लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘जनतन्त्र और कुलीनता’।

लाल बहादुर वर्मा



भारत दुनिया का सब से बड़ा जनतन्त्र है। जनतन्त्र की राह में सबसे बड़ा अवरोध होता है– ‘अभिजात्यता-बोध’। ‘अभिजात्यता-बोध’ का मतलब है बड़े होने का एक झूठा-बोध। एक आधार-रहित दंभ। यह दम्भ जातीय, नस्लीय, धार्मिक, विद्वता, धन-संपत्ति आदि से कुछ इस तरह निर्मित होता है, कि हमारे आत्म में गहरे तक पैठ कर जाता है और हमें इसकी भनक तक नहीं लगती। कुल मिला कर यह बोध मानवताविरोधी वह बोध है जो पूरी तरह असमानता और अवमानना की क्रूर भावना पर आधारित है। यह बोध अवैज्ञानिक होने के बावजूद तमाम लोगों में अपनी पैठ बनाए हुए है। दुनिया में इस अवैज्ञानिक और आतार्किक बोध के खिलाफ कई क्रान्तियाँ तक सम्पन्न हो चुकी हैं जिसमें फ्रांसीसी क्रांति सबसे महत्वपूर्ण है। फ्रांसीसी क्रांति जिसका नारा ही था– ‘स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व’। एक समय अंग्रजों तक ने अन्य देशों पर अपने शासन के औचित्य को तार्किक ठहराने के क्रम में ‘व्हाईट मैन्स बर्डन’ का सिद्धांत गढ़ लिया था। कई एक देशों में अंग्रेजी शासन की हकीकत आज सामने है। बहरहाल सच्चे मायने में लोकतन्त्र या जनतन्त्र ही इस नारे को अपने आप में क्रियान्वित करता है। विगत कुछ महीनों से हम पहली बार पर प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के लेख निरन्तर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस बार उनका आलेख इस ‘जनतन्त्र और कुलीनता’ पर ही आधारित है और इसकी तहकीकात करने की एक सफल कोशिश इस आलेख में उन्होंने की है। तो आइए आज पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह महत्वपूर्ण आलेख ‘जनतन्त्र और कुलीनता’।   
             
जनतन्त्र और कुलीनता

लाल बहादुर वर्मा
आज जनतन्त्र की राह में जो व्यवधान हैं, उन पर बात करना चाहता हूँ। 

कुलीनता वैसे तो व्यवधान लगती ही नहीं पर जनतन्त्र की राह में यह बहुत बड़ी बाधा है। पिछले दिनों रोहित वेमुला नाम के विद्यार्थी की आत्म-हत्या देश के सामने बहुत से सवाल छोड़ गयी। सोचने पर मुझे यह लगता है कि वह भी कुलीनता का ही शिकार हुआ। इस समय में हर वह व्यक्ति कटघरे में खड़ा है, जो कुलीनता के केवल सकारात्मक पक्ष को देखता है। कुलीनता एक सकारात्मक रूप से इतना प्रेरक शब्द लगता है कि सब लोग कुलीन हो जाये तो क्या बुरा है? लेकिन कुलीनता के मर्म में जो विभाजकता है। सब कुलीन नहीं हो सकते, क्यों कि सब कुलीन हो जायेंगे तो कुलीनता का मतलब नहीं रह जायेगा। 

कुलीन की व्याख्या करने के लिए जरूरी है कि बहुत से लोग अकुलीन हो। कुलीन की व्याख्या करने से पहले यह बता दूं कि कुलीनता का मतलब है, जन्म पर आधारित श्रेष्ठता। आप चाह कर कुलीन नहीं बन सकते। भले ही बड़े धर्मात्मा हों। जैसे-मुझे नहीं लगता कि अम्बेडकर को कोई कुलीन कहेगा, चाहें उन्हों ने कितना भी श्रेष्ठ काम क्यों न किया हो? गाँधी को भी पारम्परिक कुलीनों ने कुलीन नहीं माना, भले ही मजबूरी में पैर भी छूते रहे हो। इसका सम्बन्ध सारी दुनिया में खानदानियत से है। इस तरह के मुहावरे भी बने हैं, जैसे-अच्छे खून का मालूम पड़ता है, जब कि खून तो अच्छा या बुरा होता नहीं है। इस तरह कुलीनता या श्रेष्ठता-बोध हमारे जन-तन्त्र को कैंसर की तरह ग्रसे हुए है। जिसका हाल-फिलहाल कोई इलाज नहीं दिख रहा है।

पिछले 200 वर्षों में मानवता ने जो कुछ अर्जित किया है, वह पिछले 2,000 सालों में नहीं हो सका। आज दुनिया में जितने लोग प्रबुद्ध हैं, उतना आज से पहले की नहीं थे और यह सब जन-तन्त्र के कारण ही सम्भव हो सका। हिटलर ने भी जन-तन्त्र की दुहाई दी, एक ऐसे जन-तन्त्र की जहाँ आर्यों की श्रेष्ठता बनी रहे। उसने भी कुलीनता को ही हथियार बनाया। आर्य जाति को ही एकमात्र कुलीन जाति कहा और उसने कहा कि जो सबसे कुलीन हैं, जो सबसे श्रेष्ठ हैं, उसे ही राज करने का अधिकार मिलना चाहिए और पहलू यूरोप पर फिर सारी दुनिया पर वह अपना तन्त्र लादता रहा, लेकिन आर्यों के हित में जन-तन्त्र की ही बात करता था। नेपोलियन ने सारे यूरोप को जीतने के बाद एक राजघराने में शादी की। महज इसलिए कि वह न सही उसकी सन्तान कुलीन मानी जाये। परिवारवाद जो जनतन्त्र के मार्ग में खड़ा है। वह सारतः क्या है? अपने को कुलीन मान कर अपने ही द्वारा शासन चलाते रहने की एक बहुत बेतुकी और अलोकतान्त्रिक कोशिश है।
इलाहाबाद में जो भी छात्र सिविल सेवा की तैयारी करने आते हैं, वह एक अर्थ में कुलीन बनने आते हैं और यह कुलीनता केवल सकारात्मक अर्थों में श्रेष्ठ बनने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह दूसरे को धक्का दे कर आगे बढ़ने वाली श्रेष्ठता है। प्रतियोगिता तो कुलीनता का ही प्रपंच है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहाँ जो जीतने के लिए साथ वालों को लंगड़ नहीं मारी जा रही।

जो लोग जन्मना कुलीन हैं, वह संस्कृति में, नीतियों, वे यह प्रयास करते हैं कि कुलीनता को नियमबद्ध करें। जाति प्रथा और क्या है? इस से भारत की प्रतिभा का कितना नुकसान हो रहा है कि हम सभी से लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
जनतन्त्र केवल कुछ लोगों के श्रेष्ठ होने से फलीभूत नहीं हो सकता है। जन-तन्त्र का मूल तत्व है, समानता और स्वतन्त्रता और इन दोनों के समन्वय से पैदा हुआ भ्रातृत्व। जन-तन्त्र में पूरा समाज अपने को रचता है, उस में कोई राजा, कोई पुरोहित समाज को नहीं रचता है, बल्कि उसे ऐसे अवसर प्रदान किये जाते हैं कि वह रच सके। कुलीनता, संकीर्णता, अज्ञान और अंधविश्वास अवसर को खत्म करते हैं, प्रतिभा को खत्म करते हैं। राज-तन्त्र आपको आपकी सम्भावनाओं से परिचित नहीं होने देता है। जन-तन्त्र ऐसी व्यवस्था है, जो आप को, आप की सम्भावनाओं से परिचित कराती है। मैं स्थापित जन-तन्त्र का प्रवक्ता मात्र नहीं हूँ। जन-तन्त्र जीवन में, विचारों में होना चाहिए। मैं ऐसे जनतन्त्र की बात कर रहा हूँ, जो पूरी दुनिया को सर्जक बनाता है, सृजनशील बनाता है। 
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(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’।


लाल बहादुर वर्मा

भूमंडलीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक टर्म है जिसने समूची दुनिया को कई अर्थों में सीमित कर दिया है। इस आधुनिकता ने एक तरफ जहाँ दुनिया को एकरूप बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है वहीँ इसने कई दिक्कतें भी पैदा की हैं। कहना न होगा कि आज के ताकतवर और साम्राज्यवादी मानसिकता के देश इसका अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं। इन्हीं सन्दर्भों में इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि ‘साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए।’ पहली बार पर हम प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के आलेखों को श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनका यह आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’। 
भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
आजकल भूमंडलीकरण का प्रतिकार सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरोध से ज्यादा होता लग रहा है। तो क्या भूमंडलीकरण उसी श्रेणी की परिघटना है और उतनी ही जन विरोधी, ‘आउट ऑफ डेट’ और प्रतिकार्य? प्रायः समझा यही जा रहा है। पर यह गलत है।
क्या भूमंडलीकरण- सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की तरह गलत है और उसे भी सिद्धान्त और व्यवहार में नकारा जा सकता है? नहीं, कतई नहीं और यही समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण न तो पूरी तरह गलत है न तो चाह कर भी, सारी ताकत लगा कर भी, उसे समाप्त किया जा सकता है। ऐसा करना न केवल संभव नहीं, वांछित भी नहीं है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाजारीकरण आज के पूँजीवाद की प्रकृति को चिन्हित करने के सरलीकृत सूत्र मात्र है। यह सब तो पूँजी की प्रकृति में निहित है- जब से पूँजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ यह सब होता रहा है। आज भूंमडलीकरण का विशेष अर्थ पूँजी का भूमंडलीकरण है पर इतना ही कहना पर्याप्त नहीं। आज का पूँजीवाद पहले से अधिक जटिल, अधिक आक्रामक, अधिक ग्लैमराइज्ड, अधिक व्यापक तथा अधिक सूक्ष्म और सांस्कृतिक हो गया है और इसी लिए पहले से अधिक खतरनाक और इतिहास विरोधी हो गया है।
भूमंडलीकरण वास्तव में आधुनिकता की लाक्षणिकता है और आधुनिकता पूँजीवाद ही नहीं समाजवाद में भी चरितार्थ हुई है। इसलिए भूमंडलीकरण पूँजीवाद के लिए ही नहीं, समाजवाद के लिए भी अनिवार्य है। दूसरे, भूमंडलीकरण को न केवल रोका नहीं जा सकता, भूमंडलीकरण आर्थिक ही नहीं राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी चरितार्थ होता है और होगा ही। मुद्दा यह है कि वह किसके द्वारा किसके हित में कार्यान्वित होता है। तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भूमंडलीकरण और केन्द्रीयकरण न पर्यायवाची हैं न अनिवार्यतः पूरक। ऐसा भी भूमंडलीकरण संभव है जो विकेन्द्रीकरण और संघवाद (फेडरलिज्म) के सार को प्रोन्नत करे। समाजवादी भूमंडलीकरण का यही लक्ष्य होना चाहिए।
भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि विश्व संस्कृति का- अपने तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं के साथ, निर्माण नई विश्व व्यवस्था के साथ पिछले दशक में शुरू नहीं हुआ। वह पांच सौ वर्षों से जारी है।
उसकी गति विज्ञान और टेक्नालॉजी के विकास के साथ-साथ तेज होती गई है। शासक वर्ग की संस्कृति का वर्चस्व बनता-बढता गया है। आधुनिक काल के प्रारंभ में जब राष्ट्र-राज्य यूरोप में विकसित हुए, संस्कृति राष्ट्रीय होने लगी और सत्ता का चरित्र जब अन्तर्राष्ट्रीय हुआ तो संस्कृति भी अंतर्राष्ट्रीय हो गई। आज शासक वर्ग वैश्विक होता जा रहा है इसलिए बदनीयत और बाजारू शासकों की संस्कृति का वैश्वीकरण भी बाजारू और बनावटी है। नतीजे में संस्कृति के मर्म-सृजनशीलता और उदारीकरण का क्षरण उजागर होता जा रहा है।
एक एकांगी और विकृत भूमंडलीकरण के रू-ब-रू व्यक्ति-समुदाय-राष्ट्र सभी असहाय होते जा रहे हैं। स्थानीय, राष्ट्रीय और बाहुल (प्यूरल) यथार्थ के सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है।
पूँजीवाद के व्याख्याकार इसी भूमंडलीकरण को अनिवार्य ही नहीं निर्द्वन्द्व, सर्वशक्तिमान और रामबाण की तरह उद्धारक करार देने में लगे हुए हैं। सिद्धान्ततः ऐसी स्थिति में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता को अप्रासंगिक होते जाना चाहिए था। पर पूँजीवाद उसके पोषण को मजबूर है। आखिर क्यों? इस लिए जिस तरह से अपने इतिहास के सर्वोत्तम काल फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान सामन्तवाद से क्रान्तिकारी ढंग से सत्ता छीन लेने के बाद भी पूँजीवाद ने सामन्तवाद से समझौता कर लिया था और दो सौ वर्षों से उसे जिलाए रखे हुए है। उसे पता है कि सामन्तवाद की मौत हो गई तो मेहनतकशों से उसकी सीधी टकराहट होगी जिसे सम्भालना असंभव हो जाएगा। अभी तो सामन्ती संस्थाओं और संस्कारों में जकड़ा मेहनतकश भी व्यक्ति और वर्ग के रूप विभाजित रहता है और अपने नैसर्गिक शत्रु पूँजीवाद पर भरपूर संगठित प्रहार नहीं कर पाता। आज पूँजीवाद के तथाकथित  और घोषित एकक्षत्र वर्चस्व के दौर में फंडामेंटलिज्म’, तरह-तरह की संकीर्णताओं और जादू-टोने अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलना- यहाँ तक कि उनका राजनीतिक इस्तेमाल, क्या अनायास हो रहा है? व्यक्ति और समाज में ज्यों-ज्यों तर्कशीलता और विवेकशीलता बढ़ती जा रही है रूढिग्रस्तता, नियतिवादिता और प्रतिक्रियावादिता को कमजोर होते जाना चाहिए। ऐसे तो जन विरोधी शक्तियों का प्रभुत्व ध्वस्त हो जाएगा। इसलिए तात्कालिक लाभ के लिए आत्मघाती पिछड़ेपन को भी प्रोन्नत किया जाता है। पूँजीवाद ऐसा पहली बार नहीं कर रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसी के द्वारा पैदा की गई स्थितियों में जब इटली, जर्मनी और स्पेन में फासीवाद उभरा तो उसे इस लिए पोसा गया था ताकि रूस की समाजवादी क्रान्ति के विरुद्ध उसका इस्तेमाल किया जा सके। जब हिटलर ने फ्रांस और इंगलैण्ड को हड़पने के लिए आक्रमण शुरू किया तब जा कर उन्हें भस्मासुर के जन्म की अर्थवत्ता समझ में आई।
आज भूमंडलीकरण के बाढ़ में सबसे सुगठित संस्था राष्ट्र-राज्य पूँजीवादी बांध में भी दरार पड़ने लगी है। सोलहवीं शताब्दी से ही राष्ट्र-राज्य पूँजीवाद के गढ़ के रूप में मजबूत होता गया था। उसकी दमनकारी भूमिका बढ़ती गई। उसके विरुद्ध क्रान्तियां तक हुई,  पर समाजवादी क्रान्ति के बाद भी राज्य, जिसे विलुप्त होते जाना था, कमजोर नहीं हुआ। पर आज भूमंडलीकरण और अमरीकी वर्चस्व के जमाने में राज्य की सार्वभौमिकता लड़खड़ाने लगी है। भारतीय राज्य भी कितनी ही बार अपनी सार्वभौमिकता के साथ समझौता करता लगता है। व्यक्ति की बढ़ती आत्मकेन्द्रिता अजनबियत और बढ़ने न पाये इसके लिए विघटनकारी शक्तियों को पोसा जा रहा है। बढ़ती उद्धतता और बेहया आक्रामकता का प्रतिकार वर्तमान जीविता हर तरह की सामुदायिक और सामाजिकता को कमजोर कर रही है। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। अनिवार्य और नैसर्गिक अन्तर-संबंध विकृत और विरूपित होते जा रहे हैं। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी, जो प्रगति के सूचक और वाहक हैं, आज प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
परन्तु दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक ही नहीं सांस्कृतिक प्राणी भी है जैसे मनुष्य नैसर्गिक रूप में सामाजिक है वैसे ही सांस्कृतिक भी। संस्कृति प्रबुद्ध और भद्रलोगों की बपौती नहीं। वह हर व्यक्ति की नैसर्गिक लाक्षणिकता है। संस्कृति मानव समाज का नैसर्गिक सम्बल है। वहीं अश्वमेध के घोड़ों की रास थाम ली जाती है। राम कितना ही आततायी हो लव-कुश का दमन-दलन संभव नहीं। मतलब यह कि संस्कृति के क्षेत्र में प्रतिकार को रोका नहीं जा सकता। तो फिर बीड़ा उठाने के लिए क्या करना होगा?
सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि इतना जोर जानने पर क्यों है। सारी सूचना क्रान्ति का मन्तव्य क्या है? जाहिर है कि बौद्धिक प्रक्रिया-सूचना, ज्ञान, विवेक में सूचना सबसे निम्न स्तर का काम है। जानने को सर्वोतम प्राप्य के रूप में स्थापित करने का उद्देश्य यह है कि समझने की अर्थवत्ता समझ में न आवे। समझने से निर्णय ले पाने यानी विवेक का द्वार खुलता है और विवेक शासकों के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। तभी तो अगर इर्न्फोरमेशन से बात आगे जाती भी है तो नॉलेज पर रोक लगा दी जाती है- कहा जाता है – नालेज इज पावर। पूछा जा सकता है कि विजडम इज पावरक्यों नहीं। सारांश यह कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सूचना के वर्चस्व और केन्द्रीकरण का विरोध होना चाहिए। कार्यभार के रूप में क्विज कल्चरके मर्म को समझना चाहिए और उसके स्वरूप को बदलने और वैकल्पिक माध्यम विकसित करने के प्रयास होने चाहिए।
दूसरा मुद्दा सुख और आनंद का है। आज सारी दुनिया में, विशेष कर भारत जैसे देशों में, उन्हें सम्पति और भोग-विलास से जोड़ कर ही देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कुछ लोग इससे ऊब कर पराभौतिक आनन्द की तलाश में जुटते हैं जैसे- यूरोप, अमरीका के कुछ लोग जिनका मोहभंगहो जाता है। कुछ लोग दान-दक्षिणा-भजन-कीर्तन- तीर्थ-यात्रा में अपराध-बोध से रास्ता तलाशते हैं- जैसे भारत का मध्य वर्ग। दोनों ही अतिरेकपूर्ण रास्ते मीडिया के प्रिय विषय हैं और इनको तरह-तरह से प्रोन्नत किया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि आज सम्पत्ति, सुख, आनन्द आदि की अर्थवत्ता स्पष्ट की जानी चाहिए और समाजशास्त्र में, शिक्षण जगत में, इस पर जोर दिया जाय कि विकास वैयक्तिक है और आनन्द सामुदायिक तथा भौतिक आनन्द का सबसे बड़ा उत्सव सहभागिता है।
एक बड़ी सांस्कृतिक चुनौती आज की विडम्बनाओं से उबरने की है। आज आतंकवाद के विरुद्ध सबसे ऊंची आवाज उस की है जो दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी है। आज मानवाधिकार हनन का मुद्दा वह उठाता है जो सबसे व्यवस्थित और नियोजित ढंग से उसका हनन करता है। आज जनवाद का सबसे बड़ा हिमायती होने का दावा और दलील वह देश करता है जो दूसरे देशों में ही नहीं स्वयं अपने देश की भी उन जनवादी परम्पराओं का उल्लंघन कर रहा है, जिन्हें पूँजीवादी से बहुत गर्व से संजोया है। जो जनवाद आधुनिकता का अनिवार्य लक्षण है, जिसका विकास मानव की मुक्ति-कामना से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है, जिसके लिए संघर्ष से मानव समाज ने नई बुलंदियां दी है। वह न केवल ठहराव का शिकार है बल्कि उसका क्षरण हो रहा है। इसलिए साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ सबसे बड़ा मोर्चा जनवाद का है। यह न केवल पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विकृतियों के विरुद्ध है अपितु समाजवादी भटकावों के भी खिलाफ जरूरी आधार प्रस्तुत करता है। इस से भी सामान्य जन के लिए कार्यभार निकलता है। आज जनवादी परिवार विकसित करना एक आधारभूत कार्यभार है, किसी भी तरह के नवजागरण और सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए।
भूमंडलीकरण के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट भाषा को ले कर भी पैदा हो रहा है। आज अंग्रेजी भूमंडलीकरण का उपकरण बन रही है। इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी ही बनती जा रही है। पर यह संयोग ही है कि अंग्रेजी अमरीका की भी भाषा है। इसमें अंग्रेजी का क्या दोष? ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी का विश्वव्यापी प्रचार हुआ। पहले न अंग्रेजों के राज्य में कभी सूरज डूबता था न अंग्रेजी के। अंग्रेजों का राज तो खत्म हुआ पर अंग्रेजी का बना रह गया। इसमें अंग्रेजी भाषा-साहित्य की प्रकृति का भी योगदान है। आज भी अंग्रेजी दुनिया की सबसे लचीली और जज्ब करने वाली भाषा है। हर साल सारी दुनिया की भाषाओं में सैकड़ों शब्द और मुहावरे अंग्रेजी में आत्मसात किए जाते हैं और शब्द कोशों का विस्तार होता जाता है। अब अंग्रेजी को नकारा नहीं जा सकता पर अपनी-अपनी भाषा-साहित्य के समुचित विकास में जुट जाने की चुनौती स्वीकारी नहीं जा सकती है। उदाहरण के लिए हिन्दी या तो पिछलग्गू और पिछड़ी होने को स्वीकार ले या फिर बीड़ा उठा ले। वर्तमान स्थिति में हिन्दी के साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस चुनौती और उससे निकलने वाले कार्यभार की अर्थवत्ता के अहसास, समझ और संकल्प से लैस नहीं दिखाई पड़ते। आज विश्व के श्रेष्ठ लेखन का हिन्दी में अनुवाद मौलिक रचना से कम महत्वपूर्ण नहीं है– कभी-कभी तो वह श्रेष्ठ और आवश्यक मौलिक रचना की पूर्व शर्त लगाता है। हिन्दी मनीषा की गहराई-ऊंचाई-विस्तार के लिए अनिवार्य है कि वह दुनिया के अधुनातन और श्रेष्ठतम से परिचित हो। यह अंग्रेजी अनुवादों की घटिया अनुवादों यहाँ-वहाँ से उड़ाए गये उदाहरणों और ‘अंधों में कनवा राजा’ की मानसिकता से संभव नहीं।
कुल मिला कर आज का विकृत और एकांगी भूमंडलीकरण लोगों में परायापन और असहायता भर रहा है- विकल्पहीनता (THERE IS NO ALTERNATIVE, TINA FACTOR) की ओर ले जा रहा है। ऐसे में पहला जरूरी काम तो यही है कि अपने को, अपनों को, सब को विश्वास दिलाया जाय कि विकल्प बाकी है, एक और संसार संभव है और उसे रचना आवश्यक है और उसे हम ही रच सकते हैं।
संकट आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का है।
मानवता के शत्रु भूमंडलीकरण को अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका जवाब राष्ट्रवाद पर जोर नहीं, समाजवादी भूमंडलीकरण की दिशा है। साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए। आज सृजन और संघर्ष दोनों का परिप्रेक्ष्य विश्वव्यापी होना चाहिए।
अगर भारत केन्द्रित कोई रणनीति बनती हो तब भी यह जानना आवश्यक है कि भारत प्राचीन काल में संसार में किसी क्षेत्र में पिछड़ा नहीं था मध्य काल में दुनिया के मुकाबले न यहाँ की अर्थव्यवस्था पिछड़ी थी, न राजनीति, न संस्कृति, विषमता और अमानवीयता के बावजूद फिर आधुनिक काल में यह क्यों पिछड़ता चला गया? इसके लिए सामन्ती जकड़ पर्याप्त व्याख्या प्रस्तुत नहीं करती। मुख्यतः सामन्ती रूस में पूँजीवादी क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति हुई। सामन्ती चीन में नाजीवादी, फिर समाजवादी क्रान्ति और फिर पूँजीवादी प्रति क्रान्ति हुई। भारत ‘न तीतर न बटेरबना रहा। आखिर क्यों? क्योंकि यहाँ यही घातक जाति व्यवस्था थी और अठारहवीं शताब्दी में ही औपनिवेशिक राज्य कायम हो गया। और धीरे-धीरे विदेशी शासकों को भारत में माई-बाप मान लिया गया। यहाँ मध्य वर्ग और पूँजीवाद भी पनपा पर पंगु और पराधीन ही बना रहा। भगत सिंह के पहले किसी ने पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो कर व्यवस्था परिवर्तन की बात भी नहीं उठाई। यहाँ कांग्रेस ही नहीं कम्युनिस्ट भी प्रायः परमुखापेक्षी बने रहे- नेतृत्व के लिए कभी इंग्लैण्ड तो कभी रूस तो कभी चीन का मुंह ताकते रहे।
आज के हालात में बची-खुची स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता भी छिन जाने का नहीं, समर्पित कर दिए जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए आज के सांस्कृतिक आन्दोलन को व्यापक सृजनशीलता, संघर्ष और साझेदारी विकसित करना पडे़गा। ऐसी चेतना और कार्यक्रम आज जीवन के लिए पूर्व-शर्त से बन गए हैं।
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प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘राहुल : जो भागा नहीं दुनिया को बदलने में लगा रहा’।

राहुल सांकृत्यायन


एक व्यक्ति कितने आयामों वाला हो सकता है इसे समझने के लिए हमें राहुल सांकृत्यायन के पास जाना पड़ेगा। एक सचमुच का क्रान्तिकारी व्यक्तित्व जिसने अपने जीवन में ही असंभव को संभव कर दिखाया। एक ऐसा व्यक्ति जो लेखन के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहा। राहुल के इस विविध आयामी या कह लें हरफनमौला व्यक्तित्व पर एक नजर डाली है प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘राहुल : जो भागा नहीं दुनिया को बदलने में लगा रहा’। 
     
राहुल : जो भागा नहीं दुनिया को बदलने में लगा रहा

लाल बहादुर वर्मा 
मुझे तनिक भी अनुमान नहीं था कि इसी आदमी का विकास उस राहुल सांकृत्यायन के रूप में होगा जिसे मैं आज जानता हूँ – एक ऐसा मनुष्य जो बुद्ध से मिलता-जुलता है, जो जीवन मात्र के प्रति दुर्भावना से युक्त है जिसका दृष्टिकोण विश्वव्यापी है, जो पूर्णरूप से सुस्थिर और शांत है, जिसके दृष्टिकोण आपसे आप दौड़ पड़ते हैं, जो अगर कहे कि ‘मेरे पीछे आओ’ तो मनुष्य उसके पीछे उसी प्रकार चल पड़ेगा जैसा वह गौतम या ईसा मसीह के पीछे चलता था। यह लिखा है राहुल के अभिन्न मित्र पटना के विख्यात वकील और इतिहासकार के. पी. जायसवाल ने। दोस्तों को दोस्त में बड़प्पन दिख सकता है पर पैगम्बर नहीं। पर राहुल का बड़प्पन भी ‘बड़ा’ था। कभी किसी के प्रति दुर्भावना न रखना, किसी से भी आहत न होना, न ही आहत करना, यह तो संता है। हिन्दी के सबसे सफल समीक्षक राम विलास शर्मा उनके पीछे ही पड़ गए थे पर राहुल ने उनके विरुद्ध एक भी शब्द न कहा न लिखा।
हिन्दी दुनिया की भाषाओं को कौन कहे स्वयं भारत की भाषाओं के बीच कम विकसित मानी जाती है पर भारतीय ही नहीं दुनिया की शायद ही किसी भाषा में कोई राहुल सांकृत्यायन जैसा लेखक होगा। किसी एक लेखक ने किसी एक भाषा को विविध रूप से इतना नहीं समृद्ध किया होगा जितना अकेले राहुल ने हिन्दी को। ऐसे बहुरूपी विभूति का साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार साबित हो सकता है, क्योंकि उसे जानते हुए हम अपने को जान सकते हैं, संवार सकते हैं जैसे उसने अपने को अपने बूते संवारा था।
राहुल एक विकासमान व्यक्तित्व, एक व्यापक संस्था और एक जन समर्थक आंदोलन जैसा है। वह भारत के नव जागरण का प्रतीक लगता है तमाम सीमाओं और संभावनाओं के साथ।
राहुल भारत के नव जागरण के प्रतीक लगते हैं।
अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक डॉ. जानसन ने एक बार दूसरे प्रसिद्ध लेखक गोल्ड स्मिथ के बारे में कहा था : ऐसा कुछ भी नहीं जिस पर गोल्ड स्मिथ ने न लिखा हो और वह स्वर्णिम ने हो। इस कथन में अतिरेक है पर यह बात राहुल के बारे में कही जाय तो अतिशयोक्ति की मात्रा कम हो जाएगी। उनके लिखे 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 8 नाटक, 17 जीवनियां, 5  भागों में मेरी जीवन यात्रा’, 24 यात्रा वृतान्त, 9 निबंध संग्रह, 8 राजनीति संबंधी पुस्तकें, 1 विज्ञान, 1 समाज शास्त्र, 3 दर्शन, 1 लोक साहित्य के इतिहास पर ग्रन्थ प्रकाशित है। इसके अलावा तिब्बती पर 5 संस्कृत पर 5 तथा शब्दकोश पर 2 पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने 20 ग्रन्थ सम्पादित किए तथा 11 ग्रन्थों के अनुवाद किए। कितनी ही रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं । और न जाने कितनी रचनाएं अभी तक अप्रकाशित हैं। केवल संख्या की दृष्टि से इतने ग्रन्थ लिखने वाला व्यक्ति असाधारण होगा और फिर ये ग्रन्थ अगर गुणवत्ता में भी महान हों-पथ प्रदर्शक हों, तो फिर क्या कहने।
राहुल शैव थे, शाक्त थे, वैष्णव थे, कर्मकांडी थे। आर्य समाजी थे, बौद्ध थे और अन्ततः कम्युनिस्ट थे।
राहुल यायावर थे, साहित्यकार थे, इतिहासकार थे, असाधारण अध्येता थे, पुरातत्वेता थे, भाषाविद् थे, किसान नेता थे और भी बहुत कुछ, सब एक साथ, परन्तु सब से बढ़ कर एक बेहतरीन इन्सान थे।
सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल एक सामाजिक परिवर्तन के सिपाही और सिपहसालार थे- आजीवन युद्धरत, व्यक्तिगत जीवन तथा सामाजिक जीवन में विचारों तथा कार्य व्यापार में।
आत्मशक्ति व्यक्ति के विकास की कितनी अनन्त सम्भावनाएं खोल सकती है राहुल इसके अनन्य प्रमाण थे। वस्तुगत स्थितियां शायद ही कभी उनके अनुकूल रही हों पर आत्मगत शक्ति की मानो उनके हाथ में लगाम हो- जिधर चाहा मोड़ दिया। व्यक्ति के विकास में जिन संस्थाओं-संगठनों की भूमिका होती है उनमें कम्यूनिस्ट पार्टी जैसा समग्र और सर्वव्यापी, साथ ही अत्यन्त संवेदनशील और सहानुभूति की सम्भावनाओं से सम्पन्न दृष्टिकोण और किसी का नहीं होना चाहिए। राहुल की घर-परिवार-मठ-मंदिर ने तो कोई खास मदद नहीं की, कम्यूनिस्ट पार्टी ने भी नहीं की-उल्टे समस्याएं ही पैदा कीं। इस सबके बावजूद उनकी गाड़ी आगे ही बढ़ती गयी। जब तक शारीरिक और मानसिक शक्ति ने साथ दिया उन्होंने सामाजिक सम्पृक्ति नहीं छोड़ी- विकास मार्ग पर तिल-तिल या ताड़-ताड़ आगे ही बढ़ते रहे। 
यायावर : प्रकृति प्रेम और अध्ययन-व्यसन ने उन्हें घर का नहीं रहने दिया। तीर्थों-मठों-मंदिरों से होते हुए उन्होंने देश की कई-कई बार मानों परिक्रमा की। फिर अवसर आते ही उन्होंने एशिया और यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा की, जहाँ भी गए वहाँ के बारे में विस्तार से लिखा, और उन्हें भी यात्रा करा दी जो वहाँ कभी नहीं जा सकते थे। उनके लिए कोई जगह नई नहीं थी।
रूस के श्चेर्बात्सकी और इटली के तूची नामक विद्वानों की दृष्टि तिब्बत पर लगी थी। पर वे असफल हो रहे थे। राहुल ने प्रच्छन्न तरीकों का भी इस्तेमाल कर तिब्बत से न केवल बहुमूल्य ग्रन्थ-राशि उबारा, उस क्षेत्र को प्रकाश में ला कर उसे भी उबारा। 1930 में तिब्बत पहुँचे जो एक अज्ञात (‘टेरा इनकागनिटो’) क्षेत्र कहलाता था और अत्यन्त दुर्गम था। 1935 में वह यूरोप गए। फिर उन्होंने रूस और चीन की यात्राएं की।
जहाँ भी गए ‘टूरिस्ट’ की तरह महज घूमे नहीं उन क्षेत्रों को, वहाँ के इतिहास-भूगोल समाज को समझा और ग्रन्थ लिखते गए ताकि दूसरे लोग भी घूमने-समझने का आनन्द ले सकें। ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘जापान’, ‘ईरान’, ‘रूस में पच्चीस साल’, ‘एशिया के दुर्गम खंडो में’, ‘किन्नर देश’, ‘कुमायूँ’, ‘गढ़वाल’, ‘नेपाल’, ‘हिमाचल प्रदेश’, ‘जॉनसार-देहरादून’ जैसे ग्रन्थ पूरे नहीं पड़े और 5 खण्डों में ‘मेरी जीवन यात्रा’ लिख यात्रा को पूरा अर्थ प्रदान किया। और यह पर्याप्त न मान एक ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ लिख सैद्धान्तीकरण भी कर दियाः ‘घुम्मक्कड़ी के लिए चिन्ताहीन होना आवश्यक है और चिन्ताहीन होने के लिए घुम्मकड़ी भी आवश्यक है।’ सार संकलन किया :  दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी, घुमक्कड़ से बढ़ कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता।’
आधुनिक भारत का नवजागरण पूरी तरह फूला-फला राहुल में। पिछड़े भारत के एक बेहद पिछड़े इलाके आज़मगढ़ के गाँव में एक किसान के घर एक होनहार बालक जन्म लेता है, उसकी जिज्ञासु और घुमक्कड़ी प्रवृत्ति उसे बेचैन रखती है। घर भी उसे बंधन लगता है। वहाँ से वह भागता है और फिर तो जीवन भर भागता फिरता है कि कैसे बदले वह यह बांधती दुनिया। पर जीवन के अंतिम दिनों में वह बंधन स्वीकार लेता है। घर परिवार गृहस्थी और शुरू हो जाता है अवसान और एक सदा-मुखर व्यक्तित्व बेजुबान हो जाता है। पल-पल-चपल राहुल, अस्थिर पांवों वाला राहुल असहाय विस्तर पर? एक असहाय यायावर! 
राहुल जीवन-जगत के निकट देखना-समझना शुरू करता है, छान मारता है दिग्-दिगन्त, विचार-दर-विचार। सनातन धर्म से आर्य समाज, बौद्ध धर्म होता हुआ मार्क्सवाद तक पहुँचता है और वहाँ टिकता है- पर वहाँ भी किसी रूढ़ि में नहीं फँसता। इस दौरान वह अपना विस्तार करता जाता है। एक गंवार विद्यार्थी जो डिग्री को कौन कहे एक सर्टिफिकेट तक नहीं प्राप्त करता वह विश्वविद्यालयों में ज्ञानी प्रोफेसर नियुक्त होता है। दुनिया में पंडितों की भरमार है पर ‘महापंडित’ अकेला है महापंडित राहुल सांकृत्यायन। कनैला के केदार का महारूपांतरण भारतीय समाज की संभवानाओं का सूचक और प्रतीक है कि अगर शेरपा तेनसिंह एवरेस्ट पर चढ़ सकता है तो गाँव का किसान-बच्चा भी ज्ञान के उच्चतम शिखरों पर सवार हो सकता है। यही नहीं, ऐसा ज्ञानी पंडित जनसंघर्षों में जमीदार की लाठी भी खा सकता है और जेल भी जा सकता है और उस लठैत को कुसूरवार भी नहीं ठहराता जिसने उस का सिर फोड़ दिया था। राहुल के अनुसार लठैत भी तो जमींदार के हाथ में लाठी की ही तरह तो था- जब लाठी का कुसूर नहीं तो लठैत का भी नहीं।
राहुल पेशेवर इतिहासकार नहीं था। पर उसने जब ‘मध्य-एशिया का इतिहास’ हिन्दी में लिखा तो बहुतों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखा। उसने क्या नहीं लिखा- कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, जीवनी, यात्रा संस्मरण, इतिहास, भूगोल-दर्शन, विज्ञान। क्या कुछ नहीं लिखा राहुल ने और वह भी हिन्दी में। हिन्दी वाडग्मय प्रेमचंद, निराला से ही नहीं बनता, उस में राहुल की भूमिका अनन्य है, जैसे अंग्रेजी साहित्य केवल शेक्सपीयर के नाटकों से नहीं बनता, उसे न्यूटन का विज्ञान पर और एडम स्मिथ का अर्थशास्त्र पर लेखन भी गढ़ता है।
नेपोलियन ने इतिहास को विवेक कहा था। उसका मतलब रहा होगा इतिहास से सीख लेकर हम अपने आचार-व्यवहार को बेहतर बना सकते हैं। पर वास्तव में ऐसा हो पाता है क्या? कितना प्रचलित मुहावरा है- ‘दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है’, यानी अपने अनुभव के आधार पर सावधानी बरती जाती है। पर यह तो सही सीख नहीं कि छाछ को भी फूँक-फूँक कर दिया जाय। इस तरह सवाल इतिहास से सीखने का ही नहीं, सही सीख लेने का है। 
व्यक्ति की तरह समाज में भी अपने इतिहास से सहज भाव से सही-गलत सीख लेने की प्रवृत्ति होती है। पर संकट और संक्रमण के समय व्यक्ति और समाज खास तौर से अपने अतीत के किसी खास व्यक्ति, घटना या परिघटना को याद करते हैं। आज का समय सारी दुनिया में संक्रमण का है। सारे पुराने मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएँ प्रश्नों के घेरे में हैं और नई राहें प्रशस्त नहीं हो पा रही हैं। भारत में नवजागरण की बात की जा रही है। इस नवजागरण के लिए प्रेरणा का स्रोत कहाँ है? गौतम बुद्ध हमेशा प्रेरणास्पद रहेंगे। भक्ति-काल का भी स्पंदन हम महसूस कर सकते हैं। पर यह सब सुदूर अतीत है। दुनिया तब से काफी बदल चुकी है। आधुनिक काल पर दृष्टि डालें। राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती, सैयद अहमद खान, महात्मा गांधी आदि नाम दिमाग में आते हैं। पर सांस्कृतिक प्रेरणा के संदर्भ में सबसे उपयुक्त नाम सांकृत्यायन का लगता है। वह एक पिछड़े इलाके के सामान्य परिवार के किसान-पुत्र थे यानी एक आम भारतीय और अपने अध्ययन-अध्यवसाय से महापंडित कहलाने वाले एकमात्र भारतीय बन गए। क्षेत्र विचार का हो या व्यवहार का, सिद्धांत का या कर्म का, राजनीति का या धर्म का, साहित्य का या दर्शन का, जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी  और नई राह बनाई। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने आत्मविश्वास और आत्म सम्मान को पोसते हुए आम आदमी की अनंत संभावनाओं को उजागर किया। इसीलिए वह आज के संक्रमण काल के लिए सबसे उपयुक्त प्रेरणास्रोत हो सकते हैं।
9 अप्रैल 1892 को भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक आज़मगढ़ के गाँव में जन्मा राहुल मानों नाव पर गया था। बचपन में बहुत कुछ ऐसा नहीं था जो असाधारण हो पर पक रही थी आंखें और ज्ञानेन्द्रियां। स्कूल वाली पढ़ाई तो ठीक से नहीं हो पा रही थी पर जीवन-जगत से बुहत कुछ ग्रहण हो रहा था। मन चंचल था। बार-बार भागता था।
इस समय एक चीज उसे बांध सकती थी – उसकी शादी कर दी गई। पर उसने उसे अपने प्रति अन्याय समझा और भाग खड़ा हुआ। संयोग से एक सम्पन्न मठ में उसे शामिल कर लिया गया और शीघ्र ही वह महंत बन गया। सारी सुख-सुविधा उसके चरणों में थी और वह जहाँ चाहे घूम सकता था, जो चाहे कर सकता था, अपनी रुचि का स्वाध्याय भी जारी रख सकता था। पर पद-प्रतिष्ठा, सम्पत्ति ये सब भी तो बंधन हैं और वह इस सुखदायी घेरेबंदी से भी भाग खड़ा हुआ। 
11 वर्ष की उम्र में पढ़ा थाः 
सैर कर दुनिया की गाफिल जिन्दगानी फिर कहाँ
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ।
यह केदार के जीवन का सबसे उत्प्रेरक पक्ष बना रहा। इसी ने उसे ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ लिखने तक पहुंचा दिया जिसमें यायावरी एक जीवन-दर्शन भी है और यात्रा के ‘क्या-क्यों कैसे’ प्रश्नों का उत्तर भी है।
उसने पहली बड़ी यात्रा कलकत्ते की ओर की। उस जमाने में पुरबिया लोग कलकत्ता ही जाते थे। गीत गए जाते थे कि हमारी सबसे बड़ी दुश्मन ‘रेलिया’ है जो हमारे ‘पिया’ को परदेस ले जाती है। वहाँ कामगारों के बीच जीवन के बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव हुए। वहाँ एक बासे में खाने के बाद एक नौकरानी पान का बीड़ा दे जाती थी। केदार पान नहीं खाना चाहता था फिर भी डर के मारे बीड़ा ले लेता था, क्योंकि उसने सुना था कि बंगालनें जिसे चाहती है उसे भेड़ा बना कर अपने पास पाल लेती हैं। 
शीघ्र ही वह जीवन के उस दौर में जा लगा जिसमें उसका कुछ भी मानो व्यक्तिगत था ही नहीं – न घर, न रिश्ते, न चाहत। बस मित्र थे- जो बनते गए, और लक्ष्य रूपांतरित होते गए। सनातनी से आर्य समाजी, फिर बौद्ध और अन्ततः कम्युनिस्ट। एक सुन्दर और जवान बौद्ध भिक्षु बहुतों को आकर्षित करता था-युवतियों को भी। एक बार तिब्बत में और एक बार श्री लंका में स्त्री के प्रति आकर्षण ने उसे उद्विग्न किया था। पर वह विचलित नहीं हुआ और अंततः रूस में ही उसने हथियार डाले।
रूस में लेनिनग्राद में जब वह प्रोफेसर नियुक्त हुआ तो उसकी मुलाकात लोला से हुई। इस आकर्षण ने उसे बांध ही डाला। उसने लोला से विवाह कर लिया। शादी के बाद दोनों आचार्य श्चेर्वत्स्की के जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने गए। भोजन पर उन्होंने जैसा पश्चिम का चलन है ‘वाइन’ पीने को दी। राहुल के नकारने पर कहा। ‘इसमें नशा नहीं है।’ ‘तो फिर यह गुनाह बेलज्ज़त है।’ राहुल का उत्तर था। ऐसा नहीं कि राहुल ने शराब नहीं पी। आवश्यकता पड़ने पर वह कुछ भी खा-पी लेते थे। पर खान-पान में वह सामान्य भारतीय थे। दो महीनों में राहुल लोला में रम गए थे पर उस लगाव में बहुत कुछ बौद्धिक और आत्मिक था। पर यायावर राहुल को रूस छोड़ना पड़ा। छोड़ते वक्त लोला को देख कर उनके मन में आयाः ‘बिछुरत एक प्राण हरि लेही…’ । 
जब ईगोर के जन्म की सूचना मिली तो वह प्रफुल्लित हो गए। उन्होंने लिखा; ‘पुत्र जन्म की प्रसन्नता होनी ही चाहिए, क्योंकि पुत्र ही आदमी का पुनर्जन्म और परलोक है।’
दोनों के विचार, उम्र, अभिरुचि, वर्ग, लक्ष्य सब में अंतर था। एक बाद नागार्जुन ने मुँहफट सा पूछ लिया था ‘क्यों फंसे बाबा?’ किसी के पास उत्तर नहीं था।
कुछ ही दिनों के बाद उसे सोवियत यूनियन छोड़ कर जाना पड़ा। लोला गर्भवती हो चुकी थी। बाद में ईगोर राहुलोविच नामक बेटा हुआ। दोनों के प्रति असीम प्यार उसके जीवन का सबसे बड़ा रागात्मक आलंब बना रहा।
राहुल ने जीवन को जो दिशा दी थी उसमें न तो वह सोवियत यूनियन में स्थायी रूप से रह सकते थे न लोला और इगोर भारत में। उनको भी अपने देश से और अपनी जीवन-पद्धति से उतना ही प्रेम था। कुछ दिन वे साथ रह पाए थे वह उनके जीवन के परम क्षण थे-लगता है तीनों के, क्योंकि वे तीनों एक-दूसरे बराबर याद करते थे और एक-दूसरे के लिए तरसते थे।
बाद में राहुल अंदर से थकने लगे थे। अध्यवसाय के अतिरेक के कारण बीमारियों ने भी घेरना शुरू कर दिया था। इसलिए पहले देहरादून में फिर दार्जिलिंग में उन्होंने वह जीवन को एक स्थिरता और स्थायित्व देने की कोशिश करते हैं। कमला उनके साथ काम करने लगी थी। में उन्होंने कमला से शादी कर ली। दो बच्चे भी हुए जया और जेता। पर लोला और ईगोर वाली अनुकूलता नहीं मिल पाई। इस विवाह में समरसता की कमी थी?
जीवन भर बंधनों से भागते फिर राहुल अब संपत्ति और संबंधों के बंधन में बंध चुके थे। उनका मन तो ऐसे जीवन के अनुकूल नहीं ही था, शरीर को भी मानो श्रम तथा कठिन जीवन की आदत पड़ चुकी थी। उनका तपा हुआ शरीर जवाब देने लगा। सबसे पहले शरीर के उस अंग ने ही साथ छोड़ा जिसका उन्होंने सायास सबसे अधिक इस्तेमाल किया था यानी मस्तिष्क और उनका इलाज कलकत्ता और अंत में सोवियत यूनियन में भी हुआ पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। अब तो बस उनकी विरासत को बचाया जा सकता है, क्योंकि ऐसी विरासत ही हमें सतत उत्प्रेरणा दे सकती है।
राहुल और धर्म  
पारंपरिक परिवेश में जन्मे राहुल की जीवन यात्रा में धर्म पर आस्था की शुरू में निर्णायक भूमिका हो यह स्वाभाविक था। बचपन में केदार मंत्र-तंत्र के भी चक्कर में था। नवरात्र में सिद्धि और दुर्गा दर्शन के लिए पूरा अनुष्ठान किया था। सारे विधि विधान से व्रत करने के बावजूद जब दर्शन नहीं हुआ तो जीवन निरर्थक लगा और धतूरा खा कर आत्महत्या करने का प्रयास किया था। पर धर्म पर सच्ची आस्था के ही कारण वह उन्हें सनातनी, शैव, वैष्णव दौरों से गुजरते हुए वह आर्य समाजी बने। वहाँ भी रोशनी नहीं मिली तो बौद्ध हो गए। भारत के विभिन्न धार्मिक मार्गों में बौद्ध धर्म ही सबसे अधिक आधुनिक मन को स्वीकार्य था। पर था तो वह भी धर्म ही। इसलिए उसे भी छोड़ना पड़ा- हालांकि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं की उन पर छाप अमिट थी अन्त में उन्होंने धर्म की सारी सीमाओं का परित्याग कर दिया। उनके अनुसारः
‘विज्ञान कभी धर्मों की दोहाई नहीं देने जाता, किन्तु धर्म विज्ञान की दोहाई देता फिरता है। क्या यह विज्ञान की प्रबलता को सिद्ध नहीं करता।’
‘हमारे देश में ऐतिहासिक दृष्टिकोण बनने में बहुत सी बाधाएं हैं। धर्म के प्रति अत्यन्त आग्रह सबसे बड़ी बाधा है।’
‘धर्म की गुलामी से बदतर गुलामी और क्या हो सकती है।’
इस प्रकार राहुल ने धर्म के पाखंड को नकारा, उसे दर्शन ओर संस्कृत से अलग कर उसकी भूमिका का सामान्य जन तक में प्रचार किया। पर इसके बावजूद जब धर्म का विश्लेषण करना होता था तो वह धर्मों का उपयुक्त परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करते थे।
असाधारण अध्येता  
अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करती है भाषा और उसे विस्तार देते हैं विविध विषय। आर्य समाजी होने के बाद उन्होंने अरबी-फारसी का अध्ययन किया। असहयोग आन्दोलन में मिली सजा के दौरान संस्कृत भाषा और दर्शन को मथा। 1925-27 हजारीबाग जेल के दिनों में बौद्ध साहित्य को पचाया। जब बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो उसके सांगोपांग अध्ययन के लिए पालि आगम तथा उसकी ‘अट्ठ कथा’ व्याख्यानों का ऐसा आत्मसात किया कि ‘त्रिपिटकाचार्य’ बन गए। 1930 में तिब्बत से 22 खच्चरों पर लाद कर लाये गये दुर्लभ साहित्य का स्वयं सम्पादन भी शुरू किया और टीकाएं लिखीं। जो काम एक शोध संस्थान का है और कई पीढ़ियों तक चलने पर ही पूरा हो सकता है, उसे बिना इन्तजार किए स्वयं किया। जब पुरातत्व में बैठे तो निबंधावली लिख डाली और गाँव-गाँव डीहों तक में बिखरे स्रोतों को जानने समझने के लिए ‘विशेष स्रोत तथा नेत्र’ विकसित करने की बात की। अध्ययन का विस्तार उन्हें समाजशास्त्र और नृशास्त्र (एन्थ्रोपालाजी) तक ले गया और ‘थारु’ जाति का उन्होंने असाधारण अध्ययन प्रस्तुत किया। भारत के विभिन्न दार्शनिक मतों का गहन अध्ययन करने के साथ पाश्चात्य दर्शन का भी मनन किया और ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ जैसी हिन्दी में अनन्य पुस्तक की रचना की। ऐसे अप्रतिम अध्येता को भारत के किसी विश्वविद्यालय ने नहीं स्वीकारा – स्वीकारा श्रीलंका और सोवियत रूस के विश्वविद्यालयों ने।
एक लेखक के अनुसार राहुल दार्शनिक समालोचना, धार्मिक समालोचना, साहित्यिक समालोचना तो करते ही हैं, इनके वे अधिकारी विद्वान थे, पर इनके अतिरिक्त उन्होंने राजनीतिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक समालोचनाएं भी कीं जो अधिकांशतः तथ्यपरक हैं। 
तिब्बत से लाए ग्रन्थों में धर्म कीर्ति की प्रमाणवर्तिका भी थी। उसकी प्रस्तुति के साथ भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार राहुल शाम्पोइओं (मिस्त्र की चित्र भाषा हिअरोग्लिफ लिपि को पढ़ने वाला फ्राँसीसी विद्वान) और प्रिंसेप (अशोक के शिलालेखों को पढ़ने वाला अंग्रज विद्वान) की कोटि में पहुँच गए थे।
इतिहासकार राहुलः राहुल एक ऐसे इतिहासकार थे जो इतिहास को इतिहास निर्माण के लिए आवश्यक समझते थे। वास्तव में सही अर्थों में इतिहास समझने वाला कोई भी व्यक्ति कभी ‘निष्क्रिय’ हो ही नहीं सकता – फिर इतिहासकार तो ऐक्टिविस्ट नहीं है तो वास्तव में इतिहासकार ही नहीं है, वह भी राहुल जैसा इतिहासकार। राहुल की इतिहास दृष्टि में देश-काल की महत्तम व्यापकता है- सारा विश्व और पृथ्वी की रचना से अब तक। उन्होंने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों और कार्यों पर लिखा है- मैक्रो और माइक्रो दोनो स्तर पर, मानव समाज पर भी और आजमगढ़ पर भी। उनका पुरातत्व बहुत व्यापक था- ढीहों और ढूहों तक, गाँव में बिखरे ठीकरों तक। ‘पुरातत्व ग्रन्थावली’ और ‘गंगा’ नामक पत्रिका के पुरातत्व विशेषांक का सम्पादन मील का पत्थर हैं। उनका इतिहास लेखन विविध है जिसे उनके पुस्तकों के उदाहरण से समझा जा सकता है।
1. ‘मध्य एशिया का इतिहास’ हिन्दी में तो मानक है ही – आज भी, दुनिया की कम भाषाओं में उस समय तक ऐसा ग्रन्थ लिखा गया था। प्रमाण यह है कि कई विदेशी विद्वानों ने हिन्दी सीखा उसे पढ़ने के लिए। 
2. ‘अकबर’ एक ऐसा ग्रन्थ है जो अकबर ही नहीं उसके काल को सामने रखता है, उसके नवरत्नों को भी उसके समकालीन समाज को भी और अकबर-राणा प्रताप संघर्ष को केन्द्रीय शासन और विघटनकारी क्षेत्रीयता के फ्रेम में रख कर राणा प्रताप की आलोचना करता है। 
3. ‘वोल्गा से गंगा’ जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधिरित असाधारण गल्प है और 
4. ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ जो इतिहास के सार को प्रचारात्मक शैली में जनग्राह्य बनाता है।
इतिहास लेखन के क्षेत्र में राहुल की अनन्य पुस्तक ‘अकबर’ से एक उद्धरण उनके उत्कृष्ट और पैने लेखन का प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हैः
‘जिस तरह चौबीस घंटे खुली या प्रकट लड़ाई, एक दूसरे के प्रति घृणा,  चल रही थी, उससे हम मानवता से दूर हटते जा रहे थे। हर वक्त विदेशी आक्रान्ता के आ जाने का खतरा रहता था। तैमूर, नादिरशाह, अब्दाली के आक्रमणों ने सिद्ध कर दिया कि विजेताओं-आक्रान्ताओं की तलवारें हिन्दू-मुस्लमान का फर्क नहीं करतीं। मुसलमानों और हिन्दूओं के धार्मिक नेताओं में कुछ ऐसे भी पैदा हुए जिन्होंने रामखुदैया के नाम पर लड़ी जाती इन भयंकर लड़ाइयों को बन्द करने का प्रयत्न किया। ये थे मुस्लिम सूफी और हिन्दू सन्त। पर इनका प्रेम सन्देश अपनी खानकाहों और कुटियों में ही चल सकता था, लड़ाई के मैदान में उनकी कोई पूछ नहीं थी। लाखों लोगों में अपने-अपने धर्म के नाम पर जब दोनों ओर से कटाकटी होने लगती, तो सन्तों-सूफियों को कोई नहीं पूछता था। दोनों दल कहते थे- जो हमारे साथ नहीं, वह हमारा दुश्मन है। सन्तों-सूफियों के शांति और प्रेम के सन्देश ने हजारों-लाखों के मन को शान्ति प्रदान की, पर वह देश की सामाजिक समस्या को हल करने में असमर्थ रहा।
भारत में दो संस्कृतियों के संघर्ष से जो भयंकर स्थिति पिछली तीन-चार शताब्दियों से चल रही थी, उसको सुलझाने के लिए चारो तरफ से प्रयत्न करने की जरूरत थी और प्रयत्न ऐसा, कि उसके पीछे कोई दूसरा छिपा उद्देश्य न हो। संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास हमारे देश में अनेक बार किया गया। पर, जो समस्या इन शताब्दियों में उठ खड़ी हुई थी, वह उससे कहीं अधिक भयंकर और कठिन थी। बीसवीं सदी के मध्य में देश के दो टुकड़े हो गए और वह भी खून की नदियों के बहाने के साथ।
साहित्यकार राहुल
राहुल ने साहित्य की सभी विधाओं में रचना की। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास से जीवनी तक और साहित्य के सभी उद्देश्य पूरे किये। मनोरंजन, लोकरंजन से दिशा निर्देशन तक। साहित्य की यात्रा की, सभी मंजिलें पूरी कीं – यथार्थवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद से समाजवादी यथार्थवादी तक। यथार्थ की धरती पर भी थे और कल्पना की उड़ानें भी भरीं। कवि शैली के स्काइलार्क की तरह और इतना भरपूर साहित्य समाज का सौंप गए कि कई पीढ़ियां उसे पचाती रहेंगी। उन्होंने आलोचकों के लिए नहीं लिखा, न पुरस्कारों के लिए, न केवल लेखकों के लिए। उनके लिए साहित्य सामाजिक उत्पाद था और वह बिना मुनाफा उठाए समाज के ही, उसी की भाषा-शैली-मुहावरे में समर्पित था। चूंकि शुद्धता सहज और नैसर्गिक गुणवत्ता नहीं रही इसलिए उसे अलग से विशिष्टता बोधक विशेषण के रूप में इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि राहुल प्रचारक अधिक थे साहित्यकार कम। परन्तु जो यह मान ले कि हर साहित्य मूलतः और सारतः प्रचार- साहित्य ही होता है उसे यह कम-बेश वाला मानदंड बेकार लगेगा। राहुल को साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष बनाना कोई उनके प्रति उदारता या मेहरबानी नहीं थी, प्रगतिशील लेख संघ बन जाने के बाद के माहौल में सहित्य की नई भूमिका स्वीकारने का परिणाम था। साहित्य का सामाजिक सरोकार और सामाजिक ऊर्जा के रूप में साहित्य की स्वीकृति के बाद ऐसे सवाल नहीं उठेंगे या निरर्थक लगेंगे। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में राहुल के साहित्य का उद्देश्य है – 
1. लोक चित्त पर से मिथ्या रुढ़ियों के जंगल को दूर करना। 
2. शोषकों का अंत तथा 
3. समस्त मानव जाति को न्याय, समता, अन्न-वस्त्र और ज्ञानोपार्जन का सुयोग देना।
राहुल की सबसे प्रसिद्ध और चर्चित किताब ‘वोल्गा से गंगा’ की अंतिम कहानी है ‘सुमेर’ जो 1942 के भारत को चित्रित करती है। उसका एक पात्र सुमेर पटना में एम. ए. का विद्यार्थी है और तथा कथित ‘अछूत’ है। उसकी एक ब्राह्मण छात्र से बात होती है
‘आप अपनी जाति पर गांधी जी का कोई उपकार नहीं मानते ?’
‘उतना ही उपकार मानता हूं जितना मजदूर को मिल मालिक का मानना चाहिए।’
‘जमींदारों, पूंजीपतियों, राजाओं को वली-संरक्षक-गार्जियन कहने का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है? गांधी जी का हमारे साथ प्रेम इसीलिए है कि हम हिन्दूओं में से निकल न जाएँ। पूना में आमरण अनशन इसलिए किया था कि हम हिन्दूओं से अलग अपनी सत्ता न कायम कर लें। हिन्दूओं को हजार वर्षों से सस्ते दासों की जरूरत थी और हमारी जाति ने उसकी पूर्ति की। पहले हमें दास ही कहा जाता था। अब गांधी जी ‘हरिजन’ कह कर हमारा उद्धार करने की बात करते हैं। शायद हिन्दूओं के बाद हरि ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन रहा है। आप खुद समझ सकते हैं, ऐसे हरि का जन बनना हम कब पसन्द करेंगे?’
‘तो आप भगवान को भी नहीं मानते?’
‘किस उपकार पर? वर्षो से हमारी जाति पशु से भी बदतर, अछूत, अपमानित समझी जा रही है और उसी भगवान के नाम पर जो हिन्दूओं की बड़ी जातियों को जरा-जरा सी बात पर अवतार लेता रहा, रथ हांकता रहा, किन्तु सैकड़ों पीढ़ियों से हमारी स्त्रियों की इज्जत बिगाड़ी जाती रही, हम बाजारों में सोनपुर के मेले में पशुओं के तरह बिकते रहे, आज भी गाली-मार खाना, भूखे मरना ही हमारे लिए भगवान की दया बतलाई जाती है। इतना होने पर भी जिस भगवान के कान पर जूं तक नहीं रेंगी, उसे माने हमारी बला।’
साहित्यकार स्वयं रचना करने के साथ उत्कृष्ट साहित्य का दूसरी भाषाओं से उत्कृष्ट अनुवाद कर के भी साहित्य की कम महत्वपूर्ण सेवा नहीं करता। साहित्य से गहरा और सामाजिक सरोकार रखने वाले बहुत से बड़े साहित्यकारों ने अनुवाद के लिए भी समय निकालना अपना दायित्व समझा है। इस संबंध में राहुल के ‘सांस्कृतिक काव्य धारा’ का एकमात्र उदाहरण राहुल का महत्व स्पष्ट कर देगा। इसमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र से जयदेव श्री हर्ष तक अर्थात आदिकाल से 17 वीं शताब्दी तक के सम्पूर्ण संस्कृत काव्यधारा से हिन्दी पाठकों का परिचय करवा पाने की क्षमता राहुल के अतिरिक्त किसी दूसरे व्यक्ति में आज तक नहीं देखी गयी। उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थों का भी अनुवाद किया।
राहुल के अनुसार प्रगतिवाद का अर्थ था बंद दरवाजे खोलना। वह कलाकार की स्वतंत्रता नहीं उसकी जंजीरों का, सीमाओं का, शत्रु होता है। प्रगतिशील लेखक सिपाही भी होता है सेनापति भी। उसे जनसाधारण का समानधर्मा होना चाहिए। इसी अर्थ में वह साहित्य की अनन्य सेवा करते रहे और साहित्य को समाज का दर्पण ही नहीं मशाल भी बना कर छोड़ा। उनके जैसा कोई दूसरा साहित्यकार नहीं हुआ- शायद पूरे भारत में।
राजनीति मूलतः विद्वान-बुद्धिजीवी होते हुए भी उन्होने राजनीति कर्म का निर्णायक महत्व स्वीकार कर स्वयं भी मैदान में कूदने से गुरेज नहीं किया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं उनकी जेल-यात्रायें। किसी महत्वपूर्ण ग्रन्थ-रचना में भी लगे हों तो आवश्यक आन्दोलनात्मक कार्यवाई में कूदने में वे जरा भी देर नहीं करते थे।
राहुल सब से पहले असहयोग आन्दोलन में कूदे। सारन जिले में एक जमींदार की भूमि पर किसानों को दखल दिलाने के लिए जेल गए। बहुत कम विद्वानों-साहित्यकारों ने जरूरत पड़ने पर राजनीतिक नेतृत्व कर किसानों के हितों (मध्यवर्गीय हितों नही) के लिए खून बहाया होगा। 1934 में बिहार में किसानों का नेतृत्व करते हुए जमीदार का गन्ना काटा और जमीदार के पिलवान ने डन्डे से उनका सर फोड़ दिया। सरकार ने महावत पर मुकदमा चलाया पर राहुल ने यह बयान देकर मुकदमा समाप्त करवा दिया कि उनकी लड़ाई जमींदार से है उसके पिलवान से नहीं।
उनके राजनीति कर्म का प्रेरक सूत्र थाः ‘जोंकों का राज्य खत्म करना होगा। हवा-पानी की तरह धरती और धन सब कुछ को सब का साझे का करना होगा, तब जा कर दुनिया का नरक खतम होगा।’
राहुल और राजनीति
राहुल ने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट किया है कि वह राजनीतिक प्राणी नहीं थे यानी राजनीति के प्रति उनमें स्वाभाविक आकर्षण नहीं था। पर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति, और वह भी उनके जैसा जीवन-जगत से सरोकार रखने वाला देश में विदेशी राज के विरुद्ध उद्वेलित हो यह स्वाभाविक था। वह उस तरह के बुद्धिजीवी नहीं थे जो दुखी लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उनकी कभी-कभी मदद करके संतृप्त हो जाते हैं। वह स्वयं भी किसान थे और खासतौर से किसानों के दोहरे दमन-उत्पीड़न, सरकार द्वारा और जमीदारों, के विरुद्ध सक्रिय हो गए। उनके जैसा व्यक्ति केवल ऊपर से नेतृत्व कर दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता था। वह तृण-मूल कार्यकर्त्ता की तरह आंदोलन में शामिल रहे।
वह स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। कांग्रेस के अधिवेशनों में गए। जिला कमेटी के सेक्रेटरी भी बनाए गए। खादी और चर्खे का प्रचार करने गाँव-गाँव घूमें। पर गांधी जी की राजनीति से कभी अभीभूत नहीं हुए- उनके व्यक्तित्व से भी नहीं। वह धीरे-धीरे मार्क्सवाद से प्रभावित होते जा रहे थे क्योंकि एक ओर उस विचार के उन्हें बेहतर जन-सरोकार दिखाई देता था तो दूसरी ओर सोवियत यूनियन की सफलताएं भी उन्हें प्रभावित करती थी। अन्ततः वह कम्युनिस्ट बन गए पर वह किसी मामले में कट्टरपंथी नहीं हो सकते थे। वह पार्टी के अन्धानुयायी नहीं थे। राहुल ने यशपाल से बात करते हुए तीन नतीजे निकाले थे। 
1. एक अभियान के बाद क्रांतिकारी अपने मुहिम के प्रति उदासीन हो जाते हैं। 
2. किसान-मजदूर वर्ग में जो पैदा हुए वह जरूरी नहीं कि क्रांतिकारी ही हो।  अक्सर मुद्दों के अनुसार उनका मतभेद भी होता रहता था। एक बाद उन्हें पार्टी छोड़ना भी पड़ा। डॉ. राम विलास शर्मा उनके कटु आलोचक बन गए थे, परन्तु उनके मन में अपने आलोचकों और पार्टी के लिए कोई कटुता नहीं पैदा हुई। वह एक कम्युनिस्ट की तरह ही मरना चाहते थे, और ऐसा ही हुआ, क्यों कि उन्हें पार्टी में शामिल कर लिया गया।
उनके मन में धनिकों के प्रति एक पूर्वाग्रह सा समा गया था। इसीलिए वह जवाहर लाल नेहरू से भी प्रभावित नहीं थे। इलाहाबाद प्रवास के लिए लालायित नहीं रहते थे। यहाँ तक जवाहर लाल नेहरू ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। तब भी वह उत्साहित नहीं हुए।
राजनीति एक ऐसा खेल है जिसमें ‘फेयाप्ले’ हमेशा संभव नहीं होता और राहुल में न्याय और सद्कर्म को लेकर कट्टर नैतिकता थी। इसलिए धीरे-धीरे वह राजनीति से उदासीन होते गए और अपने पठन-पाठन-शिक्षण में रमते गए। उनका कहना था, ‘मैं राजनीति में अपने हृदय की पीड़ा दूर करने आया था। गरीबी और अपमान को मै। अभिशाप समझता था।’ पर धीरे-धीरे उन्हें लगा था कि वह स्वयं ऐसा कर पाने में समर्थ नहीं हैं।
राहुल और हिमालय
राहुल सांकृत्यायन का हिमालय से विशेष संबंध था। यहाँ तक कि राहुल के व्यक्तित्व की हिमालय से तुलना की जा सकती है। वैसा ही विस्तार, वैसी ही ऊँचाई और वैसी ही विविधता। थोड़ा अतिरेक भले ही हो जाए यह कहा जा सकता है कि जैसे हिमालय से टकरा कर मानसून भारत को सींचता है वैसे ही राहुल से टकरा कर भारत का नवजागरण भारतीय मनीषा को सींच सकता है।
राहुल ने हिमालय की न जाने कितनी यात्राएँ कीं और तिब्बत में तो मानो उनका मन ही रम गया। इस संबंध में एवरेस्ट विजय की यात्रा करने वाले मलोरी की याद आती है। तब एवरेस्ट विजय आज की तरह अपेक्षतया आसान नहीं था और मलोरी एक दिन बर्फ के तूफान में गुम हो गए थे। उनसे किसी ने पूछा कि आखिर आप हिमालय की दुर्गम यात्रा क्यों करते हैं? उनका उत्तर बहुत सारगर्भित था। उन्होंने कहा थाः ‘क्योंकि हिमालय है।’ इसका मतलब यह हुआ कि कुछ लोगों को कठिनता और दुर्गमता ही आकर्षित करती है।
राहुल भी हिमालय को बार-बार पार करते थे। तिब्बत तो उन्हें विशेष रूप से आकर्षित करता था- तिब्बत का भूगोल, इतिहास, समाज और खासतौर से धर्म। उन्होंने तिब्बत को बहुत से तिब्बतियों से भी बेहतर जाना-समझा। उन्होंने तिब्बत की भाषा को मानो अपनी भाषा बना ली और उसमें बहुमूल्य पुस्तकें लिखी। तिब्बत उस समय प्रच्छन्न देश (Terra Incognita) कहा जाता था। उसको दुनिया के सामने उजागर करने वालों में राहुल का नाम अग्रणी है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह कि राहुल ने तिब्बत में बहुत से ऐसे ग्रंथ ढूंढ निकाले जो भारत में लुप्त हो गए। ऐसे ग्रंथ ल्हासा में ही नहीं दूर-दराज के बौद्ध मठों में मौजूद थे। उन जगहों पर पहुँचना भौगोलिक ही नहीं राजनीतिक कारणों से भी दुर्गम था। कई जगहों पर तो राहुल को भेष बदल कर बौद्ध लामा की तरह जाना पड़ता था। बिजली तो थी नहीं। तिब्बत की गाय ‘याक’ की चर्बी जला कर देर रात वह पांडुलिपियों की नकल करते। इस तरह अपनी अनेक यात्राओं में उन्होंने पांडुलिपियों और कलावस्तुओं का अद्वितीय संग्रह इकट्ठा किया और खच्चरों पर लाद कर तरह-तरह के जोखिम उठाते हुए भारत ले आये। वह सामग्री उस समय भी करोड़ो की रही होगी। पर वह सब वह अपने मित्र इतिहासकार के. पी. जायसवाल को सौंप देते। उनमें से अधिकांश आज भी पटना संग्रहालय में मौजूद है। उस दौरान तो राहुल की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। फिर भी उन्होंने अपने संग्रह का कोई व्यक्तिगत लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया।
राहुल प्रकृति प्रेमी तो थे ही अधिकांशतः यात्रा पैदल ही करते थे। हिमालय में उन्हें सबसे प्रिय थे ‘देवदार’। देवदार के सुन्दर वृक्षों को देख कर वह कवि हो जाते। देवदार की घनी हरियाली और उसे छूता और लहराता मंद सुगंध उन्हें मोह लेता। देवदार को वह प्राकृतिक सौंदर्य का मानदंड’ मानते थे। हिमालय की तो जोंके भी उन्हें बहुत आकर्षित करती। उन्होंने बहुत से रूपक-प्रतीक हिमालय से लिए हैं। उनका एक प्रतीक ‘जोंक’ भी था। जब वह पूंजीवादी व्यवस्था को जोंक कहते तो शोषण पूरी तरह उजागर हो जाता। 
वास्तव में, हिमालय में वह घुमक्कड़ और शोधकर्ता दोनों ही रूपों में जाते और उनके इन दोनों ही रूपों का उत्कर्ष हिमालय की गोद में ही हुआ।
जीवन दृष्टि
राहुल ने समाज में प्रचलित दृष्टियों तथा मर्यादाओं की नैतिक तथा तार्किक परीक्षा ली, जो खरा न उतरा उसकी आलोचना की। विचार उनके लिए पार उतरने के लिए पतवार थे न कि बोझ।
सकाल संध्या, वैदिक संहिताओं का सस्वर पाठ, शिव की आग्रहपूर्वक भक्ति, ठेठ निराकारोपासना, विष्णु भक्ति और दीक्षा, आर्य समाजी, सुधारवादी, राष्ट्रवादी आन्दोलन में भागीदार, ईसाई मिशनरियों और मौलवियों से शास्त्रार्थ, हिन्दू धर्म के लिए भी मिशनरी तैयार करने की उत्सकता, बौद्धधर्म के प्रति आकर्षण, बुद्ध की बुद्धवादिता और उदारता से प्रभावित, भिक्षु दीक्षा, मार्क्स के प्रति आकर्षण, बुद्ध और मार्क्स के विचारों का समन्वय, भारतीय दर्शनों द्वारा धर्म का पिछलगू होना अस्वीकार्य, धार्मिक सीमाओं का परित्याग, और अंततः ऐसी थी उनकी जीवन दृष्टि और विश्व दर्शन। उस समय भी मुख्यधारा से प्रभावित नहीं था। भगत सिंह के विचारों से आकर्षित तो थे पर मुख्य प्रभाव समाजवाद का था। वह थे तो बुद्धिवादी पर भावनाओं का उतना ही महत्व। जो व्यक्ति अपने माँ-बाप की मुत्यु पर नहीं रोया वह तिब्बत में एक कुदिया की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोया था, क्योंकि वह उनकी हो गई थी। उनका मानना था कि आदमी का हृदय वीणा के तार जैसा सूक्ष्म भेद कर सकता है। संबंध में मिठास मिल जाय तो भरपूर अन्यथा उन्हें ठोक-बजा कर ठीक नहीं किया जा सकता।
उनके जीवन में सबसे मूल्यवान संबंध मित्रता का था। गाँव के मेहनतकश से विश्व विख्यात विद्वान तक उनके मित्र रहे और सबसे आत्मीयता निर्माण मित्रता परस्पर विश्वास और विकास का संबंध है। राहुल ने हमेशा यही किया। वह कहते थे ‘घनिष्ठता’ मेरी कमजोरी है। उन्होंने ‘ नाते सभी राम के मनियत’ की जगह लिख ‘नाते सभी मीत के मनियत।’ मित्रता उनके लिए, सूद पर लगी पूंजी जैसी थी, जिससे मूल पर आंच न आने पाएं।
जीवन के एक-एक दिन ही नहीं एक-एक घन्टे-सेकंड का हिसाब रखते थे। इसलिए आन्दोंलनों भी, यहां तक कि जेल में लोकोत्थान में लगे रहते थे।
उनका विचार था कि दुनिया से जितना लिया जाता है उसका 100 गुना चुकाना चाहिए।
राहुल के दृष्टिकोण, लेखन तथा जीवन में चूकें हैं, भूलें है पर वे उनके विकासमान व्यक्तित्व और सामाजिक सरोकार वाले कृतित्व पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगातीं। उनकी बहुत सी सीमाएं उस संगटन की हैं जिससे वह जुडे़ रहे। राहुल की सबसे बड़ी प्रासंगिकता यह है कि उनके ग्रंथों की, उनके कार्यों की, आज भी उतनी जरूरत है। जब तक ‘जोकों का राज्य’ समाप्त नहीं होता, जब तक दुनिया को बदलने की जरूरत बाकी है तब तक एक दिशा संकेत और समर्पित जिजीविषा की प्रेरणा के रूप में राहुल जिन्दा रहेंगे।
राहुल जी के जीवन की प्रमुख तिथियां
जन्म – 9 अप्रैल 1893। ननिहाल-ग्राम पन्दहा, जिला आजमगढ़ में।
गोत्र-सांकृत्य – पिता-गोवर्धन पांडे, माता-कुलवंती देवी।
नाना- रामशरण पाठक। 
बचपन का नाम केदारनाथ; चार भाई तथा एक बहन में सबसे जेष्ठ।
शिक्षाः आजमगढ़ में मिडिल तक। आगरा में अरबी, फारसी की पढ़ाई और लाहौर तथा काशी में संस्कृत की।
1912-13 – परसा-मठ के साधु तथा महन्त के उत्तराधिकारी ।
1913-14 – दक्षिण भारत का पर्यटन।
1922 – बक्सर जेल में छः मास। जिला कांग्रेस के मंत्री।
1923-25 – हजारीबाग जेल में।
1927-28 – श्रीलंका में संस्कृत के अध्यापक; बौद्ध-साहित्य का अध्ययन।
1929-30 – तिब्बत में सवा साल। पहली यात्रा।
1932-33 – इंग्लैंड और यूरोप में।
1934 – दूसरी तिब्बत यात्रा।
1935 – जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत संघ तथा ईरान की यात्रा।
1936 – तीसरी तिब्बत-यात्रा।
1937  – सोवियत संघ में (दूसरी बार)।
1938 – तिब्बत में चौथी बार। राहुल जी की इसी यात्रा के दौरान, सोवियत रूस में इगोर राहुलोविच का जन्म।
1939 – किसान संघर्षः अमवारी-सत्याग्रह। जेल में।
1940-42 – हजारीबाग जेल में।
1944-47 – लेनिनग्राद (सोवियत संघ) में प्राध्यापक।
1947 – हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापित।
1952 – मसूरी में अपना घर।
1953 – पुत्री जया का जन्म।
1955 – पुत्र जेता का जन्म।
1958 – चीन में साढे़ चार मास। साहित्य अकादमी एवार्ड।
1959-61 – श्रीलंका में दर्शन-शास्त्र के प्राचार्य।
1959 – मसूरी छोड़ कर दार्जलिंग में।
1961 – दिसम्बर महीने में ‘‘स्मृति लोप’’ का आघात।
1962-63 – सोवियत संघ में सात महीने चिकित्सा।
महाप्रयाण – 14 अप्रैल, 1963, सत्तर वर्ष की आयु वर्ष में। 
महापंडित राहुल सांकृत्यायन की प्रमुख रचनाएं
उपन्यास
1. बाईसवीं सदी (1923)
2. जीने के लिए (1940)
3. सिंह सेपापति (1944)
4. जय यौधेय (1944)
5. भागो नहीं, दुनिया बदलो (1944)
6. मधुर स्वप्न (1949)
7. राजस्थानी रनिवास (1953)
8. विस्मृत यात्री (1954)
9. दिवोदास (1960)
10. निराले हीरे की खोज (1965)
कथा साहित्य
11. सतमी के बच्चे (1953)
12. वोल्गा से गंगा (1944)
13. बहुरंगी मधुपुरी (1953)
14. कनैला की कथा (1955-56)
नाटक
15. नयकी दुनिया (1942)
16. मेहरारुन के दुरदसा (1942)
17. जपनिया राछछ (1942)
18. जरमनवा के हार निहचय (1942)
19. देस रच्क्षक (1942)
20. ढुनमुन नेता (1942)
21. ई हमार लड़ाई (1942)
22. जोंक (1942)
आत्मकथा
23. मेरी जीवन-यात्रा भाग-1 (1944)
24. मेरी जीवन-यात्रा भाग-2 (1950)
25. मेरी जीवन-यात्रा भाग-3
26. मेरी जीवन-यात्रा भाग-4
27. मेरी जीवन-यात्रा भाग-5
28. नये भारत के नये नेता (खण्ड-1) (1942)
29. नये भारत के नये नेता (खण्ड-2) (1942)
30. बचपन की स्मृतियां (1953)
31. अतीत से वर्तमान (प्रथम खण्ड) (1953)
32. स्तालिन (1954)
33. लेनिन (1954)
34. कार्ल मार्क्स (1954)
35. माओ त्से-तुंग (1954)
36. सरदार पृथ्वी सिंह (1955)
37. घुमक्कड़ी स्वामी (1956)
38. मेरे असहयोग के साथी (1956)
39. जिनका मैं कृतज्ञ (1956)
40. वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली (1956)
41. महामानव बुद्ध (1956)
42. सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन (1960)
43. कप्तान लाल (1961)
44. सिंहल के वीर पुरुष  (1961)
यात्रा वृतांत
45. मेरी लद्दाख यात्रा (1926)
46. श्रीलंका (1926-27)
47. तिब्बत में सवा साल (1931)
48. मेरी यूरोप यात्रा (1932)
49. यात्रा के पन्ने (1934-36)
50. जापान (1935)
51. ईरान (खण्ड-1) (1935-36)
52. ईरान (खण्ड-2) (1935-36)
53. मेरी तिब्बत यात्रा (1937)
54. रूस में पच्चीस मास (1944-47)
55. किन्नर देश में (1948)
56. घुमक्कड शास्त्र (1949)
57. सोवियत भूमि
58. सोवियत मध्य एशिया
59. दार्जलिंग परिचय (1950)
60. कुमायूं (1951)
61. गढ़वाल (1952)
62. नेपाल (1953)
63. हिमाचल प्रदेश (अप्रकाशित) (1954)
64. जौनसार देहरादून (1955)
65. आजमगढ़ की पुराकथा
66. एशिया के दुर्गम भूखंडों में (1950)
67. चीन में क्या देखा?
68. हिमालय दर्शन
निबंध
69. साम्यवाद क्यों? (1934)
70. पुरातत्व निबंधावली (1936)
71. दिमागी गुलामी (1937)
72. तुम्हारी क्षय (1937)
73. आज की समस्याएं (1944)
74. साहित्य निबंधावलि (1949)
75. अतीत से वर्तमान (खंड-1) (1953)
76. अतीत से वर्तमान (खंड-2) (1953)
77. (अ) राहुल निबंधावली (साहित्य) (1970)
विभाग
78. विश्व की रूपरेखा (1942)
समाजशास्त्र
79. मानव-समाज (1942)
राजनीति
80. क्या करें? (1937)
81. सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास (1939)
82. सोवियत न्याय (1939)
83. राहुल जी का अपराध (1939)
84. आज की राजनीति (1949)
85. कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं? (1953)
86. रामराज्य और मार्क्सवाद (1959)
87. चीन के कम्यून (1960)
दर्शन
88. वैज्ञानिक भौतिकवाद (1942)
89. दर्शन-दिग्दर्शन (1943)
90. बौद्ध दर्शन (1942)
धर्म
91. इस्लाम धर्म की रूपररेखा (1923)
92. बुद्धचर्या (1930)
93. बौद्ध संस्कृति
94. धम्मपद (1933)
95. मज्झिम निकाय (1933)
96. विनय-पिटक (1934)
97. दीर्घ निकाय (1935)
98. तिब्बत में बौद्ध धर्म (1935)
इतिहास
99. मध्य ऐशिया का इतिहास (खंड-1) (1952)
100. मध्य ऐशिया का इतिहास (खंड-2) (1952)
101. ऋग्वैदिक आर्य (1956)
102. अकबर (1956)
103. भारत में अंग्रेजी राज्य के संस्थापक (1957)
साहित्य इतिहास
104. पालि साहित्य का इतिहास (1944)
105. हिन्दी काव्यधारा (1952)
106. दक्खिनी काव्यधारा (1952)
लोक-साहित्य
107. आदि हिन्दी की कहानियां और गीतें (1950)
शोध-ग्रंथ
108. सरहपादकृत दोहा-कोष (1954)
कोश
109. शासन शब्दकोश (1948)
110. तिब्बती हिन्दी कोश (प्रथम खंड) (1947)
संस्कृत
111. संस्कृत पाठमाला भाग 1, (1928)
112. संस्कृत पाठमाला भाग 2 (1928)
113. संस्कृत पाठमाला भाग 2 (1928)
114. संस्कृत पाठमाला भाग 2 (1928)
तिब्बती
115. तिब्बती बाल शिक्षा (1933)
116. पाठावली भाग 1 (1933)
117. पाठावली भाग 1 (1933)
118. पाठावली भाग 1 (1933)
119. तिब्बती व्याकरण
सम्पादन-कार्य : हिन्दी
1. तुलसी रामायण (संक्षेप) (1957)
2. हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग-16)
सम्पादन-कार्यः पालि
3. पालि-काव्य धारा
सम्पादन-कार्य एवं टीकाः संस्कृत
4. अभिधर्म कोश (1930)
5. विज्ञप्ति मातृता सिद्धि (1934)
6. वाद न्याय
7. सूत्र कृतांग
8. प्रमाण-वार्तिक (1935)
9. अध्यर्धशतक (1935)
10. प्रमाण-वार्तिक भाष्य (1935-36)
11. प्रमाण-वार्तिक वृतिः (1936)
12. प्रमाण-वार्तिक स्ववृत्तिः (1936)
13. प्रमाण-वार्तिक स्ववृत्ति टीका (1937)
14. विग्रह व्यावर्तिनि
15. विनय सूत्र (1943)
16. हेतु बिंदु (1944)
17. संबंध परीक्षा (1944)
18. महापरिनिर्वाण सूत्र (1952)
19. निदान सूत्र (परीक्षा) (1952)
20. संस्कृत काव्यधारा (1955)
अनुवाद
1. शैतान की आंख (1923)
2. जादू का मुल्क (1923)
3. सोने की ढाल (1923)
4. विस्मृति के गर्भ में (1923)
5. दाखुंदा (1947)
6. जो दास थे (1947)
7. अनाथ (1948)
8. संविधान का मसौदा (1948)
9. अदीना (1951)
10. सूदखोर की मौत (1951)
11. शादी (1952)
लाल बहादुर वर्मा
सम्पर्क –

मोबाईल – 09454069645

लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘इतिहास लेखन और दर्शन’।


लाल बहादुर वर्मा

इतिहास अपने अतीत के यथार्थ को जानने का एक मात्र वस्तुनिष्ठ माध्यम है। ऐसे में इतिहास सही हो यह आवश्यक होता है। क्योंकि वह हमारे भविष्य की निर्मिति में भी एक बड़ी भूमिका निभाता है। इस क्रम में इतिहासकार को निर्मम होना पड़ता है। उसे तथ्यों का विवेचन करते समय खुद अपने, अपने परिवार, अपने समाज और अपने राष्ट्र के प्रति मोह से भी बचना पड़ता है। इतिहास में वस्तुनिष्ठता की समस्या एक बड़ी समस्या के रूप में है। शायद ही कोई इतिहासकार ऐसा हो जो यह कहे कि मैंने वस्तुनिष्ठ इतिहास नहीं लिखा है। वस्तुनिष्ठ मतलब ‘जैसा था ठीक वैसा ही’। प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा इतिहास के जाने माने अध्येताओं में से हैं। उनका यह आलेख इतिहास लिखने पढने वालों के लिए ही नहीं बल्कि उन सभी के लिए महत्वपूर्ण है, जो एक बेहतर समाज की संरचना के लिए उद्यत हैं। तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं लाल बहादुर वर्मा का यह महत्वपूर्ण और जरुरी आलेख – ‘इतिहास लेखन और दर्शन’। 
               
प्रोफेसार गिरिजा पांडे के लिए
इतिहास लेखन और दर्शन
लाल बहादुर वर्मा
प्रस्तावनाः
इतिहास अतीत का अध्ययन है। परन्तु अतीत का अध्ययन हो कैसे? क्योंकि अतीत तो व्यतीत हो चुका है। गौर करें तो अतीत व्यतीत होता ही नहीं, क्योंकि उसकी स्मृतियां और अवशेष तो बचे ही रह जाते हैं और काल (Time) तो अविभाज्य हैं। इसलिए अतीत, वर्तमान और भविष्य अविभाज्य रूप से एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। हर पल भविष्य वर्तमान और वर्तमान अतीत में रूपांतरित होता रहता है। इसलिए वर्तमान को समझने के लिए हमें अतीत में जाना पड़ता है और वर्तमान को समझ कर ही भविष्य को संवारा जा सकता है। इसीलिए मानव जाति ने अतीत को जानने-समझने का विज्ञान और कला विकसित किया है। अब तो लगता है कि हमें कुछ भी समझने के लिए उसे ऐतिहासिक पद्धति से सही समझ सकते हैं। तभी तो दार्शनिक मैंडेल बाम ने जोर देकर कहा है कि हम दो ही तरीके से चीजों को समझ सकते हैं –
1.      सिंहावलोकन (Retrospection) यानी अतीत का सार-संकलन 
और 
  2. अन्तर्ध्यान (Introspection) यानी अंतर्मथंन द्वारा।
इसलिए प्राचीन काल में ही दुनिया में हिस्तोरिका (Historica) या इतिहासजैसे शब्दों की रचना की गई थी। इतिहास की अवधारणा में ही शामिल था कि अतीत को वैसा ही देखा जाए जैसा वह था ताकि उससे सबक लिया जा सके। इसीलिए प्राचीन काल में ही भारत के शासक के शिक्षण-प्रशिक्षण का इतिहास को अंग बनाया गया था। आधुनिक काल में, विशेष कर 19वीं शताब्दी से इतिहास के मूलभूत प्रश्नों-क्या, क्यों, कैसेपर बहुविद्या विचार किया जाता रहा है और तरह-तरह के विचारों और विचारकों का प्रादुर्भाव होता रहा है। उनका अध्ययन न केवल अतीत को बल्कि वर्तमान को भी समझने में हमारी मदद करता है।
उद्देश्य
इतिहास के पाठ्क्रम में इतिहास लेखन को आधार-पाठ्य के रूप में बीसवीं सदी में ही विकसित किया गया है। वैसे इतिहास क्या है? इतिहास की उपयोगिता क्या है? इतिहास की प्रकृति क्या है? इतिहास की पद्धति क्या है? आदि प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं। परन्तु उन्हें समन्वित कर उन्हें बाकायदा एक ऐसा पाठ्य (Text) बना देना जो इतिहास का दर्शन (Philosophy of History) बन सके, ऐसा बहुत बाद में ही संभव हो पाया। आज वह इतिहास का आधारभूत तथ्य समझा जाता है। इस तरह इतिहास लेखर और दर्शन के उद्देश्यों को निम्नलिखित सूत्रों में बांधा जा सकता हैः
1.   कोई भी विषय क्यों अस्तित्व में आया यह जानना जरूरी होता है। तभी उस विषय की प्रकृति समझ में आती है। आर्थर मारविक ने अपनी पुस्तक इतिहास की प्रकृति (Nature of History) में इसी गुत्थी को सुलझाया है। 
2.   इसी तरह इतिहास क्यों जरूरी है यह भी प्रश्न उठता है। इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए इतिहास की उपयोगिता समझ में आती है। उपयोगिता को स्पष्ट करने के क्रम में इतिहास के दुरुपयोग भी समझ में आने लगते हैं। 
3.   यह प्रश्न भी उभरता है कि क्या इतिहास हमेशा से एक जैसा ही रहा है? इतिहास के बदलते स्वरूप् को देखने पर इतिहास लेखर कैसे होता रहा है स्पष्ट होने लगता है। इस तरह इतिहास का इतिहास उजागर होता है।
4.   इतिहास का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि हम अतीत से वर्तमान के लिए सबक लें। परन्तु जैसा कि जर्मन दाशर्निक हेगेल का कहना है – इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। इससे इतिहास का महत्व नहीं घटता, इससे मनुष्य की प्रकृति के दोष उजागर होते हैं।
5.   इतिहास के आइने में ही हमारी पहचान दीखती है। मनुष्य अपनी अस्मिता को ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में ही देख-समझ पाता है।
6.   ऐतिहासिक पद्धति ही मनुष्य की मनीषा का सबसे आम उपकरण है – यानी मनुष्य को चीजें ऐतिहासिक पद्धति से ही समझ में आती है। 
इतिहास क्यों यानी, उसकी जरूरत ही क्या है?
इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया आने वाले कल की ओर भागी जा रही है बीते कल की जंजीर की क्या जरूरत? लेकिन अगर वास्तविकता यह हो कि बीते कल में ही सभी तरह की जंजीरों और उनके काटने के उपायों के स्रोत दबे पड़े हैं तब तो वहाँ तक जाना पड़ेगा न? यही तो काम है इतिहास का, समाज को बताना कि आदमी गुफाओं से खलाओं (अंतरिक्ष) तक कैसे पहुँचा है और इतनी सारी जंजीरें तोड़ता हुआ भी। आज भी जंजीरें तोड़ी हैं उससे ज्यादा से ही बंधा लगता है। इतिहास ही रूसो की उक्ति- मनुष्य मुक्त पैदा होता है पर हर कहीं जंजीरों में बंधा हैका मर्म बताता है।
साहित्य और कुछ नहीं करता तो मनोरंजन ही करता है। विज्ञान नौकरी दिलवाता है। अर्थशास्त्र से घर का बजट और समाजशास्त्र से घर का स्वरूप और समाज से समाज से रिश्ता समझ में आ जाता हो शायद, यानी, ज्ञानी-विज्ञानय, साहित्य का संबंध उससे है जिसका अस्तित्व है। इतिहास का, अतीत का, तो कोई प्रत्यक्ष अस्तित्व है उससे है जिसका संबंध उससे है जो थाहम तो हैं’, फिर थाका क्या करें?
सामान्यतः ऐसा सोचा जाता रहा है कि जिस चीज की कोई तात्कालिक और प्रत्यक्ष उपयोगिता न हो उसका होना न होना बराबर है। यानी कुल सवाल उपयोगिता का है। वही निर्णायक है।
इतिहास की उपयोगिता
इसके पहले कि हम इतिहास को वैचारिक दार्शनिक दृष्टि से उपयोगी सिद्ध करें आइए, हम अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टि से देखें कि इतिहास की उपयोगिता क्या है? सबसे पहले जो बात ध्यान में आती है वह यह कि फार्मों वाले देश में कोई भी फार्म लें उसमें प्रार्थी के नाम के बाद के दो-तीन कॉलम महत्वपूर्ण होते हैं, बाप का नाम, जन्मतिथि, पता आदि। हमें तो महज प्रार्थी से मतलब है। तो फिर अन्य विवरणों की क्या आवश्यकता? पर हम जानते हैं कि बिना बाप के पहचान ही पूरी नहीं होगी। हमारी पूरी पहचान के लिए हमारी जन्मतिथि और पता भी जरूरी है यानी हमें काल (जन्मतिथि) और देश (पता) में स्थापित करके और हमें अपने अतीत यानी बाप से जोड़ा जाता है ताकि शिनाख्त हो सके। उपर्युक्त तीन बातों से जुड़े बगैर मेरा परिचय और मेरा अस्तित्व पहचान नहीं बन सकता, यानी वर्तमान बिना अतीत से जुड़े अनाम, अज्ञात और अज्ञेय बना रहेगा।
पॉल वाइस के अनुसार अपने को अतीत से जोड़ने में आनंदानुभूति होती है। मनुष्य अपने स्रोत की चेतना से अपने को आश्वस्त कर लेता है कि वह अकेला,  निर्लम्ब नहीं है। मानव स्वभाव है कि वह किसी चीज को किसी परिप्रेक्ष्य में रख कर ही पहचान सकता है, उसे पूरी तरह समझ सकता है। अब तो सापेक्षताविज्ञान की भी स्वीकृत धारणा है। कोई चीज किसी संदर्भ में ही मोटी, पतली, लम्बी, छोटी, अच्छी या बुरी होती है। किसी व्यक्ति की किसी और से तुलना कर उसकी अच्छाई या बुराई को रेखांकित और बोधगम्य बनाते है। दूसरे शब्दों में, तुलना और उदाहरण बुद्धि द्वारा विकसित बौद्धिक उपकरण हैं। साहित्य में भी उपमा और रूपक सरलीकरण और संप्रेषण के उपादान हैं और सौंदर्य बोध को समृद्ध करते हैं।
किसी समाज विशेष में कैसे जानें-पहचानें? एक तरीका होता है उसे अन्य समाजों के मुकाबले देखने का जैसे आज के भारत को आज के पाकिस्तान, चीन या अमेरिका के संदर्भ में देखने का या फिर आज के भारत को कल यानी प्रारंभिक काल, मध्य काल या औपनिवेशिक काल के परिप्रेक्ष्य में देखने का। फिर आज के भारत को पश्चिमी समाज के बगल में खड़ा करके देखने की अपेक्षा आज को बीते कल से जोड़ कर देखने में अधिक सही पहचान बनती है। इससे विकास धारा का, इतिहास की दिशा का पता चलता है। इसलिए वर्तमान को इतिहास से ही परिप्रेक्ष्य मिलता है। दूसरे शब्दों, हम जानते हैं कि बिना दूरी लिए कोई चीज पूरी तरह दिखाई नहीं देती और वर्तमान से दूरी लेने का एकमात्र तरीका है उसे अतीत से जोड़ कर उसी के क्रम में देखना।
अतीत के प्रति मनुष्य का नैसर्गिक लगाव होता है। इतिहास इस लगाव की पहचान स्पष्ट कर सकता है- माँ  से सहज ढंग से प्यार करना एक बात है और माँ की अर्थवत्ता को समझना, उसका मूल्यांकन करना, दूसरी बात। वैसे ही अतीत से लगाव सबमें होता है-सहज, नैसर्गिक, लेकिन इतिहास उस लगाव को इतिहास बोध-में बदल सकता है, संवेदना और भावना के यथार्थ को बौद्धिक-ज्ञान और विवेक में विकसित कर सकता है। यानी उस लगाव को प्रासंगिक और उपयोगी बना सकता है।
इतिहास से सबक लेने की बात सबसे व्यावहारिक मानी जाती रही है। जैसे कोई आग से जला और यह समझदारी सबकी विरासत बन गई कि आग से आदमी जल सकता है। मुहम्मद तुगलक ने राजधानी बदली और मुसीबतें खड़ी हो गईं। इसलिए ऐतिहासिक मुहावरा बना दिल्ली से दौलताबादऔर इसे यानी राजधानी परिवर्तन, यानी स्थान परिवर्तन को गलत मान लिया गया। इस सबक वाली बात में मुख्य खतरा यह है कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है’, जैसी अवधारणा पनपती है, जो गलत है। जैसे राजधानी बदलने में कठिनाई हो पर ऐसा करना हमेशा गलत नहीं है। कभी-कभी वह जरूरी भी होता है, सफल भी होता है। कलकत्ते से दिल्ली, इलाहाबाद से लखनऊ, बर्लिन से बॉन सफल राजधानी परिवर्तन रहे हैं। यह सबक वाली बात सीधे जुड़ती है। इस मुहावरे से – दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।
यह अनुभवों के सार-संकलन से लाभ उठाने का पुराना व्यवहारवादी तरीका है। कल्हण ने इन्हीं अर्थों में इतिहास को उपयोगी माना था। इसी अर्थ में इतिहास प्रेरणास्रोत बनता है – अतीत नायकों के चरित्र और उपलब्धियों के माध्यम से आज को प्रेरणा देता है। यहाँ भी खतरा यही होता है कि अगर इतिहास की पुरावृत्ति वाली बात दिमाग में रही तो एक देश-काल में सफल नीति या व्यक्ति को अनुकरणीय मान लिया जा सकता है, जो घातक होगा। जैसे अकबर की धार्मिक नीति को सफल मान कर आज भी उसे लागू करने वाले मुंह के बल गिरते हैं। क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान कांग्रेस की धार्मिक नीति या सरकारों की धर्मनिरपेक्षता अकबर की धार्मिक नीति की तरह ही है। उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का मतलब है सर्व धर्म समभाव। लेकिन तमाम पर्दों के बावजूद यह तथ्य आंखों में घूरता है, अधिकांश लोगों के मनों में चोर की तरह बैठा रहता है और मौका पाते ही सेंध लगाता है और लोग भूल नहीं पाते कि सब कुछ करते हुए भी अकबर मुसलमान था और वही माना जाता रहा है। उसी तरह कांग्रेस – गांधी, नेहरू के बावजूद एक हिंदू-प्रधान संस्था नहीं है और आज की धर्मनिरपेक्षता भी हिन्दू-प्रधान है। और यह गलत है।
इस प्रकार एक ओर इतिहास से सबक लेने की बात सच है तो दसरी ओर गलत सबक लेने की बात भी सच है। और सबसे ज्यादा तो सच यह है कि हीगेल के अनुसार इतिहास की सबसे बड़ी सीख यही है कि इतिहास से कोई सीख नहीं लेता।न स्वयं हीगल ने कोई सीख ली, न उसके देश जर्मनी ने, न उसके विचारों की धर्मनिरपेक्षता भी हिन्दू-प्रधान है। और यह गलत है।
अब आइए इतिहास की उपयोगिता को और गंभीरता से परखें। हम जानते हैं कि कारण कार्य संबंधों की तलाश में प्रकृति से आंकड़े जुटा कर प्राकृतिक परिघटनाओं (फेनामेना) को प्रयोगशाला में दोहरा कर इतने तथ्य जुटाए गए कि उसके आधार पर सामान्यीकरण किया जा सके और निर्देशित किया जा सके – भविष्य के बारे में बताया जा सके। प्राकृतिक विज्ञान में ऐसा संभव हुआ और मनुष्य का आत्मविश्वास बढ़ा। जहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित न हो सके, उसे अविश्वसनीय माना गया। इसलिए देकार्त ने इतिहास को अविश्वसनीय कहा था। आज भी बहुत से लोग इतिहास को किस्सा-कहानी ही समझते हैं।
फिर शुरू हुई सामाजिक विकास के नियमों की तलाश। ऐसे विचारक हुए जो समाज को समझने के नियमों और उसके परिवर्तनों को नियमबद्ध करने, नियंत्रित और निर्देशित करने की कोशिश करते रहे। ज्ञान के जिन क्षेत्रों में ऐसा नहीं हो सकता था उन्हें नकारा जाने लगा। ओगुस्त कोंत ने सामाजिक भौतिकीकी तलाश कर लेने का दावा किया और समाजशास्त्र का जनककहलाने लगा पर वास्तव में सामाजिक विकास के वस्तुगत नियम ढूंढने और उन्हें यथासंभव लागू करने का काम मार्क्स ने किया। 

कार्ल मार्क्स
मार्क्स प्रकृति की द्वंद्वात्मकता से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तक पहुँचा और उसे इतिहास पर लागू कर ऐतिहासिक भौतिकवाद तक। उसने इतिहास के तथ्यों के विश्लेषण से ही जाना कि इतिहास कैसे गतिमान रहा है – मानव-समाज कैसे आदिम स्थिति से पूंजीवादी व्यवस्था तक पहुँचा है। उसी विश्लेषण से उसने सामाजिक परिवर्तन के नियम का आधार उत्पादन साधनों और उत्पादन संबंधों में परिवर्तन को सिद्ध किया और वर्ग-संघर्ष को निर्णायक, अनिवार्य, माध्यम बताया। उसने भविष्यवाणी की कि जैसे सामंतवाद को पराजित कर पूंजीवाद विकसित हुआ है वैसे ही पूंजीवाद को ध्वंस कर सर्वहारा अपना राज्य कायम करेगा। 1917 की रूसी क्रांति के बाद मार्क्स द्वारा निरूपित नियम इतिहास में कई बार सिद्ध हो चुके हैं। इसलिए इतिहास ही वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव-कृतियों का लेखा-जोखा सुरक्षित है और उसी आधार पर सामाजिक परिवर्तन के वस्तुगत नियम समझे जा सकते हैं – उसी के आधार पर अतीत को समझा, वर्तमान को पहचाना और भविष्य को संवारा जा सकता है।
इसके अलावा इतिहास संकीर्णता का शत्रु है। इतिहास का सही’ (वैज्ञानिक) अध्ययन करते ही देश-काल की विशिष्टता तो रेखांकित होती है पर मानव-समाज की एकता उससे भी अधिक उजागर होती है। जैसे इतिहास यह बताएगा कि भारत में असम, पंजाब या तमिलनाडु की अपनी विशिष्टता है पर यह भी कि भारतीयता भी एक ऐतिहासिक यथार्थ है। इतिहास बताता है कि वैज्ञानिक युग के प्रारंभ यानी पंद्रहवीं शताब्दी के बाद विश्व-समाज की एकता उजागर होती चली गई है। हर समाज और वर्ग अपने जैसों से एकाकार महसूस कर एकजुटता प्रदर्शित करता है। इसे साहित्य, दर्शन, कला और विचार में अभिव्यक्ति मिलती रही है।
इतिहास मनुष्य की प्रगति यात्रा के शानदार महाकाव्य जैसा है, बिना नायक और खलनायक के। धर्म-ग्रंथों में स्वर्ण काल के अतीत में और कयामत के दिन के भविष्य में होने पर जोर दिया गया है। उनके अनुसार समाज पतनोन्मुख है और पाप का घड़ा भर रहा है, एक दिन फूटेगा और प्रलय होगी। परिवर्तन तभी संभव है। ऐसी धारणा से मनुष्य निराश और आतंकित होता है। इसके विपरीत इतिहास यह बताता है कि मनुष्य अमीबा से आदमी बनने तक की यात्रा पूरी कर आदमी से इंसान और इंसान से बेहतर इंसान बनाने के संघर्ष में रत है। आदिम जंगली अवस्था की प्रकृति की गुलामी तोड़ कर मनुष्य आजाद हुआ। उसने अपने उपकरण बनाए। बुद्धि का विकास किया और प्रकृति से संघर्ष कर उस पर नियंत्रण करने लगा। दिन-ब-दिन सभ्यता और संस्कृति का विकास होने लगा। इस दौरान इसने स्वयं तरह-तरह के बंधन पैदा किए – वर्गों, वर्णों, गुटों में बांटा। आपस में लड़ता रहा, संहार करता रहा। फिर भी – इस सबके बावजूद, वह धरती के अलावा आकाश-पाताल भी भेदने लगा, इंसान बनने की लड़ाई में लगा रहा। यानी इतिहास इंसान की लगातार बढ़ती जा रही जीतों का साक्षी है, उसके उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष कर रहा है।
इतिहास नियतिवाद पर भयानक प्रहार करता है। इतिहास में ही हमें पता लगता है कि इंसान की जीत हाथ पर हाथ धरने से नहीं, महापुरुषों के इंतजार से नहीं, स्वयं समवेत रूप में महाबली बनने से संभव हुई है। इतिहास व्यक्तियों के प्रयासों और उपलब्धियों को बताता ही है, इतिहास मनुष्य के भविष्य में ही नहीं उसकी शक्ति में भी विश्वास पैदा करता है।
इतिहास अगर मनुष्य की कृतियों का लेखा-जोखा है तो निश्चित ही मनुष्य को समग्रता में जानने का और कोई उपाय ही नहीं है। जिस समाज में हम रहते हैं, उसके वर्तमान स्वरूप को उसमें रहते हुए हम समग्रता में ग्रहण ही नहीं कर सकते, देख-समझ ही नहीं सकते। उसमें दूरी लेने कास एक तरीका है कि हम वर्तमान से अतीत तक को लें। यद्वपि संयुक्तता की संभावना तभी भी रहती है क्योंकि इतिहास के क्षेत्र में मनुष्य लेखक भी होता है और अपने लेखन का विषय भी, दोनों एक साथ। पर अतीत को देखने में जो परिप्रेक्ष्य मिलता है वह कमोबेश समग्र प्रभाव छोड़ सकता है। इसलिए साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र मनुष्य के अंतरंग, निर्णायक या जरूरी पक्षों का अध्ययन कर सकते हैं पर मानव कृतियों कुल योग इतिहास का ही विषय है।
जीव जगत का कोई अन्य प्राणी अपने अतीत को उपयोगी बनाने को कौन कहे, उसके प्रति सचेत भी नहीं होता, किन्हीं-किन्हीं में सहजानुभूति के स्तर पर कोई लगाव हो यह चेतना हो भी तो कम से कम उसका अर्थ समझने की और उसे अपने हित में इस्तेमाल करने की क्षमता नहीं होती। मानव-समाज के विकास-क्रम में अतीत, वर्तमान के लिए प्रासंगिक और अनिवार्य होता गया है। विकसित मानव ही अतीत का विश्लेषण और संकलन कर सकता है और इतिहास के माध्यम से महसूस कर सकता है कि कालधारा में बह नहीं रहा है, तैर रहा है।
इतिहास की समझ ने हमें एक ऐतिहासिक पद्धति दी है जिसके उपयोग से ज्ञान-मीमाँसा समृद्ध हुई है। उस पद्धति से ही हम विज्ञान और समाज विज्ञान ही नहीं साहित्य और संस्कृति की भी पूरी अर्थवत्ता भलीभांति समझ सकते हैं। यहाँ तक कि हमारी दैनंदिन समझ भी इस पर निर्भर होती है : जैसे आज चाय अच्छी है इस निर्णय पर हमारा मस्तिष्क अब तक पी गई चाय से संदर्भित करने के बाद ही पहुँचता है।
इसलिए इतिहास मनुष्य के विकास का उद्घाटक ही नहीं प्रमाण भी है, मानव-समाज को समझने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण है। 
2. इतिहास क्या यानी इतिहास की अंतर्वस्तु और प्रकृति क्या है?
वे लोग भी इतिहास के विषय में एकमत नहीं हो पाते जो मानव-इतिहास का अर्थ समझते हैं। इतिहास में आदमी के कारनामों का जिक्र होता है उन्हें आदमी ही इतिहाबद्ध करता है, इसलिए विवादों का खड़ा होना स्वाभाविक-सा है। बस एक बात निर्विवाद और सुनिश्चत होती है कि इतिहास का संबंध मनुष्य के अतीत से हैं। उस अतीत को देखने, उसके बारे में कोई अभिधारणा बनाने और उसकी व्याख्या में देश-काल और व्यक्ति के अनुसार मतैक्य न हो तो इससे विशेष आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जब से मनुष्य चेतनशील हुआ है, वह अपने अतीत में, जहाँ उसके वर्तमान के स्रोत हैं, दिलचस्पी लेता रहा है। इस सहज रुचि के साथ उसके वर्तमान के स्वार्थ, उसकी मनोवृत्ति, उसके विचार और उसकी वर्ग-चेतना की भूमिका जुड़ी होती है। इसलिए अतीत को वह अपने ढंग से देखता रहा है और इतिहास विवादों को जन्म देता रहा है, उनका शिकार होता रहा है।
समाज विज्ञान के क्षेत्र में एक सार्वभौम और सर्वव्यापी परिभाषा कर पाना, जो संक्षिप्त और सर्वथा उचित भी हो, प्राकृतिक विज्ञान की अपेक्षा बहुत कठिन कार्य है। जहाँ तक इतिहास का संबंध है, उसकी परिभाषाओं में बहुत विविधता है। अमरीका के सबसे पहले और सबसे प्रसिद्ध धनकुबेर हेनरी फोर्ड ने इतिहास को बकवास कहा था-हिस्ट्र इज बंक’ (उनका ऐसा कहना स्वाभाविक था क्योंकि उस समय न तो उनका कोई इतिहास था और न उनके जैसों के देश का)। दूसरी ओर नेपोलियन इतिहास को विवेक कहता था। हालांकि स्वयं उसमें विवेक का अभाव था और वह हीगेल के इन शब्दों की सच्चाई साबित कर गया कि इतिहास की एकमात्र सीख यही है कि हम इतिहास से कोई सीख नहीं लेते।फ्रांसीसी लेखक अनातोल फ्रांस ने इतिहास की एक दिलचस्प तस्वीर खींची है। उसके अनुसार इतिहास एक अत्यंत प्रभावशाली महिला की तरह है जो स्वभाव से दम्भी, भुलक्कड़, पक्षपाती और झूठी है। साहित्यकार की अंतदृष्टि ने इस प्रकार इतिहास के उन दोषों की ओर इशारा किया है जिन्हें जनमानस प्रायः इतिहास में देखता है।
इतिहासकारों और विचारकों की बात लें तो फ्रेंच इतिहासकार मारु का मत है कि इतिहास मानव के अतीत का ज्ञान है।और स्पष्ट शब्दों में डब्ल्यू.एच. गालब्रेथ इतिहास को अतीत का वह अंश मानते हैं जिसे हम जान पाए हैं या जान पाते हैं।इस प्रकार निर्विवाद रूप से इतिहास अतीत में मानव-समाज का प्राप्त और प्राप्य ज्ञान माना जाता रहा है।
समाज के संदर्भ में इतिहास की वही भूमिका है जो मनुष्य के संदर्भ में उसकी स्मृति की। इस तरह समष्टि की। अपने अतीत की स्मृति है, पर जब कोई व्यक्ति वैज्ञानिक अध्ययन के सहारे इस स्मृति का संयोजन करता है, उसे लिपिबद्ध करता है या यूं कहें कि अतीत की पुनर्रचना करता है, तभी इतिहास का जन्म होता है। इतिहास की रचना एक व्यक्ति करता है जो आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में रहता है। जीवन और परिवेश की उसकी अपनी समझदारी होती है, उसकी अपनी एक अस्मिता होती है। ये बातें उसके इतिहास-लेखन पर निश्चित प्रभाव डालती हैं। इस प्रकार व्यक्ति और इतिहास के संबंध दोहरे हो जाते हैं। विख्यात फ्रांसीसी विचारक रेमो आरों के शब्दों में,  आदमी एक ही साथ इतिहास का कर्ता और पात्र दोनों होता है’ (लाम्म एताला फुआ ल स्यूजे ए लोब्जे द लिस्तुआर)। स्पष्ट शब्दों में, अतीत की मानवकृतियों का जब एक मानव (इतिहासकार) विवेचना करता है तो उसका पूरी तरह वस्तुनिष्ठ हो पाना संभव नहीं क्योंकि वह जिन इतिहास स्रोतों को अपना आधार बनाता है उनका वह स्वयं प्रत्यक्ष साक्षी नहीं होता, न ही वह उन्हें किसी प्रयोगशाला में दुहरा सकता है। ऐसी स्थिति में वह अपने इतिहास-लेखन में पूरी तरह तटस्थ और पूर्वाग्रह-विहीन कैसे रह सकता है? व्यक्तिगत और परिवेशगत दबावों के कारण उसके लेखन के आत्मपरक होने की संभावना बनी रहती है।
इतिहास-लेखन एक दुष्कर कार्य है। इतिहासकार कितना ही बड़ा शोधकर्ता क्यों न हो उसे पूरे साक्ष्य नहीं मिल पाते। फिर जितने भी मिलेंगे उनमें से उसे चुनाव करना पड़ता है। पूरी प्रक्रिया के दौरान अक्सर उसकी पूर्वनिश्चित धारणाएं काम करती हैं और प्रायः इतिहासकार उनके प्रति सचेत तक नहीं होता। ऐसा भी होता है कि इतिहासकार अपने दम्भ का शिकार हो जाता है या फिर अपने कार्य की प्रतिष्ठा के लिए अपने इतिहास को सत्य का पर्याय कह बैठता है। इतिहासकार बरी ने कहा था कि शायद ही कोई ऐसा इतिहासकार हो जो न कहता हो कि उसका एक मात्र लक्ष्य अतीत का निष्पक्ष और सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करना है। ऐसा कहना और सोचना दुराग्रह है जो स्वयं इतिहासकार को नहीं, इतिहास की सीमाओं को भी नजरअंदाज करता है।
वास्तविकता यह है कि इतिहास का सत्य सीमित होता है और वह भी तभी विश्वसनीय होता है जब-
(1) प्रासंगिक तथ्यों के बारे में स्रोतों का यथासंभव शोध हो और विभिन्न स्रोतों से पुष्ट तथ्य को स्वीकार किया जाय। 
(2) इतिहासकार स्वयं अपने विचारों तथा पूर्वाग्रहों के प्रति सचेत हो।
(3) तथ्यों के विश्लेषण के लिए उसके पास कोई सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक उपकरण हो।
(4) तथ्यों के संकलन-विश्लेषण में वह जहाँ तक हो सके जागरूक तटस्थता का निर्वाह करे।
इतिहास-लेखन की सीमाओं और संभावनाओं को समझने के लिए यह जरूरी होगा कि हम इतिहास-दर्शन और अब तक इतिहास-लेखन पर हुए चिंतन पर एक विहंगम दृष्टि डाल लें। दूसरे शब्दों में, इतिहास का संक्षिप्त इतिहास जान लेना उपयोगी और आवश्यक है।
इतिहास लेखन का इतिहास
अति प्राचीन काल में भी जब इतिहास-लेखन शुरू भी नहीं हुआ था, मनुष्य मिथक और गाथाओं के माध्यम से अपने अतीत की कथा-स्मृति को यथासंभव सुरक्षित रखता था। लेकिन उस समय यथार्थ और कल्पना इस तरह घुलमिल जाते थे कि एक-दूसरे को अलग कर पाना संभव नहीं था। यद्यपि कालिंगवुड का विचार है कि मध्यपूर्व की प्राचीन सभ्यताओं में एक प्रकार के धार्मिक इतिहास के बीज मिलते हैं पर भारतीय और चीनी परम्परा तो मध्यपूर्व से प्राचीनतर है और वहाँ भी इतिहास बीज रूप में मौजूद है पर समान्यतः इतिहास लेखन की शुरुआत यूनान के हेरोदोतस (पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व) भी गाथाओं और मिथकों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके थे पर उन्होंने अपने इतिहास में मनुष्य के कार्यों को देश-काल में स्थित करना शुरू किया और इतिहास-लेखन का प्रारंभिक दौर शुरू हुआ।
हेरोदोतस ने मनुष्य के कार्यों को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखा। अपनी कुशाग्र जिज्ञासा और ईमानदार निर्णय के सहारे उसने इतिहास लिखा। लेकिन उसके पास कोई वैज्ञानिक शोधपद्धति नहीं थी। वह प्रायः अपनी सूचनाओं पर यथावत विश्वास कर लेता था। उसे उन लोगों की भाषाएं भी नहीं आती थीं जिनके विषय में वह लिख रहा था। और फिर उस काल की स्वाभाविक मासूमियत का वह भी शिकार था। इसलिए कुछ लोग तो उसे इतिहासकार मानने पर भी एतराज करते हैं। पर यह निर्विवाद है कि वह मनुष्य को देश-काल में स्थित कर देखने लगा था। देश-काल का यही संदर्भ इतिहास की पूर्व शर्त है।
थूसीदीदस का लेखन ज्यादा व्यवस्थित और सूक्ष्म था। वह यथासंभव कल्पना के सहारे लिखने से बचता था। उसकी दृष्टि पैनी थी और वह तथ्यों की जांच करता था। पर वह अंतर्ग्रस्त हो कर लिखता था कि ऐसे ही लोगों को इतिहास लिखना चाहिए जिनका घटनाओं से सीधा जुड़ाव रहा हो।इस तरह उसके लेखन की भी एक सीमा थी। खासतौर पर उसके अनुसार सुदूर अतीत का इतिहास लिखने की तो संभावना ही नहीं थी।
इन दोनों पहलकर्ताओं को पूर्णतया इतिहासकार न भी माना जाए तो इन्हें अपने युग का जीवनीकार तो मान ही सकते हैं। वैसे उस युग में वस्तुगत इतिहास की अपेक्षा करना एक दुराग्रह ही होगा। आज भी जब इतिहास वैज्ञानिक विधि से लिखा जाने लगा है वह गाथाओं और किंवदंतियों से पूर्णतः मुक्त कहाँ हो पाया है?
प्राचीन इतिहासकारों में इटली के पोलीबियस (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) ने इतिहास को सबसे सही परिप्रेक्ष्य में समझा। उसने कहा कि यदि इतिहास के कारणों की व्याख्या, विचार और मंतव्य जैसी चीजें इतिहास से निकाल दें तो तमाशा मात्र ही बचेगा जो मूल्यहीन होगा। उसने घटनाओं को उनके पहले और बाद के संदर्भों से जोड़ने पर जोर दिया। उसने इतिहास के तीन पहलू बताए, लिखित अभिलेख, टेपोग्राफी और राजनीतिक बातें। उसने इतिहासकार के दो काम बताए, सही तथ्य का पता लगाना और किसी नीति या व्यवस्था की सफलता-असफलता के कारण ढूंढना। ऐसा न होने पर इतिहास शिक्षाप्रद नहीं होगा। यह सब होते हुए भी वह राजनीति की प्रधानता से उबर नहीं सका और एक प्रकार के नैतिक पूर्वाग्रह का शिकार होता गया।
ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में जब यूनान का पतन हो रहा था, इतिहास की महत्ता समाप्त-सी हो रही थी। ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में समाज को धर्म प्रधान बनाना शुरू कर दिया गया था और समय की धारा के अनुकूल ही संत आगस्टाइन ने इतिहास में ईश्वर को स्थापित कर दिया।एक नियतिवादी समाज में मनुष्य के कार्यकलापों का क्या महत्व हो सकता है? भिक्षुओं ने, जिन्हें जीवन और समाज की सीमित जानकारी थी, इतिहास लेखन को भी एक धार्मिक कार्य समझा। जाहिर है उनका इतिहास समाज के विकास-क्रम पर या उसे बदलने पर रोशनी डालने को कौन कहे, व्यक्ति की सही पहचान कराने में भी असमर्थ था। यूरोप शताब्दियों तक ऐसा ही इतिहास लिखा जाता रहा जो कैथोलिक चर्च की सत्ता की प्रतिष्ठा और स्थायित्व बनाएं रखने में सहायक हो। 

IBN KHALDUN
चौदहवीं शताब्दी में, यूरोप में ही नहीं, अफ्रीका में, एक विलक्षण इतिहासकार पैदा हुआ-इब्न खल्दून (1332-1406)। उसने केवल इतिहास नहीं, इतिहास-लेखन की विधि और सामाजिक संस्थाओं का महत्व समझा। उसने अपने पहले के अरब इतिहास को साहित्य से अलग रखते हुए साधारण के माध्यम से विशिष्ट की व्याख्या करने का तरीका अपनाया। अपनी विख्यात मुकद्दिमाकी प्रस्तावना में उसने लिखा कि वह इतिहास इसलिए लिख रहा हैस, ताकि शासक जान सकें कि पहले क्या हुआ और बाद में क्या होगा। यह इतिहास को काल प्रवाह और विकास की दिशा के संदर्भ में समझने का प्रयास था और आज भी प्रासंगिक हैं इस प्रकार वैज्ञानिक पद्धति इस्तेमाल करके इतिहासकार सिद्वांतों, मतों और पूर्वाग्रहों से बच सकता है। इस तरह के वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाला इब्न खल्दून पहला व्यक्ति था। यह दूसरी बात है कि वह स्वयं पूरी तरह वैसा इतिहास नहीं लिख सका। इब्न खल्दून के मूल्याकंन का आधार यह नहीं हो सकता कि वह इतिहास को वह स्वरूप नहीं दे सका जिसकी वह बात करता था। उसे तो इस दृष्टि से देखना चाहिए कि अपनी आलोचनात्मक पद्धति और दार्शनिक झुकाव के कारण उसने इतिहास को वह गरिमा प्रदान की, जो यूरोप में सदियों बाद जा कर ही किया जा सका। अंत में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह यूरोप के पुनर्जागण के पहले लिख रहा था, और वह भी अफ्रीका में।
यूरोप में पंद्रहवीं शताब्दी में जब पुनर्जागरण शुरू हुआ तो जीवन-दृष्टि ही बदलने लगी। चमत्कारों का प्रभाव कम होने लगा। बिना धर्म विरोधी बने लोग धर्म के प्रति तटस्थ होने लगे। इतिहास पर भी धर्म का प्रभाव दो तरह से कम होना शुरू हुआ। एक तो गैर भिक्षु लोग भी इतिहास-लेखन की ओर आकर्षित हुए। दूसरे इतिहास का विषय अब सेक्यूलरहोने लगा।

Niccolò Machiavelli

इस समय के लेखकों में मैकियावेली (1469-1527) का नाम प्रमुख है। राजनीति की तरह इतिहास के विषय में भी उसके अपने दृढ़ विचार थे। उसने इतिहास को अपने विचारों के लिए उपकरण की तरह इस्तेमाल किया। फुएटरा का तो कहना है कि अपने विचारों की पुष्टि के लिए जब उसे तथ्य नहीं मिलते थे तो वह उन्हें गढ़ लेता था। ऐसे में इतिहास कितना निष्पक्ष होगा, यह सोचने की बात है पर यह तो निर्विवाद है कि उसने इतिहास को लौकिक आधार प्रदान किया।
प्रबोधनकाल (एज ऑफ एनालाइटेनमेंट) में इतिहास का स्वरूप निश्चित दिशाओं में निर्धारित होने लगा। इतिहास का क्षेत्र धार्मिक दांव-पेंच और राजनीति के पचड़ों को पार कर विस्तृत होने लगा। समाज और सभ्यता इतिहास के विषय होने लगे। अंधविश्वासों का प्रभाव समाप्त होने लगा। विचारों को अधिक महत्व मिलने लगा, जिसके कारण बाद में बौद्धिक इतिहास की शुरुआत हो पाई। मानवमात्र की समानता की बात की जाने लगी। उनकी विविधता का आधार मोन्तेस्किउ (1689-1775) ने भूगोल को और वोल्तेयर (1694-1778) ने जलवायु, धर्म और संस्कारों को माना। सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि इतिहास में प्रगति का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ। इस प्रकार स्वर्णकाल की खोज इतिहास में करने के बजाय उसकी कल्पना भविष्य में की जाने लगी। फ्रांस के विद्वान लेखकों मान्तेस्किउ, वोल्तयर और कोंदोर्से (1743-1794) के प्रभाव में इतिहास तर्कसंगत होने लगा।
इस प्रकार इतिहास के परिप्रेक्ष्य का विस्तार हुआ। उसे सैद्धान्तिक आधार मिला। लेकिन ऐसा लगता था कि इस काल के लेखक इतिहास से पूछने के पहले ही जानते थे कि व्यक्ति कैसा है।ऐसी स्थिति में ऐतिहासिक तथ्यों को वह सम्मान नहीं मिल पाया था जो उन्हें मिलना चाहिए था। वस्तुनिष्ठ इतिहास तर्कसंगत होने लगा।
अब हम पिछली तीन शताब्दियों में हुए इतिहास-चिंतन पर एक दृष्टि डालें तो हमें दो सुस्पष्ट धाराएं नजर आएंगी। एक धारा इतिहास में कार्य-कारण-संबंधों पर वैसे ही नियम लागू करना चाहती है जैसा कि प्राकृतिक विज्ञान में होता है ताकि सामान्यीकरण के आधार पर कुछ नियम बनाए जा सकें। इस प्रकार इतिहास को विज्ञान बनाने की चेष्टा की जाती रही है। दूसरी ओर, इतिहास की प्रासंगिकता पर बल दिया गया है और किसी भी सामान्यीकरण को नकारा जाता है। इसके अतिरिक्त ऐसे भी प्रयत्न हुए हैं कि इतिहास में दोनों ही विचारों का समन्वय हो सकता है। इस प्रकार बीच के रास्ते की वकालत होती रही है।

René Descartes
वैज्ञानिक इतिहास की तलाश: फ्रांसीसी विचारक देकार्त (1596-1650) स्वयं कोई इतिहासकार नहीं था, फिर भी हमें बात उसी से शुरू करनी पड़ेगी। उसकी दृष्टि में हर वह चीज निकृष्ट थी जो तर्क की कसौटी पर न कसी जा सके। इसलिए वह कहता था कि सच्चा-से-सच्चा इतिहास भी रूमानियत से मुक्त नहीं हो सकता। उसने इतिहास को मानव विज्ञान के क्षेत्र में कोई महत्व देने से इंकार कर दिया। लेकिन उसने जो तर्क-पद्धति प्रतिपादित की उसका उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में होने लगा और अठारहवीं शताब्दी आते-आते इतिहास के क्षेत्र में भी एक मोड़ आया।
ज्यादातर विज्ञान वोल्तेयर द्वारा लिखित लुई चतुर्दश का कालको पहला आधुनिक इतिहासमानते हैं। वोल्तेयर ने इतिहास संबंधी अपने विचारों को दिदरो की इंसाइक्लोपीडियामें लिखा था। उसका मत था कि जैसे और क्षेत्रों में नियम हैं वैसी ही वैज्ञानिक इतिहास-लेखन के भी नियम हो सकते हैं। पर उसे चर्च और पादरियों से घृणा थी और वह इतिहास में हीरोकी महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता था। उसकी धारणा नैतिकवादी थी। निश्चित था कि ऐसे में वह इतिहास-लेखन में तटस्थ नहीं रह सकता था।
बाद में कोन्दोर्से और उसके प्रभाव में सैं सीमो (1760-1825) ने इतिहास से वे आंकड़े प्राप्त करने चाहे जिनके आधार पर भविष्य का निर्धारण हो सके। इसी क्रम में ओगस्तु कोंत ने नियम ढूंढने चाहे जिनके सहारे सारी इतिहास-धारा को पहले से ही जाना जा सके। वह एक प्रकार की सामाजिक भौतिकीकी प्रतिष्ठापना करना चाहता था। इन बातों का यूरोप भर में काफी प्रभाव पड़ा। तैन (1828-1893) ने तो यहाँ तक कहा कि जन्तु विज्ञान की तरह इतिहास को भी एक तरह की एनॉटमी’, मिल गई है’, यानी इतिहास वैज्ञानिक हो गया है।
कुल मिला कर इस धारा में दो बातों पर जोर दिया गया – वैज्ञानिक शोध और सामान्यीकरण के माध्यम से नियमों का आविष्कार। इनमें से पहले लक्ष्य ने इतिहास का बहुत भला किया। पर वैसे नियम नहीं बनाए जा सके और इतिहास उतना अनुभवजन्य नहीं हो सकता जितना होने पर वह वैज्ञानिकता मिल पाती जो उसे तैन और ओस्गुस्त कोंत देना चाहते थे।
जर्मनी में इस प्रवृत्ति को नीबर (1776-1831) नामक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति में अभिव्यक्ति मिली। उसने बर्लिन विश्वविद्यालय में पहले अपने व्याख्यानों और रचनाओं के माध्यम से इतिहास को एक भाषाशास्त्री की दृष्टि से देखा। उसकी पुस्तक रोम का इतिहासने इतिहास-लेखन का एक नया आयाम प्रस्तुत किया। लेकिन उसकी एक बहुत बड़ी कमजोरी थी। उसका ख्याल था कि जिसने घटनाओं को पास देखा है, संपृक्त हो कर उनके साथ रोया या हंसा है वही अच्छा इतिहास लिख सकता है। राजनेता उसके विचार से अच्छे इतिहासकार हो सकते थे। इस प्रकार डूबकर लिखने की प्रवृत्ति इतिहास को किस कदर रंग सकती है उसे वह नजरअंदाज करता था (यहाँ चर्चिल के उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाती है। यह सर्वज्ञाता है कि सारी जीवन्तता और ढेर सारे तथ्यों के बावजूद चर्चिल द्वारा लिखित इतिहास एकांगी है और विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों, विशेषकर इंग्लैंड और उसकी अपनी भूमिका को रेखांकित करता है)।

Leopold von Ranke
नीबर के शिष्य रांके (1795-1886) ने इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण काम किया। इतिहास में रांके की रुचि का प्रारंभ सन्दर्भ और महत्वकी तलाश से शुरू हुआ। तथ्यों की निकटता, सच्चाई और आधिकारिकता को वह सर्वाधिक महत्व देता था। उसने यूरोप के अभिलेखागार छान मारे। बहुत से पुस्तकालयों एवं कार्यालयों से उसने दुर्लभ और अज्ञात ऐतिहासिक सामाग्री जुटाई। कुछ में प्रवेश के लिए पहली बार उसे ही आज्ञा मिली। इन सबके आधार पर जो इतिहास उसने प्रस्तुत किया उसने अब तक के बहुतेरे विद्वानों का सम्मान भूलुंठित कर दिया।
उसने सामान्य में विशिष्ट की तलाश को अपनी पद्धति बनाया। अपनी पुस्तक लैटिन और जर्मनिक राष्ट्रों का इतिहासमें उसने स्पष्ट लिखा कि इतिहास में अतीत के विषय में स्पष्ट निर्णय और वर्तमान के लिए शिक्षा की अपेक्षा की जाती है ताकि भविष्य का सामना जागरूकता के साथ किया जा सके। वह जानता था यह पूरी तरह कर पाना असंभव है पर उसका लक्ष्य था कि वह अतीत को ज्यों का त्यों’ (जैसा वह वास्तव में था, वी एस आइगेन्टलिश गेवेसन’) प्रस्तुत करे। इसके लिए उसने कुछ सुझाव रखेः
(1) तथ्यों को कठोर अनुशासन के साथ प्रस्तुत किया जाए भले ही वे शुष्क लगें।
(2) घटनाओं की अंतर्निहित एकता और विकासक्रम का विश्लेषण विस्तार से किया जाए। इसके लिए संस्थाओं और राष्ट्रों को एक-एक करके लेना आवश्यक है। 
(3) जो भी विशेष हो उसे रेखांकित करना चाहिए क्योंकि इतिहास की पद्धति ही यही है कि विशेष की तलाश की जाए।
(4) यह तरीका कारगर हो, इसके लिए आलोचनात्मक पद्धति, तटस्थ शोध और संश्लिष्ट रचना होनी चाहिए। 
उसने स्वयं को स्वीकारा है कि ऐसा पूरी तरह कर पाना बहुत कठिन है। वह स्वयं लूथरवादी था और प्रशा का निवासी होने के नाते राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था। वह रूस के जार पीटर और प्रशा के शासक फ्रेडरिक जैसी विभूतियों का प्रशंसक था। इसलिए उनके विषय लिखते समय वह एक तरह का लगाव महसूस करता था। उसने एक बार लिखा था, ‘काश मैं अपने को मिटा पाता।यह उसी की नहीं किसी भी इतिहासकार की पीड़ा हो सकती है कि वह अपने व्यक्तिव को इतिहास-लेखन के समय भुला दे, उसे अलग रखे, लेकिन ऐसा पूरी तरह कर पाना केवल असंभव ही नहीं, अस्वाभाविक भी लगता है। ऐक्टन का मत है कि रांके ने ऐसा करने में सफलता पाई, उसने अपने व्यक्तित्व के कवि, देशभक्त और राजनीतिक पक्षधर को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया। उसने जब अपने देश के दुश्मन फ्रांस के विषय में भी लिखा तो उसका राष्ट्रप्रेम आड़े न आया और उसका यूरोपीय परिप्रक्ष्य धूमिल नहीं हुआ। स्वयं उसने अपने देश के विषय में लिखते समय वह भावनाओं के प्रवाह से बचा रह गया। इयेना के युद्ध की याद, जिसमें नोपोलियन द्वारा प्रशा की पराजय हर प्रशा निवासी के अंतर्मन को सालती रहती थी, उसे उद्वेलित न कर सकी। इस प्रकार हर व्यक्ति और घटनाओं में मानो वह समा कर लिखता था। उसकी सफलता का सबूत उसी आलोचना से भी मिला था। सीबेल, ड्रायसन और ट्रइट्श्के जैसे अंध राष्ट्रभक्तों ने उसकी तटस्थता की खिल्ली उड़ाई है। राष्ट्रवादियों ने उसकी व्यापक दृष्टि, नैतिकवादियों ने उसकी नैतिक तटस्थता और भौतिकवादियों ने उसकी अस्पष्ट आध्यात्मिकता की आलोचना की है।
इस तरह अतीत के यथावत चित्रण जैसा असंभव कार्य वह नहीं कर सका और न ही हमेशा पूरी तरह अपने पूर्वाग्रहों पर नियंत्रण रख सका, पर जैसा उसने लिखा वैसा उसके पहले नहीं लिखा गया था। उसने शुष्क किन्तु आधिकारिक इतिहास-लेखन की परंपरा को जन्म दिया। उसक अनुयायी और शिष्य दो पीढ़ियों तक यूरोप और अमरीका के विश्वविद्यालयों में छाये रहे। उसका प्रभाव मार्क्सवादी इतिहास-लेखन के विस्तार के बाद ही कम हुआ।
इंग्लैंड में कोंत का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। जान स्टुअर्ट मिल हमेशा कहता था कि जो प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में संभव है, वह हर कहीं संभव है।
स्वयं प्रशिक्षित इतिहासकार हेनरी टामंस बकल (1821-1862) ने भौतिक बातों का मानव सभ्यता पर प्रभाव स्पष्ट किया। उसने मानव-विकास के नियम ढूंढ़ने की कोशिश की। अपनी पुस्तक इंग्लैंड में सभ्यता का विकासकी प्रस्तावना में उसने इस बात पर जोर दिया कि बिना विज्ञान के इतिहास का कोई वजूद ही नहीं है। उसने कहा कि ज्ञान के हर क्षेत्र में सामान्यीकरण की विधि अपनाई जाती है। इतिहास में भी यदि वही नहीं तो वैसा ही करने की चेष्टा उसने की। उसने यहाँ तक कहा कि इतिहास में अब तक ऐसा इसलिए नहीं हो सकता है क्योंकि न्यूटन या केपलर जैसी प्रतिभा वाला कोई इतिहासकार नहीं हुआ। लेकिन उसने साबित किया कि उसमें भी वैसी प्रतिभा नहीं थी क्योंकि वह भी कोई नियम नहीं बना सका।
बकल ने अपने सीमित दायरे में ऐसा करना चाहा था। जे.बी.बरी ने तो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विख्यात रेजियस प्रोफेसरके पद से घोषित किया कि इतिहास एक विज्ञान है, न उससे कम न ज्यादा’ (हिस्ट्री इज सायंस, नथिंग्लेस नथिंग मोर)। उसने व्यापक और संपूर्णकी बात की और इतिहासकारों की ट्रेनिंग पर जोर दिया। उसे विश्वास था कि यदि प्रयास किया जाये तो इतिहास की भूलें समाप्त की जा सकती हैं और जनमत के दिशा-निर्देशन के द्वारा बौद्धिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। उसने शायद यह नहीं सोचा कि इतिहास-लेखन में स्वतः प्रश्रय पाने वाले पूर्वाग्रह के कारण इतिहास विज्ञान नहीं हो सकेगा। पूर्वाग्रह तभी पलने लगता है जब राजनीतिक स्वतंत्रता जैसे अस्पष्ट लक्ष्य; और वह भी बिना यह निर्धारित किए कि किसकी स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाया गया है, को सामने रख कर इतिहास लिखा जाता है।
यहीं पर हमें उस चिंतन-धारा पर भी विचार कर लेना चाहिए जो इतिहास में एक निश्चित धारा प्रवाहित देखती है जिसके अनुसार इतिहास फार्मूलों पर आधारित है। हीगेल (1770-1831) के अनुसार इतिहास का विकास उतना ही तर्कसंगत है जितना कि शतरंज का खेल। यह जरूर था कि उसने ईश्वर को शतरंज के खिलाड़ी और महान पुरुषों को वजीर तथा दूसरों को अन्य मोहरों के रूप में देखा।
स्पेंगलेर (1880-1936) ने एक तटस्थ दाशर्निक भाव से अपना निराशवादी दृष्टिकोण डिक्लाइन आफ द वेस्टनामक पुस्तक में प्रस्तुत किया और पतन के कारण ढूंढ़ते हुए पश्चिमी सभ्यता के पतन को अवश्यंभावी बताया। बाद में ट्वायनबी ने उसी काय्र को उद्भट विद्वता और अपेक्षतया अधिक दुष्टिकोण अपना कर बहुत वृहद स्तर पर किया। उसकी पुस्तक स्टडी आफ हिस्ट्रीइस क्षेत्र में लिखी गई अब तक की सबसे महत्वूपर्ण पुस्तक थी। इसमें उसने कुछ मौलिक प्रश्न उठाए : मानव-जीवन के कौन से क्षेत्र निश्चित नियमों पर आधारित हैं और किन पर मनुष्य का अपना नियंत्रण है? क्या दूसरे क्षेत्र का विस्तार हो सकता है? यदि हाँ, तो कितना? इस संदर्भ में उसने पर्याप्त आंकड़ों का अभाव महसूस किया, फिर भी उसने इतिहास में नियमों की बात पर जोर दिया।
हीगेल, स्पेंगलर और ट्वायनबी ने जो किया उसे इसाइया बर्लिन हिस्टोरिजोफीकी संज्ञा देते हुए कहता है कि उन्होंने जो भी किया वह इतिहास में विशेषके महत्व को नकार देता है। इन्हें स्पेकुलेटिव पाजिटिविस्टकी संज्ञा दे कर जे. एच. रैण्डल व्यंग करता है कि उन्होंने इतिहास में पैटर्न ढूंढ़ना चाहा और सोचा कि वे वैज्ञानिक पद्धति अपना रहे हैं जब कि उनका कार्य आस्था से प्रेरित था न कि विज्ञान से।
इस प्रकार यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इन्होंने इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में चाहे जितनी हलचल मचाई हो इतिहास-लेखन को बहुत कम प्रभावित किया है।
George Macaulay Trevelyan [1876-1962] |
उन्नीसवीं शताब्दी में रांके और उसके शिष्यों का इतना प्रभाव था कि सारे पश्चिमी जगत के विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक इतिहास के बातें होती रहीं पर लोकप्रिय हुई इंग्लैंड में कार्लाइल, जर्मनी में ट्राइट्श्के, फ्रांस में मिशेल और अमरीका में बैंक्राफ्ट की पुस्तकें जो अत्यंत पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखी गई थीं। उन्हें विद्वान इतिहासकार विद्वान नीची नजर से देखते थे, पर जब सीले जैसे जिम्मेदार इतिहासकार ने भी मैकाले और कार्लाइल को लुच्चा कह दिया तो जी. एम. ट्रेवेल्यान ने इन विज्ञान के पुजारियों को जवाब देने का इरादा किया।
जी. एम. ट्रवेल्यान ने बरी के जवाब में अपना प्रसिद्ध लेख लिखा – क्लियो-ए-म्यूज। इतिहास को साहित्य से जोड़ते हुए उसने उन दिनों की याद की जब कार्लाइल और मैकाले की पुस्तकें पाठकों को आह्लादित करती थीं। उसने प्रश्न किया कि इतिहास तथ्यों का ढेर मात्र है या भावनात्मक और बौद्धिक मूल्यों के संदर्भ में तथ्यों की व्याख्या है? उसने साफ-साफ कहा कि इतिहास कभी विज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे प्याज अपने छिलके से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार ऐतिहासिक घटनाएं अपनी परिस्थितियों से अलग नहीं की जा सकती और इसलिए इतिहास न कोई सामान्यीकरण संभव है, न कोई नियम। इतिहास जब तक एक नई मानसिकता न पैदा कर सके तब तक उसका कोई मूल्य नहीं होता, इसलिए इतिहास का महत्व उसकी शैक्षिक महत्ता में है। उसके अनुसार इतिहासकार को तथ्य संग्रह करते समय वैज्ञानिक, उसका वर्गीकरण करते समय वैचारिक और प्रस्तुत करते समय साहित्यिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
अमरीका के विश्वविद्यालयों में रांके के शिष्यों का बोलबाला था पर रॉबिन्सन और बीयर्ड ने द डेवलपमेंट आफ मार्डन यूरोपमें लिखा कि इतिहास-लेखन की सबसे बड़ी सीमा रही है, अतीत को वर्तमान से अलग करके देखना। उन्होंने इतिहास की प्रासंगिकता पर जोर दिया। रॉबिन्सन द न्यू हिस्ट्रीमें इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब तक वर्तमान अतीत का शिकार होता रहा है, अब समय आ गया है कि इसे उलटकर अतीत का वर्तमान के लिए उपयोग हो।
बीयर्ड ने इस बात को अमरीका हिस्टारिकल एसोसिएशनके सामने और स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत किया। उसका भाषण, जिसे एक व्यंग्यात्मक नाम : द नोबल ड्रीमदिया गया, वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वालों पर करारी चोट थी। उसके अनुसार, सत्य तक पहुँचने के लिए विज्ञान एकमात्र साधन नहीं है। उसने कहा कि वस्तुगत इतिहास के पक्षपातियों के तर्क हैं:
(1) इतिहास का अपना अलग अस्तित्व है – इतिहासकार की बुद्धि के बाहर, इसलिए वह ग्राह्य है – उसका वर्णन किया जा सकता है।
(2) इन सीमित दस्तावेजों में से कुछ ही तथ्य इतिहासकार चुनता है।
(3) किसी भी लोकोत्तर तत्व जैसे ईश्वर या आत्मा के प्रभाव से बचा जा सकता है यदि विवेक से काम लिया जाए।
बीयर्ड ने जोर देकर कहा कि इन तर्कों की कसौटी पर रांके भी खरा नहीं उतरता। उसने ब्यौरेवार तर्क इस तरह उपस्थित किए।
(1) इतिहासकार रसायनशास्त्री की तरह अपने तथ्यों को अपने सामने नहीं देख सकता। उसके तथ्य दस्तावेजों में होते हैं जो कितने भी पूर्ण हों, सभी घटनाओं और सभी व्यक्तियों के पूर्ण दस्तावेज नहीं हो सकते। 
(2) इन सीमित दस्तावेजों में से कुछ ही तथ्य इतिहासकार चुनता है।
(3) ऐसी स्थिति में जिस इतिहास की रचना होती है, उसका स्वरूप पूर्वाग्रह- पूर्व न हो, कैसे हो सकता है? कोई न कोई नैतिक या सौन्दर्यपरक विचार तथ्यों को अपने रंग में रंगेगा ही। किसी न किसी तरह की ट्रांसेडेंस (लोकोत्तरता) तो रहेगी ही, ईश्वर की न सही, वह तर्क, पदार्थ या प्रकृति संबंधी होगी।
(4) इतिहासकार कितना भी नियंत्रण और त्याग का परिचय दे, वह अतीत को यथावत् चित्रित नहीं कर सकता।
(5) इस प्रकार इतिहासकार इतिहास की वस्तुगत सच्चाई तक पहुँचने का लक्ष्य भले ही बना ले, वहाँ तक पहुँच नहीं सकता।
इतिहासकार की प्रासंगिकता के पक्षधर लोगों की सीमा क्रोचे की उस उक्ति में मिलती है जहाँ वह साफ-साफ कहता है कि पूरा इतिहास सांप्रतिक इतिहासहै। इनके तर्कों में जो तीव्रता है वह इसलिए कि विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के कारण वैज्ञानिकता की एक हवा चल गई थी जिसके कारण ज्ञान के हर क्षेत्र में प्रयास होने लगे थे कि उसे विज्ञान का स्वरूप दिया जाए। पर हर विद्या की अपनी प्रकृति होती है, एक सीमा होती है। इस प्रयास में जब उस सीमा का अतिक्रमण होने लगा तो प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इस प्रतिक्रिया का यह परिणाम निकला कि वर्तमान का महत्व बताते हुए इतिहास को प्रासंगिक बनाने के प्रयत्न में, इतिहास के तथ्यों का जो अपना महत्व होता है, उनकी जो अपनी अस्मिता होती है, उसे भंग किया जाने लगा।
फासिस्ट के राजयंत्रों ने इतिहास को राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और इतिहासकार को इतिहास के मोर्चे का सिपाहीघोषित कर दिया गया। रांके की कर्मभूमि जर्मनी में हिटलर के जमाने में वस्तुगत इतिहास की परंपरा के मुख्यपत्र ‘हिस्टोरिशत्साइट्श्रिफ्ट’ का स्वरूप ही बदल दिया गया और नात्सीवाद के प्रभाव में वाल्टर फ्रांक ने इतिहासकारों का अध्ययन किया कि वे देश के अधिकारियों की तरह कार्य करें। माइनेके जैसे विद्वान इतिहासकार को हिस्ओरिश्त्सात्साइट्श्रिफ्टके सम्पादक पद से हटा दिया गया और उसकी जगह एक नात्सी प्रचारक फान म्यूलर को संपादक बनाया गया। मूलर ने अपने पहले ही संपादकीय में लिखा कि इतिहास का निकटतम संबंध कविता से है और इतिहास को वर्तमान की सेवा करनी चाहिए। इसका अर्थ स्पष्ट था कि इतिहासकार हिटलर के नात्सीवाद को इतिहास के माध्यम से स्वीकार्य और शक्तिशाली बनाए।
वर्तमान के हाथों पूरी तरह बिका इतिहास इस प्रकार न केवल घोर पक्षपात का शिकार हो जाता है, बल्कि विनाश की पृष्ठिभूमि तैयार करने में भी मदद करता है। यह हिटलरशाही के दौरान जर्मनी में अच्छी तरह उजागर हुआ।
भौतिकवादी इतिहास या ऐतिहासिक भौतिकवादी
इन सबसे अलग इतिहास की एक विशिष्ट व्याख्या कार्ल मार्क्स ने प्रस्तुत की है। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पर, जिसने अतीत को समझने का वैज्ञानिक उपकरण प्रस्तुत किया है, शुरू से ही प्रहार किया जाता रहा है। फ्रांसीसी इतिहासकार मारु ने व्यंग्य किया है कि यह पद्धति इतिहास और इतिहासदर्शन को दो भागों में बांट कर इतिहास को मात्र दर्शन की पुष्टि के लिए इस्तेमाल करती है। रेनियर ने आरोप लगाया है कि मार्क्सवादी इतिहास की स्वतंत्र अस्मिता को समाप्त कर देते हैं और उसे समाजशास्त्र का अंग बना देते हैं।
ऐसी आलोचनाओं के बावजूद यह निर्विवाद है कि इतिहास के अध्ययन-लेखन का मार्क्सवादी तरीका अन्य पद्धतियों से अधिक वैज्ञानिक है।
कार्ल मार्क्स ने हीगेल, फायरबाख और सैंसीमों का विशेष रूप से अध्ययन किया था। अंत में वह इस नतीजे पर पहुँचा कि मनुष्य परिस्थितियों को पैदा भले करता हो, वह स्वयं भी परिस्थितिजन्य होता है। उसके अनुसार इतिहास मृत तथ्यों का संग्रह नहीं है जैसा कि पॉजिटिविस्टलोगों की व्याख्या से लगता है, न ही मनमाने ढंग से देखे गए अतीत के कारनामों का जमघट है जैसा कि आदर्शवादियों की व्याख्या से लगता है। उसके अनुसार, इतिहास वर्ग-संघर्ष के माध्यम से निरंतर विकासोन्मुख मानव-समाज के अध्ययन का आधार है।
मार्क्स ने इस बात की आलोचना की कि अब तक मनष्य और प्रकृति के संबंधों को इतिहास से अलग करके देखा गया है। ऐसा समझने वाले इतिहासकारों ने राजनीतिक कार्यकलापों और विभिन्न प्रकार के धार्मिक तथा सैद्धान्तिक संघर्षों में ही इतिहास को देखा है। इस तरह हर काल के भ्रमों का इतिहास भी साझीदार रहा है।
पर सच यह है कि मनुष्य और प्रकृति के भौतिक स्वरूप का विशद्-अध्ययन इतिहास ही नहीं करता, पर उसकी शुरूआत इन्हीं प्राकृतिक आधारों और उनमें मनुष्य द्वारा किए गए परिवर्तनों के अध्ययन से होती है। मनुष्य जैसा होता है वैसी ही उनकी अभिव्यक्ति होती है और वह कैसा है, इसका सीधा संबंध उसके उत्पादन से, वह क्या उत्पादन करता है और कैसे उत्पादन करता है, से संबंधित होता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी भौतिक स्थितियों पर निर्भर करता है, जो निश्चित ही उत्पादन प्रणाली पर आधारित होती है।
जीवन्त मनुष्य तक पहुँचने के लिए किया गया अध्ययन मनुष्य के कथन, कल्पना या अभिधारणाओं से नहीं शुरू होता, न ही इस आधार पर कि मनुष्य का कैसा वर्णन हुआ है, इसके बारे में क्या सोचा गया है, क्या कल्पना की गई है, अभिधारणा बनाई गई है। मार्क्सवादी दर्शन वास्तविक क्रियाशील मनुष्य के जीवन से शुरू होता है, उसके वास्तविक जीवक्रम का अध्ययन करता है। इसके अनुसार जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता है, चेतना जीवन से निर्धारित होती है।
इतिहास की भौतिकवादी अभिधारणा की शुरूआत इस सिद्धान्त से होती है कि सामाजिक संरचना का आधार जीवन क्रम को जारी रखने के लिए किया गया उत्पादन और उत्पाद का विनियम है, कि हर समाज में संपत्ति का वितरण और समाज का वर्गों में विभाजन इस बात पर मुनहसर (आधारित) होता है कि उत्पादन क्या और कैसे होता है और उत्पाद का विनियम किस प्रकार होता है। इस दृष्टिकोण के हर सामाजिक परितर्वन और राजनीतिक क्रांति के मूलभूत कारण मनुष्य के मस्तिष्क में या अंतिम सत्य और न्यायके प्रति मनुष्य की अंतर्दृष्टि में नहीं बल्कि उत्पादन और विनियम के साधनों में हुए परिवर्तनों में प्राप्त होते हैं। उनकी तलाश दर्शन में नहीं, आर्थिक स्थितियों में करनी पड़ती है।
लेकिन यह कहना गलत होगा कि आर्थिक आधार एकमात्र आधार होता है। आर्थिक स्थितियां आधार होती हैंस पर अधिरचना (सुपर स्ट्रक्चर) के विभिन्न तत्व जैसे संघर्ष के राजनीतिक स्वरूप् और संघर्ष के परिणाम, विजेता वर्ग द्वारा निर्मित संविधान, न्यायिक संगठन, संघर्षरत व्यक्तियों की मानसिक स्थितियां, राजनीतिक, न्याय संबंधी एवं दार्शनिक सिद्धान्त, धार्मिक विचार और उसके मताग्रह भी इतिहास के विकास पर प्रभाव डालते हैं और कभी-कभी तो हावी दिखाई पड़ते हैं। मूलतः आर्थिक तत्वों की भूमिका निर्णायक होती है।
प्रकृति में कार्यरत और उद्घाटित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को समाज तक विस्तृत करने से ऐतिहासिक भौतिकवाद का जन्म हुआ जो मार्क्सवाद की विशेष देन है। इसके अनुसार मानव-समाज का समस्त इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। उत्पादन प्रणाली तथा तज्जन्य उत्पादन संबंधों के अनुसार मानव-समाज को इस प्रकार का शुरुआती साम्यवाद (प्रिमिटिव कम्यूनिज्म) था, फिर व्यक्तिगत संपत्ति के साथ दास प्रथा का अविर्भाव हुआ। इसके बाद सामंतवाद की दौर आया और उसी के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म् हुआ। पूंजीवाद में पूंजीपति के साथ ही सर्वहारा यानी अपनी मेहनत की ही कमाई खा कर जीने के ही संघर्ष में रत वर्ग का भी जन्म होता है। वही समाजवाद का वाहक बनता है। उनके क्रांतिकारी संघर्ष से ही समाजवादी क्रांति हो सकती है जो वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करेगी। उस दौरान सर्वहारा के शासन में पूंजीवाद के विरुद्व व्यापक संघर्ष जारी रहेगा। व्यक्तिगत संपत्ति के उन्मूलन के बाद धीरे-धीरे वर्ग का आकार खिसकेगा और फिर वर्ग-संघर्ष भी समाप्त होगा और एक वर्गविहीन समाज बनेगा। वही साम्यवाद (कम्युनिज्म) कहलाएगा।
अपने प्राथमिक रूप में 1871 ई. में मार्क्स-एंगेल्स के जीवनकाल में ही, पेरिस में कम्यून बना और कुछ पप्तों के जीवनकाल में ही उसने समाजवाद की संभावनाओं को उजागर कर दिया। वास्वत में लेनिन के नेतृत्व में रूस में अक्टूबर 1917 में हुई समाजवाद क्रांति ने मार्क्स-एंगेल्स के विश्लेषण को सही साबित कर दिया और इतिहास वैज्ञानिकता के क्षेत्र में एक कदम आगे बढ़ गया।
सोवियत यूनियन के विघटन ने ऐतिहासिक भौतिकवाद के विज्ञान को नहीं झुठलाया है, उसने बस यह सिद्ध किया है कि सोवियत यूनियन के प्रयोग में गलतियां हुईं जो अंततः विस्फोटक सिद्ध हुई। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ने एक ऐसी पद्धति प्रदान की है, जिसके माध्यम से मनुष्य के ज्ञानद्वारा अस्तित्वको समझने के स्थान पर उसके अस्तित्वके माध्यम से उसके ज्ञानको समझा जा सकता है।
इस प्रकार मारू और रेनियर जैसे विद्वानों की आलोचना भी मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लगती है। सवाल यह नहीं है कि इतिहास की स्वतंत्र अस्मिता बनी रहती है या नहीं या कि वह किसी सामाजिक संरचना और उसके विकास को पूर्व निश्चित ढंग से देखता या निर्धारित करता है। सवाल यह है कि इतिहास एक तरीका है वर्तमान को अतीत के माध्यम से समझने का, जिससे मनुष्य की सतत प्रगतिशील यात्रा का स्वरूप स्पष्ट होता है, मनुष्य के संघर्ष के मुद्दे और जय-पराजय के कारण समझ में आते हैं और उसे भविष्य के प्रति आश्वस्त किन्तु उसके लिए संघर्षरत रहने की प्रेरणा मिलती है।
इस विहंगम सर्वेक्षण के बाद दो धारांए स्पष्ट होती हैं:
(1) इतिहास में पूर्वाग्रहों से मुक्ति नहीं मिल सकती, इसलिए इतिहास का वर्तमान के लिए उपयोगी होना ही उसकी परिणति हैं।
(2) इतिहास को बिना पूरी तरह विज्ञान बनाए उसका कोई महत्व नहीं हो सकता।
इन धाराओं को समझने और इतिहास की स्वीकार्य पद्धति का निर्धारण करने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि इतिहास लिखा क्यों जाता है? इतिहास लिखने का एक कारण यह हो सकता है कि व्यक्ति को सहज ही अपने अतीत से लगाव होता है, उसकी याद करने में, जैसा कि पाल वाइस का मत है कि एक प्रकार आनंद मिलता है कि हम अकेले नहीं हैं, हम एक ऐसे समाज के अंग हैं जो वर्षों से जिंदा हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि जीवित लोग मृत लोगों के बीच अपना स्रोत स्थापित करके आश्वस्त हो लेते हैं।
इसके अतिरिक्त इतिहास के माध्यम से किसी गरिमामय घटना, किसी महान व्यक्ति या किसी गौरवशाली काल को जीवन्त किया जाता है ताकि वर्तमान पीढ़ी को प्रेरणा मिल सके। वर्तमान के लिए अतीत से कोई सीख मिले, इसलिए भी इतिहास लिखा जाता है। इतिहास इसलिए भी लिखा जाता है कि मानव सभ्यता की विकास प्रक्रिया के पैटर्न का पता चल जाय ताकि ऐसे समीकरण बन सकें जिनके माध्यम से मानव के इतिहास को उसकी नियति से जोड़ा जा सके, कुछ नियम, कानून बनाए जा सकें। प्राकृतिक विज्ञान के कारण-कार्य संबंधों के आधार पर वर्तमान का कारण अतीत में ढूंढ़ने के लिए भी इतिहास लिखा जाता है। इतिहास मात्र इतिहास मात्र इसलिए भी लिखा जाता है कि अतीत को जाना जाए, कालक्रम में अपनी स्थिति समझी जाए, अपने को जाना जाए। अन्त में इतिहास लिखने की यह भी अनिवार्यता है कि मानव के विकास-क्रम को समझने का, मनुष्य की यात्रा की मंजिलों-पहाड़ों और गंतव्यों को समझने का, यही तरीका है।
इनमें से कोई भी लक्ष्य हो, इतिहासकार हमेशा यही कहता है कि उसने सच्चा इतिहास लिखा है – जब भी जबकि वह ऐतिहासिक तथ्य को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहा हो या जानता हो कि जो वह लिख रहा है वह आंशिक सत्य है। ऐसी स्थिति में यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतिहासकार भले ही सत्य की स्थापना न कर पा रहा हो उसका लक्ष्य यही होता है।
Arnold J. Toynbee
अर्नाल्ड ट्वॉयनबी (Arnold J. Toynbee)
बीसवीं शताब्दी में प्रथम महायुद्ध के बाद ब्रिटेन के उच्च वर्ग से आए इतिहासकार अर्नाल्ड ट्वॉयनबी ने इतिहास लेखन को एक नई दिशा दी। आर्थर मारविक के अनुसार ट्वॉयनबी को औद्योगिक क्रांति की अवधारणा के आविष्कार नहीं तो प्रसार का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए। उसकी विशेष रुचि उस दुष्प्रभाव के अध्ययन में थी जो औद्योगिक क्रांति के कारण निम्म वर्गों पर पड़ रहा था। ट्वॉयनबी की अमरकृति है – स्टडी ऑफ हिस्ट्री’, जिसके पहले तीन भाग 1934 में प्रकाशित हुए और दूसरे तीन भाग बीस साल बाद 1954 में।
ट्वॉयनबी ने शुरूआत की थी यूनान के इतिहास और साहित्य से। वह इस क्षेत्र का पंडित माना जाता था। 1919 से 1924 तक वह लंदन विश्वविद्यालय में बाईजेंन्टाईन और आधुनिक ग्रीक भाषा साहित्य और इतिहासनामक पीठ पर प्रोफेसर था। उसके बाद लंदन के रॉयल इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्टरनेशल अफेयर्समें तीस वर्षों तक डायरेक्टर ऑफ स्टडीजबना रहा। उसके निर्देशन में हर साल सर्वे ऑफ इण्टरनेशल अफेयर्सप्रकाशित होता रहा। इन सर्वेक्षणों में इतनी आधिकारिक सूचना होती थी कि इन्हें समकालीन इतिहास लेखन का मॉडल माना जाने लगा।
धीरे-धीरे उसके सामने समस्त मानव इतिहास की छवि प्रकट होने लगी। उसे लगने लगा कि मानव इतिहास की पूरी धारा का उसके अंदर ही प्रवेश हो गया है। तब उसने इतने विराट इतिहास की इकाईयां चिन्ह्ति करनी शुरू की।
इस बीच फ्रांस के आर्थिक विचारक तूरजो से प्रभावित अमरीकी दार्शनिक एफ. जे. टेगार्ट का अध्ययन किया। वहाँ उसे यह विचार मिला कि इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करने का सबसे अच्छा तरीका यह हो सकता है कि सबसे पहले इतिहास की मौजूदा इकाईयों की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया जाए और उनमें समानता तथा भिन्नता चिन्हित की जाए। फिर क्रमशः उनके इतिहास में घुसा जाए। और उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाय।
ट्वॉयनबी से पहले स्पेंगलर ने भी बृहद इतिहास की रूप-रेखा प्रस्तुत की। उसका लेखन निराशावदी था, क्योंकि उसने अपनी पुस्तक का नाम ही रखा था दि क्लाइन ऑफ द वेस्ट’ (पाश्चात्य् का पतन)। ट्वॉयनबी ने पहले तो स्पेंगलर की राह पर चलना शुरू किया। पर जल्दी ही उसे लगा कि यह राह उसकी नहीं हो सकती। फिर उसने अनुभववादी तथा आगमनात्मक पद्धति का सहारा लिया। वह बराबर इस बात पर जोर देता रहा कि यही उसकी पद्धति है। पर जब वह अपनी विशाल पुस्तक के अंतिम चार भाग लिख रहा था। तब उसमें एक प्रकार का मसीहापन आने लगा था। पिछले बीस वर्षों में उसने बहुत कुछ पढ़ा था। और बढ़ती उम्र के साथ उसमें एक प्रकार की उपदेशात्मकता आती जा रही थी। अब वह देख रहा था कि जिन सभ्यताओं का पतन हुआ है उनमें कुछ में आशा की किरण है। इस तरह मानव सभ्यता का भविष्य अंधकार में नहीं है। अगर कुछ पुरानी बातों को पुनर्जीवित कर दिया जाय।
उसने सारी दुनिया की मानव सभ्यता में इक्कीस इकाईयां चुनी थी। और उनमें एक प्रकार का पैटर्नदेखा। उसने देखा कि सभी सभ्यताएं धीरे-धीरे विकसित होती हैं। विकास के दौरान कठिनाईयां आती हैं। जिन पर वह पहले विजय प्राप्त करते हैं। उसके बाद अपने उत्कर्ष पर पहुँच कर सभ्यताएं बिखरने लगती हैं। और अन्ततः उनके द्वारा निर्मित सार्वभौम राज्यका अवसान हो जाता है। अगर इस विकास-क्रम से प्राप्त तथ्यों के आधार पर इतिहास का कोई नियम बनाना हो तो वह होगा चुनौती का उत्तरयानी इतिहास में चुनौतियां पैदा होती हैं और सभ्यताएं उनका उत्तर ढूंढने का कोशिश करती हैं। सभ्यताओं में टूटने और बिखरने का दौर कई बार आता है। पर अंततः वे बच नहीं पाते। उनका जो अवशेष बचता है। उसमें पुनर्जीवन की कहीं-कहीं संभावना बची रहती है। इस तरह पहले के छः भागों में ट्वॉयनबी निराशावादी लगते हैं।
अंतिम चार भागों में यह निराशावादिता पूरी तरह खत्म तो नहीं होती। पर यह तो होता ही है कि ट्वॉयनबी समकालनी सभ्यता के पुनुर्थान के प्रति आशान्वित लगने लगते हैं। इसका प्रमुख कारण यह हो सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद इतनी भयानक निराशा उपजी थी कि अधिकांश लोग हतोत्साहित हो गए। यह हताशा साहित्य-कला और दर्शन सब में एक मोहभंग के रूप में अभिव्यक्त हुई थी। ट्वॉयनबी ने अपने पहले छः भाग इसी प्रभाव में लिखे।
एक जर्मन पत्रकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक बड़ी सटीक टिप्पणी की थी। उसके अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध में भौतिक विध्वंस से अधिक मानसिक विध्वंस हुआ था। फासीवाद जैसी प्रवृत्तियां उसी का परिणाम थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अभूतपर्व भौतिक विध्वंस हुआ। पर दुनिया मानसिक विध्वंस से उबरने लगी। इस टिप्पणी का एक आधार यह भी था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पहले ही दशक के दौरान इतना भारी पुनर्निर्माण हुआ था कि यूरोप की गाड़ी मानो पटरी पर आ गई थी। और पूंजीवाद के इतिहास में सबसे बड़ा विकास कार्यक्रम शुरू हो गया। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि ट्वॉयनबी को भी लगने लगा था कि मानव सभ्यता बच सकती है। उसने लिखा कि ऐसा लगता है कि एक दैवीय योजना के अनुसार सभ्यताओं की असफलता के कारण उत्पन्न दुख से ऐसी शिक्षा मिट सकती है जो प्रगति की नई राह प्रशस्त करे।
ट्वॉयनबी का इतिहास लेखन अकादमिक मान्यताओं के अनुकूल नहीं था। उसमें वर्तमान केन्द्रिता अधिक थी उसकी दिलचस्पी वर्तमान से भविष्य की ओर जाने में अधिक थी। वह कहता थाः हमारी पीढ़ी के इतिहासकार को गांधी, लेनिन, अतातुर्क और रूजवेल्ट का अध्ययन अवश्य करना चाहिए ताकि वह हम्बूरावी, तिखना दाओन आबोस और बुद्व को अपने पाठकों के सामने और अधिक जीवंत रूप में प्रस्तुत कर सकें।
वह इतिहास में नियमों नियमितताओं, समानताओं और पुनरावृत्तियों की तलाश करता है। यानी वह अपनी वैज्ञानिक पद्धति विकसित करना चाहता है। पर ऐसा करने के लिए तथ्यों का अपार संग्रह जरूरी था – वह भी एक नहीं इक्कीस सभ्यताओं का। ऐसा एक ही सभ्यता में कर पाना कठिन हो जाता है तो इतनी विविध और बहुधालुप्त सभ्यताओं के बारे में वह कहाँ से तथ्य जुटा पाता। वह तो इतनी विविध सभ्यताओं की भाषाओं और पुरातत्व से भी पूरी तरह परिचित नहीं था। उसके लेखन में चितंन-मनन तो बहुत है पर शोध उतना नहीं। अधिकांशतः तो उसने दूसरे कोटि की सामग्री से काम चलाया है – यानी उन विषयों पर स्वयं शोध न कर उन पर लिखी किताबों के आधार पर नतीजे निकाले।
जाहिर है, इसीलिए बहुत से लोग उसे इतिहासकार ही नहीं मानते। पर इससे उसको कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि वह अकादमिक इतिहास लेखर को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता था। उसके ख्याल से उसने जो लिखा है वह इतिहास नहीं, बल्कि एक विशेष अध्ययन है 
उसने किसी देश और काल का इतिहास न लिख कर एक तरह से इतिहास का ही इतिहास लिखा है। इसलिए उसकी रचना को इतिहासकारों से ज्यादा सामान्य पाठक पढ़ते हैं। वह मार्क्सवादी नहीं था। पर उसने इतिहास के नियम ढूंढने का प्रयास किया। पर तथ्यपरकता और वस्तुपरकता के मानदंड पर पूरी तरह सफल न हो पाने के कारण उसका इतिहास लेखन पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा। इसलिए उसकी पुस्तक को अप्रासंगिक करार दिया जा सकता है। पर उसके लेखन में ऐसा निरालापन था कि वह इतिहास लेखन की विधा के रूप में इतिहास के इतिहास में दर्ज रहेगी।

oswald spengler
ओसवाल्ड स्पेंगलर (oswald spengler)
प्रथम विश्वयुद्ध तब तक का इतिहास का सबसे विध्वंसक युद्ध था। उसके बाद दुनिया में इतनी हताशा छा गई कि लोगों को लगने लगा कि धरती पर मनुष्य के जीवन का अर्थ ही क्या है। अगर इतनी प्रगति के बाद भी आदमी इतना विनाशकारी हो सकता है। लोगों का सभ्यता और संस्कृति से मानो मोहभंग होने लगा। काफ्का ने मनुष्य को अपनी लंबी कहानी मेटामार्फोसिसमें मनुष्य को एक उलट गए कॉकरोच के रूप में चित्रित किया। उल्टा हुआ कॉकरोच जीवित तो रहता है पर कुछ कर नहीं सकता। यह एक प्रकार से असहाय हो गए मनुष्य का चित्रण था। कामू ने अपने उपन्यासों में बेसहारा होते जा रहे मनुष्य का चित्रण किया।
इसी तरह इतिहास के क्षेत्र में जर्मनी के एक इतिहास शिक्षक स्पेंगलर ने पूरे हताशा के साथ यह लिखा कि पाश्चात्य् सभ्यता का पतन शुरू हो गया। उसने अपनी किताब का नाम रखा Decline of the west(पाश्चात्य् का पतन)। उसने सभ्यताओं की तुलना मानव जीवन से की। मनुष्य जन्म लेता है फिर युवा होता है, फिर वयस्क होकर बहुत कुछ करता है, फिर उम्र ढलने लगती है वह बूढ़ा हो जाता है और अंत में मर जाता है। उसके अनुसार ऐसा ही जीवन चक्र है सभ्यताओं का। वे जन्मती हैं, विकसित होती हैं, फूलती-फलती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं। 
 

Benedetto Croce 1866 –1952 – Italy

बेनेदेतो क्रोचे (1866 से 1952) (Benedetto Croce)
इतिहास दर्शन में क्रोचे को सबसे ज्यादा इसलिए याद किया जाता है कि उसने इतिहास में अतीत की निर्णायकता की जगह वर्तमान की निर्णायकता स्थापित की। समस्त इतिहास समकालीन होता है। यह क्रोचे की सबसे अधिक उद्धृत एक प्रकार की सूक्ति है। इसने इतिहास लेखन को गहराई से प्रभावित किया है।
उन्नीसवीं शताब्दी में समाज विज्ञान के क्षेत्र में वस्तुनिष्ठता का बहुत जोर था। जो अध्ययन वस्तुनिष्ठ न हो उसे विश्वसनीय ही नहीं माना जाता। ऐसे में ही जर्मनी के इतिहासकार रांके ने प्रयास किया था कि अतीत को वैसा ही प्रस्तुत किया जाए जैसा कि वह था (वी.एस. आईगेन्टलिस्ट गेवेशन) इसका मतलब यह था कि इतिहास लेखन में वर्तमान का यानी इतिहासकार का कम से कम हस्तक्षेप हो।
यह इतिहास को विज्ञान बनाने का दौर था। पर इसी के प्रतिकार में सापेक्षतावादी तर्क दिए जाने लगे। इन तर्कों का चरमोत्कर्ष तो यहाँ तक पहुँच गया कि इतिहास तो कोई विषय ही नहीं है, क्योंकि इतिहास अतीत पर आधारित होता है। और अतीत तो व्यतीत हो चुका है उसका तो अस्तित्व ही नहीं होता।
क्रोचे ने इसी तर्क को विकसित किया। और उसे यहाँ तक पहुँचा दिया कि इतिहास लेखन में वर्तमान का पूर्वाग्रह सर्वोपरि होता है। इतिहासकार अपने वर्तमान में ही जीता है और वह अपने पूर्वाग्रहों से कभी मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए वह जो भी लिखता है। वह अतीत की वर्तमान की दृष्टि से प्रस्तुति होती है। ऐसे में निर्णायक तो वर्तमान ही हुआ।
क्रोचे ने इतिहास पर काफी चिंतन किया था। पर वह अपने विचारों में कभी स्पष्ट नहीं हुआ। ऐसा कम ही होता है कि दार्शनिक प्रवृत्ति का व्यक्ति बहुत अच्छा इतिहासकार भी बन पाए। उसकी रुचि तो राजनीति में भी थी। और वह सक्रिय राजनीति में भी हिस्सा लेता था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब इटली में जनतांत्रिक सरकार बनी तो उसमें वह शिक्षामंत्री भी बना दिया गया। पर जल्दी ही इटली में फांसीवाद का कब्जा हो गया। क्रोचे अंदर-अंदर फांसीवाद का विरोध करता रहा। मरने से पहले उसे संतोष था कि उसने अपने देश में फांसीवाद का अंत देख लिया था।
वह आदर्शवादी दर्शन का पक्षधर था और इस बात पर जोर देता था कि वैज्ञानिक ज्ञान और ऐतिहासिक ज्ञान में मूलभूत अंतर है। वह ऐतिहासिक ज्ञान को बौद्धिक अंतर्दृष्टि से जोड़ता था। और यही अंतर्दृष्टि तो निर्णायक होती है। उसके अनुसार इतिहास में अनिवार्य सापेक्षता के कारण इतिहास की महत्ता कम नहीं होती। इससे तो मनुष्य की बौद्धिकता और कल्पनाशीलता की पुष्टि ही होती है। उसके इस प्रयास से इतिहासकारों में थोड़ा आत्मविश्वास जरूर पैदा हुआ। पर इसका लाभ उन लोगों ने ज्यादा उठाया जो इतिहास का मनमाना इस्तेमाल करते रहे हैं। 

R G Collingwood

कॉलिनवुड (R G Collingwood)
क्रोचे के विचार अभी तक याद किए जाते हैं, क्योंकि कॉलिनवुड की उपयोगिता समझकर उन्हें और स्पष्ट और सरस शब्दों में प्रस्तुत किया है। जब से कॉलिनवुड के भाषणों का संग्रह Idea of history (इतिहास का विचार) नाम से प्रकाशित हुआ है। कॉलिनवुड को इतिहास-दर्शन के एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता के रूप में सम्मान मिला है।
कॉलिनवुड ब्रिटेन में ऑ Gक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शन का प्रोफेसर था। उस जमाने में विद्वान विविध विषयों के ज्ञाता होते। और स्पेशलाइजेशनका इतना जोर नहीं था कि विद्वान अकादमिक जातिवाद का शिकार हो जायं। यानी उन्हें एक ही विषय का और उसमें भी एक विशिष्ट क्षेत्र का ही प्रवक्ता माना जाय।
कॉलिनवुड की पुरातत्व में रुचि थी। और उसने रोमन साम्राज्य के समय के इंग्लैंड का अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए वह विश्वविद्यालय में इतिहास का भी प्रवक्ता था। इतिहास के दार्शनिक के रूप में उसे जीवनपर्यन्त नहीं जाना गया। पर 1944 में जब इतिहास संबंधी उसके विचारों का प्रकाशन हुआ तो उसकी इतिहास दार्शनिक के रूप में स्थापना हो गई। आजकल उसके विचारों का इतना महत्व नहीं माना जाता। फिर भी उसे मील का पत्थर तो समझा ही जाता है। खासतौर से इसलिए कि क्रोचे के विपरीत उसकी भाषा सरल और काव्यात्मक है।
उन्नीसवीं शताब्दी में जहाँ एक ओर क्रांति के विचार को स्थापित किया जा रहा था वहीं दूसरी ओर उसकी प्रतिक्रिया में भी विचार रखे जा रहे थे। उसने इन प्रतिक्रियाओं का विशेष अध्ययन किया। 1930 में उसने ब्रिटेन के हिस्टॉरिकल एसोसिएशनके लिए लिए ‘फिलॉस्फी ऑफ हिस्ट्री’ के नाम से एक पुस्तिका लिखी इस पुस्तिका को विद्वानों के बीच अधिक सम्मान नहीं मिला। पर यह तो स्पष्ट हो ही गया कि कॉलिनवुड इतिहासकार से अधिक इतिहास चिंतक है। यह पुस्तिका कॉलिनवुड के दार्शनिक विचारों में आसानी से प्रवेश करा देती।
कॉलिनवुड के अनुसार इतिहास अतीत का पर्यायवाची नहीं होता। इतिहास वास्तव में इतिहासकार की रचना होता है। वह शुरू ही तब होता है जब इतिहासकार अतीत से प्रश्न करता है और उत्तर ढूंढ लेता है। इन उत्तरों से ही इतिहास का जन्म होता है। उसने इस मत का प्रतिकार किया कि इतिहास के तथ्यों में से इतिहासकार को चयन करना पड़ता है। उसने कहा कि अतीत के सभी तथ्य इतिहास के तथ्य नहीं होते। वे ऐतिहासिक तथ्य तब बनते हैं जब इतिहासकार अपने चिंतन से उनका महत्व समझ कर उन्हें संदर्भित करता है। वह तो यहाँ तक जाता है कि इतिहास की पुस्तक भी अगर आलमारी में पड़ी रहे तो वह इतिहास नहीं। वह तभी इतिहास बनती है जब कोई जिज्ञासु इतिहास जानने के लिए उसे पढ़ना शुरू करता है। यह बेहद महत्वूपर्ण बात है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि साहित्य तभी चरितार्थ होता है। जब पढ़ा जाए, संगीत जब सुना जाए और चित्र जब देखा जाए। दूसरे शब्दों में रचनाकार का स्व जब पर (पाठक-स्रोता-दर्शक) तब पहुँचता है। यह बात किसी भी तरह की रचना की एक सुन्दर दार्शनिक व्याख्या है। कॉलिनवुड के इतिहास संबंधी विचार को उसकी शब्दों में देखें :
हर पाठक इतिहास के अध्ययन में अपने मस्तिष्क का उपयोग करता है। वह स्वयं अपने और अपनी पीढ़ी के दृष्टिकोण से इतिहास को देखता है। इस तरह जाहिर है कि कोई काल या व्यक्ति किसी विशेष ऐतिहासिक घटना में वह देख लेता है जो दूसरा नहीं देख सकता। इस आत्मनिष्ठता को अगर नकारा जाए तो यह ईमानदार बात नहीं होगी। इसका मतलब तो यह होगा कि वस्तुनिष्ठता का दावा करने वाला अपना दृष्टिकोण तो बनाए रखना चाहता है पर दूसरों को अपना दृष्टिकोण त्याग देने के लिए कहता है। असलियत यह है कि ऐसा प्रयास सफल भी नहीं हो सकता। अगर सफल हो जाए तब तो इतिहास का अंत ही हो जाएगा।
कोई कह सकता है कि इस तरह तो इतिहास में मनमानी चलने लगेगी। इस संदेह के निवारण के लिए कॉलिनवुड का तर्क महत्वपूर्ण है। वह कहता है अगर किसी एक व्यक्ति के जूलियस सीजन के बारे में विचार उसके संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार मॉमसन के विचारों से भिन्न हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि उस व्यक्ति का विचार गलत और मॉमसन का ही सत्य होगा। वास्तव में दोनों के लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं। उस व्यक्ति का विचार उसके अतीत के बारे में है। और मॉमसन के विचार उसके अतीत के बारे में। कई अर्थों में दोनों के अतीत एक जैसे हो सकते हैं और कई अर्थों में अलग-अलग। अगर दोनों की पीढ़िया और संस्कृतियां अलग-अलग हैं। एक-दूसरे के अतीत में प्रवेश करने के लिए लचीलापन तो चाहिए ही।
कॉलिनवुड के अनुसार अतीत अपने में कुछ नहीं। हर व्यक्ति की तरह इतिहासकार का भी लक्ष्य वर्तमान में ही होता है। पर इतिहासकार जो कि विचारशील प्राणी है इसलिए वह वर्तमान के किसी पहलू में विशेष दिलचस्पी लेने पर उसे यह जानना पड़ सकता है कि जो है वह कैसे बना? और इस क्रम में उसे अतीत में जाना पड़ सकता है। तब वह देश सकता है कि अतीत तो वर्तमान का ही एक पहलू है।
क्रोचे की तरह कॉलिनवुड भी वर्तमान को निर्णायक मानता है। इसलिए अतीत के अस्तित्व को करीब-करीब नकारता है। यह अतीत के अस्तित्व को इसलिए इतिहास के ही अस्तित्व को नकारने जैसा है।
कॉलिनवुड के इतिहास संबंधी विचार उसकी आत्मकथा में और भी स्पष्ट रूप में आएं। उसने वहाँ लिखा कि उस समय तक का अधिकांश इतिहास कैंची और गोंदके माध्यम से लिखा गया है, क्योंकि इतिहास का मुख्यतः स्रोतों का पता लगाते रहे हैं और उन्हें इकट्ठा प्रस्तुत करते रहे हैं। इतिहासकार स्रोतों से बंधा रहता है। स्रोत कभी छोटे रहते हैं तो कभी बड़े। इसलिए इतिहासकार स्रोत की रस्सी में बंधा हुआ उसी क्षेत्र में विचरण करने को मजबूर होता था जहाँ तक जाने की इजाजत रस्सी देती हो। वह क्षेत्र बहुत उपजाऊ और हरा-भरा हो सकता है। पर इतिहासकार वहाँ भी तो जाना चाह सकता है जहाँ अधिकारी स्रोत उपलब्ध ही न हो। फिर तो वहाँ रेगिस्तान होगा। जिसमें अज्ञान के बालू के अलावा। कल्पना की मृगतृष्णा ही होगी।
उसने यह भी कहा कि ऐतिहासिक ज्ञान इसलिए भी सर्वोच्च है, क्योंकि वैज्ञानिक भी उसका इस्तेमाल करता है। जब वह जानना चाहता है कि कौन से प्रयोग पहले हुए और उनका क्या महत्व था। क्रोचे की तरह कॉलिनवुड भी विश्वास करता था समस्त इतिहास विचारों का इतिहास है।
जीवन के अंतिम दिनों में कॉलिनवुड ने घोषणा की थी कि हम एक ऐसे समय में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें इतिहास दुनिया के लिए उसी प्रकार महत्वपूर्ण होगा जैसे पिछली तीन शताब्दियों के दौरान प्राकृतिक विज्ञान रहा है। इतिहास के प्रति उसके इस विश्वास के कारण भी इतिहास में उसका महत्व बना रहेगा। पर उसके इसी विश्वास के कारण बहुत से लोग उसके ही नहीं पूरे इतिहास के शत्रु हो गए। उसके ऊपर यह इल्जाम लगा कि वह तो अंतर्बोध (इंस्टिन्ट) के सहारे ही इतिहास लिख सकता है। ऐसे इतिहास की क्या विश्वसनीयता?
बहरहाल, क्रोचे और कॉलिनवुड ने यह तो किया ही कि इतिहास को और इतिहासकार को उपयोगी साबित कर दिया। आज की दुनिया में एक ओर इतिहास की नई व्याख्या हो रही है तो उसकी उपयोगिता पर भी नए सिरे से ध्यान दिया जा रहा है। ऐसे में उन्हें एकदम अप्रासंगिक नहीं करार दिया जा सकता।
सम्पर्क –
मोबाईल – 09454069645

प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘आओ अंबेडकर से प्यार करें’।

लाल बहादुर वर्मा


प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के आलेखों का एक सिलसिला हमने पहली बार पर पिछले दिनों आरम्भ किया था। इस कड़ी में दो आलेख पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके हैं जिसे पाठकों के बीच अपार लोकप्रियता मिली। इसी कड़ी को आगे बढाते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह आलेख ‘आओ अम्बेडकर से प्यार करें।’ अपने इस आलेख में लाल बहादुर जी ने सरल सहज भाषा में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जीवन संघर्ष को उकेरते हुए आज के समय में उनकी उपादेयता पर प्रकाश डाला है। तो आइए पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह आलेख – ‘आओ अंबेडकर से प्यार करें      
आओ अंबेडकर से प्यार करें

लाल बहादुर वर्मा
हम किसे याद करते हैं?
जिससे प्यार करते हैं?
हम किससे प्यार करते हैं?
जिससे अपनापन लगता है।
हम सबसे अधिक किससे प्यार करते हैं?
अपनी माँ से!
क्योंकि उसने हमें जन्म दिया है, वह न होती तो हम भी नहीं होते।
कुछ लोग धरती को, प्रकृति को, देश को भी माँ कहते हैं।
ठीक ही है धरती, प्रकृति और भी माँ जैसे ही तो हैं। हम ही नहीं, हमारी माँ भी उन्हीं के कारण हैं।
इस तरह तो क्या कुछ विचार माँ जैसे नहीं होते? क्या डॉ. अम्बेडकर के विचार न होते तो इस देश के दलित वैसे ही होते जैसे आज हैं? भले ही उनकी आर्थिक स्थिति न बदली हो पर क्या उनका नया जन्म नहीं हुआ है? क्या उनमें आत्म-सम्मान नहीं पैदा हुआ? क्या वे अपनी स्थिति के लिए भाग्य को जिम्मेदार मान अब चुप बैठने को तैयार हैं? क्या उनमें आजाद होने की अपनी स्थिति सुधारने की, अपनी परिस्थितियों से, अपने दुश्मनों से लड़ने की इच्छा और हिम्मत नहीं पैदा हो गई है? क्या पहले ऐसा संभव था?
नहीं, निश्चित ही नहीं। पहले अधिकांश लोग मान कर चलते थे’ ‘करम गति टारे नहीं टरी।अब जो किस्मत में लिखा है वह तो होगा ही। कोई शूद्र अपनी मेहनत से कुछ कर भी लेता तो राज करने वाले लोग उसका जीना मुश्किल कर देते। कहते हैं जब राजा राम थे तो एक शूद्र ने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पुरोहितों ने बताया कि उसे ज्ञान प्राप्त करने का हक नहीं है। उसके ज्ञान प्राप्त करने के कारण देश में अनर्थ हो रहा है और राजा राम ने उस शूद्र शम्बूक को जान से मार दिया। कौन जाने वही अपने जमाने का डॉ. अम्बेडकर हो जाता।
दलित ही खेती करते, घर और सड़क बनाते, मेहनत वाले सारे काम करते, पर वह समाज में सबसे नीचे रहते-यहां तक कि अछूत माने जाते। उनका कोई सम्मान नहीं होता था। वह दूसरों के सामने बैठ भी नहीं सकते थे। उनकी छाया से भी बचा जाता। अछूत औरतों से बलात्कार तो होता था – भला बिना छुए बलात्कार कैसे होता होगा। पर राज करने वाले इसी तरह का पाखंड करते ही रहते हैं।
यह सिलसिला हजारों साल तक चलता रहा। फिर आज से डेढ़ सौ साल पहले हुए ज्योतिबा फुले। उन्होंने लिखा कि दलितों की गुलाम गिरीनहीं चल सकती। फिर हुए डॉ. अम्बेडकर उन्होंने शम्बूक की ही तरह अध्ययन किया। दुनिया बदल गई थी इसलिए उन्हें मारा नहीं जा सका। और उन्होंने इतना पढ़ा-लिखा जितना कम ही सवर्ण भी कर पाये हैं। उन्होंने जाति व्यवस्था को ही इस देश की मुख्य बुराई बताया और उसे उखाड़ने में जुट गए। उन्होंने दलितों को बताया कि उनकी दुर्दशा का कारण भाग्य नहीं इस देश की सामाजिक व्यवस्था है। उन्होंने दलितों को एक नई पहचान और एक तरह का नवजीवन दिया।
वह पूरे दलित समुदाय की सुयोग्य और जिम्मेदार माँ जैसे थे। फिर तो उनके प्रति प्यार उमड़ना चाहिए। पर देखा क्या जा रहा है ? उनसे प्यार करने के बजाय उनकी पूजा की जा रही है – जहां भी संभव हो उनकी जैसी एक मूर्ति लगा दी। उन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान निर्माता की तरह स्थापित कर खुद भी थोड़ा गौरवान्वित हो लिए और 14 अप्रैल को उनकी मूर्ति पर फूल चढ़ा दिया। क्या यह काफी है?
असल में जिसकी हम पूजा करते हैं उसे अपने से बहुत बड़ा मानते हैं। मान कर चलते हैं कि हम तो उन जैसे बन नहीं सकते, जबकि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे जैसा ही होता है। हम भी उस जैसा कर सकते हैं। पूजा हमें निर्भर बनाती है, जबकि प्यार जिम्मेदार और आत्मनिर्भर बनाता है।
भीमराव का जन्म म्हार परिवार में इन्दौर के पास स्थित सैनिक छावनी (महू) में हुआ था। वहां उनके कबीरपंथी पिता रामजी सकपाल सूबेदार थे। म्हार महाराष्ट्र में सबसे बड़ी अछूत जाति थी और भारत में ब्रिटिश राज न होता तो उन्हें फौज में नौकरी करने और अपने बच्चों को पढ़ाने का कभी मौका नहीं मिलता। दलित लोग अकारण ही ब्रिटिश राज के प्रति कृतज्ञता नहीं प्रकट करते।

भीम राव अम्बेडकर
उन्नीसवीं सदी में म्हारों ने हिन्दू धर्म के अंतर्गत रहते हुए भी अपने उत्थान के लिए कई प्रयास किए थे। कबीर पंथ स्वीकारना भी एक ऐसा ही प्रयास था। पर म्हारों के प्रति सवर्णों का नजरिया बदल नहीं रहा था। बालक भीमराव को प्रतिभा के बावजूद बार-बार अपमानित होना पड़ता था। बहरहाल, वह विख्यत एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक होने के बाद बड़ौदा के शासक की सहायता से अमरीका और इंग्लैंड से कानून की सर्वोच्च डिग्रियां प्राप्त कर सके। वह लगातार कानून, राजनीतिविज्ञान, समाज विज्ञान और दर्शन का अध्ययन करते रहें और भारत ही नहीं पश्चिम के विचारकों की मदद लेते हुए अपनी सुधारक की भूमिका की बौद्धिक तैयारी करते रहे।
26 साल की उम्र में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने शिकायत रखी कि भारतीय समाज का सबसे बड़ा विभाजन है अछूत और गैर-अछूत के बीच और अछूत की समज में गुलाम जैसी स्थिति है। पर समाज ऐसा बना दिया गया है कि शूद्र कभी शिकायत भी नहीं कर सकता।
उन्होंने मूक नायकनाम से एक पत्रिका शुरू की ताकि जनता तक बातें पहुंचे और वह अपनी जबान खोलने की हिम्मत जुटा पाएं। कुछ दिनों बाद उन्होंने बहिष्कृत भारतनाम से एक पाक्षिक शुरू किया पर ये प्रयास बहुत दिनों तक नहीं चल पाए।
वह सामाजिक नेता के रूप में महाड़ सत्याग्रह के बाद स्थापित हुए। वह पहला अछूत मुक्ति आंदोलनकहा जा सकता है। आंदोलन एक सार्वजनिक तलाब से पानी भरने के अछूतों के अधिकार से शुरू हुआ था। आंदोलन असफल हो गया पर अम्बेडकर अछूतों को जगाने में सफल हो गए। मनुस्मृति वह ग्रन्थ है, जिसने हिन्दू समाज को पूरी तरह बांट कर दलितों और नारियों को पशु से भी नीचे का दर्जा दिया है। आज भी वह ब्राह्मणवाद का मानसिक आधार है। दलितों का हौसला इतना बढ़ गया कि उन्होंने मनुस्मृति को कई जगह जला कर विरोध प्रकट किया।
इस बढ़ती जागृति से उस समय देश की आजादी का नेतृत्व करने वाली पार्टी कांग्रेस ने अछूत-प्रथा के अन्त की बात तो मान ली पर इन जातियों को कोई विशेष अधिकार देने को तैयार नहीं हुई। भारत की आजादी के सवाल को ले कर लंदन में भारत के प्रतिनिधियों के साथ ब्रिटिश सरकार ने राउण्ड टेबलबैठकें कीं। उसमें अम्बेडकर ने स्पष्ट कह दिया कि दलित वार्गों को राजनीतिक कारणों से हिन्दू कहा जाता है पर उन्हें हिन्दू माना नहीं जाता। इसलिए उन्हें हिन्दुओं से अलग दर्जा मिलना चाहिए। अंग्रेज सरकार ने यह बात मान ली तो गांधी जी ने आमरण आनशन शुरू कर दिया कि वह जीते जी हिन्दू समाज को टूटने नहीं देंगे। वह दलितों को हरिजनकहते थे पर पारम्परिक वर्णाश्रम धर्म में विश्वास बनाए हुए थे। वह तो भंगियों को भी अपने काम को पवित्र समझ कर करते जाने को कहते थे। इसलिए दलित उन पर उस तरह विश्वास नहीं करते जैसे अम्बेडकर पर। लेकिन गांधी जी इतने बड़े नेता बन गए थे कि अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलितों को हिन्दुओं से अलग करने की माँग छोड़नी पड़ी।
अम्बेडकर बहुत दुखी हुए इस समझौते से और लगातार सोचने लगे कि दलितों को हिन्दू धर्म की घुटन से बाहर आना चाहिए। उनके अनुसार मनुष्य को किसी न किसी प्रकार के धर्म की तो जरूरत हो सकती है, पर वह सिद्धांतों वाला धर्म होना चाहिए-कर्मकाण्डों वाला नहीं। लगातार सोचने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकारा और अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध हो गए, क्योंकि उन्हें बौद्ध धर्म सबसे अधिक तर्कसंगत और आडंबरहीन लगा। उसी में दुख का कारण ढूंढ़ कर उसके निवारण की बात थी।
दलितों को राजनैतिक रूप से संगठित करने के लिए उन्होंने एक पार्टी भी बनाई जो एक तरह से किसान-मजूदर पार्टी थी, जिसका नाम झंडा कम्युनिस्टों के झन्डे की तरह लाल था। इस इंडिपेंडेंट रिपब्लिकका नाम और स्वरूप बदलता गया और अंत में वह रिपब्लिकन पार्टी कहलाई।
भारत की संविधान सभा में अम्बेडकर इसी उद्देश्य से शामिल हुए थे कि आजाद हिन्दुस्तान के लिए बनने वाले संविधान में दलितों के हित की रक्षा हो सके। हालांकि उन्हें संविधान की मसविदा सममित का अध्यक्ष बना दिया गया था और इसीलिए उन्हें भारत का संविधान निर्माता कहते हैं पर वह तो इस संविधान से सबसे अधिक असंतुष्ट थे और यहां तक कह दिया था कि अगर इसे जल्दी ही बदला नहीं गया तो वह निरर्थक हो जाएगा।
भारत को गांधी जी ग्राम प्रधान देश कहते थे। कवि लोग गाते थे भारत माता ग्रामवासिनी।पर अम्बेडकर ने देखा कि गांव में ही सामाजिक गैर बराबरी और जकड़ सबसे अधिक मजबूत है। गांव में दलित रोज-रोज अपमानित होता है। इसलिए उन्होंने दलितों को गांव छोड़ने का आह्नान किया। शहरों में मलिन बस्तियों में रोज-रोज अनगिनत कठिनाइयां झेलते हुए भी दलित अपने गांव की अपेक्षा कम अपमानित महसूस करते हैं।
बहरहाल, अम्बेडकर की वास्तविक उपलब्धि भारत का संविधान नहीं दलितों में पैदा हुआ आत्म-सम्मान है। उन्होंने शूद्र कौन थे’- लिख कर जाति-व्यवस्था की पोल खोल दी और जाति व्यवस्था का अंतलिख कर स्पष्ट कर दिया कि जाति व्यवस्था का खात्मा हुए बिना न केवल दलितों का बल्कि सारे भरतीय समाज का कल्याण नहीं हो सकता।
इस देश में सबसे पिछड़ा समझे जाने वाले दलितों ने सबसे पहले सारे मानव समाज को सामने रखा था। ज्योतिबा फुले ने दलितों की गुलामगिरी के विरुद्ध जब आवाज उठाई थी तो उन्होंने दूर-दराज अमरीका के काले लोगों के नस्लवाद विरोधी संघर्ष से अपने को जोड़ा था। उनके लिए अमरीका के अफ्रीकी मूल के काले लोगों का श्वेत शासकों के विरुद्ध संघर्ष उनके लिए प्रेरणा का स्रोत था। वास्तव में दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं- एक वे जो अपनी कमाई से किसी तरह जी पाते हैं और दूसरे वे जो दूसरों की कमाई पर मौज करते हैं। बीच में एक भारी मध्य वर्ग है, जो ऊपर वालों की तरह बनने के लिए उन्हीं के हथकन्डे अपनाता है और दलितों के विरुद्ध खड़ा होने में तनिक नहीं हिचकता। उन्हें भी अम्बेडकर से मुक्ति संदेश मिल सकता है।
अम्बेडकर ने उसी तरह समस्या का विश्लेषण किया था जैसे मार्क्स ने पूंजी का। दोनों का उद्देश्य था कि दुनिया बदले और मेहनत करने वालों को उनका हक मिले और वे सारे आनंद पा सकें, जो इस दुनिया में ही मिल सकते हैं और जिसकी मेहनत करने वाले लोग ही नींव रखते हैं। दोनों, सबसे दुखी और अपमानित लोगों की विशेष रूप से बात करते थे पर उनका मतलब यह था कि यह पूरी दुनिया बदले ताकि अन्याय की जड़ ही खत्म हो जाए। पर दोनों के अनुयायियों की सोच छोटी होती गई और नतीजा यह निकला कि सभी बड़ी-बड़ी बाते करते हुए छोटे-छोटे तात्कालिक लोभों के चक्कर में फंसते गए।
आज जरूरत यही है अम्बेडकर को सारे विश्व के दलितों और सारे समाज के नेता के रूप में देखा जाए और सारी दुनिया को बदलने के काम में जुटा जाय-तभी दलित की दुनिया भी बदलेगी।
आज लगता है कि अम्बेडकर सभी पार्टियों के लाडले हो गए हैं, क्योंकि सबको लगता है कि अम्बेडकर के अनुयायी जितने संगठित और चुनाव के समय जितने मददगार हो सकते हैं, उतना और कोई समुदाय नहीं। इससे अम्बेडकर का प्रभाव तो चिन्हित होता है, इसी से अम्बेडकर के अनुयायियों की परिपक्वता की भी परख हो सकेगी। उन्हें भी अपनी संकीर्णताओं और तात्कालिक लाभ के लोभ से ऊपर उठ कर पूरे भारतीय समाज के रूपांतरण की अगुआई करनी होगी।
अम्बेडकर से प्यार करने का मतलब
1.  हीन भाव से पूरी तरह मुक्त होना, इसलिए अपने को किसी से कम न समझना।
2. अपने को ही नहीं, दूसरों को भी, औरतों और बच्चों को भी, सबके बराबर समझना।
3. न अत्याचार सहना, न अत्याचार करना – न घर में न बाहर में।
4.  अपने को लगातार पहले से बेहतर बनाते जाने की कोशिश करते रहना। जैसा कि अम्बेडकर ने किया था।
5. यह मान कर चलना कि मिलजुल कर रहने और संघर्ष करने से ही दुनिया बेहतर होगी।
6. जैसे जीने की लड़ाई रोज-रोज लड़नी पड़ती है, वैसे ही अपनी जिन्दगी और दुनिया को बदलने की लड़ाई रोज-रोज लड़नी पड़ेगी।
7. जो अम्बेडकर कर सकते थे, हम भी कर सकते हैं – उनसे भी आगे जाने की कोशिश करें। 
सम्पर्क –

मोबाईल – 09454069645

लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘प्रथम विश्व युद्ध जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।’


प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा

इसमें कोई दो राय नहीं कि मनुष्य इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यह सर्वश्रेष्ठता उसने अपने ज्ञान और कौशल के चलते हासिल की है। आज दुनिया की जो तस्वीर पूरी तरह बदल गयी है उसके पीछे मनुष्य के ज्ञान- विज्ञान की ही बड़ी भूमिका है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। अपनी सर्वश्रेष्ठता जताने के लिए वह युद्ध की तरफ उन्मुख हुआ। आधुनिक दौर में जाने के बावजूद वह अपनी इस मनोग्रंथि से मुक्त नहीं हो पाया है। इसी वजह से दुनिया में आज भी युद्धों का दौर जारी है। इस क्रम में मानव इतिहास का प्रथम सर्वाधिक भीषण युद्ध प्रथम विश्व युद्ध था। दुनिया भर के राजनेताओं ने इसके बाद शान्ति बैठकें की और युद्ध को समाप्त करने के दिखावटी प्रयास किए। इसका अंजाम दुनिया को दूसरे विश्व युद्ध के रूप में भुगतना पड़ा। आज भी दुनिया में जगह जगह पर युद्ध लगातार हो रहे हैं। कब कौन सा युद्ध तीसरे विश्व युद्ध की शक्ल ले ले, कहा नहीं जा सकता। यानी कि बरबादियों के बावजूद हमने युद्धों से कोई सबक नहीं सीखा। पिछले वर्ष दुनिया ने प्रथम विश्व युद्ध की शतवार्षिकी मनाई। इस अवसर पर प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने एक आलेख लिखा ‘प्रथम विश्व युद्ध जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।’ तो आइए ‘पहली बार’ पर आज पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह सुचिन्तित आलेख। 
                
प्रथम विश्व युद्ध की शतवार्षिकी पर
प्रथम विश्व युद्ध जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा…
लाल बहादुर वर्मा
     सौ साल बीत गये! 1914 में, युद्ध का भूमंडलीकरण शुरू हुआ-ऐसा विध्वंस, पूरी धरती को, धरती ही नहीं धरती पर बसने वाले सबसे प्रबुद्ध प्राणी मानव को भी, झुलसा कर रख दिया था। बड़ी कोशिशें हुई कि ऐसा फिर न होने पाये। जैसे आदमी-आदमी के बीच के झगड़े निपटाने के लिए न्यायालय बने हैं वैसे ही देशों के बीच झगड़े निपटाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय बने हैं। पर कुल बीस साल बाद पहले से भी अधिक भयानक बर्बर और विध्वंसक द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया और इस युद्ध का अन्त होते-होते मनुष्य ने परमाणु बम बना लिया था। और बना लिया था तो उसका प्रभाव देखना भी जरूरी था। इसलिए उसे निर्दोष हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर गिरा कर उन्हें विलुप्त कर दिया- ऐसा विध्वंस कि आज सत्तर साल बाद तक उसका दुष्प्रभाव पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ।
     जब आदमी-आदमी के बीच कुछ स्वाभाविक टकराहटें निहित स्वार्थ के झगड़ों में बदलने लगीं तो तरह-तरह के नियम-कानून और संस्थाएँ बने। राज्य नामक सार्वभौम और सर्वशक्तिमान संस्था का भी विकास हुआ। पर ये झगड़े हैं कि रुकने का नाम नहीं लेते-बल्कि बढ़ते ही जा रहे हैं और भयानक और भयानक रूप लेते जा रहे हैं, इसी तरह समुदायों के बीच भी टकराहटें बढ़ती गयीं। बारूद के आविष्कार ने व्यक्तियों और समुदायों के बीच के झगड़ों को और हिंस्र और विध्वंसक बना दिया। 17वीं शताब्दी में यूरोप में युद्ध और राजनीति के बदनीयत सामन्वय से एक ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध शुरू हुआ जिससे मध्य यूरोप में त्राहि-त्राहि मच गयी। तभी हॉलैंड के विचारक ग्रोशियस ने यह सोचा कि देशों के बीच झगड़ों को निपटाने के लिए कोई न कोई उपाय तो होना ही चाहिए और उसने एक किताब लिखीं ‘राष्ट्रों के बीच युद्ध और शान्ति के नियम’ (‘ऑन लाज ऑफ वॉर एण्ड पीस एमंग नेशंस’)। ग्रोशियस एक शान्ति प्रिय व्यक्ति था इसलिए चाहता था कि राज्यों में आपसी सम्बन्धों का आधार कुछ नियम हों और युद्ध की स्थिति हो सके तो आने ही न पाये और आ भी जाये तो विनाश और संहार कम से कम हो और यथासंभव शान्ति की स्थापना हो सके। इसीलिए उसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून का प्रवर्तक (फादर ऑफ इंटरनेशनल लॉ) कहा जाता है। बहरहाल युद्ध तो बन्द नहीं हुए, बल्कि उनका विस्तार होता गया और बीसवीं शताब्दी में रोकने की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रथम विश्व युद्ध हो गया। 
1914 में यूरोप का मानचित्र
 
     युद्ध के दौरान ही अमरीका के राष्ट्रपति इतिहासकार वुड्रो विल्सन ने प्रस्ताव किया था कि देशों के बीव सम्बन्धों को संचालित करने के लिए एक लीग ऑफ नेशंसबनायी जाए। उसी के प्रयासों से युद्ध के बाद हुई पेरिस की संधियों का इसे अनिवार्य शर्त बना दिया गया और जेनेवा में एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘लीग ऑफ नेशन’ का गठन हो गया। कुछ उत्साहित राजनेताओं ने महत्वकांक्षी होकर युद्ध पर प्रतिबंधलगाने की बात सोची। पर शान्ति के सारे सपने दस साल के अंदर ही ध्वस्त हो गये और युद्ध की तैयारियां शुरू हो गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध अक्षरशः विश्व युद्ध साबित हुआ, क्योंकि करीब-करीब अधिकांश विश्व बारूद की चपेट में आ गया। अब एक और शक्तिशाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था यूनाइटेड नेशंसका गठन हुआ। पर युद्ध खत्म होते ही शीतयुद्ध शुरू हो गया, सैनिक गुटबंदियां शुरू हो गयी। कभी कोरिया तो कभी वियतनाम तो कभी मध्य-पूर्व में युद्ध होते ही रहे। ऐसे भी समय आये हैं जब जब लगा कि तीसरा विश्वयुद्ध बस शुरू ही होने वाला है। युद्ध है कि कभी यहाँ तो कभी वहाँ चलते ही रहते हैं। अमरीका के एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, जो भारत में अमरीका के राजदूत भी रहे थे, जॉन गालग्रेथ ने दो टूक लिखा है कि युद्ध बंद हो जायेंगे तो युद्ध/उद्योग कैसे चलेगा। अमरीका में राजनेताओं, युद्ध/उद्योग के संचालकों और पुराने जनरलों के बीच सांठ-गांठ चलती ही रहती है। विश्वविख्यात पुस्तक साइंस इन हिस्ट्री के लेखक जे.डी.बर्नाल ने कई दशकों पूर्व शोध करके बताया था कि दुनिया के अधिकांश प्रयोगशालाओं में शोध के केन्द्र में युद्ध होता है।
     सारांश यह कि तमाम विध्वंसकता के बावजूद, सामान्य जनता की शान्ति के लिए उत्कट आकांक्षा के बावजूद, शान्ति के पक्ष में बढ़ रही दलीलों और शान्ति-विमर्श के बावजूद, आज कोई भी दिन नहीं जाता जब कहीं न कहीं युद्ध न हो रहा हो धरती पर।
     ऐसा क्यों? क्या मानव समाज मृत्यु की आकांक्षा (डेथ-विश) के रोग से ग्रस्त है? क्या युद्ध अ-निवार्य है? ये प्रश्न तब से पूछे जाने लगे हैं जब से युद्ध बेलगाम और बेहद विनाशक हो गये हैं। वरना पहले तो युद्ध को गौरवान्वित किया जाता रहा है। भारत में तो कुछ समुदायों में यह विश्वास भी घर कर गया था कि मनुष्य जीवन मे सबसे बड़ी कीर्ति है युद्ध की बलिवेदी पर बलिदान हो जाना। ऐसे भी शोध हुए हैं, जिन्होंने यह प्रमाणित किया है कि मानव सभ्यता के विकास में युद्धों का भारी योगदान है, क्योंकि, खासतौर से आधुनिक काल में अधिकांश शोध युद्ध में श्रेष्ठता और अजेयता पाने के लक्ष्य के लिए ही किये जाते रहे हैं। समकालीन विश्व में भी विज्ञान और टेक्नोलॉजी के अधिकांश चमत्कार युद्ध में वरीयता पाने के लिए ही आविष्कृत हुए थे। 
Europe after the First World War
 
     ऐसे में, युद्ध के स्रोत कहाँ हैं? कुछ लोग युद्ध का स्रोत मनोविज्ञान में ढूँढते हैं। उनके अनुसार एक कहावत है कि मनुष्य एक झगड़ालू प्राणीहै (Pugnatious Animal) अगर मनुष्य का लड़ना स्वभाव ही है तो वह किसी न किसी कारण से लड़ेगा है, कभी व्यक्ति के रूप में, तो कभी समुदाय और देश के रूप में भी। समाजवादी सारे इतिहास को वर्ग संघर्ष का इतिहास बताते हैं और युद्ध संघर्ष का ही एक व्यापक रूप है। इसलिए जब तक वर्ग संघर्ष यानी मनुष्य के हित टकराते हैं तब तक तो युद्ध होता ही रहेगा। विख्यात इतिहासकार अर्नाल्ड टॉयनबी ने लिखा है कि युद्ध मनोविज्ञान नहीं टेक्नोलॉजी का विषय है (Matter Of Technology, Not of Psychology) यानी युद्ध विकसित हो रहे टेक्नोलॉजी की ही अभिव्यक्ति होते हैं। तो क्या युद्धों का कभी अन्त नहीं होगा ? तो क्या युद्धों का अन्त नहीं होगा तो मनुष्य जाति के अन्त को रोका जा सकेगा, ऐसी पृष्ठभूमि में ही आज सौ साल बाद प्रथम विश्व युद्ध को समझने की आवश्यकता है ताकि आज के युद्धग्रस्त समाज को युद्धोन्माद के रोग से मुक्त किया जा सके। समय आ गया है कि आक्रामकता में मानव आवेगों की संतृप्ति को एक आत्महंता रोग के रूप में चिन्हित किया जाए।
     प्रायः विश्वयुद्ध की जिम्मेदारी जर्मनी के सिर मढ़ दी जाती है। इसी कारण प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब संधि हुई तो युद्ध की सारी जिम्मेदारी जर्मनी और उसके मित्र देश ऑस्ट्रिया, इटली, बुल्गारिया और तुर्की के सिर मढ़ दी गयी और उन पर सारे युद्ध की क्षतिपूर्ति की जिम्मेदारी लाद दी गयी। यह सच है कि ऊपर से देखने पर जर्मनी की, खासतौर से उसके तत्कालीन शासक कैसर विलियम द्वितीय की आक्रामक नीति की तात्कालिक रूप से जिम्मेदारी थी। पर इसके कारण इतिहास में मिलते हैं। पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी में जब उत्पादन के तरीके बदले और पूँजीवाद का जन्म हुआ तो इंग्लैण्ड, फ्रांस, नीदरलैण्ड आदि पश्चिमी यूरोप के देश आगे बढ़ गये, क्योंकि वहाँ पूँजीवादी विकास के लिए आर्थिक और राजनीतिक रूप से अनुकूल परिस्थितियाँ थी। जर्मनी का क्षेत्र यूरोप में आर्थिक रूप से सबसे अधिक संपन्न क्षेत्रों में से है। पर संयोग यह था कि यह क्षेत्र छोटे-बड़े सैकड़ों राज्यों में विभाजित था। सोलहवीं शताब्दी में राष्ट्रवाद के साथ-साथ पूँजीवाद का भी जन्म हुआ था और दोनों का विकास एक-दूसरे पर निर्भर रहा होगा। जब सोलहवीं शताब्दी में धर्म सुधार का आंदोलन चला तो वह भी पूँजीवाद और राष्ट्रवाद का पोषक साबित हुआ। जर्मनी का पहला राष्ट्र नायक मार्टिन लूथर प्रमुखतः धर्म सुधारक था। उसने कैथोलिक चर्च ही नहीं जर्मनी के अधिकांश भू-भाग पर काबिज पवित्र रोमन साम्राज्य का भी विरोध किया था। राष्ट्रवाद की पोषक एक राष्ट्र भाषा भी होनी चाहिए। मार्टिन लूथर ने जर्मन भाषा को आधुनिक विचारों का माध्यम बनाया और जर्मनी में राष्ट्रवाद की लहर उठने लगी। पर विभिन्न कारणों से फ्रांस और इंग्लैण्ड की तरह जर्मनी एक संगठित आर्थिक और राजनीतिक इकाई नहीं बन पाया। उसे एक होने में तीन सौ साल लग गये। इस दौरान वहाँ राष्ट्रवाद कुंठित होता रहा और कुंठित राष्ट्रवाद रोगी और महत्वाकांक्षी हो ही जाता है।
 

Germany and Europe in the First World War (1914-1918)

जर्मनी के सबसे बड़े राज्य प्रशा और उसके प्रधानमंत्री बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही एक हो पाया। बिस्मार्क समझ यह थी कि जर्मनी का मूलभूत और पारंपरिक शत्रु फ्रांस है और चूंकि जंगल के एक क्षेत्र में दो शेर नहीं रह सकते, रहेंगे तो टकरायेंगे ही, इसलिए बिस्मार्क ने फ्रांस को नीचा दिखाना जर्मनी के गौरवान्मयन के लिए अनिवार्य समझा। फ्रांस के सम्राट नेपोलियन ने जर्मनी के राज्यों को रौंद डाला था। इसलिए बिस्मार्क ने भी जर्मनी के एकीकरण के ठीक पहले फ्रांस से युद्ध मोल लेकर उसे बुरी तरह पराजित किया और फ्रांस की राजधानी पेरिस में ही जर्मन राज्य नहीं साम्राज्यकी घोषणा की। 1871 के बाद बिस्मार्क की विदेश नीति का एकसूत्रीय कार्यक्रम था फ्रांस का एकाकीकरण। इसके लिए एक तो उसने फ्रांस के दूसरे पारंपरिक दुश्मन ब्रिटेन से मित्रता कर ली और दूसरे ऑस्ट्रिया और इटली के साथ गुप्त रक्षात्मक संधि कर ली। इस तरह यूरोप के मध्य में इटली ऑस्ट्रिया और जर्मनी ने एक दीवार खड़ी कर दी। जिसके एक ओर फ्रांस कुंठित होता रहा और दूसरी ओर रूस का पूँजीवादी विकास बाधित होता रहा।
यह कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नहीं वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ही शुरू हो गया था। शीत-युद्ध में शामिल सभी देश अपने को आक्रांत महसूस करते हैं और लगातार संभावित युद्ध की तैयारी में जुटे रहते हैं। यूरोप में ऐसा ही हो रहा था। यूरोप के अन्य बड़े देश ब्रिटेन, फ्रांस और रूस बिस्मार्क द्वारा की गयी गुप्त सैनिक संधियों की अपने-अपने हिसाब से आकलन करते और उनका जवाब देने के लिए लगातार तैयारियाँ करते। इस तरह यूरोप उसी समय वास्तव में दो गुटों में बट चुका था। जो लगातार एक-दूसरे के विरुद्ध अपने को शस्त्र-सज्जित करते जा रहे थे। इस अर्थ में ऐसा माहौल बनाने की मुख्य जिम्मेदारी बिस्मार्क की ही थी।
बिस्मार्क के नेतृत्व में बीस वर्षों में जर्मनी की असाधारण प्रगति हुई। उस समय औद्योगीकरण के लिए लोहा और कोयला को आधार स्तंभ समझा जाता था। ये दोनों ही जर्मनी में भरपूर मौजूद थे। बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण ही नहीं किया था एक लौह नीतिके माध्यम से जर्मनी में जनवाद और समाजवाद के विकास पर अंकुश लगाते हुए तेजी से जर्मनी को एक शक्तिशाली देश बनाया था। भारत में सरदार पटेल को भारत का बिस्मार्क मानने की प्रवृत्ति है। पटेल से बिस्मार्क अधिक बड़ा संगठनकर्ता और शक्तिदाता था। पर सरदार पटेल निश्चित ही बिस्मार्क से अधिक जनतांत्रिक थे।
पूँजीवाद की प्रकृति में है विस्तारवाद, क्योंकि जैसे ही पूँजीवाद एक देश के बाजार को एकीकृत और संगठित कर लेता है उसे अपने बाजार को विस्तार देने के लिए दूसरे क्षेत्र चाहिए। इसीलिए जिन-जिन देशों में पूँजीवाद सबसे पहले विकसित हुआ उन्होंने सबसे पहले उपनिवेश के रूप में नये बाजार बनाये। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के समृद्ध देशों में सारे विश्व को-मुख्य रूप से एशिया और आफ्रीका और अपने उपनिवेशों और प्रभाव क्षेत्रों को अपने-अपने यानी बाजारों में बांट लिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जब जर्मनी और दक्षिण में इटली एकीकृत होने के बाद प्रौढ़ हुए तो उन्हें भी बाजारों की सख्त ज़रूरत महसूस हुई। पर तब तक तो बाजार बंट चुके थे। इस बाजार के बॅटवारें में जब जर्मनी ने अपना हिस्सा लेने आक्रामकता दिखाई तो टकराहट अनिवार्य होती गयी। 
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इसीलिए प्रथम विश्वयुद्ध को बाजारों के पुनर्वितरण के लिए किया गया युद्ध कहा जाता है।
    
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में विलियम द्वितीय जर्मनी का सम्राट बना। यह युवा सम्राट बेहद महत्वाकांक्षी था। वह बिस्मार्क का उसी तरह सम्मान करता था जिस तरह अकबर ने बैरम खॉ का किया होगा, क्योंकि बैरम खॉन ही हूमायु की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य को अकबर के लिए सुरक्षित बनाया था। पर एक बार साम्राज्य सुरक्षित हो जाने के बाद अकबर के लिए बैरम खा व्यवधान बनने लगा था और उसे हज करने के लिए भेज कर अपने रास्ते से हटा दिया था। इसी तरह विलियम द्वितीय ने भी अपनी वैश्विक नीति (Welt Politik) के लिए बिस्मार्क एक व्यवधान था। उसकी महत्वाकांक्षा यूरोप महाद्वीप तक सीमित थी। वह कहता था कि जर्मनी हाथी है और ब्रिटेन व्हेल- एक स्थल का राजा तो दूसरा पानी का। दोनों में टकराहट की गुंजाइश ही नहीं। यानी जर्मनी यूरोप में अपनी सर्वोच्चता से संतुष्ट था और ब्रिटेन का राज दुनिया भर के समुद्रों पर था। दोनों के हित टकराते नहीं थे। पर विलियम द्वितीय जिस जर्मनी का सम्राट हुआ था वह विश्व बाजार के लिए लालायित था। ऐसे में उसकी इंग्लैण्ड से टकराहट स्वाभाविक थी। इसलिए विलियम ने बिस्मार्क को रास्ते से हटा दिया और खुल कर विश्व राजनीति में घुसपैठ करने लगा। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में मानो यूरोप पर राष्ट्रवादी उन्माद छा गया।
प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के बीच भावनात्मक युद्ध छिड़ गया। जर्मन गुट के मुकाबले इंग्लैण्ड और फ्रांस तथा रूस और इंग्लैंड के बीच पारंपरिक प्रतिस्पर्धाएं भुला कर तीनों देश एक गुट की तरह नजदीक आ चुके थे। दोनों गुटों के बीच प्रचारात्मक युद्ध बढ़ता ही जा रहा था। दोनों गुटों के अखबार एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलते जा रहे थे।
अब यह स्पष्ट हो गया था कि पूँजीवादी विकास में राष्ट्र एक इकाई बन गये हैं और हर राष्ट्र एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी समझने लगा है।
इसलिए प्रत्यक्षतः भले ही आक्रामकता की पहली जिम्मेदारी जर्मनी की हो पर मूल में तो संपत्ति के बंटावारे की टकराट ही थी। इतिहास बताता है कि व्यक्तियों के बीच टकराहटों का अधिकांशतः कारण निजी संपत्ति, उसका विस्तार, उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा आदि ही होती है। इसी तरह समुदायों और देशों के बीच भी टकराहटों का मुख्य कारण संपत्ति की प्राप्ति, विस्तार और बॅटवारा ही रहे।
व्यक्तियों की तरह देशों के बीच भी टकराहट का एक करण सुरक्षा का सवाल भी होता है। लोग अपनी कमजोरी के कारण तो असुरक्षित होते ही हैं, दूसरों की बढ़ती शक्ति के कारण भी असुरक्षित हो जाते हैं इसीलिए इतिहास में शक्ति संतुलन (Balance Of Power) एक निर्णायक कारक रहा है। युद्धों का एक महत्पूर्ण और निर्णायक कारण रहा है देशों का अपने को असुरक्षित समझना। अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिए देश कुछ भी करते हैं और देशों के बीच एक शीतयुद्ध और शस्त्रास्त्रों की होड़ शुरू हो जाती है। जिसे हम भारत, पाक सम्बन्धों के माध्यम से समझ सकते हैं कि कैसे दोनों एक-दूसरे से असुरक्षित महसूस करते हुए आज दोनों ही परमाणु बम धारक देश बन गये हैं।
 

ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के खिलाफ युद्ध का एलान कर दिया

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले जर्मनी द्वारा अकेला कर दिये जाने के बाद फ्रांस के सामने असुरक्षा की तलवार लटकने लगी थी और उसने अपने आस-पास के देशों के साथ संधियाँ करते हुए अन्ततोगत्वा जर्मन गुट के समानान्तर एक प्रतिस्पर्धी गुट बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। प्रथम विश्व युद्ध इन्हीं दोनों गुटों के बीच शुरू हुआ। युद्ध का तात्कालिक कारण बाल्कन प्रायद्वीप में राष्ट्रवादी प्रतिस्पर्धा और उसमें यूरोप की महाशक्तियों का कूद पड़ना शामिल था। यूरोप में उस समय महाशक्तियाँ थीं- ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और रूस। इतिहासकारों ने बिस्मार्क को एक कूटनीतिक बाजीगर कहा है जो हवा में महाशक्तियों को गेंद की तरह उछालता रहता था। दो गेंदे उसके हाथ में रहती और शेष हवा में उछली रहती यानी उन्हें अपने आधार का पता ही नहीं होता। ये सारी महाशक्तियाँ बाल्कन प्रायद्वीप में अपने-अपने हित पोषण के लिए हस्तक्षेप का प्रयास करती। वास्तव में बाल्कन प्रायद्वीप पर सदियों तक तुर्क साम्राज्य का कब्जा रहा। जब तुर्क साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा तो उसे यूरोप का बीमारकहा जाने लगा। जैसे कोई सम्पत्तिवान रोगग्रस्त होता है तो उसके सभी संभावित वारिस ताक में रहते हैं कि जितना संभव हो क्षींट लिया जाय। उन्नीसवीं शताब्दी में जब तुर्की का प्रभाव कम होने लगा तो यूरोप की सभी महाशक्तियाँ विविध कारणों से वहाँ घुसपैठ करने लगीं। इसमें सबसे प्रबल दावा रूस का होता, क्योंकि वह यह कहता कि जैसे बाल्कन प्रायद्वीप में स्लाव जातियाँ रहती हैं। वैसे ही रूस भी एक स्लाव देश है। इसलिए उसका फर्ज बनता था कि वह बाल्कन प्रायद्वीप के स्लाव लोगों की सरपस्ती करे। यह उसी तरह का तर्क कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों और भारत पाकिस्तान के हिन्दुओं की सरपरस्ती की बात करें। इसी बहाने रूस काला सागर और भूमध्य सागर तक अपनी नौसेना का विस्तार करना चाहता था। दूसरी ओर ब्रिटेन रूस को अपना प्रतिद्वंदी समझता था, क्योंकि उसे रूस के लगातार दक्षिण में विस्तार से अपने भारतीय साम्राज्य के लिए खतरा महसूस होता था। भारत में अधिकांश विदेशी हमले पश्चिमोत्तर से खैबर दर्रे से होते रहे थे। इसलिए ब्रिटेन रूस के डर (रशोफोबिया) से ग्रस्त रहता था। इसलिए दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इस फार्मूले के हिसाब से ब्रिटेन, रूस के दुश्मन तुर्की को अपना दोस्त समझता था और तुर्क साम्राज्य की हर तरह से मदद करके रूस के विस्तार पर नियंत्रण रखना चाहता था। इसलिए बाल्कन प्रायद्वीप में मुख्य प्रतिद्वंदिता इंग्लैण्ड और रूस की थी। पर फ्रांस और ऑस्ट्रिया भी घुसपैठ की घात लगाए रहते। अब चूंकि सशस्त्र गुटबंदी हो चुकी थी इसलिए बाल्कन एक ज्वलनशील क्षेत्र हो गया था।
फ्रांसीसी क्रान्ति  के बाद सारे यूरोप में राष्ट्रवाद की हवा चल पड़ी और बाल्कन प्रायद्वीप में भी विभिन्न राष्ट्र अपना-अपना हक जताने लगे। (यहाँ हम यह समझ ले कि इसी क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी में मार्शल टीटो के नेतृत्व में एक बहुराष्ट्रीय देश यूगोस्लाविया का उदय हुआ था। जिसने गुटनिरपेक्ष आंदोलन में जवाहर लाल नेहरू के साथ बड़ी भूमिका निभाई थी बाद में टीटो की मृत्यु के बाद यह राज्य बिखर गया और पहले की तरह आज सर्बिया मोंटेनेग्रो, बोस्निया आदि देशों के रूप में फिर विवादों में फँसे हुए हैं)। इस क्षेत्र में सबसे पहले राष्ट्रवादी बिगुल यूरोप के सबसे पुराने देश यूनान ने बजाया और तब से एक के बाद एक क्षेत्रों में राष्ट्रवादी उत्थान होता रहा। बीसवीं शताब्दी के शुरू में यह तो तय था कि इस क्षेत्र में कई देश उभरने वाले हैं। पर उनकी सीमा क्या हो? यह निश्चित नहीं था। इन्हीं को लेकर लगातार झड़पें होती रहतीं और महाशक्तियाँ अपनी हित पूर्ति के लिए अवसर ढूढ़ती रहतीं।
     बीसवी शताब्दी के दूसरे दशक में यूरोप की स्थिति कैसी थी इसका अंदाजा  ब्रिटिश विदेशमंत्री ग्रे के एक कथन से लगता है चिराग बुझते जा रहे हैं, शायद हम अपने जीवन काल में इन्हें फिर जलता न देख पाये।यूरोप बारूद का ढेर बन चुका था। कोई भी चिंगारी विस्फोट कर सकती थी। 
4 August 2014 marks the 100th anniversary of the day Britain, having declared war on Germany, entered the First World War.
 
वह चिंगारी से सर्वियारायोवा के नामक नगर में आ गिरी। तनावपूर्ण माहौल में वहाँ आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हो गयी। ऑस्ट्रिया ने धमकी दी कि अगर चौबीस घंटे के अन्दर हत्यारे को नहीं पकड़ा गया तो वह सर्बिया पर हमला कर देगा। हत्यारा नहीं पकड़ा जा सका और ऑस्ट्रिया ने सर्बिया पर हमला कर दिया। स्लाव बिरादर की मदद करने के लिए रूस युद्ध में कूद पड़ा। ऑस्ट्रिया की जर्मनी से रक्षात्मक संधि थी। जिसके अनुसार एक पर आक्रमण दूसरे पर भी आक्रमण समझा जाता। इसलिए ऑस्ट्रिया की मदद के लिए जर्मनी ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूस की मदद के लिए इंग्लैण्ड और फ्रांस भी कूद पड़े। सारा यूरोप धू-धू कर जलने लगा। जर्मनी की पनडुब्बियाँ दूर-दूर तक मार करने लगीं। धीरे-धीरे महाशक्तियों के उपनिवेश भी युद्ध में कूद पड़े। जब जर्मन पनडुब्बी ने एक अमरीकी जहाज को डुबा दिया तो अमरीका भी युद्ध में कूद पड़ा और युद्ध वास्तव में विश्वयुद्ध बन गया।
     यहाँ हमें विश्वविख्यात चिंतक की एक बहुत दिलचस्प टिप्पणी याद आती हैः
प्रथम विश्वयुद्ध टैंको से शुरू हुआ और उसका अन्त हवाई जहाजों से हुआ। दूसरा विश्वयुद्ध हवाई जहाजों से शुरू हुआ और उसका अन्त परमाणु बम से हुआ। लगता है तीसरा महायुद्ध परमाणु बम से ही शुरू होगा और उसके बाद के युद्ध लाठी-डंडे से लड़े जायेंगे। इस टिप्पणी में दो बातों की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है। एक तो यह कि युद्ध के दौरान शस़्त्रास्त्रों को लगातार और अधिक कारगर बनाया जाता है और उनकी विध्वंसकता बढ़ती जाती है और दूसरा यह कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो विध्वंस इतना व्यापक होगा कि सभ्यता ही नष्ट हो जायेगी और लोग प्रागैतिहासिक काल में चले जायेंगे।
शुरू के वर्षों में जर्मनी लगातार विजयी होता रहा। क्योंकि युद्ध में पहला वार करने वाले और पहले से तैयारी करने वाले की स्थिति बेहतर होती है। पर धीरे-धीरे इंग्लैण्ड और फ्रांस भी अच्छी लामबंदी करने में सफल हुए। इस विश्व युद्ध में ब्रिटेन की ओर से भारतवासियों की भी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई। भारतियों ने वार-फन्डमें करोड़ों रुपया चंदा दिया और भारत के सैनिक मध्य-पूर्व से यूरोप तक लड़ते हुए मारे गये। युद्ध में ब्रिटेन और फ्रांस का सहयोगी रूस अन्त तक नहीं संभल पाया और लड़खड़ाते रूस में 1917 में क्रान्ति  हो गयी। क्रान्ति  के नेता लेनिन ने पहले से ही कहना शुरू कर दिया था कि यह युद्ध पूँजीपतियों के बीच का युद्ध है। राष्ट्रवादियों को इससे कुछ नहीं लेना-देना। इसलिए रूस को इस युद्ध से अलग हो जाना चाहिए। क्रान्ति के बाद लेनिन ने जर्मनी से समझौता कर लिया और रूस युद्ध से अलग हो गया। 
जर्मनी को थोड़ी राहत मिली तो उसने और आक्रामक रूख दिखाया। पर उसकी एक चूक ने अमेरिका को भी युद्ध में उतार दिया।
अमरीका सैकड़ों वर्षों से, जिस दौरान यूरोप लगातार युद्धों में ध्वस्त हो रहा था, निरंतर अपनी अनन्त संभावनाओं को उजागर करता हुए एक महान शक्ति बनता जा रहा था। अमेरिका के युद्ध में कूदने से ब्रिटेन और फ्रांस को अनन्त स्रोत उपलब्ध हो गये। अमरीका ने जर्मनी के खिलाफ लड़ने वालों की बेहिसाब मदद की और स्वयं भी मोर्चा संभाला। 
     इस समय ब्रिटेन ने दो बड़े कारगर नारे दियेः
1.     It is a war to make the world safe for Democracy.
2.     It’s a war to end war. 
(1). यह युद्ध दुनिया को जनतंत्र के लिए सुरक्षित करने के लिए है 
(2). यह युद्ध युद्धों का अन्त कर देने के लिए है।
जाहिर है कि ये दोनों ही नारे आदर्शवादी आहृवान थे। उपनिवेशों में, जैसे भारत में, किसी न किसी रूप में राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हो गये थे आशा की किरण दौड़ गयी कि हो सकता है विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें स्वायत्तता या स्वतंत्रता मिल जाय। दूसरे युद्धों का अन्त कर देनी की बात सभी शान्तिप्रिय लोगों के लिए एक बहुत बड़ी आदर्शवादी उत्प्रेरणा थी। नतीजा यह हुआ कि उपनिवेशों से भारी मदद मिलने लगी और जर्मनी का पलड़ा हल्का पड़ने लगा।
सबसे पहले इटली ने जर्मनी का साथ छोड़ा और विरोधी गुट से जा मिला। इसके बाद जर्मनी द्वारा विजित क्षेत्रों में राष्ट्रवादी उभार शुरू हुआ और अन्ततः स्वयं जर्मनी में जहाँ युद्ध के पहले मजदूर आंदोलन यूरोप में सबसे अधिक तेज था। सम्राट विलियम द्वितीय की हालत कमजोर पड़ने लगी। अन्ततः विलियम अपने परिवार के साथ भाग खड़ा हुआ। अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन ने युद्ध के दौरान ही चौदह सिद्धांतों की घोषणा की थी जिनके आधार पर दुनिया में फिर से शान्ति बहाल की जा सकती थी। इन्हीं चौदह सिद्धांतों को आधार बनाया गया और युद्ध की समाप्ति के बाद पेरिस में शान्ति वार्ताएँ शुरू हुई। 
 
इस युद्ध ने संवेदनशील लोगों का मोहभंग कर दिया था। इतना विनाश, इतनी निर्बन्धता, इतनी बर्बरता क्या हो गया है मानव को। लड़ने वाले अधिकांश महत्वपूर्ण देश ईसाई धर्म के अनुयायी थे। क्या हुआ उस मानव प्रेमी और अहिंसा के पुजारी ईसा मसीह की शिक्षाओं का? उसने कहा थाः जो तुम्हारे बाएँ गाल पर तमाचा मारे उसके सामने दायाँ गाल भी कर दोऔर उसके अनुयायी निर्दोष लोगों की बर्बर हत्यायें कर रहे थे। 1915 में ही फ्रांत्ज़ काफ्का ने एक छोटा सा उपन्यास लिखा – Metamorphosis (कायांतर)। इस उपन्यास का  मुख्य पात्र ग्रेगोर एक सुबह बिस्तर से उठना चाहता है तो पाता है कि वह तो कॉक्रोच (तिलचट्टा) हो गया है। हम सबने एक उलट गये लाचार तिलचट्टे को देखा होगा जो लगातार अपनी टाँगे हिलाता हुआ अपने जीने को प्रदर्शित तो करता है। पर लाख कोशिशों के बावजूद पलट कर सीधा नहीं हो पाता। इस असाधारण रूपक ने मनुष्य की दुदर्शा और लाचारी को हृदय विदारक रूप में उजागर कर दिया। काफ्का की यह रचना आज तक प्रासंगिक बनी हुई है, क्योंकि मनुष्य उस लाचारगी से कहाँ उबर पा रहा है? इस रूपक पर विविध कलारूपों में रचनाएँ हुई हैं। फिल्में बनी हैं। यहाँ तक कि रॉक बैन्ड ने भी इसका इस्तेमाल किया है, क्योंकि पिछले सौ वर्षों से यह रचना मानव समाज को असहायता से उबरने की प्रेरणा देती रही है।
फ्रांस में विख्यात लेखक अल्बेर काम्यू ने एक कालजयी रचना रची द प्लेग उस समय प्लेग का अन्त नहीं हुआ था और वह हर साल महामारी में लाखों लोगों की जान ले लेती। यह बीमारी चूहों द्वारा फैलती थी और उसकी कोई दवा नहीं थी। इस उपन्यास में अगणित चूहों का मानव शरीर पर रेलम पेल मचाना इस तरह दिखाया गया कि पाठक अपने शरीर पर भी चूहों का रेंगना महसूस कर सकता है। कुल मिला कर काम्यू ने भी मानव समाज को रोग ग्रस्त बताया और युद्ध को एक महामारी करार दिया। युद्ध ने जो कुछ किया था उसका एक प्रमाण मिलता है ओसवाल्ड स्पेन्गलर की विश्व विख्यात हो गयी किताब डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट।  स्पेन्गलर कोई बड़ा इतिहासकार नहीं था पर संवेदनशील शिक्षक स्पेन्गलर को युद्ध से इतना आघात पहुँचा कि उसने इसमें समस्त पाश्चात्य सभ्यता का पतन देखा। उसने प्रतिपादित किया कि जैसे व्यक्ति जन्म लेता है, युवा होता है, प्रौढ़ होता है और फिर वृद्धवस्था के बाद मृत्यु को प्राप्त होता है वही हाल सभ्यताओं का होता है और अब लगता है कि पाश्चात्य सभ्यता भी मरणासन्न है।
इस विषय को और विस्तृत और विद्वतापूर्ण ढंग से ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने अपनी विराट पुस्तक स्टडी ऑफ हिस्ट्रीमें प्रतिपादित किया। उनका स्वर इतना निराशापूर्ण नहीं था पर सभ्यता के पतन की बात उन्होंने भी चिन्हित की।   
कुल मिला कर युद्ध ने लोगों को विचलित कर दिया। विराटता की ओर अग्रसर सभ्यता से मोहभंग का दौर अभी तक जारी है। पर उसमें विस्तार से जाना इस लेख के दायरे में संभव नहीं।
इस घटाटोप में आशा की एक ही किरण थी कि 1917 में रूस में दो बार क्रान्ति हुई और दूसरी क्रान्ति के बाद सदियों से कल्पित मजदूरों का राज्य कायम हो गया। पर वह तत्काल एक गृह युद्ध में लिप्त हो गया। रूस की प्रक्रियावादी शक्तियों की दुनिया की सभी महाशक्तियाँ मदद करने लगीं और दो साल तक ऐसा गृह युद्ध नगर-नगर और सड़क, सड़क पर लड़ा गया कि लगता था कि दुनिया अभी किसी क्रान्ति कारी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं। 
उधर पेरिस में विजेता पराजित देशों के शासकों नहीं पूरे देश को अपराधी बना कठघरे में खड़ा किए हुए थे। इंग्लैण्ड में नारे लग रहे थे- जैसे को तैसा’, ‘एक-एक पैसा वसूला जाए।
पेरिस में पराजित देशों के साथ समझौता वार्ता शुरू हई। विश्व युद्ध के बाद यह वास्तव में एक विश्व शान्ति सम्मेलन था। इसका पता इसी से चल सकता है कि भारत उस समय एक स्वतंत्र देश नहीं था। पर भारत की युद्ध में बड़ी भूमिका थी इसलिए भारत के प्रतिनिधि को भी पर्यवेक्षक के रूप में बुलाया गया था। वैसे तो सभी प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा चलता रहा पर निर्णायक भूमिका पाँच प्रमुख विजेता देशों- ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमरीका, इटली और जापान के शासन प्रमुखों की थी। इन पाँचों में भी सबसे निर्णायक भूमिका ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज तथा फ्रांस के प्रधानमंत्री क्लमांशो की थी। ये दोनों ही मानो जर्मनी का खून चूस लेना चाहते हों। इन दोनों देशों की जनता भी आक्रांता जर्मनी से बेहद नाराज थी और राजनेताओं को कुछ ही दिनों में ऐसी जनता के सामने ही वोट माँगने जाना था। इसलिए पब्लिक मूडके अनुसार ही व्यवहार करना जरूरी समझा जा रहा था। इन दोनों पर थोड़ा बहुत अंकुश लगा भी सकता था तो इनका सबसे बड़ा मददगार अमरीका का राष्ट्रपति विल्सन। परन्तु विल्सन एक आदर्शवादी नेता था और वैसे भी अमरीकी नेता यूरोप की कुटिल कूटनीतिक चालों से अभी पूरी तरह परिचित नहीं थे। दूसरे विल्सन किसी भी कीमत पर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति संगठन लीग ऑफ नेशंसका गठन करवा लेना चाहता था। इसलिए वह लॉयड जार्ज और क्लमांशो की बदला लेने की नीति पर कोई प्रभावी अंकुश नहीं लगा सका। 
President Woodrow Wilson
ले दे के वही हुआ जिसे रसेल ने रीवॉस’ (Rivanche) यानी प्रतिहिंसा और बदले की भावना कहते हैं। लेखक के अनुसार जर्मनी और फ्रांस के बीच बदले की इस भावना ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी हिंसाएँ करवायीं। लेखक ने यहाँ इतिहास बोध और इतिहास ग्रस्तता के बीच अन्तर चिन्ह्ति किया। इतिहास बोध का अर्थ होता है इतिहास से सबक लेकर पुरानी गलतियों को दोहराने से बचना। जबकि इतिहासग्रस्तता का मतलब होता है इतिहास के बोझ को ढोते रहना। इससे वैमनस्य की यादें ताजा रहती हैं और सकारात्मक पक्ष भुला दिया जाता है। इसे हम भारत के इतिहास में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों और अब भारत-पाक सम्बन्धों में कार्यरत देख सकते हैं। बदले की भावना व्यक्ति और समुदाय को संकीर्ण और आत्मघाती बनाती है।
पेरिस की संधियों में इसी बदले की भावना ने सबसे बड़ा नुकसान यह किया कि शासकों को जिम्मेदार करार देने के बजाय पूरे देश को जिम्मेदार ठहरा दिया और युद्ध की सारी जिम्मेदारी पराजित देशों पर थोप दी। यह एक नितांत आपराधिक निर्णय था। सामान्य लोग ऐसा ही करते हैं कि दुश्मनी हो जाए तो पुश्त-दर-पुश्त उसे ढोते हैं और दुश्मन ही नहीं उसकी जाति, धर्म और उससे जुड़ी हर चीज से दुश्मनी निभाते हैं। यह प्रवृत्ति भी हम भारतीय समाज में भली-भाँति चरितार्थ होते देखते हैं। किसी घटना या व्यक्ति के दोष के लिए पूरी जाति और पूरे धर्म के अनुयायियों को कितनी आसानी से यहाँ अपराधी मान लिया जाता है। अगर जर्मनी अपराधी था भी तो सम्राट तो भाग खड़ा हुआ था और युद्ध के सारे निर्णय अधिकांशतः उसी ने लिए। फिर जनता को क्यों दोषी ठहराया जाय? परंतु पेरिस की संधियों में युद्ध का सारा खर्चा वसूलने के लिए क्षतिपूर्ति का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। क्षतिपूर्ति कमीशन ने क्षति का आकलन किया वह रकम इतने खरबों में थी कि पराजित देश शायद सैकड़ों वर्षों में ही जुर्माने को भर पाते। वास्तव में जुर्माना कौन देता? निरापराध जनता और वह भी पुश्त-दर-पुश्त। इस नीति ने ही जर्मन समाज में ऐसा क्षोभ और असंतोष पैदा किया जिसका लाभ उठाते हुए हिटलर जर्मनी पर फॉसीवाद लादने में सफल हो गया।
     जुर्माना वसूल करने के लिए जो शर्तें लगाई गयी थी उनमें वर्षों तक जर्मनी में हुआ सारा उत्पादन इंग्लैण्ड और फ्रांस हड़पते रहे। जर्मनी के सारे उपनिवेश छीन लिये गये पर ब्रिटेन और फ्रांस ने युद्ध के बाद जनतंत्र का आहृवान करने के बावजूद उपनिवेशों से मिली मदद को धता बताते हुए अपने उपनिवेश नहीं आजाद किए। भारतवासियों को तो भारी मदद के बदले रौलेट एक्ट और जलिया वालां बाग का नरसंहार मिला था।
     यह अनोखी संधि वार्ता थी, जिसमें वार्ता हुई ही नहीं, संधि पत्र पर बन्दूकों के साये में पराजित देशों से हस्ताक्षर करा लिया गया। क्लमांशों लगातार धमकाता रहा, ‘हमारी तोपों का मुँह अभी भी जर्मनी की ओर ही है।
     ऐसी अपमानजनक संधि के बाद व्यंग्य किया जाने लगा- युद्ध का अन्त करने वाला युद्ध समाप्त हो गया। अब शुरू हो रही है शान्ति जो शान्ति का अन्त कर देगी।एक अनुभवी सेनाधिकारी जनरल फोश ने कहा यह शान्ति नहीं बीस साल का युद्ध स्थगन है। और निश्चित ही ठीक 20 साल बाद 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया।
     यहीं हम इसे उल्लेखनीय मानते है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विजेताओं ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के अनुभवों से लाभ उठाया और पराजित देशों को अपराधी घोषित करने के बजाय युद्ध अपराध के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर बाकायदा मुकदमा चला कर उन्हें भिन्न-भिन्न सजाएँ दी गयी। इस सम्बन्ध में नूरेम्बर्ग ट्रायल्सका उल्लेख किया जा सकता है। युद्ध का अन्त होने से पहले ही हिटलर ने तो आत्महत्या कर ली थी। पर उसके सहयोगी अधिकारियों का अपराध सुनिश्चित कर उन्हें भिन्न-भिन्न सजाएँ दी गयी और मार्शल प्लानके अन्तर्गत जर्मनी के पुनर्निर्माण के लिए मदद की गयी। नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे स्वयं जर्मनी के समाज ने भी मान लिया कि अपराधी हिटलर और उसकी पार्टी थी और वे शर्मिदा हुए और हैं कि उन्होंने ऐसे अपराधियों का साथ दिया। ऐसी नीति के कारण ही बार-बार नौबत आने पर भी तीसरा विश्वयुद्ध अभी तक टलता रहा है। यहाँ यह कह देना उचित ही होगा कि युद्ध में जर्मनी पराजित हुआ इसलिए उसके शासकों पर मुकदमा चला। पर अगर वह जीत जाता तब?… 
बेल्जियम में हमले के दौरान जर्मन सैनिक आंटवर्प में जहाज़ से उतरे
     प्रथम विश्वयुद्ध में पचपन लाख से अधिक व्यक्ति मारे गये और करोड़ों घायल हुए। जेनेवा में हम युद्ध में आहत लूले, लंगड़े, अंधे, क्षत-विक्षत लोगों का भारी प्रदर्शन हुआ तो लोगों का बुरा हाल हो गया। सम्पत्ति की तो जितनी हानि हुई थी उसका जायजा ही लेना मुश्किल था। एक जर्मन पत्रकार ने इस विषय पर एक बड़ी सटीक टिप्पणी कीः-
     प्रथम विश्वयुद्ध में सम्पत्ति का जितना नुकसान हुआ उससे अधिक मानस का हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सम्पत्ति का अकूत नुकसान हुआ। पर मानो समाज का रोगग्रस्त मन स्वस्थ हो गया-तभी तो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फॉसीवाद का उदय हुआ था और दुनिया एक-दूसरे विश्व युद्ध में झोंक दी गयी थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद लगता है फॉसीवाद का खतरा टल गया।’
     प्रथम विश्व युद्ध ने वैसे तो सारी दुनिया को गहराई से प्रभावित किया पर यूरोप को तो मानो उलट-पलट कर रख दिया। इस युद्ध में चार साम्राज्यों का अन्त हो गया- जर्मन, ऑस्ट्रियन, रूसी और तुर्की। यह सच है कि विजेता ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने उपनिवेशों को बचा लिया। पर वहाँ भी स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ ली। इसे हम भारत के उदाहरण से समझ सकते हैं। युद्ध में सरकार की मदद करने वाले गाँधी जी युद्ध के बाद खिलाफत और असहयोग आंदोलन का नेतृत्व करने लगे और भारत ही नहीं सभी उपनिवेशों में स्वतंत्रता आंदोलन तेज होता गया। इसके लिए युद्ध को श्रेय नहीं दिया जा सकता पर यह तो सच ही है कि युद्ध ने ही ऐसा माहौल पैदा किया और ऐसी चेतना विकसित की जिसमें वंचित लोगों में एक उभार पैदा हुआ।
     युद्ध का एक अनअपेक्षित पर सबसे बड़ा परिणाम तो यही दिखाई देता है कि युद्ध के दौरान ही 1917 में रूस में दो क्रान्तियाँ हुईं और रूस में मेहनतकश का राज कायम हो गया। निश्चित ही ऐसा इसीलिए संभव हुआ कि रूस युद्ध में लगातार पराजित हो रहा था और रूस की सरकार इतनी कमजोर और जर्जर हो गयी कि वह पहले सुधारों और फिर क्रान्ति  की आंधी को बर्दाश्त नहीं कर पायी।
विश्वयुद्ध जैसे नकारात्मक परिघटना के भी बहुत से परोक्ष, किन्तु सकारात्मक परिणाम निकले। उन्हें भी चिन्ह्ति करना आवश्यक है।
इतने बड़े पैमाने के युद्ध में युद्धरत देशों की सारी युवाशक्ति खप गयी। युद्ध में भर्ती के लिए नीचे की उम्र घटाई और ऊपर की उम्र बढ़ायी जाने लगी। इसका मतलब सारे युवक जो कोई काम कर सकते थे युद्ध सम्बन्धी कामों में ही लग गये। फिर भी वे पूरे नहीं पड़ सकते थे। इसलिए घर की चौहद्दी टूटने लगी। औरतों को भी कामों पर लगाया जने लगा। हालांकि औद्योगीकरण के बाद ही सस्ते श्रम के रूप में औरतों का इस्तेमाल शुरू हो गया था पर वे प्रायः कारखानों में मजदूरी करतीं। अब तो हर क्षेत्र में औरतों को प्रवेश मिलता गया। इससे नारी की दिनचर्या बदली। यहाँ तक कि आचार-व्यवहार भी बदलने लगा। बड़े-बड़े बाल और भारी घाघरों के साथ भाग-दौड़ की नौकरी नहीं की जा सकती थी इसलिए नारी का रूप-स्वरूप ही बदलने लगा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हम मजदूर आंदोलन के साथ नारी आन्दोलन में भी तेजी आते देख सकते हैं। 
शिक्षा-साहित्य के क्षेत्र में भी परिवर्तन दिखायी पड़ता है। युद्ध के पहले, दौरान और बाद में तकनीकी शिक्षा को अधिक महत्व दिया जाने लगा। साहित्य में अब बड़े उपन्यास और महाकाव्य पढ़ने का समय नहीं था किसी के पास। इसलिए कहानियों और एकांकी नाटकों का जोर बढ़ा। इसमें जॉन गालसवर्गी के लिखे लघु नाटक द लिटिल मैनने महानायकों की जगह सामान्य व्यक्ति के महत्व को बढ़ाना शुरू किया। बाद में इसकी झलक हिन्दी साहित्य में लघु मानवकी अर्थवत्ता बढ़ाने के प्रयास में देखी जा सकती। अंग्रेजी साहित्य की प्रवृत्ति अर्नेस्ट हेमिंग्वे के दो उपन्यासों में देखी जा सकती है। स्पेन में होने वाले गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखे गये फॉर हूम द बेल टाल्सऔर फेयरवेल टू आर्म्समें देखी जा सकती है। सबसे सटीक समीक्षा बर्नर्ड शॉ के नाटक आर्म्स एण्ड द मैनमें देखी जा सकती है। शॉ शेक्सपीयर के बाद अंग्रेजी के सबसे बड़े नाटककार माने जाते हैं। उन्होंने अपने बहुचर्चित नाटक आर्म्स एण्ड द मैनमें एक सूत्र कहलाया है अपने नायक ब्लंटश्ली ब्लेड श्लिी सेः Romantic Love is Lust and Romantic War is Butchery. (रूमानी प्रेम कामेक्षा है और रूमानी युद्ध संहार) पात्र ने प्रेम और युद्ध का रूमानियत के नाते गौरवान्यन की आलोचना की। इस कथन में यहाँ यह प्रासंगिक है कि युद्ध को प्रायः शासक लोग देशभक्ति, देश-रक्षा या मर्दान्गीआदि के बहाने अपने हित का उपकरण बनाते हैं।
युद्ध से दुनिया इस तरह आक्रांत थी कि हर कीमत पर-तुष्टिकरण की कीमत पर भी, शान्ति बनाये रखना चाहती थी। शान्ति के लिए लीग ऑफ नेशंसतो बना ही था पर उसे पर्याप्त न मान कर शान्ति के लिए तरह-तरह की वार्ताएँ और संधियाँ की जाने लगी। निरस्त्रीकरण के प्रयास होने लगे। निरस्त्रीकरण सम्मेलनों पर जॉन व्हिटेकर नामक पत्रकार ने एक बहुत अच्छा व्यंग्य किया था। उसने अपनी पुस्तक फीयर केम ऑन यूरोप’ (भयाक्रांत यूरोप) में दो छोटी-छोटी कहानियाँ लिखीं जो आज भी प्रासंगिक हैं। पहली कहानी में जंगल में जानवरों का एक सम्मेलन हुआ। यह चिन्ता प्रकट की गयी कि अगर जानवर एक-दूसरे का इसी तरह संहार करते रहे तो जानवर समाप्त हो सकते हैं। इसलिए प्रस्ताव हुआ कि जानवर अपने खतरनाक अंगों का इस्तेमाल न करें। तब हाथी ने कहा पंजों का इस्तेमाल वर्जित किया जाना चाहिए। शेर ने कहा सूड़ पर प्रतिबंध लगना चाहिए…। यानी हर जानवर दूसरे जानवर के उस अंग पर प्रतिबंध लगाना चाहता था जो अपने लिए खतरनाक समझता था। इसी तरह देश दूसरे देशों के उन हथियारों पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे जो उनके पास नहीं थे या कम थे।
दूसरी कहानी और छोटी पर और दिलचस्प है। उसे भारतीय संदर्भ में कहें तो इस तरह कहेंगेः-
एक आदमी के पास एक रुपया था। वह दुकान पर जाकर उसकी रेजकारी (खुदरा) लेता। फिर दूसरे दुकान जाकर रुपया लेता और फिर रेजकारी और फिर रुपया। उसके साथी ने पूछा तुम बार-बार यह क्या कर रहे हो ? उस आदमी ने जवाब दिया मुझे विश्वास है कि कभी न कभी कोई न कोई भूल करेगा…यानी दूसरों की भूल या गलतियों का फायदा उठाने का प्रयास। समस्याओं के समाधान के लिए बार-बार होने वाले सम्मेलनों में क्या आज भी दूसरे पक्ष द्वारा गलती का इंतजार नहीं किया जाता?
वास्तव में निरस्त्रीकरण हुआ नहीं, क्योंकि सभी देशों में असुरक्षा का भाव विद्यमान था। फिर भी युद्ध के बाद के पहले दशक के दौरान लगातार प्रयास होते रहे। यहाँ तक कि युद्ध पर पाबंदी लगाने की भी सदिच्छा व्यक्त हुई। इन प्रयासों ने शान्ति के पक्ष में ऐसा माहौल बनाना शुरू किया कि इनके लिए अमेरिकी विदेशमंत्री केलॉग और फ्रांस के विदेश मंत्री ब्रियां को नोबेल शान्ति पुरस्कार से नवाजा गया। पर यह प्रयास वास्तव में खोखले थे, क्योंकि युद्ध की जड़ों पर कोई प्रहार नहीं कर रहा था।
युद्ध के समाप्त होने के तीन वर्ष बाद ही इटली में फॉसीवाद के प्रवर्तक मुसोलिनी ने इटली पर कब्जा कर लिया। फॉसीवाद एक उत्कट राष्ट्रवाद तथा विकृत पूँजीवाद है। वह तब तक पैदा हो चुके समाजवादी विकल्प को पूरी तरह नकारते हुए देश का पूरी तरह सैन्यीकरण कर राष्ट्रवादी उन्माद फैलाता है। मुसोलिनी इसी राह पर अग्रसर हुआ। पर फ्रांस और ब्रिटेन युद्ध से इतने डरे हुए थे कि उन्होंने मुसोलिनी के प्रति तुष्टिवादी नीति अपनाई। इटली ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए अफ्रीका के सबसे पुराने देश अबीसीनिया पर हमला किया और पराजित हुआ था। मुसोलिनी ने उस युद्ध का बदला लेने के लिए पूरे देश को लामबंद किया और अबीसीनिया को पराजित कर इटली का उपनिवेश बना लिया। फिर भी दुनिया के तथाकथित जनतांत्रिक देश नहीं चेते। लीग ऑफ नेशंस में मामला उठाया गया। पर वह संस्था दंतहीन साबित हुई। वह कुछ भी करने में समर्थ नहीं हुई।
इसी तरह पूरब में जापान में चमत्कार हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक एक पिछड़ा सामंती देश तेजी के साथ पश्चिम, विशेषकर अमरीका, के संपर्क में आया और इतनी तेजी से प्रगति की कि उसे इतिहास में जापानी चमत्कार (Japanese Miracle) कहा जाता है। उसने अपने दो विराट पड़ोसियों चीन और रूस को पराजित किया और इंग्लैण्ड की प्रतिष्ठित कार्टून पत्रिका द पंचने उसे जैक द जायंट किलरघोषित कर दिया। जापान को ‘पूरब का ब्रिटेन’ कहा जाने लगा। ब्रिटेन ने जापान के साथ बराबरी की संधि कर ली और प्रथम विश्व युद्ध में जापान ने ब्रिटेन का साथ दिया, लेकिन पेरिस की संधियों में जापान को वह लाभ नहीं मिला जो ब्रिटेन और फ्रांस का इसलिए वह बेहद असंतुष्ट हो गया।
जापान टापुओं का देश है और वहाँ की सबसे बड़ी पूँजी वहाँ का प्रतिभाशाली मनुष्य है। वहाँ की जनसंख्या के लिए पर्याप्त रिहाइशी जमीन तक उपलब्ध नहीं है। अब तो टेक्नोलॉजी के विकास के कारण गगनचुम्बी इमारतें समस्या का एक हद तक समाधान करती हैं पर उस समय तो बढ़ते औद्योगीकरण और बढ़ी जनसंख्या के लिए उपनिवेश चाहिए थे। जापान भी फॉसीवादी रास्ते पर चल पड़ा और उसने चीन के उत्तर में मंचूरिया पर कब्जा कर लिया और इस बार भी प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले शक्तिशाली देश कुछ  भी नहीं कर सके।
फॉसीवाद का सबसे आक्रामक और बर्बर उभार जर्मनी में हुआ। जर्मनी यूरोप का सबसे संभावना-सम्पन्न देश है। वहाँ की साहित्यिक और दार्शनिक परंपराएँ विश्व विख्यात हैं पर विभाजित होने के कारण 1870 तक वह पनप नहीं पाया था। पर पनपते ही बाजार की प्रतिस्पर्धा में वह विश्वयुद्ध का कारक बन गया था। पराजय के बाद उसे इतना अपमानित और प्रताड़ित किया गया था कि पेरिस की संधियों की अवहेलना के बिना वह सांस नहीं ले सकता था। सामान्य विकास से वह अपने बंधन नहीं तोड़ सकता था। उस वक्त जर्मनी की मानो ऐतिहासिक आवश्यकता थी एक असामान्य राष्ट्रवादी उधार।
यह प्रदान किया उस व्यक्ति ने जिसकी भाषा तो जर्मन थी पर वह जर्मनी नहीं ऑस्ट्रिया का निवासी था। उसी ने नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (नात्सी पार्टी) का गठन किया। शुरू से ही आक्रामकता के कारण उसे जेल भी जाना पड़ा और जेल में ही हिटलर ने युवा अवस्था में ही अपनी आत्मकथा लिख डाली, ‘मेरा संघर्ष’ (Mein Kamph). एक कुंठाग्रस्त व्यक्ति की अनंत महत्वाकांक्षाओं को एक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसमें यहूदियों को जर्मनी की सारी मुसीबत, यहाँ तक प्रथम विश्वयुद्ध में पराजय तक, के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था और विजेताओं को ललकारते हुए जर्मनी को एक आर्ययानी श्रेष्ठ जाति करार दिया गया था और यही प्रतिपादित किया गया था कि जो श्रेष्ठ है उसे ही शासन करने का अधिकार है। इसलिए जर्मनी ही विश्व का श्रेष्ठ शासक हो सकता है। हिटलर की बातों में अपमानित और उत्पीड़ित जर्मन, समाज विशेषकर युवाओं, को एक सम्बल मिला और हिटलर ने अपनी पार्टी को इतने तामझाम और इतनी आक्रामकता के साथ संगठित किया कि जर्मनी की लड़खड़ा रही जनतांत्रिक सरकार को 1933 में हिटलर को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना पड़ा। तब से अगले बारह वर्षों का समय यूरोप ही नहीं सारी दुनिया के लिए एक विध्वंसक सुनामी से गुजरने के अनुभव जैसा रहा। थोड़े ही समय में उसने आरोपित संधि की धज्जियाँ उड़ा दीं और तेजी से जर्मनी का सैन्यीकरण करता हुआ भावी खतरे का आगाज करता गया। उसने इटली और जापान की फॉसीवादी शक्तियों से हाथ मिला लिया और स्पेन में चल रहे गृह युद्ध में वहाँ की फॉसी शक्तियों की मदद करने लगा।
स्पेन में जनतांत्रिक तरीके से एक समाजवादी सरकार स्थापित हुई थी। यह दुनिया के इतिहास में अप्रत्याशित और अभूतपूर्व था। इसका स्पेन की सामंती और प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने भरपूर विरोध किया और जनरल फ्रांको उनका नेतृत्व करने लगा। इटली और जर्मनी की फासिस्ट सरकारों ने फ्रांको की भरपूर मदद की। पर जनता द्वारा चुनी हुई वैध सरकार की किसी जनतांत्रिक सरकार ने मदद नहीं की थी। मानवता के सामने आसन्न खतरे को सरकारों ने नहीं पर सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों ने महसूस किया। कुछ बेहद प्रतिभाशाली युवा लेखकों जैसे क्रिस्टोफर कॉडवेल, ने कलम छोड़कर हथियार पकड़ लिये और जनतंत्र की रक्षा के लिए युद्ध में कूद पड़े। भारत के लेखकों में भी उथल-पुथल मचनी शुरू हुई। कांग्रेस के युवा नेता जवाहर लाल नेहरू ने स्पेन की जनतांत्रिक शक्तिओं को नैतिक समर्थन दिया। पर अन्ततः ये शक्तियाँ पराजित हो गयी और स्पेन में भी एक फॉसीवादी सरकार कायम हो गयी। तब भी दुनिया की जनतांत्रिक सरकारें नहीं चेती।
पर दुनिया के प्रगतिशील लेखकों ने फॉसीवाद के विरुद्ध एक प्रगतिशील जनतांत्रिक मोर्चा बनाने का निर्णय लिया और प्रगतिशील लेखक संघ का जन्म हुआ। वहीं से प्रेरणा लेकर भारत के युवा लेखक सज्जाद ज़हीर ने भारत में भी एक ऐसा संगठन बनाना ज़रूरी समझा। इलाहाबाद में शुरू हुए इस प्रयास का नतीजा तब निकला जब लखनऊ में भारत पहले ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का अधिवेशन हुआ और उसकी अध्यक्षता के लिए हिन्दी के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचन्द को बुलाया गया। ऐसे संगठन की पहल कम्युनिस्टों ने की थी और अधिकांशतः इस संगठन का संचालन उन्हीं के हाथ में रहा। पर शुरू में इसे एक प्रगतिशील मोर्चे की तरह चलाया गया। इसका सबसे बड़ा सबूत था कि अध्यक्ष प्रेमचन्द को बनाया गया जो कम्यूनिस्ट नहीं थे। प्रेमचन्द ने लखनऊ में एक ऐतिहासिक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने जोर दिया कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल हो सकता है और होना चाहिए। बाद में इसमें विश्व विख्यात रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे लोग भी शामिल हुए और फॉसीवादी विरोधी भावना के विस्तार में इस संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस की सहकर्मी जनलोक नाट्य मंच पर (इप्टा) रंगकर्मी को प्रगतिशील राह पर ले चली।
हिटलर की आक्रामकता बढ़ती जा रही थी। पर ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारें किसी भी कीमत पर युद्ध को टालने के भयाक्रांत नीति के कारण हिटलर को बार-बार अपीजकरती जा रही। हिटलर ने पेरिस संधि को नकारा चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया, ऑस्ट्रिया पर हमला किया। पर न तो ‘लीग ऑफ नेशंस’ कुछ कर सकी न उसके संचालक फ्रांस और ब्रिटेन। उल्टे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऑस्टिन चेम्बरलेन जर्मनी में म्यूनिख नामक नगर में गये और हिटलर से वार्ता कर इस भ्रामक दंभ के साथ लंदन लौटे कि अब शान्ति स्थापित हो गयी है। इन्होंने लंदन के हवाई अड्डे पर घोषणा कीः आई ब्रिंग पीस विथ ऑनर’ (मैं अपने साथ सम्मानजनक शान्ति लेकर लौटा हूँ)। यह वक्तव्य इतिहास के सबसे हास्यास्पद वक्तव्यों में से साबित हुआ है, क्योंकि कुछ ही महीनों बाद विश्व द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका में झोंक दिया गया।
करीब छह वर्षों तक दुनिया धू-धू कर जलती रही। ऐसे विध्वंस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। एक-एक कर सारे देश युद्ध में शामिल होते गये। सभी महाद्वीप प्रभावित हुए। नियमों को कौन कहे, मर्यादाएँ तक तोड़ी गयी। पूरे के पूरे नगर और क्षेत्र जला दिये गये। प्रथम विश्व युद्ध में रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल शुरू ही हुआ था। इस बार उनका धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा। जर्मनी दोहरे संहार में लगा हुआ था। एक ओर तो वह विश्वव्यापी संहार कर ही रहा था। पर ऐसा तो युद्ध में शामिल दूसरे देश भी कर रहे थे। जर्मनी का सबसे जघन्य अपराध था, करीब साठ लाख यहूदियों का नस्लवाद के नाम पर भीषण संहार- महज इसलिए कि वे यहूदी थे और हिटलर की निगाह में निम्न कोटि के प्राणी। यह प्रवृत्ति तो मानव मात्र में पायी जाती है जिसने अपने को श्रेष्ठ समझा वह औरों को निम्मतर समझ उसे नगण्य मानने लगता है। भारत में सवर्णों द्वारा दलितों का अपमान और उत्पीड़न इसका ऐतिहासिक उदाहरण है। पर हिटलर ने इसे अपने नकारात्मक चरम पर पहुँचा दिया और बच्चे, बूढ़े तक निर्ममतापूर्वक भट्टियों में झोंक दिये गये।
युद्धों के पहले और युद्ध के दौरान यहाँ तक कि शीतयुद्ध के दौरान भी विध्वंसक हथियारों की खोज तेज हो जाती है। सभी शक्तिशाली देश ऐसे हथियारों की खोज में थे जो शत्रु को पंगु बना दे। वर्षों से इसके लिए परमाणु ऊर्जा का प्रयोग करने के प्रयास हो रहे हैं। अन्ततः अमरीका ने एक परमाणु बम बना ही लिया। तब तक मुख्य शत्रुओं में इटली हथियार डाल चुका था। जर्मनी भी पराजित हो चुका था। बस बचा हुआ था जापान और वह भी हथियार डालने ही जा रहा था। सभी शत्रु पराजित हो जाते तो परमाणु बम का वास्तविक परीक्षण कहाँ होता? इसलिए अमरीका के राष्ट्रपति टूमन ने ताबड़तोड़ हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिरा दिये और यह प्रमाणित हो गया कि यह नया हथियार अभूतपूर्व ढंग से संहारक और विध्वंसक है। जिसने ने भी हिरोशिमा के फूलपढ़ा होगा या वाशिंगटन स्थित, ‘हालोकास्ट म्यूजियमदेखा होगा उसकी आत्मा तक कॉप गयी होगी। इस युद्ध में ऐसे हथियार बन गये थे, जिनका परिणाम तात्कालिक तो होता ही था। परमाणु बम से निकली रेडियोधर्मिता इतनी विकराल है कि दूर-दूर तक जहाँ भी उसका असर होता है वहाँ ऐसी रासायनिक प्रक्रिया जारी रहती है जो उस क्षेत्र में हो रहे किसी भी उत्पादन को, चाहे वह मनुष्य का हो या वनस्पतियों का, उसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करती चली जाती है। 
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इतने विध्वंस के बाद एक संभावना यह थी कि शायद दुनिया के शासक कॉप जाएँ और ऐसे हथियारों पर अंकुश लग जाए। जिस पायलट ने हिरोशिमा पर बम गिराया था वह अपराधबोध से विक्षिप्त हो गया। जिन वैज्ञानिकों ने इसे बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई, जैसे ओपेनहाईमर वह आजीवन शान्ति-शान्ति का पाठ करते रहे। पर नहीं प्रभावित हुए तो ट्रूमन और उनकी शासक बिरादरी। ऐसे हथियारों और दूर-दूर तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों का विस्तार होता गया और ऐसे शस्त्रों का निर्माण करने वाली बिरादरी में जल्दी ही ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत यूनियन और कुछ दिनों बाद चीन भी शामिल हो गया। अब तो ऐसे समर्थदेशों में भारत और पाकिस्तान जैसे देश भी शामिल हैं जहाँ की आधी जनता दोनों जून पेट भी नहीं भर पाती-और हथियार भी ऐसे जिसके सामने जापान पर  गिराये गये बम पटाका लग सकते हैं।
इसी विषय पर शोध करने वालों के अनुसार ऐसे हथियारों का इतना बड़ा जखीरा तैयार हो चुका है कि सारी धरती को कई-कई बार नष्ट किया जा सकता है। अब तो ABC हथियारों का जमाना है यानी, ‘एटामिक बायोलॉजिकल और केमिकल हथियारों काऔर इन हथियारों का शिकार हो जाने के लिए अपराधी होना आवश्यक नहीं। पहले हम कहानी में सुनते थे कि झरने के ऊपर बैठा शेर नीचे पानी पीते भेड़ से कह सकता था कि वह उसका पानी जूठा क्यों कर रहा है। यानी आक्रमण के लिए बे सिर पैर के बहाने बनाये जा सकते हैं। हम इराक में देख चुके हैं कि आक्रमण के लिए कैसे बहाने बनाये जा सकते हैं। यह कहना भी स्थिति को उजागर नहीं करता कि मनुष्य पाशविक होता जा रहा है, क्योंकि कोई भी पशु दूसरे पशु को अकारण नहीं मारता।
खतरनाक यह ही नहीं है कि देश लगातार शस्त्रास्त्रों के भण्डार बढ़ाते जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि समाज में भी युद्धोन्माद बढ़ता जा रहा है। पहले सामान्यतः झगड़े होते भी थे तो लाठी-डंडे से लोग एक-दूसरे का हाथ-पैर तोड़ देते थे। अब तो बात-बात में पिस्तौल और बम चल जाते हैं। ज़्यादातर लोग गुस्से में दिखायी देते हैं और अपने से कमजोर मिला नहीं कि हाथ उठ जाता है। वह व्यक्ति पत्नी और अपना ही बेटा भी हो सकता है। जिन-जिन बातों पर व्यक्ति, समुदाय और देश आपस में लड़ पड़ते हैं और संहार तक पहुँच जाते हैं, वह संवेदनशील लोगों की नींद हराम कर सकता है।
ऐसे में हम कैसे कहे कि 1914 में शुरू हुआ भूमंडलीकृत युद्ध यानी विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। तो क्या मान लिया जाय कि मनुष्य हिंस्र, आत्महंता और मानसिक रोग से ग्रस्त हो गया है और रोग संक्रामक होता जा रहा है तथा ला-इलाज लग रहा है ? 
पर ऐसा कैसे हो सकता है? आस्तिक लोग मानते हैं कि मनुष्य उस परमनियंता की संतान है। फिर वह इतना हिंस्र कैसे हो सकता है? ऐसा करने से तो स्वयं ईश्वर पर उंगली उठ जाती है और नास्तिक मनुष्य तो इतने तर्क-बुद्धि से लैस होने चाहिए कि युद्ध को आत्महंता समझे और उससे बचने के उपाय ढूंढे। पर ऐसा हो तो नहीं रहा। ऐसा कैसे होगा? जब तक आक्रामक प्रतिस्पर्धा और युद्ध के कारण बने रहेंगे और वे मनुष्य का मनोविज्ञान तक प्रभावित करते रहेंगे। युद्ध का प्रमुख कारण है असमानता और अन्याय। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को दुनिया का श्रेष्ठतम जीवन मूल्य माना जाता है। पर केवल अपने लिए। फ्रांस की क्रान्ति  जहाँ ये सिद्धांत जन्में वहाँ भी सभी नागरिकों को समान नहीं माना गया। फ्रांस दुनिया भर में अपने उपनिवेश बनाता और बढ़ाता गया। ब्रिटेन जो जनतंत्र का गढ़ माना जाता रहा है। पर वह दुनिया का सबसे बड़ा उपनिवेशवादी देश रहा है। जहाँ-जहाँ जनतंत्र कायम भी हो गया है जैसे-भारत वहाँ भी समाज के अधिकांश को सामाजिक न्याय नहीं प्राप्त है।
इतनी सभ्य और सशक्त होती जा रही दुनिया में भी शोषण, उत्पीड़न और दमन न केवल संभव है कभी-कभी उसे आवश्यक भी बताया जाता है। जो भी व्यक्ति शोषित, उत्पीड़ित और दमित होगा उसके मन में आक्रोश तो पलता ही रहेगा। अब दुनिया इतना आगे बढ़ ही चुकी है कि की नियतिवाद के भारी दुष्प्रचार के बावजूद लोग जानते जा रहे हैं कि उनकी दुर्दशा के कारण नियति में नहीं परिस्थितियों में हैं। दूसरी ओर, श्रेष्ठता और असमानता को प्राकृतिक मानते हुए जो लोग और देश शक्तिशाली है वह शक्ति को ही श्रेष्ठता का मानक बनाये रखना चाहते ही हैं। ऐसे में सामान्य लोगों में भी श्रेष्ठ बनने के लिए किसी न किसी तरह शक्तिशाली बनना जीवन की सबसे बड़ी उत्प्रेरणा बन जाए यह स्वाभाविक है। शक्ति इतनी निर्णायक है कि नियमों का उल्लंघन किया जा सकता है। नियमों की अपने अनुकूल व्याख्या की जा सकती है और वे आड़े आयें ही तो उन्हें बदला जा सकता है। जब शक्ति इतनी निर्णायक हो और उसका व्यवस्थित ढंग से लगातार गौरवान्वयन होता हो तो सभी शक्तिशाली बनने की चूहा-दौड़ में शामिल होते जाये क्या यह स्वाभाविक नहीं लगता ?। पर क्या यह भी स्वाभाविक नहीं कि समझदार होने का दावा करने वाली आज की दुनिया यह भी समझे कि अन्ततः चूहा-दौड़ में सभी चूहे मर जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह बात समझी नहीं जा रही। आज भी मुख्यतः शान्ति की श्रेष्ठता मानी ही जाती है। कुछ न कुछ प्रयास भी होते ही रहते हैं। आज भी युद्ध विरोधी, विश्वविख्यात चित्रकार पिकासो रचित दुनिया की सबसे विख्यात युद्ध विरोधी पेटिंग गेरनिकायुनाइटेड नेशंस की दीवार पर टंगी ही हुई है। युद्ध की भर्त्सना करने वाला साहित्य तो लिखा ही जा रहा है। पर युद्ध को अ-निवार्य बताने वाला साहित्य भी तो लगातार लिखा जा रहा है। देशभक्ति के लिए युद्ध तो आज भी गौरवांवित है।
पर एक दिन यह एकदम उजागर हो ही जाएग कि युद्ध और शान्ति के बीच सह-अस्तित्व संभव नहीं। युद्ध अब इतना विनाशक हो गया है कि जब तक उसका अन्त नहीं होगा तब तक वह दीमोक्लीज की तलवार की तरह मानवता के सर पर लटकी ही रहेगी। आशा की किरण इस बात से पैदा होती है कि मानव जाति ने बार-बार असंभव को संभव कर दिखाया है। उसने कितने चमत्कारी आविष्कार और विचार दिये हैं तो क्या वह युद्ध जैसे संहारक रोग का निदान नहीं ढूढ़ सकता? युद्ध जीवन विरोधी है और सारी मानवता आत्महंता नहीं हो सकती-अभी तो उसे जीवन को उच्चतर स्तर तक ले जाना है!
      
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(इस पोस्ट में सभी चित्र गूगल के सौजन्य से प्रस्तुत किए गए हैं.)

प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘जिंदगी है तो उम्मीद भी’।


स्टीफन हाकिंस के नाम से कौन परिचित नहीं होगा। दुनिया का यह सर्वश्रेष्ठ भौतिकविद अपने जीवट के दम पर आज जीते-जी ही एक किंवदंती बन चुका है। हाल ही में स्टीफन के जीवन पर एक बायोपिक फिल्म बनी है – द थियरी ऑफ एव्रीथिंग। इस असाधारण फिल्म को जेम्स मार्श ने निर्देशित किया है। फिल्म में एडी की असाधारण भूमिका ने स्टीफन हॉकिंग की जिजीविषा और उसकी उपलब्धियों को मर्मस्पर्शी ढंग से जीवंत कर दिया है। जिस शरीर में दिमाग के अलावा सारे अंग धीरे-धीरे शिथिल पड़ते गये हो वह व्यक्ति गणित और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे व्यापक विषय पर लगातार शोध कर रहा हो ऐसा अविश्वसनीय लगने वाला जीवन स्टीफन हॉंकिंग का ही हो सकता है। फिल्म ने इस जिजीविषा और जटिलता को पूरी जीवंतता के साथ रचा है। प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने इस बायोपिक के बहाने से हाकिंस के जीवन संघर्ष पर रोशनी डालने का प्रयास किया है। तो आइए आज पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘जिंदगी है तो उम्मीद भी’।
     
ज़िन्दगी है तो उम्मीद भी
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
आपको पता ही होगा कि साहित्य और कलाएं जीवन और जगत के वैविध्यपूर्ण यथार्थ की समन्वित और प्रभावी पुनर्रचना होते हैं। इसीलिए वे आनन्द तो देती ही हैं। जीवन को समझने और बेहतर बनाने की प्रेरणा और सोच भी पैदा करती हैं।
इसी क्रम में आप यह भी जानते होंगे कि फिल्म साहित्य और कलाओं का ही नहीं विज्ञान का भी सबसे समन्वित और प्रभावी विधा है। आप यह भी जानते होंगे कि इसी प्रभाविता के कारण फिल्में तानाशाहों तक को डराती हैं। फिल्म संसार के सबसे विख्यात कलाकार चार्ली चैपलिन ने एक फिल्म बनायी थी द ग्रेट डिक्टेटरकहते हैं कि दुनिया का सबसे बर्बर तानाशाह हिटलर इस फिल्म से डर गया था।
इस सब के बावजूद यह भी सच है कि यथार्थ कभी-कभी किसी भी कलाकृति से भी अधिक समृद्ध और हृदयस्पर्शी हो सकता है। ऐसा ही है स्टीफन हॉकिंग का चमत्कारी जीवन। ऐसा जीवन जिसे कोई भी कलाकृति अपनी पूरी समग्रता और जीवंतता तथा सृजनशीलता के बावजूद पूरी तरह चित्रित न कर पाये। फिर भी हॉकिंग के जीवन पर आधारित फिल्म द थियरी ऑफ एव्रीथिंगएक असाधारण कलाकृति है। हॉकिंग की भूमिका निभानेवाले कलाकार ए. डी. रेडीमेन को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए ऑस्कर पुरस्कार दिया गया है।
हमारा मानना है कि ऐतिहासिक गल्प यानी अतीत की साहित्यिक पुनर्रचना किसी भी इतिहास से अधिक प्रभावी होती है, और रोचक भी। अमरीकी उपन्यासकार होवर्ड फास्ट के अधिकांश उपन्यास इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके उपन्यासों में इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती। पर उन्हें संजोने में विवरण और वार्तालाप सारतः ऐतिहासिक सत्य को ही उजागर करनेवाले कलात्मक सृजन हो सकते हैं। किसी की जीवनी पर आधारित फिल्में- जैसे हाल ही में हिन्दी में बनी भाग मिल्खा भागऔर मैरीकॉमजैसे बायोपिक को ऐतिहासिक गल्प की कोटि में रखा जा सकता है। ऐसी फिल्में किसी व्यक्ति के जीवन-उसके देशकाल को पूरी जीवंतता के साथ और आवश्यकतानुसार कलात्मकता के साथ प्रस्तुत की जा सकती है। उनका किसी भी दर्शक पर उनकी जीवनी पढ़ने वाले पाठक से अधिक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी ही एक बायोपिक है थियरी ऑफ एव्रीथिंग।जिसे जेम्स मार्श ने निर्देशित किया है। फिल्म में एडी की असाधारण भूमिका ने स्टीफन हॉकिंग की जिजीविषा और उसकी उपलब्धियों को मर्मस्पर्शी ढंग से जीवंत कर दिया है। जिस शरीर में दिमाग के अलावा सारे अंग धीरे-धीरे शिथिल पड़ते गये हो वह व्यक्ति गणित और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे व्यापक विषय पर लगातार शोध कर रहा हो ऐसा अविश्वसनीय लगने वाला जीवन स्टीफन हॉंकिंग का ही हो सकता है। फिल्म ने इस जिजीविषा और जटिलता को पूरी जीवंतता के साथ रचा है। पर हॉकिंग का जीवन तो उससे भी अधिक रोचक और विचारोत्तेजक है।
स्टीफन हॉकिंग का जन्म 5 जनवरी 1942 को इंगलैण्ड के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय आक्सफोर्ड की नगरी में हुआ था। उसकी माँ का नाम ईसा बेल और पिता का फ्रैंक हॉकिंग था। पिता की रुचि विज्ञान में थी और वह डॉक्टरी का अध्ययन कर रहे थे और माँ दर्शन की। अध्ययन के दौरान ही दोनों ने शादी की थी और उनकी संतान स्टीफन ने विज्ञान और दर्शन की प्रवृत्तियां मानो विरासत में मिल गयी थी। माँ-बाप दोनों ही प्रखर बुद्धि वाले थे और अक्सर दोनों भोजन करते वक्त भी किताब पढ़ते पाये जाते। उनका सादा और अपने में खोया हुआ जीवन पड़ोसियों के लिए अनोखा था पर उसी ने स्टीफन को गढ़ा।
स्टीफन का बचपन सामान्य ही था और वह अध्ययन के साथ खेलकूद मे भी दिलचस्पी लेता था। उसे विशेषकर नौकायन (रोईंग) में विशेष रुचि थी। उसकी प्रारम्भिक शिक्षा बायरन हाउस स्कूल में हुई। उसके पिता चाहते थे कि वह अपने समय के प्रसिद्ध स्कूल वेस्टमिनिस्टर में पढ़े। पर उस स्कूल के लिए दी जाने वाली छात्रवृत्ति की परीक्षा के दिन वह बीमार पड़ गया और छात्रवृत्ति न मिलने के कारण वह उस स्कूल में भर्ती नहीं हो सका। वह सेंट अल्बांस स्कूल में पढ़ता रहा और वहीं कुछ मित्रों के साथ उसने रसायनशास्त्र और गणित का अध्ययन ही नहीं किया बल्कि आतिशबाजी, हवाई जहाज और तरह-तरह की नावे बनाने के प्रयोग भी किये। 1958 में अपने गणित के शिक्षक डिकरन टाहटा की मदद से एक दीवाल घड़ी के पुर्जों को जोड़ कर कम्प्यूटर बनाने की भी कोशिश की। अपनी प्रखरता के कारण स्कूल में उसे कुछ लोग आइंस्टाइनकहने लगे थे। पर परीक्षा में उसे उतनी सफलता शुरू में नहीं मिल रही थी। पर धीरे-धीरे टाहटा के ही कारण उसकी गणित में रुचि बढ़ती चली गयी, हालांकि उसके पिता उसे अपनी तरह डॉक्टर बनाना चाहते थे। सत्रह साल की उम्र में उसने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी कॉलेज में स्नातक कक्षायें शुरू की। उस समय उसे पाठ्यक्रम बेहद आसान लगता था इसलिए उसका मन नहीं लगता था। पर दूसरे साल उसने अन्य विद्यार्थियों की तरह ही अध्ययन करने का निर्णय लिया और उसका छात्र जीवन रोचक हो गया। वह शास्त्रीय संगीत और विज्ञान गल्प में रुचि लेने लगा। उसने बोर्ड क्लब की भी सदस्यता ले ली। वहाँ  उसके प्रशिक्षक ने पाया कि वह अक्सर नौकायन में जोखिम भरे अभ्यास करता है और नावों के मरम्मत की ज़रूरत पड़ जाती है। उसकी योजना थी कि वह स्नातकोत्तर पढ़ाई कॉस्मोलॉजी में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में करेगा। पर उसके लिए परीक्षा में बहुत अच्छे अंक जरूरी थे। उसका मन तथ्यों से अधिक सैद्धांतिक बातों में लगता था। परीक्षा के कुछ दिन पहले उसने बहुत मेहनत की और रात-रात भर जाग कर पढ़ाई की। फिर भी लिखित परीक्षा में उसके पर्याप्त अंक नहीं आये और मौखिक परीक्षा देना अनिवार्य हो गया। मौखिक परीक्षा में उससे पूछा गया कि वह क्या करना चाहता है उसने जवाब दिया: अगर आप मुझे प्रथम श्रेणी देते हैं तो मैं केम्ब्रिज जाऊंगा। अगर मुझे द्वितीय श्रेणी मिलती है तो मैं यहीं आक्सफर्ड में ही रहूंगा। इसलिए मुझे उम्मीद है कि आप मुझे प्रथम श्रेणी देंगे। परीक्षकों ने पाया कि परीक्षार्थी हमसे भी अधिक बुद्धिमान है और उसे प्रथम श्रेणी मिली। आगे की पढ़ाई केम्ब्रिज में करने से पहले स्टीफन एक मित्र के साथ ईरान घूम आया।
1962 के अक्टूबर महीने में उसने केम्ब्रिज के विख्यात ट्रिनिटी हॉल में उच्च शिक्षा शुरू की। उसकी इच्छा थी कि वह विख्यात खगोलीय वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल के साथ काम करे। पर गणित में उसकी तैयारी थोड़ी कमजोर थी इसलिए उसे डेनिश विलियम सियामा के ग्रुप में भेज दिया गया। वह भी बेहद कुशल वैज्ञानिक थे और उन्हें आधुनिक कास्मोलॉजी के संस्थापकों में गिना जाता है। इसी समय उसकी बीमारी का पता चला कि वह मोटर-न्यूरॉन डिज़ीज़से पीड़ित है।
आक्सफर्ड में ही उसने महसूस किया था कि उसके शरीर में थोड़ी अकड़न बढ़ती जा रही है और उसे नाव चलाने और कभी-कभी तो चलने में भी तक़लीफ होती है। एक बार तो वह चलते-चलते गिर भी पड़ा था। परिवार के लोग बहुत चिंतित हुए और जब पूरी जांच करायी गयी तो स्नायु शिथिलता की खतरनाक और लगातार बढ़ते जाने वाली बीमारी का पता चला। एक समय तो डॉक्टरों ने तो यह भी कह दिया कि अब अधिक से अधिक दो साल ज़िन्दा रह सकता हॉकिंग। इसके बाद उसकी मानसिक स्थिति में पस्ती आयी और वह कुछ दिनों के लिए डिप्रेशनका शिकार हो गया। पर उसके शिक्षकों ने उसे उत्साहित किया कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे।
बीमारी के थोड़े ही दिन पहले उसकी मुलाकात एक दोस्त की बहन जेन वाइल्ड से हुई थी। यह मित्रता बढ़ती चली गयी। हालांकि जेन की दिलचस्पी का संसार साहित्य और संगीत की ओर था पर इस मित्रता ने स्टीफन को मानो बचा लिया, क्योंकि उसने लगने लगा कि उसके जीने का कोई न कोई कारण है। उन्होंने 14 जुलाई 1965 को विवाह कर लिया। यह संयोग ही रहा होगा कि क्योंकि 14 जुलाई फ्रांसीसी क्रांति के प्रारम्भ का दिन माना जाता है और आज भी फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस ऐतिहासिक दिन को सम्पन्न हुआ विवाह वास्तव में एक क्रांतिकारी जीवन का प्रारम्भ था। विवाह के बाद दोनों को कई बार संयुक्त राज्य अमरीका जाना पड़ा। वहाँ  स्टीफन पूरे उत्साह के साथ वैज्ञानिक गोष्ठियों और सेमिनारों में शामिल हो रहा था। कॉलेज के एकदम निकट घर ढूंढ़ने में बड़ी कठिनाई हुई। पर यह ज़रूरी था कि स्टीफन बैशाखी के सहारे अपनी प्रयोगशाला तक जा सके। स्टीफन का वैवाहिक जीवन पूरी तरह संतुष्ट था और उनकी पहली संतान रॉबर्ट 1967 में पैदा हुई। तीन साल बाद एक बेटी लूसी पैदा हुई और तीसरी संतान टिमोथी 1979 में हुई।
इधर स्टीफन की बीमारी बढ़ती जा रही थी और इस कारण जेन का जीवन उसी के इर्द-गिर्द बीत रहा था। उसने घर की जिम्मेदारियां इस तरह संभाल ली थी कि स्टीफन अपनी सारी ऊर्जा अपने शोध में लगा सके। 1974 में स्टीफन को पासाडेना कैलीफोर्निया में नियुक्ति मिल गयी और वहाँ  परिवार ने एक साल अच्छा जीवन बिताया। वहाँ  से लौटने के बाद स्टीफन की पदोन्नति हो गयी और अब वह ऐसे संसाधन जुटा सकता था ताकि जेन को भी अपने लिए थोड़ा समय मिल सके।
जेन ने अपनी संगीत की रुचि को प्रोन्नत करना शुरू किया और एक चर्च में सामूहिक गान के अभ्यास के लिए जाने लगी। वहाँ  जेन की मुलाकात जोनाथन हेलियर जोंस से हुई जो क्वायर म्यूजिक (सामूहिक धार्मिक गान) का प्रशिक्षण देता था। जोंस जेन के घर भी आने लगा और स्टीफन से भी उसकी दोस्ती हो गयी। धीरे-धीरे जेन और जोंस में रोमानी सम्बन्ध पनपने लगे पर दोनों ने यह संकल्प ले लिया था कि दोनों किसी भी कीमत पर स्टीफन का परिवार टूटने नहीं देंगे।
Professor Stephen Hawking as a younger man
इस बीच स्टीफन की बढ़ती बीमारी के कारण उसकी सेवा सुश्रुसा के लिए नर्सें और सहायक बढ़ते गये और जेन को लगने लगा कि अब स्टीफन को उसकी उतनी ज़रूरत नहीं है। जेन और स्टीफन के जीवन में धर्म के कारण भी तनाव पैदा हुआ। स्टीफन की धर्म में कोई रुचि नहीं थी और वह ईश्वर को नहीं मानता था, जबकि जेन पक्की ईसाई थी और चर्च में उसका पूरा विश्वास था। इस बीच स्टीफन की एक नर्स इलेन मेशन स्टीफन के काफी निकट आती दिखी। वह एक प्रभावी व्यक्तित्व की महिला  थी और स्टीफन को बहुत प्यार से संभालने की कोशिश करती थी और परिवार में इस बात को लेकर तनाव बढ़ता जा रहा था। अंततः स्टीफन ने जेन को छोड़ कर मेशन के साथ रहना शुरू कर दिया। 1995 में हॉकिंग ने जेन से तलाक ले लिया और मेशन से सादी कर ली। पर दस साल बाद हॉकिंग और मेशन का तलाक हो गया। हॉकिंग और जेन की मित्रता फिर बढ़ चली ओर जेन तथा उसके बच्चे हॉकिंग के फिर निकट आ गये। तलाक के बाद जेन ने अपने वैवाहिक जीवन को केन्द्र में रख कर एक किताब लिखी थी, ‘म्यूजिक टू मूव द स्टार्सइसमें उसने स्टीफन से अपने घनिष्ठ सम्बन्ध और बाद में उसमें आयी टूटन के बारे में जो कुछ लिखा था उससे मीडिया में काफी तहलका मचा। पर जैसे कि स्टीफन की आदत थी अपने व्यक्तिगत जीवन को कभी भी पब्लिक इशूनहीं बनाना चाहता था। 2007 में जेन ने अपने जीवन पर दूसरी किताब लिखी ट्रैवेलिंग टू इन फिनिटिव माई लाईफ विद स्टीफन। इसमें उसने बयान किया कि उनके जीवन में कैसे खुशी लौट आयी है।
उसका स्वास्थ बिगड़ता जा रहा था। अब उसके लिए लिखना भी मुश्किल हो गया था। पर उसका अध्ययन जारी था, क्योंकि गणित और भौतिकी के बड़े-बड़े समीकरण समग्र रूप से उसके मस्तिष्क में मानो अवतरित होते। उन्हें अभिव्यक्त करने की दूसरी तकनीकें ढूंढ़ ली गयी। एक भौतिक शास्त्री वर्नर इस्राइल ने उसके मस्तिष्क की कार्य विधि की तुलना प्रसिद्ध संगीतकार मात्सार्ट की संगीत रचना से की है। उसके मस्तिष्क में पूरी की पूरी सिम्फनी समग्र रूप में आ जाती थी। यही हाल स्टीफन का होता जा रहा था। वह बेहद आत्मनिर्भर व्यक्ति था और किसी की मदद लेने में उसे बहुत उलझन होती थी। वह बार-बार इस बात पर जोर देता कि वह एक सामान्य मनुष्य है किसी भी व्यक्ति की तरह उसकी इच्छाएं हैं, महत्वकांक्षाएं हैं, सपने हैं वह किसी भी व्यक्ति की तरह उत्प्रेरित होता है और कुछ पाना चाहता है। उसका हमेशा इस बात पर जोर था कि उसे सबसे पहले एक वैज्ञानिक माना जाय। यह सब वह कैसे कर पाता था? कुछ लोग कहते कि इसके पीछे उसका संकल्प था। कुछ लोग मानते कि वह तो बस जिद्दी है उसकी पत्नी जेन मानती थी कि स्टीफन में संकल्प भी है और जिद भी। बड़ी मुश्किल से वह इस बात के लिए तैयार हुआ कि वह बैशाखी की जगह व्हील चेयरइस्तेमाल करे। व्हील चेयर में भी मोटर लगा दी गयी और वह जब उसे खुद चलाता तो कभी-कभी इतना चलाता और ऐसे मोड़ता कि दुर्घटना का खतरा पैदा हो जाता। उसके अंदर अधैर्य और चिड़चिड़ापन भी पैदा हो गया था। वह असाधारण रूप से प्रखर मस्तिष्क का तो था ही कुल मिला कर वह अकेला पड़ता जा रहा था।
धीरे-धीरे उसकी बोली भी बिगड़ने लगी। कुछ दिनों बाद ऐसा हो गया कि उसके बहुत निकट के मित्र और परिवार वाले, खासतौर से जेन ही उसकी बात समझ पाते और जब दूसरों से बात करनी होती तो मित्र या जेन ही उसकी बात को दूसरों तक पहुंचा पाते। उस जमाने में विकलांगों के लिए हर जगह सुविधा जुटाने का चलन नहीं था। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी व्हील चेयर को कमरों तक ले जाने के लिए रैम्प नहीं थे। जब स्टीफन के लिए रैम्प अनिवार्य हो गया तो यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि कई जगहों पर रैम्प बनवाने का खर्चा कौन देगा और खर्चा किस मद से होगा? तब स्टीफन और जेन ने विकलांगों के लिए विशेष सुविधा के लिए अभियान चलाया। विश्वविद्यालय में विकलांग विद्यार्थियों के लिए रहने की अलग व्यवस्था हो इसके लिए भी अभियान चला। यह बात बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक की है। इस मुद्दे को भी स्टीफन ने इस तरह उठाया था कि यह एक सामान्य सामाजिक समस्या के रूप में सामने आये न कि केवल उसकी व्यक्तिगत समस्या। बाद में तो उसने इस तरह के कई अभियान चलाये।
1985 में वह फ्रांस और स्वीटजरलैण्ड की सीमा पर स्थित एक परमाणु शोध संस्थान में गया हुआ था और वहाँ  उसे बहुत ठण्ड लग गयी। उसे निमोनिया हो गया। उसके शरीर की जो हालत थी उसमें उसे बचा पाना बहुत दुष्कर था पर जेन ने उसकी बहुत सेवा की। पर किसी एक व्यक्ति के लिए चौबीस घण्टे उसकी निगरानी कर पाना असंभव था। अंत में एक अमरीकी संस्था ने धन जुटाया और उसके लिए तीन शिफ्टों में चौबीस घण्टे नर्सिंग की व्यवस्था की गयी। इन्हीं नर्सों में एक थी इलेन मेशन जो स्टीफन की बाद में कुछ दिनों के लिए दूसरी पत्नी बनी।
निमोनिया के बाद उसकी वाणी भी जाती रही। एक बार फिर तकनीक काम आयी। कम्प्यूटर पर एक पूरा प्रोग्राम इक्वालाइजररचा गया, जिसे तैयार करने में वाल्ट वोल्टोज की मुख्य भूमिका थी। इसमें ढाई तीन हजार शब्दों का एक बैंक बनाया गया। जिसमें से स्टीफन जरूरत के हिसाब से शब्द चुन सकता था और यह प्रोग्राम भौंहो के इशारे पर चलता और इस तरह बिना बोले कम्प्यूटर से उसकी बात सुनाई पड़ती। इसके लिए पहले अलग से कम्प्यूटर का इस्तेमाल होता पर जल्दी ही एक छोटा कम्प्यूटर विकसित कर लिया गया जिसे स्टीफन की व्हील चेयर से जोड़ दिया गया। अब वह अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में समर्थ हो गया जो बोली सुनाई पड़ती वह उसकी नहीं होती। पर स्टीफन का कहना था कि अब वह पहले से बेहतर ढंग से अपनी बात संप्रेषित कर सकता है। स्टीफन उसकी आवाज में आज भी बोलता है और अब तो यह आवाज भी उसकी पहचान बन गयी है। अब वह बिना बोले ही पहले की तरह व्याख्यान देता है।
धीरे-धीरे उसकी उंगलियों ने भी काम करना बंद कर दिया। पर स्टीफन हार मानने वालों में नहीं है। उसने कम्प्यूटर को अपने गाल की मांसपेशियों से संचालित करने लगा। अब उसके लिए स्वतंत्र रूप से अपनी व्हील चेयर भी चलाना असंभव हो गया। अब इस पर शोध चल रहा है कि स्टीफन के मस्तिष्क की गतिविधियां सीधे कम्प्यूटर तक कैसे पहुंचा दी जाय। उसे सांस लेने में भी तकलीफ होने लगी है और कई बार उसे वेन्टिलेटर पर रखना पड़ता है। उसे कई बार अस्पताल पहुंचाना पड़ता है। पर स्टीफन ने यात्राएं करना नहीं छोड़ा है। अब भी वह दूर-दराज की यात्राएं करता है और अब चूंकि उसके पास पर्याप्त धन है इसलिए वह निजी जेट विमान से दूर-दराज की यात्राएं करने में समर्थ है। कौन नहीं इन हालात में हार मान लेगा। पर स्टीफन ने कभी हथियार नहीं डाले और आज भी वह शोधरत है और उसके साक्षात्कार के दौरान बीच-बीच में हँसी के फव्वारे छूटते हैं, क्योंकि स्टीफन का हास्यबोध (सेंस ऑफ ह्यूमर) बहुत तेज है।
स्टीफन ने अपने डॉक्टरेट के लिए सिगुलरटी थियरमपर काम किया था। यह धारणा इस सिद्धांत पर आधारित थी कि ब्रह्माण्ड का विशिष्ट अस्तित्व है। उसने अपनी धारणा को आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित जनरल थियरी ऑफ रियलिटिवटीसे जोड़ कर आगे बढ़ाया। सत्तर के दशक में उसने ब्लैक होलकी गतिकी पर काम करना शुरू किया। वह अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन में इतने आवेग और आवेश के साथ जुट जाता कि वह उस क्षेत्र के दूसरे वैज्ञानिकों से बाजी लगा लेता। इनमें कई बार बाजी जीतता और कई बार हार जाता। उसकी बात गलत साबित हो जाने पर वह खुले आम अपनी गलती स्वीकार कर लेता बिना किसी तनाव या तिक्त्तता के।
1973 के बाद वह क्वांटमके क्षेत्र में काम करने लगा। वह इस बीच मॉस्को गया हुआ था और वहाँ  इस क्षेत्र में हो रहे काम से बहुत प्रभावित हो कर लौटा। उसके काम को सैद्धांतिक भौतिकी (क्रिटिकल फिजिक्स) में बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया और उसे इंग्लैण्ड और दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाने वाली संस्था रॉयल सोसाइटीका फेलो मनोनीत कर दिया गया। आधुनिक युग के प्रारम्भ में सोलहवीं शताब्दी में जब विज्ञान का आधुनिक काल जब शुरू हुआ तो इंग्लैण्ड के शासकों ने विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक राजकीय संस्था ‘रॉयल सोसाइटी’ का गठन किया। आधुनिकता के दौड़ में इंग्लैण्ड सबसे आगे निकल गया। इसके पीछे ‘रॉयल सोसाइटी’ जैसी संस्था द्वारा दिया जाने वाला प्रोत्साह और मान्यता भी था। आज भी दुनिया के वैज्ञानिक इस संस्था का फेलो बनाये जाने पर अपने को बहुत सम्मानित मानते हैं। ज्ञातव्य है कि भारत की विशिष्ट प्रतिभा माने जाने वाले गणितज्ञ रामानुजम भी विश्वविख्यात हो गये थे जब इस संस्था के फेलो बनाये गये थे। स्टीफन को यह सम्मान बहुत कम उम्र में ही मिल गया।
1970 में कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (काल्टेक) में स्टीफन हॉकिंग को विजटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया गया। अमरीका प्रवास में उसका शोध बहुत आगे बढ़ा और वह इस संस्था से लगातार अपना सम्बन्ध बनाये रखते हैं। उसके काम को लगातार पुरस्कृत किया जा रहा था और इसलिए वह और अधिक प्रसिद्ध हो गया, क्योंकि वह मीडिया में भी बहुत लोकप्रिय होता गया। समाचार पत्रों और टेलीविजन पर उसके कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय होने लगे और उसे कई विश्वविद्यालयों से मानद डॉक्टरेट भी दी जाने लगी। 1978 में उसे विश्वविख्यात अल्बर्ट आइंस्टाइन मेडल प्रदान किया गया।
सत्तर के दशक के अंत में केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उसे गणित का ल्यूकैशियन प्रोफेसरबना दिया गया। गणित के क्षेत्र में यह एक बहुत बड़ा सम्मान था। पद ग्रहण के अवसर पर उसने उद्घाटन भाषण में उसने एक नई परिकल्पना प्रस्तावित की- इज द एण्ड इनसाइट फॉर थियरेटिकल फिजिक्स’ (क्या सैद्धांतिक भौतिकी का अंत दिखायी दे रहा है)। उसने प्रस्तावित किया कि सूपर ग्रैविटीएक ऐसा हिरावल सिद्धांत हो सकता है जो भैतिकी के बहुत सी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है।
Stephen Hawking in Chicago, 1986
उसका स्वास्थ बिगड़ता जा रहा था और इसलिए वह गतिण की समस्याओं से हटकर उस क्षेत्र की ओर बढ़ने लगा जो चिंतन और दर्शन का क्षेत्र है। इस समय उसने ऐसे प्रस्ताव रखे जो क्वांटम मैकेनिक्सके मूलभूत तत्वों पर ही प्रहार करते थे। इससे एक विज्ञान के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय बहस शुरू हो गयी जिसको कुछ लोगों ने द ब्लैक होल वारकहना शुरू कर दिया।
अब हॉकिंग ब्रह्माण्ड के उद्भव की धारणा पर चिंतन करने लगे थे उन्होंने यह कहना शुरू किया कि हो सकता है ब्रह्माण्ड का न कोई प्रारम्भ हो न अंत।
जिम हार्टल और स्टीफन हॉकिंग ने मिल कर यह थियरी प्रस्तावित की कि जैसे उत्तरी ध्रुव के आगे नहीं जाया जा सकता, हालांकि वहाँ  कोई सीमा नहीं है उसी तरह ब्रह्माण्ड की भी कोई सीमा नहीं है। इस तरह एक बंद ब्रह्माण्ड ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न उठाता है। उस समय हॉकिंग ने कहा: अगर ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं है और वह स्वयं निर्धारित है तो ईश्वर के पास यह चुनने की स्वतंत्रता नहीं बचती कि ब्रह्माण्ड शुरू कैसे हुआ। उसी समय उसकी पुस्तक आयी ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम। मानव इतिहास में समय की धारणा सबसे अमूर्त है। विभिन्न दर्शनों और धर्मों में कालकी परिकल्पनाएं हैं पर उसे समग्र रूप में ग्राह्य और निर्धारित करने में कोई सफल नहीं हो पाता। दूसरी ओर इतिहास को देश और काल (स्पेश एण्ड टाइम) में अवस्थित कहा जाता है। अगर इतिहास देश और काल के दो स्तम्भों पर ही टिका हुआ है तो समय को इतिहास में कैसे बांधा जा सकता है? जब उसे कहीं अवस्थित ही नहीं किया जा सकता। ऐसे जटिल प्रश्न को स्टीफन की पुस्तक ने सामान्य चर्चा में ला दिया। लेखन जगत में मानो विस्फोट हो गया। आज तक शायद ही कभी ऐसा गंभीर विषय इतने व्यापक चर्चा में आया है। जब न्यूटन ने सोलहवीं शताब्दी में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत प्रतिपादित किये थे तब निश्चित ही दुनिया में हलचल मची होगी। पर वह मुख्यतः यूरोप और वहाँ भी वैज्ञानिकों के बीच ही मुख्यतः चर्चित रही थी। गैलीलियो ने जब अपनी दूरबीन बनायी और ब्रह्माण्ड  नजदीक आ गया तब जरूर इसका मर्म आम लोगों तक भी पहुंच गया था, क्योंकि इससे यह सिद्धांत ध्वस्त हो गया था कि ब्रह्माण्ड  के केन्द्र में धरती है। इस बात को बर्टोल्ड ब्रेख्त ने अपने नाटक ‘गैलीलियो’ में बहुत बखूबी दिखाया है कि इटली के नगरों में होने वाले सालाना कार्निवल में भी यह दृश्य दिखाया जा रहा है कि पोप की कुर्सी हिल गयी है, क्योंकि जब धरती ही केन्द्र में नहीं रही तो धर्म के केन्द्र में पोप कैसे रह सकता है? लेकिन तब तक संचार के साधन इतने विकसित नहीं थे कि न्यूटन और कोपरनिक्स तथा गैलीलियो की बातें दूर-दूर तक पहुँच पाती।
हाँ, बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब आइंस्टाइन ने सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया तब तक संचार के माध्यम विकसित हो चुके थे। यह सिद्धांत भी ज्ञान मीमांसा के अब तक प्रतिपादित क्षेत्र को ध्वस्त कर देने वाला था। पर शुरू में यह सिद्धांत ही बहुतों को समझ में नहीं आया। वर्षों नहीं दशकों लग गये इस सिद्धांत को ठीक से समझ पाने में और जब इसके निहितार्थ उजागर हुए और मनुष्य अंतरिक्ष में यात्राएं करने लगा तब आइंस्टाइन के सिद्धांत का महत्त्व उजागर हुआ। पर यह सिद्धांत तो किसी पुस्तक में नहीं एक वैज्ञानिक शोध पत्र में उजागर हुआ था। उसका सार तो एक समीकरण में बद्ध है।
E = mc2 
जब स्टीफन की किताब उस समय आयी जब दुनिया पर मीडिया का राज्य स्थापित हो चुका है। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अनपढ़ लोगों के जीवन में प्रचार के माध्यम से प्रवेश कर चुके हैं और मीडिया की यह प्रकृति है कि उसमें सबसे अधिक वह चीज चलती है जो अनोखी है। इस बार तो बात तो अनोखी थी ही बात करने वाले का जीवन भी अनोखा और सुप्रचारित था। इसलिए जल्दी ही उनकी किताब ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ बेस्ट सेलरबन गयी। इसका मतलब यह नहीं कि किताब खरीदने वाले हर आदमी ने इसे पढ़ा ही हो। समझने की तो खैर बात ही और है। पर ऐसी अनोखी चीज के बारे में बात करना एक तरह का स्टेट्स सिम्बलबन गया। कई भाषाओं में उसका अनुवाद आ गया-हिन्दी में भी।
ऐसी किताब लिखने का एक बेहद सांसारिक और व्यावहारिक कारण भी था। स्टीफन को सम्मान तो बहुत मिला था और मिलता जा रहा था पर आमदनी तो बढ़ नहीं रही थी, जबकि परिवार बढ़ गया था। ऐसे में स्टीफन ने एक लोकप्रिय ऐसी किताब लिखने का मन बनाया था जो ब्रह्माण्ड को सामान्य जनता के करीब ले आये। इसलिए किसी अकादमिक प्रकाशक से बात करने के बजाय उसने लोकप्रिय पुस्तके छापने वाले बैंटम बुक्ससे कॉन्ट्रैक्ट किया और उसे अच्छी-खासी अग्रिम राशि भी मिल गयी। पर उसे मशक्कत बहुत करनी पड़ी, क्योंकि प्रकाशक के आग्रह पर उसे बार-बार अपनी पुस्तक को अधिकाधिक सरल बनाने के लिए कई बार दोहराना पड़ा। पर 1984 में एक बार छप जाने के बाद उसकी सफलता सारे कीर्तिमान तोड़ने लगी। एक अनुमान के अनुसार इस किताब की करीब एक करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। अमेरिका की लोकप्रिय पत्रिका न्यूज वीक ने स्टीफन हॉकिंग को अपने कवर पर छापा और उसे मास्टर ऑफ द यूनिवर्सकहा। इस सफलता की वजह से उसे बहुत सारे गैर अकादमिक कामों में समय लगाना पड़ा। कई जगह उसे भाषण करने पड़े। उसे जगह-जगह से निमंत्रण मिलने लगे। उसके सहयोगियों को लगने लगा कि स्टीफन का बहुमूल्य समय प्रचारात्मक कामों में नष्ट हो रहा है।
इस पुस्तक में स्टीफन हॉकिंग ने कुछ मूलभूत प्रश्न उठाये थे उसने लिखा: अगर हम एक समग्र सिद्धांत ढूंढ़ लेते हैं तो यह मनुष्य की तर्क शक्ति की अंतिम विजय होगी, क्योंकि तब हमें ईश्वर की बुद्धि का पता लग जायेगा।उसका मतलब यह था कि एक ऐसा सिद्धांत ईश्वर को अनावश्यक बना देगा। विज्ञान ईश्वर की अवधारणा से बार-बार टकराता है, क्योंकि विज्ञान की धारणा और पद्धत्ति किसी ऐसे नियंता के अस्तित्व को स्वीकार्य नहीं कर पाती जो स्वयं अप्रश्नेय हो और अंततः जिसे आस्था और विश्वास के कारण ही स्वीकार करना पड़ता हो। रीजन इन रिवोल्टनामक पुस्तक के लेखक ने यह स्थापना दी है कि अब तक विज्ञान की सभी शाखाएं ईश्वर के प्रश्न पर अंततः अटक या भटक जाती है और यही उनके आगे के विकास में रोड़ा बन जाता है। यह सच है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी ईश्वर के अस्तित्व को पूरी तरह नकारने का साहस नहीं जुटा पाते। आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाने वाले अल्बर्ट आइंस्टाइन भी ईश्वर की कल्पना एक अन्तिम नियति जैसा करते हैं। उनका रूपक बहुत प्रसिद्ध है कि ताश के पत्ते हमें मिल जाते हैं पर हमें उन्हें अपने ढंग से खेलने की स्वतंत्रता होती है। जाहिर है कि ऐसी परिकल्पना में भी ईश्वर की सत्ता बनी ही रह जाती है।
स्टीफन हॉकिंग भी ब्रह्माण्ड के निर्माण में ईश्वर की भूमिका नकारते हैं और अपने को नास्तिक मानते हैं। पर इस मुद्दे पर दो टूक कुछ कहने के बजाय लफ्फाजी के शिकार हो जाते हैं। उनकी पुस्तक तमाम सरलीकरण के बावजूद सबके लिए ग्राह्य नहीं थी इसलिए बाद में उन्होंने उसका एक और संक्षिप्त संस्करण ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइमप्रकाशित किया।
हॉकिंग की अनाकादमिक व्यस्तताओं के बावजूद उनका शोध कार्य चलता रहा। 1994 में केम्ब्रिज के न्यूटन इंस्टीट्यूटमें हॉकिंग और एक अन्य विश्वविख्यात वैज्ञानिक पेन रोज ने छः महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिये। इन्हें बाद द नेचर ऑफ स्पेश एण्ड टाइमके नाम से प्रकाशित किया गया।
हॉकिंग के विज्ञान-दर्शन के सरोकार बहुत गंभीर थे। पर उनका जन जुड़ाव भी उतना ही गंभीर है। इसलिए इरॉल मॉरेश ने जब ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो वह मान गये। विश्वविख्यात फिल्म निर्देशक और निर्माता स्टीवेन स्पीलबर्ग ने इस फिल्म का निर्माण करना स्वीकारा और 1992 में फिल्म प्रदर्शित हुई। हॉकिंग ने जोर दिया था कि फिल्म में उनके जीवन पर नहीं, बल्कि विज्ञान पर जोर दिया जाय। पर अन्ततः उन्हें मानना पड़ा था कि ऐसी फिल्म दर्शक नहीं जुटा पायेगी। इसलिए फिल्म में हॉकिंग के जीवन के सूत्र पिरोये गये थे फिर भी यह फिल्म बहुत लोकप्रिय नहीं हो पायी। इसे ही ध्यान में रखकर हाल ही में उनके जीवन पर बनी फिल्म ए थियरी ऑफ ऐवरथिंगमुख्यतः ये बायोपिकहै। फिर भी हॉकिंग के सारे वैज्ञानिक सरोकार इस तरह पिरोये गये हैं कि सामान्य जनता भी उन्हें समझ सके। 1993 में टेलीविजन के लिए छः कड़ियों वाली एक सीरीज बनायी गयी स्टीफेन हॉकिंग्स यूनिवर्स।इस श्रृंखला को 1997 को एक पुस्तक के रूप में भी छापा गया। इस बार हॉकिंग की इच्छानुसार जोर विज्ञान पर है।
2001 में उनकी एक और लोकप्रिय किताब आयी द यूनिवर्स इन ए नक्शेल।2006 के बाद हॉकिंग ने ब्रह्माण्ड  के बारे में एक सिद्धांत विकसित किया जिसे टॉप डाउन कॉस्मोलॉजीकहते हैं। इसके अनुसार वर्तमान अतीत के बहुत से रूपों में से कुछ का चयन करता है।
ब्लैक होलऔर ब्रह्माण्ड पर हॉकिंग द्वारा किये गये शोध में अनुमान और परिकल्पना की बहुत बड़ी भूमिका है। उनकी अधिक से अधिक पुष्टि गणित के स्तर पर ही हो सकती है। ऐसे सिद्धांतों को समग्र रूप से किसी प्रयोगशाला में प्रमाणित नहीं किया जा सकता। हाँ ऐसे कुछ प्रमाण मिल सकते हैं जो अंशतः एक समग्र सिद्धांत की ओर इशारा करते हैं। इसलिए हॉकिंग के विचार अकादमिक जगत में बार-बार उथल-पुथल मचाते हैं और हॉकिंग अन्य वैज्ञानिकों के साथ लगायी गयी बाजियां कभी जीतते हैं कभी हारते हैं।
हॉकिंग ने अपनी बेटी लूसी के साथ मिल कर बच्चों तक भी सैद्धांतिक भौतिकी को पहुंचाने का काम शुरू किया और जॉर्जजेसीकरेट की टू द यूनिवर्सनामक पुस्तक लिखी जिसके 2011 तक कई सीक्वेलप्रकाशित हुए। 2002 में बी.बी.सी. ने ब्रिटेन की सौ विभूतियों की एक सूची प्रकाशित की जिसमें स्टीफेन हॉकिंग का भी नाम शामिल है। उन्हें सम्मानित करने का सिलसिला थम नहीं रहा है और न ही उनके शोध का सिलसिला। अब तक 39 वैज्ञनिक उनके साथ उनके निर्देशन में डॉक्टरेट पा चुके हैं। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार 2009 में उन्हें प्रोफेसर के पद से मुक्त हो जाना था पर स्टीफेन ने घोषित कर दिया कि सेवानिवृत होने का उनका कोई इरादा नहीं।
शुरू में स्टीफन विकलांगों के लिए कुछ अलग से करने में संकोच करते थे, क्योंकि वह अपने को भी विकलांग मानने को तैयार नहीं थे। पर धीरे-धीरे उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि वह दूसरी तरह समर्थ यानी विकलांग लोगों के लिए एक रोल मॉडल बन सकते हैंफिर तो उन्होंने इस काम के लिए जनमत बनाने और धन जुटाने के कामों में सक्रिय भागीदारी शुरू कर दी। इक्कसवीं शताब्दी के शुरू होने पर ग्यारह अन्य विभूतियों के साथ मिल कर स्टीफन हॉकिंग ने चार्टर फॉर द थर्ड मिलेनियम ऑन डिशएबिलिटीपर हस्ताक्षर किया। तीसरी सहस्त्राब्दी में विकलांगों के चार्टर में सरकारों से आग्रह किया गया है कि विकलांगता को नियंत्रित करने के लिए समुचित उपाय किये जाये और विकलांगों के अधिकारों की रक्षा की जाय। विकलांगों के सामर्थ्य को प्रदर्शित करने के लिए स्टीफन ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसको देख-सुन कर सामान्य व्यक्ति की सांस थम जाये। 2007 में जीरो ग्रैविटी कारपोरेशनद्वारा किये जा रहे भारहीनतासम्बन्धी प्रयोग में हिस्सा लिया। स्टीफन ने एक नहीं आठ बार भारहीनता का अनुभव किया। एक जर्जर शरीर परन्तु अनमनीय निश्चय की हवा में लटकी तस्वीर किसे नहीं उत्साहित कर देगी। 2012 में विकलांगों के ओलंपिक खेलों-पैरालिंपिक्स के उद्घाटन समारोह में भाग लिया। अगले साल उनके जीवन पर बनी डॉक्यूमेन्ट्री में खुद अपना अभिनय किया और अपील की कि ऐसे रोगियों जिनके रोग का कोई निदान न हो मृत्यु का वरण करने वाला कानून बनाया जाय।
अधिकांश वैज्ञानिकों की तरह स्टीफन यह नहीं मानते कि वैज्ञानिकों के पास राजनीति के लिए समय नहीं है। उन्हें धर्म, पर्यावरण यहां तक कि राजनीति से भी गंभीर सरोकार है। 1968 में जब सारी दुनिया उद्विग्न और उद्वेलित थी और जगह-जगह विशेषकर युवा प्रदर्शन और विद्रोह कर रहे थे तब तारिख अली के साथ वियतनाम युद्ध के विरुद्ध प्रदर्शन में स्टीफन हॉकिंग भी शामिल थे। ब्रिटेन की राजनीति में वह हमेशा लेबर पार्टी का खुला समर्थन करते रहे हैं। उन्होंने अमरीका के राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के अल गोर का समर्थन किया था। इराक पर अमरीकी सरकार द्वारा हमले को उन्होंने युद्ध अपराधघोषित किया था। इस्रराइली सरकारी फिलस्तीनियों के प्रति नीति के कारण एक बार उन्होंने इस्रराइल में होने वाले वैज्ञानिकों के सम्मेलन का बहिष्कार किया था। वह परमाणविक हथियारों के बहिष्कार के भी समर्थक हैं। इस तरह कुल मिलाकर वह वामपंथी राजनीति के समर्थक कहे जा सकते हैं।
उनका मानना है कि ब्रह्माण्ड विज्ञान के नियमों द्वारा संचालित है। उन्होंने एक लेख में साफ-साफ लिखा था कि स्वर्ग-नर्क की बातें मिथक और परिकथा हैं। उन पर वही विश्वास करते हैं जो अज्ञात से रहते हैं। वह मानते हैं कि उनका सामान्य अर्थों वाले धर्म में कोई विश्वास नहीं है। अमेरिकी टेलीविजन द्वारा निर्मित और डिस्कवरीचैनल पर प्रदर्शित एक श्रृंखला क्यूरिऑसिटीके प्रारम्भ में उन्होंने घोषित किया: हम स्वतंत्र हैं कि जिस चीज में चाहे विश्वास करें। मेरा तो सीधा सा विचार हैं कि ईश्वर नहीं है। ब्रह्माण्ड  का निर्माण किसी ने नहीं किया और कोई भी हमारी नियति का संचालन नहीं करता। यही मेरी गहन अनुभूति का आधार है। कदाचित कोई स्वर्ग नहीं न ही जीवन के बाद कोई और जीवन। हमारे पास ब्रह्माण्ड की शानदार लीला की प्रशंसा करने के लिए यही एक जीवन है और मैं इसके लिए कृतज्ञ हूँ’। अंततः सितम्बर 2014 में उन्होंने घोषित कर दिया कि वह नास्तिक हैं।
एक संवेदनशील मनुष्य और एक विराट वैज्ञानिक होने के नाते स्टीफन हॉकिंग धरती और मानवता के भविष्य के बारे में चिन्तन करते रहते हैं। वह बार-बार कहते हैं कि वर्तमान हालात में कभी भी एक परमाणु युद्ध छिड़ सकता है या विनाशकारी वायरस का इस्तेमाल हो सकता है या ऐसे खतरे उत्पन्न हो सकते हैं जिनके बारे में अभी तक सोचा भी नहीं गया है। यह गंभीर सवाल हैं। वह मानते हैं कि अंतरिक्ष की यात्राएं और दूसरे ग्रहों की यात्रा धरती के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए ज़रूरी हैं। वह यह भी सोचते हैं कि ब्रह्माण्ड इतना बड़ा है कि कहीं न कहीं जीव हो सकते हैं पर उनसे दूर ही रहना अच्छा है। वह आर्टीफीसियल इण्टेलिजेंसके हिमायती हैं और सोचते हैं कि उसका विकास मनुष्य के हित में हो सकता है। उनके अनुसार एक सूपर इण्टेलीजेण्टउपकरण का आविष्कार इतिहास की एक बड़ी निर्णायक घटना होगी। कम्प्यूटर के वायरस के बारे में उनका कहना है कि वह मनुष्य की प्रकृति के बारे में एक ज़रूरी टिप्पणी है। यही वह रूप है जो केवल और पूरी तरह विध्वंसात्मक है। शायद ही किसी अन्य वैज्ञानिक ने कम्प्यूटर वायरस पर इतनी गंभीर टिप्पणी की हो और उसे मनुष्य की प्रकृति से जोड़ कर उसकी ऐसी आलोचना की है।
स्टीफन के विचारों में कभी-कभी उद्धत्तता की गंध आती है। 2011 में उन्होंने घोषित कर दिया था कि दर्शन का अंत हो गयाउनके अनुसार दार्शनिकों ने आधुनिक विज्ञान के विकास को आत्मसात् नहीं किया है अब ज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार के हिरावल वैज्ञानिक हो गये हैं। दार्शनिक समस्याओं का उत्तर नये वैज्ञानिक सिद्धांत ढूंढ़ सकते हैं। ये सिद्धांत ब्रह्माण्ड और उसमें मनुष्य के अस्तित्व की नयी छवि प्रस्तुत करते हैं।
2006 में हॉकिंग ने इण्टरनेट पर एक खुला प्रश्न प्रस्तुत किया था: आज दुनिया में राजनीतिक और सामाजिक रूप से तथा पर्यावरण के क्षेत्र में अराजकता व्याप्त है। इन हालात में मानव जाति अगले सौ वर्षों तक कैसे जीवित रह पायेगी?’ जाहिर है यह सवाल आज की दुनिया का गंभीरतम सवाल है। कुछ दिनों बाद स्टीफन ने स्वयं जवाब दिया मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानता इसीलिए मैंने यह प्रश्न लोगों के सामने रखा ताकि लोग इसके बारे में सोचें और उन खतरों के प्रति आगाह हो जाये हम जिनके रू-बरू खड़े हैं।
स्टीफन हॉकिंग सही अर्थों में एक जन नायक है। प्रायः नायकों की पूजा की जाती और अपनी भूमिका भूल कर नायक पर आश्रित हो जाता है। इसी मानसिकता से अवतारों का जन्म होता है। पद जन नायक जन की संभावनाओं और शक्ति को उजागर करता है और यह प्रमाणित करता है कि जन अपने संकल्प और सृजनशीलता के दम पर असंभव की सीमाओं को तोड़ सकता है।
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
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लाल बहादुर वर्मा को प्रथम ‘शारदा देवी स्मृति सम्मान’

प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा

दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने जीवन में ही संस्था बन जाते हैं। प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा एक ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्हें किसी एक दायरे में बाँध कर नहीं देखा जा सकता। भले ही रोजी रोटी के लिए उन्होंने इतिहास के अध्ययन अध्यापन में अपना जीवन बिताया हो लेकिन इससे इतर उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे साहित्यकार, उपन्यासकार, सम्पादक, संस्कृतिकर्मी, आंदोलनकर्मी, अनुवादक, नाटककार, शिक्षक के साथ-साथ एक बेहतरीन इंसान हैं। उनसे मिल कर पता चलता है कि सहजता क्या चीज होती है। उनके बातचीत में हमेशा एक दोस्ताना अंदाज रहता है जिसे सुनने वाले सहज ही महसूस करते हैं। बीते 20 दिसंबर 2015 को प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा को इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में प्रथम ‘शारदा देवी स्मृति सम्मान’ प्रदान किया गया। इस सम्मान के अवसर पर पढ़े गए मान पत्र को अविकल रूप में हम यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस निर्णायक मण्डल में शामिल सदस्य थे – प्रोफ़ेसर प्रणय कृष्ण, मोहम्मद आरिफ एवं डॉ. संजय श्रीवास्तव। 
    
मान-पत्र
प्रो. लालबहादुर वर्मा को प्रथम ‘शारदा देवी स्मृति सम्मान’ प्रदान करते हुए हम सब गर्व का अनुभव करते हैं हिन्दी-उर्दू समाज के अप्रतिम आवयविक बुद्धिजीवी के रूप में प्रो. लाल बहादुर वर्मा का हमारे बीच होना एक प्रकाश-स्तम्भ का होना है आज के भारत में हमारे बीच शायद ही कोई ऐसा बुद्धिजीवी हो जिसने प्रो. वर्मा की तरह इतिहासकार, विचारक, आन्दोलनकारी, संगठनकर्ता, सांस्कृतिक प्रबोधनकार, अध्यापक, सम्पादक, उपन्यासकार, अनुवादक, नाटककार और सबसे बढ़ कर एक नायाब इंसान और बेहतरीन दोस्त की इतनी सारी भूमिकाएं एक साथ अदा की हों कहना न होगा कि इन सब भूमिकाओं के दक्ष निर्वाह के पीछे एक और शख्सियत की भूमिका भी है जिसे अलक्षित नहीं रखा जा सकता और वह शख्सियत हैं प्रो. वर्मा की शरीक-ए-हयात डा. रजनीगन्धा वर्मा 
प्रो. वर्मा को दुनिया पेशे से एक इतिहासकार के रूप में जानती है, लेकिन वे एक ऐसे विलक्षण इतिहासकार हैं जिन्होंने पीढ़ियों को यह सिखाने का दायित्व भी वहन किया कि इतिहास जिया कैसे जाता है, कि इतिहास का निर्माण जनता ही करती है और जनता के जीवन में हिस्सा लेना इतिहास-निर्माण में भागीदारी का ही दूसरा नाम है इसीलिए प्रो. वर्मा ने ‘भारत का जन-इतिहास’ तैयार किया और क्रिस हर्मन की पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’ का तर्जुमा करके हिन्दीभाषियों को उपलब्ध कराया आज जिस वक्त हमारे देश में इतिहास के नाम पर देवताओं का ऐतिहासीकरण और इतिहास-पुरुषों का दैवीकरण हो रहा है, ऐसे समय साधारण जनता को इतिहास की ताकत मानने वाले इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का हमारे बीच होना हम सब की खुशनसीबी है प्रो. वर्मा के विपुल इतिहास-लेखन में बारम्बार यह अमिट प्रतिज्ञा उभरती है कि इतिहास मनुष्यों का ही हुआ करता है, अतः इतिहास के बगैर न तो मनुष्यता की बात हो सकती है और न ही मनुष्यता के बगैर इतिहास की कोई बात हो सकती है प्रो. वर्मा की लिखी ‘इतिहास के बारे में’ और ‘Understanding History’  जैसी पुस्तकों से कोई भी आम पाठक महज यही नहीं जानता कि इतिहास क्या है, उसकी पद्धतियाँ और प्रणालियाँ क्या हैं, बल्कि सबसे ज़्यादा वह यह जान सकता है कि इंसानी ज़िंदगी के लिए उसका मूल्य क्या है प्रो. वर्मा एक अग्रणी लोक-शिक्षक हैं और इतिहास की विधा को उन्होंने कभी सिर्फ अकादमिक काम नहीं माना, उसे लोक-शिक्षण और जन-चेतना की उन्नति के  माध्यम की तरह बरता ‘मानव-मुक्ति कथा’, दो खण्डों में ‘योरप का इतिहास’, दो खण्डों में ‘विश्व का इतिहास’, ‘कांग्रेस के सौ साल’, ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’ आदि मौलिक कृतियों के साथ साथ रोज़े बूर्दरो की मूल फ्रेंच पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘फासीवाद: सिद्धांत और व्यवहार’, आर्थर मारविक की मूल अंग्रेज़ी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘इतिहास का स्वरुप’ तथा एरिक होब्सबाम की कालजयी पुस्तक  श्रृंखला की एक कड़ी का हिन्दी अनुवाद ‘क्रांतियों का युग’ शीर्षक से प्रकाशित करा के उन्होंने व्यापक फलक पर इतिहास के लोक शिक्षण के काम को अंजाम दिया वर्मा जी ने न केवल १९८५ से लेकर १९८८ तक ‘इतिहास’ पत्रिका का संपादन किया, बल्कि १९८९ से अबतक लगातार जिस राजनैतिक-सांस्कृतिक पत्रिका का वे प्रकाशन करते आ रहे हैं उसका नाम भी उन्होंने ‘इतिहासबोध’ ही रखा अकादमिक हलके में बतौर इतिहासकार उनकी कद्दावर शख्सियत का निर्माण तब शुरू हुआ जब उन्होंने 1965 से 1967 के बीच गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में पी-एच. डी. उपाधि के लिए ‘भारत का सबसे छोटा अल्पमत : एंग्लो इंडियन’ विषय पर शोध-कार्य संपन्न किया उसके बाद आपने पेरिस के सोरबोन्न विश्विद्यालय में विश्वविख्यात समाजशास्त्री रेमों आरों के निर्देशन में शोध-कार्य आरंभ किया 1967 से ले कर 1971 तक चला यह महत्वपूर्ण शोध कार्य एक ऐसे विषय पर है जिसकी प्रासंगिकता आज सबसे ज़्यादा है यह विषय था, “इतिहास में पूर्वाग्रह की समस्या’ प्रो. वर्मा ने इतिहास की विभिन्न शोध-पत्रिकाओं में 20 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित कराए और उत्तर प्रदेश इतिहास कांग्रेस, उत्तराखंड इतिहास कांग्रेस, अखिल भारतीय इतिहास कांग्रेस के भारतेतर इतिहास विभाग तथा अकादमी ऑफ़ सोशल साइंस के इतिहास विभाग की अध्यक्षता की 
       
प्रो. लाल बहादुर वर्मा का जन्म 10 जनवरी, 1938 को बिहार के छपरा जिले में हुआ आपने प्रारम्भिक शिक्षा आनंदनगर, गोरखपुर से ग्रहण करने के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक, लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और फिर गोरखपुर तथा सोरबोन्न विश्वविद्यालयों से पी-एच. डी. उपाधियों के लिए अध्ययन किया 1959 से आपने सतीश चन्द्र महाविद्यालय, बलिया से अपने अध्यापकीय सफ़र की शुरुआत की 1964 में आप गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अध्यापन करने आ गए यहाँ लगभग बीस साल के अध्यापन के दौर में आपने कई पीढ़ियों को प्रगतिशील जीवन-मूल्यों और मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि में शिक्षित-प्रशिक्षित किया यहाँ रहते हुए आपने 1972 से ले कर 1984 के बीच साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका ‘भंगिमा’ का संपादन किया जो अपने समय में प्रगतिशील सांस्कृतिक मूल्यों की अनिवार्य राष्ट्रीय पत्रिका बन कर उभरी संस्कृति और विचार की दुनिया में पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह उर्वर दौर था जिसके केंद्र में थे युवा अध्यापक लाल बहादुर वर्मा स्टडी-सर्किल, नाटक, कार्यशालाएं, रचना-गोष्ठियों में वर्मा जी के इर्द-गिर्द युवाओं की अच्छी-खासी टोली हुआ करती जिनमें से अनेक आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मूल वृक्ष की शाखाओं की तरह फ़ैल गए हैं प्रो. लालबहादुर वर्मा के विद्यार्थी, चाहे उनकी उम्र जो हो, उनका पेशा जो हो, आज भी अपने इस अद्भुत अध्यापक से जितना प्यार करते हैं, वह अभूतपूर्व है एक अच्छा अध्यापक जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल सकता है, इसके सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक हैं प्रो. वर्मा ने 1985 से 1991 के बीच आपने मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन किया. यहाँ रहते हुए आपने भारत के उत्तर-पूर्व को जिस अभिनव दृष्टि से देखा, जो अनुभव सहेजे, वे काफी समय बाद एक महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति का आधार बने 1991 से आप इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाने आए और यहीं से आपने 1998 में अध्यापन से अवकाश ग्रहण किया सतत यात्री ने आखिरकार अपना डेरा एक जगह स्थापित कर लिया – उसी इलाहाबाद में जिसे निराला, पन्त, महादेवी, फिराक ने मुख्तलिफ जगहों से आ कर अपना स्थायी ठिकाना बना लिया वर्मा जी के यहाँ बस जाने से इस कतार में एक और कड़ी जुड़ी, हमारा शहर कुछ और रौशन हुआ  
प्रो. वर्मा की कार्रवाइयों का शायद सबसे बड़ा इलाका संस्कृति का इलाका है पिछली आधी सदी से भी ज़्यादा समय से उन्होंने प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और जनवादी संस्कृति-कर्म में लगे हुए तमाम लोगों को एकताबद्ध करने की मुहिम छेड़ी हुई है संस्कृति-कर्मियों की अनेक पीढ़ियों को उनके मार्गनिर्देशन का लाभ मिला है, उनसे प्रेरणा मिली है 1982 में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चे की स्थापना, 1999 में साझा सांस्कृतिक अभियान की शुरुआत, 2003 में ‘मुहिम’ के नाम से सांस्कृतिक पहल की शुरुआत और 2012 से अब तक लगातार सांस्कृतिक मुहिम के तहत सांस्कृतिक कार्यशालाओं, अध्ययन-चक्रों की श्रृंखला, आसान भाषा में समाज, संस्कृति और राजनीति के जीवंत विषयों पर पुस्तिकाओं का प्रकाशन तथा भगत सिंह और डी. डी. कोसंबी व्याख्यानमालाओं के ज़रिए उन्होंने जो अथक और अपराजेय सांस्कृतिक अभियान संचालित किया है, वह बड़ी बड़ी संस्थाओं के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है वे खुद में एक चलती फिरती मुहिम हैं जिसके चुम्बकीय आकर्षण से हर कहीं जवां उमंगों से भरे तमाम लोग खिंचे चले आते हैं, जगह चाहे उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल हो या भारत का सुदूर उत्तर-पूर्व इस पूरे  जीवन-समर के पीछे कितना संघर्ष, कितनी साधना, व्यक्तिगत और पारिवारिक ज़िंदगी की कितनी कुबानियाँ हैं, यह मानों लोगों की निगाह में ही नहीं है प्रो. वर्मा की आत्मकथा का पहला हिस्सा ‘जीवन प्रवाह में बहते हुए’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है और दूसरा हिस्सा जल्दी ही प्रकाशित होगा हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस अत्यंत कर्मठ और कीमती जीवन की अलक्षित अंतर्धाराएं भी हम सब को दृश्यमान हो सकेंगीं पिछले साल आपको दिल का दौरा पडा, बड़ा ऑपरेशन हुआ, लेकिन बीमारी को ठेंगा दिखाते हुए आपने इसी साल 2015 में विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से प्रबोधन-श्रृंखला शुरू कर दी नागरिक समाज के हर आन्दोलन में उसी तरह आपकी शिरकत है, जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं हो, मानों दिल का ऑपरेशन किसी और का हुआ हो
मान पत्र पढ़ते हुए प्रोफ़ेसर प्रणय कृष्ण
वर्मा जी के सांस्कृतिक अभियान का एक अहम पहलू साहित्य-सृजन भी रहा. एक संवेदनशील रचनाकार की हैसियत से उन्होंने अनेक कहानियां ही नहीं लिखीं, बल्कि दो महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे ‘उत्तर-पूर्व’ शीर्षक उपन्यास उत्तर-भारतीय, पितृसत्तात्मक, सवर्ण-बोध वाली राष्ट्रीय-चेतना से बेदखल अपनी अस्मिता के लिए जूझते उत्तर-पूर्व की महागाथा है मणिपुर का इतिहास, संस्कृति, सामाजिक जीवन और उसके संघर्ष यहाँ मार्मिक अभिव्यक्ति पाते हैं अकारण नहीं कि ‘थांगजम मनोरमा’ को समर्पित एक कविता से इस उपन्यास का आरम्भ होता है आपका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है ‘मई अड़सठ’ जो फ्रांस के अभूतपूर्व छात्र आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है प्रो. वर्मा बतौर शोधकर्ता इस आन्दोलन के प्रत्यक्षदर्शी थे जिस सोरबोन्न विश्विद्यालय में १९६७ से १९७१ के बीच आप शोधरत थे, वह आन्दोलन का प्रमुख केंद्र था वर्मा जी के दोनों उपन्यासों में विश्वविद्यालय का जीवन वह कथा-सूत्र है जो व्यापक फलक पर घट रही घटनाओं को बांधता है भोपाल गैस त्रासदी पर लिखा आपका नाटक ‘ज़िंदगी ने एक दिन कहा’ बहुचर्चित रहा और खेला भी खूब गया आपने दुनिया की कुछ युगांतरकारी साहित्यिक पुस्तकों का अनुवाद कर हिन्दी पाठक की चेतना को समृद्ध किया है हारवर्ड फॉस्ट के चार उपन्यासों, अमेरिकी लेखक जैक लंडन के उपन्यास ‘आयरनव्हील’, अलेक्जान्द्रा कोलेंताई की आत्मकथा, गैलीलियो के जीवन पर आधारित ब्रेष्ट के कालजयी नाटक के साथ-साथ विख्यात मार्क्सवादी चिन्तक जॉन होलोवे की पुस्तक ‘चेंज दि वर्ल्ड विदाउट टेकिंग पॉवर’ का ‘चीख’ शीर्षक से अनुवाद करके आपने हक़, इन्साफ, ईमान और इंसानियत के हिमायती अंतर्राष्ट्रीय साहित्य की अनेक कृतियों को हिन्दी में जज़्ब कर लिया प्रो. वर्मा के सांस्कृतिक अभियानों, उनके भाषणों, लेखों, उनके सम्पादन में निकली पत्रिकाओं में छेडी गयी तेजस्वी बहसों और विमर्शों ने साहित्यिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर जो प्रभाव छोड़े, उनके संपादन और व्यक्तिगत सान्निध्य में नए लेखक-लेखिकाओं, राजनीतिक- सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का जो प्रशिक्षण हुआ, उनके व्यक्तित्व जैसे निखरे, इन बातों का अहसास हज़ारहाँ रूपों में बिखरे हैं आज उन्हें चुनने सहेजने का अवसर है
इलाहाबाद की धरती पर आज प्रो. लाल बहादुर वर्मा का सम्मान इंसानी दोस्ती, मुल्क की बहुरंगी संस्कृति, इन्साफ के तसव्वुर, लोकतांत्रिक और प्रगातिशील मूल्यों और मनुष्य की अदम्य जिजीविषा का सम्मान है. 

अशोक आजमी की नयी कविता ‘लाल बहादुर वर्मा’

प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा इन दिनों हृदय की गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं. चिकित्सकों के मुताबिक़ उनके ह्रदय की ओपन हार्ट सर्जरी होनी है. इसके लिए उन्हें लखनऊ ले जाया गया है. हम सब उन्हें उनके जुझारूपन के लिए जानते रहे हैं. वे केवल एक शिक्षक ही नहीं बल्कि हम सब के लिए प्रेरणास्रोत, हम सब के लिए अभिभावक भी हैं. एक विशाल समुदाय है उन्हें चाहने वालों का. जिसमें केवल उनके छात्र ही नहीं अपितु साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग रखने वाले, मार्क्सवाद को अपनी सांस मानने वाले शामिल रहे हैं. उनके विरोधी भी उनकी तर्क क्षमता के कायल रहे हैं. भारतीय इतिहास में मौखिक स्रोतों के अध्ययन की  नींव डालने वालों में लाल बहादुर जी का नाम अग्रणी रहा है. उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हुए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं अशोक आजमी की यह कविता
  

अशोक आजमी    
 

लाल बहादुर वर्मा

ठीक इस वक़्त जब तुम्हारी साँसे 
किसी मशीन के रहम-ओ-करम पर हैं 
मैं इतिहास के पेड़ से गिर पड़े पत्तों पर 
बैठा हूँ लाचार 

वे इतिहास को एक मनोरंजक धारावाहिक में तब्दील कर रहे हैं साथी 
और तुम्हारी आवाज़ जूझ रही है 

तुम्हारा उत्तर पूर्व अब तक घायल है 
तुम्हारे इलाहाबाद में भी हो सकते हैं दंगे 
तुम्हारा गोरखपुर अब हिटलरी प्रयोगशाला है 
फ्रांस की ख़बर नहीं मुझे 
फलस्तीन के जख्म फिर से हरे हैं साथी

और तुम्हारे हाथों में अनगिनत तार लगे हैं 
पहाड़ जैसा सीना तुम्हारा 
नहीं काबू कर पा रहा है अपने भीतर बहते रक्त को 
समंदर की उठती लहरों जैसी तुम्हारी आवाज़ 
किसी मृतप्राय नदी सी ख़ामोश 
बुझी हुई है ध्रुव तारे सी तुम्हारी आँखें 
अनगिनत मरूथलों की यात्रा में नहीं 
थके जो पाँव गतिहीन हैं वे 

हम अभिशप्त दिनों की पैदाइश थे 
तुम सपनीले दिनों की 
तुम्हारे पास किस्से भी हैं और सपनें भी 
और उन सपनीली राहों पर चलने का अदम्य साहस 
कितने रास्तों से लौटे और कहा कि 
नहीं यह रास्ता नहीं जाता उस ओर 
जिधर जाना था हमें 

यह राह नहीं है तुम्हारी साथी 
लौट आओ…
हम एक नए रास्ते पर चलेंगे 
एक साथ


सम्पर्क

अशोक आजमी   

मोबाईल – 08375072473