आज का हमारा यह दौर रचनात्मक रूप से इतना उर्वर दौर है जितना पहले शायद कभी नहीं रहा. विपिन चौधरी युवा कविता और कहानी के क्षेत्र में एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से गहरे तौर पर प्रभावित किया है. यह विपिन जी के कवि मन की सामर्थ्य ही है कि आज जब सभी चकाचौंध के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं, वह एक रफूगर के हूनर को देख कर सृजित करता है फटी चीजों से बेइंतिहा प्रेम.
कुछ अलग होने का जोखिम ही तो किसी को भी सामान्य से अलहदा बनाता है. आज जब संवेदनाएं दिन-ब-दिन छीजती जा रहीं हैं, ऐसे में वह रसूल रफूगर जैसे सामान्य जीवन जीने वाला व्यक्ति ही है जो अपनी अंटी से पच्चास रुपया निकाल कर राम दयाल पंडित को बेहिचक देता है और अपने फांके की छांह में सुस्ताने चला जाता है. यह रफूगर अपने काम को इतनी संजीदगी के साथ करता है कि फटे कपडे के दो छोर रफू के लिए मिलाते हुए वह धर्मगुरुओं के मैत्री सन्देश से आगे बढ़ जाता है. विपिन की कविता ‘रसूल रफूगर का पैबंदनामा’ पढते हुए यहाँ हमें सहज ही याद आते हैं भक्त कवि रैदास, जो अपने काम में मशगूल हो कर कह उठते हैं ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’ दरअसल सामान्य कहे जाने वाले, हमेशा हाशिए पर रहने वाले यही वे लोग हैं जिन्होंने अपनी परवाह न करते हुए मनुष्यता को आज तलक अपने दम पर बचाए और बनाए रखा है.
रसूल रफूगर का पैबंदनामा
फटे कपडे पर एक जालीदार पुल सा बना
कपड़ों का खोया हुआ मधुमास लौटा देता है वह
जब रसूल के इस हुनर को खुली आँखों से देखा नहीं था
तब सोचा भी नहीं था
और तब तक जाना भी नहीं था
कि फटी चीजों से इस कदर प्रेम भी किया जा सकता है
खूबसूरत जाल का महीन ताना-बाना
उसकी खुरदरी उँगलियों की छांव तले
यूँ उकेरता है कि
देखने वालों की
जीभ दांतों तले आ जाती है
और दांतों को भरे पाले में पसीना आने लागता है
घर के दुखों की राम कहानी को
एक मैले चीथड़े में लपेट कर रख आता है वह
अधरंग की शिकार पत्नी
बेवा बहन
तलाकशुदा बेटी
अनपढ़ और बेकार बेटे के दुखों के भार को वैसे भी
हर वक्त अपने साथ नहीं रखा जा सकता
दुखों के छींटों का घनत्व भी इतना
कि पूरे उफान से जलते चूल्हे की आंच भी
उनके बौछार से एकदम ठंडी पड़ जाए
माप का मैला फीता
गले में डाल
स्वर्गीय पिता खुदाबक्श की तस्वीर तले
गर्दन झुकाए खुदा का यह नेक बन्दा
कई बन्दों से अलग होने के जोखिम को पाले रखता है
बीबियों के बेल-बूटेदार हिजाबों.
सुन्दर दुपट्टे,
रंग- बिरंगे रेशमी धागों,
पुरानी पतलूनों के बीच घिरा रसूल
उम्मीद का कोई भटका तारा
आज भी उसकी आँखों में टिमटिमाते हुए
संकोच नहीं करता
“और क्या रंगीनियाँ चाहिए मेरे जैसे आदमी को”
इस वाक्य को रसूल मिया कभी-कभार खुश
गीत की लहर में दोहराया करता है
अपने सामने की टूटी सड़क
किरमिचे आईनों
टपकते नलों
गंधाते शौचालय की परम्परागत स्थानीयता को
सिर तक ओढ़ कर जीता रसूल
देशजता के हुक्के में दिन-रात चिलम भरता है
उसने अभी-अभी
अपनी अंटी से पचास रुपया निकाल रामदयाल पंडित को दिया है
और खुद फांके की छाह में सुस्ताने चल पड़ा है
सन १९३० में बनी पक्की दुकान को
बलवाईयों ने तोड़ दिया था
तब से एक खड्डी के कोने में बैठते है
और इस कोने को खुदा की सबसे बड़ी नेमत मानता हैं
खुद के फटे कमीज़ को नज़रअंदाज़ कर
फटे कपड़ों को रफू करता रसूल
दो दूर के छिटक आये पाटों को इतनी खूबसरती से मिलाता है
कि धर्मगुरु का मिलन मैत्री सन्देश फीका हो जाता है
किसी दूसरे के फटे में हाथ डालना रसूल को बर्दाश्त नहीं
फटी हुए चीज़े मानीखेज हैं उसके लिए
इस चक्करव्यूह की उम्र सदियों पुरानी है
एक बनाये
दूसरा पहने
और तीसरा रफू करे
दुनिया इसीलिए ऐसी है
तीन भागों की विभीत्सता में बंटी हुई
जिसमे हर तीसरे को
पहले दो जन का भार ढोना है
क्रांति की चिंगारी थमानी हो
तो रसूल रफूगर जैसे कारीगरों को थमानी चाहिए
जो स्थानीयता को धो-बिछा कर
फटे पर चार चाँद टांक देते हैं
जब प्रेत की तरह आता था सिर-दर्द
हम दोनों भाई-बहन का बचपन युवावस्था के कई कदम नीचे था
और माँ इतनी युवा थी कि
कायदे से उस पाक अवस्था में
किसी भी दर्द को एक माँ के करीब आते हुए भी डरना चाहिए था
पर दर्द समेत चमडे के जूतों के
आता था
और सीधा सिर पर वार करता था
माँ सिर-दर्द के कोड़ों से बचने को
करवटे बदलती
सिर पर दुपट्टे को कस कर बांधती
ढेरों कप चाय पीती
और दर्द को दूर धकेलने की
नाकाम कोशिशों के बाद थक कर
सो जाती
हम बच्चे थे
इस स्थिति में
अपने छोटी हथेलियों से माँ का सिर दबाना ही जानते थे
घड़ी भर सिर दबाते-दबाते
वहीं माँ के अगल-बगल झपकियाँ मारते नींद में लुढक जाते
कुछ सालो बाद जब माँ के सिर का दर्द बूढा हो गया
तब उसने माँ का पिंड छोड़ा और
बरगद की जमींदोज जड़ों के नजदीक
अपना बुढ़ापा काटने चला गया
कई सालो बाद मालूम हुआ
सिर का वह बदमाश दर्द कुछ और नहीं
पिता से माँ के अनसुलझे-बेमेल रिश्ते की पैनी गांठ थी
यकीनन पिता से वह बेउम्मीदी वाले कच्चे रिश्ते के दूर जाने की साथ ही
वह बूढा दर्द भी कहीं नरक सिधार गया होगा
एक कच्ची-पक्की सीख के साथ कि
बेमेल रिश्ते के छोटे से छेद में घुस कर
एक दर्द अपना आसानी से अपना घर बना सकता है
अब आओ
क्या कहूँ अब
कहने को पूरा बची भी नहीं हूं
अधूरे प्रेम की तरह अधूरी
खंडित सभ्यताओं की तरह टूटी-बिखरी हुई मैं
गन्दी नाली की दुर्गन्ध सी बजबजाती
मेरे धीरज का पत्थर इतनी आसानी से घुल जाता है
ठीक उसी तरह जिस तरह
पानी की परछाईं से
बताशा घुलता जाता है
आओ कबीले से सरदारों
आओ मेरा शिकार करो
चढ आओ अपने नुकीले पंजों समेट
आओ कि मेरे सीने की कई पसलियां साबूत हैं अभी
आओ कि अब मैं किसी खेद का शिकार नहीं बनना चाहती
आओ मुझे नोच-निचोड़ खा जाओं
और जब खान पान पूरा हो जाये
तो सौंप दो मेरे अस्थि पिंजर
तीखी चोंच-पंजो वाले पक्षियों को
ताकि उनके पितृ भी जम कर तृप्त हो जाये
आओ, धरती के ये जिन्दा फरिश्ते मुझ से नहीं देखे जाते
मै किसी शक ओ सुबह से दूर
निर्जन टीले पर
अपने स्वाभिमान को पस्त होते देखते-देखते
थक गयी हूं
आओ मेरे हथेली की रेखाओं
मुझ से पंजा लड़ाओ
तुम्हे क्या मालूम
मेरी महत्वाकांक्षा के छोटे घेरे में सिर्फ
एक सीधा-साधा प्रेम ही है
सिर्फ प्रेम
प्रेम का वो दिव्य सलोना स्वरूप
जो आत्मा सांता की तरह मासूम बन जाता है
आओ मेरे सामने भ्रम की एक सफ़ेद चादर डाल दो
ताकि मेरा प्रेम जिस राह पर चल कर आया था
उसी पर चल कर लौट जाये
आओ और बताओ कि मैं क्या करूँ
सीखने समझने की जो अफसरशाही दलीले है
वो मैं अरसे पहले ही भूल गयी हूँ
आओ-आओ
मेरी याद की नस इस कदर निस्तेज हो चली है
कि मैं बार-बार याद करने को ही याद करती रहती हूं
अब और कुछ याद नहीं
एक परछाईं भी नहीं
एक आस भी नहीं
एक सपना भी नहीं
वो सच भी नहीं जिससे एक पल अलग होते में भी
मैं हिचकती थी.
दंभ
यह इतिहास का दंभ है
कि लोग उसे बार बार पलट कर देखे
और उसकी याद ताज़ा बनी रहे
वर्तमान का दंभ चाहता है
लोग उसे कोसते रहे और जीते रहे
भविष्य का दंभ तो एक दिहाड़ीदार की रोज़ी की तरह
हर रोज़ पकेता है और
हर रोज़ बिकता है
काबुली चने
इतने बुरे भी नहीं होते काबुली चने
पर सच में काफी बुरे होते है
बचपन में इतने खाए
और अब तो पूरी तरह से अघाये
तब के समय तो
आंच से चनों के स्थाई रिश्ते को हमने
पूरी तरह से कुबूल कर लिया था
माँ चने उबालती जाती थी
हम उत्साह में खाते जाते थे
एक घड़ी तो उत्साह का अचार भी कैसला हो गया है
और
अब जीभ भी काबुली चनों का स्वाद नहीं औटती
कभी-कभार भूले-भटके घर में आ जाते है चने तो
महज इल्लियों को ही उनका स्वाद भाता है
जिन्होंने अपना स्वाद भी बचा रखा है
और उत्साह भी
छोटा सपना, बड़ी सच्चाई
बड़े सपने देखने का आवाहन
सब्जबाग की ऊँची हवेली की पैदाइश हुआ करते हैं
वैसे भी
ठोस सपनों की उम्र इंसान उम्र से बड़ी होती है
तो सपने छोटे पालने चाहिए
पालने चाहिये नहीं
इस ‘पालने’ शब्द से मैं सपनों का अपमान कर रही हूं
इस अपमान बोध की बेडियाँ मैं अपने हाथो में नहीं पहनना चाहती
भले ही मेरे हाथ
दुनिया की करतूतों के खिलाफ झंडा बुलंद करते करते बलिष्ट हो गए हैं
बात सपनों की हो रही थी
रघुबीर माली का सपना एक अदद पक्का घर था
जो उनके जीवित रहते फलित नहीं हो सका
सामने की चाल में रहने वाली सोमनाथ दत्ता की तीसरे नम्बर की
तलाकशुदा युवा लड़की ‘टीना’
अपने सपने में नये जीवन की टेक चाहते-चाहते
रेल की पटरियों पर जा लेटी
आस पास की दुर्घटनाओं की सीख इतनी तगड़ी थी कि
उसी रात
एक बंद कली के फूल बनने का छोटा सपना
मेरी नींद की तह में उगा
सुबह होते न होते
वह सपना
सफ़ेद गुलाब की शरीर ले मेरे आंगन में हिलोरे ले रहा था
सपनों ने अपनी तोतली जुबान में बतला दिया
कि अब वे भी
बौनी होती नींद के आकार के हो गए हैं
पोर्टब्ल और फोल्डिड
और इजी टू डाईजेस्ट भी
मेरी तुम्हारी भाषा
मै अपनी भाषा की मॉस मज्जा में गले तक डूबी हुई थी
और
तुम मुझे अपनी ओर खींचते चले जा रहे थे
भाषा के तंतु आपस में इस तरह गुंथे थे
जैसे प्रार्थना में एक हाथ की लकीरें दूसरी हाथ की लकीरों
से अपना मिलान करती है
मेरी भाषा का अपना संकोच था
अपना व्याकरण
और इसी गणित के गुरूर की एक व्यापक समझ थी
उसने ही तुम्हारी भाषा के
नजदीक करतबी कलाबाजियाँ खाने से इंकार कर दिया था
अपनी भाषा में जमे रह कर मैंने तुम्हे प्रेम किया
मेरे प्रेम की एक-एक भाव भंगिमाएं
आत्मा के शीतल पानी में नहाई हुई थी
कहीं कोई दाग-धब्बा ना रह जाये इस शक की सफाई में
मेरा प्रेम
बार-बार आत्मा की गहराई में दुबकी लगाता था
तुम प्रेम-आत्मा की इस अनोखी जल क्रीडा से बाहर खड़े थे
पूरे के पूरे सूखे के सूखे
ऐसा नहीं था कि तुम्हे आत्मा और गहराईयों से परहेज़ था
फिर भी पुरुष का मान
पुरुष का मान होता है
और यह भी कि एक पुरुष होना नकारात्मक संज्ञा नहीं है
एक प्रेम पगी आत्मा तो तुम्हारे पास भी थी
जिसके पास कोई अनचीन्ही भाषा थी
जो प्रेम के सार्वभौमिक व्याकरण को नहीं समझ पाई थी
अब रहने दो
इससे ज्यादा सफाई
और ज्यादा कूड़ा बिखेर देगी
हर भाषा का अपना सम्मान होना चाहए
और मै अपनी भाषा की थाह रखूंगी
तुम अपनी
इस कविता का अंत मैं किसी सन्देश से नहीं करना चाहती
इसका झुकाव उस
चित्रकार की तरह का जज्बा वाला होना चाहिए
जिसकी कूची ने कभी थकान का मुहं नहीं देखा था
उस फ़िल्मकार की तरह जो एक नायिका को
शरीर नहीं एक आत्मा मानता था
उन फिजाओं की तरह बेलौस
जिसकी आबो-हवा में
पसीने की गंध फूलों की गंध को काटने का साहस रखती हैं
फिर भी दोनों की गंधिली भाषा अपनी-अपनी जगह महफूज़ रहती है
मन का बंटवारा
कहते है
पीछे के दिनों में जाना बुरा होता है
और उसकी रेत में देर तक कुछ खोजते रहना तो और भी बुरा
कोई बताये तो
पुराने दिनों ही बहती धार की थाह पाये बिना
भविष्य की आँख में काज़ल कैसे लगाई जाये
अतीत की मुंडेर पर लगातार फड़फडाती
एक डोर टूटी पतंग को देख
आज के ताज़ा पलों की भी हवा निकल जाती है
तब जीना एक हद तक हराम हो जाता है
अब हराम की जुगाली कोई कैसे करे
मेरे मन के अब दो पाँव हो गए हैं
एक पाँव अतीत में चहलकदमी करता है
और एक वर्तमान की धूल में सना रहता है
और दोनों मेरे सीने पर आच्छादित रहते है
भूत और वर्तमान की इस तनातनी से
भविष्य नाराज़ हो जाता है
मै उसकी नाराजगी को
एक बच्चे की नाराजगी समझ
मधुर लोरी से उसका मन बहलाने का उपक्रम करती हूं
ताकि मन का तीसरा बंटवारा होने से बच जाये