मैला ढोने की प्रथा –
बोलो तो कब तक बनी रहेगी राष्ट्रीय शर्म?
हर किसी का भरा हुआ है दिल
सांत्वना भरी
मुलायम आवाज कुलीन
बार-बार कर रही है घोषणा कि
राष्ट्रीय शर्म है मैला ढोना
चाहें वह देश प्रधान
श्रीमन मनमोहन सिंह हों
या धन्ना जी मुकेश अम्बानी
और चिकने-चुपड़े बालीवुडिया आमिर खान
कोई कमी नहीं है ऐसे लोगों की
पाक-साफ कर लेना चाहता है
हर कोई अपने को
शब्दों से लगाता है डूबकी ब्रह्म राक्षस
इस दुःख के सागर में
जी हाँ! कोई कमी नहीं है
परन्तु, क्या
शर्म का यह दिखाऊ बोझ
मैला ढोने वालों के नारकीय जीवन में
कर पाया है कोई कमी,
अभी तक?
जातिवादी फोड़े के मीठे सुख में डूबे तल्लीनों
जवाब दो!
जवाब दो! प्रशोषक दुष्ट सरकार
कहाँ गए वह सौ करोड़
वह योजना
कि मैला ढोने की प्रथा से इंसान मुक्त हो जाएगा
बताओ तो ज़रा, यह योजना
मोंटेक सिंह के आफिस टॉयलेट तक ही सीमित रह गयी क्या?
गीता रास्ता है एकमात्र
अपने व्यापक शोषक नलों का विस्तार कर
हवा को अपने लिप्सा कुंड तक ले जाएं
आनन्द का अनुभव करें
रुकी सांस को मुंह से बाहर निकालें
सडन भरी फुंकार हो द्रुत गति कटार
उसके संहार से गरीब-गुरबों के रूप में, सब चुनौती
जनता की सत्ता के सम्पादक साहब
अपने विचारों को मुर्दों का टीला बना लेने का
बन्धुवरों आप भी चाहें तो गीता से प्रभावित हो
सांठ-गांठ के दांव-पेच त्रिआयामी (डी पी टी ) बन सकते हैं
अब आओ हम सब मिल कर ईश्वर के दिए सम्पूर्ण आश्वासन के इस उवाच को ,
तभी हमारे कर्म की श्रेष्ठता बनी रह सकती है
सच कह रहा हूँ
इस महानगर में उसे देखे महीनों हो गये थे
और वह ठीक मेरे सामने आ खडी हुई
एक छोटी सी बिल्ली
और मैं बना रहा था अपना खाना
मुझे आदमी ने कहा
हट! भाग यहाँ से
एक शहरी जेंटलमैन ने
उसे अपने फ़्लैट से निकाल बाहर कर
खिड़की बंद कर ली
मेरा कवि तड़प गया
मैं शर्मिन्दा हूँ
जी हाँ! मैं शर्मिन्दा हूँ
इतने दिनों बाद
वह भी ठीक उस समय
जब मैं बना रहा हूँ खाना
आज वह अपने हिस्से का कुछ लेने आयी तो
मुझ बलारि ने उसे भगा दिया… … …
जबकि मैं उसके हिस्से का
सब कुछ हड़प चुका हूँ
आओ! हम सब मिल कर
अपने इंसानी रूप में,
शर्मिन्दा होने के गीत गाये।
अपनी तरह का अनोखा लड़बावला मैं
झांक-झांक देखता हूं अपने मैं ही
कहां बैठा है सामंती सर्प
मुझको खा तो नहीं रही हैं
पूंजी-संचय वाली भूरी चीटियां ?
देखो तो !
उस ब्राम्हणवादी गुफा में बैठा
चेहरा दिखता है अपना ही ….
खुदगर्ज़ पंजें आत्ममुग्ध
झूल रहे हैं
खोखली होती डालों पर।
खिली हुई धूप का पत्ता था
ठीक मेरे सामने आ गिरा
कटी पतंग के मांजे से कट डाल हुई जो घायल
दर्द सह गई चुपचाप कटी पतंग को तो हवा में ही लूट
कोई ले भागा जैसे हो सिकंदर मैंने उस पत्ते को हथेली पर
रखे रखा है – खिली धूप में ……..
खुली आँखों में काजल लगा
वह देखता है
अपने आसपास सोया सोया सा
वशीकरण के पाश में बद
उसके कान में मंत्र फूंक रहा
धर्म का ठेकेदार
जेहादी बम बन जाओ
अल्ला ताला के पास जन्नत में मिलेंगी हूरें
हरे-भरे शहर में बम बन कर उड़ गया
आदम और हव्वा के शरीर
खून से लथपथ लिथड़े पडे हैं इधर-उधर
न ही कहें जन्नत नजर आयी
न ही कहीं हूरें
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