शंभू यादव

युवा कवि  शंभू यादव का जन्म 11 मार्च 1965 को हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के ग्राम बड़कौदा में हुआ।  प्राथमिक शिक्षा गाँव में, सारी उच्च शिक्षा दिल्ली से। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर किया। शंभू की कवितायें कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लोग्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  शंभू यादव का पहला कविता संग्रह ‘एक नया आख्यान’ अभी हाल ही में ‘दखल प्रकाशन’ से आया है।

अन्याय और शोषण का प्रतिकार ही रचनाकार का मुख्य उद्देश्य होता है। जिस रचना में अपने समय की विसंगतियों से लड़ने-जूझने का माद्दा न हो, उसके रचना होने पर भी वाजिब संदेह किया जा सकता है। कालजयी होना तो दूर की कौड़ी है। कमलेश्वर ने ‘जो मैंने जिया’ में लिखा है -‘जागती आँखों से देखे गए सपने जब सच  नहीं होते तो उसकी किरचें बहुत गड़ती हैं। दारुण दुःख देती हैं। आखिर आदमी दुखों का कितना बोझ उठा सकता है। पर यह वैचारिक बोझ, यह दंश और अकुलाहट अपना प्रतिकार मांगती थी – यह बार-बार पुकारती थी कि विरोध करो, प्रतिवाद करो। इस व्यस्था को बदलो। दोगली अर्थव्यवस्था में जीने से इनकार करो।’  युवा कवि शंभू यादव की कवितायें पढ़ते हुए मुझे कमलेश्वर की ये यन्त्रणादायी पंक्तियाँ याद आयीं। शंभू की कविताओं में व्यवस्था के प्रति यह प्रतिकार साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। संयोगवश शंभू का पहला कविता संग्रह ‘एक नया आख्यान’ भी बिलकुल अभी-अभी जन्मे ‘दखल प्रकाशन’ से आया है। कवि और प्रकाशक को बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है शंभू यादव की नवीनतम कवितायें- 

मैला 

मैला ढोने की प्रथा –
बोलो तो कब तक बनी रहेगी राष्ट्रीय शर्म?


हर किसी का भरा हुआ है दिल
सांत्वना भरी
मुलायम आवाज
कुलीन
बार-बार कर रही है घोषणा कि
राष्ट्रीय शर्म है मैला ढोना

        
चाहें वह देश प्रधान
श्रीमन मनमोहन सिंह हों
या धन्ना जी मुकेश अम्बानी
और चिकने-चुपड़े बालीवुडिया आमिर खान 


कोई कमी नहीं है ऐसे लोगों की 

पाक-साफ कर लेना चाहता है
हर कोई अपने को


शब्दों से लगाता है डूबकी ब्रह्म राक्षस
इस दुःख के सागर में


जी हाँ! कोई कमी नहीं है

परन्तु, क्या
शर्म का यह दिखाऊ बोझ
मैला ढोने वालों के नारकीय जीवन  में 
कर  पाया है कोई कमी,
अभी तक?  


जातिवादी फोड़े के मीठे सुख में डूबे तल्लीनों
जवाब दो!


जवाब दो! प्र
शोक दुष्ट सरकार
कहाँ गए वह सौ करोड़
वह योजना
कि मैला ढोने की प्रथा से इंसान मुक्त हो जाएगा 


बताओ तो ज़रा, यह योजना

मोंटेक सिंह के आफिस टॉयलेट तक ही  सीमित रह गयी  क्या? 

 

महाराजाधिराज शिरोमणि  अखिल बुद्धिवान सिंह उवाच

गीता एक मात्र रास्ता है
अपने आतंरिक छलों को मजबूत करें
गीता रास्ता एकमात्र है
सम्पूर्ण छद्म की मुद्रा में
लोक की समस्त स्वच्छ वायु को अपने अन्दर खींचें

गीता रास्ता है एकमात्र
अपने व्यापक शोषक नलों का विस्तार कर
हवा को अपने लिप्सा कुंड तक ले जाएं
आनन्द का अनुभव करें

गीता है रास्ता एकमात्र
रुकी सांस को
मुंह से बाहर निकालें
सडन भरी फुंकार हो द्रुत गति कटार
उसके संहार से गरीब-गुरबों के रूप में, सब चुनौती

पाता लोक में धंस जायेगी

गीता है एकमात्र रास्ता
जनता की सत्ता के सम्पादक साहब
अपने विचारों को मुर्दों का टीला बना लेने का

बन्धुवरों आप भी चाहें तो गीता से प्रभावित हो
सांठ-गांठ के दांव-पेच त्रिआयामी (डी पी टी ) बन सकते हैं

तथास्तु
अब आओ हम सब मिल कर ईश्वर के दिए सम्पूर्ण आश्वासन के इस उवाच को , 
अपने कर्म के यज्ञ के रूप में, भगवान् की श्रद्धा के प्रति भेंट स्वरुप पढ़ें ,
तभी हमारे कर्म की
श्रेष्ठता बनी रह सकती है  

  

बलात 

सच कह रहा हूँ
इस महानगर में उसे देखे महीनों हो गये थे
और वह ठीक मेरे सामने आ खडी हुई 
एक छोटी सी बिल्ली
और मैं बना रहा था अपना खाना 


मुझे आदमी ने कहा
हट! भाग यहाँ से
एक शहरी जेंटलमैन ने
उसे अपने फ़्लैट से निकाल बाहर कर
खिड़की बंद कर ली 


मेरा कवि  तड़प गया 


मैं शर्मिन्दा हूँ
जी हाँ! मैं शर्मिन्दा हूँ
इतने दिनों बाद
वह भी ठीक उस समय
जब मैं बना रहा हूँ खाना
आज वह अपने हिस्से का कुछ लेने आयी तो
मुझ बलारि ने उसे भगा दिया… … …
जबकि मैं उसके हिस्से का
सब कुछ हड़प चुका हूँ 


आओ! हम सब मिल कर
अपने इंसानी रूप में,

शर्मिन्दा होने के गीत गाये।

झिरी 

अपनी तरह का अनोखा लड़बावला मैं
झांक-झांक देखता हूं अपने मैं ही
कहां बैठा है सामंती  सर्प
मुझको खा तो नहीं रही हैं
पूंजी-संचय वाली भूरी चीटियां ?

देखो तो !
उस ब्राम्हणवादी गुफा में बैठा
चेहरा दिखता है अपना ही ….

खुदगर्ज़ पंजें आत्ममुग्ध
झूल रहे हैं
खोखली होती  डालों पर। 

धूप  का पत्ता 
 
 
 
खिली हुई धूप का पत्ता था 
ठीक मेरे सामने आ गिरा 
कटी पतंग के मांजे से कट 

डाल  हुई जो घायल 
दर्द सह गई चुपचाप 

कटी पतंग को तो हवा में ही लूट 
कोई ले भागा जैसे हो सिकंदर 

मैंने उस पत्ते को हथेली पर 
रखे रखा है –

खिली धूप में …….. 

ज़न्नत की हूरें

खुली आँखों में काजल लगा
वह देखता  है
अपने आसपास सोया  सोया सा
वशीकरण के पाश में बद 


उसके कान में मंत्र  फूंक  रहा
धर्म का ठेकेदार
जेहादी बम बन जाओ
अल्ला ताला के पास जन्नत में मिलेंगी हूरें 


हरे-भरे शहर में बम बन कर उड़ गया
आदम और हव्वा के शरीर
खून से लथपथ लिथड़े पडे हैं इधर-उधर 


न ही कहें जन्नत नजर आयी
न ही कहीं हूरें

कविता की मौत
जेठ की तेज लपटों की भर्रायी सांझ में
लू के थपेड़े
वह कुंए से आ रही है
पानी भर कर ला रही है
बगल में अटका रखी है टोकनी
सर पर एक घड़ा
उस पर भी दूसरा घड़ा
मुंह में फंसा रखा है घूंघट का छोर
पेट में गर्भ
पाँव कुछ धचका खा गया बोझ मारे
बगल से निकल गयी टोकनी
घड़े पर घडा आ गिरा ठप्प
जलते भूड में धम्म से आ गिरी खा पछाड़
मैं एक बच्चा क़ाई-डंका खेलता चढ़ा हूँ नीम पर
देख कूद भागा उस ओर 
‘अरे देखो सुन्डे की बहू रा में गिर पड़ी र… …. …’

गाँव की औरतों से घिरी
दो छोरियों के बाद तीन गर्भपात करवा
छठें से थी रक्त की अल्पता में
दे तज गयी कविता
दिन भर बैठक में ताश पिटता सुंडा
देख रहा है यह सब दूर से
हाथ में ताश की गड्डी अब भी फंसाए है. 

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