सुनीता

इतने दिनों बाद भी प्रेमचंद क्यों प्रासंगिक बने हुए हैं कुछ इसी की तहकीकात में युवा कवियित्री सुनीता ने यह संस्मरण कभी ऐसे ही लिखा था। आज प्रेमचंद जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है यह संस्मरण।  

विमाता,विमाता ही क्यों…?

जिस क्षण बचपन के अँगनाई में पहला कदम बढ़ाया था। उस दम माँ का सीना गर्व से प्रफुल्लित हो उठा था। कोमल हाथों ने जब पहली बार उनको महसूस करके एक मजबूत काम-धंधे से कठोर किन्तु इरादों से अटल अँगुलियों का स्पर्श किया था। उस पल दिल के देश-दुनिया में खुशी की नयी किरण फुट पड़ी थी। आँखों में उम्मीद के ढेरों बादल उमड़ पड़े थे.अपने पैईयां-पैईयां चलने की हड़बडाहट में बार-बार गिरते रहे। लेकिन माँ की खूबसूरत,हिरनी सी निगाहें मेरी हर एक हरकत पर लगी रहीं।

आज औचक ‘प्रेमचंद’ को याद करते हुए, मेरे यादों के बादल बरस रहे हैं। विमाता की दर्दनाक कडुवाहटें कनक की तरह आँखों के सामने चमक बिखेर रहीं हैं। सोचती हूँ ! वास्तव में दूसरी माँ-माँ नहीं बन पाती हैं तो खुद से उलझ जाती हूँ। भावनायें अपने गति से चलती हैं। दिल धौकनी से धड़कने लगते हैं.उत्तर का कोई सिरा हाथ नहीं लगता है।

‘निर्मला’ की निरीहता रह-रह के दिमाग में कौंध जाते हैं।चाह कर भी वह एक कुशल माँ के पदवी को न पा सकी। पति के ताने और पड़ोस के झूठे लांछनों ने उसे उबरने ही नहीं दिया। घुटन के मारे सांसे थम गयीं पर सोच की दुनिया कभी नहीं बदली। ‘निर्मला’ के निर्मल प्यार से सराबोर गंगाराम और मंसाराम का जीवन तजने की सम्मोहिनी अदा स्मृतियों के जंगल में दहाड़ रहे हैं।

सृजन का विशाल आकाश आगोश में समाये हुए। गाँव, घर-परिवार,कुनबा,पड़ोस,यार-दोस्त सब समय-समय पर बिछुड़ते चले गए। आज परछाइयों में एक-एक दृश्य उभर रहे हैं.झुर्रियों से बेहाल चेहरे पर आज चिंता की दूसरी लकीर खींचे चले जा रहे हैं। समय अपने रफ़्तार से एक-एक सरकता जा रहा है। जवानी निरंतर एक नए दहलीज पर तेजी से दस्तक देती रही है।


यौवन के आने से पहले ही लड़कपन में ही साहित्य ने छू लिया था। बुढ़ापे में लाठी टेकने तक बरक़रार रहे। यह बिरले सौभाग्य की बात है। बतकही के बेख़ौफ़ दिन ढलते-ढलते जीवन को ढुलका ही ले जायेंगे। इससे कोई नहीं बच पाया है.31 जुलाई 1880 के हिंडोले में झूलते ललना के पालना को मृत्यु रूपी हवा के तेज झोंके साहित्य मर्मज्ञ मुंशी जी को भी 8 अक्तूबर 1936 में अपने साथ उड़ा ले गए। सम्पूर्ण साहित्य और समाज को मणिकर्णिका घाट के घुटनों में घुलते हुए देखने को विवश किया।

जब-जब उनके कृतियों के साथ शब्दों ने अटखेलियाँ की एक नए इमारत की नींव पड़ी। मुझे आज भी याद आता है जब पहली बार मेरे हाथ ‘ईदगाह’ लगी थी। उसी दिन से मन में दद्दू के प्रति स्नेह के तारे चमक उठे थे। वह बैरा (चंदौली के पास छोटे से आदिवासियों का गाँव) के बीहड़ जंगलों में डील-डामर खेतों में बोये गए फसलों की रखवाली किया करते थे.लिट्टी-चोखा से जीवन गुजारते हुए दुनिया से गुजर गए।

‘ईदगाह’ की चिमटा जागेश्वरनाथ से खरीदने की प्रेणना जो मिली थी। कहानी के मर्मस्पर्शी बुनावट ने पहली सीख के साथ जीवन को एक नयी दुनिया से रु-ब-रु करवाया था। जिसकी कसक आज भी बरक़रार है। दिलचस्प यह है कि इतने उम्र बीतने के बाद भी उस सख्श के सृजन की ताप अब तपाये, सताए और दुरदुराये गए ‘होरी’ के ‘मरजादी’ हुमक के साथ मौजूद है।

‘गोबर’ के गठुआते माहौल से युवाओं के जोश,जूनून और झल्लाहट की झलक आस-पास रोज़-ब-रोज़ नजरों से टकरा जाते हैं। विद्रोह की ज्वाला ‘मरजाद’ के आँगन में आ कर ठिठक जाती हैं। इसी ठहराव से जन्म-मरण की कुलबुलाती यादें बेचैन कर देती हैं। भूख की पीड़ा नीरवता के घनघोर वादियों में व्याकुल हो विचरने लगतीं हैं।

 जहाँ से यातना का सागर हिलोरे लेने लगता है। अतीत के यथार्थ से टकराते ही सब कुछ गर्म तवे पर एक बूंद के मानिंद जीवन की सारी आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, उम्मीदें और सपने छन्न हो जाते हैं। “मेहनत करके अनाज पैदा करो और रूपये मिलें,वह दूसरों को दे दो”…जिनके “घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं,गाँठ में पैसे नहीं है।”

मालती-मेहता के ज्ञान बघारते दर्शन आज हर किसी के जुबान पर चढ़ा हुआ है। अपने बदले हुए स्वरूप में भद्दगी के बियावान में भटक रहे हैं।

‘सोजे वतन’ के जलती प्रतियों के साथ मजबूत होते इरादे का परिणाम रहा की ‘मंगलसूत्र’ की पूरी गांठे नहीं लग पायीं थीं। निर्मम मृत्यु ने धर दबोचा था। लेकिन जीवटता की अनंत गाथाएं इतिहास में दर्ज हो चुकी थीं।

पहचान की पहली यात्रा की शुरुआत धनपत राय श्रीवास्तव नाम से हुई। वह धीरे-धीरे ‘नबाबराय’ के ठोस भूमि पर ‘कहानियों के पिरामिड’ के साथ ही ‘उपन्यास सम्राट’ बन बैठे। यथार्थवादी परम्परा की नींव डालने वाले अपने मित्र ‘मुंशी दयानारायण निगम’ के सुझाव पर अमल करते हुए झट ‘मुंशी प्रेमचन्द’ नाम से उर्दू पत्रिका ‘ज़माना’ में लिखने लगे जो जीवनपर्यंत चला।

साहित्य समाज के संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता, सुधी संपादक और तमाम भाषाओँ के जानकार मुंशी जी जागरूक इंसान थे। बनारस के पांडेयपुर चौराहे से सीधे की ओर ‘लमही’ आज भी लम्बी-लम्बी सांसें ले रहा है। बुद्ध के उपदेशों की सोंधी सुगंध सारनाथ से सीधे आ रही है।

अतीत के यादों के मौजूद साये में यथावत, सृजक की अनुगूँज ध्वनि, निगाहों से दिल तक जाती है। लेकिन आज वहाँ आवाजों के घेरे का कहीं अता-पता नहीं है। माँ आनंदी देवी के पुत,पिता अजायबराय के आँखों के पुतली के अमर पात्र चौराहे पर दस्तक देते मुसाफिरों को दिशा दिखाते मनमोहित कर जाते हैं। सम्मोहन के साहित्य एक नए सृजन को उकसाते हैं। यहीं से मधुर सुर बज उठते हैं। जहाँ से एक नए कहानी, उपन्यास, कविता,एकांकी और नाटक के पात्र कानों में हौले से कुछ सुनगुन कर जाते हैं।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के पहले कहानी के छपने की जद्दोजहद ‘सरस्वती'(1900,काशी,फिर इलाहाबाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी(1903),मासिक) की ओर मुड़कर देखने को बार-बार विवश करते हैं। ‘सरस्वती’ के दिसम्बर अंक में सन 1915 में ‘सौत’ की आहट से पाठकीय परिवारों में खदबदाहट हुई थी.जिसकी उन्मुक्त यादें जेहन में जब्त हैं।

सर्जना के आखिरी दौर में सन 1936 में अंतिम कहानी ‘कफ़न’ की शैय्या पर लेटी हुई मिली। आज जाने-अनजाने में कई माएं,बहने,बेटियां और बुजुर्ग की लाशें सड़क, चौराहे, चौबारे या दूर कहीं, किसी मोड़ पर अपने शिनाख्त और सफ़ेद चादर के इन्तजार में ठंढे पड़े हुए हैं। मुर्दा घरों में जलती लाशों में खुद को खोजते फिर रहे हैं। अपने काँधे पर अपने ही जनाजे को ले कर चलने की रश्म चकाचौध में दिखाई देते ही रहते हैं।

भारतीय साहित्य में विमर्शों की वास्तविक शुरुआत प्रेमचंद की रचनाओं में मुखर हुई थीं। नारी के अंतर्मन की कुलबुलाहट, झल्लाहट और यातना से विरोध की पहली फुहार फड़के थे.जातीयता के दंश से दर्द की उठतीं लहरें इनके रचनाओं से जुबान तक चढ़े थे।

वीरेंद्र यादव जी अपने पुस्तक ‘उपन्यास और वर्चश्व की सत्ता’ में एक स्थान पर लिखते हैं कि “जब उत्तर आधुनिक कुतर्क के चलते कुछ लोगों को ‘प्रेमचंद के गाँव अचानक झूठे लगने लगते’ हो और जब आस्वादपरक आलोचकों को प्रेमचंद की परम्परा के समानान्तर साहित्य की कई परम्पराएँ दिखाई देने लगती हों। वर्तमान समाज व् साहित्य के दलित व् नारी-विमर्श सरीखे ज्वलंत मुददों की निशानदेही भी यदि ‘गोदान’ के माध्यम से की जा सकती हो तो यह पुनर्पाठ और भी प्रासंगिक हो जाता है.जानना यह भी दिलचस्प है कि इतिहास और राष्ट्रीय विमर्श से बेदखल अतीत के जिन निम्नवर्गीय प्रसंगों को इतिहास की  ‘सबाल्टर्न’ धारा ने इस दौर में सहेजने व् रेखांकित करने का कार्य किया है।”

उपरोक्त विवेचनात्मक विश्लेषण से एक बात पुख्ता हो जाती है कि प्रेमचंद कितने बड़े दूरदर्शी इंसान थे। महलों से झोपड़ों तक के दर्द को बखूबी पहचान है। सिर्फ पहचाना ही नहीं बल्कि उस दिशा संकेत के तमाम राहे छोड़ गए। जिसे समझने-समझाने,चिंतन-मनन और मंथन की विशेष आवश्यकता है। प्रेमचंद जी  कहते हैं- “मैं उपन्यास को मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है….सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ भिन्नताएँ होतीं हैं। यही चरित्र सम्बन्धी समानता और भिन्नता-अभिनत्व के भिनत्व और विभिनत्व में अभिनत्व दिखना उपन्यास का मूल कर्तव्य है।” इसी के आस-पास समाज भी ठहरता है। मानवीय मंचन का केन्द्र व्यक्ति खुद है.उसकी अपनी सीमा और सामर्थ्य का ही देन सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और भौगोलिक परिष्कार निर्भर करते हैं।  

प्रेमचंद के अपने विचार में “साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं,बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।” कमोवेश यह बात बिल्कुल सत्य है.साहित्य समाज का आईना है। जिसके तेज निगाहों से कोई भी नहीं बच पाता है। पाप,पुण्य की लेखा-जोखा रखने वाले भी अपने काली करतूतों को गेरुवा वस्त्र में नहीं छिपा पाते हैं।
सन 1921 ई में महात्मा गाँधी जी के नक्से क़दमों पर चलते हुए सरकारी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने तक ‘मर्यादा’ (1909 प्रयाग,कृष्णकान्त मालवीय,मासिक) पत्रिका का संपादन किया। लगभग छः माह तक ‘माधुरी’ (1922 लखनऊ,दुलारेलाल भार्गव,मासिक) में अपनी सेवाएं दी। मन को तसल्ली नहीं मिली। मन के किसी कोने में बैठे साहित्य का बड़ा भण्डार उन्हें बार-बार कुछ और करने के लिए विचलित करता रहा। इसी आत्ममंथन का परिमाण 1930 में बनारस से ‘हंस’ (मासिक,सहयोगी संपादक शिवदान सिंह चौहान, अमृतराय) के उदय के साथ उदित सूरज की पीली किन्तु तेज प्रकाश से साहित्य संसार में एक नए युग की शुरुआत होते हुए देखा गया। जो आज भी अपने मूल रूप से भटकते हुए समय के साथ कदम मिला कर राजेंद्र यादव के संरक्षण में सुखद रहा है।

समाज और साहित्य के प्रति लगाव की गहन पीड़ा अभी भी शांत न हुई थी.1932 में ‘जागरण’ के रूप में एक साप्ताहिक पत्रिका निकाली। 1936 के ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता के साथ एक नए पड़ाव की ओर इशारा किया।
अपने जीवन के रंगमंचीय अनुभव को सन 1915 से कहानी के रूप में ढाल कर इस विधा संसार में कदम रखा। लगभग तीन सौ कहानियां लिखीं। नौ ग्रहों की भांति नौ संग्रहों में संकलित रचनाएँ ‘सप्त सरोज’, नवनिधी, प्रेमपूर्णिमा, प्रेम-पचीसी, प्रेम-प्रतिमा, प्रेम द्वादशी, समरयात्रा, मानसरोवर -8 भागों में विभक्त है। जिसमें मानव जीवन के सारे रंग मौजूद हैं। अपने कथा के बुनावट में झुग्गी-झोपड़ियों से लगायत ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को केन्द्र में रखा। कहीं पर यथार्थ की कटु सच्चाई दिखते हैं,कहीं पर हकीकत के साथ भावना के सागर हिचकोले खाते, उमड़-घुमड़ आते हैं। कहीं-कहीं पर कटाक्ष के बादल मंडराते हैं,कहीं पर व्यंग की त्रिवेणी प्रवाहित होती दिख पड़तीं हैं।

मनः संवेदना पर गहरी छाप छोड़ती कहानियां स्मरण में छाई हुई हैं। बचपन की ‘गिल्ली-डंडा’ की बातें हाकी, क्रिकेट, फुटबाल और बैडमिंटन के जमाने में जीवंत हैं। एक घटना के साथ दर्द का रिश्ता जोड़ बैठी हैं।
खेती, किसानी और अन्न की कहानी प्रागैतिहासिक काल से ही पशुओं-पंक्षियों से जुड़े हुए हैं। ‘दो बैलों की कथा’ की दरकार आज भी सत्य रूप में कायम है।

युगों-युगों से सरपरस्ती की भावनाएं ‘बड़े भाई साहब’ के बरगदी छाँव के साथ अपनी मौजूदगी बनाये हुए है।

हलकू के हलक से बहार निकलते अनाज के दाने आज भी कईयों के हलक में अटके पड़े हैं। जाड़े से ठिठुरते हुए ‘पूस की रात’ गुजारते हुए आस्मां की ओर लगीं उम्मीद की निगाहें कुछ कह रहीं हैं।

जातीयता के भेदभावी ठसक से ‘ठाकुर का कुआ’ ठेठ अंदाज़ में अपनी ठसक बनाये हुए है। ‘सदगति’ की संगीत रह-रह कर सुनाई देती ही रहतीं हैं।‘बूढी काकी’ की अनुभवी और ठोस बातें कानों को कड़वी लगने लगीं हैं। तरुण ताल की ‘तावान’ अब तड़प उठीं हैं। तल्ख़ यादों के पट पछुआ बहा रहे हैं। मन के किसी कोने में कलकलहट मचाएं हुए हैं। ‘विध्वंश’ की विकट स्थितियां और संकट संसार सृजन पर भारी पड़ रही हैं। सम्पूर्ण दुनिया इसके खौफनाक साये में जिन्दा है।

‘दूध का दाम’ दिनों दिन आसमान को चूम रहा है। एक-एक बूंदें कीमती होती जा रही हैं.पानी की मिलावट बदस्तूर जारी है। विकास, अनुसंधान और समाधान के तमाम सुविधाओं के बावजूद सर्पदंश से अधिक अमानवीयता के क्रूर हाथों से जिंदगियां तबाह हो रही हैं। ‘मंत्र’ के तंत्रीय चक्र चल रहे हैं। आधुनिक भगवानों की जमात सड़कों पर पूँजी के लिए नारे लगाते फिर रहे हैं। जीवन की सांसें उखड़ती ही जा रही हैं। गोल्फ खेलने वाले अपने ही दुनिया में बदमस्त हैं। ‘पंच परमेश्वर’ की अचूक तीरें अब दूसरा रुख कर चुकी हैं। खाप पंचायतों के रूप में खुनी-खंजर में तब्दील हो गयीं हैं। ‘शतरंज’ की मनोरंजक विसातें धीरे-धीरे विशाल, विकराल, व्यवसाय और विकल्प का स्थान ग्रहण कर चुकी हैं।

प्रेमचंद जी शुद्ध रूप में उर्दू के व्यक्ति, लेखक और चिन्तक थे। इनकी अधिकांश रचनाएं पहले उर्दू में लिखी हुई हैं तत्पश्चात हिंदी में अनूदित कर प्रकाशित हुई। ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रह्श्य’ नाम से उर्दू के एक साप्ताहिक “आवाज-ए- खल्क” में 8 अक्तूबर 1903 से लेकर 1 फरवरी 1905 तक लगातार धारावाहिक के रूप में छपता रहा। ‘हमखुर्मा  व् हमसबाब’ एक बेहतरीन उपन्यास है जो कि  1907 में ‘प्रेमा’ नाम से हिंदी में प्रकाशित किया गया।  ‘बजारे-हुस्न का हिंदी रुपान्तरण ‘सेवासदन’ के नाम से हुआ। कहा जाता है कि सन 1918 के साथ ही उपन्यास के दुनिया में इनकी पहली पदचाप सुनाई दी थी। यह एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें नारी जीवन के मर्म को बेहद गम्भीर तरीके से व्यक्त किया गया है।  एक सामान्य नारी के वेश्या बनाने के दर्द,पीड़ा, कसक, चुभन, यातना, शर्म, हया और हरकत की दास्ताँ मौजूद है।

रामविलास शर्मा लिखते हैं-“सेवासदन’ में व्यक्त मुख्य समस्या भारतीय नारी की पराधीनता है।” मुझे लगता है यह केवल किसी देश विशेष की परतंत्रता नहीं है, बल्कि आधी आबादी के साथ जो कुछ होता है या हो रहा है उसकी एक बारीक छुवन है जो युगों-युगों से नहीं बदला है।

आज भी एक बच्ची के पिता को उतनी ही गहरी चिंता रहती है, जो कभी निर्मला के पिता को थी। पढ़े-लिखे की जमता भले ही हो लेकिन दकियानुसी सोच की दुनिया आज भी आडम्बरी  उल्कापिंड के इर्दगिर्द ही मंडरा रही है।
पशुओं के जंगल में एक बार व्यक्ति सुरक्षित निकल सकता है लेकिन इंसानी भीड़ भरे जंगल से साबुत बचे रहना कठिन ही नहीं नामुमकिन हैं। इसके ताज़े उदाहरण धनबाद के साहिबा, कश्मीर के पहलगाम और गौहाटी के घटनाक्रम के तौर पर देखें तो कुछ गलत नहीं है…. .

प्रेमचन्द ! प्रेमचन्द ही रहेंगे भले दुनिया में कई दुनिया बस जाए तो क्या…

यादों को टटोलते हुए…सादर नमन !

सुनीता कवियित्री हैं। आजकल दिल्ली के हंसराज कॉलेज में हिन्दी का प्राध्यापन कर रही हैं।  

सम्पर्क-
मोबाईल- 09953535262

सुनीता

शिक्षा से कोसों दूर, वंचित परिस्थितियों में, कंकड़-पत्थरों से घिरे घरों के साये में जीते हुए…
12 जुलाई को चंदौली जिले के छोटे से कस्‍बे चकियाँ के पास दिरेहूँ में जन्मीं डॉ.
सुनीता ने ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता :स्वरूप एवं प्रतिमान’ विषय पर बी.एच.यू. से पीएच.डी., नेट, बी.एड. की हैं. 


अब तक अमर उजाला, मीडिया-विमर्श, मेट्रो उजाला, विंध्य प्रभा, मीडिया खबर, आजमगढ़ लाइव, संभाष्य, हिन्दोस्थान, मनमीत, परमिता, काशिका, अनुकृति, अनुशीलन, शीतलवाणी,
लोकजंग (भोपाल,अख़बार), नव्या आदि में रचनाएँ लेख, कहानी, कविताएँ प्रकाशित हैं.


ई-पेपर/पत्रिकाएं- शब्दांकन, जानकीपुल, लेखक मंच, नयी-पुरानी हलचल, अपनी माटी, चर्चा में, मधेपुरा टुडे आदि.


तनिष्क प्रकाशन से निकली पुस्तक ‘विकास और मुद्दे’ पुस्तक में शोधपत्र   ‘मीडिया, महिला और ब्लॉग’ के नाम से प्रकाशित हुआ. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार,संगोष्ठी में शोधपत्र प्रेषित.
भोजपुरी/मैथिलि अकादमी में मुख्य वक्ता के तौर पर कार्यक्रम में सहभागिता. अकादमिक शिक्षण के दौरान समय-समय पर पुरस्कृत.आकाशवाणी वाराणसी में काव्य वाचन.


तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशनाधीन हैं. पेशे से हिंदी में सहायक प्रोफ़ेसर, हंसराज कॉलेज, नई  दिल्ली

जीवन की सार्थकता किसी के काम आ जाने में होती है। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत यन्त्रणादाई होती है। सबमें यह जज्बा नहीं होता। अक्सर लोग अपने दिखावे के दर्प में चूर रहते हैं। लेकिन एक कवि मन भी अपनी सार्थकता इसी में देखता है। और अगर यह कवि महिला हो तो फिर इस चाहत में राई-रत्ती भी संदेह नहीं किया जा सकता। एक स्त्री रिश्तों के पाट में पिसते हुए भी अपने दायित्व का निर्वहन जिस तरीके से करती है वह अपने-आप में अनूठा है। डाक्टर सुनीता की कवितायें इसी जज्बे से भरी हुई हैं। तो आईये आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर पढते हैं सुनीता की इसी अंदाज की कुछ कवितायें    

विगुल

नन्हें बूँदों ने
बादलों के ख़िलाफ़
विद्रोह का विगुल फूंका है
दरअसल
बूँदों को भय है
अस्तित्व मिट जाने का
वे बादलों में घिरे
संघर्षरत हैं
उन्हें डर है
धरा पर जाते ही
खत्म हो जाएगा
उनका अपना अस्तित्व
नदी में
नालों में
पोखर-तालाबों में
गिरते ही
अवसान हो जाएगा
उनके अपने नाम
जैसे
खत्म हो जाता है
शादी के बाद गुड़िया का
बेटी का
और बहन का
स्थान ले लेता है
एक नया रिश्ता
पत्नी, बहू और देवरानी या जेठानी का
जहाँ से शुरू होता है
एक नया जंग
रिश्तों के मध्य पीसते हुए
या
हँसते जीते हुए

रंग और शब्द

अमावस्या के सघन रात्रि के पश्चात
मध्य प्रहर में
बिखरे काले रंगों ने
शक्ल स्याही की इख्तियार की
आड़े-टेढ़े रेखाओं में गूथे
सृष्टि-सृजन के सारे
रंग-रोगन मौजूद हैं
इस अनूठे कृत्य को
अक्षरों ने नजीर-ऐ-शुक्राने पेश किये
शब्दों ने हौले से
हर्फ़-ब-हर्फ़ पढ़ लिए
दुनिया के चेहरे पर चित्रित
पीड़ा, दर्द,  कसक, कराह और कुँक को
अभाव में जीते
जीवन के युद्ध में संघर्षरत
लूले, बहरे, काने-कुबड़े
जैसे तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं सरीखे
जड़ जमाये
जातिवादी जड़ों और भेदभाव से भरे मरहमों को भी
झुरियों से लिपटे
लहू के तिनकों को भी जज्ब कर लिया
संवेदना में सने वाक्यों ने
कस कर बाजुओं में जकड़ लिया
युगों-युगों से जेहन में बैठे
भय के दरिया छलक उठे
संकोच के बर्फ़ पिघल गए
शब्दों के सफ़र को
बादल पर पड़े काले रंगों के निशान ने
प्रेरणा की परवाज़ दी
दुनियावी
घटित-घटनाओं को इस कदर भींचा
कि
धरती-आसमान की दूरियां मिट गयीं
अबोले भावों ने वेदना के
अदभूत अध्याय लिख दिए
यहीं से रंग और शब्द
अनंत यात्रा पर निकल पड़े

नज़ारे

काले-सफ़ेद चक्षुओं में
जब कभी  
तनहाइयों के मौसम घिरते हैं
एकांत के क्षण बिचलित करते हुए
कुछ और गुनने, बुनने, चुनने लगते हैं
हृदय के घाव
हरे रंगों से मिलते ही
संजीदा हो उठते हैं
ऐसे में नेत्र
प्राकृतिक नज़ारों में डूब जाते हैं
जैसे कोई प्रेमी
अपने प्रेयसी के झील से नैनों में तैरता है
वैसे ही
पहाड़ों से सटा बादल
आलिंगनबद्ध नजर आता है
उसके मेघदूती
छोटे-छोटे रंग-बिरंगे
टुकड़ों में छिटके बादल
हृदय गदगद कर जाते
उनकी आँख-मिचौली भरी हरकतें
ज़रा भी अपरचित नहीं लगतीं
बल्कि
भावप्रवण तन्हाइयों में
अक्सर गुदगुदा जाते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे किसी बाँझ स्त्री के सपनों में
एक नन्हें जिश्म का खेलना, मचलना
और निहोरा करना
औचक
आनंदित, प्रफुल्लित और प्रवाहमय बना देता है
वैसे ही बादलों का
पहाड़ों से मिलना
ऊँचे मोटे दरख्तों के ओट में छुपना
पत्तों से लिपटना
और डालियों से उलझना
सब कुछ ही अहलादित करता है
जब हिमालय में इनको देखते हैं
मुझे भी अपने भूले-बिसरे दिनों के
कुछ अनमोल क्षण 
याद आ जाते
वह बसंत के संग-संग पतंग की तरह
पंख पसारे उड़ना 
फिर किसी भय से डर कर रास्ता बदलना
और समय के चित्रों में उभरे रंगों में खो जाना
सब कुछ वर्तमान हो उठा है

हथेली

रात हथेली में
अंगुली के पोरों में
सूरज को दबाए
सोये रहे
सुबह होने के इन्तजार में
जीव-जन्तु मुख पर आवरण डाले
खोये-खोये से
इधर-उधर बेकल, व्याकुल और बदहवास
बार-बार खिड़की, ताखे, अलमारी और चौखट निहारते रहे
खबर किसी को न थी कि
रात चाँद ने
सूरज को कैद कर लिया था

कभी-कभी

मेरा मौन गाता रहा
कभी-कभी
देख के खुशी भरे पलों को
पलकें मूंदें मुंडेर पर
बैठी कबूतर काग के आने से 
कोलाहल मचाये हुए
कभी-कभी
अंदर से विचलित कर देती है
उलहना देते बर्तन
ठनठना उठते
ठुमकती पायलिया
कंगन से उलझ जाती
जरा शोर कम कर
कभी-कभी 
करुणा कौवे के मुख से अच्छी नहीं लगती  
लोक धुनों में खोये
गोरी धान रोपने में मशगूल
उसे ध्यान ही नहीं
उसके बसन तार-तार हैं
कभी-कभी
जिसमें से जिस्म के सितारे दिख जाते 
उन्हीं पर कुछ दरिंदों की
बहशी निगाहें सफर करने लगतीं 
कभी-कभी
लम्हें भर को सुस्ताते हुए
मटकी के पानी झल्ला उठते 
बार-बार के लटकन से
जैसे कोई स्त्री खेत में बीज बोते-बोते
कमर सीधी करने को उठ खड़ी होती
कभी-कभी
चैत के चमकते धूप
घर में जलते चूल्हे
चौके से उलझते बेलन
रोटी से दो-दो हाथ करते हाथ
हरकत करते कर्ण कुंडल
नथुनों तक आके सहम जाते
कभी-कभी
न बोलते हुए
पेड़ भी बोल देते
कहते हट जाओ
हमें ना छुओ
उस तरह जैसे किसी स्त्री के बदन से खेलते हो
हम तो केवल अनफास (हवा) हैं
जिसे महसूस करो
और जिस्म में ज़ज्ब करो

आओगे 

पर्वतों से ऊँचे महलों में
जब आओगे
मुझे खोजते रह जाओगे
ईट-गारे से रंगे-पुते चेहरे
अब पत्थर दिल हो चुके हैं
वह सादापन कहाँ
जिसमें माँ की लोरियां
पिता की गिलोरियां
और परिवार की नटखट चोरियां रहती थीं 
साथ ही
वह झोपड़ी कहाँ
जिसमें बांस-बल्लियाँ और खरपतवार संग
जीवन के सारे संवेदनात्मक उपकरण
एक-एक धागे से बंधे थे
कहाँ आज महलों में मृत पड़े



दर्पण

गर्दन जब झुकाए
जमी-अस्मा को एक पाया 
छनक के टुटा-फूटा
किरचियां
समेटने निकले
हाथ कुछ न आया
क्योंकि
वह दर्पण था
जो जुड़ न सका

इत्तफाकन

एक डोर ने मजबूती दी थी
जिसके बरअक्स बढ़ते रहे
इत्तफाकन वह आज खुद पतंग है
और मेरे पास डोर का कोई सिरा नहीं
कैसे बचाऊ
जिसे खुद मरने का शौक चर्राया है
 

ठिकाना

शब्दों ने आँखों में ठिकाना ढूंढा लिया
बाहों ने बाहों में निशाना खोज लिया
एक हम हैं
जिसे कोंख ने भी रखना
मुनासिब न समझा
बाह रे जमाने की रवायतें
रश्म अदा की और जिश्म को जिन्दा जला दिया
हम जिसे अपना ठिकाना समझते रहे
उन्होंने ही बेघर कर दिया
हद तो तब है कि
ज़माने में खबर फैला दी
बदचलन थी
बदनामियों के डर से मौत के आगोश में मुखड़ा छुपा लिया
भला,वह दुखड़ा सुनाती किसे
कौन है
उसका अपना
जिसे वह अपना कोना कहे
आधी-आबादी के नाम पर चर्चा है
तीसरी दुनिया के बेदखल
किन्नर कानून के दायरे से भी दूर 
बल्कि
धरा का धरा ही उसका है
उसे युगों से भ्रम है 
जो पल में टूट गये
ठिकाने के ठिकाने अब कुछ न रहे

माँ

मेरे आने के इन्तजार में
ऊन की लोई बनाते हुए
मंद-मंद पवन झकोरे सी  
उसके चेहरे पर
असीम संतोषरूपी सूरज की किरणें खेल रही थीं

तन्हाई के पलों में
यादों की गठरी के
एक-एक गांठों को खोलते हुए
बर्तन अबेरते हुए
एक दिन
यू हीं माँ ने सुना दी

मैंने सहेज कर
डायरी के तीखे पन्नों में रख लिए
क्योंकि
माँ ने अकेले संघर्ष की खाँची ढ़ोते हुए 
ऊन के बंडल में ही मेरे सृजन के अस्तित्व गढ़े थे
जिसमें माँ ने बुनी थी
अनुभूतियों की पहेलियाँ, किस्से, कहानियां और कहावतें

जब कभी अतीत के अँगना में उलझती
दौरी बुनते
बेना बनाते हुए
वे कहती-
पालथी मारते ही तू लात मारती
ठेहुने के बल बैठते ही बल खाती
हुमकते हुए होंठो से खेलने लगती
दो दतिया राधा की तरह चमक उठती
ऐसे में मेरे अनामिका से खेलते 
ऊन की लच्छियाँ छुट जातीं

हौले से मैं इधर-उधर देखती
चोरी न पकड़ी जाए के साथ
उसका स्थान लोरियां ले लेतीं
स्वतः
स्नेह की गंगा लहराने लगती
खेत के मेढ पर दूब से खेलते हुए

संध्या-बेला की प्रतीक्षा में
माँ के बोल बड़े ही सुकून देते
कि
मेरे सृजन संकेत ने 
उसे कितना सहज, सलिल और सौहाद्र से भर दिया था
उसके सोच की दुनिया
उदर के आस-पास ही रहती 
किसी अनहोनी के भय से

आगे के बखान में बांखें खिली उठीं
बड़ी तत्परता से बोलीं
मुझे आज भी याद है
चौखट के पार दलान में
जाता पिसते हुए भी बेख्याल न थी

बल्कि
गेहूं के टुकड़े होते
अस्तित्व के मिटते
द्वार पर लगे नीम के 
फूल-पत्तियों  से बातें करती
तुम्हें सघनता से महसूस करती
कभी-हँसती तो लगता मुझ सा सुखी कोई नहीं

थोड़े ही पल में चुप हो जाती
कहीं मेरी अनदेखी परी 
मेरी नजरों का शिकार न हो जाए 
आकृतियों के मनमोहक रूप
ढ़लते-ढ़लते न रह जाए

इन्हीं उधेड़बुन में
बुन डाले तेरे भविष्य के कई
कमरे, इमारते और महल
तुम्हारे पहले इशारे के साथ

करवट लेते धागे से जब तुम घूमती
मुझे गुदगुदा जाती
उस सुखद याद के साए में सोये हुए
संसार के नए मनु-सतरूपा के रूप में खुद को देख रही थी

मेरे तन्हा सफर में
हमसफ़र, हमनवा और हमदर्द तू थी अलबेली
चुलबुली चुहलबाजियाँ करती हुई 
दिन-रात के थकान के बाद
तेरे हलचल से खुद को आह्लादित किया

चैन के नींद में भी तुझे
बाहों के झूले में झुला कर
सुलाते हुए
सोने के अभिनय में गुम रही
जैसे चाँद चकोर के चक्कर में
रात-भर तफरीह करते हुए
बादलों में कसमसाते हुए करवट बदलती रही

प्रसव-पीड़ा के प्रहार को
कामदेव के बाण की तरह
रोम-रोम प्रेम में डूब गये
मेरी व्याकुलता
तेरे अप्रत्यक्ष सवालों से रोमांचित
रूह-रूह मधु मुस्कान से भरे थे
आगमन के आनंद ने
सब कुछ भुला दिया

जो परिस्थितियों के ऊन में दफ्न हैं
ऊन के धागों को उधेड़ने की जरूरत नहीं
नन्हीं जान ने जख्म को भर दिया

डबडबाई आँखें
ख़ुशी के मारे ढुलक गयीं
कुछ समय के लिए
सबको लगा
मैं दुखी हूँ
तेरे आने के आहट से

दर्द के लब खामोश थे
ख़ुशी के तरंग तार छेड़ रहे थे
किसी साजिंदे की तरह
कुछ क्षण के लिए
तू !
निगाहों से दूर थी
मन अंदेश से भरा हुआ
क्या हो गया ?
कोई कुछ बोल,क्यों नहीं रहा
कहीं तेरा ठंढा जिस्म 

ठंढक के मारे कठुवाया तो नहीं है

इन्हें भ्रम हो कि तू
शिव के त्रिशूल के लिए नहीं
कमलनयनी के नैनों की आभा है
तेरे प्राकृतिक पदचाप ने
मुझमें धैर्य, धीरज और धर्म के कई रूप भर दिए
कहीं रुनझुन करते नटवर नन्द किशोर
कहीं पग पायलिया बांधें मीरा
तो कहीं
अपने अदृश्य प्रेमी के याद में
तल्लीन महादेवी की छवि उभरी

एक साथ कई-कई प्रतिभाएं
तेरे छोटे से मांस-मज्जा में बंद
नीले-नीले नसों में दौड़ते रगों में दिखे
असह वेदना के बाद भी
रात के विस्मित पहर में 
मुखमंडल दमक रहे थे
इस उम्मीद में कि जाने कौन हैं ?
इस रूप में…

भ्रमण करते वो ख्याल
कुरुक्षेत्र से इन्द्रासन
पानीपत से हिमालय
मिटटी से जूझते किसान
लकड़ी बांधते लकडहारे
मृदंग बजाते बजनिये
बाँसुरी में बिराजती सरस्वती
और अप्सराओं के पैरों में थिरकते घुंघरू
रुनझुन करती निंदिया सी मृदु

औचक !
तू चीख उठी
फूलों से खेलते माली के हाथों में चूभे काँटें
मगर
खुश्बू के ज़द में ज़ख्म भूले
हिलोर मारते सागर के लहरों की तरह
छलछला उठीं आँखें

प्रसव के पहाड़ी बर्फ़ पिघल गये
तू मेरी ज्योति बन
आ गयी मेरे आँचल में
ऊन-सलाई शर्म से हट गये
माँ-बेटी के मिलन का पहर था
जैसे कभी गौरी शिव
सीता से राम
और राधा से श्याम मिले थे
मगर मीरा को भी समा लिए थे

प्रेयसी और माँ में यही फर्क है
वह किसी को भी अपना सकती है
लेकिन
दर्द देते, सुई चुभोते
नश्तर को परे ही रखती

बादलों ने उमंग के गीत गाये
फुहारें खिड़की,दरवाज़ों को फलांगते हुए
मेरे मासूम कलि के मखमली
सिरहाने के आगे हुमकने लगे

जलन साफ़ दिख रही थी
यह मेरा अहसास था
माँ जो ठहरी
पल में मेरा वहम टूट गया
वह तो
मंगलगान के लिए उतावले थे
 
वीणा के उद्घृत स्वर
ऊँचे-ऊँचे और ऊँचे होने लगे
धरा हरियाली से हरा-हरा
और मैं सुर्ख गुलाब के पंखुड़ियों सी
और तू सरसों के पीले-पीले पुष्पों से मिलती-जुलती

क्या संयोग था
आसमान के नीले रंगों में
सूरज के पीले रंग
धरती के हरियाली में सरसों का फूलना

स्वेटर की बुनाई भूल बैठी
तेरे क्षण-क्षण की हरकतें
छुट न जाएँ
इससे पहले ही त्याज दिया
तेरे-मेरे मध्य आने वाले धागों को

अंकवार में लेने की इच्छा
अनुभूति को तृप्त करते तेरे स्पर्श
तू मृगतृष्णा थी
खुद को यशोदा समझने की कोशिश में कराह उठती
क्योंकि
तेरे आने के ख़ुशी ने कुछ कहा ही नहीं

आने के बाद
चीर-फाड़ के हिस्से
टभकने लगते
उसी टीस  में टूटे रिश्ते जोर मारते
पोर-पोर पिराने लगता
झट
तुझे अपने से परे करती
मगर और तेज
आगोस में भींच लेती

तेरे आने, होने और बनने में 
एक हिस्सा उसका भी है
जो अब नहीं है…

शायद
इसलिए तेरी नन्हीं बाहें राहत दे रही थीं  
तू नहीं समझेगी
मैं समझा नहीं सकती..

मेरे उम्र में आना
फिर
जिस्म के जिस्म को महसूसना
स्वयं में मुझे पाओगी

पलकें उनीदीं हैं
नन्हें कदम कमजोर हैं
साधने की कोशिश में
जूते, चपल्लें और चोटियाँ फंदे गूँथ रही थी
ऊन के उन्हीं धागों से

जिसे तूने ही उठाने को उकसाया
पिता के न होने पर गुदगुदाया
होंठो पर प्रेमगीत सजाया
आँखों में लोरियों के रंग भरे
माँग में भविष्य के मोती पिरोये
उच्चारण के ककहरा सिखाने के प्रफुल्लता ने
सब्र बक्से..
  
स्मृतियों के टुकड़े सम्भालने लगी
सीख के तौर पर सौपने हेतु
अतीत के रंग-बिरंगे
खट्टे-मीठे कतरनों को जोड़ते हुए
हर जरुरी समान जुटा लिए
तुझे समझाने के लिए उदहारण भी रखे
लक्षणा,व्यंजना के भाव गाछे

बकवा बनना  
पैरों पर रेंगना
और फिर दौड़ते जामने के साथ कदम मिलाना
चुन-चुन के संजोये
हर उम्र के चादर

चकोर डिजाइन ने चौदह पार किये
सोलहवें बसंत ने महुआ के रस सौंप दिये
मैं देख रही थी
ऊन के गोले में तब्दील होते
तेरे जिस्म को भी

लड़कपन के अल्हड़ता ने
संजीदगी के उजलेपन में
उद्देश्य की रेखाएं चिन्हित किये
तू खुद से
जिम्मेदारी उठाने के जिद करने लगी

अचानक
मेरे ख्वाब टूटे
जैसे ही तूने कहाँ
माँ घर चलें…

.