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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
आमतौर पर लोकतंत्र से एक आम आदमी बहुत कुछ उम्मीदें पाल बैठता है. उस उम्मीद के टूटने पर जो आक्रोश इस आम आदमी के मन में सहज ही पैदा होता है उसी की परिणति हैं शेष नारायन की गज़लें. शेष के यहाँ पाने और जीतने में एक बड़ा फर्क है. एक संवेदनशील मन हमेशा जीतने की बजाय पाना चाहता है. और यहीं रचनाकार आगे बढ़ जाता है उस राजनीति से जिसमें येन-केन-प्रकारेन जीत का ही महत्व है इसके लिए चाहें जो कीमत चुकानी पड़े.
कहीं पर भी प्रकाशित शेष नारायण की ये प्रारम्भिक गज़लें हैं.
१
ये सच है लोग वहशी हो गए हैं इस जमाने के
तेरा कहना मुनासिब है, तेरा जाना जरूरी था.
अगर बस जीतना होता तो तुझको जीत लेता मैं,
मगर मेरी नजर में तो तुझे पाना जरूरी था.
२
अंधियारा मथूं प्रकाश बना सकता हूँ.
निज रुदन तुम्हारा हास बना सकता हूँ
कुछ और नहीं बस तुम मेरे हो जाओ
एक तारे से आकाश बना सकता हूँ.
३. (बतर्जे दुष्यंत)
हालात हैं संगीन यहाँ कौन है मुजरिम?
हिन्दू बहुत खराब, मियाँ और भी खराब
मंदिर में बज रही हैं घंटियाँ जहर बुझी
मस्जिद से उठ रही है अजाँ और भी खराब
४
रोकते सब हैं मगर हम तो उधर जाते हैं
और होंगे वो जो बिगड़े तो सुधर जाते हैं
हमको नफ़रत में भी कुछ हद की क़दर है लेकिन
प्यार करते हैं तो हर हद से गुजर जाते हैं
५
कहूँ किस तरह मैं कि ये चाहता हूँ
नशा ऐ सनम! बिन पिए चाहता हूँ.
मेरी खुदपरस्ती पे नज़रे करम हो,
कि खुद को तुम्हारे लिए चाहता हूँ
जला हूँ दहकती हुई सुर्ख़ियों में,
सुकूँ के लिए हाशिये चाहता हूँ
अंधेरों से कुछ ऊबने सा लगा हूँ,
न सूरज मिले तो दिए चाहता हूँ.
मैं अपने कहे कुछ रदीफ़ों पे अब भी
तुम्हारे कहे काफिये चाहता हूँ
संपर्क-
शेष नारायण मिश्र
पुत्र शिव प्रताप मिश्र
ग्राम पोस्ट – मऊ
जिला – चित्रकूट
उत्तर प्रदेश
210209
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