पद्मनाभ गौतम की कहानी सानो बैंक

पद्मनाभ गौतम

‘सानो बैंक’ मूलतः पद्मनाभ गौतम की पहली कहानी है। लेकिन अपनी पहली इस पहली ही कहानी में पद्मनाभ मजबूत धरातल पर खड़े नजर आते हैं। उनमें भविष्य का एक ऐसा कथाकार है जो आज छिन्न भिन्न होते जा रहे समाज, देश और परम्पराओं की हकीकत से भलीभांति वाकिफ है। इस कहानीकार को प्रवास और प्रवासी का मतलब ही नहीं वह दर्द भी मालूम है जो वह आजीवन अपने साथ लिए जीने को अभिशप्त होता है। और तमाम बदलावों के बावजूद एक बार ठप्पे की तरह लग गए ‘सानो बैंक’ का नाम अंत तक नहीं छूटतातो आइए पढ़ते हैं युवा कथाकार पद्मनाभ की कहानी ‘सानो बैंक’         

सानो बैंक  
                                 
पद्मनाभ गौतम       


सुबह से अब तक कोई ग्राहक नहीं आया दुकान पर। यह बरसात का दिन है। बरसात है, इसलिए मन को यह सांत्वना है कि ग्राहक क्यों नही आया, अन्यथा आजकल तो मनहूसियत के साथ ही रोजी का आरंभ होता है। इस समय बाजार में रेनकोट पहने व छतरियाँ ओढ़े लोग ही अधिक दिख रहे हैं। सिंगटाम की झमाझम बरसात में बाहर निकलने का मतलब है कि जाने वाले का कहीं जाना जरूरी है। सुबह के समय इन में स्कूली बच्चों के अतिरिक्त बहुतायत में सरकारी दफ्तरों, दवा कम्पनियों, जल-विद्युत परियोजनाओं में कार्य करने वाले कर्मचारी होते हैं। इन कर्मचारियों को देख कर उसके कलेजे में हूक सी उठा करती। खुशनसीब हैं ये लोग! सुबह काम पर निकलते हैं, शाम को इत्मीनान से घर आ जाते हैं। इनके सर पर कल की चिन्ता सवार नहीं होती है। महीने के अंत में बंधी-बंधाई तनख्वाह मिल जाती है। काम पर जाने का मन नहीं होता तो छुट्टी ले लेते हैं। कभी बच्चों को साथ लेकर सरम्सा पार्क निकल जाते हैं, तो कभी कलिम्पोंग साइंस सेन्टर। कभी हँसते-गाते समूह बना कर दार्जिलिंग घूम आते हैं, तो कभी नामची-गंगटोक। साल में एक बार एल.टी.ए. के बूते दूर देश भी घूम आते हैं। किस्मतवाली हैं इनकी संतानें, जिन्हें अपने पिताओं का समय मिलता है। क्या कहते हैं उसे, ‘क्वालिटी टाइम’ – ऐसा ही कुछ उसने अखबार के एक लेख में पढ़ा था। उसमें यह भी लिखा था कि बच्चों के समग्र मानसिक विकास के लिए ‘क्वालिटी टाइमदेना जरूरी है। क्वालिटी टाइम की याद आते ही उसका मुँह कड़वा हो गया। बेटी कब से सरम्सा पार्क जाने की जिद कर रही है, पर उसे तो समय ही नहीं है। फालतू पैसा भी नहीं कि किसी तरह समय निकाल कर उसे घुमाने ले जाया जाए। उसकी मास्टरनी ने कुछ पढ़ा दिया है वनस्पति-विज्ञान में, साथ में यह भी कि सरम्सा पार्क में बहुत से पेड़ हैं, जिनमें से हर एक पर उनका नाम लिखा है, बोटैनिकल भी और लोकल भी। वहाँ घूमने जाओ और दस प्रकार के पेड़ों के पत्ते तोड़ कर उनका नाम-जाति सब लिख कर लाओ। तब से सरम्सा जाने की जिद लगाए बैठी है। लेकिन वह जानता है कि यह जिद नहीं, बल्कि उसकी जरूरत है। आखिर यह स्कूल वाले बच्चों से बेकार के धंधे करवाते ही क्यों हैं। बच्चे भी परेशान होते हैं और माँ-बाप भी। कुछ लोगों से पूछा तो पता चला कि कुछ नहीं है वहाँ, कुछ पेड़-पौधे हैं जिन पर जंगल महकमे वालों ने नामों की तख्तियाँ लगा रखी हैं। वहाँ कुछ परिवार पिकनिक मनाने आते हैं, तो झाड़ियों की ओट में प्रेमी जोड़े एक-दूसरे को प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। सुन कर उसका मन खराब हो गया। उधर बेटी मुँह फुलाए बैठी है कि आखिर रानीपूल है ही कितना दूर सिंगटाम बाजार से।
पिछले साल स्कूल की ओर से उसकी बेटी की कक्षा के लिए बैंगलुरू का शैक्षणिक भ्रमण रखा गया था। पैसों की तंगी के कारण उसने मना कर दिया। कितना रोई थी बेटी! रूठ कर कई दिनों तक उसने पापा से बात भी नहीं की थी। उसे स्कूल वालों पर क्रोध आता –‘भला यह कौन सी पढ़ाई है, जो बिना खर्चे के पूरी ही नहीं होती।आज दस पत्ते तोड़ने के लिए सरम्सा जाओ, कल बर्फ का तापमान लेने नाथुला या दार्जिलिंग जाना होगा। पर उसे फुर्सत ही कहाँ। बुधवार को जिस दिन सिंगटाम बाजार बन्द होता है, उस दिन बेटी को छुट्टी नहीं मिलती। उसी दिन तो उसे माल खरीदने सिलीगुड़ी भी जाना पड़ता है। इन दिनों महाजन या तो रकम बैंक में जमा करने पर माल भेजते हैं या फिर नगद ले कर खुद जाना पड़ता है खरीदने। दिन लद गए जब माल रखने की चिरौरी करते गुमाश्ते आते थे और एक क्या दो-तीन कलम का उधार दे जाते थे। माल बेचते रहो, पैसे चुकाते रहो। पर अब तो खुद जा कर माल न खरीदो तो जाने क्या भेज दे। ज्यादा तकरार की तो माल भेजना बन्द। सारी खरीददारी नगद, पन्द्रह दिनों की मियाद भी नहीं। तो बुधवार को तो मुश्किल है जाना। उधर रविवार को जब बेटी की छुट्टी होती है, तब उसे दुकान से फुर्सत नहीं मिलती। वह इस मंदी में एक दिन भी दुकान बंद रखने की नहीं सोच सकता है। फिर मान लो कि एक बार का मामला हो तो दुकान किसी के भरोसे छोड़ कर वह बेटी के साथ चला भी जाए। लेकिन वह दुकान किसके भरोसे छोड़ेगा? घर में कोई नहीं जो हाथ बँटाए। बाहर कोई विश्वासपात्र आदमी मिलना मुश्किल है। उसने जितने भी आदमी रखे, सारे बेईमान निकले। यह बात वह यकीन के साथ कह सकता है। यदि कोई आदमी ईमानदार मिला तो वह इतना मुँहफट और बदतमीज कि उसे लगता जैसे स्वयं वह दुकान का नौकर है और वह कारिंदा मालिक। उसके सामने दो ही रास्ते थे- या तो थोड़ी बहुत चोरी-चकारी स्वीकार कर ले या फिर अकेला खटता रहे दुकान पर। फिर कर्मचारी रखने का मतलब आमदनी हो न हो परंतु कर्मचारी को समय पर वेतन देना जरूरी है। इस लिए अकेले काम करना उसकी मजबूरी थी। इस वजह से कितने ही नाते रिश्तेदारों के घर शादी-ब्याह जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर भी नहीं पहुँच पाया, जिसके लिए रिश्तेदार भी उससे नाराज ही रहते। ‘राजस्थान जा कर ब्याह में शामिल होना आसान है भला? काश कि वह भी औरों की तरह नौकरी करता तो कितना बढ़िया होता!’- वह सोचता।
वह सिक्किम का मूल निवासी नहीं है। उसके दादा राजस्थान के बीकानर से यहाँ आए थे। दादा यहाँ आए थे कि दूसरे मारवाड़ियों की तरह वे भी यहाँ चाय बागान खरीदेंगे और अपनी संतानों के लिए सात पीढ़ियों की पूँजी छोड़ कर जाएँगे। लेकिन दादा का सपना पूरा नहीं हुआ। दादा ने यहाँ सिंगटाम बाजार में ब्याज का काम शुरू कर दिया। दुकान का नाम था ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द। झाबरमल्ल दादा का और पीतमचन्द उसके पिता का। लेकिन ब्याज के धंधे के कारण दुकान को लोग ‘सानो बैंककहते। नेपाली भाषा में सानो का अर्थ है छोटा। ऋण लेने के तमाम पेचीदा नियमों वाले बड़े सरकारी बैंक से बचने का विकल्प बना ‘सानो बैंक। आरंभ में तो दुकान पर ब्याज का काम खूब चला, क्योंकि पहाड़ की तो प्रवृत्ति ही मौज-मजे और राग-रंग की होती है और इसके लिए लोग ब्याज पर रुपए उधार लेने से परहेज नही करते। परंतु धीरे-धीरे दुकान की लईमारी बढ़ने लगी और एक दिन ऐसा आया कि दादा की सारी पूँजी लाल बही के सफेद कागजों पर जा चढ़ी तथा तिजोरी में रूपयों के स्थान पर बही-खाते बैठ गए।
लेकिन मारवाड़ी को दोबारा पनपने के लिए बस श्वांस ही चाहिए, यदि वह बच गई तो फिर वह खड़ा हो ही जाता है। दादा ने बचे हुए पैसों से चायपत्ती की दुकान खोली। आस-पास के चाय बागानों की चाय को खुदरा और थोक बेचने का काम था। अब ‘झाबरमल्ल पीतमचंद के सामने ‘चियापत्ती दोकान और जुड़ गया, परंतु दुकान का चालू नाम अब भी ‘सानो बैंकही था। लेकिन सानो बैंक में ब्याज का काम अब बन्द हो चुका था। दादा हमेशा कहते कि बेटा नौकरी करना तो हमारा काम नहीं, हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही शोभता है, न उससे कम और न ज्यादा। लेकिन दादा का यह नया काम भी औसत ही चल पाया। फिर दादा के बाद पिता भी कोई बड़ा उपक्रम नहीं कर पाए, और एक दिन उसे विरासत में यह दुकान मिल गई। सिलीगुड़ी से अकाउंट में ग्रेजुएशन करने के बाद उसे भी पिता के काम में हाथ बँटाना पड़ा। पूरी तरह से व्यापार अपने हाथों में आने के बाद उसका मन इस चाय के व्यापार में नहीं लगा। यह भी कोई काम है। धीरे-धीरे उसने चाय पत्ती का स्टॉक चुकता कर खेल के सामानों की बिक्री आरंभ कर दी। दुकान का नाम रखा ‘एच.के.स्पोर्ट्स। ‘एच.के.अर्थात् हरीश कुमार, उसका अपना नाम। मोहवश उसने ‘झाबरमल्ल पीतमचंद चियापत्ती दोकानका बोर्ड नहीं हटाया, हालाँकि अब दुकान में चाय की पत्ती नहीं के बराबर बिका करती थी। नेशनल पावर कम्पनी, निजी जल विद्युत कम्पनियों तथा दवा कम्पनियों के कर्मचारियों की खरीददारी के बूते दुकान ठीक-ठाक चलने लगी। सिक्किम खेलों को पसन्द करने वाला राज्य है। भारतीय टीम का कप्तान बाईचुंग भूटिया सिक्किम का ही रहने वाला है। सिक्किम के बच्चे होश सम्भालते ही पहली जिद फुटबाल के जूतों की करते हैं। अतः खेल के सामानों की बिक्री ठीक होगी, यह सोच कर उसने खेल के सामानों की दुकान खोली। परंतु उसे इसका अनुमान नहीं था कि यह अधिक समय तक नहीं चलने वाला। जब तक 2008 की मंदी नहीं आई तब तक उसे क्या बड़े-बड़े विशेषज्ञों को भी इसका अनुमान नहीं था।
कुछ सालों तक अच्छा चलने के बाद अब दुकान की बिक्री में अब वह बात नहीं रह गई थी। लगातार सात सालों की मंदी ने किसी न किसी तरह से हर किसी को परेशान कर दिया। उसकी आमदनी भी अब पहले जैसी नहीं रह गई थी। नेशनल पावर कम्पनी का प्रोजेक्ट पूरा हो गया था और उसमें अब प्लांट चलाने वाले मुठ्ठी भर कर्मचारी ही शेष रह गए थे। दूसरी पावर कम्पनियाँ 2008 की पहली मंदी तो किसी तरह झेल गईं थी पर मंदी का डबल डिप (दूसरा दौर) आते-आते सब की सब बैठ गईं। जो सब्ज-बाग दिखा कर दलालों ने कम्पनियों को दोगुने दामों पर प्रोजेक्ट दिलाए थे, वह असलियत अब सामने आ रही थी। आधी परियोजना बनते-बनते कम्पनियों को बैंकों से मिलने वाले ऋण की समूची राशि गड़प हो गई। आगे बैंकों ने अनुपात से अधिक पैसे देने से इंकार कर दिया था। अधबनी परियोजनाओं से अब कर्मचारियों की छँटनी आरम्भ हो गई। परियोजनाओं में केवल तकवारी करने वाले नाममात्र के कर्मचारी ही शेष रह गए, जिनमें अधिकांश वह थे जो किसी राजनेता के रसूख से कम्पनियों में घुसे थे तथा जिनका निकलना केवल तब सम्भव था, जब कि परियोजना किसी अन्य कम्पनी के हाथों बिक जाती अथवा बैंक उसकी कुर्की कर लेते। यह तो भला हो कि दवा कम्पनियों का काम जारी है, जिससे कि इलाके की आमदनी कुछ हद तक बरकरार है। खाने-जीने भर का मिल जा रहा है। दवा कम्पनियों का काम भी ठीक है! आदमी आधे पेट खा कर जी सकता है, लेकिन आधी दवा खाकर नहीं। इनका काम तो चलता ही रहता है। कुल मिलाकर सिंगटाम बाजार में अब वह रौनक नहीं थी जो सन् दो हजार पाँच से दस के बीच बनी हुई थी। ‘एच.के.स्पोर्ट्सकी आमदनी पर भी असर पड़ गया। जरूरी कामों के लिए जमा-पूँजी को हाथ लगाना पड़ रहा था। खुदा न खास्ता कोई बड़ा खर्च आन पड़ा तब? वह घबरा कर सोचना बन्द कर देता। 
बरसात कम हो गई थी, और उसके साथ ही काम पर जाने वालों की भीड़ भी। केवल गोल-चक्कर के पास छतरी के नीचे खड़ा श्रीवास्तव अपनी सिगरेट फूँक रहा था। उसकी गाड़ी अब भी नहीं आई थी। वह अपने साहब की स्कार्पियो गाड़ी में पीछे बैठ कर दफ्तर जाता है। उसने श्रीवास्तव को देख कर मुँह बनाया। श्रीवास्तव भी उसकी ही तरह सिक्किम का निवासी नहीं है। उसके पिता शीलवंत श्रीवास्तव बिहार के अररिया से सिक्किम आए थे। शीलवंत भी उसके दादा और पिता की तरह ‘सिक्किम सब्जेक्ट नहीं थे। यानी वे भी 1972 में सिक्किम राज्य के भारत में विलय से पूर्व, सिक्किम के राजा की प्रजा-पंजी में दर्ज नहीं थे। वे केवल प्रमाणपत्र प्राप्त निवासी थे, तथा उनके पास भी उसकी तरह ही ‘रेसिडेंस सर्टीफिकेटही था। ‘रेसिडेंस सर्टीफिकेटअर्थात् सिक्किम में रह कर व्यापार व नौकरी करने की अनुमति, परंतु स्थाई निवास हेतु भूमि खरीदने की पात्रता नहीं। शीलवंत नामची के चाय बागान में क्लर्क थे, परंतु जाने कैसे उनका यह आवारा लौंडा इंजीनियरिंग पढ़ कर नेशनल पावर कंपनी में जूनियर इंजीनियर हो गया। फिर 2003 की तेजी में उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी व निजी जल विद्युत परियोजना बनाने वाली कम्पनी जल-भारत में मोटी तन्ख्वाह पर उप-प्रबंधक हो गया। ठसके तो देखो इसके! उसने श्रीवास्तव की ओर चिढ़ कर देखा जिसकी फिल्टर वाली सिगरेट उंगलियों के पानी से भीग कर बीच से मुड़ गई थी, लेकिन जोर लगा कर वह उसके कश अब भी खींचे जा रहा था। महसूस हुआ जैसे उसे कुछ हासिल नहीं हो रहा। काश कि वह भी इस श्रीवास्तव की तरह नौकरीपेशा होता, तो वह भी इस समय इत्मीनान से सिगरेट फूँकता दफ्तर की गाड़ी का इंतजार कर रहा होता!
उसने सोच बदलने को अखबार उठाया। यह सिलीगुड़ी से आने वाला हिन्दी अखबार है। सिक्किम से प्रकाशित अखबारों में स्थानीय व एजेंसी से मिले समाचार ही अधिक होते हैं। इसलिए वह इस अखबार को खरीदता है जिसमें मुख्य-भूमि की खबरों के साथ-साथ उसका हिन्दी का भी अभ्यास बना रहता है। अखबार का पहला पृष्ठ देखते ही उसका मन दुख से भर गया। पहले पृष्ठ पर ही एक किसान की आत्महत्या की तस्वीर थी। उसकी गर्दन झूल कर लम्बी हो गई थी। तस्वीर में लाश के चेहरे को धुँधला कर दिया गया था। फोटो दोनों एंगल से लिया गया था, सामने व बगल से। धोती-कुर्ता पहने किसान की मृत देह देख कर वह सन्न रह गया। ओला-वृष्टि में फसल बर्बाद होने के कारण कर्ज में डूबे किसान ने आत्महत्या कर ली थी। इस साल यह कर्ज में डूबे किसान की आठवीं आत्महत्या है। जाने क्या हो गया है कि पिछले कुछ दिनों से किसानों की आत्महत्या दर बढ़ती जा रही है। आंध्र प्रदेश, फिर विदर्भ और अब हरियाणा। हे ईश्वर, हरियाणा जैसे राज्य में भी, जो कि देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है? एक-डेढ़ दशक पहले तक तो ऐसी खबरें नहीं आतीं थीं कि किसी किसान ने आत्महत्या कर ली। तस्वीर में किसान की हवा में लटकती हुई देह देख कर उसकी आंखें भर आईं। काश, बेचारा मजदूर ही बन जाता। उसने बचपन में मुंशी प्रेमचंद की कहानी पढ़ी थी ‘पूस की रात। ‘पूस की रातमें हल्कू ने भी तो किसान से मजदूर बनना स्वीकार किया था। ये बेचारे भी हल्कू ही बन जाते। कम से कम छोटे-छोटे बच्चे अनाथ तो नहीं होते। क्या इन किसानों को मजदूर बनने का अपमान बर्दाश्त नही हुआ? आँख बन्द करते हुए उसने गहरी श्वाँस ली। परंतु बन्द आँखों के सामने उस किसान की ही तस्वीर घूम रही थी। तस्वीर में किसान का चेहरा धुँधला था, लेकिन बाकी सब बिल्कुल साफ। उसे लगा कि उसके सामने वह चेहरा अचानक साफ होता जा रहा है। अब उस किसान की देह पर उसे धोती-कुर्ता नहीं, बल्कि कमीज-पतलून दिख रही थी। उसका बदन कँपकँपा गया। यह सिंगटाम की बरसाती सुबह नहीं बल्कि पूस की रात है, जिसकी ठंडक उसकी हड्डियों में घुसती जा रही है।
अचानक आवाज सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई। सामने एक महिला थी, जिसे अपने लड़के के लिए फुटबाल के जूते खरीदने थे। उसने जबरिया जिद करके चार सौ रुपयों के जूते दौ सौ पचहत्तर रुपयों में खरीद लिए। उसे मुनाफे में केवल पच्चीस रुपए मिले। यदि वह ईमानदारी से जूतों का दाम तीन सौ रूपए रखता, तो महिला उसे डेढ़ सौ रुपयों में ही खरीदने की कोशिश करती। कैसे घटिया मोल-भाव का बाजार है सिंगटाम, सोचते हुए बेचैनी के साथ उसके हृदय में टीस भी हो रही थी। 
महिला के जाने के बाद वह फिर से अखबार के पन्ने पलटने लगा। अब उसके सामने अखबार का आठवाँ पन्ना था- अर्थ-जगत की खबरों वाला। ‘सेन्सेक्स ने तोड़ा ऑल टाईम हाई का रिकार्ड। ‘यह हिन्दी अखबार है’!- उसने भुनभुनाते हुए अपने-आप से कहा। यहाँ हिन्दी भी अँगरेजी में बोली जा रही। उधर खबर कह रही थी कि बॉम्बे स्टाक एक्सचेंज का सेन्सेक्स अपने अब तक के सर्वोच्च शिखर पर है। औद्योगिक उत्पादन का आँकड़ा भी सुधार पर है। बेरोजगारी के आँकड़े भी सुधरे हैं। उसे बैचैनी हुई। जब देश की तरक्की पटरी पर लौट आई है, तब यह दौलत जा कहाँ रही। उसने अपने गल्ले की ओर देखा। पच्चीस रुपए मुनाफे में जूतों की लागत, दुकान का किराया, बिजली, नेताओं का चन्दा सारा कुछ शामिल था। उसे बेचैनी हुई, जैसे गले में कुछ फँस रहा हो और वह ठीक से श्वाँस नहीं ले पा रहा। उसके सामने रस्सी से लटकते किसान का चेहरा घूम रहा था। ओला-वृष्टि से नष्ट हुई फसल में किसान की फसल की लागत भी नहीं वसूल हो पाई थी। यह मुनाफा भी तो उसकी फसल है! वह क्या करे? दादा के बोल उसके कानों में गूंज रहे थे- ‘हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही शोभता है। उस किसान ने भी ऐसा ही सोचा होगा, किसान को किसानी ही शोभती है। खेत बिकने का अपमान नहीं सहन कर पाया होगा दुखियारा।  
शाम को जब दो सौ पचहत्तर रूपए जेब में लेकर वह घर गया तो उसकी आँखों में सरम्सा पार्क के वृक्ष घूम रहे थे। हरे-भरे पेड़, बोटैनिकल नामों वाले पेड़। ‘इस तेजपत्ते का बोटैनिकल नाम जानते हो पापा गृह कार्य करती बेटी की आवाज आई। 
  
जाने कैसा समय है! अब उसने अखबार खरीदना बन्द कर एक सस्ता ‘स्मार्ट-फोनरख लिया था, जिसमें उसे इन्टरनेट से समाचार पत्रों की खबरें मिल जातीं। पचहत्तर रूपए का एक ‘जीबीडाटा डलवा कर उसे ‘बी बी सी हिन्दी.इन की खबरों से ले कर समाचार पत्रों की सुर्खियाँ तक हासिल हो जातीं। कागज के अखबार का महीने का खर्चा तो अब सौ रुपए पार कर जाता है। लेकिन अब दुकानदारी में रस-भास नहीं था। हालात दिनों-दिन बदतर होते जा रहे थे। किसे मिल रहे हैं ‘इकनामिक रिकवरीके संकेत? उसे तो नहीं! जैसे-तैसे कर के किसी तरह उसका घर-खर्च चल रहा था। भला हो उस गृहणी का जो इतनी तकलीफों के बाद भी उफ तक नहीं बोलती अपितु ढाढ़स ही बँधाती है। खुद पीको-फाल का काम करके बच्ची की फीस का इंतजाम कर लेती है। उसे आश्चर्य होता कि जाने क्यों लोग महिलाओं को पारिवारिक दुखों का ‘इपीसेन्टरबताते हैं। कम से कम उसकी पत्नी तो उन में से नहीं, जिनका रोज ‘फेसबुकऔर ‘वाट्सअपपर मजाक उड़ाया जाता है।
 
जब कभी सेन्सेक्स नीचे गिरता तो उसे सान्त्वना मिलती कि उसकी दुकान की मंदी भी सेन्सेक्स से जुड़ी है। सेन्सेक्स को चढ़ता देख कर उसे लगता कि यह उसके समस्त दुखों के अंत का संकेत है। किंतु जब सेन्सेक्स चढ़ान पर होता, तब दुकान की बिक्री नहीं बढ़ती। टी.वी. पर सुनता है कि देश का बजट और चालू खाता घाटा कम हो रहा था। उत्पादन के आँकड़े ‘आई आई पीजो गिरे थे, वह दोगुने उठ गए हैं। लेकिन यह सामान बेच कौन रहा। ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द चियापत्ती दोकान उर्फ एच.के.स्पोर्टसतो कतई नहीं – उसने सोचा। अब उसने यह मानना आरंभ कर दिया था कि ‘सेन्सेक्सउस जैसों की तरक्की का इंडेक्स नहीं है। सेन्सेक्स जिनकी तरक्की का इंडेक्स है, उनके देह की धोवन से देश के बाकी तीन-चौथाई लोगों की अर्थव्यवस्था का इंडेक्स बनता है। तीन-चौथाई क्या नब्बे फीसदी लोगों का इंडेक्स। देह की धोवन जितनी ज्यादा निकलेगी, उस जैसों की तरक्की उतनी ज्यादा होगी। पर इन दिनों तो दुकान का किराया देना भी मुश्किल होता जा रहा। सिंगटाम में दुकानों के किराए भी अनाप-शनाप बढ़ गए हैं। दुकानें स्थानीय-जनों की हैं, अतः मनमाना किराया बढ़ाने पर भी रूलिंग पार्टी का समर्थन मकान-मालिक को ही मिलता है। वह तो ‘रेसिडेंसियल सर्टीफिकेट होल्डरहै, बढ़ा किराया देना है तो दे अन्यथा दुकान खाली कर चलता बने। जहाँ दादा-पिता ने जिंदगी खपा दी, वहाँ से केवल एक वाक्य में बेदखल किया जा सकता है उसको! कहाँ चला जाए वह- बीकानेर? वहाँ जाकर खाएगा क्या, रेगिस्तान की धूल? माल खरीदने के लिए सिलीगुड़ी आते-जाते जब कभी उसकी निगाह दार्जिलिंग के चायपत्ती बागान के बड़े बोर्ड पर जाती तो मन मसोस कर सोचता ‘काश, दादा ने राजस्थान की जमीन बेच कर दार्जिलिंग में एक छोटा सा चाय-बागान ही खरीद लिया होता। पर छोटे चाय बागानों की हालत याद कर उसे इसका अफसोस भी न रह जाता। उसे दुख होता कि दादा ने राजस्थान की अपनी जायदाद अपने भाइयों के लिए छोड़ दी, वह होती तो बेच-भाँज कर रुपए पोस्ट-आफिस में जमा कर देता। कम-से-कम नियमित ब्याज मिलने से दाना-पानी की तो फिकर नहीं रह जाती। तब अनायास ही उसकी आँखों के सामने रस्सी पर लटके किसान की तस्वीर उभर जाती। फिर वह देखता कि उस किसान के धोती-कुर्ते कमीज और पतलून में बदल रहे हैं। इन दिनों उसे उस किसान का चेहरा धुँधला नहीं दिखाई देता था। उसे लगता जैसे कि वह उसका अपना चेहरा है, और वह बेचैन हो जाता। उसे लगता कि वह अपनी कनपटी पर पिस्तौल रख कर घोड़ा दबा रहा। एक तेज आवाज, फिर सब कुछ शांत। उसके सर को फाड़ कर निकली गोली उसके दुख-दर्द भी ले गई। या फिर वह रेल कीं पाँत पर गर्दन रख कर लेटे हुए है, रेल आती है और करीने से उसकी गर्दन काट कर उसके जीवन के साथ-साथ उसके दुख भी समाप्त कर देती है। फिर कोई तकलीफ नहीं। किंतु क्या मर कर भी उसकी समस्याएँ खत्म होंगी? मर कर क्या वह बेटी को दार्जिलिंग का ‘हिम-शिखरघुमा पाएगा, या उसको ‘बतासेको रेलदिखा पाएगा। पास की किसी दुकान में चल रहे टेलिविजन पर फिल्म पीपली लाइव के अंत का निरगुन बज रहा था ‘चोला माटी के हो राम, एकर का भरोसा चोला माटी केऽऽऽ ….’। क्या था उस किसान का नाम? नत्था दास मानिकपुरी, हाँ वह नत्था ही तो है। एच.के. स्पोर्ट्स का मालिक हरीश कुमार नहीं है वह। पर क्या उसकी आत्महत्या पर भी कोई मुआवजा है
एक शाम घर पहुँचने पर उसने देखा कि पत्नी उदास है तथा बेटी चुपचाप सर झुकाए होमवर्क कर रही है। बेटी बड़ी तकलीफ से लिख पा रही थी। उसने बेटी का हाथ देखा- उस पर डस्टर से मारे जाने के निशान थे, नीले-नीले निशान। बेटी जिस पर उसने कभी हाथ नहीं उठाया था। इन दिनों कोई अब उसे कुछ बताता भी नहीं। परंतु उसे बिना पूछे जवाब मिल गया था- ‘सरम्सा पार्क। उसकी आंखों में जंगली वृक्ष घूम गए, जिन पर लगी तख्तियों पर बोटैनिकल नामों के साथ-साथ उनके लोकल नाम भी लिखे थे। उसमें से किसी एक सख्त वृक्ष से बने डस्टर से उसकी प्यारी बेटी को पीटा गया था। उसका बोटैनिकल नाम क्या होगा? रात भर वह सोया नहीं। उसकी आंखों में केवल सरम्सा पार्क घूमता रहा और बेटी की गदेलियों पर उपटे नीले-नीले निशान। 
अगले दिन उसने जल-भारत कम्पनी के ड्राईवर हरि को दुकान की बगल की पान दुकान पर पान खाते हुए किसी से बातें करते सुना- ‘मेचुअल फण्ड लिए थे साल भर पहले, एक सौ पच्चीस रूपए का ढाई सौ हो गया। अब तो शेयर में ट्रेड भी कर रहे हैं’। हरि ड्राईवर, ‘जल-भारतकम्पनी का ड्राईवर जो नौकरी करके बारह हजार रूपए कमाता है, होटलों में सिलेण्डर ब्लैक करके तथा दुकानों में मिनरल वाटर रीफिल सप्लाई करके बीस-पचीस हजार दीगर कमा लेता है। अब तो वह ट्रेड भी करता है! उसने मन में सोचा- ‘म्यूचुअल फण्ड तो ठीक से बोल नहीं सकता, लेकिन बातें देखो, ट्रेड करता है’! ‘कैसा ट्रेड है इसका, न दर -न दुकान, ना कोई सामान! पर पान ऐसे खाता है, जैसे चाय बागान का साहू’! ‘और मैं, उसने अपनी दुकान के बोर्ड की ओर देखा – ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द चियापत्ती दोकान उर्फ एच.के.स्पोर्ट्स। लोग अब तक जिसे ‘सानो बैंक ही पुकारते थे, वहाँ पैसा था कहाँ! उसके जी में आया कि हरि से पूछे, क्या उसकी कम्पनी में एक और ड्राईवर की जगह भी खाली है?
वह ऐसा ही एक और उदासी भरा दिन था। शाम हो आई परंतु ग्राहकी में जोर नहीं था। उपर से हरि ड्राइवर की बातों ने मन दुखी कर दिया था। देर शाम दुकान पर नेशनल पावर कम्पनी का अफसर आया, बैडमिन्टन का रैकेट खरीदने। उसने एक महँगे बैडमिन्टन रैकेट का दाम पूछा। ‘एक हजार पचास’, उसके मुँह से दाम सुन कर उसने बुरा सा मुँह बनाया- ‘आपको पता है ‘ऑनलाइनयह कितने में मिलता है। आपके दाम और ‘ऑनलाइनदाम में बहुत फर्क है। ‘ऑनलाइनयह छह सौ पचास रुपए में मिलता है’- यह कहते समय उसके अंदाज में ज्ञान का घमंड तथा दुकानदार से दिखावटी नाराजगी दोनों ही झलक रहे थे। ‘आप वहीं से मँगा लीजिए’- उसने कुछ उदास स्वर में जवाब दिया। इस पर अफसर ने नर्म होते हुए कहा कि सात सौ रूपए में रैकेट बेचने पर वह यह रैकेट खरीद लेगा, अभी के अभी। लेकिन उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। वह कुछ नहीं कहना चाहता था। यह भी नहीं कि ऑनलाइन वेबसाइट सीधे कम्पनी से लेकर माल बेचती है, जबकि उस तक पहुँचने वाला माल न जाने कितने बिचौलियों के हाथों होकर गुजरता है। वह नहीं बोलना चाहता था कि वह बैडमिन्टन उसे आठ सौ पचास रुपए का पड़ा है। वह नहीं बोलना चाहता था कि उससे ऑनलाइन कम्पनियों का मुकाबला नहीं हो सकेगा। नहीं, वह कुछ नहीं कहना चाहता था। उससे कुछ कहा भी नहीं जा रहा था। जैसे उसका गला फँस रहा हो, जैसे कोई रस्सी उसे दबा रही हो। लेकिन अचानक उसका चेहरा सख्त हो गया, जैसे वह किसी निर्णय पर पहुँच गया हो। उसने एक गहरी लेकिन मजबूत आवाज में कहा- ‘ठीक है सर, आप सात सौ ही दीजिए। उसने अफसर को सात सौ रुपयों में बैडमिंटन बेच दिया। अफसर ने जाते हुए कहा- ‘समय बदल रहा है। अब आप भी कम मार्जिन पर सामान बेचिये, रुपए का रोटेशन ज्यादा कीजिए। किंतु जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। वह अब तक उन सात सौ रूपयों को हाथों में पकड़े हुए गहन सोच में डूबा हुआ था। उसे लगा जैसे वे रुपए नहीं, हल्कू के कुत्ते जबरा की देह है, जिसे वह पूस की रात में बाँहों में भर कर सो रहा है। उसकी दुकान, दुकान नहीं जोत-बो कर पोसा हुआ खेत है, जिसे नीलगाएँ चरती जा रही हैं। वह भी हल्कू की तरह नीलगायों को रोक नहीं रहा। उसे रस्सी पर टँगी किसान की लाश दिख रही थी, हल्कू का खेत दिख रहा था, उसे नत्था दास मानिकपुरी दिख रहा था। उसे इन सबके बीच हरीश कुमार भी दिख रहा था। एच. के. स्पोर्ट्स का प्रोपराइटर हरीश कुमार। 
रात घर जाते समय उसने बेटी की पसंद की चॉकलेट खरीदी। चॉकलेट देते हुए उसने बच्ची के हाथों को देखा जिन पर अब भी हल्के नीले निशान बाकी थे। घर पर वह आम तौर पर चुप रहता था, परंतु उस रात उसने हल्के मूड में पत्नी से बहुत देर तक बातें की जैसे उसके सर से कोई बोझ उतर गया हो। बस सोते हुए उसने पत्नी से कुछ अजीब से अंदाज में कहा ‘जानती हो, हम तो मारवाड़ी हैं, हमें ब्यौपार ही शोभता है। न उससे कम न उससे ज्यादा। फिर पलट कर सो गया। उस बात में क्या अर्थ छिपा था, पत्नी ज़रा भी न समझ पाई।
अगली सुबह उसकी दुकान नहीं खुली। कई दिनों तक उसे किसी ने नहीं देखा। जान-पहचान वालों ने पता करना चाहा पर उसके के दरवाजे पर ताला लगा मिला। किसी ने कहा कि वह वापस राजस्थान चला गया। फिर एक दिन लोगों ने उसे देखा, सिंगटाम बाजार में एक दवा कम्पनी की बस की प्रतीक्षा करते। उसके बचपन के दोस्त गोमा गुरुँग ने, जो सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से उस इलाके की कंपनियों का को-ऑर्डिनेटर नियुक्त था, अपने रसूख से एक दवा कम्पनी में उसे ‘जूनियर अकाउंटेंटलगवा दिया था। सत्रह हजार रुपए महीने की पगार पर। दुकान का माल महाजन उठा ले गए, बकाया बराबर करने को। बचा-खुचा उसने औने-पौने दामों पर बेच दिया। पर ‘झाबरमल्ल पीतमचन्द चियापत्ती दोकान का बोर्ड उससे उतारा नहीं गया। वह उसने अपने मकान-मालिक को ही दे दिया। हाँ, उसने बगल में लगी ‘एच.के.स्पोर्ट्सकी तख्ती बेदर्दी से खींच कर जरूर निकाल दी थी। उसके भीतर के मारवाड़ी ने आत्महत्या कर ली थी। 
अब काम पर जाने के लिए बस स्टाप पर वह और श्रीवास्तव दोनों एक साथ प्रतीक्षा करते हैं। श्रीवास्तव कभी-कभी उसे सिगरेट ऑफर करता है, जो कि अब बिना फिल्टर की है। वह पूरी विनम्रता के साथ इंकार कर देता है। बस की प्रतीक्षा करते हुए वह अब भी उस दुकान को देखता है, जो कि अब उसकी नहीं रही। दुकान का पुकारू नाम अब भी ‘सानो बैंकही है।

सम्पर्क-
पद्मनाभ गौतम
द्वारा- श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूलपारा, बैकुण्ठपुर, जिला- कोरिया (छत्तीसगढ़)
पिन- 497335
संपर्क – 9425580020, 8170028306
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

मोहन नागर के कविता संग्रह ‘छूटे गाँव की चिरैया‘ पर पद्मनाभ गौतम की समीक्षा –

युवा कवि मोहन नागर का पहला कविता संग्रह अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। मोहन के इस संग्रह में एक नयी ताजगी और धार स्पष्ट ही देखी जा सकती है. इसकी एक समीक्षा हमारे कवि मित्र पद्मनाभ ने लिख भेजी है। पद्मनाभ की यह समीक्षा इस मायने में भी अहम् है कि यह इनके द्वारा लिखी गयी पहली समीक्षा है। तो आईये देखते-पढ़ते हैं पद्मनाभ की यह समीक्षा।     

  
लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् डा. मोहन नागर का कविता संग्रह ‘छूटे गांव की चिरैया‘ हस्तगत हुआ। वैसे तो संग्रह समय पर ही घर पहुंच गया था पर इसे अरुणाचल की राम भरोसे डाक सेवा के हवाले करने की हिम्मत नहीं थी, अतः सदैव की तरह गृह-नगर यात्रा पर ही यह हाथों में आ पाया। पाते ही पूरा पढ़ गया। वैसे तो डा. नागर की कविताएं मेरे लिए नयी नहीं है व संग्रह की अधिकांश कविताएं पूर्व में पढ़ी हुई हैं, किंतु एक संग्रह के रूप में इन्हें पढ़ने पर उनके अब तक के रचनाकर्म को समग्र रूप से पढ़ने-महसूसने का अवसर मिला। यह कविता संग्रह वस्तुतः डॉ. नागर की चार दशकों की जीवन यात्रा का दस्तावेज अधिक है। मां, बूढ़ी नानी, बहन-भाई के साथ बिताए कठिन समय की यादें, पिता के असमय अवसान व परिजनों के द्वारा परित्याग की पीड़ा, सूखी चमड़ियां, कुपोषण से फूले पेट, गोठान-गौसारे, चूल्हा-गांकड़े,चिड़िया-चुग्गा, भूख और जीवन संघर्ष, अकसर इन्हीं विषयों-बिंबों के इर्द-गिर्द का संसार बुनती हुई कविताओं का संग्रह है ”छूटे गांव की चिरैया”। पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् इसके आमुख कथन में व्यक्त हरिशंकर अग्रवाल जी की इस बात से पूर्ण सहमति बनती है कि यहां कविताओं से क्रांति करने का बड़बोलापन नहीं हैं। किंतु मूलतः अपनी निजी अनुभूतियों को कविता का विषय बनाते हुए भी डॉ. नागर की कविताएं व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतुष्टि का तीव्र सामूहिक स्वर बनती जाती हैं। इन्हें पढ़ते हुए इस असमानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था पर क्षोभ उत्पन्न होता है। यद्यपि डॉ नागर कहीं भी किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का घोष नहीं करते परंतु संग्रह को पूरा पढ़ने के पश्चात् इन कविताओं का वर्गीकरण अपने आप ही हो जाता है। सीधी-सरल भाषा में लिखी इन जनपक्षधर कविताओं में इतनी प्रबल संप्रेषणीयता है कि वे सीधे पाठक के हृदय को छूती हैं तथा उसे ठहर कर सोचने को विवश करती हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इन कविताओं को गूढ़ प्रतीकों-बिंबों से अटी-पटी कविताओं की तरह ”डी-कोड” कर समझने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह कविताएं डॉ. नागर के स्वभाव की तरह ही खुली व मुखर हैं।

इस संग्रह के पूर्वार्द्ध की कविताएं डा. मोहन के बचपन की स्मृतियों से जुड़ी हैं। जहां एक ओर वे अभावग्रस्त जीवन की तकलीफों का चित्र बनाती हैं, वहीं वे उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण विखंडित होते परिवारों व गांवों से रोजगार हेतु शहर पलायन करने की विवशता का भी बयान हैं। कविता ‘मां-2’ में कवि मां के उस अंतर्द्वंद का चित्रण करता है जो अपने बच्चे को निर्दय बन कर सांसारिक नियमों से परिचित कराती है, उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है, परंतु कठोरता के कवच के भीतर चुपचाप संतान से विछोह की पीड़ा का दाह भी भोगती है

बच्चों का क्या है
लड़ भिड़ कर जीना सीख ही लेंगे
और फिर जीते रहे
तो, मेरी ही तरह समझेंगे जब
 कभी लौट कर आएंगे ही – (मां-2, पृष्ठ-14)

कविता चिड़िया में अपने बच्चों को उड़ना सिखाती चिड़िया के माध्यम से कवि की यही पीड़ा प्रकट होती है –

”चिड़िया अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही है
ऐसा करते समय खुश है
कि उसका बेटा भी
एक दिन बहुत दूर उड़ पाएगा
और दुःखी यह सोच कर
कि पंख उग आने पर यही बेटा
एक दिन उसे छोड़ कर
दूर बहुत दूर उड़ जाएगा- (चिड़िया-1, पृ.-15)

रात-दिन दौड भाग करते कामकाजी पति-पत्नी और स्कूल के होमवर्क तले दबे बच्चों के साथ रह कर हाशिए पर जाते बुजुर्गों की जिंदगी को कवि की संवेदना बखूबी महसूसती है कविता ”मांई खुश है शायद” में। तब जब किसी के पास मांई के लिए वक्त नहीं हैं माई ने रेडियो को अपना साथी बनाया है। एकांत की इस पीड़ा को बखूबी महसूसती है यह कविता –

”इन दिनों न झाड़ू की खर्र-खर्र
ना मोंगरी की फच्च-फच्च
ना 6 की सुई पर
कामकाजी बहू-बेटे का इंतजार

रेडियों की आड़ में दिन भर झाड़ू फटका
रात जूठे बर्तनों पर
कहरवा के सम पर फिरता मांई का बूचड़ा
इन दिनों  मांई खुश है शायद
खुश ही होगी” (मांई खुश है शायद, पृष्ठ-27)

कविता ढम्मक ढम ढम में बुजर्ग बन्नो ताई की पीड़ा अपनो को खोते जाने की पीड़ा है। कवि की संवेदनशीलता है कि वह ढोलक की आवाज में भी रुदन सुनता है –

आज भी
जरा सा गमकते ही जगराते पर ढोलक
गों-गों करती घिसट पड़ती है अलंगे तक
चीमड़े हाथ से भी चढ़ा लेती है छल्ला..
कि आ बैठती हैं संगत को
यादों की चौपाल पर-लच्छो बुआ…बड्डी मामी….उमिया काकी
और रो पड़ती है बन्नो ताई की ढोलक
ढम्मक ढम ढम…..

आज के इस बेतहाशा भागम-भाग के युग में कवि नागर जैसे संवेदनशील लोग ही रुक कर ढोलक की आवाज का यह रुदन सुनते हैं। कविताएं ”खांसी अलार्म”, ”इन दिनों नानी अपच की शिकार है” , और ”छूटे कांधे” भी इसी भाव बोध के इर्द-गिर्द रची कविताएं हैं।

कविता ”पूस किस तारीख से बदला” में नितांत अभाव से उबर कर शहर में पहुंची नानी के साथ कवि स्वयं भी महसूसता है कि उनके लिए अभावों से भरा होकर भी गांव ही सच्चा जीवन था। आज जमीन से कट कर शहर को पलायन करते लोग कंक्रीट के सुसज्जित घरों में रह कर भी अपने गांव के छप्पर-छानी को नही भूल पाते हैं। उनके लिए अभाव में भी जिंदगी के जो अर्थ हुआ करते थे, वे आज की साधन्न-संपन्न दुनिया से खो चुके हैं।

”जब से गांव की छपरिया के सुराख छूटे हैं
नानी ही नहीं
हमको ही पता नहीं चलता कई-कई बार
पूस किस तारीख से बदला
अगहन किस तारीख से शुरू”- (”पूस किस तारीख से बदला”-पृष्ठ-29)

(चित्र : कवि मोहन नागर)

मोहन नागर की कविताओं में कल्पना का रूमानी संसार नहीं है । वे यथार्थ में जीने वाले कवि हैं । उनके नास्टेल्जिया में रूमानियत नहीं अपितु अभाव में जिए एक-एक पल का विषाद है। ठेठ भाषा में लिखी कविता ”महीने के आखिरी दिन” इस गरीबी से परिचित कराते हुए कहती है –

”तेरी काली जीभ में आग लगे
तीन दिन से कांक रओ है माटीमिलो
कोई और घर कांए नई मरे
एक तो ना जे चैत कटत है
ना जे आत हैं…..
अभी सच्ची में पहुना आ गओ
तो खिलाहें का वाहे
अपनो हड्डा – (महीने के आखिरी दिन, पृष्ठ-35)

इन कविताओं में अभाव के चरम से लेकर मध्यवर्गीय सम्पन्नता तक की यात्रा है। बहुत कुछ आत्मकथात्मक। उसके मन में अभाव के दिनों में नैराश्य के स्थान पर जीवट का बीज बाने के लिए शिव खेड़ा तथा राबिन शर्मा जैसे सफलता गुरु नहीं वरन् नानी से मिली सीखें तथा रोजमर्रा की ठोकरों से मिली सीखें व चुनौतियां हैं। कविता ”सेकेण्ड की साड़ी” में वह पुरानी साड़ी बेचते दुकानदार से जिंदगी की चतुराई सीखता है। कविता ”नानी की बानी” और ”नानी की गुल्लक” में यह बात उभर कर आती है –

”बेटा, अंधेरों से लड़ने के लिए
बस एक दिया काफी है” – ”नानी की बानी”, पृ.-40

”हम आज भी कुछ न कुछ
बचा लेते हैं
बुरे वक्त में लड़ने
ओखली में गड़ा देते हैं” -नानी की गुल्लक, पृ.-43

कविता श्रृंखला ”हम कतार में हैं” पांच कविताएं हैं जो कवि अपनी आत्मकथा बतौर प्रस्तुत करता है। गांव के जर्जर विद्यालय से निष्णात एम.बी.बी.एस. चिकित्सक बनने तक के अनुभवों को कवि ने एक माला में इस खूबी के साथ पिरोया है, कि वह कविता के साथ-साथ संस्मरण भी बन जाती है। यह संवेदनापूर्ण कविताएं एक मार्मिक दृश्य बनाती हैं जिसमें घर के लिए ज्यादा जवारी पाने के लिए भोर से पंक्तियों में डटे मासूम बच्चे हैं, स्कूल के दलिये से दिन गुजारते फूले पेटों वाले कुपोषित बच्चे हैं, पेट काट कर पढ़ाई करता नौजवान है, पढ़-लिख कर बेरोजगारी हुए नौजवान से लगी आशाएं है। डॉ  नागर का चार दशकों का जीवन संघर्ष इन पांच कविताओं में सिमट जाता है। ”हम कतार में हैं” की कुछ पंक्तियां हैं-

”यह दिसंबर का पूर्वार्द्ध है
हाड़ कंपाती ठण्ड है
हम ठण्ड से लड़ने
सलाखों के परे रखी जवारी तापते हैं” -(हम कतार में हैं-1” पृ-59)

”हमें कुछ महीनों तक
दिल्ली से चले दलिए का सहारा है
जो हमारे क्वाशिएर कोर से फूल चले पेट को
कुछ तो कम ही कर डालेगा
जहां इन दिनों लाल जवारी भी नहीं”-(हम कतार में हैं-2, पृ.-61)

इसी श्रृंखला की एक और कविता की पंक्तियां हैं –

”मैं भोपाल आगे पढ़ने के लिए
मां और भाई पर पूरे अढ़ाई सौ रूपए और
खुद से हटा ली गई जिम्मेदारियों का
कर्ज लिए जा रहा हूं
मेरे शहर से न लौट आने के
सबसे सुनहरे आसार हैं” -(हम कतार में हैं-3, पृ.-63)

जहां संग्रह के पूर्वार्द्ध की कविताओं में विपन्नता का विषाद तथा व्यवस्था के प्रति एक युवक का आक्रोश प्रतिबिंबित होता है वहीं इसके उत्तर्रार्द्ध में डा. नागर एक परिपक्व सोच वाले सुलझे हुए व्यक्त्तिव के रूप में उभरते हैं। साथ ही आरंभिक कविताओं में विषय की पुनरावृत्ति का आभास होता है, वहीं उत्तरार्द्ध में कवि की दृष्टि का फैलाव पहले से अधिक व्यापक महसूस होता है। यहां तक पहुंचते हुए कविताओं में आश्वस्ति व सुरक्षा बोध तो झलकता ही है, साथ ही वह रूमानियत भी दिखती है जो किशोरवय के दुर्दिनों में कहीं दब कर रह गई थी। यद्यपि डा. नागर ने प्रेम कविताएं अधिक नहीं लिखीं हैं, परंतु जितनी भी लिखीं हैं वे उनके प्रेम को भी एक अनूठे रंग में रंगा दिखाती हैं। संग्रह में शामिल कुछ प्रेम कविताओं में उनकी इन सुकोमल सम्वेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति है। वह अपने प्रेम के लिए आकाश को केनवास बना कर प्रेयसी की मुस्कान का चित्र बनाना चाहते हैं –

”एक दिन मैं समुद्र से सारा जल
और इंद्रधनुष से रंग लेकर
रच डालूंगा तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी हंसी
आकाश के केनवास पर” (पेंटिंग, पृष्ठ 98)

अभावों की दुनियां में पला बढ़ा कवि अपने प्रियजनों को उस दुखद समय से हरगिज नहीं गुजरने देना चाहता। वहीं कविता ”जीवन संताप नहीं” में वह अपने प्रेम से आशा की जोत जलाता है-

तुम नहीं होतीं तो कब जान पाता
जीवन महज संताप नहीं
उसे बेहतर सृजित किया जा सकता है,
कहीं भी कभी भी किसी भी वक्त”- (जीवन संताप नहीं, पृष्ठ-100)

परंतु इस सुख-साधन संपन्नता के काल में भी कवि समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व से भटकता नहीं है। कविता ”शहर सो रहा है” में उनका यह दायित्व बोध प्रकट होता है। वह बेचैन है अखबार बेचने की जुगत में घूमते बच्चे को देखकर,वह बेचैन होता है बच्चे की नुमाइश कर पति के लिए कच्ची शराब जुगाड़ती स्त्री की पीड़ा से और वह बेचैनी व्यक्त होती है इन पंक्तियों से –

”इतने शोर में भी
कैसे सो लेते हैं लोग गहरी नींद
मैं भी बहरा क्यों नहीं औरों की तरह
कि छोड़ें पीछा ये आवाजें
या इम्यून ही हो जाऊँ
जैसे कि ये शहर”- (शहर सो रहा है, पृ-91)

लोकधर्मी कविताओं के इस महत्वपूर्ण संग्रह में ”राखड़िया”, ”अभी भोपाल नहीं आया” ”ये शहर छिंदवाड़ा है साहेब”, ”सूरज का कल्ला गर्म है” इत्यादि कई महत्वपूर्ण कविताएं हैं, जो न केवल शिल्प के दृष्टिकोण से ही प्रभावित करती हैं अपितु मन में कई प्रश्न छोड़ जाती हैं। कविता ”धरती का कल्ला गर्मा रहा है” व ”अभी भोपाल नहीं आया” में वे अनूठे अंदाज में पर्यावरण के प्रति  अपनी चिंता व्यक्त करते हैं, वहीं ”यह शहर छिंदवाड़ा है” कविता खान श्रमिकों के जीवन की व्यथा का वर्णन अद्भुत बिंब संयोजन के साथ करती है। संग्रह ”छूटे गांव की चिरैया” की अंतिम कविता की पंक्तियां हैं –

सिर्फ यादें बाकी होंगी बस उड़ती पंछियों सी
बेचैन, शांत, उद्वेलित
हहराती निस्सीम आकाश में मस्तूल तक
मुझे पता है,
मुझे जाना है-एक अंतहीन यात्रा पर -(मुझे जाना है एक दिन” पृ-128)

अपनों को खोने का गम और उस पर अभावों की असहनीय चुभन से गुजर चुके डा.नागर का इस सत्य से इतना गहरा सम्बध होना सहज है। परंतु यह उनकी भाव संपदा का एक हिस्सा मात्र है। उन्हें उबरने का और नवसृजन के आनंद का पूर्ण बोध है-

”छूटी पत्तियां ताक रही हैं अब छूटी टहनियां
और सृष्टि गा रही है बारिश के गीत
ये छूटी पत्तियों के खाद का मौसम है
ये नवांकुरों के आगाज का मौसम है”। (आगाज का मौसम” पृ.-116)

मेरे अपने मत में ”आगाज का मौसम” कविता को संग्रह की अंतिम कविता के रूप में होना चाहिये था। यह संग्रह इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि यह गांव-गोठान में विपन्नता में पैदा हुए एक बच्चे का अपने जीवट के दम पर मजबूती से पैरों पर खड़े होने के संघर्ष का कवितामय वृत्तांत है। यह कविता संग्रह एक प्रेरणास्रोत है उन थके-हारे लोगों के लिए जिन्होंने कठिन परिस्थितियों के सामने घुटने टेक दिए हैं। आज डा. नागर साधन संपन्न हैं, परंतु इससे उनका भूख पर कविता लिखने का अधिकार कम नहीं होता तथा उनका यह संग्रह रचनाकर्मियों के बीच सामाजिक स्तरों की निरंतर नई खाईयां खोदते आलोचकों के लिए एक उदाहरण है। हिंदी पट्टी में जन्मे होने के कारण कवि का व्याकरण पर अधिकार सहज है तथा आम बोल-चाल की भाषा में लिखते हुए वे रचनाओं में कहीं भी साग्रह भाषिक सौष्ठव दिखाने का प्रयत्न नहीं करते हैं। उर्दू व हिन्दी के शब्दों को एक समान प्रेम के साथ समेटती यह आम बोलचाल की भाषा कविताओं की संप्रेषणीयता बढ़ा देती है। संग्रह की समस्त कविताएं छंद मुक्त होकर भी लयबद्धता की कसौटी पर सामान्यतया निष्कलंक है।

अंत में बस इतना ही कि यह पठनीय कविता संग्रह वस्तुतः डां. नागर की संभावनाओं के विशाल कैनवस का एक टुकड़ा मात्र है। अभी उनके सामने लेखकीय जीवन की बहुत लम्बी यात्रा बाकी है, जिसके लिए कवि के ही इन शब्दों के साथ शुभकामनाएं सदैव साथ हैं –

”जीवन महज संताप नहीं, उसे बेहतर सृजित किया जा सकता है, कहीं भी, कभी भी, किसी भी वक्त”

समीक्षित पुस्तक – छूटे गांव की चिरैया
कवि – डा. मोहन कुमार नागर
प्रकाशक – मेधा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
 फो.- 22323672
मूल्य – 200 रु.

संपर्क-
समीक्षक  – पद्मनाभ गौतम
 रिलायंस काम्प्लेक्स
ग्राम-  कम्बा, जिला-पश्चिमी-सियांग
        अरुणाचल प्रदेश, पिन-791001

मोबाईल- 9436200201

पद्मनाभ गौतम


जन्म – 27-06-1975, बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया, छत्तीसगढ़
संप्रति – निजी क्षेत्र में सेवा

प्रकाशन – ग़ज़ल संग्रह “कुछ विषम सा” सन 2004 में जलेसं द्वारा प्रकाशित
विभिन्न प्रमुख पत्र पत्रिकाओं – कृति ओर, प्रगतिशील वसुधा, काव्यम, अक्षरपर्व, आकंठ, हंस, अक्षरशिल्पी, दुनिया इन दिनों, छत्तीसगढ़ टुडे, कविता कोश – कविता छत्तीसगढ़, देशबन्धु, लफ्ज़, उपनयन, सृजनगाथा इत्यादि में कविता, गज़लें, विचार आलेख इत्यादि प्रकाशित।
आकाशवाणी अंबिकापुर से उदिता व वार्ता में रचनाओं का प्रसारण

युवा कवि पद्मनाभ गौतम बहुत कम कविताएँ लिखते हैं . किन्तु गंभीर लिखते हैं . इनकी कविताएँ समसामयिक हैं, अपनी रचनाओं में वे बाजारवाद का मुखौटा खोलते हैं फिर टटोलते हैं लुप्त होते मानवीय संवेदनाओं को. “सुनकर हूँ अवाक् कि /आखिर किस हद तक / धो दिए गए हैं / हमारे दिमाग,/ तौली जा रही है / हमारी शखिसयतें / केवल पैसे फूँकने के /जुनून से”  यहाँ कवि की हैरानी हम सबकी हैरानी है. गठजोड़ के इस दौर में कवि चाहता है कविताओं का चुनाव. शब्दों का सही ताल–मेल एवं विषय का चुनाव इनकी कविताओं को खास बनाती है . निरंतर लेखन से वे और सशक्त होते जायेंगे समय के साथ. आइये इन्हें और जानते हैं इनकी रचनाओं को पढ़ कर .

 बाजार

किंडरज्वाय के लिए
मचल गई है बिटिया
बीच बाजार
और मैं समझा रहा हूँ उसे
पांच रूपए के
सामान के पीछे
तीस की मार्केंटिंग आंकड़ा,
कि हो जाए वह राजी
और खरीद ले
इसी दाम की
कोई और चाकलेट,
हो जाए
जिसमें कम से कम
ईमानदारी से
टैक्स भर कर कमाए
रूपए की कीमत वसूल।
और फिर होता है
मेरी इस कृपणता पर कटाक्ष
कि नहीं पूछूँ मैं
दूसरी चाकलेट का दाम,
हो सकता है ‘हार्टफेल’
सुनकर पैंसठ रूपए
कीमत जिसकी
आप तो हमेशा
कम दाम की चीज़
खोजते हैं ना।
सुनकर हूँ अवाक् कि
आखिर किस हद तक
धो दिए गए हैं
हमारे दिमाग,
तौली जा रही है
हमारी शखिसयतें
केवल पैसे फूँकने के
जुनून से
क्या कहूँ कि मैं
सिखा रहा हूँ
अपनी बिटिया को
विपरीत परिस्थितियों में
जीने की वह कला,
जो शायद
एक गरीब मास्टर का
आत्मज ही
सिखा सकता है
अपनी आत्मजा को।
क्या बताऊँ कि
सीख रही है मेरी बेटी
उस देश मे जीने की कला
जिसने अमरीका से
आयात तो कर लिया है
बड़े गर्व के साथ
कोक, डोनट्स और
होम डिलीवरी पिज्जे का शौक
लेकिन जिसकी हैसियत नहीं
कि दे पाये अपने बुज़ुर्गों को
बुढ़ापे में इज्ज़त के साथ
जीने की सुरक्षा
यह भी बताने की
जरूरत नहीं
कि आज भी
बाबू साहेब
डकार जाते है
वृद्धा पेंशन के
डेढ़ सौ में से
पचहत्तर रूपए भी
बेशर्मी के साथ
बस चुप हूँ मैं
और महसूस कर रहा हूँ
उस औरत के
भीतर घुसे शैतान को
जो बस जाना चाहता है
मेरे खून में भी
गड़ा  कर गर्दन में दांत
एक जी करता है
कि बता दूँ
उस औरत को
अपनी पगार में लगे
शून्यों की हैसियत,
जो कि वह चाहती है खुद भी,
और जो कि चाहता है
उसका बाजार भी
लेकिन आखिरकार
फेर ली हैं मैंने अपनी आंखें
और चल पड़ा
बिटिया को
एक बाँह से खींचते
किसी और दुकान की
तलाश में,
शुक्र है अभी तक
इस कदर नहीं धुला है
मेरा दिमाग …

इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ

कुछ कविताएँ
दृष्टि चाहिए उनके लिए
और वे भी चाहती हैं दृष्टि
बुन-छींट कर
उगाई नहीं जा सकती हैं वे
फसलों की तरह,
उन्हें तो केवल भर कलेजा
सूँघ सकते हैं हम
खदकते अदहन में डले
भात की गमक सा
या पढ़ सकते हैं
ताजी गही धान के
ललछर-मटिहर रंग में
वे जो हैं हमारे इर्द-गिर्द
हमेशा से मौजूद
अभी उस दिन देखा था उन्हें
डिब्रूगढ के पास
जमीरा चाय बागान में,
और अपने आप
गूँजने लगा था कानों में
भूपेन दा का गान –
‘एक कली दो पत्तियाँ
नाज़ुक-नाज़ुक उंगलियाँ’
तोड़ने वाला और टूटने वाला
दोनों ही तो थे कविताएँ,
किसी रोशनाई ने नहीं रचा था उनको,
वे तो थे वहाँ पर पहले से मौज़ूद,
भूपेन दा की मधुर आवाज़ में
उतरने से पहले भी
और उसके बाद भी
इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ
कुछ कविताएँ
आँगन में बेटे के जगाए
पेरीविंकल के फूलने के साथ
आँखे खोलती
पहली दुधमुँही
उम्मीद से
बिटिया के मुँह से टपकती
गुझिए सी मीठी अँगरेजी पर
न्यौछावर होती माँ की मुस्कान,
और उस मुस्कान के पीछे थिरकते
एक अधूरे स्वप्न से
छह साल के पोगम पादू के
उस गुस्से में भी तो
हुई है नाजिल एक कविता ही,
जो है सुबह से नाराज़
कि कैसे आ गया रात को अचानक
उसकी माँ की गोद में
वह गुलाबी सा नन्हा बच्चा
जिसे सब बता रहे हैं उसका भाई,
आज सुबह से शिकायत है उसे कि
-सब प्यार करता है
केवल छोटा लोग को,
बड़ा लोग को तो कोई पूछता ही नहीं
इतना कह कर बरबस ही
मुस्कुरा देता है मुझे देख कर
बोलो, क्या नहीं है यह भी एक कविता ?

कुछ वहाँ भी दिखी थीं बगरी
इगो बस्ती से कुछ आगे
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क पर झूमते,
लाल दहकते मागर फूलों के
देवकाय वृक्षों की छाँव में
कुछ कविताएँ चुनना चाहूँगा मैं
बोगीबील फेरीघाट की आपाधापी से
और यकीनन कुछ कविताएँ
लोहित से भी जरूर,
पर लोहित से कविता चुनना
लग रहा है ज़रा मुश्किल
दरअसल लोहित की
ज्यादातार कविताएँ तो
ले जा चुके हैं
भूपेन दा पहले ही,
काँधे पर टँगे बैम्बू बैग में डाल कर
और मगन-मन गा रहे हैं
लोगों के दिलों में बैठे हुए

फ्रेंच विण्डो

यह जो कमरा दिया है
तुमने मुझे,
बड़ी सी फ्रेंच विण्डो वाला,
खूबसूरत तो है
पर है ज़रा अजीब,
गुजरा करता है
सूरज सर्दियों में
इसके दूसरी ओर से,
और गर्मियों में
भेद कर जा पहुंचता है
भीतर की दीवार पर रखे
पलंग के सिरहाने तक,
जिसके लिए कहते थे
तुम इसे हवादार,
इसमें आने वाली
वह हवा भी रहती है
सर्दियों में शिताई
और गर्मियों में
बदन से लिपटती है
ऊनी कम्बल की तरह
सहज था मुझ जैसे का होना
इस शानदार खिड़की पर फिदा,
कि मुझ जैसी भुनभुटिया तो
गिरती ही है कड़ाह में
चासनी के लेखे,
पर क्या तुम
जमाने भर के पारखी,
क्या तुम भी
नहीं देख पा रहे थे
मेरी सौंदर्यदृष्टि पर
भारी पड़ने वाला
इसका भूगोल
खैर, तुम्हारा भी क्या दोष
कि उस समय
तुम भी तो थे तल्लीन
इसकी
वास्तुशास्त्रीय गणनाओं में
मेरे भले की खातिर,
लगाई थी जिन्होंने
मेरी सौंदर्यदृष्टि पर
तुम्हारे तर्ककोश के
तर्कों की स्याही से
तर आखिरी मुहर
चलो जाने दो
हम तो हैं ही
ऐसे लोग
जो कहाँ सीख पाते हैं कुछ भी
बिना भोगे
अपने हिस्से का भोग।

उत्तर-पूर्व से

जब हों न्याय की
आँखें खुली
और बेहद सर्द,
जब बदल दी गई हो
कानून की किताब
न्यायाधीश के शजरे से,
लाज़मी है लगना डर का,
जब एक नाव डोहती हो
हैसियत से ज्यादा बोझ
और एक नदी
हद से ज्यादा गम्भीर,
झाँकता है डर गहराइयों का
जबरन सपाट बना लिए गए
चेहरों के पीछे से
जब किसी स्टेशन के
करीब आते ही
याद आते हैं पहचान पत्र
और लगने लगती है
चाय की बेवजह तलब
ज़रूरत से ज्यादा,
डर होता है मौज़ूद
कहीं पास

अनगित हैं ऐसे डर,
जीते हैं हर रोज
जिनके साये में हम,
न जाने कितने ही अहसासों की
खुली जेल में नज़रबंद,
यह और बात
कि अक्सर रख दिया जाता है
हर एक डर को बला-ए-ताक,
छिपाकर बच्चों की आँखों से,
तो कभी कस कर भिंची
मुटिठयों में बीच,
डर हिस्सा है
इस जिंदगी का
और यकीन मानें
कि डर का चेहरा
डरावना नहीं होता अक्सर
चल रहा है एक अनवरत संघर्ष
डर और जिजीविषा के बीच
कभी जीत जाता है हमारा डर
कभी जीत जाती है हमारी जिजीविषा
(शजरा- वंशावली, वंश-वृक्ष)

दुनिया से अलग

सात बहनों के कुटंब की
है जो जीवन रेखा,
इन दिनों लोहित है नाराज़।
पाँच दिनों से अंधेरे में डूबे हैं हम
और कोने में पड़ा इन्वर्टर
कंधे उचका कर बता रहा है
हमारे लिए विज्ञान की सीमा
नाराज़ लोहित ने भी तो
दिखाई है हमको
ईश्वर के समानांतर सत्ता
बन चुके विज्ञान की हैसियत
बन्द हैं इन दिनों
कारेंगबील-बोगीबील फेरी घाट,
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क
और बंद रसद की आमद,
कि बमुश्किल मिलते हैं लाही पत्ता
और केले के फूल,
सब्जियों के नाम पर
फोन के सारे कनक्शन हैं बेकार,
और दूभर बाहर की खबरें,
ईडियट-बाक्स के सर्वज्ञ सूत्रधारों के
बिना भी बीत रहा है समय
निपटा लेते हैं हम इन दिनों
दिन रहते सारे काम,
और खा-पी कर सांझ ढलते
घुस जाते हैं कम्बलों में,
झक्क सफेद जलने वाले बल्बों की जगह
अब आखिरकार सम्भाल लिया है मोर्चा
मोमबत्तियों ने,
और लड़ रही हैं वे अंधेरों से हमारे लिए
करते हैं हम इन दिनों ढेर सारी बातें,
उन औरतों की बातें
जिन्होंने करके
लालटेन की रौशनी में
तुरपाई का काम
पाल लिए भूखे बच्चों के पेट
और इसी क्रम में याद करते हैं
निरूपाराय के दांतो के बीच दबे
सुई और धागे को
सीख लिया है बच्चों ने आसानी से
कि किसलिए और कैसे जलाई होगी
आदिमानवों ने आग,
और यह भी कि मुझे नहीं आती
उनकी दादी की तरह कहानियाँ,
कितना बौड़म हूँ मैं
कहानी सुनाने की कला में
आज भी घुस गए हैं हम
खा-निबट कर
बिस्तरे में,
पास बैठी पत्नी गा रही है कोई
अजूबा सा फिल्मी गीत
और छेड़ रही है
लेकर मेरे कानों में
पूर्व प्रेयसी का नाम
हँस रहा हूँ मैं हौले-हौले
इस शरारत पर,
सचमुच, कितना अदभुत समय है यह
कि हैं हम सब एक-दूसरे के इतने करीब
कभी-कभी लगता है अच्छा
रहना दुनिया से अलग,
अंधेरों के साये में।


संपर्क-
पदमनाभ गौतम
फ्लैट नं.-103, रोन्या बिलिडंग
भारतीय स्टेट बैंक के पास
आलंग, जिला-वेस्ट सियांग
अरूणाचल प्रदेश -791001


दूरभाष – मो. – 09436200201
नि. – 03783-223951

(पद्मनाभ की कविताओं की प्रस्तुति नित्यानंद गायेन की है।)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स पाब्लो पिकासो की है।)