अरुण माहेश्वरी

(चित्रः गूगल के सौजन्य से)

अज्ञेय शताब्दी समारोहों के बहाने

सात मार्च 1911 को जन्मे अज्ञेय जी का शताब्दी वर्ष पूरा हो गया। हिंदी जगत में उनके लिये श्रद्धा-सुमनों की कोई कमी नहीं रही। अलग-अलग शहरों में कई आयोजन हुए। अखबारों, पत्रिकाओं में कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियां आयीं। उनके निकट के मित्रों, संबंधियों ने एक-दो किताबें भी निकाली। कुछ स्वघोषित ‘सांस्कृतिक दूतों’ के शहर-शहर फेरे लगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि कुल मिला कर यह पूरा वर्ष बिना किसी वैचारिक उत्तेजना और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यग्रता के एक स्निग्ध और शान्त, तनाव-रहित वातावरण में बीत गया।

रवीन्द्रनाथ, प्रेमचंद, और मुक्तिबोध तो जाने दीजिये, यहां तक कि तुलसी जयंती भी आज तक सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों पर कुछ वैचारिक उत्तेजना पैदा करती है। लेकिन हाल के वर्षों तक हिन्दी में सबसे विवादास्पद समझे जाने वाले अज्ञेय की शताब्दी कोई मामूली वैचारिक आलोड़न भी पैदा नहीं कर पाये, यह स्थिति किस बात का संकेत है?

क्या यह अज्ञेय पर या आज के समय पर या दोनों पर ही कोई विशेष टिप्पणी है?

जिन नामवर जी की अज्ञेय के साथ एक मंच पर उपस्थिति से “वैचारिक रक्तपात” का कयास लगाया जाता था, उन्होंने भी इस शताब्दी वर्ष में दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थनाएं भर करके अपना काम चला लिया। और जो ‘अज्ञेयपंथ’ का झोला लिये घूमते रहे हैं, उनके पास पहले भी कहने के लिये सिर्फ श्रद्धा और भक्ति ही थी, शताब्दी वर्ष के समारोहों में भी उसी का प्रदर्शन किया गया। वैसे भी, आज के ‘समाजवाद-विहीन’ वैश्वीकरण के युग में अज्ञेय के विचारों के दो प्रमुख फलक, कम्युनिस्ट-विरोध और पूरब-पश्चिम द्वैत वाली पंडिताई के खरीदार कहां बचे हैं! कुल मिला कर इस पूरे साल ‘अज्ञेयपंथ’ और ‘नामवरपंथ’ की खूब छनी। सब कुछ भले-भले निपट गया।

इस ‘भले-भले’ ने ही आज हमारे लिये यह प्रश्न छोड़ दिया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? किसी जमाने में हिंदी में प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के बरक्स अज्ञेय का प्रयोगवाद (परिमल) विचारधारा के एक दूसरे धुर का मंच हुआ करता था। पचास के दशक के शीत युद्ध के जमाने में एक ओर जहां सोवियत-प्रेरित समाजवाद, जनतंत्र और शांति का आंदोलन था तो दूसरी ओर अमेरिका के तत्वावधान में ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का ‘समाजवादी निरंकुशता’ के खिलाफ ‘विचारधारा की समाप्ति’ के नारे के आधार पर तैयार किया गया पश्चिमी बुद्धिजीवियों का विरोधी मंच था। अज्ञेय जी ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ के मंच से जुड़े हुए थे, इसके अनेक साक्ष्य हिंदी में चर्चित हो चुके हैं। किसी भी वजह से प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के साथ निर्वाह करने में असमर्थ लेखकों के लिये परिमल एक अलग मोर्चे की भूमिका अदा कर रहा था। इसीलिये स्वाभाविक तौर पर हिंदी में उस काल की सारी साहित्यिक-वैचारिक बहसों के केंद्र में अज्ञेय हुआ करते थे। लेकिन आज वह सारा विवाद कहां रफ्फू-चक्कर हो गया?

यही एक प्रश्न किसी को भी आज की साहित्यिक दुनिया के सच पर गहराई से नजर डालने के लिये प्रेरित कर सकता है।

आजादी के पहले की और शीत युद्ध के पूरे जमाने की बात छोड़ दीजिये। तब वास्तव में दुनिया दो शिविरों में बंटी हुई थी- साम्राज्यवादी और समाजवादी। 80 के दशक तक समाजवादी शिविर की अनेक बुनियादी कमजोरियों और बिखराव के उजागर होने पर भी धरती पर सोवियत संघ की मौजूदगी मात्र से विचारों की दुनिया में शीतयुद्ध का तनाव बना हुआ था। इसीलिये, तब तक भी भारत सहित बहुत से नवस्वाधीन विकासशील देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी गुट-निरपेक्षता, गैर-पूंजीवादी विकास की संभावनाओं के आधार पर जनतंत्र और उसके विस्तार की लड़ाई की एक खास ‘समाजवादी’ दिशा थी। चीन का ‘नया जनवाद’ ढेरों नयी वैचारिक उद्भावनाओं का स्रोत था। हिंदी में तभी प्रेमचंद शताब्दी के दौरान प्रेमचंद को केंद्र में रख कर चंद्रबली सिंह ने ‘आलोचनात्मक’ और ‘समाजवादी’ यथार्थवाद के साथ ही यथार्थ की एक और, तीसरी श्रेणी ‘जनवादी क्रांतिकारी यथार्थवाद’ की अवधारणा रखी। प्रगतिशील लेखक संघ वस्तुतः बिखर गया गया लेकिन हिंदी-उर्दू के लेखकों के एक नये संगठन, जनवादी लेखक संघ (1982) का उदय हुआ। जनतंत्र का सवाल केंद्रीय सवाल बना और भारत की जनता की जनतंत्र की लड़ाई के मोर्चे की जो इंद्रधनुषी तस्वीर पेश की गयी उसमें डा. रामविलास शर्मा से लेकर अज्ञेय तक, सबके लिये समान स्थान का आश्वासन था। यह एक अलग विचार का प्रश्न है कि व्यवहार में ऐसा मोर्चा कभी भी संभव हुआ या नहीं हुआ? जाहिर है कि इस पूरे घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में 1975 का आंतरिक आपातकाल और 1977 में जनता पार्टी तथा तीन राज्यों में वामपंथियों की भारी जीतों के अनुभव की भी बड़ी भूमिका थी। ष्

आंतरिक आपातकाल के पहले और बाद के इस दौर में अज्ञेय जीवित ही नहीं, खासे सक्रिय थे। 1965 में वे बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लौट कर तीन सालों तक टाइम्स आफ इंडिया के हिंदी साप्ताहिक ‘दिनमान’ के संस्थापक संपादक की भूमिका निभाने के बाद 1973-74 के दौरान जयप्रकाश नारायण के साप्ताहिक ‘एवरीमैन्स वीकली’ के संपादक (1973-74) रहे और 1977-80 तक नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक का काम संभाला। वह पूरा दौर भारत में जनतंत्र की रक्षा के लिये सबसे तीव्र संघर्ष का दौर था और जयप्रकाश के साथ जुड़ कर अपने अखबारों के जरिये अज्ञेय ने उस पूरी लड़ाई में अपनी एक भूमिका अदा की थी।

फिर भी आज तक कोई यह प्रश्न क्यों नहीं उठाता है कि जनवादी लेखक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य के इंद्रधनुषी दायरे में अज्ञेय को उनके जीवित काल में कभी क्यों नहीं शामिल किया जा सका?

इस एक सवाल के जवाब से जहां प्रलेस-जलेस की विचारधारात्मक प्रतिश्रुतियों और निष्ठाओं की सचाई की परख हो सकती है, वहीं अज्ञेय की भी ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ की वास्तविकता को समझा जा सकता है। कहना न होगा कि आज जहां जलेस-प्रलेस प्रकार के संगठन पार्टी की जकड़नों से बेदम होकर अस्तित्वीय संकट के गह्वर में हांफ रहे हैं, और लेखक क्रमशः जयपुर उत्सव की तरह की साहित्य-मंडियों में अपनी कीमत लगवाने को व्याकुल हो रहे हैं, वहीं अज्ञेय की ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ का भी आज कोई दो-कौड़ी का दाम लगाने के लिये तैयार नहीं है। अज्ञेय शताब्दी वर्ष के आयोजनों की रपटों से तो कम से कम यही जाहिर होता है।

सचमुच यह एक अनोखी विडंबना है। नामवर का लोप ही अज्ञेय का भी लोप है। ऐसे ही ‘विचारधारा का अंत’ विचार मात्र के अंत का भी सबब बनता है।

                                                                                                                      

                                                                                                                                       अरुण माहेश्वरी

अरुण माहेश्वरी

अकेलों की नयी दुनिया

‘टाईम’ पत्रिका के ताजा अंक (12 मार्च 2012) में ऐसी दस बातों का ब्यौरा दिया गया है जो “आपकी जिंदगी को बदल रही है”।  इनमें पहली बात है – अकेले जीना। परिवार परम्परा के बाहर ऐसा एकाकी जीवन जिसमें किसी संतति का स्थान नहीं होता। अमेरिका समेत विभिन्न विकसित देशों के आंकड़ों के जरिये इसमें बताया गया है कि किस प्रकार दिन प्रति दिन ऐसे सभी आगे बढ़े हुए देश के लोगों में बिना किसी परिवार के अकेले रहने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। अमेरिका में 1950 में अकेले रहने वाले लोगों की संख्या जहां सिर्फ 40 लाख, अर्थात वहां की आबादी का 9 प्रतिशत थी, वहीं अब 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी संख्या बढ़ कर 3 करोड़ 30 लाख, अर्थात आबादी का 28 प्रतिशत हो चुकी है। इसमें दिये गये तथ्यों से पता चलता है कि ऐसे एकाकी लोगों की सबसे बड़ी तादाद स्वीडन में, 47 प्रतिशत है, फिर ब्रिटेन में 34 प्रतिशत, जापान में 31 प्रतिशत, इटली में 29 प्रतिशत, कनाडा में 27 प्रतिशत, रूस में 25 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका में 24 प्रतिशत तथा केन्या, ब्राजील और भारत की तरह के विकासशील देशों में क्रमशः 15 प्रतिशत, 10 प्रतिशत और 3 प्रतिशत है।

‘टाईम’ में आधुनिक दुनिया की इस नयी सच्चाई को इस दुनिया के चरम आणवीकरण ((Ultimate Atomization) ) का संकेत कहा गया है। पहले आधुनिक जीवन को एकल परिवार (Nuclear Family) से जोड़ा जाता था, अब इसका तात्पर्य क्रमशः अकेला आदमी होता जा रहा है। उभरती हुई इस नयी सचाई को समाजशास्त्रियों का एक हिस्सा जहां समाज के ‘स्वास्थ्य और खुशियों’ के लिये हानिकारक मानता है, और इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार करता है कि “यह इस बात का संकेत है कि हम कितने अकेले और असंलग्न हो गये है।”

इसके विपरीत, दूसरी व्याख्याएं यह कहती है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि अकेले रहना अमेरिकी आदमी को अधिक अकेला बना दे रहा है। ‘लोनलीनेस’ पुस्तक के सह-लेखक टी. केसियोपो के अनुसार मुद्दे की बात यह नहीं है कि हम अकेले रहते हैं, बल्कि यह है कि क्या हम अपने को अकेला महसूस करते हैं। “किसी गलत आदमी के साथ रहने से अधिक एकाकीपन और किसी में बात में नहीं है।” खुद ‘टाईम’ पत्रिका के लेखक एरिक क्लिनेनबर्ग के अपने सर्वेक्षण के अनुसार, अधिकांश अकेले लोग अकेली आत्माएं नहीं होती है। इसके विपरीत, उनके अनुसार, तथ्य यह बताते हैं कि अकेले रहने वाले लोग अन्य लोगों के साथ रहने वालों की तुलना में कहीं ज्यादा सामाजिक गतिविधियों के जरिये अपनी कमी को पूरा कर लेते है और जिन शहरों में अकेलों की संख्या ज्यादा है, वे एक ‘समृद्ध सार्वजनिक संस्कृति’ का मजा लेते हैं।

क्लिनेनबर्ग का मानना है कि “अन्ततः अकेले रहने से एक उद्देश्य की पूर्ति होती हैः यह पवित्र आधुनिक मूल्यों – व्यक्ति स्वातंत्र्य, आत्म-नियंत्रण, और आत्मानुभव – को अपनाने में हमारे लिये मददगार होता है जो किशोरावस्था से लेकर अंतिम दिनों तक हमारा साथ देते हैं।’

“अकेले रहना हमें इस बात की अनुमति देता है कि हम अपनी शर्तों पर अपनी मर्जी का जब मन आए काम करें। यह हमें किसी घरेलू सहभागी की जरूरतों और मांगों की बाधाओं से मुक्त करता है और खुद पर केंद्रित होने की अनुमति देता है। डिजिटल मीडिया और लगातार फैल रहे सोशल नेटवर्क के आज के युग में अकेले रहने के और भी ज्यादा लाभ मिल सकते हैं, मसलन्, सिद्धिकारी एकांत के लिये समय और अवसर (Time and Space for Restorative Solitude)।”

‘टाईम’ पत्रिका की यह चर्चा हमें अनायास ही फ्रेडरिक एंगेल्स की अमर कृति ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ की याद को ताजा कर देती है। एंगेल्स ने यह कृति मार्क्स की कई अधूरी रह गयी इच्छाओं में से एक, ल्यूईस एच मौर्गन की कृति ‘प्राचीन समाज’ (Ancient Society or researches in the lines of Human progress from sevegary through Barbarism to civilisation) की खोजों के महत्व को स्पष्ट करने के लिये लिखी थी। मौर्गन दुनिया के ऐसे पहले समाजशास्त्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने 40 सालों के एकांतिक अध्ययन के जरिये हमारे लिखित इतिहास के प्रागैतिहासिक आधार अर्थात सामाजिक ढांचे की खोज की और उसका पुनर्निर्माण किया। इस कृति की एंगेल्स की भूमिका के अनुसार कार्ल मार्क्स चाहते थे कि इतिहास के भौतिकवादी अध्ययन के जरिये वे जिन निष्कर्षों तक पंहुचे थे, मौर्गन की खोजों के परिणामों से उन निष्कर्षों की पुष्टि की जाए और उन्हें इतिहास के उनके भौतिकवादी अध्ययन के साथ जोड़ कर पेश किया जाए।

एंगेल्स के विचार में, भौतिकवादी धारणा के अनुसार, “इतिहास में अन्ततोगत्वा निर्णायक तत्व तात्कालिक जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन है। परन्तु यह खुद दो प्रकार का होता है। एक ओर तो जीवन के – भोजन, परिधान तथा आवास के साधनों तथा इन चीजों के लिए आवश्यक औजारों का उत्पादन होता है, और दूसरी ओर स्वयं मनुष्यों का उत्पादन, यानी जाति प्रसारण होता है। ऐतिहासिक युग विशेष तथा देश विशेष के लोग जिन सामाजिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत रहते हैं, वे इन दोनों प्रकार के उत्पादनों से, अर्थात् एक ओर श्रम के विकास की अवस्था और दूसरी ओर परिवार के विकास की अवस्था से निर्धारित होती है। श्रम का विकास जितना ही कम होता है, तथा उत्पादन की मात्रा जितनी ही कम होती है, और इसीलिए समाज की सम्पदा जितनी ही सीमित होती है, समाज व्यवस्था में रक्त-सम्बन्धों का प्रभुत्व उतना ही अधिक जान पड़ता है।” मौर्गन ने अपने विशद अध्ययन के जरिये इसी तथ्य की पुष्टि की थी।

इसी के आधार पर एंगेल्स पूंजीवाद के बाद के प्रचुरता से भरे नये साम्यवादी समाज में यौन-संबंधों के स्वरूप का कयास लगाने की कोशिशों के बारे में इस पुस्तक में कहते हैं कि उसके बारे में आज सिर्फ नकारात्मक अनुमान लगाये जा सकते हैं कि तब क्या चीजें नहीं रहेगी? “उसमें कौन सी नयी चीजें जुड़ जायेगी, यह उस समय निश्चित होगा जब एक नयी पीढ़ी पनपेगी – ऐसे पुरुषांे की पीढ़ी जिसे जीवन भर कभी किसी नारी की देह को पैसा दे कर या सामाजिक शक्ति के किसी अन्य साधन के द्वारा खरीदने का मौका नहीं मिलेगा, और ऐसी नारियों की पीढ़ी जिसे कभी सच्चे प्रेम के सिवा और किसी कारण से किसी पुरुष के सामने आत्म-समर्पण करने के लिये विवश नहीं होना पड़ेगा, और न ही जिसे आर्थिक परिणामों के भय से अपने को अपने प्रेमी के सामने आत्मसमर्पण करने से कभी रोकना पड़ेगा। और जब एक बार ऐसे स्त्री-पुरुष इस दुनिया में जन्म ले लेंगे, तब वे इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं करेंगे कि आज हमारी राय में उन्हें क्या करना चाहिए। वे स्वयं तय करेंगे कि उन्हें क्या करना चाहिए और उसके अनुसार वे स्वयं ही प्रत्येक व्यक्ति के आचरण के बारे में आम राय का निर्माण करेंगे – और बस, मामला खतम हो जायेगा।”

मौर्गन भी अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पंहुचे थे कि “यदि सुदूर भविष्य में एकनिष्ठ परिवार समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध होता है, तो आज यह भविष्यवाणी करना असंभव है कि उसका स्थान विवाह का कौन सा रूप लेगा।”

मौर्गन और एंगेल्स के परिवार और यौन-संबंधों के बारे में इस समूचे विमर्श की पृष्ठभूमि में आज यदि ‘टाईम’ पत्रिका की उपरोक्त चर्चा को देखे तो ‘श्रम का विकास और उत्पादन की मात्रा’ के साथ परिवार के स्वरूप में बदलाव की सचाई को आज के युग में और भी आसानी से देखा जा सकता है। एकनिष्ठ परिवार के उद्भव को एंगेल्स के विश्लेषण के आधार पर ही आम तौर पर पूंजीवाद के साथ जोड़ कर देखा जाता है। एंगेल्स इतिहास के भौतिकवादी अध्ययन के जरिये पूंजीवाद में श्रम के विकास और उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन की एक नयी मंजिल को देखते हैं और इसके समानान्तर सामन्तवाद की तुलना में पूंजीवादी व्यवस्था में समाज में रक्त-संबंधों के घटते हुए प्रभुत्व और संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकनिष्ठ परिवार के उदय की प्रक्रिया भी देखते हैं। मौर्गन और एंगेल्स के इन्हीं अवलोकनों के आधार पर भौतिकवादी समाजशास्त्रियों में एकनिष्ठ परिवार को पूंजीवाद के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ कर देखने की परिपाटी चल पड़ी है। लेकिन ‘श्रम के विकास और उत्पादन की मात्रा’ की जिस बुनियादी कसौटी पर एंगेल्स ने रक्त-संबंधों के प्रभुत्व की मात्रा को तय किया था, उसी कसौटी पर पूंजीवाद के अंतर्गत ही श्रम के और विकास तथा और ज्यादा उत्पादन की मात्रा की परिस्थितियों में यौन-संबंधों के नये रूपों के उद्भव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसीलिये, ‘टाईम’ के सर्वेक्षण में विकसित पूंजीवादी देशों में समाज के ‘चरम आणवीकरण’ की प्रवृत्ति की भी सही समाजशास्त्रीय व्याख्या मौर्गन और एंगेल्स के अध्ययन और उनके द्वारा निर्धारित की गयी कसौटियों के आधार पर करना सबसे ज्यादा समीचीन जान पड़ता है।

इसी श्रंखला में, गौर करने लायक बात यह है कि विकसित दुनिया में परिवार के बजाय अकेले आदमी का ही सबसे बुनियादी सामाजिक इकाई के रूप में उभर कर आने वाला यह नया यथार्थ तब है जब इस दुनिया में अब भी स्त्री-पुरुष समानता पूरी तरह से कायम नहीं हुई है और पुरुषांे की ऐसी पूरी नयी पीढ़ी नहीं आ गयी है “जिसे जीवन भर कभी किसी नारी की देह को पैसा दे कर या सामाजिक शक्ति के किसी अन्य साधन के द्वारा खरीदने का मौका नहीं मिलेगा”, और न ही नारियों की ऐसी पूरी पीढ़ी पैदा हो गयी है “जिसे कभी सच्चे प्रेम के सिवा और किसी कारण से किसी पुरुष के सामने आत्म-समर्पण करने के लिये विवश नहीं होना पड़ेगा, और न ही जिसे आर्थिक परिणामों के भय से अपने को अपने प्रेमी के सामने आत्मसमर्पण करने से कभी रोकना पड़ेगा।” ऐसे में ‘टाईम’ पत्रिका में अधिसंख्यक अकेले लोगों के शहरों में मनुष्यों द्वारा जिस नयी ‘समृद्ध सार्वजनिक संस्कृति’ के उपभोग का उल्लेख किया गया है, वही सभ्यता अथवा आधुनिक मूल्यों का अन्त नहीं है। इसके स्वरूप में भी आगे अनिवार्य तौर पर और बड़े तथा गुणात्मक परिवर्तन आयेंगे, इसमें कोई शक नहीं है। और, कहना न होगा, ये भावी नये परिवर्तन समाज के उस नये समानतावादी क्रांतिकारी रूपान्तरण से जुड़े होंगे जिनका उल्लेख एंगेल्स ने अपनी कृति में किया था।

आज एकनिष्ठ विवाह की जड़ें तो हिल गयी है, लेकिन एंगेल्स ने पूंजीवाद के अंतर्गत पैदा हुए एकनिष्ठ विवाह के साथ अभिन्न रूप में जुड़े व्यभिचार और वेश्यावृत्ति की जो बात कही थी, वह पूंजीवादी गैर-बराबरी से जुड़ी सचाई है। पूंजीवादी दुनिया के अकेलों से भरे शहरों की ‘समृद्ध सार्वजनिक संस्कृति’ के साथ अभी तक तो यह व्यभिचार और वेश्यावृत्ति स्थायी रूप से चिपके हुए दिखाई देते हैं। यही इस नयी, अकेली दुनिया की सबसे बड़ी विडंबना है। अकेलेपन के अभाव से लेकर अकेलेपन के आनन्द तक की व्यक्ति की ऐतिहासिक यात्रा के समूचे वृत्तान्त में विडंबना की ऐसी गुत्थियों के सुलझने में ही मनुष्यता की प्रगति है। कहना न होगा कि यह पूंजीवादी ‘व्यक्ति’ के ही लोप की भी प्रक्रिया होगी।

अन्त में, मार्क्स, एंगेल्स के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के एक छोटे से उद्धरण के साथ अपनी बात खत्म करूंगा। घोषणापत्र के जिस अंश में उन्होंने परिवार, नारियों की स्थिति आदि विषयों का जिक्र किया है, उसी में वे कहते हैं कि “वर्तमान परिवार, पूंजीवादी परिवार किस आधार पर टिका है? पूंजी और निजी लाभ पर।’ अपने पूर्ण विकसित रूप में ऐसा परिवार सिर्फ पूंजीपतियों में मौजूद है। लेकिन सर्वहाराओं के बीच व्यवहारिक अर्थ में परिवार की अनुपस्थिति और खुले आम वेश्यावृत्ति इस यथार्थ के पूरक तत्व है।

“काल क्रम में पूंजीवादी परिवारों का तभी लोप होगा जब उसके इन पूरकों का लोप होगा, और दोनों का ही लोप होगा पूंजी के लोप के साथ।”

अरुण माहेश्वरी

रवीन्द्रनाथ की आध्यात्म-आधारित विश्व-दृष्टि

यह रवीन्द्रनाथ के जन्म का 150वां वर्ष है। सांस्कृतिक रूप में सजग भारत के किसी भी व्यक्ति को रवीन्द्रनाथ ने आकर्षित न किया हो, ऐसा संभव नहीं है। ऊपर से, यदि आप बंगाल के निवासी है तो रवीन्द्रनाथ की उपस्थिति का अहसास निश्चत तौर पर आप पर बना ही रहेगा। रवीन्द्रनाथ के समूचे व्यक्तित्व पर कोई जितना ही विचार करता है, सबसे पहले उस जीवन और व्यक्तित्व की विशालता और विपुलता का वैभव आश्चर्यचकित करता है। रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते हैः ‘मति अकुंठ हरि भगति अखंडी’। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है।

सात मई 1861 के दिन कोलकाता के प्रसिद्ध ठाकुर परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ के पूरे जीवन काल को सिर्फ आधुनिक भारत के इतिहास का ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के इतिहास का एक भारी उथल-पुथल और संक्रमण का काल कहा जा सकता है। तत्कालीन बंगाल में उनके जन्म के पहले ही नवजागरण के युग का प्रारंभ हो गया था। योरप के रेनेसां की तुलना में इस नवजागरण का दायरा बहुत सीमित और प्रभाव काफी मामूली था, लेकिन यह निश्चित तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य की छत्र-छाया में पनप रहे क्षीणकाय पूंजीवाद पर ही आधारित था। 19वीं सदी के मध्य में हमारे देश में ब्रिटिश पूंजी के बल पर पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था की आधारशिला रखी गयी थी। सन् 1853 में भारतीय रेल की स्थापना हुई, 1852 में चाय बागान बनें, 1853 में मुंबई में पहली कपड़ा मिल बनी, 1854 में रानीगंज में पहली कोयला खदान शुरू हुई, 1855 में पहली चटकल की स्थापना की गयी। यह सब ब्रिटिश पूंजी के बल पर हुआ था। 1857 तक हमारे देश के बुद्धिजीवी ब्रिटिश कंपनियों के दलाल, मुसद्दी थे या सरकारी नौकरियां कर रहे थे। बंगाल में अंग्रेजों द्वारा जमीन के इस्तमारी बंदोबस्त से जिस नये जमींदार वर्ग का जन्म हुआ उनमें से अधिकांश इन मुसद्दियों के बीच से आते थे। स्वयं ठाकुर परिवार भी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर सरकारी अमीन भी थे। यह तबका एक ओर जहां नयी-नयी जमींदारियां खरीद रहा था, वहीं अंग्रेज व्यापरियों की तर्ज पर नील कोठी सहित तमाम प्रकार के व्यवसाय-वाणिज्य में लगा हुआ था। उसकी अपनी आर्थिक बुनियाद उतनी मजबूत न होने और इसी वजह चेतना के स्तर पर भी पिछड़े हुए होने के कारण ही संथाल विद्रोह, सिपाही विद्रोह, नील विद्रोह की तरह के जन-विद्रोहों को किसी प्रकार का नेतृत्व देने में वह वर्ग पूरी तरह से विफल रहा था। उनके जीवन और विचारों में बुद्धि और भक्ति, आध्यात्म और वस्तुवाद तथा सुधार और क्रांति के विचारों की भारी गड्ड-मड्ड स्थिति दिखाई देती है। सुधार की ओट में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के साथ एक प्रकार का समझौता करके चलने की मानसिकता ही प्रबल थी।

बहरहाल, जैसे दुनिया के सभी सुधारवादी आंदोलनों की इतिहास में एक विशेष  भूमिका रही है, वैसे ही भारतीय इतिहास में भी नवजागरण के उस प्रारंभिक सुधारवादी दौर की भूमिका को छोटा करके नहीं देखा जा सकता है। इसके अलावा, भारत के परंपरागत जड़ीभूत समाज में ब्रिटिश साम्राज्य की लुटेरी किंतु साथ ही एक ठहरे हुए समाज की जड़ों को हिला देने वाली भूमिका ने भी यहां के उदीयमान बुद्धिजीवी समुदाय की मानसिकता को तैयार करने में एक भूमिका अदा की थी। बंगाल और भारतीय नवजागरण के इस दौर के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व राजा राममोहन राय ने जिस आवेग और अध्यवसाय, विद्वता और निष्ठा के साथ भारतीय समाज की तमाम जड़ताओं को चुनौती दी, योरप के बुद्धिवाद की प्रतिष्ठा की और साथ ही स्वतंत्रता और समानता के संघर्ष का सूत्रपात किया, उसने बिल्कुल सही राममोहन को आधुनिक भारत और भारत की राष्ट्रवादी चेतना का प्रवर्त्तक बना दिया। राममोहन राय और उनके साथ जुड़े भारतीय नवजागरण और नवजागरणकालीन तमाम व्यक्तित्वों की अपनी-अपनी लंबी कहानियां हैं। यहां हमारे लिये इतना ही काफी है कि ठाकुर परिवार (रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर, पिता महर्षी देवेन्द्रनाथ ठाकुर और रवीन्द्रनाथ सहित उनके सभी भाई-बंदों का विशाल परिवार) इस पूरे नवजागरणकालीन विमर्श का एक अभिन्न हिस्सा था। जन्मकाल से ही रवीन्द्रनाथ की मज्जा में इस नवजागरण और राष्ट्रीय विमर्श का रक्त प्रवाहित हो रहा था।

शिवनाथ शास्त्री ने सन् 1856 से 1861 के काल के बारे में लिखा है कि “इस काल को बंग समाज के लिये ‘माहेन्द्र-क्षण’ कहा जा सकता है। इस काल में विधवा विवाह का आंदोलन, इंडियन म्यूटिनी, नील का हंगामा, हरीश का आविर्भाव, सोमप्रकाश का अभ्युदय, देशी रंगशाला की स्थापना, ईश्वरचंद गुप्त की मृत्यु और मधुसुदन का आविर्भाव, केशवचंद्र सेन के ब्राह्म समाज का प्रवेश और ब्राह्म समाज में नयी शक्ति का संचार इत्यादि तमाम घटनाएं घटी थी। इनमें से प्रत्येक ने बंग समाज को प्रबल रूप में आलोड़ित किया था।…” (‘रामतनु लाहिड़ी उ तत्कालीन बंगसमाज’, पृः 224-225)

एक ओर देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र का हिंदू समाज के कुसंस्कारों के खिलाफ आंदोलन और बा्रह्म धर्म का प्रचार, दूसरी ओर डिरोजियो के ‘यंग बंगाल’ का धर्म के खिलाफ विद्रोह और योरप की संस्कृति और जनवादी चेतना का आंदोलन बंगाल के तत्कालीन शिक्षित समाज में एक नये प्रकार के जागरण और जीवन का संचार कर रहा था। अक्षय कुमार दत्त, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजनारायण बसु, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, प्यारीचंद मित्र, रामगोपाल घोष, रसिककृष्ण मल्लिक, रेवरेंड कृष्णमोहन, माईकेल मधुसुदन, दीनबंधु मित्र, राजेन्द्रलाल मित्र, और हरीश मुखोपाध्याय की तरह के प्रतिभाशाली और व्यक्तित्वशाली लोगों के उदय ने तत्कालीन जातीय संस्कृति और चरित्र में एक उल्लेखनीय परिवर्तन का सूत्रपात किया।

इसी प्रकार, ‘हिंदू पैट्रियट’, ‘सोमप्रकाश’, और ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ तथा साहित्य के क्षेत्र में माईकेल मधुसुदन और दीनबंधु मित्र की तरह के साहित्यकारों के आविर्भाव ने बांग्ला भाषा और बंग साहित्य में एक नये युग का प्रारंभ किया था। कुल मिला कर यह युग एक राष्ट्र के उदय का युग था। परवर्ती दिनों में क्रमशः राष्ट्रवाद और स्वाभिमान की भावना प्रबल होने लगी थी। रवीन्द्रनाथ अपनी ‘जीवनस्मृति’ में लिखते हैं, “बचपन में मेरे लिये सबसे बड़ा सुयोग यह था कि घर में दिन-रात साहित्य का वातावरण बना रहता था। …साहित्य और ललित कला में उनके (परिवार के लोगों के) उत्साह की सीमा नहीं थी। वे जैसे सभी कोणों से बंगाल के आधुनिक युग का आह्वान करने की कोशिश कर रहे थे। वेश-भूषा, कविता-गीतों, चित्रों-नाटकों, धर्म-स्वदेशीपन – प्रत्येक विषय में उनके अंदर एक स्वयं संपूर्ण जातीयता का विचार जाग गया था। …बांग्ला में देशभक्ति के गीत और कविताओं का प्रारंभ उन्होंने ही किया था। कितने दिन की तो बात है, गणदादा रचित ‘लज्जित मन से भारतयश का गान कैसे करू’ हिंदू मेले में गाया जाता था।” (जीवनस्मृति: पृः 65)

कुल मिला कर, ठाकुर परिवार एक ऐसा परिवार था जिसने प्राचीन सनातन हिंदू धर्म के खिलाफ संघर्ष शुरू किया था और उसके साथ ही वह आधुनिक युग के आहृान और उसकी रचना के काम में दीवानगी की हद तक लगा हुआ था। इससे बचपन में ही रवीन्द्रनाथ के मन में धर्म और आध्यात्मिकता, स्वदेशीपन और राष्ट्रीयता, साहित्य और कला साधना – इन सबके बीज पड़ चुके थे।

सन् 1867 में पहले ‘हिंदू मेला’ का आयोजन हुआ, तब रवीन्द्रनाथ सिर्फ 5 वर्ष के थे। चैत्र संक्रांति के दिन आयोजित किये जाने वाले इस मेले का प्रमुख उद्देश्य जनचित्त में देशभक्ति की भावना का प्रसार था। इस मेले के आयोजन में ठाकुर परिवार की एक प्रमुख भूमिका हुआ करती थी। कोलकाता के पारसी बगान में इस मेले के नवम अधिवेशन में किशोर कवि रवीन्द्रनाथ ने अपनी देशभक्ति की कविता ‘हिंदू मेला का उपहार’ का पाठ किया था जिसे रवीन्द्रनाथ अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में हमेशा याद करते थे। रवीन्द्रनाथ के शब्दों में, ”हमारे घर की सहायता से हिंदू मेला नाम के एक मेले की सृष्टि हुई थी। नवगोपाल मित्र महाशय को इस मेले का कर्णधार बनाया गया था। पहली बार भारतवर्ष को स्वदेश मान कर उसके प्रति भक्ति भाव को अर्जित करने की कोशिश हुई थी। मंझले दादा ने तब प्रसिद्ध राष्ट्रीय गीत ‘मिले सभी भारत संतान’ की रचना की थी। …लार्ड कर्जन के काल में दिल्ली दरबार के बारे में एक लेख लिखा था, लार्ड लिटन के काल में कविता लिखी थी ‘हिंदू मेला का उपहार’- तत्कालीन अंग्रेज गवर्नमेंट विरोध से डरती थी लेकिन चौदह-पंद्रह साल के बाल्य कवि की लेखनी से नहीं डरती थी। …हिंदू मेला में पेड़ के तले खड़े होकर उसका पाठ किया था।” ‘हिंदू मेला का उपहार’ कविता की कुछ पंक्तियां है:

1

“हिमाद्रि शिखरे शिलासन ’परि/गान व्यास-ऋषि वीणा हाते करि-/कांपाये पर्वतशिखर कानन,/कांपाये निहार शीतल वाय।”

4

झंकारिया वीणा कविवर गाय,/केनोरे भारत केनो तुई, हाय,/आबार हासिस! हासिबार दिन/आछे कि एखोनो एक घोर दुःखे।

(हिम शिखरों की शिला पर बैठ/वीणा थामे व्यास ऋषि गाते हैं-/पर्वत शिखरों का वन कांप उठता है/कांप उठती है बर्फीली शीतल वायु।)

(झंकृत कर वीणा को कविवर गाते हैं,/ क्यों भारत क्यों तू, हाय/फिर हंस रहे हो!/हंसने के दिन /बचे है अब भी इस घनघोर दुख में। )

इसी प्रकार दिल्ली दरबार के बारे में कविता में उस दरबार में शामिल होने वाले देशी राजाओं पर रवीन्द्रनाथ ने जो तीखा व्यंग्य किया था, वह देखते बनता है।

ठाकुर परिवार ने सिर्फ हिंदू मेला ही नहीं, इटली के क्रांतिकारी गुप्त संगठन की तर्ज पर ‘संजीवनी सभा’ नामक एक गुप्त संगठन भी बनाया था जिसे चलाने वाले प्रमुख व्यक्ति थे राजनारायण बसु और ज्योतिरिंद्र नाथ ठाकुर।

रवीन्द्रनाथ एक चिर यायावर थे। अपने लंबे जीवन में देश-विदेश की उन्होंने जितनी यात्राएं की तब बहुत थोड़े लोग ही उतनी यात्राएं कर पाते थे। और, ये सभी यात्राएं किसी सांस्कृतिक मिशन से कम नहीं हुआ करती थी। सिर्फ 17 साल की आयु में 20 सितंबर 1878 के दिन अपनी पहली विलायत यात्रा के पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा और योरोपीय साहित्य का विशद अध्ययन किया। पूरी तरह से ग्रहण न कर पाने के बावजूद दांते, गोथे तक को उनके अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से पढ़ा। कुल मिला कर इस समूची तैयारी का प्रभाव उनके मानस के विस्तार और खुलेपन के रूप में सामने आया। उनके अंदर की संस्कारगत धार्मिक जड़ता और दूसरे प्रकार की तमाम संकीर्णताएं इस पहली यात्रा से काफी हद तक टूट गयी। अपनी ‘जीवनस्मृति’ में इसपर उन्होंने विस्तार से लिखा है। रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी यात्राओं की बड़ी भारी भूमिका रही।

इन सबके बावजूद यही सच है कि रवीन्द्रनाथ पर सबसे गहरा असर उनके परिवार के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण का था जिससे वे कभी भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये। वे जब सिर्फ 11 वर्ष के थे, तभी उनका उपनयन संस्कार हुआ था। पिता देवेन्द्रनाथ ने इस आयोजन को अपने ढंग से एक अभिनव आयोजन बनाने के लिये ही इसमें ब्राह्म धर्म के उपादानों का प्रयोग किया। आचार्य आनन्दचन्द्र वेदांतवागीश की सलाह पर वैदिक मंत्रों का पाठ किया गया। उस समय गायत्री मंत्र का जो पाठ किया गया था, उसके प्रभाव को रवीन्द्रनाथ सारा जीवन याद किया करते थे। उनके शब्दों में, “उस उम्र में ऐसी बात नहीं है कि मैं समझता था कि गायत्री मंत्र का मायने क्या है, लेकिन आदमी के अंतर में कुछ ऐसा है कि पूरी तरह से न समझने पर भी उसका प्रभाव रहता है। इसीलिये मुझे एक दिन की बात याद आती है जब हमारी पढ़ाई के कमरे में ईंटों से बने फर्श के एक कोने में बैठ कर गायत्री जाप करते करते अनायास ही मेरी दोनों आंखें भर आयी और लगातार जल गिरने लगा। जल क्यों गिर रहा था इसे मैं जरा सा भी समझ नहीं पाया। …असल बात यह है कि अंतर के अंतःपुर में जो काम चल रहा है बुद्धि के क्षेत्र में हमेशा उसकी खबर नहीं पंहुचती है।” (जीवन स्मृति, पृः 40-43)

न सिर्फ उपनिषदों के मंत्रों पर, बल्कि आदि ब्राह्म समाज के नाना विधि-विधानों और संस्कारों पर काफी लंबे अर्से तक उनकी अंध-श्रद्धा थी। हालांकि परवर्ती दिनों में बुद्धिवाद के तीखे तर्कों ने उन्हें काफी झकझोरा भी। रवीन्द्रनाथ ने अपने अंतिम दिनों में लिखे ‘मानुषेर धर्म’ शीर्षक ग्रंथ में बचपन से ही खुद पर धर्म के प्रभाव के बारे में विस्तार से लिखा है। “हमारा जन्म जिस परिवार में हुआ उस परिवार की धर्म साधना एक खास प्रकार की थी। उपनिषद और पितृदेव के अनुभव, राममोहन और अन्य साधकों की साधना ही हमारी पारिवारिक साधना थी। मैं पिता का छोटा बेटा था। जातकर्म से शुरू करके मेरे सारे संस्कार वैदिक मंत्रों से हुए थे, निश्चित तौर पर ब्राह्ममत के अनुरूप।”

जाहिर है कि रवीन्द्रनाथ के इन गहरे धार्मिक संस्कारों ने उनकी रचनाशीलता को खास आध्यात्मिक रूप दिया, वह हमेशा उनकी कवि सत्ता का अभिन्न अंग बना रहा। वे जब सिर्फ 21 साल के थे तभी उन्होंने ‘प्रभात संगीत’ संकलन की कविताएं लिख ली थी। इन कविताओं की व्याख्या करते हुए खुद रवीन्द्रनाथ ने अपनी सृजनात्मकता के इस आध्यात्मिक पहलू को खुले मन से स्वीकारा है। ‘प्रभात संगीत’ की दूसरी कविता है, ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’(निर्झर का स्वप्न-भंग)। इस कविता वे लिखते है कि “एक अभूतपूर्व अद्भुत हृदय-स्फूर्ति के दिन “निर्झरेर स्वप्नभंग” लिखी गयी थी, लेकिन उस दिन कौन जानता था कि उस कविता में मेरे समस्त काव्य की भूमिका लिखी जा रही है।”(जोर हमारा – अ.मा.)

आजि ऐ प्रभाते रविर कर/ केमने पासिलो प्राणेर ‘पर / केमने पासिलो गुहार आंधारे/ प्रभात पाखीर गान!/ ना जानि केनोरे एतो दिन परे/ जागिया उठिलो प्राण!/ जागिया उठेछे प्राण, / उरे उथलि उठेछे बारि,/ उरे प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/ रूधिया राखिते नारी।

(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्यों कर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)

प्राणों के इस प्रवाह की गति महा, विशाल समुद्र की ओर थी, “न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण/ मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“। इस महासागर की प्रतिमा ही रवीन्द्रनाथ में बाद में विराट पुरुष, महामानव का रूप लेती है। परवर्ती दिनों की रवीन्द्रनाथ की संपूर्ण राजनीतिक चेतना का बीज रूप जैसे इस कविता में दिखाई देता है। गीतांजलि की प्रसिद्ध कविता ‘भारत तीर्थ’ के ‘एई भारतेर महामानवेर सागरतीरे’ के पूरे रूपक के आधार को आध्यात्मिक अखंड विश्व, असीम और अनन्त ब्रह्मांड से जुड़े उनके विस्तृत हृदय, अकुंठ व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। भारत की गुलामी की जंजीरों ने उनमें आक्रोश तो पैदा किया लेकिन कभी भी पराजय या किसी प्रकार की कुंठा का भाव पैदा नहीं हुआ।

बुनियादी तौर पर भारतीय आध्यात्म पर आधारित इस उदार और विशाल हृदय की जमीन पर खड़े होकर ही रवीन्द्रनाथ ने अपने वक्त के सभी राजनीतिक और सामाजिक विमर्शों में नितांत मौलिक ढंग से हस्तक्षेप किया। वह विमर्श भले उग्र राष्ट्रवाद की दलीलों को अस्वीकारने का हो या कथित मॉडरेट नेशनलिस्ट राजनीति के खिलाफ विवेक और तर्क के साथ जन-जन को जगाने वाली देशभक्ति की कार्रवाई का हो। बंकिम युग की परिपाटी पर जिस समय प्राचीन हिंदू राजाओं की वीरगाथाएं लिख कर उग्र राष्ट्रवाद का संदेश दिया जा रहा था, उसी समय रवीन्द्रनाथ ने अपनी रचना ‘बउठाकुरानी का हाट’ में राजा प्रतापादित्य को एक नृशंस और अत्याचारी राजा के रूप में पेश किया और बंगाल के जन-जीवन का एक यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया। जिस समय अलबर्ट बिल (1883) की तरह के मुद्दों पर चंद बुद्धिजीवियों को इकट्ठा करके कोरे विरोध प्रस्तावों की ‘एजिटेशनल’ राजनीति की जा रही थी, उस समय ऐसी राजनीति को भिक्षा की राजनीति बता कर फटकारने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया। “हमारे देश में पॉलिटिकल एजिटेशन करना भिक्षावृत्ति करने जैसा है।…भिखारी का मंगल नहीं हो सकता, भिखारी जाति का भी मंगल नहीं हो सकता। …अंग्रेजों से भीख में हमें और सब कुछ मिल सकता है, लेकिन आत्मनिर्भरता नहीं मिल सकती।…सरकार को जगाने के लिये वे जितनी मेहनत कर रहे है, अपने देश के लोगों को जगाने में उतनी मेहनत करने से काफी अधिक सुफल मिलेगा।”

रवीन्द्रनाथ का यह आध्यात्मिक आधार ही था जिसके चलते सारी दुनिया के श्रेष्ठतम मस्तिष्कों से अन्तर्क्रिया करते हुए भी वे पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में कभी नहीं फंसे। 1890 में अपनी दूसरी विलायत यात्रा के बाद पश्चिमी सभ्यता को चुनौती देते हुए वे कहते हैं:“तुमने बहुत जान लिया है, काफी पाया है लेकिन सुख मिला है क्या? हम विश्वसंसार को माया बता कर बैठे हुए हैं और तुम उसे ही ध्रुव सत्य बता कर खट-खट कर मर रहे हो, तुम क्या हमसे ज्यादा सुखी हो गये हो?” इसप्रकार के तमाम सवालों के तीरों से रवीन्द्रनाथ ने अपने लेख ‘नूतन और पुरातन’ में पश्चिमी सभ्यता को बुरी तरह बींधा था। दुनिया भर में योरोपीय जातियों के साम्राज्यों की दुर्दशा पर उनकी यह टिप्पणी बहुत प्रसिद्ध है कि “योरोपीय जाति योरप में जितनी सभ्य, जितनी दयावान, जितनी न्यायपूर्ण है योरप के बाहर उतनी नहीं है। अब तक इसके अनेक प्रमाण मिल चुके हैं।”

सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हो गयी थी। लेकिन रवीन्द्रनाथ में कांग्रेस की प्रारंभिक अनुनय-विनय और शिष्टमंडलों की राजनीति के प्रति जरा भी आकर्षण नहीं था। वे कांग्रेस के मंच की भाषा से कोसों दूर थे। उस समय सुधीन्द्रनाथ ठाकुर ‘साधना’ पत्रिका निकालते थे। रवीन्द्रनाथ ही इस पत्रिका के प्रमुख लेखक और केन्द्रीय आकर्षण थे। इस मंच का प्रयोग उन्होंने खुल कर अपने राजनीतिक विचारों को व्यक्त करने के लिये किया। मॉडरेटों और कांग्रेस के मंच की थोथे वागाडंबर पर टिकी राजनीति पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं: ”आज पृथ्वी की रणभूमि में हम कौन सा हथियार लेकर खड़े है। सिर्फ भाषण और निवेदन? कौन से कवच पहन कर अपनी आत्म-रक्षा करना चाहते हैं। सिर्फ छद्मवेश? इस तरह कितने दिनों तक काम चलेगा और कितना तो फल मिलेगा।”

और भी गौर करने लायक बात यह है कि रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक शिक्षा उन्हें पुनरुत्थानवाद की ओर नहीं ढकेलती। काफी दबाव के बावजूद वे तिलक के गणपति उत्सव और वीर शिवाजी के मिथक की तर्ज पर किसी देवी-देवता की वंदना के सार्वजनिक उत्सव या बंगाली राजा की वीरगाथा का आख्यान खड़ा नहीं करते। न , ‘गोरक्षणी सभा’ के गोरक्षा की तरह के आंदोलन के प्रति उनकी कोई सहानुभूति थी। इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ की सहानुभूति संथाल विद्रोह और सिपाही विद्रोह के प्रति थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को वे काफी पहले से ही समझने लगे थे। और यही वजह है कि वे हमेशा कविता के कल्पनालोक से निकल कर लड़ाई के मैदान में उतर पड़ने के लिये आकुल रहा करते थे। उनकी अमर कविता ‘एबार फेराओ मोरे’ के ये शब्द: “एबार फेराओ मोरे, लोये जाओ संसारेर तीरे/ हे कल्पने रंगमयी। दोलाओ ना समीरे समीरे/ तरंगे तरंगे आर, भुलाओ ना मोहिनी मायाय। /विजन विषादघन अन्तरेर निकुंजछायाय/ रेखो ना बोसाये आर। …”

(अब मुझे लौटा कर संसार के तट पर ले आओ/ हे कल्पना की रंगमयी। मत झुलाओ हवा हवा में/ लहर लहर में, न मोहित करो मोहिनी मायासे। / निर्जन घने विषाद भरे अंतर की लताओं की छाया में/ मत रखो और बैठा कर। …”)

इसीप्रकार उनका असाधारण ‘आहृान गीत’: “चलो दिवालोक, चलो लोकालये, /चलो जन कोलाहले – /मिसाबो हृदय मानवहृदये/असीम आकाश तले।” (चलो दिवालोक में, लोकालय में/चलो जनकोलाहल में -/मिलाऊंगा हृदय मानव हृदय से/असीम आकाश के तले।)

रवीन्द्रनाथ की लेखनी का यह ‘साधना युग’ इसलिये काफी उल्लेखनीय है कि उस दौरान अपने लेखों के जरिये उन्होंने अपनी खुद की राजनीति की एक साफ रूपरेखा रखी थी। कांग्रेस के साथ उनका मतभेद मुख्यतः इस बात पर था कि उन्हें राजनीतिक विचारधारा के मामले में इंगलैंड और उसकी सौ नियमों से बंधी पार्लियामेंट्री राजनीति स्वीकार्य नहीं थी। योरप के बाहर, भारत सहित हर जगह उन्होंने अंग्रेजों को एक घृणित शोषक और उत्पीड़क के रूप में देखा था। कांग्रेस के लोगों की अंग्रेज भक्ति उन्हें सहन नहीं थी।

फिर भी, रवीन्द्रनाथ को कांग्रेस-विरोधी कहना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य के जघन्य रूप के प्रति गहरी नफरत के बावजूद, इंगलैंड के भी मुट्ठीभर विवेकवान लोगों के प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा व्यक्त करने में भी उन्होंने कभी किसी प्रकार की कृपणता का परिचय नहीं दिया। सिडिशन एक्ट और 1897 में रानाडे हत्या मामले में तिलक की गिरफ्तारी, लार्ड कर्जन का यूनिवर्सिटी बिल (1902), बंगभंग का प्रस्ताव (1905), स्वदेशी आंदोलन, साम्राज्यवादियों का पहला विश्वयुद्ध – इन तमाम मामलों में रवीन्द्रनाथ जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के एक प्रबल पक्षधर और भारत की राष्ट्रीय एकता के एक जागरूक प्रहरी के रूप में उभर कर सामने आये थे।

यही वह काल था जब 1901 के अंतिम दिनों में रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की। यह रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू था जिसके केंद्र में भी उनके आध्यात्मिक संस्कारों की बड़ी भूमिका थी। शान्तिनिकेतन के पीछे प्राचीन भारत के तपोवन की पूरी अवधारणा काम कर रही थी। बाद के दिनों में शिक्षा संबंधी उनके विचारों में काफी परिवर्तन हुए। फिर भी अपने इस तपोवन से उनका क्या तात्पर्य था, इसे 1909 में ‘तपोवन’ शीर्षक लेख में बताते हैंः

“भारतवर्ष ने जिस सत्य को अपने निश्चित भाव से उपलब्ध किया है वह सत्य क्या है? वह सत्य प्रधानतः वणिक-वृत्ति नहीं है, स्वादेशिकता नहीं है, स्वराज्य नहीं है – वह है विश्व-बोध। इस सत्य की भारत के तपोवन में साधना हुई है। इसका उपनिषद् में उच्चारण हुआ है…भारत ने प्रबलता को नहीं, परिपूर्णता को चाहा था। इस परिपूर्णता का अर्थ है निखिल के साथ योग, और योग विनम्र होकर, अहंकार को दूर करके ही स्थापित हो सकता है।”

स्वदेशी आंदोलन का जो दबाव कवि को जनकोलाहल के बीच चले आने के लिये प्रेरित कर रहा था, राजनीतिक उथल-पुथल के इसी दौर में गिरडीह में बैठ कर रवीन्द्रनाथ ने देशभक्ति के जो चंद अमर गीत लिखे, उन्होंने बांग्ला जातीय चेतना के निर्माण में अकल्पनीय भूमिका अदा की थी।

1.जदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे ऐकला चलो रे
2. बांग्लार माटी, बांग्लार जल, बांग्लार वायु, बांग्लार फल-/पूण्य होक, पूण्य होक, पूण्य होक हे भगवान
3. ओ आमार देशेर माटी, तोमार ’परे ठेकाई माथा
4.आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि
5.सार्थक जनम आमार जन्मेछी ए देशे
6.एबार तोर मरा गंगे बान एसेछे, ‘जय मा’ बोले भासा तरि
              
– रवीन्द्रनाथ के ये सारे गीत इसी काल की देन है।

इसी काल में राष्ट्रीय शिक्षा और ग्राम्य समाज के संगठन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कई लेख लिखे। बंगभंग-विरोधी आंदोलन के साथ ही हिंदू-मुस्लिम समस्या ने भी एक विकट रूप लेना शुरू कर दिया था। रवीन्द्रनाथ इस समस्या से काफी विचलित थे। उन्होंने यह साफ देखा था कि अंग्रेज यदि हिंदू और मुसलमानों के बीच विद्वेष पैदा करने में सफल होरहे है तो इसका संबंध हमारे समाज की सचाई से है जिसे रवीन्द्रनाथ हमारा ‘पाप’ कहते हैं। “हम सैकड़ों वर्षों से साथ-साथ रहते है, एक खेत की उपज, एक नदी के जल, एक सूरज के प्रकाश का भोग करते आ रहे हैं, हम एक भाषा में बात करते हैं, हम एक ही सुख-दुख के लोग है – फिर भी पड़ौसी के साथ पड़ौसी का जो मानवोचित संबंध है, जो धर्म से अलग है, वह हमारे बीच नहीं है।

“हम जानते हैं बांग्लादेश में बहुत सी जगहों में हिंदू-मुसलमान एक चटाई पर साथ-साथ नहीं बैठते हैं – घर में मुसलमान के आने पर जाजम का एक हिस्सा लपेट दिया जाता है, हुक्के के पानी को फेंक दिया जाता है।

‘… यदि शास्त्रों में ऐसा विधान है तो ऐसे शास्त्र को लेकर स्वदेश-स्वजाति-स्वराज की स्थापना कभी भी नहीं की जा सकती है।”

सभी जानते हैं कि बंगभंग-विरोधी आंदोलन के बाद का काल ही बंगाल में उग्रराष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के उभार का भी काल था। रवीन्द्रनाथ को इस जन-विच्छिन्न उग्रवाद से बेहद परहेज था। इसके साथ वे अपने को वैचारिक रूप में ही अलग नहीं पाते थे बल्कि ऐसे उग्रवाद को वे एक चारित्रिक व्याधि के रूप में देखते थे। उनका भारी विवादास्पद उपन्यास ‘घरे बाइरे’ और अंतिम उपन्यास ‘चार अध्याय’ इसके सबसे बड़े प्रमाण है।

इसके साथ ही गौर करने लायक बात एक और है कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ, निवेदिता, उकाकुरा आदि सभी मनीषियों में एक प्रकार के उग्र प्राच्यवाद का स्वर सुनाई देता था। लेकिन, स्वदेशी युग के अंतिम दौर में इनमें से सबसे पहले रवीन्द्रनाथ ने ही उग्र प्राच्यवाद और उसके साथ ही हिन्दूपन के खिलाफ लड़ाई की जरूरत का आहृान करते हुए कहा कि “ पश्चिम के साथ पूरब को मिलना ही होगा।” इसके बाद से ही रवीन्द्रनाथ में पूरब और पश्चिम के बीच मिलन के स्वर क्रमशः प्रबल होने लगे। “यह मिलन ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति आदि तमाम विषयों पर आपसी आदान-प्रदान पर आधारित होगा।” वे पश्चिमी उग्रवाद के भी समान रूप से विरोधी थे। मूलतः, आध्यात्मिक अन्तरराष्ट्रीयतावाद ही उनके इन तमाम विचारों का मूल आधार था।

सन् 1912 में रवीन्द्रनाथ तीसरी बार विलायत की यात्रा पर गये और साथ ही अमेरिका भी पंहुचे। अमेरिका से लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उनके मन में तभी शान्तिनिकेतन के लिये विदेश से वित्त-संग्रह का विचार आया था। वहीं पर उन्हें मैकमिलन कंपनी द्वारा ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन की खबर भी मिली। 13 नवंबर 1913 के दिन ‘गीतांजलि’ के लिये नोबेल पुरस्कार की घोषणा की गयी। और, 1914 की जुलाई के अंतिम दिनों में पहला विश्वयुद्ध शुरू हो गया। रवीन्द्रनाथ ने इसे अपनी भाषा में विश्व-पाप कहा। उस समय की उनकी कविताओं और लेखों में उनकी इस भावना का सीधा प्रभाव दिखाई देता है।

रवीन्द्रनाथ ने सच्चे अर्थों में यदि किसी भारतीय व्यक्तित्व के साथ खुल कर किसी विमर्श में हिस्सा लिया तो वे थे महात्मा गांधी।

गांधीजी 1915 में भारत आये। रवीन्द्रनाथ के साथ उनका संपर्क उनके दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय ही हो गया था। जब वे भारत आये  उस समय शान्तिनिकेतन में उनके दक्षिण अफ्रीका के ‘फीनिक्स’ विद्यालय के कुछ छात्र ठहरे हुए थे। लेकिन मजे की बात यह है कि जिस समय गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ में पश्चिमी सभ्यता और विज्ञान को एक सिरे से नकार रहे थे, उसी समय पश्चिम के साथ निरंतर संपर्क के चलते रवीन्द्रनाथ क्रमशः अपने आध्यात्मिक खोल से निकल कर वैज्ञानिक चेतना की ओर बढ़ने लगे थे। सी.एफ.एन्ड्रूज, जिनसे रवीन्द्रनाथ की मुलाकात तीसरी विलायत यात्रा में हुई थी और जो परवर्ती दिनों में शांतिनिकेतन से जुड़ गये थे, उनको लिखे एक पत्र में कवि कहते हैं-

‘We all hope here, science in the end will help man. She will make the necessities of life easily accessible to every man, so that humanity will be freed from the tyranny of matter which now humiliates her. This struggling mass of men is great in its pathos, in its latency of infinite power.’
1916 में रवीन्द्रनाथ जापान की यात्रा पर गये और वहीं से फिर एक बार अमेरिका गये। जापान में रहते हुए ही उन्होंने साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद की तीव्र निंदा करने वाले वे भाषण लिखे जो उनकी पुस्तिका ‘नेशनलिज्म’ में संकलित है। जापान तब एशियाई शक्ति का प्रतीक माना जाता था। ‘जापान में राष्ट्रवाद’ शीर्षक लेख में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं- “पुरातन प्राच्य के शिशु जापान ने, आधुनिक युग के सभी उपहारों पर, निस्संकोच अपना अधिकार जताया है। उसने पुरानी आदतों की जकड़न एवं सुस्त दिमाग के व्यर्थ ढेर को त्यागने में साहसिक जीवट का परिचय दिया है; जो अन्यथा मितव्ययिता और ताले-चाभी की सुरक्षा में ही रहना पसंद करते हैं। फलस्वरूप वह वर्तमान समय के संपर्क में आया है और उसने आधुनिक सभ्यता की जिम्मेदारियों को उत्सुकता व पूरी योग्यता से स्वीकार किया है।” इसी लेख में आगे जाकर रवीन्द्रनाथ पश्चिमी राष्ट्रवाद के युद्धोन्माद की तीखी निंदा करते हुए जापान के बारे में कहते हैं कि “पश्चिमी राष्ट्रों ने उसे तब तक आदर नहीं दिया, जब तक कि उसने यह सिद्ध नहीं कर दिया कि शैतान के जासूसी कुत्ते न केवल युरोप के कुत्ताघरों में पलते हैं बल्कि जापान में भी उन्हें पालतू बनाया जा सकता है और उन्हें खाने को मानव के दुख-त्रास दिए जा सकते हैं।

“पूर्व ने अपने सहज-ज्ञान से यह अनुभव कर लिया था, भले ही अरुचि के साथ, कि उसे योरप से बहुत कुछ सीखना है।…इन सभी चीजों से बढ़ कर योरप ने सदियों के बलिदान तथा उपलब्धता के सहारे हमारे सामने स्वतंत्रता के परचम को ऊंचा उठाए रखा है…क्योंकि योरप को हमने अपना गहन सम्मान दिया है, इसीलिये जहां कहीं भी वह दुर्बल तथा झूठा दिखाई देता है, वहीं वह हमारे लिए उतना ही ज्यादा हानिकारक भी हो उठता है-श्रेष्ठ भोजन के साथ परोसे गए विष की तरह।” जापान से वे निवेदन करते हैं: “आप में आस्था की शक्ति एवं सोच की स्पष्टता होनी चाहिए ताकि आप यह साफ-साफ देख सकें कि प्रगति का यह भद्दा ढांचा, जो कुशलता के ‘बोल्टों’ से कसा हुआ है और महत्वाकांक्षा के पहियों पर दौड़ता रहता है, ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। …क्या हमें आज इसके संकेत नहीं दिख रहे? क्या हमें युद्ध के शोर, नफरत की चीखों, निराशा भरे रुदन, सदियों के मंथन से राष्ट्रवाद के तल में जमे बेशुमार कीचड़ से आती वह आवाज सुनाई नहीं दे रही- एक ऐसी आवाज जो हमारी आत्मा को चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि राष्ट्रीय स्वार्थ की मीनार, जो देशभक्ति के नाम पर निर्मित की गई है और जिसने स्वर्ग के विरुद्ध अपना परचम फहराया हुआ है, उसे अब अपने ही बोझ से हहरा कर ढह जाना चाहिए।”

रवीन्द्रनाथ के इन भाषणों पर जापान, अमेरिका और योरप में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। अमेरिका यात्रा के दौरान उनसे इसके बारे में काफी सवाल-जवाब किये गये थे।

बहरहाल, 1916 में भारत सचिव मॉन्टेग्यू भारत आये। यहां की शासन-व्यवस्था में सुधार के लिये उन्होंने विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं से मुलाकात की। पूरे देश में इसे लेकर काफी उत्तेजना थी। इस बारे में रवीन्द्रनाथ का साफ मत था कि “ भिक्षा लेकर हम स्वाधीन नहीं होंगे – कभी नहीं। स्वाधीनता अन्तर की बात है!”

“तपस्या के बल पर हम इस दान के अधिकार को हासिल करेंगे, भीख के अधिकार को नहीं, किसी भी लालच में पड़ कर हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए।”

उस समय विश्व युद्ध चल रहा था। गांधीजी और कांग्रेस ने इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के साथ पूर्ण सहयोग का रास्ता अपनाया था। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार की घोषणा विश्व युद्ध की समाप्ति के थोड़ा पहले ही हो गयी थी। नवंबर 1918 में जब विश्व युद्ध खत्म हुआ उसके तत्काल बाद कांग्रेस के मंच से भारत को आत्म-नियंत्रण का अधिकार देने की मांग जोरदार ढंग से उठी। उसी काल में 23 दिसंबर 1918 के दिन शान्तिनिकेतन में एक अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में विश्वभारती की आधारशिला रखी गयी। विश्वभारती की ओर से रवीन्द्रनाथ का यही संदेश थाः “हम मानव विधाता के राजपथ पर महामानव के गीत गाते जायेंगे। …महाविश्व के पथ को ही हम देश के अनुरूप ग्रहण करेंगे।” रवीन्द्रनाथ को विश्वभारती के लिये सारी दुनिया के नागरिकों से सक्रिय सहयोग की भारी उम्मीद थी।

13 अप्रैल 1919 के दिन जलियांवाला बाग के जनसंहार से विक्षुब्ध रवीन्द्रनाथ ने 1915 में मिली अपनी नाइटहुड की उपाधि को ठुकरा दिया। इस घटना के ठीक एक दिन पहले ही रवीन्द्रनाथ ने गांधीजी को पत्र लिख कर यह कहा था कि “स्वाधीनता की महान भेंट जनता को दान में कभी नहीं मिल सकती। हमको इसे उपलब्ध करने के लिए इसे जीतना होगा…मैं अत्यंत हार्दिक प्रार्थना करता हूं कि आपके मार्ग में कोई रोड़ा न अटके जिससे हमारी आध्यात्मिक स्वाधीनता कमजोर पड़ जाय”।

विश्वभारती के लिये सारी दुनिया के लोगों की शुभकामनाएं और सहयोग लेने के लिये ही 12 मई 1920 के दिन कवि योरप और अमेरिका की यात्रा पर निकल पड़े। लगभग 14 महीने तक अमेरिका और योरप के नाना देशों की यात्रा के बाद 16 जुलाई 1921 के दिन मुंबई से वर्द्धमान होकर शान्तिनिकेतन लौटे। इस दौरान उन्होंने शान्तिनिकेतन में एन्ड्रूज के नाम ढेरों पत्र लिखे। भारत की तत्कालीन उत्तेजनापूर्ण राजनीतिक परिस्थति पर उनकी नजर लगातार टिकी हुई थी। यह समय भारत में रौलट एक्ट के खिलाफ और खिलाफत और गांधीजी के असहयोग आंदोलन का समय था।

अपने एक पत्र में वे एन्ड्रूज को लिखते हैं:
% ‘ Keep Santiniketan away from the turmoils of politics—we must never forget that our mission is not political. Where I have my politics, I do not belong to Santiniketan.’

वे इस बात पर हमेशा बल दे रहे थे कि राजनीतिक ‘स्वराज’ से ही मोक्ष नहीं है; हमारी लड़ाई आत्मा की है – मनुष्य की मुक्ति की लड़ाई सिर्फ राजनीतिक स्वाधीनता नहीं है।

रवीन्द्रनाथ जब भारत लौटै, गांधी जी का असहयोग आंदोलन शुरू हो चुका था। शान्तिनिकेतन भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं रहा था। शान्तिनिकेतन का कोलकाता विश्वविद्यालय के साथ जो थोड़ा सा संपर्क पहले बना था, वह टूट गया। जहां तक खिलाफत आंदोलन के समय सामयिक तौर पर बनी हिन्दू-मुस्लिम एकता का सवाल था, रवीन्द्रनाथ के मन में इसके बारे में काफी संदेह था और बाद में दिनों में वह संदेह सच भी साबित हुआ।

असहयोग आंदोलन की घोषणा के साल भर बाद, 6 सितंबर 1921 के दिन गांधीजी कोलकाता आये थे। कवि से उनके जोड़ासांकू के घर पर मुलाकात हुई और दोनों के बीच एन्ड्रूज की उपस्थिति में लगभग चार घंटे तक वार्ता चली। भारत की स्वतंत्रता के साध्य और साधन पर हुई इस वार्ता का कोई फल नहीं निकला, लेकिन, जैसाकि रोम्यां रोला ने लिखा है,

‘ It seems as if it were a controversy between a St. Paul and a Plato’

गांधीजी और रवीन्द्रनाथ के बीच 1915 से लेकर कवि की उम्र की आखिरी घड़ी 1941 तक लगातार भाषा नीति, असहयोग, सत्याग्रह, सत्य और प्रेम, चरखा और स्वराज्य, पूना समझौता, बिहार का भूकंप तथा विश्वास और अंधविश्वास, आदि विभिन्न विषयों पर वार्ताएं और पत्राचार होते रहें। इस समूचे विमर्श को अनेक अर्थों में भारी ऐतिहासिक महत्व का एक राष्ट्रीय विमर्श कहा जा सकता है।

1922 की 20 सितंबर से दिसंबर महीने के तीसरे हफ्ते तक रवीन्द्रनाथ पश्चिम भारत, श्रीलंका और फिर पश्चिम भारत की यात्रा पर रहे। वहां से लौट कर आने के कुछ दिनों बाद ही उत्तर भारत की यात्रा (काशी, लखनऊ से अहमदाबाद, मुंबई हो कर कराची, सिंध के हैदराबाद से स्टीमर से काठियावाड़ के पोरबंदर) पर चल दिये। इन यात्राओं का एकमात्र लक्ष्य शांतिनिकेतन के उद्देश्यों का प्रचार करना था। तब से सन् 1926 तक कवि चीन, जापान, दक्षिण अमेरिका के अर्जेन्टिना, दो बार इटली, जर्मनी और योरप के अनेक देशों की लंबी-लंबी यात्राएं करते रहे। इटली के फासिस्ट शासक मुसोलिनी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन्होंने उसकी प्रशंसा में कुछ बातें कह दी जिनका मुसोलिनी ने सारी दुनिया में प्रचार करा के काफी लाभ उठाया। इस दौरान उन्होंने कई नाटक और कविताएं लिखी और साहित्य, संस्कृति, शिक्षा संबंधी तमाम विषयों पर भाषण दिये।

1927 में भारत आ कर भी वे देश के कोने-कोने में विश्वभारती के काम से ही घूमते रहे। 1929 में फिर कनाडा, जापान की यात्रा पर निकल गये। 1930 में योरप की अपनी अंतिम यात्रा पर गये। इसी यात्रा में 11 सितंबर 1930 के दिन रवीन्द्रनाथ सोवियत संघ पहुंचे। सोवियत संघ को देखने की उनकी लालसा काफी अर्से से थी। रूस की इस यात्रा पर उन्होंने लिखा, “अंत में रूस आना हो गया। जो देखा अचरज हुआ। दूसरे किसी देश जैसा ही नहीं था। एकदम बुनियादी तौर पर अलग। नीचे से ऊपर तक सब लोगों को इन्होंने समान रूप से जगा दिया है।”

रूस से ही रथीन्द्रनाथ को ‘जमींदारी प्रथा’ के बारे में उन्होंने लिखा, “जैसे दिन आ रहे हैं, उनमें जमींदारी पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता है। उस चीज के प्रति काफी लंबे अर्से से मेरे मन में धिक्कार था, अब वह और भी दृढ़ हो गया। जिन सब बातों को काफी अर्से से सोचता था, इस बार रूस में उसकी सूरत देख आया। इसीलिये जमींदारी व्यवसाय पर मुझे शर्म आती है।”

रवीन्द्रनाथ की ‘रूस की चिट्ठी’ में सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की जिस प्रकार भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है, वह उनके गहन मानवतावादी दृष्टिकोण में एक बड़े विस्तार का सूचक है।

सोवियत संघ से रवीन्द्रनाथ सीधे अमेरिका की यात्रा पर चले गये। यह उनकी अमेरिका की अंतिम यात्रा थी। वहां से 31 जनवरी 1931 के दिन भारत आये। 1932 में इरान और ईराक की यात्रा पर गये। 1934 में रवीन्द्रनाथ एक बार फिर, तीसरी बार श्रीलंका की यात्रा पर गये थे और वहीं पर उन्होंने अपने सबसे अधिक विवादास्पद उपन्यास ‘चार अध्याय’ को पूरा किया।

सन् 1935 से 1938 तक के काल में कवि मूलतः देश के कुछ स्थानों की यात्राओं के अलावा शान्तिनिकेतन की गतिविधियों में ही अधिक मुब्तिला रहे। 17 सितंबर 1940 के दिन वे शांतिनिकेतन से अंतिम बार निकले थे।

इस समय तक द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होगया था। इसमें शक नहीं कि यह विश्व युद्ध रवीन्द्रनाथ के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना था। वस्तुतः 1939 से लेकर अपनी मृत्यु (7 अगस्त 1941) तक वे इस युद्ध की परिस्थितियों के बारे में लगातार चिंतित रहे। इस युद्ध में वे साफ तौर पर पूरी मनुष्यता के अस्तित्व पर खतरे को देख रहे थे और इसीलिये फासिस्ट ताकतों के खिलाफ मित्र शक्तियों के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्थन में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं था। रूस का अनुभव उनके साथ था और उसके प्रति प्रकट सहानुभूति भी। अपने अंतिम दिनों के इसी काल में कवि ने अंतिम इच्छा के रूप में ‘सभ्यता का संकट’ ऐतिहासिक लेख लिखा जिसे 14 मई 1941 के दिन शान्तिनिकेतन में पढ़ा गया। कवि तब अस्सी साल के हो गये थे। इस लेख का प्रारंभ वे इन शब्दों से करते हैं-

“आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण हुए। अपने जीवन-क्षेत्र का दीर्घ विस्तार आज मेरे सामने आता है।…”

“पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब असंभव हो गया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी। मनुष्य का मनुष्य के साथ वह सम्बन्ध, जो सबसे अधिक मूल्यवान है और जिसे वास्तव में सभ्यता कहा जा सकता है, यहां नहीं मिलता। …

इसी बीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकाल कर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठ कर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?

“एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़ कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?…जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। …लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। …जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। …निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा…

महामानव का आगमन है।

दिशा-दिशा में घास का तिनका-तिनका रोमांचित है।

देवलोक में शंख बज उठा…

‘जय-जय-जय रे मानव अभ्युदय’ -”

रवीन्द्रनाथ के जीवन के इस पूरे आख्यान को यदि कोई गहराई से देखेगा तो उसे इसमें शुरू से अंत तक महाविश्व के महामानव की प्रतिमा का एक ऐसा सूत्र पिरोया हुआ दिखाई देगा जिस प्रतिमा को उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही अपने आध्यात्मिक संस्कार से हृदय में बहुत गहरे बसा लिया था, और उम्र की अंतिम घड़ी तक वे उसी महामानव की जयकार का गीत गाते रहे। उसमें किसी भी प्रकार की लघुता का कोई स्थान नहीं था।

अरुण माहेश्वरी

भारतीय वामपंथ के समक्ष कुछ जरूरी मुद्दे: वामपंथ के पुनर्गठन का एक प्रस्ताव

{“आत्मालोचना क्रियात्मक और निर्मम होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रभावकारिता परिशुद्ध रूप में उसके दयाहीन होने में ही निहित है। यथार्थ में ऐसा हुआ है कि आत्मालोचना और कुछ नहीं केवल सुंदर भाषणों और अर्थहीन घोषणाओं के लिए एक अवसर प्रदान करती है। इस तरह आत्मालोचना का ‘संसदीकरण हो गया है’।”(अन्तोनियो ग्राम्शी: राजसत्ता और नागरिक समाज)}

1. सशस्त्र नवंबर क्रांति ने 1917 में रूस में जो नयी व्यवस्था कायम की वह 70 वर्ष चली। 1989 में उसका पतन कुछ इस प्रकार हुआ जैसे कोई सूखा पत्ता पेड़ से अनायास ही गिर जाता है। उस सत्ता परिवर्तन के अंतिम दिन जब सोवियत सत्ता की ओर से सड़कों पर टैंक उतारे गयें, तब वही टैंक येलत्सीन की वीरता के प्रदर्शन के मंच बन गये। क्रांति और प्रतिक्रांति के अनिवार्य रूप से हथियारबंद और हिंसक होने अर्थात इतिहास में बलप्रयोग को लेकर एक प्रकार की अंधआस्था वाले मस्तिष्कों को उस घटना ने चौकाया था, क्योंकि मार्क्स की समझ के ठीक विपरीत उन्होंने सिर्फ इतिहास की ही नहीं, ऐतिहासिक परिघटनाओं के स्वरूपों अर्थात बलप्रयोग की सूरतों की भी अपनी खास प्रकार की अपरिवर्तनशील चौखटाबंद समझ विकसित कर ली थी। जिस प्रकार उंगली के इशारों पर उस पूरी व्यवस्था का अंत हुआ, उससे एक बात साफ थी कि उस समाज के लिये वैसी ‘समाजवादी व्यवस्था’ की कोई उपयोगिता नहीं रह गयी थी, जैसी तत्कालीन सोवियत संघ में थी। प्रो. रणधीर सिंह के शब्दों में,  ‘It was a system virtually ready for history’s boom.’

2. 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के संदर्भ में सोवियत संघ के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम का स्मरण अप्रासंगिक नहीं है। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में लगातार छठी बार वाममोर्चा सरकार की जीत के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी है: ‘पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति’। दुनिया के इतिहास की यह विरल घटना कि किसी पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता वाले संघीय गणतंत्र के एक अंग राज्य में लगातार 30 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व का मोर्चा चुनाव में जनता के मतदान से विजयी होता जा रहा है, यह किसी के लिये भी इसके सामाजिक निहितार्थों के गंभीर अध्ययन की मांग करता है। इसी जरूरत के तहत लिखी गयी वह पूरी पुस्तक पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किये गये व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों, सत्ता के संतुलन में आये बदलाव के इतिहास का आख्यान बन गयी और बिल्कुल सही उस पूरे सामाजिक उपक्रम को एक ‘मौन क्रांति’ की संज्ञा प्रदान की गयी। लेकिन उसी पुस्तक के उपसंहार में इस दौरान सामने आए नये सामाजिक यथार्थ और उसके कार्यभारों के संदर्भ में सीपीआई(एम) को सैद्धांतिक और व्यवहारिक, दोनों स्तरों पर खुद को नये सिरे से प्रासंगिक बनाने की जिस नितांत जरूरी जद्दोजहद की ओर संकेत किया गया है, यही वह पहलू है जिसका सीधा संबंध पिछले लोकसभा चुनाव और उससे जुड़े तमाम प्रसंगों से है।

3.ग्रामीण सत्ता-संरचना में परिवर्तन जनतंत्र के बाकी कार्यभारों को तेजी से उभार कर सामने लाता है। इनमें शहरीकरण और औद्योगीकरण के प्रश्न शामिल है। इन प्रश्नों के आर्थिक पहलू के अलावा व्यापक सांस्कृतिक पहलू भी है, जिन्हें आधुनिक जीवन की नैतिकता की समस्याएं कहा जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान ग्रामीण ‘मौन क्रांति’ की प्रभुत्व शैली (Hegemony) से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह जनता के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए एक जन-क्रांतिकारी रणनीति को तैयार करने की समस्या है। राजसत्ता के दमनकारी उपायों से इस व्यवस्था के लिये जनता के व्यापक हिस्सों का समर्थन हासिल नहीं किया गया है। बनिस्बत घुमा कर कहे तो कहा जा सकता है कि लोगों का बड़ा हिस्सा चीजों को चलाने की उस प्रणाली से खुश है, जिस प्रणाली पर पूंजीपति वर्ग उन्हें चलाना चाहता हैं।

4. इसीलिये वामपंथियों के सामने इस खास जनतांत्रिक नैतिकता के निर्वाह के साथ क्रांतिकारी विकल्प तैयार करने की समस्या है। और, गौर करने लायक बात यह है कि आधुनिक जीवन की जनतांत्रिक नैतिकता के ऐसे ही तमाम प्रश्न हैं जिनके सही समाधान देने में असमर्थ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक पूंजीवादी जनतंत्र की चुनौतियों के सामने लचर दिखाई पड़ता है। इटली के कम्युनिस्ट विचारक ग्राम्शी ने अपने प्रभुत्व सिद्धांत के तहत योरोपीय परिस्थितियों में कम्युनिस्टों के प्रमुख कार्यभारों में विचारधारात्मक और नैतिक स्तर पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की जिस चुनौती की बात कही थी, यूरोकम्युनिज्म से लेकर फ्रांस के 60 के दशक के कैम्पस विद्रोह तक की सारी कोशिशों
का मूल सार किसी न किसी रूप में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर हासिल करना था। ये जनतंत्र की नैतिक चुनौतियां है। सभ्य समाज के इन नैतिक प्रश्नों को ऐसे ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है। खुद मार्क्स ने सारा जीवन जनतंत्र और स्वतंत्रता के इन्हीं मूल्यों के लिये संघर्ष किया। मसलन, अखबारों की स्वतंत्रता की बात को ही लिया जाए। मार्क्स ने लिखा, “अखबारों की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति अन्य सभी स्वतंत्रताओं को कोरा भ्रम बना देती है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है।” मार्क्स के लेखन में जनतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा के भी ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद है।

5. लेनिन ने एक देश में समाजवादी क्रांति की संभाव्यता पर अपने समय में चली ऐतिहासिक बहस में कहा था कि जब विकसित औद्योगिक देशों में क्रांति होगी तब विश्व समाजवाद का नेतृत्व भी उन्हीं देशों के हाथ में होगा। यहां वे सिर्फ विकसित देशों की आर्थिक शक्ति की ओर ही संकेत नहीं कर रहे थे, उनका संकेत कुछ ऐसी सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक संरचनाओं की ओर भी था जो आधुनिक समाज की जरूरतों से उत्पन्न हुए थे, मानव सभ्यता की प्रगति के सूचक थे और उन्हें पिछड़े हुए देशों की परिस्थितियों में प्राप्त नहीं किया जा सकता था। लेनिन के शब्दों में,“समाजवाद बड़े पैमाने के पूंजीवाद द्वारा सृजित तकनीकी और सांस्कृतिक उपलब्धियों के उपयोग के बिना असंभव है।”(जोर हमारा) यहां ‘सांस्कृतिक’ शब्द पर गौर करने की जरूरत है।

6. इन सबके बावजूद, आज भी जनतंत्रीकरण कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की सैद्धांतिकी के बारे में व्यापक सहमति के बावजूद संकट के हर नये मुकाम पर इसी सांगठनिक सिद्धांत को कसौटी पर चढ़ाया जाता है और आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन के दायरे में इस सिद्धांत के औचित्य-अनौचित्य पर एक प्रकार की अंतहीन बहस जारी है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन के ढांचे को तैयार करने का एक औपचारिक सिद्धांत तो बना हुआ है, प्रश्न इसे संगठन के संचालन की आभ्यांतरित संस्कृति में तब्दील करने का है। गहराई से देखने पर पता चलता है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बजाय संगठन नौकरशाही कमांड व्यवस्था और पूरी तरह से पूंजीवादी नवउदारतावाद की दो अतियों के बीच डोल रहा है। यह रूझान पार्टी की कार्यनीतिक लाइन को भी समान रूप से कैसे प्रभावित करता है, इसे हम आगे देखेंगे।

7. जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की तरह ही जनतांत्रिक दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन में दूसरे जिस पद पर सबसे अधिक विवाद हुआ है, वह है ‘सर्वहारा की तानाशाही” का पद। रूसी क्रांति के कुछ दिनों बाद ही 1920 में बर्टेंड रसल रूस की यात्रा पर गये थे और उन्होंने लेनिन, ट्राटस्की और गोर्की से भी मुलाकात की थी। उस यात्रा के बाद ही उन्होंने एक किताब लिखी, ‘द प्रैक्टिस एंड थ्योरी आफ बोलशेविज्म’। इसमें वे अपने अनुभवों से बताते हैं कि “ब्रिटेन में स्थित रूस के मित्र जब सर्वहारा की चर्चा करते है तब वे शाब्दिक अर्थ में सर्वहारा की ही बात कर रहे होते हैं, और जब वे तानाशाही की बात करते है, तब वे उच्च स्तरीय जनतंत्र कह रहे होते हैं, लेकिन रूस के कम्युनिस्ट जब सर्वहारा की बात करते हैं तो इससे उनका तात्पर्य रूस की कम्युनिस्ट पार्टी से होता है, और जब तानाशाही की बात करते हैं, तब वे शाब्दिक अर्थ में तानाशाही की चर्चा कर रहे होते हैं।” दरअसल शब्द संप्रेषण के औजार होते हैं। जिन शब्दों से हम अपने आशय को पूरी तरह से संप्रेषित नहीं कर सकते, उनसे चिपके रहना कहा की बुद्धिमानी है। पानी का जिक्र करते समय उसे उसके वैज्ञानिक नाम ‘एच टू ओ’ से पुकारना कोई मायने नहीं रखता। इसी प्रकार किसी भी जनतांत्रिक राजनीतिक विमर्श में ‘सर्वहारा की तानाशाही’ पद के प्रयोग से पैदा होने वाले विभ्रम की आशंका को बनाये रखने का क्या मायने है? सोवियत संघ के पराभव के कारण के तौर पर आज सर्वस्वीकृत ढंग से सर्वहारा की तानाशाही के पार्टी की तानाशाही में और फिर पार्टी की तानाशाही के शुद्ध रूप में पार्टी के प्रभुत्वशाली गुट और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल जाने की जो बात कही जाती है, उससे भी सर्वहारा की तानाशाही संबंधी इस बहस के तात्पर्य को समझा जा सकता है.

8. कम्युनिस्ट पार्टियां संगठन के जिस कथित लेनिनवादी सिद्धांत पर बल देती है, उसी के प्रवक्ता लेनिन नहीं मानते थे कि पार्टी के संगठन का कोई सार्विक और सर्वमान्य ढांचा होता है। वे पार्टी को सामाजिक रूपांतरण की खास ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में वर्ग संघर्ष को

निश्चित राजनीतिक दिशा प्रदान करने का उपकरण मानते थे। पार्टी संगठन से उनकी यही अपेक्षा थी कि वह हर देश के यथार्थ के अनुरूप हो और संघर्षों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करे। उनके शब्दों में, “कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (Absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसी प्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा।”

9. संगठन की विफलता सामाजिक यथार्थ और विश्व परिस्थितियों की समझ में कमी की भी सूचक होती है; अर्थात सांगठनिक समस्या का सीधा संबंध पार्टी के कार्यक्रम की समस्या से है। पूंजीवाद की विफलताओं और जनता के व्यापक असंतोष ने भारत में यत्र-तत्र वामपंथ को आगे बढ़ने के बड़े अवसर दिये। विभिन्न स्तर के निकायों के चुनावों में काफी जीतें हासिल हुई। एकाधिक राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। इन्हीं अनुभवों से पार्टी कार्यक्रम में ऐसी सरकारों की भूमिका को सुनिश्चित  करने वाली धाराएं (पूर्व कार्यक्रम की धारा 112 और सन् 2000 में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन द्वारा पारित कार्यक्रम की धारा 7.17) जुड़ीं, वर्ना अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभवों से बनाये गये पार्टी के कार्यक्रम में चुनाव के बल पर किसी संघीय गणतंत्र के अंगराज्य में भी सरकार बनाने की संभावनाओं तक का अनुमान नहीं लगाया गया था, केंद्र सरकार में जाना तो दूर की बात। बोल्शेविक उसूलों में चुनाव में बहुमत प्राप्ति के जरिये सत्ता पर आना पूरी तरह से असंभव माना जाता था। 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर चली बहस के समय पार्टी कार्यक्रम में केंद्र में सरकार बनाने की इस प्रकार की किसी संभावना के बारे में दिशा-निर्देश न होना भी चर्चा का एक विषय था और केंद्रीय कमेटी के उक्त फैसले के ठीक बाद हुई सी पी आई (एम) की पार्टी कांग्रेस में ही कार्यक्रम में संशोधन करके इस प्रकार की संभावना के लिये स्पष्ट व्यवस्था की गयी। कहने का तात्पर्य यह कि लेनिन की समझ के अनुसार भारतीय संविधान और भारत की ठोस राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ संगति रखते हुए पार्टी के कार्यक्रम और संगठन संबंधी निर्णय लिये गये होते, तो अपनी रणनीति और कार्यनीति को कहीं ज्यादा सही और कारगर बनाया जा सकता था, अपने ही कामों का कहीं ज्यादा सही आकलन किया जा सकता था। यह तो जैसे अनायास ही पार्टी के संघर्षों ने अपने प्रभाव के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के संतुलन को बदल कर ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जिसे ‘मौन क्रांति’ कहा जा सकता है। फिर भी आज तक इन अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों के आधार पर भारतीय क्रांति के अब तक के विकास पथ का एक सुसंगत सैद्धांतिक ढांचा तैयार करने में पार्टी की प्रकट विफलता बेहद चौंकाने वाली है। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम के सिलसिलेवार अध्ययन के उपरांत उसे ‘मौन क्रांति’ का नाम इस अदने से लेखक ने दिया है, पार्टी के लिये इस प्रकार का दावा आज भी उसकी कल्पना के बाहर है। अपने खुद के अनुभवों का सही आकलन न कर पाना किसी के लिये भी आगे के सही वस्तुनिष्ठ रास्ते को निर्धारित करना कठिन बना देता है। भारतीय वामपंथ के साथ भी कहीं ऐसा ही कुछ तो नहीं घट रहा है?

10. भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास ऐसी कई बातों को सामने लाता है। यहां के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने दुनिया के दूसरे देशो  की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह ही ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय’ को मुख्य रूप से अपने दिशा निदेशक के तौर पर स्वीकारा था। इससे पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के निर्माण में उसे जहां कुछ तैयारशुदा सूत्र मिल गये, वहीं उन सूत्रों को देश की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढाल कर अपनाने में उसे काफी ज्यादा शक्ति और समय जाया करने का हरजाना भी देना पड़ा है। कभी-कभी तो उसकी समग्र नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीति के हितों के ज्यादा अनुरूप रही, भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के हितों के अनुरूप नहीं। कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरूआती दौर की कमियों को मार्क्सवाद के प्रयोग का ककहरा सीखने वाले शिशु  की स्वाभाविक समस्या माना जा सकता है। वह दौर भी एक केंद्र से पूरे विश्व के कम्युनिस्ट आंदोलन को संचालित करने के कठमुल्ला सोच का दौर था। कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय के दस्तावेजों में उन दिनों जिस अधिकार और जोशो-खरोश के साथ सारी दुनिया के घटनाक्रमों के बारे में राय दी जाती थी, वह आज काफी आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन, तब से अब तक विश्व  कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा दृश्य-पट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। भारत के कम्युनिस्टों ने क्रांति के निर्यात की एक सबसे हास्यास्पद कोशिश भारत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की शह पर तैयार किये जा रहे मुक्तांचलों के रूप में देखी थी। इसके बावजूद समग्रतः विचार करने पर लगता है जैसे आज भी सोच-विचार की अपनी खुद की पद्धति के विकास की ऐतिहासिक अक्षमता से भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उबरना बाकी है। यह काम भारत की वास्तविक परिस्थिति के विश्लेषण, संघर्ष की यहां की परंपरा की पहचान तथा परिवर्तन की संभावनाओं की ठोस समझ के आधार पर ही शुरू किया जा सकता है।

11. आज तक जाति और वर्ग के संबंधों की पहेली अबूझ बनी हुई है। भारतीय समाज में जाति प्रथा एक क्षयिष्णु संस्था है। पूंजीवादी विकास के साथ-साथ इसकी मृत्यु अवधारित है। तथापि, राजनीति में जातिवाद का प्रभाव काफी उग्र दिखाई देता है। यह गरीबों और गरीबों को आपस में लड़ाने का शासक वर्गों का सबसे जघन्य हथियार है, और इसीलिये 1967 के बाद के भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में जातिवाद का प्रयोग पूंजीवादी-सामंती ताकतों द्वारा अपने वर्चस्व को कायम रखने की वैसी ही एक बदहवास प्रतिक्रियावादी कोशिश रही है, जैसी सांप्रदायिकता के जरिये है। साम्राज्यवाद के बरक्स भी जातिवादी पार्टियों की स्थिति कम खतरनाक नहीं है। कभी बहुजन समाज पार्टी को बिल्कुल सही, भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के तौर पर देखा जाता था। लेकिन अब बसपा सहित सभी प्रकार की जातिवादी और नग्न साम्राज्यवाद-परस्त ताकतों को तीसरे विकल्प की ताकतों के तौर पर सम्मानित स्थान पर रखा जाता है। ऐसा कोई भी मोर्चा क्या कभी साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी जनतांत्रिक मोर्चे के निर्माण के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है? जातिवादी राजनीति के चरम प्रतिक्रियावादी रूप के प्रति कम्युनिस्ट आंदोलन की साफ समझ के अभाव के कारण ही उसने हिंदी प्रदेशों में पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को लील लिया है।

12. आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों का अपना एक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के साथ कभी ऊपर से तो कभी नीचे से संयुक्त मोर्चा बनाना, कभी उसके अंदर रह कर काम करना, कभी पूरी तरह से स्वतंत्र रहना – आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के कम्युनिस्टों की इन कार्यनीतियों का गहरा संबंध भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के आकलन में समय-समय पर होने वाले बदलावों से जुड़ा रहा है। इसकी मूल दिशा औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को तेज करने की ही रही। लेकिन सन् 1942 के समय आश्चर्यजनक रूप में इसमें एक बुनियादी फर्क दिखाई दिया। शुरू में जिस विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध मान कर उसके प्रति अपना रुख तय किया गया था, उसी युद्ध को सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के बाद ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता हैरी पाॅलिट के निर्देश पर जनयुद्ध घोषित किया गया, जब कि तब भी युद्ध की प्रमुख शक्तियां साम्राज्यवादी ही थी। फलतः कम्युनिस्ट पार्टी तत्कालीन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लगभग विरोध में खड़ी दिखाई दी। उस काल में फासिस्टों और नाजियों के खिलाफ मित्र शक्तियों में शामिल ब्रिटिश सरकार के प्रति क्या रुख अपनाया जाए, इस सवाल पर तत्कालीन पूरे राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक भ्रांतियां थी। कांग्रेस के मंच पर भी इस विषय में नाना प्रकार की आवाजें सुनाई देती थी। कम्युनिस्ट पार्टी के आकलन के मूल में विश्व परिस्थिति का यह आकलन भी काम कर रहा था कि नाजियों और फासिस्टों के खिलाफ मित्र शक्तियों की जीत से उपनिवेशवाद के खात्मे के युग का श्रीगणेश होगा। बाद का समूचा घटनाक्रम इस आकलन के सच को प्रमाणित करता है। इसके बावजूद यह भी एक बड़ी सचाई है कि सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से अपने को अलग रखने के कारण उस समय पार्टी भारत की आम जनता से काफी अलग-थलग हो गयी, जिसके लिये आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन से सफाई मांगी जाती है। और, आज तक यह सवाल अनुत्तरित ही है कि भारत में तब ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनाए गये नरम रवैये से हिटलर के खिलाफ सोवियत संघ को अपनी लड़ाई में क्या मदद मिली? दुनिया के किसी भी कोने में कम्युनिस्टों का जनाधार बढ़ने से साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को बल मिल सकता है, किसी भी वजह से उसमें कमी से नहीं। लेनिन के शब्दों में, “केवल एक ही प्रकार की व्यवहारिक अन्तर्राष्ट्रीयता है अर्थात अपने ही देश में क्रांतिकारी आंदोलन के विकास के लिए हार्दिक उद्योग करना और प्रत्येक देश के इसी प्रकार के आंदोलन का समर्थन (प्रचार, सहानुभूति और सम्मान के द्वारा) करना।” आचार्य नरेन्द्रदेव ने इसी संदर्भ में बिल्कुल सही कहा था कि “इसको छोड़ कर सब आत्मप्रवंचना है।”

13. अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्राप्त ‘क्रांति के विज्ञान’ के सूत्रों का अंधानुकरण ही रूसी क्रांति की तर्ज पर सत्ता के केंद्रों को आकस्मिक विद्रोह के जरिये दखल करों की सन् 1948 की दूसरी पार्टी कांग्रेस की संकीर्णतावादी लाईन का कारण बना और पुनः उसके बाद चीन के ‘लांग मार्च’ की तर्ज पर तेलंगाना के सीमित किसान संघर्ष को सत्ता दखल करने की लड़ाई तक खींचने की दूसरी बड़ी गलती का सबब बना। 62 वर्षों के संसदीय जनतंत्र के लंबे राजनीतिक इतिहास के अनुभवों के बावजूद इसकी सीखों को भारतीय क्रांति की अपनी समझ में शामिल करने के स्वतःस्फूर्त प्रयत्न आज भी नदारद हैं; जनता के जनवादी राज्य में बहुदलीय व्यवस्था की तरह की चीजों को स्वीकारने का कारण भी भारतीय राजनीति के अनुभव नहीं, सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के अनुभव रहे हैं। “यह प्रश्न कि (समाजवाद के तहत) अन्य राजनीतिक पार्टियां रहेगी या बहुदलीय व्यवस्था कायम रहेगी, क्रांति और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया में इन पार्टियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका पर मुख्य रूप से निर्भर करता है।”(‘कुछ विचारधारात्मक प्रश्नों पर’, सोवियत संघ और पूर्वी युरोप में समाजवाद के पराभव की पृष्ठभूमि में लिया गया पार्टी का प्रस्ताव, 1992)

14. कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी चीज काफी पहले ही अपना अस्तित्व गंवा चुकी है, समाजवादी शिविर नाम की कोई चीज भी नहीं बची है। इसके बावजूद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लिये अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक वर्चुअल संसार बना रखा है और चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया अथवा वियतनाम की तरह के देशों की तमाम नीतियों के बारे में उसके आकलन में उसके इस आत्म-सर्जित आभासित यथार्थ का दबाव हमेशा देखने को मिलता है। अपने ‘पवित्र अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ के निर्वाह के चलते हम इन देशों की नीतियों का न खुल कर आकलन कर पाते हैं और न ही उनके अनुभवों से सही सबक ले पाते हैं। इधर लातिन अमेरिका में नये सिरे से वामपंथ के उभार के बारे में भी हमारे इसी रवैये के कारण पार्टी सदस्यों का आलोचनात्मक विवेक कमजोर हुआ है।

15. भारतीय संविधान में निहित क्रांतिकारी संभावनाओं के बारे आज भी सी पी आई (एम) के कार्यक्रम में कोई उल्लेख नहीं है, जबकि यहां के कम्युनिस्ट आंदोलन ने खुद इन संभावनाओं का भरपूर प्रयोग किया है। कामरेड बी.टी.रणदिवे ने इस संविधान के बारे मे लिखा था कि “अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के साथ यह संविधान जनतंत्र के विस्तार में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक काफी बड़ा कदम है और शायद नवस्वाधीन देशों में इसकी बहुत थोड़ी मिसालें हैं।” सामाजिक विकास के वस्तुगत कारणों की शिनाख्त और विश्लेषण में असमर्थता के सही कारणों की तलाश करने के बजाय अक्सर हम पार्टी की सफलता और विफलता के लिये ‘क्रांतिकारी नैतिकता’ से जुड़े प्रश्नों को पूरी तरह से जिम्मेदार मानने लगते हैं। चुनावों में पराजय के लिये पार्टी के आत्मगत तैयारी के सवालों पर बल देने लगते हैं, और नीतियों के प्रश्नों की अनदेखी करते हैं। यह ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूलभूत दर्शन के विरुद्ध है। क्रांतिकारी राजनीति सिर्फ नैतिकता का प्रश्न नहीं है। समाजवाद नैतिक चयन नहीं, ऐतिहासिक अनिवार्यता है। क्रांति के खास चरण में अपनी ऐतिहासिक भूमिका की सही पहचान के आधार पर सही कार्यनीति के बिना सिर्फ कथित क्रांतिकारी सांगठनिक शुद्धता से कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसी प्रकार, बिना एक सिद्धांतनिष्ठ  प्रभावशाली संगठन के भी किसी भूमिका का निर्वाह संभव नहीं है।

16. जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पार्टी के संगठन की विफलताएं उसके कार्यक्रम को प्रभावित करती रहीं है, वहीं कार्यक्रम की कमियों ने संगठन के स्वरूप पर असर डाला है। पार्टी संगठन का बोल्शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप होगा क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीडि़त जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने “छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से असाधारण निष्ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।”

17. लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततयी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हू-ब-हू लागू नहीं किया जा सकता था। पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का यहां की पार्टी का निर्णय भी इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृष्ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील देश में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।

18. दुर्भाग्य से पार्टी को ऐसे निर्णय तक पहुंचने में काफी ज्यादा विलंब हुआ। संसदीय जनतंत्र के सच और दूसरे आम चुनाव में ही केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्य सरकार के गठन के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन को हमेशा राजसत्ता के हिंसक दमन का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक का अर्द्ध-फासिस्ट दमन इसी का एक और चरम उदाहरण था। शासक वर्गों में बढ़ते हुए तानाशाही के रूझान के चलते ही कम्युनिस्ट आंदोलन अपने पुराने सांगठनिक ढांचे से मुक्त नहीं हो पाया; जनता की जनवादी क्रांति की उसकी परिकल्पना भी पुराने प्रकार के हथियारबंद संघर्ष के रास्ते से चिपकी रही। यही वजह है कि भारत में सन् 1975 के पहले का जो संगठन हथियारबंद क्रांति की तैयारियों में लगा हुआ था, पार्टी के प्रभाव के सीमाई क्षेत्रों, लगुआ इलाकों और संचार संबंधी नक्षों की तैयारी कर रहा था और गुजरात से लेकर बिहार तक भ्रष्टाचार तथा एकदलीय तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश के आंदोलन के प्रति एक सीमा तक उदासीन सा था, वह संगठन 1975 के आंतरिक आपातकाल के खिलाफ संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई का नेतृत्व नहीं दे सकता था। हथियारबंद लड़ाई के कार्यक्रम ने जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण को कभी पार्टी के एजेंडे पर नहीं आने दिया। सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल के अनुभव के बाद ही वह विचार का मुद्दा बन पाया। 1979 में सी पी आई (एम) के सलकिया प्लेनम में जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का नारा दिया गया। लेकिन इस बीच जो लंबा समय गंवा दिया गया, उसके नुकसान की पूर्ति कहां संभव थी!

19. किसी भी फैसले पर अमल में विलंब के अपने खास कारण होते हैं, और इससे खास प्रकार की विकृतियां भी पैदा होती है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के फैसले के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। भारत की राजनीतिक व्यवस्था की तुलना एक गरीब आदमी को लगे अमीरी के शौक से की जा सकती है। सामान्यतः, इतना गरीब और पिछड़ा हुआ देश संसदीय जनतंत्र के लिये अनुपयुक्त माना जाता है। फिर भी भारत के लोगों ने न सिर्फ इसे अपनाया बल्कि इसे अपनी पहचान का अभिन्न अंग बना लिया – यह बात सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल के बाद के एक के बाद एक चुनावों से पूरी तरह स्थापित हो गयी है। आज यह यहां की राजनीतिक व्यवस्था का नैसर्गिक अंग है। कम्युनिस्ट आंदोलन को इस सच को समझ कर आत्मसात करने में खासी देर हुई, जबकि आजादी के पहले से ही वह चुनावों में हिस्सा लेती रही है और आजादी के बाद, पहली लोकसभा चुनाव के समय से ही वह संसद में विपक्ष की एक प्रमुख ताकत रही है; आज तक माओवादी कहलाने वाले गुटों के लिये संसदीय जनतंत्र गले की हड्डी बना हुआ है।

20. पार्टी ने चुनाव लड़े, महत्वपूर्ण जीतें हासिल की, राज्यों में सरकारें बनाई, राज्य सरकार चलाने का अपने तरीके का विश्व रिकार्ड कायम किया, कुछ इतने बड़े सामाजिक परिवर्तन किये, जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है – इन सबके बावजूद इस पूरे उपक्रम के समानांतर पार्टी के सांगठनिक ढांचे में एक जन-क्रांतिकारी पार्टी की जरूरतों के अनुरूप सभी प्रकार के जरूरी परिवर्तन संभव नहीं हुए, उसे व्यापक रूप में प्रतिनिधित्वकारी नहीं बनाया जा सका। पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के बीच का यह लगभग असमाधेय प्रतीत होने वाला अन्तर्विरोध ही उस संकट के मूल में है, जिस संकट का सामना आज पार्टी को करना पड़ रहा है और जिसका उल्लेख यहां शुरू में आधुनिक जीवन की नैतिक चुनौतियों के रूप में किया गया है।

21. भारत में जनतंत्र की रक्षा और विस्तार तथा जनतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं को कायम रखने के लिये लंबे संघर्षों के जरिये पार्टी ने भारतीय राजनीति में अपनी साख बनाई है। आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के अलावा शुरू से राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जन-जीवन की समस्याओं से जुड़ी लड़ाइयों, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास के जरिये भारत के संघीय ढांचे की रक्षा, धर्म-निरपेक्षता के सवाल पर वामपंथ के समझौताहीन रवैये और समाज के उत्पीडि़त और दलित जनों के लिये लगातार आवाज उठाने तथा सर्वोपरि, मजदूरों और किसानों के हितों की रक्षा के प्रश्न पर पार्टी के नेतृत्व में चलाये जाने वाले लगातार और अथक संघर्षों ने वामपंथ का अपना खास स्थान बनाया है। जिस समय 1999 में ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था, उसके पीछे भी वामपंथ द्वारा अर्जित जनतांत्रिक राजनीति के क्षेत्र की यही साख थी। यहां नेपाल के माओवादियों की तरह भारतीय वामपंथियों को संसद में सबसे ज्यादा सीट नहीं मिल गयी थी।

22. लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब पार्टी अपनी इस साख के अनुभवों की सीखों को खुद के कार्यक्रम की समझ का अंग बनाने से चूक जाती है। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के प्रस्ताव के समय केंद्रीय कमेटी के कथित बहुमत की पुरानी कठमुल्ला समझ ने जो भूमिका अदा की, बाद में लोकसभा के अध्यक्ष पद की मर्यादा के सवाल पर भी उसकी झलक देखने को मिली। सत्ता के प्रति एक विशेष प्रकार का वैरागी और शुद्धतापूर्ण विशिष्टतावादी रवैया संसदीय जनतांत्रिक राजनीतिक परिवेश में वामपंथ की साख को बढ़ाता नहीं, बल्कि कम करता है। संसदीय राजनीति में शुद्ध रूप से पार्टी के निर्देशों के अनुसार देश की नीतियों को तय करने का जनादेश पाने का सपना बोल्शेविक पार्टी की तर्ज पर पूर्ण सत्ता ;(Absolute Power) हासिल करने की कठमुल्ला समझ का परिणाम है, जो निश्चित तौर पर पार्टी की जनतांत्रिक साख को हानि पहुंचाता है। यह समझ अंततोगत्वा सर्वाधिकारवाद का खतरा पैदा करती है, जनतांत्रिक चेतना के लोगों को पार्टी से अलग-थलग करती है।

23. साख की यही समस्या विश्व परिस्थिति के आकलन और उसमें भारत की स्थिति और भूमिका के बारे में एक कठमुल्ला सोच से भी पैदा होती है। चीन अमेरिका से ‘सर्वाधिक सुविधाप्राप्त राष्ट्र’ ;(Most Favoured Nation) का दर्जा पाता है, नाना प्रकार के संधि-समझौता करता है, पारमाणविक संधि भी करता है, तथा अधिकांश विश्व मामलों में अमेरिका के साथ खड़ा भी दिखाई देता है। दुनिया की परिस्थिति का उसका अपना आकलन है। उसके इस आकलन में अनेक चरणों को देखा जा सकता है। जैसे-जैसे दुनिया बदली, चीन ने अपनी जरूरतों तथा बदलती विश्व परिस्थितियों के अनुसार अपनी विश्व रणनीति को बदला। इससे चीन को अपनी समाजवादी व्यवस्था को मजबूत करने में कितनी मदद मिली, कितनी नहीं मिली तथा चीन की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना का आज क्या स्तर है, यह बहस के इतर विषय है। इन पर निश्चित तौर पर इतिहास राय देगा। लेकिन जब हम भारत के संदर्भ में विचार करते हैं, तो भारत की विश्व रणनीति के बारे में हमारी सोच में किसी प्रकार का कोई क्रमिक विकास, लचीलापन या बदलाव दिखाई नहीं देता। 1989 में सोवियत संघ के पतन के साथ दुनिया की परिस्थिति में आये भारी परिवर्तन के बावजूद हमारी विदेश नीति संबंधी सोच गुट-निरपेक्ष आंदोलन के समय की परिस्थितियों में ही अटकी हुई है। इसी से साम्राज्यवाद-विरोध भी कोरी लफ्फाजी भर बन कर रह जाता है।

24. भारत में साम्राज्यवाद-विरोध की परंपरा का इतिहास कांग्रेस दल को अलग करके कभी तैयार नहीं किया जा सकता है। इस विषय में आजादी के बाद कांग्रेस के ढुलमुल-यकीन रवैये के बावजूद कोई यदि कांग्रेस को अलग रख कर साम्राज्यवाद के खिलाफ देश की सार्वभौमिकता की रक्षा की कल्पना करता हो तो यह मूर्खों के स्वर्ग में वास करने के अलावा कुछ नहीं होगा। भारत की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता सिर्फ वामपंथियों के बूते बचाई जा सकती है, यह वस्तुनिष्ठ सच नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को हमेशा संदेह के घेरे में रखना एक खतरनाक खेल है। हमेशा इसी बात को दोहराते रहना कि हमारे नेता साम्राज्यवाद से लड़ेंगे नहीं, उससे समझौता कर लेंगे, जनता में एक प्रकार का निरुत्साह पैदा करता है। लोगों को इस निरुत्साह से निकालना ही कठिन हो जायेगा। हमारी लगातार चली आ रही इस नकारात्मक नीति के घातक परिणाम साफ दिखाई देने लगे है। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ छोटे से प्रभाव क्षेत्र वाले वामपंथियों के वश में नहीं है, यह भारत की सभी देशभक्त ताकतों की साझा लड़ाई है और इसमें कांग्रेस भी शामिल है। जब तक इस वास्तविकता को नहीं स्वीकारा जाता, भारत की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को जागृत नहीं रखा जा सकता है। इस बारे में शासक दल की पोल खोलने की कथित नीति साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की नीति नहीं कहलायेगी, बनिस्बत इसे इस संघर्ष से देशभक्त जनता के बड़े हिस्से को काटने की नीति कहा जा सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कांग्रेस की साम्राज्यवाद के बरक्स समझौतावादी नीति की आलोचना न की जाए, लेकिन इसमें इतनी वस्तुनिष्ठता और संयम होना चाहिए ताकि हमारा आकलन जनता के बीच स्वीकृति पायें। लगातार यह कहना कि वे देश को अमेरिका के हाथ में बेच दे रहे है, सच से कोसों दूर है और हमारे प्रति जनता को निरुत्साहित करने के लिये काफी है। परमाणु संधि के संदर्भ में हमारा समग्र आकलन, यह प्रचार कि मनमोहन सिंह देश को बेच रहे हैं और बुश खरीद रहा है, कोरा बचकानापन था। 15वीं लोकसभा के लिए मतदान की समाप्ति के दूसरे दिन 14 मई 2009 को ‘इकोनामिक टाइम्स’ को दिये एक साक्षात्कार में कामरेड प्रकाश करात कहते हैं,“इस दौरान, भारत रूस, कजाखस्तान तथा अन्य देशों के साथ वार्ता चला सकता है। चूंकि हाइड एक्ट अमेरिका-केंद्रिक है, इसीलिये अमेरिकी कंपनियों के साथ सौदा करने के पहले इस पर फिर से काम करना होगा।” (In the mean time, India could carry on with negotiations with say countries like Russia, Kazakhstan and others. Since Hyde Act is US-specific, we should rework that before dealing with American firms.) का. प्रकाश का यह कथन ही इस विषय पर अपनाए गये चरम रुख के पीछे वस्तुनिष्ठता के अभाव को बताने के लिए काफी है।

25. किसी भी मामले में अंधता साख की समस्या पैदा करता है। अंध-अमेरिका विरोध भी। खुद अमेरिका में आज के आर्थिक संकट के चलते जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रति पूरी तरह से आंख मूंद कर नहीं चला जा सकता है। अमेरिकी राजसत्ता के साथ ही अलग से अमेरिकी समाज पर भी नजर रखनी चाहिए। उस समाज के अन्तर्विरोधों को अनदेखा करने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका की धरती पर मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिये सबसे खूनी और ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ी गयी है। आज के अमेरिकी संकट की परिणतियों को भी पुराने ढंग के मानदंडों से शायद पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है।

 
26. गौर करने की बात यह है कि आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह 2007 के पहले की दुनिया से भी अलग है। आज भी अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली सामरिक देश है, लेकिन विश्व अर्थ-व्यवस्था के इंजन के रूप में वह इसे और आगे खींचने में अक्षम है। पिछले अगस्त महीने से अमेरिका का जो ऋण संकट शुरू हुआ है, उससे उबरने के लिये सरकार द्वारा अब तक अरबों डालर बहा दिये जाने पर भी उस संकट का कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता है। वह हिमालय समान कर्ज के जिस बोझ के तले फंसा हुआ है, उससे निजात पाना उसके वश में नहीं है। आर्थिक ताकत के बल पर आंखें तरेर कर की जाने वाली नव-उदारवाद की सारी अनुशंसाएं, ‘वाशिंगटन कन्सेन्सस’ और वित्तीय विनियमन की लंबी-चौड़ी बातें अब सुनाई नहीं देती। आर्थिक सत्ता का न्यूयार्क से हट कर वाशिंगटन जाना ही नवउदारवाद के जनाजे के समान है। अमेरिकी उदारतावादी जनतंत्र को अब चिरस्थायी बता कर ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा के साथ निश्चिन्त हो जाने वाला फ्रांसिस फुकुयामा फिर से सोच में पड़ गया है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिकी ‘उदारतावादी जनतंत्र’ और उसके तमाम नवउदारवादी नुस्खों के पराभव का युग है। अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था आज जिस प्रकार अति-उत्पादन के संकट में फंस गयी है और वहां जिस पैमाने पर राज्य के हाथ में ऋणों का संकेंद्रण हो रहा है, और जिस प्रकार अमेरिकी मजदूर वर्ग में यूनियनों के प्रति आग्रह बढ़ रहा है, उसे देखते हुए अमेरिकी राजनीति की अनंत अकल्पनीय संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता हैं। आज अमेरिका में किसी क्रांतिकारी मार्क्सवादी पार्टी की अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं है, वह आगे भी कभी नहीं होगी। कौन, कब और कैसे ‘साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी’ साबित हो जाए, कहना मुश्किल है। जरूरत मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के उभार की है। आज कम से कम इतना तो तय है कि संकट में फंसा अमेरिका मौजूदा विश्व अर्थ-व्यवस्था के भरोसेमंद सहारे की स्थिति को क्रमशः गंवा रहा है। यद्यपि आज भी अमेरिका ही आर्थिक और सामरिक, सभी दृष्टि से विश्व साम्राज्यवाद का सरगना है, इसमें जरा भी शक की गुंजाइश नहीं है। वही सारी दुनिया की शान्तिकामी, स्वतंत्रताकामी और न्यायप्रिय जनता का प्रथम दुश्मन  है।

27. आज के युग को आभासित यथार्थ ; (virtual reality) का युग भी कहा जाता है। यह बात पूरी तरह सच नहीं है, तथापि इससे पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जो दिखाई देता है, उसका गहरा संबंध जो दिखाया जा रहा है, उससे है। चोमस्की जिसे ‘निर्मित अभिमत’ (manufactured consent) कहते हैं, वह इसी वर्चुअल की उपज है। ऐसे में पार्टी और माध्यम का संबंध काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहीं पर पुनः उस वैचारिक प्रभुत्व की स्थापना की लड़ाई सबसे जरूरी लड़ाई जान पड़ती है, जिसकी हमने ग्राम्शी के उल्लेख के साथ आगे चर्चा की है। इस काम के लिये पार्टी का प्रचारतंत्र, बुद्धिजीवियों की उसकी फौज, उसका सांस्कृतिक मोर्चा किसी भी दूसरे मोर्चों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इन्हीं मोर्चों पर इधर के वर्षों में हमारी स्थिति बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। आज हम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र मे किसी प्रकार का विचारधारात्मक संघर्ष करते दिखाई नहीं देते हैं। बुद्धिजीवियों के साथ पार्टी के आदान-प्रदान की कोई प्रक्रिया नहीं दिखाई देती है।

28. आज की दुनिया से अधिक आर्थिक वैषम्य अतीत में कभी दिखाई नहीं दिया; इसी प्रकार आज की तरह विचारों और नैतिकता के मामले में विश्व -व्यापी एकसमानता पहले कभी देखने को नहीं मिली। दुनिया के स्तर पर सांस्कृतिक वैविध्य को जबर्दस्ती किसी दबाव के तले एक जैसा चपटा बना दिया जा रहा है। नव-उदारतावादी समाज के मूल्यों को हमारे गले में ठूसा जा रहा है। संचार के विकास के कारण भी राजनीति का स्वरूप इतना अधिक बदल गया है कि राजनीति के क्षेत्र को आज यदि विचारों के बाजार का क्षेत्र कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस बाजार में जनमत को तैयार करने के उपकरणों पर शासक वर्ग की इजारेदारी है। बाजार की अपनी खुद की एक नैतिकता है। मुक्त बाजार में विचार कत्तई मुक्त नहीं है। बाजार का पंजा किसी सर्वाधिकारवादी राजसत्ता से भी कही ज्यादा फौलादी होता है, जो नागरिकों को अपने इशारों पर चलाता है। चोमस्की के शब्दों में, “जनतंत्र के लिये प्रचार का वही महत्व है जो किसी तानाशाही निजाम के लिये दमन के यंत्र का है।” क्रांति से तात्पर्य यदि शासक वर्गों की राजसत्ता को पराजित करना है तो जनतांत्रिक व्यवस्था में शासक वर्गों के प्रचारतंत्र को पराजित करना होगा।

29. इस लिहाज से आज वस्तुगत रूप में सारी दुनिया में वामपंथ के पक्ष में सबसे अधिक सकारात्मक परिस्थितियां होने पर भी भारतीय वामपंथ की स्थिति कमजोर नजर आती है। आजादी की लड़ाई और उसके बाद के प्रलेस के जमाने में, और पुनः ‘80 के दशक के बाद के जलेस के प्रारंभिक काल में भारत के बौद्धिक जगत में वामपंथियों की जो स्थिति दिखाई देती थी, आज वह नहीं है। गौर से देखने पर पता चलेगा कि संभवतः आज के भारतीय वामपंथ के साथ समग्र रूप में भारतीय बौद्धिकों का रिश्ता प्रायः नहीं रह गया है। वामपंथी राजनीति भी कोई सामाजिक विमर्श नहीं, कोरी तात्कालिकताओं में सिमटी हुई जान पड़ती है। वामपंथी नेतृत्व की बौद्धिक-सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है। सांस्कृतिक विषय उसकी आखिरी प्राथमिकता में है।

30. पश्चिम बंगाल का अनुभव यह है कि पार्टी की राज्य स्तर की सर्वोच्च सांस्कृतिक उपसमिति तक की बैठकें बुद्धिजीवियों से उनकी समस्याओं अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की समस्याओं पर किसी प्रकार के संवाद के लिये नहीं होती। चुनाव या संकट की किसी दूसरी घड़ी में बहुत अल्प समय के लिये बुलाई गयी ऐसी बैठकों में निहायत औपचारिक और नौकरशाही ढंग से कविताएं और तुकबंदियां तैयार करने, नाटक अथवा कार्टून तैयार करने और कोई सभा-जुलूस संगठित करने के कुछ निर्देश भर जारी किये जाते हैं। जन-संगठनों की स्वायत्तता नाम की कोई चीज नहीं बची है। राज्य के प्रभारी नेता की सनक जन संगठनों का नेतृत्व तय करती है। यह सब पार्टी के उसी कमांड ढांचे की परिणतियां है जिसमें किसी भी सेना की तरह ऊपर से आने वाला आदेश ही सर्वोपरि है, परस्पर विचार-विमर्श की गुंजाइश कम है।

31. जनसंगठनों के प्रति इस प्रकार के कमांड रवैये का सबसे घातक प्रभाव लेखक और सांस्कृतिक संगठनों पर पड़ा है। व्यापक लेखन और संस्कृति के जगत में पार्टी के लेखक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की स्थिति कमजोर हुई है। स्वभाव से प्रगतिशील, जनतांत्रिक और स्वतंत्र समझा जाने वाला लेखक इन संगठनों से जुड़ कर सबसे पहले अपनी इसी नैसर्गिक पहचान को गंवाता है। ‘लेखक प्रगतिशील नहीं रह जाता, संघर्ष के मैदान की कुछ बद्धमूल धारणाओं और नैतिकताओं का बंदी बन कर जीवन के अनेक मार्मिक और मानवीय पक्षों के खिलाफ खड़गहस्त दिखाई देने लगता है। प्रेम की रचनाएं लिखना भी इस कथित क्रांतिकारी सांस्कृतिक हलके में विचार का विषय होता है, प्रश्नातीत स्वाभाविकता नहीं। कलारूपों की अभिनवता, प्रयोग और सौंदर्य के प्रति सदा संशय का भाव बना रहता है। जाहिर है कि ऐसे में स्वतंत्रता तो उससे कोसों दूर दिखाई देती है। फलतः अक्सर प्रतिवाद का स्वर भी नितांत औपचारिकता बन जाता है। यह स्थिति वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों को सांस्कृतिक और लेखकीय जगत के लिये अप्रासंगिक बनाने के लिये काफी हैं।

32. जनसंगठनों के संचालन में गड़बडि़यों से पैदा होने वाली ऐसी विकृतियों पर पार्टी में चर्चा होती है, उन्हें दूर करने के प्रस्ताव भी लिये गये हैं, जन-संगठनों के बारे में पार्टी का एक पूरा दस्तावेज है, जो इन्हीं समस्याओं को संबोधित है। फिर भी, व्यवहार में उन फैसलों पर अमल के लिये पार्टी के जिस ढांचे की जरूरत है, वह दिखाई नहीं देता। जनतंत्र किसी भी सभ्य समाज का एक अभीष्ट लक्ष्य है। पार्टी में यह अनुलंघनीय होना चाहिए। जनतंत्र पर अधिकतम बल ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को तमाम विकृतियों से बचाने की सबसे बड़ी गारंटी बन सकता है। इसके आगे की समस्या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को संगठन के संचालन की आभ्यांतरित, स्वाभाविक संस्कृति बनाने की समस्या है, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।

33. 1979 के सलकिया प्लेनम का दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय हिंदी प्रदेशों में पार्टी को फैलाने के बारे में था, जिसकी काफी चर्चा होती है। इस विषय के ढेर सारे पहलू है। इस मामले में पार्टी की विफलता, एक जनक्रांतिकारी पार्टी के रूप में पार्टी का विकास न हो पाने का प्रमुख कारण है। वामपंथी आंदोलन के लिये हिंदी भाषी क्षेत्र आज तक अंधों का हाथी बना हुआ है। इधर स्थिति और ज्यादा खराब हुई है। वस्तुतः आज के वामपंथ से हिंदी निष्कासित है। वामपंथी राजनीतिक नेतृत्व हिंदी के बुद्धिजीवियों से शायद ही कभी कोई संवाद करता है। हद तब हो जाती है जब डा. अशोक मित्र पार्टी के मुखपत्र में हिंदी भाषा को ही जनसंघ की भाषा कह देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदी अखबार अनुदित सामग्रियों से अटे होते हैं। ये न जन-संघर्षों को प्रेरणा दे सकते हैं, न किसी अन्य प्रगतिशील बौद्धिक विमर्श के मंच बन सकते है।

34. पार्टी के मौजूदा ढांचे की आलोचना करने का अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन के लिये किसी राजनीतिक हथियार की जरूरत से ही इंकार करना। उल्टे इतिहास इस बात का गवाह है कि पूंजीवाद-विरोधी कोई भी आंदोलन या शक्ति स्वतःस्फूर्त ढंग से नहीं पैदा होते। उन्हें अलग से बनाने की जरूरत होती है। जरूरत ऐसे राजनीतिक दल के विकास की है जो 21वीं सदी के समाजवाद की स्थापना की लड़ाई को नेतृत्व दे सके। आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव और अमेरिका के दुनिया के सबसे बड़े सामरिक शक्ति के देश के रूप में उभर कर सामने आने वाले समय की दुनिया है, जब अमेरिका का बराबरी में मुकाबला करने वाली कोई ताकत नहीं दिखाई देती है। यह वह दौर है जिसमें वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति की अग्रगति ने उत्पादन की प्रक्रिया तथा उसकी प्रकृति को भारी प्रभावित किया है। यह आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्वीकरण तथा जनसंचार माध्यमों की बढ़ती हुई शक्ति का दौर है। यह वह दुनिया है कि जिसमें पूंजीवाद नवउदारवाद की निश्ठुरता की ओट में तकनीकी अग्रगति का अपने लाभ के लिये प्रयोग कर रहा है, निर्दयता से प्रकृति का नाश किया जा रहा है और विभिन्न सामाजिक समूहों तथा पूरे के पूरे राष्ट्रों को सामूहिक वंचना का शिकार बना रहा है।
 

35. ऐसे में वामपंथ के पुनर्निर्माण की जरूरत है। कहा जाए तो फौरी जरूरत है। राजनीति संभावनाओं की कला नहीं है। क्रांतिकारियों के लिये राजनीति असंभव को संभव बनाने की कला है। यह काम सिर्फ आत्मगत आग्रह से नहीं, मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की यथार्थपरक दृष्टि और कार्रवाई से संभव है। तभी जो आज असंभव जान पड़ता है, वह कल संभव हो पायेगा। इसके लिये जरूरी है कि हम आज की जरूरतों के अनुरूप अपने राजनीतिक उपकरणों को तैयार करें। यह पार्टी के बोल्शेविक ढांचे के साथ अनालोचकीय तरीके से चिपके रह कर हासिल नहीं किया जा सकता है। इस ढांचे में निहित जो सैद्धांतिक कमजोरियां है, उनसे मुक्ति पाना ही होगा। पार्टी को सभी स्तरों पर अधिक जनतांत्रिक और संवादी बनाना ही होगा।

36. किसी बेहतर भविष्य के लिये ‘बेहतर वाममोर्चा’ के शासन के प्रति अब लोगों में उतनी रुचि नहीं रह गयी थी। भविष्य की चिंता किसे होती है? लोगों को भविष्य की चिंता प्रेरित नहीं करती। अतीत भविष्य की तुलना में कहीं ज्यादा मूर्त, ठोस और परिपूर्ण होता है। अतीत को बदलने, नये रंग में रंगने, उसकी बदरंग हो चुकी छवि को सुधारने के लिये आदमी जरूर प्रेरित होता है। वाममोर्चा के शासन के 35 वर्षों के दीर्घ अतीत में ऐसे कई बदरंग कोने तैयार हो चुके थे जिन्हें नये रंग में रंगना, उन्हें बदलना आदमी के लिये ज्यादा जरूरी हो गया था।

37. अपनी तमाम राजनीतिक और सांगठनिक कमजोरियों का कुल परिणाम आज पार्टी के एक ऐसे नौकरशाही स्वरूप के रूप में सामने आया है जिसमें आने वाले समय में काडर के रूप में चयन के लिये हमारे सामने अच्छों में श्रेष्ठ  नहीं बल्कि बुरों में निकृष्ट के अलावा और कुछ नहीं रह जायेगा। एक नौकरशाही ढांचे में सिद्धांतविहीन, मानवीय संवेदनाओं से शून्य तिकड़मों में लिप्त होकर ही कोई व्यक्ति महत्व का स्थान हासिल कर सकता है। इन तिकड़मों में लचर और मिडियोकर चरित्र के लोग माहिर होते है। इसलिये सब कुछ यदि पूर्व की भांति ही चलता रहा तो पार्टी का नेतृत्व इन लचर और मिडियोकर लोगों से ही भरा होगा, दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह जायेगा। ऐसा नेतृत्व नीतियों के मामले में विसर्जनवादी और संगठन के मामले में नौकरशाही, कमांड सिद्धांत का हामी होगा। इसके लक्षण इधर साफ दिखाई दे रहे हैं।