अपनी बात रखते हुए अनीता भारती |
अर्चना वर्मा वक्तव्य देते हुए |
सवाल पूछती हुई एक प्रतिभागी |
कविता गोष्ठी |
प्रणय कृष्ण |
सुभाषिनी अली |
कार्यशाला के प्रतिभागी |
कामरेड बादल सरोज |
अखबारों में रपट |
प्रतिभागियों की एक सामूहिक तस्वीर |
बजरंग बिहारी |
सम्पर्क –
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
अपनी बात रखते हुए अनीता भारती |
अर्चना वर्मा वक्तव्य देते हुए |
सवाल पूछती हुई एक प्रतिभागी |
कविता गोष्ठी |
प्रणय कृष्ण |
सुभाषिनी अली |
कार्यशाला के प्रतिभागी |
कामरेड बादल सरोज |
अखबारों में रपट |
प्रतिभागियों की एक सामूहिक तस्वीर |
बजरंग बिहारी |
सम्पर्क –
महेश चन्द्र पुनेठा |
सम्पर्क –
ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com
(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें रश्मि के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)
अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की साझा ज़मीन पर एक बहस : जलेस की बांदा कार्यशाला
उद्घाटन सत्र में बोलते हुए कॉमरेड प्रकाश करात |
अपने विचार व्यक्त करते हुए आनन्द तेलतुम्बडे |
सत्र में विचार व्यक्त करते हुए दिलीप चव्हाण |
सत्र में बोलते हुए दूध नाथ सिंह |
सत्र में बोलते हुए राहुल कोसंबी |
अपनी बात रखते हुए विलास सोनवने |
कार्याशला में शामिल प्रतिभागी |
संजीव कुमार |
प्रस्तुति –
संजीव कुमार
मोबाईल – 09818577833
अशोक चन्द्र
मैं अंगरक्षकों को पहनकर
जिंदा नहीं रह सकता
नहीं रह सकता
शत्रु को पहचानो
यह एक शर्त है
कविता सबसे पहले यह प्रश्न उठाती है
अब आदमी की पहचान मिट रही है
शत्रु को पहचानो
रचना आँख है।
सामाजिक कार्यकर्ता कौशल किशोर ने आज के बर्बर समय पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह तंत्र मानवता को कुचल कर रख देना चाहता है। भूमि अधिग्रहण कानून लोगो की अस्मिता को तबाह बर्बाद करके मुट्ठी भर जमात की हितू बनी हुई है। इस समय बदलाव की शक्तियां ही बर्बर समय के खिलाफ लड़ सकती हैं। मानवीय मूल्य की लड़ाई में साहित्य को भी खड़ा होना होगा। विजेंद्र की कविता श्रेष्ठ मानव मूल्य की स्थापना में सहायक जनपक्षके कवि की कवितायें हैं ।
बरेली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विविध संवाद’ का सौंवा अंक हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसे वरिष्ठ समालोचक मधुरेश जी पर केंद्रित किया गया है। इसका सम्पादन किया है हमारे मित्र और लेखक रणजीत पांचाले ने। इसी अंक का विगत 16 नवम्बर को विमोचन और लोकार्पण किया गया। प्रस्तुत है इस विमोचन समारोह की एक रपट।
हिन्दी आलोचना गुटों और गिरोहों में सिमट रही है: मधुरेश
रणजीत पांचाले |
12 अक्टूबर 2014, को नटराज एवं सांस्कृतिक संस्थान, 346 बिहारीपुर कहरवान में संयोजक संजय सक्सेना ने प्रख्यात समालोचक डॉ० रामविलास शर्मा की 102वीं जयन्ती के अवसर पर विचार-गोष्ठी का आयोजन अपने आवास पर किया। इस गोष्ठी की एक रपट पहली बार के लिए हमें भेजा है ने डॉ० राका प्रियंवदा ने। आइए पढ़ते हैं यह रपट।
डॉ रामविलास शर्मा की 102वीं जयन्ती के अवसर पर विचार-गोष्ठी का आयोजन
बरेली, दिनांक 12 अक्टूबर 2014, को नटराज एवं सांस्कृतिक संस्थान, 346 बिहारीपुर कहरवान में संयोजक श्रीयुत संजय सक्सेना ने उपर्युक्त विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन अपने आवास पर किया। खुले आसमान के तले हल्के प्रकाश में। विद्युत के आलोक में।
इस विचार गोष्ठी की अध्यक्षता जाने-माने कथा-समालोचक मधुरेश ने की। अपने सारगर्भित सम्बोधन में मधुरेश जी कहा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद डॉ० रामविलास शर्मा अग्रगण्य समालोचक माने जाते है। वास्तव में उन्होंने आचार्य शुक्ल की आलोचना का विकास करने के लिए हिन्दी साहित्य की समालोचना की। परम्परा का मूल्यांकन किया। वेदों का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक दृष्टि से। साथ-ही-साथ दर्शनशास्त्र का भी। साहित्य की रचना भाषा में होती है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य दस वर्ष भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी नामक महत्वपूर्ण तीन खण्ड़ी ग्रन्थ लिखने में बिताये। उन्होंने अनेक भाषा वैज्ञानिक पुरातन मान्यतएँ अपने शोध से खण्डित कर दी। भाषा विज्ञान के आधार पर उन्होंने सिद्ध किया आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। अनेक भाषाई तत्व से भारत से अन्य देशों में पहुँचे हैं। उन्होने इस मिथक का भी खण्डन किया कि आर्यों ने यहाँ के मूल निवासियों पर आक्रमण किया था। प्रो० मधुरेश ने आगे कहा कि रामविलास जी अपने परिवार और साहित्य दोनो के पुरखों का बहुत आदर करते थे। इसीलिए उन्होंने आलोचना से आदि कवि बाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिशचन्द, प्रेमचन्द, महाकवि निराला, महाकवि प्रसाद, महादेवी वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का सम्यक मूल्यांकन किया। प्रो० मधुरेश ने बताया कि डॉ० शर्मा उपन्यासकारों में पे्रमचन्द को, आलोचकों में आचार्य रामचन्द शुक्ल को और कवियों में महाप्राण निराला को महान् सृष्टा मानते थे। निराला जी से तो बडे आत्मीय सम्बन्ध थे। निराला जी भी डा० शर्मा के बहुत बडे प्रशंसक थे। पी-एच० डी० की उपाधि मिलने से पहले ही निराला जी रामविलास शर्मा को डॉ० कह कर सम्बोधित किया करते थे। उस समय साहित्य जगत् में निराला जी का घनघोर विरोध हो रहा था। विशेष रूप से उनके मुक्त छन्द का। इसीलिए डॉ० शर्मा ने अपने कवि का मूल्यांकन करने के लिए निराला की साहित्य साधना नामक तीन खण्ड़ी ग्रन्थ तल्लीनता से लिखा और सिद्ध किया कि तुलसीदास के बाद हिन्दी के कोई दूसरे महाकवि है तो निराला। प्रो० मधुरेश ने यह भी बताया कि डॉ० शर्मा अन्य मार्क्सवादी आलोचकों से भिन्न थे। क्योंकि उन्होने प्राचीन भारतीय साहित्य को रूढि़वादी समझ कर उपेक्षित समझा। इसके विपरीत डॉ० शर्मा ने कहा कि हमारे देश की परंपरा में जो प्रगतिशील बाते हैं हमे उनकी खोज करनी चाहिए। डॉ० शर्मा के अपने आग्रह थे। आप उन्हें दुरआग्रह भी कह सकते हैं। उन्होने रामचरितमानस में नारियों और शूद्रों की निन्दा की है। तुलसीदास में अनेक अन्तविरोध है। लेकिन डा० शर्मा उन्हें प्रक्षिप्त मानते है। डॉ० शर्मा ने आजीवन सामतीमूल्यों पूँजीवादों समाजों और साम्राज्यवादी दुष्ट नीतियों का पुरजोर विरोध किया। और किसानों और मजदूरों की एकता के लिए हिन्दी जाति की अवधारणा के लिए आजीवन संघर्ष किया।
इससे पूर्व श्रीमती चारू मिश्रा द्वारा सरस्वती वंदना प्रस्तुत की गई। मुख्य अतिथि प्रो० मधुरेश द्वारा द्वीप प्रज्वलित किया गया। और माँ सरस्वती और डॉ० शर्मा के प्रति मालाओं से श्रद्धा व्यक्त की गई। डॉ० राका प्रियंबद्धा ने डा० शर्मा के कर्मठ जीवन का परिचय प्रस्तुत करते हुए, उन्हें प्राप्त अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों तथा उनके विपुल लेखन का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया गया। डा० विपिन सिन्हा ने डा० शर्मा की लोकधर्मी कविताओं पर अपना आलेख पढ़ा। रमेश गौतम ने डा० शर्मा की हिन्दी नवजागरण विषयक अवधारणा का महत्व समझाया। अंग्रेजी के प्रोफेसर डॉ० टी०ए० खान ने, कीटस् के काव्य पर किए गए डॉ० शर्मा के शोध कार्य की चर्चा पर अपना पर्चा अंग्रेजी में पढ़ा। हिन्दी और अग्रेजी की विदुषी प्राचार्य डॉ० सरोज मार्कण्डेय ने (रिटायर्ड) डॉ० शर्मा के बारे में आत्मीय संस्मरण सुनाकर उनकी उदारता की प्रशंसा की।
विचार गोष्ठी के संचालक डॉ० अमीर चन्द वैश्य ने कहा कि डॉ० शर्मा ने भक्तिकालीन कवियों को वर्गीय दृष्टि से देखा परखा है। यह माना कि डॉ० शर्मा ने कुछ पंक्तियों में नारियों की निन्दा की है। और शूद्रों की भी। लेकिन उन्होंने दुराचारी ब्राह्मणों को भी क्षमा नहीं किया है। उत्तर काण्ड में लिखा है कि विप्र निरक्षर होते हैं। लोलुप होत हैं कामी होते हैं दुष्ट होते हैं और दूसरों की औरतों को घर में डाल लेते है। धर्म का धन्धा भी करते हैं। वास्तविकता यह है कि मानस में प्रत्येक मांगलिक अवसर पर नारियों की सुंदरता का और उनके स्वभाव का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है। धनुष भंग होने के बाद तुलसी लिखते है – “सखिन मध्य सिय सोहैं कैसे/छवि-गन मध्य महाछवि जैसे।” और इसके बाद डॉ० वैश्य ने जयपुर से कवि विजेन्द्र द्वारा प्रेषित रामविलास शर्मा विषयक आलेख का वाचन किया। विजेन्द्र ने अपने आलेख में यह बात रेखांकित किया है कि डॉ० शर्मा ने हिन्दी और अग्रेजी के कवियों की आलोचना करते हुए लोकधर्मी प्रतिमानों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। वे चाहते थे कि हिन्दी कविता में किसानों के चित्र आने चाहिए। मजदूरों का जीवन आना चाहिए प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश चित्र रूप में प्रत्यक्ष होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि डॉ० नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान में केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन जैसे लोकधर्मी कवियों की उपेक्षा करके आलोचना का स्तर गिराया। डॉ० शर्मा ने नामवर सिंह को नई कविता का वकील इसीलिए कहा है। वास्तविकता यह है कि कविता के नए प्रतिमान में अमरीकी नई समीक्षा के सिद्धान्तों की भरमार है, जिनसे हिन्दी की लोकधर्मी कविता कोई सम्बन्ध नहीं है।
इतिहासविद् रंजीत पाचले ने डॉ० शर्मा के इतिहास बोध का समर्थन करते हुए कहा कि उन्होंने जिस आर्य आक्रमण का खण्ड़न किया है वह विगत वर्षों में किए गए प्रामाणिक शोध से सत्य प्रमाणित हुआ है। आर्य भारत के ही निवासी थे। यह सत्य डी एन ए टेस्ट द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। वास्तविकता यह है कि जिन आर्यो को गौर वर्ण का माना गया उनमें राम और कृष्ण भी शामिल है। लेकिन दोनो ही शामिल है। वास्तविकता यह है कि हमारी जन्मभूमि यही थी, कहीं से हम आए थे नहीं।
और अन्त में धन्यवाद ज्ञापित किया गया रिटायर्ड प्रो० एन एल शर्मा द्वारा उन्होंने रामविलास शर्मा के एक-एक वर्ण की व्याख्या की। रा का मतलब है जनवादी राजनीति जो पूँजीवाद का विरोध करती है। म का अर्थ है देश भाषा और साहित्य एवं संस्कृति के प्रति ममता। वि का मतलब विलक्षण प्रतिभा जो डॉ० शर्मा में थी। ला का मतलब है लावण्य अर्थात् भाषा में भावों एवं विचारों का लावण्य जो डॉ० शर्मा के काव्य और समालोचना साहित्य में लक्षित होता है। स का अर्थ है सर्वसमावेशी प्रतिभा यह भी डॉ० शर्मा की प्रमुख विशेषता है।
प्रस्तुति
डॉ० राका प्रियंवदा
नटराज सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थान,
346 कहरवान, बिहारीपुर
बरेली
मो०- 09259577276
बहुत दिनों बाद आज एक बार फिर ठेठ जनवादी तरीके से जलेस की गोष्ठी का आयोजन एक दिसंबर २०१३ को इलाहाबाद के नया कटरा के समया माई पार्क में किया गया। आयोजन में युवा कहानीकार शिवानन्द मिश्र ने अपनी कहानी ‘लौट आओ भईया’ का पाठ किया। इसके पश्चात् शहर के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी पर अपनी बातें रखीं।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि कैसे मान लिया जाए कि कहानी का काम संदेश देना है। कहानी का काम तो इशारा भर करना है कि उधर निगाह चली जाए। रही बात यथार्थ कीए तो कोरे यथार्थ से कहानी नहीं बनती इसके लिए उसमें कल्पना भी होनी चाहिए। वस्तुतः कहानी को एक ऐसे द्वार की तरह होना चाहिए जिससे होकर स्थिति विशेष का अनुभवपाठक तक पहुँचे। शिवानन्द की कहानी का अंत एक द्वंद ले कर आती है। कहानी का शीर्षक रूमानी बोध वाला है और अंत यथार्थपरक। कहानी उस विसंगति की ओर इशारा करती है कि तमाम विकास के बाद भी समाज अभी भी उसी जातिगत जकडन में ठहरा हुआ है जहाँ हम पहले थे।’लौट आओ भइया’ इसी ठहराव को शिद्दत से रेखांकित करती है। यह कहानी गाँव.समाज के उन प्रश्नों पर भी ध्यान आकृष्ट कराती है जिन्हें आज तक हल हो जाना चाहिए था। गाँव.समाज के ऐसे प्रश्न जिन्हें अब तक हल हो जाना चाहिए था, वे दुर्भाग्यवश आज भी हमारे बीच बने हुए हैं। शिवानन्द की कहानी इसी जकड़न की तरफ इशारा कराती है। कहानी का काम न तो कोई समाधान ढूँढना है न ही कोई सन्देश देना, अपितु वह आज के विडंबनाओं की तरफ इशारा कर दे तो यही उसकी सफलता है।
अपनी बात रखते हुए विचारक रामप्यारे राय ने कहा कि यह कहानी जाति व्यवस्था एवं सामंती व्यवस्था पर प्रहार तो करती ही हैए श्रमिक जीवन की पीड़ा और शोषण को भी करीने से व्यक्त करती है। जहां तक नक्सलवाद की बात है इसे समस्या की तरह देखा ही क्यों जाता है। शिवानंद की यह पहली कहानी होने के बावजूद एक पुष्ट एवं सफल कहानी है।
चर्चित कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इस कथाकार ने छोटे.छोटे प्रसंगों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली है। लेकिन इस कहानी के शीर्षक ‘लौट आओ भइया’ पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि किसी भी रचना का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण होता है और यह अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। इस कहानीकार की सोच और कथन में एक फांक नजर आती है। कहानी में जब पात्र बोलते है तो अवधी और भोजपुरी बोलियों का घालमेल देखने को मिलता है जिससे स्थानीयता को ले कर भ्रम की स्थिति बनती है। कथाकार को इसके प्रति सजग होना होगा। फिर भी इस कथाकार कि सफलता इस बात में है कि उस ने छोटे-छोटे प्रसंगों को भी बखूबी समेटा है।
युवा कवि और अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक अरुण आदित्य के अनुसार यह कहानी ‘लौट आओ भइया’ निम्न.मध्यम वर्ग के सुख.दुख का कोलाज है। यह वैचारिक आग्रहों को तुष्ट करती है। कहानी की भाषा आकर्षक है और इसमें कविता जैसी लय है। इस कहानी में विचार एवं भावनाएं तो हैं लेकिन विषय का बिखराव अधिक है। यह कहानी कुछ नया नहीं कह पाती न ही इसमें शिल्प में ही कोई नयापन दिखायी पड़ता है। नक्सलवादी बन गए पात्र के बारे में भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किन कारणों कि वजह से इस तरफ मुड़ा है। उसका जिक्र आखिर के दो पृष्ठों में आता है और समाप्त हो जाता है। यही नहीं कहानी का शीर्षक भी भ्रामक है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसके लौट आने का आह्वान किया गया है। शिवानन्द को इस सब पहलुओं की तरफ ध्यान देना होगा।
शहर की वरिष्ठ कथाकार उर्मिला जैन ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ग्रामीण वर्ग की जद्दोजहद का इस कहानी में बेहतर चित्रण किया गया है। कहानी में पात्रों का चरित्र.चित्रण बखूबी किया गया है और इसमें प्रयुक्त देशज शब्दों का इस्तेमाल अनूठा है। शिवानन्द की कहानी में एक चित्रात्मकता भी देखने को मिलती है जो उनकी सफलता मानी जायेगी।
कथाकार नीलम शंकर ने कहा कि यह कहानी आज के विकास योजनाओं की हकीकत और अधूरेपन को व्यक्त करती है। इसके साथ साथ मुझे लगता है कि यह मूलतः विस्थापन की कहानी है। किस तरह गाँव वीरान होते जा रहे हैं और शहर आबाद होते जा रहे हैं यह इस कहानी में स्पष्टतया महसूस किया जा सकता है। कहानी में जगरदेव की चुप्पी मन के बीमार होने को प्रदर्शित करती है ना कि उस की शारीरिक अस्वस्थता को। कहानी लघु व कुटीर उद्योग के क्षरण और विकास योजनाओं के अधूरेपन को भी रेखांकित करती है। खुथ्थी का डर और दर्द का प्रयोग पहली बार देखने को मिलता है।
जन नाट्य मंच के के. के. पाण्डेय ने कहा कि जिस तरह से कहानीकार ने नक्सलवादियों की मीटिंग में बाहरी लोगों के आने का जिक्र करता है वह भ्रामक है। लगता है कि कहानीकार इस तरह की गतिविधियों के बारे में सुनी-सुनाई बातों को अपनी कहानी का आधार बनाया है। वस्तुतः ग्रामीण परिवेश वाली मीटिंग्स में सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं। शायद ही कोई इक्का .दुक्का अपरिचित इन मीटिंग्स में शामिल होता हो।
गोष्ठी के प्रारम्भ में कवि नन्दल हितैषी ने कहा कि कहानी की बुनावट और मंजरकशी अच्छी लगी। कहानी में कुछ आरोपित या प्रत्यारोपित जैसा नहीं लगता। कहीं.कहीं कुछ वर्णन अधिक होना चाहिए था। फिर भी कहा जा सकता है कि इस कहानी की खूबी इसकी सहजता और बोधगम्यता है।
महेंद्र राजा जैन ने कहानी में आई कुछ कुछ भाषागत त्रुटियों की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि ये त्रुटियाँ कहानी को पढ़ते समय अवरोध पैदा करती हैं हैं जिन्हे दूर कर लिया जाना चाहिए। इससे रचना में एक मजबूती आ जाएगी। प्रगतिशील लेखक संघ के सुरेन्द्र राही ने कहानी के वैचारिक पक्ष पर जोर डालते हुए कहा कि वैचारिकता ही किसी रचना को समृद्ध करती है और यह सुखद है कि शिवानन्द की कहानी में दिखाई पड़ती है। कहानीकार चंद्रप्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मेरे समझ से इस कहानी का शीर्षक ‘खुत्थी’ ही होनी चाहिए क्योंकि समाज की समस्या खुत्थी ही है जो जब.तब विसंगतियों के रूप में चुभती रहती है। नवोदित रचनाकार गायत्री सिंह ने कहा कि कहानी में गाँव का चित्रण बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया है। साथ ही इसमें बाल मनोविज्ञान का चित्रण सहज रूप में किया गया है। कवि दीपेन्द्र सिवाच ने कहा कि कहानी में बच्चियों के साथ बनिये के मोल-भाव को गन्ना किसानों की दशा के साथ जोड़ कर देखे जाने की आवश्यकता है। साथ ही इस कहानी में यथार्थ और व्यवहार का द्वंद भी दिखायी पड़ता है। कवि हीरा लाल ने कहा कि लय को साधने में यह शिवानन्द जी की यह पहली कहानी पूरी तरह से सफल है। कहानी में अनावश्यक कम है और सार्थक बहुत है। युवा आलोचक रमाकान्त राय ने वैचारिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा कि कहानी में खुत्थी का इतना बेहतर प्रयोग मैंने पहली बार देखा है। यह खुत्थी शुरू में लड़कियों को चुभता है और अंत में यही खुत्थी उनकी माँ को चुभता है। यह चुभना स्त्रियों के साथ होता है। यह स्त्री जीवन की विडम्बना को प्रदर्शित करता है ।
गोष्ठी में शामिल प्रमुख लोगों में अनिल सिद्धार्थ, अरिंदम घोष, संगम लाल और राजन तथा कई अन्य नये रचनाकार भी शामिल थे।
इस गोष्ठी का संचालन एवं संयोजन जनवादी लेखक संघ के सचिव संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया।
(चित्र: पंकज पराशर)
सुचिंतित दृष्टि और सुगठित गद्य कृति-पुनर्वाचनः नामवर सिंह
(जे एन यू में पुस्तक का लोकार्पण और परिसंवाद)
(चित्र में बाएं से: लेखक पंकज पराशर, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, नामवर सिंह, रामवक्ष, पंकज विष्ट और शम्भू नाथ तिवारी)
दिल्ली। गद्य की ऐसी संशलिष्ट और प्रांजल भाषा आज कम देखने में आती है जैसी युवा
आलोचक पंकज पराशर की पहली आलोचना कृति *पुनर्वाचन* में पढने को मिलती है।
शीर्ष आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने उक्त पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा कि यह
एक सुगठित गद्य कृति है। उन्होंने कहा कि हिंदी में इन दिनों तमाम लोग
पुनर्पाठ शब्द लिख रहे हैं, जो व्याकरणिक रूप से ठीक नहीं है। सही शब्द
है-पुनःपाठ। मुझे लगा कि इस चलन के असर में पंकज ने भी पुनर्पाठ लिखा होगा,
मगर पंकज ने किताब में हर जगह न केवल पुनःपाठ लिखा है बल्कि कई सारे शब्द
हिंदी को दिए हैं. जिसमें कालजयी शब्द के वजन का एक दिलचस्प शब्द इसने लिखा है-
*सालजयी*। ऐसे अनेक शब्द हैं जिसको पंकज अपनी भाषा में पुनर्नवा भी करते हैं।
(चित्र में बाएं से: लेखक पंकज पराशर, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल, नामवर सिंह, रामवक्ष, पंकज विष्ट)
समारोह के मुख्य अतिथि भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष प्रो रामबक्ष ने इस अवसर
पर कहा कि आमतौर पर लोकार्पण के अवसर पर लोगों को किताब की तारीफ करनी पड़ती
है और मैं सोच रहा था कि पंकज पराशर की किताब यदि कमजोर किताब होगी तो मुझसे
झूठी तारीफ नहीं की जाएगी। इसलिए किताब जब मेरे हाथ में आई तो मैंने सबसे पहले
किताब पढ़ी और तब मेरी जान-में जान आई कि चलो झूठी तारीफ करने से बचे। पंकज ने
कहानियों का वाचन जिस सहृदयता से किया है वह काबिले-तारीफ है। किशोरीलाल
गोस्वामी, बंगमहिला, यशपाल से लेकर बिल्कुल आज लिख रहे अखिलेश और पंकज मित्र
तक कहानी पर लिखकर इन्होंने एक बड़े कैनवास का चयन करके उसका पाठ बेहद सफलता
से किया है। फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास जुलूस और रामचंद्र शुक्ल की बंगमहिला
को लेकर उन्होंने कुछ ऐसी बातें की हैं जो काफी विचारोत्तेजक हैं और इस आलोचना
में बात होनी चाहिए।
(चित्र: शोधार्थी आनंद पाण्डेय अपनी बात रखते हुए)
आयोजन में विख्यात कथाकार और ‘समयांतर’ के सम्पादक पंकज
बिष्ट ने कहा कि पंकज पराशर ने जिन कहानियों को लेकर विचार किया है उसके चयन
को लेकर लेखक के अपने तर्क हैं, पर जिन कहानियों को इन्होंने चुना है उस पर
विस्तार से विचार किया है। पंकज विष्ट ने फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास जुलूस पर
पर बात करते हुए पंकज पराशर की इस कृति में पाठ आधारित आलोचना की तारीफ तो की,
लेकिन कमलेश्वर के उपन्यास कितने पाकिस्तान को न केवल उपन्यास मानने से इनकार
कर दिया, बल्कि कितने पाकिस्तान को एक निम्नस्तरीय कृति करार दिया।
(चित्र: युवा आलोचक पल्लव अपने विचार व्यक्त करते हुए)
प्रसिद्द लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने परिसंवाद में कहा कि मैं हिंदी आलोचना का उस
तरह से विद्यार्थी तो नहीं रहा हूं, लेकिन पंकज पराशर की आलोचना की इस पहली
कृति ने मुझे काफी प्रभावित किया। हिंदी की शुरूआती कहानियां जिसमें किशोरीलाल
गोस्वामी और बंगमहिला ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियां बहुत कम लोगों ने देखी
होंगी, इसलिए पंकज के लेखों से न केवल उन कहानियों के बारे में बल्कि उन
कथाकारों के बारे में भी बहुत कुछ पता चलता है। युवा आलोचक एवं अम्बेडकर
विश्वविद्यालय में सह आचार्य *गोपाल प्रधान *ने कहा कि पंकज की पहली आलोचना
कृति पुनर्वाचन में पंकज मित्र की कहानी क्विज़मास्टर के बहाने अपने समय के
बारीक यथार्थ को पकड़ा है। पुनर्वाचन उस अर्थ में पुन: पाठ की किताब नहीं है,
जैसी आजकल लिखी जाती है जिसमें लेखक कृति की पाठ आधारित साहित्यिक आलोचना करता
है। पंकज अपनी इस कृति में साहित्य और कहानी के बहाने साहित्य के दायरे से
निकल कर अपने समय के बड़े सवालों से भी टकराने की कोशिश करते हैं। युवा आलोचक
वैभव सिंह ने कहा कि पंकज पराशर ने विश्व साहित्य की कृतियों और विमर्शों को
ठीक से पढ़ा है और उसे पचाया है-यह उनकी आलोचना की पहली कृति पुनर्वाचन को
पढ़ते हुए समझ में आती है। कोई भी आलोचक साहित्य पर लिखते हुए अपने समय की
समीक्षा करता है और पंकज अपनी इस कृति में दस कहानियों और एक उपन्यास पर बात
करते हुए यह काम करते हैं।
युवा आलोचक और बनास जन के सम्पादक पल्लव ने पुस्तक
को कथा आलोचना के क्षेत्र में उपलब्धिमूलक बताते हुए कहा कि ऐसे
विस्तृत केनवास पर बहुत कम आलोचना पुस्तकें इधर के दिनों में आई हैं। उन्होंने
कहा कि यह पुस्तक कुछ कालजयी और कुछ नयी कहानियों का जिस ढंग से
विवेचन-विश्लेषण करती है वह सचमुच उल्लेखनीय है।
(आयोजन में शामिल श्रोता समुदाय)
आयोजन में शोधार्थी आनंद पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे। संयोजन कर रहे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सह आचार्य डॉ शम्भुनाथ तिवारी ने पुस्तक का परिचय भी दिया। सभागार में
जे.एन.यू., दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र
एवं शिक्षकगण मौजूद रहे।
(चित्र: विमोचित पुस्तक का आवरण)
संपर्क
भंवर लाल मीणा
द्वारा बनास जन
फ्लेट न. 393 डी.डी.ए.
ब्लाक सी एंड डी, कनिष्क अपार्टमेन्ट