प्रकाश का आलेख ‘प्रेम में देह, देह में प्रेम’


प्रकाश

विगत 21 अगस्त 2015 को जब हमने प्रकाश का एक आलेख ‘प्रेम और मृत्यु (कविता) में क्या होता है?’ पहली बार पर प्रकाशित किया था  तब हमें यह पता नहीं था कि वे किन अवसादों से गुजर रहे हैं और हाल में इसकी क्या परिणति होने वाली है। हाल ही में जब उन्होंने अपना दूसरा आलेख ‘प्रेम में देह, देह में प्रेम’ भेजा तब हम इसका शीर्षक देख कर कुछ आश्वस्त हुए। लेकिन यह आश्वस्ति क्षणिक ही साबित हुई। विगत 24 जनवरी को प्रकाश का असामयिक निधन हो गया। प्रकाश का जाना पहली बार की अपनी व्यक्तिगत क्षति है। प्रकाश को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उनका यह आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं प्रकाश का यह आलेख ‘प्रेम में देह, देह में प्रेम’

 

प्रेम में देह, देह में प्रेम


प्रकाश
सदियों से प्रेम का प्रबल चेहरा प्लेटोनिक किस्म का रहा है। दुनिया-भर की अमर प्रेम कहानियां, जो लोक की स्मृति में दर्ज हैं, अपने प्लेटोनिक स्वभाव के कारण जानी जाती हैं। ये प्रेम कहानियां केवल लोक की स्मृति में नहीं, उसके मौखिक और लिखित साहित्य में भी, आदर के साथ स्थान पाती हैं। इनका प्रतिबिंबन व्यापक रूप से शिष्ट साहित्य एवं शिष्ट कला के विभिन्न रूपों में संभव हुआ है। प्रेम की बात छिड़ते ही रूमानी-सा माहौल स्वभावतः बन जाता है। बिन रूमानी हुए प्रेम पर चर्चा प्रायः होती ही नहीं है। इसकी अनुभूति मात्र से देह-प्राण खिल उठते हैं।
प्रेम को प्लेटोनिक रूप में समझने-महसूसने का सिलसिला बहुत पुराना है। कितना पुराना, शायद इसका अनुमान लगाना बेमानी बात होगी। मनुष्य के स्वभाव का अभिन्न हिस्सा होने के कारण प्रेम की पुरातनता मनुष्य जितनी ही है। लेकिन यह कह पाना मुश्किल है कि मनुष्य ने पहले-पहल प्रेम को जिस रूप में महसूसा और जाना था, उसमें भावनात्मक अथवा रूमानी तत्व प्रमुख था या देह-तत्व, जिसे प्रायः सेक्स से जोड़कर देखा जाता है। जो भी हो, एक भावनात्मक दुर्बलता के रूप में प्रेम ने मनुष्य को अपने जिस रूप में पूरी तरह से गिरफ्त में लिया, वह उसका प्लेटोनिक और रूमानी रूप ही रहा है। हर देश-काल के भूगोल के लोक ने प्रेम के ऐसे ही किस्सों को अपनी स्मृति, परंपरा और संस्कृति में शामिल किया है, उन्हें तरजीह दी है जिनमें देह और काम का भाव विरल हो गया है। और यदि वह किसी रूप में थोड़ा- बहुत मौजूद भी है तो उसका उदात्तीकरण कर उसे प्लेटोनिक स्तर पर स्थित कर दिया गया है। लोक-रूपों से बाहर साहित्य और कलाओं के शिष्ट स्वरूप के काफी महत्वपूर्ण हिस्से ने भी प्रेम के उदात्त स्वरूप को मान्यता दी है। प्रेम को लेकर एक गहरा रूमानी भाव इस साहित्य में भी है। पश्चिम में जो स्वच्छंदतावाद अथवा रोमांटिसिज्म नाम का वृहद साहित्य और कला-आंदोलन प्रेम, कल्पना और उन्मुक्त भावोच्छवास की भाव-त्रयी से तदाकार होकर उद्भूत हुआ, भावनाओं के अनियंत्रित आवेग में उसने प्लेटोनिक रोमान के अनेक अनछुए शिखरों को छू लिया। हिंदी में छायावाद प्लेटोनिक प्रेम की कविता का श्रेष्ठ उदाहरण है। प्रयोगवाद और नई कविता में भी इस भावोच्छवास का अपनी तरह से विकास हुआ। सन् 80 के बाद की हिंदी कविता में भी प्रेम के इस रूप की बहुतेरी झलकियां देखने को मिलती हैं। अशोक वाजपेयी की अनेक प्रारंभिक कविताएं प्रेम के आवेग से उत्तेजित और उच्छवसित हैं। दुनिया की तमाम भाषाओं की प्रेम कविताओं में ऐसी अभिव्यक्तियां बड़े परिमाण में मिल जाती हैं।
आखिर यह प्रेम इतना नाजुक और भावुक मामला क्यों है? इतना संवेदनशील और अनियंत्रित क्यों है कि प्रायः इसमें डूबने वाले प्रेमी को पागलतक कह दिया जाता है। और यह पागलपनभी ऐसा है कि पागलहुआ प्रेमी किसी काम का नहींरह जाता। उसे खराबहो गया-सा मान लेते हैं। क्या सचमुच प्रेम ऐसी कोई बीमारीहै, जो प्रेम करने वाले को बेकामकी चीज बना देती है? ऐसा कैसे होता है?
हम अकसर यह नोट करते हैं कि एक व्यक्ति, जो प्रेम में गिरता है, उसकी शरीर-मुद्रा, भाव-भाषा, व्यवहार और गतिविधियों में भारी बदलाव दिखने लग जाता है। उसमें गंभीर दैहिक, भावनात्मक और व्यवहारगत परिवर्तन प्रकट होकर विकसित होने लगते हैं। प्रेम की सफलता और विफलता की स्थिति में ये परिवर्तन अलग-अलग कोटि के होते हैं, प्रायः विपरीत भी। लेकिन इतना तय है कि यह प्रेम करने वाले की शख्सियत को काफी हद तक बदल देता है। इसी व्यक्तित्वांतरण को आमतौर पर, दूसरों द्वारा, प्रेमी के पागलपनके रूप में नोट किया जाता है। यह पागलपनधार्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी है। वहां भी इसी तरह का व्यक्तित्वांतरण घटित होता है। दुनिया में अनेक ऐसे धार्मिक-आध्यात्मिक पंथ और संप्रदाय हैं जिनमें परम-तत्वतक पहुंचनेके लिए ज्ञान’, ‘कर्मआदि जैसे मार्गों को अनुपयुक्त मानकर प्रेमके मार्ग से पहुंचने और उसे पाने का विधान है। उनमें प्रेम किसी मूर्त व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं होता, बल्कि अमूर्त-अदृश्य परमात्मा के प्रति होता है। फिर भी उसके प्रति अपने प्रेम को संभव करने के लिए उसे, यानी परमात्मा को, एक ठोस उपस्थिति के रूप में परिकल्पित कर लिया जाता है। ऐसे धार्मिकों में परमात्मा के प्रति प्रेम उसी प्रकार का, और उतना ही प्लेटोनिक होता है जितना कि एक व्यक्ति-प्रेमी का व्यक्ति-प्रेमी के बीच संभव है। इस मामले में सूफियों का संप्रदाय एक अग्रगण्य और प्रमुख धार्मिक संप्रदाय है। सूफी परमात्मा को प्रेयसी की ठोस उपस्थिति के रूप में देखते-पाते हैं। ऊपर से देखने पर यह प्रेम दोनों तरफ से इंडिविजुअलप्रेम है। परमात्मा के प्रति प्रेम की ठोस इंडिविजुअलिटी के कारण ही एक सूफी ऐसा प्रेम कर पाता है जो सांसारिक प्रेम जैसा मालूम पड़ता है। उसके हाव-भाव, बोली-बानी, शरीर-मुद्रा सबमें ठीक उसी प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगत होता है जैसा अगर एक इंडिविजुअल प्रेमी दूसरे इंडिविजुअल प्रेमी के प्रेम में गिरता, तो होता। एक सूफी भी उसी तरह पागलहो जाता अथवा समझा जाता है जिस तरह कोई अन्य सामान्य प्रेमी। वह भी एक दूसरे प्रेमी की तरह बेकाम की चीज घोषित कर दिया जाता है। उसका भी व्यक्तित्वांतरण एक सांसारिक प्रेमी की तरह उसी रूप में होता है। उसमें भी वही दैहिक, मानसिक, भावनागत और व्यावहारिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं जो एक सांसारिक प्रेमी के शरीर-मन-भावना और व्यवहार में होते हैं।
एक सूफी अपने तथाकथित इंडिविजुअल प्रेम को अपने धार्मिक और आध्यात्मिक व्यवहार के सूत्रों से जोड़कर उसका उदात्तीकरण जरूर करता है। यह उसकी सर्वोच्च कामना है। जरूर वह इंडिविजुअल प्रेम के बहाने परमात्मा के सार्विक प्रेम को प्राप्त करने की इच्छा करता है। उसकी इंडिविजुअल प्रेयसी’ ‘अखिल प्रेयसीमें विस्तारित हो जाती है। लेकिन एक सूफी को व्यवहार, भावना, भाषा आदि सभी स्तरों पर टोटल चेंजअंततः मूर्त और उपस्थितअथवा मूर्त और उपस्थित के आभास वालाप्रेम ही करता है। यह टोटल चेंज उसकी भौतिक काया में होता है। इसलिए वह धार्मिक या आध्यात्मिक बाद में है, पार्थिव प्रेमीपहले है।
एक सूफी भी प्रेममें मनोदैहिक परिवर्तनों के फलस्वरूप असामान्य व्यवहार करने वालों की श्रेणी में परिगणित कर लिया जाता है और व्यक्ति के रूप में किसी अन्य साधारण प्रेमी के साथ भी यही घटना घटती है। दोनों इसी असामान्यताके कारण तथाकथित स्वस्थ और संतुलित समाज में पागलऔर विक्षिप्तघोषित कर दिए जाते हैं। पागलऔर विक्षिप्तघोषित होने से पहले सभी प्रकार के प्रेमी अपनी परिवर्तित हो रही मनोदैहिक स्थितियों के कारण एक अतार्किक, अबूझ और विशिष्ट रूप से कल्पित जगत में संक्रमण कर जाते हैं। जहां वे निर्वाक् शून्यता की गिरफ्त में आ कर उससे आविष्ट होते हैं। उस छायाभासी रोमैंटिक संसार में तर्क, बुद्धि और प्रश्नाकुलता का अवकाश नहीं। वैसे भी रोमैंटिक वृत्ति का तर्क और बुद्धि से सनातन वैर है।
तो प्रेम में तर्कातीत हो जाने के कारण ही सारा पागलपनहै। निरी बुद्धि और निपट संशय से मुंहफेरे खड़े होने के कारण ही उसमें नाजुकपन है। सामान्यविधि और अनुशासन के दायरे में न रुक-ठहर पाने के कारण वह खराबऔर बेकामकी चीज होता है। इसलिए वह संसार में होता हुआ भी अपना स्वप्न संसार के बाहर ढूंढ़ता है।

कभी प्रेम में कोई देह गिर सकती है तो कभी किसी देह में प्रेम गिर सकता है। इस गिरनेको हम दो अलग-अलग प्रत्ययों में बांटकर देख सकते हैं- एक, प्रेम में देह और दो, देह में प्रेम। प्रेम में देहके प्रत्यय में जब कभी देह प्रेम में गिरतीहै तो वह, यानी देह, अपने होने की स्मृति का अतिक्रमण कर जाती है। वह प्रेम के उस लोक में शिफ्टहो जाती है जिसे हम आमतौर पर प्लेटोनिक जगत कहते हैं। तब देह का होना अकसर विरल हो जाता है। जब प्रेम के अधिकार में देह होती है तब प्रेम देह को एक तरह से मार ही डालता है। प्रेम उसकी रिक्त हुई जगह पर काबिज हो जाता है। वहां वह देह की स्मृति और उसके आभास को भी विरल कर देता है। प्रेम देह में जाकर देह की सत्ता को पूरा ही तोड़ डालता है। देह प्रेम के जादू से आविष्ट होकर अंततः उसके रहस्य की भूल-भूलैया में खो जाती है। 
लेकिन प्रेम ही हमेशा देह को आविष्ट नहीं करता, देह भी अकसर प्रेम को अपने अधिकार में ले लेती है। तब देह प्रेम को कब्जाकर अपने पदार्थमय स्वभाव की प्रभुता उस पर स्थापित कर देती है। अब देह प्रमुख हो जाती है और प्रेम उसके अनुषंग में आता है। देह के प्रमुख और प्राथमिक होने पर उसके अनुषंग में आया प्रेम देह के बाई प्रोडक्टके रूप में सामने आता है। देह अपने नाकुछपनमें भी प्रेम पर हावी हो जाती है। वह प्रेम को अपने गहरे तल में खींच ले जाती है। तब प्रेम देह के संकरे दायरे में महदूद होकर देह के व्याकरण से ही परिभाषित होने लगता है। देह प्रेम के रहने का एक अस्थायी शरण्य-सी बन जाती है और इस ठौर और ठीये में जब-तब मनमाने बदलाव की गुंजाइश भी बनी रहती है।
प्रेम में देहके विचार में भी प्रेम देह को अपना ठीया बनाता है किंतु प्रेम जल्द ही इस ठीये का अतिक्रमण कर जाता है। बल्कि वह देह को उसके विशुद्ध भोगपरक भौतिक आशय में देह रहने ही नहीं देता। वह उसे आविष्ट कर उस पर पूरा अधिकार बना लेता है। तब देह की मौजूदगी मात्र एक उत्तेजक कायिक सत्ता के रूप में नहीं रह जाती, उसका प्रतिकार प्रेम के द्वारा किया जा चुका होता है। वहां देह अवशेष रूप में जरूर बची रहती है लेकिन वह प्रेम के संयत ऐंद्रिक वैभव को अनुभव-समृद्ध और प्रदीप्त मात्र करती है।
इसके ठीक उलट देह प्रेम मेंएक उत्तेजनापूर्ण आनुभविक प्रत्यय है। वहां खुद देह प्रेम को नियंत्रित और निर्धारित करती है, उसमें मनमाना अर्थ भरती है। वहां देह को प्रेम का सम्मोहन आविष्ट नहीं करता, बल्कि प्रेम को देह की उत्तेजना और कामना घेर लेती है। प्रेम को घेरती देह विशुद्ध पदार्थमय उष्मा लिए हो सकती है। प्रायः होती ही है। वहां प्रेम देह की सीमा को अतिक्रमित नहीं करता, बल्कि वह उसकी कोठरी में सिमट और सिकुड़ जाने की नियति के अधीनस्थ होता है। देह का विशुद्ध पदार्थमय व्याकरण प्रेम को परिभाषित करने लगता है। यह सारा खेल देह की विशिष्ट भौतिक प्रकृति या स्वभाव के अनुकूल होता है।


हम सभी यह जानते हैं कि मानव-शरीर का अपना एक स्वतंत्र रसायन शास्त्र है, कार्य-व्यापार है। देह की समूची कार्य-प्रणाली को देखने-समझने और व्याख्यायित करने का विज्ञान का अपना विशिष्ट नजरिया और अपने उपकरण हैं। अन्यान्य मानवीय भावों और संवेदनाओं के साथ-साथ प्रेमके भाव को भी वह वस्तुनिष्ठ और तार्किक नजरिए से व्याख्यायित और विश्लेषित करता है। उसका अपना गणित है कि मानव-देह के समस्त क्रियाकलापों सहित उसके समस्त भाव-व्यापार और संवेदी स्थितियां भी देह की भौतिक और रासायनिक प्रणाली से निर्धारित, नियंत्रित और संचालित होती हैं। प्रेमका भाव भी ऐसा ही एक भाव है। शरीर-शास्त्र प्रेम के भाव के प्लेटोनिक स्वरूप को खारिज करता है या फिर उसे भी अपने नियमों-उपनियमों के माध्यम से व्याख्या-योग्य बनाता है। वह देह में प्रेमकी अवस्थिति को सचमुच में यह स्वीकारते हुए वैधता प्रदान करता है कि देह में अवस्थित प्रेम कहीं भी, कभी भी, देह की भौतिक सीमा का अतिक्रमण नहीं करता। उसका होना देह के होने के कारण ही संभव है। देह से बाहर उसकी कोई सत्ता नहीं। दरअसल शरीर-शास्त्र देह को आधारभूत मानकर प्रेम की भावसत्ता का भारी अवमूल्यन कर देता है। वह प्रेम को देह के तल पर उतारकर उसकी व्यापक तौर पर मान ली गई उदात्त, अलौकिक, दैवीय और गरिमामय छवि को अपदस्थ कर देता है।
शरीर-शास्त्र के पास प्रेम में देहजैसे प्रत्यय की कोई संतोषजनक अवधारणा और व्याख्या अब तक नहीं है किंतु देह में प्रेमके प्रत्यय को वह मस्तिष्क के संरचना-शास्त्र की सहायता से आसानी से व्याख्यायित और विश्लेषित कर देता है। चूंकि देह की प्रायः समस्त क्रियाओं का नियंत्रण-केंद्र मस्तिष्क और उसमें सक्रिय रासायनिक क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हैं और वही मनुष्य के विचार और भाव-व्यापार का संचालन भी करता है, अतः शरीर-शास्त्र के अनुसार, एक भावहोने के नाते प्रेम का भावभी मानव-मस्तिष्क के नियमन की परिधि के भीतर आता है। इस परिधि के भीतर सोचें तो जब देह में प्रेम जागताहै तब चूंकि वह देह के भीतर जागता है, सो देह, दिमाग और उनका समवेत विज्ञान प्रेम का मालिक है। वह देह में प्रेम को अपने हिसाब से नचाता, जगाता और सुलाता है। देह का अपना दिमाग इसके लिए उत्तरदायी है।
जब हम देह में प्रेमकी बात करते हैं और उसे शरीर-शास्त्र से जोड़ कर देखने-समझने की कोशिश करते हैं तब वास्तव में हम उसे बरास्ते शरीर-विज्ञान एक ऐसे वस्तुनिष्ठ तरीके से व्याख्यायित-विश्लेषित करने पर मजबूर होते हैं जहां प्रेम करने-पाने और अनुभव की सीधी-सरल चीज न होकर शुष्क अकादमिक अध्ययन की कठोर वस्तु मात्र बनकर रह जाता है। विज्ञान और वैज्ञानिक खोजों के तुमुल जयनाद के इस युग में संसार की प्रत्येक कोमल और नाजुक चीज इसी प्रकार वस्तुनिष्ठ अध्ययन और निपट शोध की बेलाग वस्तु बन कर रह गई है। हर चीज एक विशिष्ट प्रविधि के अधीन और बाकी सबसे अमानवीयता की हद तक उदासीन और निरपेक्ष है। प्रेम को पढ़नेके लिए शरीर का विज्ञान, निस्संग प्रविधि का नजरिया प्रस्तावित करता है।
देह में प्रेमक्या चीज है? यह कैसे उत्पन्न होता है? देह में इसकी अवस्थिति कैसे है?- ‘देह में प्रेमकी धारणा की चर्चा करते हुए ये कुछ सवाल सामने आते हैं। शरीर-विज्ञान के पास प्रेम की दैहिकता की खोज करते हुए उसका एक वस्तुनिष्ठ अकादमिक शास्त्र विकसित हुआ है। दीर्घ समय के शोध और अध्ययन के उपरांत देह में मौजूद मस्तिष्क की वह कार्य-प्रणाली कुछ हद तक स्पष्ट हुई है जो देह में प्रेम के उद्भव के लिए जिम्मेदार है। 
वैसे देह में प्रेमके प्रत्यय को ले कर चलने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों का लंबा इतिहास रहा है। इस इतिहास में जाएं तो चिकित्सा-शास्त्र के मशहूर विद्वान हिप्पोक्रेट्स के एक सिद्धांत का सहारा लेकर डूजी हाउजर ने प्रेमको दैहिक तल पर व्याख्यायित करने का पहला प्रयास किया। हाउजर का मानना था कि रक्त, श्लेष्मा, काली और पीली पित्त- मनुष्य-शरीर में इन चारों धाराप्रवाहों का मिश्रण ही प्रेम के उद्भव का कारण बनता है। लेकिन इस अध्ययन से बात कुछ बनी नहीं। 17वीं शताब्दी तक के अनेक अध्ययनों में प्रेम के अहसास को एक बीमारी की तरह लिया जाता रहा। थॉमस विलीस ने अपने अध्ययन में मानव-विचार, व्यवहार और विभिन्न प्रकार की भावनाओं जिनमें प्रेम की भावना भी शामिल है, के लिए मानव-मस्तिष्क की, प्रमुख कारक के रूप में शिनाख्त की। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब इस विषयक अनुसंधानों की गति तेज हुई तब प्रेमको एक न्यूरोलॉजिकल प्रतिक्रियामानकर इसे मस्तिष्कगत रोगों में परिगणित किया जाने लगा। मानव-मस्तिष्क की अत्यधिक संवेदनशीलता को इस बीमारी का कारण बताया गया। बाद में वर्ष 1800 आते-आते प्रेम को सीधे तौर पर देह के तल से जोड़कर देखा जाने लगा और उसकी परिभाषा यौनिकता और यौन-संपर्क के संदर्भ में की जाने लगी। डॉ. फ्रैंक टैलिस ने अपनी पुस्तकों में इसका विस्तार से वर्णन किया है। लगभग उन्हीं दिनों एक दूसरे लेखक डॉ. रे वॉघन पियर्स ने बताया कि देह के तल पर प्रेम से ग्रस्त जोड़ों की मानसिक क्षमता में भारी गिरावट होती है। प्रेम की अनुभूति से उनके मस्तिष्क से रक्त जननांगों में प्रेषित होता है। डॉ. पियर्स ने इस स्थिति को मानसिक भुखमरीका नाम दिया। 
डॉ. जे. रिचर्ड कुकरली के अनुसार मनोवैज्ञानिक तरीके से काम करने वाले व्यक्ति का मस्तिष्क अनेक किस्म की रासायनिक प्रतिक्रिया देता है। इससे शरीर में कुछ रसायनों का निर्माण होता है और जैविकीय बदलाव आते हैं जो मानव-शरीर के लिए लाभकारी हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों ने इस तथ्य को सिरे से खारिज कर दिया है कि प्रेम में दिल या हृदय की कोई महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बल्कि उनके अनुसार इसके लिए मस्तिष्क ही जिम्मेदार है। हृदय का संबंध केवल इतना है कि प्रेमानुभूति की तीव्रता में हृदय-गति बढ़ जाती है और रक्तशिराएं संकुचित हो जाती हैं। लेकिन अंततः मस्तिष्क का कार्य निर्णायक है।

चूंकि विज्ञान ने प्रेम को देह में खोजा-पाया है अतः वह देह को, उसकी पदार्थमयता को सर्वोच्च मानता है। उसने प्रेम की अवस्थिति देह के बहुत छोटे और नाजुक हिस्से दिमाग में तलाश की है। यह केंद्र है प्रेम का और देह का भी। यहीं से प्रेम उत्पन्न होकर देह में फैलता है और देह के अधीन हो जाता है। शरीर-विज्ञानियों ने मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टमको प्रेम से संबद्ध भावनाओं के स्रोत के रूप में ढूंढ़ निकाला है। यह सिस्टम मनुष्य के भावनात्मक कार्यकलापों और स्मृति से संबद्ध गतिविधियों को नियमित और संचालित करता है। प्रेम की जटिलताओं की तरह मानव-मस्तिष्क के इस महत्वपूर्ण हिस्से की बनावट काफी जटिल है और इसके कई उपभाग हैं। लिम्बिक सिस्टमका एक बड़ा महत्वपूर्ण भाग हाइपोथैलेमसहै जो प्रेम में मुख्य भूमिका निभाता है। यह पीयूष ग्रंथि के द्वारा स्रावित होने वाले कई महत्वपूर्ण हार्मोन्स को नियंत्रित करता है और साथ ही मनुष्य की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का विवेचन भी करता है। मनुष्य का यौन-व्यवहार भी मस्तिष्क के इसी हिस्से से नियंत्रित होता है।
आधुनिक शरीर-शास्त्रियों ने मस्तिष्क में ऐसे रसायनों का पता लगाया है जिनकी सक्रियता-निष्क्रियता मानव-देह में प्रेम के उत्पन्न होने का कारण बनती है। जैसे सिरोटोनिन और डोपामीन नामक रसायन। ये रसायन लिम्बिक सिस्टम की ही उपज हैं। सिरोटोनिन नामक रसायन का स्राव जब मस्तिष्क में अधिक होता है तब यह प्रेम की भावना को बढ़ा देता है। यह मूड यानी मिजाज को नियंत्रित करता है फलस्वरूप प्रेम में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसी प्रकार डोपामीन रसायन है जो व्यवहार, मिजाज, सुखद अनुभूति और प्रकारांतर से प्रेम की भावना से जुड़ा है।
विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधानों ने बहुत आसानी से प्रेम के केंद्र को देह की रासायनिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के जंजाल में ढूंढ निकाला है। वहां बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से प्रेम देह में स्थापित है। उसे कंट्रोलकिया जा सकता है। विज्ञान ने उसे एक चीजकी तरह खोजा और पाया है। इससे अपने तरीके से विज्ञान की समृद्धि बढ़ी है, उसकी दृष्टि विकसित हुई है।
लेकिन प्रेम में जब देह गिरती है तब उसके पास गिरने का कोई कारण, कोई तर्क, कोई व्याख्या, कोई विश्लेषण नहीं होता। वह बस गिरती है। उलट इसके, जब देह में प्रेमगिरता है तब वह प्रेमकुछ वैज्ञानिक, कुछ तार्किक, कुछ नफे-नुकसान का सोच-विचार करने वाला हो जाता है। तब प्रेम देह में कैद है मुक्त नहीं, सो प्रेम सबकुछ देह की भाषा में सोचता है। वह देह की भाषा में सोचेगा तो पीछे-पीछे वस्तुनिष्ठता चली आएगी, फिर आएगा विचार, व्याख्या, विश्लेषण, उपयोगिता-अनुपयोगिता का सिद्धांत, प्रश्न और संशय…..। इस प्रकार देह की मौजूदगी प्रमुख होती है। प्रेम की नहीं। प्रेम होगा भी तो देह के संदर्भ में, उसका अनुषंग, उसका उप-उत्पाद।
प्रेम में देहके प्रत्यय में प्रेम मुक्त होता है। वह खुद के अलावा देह को भी मुक्त करता है। वह देह का उल्लंघन कर सार्वभौम स्पेस में विकसित होता है। इसलिए प्रेम में देहका प्रत्यय कुछ-कुछ वायवीय, अमूर्त और प्लेटोनिक-सा मालूम पड़ता है। वह पूरी तरह सब्जेक्टिवहै। दूसरा प्रत्यय देह में प्रेम’ ‘आब्जेक्टिवहै। उसे विस्तार की जरूरत नहीं। वह  एकरैखिक दिशा में विकसित होता है इसलिए पूरा स्पष्ट, व्याख्येय और विचार की परिधि में है।
इन दोनों प्रत्ययों के बीच का मूलभूत अंतर जाहिर है। प्रेम में देहका प्रत्यय, जो प्लेटोनिक है, उसमें कला-कलावाला खेल कुछ ज्यादा मालूम पड़ता है, जो देह में प्रेमको जानने वालों को नहीं सुहाता। देह में प्रेमवाले कला-कलाके खेल की जगह उपयोगिता-अनुपयोगिताकी बात विचार कर कोई खेल खेलते हैं। खेलने से पहले सोचते हैं खेलते हुए भी सोचते हैं कि क्या खेलने का कोई उपयोग होगा? वहां प्रेम भी उपयोग की वस्तु है। उसे देह से उस हद तक जोड़ देना है जब तक कि प्रेम के बहाने प्रेम, और प्रेम के बहाने देह की गरिमा तार-तार न हो जाए। देह में प्रेम को जानने वाले देह से भी चूक जाते हैं और प्रेम से भी। वहीं प्रेम में देह में डूबने वाले देह में भी घुलते हैं, उसको गौरव देते हैं और प्रेम भी उनसे अछूता नहीं रहता। वे अनछुई पवित्रता पर भरोसा नहीं करते।
आज अगर प्रकाश हम सबके बीच होते तो उनका सम्पर्क यही होता। पहले सोचा अब इसे देने का क्या औचित्य? लेकिन फिर अंतर्मन ने कहा हमारे पाठकों को यह पता भी होना चाहिए कि अपने प्रकाश का सम्पर्क का पता, फोन या ई-मेल क्या था?  
संपर्कः
डॉ. प्रकाश साव
सहायक संपादक
अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग
केंद्रीय हिंदी संस्थान
आगरा – 282005 (उ0प्र0)
मो. – 9760885303

ई-मेल – prakashkhsagra@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रकाश का आलेख ‘प्रेम और मृत्यु (-कविता) में क्या होता है?


किसी युवा कवि का गद्य पढना उस प्रकृति से मिलना होता है जो सहज ही हमें अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है युवा कवियों में इस समय प्रकाश बेहतर काम कर रहे हैं। इधर उन्होंने एक आलेख लिखा है ‘प्रेम और मृत्यु (-कविता) में क्या होता है।’ इसमें भी आपको काव्य का एक निरन्तर प्रवाह दिखाई पड़ेगा। तो आइए पढ़ते हैं प्रकाश का यह आलेख     
प्रेम और मृत्यु (-कविता) में क्या होता है!
प्रकाश
प्रेम में क्या होता है और प्रेम-कविता में क्या होता है? इसी तरह यह कि मृत्यु में क्या होता है और मृत्यु-कविता में क्या होता है?
प्रेम का संबंध जीवन के उद्भव से, उसके बीज-तत्व से है। दैहिक तल पर ही सही, दो आत्माओं का प्रेम-मिलन जीवन के उद्भव का कारण बनता है। प्रेम की बुनियाद में ही गहरी आसक्ति और एक-दूसरे के प्रति गहन अनुराग सक्रिय है। फलस्वरूप इसकी परिणति में जो जीवन उपलब्ध होता है उसकी सूक्ष्मतम कोशिकाओं में भी जीवन के प्रति अदम्य कामना के रूप में प्रेम विन्यस्त पाया जाता है। ललक, उत्साह, उल्लास, ऊर्जा और उछाह इस प्रेम के रूपक हैं। ये प्रेम के भी रूपक हैं और प्रेम-कविता के भी।
प्रेम में जीवन के नये-नये अनुभव निर्मित होने शुरू होते हैं। उन अनुभवों को प्रेम अपने तईं संजो कर रखना चाहता है। ये अनुभव अभी नये होने के कारण निर्दोष भी हैं। उनमें वह छाया अभी पड़नी नहीं शुरू हुई या उनमें अभी वैसे तत्व शामिल होने नहीं शुरू हुए, जिनके कारण प्रेम में कलुष आता है और जिस कारण उसके घटित होते रहने की संभावना क्षीण पड़ सकती है।
प्रेम अपने आदि-स्वरूप की निरंतरता में लगातार घटित होने वाली प्रक्रिया है। प्रेम में वर्तमान जीवन के अनुभव ही नहीं, उस प्रेम की स्मृतियां भी सक्रिय रहती हैं जो प्रेम की आदि-कामना के रूप में उसे उत्तराधिकार में मिली है और उसमें निहित है। आदि-कामना की प्राक्-स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए प्रेम को अनंत जीवन जीना पड़ता है। प्रेम-कविता में यह उत्तर-जीवन संभव होता है।
प्रेम विशिष्ट अर्थ में काम’ है। मनुष्य के शरीर को निर्मित करने वाली करोड़ों-अरबों कोशिकाएं वस्तुतः काम-कोशिकाएं हैं। इनमें भी एक-एक कोशिका में करोड़ों-अरबों काम-केंद्र हैं। काम का प्रमुख लक्षण है- खींचना, दूसरे को अपनी ओर आसक्त करना। इस कारण ही प्रेम में इतना आकर्षण है। यह आकर्षण एक तरफ विपरीतधर्मी देह को अपनी ओर खींचता है वहीं दूसरी तरफ अपनी उदात्तावस्था में संसार के प्रत्येक पदार्थ के प्रति आसक्त होकर सार्वजनीन बनता है।
कामके अर्थ में प्रेम में दो देहें परस्पर आसक्त होकर एक तीसरी देह की रचना करती है। वे उत्तराधिकार के रूप में तीसरी देह को अपनी स्मृतियां सौंपती हैं। ये स्मृतियां देह की हैं, काम की हैं, आसक्ति और अनुराग की हैं। नई देह इन्हें आखिर तक अपने में संजोए रखती है- अपने नये प्रेमानुभवों से परिवर्द्धित और समृद्ध करती हुई। 
प्रेम के रूप में मनुष्य की काम-कोशिकाएं उसकी आसक्ति को दीप्त करती हुई आदि-प्रेम की उसकी स्मृति को भी उद्दीप्त करती हैं और वर्तमान जीवन में भी प्रेम के तमाम प्रसंगों को न भूलने लायक बनाती हैं। प्रेम-प्रसंगों में हिस्सेदार होने और उनके विगत होने पर उनकी स्मृतियों का तांता आजीवन लगा रहता है। जीवन के तमाम घात-प्रतिघात, द्वन्द्व और संघर्ष में भी प्रेम की स्मृति क्षीण नहीं होती। मनुष्य कई दफा अपनी कविताओं में प्रेम की स्मृतियों को जीवित रखने की कोशिश करता है। और प्रायः प्रेम के ही एक रूपक आसक्ति के जरिए अपनी संततियों में उत्तर जीवन के लिए प्रेम की स्मृतियों को अंतरित कर देता है। इस विधि से वह अपने प्रेम को लगभग अमर और अपराजेय बना देता है।
यही विधि प्रेम-कविता में काम करती है। यद्यपि प्रेम-कविता में इसका रूप थोड़ा उदात्त होता है। उसमें भी आसक्ति होती है लेकिन वह आसक्ति देह के तल पर प्रेम के एक रूपक कामके रूप में नहीं होती। प्रेम-कविता में प्रेम का काम-तत्वप्रायः प्रच्छन्न होता है जबकि रोजमर्रा के जीवन में देह के तल पर प्रेम का रूपक कामप्रच्छन्न नहीं भी हो सकता है।

जीवन की सभी सुखद स्मृतियां प्रेम की हैं। जो चीजें अथवा जिन चीजों की स्मृतियां सुख देती हैं, वे प्रिय होती हैं। और सभी प्रिय वस्तुओं का संबंध प्रेम से है। बिना लगाव और रूझान के हम कोई काम नहीं करना चाहते। बिना झुुकाव और रूचि के हम किसी से मिलना और प्रायः बात तक करना नहीं पसंद करते। हम कोई संबंध तक कायम करना नहीं चाहते। जीवन का हर काम हम अपनी इच्छा और मर्जी से करना चाहते हैं जब तक कि उसके लिए कोई बाहरी बाध्यता न हो। तो हमारी सारी सक्रियता प्रेम की भावना से निर्धारित और संचालित होती है। प्रेम की भावना से जुड़ी गतिविधियां सबल रूप से मनुष्य की स्मृति में सुरक्षित रहती हैं। मनुष्य इन स्मृतियों को अंत-अंत तक हर हाल में बचाए रखना चाहता है। चूंकि ये सब प्रेम के भाव से जुड़ी, प्रेम की स्मृतियां हैं और देह में हमेशा के लिए इनका रहवास मुमकिन नहीं, अतः वह इन्हें एक तल पर शाब्दिक माध्यम से प्रेम-कविता में और एक अन्य तल पर दैहिक माध्यम से अपनी संततियों की जैव-कोशिकाओं में स्थानांतरित कर देता है। इन दोनों में प्रेम-कविता का तरीका सबसे बेहतर और टिकाऊ मालूम पड़ता है क्योंकि उसमें व्यक्ति की अपनी स्मृतियां सीधे-सीधे मौलिक रूप में अंकित हो जाती हैं। इस तरीके से वे ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय बन जाती हैं।
बावजूद इसके देह प्रेम का सबसे बड़ा भौतिक आलंबन है। इसके बिना प्रेम की कल्पना नहीं की जा सकती। देह प्रेम की स्मृतियों का भी सबसे जीवंत आलंबन है। शायद इसलिए प्रेम देह के नष्ट होने की कल्पना से भय खाता है और हर हालत में देह को बचाए रखना चाहता है।
यहां मैं प्रेम की स्मृतिके संबंध में एक बात स्पष्ट कर दूं। क्या मैं प्रेम को मात्र स्मृतिकी वस्तु मान कर चल रहा हूं जिसको देह और उसकी कामना धारण करती है? क्या प्रेम मनुष्य की विगत स्मृति का ही एक हिस्सा मात्र है जिसका मनुष्य की वर्तमान सत्ता से कोई सीधा संबंध नहीं? क्या प्रेम एक सदैव जारी अनुभव नहीं है जैसा कि उसे व्यापक रूप से मान लिया गया है? हां, मेरा भी यही विचार है कि प्रेम पहले अनुभव है जो आगे चलकर स्मृति में बदल जाता है। बल्कि मैं इसे थोड़ा-सा सुधारकर कहूं कि प्रेम निरंतर स्मृति में बदलता अनुभव है, बल्कि जब तक उसका अनुभव परिपक्व होता है वह स्मृति में तब्दील हो चुका होता है।
प्रेम का अनुभव नहीं होता, उसकी स्मृति होती है। प्रेम का जब अनुभव हो रहा होता है तब वह अनुभव वस्तुतः प्रेम की पूर्वस्मृति से निःसृत होता है। यह पूर्वस्मृति प्रेम के आदि-रूप की है जो उसे देह के उत्तराधिकार के रूप में मिली हुई है। उत्तराधिकार में उसे आसक्ति और अनुराग का भी वह प्रबल तत्व मिला हुआ है जिसमें घुला प्रेम का प्राक्-अनुभव और स्मृति एक साथ संघनित है। प्रेम में इसी प्राक्-अनुभव की याद आती है जो वर्तमान जीवन में होने वाले प्रेम-अनुभवों को सत्यापित करता है। अतः जिन्हें हम प्रेम का नया अनुभव कहते हैं वे पुराने अनुभवों की याद होते हैं। इसलिए प्रेम में स्मृतियों का इतना महत्व है।
प्रेम का अनुभव हो रहा है अथवा प्रेम का अनुभव हुआ है- का इतना ही मतलब है कि प्रेम की स्मृतियां सक्रिय हुई हैं। एक कवि उसे कविता में उतारता है प्रेम के नये अनुभव की कविताकह कर।
चर्चा में पीछे छूट गया एक सूत्र यह था कि प्रेम का सबसे बड़ा भौतिक आलंबन देह होने के कारण प्रेम देह के नष्ट होने की कल्पना मात्र से भय खाता है और हर हालत में उसे बचाए रखना चाहता है।
ठीक यही स्थिति देह के संबंध में भी है। वह भी प्रेम को बचाए रखने के लिए अपनी सुरक्षा को अनिवार्य समझता है। वह भी अपने बगैर प्रेम की गति को संभव नहीं मानता। प्रेम की स्मृति को देह ही संजोए रख सकती है। प्रेम-कविता में भी प्रेम की स्मृति सहेजी जाती है, जिसे संभव कोई देह करती है। इसलिए जैविक तल पर देह की मृत्यु प्रेम और उसकी स्मृति दोनों के लिए निर्णायक अंत है। एक अन्य तल पर, जा चुकी देह और उसके प्रेम व स्मृति का अभिलेख प्रेम-कविता में काफी हद तक शेष और सुरक्षित रहता है। मृत्यु उसे मार नहीं पाती। प्रेम-कविता की जिजीविषा और उसका उत्कट उत्साह उसे महान प्रेम-कविता के रूप में अनंत-काल तक जीवित रख सकता है।
लेकिन जैविक तल पर मृत्यु देह को तो मार ही डालती है, उसके प्रेम और स्मृति को भी नष्ट कर देती है। मृत्यु में पहला आघात व्यक्ति के स्मरण-केंद्रपर होता है। वह इसी केंद्र को सबसे पहले ध्वस्त करती है। मृत्यु महाविस्मरण की महान घटना है। यह घटना स्मृति पर गहरी और निर्णायक चोट करती हुई घटित होती है। यह चोट देह को भूलने पर मजबूर करती है। देह की आसक्ति, उसकी कामना में विन्यस्त काम और प्रेम को, और उसकी सुदूर लंबी यादों को भूलने पर विवश करती है। वह जीवन से देह की अनुरक्ति के लंबे संग-साथ के सूत्र को तोड़कर उसे एक ऐसे वैक्यूममें धकेल देती है जहां अस्तित्व की अनंत शून्यता है, जहां अस्तित्व की पदार्थमयता निःशेष है।
विस्मरण के गहन अंधकार के कारण ही मृत्यु से इतना भय है। इसकी कल्पना और विचार से भी मनुष्य को परहेज है। मनुष्य की सारी प्रेम-कविताएं इसी भय और आतंक से मुक्ति की कविताएं हैं। मनुष्य नहीं चाहता कि देह से आसक्ति और उस आसक्ति की स्मृति का कभी क्षरण हो। वह प्रेम-कविता में उस आसक्ति और उसकी स्मृति को सुरक्षित रख लेना चाहता है। तभी तो वह सदियों से प्रेम-कविता लिख रहा है। उसे अगर देह से मुक्ति भी चाहिए तो प्रेम-कविता में ही चाहिए। क्योंकि उसी के परिसर में प्राप्त हुई मुक्ति उसे अमर करेगी, पुनः-पुनः देह के दायरे में जीवित करती हुई।
                                                                             
सजग प्रेम का एक कवि जब मृत्यु-कविता की ओर उन्मुख होता है, तब वस्तुतः वह प्रेम और कामना के महाविस्मरण में गिर चुका होता है। तब जीवन और प्रेम की समस्त स्मृतियां एकबारगी अवरूद्ध हो जाती है। उसकी सूराख से कुछ भी बाहर नहीं जाता।
चूंकि मृत्यु और उसकी अनुभूति के क्षण का प्रचंड आघात अप्रत्याशित और असह्य होता है अतः ठीक उसी विशिष्ट क्षण के अहसास की कविता यानी- मृत्यु-कविता’, जीवन की तमाम ऐहिक आसक्तियों और प्रेम की स्मृति के विपरीत, विराग और आघात की कविता होती है। उसे अचानक आसक्ति और प्रेम की स्मृति के नष्ट हो जाने का आभास होता है जो उसके उत्साह, उल्लास और उत्तरजीवन की कामना को शिथिल कर देती हैै। अंततः मृत्यु में यह सब नष्ट हो ही जाता है। और जो जीवन नष्ट हुआ, उसके महाविस्मरण की स्थायी स्थिति बन जाती है। आघात के उस क्षण की पूर्व कल्पना या पूर्व अनुभव को कविता में ढालते वक्त उस कविता का भी एक विशिष्ट स्वभाव तय हो जाता है। वह कवितासे मृत्यु-कविताहो जाती है। वह कविता वास्तव में जीवन-ऊर्जा की बात नहीं करती। वह ऊर्जा जो प्रेम है, काम है, आसक्ति है और न जाने कितने रूपों में रति का रूपक है।

कभी-कभी प्रेम-कविताओं की तरह मृत्यु-कविताओं में भी आसक्ति के लक्षण देखे जा सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु के चरम क्षण में अचानक जीवन और उस जीवन में किया गया प्रेम याद आता है। एकाएक उस प्रेम की स्मृति मृत्यु के भीषण क्षण में भी कौंध उठती है। अब जैसे कवि अशोक वाजपेयी को ही लें तो उनका मानना है कि उनकी प्रेम-कविताएं उनकी मृत्यु- कविताओं का ही दूसरा पक्ष है। अर्थात् उनकी प्रेम-कविताओं में जो आसक्ति का भाव दीख पड़ता है, उनकी मृत्यु-कविताओं में भी वही आसक्ति का भाव है और उतना ही। दोनों तरह की कविताओं में जीवन के प्रति अनुराग है और दोनों में ही जीवन का अवसाद लक्षित होता है।
यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है कि प्रेम में असुरक्षा की जो भावना है वही वह अवसाद है जो मृत्यु के क्षण में उत्पन्न होता है। और मृत्यु के क्षण में पुनर्नवा होने की जो उज्ज्वल आकांक्षा है वही प्रेम में अनुराग बनकर प्रकट होता है। इसलिए जो कवि प्रेम और मृत्यु-कविताओं में समानधर्मिता की खोज करते हैं वे अपनी जगह ठीक ही हैं। ऐसे कवियों को यदि प्रेम और मृत्यु दोनों में अवसाद और उल्लास के समान लक्षण दिखाई पड़ जाते हैं तो यह अन्यथा नहीं है। वास्तव में प्रेम-कविता में वही होता है जो मृत्यु-कविता में होता है। प्रेम-कविता जिस आसक्ति से शुरू होती है, मृत्यु-कविताएं उसी आसक्ति को विस्तारित करती हैं। प्रेम-कविता में प्रेम का अनुभव और उसकी स्मृति जगह बनाती है तो मृत्यु-कविता में मृत्यु का भय और अवसाद जगह घेरता है जो प्रकारांतर से जीवन से आसक्ति का ही रूप है। तभी तो वह मृत्यु से भय खाता है। एक व्यक्ति के लिए जैसे मृत्यु प्रेम और आसक्ति का पटाक्षेप है उसी प्रकार एक कवि की मृत्यु-कविताओं में प्रेम और आसक्ति का पटाक्षेप होता है। लेकिन अंत से पहले दोनों में प्रेम और आसक्ति की लौ सर्वाधिक तेज होती है। वह लौ मृत्यु से खुद को अंत-अंत तक बचा लेने की जद्दोजहद करती है। यही प्रेम और मृत्यु-कविताओं की समानधर्मिता है।

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