विदूषक
प्रहसन करना उसका काम है ,
चहकती हँसी के स्त्रोत से
खुशियों की चाबी रखता
विलाप विसर्जित कर देता है
वह विदूषक कोई एक
जीवन एक खेल है
रंग विरंगी खुशियों का
एक गुब्बारा है
एक पतंग है
लेकिन पतंग की डोर
कब कट जाये
उसका पता नहीं
पीड़ा को भूल कर
विदूषक हंसी का
और हँसाने का
अभिनय करता
आगे बढ़ता है
दिल के कोने में
छिपे विलाप को
रूपांतरित कर देता है
खिलती मुसकान में ……
कुछ अचानक
एक सुबह ऐसी भी आई
संज्ञान की ताप से जब नींद खुली
फिर आँखे बंद हो गयीं
मेरी चेतना जगी
आँखों ने अपने आप पलकें खोलीं
अचानक दिल की सारी हसरत
नदी में बह गयी
जीवन की सारी मुर्दानी शांति गायब हो गयीं
और मुरव्वत ने अपना घर बसा लिया
रास्तो के पत्थर अपने आप
रस्ता छोड़ने लगे
रास्ते पर
अलमस्त हवा बहने लगी
बागों में
खिल उठे मुरझाए फूल
मैंने देखकर बटोर ली मुस्कान
और दिल में सजा कर मुस्कान को ले
निकल चली जीवन के सफर में
बेपरवाह……….अलमस्त …..
तुम्हारे न आने से
वो शाम कभी न भूलूँगी
जब तुम अपने घायल पंखों के साथ
आँसू बहाते हुए मिली
अपनी बाँहों मे तुम्हें ले कर
आई थी अपने घर
तुम्हारे घावों को ठीक करने
जब तुम ठीक हुई
मेरे जीवन मे खिल गयी आशा की धूप
उम्मीद की किरण
तुम्हारे साथ आसमान मे उड़ने का ख्वाब
देखने लगी
तुम्हारे संगीत मे खो गयी मैं
मुझे अब दुख नही था
मेरा विषाद हर्ष मे बदल चुका था…
अब तुम कहीं और चली गयी हो
न मुझसे मिलने आ रही
ना आसमान से
न उस पेड़ की डाल से
न धूप से
न हवा से
न अपने सुनहरे पंखों के साथ बादल बीच
उड़ती नज़र आ रही हो तुम
आज तुम्हारी याद आई तो
एक कविता लिख दी तुम्हारे लिए
कि तुम किसी आदमी के
गोलियों की शिकार हो गयी
मेरी चिड़ियाँ……………..
(नेहा महंत की कविताओं की पहली बार पर प्रस्तुति अरुणाभ सौरभ की है.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स राम कुमार की हैं।)