कैलाश वानखेड़े की कहानी ‘उस मोड़ पर’


प्रेम एक ऐसा अहसास है जो हमें आह्लादित कर देता है जो हमें जीने की ऊष्मा प्रदान करता है लेकिन इस प्रेम के आड़े आते हैं मनुष्य द्वारा खींची गयी वे संकीर्ण रेखाएं जो किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं कही जा सकती। प्रेम तो वह आतिश है जो इन संकीर्ण रेखाओं को जला कर अपनी अमिट रेखा खींच देता है। जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, परिवेश, और भूगोल   जैसे तमाम अवरोधों की परवाह न करते हुए यह प्रेम अपनी राह ही चलता है इसी प्रेम को केन्द्र बना कर एक कहानी लिखी है युवा कहानीकार कैलाश वानखेड़े ने तो आईये पढ़ते हैं कैलाश वानखेड़े की कहानी ‘उस मोड़ पर’
उस मोड़ पर  

कैलाश वानखेड़े

                                                                                           


              बडी हसरत थी लेकिन जब लौटा तो राह सुनसान थी
खामोश हो गये थे पत्ते, हवा के साथ और कमबख्त सूरज भी अँधेरा छोड़ कर चला गया था
           पूजा ने कहा था ,”गला थोड़ा खराब है

           ”गला खराब है या दिमाग में उलझन?” बोल कर चुप हो गया था विकास
.
        पूजा को जवाब सूझ नहीं रहा था
कही दूर लाउडस्पीकर बज रहा था और कोई नहीं बोल रहा था. भीतर कुछ आगे सरका तो, ”फिर बात करते है” पूजा ने चलते हुए वादा किया था वह अब हफ्ते के सारे दिन गिन कर चुप हो गया था
 
                   सुबह जब तय किया था कि जाना है तब सर्दी जा रही थी लेकिन  विकास ने यकीन न कर पानी गरम किया
नहाते हुए उसके खयालों में भीग गया।  नहाने के बाद विकास को सफ़ेद फूल याद गए खेतों में बेहद नन्हें, मासूम सफ़ेद फूल आ गए, जो सात-आठ साल से इस मौसम में  दिखते रहे है हर साल फूलों का रकबा और उनकी संख्या बढ़ रही है. इन्तजार में सोचता रहा उम्मीद से लेकिन शाम ढलते ही उदासी अपनी जुडवां बहन मायूसी के कपड़े पहन कर आई और उम्मीद से लिपट गई।  हँसी जब विकास से बिछड कर जा रही थी तब विकास को देख रही थी जाते जाते। हँसी चाहती थी उसे अपने पास बुला ले विकास लेकिन पूजा के पास वक्त नहीं था. अब विकास के साथ उम्मीद नही रही. जो उसे आवाज़ देती, रोक लेती, बुलाती। विकास का अपने चेहरे पर हाथ गया न जाने क्या आ गया हाथ में न रिस रीसा था, न खुरदरा, न रंग था न रूप, फिर भी जो लगा था चेहरे पर वह सुबह नहीं था। उस दिन पूजा का गला खराब नहीं था, उसे बात नहीं  करनी थी। उसका रास्ता जुदा था, मैंने उसे परेशान किया। मै गलत था …वह सोचता रहा और उदास होता गया। यहाँ तक कि नम आँखों से आँसू आने लगे। उसने खुद को समझाया कि ये ठंडी हवा लगने से निकलने वाले आँसू हैं। उसने खुद से झूठ कहा। वह इन्तजार करता  रहा। वह नहीं आई। रात ढली। लगा चकवा के जाने का वक्त हो गया।

              सुबह दिन  समेत चली आई थी। फिर शाम झिझकते हुए रुक गई थी। वह भी ठहर  गया रात आई ठहर गई उसके दामन में, रात गुजर रही है। गुजर गया वक्त। गुजरना ही था उसे जैसे गुजर रहा है अभी…. तमाम शोर और तनाव, थकान के बावजूद पूजा का चेहरा छाया है। पूरे तन पर मन पर सवार है, कहना था कह नहीं पाया। वह समझ जायेगी। इसी सोच में वह निकल गया। कहाँ जाना है? पता नहीं।

                 आकाश में सितारे चाँद, चांदनी निकले। उसी वक्त पूजा का फोन आया। अँधेरा गायब हो गया ठंड के साथ। ”भूल गई थी।” उसने कहा।
             बात करने का वादा भूल गई? झूठ लगा लेकिन कुछ नहीं कहा।

             ”उस दिन कब निकले?” बात के लिए जमीन तैयार करने के लिए पूछा पूजा ने।
                ”शाम को”
              ”वह सन्देश …..” पूजा ने कहा नम हो चुकी आवाज में।
               ”हाँ वो ..’
              अटकता रहा लगातार। दिमाग में चल रहा है, कहना है कह नहीं पाया..  अब भी यही माना कि आँखों से निकलते आँसू का कारण सर्द हवा का चलना  है। आँसुओं को पोंछते हुए विकास बड़ी उलझन में पड़ा। अभी भी उस पर हावी था सुनसान रास्ते के खयालों का असर। उस पर पूजा का  कहना कि भूल गई। ऐसे कैसे हो सकता  है? विकास ने फिर  मान लिया वरना इसी में उलझते तो बात नहीं हो सकती। बातों के बहाने विकास उसकी हँसी सुनना चाहता है  जबकि पूजा विकास की आवाज के साथ बात करना चाहती है।

               हंसते हुए विकास ने कहा उससे ,”डर बुढ़ापे का लक्षण है।”
             ”जरुरी नहीं।” कहने के लिए कहा पूजा ने लेकिन वह गंभीर हो गई। जो वह उससे कहना चाहता था वही वह विकास से कहना चाहती थी। यह जानते है दोनों। जानते है कि भर गई खेतों में गेहू की बालिया। गुजर गया डराते हुए सूरज का ज़माना। बारिश रुकी रही न जाने किसके इन्तजार में फिर थक हार कर गई। इस तरह महीने, मौसम के साथ पूजा को ले गया था तपते हुए शहर में जबकि वसंत खड़ा है अब भी। वसंत तुम कब तक खड़े रहोगे?
               विकास से पूछा,” कविता है?”
                    ”ना।” कहना चाहता था लेकिन जबान से ”हा।” निकल गया।
                    ”बड़ी अच्छी है।”

            वह चुप हो गया। वह गुस्से से दूर होना चाहता था। रूठना चाहता था। लेकिन उन्हें दरकिनार कर खूब बात की विकास ने। उसकी धड़कन से धडक रहा है उसका  जिया। उसी धडकन से सांस ले रहा है। उसी की सांस लेकर बोल  रहा है। .सुन रही है,  समझ रही है पूजा  भी। लेकिन न उसने कहा न विकास ने। पूजा के पास वक्त चला आया था। वक्त के साथ दबे पाँव अँधेरा आया डर के साथ। बात खत्म होने के बाद देखा दोनों ने डर, जो हवा के साथ चलती उसी तरंग पर सवार है। उन्हीं तरंगों के घोटाले में घोटाला जैसा कुछ लग रहा था। एक बवंडर बनेगा सोचा, सोचने वालों ने और कुछ दिनों तक काले किये मरियल कागज। 


                   जागते ही लगा वह यही कही है मेरे आस पास। मेरे साथ। आँखे नहीं खोली बस अहसास में डूबा रहा। कही दूर से तेज आवाज आई लाउडस्पीकर की लाउड और अहसास भाग गया। आँखे खोली, वह नहीं है। है सिरहाने रखा मोबाइल। सिरहाने वह  होती तो .. तो उसने मोबाइल की स्क्रीन को देखा कही मेरे लिए एसएसएस तो नहीं। जब पूजा की खुली होगी नींद तब  किया होगा याद तो किया होगा एस. एम. एस.। इनबाक्स  में देखा। मैसेज उसे लकी  बता रहा है  कि उसने जीते है दस लाख। बस दस हजार भेजने है उसे फिर मिल जायेंगे दस लाख। पढ कर लगा लोग कितना बेवकूफ समझते हैं। सोचा और लगा कि क्या मैंने किया था एसएमएस? जो वह करेगी? खुद पर हंसा। बेवकूफ…हलकी सी हँसी आई। उचट गई थी नींद। मोबाइल को देखता रहा गोया वह हो उसमें। याद आया। पूजा ने बताया था नया मोबाइल ख़रीदा है। नेट परपज के लिए। कनेक्टेड रहे। वह तो हमेशा ही रहता है इससे क्या? उस नए मोबाइल को ख़रीदे हफ्ता  हो गया  लेकिन नहीं हो पाई वह कनेक्टेड। न उसने फोन किया न एसएमएस में कुछ लिखा न फॉरवर्ड किया गैरों का सन्देश न ही कोरा भेजा। और तो और न मिस कॉल तक नही  किया।

         कुछ तो करे। विकास उम्मीद की रोड बनाता रहा। उस दिन लगा रोड बन न सका। उसी दिन की सुबह ठीक उसी वक्त पूजा ने भी यही सोचा दोनों के बीच सवा किलोमीटर की उलझी गली की दूरी है फिर भी सोचते रहे। दोनों डरते रहे। दोनों इन्तजार में रहे। दोनों के दिल दिमाग में सुर्ख लाल रंग का अधखिला गुलाब खुशबू महकाता रहा।

               कॉल न आ जाये बज न जाये घंटी। पूजा को लगा खबर न हो जाये घर वालों को। तमाम दूसरे डर सवार होने लगे। लगा  मोबाइल लेकर भाग जाये कही दूर जहा कोई न देखे। न करे कोई खुसर फुसर। न पढने की कोशिश करे उसका चेहरा। न समझ पाये कोई आवाज के उतार चढाव को। न लगा पाए कोई अनुमान कि  इन्तजार में  हूँ कि प्रेम में हूँ। कि डर के आखरी मुहाने पर हूँ।

              बताये कि बात करनी है तुमसे। ढेर सारी बात। संकरी सीढियों से नीचे उतरते हुए  टायलेट में जाने से पहले पूजा ने सोचा कि मोबाइल को सीने से चिपका लू कि अपने पसंदीदा लाल रंग  के नीचे रख लू। तब आएगा उसका फोन। उसके नाम के  कंपन में खुद को देख सकू कि क्या बजेगा उसके भीतर। उसकी देह के अंदर क्या क्या होगा? होगा उसका नाम, जबान से बाहर निकलने के अलावा हर जगह से निकलता है। महसूस करती है, लाल रंग की एक इंची चौड़ाई वाली दो पट्टियों के नीचे गोलाकार में, उसके ठीक उपर वाले हिस्से के भीतर जिसके बारे में बताता है दिमाग, जो सुन्न हो गया कि क्लोरोफाम के अधूरे डोज में डूब गया कि सुबह उठते ही उसके ख्यालों में खो जाती है। हर रोज हर पल  यही सोचती है पूजा। खुश होती है। तभी लाल रंग की पट्टी के नीचे से आया ख़याल कि मोबाईल जब साइलेंट मोड पर हो तब आए फोन तो। तो धडकते दिल में महसूस करेगी उसके नाम के साथ उसका वजूद । वाईब्रेशन पर सीने से कसी हुई लाल रंग के कॉटन रेडरोज के नीचे। और उसने ख़याल को हकीकत में तब्दील कर मोबाईल साइलेंट मोड पर किया। स्क्रीन वाले भाग को पकड़ कर सीने से लगाने के लिए रखते वक्त तब ठोड़ी से दाये हाथ का ऊपरी हिस्सा टकराया। वहां रख लू तो उठते वक्त मोबाईल भी नहीं गिरेगा और अंदर सरकाया।

                      तभी लगा  किसी और का आ जाये फोन तब कैसा लगेगा ..? कई नंबर है मोबाइल में। फोन आयेगा तो होगा वाइब्रेट तब ..तब ..वे भी  उसके वक्ष को स्पर्श करेंगे। उन कमीनों के नाम भी साथ में आयेगें जिनको मोबाईल में सिर्फ इसलिए रखा है कि उनसे पाला पडता है। फिर वह  प्रिंसिपल हो या अकाउंटेट ..जिनकी सूरत नहीं देखना चाहती है, लार टपकाते, ललचाई निगाह से देखते लोगों का  इस तरह देखना कितना वीभत्स लगता है.छि …वे मेरे सीने पर ..इसी ख़याल से वह  मोबाइल को सीने से निकाल कर दिये के पास छोड़  देती है और टाइलेट में जाती है। बैठते ही लगा कि हर दिन क्यों लगता रहता है कि कही आ न जाए उसका फोन जब कि महीने में एकाध बार ही करता है विकास उसे फोन तब जब वह घर- टाइम  में नही होती है। फिर क्यों सोचती है? इसी सोच में थी कि बजता है मोबाईल कि बढती है धड़कन कि आया होगा उसका कॉल। कोई देख न ले उसका नाम उसका नंबर।

                       झटपट  धो –धुआ कर निकल भागी। हाथ भी धों नहीं पाई साबुन से और झपट पड़ी मोबाइल पर। धत तेरे की… बुदबुदाई देख कर नाम। थोड़ी देर रुक नहीं सकती थी कमबख्त। बाद में कर लेती। इसे तो हमेशा जल्दी रहती है। ये सोनल भी है न। अब दिन भर अजीब सी बैचैनी रहेगी …बैचैन हो गई।

                       उस दिन जब कहा गया वसंत का उत्सव है। प्रेमाभिव्यक्ति का दिन है। उस दिन कालेज में विकास को नहीं दिखी थी पूजा। उस रात में  उसकी नजर पूजा के घर की  दीवार पर गई। वह दीवार जो दरवाजे के खिलाफ खड़ी की गई। उस मजबूत दीवार के सीने में  बाई ओर एक खिडकी है जो लकड़ी की बनी हुई है, जो कभी नहीं खुलती। धूल आती है सड़क की इसलिए बंद है खिडकी, यह घर के भीतर थोपा हुआ सर्वमान्य तथ्य है। जबकि दरवाजे से आने वाली हवा को रोकने के लिए खिडकी का इस्तेमाल किया जाता है। वह खिडकी वाली सफ़ेद दीवार कोरी है। दीवाल को वाल कहा जाने लगा है आजकल, तकनीकी दौर के सोशल मीडिया में। लेखक, कवि, विचारक सहित जो भी होता है वह पढ़ा लिखा सपने में भी नहीं कहता है कि उसने ‘’खाता’’ खोला है। खोलने के बाद इसे अपनी खता समझता है। जो दीवार पर लिख कर शुद्धता का दावा करता है वह भी कह नहीं पाता है उसने खाता खोलकर दीवार पर देखा/पढ़ा है। उस समय दीवार पर लिखने का खयाल आते ही रोक लेता है विकास खुद को। जमाने को हो जायेगी खबर। जमाने को अगर  पता चल गया कि इस पूजा से प्रेम करता हूँ तो क्या कहेगे लोग। क्या बीतेगी उसके घर वालों पर। कितना बड़ा अपराध है प्रेम करना। प्रेम का सार्वजनिक हो जाना। कितना खतरनाक है प्रेम? प्रेम करना अपराध है या सार्वजनिक हो जाना? जब जमाने को हो जायेगी खबर तब पूजा निकल नहीं पायेगी घर से। लोग कहेंगे, ”देखो, देखो रे ये पूजा प्रेम करती है किसी इंसान से।

            प्रेम …प्रेम करती है? अपनी मर्जी से मन से। इसके पास कुछ नहीं बचा है। देखो तो सही बाबूलाल की बेटी को। इसका माथा खराब हो गया लेकिन इसके मां बाप क्या भाड़ झोंक रहे थे? कहेंगे लोग और बाबूलाल की बेटी ने किया है प्यार, यह सुन कर पिता का क्या होगा हाल?

                      जिसने जिंदगी में न किया होगा प्रेम। जो असफल हो गया होगा। जो कहीं पर  बोल नही पाया होगा जिंदगी में अपने मन की बात वह बोलेगा। वही बोलता है वही चीखता है उसी की कुंठा निकलती है। उसी विकृतचित्त आदमी के कहने से डरता है जमाना। विकृत चित तय करता है, किसे प्रेम करना चाहिए। किससे प्यार किया जाए और कब? उस लताड़े हुए कुंठित से डरना चाहिए उसे? विकास ने सोचा। पूजा से बात करनी है। जा नहीं सकता। फोन करने की हिम्मत नहीं हो रही है। मैसेज चाह कर भी  नहीं पा रहा है। लौट आई ठंड के साथ उदासी में डूबता जा रहा है।  हर पल याद करते हुए उसे लगा कितने डरपोक होते है लडके? वह चुप है कि चलती हवा रुक गई। जुबान सब समझते है जज्बात की। चंदनदास की गाई गजल में वह खुद को ढूंढता है।

               रात में, पूजा के घर के चक्कर लगाने पर भी विकास को ऐसा कुछ न दिखा जिससे पता चले कि पूजा हो वहां। दिखें, खड़ी हो जाये छत पे। एक नजर देख लू। पूजा से कहना था कि आ जाये बालकनी में। कह नहीं पाया। उम्मीद करता रहा कि करेगी फोन नए मोबाइल से कि किस कम्पनी का है कितने का है, किस रंग का है कितना मेगापिस्कल का है। ये है। वो है। इसी बहाने उसकी आवाज सुन लूँगा। सुन कर उसकी हँसी…महसूस कर लूँगा कि जी लूँगा।

              उस वक्त पूजा कभी मोबाईल को तो कभी घर को देखती है। बंद है दरवाजा। बंद है बिजली। जीरो वाट का बल्ब लेट्रिन में जल रहा है उसकी पीली रोशनी आने के लिए दरवाजा खुला रखा गया है। लेट्रिन के खुले दरवाजे से रोशनी कम, बदबू ज्यादा आ रही है। यह बात उठती है तो पिता गुस्से के साथ निष्कर्ष स्वरुप कहते है, घर में खाना ठीक ढंग से नहीं बन रहा है इसलिए पेट खराब रहता है। माँ और उसके ऊपर आफत न आये। पिता का ख़याल आने से बदबू सहती पूजा चुप है कि जानती है जब तक बल्ब के भीतर का टंगस्टन का तार टूटेगा नहीं तब तक लटका रहेगा रोशनी देने वाला पीला बल्ब।

               क्या करे क्या कहें ? बिस्तर पर लेट गई, आँखें बंद की। वह नजर आया। सुर्ख लाल गुलाब लेकर कहेगा। गोया कि कह दिया उसने कि सुन लिया उसने। उत्तेजना में भर गई। धड़कन तेज हो गई। अपनी छाती पर मोबाइल रख कर महसूस किया उसने। दो सुर्ख लाल गुलाब।

               विकास लगातार चक्कर लगाता रहा। कार्नर से जाता है रास्ता पूजा की गली की तरफ। कार्नर पर है दूकान। मेनरोड और गली दोनों तरफ खुलती  है ‘’न्यू वर्ल्ड इलेक्ट्रानिक्स‘’ दूकान जिसमें झिलमिलाती रोशनी है, टी.वी., डीवीडी, वाशिंग मशीन, फ्रिज, मिक्सर जैसी चीजों के साथ। वह चीजें बेचता है। उसके पास वाली दूकान बंद है जिसका शटर सड़क की तरफ से दिखता है कालेपन के साथ। उस दूकान के पास बिजली का खम्बा  है  जो कभी सुनहरे रंग से रंगा  था वह किसी एक्सीडेंट में कुबड़ा हो गया। खम्बे ने  दूकान  की तरफ मुहँ करके लटका दिए अपने तमाम तार। उसी खम्बे और शटर के बीच बूथ है, जिस पर ‘एस टी डी -फैक्स’ काले अक्षर से अंग्रेजी में लिखा है। बूथ बंद है। लगता है कई महीनों से नहीं खुला है।  उसके ऊपर फ्लेक्स टंगा है,‘न्यू वर्ल्ड इलेक्ट्रानिक्स’ की रोशनी से फ्लेक्स के  रंग, चित्र और अक्षर चमक रहे हैं। ‘’शिव-पार्वती, राधा-कृष्ण की पुण्य-भूमि पर पाश्चात्य संस्कृति  वेलेंटाइन प्रतिबंधित है। ‘’पढते ही उसके दिमाग में शिव लिंग आता है। शिव से प्रेम किया था पार्वती ने,पगला गई थी राधा भी, उन्हें दिल में रखते है और तो और पाश्चात्य देशों के आविष्कृत निर्मित सामान घर में लेकिन प्रेमाभिव्यक्ति दिन मना नहीं सकते।


                     दिखते है उसे चप्पल जूते नए फैशन के। जिन्हें किशोर युवा पहनते हैं। ‘’न्यू वर्ल्ड इलेक्ट्रानिक्स‘’ दूकान के बाहर। इस दूकान में जूते चप्पल उतारकर ही जाया जा सकता है। दुकान का काउंटर खाली है। अंदर कोई आदमी नहीं दिखता है। उतारे हुए जूते चप्पल  दिखते  है, वे बताते हैं  कि अंदर इंसान है लेकिन नहीं दिखते इंसान। कहाँ गये इंसान? रंगीन फ़िल्म देखने?

               उसकी नजर पूजा के घर की सफ़ेद कोरी दीवार पर गई। बिजली जा चुकी थी। इन्वर्टर से कई सीएफएल जल रहे है। एक झलक की  बजाय घना अँधेरा देखने को मिला था रास्ते पर धूल से सनी रोशनी है जो गाडियों के शोर के साथ लगातार भाग रही है।  गाडियों के हार्न के शोर में चालक की गालिया /हिदायत /ब्रेक सुनाई नहीं नहीं दे रहे है विकास को। उसी रात ठंड ने जला दिए डॉलर चने के सफ़ेद फूलों को। पाला पड़ गया फसल के साथ दिल में।

               पूजा बताना चाहती थी कि वादे के मुताबिक़ उसने बात क्यों नहीं की। क्यों नहीं हुई मुलाक़ात लेकिन बता नहीं पाई। सो नहीं पा रही थी तब  दीवार के सीने में लगी हुई खिडकी को खोलकर देखने लगी। शहर की सड़कें लेटी हुई हैं।  सड़क सोना चाहती है, लेकिन सर्द हवा लौट कर हत्यारन बनकर सड़क को चूम रही है। लगातार चूमने के रिकार्ड की खबर का असर हो या न हो पूजा ने अपने को सर्द हवा के हवाले कर दिया। सिर गरम है बदन ठंडा। उस रात के शुरुवात में  घर के भीतर का पीला बल्ब टाईलेट में जल रहा था। दूसरे कमरे का  बड़ा सीएफएल बंद कर बोले थे  पूजा के पापा पूजा से, ’’ रुक …कहाँ गई थी?’’ तब पूजा को लगा पिता सीएफएल बल्ब से कह रहे है जो पैसा बचाता है।

               ‘’ कालेज। और कहाँ?’’ बोला था  पूजा ने  सोचते हुए कि क्या हो गई खबर।
              ‘’ किसके साथ?’’ जवाब नहीं दिया था  पूजा ने। उस खाली वक्त में पिता ने कहा जब घर की मोटी ट्यूबलाईट का स्टार्टर आवाज कर रहा है। उसकी आँखों के नीचे और ट्यूबलाईट के दोनों तरफ़ कालापन बढ़ गया है। बाबूलाल ने ट्यूबलाईट को देखते हुए कहा,’’ अब किसी काम की नहीं है। इसे यू ही जलने दो। बेकार में पैसे खर्च कर सुधारने का मतलब नहीं है। इसके दिन पूरे हो गए है। मन करता है इसे निकाल कर फेंक दूँ।’’ बोलते-बोलते मां को अजीब सी निगाह से देख कर ट्यूबलाईट बंद की। पिता के दिमाग में मोटी ट्यूबलाईट नहीं मां दिखी पूजा को।

        जब कोई ज़वाब नहीं आया तो पिता ने कहा ,’ ये मत समझ कि हमें पता नहीं। सब जानता हूँ मैं। कुछ तो सोचना था कालेज में पढाती है। इतनी उमर हो गई और ये छिछोरापन।’’ फिर भी नहीं बोली पूजा तो बोले  रानी बिटिया के पापा,’’  इतनी समझ तो आनी थी। बराबरी का हो, ऊँचे खानदान का हो यह तो देखना था।’’ पूजा को लगा माँ कुछ न कहे लेकिन सपोर्ट में तो दिखे लेकिन माँ को देख कर लगा वह चुप ही रहेगी तब बोली पूजा ,’’बराबरी ..उंचा खानदान तो आप देख रहे थे। क्या मिला?’’

     ‘’सब कुछ..ठाठ से रे रहे। नाम है समाज में इज्जत है और तू नाक कटवा रही है। इज्जत उछाल रही है। जवानी इतनी चढ़ गई कि अपने से.. अरे कम ज कम जात तो देख लेती..?’’

    ‘’क्या कमाया है आपने? नाम ..इज्जत .दौलत ..ज्ञान..जात? क्या है खुद आपका? सब बाप दादा का है। उनका नाम, इज्जत, आपको बेटे होने के नाते विरासत में मिला है जाति की तरह। ये जात आपकी कमाई है ?’’ पूजा ने कहा खड़े खड़े।
    ‘’तू तो पगला गई है …अंधी हो गई है। समझाना पड़ेगा। अरे ये मेरे पुण्य है जो मैंने पिछले जनम में कमाया तभी इस जात में जन्मा हूँ..उच्ची …आई समझ में।’’ निष्कर्ष सुनाने के बाद चैन आया बाबूलाल को।

    ‘’वह पिछले जनम का समय न आपने देखा न मैंने। न ज़माने ने। उसकी बात करने की बजाय जो सभी को दिख रहा है ये वाला जनम। इस जन्म, टाइम की बात करो न। …‘’पूजा आखरी बहस को पूरा करती हुई बोली। तब गाड़ियों की आवाज आ रही थी और दुकानों की रोशनी सड़कों पर पड़े गड्ढे दिखा रही थी।

     ‘’तेरी तो मतिभ्रष्ट हो गई। …उस नीच जात वाले के साथ रे रेके।….इसलिए हमारे पूर्वज कहते थे अपने वालो के साथ उठना बैठना चाहिए ताकि पवित्रता बनी रहे और तूने…शरम नी आये मु चलाते।’’ बाबूलाल व्यथित हो गए अपने गुस्से को पीते हुए कि मज़बूरी है। पूजा को चुप कराने के लिए चलाये तरीके सफल नहीं हो रहे।  पूजा ने बिना देर किये कहा, ‘’पूर्वजों को नौकरी करनी पड़ती न तो सब समझ में आ जाती। बिना काम धाम किये खाने पीने को मिले तो मेहनत मजूरी क्यों करे? खाते रहो और बेवकूफ बनाते रहो। ..आप भी वही कर रहे हैं। …बाप दादा की सम्पति। ….’’ पूजा की बात काटते हुए बोले बाबूलाल, ‘’…तो तेरा मतलब है हम….तू कुछ भी बक लेकिन अब तेरी शादी नहीं होने दूंगा उससे। कम अज कम समाज में नाक तो नहीं कटेगी।’’ बाबूलाल ने फैसला सुनाते हुए पत्नी को देखा जो खामोश थी।

      ‘’विकास में क्या खराबी है?’’ अपना आखरी सवाल जवाब की तमन्ना में पूजा ने रखा माँ-बाप के सामने ताकि तसल्ली हो जाए।

    ‘’ देख..पगला गई तेरी बेटी …माथा ख़राब हो गया इसका। तूने ही जाना था न इसे। इसकी बात सुन के लग रहा है ये मेरा खून नहीं है। ये पूछे उसमें क्या खराबी है? बता इसे वह नीच जाति का है नीच। ….इसके बाद क्या रह जाता है। उसके साथ शादी करवा के धरम भ्रष्ट करके नरक नी जाना है मुझे। …हरगिज नहीं होगी उसके साथ शादी।’’

      ‘’ कब तक देखेंगे जाति को। क्या कर लिया आपकी जाति ने?’’ पूजा बोली थी तभी  थोड़ी देर पहले दबाये हुए स्विच का असर हुआ। ट्यूबलाईट जल गई। उस रोशनी में पूजा के पापा ने कहा था, ’’जब पड़ेगी लात तो पता चलेगी जात। आई समझ में.. ? मरते दम तक देखूंगा अपनी जात।’’ पिता ने फिर से ट्यूबलाईट बंद कर दी। कुर्सी की बजाय चारपाई पर बैठ गये थे जहाँ बैठी थी पूजा की माँ।

                     ‘’ मुझे क्यों मार रहे हो जीते जी?’’ पूजा ने कहा और माँ को देखा था।
                      ‘’ हम…हम मार रहे है ? ..या तू मार रही है  हमें जीते जी।’’ पापा ने कहा था  जिसमें ’’मैं ‘’, ‘’हम’’ हो गया। माँ जिसे चलने के लिए सहारा लगता है कि रीढ़ की हड्डी का आपरेशन फेल हो चुका था खुद उठ भी नहीं सकती। जबान सलामत होने पर भी नहीं बोली माँ। जिसकी सहमति पूजा और बाबूलाल अपने अपने लिए चाह रहे है लेकिन वह सहमति नजर नहीं आई। तो बोले बाबूलाल ,’’तू पढ़ाती है तो इसका मतलब नहीं कि बड़ी ज्ञानी हो गई …अरे है तो औरत जात जिसकी अकल चोटी में ही बंधी होती है इसलिए चलती ही नहीं अकल लेकिन जबान चलती रहती है चबर चबर। …प्यार से समझाओ तो भी समझ नहीं आ रही।  ..शादी ही करनी है तो कर दूंगा किसी झाड़ से, मंदिर से और नहीं तो अपनी जात के बूढ़े से। ..बूढ़े के अलावा अब कोई नी मिलना तेरको ..आई समझ में…।’’ वे बोलते जा रहे हैं। माँ को देख कर बोलने लगे,’’तू महारानी घर में पड़ी रहती है। काम धाम न कर पर बेटी को तो समझा। लक्छ्न तो देखो इसके।’’ 

     बीमार माँ और पिता को देखते हुए पूजा ने बोलने की बजाय सीढियां चढ़ी  ऊपर जाने के लिए। चढते हुए पहली दफा लगा घर के भीतर संकरी है सीढियां फिर भी चढना बेहद जरुरी है।

              दिन गुजरे लेकिन पूजा बात नहीं कर पाई विकास से। कालेज में अतिथि विद्वान के नियत पीरियड ज्यादा लेने लगी लेकिन मानदेय उस हिसाब से नहीं मिलता। उसने अपनी जिंदगी के पन्ने पलटे जिन्होंने बताया कि उसके साथ ऐसा ही होता आ रहा है। पता नहीं कितने सालों से कालेज की बिल्डिंग की पुताई नहीं हुई है और वह भी नहीं जा पा रही पार्लर।


             विकास  इतवार को इंतजार में ताकता रहा आसमान। आसमान पर सूरज का तानाशाह सा राज था।  कुछ नहीं किया उसने सिवाय इंतजार के। पढ़ा कुछ नहीं। टहलता रहा। मिथकीय चरित्र के साथ संबंध इस  वक्त भी जोड़ा जा रहा है जबकि टूजी में काले बादल छाये हुए है और सुनीता अंतरिक्ष में फिर से जाना चाह रही है तब भी नहीं आई पूजा। अब इंतजार नहीं करना चाहिए, सोचा तो पूजा का चेहरा शब्दों की दृढ़ता के साथ याद आ रहा कि पूजा ने मोबाइल पर संदेश भेजा था हर हाल में आऊंगी, मिलूंगी और ढेर सारी बातें करुँगी।

        अचानक बारिश होने लगी। विकास  बाहर आया। बूंदे छमछम करती हुई चालीस सेकेण्ड में निकल गई। आसमान में सूरज और गर्म हो गया।  कुछ सोचता -महसूस करता, इतने में तो  आँगन के पीली फर्श पर फैली बूंदों की चादर उड़ गई। पता नहीं पूजा को कब छुट्टी मिलेगी। कब आएगी। कब मिलेगा ..कब ..?

               ..अभी अभी पता चला है अवकाश प्रतिबंधित कर दिया गया है।
       मार्च तक चलेगी सर्दी, इस खबर को झुठलाने के लिए तीखी धूप उतर आई थी। कालेज की सीढियो से उतर कर पूजा ने स्कूटी निकाली। स्कूटी पर अपने आपको एडजस्ट करने लगी। लगा उसी वक्त कि उतार दू स्वेटर। लेकिन कहा रखूंगी सोच ही रही थी कि उसकी तरफ आता दिखा विकास। कालेज तक पहुचने के लिए खुद का वाहन या फिर लंबी दूरी की बसें ही है साधन। पैदल है विकास। पूजा हैरानी भरी निगाह से देखती है। धूप का चश्मा पहना है दोनों ने। ये महाशय कार छोडकर पैदल …। पूजा का चेहरा स्कार्फ से ढंका हुआ है। विकास पहचान नहीं पाता। आगे बढ़ जाता  है। अपने  खिलाफ वाली दिशा की तरफ जाती हुई रूकती है पूजा। धूप के तीखेपन में पलटता है विकास, वही होगी। बुलाती नहीं पूजा। खड़ी है कि धडक रहा है उसका दिल स्कूटी के इंजन की तरह। इंजन उसके दिल के भीतर आ गया। .विकास आता है। . कहती है पूजा, ‘’ छोड़ दू?’’

                              विकास सकपका जाता है। उसे एक बार देखने के लिए आया और ये बोल रही है छोड़ दू। इससे बड़ा क्या हो सकता है जिंदगी में कि उसके साथ एक बार बैठ जाये।

                 ‘’कही छोड़ दू ?’’ दोहराती है पूजा। कहाँ ले जा कर छोड़ देगी ये? खयाल विकास की जबान बंद कर देते है और ‘’छोड़ दे ‘’याद कर पूजा का दिमाग खोल देता है शब्द। . विकास  स्कूटी पर पूजा के पीछे  बैठ जाता है। छोड़ देगी मुझे। .छोड़ देगी …। इसलिए साथ बैठाया कि छोड़ दे। नहीं कहा इसने ले चलू। छोडना चाहती है ….। छोड़ दू ….। चलती है स्कूटी कि चुप है पूजा। चुप हो कर सोचता है विकास क्या सोच रहा हूँ?.

          ‘’ किधर चले?’’ पूजा बोलती है तब पूजा को धूप को चूमने का खयाल आता है और वह ख़याल को हकीकत में तब्दील करती है। .नीले आकाश में सफेद दुपट्टा लहराता है कि विकास के चेहरे पर आ गये पूजा के बाल जो दुपट्टे की तरह उसके चेहरे पर छा गये।. मानो ओंठो को कस दिया हो उसी दुपट्टे से। .जबान कितनी भी तेज हो वह गोलाकार हो गई थी मुहँ के भीतर। .कहना था जबान को, जो मन कह रहा था। .जिधर  ले जा सकती हो उधर।  .मगर नहीं निकली आवाज। .आवाज राजमार्ग की ढलान से शहर के खिलाफ जाती हुई गाँव की कच्ची सड़क पर चल रही है। स्कूटी के छोटे पहिये में उलझ गई। .पहिये के गले में जाति की बात लगातार लिपट रही थी कि साथ में धूल उसे रंग देने लगी। .पापा को कैसे पता चला कि किस जाति का है विकास? मुझे क्यों नहीं पता? .पूजा को लगा वह खुद से झूठ बोल रही है। कहूँ विकास से कि मुझे नहीं लेना देना इस बात से।
 .
                   पूजा की खुशबू में खो जाता है कि स्कार्फ से बंधे हुए उसके बाल हवा के साथ आते हैं।  .भर लू बाँहों में …कि तभी ब्रेक लगता है स्कूटी में। .सामने से ट्रक आ रहा है। अपने को बैलेंस करने के लिए विकास का हाथ पूजा की कमर पर चला जाता है। .हटाये हाथ या …। पूजा तपाक से कहती है ,’’क्या कर रहे हो .?’’ घबराहट में डूबी पूजा कहती है,’’कोई देख लेगा तो ..।’’
                    ‘’..तो ..’’ विकास के मुहँ का ताला पहली दफा खुलता है।

                    चुप है पूजा। चुप हो गया विकास। .अच्छा लगा या बुरा, तय नहीं किया जा सकता पीछे बैठ कर बिना चेहरे को देखे हुए।. पूजा डर गई कि कोई देख न ले कि मेरी कमर पकड़ कर बैठा है कोई पुरुष  …। विकास ने बिना सोचे समझे पकड़ ली थी उसकी कमर। डर था कि गिर न जाए सड़क पर। . विकास को लगता है सड़क पर गिर जाने के भय से कही अब गिर तो नहीं गया इसकी नजर से?

               यह सड़क  सुनसान होगी, इस अनुमान को झुठलाते हुए लोग आ जा रहे हैं। जा रही हैं पैदल महिलाये जिनके सिर पर छोटी छोटी गठरिया हैं। . कि उसमें होगी चार रोटियाँ।. खाना नहीं खाया पूजा ने।
         ‘’ किसी जगह बैठे ?’’ विकास कहता है। .
         रोटी के बारे सोचती पूजा ने सुन कर कहा,’’ क्या बात करते हो ? रोड कितनी संकरी है?’’

                  ‘’ संकरी रोड? ये पगडंडी है। पगडंडी संकरी ही होती है। चलते रहो तो ये अपनी मंजिल तक पंहुचा देती है। भटकाती नहीं है।.’’  विकास ने पूजा के कान के पास कहा। .विकास की बात नहीं उसकी सांस भीतर तक चली गई। .सिर्फ साँस होती तो निकाली जा सकती है नाक से  मुहँ से लेकिन वह सिर्फ साँस या हवा नहीं थी जो उसके भीतर गई। कुछ था जिसने धड़कन बढ़ा दी जिसने दिमाग को सुन्न कर नए रास्ते पर ले गई ।

                  पगडंडी पर साइकल सवार को देखकर। .पूजा को अपनी साईकिल का पहिया याद आया। .पिछले पहिये के चेन को चलाने वाले कांटेदार व्हील में लिपटे हुए बाल दिखा करते थे। .उसे साफ़ करते हुए कई बार लगा कि इतने सारे बाल क्या उसके है। .इतने सारे बाल निकलते रहे तो  वह एक दिन टकली न हो जाये? कि ये बाल तो उसके अलावा शहर भर की लड़कियों के है जो बिना इजाजत भटकते रहते है। .अपनी मर्जी के बिना अपनी साईकिल में लिपटते बालों की तरह जाति सहित कई चीजें चली आती है।. उड कर आने वाले इन  बालों पर एक एक कर धूल धुआँ तेल ग्रीस और भी न जाने क्या-क्या चिपक कर उलझ जाते है। .इन बालों को साफ़ कर नहीं पाते। .कैंची के कारण तो कोई कंघी से उलझ कर या बाथरूम में से भाग जाते है गीले बाल और चिपक जाते है। .पूजा ने बाए हाथ से लहराते बालों को छुआ।.

                 खेत में चने के पौधे ठंड से झुलसे हुए थे। .कुछ चने के पौधों में सफ़ेद फूल अभी भी है। .चने का खेत. ..विकास को लगा कहे चने के खेत में जोरा जोरी .? चने के खेत में बैठने का भी कहने की बजाय विकास  ने कहा,’’डॉलर चने के पौधे कितनी जल्दी झुलस जाते हैं। .बड़े नाजुक होते हैं।’’
              ‘’कमजोर होते हैं।’’
        ‘’ज्यादा फसल देते है। .डॉलर है तो ज्यादा भाव तो मिलेंगे।  .’’
        ‘’ज्यादा कमाई के चक्कर में खेत के खेत डॉलर चने से भर गये।’’
        ‘’इससे तो अच्छा तो वो रशियन चना था लेकिन उसे  डॉलर ने गायब कर दिया।’’
        ‘’ रशियन से काबुली चना और देशी चने दब गये थे।’’

        ‘’डॉलर ने तो सबको  कहीं का नहीं छोड़ा। . ’’तब पूजा को लगा यही बात उसे बोलनी होती तो वह डॉलर की बजाय पापा बोलती और उसमें जोडती कि उनका दबदबा और रकबा इतना बढ़ गया कि माँ-बेटी के लिए कोई जगह नहीं बची जहाँ वह खिल सके, बढ़ सके। .अपने आपको मजबूती देते हुए बोली पूजा,‘’मुझे तो देशी चने के जामुनी रंग के फूल अच्छे लगते है। ’’बोलते बोलते लड़की जामुनी हो गई कि सोलह बरस की हो गई।.  स्कूटी तेज भगाना चाहती है पूजा लेकिन स्कूटी की अपनी सीमा है और पगडंडी  पर किसी मर्द के साथ जाने पर उठ सकते है सवाल। .बता सकता है कोई घरवालों को। कोई जाकर न बताये तो भी स्कूटी पर चिपकी धूल बता देगी। .धूल देखती हुई पक्की सड़क पाने के लिए नजर दौडाती है कि आगे है प्रधानमंत्री रोड जो राजमार्ग पर ले जायेगा यह  नया रास्ता दिखा चुका उसकी मंजिल।

           राजमार्ग मिल गया प्रधानमंत्री सडक से और स्कूटी को रोककर बाया पैर जमीन पर टिका कर फैसले के साथ विकास को विदा किया।
           विकास के पास है अब सब कुछ। .उसे लगता है जी लेगा वह उम्रभर, इस सफर के सहारे।. इस अहसास के साथ कि पूजा उसे लेकर चली है। चाहती है उसे इतना कि तमाम डर के बाद भी चली साथ साथ। उसे राजमार्ग से नहीं मतलब उसे भली लगी पगडंडी।
 
                  पूजा ने अपने भीतर प्रियंका को देखा। खुद को कैटरिना महसूस किया। मुक्त होने के अहसास के साथ घर की  ओर चलती रही। फाटक बंद है। रेल आने वाली है। यह रोड का छोटा सा टुकड़ा कच्चा है। नुकीले पत्थर टायर पंचर कर न दे, उड़ कर न लग जाये कोई पत्थर, इस रूटीन आशंका के साथ  ही पापा याद आ गये। .बहुत प्यार करते थे पापा। पापा बचपन से अभी तक कहते थे मेरी रानी बिटिया के लिए राजा लाऊंगा। लंबा चौड़ा, हृष्ट पुष्ट, गोरा सजीला होगा। जब निकलेगा सड़क पर तो दस लोग देखेंगे, पूछेगे, किसका दूल्हा है तब कहेंगे लोग पूजा का है। .कौन पूजा? अरे वह बाबूलाल है न उसकी बेटी। .लेकिन राजा नहीं मिला ।राजा की तलाश यात्रा में पापा को किसी का खानदान पसंद नहीं आता। .कभी लड़के का रोजगार तो कभी उसके बाप का व्यवहार। .कभी ‘’ राजा ‘’के बाप का इतिहास या उसके माँ की चरित्रगाथा। .किसी का घर बड़ा नहीं होता किसी का व्यापार। .बड़े घर, राजा की चाह, दान दहेज की बडबडाहट में शादी की उम्र निकाल दी रानी की।.

        अभी रेल नहीं आई। राजा की याद छोड़ पटरी देखती है पूजा, स्कूटी बंद कर इंतजार में है विकास के संदेश का, साथ में जा कर एप्लीकेशन देना है, स्पेशल मैरीज कोर्ट में। समय पर पहुँचने के लिए लगता है विकास को फोन करे। बढती गाडियाँ, उनका शोर, फाटक से नीचे निकलते है लोग अपनी दुपहिया लेकर निकलना चाहा लेकिन झुकने का सोचकर कभी नहीं निकली। पटरी पर रेल के पहियों को देखना सुखद लगता। .भागते पहिये हमेशा उसे आकर्षित करते रहे। .पहिये नहीं चल रहे अभी पटरी पर लेकिन दिमाग के भीतर यह सवाल काफी लंबा हो गया कि पापा ने किसका किया इंतज़ार? उम्र निकलने का? सवाल से भरी हुई रेल में जवाब स्पष्टता से दिखा पूजा को। .धूल उडाती हुई रेल पूरी ताकत लगाकर दौड़ रही है। .रेल का भोंगा बजता जा रहा है। .पूजा ने कान पर हाथ लगाये उसके भीतर रेल धडधडाती हुई जा रही है।.

              रेल के आखरी डिब्बे के जाते ही परिचित आदमी आया। .फाटक अभी खुला नहीं। .वह आदमी इंतजार में था कि रेल जाये तो संदेश दे। .फाटक पूरी तरह खुल गया पूजा के दिमाग की तरह तब भावविहीन चेहरे वाले आदमी ने संदेसिया बनकर कहा, ’’तुम्हारी माँ ने पंखें से लटक कर जान दे दी। अस्पताल में है।’’ पूजा कुछ कह न सकी और पलटी अस्पताल के लिए।
 .
        अस्पताल में बाबूलाल का रो-रो कर बुरा हाल है।  .वह पुलिस ,पत्रकार डॉक्टर से हाथ जोड -जोड़कर कह चुके, बीमारी से तंग आकर बापड़ी मर गई। .दवाइयाँ खा–खाकर परेशान हो गई थी।. ऊपर से लड़की की शादी न होने से डिप्रेशन में थी। .उसका तो  बुढापा खराब हो गया। .अब तो रहम करो। .शरीर की चीरफाड कर पीएम करोगे तो नरक मिलेगा उसे। .आप लोगों को क्या हासिल होगा।. समझ क्यों नहीं रहें आप लोग? मत करो पोस्टमार्टम. मत करो।.’’

               खुसर-पुसर और चेहरे के हाव-भाव बता रहे कि सहानुभूति की हवा लगने लगी लोगों को और छोडो डाक साब बिचारी बुढिया की चीर-फाड़ से क्या मिलेगा? शब्द आकार लेने की प्रक्रिया में आ गये लेकिन सबसे पहले कौन बोले? इस सवाल के साथ  लोगों के पैर पीछे पड़ने लगे। .हमें कोई आपति नहीं है जो भी करो, कहा डॉक्टर ने और मरीज देखने शुरू कर मरते हुए सवाल को पुलिस के भरोसे कर दिया। आप ही बताओ इसका इलाज। हेड कांस्टेबल के बूते से बाहर था उसका इलाज। उसने मोबाइल से बात की, ’’ सर बुढिया का आदमी और पत्रकार, सारे लोग नहीं चाहते पीएम। बूढी औरत है। .अच्छे घर की है.अपने को क्या? लिखवा लेता हूँ सबसे नहीं चाहते पीएम …जी सर ..सर …बीमार और इतनी उमर ..नहीं .लगता नहीं आगे कोई प्राब्लम आएगी ..जी ..जी ..ठीक है ..हाँ वह कर लेता हू .जी हो जायेगा .सर ..सर ..।’’

             बाबूलाल ,डॉक्टर और हेड कांस्टेबल ने राहत की साँस ली।
 .
          पूजा सुनती है फैसला और देखती है राहत से भरे चेहरों को। .उसे लगा वह पिता का नहीं अपराधी का चेहरा देख रही है। .डाक्टर, हेड कांस्टेबल और बिखरते लोगों के बीच वह अकेली खड़ी है, जिसे मौत स्वाभाविक नहीं लगती है। ‘’पीएम तो होगा
.पोस्टमार्टम तो करना पड़ेगा मेरी माँ का.‘’ कस्बे के अस्पताल में स्कूटी को बंद किये बिना कहा पूजा ने। उसके दोनों पैर टिके हुए है जमीन पर। 

सम्पर्क-
ई-मेल :  kailashwankhede70@gmail.com
मोबाईल : 09425101644

वन्दना शुक्ल के कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश’ और कैलाश वानखेड़े के संग्रह ‘सत्यापन’ पर भालचन्द्र जोशी की समीक्षा।

इधर दो युवा कहानीकारों के महत्वपूर्ण कहानी संग्रह आये हैं। पहला संग्रह है वन्दना शुक्ल का ‘उड़ानों के सारांश’ जबकि दूसरा संग्रह है ‘सत्यापन’ जिसके कहानीकार हैं कैलाश वानखेड़े। यह संयोग मात्र नहीं कि ये दोनों कहानीकार हमारे समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सदियों से  दमन और उत्पीडन का सामना करते आये हैं। स्वाभाविक रूप से ये अभिव्यक्तियाँ इन कहानीकारों की रचनाओं में बेबाकी और एक लेखकीय गरिमा के साथ आयीं हैं। दोनों कहानी संग्रहों में बातें या घटनाक्रम सहज रूप में आये हैं। इन दोनों संग्रहों की एक समीक्षा लिखी है हमारे प्रिय कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आईये जानते हैं इन संग्रहों के बारे में।     
आश्वस्ति की उड़ान और रचनात्मक धैर्य का सत्यापन
भालचन्द्र जोशी

हिन्दी कहानी में नवलेखन खासकर नई सदी की पीढ़ी के कहानीकारों की इधर खासी चर्चा है। सूचना और संचार माध्यमों के फैलते संजाल ने इस चर्चा को गति दी है। लेकिन यह भी हुआ है कि इस गति में प्रायः रचना छूट जाती है और रचनाकार को केन्द्र में रखने की कोशिश होती है। प्रायः तो लेखक भी यही चाहता और करता है। इन कहानीकारों के साथ दुखद स्थिति यह है कि इस आभासी संसार ने एक ऐसा घटाटोप तैयार कर दिया है जिसमें यह सोच पुख्ता हो रहा है कि रचना को रचना कौशल से नहीं प्रचार से महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। ऐसी रचना लेकिन दूर तक और देर तक साथ नहीं देती है। ऐसे समय में जब हिन्दी कहानी में एक समृद्ध कथा -परम्परा मौजूद है तब ऐसे आग्रह और धारणा को बल मिलना दुखद है।
एक और बात जो प्रमुख रूप से नजर आती है वह शिल्प के प्रति जिद की हद तक आग्रह और रुझान! भूमण्डलीकरण के इस दौर मे जिस तेजी से स्थितियाँ बदल रही हैं। उसमें शिल्प के प्रति अतिशय आग्रही होना, संकेत और प्रतीकों के प्रति रुझान के अर्थ को समझा जा सकता है। लेकिन यह आग्रह कहानी के फॉर्म में बदलाव को प्रयोगशीलता की जिद में प्रस्तुत करें तो इसका क्या अर्थ है?

यह अचरज तब और बढ़ जाता है। जब इस प्रयोगशीलता को लेखक के साथ आलोचक और समीक्षकों की सहमति भी मिल जाती है। इन सब धतकरम में रचना और यहाँ तक कि कहानी की संभावित हानि की अनदेखी हो रही है।

इन सब उत्साह और उपक्रमों के बावजूद कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो चुपचाप धैर्य से रचना कर्म में जुटे हैं। जिनके लिए रचना ही अभीष्ट है। ये इस भीड़ का हिस्सा हैं लेकिन इसलिए भी भीड़ से अलग हैं कि इनके पास रचनात्मकता के लिए जरूरी धैर्य शेष है। अनेक ऐसे नए लेखक हैं जो इस बाजार समय में अधिक तटस्थता और लेखकीय ईमानदारी के साथ अपनी रचनात्मकता के प्रति निष्ठावान हैं।

कई बार अनायास ऐसी रचनाएँ भी सम्मुख आ जाती हैं जो इसी लेखकीय धैर्य का परिचय देती हैं। इन रचनाओं में परम्परा से अलगाव की उदग्रता नहीं समान्तर सहमति की राह होती है। पिछले दिनों कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह सत्यापनऔर वंदना शुक्ल का कहानी संग्रह उड़ानों के सारांशपढ़ कर लगा कि नई पीढ़ी के भीड़ भरे माहौल में आश्वस्ति देने वाले नाम शेष हैं। इन दोनों संग्रह का उल्लेख करने का कारण है। कैलाश वानखेड़े के संग्रह की अधिकांश कहानियाँ दलित उत्पीड़न की कहानियाँ हैं बावजूद इसके इन कहानियों में उस तरह की आक्रामकता नहीं है जिसने दलित लेखन से सम्बद्ध अनेक नवोदित कहानीकारों का अहित किया है।

  (चित्र : वन्दना शुक्ल)

वंदना शुक्ल के संग्रह में स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर प्रचलित ओर कुख्यात तलवारें नहीं खींची गई हैं। साथ ही स्त्री लेखन के चिर-परिचित घर-परिवार के परम्परागत कथानक नहीं हैं जिसमें स्त्री शोषण या स्त्री के त्याग की कथित करूण और महान कथाएँ होती हैं। प्रसंगवश याद आ रहा है कि कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका ने कहीं लिखा था कि एक युवा लेखिका ने उनसे जिज्ञासा प्रकट की थी कि क्या सेक्स का तड़का लगाने से रचना लोकप्रिय हो जाती है?‘ यह बाजार इच्छा इधर की अधिकांश लेखिकाओं की रचनाओं में नजर आती है।

वंदना शुक्ल की कहानियाँ यह तसल्ली देती हैं कि इन कहानियों में प्रेम दृश्यों की जरूरत में गहरे रसवाद में डूबे गैर जरूरी वर्णन नहीं हैं।

वंदना शुक्ल के कहानी संग्रह की एक कहानी शहर में अजनबीएक ओर शिक्षा पद्धति और भाषा के दखल की कहानी है लेकिन इसी के समान्तर पीढ़ियों के सोच और उस सोच के हस्तान्तरण की कहानी भी है। वर्तमान में जिस तरह बच्चों पर माता-पिता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दबाव है उसकी अनुगूँज भी इसमें मौजूद है लेकिन उस इच्छा के विस्तार में जहाँ उस दबाव का दुष्परिणाम है तो दूसरी ओर साधनहीन लेकिन मेधावी बच्चों तक ज्ञान की पहुँच बनाने की इच्छा के परिणाम का संकेत भी है।

हालाँकि इसी कथानक के आसपास वंदना शुक्ल की एक कहानी युग‘ (कथादेश – अक्टूबर 2012) भी है जो इस संग्रह में तो नहीं है लेकिन शहर में अजनबीके आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से थोड़ा आगे जाकर इस परम्परागत यथार्थ की छवि को किंचित ध्वस्त करती है। शहर में अजनबीका आदर्श के प्रति आस्थावान पिता युगतक आते-आते गरीबी और अभाव से परास्त हो जाता है। लेकिन उनके परास्त होने में जो हड़बड़ी है वह थोड़ी असहज लगती है। हालाँकि लेखिका ने उसके लिए पृष्ठभूमि पर्याप्त तैयार भी की थी लेकिन निर्णय एक छलाँग लगाने की भाँति है। जहाँ पिता अपने पुराने संस्कारों को तिलांजलि देकर बेटी को मेले-ठेले और चुनावों में गायकी के लिए भेजने को तैयार हो जाता है। यह मूल्यों की गिरावट है जो शहर में अजनबीके पिता से चलकर युगके पिता तक आते-आते स्पष्ट होती है। इसी तरह यह वंदना शुक्ल के लेखन के यथार्थ की यात्रा भी है। शहर में अजनबीके सामाजिक सन्दर्भ और एक किस्म का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद युगमें दाखिल होकर बौद्धिक आत्म सजगता की पैरवी के बहाने अपने समय के सच की तस्वीर बनाने लगता है।

शहर में अजनबीका पिता श्री माधव सच्चिदानंद जोशी एम.ए. बी.एड. की पारिवारिक परम्परा एक आदर्शवादी धरोहर रही …… अपने दोनों पुत्रों को गाँधी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया था जहाँ बिल्कुल हिन्दी माध्यम में शिक्षा दी जाती थी। …..खास बात यह थी कि यहाँ नैतिक शिक्षा का एक अलग पीरियड का प्रावधान था (शहर में अजनबी – पेज 75) नैतिक शिक्षा का प्रबल पक्षधर यह पिता युगमें हिन्दी का शिक्षक है और बेटी के अंग्रेजी स्कूल में दाखिले से ग्लानि से भर जाते हैं क्योंकि मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुओं की प्रवाहशीलता उनकी प्रतिष्ठा का प्रमाण पत्र थी और गर्व की वजह भी।युग के मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुहैं यानी बदलाव की भूमिका लेखिका की निजी सहमति से तैयार हो रही है। शहर में अजनबीका यथार्थवाद युगके यथार्थवाद में निषेध की ध्वनि रखता है और हम अगली कहानी जल कुम्भियाँपढ़ते हैं तो वह ध्वनि एक बड़ा आकार ग्रहण करती है। लगभग एक से पात्रों के साथ कथानक में भिन्न धरातल दोनों कहानियों में मौजूद हैं।

जलकुम्भियाँमें लेखिका के पास स्थितियाँ ज्यादा स्पष्ट हैं बल्कि ऐसा मन बना लिया। माँ-बाप द्वारा बेटे की मर्जी के खिलाफ एक अपढ़ लड़की से विवाह का दबाव और बेटे की प्रेमिका का विद्रोह के लिए दबाव। यह अन्तर्द्वन्द्व दूसरी दिशा में जा सकता था लेकिन नायक की प्रेमिका स्वाति के चरित्र की प्रस्तुति में ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई कि पाठक की सहानुभूति स्वाति के जरिये नायक के अन्तर्द्वन्द्व तक पहुँचे। स्वाति को जिस तरह चतुर, चालाक और स्वार्थी बताया गया है वहाँ से नायक के भीतर उस तरह के अन्तर्द्वन्द्व की जगह नहीं बन पाती है। लेकिन यह जगह बहुत खूबसूरती से दूसरी जगह तैयार होती है। मूरिया जिससे नायक की शादी जबरन की जाती है, उसके अपढ़ होने से और उसकी असहाय उपस्थिति से वह अन्तर्द्वन्द्व तैयार होता है। यह एक कठिन काम था जिसमें एक दुनियादार नायक जो शहरी चमक-दमक से प्रभावित और उसी चमक में रहने का आकांक्षी है। उसी नायक की शादी एक अपढ़ लड़की से, वह भी जबरन, अपहरण करके कर दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में अपढ़ और गँवार पत्नी के प्रति घृणा, पहले करूणा में फिर प्रेम में तब्दील होती है। यह एक क्रमिक परिवर्तन था जिसमें लेखकीय धैर्य के साथ भाषा के उस कौशल की दरकार थी जो नायक में जरूरी अन्तर्द्वन्द्व के बगैर अधूरा रह जाता।

इसी संग्रह में आवाजेंकहानी बहुत ही खूबसूरत बुनावट की कहानी है। स्मृतियों के भीतर ठहर गए छुट्टन मियाँ ऐसे उलाहनों से वक्ती तौर पर सिर्फ हड़बड़ा जाते हैं, मुक्त नहीं होते, ‘अब इस कदर दीवाने ना होइए अब्बू कि धूप छाँव का मतलब ही भूल जाइएगा।‘ (आवाजें – पेज 73) लेकिन छुट्टन मियाँ भूलते नहीं। स्मृतियों में दुःख के कारण भी छिपे हैं लेकिन वह छुट्टन मियाँ भूलने के विरूद्ध हैं। स्मृतियों की धुँध में तैरती आवाजें उन आवाजों से उपजती बेबसी अकेलापन और इस अकेलेपन में यह अफसोस कि धीर-धीरे सब चले गए बुजुर्ग, रस्मों-रिवाज, मिरासिनें, महफिलें, रौनक, ठाठ-बाट, इज्जत, मेहमाननवाजी, किस्से, बतौले, गम्मतें।‘ (आवाजें – पेज 68) दरअसल यह कहानी इस धारणा को पुख्ता करती है कि जो कलाकार जीवन भर कला में जीता है उसी में मरना चाहता है। संगीतकार के लिए संगीत से बड़ा कोई साथी नहीं। संगीत की कोरी रूमानियत से बाहर आकर एक मानवीय मार्मिकता में कहानी तब दाखिल होती है जब भाषा की बुनावट और बनावट स्मृतियों की उन्हीं गलियों में साथ निकल पड़ती हैं जहाँ कलात्मक लय एक उदात्त मानवीयता से संलग्न होती है।

यह कम अचरज नहीं है कि गहरी पीड़ा, अकेलेपन का बोझ और बेबसी से भरी इस कहानी को पढ़ कर मन हल्का हो जाता है। कहानी हमें एक ऐसा अकेलापन सौंप देती है जिसके साथ कुछ देर रहना भला लगता है। 

दरअसल वंदना की ये कहानियाँ महिला लेखन में अन्तर्वस्तु के विस्तार का खूबसूरत उदाहरण है। बारीक बुनावट और करूणा के मानवीय पक्ष को एक नैतिक दार्शनिकता में बदलने के लिए कहानियों में परम्परागत यथार्थ के निषेध का आग्रह गैर जरूरी नहीं लगता है।

कैलाश वानखेड़े की कहानियों में भी यही लौटनाहै। इसी वापसी में अन्तर्वस्तु प्रकट होती है। कई बार तो यह मोह इतना अधिक है कि कुछ कहानियों को साथ जोड़ दें तो थोड़े कथानक विस्तार में उपन्यास हो सकता है। वंदना के पास कथा की भिन्नता है लेकिन कैलाश के पास कथ्य को लेकर एक सामाजिक पीड़ा जिसे एक किस्म का दायित्व-बोझ भी कह सकते हैं, उसका दबाव है। प्रश्न यह हो सकता है क्या इस तरह रचना संसार व्यापक और सम्पन्न बन पाएगा? कैलाश वानखेड़े को अपने जीवनानुभवों को कथा-यथार्थ में रूपान्तरण के लिए जिस रचना-कौशल की जरूरत है उसके संकेत कहानियों में नजर आते हैं।
 

  (चित्र : कैलाश वानखेड़े)

सत्यापितकहानी में नायक को महज अपना प्रमाण पत्र अपना फोटो परिचय सत्यापित कराना है। यह एक बेहद मामूली काम है लेकिन एक दलित युवक के लिए यह अपने अस्तित्व के पहचान का प्रश्न हो जाता है। निरन्तर अस्वीकार का अपमान उस वर्ग बोध से जुड़ता है। जहाँ दलित अपनी पहचान और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत् है। उस संघर्ष का अहम हिस्सा यही है कि जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है।‘ (सत्यापित – पृष्ठ 17) यहीं से विचार और अनुभव के द्वन्द्व का दृश्य बनता है। यही संघर्ष तुम लोग‘, ‘घण्टी‘, ‘स्कॉलरशिप‘, कितने बुष कित्ते मनुऔर खापामें भी मौजूद है। खापाकहानी में नायक की पीड़ा और संघर्ष का एक मूक साझीदार वह आम बेचने वाला बूढ़ा भी है। यह साझा पीड़ा कहानी का ऐसा धरातल तैयार करती है जिसमें निज का संघर्ष बहुलता की ओर विस्तार लेने के उपक्रम दर्शाता है। नानक दुनिया सब संसारकहावत इसी कहानी का अदृश्य हिस्सा है। जिसे नायक समझता है। पीड़ा, अपमान और संघर्ष के अकेलेपन में उसे अपना दिलासा बनाता है। कितने बुष कित्ते मनुका नायक भी अपने आक्रोश की दिशा खोज रहा है लेकिन तसल्ली की बात है कि वह अबूझ आक्रोश के हिस्से में जाने से पहले उसके कारक तत्व तलाशने इतिहास में दाखिल होना चाहता है। वह अपमान की अंधी सुरंग में भटक नहीं रहा है। वह अपमान की आवाज को उसके मूल अर्थों में खोजना चाहता है। लेकिन जबान कहीं खो गई है। किसी पुराने सड़ते हुए ग्रंथों के किसी श्लोक में। दब गई किसी मंदिर के गर्भगृह में।‘ (कितने बुष कित्ते मनु – पेज 97)

कैलाश वानखेड़े दलित लेखन की धारा में इसलिए थोड़े अलग हटकर उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं कि उनके पास दिशाहीन और अकारण आक्रोश नहीं है। प्रायः दलित पक्षधरता की कहानियों में आक्रोश वर्ग के लिए नहीं, व्यक्ति के लिए है। कैलाश के पास एक संयत आक्रोश है जो अनुभव और विचार के द्वन्द्व में जड़ों को टटोलकर चीजों और स्थितियों को विश्लेषित कर रहे हैं। इन कहानियों में पीड़ा के साथ एक ऐसी लेखकीय आत्मीयता संलग्न है जो पूरी सामाजिक संरचना के प्रति आक्रोश रखती है जहाँ दलित के अस्तित्व को अर्थहीन बनाए जाने का षड़यंत्र है। लेखक का जोर प्रतिशोध की अपेक्षा अस्तित्व और प्रतिष्ठा की स्थापना के संघर्ष पर है। इसलिए यह एक भावुक आक्रोश की अपेक्षा संयत बौद्धिक और संवेदन प्रतिकार है।

थोड़े बदलाव के साथ एक प्रमाण पत्र की उम्मीद घण्टीमें भी है। यह जाति के लिए नहीं, श्रम, निष्ठा और समर्पण की निरन्तरता के लिए प्रमाण पत्र चाहिए। वही सबसे कठिन काम है। लेकिन बेगारी की तरह किए जा रहे काम को जो धरमकी तरह स्वीकार कर चुका था वहीं वृद्ध चपरासी अपने बेटे की प्रतिष्ठा के लिए अफसर को तमाचा मार देता है। यह तमाचा एक निजी अपमान का प्रतिकार भर नहीं बल्कि यह वर्ग की प्रतिष्ठा की रक्षा में संचित क्रोध का उद्घाटन है।

इसी संग्रह की कहानी अन्तरदेशीय पत्रअपने गठन और ट्रीटमेंट में पठनीय है। यह कहानी स्मृतियों में सेंध लगाती है। अन्तर्देशीय पत्र जो आज सूचना एवं संचार माध्यमों के सैलाब में एक अचरज की भाँति लगता है। वह कहानी के साथ-साथ हमारी स्मृतियों को भी टटोलकर उसके नए रूप प्रकट करता है। यह कहानी बेहद कोमल और प्रभावी है।

कैलाश वानखेड़े की रचनात्मकता में लोकतंत्र के लिए एक ऐसा उदार स्पेस है जहाँ न्याय, समता और मानवीयता को साँस लेने में सुविधा है। यह ऐसी दलित पक्षधरता है जिसमें एक किस्म की उत्तेजना तो है लेकिन प्रतिशोध की उदग्रता नहीं है। दलित चेतना और संवेदना के युग्म में कहानियाँ उस मानवीय मार्मिकता की खोज करती है जेा यथार्थ से नाता नहीं तोड़ती है। सामाजिक संरचना की विसंगतियों से बेहद अमानवीय परिणाम सामने आए हैं उस पीड़ा की अभिव्यक्ति के बेहद कारूणिक दृश्य इन कहानियों में हैं। कैलाश वानखेड़े की सफलता यही है कि उनका दृष्टिकोण समाज सापेक्ष है लेकिन वो निजकी अवहेलना भी नहीं करते हैं। वे दलित चेतना को पूरी पक्षधरता और रक्षा संकल्प के साथ यथार्थ से सम्बद्ध करते हैं। यथार्थ जीवन के परिवेश से असंतृप्त होने के खतरे वे जानते हैं। यही कारण है कि पक्षधरता, सम्बद्धता और नैतिक उत्तरदायित्व के द्वन्द्व का वे एक रचना दृष्टि में विलय करते हैं। जाहिर है कि रचना अंततः एक क्रिएटिव-विजन का ही परिणाम है। जरूरी है कि कैलाश इस विजन के लिए धैर्य बनाए रखे। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे धीरे-धीरे एक असरदार भाषा विकसित कर रहे हैं। किंचित अचरज जरूर होता है कि इन कहानियों में राजनीतिक चेतना की उपस्थिति नहीं है जो दलित उत्पीड़न का एक बड़ा कारण रही है। फिर भी कैलाश वानखेड़े अपने पहले संग्रह से अपनी रचनात्मकता में आश्वस्ति को सत्यापित करते हैं।

कैलाश वानखेड़े की अधिकांश कहानियों में दो कहानियाँ समानान्तर चलती हैं। संभवतः यह हर पात्र के साथ न्याय रखने की इच्छा भी है और विचारों के समस्त आवेग को एक ही कहानी में रखने का मोह भी।
                                                                                                
समीक्ष्य संग्रह-

उड़ानों के सारांश – लेखक: वंदना शुक्ल

प्रकाशकअंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद

मूल्य रु. 250/-

वर्ष 2013

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सत्यापन (कहानी संग्रह)- लेखक: कैलाश वानखेड़े

प्रकाशक – आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा

मूल्य- रु 80/-

वर्ष – 2013

समीक्षक-

भालचन्द्र जोशी

13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड

कॉलोनी, जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)

मोबाइल नम्बर – 08989432087
(कथादेश के दिसंबर 2013 अंक से साभार)