नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा पर योगिता यादव की समीक्षा चुप्पियों की आवाज है ‘कमबख्त निंदर’

नरेन्द्र मोहन

किसी भी रचनाकार के लिए आत्मकथा लिखना एक कठिन कार्य होता है। आत्मकथा जो अपनी तो हो लेकिन दूसरों की संवेदनाओं और अनुभूतियों से कहीं न कहीं जुड़े। महज वैयक्तिक हो कर ही न रह जाए। वरिष्ठ कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में सुविख्यात डॉ. नरेंद्र मोहन ने इधर अपनी आत्मकथा लिखी है उनकी आत्मकथा का यह पहला खण्ड है ‘कमबख्त निंदर’। इस पर एक समीक्षा लिखी है  पत्रकार और सुपरिचित कथाकार योगिता ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा     

चुप्पियों की आवाज है ‘कमबख्त निंदर’

योगिता यादव

वरिष्ठ कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में सुविख्यात डॉ. नरेंद्र मोहन के खाते में पुस्तकों की एक लंबी सूची है। इनमें आलोचना की पुस्तकें, लंबी कविताएं, नाटक और डायरी साहित्य में मौजूद लगभग सभी विधाओं से संबंधित पुस्तकें शामिल हैं। लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली अपने नाटकों के कारण। जिन्ना पर लिखा गया उनका नाटक ‘मि.जिन्ना’ जब विवादों में घिरा उस समय लेखक के व्यक्तित्व और रचनात्मक उठान का समय था। देशभक्ति की आड़ में अपना खेल खेलने वाले कट्टरपंथियों ने ऐसी जिद अख्तियार की कि उस नाटक को तमाम तैयारियों के बावजूद मंचित नहीं होने दिया गया। इस घटना ने लेखक को इतना व्यथित किया कि उन्होंने कलाकारों के चेहरे पर व्याप्त हताशा को पढ़ते हुए एक के बाद एक कई उत्कृष्ट कृतियां हिंदी रंगमंच को दीं। इनमें ‘हद हो गई यारों’ और ‘मंच अंधेरे में’ खासे लोकप्रिय भी हुए। इस तरह डॉ. नरेंद्र मोहन नाटककार के रूप में खूब लोकप्रिय हुए। जबकि इससे पहले उन्होंने अपनी आलोचना पुस्तकों और संपादन कार्यों की मार्फत नए संदर्भ हिंदी साहित्य को दिए। 

 साहित्य को इतना बड़ा रचनात्मक अवदान देने वाला व्यक्ति आखिर चर्चाओं से दूर क्यों और कैसे रहा, यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है। साहित्य जगत में जहां एक कविता या एक कहानी लिखकर भी लोग आत्ममुग्धता और लोकप्रियता के कीर्तिमान कायम कर लेते हैं। वहां डॉ. नरेंद्र मोहन चुपचाप साहित्य के प्रति पूर्ण समर्पण से काम करते रहे। साहित्य को समर्पित इस व्यक्ति का स्वयं का जीवन कैसा रहा होगा, सामान्य और साहित्यिक पाठकों के बीच भी यह स्वभाविक प्रश्न है। इस प्रश्न का संधान करती है प्रस्तुत पुस्तक ‘कमबख्त निंदर’। डॉ. नरेंद्र मोहन की आत्मकथा का यह पहला खण्ड है। जिसमें लाहौर में उनके जन्म से लेकर दिल्ली में उनके आने और स्थापित होने तक की कहानी है।  एक साधारण परिवेश का बालक धीरे-धीरे इतना ख्यात लेखक बन जाता है कि साहित्य में मौजूद लगभग हर विधा में वह सिद्धहस्त हो जाता है। प्रस्तुत कृति ‘कमबख्त निंदर’ उस कौतुहल का शांत करने का एक अच्छा स्रोत है। लेखक अपनी आत्मकथा के इस पहले खण्ड को एक आपातकाल से दूसरे आपातकाल के बीच का समय मानते हैं। दूसरे आपातकाल से साधारण भारतीय जनमानस परिचित है, लेकिन यह जो पहला आपातकाल है, लेखक के जन्म के समय का, यह अभिशाप भारतीय स्वतंत्रता के समानांतर जन्मा है। और जिसका अवसाद कई पीढिय़ों बाद, अब भी रह रह कर दर्द देता है। यही दर्द मंटों की कहानियों और नाटकों में भी मौजूद रहा है। यही दर्द मंटो से लेखक के आत्मीय जुड़ाव का भी कारण है।

 ‘मैं’ को ‘स्वं’ से विलग कर अपने संपूर्ण जीवन को देखने की यह अनूठी प्रवृति है। जिसे संभवत: लेखक के भीतर मौजूद नाटककार ने अपनाने को प्रेरित किया होगा। इस प्रवृति के उदाहरण साहित्य में बहुत कम और स्वप्नों में बहुत अधिक मिलते हैं। आत्मकथाओं के ऐसे दौर में जहां इतिहास को तोड़-मरोड़ अपनी शिखा का फूल या करधनी की गांठ बनाने की प्रवृत्ति आमादा हो, ऐसे समय में क्या कोई आत्मकथा इतनी सादा भी हो सकती है, हैरान करता है। जिसकी स्याही अपने वक्त के हर एक लम्हे का हिसाब रखती है, बिना किसी के मुख पर कालिख पोते। फिर चाहें वह पंजाब-हरियाणा के उनके साथी हो या दिल्ली के नए परिवेश में नए-नए तरीकों से मिल रहे दिल्ली के नामी-गिरामी लोग।
 
उनके साथी उनके साथ चलते हैं, जो नहीं चलते वे भी पूरी गरिमा से अलग होते हैं। उन्हें हठात बेदखल नहीं किया जाता और न ही मारा जाता है महाभारत में अभिमन्यु की अपरिपक्व-अकाल मृत्यु की तरह। वे अपनी ठसक से उसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता विदा होते हैं, जिस तरह वे दृश्य में दाखिल हुए थे। तमाम सहमतियों और असहमतियों के बावजूद भी।


बचपन में शरणार्थी कैंप में बच्चों के साथ छिटपुट नाटक खेलने वाला निंदर दिल्ली पहुंच कर नाटक प्रेमी और लेखक हो गया है। वह दिल्ली के हर दृश्य में एक नाट्य महसूस करता है। हर घटना जैसे मंच पर आती है। मंच के नाटकों और दिल्ली की राजनीतिक घटनाओं में अद्भुत साम्यता है। उन्हें इब्राहिम अल्का जी निर्देशित नाटक तुगलक में इंदिरा गांधी दिखाई देती है। वहीं फैज अहमद फैज के बोल उन्हें इमरजेंसी में बार-बार कुछ कहने, कुछ करने को उकसाते हैं। पृष्ठ 166 पर वे लिखते हैं , ”कोई नहीं बोल रहा- जुबान यख़ पड़ी है। फिर सुनाई देते हैं फैज के बोल – जिस्मो-जुबां की मौत से पहले / बोल, कि सच अब तक जिंदा है/ बोल, जो कुछ कहना है कह ले।/’ कोई नहीं बोल रहा। वीरान चुप्पी है चारों तरफ। कुछ भी सुलगता नहीं दिखता दूर तक! थिएटर  कम्यूनिकेशन बिल्डिंग, वहां स्थित हिंदी भवन तोड़-फोड़ दिया गया है। कॉफी हाउस वीरान है। टी हाउस बिक गया है। अब कहां जाएं, किधर बैठें? मोहन सिंह प्लेस ढूंढ़ लिया गया है मगर वहां टी हाउस वाली बात कहां ? 


दूसरों पर फब्तियां कसता रहा। हंसी- हंसी में भी अपनी खीज और खुंदक उतारने से कहां चूका? दूसरों की गांठों और कमियों पर तेज नजर रखता रहा और अपनी  गांठों और फांसों पर इतराता रहा जैसे कोई इंद्रधनुष हो। खुद के अंधेरे कोनों में कहां झांक पाया? आईने के सामने जाने पर अपने नैन-नक्श की तराश पर रीझता रहा और अपने बेढंगे, विकलांग अक्सों से मुंह मोड़ता रहा।


‘खुद की चीरफाड़ करना मुश्किल ही रहा । जिन चीजों के बारे में कोई अंदेसा न होता, सबसे ज्यादा वही अड़ी रहीं मेरी देह में…।’


 यह जीवन की नाटकीयता और नाटक में जीवन नहीं तो और क्या है। जिसे लेखक ने जितनी शिद्दत से महसूस किया, उतनी ही साफगोई से बयां भी किया। इमरजेंसी के दौर में ऐसा तनाव जब मन मस्तिष्क को मथता हुआ कागज पर उतरता है, तब लेखक के स्वयं के भीतर से कई रचनात्मक  कृतियां उपजती हैं। उस दौर और उन परिस्थितियों का संक्षिप्त किंतु हृदय स्पर्शी वर्णन इस पुस्तक में संयोजित है। एक बड़े लेखक की इस सहज मन कृति का लिखा जाना एक बड़ी उपलब्धि है। निश्चित रूप से इसे सराहा जाना चाहिए।
 डॉ. नरेंद्र मोहन के बारे में यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने जो प्रसिद्धि अर्जित की वह अपनी रचनाओं के बूते ही अर्जित की। साहित्यिक ‘सेटिंग’ और ‘जोड़-तोड़’ की राजनीति से इसे नहीं जोड़ा जा सकता। फिर भी उनकी सहजता को अबोधता हरगिज नहीं कहा जा सकता। आत्मकथ्य की सहज प्रवृत्ति इस पुस्तक का मुख्य आकर्षण है। एक साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति जिसे यह मार्गदर्शन भी बाहर ही ढूंढना पड़े कि उसे क्या पढऩा है और कितना पढऩा है, आगे चल कर एक प्रख्यात लेखक बन जाता है, यह किसी नायक कथा से कम कहां है। यही डॉ. नरेंद्र मोहन के जीवन और इस पुस्तक का नायकत्व भी है। किंतु यहां नायक अकेला नहीं है। उसका द्वंद्व उसके साथ है। द्वंद्व भावनाओं और विचारों  का। द्वंद्व परिस्थितियों और आकांक्षाओं का।  प्रस्तुत कृति ‘कमबख्त निंदर’ इसी नायकत्व और जीवन की सहजता, बनते-बिगड़ते रिश्तों, बदलती पारिवारिक और सामाजिक संकल्पना के बीच नई चुनौतियों के प्रकट होने और उनसे एक साधारण आदमी के जूझने का वृतांत है। वह साधारण आदमी जो हमारे आस-पास का ही कहीं का लगता है। जिसकी छोटी-छोटी जरूरतें और छोटी-छोटी आकांक्षाएं हैं। जिन्हें उसे अकेले ही संभालना है, बिना किसी दैवीय चमत्कार के। या साफ शब्दों में कहें तो बिना किसी गॉड फादर के। एक सहज व्यक्ति के अपने भीतर के स्वप्नों, आकांक्षाओं, छटपटाहटों को अपने सामने मौजूद परिस्थितियों, द्वंद्वों और चुनौतियों के टकराव के लगातार मंथन से जो शेष रह जाता है उसकी ईमानदार प्रस्तुति है ‘कमबख्त निंदर’।


योगिता यादव



 

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जम्मू 
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योगिता यादव की कहानी ‘झीनी झीनी बिनी रे चदरिया’

योगिता यादव


युवा लेखिका योगिता यादव को हाल ही में “कलमकार पुरस्‍कार” से सम्‍मानित किया गया। उन्हें यह पुरस्कार उनकी नयी कहानी “झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया” के लिए दिया गया। कहानी में चादर एक ऐसा बिम्ब है जिसे अपने शिल्प के बल पर योगिता ने अनूठा स्वरुप दे दिया है और उसके हवाले से ही उन्होंने स्त्री जीवन के उन अछूते कोने-अंतरे की बातों को उठाया है, जिस पर बात करने की हमारे समाज में प्रायः मनाही है। स्त्री जीवन की इस विडम्बना को समेटे यह कहानी प्रतीकों में ही सब कुछ बया कर देती है। तो आइए पढ़ते हैं यह कहानी।      
झीनी-झीनी बिनी रे चदरिया
योगिता यादव
पहाड़ों की तलहटी में चादरों पर एक राष्ट्रीय स्तर का सेमिनार चल रहा था। चादर बनाने और ओढ़ाने में अभ्यस्त वरिष्ठ जन बड़े आदर के साथ आमंत्रित किए गए थे। उनके साथ उन नए बुनकरों को भी बुलाया गयाए जो अपनीअपनी मर्जी की चादरें बुन रहे थे। अपने आकार, अपने प्रकार से। वरिष्ठों में वरिष्ठतम ने मंच संभाला और बताया कि इतिहास में हमारे समाज की चादरें बहुत महान हुआ करती थीं। आरामदायक भले ही न हो पर सब कुछ ढक सकने की क्षमता उनमें थी। चादर की लंबाई और चौड़ाई बता कर इंसान को उतना ही लंबा और चौड़ा होने के विचार के साथ वरिष्ठतम ने अपना भाषण समाप्त किया।
भाषण के शब्द धीरेधीरे वरिष्ठतम के सिर पर इकट्ठा होने लगे। शब्दों ने एकजुट हो एक मोटी, सब  कुछ ढांप सकने लायक चादर बना ली। और सब कुछ ढक सकने वाली चादर राष्ट्रीय सेमिनार के बैनर पर जा लटकी।
क्रांतिकारियों के होते सब शांतिमय ढंग से सम्पन्न हो जाए यह कैसे मुमकिन है। इसलिए वरिष्ठतम के भाषण पर क्रांतिकारी सनक गया और बोला, “ऐतिहासिक चादरों पर चर्चा से बेहतर होता यदि आप हमें मौजूदा चादरों के बारे में कुछ बताते। जमाना बदल रहा है इसलिए पुरानी चादरें अब नहीं टिक पाएंगी।”
क्रांतिकारी के इस विचार के समापन पर तालियां बजने लगीं। नए बुनकरों को लगा कि अब हमें पूछा जाएगा। अब नए बुनकरों की बारी थी। इनमें सबसे वाकपटु ने मंच संभाला और पेश की एक ऐसी सिंथेटिक चादर जिसे अपनी सुविधानुसार कहीं से भी, कितना भी खींचा जा सकता था। अपनी चादर की खूबियां बताते हुए उसने कहा कि अब ढकने-ढकाने का जमाना नहीं रहा। अब तो दिखने-दिखाने का दौर है। आपका पेट अगर खाली है तो दिखाओ, बदन नंगा है तो दिखाओ… इनका भी बाजार है। जब तक आप दिखाएंगे नहीं, लोग जानेंगे कैसे। और जब तक बाजार जानेगा नहीं तो आपको आपके आकार की चादर मिलेगी कहां से…। 
वाह! वाह! वाह! एक दम नया। मध्यमार्गी कुछ लोग जो अब तक चादरों में लिपटे बैठे थे ने कांधों पर से चादरें जरा जरा सी सरका दी। शुरुआत यहीं से सही…।
वाकपटु के पास वे सब तर्क थे जिनसे यह माना जा सकता कि मोटी और ढक सकने लायक चादरों का दौर खत्म हो चुका है। बैनर पर टंगी मोटी चादर को खींच कर नीचे फेंक उतार दिया गया। अब वह पैरों तले के कालीन की जगह पड़ी थी। 
चादर को कसमसाता देखना संस्कृतिवादियों को अच्छा नहीं लगा। उनके तर्क वाकपटु के आगे कमजोर थे पर उन्हें लगा कि अगर हम एकजुट हो जाएं तो वाकपटु के तर्कों की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं। उन्होंने वाकपटु के विचारों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। 
वाकपटु ने संस्कृतिवादियों को नारीवादी मानसिकता का कह कर लज्जित करने का भरसक प्रयास किया। इस पर वे और भी भड़क गए। उन्हें न नारीवादी होना अच्छा लगा, न लज्जित होना। अपनी स्वतंत्र पहचान का बिगुल फूंकते हुए उन्होंने चादर का झण्डा बना लिया और झंडाबरदार हो गए।
पकवानों की गंध सेमिनार हॉल तक पहुंचने लगी थी। वरिष्ठों, क्रांतिकारियों, आधुनिकों और संस्कृतिवादियों ने अपने-अपने थैले उठाए और खाने के पण्डाल की ओर बढ़ चले। चादर अकेली रह गई। उसे लगा अब अकेले यहां क्या करना, सो उड़ चली पूरब की ओर ….
उड़ते-उड़ते थक गई चादर, एक समारोह के पण्डाल के ऊपर जा पसरी। यहां अपने परिवार और नाते-रिश्तेदारों के बीच घिरी बैठी थी सत्तो।
एक बलिष्ठ, खूबसूरत नौजवान ने सत्तो के पैर छूते हुए कहा, “प्रणाम बुआ जी।”
अचानक पैर छूने पर सकपकाई सी सत्तो को संबोधित करते हुए आनंद ने कहा – “जी पहचाना इसे, अवधेश हैं।”
“अरे अवधेश… जीते रहो, खुश रहो, बहुत बड़ा हो गया, इन्हीं के होने में आए थे हम जब ट्रैक्टर से चाची गिर पड़ी थीं।”
“तुम भी जीजी, वो तो अखिलेश हुए थे, बड़े दद्दा के। ये तो हमारे वाला है अवधेश।”
उनके इतना कहते ही एक और बलिष्ठ, खूबसूरत सा नौजवान पहले वाले से उम्र में कोई सातआठ साल बड़ा आगे आया और सत्तो के पैर छूने लगा।
“बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। अब हम तुम बूढ़े हो गए मालूम पड़ते हैं भैया।” सत्तो ने झेंप छुड़ाते हुए कहा।
“क्या कर रहे हो बेटा आजकल? शादीब्याह हुआ के नहीं?”
“जी अपना स्कूल खोला है, वही संभाल रहे हैं। वैसे तो कॉलेज में अध्यापन के लिए भी प्रस्ताव आया था पर गांव की जमीन देखने को चाचा अकेले पड़ जाते। अवधेश अभी पढ़ाई कर रहे हैं।”
“देख ले बेटा, ये हैं हमारे यहां के बच्चे। पढ़ेलिखे होने के बाद भी गांव-परिवार और जमीन से जुड़ाव नहीं छूटा।” 
सत्तो ने अपने अल्ट्रा मॉडर्न बच्चों को लक्षित करते हुए उन तमाम लोगों पर कटाक्ष किया जिनके लिए स्टडी टेबल से उठते ही मंजिल अमेरिका, कनाडा या आस्ट्रेलिया हो जाती है।
“जीजी अगले महीने ब्याह है अखिलेश का, आप सबको जरूर आना पड़ेगा। जीजा जी एक महीने से कम का कार्यक्रम मत बनाना। आई समझ के नहीं।”
आनंद ने अधिकार भाव से अखिलेश की शादी का निमंत्रण दिया और पिता जी को पुरुषों वाली मंडली की ओर ले गए।
इधर अखिलेश शादी की बात छिड़ते ही धारावाहिकों में मौजूदा बेटियों की तरह शरमा कर दूसरी तरफ चले गए।
सत्तो अपनी अधेड़ और कुछ उम्रदराज बहनों के साथ बातों में मशगूल हो गई।
“जीजी आनंद जैसे आदमी आजकल नहीं मिलेंगे।” 
“बहुत समझदार आदमी है आनंद। हर बच्चे को बराबर प्यार दिया। कोई देखे तो कह ही नहीं सकता कि अखिलेश इनके हैं के बड़े दद्दा के। खूब बढिय़ा कपड़े लत्ते, पढ़ाई लिखाई, संस्कार क्या नहीं दिया। भाभी को भी तो इन्होंने ही संभाला। तब उम्र ही क्या थी बेचारे की।” सत्तो की बहन ने पुराने दिनों की याद करते हुए बातों को आगे बढ़ाया।
सत्तो अपनी अधूरी जानकारी को पुख्ता करने के इरादे से बोली, – मेरे ख्याल भाभी से छोटे ही थे आनंद।”
“ये थे दद्दा से आठ साल छोटे और भाभी चार साल…. हां चार साल छोटे थे भाभी से।” सत्तो की बहन ने अंगुलियों पर हिसाब लगाते हुए कहा।
“जब भाभी आईं थीं तो उनके सामने खाट पर भी नहीं बैठा करते थे। कालेज से लौटते तो बूशर्ट का कालर इतना गंदा करके लाते कि भाभी परेशान हो जातीं। फिर बेचारे हैंडपंप से पानी खींचते रहते, पर मजाल है कि कभी आंख उठा कर भी देखा हो।
पर होता तो वही है जो विधाता को मंजूर हो, सत्तो की बहन ने आह भरते हुए आनंद का एक चैप्टर खत्म करते हुए बड़े दद्दा की मौत का अगला चैप्टर शुरू किया।
65 की लड़ाई के बाद छुट्टी आई थे दद्दा। पंडित ने पहले ही बता दिया था दद्दा को कि गोली लगने से प्राण जाएंगे, फिर भी फौज में भर्ती हो गए। और देखो कितनी लड़ाई और मेडल जीत कर लाए। कहा करते, अरे सब साले पंडित झूठे हो गए हैं। जब से इनकी जुबान को मांस लगा, बातों से सत चला गया। इतनी लड़ाई तो जीत लीं अब कौन मारेगा गोली। 
दूर-दूर तक लोग दद्दा की बहादुरी के किस्से सुनाते। ऊपर से तारीफ करते पर भीतर ही भीतर जलते थे लोग। पार्टीबंदी हो गई थी किसी के साथ। उसी ने भेजा था वो लड़का। दो महीने खूब मन लगा कर दद्दा की सेवा पानी किया। घर का हर भेद ले लिया, फिर एक दिन दोपहरिया में दद्दा की पिस्तौल मांगी देखने के लिए, फिर बोला चला कर देखूं, दद्दा के पैर छुए।
दद्दा बोले “विजयी भव” और उसने तान दी पिस्तौल दद्दा पर…। दद्दा वहीं ढेर… दद्दा का आशीर्वाद भी फल गया और पंडित की वाणी भी सच्ची हो गई।
शकुंतला एक साल की थी और अखिलेश तीन साल के रहे होंगे… भाभी भी कहां जानतीं थीं छाती पर मैडल लटकाए घर आने वाले फौजी की ये आखिरी छुट्टियाँ थीं।” 
बहनों की मंडली और उनके बच्चों की आंखें नम हो गईं, बड़े दद्दा की दुखद मौत और उस लड़के की गद्दारी पर। पर अभी एक और चैप्टर बाकी था, जिसे सत्तो की सबसे बड़ी बहन ने पल्लू से आंखें पौंछते हुए सुनाना शुरु किया।
1617 साल के रहे होंगे आनंद उस वक्त, पिता जी भी नहीं थे। अम्मा बोलीं आनंद अब तुम्हारे ही हाथ है सब, घर की चदरिया और खेत का हल।”
“सब जनी मिल के भाभी की चूडिय़ां फोडऩे लगीं तो आनंद ने मना कर दिया बोले हमारी चदरिया दे दो बड्डी के सिर पे।”
पण्डाल पर पसरी चादर ने उड़ कर “बड्डी्” का सिर ढक दिया।
“तब से आज तक आनंद ने ही संभाला है सब। शकुंतला एक साल की थीं, उन्हें पढ़ाया-लिखाया, शादी करवाई। अखिलेश को पाला-पोसा। कोई पांच एक साल बाद अवधेश हुए।”
“तो क्या फेरे-वेरे कुछ नहीं हुए।” अल्ट्रा मॉडर्न बच्चों ने कौतुहल से पूछा
“न बेटा, हिंदू समाज में औरत के फेरे जिंदगी में एक ही बार होते हैं। बस चूडिय़ां बदली जाती हैं।” बड़ी-बूढिय़ों ने प्रौढ़ता से बच्चों का कंधा दबाते हुए जवाब दिया।
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ग्रामीण माहौल से चादर उकता गई और उड़ चली महानगर की ओर।
यहां शहर के सबसे बढिय़ा स्कूल के बाहर कुल्फी बेचने वाला ऊंचा लंबा बाबा नंदराम अपने घुटनों तक की धोती में मुंह दबाए सिकुड़ा बैठा थाए उस दिन जिस दिन उसके बेटे ने उसे मारा तो नहीं पर हाथ लगभग उठा ही दिया था। उसकी मां को गाली देने के आरोप में। 
पूरे मोहल्ले ने नीची जात कह कर उस परिवार की खूब थू-थू की।
पर बाबा नंद राम शाम ढलने के बाद भी अपना मुंह घुटनों से उठा नहीं पाया।
एक ढलती उम्र के आदमी को रोता देख कौशल्या से रहा न गया और उसने प्यार भरी झिड़की देते हुए बाबा को उठने को कहा,
“अब उठिए बाबा, जो होना था सो हो गया। घर की बात है इस तरह बाहर बैठ कर रोना ठीक नहीं लगता, बच्चे देख रहे हैं।”
पहले से भले ही बेटे के हाथों बेइज्जत हुए बाबा को होश न रहा हो, पर इस बार जब उसे पता चला कि रोज कुल्फी के लिए उसे घेरे रहने वाले बच्चे आज उसे दयाभाव से देख रहे हैं तो उसे कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई।
बाबा शर्मिंदा हुए तो चादर उड़ कर बाबा के घुटनों पर जा गिरी। लज्जित से बाबा ने चादर के एक छोर से नाक साफ की और दूसरे छोर से आंसू पोंछे। 
कौशल्या ने एक पुराने से कप में बाबा को चाय दी। चाय पी कर वे कुछ संभले और सिर्फ इतना कहा, पराया खून पराया ही होता है। इस छोरे के पीछे मैंने कोई सुख नहीं देखा। इस बुढ़ापे में भी कुल्फी की रेड़ी लगाता हूं। मेरा अपना होता तो”
कहते-कहते बाबा चबूतरे से उठे और अनसोची राह पर चल दिए….
तब तक बाबा की पत्नी निर्मला भी रोटी ले कर आ गई थी, कौशल्या को देख थोड़ी शर्मिंदा हो गई।
बुड्ढे आदमी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए– कौशल्या ने समझाने की कोशिश की। 
“बहन जी मैंने तो जिंदगी भर बर्दाश्त किया। अब लड़का जवान हो गया है वो कहां सहन करेगा, इन्हें भी तो समझना चाहिए।”
“फिर भी थोड़ा तो सोचना चाहिए, बेचारे दिन भर बैठे सुबकते रहे, कह रहे थे पराया खून पराया ही होता है”
इतना कहना था कि निर्मला की आंखें आग उगलने लगीं। 
“अपने पराये की बात नहीं है, बहन जी … अगर ढंग से रखो तो पराये भी अपने हो जाते हैं। और ये कौन सा बाहर का है। तब तो इन्हीं को शौक चर्राया था अब काहे का उलाहना देते हैं”
“तू भी भली है, ये शौक भला किस आदमी को नहीं होता। बच्चा पैदा किया है तो क्या उससे पिटवाएगी…”
“इसके पैदा करने से होता तो हो लिया होता, ये तो किसी काम के ही नहीं है… …”
अब की बार उसके गले में दुख भरा था। फिर भी उसने यह बात इतने आराम से कह दी जैसे घर की किसी मशीन के खराब होने की बात कर रही हो। 
“हे भगवान…”  रामायण पढ़-सुन कर जवान हुई कौशल्या के दोनों हाथ होंठों और दांतों को ढांप गए, “तो किसकी औलाद है ये… …”
“अब तो सेहत कुछ नहीं रही, जब शादी हुई थी तो लंबे चौड़े खूबसूरत लगा करते थे। सब खुश थे इतना सुंदर और इकलौता है अपने घर में। घर-बार की मैं अकेली मालकिन। मेरी बड़ी बहन भी खूब खुश थीं। मेरी शादी में बकरी दी थी उन्होंने।”
“फिर”
“खूब मिठाई, बाजे गाजे। अपने गांव की गिनी-चुनी शादियों में से एक थी हमारी शादी। इनकी अम्मा ने भी खूब खुशियां मनाईं थीं। सिनेमा के नाम से ही मचल जाते थे लोग पर हमारी सास खुद पैसे देती थी कि जाओ सिनेमा देख कर आओ। ‘शोले’ दिखाई थी इन्होंने मुझे सबसे पहले। पर खुशियां यहीं सब थोड़ी है… …”
“तूझे कितने दिन बाद पता चला”
“कुछ दिन तो गुजर गए ढोल ढमाके में। पर जैसे ही इनके पास भेजी गई इन्होंने सब बता दिया। बोले, जो खुशी चाहिए मांग लेना। बस एक को छोड़ कर।”
“तूने घर जाकर बताया नहीं”
“किसे बताती… अपनी ओढऩी हटाओ तो अपना ही सिर नंगा होता है।”
“पर इतनी बड़ी बात… तेरी सास को तो पता होगा।”
“हाँ, पता था तभी ज्यादा लाड करती थी मेरा और दुखी भी होती थी कि वंश आगे कैसे बढ़ेगा। बात कितने दिन छिपी रहती। तीसरे साल भी जब गोद नहीं भरी तो दीदी दाई के पास ले गई। दाई बेचारी को क्या पता था बोली सब ठीक ठाक है, जब ऊपर वाला चाहेगा भर जाएगी गोद। फिर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने दीदी को सब बात बता दी। वो तो सिर पकड़ कर बैठ गई। दबी आवाज में सभी मातम मना रहे थे। फिर न जाने कैसा करार हुआ इनमें और जीजा में कि ये राजी हो गए… ।
दस ग्यारह साल की ही तो थी जब जीजा ब्याहने आए थे जीजी को। मेले, हाट, बाजार सब जीजा के साथ ही देखे। छोटी बच्ची की सी जिदें पूरी करवाते थे उनसे… अब उसी जीजा के साथ। मेरे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। फिर इन्होंने ही सास को भी मना लिया… ।
अब कहते फिरते हैं पराया खून, पराया खून… ।
पहले पहल तो किसी को भी पता नहीं था। इसकी इज्जत भी ढकी हुई थी और हम सबकी भी। सब इसी के कर्म हैं… मैं तो दीदी की एहसानमंद हूं, जो है सब उन्हीं का दिया है… ।”
“कहां है री तेरी दीदी…?”
जीजा को टी बी हो गई थी, बड़ा पैसा बहाया बेचारी ने इलाज में, पर बचा नहीं पाई… कोठियों में बर्तन मांजने जाती है।”
………………….
एक बार चादर फिर से कसमसाने लगी। गांव और शहर भर का भ्रमण कर चुकी थी चादर। घूमते-फिरते अब वह फिर से पहाड़ों की तलहटी में बसे एक आधुनिक हो रहे गांव में पहुंची।
यहां सुमित्रा के बेटे की शादी चल रही थी। किसी को धूप न लगे इसलिए चादर सुमित्रा के आंगन के ऊपर तन गई। 
 
चादर ने देखा कि जमाना बदल चुका था। जमाने की तरह इस गांव की लड़कियों ने भी अब साधना कटिंग छोड़ दी थी और श्रीदेवी स्टाइल में पहले बाल उठा कर क्लिप लगातीं फिर लंबी चोटी बनाया करती थीं।
इस गांव के ब्राह्मण परिवारों में यूं तो दोहरे रिश्तों की परंपरा थी पर अबकी बार सुमित्रा चाहती थी कि सबसे पहले बड़े बेटे की शादी हो, “बाकियों की होती रहेगी। और अब वो पहले का सा जमाना कहां रहा है।”
घर, बार, जजमानी सब गिना दिखा कर एक खूबसूरत, कार्यकुशल और हुनरमंद बहू सुमित्रा को मिल ही गई जानकी। 
सुमित्रा का बेटा बल्लियों उछल पड़ा था इतनी सुंदर पत्नी पा कर। किसी ने बताया था थोड़ा बहुत पढ़-लिख भी लेती है। सिलाई बुनाई का तो पूछो ही नहीं, हाथ नहीं जैसे मशीन हो।
शादी की चौथी ही सुबह सुंदर, कार्यकुशल और मृदुभाषिणी जानकी ने विद्रोह कर दिया, “मैं नहीं रहूंगी यहां, घर-बार सिर पर रखूंगी, जब पल्ले से खूंटा बांध दिया हो।”
नई नवेली बहू का ऐसा रौद्र रूप सुमित्रा से बर्दाश्त न हुआ और उसने एक जोरदार तमाचे के साथ उसे वापस कमरे के भीतर धकेल दिया… ।
बड़ी-बूढिय़ा खुसफुसाने लगीं, “हम तो पहले ही कहते थे मत कर इसका ब्याह, तुझे ही पड़ी थी। सबकी कटती है, क्या इसकी नहीं कटती। दो फुलके ही तो खाने थे इसने, क्या छोटा भाई नहीं खिला देता।”
“जब मैं ले आईं हूं, तो निभा भी लूंगी।” सुमित्रा ने तुनक कर जवाब दिया।
खुसफुसाती बूढिय़ां चुप हो दहेज का सामान देखने लगीं।
सुबकती, ईश्वर की मार पडऩे जैसी गालियां देती जानकी कमरे में तो चली गई, पर उस दिन के बाद से उसने अपने पति को कमरे में दाखिल नहीं होने दिया।
सुमित्रा कमर कस कर तैयार थी। जैसे वह पहले से जानती थी इस दुर्घटना का घटना। 
सप्ताह भर बाद जानकी के भाई उसे लेने आए और वह आंसुओं, कराहों और टूटे सपनों के टुकड़ों के साथ मायके चली गई।
अगले ही दिन जब जानकी के मायके का दल बल घर पहुंचा तो पता चल गया कि टूटे सपनों के टुकड़ों के साथ वो खबर भी जानकी के मायके पहुंच गई है जिस पर जानकी ने विद्रोह कर दिया था।
मायके वाले जब बुरा-भला कह कर थक चुके तो सुमित्रा ने उनके लिए ठंडा शरबत बनवाया। दहेज में दिया उनका सारा सामान उनके आगे कर दिया और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, आपकी बेटी अब हमारी इज्जत है। हम ब्याह कर लाए हैं, हम संभाल भी लेंगे। उसे यहां किसी चीज की कमी नहीं होगी। 
आधी जमीन जानकी के नाम करने का वायदा ले जानकी के मायके का दल बल वापस लौट गया। और अगले दिन जानकी भी ससुराल बुलवा ली गई। 
जानकी फिर उसी कमरे की दीवारों से सर पटकने लगी जिससे उसने अपने पति को निकाल बाहर किया था। सुमित्रा ने कुछ बहलाने के इरादे से जानकी को रसोई संभालने को कहा। रसोई संभालने के बाद घर बार की तमाम जिम्मेदारियां जानकी को ही दे दी गईं। जानकी घर में सबकी लाडली हो गई। खाने-पीने, पहनने-ओढऩे की हर जरूरत उसके कहने से पहले पूरी होती। सिवा, एक के।
और आखिर एक दिन वह आखिरी जरूरत भी पूरी कर दी गई। सुमित्रा ने अपने छोटे बेटे को कमरे के अंदर दाखिल कर दिया और खुद पहरे पर बैठ गई।
यह रात हर बार दोहराई जाती, जब जब सुमित्रा की या उसके छोटे बेटे की इच्छा होती। और धीरे-धीरे सुमित्रा ने पहरे पर बैठना बंद कर दिया, जब उसे लगा कि शिकारी और शिकार दोनों एक दूसरे के अभ्यस्त हो चुके हैं।
आखिर जानकी की गोद भरी।  
पहली संतान बेटी हुई और दूसरा बेटा, तीसरा फिर बेटा।
गांव की वो बड़ी-बूढिय़ां सुमित्रा और उसके परिवार को देखकर ईर्ष्या से भर उठतीं जो काफी लंबे समय से इस शादी के खिलाफ थीं। सुमित्रा ने खुद कानाफूसियों में यह खबर गांव भर में फैला दी कि “बड़ा शहरी इलाज के बाद ठीक हो गया है, वरना आंगन में किलकारियां कैसे गूंजतीं।”
जानकी ने बड़े चाव से दोनों ननदों की शादी की। पर जब उसके देवर की शादी की बात आई तो उसने फिर से विद्रोह कर दिया। 
जाने वह अपने हक के लिए लड़ रहीं थीं या आने वाले दुर्दिनों के संदेह से… ।
सबकी लाडली जानकी कुलटा, कुलक्षिणी हो गई। 
फिर एक जोरदार तमाचे के साथ जानकी को उसी कमरे में धकेल दिया गया। अब छोटे बेटे को सख्त मनाही थी इस कमरे के आस-पास भी फटकने की।
सुमित्रा ने एक बार फिर तुनक कर कहा, “दूसरों पर ही पैबंद लगाता रहेगा, क्या इसकी अपनी जिंदगी नहीं है…”
अब जानकी सिर्फ अपने पति की लाडली थी, वही उसके हाथ का बना खाना खाता और वही उसके पुराने कपड़ों को देख नए लाने की ख्वाहिश जताता। नई बहु के लिए बड़ा और सुंदर कमरा जरूरी था इसलिए जानकी को उसके पति के साथ पिछवाड़े वाला कोठा थमा दिया गया।
नई बहू के लिए पिछवाड़े का कोठा वर्जित क्षेत्र था। उसे बताया गया था कि उस कोठे में ऐसी कोई डायन रहतीं है जो सबके पतियों को झपटने को तैयार रहती है। और तो और उसने जोगियों के बाड़े को भी नहीं छोड़ा। 
पिछवाड़े के कोठे का दरवाजा जो बंद हुआ तो सालों साल खुला ही नहीं। बंद दरवाजे में जानकी की जवानी ढल गई और उसकी बेटी जवान हो गई।
आज शहर से लड़के वाले आ रहे थे उसे देखने, जानकी के भाई के साथ। गहना-गाठा कुछ भी तो नहीं था जानकी के पास अपनी बिटिया को सजाने के लिए। उसका आंचल भी मैल भरा था। बिटिया का माथा भी सूना, सिर भी नंगा…। कौन ध्यान देता इस पर।
मेहमानों की दस्तक हुई ही थी कि चादर ने उड़ कर जानकी की बेटी का सिर ढक दिया। और जानकी सुहाग गाने लगी।
सम्पर्क-

योगिता यादव

911, सुभाष नगर, जम्मू
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

योगिता यादव की कहानी क्लीन चिट

साम्प्रदायिक दंगे अपने साथ तमाम मुसीबतें ले कर आते हैं। इसकी सबसे अधिक मार स्त्रियाँ सहती हैं १९८४ के सिक्ख दंगे इसकी मिसाल हैं। इसी को आधार बना कर योगिता ने क्लीनचिट कहानी लिखी है जो दंगे के बाद के मुसीबतों को करीने से हमारे सामने रखती हैकहानी की नायिका दरअसल सिमरन कौर की माँ हैदंगे के दौरान सिमरन के पिता की हत्या कर दी जाती है। इसके बाद किस तरह तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए सिमरन की माँ अपने दोनों बच्चियों को पालती-पोसती और बड़ा करती है, इसी कथ्य को आधार बना कर लिखी गयी यह कहानी इसलिए भी असाधारण बन जाती है कि यह उस स्त्री की संघर्ष-गाथा को रेखांकित करती है जिसकी कमजोरी का फायदा न केवल असामाजिक तत्व बल्कि घर-परिवार वाले भी उठाने से नहीं चूकते। तो आइए पढ़ते हैं योगिता की यह कहानी जो उनके नवीनतम कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है 
        
क्लीन चिट
योगिता यादव
बंगला साहिब गुरुद्वारे में मत्था टेक कर सरोवर किनारे बैठना सिमरन कौर को इतनी शांति देता था कि घर-गृहस्थी और ऑफिस की महीने भर की थकान उतर जाया करती। इसलिए हर महीने के आखिरी ऐंतवार को वह इस गुरुद्वारे में मत्था टेकने जरूर आया करती। मम्मी और छोटी बहन के साथ ऐंतवार की कई पिकनिक उसने इसी सरोवर के किनारे मनाईं थीं। फिर स्कूल और कॉलेज बंक करके सहेलियों के साथ घूमने के लिए भी यही जगह उसे पसंद आती थी। लंगर का प्रशादा, सरोवर का पानी और ढेर सारी मस्ती।
सिमरत सिंह जब बैंगलोर से पहली बार दिल्ली आया, तो पहली-पहली डेट भी इसी सरोवर के किनारे पर थी।
मत्था टेक कर कड़ाह प्रसाद खाया और बचा हुआ घी दोनों हथेलियों पर मलते हुए सिमरन कौर सरोवर किनारे चल पड़ी। बरामदे में छांव देख कर वह वहीं चौकड़ी मार कर बैठ गई। चिनॉन के महीन दुपट्टे से सिर और माथे को ढांपते हुए दोनों कानों के पीछे से घुमा कर कंधे के चारों और लपेट लिया। सिर का पिछला हिस्सा दीवार से सटा कर मुंह ऊपर किए वह कुछ देर निश्चिंत भाव से आंखें मूंदे बैठी रही। लाउडस्पीकर पर हल्की सुरीली आवाज आ रही थी….मेरे गोबिंद अपना नाम दियो….।‘’
            वह तीन साल की ही तो थी जब ताई जी की चिकचिक से तंग आ कर डैडी जी ने दिल्ली आने का मन बनाया था। खेत, ट्रेक्टर, कूलर सब था पर मां के लिए चैन नहीं था। डैडी जी भी चाहते थे कि पटियाले की पढ़ी-लिखी लड़की होशियारपुर की भैंसों और खेतों को पानी पिलाने में ही न खप जाए इसलिए उन्होंने अपना तबादला दिल्ली करवा लिया। दिल्ली आते ही ऑफिस और मकान देखने के बाद सबसे पहले मम्मी और डैडी जी इसी गुरुद्वारे में आए थे शुक्राना अदा करने। मम्मी-डैडी नन्हीं सिमरन को समझाने लगे थे, ”सुख वेले शुक्रानादुख वेले अरदासहर वेले सिमरन।‘’ इस बात का पूरा मतलब समझे बिना ही वह खुश हो गई थी कि उसके मम्मी जी डैडी जी हर वेले उसका नाम लेने की बात कर रहे हैं। मम्मी डैडी दिल्ली आ कर सचमुच खुश थे और मैं भी। तभी भगवान ने एक साल में ही हमारे घर में एक नया मेहमान भेज दिया। इस नए मेहमान के आने पर भी हम यहीं आए थे मत्था टेकने। फिर गुरुद्वारे में ही उसका नाम रखा गया मनु, मनजोत कौर। 
मनजोत कौर के आते ही घर की खुशियों में चार चांद लग गए। डैडी जी हर रोज शाम को कुछ न कुछ ले कर घर लौटते और फिर रात को खाना खाने के बाद मनजोत कौर को बाबा गाड़ी में लिटा कर हम सब सैर को निकल पड़ते….।
मेरे चौथे जन्मदिन पर मम्मी ने मेरे लिया नया फ्रॉक सिआ और डैडी जी नीले रंग का बस्ता ले कर आए थे। अगले दिन पास के स्कूल में जा कर मेरा नाम लिखवाया गया और नीले रंग के बस्ते में ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें आ गईं थीं। मनु और नीले बस्ते ने कितने रंग भर दिए थे मेरी दुनिया में। उस बार गर्मियों की छुट्टियों में हम सब होशियारपुर गए। हमारे ठाठ-बाट देख कर सब हैरान थे। जिन ताई जी से तंग आ कर हम दिल्ली आए थे उन्होंने भी मम्मी को गले लगा कर कितना अपनापन दिखाया था। मनजोत कौर को देख कर भी सब खुश थे, ताई जी ने इतना जरूर कहा था कौर बड़ी हो गईं अगली बारी सिंह लेकर आना। सारा माहौल देख कर लगता था कि हमारे दिल्ली जाने से हम ही नहीं वे सब भी बहुत खुश हैं।
होशियारपुर से विदा ले कर हम फिर से दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी में लौट आए थे। नीले बस्ते के रंग दिनों दिन बढ़ते जा रहे थे। नई कविता सुनाने पर मम्मी खूब शाबाशी देती। फिर घर में आने वाले हर नए व्यक्ति के सामने वही कविता दोहराने को कहतीं। उनकी खुशियां और मेरी शाबाशियां बढ़ती जा रहीं थीं…। पर लोग कह रहे थे कि ऐसा कुछ हुआ है जिस पर ऊपर वाला दोषियों को कभी माफ नहीं करेगा। इसी माहौल में मोहल्ले की सारी आंटियों ने गुरद्वारे जा कर अरदास की। गुरद्वारे में ललकार भरी आवाज में सिंह सूरमाओं का आह्वान किया गया। डैडी जी को हालांकि इन सब बातों से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी मम्मी के कहने पर उन्होंने भी केसरिया पगड़ी पहनी।
            ….फिर न जाने रात में या दिन में ऐसा क्या हो गया कि केसरिया पगड़ी वाले अपनी जान बचा कर भागने लगे। पर आफत सिर्फ केसरिया पर ही नहीं तमाम पगडिय़ों पर आ चुकी थी। डैडी जी जब अगले दिन ऑफिस जाने के लिए निकले तो मम्मी ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की। दिन भर मम्मी हम दोनों बहनों को सीने से सटा कर रोती रहीं….।
और फिर शाम को…. डैडी जी नहीं लौटे।
हम पर कोई और आफत न आ जाए इसके लिए मकान मालिक अंकल जी ने दहशत भरी हिदायत दी थी, ”भाभी जी कुछ भी हो जाए आप दरवाजे की चटखनी मत खोलना। सारी बत्तियां बुझा दो और छोटी को खांसी की दवा पिला कर सुला दो। ये रोएगी तो लोगों को पता चल जाएगा कि अंदर कोई है।‘’
सारी रात चीख-पुकार मची रही।
सुबह को टेलीविजन पर लाशों के ढेर दिखाए जा रहे थे। तस्वीरों के बाद शिनाख्ती के लिए फोन नंबर दिए जा रहे थे। पगड़ी खुला, केश बिखरा, झुलसाया हुआ हर चेहरा मुझे डैडी जी जैसा लग रहा था। लाशों के पास ही उनके हाथ का सामान बिखरा पड़ा था। मां की सिसकियां नहीं टूट रहीं थीं। मकान मालिक आंटी उन्हें पानी पिलाने की कोशिश कर रही थी और अंकल जी शिनाख्ती के लिए पुलिस स्टेशन गए थे। इस बार शाम को डैडी जी लौटे! खाली हाथ.! सरकारी गाड़ी में!, सफेद कपड़े में लिपटे हुए!
मेरा मन कर रहा था कि मैं कहूं,  ”गुडिय़ा चाहें न लाना पर पापा जल्दी घर आना….’’ सुनते ही डैडी जी उठ कर मुझे गले से लगा लेंगे । पर वे नहीं उठे और मम्मी बिलख कर उनसे लिपट गई। नन्हीं सी मनु को मैंने अपनी गोदी में छुपा लिया।
डैडी जी जा चुके थे, उनके साथ हमारे घर का मुखिया, कमाने वाला इकलौता शख्स, नीले बस्ते और मां की चुन्नियों के गहरे सारे रंग चले गए। हालात ऐसे नहीं थे कि हम होशियारपुर जा सकते और वहां से कोई यहां आने वाला भी नहीं था। दुख के उस माहौल में अचानक मकान मालिक अंकल और आंटी बहुत अच्छे हो गए थे। खराब हालात में भी वह कहीं न कहीं से मनु के लिए दूध ले आते। टोफियां दे कर मुझे भी खुश करने की कोशिश करते रहते और मां को हिम्मत न हारने का दिलासा देते।
दिल्ली के हालात सुधरने लगे थे पर हमारे घर के अभी भी वैसे ही थे। मम्मी छोटी को गोद में लिए रोज दफ्तरों के चक्कर काटती। चूडिय़ों और गहनों से सुंदर सी दिखने वाली मम्मी जी अब वैसी सुंदर नहीं रह गई थी, एक दिन उन्हें डैडी जी की जगह नौकरी जरूर मिल जाएगीइसके इंतजार में एक-एक कर उनके सब गहने बिकने लगे थे। 
नौकरी मिलती इससे पहले ही अंकल जी ने बताया कि दिल्ली सरकार विधवाओं के लिए कॉलोनी बना रही है। हमें भी डैडी जी के कागज-पत्तर दिखा कर मकान मिल सकता है। 
मम्मी जी की भागदौड़ रंग लाई और उन्हें सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई। स्कूल सुबह का था, मनजोत अभी छोटी थी, मम्मी मुझे भी पढ़ाना चाहती थी, सब कुछ एक साथ होना मुश्किल हो रहा था। इस बार आंटी जी ने मम्मी की हिम्मत बढ़ाई और कहा भैन जी आप जाओ स्कूल, मैं संभाल लूंगी छोटी को’’। पर मम्मी और ज्यादा दिन उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी।
मास्टरों के बीच में अकेली मास्टरनी, सबने मना किया पर मम्मी ने अर्जी दे ही दी और दोपहर बाद के लड़कों के स्कूल में अपनी ड्यूटी लगवा ली। स्कूल के स्टाफ में मम्मी का आना जवान विधवा के प्रति सहानुभूति से शुरू हुआ फिर धीरे-धीरे वहां से विधवा खत्म होकर सिर्फ जवान रह गया। न चाहते हुए भी मम्मी ने अपने आप को इस माहौल में ढाल ही लिया था।
एक महीने बाद मम्मी को तनख्वाह मिली और उन्होंने डेढ़ साल बाद एक बार फिर से अंकल जी के मकान का किराया दिया। इस एक साल में मम्मी कभी आंटी जी के सूट, कभी परदे, कभी तकियों के कवर सिल कर उनका बोझ कम करने की कोशिश किया करती। मम्मी के अपने सारे सूट पुराने और ढीले हो चुके थे पर पटियाले की पढ़ी-लिखी लड़की को अब सूटों की नहीं हम दोनों बहनों के भविष्य की चिंता थी।
            विधवाओं की कॉलोनी में भी मकान मुफ्त मिलने वाले नहीं थे। यह सोच कर मम्मी ने एक-एक पैसा जोडऩा शुरु कर दिया। शाम को मिलने वाले तोहफे, संडे की पिकनिक, रात की सैर डैडी जी के साथ ही चले गए थे। अब मैं उतनी नादान भी नहीं थी कि कुछ न समझ सकूं। मैं और बड़ी होना चाहती थी ताकि मम्मी की परेशानियों को बांट सकूं। पर मम्मी मुझे और मनजोत को खूब पढ़ाना चाहतीं थीं।
मैं पांचवी में हो गई थी और मनजोत ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था। हमारे अधूरे परिवार में खुशियां सचमुच लौट आईं जब विधवाओं की उस कॉलोनी में हमें सस्ता सा मकान मिल गया। मम्मी की पांच साल की तपस्या रंग लाई। हमने अपने मकान में कदम रखा। कितने सालों बाद हमारे घर की कड़ाही ने पंजीरी की मिठास चखी। घर में सामान के नाम पर सब कुछ पुराना हो चुका था, कुछ नया ले कर दिखाना भी किसे था, इस नई कॉलोनी में सब हमारी ही बिरादरी के परिवार थे। सफेद चुन्नियों वाली मम्मी और बिना डैडी जी वाले परिवार।
हर साल एक दिन ऐसा भी आता जब सारी सफेद चुन्नियों वाली मम्मियां कॉलोनी के बीचों बीच बने स्मारक पर मोमबत्तियां जलातीं और ऊपर वाले से गुनाहगारों को कभी न बख्शने की अपील करतीं। जिंदगी धीरे-धीरे ढर्रे पर लौटने लगी थी। मनजोत पढऩे में मुझसे भी ज्यादा होशियार हो गई थी। दोनों बहनों के पास होने पर मम्मी हम दोनों बहनों को यहीं बंगला साहिब गुरुद्वारे में मत्था टिकवाने लाती। लंगर के बाद सरोवर किनारे बैठ कर छोटी-छोटी मछलियां देखना हमारे बचपन में रोमांच भर देता। फिर मम्मी खुश हो कर हम दोनों बहनों को लोहे के नए कड़े दिलवाती।
हमारी खुशियों में अब पटियाले और होशियारपुर के रिश्तेदार भी कभी-कभी शामिल हो जाया करते। फिर मम्मी को याद दिलाते कि अच्छा होता अगर मनजोत की जगह मेरा छोटा बीर आया होता, कम से कम घर में एक मर्द तो होता। आगे बच्चियों की शादियां भी करनी हैं। और फिर आखरी वक्त मे ….. मम्मी आस भरी नजरों से हम दोनों बहनों की तरफ देखती और हमें सीने से लगा लेती। उस वक्त मम्मी की सांसों में सरोवर की शांति महसूस होती।
12वीं के बाद नजदीक के कॉलेज में ही मैंने दाखिला ले लिया। मम्मी की मेहनत ने दिन फेर लिए थे। घर का एक-एक सामान मम्मी ने अलग-अलग बाजारों से खूब मोल भाव के बाद खरीदा था। घर के कोने-कोने में मम्मी की हर महीने की कोई न कोई बचत दिखाई देती। यही हाल हम दोनों बहनों की अलमारी का था। सिर की पिन से लेकर पांव की चप्पल तक सब पर मम्मी की मुहर। कोई हमें विधवा की बेटियां कह कर सहानुभूति दिखाए ये मम्मी को बिल्कुल पसंद नहीं था। इसलिए हमारा स्टैंडर्ड अब अकसर दूसरों से अच्छा ही हुआ करता था।
उस साल होशियारपुर गए थे ताई जी की बेटी की शादी में। तब बारातियों में से एक था सिमरत सिंह। शादी में खूब मजा आया। पहले पहल खुशी इस बात की हुई कि हम दोनों का नाम लगभग एक जैसा था। बैंगलोर में इंजीनियरिंग कर रहा था सिमरत। टेलीफोन नंबर मांगा तो मुझसे इनकार न हुआ। और दिल्ली लौटते ही घर पर उसके फोन आने शुरू हो गए। मुझे लगने लगा कि अब मैं सचमुच बड़ी हो गई हूं। कॉलेज की सहेलियों के साथ मिल कर सिमरत के लिए आए दिन कोई न कोई कार्ड खरीदने का बहाना ढूंढती। 

मैंने मम्मी को इतनी मेहनत और हम दोनों बहनों से इतना प्यार करते देखा था कि उनकी जगह कोई और ले ही नहीं सकता था। मम्मी का विश्वास तोडऩे का तो सवाल ही नहीं उठता था, इसलिए मैंने हिम्मत करके सिमरत के बारे में मम्मी को बताया। इस बार जब उसका फोन आया तो मम्मी ने भी सिमरत से बात की और दोनों को पहले अपनी पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी फिर आशीर्वाद दिया कि हम दोनों हमेशा खुश रहें। 
अंकल जी के समझाने के बाद से आज तक हम रात को दरवाजे की चटखनी अच्छी तरह बंद करके ही सोते थे पर मुसीबतें न जाने किस खिड़की से हमारे घर का रास्ता ढूंढ ही लेती।
आधी रात को अचानक मम्मी की तबियत बहुत खराब हो गई। रात को ही अंकल जी को फोन किया और एंबुलेंस में डाल कर मम्मी को हॉस्पिटल लेकर गए। डॉक्टर ने बताया मम्मी का बीपी बहुत बड़ गया है उन्हें आराम की सख्त जरूरत है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह थी कि मम्मी को कैंसर हो गया था।
मेरे पांव तले से जमीन खिसक गई। अभी-अभी तो हमने खुश होना शुरू किया था। कैंसर की आखिरी स्टेज थी मम्मी हमारे पास छह महीने से ज्यादा की मेहमान नहीं थी। डॉक्टर उन्हें हॉस्पिटल में रख कर कुछ और टेस्ट करवाना चाहते थे पर मम्मी घर लौटना चाहती थी। वे इन छह महीनों में भी स्कूल जा कर हम दोनों बहनों के लिए कुछ और पैसा छोड़ जाना चाहती थीं। अब मम्मी एक दिन में कई दिनों का काम निपटाने की जल्दी में रहती। बैंक की पास बुक, मकान के कागज, घर में रखी नकदी सबके बारे में मम्मी मुझे कई-कई बार समझाने लगी थी। और मनजोत के बारे में भी। मनजोत और इस घर को लेकर मैं मम्मी की पहली और आखरी आस थी। मम्मी ने खास हिदायत दी कि हम मम्मी की बीमारी के बारे में किसी को कुछ न बताएं, होशियारपुर वालों को तो बिल्कुल भी नहीं।
सब कुछ जानते हुए भी मैं मम्मी को दोनों वक्त टाइम पर दवा खिलाती और सोचती एक-एक गोली अगर एक-एक दिन भी बढ़ा दे तो बहुत है। मम्मी मेरा अठारहवां जन्मदिन धूमधाम से मनाना चाहती थी। मम्मी ने मेरे लिए सोने की दो चूडिय़ां बनवाईं और मनजोत के लिए बालियां। शायद मनजोत के जन्म दिन तक मम्मी ठहर नहीं सकती थी। मेरी और मनजोत की सब सहेलियों और दोस्तों को मम्मी ने घर पर बुलाया। केक कटवाया और अपने हाथ से खाना बना कर सबको खिलाया। यह मेरी जिंदगी का सबसे यादगार जन्म दिन था। सिमरत का फोन आया और मम्मी ने हम दोनों को एक बार फिर से आशीर्वाद दिया। मम्मी को सिमरत पसंद है इसकी घोषणा मम्मी ने मेरी सारी सहेलियों के सामने की। अगले दिन जब कॉलेज लौटी तो सभी ने कहा, भगवान ऐसी मम्मी सभी को दे। इस बार मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपनी सहेलियों को मम्मी की बीमारी के बारे में बता दिया। पहली बार मैंने मम्मी का विश्वास तोड़ कर घर की कोई बात बाहर वालों को बताई थी।
शायद इसी की सजा मुझे मिली और मम्मी पांचवें महीने में ही जबरदस्त बीमार हो गई। अब मम्मी ने खुद ही अंकल जी, आंटी जी, होशियारपुर और पटियाले फोन करने को कहा। अगले ही दिन हमारे छोटे से घर में दोस्तों और रिश्तेदारों का हुजूम उमड़ पड़ा। और इसी हुजूम के बीच मम्मी मनजोत का हाथ मेरे हाथ में थमा कर चुप हो गई। इस घर के कोने-कोने से जिसने डैडी जी का खालीपन दूर किया था आज वो भी इस घर से हमेशा के लिए दूर चली गई।
इतनी भीड़ के बीच हम दोनों बहनें बिल्कुल अकेली हो गईं। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हमारे जिस्म से कपड़े उतार कर हमें नंगा कर दिया हो। हमारे पांव की जमीन, सिर के ऊपर का आसमान सब एक ही झटके में उजड़ गया।
संस्कार से लौटते ही लोगों ने पूछा, ”अब आगे क्या करना है?’’ आगे क्या करना है, मुझे लगा जैसे किसी ने एनेस्थीसिया दे दिया हो और मैं बेहोश हो गई।
होश आया तो मैं बिस्तर पर थी और मनजोत मेरे सिराहने बैठी मेरे होश में आने का इंतजार कर रही थी। तब तक ये फैसला हो चुका था कि मामी जी का कोई रिश्तेदार है इंगलैंड में। उम्र थोड़ी ज्यादा है पर खाता-कमाता अच्छा है। इतना बड़ा घर है फिर भी मामी जी उसे राजी कर ही लेंगी मुझसे शादी करने के लिए। वे लोग कुछ नहीं मांगेंगे पर शादी के लिए खर्चा तो चाहिए ही न, इसके लिए अंकल जी को कहा गया कोई अच्छा सा ग्राहक बुला कर मकान का सौदा करवाने के लिए। और मनजोज…. मनजोत को अमृतसर हॉस्टल में डाल देंगे। अच्छा हॉस्टल है, पढ़ाई भी करेगी और रहेगी भी। जब मैं इंगलैंड में सेटल हो जाऊंगी तो मैं भी उसे वहीं बुला लूंगी नहीं तो होशियारपुर तो है ही। कभी-कभी छुट्टियों में वहां चली जाया करेगी।
मेरी नन्हीं सी मनजोत, मनु जिसका हाथ मम्मी मेरे हाथ में सौंप कर गई है वो ऐसे दर-दर की ठोकरें खाएगी और हमारी मम्मी की आखरी निशानी ये घर, इसके भी सौदे की तैयारी…. मैंने साफ इनकार कर दिया…. कुछ भी हो जाए मेरी बहन सिर्फ मेरे पास रहेगी और अपने जीते जी हम दोनों बहनें अपनी मम्मी जी की आखरी निशानी को बिकने नहीं देंगे।
सभी को अपने-अपने घर में जरूरी काम थे, सो हमें सोचने के लिए कह कर वे सभी अपने-अपने घर चले गए। जाते-जाते कह गए बड़ी निर्भाग हैं दोनों। पहले डैडी, फिर मम्मी और ऊपर वाले ने एक बीर दिया होता तो संभाल लेता दोनों को।
ऊपर वाले शायद अंकल जी और आंटी जी को हमारे लिए ही बनाया था। हमारे सिर पर उन्हीं दोनों हाथ था पर कितनी देर तक। अंकल जी और मम्मी के स्कूल से आए कुछ लोगों ने समझाया कि मैं मम्मी की जगह नौकरी के लिए कोशिश करूं। पर अभी तो मेरा ग्रेजुएशन का दूसरा ही साल था। पर घर में जो तूफान आया था उसके देखे मेरा पढ़ाई का मसला बहुत छोटा था।
मनजोत ने फोन करके सिमरत को सब कुछ बता दिया। वो बिचारा भी क्या करता, पढ़ाई कर रहा था, जब तक घर से पैसे नहीं मिल जाते तब तक ट्रेन की टिकट भी नहीं करवा सकता था और फिर बैंगलोर से दिल्ली पहुंचने में भी तो वक्त लगता।
सिमरत से पहले ही मामी जी अपने उस रिश्तेदार की तस्वीर और उसकी मां को ले कर हमारे घर पहुंच गई। मामी जी फूली नहीं समा रहीं थीं यह बताते हुए कि वो मुझे चुन्नी चढ़ाने आईं हैं। मेरा दिमाग घूमने लगा मामी जी के साथ आई उस औरत ने मिठाई के डिब्बे के ऊपर कुछ पैेसे रख कर मेरे हाथ में पकड़ा दिए। मेरा वश चलता तो यही डिब्बा उठा कर उसके सिर में दे मारती और दोनों घर से बाहर निकाल देती। पर अनाथ बच्चियां किसके सहारे नाराजगी दिखाएं। मकान का सौदा अभी पटा नहीं था इसलिए दोनों अगले महीने आने की बात कह कर चली गईं। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने सिमरत को फोन करके जल्द से जल्द कोई फैसला लेने को कहा।
सिमरत ने सिर्फ इतना कहा कि कुछ भी हो जाए तुम दोनों बहनें एक साथ रहना और अपना घर छोड़ कर कहीं नहीं जाना। मैं अपने हाथ मजबूत करना चाहती थी। इसलिए नौकरी के लिए कोशिश करना शुरू कर दिया।
एक हफ्ते बाद सिमरत सिंह हमारे घर पर था। उसके पहली बार गले लग कर मैं खूब रोई। एक महीने के बचाए हुए आंसू सब उसी पर उड़ेल दिए। मैं और मनजोत दोनों के लिए सिमरत आखिरी सहारा था। तब तक मामी जी का फोन आ गया। इंगलैंड वाला लड़का परसों आ रहा है रिंग सेरेमनी के लिए। सिमरत ने फैसला किया हम कल ही शादी कर लेंगे। मैंने अपनी सहेलियों को साथ लिया और सब हिम्मत कर के अगले दिन सुबह-सुबह आर्य समाज मंदिर पहुंच गए। न चूड़ा, न चुन्नी शादी क्या की, ऐसा लगा कोई जंग लड़ी है, बॉन्ड साईन किया, तस्वीर खिंचवाई और अपने घर लौट आए।
सिमरत ने आज की रात गुरुद्वारे में ही बिताई। ज्यादा पैसे न उसके पास थे न मेरे। पढ़ाई भी अभी हम दोनों की अधूरी थी। अगली सुबह मामी जी के आने से पहले ही मैं कॉलेज के लिए निकल आई। एजुकेशन के दफ्तर जाकर नौकरी की अर्जी कहां तक पहुंची इसका भी पता करना था। सिमरत भी इस शहर में नया-नया था उसका भी ख्याल मुझे ही रखना था। सहेलियों ने इस दौरान बहुत साथ दिया। शादी के बाद पहले दिन, पहली बार हम दोनों ने एक साथ इसी गुरुद्वारे में मत्था टेका। सरोवर किनारे बैठ कर एक-दूसरे का हालचाल पूछा। सिमरत ने शादी के तोहफे के तौर पर मेरे लिए ग्रीटिंग कार्ड खरीदा था। सिमरत ने फैसला किया कि अब वह बैंगलोर वापस नहीं जाएगा और यही रह कर कोई नौकरी करेगा।
देर शाम घर लौटी तो मामी जी का चेहरा तमतमाया हुआ था। इंगलैंड वाला लड़का तीन चार घंटे इंतजार करने के बाद अपने किसी रिश्तेदार के यहां चला गया था। मामी जी और वो लड़का शादी के लिए कमर कस कर आए थे। अब बचना मुश्किल लग रहा था। मैंने बैंक की पासबुक, घर के कागजात इकट्ठे किए और अगली सुबह फिर कॉलेज के लिए निकल गई। मनजोत ने घर पर रहना ठीक समझा। जब तक हम दोनों को कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल जाती। मामी जी के रहते घर में क्या-क्या हो रहा है यह बताने वाला भी तो कोई होना चाहिए था। यह सोच कर मैं भी मान गई।
उस रात से मेरा ठिकाना भी गुरद्वारा ही था। मेरे घर न लौटने पर सबसे पहले शक सहेलियों पर ही जाएगा यह सोच कर किसी के घर ठहरने की बजाए मैंने भी गुरद्वारे में ही रहना ठीक समझा और सिमरत तो वहां था ही। शादी के बाद भी बस एक दूरी थी, तीन रातें उसने मर्दाना हॉल में और मैंने जनाना हॉल में बिताईं। तब तक मैंने किराए का एक कमरा ढूंढ लिया था।
घर पर फोन किया तो पता चला कि मामी जी ने ताई जी को भी होशियारपुर से यहां बुला लिया है और छातियां पीटी जा रही हैं कि मां की आग ठंडी भी नहीं हुई थी और लड़की घर से भाग गई। दोनों ने मिल कर पूरे घर की तलाशी ली, जब कुछ नहीं मिला तो बैंक का खाता सील करवाने की भी कोशिश की। मैं तो चली पर मेरी नन्हीं मनू उन के ताने सुनने के लिए अकेली रह गई थी। अब वे एक पल के लिए भी मनजोत को चैन से नहीं बैठने देती थीं।
किसी तरह उन्होंने हमारे ठिकाने का पता लगा ही लिया। ताई जी क्योंकि सिमरत के घर वालों को जानती थीं इसलिए उन्होंने उन्हें भी फोन करके दिल्ली बुलवा लिया। सबने मिल कर हमारे नए घरौंदे पर डेरा डाल दिया। चारों तरफ से गालियां पड़ रहीं थीं। सभी हम दोनों को अलग करना चाहते थे पर हम तो शादी कर चुके थे। इस पर मामी जी ने कहा भी, ”दो चार दिन ही तो साथ रहे हो, फिर क्या हो गया हम किसी को नहीं बताएंगे चलो बड़ों के आगे माफी मांग लो।‘’ अपने मम्मी जी-डैडी जी को देख कर सिमरत पिघल गया। घंटो रोता रहा पर हिम्मत नहीं हारी। मैंने जब पुलिस को बुलाने की धमकी दी तब जाकर सब वहां से उठे। जाते-जाते सिमरत की मम्मी जी कह ही गए, ”जादूगरनी है, मेरे भोले-भाले बेटे पर जादू कर दिया है।‘’
इस बार मामी जी और ताई जी घर से निकले तो मनजोत भी घर को ताला मार कर वहां से भाग खड़ी हुई। बड़ा ढंूढा तब पता चला कि वो अपनी एक सहेली के घर पर है। अब हर रोज कोई न कोई हमें समझाने हमारे घर आ धमकता। यह सब देखकर पड़ोसियों ने भी हमें शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया है। मैंने नए मकान की तलाश शुरू कर दी। मनजोत को बुलाया और सिमरत के साथ जो भी थोड़ा सा सामान था चुपके से नए मकान में चले गए। मकान मालिक को जो तीन महीने का एडवांस दिया था उस पर भी बात नहीं की।
मनजोत के घर को ताला मारने के बाद से ही मामी जी ने पटियाले की और ताई जी  ने होशियारपुर की गाड़ी पकड़ ली। सिमरत के मम्मी जी-डैडी जी भी थक हारकर अपने घर लौट गए।
खुशियां कितनी देर हमसे रूठी रहतीं। सिमरत को गाडिय़ों पर बार कोडिंग करने वाली एक कंपनी में नौकरी मिल गई थी और अच्छा यह हुआ कि कुछ दिनों बाद मेरी भी नौकरी का लेटर आ गया। अब हमें किसी का डर नहीं था, हम अपने घर लौटे, अपने असली घर, मम्मी जी की आखरी निशानी के पास। आज रविवार था मनजोत ने मेरे हाथों में लाल चूड़ा चढ़ाया और हम चल पड़े बंगला साहिब गुरुरद्वारे शुक्राना अदा करने। हमारी जिंदगी में लाली लौट आई थी। शादी के कई महीनों बाद मैं और सिमरत पहली बार एक बिस्तर पर आए।
            जिंदगी ने सब कुछ दिया, सुख भी और दुख भी। मनजोत डॉक्टर बन गई। सिमरत ने बड़ी सादगी से अपने एक इंजीनियर दोस्त से उसकी शादी करवाई। मेरी और सिमरत की नन्हीं कंवल कौर भी अब स्कूल जाने लगी है। सबसे ज्यादा खुशी की बात यह कि मां की निशानी अब भी सलामत है….।
            वक्त काफी बीत चुका था। सिमरन ने पर्स उठाया, सरोवर की परिक्रमा की और मत्था टेक कर घर के लिए निकल पड़ी। घर पहुंची तो देखा कॉलोनी के स्मारक पर लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ है। इसी मोहल्ले की मम्मी की कुछ पुरानी सहेलियां आज फिर से छाती पीट-पीट कर हाय-हाय के नारे लगा रहीं हैं और कह रहीं हैं कि ऊपर वाले गुनाहगारों को कभी बख्शेगा नहीं है। एक अखबार जो सब पढ़ रहे हैं उस पर छपा है ”84 के दंगों में दो और को क्लीन चिट।‘’

सम्पर्क-

Yogita yadav

911, subhash nagar

jammu – (j&k)

ई-मेल: yyvidyarthi@yahoo.co.in

(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

योगिता यादव



योगिता का जन्म दिल्ली में १९८१ में हुआ। बचपन दिल्ली में ही बिता।    

योगिता में हिन्दी साहित्य और राजनीति शास्त्र से परास्नातक किया है। विगत ग्यारह वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। आजकल जम्मू में दैनिक जागरण के लिए पत्रकारिता। योगिता कविता और कहानियां दोनों विधाओं में लिखती हैं। हंस, नया ज्ञानोदय, प्रगतिशील वसुधा, पर्वत राग, पुनर्नवा आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

योगिता ने अपनी इस कहानी में मन्दबुद्धि लोगों के उन मनोभावों को पकड़ने की सफल कोशिश की है जिन पर प्रायः किसी का ध्यान नहीं जाता।  उन्होंने ऐसे उलझे हुए तारों को सुलझाने की कोशिश की है जो इतनी बेतरतीबी से आपस में उलझे हुए होते हैं कि  प्रायः अनसुलझे ही छूट जाते हैं। लेकिन यहाँ भी एक जीवन है, जीवन की उमंग है। ऐसा जीवन जो बेतरतीबी में भी अपनी एक तरतीब ढूंढ लेता है। योगिता कहानी की दुनिया में एक ऐसा नया नाम है जिन्होंने अपने शिल्प और कहन के तरीके से ध्यान आकृष्ट किया है। अभी-अभी इन्हें ज्ञानपीठ का 2013 का कहानी का नवलेखन पुरस्कार मिला है। वाकई कहानी पर ही। अगर आपको  यकीन न हो तो योगिता की कहानी पढ़ कर ही आप उनके लेखनी की ताकत से रू-ब-रू हो लीजिये।  

गांठें
मैं जब जन्मा तब रोया नहीं था। इसलिए मेरे पैदा होते ही मेरी मां रो पड़ी। डॉक्टर कहते थे कि मैं शायद कभी सुन और बोल न सकूं। मेरे मस्तिष्क का पूरी तरह विकास नहीं हो पाया है। मैं गूंगा, बहरा,  मंदबुद्धि, दुनिया के लिए गैर जरूरी हो गया।
मेरे जन्म के बाद मेरे पिता को अहसास हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मेरी मां दूर के रिश्ते में उनकी बुआ लगती थी। उन्होंने सबके खिलाफ हो कर उनसे शादी की। तब वे आधुनिक थे, पुरानी मान्यताओं को तोड़ डालना चाहते थे। लेकिन मेरे जन्म के बाद उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने जो किया, वह पाप था। और पाप से ही ऐसी विकृत संतानें पैदा होती हैं। अब वे इसका प्रायश्चित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मेरी मां से संबंधविच्छेद का फैसला किया। मंदिरों में झाड़ू लगाई। कन्या पूजन किया। हनुमान मंदिर में 40 दिन पोंछा लगाया। गुरुद्वारे में जूते साफ किए….। और फिर परिवार के कहने पर एक दूसरी लड़की से शादी कर ली। इसके साथ उनके संबंध पाप नहीं थे। 
मां पिता जी से अलग थी। वह न गलती छोडऩा चाहती थी और न पिताजी को। इस संबंध के बारे में उसकी अपनी कोई परिभाषा नहीं थी। बस एक आस्था थी, जिद और मजबूरी भी, इससे बंधे रहने की। उसने अपनी साड़ी के पल्लू में एक गांठ बांध ली, कि अगर मैं ठीक हो गया तो वह पीर बाबा की मजार पर चादर चढ़ाएगी। 
दादी ने पिता जी की गलती भी सुधारी और मां की मजबूरी को भी जगह दी। घर के पिछली तरफ का एक कमरा उन्होंने मां और मेरे रहने के लिए दे दिया। घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। न मुझे, न मां को। फिर भी मां खुश नहीं थी। वह बूढ़ी, बीमार सी दिखती। मुझे देख कर कभी खुश होती तो कभी रोती रहती। और फिर पल्लू में गांठ बांध लेती। एक-एक कर उसकी कई साडिय़ों में गांठ बंध गई थी। 

मैं पिताजी को पिता नहीं कह सकता था, यह पाप था। छोटी मां के आने के बाद घर में एक छोटा भाई और बहन भी आए। वे दोनों सुंदर थे, बोल सकते थे, सुन भी सकते थे। पिताजी उन्हें देख कर खुश होते। वह पिताजी को पिता कह सकते थे। 
मुझे देखते ही मेरे अच्छे पिता को न जाने क्या हो जाता। वह पागलों की तरह मुझ पर और मेरी मां पर बरस पड़ते। शायद मेरा होना उनके प्रायश्चित पर पोंछा फेर देना था। बाकी सबके लिए मेरा होना एक असभ्यता, एक मजाक था। एक बदनुमा सा उदाहरण भर। छोटे भाई-बहन के लिए भी। जिसे देख कर वे हंसते। कभी मुझ पर पानी डालते। कभी सिर पर गुब्बारे मारते, मैं रोता तो खूब हंसते। उन्हें हंसता देख कर मैं भी हंसता, तब वे और मारते। वे स्कूल जाते, मैं नहीं जा सकता था। वे सुंदर कपड़े पहनते, मैं नहीं पहन सकता था। मेरे मुंह से लार गिरती रहती। मैं जो भी पहनता वह गंदा हो जाता। कभी-कभी मैं निक्कर में पेशाब कर देता, तब छोटी मां मुझे बहुत पीटती। वे पिताजी को उनके पाप और मां को उनकी चरित्रहीनता की याद दिलाती। मैं किसी लायक नहीं था, मैं कुछ नहीं कर पाता। पिताजी मुझे हाथ भी नहीं लगाना चाहते थे। इसलिए जब वे मुझ पर बहुत गुस्सा होते तो जूते और लातों से मुझे पीटते। वे मां के कमरे तक सिर्फ मुझे ढूंढने या हम दोनों के होने पर अफसोस जताने ही आते। मेरे सब त्योहार यूं ही लानतों, जलालतों में बीतते। और मां के मेरी गलतियों पर पिटते हुए।
एक दिन मां ने मुझे नहला कर धूप में बैठाया। बच्चे गली में खेल रहे थे। मैं भी वहां पहुंच गया। मुझे नंगा देख सब लड़कों ने मेरे शरीर पर आगे पीछे मारना और जोर-जोर से हंसना शुरू कर दिया। चोट तो लगी पर उन्हें हंसता देख कर मैं भी नाचने लगा। पता नहीं कब वहां पिताजी आ गए। कान पकड़ कर वे मुझे खींचते हुए मां के पास ले आए और मां को पीटते हुए समझाने लगे कि मुझ मंदबुद्धि को कपड़े पहनने की तमीज सिखाए। मैं अब बच्चा नहीं रहा। इस बार मैंने मां को पिटने के लिए अकेला नहीं छोड़ा। जैसे सब लड़के लात से मेरे शरीर के आगे पीछे मार रहे थे मैंने भी पिता जी को मारा। मां घबरा गई। पिता जी बेंत उठाने के लिए दौड़े और मां ने मुझे कमरे में बंद कर दिया। आज फिर मां ने मुझे पिताजी की मार से बचा लिया था। पर वह रो रही थी। उसने आज फिर अपने पल्लू में एक गांठ लगा ली। मुझे समझ नहीं आता, पीर बाबा की मजार पर मां कितनी चादरें चढ़ाएगी! 

            मां सो चुकी थी, उसके अलावा मुझे रोकने वाला कोई नहीं था। मैं गली में निकल गया। गली से बाहर सड़क पर। और फिर एक भीड़ में। मैं भीड़ के पीछे छुप गया। यहां बंदर का तमाशा हो रहा था। सब लोग ताली बजा रहे थे, पैसे फेंक रहे थे। मैं भी तो ऐसे ही नाचा था, सब हंस रहे थे। फिर वे पैसे फेंकने की बजाए मुझे मार क्यों रहे थे? मुझे ये लोग अच्छे लगे। मैं भी नाचने लगा, सब हंसने लगे, मुझ पर पैसे फेंकने लगे। मदारी मुझे भगाने लगा पर मैंने पैसे उठाकर उसे दे दिए, वह खुश हो गया। मैंने और बंदर ने मिल कर नाच दिखाया। नाच खत्म हुआ। सबने ताली बजाई और चले गए। मैं कहां जाता? मैं वहीं बैठा रहा। मदारी ने मुझसे बहुत कुछ पूछा, पर मैं नहीं बता सका। इसी बात से पिताजी नाराज थे। मैं किसी लायक नहीं था। पर मदारी ने मुझे मारा नहीं। उसने मुझे अपने साथ साइकिल पर बिठाया और ले चला। हम एक बस्ती में पहुंच गए। मदारी के घर। वहां एक औरत थी। वह मां की तरह गांठें लगा रही थी। सफेद कपड़ों में। उसके पास चने, कंकड़ और धागे पड़े हुए थे। वह गीले कपड़ों में उन सबसे अलग-अलग तरह की गांठें लगा रही थी। उसने मुझे खाना खिलाया और फिर मैं सो गया। सुबह उठा तो मुझे मां की बहुत याद आई और मैं रोने लगा। मुझे अपने घर का रास्ता भी नहीं पता था। मदारी ने मुझे अपने साथ साइकिल पर बैठाया और ले चला। मैं खुश था, मदारी सब कुछ कर सकता है, वह मुझे मेरे घर भी ले चलेगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। दिन भर उसने अलग-अलग जगहों पर मुझे बंदर के साथ नचाया और शाम को वापस अपने साथ घर ले आया। वह औरत अब भी सफेद गीले कपड़ों में गांठें लगा रही थी। मां कहती थी कि गांठ लगाने से मुराद पूरी होती है। इसलिए मैं भी गांठें लगाने लगा। अब शायद मां मुझे जल्दी मिल जाएगी। मेरी गांठें देख कर वह औरत खुश हो गई। उसने मुझे और दो चार तरह से गांठें बांधनी सिखाई, मैंने बांध दी। वह खुश हो गई और फिर मुझे शाबाशी दी। जैसे मां देती थी। मुझे मां और ज्यादा याद आने लगी और मैं रोने लगा। उस औरत ने मुझे अपने हाथ से खाना खिलाया और सुला दिया। सुबह उठा तो फिर मां याद आने लगी। आज उसने मुझे मदारी के साथ नहीं भेजा, बल्कि अपने साथ घर पर रख लिया। हमने दिन भर में ढेर सारी गांठें लगाईं। शाम को हम गांठ लगे कपड़े लेकर बाजार में गए। यह तो दुनिया ही अलग थी। गांठ लगे कपड़े जब भट्टी के उबलते पानी से बाहर निकलते तो  अलग ही रंग के हो जाते। गांठों में बंधे कंकड़ और दाने उन्हें खौलते रंगों से बचा लेते और फिर वे लाल, नीले, पीले, हरे…. रंगों के साथ मिलकर और खूबसूरत हो जाते। मां होती तो कितनी खुश होती, उसे तो पता ही नहीं होगा कि गांठें जब रंगों से लड़ती हैं तो कितनी सुंदर हो जाती हैं। 
वहां से हम और कपड़े ले कर आए। ढेर सारे। हमें इनमें और गांठें लगानी थीं। ढेर सारी गांठें, ढेर सारे रंगों के लिए। मैं थक गया था, मैंने खाना खाया और सो गया। सपने में गांठें मुझसे बात करना चाह रहीं थीं। पर मेरी नींद टूट गई। अंधेरे में कोई मुझे तंग कर रहा था। गली के उन लड़कों की तरह। आगे पीछे से। मैं डर गया। मदारी मेरे पास था। मैंने डर के मारे आंखें बंद कर ली और फर्श पर दूर घिसट आया। पर थोड़ी देर बाद उसने मुझे फिर से आगे पीछे से छेडऩा शुरू कर दिया। मैंने डर के मारे उसे लात मार दी। मुझे पता था छेडऩे के बाद पिटाई होती है। मैं डर गया अब मदारी मुझे मारेगा। मैं रोने लगा, वह मेरा मुंह बंद करने लगा। मैं तड़पने लगा। चिल्लाने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे जोर का धक्का मारा, जैसे पिता जी को मारा था। उसने मुझे तमाचा मारा, मैंने गांठों वाले कपड़े से उसकी गर्दन में एक बड़ी सी गांठ लगा दी। अब वह चिल्ला रहा था, तड़प रहा था, मैंने गांठ और सख्त कर दी। वह पैर पटकता रहा और आखिर फर्श पर गिर पड़ा। मैं डर के मारे कोने में दुबक गया। वह औरत उठ गई थी, मदारी को गिरा देख कर वह रोने लगी। उसने मुझे मारना शुरू कर दिया। मां होती तो मुझे बचाती। मैं कोने में दुबका रहा। लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। वे मुझे हैरानी से देख रहे थे, मुझे लगा अब सब मिलकर मुझे मारेंगे। मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। भीड़ मेरे पीछे थी। मैं भागा जा रहा था, भीड़ मुझे पत्थर मार रही थी। भागते-भागते मैं ठोकर खा कर गिर पड़ा।
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जब मुझे होश आया मैं हॉस्पिटल में था। मैं अब भी डरा हुआ था। मैं हर वक्त बिस्तर के नीचे या कोने में दुबका रहता। पिताजी, मदारी और भीड़ के पत्थरों ने मुझे एक कोने में कर दिया था। मैं मां को याद करता, रोता और एक गांठ बांध देता। सब मुझ पर तरस खाते। एक दिन मैं यूं ही कोने में दुबका चादर की गांठ बांध रहा था, कि मां आ गई। मां मुझे देखते ही रो पड़ी, और मुझे सीने से लगा लिया। मैं भी मां से लिपट कर रोता रहा। मां मुझे वापस घर ले आई। 
मां ने मुझे नहलाया, खाना खिलाया, दवा दी और देर तक थपकियां देती रही, पर मुझे नींद नहीं आई। आंखें बंद करता तो पिताजी, मदारी और भीड़ सब एक साथ मुझ पर बरसते दिखाई देते। सब मिल कर अगर मुझे मारने लगे तो मां अकेली मुझे कहां बचा पाएगी। मां के पल्लू में अब भी गांठ बंधी थी। मैंने मां की साडिय़ों में गांठ लगा कर कई पोटलियां बना दीं। उन पोटलियों में बड़े-बड़े पत्थर बांध कर कोने में छुपा दिया। और दिन रात उनके पास बैठा रहता। मेरी पोटलियां खौलते रंगों की तरह सबसे लड़ सकती हैं। मां मुझे कोने से निकालने की, सुलाने की बहुत कोशिश करती, पर उसे कहां पता था कि सोने के बाद लोग कैसे तंग करते हैं।
आज पिता जी फिर गुस्से में थे, मुझे ढूंढते हुए वे हमारे कमरे की तरफ आ रहे थे। उनके हाथ में बेंत था। मेरा शरीर दुखने लगा था सबसे मार खा- खा कर। अब तो मेरे शरीर पर जख्म ही जख्म नजर आते थे। मैंने कोने में लगे पोटलियों के ढेर की तरफ देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं उठी। मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। और सारा सामान दरवाजे पर इकट्ठा कर दिया ताकि कोई दरवाजा न खोल सके। पिता जी गुस्से से दरवाजा पीट रहे थे। उनकी आवाज तेज होती जा रही थी, डर के मारे मेरा पेशाब निकल गया, मैं कांपने लगा। रोने लगा, आंख से, मुंह से चिपचिपा पानी रिस रहा था। मैं पोटलियों के बीच में घुस गया। मैंने आखरी बार हर एक की तरफ बड़ी आस से देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं खुली। मैंने खुद एक पोटली की गांठ खोली और एक मजबूत फंदा अपने गले में बना लिया, जैसे मदारी के लिए बनाया था।
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