इलाहाबाद कार्यशाला की रपट – प्रस्तुति : बजरंग बिहारी


 
जनवादी लेखक संघ द्वारा एक से तीन अक्टूबर 2016 को इलाहाबाद में एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में विशेषज्ञों ने ‘वर्ग, जाति तथा जेंडर’ विषय पर अपने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। देश भर से आए प्रतिभागियों ने अपने सवाल विशेषज्ञों के सामने रखे जिसके जवाब के क्रम में कई महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं। इस कार्यशाला की एक वृहद् रपट तैयार की है कवि-आलोचक बजरंग बिहारी ने। तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं इलाहाबाद कार्यशाला की रपट।
     
जाति, वर्ग और जेंडर

इलाहाबाद कार्यशाला की रपट

बजरंग बिहारी
जनवादी लेखक संघ (जलेस) ने विगत 1-3 अक्टूबर, 2016 को इलाहाबाद में जाति, वर्ग और जेंडर विषय पर तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया इस कार्यशाला के लिए प्रतिभागियों का चयन पहले ही हो चुका था। इसमें देश के तमाम राज्यों के लगभग सत्तर प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। कार्यशाला में स्वागत वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ समाजकर्मी एवं मजदूर नेता हरिश्चंद्र द्विवेदी ने कहा कि यह विषय बेहद प्रासंगिक है और वर्ग, जाति तथा जेंडर पर नई पीढ़ी का ध्यान जाना बहुत जरूरी है। परिवर्तन का पहिया रुकना नहीं चाहिए। कार्यशाला के संयोजक बजरंग बिहारी ने कहा कि इलाहाबाद कार्यशाला बाँदा में पिछले वर्ष (अक्टूबर, 2015 में) हुई कार्यशाला का ही विस्तार है। बाँदा कार्यशाला का विषय था- ‘आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद : पारस्परिकता के धरातल’। मार्क्स और आंबेडकर दोनों ने साम्य स्थापित करने के लिए वर्चस्व को गंभीरता से समझा था। भारत में वर्चस्व का स्वरूप जाति, वर्ग और जेंडर से बनता है। इनके अन्तर्संबंध को समझे बगैर शोषणतंत्र के उन्मूलन का अभियान विफल रहेगा। संयोजक ने कहा कि विषय खुला हुआ है। कार्यशाला तथा जलेस दोनों यह मानते हैं कि भारतीय वर्चस्व के किसी एक रूप को सब कुछ मानकर चलना ठीक नहीं। वर्ग का प्रश्न निश्चय ही महत्वपूर्ण है मगर जाति तथा जेंडर को कम महत्व का नहीं माना जा सकता। ये तीनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं। इनके मध्य एक सहयोग का रिश्ता कायम है। यह त्रयी एक विचित्र रसायन का निर्माण करती है। इस रसायन को समझे और भेदे बिना परिवर्तन के आंदोलन सफल नहीं हो सकते। यह भी कि किसी एक को वरीयता देकर शेष दो को मुल्तवी नहीं रखा जा सकता। तीनों के विरुद्ध एकसाथ संघर्ष छेड़ना होगा। जलेस के उप महासचिव संजीव कुमार ने अपनी प्रस्तावना में कहा कि यह कार्यशाला हमारी इस जिज्ञासा का समाधान ढूँढने के लिए है कि प्रभुत्व और मातहती की संरचनाएं बनाने वाली तीनों श्रेणियों के बीच के अन्तर्संबंध को कैसे देखा जाए। हम सामाजिक मुद्दों के साथ साहित्य को जोड़ कर देखते हुए इन तीनों के संबंध में अपनी समझ और दुरुस्त करना चाहते हैं। परिवर्तन का कोई भी आंदोलन एकांगी नहीं हो सकता। प्रथम सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ लेखक तथा जलेस अध्यक्ष दूधनाथ सिंह ने की।
दूसरे सत्र में बोलते हुए समाजकर्मी और दलित नारीवादी लेखिका अनिता भारती ने कहा कि जलेस की यह पहल सराहनीय है। उन्होंने समाज में जाति की मजबूत पैठ पर विचार करते हुए कहा कि इसने स्त्रियों को भी आपस में बाँट दिया है। जाति तोड़े बगैर एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। इंसान भूखा रह सकता है मगर बेइज्जती सहन नहीं कर सकता। इस व्यवस्था के पीड़ित जैसे-जैसे अपना दर्द समझेंगे वैसे-वैसे वे एकजुट होंगे। उनकी एकजुटता ही हमारी ताकत है। अनिता ने कहा कि वे उन लोगों में नहीं हैं जो निराश हो चले हैं और कहने लगे हैं कि ‘कुछ नहीं हो सकता’। वे आशावादी हैं कि लोग समता की तरफ बढ़ेंगे।

अपनी बात रखते हुए अनीता भारती 
अनिता जी के वक्तव्य पर हुई चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए दलित आलोचक डॉ. अभय कुमार ने कहा कि जाति व्यवस्था नहीं, जाति प्रबंधन कहना चाहिए। यह देखने की बात है कि जाति प्रबंधन के सिद्धांत वर्ग से कैसे जुड़ते हैं। वर्ग बदल सकता है मगर जाति में बदलाव संभव नहीं है। डॉ. चंद्रभान सिंह यादव ने पूछा कि जो लोग यह कह रहे हैं कि दलितों में बुर्जुआजी बढ़ रही है क्या वे बुर्जुआजी की संख्या या प्रतिशत बता सकते हैं? ‘दलित ही दलितों का शोषण कर रहे हैं’ जैसे तर्क क्या आँख चुराने का बहाना तो नहीं हैं? वामपंथी कार्यकर्त्ता हरिश्चंद्र पाण्डेय ने कहा कि जनवादियों से निश्चय ही चूक हुई है। बेस और सुपर स्ट्रक्चर भ्रांतिपूर्ण श्रेणियां हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन ने ब्राह्मणवाद पर कभी खुल्लमखुल्ला हमला नहीं किया। स्त्रीवादी अध्येता डॉ. अवंतिका शुक्ला ने कहा कि वर्ग, जाति और जेंडर तीनों ही जुड़े हुए हैं। विवाह संस्था तीनों को बनाए हुए है। भूस्वामित्व इसी तरह कायम रहता है। बजरंग बिहारी ने कहा कि वक्तव्य में दो बातें गौरतलब और समस्यामूलक हैं। एक, दलित आंदोलन और राजनीति से हिंदुत्व की ओर जाने वाले लोगों को समझना तथा दो, इज्जत के सवाल को रोजी-रोटी के सवाल से ऊपर मानना। इस चर्चा पर अपनी टिप्पणी देते हुए अनिता जी ने कहा कि वर्ग की लड़ाई में दलित आगे हैं मगर आर्थिक मुद्दे पर लड़ाई अपमान के विरुद्ध संघर्ष को पीछे धकेल देती है। इज्जत की लड़ाई ही मुख्य है। जब दलितों को लगेगा कि वामपंथी उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं तो वे उनकी तरफ झुकेंगे। उन्होंने अपील की कि दलितों को बाँटें नहीं। 
दूसरे सत्र के वक्ता ‘सिनेमा ऑफ़ रेजिस्टेंस’ के संयोजक और दस्तावेजी फिल्म निर्माता संजय जोशी ने गैर फीचर फिल्मों में जाति और जेंडर की समस्या पर अपनी बात रखी। उन्होंने तमाम फिल्मों के विजुअल्स दिखा कर अपनी स्थापनाओं और प्रस्तावों को पुष्ट किया। संजय जोशी ने कहा कि विजुअल्स की दुनिया की पूरी लड़ाई बड़े संस्थानों और छोटे इनिशिएटिव्स के बीच की है। पुराने जमाने में सिनेमा सेल्युलाइड पर बनता था। तब सांस्थानिक मदद के बगैर फिल्म बनाना संभव नहीं था। आज का कैमरा सारे प्रोसेस तुरंत कर देता है। नए कैमरे से आप अपने गाँव के सामंत की हिंसा रिकॉर्ड कर सकते हैं। पहले यह मुमकिन नहीं था। उस्ताद अलीउद्दीन खां पर बात करते हुए संजय ने संगीत नाटक अकादमी की उन पर बनाई डाक्यूमेंट्री फिल्म के कुछ अंश दिखाए। इसे उन्होंने भारतीय सिनेमा का उज्ज्वल डॉक्यूमेंटेशन कहा। अलीउद्दीन खां ने ‘मैहर बैंड’ बनाया था। इस बैंड में ज्यादातर लोग अल्पसंख्यक या दलित थे। 1983 में आनंद पटवर्धन द्वारा बनाई दस्तावेजी फिल्म ‘बॉम्बे : अवर सिटी’ मुंबई के हाशिए के लोगों की जिंदगी को फोकस करती है। आनंद क्लास और स्टेट के रिश्ते को पूरी जटिलता से दर्शाते हैं। वे कहीं भी लाउड नहीं होते। भारतीय सिनेमा में आनंद पटवर्धन बहुत बड़े टर्निंग पॉइंट हैं। उन्होंने अपनी हर फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने के लिए लड़ाई लड़ी। संजय ने झारखंड की ‘अखड़ा’ समूह की चर्चा की। अखड़ा समूह में राम दयाल मुंडा, बीजू टोप्पो आदि लोग रहे। उसकी बनाई डाक्यूमेंट्री फ़िल्में आदिवासी जीवन, उत्पीड़न, आकांक्षा और संघर्ष को सामने लाती हैं। ‘शहीद जो अनजान रहे’ अखड़ा की दस्तावेजी फिल्म है। इसमें मांझी हत्याकांड का संदर्भ है। इस फिल्म से आदिवासियों के नाम पहली बार दर्शकों के समक्ष आते हैं। अखड़ा की दूसरी उल्लेखनीय फिल्म ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’ थी। मंजीरा दत्ता ने झारखंड के अति पिछड़े लोगों पर ‘बाबू लाल भुइयां की कहानी’ नामक फिल्म बनाई। यह डॉक्यूमेंटेशन एक ओरिएंटेशन के साथ था। मदुरै की एक दलित सफाईकर्मी महिला पर बनी फिल्म ‘पी’ के कुछ अंश दिखाते हुए संजय ने इस वर्ग की जीवन स्थितियों पर ध्यान आकृष्ट कराया। पुणे के कामगारों ने ‘कचरा व्यू’ नामक दस्तावेजी फिल्म का निर्माण किया है। हालैंड के फिल्मकार बर्ट की दस्तावेजी फिल्म ‘जू’ के हिस्से दिखा कर उन्होंने दर्शकों से पूछा कि ‘जू’ (चिड़िया घर) किधर है? ‘जू’ तत्व  मनुष्य में है या जानवर में? इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए संजय ने उड़ीसा की फिल्म ‘ह्यूमन जू’ के हिस्से दिखाए। फिल्म में जानवर नहीं हैं। यह फिल्म डोंगरिया आदिवासियों पर है। नियमगिरि पहाड़ी पर रहने वाले डोंगरिया आदिवासी अपनी जमीन पर बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के कब्जे के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। संजय जोशी ने उदयपुर के शंभू खटीक की चर्चा की जिन्होंने दलितों के श्मशान पर फिल्म बनाई है। उन्होंने कहा कि जिनकी कोई कहानी नहीं है उनकी कहानियां बन रही हैं। यह दस्तावेजी सिनेमा का योगदान है। 1930-40 में भारतीय सिने जगत में महिलाओं की स्थिति पर रीना मोहन की बनाई डाक्यूमेंट्री ‘कमलाबाई’ के हिस्से दिखाते हुए उन्होंने कहा कि यह बहुत मूल्यवान काम है। उन्होंने अपने वक्तव्य में करीब 20 महिला फिल्मकारों का सोदाहरण जिक्र किया। मीरा दीवान की ससुराल पर, सुरभि शर्मा की जहाजी म्यूजिक पर, वसुधा जोशी की शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर और शबा दीवान की उत्तर भारत की पांच तवायफों पर बनाई फ़िल्मों की चर्चा प्रतिभागियों को बेहद महत्वपूर्ण लगी। इस चर्चा में अजीत प्रियदर्शी, अनिता भारती, किंगसन सिंह पटेल, स्वाती और क्रांति भाटापुरकर आदि प्रतिभागी शरीक हुए। 

अर्चना वर्मा वक्तव्य देते हुए
दो अक्टूबर की सुबह कार्यशाला के तीसरे सत्र में नारीवादी चिंतक अर्चना वर्मा ने वक्तव्य दिया। रेमण्ड विलियम्स के हवाले से उन्होंने कहा कि मनुष्य संस्कृति का भी उत्पादन करता है। आर्थिक तत्व निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन समाज के केन्द्र निरंतर बदलते रहते हैं। वर्ग का निर्माण समान सांस्कृतिक रुचियों से भी होता है। सिर्फ आर्थिक कारक की निर्धारक नहीं होते। कभी वर्ग और संघर्ष प्रचलित शब्द थे आज उनकी जगह अस्मिता और प्रतिरोध ने ले ली है। वर्ग के भीतर शेष पहचानें विलुप्त नहीं होतीं। अन्यता और वैमन्यता पर विचार करते हुए उन्होंने ‘सामान्य’ का अर्थ किया- समं च अन्यं च। समान भी और अन्य भी। किसी भी अस्मिता में छोटी-छोटी अस्मिताएं समाहित रहती हैं। वे विलीन नहीं होतीं। उनमें टकराहटें होती रहती हैं। अर्चना वर्मा ने लिंग और लैंगिकता का फर्क समझाते हुए कहा कि एक जैविक है तो दूसरा संस्कृति द्वारा निर्मित। इसी क्रम में स्त्री विमर्श और जेंडर के अन्तर को भी समझना चाहिए। स्त्री सशक्तीकरण के विचारों और कार्यक्रमों के व्यावहारिक क्रियान्वयन की राजनीति स्त्री विमर्श के भीतर आती है। स्त्री दृष्टि (फीमेल गेज) पर स्त्री विमर्श का मुख्य बल होता है। स्त्री को उसके नागरिक अधिकारों की प्राप्ति कराने के लिए संघर्ष करते रहना इसका लक्ष्य है। आयरन जॉन के संदर्भ से उन्होंने कहा कि स्त्री होने का भाव जैविक है, जन्मजात है जबकि पुरुष को जीवन भर अपने पुरुषत्व का परीक्षण करते रहना पड़ता है। सिमोन के हवाले से अर्चना जी ने कहा कि यह पूरी तरह स्त्री के आत्मबोध पर निर्भर है कि वह खुद को किस तरह से देखती है- दासी की तरह या स्वतन्त्र स्त्री की तरह। स्त्री विमर्श स्त्री के आत्मबोध को पितृसत्ता के प्रतिपक्ष में निर्मित करना चाहता है। इसी से वह सीमित भी हो जाता है। अस्तित्ववादी विचारदर्शन की चर्चा के प्रसंग में उन्होंने कहा कि प्रामाणिकता का अर्जन आकांक्षा से नहीं, आचरण से होता है। हिन्दी के अस्मितावादी विमर्श पर टिप्पणी करते हुए अर्चना जी ने कहा कि अस्मिता की अभिव्यक्ति नहीं होती बल्कि अभिव्यक्ति अस्मिता का निर्माण करती है। उन्होंने प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, सुशीला टाकभौरे, मैत्रेयी पुष्पा और रमणिका गुप्ता की आत्मकथाओं का ससंदर्भ जिक्र किया। मैत्रेयी की आत्मकथा उपन्यास ज्यादा है, वह कृति आत्मकथा के रूप में निराश करती है। पितृसत्ता की परेशानियों पर बोलते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि औद्योगिक क्रांति ने पिता को घर से अधिकाधिक अनुपस्थित किया है। दूसरी तरफ फिल्म कला माध्यम पिता को भारी भरकम पुरुष के रूप में चित्रित करती है। अर्चना जी ने जेंडर स्टडीज में मुलायम पुरुषों को लेकर महसूस की जाने वाली असहजता की बात भी की।
अर्चना जी के वक्तव्य पर हुई चर्चा में हिस्सा लेते हुए लखनऊ के डॉ. अजीत प्रियदर्शी ने पूछा कि क्या स्त्री विमर्श लैंगिकता पर हो रहे विमर्श को निरस्त कर सकता है? अर्चना जी का जवाब था कि स्त्री विमर्श अस्मिता विमर्श का विकास है। इसमें स्त्रीलिंग भी है और लैंगिकता भी। रेखा अवस्थी का कहना था कि बदलाव मिल कर ही हो सकता है। पुरुष भी बदले और स्त्री भी। नांदेड़ से आईं शिक्षिका राजश्री भाटापुरकर ने ट्रांसजेंडर का मुद्दा उठाया। अभय कुमार ने पूछा कि स्त्री पुरुष पर क्रमशः निर्भर क्यों होती गई? अर्चना जी का कहना था कि इस प्रश्न का जवाब अनुमान के आधार पर ही दिया जा सकता है। संतान और व्यक्तिगत संपत्ति दो महत्वपूर्ण कारण है। पितृसत्ता की शुरुआत से स्त्री की पुरुष पर निर्भरता का आरंभ होता है। उन्होंने उद्दालक और श्वेतकेतु की कथा के जरिए अपनी बात स्पष्ट की। प्रेमचन्द की कहानी ‘नैराश्य लीला’ का भी उल्लेख किया जिसमें एक बाल विधवा को तरह-तरह से तोड़ा-मोड़ा जाता है। पुडुचेरी से आए शोधार्थी जगदीश नारायण तिवारी ने पूछा कि अस्मिता विमर्श में जातियाँ कहाँ तक बनी-बची रहेंगी? सुभाषिणी अली की टिप्पणी थी कि बड़ी जातियों ने छोटी जातियों की संस्कृति को विकृत करने का काम किया है। ब्राह्मणवाद का हित इसी से सधता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शिक्षक राजकुमार ने कहा कि सरनेम हटा लेना चाहिए। यह बहुत घातक है।     
नांदेड़ से आईं मराठी लेखिका और सत्यशोधक कार्यकर्त्ता सुप्रिया गायकवाड़ ने चौथे सत्र को संबोधित करते हुए जाति, वर्ग और जेंडर के बीच के अन्तर्संबंध को समझने पर जोर दिया। जाति व्यवस्था भारत की है जबकि लिंग भेद दुनिया में हर जगह काम करता है। हमने मान लिया है कि सवर्ण महिलाएं ही प्रतिबंधों में जीती हैं और दलित स्त्रियाँ उससे मुक्त हैं जबकि सचाई यह है कि सभी जाति समुदायों की औरतें सामाजिक व्यवस्था की कठोर श्रृंखला में जकड़ी हुई हैं। नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि यहाँ की पितृसत्ता ब्राह्मणी पितृसत्ता है और इसे जाति के भीतर ही समझा जा सकता है। जाति और पितृसत्ता के मिले जुले रूप को महात्मा फुले ने भी स्पष्ट किया था। सुप्रिया ने कहा कि स्त्री शोषण को समझना है तो ब्राह्मणी धर्म को समझना होगा। स्त्री पर सारी पाबंदियां शुद्धता के कारण हैं। महिला जितनी शुद्ध है जाति उतनी ही प्रतिष्ठित होगी। अपनी जाति को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने निचली जाति की स्त्रियों को निशाना बनाया। फुले के समय की एक घटना काशीबाई की हत्या का उल्लेख करते हुए सुप्रिया ने कहा कि जिस व्यक्ति ने काशीबाई को गर्भवती बनाया वह तो छूट गया लेकिन काशीबाई को दंड मिला। फुले ने ऐसी स्त्रियों और उनके बच्चों को बचाने के लिए बालहत्याप्रतिबंधक गृह शुरू किया। फुले का कहना था कि व्यभिचारी स्त्रियाँ नहीं, पुरुष होते हैं। ब्राह्मण स्त्री का शोषण घर के भीतर होता है जबकि कुनबी स्त्री घर और बाहर दोनों जगह शोषित होती है। फुले ने इसीलिए शूद्र स्त्री की मुक्ति को ज्यादा तरजीह दी है। सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाते हुए राजा राममोहन राय ने तर्क दिया कि धर्मशास्त्रों में सतीप्रथा नहीं है। इसी तरह दयानंद सरस्वती ने ऋग्वेद में मूर्तिपूजा का उल्लेख न होने का तर्क देते हुए मूर्तिपूजा के खिलाफ आवाज उठाई। कल्पना कीजिए अगर वहाँ इसका प्रावधान होता तो ये विचारक क्या करते?

सवाल पूछती हुई एक प्रतिभागी
डॉ. आंबेडकर ने महिलाओं को जातिप्रथा का प्रवेश द्वार कहा है। वे स्त्री मुक्ति को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि जातिप्रथा और पितृसत्ता दोनों में स्त्री पीड़ित है। सुप्रिया ने स्त्री मुक्ति हेतु बाबासाहेब के प्रयासों का विवेचन करते हुए उनके द्वारा स्थापित दलित महिला फेडरेशन का विस्तार से उल्लेख किया। अपने वक्तव्य के अंतिम भाग में उन्होंने कास्ट, पैट्रियार्की और कैपीटलिज्म के गठजोड़ की चर्चा की। आज जो आंदोलन चल रहे हैं वे समस्या के एक खंड को ही एड्रेस करते हैं। आपस में बंटे हुए आंदोलन समस्या को जड़ से उखाड़ कर नहीं फेंक सकते। तीनों को साथ लेकर जो आंदोलन बनेगा, समाधान उसी से निकलेगा। कोपर्डी घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि मराठों का दलित समुदाय के विरुद्ध खड़े होना, एससी/एसटी एक्ट ख़तम करने की मांग करना, आरक्षण पर प्रतिक्रियात्मक स्टैंड लेना चिंतनीय है। दलित-दलित, दलित-ओबीसी, महिला-महिला के बीच शोषण का रिश्ता ‘स्ट्रक्चर’ से जुड़ा हुआ प्रश्न है। हम संरचनागत परिवर्तन की कोशिश करें। उसी से कुछ संभव होगा।
चर्चा का आरंभ करते हुए डॉ. अभय कुमार ने पूछा कि दलित राजनीति और आंदोलन में खेमे बन रहे हैं, क्या यह ब्राह्मणी शिकंजा नहीं है? गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका डॉ. किंगसन सिंह पटेल का कहना था कि नारीवाद के बीच विभाजन है। ये लोग इकट्ठे क्यों नहीं हो पाते? कुटुम्ब के भीतर के सवाल बाहर क्यों नहीं आ पाते? अजीत प्रियदर्शी का सवाल था कि क्या मीडिया जातियों को लड़ाने का खेल नहीं खेल रही है? नांदेड़ से आए शोधछात्र बड़ेवद राम ने जानना चाहा कि क्या मराठा आंदोलन प्रतिक्रियावादी नहीं है? कवि-अनुवादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक डॉ. संजीव कौशल का कहना था कि पुरुषवादी भाषा में स्त्री गायब कर दी जाती है। मीडिया में राजनीति के तहत जाति को चिन्हित करने का काम होता है। सुभाषिणी अली ने कहा कि संपत्ति में बँटवारे से बचने के लिए नम्बूदरी ब्राह्मणों ने सिर्फ बड़े बेटे के विवाह की प्रथा चलाई थी। परिवार के शेष बेटे नायर जाति की स्त्रियों से सम्बन्ध करते थे। गोलवरकर ने इसकी व्याख्या ब्राह्मण श्रेष्ठता के रूप में की। उनके अनुसार ब्राह्मण दूसरी जाति की स्त्रियों से बच्चे पैदा करेंगे तो वे बच्चे उत्तम कोटि के होंगे! दलित स्त्री के शरीर का इस्तेमाल ऊँची जाति वाले कर सकते हैं, यह मक्कारी आज भी बनी हुई है। शिक्षक और समीक्षक डॉ. चन्द्रभान सिंह यादव ने कहा कि मीडिया का चरित्र हिंदूवादी है। सुप्रिया गायकवाड़ ने अपने रेस्पांस में कहा कि जो भी शोषित हैं वे एक साथ आ सकते हैं। दलित और महिलाएं एकजुट हो सकते हैं। प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ लड़ना है तो एक होना पड़ेगा। मित्र संगठनों के एक मंच पर आना पड़ेगा।     
पांचवें सत्र में बोलते हुए प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री और परिवर्तनकामी चिंतक प्रो. गोपाल गुरु ने प्रतिबद्धता का प्रश्न उठाया। उन्होंने वर्कशॉप के स्वरूप और उसकी मर्यादा (प्रोटोकाल) का ध्यान रखने की अपील की। उनका कहना था कि वक्ता से वही सवाल पूछे जाएं जिस पर उसने अपना मत रखा हो। मनमर्जी से सवालों से कार्यशाला का उद्देश्य भोथरा हो जाता है। ‘हिप्पोक्रेट’ के लिए ‘मक्कार’ शब्द का अनुमोदन करते हुए उन्होंने इस अच्छे अनुवाद के लिए सुभाषिणी अली को धन्यवाद दिया। कोपर्डी परिघटना को उन्होंने मक्कारी का उदाहरण बताते हुए कहा कि खैरलांजी की घटना को यहाँ अलग करके रख दिया गया है। गोपाल गुरु ने सवाल किया कि जाति, वर्ग और जेंडर को साथ लेने पर आपकी राजनीति क्या होगी? उनका प्रस्ताव था कि इन तीनों में से किसी एक को ही ले सकते हैं या किसी एक को मुख्य मान सकते हैं। उनकी यह राय भी थी कि ये तीनों कैटेगरीज थक गई हैं, अर्थहीन-सी हो गई हैं। अब उनमें नई ऊर्जा लाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यह भी सोचने की आवश्यकता है कि इन तीनों से ऊपर भी एक कैटेगरी है जो इन्हें साथ रखती है। हम उस कैटेगरी को पहचानें। ‘आल इन वन’ से काम नहीं चलेगा। आपको स्पेशलाइज करना पड़ेगा।
एक लेखक संगठन के रूप में उन्होंने जलेस की सराहना करते हुए कहा कि क्या कविता करना पर्याप्त है? कवि तो उसे पर्याप्त मान लेते हैं। कविता की अपर्याप्तता को पहचानना भी आवश्यक है। कविता मेटाफर देती है। वह आसमान तक पहुँचा देती है। गद्य का चुनाव इसलिए होना चाहिए कि हमें जड़ तक जाना है। जड़ तक जाने के लिए फिलासफी चाहिए। यह प्रोज में ही संभव है। अब वर्ग कहाँ है? जहाँ पर पूँजीपति नेचर को नष्ट कर रहा है वहाँ वर्ग है। मुंबई की टेक्सटाइल मिलों में तीनों तरह के शोषण थे। इस शोषण पर आंबेडकर ने लिखा, अण्णा भाऊ साठे ने लिखा। अभी मिल नहीं हैं तो तीनों कहाँ चले गए? वे सब साम्प्रदायिकता में तब्दील हो गए हैं। प्रकाश आंबेडकर का यह कथन बहुत अर्थपूर्ण है कि अभी जातिवाद नहीं, जाति है। जाति की राजनीति ख़तम हो गई है मगर जाति मौजूद है। जाति अब शोषण, विभेद से ज्यादा हिंसा में अभिव्यक्त हो रही है। यह कहना गलत है कि वायलेंस का कोई स्ट्रक्चर नहीं है। संरचना के भीतर ही वायलेंस होता है। वायलेंस के दायरे को उसकी संपूर्णता में देखें। ख़ामोशी भी हिंसा है। ओढ़ी हुई ख़ामोशी, थोपी हुई ख़ामोशी वायलेंस है। अगर पत्नी रात दस बजे साहस करके कहे कि आज उसका प्रमोशन हुआ है तो यह हिंसा है। दिन भर अपने को जब्त किए रहना हिंसा है। गोपाल गुरु ने कहा कि हम सब मैराथन में हैं। हमें मैराथन में दाल दिया गया है। इसका उद्देश्य है कि एक जैसा अनुभव किसी को हासिल न हो सके। मेरा दुःख सबसे बड़ा है- सब यही दावा कर रहे हैं। दलित, स्त्री, आदिवासी सबके बीच एक होड़-सी लगी है। सब मैराथन में हैं। यह सब उदारवाद की देन है। अगरचे अनुभव एक हुआ तो पूँजीपतियों पर संकट आ सकता है। इसीलिए पूँजीवाद सबको अलग-अलग खेमे में रखता है। पावर्टी को बांटकर रखना उसकी रणनीति है। वर्ग, जाति और जेंडर को एक-साथ रखा जाना जरूरी है। इसके लिए इंसान की भाषा अपेक्षित है। हमें आदमी को इंसान बनाना है। उसके लिए शास्त्र चाहिए, विचार चाहिए। जो अन्याय करते हैं वे अपनी आत्मकथा कभी नहीं लिखते। आपको उनकी आत्मकथा लिखनी है और अपनी भी। दोनों को बदलने का जिम्मा आपको ही उठाना पड़ेगा। हाल में संपन्न जे.एन.यू. छात्र संघ चुनाव पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि वहाँ बापसा का नारा था- ‘भगवा लेफ्ट एक है, बाकी कामरेड फेक है।’ यहाँ सारा कथन एक नारे में समा गया है। नारा है मगर विश्लेषण कहाँ है? प्रतिबद्धता से शुरू हुआ वक्तव्य प्राथमिकता पर समाप्त हुआ। गोपाल गुरु ने प्राथमिकता का सवाल उठाते हुए कहा कि किसी एक कैटेगरी को आगे रख कर चलना होगा। आप जो भी कैटेगरी चुनें उसे शार्प, फोकस्ड और पॉलिटिकली चार्जेबल होना चाहिए। प्रायऑरिटी के साथ सॉलिडरिटी का मुद्दा जुड़ा हुआ है। विचारधारा के सामने ‘प्यूरिटी’ का प्रश्न आ सकता है। उनका संकेत पुअर (गरीब) को प्राथमिक कैटेगरी बनाने का था।
गोपाल गुरु के वक्तव्य पर संजीव कौशल ने पूछा कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स सबकी अलग-अलग है। ऐसे में छोटी-छोटी अस्मिताओं से क्या असर पड़ने जा रहा है? आलोचक और दिल्ली के भारती कॉलेज में शिक्षक कवितेन्द्र इंदु की राय थी कि मार्क्सवाद ने एक कैटेगरी को ऊपर करके शेष तबकों के शोषण को जारी रखने का मौका दिया है। क्लास को ऊपर रखने में दिक्कत है। चंचल चौहान ने पूछा कि वर्ग कहाँ है? क्या मार्क्स के इस कथन की प्रासंगिकता ख़तम हो चुकी है कि मानव इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है? कवि शंभू यादव का प्रश्न था कि अंतिम कैटेगरी क्या होगी? गोपाल गुरु के वक्तव्य से अपनी सहमति दर्ज कराती हुई सुभाषिणी अली ने कहा कि बँटवारा करके रखना नियोलिबरल युग की स्ट्रेटजी है। सबको मैराथन में डाल देने से बिखराव होगा और हिंसा होगी। इसमें उनका फायदा है। जबकि हिंसा अस्मिता का लक्षण बन चुकी है तब इसे कैसे रोका जाए? आलोचक रेखा अवस्थी ने कहा कि कॉरपोरेट बाँट रहा है ऐसे में हम क्या एक हो सकते हैं? क्या ‘पुअर’ एक सक्षम कैटेगरी हो सकती है? दिल्ली यूनिवर्सिटी के शोधार्थी राम नरेश राम ने प्रश्न किया कि पूँजीवाद ने जाति, वर्ग और जेंडर का कैसे इस्तेमाल किया है? उनका कहना था कि गरीब को एक श्रेणी के रूप में स्वीकार कर लेने से एक सुविधा रहेगी। ऊना ने वर्ग को आगे किया है। बादल सरोज ने ध्यान खींचा कि पूँजीवाद का निर्माण भी किसी ढाँचे के भीतर हुआ होगा। वर्ग के निर्माण में स्ट्रक्चर किस तरह काम कर रहा था? गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोधार्थी सुनीत मिश्र की शंका थी कि जातियों के भीतर अलग-अलग सवाल हैं। क्या इनके रहते एकता हो पाएगी? पिछड़ा वर्ग गरीबी के विरुद्ध लड़ रहा है, दलित अपनी अस्मिता के लिए और आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। इनके मध्य एकता होगी? डॉ. अवंतिका शुक्ला की राय थी कि जाति और जमीन मिल कर यौनिक नियंत्रण स्थापित करते हैं। जाति के आर्थिक आधार को कैसे समझें? क्लास और कास्ट मिलकर हम ‘क्लास्ट’ का उपयोग कर सकते हैं। रमा शंकर सिंह ने बताया कि गरीबी और कंगालीपन एक नहीं हैं। हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के शिक्षक डॉ. रूपेश कुमार जाति उन्मूलन में अन्तरजातीय विवाह की भूमिका पर स्पष्टीकरण चाहते थे। किंगसन सिंह पटेल ने स्त्रियों का वर्ग जानना चाहा। इन सभी टिप्पणियों और सवालों के मद्देनजर प्रो. गोपाल गुरु ने कहा कि गरीबी एक बुनियादी मुद्दा, एक वैध कैटेगरी है, यह मेरा प्रस्ताव नहीं है। पहले कई लोगों ने यह बात कही है। गरीबी बड़ा इमोशनल मामला है। पूँजीपति वर्ग दिखता है। इससे साबित होता है कि वर्ग है। मगर, वर्ग चेतना वाला वर्ग कहाँ चला गया? सोशल मीडिया से जो क्लास बन रहा है मैं उसकी बात नहीं कर रहा। मैं उस वर्ग की बात कर रहा हूँ जो मैटेरियल है, विजिबल है, ठोस और कांक्रीट है। बदलने की क्षमता उसी में है। ट्रेन में पहला इंजन तो होता ही है उसमें भले ही तीन इंजन लगें। यह लड़ाई सवर्ण-अवर्ण की नहीं है। सवर्ण-अवर्ण रेशियल कैटेगरी है। ब्राह्मणवाद, दलितवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना उचित है। ब्राह्मणवाद को किसी भी काया में घुसने से कोई परहेज नहीं है। गाँधी ऐसे आदमी थे जो आंबेडकर को प्रारंभ से सुन रहे थे। उस समय सभी लोग उन्हें अवॉयड कर रहे थे। ऊना का स्ट्रगल मॉस रीयलिटी कैसे बनेगा, नहीं मालूम! 

दो अक्टूबर दोपहर बाद छठे सत्र में बोलते हुए हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के अंगरेजी विभाग की प्रो. माया पंडित ने कहा कि इन दिनों राजनीतिक विमर्श से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण धर्माचार्यों के बयान लगते हैं। उन्हें सुनने के बाद ऐसा लगता है कि भारत में जो कुछ बुरा घट रहा है- अकाल, अतिवृष्टि, अनाचार आदि है उसका कारण हम स्त्रियाँ ही हैं। कांची के शंकराचार्य कहते हैं कि यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि स्त्रियों के केश लंबे हो रहे हैं। मौलवी कहते हैं कि लड़कियां जींस पहन रही हैं इसलिए आफत आ रही है। आरएसएस के नेता कहते हैं कि 10 बच्चे जनो तभी तुम्हारा जीवन सार्थक है। विजयाराजे सिंधिया कहती हैं कि सती प्रथा बहुत गौरवशाली प्रथा है। इतने लांछनों, आरोपों, प्रत्याशाओं और प्रतिबंधों के बीच सवाल है कि मै कौन हूँ। माया पंडित ने इस संदर्भ में गोदा रानी को याद किया जिन्होंने आदिवासी स्त्रियों को संघर्ष के लिए घर के बाहर निकाला था। अगर जीने की रीत संस्कृति है तो यह रीत कौन तय कर रहा है? क्या पहनना है, क्या खाना है, किस बरतन में खाना है आदि चीजें कहाँ तय हो रही हैं? कॉ. पानसारे की हत्या कर दी गई, दाभोलकर और कलबुर्गी को मार दिया गया। एक उपन्यास लिखने के दंडस्वरूप पेरूमल मुरुगन को कहना पड़ा कि एक लेखक के रूप में मैं खुदकुशी कर रहा हूँ। यह सब एक असहिष्णु संस्कृति के नतीजे हैं। रेमण्ड विलियम्स को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि परम्पराओं का समुच्चय होता है। एक परम्परा नहीं होती। आज जो परम्परा थोपी जा रही है उसे पहचानने की आवश्यकता है। ब्राह्मणी इतिहासकारों ने इतिहास, वर्तमान सब बिगाड़ रखा है। पेशवा (ब्राह्मण) युग में उन्होंने लिस्ट बनाई कि क्या करना है क्या नहीं। सुनारों ने ब्राह्मणों का अनुसरण किया। महिलाओं को जाति की इज्जत का कारण बना दिया गया। उन पर अत्याचार का हेतु यह इज्जत ही है। ऐसी हायरार्की बनाई गई कि कोई अपनी जगह से हिले नहीं। मैला उठाने का काम सिर्फ एक जाति-समुदाय के लोग ही करते आ रहे हैं। यहाँ लेबर का नहीं, लेबरर्स का बँटवारा किया गया- ऐसा बाबासाहेब ने कहा। बेबी कांबले से लिए इंटरव्यू का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि दलित जीवन दृष्टि भिन्न है इसलिए उनकी परम्पराएं, विश्वास और कथाएं भी अलग हैं। उदाहरण के रूप में तुलसी विवाह की कथा रखी जा सकती है। राजकन्या वृंदा की कहानी को सवर्ण मानस ने रोमांटिक कथा में बदल दिया है। माया पंडित ने सवाल किया कि गणपति पंडाल और उत्सव का पैसा कहाँ से आता है? कैडबरी और सैमसंग धार्मिक आयोजनों को प्रायोजित करने में इतनी रूचि क्यों लेते हैं? गणेश को व्हिस्की के, मैकडोनाल्ड्स के विज्ञापन क्यों मिलते हैं? पंचतंत्र लंबे समय से पाठ्यपुस्तक है। उसमें स्त्रियों को दोषों का सन्निधान बताया गया है। आज बच्चा 4-5 घंटे टीवी देखता है। बाज़ार ने स्त्री की जो छवि गढ़ी है, वही उसे परोसी जाती है। स्त्री को गोरी, स्लिम, सेक्सी के फ्रेम में जड़ दिया जाता है। अब नए तंत्र का सूत्रधार वैश्वीकरण है। उसके द्वारा संचालित मीडिया है। मीडिया की भाषा ही आज की भाषा है। यह भाषा उपभोग की ललक पैदा करती है। आप मात्र उपभोक्ता हैं। नए बाज़ार ने कंडीशनिंग की मुहिम छेड़ी हुई है। 
सवाल पूछते हुए दूधनाथ सिंह
प्रश्नोत्तर सत्र में सुप्रिया गायकवाड़ ने कहा कि किसी भी सामान्य टीवी सेट पर 100 से अधिक चैनल उपलब्ध होते हैं। कमोबेश सभी स्त्री के प्रति पूर्वग्रह बनाते और पोसते हैं। वरिष्ठ लेखक दूध नाथ सिंह ने कहा कि वृंदा प्रसंग की चर्चा डी. डी. कोसांबी ने की है। स्त्री-सत्ता के संदर्भ में उन्होंने उर्वशी-पुरुरवा का उल्लेख किया। पुरुरवा उर्वशी से जान की भीख मांगता है। मातृसत्तात्मक कबीलों में कबीले की रानी सारा वर्ष गुजारने के बाद उस पुरुष की बलि दे देती थी। सुभाषिणी अली ने उच्च जाति की स्त्रियों द्वारा मनुस्मृति के पढ़े जाने की जानकारी पर संदेह व्यक्त किया। डॉ. चन्द्रभान यादव ने कहा कि डी. डी. कोसांबी अपनी परिकल्पना को इतिहास पर आरोपित करते हैं। क्रांति भाटापुरकर ने शिक्षा व्यवस्था में दखलंदाजी का मुद्दा उठाया। दीपक रूहानी ने जानना चाहा कि कलबुर्गी ने ऐसा क्या लिखा था जिसकी वजह से उनकी हत्या की गई? इन प्रश्नों के जवाब में माया पंडित ने कहा कि माइथोलॉजी यथार्थ की सामाजिक निर्मिति है। मार्क्सवाद कभी भी किसी कहानी को एकार्थी नहीं मानता। कहानियाँ व्याख्या सापेक्ष होती हैं। डी. डी. कोसांबी के इतिहास में बेबी कांबले की कहानी नहीं है। डॉ. कलबुर्गी ने कहा था कि जो भगवान खुद को सुरक्षित नहीं रख सकता वह भक्त की रक्षा कैसे करेगा। दाभोलकर भी अंधश्रद्धा की व्याख्या करते थे, उसका विरोध करते थे। आज लेखक की बहुत बड़ी जिम्मेदारी हो गई है। उसे जान हथेली पर रख कर अपना लेखकीय दायित्व निभाना है। माया पंडित ने आइडेंटिटी पॉलिटिक्स पर कहा कि यह संघर्षशील अवाम को जोड़ने का काम नहीं करती है। 

  
सातवें सत्र की वक्ता कथाकार और संपादक नमिता सिंह ने कहा कि समाज में विभाजन-दर-विभाजन चकित करता है। वर्ग और जाति कभी आपस में मिलते हैं और कभी अलग होते हैं। वे एक दूसरे पर आश्रित हैं और जुदा भी हैं। लड़कियों की शिक्षा को ले कर बरती जा रही घोर उदासीनता की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा कि स्कूलों में लडकियाँ रजिस्टर हो जाती हैं मगर कभी स्कूल नहीं जातीं। क्या धन की कमी के कारण? कितने स्कूलों में उनके लिए टायलेट है? कितने स्कूलों में सुरक्षा का वातावरण है? घर से स्कूल तक रास्ते में असुरक्षा का खौफ उनका पढ़ने जाना बंद करवा देता है। यूएनडीपी की रिपोर्ट कहती है कि 70% सामान्य और 74% गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की हालत देख लीजिए। 70% स्वास्थ्य सेवाएं प्राइवेट सेक्टर में हैं। पुत्र की अदम्य इच्छा स्त्रियों पर अलग कहर बरपा रही है। औरतों पर हिंसा बढ़ी है। हर दिन कम से कम 3 दलित महिलाओं के रेप केस थानों में दर्ज होते हैं। आंबेडकर कहते थे कि जाति को हटाए बगैर स्त्रियों की स्वतन्त्रता अर्जित नहीं की जा सकती। जाति उन्मूलन का जिम्मा सिर्फ दलितों पर क्यों छोड़ा जाता है? ऊपर की जातियां इसमें भागीदार क्यों नहीं बनतीं? अकेडमिक स्टाफ कॉलेज में हुए अपने अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि हर बार व्याख्यान के बाद प्रतिभागी यही कहते हैं कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं। धर्म ग्रन्थ लगातार औरतों के नियंत्रण के बारे में निर्देश देते हैं। औरत मर्द की आचार संहिता सामजिक चित्त में घोल दी गई है। पति पत्नी को पीटे तो बुरा क्या- यह आम राय इसी से निकली है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के महिला कॉलेज की युवतियों ने मंडल विरोधी जुलूस निकाला था। जुलूस में प्लेकार्ड्स पर लिखा था- ‘वी डोंट वांट एन अनएम्पलायड हस्बैंड’। इससे जातिवादी जकड़न का कुछ-कुछ अंदाज होता है। संस्कृतिकर्मियों का दायित्व है कि वे वे कहें सो करें। क्रांतिकारी पोलिटिकल पार्टियों से कभी-कभी चूक हो जाती है। सैद्धांतिक नीति बनानी चाहिए। पार्लियामेंटरी सिस्टम में स्त्री और जाति पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। कारपोरेट कल्चर का विरोध जरूरी है। आर्थिक संसाधनों पर 2% लोगों का ही कब्ज़ा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर हों। एक लाख में 190 महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। नमिता सिंह ने कहा कि हिन्दू औरतों पर बात करते समय मुस्लिम औरतों को भूलना ठीक नहीं है। वहाँ भी जाति व्यवस्था है। सैयद अंसारियों में शादी नहीं करते। गुजरात नरसंहार 2002 में माया कोडनानी का नाम आने पर उन्होंने कहा कि इससे यह मिथ टूटा कि सभी औरतें एक हो जाएंगीं।
इसी सत्र में अपने विचार व्यक्त करते हुए कवि शंभु यादव ने कहा कि सभी संस्कृतियाँ पितृसत्तात्मक मूल्यों का वहन करती हैं। मैस्कुलाइन को प्रखर, कठोर के साथ जोड़ दिया गया है और फेमिनाइन को कोमल, विनम्र के साथ। फ्रायड के विचारों का विकास लाकां में दर्शाते हुए उन्होंने कहा कि रीयल, सिम्बोलिक और इमैजिनरी ये तीन कोटियां लाकां देते हैं। डिजायर का दमन हिस्टीरिया पैदा करता है – यह बात फ्रायड के साथ फूको के यहाँ भी है। जूडिथ बटलर और जिजेक की वैचारिकी पर भी शंभु जी ने रोशनी डाली। जूडिथ बटलर कहती हैं कि स्त्री बनाई नहीं जाती। उसका बनना पूरी जिंदगी होता रहता है। उसकी निर्मिति में साइंस की भूमिका है। पहले के स्त्री विमर्श में विज्ञान नहीं था। पुरुष भी फेमिनाइन हो सकता है। पुरुष-प्रभुत्व में स्त्री पुरुष दोनों आते हैं। हम पूर्ण नहीं हैं। इनकम्प्लीट होने के भाव के साथ जीते हैं। जिजेक के अनुसार मेस्कुलाइन और फेमिनाइन लॉजिक सामंजस्य की एक असफल कोशिश है। दोनों परस्पर प्रत्यारोपित हैं। रियल रियलिटी का पर्याय नहीं होता। जिजेक मेस्कुलाइन लॉजिक को यूनिवर्सल मानते हैं। सभी समाज अग्रगामी उत्पादकता और वर्ग-संघर्ष से संचालित नहीं होते। पूँजीवाद और पुरुष दोनों पूरा वर्चस्व चाहते हैं मगर पा नहीं सकते।
इस सत्र पर पर हुई चर्चा में नांदेड़ के सूर्यवंशी रावसाहेब ने कहा कि हर जाति के ठेकेदार हैं। वे जाति को मजबूती दे रहे हैं और कह रहे हैं कि जाति तोड़ो। डॉ. अभय कुमार ने कहा कि व्याकरण में पूर्वग्रह व्यक्त होते हैं। प्रिया भारती का प्रश्न था कि स्त्री पूरे तरह से मुक्त क्यों नहीं हो पाती? नमिता सिंह का कहना था कि निहित स्वार्थ बदलाव में बाधा बनते हैं। धार्मिक मान्यताएं भी रुकावट डालती हैं। पितृसत्ता आर्थिक स्वाधीनता के बावजूद स्वाधीन नहीं होने देती। विचार सत्र के समापन के बाद देर शाम गंगा तट पर काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने की। मुख्य अतिथि चंचल चौहान थे। सान्निध्य वरिष्ठ कथाकार दूध नाथ सिंह का था। संचालन युवा कवि और अनहद पत्रिका के संपादक संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया। कार्यक्रम की व्यवस्था चर्चित कवि विवेक निराला के सहयोग से की गई। इसमें कार्यशाला के प्रतिभागी कवियों और इलाहाबाद शहर के कई युवा और वरिष्ठ कवियों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं।

कविता गोष्ठी
तीसरे दिन सुबह सातवें सत्र में आलोचक और कवि चंचल चौहान ने अपनी बात एक लोक कथा से आरंभ की। उस कथा में तोते जाल में इसीलिए फंसे रहते हैं कि वे एक साथ नहीं उड़ते। इंसानी नाबराबरी को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने आदिम अवस्था का चित्र खींचा। इस अवस्था में कुछ तगड़े लोगों ने संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया था। मानव सभ्यता का अगला चरण क्लासिकल विचारधारा का उदय था। इस विचारधारा ने मिथकों के सहारे यह बात प्रचारित की कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता। ग्रीक ट्रेजेडी के एक पात्र इडिपस की कथा यही कहती है कि जो कुछ नियत है वही होता है। ‘मैकबेथ’ और ‘पैराडाइज लॉस्ट’ इसी की पुष्टि करते है। ‘होइहिं वहीँ जो राम रचि राखा’ में यही फलसफा है। सभी धर्मों के धर्मगुरु नाबराबरी का दर्शन प्रतिपादित करते हैं। अभी पूँजीवाद क्षतिग्रस्त नहीं है। कुछ लोगों को क्लास दिखाई नहीं देता। क्लास है तभी उसकी राजनीतिक पार्टियां हैं। आज तेजी से परिवर्तन हो रहा है। जो अप्रासंगिक है, नष्ट हो रहा है उसे क्या बचाना! गुलामी का अपना सुख होता है। वैचारिक रूप से गुलाम बनाए रखना सत्ता के हित में रहता है। आज अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी यह फलसफा आगे बढ़ा रही है। मोंटेक सिंह अहलूवालिया, अरविन्द पानगढ़िया सब एक ही स्रोत से भेजे जा रहे है। इस फलसफे की जकड़बंदी को तोड़ने के लिए नई कतारबंदी की जरूरत है। इसी कतारबंदी की वजह से हिन्दुस्तान आजाद हुआ था। वर्गीय कतारबंदी हो तो भूस्वामी, पूँजीपति और राजनेता का त्रिगुट टूटे और समाज बदले।
चर्चा में हिस्सा लेते हुए शोधार्थी प्रिया भारती ने पूछा कि आप दलितों के बीच बहुत सारे विभाजन की बात कर रहे हैं। इसके मूल में क्या कारण हैं? डॉ. अभय ने कहा कि गुलामी में सुरक्षा होती है जबकि स्वतन्त्रता में हर सांस की कीमत चुकानी पड़ती है। अवंतिका शुक्ला ने कहा कि पितृसत्ता के औचित्यनिरूपण के लिए मातृसत्ता की कल्पना की गई है। स्त्री के पास सत्ता कभी रही नहीं। महाराष्ट्र के बड़ेवद राम ने प्रश्न किया कि जाति-समाज का निर्मूलन किस तरह किया जा सकता है? अतीत में जो गलतियां हुई हैं उन्हें वर्तमान में सुधारा क्यों नहीं जा सकता? सुनील कुमार वर्मा ने पूछा कि धनी होना क्या खराब बात है? कोई व्यक्ति धन कमा रहा है, पूँजीपति बन रहा है तो दिक्कत क्या है? माया पंडित का कहना था कि भारत का तो नहीं पता पर यूरोप में मार्क्सवादी-नारीवादी इतिहासकारों ने मातृसत्तात्मक समाजों का साक्ष्य दिया है। सुप्रिया गायकवाड़ ने जोड़ा कि भारत में मातृसत्ता के बारे कॉमरेड शरद पाटिल ने पर्याप्त लिखा है। भूषण कोलावरे का कहना था कि स्त्री आंदोलन जाति के प्रश्न को छोड़ कर लड़ रहा है। हम एक क्यों नहीं हो सकते? कवितेन्द्र ने मातृसत्ता और मातृवंशात्मक समाजों का फर्क जानना चाहा। वर्धा से आए नृतत्वशास्त्री वीरेन्द्र यादव ने बताया कि प्रारंभिक समाज यौनमुक्त समाज था। तब यह जान पाना असंभव था कि पिता कौन है। इसलिए, वह समाज मातृवंशात्मक कहा गया। सत्ता का नियामक तत्व है निर्णय लेने का अधिकार। जिसका डिसीजन उसकी सत्ता। अगर आज महिलाएं डिसीजन ले पा रही हैं तो यह समाज मातृसत्तात्मक कहा जाएगा। चर्चा का समापन करते हुए चंचल चौहान ने कहा कि गुरुग्रंथ साहब में ज्ञानी की परिभाषा ‘आप पिछाणे ग्यानी सोय’ कहकर की गई है। जो खुद को पहचाने वही ज्ञानी है। नाबराबरी के फलसफे से मुक्ति को ही मुख्य मानना चाहिए। जब अपनी जाति में किसी को सुकून मिल रहा हो तो वह उसे तोड़ना क्यों चाहेगा? नाबराबरी का उन्मूलन तभी होगा जब इसके उत्स को समझ लिया जाए।

प्रणय कृष्ण
आठवें सत्र में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव और प्रखर आलोचक प्रणय कृष्ण ने वक्तव्य दिया। प्रणय जी ने कहा कि जाति का उन्मूलन जाति की जमीन पर खड़े रह कर नहीं किया जा सकता। आंबेडकर ने इस समाज व्यवस्था के तीन आधार माने थे- पुरोहित वर्ग द्वारा की गई बाड़ेबंदी, जातितंत्र की निरंतरता और आर्थिक असमानता। वर्ग, जाति और जेंडर भिन्न-भिन्न डिब्बे नहीं हैं। ये अन्तर्ग्रथित हैं। उम्मीद की गई थी कि सामंतवाद ख़त्म होगा तो जाति प्रथा ख़त्म हो जाएगी। अंग्रेजों से यह उम्मीद की गई थी। कार्ल मार्क्स के डिसपैचेज में कहीं-कहीं यह संकेत झलकता है। ऐसा नहीं हुआ। कैपीटलिज्म को जाति से, पितृसत्ता से काम है। आजादी के सत्तर साल बाद भी सर पर मैला धोने की प्रथा कायम है। यह एक जाति विशेष के जिम्मे है। जातिप्रथा नहीं रहेगी तो इतना सस्ता श्रम कहाँ से मिलेगा? क्या स्त्री-पुरुष के बीच असमानता को पूँजीवाद मिटाना चाहेगा? उसने तो पितृसत्ता के अपने संस्करण का निर्माण किया है! आज दो नारे चलन में हैं- स्वच्छता अभियान और स्मार्ट सिटी। स्वच्छ कौन बनाएगा? स्मार्ट सिटी को ग्रीन कौन बनाएगा? इसमें जाति का प्रश्न विचारणीय क्यों नहीं है? टेक्नोलॉजी तो तब आएगी जब उससे फायदा हो! एल.पी.जी. (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) व्यवस्था को बनाए रखेंगे। ऊना काण्ड की चर्चा करते हुए प्रणय ने जिग्नेश मेवाणी की हर दलित को 5-5 एकड़ जमीन की मांग को उचित ठहराया। उनका कहना था कि जमीन का सवाल आंबेडकर के लिए भी महत्त्वपूर्ण था। पटेल, जाट और मराठा आंदोलन को उन्होंने नव उदारवादी मॉडल की विफलता का परिणाम बताया। नव उदारवाद को हिंदुत्व पसंद क्यों है? वे समरसता को इसलिए चाहते हैं कि वह समानता का प्रश्न ओझल कर देता है। तमिलनाडु में गारमेंट वर्कर्स का मुद्दा उठाते हुए प्रणय ने कहा कि महिलाएं इन फैक्टरियों में काम करती हैं। उन्हें आराम का एक मिनट भी नहीं मिलता। अपने साथ मोबाइल फोन नहीं रख सकतीं। वे सामाजिक रूप से दलित हैं इसलिए डोसाइल वर्कर्स हैं। उन्हें बनाए रखना बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए जरूरी है। इंडिविजुअल लिबर्टी ली जा सकती है परंतु कलेक्टिव लिबर्टी की इजाजत नहीं है। आंबेडकर कहते थे कि लिबर्टी ने इक्वलिटी को खा लिया। नियो लिबरल निजाम चाहता है कि पितृसत्ता बनी रहे। स्त्री की सेक्सुअलिटी की सीमा बाँध दी गई। पुरुषों पर कोई प्रतिबंध नहीं। यह सभी समाजों में है। सिस्टम में इनबिल्ट है। दबंग और दलित पुरुष स्त्री के सवाल पर एक हो जाते हैं। सम्पत्तिशाली अपनी जाति को एकजुट रखने के लिए ऑनर किलिंग का इस्तेमाल करते हैं। जाति, वर्ग और जेंडर तीनों चीजें डिब्बाबंद नहीं हैं। प्रणय ने कहा कि जाति उन्मूलन के बिना वर्ग संघर्ष संभव नहीं है। उन्होंने अन्तरजातीय विवाह को आवश्यक बताते हुए ऐसा करने वालों को प्रोत्साहन, सुरक्षा और अनुकूल माहौल देने की मांग की।
चर्चा सत्र में डॉ. अभय कुमार ने कहा कि रामदेव बाबा अगर योग को स्थापित कर रहे हैं तो क्या दलित फूड स्थापित नहीं हो सकता? जाति का प्रश्न उठाने के लिए धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि क्या जेएनयू छात्र आंदोलन को फिर से वर्ग, जाति व जेंडर को लेकर सक्रिय नहीं होना चाहिए? डॉ. अजीत प्रियदर्शी ने नवउदारवाद से लड़ने के लिए असीमित उपभोग से बचने की जरूरत बताई। शोधार्थी रमा शंकर सिंह ने जानना चाहा कि गाँव की तरफ पढ़े-लिखे लोग क्यों नहीं जा रहे हैं? उन्होंने अपने इलाके में सक्रिय बालू माफिया की कार्यपद्धति की तरफ कार्यशाला का ध्यान आकृष्ट किया। राजश्री भाटापुरकर ने पूछा कि थर्ड जेंडर को जाति वर्ग के संदर्भ में कैसे समझा जाए? डॉ.चन्द्रभान सिंह यादव ने दलित चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स पर प्रश्न उठाने वालों की मंशा पर सवालिया निशान लगाया। बड़ेवद राम ने बीजेपी के कार्यकाल में दलितों पर हो रहे अत्याचार का मुद्दा उठाया। उन्होंने गौरक्षकों के आतंक की गंभीरता को भी चिह्नित किया। डॉ. रूपेश कुमार सिंह ने गुजरात और महाराष्ट्र के ओबीसी आंदोलन को सही ठहराते हुए किसान समस्या का समाधान जानना चाहा। चर्चा का उपसंहार करते हुए प्रणय कृष्ण ने कहा कि सवाल दलित पूँजीपति बनाम अन्य पूँजीपति का नहीं है। आपकी ही जाति का होने के बावजूद वह आपके वर्ग का नहीं है। उसके धनी होने से सारे दलितों का भला कैसे होगा? थर्ड जेंडर वाले प्रश्न पर उन्होंने कहा कि एलजीबीटी कम्युनिटी को समर्थन देना ही चाहिए।

सुभाषिनी अली
नवें सत्र में वामपंथी संगठनकर्ता और विचारक सुभाषिणी अली ने शिकायत दर्ज कराई कि एक लेखक संगठन द्वारा आयोजित कार्यशाला में मुख्य भूमिका रचनाकारों की होनी चाहिए, मंच उनको ही मिलना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस कार्यशाला में दलित साहित्य पर बात नहीं हुई है। दलित और गैर दलित दृष्टि और प्राथमिकताओं को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि 6 दिसंबर और 14 अप्रैल के बारे में गैर दलित जानते तो हैं मगर कभी वहाँ जाते नहीं। कोरेगांव युद्ध के महार शहीदों की स्मृति को मूल्यवान बताते हुए सुभाषिणी ने कहा कि 1801-02 में अंग्रेजी सेना ने पेशवा की सेना को हरा दिया था। पेशवा की सेना में बीस हज़ार सैनिक थे। अंग्रेजों की सेना कुल दो-ढाई हज़ार सैनिकों की थी। इसे मराठा युद्ध के नाम से जाना जाता है जबकि इसका मराठों से कोई संबंध नहीं है। पेशवा सेना ब्राह्मण सेना थी। महार सैनिकों की जीत ने कई मिथ ध्वस्त किए। पहली जनवरी को कोरेगांव में मेला लगता है। वहाँ शहीद महार सैनिकों को श्रद्धांजलि दी जाती है। डॉ. आंबेडकर वहाँ गए थे। सुभाषिणी ने कहा कि मुट्ठी भर सवर्ण पुरुषों को मुख्यधारा बना दिया गया है। इससे छुटकारा मिलना चाहिए। जाति के भीतर उपजाति बनने के बहुत सारे मटेरियल कंडीशंस हैं। जब नव उदारवादी दौर में असमानताएं बहुत बढ़ गई हैं तो हम नए सिरे से समाधान तलाशने में लगें। संघर्ष की नई पारी प्रारंभ करें। मार्क्सवादियों का आंबेडकर के पास जाना अपेक्षित था। क्लास की चर्चा में दलित महिलाओं का सवाल आना चाहिए। नव उदारवादी तंबू इनके शोषण के सहारे ही खड़ा हुआ है। महिला को अपने श्रम की कोई कीमत नहीं मिलती है। उसे बस सेवा करते रहना है। घर में, घर के बाहर। आशा कार्यकर्ता बन कर, आंगनबाड़ी वर्कर बन कर, रसोइया बन कर। शर्त यही है कि अपने श्रम का मानदेय न मांगो। मार्क्स महिलाओं को रिप्रोडक्शन ऑफ़ सोसाइटी कहते हैं। समाज के पुनर्निर्माण का कार्य महिलाएं करती हैं। वे पूँजीपतियों को स्वस्थ मजदूर मुहैया कराती हैं। गाँव में पशुपालन उनके जिम्मे है। चारा काटना, गोबर फेंकना, दूध दुहना आदि। मगर वे उन पशुओं की मालिक नहीं हैं। खेतों में निराई, कटाई उनके माथे है। वे मनरेगा में खपती हैं। पुरुष गर्मी से बच कर हुक्का पीते हैं। राजस्थान सहित तमाम राज्यों में यह आम दृश्य है। एसपी, बीएसपी आदि राजनीतिक दल पूँजीवाद समर्थक है। ये शोषणकारी सिस्टम के खिलाफ क्यों खड़े होंगे? अमेरिका में 1% लोगों के हाथ में 99% संसाधन हैं। भारत में 10% के हाथ में 76% सम्पत्ति है। एंगेल्स ने लिखा है कि जब प्राइवेट प्रॉपर्टी और स्टेट के कुछ फॉर्म उभरने लगे तो पितृसत्ता ने मातृसत्ता को ओवरथ्रो किया। भाजपा के सत्ता में आने से बहुत से मुखौटे हट गए हैं। वे तो घोषित मनुवादी हैं। हाल की बड़ी हड़तालें आश्वस्त करती हैं। वर्गीय पहचान पैदा हो रही है, मजबूत हो रही है। अब स्त्रियों, दलितों और दलित स्त्रियों को नेतृत्व में लाने की सख्त जरूरत है।

कार्यशाला के प्रतिभागी
सुभाषिणी के वक्तव्य पर हुई चर्चा में मराठी लेखिका और कार्यकर्ता स्वाती ने सवाल किया कि दलित महिलाएं अपनी सामाजिक पहचान छोड़ कर ही मजदूर के रूप में, वर्ग के रूप में क्यों आगे आएं? सुप्रिया गायकवाड़ ने कोरेगाँव की स्मृति को ठीक से समझने की जरूरत बताई। अभय कुमार ने पूछा कि बंगाल में लेफ्ट की सरकार रही। वहाँ महिषासुर की पूजा नहीं होती जबकि केरल में महाबली पूजे जाते हैं। ऐसा अन्तर क्योंकर है? वीरेन्द्र सिंह यादव ने कहा कि सरकारें ओबीसी की संख्या सामने नहीं ला रही हैं। वे डरी हुई हैं। ओबीसी बहुत बड़ी संख्या में हैं। अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषिणी ने कहा कि हर इलाके की अपनी कुछ खासियत होती है। केरल में लोग महाबली को प्यार करते हैं। पूजा नहीं करते। महिषासुर की पूजा की परम्परा झारखण्ड में है, बंगाल में नहीं है। स्त्री श्रम के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि वर्ग चेतना आ रही है, यह मान लेना चाहिए। दलित महिलाएं अपनी सामाजिक पहचान भी रखें और श्रम को, वर्ग को भी जानें। दलित समाज के भीतर आरएसएस बहुत गहरे तक काम कर रहा है। हम नहीं जानते। समाज की बहुत-सी परतें हैं। इन परतों से लड़ना है। मायावती के आने से पहले सारे ठेकेदार सवर्ण थे। मायावती ने दलित और मुलायम सिंह ने ओबीसी ठेकेदारों को मौका दिया। आंबेडकर गाँवों में सड़कें आ गईं। कुछ तो हुआ! हाँ, मूल ढाँचा बदल गया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। जाति का उदय समाज को तोड़ने के लिए हुआ है इसलिए जाति तंत्र तोड़ना अनिवार्य है।   

कामरेड बादल सरोज
अंतिम ग्यारहवें सत्र में मार्क्सवादी कार्यकर्त्ता बादल सरोज ने कहा कि हम अपने फ्रेम का निर्माण यथार्थ के अनुसार करें। रीयलिटी को फ्रेम के अनुरूप न काटे-छाटें। परिवर्तन का मुख्याधार वर्ग संघर्ष है लेकिन यह मशीनी मामला नहीं है। यह सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार होता है। परिस्थितियाँ मिलती हैं, चुनी नहीं जातीं। हर क्रांति के आइकान (आदर्श नायक) होते हैं। सामाजिक आंदोलनों के नायक चुने जाते हैं। अगर हम क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं तो हम अपना आइकान चुनें। फुले-आंबेडकर हमारे आइकान हो सकते हैं। कबीर भी हो सकते हैं। यही हमारी क्रांति के लोकोमोटिव होंगे।

अखबारों में रपट
समापन सत्र में प्रतिभागियों ने कार्यशाला पर अपने अभिमत दिए। कवितेन्द्र इंदु ने थोड़े तंजिया लहजे में कहा कि हिंदी की दुनिया में जो कुछ कहा गया हो उसकी तारीफ किए जाने की परम्परा है। बाँदा कार्यशाला ने सोचने-समझने की प्रक्रिया में बुनियादी बदलाव किया। इस कार्यशाला में वह कसक गायब दिखती है जो बाँदा में प्रकाश करात के भाषण से लेकर अन्त तक बनी हुई थी। यूजीसी के पॉइंट सिस्टम ने निराश किया है। ऐसे में वैकल्पिक मंच का उभरना अपेक्षित और आवश्यक है। कभी कम्युनिस्टों की पार्टी को चमारों की पार्टी कहा जाता था। आज स्थिति कुछ और है। कम्युनिस्ट एकता चाहते हैं तब दलित दूर क्यों चले गए? क्या यह मार्क्सवादी सोच की कमी थी या भारतीय जमीन की खासियत है? या फिर, दलित समाज नासमझ है? स्त्रियों की अधीनता का सवाल सबसे पेचीदा है। स्त्रियाँ अकेली ऐसी समुदाय हैं जो अपने लड़ने वाले के साथ रहने को बाध्य हैं। भारतीय समाज व्यवस्था में जाति और जेंडर घुले मिले हैं। इन्हें अलग कर के न देखा जाए। कार्यशाला में भाषा प्रयोग को लेकर लापरवाही की शिकायत कवितेन्द्र ने की। उन्होंने कहा कि विषय ओपन न रहे। वक्ताओं को तय विषय दिए जाएं। कार्यशाला आयोजन का यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। स्वाती ने कहा कि उन्होंने पिछली कार्यशाला की चर्चा सुनकर इस कार्यशाला में शामिल होने का फैसला लिया। यहाँ बहुत सी बातें सीखने को मिली हैं। रहने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। ऋषिकेश सिंह ने कहा कि कई नए मुद्दों की ओर इस कार्यशाला ने ध्यान दिलाया। स्त्रियों के श्रम का प्रश्न केंद्रीय होना चाहिए। कार्यशाला के शीर्षक में प्राथमिकता का क्रम ऋषिकेश को दिक्कततलब लगा। डॉ. अभय कुमार ने कहा कि मैं वामपंथी आंदोलन से दूर था। आप ने मुझे जोड़ा। वर्ग को जाति से पीछे करने पर उन्हें दिक्कत होगी ही। अब जाति और जेंडर अपनी जगह मांगेंगे। दलित राजनीति की स्थिति पर उन्होंने कहा कि वहाँ बँटवारा हो रहा है। चमार, दुसाध, धोबी अपनी गुटबंदी कर रहे हैं। अभय जी की शिकायत थी कि कार्यशाला में हिंदू कोड बिल की चर्चा होनी चाहिए थी जो नहीं हुई। गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका किंगसन सिंह पटेल ने वक्ताओं के चयन पर खुशी जाहिर की। उनका कहना था कि यहाँ विश्लेषण अच्छा हुआ है। अस्मिता विमर्श पर काम करते हुए उन्हें जिन प्रश्नों से मुखातिब होना पड़ता है, इस कार्यशाला ने विषय से जूझने में उन्हें और समृद्ध किया है। ‘अस्मिता विमर्श को मैं पर्याप्त और बहुत कामयाब मानती थी। उसकी प्रशंसक भी थी। मगर अब पुनर्विचार की जरूरत महसूस हो रही है। खानों में बांट कर लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है।’ कार्यशाला में यह प्रश्न क्यों नहीं उठा कि स्त्री को ही ससुराल क्यों आना पड़ता है? क्या पुरुष नहीं आ सकता? संपत्ति में स्त्री की भागीदारी की बात किसी ने नहीं उठाई। स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के छात्र कोत्तबरे भूषण रमेश ने कहा कि यहाँ आने से पहले उन्हें विषय स्पष्ट नहीं था। अब हम असमानता के खिलाफ एक होकर लड़ेंगे और जीतेंगे। यहाँ की आयोजन व्यवस्था बहुत अच्छी थी। इसी विश्वविद्यालय के बड़ेवद राम ने कहा कि अब सूरत बदलनी चाहिए। जनवादी लेखक संघ के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि समस्या की जड़ तक जाने में अभी और कोशिश करनी होगी। नांदेड़ से आए एम.ए. के छात्र सोनकांबले साहेब सतवाजी का विचार था कि कार्यशाला में सिर्फ प्रश्न ही नहीं उठाए गए हैं, उनका जवाब भी दिया गया है। नांदेड़ से आए शोधार्थी सूर्यवंशी रावसाहेब ने इलाहाबाद में मिली आत्मीयता की खास तौर पर चर्चा की। जलेस का अभिवादन करते हुए उन्होंने प्रणय कृष्ण की इस बात को यादगार माना कि जाति से बाहर आ कर ही जाति उन्मूलन संभव है। प्राध्यापिका राजश्री भाटापुरकर ने इलाहाबाद के लोगों को नारियल की तरह बताया जो बाहर से कठोर दिखते हैं परंतु भीतर उससे उलट होते हैं। उनका कहना था कि अगर वे यहाँ न आतीं तो एक सार्थक मौका गँवा देतीं। जो प्रश्न उठे हैं उनका समाधान कैसे हो; इस सवाल के साथ वे वापस लौट रही हैं। शोध छात्रा प्रिया भारती ने कहा कि यह विषय का तीव्र आकर्षण ही था जो उन्हें बनारस से यहाँ खींच लाया। आयोजकों ने कोई औपचारिकता नहीं की, सब सहजता से संपन्न हुआ। उन्होंने कहा कि दिक्कत यह है कि स्त्री स्त्री से ही लड़ती जा रही है। वह अपना टाइटल नहीं हटाना चाहती। वरिष्ठ वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता हरिश्चंद्र द्विवेदी ने कार्यशाला की सफलता प्रतिभागियों के अभिमत में तलाशी। उनका कहना था कि पिछली बाँदा कार्यशाला की तुलना में यह कार्यशाला हड़बड़ी में आयोजित हुई है। डॉ. चंद्रभान सिंह यादव ने कहा कि वर्ण, जाति, वर्ग और जेंडर का वर्चस्व टूटना चाहिए। मीडिया में स्त्रियों पर जो प्रतिबंध लगे हुए हैं उन पर कार्यशाला में कोई चर्चा नहीं हुई है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को याद रखना चाहिए जो जाति को तोड़ने के लिए था। भारत में पिछड़ा वर्ग 52 फीसद है। उसमें यादव और कुर्मी ही नहीं हैं। अति पिछड़ी जातियों की दशा बहुत ख़राब है। उनकी चर्चा होनी चाहिए। प्रतिभागियों को उनके अभिमत के लिए धन्यवाद देते हुए बजरंग बिहारी ने कहा कि यह कार्यशाला वास्तव में संयोजक कॉमरेड सुधीर सिंह और उनकी टीम की लगन और कर्मठता का नतीजा है जो तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इसे पूरी सफलता से आयोजित कर सके।

प्रतिभागियों की एक सामूहिक तस्वीर
जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव संजीव कुमार ने प्राप्त प्रस्ताव पढ़े और उन्हें कार्यशाला के सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत किया। महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र प्रदान किए। कार्यशाला के स्थानीय संयोजक सुधीर सिंह ने सबको धन्यवाद दे कर कार्यशाला के समापन की घोषणा की।

बजरंग बिहारी

सम्पर्क –

मोबाईल – 09868261895

ई-मेल – bajrangbihari@gmail.com
फोटो  : सुधीर सिंह की फेसबुक वाल से साभार

रश्मि भारद्वाज की रपट ‘मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!’

महेश चन्द्र पुनेठा


पिछले वर्ष पिथौरागढ़ में ‘लोकविमर्श शिविर-1’ का आयोजन कवि महेश चन्द्र पुनेठा के आतिथ्य में देवलथल गाँव में सम्पन्न हुआ था। आज महेश चन्द्र पुनेठा का जन्मदिन है। वे न सिर्फ एक उम्दा कवि और आलोचक हैं बल्कि एक बेहतर इंसान भी हैं। जो भी इस ‘लोकविमर्श शिविर’ में शामिल हुआ वह महेश के आतिथ्य का मुरीद बन गया। महेश पुनेठा को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए रश्मि भारद्वाज की लोकविमर्श शिविर-1 की वह रपट प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे महेश के इस स्वरुप के बारे में पता चलता है। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह रपट।
         
मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!
रश्मि भारद्वाज
(जून-2016 में लोकविमर्श-2 होना तय हुआ है। ऐसे में लोक-विमर्श-1 और उससे जुड़े व्यक्तियों की यादें ताज़ा हो गयीं। एक संस्मरण आप सब के लिए)
यात्राएं मुझे उत्साहित तो करती हैं लेकिन हर यात्रा से पहले मन कई दुविधाओं और प्रश्नों से भी भरा रहता हैं। मुझे करीब से जानने वाले मेरे मित्र होमसिक भी कहते हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है कि यह घर की चारदीवारियों के लिए लगाव कम और अपने अंदर का घेराव तोड़ पाने की अक्षमता अधिक है। पिथौरागढ़ और देवलथल में आयोजित होने वाले लोक विमर्श शिविर के लिए मैने हामी तो भर दी थी लेकिन अंत तक मेरे मन में एक हिचक थी। पहाड़ी गाँव का इतना लंबा प्रवास, जिन सुविधाओं के हम आदी हो चुके हैं, उनकी अनुपलब्धता और छोटी बेटी के साथ होने के कारण उसे होने वाली संभावित परेशानियों के कारण मैं बहुत आशंकित थी; क्योंकि मुझे सूचना दे दी गयी थी कि देवलथल ग्राम में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमारे रहने की व्यवस्था की गयी है। 8 जून 2015 को 4 बजे हमें निकलना था और मैं 11 बजे दोपहर तक अपनी अनिश्चितता से बाहर नहीं आ पायी थी। मृदुला शुक्ला जी ने स्नेहपूर्ण अधिकार के साथ डांट लगाई, बस तैयार रहो, मैं चार बजे तुम्हें लेने आ रही हूँ। अब बहाने बनाने की कोई संभावना नहीं बची देख, मैंने कुछ कपड़े और जरूरी सामान पैक किए और निकल पड़ी एक अनजानी यात्रा पर धड़कता दिल लिए नन्ही बिटिया की अंगुली थामे।
अकेले यात्रा करना मेरे लिए कोई नयी बात नहीं लेकिन पहली बार इतने लंबे प्रवास के लिए अकेले जा रही थी (हालांकि मृदुला जी का स्नेहिल परिवार साथ था) जिसका सारा उत्तरदायित्व मुझ पर था, साथ ही बेटी की ज़िम्मेदारी भी। 
गाते, गुनगुनाते, बच्चों की चटपटी बातों के बीच रात को हम हल्द्वानी पहुंचे और वहाँ राजेश्वर त्रिपाठी (मृदुला जी के पति) जी के मित्र विजय गुप्ता के शानदार आतिथ्य में रात को रुकना हुआ। सुबह  बांदा निवासी सुप्रसिद्ध कवि केशव तिवारी, उनकी पत्नी मंजु भाभी, कवि प्रेम नन्दन और प्रद्युम्न कुमार (पी. के.) भी हमारे यात्रा दल में शामिल हो गए और हम एक लोकल गाड़ी और ड्राईवर के साथ पिथौरागढ़ की यात्रा पर निकल पड़े। 

इतनी लंबी यात्रा, पहाड़ी घुमावदार रास्ते और भयानक गर्मी (गाड़ी नॉन ए. सी. थी)। मौसम भी हम पर कुछ खास मेहरबान नहीं था। रास्ते भर माही उल्टियाँ करती रही और मैं सोचती रही कि क्या मैंने सही निर्णय लिया है! पिथौरागढ़ पहुँचते शाम हो गयी। एक अच्छा खासा विकसित शहर है पिथौरागढ। थोड़ी निराशा सी हुई कि भीमताल, अल्मोड़ा जैसे सुंदर स्थलों को छोड कर इस पहाड़ी शहर की भीड़ में ही आना था तो अपनी दिल्ली ही कौन सी बुरी थी! मौसम में ठंडक भी कुछ ख़ास नहीं थी। वहाँ से एक दूसरी टॅक्सी कर हमें देवलथल जाना था। घर से निकले 24 घंटे से अधिक हो गए थे। घर वालों के चिंतित फोन कॉल, बच्चों के थके, उदास चेहरे और हमारे क्लांत शरीर, कुल मिला कर अब तक कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस यात्रा और लंबे प्रवास के लिए मन में उत्साह भर पाता। खैर, हमारा यात्रा दल देवलथल के लिए निकल पड़ा। 
रास्ते ज्यों–ज्यों सँकरे होते जा रहे थे, आस पास का दृश्य भी बदल रहा था। चारों तरफ सघन हरियाली, ऊंचे –ऊंचे पहाड़ और बेहद ख़राब, पथरीला रास्ता। मोबाइल का नेटवर्क दगा दे चुका था। शाम घिर रही थी और मन में डर लेकिन जैसे–जैसे हम देवलथल के करीब पहुँच रहे थे, डर और आशंकाओं की जगह एक अवर्णनीय सुकून ने ले ली। हमारी आँखें ऐसे दृश्यों को निहार रही थी जो सैलानियों के पदघातों से दूषित नहीं हुए थे इसलिए निष्कलंक, बेदाग और अपने अनगढ़ सौंदर्य के साथ हमारे सामने थे और हम उस अनिर्वचनीय शांति और सौंदर्य में डूब –डूब जा रहे थे, कुछ ऐसे कि दिल चाह रहा था कभी नहीं उबरें। अङ्ग्रेज़ी में जिसे वर्जिन लैंड कहते हैं, वह बाहें पसारे हमारे स्वागत के लिए खड़ा था और हमें उसके सुखद साहचर्य में पूरे दो दिनों तक रहना था, यह कल्पना ही रोमांच से भर देती थी। उस हवा, उस माहौल में एक अद्भुत शीतलता और शांति थी जो महानगर की भीड़ और शोर से थके हमारे दिलोदिमाग और अन्य इंद्रियों को कुछ यूं सहला रहा थी जैसे बुखार से गरम तपते माथे पर माँ के ठंडे हाथों का स्पर्श लगता है।

देवलथल के जिस स्कूल में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी, हम वहीं उतरे और चाय की चुस्कियों के बीच सभी से औपचारिक परिचय हुआ। इनमें से कई ऐसे चेहरे थे जो फेसबुक पर मित्र थे लेकिन कभी कोई संवाद नहीं हुआ था। सुदूर राजस्थान से हमसे भी ज़्यादा लंबी और कठिन यात्रा करके आए प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह जी, कवि नवनीत सिंह जी, युवा कथाकार संदीप मील, रायपुर से प्रख्यात चित्रकार और कवि कुँवर रवीन्द्र जी और उनकी पत्नी, चंडीगढ़ से आए वरिष्ठ कथाकार राज कुमार राकेश, मुंबई से युवा कहानीकार शिवेंद्र, हमीरपुर से कवि अनिल अविश्रांत, बांदा से आलोचक और कवि उमा शंकर परमार, प्रेम नन्दन, पी. के. और नारायण दास गुप्त। देश के विभिन्न हिस्सों से आए इतने सारे रचनाकार जो अपने साथ अपनी मिट्टी, अपनी बोली-बानी के टुकड़े भी लाये थे और उनसे मिलते हुए कहीं न कहीं हम उनके लोक, उनकी संस्कृति का हिस्सा बन रहे थे। यह अनुभव सुखदायी था।
इस कार्यक्रम के मुख्य संयोजक और हमारे होस्ट महेश पुनेठा जी ने हम महिलाओं की साफ-सफाई को ले कर रहते आग्रह का सोच कर हमारे रहने की व्यवस्था स्कूल के ही एक और शिक्षक रमेश चन्द्र भट्ट जी के यहाँ की थी। रमेश चन्द्र और महेश पुनेठा को इस कार्यक्रम का सिर्फ होस्ट या संयोजक कहना काफ़ी नहीं। भट्ट जी ने अपना पूरा घर हमारे आतिथ्य के लिए खोल दिया और नहाने के गरम पानी से लेकर चाय तक हर छोटी चीज़ का पूरा ख़याल रखा। वही महेश जी यह भूल बैठे कि वह ख़ुद भी एक रचनाकार हैं और इस शिविर में आयोजित विभिन्न सत्रों में उनको भी अपनी रचनात्मकता और बौद्धिकता का प्रदर्शन करना चाहिए। हर क्षण वह कभी हम सबों के लिए चाय, तो कभी भोजन,कभी सोने की तो कभी किसी और व्यवस्था के लिए भागते नज़र आए,वह भी चेहरे पर बिना किसी शिकन के। शिविर की दूसरी रात पानी की सप्लाई बाधित हो गयी थी। उस रात पुनेठा और भट्ट जी रात के बारह बजे तक और तड़के सुबह पाँच बजे से इसी प्रयास में लगे रहे कि हमें कोई समस्या नहीं हो। इतना समर्पण, इतनी लगन और ऐसा आतिथ्य, जब भी याद आता है मन नतमस्तक हो उठता है। इन व्यक्तित्वों की सहृदयता ने सिखाया कि सिर्फ कागजों के पन्नों पर जीवन को उकेरना ही पर्याप्त नहीं बल्कि अपने मैं’, अपने स्व को सामूहिक हितों के लिए समर्पित करने वाला ही सही अर्थों में रचनाकार होता है और अपने घेरे से परे हट कर लोकधर्मी साहित्य रच सकता है। जीवन यहाँ कागजों से उठ कर व्यवहार में उतरा दिखा।

हम शिविर आरंभ होने के एक दिन बाद पहुंचे थे इसलिए पिथौरागढ़ के बाखली होटल में आयोजित कुँवर रवीन्द्र की चित्र प्रदर्शनी और परिचर्चा में भाग नहीं ले सके। 
दूसरे दिन ‘दीवार’ पत्रिका से जुड़े बच्चों से बातचीत और पत्रिका के अवलोकन से दिन की शुरुआत हुई। महेश पुनेठा जी के सरंक्षण में देवलथल के बच्चों द्वारा आरंभ किया गया यह सृजनात्मक प्रयास अब एक व्यापक अभियान का रूप ले चुका है और देश भर के कई स्कूलों सहित अब विदेशों में अपनाया जा रहा। बच्चों में मौलिक और रचनात्मक चिंतन विकसित करने का यह अभियान न सिर्फ उन्हें साहित्य से जोड़ रहा बल्कि उनकी शैक्षणिक प्रदर्शन को भी बहुत सुधार रहा। 
अगले दो दिनों में आयोजित कविता, कहानी, आलोचना के विभिन्न सत्र बहुत ही जीवंत रहे। संतुलित और निरपेक्ष परिचर्चा के द्वारा हम सब एक दूसरे के लेखन कर्म को समझ सके और वैचारिक रूप से काफी समृद्ध हुए। लोक के बहाने उन सभी पहलुओं पर चर्चा हुई जो हमारे लेखन, हमारे विचारों के दायरे में होने चाहिए लेकिन साहित्य में जाने-अंजाने उसकी अनदेखी हो रही। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह द्वारा कही गयी कुछ बातें साथ चली आई जो हमारी लेखनी को हमेशा सकारात्मक गति देती रहेंगी। उन्होने कहा कि लोक का आडंबर नहीं रचना है, सिर्फ कहने और लिखने के लिए लोक नहीं। लोक को जीना होगा। उसका हिस्सा बन कर ही उसकी लय को कविता में उतारा जा सकता है। वह लोक नहीं जो मनोरंजन करता है,बल्कि लोक के संघर्षों, उसकी व्यथा को कागज पर उतारना एक लेखक का दायित्व भी है, और चुनौती भी। अपने मध्यवर्गीय आडंबर, सुविधाभोगी मन और स्वहित के दायरे से निकलकर ही लोक को समझा जा सकता है। 
रश्मि भारद्वाज

सम्पर्क –

ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com

(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें रश्मि के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)

बांदा कार्यशाला (2-4 अक्टूबर, 2015 ) की रपट


बाँदा के बड़ोखर खुर्द गाँव में बीते 2 से 4 अक्टूबर, 2015 के बीच आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद : पारस्परिकता के धरातलविषय पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया था। इस कार्यशाला में देश भर से आये प्रतिभागियों ने भाग लिया था। इस कार्यशाला की रपट का पहला भाग आप पिछले महीने पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है रपट का दूसरा और अंतिम भाग। इसे भी तैयार किया है युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह रपट। 



आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद : पारस्परिकता के धरातल
बांदा कार्यशाला (2-4 अक्टूबर, 2015) की रपट 
(दूसरा और अंतिम भाग)
बजरंग बिहारी तिवारी
3 अक्टूबर 2015 को दोपहर बाद सत्र का विषय था- ‘प्रगतिवादी लेखन और आंदोलन में जाति के सवाल’ सत्र की प्रस्तावना करते हुए संयोजक ने कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ के बिलकुल शुरूआती वर्षों में हुई बहसें इस बात की गवाही देती हैं कि जाति से जुड़े प्रश्न प्रगतिवादी आंदोलन के लिए कितने जरूरी थे तुलसीदास पर तमाम प्रगतिवादी आलोचकों का हमला यह साबित करता है कि वे वर्ण-जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते थे प्रगतिशील आंदोलन के उस दौर में लिखी रचनाओं में वर्ग से कहीं अधिक जाति की समस्या दिखती है इस सत्र के पहले वक्ता फैजाबाद से आए रघुवंश मणि ने कहा आंबेडकर के चिंतन पर हिंदी में ज्यादा चर्चा नहीं हुई है अब यह चर्चा हो रही है तो इसके कुछ ऐतिहासिक कारण हैं उन्होंने सवाल किया कि आंबेडकर के योगदान को समझे बगैर प्रगतिशील आंदोलन और दलित आंदोलन की पारस्परिकता को कैसे समझा जा सकता है? दलित लेखन पर असाहित्यिकता का आरोप लगाया जा रहा है कभी प्रगतिवादी साहित्य पर भी ऐसे ही सवाल खड़े किए गए थे बिडंबना यह कि दलित साहित्य पर सवाल उठाने वालों में बहुत से वे लोग हैं जो प्रगतिवादी धारा से सम्बद्ध हैं दलित साहित्यकारों की तरफ से इसकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी, जो हुई भी प्रेमचंद, निराला पर सवाल उठाए गए आज स्थिति बहुत बदल गई है अब शुरूआती कटुता में कमी दिखाई दे रही है बसपा की सरकार और दलित लेखकों के संबंध सहज नहीं हैं लेखक दलित राजनीति की नीतियों और कार्यप्रणाली से सहमत नहीं उन्होंने बसपा सरकार की आलोचना करने में कोई गुरेज नहीं किया प्रगतिवादी लेखकों ने भी राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने का काम किया और अभी कर रहे हैं रघुवंश मणि ने प्रगतिशील चेतना का मुद्दा उठाते हुए बेलछी कांड पर नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ का उल्लेख किया केदारनाथ अग्रवाल की कुछ कविताओं के संदर्भ से उन्होंने उनकी प्रगतिशीलता का जाति विरोधी पहलू रेखांकित किया अदम गोंडवी की मशहूर रचना ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको’ उद्धृत करते हुए रघुवंश ने इस कविता के नायक मंगल को प्रतिरोधी चेतना वाला बताया
     सत्र के दूसरे वक्ता शकील सिद्दीकी ने कहा कि जैसी यातना दलितों की है वैसी ही मुसलमानों की भी है इस समानता को याद रखना जरूरी है साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल सिर्फ मुस्लिमों को पीछे रखने के लिए नहीं, दलितों को भी पीछे धकेलने के लिए किया जाता है शकील जी ने ध्यान दिलाया कि बीसवीं सदी लुप्त अस्मिताओं के खोज की सदी है यह सदी अस्मिताओं के उभार की सदी के रूप में याद की जाएगी इसका चौथा दशक बहुत महत्वपूर्ण है प्रगतिशील आंदोलन की स्थापना इससे ही हुई नए सिरे से संस्कृतियों के बीच आवाजाही का दौर शुरू हुआ यह आवाजाही बनी रहनी चाहिए प्रलेस के उस दौर को याद करते हुए उन्होंने कहा कि लखनऊ प्रलेस के अध्यक्ष गोपाल उपाध्याय थे उनका ‘एक टुकड़ा इतिहास’ पठनीय है वे कांग्रेस से इधर आए थे उर्दू साहित्य की चर्चा करते हुए शकील जी ने बताया कि इसमें दलित दर्द नहीं आया है यहाँ दलित होते ही नहीं राही मासूम रजा के ‘आधा गाँव’ और अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ को उन्होंने दलित दृष्टि से विचारणीय माना ‘आधा गाँव’ में वर्चस्वशाली तबका नए बदलावों को सहन नहीं कर पा रहा है उसमें एक पंक्ति है- ‘इन कुर्सियों को जला दो क्योंकि इन पर अब कमीने ही बैठेंगे प्रेमचंद ने वर्ण व्यवस्था के ध्वंस की बात की है कामतानाथ और रसीद जहां की रचनाओं के हवाले से शकील सिद्दीकी ने सामाजिक हिंसा का मुद्दा उठाया
     सत्र के अध्यक्ष दूधनाथ सिंह ने कार्यशाला के आयोजन के मकसद से ही अपनी असहमति तीखे शब्दों में जाहिर की उन्होंने कल से चल रहे विचार सत्र को अनर्गल और निरर्थक करार दिया उनका कहना था कि प्रगतिशील आंदोलन में जाति-वर्ण का प्रश्न ही शामिल नहीं है उस पर चर्चा कैसे की जा सकती है? हिंदी के दलित साहित्य आंदोलन का प्रसंग छेड़ते हुए उन्होंने कहा कि यह मौलिक कल्पना नहीं है यहाँ का दलित आंदोलन ‘सेकंडरी इमैनिजेशन’ –द्वितीयक कल्पना है समाज में समता लाने के लिए उन्होंने उत्पादन के संसाधनों मसलन जमीन के पुनर्वितरण की आवश्यकता बताई
     देर शाम को चले आज के अंतिम विचार सत्र ‘जाति और वर्ण का प्रश्न : आंबेडकर और मार्क्स का परिप्रेक्ष्य’ में मुंबई से आए मराठी पत्रिका के संपादक राहुल कोसंबी ने कहा कि समाज व्यक्तियों से नहीं, वर्गों से बनता है जाति कभी एकल नहीं होती हमेशा जातियों का पुंज होता है डॉ. आंबेडकर ने जाति को ‘ग्रेडेड इनइक्वलिटी’ कहा| एम.एन. श्रीनिवास की अवधारणा ‘संस्कृतीकरण’ से बहुत पहले आंबेडकर इसके सूत्र दे चुके थे अकादमिक चर्चा में डॉ. आंबेडकर की उपेक्षा ही की जाती रही है ‘पारस्परिकता के धरातल’ पर उनका कहना था कि जाति का उन्मूलन ही साझा प्लेटफार्म हो सकता है डॉ. आंबेडकर रिवोल्यूशनरी सोशलिज्म से प्रभावित रहे उनके मार्क्सवादी अध्यापक आर. सेलिग्मन का उन पर गहरा असर था उनकी वैचारिकी की अभिव्यक्ति में यह दिखता है इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट राजनीतिक पार्टी माना जा सकता है उन पर क्रिप्स मिशन ने दबाव बनाया कि वे अपनी सामाजिक/जातिगत पहचान निश्चित करें दलित समुदाय के हितों की चिंता के कारण उन्हें मजबूरन ‘शिड्यूल कास्ट फेडरेशन’ बनाना पड़ा आंबेडकर ने हमेशा क्लास की परिभाषा सामने रखकर बात की जाति की चर्चा करते हुए भी उसे क्लास की अवधारणा से जोड़ कर देखा 1944 तक वे ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ का प्रयोग करते रहे उनके द्वारा प्रयुक्त ‘ब्रोकेन मैन’ का अनुवाद है दलित राहुल कोसंबी ने कहा कि ‘बेस और सुपरस्ट्रक्चर’ के ढाँचे में सोचना मकेनिकल अंडरस्टैंडिंग है उससे मुक्त होना पड़ेगा पिछले 50 वर्षों में जो बदलाव हुए हैं, जाति व्यवस्था उन्मूलन के संदर्भ में उसका संज्ञान लेना पड़ेगा आंबेडकर का और बाद में पैंथर का आंदोलन आइडेंटिटी पॉलिटिक्स नहीं हैं राजनीतिक आंदोलन में जाने से सामाजिक आंदोलन की धार कम हो जाती है जाति जब वर्ग में तब्दील हो रही थी, कामरेड शरद पाटील ने तब उसे उलट दिया अभी दलित पॉलिटिक्स दलालों की पॉलिटिक्स हो गई है हम वास्तविक दलित समाज को देखें उनसे संवाद करें अस्मितावादी दलालों से पारस्परिकता का रिश्ता न जोड़ें। असली दलितों ने इन दलालों के पीछे चलने से इनकार कर दिया है। यह देखना चाहिए। अभी मनुस्मृति लागू नहीं की जा सकती। हेजेमनी को यांत्रिक तरीके से नहीं समझा जा सकता। शूद्रों और अछूतों में जातियों की भरमार है। जातियों ने ही अपने भीतर से नई जातियां बनाई हैं। शहरी इलाकों में जाति राजनीति में सक्रिय है। समान धरातल दलित उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने से बनेगा। दलित अभी जैविक सर्वहारा के रूप में बने हुए हैं। उन्होंने मजबूरी में ही बीजेपी या शिवसेना को चुना है। कोई दूसरा विकल्प न होने से ही वे उस तरफ गए। बाबासाहेब ने बुद्ध के बाद कार्ल मार्क्स को रखा। यह उनकी प्राथमिकता थी। अभी धरातल तैयार है। ईमानदारी से पहल करने की जरूरत है।
     रात्रिकालीन भोजन के बाद काव्य गोष्ठी का आयोजन हुआ। इसकी अध्यक्षता प्रेमसिंह ने की। खुले आकाश में देर रात तक चले काव्य पाठ में बाहर के और स्थानीय तकरीबन 20 कवियों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं।
     4 अक्टूबर सुबह वाले सत्र का विषय था- ‘जाति उन्मूलन और जाति आधारित राजनीति’। इस सत्र के वक्ता थे वरिष्ठ विचारक विलास सोनवणे। विलास जी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत भारतीय इतिहास के बारे में मार्क्सवादी विद्वानों की समझ पर सवाल उठाते हुए की। उन्होंने कहा कि जाति को समझने के बाद ही उसके उन्मूलन के बारे में सार्थक ढंग से सोचा जा सकता है। कॉमरेड डांगे की पहली किताब ‘फ्रॉम प्रिमिटिव कम्युनिज्म टू स्लेवरी’ से ही भ्रांति की बुनियाद पड़ती है। इसमें जाति को अधिरचना (सुपरस्ट्रक्चर) के रूप में देखा गया है। वामपंथ के सभी घटकों और दलों- सीपीएम, सीपीआइ, एमएल, माओवादी में इस मुद्दे पर मतैक्य है। तथ्य यह है कि भारत में अंग्रेजों के आने से पहले भूमि पर स्थाई स्वामित्व था ही नहीं। परमानेंट लैंड सेटलमेंट अंग्रेजों की देन है। मराठी और फारसी दस्तावेजों के आधार पर लिखी गई फूको जोआ की किताब ‘मेडिवल डक्कन’ देखनी चाहिए। यह डांगे के फ्रेम के अंदर की किताब नहीं है। असली बात यह है कि जब तक आप भू संबंधों को नहीं समझते तब तक जाति व्यवस्था को नहीं समझ सकते। महाराष्ट्र में वतनदारी प्रथा थी। जमीन वतनदारों को मिली। दक्कन में नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी आदि नदियों के मैदान हैं। उत्तर भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलज आदि नदियों के। अब गंगा ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के बड़े मैदान हैं तो यहाँ बड़े जानवर चर सकते हैं, पाले जा सकते हैं। दक्कन में छोटे मैदान हैं तो वहां भेड़ें ही चर सकती हैं। लंबी घास वाले इलाके में यादव हैं तो छोटी घास में गड़ेरिया। यह जातियों का भौतिक आधार है। कम्युनिस्ट पार्टियों को मैटेरियल बेस की समझ नहीं है। उनकी उत्पादन व्यवस्था की समझ यूरोसेंट्रिक है। यूरोप-उन्मुखी दृष्टि से भारतीय वास्तविकता नहीं समझी जा सकती।
     विनय पिटक में ‘वेतन’ शब्द आता है। सुत्त पिटक में भी वेतन शब्द है। दिघ्घ निकाय में भी यह शब्द मिलता है। अगर यहाँ ढाई हज़ार साल पहले वेतन की संकल्पना थी और उसे जाने बगैर यदि सिद्धांत गढ़ा जाएगा तो उसमें खोट होगा ही। समझ में यह खोट खीझ पैदा करती है। यह कार्यशाला इसी खीझ के कारण है। इसके पीछे एक अपराध बोध है। ‘काव्यात्मक न्याय’ –पोयटिक जस्टिस देखिए कि जाति का सवाल उठाने के कारण मुझे सीपीएम से निकाला गया था। कामरेड शरद पाटील को भी। वे ‘सोशल साइंटिस्ट’ में इस विषय पर लेखमाला दे रहे थे। उनका चौथा लेख नहीं छपा। सवाल उठाने का दंड मिला। प्रकाश करात और सुभाषिनी अली इसके साक्षी हैं।
     किसानी की प्रक्रिया समझिए। जातियों की एक श्रृंखला है- लोहार, सुतार, चमार, जाटव, मातंग। इसमें छठी जाति किसान है। चमड़ा कमाने (प्रोसेस करने) वाले एक चमार होते हैं, उससे वस्तु बनाने वाले दूसरे, अर्थात् जाटव। जब तक चमड़ा कसा नहीं जाएगा तब तक हल बनेगा नहीं। किर्लोस्कर ने लोहे के हल (फाल) बनाए। उससे पहले लकड़ी के हल चलते थे। पानी की उपलब्धता या स्रोत के हिसाब से किसान भी अलग-अलग हैं। माली, कुर्मी को पानी की प्राप्ति सुनिश्चित है। गढ़वी बरसाती पानी पर निर्भर होते हैं। रजनी पामदत्त की किताब ‘इंडिया टुडे’ पॉलिटिकल इकॉनमी, इतिहास की विवेचना करती है। यह डांगे की किताब का आधार है। इस किताब में खेती की उक्त प्रक्रिया का जिक्र तक नहीं है। ‘डिवीज़न ऑफ़ लेबर’ पर कार्ल मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ में 3-4 पन्ने खर्च किए हैं। वे बताते हैं कि यूरोप और एशिया के उत्पादन संबंध भिन्न-भिन्न हैं। इसे मार्क्सवादियों ने नकार दिया। यह मान कर कि यह सेकंडरी इमैजिनेशन है। रजनी पामदत्त, जो कभी भारत आए ही नहीं, उनका लिखा फर्स्ट हैंड है।
     भारत की मार्क्सवादी पार्टियों पर किसका कब्ज़ा रहता आया है? ब्राह्मण, कायस्थ, सारस्वत का। महाराष्ट्र की स्टेट कमेटी में 50 लोग थे। इनमें 24 इसी जाति के थे। स्टडी क्लास लेने का अधिकार सिर्फ उनका होता था। मनुष्य के ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया प्रकृति के नियमों से जूझते हुए आगे बढ़ती है। पुष्यमित्र शुंग के समय जब बौद्धों को भगा दिया गया तो ब्राह्मणों को लगा कि उन्होंने अंतिम ज्ञान अर्जित कर लिया है। सातवीं सदी के बाद रटने की परंपरा बनी। यह अब तक चल रही है। जिन्होंने वेद रटे उन्होंने मार्क्स को भी रट लिया। अनुभवसिद्ध ज्ञान पर रट्टू ज्ञान भारी पड़ा। ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया रुक गई। अगर प्रकाश करात को अंग्रेजी नहीं आती तो क्या वे सीपीएम के महासचिव बन सकते थे? सभी कम्युनिस्ट खेमों पर यह बात लागू होती है। ब्राह्मणवादी मार्क्सवादियों के साथ दलित कैसे जुड़ सकेंगे? क्या आप कठोर आत्मालोचना के लिए तैयार हैं? सनातनी हिंदू और उदार मतवादी हिंदू- हिन्दुओं के ये दो प्रकार हैं| सारा प्रोग्रेसिव खेमा लिबरल हिंदू खेमा है।
     यह कहना कि जाति हिंदू व्यवस्था की देन है, एक मुस्लिम विरोधी बात है। जाति सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचना है। उसका धर्म से क्या लेना-देना? जाति प्रथा को हिंदू धर्म की देन बताना बड़ी भूल है। आंबेडकर ने भी यही भूल की। इस भूल-गलती के साथ आप पारस्परिक धरातल बनाने चले हैं। यह धरातल कैसे बनेगा? मुसलमान सिद्धांत में जाति भले न मानते हों, व्यवहार में जाति है। भरपूर। सर सैयद अहमद ने कहा मैं यह (अलीगढ़ मुस्लिम) विश्वविद्यालय छोटी जातियों के लिए नहीं, राजा जाति के लिए बनवा रहा हूँ। कम्युनिस्ट फोल्ड में आने वाले प्रायः सभी ब्राह्मण-मुस्लिम थे।
     बाबरी मस्जिद के गिरने तक यू.पी. बिहार के मुस्लिम इलाकों से कम्युनिस्ट जीतते थे। बाद में क्या हुआ आप जानते हैं। टेक्सटाइल इंडस्ट्री थी। कई शहरों में। वहां यूनियनें थीं। इंडस्ट्री टूटी। कम्युनिस्ट अंसारी, कम्युनिस्ट यादव, कम्युनिस्ट कुर्मी अलग हो गए। ‘मुझे क्या दिया?’ ऐसा प्रश्न करने लगे। यह चिंता का और चिंतन का विषय है कि कम्युनिस्ट होने के बाद कोई यादव, कोई कुर्मी कैसे बन जाता है। जाति प्रथा हिंदू धर्म का हिस्सा है, यह समझ एंटी मुस्लिम है। 1991 में जब मैंने मुस्लिम मराठी लेखकों को इकट्ठा करना शुरू किया तो पाया कि वहां भीतरी जातिवाद कितना है। उनमें इंटरकास्ट मैरिज नहीं होती। इसी तरह केरल के थंगल ईसाई और सीरियन ईसाई अपने को ब्राह्मण मानते हैं और दूसरी जातियों से दूरी बना कर रखते हैं।
     कम्युनिस्ट धर्म को क्या मानते हैं? विचारधारा या सामाजिक संरचना? अभी इसे ले कर भ्रम की स्थिति है। धर्म एक विचारधारा है। पूंजीवाद के उदय से पहले। पूंजीवाद ने इसका इस्तेमाल किया। तेल की खोज के बाद एशिया में जो बदलाव हुए हैं, उसे ध्यान में रखना चाहिए। जाति व्यवस्था को पहला धक्का प्लासी के युद्ध (1757) से लगा। 1818 तक अंग्रेजों का सारे भारत पर कब्ज़ा हो चुका था। उत्पादन के केंद्र में अब तक मनुष्य था। अंग्रेजों ने प्रकृति-मानव केंद्रित व्यवस्था तोड़ी और बाजार को केंद्र में लाने का काम किया। परस्पर संबंधों के आधार पर बनी व्यवस्था टूटनी प्रारंभ हो गई। जहाँ पूँजी पहुंची वहां बाजार केंद्रित व्यवस्था आ गई। इससे मनुष्य के अंदर बेगानेपन की भावना आ गई। मार्क्स ने इसे सिद्धांत का रूप दिया। भारत में इस बेगानेपन को समझने वाला पहला व्यक्ति ज्योतिबा फुले था। ‘किसान का कोड़ा’ और ‘गुलामगिरी’ में यह दर्ज है। बेगानेपन और वर्ग निर्माण में गहरा रिश्ता है। अब तक जो वतनदार थे वे वेतनदार होने शुरू हो गए। साहूकार नाम का वर्ग पैदा हुआ। परमानेंट सेटलमेंट एक्ट से पहली बार जमीन निजी संपत्ति हो गई। फुले ने जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई की। डेक्कन लॉर्ड्स के नाम से नया विद्रोह हुआ। इसमें साहूकारों के बही खाते जलाने का अभियान छेड़ा गया। इस वर्ग संघर्ष को नेतृत्व देने का काम फुले ने किया। इस बात को कोई कम्युनिस्ट याद नहीं करता। फुले ने फार्मूला दिया- त्रिवर्ण विरुद्ध स्त्री शूद्रातिशूद्र। आंबेडकर ने इसे बदल दिया और सवर्ण विरुद्ध अवर्ण कहा। यह सही फार्मुलेशन नहीं है। वास्तव में मार्क्स और फुले को मिलाना आसान है। आंबेडकर को कैसे मिलाएंगे? आंबेडकर का सारा जोर वेलफेयर स्टेट पर है। एक बार कल्याणकारी राज्य ख़त्म तो आंबेडकर भी अप्रासंगिक। आप लोगों का मकसद वेलफेयर स्टेट है क्या?
     खेती का संकट और जाति का विद्रोह आपस में जुड़े हुए हैं। हार्दिक पटेल का पाटीदार आंदोलन देख लीजिए। अभी खेती पर जो संकट आया है यह उसी का परिणाम है। हार्दिक का दावा है कि पाटीदारों की संख्या सत्ताईस करोड़ है। इतनी संख्या तो गुजरात राज्य की ही नहीं है। सब पाटीदारों को मिला कर हार्दिक बोल रहे हैं। इनमें गुजरात, मालवा के पटेल हैं, महाराष्ट्र के कुणबी हैं, यूपी, हरियाणा, पंजाब के जाट-गुज्जर हैं। गन्ना-दूध-कपास यानि नगदी फसल उत्पादक जातियां हैं ये। इन पर संकट है। खेती पर ऐसा ही संकट बारहवीं सदी में आया था। भक्ति आंदोलन के समय आया था। फुले के समय आया था। बुद्ध के समय भी आया यह जब रोहिणी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर शाक्य कोलिय गणों के बीच लड़ाई छिड़ी थी। बुद्ध को अपना घर छोड़ना पड़ा था। फुले के बाद गांधी ने इस संकट को समझा। उन्होंने पहली बार किसानों को इतने बड़े पैमाने पर संगठित किया। फुले ने जिस बेगानेपन पर हाथ रखा था उसे गांधी ने मुद्दा बनाया। पूँजीवाद से आए बेगानेपन से मुठभेड़ की। कम्युनिस्ट उस समय क्या कर रहे थे? वे तब ‘थ्योरी ऑफ़ एलियनेशन’ पढ़ रहे थे। मार्क्सवादी चूक गए। गांधी उनसे आगे निकल गए। गांधी टेक्सटाइल से जुड़ी सारी जातियों को समेटते हैं। आप वेतन पाने वालों को समेटते हैं। बेगानेपन से तो आपको लड़ना था। विकसित पूंजीवाद ने नारा दिया कि खेती में भविष्य नहीं है। 2013 में भूमि अधिग्रहण बिल बना| जो जमीन पहले आजीविका थी वह अब कमोडिटी हो गई। कमोडिटी होते ही सारी जमीन गुजरात से चली गई। धनंजय राव गाडगिल की किताब ‘बिजनेस कम्युनिटीज इन इंडिया’ देखिए। यह किताब भारत की बनिया जाति पर है। यह संदेश लोगों तक गया कि जब तक आप अपनी जाति को संगठित नहीं करते तब तक सौदा नहीं कर सकते। 1991 के बाद जाति आधारित पार्टियां बनीं। इनका संबंध वैश्वीकरण से है, ‘विकास’ से है। जब तक आप इन जातियों को संगठित नहीं करेंगे, इस स्थिति से नहीं टकराएंगे तब तक कोई रास्ता नहीं मिलेगा।
     ‘मार्क्स, आंबेडकर और हमारा वर्तमान’ नामक अंतिम सत्र में बोलते हुए मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि अभी देश को अमरीका का बाज़ार बनाया जा रहा है। यह काम मोदी सरकार ने अपने जिम्मे लिया हुआ है। इसी जिम्मेदारी का एक सिरा हत्याओं से जुड़ा हुआ है। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नरेंद्र दाभोलकर की हत्या इन्हें जरूरी लगती है। विवेक की आवाजों को चुप करा देने के बाद इनका खेल निर्बाध रूप से चल सकता है। जनवादी लेखक संघ अपने स्तर से उत्पीड़क सत्ताधारी वर्ग के विरुद्ध सक्रिय है। सृजन कर्म में हम पहलकदमी कर रहे हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद बताता है कि कुछ भी स्थिर नहीं है। गतिशीलता की निरंतर पहचान आवश्यक है। हर चीज के अपने अंतर्विरोध हैं। हर चीज कारण-कार्य संबंध की श्रृंखला में आबद्ध है। कुछ भी निरपेक्ष नहीं है। एक दूसरे से जुड़ी हुई है हर चीज। जाति प्रथा उत्पादन के अधिशेष को हड़पने का हथियार है। जाति आधार (बेस) नहीं है, मगर वह आधार के बहुत करीब है। गलत काम करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों की आलोचना होनी ही चाहिए।
     विचार सत्र के अंतिम दौर में कार्यशाला के आयोजन को लेकर प्रतिभागियों ने अभिमत दिए। दलित उत्पीड़न विरोधी मोर्चा के विनोद कुमार ने कहा कि संवाद बहुत सार्थक रहा। कई विरोधाभासी मत भी सामने आए। मगर यहीं से गुजर कर आगे की यात्रा तय होगी। केरल के कालडी से आए वी.जी. गोपालकृष्णन ने कहा कि इस कार्यशाला से कोई परिणाम निकले या न निकले, कम से कम एक मंच तो खुला। केरल में कम्युनिस्टों ने रात्रिकालीन कक्षाएं चलाईं, जाति-वर्ण के विरुद्ध लड़ाई की। उसी का परिणाम है वहां कम्युनिस्ट सरकार बनी। शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे हम दलितों-आदिवासियों के बीच जा सकते हैं। चर्चित दलित कथाकार टेकचंद ने बांदा की मेहमान-नवाजी को अद्भुत बताया। उन्होंने कहा कि इस कार्यशाला से ज्ञान की खिड़कियाँ खुली हैं। ऐसी और कार्यशालाएं होनी जरूरी हैं। जामिया मिलिया के शोधार्थी ऋषिकेश सिंह ने कहा कि यहाँ का परिवेश बहुत मोहक रहा। बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण बातें हुईं। कई गुत्थियां सुलझीं। युवा आदिवासी कवि मुन्ना शाह ने कहा कि पूरी व्यवस्था सर्वोत्तम थी। महाराष्ट्र के औरंगाबाद से आए आदिनाथ इंगोले का कहना था कि इस कार्यशाला से नए प्रश्न मिले हैं। लखनऊ के प्राध्यापक ओमराज के लिए इस कार्यशाला की सार्थकता जाति से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने लाने में दिखी। जामिया के शोध छात्र विपिन कुमार ने कहा कि कार्यशाला में शामिल होकर उन्हें बहुत लाभ हुआ है। आयोजकों ने अच्छी व्यवस्था की। आलोचक और भारती कॉलेज, दिल्ली के शिक्षक डॉ. कवितेंद्र इंदु ने कहा कि यह आवेग पैदा करने वाली कार्यशाला थी।
सांगठनिक मार्क्सवाद की ओर से यह पहला आयोजन था। ट्रेडीशनल मार्क्सवाद के भीतर ही नहीं, बाहर भी कितना मौलिक चिंतन हो रहा है, इस कार्यशाला ने खुलासा किया। शोषण के विभिन्न रूपों की पहचान और उनके अंतर्संबंध की समझदारी आवश्यक है। एटा से आए डॉ. उमाकांत चौबे ने तंज किया कि भाजपा और कांग्रेस के चिंतन शिविर चल रहे हैं। ऐसे में जलेस की यह कार्यशाला महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जड़ता से मुक्ति में सहायक है यह कार्यशाला। दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी अतुल कुमार ने इस नवाचार को काबिले तारीफ बताया। उन्होंने कार्यक्रम के शिल्प पक्ष और अंतर्वस्तु दोनों की विवेचना की। इसी विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कालर सुखजीत ने कार्यशाला को विचारोत्तेजक बताते हुए कहा कि पहले उन्हें कम्युनिज्म के बारे में ज्यादा मालूम नहीं था लेकिन इस कार्यशाला से प्रेरणा लेकर वे अच्छा कम्युनिस्ट बनना चाहेंगे। कवि शंभू यादव के लिए यहाँ का समूचा अनुभव शानदार रहा। बहुत से मुद्दे पकड़ में आए तो कई काम्प्लेक्स भी पैदा हुए। तेज तर्रार दलित स्त्री रचनाकार प्रियंका सोनकर ने सवाल उठाया कि कार्यशाला में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम क्यों है? उन्होंने कहा कि हमें पुरुष से नहीं, पुरुषवाद से लड़ना है। मार्क्स और आंबेडकर दोनों मुक्ति की बात करते हैं। अब गुटों में बंटने की बजाए मुक्ति पथ पर साथ-साथ चलने का समय है। इस कार्यशाला से बहुत-कुछ सीखने को मिला।
     अभिमत के उपरांत कार्यशाला में प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए। पहला प्रस्ताव संजीव कुमार ने पढ़ा| इसमें लेखकों, चिंतकों की लगातार की जा रही हत्याओं पर चिंता व्यक्त की गई और इस बर्बरता के विरुद्ध विवेक और जनतंत्र के पक्षधरों से एकजुट होकर आगे आने की अपील की गई। दूसरा प्रस्ताव विनोद कुमार और बजरंग बिहारी का था। इसमें दलितों पर होने वाले जानलेवा हमलों, दलित बस्तियों में लूट और आगजनी, दलित स्त्रियों के सामूहिक बलात्कार और वैश्वीकरण के कारण दलितों में बढ़ रहे कंगालीकरण को तत्काल रोकने की मांग की गई|
     कार्यशाला का समापन स्थानीय संयोजक सुधीर सिंह के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ।           

जलेस की बांदा कार्यशाला


विगत 2 क्टूबर से 4 अक्टूबर 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के बाँदा के एक गाँव बडोखर खुर्द में ‘अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की साझा जमीन पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की गयी. तीन दिनों की इस कार्यशाला में विशेषज्ञों ने अपने महत्वपूर्ण विचार रखे और प्रतिभागियों ने उन विचारों पर गर्मागर्म बहसें कीं. इस कार्यशाला की एक रपट पहली बार के पाठकों के लिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं. इस रपट को तैयार किया है संजीव कुमार ने.   

  
अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की साझा ज़मीन पर एक बहस : जलेस की बांदा कार्यशाला

2 से 4 अक्तूबर 2015 को जनवादी लेखक संघ केंद्र की ओर से बांदा में ‘आम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद: पारस्परिकता के धरातल’ विषय पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन हुआ. आयोजन-स्थल था, बांदा के निकट बड़ोखर खुर्द के प्रगतिशील और जागरूक किसान प्रेम सिंह द्वारा बहुत कल्पनाशील तरीके से अपने खेत में बनाया गया ‘ह्यूमन रिसर्च सेन्टर’. लगभग 30 प्रतिभागियों और 12 विषय-विशेषज्ञों के बीच तीन दिनों तक मुख्य विषय के इर्द-गिर्द अनेक मुद्दों पर सघन चर्चा और बहस हुई. दर्शन, विचारधारा, राजनीति और साहित्य को घेरती हुई इस चर्चा में अलग-अलग बलाघात के साथ मुख्य स्वर यही उभरा कि इस देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन को जाति के प्रश्न पर जो सजगता दिखानी चाहिए थी, वह उसने नहीं दिखाई और भारत के ज़मीनी यथार्थ के बीच एक आमूल परिवर्तनवादी राजनीति इस प्रश्न की उपेक्षा करके खड़ी नहीं की जा सकती. बाबा साहेब आम्बेडकर के विचारों को एक सुव्यवस्थित ‘वाद’ मानने से ज़्यादातर वक्ताओं ने इनकार किया, लेकिन मार्क्सवादियों के लिए भारतीय वास्तविकता को समझने और तदनुरूप कार्यक्रम बनाने की दृष्टि से उन विचारों की उपादेयता को रेखांकित भी किया.
2 अक्तूबर को 12 बजे आरम्भ हुए परिचय-सत्र में कार्यशाला के संयोजक श्री बजरंग बिहारी ने कार्यशाला की पृष्ठभूमि बताते हुए इस विषय पर चर्चा की ज़रुरत लगातार महसूस की जा रही थी. यह कार्यशाला न तो किसी को छोटा और किसी को बड़ा बताने के लिए की जा रही है, न ही किसी का किसी में विलय करा देने की प्रयोजन से संचालित है. यहाँ खुल कर बातें और आलोचना-प्रत्यालोचनाएँ हों, यही इस कार्यशाला का मकसद है. 
उद्घाटन सत्र में बोलते हुए कॉमरेड प्रकाश करात
भोजनोपरांत 2 बजे ‘जाति-उन्मूलन और मार्क्सवाद’ विषय पर कामरेड प्रकाश करात का सत्र आरम्भ हुआ. इसे उदघाटन-सत्र का नाम भी दिया गया था, लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए कि उदघाटन के नाम पर बहस-मुबाहिसा न टल जाए. कामरेड प्रकाश करात ने लगभग एक घंटे के अपने सुचिंतित व्याख्यान में विषय के अनेक पहलुओं पर विस्तार से बात की. शुरुआत में ही उन्होंने इतिहासकार डी. डी. कोसंबी को उद्दृत किया जिन्होंने कहा था कि जातियां वस्तुतः श्रम से पैदा हुए अधिशेष को हड़पने की एक श्रेणी-क्रमयुक्त व्यवस्था निर्मित करती हैं. कामरेड करात ने कहा कि इससे यह समझ में आता है कि जाति-व्यवस्था उत्पादन-सम्बन्ध का हिस्सा है और इसे सरल तरीके से अधिरचना का अंग मान कर यह यांत्रिक निष्कर्ष निकाल लेना कि आधार बदलते ही वह बदल जाएगा, गलत था. यह पूर्व-पूंजीवादी रिश्ता रहा है, लेकिन अब जब हमारा आर्थिक आधार पूंजीवाद है, तब भी जाति-व्यवस्था मौजूद है. इसलिए बेहतर है कि हम आधार और अधिरचना की शब्दावली में इस पर बात न करें और यह समझें कि हमारी विशिष्ट परिस्थितियों में जाति की अनदेखी करके वर्गीय शोषण और वर्ग-संघर्ष की बात अधूरी रहेगी. चूँकि यह अधिशेष को हड़पने की व्यवस्था है, इसीलिए मुग़लों ने जाति के रिश्तों को बदलने का कोई प्रयास नहीं किया और अंग्रेजों ने भी नहीं किया. स्वतंत्र भारत की सत्ता में भी जातिवादी पैठ लगातार बनी हुई है और वह सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि ऊंची जातियों का ज़्यादातर जगहों पर कब्ज़ा है, बल्कि सत्ता-तंत्र संरचनात्मक रूप से जातिवादी है. उन्होंने कहा कि हमारे समाज में जाति-व्यवस्था के भीतर से ही वर्ग बन रहे हैं. दस सबसे बड़े पूंजीपतियों में कम से कम सात वैश्य जातियों से आते हैं. यह अकारण तो नहीं है! सर्वे बताते हैं कि सबसे अधिक अधिशेष जिनसे छीना जाता है, वे दलित हैं. पूँजीवाद के विकास की यह ख़ास हिन्दुस्तानी विशेषता है कि उसने जाति और जाति-व्यवस्था को अपने लिए इस्तेमाल किया है. लिहाजा, इस देश में वर्गीय शोषण को ख़त्म करना हो तो जाति को ख़त्म करने का बीड़ा उठाना होगा. अम्बेडकर ने कम्युनिस्टों को कहा था कि जाति की बात नहीं करोगे तो संघर्ष में कभी कामयाबी नहीं मिलेगी. बीटीआर ने कहा था कि जाति की बात करने वाले वर्ग के रूप में संघर्ष के लिए इकट्ठा नहीं होंगे तो उन्हें कोई सफलता नहीं मिलेगी. आज अम्बेडकर और बी.टी.आर., दोनों की बातें प्रासंगिक हैं.
अपने विचार व्यक्त करते हुए आनन्द तेलतुम्बडे
4:30 बजे आरम्भ हुए दूसरे सत्र के वक्ता आनंद तेलतुम्बड़े ने ‘अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद : संकल्पना और सरोकार’ विषय पर बोलने की शुरुआत करते हुए कहा कि यह एक स्वागतयोग्य क़दम है कि कम्युनिस्ट पार्टियां, खास तौर से सीपीआई (एम) दलित मुद्दों पर बहुत सक्रिय हुई है. उन्होंने कहा कि अम्बेडकरवाद जैसी कोई चीज़ है, ऐसा मैं नहीं मानता. मार्क्सवाद जिस तरह हर चीज़ की एक व्याख्या करता है, उस तरह अम्बेडकर के यहाँ नहीं है. मार्क्सवाद एक मुकम्मल विचारधारा है और हालांकि कुछ मार्क्सवादियों ने उसे जड़ीभूत सिद्धांत में ढालकर ‘धर्म’ की तरह बना दिया है, पर वह सचमुच ‘क्रांति का विज्ञान’ है. इसके बाद श्री तेलतुम्बड़े ने द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का विस्तार से परिचय देते हुए पूंजीवाद के अंतर्गत मनुष्य के ‘अलगाव’ की भी चर्चा की. अम्बेडकर के विचारों पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत सारे लोगों से बहुत कुछ लिया, पर किसी से भी पूरा-पूरा नहीं लिया. वे घोषित रूप से ‘प्रैगमैटिस्म’ में भरोसा करने वाले विचारक थे. वे मार्क्सवादी नहीं थे, पर मार्क्सवाद विरोधी भी नहीं थे और कई चीज़ों में उनका दाय स्वीकार करते थे. इस बात को आज बार-बार बताने की ज़रुरत है. उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ बनायी थी जिसे ख़त्म कर अनुसूचित जातियों का संगठन उन्होंने सिर्फ इस मजबूरी में बनाया कि क्रिप्स मिशन के सामने मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने की कोई मान्यता नहीं थी. जाति या धर्म का प्रतिनिधित्व करने के दावे पर ही उस मिशन के सामने पेश हो सकते थे. आम्बेडकर के इन पक्षों पर बात करना इसलिए ज़रूरी है कि आज उनका नाम लेकर चलने वाले संगठन उनके विचारों से बहुत दूर हैं. मार्क्सवादियों को अम्बेडकर को समझना होगा, क्योंकि आधार और अधिरचना के सरल से रूपक में फंस कर उन्होंने अपना बहुत नुकसान कर लिया है. वेद-वाक्य की तरह इस सूत्रों को रटते हुए वे भारत की ज़मीनी हकीकत को समझ ही नहीं पाए.
कार्यशाला के दूसरे दिन पहले सत्र में सभी लोगों के आग्रह पर मुख्य आतिथेय श्री प्रेम सिंह का व्याख्यान रखा गया. उन्होंने कार्यशाला के विषय पर नहीं, खेती को ले कर अपने प्रयोगों और उसके पीछे की सोच पर प्रकाश डाला, जिसमें खास जोर इस बात पर था कि परिवार को समाज की बुनियादी इकाई और गाँव को राजनीति के उद्देश्य से बुनियादी इकाई मानें, तभी एक ऐसी जीवन-शैली का विकास हो सकता है जो आज की समस्याओं से निजात दिलाये. उन्होंने वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था को अलग-अलग देखने की सिफारिश की. अगला व्याख्यान श्री जयप्रकाश कर्दम का था. ‘जाति-उन्मूलन में दलित साहित्य की भूमिका’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि जाति वर्ग के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है. जब तक जाति नहीं टूटेगी, तब तक वर्ग नहीं बनेंगे. प्रेम सिंह के स्थापना का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि जाति की संकल्पना पर बात करते हुए वर्ण-व्यवस्था पर बात करनी होगी. हम जब तक ईश्वर की अवधारणा को मानते रहेंगे, तब तक जाति वर्ण को मानते रहेंगे; जब तक वर्ण को मानते रहेंगे, तब तक जाति को मानते रहेंगे; जब तक जाति को मानते रहेंगे, वर्ग की बात नहीं कर पायेंगे और नया समाज नहीं बना पायेंगे. पुरुष-सत्ता को भी उन्होंने जाति-व्यवस्था की देन माना और इसके रहते स्त्री-पुरुष की बराबरी को असंभव बताया. उन्होंने बताया कि दलित साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है, उसका वर्ण-जाति के खिलाफ होना. दलित साहित्य में गाँव शेष साहित्य के गाँव से अलग है. बाबा साहेब गाँव को दलितों के शोषण के कारखाने मानते थे. उसे रूप में यहाँ गाँव आया है. उन्होंने सूरजपाल चौहान और ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का हवाला दिया और कहा कि बड़े-बड़े सिद्धांतकार-चिन्तक मानवतावाद की बात करते हैं, पर वर्ण-जाति पर नहीं बोलते, यह हैरतनाक है. जाति रहेगी तो लोकतंत्र नहीं होगा. इसलिए आज जाति के मूल में, इतिहास में जाने से बात नहीं बनेगी. आज वह क्या है, इस पर बात करें और हल ढूंढें. दलित साहित्य यही कर रहा है. दलित राजनीति में जो कमियाँ हैं, उनका दलित साहित्य ने कभी समर्थन नहीं किया.
दूसरे दिन का दूसरा सत्र ‘दलित स्त्रीवाद’ पर केन्द्रित था. इसमें बोलते हुए अनिता भारती ने अपने विद्यार्थी जीवन के संस्मरणों से शुरुआत की और बताया कि जिन वामपंथी संगठनों के साथ उन्होंने काम किया, वे दलितों के सवाल को संबोधित नहीं कर रहे थे. इसीलिए उन्हें ‘मुक्ति’ नामक संगठन बनाना पड़ा. एनजीओज़ की हालत ये है कि उन्हें जिस मुद्दे के लिए फण्ड मिलता है, उस पर बात करने लगते हैं. इस तरह वित्तपोषण से उनका एजेंडा तय होता है. दलित स्त्री के प्रश्न पर आते हुए उन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सामने रखते हुए बताया कि किस तरह जाति के प्रश्न को तीखेपन से संबोधित करने वाले स्त्री-लेखन को साहित्य की मुख्य धारा में गिना ही नहीं गया. दलित महिला के सामने दो तरह की चुनौतियां हैं—दलित आन्दोलन उनके स्त्री-प्रश्न संबंधी सरोकारों को तवज्जो नहीं देता और महिला आन्दोलन उनके दलित पक्ष को नहीं देखता. महिला आन्दोलन को डी-क्लास और डी-कास्ट होना होगा और इसके लिए पहले कास्ट को पहचानना होगा. अनिता भारती ने यह भी कहा कि दलितों का एक छोटा हिस्सा पूंजीवाद नव-उदारवाद का समर्थक है, पर मुश्किल ये है कि संचार-माध्यम बार-बार उन्हें ही पकड़ लाते हैं और गलतफहमी फैलाते हैं. 
सत्र में विचार व्यक्त करते हुए दिलीप चव्हाण
इसी सत्र में बोलते हुए दिलीप चव्हाण ने सबसे पहले मुख्य समस्या को इस रूप में रखा कि स्त्री-मुक्ति के सवाल को जाति और वर्ग के सम्बन्ध में कैसे देखें और फुले, अम्बेडकर और मार्क्स से क्या-क्या ले सकते हैं? उन्होंने कहा कि बहुत समय तक पारंपरिक मार्क्सवाद में यह धारणा थी कि वर्ग के अलावा शोषण की और संस्थाएं समाज में नहीं हैं. अब भी कितना फर्क पड़ा है, पता नहीं, पर समझ बनाने की दिशा में काम हो रहा है, यह स्वागतयोग्य है. उन्होंने कहा कि यह समझ बनाने के लिए फुले बहुत ज़रूरी विचारक हैं. उन्होंने ही बताया कि धर्म के साथ स्त्री-शोषण का गहरा सम्बन्ध है. सभी धर्मों के संस्थापक पुरुष हैं और सभी धर्म स्त्रियों के खिलाफ हैं. इसी तरह परिवार का चरित्र पितृसत्तात्मक है और कुछ भी बुनियादी स्तर पर करने के लिए परिवार की संस्था की पुनर्संरचना करनी पड़ेगी. फुले ने ही समाज के शोषित तबके के लिए नाम तय करते हुए ‘स्त्रीशूद्रातिशूद्र’ जैसा सूत्रीकरण किया. अम्बेडकर ने अपने लेख ‘कास्ट इन इंडिया’ में जाति और पितृसत्ता के आर्गेनिक सम्बन्ध को रेखांकित किया. जहाँ तक मार्क्सवाद का सम्बन्ध है, स्त्रीवादी आन्दोलन का जन्म उसी से हुई और उसकी दो शाखाएं वहीं से पनपीं.
रेखा अवस्थी ने इसी सत्र में बोलते हुए कहा कि जब कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो श्रम के मूल्य और सम्मान के लिए लिखा गया तो उसमें सभी वर्ण, लिंग और वर्ग शामिल थे. स्त्री मात्र दलित है. उच्च जाति के घरों की स्त्रियाँ भी दलित ही हैं, उन्हें देवी बना दें या कुछ और. ‘रतिनाथ की चाची’ और ‘बेटों वाली विधवा’ जैसी कृतियाँ इसका उदाहरण हैं. आज भी स्त्री आन्दोलन के लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल शिक्षा, रोज़गार और स्वावलंबन के सवाल हैं. माओ ने चार पहाड़ बताये थे. और पांचवां पहाड़ पितृसत्ता को बताया था. हम उसमें छठा पहाड़ भी जोड़ लें, जाति का. ये सब पार करने हैं.
इस दिन के तीसरे सत्र में विश्वजीत मोहंती ने ‘उत्तर आधुनिकता और अस्मिता निर्माण’ विषय पर बोलते हुए इहाब हसन के हवाले से उत्तर आधुनिकता के मुख्य लक्षण-बिन्दुओं पर प्रकाश डाला और यह स्थापना दी कि अनिश्चितता, फ्रेगमेंटेशन, डी-कैननाइज़शन आदि के सन्दर्भ में देखें तो अस्मिताएं एक मुक्तिकारी शक्ति के रूप में नज़र आती हैं. अगले वक्ता देबा प्रसाद नन्द ने ‘उत्तर-औपनिवेशिकता और अस्मिताएं’ विषय पर व्याख्यान दिया. उन्होंने मार्क्सवाद और उत्तर-औपनिवेशिक विचार, दोनों की ज़रुरत बताते हुए कहा कि जब हम संसाधनों के पुनर्वितरण की बात करते हैं तो मार्क्सवाद की बात करनी पड़ती है, जब चेतना और उसके सांस्कृतिक निर्माण की बात करते हैं तो उत्तर-औपनिवेशिकता की ओर ध्यान जाता है.
सत्र में बोलते हुए दूध नाथ सिंह
चौथा सत्र ‘प्रगतिशील साहित्य और जाति के प्रश्न’ पर केन्द्रित था, जिसमे रघुवंश मणि, शकील सिद्दीक़ी और दूधनाथ सिंह के व्याख्यान हुए. रघुवंश मणि ने इस बात पर बल दिया पारस्परिकता की बात कर रहे हैं तो एक दूसरे के योगदान को भी समझना होगा. उन्होंने विस्तार से दलित लेखन के आने के साथ शुरू हुई बहसों का भी परिचय दिया. शकील सिद्दीक़ी ने कई उपन्यासों-कहानियों की हवाले से बताया कि प्रगतिशील आन्दोलन ने कितने स्रोतों से अपने को समृद्ध किया. प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह ने विषय पर ही सवाल उठाते हुए कहा कि जो चीज़ कभी रही ही नहीं, उसे विषय क्यों बनाया? उन्होंने कहा कि प्रगतिवाद की बुनियादी सोच में ही जाति का सवाल नहीं है, वह मनुष्यों और वर्गों के आधार पर सोचता है. हिन्दी के दलित आन्दोलन को उन्होंने मराठी से प्रेरित ‘सेकेंडरी इमेजिनेशन’ बताया.
सत्र में बोलते हुए राहुल कोसंबी
इस दिन के आख़िरी सत्र में बोलते हुए राहुल कोसंबी ने अम्बेडकरवाद जैसी किसी चीज़ से इनकार किया लेकिन यह कहा कि जाति के प्रश्न की अनदेखी करके आप कुछ नहीं कर पायेंगे, यह निश्चित है और यह कार्यशाला इसका प्रमाण है. उन्होंने कहा कि बाबा साहेब की बात को आइडेंटिटी पॉलिटिक्स नहीं कह सकते. उनका पूरा विमर्श यह बताता है कि कास्ट को ध्यान में रखते हुए भी क्लास की लगातार चर्चा की जा सकती है. कम्युनिस्ट आन्दोलन ने उसका ध्यान न रख कर पिछले 80-90 साल व्यर्थ में गंवा दिए. आज की दलित राजनीति को राहुल कोसंबी ने दलालों की राजनीति बताया. 
अपनी बात रखते हुए विलास सोनवने
अगले दिन, 4 अक्टूबर को पहले सत्र में ‘जाति उन्मूलन और जाति-आधारित राजनीति’ विषय पर  विलास सोनवने का व्याख्यान हुआ. अपने लम्बे व्याख्यान में उन्होंने विस्तार से इस बात पर बल दिया कि इस देश में बैलेट वाले कम्युनिस्टों से ले कर बुलेट वाले कम्युनिस्टों तक, सभी ने जाति को सुपर-स्ट्रक्चर का हिस्सा मानने की गलती की. इसका कारण यूरो-केन्द्रित समझ है. जाति-व्यवस्था के भौतिक आधार की समझ उसका उन्मूलन करने के लिए ज़रूरी है. और यह तब तक संभव नहीं है जब तक डांगे और रजनी पाम दत्त की किताबें आपका आधार बनी रहेंगी. अम्बेडकरवाद के सवाल पर उनका कहना था कि वह वेलफेयर स्टेट के दायरे में बात करता है. मार्क्सवाद क्रांति की बात करता है. फिर पारस्परिकता के धरातल तलाशने का क्या मतलब? ऐसा कोई धरातल हो ही नहीं सकता. 

 

समापन सत्र में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने ‘अम्बेडकर मार्क्स और हमारा वर्तमान’ विषय पर बोलते हुए हमारे समय के मुख्य अंतर्विरोध को पहचानने पर बल दिया. उन्होंने कहा कि आज जो केंद्र में बैठा है, उसे वहाँ बैठाने वाली शक्तियां कौन-कौन-सी हैं? वह बड़ा पूंजीपति वर्ग है, मीडिया घराने हैं और सबसे ऊपर अमरीका है. इस केन्द्रीय सत्ता द्वारा जिसका शोषण हो रहा है, वे कौन हैं? इन्हें पहचानिए, तभी मुख्य अंतर्विरोध की पहचान होगी. जब तक जनता अत्याचार, शोषण, मुनाफाखोरी सी पीड़ित है, तब तक हम संघर्षों की धाराओं में पारस्परिकता के धरातल खोजना जारी रखेंगे. मुक्ति अकेले-अकेले नहीं मिल सकती. वह एक साथ ही संभव है. इसलिए साझा लड़ाई की ज़मीन मौजूद है और उसे चिन्हित करना ज़रूरी है. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने उन दार्शनिक आधारों की भी चर्चा की जिनकी उपेक्षा करके अपने समय के यथार्थ को समझना मुश्किल है. 
कार्याशला में शामिल प्रतिभागी
इस समापन भाषण के बाद प्रतिभागियों ने कार्यशाला को लेकर अपने मंतव्य सामने रखे, जिसमें कवितेंद्र इंदु, प्रियंका सोनकर, मनोज कुलकर्णी, शम्भू यादव, अतुल कुमार जैसे प्रबुद्ध लोग शामिल थे. सबने कार्यशाला की परिकल्पना और उसके इंतजामात के लिए संयोजक बजरंग बिहारी, स्थानीय संयोजक सुधीर सिंह और आयोजन-स्थल मुहैया कराने वाले प्रेम सिंह का साधुवाद किया. सुधीर सिंह के धन्यवाद-ज्ञापन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ.   
संजीव कुमार

प्रस्तुति –

संजीव कुमार 
मोबाईल – 09818577833

विजेंद्र की कविता पर हुई एक गोष्ठी की रपट

हाल ही में “कवि  विजेंद्र की  कविता और  आज  के समय में  कविता की जरुरत ” विषय  पर  लखनऊ  में  एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की एक रपट हमें भेजी है अशोक चन्द्र ने। प्रस्तुति आशीष सिंह की है। तो आइए पढ़ते हैं इस गोष्ठी  की यह रपट”
विजेन्द्र  की  सतत  अग्रगामी काव्य यात्रा

अशोक  चन्द्र

लखनऊ।  23  अगस्त 2015.। “बातचीत'”  के  तत्वाधान  में  आयोजित  विचार  गोष्ठी   में  कवि  अशोक  श्रीवास्तव ने वरिष्ठ  जनकवि विजेन्द्र  की  कविता व जीवन  के बहुआयामी पहलुओं पर विस्तार से रोशनी  डालते  हुए कहा कि  “विजेन्द्र  की रचना  यात्रा  सतत  अग्रगामी  है। उनमें पुनरावृत्ति नहीं  होती ‘।  मालूम   हो  कि अशोक  जी  विजेन्द्र  के  कविताओं  को केन्द्र में  रख कर  “आज  का  समय  और  कविता की  जरुरत”  विषय  पर  बीज वक्तव्य रख  रहे  थे। कार्यक्रम  की शुरूआत विजेन्द्र  के सक्रिय अस्सीवें  जन्म-दिवस  पर  सबने  अपने प्रिय कवि  को  प्रफुल्लित  हृदय  से  बधाइयाँ  दी। और  साथ  ही  कवि संपादक  एकांत  श्रीवास्तव द्वारा “वागर्थ” पत्रिका  के विजेन्द्र के  सम्मान  में  निकाले   गये  अंक  के  लिए   धन्यवाद  दिया।  
कार्यक्रम  का संचालन  करते  हुए आशीष ने  कवि विजेंद्र  के  जीवन  यात्रा से  परिचित  कराते  हुए कहा कि हमारी साहित्यिक  दुनिया  में  बड़े रचनाकारों  के प्रति  जिस प्रकार का उपेक्षा  भाव रहा  है वही रवैया  हम  विजेन्द्र  जी के साथ  कर  रहे  हैं। खासकर वे नामावर  विश्लेषक जो जनविरोधी, जातिवादी -साम्प्रदायिक  शख्सियतों  के  रोजनामचों  का प्रशस्तिवाचन  करने का  समय  निकाल लेंगे  लेकिन  जनता की मुक्ति के साथ अपने  रचनाकर्म  में  लगे  सर्जकों  की ओर  इन  जैसे आलोचकों  का ध्यान भूल से भी  नहीं जाता है। क्या  यह अनायास  है कि शील, निराला,  कुमारेंद्र  पारसनाथ  सिंह  आदि  तमाम कृतिकार  रहे  हैं  जिनकी  समय  रहते  उपेक्षा  हुई। यह  उपेक्षा  उन  रचनाकारों  की  नहीं  बल्कि हिंदी  जनता  और  उसके  वास्तविक  जरुरतों  की भी उपेक्षा  है। विजेन्द्र  इन  सफेदपोश  यानि  बात जनता  की  करते  हैं  व्यवहार ठीक  विपरीत   नज़र  आता  है; ऐसे छदम आलोचकों  को  धिक्कारते  हैं  जब वे कहते हैं  कि  —

मैं  अंगरक्षकों को पहनकर
जिंदा  नहीं  रह सकता
नहीं  रह  सकता
शत्रु  को  पहचानो
यह  एक  शर्त   है
कविता  सबसे  पहले  यह प्रश्न   उठाती  है
अब आदमी   की  पहचान  मिट  रही  है
शत्रु  को  पहचानो 
रचना  आँख  है।

इस  प्रकार  विजेन्द्र  के  कविता कर्म  का  मकसद   स्पष्ट है। वे  जनमुक्ति  का पक्ष चुनते  हैं। इसीलिए  वे  मुक्तिकामी जनता के कवि है।
कवि  अशोक  चन्द्र  ने  बीज  वक्तव्य   में  कहा कि   विजेन्द्र   के   पहले   कविता  संकलन  “त्रास”   से   लेकर   हाल   ही   मे    प्रकाशित   “ढल रहा है दिन” तक देखे तो कुल जमा दो   दर्जन  पुस्तकें आ चुकी  हैं।   इन्हें पढ़ने पर  हम   पाते  हैं कि उनकी रचना  अग्रगामी  रही  है। उनकी कविता  में  पुनरावृत्ति नहीं  होती। यह  जनसरोकारो   से  जुडे  कवि  की आन्तरिक गठन को  भी  प्रदर्शित  करता   है।

अशोक  चन्द्र  जी  ने  विजेन्द्र  के  काव्य साधना  और  चित्रांकन  के  बारे  में  कहा  कि उनका  जीवन  बहुत   ही  अनुशासित  और सुगठित रहा  है। अगर  एक पंक्ति में  कहा  जाय  तो  वे well composed   personality   हैं।  समय, प्रबंधन, आदि  सबमें  वे  व्यवस्थित रहते  हैं। उन से  मिल कर उनके व्यक्तित्व  से  प्रभावित   हुए  बगैर   कोई  रह  नही  सकता।  जब  वे  बोलते  है  मानो  ज्ञान का झरना अजस्र प्रवाहित हो  रहा  हो। कवि विजेंद्र   ‘खिलोगे  तो  देखेंगे’ के बजाय  खिलते   हुए  देखना  पसन्द  करते  हैं। यह  उनके  व्यक्तित्व    की  आभा ही  है  कि सुदूर  अंचल  के  युवा उनसे जुड़ना व परामर्श  लेना  आवश्यक  समझते  हैं। वे  सदैव     लिखने-रचने  को प्रेरित करते   हैं।
 अशोक  जी  ने  सत्तर  के   दशक  से कविता को  केन्द्र में  रख कर  विजेन्द्र  के  सम्पादन में निकलने  वाली “”ओर”  और ‘कृति ओर’ के  बारे  में  बताते  हुए  कहा  कि  उन्होंने रचना  के  उत्खनन  का  विचार रखा है।      प्रकाशन सम्बन्धी तमाम  दिक्कतों के बावजूद कभी  भी रचना  या  विचार के धरातल पर  समझौता नहीं  किया। वह  आज हमारे वरेण्य जनकवि हैं,  जीवन  के  स्तर पर  भी  व कविता के स्तर पर  भी।

 “जा रहा  हूँ जयपुर  छोड़ कर'”  कविता   पढते  हुए अशोक  जी  ने  बताया  कि  प्रकृति  की   मामूली  सी चीजों  के  साध  भी  कवि  का  गहरा   अपनापन  दिखता  है। उनकी कविता  में प्रकृति   से  एक  जैविक  संवाद, रिश्ता दिखता  है।  “लोक” और  “जन”  उनकी  कविता के  बीज शब्द  हैं।

कविता  की  आयातित  आलोचना पद्धति  के  बहुत  बड़े  आलोचक  रहे हैं विजेंद्र। अपनी  परंपरा   से  जुड़ कर   वे जीवन को  देखने  की  दृष्टि विकसित   करते   रहे  हैं।  कवियो  में निराला  उनके अपने  प्रिय कवि हैं लेकिन  काव्यशास्त्र   में  वे तुलसी को  अपना आदर्श मानते रहे  हैं। तुलसी की काव्य  चिंताओं  को  लेकर वे  विचार करते रहे  हैं। सौंदर्यशास्त्र :   भारतीय चित्त और  कविता” नाम से सौंदर्यशास्त्र पर  उनकी एक  बहुत   महत्वपूर्ण  किताब   भी आयी  है।  स्थापत्य   को  लेकर  उनकी   कवितायें  काफी  सजग  हैं।

वे  एक  अच्छे  चित्रकार हैं। एक  चित्र  रोज बनाते हैं। कविता   की रचना  प्रक्रिया में  चित्र   और   चित्र  के    सघन  बिम्बों  में  कविता सहायता करती है।  “आधी रात के  रंग’  संग्रह   इसका बढ़िया   उदाहरण है। इसमें चित्र कविता  और अंग्रेजी  कविता उच्चतम  धरातल  पर  प्रकट  होते हैं ।  अशोक जी  ने  विजेंद्र के  बारे  में  बताया कि  वे  डायरी  नियमित  लिखते  हैं  वह  भी रोजनामचा के  तौर पर  नहीं बल्कि वे  एक प्रश्न उठाते  हैं   और उसके  विस्तार   में  जाते  हैं । उनके  पत्र  भी संवाद करते  हैं।  वे  लोगो  को  सक्रिय करते  हैं।  एक   सुक्तिपरक वाक्य में  कहें  तो वे  लोगो  को ‘खिलोगे  तो  देखेंगे की बजाय वे  खिलते  हुए देखना पसंद   करते   हैं।
कवि-कथाकार  राजेन्द्र  वर्मा ने  अपने  वक्तव्य   में कहा  कि  विजेन्द्र  जी   की  छवि  एक  विद्वान  सर्जक  की  है। लेकिन   उनका   लेखन  जनभाषा  में   है, लोकजीवन  उसमें   मौजूद   है, जीवन  का  ठाठ है। उनकी काव्य  भाषा और छन्द में जीवन  का गठन है।  स्थानीय  शब्दों  से  युक्त काव्य  भाषा  हमें  जनता के पास     ले  जाती है। यही  उनकी कविता की  ताकत  है।          
संवेदन   पत्रिका  के  संपादक  और  युवा कवि  राहुल  देव   ने  विजेन्द्र  की  कविता   और  चित्रकारी   के  बीच गहरा  रिश्ता चिन्हित किया।  उन्होनें  कहा  कि  विजेंद्र  एक  चित्रकार कवि   हैं।  उनकी  कविता  में एक  चित्रकार की आत्मा समाई  हुई है।  उनकी  कविताओं  का परिवेश  लोकनिसृत  है,  अनकेकानेक तहों  के साथ। वहाँ रंगो का  बहुरंगी संसार है जीवंत-जाग्रत।  जो उनकी सूक्ष्म  बनावट में  विन्यस्त है। वह    प्रगतिशील चेतना में निराला, नागार्जुन,  केदार  और त्रिलोचन की  परम्परा  के   कवि  हैं । विचारधारा  के स्तर  पर विजेन्द्र  की  कविता काफ़ी प्रभावी  है।  उनका   समग्र   व्यक्तित्व  हमें   प्रभावित   करता  है।  उनके रचनात्मक  व्यक्तित्व और  जीवन  में काफ़ी  साम्य है।
कथाकार  प्रताप  दीक्षित  ने  कहा  कि  कविता   मनुष्य   की  आदिम  रागात्मक  वृति   की  समानान्तर   यात्रा है। उन्होंने आगे  अपनी   बात   को  विस्तार   देते  हुए  कहा  कि कोई  रचना अपने   समय  और  समाज की  समसामयिक  गतिविधियों  से  असंपृक्त होकर  कालजयी  नहीं  हो  सकती।  इस  परिप्रेक्ष्य    में  विजेन्द्र  की  कवितायें  एक  ओर  समय  और  परिवेश   से  साक्षात्कार   कराती हैं  दूसरी  ओर  उनमें  अन्तरमन  की  वह  बेचैनी  है  जिसके  बिना  कविता का  सृजन   दुष्कर  है।

कवि  अनिल श्रीवास्तव ने  कवि  की  विश्व दृष्टि  और  अपने  परिवेश  से  गहरा परिचय  इन  दो महत्वपूर्ण आधारों को  केन्द्र  में  रखकर  विजेन्द्र  की कविता  को  परखने  की बात  कही। उन्होंने विजेन्द्र  के  एक  वक्तव्य के मार्फत अपनी भावना  प्रकट  करते  हुए  कहा  कि  “कवि  इस  दुनिया  को  अपनी   इन्द्रियों  से अनुभव  करके  ही  उसे  मानवीय  बनाता  है  जिसे वे कविता में  रुपान्तरित  करते हैं। श्रेष्ठ कविता   मानवीय  गुणों  से  परिपूर्ण   होती  है।उसकी नसों  में  क्रांति  का  जैसे  रक्त   प्रवाहित होता  है।”

कथाकार भानु श्रीवासतव  ने  ‘कृति ओर’  पत्रिका  की  काव्य कर्म  को  लेकर  समर्पण   को  बड़े   महत्व  का  काम  माना।  उनके  मुताबिक  इस   बर्बर  समय  में  हमें कविता ही  बचायेगी।
प्रसिद्ध  कथाकार  अवधेश  श्रीवास्तव ने  कहा  कि  विजेन्द्र  प्रभुलोक के  बरक्स  लोकधर्मी  कवि हैं। उनकी  कविता  में  प्रभुलोक’  से  सदा  द्वन्द चलता   रहता  है।  पूंजी व्यक्तिवादी  और  स्वार्थी बनाती  है।  समस्त  उत्पीड़ित जन के  साथ ही  स्त्री की  मुक्ति  निहित है।

साहित्यकार   श्री  बन्धु  कुशावर्ती  ने  विजेन्द्र  के  काव्य  नाटक   क्रौंच वध  को  “अंधा  युग”  व   “उर्वशी ” से  आगे  की  कडी   का  नाटक बताया।  इसी क्रम में उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश  इस  पर  ठीक से  ध्यान   नहीं   दिया   गया। हमारा लेखन  क्या इतना  जीवंत है  कि  इस  बर्बर   समाज  में  लोगो को  बांध   पाता।  लोकधर्मिता  वहाँ   तक  ले  जाती है जहाँ   तक  साहित्य   बचा  रहता  है। विजेन्द्र  जी  के  लेखन   में जो जीवन्तता  आती है वह   उन्हें  लोकधर्मी बनाती  है। और संवाद की  स्थिति बनाती  है।
युवा   कथाकार  दीपक   श्रीवास्तव ने  वर्तमान   दौर   मे  उनकी   महत्ता  को  चिन्हांकित   किया।  उनके   मुताबिक  विजेन्द  को   उनका  अवदान  नहीं   मिला।  साथ  ही  दीपक ने   विजेन्द्र के   बिम्बो, प्रतीकों  को  लेकर  बात  करते हुए  उनको   समझने  के  लिए  किन  काव्य  उपकरणों  का प्रयोग  किया   जाय  इस  पर  विचार की  जरुरत है।  गांव बदल  रहे  हैं ऐसे   में  बदलते  संवेदन स्रोतों व  दैनंदिन  क्रिया-व्यापार के  बरक्स  पुरानी  भाषा  और  उन  अनुभवों  से  दूर  इन्हें  किन  अहसास  के  धरातल  पर  महसूस  पायेंगे  यह  भी  एक सोचने का बिंदु  हो सकता  है। ऐसे  में  पुरानी  भाषा  छूट चुके  जीवन  व्यवहार  के  अनुभव  के  अभाव  में  ये  कवितायें  नयी   पीढ़ी  को कैसे  सम्बोधित  कर  पायेंगी।  क्या  ये  नई  पीढ़ी  को  अहसास  के धरातल  पर   दुर्बोध  व असम्मप्रेषणीय  नहीं   हो  जायेंगी।
   
वरिष्ठ  कथाकार -आलोचक  दामोदर  दीक्षित  ने  कवि  विजेंद्र  के  बारे  बात  करते  हुए  कहा   कि विजेंद्र  ने अंग्रेज़ी  के विद्वान  होने  बावजूद  अपने लेखन का माध्यम  अपने  परिवेश , प्रकृति के  बिंब  को पूरी शिद्दत   से  प्रकट करने वाली  अपनी  मातृभाषा  को  चुना। उसी में अपने “संवेदनात्मक ज्ञान  और  ज्ञानात्मक  संवेदना” को  शब्दचित्रों  में व्यक्त   किया।  यह   कवि की सृजनात्मकता  का मूल उत्स  है। यह अपनी भाषा व  जन  से गहरे  तौर  पर  जुड़ा  है।  अभिजात्य  लेखन  से दूर  लड़ती -जूझती  जन की अभिलाषाओं  – उम्मीदों  के कवि  है विजेन्द्र। हर मायने में दु: खी   शोषित   जनता  के  पक्षधर  कवि  हैं। उन्होंने प्रकृति से जुडी ; जनसामान्य   से  जुड़ी कवितायें लिखी।  विचार का बिन्दु  यह  है  कि  क्यों   गांव खतम   होते  जा  रहे  है।  क्यों   लेखकगण जनसाधारण तक की  भाषा  परिवेश   या  उस  तक   पहुंच  कम   होती  जा  रही  है।  विजेन्द्र की  कविता  में जनसामान्य  की ज़िन्दगी की  विविध  प्रकार  की  सच्चाईयां   देखने  को मिलती  हैं। जनसाधारण ही  प्रकृति  को ज्यादा   झेलता  है।  विजेन्द्र  की  कविता की  प्रकृति   से  सचेतन  साह्चर्य  उनकी कविता  की  शक्ति   को  द्विगुणित  कर  देती  है। परिवेश   के अनुरूप   भाषा  का  स्वरुप   बदलता  रहता  है।

सामाजिक  कार्यकर्ता   कौशल   किशोर  ने  आज  के  बर्बर   समय  पर   टिप्पणी करते  हुए  कहा  कि  यह  तंत्र   मानवता   को  कुचल  कर  रख  देना   चाहता  है।  भूमि   अधिग्रहण  कानून   लोगो की  अस्मिता   को   तबाह  बर्बाद  करके मुट्ठी   भर  जमात  की  हितू  बनी   हुई   है।  इस समय  बदलाव   की  शक्तियां ही बर्बर   समय  के  खिलाफ   लड़    सकती  हैं।   मानवीय   मूल्य  की  लड़ाई   में साहित्य  को  भी   खड़ा   होना   होगा।  विजेंद्र की  कविता श्रेष्ठ   मानव  मूल्य   की  स्थापना   में  सहायक   जनपक्षके कवि   की कवितायें  हैं ।

विजेंद्र  की कविता  के विविध  पहलू  को  अपनी दृष्टि   से  साझा  करते  हुए  साहित्य प्रेमी   धनंजय  व  उग्रनाथ  नागरिक   आदि  ने  भी   अपने   विचार   रखे।   कार्यक्रम   की  अध्यक्षता   “निष्कर्ष ‘  पत्रिका के  संपादक  व  वरिष्ठ   कथाकार  गिरीश  चन्द्र    श्रीवासतव  ने किया।  अपने   अध्यक्षीय   वक्तव्य  में   गिरीश  जी  ने  कवि  विजेंद्र   के साथ  के  पुराने  अनुभवों  को  साझा   किया।  उन्होंने ने  कहा कि  विजेंद्र  अनुभव  को  वरीयता   देते   हैं।  उनका  मानना    है  कि  अनुभव   हमारे   दिमाग़   पर  असर  डालते  हैं। विचारधारा   उनकी   कविता   में  अनुस्यूत मिलती  है।  रचना   अपनी   भाषा   खुद  लेकर  आती  है।  यह  सीख  हमें  प्रेमचंद  और   विजेंद्र  से  सीखने  की  जरुरत  है।   इस  समय  कविता   लिखना   बहुत जरूरी है। क्योंकि   पूंजीवादी  तंत्र   झूठ   को  सच  बनाकर  सप्लाई  करता  है  और  साहित्य ऐसे   झूठ का  पर्दाफ़ाश   करता है  वह  प्रतिरोध करता है।  इसीलिए  शासक  साहित्य  से  डरते हैं।   वे  लोगो  की स्मृति   को ध्वंस   करते  हैं,  संवेदनाओं  को  भोंथरा  करने  की  कोशिश   में  लगे  है  जिसे  लोग  प्रतिरोध   न  कर  सकें। अतैव,  संवेदनाओं  को बचाना होगा।  जब  संवेदनाओं  को  बचायेंगें  तभी कविता   बचेगी।  कवि  मनुष्यता  की  बात  करता  है। आज  रचना  में  मौजूद   छद्म  के  खिलाफ  लिखना जरूरी   है।  जहाँ   छद्म  होगा  वहाँ   अच्छी  रचना  नहीं   रह  सकती  है।  विजेन्द्र  ने  अपनी   कविताओं  के  माध्यम   से  छद्म  को   नकारा  और जनमुक्ति  के  सपने  को  दिखाया  है।

कार्यक्रम   में   विजेंद्र  की   कवितायें   ‘कविता  के प्रश्न’  “रेलवे   पोस्टर” व  ‘छोड़   आया  हूं जयपुर’   आदि  का  पाठ व  उन परिचर्चा  की  गयी। विजेंद्र  केन्द्रित   इस  कार्यक्रम   में  विजेन्द्र  की   कविता   के  पोस्टर   व  विजेंद्र  केन्द्रित   “वागर्थ”  पत्रिका  व”  कृतिओर”  की प्रदर्शनी   भी   लगाई  गई।                   
                                                         
प्रस्तुति — आशीष  सिंह

‘विविध संवाद’ के मधुरेश पर केन्द्रित विशेष अंक के लोकार्पण की एक रपट

 
बरेली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विविध संवाद’ का सौंवा अंक हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसे वरिष्ठ समालोचक मधुरेश जी पर केंद्रित किया गया है। इसका सम्पादन किया है हमारे मित्र और लेखक रणजीत पांचाले ने। इसी अंक का विगत 16 नवम्बर को विमोचन और लोकार्पण किया गया। प्रस्तुत है इस विमोचन समारोह की एक रपट। 

हिन्दी आलोचना गुटों और गिरोहों में सिमट रही है: मधुरेश 
                              

गत 16  नवंबर को भारतीय पत्रकारिता संस्थान और मानव सेवा क्लब द्वारा रोटरी भवन में आयोजित एक समारोह में हिन्दी के सुप्रसिद्ध समालोचक मधुरेश का अभिनन्दन किया गया। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथियों ने संस्थान की पत्रिका विविध संवादके मधुरेश पर केंद्रित 100 वें अंक का विमोचन किया। इस अंक के अतिथि संपादक लेखक रणजीत पांचाले हैं। 

      अपने सम्बोधन में  मुख्य अतिथि मधुरेश ने हिंदी की आलोचना के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि मूल्य, निष्ठा, ईमानदारी जैसे शब्द आलोचना के दायरे से खदेड़ कर  बाहर कर दिए गए हैं। विश्वसनीयता आलोचना की पहली और मूलभूत शर्त है। वर्तमान समय में आलोचना गुटों और गिरोहों में सिमटती जा रही है। सच्चाई के बजाय वह कृतज्ञता और ऋणशोध की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई है।

      उन्होंने कहा कि आलोचना स्वेच्छाचारी ढंग से आलोचक को चीज़ों को तोड़-मरोड़ कर आधे-अधूरे रूप में प्रस्तुत करने की छूट नहीं देती है। अच्छी आलोचना शैतान को भी उसका बाजिव हक़ दिलाने के लिए संघर्ष करती है। आलोचना को आभा और गमक नीति से मिलती है, रणनीति से नहीं। अच्छा और बुरा, सच और झूठ, लोक और सत्ता के द्वन्द्व में आलोचना को अपना पक्ष चुनना ही होगा।
  
       हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं के पक्षपातपूर्ण रवैये की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि आज पत्रिकाएं बेहिसाब हैं। लेकिन वे संपादकों की अपनी पत्रिकाएं हैं। आलोचना के लिए पुस्तकों का चयन वहां संपादकों के आग्रहों और रुचियों से तय होता है। तात्कालिक ज़रूरतों की भी इसमें एक नियामक भूमिका होती है। सब जगह संपादकों के अपने समीक्षक और आलोचक हैं। कोई भी ईमानदार आलोचक अपने सारे काम और साख के बावजूद इस स्थिति को साक्षी-भाव से देखते रहने के लिए विवश है। इसी बिंदु पर आकर आलोचना का संकट आलोचक का भी संकट बन जाता है।

      वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अमीर चन्द वैश्य ने कहा कि मधुरेश जी की आलोचना में निरंतरता, तुलनात्मकता, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता है। गंभीर अध्ययन-मनन के बाद ही वे मूल्यांकनपरक टिप्पणी  करते हैं। उनकी आलोचना आजकल की लेन-देन की प्रवृत्ति से कोसों दूर है।  
      शिक्षाविद डॉ एन एल शर्मा ने कहा कि मधुरेश की भाषा में खासी सम्प्रेषणीयता  है और वह सभी तरह के उलझाव से मुक्त है।  उनकी आलोचना में सघन पड़ताल और प्रतिबद्ध पैनापन होता है।

      डॉ सरोज पाण्डेय ने कहा की मधुरेश जी की आलोचना में निरंतरता उनकी वैचारिक निष्ठा का प्रत्यक्ष प्रमाण है।  

      लेखक और पत्रिका के इस विशेषांक के सम्पादक रणजीत पांचाले ने कहा कि मधुरेश ने आलोचना को प्रतिष्ठित करने के लिए  आधी शताब्दी साधना की है। उनका कृति-मूल्यांकन संतुलन और सजगता से भरपूर होता है, इसीलिये उनका जजमेंट बहुमूल्य माना जाता है।

       कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्यकार राधे मोहन राय ने की तथा उनकी दो पुस्तकों मन बुढ़ाता नहींऔर उर्दू साहित्य में हिन्दू साहित्यकारों का योगदान‘ (दो खण्डों में) का भी लोकार्पण हुआ।
 
        इस अवसर पर मानव सेवा क्लब के महासचिव तथा भारतीय पत्रकारिता संस्थान के निदेशक सुरेन्द्र बीनू सिन्हा, राजेन विद्यार्थी, डॉ विपिन सिन्हा, राकेश विद्यार्थी, भारत भूषण शील,  डॉ इंद्रदेव त्रिवेदी, अजय शर्मा, सुधीर चन्दन, आशुतोष गुप्ता, गुडविन मसीह आदि साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
रणजीत पांचाले
सम्पर्क-
रणजीत  पांचाले
मोबाईल- 09927318111   

डॉ० राका प्रियंवदा की रपट

 

12 अक्टूबर 2014, को नटराज एवं सांस्कृतिक संस्थान, 346 बिहारीपुर कहरवान में संयोजक संजय सक्सेना ने प्रख्यात समालोचक डॉ० रामविलास शर्मा की 102वीं जयन्ती के अवसर पर विचार-गोष्ठी का आयोजन अपने आवास पर किया। इस गोष्ठी की एक रपट पहली बार के लिए हमें भेजा है ने डॉ० राका प्रियंवदा ने आइए पढ़ते हैं यह रपट   

डॉ रामविलास शर्मा की 102वीं जयन्ती के अवसर पर विचार-गोष्ठी का आयोजन

बरेली, दिनांक 12 अक्टूबर 2014, को नटराज एवं सांस्कृतिक संस्थान, 346 बिहारीपुर कहरवान में संयोजक श्रीयुत संजय सक्सेना ने उपर्युक्त विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन अपने आवास पर किया। खुले आसमान के तले हल्के प्रकाश में। विद्युत के आलोक में।

इस विचार गोष्ठी की अध्यक्षता जाने-माने कथा-समालोचक मधुरेश ने की। अपने सारगर्भित सम्बोधन में मधुरेश जी कहा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद डॉ० रामविलास शर्मा अग्रगण्य समालोचक माने जाते है। वास्तव में उन्होंने आचार्य शुक्ल की आलोचना का विकास करने के लिए हिन्दी साहित्य की समालोचना की। परम्परा का मूल्यांकन किया। वेदों का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक दृष्टि से। साथ-ही-साथ दर्शनशास्त्र का भी। साहित्य की रचना भाषा में होती है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य दस वर्ष भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी नामक महत्वपूर्ण तीन खण्ड़ी ग्रन्थ लिखने में बिताये। उन्होंने अनेक भाषा वैज्ञानिक पुरातन मान्यतएँ अपने शोध से खण्डित कर दी। भाषा विज्ञान के आधार पर उन्होंने सिद्ध किया आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। अनेक भाषाई तत्व से भारत से अन्य देशों में पहुँचे हैं। उन्होने इस मिथक का भी खण्डन किया कि आर्यों ने यहाँ के मूल निवासियों पर आक्रमण किया था। प्रो० मधुरेश ने आगे कहा कि रामविलास जी अपने परिवार और साहित्य दोनो के पुरखों का बहुत आदर करते थे। इसीलिए उन्होंने आलोचना से आदि कवि बाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिशचन्द, प्रेमचन्द, महाकवि निराला, महाकवि प्रसाद, महादेवी वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का सम्यक मूल्यांकन किया। प्रो० मधुरेश ने बताया कि डॉ० शर्मा उपन्यासकारों में पे्रमचन्द को, आलोचकों में आचार्य रामचन्द शुक्ल को और कवियों में महाप्राण निराला को महान् सृष्टा मानते थे। निराला जी से तो बडे आत्मीय सम्बन्ध थे। निराला जी भी  डा० शर्मा के बहुत बडे प्रशंसक थे। पी-एच० डी० की उपाधि मिलने से पहले ही निराला जी रामविलास शर्मा को डॉ० कह कर सम्बोधित किया करते थे। उस समय साहित्य जगत् में निराला जी का घनघोर विरोध हो रहा था। विशेष रूप से उनके मुक्त छन्द का। इसीलिए डॉ० शर्मा ने अपने कवि का मूल्यांकन करने के लिए निराला की साहित्य साधना नामक तीन खण्ड़ी ग्रन्थ तल्लीनता से लिखा और सिद्ध किया कि तुलसीदास के बाद हिन्दी के कोई दूसरे महाकवि है तो निराला। प्रो० मधुरेश ने यह भी बताया कि डॉ० शर्मा अन्य मार्क्सवादी आलोचकों से भिन्न थे। क्योंकि उन्होने प्राचीन भारतीय साहित्य को रूढि़वादी समझ कर उपेक्षित समझा। इसके विपरीत डॉ० शर्मा ने कहा कि हमारे देश की परंपरा में जो प्रगतिशील बाते हैं हमे उनकी खोज करनी चाहिए। डॉ० शर्मा के अपने आग्रह थे। आप उन्हें दुरआग्रह भी कह सकते हैं। उन्होने रामचरितमानस में नारियों और शूद्रों की निन्दा की है। तुलसीदास में अनेक अन्तविरोध है। लेकिन डा० शर्मा उन्हें प्रक्षिप्त मानते है। डॉ० शर्मा ने आजीवन सामतीमूल्यों पूँजीवादों समाजों और साम्राज्यवादी दुष्ट नीतियों का पुरजोर विरोध किया। और किसानों और मजदूरों की एकता के लिए हिन्दी जाति की  अवधारणा के लिए आजीवन संघर्ष किया।

इससे पूर्व श्रीमती चारू मिश्रा द्वारा सरस्वती वंदना प्रस्तुत की गई। मुख्य अतिथि प्रो० मधुरेश द्वारा द्वीप प्रज्वलित किया गया। और माँ सरस्वती और डॉ० शर्मा के प्रति मालाओं से श्रद्धा व्यक्त की गई। डॉ० राका प्रियंबद्धा ने डा० शर्मा के कर्मठ जीवन का परिचय प्रस्तुत करते हुए, उन्हें प्राप्त अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों तथा उनके विपुल लेखन का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया गया। डा० विपिन सिन्हा ने डा० शर्मा की लोकधर्मी कविताओं पर अपना आलेख पढ़ा। रमेश गौतम ने डा० शर्मा की हिन्दी नवजागरण विषयक अवधारणा का महत्व समझाया। अंग्रेजी के प्रोफेसर डॉ० टी०ए० खान ने, कीटस् के काव्य पर किए गए डॉ० शर्मा के शोध कार्य की चर्चा पर अपना पर्चा अंग्रेजी में पढ़ा। हिन्दी और अग्रेजी की विदुषी प्राचार्य डॉ० सरोज मार्कण्डेय ने (रिटायर्ड) डॉ० शर्मा के बारे में आत्मीय संस्मरण सुनाकर उनकी उदारता की प्रशंसा की।

विचार गोष्ठी के संचालक डॉ० अमीर चन्द वैश्य ने कहा कि डॉ० शर्मा ने भक्तिकालीन कवियों को वर्गीय दृष्टि से देखा परखा है। यह माना कि डॉ० शर्मा ने कुछ पंक्तियों में नारियों की निन्दा की है। और शूद्रों की भी। लेकिन उन्होंने दुराचारी ब्राह्मणों को भी क्षमा नहीं किया है। उत्तर काण्ड में लिखा है कि विप्र निरक्षर होते हैं। लोलुप होत हैं कामी होते हैं दुष्ट होते हैं और दूसरों की औरतों को घर में डाल लेते है। धर्म का धन्धा भी करते हैं। वास्तविकता यह है कि मानस में प्रत्येक मांगलिक अवसर पर नारियों की सुंदरता का और उनके स्वभाव का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है। धनुष भंग होने के बाद तुलसी लिखते है – “सखिन मध्य सिय सोहैं कैसे/छवि-गन मध्य महाछवि जैसे।” और इसके बाद डॉ० वैश्य ने जयपुर से कवि विजेन्द्र द्वारा प्रेषित रामविलास शर्मा विषयक आलेख का वाचन किया। विजेन्द्र ने अपने आलेख में यह बात रेखांकित किया है कि डॉ० शर्मा ने हिन्दी और अग्रेजी के कवियों की आलोचना करते हुए लोकधर्मी प्रतिमानों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। वे चाहते थे कि हिन्दी कविता में किसानों के चित्र आने चाहिए। मजदूरों का जीवन आना चाहिए प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश चित्र रूप में प्रत्यक्ष होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि डॉ० नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान में केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन जैसे लोकधर्मी कवियों की उपेक्षा करके आलोचना का स्तर गिराया। डॉ० शर्मा ने नामवर सिंह को नई कविता का वकील इसीलिए कहा है। वास्तविकता यह है कि कविता के नए प्रतिमान में अमरीकी नई समीक्षा के सिद्धान्तों की भरमार है,  जिनसे हिन्दी की लोकधर्मी कविता कोई सम्बन्ध नहीं है।

इतिहासविद् रंजीत पाचले ने डॉ० शर्मा के इतिहास बोध का समर्थन करते हुए कहा कि उन्होंने जिस आर्य आक्रमण का खण्ड़न किया है वह विगत वर्षों में किए गए प्रामाणिक शोध से सत्य प्रमाणित हुआ है। आर्य भारत के ही निवासी थे। यह सत्य डी एन ए टेस्ट द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। वास्तविकता यह  है कि जिन आर्यो को गौर वर्ण का माना गया उनमें राम और कृष्ण भी शामिल है। लेकिन दोनो ही शामिल है। वास्तविकता यह है कि हमारी जन्मभूमि यही थी, कहीं से हम आए थे नहीं।

और अन्त में धन्यवाद ज्ञापित किया गया रिटायर्ड प्रो० एन एल शर्मा द्वारा उन्होंने रामविलास शर्मा के एक-एक वर्ण की व्याख्या की। रा का मतलब है जनवादी राजनीति जो पूँजीवाद का विरोध करती है। म का अर्थ है देश भाषा और साहित्य एवं संस्कृति के प्रति ममता। वि का मतलब विलक्षण प्रतिभा जो डॉ० शर्मा में थी। ला का मतलब है लावण्य अर्थात् भाषा में भावों एवं विचारों का लावण्य जो डॉ० शर्मा के काव्य और समालोचना साहित्य में लक्षित होता है। स का अर्थ है सर्वसमावेशी प्रतिभा यह भी डॉ० शर्मा की प्रमुख विशेषता है।

प्रस्तुति
डॉ० राका प्रियंवदा
नटराज सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थान,
346 कहरवान, बिहारीपुर
बरेली

मो०- 09259577276

कोरे यथार्थ से नहीं बनती कहानी

                                 

बहुत दिनों बाद आज एक बार फिर ठेठ जनवादी तरीके से जलेस की गोष्ठी का आयोजन एक दिसंबर २०१३ को इलाहाबाद के नया कटरा के समया माई पार्क में किया गया। आयोजन में युवा कहानीकार शिवानन्द मिश्र ने अपनी कहानी ‘लौट आओ भईया’ का पाठ किया। इसके पश्चात् शहर के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी पर अपनी बातें रखीं।

गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि प्रो.  राजेंद्र कुमार ने कहा कि कैसे मान लिया जाए कि कहानी का काम संदेश देना है। कहानी का काम तो इशारा भर करना है कि उधर निगाह चली जाए। रही बात यथार्थ कीए तो कोरे यथार्थ से कहानी नहीं बनती इसके लिए उसमें कल्पना भी होनी चाहिए। वस्तुतः कहानी को एक ऐसे द्वार की तरह होना चाहिए जिससे होकर स्थिति विशेष का अनुभवपाठक तक पहुँचे। शिवानन्द की कहानी का अंत एक द्वंद ले कर आती है। कहानी का शीर्षक रूमानी बोध वाला है और अंत यथार्थपरक। कहानी उस विसंगति की ओर इशारा करती है कि तमाम विकास के बाद भी समाज अभी भी उसी जातिगत जकडन में ठहरा हुआ है जहाँ हम पहले थे।’लौट आओ भइया’ इसी ठहराव को शिद्दत से रेखांकित करती है। यह कहानी गाँव.समाज के उन प्रश्नों पर भी ध्यान आकृष्ट कराती है जिन्हें आज तक हल हो जाना चाहिए था। गाँव.समाज के ऐसे प्रश्न जिन्हें अब तक हल हो जाना चाहिए था, वे दुर्भाग्यवश आज भी हमारे बीच बने हुए हैं। शिवानन्द की कहानी इसी जकड़न की तरफ इशारा कराती है। कहानी का काम न तो कोई समाधान ढूँढना है न ही कोई सन्देश देना, अपितु वह आज के विडंबनाओं की तरफ इशारा कर दे तो यही उसकी सफलता है।

अपनी बात रखते हुए विचारक रामप्यारे राय ने कहा कि यह कहानी जाति व्यवस्था एवं सामंती व्यवस्था पर प्रहार तो करती ही हैए श्रमिक जीवन की पीड़ा और शोषण को भी करीने से व्यक्त करती है। जहां तक नक्सलवाद की बात है इसे समस्या की तरह देखा ही क्यों जाता है। शिवानंद की यह पहली कहानी होने के बावजूद एक पुष्ट एवं सफल कहानी है। 

चर्चित कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इस कथाकार ने छोटे.छोटे प्रसंगों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली है। लेकिन इस कहानी के शीर्षक ‘लौट आओ भइया’ पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि किसी भी रचना का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। इस कहानीकार की सोच और कथन में एक फांक नजर आती है। कहानी में जब पात्र बोलते है तो अवधी और भोजपुरी बोलियों का घालमेल देखने को मिलता है जिससे स्थानीयता को ले कर भ्रम की स्थिति बनती है। कथाकार को इसके प्रति सजग होना होगा। फिर भी इस कथाकार कि सफलता इस बात में है कि उस ने छोटे-छोटे प्रसंगों को भी बखूबी समेटा है।

युवा कवि और अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक अरुण आदित्य के अनुसार यह कहानी ‘लौट आओ भइया’ निम्न.मध्यम वर्ग के सुख.दुख का कोलाज है। यह वैचारिक आग्रहों को तुष्ट करती है। कहानी की भाषा आकर्षक है और इसमें कविता जैसी लय है। इस कहानी में विचार एवं भावनाएं तो हैं लेकिन विषय का बिखराव अधिक है। यह कहानी कुछ नया नहीं कह पाती न ही इसमें शिल्प में ही कोई नयापन दिखायी पड़ता है। नक्सलवादी बन गए पात्र के बारे में भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किन कारणों कि वजह से इस तरफ मुड़ा है। उसका जिक्र आखिर के दो पृष्ठों में आता है और समाप्त हो जाता है। यही नहीं कहानी का शीर्षक भी भ्रामक है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसके लौट आने का आह्वान किया गया है।  शिवानन्द को इस सब पहलुओं की तरफ ध्यान देना होगा।

शहर की वरिष्ठ कथाकार उर्मिला जैन ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ग्रामीण वर्ग की जद्दोजहद का इस कहानी में बेहतर चित्रण किया गया है। कहानी में पात्रों का चरित्र.चित्रण बखूबी किया गया है और इसमें प्रयुक्त देशज शब्दों का इस्तेमाल अनूठा है। शिवानन्द की कहानी में एक चित्रात्मकता भी देखने को मिलती है जो उनकी सफलता मानी जायेगी।

कथाकार नीलम शंकर ने कहा कि यह कहानी आज के विकास योजनाओं की हकीकत और अधूरेपन को व्यक्त करती है। इसके साथ साथ मुझे लगता है कि यह मूलतः विस्थापन की कहानी है। किस तरह गाँव वीरान होते जा रहे हैं और शहर आबाद होते जा रहे हैं यह इस कहानी में स्पष्टतया महसूस किया जा सकता है। कहानी में जगरदेव की चुप्पी मन के बीमार होने को प्रदर्शित करती है ना कि उस की शारीरिक अस्वस्थता को। कहानी लघु व कुटीर उद्योग के क्षरण और विकास योजनाओं के अधूरेपन को भी रेखांकित करती है। खुथ्थी का डर और दर्द का प्रयोग पहली बार देखने को मिलता है।

जन नाट्य मंच के के. के. पाण्डेय ने कहा कि जिस तरह से कहानीकार ने नक्सलवादियों की मीटिंग में बाहरी लोगों के आने का जिक्र करता है वह भ्रामक है। लगता है कि कहानीकार इस तरह की गतिविधियों के बारे में सुनी-सुनाई बातों को अपनी कहानी का आधार बनाया है। वस्तुतः ग्रामीण परिवेश वाली मीटिंग्स में सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं। शायद ही कोई इक्का .दुक्का अपरिचित इन मीटिंग्स में शामिल होता हो।

गोष्ठी के प्रारम्भ में कवि नन्दल हितैषी ने कहा कि कहानी की बुनावट और मंजरकशी अच्छी लगी। कहानी में कुछ आरोपित या प्रत्यारोपित जैसा नहीं लगता।  कहीं.कहीं कुछ वर्णन अधिक होना चाहिए था। फिर भी कहा जा सकता है कि इस  कहानी की खूबी इसकी सहजता और बोधगम्यता है।

महेंद्र राजा जैन ने  कहानी में आई कुछ कुछ भाषागत त्रुटियों की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि ये त्रुटियाँ कहानी को पढ़ते समय अवरोध पैदा करती हैं  हैं जिन्हे दूर कर लिया जाना चाहिए। इससे रचना में एक मजबूती आ जाएगी। प्रगतिशील लेखक संघ के सुरेन्द्र राही ने कहानी के वैचारिक पक्ष पर जोर डालते हुए कहा कि वैचारिकता ही किसी रचना को समृद्ध करती है और यह सुखद है कि शिवानन्द की कहानी में दिखाई पड़ती है।  कहानीकार चंद्रप्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मेरे समझ से इस कहानी का शीर्षक ‘खुत्थी’ ही होनी चाहिए क्योंकि समाज की समस्या खुत्थी ही है जो जब.तब विसंगतियों के रूप में चुभती रहती है। नवोदित रचनाकार  गायत्री सिंह ने कहा कि  कहानी में गाँव का चित्रण बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया है। साथ ही इसमें बाल मनोविज्ञान का चित्रण सहज रूप में किया गया है। कवि दीपेन्द्र सिवाच ने कहा कि कहानी में बच्चियों के साथ बनिये के मोल-भाव को गन्ना किसानों की दशा के साथ जोड़ कर देखे जाने की आवश्यकता है। साथ ही इस कहानी में यथार्थ और व्यवहार का द्वंद भी दिखायी पड़ता है। कवि हीरा लाल ने कहा कि लय को साधने में यह शिवानन्द जी की यह पहली कहानी पूरी तरह से सफल है। कहानी में अनावश्यक कम है और सार्थक बहुत है। युवा आलोचक रमाकान्त राय ने वैचारिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा कि कहानी में खुत्थी का इतना बेहतर प्रयोग मैंने पहली बार देखा है। यह खुत्थी शुरू में लड़कियों को चुभता है और अंत में यही खुत्थी उनकी माँ को चुभता है। यह चुभना स्त्रियों के साथ होता है। यह स्त्री जीवन की विडम्बना को प्रदर्शित करता है ।    

गोष्ठी में शामिल प्रमुख लोगों में अनिल सिद्धार्थ, अरिंदम घोष, संगम लाल और राजन तथा कई अन्य नये रचनाकार भी शामिल थे।

इस गोष्ठी का संचालन एवं संयोजन जनवादी लेखक संघ के सचिव संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया।

भंवरलाल मीणा की रपट

                                                                          (चित्र: पंकज पराशर) 

सुचिंतित दृष्टि और सुगठित गद्य कृति-पुनर्वाचनः नामवर सिंह

(जे एन यू में पुस्तक का लोकार्पण और परिसंवाद)

    (चित्र में बाएं से: लेखक पंकज पराशर, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, नामवर सिंह, रामवक्ष, पंकज विष्ट और शम्भू नाथ तिवारी)   

दिल्ली। गद्य की ऐसी संशलिष्ट और प्रांजल भाषा आज कम देखने में आती है जैसी युवा
आलोचक  पंकज पराशर की पहली आलोचना कृति *पुनर्वाचन* में पढने को मिलती है।
शीर्ष आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने उक्त पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा कि यह
एक सुगठित गद्य कृति है। उन्होंने कहा कि हिंदी में इन दिनों तमाम लोग
पुनर्पाठ शब्द लिख रहे हैं, जो व्याकरणिक रूप से ठीक नहीं है। सही शब्द
है-पुनःपाठ। मुझे लगा कि इस चलन के असर में पंकज ने भी पुनर्पाठ लिखा होगा,
मगर पंकज ने किताब में हर जगह न केवल पुनःपाठ लिखा है बल्कि कई सारे शब्द
हिंदी को दिए हैं. जिसमें कालजयी शब्द के वजन का एक दिलचस्प शब्द इसने लिखा है-
*सालजयी*। ऐसे अनेक शब्द हैं जिसको पंकज अपनी भाषा में पुनर्नवा भी करते हैं।

                          (चित्र में बाएं से: लेखक पंकज पराशर, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, नामवर सिंह, रामवक्ष, पंकज विष्ट)

समारोह के मुख्य अतिथि भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष प्रो रामबक्ष ने इस अवसर
पर कहा कि आमतौर पर लोकार्पण के अवसर पर लोगों को किताब की तारीफ करनी पड़ती
है और मैं सोच रहा था कि पंकज पराशर की किताब यदि कमजोर किताब होगी तो मुझसे
झूठी तारीफ नहीं की जाएगी। इसलिए किताब जब मेरे हाथ में आई तो मैंने सबसे पहले
किताब पढ़ी और तब मेरी जान-में जान आई कि चलो झूठी तारीफ करने से बचे। पंकज ने
कहानियों का वाचन जिस सहृदयता से किया है वह काबिले-तारीफ है। किशोरीलाल
गोस्वामी, बंगमहिला, यशपाल से लेकर बिल्कुल आज लिख रहे अखिलेश और पंकज मित्र
तक कहानी पर लिखकर इन्होंने  एक बड़े कैनवास का चयन करके उसका पाठ बेहद सफलता
से किया है। फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास जुलूस और रामचंद्र शुक्ल की बंगमहिला
को लेकर उन्होंने कुछ ऐसी बातें की हैं जो काफी विचारोत्तेजक हैं और इस आलोचना
में बात होनी चाहिए। 

                                                    (चित्र: शोधार्थी आनंद पाण्डेय अपनी बात रखते हुए) 

आयोजन में विख्यात कथाकार और ‘समयांतर’ के सम्पादक पंकज
बिष्ट ने कहा कि पंकज पराशर ने जिन कहानियों को लेकर विचार किया है उसके चयन
को लेकर लेखक के अपने तर्क हैं, पर जिन कहानियों को इन्होंने चुना है उस पर
विस्तार से विचार किया है। पंकज विष्ट ने फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास जुलूस पर
पर बात करते हुए पंकज पराशर की इस कृति में पाठ आधारित आलोचना की तारीफ तो की,
लेकिन कमलेश्वर के उपन्यास कितने पाकिस्तान को न केवल उपन्यास मानने से इनकार
कर दिया, बल्कि कितने पाकिस्तान को एक निम्नस्तरीय कृति करार दिया। 

                                               (चित्र: युवा आलोचक पल्लव अपने विचार व्यक्त करते हुए)

प्रसिद्द लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने परिसंवाद में कहा कि मैं हिंदी आलोचना का उस
तरह से विद्यार्थी तो नहीं रहा हूं, लेकिन पंकज पराशर की आलोचना की इस पहली
कृति ने मुझे काफी प्रभावित किया। हिंदी की शुरूआती कहानियां जिसमें किशोरीलाल
गोस्वामी और बंगमहिला ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियां बहुत कम लोगों ने देखी
होंगी, इसलिए पंकज के लेखों से न केवल उन कहानियों के बारे में बल्कि उन
कथाकारों के बारे में भी बहुत कुछ पता चलता है। युवा आलोचक एवं अम्बेडकर
विश्वविद्यालय में सह आचार्य *गोपाल प्रधान *ने कहा कि पंकज की पहली आलोचना
कृति पुनर्वाचन में पंकज मित्र की कहानी क्विज़मास्टर के बहाने अपने समय के
बारीक यथार्थ को पकड़ा है। पुनर्वाचन उस अर्थ में पुन: पाठ की किताब नहीं है,
जैसी आजकल लिखी जाती है जिसमें लेखक कृति की पाठ आधारित साहित्यिक आलोचना करता
है। पंकज अपनी इस कृति में साहित्य और कहानी के बहाने साहित्य के दायरे से
निकल कर अपने समय के बड़े सवालों से भी टकराने की कोशिश करते हैं। युवा आलोचक
वैभव सिंह ने कहा कि पंकज पराशर ने विश्व साहित्य की कृतियों और विमर्शों को
ठीक से पढ़ा है और उसे पचाया है-यह उनकी आलोचना की पहली कृति पुनर्वाचन को
पढ़ते हुए समझ में आती है। कोई भी आलोचक साहित्य पर लिखते हुए अपने समय की
समीक्षा करता है और पंकज अपनी इस कृति में दस कहानियों और एक उपन्यास पर बात
करते हुए यह काम करते हैं। 

युवा आलोचक और बनास जन के सम्पादक पल्लव ने पुस्तक
को कथा आलोचना के क्षेत्र में उपलब्धिमूलक बताते हुए कहा कि ऐसे
विस्तृत केनवास पर बहुत कम आलोचना पुस्तकें इधर के दिनों में आई हैं। उन्होंने
कहा कि यह पुस्तक कुछ कालजयी और कुछ नयी कहानियों का जिस ढंग से
विवेचन-विश्लेषण करती है वह सचमुच उल्लेखनीय है। 

                                                            (आयोजन में शामिल श्रोता समुदाय) 

आयोजन में शोधार्थी आनंद पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे। संयोजन कर रहे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सह आचार्य डॉ शम्भुनाथ तिवारी ने पुस्तक का परिचय भी दिया। सभागार में
जे.एन.यू., दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र
एवं शिक्षकगण मौजूद रहे।

                                                                                (चित्र: विमोचित पुस्तक का आवरण)
                                                                                 
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द्वारा बनास जन
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