अनिल कार्की की कविताएँ

अनिल कार्की

प्रेम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति है. इस ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति के सामने हजार खतरे हैं. युवा कवि अनिल कार्की इससे अच्छी तरह वाकिफ हैं. वे जानते हैं कि कि औरत हो या मर्द, अगर वे प्रेम करते हैं तो उनके सामने समाज विकट समस्याएँ पैदा करने से बाज नहीं आएगा. खुद अनिल के ही शब्दों में कहें तो- ‘जबकि प्रेमी की कोई जात नहीं होती / वो औरत और मर्द में उभयलिंगी होते हैं /जो दोनों तरफ रहते है बराबर.’ लेकिन प्रेम तो इसलिए औरों से अलग है कि वह नफरत की आँधियों और बदले के तूफ़ान की भी परवाह न कर अपनी राह चलता चला जाता है. इसलिए अनिल रिश्तों के बुनावट को सहेजने के लिए प्रतिबद्ध हैं.औरों से अलग अपना स्वर निर्मित करने वाले इस ख़ूबसूरत से कवि का स्वागत करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं इनकी कुछ नयी कविताएँ. 

  

अनिल कार्की की कविताएँ


माँ के हाथों बुने गए मोज़े!
(एक भावुक आदमी का आत्मालाप)
अपनी  सत्तर साला माँ के हाथों बुने गये गर्म उनी मोज़े
जिन्हें मैं भूल गया हूँ तुम्हारे पास
मेरी अमूल्य धरोहर का सबसे बड़ा हिस्सा है वो!
उनमें रिश्तों की बुनावट है
मेरी जान!
मैं पिछले एक महीने से तुमसे एक बार भी अलग नहीं हुआ हूँ 
लेकिन अब लौटता हूँ एक लम्बे निर्वासन में
ऐसा कहते हुए मैं
लबालब भर आया हूँ गले तक
तुम्हारा उदास
परन्तु आने वाले दिनों के बीमार मौसम को भांपता हुआ
उम्मीदों का लालिमा भरा चेहरा अब भी मेरे हाथों में है
इस वक्त,
लेकिन मैं कहना चाहता हूँ
सबसे बेहतर हैं वो मोज़े जिन्होंने  हर कदम साथ दिया,
पैरों की पैदल यात्राओं के परचम हैं वो
जिनमें हमारे होने की गंध है
हमारे आत्माओं के मोज़े हैं
हमारे शरीर और हमारे प्रेम के परचम भी,
मैं महसूस कर सकता हूँ
तुम्हारे शरीर के हर एक अंग को अपनी कलम में
जिनके भीतर  
हजारों शब्द कैद है
राजनैतिक कैदीयों की तरह!
मोज़े जिनमें गंध हैं पसीने की
जिन्हें नापने हैं पहाड़
अपने समय के,
और फांदनी हैं दीवारें भी  
पहाड़ बहुत मजबूत होते हैं
पिघलती हुई आँखों के भीतर भी  
सोया रहता है एक सुषुप्त ज्वालामुखी वाला हिमालय  
जिनके आंसुओं की बनती हैं नदियाँ
लहू रिसता रहता है
बुझती रहती है दूर कहीं किसी की प्यास
मर्द करते हैं गर्व
जबकि प्रेमी की कोई जात नहीं होती
वो औरत और मर्द में उभयलिंगी होते हैं
जो दोनों तरफ रहते है बराबर  
याद रखना !
अब जब इस वक्त मैं तुम्हारे साथ नही हूँ
उदासी के कंठ में चुभती है हाड़फोड़ ठंड  
लेकिन तुम्हारे साथ गुजारे हुए
हर एक क्षण मेरी नशों में
कबूतर के गर्म जवां खून की तरह बहा करेंगें आजीवन!
मैं तीन बार तुम्हारी उंगुली दबाता हूँ और कहता हूँ
‘मुझे तुमसे प्यार है’
तुम्हारी मुस्कुराहटों में शामिल हो जाते हैं  
सातों रंग!
मेरी जान!
वो जो मोज़े हैं
एक आम आदमी की माँ के बूढ़े हाथों की जवान अभिव्यक्तियाँ हैं उनमें 
सफ़ेद और लाल धारियां है उनमें
मेरे लिए उनका मूल्य संग्राहलय में रखे
राजे रजवाड़ों के स्वर्णभाण्डों से कहीं अधिक है
उन मोजों में समकालीन इतिहास की गुत्थियाँ हैं  
उन मोजों की कोई जात नही है
उनकी गंध ही उनकी पहचान है
उन्हें देखते हुए तुम मुझ अदने से आदमी को और बेहतर समझ सकती हो
कितना उदास हूँ  मैं  अब
कितना खुश था मैं तब,
अब  और तब के बीच मुझे बार- बार
अपनी माँ के हाथों से बुने गये मोज़े याद आ रहे हैं  
मैं तुममे अपनी उम्रदराज माँ की जवान छवियाँ देख रहा हूँ 
अपनी पिता की खामोश सैनिक आँखे भी
उन अबोध सत्रह साला माँओं की चीखें भी 
जो अपने सैनिक पतियों से सालों नही मिली 
जो देवडांगर के सामने बिलखती हैं  
एक दिन अर्धरात्रि  में  
चीखती हुई   
अलसुबह ही अभोकाल चल बसती है
वह एक अकेली नदी की तरह
रेत में पछेट खाती मछली सी 
लेकिन
मेरी जान!
मैं तुममें हिम बाघिन भी देखता हूँ
तुम्हारा रंग बहुत खास है
धरती की तरह का
आकाश की तरह का,
हिमालय की सफेद वर्फ की तरह का
उजाड़ बाखलियों* सा
निराश आँगनों सा
झड़ चुकी हरी पपड़ी वाले अखरोट सा
मैं उदास हूँ इसलिए नहीं कि
तुम उदास हो
बल्कि इसलिए कि
तुम्हें उदास होने के लिए कर दिया गया है मजबूर!
मैं कह सकता हूँ तुम मेरी उम्मीद हो
तुम्हारे चेहरे में मैंने पढ़ी  है
अपने जीवन की सबसे पहली और अंतिम किताब!
जिनमें मोजों के चित्र है  
और मोजों के भीतर है
हमारे पसीने की महक!
हमारे अंतहीन रास्तों के नक़्शे
उनके सिरे भी
जिन्हें मैं भूल आया हूँ तुम्हारे पास
यातनाओं की हदें लांघ कर ही पार हो सकती है
अब हमारी और हम सब की नाव
माँ के हाथों बुने गए मोज़े तुम्हे लम्बे सफ़र के लिए तैयार जरुर करेंगे
एक दिन
तुम देखना
हाँ एक  दिन 
उस दिन हमारी यात्राओं के
चश्मदीद गवाह  होंगे हमारे मोज़े
किसी भी देश और धर्म, जाति  के झंडों से ज्यादा महत्वपूर्ण 
अलविदा!
—————————————
बाखलियों *= पहाड़ के सामूहिक और आपस में जुड़े घर जिनमें पूरा मुहल्ला रहता है
 

एक बेनाम प्रेमिका के लिए
हर एक चीज महसूस नहीं की जाती आदमी के भीतर
जैसे कि दर्द और मछलियों की ग्रन्थियों के
संबंध में होती है अफवाहें!
जैसे कि किसी पर्वत पर काट कर सुखा दिया जाता है
भेड़ का मांस
जाड़ों की खुराख के लिए!
हर एक आवाज महसूस नहीं की जाती नदी की भी
मसलन उसके बहाव पर बातें नहीं की जा सकती
या कि उसकी गहराई पर भी नहीं की जा सकती कोई बहस
उतरो नहीं जब तक खुद के सीने में
हर एक चीज टूटती नहीं, टूट जाने के बाद भी!
बल्कि जुड़ी रहती है बिना किसी समझौते के
तुम्हारा न होना भी होना ही है
हम से हमारे के लिए
नफ़रत एक खूबसूरत तरीका ही होता है
प्रेम को व्यक्त करने का
अपनों से, अपनों द्वारा किये गये से
नफरत करना एक वाजिफ तर्क है
जबकि मौन एक अभिजातीय मुद्रा!
आज तो चुप्पियाँ समकलीन अर्थों में बोलती हुई भी
मौन जैसी लगती है
हमारी दुनिया में
मुझे लगता है वक्त रहते
तुम्हारी आँखों में अटके पानी से
दुनिया को भाषा की क्लास पढ़ लेनी चाहिए
तुम्हारी नफरत से अपना इमला ठीक कर लेना चाहिए मुझे!

मुँहफट आदमी का दर्द
एक दिन
एक किसी भी दिन मार दिया जाऊंगा मैं,
मुझे बचा लो
मैं तुम्हारी ही कविता का
अंतिम शब्द हूँ
और मुझे जीना है!

जैसे लहू में रंग होता है
जैसे जमीं में नमी होती है
मुझे जीना है
वैसे ही 

मुझे बचाओ एक दिन वो मेरी ही नजरों के सामने
बना देंगे मुझे अपना सबसे प्यारा वफादार कुत्ता
वो मेरी पूँछ काट देंगे
इसलिए कि वो सीधी नहीं हो सकती
क्योंकि वह टेड़ी ही रहने को प्रतिबद्ध है
आज भी!

एक दिन, एक किसी भी दिन
वो मेरी आवाज बेच देंगे
एक दिन वो मेरी नज़र  बेच देंगे
मेरी आँखों के समन्दरों पे वो उगा देंगे नागफनी
मुझे बचा लो मेरे बंधु!
मैं विश्व की सबसे संकटग्रस्त प्रजाति का
मुँहफट आदमी हूँ
एक आवारा आदमी की कविता

मेरे पर्स से
एक पुराना चित्र निकल आया है
अब वह पूछ रहा है
क्या मैं उसे जानता हूँ?

दो –

कभी जब
मर्चिस के छिक्कल
और कंचे रचते थे
मेरी जेबों का सौन्दर्य
तब अठन्नियां खनकती थी
न जाने कब पर्स धमक आया उनमें
तीन-

उस वक्त जब
मैंने खोला पर्स
मुझे थी जरुरत सिक्कों की
तब इस पुराने चित्र ने कहा
क्या मैं मान लूं कि अभी
सिक्कों में बची हैं आस्था दुनिया की

चार –

अब की जब पर्स है
तब खुद को ही जेब में रख कर भूला जा सकता है
एक लम्बे अरसे तक
फिर एक दिन
अठन्नियां ढूंढते हुए खुद
को खोजा  जा सकता हैं
ए० टी० एम० की पर्चियों के बीच

कुछ दृश्यों के साथ मेरा उपलब्ध परिचय
(पहला दृश्य)
मंच पर लाईट पड़ती है
एक कुर्सी मंच के बीचो-बीच रखी हुई है
जिसके दोनों ओर 
दो खूंखार भेड़िये हैं
और अभी-अभी गिलास भर खून पीकर उठा है  
कहीं एक राजा
चल दिया है आदमी की खाल वाला तौलिया उठाये  
रक्त की नदी में नहाने
कहीं दूर
जिसके छीटे
पड़ रहे है यहाँ तक
दर्शकों पर भी
उस समय मेरा परिचय केवल इतना हो सकता है
मैं उन अनाम
घायल लोगों के बीच की
कराह हूँ .. चीख हूँ
जो मर खप जायेंगे
जिनका लहू निचोड़ कर
रोज जूस पी जाता है राजा
बचे हुए लोग रसदार नीबू की तरह लगते हैं  
और जो निचुड़ चुके, नीबूं के छिक्क्ल की तरह हो गये हैं  
(दूसरा दृश्य)
 
इस दृश्य में मैंने
उस ध्रुवीय भालू की तरह सफ़ेद रोंयेदार खाल पहन ली है
जिसे अपने निवास स्थान से दूर
कैद कर लिया गया है
अर्ज़ेंटिना के मेंडोजा में
एक कंक्रीट बाड़े के भीतर
तब ठीक उस वक्त
उसकी अवसादग्रस्त फोटो गूगल
तक चली आई है
इधर मंच में उस पर बहस चल रही है
केवल नीचे ही नहीं बल्कि अमरिकी संसद पर
जहाँ एक खूंखार जानवर
एक बेजुबान भालू को बचाने का नाटक रच रहा है
ठीक इसी तरह उसने
कहीं दूर इंसानों की बस्ती को
कंक्रीट के बाड़े के भीतर मर जाने के लिए छोड़ दिया है 
ये नाटक का दूसरा दृश्य है !
नाटक का  तीसरा और अंतिम दृश्य ये है-
कि इस समय अँधेरा और ज्यादा काला हो गया है    
मंच पर कुछ कीड़े रेंग रहे हैं
जिनमें अभी रीड़ नहीं उगी है
और मंच परे
एक उदास संगीत बज रहा है
उस समय मेरा परिचय केवल इतना ही हो सकता है
कि मैं उत्तरपूर्व के किसी गाँव में
अपने सीढ़ीनुमा खेतों पर जुबान उगाना चाहता हूँ
और मुझे कतई फुरशत नहीं
कि मैं तुम्हारे साथ एक कफ काफी पी संकू मेरे दोस्त
हाँ, जुबान इसलिए नहीं ऊगा रहा कि 
वो बहस करे
बल्कि इसलिए कि वह जबाब दे सके
और हिसाब माँग सके 
अब मैं किसी से नहीं पूछने वाला कि
मेरा अभिनय कैसा रहा
क्योंकि इस नाटक के दर्शकों को 
ताली बजाना नहीं आता
यह जानकार मैंने
इस नाटक में अभिनय किया !
मैं जनता हूँ इस समय मेरा परिचय इतना ही हो सकता है! 
सम्पर्क- 
मोबाईल- 09456757646

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

युवा कवि और आलोचक शिरीष कुमार मौर्य से अनिल कार्की की बातचीत


लीक से अलग हट कर काम करने वाले युवा रचनाकारों में शिरीष कुमार मौर्य का नाम अग्रणी है. कविता और आलोचना के साथ-साथ शिरीष ने कला के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किये हैं. शिरीष से उनके रचना कर्म पर बात की है युवा रंगकर्मी अनिल कार्की ने. तो आईए पढ़ते हैं यह साक्षात्कार 
   

युवा कवि और आलोचक शिरीष कुमार मौर्य से अनिल कार्की की बातचीत
 

अनिल कार्की : एक कवि के रुप में आपने लेखन की शुरुआत कब से की, लिखने की क्यों जरूरत महसूस हुयी आपको?
शिरीष कुमार मौर्य : अनिल यह पहला औपचारिक सवाल होता है,जिसे पूछने की रवायत है। मैंने लेखन की शुरूआत जाहिर है कि कविता से की।1991के आसपास। लिखने की ज़रूरत, बल्कि उसे प्रेरणा कहना होगा, उस वैचारिकी में सहज ही उपस्थित थी, जिसे साम्‍यवाद कहते हैं  और जो मेरे लिए जीवन शैली की तरह 17 की उम्र में तब भी थी। हम कुछ दोस्‍त थे जो छात्र-राजनीति करते और दुनिया भर का साहित्‍य खोजते-पढ़ते थे। गिरीश मैंदोला नाम के दोस्‍त ने तब छप रही कविताएं देख कर कहा कि तुझे भी कविता लिखनी चाहिए, तेरे बात करने में कविता सुनाई देती है। मैं उस कमबख्‍़त की सलाह को गम्‍भीरता से ले बैठा और आज जो मेरी हालत हुई है, सब देख ही रहे हैं। 1992 में समकालीन जनमत में पहली बार कविताएं छपीं। 1994 के अंत में कथ्‍यरूप  के सम्‍पादक श्री अनिल श्रीवास्‍तव ने भरपूर प्रोत्‍साहन के साथ ‘पहला क़दम’ नाम से कविता-पुस्तिका छाप दी। अपने बदलते हुए जीवन में लगातार लिखते हुए महसूस होता है कि अपने लुटे-पिटे जनों के बीच रहने-बसने के लिए लिखना ज़रूरी ही था,हमेशा रहेगा। यह सब कुछ अनायास हुआ, इसमें जानने को ज्‍़यादा कुछ है नहीं।
अनिल कार्की : एक कवि के लिहाज से आप कविता के भीतर विचार को किस तरह देखते हैं ?
शिरीष कुमार मौर्य : मैं कविता के भीतर विचार से ज्‍़यादा अपने प्रिय विचार के भीतर उस कविता को देखता हूं, जो पूरी शिद्दत से मेहनतकश जीवन के अंतिम छोर तक सुनाई देती है। विचार मेरे लिए ज़रूरी है, जैसा पहले ही कहा वो जीवन को जीने की तरह है – जीना लेकिन मनुष्‍यता और गरिमा के साथ जीना। संसार के कचरे को देख पाने की निगाह और उसे साफ़ करने का संकल्‍प जहां नहीं है, वहां कविता भी कमोबेश नहीं है।   

अनिल कार्की : कविता में स्थापित होने के बावजूद आप आलोचना की ओर क्यों बढ़े,इसकी क्या वजहें-जरूरतें आपको महसूस हुई? 
शिरीष कुमार मौर्य : हां, कोई इरादा न होते हुए भी मुझे इधर आलोचना लिखने की ज़रूरत महसूस हुई। हमारे वरिष्‍ठ आलोचक अब अपनी रूढ़ियों और औज़ारों से इतना बंध चुके हैं कि वे भर निगाह कुछ देखने की कोशिश ही नहीं करते। उन्‍होंने अपने समय में इतना शानदार काम किया पर अब ….. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भाई वे आखिर कब तक काम करते रह सकते हैं। नए लोग भी कुछ करें। नए लोगों का ये हुआ कि उन्‍होंने बहुधा कविता-कहानी जैसी लोकप्रिय विधाओं में जाना-रहना पसन्‍द किया, जहां नाम और पुरस्‍कार बहुत जल्‍दी मिलते हैं। फिर यह भी जानिए कि मैंने कविता से आकर आलोचना लिखने की कोशिश करके कोई नया काम नहीं किया है। अस्‍सी के हमारे लगभग सभी अग्रजों ने यह काम किया – अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, विजय कुमार और बाद में लीलाधर मंडलोई, विनोद दास आदि। दिलचस्‍प होगा याद दिलाना कि ‘आलोचना की पहली किताब’ वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु खरे ने लिखी – (देखिए मेरी हंसी पर मत जाइए, मैं गम्‍भीरता से कह रहा हूं।) मेरे मित्रों में पंकज चतुर्वेदी, जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव और अनिल त्रिपाठी यह काम मुझसे पहले से कर रहे हैं और युवा आलोचना का स्‍थापित नाम हैं। इतना सब होने के बावजूद मुझे महसूस हुआ कि आलोचना दरअसल एक सैद्धान्तिक संघर्ष है, जिसका हिस्‍सेदार मुझे होना ही है। मैंने अपने लिए सिर्फ़ कविता की आलोचना की राह चुनी है। मैं अपनी बात अपनी तरह से कहना चाहता हूं – मैं आलोचना के परम्‍परागत शिल्‍प में नहीं बोल सकता इसलिए संवाद करने जैसे एक शिल्‍प को चुन रहा हूं, जिसमें नेम ड्रापिंग यानी अमुक ने कहा है-तमुक ने कहा है जैसा कुछ नहीं होगा। एक विकट समय और समाज में रहते-बसते हुए मैं इस सैद्धान्तिक संघर्ष को कैसे अंजाम दूं – यही  चुनौती है। और इसी ‘सैद्धान्तिक संघर्ष’ में वे सभी वजहें-ज़रूरते हैं, जिनके बारे में आपने पूछा।
अनिल कार्की : इस भूमंडलीकरण के समय में कविता की क्या जिम्मेदारी है. अपने जन के प्रति और स्वयं के प्रति?
शिरीष कुमार मौर्य : जिम्‍मेदारी ही जिम्‍मेदारी है भाई। यह जिम्‍मेदारी मनुष्‍यता के पक्ष में प्रतिरोध की सैद्धान्तिकी को बचाए रखने की है। वैश्‍वीकरण के पीछे छुपे दुश्‍चक्रों की असलियत समझने की है। एकध्रुवीय,लगभग एकतरफ़ा होती जाती दुनिया में मनुष्‍य मात्र के स्‍वर की स्‍वतंत्रता को बचाने की है। एक खोखली अवधारणा तीसरी दुनिया के देशों को लगातार लूट रही है। आवारा विदेशी पूंजी नए शिकार ढूंढ रही है,जो पहले समृद्धता का भ्रम पैदा करती है,फिर और ग़रीब करके छोड़ जाती है। विदेशी पूंजी निवेश के आत्‍ममुग्‍ध शिकारों का बुरा हाल होता है। यह किसी देश को उसके ही बाशिन्‍दों के विरुद्ध अनाचार की अंतिम हदों तक ले जाती है। जिम्‍मेदारी कवि की है कि कविता इस क्रूर समय में अपने जन को सम्‍बोधित हो – कुछ न हो तो उसे सावधान ही करे। वैचारिक और साहित्यिक इलाक़े में यह दुश्‍चक्र उत्‍तरआधुनिकता के रूप में प्रकट हो रहा है। नए लेखक उससे प्रभावित हैं,वे उत्‍तरआधुनिक विचारकों के आप्‍तवचनों को जीवनसूत्र की तरह उद्धृत कर रहे हैं। पाठ से अर्थ खंरोचे जा रहे हैं,कृतियां लहूलुहान हैं। यही कारण है कि अर्थ समेटती इस दुनिया में मैं अभिप्रायों का कवि कहलाना पसन्‍द करता हूं।  

अनिल कार्की : आपकी कविताएं एक ख़ास पैरामीटर पर नहीं चलती, वह यथार्थ को कई-कई पक्षों से देखती है और संभावित पक्षों को पाठकों के लिए छोड़ देती है। ख़ास कर आपके नये संग्रह ‘दंतकथा और अन्य कविताओं में’ ऐसा किसी ख़ास वजह से है या आप उत्तर समय में कविता को लेकर बने बनाए सांचों को अपनी तरह से विचार के साथ परिभाषित करना चाहते है?
शिरीष कुमार मौर्य : मुझे अपनी कविता पर बात करना अच्‍छा नहीं लगता। इतना भर कह सकता हूं कि मैं सिखाया हुआ नहीं लिखता – इससे मेरी कविता में जो हुआ है, उसे आपने अपने प्रश्‍न में ख़ुद स्‍पष्‍ट कर दिया। मैं कविता को सांचों से बाहर निकालने की विनम्र इच्‍छा रखता हूं, ख़ुद ही अपने लिए सांचा बनाता दिखने लूंग तो खीझ भी जाता हूं – शायद वह खीझ मेरी कविता में भी छुप नहीं पाती। आप मुझे खीझा हुआ कवि कह सकते हैं,खिझाने वाला न बन जाऊं,इसके लिए दुआ कीजिए।   
अनिल कार्की : वर्तमान में लेखक-संगठनों को लेकर आपकी क्या राय है?
शिरीष कुमार मौर्य : एक वाक्‍य में कहूंगा – बहुत सकारात्‍मक राय नहीं है
अनिल कार्की : क्‍यों सकारात्‍मक राय नहीं है?
शिरीष कुमार मौर्य : उनके सदस्‍य साहित्‍य में बेवजह की उठापटक बहुत करते हैं। संगठनों का ढांचा घुटन भरा है (हालांकि मेरा अनुभव केवल जसम का है)। वहां प्रतिभाहीन, प्रतिभाओं को डिक्‍टेट करने की इच्‍छा ही नहीं, ताक़त भी रखते हैं। एक छोटा उदाहरण दूंगा – 2008 में रामनगर में वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल के काव्‍यपाठ के आयोजन के प्रस्‍ताव को इसलिए धिक्‍कारा गया कि उस प्रस्‍ताव को बनाने की प्रक्रिया में जसम-उत्‍तराखंड की एक नामालूम ईकाई के सम्‍मुख आरम्भिक प्रस्‍ताव पेश नहीं किया गया था। वह आयोजन ही न हो सका। जसम को ही मैंने अज्ञेय के मुद्दे पर अपने ही विचार से इतना डिरेल्‍ड होते देखा है कि जी भर गया। मैं इस बारे में अधिक बोलना ही नहीं चाहता। लेकिन आप इस न बोलने की इच्‍छाको प्रतिक्रिया की तरह नहीं, हताशा और ऊब की तरह देखें-यह अनुरोध है मेरा। 

   

अनिल कार्की : इधर एक जो बड़ी बात ख़ासकर कविता के क्षेत्र में लगातार दिख रही है वह है जनपद और केंद्र की दो भिन्न धाराएँ, और यह भी सच है कि हिंदी कविता में भी अन्य विधाओं की तरह ही लोक का पक्ष लगातार कमजोर हुआ है. जबकि आप उन कवियों में अगुवा हैं जो जनपद और केंद्र को एक साथ लिख रहे हैं. फिर भी जनपद और केंद्र का बटवारा क्या उचित है? और इसमें केंद्र की जनपद के प्रति और जनपद की केंद्र के प्रति क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए. आप आज के इस जनपद को प्रगतिवादी कविता के पास पाते हैं या उत्तर-आधुनिकता के समीप?
शिरीष कुमार मौर्य : पहली बात तो यह कि मैं कहीं से अगुआ नहीं हूं। मेरी कविता आपको ऐसा आभास देती है तो यह मेरे लिए संतोष की बात है। लोक की ऊर्जा को हिंदी में लोक के स्‍वयभूं पहरेदारों ने हर लिया है। हर लोकवादी को आज सबसे पहले ज्‍यां ल्‍योतार को ठीक से पढ़ना  चाहिए यानी पोस्‍टमाडर्न कंडीशंस को,उसके बाद एक बार फिर मार्क्‍स को पढ़ें तो ख़ुद ही बात साफ़ हो जाएगी। खेद का विषय है कि कुछ कवियों को छोड़ प्रगति की ओर जाने की इच्‍छा रखने वाली जनपद की कथित कविता उत्‍तरआधुनिक खांचे में ही  अट रही है। मैं किसी बंटवारे को नहीं मानता। कहूंगा कि मैं किसी विखंडन,किसी विभेद को नहीं मानता। हां,मैं मानता हूं कवि में उसका जनपद बोलता है,जिसे बोलना चाहिए,लेकिन इस बोलने का विस्‍तार खोता जा रहा है। लोग कुंए में हूंक लगा रहे हैं। जनपद की कविता आज अपने ही क़ैद में है। उसमें ज़रूरी राजनीतिक समझ का अभाव है। हां,अष्‍टभुजा शुक्‍ल और केशव तिवारी जैसे अपवाद और शानदार कवि आपको अवश्‍य मिलेंगे। आप जनपद से शुरू कर कविता को कहां तक पहुंचा पाते हैं,असल सवाल यह है। अभी तो जीवन सिंह जैसे लोकधर्मी आलोचक को भी ये कथित लोकवादी कवि सुन नहीं पा रहे,बाहर की आवाज़ सुनना तो दूर की बात है। आप वृहद् सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों से मुंह मोड़ कर कब तक इतनी कट्टरता से अपने जनपद को अपनी ताक़त की जगह क़ैदख़ाना बनाए रखेंगे। खेतों में अनाज उगाने की रीति जिन्‍हें मालूम नहीं,वे वहां कविता उगाने के फेर में हैं । जनपदों में जो अशिक्षा,अनाचार,अमानवीय रिवाज़ और सामन्‍ती कचरा है,उसका प्रतिरोध किस स्‍तर पर इस तरह की कविता में सम्‍भव हो रहा है,यह जांचने-परखने का समय आ पहुंचा है। मेरे लिए मेरा जनपद (उसे पहाड़ कहिए) बड़ी ताक़त है,जिसके बूते मैं खड़ा रह पाया हूं। बात अधिक खिंचेगी,शायद यहां उतना अवकाश नहीं। 

 

अनिल कार्की : जी,अंत में एक सवाल और – लेखन को लेकर आपकी आगामी योजनाएं क्या है? 
शिरीष कुमार मौर्य :  कविता केन्द्रित आलोचना पर तीन पुस्‍तकें हैं,इसमें से दो प्रिंट में जा चुकी है। तीसरे हिस्‍से पर आजकल काम कर रहा हूं। एक कविता संकलन भी प्रकाशनाधीन है। कविताएं लगातार लिख ही रहा हूं। दरअसल योजना बनाकर काम हो नहीं पाता। मेरे जीवन में तो योजनाएं अतीत की खूंटियों पर टंगी मिलती हैं और योजनाओं से इतर कुछ नया काम सामने आ जाता है। अपने विद्यार्थियों के साथ रचनात्‍मक लेखन को लेकर सुव्‍यवस्थित काम करने का भी इरादा है। शायद आप जानते हों कि एक अरसे तक मैंने हिंदी की पत्रिकाओं के लिए स्‍केच बनाए हैं – इसी के किंचित विस्‍तार में पेंटिंग करने की एक दबी हुई इच्‍छा भी न जाने कब से कुलबुला रही है। मेरे सैद्धान्तिक संघर्ष की ज़रूरतें मुझे जहां ले जाएंगी,मैं वहां जाऊंगा – ये योजना नहीं,संकल्‍प है।
धन्‍यवाद।    
***
(जनसंदेश टाइम्‍स से  साभार)  
24जून  2014,नैनीताल। 

अनिल कार्की : 9456757646

अनिल युवा कवि-कथाकार-रंगकर्मी हैं। कविता के लिए हिंदी युग्‍म का पुरस्‍कार पा चुके हैं। उनकी क‍हानी नया मुंशी की एन.एस.डी. के सुभाष चन्‍द्रा के निर्देशन में रंगमंच पर प्रस्‍तुति काफी सफल रही है। एन.एस.डी. की ही नैनीताल में आयोजित बाल कार्यशाला एक अन्‍य कहानी का मंचन। अनिल लिखते ख़ूब हैं पर छपने में संकोची हैं। जल्‍द उनकी कहानियां राष्‍ट्रीय फ़लक पर उपस्थित होंगी।  

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स प्रख्यात चित्रकार पिकासो की हैं, जिसे हमने गूगल से साभार लिया है )