इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –
* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-
राहुल देव |
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –
* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-
राहुल देव |
अजय कुमार पाण्डेय |
उमाशंकर सिंह परमार |
अजय पाण्डेय |
गीतकार सुभाष वशिष्ठ का अभी हाल ही में एक नवगीत संकलन बना रह ज़ख्म तू ताजा आया है। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने इस संकलन पर एक समीक्षा लिखी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण
मेरे सामने एक नवगीत संकलन है। ‘बना रह ज़ख्म तू ताजा‘। गीतकार हैं सुभाष वसिष्ठ। मेरे अंतरंग मित्र और परम आत्मीय। पारिवारिक सम्बन्धों से जुड़े हुए। अपने नाम के अनुरूप मधुर भाषी और निर्भीक वक्ता। महान् नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के समान। अपना जीवन-पथ स्वयं निर्मित करने वाले।
(नवनीत: स्वांतत्रयोत्तर हिन्दी गीति-काव्य का एक विस्तृत आयाम) इस अप्रकाशित आलेख से उद्धृत उपर्युक्त विशेषण पद ‘आधुनिकतावादी‘ का आशय ‘आधुनिकतावाद‘ न होकर वह प्रतिरोधमूलक भाव है, जो सच्ची आधुनिकता का उज्ज्वल लक्षण है।
समीक्ष्य संकलन में डॉ0 वसिष्ठ ने लिखा है – “प्रस्तुत संग्रह के गीतों का रचनाकाल सन् 1970 से सन् 1990 तक का है। क्रम, काल-क्रमानुसार नहीं है, गीत की प्रकृति वस्तु के आधार पर है। एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि इनमें से कुछ गीत विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में, सन् 1990 के बाद भी प्रकाशित हुए हैं, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ कि उनका रचनाकाल 1970 के बाद और 1990 से पूर्व का ही है।“ (पृ0 11)
मानवीय सभ्यता और संस्कृति जांगलिकता से मांगलिकता की ओर अग्रसर होती रही है। लेकिन द्वन्दात्मक जगत् में जांगलिकता-मांगलिकता का द्वन्द्व चलता रहता है। नाखून बढ़ते रहते हैं। मनुष्य उन्हें काटता रहता है। अन्ततोगत्वा विजय अहिंसा की होती है। लेकिन पूँजी के क्रूर हाथों ने अपने नाखून बढ़ा लिये हैं। वह अब तो शूर्पणखा हो गयी है। यह सब देखकर वसिष्ठ जी मन-ही-मन गाते हैं –
“फँस गया मन सभ्यता के जंगलीपन बीच।“……
“आ गई संवेदना/उस बिन्दु पर चल के
बस, कथा के रह गए हैं
पत्र पीपल के
मूल्य सारे ज़िन्दगी के संग्रहालय चीज़।“(पृ0 26)
संग्रहालय में पुरातात्विक वस्तुएँ रखी जाती हैं। सजावट-दिखावट के लिए। आजकल की विषमताग्रस्त समाज ने उदात्त मानवीय मूल्य सजावट के लिए बातों के संग्रहालय में रख दिए हैं। अर्थात् ‘पर उपदेस कुशल बहुतेरे/ जे आचरहिं ते नर न घनेरे/‘ यही कारण है कि कथनी और करनी के अन्तर ने व्यक्तित्व खंडित कर दिया है। वह विकलांग हो गया है। उसके सामने एक नहीं कई-कई ‘प्रश्न चिह्न‘ खड़े हो गये हैं। परिणाम सामने यह है कि “हर दिन आ खड़ा हुआ/ मुँह बाए/ ले नया सवाल/ क्रिया निरत चर्या/ बिन क्रिया हुई/ क्षण-क्षण बेहाल/ थे रदीफ काफिया बा-अदब/ पर/ खिसक गये हाथों से/ सुरों के बहर।“ (पृ0 27) अब आप ही सोचिए कि बेसुरा व्यक्ति क्या गाएगा। कैसे गाएगा। यह है आज के महत्वाकांक्षी व्यक्ति की नियति। शायद इसी कारण गीतकार महसूसता है कि “गहमाऽगहम शहर और चुप कलम/साथ-साथ रोज़ सफ़र, वे-ताला-सम।“(पृ0 28)
बे-ताला-सम ने जिन्दगी को संगीत की लय से वंचित कर दिया है। गीत के नायक ने निराश हो कर मनोदशा इस प्रकार व्यक्त की है –
“जन से होश सँभाला, तन से पाया कालापन
टलता रहा महज तारीखों में उजियार बदन।“(पृ0 31)
यह ‘कालापन‘ चरित्रहीनता, मूल्य-विहीनता और काली कमाई का प्रतीक है, जो अपनी अलग समानान्तर व्यवस्था चला रहा है। गीतकार इतना निराश है कि उसे महसूस होता है कि
“स्याही ने
हर सीढ़ी
ऐसा रौव जमाया अपना
सहमा छिपता सा फिरता है
सूर्य उदय का सपना।“
लेकिन “तो भी, फाँक रोशनी थामें, तकता पागल मन।“ (पृ0 31) सवाल है कि ‘पागल मन‘ का सपना पूरा होगा? शायद नहीं। आजकल भ्रष्ट राजनीति ने अपरधीकरण का आश्रय सारे के सारे मानवीय मूल्य ध्वस्त कर दिए हैं। फिर भी लोक संर्घष कर रहा है। जनशक्ति ही उकी मनोकामना पूरी कर सकती है। जनशक्ति के अभाव में हर व्यक्ति विभाजित जिन्दगी जी रहा है। अब प्रश्न यह है कि “किस तरह आखिर गुजारे ऋचा-सम्मत पल/ हर किसी ने, निरी कसकर, चढ़ा ली साँकल।“ (पृ0 34) यह है महानगरीय और नगरीय अजनबीपन, जो अपने व्यक्तित्व को परिसीमित करना श्रेयकर समझता है। वेदों की ऋचाएँ उसके लिए व्यर्थ हैं। साथ-साथ चलो। साथ-साथ बोलो। सब के मन को जानो। स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। सत्य बोलो। सौ शरदों तक सूर्य देखो। महानगर में कितने प्रतिशत लोग नित्य सूर्योदय-सूर्यास्त आदि देखते हैं।
महानगरीय नगरीय कस्बाई और ग्रामीण व्यक्ति के सामने एक और समस्या खड़ी है। खालीपन। बेरोजगारी से जनमा हुआ। कर्म करना मानव का स्वभाव है। गुप्त जी ने लिखा है- “नर हो, न निराश करो मन को/कुछ काम करो/ जग में रह कर कुछ नाम करो।“ लेकिन गीतकार के सामने यह ज्वलंत प्रश्न है
“कब तक यों जिएँ लिये खालीपन
और, दूर, माथे से रहे शिकन।“ (पृ0 35)
लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। चिन्ता माथे पर शिकन लेकर आती है। समस्या यह भी है कि
“दिशाहीन चौराहे चौराहे चौराहे
जर्द हुए चेहरों पर/एक चमक मुस्काए
सच, कैसे मुस्काए
मिलती जब बर्फीली अग्नि-छुअन।“ (पृ0 35)
उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में अन्तः विरोध है। ‘छुअन‘ बर्फीली भी है और अग्नि से युक्त भी। अर्थात् आक्रोश से माथा तप रहा है, लेकिन असहाय होने का अहसास उसे ‘बर्फीला‘ कर देता है।
‘कब तक झेलूँ लावा मन में‘ सोच कर कवि व्यवस्था की घातक वास्तविकता इस प्रकार उजागर करता है -पुर्जा, एक व्यवस्था का, बस/ माना/ जोड़ा और चलाया/ शब्दों की अमृत वाणी से/ भूखी पीढ़ी को वहलाया/ मृत्यु चीख तेरी आँगन में।“ (पृ0 36) यह सब सोच-सोच कर के गीतकार आक्रोश से भर कर प्रश्नों की झड़ी लगा देता है-
“लीक, लीकिया, कब तक कब तक?
कब तक पीड़ा, कब तक शोषण?
कब तक प्रतिभा कुण्ठित होगी?
कब तक मन मर्जी का दोहन?
होगा क्या अरण्य रोदन में?
ये ज्वलंत प्रश्न सहृदय पाठक/पाठिका को आज भी परेशान करते रहते हैं असंख्य प्रातिभ युवक-युवतियों की आधी उम्र अच्छी नौकरी की तलाश में बीत जाती है। सरकारें आती हैं। जाती हैं। लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती है। प्रत्येक बड़ी कुर्सी स्वयं का बहुमल्य घोषित करके अपने को बेचने पर आमादा है। संविधान का उल्लंघन खुले आम हो रहा है।
डॉ0 वसिष्ठ ने गम्भीरता से महसूस किया है कि उन जैसे संवेदनशील जन ‘जड़धर्मा लोगो के बीच‘ में रह कर बेचैनी का अनुभव करते हैं। तभी तो गुनगुनाते हैं “मैं भी आ खड़ा हुआ आखिर को/जड़धर्मा लोगों के बीच।“ (पृ0 40) जड़धर्मा लोग लकीर के फकीर होते हैं। रूढ़ियों का अनुपालन अपना पवित्र धर्म समझते हैं। ऐसे लोग समाज की प्रगति में रोड़ा बन कर अड़े रहते हैं। परिणाम यह सामने आता है
“गड्ढा है ज्यों का त्यों
कीचड़ भी ठीक वही
क्या है फिर जिसको मैं रहा था उलीच?
जड़धर्मा लोगों के बीच।“ (पृ0 40)
ऐसे लोग प्रतिक्रियावादी होते हैं। उन पर पुरातनता का निर्मोक चढ़ रहता है। वे समप्रदायवाद और जातिवाद से ग्रस्त होते हैं। साधारण जन तो ‘अपहरण भाईचारे का‘ समर्थन कदापि नहीं करते हैं। लेकिन जड़धर्मा लोग गणेश जी को दूध पिला कर शिशुओं को भूखा रख के अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं।
ऐसे जड़धर्मा जन ही क्रूर एवं शोषक व्यवस्था का समर्थन करते रहते हैं। यथास्थिति बनाए रखते हैं। यह देखकर संवेदनशील गीत कार का मन क्षोभ से भर जाता है। वह पूछता है – ‘यह व्यवस्था चक्र है य सानधर आरा। (पृ0 41) क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम है-“स्निग्ध फ़र्शों की इमारत/ रहन अति लकदक/ गुम्बदी सदनों गुँजाती/ नेतई बक-बक/दीन जीवन को लिखी, बस, कीच या गारा।“(पृ0 41)
गीतकार वसिष्ठ अपने आस-पास के जनों का आचरण अवधानपूर्वक देख कर उनका स्वभाव समझने का प्रयास करते हैं। समाज में कुछ सज्जन ऐसे भी होते हैं, जो सम्पन्नों की प्रशंसा करके सुर्खियाँ बटोर लेते हैं। मंच के कवियों की मनोकामना होती है कि वे किसी तरह सुर्खियों में छाए रहें। इसीलिए वह लिखता है – “सुर्खियों के ही सहारे जो/ आकाश में बेवक्त हैं उछले/ गुम्बदी अस्तित्व के पोषक/ तनिक झोंके से बहुत दहले।“ (पृ0 60)
‘गुम्बदी अस्तित्व‘ जोरदार एवं दमदार आवाज सुन कर दहल जाता है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह हमेशा चिन्तित रहता है। अतः उसका स्वभाव चाटुकारी हो जाता है। लेकिन नई पीढ़ी ऐसे चाटुकारों का प्रतिरोध प्रतिपल करती है। अतः गीतकार ने आगे ठीक लिखा है-“हर लहर प्रति निकट का ही काटती/ धुन्ध के टुकड़े महज़ है बाँटती/ धीर होता वो/ आलाप हो कर/ राग जल की ‘गूँज‘ को सह ले।“
यह है नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का वैचारिक द्वन्द्व, जो चाटुकारी पुरानी पीढ़ी को परास्त करता है। इसके लिए उसे प्रबल टकराहट की चोट झेलनी पड़ती है। प्रतिरोध के लिए तैयार रहना पड़ता है और त्याग के लिए भी। वास्तव में चाटुकारी जन ‘मेघ नामधारी‘ तो होते हैं, लेकिन उनमें बरसने वाले भापकन नहीं होते हैं। तभी तो गीतकार ने गुनगुनाया है – “मेघ-नामधारी वे भापकन/ रहे भ्रम/ और हम प्यासे रहे/ जैसे रहे पहले/ सूखा पड़ी जमीन से, कौन, क्या, गह ले।“ “घूम कर हर ओर आए/ दरकता मन, शर्त क्यों सह ले।“ (पृ0 61) यह है गीतकार का प्रतिरोध, जो सतही दृष्टिकोण की उपेक्षा करता है।
आइए, अब संकलन के शीर्षक गीत ‘बना रह जख्म/ तू/ ताजा‘ पर विचार करें।
‘खुली आबादियो के मूल स्वर‘ से आशय भारत की कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस्त्र जन-गण से है, जो महानगरीय झुग्गी झोपड़ियों में निवास करते है। ‘ताजा जख्म‘ सदैव प्रेरित करता रहेगा कि इस त्रासद व्यवस्था को बदलने के लिए प्रयास करो। एक-जुट हो कर। संगठन बना कर। जनशक्ति पर भरोसा बनाए रखो। गीतकार ने यह अभिलाषा भी व्यक्त की है- “प्रतिबद्धित गीत नहीं टूटेंगे/ कितने ही ठीठ कदम बढ़ जाएँ/ काले काले अक्षर हाथ में लिये।“ (पृ0 53)
आजकल अधिकांश हिन्दी कविता गद्यात्मक होने के कारण नितान्त अपठनीय है। गिने-चुने कवि ही अपनी कविता को जीवन से जोड़ कर लयात्मक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी ओर परम्परागत तुकबन्दी भी कविता की गरिमा का क्षरण कर रही है। ऐसे माहौल में डॉ0 सुभाष वसिष्ठ ने धैर्य धारण करके अपने गीतों में कथ्य के अनुरूप कथन-भंगिमा अपनाई है। मुक्त लय का सधा प्रयोग किया है। प्रत्येक गीत के आवयविक गठन पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया है। भाषिक संरचना में प्रतीकों के साथ-साथ आकर्षक एवं गतिशील बिम्बों का समावेश करके व्यक्ति की निजी व्यथा-कथा को सार्वजनिक रूप प्रदान किया है। संकलन के गीतों में डाल पर पके हुए बेल की मधुरता है। ताजा खिले गुलाबों की सुगंध है। अर्थ-गौरव की दृष्टि से संकलन एक बार नहीं अनेक बार पठनीय है। संकलित गीत सच्चे और अच्छे नवगीत हैं। अपनी अलग पहचान लिए हुए।
गीतकार को अच्छी तरह मालूम है कि वर्तमान अन्यायी व्यवस्था ने अँधेरों ने अनखुल जाल बाँधे हैं, लेकन उसे यह विश्वास भी है कि “टूट जाएँगे/ जिनसे/ इन्हें जो मिले काँधें हैं!/ बन्धु! अनखुल जाल बाँधे हैं!!“ (पृ0 62) इस के लिए वह यह सोचता है – “क्या करें (कि)/चटका हुआ मन/ फिर लबालब आस-भर गाए/ क्या करें(कि)/ लँगड़ा मुसाफिर/ लक्ष्य तक/ नित शक्ति-भर धाए/ शुरू जन कर दें सफर तो ध्येय ही हो अन्त।“(पृ0 57)
“गाँव गया था/ गाँव से भागा/ रामराज का हाल देख कर/ पंचायत की चाल देख कर/ आँगन की दीवाल देख कर/ सिर पर आती डाल देख कर/ नदी का पानी लाल देख कर/ और आँख में बाल देखकर।“
विचारणीय बात यह है कि अपने गाँव का शायद यथार्थ देख कर कवि ‘गाँव से भागा‘ क्यों? क्या वह रूक नहीं सकता था? गाँव की सूरत बदलने की योजना उसने क्यों नहीं बनाई। क्या जनशक्ति के प्रति उसकी आस्था में कमी थी। जनशक्ति संगठन के बल से असम्भव को सम्भव कर सकती है और आजकल जहाँ भी अन्याय, अनाचार, शोषण-उत्पीड़न है, वहाँ जनशक्ति सगठित हो रही है।
संकलन का आवरण गीतों की अन्तर्वस्तु के अनुरूप है। त्रिआयामी आवरण पर ऊपरी भाग पर रोशनी के पास मामूली-सा दरवाजा है। मध्य भाग में पुरानी इमारत की दीवार के साथ गीतकार की वेदना संवलित गम्भीर छवि है। ऐसा आभास होता है कि वह चिन्ता और चिन्तन दोनों में मग्न है। और आवरण के निचले भाग महानगरीय कुतुबमीनारी इमारतें दिखाई पड़ रही हैं।
वितरकः
हिन्दी बुक सेन्टर
4/5, आसफअली रोड़, नई दिल्ली- 110002
फोन 011-23274874
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं )
संपर्क-
मोबाईल- 09897482597
संपर्क –
प्रेम शंकर सिंह,
दयालबाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट,
दयालबाग, आगरा -282005,
मो- 09415703379
आज साहित्यिक पत्रिकाओं की जहां एक ओर बहुतायत है वहीं अन्य जरूरी विषयों पर पत्रिकाएं इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ती हैं. व्यक्ति और समाज के साथ राष्ट्र को भी एक दिशा देने में इस तरह की पत्रिकाएं अहम् भूमिका निभातीं हैं. शैक्षिक दखल ऐसी ही पत्रिका है जो शैक्षिक नवाचारों पर दृष्टिपात करती है. वस्तुतः शैक्षिक दखल का यह प्रयास एक सामूहिक प्रयास है, उन लोगों का जो शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाना चाहते हैं. एक लोकतान्त्रिक समाज बनाना चाहते हैं. एक ऐसा समाज जिसमें हर बच्चा अपना बचपन पूरे आनंद और सम्मान के साथ जी सके ताकि जब वह एक वयस्क नागरिक बने तो तमाम कुंठाओं और तनावों से मुक्त जीवन जीते हुए समाज को आगे ले जाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके. हमारा मानना है कि हमारे शिक्षक साथियों के पास नायब शैक्षिक अनुभव हैं जिनका लाभ अन्य शिक्षक साथियों से होता हुआ अंततः बच्चों तक पहुँच सकता है. हमारे अधिकांश अध्यापक विषयवस्तु को बच्चों को आत्मसात करवाने के लिए कोई न कोई नवाचार जरूर करते हैं. हम चाहते हैं की उनका वह नवाचार उनके विद्यालय तक सीमित न रहे बल्कि देश भर के अध्यापकों तक पहुंचे. शिक्षकों के नवाचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए ‘शैक्षिक दखल’ एक पुल की भूमिका का निर्वहन कर रहा है. पहली बार पर प्रस्तुत है पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ की कवि एवं शिक्षक चिंतामणि जोशी द्वारा की गयी समीक्षा.
चिंतामणि जोशी पिथोरागढ़ में रहते हैं. अच्छे कवि के साथ-साथ एक शिक्षक हैं. सेवारत शिक्षकों के प्रशिक्षण में मुख्य संदर्भदाता के रूप में इनका सक्रिय और प्रभावशाली योगदान रहता है .