सुघोष मिश्र की कविताएँ


सुघोष मिश्र

जन्म-तिथि- 30 सितम्बर, 1990
शिक्षा – परास्नातक हिन्दी (इ.वि.वि.), जे.आर.एफ.

जब भी कोई अपने कविता लिखने की शुरुआत करता है, तभी हमें उसके दृष्टिकोण का पता चल जाता है। कुछ संकोच के साथ वह अपने समय को कविता की भाषा में दर्ज करता चलता है। यह जानते हुए भी कि यह बाजारवादी दौर है। यह जानते हुए कि बाजार यहाँ हर वस्तु, विचार और प्रतिभा को कीमत की शब्दावली में परिभाषित करता है, और इस दौर में भी कविता की ठसक है कि वह अपने ऊपर कीमत की पर्ची नत्थी नहीं होने देगी, कवि लगातार कविताएँ लिखता रहता है। सुघोष मिश्र ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने कविताएँ लिखना शुरू किया है। एक नया शिल्प और नया अंदाज सुघोष की इन कविताओं में सहज ही नजर आता है। आइए कविता की दुनिया में सुघोष मिश्र के पहले कदम का स्वागत करते हुए पढ़ते हैं इनकी कुछ नयी कविताएँ।    


सुघोष मिश्र की कविताएँ

 रिश्ता

गुलाब के पौधे 
चारदीवारी के दोनो ओर थे 
बराबरकाट-छांट किए हुए
उनके डालियों की सीमाएं 
कर दी गईं थीं निर्धारित 
कुछ वर्षों बाद 
डालियों के पोरों पर 
आये दो फूल 
और खिलने की प्रक्रिया में 
चूम लिया उन्होंने 
एक-दूसरे को
ठीक चारदीवारी के बीचो-बीच 
उनके बीच की दीवारहोते हुए भी 
ढह चुकी थी 
यह शुरुआत थी  
एक नये रिश्ते की

दृष्टिकोण

बंद आँखें किए बैठो 
रहो चुप
यहाँ है सघन अँधियारा 
मैंने कहा,
उसने कहा  
कुछ जला दो 
हो जाए उजियारा

गुलाब
(गुलाबी गैंगके लिए)

एक गुलाब खिला 
बुंदेलखंड में भी 
फिर खिले कुछ और गुलाब 
इसी रंग के
इन्होंने कितनी ललाती आँखों का
नशा उतार दिया 
ये फूल नहीं रहे 
मंदिरों में चढ़ावे के लिए 
न ही पंखुड़ियाँ रहीं
 मसल दिए जाने के लिए 
गुलाबआज गढ़ रहा है 
नई परिभाषाएं 
अब यह प्रेम का ही नहीं 
क्रान्ति का भी प्रतीक है

पुल

नदी पर मुग्ध हो झुके हुए
गुलमोहर की छांव तले 
सदियों से पड़ेमोड़ वाले पत्थर को
लहरें छेड़ती हैं जहां 
पुल वहीं से शुरू होता है 
नील गगन की असीम ऊंचाइयों में 
आँखों मेंकहीं दूर उड़ जाने का स्वप्न संजोए 
दो पंछी तिरते दिखते हैं वहां 
साक्षी है 
खिलखिल कर हँसती
बहती हुई नदी
नागफनियों के जंगल से होकर 
एक सपनीला रास्ता  
जाता है उधर 
उस जर्जर पुल की ओरआज भी

अँधेरे में (1)

अँधेरे में दीखते हैं 
हम सब भाई बहन 
एक साथ 
घर लौटे पिता को घेरे हुए 
अँधेरे में  
आंचल से ढिबरी बुझाती 
दीखती है माँ
अँधेरे में 
दौड़ते हुए 
खुदवा के रेहार में
 लग जाती है ठेस 
अँधेरे में महसूसता हूँ 
अपने हाथों में 
ग्रामीण प्रेयसी का खुरदुरा हाथ 
इस तरहसघन अँधेरे में 
आँखें बंद किए जी लेता हूँ 
अँधेरे में गुम कुछ सुनहले पल

अँधेरे में (2)

अँधेरे मेंसाफ सुनते हैं हम 
घड़ी में बीत रहे वक़्त को 
एक-एक सेकेण्ड 
अँधेरे में 
सीढ़ियाँ उतरते हुए 
लेते हैं हम सहारा 
रेलिंग या दीवार का 
अँधेरे में  
छू जाती कोई छिपकली 
और जोर से चौंक पड़ते हैं हम 
हमें हो जाता आभास 
ज़िन्दा होने काअँधेरा  
बेशक लाता है ठहराव 
लेकिन हमें जीना सिखा जाता है  
और सिखा जाता हैसंभल-संभल कर चलना

आमी नदी

कंधे पर बस्ता लटकाती थी 
आमी पार की सांवली लड़की 
पहनती थी 
नीला सूट और सफेद सलवार

कन्या विद्यालय से लौटते वक़्त 
अक्सर मिलती थी 
उससेपुलिया के पास 
वह भी 
साइकिल की घंटी बजाते आता था 
बस्ते में साथ लाता था 
भुनी मूंगफलियाँ 
किस-मी टॉफियाँ 
 आमी में पैर डाल कर 
बैठते थे दोनों 
बुनते रहते थे ढेरों सपने 
पुलिया से आगे 
अलग हो जाते थेउनके गांवों के रास्ते

एक दिन सुनने में आया
लड़की के पिता ने मारा पीटा उसको  
क्योंकि उसने किया था प्रतिवाद 
उसे अभी और था पढ़ना 
नहीं करनी थी शादी वादी किसी से
सिवाय उसकेकई दिनों तक सूना रहा आमी का किनारा

परीक्षाओं से कुछ पहले
स्कूल के अंतिम दिन 
दो गांवों में दो घर तकते रहे 
राहनहीं लौटे दो पंछी 
अपने नीड़ में 
सुबह लोगों ने देखा 
पुलिया के पास पड़े थेदो बस्ते 
औरदो जोड़ी चप्पल

आमी आज भी बहती है 
हमेशा की तरह शांत 
किंतु उसके किनारे हो रहे हैं 
और रेतीले
जल होता जा रहा 
और भी काला  
दिन प्रतिदिन


सम्पर्क-
 22E, बेलविडियर प्रेस,  
मोतीलाल नेहरू रोड, इलाहाबाद

मोबाईल- 09452364249 

ई-मेल : sughosh0990@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)