समकालीन कविता के स्वर को प्रतिनिधि रूप से समझने की एक कोशिश दिखाई पड़ती है ‘स्वर एकादश’ में। इसमें ग्यारह कवियों की कविताओं को शामिल किया गया है। इसे संपादित किया है कवि राज्यवर्द्धन ने। इस संपादित संग्रह पर पहली बार पर आप पहले भी कुछ समीक्षाएँ पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में एक और समीक्षा लिखी है युवा आलोचक अरुण होता ने। तो आइए पढ़ते हैं अरुण होता की यह समीक्षा।
समकालीन कविता के आयाम: संदर्भ युवा पीढ़ी की कविता
अरूण होता
आज के समय में जब परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में विखराव की स्थिति पैदा हो रही है वही ग्यारह कवियों की चयनित और संपादित कविताओं की पुस्तक का प्रकाशन एक विशेष अर्थ रखता है। स्वर एकादश के प्रकाशन से यह भी सिद्ध होता है कि कविता जोड़ने का काम करती है। अक्सर युवा पीढ़ी के संबंध में संवादहीनता का आरोप लगाया जाता है, स्वर एकादश उस आरोप को भी खंडित करती है। ग्यारह कवि और प्रत्येक कवि के लिए ग्यारह पृष्ठों का स्पेस यह सिद्ध करता है कि कविता का जनतंत्र आज भी कायम है। ग्यारह कवियों के स्वर के माध्यम से युवा पीढ़ी का जनतंत्र आज भी कायम है। ग्यारह कवियों के स्वर के माध्यम से युवा पीढ़ी के रचना संसार से रू-ब-रू होने का एक उपक्रम है “स्वर एकादश”। इसके कवि हैं – अग्निशेखर (जम्मू), सुरेश सेन निशांत (मंडी), केशव तिवारी (बांदा), महेश पुनेठा (पिथौरागढ़), भरत प्रसाद (शिलांग) राजकिशोर राजन (पटना), शाहंशाह आलम (पटना), संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद), ऋषिकेश राय (कोलकाता), कमलजीत चौधरी (सांबा) और राज्यवर्द्धन (कोलकाता), जो संपादक भी हैं स्वर एकादश के। ये सभी कवि सुपरिचित हैं और लगातार कविता सृजन में सक्रिय हैं। अधिकांश कवियों के काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और जिनके काव्य–संग्रह अभी नहीं प्रकाशित हुए हैं वे संभवत: शीघ्र ही उसके प्रकाशन हेतु सक्रिय होंगे। ऐसे में फिर ‘स्वर एकादश’ की एक प्रयोजनीयता है? कहना अनुचित न होगा कि एक साथ चुनिंदा कविताओं के माध्यम से युवा पीढ़ी की चिंताओं और उसके सरोकारों से परिचित कराने में इस संकलन की भूमिका महत्वपूर्ण है। हिंदी के वरिष्ठ कवि, आलोचक, और संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने आलोच्य संकलन की भूमिका में सही लिखा है–“ ग्यारह कवियों का यह संकलन कविता का कोई इतिहास बनाने या आंदोलन खड़ा करने या किसी राजनीतिक वैचारिक संघ के गठन की नीयत से नहीं तैयार किया गया है। जैसे अज्ञेय के तार सप्तक में विविध, रूचियों और राहों के अन्वेषी कवियों की कविताएँ एक साथ प्रकाशित हुई थीं, वैसे ही इन ग्यारह कवियों की भी जमीन और उनका आकाश अलग-अलग है। यह मात्र एक संयोग है कि ये कविएक साथ एक संकलन में पाठकों के सामने हैं ।” (पृ. 7)
समकालीन कविता पर आक्षेप यह लगाया जाता है कि इसमें एकरूपता, एकरसता और विषय-वैविध्य का अभाव है। लेकिन, ग्यारह कवियों की कविताओं से गुजरकर अनायास यह कहा जा सकता है कि समकालीन कविता में विषय-वैविध्य है। एकरसता टूटती है। यह बहुरंगी है। इसमें विविध आयाम हैं। इसके तमाम परिप्रेक्ष्य पाठकों के सामने उभरते हैं।
खुशी की बात है कि युवा-पीढ़ी के रचनाकारों ने अपने समय की विसंगतियों और विडंबनाओं को अपने ढंग से चित्रित किया है। चित्रण का यह ढंग एक रैखीय नहीं है। चूंकि युवा रचनाकाकारों का अनुभव संसार भिन्न-भिन्न है, इसलिए अभिव्यक्ति के स्वर में भी विविधता पाई जाती है। एक्टिविस्ट कवि के स्वर में आक्रोश और सामान्य कविकी आवाज में मद्धिमता होना स्वाभाविक है। लेकिन इन कवियों की सचेतनशीलता और संबद्धता में कहीं कोई अंतर नहीं आया है। समाज, इतिहास, लोक, भूमंडलीकरण, बाजार, साम्राज्यवाद, विषमता आदि के साथ-साथ स्त्री, सौंदर्य, प्रेम प्रकृति, ईश्वर, विज्ञान जैसे तमाम विषयों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति सहज सरल संप्रेषणीय भाषा में अथवा देसी शब्दों में की गई है।
इधर हिंदी में कविताएँ प्रभूत मात्रा में लिखी जा रही हैं। कविता के नाम पर अस्पष्टता का माहौल खड़ा किया जा रहा है। ‘वयं अपि कवय कवय’ अर्थात हम भी कवि हैं, कवि हैं- की रट लगी हुई है। जो कुछ कविता कह कर प्रकाशित हो रहा है वह न तो संवेद्य है और संप्रेष्य। फलस्वरूप, कविता अपनी अर्थवत्ता खो रही है। ऐसी स्थिति में राज्यवर्द्धन ने अमूर्तन की बढ़ती प्रवृत्ति और अबूझ बिंबों के सहज संप्रेष्य रचनाओं का अन्वेषण किया है। उन्होंने ऐसी कविताओं को पुस्तक में शामिल किया है जो अपने लक्ष्य और उद्देश्य में अचूक हों। इस दृष्टि से राज्यवर्द्धन की योजना की प्रशंसा की जानी चाहिए।
अग्निशेखर |
‘स्वर एकादश’ में संकलित कवियों के काव्य-जगत पर दो चार बातों का उल्लेख करना अनुचित न होगा। संकलन के पहले कवि हैं अग्निशेखर। अपनी जन्मभूमि कश्मीर से विस्थापित अग्निशेखर ने सांप्रदायिकता, अलगाववाद, धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद के विरुद्ध होनेवाले संघर्षों में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया है। अग्रणी भूमिका निभाई है। इसलिए अग्निशेखर की कविताओं में विश्वसनीयता है तथा कवि के भाव पाठको से स्वयं जुड़ते चले जाते हैं। अब तक के तीन कविता संग्रहों में कवि ने अनुभूति की प्रामाणिकता को सर्वाधिक महत्व दिया है। अग्निशेखर में विस्थापन की पीड़ा और वर्तमान की भयावहता के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर मौजूद है। ‘पुल पर गाय’ शीर्षक कविता में कवि ने विस्थापन के दर्द का साधारणीकरण किया है। माँ की असहायता और गाय के रंभाने की तुलना के साथ-साथ आकाश में गहराते सुराख एवं खून की नदी के जो बिंब प्रस्तुत किये हैं, वे सचमुच प्रभावशाली हैं। अदभुत शब्द चित्र है –
“छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में
उसे याद कर रही होती है गाय
इतने बरसों बाद भी
नहीं थमी है खून की नदी
उस पार खड़ी है गाय”
इस पार है मेरी माँ (पृ. 14)
कवि अपनी जड़ की ओर लौटने के लिए बेचैन है। कवि की जड़ यानी उसका गाँव जहाँ उसके नाभि–नालबद्ध हैं। अपनी जमीन को कभी विस्मृत नहीं होने देने का पिता को दिये गये वचन वह पूरा करना चाहता है। महानगरीय जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि मनुष्य बाजारवादी अर्थव्यवस्था की चकाचौंध में अपनी धरोहर को भुला बैठता है। अग्निशेखर की संबद्धता और प्रतिबद्धता हमें आश्वस्त करती है।
“मैं लड़ता रहूंगा पिता
स्मृतिलोप के खिलाफ
और पहुंचूंगा एक दिन
हजार हजार संघर्षों के बाद
अपने गाँव की नदी पर” (पृ. 20)
‘याद करता है बच्चा’ शीर्षक कविता में अग्निशेखर की विस्थापन से उत्पन्न त्रासदी की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। साथ ही, कवि का लोक तथा उसकी लोक चेतना का स्वर साफ तौर पर उभरता है।
सुरेश सेन निशांत |
सुरेश सेन निशांत अपने अन्दाज –ए-बयाँ के लिए जाने जाते हैं। आम जनता की चिंता को कवि ने अत्यन्त सहज शब्दावली में लेकिन प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। शब्दों का जाल बिछाने में कवि की कोई दिलचस्पी नहीं है। आज गुजरात के नाम पर भले ही विकास का ढोल पीटा जा रहा है लेकिन उसकी हकीकत कुछ और ही है। इक्कीसवीं शताब्दी में गुजरात न महात्मा गाँधी के लिए जाना जाता है और न ही अपने सांस्कृतिक विकास के लिए। आज गुजरात लोगों के मन में आतंक, सांप्रदायिकता और धर्मांधता के प्रतीक के रूप में जीवित है। फलस्वरूप अपने पुत्र को वहाँ भेजते समय मन में आशंकाओं का अंबार लग जाता है। कवि की ‘गुजरात’ शीर्षक कविता में एक ओर वात्सल्य का उभार है तो दूसरी ओर मनुष्य विरोधी शक्तियों को ललकार है। अहमदाबाद तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। अगर कोई पिता अपने पुत्र को गुजरात भेज रहा है तो यह उसकी मजबूरी है। हिमाचल यानी पहाड़ समस्याओं से घिर जाने के चलते मजबूर पिता की लाचारी है कि वह अपने लाडले का गुजरात भेज रहा है। अन्यथा –
अगर सेब के ये पौधे
किसी अनजान बीमारी से सूखने न लगते
मैं उसे यहीं रखता
X X X X
अगर इस पहाड़ों जिस्म को
छलनी नहीं करते
हमारे कुछ अपने लोग
हमारे सपनों को कर रहे हैं
वे तहस-नहस । (पृ. 29-30)
ऐसा नहीं है कि इस लंबी कविता में सुरेश सेन ने बहुत बुरा चल रहा है वक्त का ही चित्रण किया है। उन्होंने गुजरात को संबोधित किया है। तुम उसका ख्याल रखना के माध्यम से गुजरात के लोगों पर अगाध भरोसा और विश्वास भी प्रकट किया है। यह इस कविता की सबसे बड़ी खूबी है और कवि की दृष्टि का परिचायक भी इस कविता की बनावट और बुनावट भी मजबूत है।
‘पिता की छड़ी’ भी सुरेश सेन की प्रभावशाली कविता है। भौतिक वस्तुओं के पीछे बेतहाशा दौड़ लगाने वाली पीढ़ी के सामने संवेदना, मूल्य, आदि का कोई महत्व नहीं है। कवि ने इस सांस्कृतिक संकट पर गहरी चिंता जताई है –
“पिता के जाने के बाद
हम बेटों ने आपस में
सब कुछ बांट लिया
जमीन, घर, पासबुक में पड़े सभी पैसे
रह गई घर के कोने में पड़ी
टुकुर-टुकुर निहारती माँ और वह छड़ी” (पृ. 33)
निशांत की वह पाँच पढ़ी औरत और मंदिर से लौटती औरतें में नारी दृष्टि का परिचय मिलता है। सुरेश सेन निशांत की कविताएँ पाठकों को सदा लुभाती हैं, पसंद है।
राज्यवर्द्धन ने कला समीक्षा से अपनी साहित्य यात्रा शुरू की थी। अब तक उनकी कविताएँ हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। राज्यवर्द्धन की कविताओं में न तो कविताई के प्रति आग्रह है और न ही कविता सृजन की सायास चेष्टा। उनकी कविताओं से गुजर कर ऐसा अहसास होता है कि कवि के यहाँ सब कुछ अनायास और स्वाभाविक है। इस संकलन में कवि की कुल छ: कविताएँ हैं। खुशी की बात है कि इन कविताओं में कवि अपने को कहीं दोहराता नहीं है। वैराइटी है। उसे पता है कि वह किसके लिए और क्यों लिख रहा है। इसलिए भाषाई क्लिष्टता और भाव की पेचीदगियों से अपने को सदा दूर रखता है। वह बिल्कुल सीधी सादी भाषा में गहरी व्यंजना के साथ अपनी बात रखता जाता है। ‘कबीर अब रात में नहीं रोता’ कविता के माध्यम से युगीन सचेतनशीलता के अभाव पर प्रकाश डालता है तथा प्रतिरोधविहीन समय में सर्वत्र व्याप्त मुर्दा शांति और भयानक चुप्पी पर चिंतित नजर आता है। समय की विडंबनाओं को कवि ने यूं प्रस्तुत किया है –
“सोता रहता है
रात के अंधकार में अलसाया
सूरज उगने की प्रतीक्षा में” (पृ. 39)
भूमंडलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा मनमाने ढंग से प्रकृति के दोहन को कवि राज्यवर्द्धन ने बखूबी चित्रित किया है। इनकी कविताओं में पर्यावरण विमर्श का स्वर सुनाई पड़ता है तो युगीन विषमताओं की व्यथा-कथा भी अंकित हुई है। राज्यवर्द्धन अपने चारों ओर टूटते-बिखरते समाज में मानवीय मूल्यों, सपनों और जीवन के सौंदर्य बोध की रक्षा करने लिए सतत प्रयासरत हैं। प्रगतिशील मूल्यों के प्रति कवि की प्रतिबद्धता भी उसकी कविताओं में मौजूद है। कवि की स्पष्ट उदघोषणा है –
“मैंने
आम जनता के पास जाना ही
उचित समझा
नहीं बनना चाहता हूं
अंधेर बंद कमरे का
महान कवि।” (पृ. 45)
इस युवा कवि ने प्रचलित उक्तियों, कहावतों, मान्यताओं आदि को डी-कॉन्स्ट्रक्ट किया है। लेकिन इस विनिर्माण में कवि ने गाँव, घर, समय और समाज को ध्यान में रखा है। राज्यवर्द्धन ने अपनी भाषा और अपने मुहावरों के सफल प्रयोग किये हैं। यह कवि को विशिष्ट पहचान देने में सहायक है।
केशव तिवारी |
आज की काव्य-यात्रा में केशव तिवारी, महेश चंद्र पुनेठा और संतोष कुमार चतुर्वेदी चर्चित नाम हैं। इन कवियों ने युग समाज को सच्चाइयों के साथ जुड़े लोक जीवन, लोकभाषा आदि में जीवन के बहुरंगी चित्रों को कलात्मक बारीकियों के साथ उकेरा है। केशव तिवारी का कविता जगत औरों से भिन्न हैं वे अपने समकालीनों विशिष्ट भी। समाज में तेजी से हो रहे बदलावों और पूंजीवादी प्रभावों से प्रभावित लोक से वे चिंतित हैं। उनके लिए लोक अलंकरण का साधन नहीं है बल्कि उसमें रचने बसने के बाद उसे महसूस किया जा सकता है। इस रचने बसने की प्रक्रिया में वह दिहाड़ी मजदूरों, मेहनतकश लोगों, गाँव की मिट्टी की सुगंध आदि को अपनी कविता में उकेरते हैं। छत्तीसगढ़िया मजदूर की त्रासद कथा को कल रात शीर्षक कविता के माध्यम से प्रकट करते हैं तो वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा के लिए समर्पित कविता दिल्ली में एक दिल्ली यह भी में महानगरीय जीवन के दंश में भी अपने को यानी अपने लोक को बचाए रखने के प्रयास को उदघाटित करते हैं। दु:ख की बात है कि दिल्ली कहीं भी हो सकती है और प्रसन्नता की बात है कि दिल्ली में भी बाँदा, विदिशा या बनारस हो सकता है। केशव तिवारी लिखते हैं –
“मित्रों मैं दिल्ली में एक बूढ़े कवि से
मिल रहा था, वह राजधानी में
एक और दिल्ली को जी रहा था।” (पृ. 52)
राज्यवर्द्धन |
राज्यवर्द्धन की कविता ‘कबीर अब रात में नहीं रोता’ को केशव की कविता रातों में ‘कभी-कभी रोती थी मरचिरैया’ को मिला कर पाठ किया जाये तो युवा कवियों के सरोकारों से परिचित हो सकते हैं। केशव अपने खेत, खलिहान, गाँव–गिरांव, नदी, तालाब, पेड़, बोली-बानी में डूब कर वर्तमान पर नजर गड़ा कर उसके यथार्थ को सामने लाते हैं –
“तब ही हमें पता चला कि कुछ
मामूली चीजें कितने भीतर
धँसी हैं हमारे” (पृ. 53)
‘बिसेसर’ शीर्षक लंबी कविता में कवि ने आम आदमी की विसंगतियों को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। उसकी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विसंगतियों की परतों को पाठकों के सामने रखा है। प्रजातंत्र के नाम पर लूटतंत्र कायम होनेवाले देश में बिसेसरों की कैसी दुर्गति होती है, उसे कवि ने अत्यंत संवेदनशीलता के साथ कविता में स्थापित किया है। आज के भारत का चित्र बिसेसर के माध्यम से दृष्टव्य है –
“बिसेसर की जवानी और
बुढ़ापे के बीच
इस देश का राजनीतिक इतिहास
फैला पड़ा था
प्रजातंत्र के नाम पर एक
पूरी की पूरी पीढ़ी को
लूटा जा चुका था
अब जांत पांत धर्म और
बाजार की चमक से उसे
घेरा जा रहा था।” (पृ. 60)
चर्चित युवा कवि महेशचंद्र पुनेठा की कविताओं में पहाड़ी रंग और सुगंध मौजूद है। पहाड़ के माध्यम से पुनेठा लोक को आधार मानते हैं और प्रचलित दमन शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद करते हैं। सामान्यतया जिन विषयों पर लोगों की नजर नहीं जाती पुनेठा उसे भी कविता का विषय सफलता के साथ बना लेते हैं। अपनी छोटी कविताओं के माध्यम से भी कवि अपनी सामर्थ्य और खूबी को प्रस्तुत कर देता है। वर्तमान समय में हो रही अंधी प्रगति की असलियत को दिखाते हैं अव्यवस्था के प्रति नाराजगी और अव्यवस्था के दुस्परिणामों पर आक्रोश व्यक्त करते हैं। घर, परिवार, समाज, इतिहास, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, साम्राज्यवाद, प्रकृति, प्रेम, ईश्वर, सौंदर्य आदि विविध विषयों पर पुनेठा ने कविताएँ लिखी है। कैसा अदभूत समय है कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ गौरतलब हैं –
“कैसा अदभुत समय है
एक हत्यारा
दूसरे हत्यारें को
देता है सजा
हत्या के आरोप में।” (पृ. 99)
‘प्राणी उद्यान’ शीर्षक कविता में कवि की पर्यावरणीय चिंता प्रकट हुई है तो विकास के नाम पर प्रकृति के विनाश पर गहरा दु:ख उभरता है –
“लेकिन यहाँ नहीं बचा है
बाघ में बाघपन
पक्षी में पक्षीपन
पेड़ों में हरापन” (पृ. 103)
महेश चंद्र पुनेठा ने उपनिवेशवादी सोच पर व्यंग्य किया है तो पूंजीवादी, बाजारवादी अर्थ व्यवस्था के छल-छदम और उसकी कारगुजारियों का पर्दाफाश किया है। उन्होंने अपनी कविताओं में गरीबी, अभाव और असमानताओं से जर्जर लोगों के प्रति संवेदशील दृष्टि अपनाई है तो शोषक वर्ग के प्रति आक्रोश व्यक्त किया है। समाज और समय में हो रहे तमाम कवि-कर्म के संदर्भ में लिखा भी गया है – “अपनी जमीन से जुड़ी अपने पेड़ों से बल्कल की तरह सटीं ये कविताएँ, उन्हें कवियों की उस पांत से अलग करती हैं जो जमीन से कटकर शहर में हीन ही नहीं दीन भी हो गये हैं। लेकिन साथ ही ये कविताएँ अपने ठांव पर खड़ी होकर विश्व के बाजारवाद और राजनीतिकरण को भी टोह लेती हैं और अपना विरोध दर्ज करती हैं।”
संतोष कुमार चतुर्वेदी सुपरिचित युवा कवि हैं, संतोष की कविताओं में अंतर्वस्तु और शिल्प का सुंदर सामंजस्य है। प्रतिबद्धता और कविताई का भी तालमेल है। ‘पानी का रंग’ न केवल संतोष की बल्कि पूरे संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता है। संवाद करती हुई यह कविता विविध संदर्भों को पाठकों के सामने प्रस्तुति करती है। इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –
“अगर देखना हो पानी का रंग
तो चले जाओ
किसी बहती हुई नदी से बात करने
अगर पहचानता हो इसे
तो किसी मजदूर के पसीने में
पहचानने की कोशिश करो
तब भी अगर कामयाबी न मिल पाये
तो शरद की किसी अलसायी सुबह
पत्तियों से बात करती ओस की बूंदों को
ध्यान से सुनो” (पृ. 123)
संतोष की कुछ और कविता के माध्यम से उनकी प्रेम-चेतना के व्यापक स्वरूप का पता चलता है तो जीवन की एक जरूरी कविता में प्रेम के बारे में कवि की दृष्टि सामने आती है । प्रेम नित्य नवीन रूप में कवि के सामने आता है । कवि के अनुसार
“दुनिया की तमाम भाषाओं
दुनिया की तमाम बोलियों से इतर
हर भाषा और बोली में
प्रेम की
अपनी खुद की
एक अलग भाषा और बोली हुआ करती है” (पृ. 132)
आज के प्रतिकूल समय में अमीर अधिक अमीर बन रहा है तो गरीब अधिक गरीब होता जा रहा है। कवि ने इस असमानता को कविता में दर्शा कर अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट की है। ‘ओलार’ कविता की कुछ पंक्तियां हैं –
“यह कैसा समय है भाई
कि मोटे और मोटाते अघाते जा रहे हैं
कमजोर पतराते जा रहे हैं दिन ब दिन”
कुछ बैठे हुए हैं पाल थी मारकर
और तमाम के कंधे पीरा रहे” (पृ. 131)
संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताओं में भोजपुरी लोक, बोली बानी आदि बिलकुल घुले मिले मिलते हैं। किसी भी कविता में कवि की यह खूबी दिखाई पड़ जाती है। इतना कहना अनुचित न होगा कि यह कवि अपने दैनंदिन जीवनानुभवों को कविता में बखूबी अभिव्यक्त करता है।
हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में भरत प्रसाद की निरंतर कविताएँ प्रकाशित होती आ रही हैं। संकलन में प्रकाशित उनकी चारों कविताओं में किसान, मजदूर, आमजन की पक्षधरता और उनके लिए कवि की चिंता दिखाई पड़ती है। साथ ही समाज को प्रदूषित करने वाले अंधविश्वासों, रूढ़ियों और कुसंस्कारों पर कुठाराघात है। कवि किसी भूल-भुलैया का सहारा नहीं लेता है। ‘सर उठाओं बंधु’ में कवि व्यक्तित्व संपन्न बनने का आग्रह करता है।
“सामने मौत बन कर नाचते अंधकार से
नजरें चुराकर, सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यहाँ (पृ. 111)”
भरत प्रसाद |
सुरेश सेन ‘गुजरात’ शीर्षक कविता के साथ भरत की वह चेहरा मिला कर पढ़ी जाए तो स्पष्ट होगा कि युवा पीढ़ी प्रगतिशील सोच की है। किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता, धर्मांधता अथवा धार्मिक उन्माद का विरोधी है। गोधरा कांड के चेहरे से कवि ने पर्दा हटा कर उसकी नंगई का खुलासा किया है –
“इसलिए क्षत-विक्षत भ्रूण को
जीवित माँ के पेट से खींचकर
दहकती ज्वाला में भून डाला गया। ” (पृ. 113)
पूरी कविता से गुजरने के बाद निस्संदेह कहा जा सकता है कि भरत प्रसाद ने सत्ता की नृशंसता और उसके संहारकारी रूप को उघाड़ने में पूरी सफलता हासिल की है । इसी तरह, ‘रेड लाइट एरिया’ कविता में कवि ने नारी जीवन की त्रासद स्थितियों का चित्रण किया है। लेकिन इस कविता की निम्न पंक्तियों से कवि की दृष्टि का खुलासा हो सकता है तथा उसे भरत प्रसाद की विशेषता भी कहा जा सकता है –
“उसमें औरत की तरह जीने की बेचैनी अभी बाकी है
बाकी है सलाखें तोड़कर निकल भागने की हसरत
अपनी भस्म पर फसल लहलहाने की हिम्मत अभी बाकी है” (पृ. 117)
“कामाख्या मंदिर के कबूतर” भी एक बेहतरीन कविता है। यह कवि भावों पर बल देता है, कला पर नहीं। अपनी बात को बिलकुल सीधे-सीधे रखते जाने के क्रम में कला आ गई (अक्सर आई हुई है) तो उसका स्वागत करता है।
शहंशाह आलम के कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संकलन में आलम की कुल नौ कविताएं स्थापित हैं। प्रेम, गार्हस्थ्य, प्रदूषण, स्वप्न, आदि विषयों पर लिखी गई कविताओं की पठनीयता कवि ने अपनी अनुभूतियों के आधार पर कविताएँ लिखी हैं। संकलन के अन्य कवियों की तरह इनकी संकलित रचनाओं में पक्षधरता, प्रतिबद्धता और समय की उपस्थिति का अभाव लक्षित होता है। “पृथ्वी” शीर्षक कविता बहुत अच्छी बन सकती थी परंतु वैसा हो न पाई। समकालीन कविता में घर की तलाश पुरजोर ढंग से हुई है तो कवि उसका अभाव अपने यहाँ नहीं पता है। ‘घर’ का ‘मकान’ में तब्दील होने की पीड़ा कवि के यहाँ नहीं है। समय की बिडंबनाओं का भी अभाव है आलम की कविता में। आलम की कविताओं में एकरसता भी है। हो सकता है कि कविताएँ संपादक प्रेक्षित को करते समय उन्हें इसका ध्यान न रहा होगा। शहंशाह आलम के रचना संसार में प्रेम तत्व भरपूर है।
ऋषिकेश राय प्रगतिशील विचार संपन्न कवि हैं। उनकी कविताओं में उपेक्षितों और निस्पेषितों को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। अनविकी मूर्तियों पर संभवत: सबसे पहली कविता ऋषिकेश की है। दरअसल इस कविता के माध्यम से कवि ने दमित और प्रताड़ित वर्ग की व्यथा बताई है। हाशिये पर पड़े उपेक्षित लोगों के प्रति संवेदनशीलता प्रकट की है। कवि में कम शब्दों में बहुत कहने की कला है –
“नहीं भाती किसी मंदिर की कैद उन्हें
मूरत से बाहर आकर
बिखर जाती हैं वे चारों ओर
भर देती हैं देवत्व से हर ठौर
हर जगह को देवालय बना देती हैं अनबिकी मूर्तियाँ” (पृ. 74)
प्रत्यूष बेला में ही सड़क बुहारने वाले, अखबार पहुंचाने वाले, सामान पहुंचाने वाले, रिक्शे वाले आदि तमाम मेहनतकश लोगों के प्रति कवि संवेदनशील है। श्रम के महत्व और उसके सौंदर्य को कवि ने शिद्दत के साथ धन्यवाद शीर्षक कविता में चित्रित किया है। इसी तरह हम लौटेंगे कविता में आस्था, जिजीविषा और आत्म विश्वास का स्वर सुनाई पड़ता है, पर हम लौटेंगे/ फैलती धूप में गर्मी की तरह ऋषिकेश राय में कविताई का कोई अभाव नहीं है। उनकी कविता में कला अंतग्रर्थित हुई है। सायास नहीं अनायास घुली मिली है। बेटियाँ एक बेहतरीन कविता है। इसमें कवि की दृष्टि और उसकी सामर्थ्य भी पूरी तरह स्पष्ट नजर आती है। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं –
“बेटियाँ नहीं होती बरगद छतनार
बेटियाँ दूब सी
अपने नोकों पर उठा लेती हैं शिलाखंड
बेटियाँ स्मृति की धुंधुआती कोटर में
मिट्टी का दिया रख जाती हैं
बेटियाँ गिरती रहती हैं, हमारे अंदर
बर्फ सी चुपचाप।” (पृ. 80)
ऋषिकेश राय की तथा इस संग्रह की उल्लेखनीय कविता है ‘बरधाइन गंध’ इस कविता में कवि ने गाँव, लोक जीवन तथा उससे जुड़ी अपनी संबद्धता को सफलता के साथ उकेरा है। एक बात और भी है कि इस कवि की रचनाओं में विचार संपृक्त है।
राजकिशोर राजन |
‘स्वर एकादश’ के अधिकांश कवियों की तरह राजकिशोर राजन की कविताओं में सभ्यता संकट का चित्रण हुआ है। सभ्यता के नाम पर भरमाया और भटकाया जा रहा है आमजन को कवि ने ऐसी चालाकियों का पर्दाफाश किया है। कवि की कविताओं का आनंद उठाने के बाद यह अहसास होता है कि इसका अनुभव संसार व्यापक है। गाँव से दिल्ली तक व्याप्त है। मशीनी सभ्यता में पल रहे लोगों में संबंधहीनता और संवेदना के क्षरण पर भी कवि की गहरी चिंता है। ‘फोटो’ शीर्षक कविता में संबंध का फोटो में तब्दील हो जाने की यंत्रण है। दिल्ली में भी अपने गाँव चांद परना के किसी बच्चे के सपने में रोटी हमारी चेतना को झकझोरती है। राजकिशोर के यहाँ स्मृतियाँ अत्यंत प्रभावशाली ढंग से आती हैं । सुनैना चूड़ीहारिन इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। दिल्ली की रजाई कविता में कवि ने सत्ता पर कुठाराघात किया है, व्यंग्य भी किया है –
“कहाँ से आती होगी, दिल्ली की रजाई में गरमी
और दिल्ली के बाहर की
उतनी गरम क्यों नहीं होती” (पृ. 95)
राजकिशोर राजन जनपक्षधर कवि हैं। उनकी जनपक्षधरता नए बिंब की तलाश में भी देखी जा सकती है –
“दिखता है बहन का उदास आटा सानना
पत्नी का बर्तन मांजना
माँ को खटिया पर बैठा
पिताजी का ढाढ़स बँधाना
और मेरे चार साल के बेटे का
चीनी से भरी रोटी खाने के लिए जिद करना” (पृ. 93)
समकालीन कविता के विषय लगातार बदल रहे हैं। अत: विषय के अनुरूप नये बिंब की तलाश जरूरी है। यदि पुराने विषय आयें तो नये अंदाज में आना चाहिए। इसे राजकिशोर राजन का कवि जानता है। इसलिए, राजकिशोर राजन सहित ‘स्वर एकादश’ के अधिकांश कवि लगातार समाज की बुराइयों, अन्यायों, अत्याचारों और क्रूरताओं से टकराते हैं। वे केवल शब्दों के महारथी नहीं बल्कि जन-जन तक अपने विरोध को पहुंचाने में विश्वास करते हैं। अपने देखे हुए को दिखाने में उनका विश्वास है। महज कल्पना की दुनिया में रमकर काव्य लोक का सृजन करना इन कवियों का उद्देश्य नहीं है।
कमलजीत चौधरी |
प्रस्तुत संकलन के वरिष्ठ कवि अग्निशेखर हैं तो युवतम कवि कमलजीत चौधरी हैं। ग्यारह कवियों में पचीस वर्षों का अंतर है। पचीस वर्षों की अवधि में आये बदलावों को कविता के माध्यम से अध्ययन किया जाये तो एक रोचक प्रसंग होगा। लेकिन अब कमलजीत की कविताओं पर दो चार बातें जरूरी हैं। जम्मू के निकट गाँव में रहनेवाला यह कवि छोटी-छोटी कविताएँ लिखता है। अपनी छोटी-छोटी अनुभूतियों को कविता में पिरोने का प्रयास करता है। सत्ता के वर्चस्व और सांप्रदायिकता का विरोध करता है। बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक शीर्षक कविता अनूठी है तथा कवि के विचार का प्रतिनिधित्व करती है। क्षरित हो रही संवेदनाओं से कवि की चिंता तीन आदमी कविता में जाहिर होती है। इस युवा कवि की बड़ी चिंता है आदमी का टूटना वह लिखता है –
“इतिहास
जानता है
वह न रहा है
आदमी टूट रहा है ।” (पृ. 142)
कमल की कविताओं में लय और तुक के प्रति भी एक आग्रह दिखाई पड़ता है। कवि से उम्मीद की जाती है कि वह अपनी कविताओं में अपनी स्थानीयता को जीवित करे। उसमें अपार संभावनाएँ हैं।
संपादक राज्यवर्द्धन ने जिस उद्देश्य के लिए सात राज्यों के कवियों के रचना संसार से परिचित किया है, उसमें उन्हें बहुत हद तक सफलता प्राप्त हुई है। कविता गंभीर हो सकती है परंतु उसे बोझिल बना देने से कविता के सामने संकट खड़ा हो सकता है। कविता को जन सामान्य तक पहुंचाने के लिए कवियों को नागार्जुन, त्रिलोचन आदि के मार्ग पर चलना होगा। खुशी की बात है कि ‘स्वर एकादश’ के कवि इसे समझते हैं। कविता पाठकों से सीधा संवाद कायम करे। पाठक कविता के मर्म को समझ ले तो कवि का श्रम सार्थक होगा कवि और पाठक के बची एजेंट की जरूरत पड़े तो फिर कविता कैसी?
इस संकलन की अपनी सीमाएँ भी हैं। लेकिन, किस पुस्तक की सीमाएँ नहीं होती? इसमें न तो कोई कवयित्री है और न ही कोई दलित आदिवासी कवि की रचनाएँ शामिल हैं। हाँ, रिजर्वेशन वाली बात की वकालत नहीं की जा रही है। इन वर्गों के स्वरों से संकलन अधिक समृद्ध हुआ होता। लेकिन ‘स्वर एकादश’ का महत्व है और इसे अस्वीकारा नहीं जा सकता है। व्यक्तिवादी स्वार्थपरता के माहौल में राज्यवर्द्धन के समावेशी स्वभाव की प्रशंसा की जानी चाहिए। सबसे बड़ी बात है कि समकालीन हिंदी कविता के ग्यारह कवियों की रचनाशीलता से परिचित होने में ‘ स्वर एकादश’ की बड़ी भूमिका है। अंत में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के शब्दों में समापन– “ इनमें अभी काव्य कला और शिल्प का भी कच्चापन दिखेगा फिर भी इनमें संभावनाएँ हैं और कुछ में तो काफी हैं। मुझे विश्वास है, हिंदी के पाठक इनकी कविताओं का स्वागत करेंगे। ” (पृ. 8)
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