भरत तिवारी


नाम : भरत तिवारी
पिता : स्व. एस . एस. तिवारी
माता : स्व. पुष्प मोहिनी तिवारी
जन्म भूमि : फैज़ाबाद (अयोध्या) उत्तर प्रदेश
कर्मभूमि : नई दिल्ली
शिक्षा : डा. राम मनोहर लोहिया (अवध विश्वविद्यालय ) से विज्ञान में स्नातक
मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर
अभिरुचि: कला , संगीत , लेखन (नज़्म, गीत, कविता) , फोटोग्राफी
संप्रतिः पि. ऍम. टी. डिजाइंस के ऍम. डी. आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाईन में बेहद झुकाव तथा उसमे नई रचनात्मकता के लिए लगातार उधेड़बुन.
प्रकाशनः  देश की कई पत्र पत्रिकाओं अखबारों और ब्लोग्स में सतत प्रकाशन. खुद के ब्लॉग “शजरनामा” (http://www.tiwari.me) का पिछले 5 सालों से सफलतापूर्वक संचालन

बारे में : माँ हिन्दी की अध्यापिका थीं और उनका साहित्य से लगाव काफी प्रभाव डाल गया बचपन से ही अमृता प्रीतम , महादेवी वर्मा , कबीर और साथ साथही जगजीत सिंह के गायन में रूचि ने निदा फाज़ली, ग़ालिब, मजाज़ की ओर मोड़ा वहीँ से चिंतन की उत्पत्ति हुई जो अब  लेखन में दिखती है.
वे संगीत के कसूर पटियाला घराना के खलीफ़ा उस्ताद रज़ा अली खां के प्रिय शिष्य भी हैं. भरत की खींची तस्वीरें अखबारों इत्यादि में प्रकाशित होती रही हैं.
जनवरी २०१२ में मुंबई के प्रसिद्ध पृथ्वी थियेटर में उन्होंने अपना सफल ‘एकल’ कविता पाठ भी किया है.
भरत सूफी विचारधारा के हैं और हज़रत निजामुद्दीन औलिया को अपना गुरू मानते हैं

बेड साइड बुक्स : गुनाहों का देवता , निदा फाज़ली संग्रह, इलुजंस, द एल्कमिस्ट, ग़ालिब, गुलज़ार, सिटी ऑफ जिन्नस, दिल्ली एक नावेल, आवारा मसीहा … लंबी लिस्ट है

भरत का व्यक्तित्व बहुआयामी है। आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाईन में बेहद झुकाव रखने वाले भरत अपनी रचनाओं में भी कुछ नया करने की उधेड़बुन में लगातार रहते हैं। कविताओं के साथ-साथ गजल लिखना इनका पसंदीदा शगल है। इनके यहाँ जिंदगी का पता खोजिये तो वह दिल के बाईं और मिलेगा, जिंदगी की नित नयी परिभाषा बनाते हुए। आज कविता में गाँव का जिक्र जब केवल फैशन के तौर पर करने की परम्परा सी चल पडी है, भरत का कवि मन जब भी गाँव जाता है तो उनका सहज-सरल बचपन अब भी निःसंकोच मिलने आ जाता है
तो आइये भरत की रचनाओं के जरिये ही हम उनसे खुद रू-ब-रू होते हैं। 
ज़िंदगी का पता 
ज़िंदगी वहीँ खड़ी थी
दिल ओ दिमाग के बींचोबीच
नज़रों ने उसे दिमाग से तलाशा
और बोलीं कि “गुम हो गई कहीं “
इतवार की भरी सुबह जो आँख खुली
ज़िंदगी साँस लेती दिखी
खिड़की से सूरज धार बन अंदर आ रहा था
मुस्कुराती इतराती ज़िंदगी ज़र्रों में चमक रही थी
मेरे पूछने पर बोली –
मुझे दिल की आँखों से देखा करो
मैं तुम्हारे अंदर बायीं तरफ़ रहती हूँ
सूखी मिट्टी के गीले शब्द
ओस की बूँदें
भाप बन उड़ गयीं
उन सब बूंदों में तुम थे
जाने कब होगी बारिश…
दिल की मिट्टी पर सूखी दरारें उकर आई हैं
आँखों की नमी सूख गई
पलकें नहीं झपकती आजकल
अनंत इंतज़ार बिछा रस्ते पर
जाने कब होगी बारिश…
वो बादल का टुकड़ा
तेरा अक्स सा लिये हुए
अटक गया ज़हन में
इक आस सी बंधा के
जाने फिर कहाँ गया
सारे आकाश तलाशे
रह गया
नज़रों में तारी इक इंतज़ार
मिट्टी से क्षीतिज तक
जाने कब होगी बारिश…

जब आना तुम..

एक मीठी मुस्कान ले आना, जब आना तुम…
जीने के अरमान ले आना, जब आना तुम…
धूल सनी डायरी तुम्हे ही सोंचती होगी
कुछ गीत ग़ज़ल कुछ शेर नज़्म ले आना
जब आना तुम…
करके बसेरा है पसरा गहरा ठंडा सन्नाटा
बेपरवाह हँसी, लबों की गर्माहट ले आना
जब आना तुम…
मंदिर मस्जिद गिरजों मे तो मिले नहीं
ढूँढ के जो मिल जायें भगवान ले आना
जब आना तुम…
साथ नहीं है देता वक्त और वक्त के लोग
बढ़ती सी इस उम्र का चैन आराम ले आना
जब आना तुम…
है हमसे मजबूत हमारे रिश्ते की बुनियाद
इस दुनिया की खातिर कोई नाम ले आना
जब आना तुम…
समय रुका है जहाँ छोड़ के गये थे तुम
गये वक्त मे देना था जो प्यार ले आना
जब आना तुम…
आमद
पुरानी किताब के ज़र्द किरतासों में
तुम ! दो-चार हो जाती हो
नई सुबह सी नीलाई लिये
उमस भरी दुपहरी से   
औंघाते हरशहर में
मौजूद
पुरवाई बन
उतर जाती हो
पसीने सी
मुझ मे …
आँगन गर्म करती धूप
शर्माती है 
तुमसे …
चली जाती है
तुम्हे
देख कर
और रात की सारी करवटें
निकल आती हैं बाहर
तुम्हारी आमद से …
सुम्म गली
खामोश हो
आँखें बंद कर लेती है
जब तुम मुझमे होती हो
मुखर होता है
तब
हमारा मौन कितना  …
 

ये खेल कैसा खिला रहे हो

ये कैसा मौसम बना रहे हो 
गुलों में दहशत उगा रहे हो
धरम को पासा बना रहे हो
ये खेल कैसा खिला रहे हो
खुद तो घुटनों पे चल रहे हो
सम्हलना हमको सिखा रहे हो
ज़मीर जाहिल बना हुआ है
ये इल्म कैसा सिखा रहे हो
हक़ तो ये है तुम आज नाहक़
गुलों पे ये हक़ जमा रहे हो
खुली हैं आँखें शजरहै जिंदा
क्यों अपनी शामत बुला रहे हो
गाँव में अब भी बचपन मिलने आ जाता है
भाई की बिटिया के मुताबिक़
चौराहा अब बड़ा हो गया है
कहती है –
मैं भी बड़ी हो गई हूँ
जब बचपन जा रहा था
तबकी दोस्ती है
चौराहे से
ना बता पाया उसे
कुछ दोस्त हमेशा जवान रहते हैं
कि वो भी हमेशा छोटी ही रहेगी
चाय की गुमटी
उसकी दोस्त पान की दुकान
पीछे बहती साफ़ पानी की नाली
चौराहे के उत्तर-पूर्वी कोने की
मेरी सारी दोस्त दुकानों को
दगाबाज़ कपड़े की दुकान खा गई
बिटिया कहती है
क्या ही अच्छा कलेक्शन है वहाँ
मेरी दोस्त-दुकानों का नामोनिशान
पानी में घुल गया
फोटोग्राफर का स्टूडियो भी धुल गया
जाने कहाँ गई होगी
मेरी पासपोर्ट साइज़ की निगेटिव
गया समय चुपके से मिलने आ जाता है
गाँव में अब भी बचपन मिलने आ जाता है
बूढ़ा हो गया
रिक्शे वाला
बड़ा हो गया है स्कूल
रिक्शेवाले के बेटे की नीली मोटरसाइकिल पर
बचपन का छोटा स्कूल भी मिलने आ जाता है
गाँव में अब भी बचपन मिलने आ जाता है

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