सोनी पाण्डेय के कविता संग्रह पर राहुल देव की समीक्षा


सोनी पाण्डेय

युवा कवयित्री सोनी की कविताएँ लोक संवेदनाओं से जुड़ी हुईं हैं। उनकी कविताओं में अनुभवजनित जीवन दिखायी पड़ता हैयही नहीं सोनी समकालीन समय के विडम्बनाओं से रु-ब-रु होते हुए उसे अपनी कविता का विषय बनाने का साहस भी करती हैं। ‘बदनाम औरतें’ इसी तरह की कविता है जो इस समय के तमाम सवालों से टकराने का साहस करती है। सोनी पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘स्त्री मन की खुलती गिरहें’ पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है युवा कवि राहुल देव ने। तो आइए पढ़ते हैं राहुल देव की यह समीक्षा।  
        
स्त्री मन की खुलती गिरहें
राहुल देव
समकालीन कविता समय में कई सारे स्त्री स्वर एक साथ सृजनरत हैं। डॉ सोनी पाण्डेय भी उनमें शामिल हो रही हैं। वह एक सक्रिय युवा कवयित्री और संपादक हैं। ‘मन की खुलती गिरहें’ उनके पहला कविता संग्रह का नाम है जिसमें उनकी कुल 61 कविताएँ संग्रहित हैं। संग्रह की पहली कविता से ही कवयित्री अपने पक्ष को स्पष्ट कर देती है। चार भागों में लिखित ‘बदनाम औरतें’ शीर्षक यह कविता अपने तेवरों में खास है। बदनाम औरतों का सच बयां करते हुए वह लिखती हैं–
“कैसी होती हैं ये औरतें
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं
क्या इनका कुल-गोत्र भिन्न होता है
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं?” 

इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –

“बेटियां कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें”
कविता के तीसरे भाग में कवयित्री अपने स्वानुभूत अनुभव के माध्यम से विषय को खोलकर हमारे सामने रख देती है। और अंत में वह बदनाम होने के लिए सिर्फ और सिर्फ दृष्टि को उत्तरदायी ठहराती है।
अगली कविता ‘तीसरी बेटी का हलफनामा’ भी एक लम्बी कविता है। इस कविता का अंतिम भाग सबसे सशक्त है। उम्र के चालीसवें पायदान पर बैठ कर जब कोई संवेदनशील स्त्री अपने जीवन के मध्य का इतिहास लिखती है तब ‘उम्र के चालीसवें पायदान पर’ जैसी कविताएँ लिखी जाती हैं। इस चालीस साला इतिहास को साहित्य के कई कवयित्रियों ने अपने अपने तरीके से देखने की कोशिश की है। अगली कविता ‘चौराहा’ भी थोड़ी लम्बी है। इसे मैं एक औसत कविता कहूँगा। अपने कथ्य के बनिस्पत कई कविताएँ थोड़ा ज्यादा फैलाव का शिकार हो गयी हैं ऐसा लगने लगता है। इसी तरह की ही कविताएँ ‘मृत्यु’ और ‘रात भर रोते हैं कतारबद्ध लोग’ भी है। कविता में शब्द व्यय अधिक होने से भाव सांद्रण कम होने का अंदेशा बना रहता है। इस लिहाज से ‘चौराहे पर स्त्री विमर्श’ और ‘औरत’ शीर्षक कविताएँ ज्यादा बेहतर कविताएँ हैं। स्त्री विमर्श को देह विमर्श में रिड्यूस करने की साजिश को लेकर वह पूछती भी है-
`औरत
तुम कब तक लिखी जाओगी जिस्म?”
तो वहीँ पुरुष सत्ता के छल को उसके पौरुष की हार बताते हुए उसके असली चेहरे को पहचाने जाने की बात उठाती है ‘छल’ शीर्षक एक छोटी सी कविता। स्त्री मन के कोने-अतरे तक इनकी कविता जाती है। वह शोषण की नहीं प्रेम की आकांक्षी है। इसी अतिशयता में अपनी ‘दुधारू गाय’ शीर्षक कविता में वह कह उठती है –
“मैं भी पुरुष की मुक्ति कामना का
प्रतीक बन
टांक दी गयी हूँ
खजुराहो के शिल्प में
सुबह से आधी रात तक
मैं केवल एक मशीन हूँ
काश पड़ोसी की गैराज में खड़ी
सुन्दर गाड़ी होती
या अल्मारी में सजा टेडी होती”
इनके यहाँ शताब्दियों की पीड़ा आक्रोश का रूप धरकर पाठक को आंदोलित करती है और व्यापक स्त्री विमर्श करती हुई कविता के माध्यम से अपनी अभी व्यक्ति करती है। उसकी अभिव्यक्ति की यह तो महज एक शुरूआत है हो सकता है इस लड़ाई में उसके औजार अभी उतने पैने नहीं हैं लेकिन जिस तरह वह तमाम वर्जनाओं को तहस-नहस करते हुए आगे बढ़ती है वह निश्चित रूप से नयी उम्मीदें जगाता है।
      क्या जीवन में ‘रोटी’ का होना ही सबकुछ है? इस प्रश्न को कभी अर्थपूर्ण तो कभी अर्थहीन लगते हुए संवाद स्थापित करने की कोशिश के द्वन्द्ध में कविता आती है और लगता है कि ‘अभी शेष है’ ऐसी कविता लिख पाना जिसमें जीवन और मृत्यु की तमाम पहेलियों के हल मिल सकें। जीवन की कही-अनकही ‘अकथ’ कहानी के उजले और स्याह दोनों पन्नों को देखते हुए ये जो पर्दा है’ शीर्षक कविता में उसका साहस के साथ पूछना बहुत सारे प्रश्न पीछे छोड़ जाता है कि –
“तुम क्यों नहीं रखते
कल्याण कामना के लिए
असंख्य निर्जला व्रत?
क्या ये सारे ठेके औरत के हिस्से हैं?”
       
संग्रह में कुछ छोटी छोटी लेकिन सशक्त कविताएँ भी हैं। जैसे ‘एक खुला पत्र मां के नाम’ शीर्षक कविता। इनकी कविता में ‘अम्मा’ बार-बार आती है; उसकी स्मृतियाँ और संघर्ष कवयित्री को स्त्री के भावी रूप और जीवन के पन्नों की इबारत लिखने में प्रेरक बनते हैं। ‘मां और चाँद’ भी ऐसी ही एक मार्मिक कविता है। ‘समर्पित स्त्री की व्यथा’ एक पारिवारिक स्त्री की कहानी सी कविता है जिसमें 11 छोटे-छोटे भाग हैं। इसकी 10वीं कविता मुझे सबसे अच्छी और प्रभावी लगी। कुछेक शब्दों के हेर-फेर के साथ बिलकुल उसी कविता की पुनरावृत्ति भी संग्रह में देखने को मिली जिसे (देखें पृष्ठ 54 और पृष्ठ 68) अच्छा नहीं माना जाता। अन्य छोटी लेकिन उल्लेखनीय कविताओं में ‘सीमारेखा’, ’प्रेम’, ‘मौन’, ‘नए मूल्य’, ‘आशा’ और ‘हँसती हुई लड़कियां’ जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। श्रम सौन्दर्य की कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ दृष्टव्य है –
“खुली हुई धूप की तरह
खिलखिला कर हँसती हुई लड़कियां
अब खेतों में रोपते हुए धान
सिर पर लादे हुए बोझ
निपटा कर घर का पूरा काम
निकाल ही लेती हैं समय
हँसने के लिए
चुरा ही लेती है कुछ पल अपने लिए”
भावातिरेक में कुछेक कविताएँ असंगत कथनों का भी शिकार हो गयी हैं जैसे कि ‘पिता’ शीर्षक कविता तो कुछ कविताएँ इसके साथ साथ बेहद सपाट हो गयी हैं जैसे ‘तर्जनी की नोंक’ और ‘हाँ मैं एक प्रश्नचिन्ह हूँ’ शीर्षक कविताएँ। फिर भी अपने ईमानदार कथ्य के कारण यह कवितायेँ पाठक का ध्यान आकृष्ट करने में सफ़ल सिद्ध होती हैं।
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए कवयित्री की प्रखर विचार दृष्टि और भाव सम्पन्नता का पर्याप्त परिचय मिल जाता है। कवयित्री के पास सधी हुई अच्छी भाषा और शिल्प है। संग्रह की अधिकांश कवितायेँ स्त्री मन की कसक को लिए हुए समाज को प्रश्नांकित करती हैं जहाँ प्रेम, ममता और मानवता का सुन्दर संसार बनाये जाने की परिकल्पना मूर्त होती दिखाई पड़ती है। कुल मिलाकर यह एक विचारणीय और उल्लेखनीय कविता संग्रह है।
  

* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-

राहुल देव

राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर 261203 उ.प्र.
मो. 09454112975
ईमेल – rahuldev.bly@gmail.com

अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह की उमाशंकर सिंह परमार द्वारा की गयी समीक्षा

अजय कुमार पाण्डेय

कवि अजय कुमार पाण्डेय का एक कविता संग्रह “यही दुनियां है” पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ। अजय पाण्डेय अधिकतर छोटी कविताएँ लिखते हैं। छोटी होने के बावजूद उनकी कविताएं अधिक मारक या कह लें प्रभावकारी होती हैंइस संग्रह की जो और जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हो पायी क्योंकि अजय लिखने में विश्वास करते हैं, समीक्षाएं लिखने-लिखवाने में नहीं। आज साहित्य भी जोड़-जुगाड़ की जगह बन गया है। अजय इन सबसे विरत हैं। उनके संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है उमाशंकर परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा             
अस्मिता के सवालों से मुठभेड़ करती कविताएँ 
उमाशंकर सिंह परमार
 
हाल के कुछ वर्षों में विश्वव्यापी पूँजीगत परिवर्तनों द्वारा अनेक विमर्श सुझाए गए हैं। ये तमाम विमर्श जनवादी चिन्तन के विपरीत अपनी पहचान बनाते हुए तमाम अस्मिताओं व अवधारणाओं को बाजार के साथ जोडने का काम कर रहे हैं। जनवादी चिन्तन सामूहिकता की अवधारणा पर समय और वस्तु की परख करता है। उसके लिए इतिहास के द्वन्दात्मक प्रतिफलन और वैचारिकता से अन्तर ग्रथित युग-बोध दोनो को नकारना बेहद कठिन है। यदि इतिहास और विचार दोनो को अस्वीकृत किया गया तो लेखन और उसके सरोकार व सामाजिक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व सब के सब खतरे में आ जाएंगे। जनवादी समझ के यही आधारभूत बिन्दु हैं। लेकिन हम नवउदारवाद द्वारा पैदा किए गए नये हाशिए व उनकी अस्मिता का सवाल साधारण तौर पर टाल नहीं सकते हैं। क्योंकि यह नयी सामाजिक संरचना के अनुकूल है और  नयी अस्मिताओं के  उभार व उनके समक्ष व्याप्त जीवन के खतरनाक संकटों का आईना है। हम हाशिए की उपेक्षा करके वर्तमान में प्रभावी भूमंडलीकृत दमनकारी शक्तियों के साथ पक्षपात ही करेंगे। अत:  आज की कविता के समझ सबसे बडा संकट अस्तित्वबोध और हाशिए की तमाम अस्मिताओं की पहचान का है। हाशिए का अस्तित्बोध आज का जरूरी विमर्श है और भूमंडलीकरण के साहित्यिक संस्करण उत्तर आधुनिकता के विरुद्ध यदि मुकम्मल लोकधर्मी हस्तक्षेप करना है तो अस्मिताओं की बात करना आज की कविता का मुख्य अभिकथन होना चाहिए। यह दौर विश्वव्यापी परिवर्तनों का दौर है हमारे परम्परागत समाजों की आधारिक सरंचनाएं आज बदल रही है़ ये परिवर्तन पूँजीगत परिवर्तनों से सम्बद्ध है। जो कुछ पुराना था वह या तो टूट गया है या टूटने वाला है। इन परिवर्तनों ने केवल तोडा भर नहीं है बल्कि नयी संरचनाएं भी उत्पन्न कर दी हैं। यदि परिवर्तन केवल टूटने तक होता तो आज का कवि अपने अतीत को बचाने की बेचैनीपूर्ण जिद द्वारा अपने उत्तर दायित्व का निर्वहन कर लेता। पर कविता के समक्ष असली संकट तो नयी अस्मिताओं के उभार का है। अजय की कविता हाशिए की अस्मिताओं पर उसी शिद्दत के साथ बात करती है जितनी की आज के विमर्शों में है। आज का कोई भी विमर्श बाजार व सर्वअधिकारवाद का प्रतिरोध नहीं करता सब घूम फिर कर बाजार के पक्ष में तर्क बनकर उपस्थित हो जाते हैं। लेकिन अजय  के हाशिए लोक जीवन की कठिन जिजीविषा से गढे गए हैं। उनका विजन भले ही आधुनिक हो पर यथार्थ वही है जो लोक में घटित है। इसलिए अजय द्वारा किया गया अस्मिताओं का विमर्श जनवादी नवसंरचना का बेहतरीन उदाहरण है। अजय की कविता में लोक की इस नई बहुलता का मिलना भविष्य में उत्तर आधुनिकता के विरूद्ध एक नयी संरचना का आगाज है। 
अजय कुमार पांडेय का युग उदारीकरण के फलस्वरूप उपजे व्यक्ति व समाज के स्तर पर छाए तमाम संकटों का युग है। वह जिस पीढी के कवि है उस पीढी ने बाजारवाद का दंश सबसे अधिक भोगा है। जाहिर उनकी कविता उनकी निजी अनुभूतियों से निर्मित संकल्पों व विकल्पों द्वारा निसृत है। यदि कवि अपनी कविता से पृथक हो कर लिखता है तो कविता यथार्थ को उस रूप में अंगीकार नहीं कर पाती जैसा होना चाहिए। कविता यथार्थ का बीहड और सच्चा दर्शन तभी करा सकती है जब कवि अपनी कविता में उपस्थित हो कर संवाद करता है। यह लोकधर्मी कविता की जरूरी शर्त है कि कवि की जमीन और कविता की जमीन में कोई फर्क न हो। कवि की अनुभूति व कवि की चेतना के बीच कोई फर्क न हो। कवि का परिवेश और कविता के अन्तरग्रथित परिवेश में कोई फर्क न हो। यदि कवि कविता से पृथक होकर अन्य पुरुष बन कर आता है या नेपथ्य में चला जाता है तो कवि के सरोकारों की कायरतापूर्ण मौत के साथ साथ कविता भी महज वदतोव्याघात बन जाती है। मैने अजय पांडेय को बहुत पढा है उनका व्यक्तित्व  व उनके अनुभव उनकी कविता में गहरे तक उतर गये हैं। बुनावट की अन्तर तहों में अनुभवों का जटिल अन्तर्जाल है। बेचैनियों व ऊब की सघन प्रतिच्छाया है। समय के कटु अनुभवों में बौखलाए आदमी की तडप और चीख उनकी समूची अस्मिता के साथ विद्यमान है। अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह “यही दुनियां है” इसी साल प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में उनकी लगभग चौरानबे कविताएं संग्रहित हैं जो समय समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कविताओं का रचनाकाल भारत में बाजारवादी साम्राज्य के विस्तार व घोर पूँजीवादी संक्रमण का काल है। चूंकि अजय की उपस्थिति ही उनकी कविता की वैयक्तिकता है इसलिए जाहिर है अजय ने इस नये युग के हर एक सन्दर्भ को परखा है। देखा है। अजय की कविता का समाजशास्त्र पुरातन समाजशास्त्र से अलग है। उनका समाजशास्त्र आज के नयी सामाजिक संरचनाओं के बरक्स जनवादी नजरिए का समाजशास्त्र है। इसका मूल कारण है कि आज भूमंडलीकरण ने सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत कुछ बदल दिया है और हमारी परम्परागत विरासत में पाए जाने वाले कई प्रगतिशील सांस्कृतिक मूल्य व  परम्परागत सामाजिक संरचनाएं विखंडन की ओर बढ रही है़। इस विखंडन व ध्वंस के दौरान भी आवारा पूँजी नयी अस्मिता और हाशिये उत्पन्न कर रही है। यह एक ऐसी दोहरी स्थिति है जब हम जब पुराने मूल्यों को खोते जा रहे हैं और नये विमर्शों को पहचान नहीं पा रहे है़ या फिर नये विमर्शों को अपने पुरातन नजरिए से देखने की कोशिश कर रहे हैं। 
अजय के इस संग्रह में कहीं भी युग की अवहेलना नहीं है़। नवजात सामाजिक संरचनाओं व इस समाज के सांस्कृतिक व आर्थिक विमर्शों की अजय को खासी पहचान है। नये सन्दर्भों व नये मूल्यों की कहीं भी अवहेलना नहीं है। युग के प्रति जैसी संवेदनशीलता अजय की “यही दुनियां है” में दिखती है वैसी चेतना बहुत कम कवियों में दिखाई देती है। अजय के इस संग्रह का मूल अभिकथन अस्मिता के सवालों का घेराव है। समूचा संग्रह हाशिए के विमर्शों में उलझा है। नव उदारवाद के प्रतिरोध में लिखे गये मैने बहुत से संग्रह पढे हैं पर जिस तरह का समाजशास्त्रीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अजय की कविता में प्राप्त होता है वह कहीं नहीं मिलता है। पहली बार किसी कवि ने उत्तर आधुनिकता के बिखंडनवादी विमर्शों का जवाब उसी के औजारों से दिया है। अजय कुमार पांडेय अपने समय की जटिल स्थितियों को केवल नव संरचनाओं का या निजत्व बोध का स्वरूप नहीं देते है़ वह आधुनिक विमर्शों में रहते हुए भी जडताओं को तोडते हैं। मतलब अस्मिताओं के जिन सवालों को विश्वपूँजी के विकट साम्राज्य ने पैदा किया है वो उन सवालों को महानगरीय मध्यमवर्गीय चिन्तन से दूर करके लोक के यथार्थ व ऐतिहासिक प्रतिफलन के आधार पर देखते हैं। उत्तर आधुनिकता ऐतिहासिक चेतना को नकारती है पर अजय पांडेय ने ऐतिहासिकता की अनिवार्यता द्वारा ही उपभुक्त विसंगतियों को उकेरा है। देखिए एक कविता जिसमें भ्रम और यथार्थ का सच्चा विभेद उपस्थित है। दरअसल बाजार यही कहता है जो हमारे द्वारा निर्मित है वही सच है। आदमी पृथक सत्ता है व चेतन सत्ता है वह जो भी अनुभव करता है वही एक मात्र आनुभविक सत्य है। यह दर्शन बाजार के पक्ष में बडा तर्क है। अजय पांडेय बडी चतुराई से बाजार द्वारा विनिर्मित संरचनाओं को भ्रम की श्रेणी में खडा कर देते है और इतिहास की भूमिका का जोरदार रेखांकन करते हुए उसे भूख से जोड देते हैं। अजय का कहना है
“यह तुम जान लो

जो तुम सोचते हो

जो तुम समझते हो वह

नहीं है असल

अपनी आँखों देखी

और कानो सुनी

होने का तुम्हारा

दावा भी महज भ्रम है

यह तुम्हारे सामने का वैभव

आभासी नजारा है। (यही दुनिया है पृष्ठ ३०)।
केवल आभासी संकेत ही नहीं करते बल्कि यथार्थ का वैज्ञानिक और सुधरा पक्ष भी समूची ऐतिहासिक भूमिका के साथ उपस्थित कर देते हैं। इसी कविता के अन्त में वे कहते है़
“कुछ भी नहीं है शाश्वत

सब कुछ है परिवर्तनशील

शाश्वत है तो

सिर्फ सदियों से जारी

भूख के खिलाफ आदमी की जंग।
इस जंग का संकेत अजय के प्रतिरोध की तार्किक अवस्थिति को पुख्ता करता है। समय व सत्ता द्वारा जो इतिहास और भ्रम सिखाया जा रहा है उसकी टूटन ऐतिहासिक चेतना की वर्गीय दृष्टि से ही सम्भव है और अजय पांडेय यही कर रहे  हैं। अजय  पाण्डेय की कविता में उत्तर आधुनिकता द्वारा सुझाए गए हर एक विमर्श का जनवादी स्वरूप प्राप्त होता है। अजय की  कविता नव विकसित अस्मिताओं की बात करते समय सामाजिक सरंचना व सांस्कृतिक संरचना के समान्तर एक मुकम्मल साहित्य संरचना का उदाहरण प्रस्तुत करती है। केवल वैयक्तिक अनुभव की स्वायत्तता का खाका खींचने वाली कविताएं अक्सर सामाजिक सोदेश्यों के प्रति असफल हो जाती हैं। जब तक लोक की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को युग और समाज के आयामों से न जोडा जाए तो सच्चे अर्थों में लोकधर्मी कहलाने की हकदार नहीं होती है। अनुभव तभी यथार्थ हो सकते है जब उन्हें जमीन के समूचे परिवेश से जोडकर एक संस्कृतिक विद्रोह का स्वरूप दिया है। आज की  कविता का यही सरोकार है। देखिए एक कविता जिसमें अजय ने परिवेश की जटिल बनावट को जटिल अनुभूतियों द्वारा बेहद सहज ढंग से उदघाटित कर दिया है
“बड़ा कठिन है

जान पाना

कैसे

एक एक ईंट

जोड़ कर खड़ा करता है इमारत

और सारा जीवन सड़कों पर

घिस घिस

फुटपाथ

बन जाता है मजदूर।” (यही दुनिया है, पृष्ठ २५) 
यह परिवेश व्यक्ति के हक में काबिज़ पूंजीवादी बाजारवादी शक्तियों की समूची पहचान जता देती है। आदमी अपने द्वारा किये गए कार्यों से कैसे पृथक कर दिया जाता है उसे अपने हक़ और कैसे उसकी चेतना से काट कर उसके परिवेश को भी बदल दिया जाता है इस कविता में देखा जा सकता है। केवल अलगाव ही नहीं हो रहा है। केवल व्यक्ति की चेतना का पार्थक्य नहीं हो रहा है बल्कि नयी सरंचनाओं में सर्वोच्चतम अवस्था को प्राप्त वर्ग की मनुष्यता दृष्टि भी खोखली हो चुकी है। खोखलापन व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था का भी है। व्यक्ति का खोखलापन वैयक्तिक जीवन का संकट बनता है तो व्यवस्था का खोखलापन सामूहिक चेतना का संकट बन कर उभरता है। अजय पांडेय ने अपने कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ में आवारा पूँजी द्वारा उत्पन्न इस गिरावट को बडे गहरे से रेखांकित किया है। अजय समझते हैं कि मूल्यों में गिरावट ही वैयक्तिक पहचान का भीषण संकट बन कर उभरी है। जब मूल्य ही नहीं प्रासंगिक रह गये तो अस्मिता की बात करना ही बेमानी है देखिए अजय की एक कविता जिसमें मूल्यों के अपक्षरण का संकेत किया गया है 
“जो जितना बडा है

अन्दर से

उतना ही सडा है

और हिमालय सा गुरूर लिए धेले पर खडा है।”

(यही दुनियां है, पृष्ठ 35)
यह वैयक्तिक खोखलेपन का संकेत है। अजय व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था के खोखलेपन का भी संकेत करते हैं। खोखलापन यदि व्यक्ति तक सीमित रहता तो बात बन सकती थी मगर जब यह व्यवस्था में उतर आता है तो आम आदमी के लिए बेहद खतरनाक स्थिति हो जाती है। और सबसे खतरनाक स्थिति होती है लोकतन्त्र का अपराधी हो जाना। इस अवस्था में अपराध और कानून में फर्क नहीं रह जाता है। लोकतन्त्र चंद अभिजात्यों व अपराधियों के हाथ में खिलवाड बन कर रह जाता है। जब राजनीति में अपराधियों का बाहुल्य हो जाए तब सामान्य आदमी के जीवन पर अपने बचाए रखने का संकट छा जाता है। इस लोकतान्त्रिक खोखलेपन व अपराधीकरण का संकेत करते हुए अजय कहते हैं
“चुनाव की घोषणा हुई

समर्पण किया

जेल गया

चुनाव लडा

और जीत गया

इस लोकतन्त्र पर

वह थूक गया”।
इस कविता में अजय की चिन्ता मोहभंग के रूप में उपस्थित हो रही है। हाल के वर्षों में सत्ता और पूँजी के आपसी तालमेंल से जिस तरह से घोटाले हुए हैं। किसानों की जमीने छीनी गयीं हैं। मजदूरों और किसानों के प्रतिरोध को सेना और पुलिसबल द्वारा दबाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आवारा पूँजी के दौर में लोकतन्त्र महज छलावा है। विश्वव्यापी शोषणतन्त्र का हिस्सा है। ऐसे में जनकल्याण की बात करना हाशिए पर पडी अस्मिताओं की बात करना बेहद कठिन है। पूँजी और सत्ता का मिलना व्यक्ति के अस्तित्व व जीवन बोध के लिए खतरा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की वर्गीय चेतना नष्ट हो कर आदमी को नियति का गुलाम बना देती है। सत्ता और शक्ति का आदेश उसकी निजी उपस्थिति और स्वतन्त्रता पर भारी पडता है। यह स्थिति व्यक्ति को मशीनी कल पुर्जे में तब्दील कर देता है। व्यक्ति जीवन भर शोषण और जलालत के लिए अभिशप्त हो जाता है। अजय इस खतरनाक नियतिबोध से परिचित हैं। जब व्यक्ति अपनी चेतना से रहित कर दिया जाता है तो वह वाह्य परिवेश से हो रहे टकरावों में खुद को कमजोर मान लेता है। पूँजीवाद बडी कारीगरी से व्यक्ति को कमजोर करता है। बडी शिद्दत से उसकी अस्मिता का लोप करता है। देखिए अजय कि एक कविता जिसमें चेतना से पृथक व्यक्तित्व का रेखांकन है
“उसने कहा झुको

हम झुक गए

उसने कहा बैठो

हम बैठ गए

उसने कहा लेटो

हम लेट गए और

उसने कहा उठो

हम उठ गए

इसके क्रियान्वयन में

हमारे घुटने

छिलते रहे दुखते रहे

लहूलुहान होते रहे”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 69)
यह स्थिति वर्चस्ववाद की है जब व्यक्ति की चेतना और श्रम सब कुछ पूँजीवादी ताकतो के साथ में केन्द्रित हो जाए तो उसका अस्तित्व महज भ्रम हो जाता है। अस्तित्व व अलगाव की बात करना उत्तर आधुनिक विमर्शों का जवाब देने के लिए सही दर्शन है। अलगाव की स्थिति तमाम हाशिए व अस्मिताओं को एक सूत्र में बाँध देती है। कोई भी समूह हो या व्यक्ति विचार हो वह इस अलगाव की अवस्थिति से अछूता नहीं है। व्यक्ति की नियतिपूर्ण गुलामी आदमी को “फालतू” होने का मिथ्या भ्रम पैदा करती है। जब व्यक्ति खुद को फालतू समझ लेता है तो जीवन को खत्म करने की ओर एक कदम बढा देता है।

पुराने समय में विरक्ति होती थी जीवन और जगत के प्रति तब आदमी वैराग्य की ओर कदम बढाता था। पर आज फालतू बोध से उत्पन्न हताशा आदमी को आत्महनन की ओर ढकेल रही है। फालतू होने का मतलब है कि व्यक्ति अपने को कहीं भी हिस्सेदार नहीं पाता है। न तो वह व्यवस्था का भागीदार होता है न वह अपने समूह का भागीदार रह जाता है। वह व्यवस्था द्वारा तय की गयी नियति का प्यादा बन कर रह जाता है। यह फालतूपन का बोध नियति बन कर आज की पीढी में छा गया है। अलगाव का अन्तिम तकाजा यही फालतू बोध है। अकेलापन इसी फालतूपन की देन है। जब व्यक्ति अपने लिए हो रहे निर्णयों में खुद को हिस्सेदार नहीं पाता। अपनी चेतना को नियति का गुलाम महसूस करता है तो उसे लगने लगता है कि जब सब कुछ स्वत: वगैर सहमति के चन्द स्वार्थीयों द्वारा ही तय हो रहा है तो उसकी जरूरत क्या है? अजय इस फालतूपन को रेखांकित करने से नहीं चूके हैं। 
अजय बखूबी समझते हैं वर्चस्ववादी शक्तियों द्वारा व्यक्ति को अकेला व फालतू कर देना समाज की अन्दरूनी तहों में पल रहे प्रतिरोध को नष्ट करने की जरूरी प्रक्रिया है। देखिए अजय की एक कविता जिसमें फालतू बोध को बडे सधे अन्दाज में व्यंजित कर दिया गया है 
“ओ भाई

यूँ तो मैं

उगा हूं वहां

जहां फेंक दी जाती हैं

घर की सबसे फालतू चीजें

कभी उपयोग में

न आने के विश्वास में

ओ भाई

यहाँ उगने का

अपना अलग अहसास है।” (यही दुनिया है, पृष्ठ ८७)  
फालतू होने का अहसास व्यक्ति के सामूहिक जीवन के अहसास का हनन है यह स्थिति तभी आती है जब हम दूसरों की थोपी गयी स्थिति और निर्णय को अपना कहने के लिए या अपना स्वीकार करने के लिए अभिशप्त होते है़। जैसा कि उपर के उदाहरणो में अजय ने दिखाया है कि व्यक्ति की अपनी चेतना व चिन्तन से पृथक कर उसे मशीन का पुर्जा बना देने की साजिश इस पूँजीवादी वर्चस्ववाद का जरूरी तकाजा है। 
अजय पांडेय के कविता संग्रह “यही दुनिया है” में सबसे महत्वपूर्ण सवाल स्त्री को लेकर खडे किए गए हैं। स्त्री सम्बन्धी कविताओं पर चर्चा किए बगैर अजय की चेतना और अस्मिताओं के विमर्श का यथार्थ नहीं समझा जा सकता है। अजय ही क्यों कोई भी कवि हो जो खुद को समकालीन कहे और आधी आबादी के इस पक्ष से रहित हो उसे समकालीन कहने में संकोच होता है। स्त्री विमर्श आधुनिक विश्वपूँजी द्वारा उत्पन्न सबसे सशक्त विमर्श है जिसका जवाब देने में जनवादी और लोकधर्मी कविता भी असहज हो सकती है या यूं कहा जाय कि जनवादी लेखन स्त्री विमर्श की  देहवादी अवधारणा का मुकम्मल जवाब नहीं खोज पाया है। बहुत से लोकधर्मी लेखक आलोचक और कवि भी “देहविमर्श” की अनजाने में स्वीकृति दे जाते हैं। इस सन्दर्भ में अजय के सवाल और समस्या दोनो अलग है़। अजय हाशिए पर ढकेली गयी अस्मिताओं के पक्ष में अधिक संवेदनशील हैं। उन्हें इनकी विकास की चिन्ता है। इसलिए स्त्री के साथ साथ वो बच्चों पर भी बराबर कविता लिख रहे हैं। आज देह के नाम पर स्त्री की यौनिकता व सम्भोग बिम्बों का प्रतिचित्रण उसके परिवेश में सदियों से काबिज उत्पीडनकारी रूपों को खारिज करता है। ऐतिहासिक आग्रहों को अस्वीकार करता है। मगर अजय यह नहीं भूलते कि स्त्री विरोधी संस्कृति हमारी ही देन है। पुरुष प्रधान समाज में जाति धर्म संचालित मानसिकता की क्रूरतम अभिव्यक्तियां आज भी मौजूद हैं। एक मात्र संस्कार और संस्कृति के तर्क से इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पुरुषों द्वारा गढे गए शुचिता के भयावह सिद्धांत व स्त्री धर्म की मीमांसा ही उसे सामन्ती उत्पीडन व अलगाव की आग झोंक रही है। यह अलगाव स्त्री के उपस्थिति के खिलाफ उसकी निजी अस्मिता व अस्तित्व के विरुद्ध ठोस तर्क है। अजय अपनी एक कविता में कहते हैं
“अच्छी औरतें

अकेली कहीं नहीं जाती हैं

पति के बाद खाती हैं

अच्छी औरतें

हर मामले में

अनुशासित होती हैं

यानी आदमी होने की

शर्तों से निर्वासित होती हैं। (यही दुनिया है, पृष्ठ 12)
अच्छी औरत होने के तर्क ही स्त्री के आदमी होने का लोप है। यह स्त्री के पक्ष में देह से इतर विमर्श है जो उनकी आजादी और हक के लिए मनुष्य होने की स्वीकृति माँग रही है। एक तरफ आदमी की चेतना को पूँजी ने नष्ट किया है तो स्त्री की चेतना को पुरुष ने नष्ट किया है। यहाँ पुरुष और स्त्री दोनो अलग अलग वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इसका आशय यह नहीं कि स्त्री पूँजीवादी शक्तियों से पीडित नहीं है। बाजार का प्रभाव स्त्री और पुरुष दोनो में है। पर जब स्त्री की बात आती है तो वह दोहरे उत्पीडन से ग्रसित होती है वहां लिंग और जाति के सवालों से हमें जूझना होगा। अजय ने स्त्री के पक्ष में बाजारवादी खतरों का भी उल्लेख किया है। अजय पांडेय ने बाजार के स्त्रीवादी पक्ष को सिरे से अस्वीकार किया है। नारी सौन्दर्य एक ऐसी अवधारणा थी जो स्त्री की देह को वस्तु बना रही थी। प्राचीन काल से ही दैहिक सौन्दर्य के चमकते जाल में स्त्री को फँसा कर प्रतिक्रियावादी ताकतों ने देह को उपभोग की नियति से जोड दिया था। और आज बाजार ने उसकी देह को विज्ञापन व मार्केटिंग का जरिया बना रहा है। सौन्दर्य के इस पुरुषवादी वर्चस्ववाद का अजय विरोध करते है। वो समझते हैं उत्तर आधुनिकता के स्त्री-विमर्श का सारा दरमोदार सौन्दर्य बोध की नींव पर खडा है। सौन्दर्य बोध के नव जात प्रतिमानों ने स्त्री को देह से पृथक नहीं होने दिया। उसे चेतना नहीं बनने दिया गया। इस उपभोक्तावादी बाजारी संस्कृति में देह का वस्तु में तब्दील हो जाना एक प्रकार की अपसंस्कृति है। एक ऐसी अपसंस्कृति जो इसकी तहों में अन्तर्निहित अनैतिकता व अमानवीय गैर-लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों को भी जायज ठहरा रही है। अजय लिखते हैं
“सभ्यता के विमर्शकारों सृजनहारों 

क्यों नहीं गढ पाए

नारी सौन्दर्य के

वैवेविक प्रतिमान

जब भी गढते हो

नारी सौन्दर्य का

कोई नया प्रतिमान

एक नई साजिश

रच रहे होते हो

उसके खिलाफ”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 74)
इस कविता में अजय ने बेहद जरूरी बात कह दी है यह उन लोगो के लिए एक सबक है जो स्त्री की देह को चेतना समझ कर जबरिया उसे बाजार के भोगवादी अन्धेरे में धकेल रहे हैं। दरअसल देह की चर्चा देह की आजादी चर्चा है न कि वह स्त्री की अस्मिता व परिवेश से मुक्त करने की चर्चा है। इस मामले अजय की स्त्री सम्बन्धी कविताएं जनवादी स्त्री विमर्श का पक्ष लेती हैं। वो समस्त सामन्ती बन्धनों को धता बता कर स्त्री के मनुष्य होने के अधिकार की मांग करते हैं।
व्यवस्था से लगातार गायब हो रहे आदमी के पक्ष में विमर्श के नाम पर भोथरी नारेबाजी खूब देखने को मिलती है। आजकल बहुत से कवि सपाटबयानी के बहाने कविता को बैनर अथवा पोस्टर की तरह प्रयोग कर रहे हैं। मगर नीतियों से अनुपस्थित लोक के सन्दर्भ में आज उत्तर आधुनिकता के पास कोई माकूल प्रत्युत्तर नहीं है। उपस्थिति का तर्क वजूद और आस्मिता की रक्षा का तर्क है। उपस्थिति का रास्ता संघर्षों से होकर ही गुजरता है। वैश्विक परिदृष्य में जब तक बडा सामूहिक सचेतन परिवर्तन न होगा तब तक उपस्थिति की बात बेमानी है। मगर मध्यमवर्गीय राजधानी केन्द्रित सत्ता सेवी जमातें इस सुलभ मार्ग को सिरे से नकारती है। या यूं कहा जाए कि उत्तर आधुनिकता ने प्रतिरोध के प्रतिपक्ष में ही तमाम असंगत विमर्श पैदा किए हैं तो यह गलत नहीं होगा। यदि हाशिए पैदा किए गये तो उनका हल भी होना चाहिए वगैर हल के कोई भी विचारधारा सफल व पूर्ण नहीं कही जा सकती है। 
अजय कुमार पांडेय भूमंडलीकृत विचारों की इस कमजोरी से सुपरिचित हैं तभी वो जन के पक्ष में उपस्थिति का संघर्षरत हल खोजते हैं। ये हल ही अजय को लोकधर्मी काव्य चेतना की जमात में और मजबूती से खडा कर देता है। उनका कहना है। 
“अपनी उपस्थिति के लिए

लहराओ

लहराओ अपने हाथों की

बन्द मुट्ठियां हवा की ओर

कि अब भी बदल सकते हो

हवा की दिशा

और मौसम का मिजाज”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 22)
यहाँ अजय अस्मिताओं की उपस्थिति हेतु बन्द मुट्ठी लहराने की बात करते हैं ये सचेतन संघर्षों की पीठिका है। यह संघर्ष अचानक या फैशन के रूप में नहीं आया है। अजय पहले हाशिए के कारण खोजते हैं। फिर अलगाव व फालतूपन को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति की नियति व टूटन का वाजिक तर्क देते है़ फिर अन्त में व्यक्ति उपस्थिति के लिए जनवादी तर्क देते हैं। मतलब समूचे तर्क के साथ अस्मिताओं का संघर्ष प्रस्तावित करते हैं। यही सर्वांगता उन्हें अपनी पीढी से पृथक करके एक अलग पायदान पर खडा देती है।
अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ भूमंडलीकृत विश्व में मनुष्य के वजूद पर छाए मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक व सांस्कृतिक खतरों का प्रलेख है। यह संग्रह किसी भी जगह तटस्थता व आय्यासी का शिकार नहीं होता पूरी कविताओं में मनुष्य की उपस्थिति के प्रति आक्रोश मय बेचैनी मिलती है। भले ही कविता के विषय वैविध्य पूर्ण हों परन्तु अन्तश्चेतना में अनुपस्थित अस्मिताओं के पक्ष में मुकम्मल प्रतिरोध का आवेगशील जेहादी तेवर दिखाई पडता है। कविताओं की संवादी भंगिमा व बोलचाल की शैली उनके तेवर को जनपक्षीय बनाते हुए आक्रोश व बेचैनी की नयी भाषा गढ रही है ऐसी भाषा जनभाषा कहलाती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अजय कुमार पांडेय की कविता अस्मिता के पक्ष में सृजन करती हुए भी तमाम रीतिशास्त्रीय बुर्जुवा कलात्मक मूल्यों से रहित होते हुए भी अपने कहन की संवादी भंगिमाओं व चिन्तन की सामयिक जरूरत के हिसाब से अन्त तक कविता बनी रहती है। यदि आज के युगबोध व हिन्दी साहित्य में प्रभावी आधुनिक रूपवाद के प्रतिरोध में इन कविताओं को परखा जाए तो ऐसी कविता आज की जरूरत है और भविष्य की भी जरूरत है।
उमाशंकर सिंह परमार
सम्पर्क –

मोबाईल – 09838610776

अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह ‘यही दुनिया है पर शशिभूषण मिश्र द्वारा लिखी गयी समीक्षा

अजय पाण्डेय
युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय कुछ उन कवियों में से हैं जो चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करते हैं। वे कविता के साथ-साथ जीवन में भी ईमानदारी बरते जाने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में सघनता और तरलता है। इन कविताओं में जो पैनापन है वह हमारा ध्यान अनायास ही अपनी तरफ खींचता है। अजय की अधिकाँश कविताएँ आकार में तो छोटी हैं, लेकिन उनका कैनवास बहुत बड़ा है। ये ‘देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’ की तरह हैं। पिछले वर्ष पुस्तक मेले के समय अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ का विमोचन हुआ था। युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने अजय कुमार पाण्डेय के इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है जो ‘पूर्वग्रह’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। पहली बार के पाठकों के लिए इसे हम आज यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 
       
जीवन की संभावना तलाशती कविताएँ 
डॉ0 शशिभूषण मिश्र             
‘यही दुनिया है’ युवा कवि अजय कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह है। इस रचना में अपने समय के जागरूक और संवेदनशील कवि के रूप में वह मनुष्य-जीवन के बुनियादी सवालों से मुठभेड़ करते हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएँ हमें न केवल इन सवालों से वाबस्ता कराती हैं अपितु अन्दर की ताकत से अपने पक्ष में खड़े होने की मांग भी करती हैं। लेखकीय तटस्थता और जनपक्षीय प्रतिबद्धता के अभाव में कोई भी रचना न तो समाज में अपना सार्थक हस्तक्षेप कर पाती है और न ही मनुष्य के संकट में उसका मार्गदर्शन कर पाती है। रचना की सार्थकता तभी है जब उसकी भावान्विति के संस्पर्श से पाठक अपने अन्दर बेचैनी महसूस कर सके और मनुष्य जीवन की गरिमा बचाए रखने की जद्दोजहद खुद को शामिल कर पाए। संग्रह में कुल 93 कविताएँ हैं जिनमें से ज्यादातर आकार में छोटी होते हुए भी संवाद बहुल हैं।
इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की यात्रा के आधे पड़ाव तक पहुंचने के बाद भी जब हम अपने समकाल पर नज़र दौड़ाने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि खरीदने-बेचने और अधिक से अधिक दिखाने की अंधी प्रतिस्पर्धा के कारण आपसी रिश्तों के बारीक रेशे छिन्न-भिन्न हो गए हैं। भूमंडलीकरण के पूंजीवादी केकड़ों ने अपने जहरीले पंजों से हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। ऐसे बेहद जटिल समय में कवि ने अपनी अभिकल्पना के सहारे परिवार को केंद्र में रख कर संबंधों के संसार को आत्मीय छुअन से पुनर्निर्मित करने की कोशिश की है। ये कविताएँ हमें जीवन के उन अनुभवों तक ले जाती हैं जिन्हें किताबी ज्ञान से नहीं अर्जित किया जा सकता। जीवन के गहरे प्रवाह में उतर कर मर्म को भेदती ऐसी ही एक महत्वपूर्ण कविता है – ‘माँ के लिए’। माँ अपने शिशु को जितनी मृदुता और आर्दतापूर्ण जतन से पालती है, उतनी ही सचेतता और सततता के साथ जीवन रूपी विकास के हर पड़ाव पर स्नेह की बूँदों की बारिश करती उदारता के रंग भरती है। वह खुद अन्दर ही अन्दर धीमी लौ की तरह जलते हुए भी जीवनपर्यंत हमारी दुनिया में वत्सलता का शीतल जल उड़ेलती रहती है। माँ की इस दुनिया के पीछे की एक और दुनिया है जिसमें उसकी आत्मा का रसायन छीज चुका है। उसकी आँखों के कोरों में अटकी उदासी को हम शायद ही कभी महसूस कर पातें हों, पर कवि इसे महसूसता है –
‘मैं लिखना चाहता हूँ एक कविता

माँ के लिए

जो बचपन में नींद के लिए दी गई

उसकी थपकियों की मुलायमियत बताए

जो बताए लोरी की मिठास में मिश्री की मात्रा

और मेरे बचपन से गीले

उस आँचल को

अभी तक

कोई भी हवा

क्यों न सुखा सकी? ’ (पृष्ठ-13)
माँ पर कई कविताएँ हैं ; जिनमें, ‘माँ :एक नदी’, ‘वात्सल्य’, ‘असह्य दिनों में माँ’, ‘बँटवारा’ मुख्य रूप से हमारा ध्यान खींचती हैं। माँ के जीवन के उन तमाम अँधेरे कोनो तक धंस कर कवि ने उसके मन पर पड़ी उन उदासियों की तरल रक्तिम रेखाओं की निशानदेही की है जो प्रायः एक पुरुष पूरे जीवन नहीं कर पाता –
‘असह्य दिनों में

अपनी अनुपस्थिति में भी

और हमने जब भी देखा

और जहां देखा एक माँ को

यमराज से लड़ते देखा

कहीं कोई ईश्वर तो दिखा ही नहीं

फिर कैसे कहूं

बुरे वक्त में आता है वही काम?’ (पृष्ठ-82)
माँ पर लिखी इन कविताओं में कहीं भावनाओं का लहराता संसार है तो कहीं उसके वात्सल्य की स्निग्धता –
‘माँ की गोद में

उसके आँचल से ढका एक बच्चा

नींद में आँख बंद किए

दूध पी रहा है

और माँ

उसकी रगों में

नींद सी उतर रही है।’ (पृष्ठ-24)
कवि यहाँ अनकहे की बुनियाद रचने की कोशिश कर रहा है। माँ के व्यक्तित्वांकन की यह अन्यतम  कविता है। माँ जब भी उदास होती है या कठिन परिस्थितियों में असहज होती है तब उसकी बेटी सखी सहेली बन उसके साथ खड़ी होती है पर यह बेटी जब ब्याह कर विदा कर दी जाती है तो माँ जीवन में एक बार फिर अँधेरा गहराने लगता है। ऐसे घुप्प वर्तमान से भाग कर वह स्मृतियों के सहारे अपने भूत में लौटती है और कुछ समय के लिए ही सही अपने सारे कष्ट भूल जाती है –
‘एक माँ

इस समय

बेटी के ख्यालों में खोई है

एक खामोश नदी बह रही है।’ (पृष्ठ-49)
माँ का खामोश नदी के रूप में बहने का बिम्ब अत्यन्त प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।  
संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें स्त्री की जिन्दगी के अक्षांश-देशांतर की परिधियों तक प्रवेश करते हुए कवि उसके उलट –पुलट संसार की शिनाख्त करता है। अपने परिवार के खातिर वह कितने विराम चिन्हों को रौंदती जीती रहती है। यहाँ स्त्री के उलझे-अनमने जीवन का मर्म बिंधा है। कवि का अनुभव संसार स्त्री-जीवन के उजले-गंदले प्रवाह में धंस कर उस सत्य को समझ पाता है जहाँ स्त्री एक स्वप्न को पूर्ण करने में अपने कितने स्वप्नों को स्वाहा कर देती है। स्वप्नों के टूटने की पीड़ा का बोध कितना गाढ़ा होता है यहाँ यह समझ पाना मुश्किल नहीं है। एक स्त्री किस तरह पीड़ा के इस बोध को परिवार–समाज के पूरे होने वाले स्वप्न के स्वाद के साथ घुला –मिला कर एकमेक हो जाती है। ‘अच्छी औरतें’, ‘तुम्हारा होना’, ‘रिक्त मन बज उठा’, ‘कोठे पर’, ‘नई साजिश’, ‘बेटी आई है’, ‘वह औरत’, ‘मेरे भीतर तुम्हारी उपस्थिति का सबूत,’ ‘तुम’, ‘स्त्री और नदी’, जैसी कविताएँ स्त्री-जीवन की अनुभूतियों का दस्तावेज हैं। एक पुरुष द्वारा नारी मन के अंतर्द्वंदों का ऐसा सजीव चित्रण हमें नए सिरे से आश्वस्त करता है कि स्त्रियाँ ही स्त्रीवादी नहीं हो सकती हैं पुरुष भी हो सकते हैं। यहाँ हिंदी की प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर निर्मला जैन का वाक्यांश सहज ही याद आता है जिसमें उन्होंने कहा है कि मानव के वृहद अनुभवबोध को स्वानुभूति और सहानुभूति के दायरे में बांधना मुश्किल है। यहाँ स्त्री विमर्श नहीं, बल्कि घटनाओं, चरित्रों एवं संवेदनात्मक अनुभूतियों के माध्यम से रूपाकार ग्रहण करता एक स्त्रियोचित विवेक है –
‘जब भी गढ़ते हो

नारी सौन्दर्य का

कोई नया प्रतिमान

एक नई साजिश रच रहे होते हो

उनके खिलाफ।’ (पृष्ठ-74)
  
इन कविताओं में कहीं प्रेम का उजास है तो कहीं जीवन-सौंदर्य  
‘चाँद कहीं घर में ही होता है

जब तुम होती हो घर में

अंट नहीं पाती चांदनी ।’ (पृष्ठ-19)
दरअसल जीवन में किसी को पाने की लालसा जहां ख़त्म होती है सौंदर्य वहीं से शुरू होता है। संबंधों का यह संसार बेहद सहज तरीके से हमें अपना बना लेता है और हम इससे इस कदर जुड़ते जाते हैं जैसे अपने ही जीवन का कोई हिस्सा रहा हो जो हमारी मुट्ठियों के सुराखों से रिस चुका है।
‘स्त्री और नदी’ अपनी विषयवस्तु और कहन दोनों ही आयामों में बहुत संश्लिष्ट और प्रभावी कविता है। नदी जो निरन्तर एक यात्रा में रहती है, कभी न ख़त्म होने वाली अनथक यात्रा। यह कहा जा सकता है कि सागर से मिल कर तो उसकी यह यात्रा पूरी हो जाती है! फिर वह कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा कैसे? बाहरी तौर पर तो सागर से मिलने के बाद उसकी यात्रा का अंत हो जाता है पर उसकी यात्रा यहाँ भी ख़त्म नहीं होती। स्त्री की यात्रा भी कभी पूरी नहीं होती क्योंकि वह स्वयं जीवनदायिनी है, जीवन देने वाली शक्ति ही यदि रुक गई तो सृजन संभव ही नहीं हो पाएगा। कितने–कितने रूपों में वह अवतरित होती रहती है और मानवजाति को जीवन और आकार देती उसका पालन- पोषण करती है। इसीलिए कवि ने स्त्री और नदी को अभिन्न माना है  
‘जब कोई नदी सूखती है

उसे एक स्त्री में

बहते हुए पाता  हूँ

इसीलिए कह रहा हूँ

जब तक स्त्रियाँ हैं

दुनिया की तमाम नदियों के

सूखने की चिंता से बाहर हूँ मैं।’ (पृष्ठ-113)
संबंधों के इस वितान में माँ ही नहीं पिता भी हैं जिनका जिक्र बार –बार आता है। ‘पिता’, ‘पिता और पहाड़’, ‘बंटवारा’, ऐसी कविताएँ हैं जिनमें हम पिता के उस जीवन से परिचित होतें हैं जहां दरकते रिश्तों की संकटमयी  परिस्थितियों के बरक्श दुर्धर्षता और जीवटता का संकल्प पैबस्त है। ताउम्र परिवार की जिम्मेदारी ढोते हुए पिता अपने हिस्से का जीवन भी नहीं जी पाते, मानों उनका जीवन भी परिवार के सदस्यों की मानिंद कई हिस्सों में बंटा हो और इन्हीं हिस्सों से मिल कर ही उनका समूचा अस्तित्व बनता हो। परिवार को समेटने और एक करने में ही उनका जीवन गुजर जाता है और पिता का अस्तित्व कभी पूर्ण नहीं हो पाता  
‘पहले उनके भाइयों ने उनको बांटा

बाद में हम भाइयों ने

ता-उम्र

और…सम्पूर्ण नहीं हो पाए पिता।’ (पृष्ठ-14)
‘पिता और पहाड़’ पूंजीभूत अनुभवों की कविता है। यह जीवनानुभव  वक्त की खुरदुरी पगडंडियों से गुजरते हुए ही मिलता है क्योंकि जीवन कोई सपाट रास्ता नहीं है। संग्रह में बच्चों पर कई अच्छी कविताएँ हैं जो हमें भविष्य की उम्मीदों तक ले जाती हैं, जिनमें- ‘बच्चे का खेल’, ‘बच्चा बड़ा हो गया है’, ‘बच्चे’, ‘बच्चे के दांत’, ‘सवाल’, ‘बड़ा होना’ प्रमुख हैं। 
      
आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है! इसका निर्धारण कर पाना मुश्किल है, ऐसा इसलिए भी कि चुनौतियां बहुआयामी हैं। मनुष्यता को बचाए रखने की संभावनाएं विरल हैं किन्तु कवि इस संभावना को जिलाए रखने में अहर्निश तत्पर है।संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते अपनी अंतर्वस्तु संरचना, और शिल्प में बेजोड़ है। कवि यहाँ एक वृहत्तर जीवन की अर्थ-लय और गति को पकड़ने की कोशिश करता है  
‘सरहद दो मुल्कों के बीच से नहीं

लोगों के सीने से गुजरती है

अपनी जमीन से दर-बदर लोग

लाख समेट लें सब कुछ वहाँ से

मगर बहुत कुछ छूट जाता है वहीं

…उनका अपना मौरूसी शहर

उनको याद करता है

जैसे किसी माँ का मन

परदेश गए बेटे को

लौट आने को कहता है

और गाँव पर पड़े पिता की बूढ़ी आँखें

नींद न आने तक

उसका रास्ता निहारती हैं।’
विस्थापन की इस पीड़ा के अवसाद से घिरे व्यक्ति के सामने मानो अंतिम शक्ति भी निफल हो चुकी हो। परिस्थितियों की विवशता समूचे परिवार को बेरहमी से विच्छिन्न कर देती है। ऐसे में कवि जीवन में एक नवीन संभावना का विधान रचता है –
‘तुम्हारे पस्त पड़े

मकान की देहरी पर

स्कूलों के हजारों बच्चे

हरी –हरी दूब पर

हँस रहे हैं
लड़ रहे हैं

गिलहरियों सा कुलाँच रहे हैं

अगर आ सको

तो आकर देखो

वर्षों पहले तुमने जो देखे थे सपने

उन्हें कागजों पर उकेरते हुए

और चटख रंग उनमें भरते हुए

यहाँ से विदा हो गए

वे आज जी उठे हैं

बड़े हो रहे हैं।’ (पृष्ठ-120 )।
समाज के समक्ष सकारात्मक और अग्रगामी विकल्प विकसित किये जाने में ऐसी कविता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह कविता अपने रूप गठन और अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी है कि जहां यह इति ग्रहण करती है वहीं से एक नई शुरुआत होती है। लगता है अपने ठाँव से एक लम्बी यात्रा में मिले अनुभव यहाँ आकर पूंजीभूत हो गए हों
‘बड़ी आँखों से देखे सपने नहीं मरते

व्यक्ति की मौत सपनो की मौत नहीं होती

मरने के बाद भी

वे जवान होते हैं

आकार लेते हैं।’ (पृष्ठ-120)
इस कविता के सन्देश को  इस काव्य संग्रह का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। जीवन की नवीन संभावनाओं के उपस्थापन में इस कविता का अपना अलग ही महत्व है।
भूमंडलीकरण ने हमारी जीवन –शैली में इस कदर परिवर्तन किया है कि हम अपने आसपास की दुनिया से, उस दुनिया में उपस्थित छोटी-छोटी चीजों से कट गए हैं। बाजारीकरण की अंधी दौड़ ने ऐसी तमाम चीजों को जीवन से ख़ारिज कर दिया है जो हमारे सामूहिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं –
‘उन दिनों

नोन –मिर्चे की चटनी संग

खेत में मटर और चने का साग खाने

और अंगुलियाँ चाटने में

अद्भुत स्वाद था

यह तब की बात है जब लोगों का

अंकल चिप्स और रिलायंस से

परिचय नहीं हुआ था

और

‘तोर बरफी से मीठ हमार लावाही मितवा’

सारा गाँव गाता था।’ (पृष्ठ-78)
यहाँ एक–एक शब्द सजग कर्म में नियोजित है। ‘जुगाली’, ‘जो जितना बड़ा है’, ‘वैश्वीकरण’, ‘चुप्पी’, ‘त्रासदी’ जैसी कविताओं में आज व्यक्ति के अन्दर पैदा हो चुकी आत्मनिर्वासन की प्रवृत्ति को समकालीन सन्दर्भों के साथ उभारा गया है।
संकलन की कई कविताएँ विषय के क्षैतिज फैलाव को तो व्यक्त करती हैं पर उसके ऊर्ध्वगामी विस्तार का पूरा आकलन नहीं कर पातीं। दरअसल कविता से जीवन की उक्तियाँ पुनर्परिभाषित होंने लगें तो यह उसकी सफलता है, किन्तु यदि उक्तियों से कविता ही परिभाषित होने लगे तो ऐसी  कविता जीवन की अर्थवत्ता को प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो पाती। कविता ही उक्ति को सार्थक बनाते हुए उसे नयी परिस्थितियों की गहन सम्बद्धता में व्याख्यायित करे जिससे जीवन की ठस सोच और तमाम अंतर्विरोध अनावृत्त हो सकें। संग्रह की ज्यादातर कविताएँ अपने गहरे आशय के बीच सहज, सजग और आत्मीय पठनीयता से लैस हैं। 
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‘यही दुनिया है’ (काव्य संग्रह), लेखक, अजय कुमार पाण्डेय, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-2015, पृष्ठ-120, मूल्य- 300 रुपए
समीक्षक- डॉ० शशिभूषण मिश्र, 
सहायक प्रोफेसर- हिंदी, 
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बाँदा (उ.प्र.)
मो. – 9457815024,
ई-मेल – sbmishradu@gmail.com                                                       

अमीर चन्द वैश्य

गीतकार सुभाष वशिष्ठ का अभी हाल ही में एक नवगीत  संकलन बना रह ज़ख्म तू ताजा आया  है। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने इस संकलन पर एक समीक्षा लिखी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

 
निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण
  
मेरे सामने एक नवगीत  संकलन है। ‘बना रह ज़ख्म तू ताजा‘। गीतकार हैं सुभाष वसिष्ठ। मेरे अंतरंग मित्र और परम आत्मीय। पारिवारिक सम्बन्धों से जुड़े हुए। अपने नाम के अनुरूप मधुर भाषी और निर्भीक वक्ता। महान् नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के समान। अपना जीवन-पथ स्वयं निर्मित करने वाले।

ऐसे सुभाष  वसिष्ठ से मेरा मौन साक्षात्कार  सन् 1974 में हुआ था, जब वह ने0मे0शि0 ना0 दास (पी0जी0) कालेज, बदायूँ में हिन्दी प्रवक्ता पद के लिए प्रत्याशी थे। उस समय विभाग में प्रवक्ता पद के लिए दो स्थान रिक्त थे। मैं भी प्रत्याशी था। विभिन्न वेश-भूषा में सजे हुए अनेक प्रत्याशी। मैं सबके चहरे पढ़ रहा था। उनकी बातें सुन रहा था। एक सुदर्शन युवक हँसमुख शैली में सभी से बतिया रहा था। बातें नई कहानी के बारे में हो रही थीं शायद। वह सुदर्शन युवक आकर्षक मुस्कान से सब को आकृष्ट करके चर्चा कर रहा था कि कुछ ऐसी नई कहानियाँ हैं, जिनमें प्रेमी-प्रेमिका टेलीफोन पर प्यार का इज़हार किया करते हैं। उन दिनों मोबाइल का प्रचलन नहीं था। मैं उसकी बातें और अन्य प्रत्याशियों की बातें ध्यान से सुन रहा था। अचानक अभास हुआ कि इस प्रत्याशी का चयन हो जाएगा। ऐसा ही हुआ। दोनों विशेषज्ञों ने अपने-अपने प्रत्याशी का चयन कर लिया।
तो दोनों  प्रत्याशियों में सुभाष  वसिष्ठ दिल्ली से पधारे थे और दूसरे श्रीकान्त मिश्र बिहार से। यदि वसिष्ठ जी अपने साथ दिल्ली की आधुनिक संस्कृति लेकर आए थे तो मिश्र  जी हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत  का प्रचुर ज्ञान लेकर।  परम्परावादी ब्राह्मण के रूप में।
संयोग ऐसा  हुआ कि वसिष्ठ जी बदायूँ आने  के साथ-साथ एक प्रकाशित नवगीत  की ख्याति लेकर आए थे। नवगीत  तत्कालीन व्यावसायिक पत्रिका  ‘धर्मयुग‘ मे छपा था। उन दिनों डॉ0 उर्मिलेश गीतकार के रूप में ख्याति के सोपानों पर चढ़ रहे थे। गीतकार उर्मिलेश ने नवागत गीतकार सुभाष वसिष्ठ का स्वागत खुले दिल से स्वागत किया। परिचय की गाँठ बँध गई और परिचय प्रीति में परिवर्तित हो गया।
डॉ0 सुभाष  वसिष्ठ के बदायूँ आने से पूर्व  डॉ0 उर्मिलेश कवि विशेष  रूप से गीतकार के रूप में  ख्याति प्राप्त करने लगे  थे। उन दिनों ने0मे0शि0ना0 दास कालेज, बदायूँ के हिन्दी विभाग में डॉ0 ब्रजेन्द्र अवस्थी अध्यक्ष थे। वीर रस के प्रसिद्ध कवि, जो कवि-सम्मेलनों के मंच से श्रोताओं को प्रभावित करते थे। अपने ओजस्वी स्वर से। अपनी आशु कविता से। डॉ0 उर्मिलेश को डॉ0 अवस्थी का शिष्य समझा जाता था, कवि के रूप में भी। लेकिन वास्तविकता यह थी कि वह अपने पिता (स्व0) भूपराम शर्मा ‘भूप‘ से कविता के संस्कार ले कर आया था। वह नीरज के समान गीतकार के रूप में ‘भारत-प्रसिद्ध‘ होना चाहता था। संयोग से डॉ0 सुभाष वसिष्ठ जैसा गीतकार मित्र अनायास उस से जुड़ गया और उस ने अँग्रेजी विभाग में सेवारत डॉ0 मोहदत्त शर्मा ‘साथी‘ को भी स्वयं से जोड़ लिया। वह डॉ0 ब्रजेन्द्र अवस्थी से अच्छे कवि थे। बुलन्द आवाज में प्रभावपूर्ण काव्य-पाठ किया करते थे। कथा-आलोचक प्रो0 मधुरेश साथी जी की कविता की प्रशंसा मुक्त कण्ठ से किया करते थे, लेकिन डॉ0 अवस्थी की तुकबन्दी प्रधान कविता के कटु आलोचक थे। दोनों में 36 का आँकड़ा था।
डॉ0 उर्मिलेश ने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक साहित्यिक  संस्था गठित की। उस का नाम  था शायद ‘अंचला‘। इसी संस्था की ओर से बदायूँ नगर पालिका के मैदान में विराट् कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया। कवि-सम्मेलन के संचालक डॉ0 उर्मिलेश ने पद्य में संचालन करते हुए सुभाष वसिष्ठ को गीत-प्रस्तुति के लिए मंच पर आमंत्रित किया। मुझे याद आ रहा है कि उस कवि-सम्मेलन में सुभाष वसिष्ठ नवगीत ‘धूप की गजल‘ का प्रभावपूर्ण पाठ सस्वर किया था। उस प्रस्तुति से मैं भी प्रभावित हुआ था।
दो-तीन  साल के बाद ही डॉ0 उर्मिलेश से डॉ0 सुभाष वसिष्ठ का मोह-भंग  हो गया। कवि-सम्मेलनी व्यावसायिकता के कारण। प्रो0 के0 वी0 सिंह के ‘योग्य शिष्य’ सुभाष वसिष्ठ ने अपनी अभिरूचि के अनुरूप ‘रंगायन‘ नामक नाट्य संस्था का गठन किया और नाटक प्रेमी शौकिया प्राध्यापकों एवं छात्रों को स्वयं से जोड़कर रंग-कर्म प्रारम्भ किया। प्रेमचन्द जन्म-शती के अवसर पर बदायूँ क्लब के खुले परिसार में ‘होरी‘ का मंचन किया गया। नाट्य रूपान्तरकार विष्णु प्रभाकर की उपस्थिति के समक्ष। यह अभूतपूर्व नाट्य मंचन था। सैट बनाए गए थे। अंधकार और प्रकाश का प्रयोग किया गया था। दृश्य परिवर्तन के लिए। इसी क्रम में प्रति वर्ष एक सोद्देश्य नाटक का मंचन किया जाने लगा। रंगायन की प्रस्तुतियों ने कवि-सम्मेलनों के मनोरंजन से मुक्त भी किया। 
समय समय  पर नुक्कड़ नाटक भी प्रस्तुत किए जाते थे। विना किसी दान के। बिना किसी सरकारी आर्थिक अनुदान के। टिकटों की विक्री से प्राप्त धनराशि से नाट्य-मंचन किया जाता था।  इसके अलावा ज0ले0सं0 की बदायूँ इकाई की ओर साहित्यिक गोष्ठियों  का आयोजन भी डॉ0 सुभाष वसिष्ठ द्वारा किया जाता था। प्रत्येक गोष्ठी में अन्य जनों के अलावा  प्रो0 मधुरेश सदैव उपस्थित  रहते थे और वह अध्यक्ष पद की गरिमा बढ़ाया करते थे।  इन गोष्ठियों में सुभाष  वसिष्ठ ने अपने गीतों का वाचन कभी नहीं किया लेकिन गीतकार वीरेन्द्र मिश्र पर गोष्ठी का आयोजन करवाया था। ‘अपर मानप्रद आप अमानी।‘ वह अपने संकलन के प्रकाशन के प्रति उदासीन रहे।
ऐेसे सुभाष  वसिष्ठ गीत-रचना निरन्तर  करते रहे। समय-समय पर आयोजित कवि-गोष्ठियों में वह गीतो का सस्वर वाचन और कविताओं  का पाठ भी किया करते थे।  उनका एक गीत श्रोतोओं द्वारा बहुत पसंद किया जाता था – “भूल गए/राग-रंग/भूल गए छिकड़ी/तीन चीजें याद रही/नोन-तेल लकड़ी।“
इन संस्मरणों  से यह बात स्पष्ट हो रही  है कि सुभाष वसिष्ठ ने अपनी गीत-सर्जना को बाजारू होने से बचाया। स्वयं को पूँजी  की विकृतियों से दूर रखने का प्रशंसनीय प्रयास किया।  आचरण की ऐसी संस्कृति की झलक  सुभाष वसिष्ठ के गीतों  में परिलक्षित होती है।  उनके नवगीत लोकोन्मुखी हैं, लेकिन अपने ढंग से। उनके गीतों में लोक-रंग भले ही कम हो, लेकिन लोक-विमुखता नहीं है। वह स्वयं स्वीकारते हैं -“वस्तुतः नवगीत जैसे-जैसे आगे बढ़ा है, वह केवल आंचलिकता अथवा निजी अनुभूतियों की रोमानी प्रवृत्ति तक ही सीमित नहीं रह गया, बल्कि वह पूर्णतः यथार्थ जीवन की त्रासदी और उत्पीड़न को अभिव्यक्त करने वाला आधुनिकतावादी गीत के रूप में स्थापित हुआ।“

(नवनीत: स्वांतत्रयोत्तर  हिन्दी गीति-काव्य का  एक विस्तृत आयाम) इस अप्रकाशित  आलेख से उद्धृत उपर्युक्त विशेषण पद ‘आधुनिकतावादी‘ का आशय ‘आधुनिकतावाद‘ न होकर वह प्रतिरोधमूलक भाव है, जो सच्ची आधुनिकता का उज्ज्वल लक्षण है।

समीक्ष्य संकलन  में डॉ0 वसिष्ठ ने लिखा है – “प्रस्तुत संग्रह के गीतों का रचनाकाल सन् 1970 से सन् 1990 तक का है। क्रम, काल-क्रमानुसार नहीं है, गीत की प्रकृति वस्तु के आधार पर है। एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि इनमें से कुछ गीत विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में, सन् 1990 के बाद भी प्रकाशित हुए हैं, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ कि उनका रचनाकाल 1970 के बाद और 1990 से पूर्व का ही है।“ (पृ0 11)

यह नवगीत  संग्रह है। गीत काव्य  की लोकप्रिय विधा है। ग्राम-गीतों  से ही साहित्यिक गीतों  का विकास हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘इतिहास‘ में ठीक लिखा है कि ‘सूर-सागर‘ पहले से चली आ रही परम्परा का विकास प्रतीत होता है। भक्तिकालीन गीति-काव्य के बाद छायावादी कवियों – प्रसाद-निराला-पंत और महादेवी वर्मा ने गीत विधा को अभिनव का रूप प्रदान किया। निराला और महादेवी के गीतों की प्रशंसा प्रायः सभी आलोचकों ने की है। यदि निराला ने दुर्बोध गीत रचे हैं तो सहज बोधगम्य गीत भी। उनके परवर्ती लघु गीतों की अन्तर्वस्तु और ‘कथन-भंगिमा‘ दोनों पूर्ववर्ती गीतों भिन्न हैं। बच्चन ने सहज बोधगम्य गीत रच कर इस विधा को लोकप्रिय बनाया और नीरज ने भी। लेकिन नई कविता की ऊब से बचने और बचाने के लिए गीतकारों ने गीत का परम्परागत सांचा तोड़ कर उसे अभिनव रूप में ढालने का प्रयास किया।
‘गीत में अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की प्रधानता होती है, लेकिन उसे बहिर्मुखी प्रवृत्ति से अलग नहीं किया जा सकता है। यह आकस्मिक नहीं है कि डॉ0 वसिष्ठ ने अपना यह ‘नवगीत संकलन महाकवि पं0 नाथूराम शर्मा ‘शंकर‘ नवगीत के सूत्रधार पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ और दमदार नवगीतकार वीरेन्द्र मिश्र को सादर समर्पित किया है। यह समर्पण भाव गीतकार की सामाजिक चेतना और गीत की अभिनव कथन-भंगिमा का प्रमाण है।
‘दीपोत्सव 2001 हेतु शत शत शुभकामनाएँ‘ में डॉ0 वसिष्ठ विषमता के बारे में चिन्ता करते हुए कहते हैं- 
“क्या विषमता है जगत् की
तमिस्रा से प्यार!
युद्ध को तैयार क्षण में
नेह से तकरार।“
 उनकी यही अभिलाषा है कि
 “दीप ने ही
दी सभी को रोशनी
रोशनी बस रोशनी बस
रोशनी बस रोशनी!!/“
आजकल ने ही दीप की रोशनी की परम आवश्यकता है और यह तभी सम्भव है कि जब संगठित होकर आर्थिक विषमता को जड़ से उखाड़ा जाए। डॉ0 वसिष्ठ विषमता का प्रखर प्रतिरोध नाट्य-मंचन के माध्यम से करते हैं। लेकिन वह स्वयं को वामपंथी बताने के लिए  ढोल नहीं पीटते हैं। प्रकाश-प्रसार का उपर्युक्त भाव ‘रचना सा वर दे‘ में भी किया गया है –
 “वर दे माँ शुभ्रा, तू वर दे
मगन हृदय की तम घाटी में
आस किरन भर दे।“ (बना रह जख्म तू ताजा, पृ0 13)
ज्ञान का प्रकाश अज्ञान दूर करता है।  मनुष्य को निर्भय बनाता है और मानव-मूल्यों का संरक्षक  भी।
‘पारा कसमसाता है‘ में यदि एक ओर भयंकर ठंड की ओर संकेत किया गया है, तो दूसरी ओर ‘मुक्ति क्रम में‘ प्रयासरत एक नन्हा चिड़ा ‘मृत्युभोगी चीख लेकर‘ रह-रह कर पंख फड़फड़ाता है। अर्थात् वह प्रतिकूल मौसम से संघर्ष कर रहा है। बन्धन से जकड़े मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही होता है। उसे जीवित रहने के लिए रात-दिन कठोर श्रम करना पड़ता है। तभी तो गीतकार कहता है –
 “शुरू हुई दिन की हलचल
गये सभी लोहे में ढल।“(वही, पृ0 17) 
‘धूप की गजल‘ महानगरीय परिवेश से साक्षात्कार कराती है। देश की राजधानी दिल्ली दिनारम्भ होते ही लाहे में ढल जाती है। आशय यह है कि जीविका के असंख्य जन कठोर श्रम करके स्वयं को लोहा जैसा सख्त बना लेते हैं।
‘जहरीला पूरा परिवेश हो गया‘ का कथ्य सुस्पष्ट है। गीतकार की प्रमुख वेदना यह है कि इस आपा-धापी के समय में सब ठगे जा रहे हैं। व्यक्ति अपने हक वंचित हो रहे है। यह जीवन का तीक्ष्ण त्रासदी है।
दिन खिसकते जा रहे हैं‘ अभीष्ट अभिलाषाओं की आपूर्ति होने की व्यथा अंकित की गयी है। प्रतिकूल परिस्थितियों में दिशाऐं प्रश्नित हैं। पंथ धूमिल है। चाल बेबस है। चारों ओर अग्नि-लहरें धार बनकर उड़ती हैं। साजिशें हैं। अनागत अनिश्चित है। ऐसी मनोदशा में व्यक्ति बड़ी आकांक्षाऐं कैसे पूरी हो सकती हैं। यह है महानगर में अकेले पन का बोध, जो व्यक्ति को व्यापक सक्रिय लोक से दूर कर देता है। शायद, ऐेसे ही गीतों के सन्दर्भ में डॉ0 आनन्द प्रकाश ने लिखा है कि “गीतकारों का ध्यान प्रायः इस तरफ से हटता गया कि श्रमिक जनता के शोषण पर केन्द्रित रहना सही रास्ता है। मूर्तता जिस प्रकार शोषित वर्ग की शत्रु है, अमूर्तता उसकी मित्र हो सकती है। “(समकालीन कविताः प्रश्न और जिज्ञासाएँ; पृ0 124)
इस संकलन  में कई गीत ऐसे हैं, जिनमें जीवन-यथार्थ की मात्र झलक है। उसकी मूर्तता विरल है। एक उदाहरण देखिए
 “बाँहों के आकाशी दायरें
सिमटें फिर उसी बिन्दु पर
जिसमें था स्याहिया ज़हर।“ (पृ0 22)
 ‘आकाशी दायरे‘ विराट बिम्ब प्रत्यक्ष कर रहा है। लेकिन यह बिम्ब ‘स्याहिया ज़हर‘ पर क्यों सिमट रहा है। क्या आकर्षण है। ऐसा घातक आकर्षण अभीष्ट भाव को सघन निराशा में परिवर्तित कर देता है- 
“छिद्रित घट से
क्रमशः रिसते रिसते
चुप्पी में डूब गये शोर भये दिन
सागर में ज्वारमयी मीन बहुत उछरी
सिर्फ रेत पाया लेकिन।“ (पृ0 22)
 तुलसी ने लिखा है – ‘सुखी मीन जँह नीर अगाधा।‘ यहाँ मीनों को रेत ही रेत प्राप्त हो रही है। वस्तुतः, यह महानगरीय भाव-बोध है, जो नवयुवकों की व्यथा-कथा व्यक्त कर रहा है।
और ऐसे  विवश व्यक्ति अन्य किसी को क्या दे सकते हैं। याचना उनकी नियति है। इसीलिए तो गीतकार कहता है-
 “हाथों का अर्थ हुआ क़र्ज़ मांगना
टूक-टूक स्वयं को सलीब टाँगना।“ (पृ0 23)
 यहाँ भी अकेलेपन की विवशता व्यक्त की गयी है। वास्तविकता से साक्षात्कार करके वह आगे कहता है-
“चमकदार सब उसूल स्याह हो गये
रोटी के चक्कर में सूर्य हो गये
झुका नहीं, टूट गया, जो रहा तना।“(पृ0 23) 
वर्तमान क्रूर व्यवस्था में पूँजी व्यक्ति की लाचारी का लाभ इसी प्रकार उठाया करती है। लाचार आदमी टूट कर बिखर जाता है। व्यक्ति की घातक और मारक लाचारी ऐसी मनोदशा भी उपस्थित कर देती है-
“बतियाती फ़र्ज़ांे से
रह-रह कर चमक-दमक
घहराकर उफन रही
भीतर की घुटी कसक
जीवन तो रीत गया
जुड़े रहे नाम से।“ (पृ0 25)
 वर्तमान परिवेश में जीवन का रीतापन स्वाभाविक है, लेकिन सुखद नहीं त्रासद है।

मानवीय सभ्यता और संस्कृति जांगलिकता से मांगलिकता  की ओर अग्रसर होती रही है।  लेकिन द्वन्दात्मक जगत् में जांगलिकता-मांगलिकता  का द्वन्द्व चलता रहता है।  नाखून बढ़ते रहते हैं। मनुष्य उन्हें काटता रहता है।  अन्ततोगत्वा विजय अहिंसा की होती है। लेकिन पूँजी  के क्रूर हाथों ने अपने नाखून बढ़ा लिये हैं। वह अब तो शूर्पणखा हो गयी है।  यह सब देखकर वसिष्ठ जी मन-ही-मन गाते हैं –

“फँस गया मन सभ्यता के जंगलीपन बीच।“……
 “आ गई संवेदना/उस बिन्दु पर चल के
 बस, कथा के रह गए हैं
 पत्र पीपल के
 मूल्य सारे ज़िन्दगी के संग्रहालय चीज़।“(पृ0 26)

संग्रहालय में पुरातात्विक  वस्तुएँ रखी जाती हैं। सजावट-दिखावट के लिए। आजकल की विषमताग्रस्त समाज ने उदात्त मानवीय मूल्य सजावट के लिए बातों के संग्रहालय  में रख दिए हैं। अर्थात् ‘पर उपदेस कुशल बहुतेरे/ जे आचरहिं ते नर न घनेरे/‘ यही कारण है कि कथनी और करनी के अन्तर ने व्यक्तित्व खंडित कर दिया है। वह विकलांग हो गया है। उसके सामने एक नहीं कई-कई ‘प्रश्न चिह्न‘ खड़े हो गये हैं। परिणाम सामने यह है कि “हर दिन आ खड़ा हुआ/ मुँह बाए/ ले नया सवाल/ क्रिया निरत चर्या/ बिन क्रिया हुई/ क्षण-क्षण बेहाल/ थे रदीफ काफिया बा-अदब/ पर/ खिसक गये हाथों से/ सुरों के बहर।“ (पृ0 27) अब आप ही सोचिए कि बेसुरा व्यक्ति क्या गाएगा। कैसे गाएगा। यह है आज के महत्वाकांक्षी व्यक्ति की नियति। शायद इसी कारण गीतकार महसूसता है कि “गहमाऽगहम शहर और चुप कलम/साथ-साथ रोज़ सफ़र, वे-ताला-सम।“(पृ0 28)
 
बे-ताला-सम ने जिन्दगी  को संगीत की लय से वंचित  कर दिया है। गीत के नायक ने निराश हो कर मनोदशा इस प्रकार व्यक्त की है –

 “जन से होश सँभाला, तन से पाया कालापन
टलता रहा महज तारीखों में उजियार बदन।“(पृ0 31)

 यह ‘कालापन‘ चरित्रहीनता, मूल्य-विहीनता और काली कमाई का प्रतीक है, जो अपनी अलग समानान्तर व्यवस्था चला रहा है। गीतकार इतना निराश है कि उसे महसूस होता है कि

“स्याही ने
 हर सीढ़ी
 ऐसा रौव जमाया अपना
 सहमा छिपता सा फिरता है
 सूर्य उदय का सपना।“ 

लेकिन “तो भी, फाँक रोशनी थामें, तकता पागल मन।“ (पृ0 31) सवाल है कि ‘पागल मन‘ का सपना पूरा होगा? शायद नहीं। आजकल भ्रष्ट राजनीति ने अपरधीकरण का आश्रय सारे के सारे मानवीय मूल्य ध्वस्त कर दिए हैं। फिर भी लोक संर्घष कर रहा है। जनशक्ति ही उकी मनोकामना पूरी कर सकती है। जनशक्ति के अभाव में हर व्यक्ति विभाजित जिन्दगी जी रहा है। अब प्रश्न यह है कि “किस तरह आखिर गुजारे  ऋचा-सम्मत पल/ हर किसी ने, निरी कसकर, चढ़ा ली साँकल।“ (पृ0 34) यह है महानगरीय और नगरीय अजनबीपन, जो अपने व्यक्तित्व को परिसीमित करना श्रेयकर समझता है। वेदों की ऋचाएँ उसके लिए व्यर्थ हैं। साथ-साथ चलो। साथ-साथ बोलो। सब के मन को जानो। स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। सत्य बोलो। सौ शरदों तक सूर्य देखो। महानगर में कितने प्रतिशत लोग नित्य सूर्योदय-सूर्यास्त आदि देखते हैं।
महानगरीय नगरीय  कस्बाई और ग्रामीण व्यक्ति  के सामने एक और समस्या खड़ी  है। खालीपन। बेरोजगारी  से जनमा हुआ। कर्म करना मानव का स्वभाव है। गुप्त जी ने लिखा है- “नर हो, न निराश करो मन को/कुछ काम करो/ जग में रह कर कुछ नाम करो।“ लेकिन गीतकार के सामने यह ज्वलंत प्रश्न है

“कब तक यों जिएँ लिये खालीपन
और, दूर, माथे से रहे शिकन।“ (पृ0 35)

लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। चिन्ता माथे पर शिकन लेकर आती है। समस्या यह भी है कि

“दिशाहीन चौराहे चौराहे चौराहे
 जर्द हुए चेहरों पर/एक चमक मुस्काए
सच, कैसे मुस्काए
मिलती जब बर्फीली अग्नि-छुअन।“ (पृ0 35)

उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में अन्तः विरोध  है। ‘छुअन‘ बर्फीली भी है और अग्नि से युक्त भी। अर्थात् आक्रोश से माथा तप रहा है, लेकिन असहाय होने का अहसास उसे ‘बर्फीला‘ कर देता है।

‘कब तक झेलूँ लावा मन में‘ सोच कर कवि व्यवस्था की घातक वास्तविकता इस प्रकार उजागर करता है -पुर्जा, एक व्यवस्था का, बस/ माना/ जोड़ा और चलाया/ शब्दों की अमृत वाणी से/ भूखी पीढ़ी को वहलाया/ मृत्यु चीख तेरी आँगन में।“ (पृ0 36) यह सब सोच-सोच कर के गीतकार आक्रोश से भर कर प्रश्नों की झड़ी लगा देता है-

“लीक, लीकिया, कब तक कब तक?
कब तक पीड़ा, कब तक शोषण?
कब तक प्रतिभा कुण्ठित  होगी?
कब तक मन मर्जी का दोहन?
होगा क्या अरण्य  रोदन में?

ये ज्वलंत प्रश्न सहृदय पाठक/पाठिका को आज भी परेशान करते रहते हैं असंख्य प्रातिभ युवक-युवतियों की आधी उम्र अच्छी नौकरी  की तलाश में बीत जाती है।  सरकारें आती हैं। जाती हैं। लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती है। प्रत्येक बड़ी  कुर्सी स्वयं का बहुमल्य  घोषित करके अपने को बेचने  पर आमादा है। संविधान  का उल्लंघन खुले आम हो रहा  है।

डॉ0 वसिष्ठ ने गम्भीरता से महसूस किया है कि उन जैसे संवेदनशील जन ‘जड़धर्मा लोगो के बीच‘ में रह कर बेचैनी का अनुभव करते हैं। तभी तो गुनगुनाते हैं “मैं भी आ खड़ा हुआ आखिर को/जड़धर्मा लोगों के बीच।“ (पृ0 40) जड़धर्मा लोग लकीर के फकीर होते हैं। रूढ़ियों का अनुपालन अपना पवित्र धर्म समझते हैं। ऐसे लोग समाज की प्रगति में रोड़ा बन कर अड़े रहते हैं। परिणाम यह सामने आता है

“गड्ढा है ज्यों का त्यों
कीचड़ भी ठीक वही
 क्या है फिर जिसको मैं रहा था उलीच? 
जड़धर्मा लोगों के बीच।“ (पृ0 40) 

ऐसे लोग प्रतिक्रियावादी होते हैं। उन पर पुरातनता का निर्मोक चढ़ रहता है। वे समप्रदायवाद और जातिवाद से ग्रस्त होते हैं। साधारण जन तो ‘अपहरण भाईचारे का‘ समर्थन कदापि नहीं करते हैं। लेकिन जड़धर्मा लोग गणेश जी को दूध पिला कर शिशुओं को भूखा रख के अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं।
ऐसे जड़धर्मा जन ही क्रूर एवं शोषक व्यवस्था का समर्थन करते रहते हैं। यथास्थिति  बनाए रखते हैं। यह देखकर संवेदनशील  गीत कार का मन क्षोभ से भर जाता है। वह पूछता है – ‘यह व्यवस्था चक्र है य सानधर आरा। (पृ0 41) क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम है-“स्निग्ध फ़र्शों की इमारत/ रहन अति लकदक/ गुम्बदी सदनों गुँजाती/ नेतई बक-बक/दीन जीवन को लिखी, बस, कीच या गारा।“(पृ0 41)

‘नेतई बक-बक‘ और संसद में होने वाले हंगामें एवं हाथापाई से भारत का जन-गन-मन खूब परिचित हो गया है।
‘शुरू हुआ पहिया‘ में श्रमशील वर्ग की दैनिक क्रियाओं का आकर्षक वर्णन किया है- “सड़को पर निकल पड़ी घर से/ दिनचर्या रोज़ की/ एक अदद गठरी सिर पर लिये/ रोटी के बोझ की/चप्पू बिन आसमान नाप रही नैया। (पृ0 43)
वास्तविकता  यह है कि जीवन के कर्तव्य  श्रम से पूर्ण होते हैं। लेकिन  इस विषमताग्रस्त समाज में  सम्पन्न उच्च वर्ग और उसके साथ-साथ मध्य वर्ग भी निम्न  वर्ग के अकूत श्रम का उपभोग  करता है। वह पूँजी से सब कुछ खरीद सकता है। ऐसी  व्यवस्था में धनवान् ही धन्य हैं और धन्यवाद का समुचित पात्र भी। अपना स्वार्थ  साधने के लिए निम्न वर्गीय जन उच्च एवं मध्य वर्ग के सामने विनम्र रहते हैं। तभी  तो गीतकार कहता है कि “स्वार्थमयी मिट्टी में उगते हैं/ आज के प्रणाम/ बिन लगाम मृग मरीचिकाओं के फन्दों में/ फँसे रहें कब तक हम अन्धो में?/ अर्थ के लिए होते सैकड़ो गुलाम/ सुबह-शाम।“ (पृ0 48)
मध्य वर्ग की समस्या यह है कि वह स्वयं  को निम्न वर्ग से दूर रहना चाहता है; लेकिन उच्च वर्ग से मधुर सम्बन्ध जोड़ने के लिए उसके पास रहना चाहता है और उच्च वर्ग तो मध्य वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है। यही सब सोचकर सहृदय गीतकार प्रश्न पूछता है – “कब तक दिक्कालो से थर्राएँ/ आदेशों पर हरदम गुन गाएँ/ हिय उबाल ठण्डा वत हुआ बहुत आम/ बिना काम।“ (पृ0 48)
गीतकार  का प्रतिरोध सार्थक है, जो उसकी विवश मनोदशा की अभिव्यक्ति कर रहा है। लेकिन उसका प्रतिरोध पूरा तरह सफल नहीं हो पाता है, क्योंकि वह अचानक महसूस करता है-
“रेशमी सुझावों के घेरे में/ 
मेरा अपना मत काफूर हुआ/
 विद्रोही आसमान/ सिर्फ शून्य-सा हो कर/ 
जीवन नासूर हुआ/ एक आग खँडहर के शरण हुई/
 लपटों के शीश लगे कटने।“ (पृ0 50)
उद्धरण  की अन्तिम पंक्ति ‘लपटों के शीश लगे कटने‘ भयावह बिम्ब प्रत्यक्ष कर रही है।

गीतकार वसिष्ठ अपने आस-पास के जनों का आचरण अवधानपूर्वक  देख कर उनका स्वभाव समझने का प्रयास करते हैं। समाज में कुछ सज्जन ऐसे भी होते हैं, जो सम्पन्नों की प्रशंसा करके सुर्खियाँ बटोर लेते हैं। मंच के कवियों की मनोकामना होती है कि वे किसी तरह सुर्खियों में छाए रहें। इसीलिए वह लिखता है – “सुर्खियों के ही सहारे जो/ आकाश में बेवक्त हैं उछले/ गुम्बदी अस्तित्व के पोषक/ तनिक झोंके से बहुत दहले।“ (पृ0 60)

‘गुम्बदी अस्तित्व‘ जोरदार एवं दमदार आवाज सुन कर दहल जाता है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह हमेशा चिन्तित रहता है। अतः उसका स्वभाव चाटुकारी हो जाता है। लेकिन नई पीढ़ी ऐसे चाटुकारों का प्रतिरोध प्रतिपल करती है। अतः गीतकार ने आगे ठीक लिखा है-“हर लहर प्रति निकट का ही काटती/ धुन्ध के टुकड़े महज़ है बाँटती/ धीर होता वो/ आलाप हो कर/ राग जल की ‘गूँज‘ को सह ले।“

 यह है नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का वैचारिक द्वन्द्व, जो चाटुकारी पुरानी पीढ़ी को परास्त करता है। इसके लिए उसे प्रबल टकराहट की चोट झेलनी पड़ती है। प्रतिरोध के लिए तैयार रहना पड़ता है और त्याग के लिए भी। वास्तव में चाटुकारी जन ‘मेघ नामधारी‘ तो होते हैं, लेकिन उनमें बरसने वाले भापकन नहीं होते हैं। तभी तो गीतकार ने गुनगुनाया है – “मेघ-नामधारी वे भापकन/ रहे भ्रम/ और हम प्यासे रहे/ जैसे रहे पहले/ सूखा पड़ी जमीन से, कौन, क्या, गह ले।“ “घूम कर हर ओर आए/ दरकता मन, शर्त क्यों सह ले।“ (पृ0 61) यह है गीतकार का प्रतिरोध, जो सतही दृष्टिकोण की उपेक्षा करता है।

आइए, अब संकलन के शीर्षक गीत ‘बना रह जख्म/ तू/ ताजा‘ पर विचार करें।

जिस ‘जख्म‘ का अनुभव गीतकार ने किया है, वह प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रतिदिन महसूस करता है। व्यवस्था ने जो जख्म दिया है, वह इसलिए ताजा बना रहे कि जिससे प्रतिरोध का आग शान्त न हो जाए। दुष्यंत कुमार ने भी कहा है – “मेरे सीने में नही तो तेरे सीने में सही/ हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।“ गीतकार सुभाष वसिष्ठ की भी अभिलाषा है कि
 “टूट कर गिर न जाएँ/ 
सहीपन के बिन्दु आकाशी/ 
महज़ कुछ वक्त के टुकड़े/ 
न कर दें गन्ध को बासी/ 
खुली आबादियों के मूल स्वर! छा जा।“(पृ0 64)

‘खुली आबादियो के मूल स्वर‘ से आशय भारत की कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस्त्र जन-गण से है, जो महानगरीय झुग्गी झोपड़ियों में निवास करते है। ‘ताजा जख्म‘ सदैव प्रेरित करता रहेगा कि इस त्रासद व्यवस्था को बदलने के लिए प्रयास करो। एक-जुट हो कर। संगठन बना कर। जनशक्ति पर भरोसा बनाए रखो। गीतकार ने यह अभिलाषा भी व्यक्त की है- “प्रतिबद्धित गीत नहीं टूटेंगे/ कितने ही ठीठ कदम बढ़ जाएँ/ काले काले अक्षर हाथ में लिये।“ (पृ0 53)

आजकल अधिकांश हिन्दी कविता गद्यात्मक होने के कारण नितान्त अपठनीय है।  गिने-चुने कवि ही अपनी कविता  को जीवन से जोड़ कर लयात्मक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी ओर परम्परागत तुकबन्दी भी कविता की गरिमा का क्षरण कर रही है। ऐसे माहौल में डॉ0 सुभाष वसिष्ठ ने धैर्य धारण करके अपने गीतों में कथ्य के अनुरूप कथन-भंगिमा अपनाई है। मुक्त लय का सधा प्रयोग किया है। प्रत्येक गीत के आवयविक गठन पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया है। भाषिक संरचना में प्रतीकों के साथ-साथ आकर्षक एवं गतिशील बिम्बों का समावेश करके व्यक्ति की निजी व्यथा-कथा को सार्वजनिक रूप प्रदान किया है। संकलन के गीतों में डाल पर पके हुए बेल की मधुरता है। ताजा खिले गुलाबों की सुगंध है। अर्थ-गौरव की दृष्टि से संकलन एक बार नहीं अनेक बार पठनीय है। संकलित गीत सच्चे और अच्छे नवगीत हैं। अपनी अलग पहचान लिए हुए।

गीतकार को अच्छी  तरह मालूम है कि वर्तमान  अन्यायी व्यवस्था ने अँधेरों  ने अनखुल जाल बाँधे हैं, लेकन उसे यह विश्वास भी है कि “टूट जाएँगे/ जिनसे/ इन्हें जो मिले काँधें हैं!/ बन्धु! अनखुल जाल बाँधे हैं!!“ (पृ0 62) इस के लिए वह यह सोचता है – “क्या करें (कि)/चटका हुआ मन/ फिर लबालब आस-भर गाए/ क्या करें(कि)/ लँगड़ा मुसाफिर/ लक्ष्य तक/ नित शक्ति-भर धाए/ शुरू जन कर दें सफर तो ध्येय ही हो अन्त।“(पृ0 57)

इस उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में उत्तम  पुरूष सर्वनाम ‘हम‘ समाहित है। ‘हम‘ उत्तम पुरूष इसलिए है कि वह अपने साथ सभी को ले कर चलता है। हम कह सकते हैं कि सुभाष वसिष्ठ ने अपनी निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण किया है। यह रचनात्मक प्रयास श्लाघनीय है।
प्रसंगवश  यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात  उल्लेखनीय है और वह यह है कि अन्य मध्यवर्गीय नवगीतकारों के समान सुभाष वसष्ठि के गीतों  में न तो ग्रामीण परिवेश के प्रति मोह है और न ही पलायन की भावना। प्रमाण के लिए प्रख्यात गीतकार कैलाश  गौतम के एक गीत की अधोलिखित पंक्तियों पर विचार कीजिए।

“गाँव गया था/ गाँव से भागा/ रामराज का हाल देख कर/ पंचायत की चाल देख कर/ आँगन की दीवाल देख कर/ सिर पर आती डाल देख कर/ नदी का पानी लाल देख कर/ और आँख में बाल देखकर।“
विचारणीय बात यह है कि अपने गाँव का शायद यथार्थ देख कर कवि ‘गाँव से भागा‘ क्यों? क्या वह रूक नहीं सकता था? गाँव की सूरत बदलने की योजना उसने क्यों नहीं बनाई। क्या जनशक्ति के प्रति उसकी आस्था में कमी थी। जनशक्ति संगठन के बल से असम्भव को सम्भव कर सकती है और आजकल जहाँ भी अन्याय, अनाचार, शोषण-उत्पीड़न है, वहाँ जनशक्ति सगठित हो रही है।

सुभाष वसिष्ठ ने नाटकों के माध्यम से जनशक्ति  को जगाया है और शोषण का प्रखर  प्रतिरोध गीतों के माध्यम से किया है। इस दृष्टि से उनके नवगीत अन्य गीतकारों से भिन्न हैं। वह ‘ओ पिता‘ शीर्षक गीत में अपना जुझारू व्यक्तित्व इस प्रकार व्यक्त करते हैं – “यह सही है/ पुत्र नामक खून का कतरा/ तुम्हारे हम/ पर, कहाँ यह सिद्ध होता/ खिड़कियों को बन्द कर/ जीतें रहें संभ्रम?/ओ पिता!/ तुमने सदा ही ऋचा बांची है मसीहों की/ और मेरी जिन्दगी व्यामोह हन्ता को रही मरती।“ (पृ0 55) यह ‘व्यामोह‘ क्रूर सत्ता के प्रति अवसरवादी लोग का ‘मोह‘ है जिसे कवि समाप्त करना चाहता है।
और अब यह बात सुनिश्चित है कि इस कुरूप् और क्रूर दुनिया को सुन्दर से सुन्दरतर और सुन्दरतम बनाने के लिए कोई मसीहा  नहीं आएगा; बल्कि दुनिया दो बड़े वर्गों-श्रमिकों एवं कृषकों के त्यागी-तपस्वी एवं विवेकशील नेता ही संगठित लोक-शक्ति से लोकतन्त्र का कल्याणकारी रूप उजागर करेंगे।
यह संकलन  पढ़ने-समझने के बाद हम यह कह सकते हैं कि गीतकार सुभाष  वसिष्ठ ने वर्तमान क्रूर  व्यवस्था का प्रतिरोध करके नवगीत की विधा को एक अभिनव  आयाम प्रदान किया है। जो प्रभावपूर्ण  कथ्य एवं कथन की नई भंगिमा ने भी गीतकार की अद्वितीय छवि  प्रत्यक्ष की है।

संकलन का आवरण गीतों  की अन्तर्वस्तु के अनुरूप है। त्रिआयामी आवरण पर ऊपरी भाग पर रोशनी के पास  मामूली-सा दरवाजा है। मध्य भाग में पुरानी इमारत  की दीवार के साथ गीतकार की वेदना संवलित गम्भीर छवि  है। ऐसा आभास होता है कि वह चिन्ता और चिन्तन दोनों  में मग्न है। और आवरण के निचले भाग महानगरीय कुतुबमीनारी  इमारतें दिखाई पड़ रही  हैं।

वितरकः 
हिन्दी बुक सेन्टर
4/5, आसफअली रोड़, नई दिल्ली- 110002
फोन 011-23274874

(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं )
 

संपर्क-
मोबाईल- 09897482597

प्रेम शंकर सिंह

(चन्दन पाण्डेय) 
 
फरेबी इश्क़ की दास्तान
(चन्दन पांडेय की कहानियां)
चन्दन पांडेय ख्यातिलब्ध युवा कहानीकार है. ‘भूलना’ नाम से एक संग्रह पहले ही प्रकाशित हो चुका है. अभी हाल ही में दूसरा संग्रह ‘इश्क़ फरेब’ नाम से प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में कुल तीन कहानियां हैं- सिटी पब्लिक स्कूल, शहर की खुदाई में क्या कुछ मिलेगा और रिवाल्वर. कहना न होगा कि इस संग्रह में शामिल कहानियों के द्वारा चन्दन ने यह साबित किया है कि वह सिर्फ सादे शिल्प और और गांवों के अमानुषीकरण के रचनाकार नहीं हैं.
संग्रह की पहली कहानी ‘सिटी पब्लिक स्कूल” है. जैसा कि नाम से ही जाहिर है यह महानगरीय “कानवेंट कल्चर” पर फोकस कहानी है. आई मीन इसका थीम यही है. माने कि पूरी कहानी हिन्दी में लेकिन आपको लगे कि हिन्दी नही देवनागरी पढ़ रहे हैं. कहीं कोई भदेसपना नहीं, न ही कोई देसजपना. आप कह ही नही सकते कि यह कहानी उसी बनारस की है जिसमें काशीनाथ सिंह रहते है और कहानी भी लिखते है. किसी को बुरा लगे तो लगे. और कोई लेखक इसकी परवाह क्यों करे और करे भी तो कितनी?
कहानी केन्द्रित  है पब्लिक स्कूल में पढते तीन युवाओं सुजीत, तरुण और निकी (‘यानी निकिता शाह’) के बीच बनने वाले प्रेम त्रिकोण पर जहां कि नरेटर की भूमिका में सुजीत है. किंतु कहानी में अगर सिर्फ यही होता तो शायद कहानी में कोई उल्लेखनीय बात नहीं होती. दरअसल यह कहानी व्यवस्था के अन्दरूनी कमजोरियों के चलते पैदा होते उस युवावर्ग की त्रासदी का बयान है जो नकली और ओढे गये जीवन मूल्यों को ही अपनी हकीकत समझने लगता है. यह कहानी उस परिवेश में पले बढे युवाओं की है जो उस शिक्षा व्यवस्था का शिकार है जो बाहर से जितनी तड़क-भड़क वाली है, भीतर से उतनी ही खोखली है और ‘बेरोजगारों के बीमार कारखाने’ की तरह है. उस बीमार कारखाने से निकला युवा ही इस नई शिक्षण संस्था का अध्यापक है. उसके बारे मे उसके विद्यार्थियों की राय कहानी के पहले ही पैराग्राफ में पता चल जाती है जिसके बारे में नरेटर अंजाने ही कुछ महत्त्वपूर्ण सूचना दे जाता है- ‘ अगर मै फिजिक्स मैम के स्कूल से हट जाने की बात बता दूं दैन यू विल हैव सम डाटा बेस इंफार्मेशन ओनली. पर फिर कभी आप ये सब नहीं जान पायेंगे कि क्यों मैं जितना भी समझदार हूं उससे कम समझ्दार होना चाहता हूं. मेरे स्कूल के टीचर्स स्टुडेंट्स के सामने इतने लाचार क्यों है. और ये भी कि मै कौन ? निकी कौन? तरुण? ग्रुप? ब्लू फिल्म्स? अ किस ऑन ग्रेट लिप्स.’
 
सुजीत निकी के बैग मे जो कुछ भी अपनी मोहब्बत के इजहार का सामान रखता रहा हो, लेकिन निकी सुजीत के बजाय तरुण के साथ ज्यादा फ्रेंडली फील करती थी. इस बात को लेकर सुजीत और तरुण, जो कि अन्यथा बहुत अच्छे मित्र थे, के सम्बन्धों में खटास आना शुरू होती है. सुजीत का मानना था कि- ‘ जब मै निकी के मामले में तरुण से थोड़ा पिछड़ने लगा तो ………. मुझे लगता रहा था, मेरे और तरुण के बीच बाइक्स, बड़ी गाड़ियों और पॉवर फुल फेमिली से ज्यादा डिफरेंस सेल्फ कॉनफिडेंस पैदा कर रहा था. ऐसा तब, जबकि तरुण का रोल नम्बर, टेंथ क्लास के लिए ठीक मेरे पीछे था ताकि वो पास हो सके. दरअसल प्राईवेट स्कूल्स और गवर्नमेंट स्कूल के तमाम डिफरेंस में एक बेसिक डिफरेन्स था जिसमें प्राइवेट स्कूल मैनेजमेंट अपने स्टुडेंट का फार्म ऐसे सीरियल में फिलअप कराता था कि बोर्ड एग्जाम्स में हरेक अच्छे लड़के के पीछे कमजोर लडके का रोल नम्बर हो ताकि कमजोर लड़का कैन गेट सेटिसफैक्टरी मार्क्स’ 
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 एक मित्र जो  दोनो में से किसी की सम्भवित प्रेमिका है, के उपर वर्चस्व और अधिकार के लड़ाई का दिल्चस्प मोड़ तब आता है जब एक दिन प्रेम की राह पर बिगड़े हुए ये बच्चे क्लास में ‘उत्तेजना की लिपटी हंसी’ हस रहे थे और अजीत सर द्वारा रंगे हाथ पकड़ लिए जाते है. लेकिन इनका बिगड़ा आत्म विश्वास यह मान कर चलता है कि पच्चीस हजार रुपए फीस देने वाले किसी बच्चे को पच्चीस सौ रुपये पाने वाले अध्यापक के कहने पर नही निकाला जा सकता. क्योकि सुनारी और ठेकदारी का काम करती आई डाईरेक्टर की फैमिली तो बिजनेस के घाटे को पूरा करने के लिए शेयर मार्केट और स्कूल के बिजनेस में उतर आयी है.इसी लिए तो तरूण जो अमीर घर का बिगडा शाहजादा था,सुजीत को समझाते हुए कहता है कि ‘तुम्हे क्या लगता है, जिसे वो पैसा देते हैं उसके कहने पर वो उसे स्कूल से निकाल देंगे जिससे वो पैसा लेते हैं. गवर्नमेंट स्कूल समझ रखा है क्या.’ माने कि यह जमाने के तमाम गुणा गणित को समझती हुई एक ऐसी पीढ़ी की कथा है जो आने वाले भारत का भविष्य तो है पर अपने भविष्य के प्रति बेपरवाह. लेकिन इन्हे पता है कि श्रद्धा और भक्ति के योग से प्रेम नहीं शून्य बनता है. कहानी की नायिका निकी सुजीत के ‘फेवर’ और तरुण के संह के कारण पैदा हुए ‘अवसर’ में से किसी एक के चुनाव का निर्णय नहीं ले पाती.
दूसरी कहानी “शहर  की खुदाई में क्या कुछ  मिलेगा” में कॉलेज से निकले, विश्वविद्यालय की दहलीज पर प्रेम कर पाये युवा दिलों की प्रेम कहानी है. यह प्रेम कहानी उस दौर की है जब दूरियां किलोमीटर से नहीं घंटों में नापी जाती है . जीवन तथा गमे रोजगार की दिक्कतों को झेलते मेघा और विपुल की इस प्रेम कहानी में एक शहर है ओमानी और एक दूसरा शहर भी है – ‘ एक तो बनारस का मौसम- साला हर वक्त जैसे आत्मा में धूल उड़ती रहती है. चौराहे बेचैन लोगो से भरे रहते हैं.’ प्यार में कैद युवा मन की कई गहरी संवेदना और तमाम उतार चढाव को पार करती यह कहानी इन शहरों के बाहर भी कई शहरो में (भोपाल, दिल्ली, बंगलौर आदि) अपना रंग रूप ढ़ूढ़ती है. पर असुरक्षा और अविश्वास इस प्रेम के पहरेदार हैं और गमे रोजगार इनके यार. जिन्हे अपने घर और परिवार की बेड़िया न रोक पायीं उन्हे इस बात की जरूर चिंता है कि ‘ जीवन में कितना कुछ आपके माफिक नहीं होता.’
कहानीकार ने इस कहानी  में आत्मव्यंग्य का अनूठा  इस्तेमाल किया है. वह विपुल के जरिए यह साबित करना चाहता है कि यह प्रेम कहानी उसकी है. उसके उदाहरण भी देता है- ” जिन दिनों में लेखक ( मशहूर हअहअहअ) बनने की फिराक में था उन्ही दिनों मे हमारे बीच अनुपम का जिक्र आया. वो मेघा को एम. बी. ए. की कोचिंग में मिला था. मैने मेघा का सहज ज्ञान दुरुस्त किया- अनुपम हमें विश्वविद्यालय कैंटीन में सबसे पहले दिन मिला था. मेरी याददाश्त की तारीफ मेघा ने सर पीट कर की, पूरे पागल हो. इतने ध्यान से खुद को पढाई में लगाते जरा.” दरअसल नायक कोई कहानी लिखना चाहता भी नहीं है. उसे तो अपनी प्रेम कहानी कहनी है पर मेघा अगर सुनने को तैयार हो तब. कुल मामला इतना है बस. पर यह कोई इतना आसान मामला नहीं है क्योंकि- ‘दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम/ कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई.’
इसी हड़बड़ाहट में  वह यह लिखता है कि- ‘मेरा लिखना, लिखने की कोशिश जैसा था. मेरे पैर असंतुलित पैर  की तरह बेसम्हाल हो जाते . एक वाक्य सही नहीं पड़ता था. असंतुलन ऐसा था कि पैरों के उठने गिरने का भी सटीक अन्दाजा मुझे नहीं होता था. बेअन्दाज उंचाईयों से मेरे शब्द गिरते तो उनकी एड़ी में बहुत चोट आती थी. जैसे वहां की हड्डी कुचल गई हो. जब मैं कहानी लिखने के ख्याल से उबरा तब तक मेरे पैर ऐसे घायल हो गये थे कि मैं उनका कभी इस्तेमाल ही नहीं कर पाया. मेघा लाख कहती रही
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 मैने लिखना भी  क्या चाहा.अपनी ही कहानी.  आप हंसेंगे. अपनी ही  कहानी का मैं मारा हुआ  था. कहानी से चाह कर  भी मेघा और विपुल का नाम नहीं हटा पाया. कोई दूसरा नाम रखते ही कहानी भूसा हो जाती थी. ‘ और सचमुच पूरी कहानी लेखक ऐसे घायल पैरो के सहारे लिखता रहा.मेघा ने उसे आत्मनिर्भर बनाने की कई कोशिशें की पर उनका परिणाम सिफर था. यह जरूर है कि मेघा और अपने बीच वह अनुपम, शिव, अभिषेक को भी महसूस करता था जो कई बार तो मेघा को ‘मेरी मेघा’ भी आखिर बोल ही देते थे.
उसकी हसरत थी कि विश्वविद्यालय  से छूटा साथ जिन्दगी के किसी मोड़ पर दुबारा मिले, पर ‘अबके हम बिछड़े तो कभी  ख्वाबों में मिलें’ किसी ने यूं ही तो नहीं लिखा था. हशरत आखिर हशरत ही रहती है. विपुल का आत्म स्वीकार है कि ‘साईकिल से कुचले जाते सूखे पत्तों की चरमाराती आवाज़ मेरे भितरघात का पार्श्व संगीत तैयार करती थी. सुनसान और झनझनाती दोपहरी में अच्छे खयालों की गुंजाइश नहीं थी.’ एक अंतहीन इंतजार के बीच लगातार गहराते इस प्रेम कहानी नायक का चरित्र जहां खासी आत्मग्रस्तता का शिकार है वहीं नायिका ज्यादा संजीदा और गम्भीर होने के कारण आकर्षित करती है. लेखक की पिछली कहानियों की अपेक्षा यह एक उल्लेखनीय बात है क्योकि अधिकतर महिला पात्रों का चरित्र चन्दन की कहानियों में नकारात्मक ही है. लेकिन इस कहानी में नायक अपनी दुविधाग्रस्तता और असुरक्षाबोध के कारण नायिका के बारे में तमाम शंकाएं अवश्य पालता है पर इससे उसकी मानसिक दुर्बलता का ही पता चलता है. कहानी का शीर्षक इस नाते भी मह्त्त्वपूर्ण बन जाता है कि सभ्यता के विकास में अग्रणी शहरों में जीवित ऐसी प्रेम कथाओं का अवशेष किसी खुदाई में तो नही मिलेगा क्योंकि वहां तो जीवन को सफलता के मुहावरो में देखने की आदी आंखे होती हैं किसी के इंतजार में खुली आंखें नहीं.
संग्रह की आखिरी  कहानी ‘रिवाल्वर’ है. किंचित लम्बी और इसी कारण थोड़ा बोझिल भी. यह्कहानी कम से कम बीस पेज न लिखे बगैर भी पूरी हो सकती थी. लेकिन शाबाशी देनी होगी लेखक को कि छोटी सी कथावस्तुके भीतर कई आवेगों के सहारे वह इतनी बड़ी कहानी लिख सका.यह सादे शिल्प के भीतर एक चमत्कार पैदा करने की कोशिश का परिणाम है.
 
अपनी प्रेमिका (नीलू) के प्रेम में मार खाये नायक गौतम का मन है कि उसकी वह हत्या करे. और हत्या के लिए वह भी अपने किसी प्रिय की तो सबसे पहले अपने को समझाना पड़ता है कि आखिर उसकी हत्या वह क्यों करना चाहता है. गौतम यह सब कल्पना की मदद से कर लेता है. अपनी आत्मा में नीलू की मृत्यु तो वह पहले ही कर चुका होता है इस तरह- ‘मानो आप आमलेट खा रहे हों, और दारू नहीं पी रहे हों. पर आमलेट का स्वाद स्वायत्त नहीं होता. अगर एक बार आप आपने उसके साथ दारू पी ली हो तो जन्म भर आमलेट आपको शराब के नशे में सराबोर रखेगा और आप शराब न पीते हुए भी उसकी कल्पना के लिए मजबूर हैं. यहां शराब की जगह कभी राहुल, कभी देवब्रत, तो कभी सिद्धार्थ नीच राठी ने ली. एक बार मै कल्पना के रथ पर सवार हुआ तो पाया कि नीलू में हर वो कमी मौजूद है जिसे मैं ढ़ूढ़ना चाहता था. ऐसा करते हुए मै बस इस बात का ख्याल नहीं रख पाया कि कहां सच्छाई खत्म हो रही है और कहां भ्रम शुरू. रही नीलू की बात, तो उसे अपनी कल्पनाओं में पाने के लिए मुझे इधर उधर झांकने की जरूरत नहीं थी.’
लेकिन कथानायक को नीलू से कई शिकायतें थीं. वह प्रेम को लोकतांत्रिक मानने  के नुश्खे को खारिज करता है क्योंकि उसके लिए यह नितांत व्यक्तिगत है. उसे यह गुमान  भी है कि फैज़ जैसा लेखक तो सिर्फ रकीब से सपने में  मिला था, सही में तो सिर्फ  वह मिला. उसे यह भी शिकायत है कि ‘ इनसान बनाने की कीमत पर मेरी याददाश्त को तुमने  गुनाहगार बनाया- उसका सूद  बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया और तब भी मै यह नहीं कह पाया – अगले जनम में. वैसे इस प्रसंग मे कविता के साथ  अगर लेखक (शमशेर) का नाम  लिया जाता तो कोई हर्ज़ न  होता.
विश्वासघात, घृणा और अपराध  की भयानक कशमकश के बीच इस कहानी का विस्तार लगातार एक सस्पेंस बनाये रखता है किंतु किंचित नाटकीयता के साथ. नीलू को लेकर नायक जिस भयानक दुर्भावना से प्रेरित है उसे फैज़ जैसे लेखक से प्रमाण पुष्ट करने का कोई औचित्य नहे है, क्योकि वहां तो उस रकीब को गले लगाने की मंशा है जो अपनी ही (कभी रही) प्रेमिका के हुश्न से बावस्ता है.- तुने देखी है वो पेशानी वो रुखसार वो होठ/ जिन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने/ तुझ पे उट्ठी है वो खोई हुई साहिर आंखें/ तुझको मालूम है क्यों उम्र गवां दी हमने. लेकिन यहां तो उसे विश्वासघात मानकर कत्ल करने पर उतारू है नायक. नायिका के प्रति किसी सम्मान को तो छोड़िए भयानक घृणा से भरा हुआ है वह. वह भी सिर्फ शक -सुबहे की बुनियाद पर. पहले भी चिन्हित किया गया है कि स्त्रियों के प्रति एक नकारात्मक्ता चन्दंके यहां दिखाई पड़ती है पर यहां तो कुछ ज्यादा ही हो गया है… टू मच. नीलू के बारे में यह तो बार बार बताया जाता है कि वह अपने गुप्त स्वार्थों के कारण कई प्रेम करती है किंतु कहीं यह जाहिर नहीं हो पाता कि वे गुप्त स्वार्थ क्या हैं और उन्हे अपने देह सम्बन्धों से वह कैसे पूरा करती है?
और वह रिवाल्वर? जिसे नीलू की हत्या के लिए गौतम खरीदता है. चेखव ने एक बार  कहा था कि अगर नाटक में  मंच पर बन्दूक दिखे तो उसे कहीं न कहीं नाटक के भीतर चलना जरूर चाहिए. यह कहानी जिस तरह की नाटकीय परिणतियों के सहारे चलती है उससे पाठक को यह उम्मीद रहती है कि शायद कहीं रिवाल्वर चले. लेकिन अंत तक यह सिर्फ ‘छुछिया फायर’ ही साबित होता है.

इश्क़ फरेब ( कहानी संग्रह)- चन्दन पांडेय,  पेंगुइन  बुक्स, 2012

 

संपर्क
प्रेम शंकर सिंह,
दयालबाग  एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, 
दयालबाग, आगरा -282005, 
मो- 09415703379

चिंतामणि जोशी

आज साहित्यिक पत्रिकाओं की जहां एक ओर बहुतायत है वहीं अन्य जरूरी विषयों पर पत्रिकाएं इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ती हैं. व्यक्ति और समाज के साथ राष्ट्र को भी एक दिशा देने में इस तरह की पत्रिकाएं अहम् भूमिका निभातीं हैं. शैक्षिक दखल ऐसी ही पत्रिका है जो शैक्षिक नवाचारों पर दृष्टिपात करती है. वस्तुतः शैक्षिक दखल का  यह प्रयास एक सामूहिक प्रयास है, उन लोगों का जो शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाना चाहते हैं. एक लोकतान्त्रिक समाज बनाना चाहते हैं. एक ऐसा समाज जिसमें हर बच्चा अपना बचपन पूरे आनंद और सम्मान के साथ जी सके ताकि जब वह एक वयस्क नागरिक बने तो तमाम कुंठाओं और तनावों से मुक्त जीवन जीते हुए समाज को आगे ले जाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके. हमारा मानना है कि हमारे शिक्षक साथियों के पास नायब शैक्षिक अनुभव हैं जिनका लाभ अन्य शिक्षक साथियों से होता हुआ अंततः बच्चों तक पहुँच सकता है. हमारे अधिकांश अध्यापक विषयवस्तु को बच्चों को आत्मसात करवाने के लिए कोई न कोई नवाचार जरूर करते हैं.  हम चाहते हैं की उनका वह नवाचार उनके विद्यालय तक सीमित न रहे बल्कि देश भर के अध्यापकों तक पहुंचे. शिक्षकों के नवाचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए ‘शैक्षिक दखल’ एक पुल की भूमिका का निर्वहन कर रहा  है. पहली बार पर प्रस्तुत है पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ की कवि एवं शिक्षक चिंतामणि जोशी द्वारा की गयी समीक्षा. 

शैक्षिक सरोकारों को समर्पित ‘शैक्षिक दखल’ का प्रथम वर्ष का प्रथम अंक अभी-अभी आया है.इस पत्रिका के आद्योपांत अध्ययन के उपरान्त मेरे मन  की आँखें इसे आने वाले कल के लिए शैक्षिक मूल्यों के पुनरुत्थान हेतु एक अभियान एवं शैक्षिक गुणवत्ता सुधार हेतु एक आन्दोलन एक रूप में देख रही है.
 
हैं. प्रारम्भ में महेश पुनेठा जी ने पाठ्यपुस्तकों के बोझ तले सिसकती रचनात्मकता का यथार्थ एवं हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।शिक्षा के सिद्धांत एवं नवाचार कहने, सुनने में तो बेहद अच्छे एवं उपयोगी लगते हैं लेकिन उनके व्यवहारगत क्रियान्वयन की स्थिति को यह कथन स्पष्ट कर देता है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वंत्रतता, अवसर की उपलब्धता और चुनौती का घोर अभाव है। बात शिक्षक की हो या बच्चों की वे तमाम तरह के प्रतिबंधों एवं बोझ से दबे हैं। महेश जी के आलेख से एक आम शिक्षक की शिक्षा के प्रति सरोकारों की सुगंध आती प्रतीत होती है।

परिचर्चा के माध्यम से राजीव जी ने जहाँ एक ओर रचनात्मकता एवं स्वतंत्रतता का सम्बन्ध स्पष्ट करने के क्रम में शिक्षकों, विद्यार्थियों, रंगकर्मियों, चिंतकों एवं साहित्यकारों के उपयोगी विचारों का सुंदर समेकन किया है. प्रोफेसर ए. के. जलालुद्दीन से बातचीत भाषा के साथ.साथ सभी शिक्षकों के लिए भी उपयोगी है।

‘वांका’ के रूप में एक गरीब, वंचित बच्चे की शोषण तथा अन्याय से बाहर निकलने की पुकार संवेदनशील मनों को द्रवित तो करती है लेकिन न तो बाबा के पास कोई राह दिखती प्रतीत होती है न ही व्यवस्था के पास. हाँ गुलफाम का किस्सा शिक्षकों व अभिभावकों से वह सब सहजता से कह गया है जिसे गुलफाम न कभी बोल पाया, न कभी किसी को समझा पाया। हमारे परिवेश में तमाम गुलफाम हैं जो शिक्षक, अभिभावक एवं समाज की समझ सकारात्मक होने पर तोलम बनने से बच सकते हैं।

एन सी एफ 2005में अनुशंसा की है विद्यार्थी में अभिब्यक्ति हेतु आत्मविश्वास, दूसरे को सुनने का धैर्य एवं दूसरे के अच्छे विचारों व कार्यों को प्रोत्साहित करने की क्षमता विकसित करनी होगी लेकिन शिक्षक विवेक शाह का कटु अनुभव हमारी सोच, कार्यसंस्कृति एवं व्यवस्था पर कई प्रश्नचिन्ह लगा जाता है।

समाचार पत्रों में शिक्षा जगत की मौजूदगी को दर्शाने वाली ख़बरों का डॉ० दिनेश जी का संकलन प्रशंसनीय हैं। एक कुलबुलाहट होती है, आंखिर वह दिन कब आएगा जब शिक्षा जगत से जुडी अधिकाधिक ख़बरें समाचार माध्यमों में स्थान बनायेंगी.

नजरिया, आते हुए लोग, देखता हूँ पीछे मुड़ कर, अनुभव अपने-.अपने स्तंभों में प्रकाशित सामग्री भी उपयोगी, प्रासंगिक, पठनीय एवं प्रेरणादायक है। अश्वघोष एवं हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताओं के बिना शायद अधूरापन रहता।

और अंत में दिनेश कर्नाटक जी ने अपने आलेख ‘शिक्षा में भय का दुष्चक्र’ में शिक्षक साथियों के मन में व्याप्त भय, शंका और भ्रांतियों से विचारों की श्रृंखला को प्रारंभ कर सकारात्मक प्रवाह के साथ ‘अंत भला तो सब भला’ की तर्ज पर भयमुक्त लोकतान्त्रिक शिक्षा और आनंदालय की धारा से संगम कराने में सफलता पाई है।

चिंतामणि जोशी पिथोरागढ़ में रहते हैं. अच्छे कवि के साथ-साथ एक शिक्षक हैं. सेवारत शिक्षकों के प्रशिक्षण में मुख्य संदर्भदाता के रूप में इनका सक्रिय और प्रभावशाली योगदान रहता है .