जिंदगी का कैनवास अनुभव के रंगों से लगातार गहरा होता चला जाता है। यह महसूस करने वाली कवियित्री दीप्ति शर्मा जब इन अनुभवों को सीमा पर तैनात सैनिक और घर की सीमा में घिरी हुई स्त्री के जीवन में देखती हैं तब उनका कवि रूप खुल कर सामने आता है। दोनों की अपनी सरहदें हैं जिसके पार करने पर सैनिक देशद्रोही और स्त्री मर्यादाविहीन कहलाने लगती है। आईये दीप्ति की कविताओं को पढते हुए कुछ इसी तरह के रंगों से दो-चार होते हैं।
जन्म तिथि – 20 फरवरी, जन्म स्थान – आगरा
प्रारम्भिक शिक्षा – पिथौरागढ़ 6 क्लास तक .. फिर 2 साल भीमताल .. और अब आगरा में, हाल ही में बी टेक ख़तम हुआ है वर्ष 2012 में .दीप्ति के पिता जी सरकारी नौकरी में हैं जल निगम में अभियन्ता और इनकी माता जी गृहिणी हैं
.वो
एकांत में एकदम चुप
कँपते ठंडे पड़े हाथों को
आपस की रगड़ से गरम करती
वो शांत है
ना भूख है
ना प्यास है
बस बैठी है
उड़ते पंछियों को देखती
घास को छूती
तो कभी सहलाती
और कभी उखाड़ती है
जिस पर वो बैठी है
उसी बग़ीचे में
जहाँ के फूलों से प्यार है
पर वो फूल सूख रहें हैं
धीरे धीरे फीके पड़ रहे हैं
उनके साथ बैठ कर
जो डर जाता रहा
अकेलेपन का
अब फिर वो हावी हो रहा है
इन फूलों के खतम होने के साथ
ये डर भी बढ़ रहा है
फिर कैसे सँभाल पाएगी
वो इन कँपते हाथों को,
लड़खड़ाते पैरों को
इन ठंडे पड़े हाथों की रगड़ भी
फिर गरमी नहीं दे पाएगी
वो भी मुरझा जायेगी
इन फूलों के साथ ।
कीमत
बंद ताले की दो चाबियाँ
और वो जंग लगा ताला
आज भी बरसों की भाँति
उसी गेट पर लटका है
चाबियाँ टूट रहीं है
तो कभी मुड़ जा रहीं हैं
उसे खोलने के दौरान।
अब वो उन ठेक लगे हाथों की
मेहनत भी नहीं समझता
जिन्होंने उसे एक रूप दिया
उन ठेक लगे हाथों की
मेहनत की कीमत से दूर वो
आज महत्वाकांक्षी बन गया है
अपने अहं से दूसरों को दबा कर
स्वाभिमान की कीमत गवां रहा है
पुरानी यादों के स्मृतिपात्र
भरे रहते हैं भावनाओं से
जिन पर कुछ मृत चित्र
जीवित प्रतीत होते हैं
और दीवार पर टँगी
समवेदनाओं को उद्वेलित करते हैं ।
और एक काल्पनिक
कैनवास पर चित्र बनाते हैं ।
तुम और मैं
मैं बंदूक थामे सरहद पर खड़ा हूँ
और तुम वहाँ दरवाजे की चौखट पर
अनन्त को घूँघट से झाँकती ।
वर्जित है उस कुएँ के पार तुम्हारा जाना
और मेरा सरहद के पार
उस चबूतरे के नीचे तुम नहीं उतर सकतीं
तुम्हें परंपराऐं रोके हुये है
और मुझे देशभक्ति का ज़ज़्बा
जो सरहद पार करते ही खतम हो जाता है
मैं देशद्रोही बन जाता हूँ
और तुम मर्यादा हीन
बाबू जी कहते हैं.. मर्यादा में रहो, अपनी हद में रहो
शायद ये घूँघट तुम्हारी मर्यादा है
और मेरी देशभक्ति की हद बस इस सरहद तक.. ।
दीवार पर टँगे
कैनवास के रंगों को
धूल की परतें
हल्का कर देती हैं
पर जिंदगी के कैनवास
पर चढ़े रंग
अनुभव की परतों से
दिन प्रति दिन
गहरे होते जाते हैं ।
संपर्क –
blog- deepti09sharma.blogspot.com