शैलेय

शैलेय


 

जन्म – 6.6.1966 – ग्राम जैंती ;रानीखेत, जनपद-अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड।
शिक्षा – पी एच.डी. ;(हिन्दी)।

– लम्बे समय से मजदूर आंदोलन-कुष्ठ रोगियों के मध्य कार्य-संस्कृति कर्म में सक्रिय। उत्तराखण्ड     आंदोलन के दौरान जेल यात्रा। किशोरावस्था से ही अनेक फुटकर नौकरियां एवं पत्रकारिता करते हुए

संप्रति-एसोसिएट प्रोफेसर।

प्रकाशन –

– या (कविता संग्रह)
– तो (कविता संग्रह)
– यहीं कहीं से (कहानी संग्रह)
– हाशिये का कोरस (उपन्यास) ;शीघ्र प्रकाश्य- (आधार प्रकाशन)
– नई कविताः एक मूल्यांकन (आलोचना पुस्तक)
– कुछेक पर्शियन कविताओं का हिन्दी अनुवाद






संपादन – ‘द्वार’ तथा ‘इन दिनों’-साहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिकाएं।


सम्मान –

परम्परा सम्मान, शब्द साधक सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, परिवेश सम्मान
अंबिका प्रसाद दिव्य सम्मान, मलखान सिंह सिसौदिया पुरस्कार

पता – D2-1/14 मैट्रोपौलिस सिटी, रुद्रपुर; ऊधमसिंहनगर उत्तराखण्ड -263153.


मो. नं-  09760971225
            09410333840

अंग्रेज

अंग्रेज
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को
जेलों में ठूंस देते थे
गोलियों से भून देते थे

क्या चाहते थे
ये
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी?

आजादी

यानी
एक सुखी
सुंदर
शोषणमुक्त समाज व्यवस्था………..

तो क्या
अंग्रेज
यहां आज भी हैं?.

मिर्च

हरी-भरी मिर्च के बिना भी
सलाद क्या?

सूख कर लाल भी हो जाय
तो भी इसे पीस कर मसाला बना लेते हैं
मसाला न हो
तो सब्जी ही कहां? और
सब्जी न हो
तो भोजन ही कहां??

तेल में भून कर
आलू-पूरी के साथ
इसकी कटकी के कहने ही क्या
जैसे कोई हंसते-हंसते
धीरे से अपनी आंख दबा दे

अचारों में
यह अकेली ही सबकी तोड़ है
डायबिटिक भी
‘गुड़-गुड़’ चिल्लाने लगता है

उन्माद हो या
अवसाद
मिर्च नींद तोड़ती है

सच
अनुपात सही हो
तीखापन जिंदगी को जायका ही देता है.

बुद्ध

करुणा की धार
बहुत सख्त हुआ करती है
आदमी को बुद्ध बना देती है

मैं
बुद्ध होने कोई दावा नहीं करता
पर
आदमी को इतना तो होना ही चाहिए कि
गिरते हुए एक निरीह आंसू में
वह
अपना गिरना भी देख सके साथ-साथ

आखिर कितने हैं
जो सहम-सहम जाते हैं
एक नवजात की स्मित देखते ही कि
कैसे यह
उम्र भर रह सकेगी यों ही

इसलिए
किसी भी इंसान को
बेहतर इंसान के साथ होना चाहिए
इतना कि
सबकी बेहतरी के लिए कुछ कर सके.

धब्बा

धब्बा
धब्बा ही हुआ
झक्क सफेद कमीज पर लगा तो
और भी भद्दा दिखाई देता है

इतना ही नहीं
कमीज का मूल्य तो गिरता ही है
आंखें भी
बरबस ही नीची हो जाती हैं

मैंने सोचा कि मैं
बच कर रहूं
गंदगी की ओर जाऊं ही नहीं
बाहर-भीतर हरदम रहूं साफ
जैसे हो सके तो सीधे-सीधे उजाला

मैंने सिर्फ सूरज के बारे में सोचा
इतना कि
कि धरती को मूलतः भूल ही गया

धरती को सिर्फ शव भूल सकता है
इस तरह
मुझे सड़ना ही था
सूखना ही था

सच
निखालिस सूरज में कहां कोई जीवन
पर
यहां भी कहां-कहां तक बचता
जब तक कि
दुनिया ही कीचड़ में सनी हुई है.

पॉप

ठीक है कि
चीजें बहुत गड्ड-मड्ड हो जहां
दूध का दूध-पानी का पानी
कहना बेमानी

पर
दूध में मलाई तो आनी ही चाहिए
जब कि पानी भी
आदमी देख कर ही पीता है

हांला कि
सब के सपने एक जैसे नहीं होते
एक जैसी
कैसे हो सकती है सबकी दरयाफ्त?

भाषा का एक पॉप उछाल कर
जो रचना का बाजार कर रहे हैं
वस्तुतः
इसके भी कई अभिप्रेत हैं

कविता की आंख
कभी नहीं चूकती
क्योंकि
युद्ध
महज ख्यालों में टहलना नहीं होता

इसलिए
दरअसल यह पॉप
एक भले कौशल का
निपुण
किंतु निकृष्टतम व्यापार है

मुलाजिम

एक मुलाजिम को
क्या-क्या नहीं करना पड़ जाता है

यहां तक कि
नफरत को दया
क्रोध को विनम्रता से पीने लगा
कविताएं उपनाम से लिखने लगा

और तो और
घर की बैठक में
अपने आदर्श के चित्र तक बदल दिये

बाल-बच्चों के खातिर
सरकार के आगे
आंखें नीची किये
मुख पर
मासूम मुस्कान चस्पा किये चलता हूं
फिर भी डर कि
कहीं कुछ ऐसा सच न बोल बैठूं
कि मेरे लिये ही खतरा हो जाय
क्या मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी चाहिए?
तो क्या
प्राईवेट में कहीं ज्यादा सुरक्षा है?

कम से कम
यह तो बता ही दीजिए कि
जब कि
पानी गले-गल तक आ चुका है
आप संतुलन कैसे बनाये हुए हैं?

स्याही

लाल-हरा-नीला
काला
कोई किसी भी रंग में लिखता हो
स्याही कहते ही
सदा नीला याद आता है

नीला रंग
यानी आसमान की ऊंचाई
गहराई अतल सागर की
यानी सब कुछ को
समो लेने के हौसले का रंग

शायद इसी लिए
स्याही के लिए
नीला रंग ही सबसे उपयुक्त समझा गया है
आदमी के सुख-दुःख
तीज-त्यौहार
स्मृतियां और योजनाएं
सभी कुछ को
बयां होने का स्पेस मिल सके

यह ब्रह्मांड में
दो पिडों के बीच सबसे पहला विस्फोट
पहला संवाद है
रौशनी के फूल खिलाता हुआ………………

शायद इसी लिए
नीली-नीली आंखों वाले अक्षरों से
बसंत के वे अनंत रास्ते खुलते हैं
कि हम
रह-रह कर चिटिठ्यों का इंतजार करते हैं

दूर
अगर कोई संत भी बैठा हो
तो भी इस रंग में
धवल नीली शांति की आभा मिलती रहती है.

सवाल

मैं बच्चों पर गुरर्राया
उतरो! उतरो!!
सीमेंट के कट्टों पर से उतरो
जानते हो कितना महंगा है यह?
वैसे भी नाक में घुस गया तो
फेफड़े फाड़ होता है

उतरो! उतरो!!
रेत के ढेर पर से उतरो
जानते हो कितनी दूर की नदी पर से लाया गया है?
मिट्टी में बिखरा तो
मिट्टी ही समझो

उतरो! उतरो!!
कोई झूला नहीं है यह सरियों का बीड़ा
लचका तो मकान को
चुभा तो
तुमको ही टिटनेस हो सकता है

एक भी ईंट छुई तो मैं मारुंगा
जल्द से जल्द दफा हो जाओ!

बच्चे तो बच्चे थे
बाजार के लिए कहां से लाऊं रुआब
जिसने
मेरी जेब ही नहीं
अरमान काट दिये हैं.

यह भी सही है

सही है कि
मूसलाधार बारिस में
कच्चे ढूहे ढह जाते हैं
बाढ़
घर हो या खेत
फंदे में जो आये
डसती चली जाती है

घहराते-गहराते काले आसमान तले
जान-माल की भारी तबाही

तब
आसमान को बहुत कोसते हैं लोग
कोसते हैं किस्मत को
अपनी सामर्थ्य को

अब
खोये हुए का गम किसे नहीं सताता
और बहुत सारी चीजें तो
दोबारा सरसब्ज होना ही मुश्किल
बस एक हार का नाम
जिंदगी रह जाता है
ताउम्र विसूरते रहने के लिए

किंतु
आसमान थमते ही
खोह-खड्डों-खाइयों में
फिर से दूब का हौले से गुनगुना उठना
ढही हुई छतों और पुलों की जड़ों से
गुलाबी पगडंडियां फिर से मुस्कुरा उठना
भी तो कुछ कहता है

फिर चाहे वह
प्रकृति ही हो या
दुनिया-समाज.

लोई

इस लोई में
वह भी बराबर शामिल है
गूंथी जाती हुई
पलथी जाती हुई
बेली जाती हुई
फिर
सब्जी-अचार जैसे स्वाद के साथ
टुकड़ा-टुकड़ा
खाती-निगली जाती हुई……………….

अब चूंकि
एक स्त्री
एक लोई में ही समाप्त नहीं हो जाती
इसलिए
अपनी एक अदद उम्र में
जाने कितने-कितने हजार बार
लोर्इ्र-लोई बन जाने को विवश है वह
कि किसी तरह यह
जिंदगी
जिलाये रख सके.

मैं

कौरव अपने पूरे रोमांच पर हैं
जब कि
मैं
अभी अपनी पहली ही चाप पर

अब चूंकि
मेरे पिता अर्जुन नहीं हैं
न मां ही सुभद्रा
जाहिर है कि
मैं भी कोई अभिमन्यु नहीं हूं

इसलिए
इस महाभारत में
यही सच है कि
कुछ भी संभव है मेरे लिए-
पहले ही द्वार पर
गिराया जा सकता हूं और
सारे ही व्यूहों को
ध्वस्त भी कर सकता हूं.

चेहरा

कछुअे और खरगोश की दौड़
भला कौन नहीं जानता
लेकिन
यह तो नहीं कि
कछुआ भी जोर नहीं लगा रहा होगा

तेज
मध्यम
धीमी
या दौड़ ही सही
चेहरा न भी दिखे
तो भी
चाल बता देती है चरित्र

यही क्यों
बल्कि
कई बार सदाबहार गानों के बीच
एक रसभीना गीत
जब समाप्त हो रहा होता है
हम उदास और उदास हो आते हैं
प्रेम और युद्ध  में
डूबते-उतराते हुए………..

न दिखे चांद
न दिखे सूरज
अपना ही चलन अपने वक्त का
चेहरा है
इस चेहरे को
जरा ठीक से पढें तो
बढें भी.