आशीष अनचिन्हार का व्यंग्य ‘गुट निरपेक्ष’

आशीष अनचिन्हार


मूल नाम– आशीष कुमार मिश्र

जन्म–4/12/1985

मैथिली गजल एवं शेरो-शाइरी पर केंद्रित इंटरनेट पत्रिका (ब्लाग रूप मे) अनचिन्हार आखरhttp://anchinharakharkolkata.blogspot.com/ के संस्थापक और संपादक।

प्रकाशित कृति—

(1). अनचिन्हार आखर (गजल संग्रह)

(2). मैथिली गजलक व्याकरण ओ इतिहास (मैथिली गजल का व्याकरण और इतिहास)

सह-संपादित कृति–

(1). मैथिली गजल: आगमन ओ प्रस्थान बिंदु (मैथिली गजल: आगमन और प्रस्थान बिंदु, आलोचना)

(2). मैथिलीक प्रतिनिधि गजल (1905सँ 2014 धरि) (मैथिली की प्रतिनिधि गजलः 1905 से 2014 तक)

व्यंग्य अपने-आप में एक स्वतन्त्र और सशक्त विधा है। कहना न होगा कि इसके लेखन में काफी चुनौतियाँ होतीं हैं। इसमें किसी पर भी निशाना साधने की गज़ब की हिम्मत होती है। यहाँ पर ‘निशाना’ का मतलब है – ‘जो भी सच है उसे कहने का दृढ़ साहस‘ हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के व्यंग्य पढ़ते हुए हमें इसका आभास सहज ही होता है युवा कवि और गज़लकार आशीष अनचिन्हार मूलतः मैथिली में लिखते हैं। आज हम उनके एक मूल मैथिली व्यंग का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। आशीष ने ख़ुद ही विशेष तौर पर ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए इसे हिन्दी में अनुवादित किया है। तो आइए पढ़ते हैं आशीष अनचिन्हार का व्यंग्य ‘गुट-निरपेक्ष’   
गुट निरपेक्ष
आशीष अनचिन्हार
सभी को कुछना कुछ नशाहोता ही हैमुझे भी है।बहुतों का नशादिखाई देता हैमगर मेरा नशाछुपा हुआ है।किसी को पैसेका नशा हैतो किसी कोजमीन, किसी कोनौकरी का तोकिसी को साहित्यका। मगर मेरेनशा इन चीजोंका नहीं है, मुझे हर समययूनिक चीजों काशौक रहा हैऔर मेरा नशाभी यूनिक है।मुझे गुटनिरपेक्षबनने का नशाहै। मैं हरसमय कोशिश करताहूँ कि मैंमुकम्मल गुटनिरपेक्षबन जाऊँ।

अन्य सभी तरहका नशा सर्वसुलभ है मगरमेरा नशा कष्टसाध्य है। बहुतकरतब कर केमन को साधनापड़ता है। मनको अनेक तरहसे असफल रूपसे मनाना पड़ताहै। असफल इसलिए कि जब हमअपने आप कोनिष्पक्षकहते हैतभी यह तयहो जाता हैकि हम किसीकेपक्षमें हैं।बिना किसी कापक्ष लिये हमनिष्पक्ष हो हीनहीं सकते हैं।मान लीजिए किहमने कहा किमैं निष्पक्ष हूँइसीलिये सत्य केसाथ हूँ अबयहीं स्पष्ट होजाता है किमैं सत्य केपक्ष में हूँ।और जब मैंसत्य के पक्षमें हो हीगया तब निष्पक्षकैसा?

इसीलिए मैंने कहा कियह नशा बहुतही कष्ट साध्यहै।  बहुतही करतब करनापड़ता है। झकाझककपड़े पहन कर, मंच पर बैठकर मैं निष्पक्षबन जाता हूँऔर अपने आपको भरम मेरख लेता हूँ।उदाहरण देना जरूरीनहीं मगर यहजगजाहिर है किकोई भी महापुरूषचाहे वह किसीभी क्षेत्र केहों उन्होंने अपनेआप को निष्पक्षनहीं कहा। सभीने अपना पक्षप्रस्तुत किया महापुरुषही क्यों अधमपुरुष ने भीअपना पक्ष रखा।सभी का अपनेपक्ष है। यहबहुत संभव हैकि पक्ष बदलसकता है मगरपक्ष का बदलनानिष्पक्ष होना नहींहोता है। अगरराम का पक्षथा तो रावणका भी था।पांडव और कौरवका भी था।गाँधी और गोडसेका भी। हमकिसी के पक्षके आधार परमहापुरुष या अधमपुरुष घोषित तोकर सकते हैमगर निष्पक्ष कोनपुंसक ही कहाजा सकता है।ये अलग बातहै कि नपुंसककहे जाने काखतरा होते हुएभी मैं निष्पक्षबनना चाहता हूँ।

और इसके पीछेठोस कारण भीहै। यह कारणसबके सामने कहनातो नहीं चाहताथा मगर चलिए  कहही देता हूँ।मैंने यह नशादुनियाँ मे बहुतअनुभव प्राप्त करनेके बाद हीचुना है। जबमैंने देखा किविरोध करने सेकुछ हासिल नहींहोगा और अगरचमचागिरी करूगाँ तो सभीताना मारेगा। इसीलियेबहुत मंथन केबाद मैंने निरपेक्षताका चादर ओढ़लिया। मतलब दोंनोहाथ में लड्डू।ना विरोध करूगाँभले ही अधर्महोता रहे औरना ही चमचागिरीकरूगाँ। वैसे गौरसे देखा जाएतो अधर्म काविरोध ना करनाअधर्मी का चमचागिरीही करना है।वैसे यह सबदर्शनफर्शन कीबातें हैं जानेदीजिये। भले ही मेरा नाम भविष्य मे महापुरुष या क्रांतिकारी की तरह ना आये मगर आज वर्तमान में तो मैं राजा-महाराजा हूँ और मेरे लिये यही बहुत है। मैं आशीष अनचिन्हार, मूल नाम आशीष कुमार मिश्र, पिता श्री कृष्ण चंद्र मिश्र, गाँव भटरा-घाट, थाना बिस्फी, जिला मधुबनी, प्रांत-बिहार, गोत्र-शांडिल्य, मूल सोदरपुरिये-सरिसब, अभी तक अविवाहित पूरे होशो-हवास मे घोषणा करता हूँ कि मैं “गुट-निरपेक्ष” हूँ। मुझे किसी वस्तु, किसी विचार या किसी विचारधारा से जोड़ कर ना देखा जाये। अब यहाँ पर आप लोग ये मत पूछ दीजियेगा कि मैं अभी तक अविवाहित क्यों हूँ। मुझे यह डर है कि कोई “पक्ष” वाला मुझ से यह ना पूछ दे कि बच्चों के समय आप “निरपेक्ष” थे कि नहीं। वैसे इसमे डरने की कोई जरूरत नहीं है। जमीन पलट जाता है, आकाश पलट जाता है तो बच्चे के प्रश्न पर अगर मैं पलट जाऊँ तो बुरा क्या है। आदमी किताबों में प्रगतिशील बन कर अपने घर मे आनर-किलिंग करता है। नेताओं का विरोध कर के उसके हाथ से ही पुरस्कार ले लेता है ओ वह सब अपराध नहीं है तो बच्चे के प्रश्न पर मेरा पलटना अपराध कैसे होगा। वैसे कुछ भी हो अंतिम सत्य तो यही है कि मैं चाहे कितना ही कूद-फाँद क्यों ना कर लूँ मगर ये नशा पूरा जीवन नहीं चलने वाला है। रंगा हुआ सियार का रंग भी एक दिन उतरा था और मैं भी तो रंगा आदमी ही हूँ ना।

मगर जब तक लता है चलने दीजिए। जिस दिन नशा उतरेगा देखा जायेगा।


सम्पर्क- 

मोबाइल– 08876162759
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)