स्त्रियों को देखने का हमारे समाज का नजरिया एक अरसे से रुढ़िवादी ही रहा है। इसके प्रतिपक्ष में आवाजें पहले भी उठती रही हैं। आज यह आवाज और पुख्तगी के साथ सामने आ रही है। बदलाव की लहर को रोक पाना अब संभव नहीं। सुजाता ने अपनी कविताओं में प्रायः ही स्त्री की इस पीड़ा को उस आवाज की पुख्तगी के साथ-साथ व्यक्त किया है। सुजाता की काव्य पंक्तियों का ही सहारा ले कर कहें तो ‘नदियां रास्ता बदलने से पहले तुम्हे पूछेंगी भी नहीं/ वे भूलेंगी जब अपना नदी होना …।’ तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं युवा स्वर सुजाता की कुछ नवीनतम कविताएँ।
सुजाता की कविताएँ
दिन के अंत तक
ऊबी हुई सांस
आने – जाने से उकताई हुई
जैसे वृद्धा साँझ!
मैं कुछ नहीं कमाती
दिन के अंत तक
दिन के अंत तक
कूपन भरती हूँ–
मुझे मिलता है एक वृत्ताकार समय!
मुझे मिलता है एक वृत्ताकार समय!
जो जाना है वही आना भी है कहीं से
जाती हूँ कल में ठीक वैसे जैसे जाऊंगी कल में…
जाती हूँ कल में ठीक वैसे जैसे जाऊंगी कल में…
जो मुझ में भरते हैं नफरत और क्षोभ
उन्हें दूर से देख मुस्कुराती हूँ
उन्हें दूर से देख मुस्कुराती हूँ
किसी रात चुपचाप निथार देती हूँ पानी
अंकुरित हुए दानों का अब गड़ने का समय है
गलने का नहीं …
भूलना
सोना भूलती हूँ
तो जगना बचा रहता है
जागती हूँ
तो जागे रहना भूला रहता है अगली नींद तक
कहती हूँ -थोड़ी देर बस !
और देर तक भूली रहती हूँ भरोसा खुद पर
पानी होती हूँ तो भूला रहता है खुद का पत्थर होना
मुझे निकलना था कहीं और भूल जाता है सही वक़्त
दहलीज़ पर खड़ी थी
और मुझे रुकते हुए चलना भूल गया शायद
किसी चितेरे ने बैकग्राउंड बदल दिया है
किसी चपल चतुर ने हिलाए बिना सिक्का
खींच ली नीचे से चादर मेज़ की
कोई बजाए चुटकी … ओवर !
धड़ल्ले से तह हो जाएंगे पहाड़ सिमट जाएंगे धरती की अलमारी में
नदियां रास्ता बदलने से पहले तुम्हे पूछेंगी भी नहीं
वे भूलेंगी जब अपना नदी होना …
नींद एक नदी थी
पाँयचे मोड़ कर
चढा लिया था उनींदा मन
उस लम्हे में उतरते
कि जब आंखों के जानने से पहले
कि जब आंखों के जानने से पहले
बदल जाती है दुनिया
कह सकता है कोई
किसी को सोया हुआ जिस वक़्त
किसी मछली सा फिसल जाता है छन का वह सौंवा हिस्सा
आंखें बंद ही मिलती हैं खुलने से पहले
आह ! डूबना ही बेहतर
जब दिन शुरु हो शाम से और
गहराती धुंध सी शाम
सर्द रात तक चले
तारों के टूटने की गवाही भी देने के लिए
सतह पर आना न चाहे कोई
तारों के टूटने की गवाही भी देने के लिए
सतह पर आना न चाहे कोई
हज़ार रस्सियाँ उधर से फेंकी जाएँ
तो भी लौटना न चाहे कोई
उस पार की सुबह में
तो भी लौटना न चाहे कोई
उस पार की सुबह में
इसे नष्ट हो जाना तो नहीं कहोगे !
साज़िश
ये न कहना कि दम न था पाँवों में मेरे
यह साज़िश हो सकती है रेत और पानी की
कि जब भी पीछे मुड़ कर देखा मैंने
अपना कोई निशां नही पाया
यह साज़िश हो सकती है रेत और पानी की
कि जब भी पीछे मुड़ कर देखा मैंने
अपना कोई निशां नही पाया
मेरी नींद पर अंकित हैं सभी चुम्बन तुम्हारे
चाँद के उगते हुए
और सूरज के डूबने के साथ
एक प्रतीक्षा
मैं लिख रही हूँ
तुम्हारी राहों पर
अपनी पलकों पर
जागते
नींद में।
उसी दिन से ।
उसी दिन ,जाते हुए कुछ शब्द
तुम्हारी मशक से छलक गये थे ।
वे दिन भर खेलते रहे
मेरे आँचल से ।
मै सहलाती रही
उनकी चोटियाँ गूँथते
उनका उन्नत भाल।
उनकी साँसों की नन्ही आँच
भरती रही मेरे सीने में उछाह।
तुम लौटोगे जब
वे सो जाएंगे तब तक उसी उछाह भरे सीने में।
क्या कहूँ तुम्हे!
इतने शब्दों में भी
नही पाई कोई संज्ञा तुम्हारे लिए
बस पाया तुम्हें ही ।
…
कोई रहस्य प्रकृति का
विज्ञान के नियम कुछ
जीवन के दर्शन
सिद्धांत और मीमांसाएँ
सब लिए लौटोगे जब आखेटक प्रिय मेरे !
मेरी आँखों का समंदर
तुम्हारे चुम्बनों की प्रतीक्षा में आलोड़ित होगा।
…
किसी आड़े वक़्त के लिए
पूरा नही खर्चा था धीरज
जैसे व्यय नही होने दिया कभी अनाज,जल,धन
मैंने बचा लिया था खुद को भी थोड़ा
उन वक़्तों के लिए
जब लौटोगे तुम खाली
किसी दिन
मेरी प्रतीक्षा में विकल ।
ऐसे ही छिपा लिए थे कई बार
तुमसे छिपकर
तकिए के नीचे
तुम्हारे सभी चुम्बन
जो अंकित हैं मेरी नींद पर!
वे मेरी निधि हैं !
मौसम बदलते
समृद्धियाँ अभाव हो जाती हैं ।
मेरे सिद्ध पुरुष ! शब्दों का चुक जाना
तुमने अभी जाना है ढलान से उतरते हुए।
सुरक्षित हैं मेरे संगीत में लेकिन
देखो , सभी आलिंगन तुम्हारे।
शब्द से निश्शब्द की यात्रा ही
चरम आनंद है जीवन का।
सम्पर्क –
ई-मेल : chokherbali78@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)