गौतम राजरिशी का आलेख ‘कविता की कॉन्सपिरेसी थ्योरी’


गौतम राजरिशी

युवा कवि गौतम राजरिशी ने कविता के संदर्भ में कई एक महत्वपूर्ण पाठकीय सवाल उठाए हैं। गौरतलब है कि गौतम ने अपने आलेख का शीर्षक ही दिया है ‘कविता की कॉन्सपिरेसी थ्योरी’। इस आलेख में जहाँ एक तरफ मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता की दुर्बोधता के समक्ष राजकमल चौधरी की महत्वपूर्ण कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ की अवहेलना किए जाने का प्रसंग है वहीं दूसरी तरफ ‘लांग नाईनटीज’ के शोरोगुल पर भी बेबाक टिप्पणी है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं गौतम राजरिशी का यह आलेख। इस आलेख/ टिप्पणी पर आपकी पाठकीय टिप्पणियों/ सहमतियों/ असहमतियों का स्वागत है।
                      
कविता की कॉन्सपिरेसी थ्योरी

गौतम राजरिशी
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब…
मुक्तिबोध की लिखी ये पंक्तियाँ, जो उनकी ख्यात कविता “अँधेरे में” का हिस्सा हैं,शायद सबसे ज़्यादा उद्धृत की जाने वाले काव्य-पंक्तियों में शुमार किए जाने का रौब गाँठती हैं अपने दुरूह शिल्प और अबूझ बिम्बों का ताना-बाना लिए लगभग चालीस पृष्ठों में फैली (या सिमटी) हुई ये कविता आख़िर किस वज़्ह से नई कविता के सिरमौर का रुतबा अख़्तियार कर लेती है, समझने के लिए मेरे अंदर का निरीह सा पाठक इसे पढ़ता है…बार-बार पढ़ता है, सैकड़ों बार पढ़ता है। सस्वर पढ़ने की कोशिश करता है,बुरी तरह से पराजित होता है। थम-थम कर ठहर-ठहर कर पढ़ता है, एकदम पस्त निढ़ाल हो जाता है। और फिर कविता में यत्र-तत्र बिखरे कुछ अद्भुत जुमलों को उठाता है, अपनी डायरी में नोट कर इसे अपनी पाठकीय सफलता मान लेता है और देर तक इतराता है।
  
असंख्य अनगिन विमर्शों के इस हाहाकारी दौर में हिन्दी-साहित्य के हम जैसे कितने ही समर्पित पाठक तनिक कनफ्यूज़ से बैठे हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर महज़ चंद कथित रूप से स्थापित नाम एक किसी रचना-विशेष को आख़िर किस पैमाने पर तौलते हैं और उसे भारी-भरकम विशेषणों, यथा “उत्तर-आधुनिक काल का प्रस्थान बिन्दु” या फिर “भूमंडलीकरण के ख़तरे के विरुद्ध शंख-नाद”, से सुशोभित कर हमारी तरफ उछाल देते हैं कि लो पढ़ो! नहीं समझ में आने का ऐलान आपको मूर्खों, जाहिलों की पंगत में बिठा देता है और “अहा, क्या कविता है” जैसे कुछ उद्गार आपको अपने पाठक-मन के प्रति बेईमान बनाता है। कई सारे सवाल उमड़-घुमड़ कर बरसते हैं लगातार। क्या कारण है कि ठीक उसी समय की मणींद्र नारायण चौधरी उर्फ़ राजकमल द्वारा लिखी हुई कविता “मुक्तिप्रसंग” अपने शिल्प,अपनी वेदना, अपनी कसावट में मुक्तिबोध की “अँधेरे में” के बनिस्बत कई गुणा बेहतर होते हुए भी एकदम से नकार दी जाती है? या फिर ख़ुद मुक्तिबोध की ही दूसरी कविता “ब्रह्मराक्षस”, जो हिन्दी-साहित्य की समस्त लंबी कविताओं में अपनी इमेजरी और खूबसूरत छंद (गीतिका/मरुकनिका या उर्दू का बहरे-रमल) की एक मिसाल है, को ही क्यों नहीं “अँधेरे में” के जैसा रुतबा दिया जाता है?
मेरे अंदर के सजग पाठक को यह सब कुछ एक बड़ी…बहुत बड़ी कॉन्सपिरेसी का शातिर हिस्सा लगता है। जानता हूँ, इस अदने से पाठक के इस उद्गार पर कई भृकुटियाँ उठ खड़ी होंगी… लेकिन प्रत्युतर में मैं ख़ुद अपने प्रिय कवि की ओट में जा खड़ा होता हूँ कि “अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे”। एक बड़ी साजिश के तहत चतुराई से पॉलिटीकली करेक्ट रहने की कुशलता आधुनिक कविता में अवसाद को स्थायित्व और कविताई को गुमशुदगी प्रदान करती जा रही है। कमाल की बात ये है कि जो कविता सारे मठ और गढ़ को तोड़ने का डंके की चोट पर ऐलान करती है, उसी कविता को वापस अघोषित किन्तु स्पष्ट रूप से दुष्टिगोचर मठ/गढ़ के निर्माण की नींव के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। साठोतरी कवियों और आलोचकों की एक पूरी पीढ़ी जिस तरह से कलावादी और प्रतिक्रियावादी कविताओं के ज़िक्र पर नाक-भौं सिकोड़ती दिखती है, उसी पीढ़ी को “अँधेरे में” का प्रतिक्रियावाद नज़र नहीं आता। जैसा कि “चाँद का मुँह टेढ़ा है”, जिसमें यह कविता पहली बार संकलित हो कर सामने आई, के प्रथम संस्करण की भूमिका में ख़ुद शमशेर जैसे हिन्दी कविता के महारथी लिखते हैं कि नागपुर में अपने प्रवास के दौरान एम्प्रेस मिल के मज़दूरों पर जब गोली चली तो मुक्तिबोध रिपोर्टर की हैसियत से घटनास्थल पर मौजूद थे। “अँधेरे में” शीर्षक कविता उनके नागपुर जीवन के बहुत सारे संदर्भ समेटे हुए है। क्या अधिकांश कविताएँ किसी न किसी घटना-विशेष,स्थान-विशेष, सत्ता या साम्राज्य विशेष की प्रतिक्रिया में ही नहीं लिखी जाती? फिर कैसे कोई कविता प्रतिक्रियावादी का ठप्पा लगा कर ख़ारिज कर दी जाती है, और कोई कविता तमाम तरह के गहनों से लाद दी जाती है? जिस कविता को राजेश जोशी “एक विराट स्वप्न फैंटेसी” और मंगलेश डबराल “हमारे समय का इकलौता महाकाव्य” का मैडल देते हैं, क्या कारण है कि हिन्दी-साहित्य के गिन के तीन सौ पाठक भी नहीं मिलते, जिन्होंने इस कविता को पढ़ा तक हो?
ये प्रश्न विचलित करते हैं मुझ जैसे कविताशिक़ों को। लेकिन कविता के पाठकों का कविता से विचलित होना भी कोई मुद्दा है भला? जन की कविता जन का विषय उठाती है बस, लिखी तो प्रबुद्धों के लिए जाती है बस। एक बेहतरीन समकालीन कवि (जो की दोस्त भी है) ठसक के साथ ऐलान करता है कि वो क्लास के लिए लिखता है मास के लिए नहीं। लेकिन उसकी साफ़गोई एक कवि की ईमानदारी है और उस ईमानदारी का एक पाठक के रूप में सम्मान करता हूँ। इतनी ही साफ़गोई की अपेक्षा तमाम कवियों से करता हूँ। “अँधेरे में” की कविताई में क्रिएट किया हुआ विस्तृत लैंड-स्केप,दरअसल मुक्तिबोध के कवि की पनाहस्थली है, जहाँ वो छुप कर बैठ जाता है। उस पनाहस्थली में कवि एक नायक का निर्माण करता है…नायक जो एस्केपिस्ट है। पता नहीं क्यों लगता है कि मुक्तिबोध ज़िंदा होते तो निश्चित रूप से खीजते, क्योंकि अपने दोस्त-कवि वाली ईमानदारी मुक्तिबोध में दिखती (मुक्तिबोध की तरह ही लिखूँ तो दीखती) है मुझे…इतनी कल्पना तो कर ही सकता हूँ उनका एक घनघोर पाठक होने के नाते। कम-से-कम इस एक कविता को इतनी बुलंदी प्रदान किए जाने के तिरकम पर तो निश्चित रूप से झुँझलाते वो। वही प्रगतिशील मोर्चा जो तुक (rhyme) को एक सिरे से नकारता है, उसी मोर्चे को “अँधेरे में” के हास्यास्पद की हद तक बन आए तुकों से कोई परेशानी नहीं। हनु के साथ मनु, अकेले के साथ दुकेले, हायहाय-नुमा के साथ टॉलस्ताय-नुमा…लम्बी फ़ेहरिश्त बन जाएगी। मुक्तिबोध की ही पंक्तियों का फिर से सहारा ले कर कहना चाहूँगा इन समस्त दुदुंभी बजाते मोर्चों से-
“स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एक्ज़ामिन हिम थोरोली !”
जितना सोचता हूँ, यह सारा कुछ उतना ही एक बड़ी कॉन्सपिरेसी का हिस्सा लगता है यूँ इस ताह एक किसी कविता को सिरमौर घोषित कर देना। कविता पर चल रही, उठ रही तमाम बहसों की धमा-चौकड़ी में हम कविताशिक़ों को ये हिन्दी कविता का एक भीषण “लीन-पैच” वाला दौर नज़र आता है। लीन-पैच दरअसल क्रिकेट से जुड़ा शब्द है और उस बल्लेबाज के लिए इस्तेमाल होता है जो लगातार मैच दर मैच विफल हो रहा हो, रन ना बटोर पा रहा हो। एक तरह का मोह है ये लीन-पैच अपनी ही लिखी कविताओं के लिए अधिकांश कवियों का। दूर होते पाठकों को मृग-मरीचिका मान कर तमाम तरह की बहसें। अभी दो साल पहले एक स्थापित पत्रिका (वागर्थ) ने एक पीढ़ी-विशेष के कवियों की खेमेबाजी कर शेष सब कवियों को ख़ारिज करने की कॉन्सपिरेसी रची थी… “लॉन्ग नाईन्टीज” का ठप्पा लगा कर। हम सब पढ़ने वालों को दरअसल वो “नर्वस नाईन्टीज” की थरथराहट नज़र आई उसमें। ...कि तब जब कविता हर सफ़े, हर वरक़ पर असहाय कराहती नज़र आ रही थी, आत्म-मुग्ध कवियों की एक टीम बाकायदा बैंड-बाजे के साथ सामने आती है और एक दशक-विशेष पर चर्चा के बहाने अपने नामों और अपनी ही कविताओं का फिर-फिर से ढ़ोल बजाती है। बड़े सलीके से एक प्रश्नावली बुनी जाती है और फिर उतने ही सलीके से चयनीत नामों की एक फ़ेहरिश्त को वो प्रश्नावली भेजी जाती है… कभी सुना था कि नई-कहानी नामक तथा-कथित आंदोलन के पार्श्व में कहानिकारों की एक तिकड़ी ने सुनियोजित साजिश रच कर एक सिरे से हिन्दी-कहानी के तमाम शेषों-अशेषों-विशेषों को नकारने की ख़तरनाक सुपाड़ी उठाई थी। कुछ वैसा ही प्रयास हुआ इस “लॉन्ग नाईन्टीज” विमर्श के बजरीये। सलीके की बुनावट इस कदर कि कोई नाराज़ भी न हो, कोई विवाद भी ना उठे…लेकिन पाठकों द्वारा नकारी हुई अपनी कविताओं पर चर्चा भी हो जाये। काश कि इतना ही सलीका इन महाकवियों ने अपने शिल्प और कविता की कविताई पर भी दिखाया होता…!!! हम पाठकों के ठहाके तो तब और ज़ोर-ज़ोर से छूटने लगते हैं, जब टीम-चयन के दौरान पहले तो एक कवि-विशेष (स्वप्निल श्रीवास्तव) को पूर्व-पीढ़ी का अंतिम कवि कहते हुये खारिज कर दिया जाता है और फिर तुरत ही उस कवि-विशेष द्वारा एतराज जताने पर पत्रिका के अगले अंक में उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रथम कवि मान लिया जाता है… हाय रेsss , इतनी उलझन तो भारतीय क्रिकेट-टीम के चयनकर्ताओं के दरम्यान भी नहीं हुई होगी टीम चुनते समय।
इस पूरे “लॉन्ग नाईन्टीज” विमर्श में कॉन्स्पिरेसी की तमाम कलई तब बिखरती नज़र आती है, जब पहले तो ये सफाई दी जाती है कि कविता या साहित्य में दशकवाद घातक है… किसी दौर की रचना पर दशक के अनुसार विमर्श उचित नहीं और फिर तुरत ही अपनी दुदुंभी बजाने की उत्कंठा में ऐलान किया जाता है कि किन्तु लॉन्ग नाईन्टीज समय का प्रस्थान बिन्दु है और जिसे पढ़ कर कविताई-आतंक से खौफ़ खाये हम पाठक मुस्कुराने लगते हैं इस शातिरपने पर। कैसी कविता, कहाँ की कविता कि जिसके सत्यापन के लिए एक पत्रिका के तीन से चार अंकों में जाने कितने पन्ने काले कर दिये गये। हम कविताशिक़ पाठक जो अधिकांशतया गद्य के अनुच्छेदों की ऊपर-नीचे कर दी गई पंक्तियों को इन महाकवियों द्वारा कविता कह दिये जाने पर आँख मूँद भरोसा कर लेते हैं और पढ़ते जाते हैं कि एक जुमले में ही सही, कहीं तो कविता का कवितापन दिख जाये…मगर हाय रे हतभाग! महाप्राण निराला के मुक्त-छंदके आह्वान को कब चुपके-चुपके छंद-मुक्तबना दिया गया और होने लगे तमाम तरह के विमर्श भी उस पर… कविता की कॉन्सपिरेसी थ्योरी में ये सबसे अव्वल नंबर पर आती है। उधर पश्चिम में, पोएट्री फ्री-वर्सही है अब तलक…उस जानिब किसी ने वर्स-फ्रीबनाने की हिमाकत नहीं की है। क्योंकि उस जानिब अभी भी कविता को कविता बनाए रखना ही सबसे बड़ा विमर्श है ना कि कथित आलोचकों का मुंह जोहना। लेकिन इस मुद्दे पर तो अब कुछ भी बोलना हाथी-चले-बाज़ार-कुत्ता-भूँके-हजार की तर्ज़ पर ही होता है अक्सर, जहाँ हाथी बिला शक वर्तमान कवियों की पूरी टोली के लिए आया है जो मदमस्त हो रौंदे चले जा रहे हैं अपने मासूम पाठकों को।
आइये, एक और थ्योरी का अवलोकन करते हैं आख़िर में। उदय प्रकाश इस दौर के महानतम कथाकार हैं और जिस पर शायद ही किसी को संदेह हो, जिनकी कहानियों का तिलिस्म हम सब पर सम्मोहन की तरह छाया हुआ है और हमारी पूरी पीढ़ी ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत मानती है कि हमने उस दौर में जन्म लिया जिसमें उदय प्रकाश ने कहानियाँ लिखीं। वही उदय प्रकाश अक्सर ही अपने वक्तव्यों में, विभिन्न साक्षात्कारों में ख़ुद को कहानीकार मानने से इंकार करते हैं और ख़ुद को एक कवि मनवाने में ही व्यस्त रहते हैं। हम जैसे उनकी मुहब्बत में डूबे उनके भक्तों को ये उनकी विनम्रता लगती है… लेकिन अतिशय विनम्रता भी कई बार संदेह की जननी होती है। ऐसा कह कर या ऐसा घोषित कर के शायद वो कविता के उस सिंहासन पर स्वयमेव जा बैठे हैं, जहाँ से वो जिसे चाहे महान कवि होने का कवच-कुंडल प्रदान कर सकते हैं। अभी हाल का ही भारत भूषण अग्रवाल सम्मान का विवाद इसी ओर इशारा नहीं करता? उस सिंहासन से जारी हुआ फ़रमान जहाँ एक स्थापित विलक्षण कवियत्री, जिससे हम पाठक हिन्दी-कविता के लिए ढेर सारी उम्मीदें बाँधे हुए थे, की अति-साधारण सी(अमूमन हर पाठकों के लिए) कविता को एकदम से साल की श्रेष्ठ कविता बना देता है, वहीं पैरोडी नामक एक चीप-सी विधा को कविता के प्रांगण में दाख़िला करवा देता है। निकट ही इसी कॉन्सपिरेसी का साइड-इफेक्ट यूँ होता है कि दो-तीन प्रतिभाशाली युवा कवियों की टोली छ्दम स्त्री नाम से फेसबुक पर कविता का हाहाकार मचा देती है। सोशल मीडिया पर उठे तूफ़ान के पीछे ज़रा सा हम झाँक कर देखें तो यह छद्म कविताई हाहाकार एक तरह से विरोध है इन युवा-कवियों का जो सवाल उठाता है कि यदि पोएटरी मैनेजमेंट उनमें से किसी ने लिखा होता तो शायद किसी का ध्यान तक नहीं जाता इस कविता पर।  
सच कहूँ, तो यह सब सोच कर एक सिहरन सी होने लगती एकदम से…कुछ कुछ वैसी ही सिहरन जो गुमनामी बाबा के सुभाष चंद्र बोस होने और उनके उस हवाई दुर्घटना में ज़िंदा बच जाने की बातों को सुन कर उत्पन्न होती है या फिर चाँद पर नील आर्मस्ट्रोंग के न उतरे होने की बाबत सुन कर कि वीडियो में तो आर्मस्ट्रोंग के पीछे का अमेरिकन फ्लैग लहराता दिखता है जबकि चाँद पर तो हवा होती ही नहीं…
और कविता की इन तमाम कॉन्सपिरेसी थ्योरी से बौखलाया हुआ ये कविताशिक़, प्रार्थना करता हुआ कि ये सब सिर्फ और सिर्फ एक थ्योरी ही हो और कविता इनसे परे, इन सबसे हट कर अभी भी शायद पवित्र बची हुई हो, लौटता है मुक्तिबोध की ओर आश्रय के लिए पुन:  
उन्हीं के शब्दों में –
खोजता हूँ पठार…पहाड़…समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा !

सम्पर्क-  
गौतम राजरिशी  
द्वारा- डॉ० रामेश्वर झा 
वी॰ आई॰ पी॰ रोड, पूरब बाज़ार 
सहरसा – 852201

मोबाइल – 09759479500 

ई-मेल gautam_rajrishi@yahoo.co.in

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)  

गौतम राजरिशी की कविताएँ

गौतम राजरिशी


किसी सैनिक का नाम सुनते ही हमारे मन में उसके लिए एक अलग तरह के मनोभाव उठने लगते हैं. देश के लिए मर-मिटने के लिए हर घडी तैयार रहने वाला वाला ऐसा शख्स जो हमेशा युद्ध की परिस्थितियों में रहता है. जो युद्ध के लिए नियुक्त ही किया जाता है और युद्ध को जीता और महसूस करता है.  लेकिन हम भूल जाते हैं कि तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी होता है जिसमें उस सैनिक के अन्दर एक सजग-संवेदनशील इंसान का जागरुक मन होता है. विपदाओं को करीब से देखने और भोगने की वजह से उसके अन्दर जो प्रेम जगता है वह औरों से अलग और सघन अनुभूति लिए होता है. गौतम राजरिशी की कविताएँ पढ़ते हुए प्रेम की इस सघन अनुभूति को सहज ही महसूस किया जा सकता है. अगर कवि की पंक्तियों का ही सहारा ले कर कहूं तो गौतम राईफल के कुंदे से परे उन पंक्तियों में बंट जाना चाहते हैं जो छन्द की बन्दिशों की भी परवाह नहीं करती. जहाँ होता है बस एक आजाद, उन्मुक्त और बदहवास अनुभूति. बिल्कुल एक सहज जीवन की ही तरह कुछ-कुछ बेतरतीब और किसी भी तरह के अनुशासन से मुक्त. जहाँ एक घर की यादें हमेशा उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं और जो प्रेम की उस गली में खोना चाहता है जिसके बिना सारे शब्दों के अर्थ और अभिप्राय भी बेमानी हो जाते हैं तभी तो गौतम लिख पाते हैं ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी/ और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी/ बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब. तो आइए आज पढ़ते हैं गौतम राजरिशी की कुछ नयी कविताएँ. 
गौतम राजरिशी की कविताएँ  
(अ)सैनिक व्यथा -1
सर्द बेजान
राइफल के इस कुंदे से परे
चाहता हूँ बँट जाना मैं भी
बेतरतीब
सी कुछ पंक्तियों में
छोटे
बड़े, ऊपरनीचे
लिखे हुये चंद जुमलों में
छंद की बंदिशों से परे
आजाद, उन्मुक्त, बदहवाश

कि समेट सकूँ खुद में
पापा की व्याकुल भृकुटियाँ,
माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
बारुद की गंध,
रेत भरी बोरियों वाली
इस बंकर की ठिठुरन,
ऐश्वर्या की आँखें,
कुछ लड़कियों के भूले
बिसरे नाम,
ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
और
एक भूले हुये प्रेम का

सम्पूर्ण विस्तार…
और बन जाऊँ एक अमर कविता
सृष्टि के अंत तक गुनगुनाई जाने वाली

()सैनिक व्यथा – 2
{कश्मीर से सशस्त्र सेना बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने की मुहिम पर एक अदने से सैनिक की प्रतिक्रिया}
सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दिये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये
अहा…! सच में?
छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना
कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब…
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और…कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट…?
लेकिन ये जो एक सवाल है
उठता है बार-बार और पूछता है
पूछता ही रहता है कि…
बाद में, बहुत बाद में
वापस तो नहीं बुला लोगे
जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से…
जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा…
जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही
और
तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष
फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में?
तुम्हें नहीं मालूम
कि मुश्किलें कितनी होंगी तब
सबकुछ शुरू से शुरू करने में
फिर से…
(अ)सैनिक व्यथा -3
सुनो राजस्थान
जब भी मैंने चाहा तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ
तुम्हारे रेत के तपते टीलों पर पिघल कर
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुईं
मेरे नक़्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें
हरदम ही तो गुम हुआ है
मेरे कम्पास का उत्तर रुख
सुस्ताने को दिया नहीं कभी
तुम्हारे नागफ़नी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे
मेरे जूतों के तसमों को वैसे भी
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से
सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व
यक़ीन मानो, हारोगे!
रहने दो इस द्वंद्व के ऐलान को
मानता हूँ कि
बर्फ़ के वो बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुल-मिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी
सुनो! तुम तो मेरे ही हो
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
ली थी पहली अंगड़ाईयाँ
अपने शिनाख़्त की
बनाना है उसे भी अपना
तुम्हारी तरह ही
उसे गुमान है अपने हुस्न पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुबह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर
और है थोड़ा-सा खफ़ा भी
मुल्क की बेरुख़ी से
जीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम कि
ऊँट की भूख है ये इश्क़ मेरा
जीरा उसकी बर्फ़ीली ठंडक  
आऊँगा इक रोज़ वापस
ख़ुद को सौंपने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिए बस
तुम्हारा सकून भरा गर्म आगोश
लगाओगे न गले
आऊँगा जब भी वापस?
त्रासदी प्रेम कीकविता की
नहीं देखा है मैंने कभी
फूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये
गौर नहीं किया कभी सुबह-सुबह
शबनम की बूँदों पर
झूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे-
तुम्हें सुनाने के लिये
सच कहूं तो
ये चाँद भी
तुम्हारी याद नहीं दिलाता
फुरसत ही कहाँ जो देखूँ इसे,
सजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये
ये अमलतास के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी…
नया-पुराना

बहुत भाता है पुराना
कब से जाने

तब से ही तो

तीन, तीस या तीन सौ?
लम्हे, दिन, महीने या साल ??
कितनी पुरानी हो गई हो तुम???
इतराती हो फिर भी 
है ना ?
कि रोज़ ही नयीनयी सी लगती हो मुझे

रफ़ी के उन सब गानों की तरह
सुनता हूँ जिन्हें हर सुबह
हर बार नए के जैसे

या वही वेनिला फ्लेवर वाली आइसक्रीम का ऑर्डर हर बार
कि बटरस्कॉच या स्ट्रबेरी को ट्राय कर
कोई रिस्क नहीं लेना

लॉयेलिटी का भी कोई पैमाना होता है क्या?
तुम्ही कहो

तुम भी तो लगाती हो वही काजल
रोज़रोज़ अलसुबह
उसी पुरानी डिब्बी से
तेरा वो देखना तो फिर भी
नया ही रहता है हरदम

 …और वो जो मरून टॉप है न तेरा
जिद चले जो मेरी तो रोज ही पहने तू वही
अभी चार साल ही तो हुए उसे खरीदे
अच्छी लगती हो उसमें अब भी
सच कहूँ, तो सबसे अच्छी

सुनो तो,
ग़ालिब के शेरों से नया कोई शेर कहेगा क्या
हर बार तो कमबख़्त नए मानी निकाल लाते हैं
जब भी कहो
जब भी पढ़ो

बहुत भाता है बेशक पुराना मुझको
अच्छा लगे है मगर
तेरा ये रोज़रोज़ नया दिखना

एक अक्षराशिक़ का विरहकाव्य 
खुलता है यादों का दरीचा
चाँदनी के द से अब भी
बचा हुआ है धूप के प में  प्रेम अभी भी थोड़ा सा
यादों में चुंबन के ब से होती है बारिश रिमझिम
और रगों में ख़ून उबलता तेरे ख़्वाबों के ख़ से

बाद तुम्हारे ओ जानाँ…
हाँ, बाद तुम्हारे भी जब तब

तेरी तस्वीरों के त से र तक एक तराना है
तनहाई का ताल नया है
विरह का राग पुराना है
एक पुरानी चिट्ठी का च बैठा है थामे चाहत
स्मृतियों की संदूकी में
तन्हा-तन्हा अरसे से
एक गीत के गुनगुन ग से हूक ज़रा जब उठती है
कहती है ओ जानाँ तेरा ज बड़ा ही जुल्मी है
एक कशिश के क से निकलती कैसी तो कैसी ये कसक
बुनती है फिर मेरी-तुम्हारी एक कहानी रातों को

बिना तुम्हारे भी जानाँ…
हाँ, बिना तुम्हारे भी अक्सर

यूँ तो मोबाइल का ल अब लिखता नहीं कोई संदेशा
उसके इ में है लेकिन इंतज़ार सा कोई हर पल
मौसम के म पर छाई है हल्की सी कुछ मायूसी
और हवा का ह भी हैरत से अब तकता है हमको

इतना भी मुश्किल नहीं है बिना तुम्हारे जीना यूँ
हाँ, जीने का न बैठ गया है चुपके से बेचैनी में
और धुएँ के बदले उठती सिसकी सिगरेट के स से

ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !
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द्वारा- डा० रामेश्वर झा, वी० आई० पी० रोड
 पूरब बाजार, सहरसा-  852201

 

मोबाइल – 09759479500

ई-मेल gautam_rajrishi@yahoo.co.in

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)