भगवत रावत: एक बार फिर आऊँगा

 

‘अनहद’ जनवरी २०१२ अंक में समालोचन स्तंभ के अंतर्गत कवि भगवत रावत पर आलेख और उनकी नवीनतम कविता प्रस्तुत की गयी थी. भगवत दादा की कविता आप पहले ही पढ़ चुके हैं. श्रद्धांजली के क्रम में आज प्रस्तुत है कवि केशव तिवारी का भगवत दादा पर लिखा गया आलेख.   

केशव तिवारी

भगवत रावत के कवि पर विचार करते समय एक प्रश्न सबसे पहले उठता है- आखिर इस कवि के अपने लोक और जनपद के पीछे जुड़ाव का आधार क्या है? वह क्या बात है जो कवि को अपने परिवेश से इस तरह बांधती और मुक्त करती है. इसे मात्र अपने जन और धरती के प्रति कृतज्ञता कह कर बात नहीं समझी जा सकती. इतने वादों और नारों के बीच भी यह कवि यदि डंटा रहा तो कोई तो बात होगी ही.  यह हिंदी आलोचना की बंदरकूद का ही परिणाम है कि वह सीधे केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन से कूदती है तो बीच के कवियों को छूते नकारते, नवें दशक में प्रवेश करती है. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ गंभीर कवि छूट गए जिसमें भगवत रावत प्रमुख हैं. जबकि शुरुआती दौर में ही यह कवि कविता की जमीं को पहचान चुका था और इसका यह अटल विश्वास था कि देर-सबेर आलोचना यहीं लौटेगी.

भगवत रावत उन विरल कवियों में से हैं, जिन्होंने अपनी जमीन के विस्तार ही, दुनिया को नापा जोखा और दुनिया की मुक्ति के साथ ही अपने लोगों की मुक्ति देखी. यह कवि खुद को इसुरी का हरकारा घोषित करता है और रेनू के हीरामन से इस देश की व्यथा-कथा और आजादी के बाद हुए मोहभंग का एक अलग इतिहास ही रच देता है. ईसुरी का हरकारा हिरामन से जब संवाद करता है तो वह ‘देश एक राग’ लिखता है. लोक के प्रति एक अतिशय मोहशक्ति से मुक्त निरपेक्ष भाव से देखने की यह दृष्टि परोक्ष रूप से उन्हें मार्क्सवाद से मिली है.

भगवत जी की जिस सरलता को हलके में लिया गया दरअसल यही उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है. यह संस्कार उन्हें बुन्देली जीवन से मिला, हाँ कही-कहीं बुन्देली हनक भी. एक विलक्षण जनपदीय बोध के साथ उन्होंने कवितायें लिखीं. समय की परिधि के इस-उस पार देखते हुए अपनी धुरी पर कायम रख कर देखना होगा कि भगवत रावत जिस जीवन को रचते हैं उसमें वे कहाँ होते हैं.

इधर कविता में दो प्रवित्तियाँ साफ़ दिखती हैं. एक तो बाहर सुविधाजनक जगह तलाश कर वहाँ से नैरेशन किया जाय या फिर उसमें घुस कर, रच-बस कर व्यक्त किया जाय. भगवत रावत का जो कविता संसार है उसमें बिना घुसे उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता. लोक में पैठे बिना उस पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है. कविता केवल लोक की छुअन नहीं बल्कि उसकी पूरी अभिव्यक्ति मांगती है. जो भगवत रावत के यहाँ है. कविता में कुछ कवि आलीशान कलाकृतियों से अलंकृत भवनों का निर्माण करते हैं पर ऐसी अकेली और भयावह कि आप उसमें प्रवेश करने से डरें. स्वयं कवि वहाँ नहीं मिलेगा. कुछ कवि कविता में जीवन तलाशते हैं. शिल्प और जीवन इतना रचा-बसा कि एक को भी आपने अलग किया तो सब भरभरा कर ढह जायेगा. वर्तमान समय को केवल ज्ञान की दृष्टि से विश्लेषित नहीं किया जा सकता उसके लिए संवेदना से लबरेज एक मन भी चाहिए.

अगर लोग कहते हैं कि अधिक सहज होने से काम नहीं होगा तो मेरा कहना है कि गढी हुई जटिलता से एक सहज मन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, भले ही एक स्वाभाविक-भावुकता वहाँ ज्यादा हो, पर होगा सब मनुष्यता के पक्ष में ही. भगवत रावत की लंबी कविताओं में आपको शिल्प का विरल कसाव देखने को मिलेगा. वे वर्णनात्मक हो कर भी लौट-लौट कर जिस तरह अपने कथ्य पर आते हैं, वह साधना पडता है तभी वह कविता में आता है.

उनकी एक लंबी कविता है – ‘अथ रूपकुमार कथा’ एक झूठी भावुकता नपुंसक विद्रोह फिर खूंटे पर सुरक्षित हमारा पूरा का पूरा समय ऐसे कितने रूप कुमारों से भरा है. पूरी कविता इसकी अद्भुत व्याख्या करती है. इन रूप कुमारों की दुनिया में कवि जिस दृष्टि और निःसंगता के साथ घूमता है वह कबीर की याद दिलाता है. भले ही भाषा में थोड़ा पीछे खड़ा बात करता है. जैसा केदार नाथ अग्रवाल कहते हैं- ‘सरसों की पांत के पीछे खडा मैं बोलता हूँ.’ भगवत रावत की कविताओं में सब कुछ एक विशेष राग-लगाव के साथ आएगा. उनकी नदी बेतवा आयेगी तो पुरखों को याद करते जो इसके किनारे विलमें हैं. बेतवा आयेगी तो चट्टानी छातियों में धड़कते हृदय आयेंगे. बेतवा किन स्मृतियों से जुड कर एक सम्पूर्ण नदी बनती है, कवि मन में वह सब आएगा.

भगवत रावत निरंतर अतीत, वर्त्तमान और भविष्य के यात्री कवि हैं, उनके यहाँ आपको कहीं भी अकेला अतीत नहीं मिलेगा. एक कवि होने के नाते मुझे बार-बार लगता है भगवत रावत जिस तरह लय को साधते हैं वह नीरस कविताओं के जंगल में भद्दर चैत की गर्मी में बुन्देलखंडी पलाश वन सा उनकी कविताओं को अलग ही रंग देता है. भगवत रावत के यहाँ कविता की मिठास और कसक बिलकुल अपने उसी स्वरुप में है जैसा कि वह होती है.

भगवत रावत की एक कविता है- ‘बाहर जाने की जल्दी’. उसमें खोपरे के टेक का डिब्बा धोखे से लुढक गया है. बच्चों ने टूटे दांतों वाला कंघा कहीं रख दिया है. सब अस्त-व्यस्त है, और उसे जल्दी है कहीं जाने की. इस कविता में केवल एक निम्न मध्यवर्गीय स्त्री का ही जीवन नहीं है बल्कि एक कवि भी अपनी यात्रा पर निकलना चाहता है. और उसके आस-पास ही जरूरी चीजें अस्त-व्यस्त हैं. कविता की यही ताकत अपनी ओब्जेक्टीविटी को सब्जेक्टीविटी में देखती है.

एक कविता ‘व्यथा-कथा’ में कवि कहता है-

सभी के पास होंगी कुछ ऐसी यादें
सभी के पास होंगे बहुत से ऐसे चेहरे
सभी के पास होगा ऐसा ही कुछ
तो मैं कह रहा था कि
इन्हीं सब बातों के बीच
पता नहीं कब मैं कविता करने लगा
ऐसी ही बातों को लेकर मैं
शब्दों के पास गया बेहद डरा-डरा
बहुत धीरे धीरे मैंने उन्हें छुआ.’

इस पूरी कविता में नए सत्य के उदघाटन का कहीं कोई दंभ नहीं. संत कवियों की विनम्रता भगवत रावत के यहाँ जगह-जगह पर मिलेगी. जीवन शामिल विनम्रता भगवत रावत की कविताओं में हर जगह नए रूप में हाजिर मिलेगी. चाहें हीरामन की अधीरता हो या इसुरी का धीरज. हर जगह समय को देखते टटोलते पूरे परिवेश में शामिल उनका कवि समकालीन मुहावरे के साथ हर जगह मिलेगा.

मध्य वर्ग में पनप रही चतुराई और विवशता को भगवत रावत अपनी ‘उधार-नकद’ कविता में पकडते हैं, जहां दुकानदार की दूकान के चलते ही संबंधों की कीमत कम हो जाती है. उधार माँगने के लिए व्यक्ति बैठा व्यक्ति किस तरह दूकान के खाली होने का इन्तजार करता है, जबकि दूकानदार उसे टालना चाहता है. यहाँ पर कवि बाहर से कमेंट्री नहीं करता बल्कि मध्य वर्ग के मन में शामिल होकर उसे पढ़ता है. भगवत रावत बिट, उक्ति-कथन और चमत्कार पैदा करने वाले कवि नहीं हैं. अपनी एक कविता ‘अतिथि कथा’ में तो भगवत रावत खुद को डीक्लास कर सफाई कर्मचारियों के जीवन में उतर जाते हैं. कैसे अतिथि और मेजबानों में शामिल स्त्री-पुरुष डलिया-झाडू रख कलारी के बगल में बैठे समधी का स्वागत करते हैं.

भगवत रावत के यहाँ बुन्देली अपने अलग ठाठ से आती है. केदार जी का भू-भाग तो बुन्देलखंड है पर उनकी बोली अवधी और बघेली से मिली-जुली है. भगवत रावत के यहाँ वह अपने पूरे रंग में आती है. इस तरह भगवत रावत मूल बुन्देली के अकेले प्रगतिशील कवि है. शब्दों का प्रयोग इतना सार्थक है कि पूरी कविता में बस एक शब्द बुन्देली का टाक देंगे और वह कविता बुन्देली की हो जायेगी. अपनी एक कविता ‘एक बार फिर आउंगा’  में कवि कहता है-

आग के गोल गोले से होकर निकलूँगा
आग के दरिया पर तैर कर दिखाउंगा
एक बार फिर काजल की कोठरी में जाऊंगा
और लीकों ही लीकों वाले चेहरे में
और भी खूबसूरत लग कर दिखाऊंगा

अंत में कवि कहता है कि

पुनर्जन्म के बारे में कुछ नहीं जानता
लेकिन कविता में लौटने का भरोसा नहीं होता
तो कब का डूब गया होता.

कवि किसी पुनर्जन्म में नहीं कविता में लौटने की बात करता है. जब कवि स्वयं अपने लिए प्रतिमान तय करता है तभी वह जीवन के उत्स को कविता में ला पाता है. जिससे कविता मनुष्य के सबसे निकट खडी होती है. भगवत रावत जिस मंथर गति से साहित्य के उबड-खाबड को पार कर यहाँ तक पहुंचे हैं उसके मूल में उनकी वही चेतना रही जो कभी सुप्त नहीं हुई. समकालीन कविता की भागदौड से पाठक अगर कुछ थक गए हों तो उन्हें हिंदी में भगवत रावत जैसे सुकून देने वाले कवि कम ही मिलेंगे.

(केशव तिवारी हिन्दी के जाने-माने युवा कवि हैं.)

संपर्क-



केशव तिवारी
पाण्डेय जनरल स्टोर
कचहरी चौक, बांदा
उत्तर प्रदेश


मोबाईल- 09918128631

भगवत रावत

२५ मई २०१२ का मनहूस दिन. हम सबके अजीज कवि भगवत रावत आज नहीं रहे. हमारे अग्रज कवि मित्र केशव तिवारी ने जब यह सूचना मुझे दी तो मैं हतप्रभ रह गया. विगत कई वर्षों से जिस जीवट से वे जिंदगी के लिए मौत से जूझ रहे थे वह अप्रतिम था और इसीलिए जब यह खबर मुझे सुनायी पडी तो मैं सहसा विश्वास नहीं कर पाया. एकबारगी मुझे लगा जैसे मेरा सब कुछ खत्म हो गया.


भगवत दादा बातचीत में कभी भी अपने दर्द का एहसास सामने वाले को नहीं होने देते थे. मैं जब कभी उन्हें फोन करता उनका आत्मीय स्वर तुरंत सुनायी पडता ‘बोलो बेटा.’ मैं पूछता कैसे हैं दादा? वे तपाक से बोलते ‘बढ़िया हूँ.’ हालांकि मुझे पता होता था कि वे काफी तकलीफ में हैं. फिर बढ़िया कैसे होंगे. लेकिन एक अभिभावक के तौर पर वे हमें आश्वस्त करते बढ़िया होने का. साथ ही लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहते. बीच-बीच में उनके स्वास्थ के बारे में मैं उनकी बेटी प्रज्ञा रावत जी से पता करता रहता.


दादा से जब मैंने ‘अनहद’ के लिए कुछ लिखने का आग्रह  किया तो वे तुरंत तैयार हो गए. खराब स्वास्थ के बावजूद उन्होंने ‘अनहद’ के लिए कमला प्रसाद जी पर एक आत्मीय संस्मरण और हमारे आग्रह पर एक लंबी कविता ‘मनुष्यता: एक आधुनिक जातक कथा’ लिखी. दादा ने वह कविता मुझे फोन पर सुनायी और बड़े भोलेपन से पूछा ‘बेटा कविता कुछ बन पायी है?’ हिन्दी के हमारे समय के शीर्ष और बेजोड कवि ने जब मुझ जैसे अदना कवि से ऐसा पूछा तो मैं कैसा महसूस किया होउंगा आप खुद इसका अंदाजा लगा सकते हैं मैंने आभार प्रकट करते हुए कहा कि दादा आपकी एक बेहतरीन कविता है यह. तो दादा ने कहा ‘यह कविता मैंने विशेष तौर पर ‘अनहद’ के लिए लिखी है.’  संभवतः दादा द्वारा लिखी गयी यह अंतिम कविता साबित हुई. क्योंकि इसके बाद दुर्भाग्यवश वे लगातार बीमारियों से जूझते रहे और अंततः हमें छोड़ कर न जाने किस देश को आज चले गए.






श्रद्धांजलिस्वरुप प्रस्तुत है अनहद-२ में छपी भगवत दादा की वह कविता-

‘मनुष्यता: एक आधुनिक जातक कथा.’

मैं कोई सदगुरू तो नहीं
न कोई संत न साधु
उपदेशक तो बिलकुल नहीं
मेरे ही रहने का ठौर-ठिकाना नहीं
तो मेरे नाम का कोई आश्रम कैसे हो सकता है.




न तो मैंने अपने बाल बढाए हैं
न दाढी रखी है
मैं शरीर पर पूरे वस्त्र धारण करता हूँ
उघाड़े बदन रहना मुझे पसंद नहीं
साधु या संत होने का कोई लक्षण मुझमें नहीं है




वैसे भी आजकल साधु संत या उपदेशक
होने के लिए बहुत पापड बेलने पड़ते हैं
जैसे राजनीति के अखाड़े में कूदने के लिए
विनम्रता, सज्जनता, शालीनता आदि
ऊपर-ऊपर दिखने वाले गुणों के इतने
दांव-पेंचो भरे अभ्यास करने पड़ते हैं
कि खुद को अपना चेहरा ही भूल जाता है.




उसी तरह साधु संत बनने के लिए
यह भी भूलना पडता है कि
अंततः आप भी एक मनुष्य हैं
कि आपको भी क्रोध आता है
प्रेम, घृणा,  इर्ष्या सब
आपके भी व्यक्तित्व का हिस्सा है
पर इस सबसे ऊपर उठ कर
निर्लिप्त, निर्विकार
परमहंस की मुद्रा में ही आपको रहना पडता है
और अपने असली रूप को इतना गोपनीय रखना पडता है
कि लोग सर पटक कर मर जाएँ
पर आपका असली चेहरा देख न पायें




सार्वजनिक होने के पहले
आपको बार-बार दर्पण के सामने यह जानने के लिए
जाना पडता है कि किसी भी कोण से आप में
वह तो नहीं दिखाई दे रहा जो असल में है.




होने और दिखने की इस दूरी में
ऐसा संतुलन बनाए रखना
क्या किसी तपस्या से कम है.


… … … … … …




लगता है तुमसे किसी ने कठोर मजाक किया है
और तुम्हें मेरे पास मनुष्यता का पता
जानने के लिए भेज दिया है




तुम्हें देख कर ही लगता है कि तुम
पूर्व जन्म के ऐसे भटके हुए यात्री हो
जिसकी नस्ल अब इस युग में
लगभग लुप्त हो चुकी है
अब कोई कुछ खोजने के लिए यात्रा पर नहीं निकलता
अब तो सबको पहले से वे सारे रास्ते पता होते हैं
जो उन्हें उनके मंतव्यों तक ले जाते हैं
गंतव्यों की जगह
मंतव्यों ने ले ली है




एक समय था जब गुरू अपने शिष्यों को
ज्ञान की खोज में
जंगलों-जंगलों, पहाड़ों-पहाड़ों और नदियों-नदियों
भटकने के लिए छोड़ देते थे
और शिष्य भी इस खोज में जीवन बिता देते थे
लगता है तुम इसी तरह के कोई
शापग्रस्त भटके हुए यात्री हो
और भटकते-भटकते मेरे पास
आ पहुंचे हो, तो भले ही तुम्हारे साथ
मजाक किया गया है, पर
मैं तुम्हारा भरोसा नहीं तोडूंगा
तुम मेरे अतिथि हो


तो फिर ऐसा करो
जाओ गाँव-गाँव शहर-शहर
गली-गली छान मारो
और उस आदमी को किसी तरह खोजो
जो थका मांदा लगभग पराजित और
अपमानित जीवन व्यतीत करता हुआ भी
हारा नहीं हो
और चौतरफा व्याप्त इस अविश्वसनीय समय में भी
इस बात पर अड़ा हुआ बैठा हो
कि एक न एक दिन
उसकी सच्चाई रंग लायेगी
और वह अपने सच के भरोसे जो भी कर रहा हो
या कर पा रहा हो
उसे दुनिया का जरूरी और बड़ा काम मान रहा हो




घड़ी भर बैठ कर उसकी संगत करो
उसके चेहरे पर उग आयी झुर्रियों जैसे
उसके अनुभवों को पहचानने की कोशिश करो
वह किसी और का क्या
अपना पता भी ठीक से नहीं बता पायेगा
पर वह तुम्हारी व्याकुलता समझ सकेगा
और तुम्हें मेहमानों के लिए अलग से रख छोड़ी
किसी पुरानी चीनी की प्याली में
लगभग काढे जैसी चाय जरूर पिलाएगा
उस चाय में जरूर
बची रह गयी मनुष्यता घुली होगी
उसके सहारे खोयी हुई
मनुष्यता का पता खोज सकते हो
तो खोजने की कोशिश करना.




रही मेरी बात
तो मैं एक साधारण सा आदमी
संयोग से तुम्हारी ही तरह मनुष्यता को
शब्दों में खोजता रहा जीवन भर
उन्हीं के पीछे-पीछे भागता दौडता
अब थक सा गया हूँ
पर हारा नहीं हूँऔर इस उम्र तक आते-आते
बड़ी मुश्किल से
अपमान, पराजय, असफलता
संशय, अकेलापन, विफलता
वंचना और करुना जैसे कुछ शब्द ही खोज पाया हूँ
जिसकी अनुभूति में
लगता है कहीं बहुत गहरे में
जा कर छिप गयी है मनुष्यता




अब इन शब्दों की आरती तो उतारी नहीं जा सकती
और न इनको महिमामंडित कर
उसका गुणगान ही किया जा सकता है
फिर भी मैं अब तक
इन्हीं शब्दों की आंच में
जो भी बन पड़ा बनाता पकाता रहा हूँ
और इन्हीं की ऊर्जा से अपना जीवन चलाता रहा हूँ


बार-बार मुझे लगता है कि तुम्हें
मेरे पास किसी ने शरारतन भेज दिया है
अब आ गए हो तो बैठो थोड़ी देर
मैं कम से कम तुम्हें
एक प्याली चाय तो पिला ही सकता हूँ