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सुशील कुमार |
परिचय
§ जन्म– 13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में।
§ सम्प्रति मानव संसाधन विकास विभाग, रांची (झारखंड) में कार्यरत।
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§ प्रकाशित कृतियां–
§ कविता–संग्रह – कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012)
§ कविताएं और आलेख साहित्य की मानक-पत्रिकाओं व अंतर्जाल–पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित•
कविता महज शब्दों की कारीगरी नहीं होती बल्कि वह जीवनानुभवों से रची-पगी वह रचना होती है जिससे हमें अपने आस-पास की दुनिया और उसके विडंबनाओं को समझने में मदद मिलती है. बदलते समय के साथ कविता का सौंदर्य-बोध बदला है. इसी के चलते आज कविता में महज शिल्प ही नहीं बल्कि उसके कथ्य पर भी जोर दिया जाने लगा है. शिल्प कथ्य की मौजूदगी में और निखर कर सामने आता है. बिना कथ्य के शिल्प वाली कविता महज वाग्जाल बन कर रह जाती है और पाठकों पर कोई प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं होती. इसी क्रम में कवि-आलोचक सुशील कुमार ने कविता के विचार तत्व पर कुछ महत्वपूर्ण बातें की हैं. तो आइये आज पढ़ते हैं सुशील कुमार का आलेख – ‘कविता में विचार तत्व : कुछ्ह नोट्स’
कविता में विचार–तत्व : कुछ नोट्स
सुशील कुमार
समकालीन कविता जैसे–जैसे छायावाद के प्रभाव से मुक्त हुई, भाव और कल्पना की अपेक्षा विचार अधिक महत्व पा कर संघटनात्मक दृष्टि से बाह्य स्थिति से कविता की केंद्रीय स्थिति में पहुँचने लगा। यह कविता में प्रगतिशीलता के तत्व के आने से हुआ। इतिहास गवाह है कि छायावादोत्तर कविता की कोई भी धारा यथा नई कविता, अ–कविता, नेकेनवाद आदि न तो उसे कुंद कर पायी, न उसकी गति को किसी दूसरी दिशा में मोड़ पाई। वस्तुत: उस समय के कवियों ने यह महसूस किया कि लोक के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने में कविता में प्रगतिशीलता के तत्व और तर्क–तथ्याधारित वैज्ञानिक विचार–बोध बहुत जरूरी हैं। वह कवि में एक ऐसी केंद्रीय दृष्टि उत्पन्न करता है जो उसके भावबोध को संयमित, नियंत्रित और परिमार्जित करने के लिए अपरिहार्य हो। छायावाद के अंतिम पड़ाव पर कवियों को लगने लगा कि कविता का निरा भावपक्ष और कलापक्ष उत्पीड़ित जनता के दुख–दर्द को पूरी शक्ति से अभिव्यक्त नहीं कर सकता। वहाँ प्रतिरोध के स्वर और प्रतिबद्धता की ताकत मद्धिम हो जाती है, फलत: कविता हल्की और वायवीय हो जाती है जिसमें कवि की अनुभूति का अतिरेक होता है और वह भी प्रामाणिक नहीं। ऐसी कविताएं पाठक के मन पर छाप छोडने से चुक जाती हैं।
यहाँ लक्ष्य किया जा सकता है कि साठोत्तरी कवियों के सर्वाधिक प्रमुख कवि धूमिल ने भाव की जगह विचार को प्रश्रय देकर कविता के वर्जित समझे जाने वाले क्षेत्र में सेंध लगा कर जो सकारात्मक हस्तक्षेप किया, उसका प्रभाव आने वाले कवियों की एक पूरी पीढ़ी पर पड़ा। हालांकि प्रयोगवादी कवियों में वह बुद्धि–तत्व की ओर अधिक झुका हुआ रहा, पर उसका आदर्श रूप हमें मुक्तिबोध और कुमार विकल की कविताओं में मिलता है जो आगे की सदी (इक्कसवीं सदी) के लिए मार्गदर्शन साबित हुआ। विचार-बोध के महत्व के कारण इस पीढ़ी की कविताओं में जो संरचनात्मक बदलाव आया, वह सायास नहीं, बल्कि स्वाभाविक है जो क्रमश: आगे की कवि–पीढ़ियों में संचरित होता गया। वस्तुत: इसके नेपथ्य में वे सामाजिकार्थिक–राजनीतिक कारण थे, जिससे कविता में भाव–पक्ष और कला–पक्ष की तुलना में विचारपक्ष को प्रधानता मिली। देश में सत्तापक्ष का लम्बा कुशासन, आजादी से मोह-भंग, जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, काला धन, सरप्लस पूँजी, बाबरी–ध्वंस, गोधरा–कांड, दक्षिणपंथ और वाम–राजनीति के कुत्सित रूप, दलित–प्रताड़ना और शोषण, स्त्री–मुक्ति के सवाल, नक्सलबाड़ी और उसके च्युत मूल्य, उत्तर–आधुनिकता, ग्लोबलाइजेशन, जंगल–कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, पलायन और आदिवासी समस्याएँ, ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट, निरंतर टूटता परिवार, महिला–प्रताड़ना, निर्भया–कांड, नैतिक अवमूल्यन, पुरस्कारों की राजनीति, नेतृत्व की चरित्रहीनता आदि–आदिघटित–लक्षित कई घटनाक्रम परिदृश्य में उभर कर आते हैं जिसने जन-जीवन को मथ कर रख दिया और जन में अपरिसीम विचार को उद्वेलित किया (अन्य कारण भी होंगे)। कवि भी भला इससे कैसे अछूता रहता? उसके भीतर भी विचार और भाव के बीच एक रस्साकशी चलने लगी जो (कवि–मन में) प्रतिरोध के नए स्वर और नए कलेवर में तनाव को उत्पन्न करने में सहायक हुए। यह स्वाभाविक ही है कि कविता के इस द्वन्द्वात्मक संघर्ष में विचार–तत्व कवि पर हावी होने लगा। इस विषम सामाजिक–राजनीतिक परिवेश ने कविता में विचार–तत्व को प्रखरता से केंद्रीभूत किया। इसको अभिव्यक्त करने के लिए कवियों ने शिल्प के स्तर पर पुराने बिम्बों की जगह नए किस्म के बिम्बों का प्रयोग, कहन की अधिकाधिक यथार्थवादी या सपाट वक्तव्य–शैली और कविता में रुखड़ी भाषा (लोकल डायलेक्ट्स) के प्रयोग पर बल दिया जो उसके प्रतिरोधी विचारतत्वों को मजबूती से सृजन में ला सके। अब की कविता में तो विचार–तत्व कविता का निकष और अनिवार्य घटक ही बन गया है। पर यह भी सच है कि वह आधुनिक कविता का जितना मूल अभिलक्षण और आधार–तत्व बना, उतने ही उसके खतरे भी आसन्न हो गए। इस वाबत यहाँ ज़ोर देकर कहना चाहूँगा कि कविता केवल विचार–अभिकथन (एक्स्प्रेशन ऑफ व्यूज) नहीं होती, कहने का मतलब है कि कविता में विचार–दर्शन बहुत पीछे से यानि कहीं नेपथ्य से जीवन की क्रियाशीलनों या प्रकृति की गतिकी के बारे में कुछ कहता है, इस उद्योग में वह कभी मुखर नहीं होता। कविता की अंतर्वस्तु में एक दृष्टि-संपन्न कवि का विचार–दर्शन इस तरह समाहित होता है कि पाठक को कवि के इस उपक्रम का भान तक नहीं होता और कवि का प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है। कविता में कथ्य से जीवन–दर्शन को जोड़ने की यही युक्ति वैज्ञानिक है और अब तक स्वीकृत रही है वरना कविता गद्य से अलग अपनी पहचान नहीं बना पाती। यह अनुभव होता है कि आधुनिक विचार बोध की कविताओं में कवि का काव्य–सौष्ठव बिंबों और उपमानों में ज्यादा प्रदर्शित नहीं होता है, बल्कि मुख्यत: कविता के ‘अंडरटोन’ और ‘लहजे’ में गुप्त रहता है जो अव्यक्त (दर्शन) को व्यक्त कर जाता है, इसके उलट कविता में यह काव्य–प्रयत्न यदि “ओवर टोन” बन कर आता है तो ऐसा महसूस होने लगता है कि विचार–दर्शन का पुट डालना ही कवि का मूल संप्रेष्य और कविता का अभीष्ट हो गया है। अगर कवि इनमें दक्ष और अनुभवी न हो तो आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्व-भूमि में विचार–तत्व के खतरे भी उतने ही हैं जितना यह आधुनिक कविता का जरूरी प्रतिमान जान पड़ता है।
यह भी कहना सही नहीं होगा कि कविता में आधुनिकता के लिए केवल विचार तत्व ही उसके मानक बने। समय के बदलने से लोक के प्रति कवि का दृष्टिकोण बदला, रूढ और परंपरागत विचारों का स्थान सिद्ध और तात्कालिक जीवन को कविता में वहन करने वाले विचार ने लेना शुरू किया जिससे उसके भावपक्ष और कलापक्ष में भी व्यापक बदलाव आए। मार्क्सवाद के परवर्ती विचारक कॉडवेल का ‘यथार्थ और विभ्रम’ और अर्नेस्ट फिशर का ‘कला की जरूरत’ ने कविता के श्रम–सौंदर्य के नए रूपविधान की ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया। सही है कि जब समय विद्रूप और कठोर होता है तो उसकी प्रतिरोधक–शक्तियाँ भी उसी हिसाब से विचार में प्रखरता और धार विकसित करती है। यह बात अन्य कला विषयों के साथ–साथ कविता पर भी उतनी ही लागू होती है।
भाव (इमोशन) का विचार (थॉट) से अंतर्संबंध
भाव और विचार के अंतर को मोटे तौर पर समझते हुए कई बार हम उसके साहित्यिक निहितार्थ को विचारने में भूल करते हैं। भाव केवल भावना (सेंटिमेंट्स) नहीं है। यह विह्वलता या भावुकता का भी पूर्ण पर्याय नहीं, भावना भाव की एक छवि हो सकती है। भाव एक व्यापक शब्द है। इसकी जड़ें जीवन में घँसी होती हैं। जीवन के सघन अनुभवों से भाव–बोध को गहराई और व्यापकता मिलती है। केवल विचार और तर्क से कविता में भावबोध सघन नहीं होता, शिथिल ही रहता है। शुद्ध भावबोध की अनेक समकालीन कविताओं को देख कर महसूस होता है कि अगर विचार, भाव से अन्तर्भूत नहीं है तो वह अराजक हो जाता है, कहीं खो जाता है। भावबोध का गहरा सबंध हमारी ऐंद्रिकता से है। विचार तो तर्क और तथ्य का मानसिक संघटन है। लेकिन जब विचार, भाव की आंच में पक जाता है तब वह भाव–बोध में ही घुल-मिल कर एकमेक हो जाता है, वहाँ विचार-तत्व भाव-तत्व से मिलकर सुगठित और सुचिन्तित हो जाता है और विचारधारा का रूप ले लेता है जिसे चिंतन भी कहते हैं। भाव (इमोशन) के विचार (थॉट) से इस अंतर्संबंध को हर कवि को जानना चाहिए। इसे जाने बिना कवि कोरे विचार को ही कविता का विचारपक्ष मान कर भारी भूल कर बैठता है। इससे उसका सृजन न केवल किताबी और उबाऊ हो जाएगा, बल्कि जीवन से कट जाएगा। उसमें न तो मनुष्यता की गंध मिलेगी, न उसके जीवन की गतिकी। इसलिए विचारबोध का, कवि के भावबोध से संपृक्त होना अनिवार्य है।
विचार तो हम बंद कमरे में भी बैठ कर कर सकते हैं जो उच्छृंखलता की हद तक जा पहुंचता है। दीगर है कि छायावादी भाव में व्यक्ति–मन को प्रधानता मिली, और आज भी जब हम आधुनिक साहित्यबोध की बात करते हैं तो इसकी एक धारा के कवि पाश्चात्य भाव–दृष्टि को अपनाते नजर आते हैं जो वेश से भारतीय, पर सोच–विचार से यूरोपियन–अमरीकन होते हैं। इस उधार के भाव-बोध से प्रेरित कवियों को मानव की उन्नतिशील–संघर्षरत शक्तियों पर भरोसा नहीं है। भारतीय मध्यमवर्गीय समाज की कुंठित–अवसन्न मनोदशा का मूल कारण वही पाश्चात्य वैचारिक भावभूमि का प्राप्त होना है। इस कारण बुर्जुआ काव्य-सौंदर्य में हमें स्वप्न–भंग, खेद, ग्लानि और निराशा के भावों की पृष्ठभूमि मिलती है। इस जीवन शैली से उपजे भावबोध ने जिस वैचारिक प्रवृत्ति को जन्म दिया, उनमें निर्माण, संघर्ष, द्वंद्व, साहस और ईमानदारी का नितांत अभाव रहा। इसलिए लोकधर्मी व जनवादी समालोचना कविता में ऐसे विचार–तत्व और भाव–दृष्टि का पुरजोर विरोध करती है जबकि रूपवादी और कलावादी साहित्य–दर्शन को इनसे कोई गुरेज नहीं। वह अवसरवाद को जीवन का हिस्सा समझती है, निराशा–हताशा और अमूर्तन विचार को समय का फलाफल और नियति मानकर व्यक्तिवादी साहित्य को रचने से परहेज नहीं करती। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ इसका एक सुपरिचित उदाहरण हो सकता है।
विचारबोध, कवि का चरित्र और रूपवादी चिंतन
मुक्तिबोध ने अपने निबंध ‘आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्वभूमि’ में एक जगह लिखा है कि “आज बहुत से कवियों में जो बेचैनी, जो ग्लानि, जो अवसाद, जो विरक्ति है उसका एक कारण (अन्य कई कारण हैं) उनमें एक ऐसी विश्व–दृष्टि का अभाव है कि जो विश्व–दृष्टि उन्हें आभ्यंतर में आत्मिक शक्ति प्रदान कर सके, उन्हें मनोबल दे सके और उसकी पीड़ाग्रस्त अगतिकता को दूर कर सके। ऐसी विश्व–दृष्टि अपेक्षित है, जो भाव–दृष्टि का, भावना का, भावनात्मक जीवन का अनुशासन कर सके। … आज की बहुत सी कविताओं में दुख, वैकल्य व पीड़ा तथा विरक्ति का स्वर है। उसके मूल में उसको घटित करने वाले जो कारक तथ्य हैं, उनका विश्लेषण करके उनके तर्कसंगत निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर हम अपनी ज्ञान–व्यवस्था, तथा उस ज्ञान–व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव–व्यवस्था विकसित नहीं करते। संक्षेप में, हम व्यक्तित्व के विकास की बात तो करते हैं, किन्तु व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।“ (मुक्तिबोध रचनावली: भाग पाँच / पृ-203)
मुक्तिबोध की इस स्थापना में हमारे विचारबोध के कमजोर होने के कारण गुप्त हैं, जिससे कविता कलावाद की ओर मुड़ती है। सवाल यह है कि वैश्विक दृष्टि की निर्मिति में कवियों की बाधा क्या है। दीगर है कि कोई भी लेखक–कवि जब तक आत्मबद्ध होता है, अर्थात आँख उठा कर जब तक अपने सिवाय वस्तु–जगत और आसपास का अवलोकन–निरीक्षण नहीं करता, तब तक उसका विचार-तत्व वस्तुगत नहीं हो सकता, आत्मगत ही रहता है, उनका मन चलायमान नहीं होता और लोक–संवेदना की काव्यालोचना में उसे स्वीकृति नहीं मिल सकती। उसका चरित्र और स्वभाव उसे आत्मबद्धता से बाहर होने नहीं देता जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विस्तार नहीं कर पाता। मुक्तिबोध जिसे ज्ञान–व्यवस्था कहते हैं वह कविता का विचार–बोध ही है। अतएव यह उन्होंने भी अपने शब्दों में कहा है कि विचार-बोध ही भावबोध को नियंत्रित–विकसित–अनुशासित करता है। यहाँ इस तथ्य पर गौर करने की बात है। हम कह सकते हैं कि जैसे कोई सुस्वाद व्यंजन बिना नमक के बेस्वाद हो जाता है, उसी प्रकार भाव-बोध का विराट फ़लक भी कविता में विचार–बोध की कौंध के बिना तिरस्कृत हो जाता है। लेकिन यहाँ इस उदाहरण में यह भी समझ लेना आवश्यक होगा कि नमक की संतुलित मात्रा ही व्यंजन में स्वाद का आहरण करती है। आज के कई बड़े कवियों की कविताएँ विचार–बोध के प्राबल्य के कारण बोझिल और उबाऊ हो गई हैं। विचार के अनुशासन से बेलगाम इन कविताओं में कविता के नाम पर लद्धड़ गद्य देखने को मिलता है। इसका अप्रतिम उदाहरण अशोक वाजपेयी और विष्णु खरे की कई कविताएँ हैं। अशोक वाजपेयी की चुनी हुई कविता में से कविता ‘शब्द कविप्रिया शताब्दी’ (तिनका–तिनका भाग :2/ पृष्ठ संख्या – 110) और विष्णु खरे की चर्चित कविता ‘A B A N D O N E D’ को यहाँ बतौर उदाहरण रखा जा सकता है। वरिष्ठ कवियों की इन कविताओं को अगर गद्य के रूप में लिख दिया जाए और किसी को यह नहीं बताया जाए कि यह किन की रचना है तो लोगों को यह समझना मुश्किल हो जाएगा कि साहित्य की यह कौन–सी विधा है। मैंने दोनों कवियों से इन कविताओं के मार्फत संवाद करने की कोशिश की मगर उन्होंने इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इसका आशय आप खुद समझ सकते हैं। कविता की अंतर्वस्तु में जाने के पूर्व मैं पाठकों को आगाह करना चाहता हूं कि गद्य–विधा और कविता में जो अंतर है, यह उनको भलीभाँति समझना चाहिए। कविता केवल विचारों का प्रतिफलन या विचार–दर्शन नहीं। ऐसा काव्य फलक रचने का दुस्साहस अघाए हुए कवि; विष्णु खरे और अशोक वाजपेयी जैसे कविता के शौकीन कवि ही कर सकते हैं । निरा गद्य में जिनको कविता का आस्वाद मिलता है, वह उनकी जय करें, बाकी मेरी जो समझ है उस हिसाब से उपर्युक्त गद्यनुमा कविताओं में न लय है, न प्रगीतात्मकता, न कोई रूपाभा, न प्रभावान्विति, न ध्वन्यात्मकता, न जनपदीय चेतना। जो संवेदना, सपाटबयानी और जनपक्षधरता है वह कवि का उपार्जित यथार्थ यानि नवरीतिकालीन बुर्जुआ चिंतन से पगा हुआ भावबोध है जो उन्हीं सरीखे समीक्षकों को भाता है जो किसी भी निरथर्क रचना पर अपना शब्द–जाल बुनकर तालियों और प्रशंसाओं का मायालोक बटोरने में माहिर हैं। इन रूपवादी कविताओं में विचारबोध उनकी बुर्जुआ सौंदर्य–बोध की कोख का उद्भिज्ज है। यहाँ इतना स्पेस नहीं कि इन नीरस कविताओं को सामने रख कर बात की जाए, पर उनको पढ़कर यह सहज ही बोध होता है कि इस कवि–द्वय की केंद्रीय दृष्टि अर्थात विचारबोध कविता में उस रूप में फलित नहीं हुआ जैसा कवि ने रचना–प्रक्रिया के दौरान सोचा–विचारा होगा। यही अक्षमता कवि के संवेदनात्मक ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब तक कवि का विचार–तत्व पारदर्शी और स्पष्ट नहीं होगा, तब तक वह सहज और संश्लिष्ट रचना नहीं कर सकता। विचार–तत्व के उलझाव में कविता दुर्बोध और जटिल हो जाती है। इसलिए जब तक विचार–तत्व में प्रवहण–शक्ति नहीं होगी, तब तक उसके ठोस जैविक रूप के, तरलता के बिना, पाठकों के अंतस्तल तक बह कर पहुँचने की आशा कविता में करना बेमानी है अर्थात कविता की संप्रेषणीयता उसके विचार–बोध से जुड़ा एक अहम सवाल है और चुनौती भी किसी कवि के लिए। कविता में उसे विचारपक्ष और भावपक्ष के संतुलन से गुजरना होगा, तभी कलापक्ष का काम सिद्ध होगा।
कवि के विचारतत्व से उसके लेखकीय चरित्र का भी उतना ही संबंध है। लेखक अगर अपना जीवन अपनी लेखनी से अलग जीता है तो फिर उसका संपूर्ण लेखन बेमानी है, चाहे उसका लेखन कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो! समालोचना में भी समालोचक का अपना व्यक्तित्व और चरित्र उतना ही मोल रखता है। अगर सिद्ध भाषा में कहें तो उसकी लेखनी की कीमत का निर्धारण उसकी प्रतिबद्धता से होता है, यहाँ प्रतिबद्धता केवल लेखक का विचार नहीं, उसका जीवन–व्यवहार भी है। साहित्य में अवसरवादिता कवि की साहसहीनता का मूल कारण है। मुक्तिबोध के शब्दों में, “वह हमें सच–सच और साफ–साफ कहने नहीं देता। ‘साफ–साफ’ का अर्थ कलाहीन या गद्यात्मक होना नहीं है।“ इक्कीसवीं सदी की कविताओं के साथ सबसे बड़ा संकट कवियों–समालोचकों के विचलन और कविता–कवि के चरित्र का संकट है। इस विद्रूप समय में कविता को खराब करने का काम केवल रूपवादियों और सुविधाभोगियों ने ही नहीं किया है, बल्कि कई मार्क्सवादियों और लोकवादियों ने भी अपनी वैचारिक दरिद्रता के कारण उसकी अस्मिता–हरण करने में कोर–कसर नहीं छोड़ी– ‘सभ्यता की संयत–नकली भाषा में’। इसलिए अब कविता की दशा–दिशा मात्र उसके सौन्दर्य–शास्त्र और विचार–बोध से नहीं तय की जा सकती ! इससे प्रबल चूक होने की सम्भावना बनती है। बदलते समय में पूँजी और उदारीकरण से ही केवल हमारा सामना और विरोध नहीं, बल्कि इनके विरोधियों के उस सियार–चाल से भी है जो मौका पाकर कभी अवसर भुनाने से नहीं चुकते और सामान्य कवियों को भी अपने करियर व यशोलाभ के लिए महान बना कर प्रस्तुत करते हैं जिससे उनका पूरा कविता–समय ही सवालों के घेरे में आ जाता है। नयी सदी की कविता की दशा–दिशा का यह पाठ बहुत रुचिकर, किन्तु सचमुच यह कविता का बेहद कठिन और अत्यन्त सचेत हो कर चलने का समय है।
भाषा शब्दों से बनती है, इसलिए अज्ञेय ने कविता के गुण उनकी काव्य-भाषा के ही गुण बताए हैं। उसी प्रकार, मानव–चरित्र सद्गुणों से बनता है। सभी जानते हैं कि श्रम करने की आदत, करुणा, प्रेम, दया, साहस, ईमानदारी, निष्ठा, विश्वास जैसे गुण चरित्र–निर्माण में सहायक होते हैं जिनका जीवन के अन्य कार्य–क्षेत्रों की तरह कला–साहित्य में भी बड़ा महत्व है पर पहली बार सुनने में शायद अटपटा–सा लगता है कि इन मानवीय गुणों से काव्य–अभिलक्षण का निर्धारण कैसे किया जा सकता है क्योंकि काव्यगत मूल्य और प्रतिमान तो अलग से निर्धारित हैं ही। लेकिन भारतीय और बाहर की कविताओं की काव्य–विशेषताओं के मद्देनजर जब हम उनकी आलोचना में काव्येतर मूल्यों की चर्चा देखते हैं तो इस शंका का सहज समाधान हो जाता है। मानवीय चारित्रिक अभिलक्षण की चर्चा जब कविता की आलोचना में की जाती है तो इनके गुणवत्त विशेषण–पद सामान्य से विशिष्ट होकर प्रस्तुत होते हैं। आप देखेंगे कि इन मानवीय गुणों में ज्यादा ज़ोर काव्यालोचना में “ईमानदारी और साहस” पर दिया गया है जिसका मूलार्थ यहाँ क्रमशः ‘ऑनेस्टी’ और ‘एडवेंचर’ न होकर ‘सिन्सिएरिटी’ और ‘करेज’ होता है। नामवर सिंह जी के इस विचार से हमें सहमत होना चाहिए कि ईमानदारी (सिन्सिएरिटी) का अभिप्राय साहित्येतिहास के विभिन्न कालों में भिन्न–भिन्न प्रकार से लिया गया है जैसे, छायावादी काल में ईमानदारी का अर्थ है ‘आत्मानुभूति’। छायावादोत्तर काल ने इसे बदल कर ‘नीयत’ कर दिया, प्रगतिशील साहित्य में ईमानदारी ‘वर्ग–चेतना’ में बदल गई जबकि प्रयोगधर्मी कविताओं के लिए ‘प्रामाणिक अनुभूति’ को ही इसका पर्याय माना गया। सातवें दशक के बाद ईमानदारी का मतलब कवि के परिवेश के विसंगति–बोध और यथार्थ–बोध से हो गया। नामवर जी के लेखकीय चरित्र संबंधी उपर्युक्त कालगत वर्गीकरण से यह महसूस होता है कि जैसे–जैसे कालक्रमानुसार कविताओं की प्रवृत्तियां बदली, वैसे–वैसे कवियों की ईमानदारी और लेखकीय चरित्र के मानदंड भी बदले। साहस का अर्थ भी अब कविता में उस जोखिम से लिया जाता है जो रचना– प्रक्रिया के दौरान कवि अपने सृजन में उठाता है। ईमानदारी की महत्ता और जोखिम उठाने की बात समकालीन कविता में फिर से शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। वस्तुतः ईमानदारी का अर्थ समकालीन कविता में कवि के उस सचेतनता–सावधानी से है जिसमें परिवेशगत आंतरिक यथार्थ की खोज कवि द्वारा अपनी सृजन–प्रक्रिया में वस्तुपरकता से आत्मपरकता की ओर यात्रा करने के क्रम में की जाती है। इसमें उससे जो चूक होती है, वही कविता के उस अनुपात में असफल होने का कारण भी बनती है। इसलिए इन काव्येतर मूल्यों की प्रासंगिकता समकालीन कविता में आज भी बनी हुई है जिस पर गंभीर कवियों का ध्यान जरूर जाना चाहिए। जो कवि सृजन में ईमानदारी और साहस को ठीक से नहीं बरतते, उनकी कविता में वस्तुगत यथार्थ उस तरह आत्मगत नहीं हो पाता जिसकी पाठक अपेक्षा करते हैं, न ही बिना जोखिम के कवि अपने रचना–समय की जड़ता तोड़ पाता है। यहाँ अहम सवाल यह है कि कवि इन चरित्रगत लक्षणों का अपने में विकास कैसे करे। इसका उत्तर कविता के लोकधर्मी सौंदर्य-शास्त्र में मिलता है। यह अनुभव की बात है कि जब तक हमारा इंद्रिय-बोध प्रखर नहीं होगा तब तक हम सघन जीवनानुभव से वंचित रहेंगे। इंद्रिय-बोध की प्रखरता के लिए हमें आत्मबद्धता से मुक्ति पानी होगी और अपने ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ (‘मुक्तिबोध की स्थापना से’) को अनुभव–प्रसूत बनाना होगा, पर लोक और प्रकृति की गति से व्यापक रूप से जुड़े बिना यह संभव नहीं।
मुक्तिबोध ने संवेदनात्मक ज्ञान–व्यवस्था के ऊपर बहुत बल दिया है। यही ज्ञान व्यवस्था हमारे विचारबोध का मुख्य आधार है। वे कहते हैं कि “आज शिक्षित वर्ग में जो भयानक अवसरवाद छाया हुआ है, आत्म–स्वातंत्र्य के नाम पर जो स्वहित, स्वार्थ, स्व कल्याण की जो भाग–दौड़ मची हुई है, ‘मारो–खाओ, हाथ मत आओ’ का जो सिद्धांत सक्रिय हो उठा है, उसके कारण कवियों का ध्यान केवल निज मन पर ही केंद्रित हो जाता है। आज की कविता वस्तुतः पर्सनल सिचुएशन की, स्व–स्थिति की,स्व–दशा की, कविता है किंतु अब जिंदगी का यह तकाजा है कि वह अपनी इस समस्या को वर्तमान युग की मानव समस्याओं के रूप में देखें और उन्हें वैसा चित्रित करें। किंतु यह तभी तक संभव है जब तक कवि आधुनिक युग के मूल जीवन तथ्यों के तर्कसंगत निष्कर्षों और अनुभव-सिद्ध परिणामों को आत्मसात करते हुए अपने अंतर्मन के भीतर समायी संवेदनात्मक ज्ञान–व्यवस्था में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दे, और उनके आधार पर बदलते हुए युग–जीवन के संदर्भ में, वास्तविक जीवन मूल्यों का विकास करे, और जीवन–मूल्यों और आदर्शों की अग्नि में, स्वयं को गलाते हुए वह, वस्तुतः आचरण करे, आचरण के मार्ग पर चले, चलता रहे।वास्तविक जीवन–साधना के बिना कलात्मक साधना असंभव है।यद्यपि कलात्मक साधना की, आपेक्षिक रूप से, अपनी स्वतंत्र क्रिया और गति हुआ करती है किंतु उसकी मूल प्रेरणा, उसके तत्व, उस आत्म–संपदा के अंग होते हैं, कि जो संपदा अपने वास्तविक जीवन में संवेदनात्मक रूप में अर्जित की जाती है, और एक जीवन–संवेदनात्मक ज्ञान व्यवस्था के रूप में परिणत की जाती है“ (मुक्तिबोध रचनावली: भाग पाँच/ पृ-206)। अगर हम मुक्तिबोध के उपर्युक्त उद्धरण पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान–व्यवस्था अर्थात विचार-बोध की जननी जीवन की ही संवेदना है जिसे कवि अपनी संवेदना में अनुभव और विवेक से लाता है। यह कहीं बाहर से, किताबों को पढ़ने से, पर–उपदेश ग्रहण से या किसी फॉरमूले से प्राप्त नहीं होता। जीवन से कटने से हम अनुभवहीनता के शिकार होते है, कुंठित होते हैं, हमारा लेखकीय चरित्र दबता और कमजोर होता है और हम अवसरवादी भी बन जाते हैं।
अपनी आलोचना–पुस्तक ‘कविता की लोकधर्मिता’ में वरिष्ठ आलोचक डा. रमाकांत शर्मा मुक्तिबोध की बात का अपने तरीके से समर्थन करते हैं, वे लिखते हैं कि “कविता के लिए विचारधारा ऑक्सीजन है… साहित्य में रचनाकार जीवन को सृजित और पुनस्सृजित करता है। इसकी पृष्ठभूमि में विचारधारा शक्ति होती है। साहित्य के विकास क्रम में विरोधी विचारधाराओं का प्रभाव भी एक रचनाकार या रचना पर दिखाई देता है। इसलिए ऐसे रचनाकार के वस्तुगत अध्ययन में उसको आलोचक अपने विचारधारात्मक संघर्षों के आलोक में ही देखता है। ऐसे हालात में आलोचक गलत वैचारिकता लिए हर कला का विरोध करता है। एंगल्स लिखते हैं कि विचार जितने ज्यादा छिपे रहें, कलाकृति के लिए वह उतना ही अच्छा है, लेकिन लड़ाई का मुद्दा वहां जन्म लेता है जहां वह रूपवादियों द्वारा सर्वहारा साहित्य और कला को हेय साबित किया जाता है, चाहे कितने ही कलात्मक गुणों से वह संपन्न क्यों न हो। हम इस बात को अस्वीकार नहीं करते कि विचारधारात्मक चुनौती कलात्मक चुनौती भी होती है। साहित्य का भी अपना अनुशासन हुआ करता है। कोई भी रचनाकार उस अनुशासन को ठुकरा कर श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं बन सकता।“
“निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध ने साहित्य के अनुशासन का सही ढंग से पालन किया है। वे कविता में विचारधारा की वकालत नहीं करते। वह विचारों के उद्देश्य, संगठन, वस्तु, सपने, महत्वाकांक्षाएं, कर्म–निर्देश तथा सामाजिक–आर्थिक कलात्मक लक्ष्यों को मूल्यों में रूपांतरित कर ऐसे बिम्ब रचते हैं जिनकी अंतरंग लहरों में विचारधारा तल्लीन है। इन लहरों में नैतिकता, वैधानिकता, राजनीति, संस्कृति और इतिहास अंतर्भूत है।“ (कविता की लोक धर्मिता / पृ सं-73) रमा कांत शर्मा जी भी मुक्तिबोध की तरह कविता में विचारतत्व को जीवन से संपृक्त मानते हैं और जिस तरह ‘आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्वभूमि’ में ज्ञान–व्यवस्था के अंतर्गत मुक्तिबोध जिस अवधारणा को हमारे सामने लाते हैं, उसी तरह डॉ. शर्मा भी अपनी सहमति जताते हुए उसे लोकधर्मिता के आयाम से जोड़ देते हैं जो लोकधर्मी प्रतिमानों में विचारबोध के लिए नए चिंतन के द्वार खोलता है। यह एक बड़ी बात है जिसका जनपदीय संस्पर्श की कविताओं में खास महत्व है।
विचारधारा, कवि की पक्षधरता और लोकचेतना
विचारधारा क्या है? बक़ौल रमा कांत शर्मा, ‘रूपवादी रचनाकर भी शायद साहित्य में विचार को अस्वीकार नहीं करते। विचारधारा को अस्वीकार करते हैं। बंधन को बुरा मानते हैं, लेकिन यहीं चूक है। विचारों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक क्रम ही विचारधारा है। उलजुलूल विचारों में भटकने के बजाय व्यवस्थित और वैज्ञानिक विचारधारा से जुड़ना मेरी समझ में कहीं अधिक उपयोगी है। (कविता की लोक धर्मिता / पृ सं-71)। इसलिए कहना न होगा कि अगर कविता में विचारधारा और पक्षधरता गौण हो जाए तो कवि का मन कविता की कहन–शैली और उसके शिल्प पर केंद्रित हो जाता है। उसी को वह कविता का अभीष्ट समझने लगता है। साधारण चीजों को असाधारण की तरह व्यक्त करने की कला ही रूपवाद का ‘सिम्पटम‘ है जबकि असाधारणता की साधारण और संश्लिष्ट रूप में अभिव्यक्ति हमें कविता के उस सौन्दर्य-पक्ष की ओर ले जाता है जिसका सम्बन्ध मार्क्सवादी कलापक्ष से है जो जन और उसके जीवन की गतिकी से रूप को उठाता और ग्रहण करता है। कहन की अभिनव शैली और नए मुहावरे का प्रयोग रूपवादी कविताओं में पाठक को मुख्यतः अपनी अभिव्यक्ति से चकित करने की होती है जहाँ अंतर्वस्तु अत्यंत कमजोर और महत्वहीन होती है। ऐसे लक्षण और स्वभाव का कवि जब लोक की बात करता है तो कविता का रूप एक ‘नॉस्टेल्जिया‘, शौक या नशे की तरह आता है, आप अगर इन कविताओं के कथ्य में जाएंगे तो गुम हो जाएंगे। कुछ हासिल नहीं होगा। सच्ची कविता यह नहीं है। सवाल है कि कवि में रूपवादी नॉस्टेल्जिया आता कहाँ से है? यह कवि के उथले जीवनानुभव, उसके जीने की कृत्रिम शैली, उसका ढुलमुल लेखकीय चरित्र और वस्तुओं के प्रति उसकी छद्म प्रतिबद्धता सेउत्पन्न होता है। कवि केदार नाथ सिंह, कुँवरनारायण, उदय प्रकाश, एकांत श्रीवास्तव, गीत चतुर्वेदी, बाबुषा कोहली, शुभमश्री – इन सब वरीय या नए कवियों की जीवनशैली का अगर आप संधान करें तो आप पाएंगे कि उनकी कविताओं में श्रम–सौंदर्य, जन-संघर्ष और जीवन का अंतर्द्वंद्व या तो एक फैशन की तरह आता है या फिर नहीं आता है। इसलिए कविताकाश में इनकी कविताएँ बस बिजली की एक कौंध भर हैं जो हमें भासमान होती है। इसमें घनघोर बारिश नहीं है। आप देख–सुन तो सकते हैं पर भींग–अघा नहीं सकते। पर यह भी सच है कि आज सुधीर सक्सेना, शम्भु बादल, योगेन्द्र कृष्णा, संतोष चतुर्वेदी, अशोक सिंह, भरत प्रसाद, कुँवर रवीन्द्र, राजकिशोर राजन, आत्मा रंजन, भास्कर चौधुरी आदि कई समकालीन ऐसे वरीय और युवा कवि लगातार कविता में लोकचेतना को आगे कर रहे हैं जो न केवल विचारधारा के स्तर पर कवि की पक्षधरता को साफ करती है बल्कि कविता में लोक की नई संवेदना को उद्भासित करती है और विचार–तत्वों का उसके भाव–पक्षों और कला –पक्षों के साथ अपूर्व संयोजन और संतुलन भी देखने को मिलता है। इनकी कविताओं की विशेषता यह है कि कविता में वे पुराने बिंबों की जगह नए और अधुनातन बिंबों–प्रतीकों का प्रयोग करते हैं जहाँ प्रतिरोध और तनाव के सृजन की भाषा भी पहले से अधिक भेदस हुई प्रतीत होती है, इसे इनके कवितांशों के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:
1- जिस तरह बूढ़े घड़ीसाज़ भी नहीं बता सकते घड़ी की उम्र
और न ही बूझ सकते हैं अपनी घड़ी के काँटें,
उसी तरह,
ऐन उसी तरह कोई नहीं बता सकता प्रेम की वेला
कीमियागरों के माथे पर शिकन
कि कब कैसे फूट पड़ता है प्रेम का रसायन
(कविता: प्रेम यानि कलाई में घड़ी नहीं / सुधीर सक्सेना)
2- ‘मेहमानों के सामने / कोई जब तुम्हें नचाए
तुम्हारी लोक-कला की प्रशंसा करें
तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या?
तुम प्रदर्शन की वस्तु हो?
तुम्हें तो मुखौटे उतारने और
चाँटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए
क्योंकि थाप और चाँटे
का संतुलन
तुम्हारे लिए
सही जगह
सुनिश्चित कर सकता है’ /(कवितांश गुजरा – शम्भु बादल)
3. हत्यारे जब गांधी होते हैं
वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते
वे नहीं करते तुम से
सत्य का कोई आग्रह
वे अपने झूठ पर चढ़ा लेते हैं
तुम्हारे ही सपनों के रंग
और इस तरह बिना झूठ बोले
तुमसे छुपा लेते हैं तुम्हारा सच
वे तुम्हें आजाद नहीं करते
आजादी की अदृश्य
जादुई
जंजीरों से तुम्हें बांध लेते हैं
हत्यारे जब गांधी होते हैं – योगेंद्र कृष्णा
4. अंकों के समूह में
बस एक बार ही आ कर
नया मतलब नई पहचान दे जाते हो उसे
हरदम के लिए
तुम्हारी जगह नहीं बदल पाता
कोई जोड़ घटाव
सुई की नोक जैसी काया भी
हो सकती है अहम
अहसास कराया तुमने ही यह दुनिया को
कविता : दशमलव/ संतोष चतुर्वेदी
5. कान के बगैर भी यदि शब्द सुनना आता हो
तो जरा मन लगाकर सुनिए–
यहाँ की दरो–दीवार से लावारिश पक्षियों की ही नहीं,
इंसानी रूहों की भी चीखें सुनाई दगी,
यहाँ नींव में ज़मींदोज़ है
निर्दोष आत्माओं का इतिहास –
कविता – कामख्या मंदिर के कबूतर – भरत प्रसाद
यहाँ कवितांश उद्धृत करना या कवियों का नाम गिनाना इस लेख का वरेण्य नहीं, ये मात्र उदाहरण हैं, यह कहने के लिए कि इन कविताओं के केंद्र में जो विचार हैं, वे भावात्मक–कलात्मक रूप लेकर कविता की रुखड़ी, भेदस भाषा में अपेक्षाकृत नए बिम्ब–प्रतीक योजना को ग्रहण कर अभिव्यक्त हुए हैं जो आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने में अधिक सक्षम हैं और पाठक पर गहरा प्रभाव उत्सर्जित करते हैं।
जब कविता में लोकधर्मिता की बात आती है तो वह कवि की ज्ञानात्मक संवेदना
पक्षधरता के अहम सवाल से जुड़ जाती है। कविता केवल कलात्मक अभिव्यक्ति
नहीं होती। यदि हमें कविता में सच्ची लोकधर्मिता से गहन विचार-बोध को चित्रित
करना है तो संवेदनात्मक आवेग के साथ–साथ लोक का अवगाहन करने वाली
सूक्ष्म–बुद्धि और प्रखर ऐंद्रिक–शक्ति भी चाहिए। इसमें जीवन की अनुभव–सरणियों
का भी कम योगदान नहीं होता। ये अनुभव–प्रसूत विचार मानवीय सरोकार और
उसकी चिंताओं की कोख से जन्मते हैं और उससे कविता में पूर्व प्राप्त विरासत
और परंपरा को नवीकृत कर, लोकजीवन की जनपदीय चेतना को वैश्विक चेतना से
जोड़ देते हैं।
संपर्क :
सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004
ई-मेल–sk.dumka@gmail.com
मोबाईल –09431310216 / 09006740311
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वाँन गॉग की हैं. सौजन्य – गूगल)