वंदना मिश्रा

जन्म- उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में 15 अगस्त 1970 को हुआ


शिक्षा- एम ए, बी एड , पी-एच. डी.
प्रायः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन
शिल्पायन से कविता संग्रह ‘कुछ सुनती ही नहीं लड़की’ का प्रकाशन

सम्प्रति- वरिष्ठ प्रवक्ता हिंदी, जी डी बिन्नानी पी जी कालेज, मिर्जापुर 231001

शायद वह सही है

मेरी कविता की डायरी में
लगातार वर्षों ढूढने के बाद
यदि वह प्यार शब्द पा जायेगा तो क्रोध से भर
चीखेगा-चिल्लायेगा , उसका स्रोत जानने का करेगा प्रयास
मैं कितनी भी उसके प्रेम की दुहाई दूँगी
वह बहकेगा नहीं, जानता है कि वह प्रेम
नहीं है उसका दिया
इतने वर्षों में शायद वह पहली बार सही है
मुझे बताना चाहिए उस वस्तु के विषय में
जो मेरे पास है पर उसने कभी दी ही नहीं है

वह दुबली सी लड़की

सच बताओ क्या तुम्हे कभी याद आती है?
वह कच्चे नारियल सी दुधिया हँसी की
उजास बिखेरने वाली लड़की
जिसके कम लम्बे बालों की घनी छांव में
बैठने की कल्पना कर
उसे चिढाते थे तुम इतना कि
हँसते-हँसते आसुओं से भर जाएँ आँखे उसकी
या जिसकी आंसू भरी आँखें
तुम्हे देखते ही खिल उठती थी
जिसे भरमाये रहते थे प्यार-व्यार जैसा
कुछ कह कर तुम
और जानते हुए भी कि झूठे हो तुम,
तुम्हारे हर झूठ पर आश्चर्य करती थी जो,
जिसे देख तुम्हारी आखों में अनोखी चमक आ जाती थी,
और बड़ी मासूम लगती थी जिसे तुम्हारी वह चमक
जो सिर्फ़ तुम्हारी डांट के लिए करती रही गलतियाँ,
और कर बैठी तुमसे जुड़ने की अक्षम्य गलती
सच बताओ कभी याद आती है तुम्हें
वह दुबली सी लड़की?
उस क्षण
कैसे लगते हो खुद की नजर में तुम?

आदेश

उठो! कहा तुमने मेरे बैठते ही
जबकि बैठी थी तुम्हारे ही आदेश पर
डांटा तुमने बार-बार की इस
बेमतलब उठक बैठक पर,
देखा सर से पाँव तक
और फ़रमाया दार्शनिक अंदाज में,
कितनी प्यारी लगाती हो डांट खाती तुम,
मैं खिल उठी
तुमने सख्ती से कहा
क्या है ही प्यार करने लायक तुम में?
मैं सिमट गयी
सारी जिंदगी तौला खुद को मैंने
तुम्हारी नजर से
और खुद को कभी प्यार नहीं कर पायी

जिस दिन लगा

जिस दिन लगा कि अब नहीं रहा जा सकता तुम्हारे साथ
कितने तो झगडालू हो तुम
कितने शातिर कितने खराब
पता नहीं क्यों ले आई तुम्हें अपने जीवन में
कहूं तो हँसोगे तुम ‘खरीद के लायी हो’ कह कर
पर अब नहीं हँसना है मुझे
तुम्हारे साथ पूरे समय नाराज रहना है
क्यों देखूं मैं तुम्हारी अच्छाइयाँ
वैसे भी क्या अच्छाई है तुम में बताओ भला?
मुझे बार-बार कहना अच्छा नहीं लग रहा है
कि तुम अच्छे नहीं लगते हो मुझे
पढ़े लिखे लगते ही नहीं
कैसे-कैसे शब्द निकलते हैं मुंह से तुम्हारे
सारी डिग्री बेकार है तुम्हारी
सारे दिन पर्दा डालती रही तुम्हारी अच्छाईयों पर
और तुम्हारे एक फोन पर लगा कि
जिया नहीं जा सकता तुम्हारे बिना
आने में बहुत देर लगा रहे हो तुम.

उलटा अर्थ

एक ऐसे समय में जब सब
करते हैं बड़े बड़े दावे प्रेम के
और सबसे झूठे दावे करने वाला
मन जाता है सबसे सच्चा प्रेमी
मैंने कई बार-टोका चेताया तुम्हें
कि मैं प्यार-व्यार नहीं करती तुम्हें
सच तो यह है कि मैं एक जिद्दी घमंडी लड़की हूँ
जो कभी किसी को प्यार नहीं कर सकती
या पड़ना ही नहीं है मुझे इन सब चक्करों में
क्या मूर्ख हूँ मैं जो कर बैठूं प्यार
यही या ऐसा ही कुछ कह कर हंसी थी मैं
एक फीकी हंसी, देखा तुम्हारी तरफ
और जाने क्यों आँखें झुका
दायें-बांये देखने लगी,
बाखुदा वो केवल तुम्हारा भ्रम तोड़ने के लिए था
चलते रहे साथ हम
और बीच- बीच में टोकती रही मैं प्यार-व्यार नहीं करती तुम्हें
‘मैं जानता हूँ’ कहा तुमने तो दिल बैठ-सा क्यों गया मेरा
अभी तक किसे चेताती रही थी तुम्हारे बहाने मैं
गीत की टेक की तरह
गाते गाते उलटा अर्थ देने लगते हैं
क्या शब्द?