शेष नारायण मिश्र की गजलें


शेष नारायण मिश्र काशी विद्यापीठ वाराणसी के संस्कृत विभाग में रिसर्च फेलो हैं। संवेदनाओं से भरी हुईं इनकी गज़लें हमें अन्दर तक झकझोरती हैं एवं सोचने के लिए विवश करती हैं। आईए पढ़ते हैं शेष नारायण की कुछ नयी गज़लें।  
(1)
पास रहकर लड़ो लड़ कर नहीं जाने दूँगा।
अब मिले हो तो बिछड़ कर नहीं जाने दूँगा
जाते-जाते जरा बेशर्म तो होता जाऊँ,
खुद को मैं शर्म से गड़ कर नहीं जाने दूँगा।
(2)
गुनाह जब-जब, अजाब तब-तब।
सवाल जब-जब, जवाब तब-तब।
वो हुस्न कुछ हमसे आशना है,
निगाह जब-जब, शबाब तब-तब।
(3)
यादों के करीने की गजल ढूँढ़ रहा हूँ।
आँसू के नगीने की गजल ढूँढ रहा हूँ।
अब तक जो सुनी है वो मेरे खूँ की गजल थी,
अब तेरे पसीने की गजल ढूँढ रहा हूँ।
(4)
हमें अकेले ही नाचना है, किसी के हाथों में बीन क्यों हों?
अगर खुदी पर यकीन है तो, किसी खुदा पर यकीन क्यों हों?

(5)
आ तेरे कागज पे अब अपनी इबारत छोड़ दूँ।
इस तरह के दौर में कैसे तिजारत छोड़ दूँ?
तू कहे तो आज से मै फेर लूँ अपनी नजर,
ये नहीं होगा कि देखूँ तो हिकारत छोड़ दूँ।

(6)
मैं दिखूँगा न पर देख लूँगा तुम्हें।
अपने आँसू कभी मत दिखाना मुझे।
कोई दीवान लेकर के आना, मेरी
कब्र पर फातिहा मत सुनाना मुझे।
(7)
उधर से तो बस वार पर वार है।
इधर हाल रो-रो के बेजार है।
मैं जिसके तहत तुझसे नाराज हूँ
दिखे-ना- दिखे वो मेरा प्यार है।
खुले-आम नोटें उछाली गईं,
ये संसद है या फिर बियर-बार है।
सुनी, जो हकीकत बताई गई,
मुझे इस हकीकत से इन्कार है।
जहाँ के तलबगार हम ही नहीं,
जहाँ भी हमारा तलबगार है।
ये हम हैं, भजन मत सुनाओं यहाँ,
यहाँ नीचता नित्य साकार है।
मेरे नाम से चौंक जाते है वों,
ये जिन्दा मोहब्बत का आसार है।
किसी के लिये जाँ से ज्यादा हैं हम,
हमारा भी छोटा सा परिवार है।
ये आँसू तो देखो, जो शबनम से हैं।
वो लहजा न देखों, जो अंगार है।
कभी जीत भी जीत जैसी मिली,
हुआ क्या जो अब हार सी हार है।
उठी गर जुबाँ तो कुचल देगे वों।
हमें कुछ न कहने का अधिकार है।
यहीं हैं मगर जान पाए न हम,
अधर है यहाँ या कि आधार है।
कहीं शोख एहसास की मस्तियाँ,
कहीं नम निगाहों का दीदार है।
लबों पर शिकायत न आए कभी,
यहाँ सब सही है, ये संसार है।
कहीं रोटियों भर का गेहूँ नहीं,
कहीं सड रहा एक भण्डार है।
उठाए हैं लेकिन सँभलता नहीं,
हमारे वजन से बड़ा भार है।
(8)
पुरनूर इक जमाल लिये आ गया है वो।
आफत का इन्तकाल लिये आ गया है वो।
काटे भी सरेआम, फना करके जिला दें,
इक तेग बेमिसाल लिये आ गया है वो।
रस्ते खुले गुनाह के तौबा के घात के,
फिलहाल बस मलाल लिये आ गया है वो।
जब वो न पास था तो यहाँ कितनी धूप थी।
राहत सरे-खयाल लिये आ गया है वो।
तूने न जिसे पाँव का काँटा भी कबूला,
ले देख तेरा काल लिये आ गया है वो।
पहले तो जिसे सिर्फ मेरे खूँ की तलब थी,
हाथों मे अब गुलाब लिये आ गया है वो।
चाहो तो फोन काट दो या खैरियत कहो,
फिर अपना हाल-चाल लिये आ गया है वो।
फिर छूटने लगे हैं जवाबों के पसीने,
जलते हुये सवाल लिये आ गया है वो।
अंग्रेज से फिर आज बचे हिन्द का बिजनेस,
बाजार मे दलाल लिये आ गया है वो।

(9)
कुछ यहाँ मुझे सा बियाबान नहीं।
इस यकीं पर कोई गुमान नहीं।
वो हमारी ही बात क्यों मानें?
हम कोई साहिबे-जहान नहीं।
सोचकर हम जिया किये अब तक,
प्रेम में ध्वंस का विधान नहीं।
सौ परिन्दों का झुण्ड उड़ता है,
पर फलक में कोई निशान नहीं।
कल तलक इश्क ही था, अब लेकिन,
कुछ भी मुश्किल नही, आसान नहीं।
घाव सब को लगे यहाँ, लेकिन
कोई मुझ सा लहूलुहान नहीं।
इस जमीं ने किया पराया, तो
अब यहाँ अपना आसमान नहीं।
अब खुदाई दलाल हैं हर सू,
कोई गीता नहीं, कुरान नहीं।
खुद से दूना वजन उठाए है,
कोई चींटी सा सख्त-जान नहीं।
मैं यहाँ पर शिकार करता था,
पर मेरा अब कोई मचान नहीं।
मैं तेरा जाँबकार्ड क्यों रक्खूँ?
मैं कोई गाँव का प्रधान नहीं।
मुँह भी छोटा है, बात भी छोटी,
मैं बड़ों की तरह महान नहीं।
लग गया हूँ, जमीन मत बदलो,
एक लड़के का दिल हूँ धान नहीं।
सम्पर्क
मोबाईल-
08924918938

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)                                    

शेष नारायण मिश्र की गज़लें

शेष नारायण मिश्र  का जन्म उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के मऊ में दो जनवरी  १९८५ को हुआ. स्थानीय महामति प्राणनाथ महाविद्यालय मऊ से स्नातक स्तर तक की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात इन्होने  वर्ष २००५ में दिल्ली के जवाहर  लाल नेहरु विश्वविद्यालय  से संस्कृत में स्नातकोत्तर  किया. अपने समूचे अध्ययन काल  में शेषनारायण एक मेधावी छात्र रहे. २००६ में यू. जी. सी. की जे. आर. एफ. के लिए  चयनित हुए. सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘ध्वनिवादियों के पारस्परिक सैद्धांतिक मत वैभिन्य का समीक्षात्मक  अध्ययन’ शीर्षक से शोधरत.

आमतौर पर लोकतंत्र से एक आम आदमी बहुत कुछ उम्मीदें पाल बैठता है. उस उम्मीद के टूटने पर जो आक्रोश इस आम आदमी के मन में सहज ही पैदा होता है उसी की परिणति हैं शेष नारायन की गज़लें. शेष के यहाँ पाने और जीतने  में एक बड़ा फर्क है. एक संवेदनशील  मन हमेशा जीतने की बजाय पाना चाहता है. और यहीं रचनाकार  आगे बढ़ जाता है उस राजनीति  से जिसमें येन-केन-प्रकारेन जीत का ही महत्व है इसके लिए चाहें जो कीमत चुकानी पड़े.

कहीं पर भी प्रकाशित शेष नारायण की ये प्रारम्भिक गज़लें हैं.


ये सच है लोग वहशी हो गए हैं इस जमाने के
तेरा कहना मुनासिब  है, तेरा जाना जरूरी था.
अगर बस जीतना होता तो तुझको जीत लेता मैं,
मगर मेरी नजर में  तो तुझे पाना जरूरी था.


अंधियारा मथूं प्रकाश बना सकता हूँ.
निज रुदन तुम्हारा हास  बना सकता हूँ 
कुछ और नहीं बस तुम  मेरे हो जाओ 
एक तारे से आकाश बना  सकता हूँ.

  
३. (बतर्जे दुष्यंत)

हालात हैं संगीन यहाँ कौन है मुजरिम?
हिन्दू बहुत खराब, मियाँ और भी खराब
मंदिर में बज रही हैं घंटियाँ जहर बुझी
मस्जिद से उठ रही  है अजाँ और भी खराब


रोकते सब हैं मगर  हम तो उधर जाते हैं 
और होंगे वो जो बिगड़े  तो सुधर जाते हैं 
हमको नफ़रत में भी कुछ हद की क़दर है लेकिन 
प्यार करते हैं तो हर हद से गुजर जाते हैं 

  

कहूँ किस तरह मैं कि ये चाहता हूँ 
नशा ऐ सनम! बिन पिए  चाहता हूँ.
मेरी खुदपरस्ती  पे नज़रे करम हो,
कि खुद को तुम्हारे लिए चाहता हूँ 
जला हूँ दहकती हुई  सुर्ख़ियों में,
सुकूँ के लिए हाशिये चाहता हूँ 
अंधेरों से कुछ बने सा लगा हूँ,
न सूरज मिले तो दिए  चाहता हूँ.
मैं अपने कहे कुछ  रदीफ़ों पे अब भी
तुम्हारे कहे काफिये चाहता हूँ 

संपर्क-
शेष नारायण मिश्र 
पुत्र  शिव प्रताप मिश्र 
ग्राम पोस्ट – मऊ
जिला – चित्रकूट
उत्तर प्रदेश
210209

मोबाईल- 08924918938