रचनाकार मार्कण्डेय
रचना का सन्दर्भ समाज से होता है या कह सकते हैं कि हर रचना समाज सापेक्ष होती है . रचना की उपादेयता तभी संभव है जब वह समाज की संरचना को सही दिशा दे. साहित्य के माध्यम से रचनाकार इसी सामाजिक संरचना को एक दिशा देता है. मार्कण्डेय ऐसे ही कहानीकार हैं जिन्होंने समाज की नब्ज को पकड़ने की कोशिश ही नहीं की अपितु उसे एक नया आयाम भी दिया.
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के बराई गांव में २ मई १९३० को जन्मे मार्कण्डेय का साहित्यिक अवदान उनके जीवन काल में साथ रहा और १८ मार्च २०१० को इसका पटाक्षेप हुआ. यह साहित्य के एक महत्वपूर्ण पक्ष का अवसान है, मार्कण्डेय ने भारत के ग्रामीण जीवन को जिस सजीवता के साथ प्रस्तुत किया और अपने परिवेशीय दृष्टि एवं आतंरिक अनुभव के पक्ष को कहानी की कला में एक सजीव दृष्टि देने का कार्य किया वह साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषता है. लेखकीय रचनात्मकता का गुण है कि वह रचना के अंतःकरण को छानबीन के रूप में प्रस्तुत करे. रचना की गहराई समाज के विभिन्न पक्षों को सामने रखने से स्पष्ट होती है, वह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों का सही आकलन होता है. मार्कण्डेय का साहित्यिक जीवन कहानियों तक ही सीमित नहीं रहा अपितु यह उपन्यास, कविता और एकांकी जैसे विषयों को भी छूता है. आलोचना का पक्ष इनकी रचनात्मक प्रतिभा को और भी सशक्त रूप में सामने लाती है. नई कहानी आन्दोलन में प्रमुख कहानीकार के रूप में इनकी पहचान ग्रामीण समाज के यथार्थ कहानीकार के रूप में है.
मार्कण्डेय ने ‘मानव’ को केन्द्रीय भूमिका में रख कर उसे विजेता के रूप में प्रकट किया है. ‘प्रलय और मनुष्य’ जैसी कहानी में इसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है जहाँ जीवन से लड़ने की जिजीविषा हर स्तर पर व्यक्ति के द्वारा ही संभव है.
‘नौ सौ रूपये और ऊँट दाना’ कहानी के माध्यम से मार्कण्डेय ने भारत के स्वातन्त्र्योत्तर राजनीतिक स्थिति में व्यंग्य का यह रूप दिया है – “राजनेता तो गान्ही महतमा के साथ चली गयी बच्चन ! विचार नाहीं रहा अब, अऊर बिना विचार की नेति कहाँ? देखा न… “अब काम धंधा सबसे बेबिचारी आ गयी. जो कुछ आग-पानी हिरदय में रहा, वह बुझाय गया. हमका छोड़ा, नेता लोगों को देखा उनका भी वही हाल. जिस कुरसी पर बैठ गए बस वह उनकी हो गयी. अब तो कुरसी की नेति है. गान्ही महतमा का कुल काम – धाम धरा रह गया.” यह राजनीतिक चेतना की परख थी जो आज के समय में भी प्रासंगिक है.
सामाजिक प्रतिबद्धता से युक्त रचनाकार देश समाज से तटस्थ नहीं रहता बल्कि वह उस समाज की तमाम तरह की स्थितियों का भुक्तभोगी भी होता है . आम आदमी के प्रश्नों के उत्तर की खोज में मार्कण्डेय की रचनात्मक प्रतिभा का योगदान आज की पीढ़ी के नए कहानीकारों के लिए एक नई बहस को जन्म देता हैं. मार्कण्डेय की कहानी के पात्र लोक संस्कृति का हिस्सा हैं जिसे रचना के द्वारा जीवंत किया गया है. लोक जीवन की तमाम तरह की विशेषताओं को साहित्य के बरक्स समझने का प्रयास किया गया है. समय के साथ बदलते परिवेश के रूप में ‘पक्षाघात’, ‘तारों का गुच्छा’ से लेकर ‘प्रिया सैनी’ तक की कहानियों के स्वरुप को समझना जरूरी होगा. मार्कण्डेय की कहानियां किसी बंधे बंधाए फ्रेम में न होकर समय सन्दर्भ की वास्तविकता के नजदीक नजर आती है. ऐसे में स्वाभाविक है कि कहानियों में एकरूपता न होकर भिन्नता दिखाई देती है. देवी शंकर अवस्थी का मानना है कि- “कथाकृति की दूरी समझ या व्याख्या के लिए उस जीवन की गहरी की माप आवश्यक है जहाँ से लेखक की कलादृष्टि (और इसीलिये नैतिक दृष्टि भी) उदित होती है.” ऐसे में मार्कण्डेय की कलादृष्टि के सहारे ही उनकी रचनात्मक दृष्टि को समझने की कोशिश करनी चाहिए. समग्र रूप में मार्कण्डेय भारत की अस्मिता की आंतरिक तस्वीर को अपनी लेखनी रूपी तूलिका से रंगने वाले ग्रामीण चित्रकार हैं जिनके चित्र की वीथी दिखावे से दूर है..
(राकेश कुमार उपाध्याय दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘अमरकांत और मार्कंडेय की कहानियों में सामाजिक संरचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोधरत हैं .)
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