प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’

प्रज्ञा

परिचय –                                               
जन्म  28 अप्रैल 1971, दिल्ली
शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच. डी.।

प्रकाशित किताबें-
कहानी संग्रह तक्सीम’ (2016)
नाट्यालोचना- नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुतिराष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह जनता के बीच जनता की बात’, (2008)। नाटक से संवादअनामिका प्रकाशन ( 2016)
बाल-साहित्य- तारा की अलवर यात्रा’, एन. सी. ई. आर. टी (2008)
सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक- आईने के सामने’, ( 2013)

कहानियाँ
कथादेश,  हंस, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, परिकथा, जनसत्ता, रचना-समय, बनास-जन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी-चेतना, जनसत्ता साहित्य-वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।

पुरस्कार –
* सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक तारा की अलवर यात्रा को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार।
* प्रतिलिपि डॉट कॉम कथा -सम्मान, 2015,  कहानी तक़्सीम को प्रथम पुरस्कार।

जनसंचार माध्यमों में भागीदारी
राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।
रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी
सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में
एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारी दुनिया को बहुत हद तक बदल दिया है। नव-पूँजीवाद ने इसकी आड़ में जिस तरह अपने पैर पसारे हैं उसने आम लोगों के जीवन को कठिन तो बनाया ही है उनके रोजी-रोजगार को सीमित कर दिया है। घर की जगह लोगों की पसंद अब फ्लैट्स बन गए हैं। जहाँ पहले कभी किसिम किसिम की दुकानें हुआ करती थीं वहां अब लक-दक इमारतें खड़ी हैं। महानगरों और अब तो छोटे-छोटे कस्बों तक में मॉल्स खुल गए हैं। इन मॉल्स ने रेहड़ी वालों, ठेलों वालों के रोजी-रोजगार पर सीधा असर डाला है। छोटे-छोटे सिनेमा टाकीज, दर्जियों की दुकानों पर की चहल-पहल अब बीते दिनों की बात हो गयी है। प्रज्ञा अपनी कहानी ‘मन्नत टेलर्स’ में उन दिनों के दर्जियों के जीवन और उनके सरोकारों की तरफ होते हुए उन मॉल्स तक आती हैं जहाँ बने-बनाए पैक्ड ब्राण्डेड कपड़े तुरन्त मिल जाते हैं। और दर्जी की भूमिका महज ‘अल्ट्रेशन’ तक सीमित हो गयी है। इस कहानी के ही एक अंश को देखिये – ‘फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन इंतज़ार  को कब का तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया था। अब कौन जाए कपड़े सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहाँ अपनी आँखों पर खुद ही पट्टी बाँध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ायन ने उसकी आँखें चुंधिया दीं फिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती है? उस पर पुराने बाज़ार का एक और चलन कब का खत्म हुआ जहाँ दुकानदार ग्राहक को भगवान मानता था। ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कर्त्तव्य के छोर को थामे थी स्नेह और विश्वास की डोर। पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगह नहीं थी। नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका और कूड़े के ढेर के सुपुर्द किया।’ प्रज्ञा की इस कहानी की खूबी यही है कि इसके क्लाईमेक्स का पता अन्त में ही जा कर चलता है। प्रज्ञा ने इस कहानी में उस सांप्रदायिक मानसिकता की पड़ताल भी की है जो एक खास सम्प्रदाय के लोगों की प्रवृत्तियों पर अक्सर आधारहीन टिप्पणियाँ करता रहता है और जिसे उनके यहाँ निर्ममता के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी पड़ता। यही नहीं वह इन लोगों का लिंक पड़ोसी देश से जोड़ने में भी नहीं हिचकतापनी कहानी की बुनावट में ही, अतिरिक्त कुछ कहे बिना कहानीकार ने मुसलामानों में भी उस अपनत्व की भावना को बारीकी से दिखाया है जिसकी बानगी गाँवों और कस्बों में आमतौर पर आज भी देखने को मिल जाता है प्रज्ञा की इस कहानी में एक प्रवहमानता लगातार बनी रहती है। जो पाठक को कहानी के अन्त तक जाने के लिए विवश करती है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’।         
     
मन्नत टेलर्स

प्रज्ञा
                       
‘‘यार! शिखा कहाँ हो? ये किस साइज़ की शर्ट ले आई हो? सोचा था आज के खास प्रोग्राम में इसे पहनूंगा पर…अरे! अब क्या करूँ?’’ सवाल की शक्ल में समीर की सारी झुंझलाहट शिखा के कानों के रास्ते रीढ़ की हड्डी के ऐन नीचे पहुँच कर थर्राहट पैदा करने लगी। उसे लगा अचानक शरीर के पोर-पोर में उठा दर्द जैसे वहाँ सिमट कर वहाँ जम गया है। पिछले न जाने कितने सालों से हर बार एक नई शक्ल में यह दर्द उठता रहा था और हर बार न वजह पुरानी पड़ती थी न ही तकलीफ। उसे हमेशा लगता ये आखिरी बार है पर नहीं। इस दर्द को शिखा से लगाव-सा हो गया था। समीर के रास्ते चला आने वाला यह मर्ज़ था उसके लिए खरीदे गए रेडिमेड कपड़े। परिवार के अन्य लोगों के लिए जहाँ कपड़े खरीदना एक शौक या नशे से कम नहीं था वहाँ शिखा और समीर के लिए यह बवाल-ए-जान था। समीर की नुक्ताचीनीं से दुकानदारों के सब्र का बाँध चकनाचूर हो जाता और उनकी बद्तमीज़ी का ज्वार सारे पाट तोड़ कर मनचाही दिशा में भागने लगता। उस ज्वार को भी समीर लगातार चुनौती देता। इसीलिए एक दुकान में उठा ये ज्वार आगे के तमाम रास्ते बन्द कर देता। कभी रंग, कभी कपड़े,  कभी सिलाई, कभी मार्जिन को ले कर अच्छी-खासी झिकझिक से आजिज आ गई शिखा अब खुद ही यह जोखिम उठाने लगी थी। शर्ट खरीदने की राह तो शिखा की मेहनत से कुछ आसान हो गई थी पर ट्राउज़र्स का झंझट अजाब बन चुका था। समीर को कोई न कोई नुक्स दिखाई दे ही जाता। समझौता इस बात पर हुआ कि जींस खरीद कर ही काम चलाया जाए। थोड़ी ढीली या टाइट होने पर भी जींस कई ऐब छिपा लेती है ठीक कुर्ते पायजामे की तरह। यहाँ तक कि शादी-ब्याह में भी समीर जींस ही पहनता। यों शहर में दर्जी भी थे पर दर्जियों के मानदंड समीर के लिए जरा ऊंचे थे। अच्छे दर्जी की खोज, समय की कमी और कोफ्त का बढ़ता चला जाता ग्राफ-सबने धीरे-धीरे उसे रेडिमेड कपड़ों की ओर धकेल दिया। आज तक का रिकार्ड था कि वह कभी अपने लिए लाए गए कपड़ों से खुश न हुआ और जबसे शिखा ने जोखिम उठाना शुरु किया तबसे उसके हिस्से में दर्द के अतिरिक्त कुछ नहीं आया।
‘‘मैंने कहा था ट्राई कर लो। कहीं कुछ गड़बड़ न हो, पर कोई सुने तब न?’’ जिस दिन शर्ट आई समीर को आसमानी रंग और सेल्फ में हल्की सफेद लकीरों का डिज़ायन भा गया। ऐसा भाया कि पैकिंग खोल कर वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था मानो अंदेशा हो कि खोलते ही कोई धमाका हो कर रहेगा। उस वक्त समीर ने शिखा की बात पर कोई ध्यान दिया ही कहाँ था। शर्ट पर बयालीस साइज़ देखकर ट्राई करने के झंझट से मुक्ति पा ली थी। वैसे उसकी देह में पेट का घेरा चालीस से अधिक और बयालीस से कुछ कम साइज की शर्ट में राहत महसूस करता था पर आज शर्ट की पड़ताल करते हुए उसने पाया बयालीस साइज़ के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘स्लिम फिट’। अब शिखा पर भड़कने का कारण और पुख्ता हो गया।
‘‘उस समय नहीं देख सकती थीं तुम?’’ शिखा भी चुप न रही- ‘‘रेगुलर फिट अब नहीं चलता, ट्रेंड बदल रहा है… खुद ही ले आया करो तुम।’’ अपने ऊपर आफत आती देख गुस्से को विस्तार और विकराल रूप देते हुए वह शिखा की बजाय शर्ट विक्रेताओं और निर्माण कंपनियों की खाल खींचने लगा- ‘‘हर रोज़ नया फैशन बज़ार में उतारने का पैंतरा है ये- स्लिम फिट। अरे! फिट ही होते तो अड़तीस पहनते न? अच्छी शोशेबाज़ी है… चालीस के आस-पास यहाँ कितने परसेंट आदमी हैं स्लिम फिट को पहनने वाले? इस भाग-दौड़ की जिंदगी में टी.वी. चैनल्स और फिल्मों में ही सब फिट दिखते हैं और मैं उनमें नहीं हूँ जो ये मान लें कि शरीर कुछ नहीं कपड़ा ही सब कुछ है। शरीर के लिए कपड़ा है न कि कपड़े के लिए शरीर।’’
शर्ट कंपनियों की खाल का कुछ नहीं बिगड़ना था उन्हें तो हर दिन नया धमाका करके सेल को बढ़ाना था। उन्हें क्या परवाह कि कोई समीर उनसे इस कदर ख़फा है। वैसे भी हजारों तरह के ब्रेंड उतरे हुए हैं बाज़ार में उनमें भी देसी कंपनियों पर विदेशी भारी। फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन इंतज़ार  को कब का तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया था। अब कौन जाए कपड़े सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहाँ अपनी आँखों पर खुद ही पट्टी बाँध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ायन ने उसकी आँखें चुंधिया दीं फिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती है? उस पर पुराने बाज़ार का एक और चलन कब का खत्म हुआ जहाँ दुकानदार ग्राहक को भगवान मानता था। ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कर्त्तव्य के छोर को थामे थी स्नेह और विश्वास की डोर। पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगह नहीं थी। नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका और कूड़े के ढेर के सुपुर्द किया। रही-सही कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी। ग्राहक का रुतबा तो खत्म हो ही चला था अब उसकी शक्लो-सूरत भी मिटा दी गई। दृश्य सब अदृश्य हो गया। न मालिक, न सेल्समेन, न मोल-भाव बस एक क्लिक और दुनिया भर का बाज़ार आपके घर। ऊपर से लगे कि ग्राहकों की सुविधा के मद्देनज़र सब किया जा रहा है पर इसकी आड़ में खरीदारी के लिए ज़माने को बेसब्र बनाया जा रहा था। खरीददारी की खुजली के तुरंत समाधान के लिए दिन-रात के किसी भी लम्हे में बस एक क्लिक। फैशन की अंधी दौड़ ने कपड़ों का अंबार लगा दिया था घरों में। किसी समय घर भर के कपड़ों के लिए एक अलमारी हुआ करती थी। आज एक आदमी को एक अलमारी कम पड़ती है। इसका एक ही उपाय है अलमारी में जगह बनाने के लिए पुराने को जल्द फेंको और नए को उसमें भरो। मर्ज़ी और ज़रूरत दोनों के मायने बदल गए फिर दर्जियों की आसमान छूती सिलाई से महँगाई के हर्फ को जोड़ने वालों को पता भी न चला कि दो कमीज़ों के कपड़े और सिलाई की लागत में वे एक कमीज़ खरीद कर आसानी से ठगे जा रहे हैं। सभी बेपरवाह ‘बाय वन गेट फोर’ के शोर में झूम रहे हैं। सेल का बोर्ड दिखा नहीं कि बांछे खिल जाती हैं जब कि किसी समय दिवालिया होने पर दुकानदार सेल का बोर्ड लगा कर धंधे में लगाई अपनी मूल पूँजी बचा लेता था पर आज क्या सब दिवालिया हो गए हैं?
    
समीर के परिवार के लोग खासतौर पर उसकी माँ कहती थी- ‘‘तू सभी आदतों में बिल्कुल अपने पापा की तरह है। शक्ल तो मिलती ही है सीरत भी उन्हीं पर। उसमें भी सारे गुण एक तरफ और कपड़ों के मामले में तू भी उन्हीं की तरह मीन-मेख निकालने वाला निकला। अंतर केवल यही है वो अड़ियल किस्म के खब्ती थे तू उनसे थोड़ा कम है। नए ज़माने के साथ चलना उन्हें कभी रास न आया।’’ समीर अच्छी तरह जानता था पापा की आदतों को। जब तक जिए, कपड़ों को ले कर बेहद संजीदा रहे। अच्छे से अच्छे कपड़े सिलवाते पर नए चलन के फैशन पर जान न देते। जो उन्हें भाया उनके लिए जीवन भर वही फैशन रहा। सस्ता और टिकाऊ – कपड़े के बारे में उनके यही दो पैमाने थे। कपड़ा खरीदते समय दोनों हाथों से वह कपड़े को खींच कर देखते फिर ढीला छोड़ते और फिर खींचते। कपड़ा फट-फट की आवाज़ करता। यह आवाज़ जितनी ज़ोरदार होती पापा की मुस्कान उसी अनुपात में चेहरे पर फैलती जाती। कपड़े की मज़बूती जांचने का यह उनका अपना ही तरीका था। इसके बाद भी वह दुकानदार के कैंची छूने से पहले उसे पर्दे की तरह कपड़ा अपने हाथों की रॉड पर टांगने का आदेश देते ताकि किसी भी कमी को उनकी आँख परख सकें। मजाल है इस सबके चलते कपड़े में कोई मामूली सांट भी उनसे छिपी नहीं रहती। रही बात कपड़े सिलवाने की तो सही साइज़, अच्छा-खासा मार्जिन और मज़बूत सिलाई ही उनकी शर्तें रहतीं। बरसों बाद जब कपड़ा फटता तो वो उसके भीतर की सिलाई लोगों को दिखाते – ‘‘देख लो! कपड़ा फट गया पर सिलाई नहीं उधड़ी।’’ ऐसा कर के उन्हें न जाने कौन सी रुहानी खुशी मिला करती थी।
पापा की मीठी-सी याद के बावजूद सुबह की इस घटना ने समीर का सारा मूड खराब कर दिया। साथ ही शिखा के शर्ट को न बदलवाने के बारे में कहे मुँहफट शब्दों ने उसे और भी अधिक परेशानी में डाल दिया। आने वाली छुट्टी का पूरा दिन उसे शर्ट के झंझट में बर्बाद दिखाई देने लगा। शिखा की जान तो बच गई पर हुआ वही जिसका समीर को अंदेशा था।
‘‘कोई ढंग का डिज़ायन दिखाओ न?’’
‘‘सभी ढंग के हैं पर आपकी पसंद मेरी समझ से बाहर है सर।’’ कांउटर पर लगे डिब्बों के ढेर, छुट्टी के दिन कस्टमर्स की आमदरफ्त और सामने से घूरते बॉस की नज़रों ने सेल्समेन का सारा धैर्य खत्म कर दिया था। माल बिकवाने की सारी कवायद उसने पहले ही कर डाली थी फिर अब शर्ट बदले न बदले उसकी बला से। नए किस्म के आक्रामक बाज़ार की क्रूरताओं का वह भी एक पुर्जा बन चुका था। उसके चेहरे पर उभरती कठोर रेखाएं समीर को बर्दाश्त न कर पाने के ठोस संकेत दे रही थीं बावजूद इसके समीर पूरे साहस के साथ टिका रहा।
‘‘एक तो गलत चीज़ देते हो और बदले में कुछ अच्छा नहीं दिखाते। इतने बड़े ब्रैंड किस काम के?’’ समीर को अपने समय और शर्ट के दो हजार रुपये का नुकसान बुरी तरह खटक रहा था। झगड़े और झंझट से बचने के लिए उसने मॉल के दूसरे कांउटर से बिना किसी योजना के एक चादर खरीद ली। बाहर निकल कर उसने देखा कांक्रीट के दूर फैले इस रेगिस्तान में मॉल्स के अनगिन धोरे उठ खड़े हुए हैं। जहाँ देखो वहीं भव्य इमारतें। भव्य इमारतों में बढ़ते ग्राहक। ग्राहकों की भारी जेबों पर दुकानों की ललचाई नज़र पर ग्राहक का सुख? वो रेगिस्तान में दफ्न है या बिखरा पड़ा है चिंदी-चिंदी हो कर कदमों के नीचे और हवा में उड़ रही हैं देशी जेबें और चिंदी बराबर टैग पर सवार, उड़ते हुए सीमा पार पहुँच रही हैं भारी-भरकम जेबें। समीर मॉल से बाहर बाया और उसने स्कूटर स्टार्ट किया पर उसकी निगाह सड़क पर और मन कहीं और था।
अचानक समीर को याद आया पुरानी बस्ती का अपना वह बाज़ार जो घर से कुछ ही दूर था। पर  बचपन में वह ज़रा सी दूरी मीलों की दूरी जान पड़ती थी। नन्हें कदम बाज़ार की उस दूरी को तय करने में ही थकान से भर उठते थे। बाज़ार मतलब ज़रूरत की पंद्रह-बीस दुकानें जो घरों के नीचे सुविधा से खोल ली गईं थीं। हर मोहल्ले का छोटा-सा बाज़ार। जहाँ हर घर के बच्चे तक को दुकानदार जानता था और उधारी खाते खूब चला करते थे। दुकानें जिनमें से कई आकार में आड़ी-टेढ़ी थीं जैसे कपड़े में कोई कान निकल आया हो, जैसे घर की अतिरिक्त जगह को दुकान के लिए निकाल लिया गया हो। न आज सी कोई तड़क-भड़क, न तेज़ रौशनी और दुकानदार भी कैसे -मामूली से कपड़ों और ढीली-ढाली मुद्रा में एकदम निश्चिन्त से। कोई दुकान में तख्त डाले अधलेटा-सा तो कोई बाहर ही अन्य दुकानदारों संग कुर्सी डाले गपिया रहा होता। गप्पों में आकंठ डूबा वह ग्राहक को हाथ के इशारे से समझा देता कि वो खुद ही सामान ले ले और पैसे गल्ले में डाल दे। और कोई-कोई तो ऐसा कि दुकान से घंटों के लिए नदारद। दुकान अकेली छोड़ अन्दर सोने ही चला गया है या कहीं किसी काम से बाहर। वो आज शहर के दुकानदारों से नहीं थे। उन्हें मालूम था छोटे- से मोहल्ले में चंद दुकानें हैं, माल बिकना ही है और जब सब इतने परिचित हैं तो काहे का सजना-संवरना? पर उन्हें कहाँ मालूम था ज़माना करवट बदलेगा और मोहल्ले में दुकानें नहीं दुकानें ही मोहल्ला हो जाएँगीं। दुकान से खुद को जबरदस्ती का खरीददार बना कर, लुटा हुआ महसूस करते ही समीर को बचपन की बातें एक-एक करके याद आने लगीं। उसे लग रहा था ये यादें आज मिले ताज़ा ज़ख्म पर फाये का काम करेंगी इसलिए उसने खुद को यादों की गली के सुपुर्द कर दिया।
उन्हीं गलियों में जो चेहरा नमूदार हुआ वह चेहरा था रशीद भाई का। वे मोहल्ले में ही कहीं रहते थे। गिनती के कुल चार ब्लॉक थे मोहल्ले में पर बचपन में मुझे वह किसी शहर जितना बड़ा ही लगता था। शहर के एक पुराने बाज़ार में ‘मन्नत टेलर्स’ के नाम से मशहूर उनकी दुकान पर अक्सर जाना होता था पिताजी के साथ मेरा। उम्र मेरी अधिक नहीं तो कम भी नहीं थी। समझता सब था और मम्मी-पापा के साथ खरीददारी के चक्कर में बाज़ार के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हो गया था। वहाँ पूनम टेलर्स और आशियाना टेलर्स के होते हुए भी मन्नत टेलर्स की बात निराली थी। जैंट्स कपड़े सिए जाने की अव्वल नम्बर की दुकान थी मन्नत टेलर्स। पिता जी के लिए वो किसी मन्नत से यों भी कम नहीं थी। दुकान की चौखट पर आ कर कपड़ों की सिलाई को लेकर उनकी तमाम शिकायतें खत्म हो गईं थीं और दुकान के अन्दर बिखरा था रशीद भाई के व्यवहार का नूर। मुझे उनकी दुकान में आती कपड़ों की खुशबू बहुत पसंद थी। बाज़ार में मन्नत के दिनों-दिन निखरते हुस्न से घबरा कर पूनम टेलर ने जैंट्स के साथ लेडीज़ और बच्चों के कपड़े भी सीना शुरू कर दिया था और आशियाना टेलर्स का फिरोज़ तो पूरी मार्किट स्ट्रैटिजी बना कर लेडीज़ टेलर के रूप में ही बाज़ार में उतरा था। मम्मी उसके अलावा कहीं और न जाती थीं। लच्छेदार बातों की खाता था और काम में परफैक्ट था। पतले-लंबे जिस्म से निकलती उसकी मोटी-सी आवाज़, रंग-बिरंगी शर्ट के कुछ खुले बटन और बालों पर हर समय अटका धूप का चश्मा उसके स्टाइल की मिसाल बना इतराता। उस समय में भी बाज़ार होड़ के नियम पर चलते थे। पर होड़ लाभ-फायदे कमाने संग बेहतर काम करने की भी थी, भरोसे और गारंटी को सुनिश्चित किए जाने की भी थी। पापा बताते थे- ‘‘ कोई कुछ भी करे रशीद भाई बेपरवाह हैं। उनके ग्राहक को तोड़ना नामुमकिन है।’’ रशीद भाई कारीगर आदमी थे। हाथ किसी कपड़े को छू भर लें एक जादू-सा हो जाता। कुर्ते-पायजामे में वो सलीका उतार देते कि आदमी की चाल ही बदल जाती और साधारण से कपड़े को नये चलन की बढ़िया पेंट-शर्ट में बदल देते। कोट-पेंट तो कोई क्या खा कर उनके जैसा सिल पाता। एक नहीं हज़ार जनम भी ले कोई तो रशीद भाई का हुनर कॉपी न कर सके। किसी को छोटे पायंचे की पेंट पसंद है तो किसी को बैलबॉटम। किसी को हवा में झूलते बड़े-बड़े कॉलर की कमीज़ चाहिए तो किसी को गर्दन से चिपटा बन्द-गला। किसी को एकदम चुस्त कपड़ा चाहिए तो किसी को ढीला-ढाला-रशीद भाई सारी सेवाओं के लिए हाजिर। उनके हाथ का सिला कपड़ा ग्राहक के शरीर से लगता तो संतोष और खुशी के मिलेजुले रंग माहौल में घुल-से जाते। उस समय आज की तरह बच्चे, जवान और बूढ़े आदमी के लिए एक-सा फैशन नहीं था। पहनने वाले की पसंद पहले हुआ करती थी न कि किसी कंपनी की जबरन थोपी गई पसंद को अपनाने की मजबूरी। रशीद भाई की छोटी-सी दुकान में दीवार से लगी अल्मारियों के कांच के पल्लों के भीतर अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जितेंद्र आदि की दिलकश पोशाकों वाली तस्वीर पर बस रशीद भाई के हाथ रखने की देर थी और ग्राहक के स्वीकृति में सिर हिलाने की हरकत, चमत्कार अलमारी से निकल कर नौजवानों के बदन पर फब जाता। जिसको जैसा रुचता। रशीद भाई ने खाओ मनभाता पहनो जगभातावाली कहावत को बदल दिया था, उनके शब्द थे- खाओ भी मनभाता, पहनो भी मनभाता। बस इन्हीं शब्दों पर पापा का मन उन से और मिल गया था। जगभाते को पापा उतनी ही तवज्जो देते जिसमें जगहँसाई न हो। पापा के हरेक शब्द पर मेरे कान रहते थे और उन अनेक शब्दों में रशीद भाई के मामले में दोहराए-तिहराए गए शब्द मेरे दिमाग में डेरा बना चुके थे। हर दोहराव-तिहराव में वही प्रशंसा और हुनरमंदी की तारीफ। वरना उस बाज़ार में यू़. पी. के दूर-दराज इलाके से आए कितने ही रशीद घूम रहे थे।
‘‘आज शाम तैयार रहना समीर। रशीद भाई के यहाँ जाना है कपड़े डालने।’’ 

उस दिन पापा के कहे शब्द मन में कितना उत्साह भर गए थे। बात उस समय की है जब बाज़ार जाना और नए कपड़े सिलवाना किसी नवाबी शान से कम न था। पर मम्मी ने कपड़ा तो दिखाया नहीं? ‘‘मम्मी! वो कपड़े तो दिखाना जो आज शाम मेरे लिए डलवाने हैं। कब गईं बाज़ार, कब लाई कपड़ा?’’ ज़माना किफायत का था जिसे आज की भाषा में कंजूसी नहीं समझा जाता था और मेरा घर ज़माने की किफायत के नक्शे-कदम पर था। ‘‘तेरे भइया की एक और पापा की दो पैंटें  निकाली हैं। सिलवाने डाल आ।’’ मेरे सवाल का जवाब मिल गया था और मैं खेल में मगन हो गया। शाम को पापा के साथ जाते हुए मैंने तीनों पैंटों पर गौर किया। पिताजी की पैंटों से मेरी पैंट निकल जाने में मुझे संदेह न था पर भाई की पैंट? खुले-खुले पांयचे की नीचे से घिस गई पेंट से कैसे बनेगी मेरी पैंट? मैं बड़ा हो रहा था कोई बच्चा नहीं था अब। पर किससे बाँटता अपनी चिन्ता को?
मुझे याद है उस दिन बाज़ार में पहुँच कर मेरी चिन्ता उन गलियों में कुछ देर को न जाने कहाँ गायब हो गयी। कितने दृश्यों से भरा था वो संसार। हमेशा की तरह मैं उसमें खो जाने को बेताब था। कितने तरह के काम एक साथ चल रहे थे। रशीद भाई की दुकान जिस गली में थी क्या रौनक थी उसकी। सड़क से कुछ पहले की दुकानें भी देखने लायक थीं। कितनी तरह की कढ़ाई के काम वहाँ चलते थे। सड़क की शुरूआत से ही दोनों तरफ कहीं हाथ की कढ़ाई का भारी काम, कहीं गोटा, कांच और सलमा-सितारे का काम,  कहीं काज-बटन का काम, कहीं मकैश की कढ़ाई और ज़री का बारीक काम। मैं बहुत देर तक उन कामों को देखता रहता। गली में घुसने पर इन कामों का हुस्न जगमगाने लगता। कोई पक्का कारीगर सुई में सितारे पिरो कर आकाश सजा रहा होता तो कोई कपड़े पर उभरी लकीरों की बेल बनाता हुआ पूरा बागीचा उस पर उतार देता। ये काम मुझे बहुत भाता। गली के शोर की धुन पर कारीगर के हाथ धीरे-धीरे अपनी मंज़िल तक पहुँचने को उठते। मेरी नज़र कभी भरवां कढ़ाई पर जाती तो कभी पैडल मशीन पर मैं दर्जियों के पैरों की गति देखता। इतना ही क्यों कपड़े के रंग से मिलती रील निकालते ही कारीगर का शटल में धागा भरना मुझे बड़ा अच्छा लगता। धारदार कैंची से कपड़े पर लगी नीली स्याही पर फिरते हुए लंबाई या गोलाई में फटाफट काट देना मुझे हैरत में डाल देता। कटे हुए नापों को कतरनों की सुतली से बाँध कर दुकान के आलों में ठूंस देना मुझे परेशान करता। कैसे पहचान होती होगी कि कौन सा कपड़ा किस का है?  सारी गली भरी पड़ी थी इन्हीं सब कामों से। छोटे-छोटे से दिखने वाले कामों की दुकानें मुझे कभी खाली न दिखती। कितना काम था वहाँ, सिर उठाने की फुर्सत नहीं। हर किसी की इच्छा को कपड़ों में उतारने का काम जोरों पर था। एक काम से जुड़ा दूसरा काम था और उससे जुड़ी थीं कितनों की रोजी-रोटी। हाथ कम पड़ सकते थे पर काम नहीं। कारण कुछ मैं जान पाता था और कुछ पापा के जरिए जान लेता था। शहरों में इन हुनरमंदों की बढ़ती माँग के चलते गाँव-देहात में बसे इनके रिश्तेदारों को भी एक ही जगह काम मिल जाता था। यहाँ काम भी था और दाम भी। कितनी ही दुकानों में नाते-रिश्तेदारों का पूरा कुनबा जुटा था। खानदान के खानदान और खानदानी काम। इन दुकानों के साथ ही साथ रील, गोटा, बटन, कतरनों, बुकरम, तमाम तरह के धागों, इंची-टेप, कढ़ाई के फ्रेम, छोटी और मोटी सुई की कई चलती दुकानें थीं। और एक दुकान पर तो सिलाई मशीनें ठीक होने आती रहतीं। उनके बड़े-छोटे कलपुर्जों से भरी थी वो दुकान। किसी की मशीन बिगड़ जाती तो कहीं और न भागना पड़ता। बाज़ार छोटे-छोटे उद्योगों में सिलाई के बड़े उद्योग को समर्पित था। मैं बड़े मज़े से सब कामों को निहारता चलता। पापा रशीद भाई के यहाँ काम निबटवाते या दुनिया-जहान की बतियाते और मैं गली में खोया रहता। उस समय आज की तरह लोगों का बेसब्र रेला बाज़ारों में नहीं भागता था कि किसी को आस-पास के संसार को निहारने की फुर्सत ही न हो। मैं इन सबमें तब तक खोया रहता जब तक पापा की मुझे पुकारती आवाज़ न आती।
‘‘रशीद भाई! दो महीने बाद घर में शादी है। सोच रहा हूँ सब लड़कों के सफारी सूट ही सिलवा लूं इस बार। मामला महँगा होगा पर शादी की बात ठहरी।’’ हाथ मेरे नाप पर और कान पिता जी की बात पर दिए वे बोले- ‘‘ऐसा कीजिए मास्साब! अलग-अलग पीस की बजाय एक थान ले लीजिए गुप्ता जी की दुकान से… मेरा नाम लेकर।’’ अचकचा कर उन्हें देखते हुए पिता जी बोले- ‘‘यार हँसी उड़वाओगे हमारी? लोग शादी को सिर्फ एक थान के परिवार की वजह से याद रखेंगे।’’ पिता जी का मायूस चेहरा देखकर मुझे बड़ी दया आई। उस वक्त रशीद भाई ने मायूसी के बादल छांटते हुए कहा- ‘‘इत्मीनान रखें आप! एक थान आपको सस्ता पड़ेगा और मैं ऐसा बना दूँगा कि कोई बता न पाएगा कि कपड़ा एक है… और दुकानदार को पैसा देने की जल्दी न कीजिएगा। शादी का मामला ठहरा, सौ खर्च होंगे घर के, मैं बात कर लूंगा।’’ अगली बार पिता जी मुझे, थान और भाइयों को ले कर वहाँ पहुँचे। मेरा दिल धड़क रहा था पिछली बार दी गई भैया की पैंट मेरे पहनने लायक होगी या नहीं? दोस्तों के बीच मज़ाक न बन जाए कहीं और ये क्या उसे देखते ही मेरा मन उस पर आ गया। वो एकदम नई पैंट लग रही थी। गली से निकलते ही मेन बाज़ार था। वहाँ कपड़ों की अनगिनत दुकानें थीं। हमारे शहर की मशहूर कपड़ा मिल की चलती दुकान के साथ देश भर की अधिकांश नामी-गिरामी मिलों का कपड़ा बाज़ार में मौजूद था। इन नामी-गिरामी मिलों को मैं रेडियो और टेलीविजन के विज्ञापनों और अखबारों के जरिए खूब पहचानने लगा था। टी. वी. तब नया ही आया था घर में इसलिए कोई सूचना, कोई कार्यक्रम चूक जाना गुनाह-ए-अज़ीम था फिर कपड़ों के विज्ञापन में अपने पसंदीदा क्रिकेट खिलाड़ियों का होना मेरे लिए काफी था। यों नायिकाओं की देह से आकाश की ओर मीलों उड़ती थाननुमा-साड़ी भी मुझे कम रुचिकर नहीं थी। उसका आसमान छूना मेरे लिए कम चमत्कारी नहीं था। 
घर की उस शादी में मैंने पहली बार रशीद भाई को परिवार के साथ शामिल होते देखा। उनकी पत्नी तो नहीं पर उनके दोनों लड़के और छोटी-सी लड़की आए थे। इसी के नाम पर ही उनकी दुकान का नाम था- ‘मन्नत’। उनके लड़के परवेज़ और असलम तो उसी सरकारी स्कूल में पढ़ते थे जिसमें हम भाई पढ़ा करते थे और रशीद भाई कभी-कभार उन्हें पापा से कुछ पढ़ने-समझने के लिए भेज भी दिया करते थे। उनसे जान-पहचान थी ही। मैंने देखा, उस दिन रशीद भाई की आँखें खुशी के इस पल में अपनी कारीगरी की दाद देती हुई कुछ ज़्यादा ही चमक रहीं थीं। पापा और हम सब भाईयों से लोगों की नज़र नहीं हट रही थी। सबकी एकटक आँखों की प्रशंसा रशीद भाई की आँखों में समा गई थी। सफारी की चुस्त फिटिंग, हर सूट में सिलाई का जुदा ढंग और उसमें निखरते हम सब। पहली बार सफारी सूट पहन कर मैं खुद को बारात का दूल्हा मान कर इतरा रहा था। यों सभी भाईयों ने और पापा ने उसी थान से सफारी बनवाए थे पर मजाल है जो कोई भी इस राज को फाश कर देता। रशीद भाई ने अपने यहाँ बनने आए सफारी सूट के कपड़ों के बचे हुए छोटे-मोटे पीस से हर सूट में कोई नया रंग खिला दिया था। दो अलग रंगों का मैच बना कर, कहीं ताना-बाना बदल कर उन्होंने सदी का सब से बड़ा चमत्कार हमारे नाम लिख दिया। उस पर हर बार की तरह पापा को इज्ज़त बख्शते हुए उन्होंने सिलाई भी कम ली थी। पापा के पढ़े-लिखे होने और शिक्षक होने की कद्र उनकी आँखों में हमेशा दिखाई देती। हमारे मोहल्ले के तिमंजिले मकान वाले मालदार कपूर साहब की वो उतनी इज्ज़त नहीं करते थे जितनी हमारे पापा की। छुट्टी के दिन या शाम को अक्सर दुकान पर बैठे तुरपाई करते अपने बच्चों से वे हमारे सामने ही कहते- ‘‘पढ़-लिख जाओ ढंग से तो मास्साब की तरह बन जाओगे। इज्ज़त की रोटी कमाना, इंसान बनना।’’ और मुझसे भी कितनी ही दफा उन्होंने कहा- ‘‘बेटा अपने अब्बा जैसे बनना।’’ पापा ने बताया था कि कॉलेज में दाखिला मिलने पर भी रशीद भाई अपने अब्बू के गुजरने के बाद पढ़ाई जारी न रख सके थे और जिम्मेदारियों में गिरफ्त अपना पुश्तैनी कारोबार संभालने लगे। सब कुछ होते हुए भी पढ़ाई के लिए उनकी खलिश न मिट सकी। न जाने उनकी दुआओं का ही असर था कि मैं भी पापा की तरह सरकारी स्कूल में टीचर लग गया। पर इस सच को रशीद भाई कहाँ जानते थे? उन्हें पता चलता तो कितने खुश होते। उन्नीस-बीस साल बीत गए थे हमें वो मोहल्ला छोड़े।
मैं सोचने लगा रशीद भाई वाकई पढ़ाई-लिखाई को कितनी तरजीह देते थे पर उनके बेटे? आखिर क्या बना होगा उनका? बड़ा परवेज़ तो कहीं क्लर्क-व्लर्क लग भी गया हो शायद पर छोटा असलम? वो तो एकदम निखट्टू था। उसके भविष्य की सूरत भांप कर ही रशीद भाई छुट्टियों में उसे तुरपाई, बखिया से लेकर कटाई का काम सिखाते थे। दूर की आँख थी उनकी। वे अपने हुनर को असलम में उतार देना चाहते थे पर उसका दीदा न पढ़ाई में लगता न सिलाई में। वे कहते थे- ‘‘दो पैसे का काम सीख लेगा, भीख तो नहीं माँगनी पड़ेगी।’’ रशीद भाई जैसा काबिल हो पाना सबके बस की बात कहाँ? फिर इन लोगों के यहाँ बच्चे पढ़ते-लिखते हैं ही कहाँ? इन में पढ़ा-लिखा तबका है ही बेहद कम इसीलिए तो इतने कट्टर… नहीं रशीद भाई ऐसे नहीं थे। रशीद भाई तो अपनी तरह के एक ही इंसान थे, निकलता है कोई-कोई इनके यहाँ भी। इस तरह के एक-आध लोग मुश्किल से पर मिल जाते हैं इनमें। आज मेरा मन बार-बार रशीद भाई की चिन्ता में घुला जा रहा था। वैसे तो बच्चों का फर्ज़ होता है माँ-बाप की सेवा करना पर उन दोनों से क्या बना होगा? फिर रशीद भाई की कमाई पूँजी तो मन्नत के निकाह में लग गई होगी, मैंने अनुमान लगाया मन्नत जवान हो चुकी होगी। शादी के लायक उम्र की। इसीलिए उसकी शादी के बाद जो रकम बाकी बची होगी उससे दो लड़कों और रशीद भाई की अपनी गाड़ी घिसट रही होगी जैसे-तैसे। जुड़ा पैसा कोई कुबेर का खजाना तो है नहीं। और मन्नत? अच्छी सूरत और ढंग की पढ़ाई न हो तो लड़की की जल्दी शादी कर देना ही भला। सीरत-वीरत को कौन पूछता है आज के समय में। मुझे अचानक मन्नत का सांवलापन याद हो आया। उसके नैन-नक्श कैसे थे बहुत दिमाग मारने पर भी यादों के रास्ते कुछ जाहिर न हो सका। कहाँ तक पढ़ी होगी? मदरसे में कुछ पढ़ा हो तो हो उसने। पर कहाँ, वहाँ कहाँ पढ़ाई-लिखाई? तालीम के नाम पर कुरान पढ़ना ही सिखाया जाता है बस। दीन के साथ दुनिया की तालीम कहाँ? यहीं तो उनमें और हममें फर्क आ जाता है। पापा बताते थे उनके घर की औरतों ने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था।
मैं बाज़ार से घर लौट आया पर मेरी चिन्ता बराबर बनी रही- अब कैसे गुजारा होता होगा रशीद भाई का? क्या आज भी उनके वही ठाठ बरकरार होंगे? अब उतना काम तो नहीं कर पाते होंगे? ढलते शरीर ने काम का दामन कब का छोड़ दिया होगा। नौकरीपेशा आदमी की भी यह उम्र तो रिटायर होकर आराम फरमाने की है। सरकारी नौकरी के आराम के बीच अचानक रशीद भाई के बच्चों का ध्यान आते ही मैं शंका में पड़ गया कि अब भी बाज़ार में उनकी दुकान का सिक्का चलता होगा? हाथ के कितने काम अब खत्म हो चुके हैं फिर कहाँ बचीं अब वो कपड़ा मिलें? शहर की जानी-मानी मिल तो कबकी बन्द हुई। बरसों शहर की उस मिल की खाली पड़ी जमीन पर अब ग्रुप हाउसिंग सोसायटी खड़ी होने की खबरें आम हैं। अब बाज़ारों में कहाँ रहीं वो कपड़ों की पुरानी दुकानें। मेरा मन सवाल करता क्या बाज़ार की वो रौनक  अब भी बरकरार होगी? लेडीज़ टेलर्स तो फिर भी किसी तरह बचे हुए हैं पर कितने जैंट्स टेलर्स को मैंने खुद बेकार होते देखा है। हमारे नए मोहल्ले में चल रही जेंट्स टेलर्स की दुकानों को मैंने घिसटते और बन्द होते अपनी आँखों से देखा। आस-पास के मोहल्लों के चार-पाँच बाज़ारों में एक भी जेंट्स टेलर की दुकान नहीं है। रशीद भाई का चेहरा फिर से दिमाग में उभरा तो सोचने लगा, बिना पैंशन पाने वाले पिता की सही मिट्टी पलीद करती हैं संतानें। बुढ़ापे में कितना बेइज्जत होना पड़ता है अपने ही जायों से। रशीद भाई भी हो रहे होंगे। शुक्र है हम भाई नहीं बहे इस बेदर्द हवा के संग पर हम जैसे हैं ही कितने?
 ‘‘मम्मी! रशीद भाई याद हैं?’’ उस दिन रशीद भाई मेरे दिलो-दिमाग पर हावी हो चले थे।
‘‘तुझे आज कैसे याद आ गई?’’ माँ के सवाल के जवाब में बस ऐसे ही के अंदाज में मैं हल्का-सा मुस्कुराया।
‘‘पुराना घर क्या छोड़ा रशीद भाई ही छूट गए। तेरे पापा बाद तक भी जाया करते थे उनसे मिलने पर काम-धंधे में बरकत वैसी न रही थी। धीरे-धीरे आना-जाना छूट गया और फिर तेरे पापा भी …’’ मैं उनके  शब्दों की नमी पर गौर ही कर रहा था कि वे बोलीं- ‘‘पता नहीं जिन्दा भी हैं या… किस हाल में होंगे ईश्वर जाने?’’
मम्मी की बात से अचानक फिर मेरी रूह कांपी। वो तो नहीं पर मैं समझ रहा था ये समय फिर से रशीद भाई जैसों की अग्नि-परीक्षा का समय है। धारा उनके अनुकूल कहाँ? जात के कारीगर, धर्म के मुसलमान ऊपर से गरीब। उन जैसों की किस्मत तो बद से बदतर हो रही है। मन में चरम आवेग के बाद लहरें जब थमतीं तो मैं फिर रशीद भाई के साथ खुद को पाता- ‘‘कितने अलग तरह के इंसान थे। अपने सभी हिन्दू ग्राहकों की कितनी इज्जत करते थे। यों ही पापा उनकी प्रशंसा करते थे क्या?’’ मेरे अनुमान फिर से एक शक्ल गढ़ते और ज़माने के चलन में रशीद भाई का चेहरा अधिक दयनीय मुद्रा में साकार होता। अनुमान में तराशे उनके चेहरे पर बेचारेपन के अलावा मुझे कुछ न दिखाई देता। दिल-दिमाग पर हावी होते जा रहे रशीद भाई के ख्याल को मैंने बड़ी मुश्किल से कुछ देर के लिए झटका।
अगले दिन का हाल न ही पूछिए तो बेहतर। मैं रोज़ की तरह स्कूटर पर स्कूल की तरफ जा रहा था। चौराहे पर रेड लाइट ने कुछ पल आस-पास देखने की मोहलत दी। नज़र घुमाई ही थी कि ये क्या? मेरा दिल धक्क रह गया। दिमाग की सारी नसें अचानक ही मुझे बेहद तनी हुईं और गर्म महसूस हुईं। स्कूटर के हैंडल पर मेरे हाथों का दबाव अचानक पिघल कर गायब-सा होने लगा। मुझे अपने दोनों हाथ सुन्न से महसूस हुए। दाहिनीं ओर कुछ आगे की भीड़ में एक ऑटो के पीछे लिखे शब्दों ने मुझे हिला कर रख दिया।
‘‘चले ज़िंदगी की गाड़ी, इज्ज़त की रोटी
 अल्लाह करम हो, तेरे बंदे रशीद पर’’
इज्जत की रोटी और रशीद इन शब्दों ने मेरी सारी इंद्रियों को सचेत कर दिया। अतीत सामने खड़ा हो गया। रशीद भाई के शब्द स्मृतियों के खाने से सिर उठाने लगे पर ग्रीन लाइट में तीस सेकेंड का बाकी समय, ऑटो की दूरी और अपने स्कूटर को अकेले छोड़ कर जाने के ख्याल ने सभी आफतों को एक साथ मुझ पर लाद दिया। मैंने सीट पर ही तिरछा हो कर ऑटो-रिक्शा वाले को नज़र के दायरे में लाने का भरसक प्रयास किया पर सब व्यर्थ। मन की आँखों से मुझे साफ दिख रहा था कि हो न हो ये रशीद भाई ही हैं। तेजी से चौपट हो रहे सिलाई के धंधे को न संभाल पाने और अपनी गिरती ज़िंदगी को पार लगाने का ये रास्ता चुना उन्होंने। सिगनल मिलते ही मेरे स्कूटर ने रफ्तार पकड़ ली जैसे मेरे मन में लगातार इज्जत की रोटी और बंदा रशीद की धुन दुगुन-तिगुन में बजने लगी। मैं ऑटो की दिशा में भागने लगा। भागते हुए मेरी आँखें ऑटो वाले की वर्दी के भीतर रशीद भाई को बेचैनी से खोज रही थीं। उसके पीठ, कंधे और बालों का रशीद भाई की काठी और हुलिये से मिलान करता मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था। मैली-कुचैली वर्दी में ऑटो-रिक्शा वाले को जब मैंने नज़दीक से देखा तब जाना शब्द इसके भी रशीद भाई जैसे हैं पर ये रशीद भाई नहीं। दो घड़ी का समय लगा मन को स्थिर होने में। स्थिर होते ही मन ने कहा शब्द इसके भी कहाँ होंगे? वो तो किसी पेंटर के ही होंगे। मिलते ज़रूर हैं रशीद भाई के फलसफे से पर कौन जाने पेंटर कौन है? हिन्दू भी हो सकता है। पर रशीद भाई? उन्होंने भी तो कहीं कोई ऐसा ही काम?… हो भी सकता है। ज़रूरी तो नहीं परवेज़ क्लर्क ही लगा हो खरादिया भी तो हो सकता है न? और असलम वो भाग गया हो पाकिस्तान अपने किसी चाचा-ताऊ के यहाँ। एक आते तो थे कई बार उनके घर। अक्सर उन्हीं के साथ घूमता दिखाई देता था असलम। हमारी मकान-मालकिन जिन्हें हम चाची कहते थे कितना डर गईं थीं उन्हें मोहल्ले में देख कर। आज भी उनके शब्द कानों में उस दिन की तरह जिंदा हैं- ‘‘कैसी डरावनी तो आँखें हैं.. अभी चेहरे से निकल कर खून कर दें किसी का।’’ मुझे याद है पापा कितना नाराज़ हुए थे उनसे। पर उस दिन के बाद जब भी मुझे अफज़ल के चाचा दिखते मैं डर जाता। उनके चेहरे के संग चाची के शब्द किसी चेतावनी से चस्पां हो गए थे। पता नहीं उसके चचा रहते कहाँ थे? कहीं रशीद भाई शहर छोड़ कर चले तो नहीं गए उनके पास? …आखिर कैसे जी रहे होंगे रशीद भाई? मेरे मन में अचानक रशीद भाई के लिए दया का सैलाब उमड़ने लगा। 
‘‘ इसमें इतना भी क्या परेशान होना? चले जाओ किसी दिन अपने पुराने मोहल्ले या उनकी दुकान पर। यहाँ बैठे सोचते रहने से क्या हासिल होगा भला?’’ शिखा मेरी चिन्ता भांपते हुए बोली।
‘‘और मिलने पर क्या कहूँगा… क्यों आया हूँ?’’ मैंने सवाल दाग दिया।
‘‘कह देना मिलने और क्या?’’
‘‘इतने सालों में कोई खोज-खबर ली नहीं और अब अचानक…’’ शिखा सहज थी पर मैं दुविधा में फँस गया।
‘‘तो कहना कपड़े सिलवाने के लिए और क्या?’’ शिखा ने बिना देर लगाए कहा। मैं जितना उलझा हुआ वो उतनी ही सुलझी हुई। उसकी बात से जैसे मुझे सुकून और सही राह दोनों साथ मिल गए। इधर ज़रा-सा इत्मीनान हाथ आया ही था कि एक भारी ग्लानि भी उसी राह चली आई। रशीद भाई की चिन्ता में शामिल अपना कुसूर भी मुझे साफ दिखाई देने लगा। जब मैं पिता जी के नक्शेकदम पर था और रेडिमेड कपड़े मेरे लिए आफत हो रहे थे तब क्यों मैंने रशीद भाई को अब तक नहीं ढूँढा? क्यों मैंने अपने संतोष की बलि चढ़ने दी। क्यों नहीं पापा की ही तरह अपनी पसंद को तरजीह दे पाया और क्यों मैंने नए ज़माने के नए चलन की तेज़ आँधी में सब उड़ जाने दिया? अचानक मेरी आत्मा पर पिछले कई बरसों में उजड़ गए दर्जियों और ठप्प पड़ गए उनके काम-धंधों में अपना किया कुसूर बहुत नागवार गुजरने लगा। मुझ जैसे कसूरवारों ने ही रशीद भाई जैसों की हालत बदतर बना दी। कल तक मैं भव्य ब्रांड के रेगिस्तानी धोरों को कोस रहा था तो आज उन रेतीली इमारतों की ऊँचाई पर मैंने खुद को खड़ा पाया। उस ऊँचाई से जब मैंने नीचे की ओर देखा तो दर्जियों के बन्द होते धंधे और मोहल्ले में सिलाई मशीन ले कर पुराने कपड़ों को दुरूस्त करते एक-आध बेचारे-से कारीगर ही दिखाई दिए। हालत ये हो गई है कि अब घरों में भी सिलाई मशीन रखने का चलन खत्म हो गया। यूज़ एंड थ्रो के चलन ने पुरानी चीज़ों के साथ हर पुराने चलन को भी लात मार कर फेंक दिया। पुराने काम-धंधों और हुनर की ऐसी बेइज्जती से मेरा मन कांप गया। मैंने प्रण किया कुछ भी हो कल मुझे हर हालत में रशीद भाई के बारे में पता करना ही है। मन का एक कोना ये भी समझ रहा था कि पुराने सब कुछ को उड़ाती तेज़ आँधी में मेरे भावुकतापूर्ण विचार कितनी देर टिक पाएंगें? पर मन कहता कि चाहे कुछ हो डर के मारे हर बार शुतुर्मुर्ग बन कर जीने से क्या हासिल? और फिर कौन सोचेगा इनके बारे में? मैं खुद को दिलासा देता तमाम भयों पर फतह पाने के किसी पोशीदा राज में खो गया। रात भर मैं बाज़ार का पुराना नक्शा दिमाग में बनाता रहा। घूमता रहा उन गलियों में और खोया रहा अपनी चिन्ताओं में। आज पापा भी बहुत याद आ रहे थे। कितने जीवट वाले इंसान थे। अपने निर्णयों को सम्मान से जीने वाले थे, ये आज गहराई से समझ आ रहा था। जगभाता नहीं मनभाता करने वाले। उनके खब्ती स्वभाव की कद्र आज उसकी नज़र में बढ़ती ही जा रही थी। उस स्वभाव की जिसका उनके बच्चों और पत्नी दोनों ने खूब मज़ाक उड़ाया था। माँ कितनी बार कहती- ‘‘क्या तुम हमेशा बाज़ार-बाज़ार करते रहते हो। बाज़ार ऐसा हो गया। बाज़ार ने ये कर दिया।’’ खुद मुझे भी तो कितनी ही बार ऐसा ही लगता….पर आज उनके उसूलों का अर्थ कुछ अलग तरह से समझ आ रहा है। नए मकान में जब तक जिए घर में राशन रौनक स्टोर्स से ही आया। जीवन भर छोटे दुकानदारों से उनका प्यार-मोहब्बत, भाईचारे का रिश्ता बना रहा।
अगले दिन मैंने अपना स्कूटर उठाया और चल पड़ा अपने रशीद भाई को ढूँढने। कई साल पहले मौसेरी बहन की शादी में जो शर्ट-पैंट का जोड़ा मुझे मिला था उसे एक थैले में डाल कर शिखा ने मुझे दे दिया। बरसों से वो जोड़ा इसी थैले में कैद था। यों भी अब शादी-ब्याह पर हम जैसे लोगों के परिवारों में ही इस तरह के जोड़े भेंट किए जाते थे।  पुरानी रस्म की तरह यह भी रस्म अदायगी ही थी। जोड़े के साथ मैंने अपने सारे सवालों और ख्यालों को भी उस थैले में डाला और मंजिल की ओर निकल पड़ा। ज्यों-ज्यों दूरी तय होती जा रही थी मेरी धुन को भी पंख लगते जा रहे थे। नॉस्टैल्जिया दिमाग से मेरी आँखों में उतर कर बाज़ार को साकार कर रहा था और जिंदा हो रहा था दृश्यों का वह संसार जिसकी हरकतों पर मैं जान देता था।

‘‘एक बार मिल जाएँ रशीद भाई फिर अपने सभी दोस्तों, परिचितों को भी उनकी दुकान की राह दिखाऊंगा। बरसों से ठप्प उनका धंधा फिर आबाद होगा। रशीद भाई का सिक्का फिर से जम जाएगा।’’ मेरा उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। ये उत्साह बरसों की दूरी को पाटता आनंद की लहर में था। अपनी ठीक-ठाक याददाश्त के सहारे मैं बाज़ार में पहुँचा तो उसकी सूरत बिल्कुल बदल चुकी थी। मैंने बचपन में उसे जिस रूप में देखा था उसका कोई निशान आज बाकी न था। अतीत के जादू में घिरे होने के कारण मेरे लिए बाज़ार बिल्कुल वैसा रहा जैसा मेरा बचपन। जैसे वहीं ठहर गई मेरी वो उम्र। पर इस समय वास्तविकता से टकराते ही मुझे दिखाई देने लगा मेरी दोनों उम्रों के बीच का फासला। इस फासले पर ध्यान जाते ही जादू टूटने लगा। ये बाज़ार भी तमाम दूसरे बाज़ारों में बदल गया जो मोहल्लों और मॉल्स के बीच मोहल्लों के बाज़ारों को पीछे छोड़ते मॉल्स की बराबरी करने में लगे थे। मुझे दिखने लगीं चमचमाती भव्य दुकानें, चुस्त सेल्समैन और मोटा ग्राहक। गाड़ियों से पटे रास्ते और धक्का-मुक्की करता ग्राहकों का रेला। मॉल्स जितनी जगह तो यहाँ असंभव थी पर उनकी बराबरी की धुन में हर दुकान अपनी भव्यता में निराली दिख रही थी। मेन सड़क पर कढ़ाई-सिलाई और कपड़ों की उन दुकानों का नामोनिशान तक न था जो मेरे जेहन में आज तक जीतीं थीं। वहाँ थीं तिमंजिला दुकानें, आलीशान दुकानें, रौनकदार दुकानें और मैं पॉलीथिन बैग में कपड़ा लिए उनसे गुजरता हुआ जा पहुँचा उस गली के द्वार पर जहाँ से अन्दर कुछ चालीस-पचास कदम पर ही थी मन्नत टेलर्स की दुकान। मैंने गौर किया बाज़ार की तरह गली भी बेहद बदल गयी थी। हाथ के कारीगरों के धंधे वहाँ से उठ चुके थे। कहाँ चले गए होंगे वो खानदान? क्या हुआ होगा उनके खानदानी हुनर का? कैसे कमा-खा रहे होंगे अब? शहरों में तो उनकी माँग खत्म हुई। शायद धंसे होंगे नमालूम सी कस्बाई गलियों में कहीं। कुछ को बड़े डिज़ायनर्स और कंपनियों ने मामूली वेतन पर रख लिया होगा। कुछ देश के अनेक हिस्सों में सस्ते श्रम और बिना किसी बुनियादी सुविधाओं के विदेशी कंपनियों के टेलर होकर रह गए होंगे। यानी कपड़ा हमारा, मज़दूर हमारा और मुनाफा टैगधारी कंपनी का। इनके अलावा शहर में जो बाकी बचे भी होंगे वो अपने भीतर के कलाकार को मार कर ऑलट्रेशन जैसे मामूली कामों से पेट पाल रहे होंगे। न जाने कैसे? मेरे लिए रशीद भाई की खोज आज केवल एक इंसान की खोज नहीं रह गई। आज कई सूरतें उसमें उभर कर आने लगीं। वो सवाल सर उठाने लगे जिनके बारे में मैंने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। सब मेरे लिए भी चलता है जैसा ही तो था। अपने सभी सवालों के साथ दिमाग में यहाँ आने का मकसद एक बार फिर कौंधा। रशीद भाई को तो ढूँढना ही था। कदम आगे बढ़े तो मैंने देखा गली के दोनों ओर कुछ गोदाम-से बन गए थे। अन्दर के मकान काफी स्टाइल में बने खड़े थे जब कि पहले कोने का खन्ना जी का खन्ना निवास का बोर्ड लगा मकान ही भव्य दिखाई देता था। उसने आज शानदार शो-रूम का रूप ले लिया था। पर ये क्या? अतीत की गली को वर्तमान से तौलते जब मैं मन्नत टेलर्स पर पहुँचा वहाँ चाय की छोटी-सी दुकान थी। मैंने ध्यान से देखा अवशेष के रूप में मन्न्त टेलर्स का बोर्ड भी नदारद था। मेरी उम्मीद पल भर में आकाश से धरती पर पटक दी गई जैसे और उम्मीद की पसलियां दर्द से कराहने लगीं।
‘‘भई! यहाँ मन्नत टेलर की दुकान थी पहले।’’ चाय वाले से सवाल कर मैंने पीढ़ा से कराहती चित उम्मीद को जैसे-तैसे खड़ा करने की कोशिश की।
‘‘होती होगी बाऊ जी, पर मैं तो तीन-चार साल पहले ही आया हूँ। मैं नहीं जानता। सारा इलाका बदल गया है। न पुराने दुकानदार रहे,  न मकान-मालिक।’’ चाय वाले के शब्दों से मिली निराशा में मैं जैसे ही पलटा वह बोला- ‘‘कोने की जो दुकान है न बाऊ जी। वो पुराने दुकानदार हैं। शायद कुछ जानते हों। थोड़ी-बहुत दुकानें मार्किट के सबसे पिछले हिस्से में चली गईं हैं। यहाँ तो बड़ी-बड़ी दुकानें हैं बस। मेन रोड है न।’’ मेरे पस्त हौसले ने फीकी-सी हँसी में उसका धन्यवाद दिया, जो दिया न दिया बराबर था। रशीद भाई को खोजने की मेरी आग पर ठंडा पानी पड़ गया था। पॉलीथिन बैग पर मेरी मजबूत पकड़ भी ढीली पड़ गई। एक आखिरी उम्मीद में, मार्किट के पिछले हिस्से की ओर जाने से पहले मैं उस कोने की दुकान की तरफ बढ़ चला कि कुछ पता चल सके रशीद भाई का। इनफिनिटी नाम की तिमंजिली दुकान के हर फ्लोर पर रंग-बिरंगे कपड़े जगमगा रहे थे। बाहर से मेरे संग आया गर्मी का पारा ए सी की ठंडक में उतरने लगा। कानों में किसी तेज़ गाने की धुन समाने लगी, उसके संग चला आ रहा था ग्राहकों का तेज़ शोर। दुकान में दाखिल हो कर मैंने मालिक को पूछा तो बेहद व्यस्त सेल्समेन ने एस्केलेटर की दिशा में तीसरी मंजिल की ओर इशारा किया। मेरा मन भले ही उदास था पर नज़र हर फ्लोर पर बच्चों, औरतों और आदमियों के कपड़ों, ग्राहकों की भीड़ और व्यस्त काउंटर्स की अनदेखी न कर सकी। तीसरी मंजिल के दो हिस्सों में एक तरफ शानदार ऑफिस था तो दूसरी ओर कपड़ों का सेक्शन। ऑफिस की शान था दीवार में जड़ा शीशे का बड़ा-सा पैनल जिससे नीचे के बाज़ार की रौनक भीतर दाखिल होती जान पड़ती थी।
‘‘जी?’’ डेस्कटॉप पर हिसाब में उलझे मालिक ने मुझे एक झलक देख कर अपनी आँखों को दुबारा डेस्कटॉप पर केंद्रित किया। उसका जी काफी वजनी महसूस हुआ मुझे। उसकी ठसक और स्टाइल से भरी उपेक्षा के बावजूद मैंने अपनी बात कही-
‘‘ कुछ जानना था आप से।’’
मेरी बात को कोई महत्व नहीं दिया गया है, ये जान कर भी मैंने पूरी बेशर्मी के साथ कुछ रूक कर कहा- ‘‘यहाँ मन्नत टेलर्स की एक दुकान हुआ करती थी। रशीद भाई की… उन्हीं के बारे में पता करना है… किसी ने बताया आप काफी पुराने बसे हैं इस जगह।’’ अचानक मालिक ने खुद को डेस्कटाप से मुक्त किया और मेरे चेहरे की ओर एकटक देखने लगा। मुझे बड़ा अजीब-सा महसूस हो रहा था… पता नहीं यह क्यों घूर रहा है? एक जानकारी के बदले में उसका इस तरह घूरना मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। शायद मेरे आने से उसके काम में कोई भारी रुकावट आ गई थी।
‘‘आप समीर हैं न? मास्साब के बेटे?’’ उस के इन दो सवालों से थैला मेरे हाथों में जकड़ा रह गया और मेरी आँखें अचरज की आखिरी सीमा तक फैल गईं।
इस से पहले कि मैं कुछ कहता मालिक बोला- ‘‘आज कैसे रास्ता भूल गए आप? इतने सालों बाद?’’ मेरा दिमाग सौ गुना रफ्तार से अतीत को खंगाल कर इस आदमी को पहचानने की कोशिश करने लगा। मेरी पेशानी पर पड़ी सिलवटों के साथ ही मेरी आँखें पहले फैलीं और अब सिकुड़ कर दूरबीन बन गईं। मैं उसके लैंस को घुमाता मालिक के चेहरे को अपने एकदम करीब ले आया। क्लोज़ अप में चेहरे की रेखाएं और नसें सब उभरने लगीं। कहाँ देखा है इसे? कौन है ये?- के सवालों से मैं जूझ ही रहा था कि वो अपनी कुर्सी से उठ कर मेरे पास आया।
‘‘ मेरा हुलिया काफी बदल गया है पर आपका चेहरा बिल्कुल वही है… मैं असलम.. समीर भाई! पहचाना?’’ असलम के शब्द गर्मजोशी से मुझे छू रहे थे। उसे अचानक पास आया देख मैं कुछ कहता कि उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया। उसके हाथों की पकड़ किसी गहरी दोस्ती-सी मुझे सहला रही थी और मैं खुद को उसके हवाले किए दे रहा था। अगले क्षण उसने मुझे थाम कर अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया।
‘‘अब्बा आज तलक याद करते हैं आप लोगों को। मास्साब का जिक्र चलता रहता है घर में। यकीन जानिए वो दौर कब का बीता पर आप जैसे कितने लोग हमारे दिलों में बसे रहे। देखते-देखते पुराना काम सब बन्द हुआ। बाज़ार इतना तेज-रफ्तार हुआ कि हाथ से काम करने वाले बुरी तरह पिछड़ गए। एक-एक करके कई दुकानें बन्द हुईं फिर बिक गईं और कुछ सिमट गईं बाज़ार में एकदम पीछे। अब्बू कई साल संभालते रहे जैसे-तैसे। लड़खड़ाते हुए गिरे भी कई बार। बड़ा बुरा दौर था हमारा। अब्बा के लाख चाहने पर भी हम दोनों भाईयों में सिलाई का खानदानी हुनर न उतर सका पर भाईजान और मैं आपके वालिद की समझाइश पर बढ़ते रहे। मेरी हालत तो आप जानते ही थे… पर मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। भाईजान तो शुरू से ही अच्छे थे पढ़ाई में अब बाहर ही सेटल हो गए और मैं एम. बी. ए. के बाद अब्बू के साथ। कपड़े का कारोबार अब्बू की जान है। उन्होंने अपने वालिद का साथ दिया और मैंने उनके साथ खड़े होना मुनासिब समझा। आखिर औलाद पर वालदेन का भी हक है न? भाईजान भी पूरी मदद करते हैं हमारी। बस अब्बू और उनकी मदद से ही धीरे-धीरे इस इनफिनिटी ने शक्ल पाई। बाकी जो है सो आप देख ही रहे हैं। हम दोनों ने अब्बू को काम से एकदम फारिग कर दिया है पर त्यौहार पर शौक से आज भी कैंची उठा लेते हैं।’’ उसकी मुस्कुराहट मुझसे छिपी न रह सकी। अतीत से आज तक का पुल बनाते असलम के शब्दों की ताज़गी मेरी मुर्दनी पर भारी थी।
‘‘और आप सुनाओ? क्या चल रहा है?’’
‘‘स्कूल में पढ़ाता हूँ।’’ चार शब्दों को बेहद ठहर-ठहर कर मैं बोल पाया। न मालूम वो किस गहरी खोह से निकल रहे थे।
‘‘आप भी मास्साब…’’ असलम के शब्द सहज थे पर वजनी हथौड़े से मेरे सीने पर पड़े। मुझे महसूस हुआ उसकी कुर्सी और मेरी कुर्सी के बीच कोई टेबल नहीं विशालकाय समुद्र लहरा रहा था। कुछ भी न कर पाने की हालत में मैं पॉलीथिन बैग को छिपाने की दिलो-जान से कोशिश करने लगा। मैं उसे जितना छिपाता वो अपनी चर्रमचूं से उतना अधिक उजागर हो रहा था।
‘‘थैला मेज पर रख दीजिए न… इत्मीनान से बैठिए आप।’’
उसके शब्दों से फिर मेरी जान सूखने लगी। मेज पर रखते ही थैला कपड़ों सहित सारा राज़ फाश कर देगा और जाहिर ये होगा कि मैं आज उनकी अपने मुताबिक सोची गिरती हालतपर रहम करने आया हूँ। धड़कते दिल से मैं दुआएं माँगने लगा ये धरती फट जाए और थैला उसमें समा जाए या फिर ऐसा अंधड़ चले कि असलम की आँखें धूल से भर जाएँ। ये थैला उड़ कर मुझसे मीलों दूर चला जाए और वो इसे देख न पाए। मुझे खुद पर और थैले पर बेहद तरस आ रहा था। मैंने उसे अपनी गोद में हाथों की ओट बना कर छिपा लिया। बाकी की कसर असलम और मेरे बीच की मेज़ ने पूरी कर दी। ओट और आड़ दोनों ने थैले को काफी ढाँप दिया। हाथों को बिना हिलाए मैंने उसकी चर्रम-चूं का रास्ता भी बन्द कर दिया।
‘‘अभी कुछ देर में अब्बा भी आते होंगे। कभी-कभार आते हैं दुकान पर। मन नहीं लगता न घर पर और फिर इस जगह से पुराना यराना जो ठहरा उनका।’’
असलम की इस बात से मुझे और धक्का पहुँचा। उससे मिल कर जितना मैंने जाना था उतने भर से ही मैं वहाँ से भागने का रास्ता खोज रहा था पर अब सारी दिशाएं मुझ पर बन्द थीं। सुबह तक जिन रशीद भाई से मिलने के लिए मैं मरा जा रहा था अब उनसे बचने का मौका तलाशने लगा। पर मौका मिलना नामुमकिन था। इससे पहले की मेरा दिमाग कोई बहाना गढ़ता या वक्त मुझे संभलने की मोहलत देता, असलम बोला-
‘‘देखिए अब्बू आ गए।’’
असलम के शब्दों और इशारे की दिशा में जब मैंने शीशे के पैनल से नीचे झांका तो एक गाड़ी दिखाई दी। ड्राइवर ने दरवाज़ा खोला और बड़े अदब से रशीद भाई को उतारा। रशीद भाई जितने इत्मीनान से ऊपर आ रहे थे उनकी धज की हल्की-सी झलक मिलने से मैं उससे चौगुनी गति से किसी तूफान में घिरता जा रहा था। मन किया मैं भी किसी अदृश्य शक्ति से अपने थैले में छिप जाऊँ, कहीं गायब हो जाऊँ। उन्हें सामने जो देखा, देखता ही रह गया। उनकी उम्र ज़रूर बढ़ी थी पर उससे ज़्यादा बढ़े थे उनके ठाठ। बालों को उन्होंने किसी खिजाब का रंग नहीं दिया था। अपनी सफेदी में उनके बाल सुंदर लग रहे थे। चेहरा एकदम सफाचट और उस पर गजब की लाली और तेज़। शरीर पहले से अधिक भारी हो गया था और उसी अनुपात में चेहरा भी भरा-भरा लग रहा था। उनके जिस्म के कपड़ों और हर चीज़ से नफासत बह रही थी और मैं उस ठाठ की बाढ़ में डूबता चला जा रहा था। परिचय के बाद माहौल में एक बुजुर्ग का अपनापन दाखिल हो गया। मुझ से मिलते ही उनके चेहरे से बयां होती खुशी और उत्तेजना की कंपकपी को मैंने महसूस किया। पापा की मौत का उन्हें बेहद अफसोस था। कुछ देर की चुप्पी के बाद ऑफिस में फैले दुख की चादर को उन्होंने अपने शब्दों से समेटा- ‘‘बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है। जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस।’’ बाद में उन्होंने मेरे काम-धाम के बारे में पूछा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा-
‘‘मैं जानता था तुम भी अपने वालिद जैसे ही बनोगे। दिखते भी उन्हीं की तरह हो। चाहते तो हम भी थे बेटा! कि हमारा कोई बच्चा भी पढ़ाए… पढ़े तो तीनों खूब पर पढ़ाने वाला कोई न निकला।’’ उनके भरोसे की मोहर के नीचे मैं अब भी अपनी तमाम अटकलों में एक अदना-सा इंसान लग रहा था। कहाँ वे और कहाँ मैं? उनकी खुशी का जवाब मैंने एक फीकी-सी हँसी से दिया। अगले ही क्षण मेरे अन्दर के वहम एक बार फिर मज़बूती से उठ खड़े हुए।
‘‘मन्नत कैसी है अंकल? अब तो वो भी घर-गृहस्थी वाली हो गई होगी?’’ मेरे सवाल पर रशीद भाई मुस्कुराए।
‘‘ अरे! याद है तुमको उसकी? भई! मन की मालिक है वो। हमारी आन और शान। बानो डॉक्टर हो गईं हैं। हार्ट स्पेशलिस्ट। पहले कहती थीं निकाह अपनी पसंद से करेंगी। हम भी इंतज़ार करते रहे। अब कहती हैं निकाह के लिए अभी वक्त मुफीद नहीं। बरखुरदार आजकल तुम्हारे जैसे होनहार बच्चे खूब जानते हैं अपना भला-बुरा। हम ने तो सब उन पर छोड़ रखा है।’’
रशीद भाई ने मेरे वहम को ज़रा भी मोहलत न दी। उन्हें ज़रा तरस न आया मुझ पर… मन्नत भी?
मेरे लाख मना करने पर भी रशीद भाई ने चाय-नाश्ता मंगा कर घर के आदमी जैसी इज्ज़त मुझे दी। पूरे आग्रह से मुझे खिलाया। पापा के ज़िक्र ने उस माहौल में पुराने दिनों को लौटा दिया। उनके पास पापा से जुड़े कई किस्से थे। उनकी बातचीत और मेरे परिवार के प्रति उनके स्नेह ने मुझे हर तरह की शर्मिंदगी से उबार लिया।
 ‘‘आपके वालिद के इंतकाल के समय मैं बाहर था… परवेज़ के पास। बेटा! आज उन्हीं के फज़ल से मेरे तीनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं।’’ मेरे मन में रशीद भाई के लिए आदर और गहरा हुआ। चलते समय जब मैं उनके पैर छूने को झुका तो आगे बढ़ कर उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और नम आवाज़ में कहा-
‘‘भाभी को मेरा सलाम कहना और आते रहना बेटा! आज तुम से मिल कर दिली खुशी मिली है मुझे।’’
रशीद भाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से निकल रहे थे। चेहरे पर असलम की हँसी के जवाब में एक मुस्कुराहट थी। मैं खुश था कि रशीद भाई खुश हैं, उनका परिवार खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कर रही थीं- क्या सब रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे हाथ में दबा हुआ थैला मुझे बहुत भारी लगने लगा।

सम्पर्क-
ई-112, आस्था कुंज अपार्टमेंट्स
सेक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-89
मोबाईल- 9811585399

ई-मेल : pragya3k@gmail.com
(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रज्ञा रोहिणी की कहानी ‘फ्रेम’

प्रज्ञा रोहिणी



शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच.डी।
जन्म – 28 अप्रैल 1971
प्रकाशित किताबें
‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह जनता के बीच जनता की बात’। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा तारा की अलवर यात्रा’। सामाजिक सरोकारों को उजागर करती पुस्तक आईने के सामने’ स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित।
कहानी-लेखन
कथादेश, वागर्थ, परिकथा, पाखी, वर्तमान साहित्य, हिंदी चेतना, जनसत्ता, बनासजन, पक्षधर, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
पुरस्कार – सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक तारा की अलवर यात्रा’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार।
जनसंचार माध्यमों में भागीदारी
जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, नयी दुनिया जैसे राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
संचार माध्यमों से बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमो के लिए लेखन और भागीदारी।
नाटक संबंधी कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
हमारे समाज में स्त्री आज भी तमाम बन्धनों के जंजीरों से बंधी हुई है। जीवन के किसी भी मोड़ पर जैसे उसका बस ही नहींप्रेम जैसी उत्कृष्टतम मानवीय अनुभूति भी उसके लिए तब बेमानी हो जाती है जब वह जाति-धर्म-क्षेत्र की संकीर्ताओं को तोड़ने का प्रयास करती है। प्रज्ञा रोहिनी ने इसी कथानक को ‘फ्रेम’ के ताने-बाने में बुना-गढ़ा है। तो आइए पढ़ते हैं प्रज्ञा रोहिणी की यह कहानी
फ्रेम
प्रज्ञा रोहिणी
                                                                                                           
आज शाम पांच बजे आई. एन. ए…. दिल्ली हाट”
“ओ.के.”
“ठीक पांच”
“ओ.के.”
रावी और जतिन के बीच दिन भर में न जाने कितने मैसेजेस का आदान-प्रदान होता रहता है। कहने को दोनों एक ही जगह काम करते हैं पर कितने जोड़ी आंखें और कितने जोड़ी कान उन्हीं की तरफ लगे रहते हैं। जैसे ही दोनों के हाथ फोन पर जाते हैं कितने होंठों पर मुस्कुराहट तैरने लगती है। चाहे खट्टी हो या मीठी। एक ही ऑफिस के अलग हिस्सों में बैठे रावी-जतिन जानते हैं कि वो लोगों के मनोरंजन का बेहतरीन साधन हैं। एक लाइव, मजे़दार टाइम पास। उनके इर्द-गिर्द घूमते लोग पियून से लेकर वाइस प्रिंसीपल तक सभी को इस किस्से में गहरी दिलचस्पी है। ऊपर से खुद को निस्पृह दिखाने वाले भी आंख-कान खुले रखते हैं। और रूमाल से नाक को पोंछ-पांछ कर उसके सूंघने की क्षमता पर आंच नहीं आने देते। झूठी और गढ़ी हुई कोई भी बात इन दोनों के नाम से खूब चलती है पूरे स्कूल में। नॉन टीचिंग ही नहीं टीचिंग स्टाफ भी उनके चेहरे पढ़ कर कहानियां रचने का एक्सपर्ट हो रहा है। रावी-जतिन दोनों से ये तमाम हरकतें छिपी नहीं हैं। पर सावधानी हटी दुर्घटना घटी की तर्ज पर दोनों अतिरिक्त रूप से सावधन ही रहते हैं। दोनों के लिए हर पल एक आफत की तरह गुजरता है। बैठने-उठने, बोलने-बतियाने में हर तरफ नजरों का कड़ा पहरा उनको साफ दिखाई देता है। जतिन तो बार-बार कहता है-दो दिल मिल रहे हैं मगर चुपके-चुपके…” और रावी का जवाब हर बार उसे सावधान करते हुए यही होता है-सबको हो रही है खबर चुपके-चुपके।“
सप्ताह में दो-तीन बार रावी बहाने बना कर जतिन से मिलने में कामयाब हो ही जाती है। यों तो रोज़ ही जतिन की आंखों से मिली तारीफ पाने के चक्कर में रावी तैयार हो कर आती है पर जिस दिन दोनों के घूमने का प्लान होता है उस दिन तो रावी से नज़र ही नहीं हटती। कपड़े और बालों के अंदाज से ही नहीं उसके बोलने-चालने के अंदाज़ से ही सबको शक हो जाता है कि आज तो कोई खास बात है। जतिन के साथ समय बिताने की कल्पना से ही वह दिन भर अपने में मगन-सी रहती है। दिमाग में लगातार एक लिस्ट बनाती रहती है जरूरी बातों की जो आज जतिन से हर हाल में करनी ही हैं। वैसे तो मोबाइल से हर तरह की सहूलियत है पर हाथों में हाथ और आमने-सामने की बात का मजा ही और है। उस दिन तो कोई कुछ पूछे पहली बार में रावी को समझ ही नहीं आता फिर चौंक कर कहती है क्या कहा दोबारा कहिए?” लोग कोहनी मार कर आंखों में एक-दूसरे से कहते हैं- “हां भई दिमाग तो जतिन में लगा रखा है हमारी बातें क्या खाक समझ में आएंगी।“ जतिन अपने आप को संयत रखने का ढोंग बखूबी निभा लेता है पर रावी अपना पार्ट निभाने में अक्सर चूक जाती है। कहने को जतिन स्कूल का यूडीसी है और रावी उसके मातहत तीन एलडीसी में से एक। इसलिए मिलने -मिलाने के अवसर कम नहीं हैं पर ये मिलना भी कोई मिलना है? स्कूल से ही अगर घूमने का कार्यक्रम बनता है तो दोनों ,लोगों की आंखों में धूल झौंकते हुए रोज़ की तरह अपने अपने रास्तों की ओर निकलते हैं और फिर तय किए प्वांइट पर मिल कर रावी जतिन की बाइक पर सवार हो जाती है। रावी हेलमेट लगाना कभी नहीं भूलती। कई बार जतिन से कहती है–
या तो गाड़ी खरीद लो नहीं तो एक बुर्का।“
और जतिन यही जबाब देता- “गाड़ी तो आ ही जाएगी और कुछ दिन बाद बुर्केवाली घर ही आ जाएगी।“
नये ज़माने की तमाम हवा लगे होने के बावजूद जतिन के ये शब्द अनोखा-सा रोमांच भर देते रावी के भीतर।
आज भी रावी की लिस्ट हमेशा की तरह तैयार थी। वैसे तो वह जतिन के सामने एक धैर्यवान श्रोता की ही तरह बैठती थी पर अपनी बात कहने के बाद। आज की लिस्ट के मुताबिक पहला मसला चंदेल चाचाजी और उनकी जासूसी का था। नाक में दम कर रखा था उन्होंने। अरे सगे चाचा थोड़े ही न हैं तुम्हारे जो इतना डरती रहती हो उनसे।”
सगे नहीं हैं पर रोब तो पूरा है उनका। पापा इसी स्कूल से जो रिटायर्ड हुए हैं और फिर मेरी नौकरी लगवाने में भी… …
“उस नाते तो मैं तुम्हारा चाचा हुआ मिस रावी मित्तल। तुम्हारी नौकरी लगवाने में मेरा रोल सबसे ज़्यादा है। तुम्हारे पापा ने इस काम के लिए बड़ी चिरौरी की थी मेरी। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उनके रिटायर होने से पहले तुम यहां आ जाओ। कम पापड़ नहीं बेले हैं मैंने।”
“हां -हां सब मतलब के लिए तो”
“सच रावी जब तक तुम्हें देखा और जाना नहीं था। तुम मेरे लिए मित्तल सर की बेटी ही थी। एक सहकर्मी होने के नाते ही यहां तुम्हारी अस्थाई नियुक्ति में मेरी और तुम्हारे चाचा जी चंदेल साहब की भूमिका थी। पर क्या तुम नहीं जानतीं कि यहां स्थाई करवाने के लिए मैंने कितनी भागदौड़ की। वो तो भला हो प्रिसींपल सर का जो मेरी बात सुन-समझ लेते हैं नहीं तो इन पब्लिक स्कूलों में नौकरी मिलनी कितनी मुश्किल है?
“यही तो मतलब था।”
अब प्यार को मतलब कहोगी तो कैसे चलेगा?
पर चाचाजी को पक्का शक है। अपने जासूस छोड़ रखे हैं उन्होंने। उनको अपने घर देख कर जान सूख जाती है मेरी।”
परेशान न हो रावी इतने भी बुरे नहीं हैं।”
हां बुरी तो मैं हूँ जो यहां तुम्हारे चक्कर में अपना समय गवां रही हूं। तुम कैसे भी इस मुसीबत से मेरा पीछा छुड़वाओ।”
“कैसे?
“पापा से सब कह दो। देर हो जाएगी तो…”
“ऐसे कैसे देर हो जाएगी? थोड़ा इंतज़ार करो। और तुम भी न यही सबके लिए मिलने आई थीं यहां? चलो कुछ और बात करो।”
“रहने दो।”
अरे कर लूंगा बाबा अब तो कुछ और बात करो न प्लीज़।”
अच्छा जतिन क्या शादी के बाद भी हम यहां ऐसे ही आते रहेंगे?
क्यों नहीं? शादी होने से सब कुछ बदल जाएगा क्या?
हां सब तो यही कहते हैं। प्रेम-विवाह भी बाद में बाकी विवाहों जैसा ही हो जाता है।”
क्या मतलब?
मतलब मैं नौकरी और घर संभालूंगी और तुम बाहर रहोगे।”
रावी शादी के बाद क्या मुझे घर से निकाल देने का इरादा है तुम्हारा? और तुम ही घर क्यों संभालोगी? मेरे घर को मैं भी संभालूंगा। और तुम कभी-कभी अकेले आना यहां शाम बिताने। कभी घूमने -फिरने अपने दोस्तों के साथ। मैं खाना बना कर तुम्हारा इंतज़ार करूंगा।”
जाओ-जाओ ये सब कोरी बातों से न फुसलाओ।”
रावी-जतिन की शामें ऐसी ही नोंक-झौंक में निकल जाती। जतिन को कई बार लगता कि रावी जैसे एक अबोध बच्चे की तरह है जिसने अपनी मां-दादी-नानी को देख कर जीवन के कुछ निष्कर्ष निकाले हुए हैं और समय के साथ उन्हें बदलना नहीं चाहती। इसीलिए जतिन के घर संभालने और खाना पकाने जैसी बातों पर उसे विश्वास नहीं होता। जतिन गहरे अफसोस से भर उठता था कभी-कभी। कितनी मेहनत की है जतिन ने कि अपने पिता जैसा न बनने के लिए, रावी क्या जाने? आज भी अतीत जतिन की आंखों में जिंदा है।
शारदा कितनी बार समझाना पड़ेगा तुझे? एक बार में सुनता नहीं है क्या? कह दिया दाल-सब्जी में मिर्च नहीं डलेगी, इमली नहीं गिरेगी। क्यों डाला है गरम मसाला? क्या छौंके बिना दाल गले नहीं उतरेगी? बाल-बच्चे वाली हो गयी पर शौक-मौज नई दुल्हन जैसे। चटोरी कहीं की।
जब तक पिताजी जीवित रहे जतिन को समझ ही नहीं आया कि क्यों पिताजी जबरन मां को अपने जैसा सादा खाना खाने पर मजबूर करते रहे सिपर्फ एक तर्क देकर-सादा खाना खाओ शरीर ठीक रहेगा और चंचलता भी काबू में रहेगी।”
और मां धीरे-धीरे रंगती गई पिताजी के रंग में, एक बेरंग, बेरौनक रंग में। पिता की कठोर छवि के आगे अपनी फूल-सी इच्छाओं को मसलती मां। बचपन से ही चटपटे खाने की , घूमने-फिरने, सजने-संवरने और गप्पे मारने की शौकीन मां अपनी जवानी में ही वृद्ध-सी नज़र आती। पिताजी ने बड़ी चतुराई से ढाल लिया था उन्हें। कभी-कभी जतिन को मां पर गुस्सा भी आता। जब भोजन को इतने अरूचिकर ढंग से गटकती मां को देखता। मां फेंक क्यों नहीं देती है ये थाली? क्यों अपने सारे गुस्से को बेस्वाद दाल की तरह हलक में उंडेल लेती है? पिताजी की चालाकी क्यों नहीं समझती है जो खुद अस्वस्थ रहने के चलते मां को भी अपने जैसा बनाने पर तुले हैं। जीवन भर तमाम इच्छाओं को मारने वाली मां जब विधवा हुई तो रिश्तेदारों से भरे घर में एकांत पाकर जतिन से बोली बेटा कहीं से खिचड़ी मिल जाए खूब मटर वाली, ऊपर से घी और ढेर सारा गरम मसाला डालकर ले आ। बड़ा मन हो रहा है। कब से कुछ खाया ही नहीं।” उस दिन से कब से”  शब्द जतिन के मन में अटक गया। उसके बाद जतिन ने खुद से पकाना और मां की पसंद का उसे खिलाना शुरू कर दिया। मां को पकाने से भी अरुचि हो गई थी। कई बार जतिन पूछपाछ कर या इंटरनेट और टीवी की मदद से नई चीजें बना देता तो कई बार बाहर से चाट-पकौड़े भी आ जाते। उसके जीवन की सबसे बड़ी साध ही मां को उसकी पसंद का खिलाना-घुमाना हो गयी। मां से कहता भी कि “मां शादी के बाद तेरी बहू जैसा खाना चाहेगी वैसा ही खाएगी। तेरी तरह इच्छाएं नहीं मारेगी।” और मां कहती कहकर नहीं करके दिखाना तू। और खाने-पीने में ही नहीं घूमने, बोलने-बतियाने, सजने-संवरने सबका ध्यान रखना होगा तुझे।” इसीलिए रावी के भोले निष्कर्षों पर जतिन मन में ही हँस कर रह जाता। वह शादी के बाद जिंदगी को उसे जिंदादिल तोहफे के रूप में देना चाहता था।
स्कूल में केवल एक संजीव सर ही थे जिन्हें जतिन एक परिपक्व और संवेदनशील इंसान समझता था और कई बार रावी से जुड़ी बातों को उनसे साझा भी किया करता था। क्लासेज से कभी-कभार फुर्सत मिलने पर वे जतिन के साथ कुछ समय बिताते। जतिन उन्हें रावी से जुड़ी बातें बताने को तो आमादा रहता ही साथ ही अपनी जिज्ञासाओं के हल और अपनी संशयों को भी बांटता। जल्दी ही उसे रावी के घर भी जाना था तो थोड़ा परेशान भी था। अपनी परेशानी लेकर जतिन एक दिन संजीव सर के सामने हाजिर हो गया।
“सर, रावी के पिता तो मुझे बहुत अच्छी तरह जानते हैं पर मैंने उन्हें जितना जाना है वे जात-बिरादरी और धर्म के बड़े पक्के हैं। क्या वे मुझे स्वीकारेंगें?
मेरे हिसाब से तो तुम एक बार उनसे मिल लो बाकी निर्णय तो तुम दोनों का ही है। तीस पार की उम्र है रावी की, शादी के बारे में सोच तो रहे ही होंगे। न भी माने तो तुम लोग अपना निर्णय जीना। दोनों समझदार हो, आत्मनिर्भर भी हो।”
पर मुझे लगता है कि रावी के मन को ठेस लगेगी अगर वे नहीं माने तो। उसका सपना है उसके परिवार की सभी शादियों की तरह सब हंसी-खुशी और पूरे तामझाम के साथ हो। देखने से तो समझदार लगती है पर मैं ही जानता हूं कि अभी उसमें कितना बचपना बाकी है।”
और तुम क्या सोचते हो जतिन इस बारे में?संजीव सर ने तार्किक मुद्रा में सवाल किया।
हंसी-खुशी तो मैं भी चाहता हूं सर पर तामझाम नहीं। मैंने अपनी शादी के बारे में यही सोचा है कि किसी से भी आर्थिक मदद नहीं लूंगा। जो मेरे पास है जैसा है उसी में अच्छा करने की कोशिश रखूंगा। रावी से भी मुझे कोई मदद नहीं चाहिए। पर वो मेरी बातों पर गौर ही नहीं करती। उसे तो लगता है मां-बाप बेटियों के लिए करते ही हैं सब। अक्सर हम दोनों की इस बात पर तकरार हो जाती है सर।”
सही सोचा है तुमने… और रावी अभी तक इसे सामान्य विवाह की तरह ही ले रही है। हां, पर अब देर करना सही नहीं। एक बार मिल लो मित्तल जी से और तुम दलित-वलित तो हो नहीं जो उनके गले नहीं उतरोगे। मेरी जरूरत हो तो बताओ?
तो आप क्या सस्ते में छूट जाएंगे सर? पर अभी मैं अकेले जाऊंगा फिर मां और आप चलिएगा। पिताजी हैं नहीं और बड़े भैया को बिना दहेज वाली शादी में कोई इंटरेस्ट होगा नहीं।
जतिन ने सोच लिया कि अगले इतवार हिम्मत करके रावी के पिता से साफ-साफ बात कर लेनी है। बीच के कुछ दिन अपने मन को हिम्मत बंधाता रहा। रावी अन्य प्रेमिकाओं की तरह अपने पिता को अच्छी लगने वाली बातें उसे बताने लगी ताकि बात करने में सुविधा हो और बात आसानी से बन जाए। इसी बीच स्कूल का एनुअल डे आ गया। एनुअल डे का मतलब सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर पूरे स्कूल के भोज तक था। कई दिनों की मेहनत के बाद जब भोजन का समय आया तो सभी लॉन में इकट्ठे हो गए। इमारत लगभग खाली थी। रावी और जतिन भी भोजन में शामिल होने जाने वाले थे। पर रावी ने सुबह ही जतिन को बता दिया था कि आज उसकी पसंद का मूँग दाल हलवा बनाकर लाई है। लोगों के न होने से कुछ निश्चिंत होकर जतिन और रावी हलवा खा रहे थे। अपनी प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया में जतिन ने रावी के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम लिए। रावी के बालों को सहलाने के लिए वह उसके करीब आया ही था कि न जाने कहां से चंदेल सर प्रगट हो गए। आज दोनों रंगे हाथ पकड़े गए। जतिन हड़बड़ाहट में कुछ समझ ही नहीं पाया और रावी का हाथ थामे खड़ा रहा। रावी ने जल्दी से हाथ छुड़ाकर नजरें नीची कर लीं। चंदेल सर ने दोनो में से किसी को कुछ भी नहीं कहा। जरा देर ठिठके और चले गए। एक तूफान गुजरा था पर एक बड़े तूफान की आशंका के साथ। रावी उसी समय घर चली गई और जतिन यही सोचता रहा कि किसी भी क्षण मित्तल सर का फोन आता ही होगा।

सारी रात इसी उधेड़बुन में निकल गई कि अब क्या होगा? क्या बीती होगी रावी पर। हालांकि शाम को रावी से कुछ देर बात करने पर जतिन ने जान लिया था कि घर पर कोई सवाल-जवाब नहीं हुआ पर हां घर की हवा को सामान्य नहीं कहा जा सकता था। मां को चाह कर भी नहीं बता पाया जतिन कि चिंता में अपनी सारी रात काली कर देगी मां। जतिन को बार-बार रावी के शब्द याद आ रहे थे-देर हो जाएगी जतिन।” और सचमुच देर हो गयी। चंदेल सर जरूर गए होंगे मित्तल सर के कान भरने। अब इतवार को अपराधी की तरह जाना पड़ेगा और दूसरी ही तरह बात संभालनी होगी। न चाहते हुए भी सारी स्थिति बिगड़ चुकी थी। सुबह स्कूल पहंच कर तो देखा रावी की कुर्सी खाली है। ज्यों-ज्यों समय गुजरता जतिन का मन घटने लगता। सवालों के अनगिनत जंगल और आंशका के स्याह बादल सामने दिखाई दे रहे थे। हिम्मत करके फोन किया तो देर तक बजता रहा और किसी ने फोन नहीं उठाया। अजीब बात ये भी थी कि चंदेल सर से भेंट हुई तो वो भी पहले की तरह ही मिले। चेहरे और बातों से कल की किसी नाराजगी का कोई सुराग नहीं मिला। अब किससे पूछे जतिन रावी का हाल? ऐसे हालात में क्या संडे का इंतजार करे या निकल जाए अभी उसके घर के लिए। सारा दिन काम में मन नहीं लगा जतिन का। संजीव सर भी आज व्यस्त थे फिर निर्णय तो उसे खुद करना है- के ख्याल से जतिन दिन भर खुद से ही उलझता रहा।
शाम के घिरते जाने पर आखिरकार उसने सोच ही लिया बस अब नहीं। रावी की हालत जाने बिना आज घर जाना गुनाह है।” शाम को बिना इत्तला किए जतिन रावी के घर पहुंच गया। जी, मैं जतिन हूं मित्तल सर घर पर हैं क्या?सामने शायद रावी की मम्मी थीं। बिना किसी उत्सुकता के एकदम शांत जवाब मिला-नहीं घर पर नहीं हैं। कोई काम है?
जी मिलना था।”
ठीक है बता दूंगी। फोन करके आना।” पानी पूछने और बिठाने की औपचारिकता पूरी किए बिना ये संवाद हुआ। इस दौरान जतिन की हर सांस रावी की आहट पाने की कोशिश करती रही। पर व्यर्थ। लगा जैसे किसी गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है। चाहते हुए भी पूछ नहीं सका –रावी कहां है? कैसी है?
आज फिर रावी नहीं आई। जतिन का संदेह यकीन में बदल रहा था कि ज़रूर मारा-पीटा गया होगा। पिटाई के निशान और सूजी हुई आंखें लेकर कैसे आती स्कूल? रावी का फोन आज भी बजता ही रहा। दूसरे नंबरों से भी कोशिश की पर व्यर्थ। कई प्रयासों के बाद बिना एक पल गंवाए उसने मित्तल सर को फोन लगाया। सामान्य ढंग से हुई बातचीत में उन्होंने कल शाम का समय दिया। उनकी बातों से जतिन को किसी तूफान की भनक नहीं लगी। मन को राहत पहुंची पर रावी से बात न हो पाना और उसका स्कूल न आना बहुत बुरा लग रहा था।
कैसे हो जतिन? उस दिन तुम आए… कहीं गया हुआ था…पर बता देते मुझे तो… ठहर जाता।
पानी पीते हुए जतिन को लगा एक वाक्य बोलने में इतनी जगह रुकना? पर फिर खुद को संयत किया कि मित्तल सर के लिए भी तो ये सब अजीब होगा। चाय आने तक भी रावी का पता नहीं था। जतिन को लग गया उसे रावी की गैरहाजिरी में ही बात करनी होगी जबकि रावी घर में ही मौजूद है।
सर मैं और रावी चाहते हैं कि हमें आपका आशीर्वाद मिले…शादी के लिए।”
बिना कोई सवाल किए, बिना हड़बड़ाए मित्तल सर ने कहा-मुझे अपने बड़ों से बात करनी होगी।
पर आपको तो कोई एतराज नहीं हैं न सर?अपनी बेचैनी पर काबू न पाते हुए जतिन के मुंह से निकल ही गया।
मित्तल सर जैसे तैयार थे इस सवाल के लिए-देखो जतिन इतनी जल्दी कुछ कह पाना मेरे लिए संभव नहीं। बहुत- सी बातें देखनी होंगी अभी।
सर …रावी…रावी से…
रावी की मौसेरी बहन की शादी है। हाथ बंटाने के लिए उसे बुलाया है। गलती से मोबाइल भी यहीं छोड़ गई है।” आगे के सवाल का अंदेशा लगाकर जैसे मित्तल सर ने जवाब दिया। अब बेशर्म होकर मौसी के घर का पता और नंबर भी तो नहीं मांगा जा सकता। शंका होते हुए भी जतिन का मन कहा रहा था-पर सही भी तो हो सकता है जो कुछ उन्होंने कहा। मिले तो ढंग से ही। चाय-वाय भी पिलाई और गलत भी क्या कहा परिवार से बात तो करनी ही पड़ती है शादी-ब्याह के मामलों में। और बहन की शादी का ज़िक्र तो रावी ने भी किया था।” पर स्कूल को बिना इन्फॉर्म किए जाना और बिना मोबाइल के जाना अखर रहा था जतिन को। तमाम हलचलों के बीच बस एक सुकून था कि आखिरकार अपनी बात कह पाया आज। संजीव सर ने भी हौसला बढ़ाया-जवान आधा काम तो कर ही आए हिम्मत से तुम। यकीन रखो सब ठीक होगा।” पिछले कुछ दिनों से चेहरे पर चस्पां तनाव की वक्र रेखाएं आज किसी हद तक स्थिर हुईं। रात को सोचा मां से कह दे सब पर रोक लिया कि अब अच्छी खबर ही सुनाएगा मां को। उस दिन देर तक गप्पबाजी हुई आज मां के साथ।
 एक बात बताओ मां, सामने फ्रेम वाली तस्वीर में तुम पिताजी के साथ क्यों नहीं बैठी हो? वे बैठे हैं और तुम खड़ी हो?
अरे अपने बराबर कभी बिठाया ही कहाँ रे उन्होंने।”
“तुम जा बैठतीं… जगह तो खाली थी न उनकी बगल में।”
बात तो मन में जगह की थी न रे…चल तू बिठा लियो अपनी रावी को बगल में। वही फ्रेम लगा देंगे इसके बगल में, ऊपर बैठे-बैठे भी कुढ़ेंगे मुझसे।” इस बात पर दोनों देर तक हंसते रहे।
जतिन के नसीब में आए राहत के पल रेत की मानिंद हाथ से फिसल गए। जीवन में एक अजीब अस्थिरता, असुरक्षा और अनिश्चितता ने घर कर लिया। सहज प्रेम की सुन्दर कल्पनाएं बिखर रही थीं। रावी से कोई मुलाकात नहीं, बातचीत नहीं। कहीं कोई राह नहीं, दिशाएं सब उलझीं और अनुत्तरित। दिन हल्की-सी उम्मीद से शुरू तो होता पर एक बड़ी नाउम्मीदी पर उसे अकेला छोड़ जाता। दिमाग रावी को इतना याद करता कि अक्सर जतिन को लगता कि वह रावी की सूरत ही भूलता जा रहा है। ऐसे में स्कूल का काम उपेक्षित हो रहा था। किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं होती थी। हरदम उसे लगता कि पीठ पीछे ही नहीं अब सामने भी मज़ाक उड़ाने में लोग संकोच नहीं कर रहे हैं। अक्सर उसके कान व्यंग्य बाणों के नुकीले प्रहारों से बिंधे रहते और मन सोचता कि समाज किस हद तक असंवेदनशील है। इधर चंदेल सर ने तो इस विषय में उससे बात करने से साफ मना कर दिया। सब कुछ ठहरा, थमा और रुका हुआ था। और रावी जैसे वो कहीं थी ही नहीं। सपनों में रावी, जतिन को किसी तंग तहखाने में चीखती दिखाई देती। कई शाम दूर से उसके घर पर निगाह भी रखता था जतिन, पर सब व्यर्थ। सपनों से भरी एक लड़की इस शहर में गायब कर दी गई थी और कहीं कोई हलचल नहीं थी। सब अपने कामों में पहले की ही तरह व्यस्त थे। किसी को कोई चिंता ही नहीं थी। इस बीच जतिन थर्रा जाता, भाई और पिता द्वारा या रिश्तेदारों द्वारा जाति-धर्म की रक्षा में अपने सपनों के आकाश में स्वतंत्र उड़ने वाली लड़कियों के कत्ल की खबरों से। कई बार लगता कि गुपचुप उसकी शादी तो नहीं कर दी गई है। रावी पर किए अत्याचारों के बारे में सोचकर एक अपराध बोध से रोज भरता जा रहा था जैसे। जतिन के पास सिर्फ इंतजार बचा था –एक लंबा इंतजार।
“कैसे हो जतिन?
रावी तुम हो न? कहां हो रावी? कैसी हो?भर्राए गले से जतिन के बोल फूटे।
सब भूल जाओ जतिन। मैं अपने परिवार को कोई दुख नहीं पहुंचाना चाहती।”
नहीं रावी। ये क्या कह रही हो? अच्छा एक बार मिल लो फिर बात करते हैं।
नहीं जतिन….अब कभी नहीं।
नहीं रावी, रुको, सुनो तो…सुन रही हो न…बस एक बार हिम्मत करके आ जाओ मैं सब संभाल लूंगा रावी। बस एक बार। क्या इस दिन के लिए देखे थे हमने वो सपने? रावी मैं कह…। बात पूरी हुए बगैर ही फोन कट गया या काट दिया गया। जतिन के अल्फाज कुछ देर सांस के साथ धड़के फिर किसी अंधेरे में गुम होते चले गए। अब क्या होगा? यही सबसे बड़ा सवाल था। रावी के जिन्दा होने की सूचना कितना कुछ खत्म होने के साथ मिल रही थी। कितना सपाट था रावी का स्वर। चिंताओं और तनाव के दुष्चक्र लगातार जतिन को अपनी गिरफ्त में लेते जा रहे थे। अब क्या होगा
रावी को आना ही चाहिए जतिन, चाहे कैसी भी परेशानी हो।” संजीव सर सब जान कर निर्णयात्मक ढंग से बोले। पर जतिन न सिर्फ रावी के अबोध मन का जानकार था बल्कि उसके द्वारा जीवन के बनाए गए सुरक्षित फ्रेम की भनक भी थी उसे, जिसमें नानी-दादी और मां के जीवन-निष्कर्षों की तस्वीर जड़ी थी। ये तस्वीर काफी खुशहाल दीखती थी। जिसमें तीनों औरतें मजबूती से रावी का हाथ थामे हैं। संजीव सर को रावी को ले कर एक सख्त नाराजगी थी पर जतिन रावी के असमंजस और उसकी पीड़ा को भी समझ पा रहा था। क्या रावी उस फ्रेम में उन तीन महिलाओं से झिटक कर खड़ी अपनी दुखी तस्वीर की कल्पना से सिहर नहीं उठती होगी? कैसे उनसे अपना हाथ छुड़ा सकेगी रावी?
इतनी बच्ची भी नहीं है रावी। पैरों पर खड़ी है। समझदारी से काम ले और क्या प्यार करते समय इन खतरों के बारे में सोचा नहीं होगा उसने?संजीव सर रौ में बोले चले जा रहे थे।
जतिन के बंधे होंठ भाषा की हद से बाहर हो चले थे पर मन ज़ोर-ज़ोर से कह रहा था “आप नहीं समझते सर रावी को। पैरों पर ज़रूर खड़ी है पर खड़ा करवाया है उसके पापा ने। उसकी मर्ज़ी कहां थी? भले ही मुझसे प्यार करती है पर औरों के निर्णयों पर जीने की आदत है उसे। खुद को अकेले कैसे निकालेगी उस फ्रेम से? तस्वीर की अहमियत और उसमें रावी की सुरक्षित जगह की कितनी दुहाई दी गई होगी। वो तो मेरे मैं सब ठीक कर दूंगा” जैसे चमत्कारिक शब्दों में बंधी चल रही थी अब तक। अब जीवन के इस मोड़ पर उसे मेरे शब्दों का जादू भी बेअसर लग रहा होगा।
जिस समाज में रहती है क्या जानती नहीं कि प्रेम की क्या कीमत चुकानी पड़ती है? शादी से पहले धमकियां और हत्याएं। तरह-तरह के अत्याचार और शादी के बाद धोखे से बुला कर लड़की को मार कर गाड़ देना और लड़के की लाश को उसके घर के आगे फेंक देना।” संजीव सर रावी की चुप्पी को अपनी तीखी प्रतिक्रिया से भर रहे थे।
जानती क्यों नहीं है सर सब जानती है पर उसका मन? उसका क्या सर? मन नहीं मानना चाहता ये सब। मन तो उसका अपनी बहनों की तरह हँसी-खुशी विवाह करना चाहता है।” जतिन के शब्द ज़ुबान पर आकर भी खामोश थे। वह खामोश और अकेला दोतरफा लड़ाई लड़ रहा था। अपनी और रावी के हिस्से की।
तुम्हारी चुप्पी को क्या समझूं जतिन? मित्तल सर भी झांसा ही दे रहे हैं और क्या?
सर चुप कहां हूं, सब जानता हूं। पर मुझे रावी के आने का इंतजार है।”
और वो नहीं आई तो?संजीव सर के सवाल ने जतिन को निरुत्तर कर दिया। पर रावी से फोन पर हुई बात ने जतिन को थोड़ी-सी आस बंधाई थी कि रावी जरूर लौटेगी।
इधर रावी की लंबी गैरहाजिरी के चलते एक दिन जतिन के डेस्क पर प्रिंसीपल सर की ओर से भिजवाया गया नोटिस उसके साइन के लिए आया। पत्र में रावी के आने की अंतिम मियाद तय थी जिसके बाद उसकी सेवाएं समाप्त समझी जाएंगीं। सारे स्कूल में इस नोटिस को लेकर एक हलचल थी। सब लोग तमाशे की अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार करने लगे। नोटिस पर स्टैंप लगा कर अपने इनीशियल करते हुए और वापिस प्रिंसीपल सर को भेजते हुए जतिन के मन ने कहा अब रावी लौट आएगी। कितनी कोशिशों से लगी नौकरी को कोई क्यों ऐसे ही जाने देगा वो भी नौकरियों के अकाल के इस महाकाल में?ये नोटिस जैसे जतिन की आशा का एकमात्र आधार बनकर उसके सामने था। उसे मां के शब्द याद आए बेटा अच्छे दिन नहीं रहे तो देखना बुरे भी गुजर जायेंगे।” इंतजार की घड़ियां एक बार फिर से जतिन को रोमांचित करने लगीं। रावी की मेज से गुजरते हुए यों ही उसे दुलार से सहलाया जतिन ने। कुर्सी पर मुस्कुराती रावी नजर आई। अचानक ही जतिन फिर से सब बातों-यादों को सहेजने लगा। फिर से सारे सपने अपनी मांगों को लेकर जतिन के सामने खड़े थे और जतिन एक बार फिर से उन्हें साकार करने के जोश में भर उठा था। वह जानता था कि रावी को तमाम हिदायतें दे कर भेजा जाएगा। हो सकता है वो कुछ दिन बोले भी न, उसकी उपेक्षा करे। पर फिर भी जतिन को भरोसा था कि वो सब ठीक कर लेगा। शब्दों का जादू खुद से धूल झाड़ कर वापिस लौट रहा था।
स्कूल में आज बड़ी रौनक थी। सारा स्कूल आज बारात में तब्दील होने वाला था। शाम को हिस्ट्री वाले अनिल सर की बारात जानी थी। बहुत से लोग अनिल के घर से सारी रस्मों में शामिल होते हुए शादी की जगह पहुंचने वाले थे। प्रिंसीपल सर और जतिन को खासतौर पर इसके लिए निमंत्रित किया गया था। अनिल के घर बारात का हुडदंग मचा था पर प्रिंसीपल सर आज हमेशा की तरह हंस नहीं रहे थे। एक खिंची-सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर थी। काफी पूछने के बाद उन्होंने जतिन को बताया-बुरी खबर है जतिन… रावी का लिखित इस्तीफा मिला है आज। किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से वह यह नौकरी छोड़ना चाहती है।”
सर आपने बात…” जतिन के अस्फुट से स्वर बाहर आने को फड़फड़ाए।
“मित्तल जी से बात हुई मेरी। संजीव ने भी समझाया पर उन्होंने तो सीधे ही कह दिया- “यहां ही नहीं कहीं भी नहीं करवानी नौकरी इस लड़की से” जतिन उनका फैसला पक्का है।
 
यानि रावी से उसके सपने ही नहीं आत्मनिर्भरता का अधिकार भी छिन गया जतिन के चलते। ये तो जतिन ने कभी नहीं चाहा था। कितना कुछ टूट रहा था उसके भीतर और कितना कुछ तोड़ा जा रहा था भीतर तक फिर भी जतिन की बाहर से सहज बने रहने की कोशिशें जारी थीं। अचानक वह भीड़ में एकदम अकेला महसूस कर रहा था। एक मशीनी तरीके से सेहराबंदी, घुड़चड़ी की रस्मों से जुडे़ हुए जतिन ने देखा सामने संजीव सर थे। लड़खड़ाते कदमों से उनके करीब गया और गले लग कर रोने लगा। सही जगह और मौका न होते हुए भी संजीव सर आज इस हरकत पर शांत थे। अपनी बाहों में कस कर जतिन को थामे थे और जतिन ढोल की तेज आवाज में अपनी बेसाख्ता रूलाई और दर्द को पूरा मौका दे रहा था। जतिन के रोने में उसके चीखते हुए सवाल शामिल थे-मित्तल सर आपकी समस्या जात-बिरादरी है या बेटी के स्वतंत्र निर्णय?
नहीं इसके बाद भी जीवन खत्म नहीं हुआ। जतिन की नौकरी चलती रही पर रावी को जिदादिल जिंदगी का तोहफा न दे पाने का दोषी खुद को मानते हुए उसने शादी नहीं की। मां की सारी साध मन में ही रह गई। बहू की मनमर्जी का खिलाना, पहनाना-घुमाना ही नहीं दीवार पर रावी-जतिन की साथ बैठे हुए खिंचने वाली तस्वीर का फ्रेम भी खाली ही रह गया। जतिन अक्सर खुद को सजा देता हुआ देर शाम या कभी अलस्सुबह पैदल लंबी दूरी तय करके जाता है रावी के घर तक और बिना उसे देखे लौट आता है। रावी से बिछड़े हुए आज पांच साल से अधिक बीत चुके हैं। चाहें तो इतना और जोड़ लें कि जतिन आज भी औरों की तरह रावी को उस सबका दोषी नहीं ठहराता। रावी को घर बिठा दिया गया है। कई साल गुजर गए घर-कैद में। उसकी छोटी बहन की शादी हो गई और शादी के लिए रावी की उम्र निकलती जा रही है। जतिन ने सुना, स्कूल में ही कोई कह रहा था कि रावी भाई के बेटे को ऐसे संभाल रही है कि सगी मां भी क्या संभालेगी। बड़ी ही आज्ञाकारी और अच्छी लड़की है…” एक बंधक आकाश के नीचे दूसरों की दी हुई बैसाखियों पर चलते, अपने टूटे-बिखरे सपनों को खुद से भी छिपाते, हरपल तस्वीर की रावी की रक्षा करती वह आज्ञाकारी और अच्छी लड़की नहीं तो और क्या है?
सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।

सम्पर्क: ई-112, आस्था कुंज,

सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110089

दूरभाष- 09811585399

ई-मेल – pragya3k@gmail.com 
      

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)