बृजेश नीरज की कविताएँ

बृजेश नीरज

नाम- बृजेश नीरज
पिता- स्व0 जगदीश नारायण सिंह गौतम
माता- स्व0 अवध राजी
जन्मतिथि- 19-08-1966


सम्प्रति- उ0प्र0 सरकार की सेवा में कार्यरत
कविता संग्रह- कोहरा सूरज धूप 
संपादन- साझा कविता संकलन सारांश समय का

समय के बदलते सन्दर्भों के साथ-साथ कविता की भूमिका भी बदली है. अब वह महज नख-शिख वर्णन नहीं बल्कि अपने जमाने की विद्रूपताओं को उभार कर समाज के सामने उसकी स्थिति को उद्घाटित करने वाला सशक्त माध्यम बन गयी है. अब वह महज नारेबाजी या शिगूफेबाजी नहीं बल्कि हकीकत से जूझने वाले प्रतिरोध के औजार के रूप में है. यह ठीक है कि कविता से समाज नहीं बदलता. कविता इसका दावा भी नहीं करती. फिर भी कहना न होगा कि इसका असर दिलों पर गहरे तौर पर दिखाई पड़ता है. हमारे युवा कवि अपनी जिम्मेदारियों से भलीभांति वाकिफ हैं. बृजेश नीरज ऐसे ही युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में यह तीखा तेवर स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ता है. उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे धूमिल, उनकी काव्य-भाषा और तेवर की याद आयी. अपने पूर्ववर्ती कवि से प्रभावित होना स्वाभाविक है. खासतौर पर ऐसे समय में जब प्रतिबद्धताओं को लोग तिलांजलि देने लगे हैं. बृजेश नीरज की प्रतिबद्धता हमें आश्वस्त करती है. आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कवि बृजेश नीरज की कविताएँ.                   
बृजेश नीरज की कविताएँ

साथी जो साथ नहीं
तुम इसे इत्तेफाक कह लो
पर सच यही है कि
तुम साथ नहीं होते
जब शिराओं में जमने लगता है
समय
जमीन लाल हो कर बंजर हो जाती है
पीपल की जडें धरती से उखड़ कर
धंस जाती हैं दीवारों में
हिलने लगती है दीवार
दरक जाती है छत
तुम साथ नहीं हो
जब पतझड़ में झड गए
शब्दों की शाख से अर्थ के पत्ते
तुम साथ हो कर भी
साथ नहीं होते
हर उस कठिन दौर में
जब जीना, मरने से बदतर हो जाता है
आखिर तुम क्यों साथ नहीं हो
मैं यह समझने की कोशिश में हूँ  
प्रेम की कुछ बातें
क्या मित्र तुम भी कैसी बातें ले कर बैठ गए
मैं नहीं रच पाता प्रेम गीत
रूमानी बातों से बासी समोसे की बास आती है मुझे
माशूक की जुल्फों की जगह उभर आती हैं
आस-पास की बजबजाती नालियाँ
प्रेमिका के आलिंगन के एहसास की जगह
जकड़ लेती है पसीने से तर-ब-तर शरीर की गंध
तुम हँस रहे हो
नहीं, नहीं, मेरा भेंजा बिलकुल दुरुस्त है
देखो मित्र,
भूखा पेट रूमानियत का बोझ नहीं उठा पाता
किसी पथरीली जमीन पर चलते
नहीं उभरती देवदार के वृक्षों की कल्पना
सूखते एहसासों पर चिनार के वृक्ष नहीं उगते
बारूद की गंध से भरे नथुने 
नहीं महसूस कर पाते बेला की महक   
जब प्रेम
युवती की नंगी देह में डूब जाना भर हो 
तब कविता भी
पायजामे में बंधे नाड़े से अधिक तो नहीं
ऐसे समय
जब बिवाइयों से रिसते खून के कतरों से
बदल रहा है मखमली घास का रंग
लिजलिजे शब्दों का बोझ उठाए
कितनी दूर चला जा सकता है 
शक्ति द्वारा कमजोर के अस्तित्व को
नकार दिए जाने के इस दौर में 
जब पूँजी आदमी को निगल रही हो
मैं मौन खड़ा 
बौद्धिक जुगाली करती
नपुंसक कौम का हिस्सा नहीं बनना चाहता

इस देश में
इस देश में
चीख
संगीत की धुन बन जाती है  
जिस पर थिरकते हैं रईसजादे
पबों में
सुन्दर से ड्राइंग रूम में सजती है
द्रौपदी के चीर हरण की
तस्वीर
रोटी से खेलती सत्ता के लिए
भूख चिंता का विषय नहीं बनती
मौत की चिता पर सजा दी जाती है
मुआवजे की लकड़ी
किसान की आत्महत्या
आंकड़ों में आपदा की शिकार हो जाती है
धर्म आस्था का विषय नहीं
वोटों की राजनीति में
महंतों और मुल्लाओं की कठपुतली है
झंडों के रंग
एक छलावा है
बहाना भर है चेहरे को छुपाने का
तेज़ धूप में पिघलते
भट्टी की आग में जलते
आदमी की शिराओं का रक्त
पानी बनकर
उसके बदन पर चुहचुहाता है
गंध फैलाता है हर तरफ
इस लोकतंत्र में
आदमी की हैसियत रोटी से कम
और भूख उम्र से ज्यादा है
सब खामोश हैं
सब खामोश हैं
चुपचाप सहते हैं सब
सब कुछ
बारिश में भीगती रही चिड़िया
भीग गए पंख
स्थगित रही उड़ान
बह गया घोंसला
सर्दियों में काँपती रही पत्तियाँ
ठिठुरते रहे फूल
पाला खा गया कलियों, कोंपलों को 
धुँध में गुम हो गया सारा हरापन
धीरेधीरे गर्म होते रहे दिन
तपती रहीं रातें
चुपचाप पिघलती रही सड़क
बहता, सूखता रहा पसीना
बढ़ती रही गंध
लेकिन छाँव की आस में दीवारें चुप हैं
मौसम लगातार बदल रहा है
पिघल रही है शिखरों पर जमा बर्फ
सूख रही हैं नदियाँ
बढ़ रही है रेत
बंजर होती जमीन
विचार भटक गए राह
सन्दर्भ पीछे छूट गए कहीं 
हाथ से रेत की तरह फिसलते प्रसंग
बौने हो गए अर्थ
लम्बे होते शब्दों के साए
टुकड़ों में बंटी धरती पर
झण्डे के रंगानुसार  
गढ़ ली गईं नयी परिभाषाएँ
माहौल बदल रहा है
भूख बढ़ रही है
लेकिन सब खामोश हैं
भारी हो गया है खामोशी का यह बोझ
बोलना जरूरी है अब
कुछ बोलो
समय गया है
हवा बहो !

सब ठीक हो जाएगा
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा
बीत जाएगी रात
होगी सुबह
अमावस के बाद फिर छिटकेगी
चाँदनी
सब ठीक हो जाएगा एक दिन
ख़त्म होगा पतझड़
बरसेगा पानी
भर जाएगी नदी की सूखी छाती
ठूँठ पर उगेगी कोंपल 
लहलहायेगी फसल 
सब ठीक हो जाएगा
एक दिन मिलने लगेगा काम
मिलेगी पूरी मजूरी
भरने लगेगा परिवार का पेट
ठीक हो जाएगा सब
बंद हो जाएगा आँसुओं का झरना
मुस्कुरा उठेंगी आँखों की कोरें
घर के आँगन में खेलेंगी
खुशियाँ  
सब कुछ ठीक हो जाएगा
रात में देखे सपने 
पूरे होंगे दिन में
कम हो जाएगी
धरती और आकाश की दूरी
तारे होंगे हाथों के करीब
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा
बस एक आस ही साथ रहती है सदा
और इसी उम्मीद में
एक दिन धीरे से पीछे छूट जाती है
ज़िंदगी 
मरा हुआ आदमी
इस तंत्र की सारी मक्कारियाँ
समझता है आदमी
आदमी देख और समझ रहा है  
जिस तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख और रोटी की
जैसे रचे जाते हैं
धर्म और जाति के प्रपंच
गढ़े जाते हैं  
शब्दों के फरेब
लेकिन व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच 
रोटी की जद्दोजहद में 
आदमी को मौका ही नहीं मिलता
कुछ सोचने और बोलने का 
और इसी रस्साकसी में
एक दिन मर जाता है आदमी
साहेब!
असल में आदमी मरता नहीं है
मार दिया जाता है
वादों और नारों के बोझ तले
लोकतांत्रिक शांतिकाल में
यह एक साजिश है
तंत्र की अपने लोक के खिलाफ 
उसे खामोश रखने के लिए
कब कौन आदमी जिन्दा रह पाया है
किसी युद्धग्रस्त शांत देश में
जहाँ रोज गढ़े जाते हैं
हथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध
लेकिन हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग रही है एक चिता
जो धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी
धीरे-धीरे हवा तेज़ हो रही है  

सम्पर्क –

निवास- 65/44, शंकर पुरी, 

छितवापुर रोड, लखनऊ-226001
मोबाईल – 09838878270
ई-मेल- brijeshkrsingh19@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)