कैलाश झा किंकर की गज़लें

 

कैलाश झा किंकर

परिचय

कैलाश झा किंकर
जन्मः 12 जनवरी 1962
शिक्षाः एम. ए., एल-एल. बी.
प्रकाशित पुस्तकों में संदेश, दरकती जमीऩ, हम नदी की धार में, देख कर हैरान हैं सब, जिन्दगी के रंग हैं कई प्रमुख हैं। 200 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में गजलें प्रकाशित।
कई संस्थाओं से सम्मानित।

सम्प्रतिः शिक्षण

दुष्यंत कुमार ने पहली बार हिन्दी ग़ज़ल को एक अलग धार और अलहदा जमीन प्रदान किया। दुष्यंत कुमार की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले ग़ज़लकारों में अदम गोंडवी का नाम सहज ही याद आता है। इसी परम्परा में एक अन्य गज़लकार कैलाश झा किंकर भी हैं जीवन के साथ-साथ समय और समाज की विसंगतियों को कैलाश झा किंकर जिस तरह अपनी ग़ज़लों का विषय बनाते हैं वह हमें सोचने-विचारने के लिए विवश करता है कैलाश जी की गज़लें आप ‘पहली बार’ पर पहले भी पढ़ चुके हैं। आइए एक बार फिर रु-ब-रु होते हैं कैलाश जी की कुछ नयी ग़ज़लों से     

कैलाश झा किंकर की गजलें
 

1
साथ सच का मिला है बडी बात है
झूठ है हर तरफ हर तरफ घात है ।

है दलाली का धंधा कदम -दर -कदम
धन कमाना भी अब तो करमात है।

वोट भी अब कहीं पर न निष्पक्ष है
है कहीं धर्म तो अब कहीं जात है।

दौर के न्याय भी तो बिकाऊ हुए
हो रहा है कहीं शह कहीं मात है।

प्यास से त्रस्त हो के पुकारे धरा
सिर्फ कहने को मौसम ये बरसात है।
 

 
2
 

बात -बात में उठा-पटक
बिल सभी गये हैं फिर लटक।

जीतने को तिकडमी हुए
लोकतंत्र के सभी घटक।

टेक्स जो विकास के लिए
वोट के लिए रहे गटक।

अफसरों की चाल चल गयी
डर से सब गये हैं अब सटक।

मंजिलों की बात छोडिये
राह में कई गये भटक ।

टूटते गये समाज से
जाति-धर्म अब रहे खटक।

हो गया मलीन है अवाम
कुर्सियों का रंग है चटक

 
वोट से ही सूरतें बदल
बूथ पर चलें झटक-झटक।


3

जिन्दगी मौत की इक धरोहर लगे
मौत के बाद घर भी नहीें घर लगे।

इक तमाशा है दुनिया महामोह का
जब तलक सांस सब कुछ मनोहर लगे।

जिस जमीं के लिए बीतती जिन्दगी
मौत के बाद बेकार-बंजर लगे।

चाहते लोग जीना सदा के लिए
जिन्दगी को सदा मौत से डर लगे ।

जल रही है चिता एक अरमान की
पर उधर रूह में सैकडों पर लगे।

आत्मा की नहीं मौत होती कभी
आत्मा जिन्दगी से भी उपर लगे।

मौत पर मुसकुराने की कोशिश हुई
आंसुओं से मगर नैन भी तर लगे।


सम्पर्कः 

कृष्णा नगर,
खगडिया-851204


मो0-9430042712

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)

कैलाश झा किंकर

कैलाश झा किंकर की ग़ज़लें

परिचय

कैलाश किंकर का जन्म बिहार के खगड़िया जिले में १२ जनवरी १९६२ ई को हुआ. शिक्षा एम ए, एल एल. बी.

प्रकाशित कृतियाँ- ‘सन्देश’, ‘दरकती जमीन’, ‘चलो पाठशाला’ (सभी कविता संग्रह), ‘कोई कोई औरत’ (खंड काव्य) ‘हम नदी के धार में’, ‘देख कर हैरान हैं सब’, ‘जिंदगी के रंग हैं कई’ (सभी गजल संग्रह),

देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं और गजलों का प्रकाशन.

संपादन- ‘कौशिकी’ त्रैमासिक और ‘स्वाधीनता सन्देश’ (वार्षिकी) का संपादन.

दुष्यंत कुमार के पश्चात हिंदी गजल को एक नया आयाम प्रदान करने में कैलाश किंकर का नाम महत्त्वपूर्ण है. सरल भाषा में तीखी से तीखी बात कह देना किंकर की खासियत है. किंकर एक आम आदमी की ही तरह चुनाव और लोकतंत्र की विडम्बनाओं से भलीभाति परिचित हैं. वे बड़ी साफ़गोई से कहते हैं की मोल भाव का समय आ गया है. जाति पांति के जूनून को उभार कर लोगो को जातीय तौर पर उकसाने का समय है. जिस लोकतंत्र का सपना हमारे पुरखो ने देखा वह हमारा आज का लोक तंत्र तो नहीं ही हो सकता. कहीं न कहीं कुछ न कुछ जरूर गड़बड़ है. जिससे किंकर का कवि मन बरबस ही कह उठता है कि यह लोकतंत्र के पड़ाव का समय है.

एक कवि कि यही तो खासियत होती है कि वह ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का पक्षधर होता है. किंकर भी घर-घर चिराग जलने के हिमायती है. अभी जो तस्वीर है उसे बदलने के हिमायती हैं. वह पिछला सब कुछ छोड़ कर नया सोचने करने का उद्घोष करते हैं जो हमें आशान्वित करता है एक बेहतर मानव समाज के प्रति.

 
संपर्क:  माँ, कृष्णानगर, खगड़िया- 851204
 
मोबाइल- ०९४३००४२७१२, ०९१२२९१४५८९

1

भूलिए वाकया जो हुआ सो हुआ
सोचिए कुछ नया जो हुआ सो हुआ।

लोग मिलते विछुड़ते रहेंगे सदा
छोड़िए मर्शिया जो हुआ सो हुआ।

फिक्र में इस कदर मत गलें रात दिन
भूलिए हर रिया जो हुआ सो हुआ।

जो दिया वो लिया आपका क्या गया
मत जलाएँ जिया जो हुआ सो हुआ।

वक्त ही मर्ज है वक्त ही है दवा
सब्र कर साथिया जो हुआ सो हुआ।

 
 
2
 
 
जिन्दगी के रंग हैं कई
ढूँढ़िए उमंग हैं कई।

 
आपकी उड़ान देखकर
आज भी तो दंग हैं कई।
 
 
वो जो ग़म में मुस्कुरा रहा
उसके साथ-संग हैं कई।
 
 
अश्क में खुशी के बीज हैं
फिर भी इससे तंग हैं कई।
 
 
जिस तरह से चाहते, जिएँ
जीने के भी ढंग हैं कई।

3

 

दीवार मत उठा देना
दूरी नहीं बढ़ा देना।

आसान रास्तों को तुम
मुश्किल नहीं बना देना।

बढ़ जाएगी अदावत यह
शोलों को मत हवा देना।

मुश्किल से नींद आई है
उसको नहीं जगा देना,

होते ही शाम तू ‘किंकर’
दीया जरा जला देना।

4

घर-घर चिराग जल जाए
तस्वीर ये बदल जाए।

उम्मीद हो चुकी बूढ़ी
अब रास्ता निकल जाए।

झूठों को देखकर लगता
सूरज न सच का ढल जाए।

 
ऐसी सजा खता की हो
हर आदमी सँभल जाए।

है कामना यही ‘किंकर’
हर डाल फूल-फल जाए।

5

आ गया चुनाव का समय
फिर से मोल-भाव का समय।

जातिवाद का चढ़ा जुनूं
है नहीं सुझाव का समय।

प्रश्न है विकास का नहीं
यह तो सिर्फ दाव का समय।

लोकतंत्र सोचता है अब
आ गया पड़ाव का समय।