शिवकुटी लाल वर्मा की कविताएँ

         
कवि शिवकुटी लाल वर्मा का जन्म इलाहाबाद में एक जुलाई 1937 ई. को हुआ प्रयाग विश्वविद्यालय से 1954 में बी ए करने के बाद ए जी आफिस में नौकरी करने लगे
 
पहली कविता निकष-2 (इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका संकलन) में 1956 में प्रकाशित पहला कविता संग्रह अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ सीरीज में 1974 में प्रकाशित दूसरा कविता संग्रह ‘हार नहीं मानूंगा’ 1980 में, तीसरा कविता संग्रह ‘समय आने दो’ 1995 में और चौथा कविता संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ 2013 में प्रकाशित
। 

18 जुलाई 2013 को  शिवकुटी लाल जी का निधन हो गया। 

एक साल का समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। भले ही अब शिवकुटी लाल वर्मा हमारे बीच सदेह नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियाँ और कविताएँ हमारे बीच हैं.  उनकी पहली पुण्य तिथि पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ चुनिन्दा कविताएँ जिसका चयन वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे ने किया है

शिवकुटी लाल वर्मा 



फ्रेम के दो पहलू
हम तुम
फ्रेम के दो पहलू !
हमारे-तुम्हारे सहारे ही
सत्य की यह तस्वीर खड़ी है!
पर देखो,
यह कितने आश्चर्य की बात है –
कि समय ने मुझ पर
अपनी सारी कीलें जड़ दीं
जब कि तुम पर फूल दही अक्षत है
बालक
वह एकान्त
बर्फ की ताबीज औ’ गंडे लपेटे
बुद्धू सा खड़ा था चुपचाप मैं
एक बादल कहीं से आया
बिना किसी बात मुझसे टकरा गया,
और स्वयं ही फूट-फूट रोने लगा
हवा मुझे चपत मार कर भाग गयी
मैं कुछ नहीं बोला
खीझा, घबराया सा खड़ा रहा
सहसा ध्यान गया
मैं नंगा था –
लजाया सा इधर-उधर देखा
बादल भी गायब था
लगा, कहीं वह किसी से कुछ कह न दे
पर जब समूर की खाल ओढ़े
सतरंगी घडी लिए सूर्य निकट आया
मैंने नीचे पड़ी
वह फूलदार घाटी पहन ली थी 
जंगल
एक खूंख्वार तेंदुआ मोटर की बू-वास पा गया
एक विशाल बरगद बुलडोजर से मात खा गया
झाड़ियों ने पत्तियों की ओढ़नी उतार फेंकी
माधवी और विष्णुकांता की लताओं ने
स्कर्ट पहन चकर-मकर ताका
फूलों के गहने पहने गमलों से लव किया
साँपों ने मिटटी की हंडिया स्वीकारी
शाही उद्यानों के भी हो गए पौ-बारह
केले के गांछों ने फोन पर बातें कीं
दलदल भरी धरती ने कुंजों से टाटा की
असभ्यता से पीड़ित वह पहले कभी था जंगल  
अहो भाग्य! दोस्त बना शहर, हुआ जंगल में मंगल 
अपना घर छोड़ चले
आबाद रहो बस्ती वालों हम तो अपना घर छोड़ चले
आबरू भली जो साथ रही हम तो दर आंगन छोड़ चले
अब किससे कैसी होड़ यहाँ हम सारी दुनिया छोड़ चले
हर हँसी ठहाका दिलदारी दामन में तुम्हारे छोड़ चले 
तुमने कहा तथागत
जब तक मैंने निज को गाया
बना रहा अभ्यागत
जब मैंने तुम सब को गाया
रचा गया ज्यों आगत
जब-जब मैंने अपने पर रोया
तब-तब हुआ विगत
जब-जब रोया तुम सब पर
तुमने कहा तथागत !  
लिपि

संकेतों की लिपि अत्यन्त जटिल होती है
अब मैं आपको कैसे समझाऊं
कि हँसी के संकेत समझने की प्रक्रिया में आप रो पड़ेंगे
दर्द की व्याख्या होते ही दर्द काफूर हो जाएगा
और आपने सिर्फ दर्द की महक रह जाएगी
महक आपको हँसा भी सकती है
पर वह हँसी एक अजीबोगरीब हँसी होगी
सकेतों की लिपि में वह कैसे पैठ पाएगी ?
उसे वहाँ फिर से प्रवेश दिलाने के लिए
आपको पक्षियों की शरण में जाना पड़ेगा
पर पक्षियों की शरण में जाने वालों में लगभग सभी का
शालीय भाषा में एक उथला अनुवाद हो कर रह गया
तब आप भी अनुवाद से कैसे बच पाएँगे ?
और यदि मान लिया जाय कि आप
यह खतरा उठाने को तैयार हैं
तो भी क्या आप उत्सुक भ्रांतियों द्वारा अपने आप को
केवल एक ऐतिहासिक महत्व की पांडुलिपि
समझा जाना गंवारा करेंगे ?—
जबकि आप पक्षियों के बीच में
एक निष्कासित हँसी के लिए
एक सूक्ष्म पर जीवन्त लिपि रच रहे होंगे
जिजीविषा
तटस्थता झुकाए इस वृक्ष के नीचे
जिजीविषा की एक गड्ढों-भरी सड़क है ‘
जिस पर बिछी हुई
कोलतार सनी नुकीली गिट्टियों पर
एक अदृश्य रोलर चल रहा है
परिचित माहौल की अनास्था
सड़क के एक ओर पड़े धूल भरे मीठे को
घूर रही है
एक बौना
जिसकी घायल रक्त शिराओं में
पत्तियाँ बज रही हैं
कोलतार-सनी गिट्टियों पर
अदृश्य रोलर के पीछे चलता जा रहा है
हमला
हमला भी क्या लाजवाब चीज हो गयी है
सम्भोग के लिए
या मौत के लिए
किसी को राजी करने का धीरज
रह गया है न तो किसी मर्द में
और न तो किसी मर्दानगी भरे देश में
मानवता को हामिला बनाने के लिए
और रास्ता भी क्या है सिवा हमले के ?
मियादी बुखार से उठी
पथ्य ग्रहण करती
एक देश की जनता संभालती है हमले का आवेश !
बांहों में बांधे अनेक मित्र देश
नायक-खलनायक की भूमिका
निभाता हुआ एक मर्द देश
वे सड रही जिनकी जिंदगी
बल्कि सडन ही बन गयी जिनकी जिन्दगी —
कहीं जुड़ गये हैं अपनी मनपसन्द भूमिका के साथ
(एक रुचिकर जिंदगी के लिए
अपनी आँखों को लय कर देने
या हाथों का विक्रय कर देने से बड़ा मूल्य
और क्या हो सकता है)
यह उत्तेजक परिवेश !
ओज भरा देश
अपने पुंसत्व के प्रति विश्वास से भर गया है
इतने शक्तिशाली वीर्य का परीक्षण !
हामिला तो होगी ही मानवता!
(जन्मेंगे रक्त भरे झण्डे फिर एक बार!)
निर्वसना होने का भय कब का मर चुका है !
सम्बोधन
माँ ! तुम मुझे गुलाब का फूल कहती हो
बताओ कहाँ है वह टहनी
जिस पर मैं खिला हूँ ?
माँ ! तुम मुझे चिड़िया कहती हो
बताओ कहाँ है वह आकाश
जिसमें मैं उड़ता हूँ ?
माँ ! तुम मुझे अपने स्वप्नों की सोनमछली कहती हो
बताओ कहाँ है वह जल
जिसमें मैं तैरता हूँ ?
और माँ
क्या मैं एक साथ ही
गुलाब, चिड़िया और सोनमछली हूँ?
माँ! तब मुझे
भविष्य का रूप-रंग भी बता दो
क्या वह उन हाथों की तरह होगा
जो फूल को टहनी से तोड़ लेते हैं ?
क्या वह शिकारी की बन्दूक से छूटी हुई
उस गोली की तरह होगा
जो चिड़िया को आकाश से
नीचे गिरा देती है ?
क्या वह उस मछुवे के जाल की तरह होगा
जो सोनमछली को
जल से अलग कर देता है
मुझे तुम कोई और संबोधन दो माँ !
खरापन बालिग़ हो गया है
धर्मान्धता !
जाओ दूर कहीं वीराने में अपना सिर छुपाओ
तुम्हारी सांस से बदबू आती है
बेहद जरुरी है
कि इस विस्तृत घास के मैदान में
बीमारों को ताज़ी हवा मिल सके
साम्प्रदायिकता!
बरायमेहरबानी इस अहाते को खाली कर दो
मकान की आबो हवा बदलने के लिए
मुझे यहाँ अभी अनेक पेड़
और कई रंग के खुशबूदार फूल उगाने हैं
झूठी सद्भावनाओं !
अब कहीं और जा कर खातिरदारी कराओ
खरापन बालिग़ हो गया है
इंसानियत ! सिसको नहीं
मुँह ढकने की कोई जरुरत नहीं
तुम्हारे निर्वासन के दिन ख़त्म हो चुके हैं
अन्दर आओ  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)  

 

शिवकुटी लाल वर्मा

मित्रों, कल यानी १८ जुलाई २०१३ को ११ बजे दिन में हमारे शहर के वरिष्ठ कवि शिवकुटी लाल वर्मा का निधन हो गया। शिवकुटी लाल जी एक कवि होने के पहले एक बेहतरीन इंसान थे। उनकी सहजता एवं विनम्रता के हम कायल थे। श्रद्धांजलिस्वरुप हम पहली बार पर यह पोस्ट लगा रहे हैं, जिसे मैंने सोचा तक नहीं था कि उनके न रहने पर इसे प्रकाशित करूंगा। पोस्ट को यहाँ पर मूल रूप में ही प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की एक टिप्पणी है उसके बाद शिवकुटी लाल जी की कुछ प्रतिनिधि कविताएँ, जो उनके हालिया प्रकाशित संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ से ली गयी हैं।          

शिवकुटी लाल वर्मा का जन्म इलाहाबाद में एक जुलाई १९३७ को हुआ. प्रयाग विश्वविद्यालय से १९५४ में बी ए करने के बाद ए जी आफिस में नौकरी करने लगे.
पहली कविता निकष-२ (इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका संकलन) में १९५६ में प्रकाशित. पहला कविता संग्रह अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ सीरीज में १९७४ में प्रकाशित. दूसरा कविता संग्रह ‘हार नहीं मानूंगा’ १९८० में, तीसरा कविता संग्रह ‘समय आने दो’ १९९५ में और चौथा कविता संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ २०१३ में प्रकाशित.     

वरिष्ठ कवि शिवकुटी लाल वर्मा की कवितायें अपने बिम्ब विधान और गहन सर्वेक्षण दृष्टि के लिए जानी जाती रही हैं. वे अभिधा के कवि कभी नहीं रहे –पहले न आज. ऐसा उन्होंने संप्रेषणीयता को लेकर पाठकीय व आलोचकीय वारों को शिरोधार्य करते हुए किया है. सरलीकरण और स्फीति इस कवि को पसंद नहीं. कवि जब कहता है कि ‘मैं वह स्वतन्त्रता हूँ / गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी’ तो यह एक अभिधात्मक बयान नहीं. इसकी व्याप्ति दूर और देर तक गूंजती है. चाही गयी स्वतन्त्रता या पायी गयी स्वतंत्रता (या कहें सपने) की फांके उजागर होने लगती हैं. इसी फांक से भ्रष्टाचार, आतंक, धर्मान्धता और क्रूरता की नदियाँ उद्गमित होती हैं.

शिवकुटी लाल वर्मा एक अत्यंत भाषा सजग कवि हैं. भाषा उन्हें संवेगों में बहका नहीं ले जाती वरन वे बार-बार भाषा को मांजते-संवारते-बनाते हैं. सजगता का आलम यह है कि कवि चिता बुझने के बाद की राख व अधजली लकड़ियों को भी ‘कविता’ और ‘गद्य’ के रूप में अलगाता है. ये कविताएँ अपने रचयिता के स्वत्व और वेदना को जीती हैं. इन कविताओं का कवि पुरस्कार रूप में, यश या राशि न मांग कर ‘दृढ़ता’ मांगता है.
दो इतनी दृढ़ता कि
अंकुरित सत्य की लय बनकर
पात दूं मैं जीवन और मृत्यु का अन्तराल
और अंकुरित सत्य की लय बनना सबके बूते की बात नहीं. इस कवि को सामाजिक बदलाव में कविता की भूमिका को लेकर भी कोई भ्रम नहीं है. उनके कविता के बाहर की कविता सोचने को मजबूर करती है कि रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ कमजोर हो गयी हैं या ‘बर्बर समूह’ कद्दावर हो गये हैं.
इन कविताओं में कवि की निजता भी यहाँ सामाजिक वेदना का प्रतिनिधित्व करती हैं. इन कविताओ के बारे में कवि के शब्दों में ही कहा जा सकता है कि ये कविताएँ
कुछ युग की करूणा सी मुलायम (हैं)
कुछ युग के यथार्थ सी सख्त
-हरीश चन्द्र पांडे     

आप सब के लिए पेश है शिवकुटी लाल वर्मा की कुछ चुनिन्दा कविताएँ


‘अभाव’

किसे खलेगा मेरा अभाव
एक ऐसा पाठ हूँ मैं
जिसे शब्द-स्फीत पाठ्यक्रम से हटा दिया गया
मैं वह स्वतन्त्रता हूँ
गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी
लेकिन मिलते ही जिसका आशय झुठला दिया गया
वह रचना-बोध
जिसे रचना का स्वांग रचने वालों ने ही मिटा दिया
फैक्ट्रियों, मिलों और उद्योगपतियों की इमारतों के बीच
किसी झोपडपट्टी की खाली जमीन हूँ मैं
आपाधापी और महत्वाकांक्षाओं के बीच
मैं वह निःसंग आत्मीयता हूँ
जिसे एक अधूरी पंक्ति सा बार-बार काटा गया
पर हर बार काटे जाने के साथ
वह परिवेश में कटी हुई अदृश्य अँगुलियों सी आज भी
तैरती है.

पॉकेटमार
पॉकेटमार
भाग्य की पॉकेट मारो
और बाँट दो उसे भाग्यहीनों में
वाही तो है तुम्हारा परिवार
जानता हूँ मैं तुम्हारा वर्तमान
तुम्हारा भविष्य
पर बेड़ियों और हथकड़ियों से डर कर क्या तुम
भाग्यहीनों के आंसुओं के उस रास्ते को
तब्दील करने से मुकर जाओगे
जो उन्हें सिर्फ मौत की ओर ढकेलता है.
साफ कर दो उस परिवेश की जेब
जहां विकास नपुंसकता का पर्याय बन जाता है
लोकमत चुनवा दिया जाता है मतपेटिकाओं में
आरोपों-प्रत्यारोपों से सजी-धजी
ठगती है वेश्या राजनीति
सबूत के अभाव में लडखडाता हुआ
गिरता है किसी उच्च रक्तचाप के रोगी सा न्याय
निर्दोष की विवशता भरी यंत्रणा से बढ़ कर
क्या और कोई जेल हो सकती है
पॉकेटमार

कविता के बाहर
तुम एक कविता लिखते हो
और एक बिच्छू अपना नुकीला डंक लिए
तुम्हारी ओर दौड़ पड़ता है
तुम दूसरी कविता लिखते हो
और एक सर्प तुम्हारी ओर बढ़ने लगता है
फन काढ कर वह तुम्हारे हाथों की ओर झुकता है
तुम तीसरी कविता लिखते हो
और एक भेड़िया तुम्हारी ओर देख कर गुर्राता है
तुम कोशिश करते हो एक और कविता लिखने की
और एक बर्बर समूह तुम्हारी ओर झपट पड़ता है
बेहतर क्या है
आज के समय में कवि होना
या एक बिच्छू, एक साँप, एक भेड़िया
या एक बर्बर समूह बन जाना?
बताओ कवि
बिच्छू, साँप, भेड़िये और बर्बर समूह
तुम्हारी कविताओं के भीतर तो मरते हैं
पर क्यों नहीं मरते तुम्हारी कविताओं के बाहर?
कवि तुम मौन क्यों हो?

समय के बाहर

समय मुझे अपने से बाहर फेक रहा है
ओह!कैसा होता है समय के
बाहर फेक दिया जाना
समय के बाहर जीना
समय के बाहर ही मर जाना 

कीच सने पाँव 
कीच सने पाँव क्या सदा भद्दे ही होते हैं
कीच क्या सदा बदबू ही देती है
किसने आंका है कीच की शक्ति को
कीच सने पाँवों ने नाप डाली है अब तक
जाने कितनी धरती!
लिपट जाती है गीली-गीली
तो या तो पांवों से अलग होते-होते
पानी में भी अपनी छाप छोड़ने लगती है
या पांवों से लिपटी-लिपटी ही सूख जाती है
जैसे कोई कुरूप सती नारी
कीचड सने नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं प्रभु
किसी भक्त की गुहार पर
कब तक बचेगी मोज़े की नफासत
कीच सने पाँवों से
जबकि हावी होते जा रहे हैं
किसी सर्वव्यापी की तरह
लगातार
कीच सने पाँव?

रिश्तों की ज़बानें भूल गए   
रिश्तों के ज़मानें भूल गए रिश्तों की ज़बानें भूल गए
मजहब की उलझी दालों में अश्कों की ज़बानें भूल गए
तहजीब की सिलवट याद रही वो खलूस की बाहें भूल गए
क़ुदरत की हँसी वो रुसवाई सब गूंगे रिश्ते भूल गए

ये चेहरा पहचाना है
गली-गली में डगर-डगर में भटक रहे सुनसान नयन
ऐसा क्या वीरान शहर में जो याराने जैसा है
बसा अजनबीपन नज़रों में घूर रहा इंसान यहाँ
कौन यहाँ है जो पूछे ये चेहरा पहचाना है 

मेरे इस देश में
मेरे इस देश में आहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
कटी बाहों, कटी टांगों कटी राहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
मेरे इस देश में कातिल तो बहुत मिलते हैं
मगर इस देश को सरसब्ज बनाने के लिए
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
बड़ी उम्मीद बड़ी आस कागजी, तहरीरें
मेरे इस देश में शब्दों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं

जवाब
तुम न दिन की तरह निकले
न फूल की तरह खिले
रजत रात की तरह किसी दिल में महके भी नहीं
क्या जवाब है तुम्हारी आत्मा में उनके लिए
जो दिन का इन्तिजार कर रहे हैं.
फूल के खिलने की बात जोह रहे हैं
रजत रात की धड़कनों को
मुर्दा दिलों में सुनने को बेचैन हैं
पर जो दब गए हैं भरी जेबों के अंधेरों में 

निर्वासन
देश में होकर भी निर्वासित हूँ
(देता हूँ दिलासा अपने को)
निर्वासित होकर भी
देश में तो हूँ

दीवार

अब तबीयत कैसी है?
किसी ने पूछा-उस ढही दीवार से
वह बेचारी क्या बोलती
मौन
नजरें झुकाए
सीलन भरे सिकुड़े होठों से वह मुस्कुराई
देश के सारे बुलडोजर खुशी के मारे
अपने को क्रांतिकारी समझ नाचने लगे

बदले पैमाने

गोली लगी
झुकी हुई पीठ में
निकल पड़े खून की जगह
घुन लगे गेहूं के दाने
सभी थे भूखे
बाँट लिया मिल-जुल
सिपाहियों ने
हत्यारों ने
भ्रष्ट मुकुटों ने
मौसम तो यह भाईचारा देख दंग रह गया
चिड़ियों के चोचों से छूट गए गाने
काँपे गुफा-घाटी
बदले पैमाने
बिना रेट सबक
बच्चे हो गए सयाने

धीरे-धीरे
चली मिनिस्ट्री धीरे-धीरे
बढे गिरहकट धीरे-धीरे
सड़कें धसतीं धीरे-धीरे
ईंट खिसकती धीरे-धीरे
झाड़ा प्लास्टर धीरे-धीरे
गिना बहत्तर धीरे-धीरे
बीत गए दिन, बीती रातें
बीत गए तुम धीरे-धीरे

  

सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते 

सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते 
वे चमकते हैं शिशुओं के ह्रदय और आँखों में
वे प्रतीक्षा करते हैं उनके जवान होने की
और फिर आहिस्ता से उन्हें मुक्त कर देते हैं
उनके मनचाहे स्वप्नों के लिए
वे जहां रात देखते हैं
वहीं चमकने लगते हैं
सूरज की भूमिका समाप्त होने के साथ ही
उनकी भूमिका शुरू हो जाती है
वे सारी रात चमकते रहते हैं
अगले सूर्योदय की प्रतीक्षा में
दुनिया से बेदखल होती मानवता को
वे आमंत्रित करते हैं अपने अन्तःकक्ष में
विचारित नहीं होते वे वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों की गणित से
वे मुस्करातें हैं कलाकार के रंगों में
संगीतज्ञ की मीड और गमक में
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते 
वे बेचैन रहते हैं नाकाम करने को
कुटिलताओं और साजिश भरे मंतव्यों को
लेकिन एक उल्कापात होता है
तब कोई मर जाता है बेसहारा
और वंचित रह जाते हैं सितारे
उसके प्राणों की रोशनी बन पाने से.   

संपर्क-
१५८ आर, राजरूपपुर,इलाहाबाद २११०११

मोबाईल- ०९३०५१०२९३३