ देखते हैं तो वह सुन्दर लगता है। यहां  कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध इसी अंतरात्मा के सौंदर्य की तलाश और उसकी रचना करने वाले एक समर्थ और कालजयी रचनाकार हैं। उनकी सम्पूर्ण रचना पूंजी बाज़ार की इस नयी सभ्यता का एक बड़ा और वास्तविक  प्रतिरोध खड़ा करती है, जो मनुष्यता को हमेशा आँख ओट रखने और रखाने का काम करती है। इतना ही नहीं वह उसका एक वैकल्पिक विज़न भी प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध अपनी इसी बैलगाड़ी को कविता में लिखते हैं—-
इस वक्त
परेशान हमने एक काम किया
रास्ते में एक ओर
कंडे की लाल आग
टिक्कड़ लगी सेंकने
बहुत बहुत परेशान थके हुए हम भी हैं।
लेकिन सुगंध उस
                  टिक्क्ड़ की खूब जोकि
आत्मा में फैलती है
ईमान की भाप बन।
कहना न होगा कि मुक्तिबोध जीवन भर आत्मा में फैलने वाली इसी ईमान की भाप के लिए बेहद ईमानदारी से वास्तविक जीवन संघर्ष करते हुए साहित्य–सर्जना में संलग्न रहे। ईमान की इसी भाप ने उनको एक कालजयी रचनाकार बनाया।  

 

जीवन सिंह

सम्पर्क-
जीवन सिंह
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 
(वागर्थ से साभार)