राजीव उपाध्याय |
जन्म: 29 जून 1985 ,बाराबाँध, बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: एम. बी. ए., पी-एच. डी. (अध्ययनरत)
संप्रति: अध्यापन(दिल्ली विश्वविद्यालय) एवं सहायकसम्पादक (मैना)
लेखन: कविता एवं अर्थशास्त्र
प्रकाशन:कविताएँ अटूट बंधन, मेरी चौपाल, प्रतिलिपि, युवाघोष (ई–मैगजीन), स्वयं शून्य, कवितासंसार, हेलो भोजपुरी, दी भोजपुरी, आखर व भोजपुरिका में प्रकाशित। आर्थिकआलेख विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं मेंप्रकाशित। टीवी एवं रेडियोपर कार्यक्रम।
आज हम बाजारवाद के युग में हैं। ऐसा नहीं कि बाजार पहले नहीं था। निश्चित रूप से वह पहले भी था लेकिन आज उसका स्वरुप पहले से कहीं अधिक भयावह है। बाजार के लोभ और लालच कुछ इस तरह के हैं कि हम चाह कर भी उसके प्रलोभन से बच नहीं पाते। वह ख़ुद में गुलज़ार रहता है बिना इस बात की फ़िक्र किए कि तमाम ऐसे लोग भी हैं जो इधर आने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकते। तमाम ऐसे लोग हैं जिनके लिए रोटी और कपड़ा की जरूरतें ही प्रमुख हैं। तरह-तरह के ब्रांडों और चकाचौंध की उनके लिए कोई अहमियत नहीं। फिर भी बाजार तो बाजार है। उसे इन सब से क्या लेना-देना? उसके अपने कायदे क़ानून हैं। युवा कवि राजीव उपाध्याय बाजार की इस असलियत को जानते हैं। इसीलिए बेबाकी से लिखते हैं – “कीमत ही यहाँहर बात में/ है मायने रखती/ बिकता यहाँ हैसब कुछ/ हर कोई किरदारहै।/ बाज़ार तो बाज़ारहै॥” ऐसे ही अंदाज वाले युवा कवि राजीव की कुछ नयी कविताएँ पहली बार पर प्रस्तुत हैं। तो आइए पढ़ते हैं राजीव की कुछ नयी कविताएँ।
बाज़ार तो बाज़ार है
बाज़ार तो बाज़ारहै
जो खुद मेंही गुलज़ार है
उसे क्यों करफर्क पड़ता
गर कोई लाचारहै।
बाज़ार तो बाज़ारहै॥
कीमत ही यहाँहर बात में
है मायने रखती
बिकता यहाँ हैसब कुछ
हर कोई किरदारहै।
बाज़ार तो बाज़ारहै॥
तुम बात कोईऔर आ कर
यहाँ ना कियाकरो
कीमत बिगड़ती जातीहै
और हर कोईतलबगार है।
बाज़ार तो बाज़ारहै॥
अजनबी है
रहता हूँ शहर मेंजिस
अजनबी है।
कभी कहीं
तो कभी कहीं है॥
हालात है ये
कि ना कोई जाननेवाला
और ना ही
सड़कें पहचानती हैं।
रहता हूँ शहर मेंजिस
अजनबी है।
हर तरफ शोर हीशोर है
और चकाचौंध भी
पर मनहूस सी खामोशी कोई
भारी है सीने में;
जो जीने का सबबभी देती है
और मरने की वजहभी;
और यूँ कर के बेखौफहूँ
फिर भी मगर
डर कहीं ना कहींहै।
रहता हूँ शहर मेंजिस
अजनबी है॥
जान–पहचानके लोग
और गलियाँ सारी
जो सुनते थे मुझको;
खामोश हो गए हैं
कि मुलाकात अब होतीनहीं;
और गाहे–बाहे
जो पड़ते कभी सामने
तो फेरते हैं मुँह
जैसे कोई अजनबी।
रहता हूँ शहर मेंजिस
अजनबी है।
कुछ इस तरह से
दो छोरों के बीच
नदी बन बहता जारहा हूँ
जिसमें कोई रवानगी नहीं;
बस हड़बड़ी है एक
कि छोर दोनों एकहो जाएं
या मैं खो जाऊंकहीं।
बस इतने में हीसिमटी
ये जिन्दगी है।
रहता हूँ शहर मेंजिस
अजनबी है॥
कुछ आँसू
मिरी आँखों से कुछ आँसू
ऐसे भी रिसते हैं
जो किसी को दिखते नहीं
और शायद
अब उनका कोई मतलब भी नहीं।
पर इतना यकीन
मुझको मेरे
आँसुओं के बह जाने में है
कि साँसे भी मेरी
कई बार फीकी पड़ जाती हैं
और मेरे होने की वजह भी
उन आँसुओं तक चली आती है।
दोस्ती दुश्मनी का क्या?
दोस्ती दुश्मनी का क्या?
कारोबार है ये।
कभी सुबह कभी शाम
तलबगार है ये॥
कि रिसालों से टपकती है ये
कि कहानियों में बहती है ये।
कभी सितमगर है ये
और मददगार भी है ये॥
इनके होने से आपको
जीने की वजह मिलती
और इस तरह
चेहरे के आपके
सरमाएदार हैं ये॥
जब आदमी नज़र आता है
कि उम्र सारी
बदल कर चेहरे
खुद को सताता है
जब जूस्तजू जीने की
सीने में जलाता है;
उम्र के
उस पड़ाव पर
आ कर ठहर जाना ही
सफ़र कहलाता है
आदमी
जब आदमी नज़र आता है।
तुम्हारी खुशबू
तुमने मुझसे
वो हर छोटी–छोटी बात
वो हर चाहत कही
जो तुम चाहती थी
कि तुम करो
कि तुम जी सको
पर शायद तुमको
कहीं ना कहीं पता था
कि तुमने अपनी चाहत की खुश्बू
मुझमें डाल दी
वैसे ही जैसे जीवन डाला था कभी
कि मैं करूँ;
और इस तरह
शायद वायदा कर रहा था मैं तुमसे
उस हर बात की
जिससे जूझना था मुझे
जहाँ तुम्हारा होना जरूरी था;
पर तुम ना होगी
ये जान कर शायद इसलिए
तैयार कर रही थी मुझे।
पर तब कहाँ समझ पाया
कि माथे पर दिए चुम्बन
बालों को मेरे सहलाने
टकटकी लगा कर देखने का
मतलब ये था
कि हर शाम की सुबह नहीं होती
कि कुछ सुबहें कभी नहीं आतीं।
ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?
ये कौन आया है, दरवाजे परखड़ा?
देता नहीं जवाब, है मौनमुस्करारहा
नाम पूछा, पता पूछा
आने की वजह पूछा
कुछ ना बोला मुस्कराता रहा
चुपचाप मगर कुछ बताता रहा।
ये कौन आया है, दरवाजे परखड़ा?
जानना जब हो गया जरूरी
हाथ लगा कर छूकर देखा
पर हाथ ना आया कुछ भी;
भ्रम होने लगे कई
निराकार हो वो गाने लगा
पर जब आँख खुली तो मैंने पाया
आइने संग मैं खड़ा था।
ये कौन आया है, दरवाजे परखड़ा?
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दूरभाष संख्या:9650214326
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)