आशीष बिहानी की कविताएँ


आशीष बिहानी

मेरा नाम आशीष बिहानी है। मैं बीकानेर से हूँ और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद में पी-एच. डी. कर रहा हूँ। मेरा पहला संग्रह अंधकार के धागे” हिन्द-युग्म द्वारा दिसंबर २०१५ में प्रकाशित किया गया। इसके अलावा मेरी कविताएँ ‘संभाव्य’,अनुनाद’,समालोचन’,यात्रा’,गर्भनाल’ द्वारा प्रकाशित की गयीं हैं।
 
रसूल हमजातोव ने ‘मेरा दागिस्तान’ में लिखा है – ‘यह मत कहो कि मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आँखें दो।’ कवि के पास यह आँख होना बहुत जरुरी होता है। युवा कवि आशीष बिहानी की कविताओं को पढ़ते हुए इस बात का स्पष्ट आभास हुआ कि उनके पास यह आँख है। हिन्दी कविता में ऐसे कवियों की फेहरिश्त में अब आशीष का नाम भी पुख्तगी से जुड़ गया है जो विज्ञान की पढाई करने के साथ-साथ कविता भी लिख रहे हैं। कल्पना के साथ यथार्थ की जमीन से जुड़े रहने की तहजीब है यह ‘विज्ञान और साहित्य का संगम’। यह सुखद है कि आशीष के पास इस संगम की समृद्ध थाती है।  

मानव द्वारा आविष्कृत महत्वपूर्ण तकनीकी चीजों की सूची अगर बनायी जाय तो उसमें रेल का स्थान शीर्ष आविष्कारों में जरुर शामिल होगा। रेल जिसने न केवल मानव जीवन को गति प्रदान किया, जिसने न केवल उसे प्रगति की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ प्रदान किया बल्कि मानव समाज और उसके सोच पर भी व्यापक असर डाला। साहित्य भला इससे अलग और अछूता कैसे रह पाता। आशीष ने ‘रेल’ शीर्षक से कई खण्डों में कुछ उम्दा कविताएँ लिखी हैं। वे जानते हैं कि रेल की आवाज उन्हें भले ही कर्कश लगे जो उसे कभी-कभार सुन पाते हैं। लेकिन उनके लिए तो यह उस सांस की तरह है जो अपनी जिन्दगी इसी के साथ या इसी के पास बिताते हैं। रेल की आवाज उनके सपने में कोई खलल नहीं डाल पाती। तो आज पहली बार पर पढ़ते हैं आशीष बिहानी की कुछ नयी कविताएँ। 
आशीष बिहानी की कविताएँ          
रेल


स्टेशन के अंत से कुछ ग़ज आगे
कई परिवार अपने अपने क्वार्टर्स के बाहर
खटियाओं पर सो रहे हैं
नींद से लदीं रेलें
ऊंघती, घरघरातीं, स्वप्नाहूत सीं
दबे पहियों प्रवेश करतीं हैं स्टेशन में
बिना उनकी नींद में ख़लल डाले


जीन्स के पाँयचों में घुसते पैरों की भांति
रेल गुजरती है शहर से
शहर की तड़क भड़क से विमुख
निहायत ही अनढके जीवन में

ब्लाउज-पेटीकोट पहने कपडे सुखातीं औरतें
जो मोहल्ले भर से सारी सुबह लड़-झगड़ कर थक चुकीं
चार दिन में एक बार आने वाले पानी के लिए

ऊर्जा से लदे मैदान को देखते फिसड्डी बच्चे
जिनकी कविताएँ कोई नहीं पढता
और जिनके घरोंदों को उनके छोटे भाइयों ने पेशाब करके ढूह दिया

अचानक आए अंधड़ में उड़ते टैण
उड़ती थैलियों के कौतुहल भरे हुजूम
जो एक ही तंत्र के घटकों की लावारिस असमान लाशें हैं

गाँव के बाहर बूढ़ी गायों के सड़ते कंकाल
जिनकी बोटियाँ खींचने वाले गिद्धों के गुर्दे
उनमें जमा डाईक्लोफीनेक से खराब हो गए

यहीं आ मिलते हैं अन्दर मोड़े किनारों के टांके
जेबों के फैलाव
एक-दूसरे को बेतहाशा चूमते जोड़े
जो रंगों सने डंडों से भय खा कर आ छुपे हैं उजाड़ में
एक-दूसरे को मलते हैं अपने-आप पर
जैसे सड़ते हुए काई-सने पानी से भरे नासूर में ख़ुद को धोते हैं गडूरे

यहाँ घुट-घुट कर रेंगता है जीवन बड़ी निपुणता के साथ
बहुत ही पतली गलियों में
जिसका होना अनर्थक है इसके बिना
 


बेशुमार रोशनी उगलती
फ्लैशलाइटों से अटी सडक
के एक तरफ
गोबर से लिपीं कच्ची छतों के अनंत फैलाव
पर सूनी रात में
अधटूटीं चारपाइयाँ और गलते तारों के ढेर
बेतरतीब बिखरे हैं
और दूसरी तरफ उनसे अभिन्न
अनंत फैलाव उघड़ी ईंटों वाली पक्की छतों के
जिन पर पसरे हुए हैं बूढ़े-फूटे डेज़र्ट कूलर
और लोहे-लक्कड़ के अथाह ख़ज़ाने

झींगुरों की आवाज़ों को कुचलती हुई रेल धड़धड़ा कर निकलती है
इन दो कुबड़ी दुनियाओं को ठीक अलग करती 
जिसकी आवाज़ सुन कर वहम होता है

बस्तियों और कॉलोनियों के स्वप्निल बाशिंदों को
जैसे धड़कन किसी शहर की
जो पाषाण काल से जा रहा है पाषाण काल की ओर
वही, जिसके सड़े-गले मुर्दे शरीर को वो केंचुओं की तरह खाते हैं
दिन की रोशनी में


खोखली हवाएं सांय-सांय कर चलती हैं
और मैं सिहर जाता हूँ
जमीन से कई फुट ऊपर मैं
तैरता हूँ बिना आधार के
और हर घटना डरा देती है मुझे
अकारण ही


होश सँभालने के बाद
पहली बार मारवाड़ से बाहर निकलने पर
मैंने देखा कि
कई रेलों के रूट दो पटरी वाले होते हैं जो
एक साथ मुड़ते हैं, एक साथ घुसते हैं
लम्बी, हलके डरावने पीले प्रकाश वाली झिलमिल सुरंगों में
खिड़की से बाहर झांकते वक़्त देखता हूँ
बगल वाली पटरी को
वो दूर क्यों चली गयी है?
क्या वो वापस आएगी?
क्या उसका होना हो गया है पूर्ण?


कुर्सी से
तशरीफ़ को बड़ी मुश्किल से उठा
पोतों की सनसनाती गेंदों,
चिलचिलाती धूप से तपे संगमरमर के फर्श,
सूखती हुई बड़ी
इत्यादि को पार कर के
रेलिंग पर पहुँच कर
दद्दी ने पोर्च से झाँका, जैसे घोंसले से पंछी
गर्मी से लाल, पसीने भरी नाक उठा कर
मौसम का जायज़ा लिया,
दूर पटरियों पर धड़धड़ाती रेल की और
लानतें उछालीं
और निराश सी दिखती
वापस जा बैठी
अपनी बोरियत की बोरी पर


मरामझिरी में जब सिकंदराबाद से जयपुर जाने वाली रेल
रुक जाती है
गाहे-ब-गाहे उसका रुकना ऐसे रास नहीं आता शयन-यान में
मक्खियाँ मार रहे यात्रियों को
जो झांकते हैं विस्फारित नेत्रों से बगल वाली पटरी पर
और बरसाते हैं करुणा
बगल वाली पटरियाँ पार करते ४-५ साल के एक बच्चे पर
वो, जो हंगामे से अभिभूत हो
आगे बढ़ता है
एक थैली में इकट्ठे करता है वृष्टि के क़तरे
पुनः पटरियां पार कर के अपने पियक्कड़ पिता के मुँह में टपकता है
उस में से कुछ
_______



मुखौटे

 
गहन अँधेरे में
लोग मुखौटे लगा
भंगिमाएँ ओढ़े घूम रहे हैं
कि यदा कदा मिनट भर होने वाले उजाले में
अँधेरे के इतिहासकार
दर्ज कर लें
मुखौटों की उपस्थिति
चेहरों के रूप में
 
बदलना

 

लोग कहते हैं कि
दुनिया बदल रही है
आगे बढ़ रही है
क्रमिक विकास के नतीज़तन
पर ये सच नहीं है
क्योंकि हम आज भी गिरते हैं
उन्ही खड्डों में
जो खोदे थे हमने
लाखों साल पहले
कानून

 

दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं
वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं
चारों ओर गीली जीभों की भांति
लपलपाया करते हैं
राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं
गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर
और उतर जातीं हैं
गहरे कुओं में
जिनके पैंदों में हवाएं चलना बंद कर देतीं हैं
स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं
और तुम उन्हें
डूबने के इंतज़ार में
सम्पर्क –

मोबाईल – 07680885408

ई-मेल : ashishbihani1992@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख ‘दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर

नामवर सिंह

इसमें कोई दो राय नहीं कि नामवर सिंह हमारे समय के श्रेष्ठ आलोचक हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं, कि केवल इसी बिना पर  उनकी आलोचना न की जा सके. युवा कवि-आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने ‘वाह-वाह’ या ‘अहो-अहो’ की परम्परा से अलग हट कर उनकी महत्वपूर्ण किताब ‘दूसरी परम्परा की खोज’ का इनकाउंटर करने की एक अहम् कोशिश की है. यह आलेख बहुवचन पत्रिका के नामवर विशेषांक में प्रकाशित हुआ है. इस आलेख की महत्ता को देखते हुए हम यहाँ पर पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं तो आइए पढ़ते हैं अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेख  ‘दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर.    

दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर
अर्थात्
हुआ यूँ इत्तिफ़ाक,आईन: मेरे रू-ब-रू टूटा[i][i]
[1] 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा   
छवियाँ आज वास्तविकता की सिर्फ नकल नहीं हैं. वे वास्तविकता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन चुकी हैं. वे वास्तविकता को नष्ट कर देना चाहती हैं और हम निरंतर इन छवियों के संसार में रह रहे हैं. – सूसन सौंटैग (1933-2004)
अतीत के भग्नावशेष हमेशा हमारे वर्तमान में मौजूद रहते हैं और उन आद्य बिबों का अध्ययन करते हुए वर्तमान की शक्ल बनाई जा सकती है.– वाल्टर बेंजामिन (1892-1940)

परंपरा एक सामंतवादी अवधारणा है.– थियोडोर एडोर्नो (1903-1969)
                    दूसरी परंपरा की खोजजिसे नामवर सिंह ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोजबताया है और यह कहा है कि, ‘संभव है, इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाए’. दूसरी परंपरा के निर्माण में बदल देने वाली दृष्टिऔर अपनी खोजको बुनियादी तौर पर परखने के लिए उद्धृत सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के उद्धरणों को मैं पहले पढ़ने की अपील करता हूँ. 
                    लिखित परंपराओं से पूर्व मौखिक परंपराओं के ताने-बाने से हमारी दुनिया की निर्मिति रही है, समय-समय पर मनुष्यों की खोज ने इन निर्मितियों को नयाबनाये रखा है. दरअसल, कोई भी परंपरा इस यकीन पर आधारित या तय होती है कि किसी समाज या समूह की विशिष्ट पहचान निर्मित करने में उस समाज या समूह का अपने सांकेतिक संदर्भों में अतीत से क्या और कितना जुड़ाव रहा है और कितना अलग हुआ है. परंपरा हमेशा एक सांस्कृतिक, दार्शनिक, राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है, तब जबकि यह स्पष्ट  है कि परंपरा मुख्यतः कला माध्यमों की प्रस्तुतियों के जरिए अपने सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त होती रही है. परंपरा मुख्यतः रोमन कानून से जुड़ा हुआ शब्द रहा है. यूरोपीय चिंतन पद्धति में ज्ञानोदय युगके चिंतकों और दार्शनिकों के साथ यह शब्द आधुनिकता की अवधारणा से विकासके सवाल पर मुठभेड़ करते हुए आगे बढ़ा है. परम्पराएँ सचेत रूप से कभी नहीं बदलती है बल्कि इसमें बदलाव की निर्मिति धीरे-धीरे कई पीढ़ियों में रिसते हुए समय-अंतरालों और उस अंतराल में उभरती हुई प्रवृतियों के आधार पर निर्मित होती है. 

परंपरा की खोज (Invention of Tradition) पदबंध का  प्रयोग ब्रिटिश इतिहासकार एरिक जान होब्सबोम(1917-2012) ने नए उपायों या लक्ष्योंकी खोज का अतीत से संबंध जोड़ते हुए किया जिसकी वर्तमान के साथ जुड़े रहने की अनिवार्यता न हो. होब्सबोम ने औपनिवेशिक अफ्रीका की संरचना में निजी, वाणिज्यिक, राजनीतिक चिन्हों, ईसाई समुदाय में शादी के समय पहना जाने वाला सफ़ेद गाउन जो निश्चित रूप से रानी विक्टोरिया द्वारा शादी में पहने जाने के बाद परंपरा में शामिल हुआ, गोइथिक शैली के ब्रिटिश पार्लियामेंट और यूनाइटेड स्टेट्स के राजतंत्र के ढांचों को संदर्भित करते हुए परंपरा की खोजजैसे पदबंध का प्रयोग किया. 1948 में विज्ञान-दार्शनिक कार्ल पापर (1902-1994) ने आधारभूत समाजशास्त्र के अध्ययन में विज्ञान को रेशनल थ्योरी ऑफ ट्रेडिशनके साथ शामिल किया. कार्ल पापर यह मानते थे कि हर वैज्ञानिक में कुछ खास प्रवृतियाँ होती है जो विरासत में मिली होती है. यह विरासत कहीं न कहीं उनके अध्ययन,उनकी खोज में शामिल होती है और यह कभी-कभी आश्चर्यचकित भी कर जाती है. अकादमिक दुनिया में परंपरा मानवविज्ञान, पुरातत्व विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास, दर्शन-शास्त्र,समाज-शास्त्र आदि में अलग-अलग अर्थों, संदर्भों में अभिव्यक्त होती है. साहित्य में परंपरा का अर्थ भी संदर्भ के साथ ही अभिव्यक्त होता है. 

क्या परंपरा संख्यावाची शब्द है. अगर है, तो फिर यह पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं होते हुए अनंत तक जा सकती है. यदि परंपरा दूसरी है, तो यह दूसरीक्या है? ‘पहलीकिसे कहा जाए? क्या हर समय के साथ परंपरा अपना कलेवर बदलती रहती है? जब कलेवर बदलती है तो क्या उस कलेवर में पहलीपरंपरा के तत्व शामिल नहीं होते? क्या इसे भी दूसरीपरंपरा कह सकते हैं, जब युधिष्ठिर  यक्ष के प्रश्नों का जवाब देते हुए तर्क की एक दुनिया रच रहे थे या जब नचिकेता यमराज से सवाल पूछता हुआ प्रश्न पूछने की परंपरा का निर्माण कर रहा था या सावित्री यमराज से अपने पति के प्राण वापस ले आने के संकल्प में यमराज का पीछा नहीं छोड़ रही थी या फिर एकलव्य जो अपने कौशल का विकास एक वैकल्पिक व्यवस्था की निर्मिति करके कर रहा था? इस प्रकार के और भी उदाहरण हम अपने आख्यानों से निकाल सकते हैं. आख्यानों से बाहर यदि हम जाएँ तो क्या हम पूछ सकते हैं कि दूसरी परंपरा क्या वह हो सकती है जो गौतम बुद्ध, महावीर जैन ने निर्मित की या मोहम्मद पैगम्बर ने या फिर ईसा मसीह ने. ईसा मसीह, गौतम बुद्ध, मोहम्मद पैगंबर से पहले की परंपरा को क्या  पहलीपरंपरा कहा जाना चाहिए?
दरअसल, इन सवालों की पृष्ठभूमि में नामवर सिंह की 1982 में लिखी किताब है  दूसरी परंपरा की  खोज’. आठ अध्यायों वाली इस किताब को नामवर सिंह पूरा करते हुए अपनी भूमिका में लिखते हैं, – “आज उस खोज की अंतरिम रिपोर्ट पेश करते हुए मन थोड़ा हल्का लग रहा है”. जाहिर है, यह रिपोर्ट अंतिम नहीं है. किसी भी परंपरा की रिपोर्ट अंतिम हो भी नहीं सकती. यह रिपोर्ट दरअसल नामवर जी अपने गुरू आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बननेऔर होनेको लेकर तैयार की है. इस किताब को  आचार्य द्विवेदी के बननेऔर होनेकी दास्तान के रूप में पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है कि नामवर जी का लक्ष्यकेवल अपने गुरू को याद करना या उनके संघर्षों का आरेख भर खींचना नहीं रहा है बल्कि लक्ष्य कहीं और रहा है. भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी जब-जब सामुदायिक कार्यों की तरफ लौटते थे तो उनका उद्देश्य केवल सामुदायिक कार्य नहीं होता था बल्कि वे इस कार्य के द्वारा राजनीति के ऊपर एक दबाब तंत्र, एक अंकुश विकसित करते थे. राजनीति के ऊपर राजनीति से बाहर निर्मित दबाब तंत्र गाँधी की अपनी मौलिक विशेषता थी. नामवर सिंह का लक्ष्यइस किताब को लिखते हुए क्या रहा होगा?  इसके उत्तर में विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी के एक लेख नामवर सिंह : हक अदा न हुआके इस अंश को आपके सामने रखता हूँ, “… छायावादया कहानी- नई कहानी  के बाद आलोचक नामवर सिंह को लेखनप्रेरणा के लिए कोई न कोई ऐसा आलोचक या रचनाकार चाहिए जिसे वे खलनायक बना सकें. मूल्य का स्थान बेध्य ने ले लिया है. कविता के नए प्रतिमानमें खलनायक डॉ. नगेन्द्र थे. दूसरी परंपरा की खोजमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल.इस अंश को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है कि क्या नामवर सिंह अपनी इस खोज में अपने गुरु आचार्य द्विवेदी के बहाने आचार्य शुक्ल को अपना लक्ष्य बेध्य बनाये हुए हैं? क्या उन्होंने आलोचना कर्म में अपने गुरु का इस्तेमाल तो नहीं  किया?  और क्या दूसरी परंपरा की खोजवास्तव में कोई आलोचनात्मक पुस्तक है
आलोचना की क्या कोई परंपरा हो सकती है?  अगर परंपरा हो सकती है तो फिर उसका फ्रेमवर्कयानि कि रुपरेखा क्या होनी चाहिए? क्या नामवर सिंह ने अपनी खोजमें आलोचना की परंपरा का कोई फ्रेमवर्क बनाया/ बताया है? 1982 में जो नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज की और उसकी अंतरिम रिपोर्टप्रस्तुत की, उस अंतरिम रिपोर्ट का हिंदी आलोचना की परंपरा पर क्या प्रभाव रहा है?  इस खोज ने हिंदी आलोचना और समकालीन आलोचकों पर कोई प्रभाव छोड़ा? ‘दूसरी परंपरा की खोज के चौंतीस वर्ष बीततेबीतते क्या यह सवाल बना हुआ नहीं है कि हिंदी की आलोचना पर उस खोजी हुई परंपरा का भविष्य क्या है? ऐसे कई सवाल मन में नामवर सिंह की इस किताब को पढ़ते हुए उभरते हैं, तब भी जब कि इस किताब की भूमिका में लिखा है कोशिश यही रही है कि न किंचित अमूल लिखा जाय, न अनपेक्षित”.  हिंदी आलोचना की विकास परंपरा ( यदि कोई विकास परंपरा है तो ) में यह न किंचित अमूलऔर  न अनपेक्षितकहाँ है? जाहिर है 1982में इस किताब के आने के बाद, इस किताब  में  ‘खोजी हुई दूसरी परंपराका हिंदी आलोचना पर सीधा कोई प्रभाव या उस परंपरा का निर्वाह  दिखलाई नहीं देता. कम से कम दूसरी परंपरा की खोजके प्रकाशन वर्ष के बाद से आज चौंतीस वर्ष तक के समय के बीच के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है.  यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नामवर सिंह की यह बात स्मरण है, “…यह प्रयास परंपरा की खोज का ही है, सम्प्रदाय निर्माण का नहीं”. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को हिंदी आलोचना में एक स्कूल (संप्रदाय) की तरह उपस्थित करने की कई कोशिशें राम विलास शर्मा और नामवर सिंह ने की हैं, कभी जान-बूझ कर और कभी अनजाने में भी. नामवर सिंह की यह किताब भले ही किसी संप्रदाय निर्माण न करने की घोषणा के साथ हमारे सामने आती है, लेकिन किताब को पढ़ते हुए कई बार एक व्यक्तिवादी आलोचना को पढ़ने का अहसास होता है. यह कहते हुए हमेशा असहजता का बोध होता कि हिंदी आलोचना में  आलोचना की कोई मुक्कमल परंपरा या स्कूल (संप्रदाय) का विन्यास नहीं रचा जा सका है. हाँ, हिंदी आलोचना के छोटे-छोटे खेमे, टोली, टापू, दल, समूह आदि जरुर दिखलाई दे जाते हैं, जो वयक्तिक निष्ठाओं पर काम करते हैं न कि किसी सामूहिक साहित्यिक,सांस्कृतिक निष्ठाओं पर.  
    
विष्णु चंद्र शर्मा अपने लेख वाद-विवादके केन्द्र में नामवर सिंहमें एक महत्त्वपूर्ण बात करते हैं, नामवर जी दूसरी परंपरा की खोजलिखकर साईंट्फिक कल्चरसे च्युत होने लगे थे’. यह वाक्य पढ़ते हुए मेरे जैसे पाठक के लिए ठिठक जाना पड़ता है. इस वाक्य के सहारे यदि नामवर जी की इस किताब को देखा जाए तो कई बातें डायलेक्टिसकी विलोम लगती हैं, मसलन नामवर जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं, “इसमें न पंडित जी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास. अगर कुछ है तो बदल देनेवाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थी. उस कौंध को अपने अंदर से गुजरते हुए जिस तरह मैंने महसूस किया, उसी को पकड़ने की कोशिश की है.  मैं  “एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थीको अलग से रेखांकित करना चाहता हूँ. विज्ञान और दर्शन में खोजऔर दर्शन पद्धतियाँकिसी कौंधके साथ नहीं आती बल्कि अपनी द्वन्धात्मक्ताओं के विकसनशील अवस्था के साथ आती है. परंपरा बिजली की तरह कौंधती नहीं है.  
नामवर सिंह अपनी लिखत में बढ़त हासिल करते हैं या अपने वाचिक में, यह सवाल बहुतों के मन में रहता है. उनके लिखे हुए को और उनके बोले हुए को अगर एक साथ देखा जाए तो  एकबारगी यह कहना कठिन हो जाता है कि वे, ‘मार्डन एजके प्रखर बुद्धिजीवी हैं या फिर अपने समकालीन आलोचकों पर तीखे प्रहार करते हुए गंगा किनारे पीपल के पेड़ के नीचे पैंतरा सीखते-सिखाते कोई सिद्धहस्त अखाडिया उस्ताद. नामवर सिंह व्यूह-रचनामें माहिर आलोचक माने जाते हैं, जब वे लिख रहे होते हैं तब भी और जब बोल रहे होते हैं तब भी. उनकी ख़ामोशी भी उनकी एक व्यूह-रचनाही है. इस व्यूह-रचनाका भाष्य करने की प्रतिभा कम से कम मुझ में तो नहीं है. दूसरी परंपरा की खोज 1982 में प्रकाशित हुई थी और ठीक उसके एक साल बाद 1983 में टेरी ईग्लटन (1943) की बेस्ट सेलर किताब लिटररी थ्योरी : एन इंट्रोडक्शनआई. साठ और सत्तर के दशकों में उभरे विमर्श की तमाम पेचीदगियों और उसकी अंदरूनी गुत्थियों को यह किताब खोलती है. इन दो दशकों में लेंका, फूको, देरिदा, रोलां बार्थ, जूलिया क्रिस्तोवा आदि आलोचकों ने आलोचना में जो योगदान किया, वह परिवर्तनकारी साबित हुआ. हालाँकि अमेरिकी पूंजी के नए उभार के बाद साहित्य और संस्कृति में जिस प्रकार के बदलाव आये उसको लेकर ईग्लटन ने 2003 में  एक किताब आफ्टर थ्योरीलिखी. पॉप-संस्कृति, प्रोनोग्राफी और फैशन-परेडों ने साठ और सत्तर के दशक के विमर्शों को आधारभूत ढंग से उसके आधारों को हिलाया है, ‘आफ्टर थ्योरीइन सब की पड़ताल करती है. ईग्लटन की इन दोनों किताबों के परिप्रेक्ष्य में दूसरी परंपरा की खोजके विन्यास को हिंदी साहित्य और आलोचना की परंपरामें हम देखते हैं तो लगता है कि नामवर सिंह की लिखत’, ‘वाचिकऔर ख़ामोशीएक स्वीकार्य छवि के साथ उपस्थित नहीं होती है, बल्कि उसमें कई बार एक खास तरह की आलोचना की बुर्जुआ संस्कृतिदिखलाई देती है. जो समय-प्रवाह के किसी बिंदु पर अटका हुआ दिखलाई देता है. हिंदी आलोचना के इस अटके हुए समयको इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी हम महिमामंडित करते हुए याद करते हैं, तो यह समय की गतिकी सिद्धांत के विरुद्ध है; और जिसे हम बड़े ही सहजता से सरलीकृत अंदाज में टाल जाते हैं, टालते  रहते हैं. 
    
कोस-कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और तीन कोस पर बोली का स्वरूप, बड़े ही धडल्ले  से ऐसे वाक्यों को अनेक अवसरों पर हम सुनते आये हैं, कम से गंगा-यमुना के कछारों में तो यह सही ही है. तो क्या गंगा-यमुना के कछारों में पल्लवित-पुष्पित होनेवाले हिंदी के आलोचक आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि (सिद्धांत: हिंदी साहित्य में इस आदिका बड़ा महत्त्व है. हिंदी साहित्य में आदि विमर्शहोना चाहिए.) में हिंदी आलोचना का स्वाद और उसकी भाषा का स्वरूप भी बदल रहा था. हिंदी आलोचना का स्वाद क्या कोस-कोस पर पानी के स्वाद की तरह बदल जाना चाहिए, क्या इसे आलोचना की विविधता की खूबसूरती कह कर हमें सरलीकृत निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए? यदि ऐसा है तो फिर गंगा-यमुना के कछारों में हिंदी साहित्य और आलोचना की कई परम्पराएं है. इस आधार पर दूसरी परंपराका मिथ टूट जाना चाहिए.
दूसरी परंपरा की खोजको पढ़ते हुए और उसके विन्यास को समझने के लिए हमने यह जानने की कोशिश की, कि नामवर सिंह की दूसरी परंपरा की खोजके सूत्र कहाँ-कहाँ बिखरे हो सकते हैं ,  और क्या ये ठीक-ठीक बिखरे ही हैं? यह भी संदेह बना रहा कि इस किताब को समझने के लिए यह कोशिश कितनी कारगर साबित हो सकती है. बहरहाल, हम इस कोशिश को आपके सामने रखना चाहते हैं. इस कोशिश में मुझे एक छोर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा शिव मंगल सिंह सुमनको लिखे पत्र में मिलता है. मैं यहाँ उसे हू-ब-हू उद्धृत कर रहा हूँ
                                                                                                                                                              रविन्द्रपुरी  / वाराणसी- 5 / 18670
प्रिय सुमन जी,
आशा करता हूँ, सपरिवार सानंदहोंगे. एक बात कई दिनों से मन में आ रही है. आप तक पहुँचा देना उचित समझता हूँ. हिंदी में प्रोफ़ेसर और डाइरेक्टर जैसे पदों के लिए अच्छे आदमी इसलिए भी नहीं मिलते कि हम लोगों ने योग्यता की कसौटी विशेष-विशेष पदों पर शिक्षक होने को मान लिया है. मुझे प्रसन्नता है कि आपने उपाध्याय जी को नियुक्त करके इस गलत कसौटी का प्रत्याख्यान किया है. भगवत शरण उपाध्याय वास्तव में पंडित हैं और सही व्यक्तियों का सही ढंग से सम्मान होना ही चाहिए. नहीं तो देश का भविष्य भगवान भरोसे ही रहेगा. इसी प्रकार डॉ. नामवर सिंह का भटकना अखरता है. यह आदमी अपनी योग्यता और परिश्रम से कहीं भी चमक सकता है पर उपेक्षित रह गया है. कभी अवसर देने का प्रयत्न करें. नामवर वामपंथी विचारधारा के हैं पर विद्या की दुनिया में विचारों की विविधता और नवीनता स्वागत योग्य समझी जानी चाहिए. इतनी सी बात आप तक पहुंचा कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. आपका समय नष्ट हुआ. उसकी कोई चिंता क्यों की जाए? परोपकाराय सतां विभूतयः. आशा है सानंद हैं.
                                                                                                                                                    आपका
हजारीप्रसाद द्विवेदी
हम जानते हैं कुछ बर्षों बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए और शिवमंगल सिंह सुमनउनके चयनकर्ताओं में थे. इस पूरी प्रक्रिया के बारे में हिंदी समाज वाकिफ़ है. गुरु आचार्य द्विवेदी का यह पत्र नामवर सिंह के लिए प्राण वायु की तरह साबित हुआ. कहना चाहिए,‘दूसरी परंपरा की खोजका एक बीज धीरे से नामवर सिंह के जेहन में उतर आया. दूसरा सूत्र मुझे नामवर जी के लेख रचना और आलोचना के पथ परमें मिला, “मेरा पहला आलोचना लेख था:  आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर. 1949 की मासिक जनवाणी में हिंदी समीक्षा और आचार्य शुक्लशीर्षक से प्रकाशित हुआ था . ….. आचार्य की आलोचना से ही मैंने आलोचना कर्म का आरम्भ किया था. क्यों? जाहिर है कि वे मेरी परंपरा हैं. एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं- अंदर रहे हैं. मुझे विरासत में सिर्फ मिले हैं-ऐसा भी नहीं. मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है. इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है. एक प्रकार का आत्मसंघर्ष.मुक्तिबोध का सा आत्मसंघर्ष. उस संघर्ष को सही शब्द मिला जब मैंने दूसरी परंपरा की खोजनाम की पुस्तक लिखी 1982 में. जो यात्रा 1949 में शुरु की उसे सही नाम मिला 33 वर्ष बाद और तब यह प्रत्यभिज्ञान हुआ कि मैं इस दूसरी परंपरा के निर्माण के लिए कवि कर्म छोड़ कर आलोचना के पथ पर आ निकला. नामवर सिंह के यहाँ आचार्य शुक्ल दो तरह से आते हैं एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं’, ‘मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है’. यानि विरासत भी हैं और साधना के द्वारा अर्जन भी, और इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है’. नामवर सिंह अपने इस टकराव को मुक्तिबोध की तरह का आत्मसंघर्ष बताते हैं . यह आत्मसंघर्षही दूसरी परंपरा की खोजहै. जिसमें आचार्य शुक्ल के स्थान पर आचार्य द्विवेदी नामवर सिंह के शब्दों में आकाशधर्मी गुरुके रूप में मौजूद हैं , जो हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासीहैं, और यह उन्मुक्तता ही उनकी परंपरा का मूल स्वर है’. यानि, नामवर सिंह जिस परंपरा की खोजकर रहे हैं, उनमें उन्मुक्तताएक केन्द्रीय शब्द है और जिसकी खोज की जाए उसकी अहर्ता आकाशधर्मी गुरुहोना है. जाहिर है,  इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, होनी भी नहीं चाहिए  हम इस नहीं होनेके लिए दूसरी परंपरा की खोजकिताब के थोड़े और निकट जाने की कोशिश करते हैं, और जानने की कोशिश करते हैं कि वह कौन सी बात है, जिसे दूसरी परंपरा की खोजकहा जाय.
इस किताब के पहले अध्याय का शीर्षक है दूसरी परंपरा की खोज’. इस खोजमें नामवर सिंह ने आचार्य द्विवेदी के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव और उनकी मौलिक स्थापनाओं का एक संक्षिप्त आरेख खींचा है. नामवर जी पहले आचार्य द्विवेदी को उद्धृत करते हैं, “…द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे. पर उनके पास कल्पना-शक्ति थी, वे संगीत और वास्तु-कला में कुशल थे. सभी कला-विद्याओं में वे निपुण थे,” और फिर इससे वे निष्कर्ष निकालते हैं, “द्विवेदी जी ने इस रास्ते चल कर गंधर्वों, यक्षों और नागों जैसी आर्येतर जातियों के कलात्मक अवदान की खोज की,” (पृष्ठ 12). द्विवेदी जी की इस खोज को नामवर जी एक मौलिक खोज बताते हैं. दूसरी बात नामवर जी कहते हैं, “द्विवेदी जी को भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपरा रवीन्द्रनाथ के माध्यम से मिली.” (पृष्ठ 12) वे आगे कहते हैं, “द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्र नाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.” (पृष्ठ 13 ) यह गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपराआचार्य द्विवेदी जी को रवीन्द्रनाथ टैगोर के माध्यम से प्राप्त हुई , और इसी आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी को वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था’. यानि, नामवर सिंह यहाँ इस बात को स्वीकार करते हैं कि द्विवेदी जी के भीतर जो परंपरा निसृत हो रही है वह टैगोर के माध्यम से है. यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि यह परंपरा टैगोर के पास कहाँ से आई, किस परंपरा से आई. खुद टैगोर किस तरह के आत्मसंघर्ष और वैचारिक संघर्ष से गुजर रहे थे. इसे बताने के लिए वसुधामें प्रकाशित स्वयं के लिखे लेख नवजागरण की यात्रा में रवीन्द्रनाथ टैगोरके अंश को उद्धृत करना चाहता हूँ, “उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में लिखे उनके लेख और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक समय में लिखे उनके लेख अगर देखे जाएँ तो हमें रवीन्द्र नाथ के विचार में होते हुए परिवर्तन दिखलाई देते हैं, खासतौर से पूरब और पश्चिम; प्राच्य और पाश्चात्य चिन्तन के मसलों पर. 1887 में ए करेस्पोंडेंसनामक लेख में उन्होंने लिखा-जान पड़ता है कि आधुनिक विज्ञान के सारे अन्वेषण शांडिल्य, भृगु और गौतम ऋषियों को मालूम थे. दुःख है कि वेदपुराण का युग बीत  गया है. 1888  में प्रीचिंग  नामक लेख में; ‘ईसाई धर्म गिरा कर हमें अपने हिंदू धर्म की रक्षा करनी है.रवीन्द्र नाथ का यह विचार उनके 1901 के पूर्वी और पश्चिमी सभ्यतावाले लेख में और भी अधिक तीक्ष्ण होकर सामने आता है; ‘चाहे हम स्वतन्त्रता प्राप्त कर लें अथवा पराधीन ही रहें, किन्तु हमें अपने समाज में हिंदू सभ्यता को पुनर्जीवन देने की आशा कभी नहीं त्यागनी चाहिए. हमारे इतिहास, धर्म, समाज या गार्हस्थ्य जीवन में राष्ट्र निमार्ण को स्वीकार नहीं किया है.  यह विचार सरणी 1907 के बाद से परिवर्तित होता हुआ दिखलाई पड़ता है. दरअसल प्राच्यवाद से पाश्चात्यवाद की ओर रवीन्द्र नाथ का आकर्षण प्राच्यवाद की प्रबल संकीर्णता और सामंती मूल्यबोधों के कारण  कम हो रहा था और विज्ञान के विकास के साथ पाश्चात्यवाद ने तर्क की एक सरणी विकसित कर ली थी जिसमें रवीन्द्रनाथ को जनता की मुक्ति की आशा दिखलाई पड़ रही थी. दरअसल, रवीन्द्र नाथ के सामने एक बुनियादी समस्या थी कि, ‘हमारा देश सर्वदा शास्त्रों और पंडों से निर्देशित हुआ है, इसलिए विदेश से आये हुए सिद्धांतों को वेदवाक्य समझने की ही प्रवृति हममें है, क्योंकि हमारा मन आसानी से मुग्ध हो जाता है.जिसे उन्हें अपनी रचनाओं के माध्यम से हल करना था. इस लंबे उद्धरण के पीछे यह उद्देश्य है कि, जब स्वयं टैगोर के चिंतन में बदलाव और परिवर्धन के लिए संघर्ष चल रहा था, स्वयं टैगोर के प्रेरणा स्रोत में प्राच्य और पाश्चात्य की अलग-अलग बहसें थीं तो फिर उनके प्रभाव से नामवर जी के अनुसार द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.वह कितना मौलिक और कितना किसी दूसरी परंपराकी निर्मिति करने वाला होगा, सहज ही मन में प्रश्न उठता है. टैगोर के बाद नामवर सिंह कहते हैं कबीर के माध्यम से जाति-धर्म निरपेक्ष मानव की प्रतिष्ठा का श्रेय तो द्विवेदी जी को ही है. एक प्रकार से यह दूसरी परंपरा है . (पृष्ठ 13)  टैगोर में जाति और हिंदू धर्म को लेकर एक खास तरह श्रेष्ठता बोध रहा है , कबीर में यह नहीं है. यदि आचार्य द्विवेदी में भारतीय संस्कृति और साहित्य की समझ टैगोर से आई है और नामवर जी ऐसा मानते भी हैं तो फिर संस्कृति में शामिल धर्म और जाति का प्रश्न आचार्य द्विवेदी में टैगोर से क्यों नहीं आया होगा, इसके लिए कबीर को याद करना दरअसल आचार्य द्विवेदी को लेजिटिमेसी प्रदान करना जैसा लगता है. नामवर जी लिखते हैं, “सच कहें तो द्विवेदी जी उस तरह से हिंदी वाले थे भी नहीं” (पृष्ठ 13). यदि आचार्य द्विवेदी उस तरह से हिंदी वाले होते तो क्या, उनके संदर्भ में परंपरा की खोजका आशय कुछ और निकलता. अध्यापन के विषय अलग हो जाने और अध्ययन के विषय अलग हो जाने से क्या विचारों की निर्मिति में अंतर आ जाता है, और इस प्रकार के अंतर को साहित्य की परंपरा निमार्ण में छूट मिलनी चाहिए?
 
ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूतइस शीर्षक वाले अध्याय के तहत नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के काशी में आने की दास्तान कही है. दास्तान कहने में उन्होंने तुलसी दास को बार-बार याद किया है. काशी ने जो पीड़ा तुलसी दास को दी वही पीड़ा आचार्य द्विवेदी को भी मिली. नामवर जी लिखते हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी अंतिम पुस्तक तुलसी दास पर लिखना चाहते थे. महाकवि का जीवन-संघर्ष उन्हें अपने ही जीवन-संघर्ष जैसा लगता था. तुलसीदास का स्मरणशीर्षक निबंध में उन्होंने इसकी और संकेत करते हुए लिखा है , “मुझे तुलसीदास का स्मरण करने में विशेष आनंद आता है.”” (पृष्ठ 20). यह जानना बेहद दिलचस्प है कि आचार्य द्विवेदी अपने शुरूआती लेखन में कबीरको रखते हैं और उनके फक्कड़पन को खुद से संदर्भित करते हैं, और अपनी अंतिम पुस्तक लिखने के लिए तुलसी दास को चुनते हैं और अपने जीवन-प्रणाली का साम्य  तुलसी दास में ढूंढते हैं. हम जानते हैं कि जिनमें वे अपने जीवन का साम्य तलाश करना चाहते हैं उनकी भक्ति संबंधी अवधारणा से खुद को अलगाते भी हैं. नामवर जी दर्ज करते हैं, “जो द्विवेदी जी को निकट से जानता है वही जानता है कि तुलसीदास की यह दुखद जीवन-कथा बहुत कुछ हजारी प्रसाद द्विवेदी की ही आत्मकथा है. बचपन की वही दरिद्रता, जवानी में काशी के पंडितों का वही घृणित विरोध और अंत में थोड़े दिनों की महंती भी वैसी ही. (पृष्ठ 21) दरअसल, यह अध्याय आचार्य द्विवेदी की व्यक्तिगत पीड़ाओं से निर्मित है जिसमें उनके द्वारा ढ़ेरों उदाहरण शिव मंगल सिंह सुमन को लिखे आचार्य द्विवेदी के पत्रों का है. मैं यहाँ नामवर जी के हवाले से आचार्य द्विवेदी द्वारा 30/05/1950 को शिव मंगल सिंह सुमन को लिखे पत्र का एक छोटा अंश उधृत करना चाहता हूँ, “रुपया तो मुझे चाहिए ही. आपको इस विषय में क्या बताऊँ. शायद आपको यह बताने की जरूरत नहीं कि यदि बिना रुपये के काम चल जाता तो मैं रुपये-पैसे के लेन-देन के चक्कर में कभी नहीं पड़ता. पर गरीब का सबसे भयंकर शत्रु उसका पेट होता है .गरीब का दूसरा दुश्मन उसका सर है जो झुकना नहीं चाहता. जो झुकना चाहता है वह भी शत्रु ही है.” (पृष्ठ 27) दूसरी परंपरा की खोजके संदर्भ से इन प्रसंगों का कोई महत्त्व मुझे समझ में नहीं आता सिवाय इसके कि आचार्य द्विवेदी किस प्रकार के द्वंद में थे. निजी और सामाजिक जीवन में द्वंद तो सभी मनुष्यों में होते हैं, लेकिन इस प्रकार के द्वंद कोई परंपरा की निर्मिति नहीं करते. अपनी किताब के इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी को, उधृत करते हैं, “1955 में अपनी पहली कृति सूर साहित्यके पुनर्मुद्रण के अवसर पर निवेदन करते हुए लिखा : पुरानी बातों को पढ़ता हूँ तो हृदय में एक प्रकार की पीड़ा का अनुभव करता हूँ. कहाँ से शुरू किया और कहाँ आ गिरा हूँ. जो होना चाहा था वह नहीं हो सका; जो सोचा भी नहीं था, उसके चक्कर में फँस गया हूँ.जाहिर है, आचार्य अपने काशी के कटु अनुभवों का स्मरण कर रहे हैं, और जैसा कि मैंने पहले कहा है यह अमूमन सभी मनुष्यों के जीवन में स्थान, काल और उसकी आवश्यकताओं के संदर्भ से कटु और मधुर अनुभव होता है. लेकिन, नामवर जी यहाँ दूसरी परंपरा की खोजमें इसे किस प्रयोजन से और क्यों क्यों शामिल कर रहे हैं. क्या व्यक्ति के होने’, ‘बननेकी दास्तान किसी परंपरा के निर्माण के लिए आवश्यक है. नामवर जी का परंपरा की खोजके संदर्भ से दूसरा तर्क द्विवेदी जी द्वारा काशी के हिंदी विभाग की बनी-बनाई परंपरा को तोड़ने की घटना से जुड़ा हुआ दिखलाई देता है. एम्. ए. के पाठ्यक्रम में निराला की कविता तुलसीदासको शामिल करने और बी. ए. की कक्षाओं के सामान्य छात्रों को प्रेमचंद के पढ़ाए जाने की बात का नामवर जी उल्लेख करते हैं. आचार्य द्विवेदी, आचार्य शुक्ल के विरोधी थे, इस प्रकार के भ्रम फैलने की बात का भी उल्लेख नामवर जी करते हैं, नामवर जी शुक्ल जी के समर्थक को रूढ़िवादी शुक्ल पूजक’ (पृष्ठ 32) कहते हैं और रामविलास शर्मा की किताब आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचनाको आड़े हाथ लेते हैं. हम नामवर जी के इस हेतु को समझ सकते हैं. परंपरा की खोजकी सार्थकता के संदर्भ से नामवर जी के इस उद्धरण को देखा जाना चाहिए जो उन्होंने आचार्य द्विवेदी द्वारा सुमन जी को लिखे पत्र के  हवाले से उधृत किया है , “मैं अच्छा आस्तिक कभी नहीं रहा हूँ. परन्तु बुरा नास्तिक भी नहीं रहा हूँ. बुरा आस्तिक दंभी होता है और बुरा नास्तिक अहंकारी. मैं तो सुमन जी, एक अद्भुत मिश्रण हूँ. मुझमे थोड़ा दंभ है, पर अहंकार कम है. कभी-कभी सोचता हूँ कि अहंकारी होता तो अच्छा था. अहंकारी अच्छा, दंभी नहीं.इस उद्धरण को पढ़ते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि संभवत: अहंकार और दंभ के इस द्वैत में कोई परंपरा निसृत होती हो, मुझे तो नहीं पता. 
              
अस्वीकार का साहस वाले अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की कबीरपर लिखी किताब और उस किताब में कबीर के फक्कड़पनको अपनी दूसरी परंपराके विश्लेषण में धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. नामवर जी कबीरके प्रकाशन वर्ष 1942 (चौथे दशक) के इर्द-गिर्द हिंदी साहित्य में बिखरे फक्कड़पनऔर मस्तीको  बालकृष्ण शर्मा नवीन, भगवतीचरण वर्मा , हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं में रेखांकित करते हुए  साबित करते हैं. नामवर जी लिखते हैं, “कबीर की इस अभूतपूर्व और अभिनव कवि-प्रतिभा को ध्यान से देखे तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह द्विवेदी जी के मनोवांछित विद्रोही कवि की अपनी कल्प-श्रृष्टि है, जिस पर बहुत हद तक चौथे दशक के फक्कड़पन की गहरी छाप है. (पृष्ठ 47) नामवर जी अपनी फक्कड़पनऔर मस्तीवाली बात को साबित करने के लिए आचार्य द्विवेदी  के निबंधों, उपन्यासों की तरफ बार-बार जाते हैं. आचार्य द्विवेदी के निबंध प्रेमचंद का महत्त्व’ (नवम्बर 1939, वीणा) में गोदान के एक मौजीपात्र मेहता के संदर्भ के सहारे नामवर जी फक्कड़पनऔर मस्तीको साबित करते हैं. वे आचार्य द्विवेदी जी के बारे में दर्ज करते हैं, “गोया वे प्रेमचंद के रूप में आधुनिक कबीर की प्रतिमा गढ़ रहे हों.” (पृष्ठ 49) आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों के पात्र वाणभट्ट, ‘चारु चंद्रलेखके सीदी मौला पुनर्नवाके माढव्य शर्मा और सुमेरु काका, ‘अनामदास का पोथाके गाड़ीवान रैक्य में फक्कड़पनऔर मस्तीके तमाम संदर्भ और उदाहरण देते हुए नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी को दूसरी परंपरामें शामिल किया है. आचार्य द्विवेदी ने अपने लेख मेरी जन्मभूमिमें अपने इलाके के निवासियों के फक्कड स्वभाव की चर्चा की है. आचार्य द्विवेदी के  निबंधों में अशोक, शिरीष, देवदारु, कुटज आदि के मस्ती में झूमते स्वभाव को नामवर जी ने फक्कड़पनऔर मस्तीकी धुरी पर कसा है. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के लिए इस धुरी को समझाने के लिए निराला की कुकुरमुत्ता (1940), राहुल सांकृत्यायन की बोल्गा से गंगा’ (1942) को शामिल करते हुए दर्ज करते हैं, “वस्तुत बीसवीं सदी के चौथे दशक में विद्रोह फक्कड़पन के ही किसी-न-किसी रूप को लेकर साहित्य में प्रकट हुआ था.”(पृष्ठ 53 ) नामवर जी आचार्य द्विवेदी के जीवन और रचना-कर्म के सहारे फक्कड़पनको दूसरी परंपराकी विशेषता मानते हुए लगते हैं. तो क्या साहित्य का यह फक्कड़पन दूसरी परंपराका निर्माण कर रहा था?   
 
दूसरी परंपरा की खोजका चौथा अध्याय प्रेम के पुरुषार्थ का है, ‘प्रेमा पुमर्थो महान’. आचार्य द्विवेदी का यह प्रेम कृष्ण भक्ति से ग्रहण किया हुआ है. आचार्य द्विवेदी की सूरदास  सम्बन्धी स्थापना को नामवर जी प्रेम की धुरी पर घुमाते हुए उसे दूसरी परंपरा की खोजकी चाक पर चढ़ाते हैं. नामवर जी भक्तिकाव्य के सूरदास में कृष्ण के प्रति प्रेम को आचार्य द्विवेदी की रचनाधर्मिता में शामिल प्रेम के तत्व को तलाशते हैं  और इस तलाश में जगह-जगह आचार्य शुक्ल को प्रश्नांकित करते चलते हैं. वे लिखते हैं, हिंदी भक्ति-काव्य के अनेक लोकवादी मूल्यों के प्रशंसक आचार्य शुक्ल ने भी भक्तिकाव्य के प्राण प्रेमको अभारतीय कहा” (पृष्ठ 64) नामवर जी का मानना है कि ऐसा शुक्ल जी प्रेम के माधुर्य भाव को फ़ारसी परंपरा का मान लेने के कारण कहते हैं. शुक्ल जी ऐसा इसलिए भी कहते है कि, “… तुलसीदास को छोड़ कर प्राय: सभी भक्त कवियों का प्रेम एकांतिकहै.” (पृष्ठ 65) नामवर जी का मानना है कि आचार्य द्विवेदी ने प्रेम की लोकवादीभूमिका को रेखांकित किया और, “प्रेम के इसी लोक-आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी के भक्ति काव्य की स्वीकृतिपरक व्याख्या की है.” (पृष्ठ 67) इस तरह से आचार्य द्विवेदी एक दूसरी परंपरा का निर्माण करते हैं. प्रेम का एक लोकवादी रूप. प्रेम पाप के अर्थों में नहीं बल्कि मनुष्य के स्वभाव के अर्थों में, इस स्वभाव की स्वीकृति से ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. लेकिन यह चरम लक्ष्यक्या है? कम से कम इस पुस्तक को पढ़ते हुए मालूम नहीं होता है. 
भारतीय साहित्य की प्राण-धारा और लोक-धर्ममें नामवर जी आचार्य द्विवेदी द्वारा भक्तिकाव्य की निर्मिति में शामिल प्राण तत्वों की खोजको सामने लाने का काम करते हुए दिखलाई देते हैं. इस खोज के लिए  नामवर जी दो धुरी आविष्कृत करते हैं, एक भारत में इस्लाम का प्रभावतथा दूसरा शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व’. इस्लाम के प्रभाव के संदर्भ में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब हिंदी साहित्य की भूमिकासे बहुप्रचलित/ बहुउद्धृत  तर्क को प्रस्तुत करते हैं, “मैं जोर देकर कहाँ चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (हिंदी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है.” (पृष्ठ 70) आचार्य द्विवेदी अपने इस तर्क को साबित करने के लिए तुलसी दास और सूर दास की कविता को आधार बनाते हैं ( स्मरण रहे यहाँ वह अपने प्रिय कवि कबीर को सामने नहीं ला रहे हैं ), नामवर जी ने इसे उधृत किया है, सूरदास और तुलसीदास आदि वैष्णव कवियों की समूची कविता में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया का भाव नहीं है.” (पृष्ठ 71). आचार्य द्विवेदी इस्लाम को प्रभावकी तरह तो स्वीकार करते हैं लेकिन प्रतिक्रियाकी तरह नहीं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के पक्ष में राम विलास शर्मा के तर्क को काटते हुए इरफ़ान हबीब के लेख का हवाला देते हैं . राम विलास शर्मा का मानना रहा है कि तुर्कों ने भारत में आ कर कोई युग परिवर्तन का काम नहीं किया, न उसने सामंतवाद को खत्म कर गण-व्यवस्था कायम की, न पूंजीवादी व्यवस्था. नामवर जी इसके लिए इरफ़ान हबीब के 13वीं और 14वीं सदी के संदर्भ में प्रोद्योगिकीय परिवर्तन और समाजशीर्षक शोध निबंध के ठोस तथ्यों को सामने रखते हैं, “…तुर्कों के शासन के समय भारत में वस्त्र उद्योग, सिंचाई, कागज, चुम्बकीय कुतुबनुमा, समय-सूचक उपकरण तथा घुड़सवार सेना-प्रोद्योगिकी आदि के क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ.” (पृष्ठ 75) नामवर जी आचार्य द्विवेदी की मान्यताओं को मजबूती से स्थापित करते हैं, वे कहते हैं, “मध्य-युग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वन्द्ध है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष.” (पृष्ठ 78). नामवर जी इस लोक संघर्ष को वर्ग-संघर्ष के रूप में देखे जाने के लिए जान इर्विन  के लेख द क्लास स्ट्र्गिल इन इंडियन हिस्ट्री एंड कल्चरको देखे जाने की वकालत करते हैं. हम जानते हैं कि लोक-धर्म शब्द का प्रयोग आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य द्विवेदी ने किया था , लेकिन नामवर जी आचार्य शुक्ल के लोक-धर्म को बहुत कुछ वर्णाश्रम धर्मकी तरह का मानते है और आचार्य द्विवेदी के लोक धर्म को साधारण जनों के विद्रोह की विचारधारा की तरह देखते हैं. नामवर जी अपने इस तर्क को पैना करने के लिए अंतोनियो ग्राम्शी के नोट बुक का सहारा लेते हैं, वे ग्राम्शी के किसानों और कारीगरों जैसे परम्परित वर्गों की वैचारिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखने के आग्रह को स्वीकार करते हैं और इसे आचार्य द्विवेदी के तर्क के समर्थन में खड़े कर देते हैं. दूसरी परंपरा की खोजके संदर्भ से यह एक महत्त्वपूर्ण तर्क है.  
दूसरी परंपरा की खोजका छठा अध्याय संस्कृति और सौंदर्यहै. इस अध्याय के केंद्र में नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के निबंधों को रखा है. इसके माध्यम से नामवर सिंह सामासिक संस्कृतिअथवा मिश्र संस्कृतिकी खोज को दूसरी परंपरा की खोजमें शामिल करते हैं. अशोक के फूलके संदर्भ में आचार्य द्विवेदी को नामवर जी दर्ज करते हैं, “एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार ले कर हमारे सामने उपस्थित है . अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है . आम की भी है,बकुल की भी है, चम्पे की भी है. सब क्या हमें मालूम है? ” (पृष्ठ 86) नामवर सिंह इस निबंध के बारे में खुद कहते हैं कि यह निबंध द्विवेदी जी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि संस्कृति-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है.” (पृष्ठ 87). नामवर जी इस क्रम में दिनकर की  संस्कृति के चार अध्याय’, गोविन्द चंद्र पांडे की किताब भारतीय परंपरा के मूल स्वर’, जय शंकर प्रसाद के निबंध रहस्यवादमें सामासिक संस्कृति के तत्व की तलाश करते हुए उसे आचार्य द्विवेदी की चिंतन परंपरा के विस्तार के रूप में देखते हैं. संस्कृति और सौंदर्य के सवाल पर नामवर सिंह आचार्य द्विवेदी के कुछ मौलिक निष्कर्षों को दूसरी परंपराके लिए दर्ज करते चलते हैं, वे अजंता, साँची, भरहुत के चित्रों को आर्येतर सभ्यता की समृद्धि के तौर पर देखते हैं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब प्राचीन भारत का कला-विलास’ (1940) का जिक्र करते हुए सौंदर्यबोध की संस्कृति का उल्लेख करते हैं साथ ही उनके उपन्यासों में आये हुए तमाम नारी पात्रों के सौंदर्य के वैभव, नृत्य-कला के रूप, उसकी शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य को सौंदर्य की परंपरा में अभिहित करने के तर्क को स्थापित करते हैं. नामवर जी अपने इस अध्याय में  खोज को पुष्ट करने के लिए आचार्य द्विवेदी के तर्कों की एक कड़ी निर्मित करते हैं कि कैसे आचार्य द्विवेदी सौंदर्य को सौंदर्य न कह कर लालित्य कहना चाहते हैं. लालित्य की धारणा को आचार्य द्विवेदी भरतमुनि के नाट्य-शास्त्र से ग्रहण करते हैं. नामवर जी ने अपनी इस किताब में बताया है कि आचार्य द्विवेदी अपने अंतिम दिनों में  सौन्दर्यशास्त्र पर लालित्य-मीमांसा नाम से एक पूरी किताब लिखना चाहते थे, उस किताब के लिए केवल पांच ही निबंध पूरे हो सके थे. जाहिर है, आचार्य शुक्ल सौंदर्य और संस्कृति को ले कर एक लोकवादी धारणा लेकर चलना चाहते थे, यह उनकी लोकधर्मी परियोजना का हिस्सा था, जिसे नामवर जीदूसरी परंपराकह रहे हैं. जो लोगइतिहास को नीचे से देखने की दृष्टि के संदर्भ से बात करते हैं या गायत्री स्पिवाक अपने निबंधों में सबाल्टर्न को निरुपित करती हैं , क्या वे सभी एक भिन्न किस्म की परंपरा की बात नहीं कर रहे होते हैं.
  
साहित्य में विचारधारात्मक संघर्ष को केंद्र में रख कर नामवर जी दूसरी परंपरा की खोजकरते हैं. त्वं खलु कृति वाले अध्याय में नामवर जी शिष्ट संप्रदाय की अलंकारशास्त्रीय चिंतन पद्धति को दर्शाते हुए इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कैसे प्रभुत्वशाली वर्ग साहित्यिक मान्यताओं को पूरे साहित्यिक समाज पर लागू करते हुए प्रभुत्व कायम कर लेता है. गौरतलब है कि इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की आत्म समीक्षा की क्रीड़ाशीलताको ‘परंपरा की खोजके लिए धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं . नामवर जी कहते हैं,  उन के (आचार्य द्विवेदी) हाथों शास्त्र भी साहित्य बन जाता है और समीक्षा सर्जना . … किसी छंद के साथ वे इस तरह खेलते हैं जैसे अर्थक्रीड़ा में उन्हें एक मजा मिल रहा हो . ”(पृष्ठ 109 ). आचार्य द्विवेदी की किताब मेघदूत-एक पुरानी कहानी को इसी क्रीड़ा के तहत देखा जाना चाहिए.  हम जानते हैं कि देरिदा ने भीअर्थक्रीड़ाओं  या अर्थलीला की बात कही है, मैं यहाँ देरिदा के संदर्भ से विस्तार में जाना नहीं चाहूँगा, बस इतना कहना चाहूँगा कि साहित्य में शब्दों के खेल आचार्य द्विवेदी के आने से बहुत पहले से ही प्रचलन में रहा है. बस उसे कहने के तरीके और उसके संदर्भ बदलते रहे हैं.  इस तरह यह कोई दूसरी परंपराका निर्माण नहीं करता है बल्कि अध्ययन और विचार की एक अलग दृष्टि देता है. 
व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारी प्रसाद द्विवेदी, इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के शास्त्री बन जाने की प्रक्रिया का खुलासा करते हैं, और इसके लिए स्वयं आचार्य द्विवेदी की स्वीकारोक्तियों को उद्धृत करते चलते हैं. अपने ज्योतिष गुरु के मत की आलोचना में एक लेख लिखा. अपने नाम से छपाने की हिम्मत न थी. इसलिए नाम छिपाने के लिए एक छद्म नाम चुना- व्योमकेश शास्त्री.” (पृष्ठ 111). कहते हैं कि इस लेख के बाद आचार्य द्विवेदी को एक शास्त्रार्थ के लिए बुलाया गया, भेद खुल जाने के भय से आचार्य द्विवेदी इसके समाधान के लिए रवीन्द्र नाथ टैगोर के पास गए, गुरुदेव ने क्षण-भर आँखों में देखा, फिर सहज भाव से कहा – न जाओ. तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है, उससे कहीं अधिक भय और संकोच. तुमने अपना नाम छिपाया, वहीं से गलत रस्ते पर चल पड़े.” (पृष्ठ 112 ). नामवर जी बताते हैं कि इस घटना के बाद भी कुछ ललित लेख आचार्य द्विवेदी ने व्योमकेश शास्त्री के नाम  से लिखे जो विचार और वितर्कमें संकलित है. हम जानते हैं कि वाणभट्ट की आत्मकथा और  चारु चन्द्रलेख उपन्यासों के साथ व्योमकेश शास्त्री का नाम आबद्ध है. आचार्य द्विवेदी के इस नाम के बचाव के पक्ष में नामवर जी एक महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, जो गौरतलब है,  “जब अपने छद्म नाम की समस्या को ले कर द्विवेदी जी रवीन्द्र नाथ के पास गए तो उन्होंने उनसे क्यों नहीं पूछा कि आपने भानु सिंह नाम से अपनी आरंभिक रचनाये क्यों छपवायी? रवीन्द्र नाथ ने जिस भय और संकोच का जिक्र किया था, क्या वह स्वयं अपना अनुभव था? ” (पृष्ठ 112) हम जानते हैं कि न केवल भारतीय साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में भी कई बार छद्म नाम से लिखने की परंपरा मिलती है. छद्म नाम से लेखक कई बार कई तरह की बात कहने का छूट ले लेता है जो वह सीधे-सीधे अपने नाम के साथ नहीं कह सकता. नामवर जी रेखांकित करते हैं कि, छद्म नाम का अगर आचार्य द्विवेदी के पास मुखौटा न होता तो क्या वे वाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख जैसे उपन्यासों मे सुकुमार-संवेदना वाली साहसिक प्रेम कहानियां लिख पाते. दरअसल , समाज में मुखौटों का एक खास महत्त्व रहा है. भरतमुनि के नाटयशास्त्र में भी मुखौटों का जिक्र प्रतिशीर्षकनाम से आया है. मुखौटों के संदर्भ में नामवर जी आस्कर वाइल्ड को याद करते हैं, “किसी सभ्य समाज में लोगों के बारे में दिलचस्प चीज है वह मुखौटा है जो उनमें से प्रत्येक धारण करता है, न कि मुखौटे के पीछे की वास्तविकता. उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य जब स्वयं बोलता है तो अपने असली रूप में नहीं होता.” (पृष्ठ 115) आचार्य द्विवेदी द्वारा छद्म नाम धारण करना दरअसल, हिंदी साहित्य में लेखन के औजारों का एक प्रतिसंसार रचता है, एक ऐसी दुनिया की निर्मिति जिसमें कहने की छूट का अवकाश हमेशा बना रहे, लेकिन यह यहाँ कहना जरुरी है कि मात्र इस आधार पर इसे दूसरी परंपराकहा जाए, एक सरलीकृत बयान भर होगा, और कुछ नहीं.  
दूसरी परंपरा की खोजमें आचार्य द्विवेदी के बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोजको साबित करने के लिए नामवर जी आठ अध्यायों की इस पुस्तक में हर अध्याय के लिए एक धुरी आविष्कृत करते हैं.  धुरी पर नामवर जी अपने  चिंतन के चक्र को आचार्य द्विवेदी के इर्द-गिर्द घुमाने की सुविधा अर्जित करते हैं. पहले अध्याय में आचार्य द्विवेदी  के बनने’,  ‘होने में  रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रभावों  और शांति निकेतन  के महत्त्व को धुरी की तरह रेखांकित किया है तो दूसरे अध्याय में आचार्य शुक्ल के निजी जीवन के संघर्षों, अनुभवों को (विशेषकर काशी के संदर्भ में) स्थापित करने के लिए नामवर जी तुलसी दास के संघर्षों को अपने विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. नामवर जी, तीसरे अध्याय में आचार्य द्विवेदी की रचनाओं और उनके जीवन की दास्तान कहने के लिए कबीर को याद करते हैं; और कबीर के फक्कड़पन को आचार्य द्विवेदी के फक्कड़पनसे जोड़ते हैं. नामवर जी  के लिए फक्कड़पनएक अगली धुरी है. आचार्य द्विवेदी की रचनाओं में प्रेम के लोकवादी स्वरूप को जिसका आधार वे कृष्ण के प्रेम का लेते हैं. यह प्रेम वह है  जिसे सूर दास ने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है . नामवर जी इसी प्रेमको अपनी एक और धुरी बनाते हैं. आचार्य शुक्ल की भक्ति काव्य की उद्भव सबंधी धारणाओं को समझाने के लिए नामवर जी दो धुरी बनाते हैं, एक इस्लाम के प्रभाव को और दूसरा शास्त्र तथा लोक के बीच के द्वंद्व को. द्विवेदी जी की रचनाओं में निसृत सामासिक संस्कृति की समझ को दूसरी परंपराकी कोटि में लाने  के लिए  नामवर जी द्विवेदी जी के सौंदर्य/ लालित्य को धुरी बनाते हैं. साहित्य और जीवन में विचारधारात्मक संघर्ष को द्विवेदी जी की रचना से जोड़ते हुए नामवर जी आचार्य द्विवेदी की क्रीड़ाशीलताको ‘दूसरी परंपरा के विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. अपने अंतिम अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के व्योमकेश शास्त्री बन जाने की  साहित्यिक मज़बूरी और जरुरत को रेखांकित करने के लिए मुखौटे की धारणा को धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. इन धुरियों का निर्माण नामवर सिंह की आलोचना का रण-कौशल है, व्यूह रचना है. तमाम सहमतियों और असहमतियों के बाद भी आलोचना में एक उस्तादकी तरह नामवर जी का बर्ताव उनकी खासियत है और उनकी सीमा भी.
         
नामवर जी जब आलोचनापत्रिका का पहली बार जुलाई-सितम्बर 1968 में  संपादन कर रहे थे, तब उन्होंने अपने पहले सम्पादकीय में लिखा था दरअसल विरोध की राजनीति का भी क्रमशः एक अपना रेटारिकबन जाता है- फिर वह विरोध चाहे जितना निजीहो; और नहीं तो अपनी ही आवृति होने लगती है.दरअसल, ‘रेटारिकका अपना एक वजूद होता है, मोटे तौर पर रेटारिकको  अठारहवीं सदी के बाद नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा था. टेरी इग्लटन इसकी पुनर्स्थापना करते हैं, वे मानते हैं कि ‘रेटारिक भाषा में अनुरोध,मनाने और बहस करने की गुणवत्ता का अध्ययन किया जाता थाउसे हमें एक नया संदर्भ देना होगा. हमें इस विश्वास की और लौटना होगा कि आधुनिक विमर्श मानवीय नियति के बदलाव की चिंताओं से जुड सकता है. तमाम तरह के विमर्श, संकेत-चिन्हों का अध्ययन और संरचनात्मक चीर-फाड़एक जरुरी कार्य है. और यह कार्य बदलाव से जुड़ा है. इसलिए कोई भी विरोध और प्रतिरोध को इन्हीं बदलावों के संदर्भ से समझा जाना चाहिए न कि किसी प्रकार के हमले की तरह.  आचार्य दिवेदी की कबीरपर लिखी किताब निश्चित ही हिंदी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, आचार्य शुक्ल से भिन्न यह कबीर पर सोचने और तक करने की नई दृष्टि देता है लेकिन इस आधार पर नामवर सिंह का यह कहना, “‘कबीरके साथ एक भिन्न परंपरा ही नहीं आती, साहित्य को जांचने-परखने का एक प्रतिमान भी प्रस्तुत होता है.और यह भी कहते हैं, “इस चिंतन क्रम में द्विवेदी जी जहाँ परंपरा से प्राप्त हिंदी साहित्य के इतिहास के मानचित्र को बदलकर एक दूसरा मानचित्र प्रस्तुत करते हैं.” (पृष्ठ-17) तो सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी साहित्य की सम्पूर्ण विकसनशील पद्धति को किसी एक व्यक्ति के चिंतन-ढांचे के आधार पर संकुचित कर दिया जाना चाहिए, और यह भी सवाल उठता है कि यह दूसरा मानचित्र क्या है? यह मानचित्र वही तो नहीं जो नामवर जी ने आठ अध्यायों में कही है. ऊपर आठ आध्ययों के बारे में लिखते हुए मन में यह विचार बार-बार आता रहा कि यह एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति आदर दर्शाने का माध्यम मात्र है; जैसे १९८२ के लगभग तीस वर्षों बाद २०१२ में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण करते हुए व्योमकेश दरवेशलिखी. नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी दोनों आचार्य द्विवेदी के शिष्य रहे हैं. भिन्न समय में लिखी दूसरी परंपरा की खोज’  और व्योमकेश दरवेशका तुलनात्मक अध्ययन करना संभव है हमें आचार्य द्विवेदी को ले कर एक भिन्न किस्म का निष्कर्ष प्रदान करे.
इस लेख को अंत करने से पहले मैं फिर से लौटना चाहता हूँ इस किताब की भूमिका की तरफ, लेकिन इससे पहले टेरी ईग्लटन की इस बात की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूँ, “…साहित्यक अध्ययन में पद्धतिके बजाय वस्तुमहत्त्वपूर्ण होती है. वस्तु ही विमर्श को विशिष्ट और असीमित बनाती है. आज कृति में हम वस्तुको स्थिर कर जीवन-वृत्त की पद्धति से मिथकों की पद्धति तक और वहाँ से वाक्य-संरचना की पद्धति तक आ-जा रहे हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं होता.भूमिका में नामवर सिंह अपनी इस किताब के बारे में लिखते हैं, कि इसमें न पंडितजी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास.तो इसमें क्या है , इसमें है एक व्यक्ति के बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज यानि एक व्यक्ति का जीवन-वृत्त. जाहिर है इस कृति में वस्तु  आंशिक रूप में ही आया. कहा भी जाता है कि यदि किसी भी कला-रूप से/ में  वस्तुऔर विचारके स्थान पर ध्वनिऔर विचार अभिव्यक्त होने लगें तो ऐसे में वह कला-रूप चाहे जो कुछ भी रहे, एंटी डायलेक्टिककलहो जाता है. कहते हुए थोड़ा भयभीत होता हूँ कि क्या नामवर जी की दूसरी परंपरा की खोज’ ‘एंटी डायलेक्टिकल है? क्या आचार्य द्विवेदी की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई है जो वास्तविकता से दूर है. मैं एक बार फिर से सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के ऊपर दिए उद्धरणों को पढ़ने की अपील करता हूँ.  
माफ कीजियेगा यदि मेरा यह लेख नामवर सिंह की दूसरी परंपरा की खोज  के संदर्भ में आह-आह’, ‘वाह-वाह’, ‘अरे-अरे’, ‘अहो-अहोकी श्रेणी में न आ सका हो. 
आखिर में दूसरी परंपरा की खोजपर अपनी बात खत्म करते हुए निम्न पंक्ति को उद्धृत करता हूँ, बिना कोई संदर्भ कहे – 
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी
प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है
मेरे लिए अन्न है
अमरेन्द्र कुमार शर्मा

सम्पर्क –
अमरेन्द्र कुमार शर्मा  09422905755
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा


(इस पोस्ट में प्रयुक्त नामवर जी के चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं.)



[i][i] कहाँ आते मुयस्सर , तुझसे , मुझको खुदनुमा इतने
हुआ यूँ इत्तिफ़ाक , आईन: मेरे रु-ब-रु टूटा ; दीवाने-ए-मीर; संपादक- अली सरदार जाफरी,राजकमल प्रकाशन,पहली आवृति 2003 ,पृष्ठ 101

समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ।


समीर कुमार पाण्डेय

महान बांग्ला कवि चंडीदास ने कहा था ‘सबसे ऊपर मानव-सत्य है, उस से ऊपर कोई नहीं।’ एक कवि के साथ-साथ किसी भी समय-समाज के मनुष्य के लिए इससे बड़ा सत्य और कुछ हो भी नहीं सकता। लेकिन इस संसार में होता है ठीक इसका उलटा। सारे ताम-झाम में मनुष्यता सबसे पीछे हो जाती है और मानवीय दम्भ ऊपर हो जाता है। कहीं यह दम्भ ज्ञान का है, तो कहीं आभिजात्यता का। कहीं (जातीय/नस्लीय) बड़प्पन का झूठा दम्भ है तो कभी संपत्ति का अहमकपना। यह सुखद है कि हमारे युवा कवियों में चंडी दास की बात आज भी सूत्र-वाक्य की तरह सुरक्षित है। तभी तो युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय लिखते हैं ‘किसी भी देश से बड़ा है/ एक मनुष्य/ जैसे कि भविष्य से बड़ा है/ एक वर्तमान।’ समीर गाँव में रहते हुए अध्यापन से जुड़े हैं और अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। समीर की कविताएँ आप पहले भी ‘पहली बार’ ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं। आइए आज एक बार फिर पढ़ते हैं संभावनाशील युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय की कुछ बिल्कुल नयी कविताएँ।

             
समीर कुमार पाण्डेय की कविताएं

 
बड़ा होना

बड़ा वो नहीं
जो दिखाई दे बड़ा
जैसे-पहाड़, आसमान और देश….
किसी भी देश से बड़ा है
एक मनुष्य
जैसे कि भविष्य से बड़ा है
एक वर्तमान
पर तभी
जब मनुष्य देश का
और वर्तमान भविष्य का बोझ लिए
घर से निकले तो
जमीन पर धूप के बारे में जरूर सोचे….
पूरी दुनियां में सबसे बड़ा है
मेहनतकश मजूर
जो याचक नहीं
लुटेरा नहीं
कहीं अड़ा नहीं
बस अपने छोटे पैरों पर खड़ा है…..।

जरुरी नहीं है


जो उड़ते हैं
जरुरी नहीं पंछी ही हों
जो तैरते हैं
जरूरी नहीं मछली ही हों
जो तेज दौड़ते हैं
जरुरी नहीं चीते ही हों
जो जन की बात करते हैं
जरुरी नहीं जन-हितैषी ही हों
जो समर्थन में हैं
जरुरी नहीं सब देश-भक्त ही हों
जो विरोध में हैं
जरूरी नहीं सब देश-द्रोही ही हों….।

मरना


मरे हुए देश में
यूँ तो रोज ही मरते हैं लोग
पर उसका मरना बर्दाश्त से बाहर था
उसी के सहारे
बचा था यह देश
टिकी थी माँ की सूखी आँखे
खड़ा था लाठी टेकता बूढ़ा बाप
वह मासूम बच्चा
उसकी जलती नव-व्याहता…।


ईमान के बिना


कोई भी नक्शा खींचें
अगर उसमें
एक तरफ अँधेरा हो
दूसरी तरफ लकलक उजाला
नदी, पहाड़ और झरने हों
तो नयी दुनिया गढ़ने की बात गल्प ही है
मुग़ालते में न रहें
साँप सी आड़ी-तिरछी
रेखाओं को खींचने से पूर्व
सारा जहर उगल अहमक बनना होगा
अन्यथा पहचान भूल जाओगे
आग, रोटी, कविता छोड़ो
गाँव-घर का पता भी भूल जाओगे…।

सम्भावना


उल्टी हवाओं में भी
जूतों पर नहीं
अपने पाँवों पर भरोसा हो
दर्द छलकता हो
जिन कुनमुनाती छातियों में
आँखें बची हों
सुर्ख लाल डबडबा कर कर भी
मौत के ठीक पहले
मरीज को बेहोश किये बगैर
जिंदगी के लिए ऑपरेशन कर दिया गया हो
जहाँ विद्रोह नहीं
खून देख कर दर्ज होती हो सूची
खाली आँखों से नहीं
आँसुओं से देखा जा रहा हो फलक को
जहाँ अनुवाद में नहीं
आँसुओं में तैरते हों हत्यारे
वहीं कुछ न कुछ बचा रहता है हमेशा
और उन्हीं आँखों में
रोशनी की सम्भावना भी बनी रहती हैं….।

साधारण असाधारण के बीच

मैं धरती पर
एक साधारण किसान मजूर के घर जन्मा
एकदम साधारण जीवन जिया
साधारण लोक-धुनों को भीतर तक उतारा
साधारण पानी की बूँदों
और साधारण फूलों की गंध को महसूस किया
एक-एक निवाले और साधारण भूख की भूख को समझा… ।
जिसे मैंने
आजाद मुल्क समझा
जिसकी असाधारणता से बौराया
कौशल से अपनी मिट्टी को भुला कर
मन को गिरवी रख उजाले की तरफ भागा
वहाँ पहुँच कर
मुझे भय मिश्रित आश्चर्य हुआ
वहाँ भाषा नहीं सिर्फ असाधारण शोर था
और तो और उस उजाले के भीतर घोर अँधेरा भी था….।
साहस

साथियों!
यह युद्ध
सतयुग का युद्ध नहीं है
पर अब भी युद्ध
सत्य के भरोसे
भ्रष्ट और चोर समय से
पूँजी नामक राक्षस के रचे असत्य-व्यूह से है…
पर जितना
यह समय इन क्रूर लोगों का है
उतना ही
हमारा अपना भी है….
याद रखो
मौसम नहीं बदलना है
साहस से मैदान में डटे रहना ही
सत्य और शांति के पक्ष में सबसे बड़ा युद्ध है…।

लड़ाई

हमें पता था
हम हार जायेंगे
क्यों कि
हवाओं का रंग धूसर था
कद बढ़ाने खातिर
अपने-अपने दर्शन गढ़ लिए थे लोगों ने
आदमी ही आदमी का सबसे बड़ा शत्रु था
और तो और इस झूठ को ही
वर्तमान का सबसे बड़ा सच माना जाता था….
क़ानूनी मलवों में
क्षुद्र शब्दों के भार से
चिचियाता रहता था संविधान
बोलने के पहले
दूसरों का मुँह देखने का चलन था
फिर भी
अपनी ही कविताओं से
धारा के विरुद्ध जा कर
मामूली लोगों के लिए लड़े
ऐसे झूठे समय में
पागलपन ही कहा था साथियों ने
कि उम्र भर की पूंजी
रिश्तों और काबिलियत को दाँव लगा कर
रण-भूमि में झोंक देना चतुराई नहीं होती…….।

पराजय के वक्त


वह दौड़ में
आगे निकल चुका था
उसकी शक्ल से
चिपटी पड़ी थी लोभ की संस्कृति
होठों से रिस रही थी शातिर हँसी
जिसमें रह-रह कर झलक जाता था खून
वह मरोड़ सकता था इतिहास का सिर
क्योकि उसका दायां हाथ पूँजी था
और बायां भय-मिश्रित चाटुकारिता….।
यहाँ कुछ नया नहीं था
पराजय पहले भी हुई थी
पहले भी अन्याय
सामर्थ्य के सिंहासन के नीचे दुबका पड़ा था
पहले भी झूठ पर हुआ था जयघोष
पहले भी कुत्ते दुम ही हिलाया करते थे
मनुष्यों के चरित्र को देख कर
पहले भी गिरगिटों ने की थी आत्महत्या….।
शायद
वे भूल रहे थे कि
यह धरती बाँझ नहीं है
भ्रष्ट दलदल में फँसे होने के बावजूद
कर्म और श्रम का मामूली संघर्षशील बीज
किसी वक्त निकल आएगा
भाग्य या करिश्मे से नहीं
केवल तन कर खड़े भर हो जाने से ही…..।

  धरती का संगीत


जब इच्छाओं का घेरा
चमड़ी के नीचे
नसों के चटकने तक का तनाव दे रहा हो
मन बहक चला हो आकाश में
पैरों तले खिसकने लगी हो उर्वर जमीन
तब मन को थिर कर के
मिट्टी में
अपने ही पैरों पर
नाखून गड़ा कर खड़े रहो…..।
धरती को
ऊसरता या कठोरता से
मत आँको
धीरे-धीरे महसूस करो
यह सजल धरती कैसे हाँफ रही है… ।
सुर्ख शोर से
खुद को बचा कर
धरती के भीतर की आवाज
बस कान लगा कर सुनो-
थके बैलों के खुरों का संगीत
बच्चों की किलकारियों की गूँज
किसानों की अधूरी उम्मीदों का आख्यान
अपने पुरखों के दर्द का आर्त-स्वर
जल का अनुनाद
मिट्टी से बाहर आने को आतुर
बीज की कसमसाहट का स्नेहिल संगीत….।

किसान : खुद के खिलाफ


धरती पर
जैसे बच्चों के लिए
थनों में उफ़न उठता है दूध
वैसे ही आसमान में
बादल निचुड़ कर
बुझाते हैं धरती की प्यास….
इस मधुर रस से
निर्मल हास भर जाता है बच्चों
किसानों, चिरई-चुरुंग, ताल-तलैयों में
ताल के धान
पानी में खड़े हो कर
पानी के ही खिलाफ
सिर उठाये अडिग खड़े रहते हैं
उत्सवी माहौल में….
फसलों के
झुक जाने पर
झुक जाता है किसान
खुद के ही खिलाफ चिलम की आग पर
नगाड़े की धुन पर
लहक उठता है किसान धुप्प अँधेरे में….।

सम्पर्क

ई-मेल : samirkr.pandey@gmail.com

मोबाईल – 9451509252

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

रमाशंकर सिंह का आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’

रमाशंकर सिंह

घुमन्तू जातियाँ जो आमतौर पर मानव के प्रचेनतम रूप को अभिव्यक्त करती हैं, मनुष्यता की धरोहर हैं इनकी अपनी एक पुष्ट संस्कृति और भाषा होती है आधुनिकता की मार से ये जातियां सर्वाधिक प्रभावित हुईं हैं और प्रभावित हुई है इनकी संस्कृति और भाषा भी तुर्रा यह कि दुनिया की तथाकथित सभ्य जातियों ने इन्हें आपराधिक जातियों की सूची में रख कर इनके साथ सदियों से अमानवीय व्यवहार किया और ये लोग इसे सहते रहे। हमारी मानवता को विकसित करने और एक नयी दिशा प्रदान करने में इनकी भूमिका असंदिग्ध हैयुवा साथी रमाशंकर सिंह ने हाल ही में इन घुमन्तू जातियों पर एक महत्वपूर्ण शोध-कार्य सम्पन्न किया है उनके शोध का क्रम अनवरत अभी भी जारी है। वैसे भी इस दुनिया में ‘परफेक्ट’ जैसा कुछ होता नहीं है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं रमाशंकर सिंह का महत्वपूर्ण शोध आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’।       


उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि

रमाशंकर सिंह  

भाषा एक आवाज में नहीं होती है। विभिन्न आवाजें मिल कर भाषा का निर्माण करती हैं। इन आवाजों को विभिन्न समयों में सुनने का प्रयास किया जाता रहा है लेकिन यह श्रवण चयनात्मक रहा है। आधुनिक समय में मुद्रण, संसाधन और वितरण की तकनीक की सुलभता के कारण उन समुदायों का ही साहित्य और इतिहास प्रकाश में आ पाया है जिन तक औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक बौद्धिक समुदाय पहुँचे हैं। घुमन्तू समुदाय इस पहुँच से दूर रहे हैं। उत्तर भारत के साहित्य में स्त्री साहित्य, दलित साहित्य और आदिवासियों के साहित्य की बात की जाती रही है लेकिन इस सबके बीच घुमन्तू समुदायों के बारे में लगभग न के बराबर लिखा गया है। इसका एक कारण अकादमिक उपेक्षा तो है ही इन समुदायों की लिखित ज्ञान’ से दूरी भी है। इसलिए सुविधाजनक तरीके से मान भी लिया गया है कि इन समुदायों की अपनी कोई संख्या पद्धति, संसार के प्रति नजरिया, भाषा और साहित्य नहीं है।

उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा

उत्तर प्रदेश में कई ऐसे समुदाय हैं जो सदियों से घुमन्तू जीवन जीते हैं। ये समुदाय हैं- नट, चमरमंगता, पथरकट और महावत। इसमें नट, चमरमंगता और महावत में एक समानता है कि वे भैंस-भैंसों का व्यापार करते हैं और जड़ी-बूटी का काम करते हैं। चमरमंगता बारहों महीने भिक्षावृत्ति करते हैं। पथरकट पत्थर का सिल लोढ़ा बना कर बेचते हैं और वे जंगलों आदि से शहद निकाल कर बेचते हैं। नट और महावत कुश्ती भी सिखाते रहे हैं। महावत औरतें दाँत झाड़ने का काम और कान साफ करने का काम करती हैं। वे भैंस और भैंसो के व्यापार और उनके गर्भाधान का काम अभी भी करते हैं। पिछले कुछ वर्षां में गाँवों के अंदरूनी इलाकों में भी सरकारी पशु अस्पतालों और बाएफ के प्रवेश ने उनके इस रोजगार को प्रभावित किया है। जिम, शक्तिवर्द्धक दवाओं तथा फिल्मी सितारों से प्रभावित युवा कुश्ती में कोई रूचि नहीं रखते हैं और लाठी को पिस्तौल या बन्दूक ने निष्प्रयोज्य बना दिया है।

घुमन्तू समुदायों की भाषा का आंतरिक परिसर

प्रत्येक समुदाय अपनी अंदरूनी दुनिया में एक भाषाई परिसर में जीवित होता है। पढे लिखे और स्थायी जीवन जीने वाले समुदाय प्रिंट-कल्चर में मुद्रित ज्ञान और भाषा को न केवल अपना ज्ञान और भाषा बना लेते हैं बल्कि इसके द्वारा एक संरचनात्मक श्रेष्ठता बोध भी स्थापित करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर घुमन्तू समुदाय अपना ज्ञान और अपनी भाषा अपने गीतों, कथाओं और किंवदंतियों में सुरक्षित और परिवर्धित करता चलता है। इसमें समुदाय की महिलाएँ और वृद्ध एक सांस्कृतिक क्यूरेटर की भूमिका निभाते हैं। महावत समुदाय में महिलाएँ कथा कहती हैं। प्रायः वे दस के समूह में गोल घेरा बना कर बैठती हैं। सबसे सयानी महिला कथा शुरू करती है। कथा के मध्य में अन्य महिलाएँ भी इसमें कथा-सूत्रों को जोड़ती रहती हैं। इसके लिए वे अपने आपको तैयार करती हैं। एक दूसरे को न्यौता भेजा जाता है। आपस में गुड़ या मिठाई बँटती हैं। इन कथाओं को एक विशेष अवसर पर सबको सुनना होता है तो बिना अवसर के इन्हें सुनना या सुनाना गुनाह माना जाता है। प्रिंट कल्चर आने के बाद कुछ कथाएँ छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में भी छपने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में महावत इस्लाम धर्म को मानते हैं। इसलिए इनकी कथाओं में मोहम्मद साहब और उनसे जुड़े पवित्र कथानकों के अंदर महावत कथा-वाचक स्थानीय कथाओं को पिरो देते हैं। इसलिए यह कथाएँ रस्सी की एक लट के ऊपर दूसरी लट के लिपट जाने जाने जैसी प्रतीत होती है। यह कथाएँ एक ही समय में दो कथाएँ कहती हैं- एक मोहम्मद साहब की तो दूसरी इस समुदाय की।

उत्तर प्रदेश के नटों में कथा कहने और सुनने की दूसरी व्यवस्था है। समुदाय का पुरोहित, सोखा या कोई बड़ा-बूढ़ा कथा कहता है। महिलाएँ भी कथा कहती हैं। बहेलिया समुदाय और पारधी समुदाय में भी लगभग ऐसी ही व्यवस्था होती है। यह दुनिया कैसे बनी? इस दुनिया को कौन लोग चलाते हैं? समुदाय का नामकरण कैसे हुआ या जिस स्थान पर इस समय बसे हुए हैं, वहाँ पर कैसे आये? इस बात पर कथाएँ सुनायी जाती हैं। इन कथाओं में एक विश्व-दृष्टि होती है जिसमें परिवार, समुदाय या दुनिया को बचाने, उसे अधिक समतापूर्ण बनाने, संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण, मित्रता और आपसी भाईचारे की अविभाज्यता के संकेत छिपे होते हैं। इन कथाओं के अंदर इन घुमन्तू समुदाय के अस्तित्व में बने रहने की जुगत भी छिपी होती है। यह कथाएँ समूह में सुनी और सुनाई जाती हैं इसलिए एक ही समुदाय के अंदर इसके कई वर्जन होते हैं। एक ही कथा अलग-अलग समुदायों में पायी जा सकती है विशेषकर उन घुमन्तू समुदायों में जो दूसरे समुदायों से आर्थिक क्रिया कलापों से जुड़े होते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में शामिल किये गये बहेलिये और मध्य प्रदेश के मोघिया आपस में जुड़े हैं, विशेषकर दोनों प्रदेशों के सीमावर्ती जिलों में। उत्तर प्रदेश के बहेलिया समुदाय के लोग कंजर समुदाय के लोगों से पशुओं और पक्षियों का व्यापार करते हैं। इस प्रकार एक ही कथा मोघिया, बहेलिया और कंजर समुदाय में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ पायी जा सकती है।
 
मित्रता और आपसी सौहार्द्र के लिए सुनाई जाने वाली इन कथाओं में पंचतन्त्र के कथा-शिल्प की झलक मिल सकती है जो जो इन कथाओं की एक लंबी श्रुति परम्परा की ओर इशारा करती हैं। उत्तर प्रदेश के नट समुदाय में एक कथा मिलती है। कथा कुछ यों सुनाई जाती है कि एक मोर था। एक तीतर था। दोनों हमेशा साथ रहते थे। एक बार दोनों में इस बात पर झगड़ा हो गया कि किसके पंख सबसे सुंदर हैं। जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो वे अलग हो गये। अलग होकर दोनों दुःखी रहने लगे। इसी बीच एक दिन कुछ महिलाएँ जा रही थीं। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह मोर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह मोर नहीं है। यदि वह मोर होता तो उसके पास में तीतर भी होता। मोर को बहुत दुःख हुआ। उसने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना मोर का मन नहीं लगता। उसने महिलाओं से कहा कि यदि उसे कहीं तीतर दिखाई पड़े तो यह बात उसे बता दें। महिलाओं को कुछ दूर आगे जाने पर तीतर दिखाई पड़ा। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह तीतर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह तीतर नहीं है। यदि वह तीतर होता तो उसके पास में मोर भी होता। अब तीतर को बहुत दुःख हुआ। तीतर ने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना तीतर का मन नहीं लगता। जब महिलाओं ने बताया कि मोर के साथ भी ऐसा ही है तो तीतर मोर के पास चला गया। दोनों ने एक दूसरे से माफी मांगी। वे साथ-साथ रहने लगे। इस सामान्य सी कथा को कह कर समुदाय के बड़े-बूढ़े समुदाय के आपसी संबंधों और दोस्तियों को बचाने की जुगत खोजते हैं। वास्तव में आदिवासी और घुमन्तू समुदाय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए न केवल कथा-कहानी और गीतों की रचना करते हैं बल्कि अपने सामुदायिक जीवन में एक दूसरे को स्वीकारने की विधियां भी ईजाद कर लेते हैं।
घुमन्तू समुदायों के भाषाई परिसर का विस्तार 

उत्तर प्रदेश में घुमन्तू समुदाय स्थायी रूप से बस रहे हैं। महावत, नट, पथरकट और कंकाली कहे जाने वाले समुदाय ऐसे समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय प्रभुत्वशाली जातियों ने बागों, खाली पड़ी जगहों, ग्राम-समाज की जमीनों और चकबंदी से निकली जमीनों पर बसाया है। 1992 के बाद पंचायती राज व्यवस्था के आने के बाद वे ग्रामीण उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गये हैं। उत्तर फैजाबाद जिले में एक जगह है बड़ागाँव। यहाँ महावतों का एक बड़ा डेरा है। यहाँ से वे समीपवर्ती जिलों में आते जाते रहते हैं। उनका एक जत्था आज से कोई 80 वर्ष पहले गोण्डा जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर आदमपुर गाँव में बस गया। वहाँ के एक जमींदार ने उन्हें माफी के रूप में कुछ बीघे जमीन दी थी। जब यहाँ इनकी जनसंख्या बढ़ने लगी तो घुमन्तू स्वभाव के होने के कारण वे वहाँ से लगभग 14 किलोमीटर दूर सिसई ग्राम सभा में एक बाग में बसना प्रारम्भ हो गये। यह लगभग 40 साल पहले की बात है। सन् 2005 में जब उत्तर प्रदेश में पंचायतों के चुनाव हो रहे थे तो उनका मतदाता पहचान पत्र सिसई ग्राम सभा के निवासी के रूप में बना। वे ग्राम सभा की बंजर जमीन पर बसे हैं। पानी पीने के लिए एक इण्डिया मार्का पंप लगा है। अभी उनको इन्दिरा आवास योजना, जिसे सामान्य बोल-चाल की भाषा में कालोनी कहा जाता है, की सरकारी स्वीकृति के इन्तजार में है। उनके टोले में 20 से अधिक वोट होने के कारण उन्हें लगता है कि देर-सवेर गाँव का कोई न कोई प्रधान उनकी बात सुनेगा और उनके लिए कुछ न कुछ करेगा। उनकी बस्ती में ही दो सरकरी स्कूल हैं। एक प्राथमिक विद्यालय और दूसरा लघु माध्यमिक विद्यालय, फिर भी महावतों के कुछ बच्चों का स्कूल में नामांकन होने के बावजूद वे स्कूल नहीं जाते हैं। अध्यापक कहते हैं कि वे आना नहीं चाहते और महावत कहते हैं कि अध्यापक उनके बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। बच्चे कहते हैं कि उन्हें स्कूल अच्छा नहीं लगता। आखिर उन्हें स्कूल की दुनिया अपने डेरे से अच्छी क्यों नहीं लगती? स्कूल के अन्य बच्चों की तुलना में वे बहुत गरीब हैं और उनके माता-पिता अभी समझ को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं कि शिक्षा से ही उनकी आर्थिक और सामाजिक अपवंचना को न्यूनतम किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त एक कारण यह है कि इन बच्चों की दुनिया उस दुनिया से बहुत अलग है जहाँ से स्कूल के अन्य बच्चे सम्बन्ध रखते हैं। इनकी दुनिया में मुर्गे, कुत्ते, भैंस-भैंसा और इससे सम्बन्धित चीजें हैं जिन से वे अपनी बोली के द्वारा बहुत गहरे तक जुड़े हैं। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री और प्रशासक के. एस. सिंह के सम्पादन में प्रकाशित इण्डियाज कम्युनिटीज तो कहती है कि वे हिन्दी बोलते हैं और देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं  लेकिन अधिकांश महावत पढ़े लिखे नहीं हैं और वे हिन्दी से भिन्न एक अलग प्रकार की भाषा का अपने दैनिक जीवन में बरताव करते हैं।

भाषा जीविका का हथियार है। उपेक्षित और परिधीय समुदाय अपनी जीविका के लिए विशिष्ट कूट भाषाओं की भी रचना करते हैं। इलाहाबाद और बनारस के निषादों तथा पंडों ने अपनी एक कूट भाषा विकसित कर ली है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि यह भाषा है कि नहीं लेकिन इतना स्पष्ट है कि अपने दैनिक जीवन में वे इसका प्रयोग अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करते हैं। यदि कभी आप इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम पर जाएं और थोड़ा ध्यान से सुनें तो पाएँगे कि पंडे और नाव चलाने वाले अपने समुदाय के अंदर बहुत ही मद स्वर में कुछ वाक्यों या वाक्य खंडों में बातचीत करते हैं। इस बातचीत में दो समानांतर धाराएँ होती हैं। एक धारा वह होती है जब वे समझ में आ सकने वाली स्थानीय हिन्दी भाषा में बात करते हैं- बाबू जी….संगम-संगम….. पूरी नाव किराये पर लेंगे कि अन्य सवारियों के साथ चलिएगा….आने जाने का 200 रूपया….. बिल्कुल संगम तक चलेगें…… त्रिमुहानी तक….. अरे आप कम दे दीजिएगा…. जो समझ में आएगा वही दीजिएगा। यह भाषा हमें समझ में आती है। बिल्कुल इसी समय वे एक दूसरी भाषा में आपस में बातचीत करते हैं। इसका स्वर धीमा होता है। इस बातचीत में निषाद सवारियों के बारे में आपस में बात करते हैं। जो निषाद पहले किसी सवारी के पास पहुँचता है, वह सवारी से मोल-भाव करता है। यदि सवारियों का कोई बड़ा समूह आ पहुँचता है तो कई लोग एक पूर्वनिश्चित पेशेवराना समझ के अनुसार बात करने लगते हैं। इस बातचीत को यदि सुनें तो कुछ इस प्रकार की वाक्य संरचना सामने आती हैः- चौकड़ मांजी…. चौकड़ मांजी… फुलान पखियारी…. हातो सुनरैया कछान कर। बहुत ही ठीक ठाक सवारी है…. ठीक सवारी …… समृद्ध महिला है…… इस से पाँच सौ रूपया तक का भाड़ा तो मिल ही जाएगा)। लच्चड़ हय…… धानी मांजी…… तोय बोसाय ले (लाचार किस्म की सवारी है…… ठीक सवारी नहीं है (उसकी ठीक से किराया देने की क्षमता नहीं है….. तुम्हीं सौदा पटा लो)। सवारियों से कितना किराया लेना है, कितना कमीशन आपस में तय करना है, इस के लिए उन्होंने अपने हिसाब से संख्याओं का निर्माण किया है। कहते हैं कि भाषा और लिपि के विकास के आरम्भिक चरण में संख्याओं का निर्माण सबसे पहले होता है। उन्हों ने भी संख्याओं से शुरूआत की होगी क्योंकि घाट पर संख्याएँ उनकी जीविका से जुड़ी हैं। संख्याओं के नाम के पीछे उनके अपने व्यवहारिक और अनुभवसिद्ध तर्क हैं। संख्या एक (1) के लिए वे सांग/सान का प्रयोग करते हैं तो सौ (100) के लिए सुं/सुन का प्रयोग करते हैं। निषादों के बीच सौ के लिए सुन या सुं का प्रयोग सम्भवतः इसलिए प्रचलित हुआ होगा कि सौ के अन्त में दो शून्य होते हैं। इसके अतिरिक्त एक से लेकर दस तक की संख्यायें परम्परागत 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, …का पालन नहीं करती हैं। उन्होंने इसे अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है। रूपया के लिए वे रैया शब्द प्रयुक्त करते हैं।

शब्द  संख्या    
सांग/सां एक 1         
जो छो 2      
रख /सिंघाड़ा तीन 3          
फोक चार 4           
हातो  पाँच 5           
हातो सान छह 6    पाँच में एक जोड़ कर = छह
हातो जो सात 7     पाँच में दो जोड़ कर= सात
हातो रख आठ 8 पाँच में तीन जोड़ कर = आठ
हातो फोक नौ 9 पाँच में चार जोड़ कर = नौ
सलाय दस  10      
रख पंजा पन्द्रह 15          
कोरी बीस 20        
मासा      पच्चीस 25  
रख सलाय  तीस  30 तीन को दस से गुणा कर के
रख सलाय हातू पैंतीस 35 तीन को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
फोक सलाय चालीस 40 चार को दस से गुणा
फोक सलाय हातू  पैंतालीस 45 चार को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
टाली पचास 50     
टाली सलाय साठ  60 पचास धन दस = साठ
टाली मोरी  सत्तर 70 पचास धन बीस = सत्तर
टाली रख सलाय अस्सी 80 पचास धन तीस (तीन को दस से गुणा करके) = अस्सी
टाली फोक सलाय नब्बे  90 पचास धन चालीस (चार को दस से गुणा कर के) = नब्बे
सुनरैया सौ 100    
सलाय सुनरैया एक हजार 1000          
इसी प्रकार महावतों और नटों में भी है। आपसी बातचीत में महावत या नट विशेष वाक्यों या वाक्य खंडों का प्रयोग करते हैं जिसे उनका ग्राहक समझ नहीं पाता है या इस बातचीत से उसका कोई सीधा जुड़ाव नहीं दीख पड़ता है। जब उन्हें ग्राहकों से ज्यादा पैसा लेना होता है तो इस प्रक्रिया को खोभना यानी ऐंठना कहते हैं।

‘सुआब देमा आवा है रे बपई, पक्की खम्मिस खुभाड़ ल्य तोय’
यानी ओ पिता, मनमाफिक ग्राहक आया है, इससे पाँच सौ रूपये ऐंठ लो।

महावतों के पास पक्के घर या तिजोरी तो होती नहीं इसलिए वे धन को बहुत ही सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। प्रायः वे इसे कथरी में या अपने वस्त्रों के आंतरिक भागों में बनी जेबों में रखते हैं। धन को छुपा कर रखने को ‘नसिया रखा हय’ कहा जाता है। जिस प्रकार निषाद और पंडे रूपये और संख्याओं को विशिष्ट नामों से जानते हैं, उसी प्रकार महावत भी रूपयों को गिनने की एक प्रणाली विकसित करने में सफल रहे हैं।

रूपए का हिन्दी में नाम महावतों और नटों की भाषा में नाम

रूपया कहीला
एक रूपया – एक कहीला
दो रूपया – दो कहीला
तीन रूपया –     तीन कहीला
चार रूपया –     चार कहीला
पाँच रूपया- पाँच कहीला
छह रूपया – छह कहीला
सात रूपया – सत्ता
आठ रूपया – आठ कहीला
नौ रूपया – नौ कहीला
दस रूपया – टसिल
बीस रूपया – दुइ लांग
तीस रूपया – टेढ़वा
चालीस रूपया – रावा
पचास रूपया – खम्मिस
सौ रूपया – लांग कहीला
पाँच सौ रूपया –  पक्की खम्मिस
एक हजार रूपया –     पक्की
पाँच हजार रूपया –     पाँच पक्की
दस हजार रूपया – असिल पक्की
दुनिया के सभी घुमन्तू समुदायों में कुत्ते का महत्वपूर्ण स्थान है। महावतों के डेरे में और उससे बाहर कुत्ता सदैव साथ में रहता है। लड़के को ‘बटरो’ और लड़की को ‘बटरी’ कहा जाता है। पत्नी को ‘गिहारी’ कहा जाता है। बटरो कुकुर बांधसी हय यानी – लड़का कुत्ता बाँध रहा है। सम्बोधन सूचक उच्चारणों में पुल्लिंग के लिए रेऔर स्त्रीलिंग के लिए री का प्रयोग किया जाता है-

बुआ हियाँ आरी। आव चली रे बजार- बुआ यहाँ आइए। आओ बाजार चलते हैं।
क्रियासूचक शब्दों के लिए महावत डरिमा, करिमा, चलिजाई का प्रयोग करते हैं- 
खाई लीमा? भोजन कर लिया है?
चलि जाई घाय छीलन को? घास छीलने को चलोगी?
अब्बै तोंहके मारि डरिमा- मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।
कहीं-कहीं उनकी बोली में भोजपुरी का पुट भी देखने को मिलता है-
दुकान खुलल है आटा ली अउबे? दुकान खुली है आटा ले आओगे?
ऐसा इसलिए है कि कुछ महावतों के वैवाहिक सम्बन्ध भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में हैं।

महावतों के आपसी सामुदायिक सम्बन्ध बहुत ही प्रगाढ़ होते हैं लेकिन वे बात-बात में लड़ भी सकते हैं क्योंकि हर व्यक्ति कुछ न कुछ काम करता है और कोई किसी की धौंस-पट्टी नहीं सुनता। रूपए-पैसे के लेन देन में अगर विवाद हो गया तो वे आपस में इस प्रकार झगड़ भी सकते हैं-तोर हमरे ऊपर लइमी लगाय दिहिस? (तुमने मुझ पर चोरी का इल्जाम लगा दिया?) अथवा किसी ग्रामीण किसान, जमींदार या पुलिस ने उन पर चोरी का इल्जाम लगा दिया तो वे कह सकते हैं- हमरे ऊपर लइमी न लगाऊ।  वास्तव में अभी भी भारतीय समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग और पुलिस इस औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है कि गरीब और घुमन्तू जातियाँ पेशेवर तौर पर चोर होती हैं। इस निर्मिति ने इन वर्गों के खिलाफ सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया और उन्हें हाशियाकृत कर देने का एक छद्म नैतिक आधार तैयार किया।

इस प्रकार प्रकार हम पाते हें कि जब हम भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं तो हम केवल उन भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं जो दृश्यमान हैं या जो दृश्यमान समूहों द्वारा बोली जाती हैं। इसे हमारी भाषाई चेतना की अल्प दृष्टि कहें या असहिष्णुता कि हमारा मानस यह मानने को प्रस्तुत नहीं हो पाता कि ठीक हमारे इर्द-गिर्द एक बोली या भाषा सांस ले रही है। उसे सुनने की जरूरत है। उस दुनिया के नागरिकों से परिचय की जरूरत है। हम अपने देश को प्यार करने का दावा करते रहते हैं। जब तक हम उसकी सभी भाषाओं को प्यार नहीं कर पाएँगे तब तक उसे पूरा का पूरा कैसे प्यार करेंगे?

(आभार : इस लेख के कुछ हिस्से बद्री नारायण(2016), संपादकउत्तर प्रदेश की भाषाएंओरिएंट ब्लैकस्वाननई दिल्ली में छपे थे जबकि एक हिस्सा गणेश नारायण देवी द्वारा सितंबर 2015 में इंडिया इंटरनेशनल सेटर के एक तीन दिवसीय सेमिनार में पढ़ा गया था।)
सम्पर्क –

मोबाईल – 08953479828

अनुपम मिश्र की (ब्रज रतन जोशी की किताब ‘जल और समाज’ पर) भूमिका


अनुपम मिश्र

अभी हाल ही में युवा रचनाकार ब्रज रतन जोशी की एक महत्वपूर्ण किताब प्रकाशित हुई है ‘जल और समाज’ नाम से छपी इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका लिखी है अनुपम मिश्र जी ने। दुर्भाग्यवश अनुपम जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन जल संरक्षण के लिए उन्होंने जो काम किया है उससे वे हमारे स्मृतियों में हमेशा जगह बनाए रहेंगे। इस महत्वपूर्ण किताब की उपादेयता इसी बात से समझी जा सकती है कि अनुपम जी ने इसे ‘एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम’ कहा है। अनुपम जी की तारीफ़ के कारण आप इस किताब को पढ़ कर तलाश सकते हैं। इस किताब के लिए मित्र ब्रज रतन जोशी को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं अनुपम जी द्वारा लिखी गयी इस किताब की भूमिका। यह अवसर अनुपम जी को नमन करने का भी है। पहली बार की तरफ से अनुपम जी को श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके द्वारा लिखी गयी यह भूमिका
ब्रज रतन जोशी
         
एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम 

अनुपम मिश्र 

श्रद्धा के बिना शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाए, वह आंकड़ों का एक ढेर बन जाता है। वह कुतूहल को शांत कर सकता है, अपने सुनहरे अतीत का गौरवगान बन सकता है, पर प्रायः वह भविष्य की कोई दिशा नहीं दे पाता।
ब्रज रतन जोशी ने बड़े ही जतन से जल और समाज में ढ़ेर-सारी बातें एकत्र की हैं और उन्हें श्रद्धा से भी देखने का, दिखाने का प्रयत्न किया है, जिस श्रद्धा से समाज ने पानी का यह जीवनदायी खेल खेला था।
प्रसंग है रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर। देश में सब से कम वर्षा के हिस्से में बसा है यह सुन्दर शहर। नीचे खारा पानी। वर्षा जल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूंदें। आज की दुनिया जिस वर्षा को मिली-मीटर/सेंटी-मीटर से जानती हैं उस वर्षा की बूंदों को यहां का समाज रजत बूंदों में गिनता रहा है। ब्रज रतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहां बने तालाबों का वर्णन करते हैं। और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, काल-खण्ड में जो यों बहुत पुराना नहीं है पर आज हमारा समाज उस से बिलकुल कट गया है।
ब्रज रतन इस नए समाज को उस काल-खण्ड में ले जाते हैं जहां पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था। उस दौर में बीकानेर में कोई 100 छोटे-बड़े तालाब बने हैं। उन में से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से संचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे। ये तालाब उस समाज की उसी समय प्यास तो बुझाते ही थे। यह भू-जल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं रहता था। ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिए गए हैं।
ब्रज रतन इन्हीं लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं। वे हमें इस रेगिस्तानी रियासत में संवत् १५७२ में बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते है सन् १९३७ में बने कुखसागर तक। इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें बनाना भी शामिल है और बड़े जतन से इनका रख-रखाव भी। उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी श्रद्धा से उनके पालन का वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलता जाता था।
लेकिन फिर समय बदला। बाहर से पानी आया, आसानी से मिलने लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का। फिर जमीन की कीमत आसमान छूने लगी। देखते ही देखते शहर के और गांवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे से पाट दिए गए हैं। पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है। उसके विस्तार में यहां जाना जरूरी नहीं।
इसलिए ब्रज रतन जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है। यह शहर का इतिहास नहीं है। यह उसका भविष्य भी बन सकता है।
सम्पर्क – 

ब्रज रतन जोशी 
मोबाईल – 09414020840

श्रद्धा मिश्रा की कविताएँ

श्रद्धा मिश्रा
प्यार जीवन की गहनतम अनुभूति होती है दुनिया में ऐसा कोई रचनाकार नहीं होगा जिसने प्रेम को आधार बना कर कविताएँ न लिखीं हो। अक्सर नए रचनाकार अपने लेखन की शुरुआत ही प्रेम-कविताओं से ही करते हैं। प्रेम जो एक विद्रोह होता है अपने समय और समाज से। प्रेम जो अपने मन-मस्तिष्क के मुताबिक़ की गयी बात होती है। सहज-सरल लगते हुए भी प्रेम पर कविता लिखना आसान नहीं होता श्रद्धा मिश्रा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कुछ कविताएँ लिखीं हैं। बेहतरी की गुंजाईशें लिए ये कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं एक युवा कवि के हिन्दी कविता संसार में आगत की आहट को। श्रद्धा का कविता की दुनिया में स्वागत करते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएँ।   


श्रद्धा मिश्रा की कविताएँ
बदले में
ये तो उम्र थी
उस के
गिरने
और
सम्भलने की,
इसी उम्र में
उसे
पिंजरे के हवाले कर दिया,
मैंने अक्सर
लोगो को कहते सुना
कि
माँ
प्रेम की मूरत होती है,
मगर
मैं
ये कैसे मान लूँ,
उसी ने आज
सौगंध दे कर
मुझे मेरे प्यार से
दूर कर दिया,
कैसे कह दूँ
निःस्वार्थ
होता है जग में
माँ का प्यार,
जब कि उसे
उम्मीद है मुझ से
कि
मुझे उसके त्यागों
के लिए
उस की मेरे लिए
जागी गयी रातों के लिए
मेरे लिए सहे गये
दर्द के बदले
समाज में उस की
इज्जत के लिए
छोड़ना
होगा,
मेरे प्यार को।।।
तू और तेरा साथ…
तुम ही तुम हो हर जगह
तुम्हारी चाहत
तुम्हारी आहट
तुम्हारी खुबू
हवाओ में बसी है,

धूप कुनकुनी सी
तुम्हारी गर्म छुअन सी,
तुम्हारे हाथ अब भी
मुझे सहारा देते है
ठीक उसी तरह
जैसे
सम्भाल लेते हो
पेड़ पथिक को
धूप से,

समझ नहीं आता
तुमसे प्रभावित हूँ या
तुम्हारे रूप से,

कारण कुछ भी हो मगर
तुम हो तो
खूबसूरत लगता है
धूप का सफर भी
तुम महसूस करते भी हो
या नहीं करते

ये सफर जो इतना कठिन
लगता था,
अब आसान सा
लगने लगा है,
तुम हो तो दर्द भी
पल दो पल
का मेहमान
लगने लगा है…



मेरे ही रहना जनम-जनम
न गठबंधन हुआ न फेरे हुए,
फिर भी सनम हम तेरे हुए।

मेरी खुशिया तेरी हुईं,
और तेरे सब गम मेरे हुए।

तन के रिश्ते टूट सकते है जानम,
मन का बंधन है हमारा,

साथ चाहिए अब सांसो को भी तुम्हारा,

तुम सोच भी नहीं सकते
कितनी चाहत है तुमसे,
अब तो मेरी
हर इबादत है तुम से,

राहत की बात
तुम न ही करो
तो बेहतर है,
तुम्हारे लिए ही
हाल बद से बदत्तर है,

सुकून तुममे ही नजर आया है मुझे,
तुमने भी यु ही नहीं पाया है मुझे,

मैंने दुआए माँगी थी टूटते तारो से,
गंगा के किनारो से,
सोलह सोमवारों से,
मंदिर से गुरुद्वारों से,

तब जा के

तुम और मैं 
मिले है हमसफ़र,
अब तो हर जगह 
तुम ही आते हो नजर,

बस एक गुजारिश है 

ये प्यार न करना कम,
मेरे ही रहना जनम-जनम।।।
यादों की डायरी…
वो खामोश है तो शहर में सन्नाटा छाया है,
सुबह जो गया था यहाँ से,
परिंदा अब तलक लौट कर नहीं आया है,
कई दिनों से सूरज नहीं निकला,
लगता है कोहरा घना छाया है,
आज फिर खोली एक पुरानी डायरी…..
फिर वही पेज बार-बार पढ़ा,
जिसमे तुम्हारा जिक्र आया है…
प्यार ही होगा…
खाक छान के आयी हूँ  
कई गलियों की
तुम्हारे साथ,
तुम्हे भी नहीं मालूम
की क्या पायी हूँ  
तुम्हारे साथ,
कौन कहता है
कि कुछ नहीं कर सकी,
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है
तुम्हारा साथ…

आसमान को भी कभी
गम होता होगा क्या
सितारों का,
फर्क ही क्या पड़ा होगा,
केशकंबली” को
वीणा के तारों का
स्वर तो यूँ ही फ़ैल गये होंगे
जब मिला होगा,
प्यार को प्यार का
प्यारा साथ…

प्यार किसी भी हाल में
प्यार ही निकलेगा,
फिर चाहे हाथ कुछ न लगे,
बेशुमार होगा सितारों की तरह,
रस घुल ही जायेगा
कैसे भी साधो वीणा,
कुछ तो होगा ही बेहतर,
जब है
हमारे साथ तुम्हारा साथ
तुम्हारे साथ
हमारा साथ…

जाने दो तुम नहीं समझोगी…

कई बार जब तुम ने
मेरे हाथों से
छुड़ा लिया था
अपना हाथ,

तब भी जब तुम ने
फेर ली थीं
आँखे
और घंटो देखते रहे थे
पेड़ की
शाखों को…

याद करो
जब पहली बार
तुम्हारे दिए
ब्रेसलेट का
एक नग निकल कर
कही गिर गया
और मैं खूब रोई
तब भी…

और जानते हो
तुम जब भी
मेरे पास एक ही बैंच में
बैठते थे
और मैं धीरे-धीरे
आ जाती थी
तुम्हारे करीब
तब तो और भी ज्यादा…

दिल ही दिल में बेइंतिहा सा
मैंने बार-बार कहा
प्यार है तुम से
जब भी तुमने ये पूछा है
कि  
क्या है
मैंने हर बार कहा था
जानते हो तुम
सिर्फ सताते थे मुझे

आज वही जब तुम
बात बात पे
कह देते हो,
जाने दो
तुम नहीं समझोगी,
और मैं समझ के भी
न समझ बनती हूँ,
मगर सच तो ये है मैं खूब
समझती हूँ इन
बातों का मतलब… 

पता- 
मातादीन का पूरा,  
शान्तिपुरम, फाफामऊ,   
इलाहाबाद
 
ई-मेल – mishrashraddha135@gmail.com

 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रियदर्शन का आलेख ‘और अंत में उदय प्रकाश’.


उदय प्रकाश

उदय प्रकाश हमारे समय के चर्चित कवि-कथाकार हैं. वे अपनी हर रचना के साथ कुछ नया प्रयोग करने की कोशिश करते हैं. व्यक्तित्व को ले कर कई एक कहानियों का जो ताना-बाना उन्होंने बुना है उसमें बकौल उनके वे खुद भी गहराई से शामिल होते हैं. और रचना भी तो वही कालजयी होती है जो अपने में अपने समय के संदर्भ को समेटते हुए चले. हमारे प्रिय कहानीकार प्रियदर्शन ने उदय प्रकाश के व्यक्तित्व-कृतित्व को परखने का प्रयास किया है अपने इस आलेख में. पहली बार के पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं प्रियदर्शन का यह आलेख ‘और अंत में उदय प्रकाश’.     

और अंत में उदय प्रकाश

प्रियदर्शन

उदय प्रकाश से मेरा व्यक्तिगत परिचय 1994 की गर्मियों में हुआ। तब तक एक बड़े लेखक के रूप में उनकी ख्याति नए क्षितिज छू रही थी। तिरिछ और टेपचू से लेकर छप्पन तोले का करघनऔर दरियाई घोड़ा तक दूसरी कई कहानियां उस दौर में धूम मचा चुकी थीं। और अंत में प्रार्थना कुछ ही दिन पहले प्रकाशित हुई थी। इन सारी कहानियों ने उदय प्रकाश को हिन्दी का स्टार कथाकार बना डाला था। यह कथा-कीर्ति इतनी चमकती हुई थी कि यह तथ्य अक्सर भुला दिया जाता था कि उदय प्रकाश प्राथमिक तौर पर या समानंतर एक कवि भी हैं। तब तक सुनो कारीगर और अबूतर कबूतर काव्य-संग्रह आ चुके थे और भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। सच तो यह है कि आज भी उदय प्रकाश पहले कथाकार के रूप में ध्यान में आते हैं और उसके बाद उनके कवि रूप का खयाल आता हैजबकि उनकी कई कविताएं मुझे उनकी कई कहानियों से ज़्यादा प्रिय हैं। यही नहीं, इस बीच उनके कुछ और कविता संग्रह, ताना-बाना और एक भाषा हुआ करती थी प्रकाशित हो चुके हैं। फिर कवि और कथाकार की यह साझा कीर्ति इतनी प्रबल है कि यह और भी कम याद रह जाता है कि उदय प्रकाश एक बीहड़ अध्येता भी हैं और समसामयिक संदर्भों और विचारों की दुनिया में भी उनका हस्तक्षेप काफी सक्रिय और समृद्ध है। यानी बाकी बात शुरू करने से पहलेमैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि उदय प्रकाश हिन्दी में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं जो जब भी कुछ भी लिखते हैं,  उसे ध्यान से पढ़ने की इच्छा और ज़रूरत दोनों महसूस होती है। 
अब उस पहली मुलाकात का ज़िक्र जो  एक मशहूर लेखक से एक अनजान पाठक के बीच हुई थी। मैं नया-नया दिल्ली आया था और फ्री-लांसिंग के नाम पर सांस्कृतिक समाचारों से ले कर आलेख तक लिखा करता था जो दिल्ली के अखबारों में कभी-कभी छपा करते थे। इसके अलावा परिचय के तौर पर मेरे पास बताने को मेरी रांची वाली पृष्ठभूमि थी जिसे मैं झारखंडी अस्मिता से जोड़ना कभी नहीं भूलता था। रांची के ज़िक्र ने भी उदय प्रकाश और मेरे बीच एक धागा सुलभ करा दिया। उदय प्रकाश ख़ुद छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि से आए थे। इसके अलावा उनके भाई कुमार सुरेश सिंह झारखंड में काम कर रहे थे और उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन झारखंड की संस्कृति को समझने में काफी सहायक हो रहा था।
 यह 1994 के आख़िरी महीनों की कोई शाम रही होगी जब मैं रोहिणी के तरुण अपार्टमेंट के उनके फ्लैट में पहुंचा।
मैं आजकल’ के लिए महात्मा गांधी पर केंद्रित एक परिचर्चा कर रहा था- उन लेखकों से जो गांधी के निधन के बाद पैदा हुए। कई लेखकों से मेरी बात हो चुकी थी और फिर मैं उदय प्रकाश से बात कर रहा था। ब भी याद है कि यह बहुत सार्थक और सारगर्भित बातचीत थी। उदय प्रकाश बहुत एहतियात और सतर्कता के साथ गांधी की विचार-दृष्टि का विश्लेषण कर रहे थे- गांधी व्याख्या के जाने-पहचाने स्टीरियोटाइप्स से अलग उदय प्रकाश ने उस शाम गांधी को देखने की कई दृष्टियां सुलभ कराई थीं। आजकल के उस अंक में जो गया सो गया, लेकिन उस मुलाकात का बहुत कुछ मेरे भीतर बचा रह गया। उस शाम उदय प्रकाश से बहुत सारे मसलों पर बातचीत हुई। मशहूर लेखक और अनजान पाठक का फासला मिटने में बहुत वक़्त नहीं लगा। जब मैं वहां से निकलने लगा तब तक रात हो चुकी थी। उदय प्रकाश ने बाकायदा अपनी गाड़ी से मुझे बस स्टॉप तक छोड़ा। यही नहीं, उन्होंने बताया कि उनके पास बहुत सारा काम है और मैं चाहूं तो उनकी मदद कर सकता हूं। लेकिन दरअसल वे मदद मांग नहींकर रहे थे। रांची से बिल्कुल नए आए एक फ्री-लांसर को अपने काम का कुछ हिस्सा दे रहे थे। आने वाले दिनों में मैंने उनकी ही मदद से दो या तीन डॉक्युमेंटरीज़ पर काम किया।
  
इसी दौरान व्यक्ति उदय प्रकाश को भी समझने का मौका भी मिला, लेखक उदय प्रकाश को भी। ऐसा नहीं कि दोनों में कोई ज्यादा फर्क था- आखिर दोनों की बुनावट बिल्कुल एक थीकुछ मामलों में प्रतिक्रियाओं का ढंग- निजता और सार्वजनिकता के बीच- कुछ भले बदलता हो। उन की बहुत सारी कहानियों पर हमारी बात हुई। उन विवादास्पद कहानियों पर भीजिनको लेकर उदय प्रकाश पर आरोप लगे थे। मसलन, मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने गोरख पांडेय को ले कर ‘रामसजीवन की प्रेम कहानी’ क्यों लिखी। उदय प्रकाश का उत्तर बहुत साफ था। उनके मुताबिक इस कहानी में जितना गोरख पांडेय थे, उससे ज्यादा वे खुद थे। उनका कहना था कि दरअसल गांव से शहर आने पर जो सांस्कृतिक अपरिचय और आघात खुद उन्हें भी झेलना पड़ा, उसकी उन्होंने कहानी लिखी- कुछ अनुभव भले दूसरों के शामिल किए।
मैं जानता हूं कि बहुत सारे संदेहवादियों को इस सफ़ाई में शक की बहुत सारी गुंजाइश दिख रही होगी। लेकिन मेरी सीमा कहें या नासमझी, मेरे सोचने का अभ्यास किसी और ढंग से विकसित हुआ है। मैं लेखक पर भरोसा करता हूं- इसलिए नहीं कि वह सोच-समझ कर कोई ईमानदार जवाब दे रहा है, बल्कि इसलिए कि हमारे जाने-अनजाने हमारे लेखन में और हमारे वक्तव्यों में कहीं न कहीं हमारे व्यक्तित्व की छाप और छाया चली आती है। दूसरों पर लिखते हुए हम कई बार ख़ुद पर लिख रहे होते हैं और इसे पहचान भी नहीं पाते। उदय प्रकाश अगर इस बात को कई दूसरे लोगों से बेहतर और साफ ढंग से समझ या रख पाते हैं तो इसलिए भी कि अपने लेखन के तंतुओं से उनकी पहचान बहुत गहरी है।
इत्तिफाक से उन्हीं दिनों वे पाल गोमरा का स्कूटर लिख रहे थे। एक तरह से इस कहानी को विकसित होते मैंने देखा था, क्योंकि उसके अलग-अलग पाठ मेरे सामने खुले थे। एक लेखक किस तन्मयता के साथ अपनी कहानी लिखता है, आत्मीय तरलता और पेशेवर तराश को किस तरह फेंटता है और कैसे उसे अंतिम रूप देता है, यह मैं देख रहा था। फिर इस कहानी पर कुछ जाने-पहचाने किरदारों की छाया थी और फिर मेरे सवाल पर उदय प्रकाश की सयानी हँसी और मासूम सफाई थी कि वे तो ज़माने की कहानी लिख रहे हैं।
बहरहाल, यह कहानी उदय प्रकाश की कई दूसरी कहानियों की तरह काफी लोकप्रिय हुई। लेकिन मेरे लिए इसका आलोचनात्मक महत्त्व कुछ दूसरा है। मैं इस कहानी को उदय प्रकाश की पुरानी और नई कहानियों की बीच की कड़ी की तरह देखता हूं। शायद यह पहली कहानी थी जिसमें उदय प्रकाश समकालीन ब्योरों और प्रवृत्तियों को मूल कथा के समानांतर रख रहे थे और यह काम वे कुछ इस कौशल से कर रहे थे कि कहानी पढ़ते हुए कहीं बाधा नहीं होती थी, बल्कि एक पूरी पृष्ठभूमि में चीजों के घटित होने का भान होता था। बाद में वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ और मैंगोसिल से लेकर मोहन दास तक में उदय प्रकाश यह युक्ति बड़ी सहजता के साथ इस्तेमाल करते दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल यह जो कुछ मैं लिख रहा हूं, वह उदय प्रकाश के कथा संसार के सम्यक मूल्यांकन की कोशिश नहीं है। यह उदय प्रकाश से निजी और लेखकीय मुठभेड़ों के दौरान मेरे भीतर बनने वाले प्रभावों और प्रश्नों का सिलसिला भर है। इन में से जो सबसे बडा प्रश्न मुझे घेरता है, वह ये कि आखिर उदय प्रकाश की लोकप्रियता का राज़ क्या है। ऐसे आलोचकों की कमी नहीं है जो उदय प्रकाश में कृत्रिमता, सपाटपन और दूसरों की नकल तक ढूढ़ने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से ज़्यादातर ऐसे आलोचक ख़ुद एक सपाट और अनुकरणशील दृष्टि के अभ्यस्त हैं, क्योंकि वे कहानी के बने-बनाए खांचे के बाहर जाकर देखने को तैयार नहीं हैं।
दरअसल जिसे उदय प्रकाश की कमज़ोरी बताया जाता है, वही उनके कथा-लेखन की ताकत है। वह बहुत सहज ढंग से कहानियां लिखते हैं – कई बार लगता है कहानी नहीं लिख रहे, अपने या दूसरों के बारे में कोई बात बता रहे हैं। पाठकों को भरोसा दिलाने या उन्हें भरोसे में लेने की यह शैली उनके यहां बिल्कुल प्रारंभ से दिखाई पड़ती है। वे लिखते नहीं, जैसे बात करते हैं या कोई बीता हुआ किस्सा सुनाते हैं। किसी किस्से तक पहुंचने के लिए पहले कुछ और सुनने और समझने की शर्त लगाते हैं। कहानी भी किसी शास्त्रीय ढंग से नहीं कहते, बिल्कुल ब्योरों में कहते हैं। तिरिछ शुरू ही होती है एक घटना के बयान से, जिसका वास्ता पिता जी से है। पिता जी भी बिल्कुल ऐसे हैं जिनकी उपस्थिति को कई लोग पहचानते होंगे। फिर पिता जी को तिरिछ काटता है जिसे वे मार डालते हैं, लेकिन जला नहीं पाते, इसके बाद वे शहर के लिए निकलते हैं, रामऔतार पंडित के कहे में आ जाते हैं और उसके बाद शहर में जो कुछ घटता है, उसे झेलते हैं। ये जो कुछ घट रहा है, उसके तमाम अंशों को हम अपने अलग-अलग अनुभव संसार में पहचानते हैं। वे सारी घटनाएं हम सबके जीवन में न जाने कितनी बार गुज़री हैं। लेकिन नितांत मामूली और जाने-पहचाने ब्योरों को जोड़ते हुए, उनके बीच की खोई हुई संगति की तलाश करते हुए, या फिर इन सबके बीच घट रही त्रासदी को बिल्कुल क्लोज़ अप में दिखाते हुए, उदय प्रकाश जो रचते और साझा करते हैं, वह एक सिहरा देने वाली कहानी होती है जो हमारे सपनों तक में दाखिल हो जाती है, जो हमारी स्मृति से जाने का नाम नहीं लेती।
दरअसल उदय प्रकाश जीवन के इन ब्योरों को बहुत करीब से देखते हैं और उनके भीतर के विद्रूप और उसकी त्रासदी को पकड़ते हैं। जीवन से संग्राम करते उनके पात्र अक्सर ऐसी विडंबनाओं से घिर जाते हैं जो उनका बहुत सख्त इम्तिहान लेती हैं- वे विक्षिप्त हो जाते हैं, वे मारे जाते हैं, वे खो जाते हैं। उदय प्रकाश की कई बड़ी और महत्त्वपूर्ण कहानियों के नायकों का अंत ऐसा क्यों होता है? क्या इसलिए कि वे इस आपाधापी भरे जीवन में, इस तनाव के बीच ख़ुद को बचाए रखने में असमर्थ हैं? फिर वह सामर्थ्य कहां से आती है जो दूसरों को अवेध्य बनाती है? यहां इन कहानियों की मार्फत समझ में आता है कि बचे रहने की युक्ति के नाम पर जो सयानापन, जो समझौतापरस्ती, जो संवेदनविहीन सपाटपन चाहिए, अपने कम मनुष्य होने की जो शर्त चाहिए, उसे नकार कर ही ये पात्र अपनी नियति का वरण करते हैं। वे प्रोफेसर वाकणकर की तरह अपने वक़्त का सही और सच्चा पोस्टमार्टम करने को मजबूर ऐसे पात्र होते हैं जिन्हें उन्हें नतीजे मालूम होते हैं।
अपनी काया और अपने वितान में लगभग औपन्यासिकता को छूने वाली उनकी ऐसी लंबी कहानियां शेक्सपियर की शोकांतिकाओं की याद दिलाती हैं- इस फर्क के साथ कि आधुनिक समय से मुठभेड़ करते उदय प्रकाश के नायक मामूली लोग हैं जिनकी सांघातिक कमज़ोरी- फेटल फ्लॉ- बस यह है कि वे बहुत संवेदनशील हैं और जीवन को बहुत गहराई से लेते हैं। इसी एक कमज़ोरी की वजह से उन्हें मारा जाना है।
मारे जाने से पहले ये किरदार निहायत कोमलता से नितांत क्रूरता के बीच कई बार आवाजाही को मज़बूर होते हैं। पीली छतरी वाली लड़की और छतरियां जैसी कहानियों में इस सफर को बहुत करीब से महसूस किया जा सकता है। छतरियां में कहानी जैसे ख़त्म होने को होती है, लेखक अपने समकालीन हस्तक्षेपके साथ अंत बदल डालता है। शायद उसे लगता है कि बलात्कार और छलात्कार से आहत हमारे समय में किसी रचना का ऐसा कोमल पाठ संभव नहीं है।
लेकिन फिर भी उदय प्रकाश कोमलता को बचाए रखते हैं। समकालीनता के उनके पाठ-उप पाठ- अपनी तरह के सरलीकरण भी रचते हैं और जटिलीकरण भी- इसमें उनकी राजनीति पर भी सवाल उठते हैं और उनके सरोकारों पर भी, लेकिन सारी चीज़ों के बावजूद पाठक इन कहानियों से बहुत गहराई से जुड़ता है, वह अपनी छीन ली गई पहचान को नए सिरे से हासिल करता है- कभी ख़ुद को ‘मोहन दास’ के साथ खड़ा पाता है और कभी पाल गोमरा के साथ।
प्रियदर्शन

तो हम पाते हैं कि जो बात यथार्थ के सूक्ष्म रूपों के प्रति बहुत स्थूल किस्म का आकर्षण रखने वाली आलोचना दृष्टि को सतही और सपाट, फिल्मी और रोमानी, सुनियोजित और कृत्रिम जान पड़ती है, पाठक उसे सहर्ष स्वीकार ही नहीं करता, उसमें साझा भी करता है। इस लिहाज से उदय प्रकाश हिन्दी के उन विरलतम लेखकों में हैं जो सीधे पाठकों से अपनी मान्यता हासिल करते हैं। उनकी एक छोटी सी कहानी है- डिबिया। इस डिबिया में उन्होंने धूप का टुकड़ा बचा कर रखा है जिसे वे कभी खोलते नहीं। एक स्तर पर उदय प्रकाश यह डिबिया अपने पाठकों को भी पकड़ाते चलते हैं- सबको मालूम है कि शायद इसके अंदर कोई ठोस चीज़ न बची हो। लेकिन इस डिबिया में उनके सपने हैं, उनका भरोसा है और उनकी कहानी है। आलोचक ऐसी ही डिबिया खोल कर साबित करना चाहते हैं कि यह तो खाली है- उन्हें उनका यह यथार्थ-बोध मुबारक हो। हिन्दी कहानी को उदय प्रकाश की कहीं ज़्यादा ज़रूरत है।

                                                                                                     

राजेश उत्‍साही का आलेख – बाल साहित्य : चुनौतियाँ और संभावनाएँ :

राजेश उत्‍साही

हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा के मायने सिर्फ यही है कि वह स्कूल जाए। पाठ्यक्रम की किताबें पढ़े। होम-वर्क करे। और अच्छे नम्बरों से परीक्षा पास करे। इस बंधी-बधाई दुनिया में थोड़ा मोड़ा टेलीविजन के कार्यक्रम, थोड़ा फेसबुक और व्हाट्स-अप भी अपनी जगह बना लेते हैं। लेकिन इस दुनिया में बाल-साहित्य के लिए प्रायः कोई जगह नहीं होती। अगर कोई बच्चा बाल साहित्य पढने में अपनी उत्सुकता दिखाता है तो (अभिभावकों की समझ के अनुसार) समझिए, बिगड़ने की राह पर चल पड़ा है। जबकि सच इसके बिल्कुल उलटा है। बाल-साहित्य बच्चों की मौलिक सोच को आगे बढाता है और उनके कल्पना के दायरे को ऐसे रंगों से भरने में कामयाब होता है जिससे वह सच्चे अर्थों में एक बेहतरीन इंसान बन सके। मेरा खुद का यह अनुभव रहा है। सौभाग्यवश बचपन में मुझे ‘नंदन’, ‘पराग’, ‘चम्पक’, ‘चंदामामा’, ‘लोट-पोट’, ‘सुमन-सौरभ’ और ‘बाल-भारती’ जैसी उम्दा बाल पत्रिकाएँ पढने को नियमित रूप से मिलीं जिससे मुझे मौलिक रूप से कुछ सोचने-समझने और लिखने के लिए प्रेरणा मिली। मेरी निर्मिति में इन बाल पत्रिकाओं का एक बड़ा योगदान है

आज के समय में बदलते संदर्भों में बाल-साहित्य के समक्ष खडी चुनौतियों और इनकी संभावनाओं पर राजेश उत्साही ने एक बेहतर भाषण दिया है
। इसे पहली बार के लिए उपलब्ध कराया है कवि महेश पुनेठा ने तो आइए आज पढ़ते हैं राजेश उत्साही के इस महत्वपूर्ण व्याख्यान को                   

बाल साहित्य : चुनौतियाँ और संभावनाएँ  

राजेश उत्‍साही
 


साहित्‍य क्‍या है? पुराना कथन है कि साहित्‍य समाज का दपर्ण है। जैसा समाज में होता है, साहित्‍य में वही प्रतिबिम्बित होता है। सही मायने में साहित्‍य का रिश्‍ता हमारे जीवन से है। हमारे जीवन में, हमारे आस-पास जो घटता है, उसे देख कर या उसे भोग कर हम दुखी या सुखी होते हैं। खुश होते हैं या उदास होते हैं। गुस्‍सा होते हैं या क्रोधित होते हैं। हँसते हैं, खिलखिलाते हैं, रोते हैं, चीखते हैं। और जब कभी इस सबका आख्‍यान हम कहीं लिखा हुआ पढ़ते हैं तो हमें वैसा ही महसूस होता है जैसा उसे देखते या भोगते हुए महसूस करते हैं।

जिस कविता, कहानी, नाटक, उपन्‍यास आदि को पढ़ते हुए हम ऐसा महसूस करते हैं कि उसने हमें अतीव आनंद दिया या कि हम उसमें डूब गए, दरअसल उसने हमें पाठक के रूप में वह स्‍वतंत्रता प्रदान की जो हमें मनुष्‍य होने के नाते हासिल होनी चाहिए। साहित्‍य वास्‍तव में हमें उन जंजीरों से मुक्‍त करता है, जिन में हम अमूमन जकड़े होते हैं।

शिक्षाविद् कृष्‍ण कुमार के शब्‍दों में, ‘साहित्‍य एक अपेक्षित अर्थ को जानने का जरिया है उसके जरिए कुछ रूपाकारों को, कुछ रूपकों को प्रचारित करने का माध्‍यम है।

मेरा अपना मानना है कि बाल साहित्‍य जैसा अलग से कुछ नहीं होता है। हो सकता है कि मेरा यह कथन आपको चौंकाए, यह भी संभव है कि आप मुझ से सहमत न हों। बरसों से यह अवधारणा चली आ रही है और तमाम विद्वान इसे मानते भी हैं। पर मुझे लगता है कि इस पर एक अलग नजरिए से विचार किया जाना चाहिए। इसलिए मुझे जब भी मौका मिलता है मैं इस सवाल को सामने रखता हूँ। आज भी रख रहा हूँ। 


इस संदर्भ में एक वाक्‍या 2011 का है। भोपाल में मशहूर बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के 300 वें अंक के विमोचन समारोह का आयोजन था। इस अवसर पर वहाँ भीबाल साहित्‍य की चुनौतियाँशीर्षक से एक विमर्श रखा गया था। इसमें कई अन्‍य लोगों के अलावा जाने-माने फिल्‍मकार गुलज़ार साहब और कवि, लेखक प्रयाग शुक्‍ल जी भी मौजूद थे। चकमक की संस्‍थापक सम्‍पादकीय टीम का सदस्‍य होने के नाते मैं भी इस विमर्श में शामिल था। वहाँ मैंने यही बात कही। प्रयाग जी ने इसका प्रतिवाद किया। बहस आगे बढ़ कर बाल साहित्‍य की गुणवत्‍ता पर पहुँची। गुलज़ार साहब ने इसका समाधान एक बहुत सुंदर कथन से किया। उन्‍होंने कहा कि, ‘अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से ले कर बड़े तक ले सकें।अब आप सोचिए कि ऐसे साहित्‍य को आप किस श्रेणी में रखेंगे।

चलिए अब हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि बाल साहित्‍य जैसा अलग से कुछ होता है। तो वह अच्‍छा क्‍या होगा? गुलज़ार साहब की बात मानें तो निश्चित ही वह जिसमें बच्‍चों से ले कर बड़े तक अपने को देख सकें। पर दिक्‍कत यहीं से आरम्‍भ होती है। हम ज्‍यों-ज्‍यों बड़े होते हैं या बड़े होने लगते हैं, जीवन को देखने का हमारा स्‍वतंत्र बाल-सुलभ नजरिया गायब होने लगता है। हम जीवन को स्‍वतंत्रता से देखने की बजाय प्रचलित मान्‍यताओं, नियमों और प्रतिबंधों के साथ देखने लगते हैं। तथाकथित नैतिकता और उसके आदर्श हमारे सामने आ खड़े होते हैं। ऐसे में जब हम किसी भी रचना को यह मान कर रचते हैं कि वह बच्‍चों के लिए है, तब तो हमारे सामने तमाम और बंदिशें और शर्तें भी आन खड़ी होती हैं। जैसे रचना किस उम्र के बच्‍चे के लिए लिखी जा रही है, भाषा क्‍या होगी, परिवेश क्‍या होगा। जो हम कहने जा रहे हैं, उसे समझ पाने के लिए जरूरी अवधारणाएँ बच्‍चे में विकसित हो गई होंगी या नहीं आदि आदि। जाहिर है ऐसा नियंत्रित लेखन जो रचेगा वह कितना प्रभावी होगा कहना मुश्किल है।

मुश्किल यह भी है कि जब बच्‍चों के लिए कह कर लिखा जा रहा होता है तो ज्‍यादातर लेखक अपने अंदर के अतीत के बच्‍चेको याद कर के, ध्‍यान रख कर लिख रहे होते हैं। बिरले ही होते हैं जो अपने आसपास के समकालीन बच्‍चे को देख कर, सुन कर, समझ कर, उसके स्‍तर पर उतरकर उसे अभिव्‍यक्‍त या संबोधित कर रहे होते हैं। मैं अपनी बात को और अधिक स्‍पष्‍ट करने के लिए अगर यह कहूँ कि प्रेमचंद ने ईदगाहकहानी बाल साहित्‍य कह कर तो नहीं लिखी थी। लेकिनईदगाहएक ऐसी कहानी है जो आज की तारीख में बच्‍चों के बीच खूब पढ़ी जाती है। या मैं यह याद करूँ कि प्रेमचंद की ही पंच परमेश्‍वरतो मैंने पाँचवी कक्षा की पाठ्य-पुस्‍तक में पढ़ी थी। यानी केवल ग्‍यारह साल की उम्र में। तो क्‍या आप उसे बाल साहित्‍य की श्रेणी में रख देंगे। इसमें आप चंद्रधर शर्मा गुलेरी की मशहूर कहानी उसने कहा था..को भी जोड़ लें जो मैंने दसवीं या ग्‍यारहवीं में पढ़ी थी, तो क्‍या वह किशोर साहित्‍य कहलाएगी। कुल मिला कर मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि साहित्‍य केवल साहित्‍य होता है, उसे श्रेणियों में बाँटने से हम साहित्‍य का भला कम, नुकसान ज्‍यादा कर रहे होते हैं। इसलिए एक विचारवान, गंभीर और सर्तक लेखक का यह दायित्‍व है कि पहले वह केवल लिखे। ठीक है कि आज के बाजार की मांग है कि वह पाठक को ध्‍यान में रखे, पर उसे अपने ऊपर हावी न होने दे। तो एक तरह से पहली चुनौती यही है। और यह एक शाश्‍वत चुनौती है। इसका मुकाबला हर दौर में हर पीढ़ी को करना होगा। बाल साहित्‍यकार का टैग भी मुझे पसंद नहीं। उसको ले कर भी वही आपत्ति है जो बाल साहित्‍य कहने में है। साहित्‍यकार, साहित्‍यकार होता है, वह बाल, किशोर या फिर वयस्‍क साहित्‍यकार नहीं होता। बहरहाल यह आपके विचारार्थ है, आप भी इस पर विचार करें। मेरी बात से इतनी जल्‍दी सहमत या असहमत होने की आवश्‍यकता नहीं है।

अब मैं जो भी कहूँगा, आप की सुविधा के लिए उसे यह मान कर ही कहूँगा कि वह बाल साहित्‍य के लिए ही कहा जा रहा है।

बाल साहित्‍य का सरोकार जिन तीन लोगों से है या जिसे अंग्रेजी में कहते हैं जो उसके स्‍टेकहोल्‍डरहैं उनमें लेखक के अलावा पाठक या उसका उपयोग करने वाले के तौर पर बच्‍चा, बच्‍चे के अभिभावक या वे लोग जो इस साहित्‍य को बच्‍चे को उपलब्‍ध कराते हैं।

आइए इन पर एक-एक करके बातचीत करते हैं।

बच्‍चे हमारे साहित्‍य के पाठक हैं। पर बच्‍चों के बारे में या किसी भी बच्‍चे के बारे में हम वास्‍तव में कितना जानते हैं, इस पर हमें विचार करना चाहिए। पहली बात पाठक होने के लिए बच्‍चे का साक्षर होना आवश्‍यक है। बच्‍चों को साक्षर करने के लिए यानी उन्‍हें शिक्षा देने के लिए जिस स्‍तर पर प्रयास हो रहे हैं, वे सब हमारे सामने हैं। यहाँ थोड़ा-सा विषयांतर होगा, लेकिन हमें हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था को इस संदर्भ में टटोलना होगा, उस का परीक्षण और आकलन करना होगा। वास्‍तव में वह बच्‍चों को किस तरह से शिक्षित करती है। बल्कि कई मायनों में यह कहना ज्‍यादा बेहतर होगा कि वह बच्‍चे को शिक्षित होने से एक हद तक रोकती है।

इस संदर्भ में कृष्‍ण कुमार कहते हैं कि, ‘बाल साहित्‍य की व्‍याप्ति के रास्‍ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का यह चरित्र है कि वह पाठ्यपुस्‍तक केन्द्रित है और पाठ्य-पुस्‍तक के इर्द-गिर्द ही सारी शिक्षा व्‍यवस्‍था घूमती है। अध्‍यापक का सारा प्रयास उसके आसपास ही होता है, उसको लेकर ही रहता है। और शिक्षा व्‍यवस्‍था की जो धुरी है वह तो बिलकुल ही पाठ्यपुस्‍तक से चिपकी हुई चलती है। पाठ्य-पुस्‍तक स्‍वयं परीक्षा-व्‍यवस्‍था से पैदा होने वाले भावों से आवेशित हो उठती है। जो डर परीक्षा के बारे में सोच कर बच्‍चों को लगता है, वही डर शिक्षकों को पाठ्य-पुस्‍तकों को देख कर लगने लगता है। क्‍योंकि उनको मालूम होता है कि यह वह चीज है जो मुझे उस समूह से, मेजोरिटी से बात करवाएगी। और वही चीज है जो पढ़ने का मन नहीं होता लेकिन फिर भी मुझे पढ़नी ही पड़ेगी। पाठ्य-पुस्‍तक ऐसा प्रतीक बन गई है कि जिसके सामने दुनिया भर में फैला हुआ अनुभव-जगत, बच्‍चे का ज्ञान, बच्‍चे को मिलने वाली अपने जीवन की खुराक, उन सब का कोई मायना नहीं रहा। इसके जरिए ही हर चीज का परीक्षण होगा। इसके जरिए ही स्‍कूल चलेंगे, इसकी धुरी पर चलेंगे। और अगर आप सरकार की इन कोशिशों को देखें तो बहुत बड़ी कोशिश यही रहती है कि पाठ्य-पुस्‍तक समय पर पहुँच जाए और उसकी पढ़ाई शुरू हो जाए।


यहाँ यह बात रेखांकित करने की भी आवश्‍यकता है कि पिछले कुछ वर्षों में बच्‍चों को पाठ्य-पुस्‍तकों के आतंक से मुक्‍त करने की तो नहीं, पर पाठ्य-पुस्‍तकों को ऐसी बनाने की कोशिश जरूर हुई है जो बच्‍चों को कम आतंकित करें। हालाँ कि मौजूदा दौर में यह प्रयास कहाँ तक जाएगा, कह नहीं सकते।

तो मूल बात यह है कि हमारा जो पाठक है, वह पाठ्य-पुस्‍तक के आंतक से भरा हुआ होता है। इस बात को ठीक से और संवेदनशीलता के साथ समझने की जरूरत है। यहाँ उसके सामने चुनौती होती है कि कुछ और पढ़ना यानी पाठ्य-पुस्‍तक से या फिर अपनी स्‍कूली शिक्षा से विमुख होना। लेकिन अगर पाठ्य-पुस्‍तकों से इतर साहित्‍य उसे ऐसा कुछ दे रहा हो, जो उसे अपनी नीरस शिक्षा को और रोचक बनाने में भी काम आए तो फिर उसकी रुचि उसमें बढ़ेगी। लेकिन जाहिर है कि उसकी रुचि ऐसा कुछ पढ़ने में कतई नहीं होगी,जो उसे उन्‍हीं तमाम बंदिशों, उपदेशों, तथाकथित नैतिक मूल्‍यों की और घिसी-पिटी अवधारणाओं की ओर ले जाए, जो वह घर से लेकर स्‍कूल तक में लगातार सुनता और पढ़ता ही रहता है।

मैं यहाँ एक बार फिर कृष्‍ण कुमार जी को याद करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि, ‘हम सब लोग बाल साहित्‍य के शौकीन हैं, सोचते रहते हैं कि यह क्षेत्र क्‍यों लगातार दिक्‍कत पैदा करता है। मामला सिर्फ बाल साहित्‍य का नहीं है, कई और चीजों का भी है। कलाओं का मामला है। स्‍कूल में कलाओं की भी व्‍याप्ति नहीं हो सकी है। पुस्‍तकालय की व्‍याप्ति नहीं हो सकी है। हम बनाते जरूर हैं, इस में पैसा भी खर्च होता है, लेकिन वह चीज दिखती नहीं है।

मुझे लगता है इस दिशा में और जगह भी काम हुआ होगा, लेकिन पिछले दो-एक वर्ष से उत्‍तराखंड के स्‍कूलों में इस दिशा में उल्‍लेखनीय प्रयास हुए हैं, जिनके परिणाम भी बेहतर रहे हैं। शिक्षक और कवि महेश पुनेठा और उनके साथियों की पहल से स्‍कूलों में दीवार पत्रिकाका एक आंदोलन ही खड़ा हो गया है। मेरा मानना है कि इस पहल ने साहित्‍य और बच्‍चों के बीच की जड़ता को तोड़ने का काम किया है। ‘चकमक’ बाल विज्ञान पत्रिका में सत्रह बरस तक संपादकीय जिम्‍मेदारी निभाने से प्राप्‍त अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि बच्‍चे अपने हम-उम्र साथियों का लिखा हुआ पढ़ना कहीं अधिक पसंद करते हैं। यह पसंद उनमें न केवल पढ़ने की, बल्कि अच्‍छा पाठक बनने की आदत को विकसित करती है। वह उनमें अपने को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए भी प्रेरित करती है। दीवार पत्रिका शायद उन्‍हें यह मौका दे रही है। जहाँ वे खुद लिखते हैं, पढ़ते हैं, चर्चा करते हैं, समीक्षा करते हैं। वास्‍तव में यह प्रक्रिया उनमें एक पाठक के साथ एक लेखक के संस्‍कार भी रोप रही है। बच्‍चे की समझ के बारे में कई और बातें कही जा सकती हैं।

पर मैं यहाँ केवल वह कहूँगा, जो प्‍लेटो ने लगभग दो हजार साल पहले कहा था कि, ‘बच्‍चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशी से जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वह बोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकी पूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।हमें बच्‍चे को भी इस तथ्‍य को ध्‍यान में रख कर देखना और समझना चाहिए।

अब हम दूसरे स्‍टेकहोल्‍डर की बात करें। वे हैं साहित्‍य के वाहक यानी बच्‍चों के अभिभावक या फिर स्‍कूल। थोड़ी देर पहले हमने पाठ्य-पुस्‍तकों की चर्चा के बहाने अपरोक्ष रूप से स्‍कूल की बात कर ही ली है। स्‍कूल की अपनी सीमाएँ और मजबूरियाँ हैं। उन पर और भी चर्चा हो सकती है।

अब यहाँ अभिभावक की बात करें। सीधे-सीधे साहित्‍य यानी किताबों तक बच्‍चों की पहुँच न के बराबर होती है। यानी एक तरह से किताब या साहित्‍य का चुनाव अभिभावक या फिर स्‍कूल के शिक्षक कर रहे होते हैं। मेरा अब तक अपना अनुभव यह कहता है कि अमूमन अभिभावक वह चुनते हैं जो उन्‍हें अच्‍छा लगता है, न कि बच्‍चे को। अभिभावक वह चुनते हैं जो उनके अपने संस्‍कार, मूल्‍य और विश्‍वासों को बल देता है, उनकी कसौटी पर खरा उतरता है। आमतौर पर ऐसा साहित्‍य जो बच्‍चों को कुछ नया करने, नया सोचने, सवाल उठाने या लीक से हट कर सोचने के लिए प्रेरित करे, मौका दे उसे अभिभावक पसंद नहीं करते। उन्‍हें लगता है उनके बच्‍चे उसे पढ़ कर बिगड़ जाएँगे। बाल साहित्‍य की महत्‍ता, उसकी जरूरत और प्रासंगिकता पर अभिभावकों के बीच काम करने, उनकी संवदेनशीलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। जैसे हम कहते हैं कि बच्‍चे की पहली पाठशाला घर है, तो उसी तर्ज पर बच्‍चे का दूसरा घर पाठशाला है। इस नाते में यहाँ शिक्षकों को भी इसमें शामिल करना चाहूँगा। अंतत: वे भी अभिभावक ही हैं।

उधर स्‍कूल में भी पुस्‍तकालय के माध्‍यम से जो बच्‍चों तक पहुँचता है, वह भी एक खास ढर्रे का साहित्‍य होता है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ है। पिछले सालों में एन.सी.ई.आर.टी. में ही कृष्‍ण कुमार जी के निर्देशन में अच्‍छे बाल साहित्‍य के लिए एक सेल गठित किया गया था। जिसने बहुत मेहनत के बाद अच्‍छी किताबों की एक सूची जारी की थी। विभिन्‍न राज्‍यों में स्‍कूलों में उसके अनुरूप उन किताबों की खरीद भी हुई, वे पुस्‍तकालयों में पहुँची भी। तमाम स्‍कूलों में उनका उपयोग हो भी रहा है, हो भी रहा होगा। लेकिन जितना हुआ है, वह नाकाफी है। उस पर ध्‍यान देने की जरूरत है। इसे भी हमें एक चुनौती के रूप में सामने रख सकते हैं। जो सकारात्‍मक अनुभव हमें विभिन्‍न जगहों से प्राप्‍त होते हैं, सफलता की कहानियाँ सुनाई देती हैं, उन्‍हें केवल प्रसारित करने की नहीं बल्कि व्‍यवहारिक रूप में दुहराने की आवश्‍यकता है।

आइए अब तीसरे स्‍टेकहोल्‍डर यानी लेखक की बात करें। एक बार फिर ‘चकमक’ के अपने अनुभव से ही यह कहना चाहूँगा कि ऐसे लोगों की संख्‍या अच्‍छी खासी है जो यह मानते हैं कि बच्‍चों के लिए लिखना तो उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है।फेसबुक’ जैसे माध्‍यम ने इस संख्‍या में केवल बाल साहित्‍य ही नहीं अन्‍य क्षेत्रों में भी ऐसे लिक्‍खाड़ों की संख्‍या में इजाफा किया है। वास्‍तव में ऐसा है नहीं। जैसा कि मैंने आरंभ में कहा, अगर उसे दोहराऊँ कि गुलज़ार साहब के शब्‍दों में अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसे पढ़ते हुए बच्‍चे से ले कर वयस्‍क तक आनंद महसूस करें। तो ऐसा साहित्‍य लिखने के लिए केवल बाएँ या दाएँ हाथ से काम नहीं चलेगा। अपने कान, अपनी आँखें, अपना दिमाग, अपनी समझ, अपनी सोच और अपना हृदय भी खुला रखना पड़ेगा।

इस संदर्भ में बाल साहित्‍य पर ऐसे आयोजन में पहली भागीदारी की एक याद मेरे मस्तिष्‍क में अब तक बसी हुई है। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है यह 1987 की बात है। जाने-माने लेखक और पत्रकार मस्‍त राम कपूर जी ने अखिल भारतीय जुवेनाइल लिटरेचर फोरमके बैनर तले बाल साहित्‍य पर चर्चा का एक आयोजन दिल्‍ली में किया था। मैं ‘चकमक’ की ओर से इसमें भाग लेने पहुँचा था। तब चकमक आरम्‍भ हुए मात्र दो साल ही हुए थे। आयोजन में निरंकार देव सेवक, डॉ. श्री प्रसाद और डॉ. हरि कृष्‍ण देवसरे जैसे दिग्‍गज मौजूद थे। देवसरे जी उन दिनों पराग का संपादन कर रहे थे। देवसरे जी ने अपने संबोधन में एक महत्‍वपूर्ण बात कही। उन्‍होंने कहा कि, बच्‍चों को गौतम- गॉंधी बनने का उपदेश, सदा सच बोलो, मेरा देश महान, देश की राह में प्राणों की दो आहुति, मैं मातृभूमि पर कुर्बान जैसे जुमलों ही नहीं उसकी अवधारणा से बाहर निकलने की भी जरूरत है। बहुत हुआ। एक समय था जब सच में हम को इन सब जुमलों और इस अवधारणा की जरूरत थी। लेकिन अब उस से कहीं आगे बढ़ना है।

खैर मेरे लिए तो उनकी यह बात लाइटहाउस के समान थी, जिसका पालन मैंने चकमक में किया। पर लगभग तीस-पैंतीस साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि अपने लेखन में इस तरह के जुमलों और अवधारणाओं का उपयोग करने वालों की संख्‍या में कमी नहीं आई है। या कहूँ कि इन्‍हें दरकिनार कर के बेहतर सकारात्‍मक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण साहित्‍य रचने वालों की संख्‍या में पर्याप्‍त इजाफा नहीं हुआ है। यहाँ उदय किरौला जी बैठे हैं। वे एक बरसों से एक बाल पत्रिका बाल प्रहरीका संपादन कर रहे हैं। वे भी इस समस्‍या से जूझते होंगे। मेरा मत है कि इसमें केवल इस तरह का लेखन करने वालों की ही कमजोरी नहीं है, उसे छापने वाले भी बराबरी के जिम्‍मेदार हैं। तमाम लघु बाल पत्रिकाएँ निकल रही हैं, अखबारों में रचनाओं को जगह दी जा रही है। लेकिन क्‍या उनमें व्‍यक्‍त किए जा रहे विचारों, मूल्‍यों और अवधारणाओं पर पर्याप्‍त विमर्श किया जा रहा है। यह मेरे लिए एक सवाल है। क्षमा करें, पर बच्‍चों के लिए लिखी गई ऐसी दस कविताओं में से मुझे कोई एक या दो ही उपयोगी लगती हैं। यही हाल कथा साहित्‍य का है। तो चुनौती लेखक की अपनी क्षमता-वृद्धि की भी है। केवल लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी होगा। और पढ़ने से आशय केवल बाल साहित्‍य से नहीं है, हर तरह के साहित्‍य से है।

मैं दो और बातें संक्षेप में रखना चाहूँगा।

पहली बात, मेरा मानना है कि लेखक की अपनी एक राजनैतिक समझ भी होनी चाहिए, तभी वह अपने लेखन के साथ न्‍याय कर सकता है। असल में हम जिन मुद्दों पर लेखन में कमी देखते हैं, दरअसल वह अपरिपक्‍व या अधकचरी राजनैतिक समझ के कारण ही उपजती है। यहाँ राजनैतिक समझ का मतलब पार्टी राजनीतिनहीं है। लेखक को जाति, जेंडर, समानता, धर्म, संप्रदाय, राष्‍ट्र, गरीब होने का अर्थ, आर्थिक गैर-बराबरी आदि अवधारणाओं पर अपनी एक सुचिंतित समझ बनाने की जरूरत है।

दूसरी बात, साहित्‍य की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ निकलती हैं, उनमें से कई आला दर्जे की हैं, लेकिन उनमें भी बाल साहित्‍य को ले कर कोई चर्चा नहीं होती। कोई लेख नहीं छपते। बच्‍चों की किताबों की कोई समीक्षा नहीं होती। कायदे से जो लोग बच्‍चों के लिए नहीं लिख रहे हैं, उन्‍हें कम से कम बच्‍चों के लिए लिखे जा रहे समकालीन साहित्‍य पर अपनी टिप्‍पणी तो करनी ही चाहिए। क्‍योंकि उनकी पत्रिकाओं के लिए भी कल के पाठक आज के बच्‍चे ही होंगे। अगर उन्‍हें अच्‍छा साहित्‍य पढ़ने को नहीं मिलेगा, तो वे कल इन पत्रिकाओं तक भी नहीं पहुँचेगे। दूसरी तरफ अगर हमें हमारे बाल साहित्‍य को अधिक सार्थक और ऊर्जावान बनाना है तो इस दिशा में प्रयास करने होंगे, साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी। वहाँ बाल साहित्‍य पर विमर्श बढ़ाना होगा।

मुझे लगता है चर्चा आरंभ करने के लिए इतना पर्याप्‍त है। बाकी और जो तमाम सवाल हैं, वे आप सब उठाएँगे ही, जोड़ेंगे ही।

अच्युतानंद मिश्र का आलेख ‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है’


मुक्तिबोध

आजाद भारत, जिसके सपने बुनते हमारे तमाम सेनानी अपनी आहुति दे बैठे, उनके लिए एक यूटोपिया ही साबित हुआ जिन्होंने उससे तमाम उम्मीदें पाल रखीं थीं.  शासकों के रंग-रूप तो जरुर बदल गए, लेकिन उनका चरित्र नहीं बदला. कुल मिला कर वह लोकतंत्र ही लहुलुहान होता रहा जिसे आजाद भारत का आधार बनाया गया था. मुक्तिबोध ने इस विरोधाभास को महसूस करते हुए इसे अपनी काव्यात्मक संवेदना में ढालने की एक ईमानदार कोशिश की थी. उनके यहां लम्बी कविताओं का एक लंबा सिलसिला यूं ही नहीं मिलता. चुकि दुःख और पीड़ा का सिलसिला इतना लम्बा, कह लें अंतहीन है इसलिए उनके यहाँ काव्यात्मक वितान भी अक्सर लम्बा दीखता है. युवा कवि अच्युता नन्द मिश्र ने मुक्तिबोध की लम्बी कविता  ‘अँधेरे में’ को  समझने के क्रम में   यह आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

 

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है 
अच्युतानंद मिश्र 
मुक्तिबोध की कविता की मूल संवेदना स्वातंत्र्योत्तर भारत की चेतना से निर्मित है, यानि उसके भूगोल को हम पचास के दशक के भारत में इंगित कर सकते हैं। पचास के पूर्व राष्ट्रीय संघर्ष न सिर्फ हमारे राजनीतिक जीवन, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में भी मौजूद था। वहाँ व्यक्ति से राष्ट्र की ओर, एक दृष्टिकोण, सतत प्रेरणा की तरह मौजूद था। इसे हम तमाम जटिलताओं के साथ निराला की कविता में देखते हैं, जहाँ वे अपने निजी संघर्षों को राष्ट्रीय संघर्ष की चेतना से जोड़ते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे जीवन में एक विराट शून्य प्रवेश करता है। राष्ट्रीय संघर्ष की परिणति और निजी जीवन के संकट दोनों में एक बड़ा फांक संभवतः पहली बार मुक्तिबोध देखते हैं। इसलिए मुक्तिबोध की कविता में भयवाह दृश्य हैं, आशंकाएं हैं, चेतावनी है लेकिन निराला की तरह उनके पास राष्ट्रीय मुक्ति का विकल्प मौजूद नहीं था। मुक्तिबोध की कविताओं को हम निराला की कविताओं की क्रमिकता में नहीं पढ़ सकते। वहाँ एक क्रम भंग है। निराला की कविताओं से जैसा रिश्ता त्रिलोचन या नागार्जुन या केदारनाथ अगरवाल का बनता है, वैसा मुक्तिबोध का नहीं। मुक्तिबोध राष्ट्र से व्यक्ति की तरफ आते हैं और पाते हैं कि 
शून्यों से घिरी हुयी पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव यथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुखों का क्रम है 
मुक्तिबोध का यह दुःख निराला के दुःख से एकदम भिन्न हैवहाँ निजता का सार्वजनीकरण है। यहाँ निज और सार्वजनिक के बीच कोई सरलीकृत सम्बन्ध नहीं 
लोगों एक ज़माने में

तुम मेरे ही थे

बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे

क्रन्तिकारी रवि थे!!

अब कहाँ गये वे स्वप्न

उन्हें किसी कचरे के ढूह में

यत्नपूर्वक जला दिया

उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में

स्वयं को गला दिया धातु-सा 
मुक्तिबोध निज की तलाश में भटकते हैंमुक्तिबोध की कविता यह प्रश्न पूछती है कि देश का मतलब क्या? व्यक्ति और देश के बीच कौन सा सम्बन्ध है?
कामायनी में वे व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के बीच त्रिकोणात्मक सम्बन्ध की बात करते हुए प्रसाद की विश्व-दृष्टि की और इशारा करते हैं। उन्हें लगता है कि यह त्रिकोणात्मक सम्बन्ध संकटग्रस्त हो गया है।  लेकिन इसे किसी एक की तरफ से नहीं कहा जा सकता। मुक्तिबोध न तो व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं न समाज की और न ही राष्ट्र की। फिर अभिव्यक्ति का तरीका क्या होगा? अचानक उनके मन में एक फैंटसी जगती है, वे कहते हैं –
अरे! जन-संग-ऊष्मा के

बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

प्रयासी प्रेरणा के श्रोत

सक्रिय वेदना की ज्योति

सब साहाय्य उनसे लो।  

तुम्हारी मुक्ति उनसे प्रेम में होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

ह्रदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-उभर

विकसते जायेंगे निज के

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते 
लेकिन यह मुक्तिबोध द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर नहीं है। यह तो उस क्रम में समाज और राष्ट्र की और से उनके मन में आई एक बात है, मुक्तिबोध का मन कई तरह के विरोधाभासों और द्वंद्वों से भरा है। उनके पास कोई सीधा सादा समाधान नहीं है – कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।  
प्रसाद अपने मन की बात को ऐतिहासिक पात्रों चरित्रों द्वारा कहलवाते हैं। कामायनी में इड़ा, मनु और श्रद्धा को प्रसाद के मानसिक के विभाजन के रूप में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध इसके लिए फंतासी को रचते हैं। मुक्तिबोध का मूल संकट है व्यक्ति -राष्ट्र और समाज के परस्पर सम्बन्धों का आज़ादी के बाद अर्थ। मुक्तिबोध की समूची कविता इसी प्रश्न का जवाब तलाशती है। मुक्तिबोध वस्तुतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। आज़ादी के उपरांत हमारे सामाजिक जीवन में घट रहे बड़े परिवर्तनों को मुक्तिबोध उसकी संपूर्ण जटिलता के साथ देखने का प्रयत्न करते हैं
मुक्तिबोध हिंदी कविता में क्रमभंग को रचते हैं। इसके सामानांतर आज़ादी के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भी एक क्रमभंग आता है। ऐसा नहीं है कि उसकी शुरुआत आजादी के बाद ही होती है। यह टूटन समाज में पहले से ही मौजूद था लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के विराट लक्ष्य में वह ओझल हो गया था।  आज़ादी के बाद यह संकट गहरा हो गया। व्यक्ति और समाज के बीच मौजूद सेतु टूट गया। ‘अँधेरे में’ कविता व्यक्ति और समाज की इस टूटन को बेहद जटिलता एवं संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।  आज जिस तरह की स्थितियां हैं, जो कुछ घट रहा है, उसकी आशंका मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में पहले ही व्यक्त किया था। अक्सर मुक्तिबोध पर बात करते हुए कुछ सूत्र गढ़ लिए जाते हैं जैसे मध्य वर्ग की आलोचना का प्रश्न, दरअसल मुक्तिबोध एक खास तरह के वर्ग द्वंद्ध को रचते हैं। मुक्तिबोध न तो किसी के पक्ष में खड़े हैं और न ही विरोध में। मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में में जो अपराध-बोध है, आत्मग्लानि है वह दरअसल मुक्तिबोध के भीतर का अंतर्द्वंध ही है जिसके आलोक में वे बाहर की दुनिया को देखते हैं, इसीलिए मुक्तिबोध को दीवारों पर झड़े हुए पलस्तरों में मानवीय आकृतियाँ नज़र आती हैं। वे उनसे संवाद करते हैं। वे एक तार्किक विपर्यय को रचते हैं। मुक्तिबोध स्वप्न के भीतर स्वप्न को इसलिए लाते हैं ताकि उसमे समय की एकरैखिकीय अनुशासनात्मकता को भंग किया जा सके। एक व्यक्ति के भीतर एक समाज एक राष्ट्र की खोज और उस सबमे मौजूद वर्तमान की तलाश। मुझे लगता है मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में इसे खोजने की कोशिश करती है। वहाँ व्यक्तित्व की खोज का अर्थ पर्सनल की तलाश नहीं है, बल्कि मुक्तिबोध के लिए व्यक्तित्व का संदर्भ बहुत व्यापक है। वे उसे समाज और राष्ट्र का प्रतीक बना देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा न कर सकने की जटिलता उन्हें एक अबूझ रहस्यमयता की और ले जाती है, जिसके अलोक में यानि अँधेरे में के विराट प्रकाश में वे उसे व्याख्यायित करते हैं। 
वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पाई गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह निज–संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

ह्रदय रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा। 
यह है मुक्तिबोध के उस व्यक्तित्व की पहचान, लेकिन ज्ञान का तनाव इंगित करता है कि ज्ञान और संवेदना के संतुलन का निर्वाह कर पाना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। मुक्तिबोध के लिए मूल संकट है ज्ञान और संवेदना का की युगीन द्वंद्वात्मकता। वे युग को इस द्वंद्व के आलोक में चिन्हित करते हैं। 
इसी ज्ञान के दवाब में एक दिशा निकलती है, आत्मविकास एक मार्ग खुलता है और उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति-
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ भी पढ़ी थी

भाई वह !

उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन  
यह सब कुछ मुक्तिबोध के उस रहस्यमय व्यक्ति की परिणति है। इसलिए उसमे एक आत्मग्लानि है। अपनी आत्मा के आईने में आत्मविकास को देख कर मुक्तिबोध का मन डर जाता है। वे भागते हैं। और फिर अचानक कुछ और घटने लगता है। 
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ एक विशाल अनिश्चयात्मकता को रचती है, यह अनिश्चयात्मकता ही हमारा वर्तमान है। 
अच्युतानंद मिश्र
सम्पर्क – 

G-12/1

FIRST FLOOR

MALVIYA NAGAR

NEW DELHI- 110017
MOBILE 9213166256  

दारियो फ़ो की मृत्यु पर उनके कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो का वक्तव्य (अनुवाद : यादवेन्द्र)

दारियो फ़ो


1997 के साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेता महान इतालवी नाटककार और वामपंथी सांस्कृतिक ऐक्टिविस्ट दारियो फ़ो का इटली के मिलान में 13 अक्टूबर 2016 को निधन हो गया। जीवन की विसंगतियों पर वे जिस तरह से व्यंग्य करते थे वह अपने आप में बेजोड़ होता था। दारियो फ़ो ने चालीस से ज्यादा नाटक लिखे जो मंचित होने के साथ-साथ दुनिया भर में काफी लोकप्रिय भी हुए। एन एक्सीडेन्टल डेथ ऑफ़ एन एनार्किस्ट,  ‘कैन नाट पे? वुड नाट पे’ (चुकाएँगे नहीं), ए मैड हाउस फॉर द सेन, मिस्तेरो बुफ़ो, पैशन प्ले, टू हेडेड एनोमली (दो मस्तिष्कों की अनियमितताएँ), फर्स्ट मिरेकल ऑफ इन्फैंट जीसस’ (‘शिशु यीशु का पहला चमत्कार’), पोप एंड द विच, द पीपुल्स वार इन चिली जैसे नाटकों ने फ़ो को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलायी दारियो फ़ो को अपने लेखन की कीमत भी चुकानी पड़ी और उनके खिलाफ पैतालीस से ज्यादा मुकदमे दायर किये गए। इसी क्रम में वे पुलिसिया बर्बरता के शिकार बने और जेल भी गए। मसखरेपन को फ़ो ने अपने लेखन का आधार बनाया, यह जानते हुए भी कि ऐसा करना उन के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। नोबेल पुरस्कार लेने के समय दिए गए अपने वक्तव्य की शुरुआत ही दारियो फ़ो ने तेरहवीं सदी के एक इतालवी क़ानून की याद दिलाते हुए की जिस में विदूषकों के लिए एक सीमा के बाद मौत की सजा मुकर्रर की गयी है। दारियो फ़ो की मृत्यु पर उन के कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो ने जो वक्तव्य दिया, उसका अनुवाद किया है यादवेन्द्र जी ने। दारियो फ़ो जैसे अप्रतिम रचनाकार कलाकार को श्रद्धांजलि देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं जकोपो फ़ो का यह महत्वपूर्ण वक्तव्य।

 

दारियो फ़ो की मृत्यु पर उनके कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो का वक्तव्य
(प्रस्तुति एवं अनुवाद – यादवेन्द्र)
यहाँ उपस्थित सभी लोग, बरसों पुरानी अपने बचपन की एक घटना आपको सुनाता हूँ। मेरे पिता उस समय बाथरूम में शेव कर रहे थे, उन को किसी नाटक के लिए बाहर निकलना था। मैं बाथरूम के दरवाज़े पर ही बैठ गया और वे मुझे एक किस्सा सुनाने लगे। सदियों पुरानी बात थी जब बोलोन्गो में युद्ध चल रहा था और हज़ारों उसकी बलि चढ़ चुके थे। इस युद्ध से हो रहे विनाश से लोग-बाग तंग आ गए और शासन के खिलाफ़ उन्होंने बग़ावत कर दी – शासन चलाने वाले हुक्मरान भाग कर पहाड़ी पर बने एक किले के अन्दर घुस गए ….. इसकी बनावट ऐसी थी कि कोई उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता था, अभेद्य। किले में शरण लेने वाले हुक्मरान केपास महीनों तक चलने वाला अन्न-पानी था जब कि विद्रोही आम जनों के पास किले पर आक्रमण करने के लिए  हथियार तक नहीं थे। यहाँ तक कहानी सुनाने के बाद पिता ने मुझ से पूछ दिया : “अब तुम बताओ, इतने मज़बूत और सुरक्षित किले के अन्दर छुपे हुए हुक्मरानों पर  निहत्थे लोगों ने आखिर कैसे काबू किया होगा?” मेरे पास इस का कोई जवाब नहीं था, बल्कि मुझे तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरे पिता जो कह रहे हैं वास्तव में यह हुआ भी था। मुझे निरुत्तर देख उन्हों ने बताया : “बगावती लोगों में से किसी एक बन्दे को एकदम मामूली और बुनियादी सा ख्याल आया – इस किले को इंसानी शौच से पूरी तरह से क्यों न ढँक दिया जाए। फिर क्या था लोग-बाग अपने घरों से गाड़ियों में शौच भर कर लाते और किले के ऊपर उड़ेल जाते। घरों से निवृत्त होने के बदले लोग किले के बाहर आ कर निवृत्त होने लगे – यह किले पर चढ़ाई करने की उनकी शैली थी। धीरे-धीरे शौच की दीवार ऊँची और मोटी होती गयी… हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि अन्दर छुपे हुक्मरानों का हौसला और धैर्य दोनों जवाब दे गया और उन्होंने इस अनूठे हमले का जवाब देना भी छोड़ दिया और अन्ततः बगावती जनता के सामने हथियार डाल दिए।”  मुझे लगता है कि मेरे पिता और माँ दोनों जीवन भर जो कहते करते रहे उन में यही एक स्थायी भाव था। वे उन लोगों के किस्से ही सुनाते रहे जिनके पास बचाव का कोई साधन नहीं था पर वे महान और अजेय ताकतों से लोहा लेते रहे… उन कहानियों में यही होता था कि शक्तिहीन ताकत पर विजय प्राप्त करते थे, वे जीवन की गरिमा का परचम लहराते थे और इसके लिए वे नायाब रास्ते निकालते थे। मेरे पिता ने अपनी हर कहानी में ऐसे अद्वितीय और शानदार रास्ते सुझाये हैं जिन से अजेय शक्तियों पर काबू किया जा सके। जब तक हम सामान्य ढंग से यही सोचते रहेंगे कि मोटी दीवारों और मज़बूत सुरक्षा तन्त्र वाले किले अपराजेय हैं तब तक ऐसे अजूबे बेतुके और कभी कभी हास्यास्पद पर कारगर रास्ते नहीं सूझेंगे। कई बार ऐसे उपायों पर आप खुद ही हँसते-हँसते लोटपोट हो जायेंगे। एक दूसरा किस्सा भी है – “मिस्तरो बफ़ो” (दारियो फ़ो की सर्वाधिक लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति जिस ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप और लैटिन अमेरिका में धूम मचा दी थी) की पहली कहानी भी यही है – यह बेहद खूबसूरतबीवी वाले एक गरीब किसान की कहानी है। एक दिन एक बड़ा अफ़सर उसके घर धमकता है, किसान की पिटाई करके हाथ पाँव बाँध देता है, उस की बीवी के साथ बलात्कार करता है और उस के बच्चों को मौत के घात उतार डालता है। जब वह किसान को मरा हुआ समझ कर चला जाता है तो दर्द से कराहता हुआ किसान किसी तरह उठता है … पहला ख्याल उसके मन में ख़ुदकुशी का आता है। जैसे तैसे वह रस्सा उठाता है –उसके घर में और कुछ बचा ही नहीं था – एक स्टूल घसीट कर उसके ऊपर खड़ा होता है कि अचानक एक बेहद मासूम सा खूबसूरत बच्चा कमरे में प्रवेश करता है …..वह ख़ुदकुशी को तैयार किसान के पास आ कर उसको चूम लेता है। वह बच्चा और कोई नहीं खुद ईसा मसीह थे …. उनके चूमने ने किसान को अन्दर तक झकझोर दिया , उस में कुछ ऐसा असर था कि किसान के मन में यह इच्छा जग गयी कि वह जिन्दा रहे और सारे समाज में घूम घूम कर लोगों को अपने साथ हुए अन्याय अत्याचार की कहानी सुनाये। वह विदूषक बन गया और यही विदूषक के जन्म लेने की कहानी भी है – यही मेरी माँ और पिता के काम की कहानी भी है, उन का यह काम बिलकुल इसी बिन्दु पर शुरू हुआ। किसी प्रतिकूल हालात को बदलने का पहला चरण होता है कि उस के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बतलाया जाये – हमारे अपने जीवन के उतार चढ़ाव लोगों के साथ साझा किये जायें। उनके जीवन की सब से शानदार बात यह रही कि उन्होंने बड़ी बेबाकी के साथ अपने जीवन में घटी बातों को लोगों के साथ साझा किया। चाहे वे कारखाने के मज़दूर हों या विद्यार्थी – उन्हों ने उन की कहानियाँ भी अपनी कहानियों के साथ जोड़ दीं और स्टेज पर प्रस्तुत कीं। जो कुछ भी उन्होंने स्टेज पर दिखाया वह महज़ उनकी योग्यता या प्रतिभा का प्रदर्शन नहीं था। लोगों ने दारियो और फ्रैंका को उनके ऐसे नायाब कामों के लिए प्यार भी खूब किया – मुझे यकीन है कि यहाँ जो विश्व समुदाय उपस्थितहुआ है वह मेरी बातों से बिलकुल इत्तेफ़ाक रखता है – आप ने स्टेज पर न सिर्फ़ एक प्रतिभावान ऐक्टर देखा बल्कि एक ऐसे कलाकार को देखा जो स्टेज पर प्रस्तुत कहानियों का भुक्तभोगी और हिस्सेदार भी रहा है।
दारियो फ़ो
मेरे पिता जो कभी भाषण देने में यकीन नहीं करते थे,  उन्हों ने एक दिन मुझे बुलाया और कहा :  तुम्हारे मन में जो कुछ हो उसको पूरा करो, इस से तुम्हारा जीवन दीर्घायु होगा। पर दम्भपूर्ण या बेपरवाह बन कर नहीं – अपने सपनों को साकार करने के लिए लक्ष्यों का अन्तिम साँस तक और तब तक पीछा करो जब तक वे साकार न हो जाएँ। दरअसल मेरी माँ और पिता ने खुद किया भी ऐसा ही – वे आगे कदम बढ़ाते गए चाहे कितनी भी मुश्किलें पेश आयी हों, उन्हों ने अपने सिर कभी नहीं झुकाये। जिन लोगों ने उनके ऊपर पत्थर फेंके, अन्त में उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। उन्हों ने अपना जीवन शानदार  ढंग से जिया, उन्हें प्यार भी बेशुमार मिला। मैं यहाँ खड़ा हो कर उन सबको सलाम और शुक्रिया भेजता हूँ जो मेरे पिता को सैल्यूट करने यहाँ आये। सब के पास कहने को कोई न कोई बात है –तुम्हारे पिता ने मेरे लिए यह किया .. वह किया। कब्ज़े में लिए गए कारखानों के मज़दूर यहाँ आये … जिन्हों ने पिता से घंटों बातें कीं और मेरे पिता ने बड़े धैर्य से जिन की तमाम बातें सुनीं, वे यहाँ आये हैं। हम लोग पिता को भुलक्कड़ इंसान माना करते थे पर वे उन लोगों की व्यथा घंटों सुन सकते थे जिन के साथ किसी न किसी तरह का अन्याय हुआ है। मैं इस से पहले कि आप इस जन सैलाब में विलीन हो जाएँ यहाँ अन्त में कहना चाहता हूँ कि हमें जुलाई में ही यह एहसास हो गया था कि वे जीवन की अन्तिम साँसें ले रहे हैं। हमारे लिए यह बेहद मुश्किल समय था – पिता ने मुझ से कहा कि वे बब्बर शेर की तरह मौत से लड़ने को तैयार हैं। अगले महीने अगस्त में उन्हों ने दो घंटे का एक नाटक तीन हज़ार दर्शकों के सामने खेला … इतना ही नहीं उन्हों ने नाटक के अन्त में एक गीत भी गाया। मैंने जब उन के डॉक्टर से कहा : “आप को मालूम है कि पिता ने क्या किया? अभी अभी उन्हों ने एक लंबा नाटक किया है …. और अन्त में खुद एक गीत भी गाया। “ डॉक्टर ने जवाब दिया कि जेकोपो, मैं वैसे तो नास्तिक हूँ। पर अब चमत्कारों में विश्वास करने लगा। “इन बातों के माध्यम से मैं यह बताना चाहता हूँ कि कला के लिए जूनून, लोगों के लिए प्यार और उन के सुख दुःख, के साथ साझापन – ये दरअसल औषधियाँ हैं। ये सही मायनों में स्वास्थ्य सुधार के अनिवार्य चरण हैं जिन का हम सब को अनुसरण करना चाहिए। डॉक्टरों को पुर्जे पर दवाओं के साथ-साथ यह भी नुस्खा लिखना चाहिए : भोजन के बाद किसी न किसी कला में प्रवृत्त हों  ….. और किसी दूसरे के हित के लिए कोई न कोई काम जरूर करें।” हम पिता की मृत्यु के बाद उन की स्मृति में उसी तरह का आयोजन कर रहे हैं जैसी उन की  ख्वाहिश थी – मुझे मालूम है उनके कई मित्र और कॉमरेड उन के बारे में कुछ बोलने की इच्छा रखते हैं पर पिता की ऐसा ही आयोजन करने की इच्छा थी …. किसी ने मुझ से पूछा कि “मेरी कलाइयों को कस कर अपने हाथ से थामो”** वाला गीत यहाँ क्यों बजाया जा रहा है? यह गीत मेरे पिता ने माँ के लिए लिखा था और उन्हों ने अपनी मृत्यु पर इसको बजाने के बारे में मुझ से कहा था। हम कम्युनिस्ट और नास्तिक लोग हैं पर मैंने देखा कि मेरी माँ की मृत्यु के बाद भी पिता उन से बतियाते रहे, अलग अलग मौकों पर उन से मशविरा लेते रहे …. मुझे लगता है हम थोड़े जीववादी (एनिमिस्ट) भी हैं …. हमारे मन में यह विचार बना रहता है कि किसी के शरीर छोड़ देने से उस का नाश हो जाए वास्तव में ऐसा नहीं होता। आइये हम यह ही मान कर चलें … मेरे पिता मेरी माँ से मिल गए, अब दोनों साथ साथ हैं। जितने सन्देश मुझे मिले उन में से एक ने मुझे भावुक बना दिया – एक पिता जिसका छोटा बेटा अभी-अभी उस से बिछुड़ गया, पर पिता उसको अनुपस्थित न मान कर हर रोज़ उसको एक चिट्ठी लिखता है। कल उस पिता ने अपने बेटे को चिट्ठी लिख कर विस्तार से बताया दारियो फ़ो कौन था। 
मुझे यकीन है मेरी माँ और पिता एक बार फिर से मिल गए – दोनों मिल कर किसी न किसी बात पर हँसते हैं। शुक्रिया कॉमरेड …. आप का बहुत बहुत आभार।     
** मेरी कलाइयों को कस कर अपने हाथ से थामो
    हाँ, अपने हाथ से थामो 
    और यदि मेरी आँखें मुँदी भी रहें 
     मैं अपने दिल की आँखों से तुम्हें पहचान लूँगा ….. 
दारियो फ़ो का यह गीत अनेक लोकप्रिय गायकों ने गाया और टी. वी. तथा सिनेमा में भी खूब इस्तेमाल हुआ। 
यादवेन्द्र पाण्डेय
सम्पर्क – 

मोबाईल – 09411100294 
  

तुषार धवल की कविताएँ

तुषार धवल
जिन्दगी के चलने का ढर्रा बेतरतीब होता है अपनी बेतरतीबी में ही यह वह तरतीब रचती है जिसे कवि, चित्रकार और समाज विज्ञानी अपनी-अपनी तरह से उकेरने का प्रयास आजीवन करते रहते हैं। एक अर्थ में कलाकार जो ललित रचनाओं से जुड़े होते हैं समाज के सजग पहरेदार होते हैं। अपनी रचनाओं के द्वारा वे विसंगतियों का खुलेआम विरोध करते हुए वह प्रतिपक्ष रचते हैं जिस पर आम जनता को पूरा और पक्का भरोसा होता है। यह भरोसा ही किसी भी कृतिकार की कृति को कालजयी बनाता है। इसी भरोसे की रक्षा के लिए दुनिया के बर्बर आतंकवादी संगठन अल कायदा को निर्भीकता के साथ सीख देते हुए कवि तुषार धवल कहते हैं – ‘अल-क़ायदा?/ तू भी आ यार/ इन्सान हो ले।’
  
तुषार धवल को पढ़ते हुए यह स्पष्ट तौर पर लगा कि वे अपनी तरह के अलग बनक के कवि हैं। आज जब कविताओं के कवि के पहचान के संकट की बात की जाने लगी है ऐसे में तुषार धवल की कविताएँ पढ़ कर हम उस में उनका अक्स अलहदा तौर पर पहचान सकते हैं। हमने जब ‘पहली बार’ ब्लॉग के लिए उनसे कविताएँ भेजने का आग्रह किया तो अरसे तक संकोच में पड़े रहे। मेरे बार-बार आग्रह के मद्देनजर तुषार धवल ने ‘पहली बार’ के लिए अपनी लम्बी कविता की सिरीज ‘मरीन ड्राईव : मुम्बई’ और कुछ अन्य कविताएँ भेजीं। साथ ही छोटा सा एक आत्म-कथ्य भी, जो इस प्रकार है – ‘इधर कुछ दिनों से अपनी सामाजिक-राजनैतिक चिन्तन से हट कर भाव और अनन्त की तरफ मुड़ गया हूँ। दृश्यात्मकता और भाव-सहजता को कविता में जीने की कोशिश कर रहा हूँ।’ यह आत्म-कथ्य अपनी संक्षिप्तता में ही जैसे सब कुछ कह देता है ‘पहली बार’ पर उनकी ये सारी कविताएँ एक साथ प्रस्तुत की जा रही हैं जिस से पाठक एक समग्रता में उनकी कविताओं का आस्वाद ले सकें और इस बारे में ख़ुद कोई निर्णय ले सकें। हमेशा की तरह हम आपकी अमूल्य और बेबाक टिप्पणियों का बेसब्री से इन्तजार करेंगे
   
तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं कवि तुषार धवल की कुछ नयी कविताएँ                

तुषार धवल की कविताएँ

बदमाश हैं फ़ुहारें  (मरीन ड्राइव, मुम्बई)
बदमाश हैं फ़ुहारें
नशे का स्प्रे उड़ा कर होश माँगती हैं
गरम समोसे सी देह पर
छन्न्
उंगली धर देती है आवारा बूँद
जिसकी अल्हड़ हँसी में
होंठ दबते ही आकाशी दाँत चमक उठते हैं
हुक्के गुड़गुड़ाता है आसमानी
सरपंच
खाप की खाट पर
मत्त बूँदों की आवारा थिरकन
झम झम झनन ननन नन झन झनझन
नियम की किताबें गल रही हैं
हो रहे
क़ायदे बेक़ायदा!
अल-क़ायदा?
तू भी आ यार
इन्सान हो ले
और यह पेड़ जामुन का
फुटपाथ पर!  
बारिश की साँवली कमर पर
हाथ धर कर उसकी गर्दन पर
रक्त-नीलित चुम्बनों का दंश जड़ कर
झूमता है
कुढ़ा करिया कुलबुलाया बादल
गला खखारता फ्लैश चमका रहा है
क़ाफिया कैसे मिलाऊँ तुमसे
जब कि मुक्त-छन्द-मौसम गा रहा है
अपनी आज़ाद बहर में
चलो भाप बन कर उड़ जायें
मेघ छू आयें
घुमड़ जायें भटक जायें दिशायें भूल जायें
नियम गिरा आयें कहीं पर
मिटा दें अपनी डिस्क की मेमोरी
अनन्त टैराबाइट्स की संभावना के
नैनो चिप के वामन बन
चलो कुकुरमुत्ते तले छुप जायें
बारिश को ओस के घर चूम आयें
शाम की आँख पर सनगॉग्स रख दें
बरगद के जूड़े में कनेर टाँक
चलो उड़ चलें
अनेकों आयाम में बह चलें
झमकती झनझनाहट के बेकाबूपन में
देह को बिजली सी चपल कर
चमक जायें कड़क जायें लरज़ जायें
बरस जायें प्रेम बन कर
रिक्त हो जायें
तुम इसे अमृत कहो
और मैं आसव
यहाँ पर सब एक है
बदमाश हैं फुहारें
मरीन ड्राइव पर
वाइट वाइन बरसाती हुईं।
जब सूरज सेल्फी लेता है
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)
सँझियारे पानी के कैमरे से
सेल्फी लेता
तंदूरी सूरज
मुस्कान टिकाये रखने की जतन में
थोड़ा लुक-कौन्शियसहुआ है
तमाशाई कोई मेघ
जाते जाते ठहर गया है
उसे देख कर
हवा ने हौले से खींचा है उसे,
अब चल्लो ना!”
थोड़ी हरकत हुई वहाँ।
सड़क से गाड़ियों का धुआँ
अपने संग धूल भी ले उड़ा
आसमानी पिकनिक पर
जहाँ
उड़ती मैना की टोली ने छेड़ा उन्हें
लजाई धूल कणों का माँगटीका
सुनहरी छटा में दमक उठा
मकानों पर उग आये मोबाइल टावर्स पर
चढ़ कर एक पतंग टाँग दी जाये
कुछ कंदील रोशनी के लटका दिये जायें
पटाखे छोड़े जायें पैराशूट में लहराते हुए
अभी यही खयाल आया है
उस जोड़े को
जिसके
चुम्बन में सम्मोहित होंठ
पिघलते मक्खन पर
नरम शहद का स्वाद बन रहे हैं
हिंसा हवस होड़ की
अपच से अनसाई
उकताई उबकाई से
उबरने को आतुर दुनिया
दृश्य-गन्ध-स्पर्श-स्वाद-स्वप्न के
पंचकर्म से
काया-कल्प की ललक लिये
ऐसी ही मिलती है
जब कि
देखा जाये तो
हर एक दृश्य
हर एक चेहरे के पीछे
भीषण घमासान
विदारक हाहाकार
मचा होता है।
जीवन दर-रोज़ का कारोबार नहीं
प्रतिबद्धता बन जाता है, इसी जगह।
39*C
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)
काई के सँवलाये गाढ़े हरे रंग का
अलसाया समन्दर
अनमने हाथों से
किनारे पर
आदिम पत्थरों के गंजे सिर की
सुस्त चम्पी करता हुआ
देखता है
किरणों से मिटमिटाई आँख से
धुल कर धूप में टँगे
बदन से पानी टपक रहा है
उमस ऐसी कि भरे नालों सा पसीना
उफनता है
सूरज को सर चढ़ा रखा है
प्रेमियों ने
समन्दर को मुँह लगा रखा है
दुनिया का स्वाद खारा इनकी जीभ पर
प्यार का नमक चख रखा है
धूप इन पर नहीं पड़ती
39*C की उमस भरी गर्मी
इनके लिये नहीं है
नहीं हैं समय के खाँचे
बहते बोध में
ये दुनिया पर पीठ किये
समन्दर को देखते हैं
खोजते अपनी लहर को
स्क्रीनशॉट सा यह दृश्य जिसमें
इमॉटिकॉनकी तरह वे
रह-रह कर हँसते-हिलते हैं
एक अटकी हुई जम्हाई है यह
दोपहर, जिसमें
उनके ठीक पीछे
जैज़ बाय द बेके
शीशेदार एयरकन्डीशन्ड माहौल में
पिट्जा और लेजर बियर की चुस्कियों सा
मरीन ड्राइव थोड़ा हाई मूडमें चलता हुआ
लाल सिग्नल पर मन मार कर ठहर गया है
ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर वैतरणी की तरह सड़क पार करते
हड़बड़ाये लोगों का झुण्ड
अपनी बिखरी बिन्दुओं को समेट लेने की अकुलाहट में
उस पार लपका जा रहा है
मरे साँप सी सुस्त सड़क पर
व्यस्त चीटियों की दौड़ती लहर सा ट्रैफिक
उफ़न पड़ा है
और इस दौड़ते दृश्य में
सिर जोड़े जोड़ों के कन्धों से
नीचे की तरफ सरक आये हाथों में एक कम्पन
उग कर टिक गई है
बदन सिहरन का स्थाई पता है
न दर है, न डगर, न बसर
मछली की गंध उड़ाती
इस भीगी भारी हवा में
सब कुछ एक खिंची हुई अंगड़ाई है
आपसी नाभियों से उगे
इन सभी दृश्यों में
धूप उमस या 39*C का अर्थ नहीं है
और ना ही समन्दर पर सफेद पाल तानी
उन नौकाओं के लिये
जो लहरों पर थिरक रही हैं
इस सबसे अलग-थलग और उकताया हुआ
राग-रिक्त आदमी
उचाट आँखों से देखता है
इन प्रेमियों को
रेस्त्राँ में निथरती चुस्कियों को
सड़क पर व्यस्त भागते लोगों को।
वह मरीन ड्राइव पर छाँह खोजता
नारियल के पेड़ पर पंख खुजाते कौवे को देखता है
कॉलर ढीली कर
पसीना पोंछता आसमान देखता हुआ कहता है
उफ्फ! 39*C की यह उमस यह धूल यह धुआँ
जीना मुहाल हुआ जाता है
इस गर्मी में!

आधी रात का बुद्ध

यह मोरपंखी सजावट की  गुलाबी मवाद
जिसे तुम दुनिया कहते हो
नहीं खींच सकी उसे
उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में
मरक़ज़-ओ-माहताब में
मशरिक-ओ-मग़रिब में
लेकिन रात ढले उग आया वह
अपने पश्चिम से
वह अपने रीते में छलक रहा है
बह रहा है अपने उजाड़ में
वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा
अपने एकान्त में षडज् का गंभीर गीत है
रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह
अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता
रंगता है बेसुध
बड़े कैनवास के कालेपन को
काले पर रंग खूब निखरता है
वह जान चुका है
रिश्तों की खोखल में झाँक कर
वह जोर से “हुआऽऽहू” चिल्ला कर मुस्कुरा देता है
हट जाता है वहाँ से
असार के गहन सार में उतर कर
उभरता है वहाँ से
निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम
दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे  इस पहर
पीड़ाएँ बहनों की तरह मुँहजोर
उसे मतलब में छुपा बे-मतलब
मिल जाता है अचानक
लिखता है वह अपना सत्य
अपनी कविता उपेक्षित दिन हुए
वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात
दिन चढ़े उसे गलत समझ लिया जाता है
दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जा कर
चोट खाया
आधी रात गये बुद्ध हुआ वह मुआफ़ कर देता है सबको।
जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह
और उसे भूल जाता है।
लौटता हूँ 
लौटता हूँ उसी ताले की तरफ
जिसके पीछे
एक मद्धिम अन्धेरा
मेरे उदास इन्तजार में बैठा है
परकटी रोशनी के पिंजरे में
जहाँ फड़फड़ाहट
एक संभावना है अभी
चीज-भरी इस जगह से लौटता हूँ
उसके खालीपन में
एक वयस्क स्थिरता
थकी हुई जहाँ
अस्थिर होना चाहती है
मकसद नहीं है कुछ भी
बस लौटना है सो लौटता हूँ
चिंतन के काठ हिस्से में
एक और भी पक्ष है जहाँ
सुने जाने की आस में
लौटता हूँ
लौटने में
इस खाली घर में
उतार कर सब कुछ अपना
यहीं रख-छोड़ कर
लौटता हूँ अपने बीज में
उगने के अनुभव को होता हुआ
देखने
लौटता हूँ
इस हुए काल के भविष्य में

जीवन, मैं और तुम
यह रात बीतते हुए बीत जायेगी
इसमें छुपा बीता हुआ दिन भी मिट जायेगा
संवाद के घेरे में कहा सुना
सब मिट जायेगा
एक सूखी हुई छाप सा रह जायेगा
यह दिन
मेरी उमर की गिनती में ऐसे ही बढ़ता है
झुर्रियों की तरफ समय
वहाँ
जहाँ मृत्यु और प्रेम
तुम्हारा नाम ओढ़
अपना फ़र्क खो देते हैं
जीवन और मैं
अपने अन्त का अद्वैत
तुम्हें कहते हैं
असंग 
इस उजाड़ में भटकता
असंग का प्रेत कहता है
देखो मुझे
पहचानो खुद को
आई हुई रोशनी
लौट जाती है
मिली हुई नेमतें
खो जाती हैं
मिट्टी का ढेला पोखर में घुल जाता है
मरी मछली के नाम
कोई संदेसा नहीं आता
मैं ही हूँ तुम और तुम्हारी यात्रा
एकल
चलूँगा साथ तुम्हारे
तुम्हारी साँसों के उस पार तक
ढकोसलों का बाजार गिरा कर
बत्ती बुझा देता हूँ
ऐसे ही इस क्षण
रोशनी पर आँख स्थिर किये
मैं अपनी मृत्यु की घोषणा करता हूँ

समय बदला पर
यह ताकतवरों के हमलावर होने का समय है
और निशाना इस बार सिर पर नहीं
सोच पर है
मैं हमलों से घिरी हुई ज़ुबान का
कवि हूँ जिसके
पन्नों से घाव रिसते हैं
मेरी सोच का वर्तमान
अपनी ज़मीन पर अजनबी हो कर
अनजानी सरहदों में खो गया है
 उधार की भाषा नहीं समझ पाती है मेरी बात
सदी दर सदी
वे मारते ही जाते हैं
अलग-अलग तरीकों से मुझे
अपनी मुट्ठी में जकड़ लेना चाहते हैं
मेरा आकाश।
जिन्हें मिट जाने का भय है
उनकी प्यासी देवी
मेरी बलि माँगती है हर बार।
न मैं थकता हूँ
न वे
और यह खेल खेलते हुए हम
पिछली सदियों से निकल आये हैं
इस सदी में
समय बदला पर
न जीने की जिद्दी ज़ुबाँ बदली
न ताकत के तरीके।
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है
नाहक ही होती है कविता
नाहक ही छपती है
नाहक के इस उर्वर प्रदेश में जो बस गया
अकेला रह जाता है
मत बसो इस खतरनाक मौसम वाली जगह में
पर्यटक की तरह आओ और निकल जाओ
शिखर की तरफ
कविता के साधन पर सवार
मत लिखो
मत पढ़ो कवितायें
वह बड़ा कवि झूठा है
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है
इस यात्रा में
इस दूर तक पसरे बीहड़ में
रह-रह कर मेरी नदी उग आती है
तुमने नहीं देखा होगा
नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है
अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं
मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है
जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर
लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध

सम्पर्क –
मोबाईल – 09769321331

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत

मुक्तिबोध
मुक्तिबोध जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं द्वारा मुक्तिबोध विशेषांक निकाले जा रहे हैं। यह स्वाभाविक होने के साथ-साथ हम सब का दायित्व भी है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने  वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ का अभी-अभी मुक्तिबोध अंक आया है। इस अंक में मुक्तिबोध के नजदीक रहे कवि विनोद कुमार शुक्ल से साक्षात्कार लिया है घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर रु-ब-रु होते हैं इस महत्वपूर्ण बातचीत से       

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत
प्रश्न: मुक्तिबोध से आपकी मुलाकात कब और किस तरह हुई?
विनोद कुमार शुक्ल : सन् 1958 में मुक्तिबोध जी से मेरी मुलाकात राजनांदगांव में हुई। मेरे परिवार से उनके संबंध पहले से थे, चचेरे बड़े भाई बैकुण्ठ नाथ शुक्ल उनके पिता याने मेरे चाचा शिवबिहारी जी बैकुण्ठपुर में जंगल के ठेकेदार थे। उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी ‘हंस’ में बनारस में थे। हंस के ग्राहकों की सूची में बैकुण्ठ नाथ का नाम भी था। मुक्तिबोध जी हंस के ग्राहकों की सूची देखते थे तो उनको ये बड़ा अजीब लगता था कि एक ग्राहक बैकुण्ठ नाथ शुक्ल जिसका शहर बैकुण्ठपुर है यह उन्हें याद रहा।
जब वे सन् 1958 में नांदगांव (राजनांदगांव) आये और मेरी उनसे कई बार मुलाकात हो चुकी थी कुछ समय बीत गया था तब उन्होंने ही मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई से मेरा परिचय था। बैकुण्ठ नाथ जिनको हम रज्जन दादा कहते थे, नागपुर वकालत पढ़ने चले गए उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी भी नागपुर आ गए। बैकुण्ठ नाथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन दिनों अंडरग्राउंड भी रहे। इस कारण भी उनका परिचय मुक्तिबोध जी से हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी में एक पारसी लड़की कैटी’, बैकुण्ठ नाथ से विवाह करना चाहती थी। मैंने सुना था मुक्तिबोध जी ने मध्यस्थता भी की पर विवाह नहीं हो सका। बैकुण्ठ नाथ के साथ मुक्तिबोध जी के पत्र व्यवहार सहित मिलने-जुलने की लम्बी घनिष्टता थी। इन को 32-33 की उम्र में ब्लड कैंसर हो गया। शादी हुए कुछ महीने ही हुए थे भाभी के पेट में छः महीने का बच्चा था कि उनकी मृत्यु हो गई। तब तक मैं मुक्तिबोध जी को नहीं जानता था और तब तक जब तक यानि वे नांदगांव नहीं आये। एक कवि के रूप में मैंने उनका नाम भी नहीं सुना था लेकिन बाबू जी से यानि बैकुण्ठनाथ के पिता से मैंने कई बार सुना। एक टिन की पेटी ले कर वे बैठे थे और मुक्तिबोध जी की चिट्ठियाँ जो उन्होंने बैकुण्ठ नाथ को लिखी थी, फाड़ते जाते थे और मुक्तिबोध जी को कोसते कि मेरे बेटे को कम्युनिस्ट बना कर बिगाड़ दिया, लेकिन वे पहले से ही कम्युनिस्ट थे। अगर मेरा मुक्तिबोध जी से पहले परिचय हो जाता तो उनकी चिट्ठियों को बचाने की जतन करता।
सन् 1958 में मुक्तिबोध जी नांदगांव आये। उनके चाहने वालो ने उन्हें दिग्विजय महाविद्यालय लाने की कोशिश की। मेरे सबसे छोटे चाचा किशोरी लाल शुक्ल दिग्विजय महाविद्यालय की स्थापना में जिनका योगदान था अवैतनिक प्राचार्य थे। मुक्तिबोध जी ने आवेदन किया था और बैकुण्ठ की पत्नी जो उनकी मृत्यु के बाद मायके लखनऊ लौट कर चली गई थी हिन्दी में एम. ए. पहले से थी वहीं रहते हुए बाद में पी-एच. डी. भी कर ली थी। मुक्तिबोध केवल एम.ए. थे। भाभी ने भी उसी पद के लिए आवेदन किया था। जब यह बात मुक्तिबोध जी को मालूम हुई वे चाचा जी से आकर मिले, उन्होंने कहा कि मैं अपना आवेदन पत्र वापस लेना चाहता हूँ, बैकुण्ठ की पत्नी ने भी आवेदन किया है ऐसा मैंने सुना है, उन्हें अधिक आवश्यकता है नौकरी की। पर चाचा जी ने उनका आवेदन नहीं लौटाया और उन्होंने कहा मैं जानता हूँ कि कौन योग्य है, और मुक्तिबोध जी नियुक्त हुए।
मेरे बड़े भाई संतोष उनके विद्यार्थी थे। बड़े भाई के कारण उन्हें मेरे परिवार की जानकारी हो गई थी कि मेरे पिता नहीं हैं। मैं कविताएं मुक्तिबोध जी के मिलने से पहले भी लिखता था क्योंकि एक चचेरे बड़े भाई भगवती प्रसाद भी कविता लिखते थे, सभी बड़े भाई कविता लिखते थे। भगवती प्रसाद ने भाभी के गहने बेचकर अपने दो खण्ड काव्य इलाहाबाद से छपवाये थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगती थी। जब मेरे बड़े भाई संतोष ने मुक्तिबोध जी से कहा कि मेरा भाई भी कविताएं लिखता है तब उन्होंने कहा कि वह मुझ से आकर मिल ले। मुक्तिबोध जी को मैं जानता नहीं था इक्के-दुक्के हिन्दी के कवियों को जिनके नाम नांदगांव तक पहुँच गए थे, जैसे भवानी प्रसाद मिश्र को जानता था। बड़े भाई के दो-तीन बार कहने के बाद मैं मुक्तिबोध जी से मिलने गया। मैं जबलपुर के कृषि महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में था। छुट्टियों में घर आया था जब मुक्तिबोध जी से मिला जैसा कि उन्होंने बड़े भाई से कहा था कि कविताएं ले कर मिलूँ। कविताएं देखने के पहले मुक्तिबोध जी ने कहा कविता लिखते जाना सबसे कठिन काम होता है तुम बाद में सोचना पहले अच्छी तरह से अपनी पढ़ाई करो नौकरी करो, घर की सहायता करो बस इतना ही मिलना था, उनसे यह पहला मिलना। जब नांदगांव में शुरू-शुरू में आये थे तो बसंतपुर में रहते थे, जो नांदगांव से लगा हुआ था अब नांदगांव का हिस्सा है। धुँधलके शाम का समय था अंधेरा अधिक था जब मैं उनसे मिला। जहां वे रहते थे सामने के बरामदे में जाफरी लगी थी मुक्तिबोध आये तो उनके हाथ में जलती हुई कंदील थी वहां तब या तो बिजली नहीं थी या बिजली चली गई थी। मुक्तिबोध जी के आने के पहले कंदील का हिलता-ढुलता उजाला पहले आया फिर उनके साथ-साथ आया। एक बारगी उस दृश्य को जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि कंदील का उजाला उनके साथ था जैसे कोई पालतू उनके साथ होता है। मुक्तिबोध से मिलने पर हर मुलाकात के बाद मैं अपने आपको बदला हुआ महसूस करता था। मुझे लगता कि मुक्तिबोध के पास होने से सोच को संजीवनी मिलती हो, मेरी दृष्टि में कुछ दूरबीन के तत्त्व आ जाते। जब मैं बाहर की ओर देखता, मैं दूर-दूर तक देख सकता था। कभी मन में झांकता तो माइक्रोस्कोपिक दृष्टि आ जाती। मैं बहुत सूक्ष्मता से मन के खरोंच के कई स्लाइड देख पाता था। मनुष्य को पहचानने की समझ अपने पहचानने से शुरू होती है। मुक्तिबोध जी बड़े भाई से पूछते थे कि मैं छुट्टियों में कब नांदगांव आ रहा हूँ और उनसे कहते जब आये नई कविताएं साथ ले कर आये। सब कविताएं लेकर आये। मुक्तिबोध से जब मिलता तो अपनी कविताओं के साथ मिलता जब तक कविताएं नहीं होती मैं मुक्तिबोध जी से मिलने में संकोच करता था। मुझे लगता था कुछ अधिक कविताओं के साथ उनसे मिलूँ और जा नहीं पाता था। जबलपुर में रहते हुए तथा छुट्टियों में घर आने पर कविताएं लिखता था। लिखी कविताएं दिखाने योग्य हैं, यह मुझे कभी नहीं लगा। कई बार कविताएं दिखाने के बाद एक बार कविताओं में से उन्होंने आठ कविताएं कृति के संपादक श्रीकांत वर्मा को भेजी और पत्र लिखा कि मैं युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल की कृतिके लिए कुछ कविताएं भेज रहा हूँ उन्हें स्क्रीनिंग करके देख लेना आज कल लिखी जा रही कविताओं से मैं दूर हूँ छापने योग्य लगें तो छापना। फिर ये आठ कविताएं कृतिमें प्रकाशित हुई। मेरे पास अंक नहीं आया था। एक दिन जैसे ही मैं उनके घर गया उन्होंने शांता जी को पुकार कर कहा ’’विनोद आया है इसका संग्रह छपा है कुछ मीठा बना दो’’ मुझे समझ में नहीं आया। शांता जी ने रवे का हलवा बनाया, उन्हों ने बताया कृतिमें मेरी आठों कविताएं प्रकाशित हुई है उन आठ कविताओं को उन्होंने संग्रह कहा था। आज जब इस बात का स्मरण करता हूँ कि संग्रह उनकी आंतरिक इच्छा थी जो वे अपनी कविताओं के देख नहीं सके थे। मैं उनकी लम्बी कविताओं को सोचता हूँ, उन की एक-एक लम्बी कविता, कविता संग्रह की तरह होती थी। एक लम्बी कविता, कविता से ही लम्बी होती है, मैंने अपनी लम्बी कविताओं के संग्रह को भी कविता से लम्बी कविता कहा। वैसे मैं यह मानता हूँ कि एक जिन्दगी मिलती है और एक जिन्दगी की कविता कविताएं नहीं होती केवल एक कविता होती है। कविता या रचना कभी भी रचनाकार के घर में सुरक्षित नहीं होती। हमेशा पाठकों के बीच ही सुरक्षित होती है। लिखी जाने के बाद कविता रचनाकार के घर की नहीं होती वह पाठकों के घर की होती है। अपनी लिखी कविताओं के साथ रचनाकार बार-बार लिखने को तत्पर रहता है। वह जब भी अपनी रचना को देखता है उसे फिर सुधार लेना चाहता है। मुझे लगता है रचनाकार को आलोचक की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए, मेरी रचना को कोई अगर खराब कहता है तो मैं उस स्वीकार कर लेता हूँ। इसका कारण है कि मैं हमेशा एक अच्छी कविता लिखने की कोशिश करता हूँ जो लिखी नहीं गई है, और अच्छी कविता हमेशा लिखे जाने को बची रहती है यही कारण है हमारा छोड़ा हुआ रास्ता आने वाली पीढ़ी का रास्ता नहीं होता। जीवन का पठार बहुत ऊबड़-खाबड़ है आने वाले रचनाकार अपना रास्ता खुद बनाते हैं लेकिन उन्हें ताकत हमेशा लिखी जा चुकी रचनाओं से मिलती है क्योंकि लिखी जा चुकी रचना आगे आने वाली रचना को रास्ता दिखाती है और रास्ता दिखाना ही कविता की परंपरा बनाती है। दूसरे की रचना का प्रभाव जरूर पड़ता है, मुक्तिबोध जी से जब भी मैं मिलता, वे यह जरूर पूछते थे कि मैंने क्या पढ़ा। रचनाकार को दूसरे की रचना का ईमानदार पाठक होना चाहिए। बिना ईमानदार पाठक हुए आलोचक की आलोचना भी गलत होती है। रचना तो संसार के अनुभवों का अपना संसार होता है और किताब पढ़ना दूसरों के अनुभवों को अपना अनुभव बना लेना है। 

प्रश्न: मुक्तिबोध भी अपनी कविता आपको सुनाते थे?
विनोद कुमार शुक्ल : बाद-बाद में मुक्तिबोध जो को शायद ऐसा लगने लगा कि मुझे वे अपनी कविताएं सुना सकते हैं, मुक्तिबोध जी कविता लिखने की जहां टेबिल थी ऊपर की मंजिल में वहां खिड़की थी जिसमें मुर्गी जाली (बड़ी लोहे की जाली) लगी थी। उससे रानी तालाब दिखाई देता था। मुक्तिबोध जी के टेबिल के चारों तरफ उनके कविता लिखे कागज बिखरे रहते थे बड़े अक्षरों में लिखे, लम्बी-लम्बी कविताएं लिखते थे। आस पास ढेर सारे बिखरे कागज कविताओं से भरे हुए। जब भी मैं मुक्तिबोध जी के घर जाता तो इस तरह का दृश्य बार-बार का दृश्य होता था। नांदगांव में रहते हुए मुक्तिबोध जी ने बहुत कविताएं लिखी एक-दो बार उनसे मैंने सुना भी कि ऐसी स्थितियाँ बनी कि लम्बी होने के कारण एक-दो पत्रिकाओं ने उन्हें लौटा दिया। मुक्तिबोध कहते, विनोद सुनो! मैं तुम्हें कविता सुनाता हूँ, वे कहते सुनाने में छंद की लय बनती है कि नहीं? मैंने देखा है शास्त्रीय गायक जब गाते हैं तो जांघ पर ताल देते हैं। मुक्तिबोध जी भी सुनाते हुए एक जांघ में हाथ धीरे-धीरे ठोकते हुए ताल में लयबद्ध होते थे। मुक्तिबोध के कविताओं के शब्द मुक्तिबोध जी के उच्चारण में धातु की झनझनाहट की तरह होते थे और मैं जब उनके चेहरे की तरफ देखता था तो उनके सांवले चेहरे में इस्पाती चमक होती। मैंने मुक्तिबोध जी को तीखे नाक-नक्श का कहा है। उनके चेहरे की चमक में इस्पात का मेकअप या यह कह ले कि लोहे के चेहरे में एक अच्छे मनुष्य का प्राण रहता है। मुक्तिबोध जी एक बहुत अच्छे मनुष्य थे, उनको देखकर अच्छी कविता लिखने के मापदंड में मैं यह शामिल करना चाहता हूँ कि अच्छा कवि होने के लिए अच्छा मनुष्य भी होना चाहिए, अच्छा कवि, अच्छा पिता, अच्छा पति, अच्छा पड़ोसी, अच्छा भाई। ऐसा भी हुआ कि मुक्तिबोध जी के माता-पिता भी आये थे और मैं उनसे मिलने गया। और उन्होंने कहा मुझे अपने पिता को समय देना है आज तुम जाओ।

प्रश्न: वर्तमान समय में आप हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण एवं बड़े कवि के रूप में    स्थापित हैं, यहां से आप हिन्दी कविता में मुक्तिबोध जी का क्या स्थान देखते है? 
विनोद कुमार शुक्ल : कविता में कोई स्थायी और महत्वपूर्ण स्थान कम से कम मेरा नहीं है। मैं एक घर-घुसवा आदमी कविता में खानाबदोश हूँ लोगों से बात करने का मेरे पास यही तरीका है कि कविता लिखूँ। यह जरूर है जैसा मैंने पहले भी कहा है कि मैं मिट्टी का लोंदा था और मुक्तिबोध सबसे बड़े कुम्हार थे और उनके हाथों छुआ गया, अपने बड़े भाई संतोष का केवल एक ही सबसे बड़ा बड़प्पन जानता हूँ कि उन्होंने मुझे मुक्तिबोध जी से मिलवाया। यह संयोग था कि कविता के संसार में डरते-डरते संभवतः भटकते हुए मैं सबसे पहले जिन से मिला वे मुक्तिबोध थे उन्होंने मुझे अंदर बुलाया उन्हीं के कारण मेरा परसाई जी से जबलपुर में मिलना-जुलना हुआ। मैंने श्रीकांत वर्मा के बारे में उन्हीं से सुना। शमशेर जी का उनसे मिलने नांदगांव आते सुना। मैंने यह कहा भी है कि बीते हुए साल की तरफ 50 वर्षों तक मैं अपना दाहिना हाथ फैलाता हूँ और आने वाले पचास वर्षों तक मैं अपना बांयाँ हाथ फैलाता हूँ मैंने मुक्तिबोध को समीप से देखा और इस बीते पचास वर्ष और आने वाले पचास वर्ष में मैं मुक्तिबोध जी को अकेला पाता हूँ कि वे ही हैं और मुझे कोई दूसरा नहीं दिख रहा। मैं दूसरा नहीं देख पाया।

प्रश्न: मुक्तिबोध जी की बीमारी के विषय में बताइ?
विनोद कुमार शुक्ल : मुक्तिबोध जी के साथ मैं किले के आसपास घूमता भी था। उन्हें टिपरिया होटल में चाय पीना बहुत अच्छा लगता था वे सिंगल चाय बुलवाते थे और कहते थे चाय बिलकुल गर्म देना और साथ में पानी भी। चाय पीने के पहले वे पानी जरूर पीते थे फिर गर्म-गर्म चाय एक दो लोगों ने कहा भी इतना गर्म चाय मत पिया करो दांत खराब हो जायेगें। वे चाय पीते मुझे भी पिलाते थे। एक-दो बार घूमने वे केवल नीम की पत्ती तोड़ने गए। रानी सागर की तरफ नीम के पेड़ थे नीचे के नीम की पत्तियों को मैं तोड़ लेता था ऊपर तोड़ नहीं पाता था तो मुक्तिबोध तोड़ते थे, वे मुझसे लंबे थे। उनके पैरों में एग्जिमा था। नीम की पत्तियों को पीस कर उसका लेप लगाते थे कोमल पत्तियों को पीस कर उसकी गोलियाँ भी खाते थे। वे एग्जिमा से बहुत परेशान थे।
जबलपुर में रहते हुए उनके गिर पड़ने की बात भी मैंने सुनी थी फिर यह भी सुना था जबलपुर में ही रहते हुए कि उन्हें मेनोन्जाइटिस हो गया है। तब शायद मैं नौकरी करने लगा था। वे भोपाल फिर दिल्ली गये मैं शायद ग्वालियर में था। नांदगांव से सोचो तब ग्वालियर भोपाल इंदौर पास लगते थे लेकिन ग्वालियर से भोपाल दूर था। मैं जिन परिस्थितियों में नौकरी कर रहा था उसमें छुट्टिया ले कर जाना भी कठिन था उनकी बीमारी के समय उनसे मैं नहीं मिल सका लेकिन उनका बीमारी के समाचार रेडियों में आया करते थे तथा समाचार पत्रों में। सुनता था किस तरह श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी और परसाई जी उनकी चिन्ता कर रहे हैं। मुझे लगने लगा था जिस तरह उनकी फिक्र हो रही है और जैसी चिन्ता है और अच्छे से अच्छा उनका इलाज हो रहा है वे अच्छे हो जायेगें।

विनोद कुमार शुक्ल
सम्पर्क-
घनश्याम त्रिपाठी
मोबाईल – 07587159660

अंजन कुमार 
मोबाईल – 09179356307


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

भारत भूषण जोशी की कहानी ‘गौरदा’

भारत भूषण जोशी


संस्कृति मनुष्य को जोड़ने में एक बड़ी भूमिका अदा करती आयी है। हमारे यहाँ धर्म भी इस संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा हैयह अटूट पना कुछ इस प्रकार का है कि एक दूसरे को अलगा कर इन्हें जाना और समझा ही नहीं जा सकता धर्म जिसके अंतर्गत तीज, त्यौहार, परम्पराएँ एक दूसरे से आबद्ध दिखायी पड़ती हैं। इनमें भी हिन्दू तीज-त्यौहारों से जुड़े हैं – लोक गीत, लोक-नृत्य, लोक-नाट्य जैसे राम लीला और रास-लीला। होली के अवसर पर गाये जाने वाले फाग को आधार बना कर भारत भूषण जोशी ने एक उम्दा कहानी लिखी है ‘गौर दा’। जोशी जी इलाहाबाद में ही रहते हैं और पहली बार पर यह उनकी पहली कहानी है आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भारत भूषण जोशी की यह कहानी
          

गौरदा


भारत भूषण जोशी
फाग का महीना चल रहा था। ठण्ड अभी दिल्ली में पाँव पसारे थी। सुबह शाम मजे़ की सिहरन हो जाती थी। गरम कपड़े छूटे न थे। बसंत के आगमन की सूचना झड़ते पत्तों से मिलने लगी थी। हरीश जोशी दफ़्तर से निकल कर सीधे आई. टी. ओ. के मुख्य बस स्टॉप पर आता है। उसकी कलाई घड़ी शाम के पौने छः बजा रही है। उसे हौज़ खा़स जाना है। आज शाम से किशोरदा के घर पर कुमाऊँनी होली की बैठक है। वो कुछ गुनगुना रहा है। उसके चेतन में किसी गीत के बोल सुर-ताल में चल रहे हैं। सड़क पर सुरक्षित चलने में अवचेतन में बसा पुराना अनुभव और अभ्यास ही उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं।
रोज़गार की तलाश में कुमाऊँ के पर्वतीय अंचलों से कई परिवार दिल्ली आ बसे। जनता कॉलोनियों से ले कर पॉश इलाक़ों तक में इन्होंने अपने आशियाने बना लिये। ये परिवार कुमाऊँ की अन्य लोक-परम्पराओं के साथ दशहरे में रामलीला के मंचन की तथा फागुन में होली की बन्दिशें गाने की अत्यन्त समृद्ध परम्परा को साथ ले कर आये। दशहरे और फागुन के दौरान कुमाऊँनी परिवारों में आन्चलिक रस से भरपूर एक अजब सा उत्साह छा जाता। फागुन में राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्बन्धित विभिन्न राग-रागिनियों में निबद्ध श्रृंगार रस की होली की बंदिशों को रात भर किसी न किसी के घर पर महफ़िल सजा कर गाने की परम्परा थी।
कहा जाता है कि जो दिल्ली गया सो दिल्ली का हो गया। प्रवासी कुमाऊँनी परिवारों को भी दिल्ली भा गयी। वे इसमें रच-बस गये। अधिकांश का दशहरे-होली के दौरान अपने-अपने शहरए क़सबे, गाँव जाना धीरे-धीरे कम हो गया। उन्होंने दिल्ली में ही पहाड़ बसा लिया। होली के दौरान होली गायकी की महफ़िलें दिल्ली में ही सजने लगीं। कुमाऊँ के युवा-बुज़ुर्ग होलियार कहीं न कहीं मिल बैठते और होली गा कर अपनी हुड़क मिटाते।
इस समय हर साल की तरह हरीश पर कुमाऊँनी होली गायकी की बैठकी का नशा बुरी तरह चढ़ा हुआ था। रोज़ कहीं न कहीं बैठक हो ही रही थी। आज किशोरदा के घर पर है। अचानक गुनगुनाना छोड़ चैतन्य हो, हरीश अब हौज़ ख़ास की ओर जाने वाली बस पकड़ने के लिये आने वाली बसों पर पैनी निगाह रखने लगा।
अचानक उसे लगा कि जो बस अभी-अभी आगे जा कर रुकी है, उससे अन्य लोगों के साथ गौरदा भी उतरे हैं। हाँ, गौरदा! यानी गौरी दत्त तिवारी। कुमाऊँनी होली गायकी के अप्रतिम नायक!
गौरदा लगभग पचास की उम्र के सामान्य कद और गौर वर्ण के पिचके गालों वाले अधेड़ व्यक्ति थे। तथापि, पास से देखने पर उनकी आँखों से एक कच्ची उम्र का कल्पनाशील व्यक्ति झाँकता दिखाई देता था। शरीर दुबला-पतला, बाल हल्के घुंघराले, पीछे की ओर काढ़े हुए। ओठों के दोनों किनारे पतली लकीर बन कर गालों में थोड़ा अन्दर चले गये थे। हरीश उनसे लगभग दस वर्ष छोटा रहा होगा।
स्वेटर, मफ़लर और चाल से हरीश को गौरदा को पहचानने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। इन दिनों गौरदा होली की बैठकों में दिखाई नहीं पड़ रहे थे। उनके बिना सारी बैठकें नमक बिना व्यंजन जैसेहाल पर चल रही थीं। दिल्ली जैसे बड़े शहर में उनकी अनुपस्थिति के कारण का पता न चल पा रहा था। खोज जारी थी। अनुमान था शायद अल्मोड़ा चले गये इस बार। अप्रत्याशित रूप से गौरदा से टकरा जाने पर उत्पन्न उत्साह को नियन्त्रण में रख भीड़ को हटाते हुए तेजी से चलकर हरीश ने गौरदा को लपक लिया, और ज़ोर से ललकारा गौरदा ऽ..ऽ…ऽ……..! ओ गौर दा ऽ..ऽ..!गौरदा ने अन्यमनस्क भाव से पीछे मुड़ कर देखा। अब हरीश उनके बराबर से चल रहा था। बेबाक़ी से उसने उलाहना दी। हद कर दी गौरदा, आपने। फाग बीतने को आ रहा है। एक भी बैठक आपने अटेन्ड नहीं की। हम तो समझ रहे थे कि आप शहर में ही नहीं हैं। ऐसी भी क्या नाराज़गी? ख़ैरियत तो है?’ पर गौरदा के चेहरे की मायूसी देख कर उसका उत्साह थोड़ा ठण्डा पड़ गया था।
गौरदा ने कुछ क्षण हरीश के चहरे की ओर देखा, जैसे उसे पहचानने की कोशिश कर रहे हों। फिर अभिवादन में धीरे से मुस्करा कर बोले। उनकी आवाज़ में हताशा थी। क्या कहूँ, बड़दा की तबियत ठीक नहीं है। कहो तो बिस्तर ही लग गये हैं। डाक्टर कहते हैं कि लिवर खराब है, पीलिया के लक्षण हैं, कुछ भी हो सकता है। अभी बायोप्सी की रिपोर्ट नहीं आयी है। आजकल शनिवार को दफ़्तर से सीधे बड़दा के पास चला जाता हूँ और इतवार को वहीं रहता हूँ। दोनों भाई सुख-दुःख कर लेते हैं। नानदा पहले ही चला गया! पता नहीं क्या-क्या देखना है अभी। ऐसे में कैसा फाग कैसी होली की बैठक।इतना कह कर गौरदा ने गहरी साँस भरी और दूसरी ओर ताकने लगे।
थोड़ी देर के लिये दोनों के बीच मौन ने स्थान ले लिया। फिर गौरदा सकुचाते हुए हरीश की ओर देखकर बोले-हरीश, तू ही सोच, क्या मेरा मन नहीं करता होगा बैठकों में गाने को। तू तो कल का बना होलियार हुआ। मैं तो बचपन से होलियों को जी रहा हूँ। और क्या कुछ नहीं खोया मैंने इस संसार में, इन्हीं होलियों को जीने के लिए। सुन मेरे यार! अब सुनता है, तो सुन! मैं तो बी0 एस-सी0 ही नहीं कर पाया, इस होली की दीवानगी में! इधर इम्तहान का सीज़न शुरू उधर अल्मोड़ा में होली की बैठकों का सीज़न शुरू। तीन बार फ़ेल हुआ। ग्रेज्युएट न हो पाया। टूट गया था मैं। वो तो बड़दा की सूझबूझ थी, मुझे अल्मोड़ा से दिल्ली अपने पास ले आये और स्टेनोग्राफी सिखाकर यहाँ नौकरी दिलवा दी। नहीं तो कौन पूछ रहा था इण्टर पास को। तभी तो मैं बड़दा को इतना मानता हूँ। उनकी बीमारी के आगे क्या हुई ये होली की बैठक-वैठक! अगर उनके लिये जान भी दे दूँ तो भी उऋण नहीं हो पाऊँगा उनके उपकार से।गौरदा का चेहरा वेदना से भरा हुआ था।
थोड़ी देर उनके बीच फिर वार्तालाप ठप रहा। दोनों सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर खड़े थे। हरीश इस समय गौरदा और उनके बड़दा के आपस के सम्बन्ध में नहीं जाना चाहता था। अभी उस पर होली की बैठक का भूत सवार था। हरीश चाहता था गौरदा कम से कम आज तो होली की बैठक में ज़रूर गाएं। हरीश ने चुप्पी तोड़ी, ‘गौरदा सब ईश्वर का विधान है। अपने भाग्य को इस तरह न कोसिये। ये देखिए कि ईश्वर ने आपको उपहार में क्या दिया है। शायद आपको इस बात का अहसास न हो, पर मैं आपको बताता हूँ। सुनिये! आप इस जगत में केवल होली गाने के लिए पैदा हुए हैं। ज़रा सोचिये! आज कुमाऊँ में है कोई आपके जैसा होली गाने वाला? आप कुमाऊँ के रत्न हैं! रत्न! गौरदा! अपने भाग्य को कम न आँकिये।हरीश बोलते-बोलते आवेश में आ चुका था। थोड़ी देर चुप रह कर उसने फिर बात बढ़ाई। अभी उसका आवेश पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था। भाषा में अतिरंजना शामिल थी ही। क्या बताऊँ गौरदा! बैठकों में आपकी कमी कितनी खल रही है। हमें तो लगता है हारमोनियम-तबला भी रो रहे हैं, आपके लिये इस फाग में।
हरीश के आवेश भरे आलाप से गौरदा हिल गये थे। उनके भीतर के कलाकर ने जैसे करवट ली। वे बोले, ‘हरीश यार! क्या कहूँ, अन्दर-अन्दर तो मैं भी रो रहा हूँ। इधर बड़दा की बीमारी, उधर होली न गा पाने की कसक! क्या बताऊँ बन्धु! कितनी पीड़ा है। मैं तो जन्म से ही सुर का मारा हुआ।
वार्तालाप ने दोनों के बीच अब एक भावात्मक सेतु बना दिया था। हरीश को गौरदा की स्थिति से संवेदना हो आई। अब वो उनके मुँह से होली सुनने की जुगत करने के साथ यह भी सोचने लगा कि आज गौरदा किसी न किसी प्रकार होली गा लें ताकि उनके मन की भी भड़ास निकल जाये। कुछ देर सोचने के बाद वो बोला।ऐसा करते है गौरदा, सुनिए! आज हौज़ ख़ास में किशोरदा के घर पर होली की बैठक है। पहले वहाँ चलते हैं। वहाँ से आपके बड़दा का घर पास ही है। बस एकाध घंटा आप वहाँ अपनी पसंद की कुछ  होलियाँ सुना दीजिए, उसके बाद दस बजे से पहले किशोरदा का लड़का आपको बड़दा के घर छोड़ देगा। आपके दोनों काम हो जायेंगे। फिर ऐसा कोई बुरा भी तो नहीं हुआ है आपके घर जो फाग में होली न गा कर घर के लिए असगुन करें?’’
किशोरदा की पत्नी कुसुम गौरदा की मौसेरी बहन लगती थी। अच्छी होली गाने के कारण गौरदा को बहन-बहनोई के घर अतिरिक्त स्नेह मिलता था। किशोरदा भी पक्के रसिक मन के थे। होली मर्मज्ञ। गौरदा भी अपनी बहन के घर बड़े मनोयोग से होली गाते थे। दिल्ली के होलियारों को किशोरदा के घर की होली की बैठक के लिये विशेष उत्साह रहता था।
हरीश की बातों से गौरदा की आँखों के आगे किशोरदा के घर की होली की बैठक का पूरा दृश्य घूम गया– एक बड़े सुसज्जित कमरे में दीवारों पर लगे पीले बल्बों की रोशनी से जमीन पर बिछा वॉल-टू-वॉल गाढे़ रंग का कालीन खिला हुआ है। कुछ दीवारों से टिके और कुछ बीच में हारमोनियम-तबले के इर्द-गिर्द, फाग की मस्ती में चूर गुलाल से रंगे-पुते  मर्मज्ञ श्रोता, होलियार बैठे हैं। अन्दर के दरवाजे से ट्रे में भर-भर कर आलू के गुटके और चटनी पत्तों के दोनों में कमरे में लाये जा रहे है। किन्तु हारमोनियम पर होली गाने वाले का चेहरा स्पष्ट नहीं है। गौरदा को लगा हारमोनियम और तबले की जोड़ी उन्हें घुटे-घुटे स्वर से पुकार रहे हैं। उनको लगा उनके कानों में कहीं से आवाज़ आई, ‘गौरदा! गौरदा!

गौरदा अपने ही बनाये दृश्य को बरदाश्त नहीं कर सके। उनकी बेचैनी अत्यधिक बढ़ गयी और साँस गहरी चलने लगी। उन्हें अपने अन्दर कुछ पिघलता सा महसूस होने लगा जिसे बाहर आने से रोकने में वो अपनी पूरी सामर्थ्य लगाये हुए थे। उनकी एक पसंदीदा होली के शब्द सुरों के साथ उनके मन-मस्तिष्क को आन्दोलित किये जा रहे थे। सहसा कल्पना में वे अपने को किशोरदा की महफ़िल में गाता हुआ देखने लगे।

सारी डार गयो मो पे रंग की गागर
मैं जो भूल से देखन लागी उधर,
बड़ा धोखा हुआ
बिन होरी खेले जाने ना दूंगी
जाते कहॉं हो छैला आओ इधर
गौरदा अपनी ही कल्पना के विकास-क्रम में फंसते जा रहे थे। अंगुलियाँ जाँघ पर ऐसे चल रही थीं जैसे हारमोनियम पर। मन में लय-ताल चलने लगी थी। उन्हें लगा कि कहीं वो सड़क पर ही न गाने लगें। उन्होंने अपने को सम्भालने की कोशिश की। तत्काल उनकी आँखों से होली की महफ़िल का दृश्य हट गया और बिस्तर पर पड़े कृषकाय बड़दा का चेहरा आ गया। उन्होंने हरीश की ओर एक दुख भरी नज़र डाली और उसके प्रस्ताव पर नहीं की शैली में अपना सिर यूँ हिलाया जैसे चलती ताल में समआने पर संगीतकार अपना सिर हिलाते हैं।
वे भर्राये गले से बोले- नहीं हरीश नहीं। मुझे तेरा प्रस्ताव मंजू़र नहीं।ऐसा कहते-कहते उन्हें लगा कि जैसे उनके पेट के अन्दर से कोई गोल सा पदार्थ पूरे दबाव के साथ ऊपर उनके गले की तरफ़ उठ रहा हो। उन्हें लगा कि वे अपनी रुलाई शायद ही रोक पायेंगे। उन्होंने दोनों जबड़ों को परस्पर ज़ोर से भींच कर किसी तरह गले की ओर उठती लहर को पेट की ओर वापस ढकेला। ए लम्प रोज़ इन हिज़ थ्रोट।बड़दा ने उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाई थी। गौरदा को बड़दा से मिलने की इच्छा यकायक बलवती हो गयी। उन्हें ध्यान आया, बड़दा उन्हें कितने मनोयोग से पढ़ाते थे।
पर हरीश तो जैसे आज हार मानने को तैयार ही न था। उसने थोड़ा समय गौरदा को सहज होने के लिये दिया फिर एक मनोवैज्ञानिक की तरह बोला- गौरदा! मैं आपका असमंजस और पीड़ा दोनों को अच्छी तरह समझता हूँ। पर मुझे लगता है आप इस मामले में थोड़ा ज्य़ादा ही सेन्सिटिव हो गये हैं। ज़रा समग्रता से सोच कर देखिये- अगर थोड़ी देर आप किशोरदा के घर पर होली गाने के बाद बड़दा के घर जाते हैं, तो इसमें क्या हानि-लाभ हैं। मुझे तो लगता है कि इसमें कोई हानि नहीं। बल्कि लाभ ही लाभ हैं। बड़दा के घर आप जा ही रहे हैं। रास्ते में सगुन भी हो जायेगा। और समाज के प्रति भी तो आपका कुछ दायित्व है? ईश्वर की दी हुई प्रतिभा का लाभ समाज को भी मिलना ही चाहिए।हरीश ने देखा उसकी बातों का गौरदा पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। उसने अवसर देख कर बलपूर्वक गौरदा से पूछा, ‘बताइये? गौरदा बताइये? क्या मैं कुछ ग़लत कह रहा हूँ?’
गौरदा अब अपने को हरीश के आगे बेबस सा महसूस कर रहे थे। हरीश की बातों को काटने के लिये उनको कोई जबाब सूझ नहीं रहा था। उनके अन्दर ज़बर्दस्त उहापोह चल रहा था। उनको हरीश की सामाजिक दायित्ववाली दलील में दम नज़र आने लगा। वे सोचने लगे अगर ईश्वर ने उन्हें कुछ विशिष्ट दिया है तो उन्हें इसे समाज में बाँटना ही चाहिये। और फिर वो बड़दा को छोड़ भी कहाँ रहे हैं। किशोरदा के घर थोड़ी देर होली गा कर लोगों का मनोरंजन कर वे बड़दा के पास देर रात तक चले जायेंगे। सामाजिक दायित्वऔर व्यक्तिगत दायित्वउन्हें यकायक परस्पर पूरकऔर सम्पूरकलगने लगे थे।
गौरदा के चेहरे के भावों में हुये परिवर्तन को पढ़ कर हरीश समझ गया कि गौरदा ढीले पड़ गये हैं। उत्साहित हो कर उसने इसे अपनी विजय मान लिया और बोला, ‘गौरदा प्लीज़! अब फ़ालतू सोच कर समय न ख़राब करिये। प्लान के मुताबिक़ हम किशोरदा के घर तुरन्त निकल चलते हैं।
वैसे गौरदा सांसारिक विषयों में थे पक्के संयमी। किसी रूपसी का खुला निमंत्रण भी उनको बड़दा के पास जाने से नहीं रोक सकता था। पर कहाँ राधा-कृष्ण के मस्त-मस्त प्रेम की रंगीन फुहार से भीगती-भिगाती, सुर, लय, ताल और कविता भरी होली की बैठक, जिसकी अमिट ख़ुमार मृत्युपर्यन्त चले, और कहाँ रूपसी के प्रेम के ज्वार का क्षणिक नशा!
हरीश की आत्मीय और सशक्त दलीलों के आगे गौरदा परास्त हो चुके थे। जिस फागुन की दस्तक की अनसुनी वे इन दिनों लगातार सफलतापूर्वक करते आ रहे थे, वही फाग उनके मन का दरवाज़ा तोड़ हँसता-खेलता, अपनी पूरी छटा के साथ धड़धड़ाता अन्दर घुस कर उनकी पोर-पोर में समा चुका था। बड़दा की बीमारी का तनाव शिथिल हो कर सामान्य स्तर पर आ गया था। उनके मन में अब फाग की रंग-बिरंगी फुहार भरी होलियों के शब्द और सुर आकार लेने लगे थे। तभी हवा का एक ख़ु़शबू भरा झौंका आया, और गौरदा ने उस वर्ष की फागुनी बयार को पहली बार अपने अन्तर्मन तक महसूस किया। नव-बसंत की बयार ने उनके क्लेश की परत को जैसे उड़ा दिया। वे फागुनी मस्ती के हाथों बिक गये। उनका मन पुलक उठा और आँखों में बसंत उमड़ आया। आयो नवल बसंत, सखी, ऋतुराज कहाए।हरीश समझ गया कि गौरदा की आँखों में गुलाल पूरी तरह झुंक चुका है और अब वे वहाँ नहीं हैं। तभी उसकी नज़र हौज़ ख़ास जाने वाली बस पर पड़ी जो उनकी ओर स्टॉप पर आ रही थी। उसने लगभग चिल्लाते हुए गौरदा को झिंझोड़ा, ‘गौरदा देखिये! वो हौज़ ख़ास वाली बस आ रही है। दौड़िये! जल्दी!गौरदा को पीछे-पीछे आने का संकेत कर हरीश रुकती हुई बस की ओर दौड़ा। हरीश के झिंझोड़ने से गौरदा तन्द्रा से बाहर आ गये। वे अब अपने को बेहिचक महसूस कर रहे थे। रही-सही बहस को हरीश द्वारा बस की और दोड़ने के संकेत ने अर्थहीन कर दिया था। उन्होंने भी अब आव देखा न ताव और बेतहाशा हरीश के पीछे बस की ओर भागे।
हौज़ ख़ास की ओर दौड़ती बस में दोनों के बीच सम्वाद न हुआ। हरीश कनखियों से बीच-बीच में गौरदा की ओर देख कर गद्गद् हो रहा था। जैसे वो कोई इन्सान न होकर हरीश द्वारा जीती गयी ट्रॉफी हों। वो अपनी इस महान उपलब्धि पर मन ही मन इठला रहा था और सोच रहा था कि किशोरदा उसके इस अप्रत्याशित उपकार को क्या कभी भुला पायेंगे? उसने देखा अब गौरदा आत्म विश्वास से भरपूर दिख रहे थे। उसको विश्वास हो चला था कि आज की शाम गौरदा होली की बैठक में रस की बरसात ही कर देंगे। उसने मन ही मन अपने और आज के होलियार श्रोताओं के भाग्य को सराहा। 
किशोरदा के घर जाने में गौरदा का मन प्रफुल्लित सा हो रहा था। किशोरदा न केवल साहित्य के मर्मज्ञ थे बल्कि एक पक्के रसिक होलियार भी थे। अपने ऊँचे ओहदे और पैसे का सदुपयोग वे अपने घर पर साहित्यिक गोष्ठियाँ करवाने और संगीत की महफिलें सजाने में करते। फाग में उनके घर की होली की बैठक का एक अलग ही रंग होता, एक अलग ही छटा होती थी। उनके घर के ऊपर का पूरा हॉल और लगा हुआ बरामद दिल्ली के रसिक पर्वतीय होलियारों से भरा रहता। कुमाऊँ के बड़े-बड़े अफ़सरान भी किशोरदा के घर की होली में शिरकत करने से नहीं चूकते थे।
आखि़र हौज़ ख़ास के स्टॉप पर बस रुकी और वे दोनों उतर कर किशोरदा के घर की ओर लपके। किशोरदा का घर मुख्य सड़क से थोड़ी ही दूर पर था। घर के दुतल्ले की सीढियाँ चढ़ते गौरदा के कान में बैठक से आती गाने की आवाज़ पड़ी। बैठक अभी शुरूआती दौर में थी। कोई नौसिखिया अपना गला मॉंज रहा था।
मुरली नागिन सों
कहा विधि फाग रचाऊँ
मोहन मन लीन्हो री।”
गौरदा अचानक ठिठक कर सीढ़ी के मोड़ पर रूक गये। हरीश भी रुका रहा। नौसिखिये की होली की बन्दिश ने गौरदा को कुमाऊँ के सुप्रसिद्ध कलाकार मोहन उप्रेती की याद दिला दी। उन्होंने ये होली उन्हीं के श्रीमुख से दिल्ली में भारतीय कला केन्द्रमें ठेठ कुमाऊँनी अन्दाज़ में सुनी थी। वो उसी दिन से मोहन उप्रेती की प्रतिभा के क़ायल हो गये थे। नौसिखिया डूब कर गाये जा रहा था।
ब्रज बावरो मोसे बावरी कहत है
अब हम जानी-
बावरो भयो नन्दलाल,
मोहन मन लीन्हो री’
गौरदा के अब तक रोंगटे खड़े हो चुके थे। कुमाऊँ की उपत्यकाओं से कोई गंधर्व उतर कर उनकी रूह पर क़ाबिज़ हो चुका था। उनके चहरे पर एक अलौकिक आभा छा गयी और आँखों में एक चमक सी आ गयी थी। ओठों के झुके हुए किनारे स्मित हास का आभास देने लगे थे। गौरदा ने बची हुई सीढ़ियाँ लपक कर नापीं और बरामदे में पहुँच गये।
गौरदा ने होली की बैठक में ऐसे प्रवेश किया, जैसे वह स्थान उनका सहज साम्राज्य हो। कई पर्दों वाले बढ़िया हारमोनियम और तबले की जोड़ी देख कर उनका मन प्रमुदित हो उठा। मानहु मीन मरत जल पायो। गौरदा के लिये अब होली गाने के अतिरिक्त इस संसार मे कुछ भी अपेक्षित नहीं था। पत्नी, बच्चे, भूख, प्यास……….ईश्वर……….और हाँ! बड़दा भी! सारा ऊबड़-खाबड़ समतल हो गया था। दृष्टि अर्जुन की तरह साफ़ थी। लक्ष्य था- होली गायकी के रस में डूबना-डुबाना।
गौरदा को देखते ही बैठक में उपस्थित समस्त रसिक जनों के दिल बाग़-बाग़ हो गये। सबने आवाज़ देकर उनका स्वागत किया। किशोरदा उम्मीद के विपरीत गौरदा को अपने घर में प्रकट देख उल्लास से भर गये। उनको विश्वास हुआ कि उनका आज का आयोजन सफल होना ही है। आगे बढ़कर उन्होंने गौरदा को सीने में भींच लिया। किसी ने आगे बढ़कर गौरदा के माथे पर गुलाल का एक बड़ा टीका खींच कर बालों में गुलाल भर दिया। अब गौरदा एक दम पक्के होलियार लग रहे थे। नौसिखिया गाने वाले ने गौरदा का हाथ पकड़कर उन्हें बड़े आदर से हारमोनियम वाली पीठिका पर बिठा दिया। गौरदा ने बैठक में उपस्थिति होलियारों पर एक नज़र डाली। चिर-परिचित सुधी रसिक-मण्डली को उपस्थित देख उनका उत्साह दूना हो गया। गौरदा थोड़ी ही देर में हारमोनियम पर हाथ रख सन्नद्ध हो गये। तबला वादक ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। बैठक में पूर्ण शान्ति छा गयी।
गौरदा अब अपने मन में गाने के लिये होली की किसी सटीक बन्दिश का चुनाव कर रहे थे। विविध राग-रागिनियों में निबद्ध अनेक होलियाँ उनके मधुर कण्ठ का रस पीने के लिए उनके मन-मस्तिष्क में कौंध-कौंध कर अपने चुने जाने का आग्रह सा करने लगीं। वैसे गौरदा को सभी होलियों से समान अनुराग था। वे जिस होली को गाने के लिए उठाते उसका सच्चे सुरों से पूरा श्रृंगार करके ही छोड़ते। उनमें विलक्षण सांगीतिक सौंदर्य-बोध था।
इस बीच उनकी अंगुलियों का जादुई स्पर्श पा कर हारमोनियम जीवन्त हो उठा था। गौरदा की होली की बन्दिश चुनने की दुविधा यदि कोई थी, तो जैसे हारमोनियम के स्वरों से अनायास उभरी धुन ने उसको स्वयं ही हल कर दिया। गौरदा के कण्ठ से विलम्बित लय में होली की बन्दिश के बोल फूटे-
बहुत दिनन के रूठे, कन्हैया,
एजी रूठे कन्हैया,
होरी में मनाये लाऊँगी
तबला वादक ने पूरे आवेश और सतर्कता के साथ टुकड़ा बजाते हुए लाऊँगीके गीपर ताल का समदिखाया। श्रोताओं के मुँह से सराहना की आहऔर वाहनिकलने लगी। सभी श्रोताओं ने सजग हो कर अपने-अपने स्थान पर अपनी-अपनी मुद्रा बदली और अधिक सतर्कता और आनन्द के साथ गौरदा की होली गायकी का लुत्फ़ लेने लगे।
गौरदा की होली गायकी में ऐसी अद्भुत दमदारी और तबीयतदारी थी, कि पूरी की पूरी महफ़िल बोल, सुर, ताल और लय में बंध-बिंध जाती थी। उनकी गायकी में रस, भक्ति, अध्यात्म, संगीत की सूझबूझ और कुमाऊँनी अंचल के लटकों-झटकों का ऐसा अनेाखा संगम था कि श्रोताओं के मन आह्लाद से भर उठते। अन्दर के कमरों में महिलाएं बातचीत बन्द कर देतीं और आलू, चटनी, चाय की तैयारी करते-करते कान गौरदा की गायकी को दिये रहतीं। पूरे श्रोतागण मस्ती से सराबोर हो जाते। बन्दिश के मुखड़े को कितनी देर गाना है, अन्तरा को कब उठाना है, किसी पंक्ति को कितनी बार दुहराना है, कब तक तार सप्तक के स्वर रेऔर पर टिक कर अप्रत्याशित रूप से स्वर को छूते हुए मध्य सप्तक में आ कर पद को पूर्ण करना है- ये सब गौरदा बख़ूबी जानते थे। श्रोताओं के मन को जानने और उसे तृप्त करने में जैसे उन्हें सिद्धि प्राप्त थी। अब गौरदा अन्तरा गा रहे थे।
श्री वृंदावन की कुंज गलिन से,
गोदी में उठाये लाऊँगी,
बहुत दिनन के रूठे कन्हैया
होरी में मनाये लाऊँगी
गौरदा ने पहली होली लगभग आधे घण्टे तक गायी। इसे समाप्त करते-करते उनके मन में अगली होली पैठ बना चुकी थी। उन्होंने अगली होली का मुखड़ा तुरन्त उठाया-
नवल चुनरिया फारी
बिरज जसोदा लाल को अपने
तोड़्यो हार हजारी,
मोती बिखर गये कुंज गलिन में
चुन रही सखियाँ सारी।
मोरी नवल चुनरिया फारी
श्रोतागण मस्ती में झूम रहे थे। जिन्होंने भांग आदि का नशा किया था वो अपने गलों से सराहना में अजीबोग़रीब आवाज़ें निकाल रहे थे। कोई वाह गौरदा!कहता। कोई जियो गौरदा!कहता। कोई क्या बात है!कहता।
होली गाते-गाते गौरदा को लगभग बीस मिनट हुए होंगे। तभी सामने लगी दीवार-घड़ी ने उन्हें अचानक ध्यान दिलाया कि उन्हें बड़दा के घर जाना है। वे व्यग्र हो उठे और उन्होंने जल्दी से होली को द्रुत लय में लाकर समाप्त कर दिया। वे क्षमा माँग कर उठने का उपक्रम करने ही वाले थे कि किशोरदा के लड़के ने अवसर देखकर उनके कान में कुछ कहा। संदेश यह था कि बड़दा के घर जाकर उनका हाल ले लिया गया है। उनका स्वास्थ्य सामान्य है और उनका यह विचार है कि गौरदा किशोरदा के घर होली गाएं और रात वहीं सो कर दूसरे दिन सुबह उनके पास आएँ

संदेश की सत्यता की पुष्टि के लिये गौरदा ने किशोरदा की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। किशोरदा ने आश्वस्त भाव से इस प्रकार सिर हिलाया जैसे कह रहे हों संदेह मत करो बन्धु! बस अब गाये जाओ।
बड़दा का संदेश सुन कर गौरदा के मन से रहा-सहा खटका जाता रहा। वे अब पूर्णतः निःशंक हो कर नई ऊर्जा से भर उठे थे। उन्होंने मन ही मन बड़दा का स्मरण करके उनकी प्रिय होली उठाई।
श्रवण सुनत कटि जात पाप
जहाँ राम-सिया खेलें होरी
किसी के विशेष आग्रह पर खाई मिठाई में कुछ मिला था कि होली गायकी का नशा-गौरदा अब पूरी तरह होलियाँ गाने में डूब चुके थे। कोई उन्हें छेड़ना न चाहता था। काव्य, संगीत और आँचलिक परम्परा के इस अनोखे प्रदर्शन से सभी विमुग्ध थे। कभी-कभी अन्दर के दरवाजे के परदे का हिलना गवाही दे रहा था कि अन्दर महिलाएं भी पूरे कौतूहल के साथ इस अभूतपूर्व प्रदर्शन की साक्षी बन रही थीं।
रात कैसे गुजर गई पता न चला। बैठक में अन्य जितने कलाकार थे, उन्होंने न गाना ही बेहतर समझा। पूरी रात गौरदा गाते रहे और सुबह चार बजे उन्होंने सामने दीवार-घड़ी की ओर देखा और सभा समाप्ति का संकेत देते हुए भैरवी उठाई-
होरी खेरैं कन्हैया झुकि झूम-झूम
वो तो लेते कमल मुख चूम-चूम।
और फिर पारम्परिक मुबारकबाद से समापन किया-
‘‘मुबारक हो मंजिल फूलों भरी
बरादरी में रंग भरो है
राधेश्याम खेलें होरी
होली की बैठक अपनी पूर्णता प्राप्त कर समाप्त हुई। तृप्त श्रोतागण गौरदा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए विदा हुए। हरीश, गौरदा और कुछ अन्य लोगों को सुबह तक किशोरदा के घर पर ही रूकना था। मेहमानों के जाते ही गौरदा की बहन कुसुम ने बैठक में प्रवेश कर कहा, ‘गजब ही कर दिया गौरदा आज तो तुमने! कैसे गा लेते हो, तुम इतना अच्छा? पिछले जनम में तुम जरूर कोई गन्धर्व रहे होगे।
गौरदा अब तक बुरी तरह थक चुके थे। समाधि से जागने के बाद की जैसी थकान उन पर हावी थी। बैठक में कालीन के ऊपर अब तक चादरें बिछा दी गयी थीं। गौरदा ने स्नेह भाव से बहन का अभिनन्दन स्वीकार किया और बैठक के एक कोने में दीवार की ओर मुँह कर करवट ले कर सो गये। धराशायी होते ही गौरदा को निद्रा ने घेर लिया।
सुबह सात बजे राजधानी के क्षितिज पर उभरते सूरज की गुनगुनी किरणें खिड़की की जाली से छन-छन कर गौरदा को जैसे दुलार कर जगा रही थीं। गौरदा ने करवट बदलने का प्रयास किया। दुःखते शरीर ने प्रतिरोध किया। नींद उचट कर कच्ची हो गयी। गौरदा कच्ची नींद में स्वप्न देखने लगे-
गौरदा के पुश्तैनी चार तल्ले के मकान में होली की बैठक जमी है। दस-ग्यारह साल का नन्हा गौरी कमरे के बीचो-बीच कालीन पर बैठे पूरे आँचलिक लटके-झटके के साथ बुज़़ु़र्ग होलियारों की तरह होली गा रहा है। बड़दा तबला बजा रहा है। श्रोतागण बड़े ध्यान और कौतूहल के साथ गौरी  की हैरतअंगेज़ गायकी का मज़ा ले रहे हैं।
तभी बरामदे वाले दरवाजे़ से गौरदा के दिवंगत पिता झक्क सफेद कुर्ता-धोती में शाल लपेटे कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके पीछे-पीछे व्हील चेयर में सफेद कपड़े पहने कृषकाय बड़दा भी हैं। नन्हा गौरी गाना छोड़ कर उठता है और दोनों के पैर छू कर पूछता है, ‘बौज्यू तुम? तुम तो परके साल मर गये थे ना? और बड़दा! तुम इतने बूढ़े और कमज़ोर क्यूँ लग रहे हो?’
दोनों बुजुर्ग कोई जवाब न दे कर उसकी ओर स्नेह के साथ आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाते हैं।
पहेली जैसा स्वप्न अभी चल ही रहा था कि नन्हे गौरी को दूर से किसी स्त्री के करुण विलाप का स्वर सुनाई देता है। गौरी पूछना चाहता है कि स्त्री के रोने की आवाज़ कहाँ से आ रही है? तभी गौरी को लगता है कि कोई स्त्री करुण क्रन्दन करते-करते उसके बिल्कुल समीप आ गई है। वो उसे पहचानने की कोशिश करता है। ठीक इसी समय गौरदा की नींद खुल जाती है।
गौरदा आँख खोल कर देखते हैं कि उनकी बहन कुसुम ज़ोर-ज़ोर से विलाप करती हुई उन्हें जगा रही है।
गौरदा….ऽ…ऽ..ऽ! गजब हो गया! बड़दा नहीं रहे। रात मौत हुई। अभी-अभी खबर आयी है।
गौरदा को वस्तुस्थिति को अपने स्नायु तन्त्र में जज़्ब करने में थोड़ी देर लगी। थोड़ी देर तक वो कुछ न बोले और सोचते रहे। फिर उन्हें बड़दा का खेल समझते देर न लगी। रात उन्हें होली गाते रहने का संदेश भिजवाना और सुबह मौत की सूचना मिलना। उन्होंने अनुमान लगाया कि जब उन्हें बड़दा का रात संदेश मिला था लगभग उसी समय बड़दा की मौत हुई होगी। गौरदा अपार दुख में डूब गये। मन में गहरी हूक उठी। ओ बड़दा! तूने ऐसा क्यों किया? आखि़री समय मुझे दूर कर दिया।गौरदा की आँखों से अनायास अविरल आँसू झरने लगे। उन्होने आँसुओं को रोकने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया। कुसुम ज़ोर-ज़ोर से विलाप किये जा रही थी। किशोरदा मौन खड़े थे। बस एक ही बात गौरदा को तसल्ली की लग रही थी कि उन्हें यह महसूस हो रहा था कि इस पूरे प्रकरण में बड़दा का सहमति भरा हाथ है, और उन्हें अपराधबोध से ग्रस्त होने की कोई आवश्यकता नहीं। गौरदा अब उठ कर बैठ चुके थे। पूरी घटना उनके मन में जज़्ब हो चुकी थी। कुछ पूछना समझना बाक़ी न था। उन्होंने बैठक में नज़र दौड़ाई। रात सोने वाले जा चुके थे। केवल हरीश बचा था। उसने गौरदा से एक बार नज़र मिलाई, फिर नज़र झुका कर धीरे से सीढ़ी से बाहर उतर गया।
गौरदा थोड़ी देर सोचते रहे फिर उठ कर सीधे बाथरूम की ओर लपके। बाथरूम के शीशे में उन्हें अपना चेहरा और बाल गुलाल से रंगे नज़र आये। उधर बड़दा की मौत, इधर गुलाल की छटा! आह! कैसी दारूण विडम्बना है!गौरदा ने सोचा और घुटी-घुटी आवाज़ में बड़दा ऽ ऽ! बड़दा ऽ ऽ!कह कर सीने पर हाथ रख कर फफक पड़े।
     ×       ×       ×     ×       ×       ×       ×     ×  
      
लगभग 30-31 वर्ष पश्चात् गौरदा कुमाऊँ की पहाड़ियों में बसे अल्मोड़ा शहर के अपने चार तल्ले के पुश्तैनी मकान के सबसे ऊपर के मुख्य सड़क से लगे कमरे में बीमारी और वृद्धावस्था से अशक्त पड़े हैं। पिछले दो-तीन महीनों से शरीर की ऊर्जा जैसे शनैः-शनैः समाप्त होती जा रही है। फाग का महीना चल रहा है। आधी खुली खिड़की से बासंती हवा कमरे में प्रवेश कर गौरदा के नथुनों में भर जाती है। ठण्ड के बावजूद गौरदा इस चिरपरिचित बयार को मन ही मन सलाम करते हैं। बरसों का नाता जो ठहरा। गौरदा की आवाज़ अशक्तता के कारण बैठ चुकी है। इस बार वे मन ही मन होलियाँ गा रहे हैं। मन बार-बार हुलस जाता है।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अल्मोड़े में होली की बैठकों का भूत लोगों के सिर पर सवार है। हर रात कहीं न कहीं होली की बैठक होती ही है। पुराने होलियार इन दिनों गौरदा से लगभग रोज़ ही मिलने आते हैं। ये होलियार इन दिनों हो रही बैठकों की उनसे चर्चा करते है।
गौरदा का इकलौता लड़का सुहास इन दिनों उनकी सेवा में दिनरात लगा रहता है। गौरदा के लाख समझाने पर भी वो इस वर्ष होली की बैठकों में कहीं गाने नहीं गया। जबकि वह भी होली गायकी का एक समर्पित कलाकार था। उसका कहना था, ‘बाबू! डॉक्टर ने कहा है कि आपको अधिक देर के लिये अकेला न छोड़ा जाय। अब होली की बैठक में गया तो फिर आप जानते ही हैं-वहाँ समय-सीमा का कोई मतलब नहीं रह जाता। रात को किसी बैठक में जाओ तो सुबह ही दिखाई देती है इससे अच्छा है कि जाओ ही मत। अपने प्रति पुत्र के त्याग और प्रेम को देख कर गौरदा का दिल भर-भर आता था। पर वो पुत्र की दलीलों के आगे चुप रह जाते।
दूसरे दिन छरड़ि थी, यानी रंग खेलने का दिन। आज गौरदा यद्यपि कुछ अधिक अशक्त महसूस कर रहे थे पर अन्दर से उनका मन काफी उल्लसित था। आज उनके बगल वाले मकान में होली की बैठक होनी है। होलियार शाम से ही होली की बैठक में जाने से पहले उनके पास हाज़िरी देकर हाल-चाल पूछ कर उनका आशीर्वाद लेकर जा रहे थे।
गौरदा को इसी बात की टीस थी, कि उनका लड़का इस बार फाग में अपना गला एक बार भी नहीं गरमा पाया है। गौरदा का लड़का उन्हीं की तरह होली गायकी का दीवाना था। उसमें प्रतिभा भी थी। गौरदा चाहते थे कि उनका लड़का उन्हीं की तरह होली गायकी में जो अनिवर्चनीय अलौकिक आनन्द है, सुख है, उसका जीवन भर लाभ ले। पर इस बार उनका लड़का उनकी बीमारी की वजह से फाग की मस्ती में डूब नहीं पाया था।
गौरदा से मिलने के लिए आने-जाने वालों का सिलसिला थम चुका था। शाम के सात बजे थे। गौरदा झपकी ले रहे थे। तभी कमरे के दरवाजे़ का पल्ला खुलने की आवाज़ ने उन्हें जगा दिया। उनका लड़का सुहास था।
 बाबू! कैसे हो? ठीक लग रहा है?’ सुहास ने पूछा।
बिल्कुल ठीक! आनन्द हो रहा है! बल्कि आज तो कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा है। मिलने-जुलने वाले भी आये थे। पड़ोस में होली की बैठक है ना।
वही मैं भी कह रहा था बाबू! अगर तुम्हें ठीक लगता है तो मैं एकाध घंटे के लिये होली में बैठ आता हूँ। कहीं दूर तो जाना नहीं है। बिष्टजी बड़ा निहोरा कर रहे थे। नीचे आंगन में मिले थे।
गौरदा को तो मानो, मन माँगी मुराद मिल गयी। वो तो ऐसा चाहते ही थे। झट से मुस्करा कर बोले-भाऊ! यही तो मैं भी चाह रहा था। बिष्टजी मेरे पास भी आये थे। उनका कहना था कि उनके घर पर बैठक में आज की रात तू मेरी जगह भरेगा। जा! जा! अब देर न कर।
थोड़ी देर सुहास पिता के बगल में बैठ कर बात करता रहा, फिर उठकर पड़ोस में चला गया। लड़के के होली की बैठक में जाने के बाद गौरदा ने असीम शान्ति का अनुभव किया। संतोष की आभा उनके म्लान मुख पर तिर गयी।
कच्ची नींद में गौरदा स्वप्न देखते हैं- बचपन के बड़दा अकेले, हारमोनियम की धौंकनी को पैर से धकेल कर स्वर देते हुए तबला मिला रहे हैं। बड़दा की कठिनाई को आसान करने के निमित्त नन्हा गौरी बरामदे से चिल्ला कर कहता है, ‘बड़दा! रूको! मैं आता हूँ सुर देने। नन्हा गौरी हारमोनियम के स्वर सापर अंगुली रखकर धौंकनी चलाता है। पर ये क्या? हारमोनियम से कोई ध्वनि नहीं निकलती। नन्हा गौरी बेचैन हो उठता है। गौरदा बेचैनी में नींद से जागते हैं।
पड़ोस के मकान के निचले तल्ले से होली गाने की हल्की-हल्की पर स्पष्ट आवाज़ आ रही है। गौरदा इस कंठ को अच्छी तरह पहचानते हैं। उनका लड़का सुहास गा रहा है। बिल्कुल वैसा ही जैसा वे स्वयं गाते थे। बन्दिश सूफियाना थी, और करूण राग में निबद्ध थी।
कर ले श्रृंगार चतुर अलबेली,
साजन के घर जाना होगा।
माटी ओढ़न माटी बिछावन
माटी का सिरहाना होगा
पुत्र के कंठ से सुमधुर स्वर में होली सुनते-सुनते गौरदा की आँखें आनन्द मग्न हो कर बन्द हो जाती हैं।
तभी पत्नी की आवाज से उनकी तन्द्रा टूटती है।
लो दवा खा लो। सुहास तो होली की बैठक में चला गया। जाते-जाते कह गया कि दस बजे बाबू को दवा दे देना।
दवा हाथ में लेते हुए गौरदा ने स्नेह से अपनी पत्नी की ओर देखा। बीते बरसों का सुख-दुःख का साथ एक मिश्रित भाव बन कर उनके दिल और दिमाग़ पर छा गया। एकदम भोली निर्मल स्त्री, जिसकी निश्छलता के आगे सभी नाते-रिश्तेदार निःशस्त्र होकर समर्पण कर देते थे। गौरदा का मन पत्नी के प्रति स्नेह से लबालब भर आया। मन में भावना का एक ज्वार उठा। एकाएक वो अपने को अधिक अशक्त महसूस करने लगे। उन्हें झूम सी आ गयी। तन्द्रा में वे देखते हैं- इतिहास की किताब लेकर गौरी रज़ाई में दुबका बैठा है। बड़दा हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ़’, के माने समझा रहे हैं। गौरी ध्यान से सुन रहा है। गौरदा की तन्द्रा टूटती है। दार्शनिक अंदाज में पत्नी से पूछते हैं-
तूने इतिहास पढ़ा है? इतिहास?’
मैनें? क्यूँ मजाक करते हो इस उमर में? तेरह साल की थी, छठवीं क्लास में पढ़ती थी, जब तुम ब्याह लाये थे। आगे फिर पढ़ाया तुमने?’
जानती है? इतिहास अपने को दोहराता है।
तो मैं क्या करूँ? दोहराता रहे। खूबऽऽऽब दोहराता रहे। मुझे इससे क्या फरक पड़ने वाला। कोई ऐसी बात बताओ जो मुझसे मतलब रखती हो।
गौरदा का गला भर आता है।
पगली है तू! नहीं समझेगी। मैंने कभी कोई ऐसी बात तेरे से की, जो तुझसे मतलब न रखती हो? ख़ैर! भगवान तुझे ख़ुश रखे।
पत्नी उन्हें ओढ़ा कर चली गई। गौरदा के यही आखिरी शब्द थे।
सम्पर्क-

71बी/2बी, कमलानगर,

स्टेनली रोड, इलाहाबाद-211002
मो. नं. -91-9450595197

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

शिरोमणि महतो की कविताएँ


शिरोमणि महतो

जीवन-वृत
नाम – शिरोमणि महतो
जन्म – 29 जुलाई 1973
शिक्षा – एम. ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष
सम्प्रति – अध्यापन एवं ‘‘महुआ‘‘ पत्रिका का सम्पादन
प्रकाशन – ‘कथादेश’,हंस’,कादम्बिनी’,पाखी’,वागर्थ’,परिकथा’,कथन’,समकालीन भारतीय साहित्य’,समावर्तन’,द पब्लिक एजेन्डा’,सर्वनाम’,जनपथ’, युद्धरत आम आदमी’,शब्दयोग’,लमही’,   नई धारा’,  पाठ’,पांडुलिपि’,  अंतिम जन’,  कौशिकी’,  दैनिक जागरण’, पुनर्नवा विशेषांक,दैनिक हिन्दुस्तान’, जनसत्ता विशेषांक’, छपते-छपते विशेषांक’,राँची एक्सप्रेस’, प्रभात खबर’ एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
रचनाएँ – ‘उपेक्षिता’ (उपन्यास) 2000; ‘कभी अकेले नहीं’ (कविता संग्रह) 2007;         ‘संकेत-3’ (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका) 2009; ‘भात का भूगोल’       (कविता संग्रह) 2012 प्रकाशित।
करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।
सम्मान – कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
        डॉ रामबली परवाना स्मृति सम्मान
        अबुआ कथा कविता पुरस्कार
        नागार्जुन स्मृति सम्मान 

यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसमें तमाम ऐसे लोगों की भूमिका है जो परदे के पीछे रह कर काम करने के आदी रहे हैं। ऐसे लोग विरक्ति की हद तक अपने नाम को उजागर करने से बचते हैं प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत की तमाम उम्दा कलाकृतियाँ इस की गवाह हैं जिस पर कहीं भी इसको बनाने वाले का नाम नहीं मिलता ‘अनुवादक’ की भूमिका भी कुछ इसी तरह की होती है। हालांकि किसी भी रचना का अनुवाद अपने आप में एक बड़ा रचनात्मक कार्य है इसके बावजूद रचना के अनुदित होने पर जो चर्चा कृतिकार की होती है वह चर्चा अनुवादक की प्रायः नहीं हो पातीकवि शिरोमणि महतो की नजर ऐसे लोगों पर जाती रहती है और वे इन्हें अपनी कविता का विषय बनाते रहे हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि शिरोमणि महतो की कविताएँ   
शिरोमणि महतो की कविताएँ
चाँद का कटोरा
बचपन में
भाइयों के साथ
मिल कर गाता था-
चाँद का गीत
उस गीत में
चंदा को मामा कहते
गुड के पुआ पकाते
अपने खाते थाली में
चंदा को परोसते कटोरे में
कटोरा जाता टूट
चंदा जाता रूठ।
उन दिनों
मेरी एक आदत थी-
मैं अक्सर अपने आंगन में
एक कटोरा पानी ला कर
कटोरे के पानी में
-चाँद को देखता
बडा सुखद लगता –
कटोरे के पानी में
चाँद को देखना
मुझे पता हीं नहीं चला
कि चंदा कब मामा से
कटोरा में बदल गया……?
तब कटोरे के पानी में
चाँद को देखता था
अब चाँद के कटोरा में
पानी देखना चाहता हूँ ….!
अनुवादक
मूल लेखक के
भावों के अतल में
संवेदना के सागर में
गोते लगाते हुए
अर्थ और आशय को
पकडने की कोशिश
करता है – अनुवादक
कहीं किसी शब्द को
खरोंच न लग जाये
या किसी अनुच्छेद का
रस न निचुड़ जाये
इतना सतर्क और सचेत
रहता है हरदम – अनुवादक
तब जा के सफल होता
अनुवादक का श्रम
श्रेष्ठ सिद्ध होता अनुवाद
अब अनुदित कृति पर
हो रहे खूब चर्चे
मानो मूल लेखक के
उग आये हों पंख
छू रहा आसमान।
मंच पर बैठा मूल लेखक
गर्व से मुस्करा रहा
फूले न समा रहा –
पाकर मान-सम्मान
और दर्शक-दीर्घा में बैठा:
अनुवादक तालियाँ बजा रहा…!
चापलूस
वे हर बात को ऐसे कहते जैसे –
लार के शहद से शब्द घुले हों
और उनकी बातों से टपकता मधु
चापलूस के चेहरे पर चमकती है चपलता
जैसे समस्त सृष्टि की ऊर्जा उनमें हो
वे कहीं भी झुक जाते हैं ऐसे –
फलों से लदी डार हर हाल में झुकती है:
और कही भी बिछ जाती है मखमल-सी उनकी आत्मा!
चपलूसों ने हर असंभव को संभव कर दिखया है
उनकी जिह्वा में होता है मंत्र- खुल जा सिम-सिम
और उनके लिए खुलने लगते हैं- हर दरवाजे
अंगारों से फूटने लगती है- बर्फ की शीतलता
चापलूस गढें हैं- नई भाषा नये शब्द
जरूरत के हिसाब से रचते हैं- वाक्जाल
जाल में फंसी हुई मछली भले ही छूट जाये
उनके जाल से डायनासोर भी नहीं निकल सकता
उनके बोलने में, चलने में, हँसने में, रोने में
महीन कला की बारीकियाँ होती हैं
पतले-पतले रेशे से गँढता है- रस्सा
कि कोई बंध कर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता
चापलूस बात-बात में रचते हैं- ऐसा तिलिस्म
कि बातों की हवा से फूलने लगता है गुब्बारा
फिर तो मुश्किल है डोर को पकडे रख पाना
और तमक कर खडे हो उठते है निति-नियंता
यदि इस धरती में चापलूस न होते
तो दुनिया में दम्भ का साम्राज्य न पसरता!
 
रिहर्सल
दुनिया के रंगमंच पर
जीवन का नाटक होता है
जो कभी दुखांत होता
तो कभी सुखांत भी होता है …
किन्तु, इस नाटक में
कैसा अभिनय करना है?
कौन सा संवाद बोलना है?
कौन-सा गीत गाना है?
कितना हँसना है?
कितना रोना है?
कुछ भी पता नहीं होता…
कल क्या होगा?
आज क्या होगा?
पल भर बाद क्या होगा?
कुछ भी पता नहीं होता
सब कुछ – अनिश्चित-अज्ञात
जीवन जीने का रिहर्सल नहीं होता
और न ही रि-टेक होता है …
सौ साल का जीवन भी आदमी
बिना रिहर्सल के जीता है!

दरिद्र
भला मैं तुम्हें क्या दे सकता
मैं दरिद्र कुछ भी तो नहीं मेरे पास
हाथ बिल्कुल खाली कुछ दोषयुक्त रेखाएँ
जो भविष्य की भी आस बंधाता
माथे में असंख्य बाल मगर बेकार
ऐसे में दिन हमारे कटेंगे कैसे साथ
पेट भरने को रोज कितना लहू पानी बनाता
और खोदता चुँआ तो कंठ भिगोता
गालों के कोटर में पसीने की बास
थोडा भी मांस नहीं-अस्थियों का आवरण
गले भी लगाऊँ तुम्हे तो होगे हतास
दुःखेंगे बदन के पोर-पोर
अब तुम्हीं करो निर्णय क्या करना है
गले की हड्डी उगलना है या निगलना!
हिजड़े
न नर है न मादा बीच का आदमी
उसने जीवन में कभी नहीं जाना-
सहवास के अंतिम क्षणों का तनाव
न गर्भ-धारण के बाद की प्रसव-पीड़ा
अक्सर लोकल ट्रेन में वे मिल जाते
दोनों हथेलियों को पीटते- चौके छक्के लगाते
शायद इसीलिए लोग उन्हें कहते भी हैं –छक्के
लोगों को रिझाने के लिए उनसे पैसे निकलवाने को
अजीब-अजीब हरकतें करते – भाव भंगिमा दिखाते
कभी साडी उठा युवाओं को ढँकने लगते
तो कभी सलवार-समीज खोलने का ड्रामा
बांकी चितवन चमकाते -छाती के उभारो को मटकाते
कुछ लोग रिझते दस-बीस रूपये दे भी देते
कुछ खीझते और दो-चार गालियाँ भी देते
वे भी प्रत्युत्तर देना भली-भाँति जानते
खुश हुए तो सारा-वारा-न्यौरा’ कर देते
वरना मुँह बिचका कर भाव-भंगिमाओं से मजाक उड़ाते
कौन जाने उनकी नियति ऐसी क्यों हुई
किसी देवता का श्राप या पूर्वजों का पाप
जिसका वे ज्यादातर समय करते परिहास
जो भी हो इसके लिए वे तो दोषी नहीं
शायद इसीलिए वे करते रहते हैं- मनुष्यता का उपहास!
डेढ बजे रात
अभी डेढ बजे रात
मैं जगा हुआ
और बल्ब जला हुआ है
मैं खाट पर लेटा-लेटा
देख रहा हूँ –
चूहे किस कदर
भूख से बिलबिला रहे हैं…..
आज करवा-चौथ की रात
कार्तिक का महीना
मेरी पत्नी और बेटी सोई हुई
और मैं घंटा भर से देख रहा
चूहे किस कदर बिलबिला रहे हैं….
चूहे भूखे कभी इधर-उधर दौडते
कभी खाली डब्बों का टटोलतें
कभी कागज को कुतरते-खाते
मुँह में बन जाता – झाग
मन कसेला कर देता स्वाद
यह वो समय है-
जब बीटे झडे दडाम खाली
घर में अनाज बिल्कुल नहीं
वैसे अधिकतर घरों में नहीं होता
लोग खरीद-खरीद कर खाते हैं…
जिसे डब्बों टिनों में बन्द रखते है
अभाव में भाव समझ में आता है!
आजकल चूहे ज्यादा मर रहे हैं
शायद भूख से मर रहे है….
खेतों में धान रस भर रहे हैं
अभी दाने भरने में समय लगेगा
तब तक इसी कदर
चूहों को बिलबिलाना होगा
माटी कागज साबुन खा कर जीना होगा…!

 

स्कूटी चलाती हुई पत्नी
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
किसी मछली-सी लगती है
जो आगे बढ रही है-
समुन्दर को चीरती हुई
और मेरे अंदर
एक समुन्दर हिलोरने लगा है
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
लोग उसे देखते हैं-
आँखे फाड़-फाड़ कर
गाँव की औरते ताने कसती हैं-
मैडम, स्कूटी चलाती है,
भला कहाँ की जैनी’ स्कूटी चलाती है?’
स्कूटी चलाती हुई
मेरी पत्नी को देख कर
औरतों की छाती में सांप
मर्दो के ह्रदयमे हिचकौले….
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
मेरी माँ बेचैन रहती है-
देखती रहती- उसका रास्ता
कि- कब लौटेगी वह
कहीं कुछ हो न जाये!
मेरी पत्नी ने बहुत मेहनत से
सीखा है- स्कूटी चलाना
उसने कभी साईकिल नहीं चलाई
उसके लिए स्कूटी चलाना कठिन था
और उससे भी ज्यादा कठिन था
अपने भीतर के डर को भगाना-
जो सदियो से पालथी मारे बैठा था!
अब तो
मेरी पत्नी के हौसले बुलंद हैं
माप लेने को-देस दुनिया
पंख उग आये-उसके पावों में
पत्नी स्कूटी चलाती है-
अपने मन की गति से
अब मैं उस के पीछे बैठ कर
देख सकता हूँ-देस-दुनिया!
इस जंगल में
पलाश के फूलों से
लहलाहाते इस जंगल में
महुए के रस से सराबोर
इस जंगल में
कोई आ कर देखे-
कैसे जीते है-जीवन
आदिमानव-आदिवासी!
जिनके लिए जीवन
केवल संघर्ष नहीं
संघर्ष के साज पर
संगीत का सरगम है
और कला का सौन्दर्य
उनके बच्चे खेलते कित-कित
गुल्ली डंडा दुबिया रस-रस
और चुनते लकड़ियाँ
तोड़ते पत्ते-दतुवन
जिसे बाजार में बेच कर
वे लाते-नमक प्याज और स्वाद
अब जब पूरा विश्व
एक ग्राम में बदल रहा है
इस जंगल की फिजाओ में
बारूद की गंध भर रही है
कोरइया के फूल खिलते
वन प्रांत इंजोर हो जाता है
चाँदनी उतर आती है- प्रांतर में
सहसा भर जाता-धमाकों का धुआँ
दम धुटने लगता- इस जंगल में
खिलते हुए पलाश के फूल-से
जंगल में आग लहक उठती है
महुए के फूल से चू रहा-
घायल पंडुक का रक्त
मांदर की थाप पर
थ्री नॉट थ्री की फायरिंग
सिहर उठता समुचा जंगल
खदबद करते पशु-पक्षी
कोयल की कूक, पंडुक की घू-घू चू
सुग्गे की रपु-रपु, पैरवे की गुटरगू
बंदर की खे-खे, सियारो का हुआँ-हुआँ
सात सुरों व स्वरो को घोट रही
छर्रो की सांय-सांय, गोलियों की धांय-धांय
शहर वाले कहते हैं-
जंगल में मंगल होता है
फिर इस जंगल में क्यो
फूट रहा मंगल का प्रकोप!
इसके लिए दोषी है कौन
पूछ रहे सखुए शीशम के पेड
सरकार है मौन-संसद भी मौन!
पिता की मूँछें
पिता के फोटो में
कडप-कडप मूंछे हैं
पिता की मूंछे
ऊपर की ओर उठी हुई हैं….
शुरू से ही पिता
कडप-कडप मूंछे रखते थे
जिसकी नकल कई लोग किया करते थे
पिता बीमार पडते
उनका शरीर लत हो जाता
पीठ पेट की ओर झुक जाती
लेकिन उनकी मूंछे उपर की ओर उठी-हुई
उनकी मूछों की नकल कर
लोग मुझे चिढाते
मैं खीझ कर रोता
और सोचता-
पिता मूंछे कटवा क्यो नहीं देते?
उनके लिए
क्या थीं- मूंछे?
कोई नहीं जानता
मेरी माँ भी नहीं
शायद पिता भी नहीं….!
मैंने उन से कभी नहीं कहा-
मूंछे कटवाने को
मालूम नहीं
कभी माँ ने कहा भी या नहीं
कभी-कभी देखता-
पिता मूंछों को सोटते हुए
उन्हे ऐंठते हुए
बडे निर्विकार-निर्लिप्त लगते
एक बार मेले में
पिता के साथियों की
कुछ लोगों से लड़ाई हुई
पिता लाठी ठोकते हुए
मूंछों पर ताव देने लगे
लडाई करने वाले
दुम दबाके खिसक गये
यह कहते हुए कि-बाप रे बाप
कडप-कडप मूंछ वाला मानुष!
फिर क्या –
पूरे इलाके में
पिता की मूछों की धाक जम गई
पिता को मूछों से
कभी कोई शिकायत नहीं रही
उन्होंने चालीस साल
मुंछो को सोटते हुए काटे….
दुखों को चिढाते हुए….
पिता नौकरी से निवृत्त हुए
और गुमसुम-गुमसुम रहने लगे
दूर क्षितिज को ताकते
घण्टों मूछों को सहलाते-चुपचाप
और एक दिन
बिना कुछ बोले
पिता ने मूंछें कटवा लीं…..
अब मैं रोज ढूँढता हूँ-
पिता के चेहरे पर-पिता की मूंछे!
बंदरिया
अपने मालिक के इशारे पर
नाचती है बंदरिया
करती- उसके इशारों का अनुगमन
जैसे कोई स्त्री करती है –
अपने पुरुष के आदेशों का पालन।
बंदरिया के गले में लगा सीकड़
खींचता बंदरिया वाला
हांथ में डंडा लिए उसे नचाता
उछल-उछल नाचती बंदरिया
जैसे वह समझती है- सब कुछ
अपने मालिक की बातों को इशारों को
डंडे की मार खाने से बचती:
और वह नाचती…..
बंदरिया वाला गाता-
‘‘असना पातेक दोसना
कोरठया पातेक दोना।
दोने-दोने मोद पीये
हिले कानेक सोना।।
बंदरिया मोद पीने का अभिनय करती
अपने कानों को पकडती
जैसे सचमुच उसके कानों में हो
-सोने की बाली।
बंदरिया वाले के डंडे के इशारे पर
वह नाचती रूठती रोने का स्वांग करती
जिसे देख कर- सभी खुश हो रहे –
बच्चे, बूढे, जवान और औरतें
औरतें तो ज्यादा खुश:
वे खिलखिला कर हँसती हैं-
देख कर अपने ही- दुःख का स्वांग!

पानी
पानी खीरे में होता है
पानी तरबूजे में होता है
पानी आदमी के शरीर में होता है
धरती के तीन हिस्से में पानी ही तो है…..
हम पानी के लिए
अरबों-खरबों खरच रहे
धरती-आकाश एक कर रहे
हम तरस रहे-
अंतरिक्ष में बूंद भर पानी के लिए
शायद कहीं अटका हो- बूंद भर पानी
किसी ग्रह की कोख में
किसी नक्षत्र के नस में
या आकाश के कंठ में
पारे-सा चमक रहा हो- पानी!
पानी जरूरी है
चाँद पर घर बनाने के लिए
चाँद पर सब्जी उगाने के लिए
चाँद पर जीवन बसाने के लिए
जिस दिन मिलेगा-
बूंद भर पानी
मानो हमने पा लिया –
आकाश-मंथन से – अमृत!
सम्पर्क
नावाडीह, बोकारो,
झारखण्ड – 829144
मोबाईल – 09931552982 
(इस पोस्ट में वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की पेंटिंग्स प्रयुक्त की गयी हैं.)

अनिल कुमार सिंह का आलेख ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता’

मुक्तिबोध


मध्यवर्गीय विडम्बनाओं को देखने-पहचानने के लिए आपको जरुरी तौर पर मुक्तिबोध के पास जाना पड़ेगा। उनके लेखन के गहन आशय हैं। जीवन की तल्ख़ अनुभूतियाँ हैंयह वर्ष मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। हमारी कोशिश है कि इस महाकवि को याद करते हुए हर माह कम से कम एक आलेख ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत किया जाए कवि अनिल कुमार सिंह ने मुक्तिबोध की कविता के बहाने से एक आलेख लिखा है। आज इसी क्रम में पहली बार पर पढ़िए अनिल कुमार सिंह का यह आलेख – ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ : मुक्तिबोध की कविता’  
    

जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता

अनिल कुमार सिंह
मुक्तिबोध की अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता है मैं तुम लोगों से दूर हूँ। यह डायरी शैली में लिखी कविता है, जिसे पढ़ते हुए एक साहित्यिक की डायरीके आत्मपरक, सुचिन्तित निबन्धों की याद सहज ही आ जाती है। फिर भी यह गद्य नहीं है। गहन आशयों से लैस यह कविता मुक्तिबोध की एक नागरिक और कवि के रूप में बेचैनियों का सख्त दस्तावेज़ है। निम्न मध्य वर्गीय जीवन की  विसंगतियाँ जहाँ व्यक्ति को तोड़ देती हैं, वहीं इसी उर्वर जमीन से नए आदर्श एवं बदलाव की आकांक्षाओं के अंकुर भी फूट निकलते हैं। यह काँपता हुआ आत्मविश्वास अपनी अकिंचनता और पार्थिवता में भी मुक्ति के सपने दिखा जाता है। आकस्मिक नहीं कि मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ उनकी स्वप्न-कथाओं का ही विस्तार लगती हैं। निम्नवर्गीय मानवीय जीवन के रक्ताल’, भयावह यथार्थ को उसके नंगे रूप में प्रस्तुत करने को मुक्तिबोध कला नहीं मानते, ‘‘अपने को पीसने वाली परिस्थितियों और प्रवृत्तियों को उनके नंगे पाशविक रंग में पेश मत करो। यह कला नहीं है।’’1 इसीलिए उनकी काव्य अभिव्यक्ति में जीवन संघर्ष का यथार्थ उनकी कलात्मक अभिरुचि से रगड़ खाता ही रहता है। इस प्रक्रिया में विचार स्फुलिंग’ ‘चकमक की चिंगारियोंकी तरह हवा में उड़ते रहते हैं। मुक्तिबोध अपनी शब्दावली में इसे संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं। यहाँ संवेदना और ज्ञान का संतुलन है। यह ज्ञान सहज हासिल नहीं है, बल्कि शमशेर के शब्दों में ‘‘भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को अनथक गहरे’’2 खोदते हुए मिला है।
विचार स्फुलिंगो से मुक्तिबोध की कविता बनती है। उसका अपना अँगूठा स्थापत्य है जो किसी भी दूसरे की तरह नहीं है। उसमें व्यक्त यथार्थ सबका है किन्तु उसकी सबसे प्रामाणिक और सशक्त अभिव्यक्ति मुक्तिबोध ही संभव कर पाये हैं; वह जमीनी है, ठोस है, पथरीली घाटी में बहती नदी का शोर तथा व्याप्ति है उसमें। पहाड़ के अनगढ़, भारी भरकम पत्थरों की तरह बिम्ब और प्रतीकों का मूल सन्दर्भ उनका अपना ही जीवन और परिवेश है। इसीलिए वह अर्थ से इतना प्रदीप्त है कि पाठक को सहज ही अपनी रौ में बहा लिए जाता है। शमशेर के शब्दों में ‘‘वे बहुत जागे हुए होश के चित्र हैं।’’3 शब्द उसके बहाव में घिस कर एकदम सही जगह पर जम जाते हैं। इस कविता की जमीन मुक्तिबोध की जीवन स्थितियों की तरह ही उबड़खाबड़पन लिए हुए हैं। चूंकि यह भारतीय जीवन का यथार्थ है। इसलिए उस में हम अपनी शक्लें फौरन पहचान लेते हैं। मुक्तिबोध जैसे कवि की जटिल संवेदनाओं के साधारणीकरण का यही रहस्य है। वे हमारी अपनी बातें ही हमारे कान में फुसफुसाती हैं। हम उन्हें अनसुना करते हुए भी उनके बेचैन दंश को झेलते रहते हैं। कविता की मुक्ति व्यक्ति की मुक्ति से एकमेक हो जाती है। ये उड़ते हुए विचार स्फुलिंग जीवन की गहरी घाटियों में उतर कर हासिल किए गए अनुभव के प्रत्यक्षीकरण हैं।
मुक्तिबोध आजाद भारत के सबसे महत्वपूर्ण कवि एवं विचारक हैं। यद्यपि तारसप्तक का प्रकाशन 1943 में हुआ था और उसमें संकलित कविताएं उसी दौर की हैं; फिर भी मुक्तिबोध जैसे विचारक और कवि पर राजनैतिक, गुलामी का कोई दबाव नजर नहीं आता। इसमें साबित होता है कि जनचेतना राजनैतिक-आर्थिक दमन व गुलामी के दौर में भी अपनी कूबत और आजादख़्याली से लोगों का नेतृत्व कर सकती है। औपनिवेशिक या आज के दौर में पूंजीवादी और पुनरुत्थानवादियों के गठजोड़ द्वारा प्रायोजित फासिस्ट राजनैतिक दमन जनता को पस्तहिम्मत नहीं करते बल्कि वह ‘‘हठ इनकार का सिर तान…खुद मुख्तार’’ परिवर्तन और आजादी के संघर्ष की इक नई मुहिम में शामिल हो जाती है। 1942 के आंदोलन ने भारतीय अवाम की इस स्वातंत्र्य चेतना को एक नया तात्कालिक आत्मविश्वास दिया था। वह मानसिक रूप से स्वंतत्र हो चुकी थी; भले ही आजादी 1947 में मिली हो। यही दौर है जब मुक्तिबोध मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध पर इसका असर अलग तरीके से दिखाई पड़ता है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से ही वे देख रहे थे कि अंग्रेजी शासन के कमजोर पड़ते जाने के साथ ही देश में प्रतिगामी ताकतों का एक नया समूह उभर कर सामने आ रहा है। इस देशी बुर्जुवाजी का पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और दूसरी तरफ पुनरुत्थानवादियों से। एक तरह से कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को इस बुर्जुवा वर्ग का संरक्षण प्राप्त है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में इस वर्ग को जो संरक्षण विदेशी शासन से था वह आजाद भारत में कांग्रेस शासन से मिलने लगा। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का रूमानी समाजवाद अपनी अनथक कोशिशों के बावजूद इस प्रतिगामी बाढ़ को रोकने में उत्तरोत्तर निष्प्रभावी होता गया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बना उनका विराट नैतिक और सामाजिक व्यक्तित्व प्रतिरोध की एक क्षीण आवाज बन कर रह गया था। इसकी बड़ी वजह खुद कांग्रेस के भीतर मौजूद प्रतिगामी सोच की ताकतें ही थी। नेहरू की 1964 में हुई मृत्यु के बाद पार्टी के भीतर मौजूद इन प्रतिगामी ताकतों ने मुनाफाखोर पूँजीपतियों से समझौता करने में जरा सी देर न की। देश को आजाद कराने के संघर्ष के दौरान अर्जित उच्च नैतिक आदर्शों का स्थान कोटा परमिट राज ने ले लिया। यही मुक्तिबोध की रचनाशीलता का दौर भी है। आदर्शों के पतन तथा लूटखसोट के अंधेरे समय में मुक्तिबोध को मार्क्सवादी दर्शन में मुक्ति का रास्ता दिखाई पड़ा। लेकिन यह उनके लिए केवल फैशन के रूप में नहीं था, जैसा कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है ‘‘मुक्तिबोध ने एक व्यवस्थित विश्व-दृष्टि अर्जित करने के लिए गहन आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप मार्क्सवादी दर्शन को अपनाया था।’’4 कोई भी रचनाकार गहन आंतरिक संघर्षके बिना नये जीवनानुभवों से लैस नहीं हो सकता। इस आंतरिक संघर्ष के ताप पर तपे हुए निजी अनुभव अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाशते हैं। निजी अनुभवों की आत्मपरकता भी सार्वजनीन हो सकती है, व्यक्तिगत नहीं। इसीलिए वह पूरे समाज पर लागू होती है। क्यों कि ‘‘मुक्तिबोध अनुभूति की ईमानदारी को सुव्यवस्थित और अनुशासित करने वाली अनुभूति की सच्चाई को महत्वपूर्ण मानते हैं; इसलिए वे आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यपरायणताकी बात करते हैं।’’5 मुक्तिबोध के लिए व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेपहै। उनका मत है कि ‘‘हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी आत्मा है। आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है।’’6
आत्मा या आत्मपरकता वाली शैली की आड़ लेकर कुछ आलोचक मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी सिद्ध करने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन मुक्तिबोध को सावधानी से पढ़ने वाला पाठक जानता है कि यह आलोचकों का बौद्धिक विक्षेपमात्र है। मुक्तिबोध का जीवनानुभव उनके सौन्दर्य अनुभव से अभिन्न है। जीवनानुभवों से अर्जित दृष्टि कभी थोपी हुई नहीं रहती बल्कि अंतर का निजतेजस्व आलोकबन कर अभिव्यक्त होती है।

मैं तुम लोगों से दूर हूँ’, मुक्तिबोध की अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया तथा काव्य व्यक्तित्व की बनावट को समझने के भी महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन हुआ था। सप्तक के कवि प्रयोगशील होते हुए भी विचारों में गहरी मतभिन्नता लिए हुए थे। अज्ञेय स्वयं आधुनिकतावादी होने के साथ अंग्रेजी के कवि टी.एस. इलिएट के विचारों से प्रभावित थे। वे इलियट के प्रसिद्ध निबंध ^Tradition and Individiual Talent* से खास तौर पर प्रेरित थे। टी. एस. इलियट का मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति सीधे न होकर वस्तुनिष्ठ सम्बद्धताओं के जरिए होनी चाहिए। इसे वे कलाकार का व्यक्तित्व से पलायन ¼Escape From Personality½ कहते थे। अज्ञेय उनके कविता सम्बन्धी विचारों को हिन्दी में ला रहे थे। अज्ञेय की वैयक्तिक स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद एवं मुक्तिबोध के निज ¼Self½ में भारी अंतर है। आधुनिकतावाद से मुक्तिबोध भी प्रभाविात थे, किन्तु उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा का संबल मिल गया था। इसलिए मुक्तिबोध ने व्यक्तिवादी अनुभूति की ईमानदारी के भावगत तथा आत्मगत पक्ष का विरोध करते हुए कहा कि ‘‘अनुभूति की ईमानदारी का नारा देने वाले लोग, असल में, भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू, केवल आत्मगत पक्ष के चित्रण को ही महत्व दे कर उसे भाव-सत्य या आत्मसत्य की उपाधि देते हैं। किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है।’’7 मार्क्सवाद और आधुनिकतावाद का सबसे ज्यादा सधा हुआ संतुलन पूरे आधुनिक हिंदी साहित्य में हमें सिर्फ मुक्तिबोध में ही प्राप्त होता है। मार्क्सवादी विचारधारा को आलोक ने ही मुक्तिबोध को आधुनिकतावाद की आड़ में चल रहे शीतयुद्ध के प्रभावों को लक्षित कर लेने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने समझ लिया कि नयी कविता का व्यक्तिवाद, प्रगतिवाद तथा समाज-विरोधी है। नयी कविता के व्यक्तिवादी आभिजात्य में हाशिये पर पड़े लोग सिर्फ अन्य है। इस अन्य के अपने निजी कष्टों, जीवन संघर्ष का व्यक्तिवादियों के लिए कोई मूल्य नहीं है। इसी लिए मुक्तिबोध इन लोगों से खुद को अलगाते हुए लिखते हैं-
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।8
तुम्हारे और मेरे के बीच की यह खाई बढ़ती ही गई है। मुक्तिबोध के समय में इसके आशय कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। आज न्यस्त स्वार्थों के बैंड दल अपनी ही धुन पर थिरक रहे हैं। उन्हें किसी की परवाह नहीं; इसीलिए मुक्तिबोध की यह घृणा हमें बिलकुल असली और अपनी लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था ने नई कविता के व्यक्तिवाद को आज के सामाजिक विलगाव में बदल दिया है। हर कोई सिर्फ और सिर्फ अपना है। सबका अपना व्यक्तिगत संघर्ष है, एक तरफ पद और प्रतिष्ठा के लिए तो दूसरी तरफ रोटी के टुकड़े के लिए। अस्मिता की राजनीति ने कोढ़ में खाज का काम किया है। न्याय और अधिकार के सामूहिक संघर्षों की जगह जातियों और धर्म संप्रदायों के संघर्ष में ले ली है। लेकिन मुक्ति तो पीड़ितों के साहचर्य और सामूहिक संघर्ष में ही मिलने वाली है। इसलिए मुक्तिबोध का मैं अकेला नहीं महसूस करता। वह जानता है कि अपने लोगों के बीच चलते-फिरते साथके साथ-साथ साहचर्य का बढ़ा हुआ हाथ हमेशा उपस्थित रहता है। यह साहचर्य मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं और झूठ में डूबे लोगों के लिए गर्हित है; क्यों कि उनके लिए यह असुविधा उत्पन्न करता है। ईमानदारी और नैतिकता, सामान्य जन का साहचर्य किसी को भी दुनियावी अर्थ में अकेला और अभिशप्त बना सकती है। मुक्तिबोध को अनुभव है कि मध्यवर्गीय समझौतों की दुनिया से दूरी बना कर तथा पीड़ित और दुखियारे लोगों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उनका मैंदूसरों के सतत आघात के लिए निरापद हो गया है। यह आघात सार्वजनिक ही नहीं अकेले में भी हैं। क्योंकि हमलावर सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान से ही परिचालित नहीं है बल्कि वे हमारे अपने बीच के समझौतावादी लोग हैं। जनपक्षधरता और साहचर्य का जो अन्न-जल हमारे लिए जीवनदायिनी है वह उनके लिए किसी विष से कम नहीं। यह द्वन्द्व सिर्फ समाज में नहीं व्यक्ति के भीतर भी है; जहाँ अपने मध्यवर्गीय संस्कारों से लड़ कर मुक्ति पाने के संघर्ष में व्यक्ति लहूलुहान हो रहा है। दुश्मन भीतर भी हैं। इस संघर्ष में महाकाव्यात्मकता का औदात्य नहीं बल्कि गहरा टुच्चापन संगुम्फित है। इस झमेले से बाहर आने की व्याकुलता कवि को छलनी किए डाल रही है। मुक्तिबोध के लिए ‘‘सच्चा व्यक्ति-स्वातंत्र्य अगर किसी को है तो धनिक वर्ग को है, क्योंकि वह दूसरों की स्वतंत्रता खरीद कर अपनी स्वतंत्रता बढ़ाता है, और अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था-सम्पूर्ण समाज व्यवस्था का पदाधीश बन कर, प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः स्वयं या विक्रीता आत्माओं द्वारा अपने प्रभाव और जीवन को स्थायी बनाता है।9
मुक्तिबोध विक्रीता आत्माओं में बदल जाने से बेहतर असफल हो जाने को मानते हैं। छल-छद्म धनके चक्करदार जीनोंपर मिलने वाली सफलता के शीर्ष पर चढ़ने की बजाय वे जीवनकी सीधी-सादी पटरीपर दौड़ने में विश्वास रखते हैं लेकिन उन्हें हमेशा लगता है कि उनके प्रयास अपर्याप्त हैं। वे खिन्न होते हैं अपने कर्मों की सार्थकता पर भी-
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज कोई भीतर, चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता 10
    
जाहिर है कि ऐसे में जनसमाज की कर्मनिष्ठा भी अन्य हो जाती है। इससे बच निकलने की छटपटाहट या आत्म-संघर्ष ही हमें आगे ले जा सकती है, नए रास्ते दिखा सकती है। हम जैसे भी हैं उससे बेहतर होने की आकांक्षा ही हमें भविष्योन्मुख बना सकती है।
कवि को लगता है कि रेफ्रिजरेटरों, विटैमिनों तथा रेडियोग्रैमों की सुविधा के बाहर भी एक अलग दुनिया गतिशील है; जहाँ भूखी बच्ची मुनिया को माँ की छाती से भी खुराक नहीं मिलती। जहाँ चारों तरफ दिमाग को सुन्न कर देने वाली भयानक गरीबी तथा भूख है। इस नंगे यथार्थ में कवि महसूस करता है कि-
          शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
          शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम हैं
          सत्य केवल एक है जो कि
          दुःखों का क्रम है। 11
यह दुख सत्य है क्यों कि यह सबका है। उन सब का जिसे यह व्यवस्था अन्यसमझती आयी है। चूंकि यह दुख सबका और सत्य है इस लिए इससे बाहर ले जाने वाला रास्ता भी सबका होगा। इस रास्ते की तलाश कवि को खुद करनी  होगी। अपने मध्यवर्गीय सुरक्षित खोल से बाहर आ कर जन सामान्य में घुल मिल जाना होगा; वर्ना तो स्थितियाँ जस की तस ही रहेंगी-
          मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
          शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
          तेलिया लिबास में, पुर्जे सुधारता हूँ
          तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।12
सन्दर्भ:

1.   सड़क को लेकर एक बातचीत, एक साहित्यिक की डायरी, अप्रैल 1957
2.   भूमिका, शमशेर,चाँद का मुंह टेढ़ा है।‘
3.   वही।
4.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय
5.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजेर पाण्डेय. पृ. 228
6.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृ. 28
7.   एक साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृ. 133
8.   चाँद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृ. 133
9.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृष्ठ 179
10.  चांद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृष्ठ 121
11.  वही, पृ. 122
12.  वही, पृ. 122

अनिल कुमार सिंह

सम्पर्क –

मोबाईल – 08188813088










लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’।


लाल बहादुर वर्मा

भूमंडलीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक टर्म है जिसने समूची दुनिया को कई अर्थों में सीमित कर दिया है। इस आधुनिकता ने एक तरफ जहाँ दुनिया को एकरूप बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है वहीँ इसने कई दिक्कतें भी पैदा की हैं। कहना न होगा कि आज के ताकतवर और साम्राज्यवादी मानसिकता के देश इसका अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं। इन्हीं सन्दर्भों में इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि ‘साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए।’ पहली बार पर हम प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के आलेखों को श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनका यह आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’। 
भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
आजकल भूमंडलीकरण का प्रतिकार सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरोध से ज्यादा होता लग रहा है। तो क्या भूमंडलीकरण उसी श्रेणी की परिघटना है और उतनी ही जन विरोधी, ‘आउट ऑफ डेट’ और प्रतिकार्य? प्रायः समझा यही जा रहा है। पर यह गलत है।
क्या भूमंडलीकरण- सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की तरह गलत है और उसे भी सिद्धान्त और व्यवहार में नकारा जा सकता है? नहीं, कतई नहीं और यही समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण न तो पूरी तरह गलत है न तो चाह कर भी, सारी ताकत लगा कर भी, उसे समाप्त किया जा सकता है। ऐसा करना न केवल संभव नहीं, वांछित भी नहीं है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाजारीकरण आज के पूँजीवाद की प्रकृति को चिन्हित करने के सरलीकृत सूत्र मात्र है। यह सब तो पूँजी की प्रकृति में निहित है- जब से पूँजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ यह सब होता रहा है। आज भूंमडलीकरण का विशेष अर्थ पूँजी का भूमंडलीकरण है पर इतना ही कहना पर्याप्त नहीं। आज का पूँजीवाद पहले से अधिक जटिल, अधिक आक्रामक, अधिक ग्लैमराइज्ड, अधिक व्यापक तथा अधिक सूक्ष्म और सांस्कृतिक हो गया है और इसी लिए पहले से अधिक खतरनाक और इतिहास विरोधी हो गया है।
भूमंडलीकरण वास्तव में आधुनिकता की लाक्षणिकता है और आधुनिकता पूँजीवाद ही नहीं समाजवाद में भी चरितार्थ हुई है। इसलिए भूमंडलीकरण पूँजीवाद के लिए ही नहीं, समाजवाद के लिए भी अनिवार्य है। दूसरे, भूमंडलीकरण को न केवल रोका नहीं जा सकता, भूमंडलीकरण आर्थिक ही नहीं राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी चरितार्थ होता है और होगा ही। मुद्दा यह है कि वह किसके द्वारा किसके हित में कार्यान्वित होता है। तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भूमंडलीकरण और केन्द्रीयकरण न पर्यायवाची हैं न अनिवार्यतः पूरक। ऐसा भी भूमंडलीकरण संभव है जो विकेन्द्रीकरण और संघवाद (फेडरलिज्म) के सार को प्रोन्नत करे। समाजवादी भूमंडलीकरण का यही लक्ष्य होना चाहिए।
भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि विश्व संस्कृति का- अपने तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं के साथ, निर्माण नई विश्व व्यवस्था के साथ पिछले दशक में शुरू नहीं हुआ। वह पांच सौ वर्षों से जारी है।
उसकी गति विज्ञान और टेक्नालॉजी के विकास के साथ-साथ तेज होती गई है। शासक वर्ग की संस्कृति का वर्चस्व बनता-बढता गया है। आधुनिक काल के प्रारंभ में जब राष्ट्र-राज्य यूरोप में विकसित हुए, संस्कृति राष्ट्रीय होने लगी और सत्ता का चरित्र जब अन्तर्राष्ट्रीय हुआ तो संस्कृति भी अंतर्राष्ट्रीय हो गई। आज शासक वर्ग वैश्विक होता जा रहा है इसलिए बदनीयत और बाजारू शासकों की संस्कृति का वैश्वीकरण भी बाजारू और बनावटी है। नतीजे में संस्कृति के मर्म-सृजनशीलता और उदारीकरण का क्षरण उजागर होता जा रहा है।
एक एकांगी और विकृत भूमंडलीकरण के रू-ब-रू व्यक्ति-समुदाय-राष्ट्र सभी असहाय होते जा रहे हैं। स्थानीय, राष्ट्रीय और बाहुल (प्यूरल) यथार्थ के सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है।
पूँजीवाद के व्याख्याकार इसी भूमंडलीकरण को अनिवार्य ही नहीं निर्द्वन्द्व, सर्वशक्तिमान और रामबाण की तरह उद्धारक करार देने में लगे हुए हैं। सिद्धान्ततः ऐसी स्थिति में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता को अप्रासंगिक होते जाना चाहिए था। पर पूँजीवाद उसके पोषण को मजबूर है। आखिर क्यों? इस लिए जिस तरह से अपने इतिहास के सर्वोत्तम काल फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान सामन्तवाद से क्रान्तिकारी ढंग से सत्ता छीन लेने के बाद भी पूँजीवाद ने सामन्तवाद से समझौता कर लिया था और दो सौ वर्षों से उसे जिलाए रखे हुए है। उसे पता है कि सामन्तवाद की मौत हो गई तो मेहनतकशों से उसकी सीधी टकराहट होगी जिसे सम्भालना असंभव हो जाएगा। अभी तो सामन्ती संस्थाओं और संस्कारों में जकड़ा मेहनतकश भी व्यक्ति और वर्ग के रूप विभाजित रहता है और अपने नैसर्गिक शत्रु पूँजीवाद पर भरपूर संगठित प्रहार नहीं कर पाता। आज पूँजीवाद के तथाकथित  और घोषित एकक्षत्र वर्चस्व के दौर में फंडामेंटलिज्म’, तरह-तरह की संकीर्णताओं और जादू-टोने अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलना- यहाँ तक कि उनका राजनीतिक इस्तेमाल, क्या अनायास हो रहा है? व्यक्ति और समाज में ज्यों-ज्यों तर्कशीलता और विवेकशीलता बढ़ती जा रही है रूढिग्रस्तता, नियतिवादिता और प्रतिक्रियावादिता को कमजोर होते जाना चाहिए। ऐसे तो जन विरोधी शक्तियों का प्रभुत्व ध्वस्त हो जाएगा। इसलिए तात्कालिक लाभ के लिए आत्मघाती पिछड़ेपन को भी प्रोन्नत किया जाता है। पूँजीवाद ऐसा पहली बार नहीं कर रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसी के द्वारा पैदा की गई स्थितियों में जब इटली, जर्मनी और स्पेन में फासीवाद उभरा तो उसे इस लिए पोसा गया था ताकि रूस की समाजवादी क्रान्ति के विरुद्ध उसका इस्तेमाल किया जा सके। जब हिटलर ने फ्रांस और इंगलैण्ड को हड़पने के लिए आक्रमण शुरू किया तब जा कर उन्हें भस्मासुर के जन्म की अर्थवत्ता समझ में आई।
आज भूमंडलीकरण के बाढ़ में सबसे सुगठित संस्था राष्ट्र-राज्य पूँजीवादी बांध में भी दरार पड़ने लगी है। सोलहवीं शताब्दी से ही राष्ट्र-राज्य पूँजीवाद के गढ़ के रूप में मजबूत होता गया था। उसकी दमनकारी भूमिका बढ़ती गई। उसके विरुद्ध क्रान्तियां तक हुई,  पर समाजवादी क्रान्ति के बाद भी राज्य, जिसे विलुप्त होते जाना था, कमजोर नहीं हुआ। पर आज भूमंडलीकरण और अमरीकी वर्चस्व के जमाने में राज्य की सार्वभौमिकता लड़खड़ाने लगी है। भारतीय राज्य भी कितनी ही बार अपनी सार्वभौमिकता के साथ समझौता करता लगता है। व्यक्ति की बढ़ती आत्मकेन्द्रिता अजनबियत और बढ़ने न पाये इसके लिए विघटनकारी शक्तियों को पोसा जा रहा है। बढ़ती उद्धतता और बेहया आक्रामकता का प्रतिकार वर्तमान जीविता हर तरह की सामुदायिक और सामाजिकता को कमजोर कर रही है। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। अनिवार्य और नैसर्गिक अन्तर-संबंध विकृत और विरूपित होते जा रहे हैं। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी, जो प्रगति के सूचक और वाहक हैं, आज प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
परन्तु दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक ही नहीं सांस्कृतिक प्राणी भी है जैसे मनुष्य नैसर्गिक रूप में सामाजिक है वैसे ही सांस्कृतिक भी। संस्कृति प्रबुद्ध और भद्रलोगों की बपौती नहीं। वह हर व्यक्ति की नैसर्गिक लाक्षणिकता है। संस्कृति मानव समाज का नैसर्गिक सम्बल है। वहीं अश्वमेध के घोड़ों की रास थाम ली जाती है। राम कितना ही आततायी हो लव-कुश का दमन-दलन संभव नहीं। मतलब यह कि संस्कृति के क्षेत्र में प्रतिकार को रोका नहीं जा सकता। तो फिर बीड़ा उठाने के लिए क्या करना होगा?
सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि इतना जोर जानने पर क्यों है। सारी सूचना क्रान्ति का मन्तव्य क्या है? जाहिर है कि बौद्धिक प्रक्रिया-सूचना, ज्ञान, विवेक में सूचना सबसे निम्न स्तर का काम है। जानने को सर्वोतम प्राप्य के रूप में स्थापित करने का उद्देश्य यह है कि समझने की अर्थवत्ता समझ में न आवे। समझने से निर्णय ले पाने यानी विवेक का द्वार खुलता है और विवेक शासकों के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। तभी तो अगर इर्न्फोरमेशन से बात आगे जाती भी है तो नॉलेज पर रोक लगा दी जाती है- कहा जाता है – नालेज इज पावर। पूछा जा सकता है कि विजडम इज पावरक्यों नहीं। सारांश यह कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सूचना के वर्चस्व और केन्द्रीकरण का विरोध होना चाहिए। कार्यभार के रूप में क्विज कल्चरके मर्म को समझना चाहिए और उसके स्वरूप को बदलने और वैकल्पिक माध्यम विकसित करने के प्रयास होने चाहिए।
दूसरा मुद्दा सुख और आनंद का है। आज सारी दुनिया में, विशेष कर भारत जैसे देशों में, उन्हें सम्पति और भोग-विलास से जोड़ कर ही देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कुछ लोग इससे ऊब कर पराभौतिक आनन्द की तलाश में जुटते हैं जैसे- यूरोप, अमरीका के कुछ लोग जिनका मोहभंगहो जाता है। कुछ लोग दान-दक्षिणा-भजन-कीर्तन- तीर्थ-यात्रा में अपराध-बोध से रास्ता तलाशते हैं- जैसे भारत का मध्य वर्ग। दोनों ही अतिरेकपूर्ण रास्ते मीडिया के प्रिय विषय हैं और इनको तरह-तरह से प्रोन्नत किया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि आज सम्पत्ति, सुख, आनन्द आदि की अर्थवत्ता स्पष्ट की जानी चाहिए और समाजशास्त्र में, शिक्षण जगत में, इस पर जोर दिया जाय कि विकास वैयक्तिक है और आनन्द सामुदायिक तथा भौतिक आनन्द का सबसे बड़ा उत्सव सहभागिता है।
एक बड़ी सांस्कृतिक चुनौती आज की विडम्बनाओं से उबरने की है। आज आतंकवाद के विरुद्ध सबसे ऊंची आवाज उस की है जो दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी है। आज मानवाधिकार हनन का मुद्दा वह उठाता है जो सबसे व्यवस्थित और नियोजित ढंग से उसका हनन करता है। आज जनवाद का सबसे बड़ा हिमायती होने का दावा और दलील वह देश करता है जो दूसरे देशों में ही नहीं स्वयं अपने देश की भी उन जनवादी परम्पराओं का उल्लंघन कर रहा है, जिन्हें पूँजीवादी से बहुत गर्व से संजोया है। जो जनवाद आधुनिकता का अनिवार्य लक्षण है, जिसका विकास मानव की मुक्ति-कामना से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है, जिसके लिए संघर्ष से मानव समाज ने नई बुलंदियां दी है। वह न केवल ठहराव का शिकार है बल्कि उसका क्षरण हो रहा है। इसलिए साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ सबसे बड़ा मोर्चा जनवाद का है। यह न केवल पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विकृतियों के विरुद्ध है अपितु समाजवादी भटकावों के भी खिलाफ जरूरी आधार प्रस्तुत करता है। इस से भी सामान्य जन के लिए कार्यभार निकलता है। आज जनवादी परिवार विकसित करना एक आधारभूत कार्यभार है, किसी भी तरह के नवजागरण और सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए।
भूमंडलीकरण के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट भाषा को ले कर भी पैदा हो रहा है। आज अंग्रेजी भूमंडलीकरण का उपकरण बन रही है। इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी ही बनती जा रही है। पर यह संयोग ही है कि अंग्रेजी अमरीका की भी भाषा है। इसमें अंग्रेजी का क्या दोष? ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी का विश्वव्यापी प्रचार हुआ। पहले न अंग्रेजों के राज्य में कभी सूरज डूबता था न अंग्रेजी के। अंग्रेजों का राज तो खत्म हुआ पर अंग्रेजी का बना रह गया। इसमें अंग्रेजी भाषा-साहित्य की प्रकृति का भी योगदान है। आज भी अंग्रेजी दुनिया की सबसे लचीली और जज्ब करने वाली भाषा है। हर साल सारी दुनिया की भाषाओं में सैकड़ों शब्द और मुहावरे अंग्रेजी में आत्मसात किए जाते हैं और शब्द कोशों का विस्तार होता जाता है। अब अंग्रेजी को नकारा नहीं जा सकता पर अपनी-अपनी भाषा-साहित्य के समुचित विकास में जुट जाने की चुनौती स्वीकारी नहीं जा सकती है। उदाहरण के लिए हिन्दी या तो पिछलग्गू और पिछड़ी होने को स्वीकार ले या फिर बीड़ा उठा ले। वर्तमान स्थिति में हिन्दी के साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस चुनौती और उससे निकलने वाले कार्यभार की अर्थवत्ता के अहसास, समझ और संकल्प से लैस नहीं दिखाई पड़ते। आज विश्व के श्रेष्ठ लेखन का हिन्दी में अनुवाद मौलिक रचना से कम महत्वपूर्ण नहीं है– कभी-कभी तो वह श्रेष्ठ और आवश्यक मौलिक रचना की पूर्व शर्त लगाता है। हिन्दी मनीषा की गहराई-ऊंचाई-विस्तार के लिए अनिवार्य है कि वह दुनिया के अधुनातन और श्रेष्ठतम से परिचित हो। यह अंग्रेजी अनुवादों की घटिया अनुवादों यहाँ-वहाँ से उड़ाए गये उदाहरणों और ‘अंधों में कनवा राजा’ की मानसिकता से संभव नहीं।
कुल मिला कर आज का विकृत और एकांगी भूमंडलीकरण लोगों में परायापन और असहायता भर रहा है- विकल्पहीनता (THERE IS NO ALTERNATIVE, TINA FACTOR) की ओर ले जा रहा है। ऐसे में पहला जरूरी काम तो यही है कि अपने को, अपनों को, सब को विश्वास दिलाया जाय कि विकल्प बाकी है, एक और संसार संभव है और उसे रचना आवश्यक है और उसे हम ही रच सकते हैं।
संकट आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का है।
मानवता के शत्रु भूमंडलीकरण को अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका जवाब राष्ट्रवाद पर जोर नहीं, समाजवादी भूमंडलीकरण की दिशा है। साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए। आज सृजन और संघर्ष दोनों का परिप्रेक्ष्य विश्वव्यापी होना चाहिए।
अगर भारत केन्द्रित कोई रणनीति बनती हो तब भी यह जानना आवश्यक है कि भारत प्राचीन काल में संसार में किसी क्षेत्र में पिछड़ा नहीं था मध्य काल में दुनिया के मुकाबले न यहाँ की अर्थव्यवस्था पिछड़ी थी, न राजनीति, न संस्कृति, विषमता और अमानवीयता के बावजूद फिर आधुनिक काल में यह क्यों पिछड़ता चला गया? इसके लिए सामन्ती जकड़ पर्याप्त व्याख्या प्रस्तुत नहीं करती। मुख्यतः सामन्ती रूस में पूँजीवादी क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति हुई। सामन्ती चीन में नाजीवादी, फिर समाजवादी क्रान्ति और फिर पूँजीवादी प्रति क्रान्ति हुई। भारत ‘न तीतर न बटेरबना रहा। आखिर क्यों? क्योंकि यहाँ यही घातक जाति व्यवस्था थी और अठारहवीं शताब्दी में ही औपनिवेशिक राज्य कायम हो गया। और धीरे-धीरे विदेशी शासकों को भारत में माई-बाप मान लिया गया। यहाँ मध्य वर्ग और पूँजीवाद भी पनपा पर पंगु और पराधीन ही बना रहा। भगत सिंह के पहले किसी ने पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो कर व्यवस्था परिवर्तन की बात भी नहीं उठाई। यहाँ कांग्रेस ही नहीं कम्युनिस्ट भी प्रायः परमुखापेक्षी बने रहे- नेतृत्व के लिए कभी इंग्लैण्ड तो कभी रूस तो कभी चीन का मुंह ताकते रहे।
आज के हालात में बची-खुची स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता भी छिन जाने का नहीं, समर्पित कर दिए जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए आज के सांस्कृतिक आन्दोलन को व्यापक सृजनशीलता, संघर्ष और साझेदारी विकसित करना पडे़गा। ऐसी चेतना और कार्यक्रम आज जीवन के लिए पूर्व-शर्त से बन गए हैं।
सम्पर्क –

मोबाईल- 09454069645
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
    

वन्दना शुक्ला का संस्मरण ‘आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र’



इतिहास की कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जिनका नाम आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी ही एक तारीख़ थी – 2 दिसम्बर 1984. 
यह तारीख़ न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश के लिए एक गहरे जख्म की तरह है जो रह-रह कर आज भी रिसता रहता है। यूनियन कारबाईड कंपनी से रिसी मिथायलआईसोसायनाइड नामक गैस कई लोंगों के लिए मौत का मंजर ले कर सामने आयी वैसे तो साल 1984 भारत के लिए कई आपदाएँ ले कर आया। यही वह वर्ष था जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को चरमपंथियों से आज़ाद कराने के लिए आपरेशन ब्ल्यू स्टारहुआ और जिसकी कीमत देश को अपनी प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी की जान चुका कर अदा करनी पड़ी। 
लेखिका वन्दना शुक्ला का ताल्लुक त्रासदी के साक्षी इस भोपाल शहर से ही है और वे उस मंजर की साक्षी रही हैं। इस दिन मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वन्दना शुक्ला का यह संस्मरण आँखों में ठहरा हुआ वो मंजर

      

आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र 
वन्दना शुक्ला

छूटे हुए शहर उन कहानियों की तरह होते हैं जिन्हें हमने लिखते लिखते अधूरा छोड़
दिया था। लेकिन वो कहानियां कभी मरती नहीं बल्कि समय की तलहटी में
स्मृतियों के शैवाल बन डूबती उतराती रहती हैं और वहीं अपना एक अलग संसार
बसा लेती हैं। उन कहानियों को अपने मौन से छूना किसी यातना से गुजरना भी
होता है।

हर दिल में एक शहर बसता है। उस शहर में अतीत की बस्तियां होती हैं, कच्चे प्रेम की मिसालें होती हैं, खुशियों के झरने और आधी अधूरी इच्छाओं के सूखे-हरियाले खेत होते हैं, स्मृतियों की हरहराती नदियाँ होती हैं। धडकनों के तागे से बुने हर दिल में बसे शहर की राग रंगत सुर्ख शफ्फाक ही नहीं होती। इनमें समय  के दाग धब्बे, और हालातों के ज़ख्म भी होते हैं। मीठी यादें दिल को गुदगुदाती हैं तो उदास कर देने वाली मुरझा देती हैं। न जाने कितने मंज़र, कितनी अनुभूतियाँ लिए एक अव्यक्त की चीख सा वो शहर हमारी आत्मा में ताजिन्दगी कौंधता रहता है। मेरे ज़ेहन में बसी स्मृतियों के इस शहर में अट्टालिकाएं हैं, चौड़ी चमचमाती सडकें, संग्रहालय, पहाड़ियां, तालाब, उनमें तैरती रंग-बिरंगी कश्तियाँ, कश्तियों में बैठे जवान सपनों से लबालब खिलखिलाते जोड़े हैं तो छीजतीं, खँडहर होतीं पौराणिक पत्थर की इमारतें हैं, मीनारें हैं, तंग गलियाँ हैं, मंदिर-मस्जिदें हैं, नमाज़ें हैं, गलियों से गुज़रती काले बुरखे में लिपटी महिलायें हैं, उन महिलाओं की आँखों में सपने हैं और उनके सपनों में ‘’कभी आज़ाद’’ होने की उम्मीदें हैं। अलावा इसके अजाने हैं, मंत्रोच्चार हैं, कविता है, मूर्तियाँ है,शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां हैं तो लोक संगीत की सोंधी गंध और गजलों की बेहतरीन बंदिशें भी। राजा भोज की इस नगरी में ‘’भोजपाल’’ से लेकर ’’भोपाल’’ होने तक की दास्ताँन और स्मृति चिन्ह आज भी मौजूद है। इस शहर के इतिहास में दर्ज सल्तनतों, झीलों की बिंदास झिलमिलाहट और संस्कृति की झंकार में उतराते-डूबते पृष्ठ पलटते हुए अचानक उंगलियाँ ठिठक जाती हैं। वो एक मनहूस पन्ना, जिसकी पेशानी पर एक काला सा धब्बा है और जिसका मुड़ा हुआ कोना इसकी लाचारी को और उदास बना रहा है। न चाहते हुए भी मैं उसे खोलती हूँ और एक बार फिर थरथरा जाती हूँ। इस पन्ने के माथे पर कुछ हिलती हुई सी अस्पष्ट लिखावट में तारीख दर्ज है 2 दिसम्बर 1984.। मेरी स्मृतियाँ सहसा पीछे की और दौड़ने लगती हैं और एक ख़ास ‘’वक़्त’’ पर ठिठक जाती हैं जो वक़्त घड़ी की सुइयों में हौले हौले सरक रहा है। मैं गौर से देखती हूँ ये सुइयां न आगे जा रही हैं और न पीछे। एक जगह काँप रही हैं। ये ठहरा हुआ समय है रात के बारह बज कर बीस मिनिट। मुझे याद आता है पिछले बत्तीस बरस से ये काँटा यूँ ही काँप रहा है बस अपनी जगह पर। ज़र्द दिनों की इस मनहूस तारीख का ये वक़्त लोगों की आँखों में यहीं ठहरा हुआ है।
ये ठिठुराती ठंडों की आधी रात का वक़्त है। ज़ाहिर है तमाम शहर रजाइयों में दुबका गहरी नींद में डूबा हुआ। सर्दी की ठंडी काली गहरी रात। बहुतरूपिया मौत कभी काले अँधेरे ओढ़ कर भी आती है। गहरी नींद की छाती पर मौत का तांडव बहुत भयानक होता है। ये सिर्फ हम जैसे कुछ भाग्यशाली लोग कह सकते हैं जिन्हें वो छू कर निकल गयी। जिनको वो अपने साथ ले गयी वो अपने अहसास कहने के लिए इस धरती पर नहीं रहे।

पिछले दिनों हुई कानपुर रेल दुर्घटना की विभीषिका का मंज़र कुछ ऐसा ही रहा होगा जब रात के गहरे अँधेरे में बोगियों में सोये या ‘’कल’’ की सुनहरी योजनाओं को सोचते मौत की इस ‘साजिश’ से बेखबर यात्री अचानक जोर-जोर से हिलने लगे होंगे। जब तक वो इस गर्जना को सपना नहीं सच समझ पाते तब तक बोगियां एक दुसरे पर गिरने, टूटने और चीत्कारों से पट गईं। लोग लाशें बन कर एक दूसरे पर गिरने लगे। सन्नाटे…अँधेरे …रात और हाहाकार। इन रातों की सुबहें बड़ी मनहूस और दुखदायी होती हैं। ये सुबह भी ऐसी ही थी ..सिर्फ तबाही, रुदन और चीत्कार। उन बोगियों के ध्वस्त अवशेषों के नीचे दबे अधमरे लोगों की कराहें …. तमाशबीनों का सैलाब। जो लोग ऐसी विभीषिकाओं के चश्मदीद होते हैं उनकी आँखें ताजिन्दगी ये मंजर नहीं भूल पातीं।
आँखों में अटकी दो दिसंबर की वो काली रात …
चरम पर जाड़े की ये वही मनहूस रात थी जब हम चार लोग स्कूटर पर रात के एक बजे पता नहीं कहाँ पता नहीं किस दिशा की और भागे जा रहे थे। उनींदे…रुआंसे…भयभीत से। बस भाग रहे थे। क्यूँ कौन कहाँ कैसे कुछ होश नहीं। हमें निरंतर लग रहा था जैसे मौत हमारा पीछा कर रही है क्यूँ कि सांस घुटने की वजह तब तक नदारद थी और सड़क पर कम्बल रजाई ओढ़ कर भागते लोग सड़क पर ही गिर कर मर रहे थे। आधा भोपाल जैसे युद्ध क्षेत्र बन गया था। जिसके एक और मौत थी और दूसरी और निहत्थे, लाचार, कारण से अनभिग्य भोपाल वासी। ये शिकारी द्वारा शिकार पर पीठ पीछे किये गए हमले जैसा वीभत्स था।
स्कूटर दो एक बार सांसों के थमने पर गिरते-पड़ते ऐसे लोगों से टकराता हुआ बचा। लोग चीख रहे थे, रो रहे थे, रोते हुए भाग रहे थे। कुछ लोग नींद में उसी दिशा में पैदल भागे जा रहे थे जिस दिशा में यूनियन कार्बाईड में से रिसी  मिथायलआईसोसायनाइड  नामक मौत उनका इंतजार कर रही थी। निशातपुरा, जहांगीराबाद, बरखेडी, भोपाल टॉकीज आदि की सड़कें लाशों से पटने लगीं। सब जगह अफरातफरी। जब तक कारण पता पड़ा मौत के मुह में समा जाने वालों के लिए देर हो चुकी थी।
अगली सुबह भयावह थी। अस्पतालों में पैर रखने को जगह नहीं। पूरा भोपाल डर से सिहर रहा था, कई इलाकों में लोग बेतरह खांस रहे थे, फेंफडों में भरी विषैली हवा का उनके पास निरतर खांसने के अलावा फिलहाल कोई समाधान नहीं था। जहरीली गैस ने बचे हुए लोगों के शरीर को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। कुछ लोगों की आँखें गहरी लाल हो कर उभर सी आई थीं। कुछ लोग हड्डियों की बीमारी के कारण चलना भूल चुके थे। झुग्गी, कच्चे घरों के सामने घोड़े, बकरे, मुर्गे-मुर्गियां न जाने कितने गूंगे विवश मवेशी मरे हुए पड़े थे। चीलें, गिद्ध  आसमान में मंडराने लगे थे। दूसरे आसपास के कस्बों, शहरों से घासलेट मंगाया जा रहा था। लाशों के ढेर फूंकने के लिए केरोसीन कम पड गया था। शहर के आसपास के ‘’सुरक्षित’’ लोग आ कर व स्वयंसेवी संस्थाएं रात दिन घायलों की सेवा कर रहे थे। मौत इस कदर भयभीत कर चुकी थी कि लोग शहर से भाग रहे थे। सरकार ने अन्य महफूज़ ठिकानों पर जाने के लिए यात्रियों को ट्रेन की फ्री सुविधा दी थी। चार पाँच दिनों तक रह रह कर अफवाह उठती कि फिर से गैस लीक हो रही है और बस भगदड़ मच जाती। लोगों को जो वाहन जहाँ आता-जाता मिलता उस पर चढ़ जाते। सरकार को इन अफवाहों पर अंकुश लगाना मुश्किल हो रहा था। स्थिति इतनी नाज़ुक थी कि लोगों को विरोध, विद्रोह या आन्दोलनों का न होश था न वक़्त। ज़िंदगी कुछ पटरी पर आई तो लोग अपने उन घरों में वापस लौटे जिन्हें ज़ल्दबाजी में वो बिना ताला लगाए खुला छोड़ गए थे। उस दौरान काफी चोरिया भी हुईं।
जब हालात सम पर आने लगे तो आंदोलनों ने जोर पकड़ा। अमेरिका में बैठे यूनियन कार्बाईड के मालिक एंडरसन के पुतले जलाये जाने लगे। जान माल के नुकसान के लिए मुआवजे की मांगें हो रही थीं। अपने आबाद, गुलज़ार और खूबसूरत शहर को यूँ जलते हुए देखना कितना भयावह और दर्दनाक था ये उन प्रत्यक्षदर्शियों के सिवा कोई नहीं जान सकता। 


सरकारें किसी व्यक्ति की चेतावनी को किस कदर नज़र अंदाज़ करती हैं। वे नहीं जानतीं कि उनका ये ignorance  शहर की कितनी जानों को लील जाएगा इस सत्य की ये औद्योगिक त्रासदी सबसे जीती जागती मिसाल है। गौरतलब है कि भोपाल के पत्रकार श्री राजकुमार केसवानी ने राष्ट्रीय अखबारों तक में कार्बाईड की इस जहरीली गैस के दुष्परिणामों के लिए पहले ही सरकार को कई बार चेताया भी था ‘’अब भी सुधर जाओ वरना मिट जाओगे’’ उन्होंने अफ़सोस और दुःख में लिखा था ये खबर इस भयावह त्रासदी से डेढ़ महीने पहले अक्टूबर में लिखी गयी थी। भोपाल गैस त्रासदी के करीब 32 साल बाद मध्य प्रदेश सरकार ने रविवार को घोषणा की कि वह दुनिया के सब से भयावह औद्योगिक त्रासदियों में शामिल इस त्रासदी के लिए स्मारक बनवाएगी।

बहरहाल, सवाल आज भी वहीं का वहीं है कि हमारी सरकारें दुर्घटना होने पर मुआवजा देने के लिए जो तत्परता दिखाती हैं उसे पहले रोकने की कोशिश क्यूँ नहीं होती? दूसरे,  अविकसित और विकासशील देशों को अपनी चारागाह समझने वाली कंपनियों को यहाँ पनाह क्यूँ दी जाती है

उन सभी बेकसूर नागरिकों को श्रद्धांजलि जिन्होंने किसी और की गलती का खामियाजा अपनी जान गंवा कर भरा

 

वन्दना शुक्ला

ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं.)

रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी ‘सुबह के गीत’


14 नवंबर को शहर में साहित्यिक हलचल रही। अवसर था मीरा स्मृति सम्मान और पुरस्कार समारोह का। खुशी की बात है कि इस बार मीरा स्मृति पुरस्कार शहर के ही कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को उनकी पांडुलिपि मंडी का महाजालके लिए दिया गया। मीरा स्मृति सम्मान जिन पांच मनीषियों को दिया गया उनमें प्रो. सैयद अकील रिजवी भी इलाहाबाद के हैं। इनके अलावा मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा, प्रो. यदुनाथ प्रसाद दुबे को सम्मानित किया गया। पांचवें मनीषी अग्निशेखर किसी कारणवश समारोह में शामिल नहीं हो सके।

मीरा फाउंडेशन और साहित्य भंडार के संयुक्त तत्वावधान में एन.सी.जेड.सी.सी. सभागार में आयोजित समारोह के पहले सत्र में मुख्य अतिथि सुधा अरोड़ा, अध्यक्ष प्रो. राजेन्द्र कुमार और सतीश चन्द्र अग्रवाल ने सत्यकेतु को मीरा स्मृति पुरस्कारप्रदान किया। इसके तहत उन्हें स्मृति चिह्न, शॉल, श्रीफल और 25 हजार रुपये का चेक प्रदान किया गया। युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी और ने सत्यकेतु के कथा लेखन, वैचारिकी और सामाजिक सरोकार का विश्लेषण किया। दामोदर दीक्षित ने संग्रह की कहानियों की व्याख्या की। इस मौके पर शहर और बाहर के तमाम लेखक, संस्कृतिकर्मी मौजूद रहे।

उल्लेखनीय है कि इस बार मीरा स्मृति पुरस्कार के निर्णायकों में दूधनाथ सिंह, चित्रा मुदगल, राजेश जोशी, डॉ. विजय अग्रवाल और अशोक त्रिपाठी शामिल थे। यह पुरस्कार एक वर्ष कहानी और दूसरे वर्ष कविता के लिए दिया जाता है। 
पुरस्कृत संग्रह में शामिल कहानी ‘सुबह के गीत’ 2005 में ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह दो सहेलियों की कहानी बेहद खूबसूरत कहानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले ग्यारह सालों में स्त्रियों की वैचारिकता ज्यादा प्रखर हुई है लेकिन यह भी सच है कि उनकी पारिवारिक और सामाजिक हालत और खराब हुई है। बेहद शालीनता से अपनी बात कहती कहानी ‘सुबह के गीत’ आलोचकों और विमर्शकारों की नजरों से प्रायः ओझल ही रही। लेकिन अपनी अस्मिता के लिए लड़ रही स्त्रियों को यह सुकून और साहस जरूर देगी। कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को मीरा सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह कहानी। 
सुबह के गीत

रणविजय सिंह सत्यकेतु
वेटिंग रूम में रोमी के बताए टेबल पर कुली ने सामान रख दिया। सामान के ऊपर पर्स फेंककर रोमी धम्म से कुर्सी पर बैठ गई। एक कठिन यात्रा पूरी कर लेने के बाद की तसल्ली महसूस की। 
केशू उसकी गोद में बैठना चाहा तो उसने मना किया, ‘अभी रुको बेटा, थोड़ा सुस्ता लेने दो।’ 
बैठने के लिए सामने वाली कुर्सी को रूमाल से पोछ रहे रॉकी ने केशू को अपने पास बुलाया, ‘आ जाओ केशू मेरे पास, मेरी गोद में बैठो।
रॉकी की तरफ केशू बढ़ गया तो रोमी को राहत मिली, ‘हां, ठीक है बेटा, अभी उसी के पास जाओ। मैं थक गई हूँ।’ 
थोड़ी देर चुप रहकर लंबी सांस छोड़ते हुए बोली, ‘उफ्, कोई टाइम टेबल नहीं है ट्रेनों का। बताओ, रात नौ बजे पहुंचने का समय नियत है और ट्रेन अभी आई है..सुबह तीन बजे..श्शिट। ऊपर से इतनी गर्मी में इतने लोग चढ़ जाते हैं। पता नहीं क्या समझते हैं अपने आपको। रिजर्वेशन का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। जनरल बॉगी बना दिया चोट्टों ने।
अरे गाली क्यों दे रही हैं! मजबूरी में क्या करेंगे लोग, जनरल बॉगी में पिसने से तो बढ़िया है कि स्लीपर में बैठ कर जाएं।रॉकी मुस्कुराया।
बॉगी में चार-छह लोग बैठ जाएं तो कोई बात नहीं, चल जाएगा। नहीं, हर बर्थ पर चार-छह बैठेंगे, वह भी रौब के साथ। ये मजबूरी में नहीं, सीट को बपौती मान कर बैठते हैं।’ 
ऐसा नहीं है।
ऐसा ही है।रोमी थोड़ी तेज आवाज में बोली, ‘उनमें से आधे तो बिना टिकट के होते हैं। देखा नहीं, पूरे टाइम उन्हीं लोगों से उलझा रहा टीटीई। सौ-पचास वसूला और बैठा दिया।’ 
मम्मी… पेप्सी!कैशू ऊबा हुआ लग रहा था। 
रुको याररोमी झल्लाई हुई थी। 
हां हो जाए एक-एक। बहुत गर्मी है।रॉकी को केशू का पस्ताव विषय परिवर्तन के लिहाज से अच्छा लगा। पूछा, ‘चलें?’ 
नहीं, मैं नहीं जाऊंगी तुम ले आओ।रोमी वाकई थक चुकी थी। 
मैं भी जाऊंगा।केशू पहले से तैयार बैठा था।
हां, इसे भी प्लेटफॉर्म पर हवा खिला दो।रोमी राहत चाहती थी।
रॉकी केशू का हाथ पकड़े वेटिंग रूम से निकल गया। रोमी सामने वाली दीवार को ताकती सुस्ताने लगी। थोड़ी देर में सीधी हुई और पर्स खोलकर कंघी निकाल ली। बाईं तरफ की दीवार पर बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। उसके सामने खड़ी होकर बालों को सीधा करने लगी। 
दाएं-बाएं एंगिल से चेहरे को निहारते हुए उसने देखा कि उसकी हमउम्र एक महिला पीठ तरफ की दीवार से सटी सीट पर बैठी उसी को निहारे जा रही है। उसने गौर से देखा, जब आशंका पक्की हो गई तो उसके  आसपास की चीजों और व्यक्तियों का मुआयना किया। उसके सामने दो अटैची और एक बैग थे। अगल-बगल दो बच्चियां सोई हुई थीं। आसपास कोई मर्द नहीं दिखा। 
रोमी भी बालों में कंघी करने के बहाने उसे ही घूरती रही। उसके जैसे चेहरे-मोहरे वाली किसी परिचित महिला को याद करने लगी। इसी उलझन में फंसी थी रोमी कि वह महिला उसकी तरफ आती दिखाई दी। उसके माथे पर बल पड़ गए। फिर सोचा, शायद बाथरूम जा रही होगी। लेकिन जब वह ठीक उसके पीछे आ गई तो रोमी तुरंत पलट गई। 
रोमी.. तुम रोमी ही हो न?’ बिलकुल सामने खड़ी महिला ने सवाल किया। 
अचरज में थी रोमी। सोचने लगी कि कौन हो सकती है यह जो बिलकुल ठीक-ठीक पहचान रही है उसे। फिर जैसे कुछ-कुछ याद आ रहा हो, उसने अपनी स्मृति पर जोर डाला। 
नहीं पहचाना?’ सामने वाली मुस्कुरा रही थी।
एक हद तक पहचानते हुए उसकी तरफ उंगली दिखाते हुए फुसफुसाई ‘..आ..आम्ना!
ओ येस।रोमी से लिपट गई आम्ना खुशी से झूमती हुई गोया इतना करीबी इंसान पहले कभी नहीं मिला हो। 
रोमी को भी उतनी ही खुशी का अहसास हो रहा था। साथ ही झेंप भी हो रही थी कि उसने आम्ना को पहचानने में इतनी देर लगा दी। लेकिन यूनिवर्सिटी वाली और आज की आम्ना में बहुत फर्क आ गया था। थुलथुल नहीं कही जा सकती, लेकिन देह पूरी तरह भर आया था। चेहरे पर वह ताजगी नहीं थी, आंखों के नीचे काले धब्बे उभर आए थे।
रोमी, वाकई दस साल बाद भी तुम जस-की-तस हो यार।बहुत खुश थी आम्ना। बोली, ‘वही डील-डौल, चेहरे पर वैसी ही ताजगी। हां, आंखों से शक्की जरूर हो गई हो।’ 
दोनों के ठहाके लगे तो वेटिंग रूम में आराम फरमा रहे कई लोग उचककर उनकी ओर देखने लगे। वे दोनों झेंप गईं।
 रोमी उसे अपनी कुर्सी पर बैठाने लगी तो आम्ना ने कहा, ‘बेटियों को नहीं देखोगी?’
हां, क्यों नहीं। बच्चियों को देखकर लगा कि वे तुम्हारी ही होंगी।
मगर अभी वे सोई हुई हैं।
कोई बात नहीं, अभी निहार ही लेंगे। परिचय बाद में कर लेंगे। और ..तुम्हारे मियां?’  
बताएंगे भई, उसके बारे में भी बताएंगे। मगर वो तुम्हारे शौहर जैसा हैंडसम नहीं है।आम्ना का इशारा प्लेटफार्म की तरफ गएरॉकी की ओर था। 
रोमी को आम्ना का इशारा समझने में देर नहीं लगी। उसके चेहरे पर एक ठहराव सा आ गया। बोली, ‘आम्ना, वो मेरा हसबैंड नहीं है।
ओ..सॉरी यार।आम्ना सकुचा गई। 
कोई बात नहीं, आओ बैठते हैं।रोमी ने हाथ पकड़ कर आम्ना को बैठा लिया। फिर पूछी, ‘इधर कैसे आना हुआ, कोई रिलेशन है या ..?’
नहीं, कोई रिलेशन नहीं है। बस, बच्चों को घुमाने ले आई थी। अब छुट्टियां खत्म हो गईं, सो वापस जा रही हूँ।
अभी रहना कहां हो रहा है?
पटना में।
कहां-कहां घूमी?’
पहाड़ों की ओर निकल गई थी। नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत हो आई।आम्ना ने बताया, ‘देर रात लौटी हूँ। किसी होटल में रुकने से बेहतर समझी कि वेटिंग रूम में ही टिक लें ताकि सुबह-सुबह पटना के लिए ट्रेन पकड़ी जा सके। लेकिन बेकार हो गया। ब्रह्मपुत्र मेल और मगध एक्सप्रेस दोनों चार से पांच घंटे लेट चल रही हैं।
ट्रेन लेट होने से मैं खुद बहुत परेशान थी, लेकिन अब लगता है अच्छा ही हुआ।तसल्ली से बोली आम्ना, ‘मेरी ट्रेन समय से आ जाती तो रात में ही मैं घर चली गई होती। और तुमसे भेंंट नहीं हो पाती।’ 
हां ये तो है।रोमी की आशावादिता पर मुस्कुराई आम्ना। फिर पूछा तुम गई कहां थी?’
हिमाचल गई थी’, रोमी ने जवाब दिया, ‘जम्मू भी जाने का मन था लेकिन संयोग बन नहीं सका। और छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं।’ 
हो यहीं?’
हां, फिलहाल यहीं हूँ शादी के बाद से। अगले दो-चार दिन तुम भी अब यहीं रहोगी, मेरे साथ।
अरे नहीं, फिर कभी रुक लूंगी।’ 
वो दिन फिर कब लौटेगा, कौन जानता है। तुम्हें तो रुकना ही पड़ेगा।भावुक हो गई रोमी। 
आम्ना ने हाथ बढ़ा कर उसका गाल छुआ, ‘जिद न करो रोमी। घर पर कई काम निपटाने हैं। पंद्रह दिनों से बाहर हूँ। फिर मेरी ट्रेन आने में अभी बहुत लेट है, मन भर बातें तो यहीं बैठे-बैठे कर लेंगे।
ये कोई बात नहीं हुई आम्ना।चेहरा उतर आया रोमी का, ‘मुझे अच्छा नहीं लगेगा अगर यहां तक आने के बावजूद तुम मेरे मकान तक नहीं जा सकोगी तो।’ 
अहमियत मिलने की है रोमी।आम्ना ने समझाने की कोशिश की, ‘बाकी सारी जिंदगी पड़ी है एक-दूसरे के यहां आने-जाने के लिए। सोचो, दस साल बाद बिना पता-ठिकाना के हमारी मुलाकात हो गई…अब तो होती ही रहेगी। आगे हम एक-दूसरे के संपर्क में रहेंगे।’ 
जरूर रहेंगे आम्ना, जरूर रहेंगे।रोमी ने आम्ना का दोनों हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया। बोली, ‘उन दिनों को कैसे भूल सकती हूँ कि हमारा साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, घूमने-फिरने तक ही नहीं था, जीवन की कई अहम बातें, जाती परेशानियां हमने आपस में शेयर की हैं।’ 
वाकई रोमी’, आम्ना ने स्वीकार किया, ‘जिंदगी के सबसे हसीन वक्त गुजारे हैं हमने साथ-साथ। बंदिशों से आजाद वे लम्हे कभी लौट कर वापस नहीं आ सकते। सही मायने में वो हमारी आजादी के दिन थे। अपने मन की करने की पूरी छूट थी तब। बहुत याद आता है वो गुजरा हुआ जमाना।
थोड़ी देर दोनों के बीच चुप्पी रही। पहल आम्ना ने की। अपनी अन्य सहेलियों, सहपाठियों के बारे में रोमी से पूछा, ‘और किसी से मुलाकात होती है? कविता, वैशाली, रितु, जस्सी, मेहानी, कुलसुम से? और वो, क्या नाम था उसका नीली आंखों वाली का?’
कौन?’ 
अरे वही…जो याकूब के साथ गुटरगूं किया करती थी हर वक्त!
ओ…नीरू?’ याद आ गया रोमी को।
हां-हांं, नीरू…नीरू चौधरी।आम्ना ने तस्दीक की।
 
इंटीरियर डेकोरेटर हो गई है। हसबैंड पुणे में एक्साइज ऑफीसर है। एक बार मिली थी। बता रही थी कि हसबैंड उसे बहुत मानता है।’ 
वेरी लकी गर्ल शी इज’, खुशी जताते हुए आम्ना ने पूछा, ‘हसबैंड मतलब याकूब न?’
नहीं यार, वो तो बस ऐसे ही…टाइम पास था।
आम्ना ने अचरज में कंधे उचका दिए। 
मुस्कुराते हुए अपने चेहरे को एक तरफ झटका रोमी ने, फिर बताने लगी, ‘और का तो पता नहीं। वैशाली कभी-कभार मिल जाती है पार्लर में। उसने शादी नहीं की और जस्सी जैसे-तैसे परिवार की गाड़ी खींच रही है।’ 
वैशाली ने शादी क्यों नहीं की?’ आम्ना की जिज्ञासा बढ़ गई। 
बस ऐसे ही। कहती है किसी मर्द को चौबीसों घंटे ढोना मुश्किल है उसके लिए।रोमी के कहने का अंदाज बिलकुल सपाट था।
आम्ना को इस खबर पर जैसे विश्वास नहीं हुआ, ‘..लेकिन उसने तो तीन-चार लड़कों से दोस्ती बना रखी थी!’ 
हां, वही तो। फिर पता नहीं क्या हुआ। हो सकता है उन्हीं लड़कों की सोहबत से मिले अनुभव से मन फिर गया हो।चिंतित स्वर था रोमी का, ‘बताती भी तो नहीं है खुलकर। यह जरूर कहती है बार-बार कि मरने के पहले अपनी आत्मकथा लिख छोड़ेगी।’ 
तब तो जरूर दिल पर चोट खाई है उसने, शर्तिया।आम्ना ने अपनी बात पर जोर डाला। 
लगता तो ऐसा ही है।रोमी भी इसे सच मान रही थी। 
और जस्सी?’
वह अपने हसबैंड के पीने से परेशान है। बहुत पीता है। इतना कि पीने के बाद देह के कपड़ों का भी खयाल नहीं रहता।सहेली के लिए अफसोस कर रही थी रोमी, ‘सूख कर कांटा हो गई है बेचारी। यूं समझो कि बस जीए जा रही है।’  
चुप हो गई दोनों। कोई ट्रेन सामने वाले प्लेटफार्म पर लग रही थी। कुलियों की आवाजाही और वेंडरों की आवाज तेज हो गई। निस्पृह भाव से दोनों उधर देखने लगी। 
मैं तो बिलकुुल कट गई सब से। किसी के बारे में कोई जानकारी नहीं मुझे’, धीमे-धीमे शब्दों पर जोर देते हुए बोली आम्ना। फिर जैसे याद आया, रोमी से पूछ बैठी, ‘अच्छा ये तो बताओं.. तुम क्या कर रही हो?’
सीएमएस कॉलेज में लेक्चरर हूँ।
अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई’, खुशी में आम्ना ने रोमी का हाथ पकड़ लिया, ‘चलो हमने न सही, तुमने तो पढ़ाई-लिखाई को सार्थक किया। तुम्हारे हसबैंड क्या करते हैं?’
पत्रकार हैं..पथराई आवाज थी रोमी की। 
बहुत खूब। बुद्धिजीवियों का मिलन.. बड़ा मजा आता होगा न?’
मम्मी…केशू ने आम्ना की जिज्ञासा को अधबीच छोड़ दिया। 
रोमी को केशू की एंट्री पसंद आई। वह अपने पति की चर्चा से शायद बचना चाह रही थी। 
रॉकी का हाथ छुड़ा कर केशू रोमी के पास चला आया। वह कुछ बोलना चाहता था लेकिन सामने अपरिचित महिला को देख कर सकुचा गया और रोमी के पीछे जा कर खड़ा हो गया।
रोमी और आम्ना हंसने लगीं। 
केशू बेटे, आइए सामने आइए। अपनी आंटी से मिलिए। ये मेरी दोस्त हैं। कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती थीं। जैसे बिट्टू, बेबो, जोजो तुम्हारे साथ पढ़ते हैं।रोमी ने हाथ पकड़कर केशू को सामने किया। 
केशू ने आम्ना को नमस्ते किया। आम्ना उसे अपने पास खींचते हुए बोली, ‘महज नमस्ते से काम नहीं चलेगा। आंटी से दोस्ती भी करनी होगी।
केशू के गालों पर लाज गुलाबी हो गई। होंठ मुस्कुरा उठे। बिना कुछ बोले वह लगातार अपनी मां को देखे जा रहा था। 
रोमी ने रॉकी का परिचय कराया, ‘ये हैं रॉकी, हमारे रिश्तेदार…फिलहाल जे.आर.एफ. के तहत पी-एच.डी. में लगे हैं। वैसे इनका अच्छा-खासा बिजनेस है कागजों का।
आम्ना और रॉकी ने एक-दूसरे को नमस्ते किया।
पेप्सी की एक ही बोतल लाया था रॉकी। बोला, ‘अभी दूसरा ले आता हूँ।’ 
आम्ना ने रोका, ‘नहीं, रहने दीजिए। इसी में हम दोनों पी लेंगे। सालों बाद यह मौका मिला है।’ 
नहीं, अब हम दोनों चलेंगे न प्लेटफार्म की तरफ। वहीं ले लेंगे।रोमी इस मौके का पूरा लुत्फ उठाना चाहती थी। वह केशू से बोली, ‘आप तो घूम आए, अब हमलोग जाएंगे घूमने। तब तक आप शांति से बैठिएगा।’ 
केशू ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
रोमी को लेकर आम्ना अपनी टेबल की तरफ आई। दोनों बच्चियां अभी भी सोई हुई थीं। रोमी ने प्यार से बच्चियों को निहारा। हल्के हाथ से उनके बालों को सहलाती हुूई बोली, ‘बहुत प्यारी बच्चियां हैं…फूल सी कोमल और खूबसूरत।
बड़ी का नाम नूरी है और छोटी का जूही।आम्ना ने परिचय देना उचित समझा। 
क्या बात है। जैसी सूरत वैसा नाम।प्रशंसा के भाव से बोली रोमी।
सीरत भी इनकी उतनी ही अच्छी है।आम्ना खुद मुग्ध थी। 
जरूर होगी। जगने पर खूब बातें करूंगी दोनों से।रोमी ने आम्ना का हाथ दबाया।
रॉकी से नूरी और जूही का खयाल रखने और उनके जागने पर तुरंत बुला लाने को कहकर रोमी आम्ना के साथ वेटिंग रूम से बाहर निकल आई। 
बाकी बातें छोड़ो, अपने बारे में कुछ बताओ’, रोमी ने एक तरफ चलने का इशारा किया। 
क्या बताऊं अपने बारे में। कुछ भी अच्छा नहीं है। सुनकर मन खट्टा हो जाएगा तुम्हारा।आम्ना के चेहरे से लग रहा था कि बीती बातों को याद कर उसका जख्म फिर से हरा हो जाएगा। 
फिर भी..दुुख-दर्द बांट नहीं सकते, लेकिन आपस में चर्चा करके अपने मन को हल्का तो कर ही सकते हैं।रोमी को इतना समझ में आ गया कि आम्ना खुश नहीं है अपनी पारिवारिक जिंदगी से। 
तय नहीं कर पा रही कि कहां से शुरू करूं अपनी कहानी।आइसक्रीम स्टॉल की ओर बढ़ते हुए आम्ना ने कहा, ‘टुकड़ों में बता रही हूँ, पूरी कहानी के लिए ढेर सारा वक्त चाहिए। और एक-एक बात को याद भी नहीं करना चाहती।’ 
स्ट्रॉबरी के दो कप लेकर वे दोनों प्लेटफार्म के आखिरी छोर पर एक खाली बेंच पर जाकर बैठ गईं। 
रोमी, औरत की आजादी और अधिकारों की बातें जोर-शोर से की जा रही हैं। सभाएं, गोष्ठियां, रैलियां, नेतागीरी और पता नहीं क्या हो रहे हैं इसके नाम पर। लेकिन समाज के बंधन और घरों की दीवारें कितनी कठोर और मारक हैं औरतों के लिए, इसका अंदाजा हम खुद नहीं लगा सकतीं।आम्ना का स्वर अवसाद ढो रहा था। 
रोमी ने स्वीकृति में सिर हिलाया, होंठों पर दांतों का दबाव बनाया। आम्ना के शब्द उसे अपने लग रहे थे। लेकिन वह कुछ बोली नहीं। वास्तव में अभी बस आम्ना को सुनना चाहती थी। 
मेरा सारा आदर्श, सारी हेकड़ी मेरे घरवालों की वजह से ही टूट गई।धरती पर नजर टिकाए बोल रही थी आम्ना, ‘छोटी थी तो लगता ही नहीं था कि कभी अब्बू-अम्मी का साथ छूटेगा। थोड़ी सयानी हुई तो समझने लगी कि हर लड़की तरह मेरे लिए भी एक अलग घर तलाशा जाएगा। लेकिन यह नहीं समझती थी कि अब्बू-अम्मी से सालों-साल के लिए अलग हो जाऊंगी।  
निकाह के बाद नए घर में जा बसी। कई तरह की खुशियां, कई तरह के सपने साथ ले गई थी। लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि वह अब्बू-अम्मी के घर जैसा नहीं है। मायके में कम-से-कम अपने मन से हंस-बोल तो सकती थी। ससुराल के नियम-कायदों में जल्द ही घुटन महसूस करने लगी थी। मेरे घर में पर्दा न के बराबर था। इसके उलट ससुराल में बेमुरौव्वत पर्दा था। 
हमारी भौजाइयां आई थीं तो इतना जरूर जान गई कि बहुओं को बेटियों की बनिस्बत अधिक खबरदार रहना होता है। लेकिन कभी खयाल भी नहीं आया था कि ससुराल में हंसने-रोने पर भी अपना काबू नहीं रहेगा। हालत यह हो गई कि अगर अपने मन से कभी हंस पड़ी तो गुनाह माना गया और उनके हंसे में साथ नहीं दिया तो आफत आ पड़ी। मेरे आंसुओं तक की पहरेदारी की जाती रही। 
हर काम में खोट निकाला जाता, हर घड़ी पहरे जैसी हालत होती। मेरी सुंदरता, मेरी पढ़ाई, मेरी अक्लमंदी दो कौड़ी की होकर रह गई। दिन भर महरी की तरह खटना और रात तो शौहर के लिए सज-धज कर तैयार हो जाना ही कायदा था। पर यह सब हमसे अधिक दिनों तक नहीं हो सका। घर में कामकाज तो करती रही लेकिन रात को सजने-संवरने में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शायद वह भी कर जाती अगर इरफान उस लायक होता। मगर उसके पास तो कोई तमीज ही नहीं थी। बात करने, पुकारने और बाकी व्यवहार का उसका तरीका बड़ा ही बर्बर था। वैसा कोई अपनी रखैल या फिर गुलाम के साथ ही कर सकता है। 
परफेक्शन होता तो औरत को लेकर इरफान की निहायत घटिया सोच को फिर भी बर्दाश्त कर जाती। लेकिन उसके दिल-दिमाग का कोई कोना रोशन न था। पढ़-लिखकर भी जाहिल था।’ 
कैसे मुलाकात हुई इरफान से तुम्हारी?’ रोमी ने पूछा।
पहले नकार में सिर हिलाया फिर बोली आम्ना, ‘मुलाकात नहीं, महज इत्तेफाक कह सकती हो उसे। लखनऊ में हमारी बड़ी खाला की मंझली लड़की सकीना आपा की ससुराल है। एमए की परीक्षा के बाद कुछ महीने मैं उनके पास रही थी। वहां इरफान का आना-जाना था। वहीं रहते रिश्ते की बात पक्की हो गई।’ 
निकाह से पहले उससे बात नहीं की थी, जिंदगी के बारे में उसके विचारों को जानने की कोशिश नहीं की थी?’  रोमी का प्रश्न सहानुभूति से लबरेज था। 
अब क्या बताऊं…अफसोस कर रही थी आम्ना, ‘पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है खुद पर कि उस इंसान को पहचानने में इतनी लापरवाही क्यों कर गई जिससे रिश्ते की बात चल रही थी। उस दरम्यान मुझसे मिलने, बातें करने और सिर्फ मुझे देखने के बहाने हफ्ते-दस दिन में सकीना आपा के घर आ पहुंचता था इरफान। सकीना आपा और उनके शौहर इन मामलों में पूरी तरह शहराती थे, बावजूद इसके उन्होंने मुझे कभी भी इरफान के सामने आने, उससे बात करने की जिद नहीं की। यहीं उनसे भूल हुई और यहीं मैं चूक गई। एक-आध दफा चाय-नाश्ता रख आने के सिवा शायद ही कभी मैं उसके पास बैठी या बातें की। इसलिए चिकनी-चुपड़ी बातों से सकीना आपा को बरगलाने वाले उनके शौहर के दूर के रिश्तेदार को निकाह से पहले परखने से रह गई। खामियाजा सालों तक भुगतना पड़ा।’ 
आम्ना थोड़ी देर के लिए चुप हो गई, लेकिन अबकी रोमी ने कोई प्रश्न नहीं किया। 
आम्ना ने फिर कहना शुरू किया, ‘निकाह के तकरीबन तीन साल बाद नूरी पैदा हुईं, पांचवें साल जूही। नूरी के वक्त ससुुराल वालों को लगा कि चलो बहू का बांझपन तो टूटा, लेकिन जूही के आने पर तो उनके सब्र का बांध ही टूट गया। लानतों की बौछार होने लगी हम पर। कोई कुछ बोलता, उससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब इरफान के ताने बढ़ने लगे तो बहुत तकलीफ होने लगी। फिर मैंने फैसला कर लिया कि ज्यादा सहूँगी नहीं।
एक दिन इरफान जैसे मूड बना कर आया था। कोई सस्ती शराब पी कर। शायद देसी या ठर्रा। आते ही लगा बकने। जोर-जोर से गालियां देने। बेटा न पैदा कर सकने के लिए। जब तक इरफान बोलता रहा, घर के सभी लोग चुप थे। लेकिन जब मैं पलट गई तो सभी अपनी खोहों से निकल-निकल कर आ जमे। उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि सिर्फ बेटियां पैदा करने वाली औरत उनके खानदान के चिराग से बतकही करे। उनकी आंखें गुर्रा रही थीं, होंठ बुदबुदा रहे थे। लेकिन मैंने भी किसी की परवाह नहीं की और चीख पड़ी, ‘तुम जो पैदा कर सकते हो, वही पैदा हो रहा है। अलहदा अरमान हैं तो डॉक्टरों से जांच करवा कर तसल्ली कर लो।
फिर?’ रोमी रोक नहीं पाई खुद को मानो वह परिणाम से वाकिफ हो। 
फिर क्या…इरफान समेत तमाम लोगों को जैसे काठ मार गया। अपनी खीझ मिटाने के लिए इरफान मारने दौड़ा, बाकी सब उसे ललकारने लगे। इरफान नशे में था या उसका ईमान जवाब दे गया था, कह नहीं सकती, लेकिन डंडा खोजने के बहाने पलंग के नीचे झुका तो पौवे से टकरा कर गिर पड़ा और फिर उठ न सका। थोड़ी देर में बाकी लोग भी खिसक लिए। 
मैंने इरफान को किसी तरह उठा कर बिछौने पर लिटा दिया। चीख-चिल्लाहट सुन कर नूरी और जूही जाग गई थीं। बेहद डरी-सहमी बच्चियों को छाती से लगाकर वहीं जमीन बैठ गई मैं। फिर हम तीनों कब सो गए, पता ही नहीं चला। सुबह नींद खुली तो इरफान वैसे ही बेसुध पलंग पर पड़ा हुआ था। मैं घर के कामों में लग गई।’ 
मेल-मिलाप कर लिया होगा उसने?’ रोमी ने संभावना जताई। 
नहीं, हमारे बीच तनाव बढ़ते ही चले गए।आम्ना की आवाज सख्त थी, ‘बाद में मेरे चाल-चलन को लेकर फब्तियां कसी जाने लगीं। इसके लिए इरफान ने योजना बना ली थी। वो कई दोस्तों को ले आता। वक्त-बेवक्त चाय-नाश्ते का आर्डर दे देता। दोस्तों की खातिरदारी का पूरा खयाल रखने की हिदायत देता। बाद में परिवार वालों के सामने कहता, ‘वे लड़के इसकी वजह से ही यहां आते हैं। यह जानबूझकर उनके सामने जाती है, मटकती है।परिवार वाले भी बुरा-सा मुंह बनाते और चबा-चबा कर अल्फाज निकालते, ‘अब तो सबर ही करो बेटा। हमारी ही गलती थी। ठोक-बजाकर जांच-परख लिया होता तो आज बाईजी के नखरे न उठाने पड़ते। जानते कि ब्याह कर तवायफ ही लानी है तो ढूंढकर कोई ढंग की लाते।’ 
अब तुम्हीं बताओ रोमी, कैसे बर्दाश्त कर पाती मैं यह सब। क्या तुम कर पाती?’ आम्ना का प्रश्न आवेग भरा था। 
रोमी ने नकार में सिर हिलाया और अपने होंठ भींच लिए। 
मैं अपने ईमान और शख्सियत को लेकर कितनी चौकन्नी रही हूँ, तुमने तो देखा है। बावजूद इसके कि अपनी खूबसूरती को मजे में भुना सकती थी। यूनिवर्सिटी में देवू, सलीम और सरवन ने कौन-कौन से जतन नहीं किए अपनी बात मनवाने के लिए, लेकिन सबको मेरी झिड़की ही मिली। वे सभी पढ़े-लिखे थे, खाते-पीते घरों के थे और सबसे ज्यादा..मेरी खातिर हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार थे। अब सोचती हूँ कि जब पाक साफ रहते हुए भी लानत-मलामत ही झेलनी थी तो एक ही आदमी से निभाने की जिद क्यों पकड़े रही।’ 
थोड़ा रुकी, फिर एक लंबी सांस लेने के बाद आम्ना बोली, ‘तीसरी औलाद न हो, इसके लिए मैं पूरी तरह चौकन्ना थी। चुपके से गोलियां ले लेती। लेकिन जब दो साल यूं ही खाली गुजर गए जूही के आने के बाद तो मेरी सास ने इरफान से अपना शक जताया। इरफान ने मुझसे बात की। मैंने साफ कह दिया, तीसरी औलाद की दरकार नहीं है मुझे और जल्द ही मैं नसबंदी कराने वाली हूूं। बस फिर क्या था, इरफान ने मेरी वो पिटाई की कि मैं सह नहीं पाई। जब होश आया तो खुद को हॉस्पिटल में पाया।’ 
फिर?’ रोमी सिमट कर और करीब आ गई। बहुत दुख हो रहा था उसे आम्ना का जिंदगीनामा सुनकर। 
दस दिन तक अकेली हॉस्पिटल में बेड पर पड़ी रही।आम्ना के होंठों पर तिक्त हंसी उभर आई, ‘न ससुराल से कोई देखने आया न मायके से। घर लौटी तो बच्चियां सूखकर कांटा हो गई थीं। रोते-रोते और मार खाते उनका बुरा हाल था।’  
तुमने कुछ नहीं कहा?’ रोमी को गुस्सा आ रहा था। 
वहां कहने-सुनने जैसी हालत नहीं थी।आम्ना संयत थी। बोली, ‘उसके अगल ही महीने इरफान ने मुझे तलाक दे दिया।
सच कह रही हो?’ रोमी को वाकई विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोच रही थी कि अधिक से अधिक दोनों के बीच तकरार और बढ़ गया होगा। 
हां रोमी, इन्हीं दो बच्चियों तक मेरी दुनिया आबाद है।एक खालीपन लिए हुए थे आम्ना के बोल। 
गुजारे के लिए कुछ दिया उसने?’ रोमी कुछ ज्यादा ही चिंतित हो उठी थी।
उसकी मैंने परवाह नहीं की।भावुकता पर काबू रखने की कोशिश करती बोली आम्ना, ‘मैं नहीं चाहती थी उन पचड़ों में पड़ना। बेटियों को अपने दम पर पालना चाहती थी, वही कर रही हूँ। मेरे पास अब्बू-अम्मी के दिए जेवरात थे ठीक-ठाक। उनमें से कुछ के बदले बैंक से लोन ले लिया पचास हजार रुपये।
घर के किसी मेंबर ने साथ नहीं दिया तुम्हारा?’
इरफान से अलगाव के पहले एक बार मैं गई थी उसके बपौती गांव रहमतगंज कि शायद कोई इंसाफ पसंद हो खानदान में। कोई तो होगा जो इंसानियत का पक्ष लेगा। लेकिन किसी ने मेरी बातों पर कान नहीं दिया, उल्टे कुछ अटपटा ही सुना दिया। यहां तक कि देवर रिजवान ने भी, जिसे मैंने ससुराल रहते खूब प्यार और इज्जत दी। एक बार पूछा तक नहीं कि आगे कहां और कैसे रहूँगी।
सकीना आपा और उनके शौहर हमसे सहानुभूति रखते थे, मगर उनकी भी अपनी दुनिया थी, अपने मुश्किलात थे। फिर उनके प्रति एक तरह की नाराजगी घर कर गई थी मेरे भीतर, इरफान से रिश्ता जुड़ने के तईं।
मायके लौट जाती?’
मायके मैं लौटना नहीं चाहती थी। अब्बू-अम्मी होते तो फिर भी हिम्मत कर लेती, लेकिन भाइयों की तंग दुनिया में मेरा गुजारा आसान न था। वहां जाकर अपना स्वाभिमान खोना मुझे गवारा न था।’  
इरफान कभी पलट कर नहीं आया?’
आया, कई बार आया।पटरी पार झगड़ते कुत्तों पर नजर गड़ाए बोली आम्ना, ‘..लेकिन दर्द सहलाने नहीं, बल्कि जिंदगी में और भी ज्यादा जहर घोलने के लिए। कई बार खुद आया डराने-धमकाने के लिए, कई बार दूसरों को भेजा।
वो क्यों भला?’
बस यूं ही, परेशान करने के लिए। मुझसे या मेरी बेटियों से कोई हमदर्दी तो थी नहीं उसे। बस, दिखाना चाहता था कि उसके बगैर स्टैब्लिश करना आसान नहीं होगा मेरे लिए। हुंह..!हिकारत से कंधे को एक झटका दिया आम्ना ने। बोतल से दो घूंट पानी हलक के नीचे डालने के बाद बोली, ‘मेरे संघर्ष के दिनों में उसने बेहयाई का नंगा नाच किया। जिसे अपनी बेटियों की आबरू का भी खयाल न हो, उसकी बेहूदगी के बारे में सोचकर ही घिन आती है। फिर भी बताती हूँ तुम्हें।
तलाक के बाद शुरू में हमने सड़क किनारे ही एक कमरा ले लिया था किराए पर। उसी में परचून की दुकान चलाती और तीनों मां-बेटियां रहती भी थीं। गुसलखाना अंदर कॉमन था। कई परिवार रहते थे। तीन तल्ला बड़े मकान में जन्मी-बढ़ी आम्ना कैसे एक छोटे से कमरे में बेटियों सहित रहती-कमाती थी…काश, तुम अपनी आंखों से देख पाती! 
दो पुलिस वाले अक्सर मेरी दुकान पर आते और बिस्कुट, दालमोट या टॉफी लेने के बहाने घूरते रहते। उनकी बातें भी बेहयाई से भरी होतीं। हालांकि वे अपने में बतियाते लेकिन इशारा हमारी तरफ ही होता। खैर, लड़कियों-औरतों के लिए फिकरेबाजी कोई नई बात नहीं है। सब समझते हुए अनजान बनी रही। 
एक दिन उन हरामजादों ने मेरे अलावा नूरी और जूही को समेटते हुए ऐसी बात कह डाली कि मैं सावन-भादों की नदी की तरह उफना गई। खूब चीखी-चिल्लाई, गंवार औरत की तरह उन दोनों को भद्दी-भद्दी गालियां दी। आस-पड़ोस और सड़क पर आ-जा रहे सैकड़ों लोग जमा हो गए। अपनी फजीहत होते देख वे दोनों वहां से खिसक लिए। उसके बहुत बाद तक मैं बोलती-चीखती उनकी करनी लोगों को बताती रही। बाकी लोगों ने तो अपनी राह पकड़ी, लेकिन पड़ोसियों ने हमारी परेशानी जरूर समझी।   
कोई घंटे भर बाद सब कुछ शांत हो गया। लेकिन मैं भीतर ही भीतर खौलती रही। रात को जल्दी दुकान समेट कर सो गई। करीब दो बजे रात को किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया। पहले तो मैं समझी कि हवा के झोंके से दरवाजा हिल रहा होगा। लेकिन बार-बार खट-खट होने और उसकी लय से समझ गई कि कोई खटखटा रहा है। मेरा तो सर्वांग सिहर उठा। अकेली औरत…आधी रात…और बाहर किसी अजनबी की उपस्थिति। मेरी धड़कनें तेज हो गईं… धौंकनी हुई छाती को काबू में करने के लिए मैंने अपने होंठ भींच लिए। नूरी और जूही को छाती से जकड़ लिया। कई बार खटखटाने के बावजूद जब हमने कोई आवाज नहीं दो तो बाहरवाले ने किवाड़ जोर से भड़भड़ाना शुरू कर दिया। तेज-तेज आवाज में गालियां बकते हुुए दरवाजा खोलने के लिए कहने लगा। उसकी आवाज की लड़खड़ाहट से स्पष्ट था कि उस पर शराब चढ़ी हुई थी। 
मुझे लगा कि आज मेरा सारा सत नाश होकर रहेगा। रात के अंधेरे में कोई मेरा दरवाजा भड़भड़ाए तो मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे-कहेंगे। कितनों को मैं समझा पाऊंगी कि बाहर कौन था, मुझे पता नहीं। इतना तो तब होगा जब सुबह होगी। उसके पहले ही बाहर खड़ा शैतान दरवाजा तोड़कर भीतर घुस आए तो मैं क्या करूंगी। अकेली जान उससे मुकाबला करूंगी या दो नन्हीं जान की हिफाजत। 
मैं बुरी तरह कांप रही थी। मेरी आंखों से जार-जार आंसू निकल रहे थे। अब्बू-अम्मी की बेतहाशा याद आ रही थी। 
कयामत की रात थी वह। मैं जीना चाहती थी और बाहर खड़ी हैवानियत मेरा दरवाजा खटखटा रही थी। एक-एक लम्हा मौत बन गया था।’ 
आम्ना की व्यथा-कथा से सकते में थी रोमी। चेहरे को हथेलियों से दबाया और दुख में डूबी सहेली को टुकुर-टुकुर ताकने लगी।
आम्ना बोलती रही, ‘बच्चियां उठ न जाएं, इसलिए मैं दम साध कर रो रही थी लेकिन दरवाजा पीटे जाने से बच्चियां जाग गईं और मुझे रोती देख खुद जोर-जोर से रोने लगीं। 
यह अच्छा ही हुआ। अड़ोसी-पड़ोसी जो अब तक जाग गए थे और शायद हालात का मन-ही-मन जायजा ले रहे थे, बच्चियों के बेतहाशा रोने से बाहर निकल आए। बाहर कौन है.. क्या बात है.. पूछने वाली कई आवाजें आने लगीं तो मुझे तसल्ली हुई। मैंने अपनी उखड़ती सांस को काबू किया और साहस बटोरकर दरवाजा खोल दिया। 
वही दोनों पुलिस वाले थे। शराब के नशे में धुत अंट-शंट बक रहे थे। अपनी ही आवाज पर उनका वश नहीं था। जुबान और शरीर दोनों से लड़खड़ाते हुए मेरे मकान मालिक को हड़का रहे थे, ‘रंडी को घर में रखते हो? धंधा करवाते हो? अभी…और इसी वक्त अंदर कर दूंगा।
मकान मालिक को काटो तो खून नहीं। आग बबूला होकर दोनों सिपाहियों को जुबान संभालने की हिदायत दे रहे थे। दूसरे पड़ोसी भी उन्हें दुत्कार रहे थे। लेकिन वो बदजात अपनी खीझ मिटाने के लिए जोर-जोर से गालियां बके जा रहे थे। 
इसी बीच किसी ने फोन से थाने पर सूचना दे दी। दस मिनट के भीतर पुलिस की एक जीप वहां आ लगी। दरोगा के कड़ाई से पूछने पर उन सिपाहियों ने सच उगल दिया। हम मां-बेटियों को परेशान करने के लिए इरफान ने उन्हें पैसे दिए थे।
ओह नो…!!रोमी का मुंह खुला रह गया। आंखें फैल गईं। उसने अपने मुंह पर हाथ रख लिया। 
हां रोमी, यही सच है।आम्ना के होठों पर हंसी विकृत हो गई। 
आदमी इतना घटिया हो सकता है, विश्वास नहीं होता।अवसादग्रस्त थी रोमी। 
फिर भी मैं मानती हूँ कि सब वैसे नहीं होते। हां, उस घटना के बाद से इरफान नामक शख्स के बारे में सोचती भी नहीं।’  
लेकिन उसका हुआ क्या?’ 
बेहूदों को शर्मो-हया तो होती नहीं। सुना है तीसरी शादी करने जा रहा है।’ 
और दूसरी?’
दूसरी उम्र में बहुत छोटी थी। मारपीट से आजिज होकर कहीं भाग गई।’ 
अरे, कितनी शादियां करेगा। किसी को तो दिल से अपनाए?’ 
देह उसका आखिरी मुकाम है। वहीं से शुरू होकर वहीं खत्म होता है। देह की सीमा जो पार नहीं कर सका वो दिल की भाषा कैसे समझ सकता है भला।दार्शनिक अंदाज में अपनी बात खत्म कर चुप हो गई आम्ना।
बेंच पर सिर टिका कर आंखें मूंद ली रोमी ने। सोचने लगी कि कैसे बताऊं आम्ना से कि उसने भी कम जलालत नहीं झेली है। कि वह खुद अपने हसबैंड से अलग रहती है। आखिरी सवाल पूछने के लिए वह आम्ना की ओर मुखातिब हुई, ‘आगे क्या अकेले रहने का इरादा है?’
आम्ना को इस सवाल का जैसे पहले से इलहाम था। छूटते ही बोली, ‘किसी और पर विश्वास करने का दांव अब नहीं खेलना चाहती। वैसे भी अकेली हूँ कहां। दो-दो बेटियां हैं साथ में। उनकी और अपनी जिम्मेदारी निभाते जिंदगी कट जाएगी।’ 
हमारी तकदीर किसी लिजलिजे और डरपोक किस्म के देवता ने लिखी होगी आम्ना!गंभीर हो उठी थी रोमी। बोली, ‘इसलिए तमाम काबिलियत और खूबियों के बावजूद हम जिंदगी की दौड़ में मर्दों के हाथों पिट जाती हैं।
रोमी को गौर से देखने लगी आम्ना। मुस्कुरा कर पूछा, ‘क्या बात है, पत्रकार महोदय से पटरी नहीं बैठ रही?’ 
पटरी बैठने का सवाल ही नहीं उठता।तेज बोल रही थी रोमी, ‘जिसकी कथनी-करनी में मेल नहीं हो, जो दिखावे की जिंदगी जी रहा हो। जो अपनी कमियां ढंकने के लिए दूसरों के चरित्र पर कीचड़ उछालता हो, उसके साथ पटरी कोई धर्मभीरू और पतिपरायण महिला ही बैठा सकती है। मुझसे संभव नहीं था, सो दोनों अलग-अलग हो गए।
अरे, पत्रकार हैं तो इंटेलेक्चुअल होंगे यार!आम धारणा के तहत अपना मंतव्य रखा आम्ना ने।  
सुअर की नेड़ी हैं।फनफना उठी रोमी, ‘शो तो ऐसा करता है जैसे बहुत बड़ा इंटेलेक्चुअल हो लेकिन उसकी हकीकत मैं जानती हूँ। वे सब जानते हैं जो उसके करीब रह चुके हैं। छंटा हुआ बदमाश है। सफेदपोश।
क्या हो गया?’ बुजुर्ग की तरह पूछ रही थी आम्ना, ‘क्या नाम है उनका?
नागों का इंद्र…नागेन्द्रबुरा सा मुंह बनाया रोमी ने। 
अरेंज थी या लव मैरिज?’ आम्ना जड़ से ही तकरार के सूत्र पकड़ना चाह रही थी। 
अफसोस इसी बात का है कि लव मैरिज की थी मैंनेरोमी भुनभुनाई, ‘जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी।
मैं तो चलो अरेंज मैरिज की वजह से समझ नहीं सकी इरफान को। शादी से पहले हमने इसकी कोशिश भी नहीं की, मगर तुम्हें तो जांचने-परखने का मौका मिला था यार?’ आम्ना ने टहोका। 
अब क्या बताऊं आम्ना। गलती पर महज अफसोस ही कर सकती हूूं।बहुत दुखी हो गई रोमी, ‘दरअसल हम लड़कियां अपनी भावुकता की वजह से कदम-कदम पर ठोकरें खाती हैं। किसी ने चिकनी-चुपड़ी बातें की नहीं कि हम सपनों के समुुद्र में तैरने लगती हैं। इसका पूरा फायदा मर्द जात उठाती है। तुम्हारा सवाल जायज है आम्ना, हमें उसके नेगेटिव्स को प्वाइंट करना चाहिए था शादी से पहले। उसकी बातचीत और व्यवहार के तरीकों में ही कई संकेत मौजूद थे जिससे खबरदार हुआ जा सकता था। मगर क्या है कि जब किसी से बेइंतहा प्यार करो तो उसके बारे में नेगेटिव प्वाइंट को ढूंढने वाला तंतु पता नहीं कहां गायब हो जाता है या क्षीण हो जाता है।’ 
एक छोटी सी चुप्पी के बाद रोमी ने कहना शुरू किया, ‘सेमिनारों, गोष्ठियों में आते-जाते नागेन्द्र से मेरी मुलाकात नजदीकी में बदल गई। उसके प्रगतिशील विचारों और औरतों के प्रति खुले सोच पर मैं लट्टू होती चली गई। शहर के एक संपन्न और चर्चित अखबार का फीचर एडीटर शादी का ऑफर कर रहा हो तो कोई अपरिचित लड़की भी शायद ना न करती, मैं तो खैर उसके प्रेम पाश में जकड़ जुकी थी। बेइंतहा प्यार करने लगी थी उससे। उस झोंके में इतना भी सब्र नहीं रहा कि तसल्ली से उसके घर-परिवार की खोज-खबर ली जाए। मम्मी-पापा को अपने फैसले के बारे में सूचना दे दी जाए। विवेक को ताक पर रख कर उससे शादी कर ली। बाद में मम्मी-पापा को बताया।  
मम्मी-पापा की दरियादिली थी कि उन्होंने ज्यादा विरोध नहीं किया। दुख जरूर हुआ उन्हें, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि चलो बेटी ने लड़का ठीक ही चुन लिया है। नागेन्द्र को बुलाया, उसका उचित सम्मान किया। तब तक नागेन्द्र का बर्ताव भी ठीक-ठाक ही था। मुश्किल तब पैदा हुई जब मैंने ससुराल जाने की इच्छा जताई। वह मुझे अपने घर ले जाने से मुकरने लगा, मेरे बार-बार कहने पर झंुझलाने लगा। उसका यह बर्ताव अखरने वाला था। मैंने इसकी वजह जानना चाहा तो उसने यह जताने की कोशिश की कि घरवालों से उसके संबंध अच्छे नहीं हैं। उसने अपने दम पर पढ़ाई पूरी की है और नौकरी पाई है। अब फिर उस जंजाल में लौटना नहीं चाहता है। 
उसने अपनी बातों का झांसा दे कर तत्काल मुझे मना लिया। लेकिन बहुत जल्द उसकी असलियत पर से पर्दा उठने लगा। उसके कई तरह के फोन आते। लड़कियों के उलाहने होते, पैसों की वापसी का तगादा होता। पूछती तो नागेन्द्र कहता कि उसके यार-दोस्त जानबूझकर फोन करते हैं मुझे चिढ़ाने के लिए भाभी के रिश्ते के तईं। लेकिन उसकी बातों से मुझे संतोष नहीं हुआ। 
शक तो मुझे हो ही गया था। उसकी तह तक जाने के लिए मैं उसके फोन पर नजर रखने लगी। कुछ ऐसे फोन सुनने को मिले कि मैं बौखला गई। मैंने पापा को चुपके से उसके गांव भेजा। जब वह लौट कर आए तो तूफान खड़ा हो गया मेरी जिंदगी में। नागेन्द्र पहले से शादीशुदा था। अपनी पहली पत्नी को गांव में ही छोड़ रखा था। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए उसके पास फटकता भी नहीं था। 
धत् तेरी की..इन मर्दों की ऐसी की तैसीगुस्से में दांत किटकिटाया आम्ना ने।
मेरे दिल पर क्या गुजरी क्या बताऊं आम्ना।दिल की गहराइयों से बोल रही थी रोमी, ‘गलती खुद की थी मैंने, इसलिए मन-ही-मन घुटने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती थी। दो-चार दिन बंद कमरे में जी भर कर रोयी-धोयी। 
मुझे समझाने-बरगलाने की खूब कोशिश की नागेन्द्र ने, लेकिन मैं उसे और मौका देने के पक्ष में कतई नहीं थी। जब उसने देखा कि मैं अपनी जिद से हटूंगी नहीं तो पलटवार करते हुए रॉकी को लेकर मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की कोशिश की।’ 
इस रॉकी को लेकर?’ आम्ना की जिज्ञासा बढ़ी।
हां…इसी रॉकी को लेकर’, ठंडी सांस ली रोमी ने।
क्या रिलेशन है तुम्हारा इससे?’ स्वाभाविक सवाल था आम्ना का।
रॉकी नागेन्द्र का चचेरा भांजा है।पहलू बदलते हुए रोमी ने कहा, ‘लेकिन हमउम्र होने की वजह से दोस्ताना था उनमें। नागेन्द्र से मेरी दोस्ती को शादी में बदलवाने में रॉकी का अहम हाथ रहा था। बिलकुल घुले-मिले रहे हम शुरू से। कभी मामी-भांजा रिश्ते को लेकर तो कभी दोस्ताना मजाक हो जाता था हमारे बीच। इसी को आड़ लेकर नागेन्द्र ने उसका नाम मेरे साथ गलत ढंग से जोड़ दिया।’ 
क्या यार! पढ़ा-बेपढ़ा सबका खयाल बराबर है औरतों के मामले में।खीझ गई आम्ना।
ऐसोंं की संख्या सौ में नब्बे जरूर होगीरोमी ने समर्थन किया, ‘नागेन्द्र को ही लो। बातचीत में, लेखों में, सभा-गोष्ठियों में संवेदनशीलता, वैचारिक क्रांति, लैंगिक समानता, मानवतावाद और पता नहीं कैसे-कैसे गरिष्ठ, शिष्ट शब्दों की जुगाली करता रहता है, लेकिन हकीकत में जस्ट रिवर्स। कथनी-करनी में कोई मेल नहीं। …दुष्चरित्र और बेहूदा।
फिर क्या किया तुमने?’ आम्ना निर्णय सुनना चाहती थी।
नागेन्द्र से सब दिन की खातिर नाता तोड़ लिया।रोमी की आवाज में हिकारत थी, ‘मेरे और उसके बीच किसी तरह का साझा या अपनापा नहीं है। न आना न जाना, न बातचीत न भेंट-मुलाकात। कुछ भी नहीं।
अच्छा किया’, आम्ना को अपनी ससुराल वाली हालत याद आ गई, ‘घुट-घुट कर जीने वाली नेक बहू बनने की कोई जरूरत नहीं है। जीने के लिए हम किसी के मोहताज नहीं हैं यार। रोटी-कपड़ा जुटाने की कूव्वत है हममें।…ताली सुननी हो तो दूसरे को भी चोट सहने के लिए बराबर से तैयार रहना होगा।’ 
बिलकुल’, रोमी ने आम्ना की बातों का समर्थन किया, ‘दो साल भी नहीं टिक सका मेरा और नागेन्द्र का वैवाहिक जीवन। अलग होते वक्त केशू पेट में ही था, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह मेरे साथ है। उसके लिए मुझे कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। और नागेन्द्र अपनी संतान को पाने के लिए बहुत इच्छुक भी नहीं था। कुछ दिन तो पापा के यहां रही। फिर अपना घर तैयार हो गया तो उसमें शिफ्ट कर गई। जब भी कहीं आना-जाना होता है या कोई बड़ी जरूरत आ पड़ती है तो रॉकी को बुला लेती हूँ। उसकी पत्नी भी आ जाती है। अभी वह गर्भ से है, डॉक्टर ने बड़ी यात्राएं करने से मना किया है, वरना आज उससे भी तुम्हारी मुलाकात हो जाती।
अच्छा होता, उस खुशनसीब से भी मिल लेती। मां बनने के लिए मेरी ओर से बधाई देना उसे।’ 
जरूर’, आम्ना को आश्वस्त किया रोमी ने। 
देखने से ही रॉकी कायदे का आदमी लगता है।यार्ड की तरफ से आ रहे इंजन को देखते हुए आम्ना ने कहा, ‘विश्वास बड़ी चीज है उसे चाहे शौहर निभाए या दोस्त।
रोमी ने आकाश की ओर देखा। सुबह दस्तक देना चाह रही थी। आम्ना ने कहा, ‘बच्चियां जाग गई होंगी।’ 
उन्हें अब जाग ही जाना चाहिए।आश्वस्ति से बोली आम्ना। 
बेंच छोड़कर दोनों ने अंगड़ाइयां लीं। वेटिंग रूम की तरफ बढ़ीं तो देखा सामने से नूरी, जूही और केशू हमजोली बनाए उनकी तरफ ही चले आ रहे थे मुस्कुराते हुए। 
रोमी और आम्ना ने एक-दूसरे को देखा और सुखद अहसास से भर उठीं। कौवे सुबह के गीत गाने लगे, कुत्तों ने भोजन की तलाश शुरू कर दी। प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन लगने जा रही थी। चाय-पान वालों की आवाजें तेज हो गईं, गमछी झाड़ कर पगड़ी बनाते कुली बोगियों की तरफ दौड़ने लगे। 

सम्पर्क –  

एचएमवीएल, शीशमहल टावर
24/30, महर्षि दयानंद मार्ग,  
सिविल लाइंस, इलाहाबाद-211001.


मोबाइल : 9532617710


ई-मेल : iamsatyaketu@gmail.com 

दूधनाथ सिंह की कहानी ‘रक्तपात’।

दूधनाथ सिंह 

साठोत्तरी कहानी आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह ने हाल ही में अपने जीवन के अस्सी वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस अवसर पर पिछले महीने हम उनकी एक कहानी पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में आज पहली बार पर पढ़ते हैं उनकी एक और चर्चित कहानी – ‘रक्तपात 
  

रक्तपात

दूधनाथ सिंह
आहट-सी लगी। हाँ, पत्नी ही थीं। पलंग से कुछ दूर पर अँगीठी रख रही थीं। एक हाथ में परोसी हुई थाली थी। अँगीठी रख कर वे पलंग की ओर गयीं। पलंग से कुछ ही दूर पर बुढ़िया एक खाट पर चुपचाप बैठी थी। पत्नी ने थाली बुढ़िया के आगे रख दी। बुढ़िया एकटक उनका मुँह ताकती मुस्कराती रही। उन्होंने हाथ से थाली की ओर इशारा किया। बुढ़िया ने एक बार थाली की ओर देखा और फिर उनकी ओर, फिर मुस्करायी। पत्नी ने फिर थाली की ओर इशारा किया तो बुढ़िया ने थाली उठा कर अपनी गोद में रख ली और बड़े-बड़े ग्रास तोड़ कर निगलने लगी। वे चुपचाप बिना कुछ कहे नीचे उतर गर्इं। दुबारा लौटीं तो उनके एक हाथ में एक छोटी-सी पतीली थी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा। पतीली को अँगीठी पर रख कर वे फिर बुढ़िया की खाट के पास गयीं और पानी का लोटा नीचे रखते हुए बुढ़िया को उँगली के इशारे से दिखा दिया। बुढ़िया ने एक बार लोटे की ओर देखा और उनकी ओर देख कर फिर मुस्कराने लगी। ऐसा लगता था, जैसे केवल मुस्कराना-भर उसे आता हो और कुछ भी नहीं। फिर वह खाने में मशगूल हो गयी। रोटी के खूब बड़े-बड़े कौर तोड़ती और मुँह में डाल कर चपर-चपर मुँह चलाती। कौर अभी खत्म भी न हुआ होता कि फिर रोटी का एक बड़ा-सा टुकड़ा सब़्जी और दाल में लपेट कर वह मुँह में ठूँस लेती।
इन्हें इसी तरह खाने की आदत पड़ गयी है।पत्नी ने कहा। वे चुपचाप पलंग के पास खड़ी थीं।
वह बिना कुछ कहे बुढ़िया को देखता रहा।
“और जब से ऐसी हो गयी हैं, खुराक काफी बढ़ गयी है…’’
‘‘बड़ी फूहड़ हो गयी हैं। कुछ नहीं समझतीं जहाँ खाती हैं वहीं…’’
फिर भी वह कुछ नहीं बोला तो पत्नी बैठ गयीं। बालों में हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘क्या किया जाये, कोई बस नहीं चलता।…अच्छा, मैं नीचे का काम निपटा कर अभी आयी। आप जरा अँगीठी की ओर खयाल रखनादूध उ़फना कर गिर न जाये।”
वे उठ कर जाने लगीं।
सीढ़ियों के पास से मुड़ कर उन्होंने कहा,  ‘‘सो न जाइएगा, हाँ।” वे मुस्करायीं और नीचे उतर गयीं।
करवट बदल कर वह दूसरी ओर देखने लगा। सामने बरगद का वही विशालकाय वृक्ष जन्म-जन्मान्तर से इस कुल के सुख-दुख का साक्षी। कितना घना अन्धकार… कितने दिनों बाद उसने देखा था, इतना ठोस, गझिन, शीतल और मन को सुकून देने वाला अन्धकार। शायद दस वर्षों बाद। यह बरगद का पेड़ वैसा ही था। ऊपर की एक-दो डालें आँधियों में टूट गयी थीं और उसकी गोल-गोल छाया के बीच, ऊपर से गहरा, काला खन्दक-सा बन गया था। जहाँ-तहाँ जूगुनू नन्हें-नन्हें पत्तों के बीच दमक कर हल्का-सा प्रकाश फेंक जाते। पत्ते दिप कर, अँधेरे में फिर एकाकार हो जाते। एक, दो, तीन, चार, पाँच, दस और फिर असंख्य जुगुनू-जैसे पूरा पेड़ उनका सुनहरा घोंसला हो। पीछे की ओर घनी बँसवारियाँ थीं। बाँसों का एक झुरमुट छत के एक कोने तक आ कर फैला हुआ था। हवा की हल्की थाप पर पत्तियों का झुनझुना रह-रह के बजता और फिर खामोश हो जाता। एक ओर कटहल के दो पेड़ अन्धकार को और भी घना करते हुए चुप थे। दरवा़जे के बाहर, नीचे दादा सोये हुए थे। नाक बज रही थी। उसने घड़ी देखी… दस। कान के पास ले जा कर वह घड़ी के चलने की आवा़ज सुनता रहा चिङ-चिङ, चिङ चिङ, चिङ चिङ…जैसे विश्वास नहीं हो रहा था कि दस बजे इतना खामोश अँधेरा चारों ओर हो सकता है…
इससे पहले जब वह घर आया था…उस बार भी दादा ने ही लिखा था, पिता की मृत्यु के बारे में। फिर तार भी दिया था। वह चुपचाप पड़ रहा। जिनके यहाँ रहता था, उन्हीं के लड़के से चिट्ठी लिखवा दी कि प्रभु जी यहाँ नहीं हैं। बाहर गये हैं। कब तक लौटेंगे, किसी को पता नहीं। कहाँ गये हैं यह भी किसी को नहीं मालूम…फिर दिन-भर वह घर में ही पड़ा रहता नंग-धड़ंग, बिना खाये-पीये अपनी नसों की आहट सुनता। बीच-बीच में कभी-कभी वह सोचता कि यह खबर गलत है। दादा ने झूठ-मूठ ही लिख दिया है, उसे घर बुलाने के लिए। लेकिन नहीं, इतना बड़ा झूठ दादा जी नहीं लिख सकते। उसने लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया। एकदम नंगी, वीरान सड़कों पर वह चलता चला जाता…चला जाता… तब तक, जब तक थक कर चूर-चूर न हो जाये। कहीं नदी के किनारे पानी में पैर डाले बैठा रहता…। इसी तरह कई महीने गु़जर गये थे। दादा की चिट्ठी आयी माँ बहुत उदास हैं। दिन-रात रोती रहती हैं। उसे बुलाती हैं…
चुपके-से बिना सूचित किये वह घर चला आया था। माँ दिन भर रोती रहीं। वह चुपचाप उनके पास एक अपराधी की भाँति बैठा रहा। माँ अन्यमनस्क भी लग रही थीं। धीमे से एक बार कह भी डाला ऐसे पूत का क्या भरोसा! जो अपने बाप का न हुआ वह और किसका होगा…” रात हुई तो वह बाहर ही सोया। माँ आयीं और चुपके-से चादर उढ़ा गर्इं। माथा छू कर देखा। बालों में हाथ फेर कर ललाट पर बिखरी लटें हटा दीं। तलुवे सहलाये। फिर चुपचाप चली गर्इं। बचपन से ही माँ की यह आदत थी। जब-जब वह चादर फेंक देता, माँ उठ-उठ कर ठीक से उढ़ा दिया करतीं। नींद आने के लिए तलुवे सहलातीं, सिर उठा कर तकिये पर रख देतीं… ।
लेकिन दूसरे दिन माँ आयीं और चुपचाप पायताने बैठ कर पैर दबाने लगीं। उसे लगा कि माँ सिसक रही हैं। वह उठ कर बैठ गया। कितना असह्य था, माँ का यह रोना…यह सब-कुछ! माँ को वह क्या कह सकता था? माँ क्या सब जानती नहीं थीं? शायद पिता भी जानते थे और सारा घर जानता था। लेकिन कोई भी क्या कर सकता था! ठीक है, जो हो रहा है वही होने दोउसने सोचा। उसे लगा कि कहीं कुछ घट नहीं रहा है। सब-कुछ अपनी जगह पर एकदम अचल है। वह जड़ हो गया हैअपने से भी पराया… माँ तलुवे सहलाती हुई सिसक रही थीं। उसके मुँह से कुछ नहीं निकला। आखर माँ ने उठते हुए कहा था,  ‘‘बेटा! इतना हठ किस काम का! पिता तेरे क्या कम दुखी थे? लेकिन बेटा! बड़ों से कोई अपराध हो जाये तो उन्हें इस तरह कहीं स़जा दी जाती है। पिता तो परमात्मा है। और फिर वे भी क्या जानते थे? बेटा! बड़ा वह है जो अपनी तऱफ से सभी को क्षमा करता चले। और वह तो फिर भी नाते में तेरी बहू है… कहीं कुछ और हो जाये तो इस हवेली की नाक कट जायेगी।माँ फुसफुसायीं … ‘‘अभी कुछ नहीं बिगड़ा है…चल, उठ।” माँ ने बाँह पकड़ के उठा लिया।
यही पलंग था। ऊपर आ कर वह चुपके से लेट गया था। पत्नी आयीं और खड़ी रहीं, फिर मुस्कराती रहीं।
बैठ जाइए।उसने कहा।
शहर तो बहुत बड़ा होगा,’’ वे बैठती हुई बोलीं।
जी’’, उसने स्वीकार भाव से कहा।
हमने भी शहर देखे हैं।
जी!’’
कह रही हूँ हमने भी शहर देखे, लेकिन हम कोई रण्डी थोड़े हैं।
जी?’’ वह घूम कर पत्नी को देखता रहा।
वे मुस्करायीं, ‘‘सारे इल़्जाम उल्टे हमीं पर…अपने बड़े भोले बनते हैं। कितने घाटों का पानी पिया?’’
जी!’’ वह उठ कर बैठ गया, ‘‘क्या यही सब सुनाने के लिए…’’ वह उठ कर खड़ा हो गया।
बहुत खराब लगता है। और नहीं तो क्या? वहाँ तप करते रहे! मर्द तो कुत्ते होते ही हैं। इधर पत्तल चाटी, उधर जीभ चटखारी, उधर हँड़िया में मुँह डाला।… सभी लाज-लिहाज तो बस, हमारे ही लिये है।
रात के दो बज रहे थे, जब वह स्टेशन पहुँचा था। सुबह होने के पहले ही वह गाड़ी पर सवार हो चुका था और दिन निकलते-न-निकलते उसे गहरी नींद आ गयी थी। लोगों के पैरों से कुचला जाता हुआ, एक गठरी की तरह, नींद में गर्व वह पड़ा रहा।


दादा की चिट्ठियाँ आती रहीं। हर मनीआर्डर फार्म पर नीचे माँ की अनुनय-विनय-भरी चन्द सतरें… फिर अलग से पत्र। उसने लिख दिया,  अब चिट्ठी तभी लिखूँगा जब बीमार पड़ूँगा। न लिखूँ तो समझना माँ, कि तुम्हारा लाड़ला बेटा आराम से है। उसे कोई दुख नहीं है।” माँ के पत्र धीरे-धीरे बन्द हो गये। दादा के टेढ़े-मेढ़े काँपते अक्षर याद दिलाते रहे कि माँ जब ज्यादातर चुप रहने लगी हैं। फिर यह कि माँ किसी को पहचान नहीं पातीं। इस बात से उसे जाने क्यों सन्तोष हुआ। दादा लिखते रहे और वह चुपचाप पड़ा रहा। जैसे धीरे-धीरे कहीं सारे सम्बन्ध-सूत्र टूटते गये और वह निर्विकार-सा, भूला हुआ-सा चुपचाप पड़ा रहा। किस बात का इन्त़जार था उसे? शायद किसी बात का नहीं। कभी उसे लगता था कि सभी ने उसे छोड़ दिया है। अब धीरे-धीरे यह लगता था कि उसी ने अपने को छोड़ दिया है…। जिस दुख का कोई प्रतिकार नहीं होता, वह दुख क्या होता भी है…इसी तरह एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष…चार वर्ष। कि एक दिन उसने देखावैसा ही बड़ा-सा सा़फा बाँधे, छ: फीट ऊँचे दादा, सत्तर साल की उम्र में भी उसी तरह तन कर दरवा़जे पर खड़े हैं।
उसका सारा धैर्य और सारा एकान्त जैसे बह गया, उस एक क्षण में ही। किसी भी बात का प्रतिकार नहीं कर सका। दादा जी को रोते देख कर उसके आँसू बन्द हो गये थे…। स्टेशन पर उतरे तो वही पुरानी घोड़ा गाड़ी खड़ी थी। शम्भू कोचवान दस सालों में जैसे बिलकुल नहीं बदला था। घोड़े की पूँछ झर गयी थी और उसके बदन पर जगह-जगह घाव के लाल-लाल चप्पे दिखायी दे रहे थे…। वही रास्ता…धूल-धूसरित गाँव, नदी के लम्बे सूने, दूर-दूर तक खिंचे कगार। अन्तहीन, लम्बे, मरीचिका-भरे मैदान और लू में तपती पृथ्वी की प्यासी आँखों-सा शुष्क और गेरुआ सोता…। बचपन के बारह वर्ष, अपने जिन आत्मीय दृश्यों में उसने गु़जारे थे, बाद के बारह वर्षों में वह दूसरी मर्तबा देख रहा था। एक बार पिता की मृत्यु के बाद घर आने पर और दुबारा अब, दादा के साथ। जैसे सब-कुछ वहीं था उसी तरह। सूने मैदानों में हिरनों के झुण्ड छलाँगें मारते हुए नदी की ओर दौड़े जा रहे थे। कहीं-कहीं बबूल की विरल छाँह में नीलगायों के झुण्ड कान उठाये खड़े थे।… सब-कुछ वही था उस पार बालू का स़फेद सैलाब, ते़ज गरम हवा के झकोरों से क्षितिज तक फैलता हुआ… और सूर्य की अन्तहीन करुणा की रेखा वह नदी… उसने सोचाकैसे कह सकता है वह? किस से कह सकता है अन्तर की इतनी असह्य यन्त्रणा!
एकाएक उसे आरती का खयाल आया। दादा ने बताया था,  आरती आयी हुई है, बहुत हठ से बुलाया है। फिर वे हरी की प्रशंसा करते रहे, ‘बहुत अच्छा लड़का मिल गया। आरती सुखी है। फिर दादा चुप हो गये। आरती सुखी है, जैसे यह बात ही कहीं कुरेद गयी…। फिर वे बयान करने लगे—‘उसके एक बच्चा भी है। दिन-रात रबड़ की गेंद की तरह लुढ़कता रहता है, इस गोद से उस गोद में। अपनी नानी को खूब तंग करता है…लेकिन वह बेचारी तो…दादा फिर चुप हो गये थे। इन बेतरतीब बातों में ढेर सारे चित्र उसकी आँखों के सामने उभर रहे थे। कभी आरती का नन्हाँ रूप। फिर उसका बड़ा-सा भव्य नारी-शरीर। अजीब-अजीब-सा मन होने लगा उसका।
झिलमिलाती हुई आँखों से उसने दादा की ओर देखा। वे झपकियाँ ले रहे थे।
गाड़ी रुकते ही उसने दरवा़जे की ओर ताका। माँ वहाँ जरूर होंगी। लेकिन तभी आरती निकल आयी। एक पल को वह पहचान नहीं पाया। उसकी कल्पना में आरती का यह नक्शा कभी उभरा ही नहीं था। आरती ने झुक कर पैर छुए। वह वैसे ही देखता रहा। फिर दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्करा दिए। फाटक के भीतर घुसते ही वह इधर-उधर झाँकने लगा। कहीं भी माँ होंगी ही। एक विचित्र भाव से सन्त्रस्त और चुप-चुप वह बहन के साथ-साथ आगे बढ़ता चला जा रहा था। झरती हुई लखौरी र्इंटों की दीवारें उसकी आँखों के सामने थीं। उनके आस-पास माँ की छाया तक न दीखी। दालान पार करके आँगन में आ गये। आधे आँगन में दीवार की छाया पड़ रही थी। माँ वहाँ भी नहीं थीं। उसने एक बार फिर बहन को देखा। जवाब में वह मुस्करा पड़ी। फिर वे बैठकखाने में आ गये। बहन ने कहा, ‘‘बैठो, मैं नहाने के लिए पानी रखवाती हूँ।
वह एक पुरानी आराम-कुर्सी पर बैठ गया। बैठे-ही-बैठे उसने फिर इधर-उधर ताका। फिर भी माँ नहीं दिखीं। मुड़ कर पीछे की ओर देखा तो उसकी दृष्टि आँगन के पार, अपने कमरे के सामने खड़ी पत्नी पर पड़ गयी। वह चुपचाप खड़ी इधर ही देख रही थीं। वह सीधा हो कर बैठ गया और आरती का इन्त़जार करने लगा। उसे लगा कि अपने ही घर में वह एक अतिथि है और अपने परिचित कोनों, घरों की दीवारों, ताखों-सीढ़ियों को नहीं छू सकता। हर कहीं एक बाध्यता है…एक न जाने कैसी विवश खिन्नता।…वह उठ कर टहलने लगा।
तभी आरती अन्दर आयी। काँच की तश्तरी में लड्डू और पानी का गिलास। वह बैठ गया।
नहाओगे न?’’
माँ कहाँ है?’’
पहले खा-पी लो तब चलना। पीछे वाले कमरे में होंगी।आरती उठ कर चली गयी।
बिना किसी से पूछे बरामदे से होता हुआ वह पीछे की ओर निकल आया। पत्नी अपने कमरे के दरवा़जे पर खड़ी थीं। उसे आते देख कर उन्होंने हलका-सा घूँघट कर लिया। वह आगे बढ़ गया। कमरे के सामने वह एक पल को ठिठका। किवाड़ उँठगाये हुए थे। उसने हलके-से किवाड़ों को ठेल दिया। खुलते ही एक अजीब-सी सड़ी दुर्गन्ध से नाक भर-सी गयी। उसने नाक पर रूमाल रख लिया और अन्दर दाखिल हुआ। इधर-उधर देख कर उसने यह पता लगाने की कोशिश की कि यह दुर्गन्ध किस ची़ज की है। लेकिन कोई ची़ज वहाँ नहीं दिखी। फिर भी हर ची़ज जैसे दुर्गन्ध में सनी हुई थी… चारपाई, बिस्तर, खिड़कियाँ, छत की शहतीरें, फर्श और स्वयं माँ भी। वह चुपचाप चारपाई की पाटी पर बैठ कर माँ को एकटक देखने लगा। बुढ़िया ने कोई उत्सुकता जाहिर नहीं की। वैसे ही छत की ओर देखती रही।
तभी आरती आ गयी। सिरहाने बैठ कर बुढ़िया के चीकट वालों पर हाथ फिराती हुई बोली, ‘‘माँ!’’
बुढ़िया न हिली-न-डुली, न यही जाहिर किया कि उसे किसी ने पुकारा है। बस, चुपचाप छत की शहतीरें ताकती रही। एकाध मिनट तक दोनों चुप रहे। बुढ़िया ने करवट बदली और उसकी ओर देखने लगी।
माँ! देख, भैया आया है।
बुढ़िया ने इस बार सिर उठा कर बेटी को देखा और हँसने लगी। ‘‘देख, भैया आया है।उसने दुहराया।
हाँ, माँ!’’
बुढ़िया फिर चुप हो गयी और एक पल के बाद उसने आँखें मूँद लीं।
वह चुपके-से उठ आया।
आरती पीछे से बोली,  ‘‘भइया, नहा लो।
तीसरा पहर बीत रहा था। वह बैठकखाने में आराम-कुर्सी पर आँखें मूँदे पड़ा था। पत्नी रसोई में छौंक लगा रही थीं। भूख लग आने के बावजूद भी जैसे इच्छा मर गयी थी। कुछ भी टिक नहीं पाता था मन में। ह़जारों-लाखों प्रतिबिम्ब जैसे किवाड़ों की ओट से झाँकते और आधी पहचान दे कर गुम हो जाते। समाप्त होना किसे किहते हैं… खोना किसे कहते हैं… निस्सहाय होना किसे कहते हैं… मूक होना किसे कहते हैं… अर्थहीन होना किसे कहते हैं यह सब-का-सब कितना स्पष्ट हो गया था अन्तर में!
…आँखें खोलने पर क्या दिखेगा सच या सपना?
फिर भी यह देह है और उसी तरह आरामकुर्सी में पड़ी है। बाहर से कहीं कुछ नहीं बदला है। सारा रक्तपात भीतर हो रहा है। और खून कहीं एकत्र होता है… बहता नहीं।
सब-कुछ वही है। बल्कि दादा, आरती और सारे परिवार को एक निधि मिली है। सभी आज खुश हैं। कुछ घट रहा है। और इधर? उसे लगा कि अब वह मनुष्य नहीं है। सत्कर्म, सेवा या दुष्कर्म, पाप…सब समान हैं। जिसके लिए होंगे, उसके लिए होंगे। वह मनुष्य होगा। लोगों की दृष्टि में तो सभी कुछ है लेकिन उसके लिए?…सच है कि सब-कुछ ज्यों-का-त्यों है, लेकिन मानवीय इच्छाओं का, उसका अपना संसार कहीं अँधेरे में गुम हो गया है।
उसने एक झटके से आँखें खोल दीं। आरती उसके पैरों के पास चटाई पर बैठी कुछ सी-पिरो रही थी। उसके देखते ही मुस्करा पड़ी—‘नींद आ रही है न?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया। लगा कि कई जन्मों से वह इसी तरह चुप है। बोलना बहुत चाहता है, लेकिन मुँह से कोई शब्द नहीं निकलता। जैसे दिल की धड़कनों पर अनजाने ही हाथ पड़ गया हो और धड़कनें रुक-सी रही हों। जीभ तालू से सट गयी हो। बहुत कोशिश कर रहा हो हिलने-डुलने की, लेकिन जरा भी हरकत न होती हो। जड़, निराधार, निरुपाय वह अपने को ही देख रहा हो…।
उसने उठ कर खिड़की खोल दी। आँगन का प्रकाश छनकर भीतर आ गया और हवा का एक गरम झोंका बदन छीलता हुआ दूसरी खिड़की से सरक गया। वह यों ही टहलता रहा।
तू किस क्लास में है आरो?’’
प्रीवियस में।
हरी कैसा है?’’
ठीक हैं।
मुझे कभी याद…’’ तभी पत्नी दरवा़जे के सामने से झमक कर निकल गयीं। वह चुप हो रहा। फिर आरती उठ कर चली गयी।
वह बाहर बरामदे में निकल आया। आँगन में छाया बढ़ रही थी। आगे बरगद पर धूप अभी बा़की थी। उसने छत की ओर देखा। एकाएक माँ को देख कर वह घबरा गया। जल्दी से दौड़ कर सीढ़ियाँ तय कीं और छत पर आ रहा। माँ पसीने से तर, नंगे पाँव, जलती छत पर खड़ीं थीं। उनके आधे बदन पर धूप पड़ रही थी और गरम हवा के हल्के झोंके में रह-रहके उनके धूसर बाल उड़ रहे थे। वे चुपचाप, पश्चिम की ओर पीली धूल-भरी आँधी और धूल में डूबे बा़ग-बगीचों के ऊपर छाये हुए आसमान की ओर देख रही थीं।
माँ!’’ उसने पुकारा।
फिर बिना कुछ कहे उसने बुढ़िया को बाँहों में उठा लिया और सीढ़ियाँ उतरने लगा। नीचे आरती खड़ी थी। बोली ‘‘क्या हुआ?’’
कुछ नहीं, नंगे पाँव जलती छत पर धूप में खड़ी थीं।
बैठक़खाने में ला कर उसने बुढ़िया को आरामकुर्सी में डाल दिया।
भइया, खाना खा लो।आरती ने कहा।
एकाएक वह चौंक गया। जले हुए दूध की महक आ रही थी। दौड़ कर उसने जलती हुई पतीली अँगीठी से उतार दी। उसका हाथ जल गया और पतीली छूट कर जमीन पर लुढ़की तो सारा दूध फ़ैल गया। धीमे से बुढ़िया की खिलखिल सुनायी दी तो उसने घूम कर देखा वह वैसी-की-वैसी ही बैठी थी। एकदम शान्त, जड़ और निश्चल। जली हुई उँगलियों को मुँह में डाले वह उसकी खाट की ओर बढ़ गया। बुढ़िया एकटक उसे ताकने लगी। उसकी गोद में जूठी थाली वैसे ही पड़ी हुई थी। हाथ जूठे थे और मुँह पर दाल और सब़्जी के टुकड़े सूख रहे थे। उसकी नाक बह रही थी जिसे कभी-कभी वह सुड़क लेती। पानी का लोटा वैसे ही नीचे रखा था। तो क्या उसने अभी तक पानी नहीं पिया?… उसने झुक कर लोटा उठाया और बिना कुछ कहे बुढ़िया के होठों से लगा दिया। गटगट कर के वह तुरत आधा लोटा पानी पी गयी। फिर मुँह उठा कर उसकी ओर देखा और मुस्करा पड़ी। उसने थाली हटा कर नीचे डाल दी और बुढ़िया के जूठे हाथ (वह दोनों हाथों से खाये हुए थी।) धोने लगा। फिर उसने बुढ़िया का मुँह धोया और अपने कुरते की बाँह से पोंछ दिया।
माँ, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूँ?’’
माँ, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूँ।बुढ़िया ने वाक्य ज्यों-का-त्यों दुहरा दिया। केवल प्रश्नवाचक स्वर नहीं था उसका।
मैं संजय हूँ…माँ!’’
“…संजय हूँ माँ!’’
उसके भीतर जैसे कोई ची़ज अटकने लगी। वह चुप हो गया। लगा, जैसे अँतड़ियों में बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े आपस में टकरा रहे हैं। उसने बुढ़िया के पाँव उठा कर चारपाई पर रख दिये और पकड़ कर धीमे-से लिटा दिया। बुढ़िया लेट रही और टुकुर-टुकुर उसे देखने लगी। वह उसके तलुवे सहलाता रहा। बुढ़िया मुस्कराती और फिर हल्के से खिल-खिल करके हँस पड़ती। उसके स़फेद चमकदार दाँत टूट गये थे और मुँह खुलने पर एक काले, गहरे बिल की तरह दिखता। चेहरे की झुर्रियों में चिकनाहट आ गयी थी और हाथ-पैर सब चिकने-चिकने लगते थे, जैसे किसी फोड़े के आस-पास की चमड़ी सूजन से खिंच कर चिकनी और मुलायम पड़ जाती है।


माँ, मैं हूँ…संजयवह बुढ़िया के चेहरे पर झुक गया, ‘‘माँ मैं हूँ…मैं… संजय…’’
बुढ़िया उस पर खूब जोर से खिलखिला कर हँस पड़ी और फिर एकदम चुप हो गयी। उसकी आँखों से दो बड़े-बड़े आँसू बुढ़िया के चेहरे पर चू पड़े। इस पर बुढ़िया फिर खिलखिला पड़ी।
सीढ़ियों पर धमस सुन पड़ी। पत्नी धपधपाती हुई ऊपर आ रही थीं। वह उठ कर बैठ गया। ऊपर आते ही उनकी ऩजर मिल गयीबोलीं, ‘‘वहाँ क्यों बैठे हो?’’
कुछ नहीं, ऐसे ही।
वे निकट चली आयीं— “क्या खुसुर-फुसुर चल रही थी? बुढ़िया बड़ी चार-सौ-बीस है…।’’
दूध गिर गया।उसने दूसरी ओर देखते हुए कहा।
गिर गया?’’ वे चौंक कर अँगीठी की ओर देखने लगीं।
जल्दीबा़जी में हाथ से पतीली छूट गयी।
थोड़ा-सा भी नहीं बचा है?’’
होगा बचा, मैंने देखा नहीं।
वे अँगीठी की ओर चली गयीं। पतीली को हिला-डुला कर बोलीं, ‘‘हाय राम, अब क्या करूँ? उसमें तो पीने लायक दूध ही नहीं।
मुझे रात को दूध पीने की आदत नहीं है।उसने कहा और उठ कर टहलने लगा।
पत्नी ने घूर कर देखा, जैसे कह रही हों, ‘‘आदत न होने से क्या होता है?’’
टहलते हुए वह छत के कोने में निकल गया, जहाँ बाँसों की छाया में अन्धकार और भी गाढ़ा हो रहा था। हरी-हरी पत्तियों के झुरमुट में इक्के-दुक्के जुगुनू दमक रहे थे। नीचे दूर-दूर तक बाँसों के भीतर अँधेरा-ही-अँधेरा और उसी तरह दमकते जुगुनू। उसने हाथ बढ़ा कर एक जुगुनू को पकड़ना चाहा तो वह झट से अलोप हो गया और कुछ दूर पर फिर दप-से चमक गया। उसे याद आया किस तरह बचपन में ढेर सारे जुगुनू पकड़ कर वह अपने घुँघराले बालों में फँसा लेता और माँ के पास दौड़ा-दौड़ा जा कर कहता— “माँ-माँ, इधर देखो, जुगुनू का खोंता।
नींद नहीं आती?’’
उसने घूम कर देखापत्नी पास ही खड़ी थीं।
रात बहुत चली गयी है। थोड़ी ही देर में गंगा नहाने-वालियों के गीत सुनायी पड़ने लगेंगे।
हाँ, ठीक है।” उसने घड़ी देखी, ‘‘बारह बज गये!’’ वह आकर पलंग पर लेट गया।
पत्नी आकर पायताने बैठ गयीं। अब उसने देखा। उन्होंने स़फेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी। बदन पर बस चोली-भर थी। बाल खूब खींच कर बाँधे हुए थे और हाथों की चूड़ियाँ रह-रह के पंखा झलते व़क्त खनक जातीं।… पूरब की ओर लाल-लाल चाँद उग रहा था और बरगद के सघन पत्तों के बीच से चाँदनी का आभास लग रहा था। आसमान और भी गहरा नील वर्ण था, और सप्तर्षि काफी ऊपर चढ़ आये थे।
गरमी नहीं लगती?’’ वह खिसक कर पलंग की पाटी पर बीचों-बीच में चली आयीं। एक हाथ उसकी कमर के पार से दूसरी पाटी पर रखती हुई वे एकदम धनुषाकार झुक गयीं और दूसरे हाथ से पंखा झलती रहीं। वह करवट घूम कर उन्हें देखने लगा। भरी-भरी-सी गदबद देह। गरमी का मौसम होने पर पेट और बाँहों पर लाल-लाल अम्हौरियाँ भर आयी थीं।
लाओ, कुरता निकाल दूँ। इतनी गरमी में कैसे पहने रहते हो ये कपड़े?’’ वे उठ कर सिरहाने की ओर चली आर्इं। तकिया एक ओर खिसका दिया और उसका सिर हाथों से उठाती हुई बोलीं ‘‘जरा उठो तो।
वह उठ कर बैठ गया। बाँहें ऊपर कर दीं। उन्होंने कुरता निकाल कर एक ओर रख दिया। फिर बनियान निकाल दी। हलके प्रकाश में उसका सोनल बदन दिपने लगा। पत्नी पीठ सहलाती रहीं, थोड़ी देर। फिर बाँहें। फिर कन्धे पर ठोड़ी रख कर टिक गर्इं। बोलीं, ‘‘इतने दुबले क्यों हो? क्या शहर में खाने को नहीं मिलता!’’
जी, ठीक तो हूँ। दुबला कहाँ हूँ!’’
हो क्यों नहीं? क्या मैं अन्धी हूँ?’’ वे और सट आर्इं।
माँउसने फुसफुसा कर इशारा किया— “बैठी हैं।
जैसे किसी ने चिकोटी काट ली हो, पत्नी झट-से सीधी हो गयीं फिर बोलीं, ‘‘वो! वो कुछ नहीं समझतीं।
फिर भी वे उठीं और जा कर बुढ़िया को दूसरी करवट फिरा कर लिटा दिया। बुढ़िया चुपचाप लेट गयी।
लौट कर वे पलंग की पाटी पर अधबीच में ही बैठ गयीं और पंखा झलती रहीं। चाँद ऊपर चढ़ आया था और सारा आसमान धूसर रोशनी से भर आया था। छत से दूसरी छतें, पीछे की ओर का बगीचा, तथा बरगद का दऱख्त रोशन हो उठे थे। वातावरण कुछ नम पड़ गया था और दूर से मधूक पक्षी की आवा़ज सन्नाटे को रह-रह के चीर जाती…
जरा एक ओर खिसको न…’’
ऊँ?…हूँ।उसने खिसक कर जगह कर दी।
नींद आ रही है?’’
हूँ।’’
कितने बज रहे हैं?’’
एक।’’ उसने अँधेरे में घड़ी देखी और जमुहाइयाँ लेने लगा।
तुम्हारी छाती पर एक भी बाल नहीं हैं।’’ उन्होंने अपना सिर रख दिया। पंखा नीचे डाल दिया।
“…’’
प्यार कर लूँ?’’
जी!’’
जैसे कोई झाड़ी में छिपे हुए खरगोश को पकड़ने के लिए धीमे-धीमे कदम बढ़ाता हुआ आगे बढ़ता है, उसी तरह उन्होंने कान के पास मुँह ले जा कर एक-एक शब्द नापते हुए कहा— “मैं…कहती…हूँप्यार कर लूँ?’’ उसने हाथ के इशारे से फिर भी अपनी नासमझी जाहिर की।
धत्।वे मुस्करा पड़ीं, कुहनी तकिये से टिका कर हथेलियों पर अपना सिर रख कर ऊँची हो गर्इं। एकाएक चेहरे का भाव एकदम बदल-सा गया। बोलीं ‘‘इतना अत्याचार क्यों करते हो?’’
वह कुछ कहने ही जा रहा था कि कुकड़ू कूँ, कुकड़ू कूँ’… करती हुई ढेर सारी मुर्गियाँ, छत पर इधर-उधर दौड़ने लगींडरी और घबरायी हुई-सी। दो-तीन मुर्गे एक ही साथ बाहर निकल आये और उनमें से एक ने खूब ऊँची आवा़ज में बाँग दीकुकड़ू कूँ…। एक झटके-से वे दोनों उठ कर बैठ गये। छत के कोने में एक ओर मुर्गियों का दरबा था। देखा, बुढ़िया ने दरबा खोल कर सारी मुर्गियों को बाहर निकाल दिया है और चुपचाप खड़ी मुस्करा रही है। कभी हल्के-से खिलखिला पड़ती है। एक अजीब-सी दहशत में उसे पसीना आ गया। तभी बुढ़िया ने एक र्इंट का टुकड़ा उठाकर मुर्गियों के झुण्ड की ओर फेंका। मुर्गियों में फिर खलबली मच गयी और वे त्रस्त और निरुपाय इधर-उधर भागने लगीं। एक मु़र्गा छत की मुँडेर पर जा बैठा और फिर उसने जोर की बाँग लगायी— “कुकड़ू कूँ
वह उठने को ही था कि पत्नी झुँझलाती हुई उठ खड़ी हुर्इं। रेशमी साड़ी कुछ-कुछ खिसक गयी थी। जल्दी से उन्होंने पेटीकोट से उसे खींच कर पलंग पर डाल दिया और बुढ़िया के पास चली गयीं। बुढ़िया उसी तरह खिलखिला कर हँस पड़ी। पत्नी ने होंठ काटे, फिर कुछ कहना चाहा, फिर व्यर्थ समझ कर चुपचाप बुढ़िया की बाँह पकड़ ली और घसीटते हुए खाट पर ले जा कर पटक दिया।
लेटो।पत्नी का गुस्सा उबल पड़ा।
बुढ़िया उसी तरह उँकड़ूँ बैठी रही।
पत्नी ने उसे हाथों से खाट पर पसरा दिया।
बुढ़िया फिर भी उसी तरह ताकती रही।
पत्नी एक पल खड़ी रहीं, फिर घूम कर उसकी तऱफ देखा। दोनों दौड़-दौड़ कर मुर्गियों को पकड़ने में लग गये। धीरे-धीरे सारी मुर्गियाँ दरबे के अन्दर हो गर्इं, लेकिन एक म़ुर्गा छत की मुँडेर के आख़िरी सिरे पर बैठा हुआ था। उसने एकाध बार हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहा, तो वह और आगे की ओर खिसक गया। उसने कहा, ‘‘इसको क्या करें?’’
राँध कर खा जाओ।पत्नी झुँझलाती हुई फर्श पर बैठ गयीं।
लेकिन तभी जाने क्या सोच कर मु़र्गा नीचे उतर आया। उसने दौड़ कर उसकी गरदन पकड़ ली और दरबे में ले जा कर ठूँस दिया। फिर जैसे चैन की साँस लेता हुआ मुँडेर से टिक कर खड़ा हो गया। एकाएक उसकी ऩजर बुढ़िया की ओर चली गयी। वह चित लेटी हुई आसमान की ओर ताक रही थी। तभी पत्नी ने उठते हुए आवा़ज दी— “अब वहाँ क्या करने लगे?’’
वह निकट चला आया; बोला, ‘‘सुनो, बरसाती में पलंग ले चलें तो कैसा रहे?”
छत पर सादे खपरैल से बनी एक बरसाती थी। पत्नी ने कहा, ‘‘मैं नहीं जाती बरसाती में। इतनी गरमी में उस काल कोठरी में मुझ से नहीं सोया जायेगा।
पंखा तो है ही।
पंखा जाये भाड़ में। रात-भर पंखा कौन झलेगा!’’
मैं झल दूँगा।वह मुस्कराया।
चलिये…’’ पत्नी ने सिर झटकते हुए कहा। वे खुश मालूम दे रही थीं। एकाएक घूम कर उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा, एक काम करती हूँ…’’ वे उठ खड़ी हुर्इं। बोलीं,  ‘‘इनकी चारपाई जरा बरसाती में ले चलिये तो!’’
‘‘क्या कह रही हैं आप? माँ की तबीयत नहीं देखतीं।
ले तो चलिये। उन्हें गरमी-सरदी कुछ नहीं व्यापती। अबकी माघ के महीने में बाहर नदी के किनारे लेटी थीं। लोग गये तो ऊपर से हँसने लगीं।
अरे भाई…’’
क्या लगाये हैं अरे भाई, अरे भाई! रात-भर इसी फरफन्द में…’’ उन्होंने बुढ़िया को उठा कर खड़ा कर दिया और चारपाई उठा ली।
अब यहीं आराम से पड़ी रहो महारानी!’’ पत्नी ने ऩजाकत के साथ बरसाती के दरवा़जे पर खड़े-खड़े दोनों हाथ जोड़े और उसकी ओर देख कर मुस्करायीं। खाट पर लिटाते व़क्त बुढ़िया ने एक बार अँधेरे में चारों ओर ऩजर डाल कर टटोला था और तकरीबन दो मिनट तक लगातार खाँसती रही। फिर जैसे चुप खो-सी गयी। चाँदनी उजरा चली थी और आसमान से हलकी-हलकी नमी उतर कर चारों ओर वातावरण पर छा रही थी। बरगद की ऊपरी डालों से भी अगर कोई पत्ता टूट कर नीचे गिरने लगता, तो उसकी खड़-खड़ सा़फ सुनायी पड़ जाती।
मुझे प्यास मालूम दे रही है; ऊपर पानी होगा क्या?” उसने कहा।
पत्नी ने झुक कर उसकी आँखों में देखा और मुस्करायीं— “प्यास लगी है?’’
हाँ।’’
सच?’’ वे उसी तरह आँखों में देखती रहीं।
उसे थोड़ी-सी झुँझलाहट महसूस हुई। फिर उसे दादा का खयाल आया। फिर जैसे सिर घूमने लगा और मतली-सी महसूस हुई। फिर ढेर-सारी बातें मन में घूमने लगींजैसे दिमाग में कई कदम लड़खड़ाते हुए चल रहे हों। उसने सोचा—‘नरक। फिर उसके दिमा़ग में आया, ‘क्यों इतना विवश हो गया है वह?’ फिर तर्क-पर-तर्क … कौन समझ सकेगा कि इतना आवेग-शून्य क्यों है वह?…फिर जैसे भीतर-ही-भीतर कहीं झनझनाता हुआ-सा दर्द उठने लगा। उसे लगा कि उसकी पीठ में चटक समा गया है और साँस लेने में कठिनाई हो रही है। उसने करवट बदल कर यह जान लेना चाहा कि कहीं सचमुच तो पीठ में चटक नहीं समा गया, कि तभी पत्नी ने बाँहों में भर कर उसे अपनी तऱफ घुमा लिया। कहीं कुछ बात बढ़ न जाये, इसलिए उसने अपनी भावनाओं पर जब्त करना चाहा। इसी प्रयत्न में वह मुस्कराया, लेकिन उसकी एक आँख से एक बूँद ढुलक कर चुपके से बिस्तर में गुम हो गयी।
पानी दूँ?”
वह परिस्थिति भाँप चुका था और उन बातों में रस आने के बजाय उसे इतना थोथापन महसूस हुआ कि उसकी इच्छा होती कि वह कानों में उँगली डाल ले, या जोर से ची़ख पड़े। लेकिन यह कुछ भी नहीं हो सका। बोला, “जी, मेहरबानी करें तो एक गिलास पानी पिला ही दीजिये।”
पत्नी झुकीं तो उसने अपना चेहरा तकिये में गड़ा लिया।… फिर जैसे वह पस्त पड़ गया। अब तक जितना चौकन्ना था अब उतना ही ढीला पड़ गया।
एक हाथ से वे उसकी छाती सहलाती हुई बोलीं, “कैसे-कैसे कपड़े फिजूल में पहने रहते हो…” और उसके बाद क्षण-भर में ही वह सारी परिस्थिति भाँप कर एकदम पसीने-पसीने हो गया। आँखें मूँद लीं। उसके माथे की नसें फटने लगीं। खून में आग-सी लग गयी। स्वर ओझल हो गये। वे कुछ कह रही थीं— “मेरे बालम! कितने जालिम हो तुम! कितने भोले…”
“माँ!” वह उछल कर एक झटके से खड़ा हो गया। लेकिन तुरंत शर्म के मारे वहीं-का-वहीं सिमट कर फर्श पर बैठ गया। पत्नी भय के मारे एकदम से फक्क पड़ गयीं। एक पल बाद, जरा-सा सुस्थिर हो कर उन्होंने मुँह ऊपर उठाया तो देखाबुढ़िया ठीक सिरहाने खड़ी थी, चुपचाप। पत्नी को अपनी ओर देखता पा कर वह फिर मुस्करायी। अब उनका गुस्सा उबल पड़ा। ते़जी से उठ कर उन्होंने बुढ़िया की बाँह पकड़ ली। उनके होंठ दाँतों तले दबे हुए थे और वे काँप रही थीं।
चल…हट यहाँ से।” उनके मुँह से कोई भद्दी गाली निकलते-निकलते रह गयी और उन्होंने बुढ़िया को आगे की ओर धकेल दिया।
आगे र्इंटों का एक घरौंदा था। बुढ़िया को ठोकर लगी और वह औंधी-सी लुढ़क गयी। पत्नी गुस्से में झनझनाती हुई, उसे उसी तरह छोड़ कर, खाट पर आ कर बैठ गयीं और दोनों हाथों में उन्होंने अपना सिर थाम लिया।
यों हीं दो-एक मिनट बीत गये। कोई कुछ नहीं बोला। अचानक उसने बुढ़िया की ओर देखा। वह वैसी ही औंधी, फर्श पर पड़ी थी। वह ते़जी से उठकर लपका और— “माँ!”
उसने बुढ़िया को उठा कर चित कर दिया। लहू की एक हलकी-सी लकीर होंठों के कोनों में दिखायी दी और फिर एक हूक-सी उठी। उसके होंठ हिल रहे थे…। “जल्दी से दौड़ कर पानी लाओ।” उसने ची़ख कर पत्नी की ओर देखा। पत्नी उठ कर भागीं नीचे।
बुढ़िया की आँखें खुली थीं। चेहरे की झुर्रियाँ और भी चिकनी हो गयी थीं। चाँदनी में उसका चेहरा एकदम उजली राख की तरह चमक रहा था। उसने पुकारा, ‘माँ’… और बुढ़िया का सिर बाहों में थोड़ा और ऊपर कर लिया। 

बुढ़िया ने सिर जरा-सा उसकी ओर घुमाया और फिर हल़क से खून का एक रेला उसकी गोदी में कैद कर दिया।

सम्पर्क

मोबाईल – 09415235357

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

दीपावली पर हिन्दी कविताएँ


 

दीपावली पर पहली बार की तरफ से बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ इस उत्सव पर कुछ महत्वपूर्ण कवियों की कविताएँ आप सब के लिए प्रस्तुत है. 

 

दीपावली पर हिन्दी कविताएँ

नजीर अकबराबादी

दिवाली

नज़ीर अकबराबादी

हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं।
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।1।।

गुलाबी बर्फ़ियों के मुँह चमकते-फिरते हैं।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।2।।

मिठाइयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं।।
नबात[1], सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।3।।

जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं।।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।4।।

उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग।।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।5।।

दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है।।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।6।।

कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है।।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।7।।

और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं ।
और हरसू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं ।।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं ।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।8।।

अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है ।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है ।।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है ।
गरज़ में क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दिवाली है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।9।।

जो गुलाबरू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ ।
निगाहें आशि‍कों की हार हो गले पड़ियाँ ।।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।10।।

क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है ।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है ।।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है ।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।11।।

कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं ।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं ।।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं ।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।2।।

किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है ।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है ।।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है ।
अजब दिवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।13।।

धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान ।
गोया दरख़्त से ही उड़कर हैं बैठे आन ।।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान ।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।14।।

कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है ।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है ।।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है ।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।15।।

नज़ीरइतनी जो अब सैर है अहा हा हा ।
फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा ! हा ।।
निषात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा ।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा ।।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।16।।

 

मैथिली शरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

दीपदान

जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू

जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू
जल, रे दीपक, जल तू

अपना तिल-तिल पिरवाया है
तुझे स्नेह देकर पाया है
उच्च स्थान दिया है घर में
रह अविचल झलमल तू
जल, रे दीपक, जल तू

चूल्हा छोड़ जलाया तुझको
क्या न दिया, जो पाया, तुझका
भूल न जाना कभी ओट का
वह पुनीत अँचल तू
जल, रे दीपक, जल तू

कुछ न रहेगा, बात रहेगी
होगा प्रात, न रात रहेगी
सब जागें तब सोना सुख से
तात, न हो चंचल तू
जल, रे दीपक, जल तू!

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

दीपावली के प्रति
पंचपद

कहाँ ऐसी छवि पाती हो;
जगमगाती क्यों आती हो।
हाथ में लाखों दीपक लिये क्यों ललकती दिखलाती हो।

सजी फूलों से रहती हो,
सुन्दरी, सरसा महती हो,
ज्योति-धारा में बहती हो,
न-जाने क्या-क्या कहती हो,
झलक किस की है दृग में बसी, क्यों नहीं पलक लगाती हो।

चौगुने चावों वाली हो,
किसी मद से मतवाली हो
भाव-कुसुमों की डाली हो,
अति कलित कर की पाली हो,
मधुरिमा की कमनीय विभूति, मुग्धता-मंजुल-थाती हो।

तारकावलि-सी लसती हो,
वेलियों-सदृश विलसती हो,
उमंगों भरी विहँसती हो,
मनों नयनों में बसती हो,
मनोहर प्रकृति-अंक में खेल कला-कुसुमालि खिलाती हो।

अमावस का तम हरती हो,
रजनि को रंजित करती हो,
प्रभा घर-घर में भरती हो,
विभा सब ओर वितरती हो,
टले जिससे भारत का तिमिर, क्यों न वह ज्योति जगाती हो।

दीवाली
चौपदे

उजाला फैलाती रहती।
दूर करती है अंधियाली।
कौन है? किसे खोजती है।
चाँदनी है या दीवाली।1

अमा ने छिपा दिया विधु को।
डाल करके परदे काले।
सिता ने उसे खोजने को।
क्या बहुत से दीपक बाले।2

देख शारद नभ में छवि से।
छलकता तारक चय प्याला।
अवनितल को सजाने आई।
क्या दीवाली दीपक माला।3

विफल कर वैर भाव उसका।
अमा के वैभव में विलसीं।
क्या कलानिधि विलीन किरणें।
दीपकावलि में हैं विकसीं।4

कुहू की महा कालिमा में।
खो गया रजनी का प्यारा।
खोजने में प्रदीपचय मिष।
क्या चमकता है दृग तारा।5

बाल क्या बहु दीपक भारत।
आरती उसकी करता है।
जो कुमुद को चमकाता है।
तेज सूरज में भरता है।6

लिये लाखों दीपक कर में।
खोजती है क्या भव-जननी
उस विभव को, जिसको, खोये।
हुई तम भरित भरत अवनी।7

क्या अमित दीपक मिष निकली।
अमा की वह अंतरज्वाला।
छिप गया जिसके भय से रवि।
विधु गया वारिधि में डाला।8

क्या अमा के उज्ज्वल दीपक।
भाव यह हैं भुव में भरते।
महाजन महातिमिर में धंस।
उसे हैं विभा वलित करते।9

क्या बताती है वसुधा को।
तिमिरमय रजनी उँजियाली।
रमा की कृपा कोर होते।
अमा बनती है दीवाली।10

दमकती दीवाली
चौपदे

कान्त कमला पग पूजन को।
साथ में कमलावलि लाई।
अमा में समाँ दिखाने को।
जागती ज्योति जगा पाई।1

स्वच्छता घर-घर में भरकर।
विलसती, हँसती, दिखलाई।
दमन करने को फैला तम।
दमकती दीवाली आई।2

दिव्य दीवाली
चौपदे

क्यों नहीं लक्ष्मी रूठेगी।
जब कि कौड़ी के तीन बने।
मालपूआ कैसे खाते।
न मिलते हैं मूठी भर चने।1

बच सकेगी तब पत कैसे।
कान जो जाते हैं कतरे।
न जूआ जो छूटा तो क्यों।
गले पर का जूआ उतरे।2

जो रही सोरही भाती तो।
किसे त्योहार कभी सहता।
हार पर हार न जो होती।
भाग तो क्यों सोता रहता।3

पास जिसके न रही कौड़ी।
कब बना वह पैसे वाला।
मनाए तब क्यों दीवाली।
निकलता जब कि है दिवाला।4

फ़िराक गोरखपुरी

फ़िराक गोरखपुरी

1. दीवाली के दीप जले
नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले

धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले

नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले

निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले

कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले

मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले

तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले

जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले

भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले

देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले

जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले

जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले

रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले

जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले

कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले

लाखों चराग़ों से सुन कर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले

लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले

ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले

बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले

छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले

हरिबंश राय बच्चन

हरिवंशराय बच्चन

आत्मदीप
मुझे न अपने से कुछ प्यार,
मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक,
ज्योति चाहती, दुनिया जब तक,
मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार|
पर यदि मेरी लौ के द्वार,
दुनिया की आँखों को निद्रित,
चकाचौध करते हों छिद्रित
मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार|
केवल इतना ले वह जान
मिट्टी के दीपों के अंतर
मुझमें दिया प्रकृति ने है कर
मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान|
पहले कर ले खूब विचार
तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए
कहीं न पीछे से पछताए
बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार।

कवि का दीपक

आज देश के ऊपर कैसी
काली रातें आई हैं!
मातम की घनघोर घटाएँ
कैसी जमकर छाई हैं!
लेकिन दृढ़ विश्वास मुझे है
वह भी रातें आएँगी,
जब यह भारतभूमि हमारी
दीपावली मनाएगी!
शत-शत दीप इकट्ठे होंगे
अपनी-अपनी चमक लिए,
अपने-अपने त्याग, तपस्या,
श्रम, संयम की दमक लिए।
अपनी ज्वाला प्रभा परीक्षित
सब दीपक दिखलाएँगे,
सब अपनी प्रतिभा पर पुलकित
लौ को उच्च उठाएँगे।
तब, सब मेरे आस-पास की
दुनिया के सो जाने पर,
भय, आशा, अभिलाषा रंजित
स्वप्नों में खो जाने पर,
जो मेरे पढ़ने-लिखने के
कमरे में जलता दीपक,
उसको होना नहीं पड़ेगा
लज्जित, लांच्छित, नतमस्तक।
क्योंकि इसी के उजियाले में
बैठ लिखे हैं मैंने गान,
जिनको सुख-दुख में गाएगी
भारत की भावी संतान!
***

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा ताप-भरा तन देखा,
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा आह-घिरा मन देखा,
करुणामय वह शब्द तुम्हारा
मुसकाओथा कितना प्यारा।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
है मुझको मालूम पुतलियों
में दीपों की लौ लहराती,
है मुझको मालूम कि अधरों
के ऊपर जगती है बाती,
उजियाला करदेनेवाली
मुसकानों से भी परिचित हूँ,
पर मैंने तम की बाहों में अपना साथी पहचाना है।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।

यह दीपक है, यह परवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
ज्वाल जगी है, उसके आगे
जलनेवालों का जमघट है,
भूल करे मत कोई कहकर,
यह परवानों का मरघट है;
एक नहीं है दोनों मरकर जलना औजलकर मर जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
इनकी तुलना करने को कुछ
देख न, हे मन, अपने अंदर,
वहाँ चिता चिंता की जलती,
जलता है तू शव-सा बन कर;
यहाँ प्रणय की होली में है खेल जलाना या जल जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
लेनी पड़े अगर ज्वाला ही
तुझको जीवन में, मेरे मन,
तो न मृतक ज्वाला में जल तू
कर सजीव में प्राण समर्पण;
चिता-दग्ध होने से बेहतर है होली में प्राण गँवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।

साथी, घर-घर आज दिवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

गोपाल दास नीरज

गोपालदास नीरज

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 

भास्कर चौधुरी की कविताएँ


भास्कर चौधुरी

परिचय
जन्म : 27अगस्त,1969, रामानुजगंज, सरगुजा (छ.ग.)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी व अंग्रेजी), बी. एड.
प्रकाशनः एक काव्य संकलन कुछ हिस्सा तो उनका भी हैप्रकाशित। लघु पत्रिका संकेतका छठां अंक कविताओं पर केंद्रित। गद्य की किताब बोधि प्रकाशन से प्रकाशनाधीन। कविताएं, समीक्षाएं, संस्मरण आदि ‘समकालीन सूत्र’, सर्वनाम’, कृति ओर’, ज्ञानोदय’, समावर्तन’, आकंठ’, नवनीत’, हिमाचल मित्र’, पाठ’, वागर्थ’, कथादेश’, समकालीन भारतीय साहित्य’, वर्तमान साहित्य’, अक्षर पर्व’, सी.एन.एन.’ (हिन्दी मासिक) आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
यात्रा : सुनामी की विभीषिका के बाद दो दोस्तों के साथ नागापट्टिनम की यात्रा, वहां बच्चों के लिए बच्चों के द्वाराकार्यक्रम के तहत पीड़ित बच्चों को मदद पहुँचाने की कोशिश, आनंदवन, बस्तर एवं शान्तिनिकेतन की यात्रायें। बच्चों को लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों का सफल आयोजन।

बच्चे प्रकृति की सबसे अनुपम एवं अनूठी कृति होते हैं। यह इसलिए कि वे छल-छद्म से दूर जो दुनिया बनाते हैं उसमें अवास्तविक जैसा कुछ भी नहीं होताउनमें एक सहजता एक प्राकृतिक मासूमियत और संवेदनशीलता होती है जो सबको सहज ही आकृष्ट करती है। भास्कर चौधुरी इसे महसूस करते हुए लिखते हैं – ‘कितना मुश्किल है/ अच्छा पिता होना/ बच्चे के साथ-साथ/ बड़ा होना!!‘ भास्कर की बच्चों पर लिखी गयी कुछ और भी बेहतर कवितायें हैंआइए आज पहली बार पढ़ते हैं कवि भास्कर चौधुरी की कविताएँ 
  

भास्कर चौधुरी की कविताएँ 
उदासी
कितनी ऊंचाइयाँ
कितनी गहराइयाँ
कितनी दूरी
नापने को है हमारे आसपास
भरने को हैं कितनी दरारें
खालीपन –
फिर भी हम उदास!
पिता होना
कितना मुश्किल है
अच्छा पिता होना
बच्चे के साथ-साथ
बड़ा होना !!
लोहा पीटती औरत
एक
वह एक हाथ से
सड़सी से लोहा पकड़ती है
और दूसरे हाथ से
लोहा पीटती है
उसके हाथ लोहे से मजबूत हैं
और हथेलियाँ कच्ची सड़क की मानिंद
खुरदुरे
एक-दूसरे को काटती
आड़ी-तिरछी रेखाओं से भरी
जब वह लोहा पीटती है
तो पति अंगारों को हवा देता है
लोहा भारी और मोटा होता है
तो दोनों मिल कर
पीटते हैं लोहा
और आग की लौ में
दोनों की आँखें चमकती हैं
गाल सुर्ख लाल दिखाई पड़ते हैं
चमकती हुई आँखों में
और लाल सुर्ख गालों में
प्रेम है
जो उम्र बढ़ने के साथ-साथ
बढ़ता ही जाता है !!
दो
धौंकनी से दूर होते ही
मानों बुझ जाती है दोनों की आँखें
जहाँ दुःख है
इस बात का नहीं
कि झुग्गी में तंगहाली है
और बीत गए तंगहाली में ही
पच्चीस बरस
दुःख इस बात का है
कि इन दिनों
बेटे और बहू ने
झुग्गी के भीतर
एक और झुग्गी बना ली है
और अलग पकने लगी है उनकी रसोई!
एक हथौड़ा वाला और पैदा हुआ
(शीर्षक केदार अग्रवाल जी की कविता से…)
सात बरस में
सरकारी स्कूल में भरती हुआ
दस बरस का होते-होते
छूट गया बस्ता
बस्ते के बदले
एक अदद सींक वाला झाड़ू
एक तस्ला
और लोहे के बेंट वाला
फावड़ा हाथ लगा
स्कूल के रास्ते
अफसरों के बंगलों के आहाते को
बुहारने का काम मिला
तीस रुपये रोजी के हिसाब से
काम का दाम मिला –
एक हथौड़ा वाला और पैदा हुआ!!
बस्तर
हमारी पीठ है
जंगल की ओर
और हम
गाड़ी में बैठे
बाँच रहे हैं
अपने-अपने प्रेम के किस्से
जंगल हैरान है
पर परेशान नहीं
क्योंकि जंगल का
प्रेम से परिचय
जंगल के जन्म के साथ ही हुआ
बंदूक और बारूद से परिचय –
आदमी की देन है!!
पेशावर
सीरिया में
उड़ा दिये गये
छत स्कूलों के
उड़ गये
खिड़कियों-दरवाजों के परखच्चे
पत्तों के माफिक
पेशावर में
गोलियों से भून दिया गया
अपनी-अपनी कक्षाओं में
पढ़ रहे बच्चों को
ज़िदा जला दिया गया
स्कूल की प्राचार्या को
जो चाहती तो
भाग कर बचा सकती थी
फ़कत अपनी जान
इधर बस्तर के घने जंगलों में
आम है
स्कूलों को बंद करने का षडयंत्र
पर
जैसे ही गुजरते हैं
कुछ गरम दिन
गुजरती हैं जैसे ही
चंद ठंडी काली रातें
शान्त हो जाते हैं जैसे ही
बरूद रेत और धूल के बवंडर
जाने कहाँ से अचानक
उड़ आए बादलों की तरह
दौड़ पड़ते हैं बच्चे
पीठ पर बस्ता टिकाए
स्कूलों की ओर …..
मृत्यु
मृत्यु आवाज़ नहीं देती
पुकारती भी नहीं आहिस्ते से
चीखने का तो सवाल ही नहीं उठता
मुत्यु दबे पांव चली आती है
झूठा नहीं कह सकते हम मृत्यु को लेकिन!!
कक्षा पहली का बच्चा
वह बच्चा
कक्षा पहली का
पहुँच नहीं पाया
अपनी कक्षा में
अब तक
दरअसल
खोज रही है
उसकी आँखें
धरती पर कोई नई चीज़
जो काम की हो उसके
मसलन
चकमक पत्थर
लकड़ी का एक
अदद टुकड़ा –
चिकना और बेलनाकार
सुनहली एक पत्ती!!
बच्चे कक्षा प्रेप के
बच्चे कक्षा प्रेप के
जैसे कुम्हार की चाक पर
रखे मिट्टी के लौंदे
कोमल उनके गाल
जैसे बारिश की नन्हीं बूंदे
गुलाब की पंखुड़ियों को
हौले से छू लें
बच्चे कक्षा प्रेप के
उछल कर जैसे अम्मा की गोद से
और फिसल कर पिता की पीठ से
दौडें स्कूल की ओर
नन्हें नन्हें क़दमों से जैसे
नाँपते हों धरती हो ओर छोर
पहुँच कर कक्षा में अपने
मैडम को देख कर आँखें चमके ऐसै
आँचल में मैडम के सितोरे टँके हों जैसे
बच्चे कक्षा प्रेप के
जैसे ईसा अल्ला और देवताओं के दूत
जैसे अठखेलियाँ करती परियाँ
जैसे अनगिनत तारे हों ज़मीन पर
जैसे पहाड़ों पर उतरे हों अनगिनत चाँद
बतियाते झूलते हिंडोलों पर
जैसे किरणें सुरज की
शाखों में लटके पत्तों संग हरे-भरे
खेल रहे हों लुका-छिपी
बच्चे कक्षा प्रेप के
दौड़ रहे हैं दूब घास पर
जैसे नन्हें-नन्हें पैरों की छाप
कह रही हों हमसे –
हम बडों से
क्यों लड़ते हों भाई आपस में
क्यों हम बच्चों से से सीखते नहीं हो तुम
क्यों बचपन को अपने यूँ भूल जाते हो
क्यों भूल जाते हो तुम –
जीवन एक दरिया है
और बचपन बहता पानी
आओ मिल कर संजोए बचपन को
जीवन मौजों की रवानी है ….!
दूसरी कक्षा के बच्चे
बच्चे ने कहा बच्ची से
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
बच्ची ने कहा मैं भी ….
बच्चे ने कहा
मैं तुमसे शादी करूंगा
बच्ची ने कहा मैं भी ….
शिक्षिका ने दोनों को पकड़ा
और ले गई प्राचार्या के पास ….
अगले दिन दोनों बच्चे
प्राचार्या कक्ष में एक-दूसरे का
कान पकड़े खड़े थे
साथ में दोनों के माँ-बाप –
सर झुकाए!!
एन्ने फ्रेंक की डायरी
नाज़ियों से छिपते-छिपाते
पिता लेकर आए थे एन्ने को अपने साथ
और आफिस कम आधे हिस्से में 
रहने लगे पत्नी, एन्ने और बड़ी बेटी कम संग
यहीं एन्ने की तेरहवीं जन्मदिन पर
पिता ने भेंट किया एक डायरी –
एन्ने की पक्की सहेली
लगभग दो साल तक
एन्ने ने लिखा
अपनी उम्र का हिसाब
चुप्प हो गई वह
अचानक एक दिन
पकड़ ले गए नाज़ी
एन्ने को और लोगों के साथ 
और एन्ने मर गई कुछ दिनों बाद …
दिन तो गिनती के थे
एन्ने के जीवन में पर
डायरी के पन्नो में था उन दिनों का हिसाब
जब तेरह बरस के एन्ने ने फिर जन्म लिया दुबारा
अब की तेरह की उम्र में
डायरी में समेटा एन्ने ने स्कूल की यादों को
बच्ची से लड़की बनी
ख़्वाबों में जवान फिर प्रौढ़
बीच-बीच में बूढ़ी भी
1942 से 1944 की है एन्ने की दास्तां
होती आज ज़िंदा तो पचासी की होती एन्ने
जैसे अनगिनत हैं पचासी के
अपने नाती-पोतों के साथ
जीते हुए शिद्दत से
दुनिया को बेहतर देखने की उम्मीद लिए
जीती एन्ने भी ….
तेरह की एन्ने पंद्रह की हुई
यहीं आफिस में आधे हिस्से में
जिसे वे घर कहते
जिसमें फाईलों की गंध के साथ-साथ
मिली होती टायलेट और रसाई की गंध
जिन्हें अलग करना मुश्किल होता किसी के लिए भी
जहाँ एक परिवार और आ कर जुड़ा कुछ दिनों बाद
श्रीमती और श्री वैन डान और पीटर का
पीटर दोस्त बना एन्ने का
और एन्ने की माँ की आँखों की किरकिरी
साथी एक बड़ी होती लड़की की बातों को सुनने वाला
हालांकि कई बार पीटर की समझ से परे होती एन्ने की बातें
वह सुनता रहता फिर भी
इसीलिए एन्ने को अच्छा लगता ….
कहते हैं टाईफस से मर गई एन्ने
मर गई या मारी गई
यहूदी थी –
नज़ियों के लिए लिजलिजे कीड़ों से भी बदतर
जिनका जीवित रहना
खतरा था आर्यों की शुद्धता के लिए ….
टब फिलीस्तीनी हैं गाज़ापट्टी पर
यहूदियों की आँखों में चुभते हुए
जाने कितने एन्ने मरे
एन्ने की उम्र में प्रौढ़ और बूढ़े हुए
इस बार फर्क सिर्फ इतना ही कि
नाज़ियों के कांस्ट्रेशन कैम्प में
टाईफस या टायफाईड या जहरीली गैस से नहीं
गेलियों या बमों ने ली उनकी जान
या उससे भी भयानक कोई चीज़
जिसके लगते ही शरीर में
एहसास होता अनगिनत सूइयों के चुभने का सा
जो बच्चों और जवानों नहीं करता कोई भेद …..
आज हज़ारों एन्ने गाज़ापट्टी में यहूदियों के निशाने पर
ईराक की पहाड़ियों में
सिया सुन्नी के झगड़ों के बीच
आई. एस. आई. एस. के मोर्टारों की ज़द में
या तालिबानियों के हाथों मौत के डर से
ढकें हुए भीषण गर्मी में भी सर से पाँव तक काले कपड़ों में
या अमेरिकी ड्रोनों के साये में
काँपते हुए डर से
कि आतंकवादियों को खोजते
दो-चार निशानें ग़लत पड़ जाए तो क्या
और ईधर इरोम शर्मिला
चौदह बरस बाद
कहते हैं मुक्त हुई जेल से
अपने ही देश में
पराए कहे जाने का दंश झेलती हुई
खोजती हुई अपने ही देश में देश को!
क्या फर्क 1944 और 2014 में??
सम्पर्क
भास्कर चौधुरी
बी/1/83बालको (कोरबा) 
छत्तीसगढ़ (495684)
मोबाइल नं – 9098400682
ई-मेल: bhaskar.pakhi009@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

दूधनाथ सिंह की कहानी ‘चूहेदानी’।


प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह ने आज अपने जीवन के अस्सी वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस अवसर पर उन्हें पहली बार परिवार की तरफ से जन्मदिन की बधाई देते हुए हम उनके समृद्ध रचनात्मक जीवन की कामना करते हैं।आइए,इस अवसर पर पहली बार पर हम पढ़ते हैं उनकी ही एक कहानी– ‘चूहेदानी’।
चूहेदानी
दूधनाथ सिंह
 
गाड़ी चल पड़ी तो उसका मन हुआ प्लेटफ़ार्म पर रूमाल हिलाते बसन्त को बुला ले। उसके अगल-बगल मुसाफ़िरों और विदा देने वालों का झुण्ड निकलता जा रहा था और वह भीड़ से बचता हुआ लगातार अपना रूमाल हिलाता जा रहा था। यहाँ तक तो उसकी ज़िद चल गई थी लेकिन इसके बाद सुमिता ने कहा था कि वह उसे साथ नहीं ले जा सकेगी। स्वर में कुछ ऐसा खिंचाव था कि बसन्त अपना सामान ‘क्लोक रूम’ में ही छोड़ आया था। फिर गाड़ी जब तक नहीं चली, वह खिड़की के सींखचों से सिर टिकाये चुपचाप खड़ा रहा। सुमिता कभी उसकी ओर देख लेती, फिर मुँह फेर कर दूसरी ओर बाहर देखने लगती। बसन्त की नाक, उसके होंठ और चिबुक खिड़की से भीतर हो आये थे। खिड़की पर इस तरह खड़े होने की उसकी पुरानी आदत थी। उससे पता नहीं कैसा-कैसा होने लगता था सुमिता के मन में। 
 
वह कहता, ‘मिस शर्मा!’ ‘आ जाइए अन्दर।’ 
‘नहीं, मैं जल्दी में हूँ। बस यूँ ही चला आया था।’ 
 
और वह तेज़ कदमों से चला जाता। अब वह कहाँ होगा। शायद सामान उठा कर किसी होटल में चला गया होगा। लौटने के लिए तो उसे कल सुबह एक दूसरी गाड़ी का इन्तजार करना होगा। कल सुबह तक वह कहाँ होगी? मेरठ। फिर?…. उसने चाहा कि नींद आ जाये और सुबह उठने पर सोम उसे स्टेशन पर खड़े मिल जायें। कैसे वे मिलेंगे? क्या उन्हें कोई खबर है? और खबर होती भी तो भी क्या वे स्टेशन आते? तब वह क्यों जा रही हैं?….. वह खिड़की से बाहर देखने लगी। खिड़की से बाहर अधर में सिर झुकाये बसन्त जैसे कहीं चला जा रहा हो…..। भागती हुई रेल से बाहर दिखने वाले तार क्षितिज पर खिंची हुई पतली सफे़द लकीरों की तरह लगते थे। हल्के नीले रंग वाला आकाश, पेड, मैदान, पगडंडियाँ, बगीचे, गांव, अंधेरे में टिम-टिमाती रोशनियाँ- सब पनियाले कोहरे में डूबे हुए-से। भागती हुई ट्रेन के साथ कोहरे की पट्टी भी जैसे दौड़ रही थी। कोहरे के बीच से कहीं पेड़ों की फुनगियाँ तो दिख जाती लेकिन बीच का भाग घनी पट्टी के बीच ढका रहता। जैसे पेड़ का ऊपरी हिस्सा हवा में निराधार टँंगा हो। यही दृश्य लगातार चलता जाता…। फिर रात का सन्नाटा, छूटते हुए स्टेशन, कुलियों और मुसाफ़िरों का शोर, और फिर कोहरे में डूबा इंजन का सोला-सा खाँसता-सा स्वर…। 
 
उसने खिड़की से सिर टिका कर आँखें मूँद लीं। भीतर कहीं एक आकृति उभरी। लगता बसन्त है। उसके होंठ सींखचों के भीतर बिलकुल उसके गालों से सटे हैं। ठण्ड के कारण उसकी गर्म साँसों की भाप रह-रह कर उसके चेहरे पर फैल रही है। उसकी बरूनियाँ गालों को सहला रही हैं और वह दोनों बाँहों से खिड़की के सींखचों के साथ ही उसे जकड़े हुए टँगा हुआ चला आ रहा है। बाँहों की जकड़ ढीली हुई नहीं कि वह चलती हुई रेल से नीचे….। सोम की बाँहें भी तो इसी तरह उठती थीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे वे दोनों बाँहें उठा देते। वह लजाती-लजाती उनमें ढल जाती। कई बार वह भागने को हुई तो उसने पाया कि वे बाँहें उसे घेरे हुए हैं। लेकिन बसन्त? उसकी बाँहें? उसने उस आवाहन का प्रत्युत्तर कभी नहीं दिया। बसन्त की बाँहें उठतीं और फिर नीचे गिर जातीं। शर्म से वह इधर-उधर देखने लगता और हाथ पीछे बाँधे जैसे वह अपनी उँगलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो।….उसकी अन्तरंग आँखों के सामने एक धुँधली-सी तस्वीर थी। वहाँ सोम का चेहरा था – वही एकदम मासूम, अनुभवहीन और शान्त सा। साथ ही लम्बी बाँहों के घेरे, कुछ मोटे होंठ और छोटी-सी चिबुक जो सारे चेहरे को अतिरिक्त कोमलता से भर देती थी। 
 
माँ ने पहली बार देख कर कहा था, ‘यह तो कोई नार्सिसस लगता है।’ पहली बार वे देखने आये थे और खुद आँखें झुकाये बैठे रहे।… कितनी सच निकली यह अनुभूति कि यह व्यक्ति जिस किसी को भी एक बार अपनी बाँहों में समेट लेगा, उसे कितना गहरा सुख….नहीं दुख, यातना, अभाव की परिक्रमा, व्यर्थ में धरती की परिक्रमा। क्या कहे वह? कुछ नहीं कह सकती। समय जैसे सारे निर्णयों को डुबो ले गया है। शादी के दूसरे दिन सुबह उसने चन्द्रा से खूब घुल कर बतायी थी बातें। एक-एक घड़ी का विवरण उसने दिया था। एक-एक पल का। आँखों की एक-एक झपक का। उसने कहा था, ‘सिर्फ़ पागल हो जाना शेष है। मुझे लगता है मैं हो जाऊँगी। इतना सब कैसे सँभलेगा! तुम्हीं बताओ चन्द्रा। तुम जो पहेली बुझातीं थीं, वह मैं समझ गयी हूँ ‘दोनों सहेलियाँ एक दूसरे को जकड़े लेटी रही। 
 
थोड़ी देर बाद चन्द्रा ने कहा था, ‘ऐसे भाग सबके नहीं होते….। रानी तुम खुशनसीब हो….लेकिन हमें भूल न जइयो।’…‘ज़रूर भूल जाऊँगी… मैं दुनिया-जहान भूल जाऊँगी’… वे दोनों खिलखिला कर हँसी तो माँ आ गयीं थी। ….रात भर में वह सिरस के फूल की तरह हल्की हो गयी थी। एक अनुभव गृहिणी की भाँति दिन भर वह माँ-भाभियों के बीच डोलती हुई बात-बात में दखल देती रही। ‘एक ही रात का यह असर! रानी जी, अब अरविन्द की ‘डिवाइन लाइफ’ नहीं रटोगी?’ बड़ी भाभी ने कहा था। ‘तुम हटो भाभी! मैं खुद ही ‘डिवाइन लाइफ़’ हो गयी हूँ। तब तक उसने माँ को देखा। उसकी भेद-भरी मुस्कान लक्ष्य कर उसने रूठने का अभिनय किया तो सभी ठहाके लगा कर हँस पड़े थे। वह भाग कर अपने कमरे में चली गयी थी। ससुराल में फूलों की सेज। तह-पर-तह सारे तन-मन में खुशबू…जैसे सारी ज़िन्दगी में सुहागरातें। उसने खिड़की के बाहर झाँक कर देखा था। इलाहाबाद की तुलना मे मेरठ उसे एक मामूली-सा कस्बा लगा था। स्टेशन में माधवनगर तक आते हुए सड़कों के तंग और सँकरे घुमाव, दुकानों पर जलती हुई तेल की ढ़िबरियाँ या गैसबत्तियाँ, रास्ते में कहीं बिजली और कहीं तेल के पुराने लैम्पपोस्टों के बीच अँधेरे-उजाले के कई-कई रंग। उसे सभी कुछ बड़ा प्यारा, शान्त निरीह-सा लगा था। 
 
रात हुई तो चुपके से वह एक बार छत पर गयी। छत से दूर-दूर तक घने, सान्द्र पपीतों के बाग़ और उनके बीच से गुज़रती हुई काली, अँधेरी सड़क। पश्चिम की ओर चुंगी-फाटक के पास ही एक बड़ा-सा ईंटों का दरवाज़ा और उसी से लगा हुआ, टूटी-फूटी, पुरानी-नयी कब्रों से इंच-इंच भरा क़ब्रगाह…वह चुपचाप नीचे उतर आयी। खिड़की से टिक कर बाहर देखने लगी। कब्रगाह पर धीरे-धीरे चाँदनी फैलती और बादलों के पर्दे में गुम हो जाती….. और इसी तरह तीन दिन और तीन रातें। बसन्त पहले बहुत पूछता था, ‘इतने कम समय में ऐसा क्या मिल गया जो…।’ अब नहीं पूछता।…ऊपर से नीचे तक सुख-भार से लदी, बेहोश वह कमी अपने बाहर ताकती, कमी आपने भीतर। सारी दुनिया का अस्तित्व जैसे समाप्त हो गया था। चारों ओर खाली सन्नाटा और एकान्त। और उस एकान्त में केवल दो प्राणी। कोई रहस्यमय, अर्थों से परे गीत का आलाप गुनगुनाते हुए। अब तो उसकी अनाम छाया भर है। वही उसे रोकती है। कातर या सबल बनाती है। अब वह स्वयं नहीं जान पाती। चन्द्रा से कही गयी वह बात कितनी सच निकली… ‘अब केवल पागल भर होना शेष बच रहा है।’ लेकिन क्या सच में उन्हीं अर्थों में? … कुल तीन दिन ही तो बीते थे। वही दिन, जिनमें उसे लगा था कि वह कई कल्पों से इसी तरह सुख में बेहोश, अजर-अमर जीती चली आयी है। वे ही तीन दिन, जिन्होंने उसे यह यंत्रणा भोगने के लिए सचमुच अमर कर दिया। …खिड़की से लगी, बाहर की ओर ताकती वह दरवाज़े से आते हुए सोम की आहट ले रही थी। बाहर क़ब्रगाह पर नीम की पत्तियाँ झर रही थीं और बीच-बीच के पक्षियों का झुण्ड चहचहा कर चुप हो जाता। जैसे घोंसले में जगह की कमी है। सभी को नींद आ रही है, कोई किसी को ठेलठूल देता है तो नींद टूटने के कारण वह झल्लाकर कुछ कहता है। फिर तू-तू, मैं-मैं होती है और फिर सब शान्त। 
 
बचपन में वे सब भाई-बहन इसी तरह करते थे… तब माँ आ जाती थीं…उसे याद आया।…तभी उसे आहट से जाना कि सोम आ कर उसके पीछे पलँग पर बैठ गये हैं। अब वे अपनी बाँहें फैलाएंगे। अब! अब…। उसने इन्तज़ार नहीं हो सका। वह पीठ के बल ही उनकी गोदी में लुढ़क गयी। आँखें मूँद लीं और इन्तज़ार करने लगी। ‘मुझे ठण्ड लग रही है,’ उसने कहा। एक पल बाद, कोई जवाब न पा कर, उसने आँखें उठा कर देखा। एकदम चौंक कर उठ बैठी; सोम का चेहरा तमतमाया हुआ था। आँखें सुलग रही थीं। नथुने फड़क रहे थे ओर होंठों के कोनों में हल्की-सी झाग निकल आयी थी। वे इस तरह बाहर की ओर देख रहे थे जैसे कुछ सुना ही न हो। ‘क्या हुआ, किसी से लड़ कर आये हो क्या?’ उसने उसका चेहरा पकड़ कर घुमा दिया। उन्होंने एक बार घूर कर देखा और एक धक्के से उठा कर अलग कर दिया। धक्का इतने ज़ोर से दिया गया था कि वह बिस्तर पर लुढ़क-सी गयी। फिर भी वह कुछ नहीं बोली, उठ कर बैठ गयी। फिर उसने लिहाफ़ खींच कर अपने पैरों पर डाल लिया। फिर एकाएक उससे रहा नहीं गया। बाँहों में चेहरा ढक कर व फफक पड़ी। ‘क्यों, क्यों, क्यों? आखिर क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह ज़ोर से पकड़ ली। वह चुप उन्हें देखती रही। ‘तुम औरत हो न?’ ‘……………’ ‘यह सब कहाँ से आता है? तुम जानती हो? नहीं जानतीं?’ ‘………….’ ‘क्या हो रहा है? यह सब नहीं चलेगा, समझी! ओफ़ोफ़।’ उन्होंने एक धड़ाके के साथ खिड़की बन्द कर दी। फिर न जाने क्या समझ कर खोल दी। फिर सारी खिड़कियाँ खोल दीं। दरवाज़े खोल दिये। कुछेक पल खिड़की की छड़ पकड़े बाहर क़ब्रगाह की ओर ताकते रहे। फिर पास आ कर बोले, ‘जानती हो, मतलब? बोलो? ज़रूर जानती हो। क्यों नहीं जानतीं? क्यों, क्यों, क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह पकड़ कर उठाना चाहा। फिर भी उसकी समझ मे नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। ‘मैं जानता हूँ, मैं’, उन्होंने अपनी छाती ठोंकते हुए कहा, ‘दुनिया की जितनी बदचलन औरतें हैं, वे अपने पतियों को उतना ही ज्यादा प्यार करती हैं। जिसकी यारी जितनी गहरी होगी, पति के लिए उसके प्यार का नाटक उतना ही गहरा और सफल होगा। मैं सच नहीं बोल रहा हूँ? मैं सब जानता हूँ। पता नहीं चलता, इतना फ़रेब इतना नाटक, इतना पाप इस नन्हे-से जिस्म में कहाँ समाता है…। बोलो? मैं समझता हूँ।’ बाँहें छोड़ कर वे धम्म से पलँग पर बैठ गये। उसने सोचा, अब वे शान्त हो गये। समझ मे तो कुछ भी नहीं आ रहा था। ‘मैं देखूँगा।’ वे सहसा तन कर खड़े हो गये। ‘कहाँ जज्व करती हो तुम लोग?’ उन्होंने उसे पकड़ कर पहले उठाया और फिर पलँग पर पटक दिया। वह टुकुर-टुकर उनका मुँह देखती रही। साड़ी उन्हानें खींच कर अलग कर दी। ब्लाउ़ज के बटन एक झटाके से चटचटा कर खुल गये। ‘यहाँ?’….उसने कुछ नहीं कहा। उसके पेट और वक्षस्थल पर खरोंचों से खून छलछला आया। ‘हटाओ हाथ। …यहाँ…यहाँ?’ उन्होंने जगह-जगह बकोटना शुरू किया।…..‘यहाँ’….तड़ाक-तड़ाक उसके दोनों गालों पर तीन-चार तमाचे जड़ दिये। ‘बोलो? नहीं बोलोगी?’ उसने तकिये में अपना मुँह गड़ा लिया। ‘नहीं बोलोगी? देन आई बिल शो यू… लेट मी हैव माइ पिस्टल।’ उन्होंने आल्मारी की ओर देखा, ‘नो, इट्स नाट हीयर’…वे कमरे से बाहर निकल गये। ‘आई ऐम जस्ट रिटर्निंग माई लिटिल डार्लिंग। हैव पेशेन्स। डोण्ट लूज़ योर करेज।’ वह चुपचाप उठ कर दूसरे दरवाजे़ से नीचे आयी और सास को जगा दिया। दौड़-धूप शुरू हुई। दो आदमियों ने पकड़ कर उन्हें ज़बरदस्ती लिटाया। डाक्टर आया। फिर थोड़ी ही देर बाद सोम के चेहरे पर वही शान्त निरीह भाव लौट आया। जैसे वे बहुत थक गये हों और सोना चाहते हों। सब लोग डाक्टर के साथ बाहर जाने लगे तो सास ने उसे भी चलने के लिए इशारा किया। उसने कह दिया कि वह थोड़ी देर में आयेगी। फिर वह सोम के सिरहाने आ कर चुपचाप बैठ गई और उनके बालों में उँगलियाँ फेरने लगी। फिर जैसे एक कोहरा-सा छँटने लगा और आँखों से मौन आँसू की लड़ियाँ बँध गयीं। अब क्या होगा? क्या होगा अब? 
 
दूधनाथ सिंह, श्रीलाल शुक्ल, राजेन्द्र यादव, काशीनाथ सिंह
 
तभी उसने सुना-डाक्टर बरामदे में कह रहा था, ‘मिस्टर गौड़! दि एक्सपेरीमेण्ट हैज़ बीन टोटली अनसक्सेफुल।’ उस एक क्षण में ही वह जड़ हो गयी। उसके हाथ जहाँ के तहाँ रूक गये। ‘एक्सपेरीमेण्ट!’ लगा कि वह चीख पड़ेगी। ‘एक्सपेरीमेण्ट’।…सोम के माथे को हल्का-सा झटका दे कर वह उठ आयी। उसका मन हुआ कि सोम का पिस्तौल उठा कर वह बाहर खड़े सभी लोगों को एक-एक करके गोली मार दे। उसने सोचा कि बस, इसी क्षण, अभी वह चल देगी। चाहे रात उसे किसी होटल में बितानी पड़े या कहीं और। उसने घूम कर देखा-सोम की दोनों बाँहें उसकी ओर उठी हुई थीं। आँखों से दो बूँद दोनों तरफ़ गालों पर बह आयी थीं और वे एक असहाय बच्चे की तरह उसकी ओर देख रहे थे। उसके भीतर से उमड़-उमड़ कर कुछ अटकने सा लगा। उसकी इच्छा हुई कि धरती फट जाय और वह सभा जाये। भूचाल आये, या कुछ भी हो सोम उसे गोली ही मार दें। वह चुपचाप दाँतों से होठों को दबाये कमरे से बाहर निकल आयी। सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने एक बार पीछे घूम कर देखा था। वह सोच नहीं सकी थी कि सोम अगर दरवाज़ा पकड़े, खड़े-खड़े उसकी ओर देख रहे होंगे तो वह क्या करेगी।….लेकिन वहाँ कोई नहीं था…..। अन्दर शायद फिर उन्हें दौरा आ गया था। कुछ लोग उन्हें पकड़े हुए थे। उनकी चीख सारे बँगले में गूँज रही थी- ‘साली, कुतिया….कमीनी….थूः।’ खिड़की से टिके-टिके, जाने कब उसे नींद आ गयी थी। 
 
हड़बडा कर जब वह उठी तो पाया कि सुबह हो गयी है और गाड़ी मेरठ पहुँचने वाली है।… स्टेशन पर उतरते ही वह सिहर गयी। वही छोटा-सा स्टेशन था। बिलकुल वैसा ही। कहीं कोई परिवर्तन नहीं। ‘यही शहर है जहाँ वह अपने को दफ़न कर गयी थी।’ उसने सोचा और कुली से सामान उठवा कर स्टेशन के बाहर आ गयी। यहीं उस बार उसकी सास खड़ी थीं। और साथ ही कितने अजनबी लोग, जो उसे देखने और स्वागत के लिए उपस्थित थे। दूकानें वैसी ही थीं।…तो क्या यह सीधे माधवनगर चली चले? इसी पसोपेश में वह रिक्शे पर बैठ गयी। ‘किसी होटल में चलेंगे, समझे।’ कहकर वह चुप हो गयी। ….दोपहर बीत गयी थी। होटल की छत पर धूप में एक दरी बिछाकर वह लेटी हुई थी। धूप माथे पर कुछ तीखी लगने लगी तो उसने नौकर से कहकर एक खाट खड़ी कर ली। ऊपर आसमान में काफ़ी ऊँचाई पर चीलों के गिरोह भाँवरे ले रहे थे। गहरे नीले आकाश में सफ़ेद बादलों के चकत्ते पैबन्द की तरह कहीं-कहीं उभरते और फिर गुम हो जाते। फिर सहसा आकाश की अथाह गहराई में से कहीं एक सफ़ेद टुकड़ा प्रकट हो जाता और हवा के इशारे पर झलमलाता हुआ सरकने लगता….. ‘बेकार है तेरा यहाँ आना। तेरे मन में तो कुछ भी नहीं है सुमित!’ वह बार-बार अपने से कहती। और फिर वह कैसे मिलेगी? क्या कहेगी कि वह क्यों आई है क्या वह संयत रह सकेगी? जो भी हो, वह पूछेगी,… सोम की छाती पर मुक्के मार-मार कर पूछेगी, ‘तुमने ऐसा क्यों किया? तुमने मुझे ऐसा क्यों बना दिया? तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ते?’ और सोम? उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे। लेकिन जो भी हो, वह मिलेगी जरूर। फिर? फिर क्या? अब और क्या शेष रह गया था। इन सात वर्षों में चुप-चुप तलाक भी हो गया था। उस वक्त सोम पागलखाने में थे। हस्ताक्षर करते वक्त वह वहीं फूट पड़ी थी। नहीं, वह यह बिल्कुल नहीं चाहती…। उसका मन होता कि वह सोम को पागलखाने जाकर देख आये। फिर उसने रिसर्च पूरी की। पापा ने कहा कि ‘कुछ कर ले’ तो उन्हीं की सिफारिश पर उसने प्राध्यापिका का पद भी स्वीकार कर लिया। उसके दूसरे दिन उसने पापा को चिट्ठी लिखी थी, ‘पापा, मुझे अब और कुछ करने के लिए मत कहना। मैं ठीक हूँ।’ वहीं रहते हुए उसे चन्द्रा से खबर मिली कि सोम अच्छे हो गये हैं और उन्हें नौकरी पर फिर से बहाल कर लिया गया है। उसे संतोष हुआ था और उसने सोचा था कि एक बार बिना किसी को बताये वह मेरठ चली जाये और उन्हें देख आये। लेकिन उनके ज़रा-सा भी ‘डिस्टर्ब’ होने की कल्पना से ही वह काँप उठती और उसका जाना रह जाता…. इसी पसोपेश में एक दिन चन्द्रा की चिट्ठी आयी। लिखा था, ‘सोम ने फिर से शादी कर ली है।’ वह सन्न रह गयी। सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ। उसे चन्द्रा को तार दिया कि यह खबर कहाँ तक सच है। जवाब में चन्द्रा ने लिखा कि ‘यहाँ सभी को पता है। साथ ही एक साप्ताहिक में उसने सोम और उस लड़की की तस्वीर छपी हुई देखी है। तस्वीर की कटिंग वह भेज रही है।’ तस्वीर देख कर भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था। कई बार स्टूल पर कोने में रखी सोम की तस्वीर से वह मिलान करती और देखती रह जाती। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या सोचे? अपने साथ कैसा व्यवहार करे। चुपचाप वह बाहर निकल आयी। कुछ लड़कियाँ उसके साथ रोज़ ‘न्यू-साइट’ तक घूमने जाया करतीं थीं। उसने सभी को मना कर दिया दुनियाँ की किसी भी घटना या अघटना पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था कुछ भी सम्भव है यहाँ और कुछ भी असम्भव है। विशेषकर जिसे अनहोना समझा जाता है वह तो घटित हो कर ही रहता है। उसे लगा कि किसी ने तुम्बी लगा कर उसका रक्त चूस लिया है और एक कठपुतली की तरह निर्जीव, अनुभूतिहीन, वह चुपचाप चली जा रही है। होस्टल में वह काफ़ी देर से लौटी थी। कई लड़कियाँ दरवाज़े पर बैठी फुसफुसा रही थीं। और दिन होता तो वह डाँट देती, लेकिन आज कुछ नहीं बोली। उसे लग रहा था कि वह इन सबसे गयी-गुजरी है। उसकी कोई अहमियत नहीं है। अन्दर आ कर वह लेट रही। खिड़की के बाहर अँधेरे में देखते हुए उसके भीतर एक मरोड़-सी उठने लगी। जैसे सींखचों के बाहर की हर चीज़ परायी हो गयी हो। 
 
 
उसकी इच्छा हुई कि हाथ बढ़ा कर, बाहर अँधेरे में डूबी हुई सारी हरियाली और झरझराती हवा को अपने अन्दर खींच ले। फिर उस रात… बेदम-सी करवटें बदलती हुई न जाने किसी अनदेखे को सुनाकर वह कराहती-छटपटाती रही…. सुबह उठी तो लगा जैसे किसी पराये देश में जागी है। रात भर में ही जैसे सारा जीवन खिड़कियों को राह सरक कर गुम हो गया था। जैसे अन्दर का सब कुछ निचुड़ कर बह गया था और उसका सूखा हुआ कंकाल एक मूर्ति की तरह खिड़की पर बैठा दिया गया था। हाथ-मुँह धोते वक्त वह न जाने किसी दूसरी अनहोनी का इन्तज़ार करती रही। घंटों बाथरूम के फ़र्श पर बैठी ठिठुरती रही। -‘डायनिंग हाल’ में गयी तो उससे कुछ भी खाया नहीं गया। कौर मुँह में डालते ही उल्टी-सी आने लगती। छोड़ कर वह उठ आयी। फिर उसे महसूस हुआ कि इस कमरे में वह एक क्षण को भी नहीं रह सकती। जल्दी-जल्दी कपड़े बदल कर वह यूनिवर्सिटी चली गयी। क्लास में जाते वक्त उसे लगा जैसे सभी उसी को देख रहे हैं। उसकी पीठ पर बाँहों पर, आँखों में, भँवों में सब कुछ लिखकर टाँक दिया गया है।….. क्लास खत्म होने पर उससे वहाँ नहीं रहा गया। ‘स्टाफ़रूम’ की ओर जाने के बजाय वह पैदल ही होस्टल चल पड़ी। कमरे का ध्यान आया तो उसने सोचा अब कहाँ जाय। फिर वह अपने आप ‘न्यूसाइट’ की ओर मुड़ गयी। 
 
धीरे-धीरे दिन डूब गया। हल्की-सी ठण्ड गहरा गयी। अँधेरा उठने लगा। उस अँधेरे में क्षितिज की रेखाएँ तोड़ते हुए निःशब्द पक्षी थे। बादलों के नन्हें-नन्हें छल्लों मे लाल मछलियाँ थीं। कहाँ दूर ट्रेन की लयात्मक टूटती हुई आवाज़ थी। सब कुछ कितनी तेज़ी से टूट रहा था। हवा रूकती हुई-सी लग रही थी। उसके फेफड़े बेदम हो रहे थे। पूरब की ओर झील में लाल कमल मुँद रहे थे और दूर-दूर तक ऊँचे-ऊँचे टीलों, घाटियों और खेतों के बीच-कँकरीले रास्तों, पगडंडियों और खाइयों में अन्धकार भरता जा रहा था। वह घास में मुँह के बल लेट गयी ओर फफक-फफक कर रोने लगी। सन्नाटे में उसका सिसकना साफ़-साफ़ सुनायी दे रहा था, जैसे बच्चा आधी रात को माँ को बिछौने पर न पा कर डरता हुआ धीरे-धीरे सिसकने लगता है। उसकी मुट्ठियों में नुची हुई घास भर गयी थी और उसी तरह मुँह के बल पड़ी हुई वह न जाने कब सो गयी थी…. छत पर की धूप न जाने कब की सरक गयी थी। साँझ हो गयी थी। ‘चीला’ हवायें बदन चीरती हुई सरसराने लगी थीं। ठण्ड के कारण आसमान अजीब ढंग से सिकुड़ा हुआ लगता था। चारों और घरों और बार्जों पर झुर्रियाँ-सी उतर रही थीं वह उठ खड़ी हुई और होटल के लड़के से रिक्शा बुलाने को कह कर, कमरे में चली गयी। उसे कपड़ों का ख्याल आया। क्या पहन कर वह जाये! इतने भयावह दुख में भी वह अनुभूति उसे सुख से आद्र्र कर गयी। जैसे सोम कहीं इन्तज़ार कर रहे हों। अभी भरे-भरे मन से जाकर उनसे लिपट जाना हो… रिक्शे पर चलते हुए उन सभी जगहों की धुँधली-सी तस्वीर साफ़ हो गयी। लेकिन परिचय का वह स्तर बदल गया था। अभिभूत होकर डूब जाने के वे विस्मय भरे एकान्त अब कहाँ थे।…सँकरी गलियों में हाथकर्घे घर्र-घर्र करते हुए चल रहे थे। जहाँ-तहाँ ढिबरियों की रोशनी या बिजली की हँसी ओढ़े शाम झिलमिला रही थी।… सड़क पर ही वह रिक्शे से उतर गयी। सामने वही हापुड़-नौचन्दी की चुंगी, उस ओर वही बड़ा सा फाटक और फिर हापुड़ की ओर जाती हुई अँधेरी सड़क।… उस खिड़की से यह सब दिखता था। अचानक वह सिहर गयी और उसने शाल खींच कर बाँहों को ठीक से ढक लिया।… सड़क छोड़कर वह गली में आ गयी। मकान के चबूतरे पर चढ़ते ही उसकी धड़कने बढ़ गयीं। 
 
भीतर रोशनी झलक रही थी। सामने-वाली खिड़की खुली थी। दरवाज़े पर लगी सफ़ेद ‘काल-बेल’ चमक रही थी। उसके हाथ ‘काल-बेल’ दबाने ही जा रहे थे कि अन्दर से सोम के ठहाके की आवाज़ सुन पड़ी। वह सहम कर काँप गयी। क्या एक बार की गहरी पहचान इन्सान को कभी नहीं भूलती?…खिड़की की राह उसने देखा-सोम एक नन्हीं-सी बच्ची को उछाल रहे हैं। बच्ची रोती जा रही है और मान नहीं रही है। पत्नी फ़र्श पर बैठी हुई एक दूसरे बच्चे को कुछ खिला रही है। उसकी पीठ खिड़की की ओर थी। क्षण भर को सोम की बात भूलकर पत्नी की पीठ वह एकटक देखती रही। उसने चाहा कि एक बार उस स्त्री का मुँह देख ले। सोम का चेहरा भी दूसरी ओर था और उनके कन्धे पर चीखती हुई बच्ची का आँसुओं से तर गोल-मटोल मुखड़ा भर दिख रहा था। अचानक उसे यह सब कुछ बड़ा अटपटा-सा लगा। 
 
उसने घूम कर पीछे गली में देखा। आते-जाते लोग उसे इस तरह खिड़की से झाँकती देख कर क्या सोचेंगे! वे दुबले नहीं दिख रहे थे। कन्धे और भी पुष्ट और चौड़े हो गये थे। कमर मोटी लग रही थी। …यही देह कभी कितनी अपनी थी, जिसने उसे इस तरह पागल बना दिया था, उसने सोचा और एक क्षण को फिर उसने देखना चाहा कि…। बच्ची खिलखिला रही थी और वे झुक कर लगातार पत्नी के गालों को चूम रहे थे। … वह जल्दी से नीचे उतर आयी और गली में यों चलने लगी जैसे यहीं कहीं रहती हो। सड़क पर आ कर उसने इधर-उधर ताका। कोई रिक्शा आस-पास दिखायी नहीं पड़ा। चुंगी-फाटक पार कर के वह आगे बढ़ गयी। कुछ दूर अँधेरी सड़क पर चलने के बाद वह नौचन्दी के बड़े वाले मैदान की ओर मुड़ गयी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रही है। उसे स्वयं अपने चलने की यादगार भी भूल गयी थी। अचानक उसने अपने को क़ब्रगाहों के बीच में पाया। पलाश और झाऊ के झारखण्डों के बीच पुरानी हुई क़ब्रें उसके पाँवों के नीचे थीं।… पहली बार यहीं पर उसे शक हुआ था। ‘सूरज कुण्ड’ की ओर से घूमते हुए सोम और वह ठण्डी रात में यहाँ आये थे। तब उसे कितना डर लगा था। और अब? ‘क्या तुम्हें डर लगता है?’ उसने खुद से पूछा। इससे ज्यादा डर तो उसे सोम की खिड़की पर खड़े-खड़े लगा था। कैसा डर…? चलते-चलते कभी वह एक धँसी हुई क़ब्र में हो जाती, फिर किसी दूसरी क़ब्र पर चढ़कर उसे पार करना होता। यह खड़ी हो गयी और पगडण्डी का अन्दाज़ लगाने लगी। कुछ दूर पर एक छोटी-सी मस्जिद देखी। भीतर कोई नन्हा सा दीपक बाल गया था। हवा की सिहरन से सूखे पत्ते खड़खड़ा कर उड़ते और फिर सब शान्त। पलाश और झाऊ के झारखण्डों के बीच से अजीब-अजीब कलूटी, आदिम, अनदेखी आकृतियाँ उभरने लगीं। क्या वह ज़िन्दा है, दफ़न नहीं हो गयी है? क्या उसका जिस्म उसकी क़ब्रगाह नहीं? क़ब्रगाह जिसे वह सौंपना चाहती है। चाहती है कि कोई उस पर फूल चढ़ाये।…फिर भी वह नहीं सौंप पाती।…. एक नयी बनी हुई क़ब्र पर बैठ गयी। इच्छा हुई यहीं लेट जाये और कोई ऊपर से मिट्टी डाल दे। मन वितृष्णा से भर आया।… कोई किसी का दुख नहीं समझ सकता। वह किसी को भी दोष नहीं देती। पापा को भी नहीं। 
 
 
क्या किसी के भी वश में है कि वह दूसरे को सुखी रख सके। ऐसा चाहा जा सकता है, लेकिन चाहने से ही तो सभी कुछ नहीं हो जाता।….. पिछले सात वर्षों से वही कमरा….. और वही रातें। जिनमें एक पल को भी वह जगी रहना नहीं चाहती। लेकिन नींद?….. आँख झपकते ही वह चिहुँक कर उठ बैठती। जैसे कोई साँस चुरा ले भागने की फ़िक्र में दरवाजे़ पर घात लगाये हो। झट वह बत्ती जला देती। कहीं कुछ भी नहीं। भीतर इतनी थकान और इतना दबाव…..हाथ-पैरों के जोड़ों पर त्वचा के नीचे नसों का धड़कना साफ़-साफ़ दिख पड़ता। तकिये पर कानों की राह धुकधुकी सुनते-सुनते वह ऊब जाती। करवटें बदलती….फिर बदलती….फिर….फिर। फिर नींद में सपनों के अम्बार हर करवट पर किसी विराट सपने के भयावह खण्ड टूट-टूट कर जुड़ते जाते।. …. सुबह उठने पर वह शाम से भी ज्यादा थकी होती। सारे बदन में केवल नसों का धड़कता जाल महसूस होता । बीच-बीच में कभी-कभी माँ आ कर एकाध हफ्ते के लिए रह जातीं। पिछली दफ़ा उन्हें पता चल गया था। जब भी सुबह वह ‘इनो’ का गिलास माँगती, वे समझ जातीं। माँ केवल चुपचाप देखतीं और होंठ दाँतों तले दबाये चुपचाप चली जाती। वह मनाती, ‘कुछ नहीं माँ, वो नींद नहीं – आती न, इसलिए …. वह लिपट जाती। ‘तो तू नींद की गोलियाँ क्यों नहीं रखती?’ ‘और किसी दिन एक साथ कई गोलियाँ खा लूँ….तो माँ?’ माँ आँसू पोंछती हुई चैके में चली जातीं। ‘तू बस नौकरी छोड़ और चल…..’ वह कहतीं। उसका मन होता, पूछे, ‘कहाँ माँ?’ लेकिन वह चुप रह जाती। युनिवर्सिटी जाने लगती तो माँ कहती, ……‘देखो बेटा। देर न करना।’ वे हमेशा भरभरायी हुई लगतीं। 
 
धर्मशाले के पीछे एक छोटी-सी जगह थी। बुढ़िया को वह भाभी कहती। बर्फ़ में रखी हुई ‘बियर’ की बोतल निकाल कर वह खुद ही रख लेती। भाभी पकौड़े और पापड़ भून लाती। तब तक वह ‘काकटेल’ बनाती। फिर थोड़ी देर बाद आवाजें दूर-दूर लगने लगती। सारा माहौल, लोग, भीड़, सवारियाँ सब काफ़ी दूर दूर लगते। अपनी आवाज़ भी जैसे काफ़ी दूर से बोली गयी लगती। जल्दी लौट आने पर भी माँ समझ जातीं। ‘माँ, पापा से मत कहना, मैं इतनी गिर गयी हूँ।’ फिर माँ-बेटी दोनों फूट पड़तीं। ‘तू किताबें क्यों नहीं पढ़ती?’ माँ कहतीं ‘सारी किताबें मुझे चिढ़ाती है माँ। सब जगह मेरी ही बात लिखी है।’ वह खिलखिला पड़ती। माँ चौंक कर उसे देखती रह जातीं। फिर माँ के चले जाने के बाद वह उसी तरह असहाय हो जाती; घंटों बिस्तर पर, फ़र्श पर या दरवाज़े की संधि पर उकड़ूँ बैठी रहती। सूने दिन या रात के एकांत में उसे लगता कोई आवाज़ दे रहा है-‘सुमित’! वह चौंक कर चारों ओर देखती रह जाती। नहीं, यह भ्रम है। ऐसी बातों पर उसे कतई विश्वास नहीं होता।…. बारिश का होना, पहाड़ियों और खेतों में संध्या के आलोक का बुझना, रातों का ढलना या दिन की तीखी धूम के पंजे फैलाना। …..सब में उसे एक भयावह छाया-सी नज़र आती। उसे फिर वही आवाज़ सुन पड़ती…..‘सुमित!’ वह घूम कर चारों ओर ताकती और एक अजब-से सुख-भाव से बोल पड़ती. ….‘हूँ, …..बोलो?’ फिर वह सन्नाटे की उसी आवाज़ का इन्तज़ार करती। ऐसे ही क्षणों में पैण्ट की जेबों में हाथ ठूँसे बसन्त कभी-कभी दिख जाता। बहुधा क्लास से लौटते वक्त वह स्टाफ रूम की खिड़की पर आकर खड़ा हो जाता…..‘मिस शर्मा’। जैसे नींद-सी टूटती। वह कुर्सी घुमा कर उसे देखती रह जाती, ‘आ जाइए न अन्दर।’ ‘क्लास है।’ वह खिड़की के छड़ पकड़े़ मुस्करा पड़ता। उसकी नाक, होंठ और चिबुक खिड़की के भीतर आ जाते। वह थोड़ी देर तक खड़ा रहता, फिर चला जाता। उस दिन सारी रात उसने निश्चय किया था। डर लगा रहता था कि कहीं नशे में तो वह ऐसा नहीं सोच रही है। 
 
सुबह मीटिंग थी। मीटिंग खत्म होने के बाद उसने बसन्त को आवाज़ दी। पहले उसके हाथ उठे, फिर वह पीछे हाथ बाँधे आकर मुस्कुराता हुआ खड़ा हो गया। फिर बोला, ‘आज आप खुश दिख रही हैं।’ ‘चलिये, थोड़ा घूम आयें।’ उसने बात को बदलते हुए कहा। सड़क छोड़कर वे ऊँचे-नीचे रास्ते पर हो लिये। टीले पर चढ़ते वक्त एकाध जगह बसन्त ने हाथ बढ़ाना चाहा तो उसने ऐसे जताया जैसे देख नहीं रही हो। एक जगह कुछ चौड़ी सी खाई थीं बसन्त फिर अपना हाथ बढ़ा कर खड़ा हो गया। एक पल के बाद उसने हाथ पकड़ लिया और खाई पार कर गयी। एक ऊँचे टीले पर चढ़कर वे बैठ गये। सूर्य डूब रहा था। बसन्त का चेहरा सूर्य के लालिम रंग में भींजकर एकदम सुर्ख हो रहा था।……एकाएक फिर न जाने कैसे उसे सोम का चेहरा याद आया। ……क्यों ऐसा है? क्यों? किसी भी एकान्त में सोम की मुद्राएँ घिर आती हैं? उसने सिर झटक लिया…..सुमित प्लीज़!’ उसने मन-ही-मन कहा, ‘ठीक है…..बाद में जो भी कह लेना।’…..उसकी आँखों में आँसू आ गये। बसन्त से छिपाने के लिए मुँह दूसरी ओर फेर लिया। उसकी इच्छा हुई कि उठ चलने को कहे। सब बेकार है। ‘ठण्ड काफ़ी है।’ बसन्त ने तभी कहा। उसकी दोनों बाँहें ऊपर आसमान की ओर उठी हुई थीं। ‘आपने पुलोवर नहीं पहना।’ उसने कहा। ‘मैं अपने लिए नहीं कह रहा।’ बसन्त ने कहा। फिर दोनों चुप हो गये। बसन्त रह-रह के कोई पत्थर उठाता और नीचे खाई की ओर लुढ़का देता। कभी लड़-खड़ाते हुए पत्थर की आवाज़ सुनाई पड़ती, कभी नहीं। एकाएक उसने करवट घूम कर अपनी एक बाँह बढ़ाकर सम्पूर्ण रूप से उसे खींच लिया। वह शायद उठकर चलना चाह रही थी। उस अप्रत्याशित से कुछ भी समझ नहीं पायी। बसन्त ने और भी ज़ोर से चिपटाते हुए कहा, ‘आप उन्हें बहुत चाहती हैं न?’ कुछ जवाब देते नहीं बना उससे। सोम! एक अकेला व्यक्ति…..उसकी सारी प्रकृति, सम्पूर्ण मन, देह और आत्मा में बिछा हुआ। क्या अधिकार है? किसी को भी क्या अधिकार है कि वह अपनी आत्मा को इतना निरीह बना दे? वह कहना चाहती थी, ना, मैं उस शख्स से बेहद नफ़रत करती हूँ। ना, मैं स्वतंत्र हूँ। मैं बिल्कुल अकेली हूँ…..अकेली बन के दिखा सकती हूँ। ……मुझे तुम कहीं भी ले चलो…..मैं,’ लेकिन उसके मुँह से कुछ भी नहीं निकला। ‘कितनी बड़ी बात है यह।’ बसन्त ने कहा। ‘कितनी बड़ी बात है! ना बसन्त’, उसने कहना चाहा, ‘यह एक भयानक मौत है जिसे तिल-तिल महसूस करना होता है। कोई मुझसे पूछे कि ‘तुम्हारी उम्र ज्योतिष के अनुसार कितने वर्ष है?’ तो मैं उससे पूछने को कहूँगी ‘तुम्हारी मौत ज्योतिष के अनुसार अभी कितने वर्षों तक चलेगी।’ बसन्त, मैं कुछ नहीं चाहती। नहीं चाहती यह पतिव्रव्य और प्रेम का बड़प्पन। मैं पाप करना चाहती हूँ। मैं गिरना चाहती हूँ। मैं सीता, सावित्री, दमयन्ती, राधा…कुछ नहीं बनना चाहती. ..मैं जानती हूँ कि मैं पुण्यात्मा नहीं हूँ। दुख पाना कोई पुण्य-कर्म नहीं है।’ लेकिन, वह एकदम चुप थी। 
 
‘कितना अजीब है यह संसार!’ बसन्त ने उसी तरह कहा, ‘जो एक बार सुख से सजा देता है वह अपना दिया वापस नहीं ले जाता। यों कहें कि नहीं ले जा पाता। उसे लौटाने का अधिकार दाता को नहीं रह जाता। और फिर उस सुख की बाढ़ में हम आजीवन ऊभ-चूभ होते रहते हैं। फिर क्या होता है? फिर शायद कुछ नहीं हो पाता। कुछ सुख होते ही ऐसे हैं जो हमें सदा के लिए पागल कर देते हैं…’ आगे वह खो-सा गया। एकाएक उसके भीतर कोई चीज़ लड़खड़ाने लगी। उसने एक झटके से अपने को अलग कर लिया और खड़ी हो गई। यह हो क्या गया? यह उसने क्या कर दिया? उसकी इच्छा हुई कि खूब ज़ोर से चीखे- ‘नहीं, सोम…..नहीं।’ भरभरा कर आँसू निकल आये। बसन्त भी उठ कर खड़ा हो गया। धीरे-से उसने उसकी बाँह छुई – ‘क्या हुआ मिस’….‘आप यहाँ से जाइए। मुझे छोड़ दीजिए. …जाइए।’ उसने बाँह झटक दी जैसे वहाँ बिच्छू ने डंक मार दिया हो। बसन्त ने एक बार कहना चाहा। तभी उसने आँखें उठायीं। फिर वह कुछ नहीं बोला। उसके हाथ वैसे ही पीछे बँधे हुए थे जैसे अपनी अँगुलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हों बग़ल की झाड़ी में हल्की-सी खड़खड़ाहट हुई। वह चौंक  गई। हवा के झोंके में पत्तियाँ ज़मीन पर घिसट रही थीं। वह उठ खड़ी हुई। झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाती हुई वह नौचन्दी के बड़े वाले मैदान में निकल आयी। बड़े-बड़े टिन के ‘शेड्स’ में अँधेरा और भी घना हो रहा था।….चलती हुई, बड़े फाटक से निकल कर वह फिर सड़क पर आ गयी। सोम का मकान वहाँ से दिख रहा था। पीछे वाली खिड़की खुली थी और रोशनी के दायरे में कोई नारी-मूर्ति बालों में कंघी कर रही।…. फिर खिड़की बन्द हो गयी। 
 
 
रिक्शों को ताकती वह आगे बढ़ रही थी अभी उसने देखा-दरवाज़ा खुल गया है और वही नारी-मूर्ति एक बच्चे को उँगली पकड़ाये सड़क की ओर चली आ रही है। वह जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गयी। स्त्री ने सड़क पर आ कर एक बार पीछे की ओर देखा, फिर बच्चे को उठा लिया। सारे साज-सिंगार के बावजूद वह विशेष सुन्दर नहीं लग रही थी। फिर भी देह भरी-पूरी थी और चेहरा भावहीन था। तुलना में उसने अपने को एक बार परखने की कोशिश की तो लगा कि उसका चेहरा झँवरा गया है, आँखें धँस गयी हैं। सारी देह का रक्त-माँस सूख गया है और कपड़ों के भीतर वह किसी तरह अपने कंकाल को छिपाये, लड़खड़ाती हुई चल रही है। तभी दरवाज़े के बाहर सोम का लम्बा-तगड़ा शरीर प्रकट हुआ। एक ओर हटकर वह चुपचाप उन्हें सड़क की ओर आते देखती रही। दो-चार कदम चलकर वे खड़े हो गये ओर सिगार सुलगाने लगे। कश खींचते ही सिगार को आँच में उनका चेहरा दमक कर फिर अँधरे में ओझल हो गया। 
 
होटल लौट कर वह बिना खाये-पिये बिस्तर पर पड़ गयी थी। गहरी नींद में उसे लगा, कोई उसके हाथ की उँगलियाँ जीभ से चाट रहा है। उसकी एक बाँह लिहाफ़ के बाहर पड़ी-पड़ी एकदम सर्द हो गयी थी। सिहर कर वह जग गयी।… अँधेरे में कहीं कोई आहट नहीं लगी। उसने बेड़-स्विच जला दिया। कमरा ठण्ड से सिकुड़ कर जैसे और भी छोटा लग रहा था।…. एक कोने में गर्द से भरी एक चूहेदानी रखी हुई थी। लगता था महीनों पहले किसी मुसाफिर की शिकायत पर होटल-मैनेजर ने चूहेदानी रखवायी होगी। होटल की खस्ता हालत और जिन्दगी से यह ज़ाहिर था कि किसी ने चूहेदानी को फिर से हटाने का कष्ट नहीं उठाया था।…उसने देखा-एक चूहिया महीनों पहले, शायद चूहेदानी में फँस गयी थी। उसक शरीर एकदम सूख कर काँटा हो गया था। चूहेदानी की सींखचों पर अपने अगले दो पैरों को रख कर थूथने को बाहर निकालते हुये उसने निकलने की बहुत कोशिश की होगी, लेकिन उसी मुद्रा में लड़ते-लड़ते वह सूख गयी।…चूहेदानी के बाहर एक बड़ा-सा चूहा सशंक नेत्रों से कभी उसकी ओर देखता और कभी अपने दोनों अगले पाँव ऊपर उठा कर अपने थूथन से चुहिया का थूथन हिलाता….. उसने मुँह फेर लिया और बत्ती बुझा दी। करवट बदलते वक्त तख्त पर, बावजूद बिस्तर के, कूल्हे की हड्डियाँ गड़ रही थीं।
 
 
सम्पर्क –

मोबाईल- 09415235357
फोटो सौजन्य – सुधीर सिंह

विष्णु प्रभाकर की डायरी

विष्णु प्रभाकर
पत्रकारिता का पेशा अपने आप में बड़ा चुनौतीपूर्ण होने के बावजूद युवाओं को कैरियर के रूप में अपनी तरफ अधिकाधिक आकर्षित करता रहा है। लेकिन यहाँ के अंदरखाने की हकीकत बहुत ही त्रासदीपूर्ण है। जब युवा इस हकीकत से रु-ब-रु होता है तो उसका मोह-भंग हो जाता है। दुर्भाग्यवश आज मीडिया उस पालतू तोते की बोलने लगा है जो धीरे-धीरे अपनी असली आवाज भी भूल जाता है। विष्णु प्रभाकर युवा रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी डायरी के पन्नों में एक युवा के पत्रकारिता प्रेम और उसके मोह-भंग की स्थिति को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है यह कहानी केवल विष्णु प्रभाकर ही नहीं देश के अन्य युवाओं की भी कहानी है। तो आइए आज पढ़ते हैं विष्णु प्रभाकर की डायरी का यह पन्ना।

   

डायरी के पन्ने से
 
  
विष्णु प्रभाकर
खबर मिलते ही मैंने जाने की तैयारी शुरू कर दी। पहले से इसका इंतजार था। लेकिन खुश होने जैसा कुछ था नहीं चार महीने तक अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाते लगाते थक चुका था तब जा कर ये नौकरी मिली थी। और नौकरी भी मिली तो शहर से अस्सी किलोमीटर दूर। लेकिन क्या करता बेरोजगारी के इस आलम में कुछ तो करना ही था। जब घर से निकला तब पता चला कि बाबू जी ठीक कहते थे “इस जमाने में नौकरी का मिलना भगवान के मिलने जैसा है”।

शहर में रहना अब कठिन हो रहा था महंगाई भी तो उम्र के साथ बढ़ती चली आ रही है। शहर भेजा गया था कि अधिकारी बन कर लौटूँगा। और मेरा मन था कि तनिक भी इस पढ़ाई में लगता नहीं था। विश्वविद्यालय के दिनों से ही पत्रकारिता काफी अच्छा लगने लगा था। मै तय कर लिया था कि मुझे पत्रकार ही बनना है। जब विश्वविद्यालय में पत्रकारों को घूमते देखता था उनसे जाकर पूछता कि किस अखबार के लिए काम करते हैं। देखता किस तरह से न्यूज़ लिख रहे हैं। ग्रैजुएशन के बाद ही इसके लिए प्रयास शुरू किया था। पत्रकारिता पढ़ा नहीं था। बाद में पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया। कुछ कुछ अखबारों में लिख कर भेजता पर छपता नहीं। प्रयास करता रहा। बहुत बार कई मसलों पर लिखने की कोशिश करता रहा। एक दिन “शिक्षा के निजीकरण” पर एक लेख लिखा और एक नामी अखबार में भेज दिया। लिखने में कई दिन लग गये था। चार दिन बीत गये। रोज अखबार देखता कि मेरा लेख आया है कि नहीं। पाँचवें दिन मैंने संपादक को फोन किया और कहा “मै एक लेख भेजा था। आपने पढ़ा?”

कौन सा लेख?” उधर से आवाज आयी।
शिक्षा के निजीकरण पर मेरा लेख था। चार दिन पहले भेजा था।”
क्या नाम है आपका??
शशिकांत”
आज आपका लेख जा रहा है।”

मैंने शुक्रिया कहा और फोन कट कर दिया। रात भर मुझे सुबह का इंतजार रहा। सुबह सात बजे मै अखबार लेने चौराहे पहुँच गया जहाँ अखबार वाले अपने सायकिलों पर अखबार लिये खड़ा होते। मै अखबार लिया और पहले आँठवाँ पेज खोला। देखा मेरा लेख छपा था। मुझे बहुत खुशी हुई। दिन भर अखबार अपने साथ लिये घुमता रहा। जो भी अपना परिचित मिलता उसे अखबार दिखाता।

रोज अपना ही छपा देखता, कई बार पढ़ता और अपने लिखे में खुद ही कमियां निकालता।

हरेक बार पढ़ने के ऐसा बाद लगता यहाँ ये लिखता तो और अच्छा लगता। कुछ दिनों बाद मुझे घर जाना था लेकिन जब से ये लेख छपा था बचे दिन लम्बे लगने लगे थे। लगता था कब जल्दी से वो दिन आये और मैं घर चला जाऊँ। आखिरकार वो दिन आया। घर जाता था तो कुछ न कुछ यहीं छूट जाता था। कई बार बहन ने किताब लाने को कहा था। मेरी आदत से वो वाक़िफ़ थी इसलिए आने से पहले वो फोन कर याद दिलाया करती बावजूद इसके मैं किताबें भूल जाता। ऐसा बहुतों बार हो चुका था इसलिए अखबार को मैंने पहले ही बैग में रख लिया था कि कहीं भूल ना जाऊँ। घर गया तो साथ अखबार को भी ले गया ये सोच कर कि बाबू जी को दिखाऊँगा तो खुश होगें। घर पहुँच कर सबसे पहले मैंने बाबू जी को अखबार दिखाया। बाबू जी ने देख कर कहा “ठीक है लेकिन इससे कहाँ काम चलने वाला है।”

मै बहुत दुखी हुआ क्योंकि जो मै सोचा था ठीक उसका उल्टा हुआ। मै सोचा था कि बाबू जी खुश हो कर और लिखते रहने के लिये कहेंगे पर बाबू जी सामान्य बने रहे। मै वापस शहर आ गया और बेमन से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता रहा और अखबारों के दफ्तरों में घुमता रहा। आखिरकार ये नौकरी मिली। दो दिन बाद ही ज्वाइन करना था। कपड़े, बिस्तर लिया और चल दिया। पता करते-करते सुबह दस बजे तक अखबार के क्षेत्रीय दफ्तर पहुँच गया। वहाँ से बस इतना बताया गया कि कितने गाँवों को मुझे कवर करना है। दफ्तर से ही एक दूसरे अखबार के पत्रकार का मोबाइल नंबर मिला। मैने उसको फोन किया और मिलने को कहा। आधे घंटे बाद वो आ गया। मै बताया कि मै भी पत्रकार हूँ और अभी आज ही आया हूँ। बातचीत से पता चला कि पिछले सात सालों से वो इस क्षेत्र की न्यूज़ रिपोर्टिंग कर रहा है। नाम था शिवेन्द्र मोहन। उसी ने कहा ” कहाँ कमरा ढूंढोंगे चलो मेरे ही साथ रहना। अकेले मै भी ऊब जाता हूँ। दो लोग रहेंगे तो अच्छा ही रहेगा। काम भी एक ही करना है। अलग अखबार भी है तो और अच्छा है।”

मै भी कहाँ जाता कहाँ रहता। ये सुन कर मै भी खुश हो गया मानो इंतजार हो इसका। उसके पास स्कूटर थी। हम स्कूटर पर बैठे और उसके कमरे की ओर चल दिये।

कच्ची सड़कें थीं। खेतों के बीच रास्ता बनाया गया था। गनीमत थी कि गर्मी का दिन था। दूर-दूर पर कुछ घर दिखाई देते मिट्टी के। कहीं कहीं झोपड़ियाँ। गाँव भी दूर-दूर थे। रास्ते में एक गाँव के पास बहुत लोग जमा थे।
मैने उससे पूछा ” यहाँ क्या हो रहा है?”

शिवेन्द्र ने कहा “जान जाओगे। सालों से चल रहा है। ये इलाके का सबसे बड़ा गाँव हैं कचरा।”

मै सोचा कोई प्रोग्राम होगा। लेकिन दूसरी तरफ ये भी सोच रहा था कि कौन सा प्रोग्राम सालों तक चलता है। शिवेन्द्र के जबाब को सुन कर इसके बारे में मै पूछना मुनासिब नहीं समझा। बीच बीच में वो खुद बस्तियों और गाँवों का नाम बताते चल रहा था। इस तरहहम पहुँच गये। एक छोटा सा कमरा था। सामने  पतली कच्ची सड़क और तीनों तरफ पेड़। कमरे की खिड़कियों से सिर्फ खेत ही खेत दिखाई देता था। आबादी फैली हुई थी। कमरे में एक तरफ खाना बनाने का सामान था दूसरी तरफ एक चारपाई लगी थी। कमेरे में  अंधेरा तो नहीं था पर गर्मी बहुत थी। एक टेबल फैन था पर चल नहीं रहा था।

मैने शिवेन्द्र से पूछा,” बिजली नहीं है क्या?”

बिजली का कोई भरोसा नहीं यहाँ। एक दिन में सब कुछ जान जाओगे यहाँ क्या है क्या नहीं। सब्र करो थोड़ा।”

शिवेन्द्र ने बैग से बिस्कुट निकाला और मेरी तरफ बढ़ा दिया। मै दो बिस्कुट ले कर बाक़ी उसको दे दिया। वो नींबू की चाय बनाया। दोनों   चाय पीए।
अच्छा चलो चलते हैं।” उसने कहा
कहाँ?”
मुझे रिपोर्टिंग करने जाना है।”

उसे रिपोर्टिंग करने जाना था। मुझे भी इलाका देखना था। मुझे कल से अपने काम पर भी लगना था। हम दोनों स्कूटर पर बैठे और चल दिये। फिर वही गाँव और उतने ही जमा लोग। लेकिन इस बार शिवेन्द्र से नहीं पूछा। स्कूटर एक मैदान में जा कर रूकी। वहाँ पहुँच कर मुझे पता चला कि किसी नेता की रैली होने वाली है। पूरे दिन वहीं रहे।

शिवेन्द्र ने कहा, “चलो तुम को कमरे पर छोड़ देता हूँ। मै दफ्तर न्यूज़ दे कर आ रहा हूँ। मुझे वापस आने में दो घण्टे लग जायेंगे।”
शिवेन्द्र मुझे कमरे पर छोड़ने के लिये आ रहा था। रास्ते में वो गाँव फिर आया। दरअसल गाँव रास्ते में ही पड़ता था।
मैने शिवेन्द्र से कहा,” मुझे यही छोड़ दो। आते वक्त यहीं से ले लेना। अकेले वहाँ जाकर क्या करूँगा।”

मुझे छोड़ कर शिवेन्द्र दफ्तर चला गया। मै वहाँ जमा लोगों की तरफ बढ़ा। पास पहुंचा और एक नौजवान से पूछा, “क्या हो रहा है?”
बिना बोले वो एक पर्चा मेरी तरफ बढ़ा दिया। मै पर्चा लिया और पढ़ना शुरू किया। कुछ माँग उस पर्चे में लिखी गयी थी। फिर थोड़ा आगे बढ़ा और एक दूसरे नौजवान से पूछा।

वो कहने लगा, ” पिछले चार सालों से यहाँ धरना चल रहा है। जी. पी. समूह का थर्मल पॅावर प्लांट बन रहा है। जमीन लेने से पहले जी. पी. ने कहा था कि दस लाख रूपये हेक्टेयर के हिसाब से मुआवजा मिलेगा। प्रदेश सरकार ने ये ही तय कराया था लेकिन बाद में तीन लाख रूपये प्रति हेक्टेयर ही मिला। कुछ लोग ले लिये जिनकी कम जमीन थी। और लोग जमीन देने से मना कर दिये फिर भी जमीन पर कब्जा करके प्लांट का काम शुरू है। ये तीन हजार लोग हैं। रोज दस बजे तक घर का काम निपटा कर यहाँ आ जाते हैं और शाम को पांच बजे जाते हैं। यही चार सालों से चल रहा है। पिछली सरकार में ये हुआ था और अब इस सरकार का भी तीन साल बीत गया। केन्द्र की भी सरकार बदल चुकी है।”

वहीं एक कोने में छोटी चाय की गुमटी थी। महिलायें भी हंसिया, कुदाल लिये बैठी थीं। वहाँ चाय पीते वहाँ चल रहे गीतों को सुनता रहा। बारी बारी से लोग आते और मरते दम तक लड़ने का आह्वान करते। महिलायें भी अपने हाथ उठा कर मरते दम तक लड़ते रहने के लिये अपनी सहमति व्यक्त करतीं। शिवेन्द्र दो घंटे बाद आने वाला था पर एक घण्टे से पहले ही आ गया।
कमरे की ओर जाते वक़्त मैंने शिवेन्द्र से कहा, ” यहाँ जो धरना चल रहा है इसकी रिपोर्टिंग तुम ही किये होगे?”
उसने कहा, “हाँ किया तो था पर छपा नहीं था।”
क्यों?”
खबर हमारे मुताबिक थोड़े छपती है। सम्पादक की मर्जी।”
बात करते कमरे पर पहुँच गये। शिवेन्द्र भी बेमन से जबाब देता रहा। मुझे एहसास हो रहा था कि वो जबाब नहीं देना चाह रहा है सो मै चुप हो गया।

दरवाजा खोलते शिवेन्द्र ने कहा, ” पत्रकारिता पढ़ा था कि अच्छा पत्रकार बनूंगा। पत्रकार नहीं दलाल बन कर रह गया हूँ। साला तरस आता है अपने पर। यहाँ से कुछ और जाता है और छप कर आता कुछ और है।”
ऐसा मालूम हो रहा था वो बहुत गुस्से में हो। उसके चेहरे को देख कर साफ समझ आ रहा था कि वो नहीं उसका गुस्सा बोल रहा है।
क्यों?” ऐसा कैसे हो सकता है मै सोच कर बोला।

सात सालों से इस इलाके में हूँ। जब से ये आंदोलन शुरू हुआ तब से देख रहा हूँ। कोई भी अखबार हो इसे छापता नहीं। और खबर छपती भी है तो हेडिंग होती है – “गाँव वालों ने पुलिस को मारा” तो “प्लांट के खिलाफ गाँव वालों का हिंसक प्रदर्शन”। साला लाठियाँ पुलिस वाले तोड़ते हैं और बदनाम गाँव वाले होते हैं। जी. पी. समूह अखबारों को विज्ञापन, पुलिस वालों को हफ्ता दे देता है। बस ये लोग उसका काम करते हैं। साला बीच में फंसे हैं हम जैसे लोग जो नेताओं के पीछे पीछे घूमते रहते हैं मानो पत्रकार न होकर उनके चमचे हों।”

सम्पादक से शिकायत नहीं की?”
शिकायत कर के थक चुका हूँ। नौकरी जाते जाते बची है। ये भी चली गयी तो क्या करेंगे। उम्र भी नहीं रही कि क्लर्की भी कर पायें।”
ये सब सुन कर मेरा दिमाग ही खराब होने लगा था। मै सोच कर आया था कि कुछ अच्छा किया तो बाद में बाबू जी भी शायद खुश हो जायें। इसी बातचीत में अंधेरा हो गया।

शिवेन्द्र उठा और खाना बनाना शुरू किया तो मै भी उसकी सहायता करने साथ बैठ गया। खाना बनाते बारह बज गया। थाली एक ही थी। मुझे थाली में खाना दे कर शिवेन्द्र कड़ाही में ही खाने लगा। फिर मेरे बहुत कहने पर वो मेरी थाली में खाया। खाना खा कर हम दोनों सोये।

चारपाई तो एक ही थी इसलिए दोनों लोग चारपाई को हटा कर बिस्तर जमीन पर ही डाल दिये थे। अगले दिन से मुझे रिपोर्टिंग पर लगना था। सुबह-सुबह दफ्तर से फोन आया विधायक क्षेत्र घूमने वाला है। बस उसी के पीछे रहना है।
मै जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा।
शिवेन्द्र से मैने पूछा, “तुम्हें किधर जाना है?”
जहाँ तुम जा रहे हो।”
लेकिन…..?”

लेकिन क्या मुझे पता है मुझे कहाँ की खबर रिपोर्ट करनी है और अखबार को क्या चाहिए।”

हम दोनों रिपोर्ट के लिए निकले। सुबह से शाम तक पीछे-पीछे घूमते रहे। बीच में बस हमने दो चाय पी। अगले दिन सुबह खबर को शहर की न्यूज़ में प्रमुखता से छापा गया। यही एक महीने तक चलता रहा। नेताओं के भ्रमण की खबरें हम रिपोर्ट करते रहे। एक महीने की तनख्वाह मिली साढ़े पाँच हजार। शिवेन्द्र को नौ हजार। तीन हजार रूपये रख कर बाक़ी पैसे वो अपने घर भेज दिया। पता चला उसकी चार साल की बेटी भी है। रहने वाला था मध्य प्रदेश का। माँ बाप का अकेला बेटा था। ये शिवेन्द्र ने मुझे बैंक में बताया। आते वक्त पता चला कि गाँव वाले प्लांट में चल रहे काम को रोकने वाले हैं। ये खबर रास्ते में एक नौजवान राजीव से मिली। राजीव विश्वविद्यालय से ही ग्रैजुएशन किया था और इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। पुलिस उस पर कुल तेरह केस लगायी थी।

खुद ही उसने बताया, ” मैं जिला बदर कर दिया गया हूँ लेकिन छिप कर कभी इस गाँव कभी उस गाँव में रहता हूँ। पुलिस को जब पता चलता है तो गाँव वाले आगे आ जाते हैं। आज चार गाँव के लोग इकट्ठा होने वाले हैं और हम इस प्लांट को बनने नहीं देंगे। जी. पी. समूह के ऐसे ही तीन प्लांट और बन रहे हैं वहाँ भी काम शुरू है। समूह ने उचित मुआवजा नहीं दिया न ही इसका एनवायरमेंटल क्लीयरेंस है। वहाँ भी आंदोलन चल रहा है। वहाँ के नेताओं से बात हुई है। हम संगठित होकर एक्शन लेने जा रहे हैं। सरकारें हमारे लिये एक ही जैसी हैं। इस सरकार ने तो जमीन हड़पने का कानून ही बना दिया है। अब जमीन हड़पना और आसान हो गया है पूंजीपतियों के लिये। आखिरी रास्ता यही बचा है हमारे पास कि ज्यादा से ज्यादा गाँव वालों को इकट्ठा करें और प्लांट का काम ही रोक दिया जाए।”

जब हमने बताया कि हम पत्रकार हैं तो वो हमे ऐसे देखा जैसे हम अपराधी हों। वो अपने साथ के लोगों को चलने का इशारा किया और चला गया।

सारे कागजात राजीव इकट्ठा कर लिया था और हाईकोर्ट में भी गया था लेकिन पुलिस का पलड़ा भारी हो गया तो जिला बदर कर दिया गया था। लोग उसे अपना नेता मानते थे। उसको बचाने के लिए अपनी जान तक देने को तैयार थे। गाँव के वृद्ध निवासी ने बताया “अगर राजू भी अधिकारी बनल चाहत त बन जाइत लेकिन पढ़ाई छोड़ कर आ गइल हमन लोगन के खातिर। त उहे न असली नेता बा हमन क। हमन के का पता कोरट कचहरी क हिसाब। गाँवे क परधान त मिल गइल बा जी० पी० से। अब राजू जबन कहिहन तवन हमन कइल जाई। मरे के परी मरल जाई। मारे के परी त मरबो कइल जाई।”

मैने शिवेन्द्र से कहा, ” इसको आज मैं कवर करूँगा।”
ठीक है करो पर कोई फायदा नहीं।”

बहरहाल हम कमरे पर आ गये। शिवेन्द्र शाम को चार बजे मुझे गाँव में छोड़ दिया जहाँ लोग जमा हो रहे थे। पुलिस को भी ये बात पता चल गयी थी सो पुलिस भी इकट्ठा होने लगी थी। आधे घण्टे के भीतर चार गाँव के लोग इकट्ठा हो गये। पुलिस भी आ गयी थी। लोग प्लांट की तरफ बढ़ रहे थे। पुलिस भी उनको रोकने की कोशिश कर रही थी लेकिन लोग इतने ज्यादा थे कि पुलिस नाकामयाब होती रही। बीच में राजीव भी था। पुलिस वाले भी उसे देख रहे थे। गाँव वाले प्लांट की दीवारों को गिराने लगे जो अभी नयी-नयी बनी थी। पुलिस के हवाई फायरिंग का गाँव वालों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः पुलिस ने गोली चलाई। भगदड़ मच गयी लोग भागने लगे। तभी एक पुलिस वाले ने निशाना बना कर एक गोली चलाई। सब लोग भाग गये। अंत में एक लाश जमीन पर गिरी पड़ी रही। वो राजीव था।

राजीव को पुलिस ने टारगेट करके मार दिया। पुलिस को पता था कि राजीव आंदोलन की जान है। उसको मार देने से आंदोलन ही खत्म हो जायेगा।
मै रिपोर्ट बनाया और दफ्तर में जा कर दिया। लेकिन अगले दिन जो खबर छपी –मुठभेड़ में मारा गया गैंगेस्टर राजीव”। फोटो भी मेरी वाली नहीं थी। कब राजीव के हाथों में बन्दूक आ गयी थी पता नहीं चला। वारदात के समय मैं था लेकिन उसके हाथ में बन्दूक नहीं थी। मैने तुरंत दफ्तर फोन किया और सच्चाई बतायी।
उधर से बस इतना जबाव मिला “तुम अपना काम करते हो।”

मै समझ गया था। अब मेरे सामने दो ही विकल्प थे या तो ये सब देखता रहूँ या फिर यहाँ से बिस्तर बाँध कर चलता बनूँ। मैने आज शिवेन्द्र से कहा “यार हमसे नहीं होगी ऐसी पत्रकारिता।”
अभी असल वाली तो देखे नहीं।”
देख लिया इतने दिन में ही।”
अभी कहाँ देखे मै बताता हूँ।”
क्या?” मै शिवेन्द्र से कुछ जानना चाहा।

हम तीन लोगों ने एक साथ पत्रकारिता के लिए दाखिला लिया था। मेरे साथ मेरे दो दोस्त नारायण और वसीम थे। पढ़ाई के बाद तीनों ने अलग-अलग अखबार ज्वाइन किया था कि तीन अखबारों में सच्ची रिपोर्टिंग करेंगे। जज्बा था। दूर से लगता था कि बड़ा साफ और अच्छा काम है। रूतबा भी है। लेकिन क्या मिला। वसीम छत्तीसगढ़ में मारा गया वो भी पुलिस के हाथों। मरते वक्त उसके हाथों में कलम की जगह हथियार पकड़ा दिया गया था। खबरें छपीं कि वो नक्सली था। क्यों कि उसकी कलम सरकार को बेनकाब कर रही थी।

नारायण को व्यवस्था ने बदल दिया और आज अखबार का उप सम्पादक है। कई शहरों में मकान बना लिया है। सफेदफोशों से घिरा रहता है। ले दे कर अकेला बचा हूँ मैं। अब तुम बताओ मुझे क्या करना चाहिए। अखबार तो खुद का है नहीं और न ही उतना पैसा है कि खुद का अखबार निकाला जा सके और मै नरायण बन नहीं सकता।”
मै तो इसमें अभी नया हूँ। मै क्या बताऊँ?”

हकीकत तो ये है कि तुम यहाँ रह नहीं पाओगे। मैने तो आदत डाल ली है। जिम्मेदारियों ने मुझे रोक रखा है। तुम अभी नये हो अच्छा होगा कि तुम चले जाओ।”

फिर भी मैं रूका रहा। तीन महीने बाद मै वापस होने का फैसला किया। बिना दफ्तर में बताये मै चला आया। आते वक्त शिवेन्द्र ने कहा था “चलो अच्छे से पढ़ाई करना। तुम्हारी जरूरत पड़ेगी।”
बस याद करना हाजिर रहूँगा।”

दोनों लोग भावुक हो गये थे। उसको अकेला छोड़ कर मुझे भी नहीं आने का मन नहीं कर रहा था। घुल मिल गये थे मानो वर्षों की यारी हो। चार महीने बेमन पढ़ाई करता रहा और किसी तरह डी. एम. आफिस में क्लर्क बना। किसी तरह बाबू जी को समझाया कि साथ साथ पढ़ाई भी कर रहा हूँ। यहीं दो साल रहा। इन दो सालों में शिवेन्द्र से मेरी सिर्फ सात आठ बार बात हुई होगी वो भी शुरू के कुछ महीनों में। यहीं दफ्तर में बैठा था तभी शिवेन्द्र ने फोन कर कहा “अब तुम्हारी जरूरत आ पड़ी है। गाँव वालों की ही मदद से एक खुद की मासिक पत्रिका मैने पिछले महीने शुरू की है। एक अंक निकला है। पुलिस ने गाँव वालों को सरकार के खिलाफ भड़काने का केस मेरे ऊपर लगाया है। जल्दी आ जाओ। राजीव का भाई और उसके और साथियों ने यहाँ मोर्चा संभाल लिया है।”

डायरी के आगे के पन्ने सादे हैं। आगे क्या हुआ होगा कल्पना करना मुश्किल है। डायरी में ना तो फोन नंबर है ना ही किसी का नाम। ये फटी डायरी मुझे इस कमरे में मिली है जहाँ मै आज ही आया हूँ। पत्रकारिता में दाखिला ले लिया हूँ। डायरी को पढ़ने के बाद लग रहा है कहीं गलती तो नहीं कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ ये वास्तव में किसी की खूद के बारे में लिखी हुई है या कहानी है जानने के लिये कमरे में पड़े फटी डायरियों और किताबों को देखना शुरू किया तो कुछ कागजात मिले। कागजातों को देखा तो पता चला भूमि अधिग्रहण के संबंधित कागजात हैं तो कुछ दो साल पुरानी पत्रिकाएं।

सम्पर्क – 


मोबाईल – 
09795582195
8960509356
ई-मेल : vishnu.prabhakar708@gmail.com

नवनीत पाण्डे की कविताएँ


नवनीत पाण्डे

जन्मः 26 दिसंबर सादुलपुर (चुरु).
शिक्षाः एम. ए.(हिन्दी), एम. कॉम. (व्यवसायिक प्रशासन), पत्रकारिता-जनसंचार में स्नातक।
हिन्दी व राजस्थानी दोनो में पिछले पच्चीस बरसों से सृजन। प्रदेश-देश की सभी प्रतिनिधि पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन।
प्रकाशनः हिन्दी- ‘सच के आस-पास’, ‘छूटे हुए संदर्भ’ व ‘जैसे जिनके धनुष’ (कविता संग्रह) ‘यह मैं ही हूं‘, ‘हमें तो मालूम न था’ (लघु नाटक) प्रकाशित। 
राजस्थानी में- लुकमीचणी, लाडेसर (बाल कविताएं), माटीजूण (उपन्यास), हेत रा रंग (कहानी संग्रह), 1084वें री मा – महाश्वेता देवी के चर्चित बांग्ला उपन्यास का राजस्थानी अनुवाद।
पुरस्कार-सम्मानः लाडेसर (बाल कविताएं) को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का जवाहर लाल नेहरु पुरस्कारहिन्दी कविता संग्रह सच के आस-पासको राजस्थान साहित्य अकादमी का सुमनेश जोशी पुरस्कारलघु नाटक यह मैं ही हूंजवाहर कला केंद्र से पुरस्कृत होने के अलावा राव बीकाजी संस्थान-बीकानेरद्वारा प्रदत्त सालाना साहित्य सम्मान।
संप्रतिः भारत संचार निगम लिमिटेड- बीकानेर कार्यालय में कार्यरत। 
किसी भी समय के सच को उद्घाटित करने का काम समकालीन कवि अरसे से करते आए हैं। जो सच समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों तक से छूट जाता है उसे दर्ज करने का काम कवि और रचनाकार ही करते हैं। नवनीत पाण्डे की कविताएँ पढ़ते हुए हमें इसका भरपूर अहसास होता है। नवनीत की एक छोटी किन्तु प्रभावी कविता की पंक्तियाँ है – ‘आधे भरे/ आधे खाली गिलास को/ ठोकर मार/ तुम सिर्फ/ अपनी शक्ति प्रदर्शित कर सकते हो/ गिलास का सच नहीं बदल सकते।’ इस से नवनीत के सरोकारों को अच्छी तरह समझा जा सकता है। ‘न सही पूरे 365 दिन कविता पढ़ते हुए मुझे बाबा नागार्जुन की कविता याद आयी ‘इसमें भी आभा है मेरी’। नवनीत एक मजदूर की वाणी को स्वर देते हुए बेलाग तरीके से कहते हैं ‘पर श्रम के दो हाथ/ एक कटोरी दाल/ एक मुठ्ठी भात/ पत्तों की सही/ एक छोटी थाली/ चुल्लू भर गिलास मेरा भी है।’ ऐसे प्रतिबद्ध कवि नवनीत पाण्डे की कविताओं से आज हम ‘पहली बार’ पर रु-ब-रु हो रहे हैं। तो आइए आज पढ़ते हैं नवनीत पाण्डे की कुछ नई कविताएँ।    
    
नवनीत पाण्डे की कविताएँ
नहीं जानता था
जानता था
पहाड़ हो तुम
पत्थर तो होंगे ही
पर नहीं जानता था
नश्तर भी होंगे
भेड़ नहीं हूँ
सच है
भीड़ में मैं भी हूँ
पर भेड़ नहीं हूँ
सच नहीं बदल सकते
आधे भरे
आधे खाली गिलास को
ठोकर मार
तुम सिर्फ
अपनी शक्ति प्रदर्शित कर सकते हो
गिलास का 
सच नहीं बदल सकते
रहिमन पानी
क्या करुं
जो मेरी कविता में नहीं 
महलों दुमहलों के राग
तुम्हारे जैसे इंद्रधनुषी रंग
मेरी कलम में भरी है
श्रम के माथे टपकते 
पसीने की स्याही
जो लिखती है 
धरती की छाती पर
मुर्झाए चेहरों की
छांह तलाश रही 
उदास आंखों की उम्मीदें
सूख चुके आंख के पानी
पपड़ाए होठों की प्यास
जगह-जगह से फटी
जूतियों से झांकती
फटी पगथलियों की ब्यायी
जब देखता हूं
हाथों पैरों के 
फफोलों से रिस रही है मवाद
मेरी सोने की चिड़िया के लिए
आज भी है
भूख, रोटी- पानी
सबसे बड़ा सवाल
कि राजा 
घोटाने में मगन  हैं
राष्ट्रवाद, देशभक्ति की 
बारखड़ियां
मुझे झकझौरता है
केवल और केवल
रहिमन पानी
नहीं आता जेहन में
कोई विकास गीत
देशभक्ति बानी

न सही पूरे 365 दिन
न सही पूरे 365 दिन
कोई एक दिन 
या कि उसका 
एक छोटा सा हिस्सा
मेरा भी है
सारा आकाश
तुम्हारा सही
पर इसी आकाश की
मामूली ही सही
सिर जितनी छांह
मुझ पर भी है
सारे पहाड़, नदी
वन, बाग, खेत
महल-दुमहले होंगे तुम्हारे
पर जिस पर टिक सके पांव
इत्ती ज़मीन मेरी भी है
सारे उजाले
सारी सत्ताएं 
सारी कायनात 
सारे आमोद- प्रमोद
व्यंजनों भरी परात
होगी तुम्हारे पास
पर श्रम के दो हाथ
एक कटोरी दाल
एक मुठ्ठी भात 
पत्तों की सही
एक छोटी थाली
चुल्लू भर गिलास मेरा भी है
हो तो हो…
तुम्हें व्यर्थ ही भ्रम है
मेरी कोई खुन्नस 
तुम से है
मेरा प्रतिरोध तो
जो जानबूझ 
सच को अनदेखा कर
झूठ को स्थापित करते हैं
उन से हैं
अगर तुम भी
उस ज़मात में 
हो तो हो…
नए घर की नींव 
कितने कमज़ोर 
और खोखले होते हैं
वे पुराने घर
समय के साथ साथ
चूने लगती हैं जिनकी छतें
घर में 
घर करने लगता है
एक डर
जाने किस घड़ी
जाएं मर
ऎसे जान जोखिमी
जर्जर दीवारों वाले घर
वक्त रहते 
छोड़ देने चाहिए
अगर सामर्थ्य हो
हिम्मत हो इन्हें गिरा
नए घर की नींव 
रखनी चाहिए
जानबूझ बेमौत 
कभी नहीं मरना चाहिए
घर नहीं मिल सकता…
घर
घर नहीं 
पहचान है
वजूद है आदमी का
घर की भी होती है एक देह
सांगोपांग
जिसमें धड़कती हैं
घर के हर वाशिंदे की धड़कनें
लम्बित खयालों वाले 
गीत- संगीत की तरह
जिन से ज़िंदा रहता है 
घर अपने सुर-ताल में
और बताता है 
कि हां वह घर है
भरा-पूरा एक घर
टूटते ही तार
टूट जाते हैं
बिखर जाते हैं
सारे सुर-लय ताल
एक ईंट के हिलते ही
हिल उठता है पूरा घर
हम भले ही खरीद लें
अनेकानेक 
मकान, फ्लैट
घर नहीं खरीद सकते
बाज़ार में 
मकान मिल सकता है
फ्लैट मिल सकता है
घर नहीं मिल सकता…
लकीर के चारों ओर….
अंदर कुछ बाहर है
बाहर कुछ अंदर
अंदर के अंदर में 
बाहर नहीं है
न ही बाहर के अंदर में
कोई अंदर
एक चींटी घूम रही है
टटोलती अंदर को 
एक कीड़ा टटोलता
चींटी को
मैं मरा पड़ा हूं
देह हुआ आंगन के बीचोंबीच
एक दीया सिरहाने
हल्दी की लकीर चारों ओर
और चींटिया ही चींटिया
लकीर के चारों ओर….
चाह नहीं 
(अग्रज पुरोधा कवि माखन लाल चतुर्वेदी की एक कविता से प्रेरित)
चाह नहीं 
पुरस्कारों- सम्मानों से तौला जाऊं
चाह नहीं 
आलोचकों, आलोचना से मौला जाऊं
चाह नहीं 
झूठी तारीफों, प्रशंसाओं से फूला जाऊं
चाह नहीं 
अधर आसमानी झूलों झूले खाऊं
पाठक मेरे कर पाओ तो 
काम ये करना नेक
जब जहां हो संघर्ष हकों के
शब्द मेरे तुम देना फेंक
मैंने कब कहा
मैंने कब कहा
कविता लिखता हूँ
मैं तो सिर्फ
तुम्हारी दुनिया में
कैसे कैसे जीता हूँ
कैसे कैसे मरता हूँ
लिखता हूँ
सम्पर्कः
प्रतीक्षा’ 2- डी- 2,
पटेल नगर, बीकानेर- 334003
मोबाईल नम्बर – 9413265800
ई-मेल : navneetpandey.bik@gmail.com,
ब्लॉग – : kavi-ka-man.blogspot.co.in, Udahran.blogpot.co.inwebmagzin
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

सोनी पाण्डेय की कहानी ‘प्रतिशोध’।


सोनी पाण्डेय

इतिहास को अपनी तरह से व्याख्यायित और स्पष्ट करने का काम साहित्य बखूबी करता है। यह साहित्य ही होता है जो इतिहास द्वारा छोड़ या उपेक्षित कर दी गयी बातों और घटनाओं को रेखांकित करने का काम बखूबी करता है। इतिहास गवाह है कि पुरुषों की सहचरी होने के बावजूद स्त्रियाँ उन अनेकानेक परिस्थितियों की भुक्तभोगी रही हैं जिसके लिए वे कभी जिम्मेदार ही नहीं रहीं। ‘सारी लड़ाईयों और विवादों के मूल में “जर, जोरू और जमीन” ही रही है’ यह उक्ति स्वयमेव ही सब कुछ स्पष्ट कर देती है। सोनी पाण्डेय की कहानी प्रतिशोध प्रकारान्तर से उस मनोवृत्ति पर ही प्रकाश डालती है जो एक मासूम लड़की आभा की खुद उसके परिजनों द्वारा हत्या किये जाने के रूप में दिखाई पड़ती है। पारिवारिक उच्छ्रखंलताओं का शिकार होती है वह आभा जिसकी इज्जत लूट कर कुछ असामाजिक तत्व अपना प्रतिशोध लेने का उपक्रम करते हैं। लगभग मृतप्राय हो चुकी आभा को उसके परिवार के लोग भी मृत घोषित कर जल्द ही चिता पर झोंक देते हैं जबकि उसमें जीवन बाकी था। तो आइए आज पढ़ते हैं सोनी पाण्डेय की कहानी ‘प्रतिशोध’।
         
     
प्रतिशोध
सोनी पाण्डेय
    
सावन का महीना आकाश काले बादलों से पट गया था, लगता था जल्दी ही बारिश होगी। आजी दलान में से चिल्ला रही थीं- ‘‘अरे!ऽ ऽ ऽ दिपना रे ऽ ऽ ऽ जल्दी चऊअन (जानवरों) के भीतर कर, बुन्नी पड़ले बोलत है।’’ आभा की माँ बाहरी आँगन से जल्दी-जल्दी कपड़े समेट रही थी। दोनों चाची भीतरी आंगन से सामान अन्दर कर रही थीं। आभा अपने छोटे भाई-बहनों के साथ द्वार पर तालियाँ बजा-बजा कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी- ‘‘आन्ही पानी आवले, चिरयिया ढ़ोल बजावेले।’’ आजी खेलते हुए बच्चों को ध्यान से दख रही थीं, आभा बच्चों में सबसे बड़ी थी, सोलहवां साल, घर भर की लाडली, दुलार में आजी उसे देख कर अक्सर कहा करती थीं- ‘‘हमार बहिनी सुरुज किरिनियां क जोत हई।’’ आभा भाई-बहनों साथ छुआ-छुअवल खेल रही थी, अचानक आजी की नजर उसके शरीर के हिलते हुए उभारों पर गई, चिल्लाती हुई बोलीं- ‘‘बबुनी जल्दी भीतर जा, तोहार बाबूजी आवत होइहं। बच्चे बाबू जी का नाम सुनते ही सरपट घर में भागें। जल्दी से सबने अपनी-अपनी किताबें निकाल कर पढ़ने का अभिनय आरंभ कर दिया।
आभा के पिता तीन भाई, तीन बहनों में सबसे बड़े थे, गांव की प्राइमरी पाठशाला के हेड मास्टर, बीस बीघे के काश्तकार, मझला भाई गांव की चट्टी (बाजार) पर खाद बीज की दुकान करता था। सबसे छोटा, सबसे नकारा, पान-सुरती खाता, द्वार-द्वार घूम कर राजनीति करता, बड़ी मुश्किल से बारहवीं पास कर पाया था। टोले भर की लड़कियां उसे देख कर कोस भर दूर भागतीं। आभा के पिता पर घर भर की जिम्मेदारी अल्पायु में ही आ पड़ी थी। पिता उनका तथा बड़ी बेटी का ब्याह कर स्वर्ग सिधार गए। मां पिता का वियोग सह नहीं पायीं, साल भीतर वह भी स्वर्ग सिधार गयीं। घर की पूरी जिम्मेदारी आभा के पिता के कंधों पर आ गयी, एक-एक कर दोनों छोटी बहनों का विवाह तथा भाईयों को पढ़ाया-लिखाया, रोजगार कराया लेकिन छोटा भाई निकम्मा निकला।
आभा के दो छोटे भाई थे, बड़ी चाची के एक बेटा दो बेटी, छोटी चाची के ब्याह को दो साल बीत चुके थे, लेकिन बच्चा अभी तक नहीं हुआ था, आजी सभी देवता-पित्तरों से मन्नत मान चुकी थीं।
आभा के पिता तारकेश्वर तिवारी परिश्रमी, चालाक तथा दूरद्रष्टा व्यक्ति थे, बड़ी चतुराई से गवई राजनीति का रूख बदल देते थे। पिछले दस वर्षों से गांव के प्रधान थे। गांव में चार पट्टियां थीं ब्राह्मण टोला, अहिरौटी, भरौटी, तथा दक्खिन में चमरौटी, बाकी बनियों, लाला, नाई, लोहार, कोहार, डोम आदि जातियों के दो-दो, चार-चार घर गांव के बाहरी हिस्से में बसे थे। गांव में ब्राह्मणों का वर्चस्व था।
आभा के पिता तारकेश्वर तिवारी खुशहाल सम्पन्न व्यक्ति थे, जीवन में कोई अभाव नहीं था, परिश्रमी धर्मपरायण पत्नी, आज्ञाकारी भाई, दिव्य सुन्दरी पुत्री, इनके अलावा घर में विधवा निःसंतान चाची थीं। जो स्त्रियों की पहरेदार थीं। उनकी उपस्थिति में दरवाजे पर कुत्ते-बिल्ली तक की मजाल नहीं की आ सकें, आदमी की क्या औकात। टोले भर की औरतें कहतीं- ‘‘बुढ़िया छानी पर कऊवा ना बइठे देले।’’ तारकेश्वर पंडित सम्पन्न व्यक्ति थे किन्तु छोटे भाई माहेश्वर से दुखी रहते थे। अक्सर लड़कियों तथा बनिहारिनों से छेड़छाड़ की शिकायत आती रहती थी किंतु बुढ़िया के सामने शिकायतकर्ता की खैर नहीं रहती, बुढ़िया आंखें निकाल कर गुर्राती- ‘‘हमार साड़ छुट्टा रही, जेके आपन गाय बान्हें के-ह-ते बान्ह ले।’’ तारकेश्वर पंडित समझाते-बुझाते ऊँच-नीच का एहसास कराते, घर की बेटियों की दुहाई देते, परिणाम वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ निकलता।
     बाग में आम पर पड़े झूले पर झूलती लड़कियाँ गा रही थीं-
‘‘कजरी के ही संग खेलूं मोरी सखियाँ
पिया मोरे गये विदेशवा ना ऽ ऽ ऽ……..
दूर खेतों के बीच मेढ़ के रास्ते आती हुई मियाईन को देख कर लड़कियां झूले से कूद पड़ीं, सब झुंड बना कर आती हुई मनिहारिन मियाईन को एक-टक देखने लगीं। मियाईन के सिर पर बड़ी सी बास की दऊरी, ऊपर तक खचाखच सामानों से भरा, जब मियाईन भारी बोझ लिए चलती तो उसकी कमर में अजीब सी लचक होती, बड़ी-बड़ी आखें, कमर तक लम्बे बाल, बालों में रेशमी लाल धागे, का परादा ऐसे बल खाता जैसे नागन। सांवला रंग, भरा बदन, लम्बी कद-काठी, उभार देखकर औरतें एक-दूसरे को कोहनी से ठुनकियातीं ‘‘ससुरी इंटा भरले है।’’ और जोर से समवेत् ठाहाका उठता। मियाईन लड़कियों के करीब पहुंची, पान का पीच थूकते हुए बोली- ‘‘आज ओ पुरा की बारी है।’’ लड़कियाँ चिल्लाईं नाऽ नाऽ नाऽ और रास्ता घेर कर खड़ी हो गयीं। मियाईन हँस कर बोली- ‘‘अच्छा-अच्छा धिया चलते हैं।’’ मियाईन आगे-आगे लड़कियाँ इठलाती-बलखाती पीछे-पीछे। आती हुई मियाइन को गाँव की बाल मंडली ने देखा, हर्ष ध्वनि गुंजायमान, छोटा धन्ने, अपनी आजी का आँचल पकड़ कर मचलने लगा, ‘‘मियाईन, आईल, गाली (गाड़ी) लेईब रेऽऽ आजी, और जोर-जोर से हुआ-हुआ करके रोने लगा, ये बालहठ का ब्रह्मास्त्र है। मियाईन पायल छमकाती बड़का दुवार की ओर बढ़ी। पुरानी रीत थी, मनिहारिनें इसी द्वार पर दौरा उतारती आयी थीं। त्योहार का समय था किन्तु बरसात के मौसम के कारण आसमान में बादलों की आवा-जाही जारी था। खुशनुमा मौसम में टोले भर की औरतें, काम-काज छोड़ कर बड़का दुवार की ओर चलीं। गांव के प्रधान तारकेश्वर पंडित के दरवाजे पर पंचों के बैठने के लिए बड़ा सा चबूतरा बना था जिस पर मेला के दिनों में माहेश्वर नौटंकी भी करवाता था, चारों गांव के मनचलों का सम्मेलन भी इसी बहाने होता। मियाईन चबूतरे पर दौरी उतार बैठ गयीं चारों तरफ लड़कियां, बच्चे, बुढ़ियों का हुजुम, दरवाजे पर कोलाहल सुन कर बुढ़िया बाहर निकली, बुढ़िया मनिहारिन को देखते ही पिनिक जाती, साज-श्रृंगार से उसे नफरत थी, चिढ़ कर बोली- ‘‘ऐ छिनरी के हमरे दुवार मजलिस लगावे के मिलेला।’’
मनिहारिन बुढ़िया की नजरों में औरतों को पथभ्रष्ट करने का साधन थी। युवावस्था में वैधव्य ने उसे इस प्रकार कुंठित किया कि सुहागिनों का श्रृंगार उसे कांटे की तरह चुभता, मजाल की तीनों पतोह लाली, इसनों खरीद सकें। मनिहारिन ने धरती का स्पर्श करते हुए कहा- ‘‘पांव लागीं बड़की मईया’’, बुढ़िया मुँह चमका कर बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गयी। दरवाजे का ओट लिए दोनों छोटी बहुएँ बाहर का दृश्य देख रही थीं। आभा का छोटा भाई पिंकू डौड़ता हुआ उसके कमरे में गया- ‘‘दीदिया जल्दी उठ, मियाईन आयी हैं।’’ आभा नभदामिनी की फूर्ति से द्वार की ओर भागी, माँ ने सम्हल कर चलने का उलाहना दिया।
आभा की माँ भण्डारे में चावल फटक रही थीं, मियाईन के आने का संदेशा सुन काम छोड़ बाहर निकलीं, देवरानियों को उन्हीं की प्रतीक्षा थी देखते ही खिल उठीं। आभा की माँ व्यवहार कुशल और विनम्र महिला थीं जिसके कारण सभी उनका आदर करते थे, उनके बाहर निकलते ही औरतों का मौन मुखरित हो उठा, बुढ़िया का भय समाप्त हो गया। बुढ़िया मुँह बिजका कर बोली- ‘‘जा तोहरे जोहाई है।’’ आभा मनिहारिन की दौरी के पास पालथी मार कर बैठ गयी, मियाईन ने बलाएं जीं, मुस्कुरा कर माथा चूमते हुए बोली- ‘‘आ गइली, हमरे सूरूज किरिनिया क जोत।’’ बुढ़िया क्रोध से आग बबुला हो उठी, ये कहने का अधिकार केवल उसका था, आभा की माँ ने हाथ जोड़ कर शान्त रहने का इशारा किया। खरीददारी शुरू हुई, आभा ने लाल फीता लिया, माँ ने देवरानियों के लिए श्रृंगार का सामन, बच्चों के लिए खिलौने, बुढ़िया के लिए काजल की डीबिया खरीदी। एक-एक कर सबकी खरिददारी पूरी हुई, औरतें धीरे-धीरे उठ कर अपने-अपने घरों को चलीं। धन्ने की जिद अभी-भी अधूरी थी, उसकी आजी बांह पकड़ कर घसिटते हुए लेकर चलीं, बच्चा दर्द से चिल्लाने लगा। मियाईन ने दौड़ कर हाथ छुड़ाया बच्चे को गाड़ी पकड़ाते हुए बोली- ‘‘कहां भागत हंयी ऐ महरानी जी, अगली बार दे देहल जाई।’’ इसी बीच द्वार पर आभा के पिता तारकेश्वर पंडित पहुंचे, आभा की मां सिर का पल्लू सम्हाल कर घर के अन्दर चलीं, बुढ़िया प्रसन्न हो गयी। तारकेश्वर पंडित कनखियों से मियाईन को देखते हुए आगे बढ़े। मियाईन मुस्कुरा कर बोली- ‘‘का ए परधान जी आप ना कुछ लेईब, उधर से बिना मुखातिब हुए आवाज आयी तू देयो ना पईबू।’’ मनिहारिन हँसते हुए उठ कर चल दी।
एक रात अचानक आभा के पेट में दर्द उठा, छटपटा कर उठ बैठी, पलंग पर माँ को न पाकर पेट पकड़ कर दलान की ओर चली, अचानक सीढ़ियों के नीचे के हिस्से से किसी के फुसफसाहट की आवाज सुन कर चौकन्नी हुई, पैर दबा कर उस ओर बढ़ी, देखा सीढ़ियों के नीचे के कोतर में माहेश्वर और दिपना-बो एक दूसरे से लिपटे हुए थे, भय के मारे पैर लड़खड़ाने लगा, पेट की वेदना पूरे शरीर को ऐंठने लगी, उफ्फ, कैसे चाची बर्दाश्त करती हैं ये सब, कैसे गुजरेगी उनकी जिन्दगी, दर्द काफूर हो गया, वापस कमरे में आकर रात भर सोचती रही, क्या होगा चाची का, चाची विरोध क्यों नहीं करती, आदि कई सवाल उसके दिमाग में उथल-पुथल मचा रहे थे, छोटी चाची से उसे सहानुभूति और चाचा से घृणा हो गई। आभा को यह देख कर घोर आश्चर्य होता कि सब कुछ देख सुन कर भी छोटी चाची कैसे चुपचाप सबकी सेवा-टहल में लगी रहती हैं? सोचती अगर मेरा पति ऐसा निकला तो मैं उसे छोड़ कर अपने पैरों पर खड़ी (आत्मनिर्भर) हो जाऊँगी। उसकी बातें सुन सहेलियाँ कहतीं- ‘‘तुम्हें कौन छोड़ेगा चारो गाँव तुम्हारे सौन्दर्य पर मुग्ध रहता है, सुना नहीं मियाईन क्या कह रही थीं- उस पार के बाभनों के लड़के तुम्हें उठा ले जाने की सोचते हैं।’’ आभा क्रोध से काँप उठी- ‘‘बस-बस, मेरे बाबू जी और चाचा लोग बबुआ लोगों की खाल उधेड़ कर भूसा भर देंगे सारा भूत एक ही क्षण में पिपर पर डेरा डाल लेगा। लड़कियाँ चुप रहने में ही भला समझ खिसक लेती। आभा की नस-नस में माँ और आजी ने कुल मर्यादा की घुट्टी इस प्रकार भरा था कि वह ऐसी बातों को सोचना भी गुनाह मानती थी।
संध्या होने वाली थी, बुढ़िया बाहरी आँगन में खटिया पर बैठ कर, हरे राम, हरे राम, राम-राम, हरे-हरे का जाप कर रही थी, सामने से आती हुई आभा को पास बुला कर प्यार से बिठाया, दुलारते हुए समझाने लगीं, ‘‘बबुनी ऐतनी बेला तक घूमा न करो, कवनो कुछ कर-धर देगी तो जिन्दगी खराब हो जायेगी। अनुभवी वृद्धा घर के कपूत के करतूत और कन्या के सौन्दर्य से भयभित रहती थी।
फागुन के बासंती बयार ने वातावरण में मादक सुगन्ध भर दिया था, खेत सरसों के फूलों के सौन्दर्य और गेहूँ की हरितिमा की चादर ताने धरती आभामंडित कर रहे थे। आम के बौर तथा महुए की सुगन्ध वायु में मादक गंध भर रहे थे। वृक्षों पर तोता, कऊवा, मैना, गौरैया और छोटी लालमुनी चिड़िया का कलरव मधुर संगीत सुना रहा था। सहुवाईन को देख कर झिनकू बाबा गा रहे थे- ‘‘फागुन में बुढ़वा देवर लागेऽऽऽ फागुन मेंऽऽ, सहुवाईन ने हँस कर कहा- ‘‘का हो बाबा, बऊरा गईल, अबहिन त फगुवा पनरह दिन बा।’’
झिनकू बाबा- अरे! सुन ला भाई, ना- त फगुनवा गरियावे लागी।’’ हास-विनोद से पूरित वातावरण में सभी अपने-अपने कर्म में रत् आगे बढ़ रहे थे।
नाऊन बड़का दुवार पर बैना लिए आई, ‘‘ऐ काकी मईया, कन्हईया बाबा क बड़की बेटी आइल बा, बैना ले लीं, बुढ़िया भीतर से डाली में चावल ले कर निकली, दौरी में डाल कर बैना की मिठाईयाँ ली, लड्डू, बताशा, टिकरी, खाजा देख कर बच्चे मचलने लगे, ‘‘हम के आजी, हमके आजी’’, बुढ़िया ने बुदबुदाते हुए अग्रभाग गाय की हऊदी में तोड़ कर डाला तब बच्चों को बाँटा। दिपना बो को देखते ही नाऊन विदक कर बोली- ‘‘कारे दिपनवा बो आँखे क पानी हेरा दे-ले हई, मरद रोटी सेंकेला, लइकन साम्हारेला औरी तूं दिन-रात ईंहे पड़ल रहेली।’’ नाऊन की बात सुन कर माहेश्वर तमतमा गया, लाठी उठा कर जोर से नाऊन की दौरी के पास दे मारा, बेचारी काहेऽऽ बाबा, काहेऽऽ बाबा कह कर घिघियाने लगी। माहेश्वर चिल्ला रहा था, भाग-भाग ससुरी भाग इहां से। नाऊन जाते-जाते सुनाते गयी, ‘‘हे काकी मईया धियान देई चमरौटी उबिलत हवे। बुढ़िया सिहर उठी। ‘‘हरे छिनरिया, भाग रे भाग माहेश्वर से विनती करते हुए बोली- ’’अरे नाशे पर लागत हऊवा पुता, तनिको डेरईता, लईकी सयान होत विया।’’ माहेश्वर गुनगुनाते हुए निकल गया, बुढ़िया पथराई आँखों से जाते हुए माहेश्वर को देखती रही, अनहोनी की आशंका से बुढ़िया कांप उठी।
आभा पास के गांव में स्थित स्कूल में इण्टर की छात्रा थी, पूरे गाँव की लड़कियाँ एक झुण्ड में साईकिल से स्कूल जातीं। आते-जाते मंगल पहलवान का लड़का फेरा डालता, लड़कियाँ किनारे हट कर आगे निकल जातीं। आभा की माँ ने समझा रक्खा था कि ‘‘हाथी चलती है कुत्ते भौंकते रहते हैं तू अपने साथ अपने कुल की इज्जत लिए चलती है आँच न आने पाए। तुम्हारा गोरा रंग कुल का कालिख नहीं बनना चाहिए। लड़कियाँ जा रही थीं लड़का गाते हुए निकला- ’’चँदवा के ताके चकोर हे गोरी हम तोहके निहारी।’’ आभा ने पैडिल पर पैरों की गति बढ़ाई, देखते-देखते लड़कियाँ हवा हो गयीं।
परीक्षा का समय आया बाकी लड़कियाँ कला वर्ग की छात्रा थीं अकेली आभा विज्ञान वर्ग की अतः उसे परीक्षा दिलाने घर का कोई न कोई पुरुष सदस्य ले कर जाता। एक-एक कर परीक्षा समाप्ति की ओर था कि एक दिन दिपना हाँफता-दौड़ता आया, मलिकार खरिहाने में आग लग गईल है, सभी एक साथ खरिहान की ओर भागे, आग बुझाने के प्रयास में आभा के पिता का हाथ झुलस गया, किसान की थाती जल जाय और किसान देखता रहे ये सम्भव नहीं। एक तिहाई अनाज भस्म हो गया, पास के पोखरे की सहायता से आग पर काबू पा लिया गया वरना गाँव के सटे खरिहान से जान-माल की भारी क्षति होती। मझले भाई रामेश्वर, तारकेश्वर को लेकर डाक्टर के यहाँ चले, माहेश्वर से आभा को परीक्षा दिलवा लाने को कहते गये। माहेश्वर टोले की ओर चला, सीटी बाजते, गाते, गुनगुनाते कंधे पर लाठी लिए मस्ती में झूमता हुआ ऐसे चल रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं। टोले में घुसते ही सहुवाईन ने अपनी गुमटी से हाँक लगाया- ‘‘ऐ पंडित जी कइसे खरियाने में आग लागल’’, कनखियों से चेहरे के भाव को पढ़ते हुए बोली ‘‘जरूरे आपे क करतूत होई। बड़का बाबा त गऊ मनई हऊंव। माहेश्वर स्टूल लेकर बैठ गया, बतकही में आभा की परीक्षा का ध्यान ही नहीं रहा। इधर आभा विलंब होता देख छत-दुवार एक किये हुए थी। हार कर माँ से बोली, ‘‘अम्मा हमारा परीक्षा छूट जायेगा, हम साइकिल से जा रहे हैं, आप नाहक ही घबड़ाती हैं, हम ढोर-डांगर नहीं हैं जो लकड़सुंघवा खेद ले जायेगा। साईकिल उठाया और निकल पड़ी। माँ की छाती धक्क से अन्दर तक धस गयी। आभा गाँव से बाहर निकल चुकी थी। साईकिल की पैडल पर विद्युत की गति से पैर मार रही थी आँखों में केवल एक ही अर्जुन का लक्ष्य था, परीक्षा केन्द्र तक शीघ्र पहुँचना। अभी वह साधु की कुटी वाले बाग तक ही पहुँची थी कि पीछे से मार्सल गाड़ी उसे धक्का देते हुए आगे निकली, वह भरभरा कर गिर पड़ी, फुर्ती से उठी साइकिल सम्हालकर अभी बैठने ही जा रही थी कि बगल के खेतों में से दसों लड़के मुँह पर गमछा बांधे निकले, ऊँचे गन्ने और अरहर के खेतों के कारण उसके भीतर कौन है, देखना आसान नहीं होता। आभा सहम गई, साइकिल फेक कर भागी, लड़के दौड़ कर उसे पकड़ने लगे। वह जोर-जोर से पूरी ताकत लगा कर चिल्ला रही थी- ‘‘अरे चाचाऽऽऽ हो ऽऽऽ अम्मा रेऽऽऽ बचावऽऽऽ।’’ एक लड़के ने उसका मुँह दबाया, दूसरे ने मुँह में गमछा ठूंस दिया, खींचते हुए गन्ने के खेत में लेकर चले, रगड़ से उसके हाथ-पैर छिल रहे थे, गन्ने के धारदार पत्ते लड़की के शरीर को छिले जा रहे थे।
इसी बीच मनिहारिन उस ओर से गुजरी, गिरी हुई साइकिल और किसी के घसीटने के निशान को देख कर चौंकी, दौरी उतार कर चुपचाप पैर दबा कर निशान की सीध में आगे बढ़ी। बिगहे भर में फैले गन्ने के खेत के बीचो-बीच का दृश्य देख कर उसका शरीर सुन्न हो गया, वहीं जड़ हो गयी, लड़के आभा को गिद्ध की तरह नोच रहे थे, लड़की मछली की तरह तड़प रही थी, आस-पास उसके कपड़ों के चिथड़े बिखरे पड़े थे। हिम्मत कर मनिहार टोले की ओर गिरते-पड़ते भागी, गाँव के बाहर ही माहेश्वर साहू जी की दुकान पर मिल गया, बिजली की फुर्ती से लपक कर उसका हाथ पकड़ा, माहेश्वर रोमांचित हो उठा, हिम्मत कर माहेश्वर के कान में पूरी घटना संक्षिप्त में बताकर धम्म से जमीन पर बैठ गयी। माहेश्वर चिल्लाते हुए दुवार की ओर भागा, दरवाजे पर पूरा गाँव तथा आस-पास के गाँवों के ब्राह्मण इकट्ठे थे, कारण प्रधान की फसल जली थी, घायल हुए थे। संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा था। माहेश्वर ने भाई को ललकारते हुए कहा- ‘‘अरे बाप रे भईया….. इज्जत गईल…… ससुरा अभवा के ऽऽऽ अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी। लपककर रामेश्वर ने माहेश्वर का गला पकड़ लिया…….। का बे साले, तोहसे कहल रहे कि साथे लेके जईहे, माजरा सबको समझ में आ चुका था। पूरा गाँव लाठी, हँसिया, गड़ासा, भाला लिए साधु की कुटी की ओर भागा। मनिहारिन आगे-आगे दौड़ रही थी, धूल उड़ती देख लड़के चौकन्ने हुए, लड़की का शरीर शांत हो चुका था। एक ने गाल थपथपा कर देखा, ‘‘मर गई साली’’, दूसरे ने कहा, एक लाश और चाहिए थी साले किस्मत से बच गये। एक साथी खेत के बाहर गया, हाँफता हुआ- अन्दर आया भाग- बे- भाग पूरा बभनऊटी इधर ही आ रहा है, पता नहीं कईसे सालों को मालूम चल गया। लड़के अपने-अपने कपड़े समेट कर दूसरी तरफ से भाग निकले। मियाईन फुर्ती से घटना स्थल की ओर बढ़ी, जनता पीछे, गंतव्य पर पहुँच कर सबके होश उड़ गये। रामेश्वर ने अपनी धोती खोलकर आभा के नग्न शरीर पर डाला, मियाईन दहाड़े मार कर रोने लगी, लड़की के पास पहुँचकर सीने पर कान लगाया, सांसे रह-रह कर आ-जा रही थीं, गिड़गिड़ाते हुए रामेश्वर से बोली- ‘‘ऐ बाबा अबहिन जान बा, डागडरी ले चला।’’ रामेश्वर लात से धक्का देते हुए लड़कों को खोजने चला, तारकेश्वर पंडित को छोड़ कर सभी लड़कों की तलाश में जुटे थे। तारकेश्वर सिर पकड़ कर आभा के निर्जीव शरीर के पास बैठे थे। मियाईन ने गुप्तांगों के पास का कपड़ा हटाया, बोली आही रे बप्पा बछिया हग-मूत कुल देले बाड़ी। तारकेश्वर पंडित को झकझोरते हुए बोली- ‘‘डगडरी लें चली ऐ बाबा।’’ इतने में माहेश्वर कुछ लड़कों के साथ वापस आया, तारकेश्वर ने पूछा- कवनों भेंटईलं।’’ निराश होकर रामेश्वर बोला- ‘‘इनकी माँ की साले भाग निकले।’’ अचानक माहेश्वर मियाईन का बाल पकड़ कर बोला, ऐ साली के कईसे पता चलल, मिलल हिए और लात, घूसों के साथ टूट पड़ा, मियाईन सकपका गई। ‘‘अरे ऐ बाबा, हम अईसन काहें करब।’’ माहेश्वर अन्य युवकों के साथ उसे घसीटते हुए दूसरी तरफ लेकर चला, ‘‘ससुरी अईसे नहीं बतायेगी,’’ सब के सब जानवरों की तरह मियाईन पर टूट पड़े।
गाँव के बुजुर्ग तारकेश्वर पंडित के पास पहुँचे, रक्त प्रवाह से धरती लाल हो चुकी थी, सबने समझा लड़की मर चुकी है। पिता ने एक बार उँगलियों को अहिस्ते से हिलते हुए देखा था किन्तु मौन रहे। दोपहर हो चुकी थी, सबने राय दी थाने में रपट करनी होगी, दरोगा आए, लड़की के पिता ने मृत घोषित किया, प्रथम दृष्टया बलात्कार का केश था डाक्टरों ने खानापूर्ति कर मुक्ति ली। पंचनामा बना। गवाहों के बयान लिए गये। शाम होने को आयी थी, सूर्य अस्त हो रहा था, गाँव के बाहर ही टिक्ठी आई, कफन, फूल, माला आदि, दिपनाबों ने लाश को नहलाया धीरे से रामेश्वर से बोली, ‘‘देहिया गरम बा।’’ रामेश्वर का जलता हुआ चेहरा देखकर जल्दी-जल्दी कफन ओढ़ाया, आनन-फानन में पोखरा के किनारे शिवालय के पास चिता सजी, लड़की की लाश चिता पर रख दी गयी। मियाईन को होश आया, कपड़ा समेटते हुए भागी, अरे काठ क करेजवा जानि करे ऐ बाबा, बबुनी जीयत हई, बुजुर्गों ने मियाईन को पकड़ कर पीपल के पेड़ से बाँध दिया, मियाईन चित्कारती रही। नाऊ ने तारकेश्वर पंडित का बाल बनाया पंडित ने मंत्र पढ़े नाजो से पली बेटी को मुखाग्नि दी, कलेजा जोर-जोर से धड़क रहा था, हाथ काँप रहा था, भाईयों ने कस कर भाई को पकड़ लिया, चिता से आग की लपटे उठने लगीं, अचानक लड़की का शरीर काँपने लगा, तीनों भाईयों ने आँखें बंद कर लिया, तारकेश्वर पंडित जमीन पर गिर पड़े, दो बूंद जमीन पर गिरा बुदबुदाये, जी कर क्या करती बहिनी।’’ बुजुर्गों ने तीनों भाईयों को चिता से दूर हटाया, दिपना ने बास के फट्टे से पीट-पीट कर लाश को जलाया। सब गाँव की ओर लौटे, शिवालय के पुजारी ने मियाईन को खोल दिया। सुबह बड़का दुवार पर खबर आयी, मियाईन की लाश पोखरे में उतराई है, चमरौटी में रात भीषण आग लगी, छानी-छप्पर सब भस्म हो गया, काफी संख्या में बच्चे, बूढ़े और औरतें मारे गये। तारकेश्वर पंडित बाँस की कईन और लोटा में गुड़, अक्षत, तिल लिए साधु की कुटी वाले पीपर की ओर चले, पीछे-पीछे नाऊ। औरतें- दलान में चित्कार रही थीं, बुढ़िया राग कढ़ा कर बीच-बीच में रूदन करती- ‘‘कहाँ गईली हमरे सुरूज किरिनिया क जोत हो रामा।’’
सम्पर्क
मोबाईल – 09415907958
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है)

रमेश उपाध्याय की कहानी ‘काठ में कोंपल’


 

रमेश उपाध्याय

अपने समय के परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को साहित्य किस तरह बयाँ करता है इसे जानने के लिए आपको रमेश उपाध्याय की इस कहानी से रु-ब-रु होना पड़ेगा। ‘काठ में कोंपल’ जैसा कि नाम से ही द्योतित हो रहा है उन उम्मीदों की कहानी है जो खराब से खराब परिस्थितियों में भी अपने लिए जगह बना लेती है। आज के भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की जो स्थितियां हैं; और जिस तरह से कट्टरता सामान्य जन जीवन में अपने पाँव पसारती जा रही है, उसमें यह कहानी अत्यन्त महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करते हुए बड़ी साफगोई से अपनी बात पूरी करती है। तो आइए आज पढ़ते हैं वरिष्ठ कहानीकार रमेश उपाध्याय की कहानी ‘काठ में कोंपल’। 
        
काठ में कोंपल

रमेश उपाध्याय
मित्रो, मेरे लिए यह बड़े हर्ष और गर्व की बात है कि विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने, समाजविज्ञानियों की बिरादरी ने, मेरी माँ प्रोफेसर समीरा खान और मेरे पिता प्रोफेसर प्रणव कुमार के साथी शिक्षकों और छात्रों ने, उन दोनों के मित्रों ने, जिनमें इतिहासकार, लेखक, पत्रकार, जन-आंदोलनों से जुड़े नेता-कार्यकर्ता आदि शामिल हैं, और इस सभागार में उपस्थित आप सब ने उन दोनों की स्मृति में यह व्याख्यानमाला शुरू की है। इसका पहला व्याख्यान देने के लिए आपने उनकी बेटी दीक्षा को अर्थात् मुझे आमंत्रित किया है, इसके लिए मैं हृदय से आप सब की आभारी हूँ।
पिछले साल आज के ही दिन मेरे माता-पिता की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हो गयी थी। आप में से बहुत-से लोगों को याद होगा कि वे दोनों लंदन में आयोजित एक सम्मान समारोह में शामिल हो कर लौट रहे थे। वह सम्मान समारोह मेरे पिता के द्वारा लिखी गयी पुस्तक भूमंडलीकरण का इतिहासके प्रकाशक द्वारा आयोजित किया गया था। यह वही प्रकाशक था, जिसने कुछ साल पहले उनकी पुस्तक शीतयुद्ध का इतिहासऔर फिर मेरी माँ की पुस्तक दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनियाभी प्रकाशित की थी। इसलिए पापा के सम्मान समारोह में उसने माँ को भी आमंत्रित किया था। लेकिन वहाँ से लौटते समय रास्ते में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें सवार सभी यात्री चालक दल सहित मारे गये। अपने माता-पिता और उनके साथ मारे गये सभी लोगों को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।
मित्रो, मैं अपने माता-पिता की तरह पढ़ाने के पेशे में कभी नहीं रही, इसलिए मुझे व्याख्यान देना नहीं आता। इतिहासकार भी मैं नहीं हूँ। मेरा पेशा फिल्में बनाना है। डॉक्यूमेंटरी फिल्में। इसलिए मैं माँ और पापा के द्वारा लिखी गयी इतिहास की पुस्तकों के बारे में कुछ नहीं कह पाऊँगी। व्याख्यान के आयोजकों को मैंने अपनी ये अक्षमताएँ बता दी थीं। फिर भी उन्होंने व्याख्यानमाला का आरंभ मुझसे ही कराना उचित समझा और मुझसे कहा कि मैं अपने माता-पिता को याद करते हुए जो मेरे जी में आये, बोलूँ। जैसे भी बोल सकूँ, बोलूँ।
बोलने से संबंधित अपनी एक और अक्षमता के लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ। भारतीय और उत्तर भारतीय होते हुए भी, अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं के जानकार माता-पिता की बेटी होते हुए भी, और इसी दिल्ली शहर में रह कर पली-पढ़ी होते हुए भी मैं साफ-सुथरी हिंदी या उर्दू नहीं बोल पाती हूँ। लेकिन अपनी पीढ़ी के ज्यादातर लोगों की तरह हिंग्लिश में बोलना मैं चाहती नहीं, इसलिए अंग्रेजी में बोलूँगी। मैं व्याख्यान के आरंभ में अपनी माँ समीरा खान की आत्मकथा इतिहास से मेरा संवाद और संघर्षका एक अंश पढ़ कर सुनाऊँगी और अंत में अपने पिता प्रणव कुमार का एक पत्र पढ़ कर सुनाऊँगी, जो उन्होंने मुझे अपनी मृत्यु से दो दिन पहले लंदन से अपनी पुस्तक भेजते हुए लिखा था। उस समय मैं ब्राजील में अपने पति के साथ वहाँ के एक जन-आंदोलन की शूटिंग में व्यस्त थी, इसलिए उनके सम्मान समारोह में भाग लेने लंदन नहीं जा पायी थी।
तो, सबसे पहले आप मेरी माँ की आत्मकथा का यह अंश सुनें :
मेरे पति प्रणव कुमार मेरे शिक्षक थे और उम्र में मुझसे आठ साल बड़े थे। लेकिन वे मुझे हमेशा हमउम्र ही लगते थे। वे प्रोफेसर कम लगते थे, सहपाठी मित्र अधिक। दूसरे प्रोफेसरों की तरह वे लेक्चर नहीं देते थे, बातचीत करते थे। बीच-बीच में हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य से पूरी कक्षा को हँसाते रहते, लेकिन गंभीर प्रश्न उठा कर कोई न कोई बहस भी छेड़ते रहते। किसी और प्रोफेसर की क्लास में हम खुल कर हँस तो क्या, बोल भी नहीं सकते थे, जबकि उनसे हम बाकायदा बहस करते थे। क्लास में ही नहीं, क्लास के बाहर भी हम उनसे मिल सकते थे। उनसे कुछ भी पूछ सकते थे। उन्हें घेरकर कैंटीन में ले जा सकते थे और उनके साथ चाय पीते हुए हँसी-ठट्ठा भी कर सकते थे।
उन दिनों लोग रिटायर होने के करीब पहुँचने पर प्रोफेसर बना करते थे। बहुत-से तो बन ही नहीं पाते थे। बेचारे लेक्चरर नियुक्त होते थे और अधिक से अधिक रीडर बनकर रिटायर हो जाते थे। इसलिए लोग आश्चर्य करते थे कि प्रणव कुमार तीस की उम्र में ही प्रोफेसर कैसे बन गये। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। अट्ठाईस साल की उम्र में उन्होंने पी-एच. डी. कर ली थी। सो भी ऐसे कठिन और अनोखे विषय पर कि उसके लिए उन्हें गाइड मिलना मुश्किल हो गया था। अव्वल तो उनके शोध का विषय ही बड़ी मुश्किल से स्वीकृत हुआ था, क्योंकि विषय स्वीकृत करने वाली समिति का कहना था, यह तो इतिहास का नहीं, राजनीतिशास्त्र का विषय है। जो विषय प्रणव कुमार ने चुना था, वह था शीतयुद्ध का इतिहास। सोचिए जरा, यह तब की बात है, जब सोवियत संघ मौजूद था और शीतयुद्ध जारी था। इतिहास विभाग के सब लोगों ने, विभागाध्यक्ष तक ने, उनसे कहा कि मूर्खता मत करो, कोई और विषय ले लो। जो चीज अभी इतिहास बनी ही नहीं, उसका इतिहास तुम कैसे लिखोगे? उसके लिए सामग्री कहाँ से जुटाओगे? कौन तुम्हें गाइड करेगा? कौन तुम्हारी परीक्षा लेगा? मगर प्रणव कुमार नहीं माने, अपनी जिद पर अड़े रहे।
खैर, जैसे-तैसे विषय स्वीकृत हुआ और विषय को देखते हुए उनके दो गाइड बनाये गये। एक इतिहास विभाग के प्रोफेसर, दूसरे राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर। वे दोनों अपने शोध छात्र को गाइड कम करते थे, आपस में लड़ते ज्यादा थे। प्रणव कुमार ने अपनी ही सूझ-बूझ और मेहनत से अपना काम पूरा किया और पी-एच.डी. हो गये। उस काम से बनी उनकी पुस्तक भी जल्दी ही प्रकाशित हो गयी।
अब, एक तो विषय एकदम नया और चुनौती भरा, दूसरे, पुस्तक बहुत अच्छे ढंग से लिखी गयी थी। इसलिए प्रकाशित होते ही उसकी धूम मच गयी। हालाँकि उसकी आलोचना भी हुई, उस पर विवाद भी छिड़ा, खास तौर से इस बात को ले कर कि उसमें पूँजीवाद और समाजवाद में से, या अमरीका और रूस में से, किसी एक का पक्ष लेने के बजाय दोनों की, और दोनों के बीच जारी शीत युद्ध की, आलोचना की गयी थी। आलोचना और विवाद का मुद्दा यह था कि प्रणव कुमार ने रूसी या अमरीकी दृष्टिकोण अपनाने के बजाय तीसरी दुनिया वाला, बल्कि उसमें भी भारत और दूसरे गुटनिरपेक्ष देशों वाला दृष्टिकोण अपनाया था, जो न रूस के समर्थकों को पसंद था, न अमरीका के समर्थकों को। दोनों ने अपने-अपने पक्ष से पुस्तक की आलोचना की। मगर लेखक को इससे लाभ ही हुआ। प्रणव कुमार अपनी पहली ही पुस्तक से चर्चित हो गये। इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच ही नहीं, लेखकों, पत्रकारों और राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के बीच भी उनकी पुस्तक लोकप्रिय हुई। इस प्रकार प्रणव कुमार इतिहासकार बन गये। फिर उन्हें तीस साल की उम्र में प्रोफेसर बनने से कौन रोक सकता था?
मैं नाम नहीं लूँगी, लेकिन जिन चीजों की चर्चा करूँगी, उनसे आप स्वयं ही समझ जायेंगे कि मैं किन लेखकों और उनके किन लेखों या पुस्तकों की बात कर रही हूँ। प्रोफेसर प्रणव कुमार के बारे में कुछ भ्रांत धारणाएँ फैलायी गयी थीं। कुछ मिथ्या आरोप भी लगाये गये थे। उनमें से दो आरोप मुख्य थे। एक : प्रोफेसर प्रणव कुमार विश्वसनीय इतिहासकार नहीं हैं, क्योंकि वे इतिहास के बारे में अपने विचार और धारणाएँ बदलते रहते हैं। दो: प्रोफेसर प्रणव कुमार ने इतिहास-लेखन की तमाम वैज्ञानिक पद्धतियों को गलत बताते हुए एक नयी किंतु सर्वथा गलत और भ्रामक स्थापना प्रस्तुत की है कि इतिहास फैक्ट नहीं होता, एक प्रकार का फिक्शन होता है और होना भी चाहिए; क्योंकि सच्चा इतिहास अपने समय से आगे का अथवा भविष्य का इतिहास होता है, जो अपने समय का सच ही नहीं कहता, आगे के समयों का सच भी कहता है।
पहला आरोप प्रणव कुमार द्वारा लिखित शीत युद्ध के इतिहास के संदर्भ में लगाया गया था। कहा गया था कि पुस्तक के पहले संस्करण में उन्होंने जो लिखा था, दूसरे संस्करण में बदल दिया। एक प्रकार से यह आरोप सही है। यदि आप पुस्तक के पहले संस्करण का मिलान पाँच साल बाद छपे उसके दूसरे संस्करण से करें, तो पायेंगे कि वह एक प्रकार का संशोधित, परिवर्तित, परिवर्द्धित या कहें कि पुनर्लिखित संस्करण है। उसमें नये तथ्य हैं, उनके नये विश्लेषण हैं और साथ-साथ एक नयी दृष्टि भी है। पहले संस्करण में उस इतिहास का लेखक शीत युद्ध में शामिल दोनों पक्षों के दृष्टिकोण से लगभग समान दूरी बनाये रखते हुए अपने एक तीसरे ही दृष्टिकोण से शीत युद्ध को देखता है और भारतीय संदर्भ में उससे निकलने वाले निष्कर्षों की रोशनी में दुनिया के संभावित भविष्य की परिकल्पना करता है। लेकिन दूसरे संस्करण में वह पूँजीवाद और समाजवाद में से समाजवाद की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है। अमरीका और रूस में से रूस की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है और अपने भारतीय दृष्टिकोण को एक प्रकार के वैश्विक दृष्टिकोण में बदलता या विकसित करता दिखायी देता है।
इस बदलाव से यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है कि लेखक के विचार बदल गये हैं। लेकिन यह बदलाव क्यों आया, और क्यों आना जरूरी था, इसका उत्तर देश और दुनिया में आये बदलावों के साथ-साथ लेखक के निजी जीवन में आये बदलावों को देखने पर मिलेगा।
मैंने उस बदलाव को अपनी आँखों से देखा था। बल्कि यों कहें कि उसमें मेरी भी भागीदारी थी। मैं जब एम.ए. में पढ़ रही थी, तभी से अपने प्रोफेसर प्रणव कुमार पर मुग्ध थी। मुझे लगता था कि वे भी मुझे पसंद करते हैं। कारण यह था कि उनके सब छात्रों में अकेली मैं ही थी, जिसने उनकी शीत युद्ध वाली पुस्तक पढ़ी थी और उस पर उनसे बात की थी। उन्हें यह सुन कर विश्वास नहीं हुआ था कि मैंने उनकी पुस्तक पढ़ी है। बोले, ‘‘तुम ऐसी किताबें पढ़ती हो?’’ मैंने उन्हें बताया कि मेरे पिता कम्युनिस्ट हैं, एक कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हैं और उस पार्टी के साप्ताहिक अखबार में काम करने वाले पत्रकार हैं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता नयी से नयी किताबें पढ़ते हैं और घर आते रहने वाले अपने मित्रों और साथियों से उन पर खूब बात-बहस करते हैं। उन लोगों की बातें-बहसें सुन-सुन कर मैं भी राजनीति को कुछ-कुछ समझने लगी हूँ। जो बातें मेरी समझ में नहीं आतीं, मैं अपने पिता से पूछ लेती हूँ। मेरे पिता मेरे सवालों के जवाब खुद तो देते ही हैं, मुझे कुछ किताबें भी बता देते हैं, या अपनी किताबों में से खुद ही निकाल कर दे देते हैं। मैंने बड़े गर्व के साथ कहा था, ‘‘सर, हमारे घर में बहुत किताबें हैं। समझिए कि एक पूरी लाइब्रेरी है।’’
‘‘तब तो किसी दिन तुम्हारे घर आना पड़ेगा।’’ प्रोफेसर प्रणव कुमार ने मुझसे कहा था। वे मेरे घर तो नहीं आये, लेकिन उस दिन के बाद जब भी मिलते और मैं नमस्ते करती, तो वे ‘‘हैलो, कॉमरेड!’’ कह कर मुस्कराते। पता नहीं उस मुस्कान में मजाक उड़ाने वाला भाव होता था या मेरी सराहना का, लेकिन जो भी हो, मुझे वह मुस्कान बहुत अच्छी लगती थी। कहूँ कि उनके मुँह से ‘‘हैलो, कॉमरेड!’’ सुन कर मैं धन्य-धन्य हो जाती थी। मगर मैं मन ही मन उनसे प्रेम करते हुए भी सोचती थी कि मेरा प्रेम एकतरफा है और अव्यक्त ही रहेगा। कहाँ तीस-इकत्तीस साल का एक प्रोफेसर और कहाँ बाईस-तेईस साल की उसकी एक छात्रा! कहाँ एक सुंदर और शानदार व्यक्तित्व, कहाँ साधारण रूप-रंग वाली एक दुबली-पतली मध्यवर्गीय लड़की! हालाँकि वे युवा प्रोफेसर कहलाते हैं, लेकिन हैं तो उम्र में मुझसे आठ साल बड़े। और फिर सबसे बड़ी बाधा तो यह कि वे हिंदू हैं और मैं मुसलमान!
यही सब सोच कर मैं अपने एकतरफा प्रेम को मन में कस कर बंद किये रहती थी। सचेत रहती थी कि वह कहीं खुल कर व्यक्त न हो जाये। मगर मन मानता नहीं था। नतीजा यह हुआ कि एम.ए. करने के बाद मैंने पी-एच.डी. करने की ठानी और शोध के लिए ऐसा विषय लेने की सोची कि गाइड के रूप में मुझे प्रोफेसर प्रणव कुमार ही मिलें। विषय सोच कर मैं उनके पास गयी कि सिनॉप्सिस बनाने में वे मेरी मदद कर दें। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कराते हुए ‘‘हैलो, कॉमरेड!’’ कह कर मेरा स्वागत किया और विषय पूछा। मैंने बताया, ‘‘भारतीय वामपंथ का उदय और विकास।’’ सुनकर हँसे और बोले, ‘‘तुम्हारे पापा ने सुझाया है?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं। मुझे खुद सूझा है।’’ फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘सोच लो, ऐसे विषय पर पी-एच.डी. करोगी, तो नौकरी मिलना मुश्किल होगा।’’ मैंने कहा, ‘‘देखा जायेगा, सर, अभी तो आप मेरी सिनॉप्सिस बनवा दीजिए और हो सके, तो मेरे गाइड भी आप ही रहिएगा।’’
विषय स्वीकृत हो गया था और गाइड भी मुझे वे ही मिले थे। मैंने सुन रखा था कि शोध छात्राओं को अपने गाइडों से अक्सर मिलना पड़ता है और उनमें से कुछ बदमाश प्रोफेसर उन्हें अपने घर पर या अन्यत्र कहीं एकांत में बुलाकर उनका यौन शोषण करते हैं। मैंने सोच लिया था कि प्रणव कुमार की ओर से ऐसा कोई संकेत भी मिला, तो मैं उन्हें खरी-खरी सुना दूँगी और शोध करने का विचार ही त्याग दूँगी। मगर उन्होंने मुझे अपने घर या अन्यत्र कहीं नहीं बुलाया। वे मुझे हमेशा इतिहास विभाग में ही मिलने के लिए बुलाते थे और वहाँ दूसरे प्रोफेसरों के सामने ही मुझसे बात करते थे। हम एक कोने में बैठ जाते और शोध के विषय पर बातें करते रहते। अक्सर वे ही बोलते रहते और मैं नोट्स लेती रहती।
लेकिन इतिहास विभाग के दूसरे लोगों को ज्यों ही पता चला कि मैं मुसलमान ही नहीं, एक कम्युनिस्ट पिता की बेटी भी हूँ, उनमें से कई लोग मेरे वहाँ आ कर बैठने पर आपत्ति करने लगे। उनमें एक तरफ वे पुरुष थे, जिन्हें प्रणव कुमार के तीस साल की उम्र में ही प्रोफेसर बन जाने से तकलीफ हुई थी और दूसरी तरफ वे महिलाएँ थीं, जो अविवाहित थीं और प्रणव कुमार से शादी करना चाहती थीं। इन दोनों तरह के लोगों में कुछ ऐसे भी थे, जो मुसलमानों के प्रति घृणा और कम्युनिस्टों के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। वे सब मेरे और प्रणव कुमार के बारे में तरह-तरह के दुष्प्रचार करने लगे।
मैं तो परेशान हो गयी, लेकिन प्रणव कुमार ने हिम्मत दिखायी। एक दिन जब मैं विभाग में उनसे मिलने के बाद अपने घर जाने के लिए बस स्टैंड की तरफ जा रही थी, वे पीछे से अपनी मोटरसाइकिल पर आये और मेरे पास रुक कर बोले, ‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ?’’ मैं रोमांचित हो उठी। शुक्रिया कह कर उनके पीछे बैठ गयी। रास्ते में एक रेस्तराँ के सामने रुक कर उन्होंने पूछा, ‘‘चाय पियोगी? तुम से मुझे कुछ बात भी करनी है।’’ चाय पीते समय उन्होंने कोई भूमिका बाँधे बिना सीधे ही पूछ लिया, ‘‘मुझसे शादी करोगी?’’ मैं तो खुशी से पागल-सी हो जाने को हुई, मगर मैंने संयम बरतते हुए कहा, ‘‘मुझे अपने अब्बू-अम्मी से पूछना पड़ेगा।’’ यह सुन कर वे बोले, ‘‘चलो, अभी चलकर पूछ लेते हैं।’’
मैंने पूछा, ‘‘लेकिन, सर, यह अचानक इतना बड़ा फैसला? बात क्या है?’’ उन्होंने अपने सहकर्मियों द्वारा फैलायी जा रही अफवाहों के बारे में बता कर कहा, ‘‘तुम ने करेला और नीम चढ़ावाली कहावत सुनी है? विभाग में कुछ लोग मुझे देखते ही एक फब्ती कसते हैं, करेली और नीम चढ़ी! यानी तुम! इस तरह वे तुम पर और तुम्हारे पिता पर ही नहीं, मुझ पर भी हँसते हैं। ऐसी हँसी, जिसमें जहर भरा होता है। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी बदनामी तो मैं शायद बर्दाश्त कर भी लूँ, तुम्हारी बदनामी हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’
‘‘मैं भी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि मेरे कारण आपको परेशानी हो। मैं विभाग में आ कर आपसे मिलना बंद कर दूँगी। या शोध करने का विचार ही छोड़ दूँगी।’’ मैंने कहा और साथ ही यह भी जोड़ दिया कि ‘‘आप मुझे बदनामी से बचाने के लिए मुझसे शादी कर लें, यह तो मुझ पर एहसान करना या मेरे लिए शहीद हो जाना होगा। यह मैं कभी नहीं चाहूँगी।’’ यह सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘इसमें एहसान या शहादत की क्या बात है?’’ तो मैंने कहा, ‘‘मैं आपके सामने क्या हूँ? ऐसी लड़की से शादी करना, जो आपके लायक नहीं है, उस पर एहसान करना ही हुआ!’’ तब उन्होंने पहली बार बताया कि वे मुझे चाहते हैं और मुझसे शादी करके मुझ पर कोई एहसान नहीं करेंगे, क्योंकि मुझ में उन्हें वह लड़की मिल गयी है, जिसे वे अपना जीवन-साथी बनाने के लिए खोज रहे थे।
उन्होंने मानो अपने शब्दों की सच्चाई का विश्वास दिलाने के लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर हौले से दबाते हुए कहा, ‘‘मैं पत्नी के रूप में कोई घरेलू औरत या बाहर उड़ती फिरती रहने वाली फैशनेबल तितली नहीं चाहता। मैं ऐसी जीवन-साथी चाहता हूँ, जो मुझे और मेरे काम को समझ सके। उसमें मेरा सहयोग कर सके। और वह तुम ही हो सकती हो, यह मैं तभी से जानता हूँ, जब तुमने मेरी किताब पढ़ कर मुझसे बात की थी। तुम जैसी बौद्धिक लड़की मुझे न तो अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों में मिली, न साथ पढ़ाने वाली लड़कियों में।’’
‘‘लेकिन मजहब…? उसका क्या?’’ मैंने पूछा, तो वे हँस कर बोले, ‘‘तुम ही सारी बातें तय कर लोगी या अपने अब्बू-अम्मी के लिए भी कुछ छोड़ोगी? चलो, मुझे अपने घर ले चलो। मैं आज उनसे मिलकर बात करने के पक्के इरादे के साथ निकला हूँ।’’
मैंने भी हँस कर कहा, ‘‘बात करने के पक्के इरादे से या बात पक्की करने के इरादे से?’’
खैर, बात पक्की हो गयी और हमारी शादी हो गयी। मेरी माँ को कुछ आपत्ति थी, लेकिन मेरे पिता ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया।
शादी कोर्ट में हुई थी। मेरी तरफ से गवाह बने अब्बू की पार्टी के कुछ कॉमरेड और प्रणव की तरफ से विश्वविद्यालय के कुछ वामपंथी शिक्षक। प्रणव ने अपने माता-पिता की संभावित आपत्ति को ध्यान में रखते हुए उन्हें सूचना नहीं दी। उनकी तरफ से उनकी एक बुआ आयीं, जो विधवा थीं, ससुराल से निकाल दी गयी थीं और प्रणव के पास आ कर रहने लगी थीं। सामान्य परिस्थिति में शायद वे भी हिंदू-मुसलमान का सवाल उठा कर हमारी शादी का विरोध करतीं, लेकिन वे प्रणव की आश्रित थीं, इसलिए, और इसलिए भी कि वे बहुत ही भली महिला थीं, उन्होंने मुझे प्यार से अपना लिया।
इसी तरह मेरे माता-पिता भी प्रणव को प्यार से अपना लेना चाहते थे, लेकिन पुरानी दिल्ली में, जहाँ हम लोग रहते थे, हमारे मुहल्ले-पड़ोस के मुसलमानों को यह अच्छा नहीं लगा कि उन्होंने अपनी बेटी की शादी एक हिंदू से कर दी। प्रणव ने अब्बू से पहली मुलाकात में ही कह दिया था कि वे अब्बू के निजी पुस्तकालय का लाभ लेने के लिए आया करेंगे, लेकिन शादी के बाद सांप्रदायिक मिजाज वाले कुछ पड़ोसी लड़कों ने ऐसी धमकियाँ दीं कि अब्बू ने प्रणव से कह दिया, ‘‘बेटा, तुम यहाँ नहीं, पार्टी के ऑफिस में आ जाया करो। वहाँ भी बहुत किताबें हैं और वहाँ मेरे अलावा दूसरे कई लोगों से भी तुम मिल सकोगे।’’
प्रणव वहाँ जाने लगे। वहाँ से ले कर किताबें पढ़ने लगे। पार्टी के लोगों से मिलने लगे। पार्टी की विचारधारा और राजनीति से प्रभावित होकर एक नयी दृष्टि से दुनिया को देखने लगे।
अब आप समझ सकते हैं कि हमारी शादी के बाद प्रणव की शीत युद्ध वाली पुस्तक का जो दूसरा संस्करण निकला, वह एक प्रकार का पुनर्लिखित इतिहास क्यों था। वह सही था या गलत, यह सवाल मैं नहीं उठा रही हूँ, क्योंकि जहाँ एक तरफ उसे सही मानने वालों ने प्रणव की दृष्टि और विचारधारा में आये बदलाव की प्रशंसा की, वहीं दूसरी तरफ उसे गलत मानने वालों ने उस बदलाव की निंदा की। वह भारतीय प्रकाशक भी, जिसने प्रणव की पुस्तक का पहला संस्करण छापा था, निंदा से प्रभावित हुआ और उसने दूसरा संस्करण छापने से इनकार कर दिया। मगर लंदन के एक प्रकाशक ने दूसरा संस्करण खुश हो कर प्रकाशित किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुस्तक के दूसरे संस्करण को पहले से बहुत बेहतर माना गया। वह पुस्तक खूब बिकी। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी। दुनिया की कई भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। प्रणव को उससे इतिहासकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।
अब मैं प्रणव पर लगाये गये दूसरे आरोप की चर्चा करूँगी। उन पर आरोप लगाया गया कि वे इतिहास को फैक्ट नहीं, बल्कि फिक्शन मानते हैं। एक प्रकार का कथा-साहित्य, जो कल्पना के आधार पर लिखा जाता है।
दरअसल, प्रणव पर यह आरोप उन लोगों ने लगाया था, जो इतिहास-लेखन को तटस्थता और निष्पक्षता के साथ किया गया तथ्यों का वर्णन मात्र मानते थे और इसी को मूल्य-मुक्त वैज्ञानिक इतिहास-लेखन बताते थे। प्रणव ने इस मान्यता को चुनौती देते हुए यह सिद्धांत सामने रखा कि इतिहास कभी तटस्थ या निष्पक्ष नहीं होता। वह न तो तथ्यों का वर्णन मात्र होता है, न पक्षधरता और प्रतिबद्धता जैसे मूल्यों से मुक्त। प्रणव का कहना था कि इतिहास हमेशा वर्तमान को ध्यान में रख कर लिखा जाता रहा है। वह या तो वर्तमान में यथास्थिति को बनाये रखने के लिए यह बताता है कि अतीत में हमेशा ऐसा ही होता रहा है, या वर्तमान शासक वर्ग द्वारा किये जा रहे परिवर्तनों को यह कह कर सही ठहराता है कि अतीत में भी ऐसे परिवर्तन होते रहे हैं। दोनों सूरतों में ऐसा इतिहास शासक वर्गों की दृष्टि से लिखी जाने वाली एक पक्षपातपूर्ण कहानी रहा है।
प्रणव का कहना था कि इतिहास अगर कहानी है, तो यह कोई बुरी बात नहीं। बुरी बात यह है कि वह कहानी राजाओं और सम्राटों के द्वारा राज्यों और साम्राज्यों के हित में लिखी और लिखवायी जाती रही है। लेकिन अब ऐसे इतिहास की जरूरत है, जो वैश्विक जनगण के हित में अतीत की कहानी कहे, ऐसी कहानी, जो वर्तमान विश्व व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अतीत से उदाहरण प्रस्तुत न करे, बल्कि भविष्य की एक बेहतर विश्व व्यवस्था बनाने के लिए वैश्विक जनगण को अतीत के अनुभवों से दृष्टि-संपन्न बना कर वर्तमान को बदलने और अपने भविष्य का निर्माण करने में समर्थ बनाये। ऐसा इतिहास भविष्य की किसी कल्पना के बिना नहीं लिखा जा सकता।
इसी संदर्भ में प्रणव ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद की आलोचना की थी। उनका कहना था कि राष्ट्र एक कल्पना है, जो यथार्थ मान ली गयी है और उस पर आधारित राष्ट्रवाद संपूर्ण मानवता को एक अखंड इकाई न मान कर अलग-अलग टुकड़ों में बाँटता है और उन्हें आपस में लड़ाता है। लेकिन प्रणव ने अपने कुछ लेखों में यह विचार व्यक्त किया, तो अकादमिक जगत के लोग ही नहीं, कई लेखक और पत्रकार भी, राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता भी प्रणव के विरोधी हो गये। और जब कुछ वामपंथी इतिहासकार, लेखक, पत्रकार आदि प्रणव के समर्थन में आ खड़े हुए, तो प्रणव के विरोधी प्रणव को कम्युनिस्ट और राष्ट्रद्रोही आदि कहने लगे, जबकि वास्तव में प्रणव पार्टी पॉलिटिक्स से दूर रहने वाले एक देशभक्त किस्म के आदमी थे। वे मार्क्स-एंगेल्स के विचारों से प्रभावित थे, लेकिन बुद्ध और गांधी के विचारों से भी कम प्रभावित नहीं थे। मेरे अब्बू और उनके कई कॉमरेड चाहते थे कि प्रणव उनकी पार्टी में आ जायें, लेकिन प्रणव का एक ही जवाब होता था, ‘‘राजनीति मेरा क्षेत्र नहीं है। मेरा क्षेत्र इतिहास है और मैं उसी में रह कर काम करना चाहता हूँ।’’ 

लेकिन आप राजनीति में रहें या न रहें, राजनीति आपको प्रभावित करती है। उन दिनों जिस राजनीति का देश और समाज में बोलबाला था, उसका शिकार हमें अपने निजी जीवन में भी होना पड़ता था। एक समय तो ऐसा आया, जब हम बहुत ही परेशान हो गये थे।
हमारी शादी हुए लगभग दस साल हो चुके थे। मैं पी-एच.डी. कर चुकी थी और विश्वविद्यालय से संबद्ध एक कॉलेज में पढ़ाने लगी थी। मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने जाते। प्रणव की बुआ घर का काम सँभालतीं और हमारी बेटी दीक्षा को प्यार से पालतीं। घर की ओर से निश्चिन्त होने के कारण प्रणव बाहर के झगड़े-झंझट झेल लेते थे। मैं हालाँकि मुसलमान होने के कारण कॉलेज में कुछ नीची नजर से देखी जाती थी, लेकिन इसे आम भारतीय मुसलमान की नियति-सी मान कर सह लेती थी। वैसे भी मैं अपने काम से काम रखती थी। कॉलेज में पढ़ाने के बाद सीधी घर लौटती थी और घर-परिवार के कामों से निपटने के बाद अपने पढ़ने-लिखने में व्यस्त हो जाती थी।
दिन ठीक-ठाक कट रहे थे कि एक दिन अचानक बुआ को दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसीं। बुआ का हम लोगों को बड़ा सहारा था। उनके मरने के बाद हमारे सामने समस्या खड़ी हो गयी कि जब मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने जायें, तो घर और दीक्षा को कौन सँभाले। प्रणव के माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्ते के तमाम लोग मुझसे शादी कर लेने के कारण प्रणव से अपने नाते तोड़ चुके थे और मेरी तरफ से भी मेरे माता-पिता के सिवा हमारा साथ देने वाला कोई नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि हम क्या करें।
प्रणव ने इस समस्या का समाधान यह निकाला कि एक दिन वे मेरे माता-पिता को समझा-बुझा कर हमारे साथ रहने के लिए ले आये और बुआ वाले कमरे में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। लेकिन इस समाधान से एक और समस्या, बड़ी विकट समस्या, खड़ी हो गयी।
अभी तक हमारे पड़ोसी अपनी उदारता, सहिष्णुता और प्रगतिशीलता का परिचय देते हुए हम लोगों को बर्दाश्त करते आ रहे थे। हमारा मकान मालिक तो, जो हिंदू लड़कियों के मुसलमान लड़कों से शादी करने को बहुत बुरा मानता था, यह जान कर खुश भी था कि एक हिंदू लड़का मुसलमान लड़की को ले आया। लेकिन मेरे अब्बू और अम्मी को हमारे घर में रहते देख पड़ोसियों को ऐसा लगा, मानो पाकिस्तान उनके पड़ोस में आ बसा हो। उनमें से किसी ने हमारे मकान मालिक को जा भड़काया और वह मकान खाली कराने आ गया। हमने वजह पूछी, तो बोला, ‘‘तुम्हारा ग्यारह महीने का एग्रीमेंट खत्म हो चुका।’’ प्रणव ने हँस कर कहा, ‘‘किराया बढ़ाना है न? बढ़ा दीजिए और नया एग्रीमेंट कर लीजिए।’’ सालों-साल से यही चला आ रहा था, लेकिन इस बार मकान मालिक ने मुँह टेढ़ा करके कहा, ‘‘अब मुझे मकान किराये पर देना ही नहीं। मुझे अपना मकान अपने लिए चाहिए। खाली करना पड़ेगा।’’
बड़ी मुश्किल से उसने हमें एक महीने का वक्त दिया। मेरे माता-पिता समझ गये कि यह परेशानी उनके आने की वजह से पैदा हुई है, इसलिए वे वापस अपने घर में रहने चले गये। हमने एक काम वाली रख ली और दूसरा मकान तलाशने में जुट गये।
काम वाली का नाम श्यामा था। वह साँवले रंग की एक दुबली-पतली सुंदर लड़की थी, जिसकी नयी-नयी शादी हुई थी। उसका पति बढ़ई था। वे दोनों बिहार के थे और हमारे घर से कुछ ही दूरी पर बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे। पति जहाँ-तहाँ बढ़ई का काम करता और श्यामा हमारी कॉलोनी के तीन-चार घरों में बर्तन माँजने और सफाई का काम करती थी। वह भरोसेमंद थी, इसलिए जब हमें मकान खोजने जाना होता, उसे कुछ घंटों के लिए बुला कर दीक्षा की देखभाल की जिम्मेदारी सौंप जाते।
मकान खोजने कभी मैं और प्रणव ही जाते, तो कभी अपने मित्रों के साथ, जिनमें से ज्यादातर हमारे शिक्षक साथी होते थे। वे तीन अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए थे, लेकिन हमारे साझे मित्र थे। हम किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे और वे हमें अपनी-अपनी पार्टी से जोड़ना चाहते थे।
लेकिन इधर समाज को न जाने क्या हो गया था कि हम चाहे प्रॉपर्टी डीलर के पास जायें, या सीधे मकान मालिक से जा कर मिलें, सबसे पहले यह पूछा जाता कि हम कौन हैं। हमने तय कर रखा था कि झूठ नहीं बोलेंगे, सच-सच बता देंगे कि प्रोफेसर प्रणव कुमार हिंदू हैं, प्रोफेसर समीरा खान मुसलमान और दोनों ने प्रेम-विवाह किया है। हमारे मित्रों का भी यही कहना था, ‘‘पहले से बता देना ठीक है, ताकि बाद में पता चलने पर अचानक मकान खाली न करना पड़े।’’
उन दिनों प्रणव अपनी पुस्तक राष्ट्र और राष्ट्रवादलिख रहे थे। राष्ट्र फैक्ट नहीं, एक फिक्शन है, इसे सिद्ध करने वाले तर्क और प्रमाण पश्चिमी देशों के इतिहासों में तो मिल रहे थे, प्रणव उन्हें भारतीय इतिहास में खोज रहे थे। उनके दिमाग में मकान खोजते समय भी इतिहास की खोजबीन चलती रहती थी। मुझसे और मित्रों से भी इसी पर चर्चा करते रहते थे।
एक दिन जब हम एक मकान मालिक से मुसलमानों के लिए दी गयी गालियाँ सुनने के बाद लौट रहे थे, संयोग से तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों के एक-एक कॉमरेड हमारे साथ थे। तीनों उस बदतमीज मकान मालिक को अच्छी तमीज सिखा कर आ रहे थे, लेकिन अब भी गुस्से में थे। उनका ध्यान बँटाने के लिए प्रणव ने बात इतिहास और राजनीति की ओर मोड़ दी। बातें चलीं, तो धर्म, जाति, रंग, नस्ल, भाषा आदि से चल कर इस प्रश्न पर आ पहुँचीं कि भारत की आजादी सच्ची थी या झूठी। भारत की स्वाधीनता एक फैक्ट है या फिक्शन?
एक कॉमरेड ने कहा, ‘‘जैसी आजादी जनता चाहती थी, या जनता को चाहिए थी, वैसी जब नहीं मिली, तब तो वह झूठी ही थी। नहीं तो क्या आजादी के इतने साल बाद भी देश की आधी से ज्यादा जनता भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी वगैरह से बदहाल होती?’’
दूसरे कॉमरेड ने कहा, ‘‘आजादी जैसी भी हो, गुलामी से बेहतर होती है। कौन कहेगा कि अंग्रेजों के राज में जनता की जो हालत थी, आजादी के बाद उससे बेहतर नहीं हुई है? इसलिए आजादी झूठी नहीं, सच्ची है।’’
तीसरे कॉमरेड ने कहा, ‘‘जब तक समता, स्वतंत्रता, भाईचारे वाला सच्चा जनतंत्र और उससे आगे बढ़ कर समाजवाद नहीं आ जाता, आजादी एक धोखा है, जो जनता को दिया जाता रहा है और दिया जाता रहेगा।’’
प्रणव ने मुस्कराते हुए चुटकी ली, ‘‘समाजवाद के बारे में आप तीनों का क्या खयाल है? उसमें भी तो सच्चे और झूठे का सवाल है?’’
कुछ समय पहले हमने नयी कार खरीदी थी। प्रणव कार चला रहे थे और मैं उनके साथ वाली अगली सीट पर बैठी पीछे बैठे तीनों मित्रों से होती उनकी बातचीत चुपचाप सुन रही थी और ऊब रही थी, इसलिए मैंने तुकबंदी-सी करते हुए कहा, ‘‘थकान के मारे अपना बुरा हाल है। फिलहाल एक कप चाय का सवाल है।’’
इस पर चारों मित्र ठहाका लगा कर हँसे और प्रणव ने ज्यों ही चाय की दुकान देखी, गाड़ी रोक दी। चाय पीते समय तय हुआ कि मकान किराये पर लेने के बजाय कहीं एक मकान किस्तों पर खरीद लिया जाये। एक कॉमरेड ने सुझाव दिया कि मकान किसी ऐसी नयी कॉलोनी में लिया जाये, जहाँ रहने वाले लोग पड़ोसियों की निजी जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी न रखते हों। तीसरे कॉमरेड ने आश्वासन दिया कि वे कोई न कोई जुगाड़ लगा कर हमें ऐसा मकान किस्तों पर दिला देंगे।
चाय पीने के बाद तीनों कॉमरेड मित्र वहीं से विदा हो गये और हम दोनों घर की ओर चले। रास्ते में मैंने प्रणव से कहा, ‘‘जब ये तीनों सच्ची आजादी और सच्चा समाजवाद चाहते हैं, तो अलग-अलग पार्टियों में क्यों बँटे हुए हैं? मिल-जुल कर एक साथ काम क्यों नहीं करते? दुनिया भर के पूँजीपति मजदूरों के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं और दुनिया भर के मजदूरों को एक करने की बात करने वाले ये लोग मजदूरों को एकजुट करने के बजाय अपने-अपने नेतृत्व में बाँट रहे हैं!’’
प्रणव ने जवाब नहीं दिया। वे किसी गहन चिंता या चिंतन में डूबे हुए थे।
कुछ दिन बाद हमें एक अच्छा-सा मकान किस्तों पर मिल गया। मकान नयी-नयी बसी एक अच्छी कॉलोनी में था और काफी बड़ा था। इकमंजिला, जिसके सामने लॉन और फूलों की क्यारियाँ थीं और पिछवाड़े की तरफ एक सर्वेंट क्वार्टर। सामने की चारदीवारी के पास जामुन का पेड़ था, जो बरसात के मौसम में खूब फलता था। दीक्षा को जामुन बहुत पसंद थे। अपने घर में ही जामुन का पेड़ पा कर वह बेहद खुश हुई।
हम अपने मकान में रहने गये, तो हमने अपनी काम वाली श्यामा से कहा कि वह और उसका पति भी हमारे साथ चलें। सर्वेंट क्वार्टर में रहें और श्यामा कई घरों में काम करने के बजाय हमारे ही घर में काम करे। श्यामा खुशी-खुशी राजी हो गयी और अपने पति रामकुमार के साथ सर्वेंट क्वार्टर में रहने लगी। उसने दीक्षा और घर की सारी जिम्मेदारी सँभाल ली और जल्दी ही वह हमारे परिवार की सदस्य जैसी हो गयी। दीक्षा को हमने घर के पास ही एक अच्छे स्कूल में दाखिल करा दिया। मैं और प्रणव पहले की तरह अपने पठन-पाठन और लेखन में व्यस्त हो गये।
कुछ दिन बाद पता चला कि अम्मी बहुत बीमार हैं। हम लोग उन्हें देखने गये। उनकी हालत बहुत खराब थी। दो दिन बाद वे नहीं रहीं। अब्बू अकेले रह गये। मैंने प्रणव से कहा, ‘‘अब तो हम अपने मकान में हैं। अब्बू को अपने साथ रख सकते हैं?’’ प्रणव राजी हो गये और हम अब्बू को अपने घर ले आये।
लेकिन तभी एक ऐसी घटना घटी, जिसके घटित होने में हमारा कोई हाथ नहीं था और वह हमारे घर-परिवार में नहीं, हमारे देश में भी नहीं, बल्कि दूर किसी दूसरे देश में घटी थी, लेकिन उसने मेरे अब्बू की जान ले ली। 
अब्बू सोवियत संघ को दुनिया का सबसे महान देश और लेनिन को दुनिया का सबसे महान क्रांतिकारी मानते थे। लेकिन वहाँ गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका की आँधी चलते ही समझ गये थे कि यह आँधी बहुत कुछ उड़ा ले जाने वाली है। उनकी पार्टी के कॉमरेड भी येल्त्सिन की कारगुजारियों से बौखला गये थे। एक दिन, जब अब्बू हमारे साथ रह रहे थे, टेलीविजन पर समाचार देखते हुए हम सबने देखा कि मास्को में लेनिन की विशाल प्रतिमा तोड़ कर गिरायी जा रही है। अब्बू हाथों में अपना चेहरा छिपा कर फूट-फूट कर रो पड़े थे।
प्रणव के लिए सोवियत संघ का न रहना इस बात का प्रमाण था कि वह एक फिक्शन था। लेकिन अब्बू के लिए सोवियत संघ का न रहना उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा था। उसे वे बर्दाश्त नहीं कर पाये और ऐसे बीमार पड़े कि फिर उठ ही नहीं सके।
नहीं, बुझने से पहले जैसे शमा की लौ एक बार तेज हो जाती है, उनमें भी जिंदगी की चमक और जीने की ललक दिखायी पड़ी थी। वे अस्पताल में थे। रोज की तरह एक दिन जब मैं प्रणव के साथ उन्हें देखने गयी, तो वे स्वस्थ और चहकते-से मिले। तकियों के सहारे ऊँचे हो कर अधलेटे-से बैठे हुए वे अपने दो-तीन कॉमरेडों से बातचीत कर रहे थे। हमें देखकर खुश हुए और खुशी-खुशी उन्होंने हमें बताया कि अगले हफ्ते तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिल कर एक आम सभा बुलायी है, जिसमें सोवियत संघ के विघटन पर विचार किया जायेगा और तय किया जायेगा कि आगे क्या करना है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा यही सपना था कि हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिल कर एक हो जायें। सोवियत संघ गया तो गया, मेरा यह सपना पूरा होने जा रहा है। मैं तो बीमार पड़ा हूँ, जा नहीं पाऊँगा, मगर तुम लोग जरूर जाना और दीक्षा बिटिया को भी जरूर साथ ले जाना, ताकि वह अपने देश के कम्युनिस्टों के एक होने की ऐतिहासिक घटना की चश्मदीद गवाह बन सके।’’
फिर उन्होंने अपने साथियों से कहा, ‘‘मैं ठीक होता, तो वहाँ कुछ बातें कहता। उन बातों को मैं यहीं आप लोगों के सामने कह रहा हूँ। इन्हें आप लोग वहाँ खुद कह दें या किसी और से कहला दें।’’
साथियों में से एक ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, प्रोफेसर प्रणव यहाँ हैं, प्रोफेसर समीरा यहाँ हैं। आप इन्हें बता दीजिए, ये आपकी बातें वहाँ कह देंगे। हम इन दोनों को बाकायदा वक्ताओं के रूप में आमंत्रित करेंगे। बोलिए, आपको क्या कहना है?’’
अब्बू ने कहा, ‘‘मेरे चार सुझाव हैं। सबसे पहले तो देश की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को मिल कर एक हो जाना चाहिए। दूसरे, कम्युनिस्टों को अपने संगठन और कामकाज के तरीकों को बदलना चाहिए। तीसरे, रूसी रास्ते या चीनी रास्ते पर चलने जैसी बातें छोड़ कर अपना एक नया और अलग रास्ता बनाना चाहिए। चौथे, कम्युनिस्टों की रीति-नीति से असहमत और उनकी आलोचना करने वाले गैर-पार्टी वाम बुद्धिजीवियों को–जिनमें शिक्षक, लेखक, पत्रकार, इतिहासकार आदि बहुत-से लोग आते हैं–कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल करना चाहिए।’’
उस समय दीक्षा नौ साल की थी। मैं और प्रणव उसे साथ ले कर उस आम सभा में गये। हमने चकित होकर देखा कि अब्बू भी अस्पताल से विशेष अनुमति ले कर व्हील चेयर पर बैठ कर आये हैं। उनके साथियों ने उनकी कुर्सी हॉल की सबसे अगली कतार में एक कोने पर लगा दी और हम लोगों को उनके पास वाली कुर्सियों पर बिठा दिया। हम दोनों को बोलने के लिए बुलाया गया था, लेकिन हमें मंच पर अन्य वक्ताओं के साथ नहीं बिठाया गया।
शायद कॉमरेडों ने यह फैसला कर लिया था कि अब्बू की बातें पार्टी की रीति-नीति के खिलाफ हैं, उन्हें मंच से नहीं कहा जाना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि मुझे और प्रणव को तो बोलने के लिए नहीं ही बुलाया गया, अब्बू के कई बार हाथ उठा कर बोलने की अनुमति माँगने पर भी उन्हें अनदेखा कर दिया गया।
हम बहुत क्षुब्ध हो कर वहाँ से अब्बू के साथ अस्पताल गये। उन्होंने हम दोनों से क्षमा माँगी और अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘आज मैंने देख लिया कि वाम एकता का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा। ये लोग नौ कनौजिया तेरह चूल्हेवाली कहावत को सही साबित करते हुए वही करते रहेंगे, जो करते आये हैं और कमजोर होते गये हैं।’’
अगले दिन अब्बू अस्पताल में ही चल बसे।
मित्रो, माँ की आत्मकथा का यह अंश सुन कर आप जान गये होंगे कि मेरे माता-पिता का निजी जीवन और मेरा बचपन कैसा था। अब मैं अपनी बात कहूँगी और अपनी बात यहाँ से शुरू करूँगी कि माँ और पापा में बहुत-सी समानताएँ थीं, लेकिन भिन्नताएँ भी कम नहीं थीं। माँ स्वयं को, पापा को, अपने परिवार को और हम सबके भविष्य को असुरक्षित समझती थीं। इसलिए वे हमेशा आशंकित और डरी-डरी-सी रहती थीं। दूसरी तरफ पापा एक निर्भीक और साहसी व्यक्ति थे। माँ ने आत्मकथा में जो लिखा है, उससे ऐसा लगता है कि पापा ने प्रेम के कारण उत्पन्न परिस्थिति के दबाव में एक मुसलमान लड़की से शादी की। मगर पापा ने मुझे कई बार और विस्तार से बताया था कि उनका इरादा ही ऐसी शादी करने का था।
पापा हिंदुओं के उन शुभ कहलाने वाले विवाहों को सख्त नापसंद करते थे, जिनमें पति-पत्नी का, खास तौर से पत्नी का, अशुभ करने वाली तमाम चीजें भरी होती थीं, जैसे जात-पाँत, ऊँच-नीच, दान-दहेज वगैरह। वे जानते थे कि दूसरे धर्मों के अंदर होने वाले विवाहों में भी कमोबेश यही होता है, इसलिए विवाह के किसी भी पारंपरिक रूप को वे उचित नहीं मानते थे। उनका विचार था कि प्रेम और केवल प्रेम के आधार पर किया जाने वाला विवाह ही सामाजिक कुरीतियों का एक बेहतर जवाब हो सकता है। इसलिए पापा का निश्चय था कि प्रेम-विवाह ही करेंगे और हो सका, तो जाति-धर्म के बंधन तोड़ कर करेंगे। इसी बात पर वे अपने माता-पिता और बहन-भाइयों से लड़े थे, घर छोड़ कर निकल पड़े थे और मेरी माँ से शादी करते समय उन्हें मालूम था कि एक मुसलमान लड़की से शादी करने पर उनके सब लोग उनसे नाते-रिश्ते तोड़ कर उन्हें अकेला छोड़ देंगे। लेकिन, जैसा मैंने कहा, पापा निडर और साहसी थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनका एक ही कहना होता था, ‘‘जो होगा, देखा जायेगा।’’
दूसरी भिन्नता माँ और पापा के बीच यह थी कि माँ महत्त्वाकांक्षी थीं, जबकि पापा महत्त्वपूर्ण कार्य करने में विश्वास करते थे। माँ सफलता को बहुत महत्त्व देती थीं, जबकि पापा सफलता-असफलता की परवाह नहीं करते थे। यह और बात है कि उन्हें अपने कार्यों से सफलता सहज ही मिल जाती थी, जबकि माँ को उसके लिए प्रयास करना पड़ता था। माँ को यह बात कचोटती थी कि पापा अपनी पी-एच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक शीतयुद्ध का इतिहाससे विश्वविख्यात इतिहासकर बन गये थे, जबकि माँ की पी-एच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक भारतीय वामपंथछप तो गयी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तो दूर, राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई थी। इससे माँ को बड़ी निराशा और तकलीफ होती थी। पापा ने माँ को समझाया कि पुस्तक लिख लेना तो अपने वश में होता है, किसी हद तक प्रकाशित करा लेना भी, लेकिन प्रसिद्ध होना अपने हाथ में नहीं होता। यश और प्रसिद्धि मिलने में बहुत दूर तक संयोगों, परिस्थितियों, संबंधों, संपर्कों आदि के अलावा बाजार का अदृश्य हाथ भी होता है। भारतीय वामपंथ शीत युद्ध जैसा विवादास्पद और बिकाऊ विषय नहीं था। इतना ही नहीं, इतिहास के क्षेत्र में जमे बैठे बहुत-से लोगों के लिए तो वामपंथ नितांत अप्रिय विषय था। वे यही जानते और मानते थे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भारतीय वामपंथ की या तो कोई भूमिका थी ही नहीं, या कुछ थी, तो नकारात्मक थी। माँ ने पापा के निर्देशन में जो शोध किया था, उसके आधार पर वामपंथ की सकारात्मक भूमिका दिखायी थी और उसे नकारात्मक बनाने वाले इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत बतायी थी। लकीर के फकीर लोगों को यह बात बिलकुल नहीं भायी थी। 
पापा ऐसे लोगों के बारे में माँ से कहा करते थे, ‘‘इन जड़ लोगों के लिए इतिहास एक ऐसी पवित्र नदी है, जो प्रदूषित होने पर भी पूज्य है। वे उसमें नहा-धो कर अपने शरीर और कपड़ों का मैल उसमें डालते हैं। वे उसके किनारे अपने मुर्दे जला कर उनकी राख और हड्डियाँ उसमें डालते हैं। वे अपने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उसमें विसर्जित करके उनका कचरा उसमें डालते हैं। वे अपनी बस्तियों के गंदे नाले और कारखानों के जहरीले पदार्थ उसमें डालते हैं। इस तरह नदी को प्रदूषित करने में उसकी पवित्रता की परवाह उन्हें नहीं होती। लेकिन कोई उस नदी को साफ करने चले, तो उन्हें तुरंत नदी की पावनता की रक्षा करने की याद आ जाती है। ऐसे ही लोगों के कारण तुम्हारी किताब का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया।’’
यह उन दिनों की बात है, जब इतिहास के पठन-पाठन की दुनिया में भारी उथल-पुथल मची हुई थी। पिछली सरकार के समय इतिहास की कई पुरानी पुस्तकों का पुनर्लेखन कराया गया था और कई नयी किताबें पाठ्यक्रमों में लगायी गयी थीं। अब नयी सरकार उन पुस्तकों को पाठ्यक्रमों से निकलवा रही थी, उनकी जगह या तो पुरानी ही पुस्तकें लगवा रही थी या अपने ढंग से नयी पुस्तकें लिखवा रही थी। अनेक इतिहासकार इससे रुष्ट और क्षुब्ध थे, इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन उनका विरोध बेअसर साबित हो रहा था।
थोड़े ही दिन बाद पता चला कि पापा की शीतयुद्ध वाली पुस्तक ही नहीं, माँ की वामपंथ वाली पुस्तक भी पाठ्यक्रमों से हटा दी गयी है। पापा तो केवल यह कह कर रह गये थे कि ‘‘यह तो होना ही था’’, लेकिन माँ चिंतित हो गयी थीं, ‘‘अब क्या होगा?’’
दरअसल माँ बचपन से ही अपने अब्बू और उनके साथियों से यह सुनती आयी थीं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों पर चल कर ही देश में शांति और सद्भाव का बने रहना संभव है और मुसलमान शांति और सद्भाव के माहौल में ही सुरक्षित रह सकते हैं। इसीलिए माँ इन मूल्यों की रक्षा करना जरूरी बताने वाली कांग्रेस की प्रशंसक और कम्युनिस्ट पार्टी की समर्थक थीं। मगर अब वे देख रही थीं कि धर्मनिरपेक्षता की जगह सांप्रदायिकता बढ़ रही है। समाजवाद का गढ़ सोवियत संघ ढह गया है और पूँजीवाद इसे अपनी जीत समझ कर बगलें बजा रहा है। शांति और सद्भाव की जगह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में अशांति और वैर भाव का बोलबाला है। पहले उन्हें लगता था कि वे धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के कवच के भीतर सुरक्षित हैं, मगर अब उन्हें लगने लगा था कि वह कवच टूट गया है और वे पहले से कहीं अधिक वेध्य हो गयी हैं।
पापा उन्हें समझाते थे, ‘‘न तो हमारा देश सच्चा धर्मनिरपेक्ष देश है, न सोवियत संघ ही सच्चा समाजवादी देश था। जब तक हमारे देश में समाज को बाँटने वाली और दुनिया में मानवता को बाँटने वाली व्यवस्था कायम है, तब तक न तो सच्ची धर्मनिरपेक्षता संभव है, न सच्चा समाजवाद। इसलिए देश और दुनिया को जरूरत है एक ऐसी विश्व व्यवस्था की, जिसमें स्त्री और पुरुष, ब्राह्मण और शूद्र, हिंदू और मुसलमान, गोरा और काला जैसे भेद करके लोगों को बाँटा और बाँट कर आपस में लड़ाया न जाये। यह ऐतिहासिक जरूरत है, इसलिए दुनिया उसी विश्व व्यवस्था की तरफ जा रही है। उसके कायम होने में समय लगेगा, लेकिन एक दिन वह कायम होगी जरूर। इसलिए धीरज रखो और सोचो कि ऐसी विश्व व्यवस्था कैसे कायम की जा सकती है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं।’’
माँ को पापा की ये बातें सैद्धांतिक रूप से सही, किंतु अव्यावहारिक लगती थीं। उन्होंने एक दिन चिंतित स्वर में पापा से कहा, ‘‘सुनो, आज हमारी किताबें पाठ्यक्रमों में से निकाली गयी हैं, कल को हमें नौकरी से भी निकाला जा सकता है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मुसलमानों और कम्युनिस्टों पर कभी भी कोई कहर टूट सकता है…’’
पापा ने जरा ऊँची आवाज में कहा, ‘‘बकवास है! ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और हुआ भी, तो तब की तब देखी जायेगी। अभी से तुम क्यों परेशान हो?’’
माँ ने कहा, ‘‘अपने विभाग के ही कुछ लोग कह रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन बहुत हो चुका। वे कह रहे हैं कि अब हम वामपंथी हैं न दक्षिणपंथी, हम केवल इतिहासकार हैं और ऐसी किताबें लिखेंगे, जो दुनिया भर के बाजारों में बिकें और तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जायें। वे मुझे भी यही सलाह दे रहे हैं कि मैं भी ऐसी ही कोई पुस्तक लिखूँ और उसे भारतीय प्रकाशक से नहीं, किसी बड़े विदेशी प्रकाशक से प्रकाशित कराऊँ।’’
‘‘लेकिन यह तो वर्तमान व्यवस्था से समझौता कर लेना, अपने काम को भूल जाना और स्वयं को बाजार के हवाले कर देना हुआ।’’ पापा ने माँ को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम इतिहास के पुनर्लेखन वाले काम को ही आगे बढ़ाओ। उसमें अभी बहुत काम करने की गुंजाइश है और बहुत आगे बढ़ने की संभावनाएँ हैं। फिर यह काम पढ़ने-पढ़ाने के लिहाज से ही नहीं, देश और दुनिया को बदलने के लिहाज से भी बहुत जरूरी है। भारतीय वामपंथ पर तुम्हारा काम बहुत अच्छा है। अब तुम वैश्विक वामपंथ पर एक किताब लिखो। मैं उसमें भरसक तुम्हारी सहायता करूँगा।’’
माँ ने पापा की बात मान तो ली, मगर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुईं। पापा ने उन्हें समझाया, ‘‘देखो, इतिहासकार होना किसी विषय पर शोध करके एक नयी-सी और पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जाने लायक पुस्तक लिख लेना नहीं है। इतिहास चाहे पुराना हो या नया, एक जीवंत शक्ति के रूप में लोगों को प्रेरित और प्रभावित करता है। लेकिन यह काम अच्छा इतिहास ही कर सकता है। इसलिए ऐसा इतिहास लिखो, जो हमें अपने अतीत को जानने, वर्तमान को समझने और भविष्य को बनाने में समर्थ बनाये।’’ 
माँ ने प्रतिवाद किया, ‘‘जिसे तुम अच्छा इतिहास कह कर पढ़ते और पढ़ाते रहे हो, उसका हाल देख रहे हो? पुरानी सरकार को वह पसंद था, इसलिए पढ़ा और पढ़ाया जा रहा था। नयी सरकार उसे पाठ्यक्रमों से निकाल रही है। उसके इस कदम का विरोध हो रहा है, मगर वह परवाह नहीं कर रही है। इतिहास का पाठन-पाठन राजनीतिक लड़ाई का मैदान बन गया है। मगर होगा वही, जो नयी सरकार चाहेगी। तुम्हारे अच्छे इतिहास को पाठ्यक्रमों से निकाल कर कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा। मुझे अपनी यह नियति मंजूर नहीं।’’
पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है, जो तुम्हें मंजूर हो, वही करो।’’ मगर माँ उनसे बहस करने लगीं,  ‘‘देखो, दुनिया बदल रही है। हमें भी उसके मुताबिक बदलना चाहिए। हमें पढ़ाना तो वही इतिहास पड़ेगा, जो पाठ्यक्रम में लगा होगा। और पाठ्यक्रम में कैसी किताबें लग रही हैं, तुम देख रहे हो। मैंने तो सोच लिया है कि मैं ऐसी किताबें लिखूँगी, जो पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जायें। मैं तुम्हारी तरह आदर्शवादी नहीं हूँ। मैं किताबें लिख कर पैसा कमाना चाहती हूँ।’’
पापा ने हँसते हुए पूछा, ‘‘हम दोनों की अच्छी-खासी नौकरी है और संतान के नाम पर एक ही बेटी। हमें क्या करना है ज्यादा पैसा कमा कर?’’ माँ ने उत्तर दिया, ‘‘मैं चाहती हूँ कि दीक्षा को बाहर भेज कर पढ़ाऊँ। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए।’’ पापा ने पूछा, ‘‘दीक्षा को बाहर भेज कर ही पढ़ाना क्यों जरूरी है?’’ माँ ने कहा, ‘‘मैं चाहती हूँ कि पढ़-लिख कर वह बाहर ही कहीं बस जाये। 
माँ मेरे भविष्य को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित थीं। उन्होंने खुद तो प्रेम-विवाह किया था, लेकिन मुझे प्रेम की हवा भी नहीं लगने देना चाहती थीं। पापा का एक शोध छात्र बसंत उनसे मिलने घर आया करता था। मैं उससे उम्र में लगभग उतनी ही छोटी थी, जितनी माँ पापा से। उन दिनों मैं अपने तन और मन में हो रहे परिवर्तनों से एक ही साथ भयभीत और आनंदित रहती थी। बसंत मुझे अचानक और अकारण अच्छा लगने लगा था। उसके आते ही मैं खिल उठती थी। जितनी देर वह घर में रहता–पापा के पास बैठक में या उनकी स्टडी में–मैं किसी न किसी बहाने उसके आसपास मँडराती रहती। ऐसा अवसर न मिलता, तो कहीं छिप कर उसे दूर से ही देखती रहती और खुश होती रहती। नितांत अतार्किक ढंग से मुझे बसंत ऋतु सबसे प्रिय हो गयी थी। इतनी प्रिय कि फिल्म या टी.वी. देखते समय, कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते समय, या किसी की बातचीत में ही बसंत शब्द आ जाता, तो मैं रोमांचित हो उठती थी। अपने घर के बगीचे या स्कूल के अहाते में खिले हुए फूलों को देखती, तो मन होता कि बसंत-बसंत गाते हुए नाचने लगूँ।
माँ ने एक-दो बार टोका, एक-दो बार डाँटा, फिर एक बार प्यार से भी समझाया कि मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दूँ। मगर बसंत के प्रति मेरा आकर्षण कम ही नहीं होता था। उसके आते ही मैं माँ की सारी टोका-टाकी, डाँट-फटकार और समझाइशें-हिदायतें भूल जाती थी। खास तौर से तब, जब माँ घर में न होतीं।
एक दिन माँ घर में नहीं थीं। बसंत आया हुआ था और पापा के साथ बैठक में बैठा था। श्यामा रसोईघर में चाय बना रही थी। वह जब चाय की ट्रे ले कर रसोई घर से निकली, मैंने उसके हाथ से ट्रे ले ली और बैठक में जाने लगी। उसी समय माँ ने घर के अंदर आते हुए मुझे श्यामा के हाथ से ट्रे लेते देख लिया। उन्होंने मुझे आँखें तरेर कर देखा और कहा, ‘‘नहीं! ट्रे वापस दो श्यामा को! वही ले कर जायेगी।’’
फिर, उसी दिन, जब बसंत चला गया, उन्होंने पापा से कहा, ‘‘सुनो, लड़कों को घर मत बुलाया करो, लड़की बड़ी हो रही है।’’ पापा हँस कर बोले, ‘‘अरे भई, अभी से कहाँ बड़ी हो गयी!’’ लेकिन माँ ने तेज-तीखे स्वर में कहा, ‘‘मैंने कह दिया न! अब कोई लड़का घर में नहीं आयेगा।’’ पापा ने फिर हँसते हुए कहा, ‘‘मैंने तो तुम से कितना कहा था कि दीक्षा का एक भाई और आने दो। तुम ही अड़ गयीं कि एक ही बच्चा बहुत है। चलो, यह तुम्हारा फैसला था, तुम्हारा अधिकार था, मगर मेरे छात्र मेरे घर न आयें, यह कैसे…?’’ पापा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि माँ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘‘घर सिर्फ तुम्हारा नहीं, मेरा भी है। मेरी बेटी की भलाई किस में है, मैं तुमसे ज्यादा जानती हूँ। तुम अपने छात्रों से विभाग में मिलो या कहीं और, घर में कोई लड़का नहीं आयेगा।’’
और इसके बाद का एक दिन तो मैं कभी नहीं भूल सकती। तीसरे पहर का समय था। पापा घर पर नहीं थे। माँ अपने कमरे में थीं और मैं अपने कमरे में स्कूल से मिला होम वर्क कर रही थी। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। श्यामा ने दरवाजा खोला। माँ ने अपने कमरे से ही पूछा, ‘‘कौन है?’’ श्यामा ने उत्तर दिया, ‘‘बसंत भैया।’’ यह सुनते ही मैंने अपनी किताब-कापी परे फेंकी और दौड़ी। मगर मैं अपने कमरे के दरवाजे पर ही पहुँची थी कि देखा, माँ घर के मुख्य दरवाजे पर पहले ही पहुँच चुकी हैं और बाहर खड़े बसंत से कह रही हैं, ‘‘उनसे विभाग में ही मिला करो, यहाँ मत आया करो।’’ माँ का यह कहना और भड़ाक् से दरवाजा अंदर से बंद कर लेना मुझे आज तक ऐसे याद है, जैसे बसंत की जगह मैं ही दरवाजे के बाहर खड़ी थी और माँ ने मेरे ही मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था।
उस दिन माँ ने जो बात कही थी, और जिस स्वर में कही थी, मैं कभी नहीं भूल सकती। उन्होंने कहा था, ‘‘पहले पढ़-लिख कर कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने तुम्हारा क्या होगा!’’
माँ चाहती थीं कि मुझे अमरीका भेज कर पढ़ायें, लेकिन पापा ने मना कर दिया। कहा, ‘‘हमारी एक ही संतान है। उसे भी हम खुद से अलग करके दूर भेज देंगे, तो यहाँ किसका मुँह देख कर जियेंगे? नहीं, दीक्षा यहीं रह कर पढ़ेगी।’’
माँ किसी तरह मान गयीं। लेकिन मेरे भविष्य को लेकर चिंतित बनी रहीं। वे चाहती थीं कि मैं इतिहास में ही एम.ए., पी-एच.डी. करूँ और उनकी तरह इतिहास की प्रोफेसर बनूँ। उनका विचार था कि सुरक्षित जीवन जीने के लिए स्थायी नौकरी जरूरी है और माता-पिता दोनों इतिहास वाले हैं, इसलिए इतिहास पढ़ने पर मुझे नौकरी मिलने में सुविधा होगी। मगर मैंने कहा, ‘‘आजकल स्थायी नौकरी में जिंदगी भर सड़ना कौन चाहता है? मैं तो एम.बी.ए. करूँगी और प्राइवेट सेक्टर में काम करूँगी, जहाँ आगे बढ़ने के मौके ही मौके हैं।’’
मेरा यह फैसला सामान्य स्थिति में शायद उन्हें स्वीकार्य न होता, लेकिन उन दिनों हमारे घर में स्थितियाँ असामान्य बनी हुई थीं। माँ और पापा दो भिन्न और विपरीत दिशाओं में जा रहे थे।
माँ कहतीं, ‘‘तुम्हारे साथ के तमाम लोग विजिटिंग प्रोफेसर होकर विदेश जाते हैं, तुम क्यों नहीं जाते?’’ पापा कहते, ‘‘उन्हें वहाँ जाना जरूरी लगता होगा, मुझे नहीं लगता।’’ माँ पूछतीं, ‘‘क्यों?’’ पापा उत्तर देते, ‘‘हर किसी की अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं।’’ माँ कटाक्ष करतीं, ‘‘तुम्हारी प्राथमिकता कुएँ का मेंढक बने रहना है?’’ पापा गंभीरता से उत्तर देते, ‘‘किताबें कुआँ नहीं होतीं और उनमें डूब कर कहीं भी जाया जा सकता है। आज की ही नहीं, कल की और आने वाले कल की दुनिया में भी।’’ माँ झुँझलाकर कहतीं, ‘‘तुम तनिक भी महत्त्वाकांक्षी नहीं हो। क्यों नहीं हो?’’ पापा मुस्कराते हुए कहते, ‘‘महत्त्वाकांक्षा एक प्रकार की गुलामी है। उन लोगों की गुलामी, जो आपको महत्त्व देते हैं या दे सकते हैं। फिर, महत्त्वाकांक्षा एक दौड़ की होड़ है, जिसमें आगे निकलने के लिए आप निहायत गैर-जरूरी समझौते करते हैं, निरर्थक लड़ाइयाँ लड़ते हैं और फिर भी कभी नि¯श्चत नहीं रह पाते कि आप आगे निकल ही जायेंगे; जहाँ पहुँचना चाहते हैं, पहुँच ही जायेंगे; जो पाना चाहते हैं, पा ही लेंगे!’’
माँ कहतीं, ‘‘तुम कुछ भी कहो, जिंदगी एक दौड़ की होड़ ही है। जो आगे निकल जाते हैं, वे ही इतिहासों में जाते हैं।’’ पापा कहते, ‘‘वे इतिहास ही गलत होते हैं, जिनमें वे जाते हैं।’’ माँ तीखे स्वर में कहतीं, ‘‘मतलब, महान लोग महान नहीं होते?’’ पापा हँसकर कहते, ‘‘नहीं, महान लोग तो महान होते हैं, लेकिन यह देखो कि वे किस प्रक्रिया में महान बनते हैं। किसी को महान बताने के लिए कहा जाता है कि वह तो लाखों में एक है। यानी वह लाखों को पीछे छोड़ कर अकेला महान बना। इतिहास ने उसे अपने अंदर रख लिया और बाकी लाखों को बाहर छोड़ दिया। क्या कोई इतिहासकार दावे से कह सकता है कि वे लाखों लोग महान नहीं थे या अनुकूल परिस्थितियों में महान नहीं बन सकते थे?’’
पापा की ऐसी बातें सुन माँ उन्हें पागल समझती थीं, लेकिन सभ्य भाषा में स्वयं को यथार्थवादी और पापा को आदर्शवादी कहती थीं। माँ के विचार से वे हमेशा कोई न कोई आदर्शवादी पागलपन करते रहते थे। माँ इसके तीन उदाहरण दिया करती थीं: 
पहला: पापा ने जब पढ़ाना शुरू किया था, इतिहास की अच्छी किताबें हिंदी में बहुत कम होती थीं, जबकि उनके छात्र ज्यादातर हिंदी माध्यम वाले होते थे, जिनके लिए अंग्रेजी की महँगी किताबें खरीदना और फिर उन्हें पढ़ना-समझना मुश्किल होता था। यह देखकर पापा ने हिंदी में नोट्स बना कर छात्रों में बाँटना शुरू किया और बाद में उन्हीं नोट्स के आधार पर हिंदी में इतिहास की पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं। उनकी पुस्तकें खूब छपीं और खूब बिकीं, लेकिन पापा ने उनसे एक पैसा नहीं कमाया। वे प्रकाशकों से कह देते थे, ‘‘मुझे रॉयल्टी मत दो, पर किताब की कीमत कम रखो, जिससे गरीब छात्रों को किताब खरीदने में आसानी हो।’’
दूसरा : पापा ने भारतीय विश्वविद्यालयों में इतिहास की उच्च शिक्षा अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं में ही दिये जाने की माँग की और इसके लिए एक आंदोलन चलाया। जब यह आपत्ति की गयी कि भारतीय भाषाओं में इस काम के लिए अच्छी पुस्तकें ही नहीं हैं, तो पापा ने देश भर में घूम-घूम कर इतिहास के शिक्षकों को अपनी-अपनी भाषा में उच्चस्तरीय पुस्तकें लिखने और दूसरी भाषाओं से अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया। जब देखा कि एक व्यक्ति पूरी पुस्तक लिखने में असमर्थ है, तो ऐसे लोगों से उन्होंने लेख लिखवाये और उनके संकलन स्वयं संपादित करके प्रकाशित कराये। इस प्रकार जो पुस्तकें तैयार हुईं, उनकी रॉयल्टी उन्होंने संकलित लेखों के लेखकों में बाँट दी, स्वयं एक पैसा नहीं लिया। आज वे पुस्तकें भारत के ही नहीं, कई दूसरे देशों के विश्वविद्यालयों में भी पढ़ायी जाती हैं।
तीसरा: पापा ने जब भारतीय भाषाओं में इतिहास की शिक्षा के लिए आंदोलन चलाया था, उनका ध्यान इस बात पर गया कि इतिहास के क्षेत्र में होने वाला शोध कार्य अधिकतर अंग्रेजी में और अंग्रेजी में उपलब्ध स्रोत सामग्री के आधार पर ही होता है। मूल स्रोतों तक जाने की न तो जरूरत समझी जाती है और न उनको पढ़ने-समझने की क्षमता ही लोगों में है। मसलन, प्राचीन भारत का इतिहास लिखने वाले वेद, पुराण, उपनिषद् आदि मूल में नहीं, अंग्रेजी अनुवादों में ही पढ़ते हैं। संस्कृत में लिखा वे पढ़-समझ नहीं सकते। प्राकृतों और अपभ्रंशों के बारे में तो वे कुछ जानते ही नहीं हैं। इसी तरह मध्यकालीन भारत का इतिहास लिखने वाले अरबी-फारसी नहीं जानते और आधुनिक भारत का इतिहास लिखने वाले भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य को, खास तौर से बोलियों में उपलब्ध लोक साहित्य को इतिहास-लेखन की स्रोत सामग्री नहीं मानते। पापा ने इसके लिए इतिहास के पाठ्यक्रमों में परिवर्तन के साथ-साथ शोध की प्रणाली में भी परिवर्तन की माँग उठायी।
माँ को पापा की यह माँग पागलपन की पराकाष्ठा प्रतीत हुई। उन्होंने पापा को समझाया, ‘‘अब तक तुमने जो पागलपन किये, खुद को और अपने परिवार को नुकसान पहुँचा कर किये, इसलिए उनमें तुम किसी हद तक कामयाब हो गये। मगर यह तो दूसरों को भी नुकसान पहुँचाने वाला पागलपन है। क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि इतिहास के क्षेत्र में नीचे से ऊपर तक सब लोग तुम्हारे खिलाफ हो चुके हैं? इतिहास की शिक्षा अंग्रेजी में ही दिया जाना जारी रखना चाहने वाले लोग तो पहले ही तुम्हारे विरोधी बन चुके थे–और तुम जानते हो कि वे सब बड़े लोग हैं, ताकतवर लोग हैं, इसलिए उनके पीछे बहुत बड़ी जमात है, बल्कि पूरी एक लॉबी है, और फिर सरकार उनकी मुट्ठी में है, पूरी शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित करने वाले लोग हैं वे–अब तुम्हारी इस माँग से तो बचे-खुचे लोग भी तुमसे नाराज हैं। यह माँग इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वाले और शोध करने-कराने वाले सभी लोगों पर एक ऐसा बोझ डालने की कोशिश है, जिसे वे कभी नहीं उठाना चाहेंगे।’’
मगर पापा पर जो धुन सवार हो जाती थी, उसे वे लाख समझाये जाने पर भी छोड़ते नहीं थे। पहले दो आंदोलनों में उन्हें जो सफलता मिली थी, उसके अनुभव से वे उत्साहित थे और सोचते थे कि इस बार भी सफल होंगे। पहले के दोनों आंदोलनों में वामपंथी इतिहासकारों, शिक्षकों और छात्रों ने उनका साथ दिया था। मगर इस बार पापा ने पाया कि उनका साथ देने वाला कोई नहीं है। यहाँ तक कि उनकी पत्नी प्रोफेसर समीरा खान भी नहीं!
एक दिन पापा से उन्होंने कहा, ‘‘तुम इतने प्रतिभाशाली और परिश्रमी हो कर भी गुमनामी के रास्ते पर क्यों जा रहे हो? तुम्हारे साथ के लोग, यहाँ तक कि तुम्हारे बाद के लोग भी, तुम्हारी तुलना में बहुत कम और बहुत घटिया किस्म का काम करके भी तुम से आगे निकलते जा रहे हैं…’’
‘‘वे दौड़ में हैं, भाई! उन्हें दौड़ना आता है!’’ पापा ने व्यंग्यपूर्वक कहा।
माँ व्यंग्य नहीं समझीं। बोलीं, ‘‘तुम समझते हो कि वे सब लकीर के फकीर हैं? समझौतापरस्त हैं? तिकड़मबाज हैं? मगर ऐसा नहीं है। सारी दुनिया इस दौड़ में शामिल है। हर किसी को दूसरों से आगे निकलना है। इसका तरीका भी सबको मालूम है–काम के लोगों से हमेशा संबंध बनाये रखो। ऊपर वालों को माई-बाप, बराबर वालों को यार-दोस्त और छोटों को चेला-चाँटी बना कर अपनी ताकत बढ़ाओ और प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़कर आगे निकल जाओ!’’
‘‘तो समझ लो कि मैं इस दौड़ से बाहर हूँ और बाहर ही खुश हूँ।’’ पापा ने कहा और माँ के सामने से उठ कर अपनी स्टडी में चले गये।
पापा बिलकुल अकेले पड़ गये थे। लोग उन्हें सचमुच पागल समझने लगे थे। अकेले अपना आंदोलन तो वे क्या चला पाते, इतिहासकारों और इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों की बिरादरी ने भी उन्हें काट कर अलग कर दिया था। विदेश यात्राओं पर जाने, सरकारी समितियों में रहने और गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़ कर उनके लिए काम करने से तो वे पहले से ही इनकार करते आ रहे थे, लेकिन इतिहास से संबंधित सेमिनारों और सम्मेलनों में उत्साहपूर्वक भाग लेते आ रहे थे। अब वहाँ के बुलावे आने भी बंद हो गये। 

उधर माँ पर एक और ही धुन सवार थी–विजिटिंग प्रोफेसर बन कर कहीं बाहर जाना है और वाम-दक्षिण का विचार छोड़ कर एक ऐसी किताब लिखनी है, जो उन्हें विश्वविख्यात इतिहासकार बना दे। इसलिए वे बड़ी मेहनत से अपनी नयी किताब दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनियालिख रही थीं और बाहर जाने के लिए प्रयास कर रही थीं।
अंततः वे विजिटिंग प्रोफेसर बन कर तीन साल के लिए पोलैंड चली गयीं। उनकी पुस्तक दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनियापूरी हो चुकी थी। उसकी पांडुलिपि वे अपने साथ ही ले गयीं। उन्हें अपने मित्रों और शुभचिंतकों की सलाह याद थी कि पुस्तक को पश्चिम के किसी बड़े प्रकाशक से प्रकाशित कराना है।
जाने से पहले माँ ने पापा से कहा था, ‘‘वैसे तुम हमेशा अपने ही मन की करते हो, मगर इस बार मेरी एक बात मान लो। मैं तीन साल बाहर रहूँगी। इस बीच दीक्षा का खास खयाल तुमको रखना है। हो सके, तो तीन साल की स्टडी लीव ले लो और आंदोलन-फांदोलन छोड़ कर घर बैठो, अपना पढ़ो-लिखो। भूमंडलीकरण के इतिहास वाली जो किताब तुम लिखना चाहते हो, उसे शांति से बैठ कर लिख डालो। जब तक मैं लौटूँगी, दीक्षा एम.बी.ए. कर चुकी होगी और तुम्हारी किताब पूरी हो चुकी होगी।’’
और आश्चर्य, इस बार पापा ने माँ की बात तनिक भी ना-नुकुर किये बिना मान ली। वे तीन साल की छुट्टी लेकर अपनी नयी किताब लिखने और मेरी देखभाल करने में व्यस्त हो गये।
माँ का घर-परिवार से अलग एक दूसरे देश में अकेले रहने का यह पहला अनुभव था। लेकिन अकेलेपन और अजनबीपन की जगह उन्हें ऐसा लगा, जैसे वे पापा से दूर जाकर उनके और ज्यादा निकट हो गयी हैं। दिन में कई-कई बार फोन करतीं। कभी पापा को, कभी मुझे। कभी दोनों को एक साथ। अकेले में पापा से मेरे बारे में पूछतीं और मेरा ध्यान रखने के लिए कहतीं। मुझसे पापा के बारे में पूछतीं और पापा का ध्यान रखने के लिए कहतीं। जब दोनों से एक साथ बात करतीं, तो फोन करते ही स्पीकर ऑन करने के लिए कहतीं और वहाँ के अपने अनुभव सुनातीं।
एक दिन उन्होंने अपने अध्यापन का अनुभव बताते हुए कहा, ‘‘शीत युद्ध खत्म नहीं हुआ। वह जारी है और यहाँ बड़े विचित्र रूप में जारी है। ज्यों ही मैं कक्षा में किसी मुद्दे पर बोलना शुरू करती हूँ, मेरे छात्र मानो दो खेमों में बँट जाते हैं–एक पूँजीवादी खेमा, एक समाजवादी खेमा। लेकिन विचित्र बात यह है कि पूँजीवाद के पक्षधरों को आज का पूँजीवाद पसंद नहीं है और समाजवाद के पक्षधरों को बीते कल का समाजवाद। दोनों को एक-दूसरे के पक्ष से शिकायत है, लेकिन अपने पक्ष से भी भारी शिकायतें हैं। मैं उनसे पूछती हूँ कि तुम्हारी शिकायतें कैसे दूर हो सकती हैं, तो दोनों ही पक्ष भविष्य की बात करने लगते हैं। जो है’, उसकी आलोचना करने लगते हैं और जो होना चाहिएउसकी आकांक्षा व्यक्त करने लगते हैं। सबसे विचित्र बात यह है कि वे अपनी समस्याओं के समाधान अपने देश के शिक्षकों से नहीं, मुझसे माँगते हैं और कुछ इस अंदाज में माँगते हैं, मानो मैं बुद्ध की वंशज और गांधी की रिश्तेदार हूँ!’’
फिर एक दिन उन्होंने बताया कि वे पढ़ाती और रहती तो वारसा में हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न यूरोपीय विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए बुलाया जाता है। वहाँ के अखबारों और टी.वी. चैनलों के लिए भी वे एक महत्त्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार बन गयी हैं। वहाँ के लोग उनसे भारतीय इतिहास के बारे में ही नहीं, भारत के वर्तमान और भविष्य के बारे में भी तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं, जिनसे पता चलता है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के बारे में उनके अंदर कितनी प्रबल रुचि और जिज्ञासा है।
एक दिन उन्होंने यह भी बताया कि यूरोपीय देशों में उनके कई मित्र बन गये हैं, जो उनसे मिलने आते हैं और उन्हें अपने यहाँ बुलाते हैं। उनसे तरह-तरह की बातें और बहसें होती हैं और पता चलता है कि उनके दिमागों में भारत के बारे में बहुत-सी गलत और बेबुनियाद बातें भरी हुई हैं। इसके लिए इतिहास की वे पुस्तकें जिम्मेदार हैं, जो उनके देशों के इतिहासकारों ने ही नहीं, स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने भी लिखी हैं। ऐसी ही एक चर्चा के दौरान माँ को पता चला कि पापा की शीत युद्ध वाली पुस्तक से ही नहीं, राष्ट्र और राष्ट्रवाद वाली नयी पुस्तक से भी वे लोग परिचित हैं और पापा के बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं।
पापा ने एक दिन माँ से पूछा, ‘‘तुम जो किताब यहाँ से लिख कर ले गयी थीं, उसके प्रकाशन का क्या हुआ?’’ माँ ने कहा, ‘‘यहाँ के अनुभवों की रोशनी में मैंने उस पांडुलिपि को पढ़ा, तो मुझे बड़ी शर्म आयी। मैंने अमरीकी या यूरोपीय दृष्टि से लिखे जाने वाले इतिहासों की तर्ज पर दुनिया का इतिहास लिखा था और यह सोच कर लिखा था कि इसके प्रकाशित होने पर मैं इतिहास की दुनिया में छा जाऊँगी, लेकिन यहाँ आ कर मुझे लगा कि दुनिया का इतिहास भविष्य की उस दुनिया को ध्यान में रख कर लिखना पड़ेगा, जो बननी चाहिए, बनायी जा सकती है और किसी हद तक बन भी रही है। और अचानक मैंने पाया कि यह तो मैं ठीक तुम्हारी तरह सोच रही हूँ और मुझे तुम पर ऐसा प्यार उमड़ा कि बता नहीं सकती।’’ पापा ने पूछा, ‘‘तो क्या किया उस पांडुलिपि का?’’ माँ ने कहा, ‘‘और क्या करती? फिर से लिख रही हूँ। किताब का नाम तो यही रखूँगी, लेकिन बाकी सब बदल दूँगी।’’
पापा ने कुछ ऐसे भाव से ‘‘शाबाश!’’ कहा, जैसे वे अपनी पत्नी से नहीं, शिष्या से कह रहे हों। उधर से माँ ने कहा, ‘‘हम तो घर के जोगी को जोगना ही समझते रहे, आन गाँव आकर पता चला कि वह तो सिद्ध है! सो, हे सिद्ध पुरुष, आप किसी दौड़ की होड़ में नहीं हैं, तो यही आपके लिए और हम सबके लिए ठीक है।’’
माँ में आया यह बदलाव पापा को ही नहीं, मुझे भी बहुत अच्छा लगा।
इधर पापा के और मेरे जीवन में भी नये बदलाव हो रहे थे। मैं एम.बी.ए. करते ही दवाइयाँ बनाने और बेचने वाली एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव के रूप में काम करने लगी थी और बहुत व्यस्त रहती थी। पापा की भूमंडलीकरण का इतिहासवाली पुस्तक पूरी हो चुकी थी। उसे अपने लंदन वाले प्रकाशक के पास भेज कर वे खाली-खाली महसूस कर रहे थे। अकेले घर में पड़े रहने के बजाय उन्होंने बाहर निकलना शुरू कर दिया था। घर पर भी लोग उनसे मिलने आने लगे थे, जिनमें इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग ही नहीं, कई विभिन्न प्रकार के लोग भी होते थे–लेखक, पत्रकार, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता आदि। मैं आम तौर पर व्यस्त रहती थी, लेकिन फुर्सत में होती, तो मैं भी उनके साथ होने वाली बातों-बहसों में शामिल हो जाती।
माँ साल में एक बार छुट्टियों में पोलैंड से आती थीं और जब तक रहतीं, मुझे खूब प्यार करतीं। उनके विचार से अब मैं बड़ी यानी प्रेम और विवाह करने लायक हो गयी थी। वे बातों-बातों में टोह लेने की कोशिश करतीं कि क्या मेरा कोई प्रेम-प्रसंग चल रहा है। मैं इनकार करती, तो वे उदारतापूर्वक कहतीं, ‘‘अब या तो तुम खुद ही कोई लड़का ढूँढ़ लो, या हमें बता दो कि हम ढूँढ़ें।’’
लेकिन पापा मेरी नौकरी के कारण चिंतित थे। एक बार मुझे कंपनी के काम से सिंगापुर जाना पड़ा। लौटी, तो फ्लाइट लेट हो जाने की वजह से रात के बारह बजे की जगह सुबह छह बजे घर पहुँची। सर्वेंट क्वार्टर में अपने पति और बच्चों के साथ रहने वाली श्यामा को सात बजे आना था और सुबह जल्दी उठ जाने वाले पापा अपने लिए चाय बना रहे थे। जब तक मैं हाथ-मुँह धो कर आयी, वे बाहर लॉन में चाय ले कर पहुँच चुके थे। सुबह अभी पूरी तरह हुई नहीं थी, लेकिन उजाला होने लगा था। पापा बेंत की मेज के इर्द-गिर्द रखी बेंत की ही तीन कुर्सियों में से एक पर बैठे अभी-अभी आया अखबार देख रहे थे। मैं सामने आकर बैठी, तो अखबार उन्होंने खाली कुर्सी पर रख दिया और चाय बनाने लगे। हाल-चाल पूछ कर उन्होंने एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया और अपने प्याले में चीनी घोलते हुए बोले, ‘‘आज के अखबार में तुम्हारी कंपनी के बारे में छपा है कि उसकी चालीस प्रतिशत दवाइयाँ, जो तीसरी दुनिया के देशों में धड़ल्ले से बेची जाती हैं, स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और इसीलिए अमरीका में, जहाँ की यह कंपनी है, प्रतिबंधित हैं।’’
दिन-रात अपनी कंपनी का गुणगान करके उसकी दवाइयों की मार्केटिंग करने वाली मैं हैरान रह गयी, ‘‘अच्छा? मुझे नहीं पता।’’ पापा ने पूछा, ‘‘तो अब?’’ मैं नासमझ-सी बोली, ‘‘अब?’’ पापा ने फिर पूछा, ‘‘तुम इन्हीं दवाइयों की मार्केटिंग करती हो न?’’ अब मैं उनका अभिप्राय समझी और मैंने कहा, ‘‘हाँ, लेकिन मैं इसमें क्या कर सकती हूँ? मैं कंपनी में नौकरी करती हूँ। उसे यह बताना मेरा काम नहीं है कि वह कौन-सी दवाइयाँ बनाये, उन्हें कहाँ बेचे और कहाँ न बेचे। बताऊँ भी, तो क्या वह मेरी सुनेगी? उलटे, मुझे नौकरी से निकाल देगी।’’ पापा ने एक तीखी नजर मुझ पर डाली और कहा, ‘‘कंपनी दवा के नाम पर जहर बेचेगी, तो तुम अपनी नौकरी की खातिर जहर बेचती रहोगी?’’ मैं बौखला कर बोली, ‘‘तो क्या करूँ? नौकरी छोड़ दूँ?’’
पापा ने शांत स्वर में मुझे समझाते हुए कहा, ‘‘मैं नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैं इस बात पर विचार करने के लिए कह रहा हूँ कि हम जो कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। किसलिए कर रहे हैं? किसके लिए कर रहे हैं? हम दवाइयों के नाम पर जहर बेच कर लोगों को मारते हैं। मिठाइयों के नाम पर जहर बेच कर लोगों को मारते हैं। शांति और सुरक्षा के नाम पर हथियार बेच कर लोगों को मारते हैं। प्रगति और विकास के नाम पर जलवायु का प्रदूषण और पृथ्वी का तापमान बढ़ा कर लोगों को मारते हैं। लेकिन सोचते नहीं कि हम क्या कर रहे हैं। या सोचते हैं, तो सिर्फ यह कि इसमें हमारा क्या दोष, हम तो अपनी नौकरी कर रहे हैं!’’
‘‘ये बातें मेरे मन में भी आती हैं, पापा, लेकिन…’’ मैंने कहा, तो पापा बीच में ही बोल उठे, ‘‘बस। इतना ही काफी है कि ये बातें तुम्हारे मन में आती हैं।’’ उस बात को वहीं समाप्त कर के उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘थकी हुई आयी हो, चाय पियो और आराम करो।’’
लेकिन मेरे लिए आराम कहाँ था?
उन दिनों मैं अपने साथ काम करने वाले एक लड़के मयंक से प्रेम करने लगी थी। लेकिन वह कुछ अजीब किस्म का प्रेम था। मयंक उस उपभोगवादी और महत्त्वाकांक्षी मध्य वर्ग का युवक था, जिसके लिए उसका करियर, अतिसमृद्ध लोगों का-सा जीवन, कोठी-कार-नौकर-चाकर वाला रहन-सहन, परिवार की प्रत्येक इच्छा, जिद और जरूरत पूरी करने लायक धन और उसे कमाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर सकने वाला सदा स्वस्थ तन ही प्राथमिक और जरूरी था। शेष सब दोयम-सोयम दरजे का या गैर-जरूरी।
पुस्तकें पढ़ना, फिल्में देखना, संगीत सुनना, माता-पिता के साथ बैठ कर बातें-बहसें करना, उनके साथ सैर-सपाटे के लिए हर साल यात्राओं पर जा कर ऐतिहासिक स्थलों को देखना, उनकी अचल-सचल फोटोग्राफी करना, फिर घर लौट कर उन जगहों के बारे में किताबें और नेट खँगालना–जो मेरा अब तक का जीवन, शौक और मुख्य मनोरंजन था–मयंक के लिए बेमानी था। राजनीति में तो उसे रत्ती भर रुचि नहीं थी, जबकि मेरे परिवार में जब तक ताजा समाचारों के आधार पर माता-पिता के बीच थोड़ी राजनीतिक नोक-झोंक न हो ले, उनका खाना ही हजम नहीं होता था। मैं मयंक से जब कोई राजनीतिक चर्चा करना चाहती, वह मुझे झिड़क देता, ‘‘राजनीति जैसी गंदी चीज में तुम्हारी इतनी रुचि क्यों है? मुझे तो राजनीति और राजनीतिक लोगों से सख्त नफरत है। लोकतंत्र ने इस देश के विकास को रोक रखा है। इस देश को तो एक तानाशाह चाहिए।’’
मुझे मयंक के विचार पसंद नहीं थे, लेकिन मैं सोचती थी कि शादी के बाद मयंक को सही रास्ते पर ले आऊँगी। मैं अपने माता-पिता के प्रेम-विवाह के उदाहरण से और देखी हुई फिल्मों, सुनी हुई कहानियों और पढ़ी हुई किताबों के आधार पर यह मान कर चल रही थी कि प्रेम की परिणति प्रेम-विवाह में होती है। लेकिन मयंक मुझे पुरानी और नयी पीढ़ी का अंतर बताया करता था, ‘‘देखो, हमारे माता-पिता बीसवीं सदी की स्थानीय पीढ़ी के लोग थे, जबकि हम इक्कीसवीं सदी की भूमंडलीय पीढ़ी के युवा हैं। हमारे माता-पिता स्थायित्व वाला जीवन जीने वाले लोग थे, जबकि हम अस्थायित्व को ही अपना जीवन मान कर चलते हैं। हमारे माता-पिता के लिए एक नौकरी, एक शादी, एक रुचि, एक राजनीति पूरा जीवन गुजार देने के लिए काफी होती थी। लेकिन हमारे लिए ऐसी सब चीजें, जो हमें कहीं बाँध कर रख दें, पैरों की बेड़ियाँ हैं, जिनको हमें तोड़ना ही है।’’
मुझे क्या मालूम था कि वह मुझे भी अपने पैरों की बेड़ी मानता है!
एक दिन मुझे पता चला कि अपनी लापरवाही से मैं गर्भवती हो गयी हूँ। मैं बेहद चिंतित और भयभीत हो गयी। पापा को पता चला, तो क्या होगा? और माँ जब सुनेंगी? मुझे बरसों पहले कहे गये उनके शब्द याद हो आये–‘‘पहले कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने, तुम्हारा क्या होगा!’’
अगले दिन जब पापा घर पर नहीं थे और श्यामा दोपहर की छुट्टी में अपने क्वार्टर में थी, मैंने फोन करके मयंक को बुलाया। वह शायद फुर्सत में था, तुरंत चला आया। मैंने उसे बताया कि मैं गर्भवती हो गयी हूँ, तो वह लापरवाही से बोला, ‘‘दिक्कत क्या है? एबॉर्शन करा ले!’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, बच्चा अभी मैं भी नहीं चाहती, लेकिन मुझे इसका प्रमाण चाहिए कि प्रेम के नाम पर तू मेरा शोषण नहीं कर रहा था।’’ वह बौखला  कर बोला, ‘‘क्या प्रमाण चाहती है?’’ मैंने कहा, ‘‘शादी।’’ वह भड़क उठा, ‘‘शादी? और तुझसे?’’ मुझे उसका यह कहना बड़ा अपमानजनक लगा। मैंने कहा, ‘‘क्यों? तू मुझ से प्रेम नहीं करता?’’ वह बोला, ‘‘प्रेम? सेक्स की बात कर। सेक्स के लिए तू ठीक है, अच्छी है, लेकिन यह तूने कैसे सोच लिया कि मैं एक मुसल्ली की लड़की से शादी करूँगा?’’ मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं उसे मारने के लिए झपटी। अगर उसकी गर्दन मेरे हाथों में आ जाती, तो मैं उसे सचमुच जान से मार देती। लेकिन वह डर गया। उठ कर तेजी से मेरे कमरे से और दौड़ कर घर के मुख्य दरवाजे से बाहर हो गया। मैं उसके पीछे दौड़ी, लेकिन वह जा चुका था। मैंने मुख्य दरवाजा वैसे ही भड़ाक् से बंद किया था, जैसे कभी माँ ने बसंत के लिए किया था। वापस अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी और फूट-फूट कर रोने लगी। पता नहीं, कब तक रोती रही। श्यामा ने आ कर मुझे सँभाला और जैसे वह पहले से ही सब कुछ जानती हो, मुझे छाती से लगा कर बड़ी देर तक चुप कराती रही।
मैं चुप हुई, तो मुझे गुस्सा चढ़ आया। मैंने श्यामा से कहा, ‘‘मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूँगी।’’ श्यामा ने मुझे अपने से सटा कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि चुपचाप गर्भपात करा देना और इस कांड को भूल जाना ही ठीक होगा। उसने कहा, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’
पापा के आने पर मैं उनसे लिपट कर एक बार फिर रोयी और संक्षेप में पूरी बात बताकर कहा, ‘‘मयंक ने मुझे धोखा देने के साथ-साथ मेरा जो अपमान किया है, मैं उसका बदला ले कर उसे सबक सिखाना चाहती हूँ।’’ पापा ने पूछा, ‘‘कैसे? उसके घर जाकर उसके माता-पिता से या थाने जा कर पुलिस से उसकी शिकायत करोगी? या गुंडे भेज कर उसे पिटवाओगी? या कोई उपदेशक भेज कर उसे नैतिक उपदेशों से सुधरवाओगी? अच्छा, मान लो, इनमें से किसी भी तरीके से वह सुधर कर तुमसे शादी करने को तैयार हो जाये, तो क्या तुम उसे क्षमा करके उससे शादी कर लोगी? शादी कर के भी क्या उसके द्वारा दिये गये धोखे और किये गये अपमान को भूल सकोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’ तो पापा बोले, ‘‘तो इसे किसी दुर्घटना में लगी चोट समझो, मरहम-पट्टी कराओ और स्वस्थ हो कर चोट को भूल जाओ।’’ मुझे श्यामा की बात याद आयी, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’ और मैंने पापा से कहा कि वे मुझे तुरंत किसी नर्सिंग होम में ले चलें, मुझे आज और अभी गर्भपात कराना है।
लेकिन गर्भपात कराने के बाद मैं कुछ समय के लिए अवसादग्रस्त हो गयी थी। मानो जीने की इच्छा ही मर गयी हो। मैंने नौकरी छोड़ दी और घर में ही पड़ी रहने लगी। न कहीं आती-जाती, न कुछ पढ़ती-लिखती। न टी.वी. देखती, न कंप्यूटर पर बैठती। न किसी को फोन करती, न किसी से चैट। अपना मोबाइल हमेशा बंद रखती और लैंडलाइन की घंटी बजती, तो बजने देती। पापा दिन-रात मेरी देखभाल करते। कुछ मनोचिकित्सक के बताये हुए तरीकों से और कुछ अपने द्वारा आविष्कृत उपायों से वे मुझे तन-मन से स्वस्थ बनाने में लगे रहते। माँ को दुख होगा और गुस्सा आयेगा, यह सोच कर माँ को न उन्होंने कुछ बताया, न मुझे ही बताने दिया।
लेकिन अगली बार छुट्टियों में माँ पोलैंड से आयीं, तो मैंने उन्हें संक्षेप में सब कुछ बता दिया। तनिक भी भावुक हुए बिना, नितांत तथ्यात्मक ढंग से, जैसे मैं अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में बता रही थी। और आश्चर्य, माँ ने भी कोई आवेश या आवेग व्यक्त नहीं किया। बस, मुझे अपने से सटाया, मेरा सिर अपने कंधे पर रख कर सहलाया और प्यार से कहा, ‘‘अच्छा ही हुआ कि पहले ही उसका नकाब उतर गया। शादी के बाद उतरता, तो बहुत बुरा होता।’’
मगर माँ के प्रयासों के बाद भी मेरी हँसी-खुशी नहीं लौटी। उनके वापस चले जाने के बाद तो मेरा अवसाद और बढ़ गया। पापा पहले की तरह मेरा मानसिक उपचार करने में लग गये।
एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘मैं एक नयी किताब लिखना शुरू कर रहा हूँ। उसके लेखन में तुम मेरी सहायता करोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं? कैसे?’’ तो बोले, ‘‘कल रात मैंने सोचा, यह किताब मैं किसके लिए लिख रहा हूँ? बूढ़ों के लिए तो नहीं न! अगर आज की और आने वाली पीढ़ियों के लिए लिख रहा हूँ, तो क्या मुझे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि आज की नयी पीढ़ी मेरे लिखे हुए के बारे में क्या सोचती है? फिर मैंने अपने-आप से कहा–संयोग से आजकल नयी पीढ़ी की एक प्रतिनिधि घर में है और फुर्सत में है। उसे पढ़ कर सुनाओ कि तुम क्या लिख रहे हो और उससे पूछो कि वह तुम्हारे लिखे के बारे में क्या सोचती है। इससे तुम दोनों को लाभ होगा।’’
मुझे नहीं मालूम कि पापा को क्या लाभ हुआ, मगर मुझे सचमुच हुआ। शुरू-शुरू में अनमनेपन से, और यह समझने के कारण कि पापा मुझे मेरे अवसाद से उबारने का जतन कर रहे हैं, कुछ खीझ और विरोध भाव के साथ मैं चुपचाप लेटी हुई सुनती रहती। अपनी तरफ से कुछ न कहती। पापा के पूछने पर भी अपनी कोई राय व्यक्त न करती। लेकिन धीरे-धीरे उनके द्वारा लिखे जा रहे एक नये ढंग के इतिहास में मेरी रुचि जागने लगी। मैं उनसे पूछने लगी कि वे जो लिख रहे हैं, उसे ठीक-ठीक समझने के लिए मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए। पापा अपने निजी पुस्तकालय से पुस्तकें निकाल कर देते और मैं उन्हें पढ़ती रहती। लेटे-लेटे पढ़ने से थक जाती, तो बैठ कर पढ़ने लगती। कभी लिखने-पढ़ने की मेज पर, कभी सोफे या दीवान पर, कभी बाहर लॉन में बैठ कर।
घर के सामने वाले लॉन में माली ने तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा रखे थे। उतरती सर्दियों की सुहावनी धूप में मखमली हरी घास पर फूलों की क्यारियों के पास बैठकर पढ़ते हुए मैं अक्सर सोचने लगती कि मैं जो नौकरी कर रही थी, वह तो निपट गुलामी थी। ऐसी गुलामी, जिसने मुझसे सारी आजादियाँ छीन ली थीं। जैसे छुट्टी के दिन देर तक सोये पड़े रहने की आजादी। माता-पिता के साथ बैठ कर मनचाही चीजें खाते-पीते ढेर सारी बातें करने की आजादी। किताबें पढ़ने और संगीत सुनने की आजादी। टी.वी. और फिल्में देखने की आजादी। मित्रों के साथ घूमने-फिरने की आजादी। और सबसे बड़ी आजादी तो यह–अपने घर के लॉन में, फूलों की क्यारियों के पास, हरी घास पर सुहावनी धूप में चित्त लेट कर नीले आसमान को देखते रहने की आजादी। या आँखें बंद कर के एक साथ आती कई पक्षियों की आवाजों को अलग-अलग करके सुनने की आजादी। या एक साथ आती कई फूलों की खुशबुओं में से एक-एक को अलग करके पहचानने की आजादी।
एक दिन जब मैं लॉन में बैठी कुछ पढ़ने का प्रयास कर रही थी और बार-बार जी उचट जाने के कारण किताब बंद करके सामने देख रही थी, अचानक मुझे लगा कि मैंने कुछ ऐसा देखा है, जो कल तक वहाँ नहीं था। सहसा मैं समझ नहीं पायी और सोचने लगी–वह क्या था?
मुझे याद आया कि वहाँ जामुन का पेड़ था, जिसके जामुन मैंने बरसों खाये और अपने दोस्तों को खिलाये थे। फिर एक दिन ऐसी जोरदार आँधी आयी कि जामुन का वह पेड़ टूट कर गिर पड़ा। आँधी थमने पर हम सब ने टूट कर गिरे पेड़ को ध्यान से देखा, तो यह पता चला कि हम सब पेड़ को ले कर काफी समय से परेशान क्यों थे। परेशान थे, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि पेड़ सूखता क्यों जा रहा है। पतझड़ न होने के बावजूद उसके पत्ते पीले पड़-पड़ कर झड़ते क्यों जा रहे हैं? खाद-पानी देने पर भी पेड़ हरा-भरा क्यों नहीं हो रहा है? कारण यह था कि पेड़ के तने के पिछले हिस्से में, जो चारदीवारी से सटा था और सामने से दिखायी नहीं देता था, न जाने कब दीमक लग गयी थी और उस तरफ से तना खोखला हो चुका था। खोखला और इतना कमजोर कि आँधी का झटका झेल नहीं पाया, टूट गया।
श्यामा के बढ़ई पति रामकुमार ने पहले तो पेड़ की टहनियाँ काट-काट कर फेंकीं और फिर तने पर आरी चलाते हुए कहा, ‘‘तनिक भी जान बाकी नहीं रही इसमें। निरा काठ हो चुका है!’’
मैंने कहा, ‘‘तो तने को आरी से काट क्यों रहे हो? उखाड़ कर फेंक दो न!’’ रामकुमार ने कहा, ‘‘अगर जमीन में इसकी जड़ें सही-सलामत हैं, तो किसी दिन इस काठ में से कोई कल्ला फूट सकता है और उससे जामुन का एक नया पेड़ बन सकता है।’’
उसने तने को टूटी हुई जगह पर इतनी सफाई से काटा कि वह बैठने लायक बन गया। हम कटे हुए तने को काठ की कुर्सी कहने लगे। श्यामा के बच्चे लॉन में खेलते समय उस पर कूद कर चढ़ते-उतरते थे और खेल-खेल में कभी राजा बन कर न्याय करने, तो कभी मास्टर बन कर पढ़ाने के लिए बैठते थे। मैं भी कभी-कभी जा कर उस पर बैठ जाती थी।
उस दिन मुझे लगा कि काठ की कुर्सी मुझे बुला रही है। मैं उठी और उस पर बैठने के लिए चल दी। लेकिन पास पहुँची, तो चकित, विस्मित और इतनी हर्षित हो उठी कि वहीं से चिल्लायी, ‘‘पापा…पापा…जल्दी आइए, आपको एक चीज दिखाऊँ!’’
पापा आये, तो मैंने उन्हें दिखाया कि काठ की कुर्सी में से एक कल्ला फूट आया है, जिसके सिरे पर एक बहुत ही प्यारी कोंपल निकली हुई है। पापा ने देखा और प्रसन्न होकर कह उठे, ‘‘वाह! काठ में कोंपल!’’ और मुझसे हाथ मिला कर बोले, ‘‘बधाई हो!’’
धीरे-धीरे मैं स्वयं को स्वस्थ और प्रसन्न अनुभव करने लगी। मयंक के साथ की और उसके बाद की स्थितियों पर विचार करती, तो गर्भपात वाला दिन अवश्य याद आता, लेकिन विचित्र बात यह थी कि उस दिन की स्मृति में मयंक बिलकुल अप्रासंगिक हो जाता और मन में पापा के प्रति गर्वमिश्रित प्यार उमड़ आता। लगता, जैसे उन्होंने मुझे फिर से एक नया जन्म और जीवन दिया है। साथ ही एक कर्तव्य-बोध जैसा भी होता कि मुझे अपना यह नया जन्म सार्थक करना है, नया जीवन बेहतर तरीके से जीना है।
अब पापा जब अपना लिखा पढ़ कर सुनाते, तो मैं पूरी रुचि के साथ सुनती। बीच-बीच में उन्हें टोक कर तरह-तरह के प्रश्न करती, अपनी राय व्यक्त करती, जिसमें कभी प्रशंसा होती, तो कभी आलोचना भी। फिर तो उनकी पुस्तक के विषय में मेरी रुचि इतनी बढ़ी कि मैं घर में अपने काम की कोई किताब न पाकर बाजार से खरीद कर लाने लगी।
एक दिन मैं खान मार्केट में पुस्तकों की एक दुकान पर गयी। दुकानदार से किसी पुस्तक के बारे में पूछ रही थी कि अचानक दुकान के अंदर पुस्तक उलटते-पलटते एक व्यक्ति पर मेरी नजर पड़ी। हुलिया कुछ बदला हुआ था–शर्ट-पैंट की जगह खादी का कुरता-पाजामा और सफाचट चेहरे की जगह दाढ़ी-मूँछ–लेकिन पहली नजर में ही मैं उसे पहचान गयी। बसंत! सिर से पाँव तक एक सुखद सिहरन मेरे भीतर दौड़ गयी। वर्षों बाद अचानक उसे देख कर मैं अस्थिर-सी हो गयी। समझ नहीं पा रही थी: उसे देखती रहूँ या नजरें फेर लूँ? खड़ी रहूँ या वहाँ से चल दूँ? पुकारे जाने की प्रतीक्षा करूँ या पुकार लूँ?
तभी वह दुकानदार से कुछ पूछने के लिए मुड़ा और मुझे देख कर चौंक गया। आगे बढ़ कर बोला, ‘‘अरे …तुम?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ, मैं दीक्षा।’’ उसने मुझे नाटकीय ढंग से निहारते हुए कहा, ‘‘बिलकुल अपनी माँ जैसी हो गयी हो–सुंदर! शानदार!’’ मेरी स्मृति में क्षणांश के लिए वह दृश्य कौंध गया, जब माँ ने उसके मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था। मैंने कहा, ‘‘माँ के उस दिन के व्यवहार के लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ।’’ उसने आँखें सिकोड़ कर पूछा, ‘‘किस दिन के…?’’ और हँस पड़ा, ‘‘अच्छा, उस दिन के? यानी तुम्हें किसी ने बताया नहीं कि वह मामला तो अगले दिन ही रफा-दफा हो गया था?’’ मैंने चकित हो कर पूछा, ‘‘कैसे?’’ तो उसने दुकान से बाहर निकल कर कहा, ‘‘वहाँ सामने बहुत अच्छी कॉफी मिलती है, पियोगी?’’
कॉफी पीते हुए उसने बताया कि उन दिनों वह मेरे प्रति एक विकट सम्मोहन की स्थिति में जा पहुँचा था। जानता था कि अपने गुरु की बेटी से, जो उससे आठ-नौ साल छोटी है, प्रेम करना ठीक नहीं है। अनुचित है। अनैतिक है। लेकिन लाख समझाने पर भी उसका मन मानता ही नहीं था। मेरा खयाल उसके दिमाग से उतरता ही नहीं था। इसीलिए कोई काम हो या न हो, वह पापा से मिलने चला आता था। मुझसे बात नहीं करता था, लेकिन मुझे देखने के लिए तड़पता रहता था। एक बार आने पर मैं उसे दिखायी न देती, तो उसी दिन दूसरी बार आ जाता। मानो किसी तरह मेरी एक झलक ही देखने को मिल जाये, तो उसका जीवन धन्य हो जाये। पापा ने तो शायद इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन माँ समझ गयीं और…
‘‘तो मामला रफा-दफा कैसे हुआ?’’ मैंने पूछा, तो उसने कहा, ‘‘अगले दिन सर ने मुझे इतिहास विभाग में मिलने के लिए बुलाया। मैम भी वहीं थीं। दोनों मुझे कॉफी हाउस ले गये। सामने बिठा कर समझाया कि मैं ही नहीं, तुम भी अपनी किशोर भावुकता में मेरे लिए पागल हो। मैं तो समझदार हूँ, पढ़ाई पूरी कर चुका हूँ, लेकिन तुम्हारा पागलपन तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई चौपट कर देगा। इसलिए मुझे तुमसे दूर ही रहना चाहिए। सर और मैम बारी-बारी से कुछ कह रहे थे, लेकिन मैं वह सब नहीं, एक ही बात बार-बार सुन रहा था कि तुम भी मेरे लिए पागल हो। वे तुम्हारे पागलपन की बात कर रहे थे और मैं अपने पागलपन को समझ रहा था। समझ रहा था और मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैं एक ही साथ स्वयं को भाग्यशाली और संजीदा और समझदार और जिम्मेदार महसूस करते हुए फैसला कर रहा था कि अब तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा।’’
मैंने कुछ शरारत के-से अंदाज में कहा, ‘‘उस दिन जो दरवाजा आपके लिए बंद हुआ था, अगर फिर से खुल जाये?’’ कॉफी के प्याले को मुँह की ओर ले जाता उसका हाथ वहीं थम गया। उसने मेरी आँखों में देखा और मुस्कराया, ‘‘तो मैं उस घर में जरूर आना चाहूँगा।’’ मैंने पूछा, ‘‘अकेले आयेंगे या किसी के साथ?’’ मेरा अभिप्राय समझकर वह मुस्कराया, ‘‘मैं तो अभी तक अकेला ही हूँ। तुम?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं भी।’’
मैंने उसके कामकाज के बारे में पूछा, तो उसने कहा, ‘‘एक बार मैं एक न्यूज चैनल में काम करने वाले अपने एक कैमरामैन मित्र के साथ विदर्भ चला गया, जहाँ के गाँवों में जा कर उसे किसान आत्महत्याओं के बारे में कुछ रिकॉर्डिंग करनी थी। वहाँ उसके साथ घूमते-फिरते अचानक मुझे कुछ सूझा और मैंने मित्र से अपने लिए भी कुछ दृश्य, कुछ संवाद, कुछ साक्षात्कार रिकॉर्ड करा लिये। वापस दिल्ली आकर मैंने एक वीडियो बनाया और यूट्यूब पर डाल दिया। उसे दुनिया भर में देखा और सराहा गया। तब मैंने अपने कैमरामैन मित्र से कहा कि आओ, अपनी एक टीम बनायें और कुछ डॉक्यूमेंटरी फिल्में बनायें। फिल्में भी सफल रहीं। अब मैं यही काम करता हूँ। सर को मेरा काम पसंद है।’’
‘‘पापा को? कैसे?’’ मैंने पूछा, तो इत्मीनान से अपनी कॉफी खत्म करके उसने जवाब दिया, ‘‘एक दिन मैं सर को अपने घर ले गया। उन्हें अपनी फिल्में दिखायीं। वे बहुत खुश हुए और उन्होंने मुझे एक सुझाव दिया, जो मुझे जँच गया। उन्होंने कहा कि भविष्य में ये फिल्में इतिहास लिखने के लिए बहुत अच्छी स्रोत सामग्री हो सकती हैं। आज का मीडिया किसानों और मजदूरों को अछूत मानता है। वह उनके जीवन को, संघर्षों को, आंदोलनों को दिखाता ही नहीं है। मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अगर तुम सारे देश में घूम-घूम कर यह काम कर सको, तो बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम होगा। मैंने उनसे कहा कि सर, इस काम के लिए मैं पूरे देश में तो क्या, पूरी दुनिया में घूम सकता हूँ। यह सुन कर सर ने मुझे आशीर्वाद दिया–तब तो तुम फाह्यान, इब्नबतूता, मार्कोपोलो, बर्नियर, ट्रैवर्नियर जैसे घुमक्कड़ इतिहासकारों के वंशज बन कर निकल पड़ो। उन्होंने अपने इतिहास कलम से लिखे, तुम अपना इतिहास कैमरे से लिखो।’’
मैं एकटक उसकी ओर देखती हुई उसे सुन रही थी और शायद मुस्करा भी रही थी। यह देखकर वह सचेत-सा हो कर बोला, ‘‘अरे, मैं ही बोले जा रहा हूँ, तुम भी तो अपने बारे में कुछ बताओ!’’ मैंने मयंक वाला प्रसंग छोड़ कर नौकरी करने और छोड़ देने के बारे में बताया और कहा, ‘‘आजकल बेरोजगार हूँ। क्या मैं आपकी टीम में शामिल हो सकती हूँ?’’ बसंत खुश हो गया, ‘‘वाह! नेकी और पूछ-पूछ! अभी तक हमारी टीम में कोई लड़की नहीं है। तुम आ जाओगी, तो कमेंटरी और इंटरव्यूज तुम से ही करायेंगे। हमारी फिल्मों के रूखे-सूखे यथार्थ में भी कुछ ग्लैमर आ जायेगा।’’
मित्रो, मैं शायद बहक रही हूँ। विषय से भटक गयी हूँ। मैं यहाँ अपने माता-पिता के बारे में बोलने आयी थी और अपने बारे में बोले जा रही हूँ। वैसे भी मैंने आपका बहुत समय ले लिया है, इसलिए संक्षेप में अपनी बात समेटते हुए कहूँगी कि उस मुलाकात के बाद बसंत घर आने लगा और हम बाहर भी मिलने लगे।
अब, या तो यह मात्र संयोग था, या पापा ने उसे पहले से बता रखा था, वह उस दिन भी आया, जिस दिन माँ तीन साल का प्रवास पूरा करके पोलैंड से लौटीं। माँ उसे देख कर प्रसन्न हुईं। मुझे लगा कि पापा फोन पर माँ को मेरे और बसंत के बारे में बताते रहे हैं। इसलिए जब उसने माँ और पापा से कहा कि हम दोनों शादी करना चाहते हैं, तो माँ ने हँस कर कहा, ‘‘मेरी बेटी ने भी मेरी ही तरह उम्र में काफी बड़ा लड़का ढूँढ़ा है।’’ लेकिन अगले ही पल संजीदा हो कर बोलीं, ‘‘सुनो, बसंत, बाद में तुम्हें पता चले, इससे बेहतर है कि पहले ही बता दिया जाये। दीक्षा एक लड़के से…’’ माँ की बात पूरी होने के पहले ही बसंत हँस पड़ा। बोला, ‘‘वह मयंक वाला किस्सा, मैम? दीक्षा उसके बारे में, अपने गर्भपात तक के बारे में, मुझे सब कुछ बता चुकी है। आप डरें नहीं, हम किसी बीते कल के लोग नहीं, आने वाले कल के लोग हैं। और थोड़े-से पागल भी। आप ने ही तो एक दिन हम दोनों को पागल कहा था!’’ पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘अरे, बसंत, बुरा न मानो! ये तो मुझे भी पागल कहती रहती हैं।’’ माँ भी मुस्करायीं, ‘‘तो ठीक है। तुम सारे पागलों के बीच अकेली समझदार मैं तुम सब को आशीर्वाद देती हूँ–खुश रहो!’’
और मैं खुश हूँ। अब मैं बसंत के साथ दुनिया देखने वाली, कैमरे से इतिहास लिखने वाली, एक घुमक्कड़ इतिहासकार हो गयी हूँ। मैं देख रही हूँ कि आज की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए लोग हर देश में तरह-तरह के आंदोलन चला रहे हैं और एक उम्मीद जगा रहे हैं कि यह दुनिया सचमुच बेहतर बनायी जा सकती है। वे जन-आंदोलनों के जरिये दुनिया का नया इतिहास लिख रहे हैं और हम उन आंदोलनों की डॉक्यूमेंटरी फिल्में बनाकर कैमरे के जरिये उनका इतिहास लिख रहे हैं।
हम दुनिया भर में घूमते हैं, लेकिन घर हमारा दिल्ली ही है। शादी से पहले बसंत अकेला रहता था, शादी के बाद वह हमारे साथ आ कर रहने लगा। हमारा एक बेटा है। उसका नाम हमने अपने घुमक्कड़ इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन के नाम पर राहुल रखा है। राहुल स्कूल जाने लगा है। छुट्टियों में वह हमारे साथ घूमता है और बाकी समय, जब हम बाहर रहते हैं, यहीं रहता है। पहले नाना-नानी के साथ रहता था, अब एक साल से, जब से वे गुजरे हैं, वह अपनी श्यामा चाची के साथ रहता है। आज के समारोह में भी वह शामिल है। बिलकुल सामने वाली कतार में वह बसंत और श्यामा के साथ बैठा है और इशारों से कह रहा है कि बहुत बोल चुकीं, अब बस भी करो!
मित्रो, मैंने आपसे कहा था कि अपनी बात मैं अपने पिता का एक पत्र पढ़ कर पूरी करूँगी। यह पत्र पापा ने तब लिखा था, जब मैं और बसंत ब्राजील में चल रहे एक जन-आंदोलन की डॉक्यूमेंटरी बनाने में व्यस्त थे। पापा ने अपनी नयी पुस्तक भूमंडलीकरण का इतिहासहमें भेजी थी और उसके साथ भेजा था यह पत्र, जो मैं आपको सुनाने के लिए लायी हूँ। पत्र के आरंभ और अंत को छोड़ कर मैं बीच में से पढ़ रही हूँ:
‘‘…तुम दोनों एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य कर रहे हो। हम एक महान क्रांतिकारी दौर से गुजर रहे हैं। कहें कि क्रांति हो रही है और हम उसमें शामिल हैं। क्रांति किसी एक तारीख को घटित होने वाली घटना नहीं, एक लंबे समय में चलने वाली प्रक्रिया होती है। वही प्रक्रिया आजकल एक नये और अनोखे रूप में जारी है। अब तक दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, किसी एक देश में हुई हैं। यह क्रांति समूची दुनिया में हो रही है। पुरानी विश्व व्यवस्था के काठ में  एक नयी विश्व व्यवस्था की कोंपल फूट रही है। इसलिए एक तरफ दुनिया खंड-खंड हो रही है, दूसरी तरफ मिलकर एक हो रही है। दुनिया एक तरफ युद्धों में नष्ट की जा रही है, तो दूसरी तरफ शांतिपूर्वक रची जा रही है। दुनिया एक तरफ घृणा में अंधी हो कर बर्बर बन रही है, तो दूसरी ओर प्रेम में डूब कर मानवीय बन रही है। एक तरफ दुनिया के नष्ट हो जाने की विकट आशंका है, तो दूसरी तरफ उसके नये निर्माण की प्रबल संभावना। ध्वंस और निर्माण की शक्तियों के बीच एक भूमंडलीय युद्ध छिड़ा हुआ है, जिसमें दुनिया के सभी लोग इस या उस पक्ष से शामिल हैं। तुम लोग इस महाभारत के संजय हो। इसका इतिहास दुनिया को दिखा-सुना रहे हो। लेकिन याद रखो, इतिहास कोरा तथ्यात्मक विवरण नहीं होता, बल्कि एक सर्जनात्मक कृति होता है। वह एक कहानी होता है और कहानी यथार्थ की होते हुए भी कल्पना से लिखी जाती है–एक ऐसी कल्पना से, जो अतीत के अनुभवों से दृष्टिसंपन्न हो कर वर्तमान को देखती है और भविष्य को दिखाती है…’’
—————————–
सम्पर्क-
डॉ. रमेश उपाध्याय
107, साक्षरा अपार्टमेंट्स,
ए-3, पश्चिम विहार,
नयी दिल्ली-10063
मोबाईल – 09818244708
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

तिथि दानी की कविताएँ


तिथि दानी

इसमें आज हम तकनीकी रूप से सबसे विकसित युग में रह रहे हैं. हमने अपनी सुरक्षा के लिए तमाम इंतजाम किए हुए हैं. लेकिन डर है कि स्थायी भाव की तरह हमारे जेहन में बैठा हुआ है.तमाम तरह के डर भी हैं. यहाँ तक कि लावारिस चीजें भी डर का बायस बन जाती हैं. लोगों में तुरन्त अफरातफरी मच जाती है. युवा कवयित्री तिथि दानी की सजग सचेत नजरें अपने समय की इन परिस्थितियों पर हैं. उन्हें पता है कि सबसे बड़ा खतरा उस प्रेम के लिए है जो वस्तुतः इस दुनिया के लिए जरुरी है. वे लिखती हैं – “तरह-तरह के डर के बीच/ लोगों में है एक, सबसे बड़ा डर,/ प्रेम करने का डर।/ वे जानते हैं/ प्रेम में कुछ नहीं होता पाने को/ और सब कुछ छिन जाने का डर/ कर रहा होता है पीछा/ डरे हुए हैं लोग/ क्योंकि प्रेम भरी नज़रें कभी विस्मृत नहीं करतीं सौंदर्यबोध।” लेकिन प्रेम खतरे उठाने से कहाँ हिचकता है? तमाम दिक्कतों के बावजूद वह अपनी राह चला जाता है. कुछ इसी अंदाज की कविताओं के साथ आज प्रस्तुत है तिथि दानी की नयी कविताएँ.  

 
  

तिथि दानी की कविताएँ

डरे हुए लोग
डरे हुए हैं लोग
खिड़की से अंदर झांकती नज़रों से
रास्ते पर चलते हुए अचानक मिल गई नज़रों से
ट्रेन में सफ़र करते हुए ख़ूबसूरत पर्स पर पड़ती नज़रों से।
डरे हुए हैं लोग
घर में लगे सेवंती, गुलाब और गेंदों पर पड़ती नज़रों से
डरे हुए हैं वे अपनी सजीली पोशाक पर पड़ती नज़रों से
अपने छोटे बच्चे पर पड़ती नज़रों से
डर की कोई सीमा नज़र नहीं आती
डर लोगों के दिमाग़ों में आसमान,
दिलों में समंदर बनता जा रहा है।
लोगों को नज़र नहीं आती डर की कोई परिधि
कि, कम से कम निश्चित कर लें वे इक दूरी
खींच लें खांचे वे अपने ज़ेहन में
इसलिए डरे हुए हैं लोग
अपने खिलंदड़ स्वभाव से
अपनी खनकती हुई हंसी से
अपने उस संवाद से
जो अजनबियत दूर कर दे।
आश्चर्य नहीं लोगों को
कि
डरे हुए हैं वे
आईने में नज़र आती अपनी बेदाग़ छवि से
डरे हुए हैं वे 
अपने पास जमा सीमित पूंजी से
डरे हुए हैं वे
अपने छोटे-छोटे खेतों में लहराते  गेहूं और धान से
डरे हुए हैं 
लोग देश के सीमित क्षेत्रफल से
तरह-तरह के डर के बीच
लोगों में है एक, सबसे बड़ा डर,
प्रेम करने का डर।
वे जानते हैं  
प्रेम में कुछ नहीं होता पाने को
और सब कुछ छिन जाने का डर
कर रहा होता है पीछा
डरे हुए हैं लोग
क्योंकि प्रेम भरी नज़रें कभी विस्मृत नहीं करतीं सौंदर्यबोध।
 

                                                                     
सलाइयां
कभी-कभी अचानक कुछ उड़नतश्तरी ख़याल
कैसे उतर आते हैं हम में
समझना मुश्किल लगता है।
आंखें, दिमाग, मन, हृदय
इतने नाम बिना मेहनत के बना देते हैं सलाइयां
लेकिन एक अनाम, अपरिभाषित सा भी
कोई तत्व होता है इनमें
जिसने घेरा होता है इन सलाइयों का सबसे ज़्यादा हिस्सा
शुरू हो जाती है एक बुनावट
और बन जाती है इक श्रृंखला सी संरचना
जिसके आर-पार देखने की कोशिश में
हम तमाम मनोरंजक शोरगुल से
निकल पड़ते हैं नीरव और सुखद बीहड़ की ओर
जहां अक्सर बुद्धपुरुष असंख्य तपस्याओं के बाद पहुंचते थे।
इस यात्रा के दौरान
हम निकलते हैं अपनी परिधि से बाहर
और देखते हैं- और भी लोग अलग-अलग मौकों पर किस क़दर ख़ुश हैं,
स्वयं के अलावा भी -किस क़दर दुखी भी हैं और लोग
तब प्रश्न स्फुरित होता है
सोचो ज़रा…
हर खुशगवार मौके पर हम भी महसूसें किसी और ख़ुश की ख़ुशी
और दुखद त्रासद मौकों पर
हमारा मौजूद होना
कुछ कम करे औरों का दुखना
तो कैसा हो
कुछ भय और कुछ उत्कंठा से चाहता है ये दिल
महसूसना हर ज़र्रे पर, हर शख्स में मौजूद हर ग़म- हर ख़ुशी
दरअसल कुछ सिद्धान्तों को करना चाहता है प्रमाणित….
सब का, सब में, सब जगह सब हाल में मौजूद होना
यानि
सलाई का लहराते-बलखाते फंदों को बिनते जाना
अपने आखिरी फंदे से लगी गांठ से
कल्पनातीत, अनंत ब्रह्मांडों से एकाकार हो जाना
सबकी आत्माओं का परमात्मा हो जाना। 
सपनों की वजह
कुलाँचे मारता एक हिरण
बढ़ता जाता है,
बढ़ता जाता है,
अचानक वह मुड़ जाता है,
उस दिशा में

जहाँ से मैं उसे

चोरी छुपे देख कर

ख़ुश हो रही हूँ।

उसके शरीर के चकत्तों में

मुझे दिख रहे हैं

आसमान के तारे,

और भी ख़ूबसूरत हो कर

इस क़दर वह मेरे नज़दीक आया,

कि अपनी आँखो से

नामुमक़िन हो गया

उसे देख पाना,

क्योंकि मेरे आज्ञा चक्र को चीरता,

समा गया था वह मुझमें।

मुझे दिखने वाले

रंगीन, अलौकिक अवास्तविक

सपनों की वजह

समझ आ रही थी अब मुझे

मालूम हो चुका था मुझे

इन सपनों का साकार ना होना।
स्त्रियां जुगनू बन जाएं
                                                                
जब भी मौका मिले
स्त्रियां प्रार्थना करती हैं।
पलक झपकते ही जोड़ लेती हैं
वे ईश्वर से अपने तार।
स्त्रियों की प्रार्थनाएं
वाकई होती हैं काफी अलग
वे खुद के लिए नहीं मांगती सब कुछ
सब कुछ मांगती हैं वे
सब के लिए।
सब कुछ के एवज में
होती है उन्हें ये दरकार
कि
ईश्वर उन्हें मुक्त कर दे
हर तरह के भय से
और रूपांतरण के बाद
उनके शरीर और आत्मा
परमशक्तिशाली, अदम्य साहसी,
अक्षय और निर्भय हो जाएं।
स्त्रियों की प्रार्थनाओं में
पक्षियों के कलरव की
मिठास ज़रूर होती है
पर उनमें निरंतरता होती है
नदी के पानी की।
आत्मा की निश्छल
परतों से ये अपनी मंज़िल
तक पहुंचती हैं
इस कलयुग में स्त्रियां
विलुप्तप्राय होते सतोगुण के पेड़ों की नहीं
सिर्फ उसकी परछाई में आकर बैठने की रखती हैं चाहत
स्त्रियां जानती हैं कि
इतना कर पाना
उस पेड़ की रासायनिक संरचना के
इक परमाणु जितना ही है
लेकिन जाने कौन सा है
उन्हें अंतर्ज्ञान
और अटल विश्वास
कि
विश्व के बाग को
प्रलय के पतझड़ से
बचाएगी एक दिन
इसी पेड़ की परछाई
इसीलिए
इस परछाई को दूर से देख पाने के लिए
वे  ईश्वर से मांगती हैं
एक जादुई दूरबीन।
वे जानती हैं कि इसके बाद भी उन्हें
करते रहने होंगे प्रयोग
ताकि पुनः जीवन की ओर लौट सकें
वे सतोगुणी पेड़
स्त्रियां अपनी प्रार्थनाओं में परिभाषित
उस असीमित अनंत सब कुछ के
समुद्र में सतोगुणी
द्वीपों की अखंडता और अस्तित्व के लिए
करती हैं प्रार्थनाएं
जबकि वे जानती हैं कि
हर वक्त मंडरा रहा है
अघोषित सुनामी का खतरा
स्त्रियां इस भौतिकवादी संसार के  
हर उस शहर के लिए प्रार्थनारत हैं
जहां आतंक की इमारत में
पेशावर जैसे स्कूल
और उसमें अपने बच्चों को खोने वाली मांएं हैं।
स्त्रियां इरोम शर्मिला 
और उसके परिवार,
यहां तक कि उसे कैद में रखने वाले
पुलिसकर्मियों के लिए भी प्रार्थनारत हैं।
स्त्रियां
जहां भी अंधेरा, अवसाद,
उन्माद, विषाद और क्रोध है
वहां आलोक, प्रफुल्लता, विनोद,
संतुलन, मर्यादा और शांति की,
व्याप्ति के लिए प्रार्थनारत हैं।
स्त्रियां हर उस विलुप्त, मृत
भावनाओं, कामनाओं और आकांक्षाओं को
सहेजने और पुनर्जीवित करने प्रार्थनारत हैं
जिनके साथ मनुष्यता का आरंभ हुआ था।
स्त्रियां जन्म से जानती हैं
उस बागडोर को,
जो ईश्वर ने उन्हें थमायी है
ताकि
इस ब्रह्मांड के
आपातकाल में भी
जब सूरज अपनी धूप बांटना
और चांद अपनी चांदनी फैलाना
भूल जाए
तो
मनुष्य के अस्तित्व के लिए
स्त्रियां जुगनू बन जाएं। 

सम्पर्क
ई-मेल : tithidani@hotmail.com
फोन – +447440315754

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

सोनी पाण्डेय की कहानी ‘आज की वैदेही’

सोनी पाण्डेय
समाज की विसंगतियों को उद्घाटित करने का काम साहित्य बखूबी करता है। खासतौर पर महिलाओं के प्रति समाज के नजरिये को ले कर आज के स्त्री-लेखन में जो गहराई मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सोनी पाण्डेय ने अपने लेखन की शुरुआत कविता से किया और अब वे कहानी लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। उनके इस कहानी की भावभूमि स्वाभाविक रूप से स्त्री का वह मानस-स्थल है जो पुरुषों के ढोंग को अच्छी तरह पहचानता है। उनकी लिखी हुई पहली कहानी है ‘आज की वैदेही’। कल सोनी पाण्डेय को उनके पहले काव्य संग्रह ‘मन की खुलती गिरहें’ के लिए वर्ष 2015 का शीला सिद्धान्तकार स्मृति सम्मान देने की घोषणा की गयी है। सोनी पाण्डेय को सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी ‘आज की वैदेही’       
आज की वैदेही
सोनी पाण्डेय
पिता के घर में आभा के कोई अरमान पूरे न हो सके थे, जब पहली कविता लिखी तो पिता ने मजाक बनाया, बड़ी बहन ने ये कहते हुए कविता फाड़ दी कि मुझसे मुकाबला करेगी। दूसरी उपेक्षा तब झेली जब इण्टरमीडिएट में टाॅप किया और किसी ने प्रसन्नता तक व्यक्त नही किया, बड़ी बहन के नकल से प्रथम आने पर मिठाइयाँ बटीं। तीसरी बार वह अन्दर से टूट गयी जब गोरखपुर विश्वविद्यालय की मेरिट लिस्ट में नाम आने के बाद भी पिता ने  दाखिला नही दिलवाया। अंत में हार कर उपेक्षा को उसने अपनी नियति मान ली और चल पड़ी उस दिशा में जिधर जिदंगी ले चली। 

आभा की शिक्षा अनवरत चलती रही क्योंकि कभी फेल नही हुयी। बी0 ए0 के बाद पिता पढ़ाना नही चाहते थे, मां ने एम0 ए0 करने के लिए पिता को बाध्य किया, एम0 ए0 पूरा हुआ। इसी बीच आभा का विवाह तय हुआ, सीधा-साधा लड़का, साधारण परिवार। आभा के लिए शादी केवल एक सामाजिक बन्धन था, निभाना मजबूरी, कोई चारा भी नही। बड़ी बहन का विवाह असफल रहा, मानसिक संतुलन बिगड़ा और अंततः पगला कर मर गयी। दूसरी जिसे अपने रूप-रंग तथा बुद्धिमत्ता पर अहंकार था और गहरे डूबी, प्रेम विवाह किया, पूर्णतः असफल। आभा के लिए पीछे कुँआ आगेे खाईं, समझौता करना ही उचित समझा। पीछेे वालों ने डुबोया उसे उबारना था दो छोटे भाई-बहन का भविष्य अब उसके किये पर निर्भर था। 

ससुराल साधारण मध्यवर्गीय परिवारों जैसा सास सुलझी हुई, महिला, बहू को अन्य बहुओं से सतर्क करती, घर -गृहस्थी के तौर तरीके समझाती, आभा की सोच के विल्कुल विपरीत सास थी। उसे हर सास उनसे मिलने से पहले ललिता पवार ही लगाती थी। आभा के वैवाहिक जीवन का सबसे सकारात्मक पहलू पति की सकारात्मक सोच थी, एक साधारण पुरुष की भाँति महेश प्रतिभाशाली पत्नी को ले कर असुरक्षा की भावना से ग्रस्त अवश्य था किन्तु अपने भय के कारणों को आभा के सामने बड़े तार्किक ढंग से रखता, जैसे तुम इन पुरूषों को नही जानती, सामने तुम्हारी प्रशंसा करेंगे, जाते ही शरीर की बनावट से लेकर योग्यता तक के मजे लेंगे, इनकी उम्र पर मत जाओ, साले औरतों से हँस बोल के ही मजा लेते हैं। आदि-आदि………..

आभा को पति की बातों पर विश्वास था, जानती थी, इसमें कोई दो राय नही कि ‘‘पुरूष’’ की दृष्टि औरत के शरीर से होती हुई मन-मस्तिष्क तक जाती है।’’ पति ने आभा की योग्यता को परखा और प्रोत्साहित किया, यहाँ वह आम पुरूषों से भिन्न था, उसका अहं पत्नी की योग्यता से कभी नही टकराता। आभा अब दो बच्चोें की माँ थी, मातृत्व का एहसास औरत के लिए कितना कोमल, सुन्दर तथा स्नेहयुक्त होता है, उसे आनन्दित करता, जिस स्नेह के लिए वह तरसती रही उसकी वर्षा बच्चों पर करती तथा परिवार के प्रति अपने दायित्वों का पूरे मनोयोग से निर्वहन करती। संयुक्त परिवार में स्वयं के महत्व को स्थापित करने में सफल रही परिणाम स्वरूप कुछ के ईर्ष्या का उत्पन्न होना भी स्वाभाविक था, खैर इसकी चर्चा फिर कभी। 

आभा की श्रमशीलता को देख कर महेश ने उसे हिन्दी में शोध करने के लिए प्रेरित किया, महेश ने भाग दौड़ करके शोध निर्देशक खोज निकाला शोध कार्य आगे बढ़ा, आभा ने दिन-रात कठिन श्रम करते हुए दो वर्ष आठ माह में शोध प्रबन्ध पूरा किया। शोध कार्य करते हुए आभा के भीतर का साहित्यिक कीड़ा पोषित होता गया। एक बार पुनः लेखन की तरफ उसका रूझान बढा़ कविताएं स्थानीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी।

आभा के लिए आरम्भ में शादी महज एक औपचारिकता थी, न जाने कब धीरे-धीरे पति के प्रति लगाव आत्मिक प्रेम में परिवर्तित हुआ, पता ही नही चला। पति देव सैकड़ों झूठे बहाने करके सभा, संगोष्ठियों में ले जाते। सेमीनार अटेन्ड कराते, वह लिखती तो बच्चों को सम्हालते इस तरह उसके जीवन के सूखे उपवन में हरियाली छाती गयी, फूल खिलने लगे मन सुवासित होने लगा। 

धीरे-धीरे आभा कीे साहित्यिक गतिविधियों के बारे में परिवार को पता चला किन्तु किसी ने आपत्ति नहीं की। आभा ने इसी बीच बी. एड. किया, पति ने कहा ये ‘अर्थ-युग है’ तुम भी कुछ करो और वह एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी। परिवार तथा नौकरी में बड़ी कुशलता से उसने सामंजस्य बिठा लिया। 

आभा का रोम-रोम पुलकित रहता, सपने साकार हो रहे थे, अपने प्रिय कवि के कथा साहित्य पर शोध कार्य पूरा हुआ और वह डाॅ0 आभा बन गयी, मन मयूर बन नाच उठा, कोयल की तरह कूक उठा डॉ. आभा।

साहित्यिक संगोष्ठियों में उसकी सहभागिता बढ़ने लगी, कुशलवक्ता, संचालिका, वह भी स्त्री, आयोजक संचालन के लिए आमंत्रित करने लगे। जिन्दगी की गाड़ी शनैः-शनैः आगेे बढ़ रही थी कि अचानक उसके जीवन में एक तूफान खड़ा हुआ। 
आभा दिव्य सुन्दरी नहीं थी किन्तु उसका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था। स्कूल में सभी लड़कियाँ कहती कोई कितना भी सौन्दर्य प्रदर्शन कर ले उसके मुँह खोलते ही सब परास्त हो जाएँगी। चार सालों तक विद्यालय की डिवेट चैंपियन, स्कूल लीडर आभा में आत्मविश्वास कूट-कूट भरा था। चालाक चोर पहले आप का विश्वास जीतते हैं तब लूटते हैं। विवेक ऐसे ही चोर की तरह उनके जीवन में प्रवेश करता है, पति-पत्नी दोनों उसके व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज कर उसकी मित्रता को खुले दिल से स्वीकार करते हैं और शुरू होती है एक नई कहानी। विवेक अक्सर गोष्ठियों का आयोजन करता, संचालन आभा, महिला संचालिका के कुशल संचालन का आनन्द लेने के लिए साहित्य प्रेमी कम रसिक ज्यादा एकत्रित होते। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के जाल में वह उन्हे लपेटता रहा, वह शकरपारे की तरह चिपकते गये। सामने उसके लिए वह शिव-पार्वती थे, पति के सामने बार-बार कहता- भईया आप अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं प्रकृति आप पर पूर्णतः समर्पित है आदि-आदि। विवेक धीरे-धीरे आभा को प्रलोभन देना शुरू करता है, भाभी मेरा परिचय देश के शीर्ष साहित्यकारों से है, आपकी रचनाओं की भूमिका कहे तो लिखवा दूँ, शीर्ष पत्रिकाओं में रचनाएं छपवा दूँ। आरम्भ में महेश उसकी कुछ कविताओं को उसको दे देता है। किन्तु सालों तक उसका कहीं अता-पता नही चलता। एक रोज पति ने उससे कहा- ‘‘तुम जानती भी हो साला ऐसे तुम्हे मंच देता है, मुझसे आये दिन पैसे ऐंठता है, एक भी उधारी साले ने लौटायी नही। देखो आभा मैं तुम्हारे शौक को पूरा करते-करते ऊब चुका हूँ उसकी गोष्ठी में शहर के छंटे हुए लोफर भाषण पर वाह-वाह करते हैं, कभी उसके ठिकाने पर जा कर गोष्ठी के बाद देखो-सुनो, शराब की चुस्की के साथ तुम्हारे अंगों का कैसे व्याख्या करता है।’’ महेश बक रहा था आभा का शरीर ठंडा पड़ता जा रहा था। ऐसा लग रहा था मानों किसी ने उसे गहरे पानी में डुबो दिया हो और वह बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हो।

    आभा ने रोते हुए कहा- ‘‘जब आप जानते थे कि वह इतना गिरा हुआ इन्सान है तो फिर प्रश्रय क्यों दिया।’’
    ‘‘क्या करता तुम्हारे ऊपर साहित्यकार बनने का भूत जो चढ़ा रहता है।’’ जानता हूँ जिस दिन तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाओगी, हम सब को भूल जाओगी। देख रहा हूँ, आज-कल तुम बदल रही हो।’’ महेश क्रोध से काँप रहा था। 

    आभा ने सिसकते हुए कहा- ‘‘ अपने मन में मेरे लिए ऐसी भावनाएं आपने पाल रखी हैं, चलो ठीक है, आप को धोखा दे भी दूं तो कम से कम मेरे बच्चों का तो सोचते उम्र के चालीसवें पड़ाव पर दो बच्चों की माँ रंगरेलियां मनाएंगी। छिः घिन्न आती है मुझे आप की सोच पर।’’

    महेश व्यंग्य से मुस्कुरा कर बोला- ‘‘तभी तो चार-चार बच्चों की माँ आए दिन आशिकों के साथ फुर्र हो जाती है।’’
    आभा रोती रही महेश आरोप पर आरोप लगाता रहा।

    उस रात आभा सो न सकी, सोचती रही सत्रह साल के वैवाहिक जीवन में कभी कहीं अकेली नही गयी, बिना पूछे किसी से बात तक नही करती, कभी कोई कार्य बिना पूछे नही किया। फिर पति ने बिना सोचे- समझे उसपर इतना बड़ा आरोप लगा दिया। वह सोचती रही औरत पति से बेवफाई कर सकती है किन्तु एक माँ….. कभी नही। बच्चों के भविष्य से एक घरेलू औरत खिलवाड़ नही कर सकती। आखिर पुरूष औरत को माँ की नजर से क्यों नही देखता? जिस दिन पुरूष उसके मातृत्व का सम्मान करने लगेगा उस दिन से औरतों का सम्मान स्वतः होने लगेगा। पुरूष माँ दुर्गा, माँ काली, माँ लक्ष्मी, असंख्य देवी रूपों में तो औरत को माँ मान कर पूज सकता है किन्तु साकार नारी देह उसके लिए भौतिक साधन मात्र है, जिसे वह अपनी जागीर मानता है, उसे नख से शिख तक ढक कर रखना चाहता है। आखिर केवल उसका विवेक से बातचीत करना पति को शंका के गहन गुहा में ले गया, वो एक बार कहता, वह सारे द्वार बंद कर लेती, उसका रोम-रोम ऋणी है उसके किये का। आभा सोते हुए पति के चेहरे को देख रही थी, दो बूँद आँसू उसकी सजल आँखों से लुढ़क गये, मन ने कहा मैने तो तुम्हें अपना राम माना था जो हर क्षण उसके साथ होगा, उसका साथ देगा किन्तु हाय ऽ ऽ ऽ मेरे राम ऽ तुम भी ऽ ऽ ? 

    अगले दिन आभा को विवेक ने फोन किया भाभी अगली गोष्ठी बड़ी सारगर्भित होगी, बनारस से कई विद्वान आयेंगे, संचालन आप को करना है।’’ तैयारी शुरू कर दीजिए।

    आभा चुप रही, उसने बात आगे बढ़ाया- ‘‘भाभी सोचता हूँ, आपको रावण बन हर ले जाऊँ किन्तु आपके पतिदेव से डरता हूँ। आप कीे कद्र वो क्या जाने, मेरे साथ दिल्ली चलिए, सारी रचनाएं एक साथ प्रकाशित हो जाएँगी, दो साल के अन्दर साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर भाभी मेरे प्रस्ताव पर विचार जरूर कीजिएगा।

    आभा क्रोध के आवेग को रोकते हुए बोली- ‘‘विवेक बाबू बुझे अब न राम से डर लगता है न रावण से, हैं तो दोनों पुरूष ही।

    विवेक सहमते हुए बोला- ‘आप ऐसा क्यों कहती हैं?

    आभा का चेहरा घृणा से विकृत हो चुका था, सामने होता तो चेहरे पर कस के थूकती।

    ‘देखिए विवेक बाबू मुझे न तो प्रसिद्धि चाहिए, और न ही विश्वविद्यालय की मास्टरी, मैं जहाँ हूँ सन्तुष्ट हूँ, आप जैसे पुरूष कब राम बन जाएं कब रावण पता नही, इस लिए ‘‘आज की वैदेही’’ अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं खींचती हैं और अंततः अग्नि परीक्षा से बच जाती हैं।’’ इतना सुनते ही विवेक ने फोन काट दिया।

    आभा को लगा जैसे मन से मनो बोझ उतर गया हो, वह हँसते हुए रसोईं में उठ कर चल दी।
सम्पर्क-
फोन – 09452088287

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

राजकिशोर राजन की कविताएँ

युवा कवि राजकिशोर राजन का एक नया कविता संग्रह ‘कुशीनारा से गुजरते’ हाल ही में बोधि प्रकाशन से आया है।  हम इस संग्रह की कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। इन कविताओं के साथ कवि की अपनी बातें इस संग्रह और कविताओं के बारे में हैं। तो आइए रु-ब-रु होते हैं राजकिशोर राजन की कविताओं से।

अपनी बात के बहाने कुछ बात

किसी कविता संग्रह में ‘दो शब्द’ या ‘अपनी बात’ लिखना या पढ़ना मुझे प्रिय नहीं है चूँकि कविता ही अंततः ‘अपनी बात’ होती है। कविता स्वयं सब कुछ का भेद खोल देती है। परन्तु इस संग्रह की बात कुछ भिन्न है। विद्यार्थी जीवन में मैथिली शरण गुप्त की ‘यशोधरा’ कोर्स में था। उसे पढ़ कर महीनों बेचैन रहा था। ‘जायें सिद्धि वे पावें सुख से ………….’ जैसी पंक्तियों से सीने में दर्द उभर जाता था। सिद्धार्थ के प्रति जहाँ रोष जनमता था वहीं यशोधरा के प्रति रह-रह भक्ति भाव उमड़ जाता था। अकसर सोचा करता कि कम से कम कह कर तो जाते। नहीं कहना था, नहीं सुनना था तो फिर विवाह ही क्यो किया? परन्तु जैसे-जैसे उम्र होती गयी और बौद्ध साहित्य पढ़ता रहा वैसे-वैसे पश्चाताप से घिरने लगा। यहाँ तो बात ही उल्टी निकली। सिद्धार्थ ने चोरी-छिपे नहीं अपितु यशोधरा की जानकारी में ही गृहत्याग किया था। इसके अलावा दोस्तो, पत्र-पत्रिकाओं आदि के माध्यम से भी समय-समय पर जो बुद्ध के संबंध में जानकारी मिलती गई उससे मेरी धारणा दृढ़ होती गयी कि अपने यहाँ बुद्ध और बौद्धधर्म की समझ यथार्थ के धरातल पर नहीं, बनी-बनाई धारणाओं पर आधारित है और यही कारण है कि बुद्ध की कर्मभूमि, भारत बुद्ध से दूर है। बुद्ध, मृत्यु आदि अथवा भोग से उब कर भिक्खु नहीं बने थे। उनके समय शाक्य तथा कोलिय गणराज्यों के मध्य नदी जल के बँटवारे को ले अकसर तनातनी, युद्ध होता रहता था। सिद्धार्थ इस हिंसा के साथ मानव समाज में व्याप्त हिंसा का सदा के लिये अंत चाहते थे। इस तथ्य से भी मैं बहुत प्रभावित हुआ कि आज साहित्य में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जो अब स्वतंत्र रूप ग्रहण कर आगे की राह चल पड़ा है का पथ बुद्ध के धम्म ने ही प्रशस्त किया है । बुद्ध धर्म की जो बात सबसे ज्यादा हमारा ध्यान आकृष्ट करती है वह यह कि अज्ञात को लेकर जितनी भी मान्यताएं हैं वह उन सभी की उपेक्षा करता है और जो दैनन्दिन की घटनाएं हैं उन्हीं को विचारणीय ठहराता  है। बौद्ध धर्म का आदर्श न स्वर्ग है और न किसी परमात्मा या ब्रह्म में लीन होना। तात्पर्य यह कि बुद्ध का धम्म विश्वास पर नहीं, तर्क पर खड़ा है। चूँकि यह विश्वास करने की चेतना पहले अपने आप को धोखा देने और बाद में दूसरों को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बौद्ध धर्म का मानना है कि वास्तविक धर्म सत्य की खोज है। धर्म का आधार मिथ्या विश्वास, परंपरा, विश्वास करने की चेतना व्यवहारिक उपयोगिता न होकर यथार्थ बुद्धिवाद होना चाहिए। तथागत चाहते थे कि हर आदमी संदेह से प्रारंभ करे, पूछे और इससे पहले कि वह उनके बताये हुए पथ पर चले, पूरी तरह अपना समाधान कर ले। इसलिए शाक्यमुनि यथार्थ और मिथ्या का निर्णय करने के लिए किसी शब्द-प्रमाण, किसी इलहाम को आधार न मान, कागज की नाव मानते थे। उनके अनुसार यदि कोई व्यक्ति श्रद्धामात्र से ही किसी सत्य को स्वीकार कर लिया हो, तो वह ऐसा ही है जैसे कि किसी चम्मच में शहद हो, किन्तु चम्मच उस शहद की मिठास से सर्वथा अपरिचित  हो। इस धर्म में कोई भी बात गोपनीय अथवा रहस्यमय नहीं है । कोई भी महान उपदेशक इतने ईश्वर सदृश नहीं हुए जितने बुद्ध और कोई भी महान उपदेशक इतने मनुष्य सदृश नहीं हुए जितने बुद्ध। बौद्ध धर्म की भीतरी भावना समाजवादी है। यह सामाजिक उद्धेश्य की सिद्धि के लिये मिल जुल कर काम करने की शिक्षा देता है इसलिए यह उस औद्योगीकरण का सख्त विरोधी है जिसने अबाध, दुर्गंधपूर्ण, अनैतिक और करूणारहित धनार्जन के लिए किए जाने वाले संघर्ष को ही मानवजीवन का परमादर्श बना रखा है । आज की व्यापारिक सभ्यता केवल स्वार्थसिद्धि पढ़ाती है, स्वार्थसिद्धि सिखाती, रटाती है और उसी को प्रेय और श्रेय मानती है। ऐसे में, बहुतों की तरह मुझे भी लगता है कि आज बुद्ध की सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

        जो बौद्धधर्म पर अक्रियावादी होने का आरोप मढ़ते हैं वे बौद्धमत को नहीं जानते या जानबूझकर उसे बदनाम करते है। । धम्मपद कहता है – ‘आलसी और अनुधोगी के सौ वर्षो के जीवन से दृढ़ उद्योग करने वाले के जीवन का एक दिन श्रेष्ठ है ।’ यह बौद्ध धर्म ही ऐलान कर सकता है कि व्यक्ति खुद अपना स्वामी है ! दूसरा कौन हो सकता है  (अत्तवग्गो) । बुद्ध स्वयं का स्वामी होने को कहते हैं – यह सीधी-सादी बात नहीं  है अपितु मनुष्य की सर्वोच्चता का जयघोष है । बुद्ध, मनुष्य को अपना पसंदीदा रंग चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं । किसी खास रंग को चुनने का आग्रह वे नहीं करते, न इसके लिए वे ईश्वर या स्वर्ग-नर्क का भय दिखाते हैं । उन्हें मनुष्य की स्वतंत्रता, ईश्वर से भी श्रेष्ठ महसूस होती  है । महापरिनिब्बान के समय भी वे आनंद की अपनी विरासत ‘अप्पदीपो भव’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो ही दिया । कोई सपना, कोई मिथ्या अवलंबन नहीं दिया जिस पर मनुष्य सर्वाधिक भरोसा करता   है । बोधि धर्म केवल वैचारिक रूप से ही क्रांतिकारी नहीं अपितु प्राणियों के बीच समानता, करूणा का तथा समाज में नये यथार्थ और अनुभव के धरातल पर खड़ा भविष्य का धर्म है । यह माक्र्सवाद और समाजवाद का पूर्वज है वहीं विश्व में मानववाद की स्थापना का आधार भी है । संसार जब जाति, समुदाय रंग, देश, भाषा आदि तमाम संकीर्णताओं से उबर जायेगा, बुद्ध का धर्म स्वाभाविक रूप से सभी का दीपक बनेगा । ‘सब दुखमय है – जब बुद्ध ऐसा कहते हैं तो हमारा ध्यान जीवन की ओर खींच रहे होते हैं, यथार्थ की ओर खींच रहे होते हैं । और हम उन्हें दुखवादी मान लेते हैं । वास्तव में, जीवन जो पानी के बुलबुले के समान है उसे भय के कारण देखने को हम आज तक तैयार नहीं हैं।

   संसार के लोग इतने प्रबल रूप से संस्कारग्रस्त और सुविधावादी हैं कि उन्होंने बुद्ध के धम्म को पढ़ा, किन्तु समझा नहीं, यदि वे बुद्ध को समझ लेते तो बुद्ध धर्म पैदा ही नहीं होता। बुद्ध ने हमें जो कुछ कहा वो हमें बौद्ध बनाने के लिये नहीं कहा, बल्कि बुद्ध होने के लिये कहा । बुद्ध मूर्तिभंजक थे परन्तु दुनियादारी का खेल देखिए कि आज संसार में सर्वाधिक प्रतिमाएं उन्हीं की है । संसार का अपना अलिखित संविधान है, उसने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा आदि को अपना तारणहार, पथप्रदर्शक माना परन्तु उसकी चाल अपनी, चलन अपनी और चरित्र अपना है । सब कुछ को उसने अपनी सुविधानुसार ढाल लिया।

        भारत में वशिष्ठ के जनविरोधी ब्राह्मणवाद और विश्वामित्र के जनपक्षधर संस्कृति के बीच वैदिक युग से प्रारंभ हुआ संघर्ष इतिहास के विभिन्न चरणों में क्रमशः विकसित होता रहा, जिसका पूर्ण परिपाक बुद्ध की विचारधारा में हुआ।

        ऐसे समय में जब विश्व युद्धोन्माद, आतंक, भय, अंधविश्वास, मिथ्याचार से अशांत है, ऐसा लगता है मानो भरोसे की अकालमृत्यु हो गयी, ऐसे में बुद्ध और अधिक याद आ रहे हैं । बुद्ध को जानना एक प्रकार से अपनी परंपरा और प्रतिरोध के इतिहास को जानना भी है वहीं दूसरी ओर उम्मीद को नाउम्मीद नहीं होने देने का जतन भी है । मैंने भी जानने का प्रयत्न किया और उसी क्रम में बुद्ध, उनसे जुड़े प्रसंगों, घटनाओं, पात्रों आदि के ऊपर एक काव्य संग्रह लाने की साध बढ़ती गई । यह संग्रह उसी साध को धीरज बँधाने का उपक्रम मात्र है । सुधीजनों, काव्यप्रेमियों और मित्रो का आभारी हूँ जिनके प्रेम से मेरी काव्य-यात्रा में यह पड़ाव आया

राजकिशोर राजन की कविताएँ

कला और बुद्ध

सौन्दर्य तो पात-पात में
क्या देखना पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
वह नित परिवर्तित सौन्दर्य
है कण-कण में विद्यमान
वही सत्य का आधार
जिसका, न आर – न पार
जो कर लेता
अपने हृदय में
उस अप्रतिम सौन्दर्य का संधान
कला करती उसी का अभिषेक
करती उसी का सम्मान

जब तक, इसका नहीं ज्ञान
तब तक, सकल मान-अभिमान।

कंतक

क्यों कंतक !

पहले अश्व थे शायद तुम
जिसके समक्ष एक राजकुमार
बन रहा था भिक्खु कुमार

युद्ध और योद्धाओं के साथ
रहने वाली जाति तुम्हारी
तुम्हारे माध्यम से की होगी
यह विरल साक्षात्कार
कि जो लड़ा नहीं युद्ध
देखा नहीं रक्त की नदी, चित्कार, हाहाकार
नहीं समझ पायेगा
प्रेम का अर्थ
उसके लिए क्षमा, शांति, अहिंसा व्यर्थ

एक तुम ही थे
जिसने देखा
युद्ध के विरूद्ध
एक राजकुमार का सम्यक् संकल्प

जब लौटे होगे तुम
सदा के लिए
अपनी पीठ से उतार कर सिद्धार्थ को
तुम्हारे भी अश्रु
गिरे होंगे अवश्य
उस दिन, उस क्षण
तुमने लिख दी होगी
कैसी तो अद्भुत कविता
क्यों कतक !

तुम नहीं हो
पर, तुम्हें देख रहा हूँ मैं
तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ मैं
और मुश्किल से ही
पढ़ रहा हूँ वह कविता

तुम्हें धन्यवाद कंतक !

नोटः- कंतक- सिद्धार्थ का प्रिय अश्व जिस पर बैठ वे कपिलवस्तु की सीमा से बाहर आये थे ।

  राग

अकस्मात् ही हुआ होगा
कभी दबे पैर आया होगा
ईर्ष्या-द्वेष
घृणा-बैर आदि के साथ
जीवन में राग

फिर न पूछिए!
क्या हुआ ……………….
कुछ भी नहीं बचा
बेदाग।

सारिपुत्त की स्वीकारोक्ति

तथागत ! मैंने नहीं देखा विस्तृत नभ को
देखा पृथ्वी को
और हो गया पृथ्वी ही

देखा जल की ओर
और हो गया जल ही

गुरूवर ! देखा अग्नि को प्रज्जवलित
और हो गया अग्नि ही

देखा मंद-मंद बहते वायु को
और हो गया वायु ही

नहीं देखा कभी अपनी ओर
द्रष्टा बन अपनी ही काया को

पृथ्वी की भाँति
मुझे ज्ञात, मात्र स्वीकार
प्रवाहमय मैं जल की भाँति
अनासक्त भाव से
ग्रहण किया संसार

शुभ-अशुभ, असुंदर-सुंदर सभी
हो जाते मुझमें निमग्न
दुर्गंध हो या सुगंध सबको ले चलता
वायु समान

तथागत, मैं हूँ ही नहीं
और सभी में
मैं विद्यमान
जैसी आपकी देशना
जैसा आपका ज्ञान

सारिपुत्र की यह स्वीकारोक्ति
एक न एक दिन हो
हमारी स्वीकारोक्ति ।

नोटः-    सारिपुत्त- बुद्ध के प्रमुख शिष्य

कमल सरोवर

जिनके लिए निर्मित
अलग-अलग ऋतुओं के लिए
सुन्दर, सुसज्जित प्रासाद
और सामने कमलसरोवर

उस सरोवर में शोभित
श्वेत-नील, कमल दल
पर उन्हें उसी से हुई प्रतीति
जब संसार ही असार
कमल सरोवर में क्या सार ?

जिन्हें  ढूँढ़ना है
असार में सार
उन्हें जाना ही पड़ता
कमल सरोवर के पार

अन्वेषकों को नहीं लुभाता
सांसारिकों के ही मन भाता
कमल सरोवर

और यह सरोवर
ले जाता नहीं पार
पहुँचता है वही
जहाँ से कोई करता प्रस्थान
संसार का यही व्यापार

नोटः- कहा जाता है कि सिद्धार्थ के लिए कमल सरोवर का निर्माण कराया गया  था ।

स्वास्ति

तुम-सा बड़भागी कौन ?
जिसे शिष्य बनाने गुरू
स्वयं पहुँचे द्वार

सच ! स्वास्ति
वह शिष्य क्या
जो गुरू को ढूँढ़े
शिष्य वह
जिसे गुरू खोजे
नगर-नगर, पर्वत-पर्वत, गाँव-गाँव

तुम-सा बड़भागी कौन ?
दरिद्रता में डूबे
स्वजन-परिजन तुम्हारे
हर्षोल्लास से विदा किए तुम्हें
जाओं सिद्धार्थ के संग
उनके अश्रुपूरित नेत्रों में
तुम चमकते रहे
सुबह के सूर्य की मानिंद

तुम सा बड़भागी कौन ?
अनाथ स्वास्ति !
जो बालपन से भैंस चराते, चारा काटते
उन्हें धोते, खिलाते
प्राप्त हो गये बुद्ध को, धम्म को, संघ को

सच ! स्वास्ति
तुमने किया प्रतिमान स्थापित
जिसने स्वयं को छोड़ा
हुआ मुक्त
कर सकता वही
पृथ्वी को श्रीयुक्त

उरूबेला की सुजाता
उसी गाँव के तुम
जीवित है सुजाता
जीवित हो तुम

आज रहते तुम तो देखते
हम मुट्ठि में लेना चाहते संसार
ठीक उस शिशु की भाँति
जो गेंद पा, पा जाता संसार
हमारे ज्ञान-विज्ञान पर
तुम कितने हँसते स्वास्तिि !

सुन रहे हो स्वास्ति !

नोट – स्वास्ति उरूबेला नामक गाँव में रहने वाला एक निर्धन, अशिक्षित युवक

दंगश्री

पृथ्वी से ऊपर नहीं
पृथ्वी पर ही
है संभावना
मुक्ति, आनंद की
प्रेय और श्रेय की

दंगश्री पर्वत की ओर
उँगली उठा
बुद्ध ने कहा था
आकाश को

और सदा से
आकाश की ओर टकटकी लगाए
मनुष्य को कहा
लौटने को पृथ्वी पर

दंगश्री, दंग है
अब तक ।

नोट- दंगश्री एक पर्वत का नाम है ।

जेतवन

लाभ-लोभ की धुरी पर
खड़ा पहाड़ ढह गया होगा
पृथ्वी को टुकुर-टुकुर ताकता
परलोक का भय
मर गया होगा

जो जहाँ होगा
निमिष-मात्र के लिए
ठहर गया होगा
जब जेतवन में कहा होगा गौतम ने
कि दुब्प्रज्ञ, एकाग्रतारहित, अनूद्योगी
सद्धर्म से दूर
सदा रहते, निर्वाण के पथ से अनजान

और उन अनजानों के
सैकड़ों जीवन से उत्तम
एक जन्म में सद्धर्म का ज्ञान

डस दिन जेतवन
जीतवन हुआ होगा
सभी अट्टालिकाओं राजप्रासाद
भव्य महलों, गढ़ों से ऊँचा
खड़ा हुआ होगा

पात्रता कैसे मिलती है किसी को
इस संसार में
जेतवन से बेहतर
कौन जानता होगा ।

कुचक्र

कुश की नोंक से
कोई करे भोजन
पर मन रमे सदैव भोजन में

ध्यानस्थ रहें कहीं अरण्य में
पर मन रहे संसार में
जीवन बीते त्यागमय
पर तृप्त हो मन भोग में
हो दृष्टि सदैव सन्मार्ग पर
पर मन घुट जाए किसी गह्वर में

जितनी ही अधिक होगा ज्ञान
उतना ही होगा अनर्थ
प्रज्ञाहीन जीवन में

कुचक्र उस मन का
जो रहता कहीं तन में
पर विचरता हर कहीं
सभी ज्ञात-अज्ञात देश में
न जाने किस-किस वेश में

सदा से चलता रहा चक्र
सदा से कुचक्र।

भिक्खुनी महाप्रजापति

आप ने बताया
जन्म देने मात्र से
कोई स्त्री
नहीं होती माता

और आप तो ऐसी माता
जो बन जाए
उस पुत्र की शिष्या

कितना अद्भुत
कैसा अपूर्व
आपने स्थापित किया
मधुर प्रतिमान
जहाँ मौन हो जाते
सकल ज्ञान, अभिमान

अब तक तो
पुत्र ही करते रहे
माता का अनुगमन
आपने पुत्र का कर अनुगमन
बढ़ाया पुत्रों का मान

पुत्र वह धन्य था
धन्य थीं आप माता

पुत्र हो या अन्य कोई
श्रेष्ठता को मानना
है श्रेष्ठता का पाना।

नवारंभ

अनगिन बरसों से
हम तमाम जल्पना-कल्पना करते रहे
नाना मत, नाना दर्शन, नाना सिद्धांत
गढ़ते रहे
पर कहाँ जान पाये कभी!
मृत्यु के अनुभव को

बस, उस अज्ञात से भयातुर
त्राण पाने हेतु
भाँति-भाँति के उपाय करते रहे
क्या अद्भुत! हमारा अन्वेषण
कि अमरता, क्षणभंगुरता की गोद में बैठ
ढूँढ़ते रहे

एक फूल, एक पत्ते से भी
नहीं जान पाये हम
कि मृत्यु अंत नहीं
होता नवारंभ
अब तक रेत-कण गिनते रहे
स्वर्ग, अमृत, मुक्ति की बाट
जोहते रहे।   


क्षण

क्षण भर में
दुनिया बदल जाती
क्षण भर की यात्रा में
हम नाप लेते संसार

क्षण भर में
रोम-रोम से श्रवण कर
जो हो जाता एकाकार
मिट जाती भ्रांतियाँ
स्फटिक-सा पारदर्शी लगता संसार
खुल जाता भेद
भेद कर आर-पार
इस संसार में जो कुछ घटता महान
क्षणों में घटता
कुहासा, पल में हटता

ऋषिपत्तन के मृगदाय में
बुद्ध का धर्म-चक्र-प्रवर्तन
और श्रवण मात्र से संबोधि को प्राप्त
कोंडन्न के लिए खुल गया द्वार।

कोंडन्न- गौतम बुद्ध के समकालीन और कालांतर में शिष्य

राजकिशोर राजन

सम्पर्क – 
मोबाईल -09771425667

कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें


कालीचरण सिंह राजपूत

परिचय  

कालीचरण सिंह राजपूत

पिता का नाम – श्री सुन्दर लाल सिंह

जन्मतिथि—14-07-1978  
शैक्षिक योग्यता – बी. एस-सी., बी. एड.
सम्प्रति उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद में सहायक अध्यापक  
विकीपीडिया का सहारा ले कर कहें तो मूलतः अरबी भाषा के ग़ज़ल शब्द का अर्थ भले ही ‘औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना’ होता हो लेकिन समय के साथ कथ्य की दृष्टि से ये लगातार बदलती चली गई। फ़ारसी से उर्दू में आने पर भी ग़ज़ल का शिल्पगत रूप तो ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया लेकिन कथ्य पूरी तरह भारतीय हो गया। उत्तर भारत की आम अवधारणा के विपरीत हिन्दुस्तानी ग़ज़लों का जन्म बहमनी सल्तनत के समय दक्कन में हुआ जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़लें लिखी गयीं। भाषा का नाम रेख़्ता (गिरा-पड़ा) पड़ा। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर ख़ुसरो (१३१० इस्वी) की परंपरा को आगे बढ़ाया। दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फारसी के बदले भारतीय प्रतीकों, काव्य रूढ़ियों, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की। ग़ज़ल जब उत्तर भारत में आयी तो पुनः उसपर फारसी का प्रभाव बढ़ने लगा। ग़ालिब जैसे उर्दू के श्रेष्ठ ग़ज़लकार भी फारसी ग़ज़लों को ही महत्वपूर्ण मानते रहे और उर्दू ग़जल को फारसी के अनुरूप बनाने की कोशिश करते रहे। बाद में दाउद के दौर में फारसी का प्रभाव कुछ कम हुआ। इकबाल की आरंभिक ग़ज़लें इसी प्रकार की है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, शमशेर बहादुर सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एवं दुष्यंत कुमार जैसे हिन्दी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया और पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त किया। दुष्यन्त कुमार ने तो आम आदमी की बातों को अपनी ग़ज़लों में इस तरह प्रस्तुत कर दिया जिससे वे जन-जन की जुबान पर चढ़ गयीं कालीचरण सिंह राजपूत ने ग़ज़ल की इस समृद्ध परम्परा को आगे बढाने का प्रयास किया है। कथ्य के नवीनता की रवानगी कालीचरण के यहाँ भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिल्पगत रूप के साथ न्याय करते हुए कालीचरण ने अपनी बाते यहाँ पर खूबसूरती के साथ रखीं हैं आज पहली बार पर प्रस्तुत है कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें 

कालीचरण सिंह राजपूत की गज़लें 
1
इस शहर-ए-नामुराद से रिश्ता नहीं रहा।
जब तूने कह दिया कि तू मेरा नहीं रहा।
अच्छा किया जो दिल को मेरे तोड़ कर गए,
एहसान है तुम्हारा मैं तुम सा नहीं रहा।
देखा! तेरे बग़ैर भी हमने गुज़ार ली,
माना कि तेरा साथ में साया नहीं रहा।
अश्कों के साथ मेरे गिरे वो भी टूट कर,
अब आसमां पे कोई सितारा नहीं रहा।
होते ही ज़र्द आँधियों के साथ उड़ चले,
पत्तों पे इख़्तियार शज़र का नहीं रहा।
दरिया बहा है अपने किनारों को तोड़ कर,
वुसअत की आरज़ू में वो गहरा नहीं रहा।
हमने चराग-ए-इल्म जलाया तो था मगर,
फिर क्या हुआ कि साथ उजाला नहीं रहा।
तू अपनी तिश्नगी के लिए और जा कहीं,
सागर से मिल गया है वो दरिया नहीं रहा।
घुलने लगी हैं तल्खियां गीत और नज़्म में,
ग़ज़लों में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-सरापा नहीं रहा।
वुसअत—-फैलाव 
2
धुवें और गर्द से आगे ज़रा बढ़ कर नहीं देखा।
यक़ीनन तूने मेरे गांव का मंज़र नहीं देखा।
पलट कर लौट आते पास इसका था यकीं मुझको,
चलो अच्छा हुआ तुमने मुझे मुड़ कर नहीं देखा।
मिला जो भी मुहब्बत से, मिला हूं खुशदिली से मैं,
के उसके हाथ में है फूल या पत्थर,नहीं देखा।
नहीं ताबीर उसकी इस जहां में जानता हूं मैं,
वो नाज़ुक ख़्वाब है मेरा उसे छू कर नहीं देखा।
हमारे ज़ख़्म में शामिल उसी की साज़िशें निकलीं,
के जिसके हाथ में हमने कभी खंज़र नहीं देखा।
ख़यालों की बुलंदी से गए हैं आसमां तक हम,
क़दम रक्खे ज़मीं पर बे-सबब उड़ कर नहीं देखा।
करम उस पर खुदा करना कि जब दौर-ए-ख़िज़ाँ आए,
पला वो मौसम-ए-गुल में अभी पतझर नहीं देखा।
3.
उसको छू कर जो चली आई हवा आवारा।
दिल के गुलशन में अजब शोर हुआ आवारा।
क्या बताऊं कि मैं दीवाना हुआ जाता हूँ,
प्यार से छू के मुझे उसने कहा आवारा।
तुझसे बिछड़ा तो मैं खुद से ही बिछड़ जाऊंगा,
फिर यही होगा मेरा नाम पता आवारा।
हर्फ़-दर-हर्फ़ सभी लोग पढ़ेंगे मुझको,
तेरी गलियों में फिरूं ख़त सा खुला आवारा।
बारहा तोड़ ही देता है मेरा दिल ये जहां,
जाऊं लेकर मैं कहां अपनी वफ़ा आवारा।
छोड़ आये हैं किसे गांव की उन गलियों में,
कौन देता है हमें अब भी सदा आवारा।
4.
आये वो मेरी बज़्म में आकर चले गए।
रस्मन वो साथ मेरा निभा कर चले गए।
सीने से वो लगाएंगे मुद्दत से आस थी,
आये वो मुझसे हाथ मिला कर चले गए।
दिल में छुपाये दर्द को बैठे रहे हैं हम,
वो दास्तान अपनी सुना कर चले गए।
वो दोस्त ही नहीं थे जो छोटी सी बात पर,
औक़ात अपनी मुझको दिखा कर चले गए,
जब हादसा हुआ तो चले आये हुक्मरां,
आने की रस्म है सो अदा-कर चले गए।
बस्ती के लोग आ के यही पूछने लगे,
वो कौन थे जो घर को जला कर चले गए।
मैदान-ए-जंग में थे मेरे साथ-साथ जो,
दस्तार अपने सर से गिरा कर चले गए।
ग़ालिब फ़राज़ मीर-ओ-ज़फर दाग़ और फ़िराक़,
क्या शेर-ओ-शायरी है बताकर चले गए।
दस्तार—पगड़ी
5.
बनाओ मत खुदा उसको उसे इंसान रहने दो।
समुन्दर से जुदा क़तरे की हर पहचान रहने दो।
समझनी ही नहीं मुझको ये मज़हब ज़ात की बातें,
बनो तुम शौक से वाइज़ मुझे नादान रहने दो।
हर इक रस्ते की मंज़िल हो ज़रूरी तो नहीं यारो,
कि कुछ रस्ते तुम अपनी ज़ीस्त के अनजान रहने दो।
कभी दिल आश्ना थे हम भरम इतना रहे बाक़ी,
अभी होठों पे तुम अपने ज़रा मुस्कान रहने दो।
लगी जब आग घर में तो कहा मुझसे बुज़ुर्गों ने,
उठा लो हाथ में गीता सभी सामान रहने दो।
क़सम खा कर ज़रूरी तो नहीं वो सच ही बोलेगा,
तो फिर गीता कुरआं अल्लाह और भगवान रहने दो।
सम्पर्क-

सुभाष नगर,  नरैनी

जनपद–बांदा

उत्तर प्रदेश
मोबाईल – 9721903281 

शिव प्रकाश त्रिपाठी का आल्हा

शिव प्रकाश त्रिपाठी
 
जन्म- 27 सितम्बर 1988

स्थान-उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले की बबेरू तहसील में किसान परिवार में

शिक्षा- स्नातक एवं परास्नातक इलाहाबाद विश्वविद्यालय

          शोधकार्य (हिंदी साहित्य), कुमाऊँ वि० वि०, नैनीताल से

अनुनाद ब्लॉग एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएँ प्रकाशित
लोकगीत मानवीय मन की सघनतम एवं सहजतम अभिव्यक्ति होते हैं लोकगीतों में आल्हा अपने छन्द विधान एवं गायन शैली की दृष्टि से सबसे अलहदा एवं विशिष्ट दिखाई पड़ता है। वीर रस की अभिव्यक्ति से अनुस्यूत आल्हा के बारे में यह ख्यात है कि इसे सुन कर निर्जीवों की नसें भी युद्ध के लिए फड़कने लगती हैं। युवा कवि शिवप्रकाश ने इसी आल्हा छन्द में कुछ कविताएँ पहली बार के लिए भेजीं हैं। तो आइए पढ़ते हैं शिवप्रकाश त्रिपाठी का आल्हा  

शिव प्रकाश त्रिपाठी का आल्हा 

सुशासन की है नौटंकी, घोटालों का राज बनाय
एकहि वार कियो व्यापम ने, धर्मराज को दियो बुलाय
छीयालिस तो स्वाहा होई गये, बाकी गये सनाका खाय

फरफर फरफर फरकत बाजू, कितने कटतमरत अब जाय

वीर शिवा के राज मा भैय्या, राम राज अब उतरा हाय

संतोषा है नाम ज्वान का, मचा दियो है तहलका य़ार

नेतन मा खलबली मच गयी, मची सबन मा हाहाकार

जाँच के ऊपर जाँच बईठ गइ, कमेटियन की बही बयार

घन घन घनघन बादर गरजै, औ गरजै अब यहाँ सियार

सुशासन की है नौटंकी, घोटालों का राज बनाय

भ्रष्टाचार खून मा इनके, अऊ ईमान गयो हेराय

शव पे राज करे कितनन के, तब जाकै शवराज कहाय

खून के आँसू रोई राजा, गरिबन की जब लागी हाय

कोरट से आ गया फैसला, अब आगै का सुनो हवाल

सरकारी तोता  का देखो, जाँच  मिल गयी अबकी बार 

मामा की तो चाँदी होई गयी, केंद्र मा बईठी है सरकार

राजनाथ का चरण चुम्बनं मोदी  की अब जय जय कार

राजपाल के नाम मा धब्बा, बड़े कोरट की पड़ गयी मार

सैतालिस अब लाशै गिर गयी, चारो तरफ मची चित्कार

खून से माटी लाल होई गयी, देखो  जिधर  खून की धार

राज मा मौत का तांडव मचगा, जनता मा दोहरी है मार

अल्लाह अल्लाह राटै मुसल्ला, गवाही कहै खुदाय खुदाय

घोटलवा से जान बचा  दे, आगे  गवाही हम करिबे नाय

ई तो हाल है मुसलमान का तनि हिन्दुअन की सुनो दस्तान

श्याम राम बजरंग बली शिव, कितने नरियर फूटत जाय

कितने मान मनौती  मन गए , अबकी जान बचायो पाय

धड़धड़ धड़धड़ लाशै गिर गई, ऊँचनीच व्यापम मा नाय   

एक  समान  सबै  का  मारे, मामा  का यहु राज कहाय

सूनी होइगे  मांग कितनन के, जीवन की है कठिन डगर

सुबह से लइके शाम होई गयी, चुनुवा ढूढए इधर-उधर

रोवै   बापू   बापू  कइके, रस्ता   देखै    भरी    नज़र

सूखी रोटी खा रही लेब,   करिबे  हम  अगर – मगर

बस एक बार तू वापस आ जा, गले लगा ले जीभर कर

बेईमाननीय

छप्पन इंची छाती लादे, अढ़ाई हाथ की लिए जुबान

जहिकै ऊपर धरै निशाना, निकरै  तुरंत चट्ट  से प्रान

व्यापारिन के शान है साहेब, खोल के बईठा है दुकान

अम्बानी  अड्डानी  टाटा , के  चेहरन मा  है  मुस्कान

जुमलेबाजी मा माहिर वा , नारा है अब वहिके शान

देश विदेश फिरै वा हरदम, बईठ के सरकारी विमान

आपन देख भाल खुद कर ले, जनता  सुन  के है  हैरान

सेल्फी सेल्फी नारा गढ़ के,बईठ के दांत चियारे जवान
 
बुन्देलन की शान है  आल्हा
कि आल्हा सुनै जो सावन-भादौ, स्वाभिमान ये दियो जगाय

फरकत भौहें चमकत बिजुरी,  सुनतय   खून  खौल  ही जाय

करम भूमि मा उतरि पड़ो  अब , मन  काहे  रे  तू  सकुचाय

बुन्देलन की शान है  आल्हा , ज्वानन मा  फिर जोश जगाय

 
सम्पर्क-
शिव प्रकाश त्रिपाठी
शोध छात्र, हिन्दी विभाग

कुमाऊँ विश्वविद्यालय , नैनीताल, उत्तराखण्ड 

ई-मेल – ssptripati2011@gmail.com 

मोबाईल – 8960580855  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त की गयी पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.) 

अनिल सिंह अनलहातु की कविताएँ

अनिल सिंह अनलहातु



जन्म  बिहार के भोजपुर(आरा) जिले के बड़का लौहर-फरना गाँव में दिसंबर  1972 
शिक्षा –   बी.टेक., खनन अभियंत्रण- इन्डियन स्कूल ऑफ़ माइंस ,धनबाद,
               कम्प्यूटर साइंस में डिप्लोमा, प्रबंधन में  सर्टिफिकेट कोर्स.
प्रकाशन साठ सत्तर कवितायें, वैचारिक लेख, समीक्षाएं एवं आलोचनात्मक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.
कविता-इण्डिया”, ”पोएट्री लन्दन” , “संवेदना”, “पोएट”, “कविता-नेस्ट” आदि अंग्रेजी की पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में अंग्रेजी कवितायें प्रकाशित.
   “तूतनखामेन खामोश क्यों हैकविता संग्रह प्रेस में.
पुरस्कार
कल के लिए द्वारा मुक्तिबोध  स्मृति  कविता  पुरस्कार,
अखिल भारतीय हिंदी सेवी  संस्थान, इलाहाबाद द्वारा राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार.
आई.आई.टी. कानपुर द्वारा हिंदी में वैज्ञानिक लेखन पुरस्कार   
संप्रति   केन्द्रीय लोक उपक्रम में उपमहाप्रबंधक.
वक्तव्य :
कविताएँ मेरे लिए सिर्फ कथार्सिस का ही काम नहीं करती अपितु मुझे, व्यक्ति के रूप में मनुष्य की गरिमा को उसकी सम्पूर्णता में स्थापित एवं व्यक्त करने का लगातार दबाव भी बनाती हैं. सामाजिक विद्रूपताओं एवं वैषम्य के विरुद्ध अनवरत और अंतहीन संघर्ष की अंत:प्रेरणा है मेरा लेखन. मेरी रचनाएं आईना हैं, समाज और व्यक्ति को उसका विद्रूप,विरूप और विकृत चेहरा दिखाती हुईं एक बेहतर मनुष्य और एक बेहतर समाज के निर्माण हेतु सतत सक्रियता का संधान करती हुईं .जब भी कोई व्यक्ति अपने अधिकार के लिए खड़ा होता है, वह सुन्दर दिखने लगता है …..मेरी कविताएं इसी सुन्दरता की  शाब्दिक अभिव्यक्ति हैं. 
  
आजादी के बाद के वर्षों में यह पहला मौक़ा है जब देश एक दोराहे पर खड़ा नजर आ रहा है. हमारे सामने है एक तो वह राह जिस पर चलते चले आएँ हैं. और इस चलते चले आने में तमाम दुश्वारियों का सामना भी किया है. दूसरी राह वह है जो मोदी सरकार बनने के बाद कुछ राष्ट्रवादियों और हिंदुवादियों द्वारा तैयार की जा रही है. यह लुभावनी राह है. इसमें जाति-धर्म के साथ उस प्राचीनतम गौरव एवं स्वाभिमान का तड़का है जिसकी गंध अतीत के उस स्वर्णिम काल में छिपी है जो पूरी तरह यूटोपिया है. यह अनायास ही नहीं है बल्कि इसकी एक लम्बी परम्परा ही है. सभ्यता का मुलम्मा कुछ इसी तरह का होता है जो हमें ही नहीं पूरी सभ्यता को एक बारगी भ्रमित कर देता है. गौर से देखा जाए तो इस सभ्यता के हाथ उन निर्दोष मानवों के रक्त से सने हैं और इस मानवता को जमींदोज कर ही उसने ‘अपनी श्रेष्ठता का स्तूप’ खड़ा किया है. इसी क्रम में आज लेखकीय सरोकारों की अहमियत बढ़ जाती है. सौभाग्यवश लेखकों का प्रतिरोध भी दिखाई पड़ रहा है. युवा कवि अनलहातु की कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि युवा पीढ़ी अपनी उस परंपरा और सरोकारों से परिचित ही नहीं है बल्कि उस दुष्कर राह पर चलने के लिए तैयार भी है. अनिल की कविताओं में वह स्वाभाविक रुखडपना है जो शुरूआती दौर में दिखनी भी चाहिए. लेकिन इस रुखड़पने में दूर तक की वह आवाज है जो ‘खुद के विरोध में बोलने’ से भी नहीं हिचकती. एक स्थिति आती है जब खुद अनिल के शब्दों में कहें तो ‘अपने ही बनाए/ मर्यादा-तट को,/ भागता है वह/ अपने-आप से ही.’ अनिल उस जगह पर और प्रभावशाली नजर आते हैं जहाँ वे इतिहास के तथ्यों के सापेक्ष अपने समय में खड़े हो कर जमाने से संवाद करने की कोशिशें करते हैं. इतिहास भी तो मानवीय गतिविधियों और व्यवहारों का ही वस्तुनिष्ठ अध्ययन है. बहरहाल आज प्रस्तुत है युवा कवि अनिल सिंह अनलहातु की कुछ नई कविताएँ.   
         
अनिल सिंह अनलहातु की कविताएँ
भारत छोड़ो आंदोलन
यह उस समय की बात है
जब लोग-बाग अपने चेहरे को
गर्दन से हटा कर
अपनी हथेलियों में रख
भय और आश्चर्य से
घूरा करते थे
एक आदमी
जो दो शून्यों को जोड़ कर
अनंत (00) बनाया करता था,
अचानक ही उन शून्यों को
एक के उपर दूसरा रख
एक खोखला ड्रम बना
उसके भीतर बैठ
लुढ़कने लगा
यह वह वक्त था
जब लोग-बाग
आपस में बातें करते
एक-दूसरे के पैर नहीं देखा करते थे,
यह वह शानदार और बहादूर वक्त था
जब कुछ सनकी और कूढ़मगज नौकरशाह
जनतंत्र की कमोड पर
नैतिकता से फरागत हो रहे थे
एक आदमी अचानक ही कहीं से
चीखता हुआ आया
और मुक्तिबोध”(1) की खड़ी पाई की
सूली पर लटक गया,
यह कतई मुक्तिबोध(1) की
गलती नहीं थी
क्योंकि पूरा देश ही
पाईऔर खाई”(2) के नाम पर
बिदका हुआ था
बूढ़े बुड़बुड़ाते सुअरों की तरह
पास्कुआल दुआर्ते(3) के
छोटे अबोध भाइयों के
कान चबा रहे थे,                              
और बड़े चोली के पीछे छुपे(4)
सत्य को पकड़ लेने को बेताब थे     
जबकि युवाओं की एक लंबी कतार
धूमिलके स्वप्नदोषों से लेकर
गोरख पांडेकी दालमंडी(5) तक
पसरी पड़ी थी,
और मैं था कि 
लगातार अपने आप से भागते हुए
फिर-फिर अपने तक ही
पहुँच रहा था,
भागने और फिर भी
कहीं नहीं पहुँचने की यह लंबी दास्तां
शायद
उधार मे मैंने
अपने बाप से ली थी
जो लगातार ग्रामोफोन पर
उदास, तन्हें और गमगीन गाने सुनता रहा
और श्मशान को
शहर से बाहर कर देने का
सुझाव देता रहा
कुछ रघुवीर सहाय की कविता
की इस पंक्ति के तर्ज पर कि
कल मैं फिर एक बात कहकर बैठ जाऊँगा”(6) ;
कहने और फिर बैठ जाने के बीच के
फासले को वह
विनोद कुमार शुक्ल के
बड़े बाबू”(7) की तरह
नौकर की फटी कमीज की भाँति
जतन से तहिया कर
रख दिया करता था,
यद्यपि वह अपनी उम्र के दस के पहाड़े
के उस पड़ाव पर ही था
जब हॉलीवुड  की हीरोइनें
अपने जवान होने का एलान
करती हैं                                  
वह अपनी मौत से कई-कई बार
गुजर चुका था
अपने कंधों पर उसने
कई-कई लाशों के वजन
सहे थे;
वह टूटता जा रहा था
……………………….
………………………
और मै ………….
कि ठीक इसी वक़्त मुझे
मेरे उस दोस्त ने
बचा लिया था
जो तब बंबई मे था
और उस आदमी के बारे में
बताता रहता था
जो बाँबे वी.टी. की भीड़ भरी सड़कों पर
कुहनियों एवं टखनों से
अपने लिये जगह बनता चलता था,
वह स्तब्ध था
और मैं……….
पटना के तारघर की मेज पर
किसी अजनबी”(8)  द्वारा लिखित
अपनी सुईसाईड नोट का
टेलीग्रामी मज़मूँ
पढ़ रहा था
लेकिन ठहरें, किस्सा यहीं खत्म
नहीं होता
(जैसे खत्म नहीं होती कोई कविता)
अपार भीड़ के
उस निर्जन सूनेपन मे
वह कई-कई बार
अपनी मौत की संडास पर
जाकर मूत आया था
(यद्यपि यह तय है कि कुछ भी तय नहीं है )
फिर भी यह तय है कि वह बहुमुत्र रोगी नहीं था
यह तो उसने बाद में बताया                                                              
तब मैं
इतिहास की पुस्तकों में उलझा
उपालि”(9) और आनंद”(9) से
जिंदगी का पता पूछ रहा था,
उस जिंदगी का
जो किसी अमीर के ऐशगाह मे लेटी
जनतंत्र और समाजवाद के
ख्वाब देखा करती थी
और मैं था कि …….
……………………….
लगातार
लगातार
इतिहास की पुस्तकों
मे खोया………
और आज़ादी मिलने के
बयालिस साल बाद
मुझे यह पता चला है कि
दरअसल वह
क्विट इंडिया मूवमेंट था
जिसे मैं आज तक
“भारत छोड़ो आंदोलन
समझ रहा था
नोट:

 (1)गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अँधेरे मेंमें  उल्लिखित खड़े पाई की सूलीसे  संदर्भित

 (2)मंडल एवं कमंडल आंदोलन संदर्भित है

 (3)महान स्पेनी उपन्यासकार कामीलो  खोसे सेला के नोबेल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास पास्कुआल दुआर्ते का परिवारका मुख्य पात्र जिसके छोटे भाई का कान सुअर चबा गया था

(4) उस समय का एक मशहुर फिल्मी गीत

(5)बनारस का वेश्यालय 

(6) रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति

(7)विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज़ का मुख्य पात्र

(8)अल्बैर कामु का उपन्यास ल स्ट्रैंजर” 

(9) बुद्ध के पट्ट शिष्य,आनंद बुद्ध का भतीजा था एवं उपालि कपिलवस्तु का एक नापित था, बुद्ध की मृत्यु के बाद प्रथम बौद्ध संगिति मे आनंद एवं उपालि ने  त्रिपिटक ग्रंथों में से दो पिटकों क्रमशः सुत्तपिटकएवं विनयपिटकको संग्रहित किया
                                                 
खुद के विरोध में
क्यों होता है ऐसा
जब आदमी उठ खड़ा होता है
खुद के ही विरोध में,   
जब उसे अपनी ही सोच
बेहद बेतुकी और भौंडी
लगने लगती है  
क्यों होता है ऐसा
जब आदमी
सुबह की स्वच्छ और ताजी हवा में
घूमने के बजाए
कमरे के घुटे हुए, बदबूदार सीलन में,
चादर में मुँह औंधा किए
पड़ा रहता है?
क्यों होता है ऐसा
जब आदमी साँपों की हिश-हिश
सुनना पसंद करने लगता है?
आखिर वह कौन-सी
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे
खुद के ही खिलाफ़?
क्यों वह विवश हो जाता है
साँप की तरह
अपना केंचुल छोड़ने पर?
आदमी की आखिरी छटपटाहट
कसमसाकर
आखिर क्यों तोड़ती है
अपने ही बनाए
मर्यादा-तट को,
भागता है वह
अपने-आप से ही
गोरखकी हताशा लिए (1)       
आह क्यूकी उझंख (2)          .
नीरवता में
***
नोट-
(1)  गोरख पांडे के लिए संदर्भित. 
(2)  लु शुन की कहानी आह क्यू की सच्ची कहानी का नायक.
डोडो ()
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ो से हो कर
वो  चला जा रहा …हरिकिशुना ……
सर को गोते
दूर …गाँव के सिवान पर
दिखता एक धब्बे की तरह
और इसके पहले की
हरिकिशुना लौट आये
मैं जमा कर  लेना चाहता हूँ
कुछ ऊबे हुए फालतू व निरर्थक
घोषित हो चुके शब्द
क्योंकि यही वह  समय है
जब शब्दों की सत्ता और अर्थवत्ता
संदेह के घेरे से
बाहर निकलना चाहती है
शब्दों को तलाशता, खंगालता
मैं आगे बढ़ ही रहा था की
दिखा………वो…हरिकिशुना ..
उसी तरह खाली हाथ डोलाता  
मुंह सिये  हुए …
जानता था यद्यपि,
हर बार की तरह लौटेगा
हरिकिशुना वैसे ही
बेजुबान, भुला हुआ
भटका हुआ अपने
विश्वासों के जंगल में गुम 
गुमसुम, मूक ..
खोती हुई अपनी हिम्मत को
फिर से वापस संजोता हुआ
कि  अचानक  सुन पड़ी
डभक-डभक कर  रोने की आवाज़
देखा ….
खेत की मेड़ो पर
एक बच्चा रो रहा है
और यही वह जगह है
जहाँ मैं बेतरह कमजोर
हो उठता हूँ
और इसके पहले की मैं
अपनी ही संवेदनाओं की गिरफ्त में
कैद हो जाऊं
उछाल दिया मैंने
अब तक जमा किए
तमाम शब्दों को
सामने से आ रहे हरिकिशुना की ओर |
(टूटे मंच और बिखरे  लोगों के बीच से आया )
हकबकाया हुआ हरिकिशुना
चीखा तब एकबारगी
बड़ी ही भयानकता से ………….
गूंजती ही चली जा रही है
उसकी आवाज़
खेतों – खलिहानो व गाँवों को
पार करती  हुई
जंगलों – पहाड़ों, मैदानों को
लांघती हुई
बढ़ती ही जा रही है ….
उसकी आवाज़….
———————————*————————————-
१.डोडो – मॉरिशस में पाए जाने वाला विलुप्त पक्षी
 
अफ्रीका
हमारे समय के एक बहुत बड़े कवि का
यह कहना कितना खतरनाक है कि
वे पेड़ पौधों की भांति चुपचाप
जीने वाले सीधे लोग हैं …..
………………………….
………………………..
एक पूरी की पूरी  जाति
मानवता, सभ्यता को
क्या जंगल में
तब्दील कर देना नहीं है
एक पूरे महादेश को
जहाँ पर मानव (होमो इरेक्टस) का
सर्वप्रथम विकास हुआ
को अंध महादेश घोषित
किया जाना कौन सी
सभ्यता है??
एक समूचे महादेश को
उसकी भाषा से वंचित कर देना
क्या अपराध नहीं है?
है न यह अजीब बात
कि दुनिया को सभ्यता का पाठ
पढ़ाने वाले महादेश को
चार सौ सालों से गुलाम रहे देश
का एक अदनासा कवि  जुबान दे
उसे बताए कि भाषा की तमीज़
क्या होती है!
कि भाषा बुद्ध या ईसा का दांत नहीं
कि उसपर तुम खड़ा कर सको
अपनी श्रेष्ठता का स्तूप
चीख के पार
तुम चीखोगे और चिल्लाओगे
कि इसके सिवा तुम
कर ही क्या सकते हो,
और कुछ कर भी सकते हो
तो बस इतना ही
अपने दोस्तों के बीच
गुस्सा सको
और अपनी कमज़ोरियों को
सिद्धांतों और आदर्शों का
जामा पहनाओ;
कि यही वह जगह है
जहाँ लात मार देने से
तुम भुसभुसे दीवार की तरह
भहरा कर गिर पड़ोगे
लेकिन आश्वस्त रहो
कि इस खतरे से
अभी तुम दूर हो
कि तुम्हें लात मारने वाले भी
तुम्हारी ही कमजोरी के शिकार हैं
कि तुम  भी
उन्हीं बुद्धिमान जनखों के अंतर्राष्ट्रीय तबेले
के सदस्य हो
ऐसा हो सकता है
और है भी ऐसा
की एक समय ऐसा आयेगा
कि एकाएक तुम्हें
लगने लगे
कि वे तमाम चीज़े
जिनसे तुमने अपनी आस्थाओं
के ड्राइंग-रूम को सजाया था
अचानक ही आउट-डेटेड हो गई हैं
जो तमाम दुसरे घरों से कबका
उठाकर कूड़ेदानों में डाला जा चूका है,
हो सकता है तब
तुम फिर चीखोगे , चिल्लाओगे
और धूमिल के अनुसार
अपने ही घूसे पर गिर पड़ोगे

                             

पता –    
c/o ए.के. सिंह, 
फ्लैट नं. – 204, अनन्या अपार्टमेंट, 
शांति कालोनी, गुरूकृपा ऑटो के पीछे

स्टील गेट,सरायढेला, 
धनबाद, झारखंड-828127 |

          
मोबाईल नम्बर : 08986878504, 09431191742, 03262202884 ,

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पहली पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है जबकि दूसरे चित्र डोडो का सौजन्य गूगल का है.) 

अदम गोंडवी की गज़लें

अदम गोंडवी का वास्तविक नाम राम नाथ सिंह था. अदम का जन्म गोंडा जिले के परसपुर के  आटा  गाँव में २२ अक्टूबर १९४७ को हुआ. कबीर जैसी तल्खी और जनता के दिलो दिमाग में बस जाने वाली  शायरी अदम की मुख्य धार और उनकी पहचान थी. जन कवि नागार्जुन की तरह ही अदम ने जनता और  उसके राजनीतिक संबंधो को अपना काव्य विषय बनाया और  सच  कहने  से  कभी  नहीं  हिचके.  जनवादी प्रतिबद्धता के साथ वे जिन्दगी  की  अंतिम  सांस तक जुड़े रहे और लेखकीय स्वाभिमान के  साथ  जीते रहे. १९९८ में अदम को  मध्य  प्रदेश  सरकार ने  इन्हें  दुष्यंत कुमार सम्मान से  पुरस्कृत  किया.

अदम के प्रमुख एवं चर्चित गजल संग्रह हैं- ‘धरती की सतह पर‘ और ‘समय से मुठभेड़

लीवर सिरोसिस की बीमारी से जूझते हुए १८ दिसंबर २०११ को अदम का निधन हो गया. 

अदम की कविता में वह ताप है जो आप को झकझोर देता है. इसमें आपको जीवन की वे विडम्बनायें दिखेंगी जो आज हमारे चारो तरफ हैं और जिनकी चर्चा आम तौर पर नहीं हो पाती. आज अदम के जन्मदिन पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ ऐसी रचनाएँ जो मुझे प्रिय हैं.
अदम गोंडवी    

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –
“जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने”

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर “माल वो चोरी का तूने क्या किया”

“कैसी चोरी, माल कैसा” उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर –

“मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो”

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

“कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं”

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, “इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, “साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें”

बोला थानेदार, “मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है”

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
“कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल”

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!

वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं 

वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें

लोकरंजन हो जहाँ शम्बूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का यथार्थ
त्रासदी कुण्ठा घुटन संत्रास लेकर क्या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए 

जितने हरामखोर थे कुर्बो -जवार में

जितने हरामखोर थे कुर्बो -जवार में
परधान बनके आ गए अगली कतार में

दीवार फांदने में यूँ जिनका रिकार्ड था
वो चौधरी बने हैं उमर के उतार में

फौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई
जो भी जमीन खाली पड़ी थी कछार में

बंजर ज़मीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप
ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में

जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दें
समझो कोई ग़रीब फँसा है शिकार में

 
एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल 

एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी ग़ज़ल

सालहा जो हीर व राँझा की नज़रों में पले
उस सुनहरे ख़्वाब की तामीर है मेरी ग़ज़ल

इसकी अस्मत वक्त के हाथों न नंगी हो सकी
यूँ समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी ग़ज़ल

दिल लिए शीशे का देखो संग से टकरा गई
बर्गे गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल

गाँव के पनघट की रंगीनी बयां कैसे करें
भुखमरी की धूप में दिलगीर है मेरी ग़ज़ल

दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे अदम
शोख़ लहरों की लिखी तहरीर है मेरी ग़ज़ल

भूख के अहसास को शेरो -सुखन तक ले चलो

भूख के अहसास को शेरो -सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अन्जुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज्मों जब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

खुद को ज़ख़्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो

 
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में 

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इनमें वो कशिश होगी न बू होगी न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लाँन की लम्बी कतारों में

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्में के सिवा क्या है फ़लक के चाँद -तारों में

रहे मुफ़लिस गुजरते बे यकीनी के तज़रबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में

शिव प्रकाश त्रिपाठी की कविताएँ

शिव प्रकाश त्रिपाठी


जन्म- 27 सितम्बर 1988

स्थान- उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले की बबेरू तहसील में किसान परिवार में

शिक्षा- स्नातक एवं परास्नातक इलाहाबाद विश्वविद्यालय

शोधकार्य (हिंदी साहित्य), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल से

अनुनाद ब्लॉग एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएँ प्रकाशित 
आज की कविता के बारे में प्रायः यह बहस जोरो-शोर से की जाती है कि यह प्रभावकारी क्यों नहीं हो पाती? कविता के बारे में यह सवाल युवा कवियों के मन में भी बार-बार उठता रहता है और इसी क्रम में वे कविताएँ भी लिखते हैं. युवा कवि शिव प्रकाश त्रिपाठी ने भी इस सवाल से टकराने की कोशिश की है. और पाया है कि किसी भी किस्म की घटनाएँ दुर्घटनाएँ अब इन सम्भ्रान्त कवियों को संवेदित नहीं करतीं बल्कि यह सब आज के इन तथाकथित सम्भ्रान्त कवियों के लिए ‘रा मैटेरियल’ की तरह ही है. शिव अपनी कविता में कहते हैं ‘ये घटनाएँ, दुर्घटनाएं/ ओलावृष्टि, अतिवृष्टि और अनावृष्टि/ महज़ एक ज़रिया हैं/ सिर्फ ‘रा’ मैटेरियल/ उन ए. सी. में बैठे प्रतिष्ठित/ स्वयंभू साहित्यकारों के लिए/ जो शब्दों को असेम्बल करके एक रूप देते हैं/ जिसे हम सब कविता कहते हैं.’ यानी कविता उनके लिए महज एक खेल है. महज ‘रा मैटेरियल’. ये संवेदनाओं से नहीं उपजतीं बल्कि कविता लिखने के लिए तथ्य की तरह संकलित की जाती हैं. इसीलिए ये कविताएँ वह प्रभाव पैदा नहीं कर पातीं जिसकी हमें प्रायः अपेक्षा रहती है. कुछ इसी तरह के जद्दोजहद से गुजरते हुए शिव प्रकाश ने कविताएँ लिखीं हैं जिसे हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. 
शिव प्रकाश त्रिपाठी की कविताएँ                                                                                                                        

                                                                           
बहादुर
रूकती है बस जब स्टाप में
जग जाती है कितनों की उम्मीदें
एक बहादुर अपने हौसले की रस्सी लिए
दौड़ कर आता है सवारियों के पास
दरअसल उसकी नज़र आप पर नही होती
जो आपके लिए है बोझ मात्र
ये बोझ ही उसकी उम्मीद है
जितना बड़ा बोझ उतनी ज्यादा उम्मीद
जब लेता है सर मत्थे पर
उस बोझ को तो खो जाता है
एक सोंधी महक में
रोटी से आ रही होती जो आज रात मिलने वाली
इस बोझ के एवज में
इन्ही खयालों में डूबते-उतरते
चढ़ जाता है उसी पहाड़ी में
जिन्हें हम देखकर ही घबरा जातें हैं
रा मैटेरियल
ऑफिस से लौट कर रात को
खाने में गोस्त के टुकड़ों को नोचते हुए
व्हिस्की के पैग के साथ
लिखी जाएगी एक कविता
हमारे ओले से बर्बाद फसलों पर
फिर फिर छपेंगे कविता संग्रह
वाह-वाही मिलेगी, बधाइयाँ भी मिलेगी
कवि को,कविता को और
ऐसी ही कविताओं से भरी संकलन को
ये घटनाएँ, दुर्घटनाएं,
ओलावृष्टि,अतिवृष्टि और अनावृष्टि
महज़ एक ज़रिया हैं
सिर्फ ‘रा’ मैटेरियल
उन ए. सी. में बैठे प्रतिष्ठित
स्वयंभू साहित्यकारों के लिए
जो शब्दों को असेम्बल करके एक रूप देते हैं
जिसे हम सब कविता कहते हैं
लेखक
वो जानता है
कुश्ती के सारे दांव-पेंच
ये और बात है कि वह लेखक है, कवि है और बहुत भी
चूँकि साहित्यकार संभ्रांत माना जाता है
तो वह भी सभ्य ही हुआ
मेरे, आपके, हम सबों के बीच
एक दिन
मैंने देखा उसे निपट एकांत में
सभ्यता के नकाब को उतर कर 
खुद के आईने में उसे झाकते हुए
भीषण अट्टहास करते हुए
उसकी आंखे अब पहले जैसी नही रही
उनमें दिखती लाल रेशो का रंग पीला हो चुका था
क्यों कि वह अब
चौपाया नजर आ रहा था
फिर भी मै कहूँगा वह संभ्रांत है
किन्तु सिर्फ आप सबों के  बीच
नशा
जिन्दगी का सबसे बड़ा नशा
जिन्दा रहने का होता है ज़नाब
जीने के लिए लोग
मर भी सकते हैं और मार भी सकते हैं
इन्हें ही सरकारी भाषा में
नक्सलवादी कहा जाता है

चेहरे
देखता हूँ मै यहाँ
तरह तरह के चेहरे
और उनसे झांकता उनका
कमीनापन
वर्जित है
 
कभी कभी
जोरों से चिल्लाने का करता हैं मन मेरा
पर वर्जित है
सभ्य समाज में चिल्लाना 
 
सम्पर्क 
मोबाईल – 8960580855
ई-मेल – ssptripathi2011@gmail.com
    
(उपर्युक्त पोस्ट में प्रयुक्त की गयी पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)  

जितेन्द्र कुमार सिंह (जे. के. सिंह) की कविताएँ

 

जे के सिंह

नाम – जितेन्द्र कुमार सिंह (जे0 के 0 सिंह) 

जन्मतिथि 15 /9/1946
स्थायी पता -ग्राम सोनबरसा, पोस्ट- मेंहदावल जिला संतकबीर नगर (उ. प्र.)
वर्तमान पता – मुकाम – बङा महादेवा, पोस्ट – पीरनगर जिला गाजीपुर (उ. प्र.)
सम्प्रति -पी. जी. कॉलेज गाजीपुर के समाजशास्त्र विभाग के रीडर पद से सेवानिवृत
‘सृजन सन्दर्भ’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख कविताएँ एवं समीक्षाएँ प्रकाशित
तीन काव्य संग्रह – 1. जो लोग अभी जिन्दा हैं, 2. पानी चुप और उदास है, 3. सोन बरसा की सोन चिरैया (बाल कविता )
आलोचना ग्रन्थ – ‘साहित्य का समाज शास्त्र’
समकालीन सोच (त्रैमासिक ) के संपादक मंडल में

एक साहित्यकार इसीलिए औरों से अलग होता है कि उसकी चिन्ता के केन्द्र में वे आम लोग होते हैं जो बहुत हद तक मानवीय जीवन और मानवीयता को बचाए रखने का प्रयास करते हैं. वरिष्ठ कवि जितेन्द्र कुमार सिंह जो अपनों के बीच जे. के. सिंह के नाम से ख्यात हैं, की कविताओं में यही चिन्ता मुख्य रूप से दिखाई पड़ती है. इसीलिए तो वे बेबाकी से आम लोगों की आधारभूत जरूरतों रोटी, कपड़ा और मकान के पक्ष में बातें करते हुए कहते हैं –  ‘तुम कोई मंदिर बनाओ/ या करो रथ यात्रा/ भूखे लोगों को इससे क्या/ वे चाहते हैं रोटी/ रोटी जब हाथ पर जब आ जाती है/ वे पा जाते हैं/ सारा स्वर्ग अपवर्ग.’ तो आइए पढ़ते हैं  जितेन्द्र कुमार सिंह की कुछ इसी  तरह की आस्वाद वाली नयी कविताएँ.   


जितेन्द्र कुमार सिंह (जे. के. सिंह) की कविताएँ 
यह सब 
तुम्हारे पास होने से
यह सब
उतर आता है तल में
अन्तर्कथा सा
रूप भी, रस भी,  गंध भी , गति भी
अंगङाई लेते
बादलों के केश गुच्छ में
हवा फेरती है अंगुलियां
मधुमालती की ओट में लरजती
एक कली लजा जाती है
बाहों में रूप का पहाड़ लिये
नाचने लगता है ऋतुराज
तितलियां सुनाने लगती हैं
फूलों को परीकथा
और होठों पर छलक आती है
एक मुस्कान
रातरानी के पांवों में
घुंघरू सी बंधी
गंध के छन्दों को सुन कर ठमक जाता है समय
चांदनी की अंगुलियां
सितारों पर थिरकती हैं
चांद के पास बैठे रहने पर
सुबह-सुबह
आसमान के पांव में
पुत जाती है
धुली हुई केशर
नदी बन जाती है
एक पांव
और बहकती पुरुवा की छुवन से लाल हो जाते हैं
किसी छुईमुई के गाल
सब कुछ अपना सा होते हुए
धूमिल संध्या
दौङकर दौङ कर रख आती है करोङों दिये
घरों के छज्जे पर
रंग रोगन होने तक
राह तो है 
राह के मुहाने को
वैश्विक विकल्पहीनता की धुन्ध में
धकेल कर लोग बजा रहे हैं
ढोल और नगाङा
कह रहे हैं कि
राह तो चुक गयी
आगे कोई राह ही नहीं
जहां हैं वही कदमताल करते रहिए
कर्ज लेकर घी पीते रहिए
या हिटलरी टोपियां पहन कर
बन जाइये जन सेवक
चलाते रहिए लाठियां
अपने ही भाइयों पर
या शामिल हो जाइए
फिदायनी दस्तों में
इधर गढे जा रहे उदार भाव से
तरह तरह के भगवान
पैदा हो रहे हैं
तरह-तरह के गुरू महाराज
चाहें तो उनमें से किसी का
गह लीजिए चरण
सुनिए स्वस्ति वाचन
चित्त की वृत्तियों को रोकिए
या अफीम खा कर
नींद में पड़े रहिए
चाहे किसी स्ट्रिप क्लब में
नंगा निर्वस्त्र हो
किराये की छोकरियों के साथ
रात-भर नंगा नाचिए
छोड़ दीजिए
सोचना समझना
आपके पास बहुत है
जंगल जमीन जल
इन्हें सौंप दीजिए
अमेरिका को
आपके सुख का इंतजाम कर देंगी
वैश्विक कंपनियां
कम्प्युटरी अंगुलियों से
लेकिन सवाल तो कुछ और है
लोग कर रहे हैं खुदकुशी
मर रहे हैं बच्चे
आप इसपर इसलिए बात नहीं कर रहे कि
यू एन ओ की मीटिंग में
यह सब नहीं है
लेकिन देखिए न
लोगों ने ढूंढ ली है इस हत्यारे
समय में भी राह
लोग देख रहे हैं
फिर हथेलियों पर दिन के उगने का सपना 


लोग चाहते हैं
तुम कोई मंदिर बनाओ
या करो रथ यात्रा
भूखे लोगों को इससे क्या
वे चाहते हैं रोटी
रोटी जब हाथ पर जब आ जाती है
वे पा जाते हैं
सारा स्वर्ग अपवर्ग
तुम कोई आश्वासन दो या न दो
बैठाओ जगह जगह मुर्तियां
नंगे लोगों को इससे क्या
तुम कोई समझौता वार्ता करो
या मंगवाओ परमाणु रियेक्टर
टूटे छप्पर वालों को इससे क्या
वे चाहते हैं
रहने को मकान
मकान पाने से वे पा जाते हैं इन्द्रपुरी
तुम ऊंची कुर्सी की शपथ लो या न लो
या बना दो किसी को माननीय
बीमार लोगों को इससे क्या
वे चाहते हैं दवा
तुम धर्म कर्म करो या न करो
या बतियाओ जांति पांत
निरक्षरों लोगो को इससे क्या
वे चाहते हैं ककहरे की किताब
किताब मिल जाने पर वे
उसे  बांचते हैं
वेद कुरान बाइबिल की तरह

सम्पर्क- 
मोबाईल- 09532731661


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

सोनी पाण्डेय की कविताएँ


सोनी पाण्डेय

सावन भादों साल के ऐसे महीने हैं जब धरती और आसमान बारिस की बूंदों से एकमेक हो जाते हैं। चारो तरफ की धरती हरियाली के अपनत्व से सज जाती है। ऐसे में इस अद्भुत प्राकृतिक परिदृश्य से कवि मन भला कैसे अछूता रह सकता है। सोनी पाण्डेय ने भी इस मौसम पर कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में हरियाली की एक लय है। यह वह लय है जो जीवन की संभावनाओं को एक जिद की तरह अपने में सहेज लेता है। आज सोनी पाण्डेय का जन्मदिन भी है। सोनी को जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नयी कविताएँ तो आइए पढ़ते हैं सोनी पाण्डेय की ये कविताएँ  
सोनी पाण्डेय की कविताएँ
  
सुनो, सावन कहता है भादो पुकारता है

सुनोँ
सावन कहता है धरती की तपन देख कर समुद्र से
कि अब तुम वाष्प हो जाओ
और बन जाओ बादल कि विरहन धरती पुकारती है।

समुद्र, हो जाता है वाष्प
समेट कर अपना विराट अस्तित्व 

और उमड़ घुमड़ मेघ बन आता है धरती से मिलने
बूँदे छनक छनक पायल की ताल पर नाचती है छमछम।

सुनो!
जब घिरते हैँ सावन के मेघ
भादोँ पुकारता है. कि अभी ठहरना
शेष है धरती का यौवन।

जब बादल गातेँ हैँ मेघ मलहार
मेरा मन मयूर हुआ जाता है
और बाँध लेता है तुम्हारे प्रेम का  पायल पैरोँ मेँ
नाचता है छमक छम

सुनो !
मैँ चाहती हूँ तुम भी सुनो
सावन की पुकार
और बार बार बन कर कजरारे मेघ आया करो
मैँ सजा लुँगीँ आँखोँ मेँ।

मैँ चाहती हूँ
छोड़ कर तुम भी पौरुष का दंभ

समेट कर अपना विराट अस्तित्व लौटा करो बस एक बार
बनकर नेह के बादल
सुन कर सावन का कहन . भादोँ की पुकार
सिर्फ मेरे लिए सावन मेँ।
 

जब भी उमड़ते हैँ मेघ . . . .

तुम याद आते हो जी भर
भर भर कर आँखोँ मेँ नेह जल जब भी उमड़ते हैँ मेघ ।

जब भी बहती है पुरवा पवन
तुम याद आते हो बनकर
सावन का मधुर गान
जीवन की बगिया मेँ
बनकर कोयल की मधुर तान ।

जब भी उमड़ते हैँ मेघ
मैँ छत की मुंडेर पर
अपलक निहारती हूँ आज भी
कि
टंका है आज भी वहीँ कहीँ
बसन्त का पतंग
जिस पर लिखा था तुमने  पहला वह प्रेम पत्र ।

मैँ चाहती हूँ ये बादल बार बार उमड़े मेर आँगन से तुम्हारे देश तक 

 कि
शेष है मन मेँ आज भी
पहला वह प्रेमपत्र ।

मैँ चाहती थी लिखना प्रेम पत्र

मैँ जानती हूँ
तुम्हेँ आज भी प्रतीक्षा है
उत्तर की
कि . क्या था मेरे मन मेँ तुम्हारे लिए
और तुम जोहते हो बाट सावन के उमड़ घुमड़ बादलोँ का
जिसे देख कर लिखूँ मैँ तुम्हेँ पहला प्रिय प्रेम पत्र ।

तुम जानते थे यह भी कि मुझे निभानी थी देहरी की शर्त
बचाना था पिता का बचा हुआ मान
माँ के आँचल का सम्मान
राखी की बुनियाद
इस लिए प्रेम के कच्चे धागे मेँ मैँ ने गुँथ दिया रिश्तोँ के मनको की माला
नहीँ लिखा प्रेम पत्र
उठा कर सिर नहीँ देखा कभी तुम्हारी आँखोँ मेँ
क्योँ कि
मैँ जानती थी पढ लोगे मेरी आँखोँ मेँ लिखा . अलिखित तुम
पहला वह प्रेम पत्र ।



मैँने बदल दिया सावन में प्रेम का अर्थ . . . .
 
मैँने बदल दिया
सावन में
प्रेम का अर्थ

प्रेम मेरी रसोईँ में
भूख का भूगोल है

प्रेम मेरे आँगन में
रोपे गये गमलोँ में
उगे पौधोँ मेँ जीवन का
आक्सीजन है

प्रेम मेरे छत पर
बिखरे हुए अन्न के दानोँ को
चुगते हुए पक्षियोँ की तृप्त
काया मेँ छुपा हुआ जीवन है

सुनो!
मैँ तलाश लेती हूँ
हर कोने मेँ धरती के
प्रेम की तड़प
और बदलती हूँ अर्थ बार बार 
प्रेम का
तुम्हारे लिए।

सम्पर्क-
ई-मेल : pandeysoni.azh@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ


समीर कुमार पाण्डेय

यह जीवन भी अपने आप में अनूठा है. कह लें तो एक साथ कई द्वन्द भरे हुए होते हैं इस जीवन में. इस रूप में द्वन्द का दूसरा नाम ही जीवन लगता है. व्यक्ति जीने के लिए आजीवन इधर-उधर भागता फिरता है. और भागने-फिरने के बीच ही अपने लिए स्थायित्व की कामना करता है. लेकिन लगातार निर्वासित होता रहता है अपने समय-देश-काल ही नहीं खुद अपने-आप से भी.  युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय इन अहसासों को शिद्दत से महसूस करते हैं और लिखते हैं- ‘शहर में हो कर भी/ शहर का नहीं हूँ/ घर में हो कर भी बेघर हूँ / जैसे कि / देश में रह कर भी/ निर्वासित हूँ अपने समय से।’ किसान मन की अनुभूति लिए इन कविताओं में एक सहज सी ताजगी है. तो आइए पढ़ते हैं युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ.        
समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ
कटु सत्य
धर्मं शरणम् गच्छामि
जबजब लिखा
वे कन्नी काट गए
ईश्वर को हाथ जोड़ा
उनका विश्वास दृढ़ हुआ
जब किसानों की बात की
तो मेरी पॉलिटिक्स पूछी गई
संस्कृति में आस्था जतायी
तो बुराई करने लगे
जैसे ही देशभक्ति का नाम लिया
भक्तमान लिया गया मुझे……
जब भी बात की मैंने
शोषितपीड़ित की
उन्हें शक हुआ
वंचित लिखने पर
बेमन से दुःख जताया
राजा के गलतियों को लिखा
उनकी भृकुटि टेढ़ी हुई
तगड़ा प्रतिरोध सामने आया
पर जब मैंने
धर्म के अंदर अधर्म की बात की
तो वे एकदम बौखला गए
फिरनास्तिकमान लिया गया मुझे….
और इस तरह सरेआम
हत्या कर दी गई मेरी……….
 
सपने का मरना
सपने का मरना
ऐसा लाइलाज़ ज़ख्म है
जो आँखों से जीभ तक
जीभ से पेट तक
और पेट से सीधे मस्तिष्क तक जाता है
समय की भाषा में समय को
और ज़ख्म की भाषा में ज़ख्म को
गाँव की कराह में समझना कठिन है
इससे निजात पाना बहुत मुश्किल
पर शिवा शांत है जैसे जलती मोमबत्ती
जैसे दर्द पीता कोई दूसरा शिव हो…..
          (2)
शिवा ने हँसुआ हाथ में लिया
लोग आदतन मुस्कराये
गले में रस्सी लपेटी
लोगों की आँखें चौड़ी हो गयी
बच्चे के सर पर गमछा रखा
फिर उनको चूमा
चूमते ही अंदर तक गीला हो गया….
रुकी हुई रुलाई जैसी चेहरे वाली
घर वाली की आँखों में विश्वास भर
निकल गया चुपचाप ओसारे से
लोग फुसफुसाने लगे थे
क्योंकि खेत उल्टी दिशा में थे……
किसान
चइत बइशाख में
हवाओं के पोरपोरसे
टपकता है रस
जो युवाओं में जोश के साथ
बुढ़ापे में भी जान फूँक कर
हुलास भर देता है समाज में
पर आज गाँव ठंढा पड़ा है
उसका रस सूखा तो नहीं
पर बदरंग सा हो गया है
कटिया का समय है यह
जवार सोया है आराम से
जल्दी नहीं किसी को
औंधे मुँह पड़े है खेत
खलिहान के मुँह पर छाई है मुर्दानी
रो नहीं रहा कोई
जैसे मरन पड़ी हो
जहरीली गंध हवाओं में फ़ैल चुकी है
भैंस लेवाड़ लगाये बैठी है
झबरा पसरा है कउड़ की राख पर
भोला दांत कढ़वाये हँसुआ हाथों में लिए
खाट पर बच्चों के साथ चुपचाप बैठा
खाली आँखों से आसमान निहार रहा है
जैसे तलाश रहा हो जिंदगी
रेडियो पर प्रादेशिक समाचार आने वाला है..
बेबसी
मन के पाँव से मापता हूँ
शहर से गांव तक
शहर में हो कर भी
शहर का नहीं हूँ
घर में हो कर भी बेघर हूँ
जैसे कि
देश में रह कर भी
निर्वासित हूँ अपने समय से
जब भी समय को चीरता हूँ
तो खून की जगह
शिराओं में पानी पाता हूँ
सड़ा हुआ दुर्गन्धयुक्त
डरी सहमी जमात
ईमानदारी का कचरा लिए
हतप्रभ है
समय के भीतर मरामरा सा
समय के बाहर जीता हूँ
शापित सा निष्कासित जीवन
सन्नाटे का शोर
और शोर का सन्नाटा
बहता है लहू सामान नसों में
अन्जानमौनअथाह
मैं अशक्त अधीर
केवल उस मुस्कराहट के लिए
समय को पटरी पर लाने की उम्मीद में
बारबार मर कर भी
जीता हूँ एक बेबस जिन्दगी
वह रोज मरता है
दिन में कईकई बार
प्रत्येक क्षण
कोई अगली मौत
तिलतिल मरते हुए
जीने की आदत सी हो गयी है उसे
कभी कर्ज मारता है
तो कभी साहूकार
कभी सरकार मारती है
तो कभी बाजार
पर प्रकृति की मार से
पस्त जवार उठ नही पाता
 
जब भी लिखता हूँ
  
से लिखता हूँवंचित
उसी क्षण
मेरा द्विज
त्योरियाँ दिखाता है मुझे
मेरी जाति
साजिश करती है मेरे खिलाफ
अभिन्न मित्र
भागते हैं मेरी छाया से
छूत लग जाती है मुझे
मेरे शब्दों को छांट दिया जाता है कुजात 
से लिखता हूँ शोषित
एकदम
मेरे खिलाफ
खड़े हो जाते हैं अनेक सर
सुलग उठती हैं सारी वर्जनायें
फूल जाती हैं माथे की नसें
उनकी आँखें बन जाती हैं लपट
और चेहरे बन जाते हैं पत्थर ….
से जब भी लिखता हूँकिसान
तो इसके वंचितशोषित
होने के बावजूद
उनके चेहरे हो जाते हैं आर्द्र
और दिल काले
जो जमीन से नही जुड़े होते
बल्कि बैठे होते हैं महलों में
वे शब्दों में देते है गौरव सम्मान
उनमें किसानबोध कहीं नही होता
इस साजिश को लिखते समय
मेरे शब्दों में होती है पसीने की गंध
और भाषा में आदिम सोंधी महक….
आया वसन्त!
जमे हो तुम
पत्थरों पर
जड़ों के भरोसे
वृन्त पर जैसे खिला फूल
पंखुरियाखोले
जी भर गंध बिखेरे
तने हो सूरज से नजर मिलाये
अपने प्रतिरोध भर
जब कि
हवा है प्रतिकूल
और समय
संवेदनहीन
कुछ
गंध से अमुग्ध
महसूस रहे
सौन्दर्यका फीकापन
बढ़े हैं
कईकई हाथ
तोड़ने को..मरोड़नेको
जी लो मनभर
वैसे तो
चुका है वसन्त भी
झुकना
एक सलीका है जीने का
जैसे उपर उठने की आहट
या गन्तव्य की अकुलाहट
हमें खूब मालूम है
झुकने का हुनर
ऐसे नहीं देखना है हमें
कब्र में झाँक कर
कि हृदय से गिर जाए
मनुष्यता ही फिसल कर…….
झुकते तो पहाड़ भी हैं
नदियों के संगीत से
पेड़ झुकते हैं
फलों के गुरूत्व से
मोटिहा भी झुका रहता है
खाली अंतड़ी के बल पर
पीठ पर बोरी रखे
कुछ खाली आँखों में सपने भरने के लिए….
पर ये जब खड़े होते हैं तन कर
उस वक्त इनकी हड्डियों की चटचटाहट से
आपकी हरकतें  
भाषा और व्याकरण भी
खरगोस बन जाते हैं
और वही पालतू कुत्ते
भौकते हैं आपके शब्दकोष पर….
देखिए
बादशाही ऐसे नही चलती
आप चाहें कितने भी बड़े हो जायें
पर अनर्थ पर
उँगलियाँ तो उठेंगी ही…..
कवि की दृष्टि
आँख एक सड़क है
और सड़क एक चौराहा
कवि खड़े हैं चौराहों पर अपने धर्म से बंधे
एकएक गंध और एकएक स्पर्श को महसूसने के लिए
गूँज और अनुगूँज के बीच
बढ़ गयी है उनकी धड़कने
आकृति, आवाज और पुकार भी
एक लिखता है चंपाफूल सुवास
पेड़पौधे, पवन, आकाश
दूसरा, समय की चट्टान पर
बिना निशान छोड़े गुजर जाता है
जबकि तीसरा खामोश है उस बच्चे जैसा
जो रोज सो जाता है एक उजली सुबह के लिए
पर मौत खड़ी मिलती है सिरहाने उसके….
यह देश
यह देश
फूलपत्तियों और चाँदतारे से नहीं
वाराणसी, हैदराबाद और अजमेर से नहीं
उनकी साजसज्जा और तड़कभड़क से नहीं
रौनक वाली दिल्ली से तो कतई नहीं…..
यह देश
धर्म, भाषा और उनके व्याकरण  से नहीं
इन तथाकथित बुद्धिजीवियों से नहीं
उनके आपसी घिनौने विचारों और चिन्ताओं से नहीं
बुखारी और शंकराचर्यों से तो कतई नहीं
यह देश
आजादी के बाद से
केवल एक बूँद के लिए
चोंच खोले हुए अतृप्त गाँवों से है
किसानों और मजदूरों के पसीने से उपजे अनाज 
और अंगूठे के निशान और हस्ताक्षर से है
गाँव के बेटों का सीमा पर कदमों के निशान
और उनके संगीनो की धार से है
जबकि उन्हीं कंधों पर लात रख कर
काबिज हुए सिंहासन पर बैठे लोग
नीचे देखने में भी शर्मशार हो रहे है…..
लकीरें
     
 (1)
पिता की दूध सी दाढ़ी बनाते वक्त
मैं देख रहा था उनके झुर्रियों में
बीते समय की आड़ीतिरछी लकीरें
फूलों के खिलने और फिर उसे बचाने की जद्दोजहद की लकीरें
ताकी बची रहें हमारे चेहरे पर दूध की बूँदें
हमारे बचपन के उल्लास और खिलखिलाती भावनाओं की लकीरें ….
छत से चूती हुई बूंदों और उन दरकती दिवारों की लकीरें
खेतों की दरारों जैसी फटी एड़ियों की लकीरें
जीवन के रंगों को खींच पाने के अवसाद की लकीरें
पर उनमें सबसे गाढ़ी और गहरी थीं
भय चिन्ता की लकीरें
और बहनों के लिए की गयी कोशिशों की लकीरें
 
         (2)
लकीरों को मिटा पाना
सम्भव नही होता आदमी के लिए
लकीरें सनद होती हैं उम्र-भर वक्त से हुए टकराव की
उस अपराध की
जिसे करने के लिए हर बार बाध्य होना पड़ता है
कुछ तो खींची जाती हैं सप्रयास
आंगन, सरहदों और नक्शों पर नापाक लकीरें
और कुछ खींच जाती है समय के चेहरे पर हमारी नादानियों से
इन लकीरों में छिपी होती हैं इतिहास की दास्तान
जो बयां करती हैं संक्रमण काल का महत्वपूर्ण दस्तावेज
लकीरें कभी अपना स्वभाव नहीं बदलती
वह हमें बांट कर छोड़ जाती हैं निशान
चेहरे पर, आत्मा पर और हमारे अस्तित्व पर…….
गाँव और किसान
       (1)
गाँव की सीमा पर खड़ा
बूढ़ा बरगद साक्षी है
कि कैसे किसान पेट काट कर
करता था धरती का श्रृंगार
वह रोपता था अपने खेतों में
बीज के साथसाथ आंसू भी
अपनी भूखप्यास को गिरवी रख
प्यास बुझाता था खेतों का
जैसे कि एक दुधगर गाय
फसलें दोनों लहलहाती थीं
धूर में खेलते बच्चे जैसी
एक चरी जाती थी बकरियों सांड़ द्वारा
जबकि दूसरी को सूंघता तक नही
शोक में पियराया किसान
पीता था तैयार फसल को
बरिश के अन्त तक बच्चों के साथ
उसके गोदों को खाखा कर…….
        (2)
समय के साथसाथ
जैसे बरगद की डालियाँ 
जड़ों में तब्दील होती रही फैल कर
वैसे ही फैलता रहा किसान का कुनबा
कस्बों, शहर और महानगर में
बहुत कुछ बदल गया गाँव
वह कउड़ा और लोक-गीत से किनारा कर
अखबार, टी.वी. और मोबाइल के साथ
खेतों, स्कूलों और कस्बों में पहुँचा
गाँव जो अवसादों के बीच भी ख़ुश था
अब सुलगने लगा है और शांति गायब है
वह आन्दोलित हो रहा अधिकारों के लिए
उतार फेकें है उसने सदियों पुराने लबादे
गाँव के आगे बढ़ने से खुश है शहर भी
वहीं पर इस प्रगतिशीलता के इतर
कभीकभी स्नेह, भाईचारा, रीति और गीत
ढ़ोलक और झाल के साथ बरगद की छाँव में
गाते हैं विरह के गीत बरगद के कंठ से
तब से रो रहा है सीमा पर बूढ़ा बरगद……
पिता
उनके लिए
बीती जिन्दगी के
वे तमाम क्षण
छोटे पड़ चुके हैं बहुत छोटे
जिसे जी लेते हैं
जब चाहें अतीत में जा कर….
वे तमाम दूरियाँ
जो तय की गयीं थी
उनके द्वारा अभी तक
जीवन यात्रा में
मापी जा रहीं हैं आजकल
उखड़ती साँसों और
लड़खड़ाते कुछ विचारों से ही
वे तमाम दायरे
जिसे बनाया गया था कभी
उनके या उनके पुरखों द्वारा
सिकुड़ते जा रहे झुर्रियों की तरह
उनके द्वारा अर्जित शब्दकोश
रीतते जा रहे हैं
जबकि भावनाएं उफान पर हैं…..
और एक चिन्ता मिश्रित डर है कि
मेरे बाद कौन करेगा चौकीदारी
उनके तथाकथित साम्राज्य की
वे बहुत डरे तब दिखते हैं
जब मैं कहता हूँ कि सब ठीक है
क्योंकि
उनके लिए अधिकतर
मैं खुद
भाई, काका और पड़ोसी होता हूँ
जबकि बेटा कभीकभी ही…………..
सम्पर्क-
जनता इण्टर कॉलेज
बेहट, सहारनपुर
 
मोबाईल – 9451509252
ई-मेल – samirkr.pandey@gmail.com

शम्भु यादव की कविताएँ


  

जन्मः 11 मार्च 1965 को जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा) के गाँव बड़कौदा में
शिक्षाः दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर
प्रकाशनः एक कविता-संग्रह एक नया आख्यान’ प्रकाशित। पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित। 
समावर्तन नामक पत्रिका अपने एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘रेखांकित’ के लिए जानी जाती है। इसके अंतर्गत सम्पादक निरंजन श्रोत्रिय किसी चुनिन्दा नए कवि की कविताएँ अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ पत्रिका में प्रस्तुत करते हैं। ‘समावर्तन’ के मई 2015 अंक के रेखांकित कवि हैं शम्भू यादव। शम्भू यादव की कविताओं पर प्रस्तुत है निरंजन श्रोत्रिय की टिप्पणी। इस टिप्पणी के बाद आप शम्भू यादव की कविताएँ पढेंगे। 
  
यह कतई जरूरी नहीं कि कोई तल्ख विचार कविता में उसी तल्ख तेवर के साथ अभिव्यक्त हो। एक थिर या फिर मद्धम स्वर में भी उसे उतने ही प्रभावी तरीके से व्यक्त किया जा सकता है। इस बार के रेखांकित कवि शम्भु यादव की कविताएँ ऐसी ही हैं जो अपने समकाल से दो-चार तो होती ही हैं लेकिन बहुत आहिस्ते से। उसमें अनावश्यक बेचैनी या उद्विग्नता नहीं है। शम्भु अपने समय और समाज का बहुत ही तल्लीनता से प्रेक्षण करते हैं और उसकी व्याप्ति को अपने संयमित अंदाज में कविता में घटित करते हैं। हम अचानक ही अचम्भित हो जाते हैं कि यह आधार कार्ड है या हमारी अपनी मुखबिरी का कोई षड़यंत्री दस्तावेज! व्यवस्था की इस कर्कशता को शम्भु कभी विट’ तो कभी व्यथा के रूप में अभिव्यक्त करते हैं। कहना न होगा कि कविता होने की इस अंतर्यात्रा में कवि को बहुत-कुछ कांट-छांट देना होता है जो काव्यावेग की खरपतवार के रूप में उसके आसपास उग आता है। दक्षिण अफ्रीका में करंसी पर मंडेला के फोटो छपने की खबर कवि को उस पूरे अर्थ-तंत्र और राजनीतिक विभीषिका तक ले जाती है जहाँ फटेले’ या चेपी’ लगे चेहरों के पीछे तमाम विसंगतियां झांक रही हैं। अब इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि वह चेहरा नेल्सन का है या गाँधी का, वह मुल्क अफ्रीका है या अपना इंडिया’! जब हमारे नाम कोई कारोबार न हो और फिर भी हम गले-गले तक खनखनाते सिक्कों से ढँके हों तो निश्चय ही कवि की मंशा उस नीयत को ताड़ लेने की है जो मसीहा या अवतार के मेकअप में दर्शकों को छले जा रहा है। कवि का प्रतिरोध यहाँ इस कदर मुखर है कि इस छुपी नीयत को उजागर करने के एवज में उसे फंदा भी कबूल है। दरअसल ऐसी कविता अपनी जनता से एक सीधा संवाद भी होती है जिसका अंग और भुक्तभोगी खुद कवि भी होता है गोया चौपाल पर बैठ दोस्तों के साथ दुख-सुख गपियाया जा रहा हो। इस धुंधले-से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अधिनायकवादी चरित्र’ जैसी कविता उस मुखौटे को नोचने की जद्दोजहद है जिसके पीछे नरसंहार और भावनाओं की तस्करी छुपी हुई है। कवि आगाह कर रहा है कि हिटलर कभी मुगेम्बो भी हो सकता है और कभी….। मूल प्रश्न उस शिनाख्त का है जो कभी शरीर पर गुदवाए टैटू या कपड़ों पर कढ़वाए गए नाम के पीछे है। शम्भु यादव की कविता दरअसल इसी शिनाख्त का आग्रह करती कविता है। कपड़े की पुरानी मिल’ जैसी कविता के जरिये वे एक लुटे-पिटे समय को बयां करते हैं जिसे अतीत के गर्भ में धकेलने की पूरी तैयारी है उस आडम्बर के साथ कि भले ही सब कुछ नष्ट हो जाए लाल चिमनी जरूर बच रहेगी। इस लाल चिमनी के भरम के पीछे छुपे समूचे कार्य-व्यापार को नष्ट कर देने की आंतरिक इच्छा ही कविता को वह ताकत देती है जिसके जरिये हम बदलाव का कोई भी स्वप्न देखते हैं।धूप का पत्ता’ जहाँ कवि की एकदम भिन्न नाजुक-सी इमेजरी है वहीं नाकामयाब’ आर्थिक विसंगति और बाजारवाद की खिलाफत में एक उठती हुई हूक। शम्भु यादव अपनी कविता में भाषा के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं करते। कवि के भीतर विचार के साथ जो सहज भाषा आती है (निश्चय ही वह कविता की भाषा है) उसे वे यथावत कविता में उतार देते हैं। शायद यही कारण हो कि उनके यहाँ भाषा कविता की सहचरी लगती है। अपने दुख-व्यथाओं को अपनी बोली में अपनों से बतियाने की तरह। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ की पड़ताल में जब हमें यह लगे कि हम अपने ही घर में अपनों के ही द्वारा ठगे गए हैं तो यह प्रवंचना का चरम अहसास होता है। यहाँ स्कॉर्पियों’ की विशाल काया उस समूचे छल-तंत्र को उद्घाटित करती है जो गंगा-स्नान के जरिये तमाम प्रायोजित पापों से मुक्ति पाना चाहता है।  शम्भु यादव की कविता अपनी समकालीन दशा-दिशा की गहरी पड़ताल करती कविता है । वे सब कुछ साफ देखना चाहते हैं एक पारदर्शी शीशे से जिस पर रोगन का एक छींटा भी न हो। वे उस करामाती और आकर्षक सॉफ्टवेयर से दुनिया को बचा लेना चाहते हैं जो एक क्लिक’ से सब कुछ नष्ट कर सकता है।
निरंजन श्रोत्रिय 
शम्भु यादव की कविताएँ 
विशिष्ट पहचान पत्र
उसने मेरा नाम पता
लिंग और मेरे पैदा होने वाले दिन को
ई-रजिस्टर में फीड किया
वह बोला
कैमरे में सीधा देखो
आँखों को अधिक से अधिक चौड़ा होने दो
यह जरूरी है-
उसने हिदायत दी
आज्ञाकारी बोध में बंधता मैं
कम्प्यूटर स्क्रीन पर चस्पा मेरी पुतलियों की छवि
अजान-सी मुझे ही भेदती
छूट न पाए
अँगूठे और अंगुलियों की किसी भी लकीर की निशानदेही
मेरे ही अंग मेरे मुखबिर के रूप में दर्ज हुए
और बस अब एक कर्कश आवाज़ पड़ेगी
हवलदार इसे लॉकअप में डाल दो
शम्भु यादव हाजिर हो। 
            
मंडेला
यह तेरह फरवरी दो हजार बारह की खबर है
दक्षिणी अफ्रीका में बैंक नोटों पर अब मंडेला दिखेंगे’
आगे मैं कहता हूँ-
जैसे हमारे यहाँ गाँधी दिखते हैं
अब दक्षिणी अफ्रीका में भी
कुछ इस तरह से होगा
पाँच सौ वाला मंडेला देना भाई
सौ का मंडेला तोड़ दे
जिस घर में जितने ज्यादा मंडेला
उसकी उतनी बड़ी औकात
यह मंडेला फटेला है यार, दूसरा देना
चेपी लगा इस मंडेला पर
तभी चलेगा।
मेरा विलोम
अपने पैरों में नाइकी के जूते पहन
एल.जी. के शोरूम में विभिन्न आइटमों की वैरायटियों पर
ललचाई छलांग लगाता वह
मुगलई रेस्तरां में बैठा है
उसे मसालेदार मटन खाने का चस्का
वह दारू के आठ पैग पी जाने के बाद भी आउट नहीं होता
एसिडिटी और वमन की तो मजाल ही क्या
उसके नाम कोई कारोबार नहीं
फिर भी उसकी जेब रूपयों से लबालब
उसे अधिकतर पसंद हैं वे लोग, जो
ठेकेदार हैं, सट्टेबाज हैं, बिल्डर हैं
माफियाओं से भी यारी गांठना चाहता है
इन्हीं में से उभरे किसी नेता का साथ
उसे नफरत है इलाके में पटरी लगाने वालों से
बीच सड़क रिक्शा चलाने वालों से
उसका बस चले तो भिखमंगों के हाथ काट दे
उसे साहित्य पढ़ना या किसी को साहित्य पढ़ते देखना
दोनों से खीझ है
और अगर आप उसका सीना फाड़ कर
ग्लानि भरा कुछ रसायन या
अदना-सी एक कोशिका ही देखना चाहें भलाई की
और वह मिल जाए
तो जनाब,
उसकी सीना फाड़ने के इल्जाम में, आपकी जगह
मैं फांसी चढ़ने को तैयार हूँ। 
                          
अधिनायकवादी चरित्र
जरूरी नहीं कि वह
हेल हिटलर’ रूपी सलाम बजवाता ही दिखे
दिखे किसी सिनिकल मुद्रा में उसकी मूँछों की उद्दण्ड नोंक
या उसके जूतों की कर्कश ताल और आपका कांपता शरीर दिखे
उसके साम्राज्य में प्रत्यक्ष कोड़े बरस रहे हों
लहूलुहान शरीरों से रक्त की धारा
किसी कंसंट्रेशन कैम्प में नरसंहार
चाउसेस्कू या इदी अमीन का रूप धारण करने जोर आजमाइश
अधिनायकवादी चरित्र में सिर्फ ऐसा ही कुछ होता दिखे, क्या जरूरी है
हो सकता है किसी फिल्म में
सीधे-सादे अधिनायक वाले रूप में दिखने की बजाय
उसका गुरूडम भाव कथ्य के फिल्मांकन में रचा-बसा हो
आपके शरीर को अनजाने ही रोमांचित कर
अपनी मूँछ की उद्दण्डता को संतों की वाणी में छुपा ले
किसी भाषण में वाचन करता दिखे-
अपनी ही सत्ता के खिलाफ लिखी कविता का पाठ
आपको आश्चर्य तो होगा लेकिन यह भी हो सकता है
वह बंद बोतल में किसी ब्राण्डेड उत्पाद का लिक्विड बना
लुभाने की सुपरलेटिव डिग्री में आपकी चिरौरी कर रहा हो-
देखिए साहब! मैं आपके हलक में उतर जाने के लिए मरा जा रहा हूँ।’
और जब आप अपने किसी स्वप्न में
उस लिक्विड की तरावट महसूस करना चाह रहे हों
वह वहाँ आपका हलक ही अपने हाथ में लिए आ बैठे।
कपड़े की पुरानी मिल
सब चीजों को समतल किया जा चुका है
केवल अब चिमनी ही रह गई है बाकी
बगैर धुएँ की, अकेली, निर्जन
जमीन के बीचों-बीच लम्बी खिंची याद
आसमान को छूती-सी
अपने भरे-पूरे सौष्ठव में एक सुघड़ आख्यान
फैला था व्यापक कभी वहाँ
विभिन्न व्यंजनाओं में
धड़कती मशीनें मचलते कलपुर्जे
कपड़ों के सुथरे थान
खिलते रंगों की बहार
आवाजाही में व्यस्त मजदूर की सांसें
परेशानियों भरी आहों के बीच
रह-रह थकान को हरती मासूम-सी ठिठोलियाँ
बीड़ियों के कश, पान की पीकें
सुरती का छौंक और मुँह के अन्दर चरमराती खाल
चलो चाय हो जाय, यार
सब कुछ लुट गया उस कपड़ा मिल का
सन्नाटे का छंद रचती बस खाली जमीन है
लोग कहते हैं उसे, मरा हाथी सवा लाख का
नए अमीरों के लिए लक्जरी अपार्टमेंट्स बनेंगी
मिट्टी से बनी लाल चिमनी को
मिल की यादगारी, उसका स्मारक बनाकर छोड़ा जाएगा।
धूप का पत्ता
खिली हुई धूप का पत्ता था
ठीक मेरे सामने आ गिरा
कटी पतंग के मांजे से कट
डाल हुई जो घायल
दर्द सह गई चुपचाप
कटी पतंग को तो हवा में ही लूट
कोई ले भागा जैसे हो
मुकद्दर का सिकन्दर
मैंने उस पत्ते को हथेली पर
रखे रखा है–
खिली धूप में………
नाकामयाब
वो खूब हँसे मुझ पर
फब्तियाँ भी कसी
और एक ने कह ही दिया आखिरकार
लगता है भईया
किसी गुजरे ज़माने से हो’
यह तब की बात है
जब मैं शॉपिंग प्लाज़ा में
अपनी पुरानी कमीज़ के छेद को
बंद कराने की इच्छा में
ढूँढ रहा था
एक अदद रफूगर।
 वे तीन जन
एक आया था पहाड़ पार कर के
दूसरा रेत के टीलों से आया था
तीसरे के यहाँ हरे-भरे मैदान
और बहुत-से तालाब
तालाबों में मछलियाँ
तीनों खड़े हैं मजूर मंडी में
एक सुरती खाता है
दूसरा फूँकता है बीड़ी
तीसरा नाक के पास नसवार ले
जोर से खींचता है सांस
आपस के सुख-दुख
एक का बच्चा पांचवी पास कर गया है
गाँव में प्राइमरी के बाद स्कूल नहीं
आगे की क्लास के लिए कोसों जाना होगा
दूसरे की बिटिया के बेटा हुआ है
बड़ा खर्चा आन पड़ा है
तीसरे की माँ के पेट में रसौली
दर्द मिटता ही नहीं
उनकी बातों में सूखे, बारिश और फसल का
अपने-अपने यहाँ के स्वाद और रंग का
जेठ की गर्मी और
पाले का जिक्र होता है
तीनों जब-जब अपने गाँव जाते हैं
वहीं रह जाना चाहते हैं
परन्तु काम न चला पाता है मनरेगा
वापस आ लगते हैं महानगर
रोज कोई न कोई दूकान
तब्दील होती हुई शो रूम में
सड़कें अघायी गाड़ियों की कतारों से
ये तीन जन तीन दिन से बगैर काम के
आज पिछले दिनों से भी कम दाम पर
बिकने को तैयार हैं।
साफगोई की आशा में
काहे जरूरत थी इतना कुछ बताने की
काहे किए इतने प्रपंची-शोध
कि शीशे के ताबूत में बंद शरीर के
मृत होने पर
निकलती है आत्मा
शीशा किरक जाता है-ताबूत का
प्रमाण है कि आत्मा होती है’
कह देते बस इतना भर
जैसे धूप पार कर जाती है
साफ-स्वच्छ शीशे में से
वैसे ही आत्मा आर-पार चमाचम
लेकिन साफ और स्वच्छ शीशा कहाँ?
यहाँ किसी पर धूल जमी है
तो किसी ने अपने पर
मढ़ रखी है काली फिल्म
और किसी पर रोगन के छींटे जो लगे हैं
उसे कौन छुड़ाए! 
गृहस्थ-मैं और तुम
मैं उठा तुम्हारे बालों को
खिड़की से बाहर करता
जो कंघा करते वक्त
झड़ गए थे घर के फर्श पर
देखो, दूध के उफान को
साधना सीख लिया है मैंने
तुम काम पर मुझसे पहले चली जाती हो
इस दिनचर्या के चलते
दोपहर वापस आओगी, थकी-हारी
सबसे पहले बेतरतीब चीजों को
ठिकानों पर लगा दोगी
किताबों को झाड़-पोंछ सहेजोगी
इधर-उधर छितराए पन्नों को उठाते बड़बड़ाओगी
मसलन- हाय राम, पैन भी खुला
नवाब साहब ने मुझे जर-गुलाम समझा है’
गुस्सा न होओ, देखो
मैं कोशिश कर रहा हूँ
बहुत मुश्किल काम है झूठे बर्तनों को मांजना
जिसे तुम करती आई हो वर्षों से
सहज ही।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में
मैंने धन की आबताब को वैभव न कहा
मैं ज्ञान और मानवता की पोटली खोल के बैठ गया
जिस ज्ञान से अर्जित न हो कोई दाम वह व्यर्थ है…. मेरे पिता ने कहा
मैं धकेल दिया गया अपने घर के पिछले द्वार से बाहर
घर का अगला द्वार धन-संपत्ति बनाता,
अपने में सज-संवर मग्न है……।
कटी फसल के बाद खड़े खोबड़ों पर भागता मैं
मेरे पैरों से रिस रहा है खून
मेरी जीभ तालू से चिपकी है
सूखे जोहड़ की पपड़ियों-से मेरे होठ
आसमान में बालू-आग
तेज अंधड़ आ बरपा है बीच दोपहर
खोया है आलोक
इस भीषण में चील ही है जो खिलखिला रही
प्रमद हवा की मुग्धा गोते लगाती घिन्नीदार
आकाश में चलायमान काले धब्बे
नए रक्त-संचार में शिकारी पंजे!
भयभीत है चिड़िया
चूहे की भगदड़ बिल की ओर
रह-रह बुदबुदाता मैं
खूनी पंजों से बचने की ताकीद बार-बार।
मेरे बिल्डर भाई की स्कार्पियो’ में बैठा मेरा पिता
जा रहा है हरिद्वार नहान
उपेक्षा से देखता मुझे लहूलुहान
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में
दर्द में सिमटा मैं
दिल से सूजा।
इधर वाला दिन
इस दिन में रात है
और घुप अँधेरे में खोया है सब कुछ
एक लम्बी गाड़ी अपनी चौंधियाती लाईट में भाग रही है
चमकती काली सड़क के घुमावदार मोड़ों पर
और जितनी ज्यादा रफ्तार होती है उसकी
नेनो सैकण्ड की तेजी से बढ़ता जाता है स्कोर
स्क्रीन के दाएँ
कार टकराती है इधर-उधर
दूसरों को नष्ट करना
इस करामाती खेल के सॉफ्टवेयर का
सबसे उत्तेजक क्षण है
खुद पर खरोंच भी न आए
और अधिक से अधिक पॉइंट अर्जित हों
प्ले-स्टेशन के गेम-पैड पर अपने हाथ चलाता
खुशी से बल्ले-बल्ले है यह आदमी
एक नया खूबसूरत पक्षी
जिसे उसने देखा तक नहीं
उसके दिल की खिड़की पर
बैठा रहा दिन भर और
लौट गया।
माफ करना कामरेड
मुझे माफ करना कामरेड
वो जो मेरा सैलून वाला है ना
वह हबीब के बेटे जावेद द्वारा ट्रेण्ड है
उसने लुभाया मुझे
आओ! आपको मैं उम्दा सलीकेदार बना दूँ
उसके लुभाने की अदा पर मुग्ध मैं
उसने मेरे रूखे बालों को डव’ शैम्पू से धोया
बालों की सफेदी छुपाने के लिए गार्नियर बोल्ड’’
जिलेट की फोम वाली क्रीम, उल्टे ब्लेड शेव की
शहनाज’ के गोल्ड फेशियल से चुपड़ाया मेरा चेहरा
मुलायम हो सुनहरी दमकने लगे
आकर्षण का केन्द्र बनने को निखर आए मेरी आभा
आपकी मूँछ को कुछ तराश दूँ
ताकि दिखे रौबदार’
ऐसी कैंची चलाई उस बैरी ने
एक तरफ की मूँछ ही साफ कर दी
दूसरी तरफ की मूँछ मुंडवाने के लिए
मैं हूँ मजबूर।
सम्पर्कः
7364/ 5, गली नं. 1,
प्रेम नगर, शक्ति नगर के पास,
दिल्ली-7
मोबाइलः 099680 74515
ई-मेलः shambhuyadav65@gmail.com
 
 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)                                                      

एस आर हरनोट की कहानी ‘बिल्लियां बतियाती हैं’


एस आर हरनोट

बिल्लियां बतियाती हैहरनोट की एक बहु-चर्चित कहानी है जो वर्ष 1995 में पहलमें छपी थी और आज तक चर्चा में बनी हुई है। यह कहानी वर्ष 2001 में छपे उनके बहुचर्चित कहानी संग्रह दारोश तथा अन्य कहानियांमें संकलित है। यह संकलन आधार प्रकाशन प्रा0 लि0 से छपा है। इस संग्रह को पहले अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मानऔर बाद में हिमाचल साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। संग्रह का आधार से ही दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया है। इस कहानी के अंग्रेजी सहित गुजराती, मराठी, मलयालम सहित कई भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। शिमला की एक नाट्य संस्था ने इस कहानी का नाट्य-अनुवाद कर इसके प्रदेश और प्रदेश से बाहर कई मंचन भी किए हैं। तो आइए पढ़ते हैं हरनोट की यह चर्चित कहानी ‘बिल्लियाँ बतियाती हैं 
बिल्लियां बतियाती हैं
एस आर हरनोट
अम्मा का झगड़ा शुरू हो गया है। अपने आप से। दियासलाई की डिब्बिया से। ढिबरी से। चूल्हे में उपलों के बीच ठूंसी आग से और बाहर-भीतर दौड़ती बिल्लियों से। यही सब होता है जब अम्मा उठती है। वह चार बजे के आसपास जागती है। ओबरे में पशु भी अम्मा के साथ ही उठ जाते हैं। आंगन में चिड़िया को भी इसी समय चहकते सुना जा सकता है और बिल्लियों की भगदड़ भी अम्मा के साथ शुरू हो जाती है। यह नहीं मालूम कि अम्मा पहले जागती है या कि अम्मा की गायें या कि चिड़िया या फिर बिल्लियां।
कई बार अम्मा उठते ही अंधेरे से लड़ पड़ती है। हाथ अंधेरे की परतों पर तैरते रहते हैं। हाथ सिरहाने के नीचे जाता है पर दियासलाई नहीं मिलती। कई बार रात को जब अम्मा बीड़ी सुलगाती है तो दियासलाई नीचे गिर जाती है। ऊंघ में वह बीड़ी तो पी जाती है पर दियासलाई को ऊपर उठाने की हिम्मत नहीं होती और आंख लग जाती है। जब उठती है तो अंधेरा फिर टकराता है। याद नहीं आती कि दियासलाई कहां है। अम्मा खूब गालियां बकती है। ढिबरी उसी से जलनी है। काफी देर बाद याद आता है। बिस्तर से आधी चारपाई के नीचे झुक कर उंगलियों से फर्श सहलाती अम्मा के हाथ देर बाद लगती है दियासलाई। अपने को सहेजती है। एक तिल्ली निकाल डब्बी पर लगे मसाले पर रगड़ती है पर वह नहीं जलती। चिढ़ जाती है अम्मा। 

अंधेरे में धोखा खा जाती है। तिल्ली उल्टी रगड़ती है। वह टूट जाती है तो दूसरी निकाल कर जलाने लगती है। फिर वैसा ही होता है। तीसरी बार अम्मा गलती नहीं करती। उंगलियों से मसाले वाले सिरे को छू लेती है। जलती है तो कमरा जगमगा जाता है। एक तिल्ली से दो काम होते हैं। रात को पीये बीड़ी के बचे टुकड़ों में से एक को जलाने के बाद उसी से ढिबरी भी जलाती है।

उठने लगती है तो कई बार बिस्तर में पसरी बिल्लियां कुरते और सलवारों के पंजों में नाखून गड़ाए रखती हैं। गुस्से से छुड़ाती है और झटके से उन्हें नीचे फेंक देती है। अम्मा कितने ही जोर से क्यों न फेंके वह सीधी गिरती हैं। अम्मा जानती है बिल्लियों को यह वरदान भगवान ने दिया है। उनकी पीठ नहीं लगती।… फिर दो-चार गालियां…
सालियों, तुम दूसरी बार आणा बिस्तर में। जान न निकाल दी तो बोलणा। सारी-सारी रात चूहे सिर पर दौड़े रहते हैं और तुम चुपचाप बिस्तर के ताप में खर्राटे मारती रहती हो। छि…छि…ठहरो तुम…।

-और बिल्लियां वहीं कहीं अंधेरे की ओट में छिप जाती हैं।
मां बेटी हैं बिल्लियां। सफेद और काले रंग की। कई बार धोखा लग जाता है कि छोटी कौन-सी है। एक का नाम काली और दूसरी का नाम निक्की। पुकारो तो नाम सुनती हैं। 

कई बार अम्मा उन दोनों को पौड़े की छत पर ओड़ू से ऊपर धकेल देती है और नीचे से ढक्कन बंद। बहुत देर तक उसमें बैठी म्याऊं-म्याऊं करती है। पर मजाल कि अम्मा ढक्कन खोले। छत पर अम्मा ने मक्कियां छोल कर रखी हैं। इसके अम्मा को दो फायदे हैं। एक तो वह सूख जाती हैं और दूसरा सड़ने से बची रहती हैं। अम्मा के लिए आंगन में उन्हें सुखाना वारा नहीं खाता। भगवान का क्या पता कब बरस जाए। कब आंधी-तूफान आ जाए। अकेले बाहर-भीतर लाना-छोड़ना अम्मा के बस के बाहर है। जब अम्मा को पिसाने के लिए दाने चाहिए हों तो दस-बीस मक्कियां निकाल कर बोरी में भर देती है। बोरी के मुंह में रसी बांधे उन्हें एक मोटे डंडे से तब तक पीटती रहेगी जब तक दाने और गुल्ले अलग-अलग न हो जाएं। छत पर काफी आगे अम्मा बीज के लिए भी मोटी और दानेदार मक्कियों का ढेर लगाए रहती हैं। 

छत पर अम्मा रात को नहीं जाती। डरती है। वैसे बिल्लियों की छेड़ और उनकी बास से सांप या दूसरे किसी काटने वाले कीड़े का भय नहीं रहता, पर अम्मा का बहम कौन टाले। दूध का जला छांछ को फूंक-फूंक कर पीता है। आज भी अम्मा सुनाती है कि एक बार खपरैल की छान से भीतर काला सांप कैसे घुस आया था। जैसे ही अम्मा छत पर चढ़ी कि उसने फुंकार भर दी और अम्मा उल्टे पांव पौड़े पर। कई पल सांस ही नहीं निकली। बड़ी मुश्किल से सांप को भगाया था।

मक्कियों के अलावा अम्मा कई-कुछ छत पर रखे रहती है। पीछे की तरफ पुरानी ऊन, गांठे, दो-तीन टूटी हुई लालटेनें, एक-दो टूटे छाते, खाली बोतलें, प्लास्टिक और रबड़ के पुराने जूते तथा दूसरी तरफ आठ-दस पुल्लियां शेल, उसे बाटने का कुटुआ, पशुओं के गलांवे और रस्सियां, जोच और छिकड़ियां। बीऊल के छट्टों के बंडल भी अम्मा छत पर ही रखती है। अम्मा बरसात और सर्दियों में इनके बिना आग नहीं जलाती। इसलिए गर्मियों में ही हरे छट्टों को बांध कर सूखने के बाद उन्हें दूर खड्ड में दबा देती है तथा गांव की एक-दो औरतों की ब्वारी से उन्हें तैयार होने पर फान-झाड़ लेती है। अम्मा के दो काम निपट जाते हैं। पहला छट्टे जलाने के लिए तैयार हो जाते हैं और दूसरा काफी पुल्लियां शेल निकल जाता है।

अम्मा के बिस्तर पर बड़बड़ाते ही ओबरे में गाय बोल पड़ती है। हालांकि गोशाला काफी दूर है लेकिन इन दोनों के बीच की करीबियां कितनी हैं यह उनकी बातों से पता चलता है। गाय क्या कह रही है, क्या चाहती है, यह अम्मा बखूबी समझती है। बिस्तर से ही उसे समझाती रहती है। कई बार डांट भी देती है,

 हल्ला मत मचा न चाम्बी। उठने तो दे। पहले तेरा ही सोचूंगी।
दुधारू गाय है। जानती है अम्मा तड़के उसी को दुहेगी। रसोई में जाते ही अम्मा उसके लिए चारा-चोकर तैयार करती है। कई बार दुकान से चोकर न मिले तो आटे के खोरड़ से ही काम चलता है। कुछ छलीरा लेकर उसमें बासी रोटियां डालकर लस्सी छिड़क देती है। फिर एक मुट्ठी नमक और हाथ से उसे खूब घोल देती है। रात की बची एक-आधी रोटी भी साथ ले जाती है ताकि दूसरे पशुओं को भी टुकड़ा दे दे। गाय को चोकर या खोरड़ खाते देख भला दूसरे कहां मानेंगे।

अम्मा के ओबरे में एक जोड़ी बैल, एक बच्छिया और दो भेड़ें हैं। गाय का खूंटा दरवाजे से भीतर जाते दांई ओर है। उसके साथ ऊपर बच्छिया बंधी रहती है। थोड़ा इधर भेड़ें और दरवाजे के बाईं ओर दोनों बैल। दीवार के साथ पीछे बांस की सीढ़ियां रखी हैं जिससे अम्मा चांगड़ में जाती है। अम्मा ओबरे के चांगड़ को हमेशा घास से भरा रखती है ताकि हारी-बीमारी या मौसम खराब होने पर पशु भूखे न रहें। घास के साथ एक ओर दो-चार किल्टे और एक-दो डालें भी रखी रहती है।

दूध दुहने के बाद अम्मा सीधी रसोई में आ जाती है। अब बिल्लियों और अम्मा का झगड़ा जम कर होता है। दोनों बिल्लियां घर की स्पील पर बैठी अम्मा की बाट निहारती रहती हैं। जैसे ही आंगन में अम्मा उतरेगी, वे दोनों आगे-पीछे, टांगों के बीच से भागती रहेगीं। अम्मा खूब चिढ़ती है। गालियां देती है। पर वे कहां मानने वाली। जानती हैं पहले दूध उन्हें ही मिलेगा। म्याऊं-म्याऊं से सारा घर ही जगा देती हैं। अम्मा रसोई में जाते ही पहले उन्हीं के बर्तन में बाल्टी से दूध उड़ेल देती है।
अब अम्मा को आग जलानी है। मौसम अच्छा हो या गर्मियों के दिन, तो अम्मा ओबरे के पास से ही हाथ में सूखी घास ले आती है। और सर्दी या बरसात में बीऊल की लकड़ी की एक-दो पांखें चूल्हे में पिछली रात दबाई आग के बीच ठूंस देती है। अम्मा सोने से पहले चूल्हे की आग को चाव से दबा देती है ताकि बुझ न जाए। अंगारे कम हों या फिर बुझने का अंदेसा हो तो अम्मा सूखे उपले को उनमें ठूंस देती है ताकि आग न बुझे। शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि अम्मा के चूल्हे में आग बुझ गई हो। अम्मा कहती है घर में आग बुझना बुरा होता है। 

अम्मा चिमटे से आग के अंगारों को खरोड़ती है। फिर उस पर घास या लकड़ी डाल कर उनके जलने का इंतज़ार करती है। अम्मा को फूंक मार कर आग जलाना नहीं सुहाता। खांसी लगती है। भीतर इस तरह कई-कई मिनटों तक धुएं का साम्राज्य छा जाता है। धुएं ने दीवारें खूब काली कर दी हैं। बरसों से ऊपर और आर-पार जाले पड़े हैं। इनमें और अम्मा में कोई अंतर नहीं दिखता। अम्मा भी धुएं-जैसी हो गई है। कोई देखे-सुने तो कई भ्रम होने लगते हैं, जैसे यह धुआं लकड़ियों का न हो कर अम्मा के भीतर जल रही किसी चीज से उठ रहा हो।
बिना घड़ी समय आंकना अम्मा को बखूबी आता है। घर में न घड़ी है और न मुर्गा, जैसे अम्मा को अंधेरे की आहटों का पूरा ज्ञान हो। चांद और तारों की छांव से समय की परख कोई अम्मा से सीखे। सूरज की चाल पर समय बताना अम्मा के दाएं हाथ का खेल है। सुबह एक ही समय उठना अम्मा की आदत है। इसलिए चिड़िया भी धोखा खा जाती हैं कि पहले वे उठती हैं कि अम्मा। चिड़ियों से अम्मा की खूब पटती है। जैसे उनकी भोर अम्मा के ही आंगन में होती हो। ओबरे और रसोई का काम निपटाने के बाद अम्मा उन्हें दाना डालना नहीं भूलती। अम्मा ने चावल का चूरा, बथ्थू, कोदा इत्यादि अलग से ही रखा होता है। घर के दोनों तरफ पेड़ की टहनियों में बहुत नीचे चिड़ियों को पौ लगाती है अम्मा। विशेषकर गर्मियों में, ताकि चिड़ियों को पानी मिलता रहे। इसके लिए कुम्हार से हर वर्ष मिट्टी की डिबड़ियां अम्मा मंगवा रखती है। 

चिड़ियों को बुलाने की आवाजें गांव तक सुनाई देती है। भले ही वे आसपास चहक रही हों, अम्मा दाना फेंकते उन्हें जोर-जोर से बुलाया करती है,  चिड़ू आओ, चिड़िया आऽऽओ।
दाना खाती चिड़ियों को बिल्लियां न झपटें, सका अम्मा खास ध्यान रखती है। जब तक उनका दाना खत्म न हो जाए, वह दरवाजे की दहलीज पर बैठी बीड़ी पिया करती है या फिर रसोई में उन्हें दूध दे देती है ताकि बाहर न आएं।

***          ***          ***          ***

अम्मा के अकेलेपन का विचित्र संसार है। सुबह से शाम तक अम्मा कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी के साथ व्यस्त रहती है। अकेलेपन के अनेक सहारे पाल लिए हैं अम्मा ने। ऐसा कोई बच्चा गांव का न होगा जो अम्मा के यहां गुड़ की डली या मक्खन-रोटी न खा जाता हो, ऐसी औरत न होगी जो पानी-पनिहार, घास-लकड़ी को आते-जाते अम्मा के आंगन बैठ बीड़ी का कश न मार जाती होगी, ऐसा कुत्ता न होगा जो अम्मा के दरवाजे टुकड़ा न खा जाए और ऐसी चिड़िया न बची होगी जो अम्मा का दाना न चुग जाती होगी। पशु भी आते-जाते अम्मा का आंगन झांक ही लेते हैं।

अम्मा कभी बीमार होती है तो गांव की लड़कियां या औरतें अम्मा का काम निपटा जाती हैं। पानी-पनिहार से लेकर घास-पत्ती तक। बीमारी में अम्मा को न गाय तंग करती है, न बिल्लियां और न ही चिड़ियां। न अम्मा किसी से झगड़ती है। और न कोई अम्मा को परेशान करता है। अम्मा को जुकाम अक्सर होता है। ऊपर से सिर-दर्द। ऐसे में अम्मा गोशाला के आंगन में गाय के खूंटे के साथ सो जाया करती है। गाय अब अम्मा के बालों और माथे को चाट कर सहलाती है। बिल्लियां चुपचाप आस-पास या बैठ जाती हैं या फिर अम्मा के पांव या हाथ चाटती रहती हैं। चिड़ियों का दल पौ लगे पेड़ों पर चहचाहाते हुए फुदकता रहता है, जैसे वह भी बेबस अम्मा के आसपास आकर रहें, पर बिल्लियों के डर से वह नहीं आतीं। …इन सभी की दुआओं से ठीक होती होगी अम्मा……..?
 ***          ***          ***          ***

पिता को गुजरे चार बरस हो गए हैं। उन दोनों के एक बेटा और एक बेटी थीं। बेटी का छोटी उम्र में ब्याह कर दिया। अम्मा बताती है कि उन दिनों बहुत छोटी उम्र में ही रिश्ते तय हो जाते थे। शादियां भी छोटी-छोटी उम्र है हो जाती थी। पिता की जिद्द थी कि एक ही बेटा है, इसे अफसर नहीं बनाया तो हमारा कमाना व्यर्थ है। उसे खूब पढ़ाया-लिखाया। हजारों कर्जा सर पर ले लिया। एक-दो खेत रेहन रख लिए। कालेज पूरा हुआ तो नौकरी भी लग गई। लेकिन उन बूढ़ों को भनक तक न लगी कि शहर के तौर-तरीकों और चटक-मटक ने उसे दोनों से बहुत दूर कर दिया और वह अपनी माटी से कटता गया। फासले बढ़ते चले गए और एक दिन जब उन दोनों को यह खबर मिली कि उसने शहर की किसी लड़की से ब्याह कर लिया तो बेचारे गांव में किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। दिल घायल हुए सो अलग।
कई दिनों बाद बेटा बहू को ले कर गांव आया भीपर दो-चार दिनों बाद वापिस शहर लौट गया। बहू क्या जाने गांव का रहना। उसे तो यहां कैदखाना हो गया। मिट्टी-गोबर की बास और बूढ़ों का रहन-सहन उसे नहीं भाया। अम्मा-पिता के अरमान थे, बहू आएगी तो उनकी टहल-फाजत करेगी। अम्मा के खोये दिन लौटेंगे। खूब खेती-बाड़ी होगी। पशुओं से फिर ओबरा भर जाएगा। गांव के सरीकों के बीच इज्जत-परतीत बढ़ेगी। उनका दुख-दर्द भी देखेगी। पोतू-पोतियों को अम्मा दिन भर खिलाती रहेगी। घर-आंगन में खुशियां-ही-खुशियां। पिता ने तो बेटे की शादी के लिए कई जगह रिश्तों की बात भी चला दी थी। सोचा करते कि एक ही एक बेटा है। ऐसी शादी रचाऊंगा कि सरीक देखते रह जाएंगे। …और वे देखते ही रहे……….?

***          ***          ***          ***

अम्मा बीमारी से ठीक भी जल्दी हो जाती है। फिर वही दिनचर्या। वही काम-काज। सुबह से शाम तक कहीं-न-कहीं व्यस्त होती है अम्मा। कई बार गांव की कोई औरत या मर्द टोक दिया करता है-
देवरु काकी, क्यों अपने अंग-प्राण तुड़वा रही हो। बेटा हर महीने पांच सौ भेजता है। आराम कर।
और अम्मा तड़ाक से जवाब दे देती है,
काम से कोई नहीं मरता रे। जब तक शरीर में प्राण है चलणा तो है ही। फिर इतणी जगह-ज़मीन, गाय-बैल बरबाद तो नहीं किए जाते न।

कभी परधान या गांव का ठाकुर ताना कस देता,
देवरु! बेच दे जगह-ज़मीन। दे दे इन गाय-बैलों को। बहू-बेटा तो गांव आएंगे नहीं। इन्हें रखकर क्या करेगी। तेरे चला तो नहीं जाता अब।
अम्मा इनकी चाल समझती है। जगह-ज़मीन पर इनकी नज़रें हमेशा से लगी रही हैं। पर अम्मा के आगे टिकना मुश्किल है। कह देती है,

परधान जी, इतने तो अभी और पाल सकती हूं। नौकरी-चाकरी तो चार दिनों की है। बेटे ने कमा के घर ही आना है। इसकी चिंता मैं करूंगी तुम अपना काम निभाओ।
अम्मा समझती है, मरने के बाद इन्हीं गिद्धों के काम आएगी यह खेती। नोच लेंगे टुकड़ा-टुकड़ा। बेटे को तो कोई परवाह है नहीं। गांव, गांव ही होता है। अपना, अपना ही। नौकरी चार दिनों की है। आदमी की इज्ज़त-परतीत तो घर से होती है।
डाकिया कई बार अम्मा को बेटे का मनीऑर्डर थमाते शहर के किस्से सुना जाता है। पिता के मरने के बाद हर माह बेटा अम्मा को पांच सौ भेजता है। पर अम्मा के अकेलेपन को वह रुपए कितना बांट पाए हैं, यह कोई अम्मा से पूछे। अम्मा का मन नहीं करता किसी से कुछ लेने का, पर गांव-बेड़ में इज्जत रहे, इसलिए ही पकड़ लेती है पैसे। अम्मा का खर्चा तो उसकी खेती और गाय ही दे देती है।

अम्मा को डाकिये की बातें कई बार अकेले में याद आ जाया करती हैं। वह डर जाती है। शहर में कितनी बेचैनी बढ़ गई हैं रोज कुछ-न-कुछ घटता ही है। दंगे-फसाद होते हैं, लाठियां-गोलियां चलती हैं। इन सभी के बीच उसके बेटे-बहू कैसे रहते होंगे। पोतू स्कूल कैसे जाता होगा। इसलिए अम्मा को अपना गांव बहुत भला लगता है। कहीं कुछ नहीं घटता। शांति है। चैन है। न दंगे-न-फसाद। न लाठियां न गोलियां…पर कोई क्या समझे कि अपने आपमें अम्मा कितनी आतंकित रहती है। मां का दिल है न…बेटा दूर ही क्यों न हो, बहू नफरत ही क्यों न करे, अम्मा अक्सर उन्हें याद किया करती है।

***          ***          ***          ***


अम्मा साठ के करीब हो गई है। अपने शरीर की कभी परवाह नहीं की। फटे-पुराने कपड़े जब तक चिथड़े-चिथड़े न हो जाएं, उतरेंगे नहीं। बाल अनधोये बिखरे रहते हैं जिन्हें अम्मा एक फटे हुए दुपट्टे से पीछे की तरफ बांधे रखती है। कई बार सोचती भी है कि सिर नहा ले, पर समय ही कहां मिलता है। कभी-कभार गांव की कोई औरत या ससुराल से बेटी आ कर धुला जाती है तो अम्मा को कई दिनों चैन रहता है।

साल-फसल के दिन तो अम्मा के लिए खूब व्यस्तता के होते हैं। अम्मा की बुवाई-गुड़ाई ब्वारी से ही चलती है। अम्मा की मदद के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ता है। सभी जानते हैं कि अम्मा आदर-खातिर में कसर नहीं छोड़ती। कई बार छोकरे-छल्ले अम्मा से मजाक कर लेते हैं,
देख काकी। हम तो तेरी गुड़ाई या गोबराई में तभी आएंगे जब तू पौवा-शौवा पीने को देगी।

अम्मा झट से झाड़ देती है,
मुए शर्म करो। मुंह से तो दूध की बास नहीं गई, बोतल पूरी चाहिए। पौवा-शौवा कुछ नहीं मिलेगा।
सभी जानते हैं आज के जमाने घी कहां मिलता है। पर अम्मा की गुड़ाई-गोबराई में यह परंपरा टूटी नहीं। खूब घी-शक्कर मिलता है ब्वारों को।

***          ***          ***          *** 
     
अम्मा को याद है जब मक्की की फसल बड़ी होती तो बड़ी गुड़ाई लगती। घर में पिता होते। बेटा और बेटी होते। ऐसी गुड़ाई कभी न लगी हो जब तीस-चालीस ब्वारे न आए हों। अम्मा की गुड़ाई बिना ढोल-शहनाई के कभी नहीं हुई। पिता शहनाई के माहिर थे। गांव-परगने के तकरीबन सभी ब्याह शादियां, जातरें और गुड़ाईयां उन्हीं की शहनाई से निपटती थीं। गुड़ाई में तो अम्मा भी साथ रहतीं। उन्हें पिता के साथ विशेष तौर से गुड़ाई में बुलाया जाता। झूरी गाने में मजाल कि उनका मुकाबला कोई कर सके।

अपनी फसल की गुड़ाई का तो आनंद ही कुछ और रहता। पिता शहनाई बजाते। उनका जोड़ीदार ढोल और अम्मा कभी झूरीतो कभी जुल्फियागाती।
अम्मा की आवाज़ मक्कियों के खेतों को चीरकर दूर घाटियों में टकरा जाती। घाटियां गूंजने लगतीं। खेत जवान हो जाते। हरी मक्कियों की डालियां जैसे मस्ती में लहलहाने लगतीं। बरसात के बादल उमड़ते-घुमड़ते हरे खेतों और घासणियों पर छाने लगते। अचानक रिमझिम-रिमझिम बारीक बरखा लग जाती और लोगों का अनूठा जोश, वातावरण को नया रंग देने लगता। ढोल और शहनाई के संगीत के साथ हाथ में खिलणिया लिए मक्की के खेतों में कहीं गुम हो जाते और उनका तभी पता लगता जब पूरा खेत खत्म करके किनारे पहुंचते।

मां की झूरी के बोल खत्म होते ही पिता की दूर से आवाज आती,
शाबाशे ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ हो।

आज भी अम्मा को गांव की औरतें अपनी गुड़ाई में मजबूर कर देती हैं कि वह एक-आध बोल झूरी के गा दे, पर अब पहले जैसा जोश कहां। हिम्मत कहां। वह मना कर देती है। कहती,
अरे  पापणियो! अब तो सांस तक नी ली जाती, गाणा तो दूर।
सांस अम्मा ले भी कैसे……….? दूसरा भला जाने भी कैसे कि अम्मा भीतर ही भीतर कितनी जल रही है। पर औरतें मानेगी कहां। अम्मा मान भी जाती है, पर गाया नहीं जाता। दबी हुई आवाज में बोल ऐसे निकलते है जैसे किसी अनजान आदमी ने कोई राग गुनगुनाना शुरू कर दिया हो। गाते-गाते खांसी के आठ-दस चक्कर, आंखें लाल जैसे अम्मा के प्राण ही निकलने लगे हों।… पर अम्मा के जख्म तो हरे हो गए हैं। खांसते-खांसते उनकी आंखें पूर्व स्मृतियों से भर आती हैं। वह मुड़ कर देखती है, जैसे पिता हाथ में शहनाई लिए दूर से कहने लगे हों,
लाड़ी हो जाए एकझूरी।
पर पिता है कहां…? चार बरसों का अंतराल, जैसे कल ही की बात हो। विश्वास ही नहीं होता पिता नहीं रहे हैं। अम्मा को उनकी यादें अक्सर सताती हैं। रुलाती हैं। …वही तो एक आसरा थे अम्मा के लिए।

रात को कई बार अम्मा को लगता है, पिता दूसरी चारपाई पर हैं। जिस कमरे में अम्मा सोया करती है, पिता की चारपाई उसी में थी। अब भी चारपाई वहीं है। अम्मा ने बदली नहीं। जैसे वह चारपाई भी उनके अकेलेपन को बांटती है। अम्मा कई बार रात को पिता के लिए तंबाकू भर कर लाया करती। पिता का हुक्का आज तक चारपाई के सिरहाने वैसा ही पड़ा है। दूसरे-तीसरे दिन अम्मा राख से उसे अवश्य मांज लेती है। उसका पानी बदल देती है। कोई गांव का बुजुर्ग आ जाए तो उसी में तंबाकू पिलाती है। कांसा इतना नया जैसे रेत पर चांदनी खनक रही हो।
कभी रात को अम्मा आधी नींद में उठ कर धोखा खा जाती है। पिता सोये हुए अक्सर ऊपर ओढ़ी रजाई नीचे फेंक दिया करते थे। अंधेरे में अम्मा को पिता की सांसें सुन पड़ती हैं। चारपाई पर कुछ हरकतें महसूस होती हैं। वह उठ कर अंधेरे में हाथ से छूती है तो वहां बिल्लियां सोई हैं। बिल्लियां कई बार ऐसा करती हैं। वे जब अम्मा के बिस्तर में नहीं जातीं तो पिता की चारपाई पर घुस जाती है। अम्मा उन्हें नहीं छेड़ती। चुपचाप लौट कर अपने बिस्तर में दब्ब पड़ जाती है। 

अम्मा का विश्वास है पिता की अल्प-मृत्यु हुई है। उन्होंने अचानक प्राण छोड़ दिए थे। कई बार सपने में आते हैं। कहते हैं,
लाड़ी! मैं अपनी मौत नहीं मरा। दुश्मन ने मूठ चलाई है। हरिद्वार-पोहा करवा ले। मेरे प्राण बीच में अटके हैं।
अम्मा क्या करें क्या न करें। घर से बाहर परदेस है। सोचती है, पित्तर बिगड़े तो कभी सुख शांति नहीं होती। यह बात अम्मा को बराबर कचोटती है। भीतर-ही-भीतर सालती है। बेटे को पित्तर-दोषलगा है। अम्मा एक बार मशाण जगाने वाले के पास गई थी। उस आदमी को पित्तरों को बुलाने में महारत हासिल थी। इतना गुणी कि सात पीढ़ियों के पित्तर बुला देता।

अम्मा ने भी पूछा तो पिता आए थे। अम्मा सुनाती है, उनकी वही जुबान, वही बोलचाल, जैसे काली चादर के नीचे मशाण जगाने वाला नहीं बल्कि खुद पिता बैठे हों। कहने लगे,
लाड़ी! तुम्हारे से कोई गिला-शिकवा नहीं। बेटे के पास मन अटका है। उसे ही भेजना।
पर कैसे भिजवाए बेटे को। शहर ही का होकर रह गया हैं उसकी बला से कुछ हो। भुगतेगा, जब पानी सर से चढ़ जाएगा।

***          ***          ***          ***  
   
आंगन में बांधे बैल चौथे-पांचवें दिन खूंटा जरूर उखाड़ देते हैं। एक दिन ऐसा ही हुआ। धूप में सोई अम्मा को भेड़ का मिमियाना सुनाई दिया तो उठ गई। भेड़ अच्छी चुगलखोर है। अम्मा को उसी के मिमियाने से बाकि पशुओं की हरकतों का पता चलता है। 

अम्मा के बैल बहुत शरीफ हैं पर कई दिनों से आपस में लड़ने लगे हैं। एक-दूसरे से दोनों को इरख हो गई है। अम्मा ने उठते ही भेड़ की तरफ देखा। वह खूंटे के चारों ओर डर के मारे घूम रही थी। रस्सी का फंदा लग गया। अम्मा के नजदीक पहुंचते ही धड़ाम से गिर पड़ी। अब बैल संभाले या भेड़। बैल को जोर से झाडा तो उल्टा सींग मारने दौड़ आया। अम्मा के हाथ एक मोटा डंडा न लगता तो खेत में फेंक दी होती। अनर्थ। अपशकुन। जरूर किसी ने कुछ कर दिया है। वरना अम्मा के पशु मजाल कि उसकी न सुने। पहले जैसे-कैसे डरते हुए उसे ओबरे में भगा कर बंद कर दिया। फिर भेड़ की रस्सी दराटी से काट दी। कई बूंदें पानी उसके मुंह में डाला तो जान में जान आई।

अम्मा के लिए खूंटों की परेशानी हमेशा रहती है। खूंटा नहीं गाड़ा जाता। ओबरे के आंगन की बीड़ पर तब तक बैठी रहती है जब तक कि कोई गांव का मर्द या छोकरा-छल्ला दिख न जाए। इस बार देवता का पुजारी दिखा। जोर से हांक दी तो वह खेत से ही ऊपर चढ़ आया। नजदीक पहुंचा तो अम्मा ने माथा टेक कर सुख-सांद पूछी। बैठने को पटड़ा दिया और साथ एक बीड़ी भी दे दी। पुजारी ने जितनी देर में बीड़ी सुलगाई, अम्मा भीतर से घण लेकर पहुंच गई। 

पंडजी सबसे पैले तो खूंटा गाड़ दो। इस बैल ने तो आज जान से ही मार दी थी।
उसने कंधे से पट्टू पटड़े पर फेंक दिया और घण लेकर खूंठा ठोंकने लग गया। खूंटा लगा तो अम्मा को चैन आया। पुजारी ने आंगन में दूसरे खूंटो पर भी एक-एक ठोंक दी ताकि पक्के हो जाएं।
 ऐसा कभी नहीं हुआ था पंडजी। आप जरा कुछ खोट-दोष देख दो,” अम्मा कहने लगी।

यह कहते अम्मा भीतर गई और उल्टे पांव लौट आई। कांसे की थाली में कुछ कणक के दाने पुजारी को थमा दिए। वह पटड़े पर चौकड़ी मार कर बैठ गया। कांसे की थाली उल्टी जमीन पर रख दी। उस पर दाने रखे। फिर उठाए और अम्मा को कहा कि फूंक मार दे। अम्मा ने वैसा ही किया। पुजारी ने दानों को कुछ देर मुट्ठी में बंद रखा। मुंह के पास ले जाकर कुछ मंत्र का जाप किया। देवी-देवताओं का नाम लिया और फिर थाली की पीठ पर डाल दिए। बारी-बारी दानों की गिनती शुरू हो गई। अम्मा सामने उकडूं बैठी एकटक देखती रही। मन-ही-मन देवता का नाम भी जपती रही। 

पुजारी का चेहरा लाल हो गया। जैसे देवता आ रहा हो। नीचे से तीन बार दाने उठा कर अम्मा को दिए। तीनों बार पांच-पांच आए। अम्मा जानती है चार और पांच दाने रक्षा के होते हैं जबकि छः दाने दोष-खोट के। दाने पकड़ाते पुजारी ने समझाया,
 देख देवरु। कुछ गल जरूर है। कल जेठी सक्रांत है। तू कोठी के पास जरूर आना। देवता रक्षा करेगा। कुछ दाने बाहर-भीतर फेंकना और कुछ आटे की पिन्नी में बैल को खिला देना।पुजारी यह कहते-कहते उठ कर चला गया।

अम्मा ने वैसा ही किया। दूसरे दिन का इंतजार मन में बैठ गया। सोचती रही जरूर कुछ बात है। देवता की कोठी वह अवश्य जाएगी। पंची करवाएगी। अपने साथ बहू-बेटे के लिए भी पूछेगी कि उनका घर से मुंह किसने फिरवा दिया। किस दुश्मन ने भूत फेंक दिया।
***          ***          ***          ***

दूसरे दिन अम्मा ने जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाया। देवता की कोठी अम्मा के मकान से एक फर्लांग भी नहीं है। बिल्कुल दरवाजे के सामने। बाहर निकले तो सीधी नजर देवता पर जाए। इसलिए अम्मा कभी आंगन में जूठ-परीठ नहीं फेंकती। हमेशा गंगा-जल या गौंच छिड़क दिया करती है। घर-गृहा पवित्र रहे तो मन को शांति रहती है। पर अम्मा के मन को शांति मिली ही कब?

तीन बजे अम्मा रोट-धूप लिए कोठी के पास पहुंच गई। पहुंची तो दीवाल के बाहर जूते उतार दिए और जहां औरतों के बैठने की जगह थी वहां चुपचाप बैठ गई। पहले देवता को माथा टेका। फिर रोट की ठाकरी एक कारदार के पास थमा दी। कारदार ने रोट बाहर भैरों के लघु मंदिर के पास उल्टा दिया। तीन उंगली रोट उठा चारों तरफ अम्मा के नाम से देवता को फेंक दिया और पीछे से गौंच के दो-चार छींटे। फिर कुछ चावल और एक फूल ठाकरी में डाल अम्मा को लौटा दी। अम्मा ने उन्हें माथे से वांच दिया। 

चुपचाप बैठी अम्मा की नजरें कोठी के आंगन में थीं। कारदार इकट्ठे होने लगे थे। देवता का बजंतर बाहर निकाल दिया था। नगारची ने नगाड़ा, ढोलिये ने ढोल, चांबी ढोल वालों ने एक-एक चांबी, नरसिंगे वाले ने नरसिंगा और करनालची ने करनाल थाम ली थी। शहनाइया अब नहीं था। अम्मा को वह खालीपन भीतर तक काट गया। पति याद आ गए। वही देवता की हर रस्म अपने परिवार से कारदार के रूप में निभाते थे।

पति ही देवता के शहनाइये थे। हर सक्रांत को, हर जातर में और हर देवता के काम में उनकी हाजरी रहती। अम्मा को लगा कि जैसे वह अभी कहीं से आएंगे। बजंतरियों के बीच बैठने से पहले दोनों हाथों से देवता को मथा टेकेंगे और फिर थैली से शहनाई निकाल कर पत्ता ठीक करने लग जाएंगे। फिर चिंचियाएंगे और उनके स्वर के साथ ढोलिया भी अपना स्वर ठीक करने लग जाएगा।
अब पति नहीं है तो कोई देवता का शहनाइया भी नहीं। अम्मा की आंखें भर गई हैं।
पंची शुरू होने लगी है। अम्मा आगे खिसक गई। पुजारी कोठी से बाहर आया तो अपने आसन पर बैठने से पहले इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। अम्मा ने दूर से ही हाथ जोड़ दिए। 

कोठी के आंगन में पूरब की तरफ बैठता है पुजारी। दाएं-बाएं कारदार यानि पंच। सामने तीन अलग-अलग देवता के गूर। पंचों ने एक थाली में, धूप, चावल, सिंदूर और दो-तीन डलियां गुड़ की अपने पास रख लीं।

देव-बाजा शुरू हुआ। ढोल-नगाड़ा और दूसरे बाजे खनके। लोगों की नजरें केंद्रित हो गईं। अम्मा का जैसे रोंआ-रोआं खड़ा हो गया। अम्मा को ऐसा ही होता है जब देवता का जंग शुरू हो जाता है। सारे वाद्य यंत्र जब एक साथ बजते हैं तो वातावरण में जैसे एक अजीब-सा जोश भर जाता है। बीच-बीच में एक कारदार रोट यानि आटे की चुटखियां उठाकर चारों तरफ फेंक देता है और पीछे से गौमूत्र के छींटे…।
पुजारी में कंपकंपी होने लगी। मुख्य गूर भी पुजारी ही हैं। देवता आने लगा। बजंतर और भी तेज हो गया। हाथ श्रद्धा से जुड़ गए, सिर झुक गया और देवता पूरी तरह आ गया।

देवता आता है तो पुजारी जोर से ज़मीन पर हाथ मार देता है, “रख्खे…।
सभी ऐसा ही कहते हैं। पंच चावल या कणक के मुट्ठी भर दाने पुजारी के कंपकंपाते हाथ में डाल देता है। पुजारी कई बार हवा में रक्षा के दाने उछालता है।
पंची शुरू हो गई। अम्मा का कलेजा फटा जा रहा है। हाथ रखती तो झटक जाता। कितनी बेचैनी। कितना भय। देवता ने खुद अम्मा को हांक लगाई तो वह चौंक कर खड़ी हो गई, “आगे आ जा देवरु।

एक कारदार झटपट अम्मा को नजदीक लाया। देवता जोर से खेला। खूब किल्कें दीं। कई बार लोहे का शंगल अपनी पीठ पर पटका। अम्मा इस बीच चुपचाप खड़ी रही। पर भीतर एक तूफान था। आज सब कुछ कह देगी देवता से। सब कुछ मांगेगी… कितना कुछ है अम्मा के मन में मांगने को। एक बात होती तो पूछे, अम्मा के पास तो प्रश्न-ही-प्रश्न हैं। दुख-ही-दुख हैं। सभी प्रश्न आंखों में तैर आए। छलछला गईं आंखें… देवता ने पढ़ ही ली होंगी। वह तो मन की बूझता है। उसके पास भला क्या छुपाना?
बैल ठीक है न?”
तेरी रक्षा है देवा।
ये लो मेरे रक्षा के चावल। आंगन के चारों तरफ फेंकना। जा…आज के बाद तेरा बाल बांका भी न हो। कांटा भी न टूटे।

अम्मा ने सिर झुका लिया। आंखों में तैरते हजारों प्रश्न दो बूंदों में धरती पर आ गिरे।….शायद देवता ने सहेज लिए हों। देवता अम्मा को देखता रहा…अपार श्रद्धा की देवी थी अम्मा। बे-जुबान पशु, और देवता ही तो सहारे हैं अम्मा के। अम्मा को लगा जैसे शरीर पर से हजारों मन बोझ उतर गया हो।

***          ***          ***          ***

     कोठी से बाहर निकली तो कुछ औरतें दीवाल पर बैठी दिखीं। टोक दिया,
 माल़ नजदीक है देवरु, रोज माल़ गाने आया करियो।
कुछ नहीं बोली अम्मा। चुपचाप चली आईं।
घर पहुंची तो औरतों का बुलाना याद आ गया। माल़ याद आ गई। इस पशुओं के त्योहार को कैसे-कैसे नहीं मनाती थी अम्मा।

पर मन नहीं करता कहीं आने-जाने को। वरना पहले कोई माल़ अम्मा के बिना नहीं गाई जाती। आठ दिनों पहले शुरू हो जाती। कोठी के पास कई घंटों देर रात तक औरतें गाती रहतीं। चांदनी रात में दूर-दूर तक गीतों की आवाज जाती। अम्मा उन्हीं के बीच रहती। माल़ गाती। तरह-तरह के हंसी-मजाक होते। ठठेलियां होतीं और आठवें दिन अम्मा के पशु सजे-संवरे पानी के पास सबसे पहले पहुंचे होते। अम्मा ने भुनी मक्कियों और अखरोटों की चन्नियों की झोली भरी होती। जो भी मिलता, उसे ही मुट्ठी भर दिए जाती।

कल और आ रही है माल़। अम्मा की माल़ तो पिछले बरस जैसी होगी। निपट अकेली। कोई नहीं गाएगा। कोई नहीं आएगा। बिल्लियां होंगी। एक गाय, दो बैल और दो भेड़ें। इन्हीं के बीच मनेगा अम्मा का यह त्योहार। अम्मा गाएगी तो आवाजें मन की दहलीज से बाहर न निकलेंगी, चारदीवारी से टकरा कर रह जाएंगी।
मनानी तो है ही। कोई दूसरा त्यौहार होता तो अम्मा टाल देती। पशुओं का त्यौहार बरस बाद आया है, इसे तो मनाना ही है। अम्मा भूल गई थी कि हारों के लिए बुंगड़ी और सरतवाज के फूल भी लाने हैं। सरतवाज तो आंगन में खूब हैं पर बुंगड़ी के फूल दूर घासनी से लाने होगें। यही तो फूल हैं जो माल़ को पशुओं के गले में सजता है। सरतवाज के लाल और बुगड़ी के सफेद फूलों की मालाएं पशुओं के गले में सजी कितनी भली लगती हैं।

हल्के अंधेरे में ही गई थीं अम्मा। सफेद फूल को चुनने में देरी ही कितनी लगी होगी। झटपट लौट आई। चांगड़ से एक पुल्ली शेल निकाला। सरतवाज के फूल तोड़े और चार-पांच हार ढिबरी की रोशनी में गूंथ दिए।

सुबह वही दिनचर्या थी। अम्मा उठी। आज का दिन तो पशुओं के नाम है। कामकाज निपटाया। पहले छोटी बच्छिया खोली। उसे खूब हरा घास खिलाया। आंगन में गोबर से लिपाई की। उसके मध्य आटे और हल्दी से छोटा-सा मंडप बनाया। फूल रखे, जूभ लाई। पिन्नियां तड़के ही बना थीं। एक कड़छी में आग के अंगारे भरे और उस पर थोड़ा घी डाल दिया। धूप तैयार। बच्छिया को खड़ा किया। उसके पांव धोये और धूप से पूजा की।

फिर ओबरे में चली गई। हार बैलों और गाय के गले में पहना दिए। हल्दी और चावल का हल्का पीला रंग गिलास में मुंह पर लगा सभी की पीठ पर छापे लगा दिए।
सजे-धजे पशु सुंदर लग रहे थे। भेड़ों को जरूर ईर्ष्या हुई होगी। वे कनखियों से गाय-बैलों को निहार रही थीं। अम्मा ने बहुत सारी आटे की पिन्नियां बनाई हुई थीं। उन्हें भी एक-एक खिला दी। अनायास ही गीत के बोल मुंह से फूट पड़े…, माल़ लगी गाईए…होऽऽमालो।
गांव से भी माल़ गाने की आवाजें आ रही थीं।

यादें ताजा होने लगी। सभी साथ होते। पिता सबसे पहले गाय पूजते। गोशाला में बारी-बारी सबके पांव धोते। पिन्नियां खिलाते जाते। और गांव के पशुओं के लिए भी पिन्नियां ले जाते। शाम को खूब खाना-पीना होता। कई-कुछ पकता। आज न पति है न बेटा। बहू के लिए माल़ काला अक्षर भैंस बराबर। यादों ने रुला दिया। अम्मा को। अब अम्मा ऐसे ही रोया करती है उठते-बैठते, काम करते। रोटियां पकाते। सोते और जागते।

***          ***          ***          ***  
    
डाकिये ने आवाज दी तो अम्मा चौकस हो गई। बोला, “काकी चिट्ठी है।
गोशाला से उल्टे पांव दौड़ गई।
अम्मा को भला कौन लिखेगा चिट्ठी। बेटे ने तो कभी दी नहीं। बेटी ऐसे ही किसी आने-जाने वाले के पास राजीबंदा भेज देती है। जरूर डाकिये को धोखा लगा है।
फिर भी पूछ ही लिया, “मेरी….?”

हां काकी, तेरी ही है। देख तेरा ही नाम लिखा है, पर अम्मा कैसे पढ़े। डाकिए को ही कहती है कि पढ़ कर सुना दे।
डाकिए ने ही बताया था कि,
काकी तुम्हारा बेटा आ रहा है….।
चौंकी थी अम्मा, “मेरा बेटा…?”
विश्वास नहीं हो रहा था कि डाकिया सच बोल गया। हाथ में खुली चिट्ठी भगवान हो गई अम्मा के लिए। जाते डाकिये को आवाज देना चाहती थी कि बहू नहीं आ रही है उसके साथ। पर वह निकल गया।

कुछ मायूस हो गई। वह आएगी भी क्यों। उसकी क्या लगती हूं मैं। वह तो शहरी मेम है। गांव नहीं भाता। गोबर-मिट्टी से बास आती है। रसोई में धुंआ काटता है। लस्सी, खैरू नहीं खा सकती। घास-पत्ती नहीं काट सकती। बैठने को कुर्सी नहीं है। घूमने को बाजार। खुले मे पाखाना नहीं कर सकती…बेटे को भी मेम ही ब्याहणी थी। किसी शरीफ खानदान की लड़की लाता तो सुख से रहता।…मत आए कोई। ज्यादा कटी, थोड़ी रही। कितने दिन जीऊंगी। फिर मर्जी करें। जमीन-जगह रखें चाहे बेचें। मेरी बला से। पर जब तक प्राण हैं चलाए रखूंगी। सह लूंगी सब कुछ।

***          ***          ***          *** 
     
शनीचर को देर रात आया था बेटा।
सड़क गांव से बहुत दूर है। पैदल कोई सात मील चलना पड़ता है। बड़ी आस लिए थी अम्मा। बरसों बाद मां-बेटा एक साथ खाएंगे।
बेटा आया तो पहले सीधा अपने कमरे में चला गया। घर में एक कमरा उन्हीं के लिए बंद रहता है। अम्मा ने कभी नहीं खोला। कपड़े बदल कर काफी देर बाद आया। अम्मा ने ढिबरी की लौ और तेज कर ली थी। देखेगी कितना जवान हो गया है। कैसा लगता है। कमजोर तो नहीं हो गया होगा?

कहीं पीछे चली गई है अम्मा। छोटा-सा था। स्कूल से आता…बाहर बस्ता फेंकता……और सीधा पीठ पर चढ़ जाता। हाथ भी नहीं धोता…रोटी खाने की जल्दी लगी रहती …अम्मा आधी रोटी और मक्खन देती …खाकर गोद में सो जाया करता…।
अब वह बड़ा हो गया है। साहब है …आया तो पैरापावणा करके चुपचाप चूल्हे के पास बैठ गया। अम्मा चाहती थी वह खूब गले लगे …भरी आंखों से पूछे-क्या इतने दिनों मां याद नहीं आई…। कुछ नहीं हुआ। ऐसा नहीं, मां रोई नहीं-भीतर-ही-भीतर…। बिना आंसुओं के रोना कोई मां से सीखे।

अम्मा ने चाय दे दी। फिर हाथ धोने को पानी। वह मुकर गया। बोला, रोटी शहर से ही बांध रखी थी। बस से उतरते ही खा ली।
उसके लिए इतना कहना सीधा था। अम्मा पर क्या गुजरी होगी, कौन जाने? घुट कर रह गई। मानो बिजली टूट गई हो। ऊपर कोई पहाड़ गिर गया हो। एक तूफान उठ गया भीतर। पर अम्मा आदी हो गई है। मन आंधियों और तूफानों का ही तो घर है। 

फिर बेटे ने ही चुप्पी तोड़ी थी।
मां सुबह चले जाना है। बहुत काम है। नन्हें को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला करवाना है। सिफारिश करवाई थी कुछ नहीं हुआ। अब पूरे तीस हजार डोनेशन मांगते हैं।
अम्मा की समझ में अधिक कुछ नहीं आया। पर वह भांप गई कि बेटा पैसे को आया है। फिर बोला,
 मां इस महीने पैसे नहीं दे सकूंगा।
अम्मा ने विश्वास दिलाया

तू फिक्र क्यों करता है। भगवान का दिया मेरे पास बहुत है बेटा। तू अपना काम कर। अब के बाद भेजना ही मत। मेरा खर्च ही क्या होता है।
सांत्वना दे गई अम्मा। लेकिन बेटे के मन में बात कहीं चुभ गई। कुछ नहीं बोला। चुपचाप बैठा रहा। अम्मा भी कई पल चुप रही। बस चिमटे से चूल्हे में यूं ही आग खरोड़ती रही। इस चुप्पी में कई सवाल छुपे थे। तरह-तरह के। फर्क इतना था अम्मा के पास जवाब हो सकते हैं पर बेटा तो हर तरफ से खाली है। अम्मा ने जैसे उसका चेहरा पढ़ लिया हो।

नींद लगी होगी बेटा तुझे। बिस्तर बिछा आती हूं।
कुछ नहीं कह पाया वह। अम्मा उठ कर चली गई। बिस्तर झाड़ा, चादर बदली और नई रजाई निकाल कर रख दी। कमरे को काफी देर तक निहारती रही…आश्चर्य हुआ। अपने ही घर का कमरा कितना अजनबी-सा लगा था अम्मा को। मानो किसी अनजाने घर में पसर आई हो।

वह भी उठ गया। थका हुआ-सा। कितना मुरझाया हुआ चेहरा है उसका। जैसे हजारों गम मन में घर कर गए हों। चुपचाप कमरे में चला आया…हारा हुआ-सा। मन की बात भी न अम्मा से कह पाया। पास रहते हुए भी कितना दूर हो गया है वह। सोचता रहा, कैसे जाएगा शहर। खाली हाथ लौटेगा तो पत्नी टोक देगी। मां से पैसे नहीं लाए। कैसे फीस भरेगी। वह चालाक है। जानती है बुढ़िया का खर्च कितना है। बेटा जो भेजता है उसे ऐसे ही रखती होगी। चार-पांच सालों की रकम कम नहीं होती। मिल जाए तो क्या हर्ज है। 

कमरे में बहुत देर बैठा रहा था वह। बेचैन। खामोश।
अम्मा ने कुछ भी नहीं खाया। कैसे खाती। बेटा इतने दिनों बाद आया भी तो शहर से रोटियां ले कर। पकाई रोटियां उसी तरह ढंक दी। बीड़ी भी नहीं सुलगाई। अम्मा की चुप्पी फिर बिल्लियां तोड़ गईं।

   काली चुपचाप चूल्हे के सेंक में घुर्राने लगी और निक्की अम्मा की गोदी में चढ़ कर गला चाटने लग गई। अम्मा जानती है जब उन्हें शिकार नहीं मिलता, दूध के लिए यह दुलार ऐसे ही चलता है। अम्मा ने उसे दाएं हाथ से पकड़े रखा और बांए से बाल्टी से दूध उनके बर्तन में उड़ेल दिया। खूब सारा। दोनों छप्प-छप्प पीने लग गई। पहले से ज्यादा दूध उड़ेल गई अम्मा।

***          ***          ***          *** 
     
आज हर तरफ अजीब-सा सन्नाटा है। अम्मा का किसी के साथ कोई झगड़ा नहीं है। बिल्लियां फिर पास आ जाती हैं। दोनों ही गोदी में चढ़ गई हैं। उन्हें अम्मा का स्नेह और चूल्हे का सेंक अपूर्व आनंद देता है। अम्मा उन्हें खूब प्यार करती है। खूब सहलाती हैं। आज तो जैसे स्नेह के अंबार लग गए हैं। बच्चों की तरह उन्हें अपनी छाती में भींच लिया है। तुतलाती जुबान में पता नहीं उन्हें क्या-क्या कहती जा रही है।… बिल्लियां समझती होंगी अम्मा की जुबान। वह जितना बड़बड़ाती है, बिल्लियां उतना ही प्यार अम्मा से करती जाती हैं। अम्मा से बतियाने लगती हैं। म्याऊं…म्याऊं…घुर्ड…घुर्ड…घुर्ड।

उधर बेटे से कमरे में रहा नहीं गया तो हिम्मत बटोर कर रसोई तक चला आया। दरवाजा बंद था। अम्मा रसोई का दरवाजा बंद कर लिया करती है। बेटे को भ्रम हुआ अम्मा के साथ कोई दूसरा आदमी बातें कर रहा है। ऐसी रात कौन हो सकता है। आगे बढ़ा और झुक कर दरवाज के पोरों में से भीतर झांका। सभी कुछ देख गया। भूल गया कि वह अम्मा से पैसे लेने आया है। उसे लगा वह यहीं गांव में रहता है। जैसे अम्मा की गोदी में बिल्लियां नहीं, वह स्वयं है। अम्मा उसे दुलार रही है। बालों को सहला रही है। उसका संपूर्ण वात्सल्य उमड़ आया। वह बचपन के क्षणों को फिर जीना चाहता है। अम्मा के पास बैठ कर। अम्मा की गोदी में सिर रख कर। चाहता है पहले जैसा अम्मा उसे डांटे। झगड़ा करे। वह अपना यह अधिकार इन जानवरों को कभी नहीं देगा… कभी नहीं।

दरवाजा खोलना चाहता था पर रुक गया। मन में एकाएक प्रश्न उठा,
 कि क्या वह इस योग्य है। इस स्नेह के काबिल है?”
तभी अम्मा ने भीतर से टोका।
सो जा बेटा… सुबह जाना है न।
अम्मा ने आहटें पढ़ लीं। कैसे देखा इस घुप्प अंधेरे में उसे। वह तो दबे पांव आया था। वह अचंभित रह गया। कुछ कहता, उससे पहले ही अम्मा ने फिर कहा, “तेरे सिरहाने पैसे रख दिए हैं बेटा। लेते जाना। तेरे काम आएंगे।
पैसे…?“
अम्मा को किसने बताया कि मैं शहर से पैसे के लिए आया हूं। कैसे पढ़ ली मन की बात। पर इस समय इसका तो ख्याल भी न रहा था उसे?

मन किया जोर से चीखे। रोए। चिल्लाए। कहे कि मुझे अम्मा तुम्हारा प्यार चाहिए। पैसे नहीं…। मन की चीख-पुकार मन ही में घुट कर रह गई। जुबान ही जैसे बंद हो गई हो। वह न कुछ सुन सकता है और न कुछ बोल सकता है। अंधेरे की परतों ने जैसे उसे पूरी तरह से जकड़ लिया हो। पांव जीवन में धंस गए हों। उसे नहीं पता वह ऊपर है या कि नीचे। धरती पर है या आसमान पर। खड़ा है या कि बैठा हुआ।
अम्मा फिर बिल्लियों के साथ बतियाने लगी है। जैसे उसे कुछ पता ही नहीं कि उसका बेटा दरवाजे के बाहर खड़ा है।

वह उल्टे पांव लौट आया था। सिरहाने देखा एक पुराने रुमाल में चार सालों के पैसे बंधे हैं।… आंखें बरस आईं। आज हिसाब पूरा हो गया।
अम्मा की बिल्लियों से बतियाने की आवाजें अभी भी उसके कानों में पड़ रही थीं।

सम्पर्क-

मोबाईल –  098165 66611 

ई मेलः harnot1955@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं) 

सर्वेश सिंह की कविताएँ

सर्वेश सिंह

समय का मापन करने वाले भले ही उसे भूत, भविष्य और वर्तमान के खांचे में बांटे, कवि तो उसे अपनी संवेदनाओं में ही मापता है. इस संवेदना में संभावनाओं के लिए भरपूर जगहें हैं जिसे कवि बचाए-बनाए रखना चाहता है. सर्वेश सिंह ऐसे ही युवा कवि हैं जो विद्रूपताओं भरे इस समय में संभावनाओं को बचाए रखना चाहते हैं. इस क्रम में वे ‘पीछे जाना’ जैसी कविता लिखने का साहस भी दिखाते हैं. आज लगातार आगे बढ़ने की जो अंधी दौड़ चल रही है उसमें यह साहस दिखाना काबिले तारीफ़ है. यह ‘पीछे जाना’ उस मनुष्यता को बचाए रखने के लिए पीछे जाना है जो आगे जाने की होड़ में कहीं गायब सा हो गया है. ऐसी ही भावनाओं वाले कवि सर्वेश सिंह की कविताएँ हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.     
 
जन्म 25 जून, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

शिक्षा : एम.ए.,एम.फिल.,पी-एच. डी., जे.एन.यू., दिल्ली से                                                                           

सर्वेश ने कहानी, कविता, आलोचना जैसी विधाओं में काम किया है.
हंस, आलोचना, आजकल, उम्मीद जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं सहित करीब तीस पत्रिकाओं में आलेखों का प्रकाशन. पाखी, परिकथा और जनसत्ता में कहानियाँ प्रकाशित. आउटलुक और परिकथा में कविताएँ प्रकाशित.     

आलोचना की एक पुस्तक:निर्मल वर्मा की कथा-भाषा’ प्रकाशित 
सर्वेश सिंह की कविताएँ 

एकोहम बहुस्यामि…..

बटुक ने उसे पंचामृत में डुबोया
और आरण्यकों में प्रक्षिप्त कर दिया
पुजारी ने लपेटा गेरुवे में
और आरती की थाल में सजा दिया
एक बूढ़े समीक्षक ने परखा बहुरंगी चश्मों से   
और इतिहास के ऊपर उछाल दिया    
जब हाथ आई एक चौड़े जननायक के 
तो उसने नारे में बदल दिया
छात्रों ने उसके कतरों में पाए सन्दर्भ  
पढ़ कर ठहर गया बंझा को गर्भ
ब्राह्मण ने लगाई पुराणों की दौड़
क्षत्रिय का अश्व लेकर भागा चित्तौड़
बनिए की तिजोरी की चोर बन गई  
शुद्र की थाली का कौर बन गयी 
देवताओं की अमृत बनी
असुरों की विष 
शाला की मन्त्र बनी 
वामा की तंत्र
               
बुद्ध की दुःख हुई
गौतम की न्याय
कबीर का क्रोध बनी
तुलसी की सहाय 
कोई मक्का लेकर भागा
कोई काशी
कहीं कठौते की गंगा बनी
कहीं सत्त्यानाशी
बिस्तर पर कामसूत्र बनी
कुरुक्षेत्र की गीता
किसी ने केवल राम देखा
किसी ने सीता
रूस हुई फ़्रांस हुई
हुई भगवा और वाम
कभी केवल रूप हुई
कभी केवल नाम
   
कविता तो एक थी
बस सुविधा की व्याख्याओं से
बहुस्यामि हो गई……..
मन्त्र-फाट
वहाँ जूते उतार कर जाते हैं
जैसे बिस्तरों पर
द्वार पर नंदी है-
उत्तुंग और उत्तेजक 
अंगूठे और तर्जनी की योग-मुद्रा से उसे आभार दें
यहाँ से अब वापसी मुश्किल है 
ध्यानावस्थित मन 
लसलसे रास्तों पर
खुद-ब-खुद आगे बढ़ता जाएगा   
खून में मुक्ति की चाहना के काबुली घुड़सवार  
दौडेगें सरपट 
एक-सा ही जादू है
यहाँ भी..
और वहाँ भी.. 
कि मन की अज्ञानता में  
गर्भ-गृह के द्वंद्व की सुखद यातना में
एक गति, एक ताल और एकतानता में   
सारी ये कायनात
मंथनमय है 
और वहां जहाँ गिरता दूध जमा हो रहा है
और गल रहे हैं फूल, बेलपत्र 
वह आकृति, रूप के भवन में दीप की शिखा-सी है 
त्रिभंगी और लसलसी
वह बिस्तरों की सत्यापित प्रतिलिपि-सी है
 
देवताओं में सुडौल वे
सनातन काल से वहीं जमे हैं
पत्थर के चाम हो गए हैं
पर पत्थरों के इस विन्यास में
कितना तो साफ़ है
धर्म का उद्योग
कितना तो उज्ज्वल है उनका चिर-संयोग     
कितना तो समान है
कि बिस्तरों में उस कामना के बाद
जागना नहीं
और जागरण इस प्रार्थना के बाद भी नहीं 

कर्म के बस दो अलग-अलग तन्त्र हैं 
आस्था और वासना 
श्रेयस और प्रेयस 

फट कर अलग हुए 
पर एक ही मन्त्र हैं

  

वही है पर देता नहीं दिखाई!    

खून के आख्यान
उसी की सर्जना हैं
वही कहानी में किस्से को रुलाता है
और गद्य की क्रियाओं के हाथों में धरता है आग
भड़काने को साहित्त्य के इतिहासों में
उसी का शब्द-कौशल है कि
जीवनी के मुंह पर है कालिख
और आत्मकथा का कलेजा है दो फाट
उसे देख सकते हैं आप
निबंध के उन्नत पहाड़ों पर
कुटज की जड़ों में मट्ठा डालते हुए 
और संस्मरण के हर दूसरे वाक्य की छाती पर  
पैर हिलाते रचनारत है जहाँ वह यमराज की तरह 
लोग नहीं मानते पर
आलोचना की ध्वनियों तक से
जुड़े हैं उसके गुप्त तार
और अब तो हर दर्शक जानता है कि
बेचारे नाटक को रंगमंच तक
पकड़ ले जाते हैं उसके ही सवार
बेचारी लघुकथा तो है अब उसकी सैरगाह भर 
और कविता है आरामदेह बिस्तर 
नहीं होता विश्वास तो निकलिए कल्पना से बाहर
और देखिए जमीन पर
कि कैसे
वह पद्य में देता है भाषण
और गद्य में करता है शासन
इतना बारीक फ़रक
भला कहाँ होगा
किसी और लेखक में  
इसीलिए
अगर व्यंजना में देखें 
तो कहना न होगा
कि जैसे घेरे है कण-कण को ब्रह्म
साहित्य को ठीक वैसे ही घेरे 
वही है पर देता नहीं दिखाई
सड़क पर आँख    
सड़क पर   
वह अचानक खुल जाती है 
अदब से बाएं चल कर देखें  
चौराहे फैलते हैं
हवा के हरे पत्ते
रबड़ के बिस्तर हैं
धूप पेड़ की ओट से देखती है छाया का तांडव
ध्वनियों पर बढ़ रहा आसमानी दबाव
बाजार का मुँह बनता है
चेहरे के कन्धों पर कविता का जनाजा निकलता है
लौटना साहित्य नहीं
और बदलना है भाव  
भाग कर देखो वहाँ जहाँ यथार्थ हो
मोड़ से सड़क दोगली हो जाती है
पूरब को गद्य-पथ 
और पद्य-पथ पश्चिम को
रचने को मुड़ें कि 
इस पार के नाटक की आँधियां 
उस पार की कथाओं के तूफानों में फेंकती हैं 
उपन्यासों का कितना तो मैला आँचल!
                       
मछेरी आलोचनायें निकालती हैं दलदल से 
और खड़ा कर देती हैं सड़क के बीचों बीच
जहाँ आत्मकथाएं रोती हैं 
ध्यानमग्न निबंधों की गहनता
जिन्हें करुणा से देखती हैं
देखने से ज्यादे
आँखों के लिए कितना कुछ और है
रचने को  
सड़क के दिक्-काल में


पीछे जाना

पीछे ही जाना हो
तो जाना नहीं समा जाना
और उधर से जाना
जिधर से सूरज निकलता है  
कोई चश्मा पहन कर भी मत जाना
नहीं तो समा नहीं पाओगे 
बच्चो-सी आँखें ले जाना
तब तुम इतिहास नहीं कुछ और देखोगे
आंसूओं के चहबच्चे
पैरों से लिपट
सुनाएगें तुम्हें अपनी राम कहानी
और ऊपर पत्थर की खिडकियों से झांकती
सत्तर की सूनी आँखें
दिखायेंगी तुम्हे मनुष्य का असली अतीत 
स्मृति में तुम्हारे साजिशें भरती गयी हैं 
इसीलिए फिर कह रहा हूँ
कि चश्मा पहन कर
और डूबते सूरज की तरफ से
मत जाकर समाना  
कुछ नहीं पाओगे
तुम आज अचंभित हो
कि तुम्हारे प्रेम में कोई स्वाद नहीं है
और मैं कहता हूँ कि इसका कारण है
बहुत पहले की एक स्त्री के सर्पीले बाल
जो भरी सभा में सपना देख रहे हैं
किसी के खून से धुलने का
और शायद उससे भी पहले की एक स्त्री की करूण प्रार्थना
कि ये धरती फट जाए
और मैं रहूँ उसके गर्भ में
इस धनुष-बाण की संस्कृति से बाहर
आँखों को उँगलियाँ बना टटोलना
वचनों से टुकड़े-टुकड़े हुआ प्रेम
वहीं कहीं लथपथ पड़ा होगा  
एक बात और याद रखना
पुष्पक से मत जाना
दबे पांव जाना
और वैसे समाना जैसे समाते हैं माँ में… 


झोले में कविता

कविताएँ रख ली हैं मैंने झोले में
और निकल पड़ा हूँ अतृप्त इच्छाओं की काल यात्रा पर
घर से निकलते ही
उनमें से कुछ ने जोड़ लिए हैं हाथ
और हो गयीं हैं ध्यानमग्न
कि जैसे टूटने ही वाली हो धर्म की कोई मरजाद
और कुछ हो गयीं हैं गहरे उदास
कि जैसे अनैतिक बता कर फाड़ दिया जाने वाला हो कोई प्रेमपत्र
कंधे में उनकी संभावनाएं महसूस करते
खोज रहा हूँ समय का वह हिस्सा
जो फिलहाल न भूत में
न भविष्य में
और न ही वर्तमान में है
कि शायद किसी अन्तराल में मिले  
वह गहरे कानों वाली खूबसूरत स्त्री 
जिसे सौंप कर इन्हें  
यह देखूँ 
कि जब एक कवि
और उसकी कविताएँ 
और एक ख़ूबसूरत स्त्री
मिलते हैं
तो वहाँ बना रहता है अँधेरा 
या लपेटता है उसे प्रकाश 

संपर्क:

अध्यक्ष, हिंदी विभाग,

डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज, (बी.एच.यू.)

औसानगंज,वाराणसी- 221001

मो.- 09415435154

Email:  sarveshsingh75@gmail.com 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)