विनय उपाध्याय की कविताएँ


विनय उपाध्याय

रोजी-रोजगार का क्रम कुछ ऐसा होता है जिसमें न चाह कर भी आदमी को अपना घर-परिवार-जमीन-देस छोड़ना पड़ता है. लेकिन अपनी जमीन से बिछड़ने की टीस हमेशा रहती है. कवि विनय उपाध्याय ने इस अहसास को खूबसूरती से अपनी कविता में व्यक्त किया है. तो आज पढ़ते हैं विनय की कविताएँ जिसे हमें उपलब्ध कराया है चित्रकार-कवि मित्र के रवींद्र ने.
विनय उपाध्याय की कविताएँ
डायरी
फिर सम्हाल कर रख दी है मैंने 
सुन्दर जिल्द वाली डायरी 
शायद काम आ सके किसी दिन 
जैसे यह पुरानी डायरी जिसके क्षत-विक्षत 
कुछ – कुछ ज़र्द हो चुके पन्नों पर 
एक दिन उकेर दी थी मैंने 
ज़िन्दगी की धूप-छाहीं इबारतें 
डायरी के इन्ही पन्नो पर लिखते-लिखते 
एक दिन हार गयी थी कलम
छोड़ दी थी मैंने खाली जगह 
कागज़ के मौन में भी 
अक्सर पढ़ लेता हूँ
कुछ रेशमी कवितायें 
भले ही चिन्दियों की नियति से गुज़र रहे हों 
पुरानी डायरी के पन्ने 
पर नयी डायरी के सामने 
अब भी उजले हैं पुराने हस्ताक्षर 
महफ़िल
तुम्हारे कंठ ने 
कैसे पहचान लिया कि 
सोहनी” के सप्तक की सुरीली आभा में 
उजली हो उठती है
मेरी मासूम यादें 
सरोद के तार छेड़ती तुम्हारी उँगलियों को 
कैसे मालूम कि 
मल्हार” के झरने में मैं 
बचपन की बारिश भीगना चाहता था 
पखवाज के दायें-बायें पर मचलते 
तुम्हारे हाथों ने कैसे जान लिया 
कि चौताल के छंदों की गमक से 
मेरा एकांत मुखर हो उठता है 
खमाज” की बंदिश 
पीर परायी जाणे रे”
यही जान कर ही तो बजायी थी न तुमने 
कि दुनिया में 
विरल हो गए हैं
अब वैष्णव जन 
नाद के नायकों 
मेरी और दुनिया की रग को 
कैसे छू लेते हो तुम!

आभार
शब्द आभारी हैं 
सुरों के 
सुर कंठ के 
कंठ देह की 
देह प्रकृति की 
प्रकृति विराट की 
और विराट ……
शायद 
अपनी धन्यता 
के लिए धरे हैं 
विराट ने ये रूप!
विदा
माँ-पिता की सजल आँखें 
भाई-भाभी के-“कब आओगे” शब्द 
और बच्चों की 
चरण स्पर्श की मुद्रा
कौंध रही है 
अंतर की तलहटी में निरंतर….
तेज़ भागती रेल से भी 
कहीं अधिक दौड़े दो दिन 
और पुनः
लौट चला हूँ 
अपनी कर्मस्थली 
रोज़ी 
अपनों से कितना दूर कर देती है 
हर बार 
विदा के क्षण महसूस हूँ 
घर का सगा हो कर भी 
कितना सौतेला बना देती है 
इस पर बिसूरता हूँ 
शहर पहुँच कर 
फिर भी 
कितना झूठ बोलता हूँ 
यात्रा में कष्ट न हुआ,
मैं यहां कुशल हूँ”. 
दिसंबर की रात
तुम्हें बहुत पसंद थी  ना
सांवले रंग की साड़ी 
और मुझे 
उस पर बेतरतीब छपे हुए
सफ़ेद छीटें 
तुम नहीं हो मेरे पास 
लेकिन फिर उभर आई है 
दिसंबर की रात 
जैसे चुरा लायी है तुम्हारी साड़ी 
और फैला दी सारी की सारी 
खुले आसमान में 
मैं खोजता रहा 
तुम्हारी तस्वीर 
वह मिली नहीं 
तब तुम्हे देखा आसमान के कोने में 
जिसे मैं भूल से चाँद समझता रहा 
मन किया 
फैलाऊँ अपनी भुजाएं 
अपने को विस्तारुं 
और चाँद को चूम लूँ 
चाँद की मासूम सूरत 
सितारों की ओढ़नी 
और ये ठंडी रात 
पसर गयी है वादियों में 
पर तुम नहीं हो 
दिसंबर की इस रात में.   
(विनय उपाध्याय भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं “कला समय” एवं “रंग संवाद” के सम्पादक हैं)
सम्पर्क-

  

एम एक्स-131 

ई-7, अरेरा कॉलोनी 

भोपाल-462016 

मो.09826392428 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)