सुशील कुमार का आलेख ‘कविता में विचार-तत्व : कुछ नोट्स’

सुशील कुमार
परिचय
§    जन्म 13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में।
§  सम्प्रति मानव संसाधन विकास विभाग, रांची (झारखंड)  में कार्यरत।
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§  प्रकाशित कृतियां
§  कवितासंग्रह – कितनी रात उन घावों को सहा है (2004),  तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता  (2012)

§  कविताएं और आलेख साहित्य की मानक-पत्रिकाओं व अंतर्जालपत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित

कविता महज शब्दों की कारीगरी नहीं होती बल्कि वह जीवनानुभवों से रची-पगी वह रचना होती है जिससे हमें अपने आस-पास की दुनिया और उसके विडंबनाओं को समझने में मदद मिलती है. बदलते समय के साथ कविता का सौंदर्य-बोध बदला है. इसी के चलते आज कविता में महज शिल्प ही नहीं बल्कि उसके कथ्य पर भी जोर दिया जाने लगा है. शिल्प कथ्य की मौजूदगी में और निखर कर सामने आता है. बिना कथ्य के शिल्प वाली कविता महज वाग्जाल बन कर रह जाती है और पाठकों पर कोई प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं होती. इसी क्रम में कवि-आलोचक सुशील कुमार ने कविता के विचार तत्व पर कुछ महत्वपूर्ण बातें की हैं. तो आइये आज पढ़ते हैं सुशील कुमार का आलेख – ‘कविता में विचार तत्व : कुछ्ह नोट्स’
     
कविता में विचारतत्व : कुछ नोट्स
सुशील कुमार
समकालीन कविता जैसेजैसे छायावाद के प्रभाव से मुक्त हुई, भाव और कल्पना की अपेक्षा विचार अधिक महत्व पा कर संघटनात्मक दृष्टि से बाह्य स्थिति से कविता की केंद्रीय स्थिति में पहुँचने लगा। यह कविता में प्रगतिशीलता के तत्व के आने से हुआ। इतिहास गवाह है कि छायावादोत्तर कविता की कोई भी धारा यथा नई कविता, कविता, नेकेनवाद आदि न तो उसे कुंद कर पायी, न उसकी गति को किसी दूसरी दिशा में मोड़ पाई। वस्तुत: उस समय के कवियों ने यह महसूस किया कि लोक के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने में कविता में प्रगतिशीलता के तत्व और तर्कतथ्याधारित वैज्ञानिक विचारबोध बहुत जरूरी हैं। वह कवि में एक ऐसी केंद्रीय दृष्टि उत्पन्न करता है जो उसके भावबोध को संयमित, नियंत्रित और परिमार्जित करने के लिए अपरिहार्य हो।  छायावाद के अंतिम पड़ाव पर कवियों को लगने लगा कि कविता का निरा भावपक्ष और कलापक्ष उत्पीड़ित जनता के दुखदर्द को पूरी शक्ति से अभिव्यक्त नहीं कर सकता। वहाँ प्रतिरोध के स्वर और प्रतिबद्धता की ताकत मद्धिम हो जाती है, फलत: कविता हल्की और वायवीय हो जाती है जिसमें कवि की अनुभूति का अतिरेक होता है और वह भी प्रामाणिक नहीं। ऐसी कविताएं पाठक के मन पर छाप छोडने से चुक जाती हैं।

     यहाँ लक्ष्य किया जा सकता है कि साठोत्तरी कवियों के सर्वाधिक प्रमुख कवि धूमिल ने भाव की जगह विचार को प्रश्रय देकर कविता के वर्जित समझे जाने वाले क्षेत्र में सेंध लगा कर जो सकारात्मक हस्तक्षेप किया, उसका प्रभाव आने वाले कवियों की एक पूरी पीढ़ी पर पड़ा। हालांकि प्रयोगवादी कवियों में वह बुद्धितत्व की ओर अधिक झुका हुआ रहा, पर उसका आदर्श रूप हमें मुक्तिबोध और कुमार विकल की कविताओं में मिलता है जो आगे की सदी (इक्कसवीं सदी) के लिए मार्गदर्शन साबित हुआ। विचार-बोध के महत्व के कारण इस पीढ़ी की कविताओं में जो संरचनात्मक बदलाव आया, वह सायास नहीं, बल्कि स्वाभाविक है जो क्रमश: आगे की कविपीढ़ियों में संचरित होता गया। वस्तुत: इसके नेपथ्य में वे सामाजिकार्थिकराजनीतिक कारण थे, जिससे  कविता में भावपक्ष और कलापक्ष की तुलना में विचारपक्ष को प्रधानता मिली। देश में सत्तापक्ष का लम्बा कुशासन, आजादी से मोह-भंग, जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, काला धन, सरप्लस पूँजी, बाबरीध्वंस, गोधराकांड, दक्षिणपंथ और वामराजनीति के कुत्सित रूप, दलितप्रताड़ना और शोषण, स्त्रीमुक्ति के सवाल, नक्सलबाड़ी और उसके च्युत मूल्य, उत्तरआधुनिकता, ग्लोबलाइजेशन, जंगलकटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, पलायन और आदिवासी समस्याएँ, ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट, निरंतर टूटता परिवार, महिलाप्रताड़ना, निर्भयाकांड, नैतिक अवमूल्यन, पुरस्कारों की राजनीति, नेतृत्व की चरित्रहीनता आदिआदिघटितलक्षित कई घटनाक्रम परिदृश्य में उभर कर आते हैं जिसने जन-जीवन को मथ कर रख दिया और जन में अपरिसीम विचार को उद्वेलित किया (अन्य कारण भी होंगे)। कवि भी भला इससे कैसे अछूता रहता? उसके भीतर भी विचार और भाव के बीच एक रस्साकशी चलने लगी जो (कविमन में) प्रतिरोध के नए स्वर और नए कलेवर में तनाव को उत्पन्न करने में सहायक हुए। यह स्वाभाविक ही है कि कविता के इस द्वन्द्वात्मक संघर्ष में विचारतत्व कवि पर हावी होने लगा। इस विषम सामाजिकराजनीतिक परिवेश ने कविता में विचारतत्व को प्रखरता से केंद्रीभूत कियाइसको अभिव्यक्त करने के लिए कवियों ने शिल्प के स्तर पर पुराने बिम्बों की जगह नए किस्म के बिम्बों का प्रयोग, कहन की अधिकाधिक यथार्थवादी या सपाट वक्तव्यशैली और कविता में रुखड़ी भाषा (लोकल डायलेक्ट्स) के प्रयोग पर बल दिया जो उसके प्रतिरोधी विचारतत्वों को मजबूती से सृजन में ला सके। अब की कविता में तो विचारतत्व कविता का निकष और अनिवार्य घटक ही बन गया है। पर यह भी सच है कि वह आधुनिक कविता का जितना मूल अभिलक्षण और आधारतत्व बना, उतने ही उसके खतरे भी आसन्न हो गए। इस वाबत यहाँ ज़ोर देकर कहना चाहूँगा कि कविता केवल विचारअभिकथन (एक्स्प्रेशन ऑफ व्यूज) नहीं होती, कहने का मतलब है कि कविता में विचारदर्शन बहुत पीछे से यानि कहीं नेपथ्य से जीवन की क्रियाशीलनों या प्रकृति की गतिकी के बारे में कुछ कहता है, इस उद्योग में वह कभी मुखर नहीं होता। कविता की अंतर्वस्तु में एक दृष्टि-संपन्न कवि का विचारदर्शन इस तरह समाहित होता है कि पाठक को कवि के इस उपक्रम का भान तक नहीं होता और कवि का प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है। कविता में कथ्य से जीवनदर्शन को जोड़ने की यही युक्ति वैज्ञानिक है और अब तक स्वीकृत रही है वरना कविता गद्य से अलग अपनी पहचान नहीं बना पाती। यह अनुभव होता है कि आधुनिक विचार बोध की कविताओं में कवि का काव्यसौष्ठव बिंबों और उपमानों में ज्यादा प्रदर्शित नहीं होता है, बल्कि मुख्यत: कविता केअंडरटोन औरलहजे में गुप्त रहता है जो अव्यक्त (दर्शन) को व्यक्त कर जाता है, इसके उलट कविता में यह काव्यप्रयत्न यदि ओवर टोन बन कर  आता है तो ऐसा महसूस होने लगता है कि विचारदर्शन का पुट डालना ही कवि का मूल संप्रेष्य और कविता का अभीष्ट हो गया है। अगर कवि इनमें दक्ष और अनुभवी न हो तो आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्व-भूमि में विचारतत्व के खतरे भी उतने ही हैं जितना यह आधुनिक कविता का जरूरी प्रतिमान जान पड़ता है।

यह भी कहना सही नहीं होगा कि कविता में आधुनिकता के लिए केवल विचार तत्व ही उसके मानक बने। समय के बदलने से लोक के प्रति कवि का दृष्टिकोण बदला, रूढ और परंपरागत विचारों का स्थान सिद्ध और तात्कालिक जीवन को कविता में वहन करने वाले विचार ने लेना शुरू किया जिससे उसके भावपक्ष और कलापक्ष में भी व्यापक बदलाव आए। मार्क्सवाद के परवर्ती विचारक कॉडवेल का यथार्थ और विभ्रमऔर अर्नेस्ट फिशर का कला की जरूरतने कविता के श्रमसौंदर्य के नए रूपविधान की ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया। सही है कि जब समय विद्रूप और कठोर होता है तो उसकी प्रतिरोधकशक्तियाँ भी उसी हिसाब से विचार में प्रखरता और धार विकसित करती है। यह बात अन्य कला विषयों के साथसाथ कविता पर भी उतनी ही लागू होती है। 

भाव (इमोशन) का विचार (थॉट) से अंतर्संबंध
भाव और विचार के अंतर को मोटे तौर पर समझते हुए कई बार हम उसके साहित्यिक निहितार्थ को विचारने में भूल करते हैं। भाव केवल भावना (सेंटिमेंट्स) नहीं है। यह विह्वलता या भावुकता का भी पूर्ण पर्याय नहीं, भावना भाव की एक छवि हो सकती है। भाव एक व्यापक शब्द है। इसकी जड़ें जीवन में घँसी होती हैं। जीवन के सघन अनुभवों से भावबोध को गहराई और व्यापकता मिलती है। केवल विचार और तर्क से कविता में भावबोध सघन नहीं होता, शिथिल ही रहता है। शुद्ध भावबोध की अनेक समकालीन कविताओं को देख कर महसूस होता है कि अगर विचार, भाव से अन्तर्भूत नहीं है तो वह अराजक हो जाता है, कहीं खो जाता है। भावबोध का गहरा सबंध हमारी ऐंद्रिकता से है। विचार तो तर्क और तथ्य का मानसिक संघटन है। लेकिन जब विचार, भाव की आंच में पक जाता है तब वह भावबोध में ही घुल-मिल कर एकमेक हो जाता है, वहाँ विचार-तत्व भाव-तत्व से मिलकर सुगठित और सुचिन्तित हो जाता है और विचारधारा का रूप ले लेता है जिसे चिंतन भी कहते हैं। भाव (इमोशन) के विचार (थॉट) से इस अंतर्संबंध को हर कवि को जानना चाहिए। इसे जाने बिना कवि कोरे विचार को ही कविता का विचारपक्ष मान कर भारी भूल कर बैठता है। इससे उसका सृजन न केवल किताबी और उबाऊ हो जाएगा, बल्कि जीवन से कट जाएगा। उसमें न तो मनुष्यता की गंध मिलेगी, न उसके जीवन की गतिकी। इसलिए विचारबोध का, कवि के भावबोध से संपृक्त होना अनिवार्य है।
     विचार तो हम बंद कमरे में भी बैठ कर कर सकते हैं जो उच्छृंखलता की हद तक जा पहुंचता है। दीगर है कि छायावादी भाव में व्यक्तिमन को प्रधानता मिली, और आज भी जब हम आधुनिक साहित्यबोध की बात करते हैं तो इसकी एक धारा के कवि पाश्चात्य भावदृष्टि को अपनाते नजर आते हैं जो वेश से भारतीय, पर सोचविचार से यूरोपियनअमरीकन होते हैं। इस उधार के भाव-बोध से प्रेरित कवियों को मानव की उन्नतिशीलसंघर्षरत शक्तियों पर भरोसा नहीं है। भारतीय मध्यमवर्गीय समाज की कुंठितअवसन्न मनोदशा का मूल कारण वही पाश्चात्य वैचारिक भावभूमि का प्राप्त होना है। इस कारण बुर्जुआ काव्य-सौंदर्य में हमें स्वप्नभंग, खेद, ग्लानि और निराशा के भावों की पृष्ठभूमि मिलती है। इस जीवन शैली से उपजे भावबोध ने जिस वैचारिक प्रवृत्ति को जन्म दिया, उनमें निर्माण, संघर्ष, द्वंद्व, साहस और ईमानदारी का नितांत अभाव रहा। इसलिए लोकधर्मी व जनवादी समालोचना कविता में ऐसे विचारतत्व और भावदृष्टि का पुरजोर विरोध करती है जबकि रूपवादी और कलावादी साहित्यदर्शन को इनसे कोई गुरेज नहीं। वह अवसरवाद को जीवन का हिस्सा समझती है, निराशाहताशा और अमूर्तन विचार को समय का फलाफल और नियति मानकर व्यक्तिवादी साहित्य को रचने से परहेज नहीं करती। अज्ञेय की असाध्य वीणाइसका एक सुपरिचित उदाहरण हो सकता है।
     
विचारबोध, कवि का चरित्र और रूपवादी चिंतन
मुक्तिबोध ने अपने निबंध आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्वभूमिमें एक जगह लिखा है कि आज बहुत से कवियों में जो बेचैनी, जो ग्लानि, जो अवसाद, जो विरक्ति है उसका एक कारण (अन्य कई कारण हैं) उनमें एक ऐसी विश्वदृष्टि का अभाव है कि जो विश्वदृष्टि उन्हें आभ्यंतर में आत्मिक शक्ति प्रदान कर सके, उन्हें मनोबल दे सके और उसकी पीड़ाग्रस्त अगतिकता को दूर कर सके। ऐसी विश्वदृष्टि अपेक्षित है, जो भावदृष्टि का, भावना का, भावनात्मक जीवन का अनुशासन कर सके। आज की बहुत सी कविताओं में दुख, वैकल्य व पीड़ा तथा विरक्ति का स्वर है। उसके मूल में उसको घटित करने वाले जो कारक तथ्य हैं, उनका विश्लेषण करके उनके तर्कसंगत निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर हम अपनी ज्ञानव्यवस्था, तथा उस ज्ञानव्यवस्था के आधार पर अपनी भावव्यवस्था विकसित नहीं करते। संक्षेप में, हम व्यक्तित्व के विकास की बात तो करते हैं, किन्तु व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।“ (मुक्तिबोध रचनावली: भाग पाँच / पृ-203)

मुक्तिबोध की इस स्थापना में हमारे विचारबोध के कमजोर होने के कारण गुप्त हैं, जिससे कविता कलावाद की ओर मुड़ती है। सवाल यह है कि वैश्विक दृष्टि की निर्मिति में कवियों की बाधा क्या है। दीगर है कि कोई भी लेखककवि जब तक आत्मबद्ध होता है, अर्थात आँख उठा कर जब तक अपने सिवाय वस्तुजगत और आसपास का अवलोकननिरीक्षण नहीं करता, तब तक उसका  विचार-तत्व वस्तुगत नहीं हो सकता, आत्मगत ही रहता है, उनका मन चलायमान नहीं होता और लोकसंवेदना की काव्यालोचना में उसे स्वीकृति नहीं मिल सकती। उसका चरित्र और स्वभाव उसे आत्मबद्धता से बाहर होने नहीं देता जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विस्तार नहीं कर पाता। मुक्तिबोध जिसे ज्ञानव्यवस्था कहते हैं वह कविता का विचारबोध ही है। अतएव यह उन्होंने भी अपने शब्दों में कहा है कि विचार-बोध ही भावबोध को नियंत्रितविकसितअनुशासित करता है। यहाँ इस तथ्य पर गौर करने की बात है। हम कह सकते हैं कि जैसे कोई सुस्वाद व्यंजन बिना नमक के बेस्वाद हो जाता है, उसी प्रकार भाव-बोध का विराट फ़लक भी कविता में विचारबोध की कौंध के बिना तिरस्कृत हो जाता है। लेकिन यहाँ इस उदाहरण में यह भी समझ लेना आवश्यक होगा कि नमक की संतुलित मात्रा ही व्यंजन में स्वाद का आहरण करती है। आज के कई बड़े कवियों की कविताएँ विचारबोध के प्राबल्य के कारण बोझिल और उबाऊ हो गई हैं। विचार के अनुशासन से बेलगाम इन कविताओं में कविता के नाम पर लद्धड़ गद्य देखने को मिलता है। इसका अप्रतिम उदाहरण अशोक वाजपेयी और विष्णु खरे की कई कविताएँ हैं। अशोक वाजपेयी की चुनी हुई कविता में से कविता शब्द कविप्रिया शताब्दी’ (तिनकातिनका भाग :2/ पृष्ठ संख्या – 110) और विष्णु खरे की चर्चित कविता A B A N D O N E D’ को यहाँ बतौर उदाहरण रखा जा सकता है। वरिष्ठ कवियों की इन कविताओं को अगर गद्य के रूप में लिख दिया जाए और किसी को यह नहीं बताया जाए कि यह किन की रचना है तो लोगों को यह समझना मुश्किल हो जाएगा कि साहित्य की यह कौनसी विधा है। मैंने दोनों कवियों से इन कविताओं के मार्फत संवाद करने की कोशिश की मगर उन्होंने इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इसका आशय आप खुद समझ सकते हैं। कविता की अंतर्वस्तु में जाने के पूर्व मैं पाठकों को आगाह करना चाहता हूं कि गद्यविधा और कविता में जो अंतर है, यह उनको भलीभाँति समझना चाहिए। कविता केवल विचारों का प्रतिफलन या विचारदर्शन नहीं। ऐसा काव्य फलक रचने का दुस्साहस अघाए हुए कवि; विष्णु खरे और अशोक वाजपेयी जैसे कविता के शौकीन कवि ही कर सकते हैं । निरा गद्य में जिनको कविता का आस्वाद मिलता है, वह उनकी जय करें, बाकी मेरी जो समझ है उस हिसाब से उपर्युक्त गद्यनुमा कविताओं में न लय है, न प्रगीतात्मकता, न कोई रूपाभा, न प्रभावान्विति, न ध्वन्यात्मकता, न जनपदीय चेतना। जो संवेदना, सपाटबयानी और जनपक्षधरता है वह कवि का उपार्जित यथार्थ यानि नवरीतिकालीन बुर्जुआ चिंतन से पगा हुआ भावबोध है जो उन्हीं सरीखे समीक्षकों को भाता है जो किसी भी निरथर्क रचना पर अपना शब्दजाल बुनकर तालियों और प्रशंसाओं का मायालोक बटोरने में माहिर हैं। इन रूपवादी कविताओं में विचारबोध उनकी बुर्जुआ सौंदर्यबोध की कोख का उद्भिज्ज है। यहाँ इतना स्पेस नहीं कि इन नीरस कविताओं को सामने रख कर बात की जाए, पर उनको पढ़कर यह सहज ही बोध होता है कि इस कविद्वय की केंद्रीय दृष्टि अर्थात विचारबोध कविता में उस रूप में फलित नहीं हुआ जैसा कवि ने रचनाप्रक्रिया के दौरान सोचाविचारा होगा। यही अक्षमता कवि के संवेदनात्मक ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब तक कवि का विचारतत्व पारदर्शी और स्पष्ट नहीं होगा, तब तक वह सहज और संश्लिष्ट रचना नहीं कर सकता। विचारतत्व के उलझाव में कविता दुर्बोध और जटिल हो जाती है। इसलिए जब तक विचारतत्व में प्रवहणशक्ति नहीं होगी, तब तक उसके ठोस जैविक रूप के, तरलता के बिना, पाठकों के अंतस्तल तक बह कर पहुँचने की आशा कविता में करना बेमानी है अर्थात कविता की संप्रेषणीयता उसके विचारबोध से जुड़ा एक अहम सवाल है और चुनौती भी किसी कवि के लिए। कविता में उसे विचारपक्ष और भावपक्ष के संतुलन से गुजरना होगा, तभी कलापक्ष का काम सिद्ध होगा।
     कवि के विचारतत्व से उसके लेखकीय चरित्र का भी उतना ही संबंध है। लेखक अगर अपना जीवन अपनी लेखनी से अलग जीता है तो फिर उसका संपूर्ण लेखन बेमानी है, चाहे उसका लेखन कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो! समालोचना में भी समालोचक का अपना व्यक्तित्व और चरित्र उतना ही मोल रखता है। अगर सिद्ध भाषा में कहें तो उसकी लेखनी की कीमत का निर्धारण उसकी प्रतिबद्धता से होता है, यहाँ प्रतिबद्धता केवल लेखक का विचार नहीं, उसका जीवनव्यवहार भी है। साहित्य में अवसरवादिता कवि की साहसहीनता का मूल कारण है। मुक्तिबोध के शब्दों में, “वह हमें सचसच और साफसाफ कहने नहीं देता। साफसाफका अर्थ कलाहीन या गद्यात्मक होना नहीं है।इक्कीसवीं सदी की कविताओं के साथ सबसे बड़ा संकट कवियोंसमालोचकों के विचलन और कविताकवि के चरित्र का संकट है। इस विद्रूप समय में कविता को खराब करने का काम केवल रूपवादियों और सुविधाभोगियों ने ही नहीं किया है, बल्कि कई मार्क्सवादियों और लोकवादियों ने भी अपनी वैचारिक दरिद्रता के कारण उसकी अस्मिताहरण करने में कोरकसर नहीं छोड़ी– ‘सभ्यता की संयतनकली भाषा में। इसलिए अब कविता की दशादिशा मात्र उसके सौन्दर्यशास्त्र और विचारबोध से नहीं तय की जा सकती ! इससे प्रबल चूक होने की सम्भावना बनती है। बदलते समय में पूँजी और उदारीकरण से ही केवल हमारा सामना और विरोध नहीं, बल्कि इनके विरोधियों के उस सियारचाल से भी है जो मौका पाकर कभी अवसर भुनाने से नहीं चुकते और सामान्य कवियों को भी अपने करियर व यशोलाभ के लिए महान बना कर प्रस्तुत करते हैं जिससे उनका पूरा कवितासमय ही सवालों के घेरे में आ जाता है। नयी सदी की कविता की दशादिशा का यह पाठ बहुत रुचिकर, किन्तु सचमुच यह कविता का बेहद कठिन और अत्यन्त सचेत हो कर चलने का समय है।
     भाषा शब्दों से बनती है, इसलिए अज्ञेय ने कविता के गुण उनकी काव्य-भाषा के ही गुण बताए हैं। उसी प्रकार, मानवचरित्र सद्गुणों से बनता है। सभी जानते हैं कि श्रम करने की आदत, करुणा, प्रेम, दया, साहस, ईमानदारी, निष्ठा, विश्वास जैसे गुण चरित्रनिर्माण में सहायक होते हैं जिनका जीवन के अन्य कार्यक्षेत्रों की तरह कलासाहित्य में भी बड़ा महत्व है पर पहली बार सुनने में शायद अटपटासा लगता है कि इन मानवीय गुणों से काव्यअभिलक्षण का निर्धारण कैसे किया जा सकता है क्योंकि काव्यगत मूल्य और प्रतिमान तो अलग से निर्धारित हैं ही। लेकिन भारतीय और बाहर की कविताओं की काव्यविशेषताओं के मद्देनजर जब हम उनकी आलोचना में काव्येतर मूल्यों की चर्चा देखते हैं तो इस शंका का सहज समाधान हो जाता है। मानवीय चारित्रिक अभिलक्षण की चर्चा जब कविता की आलोचना में की जाती है तो इनके गुणवत्त विशेषणपद सामान्य से विशिष्ट होकर प्रस्तुत होते हैं। आप देखेंगे कि इन मानवीय गुणों में ज्यादा ज़ोर काव्यालोचना में ईमानदारी और साहसपर दिया गया है जिसका मूलार्थ यहाँ क्रमशः ऑनेस्टीऔर एडवेंचरन होकर सिन्सिएरिटीऔर करेजहोता है। नामवर सिंह जी के इस विचार से हमें सहमत होना चाहिए कि ईमानदारी (सिन्सिएरिटी) का अभिप्राय साहित्येतिहास के विभिन्न कालों में भिन्नभिन्न प्रकार से लिया गया है जैसे, छायावादी काल में ईमानदारी का अर्थ है आत्मानुभूति। छायावादोत्तर काल ने इसे बदल कर नीयतकर दिया, प्रगतिशील साहित्य में ईमानदारी वर्गचेतनामें बदल गई जबकि प्रयोगधर्मी कविताओं के लिए प्रामाणिक अनुभूतिको ही इसका पर्याय माना गया। सातवें दशक के बाद ईमानदारी का मतलब कवि के परिवेश के विसंगतिबोध और यथार्थबोध से हो गया। नामवर जी के लेखकीय चरित्र संबंधी उपर्युक्त कालगत वर्गीकरण से यह महसूस होता है कि जैसेजैसे कालक्रमानुसार कविताओं की प्रवृत्तियां बदली, वैसेवैसे कवियों की ईमानदारी और लेखकीय चरित्र के मानदंड भी बदले। साहस का अर्थ भी अब कविता में उस जोखिम से लिया जाता है जो रचनाप्रक्रिया के दौरान कवि अपने सृजन में उठाता है। ईमानदारी की महत्ता और जोखिम उठाने की बात समकालीन कविता में फिर से शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। वस्तुतः ईमानदारी का अर्थ समकालीन कविता में कवि के उस सचेतनतासावधानी से है जिसमें परिवेशगत आंतरिक यथार्थ की खोज कवि द्वारा अपनी सृजनप्रक्रिया में वस्तुपरकता से आत्मपरकता की ओर यात्रा करने के क्रम में की जाती है। इसमें उससे जो चूक होती है, वही कविता के उस अनुपात में असफल होने का कारण भी बनती है। इसलिए इन काव्येतर मूल्यों की प्रासंगिकता समकालीन कविता में आज भी बनी हुई है जिस पर गंभीर कवियों का ध्यान जरूर जाना चाहिए। जो कवि सृजन में ईमानदारी और साहस को ठीक से नहीं बरतते, उनकी कविता में वस्तुगत यथार्थ उस तरह आत्मगत नहीं हो पाता जिसकी पाठक अपेक्षा करते हैं, न ही बिना जोखिम के कवि अपने रचनासमय की जड़ता तोड़ पाता है। यहाँ अहम सवाल यह है कि कवि इन चरित्रगत लक्षणों का अपने में विकास कैसे करे। इसका उत्तर कविता के लोकधर्मी सौंदर्य-शास्त्र में मिलता है। यह अनुभव की बात है कि जब तक हमारा इंद्रिय-बोध प्रखर नहीं होगा तब तक हम सघन जीवनानुभव से वंचित रहेंगे। इंद्रिय-बोध की प्रखरता के लिए हमें आत्मबद्धता से मुक्ति पानी होगी और अपने संवेदनात्मक ज्ञान’ (‘मुक्तिबोध की स्थापना से’) को अनुभवप्रसूत बनाना होगा, पर लोक और प्रकृति की गति से व्यापक रूप से जुड़े बिना यह संभव नहीं।
     मुक्तिबोध ने संवेदनात्मक ज्ञानव्यवस्था के ऊपर बहुत बल दिया हैयही ज्ञान व्यवस्था हमारे विचारबोध का मुख्य आधार है वे कहते हैं कि आज शिक्षित वर्ग में जो भयानक अवसरवाद छाया हुआ है, आत्मस्वातंत्र्य के नाम पर जो स्वहित, स्वार्थ, स्व कल्याण की जो भागदौड़ मची हुई है, मारोखाओ, हाथ मत आओका जो सिद्धांत सक्रिय हो उठा है, उसके कारण कवियों का ध्यान केवल निज मन पर ही केंद्रित हो जाता हैआज की कविता वस्तुतः पर्सनल सिचुएशन की, स्वस्थिति की,स्वदशा की, कविता है किंतु अब जिंदगी का यह तकाजा है कि वह अपनी इस समस्या को वर्तमान युग की मानव समस्याओं के रूप में देखें और उन्हें वैसा चित्रित करेंकिंतु यह तभी तक संभव है जब तक कवि आधुनिक युग के मूल जीवन तथ्यों के तर्कसंगत निष्कर्षों और अनुभव-सिद्ध परिणामों को आत्मसात करते हुए अपने अंतर्मन के भीतर समायी संवेदनात्मक ज्ञानव्यवस्था में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दे, और उनके आधार पर बदलते हुए युगजीवन के संदर्भ में, वास्तविक जीवन मूल्यों का विकास करे, और जीवनमूल्यों और आदर्शों की अग्नि में, स्वयं को लाते हुए वह, वस्तुतः चरण करे, आचरण के मार्ग पर चले, चलता रहे।वास्तविक जीवनसाधना के बिना कलात्मक साधना असंभव हैयद्यपि कलात्मक साधना की, आपेक्षिक रूप से, अपनी स्वतंत्र क्रिया और गति हुआ करती है किंतु उसकी मूल प्रेरणा, उसके तत्व, उस आत्मसंपदा के अंग होते हैं, कि जो संपदा अपने वास्तविक जीवन में संवेदनात्मक रूप में अर्जित की जाती है, और एक जीवनसंवेदनात्मक ज्ञान व्यवस्था के रूप में परिणत की जाती है (मुक्तिबोध रचनावली: भाग पाँच/ पृ-206)अगर हम मुक्तिबोध के उपर्युक्त उद्धरण पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानव्यवस्था अर्थात विचार-बोध की जननी जीवन की ही संवेदना है जिसे कवि अपनी संवेदना में अनुभव और विवेक से लाता है। यह कहीं बाहर से, किताबों को पढ़ने से, परउपदेश ग्रहण से या किसी फॉरमूले से प्राप्त नहीं होता। जीवन से कटने से हम अनुभवहीनता के शिकार होते है, कुंठित होते हैं, हमारा लेखकीय चरित्र दबता और कमजोर होता है और हम अवसरवादी भी बन जाते हैं।
      अपनी आलोचनापुस्तक कविता की लोकधर्मितामें वरिष्ठ आलोचक डा. रमाकांत शर्मा मुक्तिबोध की बात का अपने तरीके से समर्थन करते हैं, वे लिखते हैं कि कविता के लिए विचारधारा ऑक्सीजन है  साहित्य में रचनाकार जीवन को सृजित और पुनस्सृजित करता है। इसकी पृष्ठभूमि में विचारधारा शक्ति होती है। साहित्य के विकास क्रम में विरोधी विचारधाराओं का प्रभाव भी एक रचनाकार या रचना पर दिखाई देता है। इसलिए ऐसे रचनाकार के वस्तुगत अध्ययन में उसको आलोचक अपने विचारधारात्मक संघर्षों के आलोक में ही देखता है। ऐसे हालात में आलोचक गलत वैचारिकता लिए हर कला का विरोध करता है। एंगल्स लिखते हैं कि विचार जितने ज्यादा छिपे रहें, कलाकृति के लिए वह उतना ही अच्छा है, लेकिन लड़ाई का मुद्दा वहां जन्म लेता है जहां वह रूपवादियों द्वारा सर्वहारा साहित्य और कला को हेय साबित किया जाता है, चाहे कितने ही कलात्मक गुणों से वह संपन्न क्यों न हो। हम इस बात को अस्वीकार नहीं करते कि विचारधारात्मक चुनौती कलात्मक चुनौती भी होती है।  साहित्य का भी अपना अनुशासन हुआ करता है। कोई भी रचनाकार उस अनुशासन को ठुकरा कर श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं बन सकता।
     निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध ने साहित्य के अनुशासन का सही ढंग से पालन किया है। वे कविता में विचारधारा की वकालत नहीं करते। वह विचारों के उद्देश्य, संगठन, वस्तु, सपने, महत्वाकांक्षाएं, कर्मनिर्देश तथा सामाजिकआर्थिक कलात्मक लक्ष्यों को मूल्यों में रूपांतरित कर ऐसे बिम्ब रचते  हैं जिनकी अंतरंग लहरों में विचारधारा तल्लीन है।  इन लहरों में नैतिकता, वैधानिकता, राजनीति, संस्कृति और इतिहास अंतर्भूत है।“ (कविता की लोक धर्मिता / पृ सं-73) रमा कांत शर्मा जी भी मुक्तिबोध की तरह कविता में विचारतत्व को जीवन से संपृक्त मानते हैं और जिस तरह आधुनिक कविता की दार्शनिक पार्श्वभूमिमें ज्ञानव्यवस्था के अंतर्गत मुक्तिबोध जिस अवधारणा को हमारे सामने लाते हैं, उसी तरह  डॉ. शर्मा भी अपनी सहमति जताते हुए उसे लोकधर्मिता के आयाम से जोड़ देते हैं जो लोकधर्मी प्रतिमानों में विचारबोध के लिए नए चिंतन के द्वार खोलता है। यह एक बड़ी बात है जिसका जनपदीय संस्पर्श की कविताओं में खास महत्व है।

  

विचारधारा, कवि की पक्षधरता और लोकचेतना

विचारधारा क्या है? बक़ौल रमा कांत शर्मा, ‘रूपवादी रचनाकर भी शायद साहित्य में विचार को अस्वीकार नहीं करते। विचारधारा को अस्वीकार करते हैं। बंधन को बुरा मानते हैं, लेकिन यहीं चूक है। विचारों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक क्रम ही विचारधारा है। उलजुलूल विचारों में भटकने के बजाय व्यवस्थित और वैज्ञानिक विचारधारा से जुड़ना मेरी समझ में कहीं अधिक उपयोगी है। (कविता की लोक धर्मिता / पृ सं-71)। इसलिए कहना न होगा कि अगर कविता में विचारधारा और पक्षधरता गौण हो जाए तो कवि का मन कविता की कहनशैली और उसके शिल्प पर केंद्रित हो जाता है। उसी को वह कविता का अभीष्ट समझने लगता है। साधारण चीजों को असाधारण की तरह व्यक्त करने की कला ही रूपवाद का सिम्पटमहै जबकि असाधारणता की साधारण और संश्लिष्ट रूप में अभिव्यक्ति हमें कविता के उस सौन्दर्य-पक्ष की ओर ले जाता है जिसका सम्बन्ध मार्क्सवादी कलापक्ष से है जो जन और उसके जीवन की गतिकी से रूप को उठाता और ग्रहण करता है। कहन की अभिनव शैली और नए मुहावरे का प्रयोग रूपवादी कविताओं में पाठक को मुख्यतः अपनी अभिव्यक्ति से चकित करने की होती है जहाँ अंतर्वस्तु अत्यंत कमजोर और महत्वहीन होती है। ऐसे लक्षण और स्वभाव का कवि जब लोक की बात करता है तो कविता का रूप एक नॉस्टेल्जिया‘, शौक या नशे की तरह आता है, आप अगर इन कविताओं के कथ्य में जाएंगे तो गुम हो जाएंगे। कुछ हासिल नहीं होगा। सच्ची कविता यह नहीं है। सवाल है कि कवि में रूपवादी नॉस्टेल्जिया आता कहाँ से है? यह कवि के उथले जीवनानुभव, उसके जीने की कृत्रिम शैली, उसका ढुलमुल लेखकीय चरित्र और वस्तुओं के प्रति उसकी छद्म प्रतिबद्धता सेउत्पन्न होता है। कवि केदार नाथ सिंह, कुँवरनारायण, उदय प्रकाश, एकांत श्रीवास्तव, गीत चतुर्वेदी, बाबुषा कोहली, शुभमश्री इन सब वरीय या नए कवियों की जीवनशैली का अगर आप संधान करें तो आप पाएंगे कि उनकी कविताओं में श्रमसौंदर्य, जन-संघर्ष और जीवन का अंतर्द्वंद्व या तो एक फैशन की तरह आता है या फिर नहीं आता है। इसलिए कविताकाश में इनकी कविताएँ बस बिजली की एक कौंध भर हैं जो हमें भासमान होती है। इसमें घनघोर बारिश नहीं है। आप देखसुन तो सकते हैं पर भींगअघा नहीं सकते। पर यह भी सच है कि आज सुधीर सक्सेना, शम्भु बादल, योगेन्द्र कृष्णा, संतोष चतुर्वेदी, अशोक सिंह, भरत प्रसाद, कुँवर रवीन्द्र, राजकिशोर राजन, आत्मा रंजन, भास्कर चौधुरी आदि कई समकालीन ऐसे वरीय और युवा कवि लगातार कविता में लोकचेतना को आगे कर रहे हैं जो न केवल विचारधारा के स्तर पर कवि की पक्षधरता को साफ करती है बल्कि कविता में लोक की नई संवेदना को उद्भासित करती है और विचारतत्वों का उसके भावपक्षों और कला पक्षों के साथ अपूर्व संयोजन और संतुलन भी देखने को मिलता है। इनकी कविताओं की विशेषता यह है कि कविता में वे पुराने बिंबों की जगह नए और अधुनातन बिंबोंप्रतीकों का प्रयोग करते हैं जहाँ प्रतिरोध और तनाव के सृजन की भाषा भी पहले से अधिक भेदस हुई प्रतीत होती है, इसे इनके कवितांशों के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है

   1-  जिस तरह बूढ़े घड़ीसाज़ भी नहीं बता सकते घड़ी की उम्र

और न ही बूझ सकते हैं अपनी घड़ी के काँटें,

उसी तरह,

ऐन उसी तरह कोई नहीं बता सकता प्रेम की वेला 

कीमियागरों के माथे पर शिकन 

कि कब कैसे फूट पड़ता है प्रेम का रसायन 

(कविता: प्रेम यानि कलाई में घड़ी नहीं / सुधीर सक्सेना)

  2-  मेहमानों के सामने / कोई जब तुम्हें नचाए

 तुम्हारी लोक-कला की प्रशंसा करें

तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या?

 तुम प्रदर्शन की वस्तु हो?

 तुम्हें तो मुखौटे उतारने और

चाँटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए

क्योंकि थाप और चाँटे

  का संतुलन

  तुम्हारे लिए

 सही जगह

 सुनिश्चित कर सकता है /(कवितांश गुजरा – शम्भु बादल)

3. हत्यारे जब गांधी होते हैं

वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते

वे नहीं करते तुम से

सत्य का कोई आग्रह

वे अपने झूठ पर चढ़ा लेते हैं

तुम्हारे ही सपनों के रंग

और इस तरह बिना झूठ बोले

तुमसे छुपा लेते हैं तुम्हारा सच

वे तुम्हें आजाद नहीं करते

आजादी की अदृश्य             

जादुई

जंजीरों से तुम्हें बांध लेते हैं  

हत्यारे जब गांधी होते हैं – योगेंद्र कृष्णा 

4. अंकों के समूह में

बस एक बार ही आ कर

नया मतलब नई पहचान दे जाते हो उसे

हरदम के लिए

तुम्हारी जगह नहीं बदल पाता

कोई जोड़ घटाव

सुई की नोक जैसी काया भी

हो सकती है अहम

अहसास कराया तुमने ही यह दुनिया को

कविता : दशमलव/ संतोष चतुर्वेदी

5. कान के बगैर भी यदि शब्द सुनना आता हो

तो जरा मन लगाकर सुनिए

यहाँ की दरोदीवार से लावारिश पक्षियों की ही नहीं,

इंसानी रूहों की भी चीखें सुनाई दगी,

यहाँ नींव में ज़मींदोज़ है

निर्दोष आत्माओं का इतिहास

कविता कामख्या मंदिर के कबूतर  भरत प्रसाद

 यहाँ कवितांश उद्धृत करना या कवियों का नाम गिनाना इस लेख का वरेण्य नहीं, ये मात्र उदाहरण हैं, यह कहने के लिए कि इन कविताओं के केंद्र में जो विचार हैं, वे भावात्मककलात्मक रूप लेकर कविता की रुखड़ी, भेदस भाषा में अपेक्षाकृत नए बिम्बप्रतीक योजना को ग्रहण कर अभिव्यक्त हुए हैं जो आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने में अधिक सक्षम हैं और पाठक पर गहरा प्रभाव उत्सर्जित करते हैं। 






जब कविता में लोकधर्मिता की बात आती है तो वह कवि की ज्ञानात्मक संवेदना  
पक्षधरता के अहम सवाल से जुड़ जाती है। कविता केवल कलात्मक अभिव्यक्ति  
नहीं होती। यदि हमें कविता में सच्ची लोकधर्मिता से गहन विचार-बोध को चित्रित  
करना है तो संवेदनात्मक आवेग के साथसाथ लोक का अवगाहन करने वाली
सूक्ष्मबुद्धि और प्रखर ऐंद्रिकशक्ति भी चाहिए। इसमें जीवन की अनुभवसरणियों  
का भी कम योगदान नहीं होता। ये अनुभवप्रसूत विचार मानवीय सरोकार और  
उसकी चिंताओं की कोख से जन्मते हैं और उससे कविता में पूर्व प्राप्त विरासत  
और परंपरा को नवीकृत कर, लोकजीवन की जनपदीय चेतना को वैश्विक चेतना से
जोड़ देते हैं।
संपर्क :   
सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,

स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,

एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004


           ई-मेलsk.dumka@gmail.com
मोबाईल  09431310216 / 09006740311

   (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वाँन गॉग की हैं. सौजन्य – गूगल) 

 

सुशील कुमार का आलेख ‘“पोएट्री मैनेजमेंट” – कविता की मदारी भाषा और नवरीतिवाद के काव्य-सौंदर्य का अन्यतम नमूना,


शुभम श्री

हाल ही में कवयित्री शुभम श्री को इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला है। शुभम श्री को यह पुरस्कार जलसा – 4 में छपी उनकी कविता ‘पोइट्री मैनेजमेंट’ के लिए दिया गया है। इस बार के निर्णायक हैं कवि-कहानीकार उदय प्रकाश। पुरस्कार जिस कविता पर दिया गया उस पर साहित्यिक खेमे में सहमति-असहमति दर्ज करायी जाने लगी। पहले भी ऐसा हुआ है जब पुरस्कृत कवि को ले कर लोग सहमत-असहमत रहे हैं। सबको अपनी अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराने का अधिकार भी है। बड़े-बड़े कवियों तक ने शुभम श्री की इस कविता और उस पर पुरस्कार दिए जाने के निर्णय से सहमति जताई और अपनी बातें खुल कर रखीं तो कुछ युवा साहित्यकारों ने इस कविता के चयन पर ही प्रश्न-चिह्न उठाए। कवि मंगलेश डबराल ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है – ‘शुभम श्री की कविता पोएट्री मैनेजमेंटऐसी कविता है जो प्रत्यक्ष तौर पर  कविता और कविकर्म का उपहास करते हुए कविता की रचना करती है और आज के  कैरियरपरस्त सामाजिक-राजनीतिक संसार की आलोचना पेश करती है कविता में जिस विरूप-विद्रूप की निर्मिति है, उसके नीचे करुणा की रेखाएं साफ़ देखी जा सकती हैं उदय प्रकाश द्वारा इस कविता को पुरस्कार के लिए चुने जाने पर जो प्रतिक्रियाएं दिख रही हैं, वे हैरतनाक हैं लगता है लोग कविता में कुछ भी  नया या अवागार्द देखते ही भड़क उठाते हैं यह हमारी काव्य-रूचि की जकडबंदी ही है या फिर कविता से रूमानी वाहवाही की चालू उम्मीद’ 
कवि असद जैदी ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है – ‘अव्वल तो मुझे लगता है हमारे मित्र उदय प्रकाश के हाथ से कभी कोई अच्छा काम अंजाम हो ही नहीं सकता! कि उन्हें और कुछ न सूझा तो शुभम श्री ही को  भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार दे दिया! अब प्रतिक्रिया में पिछले तीन रोज़ से सोशल मीडिया पर, बक़ौल कवि मनमोहन, नया ज़माना  दहाड़ रहा है! शुभम श्री तो पता नहीं कहाँ हैं (और कौन हैं) पर उनके तुफ़ैल से हिन्दी जगत का एक हिस्सा अचानक अपने अभ्यंतर का तेज़ी से बाह्यकरण करने  में लगा है। अजीब सी हुंकारें कई तरफ़ से आ रही हैं। लगता है  हिन्दी-सेवकों का एक दल संस्कृति की खाल ओढ़ करसमकालीन कविता को बचाने (और सुधारने) उठ खड़ा हुआ है! दूसरे, क्या ऐसा संभव था कि हमारे समाज में, राष्ट्रीय जीवन में हर जगह अच्छे दिनोंकी आमद हो और समकालीन हिन्दी काव्य-विमर्श उनसे सर्वथा अछूता बना रहे? आसार तो पहले ही से नज़र आ रहे थे, बरसों से, पर अब तो कोई महीना कोई हफ़्ता नहीं गुज़रता  जब साहित्य और संस्कृति जगत में नए ज़मानेकी लाइव झाँकी न दिखाई देती  हो।

तसल्ली की बात यही है कि शुभम श्री अपने समकालीन  औसत से गिरे काव्य रसिकऔर लम्पेन आलोचक का मुँह देख कर नहीं लिखतीं, उसके प्रतिगामी संस्कारों को पुचकारती हैं। उनके काम को जानने के मानदंड  उन्हीं के कृतित्व और उनकी वैचारिकता में मौजूद हैं। यह उनकी मुश्किल भी है  और एक प्रकार का सौभाग्य भी कि वह फ़ासीवाद के गहरे होते दौर में अपनी कविता लिखने का काम कर रही हैं, बिना अपने मन को अधिक भारी किए। 
युवा कवि रामजी तिवारी ने इस कविता की एक तथ्यात्मक भूल की तरफ इशारा करते हुए लिखा हैं ‘आज मेरे एक कवि-मित्र ने इधर की एक चर्चित और पुरस्कृत कविता को पढ़ने के बाद कहा कि हम कवियों के पास लिखने की गजब छूट हासिल है। ऐसी छूट, जो आम लोगों के नसीब में कत्तई नहीं ….।
जैसे …..?
जैसे यही कि हमारा कोई साथी अपनी कविता में लिख सकता है कि भारत ने आज एक कविता मैच में वेस्टइंडीज को 11 विकेट से हरा दिया। या कि श्रीलंका ने आस्ट्रेलिया को एक कविता मैच में साढ़े छियालीस रन से हरा दिया। या कि ब्राजील ने अर्जेंटीना को काव्य अंताक्षरी में ढाई गोल से हरा दिया।
जैसे कि इस कविता में ही कहा गया है कि भारत ने काव्य अंताक्षरी के मैच में 6-5, 6-4, 7-2 से सीधे सेटों में जीत दर्ज की। बिना यह जाने कि टेनिस के खेल में 6-5 और 7-2 का अंतिम स्कोर होता ही नहीं।‘
 
सहमति-असहमति की बात अपनी जगह लेकिन शुभम श्री इस पुरस्कार के लिए बधाई की हकदार तो हैं ही। सोशल मीडिया पर इस पुरस्कार के बहाने ही सही, जो बात हुई है वह कम लोगों को नसीब हो पाती है।  
  
साहित्य इसीलिए औरों से विशिष्ट है कि इस में असहमतियों के लिए भी पर्याप्त जगह होती है बाकी समय तो अपना काम निर्मम तरीके से करता ही है बहरहाल, इस पुरस्कार और कविता पर असहमति की एक आवाज कवि-आलोचक सुशील कुमार की भी है। पहली बार आइए पढ़ते हैं सुशील कुमार का यह आलेख “पोएट्री मैनेजमेंट” – कविता की मदारी भाषा और नवरीतिवाद के काव्य-सौंदर्य का अन्यतम नमूना

   

“पोएट्री मैनेजमेंट” – कविता की मदारी भाषा और नवरीतिवाद के काव्य-सौंदर्य का अन्यतम नमूना
सुशील कुमार
कविता जब चरित्र चमकाने और चर्चा में आने की लत और शौक बन जाती है तो मुझे धूमिल की ये पंक्तियाँ बरबसयाद आती हैं जिसे ध्यान से पढ़ने की जरूरत है :
कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है?’
ना, भाई ना,
कविता-
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है।
क्या यह व्यक्तित्व बनाने की
चरित्र चमकाने की —
खाने-कमाने की–
चीज़ है ?’
ना, भाई ना,
कविता
भाषा में
आदमी होने की तमीज़ है।
भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है
जो सड़क पर और है
संसद में और है
इसलिये बाहर आ!
संसद के अंधेरे से निकल कर
सड़क पर आ!
भाषा को ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर।“
      हाल में ही वर्ष-2016 के लिए भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार के लिए चयनित युवा कवयित्री शुभम श्री की कविता पोएट्री मैनेजमेंटपत्रिका जलसा में प्रकाशित हुई थी पुरस्कार समिति के निर्णायक मंडल में सर्वश्री अशोक वायपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल शामिल हैं जो बारी-बारी वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करते हैं। इस बार निर्णायक उदय प्रकाश जी हैंसाहित्य-जगत में जब इस प्रकरण को लेकर हो-हल्ला होने लगा तो वरिष्ठ लोकधर्मी कवि विजेंद्र मौन रह गए (जो स्वस्थ परंपरा का परिचायक नहीं) पर ख्यात आलोचक डा. जीवन सिंह ने कवयित्री शुभम श्री के बचाव में फेसबुक पर आज 08 अगस्त, 2016  और गत 04 अगस्त, 2016 को अपनी पोस्ट डाल दी तो यह जानना अनिवार्य हो गया कि डा. जीवन सिंह ने इस 25 वर्षीय युवा कवयित्री की अब तक कितनी कविताएँ पढ़ी है। कविवर विजेंद्र और समालोचक जीवन सिंह कविता में लोकधर्मिता की वकालत करते हैं  (अभी-अभी जीवन सिंह जी ने शहीद लोकधर्मी कवि मान बहादुर सिंह पर संचयन का सम्पादन भी किया), शहरी मध्यमवर्गीय सोच और सौंदर्य-चिंतन से कविताओं की लानत-मलामत करते हैं, श्रम-सौंदर्य के कविता-निकष को ही मार्क्सवादी हलकों में लेकर युवा कवियों का विश्लेषण करते हैं पर साहित्य की इस कुत्सित प्रवृति पर विजेंद्र जी का मौन रह जाना और डा. जीवन सिंह का इस कवयित्री के प्रति पक्षधरता इनके सारे किए-धरे पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करता है। शुभम श्री की कविताओं को आज की रूढ़िग्रस्त कविता से अलग तरह की कविता बताते हुए जीवन सिंह जी कहते हैं कि “वे वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर काव्य-रूढ़ि को कितने प्रभावी तरीके से तोड़ना जानती हैं। उनकी प्रतिबद्धता भाषा के किसी बाहरी रूप से नहीं ,बल्कि उसकी आन्तरिक चारित्रिक स्थितियों में झाँकती है।“ साथ ही,कवयित्री की काव्यभाषा और शैली के संबंध में इनका तर्क है कि “जहाँ तक मौजूदा जीवन-यथार्थ का सवाल है वह बहुत प्रभावी और आज के मध्य वर्ग की शैली में शुभम श्री की कविता में आता हैः यही उसकी ताकत है।“ मैं इन दोनों महान जनों से यह पूछना चाहता हूँ कि धूमिल की कविता की भाषा और उनके रचनात्मक यथार्थ को लेकर आज तक उन्होंने एक भी स्वतंत्र लेख या समालोचना नहीं लिखा बल्कि जब भी फोन पर, फेसबुक पर या अन्य माध्यमों से मैंने इनसे संवाद किया तो धूमिल को मात्र चुटकुलेबाज़ीऔर मुहावरेबाजी का कवि कह कर टाल गए और सपाटबयानी कवि की संज्ञा से नवाज कर उनकी महत्ता पर अपने विचारों के धूल रख दिए। आखिर इतना विचलन क्यों? इसकी कोई खास वजह तो होगी ! शुभम श्री की 31 कविताएं कविताकोश पर उपलब्ध हैं जिसे कोई भी पढ़ सकता है, मुझे इन सारी कविताओं को पढ़ कर कोई यह बताए कि इन कविताओं में इनकी किस कविता में लोकजीवन का अंतर्द्वंद्व और वर्ग-संघर्ष मौजूद है। मैं समझता हूँ कि कविता कम से कम वही होती है जिसमें जनलोक की प्रतिबद्धता और उसका श्रम-सौंदर्य उद्भासित होता हो और जो पढ़ने में मानवीय चेतना को स्पर्श -झंकृत करे। ऐसा क्या है “पोएट्री मैंनेजमेंट” में? अगर अराजक हो कर बिना नृत्य के नियम के नाचना, बिना राग-लय के चीख-चिल्लाहट को गीत-संगीत मानना और सियारों की पंचायत को कानूनी जामा पहना कर उसकी वकालत करना ही कला-साहित्य का अब ध्येय रह गया है तो फिर पोएट्री मैनेज करते रहें और सूअर की आँख की बाल बनते रहैं शुभंश्री के पक्षधर, रीढ़विहीन और कविता के कुजात- कुसंस्कारी, ग्लोब्लाइजेशन की आकंठ महिमा गान करने वाले साहित्य-च्युत लोग! आइए अपनी राय जाहिर करने से पहले हम शुभम श्री की कुछ कविताओं से बावस्ता हों और यह जानें कि आखिर इस कवयित्री के क्या काव्यगत गुण हैं जिनपर हमारे मठाधीश और पुरोधा इतने लट्टू हो रहे। इनकी एक कविता है –
बूबू-1,देखिए :
दूदू पिएगी बूबू
ना
बिकिट खाएगी
डॉगी देखेगी
ना
अच्छा बूबू गुड गर्ल है
निन्नी निन्नी करेगी
ना
रोना बन्द कर शैतान, क्या करेगी फिर?
मम्मा पास।
समय का कौन सा आंतरिक यथार्थ प्रच्छन्न है इस कविता में जो हमें दिखाई नहीं देता? शुभम श्री का रोता हुआ बच्चा चुप तो नहीं हुआ पर मन में गुदगुदी जरूर पैदा कर गया! क्या आपको बुर्जूआ सौंदर्य के परिहास का एक अन्यतम नमूना भर नहीं लगती यह कविता? इसी प्रकार इनकी एक कविता है – मेरा बॉयफ्रेंड। यह एक निबंध-शैली की कविता है। कवयित्री“अनमैच्युर सेक्स” के आकर्षण से बिंधी हुई इस कविता में कहना क्या चाहती है, यह हमारे विज्ञ आलोचक ही बताएँगे-
मेरा बॉयफ्रेण्ड एक दोपाया लड़का इन्सान है
उसके दो हाथ, दो पैर और एक पूँछ है…
मैं एक अच्छी गर्लफ्रेण्ड हूँ
मैं उसके मुंह में घुस रही मक्खियाँ भगा देती हूँ
मैंने उसके पेट पर मच्छर भी मारा है
मुझे उसे देख कर हमेशा हँसी आती है
उसके गाल बहुत अच्छे हैं
खींचने पर 5 सेण्टीमीटर फैल जाते हैं
उसने मुझे एक बिल्लू नाम का टेडी दिया है
हम दुनिया के बेस्ट कपल हैं
       इसी तरह, मध्यवर्गीय सोच और तर्जूबा  के पाठकों के बीच सराही गई इनकी एक अन्य कविता का जिक्र करना चाहूँगा –मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है।“ कविता को गौर से पढ़ें तो यह समाज के पुरुष वर्चस्ववाद को इंगित करने वाली बेहद घटिया और कुसंस्कारी सोच से पगी हुई कविता लगती है। कवयित्री के “गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक…” पर,
“हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं ज़रा भी उनकी सूरत
करीने से डाला जाए कूड़ेदान में”
कि छोड़ दिया जाए
जहाँ-तहाँअनावृत …
पता नहीं क्यों?
यहाँ सवाल है कि मासिक धर्म तो स्त्रियों की प्राकृतिक कुदरती क्रिया है, वह भी हर महीने। पर जिस प्रसंग को उठा कर पुरुषवादी सोच और वर्चस्व को कविता में रूपाकार देने की कोशिश की गई है, उसकी अंतर्वस्तु इतनी उच्छृखलित है कि कविता का गहन अर्थ हमें यहाँ तक पहुंचा देता है कि स्त्रियॉं को समान दर्जा देने के लिए उनके मासिक धर्म के लत्ते से भी हमें प्यार होना चाहिए, चाहे वह करीने से डस्टबिन में न भी रखी गई हो और अनावृत भी क्यों न हो! यही सौंदर्य है शुभम श्री की कविताओं का जिस पर हमारे विद्वान आलोचकगण फिदा हो रहे हैं! लेकिन जब धूमिल लिखते है कि –
औरतें
योनि की सफलता के बाद
गंगा का गीत गा रही है
देह के अंधेरे में
उड़द और अजवाईन के सपनों का पौधा
उग रहा है” 
तो धूमिल की कविताओं का स्त्री-विरोधी ब्रह्म-ज्ञान हिन्दी के आलोचकों में जागृत हो उठता है। लोग पूछेंगे कि शुभम श्री की कविताओं की तुलना यहाँ धूमिल की कविताओं से क्यों की जा रही है? तो मैं पूछूंगा कि धूमिल की भाषा को इन आलोचकों ने कैसे नजरंदाज किया। धूमिल ने  जिस वक्त यह सब लिखा, शुभम श्री के ही लगभग समवयस्क थे! इसलिए यहाँ इनका यह तर्क नहीं ठहर सकता कि शुभम अभी बच्ची है कविता में। यहाँ यह बात शिद्दत से गौर की जानी चाहिए कि मैं शुभम श्री की काव्य-प्रतिभा को “चैलेंज” नहीं कर रहा, मैं तो उन महान समालोचकों, पुरस्कार के चयनकर्ता(ओं), इस कवयित्री के समर्थक-पाठकों और उस संभावना को चैलेंज कर रहा हूँ जिसे डॉ. जीवन सिंह का पराज्ञान उनको इस कवयित्री में कविता के भविष्य की अनुभूति से सिक्त कर रहा है। मुझे मजबूरन कहना पड़ता है कि इस विद्रूप समय में कविता को खराब करने का काम केवल रूपवादियों और सुविधाभोगियों ने ही नहीं किया है, बल्कि कई मार्क्सवादियों और लोकवादियों ने भी अपनी आलोचकीय मिथक, हठ और स्वार्थपरता के कारण उसकी अस्मिता-हरण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी-सभ्यता की संयत-नकली भाषा में। इसलिए अब कविता की दशा-दिशा मात्र उसके सौन्दर्य-शास्त्र और चिंतन से नहीं तय जा सकती! इससे प्रबल चुक होने की सम्भावना बनती है। बदलते समय में पूँजी और उदारीकरण से ही हमारा सामना और विरोध नहीं, इनके विरोधियों के उस सियार-चाल से भी है जो मौका पा कर कभी भी अवसर भुनाने से नहीं चुकते और सामान्य कवियों को भी अपने कैरियर व यशोलाभ के लिए महान बना कर प्रस्तुत करते हैं जिससे उनका पूरा कविता-समय ही सवालों के घेरे में आ जाता है। नयी सदी की कविता की दशा-दिशा का यह पाठ बहुत रुचिकर, किन्तु सचमुच कविता का बेहद कठिन और अत्यन्तं सचेत हो कर चलने का समय है। पता नहीं आप मेरी बात से कितना इत्तेफ़ाक रखते हैं! पर इसका सबसे टटका उदाहरण शुभमश्री की पोएट्री मैनेजमेंटकविता को लब्धप्रतिष्ठित कवि (….!) के द्वारा  भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कारसे सम्मानित करने की घोषणा है। हिन्दी भाषा और साहित्य को विरूपित करती यह कविता भाषा के स्तर पर हिन्दी के बजाय *हिंगलिश*भाषा की कविता है जिसका आविष्कार विज्ञापनवादियों ने अपने मतलब से किया। कम से कम हर सजग पाठक को एक बार पूरे ध्यान से भारत भूषण अग्रवालकविता पुरस्कार के लिए चयनित कवयित्री शुभम श्री की कविता पोएट्री मैनेजमेंटको एक बार जरूर पढ़ लेना चाहिए ताकि उनके विचार पूरी खालिस तरीके से सामने आ सकें – यह रही पूरी कविता :
कविता लिखना बोगस काम है!
अरे फालतू है!
एकदम
बेधन्धा का धन्धा!
पार्ट टाइम!
साला कुछ जुगाड़ लगता एमबीए-सैमबीए टाइप
मज्जा आ जाता गुरु!
मने इधर कविता लिखी उधर सेंसेक्स गिरा
कवि ढिमकाना जी ने लिखी पूंजीवाद विरोधी कविता
सेंसेक्स लुढ़का
चैनल पर चर्चा
यह अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना है
क्या अमेरिका कर पाएगा वेनेजुएला से प्रेरित हो रहे कवियों पर काबू?
वित्त मंत्री का बयान
छोटे निवेशक भरोसा रखें!
आरबीआई फटाक रेपो रेट बढ़ा देगी
मीडिया में हलचल
समकालीन कविता पर संग्रह छप रहा है
आपको क्या लगता है, आम आदमी कैसे करेगा सामना इस संग्रह का?
अपने जवाब हमें एसएमएस करे
अबे, सीपीओ (चीफ पोएट्री ऑफिसर) की तो शान पट्टी हो जाएगी!
हर प्रोग्राम में ऐड आएगा
रिलायंस डिजिटल पोएट्री
लाइफ बनाए पोएटिक
टाटा कविता
हर शब्द सिर्फ़ आपके लिए
लोग ड्राईंग रूम में कविता टाँगेंगे
अरे वाह बहुत शानदार है
किसी साहित्य अकादमी वाले की लगती है
नहीं जी, इम्पोर्टेड है
असली तो करोड़ों डॉलर की थी
हमने डुप्लीकेट ले ली
बच्चे निबन्ध लिखेंगे
मैं बड़ी होकर एमपीए करना चाहती हूँ
एलआईसी पोएट्री इंश्योरेंस
आपका सपना हमारा भी है
डीयू पोएट्री ऑनर्स, आसमान पर कटऑफ
पैट (पोएट्री एप्टित्युड टेस्ट) की परीक्षाओं में
फिर लडकियाँ अव्वल
पैट आरक्षण में धांधली के खिलाफ
विद्यार्थियों ने फूँका वीसी का पुतला
देश में आठ ने काव्य संस्थानों पर मुहर
तीन साल की उम्र में तीन हज़ार कविताएँ याद
भारत का नन्हा अजूबा
ईरान के रुख से चिंतित अमेरिका
फ़ारसी कविता की परम्परा से किया परास्त!
ये है ऑल इण्डिया रेडिओ
अब आप सुनें सीमा आनंद से हिंदी में समाचार
नमस्कार!!
आज प्रधानमन्त्री तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय काव्य सम्मेलन के लिए रवाना
इसमें देश के सभी कविता गुटों के कवि शामिल हैं
विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया है कि भारत किसी भी कीमत पर काव्य नीति नहीं बदलेगा
भारत पाकिस्तान काव्य वार्ता आज फिर विफल हो गई
पाकिस्तान का कहना है कि इक़बाल, मंटो, और फ़ैज़ से भारत अपना दावा वापस ले
चीन ने आज फिर ने काव्यलंकारों का परीक्षण किया
सूत्रों का कहना है कि यह अलंकार फ़िलहाल दुनिया के सबसे शक्तिशाली
काव्य संकलन पैदा करेंगे
भारत के प्रमुख काव्य निर्माता आशिक़ आवारा जी का आज तड़के निधन हो गया
उत्तर प्रदेश में आज फिर दलित कवियों पर हमला
उधर खेलों में भारत में लगातार तीसरी बार
कविता अंत्याक्षरी का स्वर्ण पदक जीत लिया है
भारत ने सीधे सेटों में ६-५, ६-४, ७-२ से यह मैच जीता
समाचार समाप्त हुए!
आ गया आज का हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, प्रभात ख़बर
युवाओं पर चढ़ा पोएट हेयर स्टाइल का बुख़ार
कवयित्रियों से सीखें ह्रस्व दीर्घ के राज़
३० वर्षीय एमपीए युवक के लिए घरेलू, कान्वेंट एजुकेटेड, संस्कारी वधू चाहिए
२५ वर्षीय एमपीए गोरी, स्लिम, लम्बी कन्या के लिए योग्य वर सम्पर्क करें
गुरु मज़ा आ रहा है
सुनाते रहो
अपन तो हीरो हो जाएँगे
जहाँ निकलेंगे वहीं ऑटोग्राफ़
जुल्म हो जाएगा गुरु
चुप बे
थर्ड डिविज़न एम ए
एमपीए की फ़ीस कौन देगा?
प्रूफ़ कर बैठ के
ख़ाली पीली बकवास करता है!
      कविता में भाषा का यह नवाचार नहीं, कवयित्री बाबूषा कोहली की भाषा की तरह महज एक खिलंदरीपन है जो साहित्य के बाहर की और टपोरी किस्म की भाषा है। यह बात अब पूरी तरह समझने के लायक है कि काव्यभाषा के प्रति नवाधुनिकतावादी दृष्टिकोण को डा. जीवन सिंह द्वारा प्रतिबद्धता की भाषा कहना इसकी सच्चाई को जानबूझ कर नकारना है। यह कविता कितनी मूर्त है या कितनी वायवीय, कितनी सपाट है या बिम्बात्मक, कितना जनवादी है, कितना अभिजनवादी या कला-उन्मुख, कितनी मध्यमवर्गीय संचेतना और कितना रचनात्मक आत्मसंघर्ष से युक्त है, कितना भाषाई सच हैं और कितनी वंचनाएँ, कितना आत्मगत है और कितना बाह्यगत …इन सब उपादानों और जरूरी सवालों तक इस कविता में मात्र प्रयुक्त भाषा से ही हम प्रथमतः पहुँच सकते हैं जो यह सिद्ध करती है कि यह किसी कवि की भाषा हो ही नहीं सकती, यह तो मदारी या विज्ञापन की बेहद चलताऊ भाषा है जो हर तरह से गैर-साहित्यिक बोली-वाणी की श्रेणी मे आती है। कवयित्री की रचना के इस भाषाई जेनेटिक लक्षण की तारीफ करना कविता की भाषा का फौरी तौर पर बेड़ा-गर्क ही करना माना जाएगा । पोएट्री मैनेजमेंट जैसी अकेली कविता मे पचासों अँग्रेजी शब्दों को जबरन घुसेड़ कर और हिन्दी के साथ उसका घालमेल कर, न केवल हिन्दी भाषा को बदसूरत और अपमानित करने की कोशिश की गई है बल्कि यह भी कहने में कोई संकोच नहीं कि कविता के रूप और व्यंग्य की भाषाई चालबाजियों में डूबी कविताओं की अंतर्वस्तु और उसका रूप-सौंदर्य किसी भी तरह से जनवाद के दायरे में नहीं आता, न लोक की रूपाभा ही कहीं से प्रतिकृत होता दिखता है। यह पूरी तरह बुर्जुआ मानसिकता और सुविधाभोगी संस्कार से उपजी भाषा-कविता का अन्यतम नमूना है। युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने इस पूरे पुरस्कार प्रकरण से दुखी होकर लिखा है कि उन्हे क्षमा कर दो भारतभूषण अग्रवाल। वो जानते हैं वे क्या कर रहे हैं। जिस हिंसक ईमानदारी के बूते वो आज बन बैठे हैं उसी हिंसक ईमानदारी से समझदारी का खतरनाक खेल रचा जा रहा है। हे भारत भूषण तुम नहीं हो लेकिन तुम्हारी यह दुर्दशा कविता खत्म करने का कलंक बन कर इतिहास मे चीखती रहेगी। इसी प्रकार युवाकवि और आलोचक भरत प्रसाद ने जीवन सिंह के विचारों का प्रतिवाद करते हुए उनसे कहा कि –आपके प्रति सम्मान रखते हुए, आपके इस निष्कर्ष का पुरजोर विरोध करना आवश्यक हो गया है। शुभम् की कविता में कविता है कहाँ? बस बेतरतीब, खिलंदड़ी सोच के वशीभूत फैली हुई मनमानी।शब्दों औऱ भावों की इस अराजकता को यदि आप नयापन कहते हैं, तब तो हर युवा कवि ऐसी महान कविता रचने में परम समर्थ है। नएपन के नाम पर मनोहर कहानियां टाइप कविता का समर्थन करना, साहित्य को संकट में डालना है।“ लेकिन जीवन सिंह जी ने उसका बहुत हल्के में जवाब दिया है कि “उसमें इस समय के यथार्थ की बुनियादी और गहरी समझ प्रकट हुई है जो प्रचलित ढर्रे से बहुत भिन्न है, इसलिए अटपटी लगती है।
      डॉ. जीवन सिंह का तर्क निराधार है क्योंकि इनकी यह समझ अन्य मेधावी कवियों के विषय में  भी आनी चाहिए थी जो कभी नहीं आई, इसलिए इसे प्रायोजित सोच की कुंठित मानसिकता मानने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता !खैर… यही शुभंश्री की कविता और उसके भाषा की स्वायत्तता है जो कविता को काव्य-जगत की अंधेरी गली में ले जाती है –
साथ देगा मन
असंख्य कल्पनाएँ करूँगी
अपनी क्षमता को
आख़िरी बून्द तक निचोड़ कर
प्यार करूँगी तुमसे
कोई भी बन्धन हो
भाषा है जब तक
पूरी आज़ादी है
(जब तक भाषा देती रहेगी शब्द / शुभम श्री)
सुशील कुमार
सम्पर्क-
सुशील कुमार 
संपर्क :  सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची 834004
मोबाईल –
0 90067 40311
0 94313 10216

सुशील कुमार का यह समालोचनात्मक आलेख ‘जनवाद का एक धूमिल युवा चेहरा’

अरविन्द श्रीवास्तव

कवि सुशील कुमार ने इधर कई समालोचनात्मक आलेख लिख कर गद्य के क्षेत्र में भी ध्यान आकृष्ट किया है। अपने ही एक समकालीन कवि अरविन्द श्रीवास्तव की कविता पर सुशील कुमार का समालोचनात्मक लेख गद्य पर उनके पकड की बानगी प्रस्तुत करता है। अपने इस आलेख में सुशील कुमार ने आलोच्य कवि की खूबियों के साथ-साथ उसकी सीमाओं पर भी बात किया है, जो आजकल चलन से बाहर होता जा रहा है। तो आइए आज पढ़ते हैं सुशील कुमार का यह समालोचनात्मक आलेख   

 

जनवाद का एक धूमिल युवा चेहरा
                                         
सुशील कुमार
रविन्द श्रीवास्तव की कविताओं में कवि का बेबाकीपन भाषा के बाँकपन की उस हद से गुजरता है जो उनकी अभिव्यक्ति को न केवल बेलौस और उनके कथ्य को रोचक बनाता है, बल्कि कविता की अंतर्वस्तु में निहित आंतरिक यथार्थ को भी व्यक्त करने की मरीचिका का भास कराता है। इन कविताओं में तेवर कितना जनवादी है और कितना रूप का मुलम्मा, कितना इनमें साहस और ईमानदारी का असली पुट है और कितना इसका उद्योग, कितना इनमें भाषाई सच है और कितना तिकड़म, इन जायज सवालों से रु-ब-रु होने पहले इतना जरूर जानना जरूरी है कि बड़े कवि के हाथों उनके कवि की हत्या होना हमारे कविता-समय के दुद्धर्ष होने का केवल अन्यमनस्क बयान नहीं है, अपितु बड़े कहाने वाले कवियों की संभावनशील युवा कवियों के प्रति आजकल चल रहे दुर्नीति और दुराग्रह की एक बानगी है –
नहीं थी धमाके की कोई आवाज
उठा-पटक के निशान भी नहीं थे
क्योंकि हत्या बड़ी साफ़गोई से हुई थी
एक कवि की  
मारा गया कवि चुपचाप
बड़ी बारीकी से
किसी बड़े कवि के हाथों
(काव्य-संग्रह राजधानी में एक उज़बेक लड़की / कवि की हत्या / पृ. सं. 25)
इस दुराशा को कविता के नवोन्मेषी कवि आज शिद्दत से महसूस करते हैं। तभी तो बद से बदतर होती दुनिया की शिकारी नजरों से और डरावनी खबरों से प्रेम के शावकको बचाने की उम्मीद और हौसले को कवि हारता नहीं।
अरविन्द श्रीवास्तव कविता में लगातार हमारी संवेदना और अनुभव को नवीकृत करते चलते हैं और भरसक उन तारों को छूकर झनझनाने का उपक्रम भी करते दिखते हैं  
प्रेम में
कईयों ने खून से खत लिखे
कइयों ने लिखी कविताएँ
मैंने मैदान में दौड़ाई साईकिल
लगाया चक्कर
कई-कई बार
हैंडिल छोड़ के!
(प्रेम में/ पृ. सं.- 38)।
देखा जाए तो एक अलक्षित भाव-बोध से विस्मित करना अरविन्द की कविताओं की खास पहचान है। महसूस किया जा सकता है कि कवि का यह कर्म उनके प्रेम के आख्यान में और मस्ताना, और दीवाना, और कबीराना हो जाता है जो मानवीय मूल्यों के बरअक्स एक अचूक, बेध्य और संवेदी भाषा के साथ अपने कथ्य को बिलकुल नई भंगिमा में उद्भासित करता है –
दुनिया की सबसे निश्छल लड़की

यदि करती है मुझसे प्रेम

और कहती है आई लव यू

तो इसे मैं मानूँगा नहीं

और इसे मानता भी हूँ तो

उसे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है

और यदि एक झूठा

फरेब और मक्कार राजनेता

कहता है यही

तो कम से कम उसे देने के लिए

मेरे पास

एक मत है!”
(लोकतन्त्र / पृ. सं. 72)।
इन सदृश इनकी अनेक कविताओं का अंदाज-ए-बयां और काव्य-फल चौंकाने वाले होते हैं, जैसे कि घटनाएँ बगैर कौतूहलकविता का यह अंश देखा जा सकता है  
जब अचंभित होंगे हम
और समाप्त हो जाएंगे
दुनिया के तमाम कौतूहल
तब मेरे हथेली पर काँच गड़ा कर तुम पूछोगे
बताओ यंत्रणा कितनी है पीड़ादायक
और कहूँगा मैं-मौसम आज सुहावना है बहुत”
इस तरह की अलक्षित और नव्य-संवेदनाओं से उनकी बहुत सारी कविताएँ अटी पड़ी हैं, मानों उनके काव्याकाश से गुजरते हुए हम एक नई कौंध, एक नए चमक के पास से होकर गुजरते हों, जो  कुछ और संदर्भों व उदाहरणों को देखने से अधिक स्पष्ट होगा। एक कविता है रोटी’- केवल दो पंक्तियों की कविता है यह –
रोटी जली तो क्या हुआ
खुशबू तो बिखर गई !
यहाँ कवि की चिंता रोटी के जलने की नहीं, उसकी खुशबू से ही कवि तृप्त और आह्लादित दिखता है, या फिर कविता मुखौटा ही –
मैंने मारा अपने हृदय पर
पश्चात्ताप का कोड़ा
और लगाई दौड़ सरपट
उस जगह की
जहाँ मैं
छोड़ आया था
अपना मुखौटा।”

हालाकि उन्हें अहसास है कि मनुष्य का हृदयबर्फ हो रहा है और उसकी संवेदना-शक्ति क्षीण। इसमें बाजार का खतरा भी शामिल है जो हमें बाहर ही नहीं, अंदर से भी बेपर्द करता है बेरुखी से। पर गंभीर कहन में भी वे हमारी संवेदना को झकझोरने में कोई-कसर नहीं रखते, इनकी कविता बाजार देखिए –
“(1) 
पहले दबोचा
फिर नोचा कुछ इस तरह
कि
मजा आ गया
(2) 
उड़ा ले गई
छप्पर का पुआल
देह की मिरजई
बाजार बेपर्द करती है
बेरुखी से
(3) 
पहले खरीदता हूँ
चमकीले
काँच के टुकड़े
बिखेरता हूँ जिन्हें
फर्श पर
बीनता हूँ फिर
बारीकी से
किसी खतरे के अंदेशे में।
(बाज़ार/ पृ.सं. -29)
पहले काव्य-संग्रह एक और दुनिया के बारे में (2005) से हिन्दी कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाले कवि अरविंद श्रीवास्तव की दो और कविता की किताबें आ चुकी हैं – अफ़सोस के लिए कुछ शब्द (2009) और राजधानी में एक उज़बेक लड़की (2012)। इन वर्षों में कवि की भाषा-शैली का जो विकास हुआ है उसका संकेत हमें आरंभिक काल की कविताओं में ही मिल जाती है –
एक बुढ़िया सड़क किनारे
बुदबुदा रही है
यह दुनिया नहीं रह गई हैं
रहने के काबिल
ठीक ऐसे ही समय में
एक बच्चा अस्पताल में
गर्भाशय के तमाम बंधनों को तोड़ते हुए
पुरज़ोर ताक़त से
आना चाहता है
पृथ्वी पर !”
(एक ही वक़्त में / संग्रह एक और दुनिया के बारे में से)।
दूसरे संग्रह तक आते-आते कवि की भाषा और तीक्ष्ण, और मार्मिक हो जाती है –
ये औरतें बित्ते-बित्ते में
साग-पात रोप
अपनी तैयारी रखती थी
मुश्किल वक़्त के लिए
 
ये महिलाएँ बीज बन कर आई थीं
यहाँ की मिट्टी से सन कर
की थीं गर्भधारण
मुहल्ले के रूप में इन्होंने एक दुनिया विकसित की थीं/
(इस तरह बनी थी एक दुनिया कविता का अंश)।
अद्यतन संग्रह राजधानी में एक उज़बेक लड़की (2012) में यह काव्य-भाषा और धारदार मिलती है :
पत्ते कभी पीले नहीं होते
नहीं छिपाना पड़ता
नारियल को अपनी सफ़ेदी
नाटक के सारे पात्र
पत्थरों में आत्मा का संचार करते
नदियाँ रोतीं नहीं
और समुद्र हुँकार नहीं भरते
शब्द बासी नहीं पड़ते
और संदेह के दायरे से प्रेम
हमेशा मुक्त होता
(एक डरी और सहमी दुनिया में /पृ. सं. – 9)।
लेकिन कहन के स्तर पर कवि संवेदना की नव्यता और आधुनिकी पर जितना श्रम करते दिखते हैं उतना जन-जीवन के भीतर मौजूद द्वन्द्वात्मक वर्ग-संघर्ष को व्यक्त करने में नहीं। जन की बदहाली और समय की मार कई कविताओं में एक वक्तव्य बनकर रह गई है जो केवल संवेदन-नवता के कारण ही पाठक के अंतस्थल को छूने का प्रयास करती है पर यह जनवादी कविताओं का शुभ लक्षण नहीं, उनके सेंसर्स हैं। हालाकि इसे कवि का रूपवादी झुकाव तो नहीं कहेंगे, पर यहाँ कवि को सचेत होने की जरूरत है। अरविन्द श्रीवास्तव का कवि भाषा और कथ्य में नागार्जुन और ब्रेख्त को जरूर अपना साध्य बनाते हैं, उनसे प्रेरणा लेते हैं पर जन-सरोकार के परिधि में ही भ्रमण करते दिखते हैं, कभी उसके केंद्र तक नहीं पहुँच पाते। व्यवहार में वे कवि केदार नाथ सिंह की वाग्मिता और चमत्कृति जैसे कविता के गुणधर्म को अपनाते ही दिखते हैं।
अगर कोई मुझसे यह पूछे कि कविता के रूप और कथ्य में आप किसे ज्यादा अंक देंगे तो मैं  कथ्य को दूंगा। रूप कथ्य का अनुगामी है। कथ्य से ही कवि के उद्देश्य और कविता के सौंदर्य का निर्धारण होता है। जब गीत चतुर्वेदी और बाबुषा कोहली जैसे युवा कवि कथ्य की जगह रूप को तरज़ीह दे रहे हों तो उनकी कविताएँ चाहे महफिल में जितनी तालियाँ बटोर लें, अंतोगत्वा कहीँ जा कर ठहरेगी नहीं क्यों कि कविता में कथ्य  ही जीवन और मनुष्यता को रचता है, रूप तो उसका आवरण मात्र है, मन-रंजन है, साज–श्रृंगार  भर है। कविता में आज लोकधर्मिता और जनवाद की वकालत भी उसके कथ्य के कारण ही की जाती है। साहित्य में केवल सौंदर्य–उत्सर्जन और जन के सतही पक्ष से काम नहीं चलता, लेखक की प्रतिबद्धता और उसमें मौलिकता ही मुख्य चीज होती है जो किसी कवि या लेखक की रचना को पठनीय और दीर्घजीवी बनाती है। उधार का तर्क और तथ्य तो एक न एक दिन सूद समेत लौटाना होता है। इसलिए रचना में ईमानदारी का बहुत महत्व है। दूसरी ओर, यह भी सही है कि कविता का सौंदर्य और रूप, उसकी कहन और भंगिमा उसका रूपवाद नहीं होता। जीवन को पीछे करके प्रत्यक्षतः या परोक्षतः केवल रूप की वकालत करना रूपवाद है। जरूरी नहीं कि हर कविता में संघर्ष और द्वन्द्व हो ही, जीवन की हर गति में सौंदर्य निहित होता है। किसी एक ही ढर्रे और ढंग में ढली कविता अगर लगातार लिखी जाए तो पाठक को उससे ऊब होने लगती है। अपने ढंग और ढर्रे को बदलते रहना कविता की सम्प्रेषणीयता से जुड़ा एक बड़ा सवाल है जिस पर कवि का ध्यान जाना चाहिए। इससे उसकी जड़ता ही भंग नहीं होती, पाठकों की अरुचि का शिकार होने से भी कवि बच जाता है।
उपर्युक्त संदर्भ में अगर अरविन्द श्रीवास्तव की ऊपर उद्धृत कविताओं का परीक्षण करें तो पाएंगे कि कवि की भाषा परिवेश के यथार्थ को व्यक्त करने में जितनी प्रगल्भ और अचुक दिखती है, कवि उस भाषा-सामर्थ्य का उपयोग जन-प्रतिबद्धता के अवगाहन में शायद ही कर पाया हो! देखिए, कवि का एक कवितावक्तव्य –
बेहद खूबसूरत था वह परदा
 जिसके पीछे
 चलती थी साजिश
 हत्या की..
यहाँ बेशक कवि का ध्यान पर्दे की खूबसूरती पर अधिक है। शब्दों की चकमेबाजी में कवि की प्रतिबद्धता कितना व्यंग्य है, कितना हकीकत, यहाँ उनकी एक छोटी कविता में दृष्टिगत है:
बल्ब-बत्ती
सीएफएल–नियोन
और कितना दंडित होगा अंधेरा!
(अंधेरा‘/पृ.78)।
कवि को अंधेरे के दंडित होने का विस्मय क्यों है, वह कथन का विस्तार कर अपने कथ्य को स्पष्ट क्यों नहीं करना चाहता, यह गौरतलब है। इसी प्रकार, बदहाल धरती पर बारिश की बूंदों में कवि का सौंदर्य-चेतस मन जिस अनुभूति का आकांक्षी है, वह जनवादी कविता में एक अरण्य-संलाप से अधिक क्या कहा जाएगा ?
“काव्यवाचक सुनाता है पृथ्वी प्रेम के गीत
और तभी गर्भित बादल करते हैं प्रसव
बूंदें, फूस की छप्परों पर
अंधेरी रातों में
उठती है जुगलबंदी बूंदों की
किसी खाली बर्तन में
संगीत की स्वर-लहरियाँ
टप टपाटप टप टपाटप….. ।”
(बूंद /पृ.49)।
बारिश के बूंदों की जुगलबंदी से अरविन्द का कवि किसी खाली बर्तन में टप-टप आवाज की स्वर-लहरियों से जो गुणने का प्रयत्न करता है उसे अगर उनकी बुर्जूआ सौंदर्य-दृष्टि न माने तो भी कवि की जनपक्षधरता पाठक के मन में संशय का एक घेरा बनाती है जो निरापद न होकर कवि को यशकामिता और भटकाव के दायरे में ले जाती देखती है, कवि के पूरे काव्य संसार में कहीं भी आपको वर्ग-संघर्ष और श्रमशील जन-सौंदर्य और लड़ते-भिड़ते जन का रूप नहीं मिलेगा, मरते-खपते और समय की विद्रूपता में घुटने टिकाते लोग ही मिलेंगे जो इनकी कविताओं के जनवादी लोक को कमजोर बनाती है। फिर भी अरविन्द श्रीवास्तव की कविताएँ जो काव्याकाश रच रही है वह उनको आगे ले जाने का मार्ग तो तलाश ही रही पर गंतव्य तक पहुंचा नहीं रही। इस बिन्दु पर कवि को बहुत सचेत और सावधान होने की जरूरत है।

 

सुशील कुमार
संपर्क : 
सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची
झारखण्ड 834004
      
मोबाईल (0 90067 40311 और 0 94313 10216)

(आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

सुशील कुमार का आलेख ‘कविता की आलोचना का अर्थ और कवि की आत्ममुग्धता के खतरे’


सुशील कुमार

 

 

कोई रचना कभी भी आलोचना से परे नहीं होती लेकिन यह भी आज आसान नहीं समय की जटिलताओं के साथ-साथ मन-मस्तिष्क की जटिलता भी बढी है हमें अपनी रचना की बड़ाई तो बढ़िया लगती है लेकिन हम किसी की आलोचना के एक शब्द तक को पचा नहीं पाते आत्म-मुग्धता हममें इतना अहमकपना भर देती है कि अपने लेखन के अलावा सारा कुछ दोयम दर्जे का लगता है यह स्थिति उस रचनाकार के लिए अत्यन्त खतरनाक होती है वस्तुतः यह मनोरोग की तरह की स्थिति होती है जिसमें कवि किसी की बात को सुनने-समझने के लिए तैयार ही नहीं होता, आत्मालोचन की बात ही अलग है मुझे लगता है कि हर रचनाकार के लिए समय-समय पर अपने लिखे पढ़े को खुद आत्मालोचित करने का प्रयास करना चाहिए इसके लिए खुद के प्रति निर्मम होना पड़ेगा बहरहाल कवि-आलोचक सुशील कुमार ने इन्हीं मुद्दों को ले कर ‘कविता की आलोचना का अर्थ और कवि की आत्म-मुग्धता के खतरे’ विषय पर एक सुचिन्तित आलेख ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए लिख भेजा है आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुशील कुमार का यह आलेख            

कविता की आलोचना का अर्थ और कवि की आत्ममुग्धता के खतरे

सुशील कुमार

इस बात से हर कोई सहमत होगा कि साहित्य के साथ-साथ साहित्यालोचना भी ज़रूरी है। दीगर है कि एक अच्छी आलोचना रचना से कमतर नहीं होती जिसे पढ़ कर सृजन-प्रेमी न केवल अघाते और फूले नहीं समाते बल्कि उससे बेहतर सृजन के गुर भी सीखते हैं। वस्तुत: ये ही वे आँखें हैं जो राह दिखाती हैं कि हमें किधर जाना है, वर्ना हमारे लिये अमूर्तन के अँधेरे में गुम हो जाना बहुत आसान है। इससे कवि की जड़ता टूटती है, उसे अपने सृजन के दौरान हो रहे चूक का पता चलता है हालाकि यह बात भी सही है कि अपनी रचना का व्यामोह और आत्ममुग्धता तो बड़े से बड़े कवियों में भी समूल नष्ट नहीं हो पाती, उनमें से कुछ तो अपने सिवाय किसी को सुकवि मानते ही नहीं, फिर भी कवि की आत्ममुग्धता के बरअक्स उसकी कविता के मूल्यांकन के जो अंत:संघर्ष हैं, उससे समालोचक को दो-चार होना पड़ता है।
      जब कवि की आत्ममुग्धता पर कुछ सुधिजनों से युवा लेखक उमाशंकर सिंह परमार से राय जानना चाहा तो उन्होंने कुछ इस तरह व्यक्त किया –
      आत्ममुग्धता किसी को भी फर्जी श्रेष्ठताबोध से ग्रसित कर देती है और श्रेष्ठताबोध अहंकार मे बदल जाता है…। –उमाशंकर सिंह परमार की 05 फरवरी, 2016 की फेसबुक पर पोस्ट और प्रतिक्रियाएँ :
·         बात बोलेगी…और बात ही बोलेगी… बेबात को नष्ट होना ही है भाई– अनवर सुहैल
·         हर कवि को अपनी आलोचना सुनने को तैयार रहना चाहिए, भले ही आलोचना प्रायोजित या पूर्वाग्रह-ग्रस्त हो कविता प्रकाशित होने के बाद सार्वजनिक वस्तु में बदल जाती है उस पर राय कोई भी दे सकता हैपर राय देना कविता का वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं होता कविता का मूल्यांकन वही कर सकता है जिसने कविता को गहरी दृष्टि से समझा होसिर्फ राय देने को मूल्यांकन नहीं समझ लेना चाहिए देखना यह है कि जो कविता पर राय दे रहा है उसकी पहुँच कहाँ तक हैआलोचना भी एक कठिन रचना-कर्म है उसे सब कोई नहीं निभा पाते आत्म- मुग्धता एक रोग है जो लेखक को जीवन और समाज के बड़े सामाजिक सरोकारों से दूर ले जाता हैआत्ममुग्ध हम तभी होते हैं जब अपने सामाजिक यथार्थ से दूर जाते हैं यह एक प्रकार से लेखक की आत्म-रिक्तता का लक्षण है इससे बचना चाहिएविजेंद्र
·         यह आत्ममुग्धता ही अहंकार की जड़ है और अहंकार ही अधोगति का जनक है। ज़मीन से जुड़ा व्यक्ति ऊंचाई की ओर और आसमान में उड़ता व्यक्ति ज़मीन की र ही आता है। इस तथ्य को समझना सभी के लिए आवश्यक है।- रामकृष्ण शर्मा
उपर्युक्त बातों से यह तो साफ है कि रचना के प्रकाशन के उपरांत उस पर कॉपीराइट भले ही लेखक-प्रकाशक का हो, पर वह सार्वजनिक हो जाने के कारण उस पर राय देने से किसी को रोका नहीं जा सकताकिन्तु वह राय कवितालोचना में मान्यता तब पाती है जब वह समालोचना के दायरे में आए समग्र रूप में सृजन को परखने को आलोचना या समालोचना कहते हैं। अतः हम किसी भी रचना के मूल्यांकन को आलोचना कह सकते हैं। आलोचना कवि और पाठक के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी होती  है। कोई भी रचना अच्छी है या बुरी, यह निर्णय देना आलोचना नहीं है। लोचना का उद्देश्य तो रचना का प्रत्येक दृष्टि से मूल्यांकन कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। साथ ही पाठक की रुचि का  भी परिष्कार करना इसका धर्म होता है, ताकि उसकी साहित्यिक समझ का विकास हो। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत रागद्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे वह तभी वस्तुनिष्ठ हो कर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। पर इस दृष्टि से समालोचना कवि की आत्ममुग्धता का विपर्यय भी बन सकता है
अहम सवाल यह है कि कवि में आत्ममुग्धता का बीज-वपन होता कैसे है अंतर्जाल पर रोज सैकड़ों कविताएं पढ़ी-लिखी जाती हैं आजकल फेसबुक भी इसका एक सशक्त माध्यम बन गया है जिस पर गंभीर कवि भी लगातार जुड़ रहे हैं पर जैसे-जैसे लेखक सामाजिक यथार्थ से दूर जाता हैं, उसमें एक आत्म-रिक्तता आती चली जाती है उसके लेखन के कार्य-कारण और उद्देश्य स्पष्ट नहीं रहने के कारण वह अपने निर्रथक कर्म को भी सार्थक मान बैठता है और जब कोई उसे उसकी यथास्थिति से उबारना चाहता है, तो वह उसके विरोधियों में शुमार हो जाता है अतएव कवि की आत्ममुग्धता समालोचना के आत्म-संघर्ष से जुड़ा विषय है जिसके खतरे उठाना एक समालोचक के साहित्यिक साहस, उसके उत्कट लगन, गहन-गंभीर अध्ययन और चरित्र-निष्ठा का भी प्रमाण है इसी कारण यह कार्य जटिल हो जाता है और हिन्दी साहित्य में समालोचकों की कमी खलती है फलत: कवि की आत्ममुग्धता पर अंकुश रखने वाला कोई होता नहीं और कवि अपनी रचनाओं का निर्णायक स्वंय बन बैठता हैदूसरी ओर, कटाक्ष करने के बजाय निस्पृह हो कर कविता की समीक्षा करना भी कम कठिन कार्य नहीं।
जहाँ तक सृजनात्मक और रचनाधारित आलोचना का प्रश्न है, सामान्यतया हमारे आलोचकों की अध्ययन-परम्परा भी गहन-गंभीर और संदर्भमूलक नहीं रही है, इतिहास इसका गवाह है, जिनकी रही भी है तो उनके द्वारा नए रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व को माँजने और गुनने के बजाय उनके संबंध में अपनी नकारात्मक टिप्पणियाँ और निष्कर्ष ही अधिक दिये जाते रहे हैं। जो काव्य के पारखी-आलोचक हैं, उनमें से भी कई अपने यशस्वी मायालोक से इतने ग्रस्त होते हैं कि उनका आलोचना-विवेक लगभग आलोचना-अहंकार का पर्याय बन जाता है और वे भी आत्ममुग्धता के शिकार हो जाते हैं। अपने-अपने पूर्वाग्रह, विवाद, सुविधाओं के लालच और दुराग्रहों के कारण वे आलोचना की खास ज़मीन और वज़ह खोजते हैं, इस कारण तटस्थ नहीं रह पाते। संभवत: इन्हीं कारणों से हिन्दी काव्य-संसार का अब तक न तो समग्र मूल्यांकन हो पाया है,   कवियों की प्रतिष्ठा ही हिंदी साहित्य में उस तरह से हो पायी है जिसके वे सही मानो में हक़दार थे या हैं। यह अभिलक्षण अन्य भाषा-साहित्य की तुलना में हिन्दी में अधिक दृष्टिगत होता है जो इस साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। पर अब शायद आज़ादी के छ: दशकों के बाद समालोचकों की नींद शनै:-शनै: खुल रही हैं। पुराने धाक़ वाले आलोचक की जगह नये आलोचक ले रहे हैं, इस क्षेत्र में संप्रति कई प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों का अभ्युदय हुआ हैं (संख्या की दृष्टि से यहाँ नाम गिनाना उचित न होगा) जिनकी समीक्षा-कृति न तो कहीं से यांत्रिक है, न उबाऊ। लोक में इनकी गहरी आस्था है, इसलिए जीवन और साहित्य को बेहतर बनाने की दिशा में इनकी समालोचनाएँ सतत क्रियाशील दिखती हैं। इन सबकी अपनीअपनी ज़मीन हैं पर बहुत उर्वर, जहाँ हम कुछ सीख सकते हैं, समझ सकते हैं और उससे लाभ उठा कर अपनी रचना का प्रसन्न विकास भी कर सकते हैं। कई कवि भी ऐसे हैं जिन्होंने अपने आलेखों के माध्यम से कविता का समुचित मार्गदर्शन किया है अथवा कहें, इनके आलेख क्लासिक आलोचकों की तुलना में अधिक ग्राह्य और पठनीय भी बन पड़े हैं जिन्होंने जीवन-पर्यन्त कवि-कर्म का निर्वाह करते हुए अपने विचारों में कविता के सौंदर्य-शास्त्र और उसके आत्म-पक्ष पर गहरी और बुनियादी बातें कही हैं।
इन कवि-लेखकों में सार्वजनीन अभिलक्षण है – लोकधर्मिता और जनपदीय चेतना, जो रूपवादी नव्य समीक्षा की तुलना में हमारे आभ्यांतर को बाह्य-जगत से मात्र मन-बुद्धि के स्तर पर ही नहीं जोड़ता बल्कि क्रियाशील जीवन के ऐन्द्रिक बिम्ब, विचार-खनिज और जीवन-द्रव को ठीक से आत्मसात करने के लिये हमारे इन्द्रिय-बोध को ज्यादा प्रखर बनाये रखने के लिये सदैव सचेष्ट रहने के उपाय पर भी बल देता है। साथ ही हमें आशान्वित करता है कि आने वाले समय में प्रतिबद्ध कवियों के साथ न्याय हो सकेगा।
              हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए  कि कविता की कोई एकोअहम  द्वितीयोनास्ति आलोचना पद्धति नहीं होती। नामवर सिंह ने जवाहरलाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रथम पुनर्नवा पाठ्यक्रम में दि. 14 अक्तूबर, 1993 को उन्होंने भाषण देते हुए कहा था कि –
      “किसी सिद्धांत का सहारा ले कर यदि कविता को जाँचेगे तो खतरे हैं। चूक हो सकती है। गलतियाँ हो सकती हैं। …. निष्कर्ष के रुप में मैं यही कहूँगा कि कुल मिला कर मैंने आपको कोई निष्कर्ष नहीं दिया है। आपको कोई  केनन नहीं दिया है। मैंने सिर्फ़ यह कहना चाहा है कि कविता के परख के जो निकष हैं, वह चाबी नहीं है कि हम आपको दे दें कि ताला खोल लीजिएगा। यह हस्तांतरित नहीं किया जाता। अर्जित किया जाता है। हर पाठक अर्जित करता है। यह टिकट  नॉन ट्रांसफरेबल है। फिर भी हमलोग ट्रांसफर कर दिया करते हैं। कविता का निकष  नॉन ट्रांसफरेबल  होता है। हर पाठक, हर सहृदय पाठक स्वयं अर्जित करता है। और वह जजमेंट अपना हुआ करता है। दूसरों की दी हुई चाबी से खोले जाने वाले कमरे और होते हैं और ताले भी और हुआ करते हैं। कविता वह ताला है जिस ताले में हर आदमी किसी दूसरे की दी हुई चाबी नहीं लगाता है। बल्कि खुद अपने-आप खोलता है। अर्थ, रस, भाव-बोध प्राप्त कर के और अपना जजमेंट देता है कि मुझे ऐसा लगता है कि हर जजमेंट इस मामले में निहायत इंडीविजुअल (व्यक्तिगत) होता है। और उस जजमेंट में, अपनी साधना में जितनी ताकत होती है उतनी ही उसको सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होगी। 
         
      नामवर सिंह के उक्त विचार-वीथियों पर अगर हम गौर करें तो कविता का कोई निकष नहीं होता, पर इतिहास इसका साक्षी है कि रीतिकालीन कवियों की काव्य-साधना में भी ताकत कम न थी। न उनके शब्दों में जादू, लर्जिश और खनक ही कम थे पर उनकी रचना को कभी सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली। कभी वे जनप्रिय नहीं हो पाए क्योंकि यह कहने की जरूरत नहीं कि उनकी रचना के केंद्र में कौन था और साहित्य का उनका यह तप-साधना-श्रम किनको समर्पित था। हिन्दी कविता-काल की विपुल विरासत में हम कविता की जिन-जिनप्रवृतियों यथा; रीति, भक्ति, छायावाद, प्रगतिशीलता, प्रयोगधर्मिता, रूपवाद आदि-आदि से रु-ब-रु होते हैं, हम उनके सामयिक महत्व को तो नहीं नकार सकते पर जनपक्षधरता ही कविताओं का सर्वाधिक लोकप्रिय अभिलक्षण रहा। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि सभी प्रतिमानों में लोकधर्मिता अब तक कविता की सबसे सशक्त और समय-सिद्ध प्रतिमान है क्योंकि कविता जब अपने खनिज, सत्व और जल जनपद से ग्रहण करती है तो वहाँ लोक का सौंदर्य उद्भासित होता है। तब कवि के सारे शब्द, शैली, शिल्प, मुहावरे कविता में लोक से ही आते है और जन के पक्ष में रूप का सृजन करते हैं। रामचरित-मानस के राम के लोकमंगलकारी रूप की छवि जब रामचन्द्र शुक्ल जी ने आलोचना के माध्यम से जनोन्मुख किया, तभी तुलसीदास संत से महाकवि बन पाए। अतएव कविता का रूप-संभार चाहे जितना ही अनगढ़ क्यों न हो, कविता जब जन को रचती है, अभिजन को नहीं, तो वह सार्वजनिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक हो जाती है। अब तक की कवितालोचना में यही बात दीगर है जो हमें जनता का साहित्य रचने की प्रेरणा देती है। पर इस बात की कद्र तभी होगी जब समालोचक जैसा कहते हैं वैसा करें भी। यानि उनकी कथनी और करनी में भेद न हो। पर होता यह आया है कि स्वार्थपरता और अन्यथा कारणों (जिनका जिक्र लाज़िमी न होगा) से हमारे कुछ समालोचक संवाद की ज़गह विवाद को ही प्रश्रय दे जाते हैं। इस कारण बड़े-बड़े कवि भी गुमनामी के अँधेरे में चले जाते हैं।  मसला यह है कि अगर हमारे नामचीन आलोचक-गण (जिन्हें हम जानते हैं,) कविता के विषय में इतने ईमानदार, सहृदय और उदार रहे हैं तो फिर उनके द्वारा  त्रिलोचन, नागार्जुन, विजेन्द्र, कुमारेन्द्र, केदार नाथ अग्रवाल, गोरख पाण्डेय, धूमिल, पंजाबी कवि अवतार सिंह संधु `पाशजैसे बड़े कवियों को समीक्षा के केन्द्र में क्यों लाना भूला दिया गया? उनके काव्य-सौष्ठव की व्याख्या से क्यों परहेज किया गया और सिर्फ़ भूलाया ही नहीं, बल्कि रुपवाद और उपभोक्तावाद को प्रश्रय देने और अपने किये को उचित ठहराने के लिये उनके द्वारा निरंतर विचलित करने वाले स्पष्टीकरण भी दिया जाता रहा है, जिससे उनके आलोचना-कर्म के प्रति हिंदी-प्रेमियों में‍ आशंकायें दिनानुदिन गहनतर होती चली गयी क्योंकि छोटे और मँझोले कवियों को जो दर्ज़ा उनके द्वारा हासिल हुआ, वह बड़े और कालजयी रचना के रचनाकारों को नहीं। हिंदी के आधुनिक काल में उनके रुपवादी झुकाव की त्रासद स्थिति यह रही कि कविता की एक धारा सहज और संश्लिष्ट न हो कर दु्र्बोध और जटिल हो गयी। निश्चय ही हमारे लब्ध-प्रतिष्ठ समालोचकों के द्वारा भी कवितालोचना के क्षेत्र में जाने-अनजाने कहीं-न-कहीं चूक बरती गयी है जिसे वे भी अब स्वीकारते हैं पर इसका मतलब यह नहीं कि उनका हिंदी साहित्य को अवदान कम है। उनके व्यापक अध्ययन और समालोचना-दृष्टि से अवश्य ही कवियों को आगे आने में सहायता मिली है। पर समालोचना आज साहित्य के जिस चौराहे पर खड़ी है वहाँ कविता और कवि-कर्म को बहुत गंभीर होने की जरुरत है। इस पर बहस हमेशा अपने भारतीय परिवेश में ही होनी चाहिए।
उत्तर-आधुनिक और ग्लोबल होती दुनिया में कविता को सबसे बड़ा खतरा आज आयातित रूपवाद और नव-रीतिवाद से है क्योंकि यहाँ चमत्कार-प्रदर्शन, वाकपटुता और सपाटबयानी का आधिक्य होता है जो कविता को सरस बनाने के बजाय बोझिल बनाते हैं और उसकी लय और उसके बुनावट को बिगाड़ते हैं जिससे कविता के पाठक एक ओर जहाँ  बिदकने लगते हैं, वहीं दूसरी ओर जीवन-तत्व का सांगोपांग समाहार नहीं होने एवं सृजन का जनाकीर्ण नहीं होने के कारण कविता अन्यतम होने से चुक जाती है और काव्य-तत्वों की अनुभवहीनता का शिकार होकर कवि नकली और किताबी कविता को ही लिखकर अपने कवि-कर्म की इतिश्री मान लेता है, फलत: परिदृश्य में फालतू कविताओं की बाढ़-सी आ जाती है। आज रोज़ थोक में लिखी जा रही कविताएँ इसका प्रमाण है जो साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठ बरबाद करती हैं, और पाठकों का समय भी। कई ब्लॉगों और सोशल-नेटवर्किंग वेबसाईटों पर भी ऐसी फालतू किस्म की कविताएँ क्षण-क्षण छपती रहती हैं। 
              
उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि समालोचना और समीक्षा अब पुनर्नवा होने की जरूरत है। कविता पर कोई जजमेन्ट नहीं थोपा जाना चाहिए। समालोचना कोई तुला या निकष नहीं कि अमूक रचना ठीक है या अमूक ख़राब और कमजो़र। समालोचक किसी दूसरे उपग्रह का वासी नहीं, इसी रचे-बसे लोक का हिस्सा है, इसलिए समालोचकों का मूल मक़सद अपने कवियों से सार्थक संवाद करना होना चाहिए, उनका उत्साह-वर्द्धन करना होना चाहिए। न कि विवाद और बहस खड़ा कर उनका हौसला कम करना। अर्थात उनसे हम कवियों को कुछ सीखना है, आगे बढ़ना है।
अगर समालोचक कविता की दुनिया पर आसीन होकर उसका सामंत बन जाय और बिना कारण बताये ही कवियों की रचना पर अपनी लेखनी के चाबुक जड़ें तो कवियों को भी यह समझने की जरुरत है कि ऐसे राजसी-तामसी-सामंती-उपभोक्तावादी-पाश्चात्यवादी समालोचकों को नकार कर उन अध्ययनशील-श्रमशील भारतीय चित्त और माटी की गंध से जुड़े समालोचकों से अपने तार जोड़ें जो कविता को सही ज़मीन देने की दिशा में कारगर काम कर रहे हैं। कविता में आलोचना के निष्पक्ष और प्रसन्न विकास के लिये नये और विकासशील कवियों के मन में यह विचार फलित होना चाहिए ताकि नकारात्मकता का प्रकटीकरण भी समालोचना में संतुलित और सकारण युक्ति के साथ ही गोचर हो जिससे कवितालोचना की स्वस्थ और आदर्श परम्परा एवं दशा-दिशा तय की जा सके।
मैं समझता हूँ, इस तरीके को अपना कर संप्रति कविता पर किये जा रहे निगेटिव आलोचना-कर्म के खतरे से युक्तियुक्त रीति से निपटा जा सकता है।
मसलन, लोकतंत्र में पुलिस अपराध पर नियंत्रण रखने की एक संस्था मानी जाती है, पर पुलिस कितनी ईमानदार है, इसे देखने का जितना हक़ शासन और न्यायपालिका को है उतनी ही जनता को भी। बंदिशें तो सब पर लागू करनी होगी ताकि सब अपने अनुशासन के दायरे में रहें और अपना काम नि:शंक करें। तभी साहित्य या कहें, कविता की समालोचना की सही संकल्पना विकसित हो पायेंगी।
      आह-आह, वाह-वाह, बेहरतरीन, मर्मस्पर्शी, मनभावन, इत्यादि शब्द पाठकों के होते हैं। कविताओं को पढ़ कर उनके दिल में भावनाओं का जो गुबार उठता है, उन्हें वे व्यक्त करने की कोशिश करते हैं। हालाकि वे समीक्षक की तरह नहीं कह पाते, पर उनकी ही प्रतिक्रियाओं का ही महत्व अहम होता है क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियाँ प्रायोजित नहीं होतीं। समीक्षा में तो कविता के कारण-विधान किये जाते हैं कि अमूक रचना की श्रेष्ठता और लोकप्रियता के कौन-कौन से कारक व तत्व विद्यमान हैं। पर समीक्षक ही संप्रभु नहीं है, वे मात्र साहित्य के जनतन्त्र में उस सरकार की तरह हैं जिसे प्रबुद्ध पाठक का मत हासिल होता है क्योंकि कविता उनके खातिर ही रची जाती है।•
सम्पर्क-

सहायक निदेशक,

प्राथमिक शिक्षा निदेशालय

स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग

एम डी आई भवन (प्रथम तल)

पो.-धूर्वा

रांची (झारखंड – 834 004)

मोबाईल न.

094313 10216 (ऑफिस)

090067 40311 (आवास)

सुशील कुमार की कविताएँ

भाषा शब्द बन कर कवि के पास कैसे आती है इसे जानने के लिए आपको कवि के घर जाना पड़ेगा जो अपने घर में रहते हुए भी प्रकृति से जुड़ा होता है. हो सकता है आपको वहाँ भौतिक सुविधाओं का अभाव दिखे, लेकिन आत्मीयता की सुगन्ध और समृद्धि आपको वहाँ जरुर दिखाई पड़ेगी.  ऐसी ही समृद्धि से युक्त सुशील कुमार की कविताएँ आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं. आईए पढ़ते हैं सुशिल कुमार की कविताएँ – 

कवि का घर

(उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी )
किसी कवि का घर रहा होगा वह
और घरों से जुदा
और निराला
जहाँ चींटियों से ले कर चिरई तक उन्मुक्त वास करते थे  
चूहों से गिलहरियों तक को जहाँ हुड़दंग मचाने की छूट थी  
बेशक उस घर में सुविधाओं के ज्यादा सामान नहीं थे  
ज्यादा दुनियावी आवाज़ें और हब-गब भी नहीं होती थीं   
पर वहाँ प्यार, फूल और आदमीयत ज्यादा महकते थे
आत्माएँ ज्यादा दीप्त दिखती थीं  
साँसें ज्यादा ऊर्जस्वित   
धरती की सम्पूर्ण संवेदनाओं के साथ
प्यार, फूल और आदमीयत की सु-गंध के साथ
उस घर में अपनी पूरी जिजीविषा से
जीता था अकेला वह कवि-मन बेपरवाह 
चींटियों की भाषा से परिंदों की बोलियाँ तक पढ़ता हुआ  
बाक़ी दुनिया को एक चलचित्र की तरह देखता हुआ  
तब जाकर कहीं भाषा
एक-एक शब्द बन कर आती थी उस कवि के पास
और उसकी लेखनी में विन्यस्त हो जाती थी  
अपनी प्रखरता की लपटों से दूर, स्वस्फूर्त हो
कवि फिर रचता था उनसे एक नई कविता|

हमारे सपनों का मर जाना

खुली आँखों में सच होता है 
बंद आँखों में सपना
सपने अदृश्य होते हैं
पर बेहद आस-पास होते हैं –
जैसे फूल में मकरंद
जैसे श्वास में प्राणवायु  
हालाकि सपने सच नहीं होते,
पर सच की कोख से जनमते हैं
और सच से बड़े होते हैं
सपनों में धवल-धूसर कई रंग होते हैं 
जोश होता है, जज़्बा होता है
और सच का भविष्य पलता है
सबके अपनेअपने सपने होते हैं  , 
नदी के सपनों में जल, मछलियाँ, मल्लाहों के गीत और पनहारिनों का मुखड़ा आता होगा
पहाड़ के सपनों में आते होंगे जंगलझरने,  मेघ, पशु-पंछीहिमपात 
समुद्र के सपनों में चंचल नदियाँ, गिरती-उठती लहरें और जलयात्राओं के साहसिक किस्से 
हिरणों को हरी घास, चिड़ियों को दाना,
मोर को सावन की घटा  और मधुमक्खियों को फूलों के सपने आते होंगे 
किसानों को आते होंगे लहलहाते खेत और पकी हुई बालियों के सपने
लोग कहते हैं
सपने वे नहीं होते जो जागती आँखों में आते
सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते 
ऐसे में अपनों के गुजर जाने की तरह गहरा दु;ख होता है –
किसी के सँजोये सपनों का मर जाना
 
फिर दु:स्वप्न का दौर-सा चलता है –
तब वह नदी रेत से भर जाती है / मछलियाँ तड़पकर मर जाती हैं  
गीत में दु:ख समा जाता है / पहाड़ ठूँठ हो जाता है, नीड़ उजड़ जाते हैं
उस समुद्र को सुनामी का अंदेसा होता है, दरियाई घोड़े और शार्क नजर आते हैं
हिरणों को बाघ, चिड़ियों को बहेलिये का बिछाया जाल दिखता है
और वे मधुमक्खियाँ देखने लगती हैं अपना उजड़ा हुआ छत्ता
विष खाकर किसान भी अपने खेत की मेड़ पर लेट जाता है  
सपनों के टूटने-बिखरने का दु:ख शायद उतना गहरा नहीं होता
जितना गहरा होता है हमारे सपनों का मर जाना|
  
चिड़ियों का प्रेम
पहले-पहल जब चलना सीखा 
और माँ की गोद से उतर 
देहरी पर पहला पाँव रखा
तो दालान में चिड़ियों को देखा
अपनी चोंच में तिनका दबाये 
घोंसला बुनने में मगन थीं
कभी चोंच से अपने बच्चों को दाना चुगा रही थीं 
तो कभी चोंच मारकर अपनी बोली में उसे
फड़फड़ानाउड़ना-फुदकना सीखा रही थीं 
सचमुच इतने कुसमय में भी नहीं बदला 
चिड़ियों का प्रेम|
 

कविता तुम्हारे भीतर

गौर से सुनो और महसूस करो कवि,
रेत के भीतर बह रही पहाड़ी नदी का स्पंदन
कोख में गिरते एक बूँद की हलचल
अंडों के भीतर सुगबुगाते पंछियों की आहट
अपने ही शरीर में कोशिकाओं के टूटने-बनने की क्रियाएँ 
मन के किसी कोने रूढ़ हो रहे शब्दों की तड़पन
फिर कहो, क्या कोई कविता नहीं आकार ले रही तुम्हारे भीतर

घनी आबादी वाले हिस्से में

पहाड़ से उतरती आड़ी-तिरछी ये पगडंडियाँ
नदी तक आते-आते न जाने कहाँ बिला जाती हैं
बलुई नदी पार कर रहे मवेशियों के खुरों की आवाज़
पहाड़ी बालाओं के गीतों के स्वर 
गड़ेरियों की बाँसुरी की धुन
माँदर की थाप
जंगली फूलों की गंध
पंछियों का शोर
– ऐसा कुछ भी नहीं जा पाता नदी के उस पार
– घनी आबादी वाले हिस्से में
सिर्फ़ जाते हैं वहाँ
कटे हुए जंगलकटे हुए पहाड़
और अपने घर-गाँव से कटे 
काम की खोज में  
पेट की आग लिए पहाड़ी लोग|

लकड़हारा और मैं

सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लादे
कमर कमान-सी झुकी
उस बूढ़े लकड़हारे का रास्ता रोक
जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ उससे
न जाने अपने जीवन के कितने वसंत देख चुका
वह बूढ़ा आदमी
लकड़ियों का बोझा धीरे से अपनी पीठ से उतारता है
फिर तनकर एकदम खड़ा हो जाता है
अपना पसीना पोछता है
मुझे देखकर थोड़ा मुसकुराता है
फिर सिर पर अपना बोझा लाद
पहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है |

अपने भूले-बिसरे साथियों को याद करते हुए 

हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हम-सब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे
सपनों के उजले पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर
जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी पर मस्तमौला थे बावरे थे हम
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे
आज न तुम हो  न हमारे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही गली-मुहल्ले में कैद
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल और संगीत कितना बदल लिया हमने |
 महुआ का पेड़
मेरी बारी में
महुआ का यह पेड़
दिन-दिन सूखता जा रहा है
अब फल नहीं आते उस तरह
न गमक ही उसकी फैल पाती
भीतर वाले घर – ओसारे और पास वाले ताल-तलैया तक
कंक-सा होता जा रहा है यह पेड़
तुम्हारे जाने के बाद 
कहती है माँ 
जब से तलैया का पानी सूखा है
सोनचिरैया भी
लापता हो गई इस पेड़ से
और पहाड़ के भूतों ने
यहाँ डेरा डाल दिया है 

 कौन देस चली गई
 
सोनचिरैया संग तुम
ताल का जल और महुआ की खुशबू उतार शहर को
किस जादू के वशीकरण-मंत्र से अभिभूत हो कर
कि गाँव लौटने का नाम नहीं लेती?

 सोनचिरई

फुदकती थी
बहुरंगी सोनचिरई
मेरे आँगन बहियार- तलैया पर रोज 
टुंगती थी दाना,
गाती थी गीत
और मुझसे मिलने
सोनचिरई के संग संग
गाती 
ठुमकती
चली आती थी तुम
उसे रोज दाना खिलाने के बहाने
फिर एक दिन वह उड़ गई
और कभी न लौटी
तुमने कहा
जरूर बहेलिये के जाल में
जा पड़ी होगी वह
सहसा विश्वास न हुआ मुझे
पर तुम भी जब न लौटी शहर से
अपने गांव
इतने बरस बाद
  तो सचमुच लगने लगा –
सोनचिरैया को
हमेशा के लिए
फाँस ले गए बहेलिये |


इस तरह मत देखूँ तुम्हें कि  

इस तरह मत देखूँ तुम्हें कि
कि अनदिखा ही रह जाय तुम्हारा रूप-लावण्य   
अनछुई ही रह जाय तुम्हारी आंतरिक बनक 
दबे ही रह जाएँ मन में हिलोरें लेती इच्छाएँ   
और अनसुने ही रह जाएँ वहाँ जनमते प्रेमसंगीत
रूप-रस और गंध तो मात्र 
देखनेसुनने और छुवन के ढंग पर निर्भर  है
और आँखों का दोष सिर्फ़ इतना है
कि वह देखते हुए भी
देख नहीं पाती  
अकस्मात तुम्हें पूरा-पूरा  
न मन ही एकबारगी पढ़ पाता  
तुम्हारे रूप के आवरण-आकर्षण में गुप्त प्यार-सनी   
गहरी धँसी इच्छाओं की जटिल ज्यामितियाँ
आँख से अधिक वह नजर चाहिए दीदार को कि
जब देखूँ तुम्हें तो कुछ इस तरह देखूँ
कि पूरा देखूँ तुम्हें,
और महसूस करूँ तुम्हें अपनी आत्मा के सम्पूर्ण अतिरेक से
सूँघूँ वैसे कि रजनीगंधा बिखर रही हो मेरे मन के आँगन में –
ठीक जैसे किसान देखता है
स्वेद-सिंचित धरती पर 
लहलहाते धान की बालियों के बीच 
अपनी पत्नी का खिला मुखड़ा
जैसे मोर देखता है गर्व से 
धमाचौकड़ी करता मेघ भरा बादल
जैसे मेहनती विद्यार्थी परीक्षा का
अपना सफल रिपोर्टकार्ड
देखकर हुलसता है
सुनूँ वैसे कि
साँप सँपेरा की बीन सुन डोलता है
और सूँघूँ वैसे,
जैसे महुआ की गंध से पहाड़िया
और जंगलजीव जाग उठते हैं   
और उनका मन
बौराने लगता है
प्रेम-हर्ष के तेज बयार में|
                  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स प्रख्यात चित्रकार राम कुमार की हैं, जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है.)

सम्पर्क- 

मोबाईल- 09431310216 


विजेन्द्र जी की किताब ‘सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ पर सुशील कुमार की समीक्षा


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किसी भी कवि को गद्य जरुर लिखना चाहिए. उसकी पहचान उसके गद्य से की जा सकती है. कवि का गद्य अन्ततः उसके कवि-कर्म को ही और निखारता है. विजेन्द्र जी हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने प्रचुर मात्रा में गद्य लेखन के साथ-साथ अद्भुत पेंटिंग्स भी बनाये हैं. कविता में सौन्दर्य दृष्टि को केन्द्र में रख कर विजेन्द्र जी की अभी-अभी एक महत्वपूर्ण किताब आई है सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ इस किताब पर एक बेहतरीन समीक्षा लिखी है हमारे कवि मित्र सुशील कुमार ने. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा   
कविता में सौंदर्य-दृष्टि (कवि विजेंद्र के बहाने)
पहले से बनी धूसर पगडंडियों पर
चलने वालों ने
मुझे करुणा भरी हिकारत से देखा
वे मेरे नाम से चौंके
मेरे उगान को रौंदा।
मैं चीजों को उलट-पुलट कर ही
आगे बढा़ हूँ।****
बडे़ इरादे वालों को
लाल पत्थर की चौहद्दियाँ नहीं रोकतीं
दूर चली आयी लीकों पर 
चलकर ही
मैंने अपनी राह खोजी है।
मुझे अब जाल समटने दो
अमरता की बूँदों के लिये
बेचैन चातक का कंठ चाहिए।”


(‘प्यार का कोई नाम नहीं कविता से‘/विजेंद्र)
लगभग अस्सी के वय पार कर चुके कविवर विजेंद्र के लगभग चार दशकों से उपर के दीर्घ कालखंड में समाये कविकर्म और सौंदर्यदृष्टि को देखकर यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि हिन्दी-काव्याकाश में निराला और त्रिलोचन की परंपरा के एक अत्यंत दृष्टिसंपन्न कवि के रुप में उनका अभ्युदय हुआ है जो आज अन्यत्र विरल है, और जिसकी दीप्ति एक लंबे अरसे तक कवियों और उनके पाठकों को आलोकमान करेगी।
       उनकी कविताओं के पीछे उनकी काव्यमीमांसा का अपना ठोस सैद्धांतिक पक्ष है जिसकी जडे़ इस देश की लोक-परम्परा में हैं। यहाँ विचारणीय बात यह है कि उनके चिंतन में विचार एक कवि के निकष पर कस कर आते हैं जो हमारे कवियों, खासकर युवा कवियों का सही और सटीक मार्गदर्शन करता है। विजेंद्र जी का सौंदर्यचिंतन मूलत: मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन ही है, पर भारतीय भावभूमि पर एकदम निरखा-परखा हुआ। वे अपने सौंदर्यचिंतन के समर्थन में जो कुछ भी कहते हैं, उसे साथ-साथ अपनी परम्परा और जातीय साहित्यनिष्ठा से प्रमाणित भी करते चलते हैं। इसलिये उनकी सोच बहुत साफ़ और बोधगम्य रही है। वे अंग्रेजी भाषा सहित्य के विद्वान भी हैं और उन्हें पाश्चात्य सौंदर्य-शिल्प का सघन ज्ञान है। पर यहाँ वे उन्हीं विचारों का आश्रय लेते हैं या समर्थन करते हैं जिनका अपना भारतीय मूल्य जीवित रह सकता है। इसलिये कहा जा सकता है कि विजेंद्र एक संस्कारवान सर्जक-चिंतक हैं जिनके यहाँ सौंदर्य-चिंता में विचार और उनकी कविता का स्वभाव सदैव एकमेक रहा है और जो किसी तृष्णा या लोभ में फँस कर अपने आसन से कभी च्युत नहीं हुए। उनके चिंतन में जो गहन पार्थिवता है उसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि उनका शब्दकर्म शुरु से ही जन का पक्षधर रहा है न कि अभिजन का। वे लोक और जन के प्रतिबद्ध रचनाकार रहे हैं। उनकी सौंदर्यदृष्टि में मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन लोक के सौंदर्यबोध के साथ इतना घुल-मिल कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है कि ऐसा विरल संयोग विजेंद्र और उन जैसे कुछ ही कवियों के यहाँ ही विपुलता से गोचर होता है, जबकि बुर्जुआ सौंदर्यशास्त्री भाषा की बात भाषा से शुरु करके भाषा पर ही समाप्त कर देना चाहते हैं यानि जीवन. प्रकृति, समाज से वंचित करके विचार को यथास्थिति की हद तक ही रखना चाहते हैं जिससे उनका विरोध है। वे सौंदर्यशास्त्र में गहनता से जीवन. प्रकृति और समाज का संस्पर्श करते हैं। और सिर्फ़ संस्पर्श ही नहीं करते, उसके भीतर आत्यांतिक सहजता और निस्पृहता से प्रवेशकर सौंदर्य का खनिज भी ढूँढते हैं। साथ ही एक चित्रकार होने के कारण उनकी चित्रात्मक सोच-शैली का प्रभाव भी उनके पूरे साहित्य पर पड़ा है। उनके चित्रों की तुलना उनकी कविता से करने से यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि कि उनके सारे चित्र भी एक तरह से अनबोलती कविताएँ ही हैं जिसमें लिपिहीन सौंदर्य का झलक मिलता है, जहाँ कहें कि इसकी सौंदर्यशास्त्रीयता में उनकी कविता के सौंदर्य का ही प्रतिरुप भासित होता है। अतएव उनके सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा का दायरा वृहत्तर और गहरा है जो उनकी सतत अध्ययनशीलता, निरंतर विकसित होती लोकपरक सौंदर्यदृष्टि और विचारप्रक्रिया की क्रमिक सुदृढता का परिणाम है।
       त्रास‘ (1966) से अपनी काव्ययात्रा आरंभ करने वाले इस मनीषी कवि की अब तक कुल तेरह कविता-पुस्तकें आ चुकी हैं । और गद्यकृति कविता और मेरा समय (2000) के बाद अब उनकी नई कृति सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ आयी है जो न सिर्फ़ कविता को गहराई से समझने का मर्म बतलाती है, बल्कि कवि-मन में आधुनिक भावबोध की लोकचेतना का संस्कार उत्पन्न करने का उपक्रम भी करती है जो मानसपटल पर देर तक टिक कर हमें रचना से जीवन तक सर्वत्र, उत्कृष्टता और उसमें जो कुछ सुहै उसकी ओर मोड़ता है जिसमें लोक-जीवन के सत्य-शिव-सुन्दर का प्रभूत माधुर्य भासित होता है। यहाँ पाश्चात्य जीवन शैली से उद्भूत बुर्जुआ सौंदर्य-दृष्टि नहीं, वरन एक भारतीय मन की ऑंख से देखा-परखा गया विरासत में मिला वह लोकसौंदर्य है जहाँ भारत की आत्मा शुरु से विराजती रही है पर उसको देखने-गुनने वालों को पिछडा़ और दकियानूस कह कर दुत्कारा गया है।
       एक ऐसे जनविरोधी समय में जबकि, कुंठा-संत्रास-तनाव के वातावरण में मध्यमवर्गीय विचार से सृजित सौंदर्यशास्त्र के निकषों पर रची जा रही कविताएं दृश्य में देर तक नहीं ठहर पा रहीं और बाजारवाद की ऑंधी में बिखर जा रही हैं, विजेंद्र की सौंदर्यदृष्टि और उनकी कविताओं की अलग पहचान होनी स्वाभाविक ही है जो हमें तन्मयता से काव्यसौंदर्य के उन नये प्रतिमानों से जुडे़ सवालों की ओर ले चलते हैं जिसका अर्थपूर्ण अवगाहन उनकी पुस्तक सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कवितामें हुआ है जहाँ लोकजीवन के स्पंदन और आवेग को गहराई से महसूसने की बिलकुल चैतन्य नवदृष्टि प्राप्त होती है, हालॉकि लेखक ने बडे़ विनयभाव से पुस्तक के आमुख में ही स्पष्ट कर दिया है कि ये बातें न तो पूर्ण हैं, न निष्कर्षमूलक। यह सब एक तरह से स्वयं से संवाद है। कुछ जानने का प्रयास। कुछ खोजने की ललक। कुछ को फिर से जानने-समझने की कोशिश। पर यह लेखक का प्रांजल अहोभाव ही है। यानि कि यह कृति एक तरह से एक कवि का स्वयं से संवाद है जिसे कवि विजेंद्र के स्वयं के द्वारा सृजनप्रक्रिया में आत्मगत हुए अनुभवों से कविता के स्वभाव को परखने की एक सार्थक पहल भी कही जा सकती है।
       सौंदर्यशास्त्र की इस आलोच्यकृति में उनके कुल उन्नीस लेख दृष्टिगत हैं जो आद्योपांत लगभग दो सौ पृष्ठों में कविता के सौंदर्यशास्त्र से जुडे़ विविध विषय-पक्षों को क्रमवार उद्घाटित करते चलते हैं। पहला आलेख जिसके शीर्षक से पुस्तक का नामकरण भी हुआ है, भारतीय चित्त की प्रकृति की मौलिक सूझ-समझ प्रस्तुत करता है। वस्तुत: इस आलेख की मौलिक संकल्पना की टेक पर ही पुस्तक में अन्य सारे विचार प्रस्तुत हुए हैं। इस आलेख में भारतीय चित्त की विशेषताओं का निरुपण जिस व्यापकता और गहराई से किया गया है कि उसके मूल में काव्यलोक की अपनी लंबी परम्परा से प्रसंगवश जुडने की प्रक्रिया की खोजबीन ही लक्षित होती है जहाँ क्रियाशील भारतीय जीवन की गतिकी हर किसी को मूर्तमान और अनुभवनीय रुप में दिखाई पडे़गी।
       यहाँ बात आदिकवि बाल्मिकि और आचार्य भरत से लेकर कालिदास, भवभूति, फिर मध्यकालीन संत कवियों से लेकर निराला, मुक्तिबोध और समानधर्मा कई आधुनिक कवियों तक हुई है जिसमें यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापना की गयी है कि संपूर्ण भारतीय वाडँमय ही सदा लोक का पक्षधर रहा है जिसके समूचे साहित्य का आधार ही लोकधर्म है क्योंकि बकौल विजेंद्र जी के जिस लोक की बात भरत ने की है जिसे अलग-अलग प्रसंगों में कवि कालिदास और भवभूति ने कहा है -इससे लगता है कि भारतीय चित्त सदा लोकानुरागी, लोकसजग, तथा किन्हीं अर्थों में लोकपक्षधर भी रहा है। इसीलिये आज लोक की बात उठाकर हम न केवल कविता में समकालीनता को सही परिप्रेक्ष्य में परख रहे हैं बल्कि उसके बहाने हम अपनी परम्परा को भी आज के सन्दर्भ में नवीकृत और व्याख्यायित कर रहे हैं। परम्परा का वह सबल पक्ष जो सदा कविता में विद्यमान रहा है रहता है और कविता को जिन्दा रहना है तो वह आगे भी इसी तरह वहाँ बना रहेगा (पृ. 6)।”
       इस प्रकार इस लेख में गहन विचार हिन्दी कविताओं की भारतीय पृष्ठभूमि स्पष्ट करके उस प्रच्छन्न पार्श्व की परतें खोलता है जिसके संज्ञान से हम सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा के देशज पक्ष की मूल्यवत्ता और योरोप के भाववादी बुर्जुआ चिंतकों की चालाकी को सरलता से समझ सकते हैं और ठीक यहीं, पाठक का वह प्रस्थानविन्दु भी शुरु होता है जहाँ से वह लोक की ओर श्रद्धापूर्वक स्वविवेक से मुड़ सकता है क्योंकि उसके मन में लोकसंस्कार के बीज फलित होने लगते हैं, फलत: उसके सोचने की क्रिया में व्यापक सकारात्मक बदलाव आने लगता है और उसका चिंतन गहन पार्थिव और दृष्टि, दूरदर्शी बन पाने को क्रियाशील होने लगते हैं क्योंकि संस्कृति के उद्भवकाल से ही हमारी लोकपरम्परा अत्यंत समृद्ध रही है जिसकी भाषा, मुहावरा, शब्दसंपदा अत्यंत जीवंत हैंऔर जिसके काव्य में भावों की सबल संश्लिष्टता हैजो संघर्षपूर्ण भारतीय जीवन की उदात्तता के परिणामस्वरुप मानवीय भावों के एक पृथक मूर्त संवेदना से उत्पन्न सौंदर्यबोध से जन्मते हैं क्योंकि कवि के शब्दों में सौंदर्यशास्त्र कविता पर कोई अंकुश न लगाकर उसे ज्यादा मानवीय, सुन्दर, पूर्ण, यथार्थपरक और हर प्रकार से असरदार बनाने के लिये कुछ रचनात्मक सूझाव प्रस्तुत करता है (पृ. 51) इसलिये कवियों को अपनी परम्परा से नि:सृत सौंदर्यशास्त्र का गहन-गंभीर ज्ञान होना ही चाहिए। हाँ, यह बात अलग है कि सौंदर्यशास्त्र एक जटिल और संश्लिष्ट विषय है । जैसा कि स्वयं विजेंद्र कहते हैं, कविता और यथार्थ, कविता और संज्ञान, विचारधारा, राजनीतिक चेतना, कवि की प्रतिबद्धता, काव्यबिंब, कविता का संरचनात्मक स्थापत्य, काव्यप्रक्रिया, कविता में वस्तुगत और आत्मगत की द्वंद्वात्मक स्थिति, वस्तु, भाव, संवेग, और कल्पना के परस्पर संबंध, काव्यसत्य और वस्तुसत्य का फर्क, सामाजिक यथार्थ के विविध स्तर, अंतर्वस्तु और रुप के द्वंद्वात्मक रिश्ते, कलात्मक संस्कृति, प्रकृति और कविता, सौंदर्य का सार, सौंदर्यशास्त्र और विचारधारा आदि पर भी विचार होता है (पृ.23)।” सचमुच ये ही सौंदर्यशास्त्र के दार्शनिक आधार की ज़मीन देते हैं जो कि इस पुस्तक के दूसरे लेख का वर्ण्य-विषय है। उपर्युक्त विश्लेषण में यह भी अंकनीय है कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को व्यापक प्रतिष्ठा दी गयी है और लेनिन के प्रतिबिंबन-सिद्धांत की व्याख्या कठोपनिषद के सर्वम् जगत् प्राणे एजतिअर्थात यह सारा भौतिक जगत हमारे प्राण में कंपित होता है, चमकता है की भारतीय पृष्ठभूमि से करके यह बता दिया है कि यह इतिहास की उस वस्तुगत अवधारणा से भिन्न नहीं है जो हमारे यहाँ काफी पहले ही विकसित थी। यही कारण है कि उनके सौंदर्यशास्त्र को पढ़ कर पाठक के भीतर जिस भावमानस का सृजन होता है उसमें भारतीयता का संश्लिष्ट रुप विद्यमान रहता है।
       तीसरे आलेख में विजेंद्र जी ने कविता में जैविक रुप के स्वभाव की चर्चा की है जिसे वे कविता के सौंदर्यशास्त्र का एक बहुत जरुरी पक्ष मानते हैं। इसे बिना समझे हम अपनी कविता के लिये सममितिमूलक जड़-सौंदर्यका रुप चुन लेते हैं जिससे कविता स्वस्फूर्तता और तेजस्विता खो देती है। विजेंद्र जी का कहना है कि यह समय और समाज में निहित द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से निरंतर विकसित होता है जिसे कवि अपने आसपास जीवन, प्रकृति और समाज को व्यापक यथार्थ की गहराई से टटोलकर और अपने समय की रुढि़यों को तोड़ कर, यानि कि समय का अतिक्रमण कर प्राप्त करता है जो उसके द्वारा उपयोग में लाये गये रुपकों, पदविन्यास, लय, छन्द, शब्द-गठन, संरचना और कविता के पूरे स्थापत्य की पुनर्रचना में दृष्टिगोचर होता है।
       चौथे आलेख का शीर्षक है – सौंदर्यशास्त्र और हमारी परम्परा। हमारे सौंदर्यशास्त्र के खनिज अपनी जातीय संस्कृति और परम्परा से ही प्राप्त होते हैं। इस मार्फत विजेंद्र ने कई अर्थपूर्ण सवाल उठाये हैं जो स्वयं सौंदर्यशास्त्र की दिशा-दशा तय करते नजर आते हैं, यथा- “आखिर अपने अतीत से कैसे जुडे़? उससे जुडे़ या नहीं? क्या उससे अलग रह पाना हमारे लिये संभव है? क्या अपने अतीत को विस्मृत कर हम किसी महान रचनाकर्म की कल्पना कर सकते हैं? ….भारतीय सन्दर्भ में जब भी सौंदर्यशास्त्र का सवाल उठायें तो देखें कि मुहावरा खंडित तो नहीं।…क्या कविता में हम उसे दिखा पा रहे हैं? सौंदर्यशास्त्र का सवाल कैसे हल हो? (पृ.39/40)।” कुल मिलाकर ये सारे सवाल हमें हमारे लोकधर्मी सौंदर्य की ओर ले चलते हैं जिसका एक कवि को अपने शब्दकर्म में अर्थपूर्ण अवगाहन करना चाहिए ताकि उसकी रचना उत्कृष्टता का कीर्तिमान बन सके।
       पाँचवा आलेख सौंदर्य की मूर्तता पर है। इस अध्याय का अभिप्राय किसी कृति की समृद्धि में सौंदर्य की मूर्तता से है, अर्थात जो जितनी मूर्त और सामाजिक सरोकारों से युक्त होगी, वह कृति उसी अनुपात में महानता के सोपान का प्राप्त करेगी। इसी प्रकार छठा अध्याय सौंदर्यशास्त्र के विविध आयामों को लेकर है। यहाँ कविता में सौंदर्य की उदात्तता के लिये विजेंद्र ने कवि को कविता में रुपकों की खोज कर जीवन के पैटर्न को मूर्त और अर्थगर्भित बिंबों से सजीव बनाने और बाहरी दुनिया यानि वस्तु जगत के यथार्थ को कविता में लाने पर जोर दिया है। कवि के शब्दों में ही इससे लगता है कि कविता में औदात्य अर्थस्फीति और भावबोध के गौरव से ही रचा जाता है।”
       इसके बाद के लेख का शीर्षक है ‘मुक्त कविकर्म और सौंदर्यशास्त्र’। हम यह अनुभव करते हैं कि स्वत:स्फुर्त चित्त से रचना करना तभी संभव है जब कविकर्म पर कोई बाहरी (या आंतरिक भी) दबाव न हो अर्थात कवि स्वायत्त और मुक्त हो। इस अध्याय में कवि के मुक्ति के सवाल को विजेंद्र जी ने बेहद गंभीर कविमन से उठाया है जो एक बहुत विचारणीय स्थापना है।
       अगले आलेख का शीर्षक है-काव्य उपकरण और सौंदर्यशास्त्र। विजेंद्र कहते हैं कि काव्य-उपकरणों के सांगतिक संयोजन से कविता में जादू पैदा होता है। कविता से काव्य-उपकरणों के खो जाने को वे कविता की त्रासदी समझते हैं और कविता की लय को कविता का जैविक हिस्सा मानते हैं। आजकल कविता में नवीनता लाने की होड में काव्य लय, रुपक,उपमा आदि को नकारने का जो फैशन चल पड़ा है उससे कविता निष्प्राण ही हुई है। यह कविता में आवेग और भाव लाने के अनिवार्य साधन हैं। इसलिये उनका मानना है कि जो कविता अपने देश की सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा को आत्मसात करके विकसित नहीं होती वह न केवल संस्काररहित होती है, अपितु उसमें उच्च कोटि का सौंदर्यबोध भी नहीं होता। (पृ.72)”यह आलेख हमें हमारी सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा में काव्य-उपकरणों की महत्ता को समझाते हुए उसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
       इसके आगे लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र पर बडी़ विशद चर्चा हुई है। यहाँ ऐतिहासिक विकास-क्रम से पुन: जोड़कर लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्रको देखा गया है और यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि किस तरह पूँजी का समाज में सकेंद्रण होने से कविता का लोकधर्मी सौंदर्यबोध प्रभावित हुआ है और वह कुलीनता की ओर गया है जहाँ न कोई बडा़ संकल्प है न विजन। बाहर के काव्य-प्रतिमानों की नकल से कविता में रुपवाद और दुरुहता ही दिखाई पडे़ हैं, वह आत्मप्रलाप जैसा होता है। विजेंद्र इसके अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण हमारे चित्त की रिक्तता मानते हैं। यह पैदा होती है अपने इतिहास, अपनी परम्परा और अपनी जनता से बहुत दूर चले जाने से। (पृ,88)”
       इस पुस्तक का दसवाँ आलेख है- ‘वस्तु का पुनस्सृजन।’ यह सौंदर्यशास्त्र का बहुत ही महत्वपूर्ण पाठ है। हम जानते हैं कि पुनस्सृजन की प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है। पर दु:खद बात यह है कि वास्तव में कई कवि नकल को ही पुनस्सृजन मानते हैं। यहाँ पुनस्सृजन के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन विजेंद्र ने भारतीय सौंदर्यशास्त्र को नज़र में रख कर किया है। उनके अनुसार पुनस्सृजन का सिद्धांत समाज और प्रकृति की आंतरिक गतिकी से जुडा़ है। कविता इसी व्यापक अर्थ में जीवन, प्रकृति और संसार का पुनस्सृजन है। सामाजिक गतिकी उसकी प्रेरणा है। दूसरे, पुनस्सृजन का गहरा रिश्ता कवि की आंतरिक बनक से भी है। कवि की विश्वदृष्टि उसका सोच यह सब प्रमुख है।(पृ,95)”
       पुस्तक का ग्यारहवाँ अध्याय है- ‘नैतिक आचरण और सौंदर्यशास्त्र’, जो बताता है कि कविता का मामला कवि के आचरण के मसले से भी गहरे जुडा़ है। विजेंद्र जी ने लैटिन भाषा के सौंदर्यशास्त्री होरेस और जर्मन सौंदर्यशास्त्री रिल्के के विचार को लेकर यहाँ कविता के मार्क्सवादी और बुर्जुआवादी, दोनों के आचरणों की विवेचना की है कि किस तरह पंत, अज्ञेय जैसे रुपवादी कवियों की रचनाएं हमारे निराला, नागार्जुन, केदार बाबू, त्रिलोचन, अरुण कमल, एकांत श्रीवास्तव जैसे कवियों की रचनाओं से अलग हैं जिसकी नैतिकता ही उन्हें कमतर महान बनाती है। उनका कहना है कि पूँजी केंद्रित व्यवस्था न केवल कवियों-लेखकों की बल्कि श्रमिक की भी मौलिकता और सृजनशक्ति को नष्ट करती है। वह सब मानवीय उच्च नैतिक मूल्यों को कुचल कर नष्ट कर देती है। ऐसी हालत में जनपक्षधर लेखकों का महत दायित्व है कि वे जनवादी मूल्यों का सृजन करके समानांतर जनसंस्कृति की रचना करें। एक नया सौंदर्यशास्त्र रचें।”
       सौंदर्यशास्त्र के प्रसंग में यह बात बार-बार उठाई गई है, उठाई जानी चाहिए कि मेरे सामाजिक व्यवहार और नैतिक आचरण का गहरा प्रभाव मेरी रचना पर पड़ता है। कबीर ने तो यहाँ तक कहा है किजैसा हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन बनता है। जैसा हम पानी पीते हैं वैसी हमारी वाणी होती है। (पृ.109)”
       अगला लेख भाषा और सौंदर्यबोध पर है। यह कविवर विजेंद्र के अनेक मूल्यवान विचारों में से एक है जिसमें भाषा के साथ सौंदर्यबोध के समानांतर उससे तादात्म्य का संधान किया गया है। वे भाषा में गहरी बिंबात्मकता को रचना की गतिशीलता और आवेग-सृजन के लिये जरुरी मानते हैं। इसलिये वे भाषा से रचना में बडी़ जिम्मेदारी का कार्य लेते हैं, वे सिर्फ़ भाषा में ऐसा यथार्थ ही नहीं कहना चाहते जो उन्हें वैचारिक अवधारणाओं से ही परिचित कराये, बल्कि भावबोध के उच्च स्तर पर समाज-सापेक्ष सौंदर्यचेतना और यथार्थपरक संवेदना की भी सृष्टि करना चाहते हैं। उनका विचार है कि “इसी से भाषा की रचनात्मकता के नये क्षितिज खुलते हैं। इससे भाषा के सही रिश्ते की पहचान होती है।… दरअसल भाषा और यथार्थ का गहरा रिश्ता उसके द्वारा सौंदर्यबोध, संवेदना, संस्कृति और अपने समय के संज्ञान का मूर्त स्थापत्य रचे जाने में है।( पृ.122)”
       और भी कई आलेख हैं इस पुस्तक में, जैसे कविता में मूल्यदृष्टि, वस्तु की रुपमयता, भाषा और यथार्थ के आयाम, ‘आखर, अरथ, अलंकृति नाना ,विचारधारा और सांस्कृतिक कर्म, संस्कृति और समाज। इन सभी लेखों में प्रस्तुत विचार वीथियाँ सौंदर्यशास्त्र के विविध पक्षों पर विचार करते हुए जनपदीय-जातीय-लोक सौंदर्यचेतना के विकास में नये प्रतिमान को रचते हुए आगे बढ़ती है। उनका अंतिम विचारलेख तुलसी:जातीय क्लैसिक की पहचानहै जहाँ वे तुलसी की कविता में शिल्प और सौंदर्य को भारतीय कविता का अत्यंत विकसित, बदला हुआ, सार्थक और जातीय स्वरुप पाते हैं जिसकी काव्य-प्रक्रिया और काव्य-प्रतिमान आज भी अनुकरणीय और शलाध्य प्रतीत होते हैं।
       यहाँ मुख्य रुप से यह लक्ष्य किया जाना चाहिए कि अपनी परम्पराबोध के मौलिक,सूक्ष्म ज्ञान से ही विजेंद्र जी काव्य के नये सौंदर्य और प्रतिमान की खोज करते है, उसको दरकिनार कर पाश्चात्य काव्यसौंदर्य के चिंतन से नहीं।
       हम जिस आलोचना-समय में जी रहे हैं,वहाँ हिंदी आलोचना के पास चिंतन की मौलिकता का अभाव है। नये मानक और प्रतिमान रचने के जोखिम उठाने का न तो साहस है हमारे आलोचकों के पास, न बुद्धि-वैभव और न परम्परागत ज्ञान ही। कुछ को छोड़ कर, अधिकतर आलोचकों की स्थिति यह है कि वे अब तक न तो अपने जातीय साहित्य का अवगाहन कर पाये हैं, न पश्चिम को भारतीयता और लोक की कसौटी पर परख पाये हैं। सिर्फ़ भारतीय वाड़मय को एक खंडित मानसिकता से समझने का प्रयास किया गया है, जिस कारण उनके मन में लोक-वस्तु का सम्यक आत्मसाक्षात्कार नहीं हो पाया है। हाँ, उन लोगों ने एक हिंदी-मानस जरुर रचा है, पर समालोचना के समुचित विकास के लिए यह जरुरी है कि अपनी परंपरा को न सिर्फ़ समझा जाय, वरन उसे अपने संस्कृति-सूत्र से जोड़ कर उससे सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की ऐसी अवधारणा विकसित की जाय जो साहित्य और जन की समृद्धि के काम आ सके। साथ ही श्रम की भाव=भूमि पर जन और लोक की प्रतिष्ठा के लिये मार्क्सवाद के भारतीय संस्करण को विकसित किया जा सके और पश्चिम की उन अतियों की तीव्र निंदा भी, जो हमारे साहित्य को खोखला, वक्र और भावहीन बनाते हैं। ऐसे समय में विजेंद्र जी नई पुस्तक सौंदर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविताका बड़ा महत्व है, कारण कि उनके पास न सिर्फ़ परम्परा की सही और परिमार्जित विपुल समझ है, बल्कि उससे अपनी कविता को विकसित करने की व्यापक सोच-शैली और पश्चिम की उस सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा की काट भी मौजूद है जो हमें भारतीय चिंतन-क्षेत्र से अपह्रतकर निरे कलावाद-रुपवाद की दुनिया में घसीट ले जाते हैं जहाँ हमारी अपनी समृद्ध विरासत के खो जाने और समकालीनता के जड़ हो जाने का खतरा बराबर बना रहता है। पूरे पुस्तक में उनके काव्य-चिंतन और मीमांसा का पक्ष जितना सप्रमाण, ठोस,तार्किक, सहज और अर्थवान है उतना ही प्रगतिशील और वैज्ञानिक भी है। इससे भारतीय सौंदर्यचिंतन के विकास के नये क्षितिज तो खुले ही हैं, लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र को नई दशा-दिशा भी मिली है और विरासत में हस्तगत परम्परा का भाव समृद्ध हुआ है। साथ ही इसने भारतीय सौंदर्यशास्त्र में गहरे जड़ जमा रही निर्मूल मान्यताओं को झटका दे कर उसमें सकारात्मक हस्तक्षेप भी किया है जिससे भविष्य में जनपदीय साहित्य और लोक-साहित्य के दिन बहुरने के प्रबल आसार नज़र आने लगे हैं। इसीलिए विजेंद्र अपने सौंदर्यचिंतन की उदात्तता के कारण हमें भविष्य के कवि भी लगते हैं।
       जो पाठक जयपुर से निकलने वाली लोकचेतना की बहुप्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका कृति ओर’ नियमित पढ़ते हैं, उन्हें मालुम होगा कि संपादकीय के बहाने विजेंद्र जी भारतीय सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण कार्य वर्षों से कितने मनोयोग से करते आ रहे हैं ! यह पुस्तक उसी का परिणाम है।
       कुछ दिन पहले मैं देहरादून की मासिक पत्रिका लोक गंगा’ के जनवरी 2008 अंक में समीक्षक रेवती रमण जी की एक समीक्षा पढ़ रहा था। वैसे तो पूरी समीक्षा ही विजेंद्र जी के रचनाकर्म के पार्श्व में जो शास्त्रीयता और सौंदर्यदृष्टि विद्यमान है, उसकी अन्यतम प्रस्तुति लगी, पर जो मन को सबसे अधिक भा गया वे उनके दो विचार हैं जिनका जिक्र यहाँ लाजिमी है। एक तो रेवती रमण जी ने यह कहा कि मेरा खयाल है, हिन्दी के वे पाठक जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का विधिवत अध्ययन नहीं किया है, संक्षेप में विजेंद्र की इस किताब से अपना एक भावमानस बना सकते हैं। बल्कि यह प्रयास अधिक सर्जनात्मक है। दूसरे किजो कार्य कविता के नये प्रतिमान से अपेक्षित था, विजेंद्र ने उस दिशा में पहलकदमी कर दिखाई है।… एक पंक्ति में यही कहना है कि जो कार्य कविता के नये प्रतिमानके लेखक से अपेक्षित था, विजेंद्र ने चुपचाप कर दिखाया।
       वास्तव में यहाँ इस वक्तव्य के बडे़ मायने हैं। रमण जी वस्तुत: विनयशील भाव से यह बतलाना चाह रहे हैं कि सौंदर्यशास्त्र पर इतना महत्वपूर्ण कार्य पहले ही दिग्गज आलोचकों के द्वारा हो जाना चाहिए था पर आज तक आलोचना के पुरोधाओं का ध्यान शिद्दत और गंभीरता से इधर नहीं गया,या कहें कि पूर्व में रचे गये कविता के प्रतिमान पर अब पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
       खैर, मैं अपने विचार की इतिश्री इस बात से करना चाहूँगा कि विजेंद्र जी के सौंदर्यशास्त्र की इस पुस्तक को पढ़ते हुए न मात्र मेरी कई जड़ धारणाएँ ध्वस्त हुई हैं बल्कि हृदय से यह महसूस हुआ है कि कवियों और कविता के पाठकों के लिये उनकी यह पुस्तक मणिकांचन योगसाबित होगा क्योंकि इस पुस्तक में काव्यसौंदर्य के नये प्रतिमान की गहन खोज हो चुकी है जो विजेंद्र जी के अपने दीर्घ समय की कविता के आत्मसंघर्ष और उसकी विचारणा की कार्यसिद्धि का फल है–
तुमने मेरी काव्य प्रेरणा को
उजडी़ फसलें, उखडे़ पेड़, बूचड़खाने
और भ्रंश चट्टानें छोडी़ हैं।
ओ मेरे कवि
निरझरों के गान कहाँ से लाऊँ
उगती फसल के सूर्योदय
उन्होंने हड़प लिये हैं।
कितनी पीडा़ सह कर
मैंने साँसों की नमी को बचाया है। (ओ मेरे प्रिय जन कविता से/ विजेंद्र)” 
समीक्ष्य पुस्तक:
सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता‘  : विजेन्द्र
अभिषेक प्रकाशन, 5824, जवाहर नगर (निकट शिव मंदिर)
न्यू चंद्रावल, दिल्ली 110007, मोबाईल- 09811167357, 09899274796
प्रथम संस्करण 2006   
पृष्ठ: 196, मूल्य: रु. 350
 

सुशील कुमार 
जन्म-13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में। 
सम्प्रति दुमका में निवास और मानव संसाधन विकास विभाग,झारखंड में कार्यरत|   

शिक्षा-बीएड।

संपर्क  
 हंस निवास, कालीमंडा
हरनाकुंडी रोड, पोस्ट-पुराना दुमका
झारखंड – 814 101

    ईमेल – sk.dumka@gmail.com
    मोबाईल- 09431310216 / 09006740311