सरिता शर्मा का उड़ीसा यात्रा वृत्तान्त ‘मुखर पत्थरों और गूँजते मंदिरों में भटकता मन’

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल जिंदगानी फिर कहाँ, जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ। राहुल सांकृत्यायन की ये पंक्तियाँ मेरे मन में आज भी तब गूँज उठतीं हैं जब मैं किसी यात्रा वृत्तांत से हो कर गुजरता हूँ। सरिता शर्मा ने अपनी उड़ीसा यात्रा का एक रोचक विवरण कुछ फोटोग्राफ्स के साथ लिख भेजा है। आइए  के यात्रा वृत्तांत के बहाने हम भी कुछ देर के लिए उड़ीसा यात्रा पर चले चलते हैं।  

मुखर पत्थरों और गूँजते मंदिरों में भटकता मन 
   
सरिता शर्मा

 
    स्मारकों, खंडहरों और एतिहासिक धरोहरों की कहानियां होती हैं और उनको देखने वालों की भी। जब हम वहां जाते हैं तो जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं कि जब खुद को याद किये जाने की लालसा रखने वाले महान उपलब्धियों वाले व्यक्ति और उनकी निशानियां लुप्त हो गयी तो हमारा अपना अस्तित्व क्या है। जीवन का रहस्य आदमी को हमेशा उलझाये रखता है। मगर जब अचानक लगता है कि सब कुछ समाप्त होने वाला है, तो व्यक्ति चौंक जाता है और किसी अदृश्य प्रभु या जीवनी शक्ति से गुहार लगाता है- ‘जिन्दगी अभी छोड़कर मत जाओ। मुझे थोड़ी मोहलत दो। अनदेखी जगह घूम आऊं। कुछ अधूरे काम निपटा लूं।’ गुस्ताव फ्लाबेर ने भी यात्राओं के बारे में कुछ ऐसा ही कहा है,  ‘यात्रायें हमें विनम्र बनाती हैं क्योंकि हम जान जाते हैं कि दुनिया में हमारा अस्तित्व कितना नगण्य है।’  

 
   ओडिशा जाने की उत्सुकता उड़िया कवि और संम्पादक शुभेंदु मुंड से मुलाकात के बाद जागी। वह अंग्रेजी के सेवानिवृत प्रोफ़ेसर हैं। साहित्य अकादमी कार्यक्रम में काव्यपाठ करने आये थे। जलपान के दौरान परिचय हुआ तो उन्होंने आदेश किया कि उनकी अंग्रेजी पत्रिका के लिए मृदुला गर्ग का इंटरव्यू लूं। मैंने काफी टालमटोल की कि मुझे हिंदी साहित्य में कोई नहीं जानता। मृदुला जी तैयार नहीं होंगी। मगर वह अड़े रहे- ‘मैं कवि हूँ. लोगों को पहचानता हूँ। कुछ करोगे तभी तो लोग जानेंगे।’ मुझे मृदुला जी से मिलवा कर कर इंटरव्यू देने के लिए अनुरोध कर दिया. बाद में मैंने उनकी पत्रिका के लिए कुछ सूफी कवियों का अंग्रेजी में और एक हिंदी पत्रिका के लिए उनकी कविताओं का हिंदी अनुवाद किया था। उन्होंने कई बार ओडिशा भ्रमण के लिए आमंत्रित किया था। दो साल पहले मुझे कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में कोणार्क नाटक पर होने वाले कार्यक्रम में ललित कला के एम. फिल. के छात्रों के समक्ष बोलने के लिए बुलाया गया। मुझे जाने की ख़ुशी थी और आयोजकों  को मुझे बुलाना किफायती लगा। व्यवस्था में खामियों के बावजूद यूनिवर्सिटी के माहौल और कुरुक्षेत्र के दर्शनीय स्थलों ने मन मोह लिया। छात्रों ने कोणार्क के शिल्प को कल्पना के रंगों में ढाल कर चित्र बनाये। काश उन्हें कोणार्क ले जाया जाता और वहीँ चित्र बनवाये जाते। मैंने कोणार्क नाटक कई बार पढ़ा और उसे कल्पना में जीवंत करने की कोशिश की। मगर बिना देखे कोणार्क की सुन्दरता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। एक दिन छोटी बहन उमा का फ़ोन आया, ‘दीदी, मैं इनके और आपके साथ भुवनेश्वर और पुरी जाना चाहती हूँ।’ मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी। 


     हमने एजेंट से कहकर भुवनेश्वर में जिंजर होटल में कमरे बुक करावाये। हमने जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरकर प्रीपेड सरकारी टैक्सी की, बाहर खड़े प्राइवेट टैक्सी वाले उस ड्राईवर से लड़ने लगे। उसने पुरी के रास्ते में हमें बताया कि इन टैक्सी वालों ने मान्यता प्राप्त टैक्सी चालकों का काम करना दूभर कर दिया है। कई बार हमला कर देते हैं और मुक़दमे चलते रहते हैं। वह रास्ते भर सहमा रहा। नारियल के वृक्षों से घिरे मार्ग से होते हुए पहले हम धौलीगिरि पर स्थित शांति स्तूप और बौद्ध मंदिर को देखने के लिए रुके। इसका निर्माण 1973 में किया गया था। इस पहाडी के एक ओर दया नदी है जिसके किनारे कलिंग व मगध की सेनाओं के बीच भंयकर युद्ध हुआ था जिसमें हजारों सैनिक हताहत हुए थे। रक्त से सनी मिटटी को देख कर अशोक ने शपथ ली थी कि अब कभी शस्त्र नहीं उठाएंगे। पश्चाताप की ज्वाला में जलते सम्राट ने बौद्ध धर्म की शरण ली। मारे गए सैनिकों की स्मृति में बना धौली स्तूप विश्वशांति स्तूप के नाम से जाना जाता है। यहां अशोककालीन आदेश पढ़े जा सकते हैं। अशोक की शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा एक पत्थर पर खुदी हुई  है। पत्थरों पर तराशा गया हाथी का मुख है और शेर की प्रतिमा बनी है। स्तूप के चारों ओर अलग-अलग मुद्राओं में बुद्ध की चार मूर्तियां हैं। स्तूप में जातक कथाओं से जुड़े हुए प्रसंग पत्थरों पर उकेरे गए हैं। स्तूप के चारों ओर हरियाली का सुंदर नजारा मनमोहक है। पास से गुजरती दया नदी युद्ध और शांति की साक्षी प्रतीत होती है। यहां से पुरी के रास्ते काजू के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं। स्तूप की सीढ़ियों पर सस्ते काजुओं की खूब बिक्री होती है। मैं सोच रही थी कि अशोक को अहिंसक बनने से पहले इतना खून बहाने की क्या जरूरत थी। एक आदमी को मार देने से मृत्यु दंड मिल जाता है। जिस राजा ने हजारों निर्दोष सैनिकों को अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मरवा दिया, क्या उसे हृदय परिवर्तन हो जाने पर क्षमा किया जा सकता है। नियम कानून आम आदमी के लिए होते हैं। राजा तो खुद ही कानून है। काश युद्धरत देश शांति का महत्व समय रहते समझ लेते और यहां की तरह तबाही मचा कर मरघट की शांति की ओर न बढ़ते।


           रवींद्र नाथ टैगोर ने कोणार्क के बारे में कहा है- ‘कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से बेहतर है।’ अबुल फ़ज़ल ने आइने-अकबरी में इस मन्दिर के स्थापत्य की प्रशंसा की है। इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया है। इस मंदिर को तेरहवीं सदी में राजा नरसिंह देव ने लाल बलुआ पत्थर एवं काले ग्रेनाइट पत्थर से बनावाया था। मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा की जाती थी। इसमें सूर्य देव के रथ को बारह जोडी चक्र वाले सात घोड़ों से खींचे जाते दिखाया गया है। मंदिर की शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वादकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के दृश्य दर्शाती हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन बेलबूटे अलंकृत हैं। मंदिर के प्रवेशद्धार पर दो शेर बने हुए हैं। मंदिर में भगवान सूर्य की तीन प्रतिमायें हैं जो उनके बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था को  दिखाती हैं। मंदिर तीन मंडपो में बना है जिनमें से दो नष्ट हो चुके हैं। एक मंडप बचा है और उसे  भी अब बंद कर दिया गया है। इस मंदिर के पूर्वी द्वार से प्रवेश करते ही सामने एक नाट्यशाला दिखाई देती है जिसकी ऊपरी छत अब नहीं है। ‘कोणार्क नृत्योत्सव’ के समय हर साल यहाँ देश के नामी कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। यहां घूमते हुए कोणार्क नाटक के शब्द गूँज रहे थे, ‘कला की जोत, अटल विश्वास जगाये, खंडहर सोता है।’ शिल्पी विशु मानो सैलानियों की ओर मुखातिब होकर इसका वर्णन कर रहा है- ‘यह मंदिर नहीं, सारे जीवन की गति का रूपक है। हमने जो मूर्तियां इसके स्तंभों, इसकी उपपीठ और अधिष्ठान में अंकित की हैं, उन्हें ध्यान से देखो। देखते हो उसमें मनुष्य के सारे कर्म, सारी वासनाएं, मनोरंजन और मुद्राएँ चित्रित हैं। यही तो जीवन है।’


            पुरी का समुद्र तट महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थल माना जाता है। इस तट को भगवान जगन्नाथ का निवास स्थल भी माना जाता है। शायद इसी कारण यहां अनेक तीर्थयात्री समुद्र स्नान करने के लिए आते हैं। समुद्र की गर्जना और टकराती हुई लहरें सिहरन से भर देती है। हम वहां पहुंचे तो अनंत लहरों को बार-बार तेजी से किनारों की ओर लपकते पाया। मीलों तक फैले पुरी के स्वच्छ व शांत सागर तट पर दिन भर सैलानियों की भीड़ रहती है। किनारे पर उथले जल में स्नान करने पर भी लहरें इतने वेग से आती हैं मानो अपने आगोश में समेट कर साथ समुद्र में बहा ले जायेंगी। इस समुद्र में सैलानियों के डूब कर मरने की ख़बरें लगातार आती रहती हैं। थोड़ी ही दूर पर यह समुद्र बहुत गहरा हो जाता है। यह तट समुद्री हवाओं, रेत, सूर्य स्नान और पवित्र स्नान के लिए प्रसिद्ध है। यहां सूर्योदय तथा सूर्यास्त दोनों का सुंदर नजारा दिखाई देता है। समुद्र में स्नान का अनुभव रोमांचक था। बार-बार महसूस हो रहा था कि कोई तेज लहर समुद्र में खींच कर ले गयी तो जीवनलीला का पल भर में अंत हो सकता है। समुद्र जीवन और मौत की गुत्थी को और भी उलझा देता है। जीवन और मौत के बीच यहां कदम भर का फासला होता है। जमीन हमारी है मगर उसे समुद्र ने घेरा हुआ है, जैसे मौत जीवन को घेरे रहती है। पता नहीं कब वह अपना शिकंजा कस दे। ऐसे क्षणभंगुर जीवन में प्रकृति की छाँव में गुजरे पल ही कुछ मुक्त पल हैं जब हम पूरे मन से जीते हैं और जिन्हें स्मृति में दोहराते रहते हैं। 


    शाम को हम जगन्नाथ मंदिर पहुंचे। भारत के चार धामों में शामिल यह मंदिर देश के सर्वाधिक पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। इसे बारहवीं शताब्दी में चोडागंगा ने अपनी राजधानी बदलने के उपलक्ष्य में बनवाया था। जगन्नाथ मंदिर भारत के सबसे ऊंचे मंदिरों में एक माना जाता है। कलिंग वास्तु शैली से बनाया गया यह मंदिर बेहद सुंदर है। इस  मन्दिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियां हैं। मूर्तियों के निर्माण में नीम की लकड़ियों का प्रयोग होता है। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा यहां  का मुख्य आकर्षण है, जिसे देखने पूरी दुनिया के दूर-दराज इलाकों से तीर्थयात्री पुरी आते हैं। यहां विश्व का सबसे बड़ा रसोई घर है  जहां प्रतिदिन हजारों लोगों का खाना एक साथ बनता है। हमें जो युवक पंडा मिला वह बहुत व्यवहारकुशल और वाक्पटु था. बार-बार अन्न दान की महिमा का वर्णन करते हुए पर्ची कटवाने की बात करता रहा. उसने हमें मंदिर के बारे में कम बताया और यह अधिक कि दान के पैसे से हजारों पंडों का खर्च चलता है। उसने हमसे मंदिर के भंडारे के नाम पर ग्यारह सौ रुपए की पर्ची कटवा ही ली। उसने हमें रबड़ी और खिचड़ी का गर्मागर्म प्रसाद भी खिलाया।


       शाम को शुभेंदु मुंड और उनकी पत्नी हमसे मिलने आये। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के बारे में बताते रहे। उनकी पत्नी भी अध्यापिका रही हैं। पता चला कि वे कालाहांडी गाँव के हैं जहां  बचपन में बहुत सादा जीवन बिताया था। उनके पिता ने आर्थिक अभाव देखा था। शादी के बाद शुभेन्दु जी की पत्नी गरीबों के लिए प्रतिदिन अपने हाथ से खाना बना कर खिलाती थी। कोई न कोई भूखा उनके दर पर आता रहता था। उनके ससुर जी किसी को भूखे पेट वापिस नहीं भेजते थे क्योंकि उन्होंने भूख देखी थी। उसके बाद वे लोग भुवनेश्वर आ गए। अब गाँव की बदहाली ख़त्म हो गयी और वहां शहर का असर आ गया है। उन्होंने हमें बताया कि पुरी में पंडे भक्तों को प्रसाद के लिए दान करने के नाम पर लूटते हैं क्योंकि पर्ची काटने वाले के साथ उनका हिस्सा बंधा होता है। यह जान कर वह भोला-भाला पंडा अब शातिर लगने लगा। आदमी भगवान के साये में भी धूर्तता दिखाने से बाज नहीं आता है। स्वामी दयानंद ने चूहों को प्रसाद खाते देख मूर्ति पूजा बंद कर दी थी। यहां तो पंडे प्रसाद के पैसे खा रहे हैं। मन खिन्न हो गया कि मंदिर भी घोटालों से मुक्त नहीं हैं।


      अगले दिन हम लिंगराज मंदिर गए जो त्रिभुवनेश्वर, यानी तीनों लोकों के स्वामी को समर्पित है। उन्हीं के नाम पर शहर का नाम भुवनेश्वर रखा गया है। इस मंदिर समूह का निर्माण सोमवंशी वंश के राजा ययाति ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। 185 फीट ऊंचा यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। कहा जाता है कि देवी पार्वती ने लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिव जी ने कूप बना कर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। इस मंदिर में स्थापित मूर्तियां चारकोलिथ पत्थर की बनी हुई हैं। इस मंदिर की दीवारों पर मनुष्यों और पशुओं की मिथुनाकृतियां उकेरी गई हैं। इस मंदिर परिसर की उत्तरी दिशा में स्थित पार्वती मंदिर में गणेश, कार्तिक और पार्वती की भव्य मूर्तियां हैं। यहां भी पंडे ने अपनी फीस के साथ-साथ मंदिर के भंडारे में दान की सलाह दी। मगर हमने उसकी बात को अनसुना कर दिया। उस दिन लगातार बरसात होती रही थी जिससे मौसम सुहाना हो गया। मंदिर के प्रांगण में पानी ठहरा हुआ था और भीतरी भाग भी स्वच्छ नहीं था। इस भव्य प्राचीन मंदिर के रखरखाव के प्रति प्रशासन और पंडे सब उदासीन लगे।


    शुभेंदुजी ने राजारानी मन्दिर को ‘पत्थरों पर रचा कला का महाकाव्य’ बताते हुए इसे देखने के लिए विशेष आग्रह किया था। इस मंदिर की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। यहां शिव और पार्वती की भव्य मूर्ति स्थापित की गयी है। इस मंदिर के नाम से ऐसा लगता है मानो इसका नाम किसी राजा-रानी के नाम पर रखा गया हो। लेकिन लोगों का कहना है कि यह मंदिर राजारानी नामक पत्थर का बना हुआ है। इसीलिए इसका नाम राजा-रानी मंदिर पड़ा। इस मन्दिर की दीवारों पर बनी सुन्दर कलाकृतियां  खजुराहो की याद दिलाती हैं। यह मंदिर इसलिए भी अनूठा है कि यहां नटराज के स्त्री स्वरूप को दर्शाया गया है। सुनसान पड़े इस मंदिर में कोई गाइड नजर नहीं आया और मंदिर की कलाकृतियों से बारे में जानकारी देने वाला साहित्य भी उपलब्ध नहीं था। मंदिर की परिक्रमा करने के बाद हम मन में अनेक प्रश्न लिए बाहर निकले।


     हमने हस्तशिल्प संग्रहालय, उड़ीसा राजकीय संग्रहालय और ट्राइबल रिसर्च संग्रहालय भी देखे। भुवनेश्वर के संग्रहालय में उड़ीसा की कला-संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित किया गया है। यहां प्राचीन काल के अद्भुत चित्रों का भी संग्रह है। इन चित्रों में प्रकृति की सुंदरता को दर्शाया गया है। इसी संग्रहालय में प्राचीन हस्तलिखित पुस्त्क ‘गीतगोविंद’ है जिसे जयदेव ने बारहवीं शताब्दी में लिखा था। इस संग्रहालय में मध्यकालीन हस्तलिखित ताम्र पात्रों, पांडुलिपियों, कलाकृतियों और शिलालेखों का अनुपम संग्रह है। पाषाण शिल्प की मूर्तियां, सिक्के और हस्तशिल्प अनूठे हैं। जब हम वहां पहुंचे तो दुर्भाग्यवश बत्ती गुल थी और कक्षों में रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। जो कुछ हमें खिड़की के उजाले से नजर आया, हमने वह भाग देख लिया। कई मंजिल के इस संग्रहालय को भली-भांति न देख पाने का अफ़सोस रहेगा। पर्यटन के प्रति लापरवाही खली कि संग्रहालय दिखाने की समुचित व्यवस्था नहीं की गई है।


           उदयगिरि और खंडगिरि गुफाएं बौद्ध भिक्षुओं व जैन मुनियों की साधना का केंद्र रही हैं। राजा खारवेल के समय बनी इन गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियां बोलती सी लगती हैं। इनमें उदयगिरि की गुफाएं करीब 135 फुट की ऊंचाई पर हैं जबकि खंडगिरि की गुफाएं 118 फुट की ऊंचाई पर मौजूद हैं। उदयगिरि का अर्थ है वह पर्वत जहां सूर्योदय होता हो और खंडगिरि का अर्थ है खंडित यानी टूटा हुआ पर्वत। उदयगिरि की गुफाओं में सबसे बड़ी और भव्य रानी गुफा की दीवारों पर अपने समय के ऐतिहासिक दृश्य उकेरे गए हैं। साथ ही संगीत-नृत्य आदि ललित कलाओं की झलक भी इनमें देखी जा सकती है। एक हाथी गुफा भी है जिसके द्वार पर हाथियों की बहुत बड़ी प्रतिमाएं लगी हुई हैं। यहां जैन साधु तप करते थे। खंडगिरि की गुफाओं में अक्षय गंगा, गुप्त गंगा, श्याम कुंड और राधा कुंड बहुत लोकप्रिय हैं। यहां 24 तीर्थकरों की एक गुफा भी है। हम उदयगिरि की गुफाओं में घूम रहे थे तभी मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी और हम खंडगिरि की गुफाएं देखने नहीं जा सके क्योंकि खुले में पत्थरों से बने रास्ते पर घूमना मुश्किल हो गया था। वहां बहुत सारे बन्दर घूमते नजर आये। अब ये गुफाएं सबसे अधिक इनके काम आती हैं। साधनारत साधू सन्यासियों को भी इन बंदरों के पूर्वजों ने खूब तंग किया होगा।


       उसके बाद हम भुवनेश्वर से घंटे भर का रास्ता तय करके नंदन कानन देखने पहुंचे। 1960 में स्थापित यह हराभरा वन्य उद्यान 400 हेक्टेयर क्षेत्र  में फैला हुआ है. फ्लोरा औरा फौना के नाम से विख्यात यहां के वानस्पतिक उद्यान में कई दुर्लभ किस्मो के फूल पेड-पौधे और जड़ी बूटियों पाई जाती है। नंदन कानन स्थित चिडियाघर में कई वन्य  प्राणियों को आजादी के साथ स्वाभाविक स्थिति में घूमते देखा जा सकता है। वन भ्रमण का आनंद लेने के लिए शेर, बाघ आदि की सफारी व नौकायन की सुविधा भी उपलब्ध है. इस उद्यान में स्थित चिड़ियाघर का विशेष आकर्षण तीस से ज्यादा सफेद बाघ  और दुर्लभ प्रजाति के घडियाल हैं जिन्हें करीब से देखना एक रोमाचंक अनुभव है। पिंजरों में घूमते हुए शेरों  की गर्जना भयभीत कर रही थी। हिरन, स्वर्ण मृग, कृष्ण मृग, बारहसिंगे और चीतल के झुण्ड घूम रहे थे और उनके शावक खेल रहे थे। भयानक तीखे दांतों वाले मगरमच्छ, भालू, चिम्पैंजी और दरियाई घोडे दिखाई दिए। करैत, कोबरा और एनाकोंडा जैसे खूंखार सांप देखे। चिड़ियाघर जाने पर आदमी की सांप से तुलना बचकानी लगती है। जानलेवा और जहरीले सांप यहां सुस्त शांत नजर आ रहे थे। गाइड पर्यटकों के मनोरंजन के लिए पशुओं को फिल्मी सितारों जैसे कटरीना, मल्लिका, सलमान और ऋतिक के नामों से बुला रहा था। पता चला यहां शेर और कुछ अन्य पशुओं को भूखा रखा जाता है ताकि वे पर्यटकों को घूमते फिरते नजर आ सकें। पेट भर जाने पर वे सुस्त पड़ कर सो जायेंगे. भूख से बेहाल जानवर गुर्राते, चिंघाड़ते और गर्जते हुए इधर- उधर घूम रहे थे। आदमी से भयानक कौन होगा जो खूंखार पशुओं को दयनीय बना देता है। मगर शेर मौका मिलते ही अपनी ताकत का अहसास करा देता है। हाल ही में एक व्यक्ति ने पत्नी के साथ हुए झगड़े के बाद नंदन कानन में दो शेरों के पिंजरे में छलांग लगा दी थी। उसे बुरी तरह जख्मी हालत में पिंजरे से बाहर निकाला गया। होश में आने पर उसने बताया कि वह अपनी पत्नी से झगड़े के बाद मर जाना चाहता था। उसने सोचा कि जानवरों का आहार बनकर मरना, अपनी जिंदगी को खत्म करने का अच्छा तरीका है। मगर उसकी कोई भी इच्छा पूरी नहीं हुई और जिंदगी मौत के बीच झूल कर रह गया।

    शाम को हम दिल्ली की ओर चल पड़े। भुवनेश्वर और पुरी के अनूठे सौन्दर्य और शुभेंदु दंपत्ति से मुलाकात ने मन में आशा का संचार किया। मगर अब मन दफ्तर से उठ चुका है। कई स्तर पर चलने वाली राजनीति और दांवपेंच मन को नकारात्मक बनाते हैं। साल भर में स्वैच्छिक सेवानिवृति ले कर इन झमेलों से मुक्त हो जाउंगी। फिर युलिसीज की तरह एक के बाद एक यात्रा पर निकल जाना है। फ्रॉस्ट के शब्दों में कहें तो सोने से पहले मीलों चलना है।

    
एक काव्य संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ तथा एक कहानी संकलन प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएं, कविताएँ तथा कहानियां प्रकाशित। रस्किन बांड की दो किताबों सहित कई अनुवाद।आजकल राज्य सभा सचिवालय में सहायक निदेशक हैं।

संपर्क:
1975, सेक्टर 4, अर्बन एस्टेट,    
गुड़गांव 122001 .  (हरियाणा)

ई-मेल – sarita12aug@hotmail.com

विमल चन्द्र पाण्डेय के उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ पर सरिता शर्मा की समीक्षा

विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के कुछ उन चुनिन्दा रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने कहानी, कविता, संस्मरण जैसी विधाओं में अपना लोहा मनवाया है. अब आधार प्रकाशन से हाल ही में  उनका एक उपन्यास ‘आवारा सपनों के दिन’ प्रकाशित हुआ है. सरिता शर्मा ने इस उपन्यास पर पहली बार के लिए एक समीक्षा लिखी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा     

आवारा सपनों के दिन

सरिता शर्मा

    कवि और कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय को उनके कहानी संग्रह ‘डर’ के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. उनका संस्मरण ‘ई इलाहबाद है भैय्या’ बहुचर्चित हुआ. उनके  पहले उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ की शुरुआत फ़राज़ के शेर से होती है जो नोस्टाल्जिक माहौल बना देता है.

’भले दिनों की बात थी

भली सी एक शक्ल थी

ना ये कि हुस्ने ताम हो

ना देखने में आम सी

 ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे

मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे………..’

 युवा वर्ग के सपने और बेरोजगारी के दौरान समय काटने के बोहेमियन उपाय कुछ हद तक सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास ‘वे दिन’ जैसे हैं. शुक्ला जी की जवान होती बेटियों को ले कर पति पत्नी की चिंता और मोहल्ले के लड़कों की उनमें दिलचस्पी गीत चतुर्वेदी की कहानी ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ की याद दिला देती हैं. ‘शुक्लाइन ने अपनी चिंता शुक्ला जी से बांटी और पिछली चिंता साझा चिंता है. चिंताओं के ढेर में घिरे शुक्लाजी के सामने तीन जवान बेटियां, जिनमें एक ज़रूरत से ज़्यादा जवान होती जा रही है (उम्र ढल रही है, ऐसा वह कई लोगों के बोलने के बाद भी नहीं सोच पाते), आकर चिंताग्रस्त चेहरा लिये खड़ी हो जाती हैं.’

        उपन्यास में बनारस की गलियों में किशोरों के सपनों और रूमानियत को बहुत दिलचस्प अंदाज में प्रस्तुत किया गया है. ‘कॉलोनी में लड़कों के कई ग्रुप थे. कुछ तैयारी वाले थे. तैयारी वालों में भी कई ग्रुप थे. जो एसएससी और आईएएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते थे वह और लड़कों से दूरी बना कर चलते. वे एक बार भी आईएएस का फ़ॉर्म भर देते तो कमोबेश ख़ुद को आईएएस मान के चलते थे भले ही कभी एसएससी हाई स्कूल लेवेल का प्री न निकाल पाये हों.’ रिंकू सविता से प्रेम करता है. उसका कमरा दोस्तों की महफ़िल का अड्डा है.  राजू देवदासनुमा चिर असफल प्रेमी है. वह कविता से प्रेम सम्बन्ध टूटते ही अनु से प्रेम करने लगता है. कमल,  समर गदाई और सुधीर उनके साथ मिलकर परीक्षा की तैयारी करते है, शराब पीते हैं, ब्लू फ़िल्में देखते हैं और लड़कियों की बातें करते हैं. साम्प्रदायिक ताकतें जल्दी से पैसा कमाने का प्रलोभन देकर युवकों में अपने हाथों की कठपुतली बना देती हैं. रिंकू और सविता के भागने की योजना पर पानी फेर देते हैं. सविता बम विस्फोट की चपेट में आ जाती है और रिंकू को पुलिस पिटाई करके छोड़ देती है. अंत में सब दोस्त अपने पुराने भले (बुरे?) दिनों को याद करते हैं. शायद सपने देखने और भविष्य की योजना बनाने को भले दिन कहा गया है.

      इस उपन्यास में दोस्तों की मंडली बहुत जीवंत है. सब दोस्त इतने असली लगते हैं मानो हमारे सामने चल फिर रहे हों. राजू हर छह महीने में किसी नई लड़की से चोट खाकर रोने और ग़म ग़लत करने उसके कमरे पर आ जाता है.  ‘उसका मन हुआ कि वह इस दुनिया पर थूक दे और डरे हुए लोगों की इस जमात को लात मार कर कुछ समझदार लोगों, जो उसे समझदार समझते हैं, के साथ बैठ कर काला घोड़ा पीये. तब तक पीये जब तक सब कुछ भूल न जाय.’ पूरे समूह में सिर्फ रिंकू मुसलमान है मगर उसका धर्म उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आता. ‘इसी एक घण्टे में कपड़ा भी धोना है, पीने और बनाने के लिये भी भरना है और राजू की दर्द भी बांटना है. साढ़े सात बजे के आसपास, जब हल्का अंधेरा हो जायेगा, अठाइस साल वाली भी अपनी छत पर आयेगी. उसे लाइन भी मारना है.’ पारस लेखक है जो लिखने और जीने में फर्क का जीता जागता उदाहरण है. पाठक उसके माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में उसकी ख्याति और साहित्यिक दुनिया की हलचलों से रूबरू होता है. ‘पारस फोन लगते ही उधर से राजू को डांटने लगा. उसका कहना था कि उसके होते हुए एक मुसलमान लड़का एक ब्राह्मण लड़की को ख़राब करने पर लगा हुआ है और वह खुद ब्राह्मण होने के बावजूद कुछ नहीं कर रहा है’.

    उपन्यास को हास्यबोध और किस्सागोई उसे पठनीय बनाते हैं . ‘शुक्ला जी उदय प्रताप कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता थे और शुक्लाइन से हर पति की तरह बहुत प्रेम करते थे जब तक वह भाजपा के विषय में कुछ न बोलें. वह दुनिया में सिर्फ़ दो चीज़ों में श्रद्धा रखते थे, एक भोलेनाथ शंकर में और दूसरा भाजपा में अलबत्ता वह घृणा कई चीज़ों से करते थे. उनकी सिर्फ़ पांच लड़कियां थीं क्योंकि उसके बाद वह परिवार नियोजन की युक्तियों का प्रयोग करने लगे थे.’ भाषा में खिलंदडापन नजर आता है. ‘बदले में छटांक भर की जुबान की जगह पसेरी भर का सिर हिलाया राजू ने, नकारात्मक मुद्रा में.’ शुक्लाइन द्वारा पति के स्कूटर को पहचान लेने को हास्य के पुट के साथ  व्यक्त किया गया है. ‘जिस तरह कोई चरवाहा हज़ारों भैंसों में से अपनी भैंस की आवाज़ सुन कर पहचान लेता है, शुक्लाइन मोहल्ले की सभी गाड़ियों में से शुक्ला जी की गाड़ी की आवाज़ पहचान लेती थीं और इस बात पर समय निकाल कर गर्व भी करती थीं.’ कॉलेज के माहौल का चित्रण सजीव है. ‘इस कॉलेज का नाम पहले क्षत्रिय कॉलेज था, ऐसा लोग बताते थे. कालान्तर में कॉलेज का नाम बदला पर चरित्र नहीं. यहां चपरासी से लेकर व्याख्याता और क्लर्क से लेकर कूरियर देने वाले तक ठाकुर हुआ करते थे. यहां लड़कियों को लेकर गोली कट्टा हो जाया करता था और जिस लड़की के पीछे यह सब होता था वह मासूमियत भरा चेहरा बना कर अपनी बगल वाली सहेली से पूछती थी, ´´क्या हुआ किरणमयी, ये झगड़ा किस बात को लेकर हो रहा है बाहर लड़कों में?´

     कॉलोनी स्वयं एक सशक्त  पात्र के रूप में उपस्थित है. ‘औरतें हंकड़-हंकड़ कर अपनी ज़बान साफ़ करती थीं और हाथ नचा-नचा कर अपना ब्लड सर्कुलेशन सुचारु करतीं थी और इस प्रकार अगले दिन के लिये तरोताज़ा हो उठती थीं. झगड़े कई प्रकार के होते थे. जो झगड़ा सबसे जल्दी और बगैर मेहनत बिना किसी पूंजी लगाये शुरू होता था वह था अतिक्रमण का.’ ’माता पिता की नजर में शरीफ दिखने की कोशिश करने वाली लड़कियों पर व्यंग्य किया गया है-कॉलोनी की लड़कियां बहुत शरीफ़ थीं और वे कभी किसी पुरुष या लड़के को नज़र उठा कर नहीं देखती थीं. कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं.  लोगों के झगडे का फायदा पुलिस उठाती है. ‘जब दारोगा दोनों पार्टियों से पांच-पांच हज़ार लेकर जीप में चढ़ रहा था, उसके इशारे पर दोनों पार्टियां वापस अपने घरों की ओर जा रही थीं. युद्ध विराम की घोषणा हो चुकी थी.’ पुलिस की भूमिका नकारात्मक अधिक नजर आती है. बेगुनाहों को सजा दिलाने और पैसा लेकर मामले को रफा दफा करने के लिए वह सदा तत्पर रहती है. ‘थोड़ी देर तक बहस की गयी कि ये मामला पुलिस में देना चाहिए या नहीं और बहस के बाद बहुमत ये पारित हुआ कि कॉलोनी की बदनामी न हो, इसलिए यह मामला यहीं दफना देना ठीक होगा. इस उपाय को रामबाण बताने के लिए लड़की भागने की पिछली घटना को याद किया गया और बताया गया कि वहां भी सीमा के घरवालों ने पुलिस तक मामला नहीं पहुँचने दिया और कॉलोनी की इज्ज़त बचाई थी.’

    इस उपन्यास में सबसे मौलिक और दिलचस्प बात शुक्लाजी के कुत्ते शेरसिंह का मानवीकरण है. वह मनुष्यों की तरह सोचता है और अपनी श्वान बिरादरी से विचार- विमर्श करता है. ‘नौकरीपेशा लोगों का दुखी चेहरा याद आते ही उन्हें अपनी पशु योनि पर गर्व हुआ और वह सगर्व गेट के पास जाकर दो बार भूंक कर वापस अपनी जगह पर बैठ गए. मालिकों की चिंता देखकर शेरसिंह भी दुखी रहने लगे और मालकिन के हितार्थ कभी-कभी मालकिन को यह कह कर सांत्वना भी देते कि क्या करूं मालकिन अगर मैं कुत्ता नहीं आदमी होता तो ज़रूर आपकी बेटियों में से किसी एक से शादी कर लेता.’

    यह उपन्यास मूल्यों के क्षरण, कैरियरिस्टिक एप्रोच, साम्प्रदायिक माहौल को प्रस्तुत करता  है. यहां युवाओं के स्वप्नों आकांक्षाओं और संस्मृतियों का कोलाज है. इसमें  यथार्थवाद है मगर अमर्यादित भाषा के चलते पाठक उन युवकों की क्षुद्र त्रासदी में शामिल होकर भी उनसे समुचित एकात्मकता कायम नहीं कर पाता है. युवक बंद कमरे में अनौपचारिक बातचीत के दौरान भाषा सब हदें पार कर जाते हैं.. परीक्षा की तैयारी के लिए अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने के दौरान अंग्रेजी के संवाद खटकते हैं. कई पन्नों तक लगातार हिंदी अंग्रेजी की खिचड़ी भाषा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करती है. अधिकांश घटनाक्रम कुछ दोस्तों की बातों, शराब पीने और लड़कियों के पीछे भागने के इर्द गिर्द घूमता रहता है. पाठक को लगातार इंतजार रहता है कि उनकी नौकरी का क्या हुआ. अंतिम अध्याय में सब कुछ समेटने की हड़बड़ी दिखाई देती है. आजकल अंग्रेजी में कॉलेज और कैरियर पर अनेक उपन्यास आ रहे हैं . विमल चन्द्र पाण्डेय का यह उपन्यास बिना किसी विमर्श का सहारा लिए आज के समाज और उसमें हमारे सपनों की परिणति का बहुत तीव्र गति के साथ वर्णन करता है जिससे यह बेहद पठनीय हो जाता है.

                                               
उपन्यास : भले दिनों की बात थी; लेखक: विमल चन्द्र पाण्डेय

प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा 



 

सम्पर्क-
सरिता शर्मा
1975, सेक्टर-4, अर्बन एस्टेट
 गुडगाँव-122001

सीमस हीनी की कविताएँ : अनुवाद सरिता शर्मा


सीमस हीनी
(Seamus Heaney)
(जन्‍म : 13 अप्रैल 1939; मृत्‍यु 30 अगस्त 2013)
बीसवी शताब्‍दी के सबसे मशहूर कवियों में सीमस हीनी का नाम गिना जाता है. वे मशहूर आयरिश कवि, अनुवादक, नाटककार एवं प्रवक्‍ता थे. उनका चौदह काव्‍य संग्रह, चार गद्य संग्रह एवं दो नाटक प्रकाशित हुए हैं. अपने पहले कविता संग्रह ‘डेथ ऑफ़ ए नेचुरलिस्ट’ से ही इन्होने साहित्य जगत में अपनी एक मुकम्मल जगह बना ली. हीनी आक्‍सफोर्ड विश्‍वविद्यालय में कविता के प्रोफेसर थे. कुल सोलह पुरस्‍कारों से पुरस्कृत जिनमें प्रमुख हैं ई. एम. फोस्‍टर पुरस्‍कार, आयरिश पेन पुरस्‍कार, टी. एस. एलियट प्राइज, डेविड कोहन पुरस्‍कार. वर्ष 1995 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार हीनी को दिया गया.  


सीमस हीनी की कविताओ में प्रकृति के साथ-साथ तत्‍कालीन समाज एवं राजनैतिक गतिविधियां द्रष्‍टव्‍य हैं. देहाती जीवन के ताने बाने से बुनी उनकी कविताएं एक अलग तेवर की हैं.
Lovers on Aran
The timeless waves, bright, siftingbroken glass,
Came 
dazzling around, into the rocks,
Came glinting, sifting from the Americas

To posess Aran. Or did Aran rush
to throw wide arms of rock around a tide
That yielded with an ebb, with a soft crash?

Did sea define the land or land the sea?
Each drew new meaning from the waves’ collision.
Sea broke on land to full identity. 

आरान द्वीप पर प्रेमी

कालातीत लहरें, उज्ज्वल,  धूप को छानते, टूटे शीशे,

चट्टानों के चारों ओर

चमकते आते हैं अमेरिका से

 आरान पर कब्ज़ा जमाने. या आरान दौड़ता है

चट्टान की विशाल बाँहों में ज्वार को भरने

जो झुक जाता है भाटे में धीरे से टकरा कर?

समुद्र ने जमीन को परिभाषित किया या पृथ्वी ने समुद्र को?

दोनों को नया अर्थ मिला लहरों के टकराने से.

सागर जमीन से मिला पूरी समरसता से.

Song
A rowan like a lipsticked girl.
Between the by-
road and the main road
Alder trees at a wet and 
dripping distance
Stand off among the 
rushes.

There are the mud-flowers of dialect
And the immortelles of 
perfect pitch
And that moment when the bird sings very close
To the music of what happens.


गीत

लिपस्टिक लगाये पहाड़ी पेड़ रोवन सी एक लड़की.

खड़ी है उपमार्ग और सड़क के बीच

थोड़ी दूर है गीला टपकता एल्डर वृक्ष

खड़ा है हड़बड़ी से परे.

बोली के पंकिल फूल हैं और सही स्वरमान की अमरता

और पक्षी गाता है उस क्षण

जो घटित होता है उसके संगीत के अनुरूप. 

Requiem for the Croppies
The pockets of our greatcoats full of barley
No 
kitchens on the run, no striking camp…
We moved quick and 
sudden in our own country.
The priest lay behind ditches with the 
tramp.
A people hardly marching… on the hike…
We found new tactics happening each day:
We’d cut through reins and rider with the pike
And stampede cattle into infantry,
Then retreat through hedges where cavalry must be thrown.
Until… on Vinegar 
Hill… the final conclave.
Terraced thousands died, shaking scythes at cannon.
The hillside blushed, soaked in our broken wave.
They buried us without shroud or coffin
And in August… the barley grew up out of our grave. 
क्रोपीज के लिए शोकगीत

जौ से भरी थी हमारे चोगों की जेबें

न रसोई चलानी थी  न हड़ताली शिविर

हम अपने ही देश में अचानक घुसे फुर्ती से.

खाइयों के पीछे भिखारी के पास हमारा अगुआ पुजारी पड़ा हुआ है.

मुश्किल से चल पाने वाले लोगों की तादाद बढ़ रही थी .

हम हर दिन देखते थे नई रणनीति

बर्छे लिए बागडोर और सवार के बीच से रास्ता बनाते थे

और पदसेना में पशुओं की भगदड़ मची,

फिर लौट गए बाड़ों में जहाँ घुड़सवार सेना को ठूंसा जाना था

तब तक … जब तक विनिगर हिल पर … गुप्त सभा नहीं हुई

तोपों की ओर हंसिये लहराने वाले हजारों लोगों को कतारों में मारा गया

पहाडी की ढलान लज्जित थी  हमारे खून की लहर में लथपथ

हमें दफनाया उन्होंने कफन या ताबूत के बिना और अगस्त में

हमारी कब्र में जौ उगे.

Rite of Spring
So winter closed its fist
And got it 
stuck in the pump.
The 
plunger froze up a lump

In its throat, ice founding itself
Upon iron. The handle
Paralysed at an angle.

Then the twisting of wheat straw
into ropeslapping them tight
Round stem and snout, then a light

That sent the pump up in a flame
It cooled, we lifted her latch,
Her entrance was wet, and she came. 

 

वसंत का अनुष्ठान

सर्दियों ने अपनी मुट्ठी कस ली और उसे पंप में फंसा दिया

गोताखोर ने ढेर को बर्फ से ढंक दिया

अपने गले में, बर्फ ने गलाया खुद को लोहे पर.

हत्था  एक कोण पर ठप्प हो गया.

फिर गेहूं के तिनकों को मरोड़ कर बुनी रस्सियां

उन्हें जोर से कसा तने और थूथन के चारों ओर,

और फिर आग सुलगायी जिसने पंप में लौ पहुंचाई

 वह ठंडा हुआ हमने उसकी कुंडी को उठाया

पम्प प्रवेश द्वार गीला था और भेद्य था.


Follower

My father worked with a horse-plough,
His shoulders globed like a full sail strung
Between the shafts and the furrow.
The horse strained at his clicking tongue.

An expert. He would set the wing
And fit the bright steel-pointed sock.
The sod rolled over without breaking.
At the headrig, with a single pluck

Of reins, the sweating team turned round
And back into the land. His eye
Narrowed and angled at the ground,
Mapping the furrow exactly.

I stumbled in his hob-nailed wake,
Fell sometimes on the polished sod;
Sometimes he rode me on his back
Dipping and rising to his plod.

I wanted to grow up and plough,
To close one eye, stiffen my arm.
All I ever did was follow
In his broad shadow round the farm.

I was a nuisance, tripping, falling,
Yapping always. But today
It is my father who keeps stumbling
Behind me, and will not go away.

अनुयायी

मेरे पिता ने घोड़ा हल चलाया

उनके कंधे तने हुए पाल जैसे झुक जाते थे

मूठ और खांचे के बीच. घोड़ा तन जाता

उनकी लगातार चलती चलती जुबान सुन कर .

वह विशेषज्ञ थे

विंग बना कर चमकदार स्टील जुराब फिट करते थे

मिटटी को लुढ़का देते थे बिना तोड़े

 घोडा गाडी पर एक बार उठा कर.

बागडोर सँभालते और मेहनतकश टोली

फिर से मुड जाती जमीन की ओर

उनकी आंख सिकुड़ कर जमीन पर झुक जाती

 हल रेखा का सही अनुमान लगाते हुए.

मैंने उनके कील वाले रास्ते में ठोकर खाई

कभी कभार गिरा चमकीली मिटटी पर  

कभी कभी मुझे अपनी पीठ पर बिठाया उन्होंने

घिसट कर चलते हुए नीचे ऊंचे मार्ग पर .

मैं चाहता था बड़ा होकर हल चलाना

एक आँख बंद करके,  हाथ कस लेना.

मैंने बस अनुगमन किया

खेत के आसपास उनकी व्यापक छत्रछाया में.

मैं बेकार, ठोकर खाकर गिरने वाला था,

हमेशा बकबक करने वाला

लेकिन आज मेरे पिता हैं जो लड़खड़ा कर चलते हैं

 मेरे पीछे और दूर नहीं जा पायेंगे 
.

सम्पर्क- 

ई-मेल : sarita12aug@hotmail.com

मोबाईल : 09871948430

होर्हे लुईस बोर्हेस

(चित्र: होर्हे लुईस बोर्हेस)
सरिता शर्मा आजकल कुछ विदेशी रचनाकारों को पढ़ रही हैं और उनकी रचनाओं के अनुवाद में जुटी हुई हैं. इसी क्रम में सरिता जी ने प्रख्यात अर्जेन्टीनी कवि बोर्हेस की कविताओं का अनुवाद भेजा है. सरिता ने यह अनुवाद अत्यन्त आत्मीयता से किया है, जिसे हम पढ़ते हुए स्वयं महसूस कर सकते हैं. तो आईये पढ़ते हैं बोर्हेज के एक संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी ये कविताएँ.     
होर्हे लुईस बोर्हेस
अर्जेंटीना के लेखक और कवि होर्हे लुईस बोर्हेस का जन्म ब्यूनस आयर्स में 1899 में हुआ था. उनका परिवार 1914 में स्विट्जरलैंड चला गया जहां उनकी पढाई हुई और उन्होंने स्पेन की यात्रा की. 1921 में अर्जेंटीना में वापसी के बाद, बोर्हेस की कवितायें और निबंध अतियथार्थवादी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं. उन्होंने एक लाइब्रेरियन और लेक्चरर के रूप में काम भी किया. वह कई भाषाओं में निपुण थे. पेरोन शासन के दौरान उनका राजनीतिक उत्पीड़न किया गया था क्योंकि उन्होंने सैन्य जुंटा का समर्थन किया था जिसने पेरोन शासन को उखाड़ फेंका था. एक वंशानुगत बीमारी के चलते, बोर्हेस 1950 में अन्धता के शिकार हो गए. उन्हें 1955 में नेशनल पब्लिक लाइब्रेरी के निदेशक और ब्यूनस आयर्स के विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया. उन्हें 1961 में अंतरराष्ट्रीय ख्याति तब मिली जब उन्हें अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशकों का  प्रथम पुरस्कार प्रिक्स फोर्मेंटर प्राप्त हुआ. उनके लेखन को संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में व्यापक रूप से अनुवाद और प्रकाशित किया गया. स्विट्जरलैंड में जिनेवा में 1986 में बोर्हेस  की मृत्यु हुई.

   ‘जीवन अपने आप में स्वयं एक उद्धरण है,’ कहने वाले बोर्हेस सम्मोहक जुमलों के लिए विख्यात हैं.  उनके अनेक कथा संग्रह और कविता-संग्रह प्रकाशित हैं. बोर्हेस के बारे में जे. एम. कोएत्ज़ी ने कहा है, ‘उन्होंने उपन्यास की भाषा का सबसे अधिक नवीकरण किया और इस तरह स्पेनिश अमेरिकन उपन्यासकारों  की  विख्यात पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया.’
-सरिता शर्मा 

आत्महत्या
 रात में एक भी सितारा नहीं बचेगा
रात तक नहीं बचेगी.
मैं मरूंगा और मेरे साथ ख़त्म होगा
असहनीय ब्रह्मांड का सारांश  
मैं मिटा दूंगा पिरामिड, सिक्के,
महाद्वीप और तमाम चेहरे.
संचित अतीत को मिटा दूंगा
मिटटी में मिला दूंगा इतिहास को, मिट्टी को मिट्टी में
अब मैं देख रहा हूँ आखिरी सूर्यास्त
सुन रहा हूँ अंतिम पक्षी को
किसो को कुछ भी नहीं दूंगा मैं वसीयत में
चंद्रमा
वह सोना कितना अकेला है.
इन रातों का चाँद वह चाँद नहीं
जिसे देखा आदम ने पहली बार. 
लोगों के रतजगों की
लंबी सदियों ने भर दिया है उसे
पुरातन विलाप से. 
देखो. 
वह तुम्हारा दर्पण है.
पछतावा
मैंने किये जघन्य पाप
औरों से कहीं ज्यादा. 
मैं नहीं रहा प्रसन्न. 
गुमनामी के हिमनदों को
ले लेने दो मुझे उनकी चपेट में निर्दयता से.
माता पिता ने जन्म दिया मुझे 
जोखिम भरे सुंदर जीवन के खेल के लिए,
पृथ्वी, जल, वायु और आग के लिए.
मैंने उन्हें निराश किया, मैं खुश नहीं था.
मेरे लिए उनकी जोशीली उम्मीदें पूरी न हुई
मैंने दिमाग चलाया सममिति में
कला के तर्कों, नगण्यता के जाल में .
वे चाहते थे मुझसे बहादुरी. 
मैं वैसा नहीं था.
यह कभी मुझसे दूर नहीं होती. 
बगल में रहती है सदा,
उदास आदमी की परछाई.
न्यू इंग्लैंड 1967 
मेरे सपनों में आकृतियाँ बदल गयी हैं;
अब साथ लगे लाल घर हैं
और कांसे रंगी नाजुक पत्तियां
और अक्षत सर्दी और पावन लकड़ी.
सातवें दिन की तरह दुनिया
अच्छी है. सांझ में बनी हुई है
किंचित साहसी, उदास प्राचीन बुडबुडाहट,
बाईबिलों और युद्ध की.
जल्द ही पहली बर्फ गिर जाएगी (वे कहते हैं)
अमेरिका मेरा इंतजार कर रहा है हर सड़क पर,
मगर कल कुछ पल ऐसा लगा और आज बहुत देर तक
ढलती शाम में महसूस करता हूँ.
ब्यूनस आयर्स, मैं भटकता हूँ
तुम्हारी सड़कों पर बेवक्त या अकारण.

सम्पर्क-

मोबाईल- 09871948430

चार्ल्स बुकोवस्की की कविताएं :अनुवाद सरिता शर्मा


चार्ल्स बुकोवस्की की कविताएं बिलकुल सहज जीवन की कविताएँ हैं. इन कविताओं का हमारे लिए अनुवाद किया है सरिता शर्मा ने, जो खुद भी एक बेहतर रचनाकार हैं. तो आईये पढ़ते हैं ये कविताएँ। 
   
चार्ल्स बुकोवस्की

लेखक और कवि चार्ल्स बुकोवस्की का जन्म 16 अगस्त 1920 को जर्मनी में अन्देमाच में हुआ था. उनका बचपन बहुत दुखद था. उनके पिता उनकी बहुत पिटाई किया करते थे. कम उम्र में ही उन्होंने शराब पीनी शुरू कर दी थी. यह जीवन की अर्थहीनता से बचाव का उनका अपना तरीका था. उन्होंने अपना खर्च निकालने के लिए अमेरिका में लिखने के साथ साथ छोटे- मोटे काम किये. उनकी पहली कहानी 24 वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी. उन्होंने 35 वर्ष की उम्र में कविता लिखना शुरू कर दिया था और उनका पहला कविता संकलन 1959 में प्रकाशित हुआ था. उन्होंने कुछ कवितायेँ शराब पर भी लिखी थी. चार्ल्स बुकोवस्की ने 45 से अधिक पुस्तकें लिखीं जिनमें से कविता संकलन ‘लव इज अ डॉग फ्रॉम हेल’ और दो उपन्यास ‘बारफ्लाई’ और ‘फेक्टोटम’ प्रमुख हैं जिनपर  फिल्में बन चुकी हैं. उनकी मृत्यु 9 मार्च, 1994 को कैलिफोर्निया में सैन पेड्रो में हुई.

मेरी खिड़की के बाहर मिनीस्कर्ट में बाइबिल पढ़ती एक लड़की
इतवार का दिन है, मैं खा रहा हूँ चकोतरा
रूस में चर्च खत्म हो गया है
पश्चिम जिसे रुढ़िवादी समझता है.

वह सांवली और
पूर्वी मूल की लड़की,
बड़ी भूरी आँखें बाइबिल से उठाती
फिर गिराती. एक छोटी लाल और काली
बाइबिल और जब वह पढ़ती है  
उसके पैर हिलते हैं, हिलते रहते हैं
धीमा लयबद्ध नृत्य कर रही हो जैसे
बाइबिल पढ़ते हुए.

सोने की लम्बी बालियां;
बाजुओं में सोने का एक- एक कंगन,
और मुझे लगता है मिनी सूट पहना  है
कपड़ा लिपटा है उसके शरीर से,
मुलायम चमड़े के उस लिबास को
वह घुमाती है इधर- उधर
सेंकती है लंबी गोरी टांगों को धूप में.

उससे बच कर भाग नहीं सकता हूं
मैं चाहता भी नहीं हूं ऐसा करना.

मेरे रेडियो में बज रहा है सिंफ़नी संगीत
सुन नहीं सकती जिसे वह
लेकिन उसकी हलचल एकदम मेल खाती है
सिम्फनी
की लय से

वह सांवली है, वह सांवली है
भगवान के बारे में पढ़ रही है वह.
मैं भगवान हूँ.

उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता है
दिल में एक ऐसी जगह है

कभी नहीं भर पायेगी

एक खालीपन

और सबसे सुन्दर पलों

और सुखी समय में

हमें इसका अहसास होगा.

हमें महसूस होगा

पहले से कहीं ज्यादा

कि दिल में है एक जगह

जिसे कभी भरा नहीं जा सकेगा

और

हम करेंगे

इंतजार

अनवरत

उस जगह के

खालीपन में. 

सुरक्षित

बगल वाला घर देख मैं

उदासी से घिर जाता हूँ.

मिया बीवी जल्दी उठ कर

काम पर निकल जाते हैं.

शाम को जल्दी घर लौट आते हैं .
उनका जवान बेटा और बेटी है.

रात नौ बजे तक बुझ जाती हैं

घर में सभी बत्तियां.

अगली सुबह फिर से जल्दी उठ कर

काम पर निकल जाते हैं.

पति -पत्नी दोनों.

वे शाम को जल्दी वापस आ जाते हैं .

सभी बत्तियां बुझा दी जाती हैं रात में

नौ बजे तक.

बगल वाला घर मुझे

उदास कर देता है

वे लोग अच्छे लोग हैं 
मैं

पसंद करता हूँ उन्हें.


मगर मुझे लगता है डूब रहे हैं वे

और मैं उन्हें नहीं बचा सकता.

वे जिन्दा हैं.

बेघर

नहीं हैं.

मगर इसकी

कीमत

भयावह है .

किसी रोज दिन के समय

मैं घर को देखूंगा

और घर भी देखेगा

मुझको

और घर के आंसू निकल पड़ेंगे

हाँ, वह रोता है, मुझे

ऐसा महसूस होता है.
 

महिला मित्र

मुझे आते रहते हैं फ़ोन

अतीत से जुडी महिलाओं के

एक का कल ही आया

दूसरे राज्य से.

मिलना चाहती थी

मुझसे .

मैंने कहा दिया

“नहीं.”

मैं नहीं चाहता मिलना

उनसे,

मैं नहीं मिलूँगा.

ऐसा करना

अटपटा

क्रूर और

फिजूल होगा.

मैं जानता हूँ कुछ लोगों को

जो देख लेते हैं

एक ही फिल्म को

एक बार

से ज्यादा.

मैं नहीं.

जब मैं जान लेता हूँ

कहानी

जानता हूँ

अंत

वह सुखद है या

दुखद या

बस सीधी सी

बुद्धू,

तो

मेरे लिये

वह फिल्म

ख़त्म हो गयी

हमेशा के लिये

और इसी वजह से

मैं मना कर देता हूँ

अपनी किसी

पुरानी फिल्म को

चलाने देने से

बार- बार

बरसों

तक.

सरिता शर्मा का एक उपन्यास ‘जीने के लिए’ खासा चर्चित रहा है. इन दिनों विश्व साहित्य का अध्ययन और उसी के क्रम में कुछ महत्वपूर्ण अनुवाद कार्य। दिल्ली में रहनवारी।
सम्पर्क –
मोबाईल- 09871948430
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स हमारे प्रिय कलाकार रामकिंकर बैज की हैं जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है.)         

पेस्सोआ की कवितायेँ

 (चित्र : सरिता शर्मा)

संक्षिप्त जीवन- परिचय

जन्म तिथि: 12/08/1964
शिक्षा:     एम.ए. (अंग्रेजी और हिंदी),
          पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा.      
          कहानी लेखन और पटकथा लेखन में पत्राचार पाठयक्रम
          एन. आई. सी. से ऑफिस प्रोडक्टिविटी टूल्स में प्रशिक्षण कार्यक्रम
 

पुस्तकें
कविता संग्रह: सूनेपन से संघर्ष.
आत्मकथात्मक उपन्यास: जीने के लिये
अनूदित पुस्तकें : रस्किन बोंड की पुस्तक ‘स्ट्रेंज पीपल,स्ट्रेंज प्लेसिज’ और रस्किन बोंड द्वारा  संपादित ‘क्राइम स्टोरीज’ का हिंदी अनुवाद.


प्रकाशित रचनाएँ
कहानियां : पहली कहानी ‘वेक्यूम’, हंस में ‘मुबारक पहला कदम’ स्तंभ के अंतर्गत छपी जिसकी बहुत सराहना हुई. अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियां हैं- इंडिया टुडे (ससुराल),  साहित्य अमृत (स्पेस), इन्द्रप्रस्थ भारत (अदना सा सिकंदर), हरिगंधा (बेपरदा) और इंडिया न्यूज़ (सच-झूठ).

कवितायेँ:  कादम्बिनी, युवा संवाद, सरस्वती सुमन, कथा संसार, समय सुरभि अनंत और मसि कागद में.   
                                           
कार्यानुभव:
 नेशनल बुक ट्रस्ट में 2 अक्तूबर 1989 से  4 अगस्त  1994 तक संपादकीय सहायक.
 राज्य सभा सचिवालय में 5 अगस्त 1994 से  8 अक्टूबर  2006 तक अनुवादक, 9 अक्टूबर  2006 से    
   8 अक्टूबर 2009 तक संपादक और 9 अक्टूबर   2009 से सम्प्रति सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत.  
 

 

(चित्र : फेर्नान्दो पेस्सोआ)

फेर्नान्दो पेस्सोआ 20 वीं सदी के आरम्भ के पुर्तगाली कवि, लेखक, समीक्षक व अनुवादक थे और दुनिया के महानतम कवियों में से एक है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने 72 झूठे नामों या हेट्रोनिम् की आड़ से सृजन किया, जिन में से तीन प्रमुख थे. और हैरानी की बात तो यह है की इन सभी हेट्रोनिम् या झूठे नामों की अपनी अलग  जीवनी, दर्शन, स्वभाव, रूप-रंग व लेखन शैली थी. पेस्सोआ  के जीते-जी उनकी एक ही किताब प्रकाशित हुई. मगर उनकी मृत्यु के बाद, एक पुराने ट्रंक से उनके द्वारा लिखे 25000 से भी अधिक पन्ने  मिले, जो उन्होंने अपने अलग-अलग नामों से लिखे थे. पुर्तगाल की नैशनल लाइब्रेरी में इनके सम्पादन का काम आज भी जारी है.

प्रस्तुत है फेर्नान्दो पेस्सोआ की कविताएँ। कविताओं का अनुवाद किया है सरिता शर्मा ने।  


        -1-
मैं गडरिया हूं
भेड़ें मेरे ख़याल हैं और
हर ख़याल संवेदना.
मैंने सोचता हूँ अपनी आंखों और कान से
हाथ और पांव से, नाक और मुंह से भी.
फूल के बारे में सोचना उसे देखना और सूंघना है.
और फल को खाना उसका अर्थ जान लेना है.
इसी वजह से एक गर्म दिन में
बहुत ख़ुशी के बीच मैं उदास हो जाता हूँ,
मैं वस्तुतः वही हूँ…
और घास पर लेटकर
मूंद लेता हूं अपनी आंखें.
तो लगता मेरा समूचा शरीर सच में लेटा हुआ है,
मैं सत्य जानता हूं, और मैं खुश हूँ.

              -2-
धीमे धीमे बहुत धीमे
हौले से हवा चलती है,
और गुजर जाती है यूं ही धीमे से,
नहीं जानता मैं क्या सोच रहा हूँ,
न ही जानना चाहता हूँ.

            -3-

सिर्फ प्रकृति दैवी है, और वह दैवी नहीं है
अगर मैं उसे कभी व्यक्ति कहता हूँ
तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं मनुष्यमात्र की भाषा बोल पाता हूँ
जो चीजों का नामकरण कर देती है
और उन्हें व्यक्तित्व से संपन्न बना देती है.
मगर चीजें नाम या व्यक्तित्वविहीन हैं ;
वे बस हैं, और आकाश विशाल है धरती विस्तृत
और हमारा दिल मुट्ठीभर ..
आभारी हूँ अपने अज्ञान का

आनंद लेता हूँ इन सबका वैसे ही
जैसे कोई जानता हो सूरज विद्यमान है.

अगर आप मुझमें  रहस्यवाद देखना चाहें तो ठीक है मेरे पास है
मैं रहस्यवादी हूँ, पर शरीर में ही
मेरी आत्मा सीधी सादी है सोचती नहीं
मेरा रहस्यवाद ज्ञान की कमी नहीं
वह जीना और उसके बारे में न सोचना है.
मुझे नहीं पता प्रकृति क्या है: मैं इसे गाता हूँ,
एक पहाड़ की छोटी पर रहता हूँ    
एकांत सफेदीपुते घर में,
और वह मेरी परिभाषा है

       -4-

आज पढ़े मैंने पढ़े दो पन्ने
किसी रहस्यवादी कवि की किताब के
और हंस पड़ा हालाँकि रोया  भी सकता था
रहस्यवादी कवि रुग्ण दार्शनिक हैं
और दार्शनिक पगले होते हैं
जो कहते हैं फूल महसूस करते हैं
और पत्थरों में आत्माएं हैं
और चांदनी में नदियाँ उन्मादी हो जाती हैं
मगर फूल नहीं रहेंगे फूल अगर वे सोचने लगे
वे बन जायेंगे इन्सान
और यदि पत्थर आत्मवान होते वे जीवित हो जाते, पत्थर कहाँ रहते;
और नदियाँ अगर हो जाती उन्मादी चांदनी में
वे बीमार इन्सान हो जाती.
जिन्हें समझ नहीं फूलों, पत्थरों और नदियों की
वही बात कर सकते हैं उनकी आत्माओं की .
जो बताते हैं पत्थरों, फूलों और नदियों की आत्माओं के बारे में
अपनी और अपनी मिथ्या धारणाओं की बात करते हैं.
शुक्र है पत्थर महज पत्थर हैं,
और नदियाँ सिर्फ नदियाँ
फूल केवल फूल हैं.
जहाँ तक मेरा सवाल है, अपनी कविताओं का गद्य लिखता हूँ
और संतुष्ट हूँ
कि जानता हूँ प्रकृति को बाहर से
इसके भीतर क्या है नहीं जानता
क्योंकि प्रकृति के भीतर कुछ भी नहीं
कुछ होता तो वह प्रकृति न रहती.

   -5-

सब प्रेम पत्र होते हैं 
बेतुके.
अगर बेतुके न होते तो प्रेम पत्र न होते.
अपने ज़माने में मैंने भी लिखे थे प्रेम पत्र
ऐसे ही एकदम बेतुके
प्रेम पत्र , अगर प्रेम है,
वह जरूर बेतुका होगा .
मगर सच यह है
जिन्होंने नहीं लिखे कभी प्रेम पत्र

वे हैं बेतुके .
काश मैं लौट पाता उस काल में
जब लिखे थे मैंने प्रेम पत्र
बिना यह सोचे
कितना बेतुका था सब कुछ.

संपर्क:
1975, सेक्टर 4, अर्बन एस्टेट,
गुड़गांव 122,001.
(हरियाणा)


ईमेल: sarita12aug@hotmail.com


मोबाइल: 9871948430

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)