वसुधा डालमिया का आलेख ‘औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटन : हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान; अनुवाद -संजीव कुमार


वसुधा डालमिया

आज अलग अर्थों में ‘राष्ट्रवाद’ और ‘हिन्दू’ शब्द बड़ी चर्चा में है। इस पहचान को एक कट्टरवादी तबका इन दिनों अपनी संकीर्णता में व्याख्यायित करने की कोशिशें कर रहा है। यह जाने बगैर कि राष्ट्रवाद की अवधारणा बिलकुल आधुनिक यूरोपीय अवधारणा है। और हिन्दू शब्द भी उन अर्थों में प्रयुक्त तो नहीं ही किया गया है जिन अर्थों में आज उसे समेटने की कोशिशें की जा रही हैं। प्रख्यात लेखिका वसुधा डालमिया ने अपनी किताब के एक अध्याय में भारतेंदु के बलिया व्याख्यान के सन्दर्भ में ‘हिन्दू’ शब्द और उससे सम्बंधित सन्दर्भों को अलग तरह से समझने की कोशिश किया है। यह अनुवाद ‘हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण : भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का भारत’ नाम से राजकमल प्रकाशन से शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। युवा आलोचकों में संजीव कुमार अपने सुचिंतित विचार और प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। संजीव ने आलोचना के साथ-साथ अनुवाद में भी बेहतर काम किया है। इधर संजीव ने वसुधा डालमिया की उपर्युक्त किताब का अनुवाद किया है। ‘पाखी’ के अप्रैल २०१६ अंक में इस आलेख का एक हिस्सा प्रकाशित किया गया है। हम यहाँ पर इस आलेख को उसके मूल रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइये पढ़ते हैं यह आलेख ‘औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटन : हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान।
          
औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटनः हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान
वसुधा डालमिया
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : संजीव कुमार)
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती हैः भारतेन्दु का नज़रिया
नवम्बर 1884 में, नवगठित आर्य देशोपकारिणी सभा ने बलिया संस्थान के साथ मिल कर उत्तर-पूर्व बनारस के एक ज़िला नगर बलिया में वार्षिक दादरी मेले के अवसर पर संयुक्त रूप से एक बैठक आयोजित की। उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों  की प्रमुख साहित्यिक शख़्सियत के तौर पर भारतेन्दु इस जमावड़े को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किये गये। इस मौक़े पर नगर के रईस और जाने-माने लोग मौजूद थे और इसकी सदारत ब्रिटिश कलक्टर डी. टी. रॉबर्ट्स ने की थी, जो भारतेन्दु के आने की ख़बर सुन कर इस अवसर की गरिमा बढ़ाने को राज़ी हुए थे। भाषण का शीर्षक था – ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’; यहाँ उन्नति शब्द का इस्तेमाल प्रगतिके साथ-साथ सुधारके अर्थ में भी किया गया था। खुद भारतेन्दु ने एक पक्ष पर दूसरे को वरीयता देते हुए इसका अनुवाद सुधारकिया था।[i] यहाँ परवर्ती उन्नीसवीं सदी का एक केन्द्रीय सरोकार दिखलाई पड़ता है। वह सरोकार था, स्वयं परम्परा के नाम पर परम्परा का शुद्धीकरण या सुधार। उस समय इससे अधिक प्रासंगिक कोई और मुद्दा हो ही नहीं सकता था। कुछ दिनों बाद जब इस भाषण का प्रकाशन हुआ तो इसे उचित ही ललित, गंभीर और समयोपयोगी बताया गया।
कुछ समय से आलोचनात्मक अध्ययन का विषय बनने वाले इस भाषण पर पुनर्विचार करते हुए मैं उन सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों को चिह्नित करने की आशा रखती हूँ जिनमें भारतेन्दु ने अपनी रचनात्मक ऊर्जाओं को झोंका। साथ ही, इस अवसर को उनके कार्यों के आलोचनात्मक मूल्यांकन का एक सर्वेक्षण पेश करना चाहती हूँ, ताकि मौजूदा अध्ययन के प्राविधिक नज़रियों और सरोकारों में दाखि़ल हुआ जा सके।
भारतेन्दु ने अपनी प्रपत्तियों को स्पष्ट करने के इरादे से, मोटे तौर पर, दो बड़े विषय-गुच्छों का विवेचन किया। प्रथमतः, प्रगति को लेकर विचार किया, जहाँ यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि शासक वर्गों से क्या उम्मीद की जा सकती थी। शासक वर्ग का मतलब था, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार और उसके एजेंट, यानी देसी नरेश। इस बाबत नज़रिया स्पष्टतः उन नये बनते हुए मध्यम वर्गों वाला था जो अपने-आपको राष्ट्र का प्रवक्ता मानते थे। चूंकि कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व संभव नहीं था, इसलिए सिर्फ़ सूचना-संपन्न जन-मत ही समाज के इस तबके की अनौपचारिक राजनीतिक सुनवाई को संभव कर सकता था। इसके बाद, भारतेन्दु ने अवश्यंभावी रूप से राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल को उठाते हुए देश के हित में एकजुट होकर काम करने की बात की। इस सवाल के ज़रिये देश के मुसलमानों के साथ हिन्दुओं – धार्मिक अभिधान वाले अर्थ में – के रिश्तों पर भी राय ज़ाहिर की। एतद्द्वारा यह स्पष्ट करना ज़रूरी था कि हिन्दुस्तानीके व्यापक अर्थ में हिन्दू होने के क्या मायने थे।
अभिवादन के चंद लफ़्ज़ों और कलक्टर के सम्मान में कहे गये कुछ शब्दों के बाद भारतेन्दु ने सीधा विषय में गोंता लगाया। उन्होंने हिंदुस्तानियों की तुलना ट्रेन के डिब्बों से की, जिन्हें गति देने के लिए एक इंजन की ज़रूरत थी। अगर कोई इस कठिन कार्य को अंजाम देने वाला हो, तो कोई चीज़ न थी जो वे हासिल नहीं कर सकते थे। लेकिन इसे अंजाम देने वाला था कौन? या तो हिन्दुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब और रईस या फिर हाक़िम, यानी राज्य के ऊँचे अधिकारी। राजाओं और रईसों को फुर्सत न थी, क्योंकि वे पूजा की रस्मों में, खान-पान में और झूठी गप्पों में व्यस्त थे। औपनिवेशिक अधिकारीगण कुछ तो वाजिब तौर पर अपने प्रशासनिक कार्य में उलझे हुए थे और कुछ अपने बॉल, थियेटर, घुड़सवारी और अख़बारों में। अगर उनके पास थोड़ा समय बच भी जाता, तो उन्हें क्या पड़ी थी कि वे हम ग़रीब गंदे काले आदमियों के बीच समय गुज़ारते। यहाँ सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं, नस्ली दूरी भी थी। इस तरह बदलाव ऊपर से आना नामुमकिन था।
तो फिर ज्ञान के प्रसार के लिए और समयानुकूल अपेक्षित बदलाव लाने के लिए कौन ज़िम्मेदार था? भारतेन्दु यह सुझाव दे रहे थे कि मौजूदा समय में खुद जनता ही इसकी ज़िम्मेदारी ले। पुराने ज़माने में, जब आर्य हिन्दुस्तान में आ कर बसे थे, तब ज्ञान और नीति का प्रसार करना राजाओं और ब्राह्मणों की ज़िम्मेदारी थी। भारतेन्दु के अनुसार, यह आज भी हो सकता था, लेकिन यही लोग थे जो निकम्मेपन के जाल में सबसे बुरी तरह उलझे हुए थे। अंग्रेज़ों की कृपा से और सामान्यतः संसार की उन्नति के चलते कितना सारा तकनीकी ज्ञान सुलभ हो गया था। बावजूद इसके देश की जनता, जिसने पुराने ज़माने में अपने आदिम औज़ारों के साथ आश्चर्यजनक खोजें की थीं, अब चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी से ज़्यादा कुछ न थी। मौजूदा दौर में उन्नति के लिए एक घुड़दौड़ चल रही थी, और जापानियों को छोड़ भी दें तो अमेरिकी, अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी इस घुड़दौड़ में आगे रहने का पूरा जुगाड़ लगाये हुए थे। यह ऐसा समय नहीं था जब पीछे छूटना किसी भी तरह गवारा हो।
यह शिकायत कि ख़ाली पेट इन चीज़ों के बारे में कैसे सोचें, अंततः क़ायल करने वाली न थी।
इंग्लैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटे को साफ़ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मज़दूरे, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी भी देश में सभी पेट भरे हुए नहीं होते। किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते बोते हैं, वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी और कौन नई कल या मसाला बनावैं जिसमें इस खेती में आगे से दूना अन्न उपजै। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अख़बार पढ़ते हैं। जब मालिक उतर कर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गाड़ी के नीचे से अख़बार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पीएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ  के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छांटते हैं …।
तब फिर, जनता को ही खुद को सूचना-संपन्न बनाना और अपनी भलाई के बारे में सोचना था। उन्हें आलोचनात्मक तरीके से राज्य की कार्यवाहियों का लेखा-जोखा करना था। इस तरह भारतेन्दु यहाँ सूचना-संपन्न जन-मत की बात कर रहे थे, जिसके द्वारा ही राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव हो सकते थे। कारण, चारों तरफ़ दरिद्रता की आग लगी हुई थी। मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट ने दिखला दिया था कि आबादी के लगातार बढ़ने के साथ-साथ धन-संपदा लगातार घटती जा रही थी। किसी उपाय के लिए राजा-महाराजाओं या पंडितों का मुंह जोहने का कोई फ़ायदा न था। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। दौड़ो,  इस घुड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है।… अबकी जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुंचोगे। इशारा आर्थिक और राजनीतिक प्रगति की ओर था।
मौक़ा चूकने (अब की जो पीछे पड़े) के मुद्दे ने ऐसे साहचर्यों का आह्वान किया जो उतने ही विलक्षण थे जितने कि कारगर। भारतेन्दु ने मसलों को एक साहित्यिक उपाख्यान से जोड़ा। यह उपाख्यान एक ऐसी घटना का हवाला देता था जिसके बारे में यह मान्यता थी कि उसने हिन्दू -भारतीय इतिहास की धारा को मोड़ दिया था। उत्तर भारत के आखि़री महान हिन्दू राजा के रूप में मान्य पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि, चंदबरदाई, जेम्स टॉड के ‘अनाल्स एंड ऐन्टिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान’ में बहुत ऊपर स्थान पाने के बाद से, किसी हिन्दू  दरबार के आखि़री महानतम चारण कवि माने जाते रहे थे, जिनके वीरगाथात्मक महाकाव्य पृथ्वीराज रासो से आधुनिक हिन्दी साहित्य की शुरुआत मानी जाती थी। भारतेन्दु ने चंद के उस दोहे को उद्धृत किया जो उन्होंने खुद का और अपने स्वामी का सर क़लम किये जाने से पहले अपने अंधे, बंदी स्वामी के सामने पढ़ा थाः
अब की चढ़ी कमान को जानै फिर कब चढ़ै
जिनि चुक्कै चौहान हक्कै मारय इक्क सर।।…….. 
     
सरमें श्लेष था। इसके दो अर्थ थे, ‘तीरऔर मस्तक। बंदी राजा को तीरंदाज़ के रूप में अपने कौशल का प्रदर्शन करने के लिए कहा गया था। चारण कवि ने उनका आह्वान किया कि वे लक्ष्य भेदने के बजाय बंदी बनाने वाले बादशाह के सिर को भेद डालें। हालांकि वह प्रतीकात्मक भंगिमा ही थी, क्योंकि उससे अपना राजपाट वापस पाया नहीं जा सकता था, लेकिन अब के दौर में इन शब्दों को सामने रखने का आभासी अर्थ हिन्दू इतिहास को वहाँ से उठाना था जहाँ से वह पीछे छूट गया था, बल्कि काट दिया गया था। ग़ौर करने लायक है कि जब भारतेन्दु ने हर जाति के, सभी इलाक़ों और परिस्थितियों में रहने वाले भारतीय अवाम का आह्वान किया कि वे देश की उन्नति के लिए कार्य करें, तो उन्होंने हिन्दुस्तान का नाम न लेकर सिर्फ़ भारतवर्ष का नाम लिया।
भारतेन्दु के अनुसार, आसन्न कार्यभार था जनता की बदहाली के कारणों को चिह्नित करना। जो लोग धर्म या प्रचलन की आड़ में या अपने सुख की आड़ में जा छिपे थे, उन चोरों को वहाँ से पकड़ कर लाना और बांध कर कैद करना था। प्रगति की राह रोकने वाली सभी चीज़ों को निर्ममतापूर्वक उखाड़ फेंकना था, चाहे उसके चलते लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, क्रिस्तान कहें या भ्रष्ट कहें। जब तक सौ-दो सौ लोग बदनाम न हों, जात बाहर न किये जाएं, यहाँ  तक कि मारे न जाएं, तब तक देश-दशा में सुधार नहीं होना था। संक्षेप में, भारतेन्दु साफ़-साफ़ यह कह रहे थे कि उन्नति के हक़ में कुछ निश्चित सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन ज़रूरी था। इस तरह वे सामाजिक प्रगति की धारणा का आग़ाज़ कर रहे थे।
उन्नति, प्रगति और सुधार से क्या अभिप्रेत था? क्या स्वीकार्य था और क्या कुछ था जिसे छोड़ दिया जाना था? यहाँ अनकहे तौर पर परम्पराकी अवधारणा मौजूद थी, एक ऐसा शब्द जिसे भारतेन्दु इस भाषण में तो इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन उनकी कृतियों में अन्यत्र जिसकी केन्द्रीय  उपस्थिति देखी जा सकती है। जो कुछ दाय के रूप में हासिल हुआ है, उसमें से सारभूत अंश के तौर पर महफ़ूज़ रखने लायक क्या है और क्या है जिसे फ़ालतू मान कर ख़ारिज किया जाना चाहिए। ग़ौरतलब है कि भारतेन्दु ने यहाँ सुधार और प्रगति में अंतर किया है। वह ऐसे कि उन्होंने सुधार का निरूपण उसे प्रगति में अंतर्भुक्त मानते हुए नहीं किया, बल्कि अलग से किया। 
भारतेन्दु के अनुसार, ‘सब उन्नतियों का मूल धर्म है। देश के राजनीतिक कल्याण को धार्मिक मामलों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अंग्रेज़ों ने जो ज़बर्दस्त उन्नति की है, वह इसलिए कि उनकी धर्मनीति और राजनीति मिली हुई हैं। निस्संदेह, भारत के लिए भी इसी की ज़रूरत है। लेकिन यह तभी संभव है जब धर्म के कुछ पक्षों में बदलाव किया जाए। भारतेन्दु ने धर्म शब्द का इस्तेमाल उसके आधुनिक अर्थ में किया, यानी ईश्वर मीमांसा, आस्थाओं के सिद्धांत के अर्थ में, लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, इस शब्द में न्यायसंगतया उपयुक्त आचारका अर्थ भी अंतर्भुक्त था। अलबत्ता, उन्होंने दोनों के बीच फ़र्क़ भी किया, ताकि धर्म को अलग से रिलीजनके अर्थ में बरता जा सके, क्योंकि वास्तविक धर्म तो परमेश्वर के चरण-कमलों का भजन हैऔर इसे, स्पष्टतः, अक्षुण्ण रहने दिया जाना चाहिए। जहाँ तक शेष का सवाल है, सभी रीति-रिवाजों में अपना कोई छुपा हुआ मक़सद है, जो कि सामाजिक, घरेलू या शुचिता संबंधी हो सकता है। लेकिन पुराने ऋषि-मुनियों ने धर्मनीति और समाजनीति को मिला दिया था। उन ऋषि-मुनियों के वारिसों ने शास्त्रों में नये नियम और विधान भर दिये। अब यह हम पर है कि हम इन दो तरह की नियमावलियों में फ़र्क़ करें, क्योंकि समाज-धर्म देश-काल के साथ सुधारे और बदले जा सकते हैं। सामाजिक नियम उस रूप में क्यों बनाये गये थे, यह समझना और फिर सिर्फ़ उन तत्वों को अंगीकार करना जो देशकाल की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं, यह हमारा काम है। लिहाज़ा विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा, विदेश-यात्रा, इन सबकी इजाज़त मिलनी चाहिए। इस तरह, भारतेन्दु ने जिस रूप में उन्नति शब्द का इस्तेमाल किया, उसमें, निस्संदेह, सुधार का आशय सबल रूप में मौजूद था और यह शब्द सामाजिक आचार में समयानुकूल बदलाव की ओर संकेत कर रहा था।
मत-मतांतर को प्रगति की राह में नहीं आना था। मतको यहाँ  सम्प्रदाय के अर्थ में इस्तेमाल किया गया।[ii] यह समय दुश्मनियां निभाने का न था। वैष्णव, शाक्त और दूसरे मुख़्तलिफ़ मतों के लोगों को अपने भेद-भावों को दफ़्न करना था। एक बार विभिन्न हिन्दू मत एक हो जाएं, उसके बाद हिन्दुओं , जैनों और मुसलमानों को भी उसी तरह एकताबद्ध होना था। जातिगत ऊंच-नीच के अंतर को भुलाना था। इस चरण में मुस्लिम भाइयों के लिए यह उचित था कि अब जब कि वे हिन्दुस्तान में बस गये थे, हिन्दुओं को नीची निगाहों के देखना बंद करें और भाई की तरह उनसे बरताव करें। मुसलमानों को ऐसा कुछ भी करने से अपने को रोकना था जो उनके हिन्दू  बिरादरों को कष्ट पहुंचाए। ऐसी चीज़ें जो हिन्दुओं के लिए संभव नहीं थीं, मुसलमानों को अपने धर्म की वजह से आसानी से हासिल थीं। उनके यहाँ कोई जाति न थी, खान-पान के छुआछूत का कोई नियम नहीं था, न ही विदेश-यात्रा को लेकर प्रतिबंध थे। यह दुख का विषय था कि इन सारी सहूलियतों के बावजूद मुसलमान लोग अपने हालात में कोई वास्तविक बेहतरी नहीं ला पाये। कई अभी भी यही मानते थे कि उनके बादशाह दिल्ली और लखनऊ में राज कर रहे हैं। लेकिन वे दिन बीत चुके थे। मुसलमानों को भी हिन्दुओं के साथ कंधे में कंधा मिला कर ही इस दौड़ में शामिल होना था।
लेकिन हिन्दू लोग और कुछ हों, आपस में एकताबद्ध तो नहीं ही थे। इसीलिए यह आह्वान ज़रूरी था कि हिन्दू बिरादर अपने विश्वासों के भेद-भाव पर बल देना बंद करें। इस महामंत्र का जाप किया जाना था कि जो हिन्दुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू। यह भी याद रखना अहम था कि वह हिन्दू था जिसकी मदद की जानी थी, चाहे वह साथ में बंगाली, मराठा, मद्रासी, वैदिक, ब्राह्मो या मुसलमान भी हो; हर किसी को दूसरे की ओर अपना हाथ बढ़ाना था। इस तरह देशभक्ति के अपने जोश में भारतेन्दु न सिर्फ़ हिन्दुओं की मुख़्तलिफ़ इलाक़ाई विविधताओं (बंगाली, मराठा, मद्रासी) को और स्मार्त (वैदिक) तथा अपेक्षाकृत नये मूर्तिभंजकों (ब्राह्मो) जैसी भिन्न मान्यता वाली निष्ठाओं को एक साथ लाने की हद तक गये, बल्कि मुल्क के बाशिंदों के रूप में मुसलमान भी उसी लपेटे में शामिल कर लिये गये। आत्म का निरूपण करने की अनेक विधियां, जो कि उस दौर की लाक्षणिकता है, यहाँ  हिन्दूमें अंतर्भुक्त की जा रही थीं। कारण यह कि प्रसंग देश की आर्थिक तरक़्क़ी का थाः
कारीगरी जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़ै, तुम्हारा रूपया तुम्हारे ही देश में रहै, वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली हैं, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैंड, फरार्सीस, जर्मनी, अमेरीका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरीका की बनी है। जिस लंकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फरासीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने बल रही है।……………..
आर्थिक और राजनीतिक तरक़्क़ी सामाजिक सुधार से जुड़ी थी, जिसमें सामाजिक आचार के उन तत्वों का सुधार भी शामिल था जिन्हें ग़लती से धर्म का सारभूत अंग मान लिया गया था। सामाजिक तत्वों को धार्मिक से अलग करके ही पूरा मुल्क तरक़्क़ी कर सकता था। विदेशी वस्तुओं और भाषाओं पर भरोसा नहीं करना था। अपने देश में अपनी भाषा को ही फलने-फूलने देना था। हालांकि भारतेन्दु ने यहाँ किसी ख़ास भाषा का नाम नहीं लिया, लेकिन वे निश्चय ही हिन्दी की ओर इशारा कर रहे थे। हिन्दी का सवाल एक ऐसा मर्कज़ी मुद्दा था जिसे वे बार-बार अपने लेखन में उठाते थे।
इस तरह बलिया का भाषण अपने समय के राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों के प्रति, सूचनासंपन्न जन-मत और हिन्दू /भारतीय राष्ट्रीय पहचान के प्रति भारतेन्दु के सरोकार को बहुत साफ़-साफ़ सामने लाता है। भाषा, साहित्य, धर्म, इलाक़ाई निष्ठा – सभी हिन्दू  होने के ही विभिन्न पहलू थे। जो लोग परम्परा  को परिभाषित करने के संघर्ष में लगे हुए थे, उनके लिए ये अवधारणाएं एक लड़ी में पिरोयी हुई थीं – यह बात भारतेन्दु के साथी लेखक और पत्रकार प्रताप नारायण मिश्र (1856-94) के शब्दों में सबसे साफ़गोई के साथ व्यक्त हुई है। जब उन्होंने साधनों और आश्रयदाताओं की कमी के चलते बहुत दुख के साथ अपनी पत्रिका ‘ब्राह्मण’ को बंद किया, तब उस मक़सद को रेखांकित किया जिसके लिए वे काम कर रहे थे, ताकि दूसरे लोग उस काम को जारी रख सकें। विदाई पर कहे जाने वाले उनके विषादपूर्ण शब्द थेः
चहहु जु सांचहु निज कल्यान। तौ सब मिली भारत संतान।।
जपौ निरंतर एक जबान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ।।1।।
रीझै अथवा खिझै जहान। मान होय चाहे अपमान।।
पै न तजो रटिबे की बान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ।।2।।
जिन्हें नहीं निजता को ज्ञान। वे जन जीवन मृतक समान।।
याते गहु यह मंत्र महान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ।।3।।
भाषा भोजन भेष विधान। तजै न अपनी सोइ मतिमान।।
बसि समझौ सौभाग प्रमान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।।4।।
एक स्वदेशी सांस्कृतिक पहचान की स्थापना और उसका निर्वाह, वह चाहे खाने के मामले में हो, चाहे कपड़े या भाषा के मामले में, उस समय का ज्वलंत मुद्दा था। हिन्दी हिन्दुओं  की भाषा थी, और यह एक ऐसी अवधारणा थी जिसे उसके पुराने इलाक़ाई जुड़ावों से जुदा नहीं किया जा सकता था जब हिंदवी, हिंदुई या हिन्दी, देश की, यानी हिन्दुस्तान की भाषा के लिए इस्तेमाल होने वाले पद थे। इसके बावजूद ये तीनों – हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तानी – उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में जिस रूप में प्रस्तुत किये जाने वाले थे, उस रूप में, प्राचीनता के अपने तमाम दावों के बीच भी, तीसरे मुहावरे द्वारा ढाले गये सिक्कों से अलग कुछ नहीं थे।
इससे पहले कि मैं भारतेन्दु की कृतियों के आलोचनात्मक अभिग्रहण का मूल्यांकन शुरू करूं, उस व्यापक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे का निरूपण ज़रूरी है जिसके भीतर यह विचार-विमर्श चल रहा था।
औपनिवेशिक सरकार और जन-मत का निर्माण
अंग्रेज़ों के साथ संबंध पहले-पहल अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारियों के रवैये के द्वारा तय हुआ। यहाँ नस्ली नकचढ़ेपन की समस्या बहुत वास्तविक रूप में सामने आती थी। यह विलक्षण बात है कि भारतेन्दु ने कलक्टर डी. टी. रॉबर्ट्स की मौजूदगी में इन भावनाओं का इज़हार करने से खुद को रोका नहीं। सदी की साठ और सत्तर की दहाई में आरंभिक राष्ट्रवादी आकांक्षाएं अंग्रेज़ों के उस रवैये के विरोध में एक साफ़ रुख़ अख़्तियार कर रही थीं जो सदी की तीसरी चौथाई में बहुत ज़ाहिरा तौर पर पहले से ज़्यादा सख़्त हो चला था। ग़दर-पूर्व के उदारवाद की जगह उस पितृसत्तावाद ने ले ली थी जो किसानी तबके के साथ सदी की पहली चौथाई की दक़ियानूस-रूमानी आसक्ति को पसंद नहीं करता था। वह मध्यवर्ग को शिक्षित करने की उदारवादी आकांक्षा को भी पसंद नहीं करता था, उसी मध्यवर्ग को जिसे पहले वह कुछ हद तक सत्ता में साझीदार बनाने को तैयार था। तीस के दशक की सुधारवादी भावना ने 1857 के बाद सख़्त और नंगी नस्लवादी रंगत अख़्तियार कर ली। फ़िट्ज़्जेम्स स्टीफ़ेन की बात यहाँ  उद्धृत की जा सकती है, जो मात्र ढाई सालों के लिए वायसराय की काउंसिल के लॉ मेम्बर रहे, लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के ब्रिटिश भारत में जिनकी उपस्थिति बहुत अहम थी। स्टीफ़ेन के शब्दों में, ग़दर के नतीजे के तौर पर पुरानी व्यवस्था बिखर गयी; क़ानूनी, सैन्य और प्रशासनिक चीज़ों के बारे में एशियाई और यूरोपीय नज़रियों के बीच एक नामुमकिन समझौता कराने की कोशिशों को तिलांजलि दे दी गयी। संविधि-संग्रह (क़ानून की क़िताब) पर ग़दर का असर बहुत साफ़ दिखता है।[iii]  इसके परिणामस्वरूप साठ और शुरुआती सत्तर के दशक में कठोर कानून बने।
देश के प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया गया, भू-राजस्व व्यवस्था की अच्छी तरह मरम्मत की गयी जिससे संशोधित बंदोबस्त अधिकांश प्रान्तों  में प्रभावित हुए। इसके अलावा, टेलीग्राफ़ और रेलवे ने नियंत्रण और एकता की अभूतपूर्व असरअंदाज़ी मुहैया करायी। सांख्यिकीय सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए एक केन्द्रीय सचिवालय स्थापित किया गया। इसी जगह से 1872 की पहली मर्दुमशुमारी के लिए दिशा-निर्देश मिला था। डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर की देख-रेख में हुए इस काम से ही इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ को निकल कर आना था।
यह मान्यता बहुत मज़बूत जड़ें जमा चुकी थी कि सभी तरह की तरक़्क़ी अंग्रेज़ों द्वारा क़ायम की गयी कानून और व्यवस्था के चलते संभव हो पायी है, चाहे वह वाणिज्य के क्षेत्र में दिखने वाली तरक़्क़ी हो, चाहे शहरों, सड़कों और रेल की बढ़ोत्तरी में, या शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और एक नये शिक्षित वर्ग के अभ्युदय में। यह एक ऐसा सबक था जिसे रटंत विद्या की तरह शुरुआती राष्ट्रवादियों ने भी दुहराया। रेलवे, शिक्षा, क़ानून और व्यवस्था की स्थापना के लिए अंग्रेज़ों के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए तो उन्होंने इसे दुहराया ही, उस समय भी दुहराया जब वे थोड़ा ज़्यादा कुछ मांगने, यानी सरकार में भागीदारी मांगने की ओर बढ़े। लेकिन अंग्रेजों  के उदारवाद ने स्व-शासन में अपना विश्वास व्यक्त नहीं किया। 1874 में उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों  के लेफ़्टिनेंट गवर्नर और 1876 में वायसराय की काउंसिल के वित-सदस्य, सर जॉन स्ट्रैचे के सदय किंतु संरक्षकीय सख़्ती से भरे शब्दों में, नस्ली फ़र्क़ों की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। अंग्रेज़ मुट्ठी भर थे और इस मुल्क पर उन्हें अपनी सत्ता बनाए रखनी थी, न सिर्फ़ अपने हित में, बल्कि सार्वभौमिक स्तर पर अराजकता और विनाश को रोकने के लिए भी। तब उनके लिए असली सत्ता को अपने हाथों में रखने के अलावा किसी और विकल्प पर विचार करने का कोई सवाल ही नहीं था। देसी लोगों को केवल उपयुक्त स्तर पर प्रशासन में अधिकतम संभव हिस्सेदारी दी जा सकती थीः
…लेकिन इस इरादे को ले  कर हमारे भीतर कोई आडम्बर नहीं होना चाहिए कि हम उन कार्यकारी पदों को – और उनकी संख्या ज़्यादा नहीं है – अपने लोगों के हाथों में रखेंगे, जिन पर, तथा हमारी राजनीतिक और सामरिक शक्ति पर, इस देश के ऊपर हमारी पकड़ निर्भर है। प्रान्तों के हमारे गवर्नर, हमारी सेना के मुख्य अधिकारी, ज़िलों के मजिस्ट्रेट और उनके अधीनस्थ प्रधान कार्यकारी कर्मचारी हर अनुमानित परिस्थिति में अंग्रेज़ होने चाहिए।[iv]  
ऐसे में देश पर शासन कर रहे ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों से किसी तरह की राजनीतिक रुझान की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। वे देश के सामाजिक और धार्मिक ढांचे के बाहर खड़े थे। उनके, गुहा (1989; 274) के शब्दों में, ‘चरम बाहरीपनने व्यवस्था में धंसे हुए उन लोगों के वाजिब प्राधिकार को प्रतिबंधित कर दिया जो उसके भीतर से किसी बदलाव की शुरुआत कर सकते थे। भारतेन्दु के अनुसार, अंग्रेज़ अपने मुल्क में जिस तरह की सरकार चला रहे थे, उसके लिए उनकी तारीफ़ हो सकती थी; उन्होंने जो तकनीकी तरक़्क़ी की और नये विज्ञानों में उनकी जो दक्षता थी, उस सबके लिए उनकी तारीफ़ हो सकती थी। लेकिन जहाँ तक हिन्दुस्तान में उनकी मौजूदगी का सवाल था, इस बात में किसी तरह की दुविधा की गुंजाइश बहुत कम थी; इस मुल्क के साथ उनका बरताव स्पष्टतः वणिक और शोषक प्रकृति का था। पर, इस मुक़ाम पर, अंग्रेज़ी राज से पूरी तरह छुटकारा पाने की बात कल्पनातीत थी। ज़्यादा अहम था इस बात को समझना कि यह क्योंकर संभव हो पाया था, कि क्यों हम, भारतीय लोग, ग़ुलाम थे और वे राजा (हम गुलाम ये भूप’), जैसा कि भारतेन्दु ने एक दूसरे मौक़े पर ज़ोर दे कर कहा था। ज़्यादा अहम था[v] सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से, उन हालात के भीतर ही सही, अपनी चीज़ों पर क़ायम रहना।[vi] 
देसी राजाओं के प्रति अंग्रेज़ों के रवैये में अपनी तरह का दुचित्तापन था। बतौर वायसराय (1876-80) लॉर्ड लिटन ने, ब्रिटिश राज के लिए सक्रिय समर्थन जुटाने की अपनी कोशिश में, एक अनुदारवादी के तौर पर भारतीय नरेशों को क्राउन के साथ व्यक्तिगत राजभक्ति के बंधन में बांधने का प्रयास किया। यह उसकी सुचिंतित राय थी कि जनता अपने स्वाभाविक शासकों, देसी राजाओं की ही सुनेगी। परंतु देसी राजाओं के प्रति आधिकारिक ब्रिटिश रवैये में एक निश्चित अंतर्विरोध बना रहा। महारानी के 8 नवम्बर 1858 के ऐलान में एक ओर यह कहा गया था कि उनके अधिकार, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा’, साथ ही, अपनी रियासत की सीमाओं के भीतर उनके नियंत्रण का सम्मान किया जायेगा, लेकिन दूसरी ओर महारानी हमारी भारतीय सीमाओं में रहने वाले बाशिंदों के प्रति उसी दायित्व बोध से बंधी थीं जो हमें हमारी दूसरी प्रजाओं के साथ बांधे हुए है। उनकी समस्त भारतीय प्रजा को क़ानून का समान और पक्षपातविहीन संरक्षणहासिल होना था और इस क़ानून के निर्धारण तथा अमल में भारत के प्राचीन अधिकारों, प्रचलनों और रिवाजों को समुचित सम्मानदिया जाना था।[vii] जैसा कि बर्नार्ड कोह्न ने बताया है, यह वक्तव्य शासन के दो भिन्न, यहाँ तक कि अंतर्विरोधी, सिद्धांतों को अपने अंदर समेटे थाः एक वह जो हिन्दुस्तान को एक सामंती व्यवस्था के रूप में क़ायम रखना चाहता था, और दूसरा वह जो न्याय के मामले में समतावाद का वायदा करता था जो कि इस सामंती व्यवस्था के ख़ात्मे का ही सबब बनता। इसी समतावाद का पालन करने के लिए भारतीय प्रेस लगातार शोर मचा रहा था।
इस तरह स्थानीय नरेशों के संबंध में जन-मत का, जैसा कि वह देशी प्रेस में व्यक्त हो रहा था, अंग्रेज़ों के साथ उनके गंठजोड़ के प्रति तीव्र जागरूकता के साथ जुड़ाव था। वे अंग्रेज़ों के द्वारा संरक्षित थे, किसी भी रूप में जनता के प्रति सीधे-सीधे जवाबदेह नहीं थे, और इसीलिए चरम भोग-विलास में लिप्त रह सकते थे। उनके नेतृत्व को स्पष्टतः एक स्वांग के रूप में ही देखा जा सकता था। अलबत्ता, जब किसी अवसर पर ब्रिटिश प्रेस उन पर हमले करता था, तब देशी प्रेस उनकी हिफ़ाज़त के लिए भी सामने आता था।
अगर ऊपर से कोई नेतृत्व न था, तो परिवर्तन का वाहक कौन बनता? स्थानीय नरेशों के अलावा देशी मतके दूसरे संभावित राजनीतिक प्रतिनिधि, शिक्षित मध्य वर्ग, को लिटन ने बाबूओं के रूप में चिह्नित किया था, जो देशी प्रेस में अर्द्ध-राजद्रोही लेखलिखने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे, ‘और जो खुद अपनी स्थिति की सामाजिक विसंगति से अलग किसी और चीज़ को प्रस्तुत नहीं करतेथे।[viii]  हालांकि इस मध्य वर्ग को कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल न था, पर संघटित होने की प्रक्रिया में फंसा हुआ यह मध्य वर्ग ही था जिसे एक सार्वजनिक वृत्त क़ायम करना था। उस सार्वजनिक वृत्त में ही इसका राजनीतिक मत खुद को तैयार और प्रस्तुत कर सकता था। इसी मध्य वर्ग को अब परम्परा के संघटन की, साथ ही साथ, न्यायोचित बदलाव की ज़िम्मेदारी लेने के लिए सामने आना था। लेकिन इसके धर्म को – हमारे प्रसंग में, इसके हिन्दूपनको – जो अस्मिता का अंकन करने वाली एक अनिवार्य शै के रूप में उभर रहा था, राष्ट्र की नव-विकसनशील अवधारणा के रिश्ते में अभी परिभाषित होना बाक़ी था।
हिन्दू समुदाय किस तरह संघटित हो रहा था? स्पष्टतः, समाजनीति समय-समय पर बदलती रही थी, और अनाज से भूसी को अलग करने की ज़रूरत थी। यह अनाज क्या था और असली धर्म को बनाने वाली चीज़ क्या थी? आधुनिक हिन्दू  धर्म को बनाने में जो बहुतेरी चीज़ें शामिल थीं, उन्हें जमाने के लिए साझा ज़मीन का प्रबंध होना अभी भी बाक़ी था। इस मक़सद के लिए अपनायी जाने वाली रणनीतियां क्या हो सकती थीं? ब्राह्मो और आर्य समाज जैसे नये मूर्तिभंजकों से भिन्न, भारतेन्दु ने किसी भी चरण में यह नहीं माना कि परम्परा में कभी कोई क्रमभंग हुआ था, पर चूंकि हिन्दू परम्परा को समकालीन शक़्ल हासिल करनी थी, इसलिए इसकी रूपरेखा का अभी अंकन होना बाक़ी था। इसलिए समुदाय और परम्परा, दोनों को एक बार फिर, नये सिरे से ढाला जा रहा था। और इन दोनों ने पश्चिमी विचार और संस्थाओं के साथ तथा ईसाइयत के साथ होने वाली लेन-देन में ही खुद को व्यक्त तथा परिभाषित किया, भले ही उसमें स्वदेशी तत्वों पर कितना भी ज़ोर दिया गया हो, क्योंकि, जैसा कि भारतेन्दु ने रेखांकित किया था, देश और काल ही अंततः यह तय करता है कि कौन-सी चीज़ मुनासिब है।
ये सवाल उस देशी प्रेस के भीतर बहस-मुबाहिसों के बीच हल होने वाले थे, जो जन-मत का प्रधान मंच बनने जा रहा था। भारतेन्दु की दो पत्रिकाओं, कविवचनसुधा’ और ‘हरिश्चंद्रचंद्रिका’, ने इस प्रक्रिया में बहुत बड़ा योगदान किया, मुद्दों को चिह्नित करके। जैसे कि खुद जन-मत को इन्होंने मुद्दा बनाया; उस मध्य वर्ग के संघटन को मुद्दा बनाया, जो कि अब तक खुद को परिभाषित न कर पाने वाला एक बेडौल गठन था, लेकिन जिसने अय्याश देशी नरेशों और घमंडी औपनिवेशिक अफ़सरशाही, दोनों से अपने अलगाव की बहुत साफ़ तौर पर निशानदेही की।[ix]
भारतेंदु हरिश्चन्द्र
 
हिन्दू और मुसलमान, हिन्दुस्तान और भारतवर्ष
भारतेन्दु के भाषण को उस विराट् उद्यम का हिस्सा मानना चाहिए जिसे हम आज भारतीय राष्ट्र को परिभाषा देने के प्रयास के रूप में पहचान सकते हैं। जैसा कि ज्ञान पांडे ने रेखांकित किया है, उपमहाद्वीप के आकार और वैविध्य के मद्देनज़र, अभिजन राजनीतिक दायरों में भारतीय राष्ट्र की कल्पना, उसकी निर्मिति के शुरुआती चरण में, कई मुख़्तलिफ़ समुदायों के एक मिले-जुले निकाय के तौर पर की गयी, जिनमें से हरेक का अपना इतिहास और अपनी संस्कृति थी। ये हिन्दुओं , मुसलमानों, ईसाइयों, सिक्खों, पारसियों के समुदाय थे (1990; 209-10)। दरअसल, मामला इससे कहीं ज़्यादा जटिल था। अगर राष्ट्र अलग-अलग समुदायों के संग्रह के रूप में कल्पित हो रहा था, तो खुद ये समुदाय, जो स्वयं एकरूप नहीं थे, आपस में सटने और दूसरों के सामने एक संयुक्त मोर्चा पेश करने के प्रयास में लगे हुए थे। मामला इस वजह से और जटिल हो जाता है कि हिन्दू’, अपने विविध अर्थों में, राजनीतिक और सांस्कृतिक जगह पर प्रभुत्व और दख़ल क़ायम करने लगा था, पर इसका इस्तेमाल कई मायनों में हो रहा था। इसे समझने के लिए इस लफ़्ज़ की भिन्न-भिन्न प्रयुक्तियों को सुलझाना होगा, जो उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में किसी हद तक आपस में मिल-उलझ गयी थीं और जो आज भी भ्रम पैदा करती हैं।
अव्वल ये कि ईस्ट इंडिया कंपनी के समय तक भी हिन्दूएक ऐसा पद था जो फ़ारसी या तुर्की वग़ैरह के बरखि़लाफ़ देसी भारतीयों का हवाला देता था; हिन्दू शब्द हिन्दुस्तान के सभी बाशिदों के लिए इस्तेमाल हो सकता था। लिहाज़ा हिंदवी, हिंदुई या हिन्दी भी ऐसे पद थे जो हिन्दुओं  द्वारा बोली जाने वाली भाषा के लिए प्रयुक्त पद के रूप में इस्तेमाल हो सकते थे। हिन्दुस्तान  शब्द मुख़्तलिफ़ दौरों में अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल होता रहा था।[x] अल-बरूनी ने इसे जिस मुल्क के एक भाग का संकेत करने वाला पद समझा था, वह पूरा मुल्क उसकी निगाह में भारतवर्षनाम से अभिहित होता था। बाद की प्रयुक्ति में, यह पूरे उपमहाद्वीप से लेकर विन्ध्य के उत्तर में स्थित भूभाग तक, किसी भी चीज़ का द्योतन कर सकता था। कभी-कभी यह उपमहाद्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित देशों को भी शामिल कर लेता था, लेकिन अकबर तक आते-आते, मुग़ल साम्राज्य के चरमोत्कर्ष के दिनों में, यह उस राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई का समानार्थी समझा जाने लगा जो कि अकबर का साम्राज्य था। अंग्रेज़ आए, तो उन्होंने इसे कभी उपहाद्वीप के लिए इस्तेमाल किया, कभी दकन के उत्तर वाले भूभाग के लिए। लेकिन, 1820 तक एक संकीर्ण परिभाषा भी वजूद में आ चुकी थी, जैसा कि विलियम हैमिल्टन ने अपनी कृति ‘ए ज्योग्रेफ़िकल, स्टैटिस्टिकल ऐंड हिस्टॉरिकल डेस्क्रिप्शन ऑफ़ हिंदोस्तान’ में नोट किया था:
आधुनिक समय में यूरोपीय भूगोलविदों द्वारा हिन्दुस्तान की सीमाएं प्रायः हिन्दू धर्म की सीमाओं के साथ सहवर्ती के तौर पर मानी जाती रही हैं। इस चित्रण को… यह लाभ भी हासिल है कि यह तीनतरफ़ा शक्तिशाली प्राकृतिक अवरोधों द्वारा पूरी तरह से सुनिर्धारित है…।[xi]
इस तरह हिन्दुस्तान धार्मिक और इलाक़ाई, दोनों रूपों में सुपरिभाषित हो गया था। क्या जो हिन्दू धर्म को मानते थे, उन्हें विशेष (इलाक़ाई) सहूलियतें मिली हुई थीं? इस भूमि की ग़ैर-हिन्दू  आबादी के हुक़ूक और सहूलियतें क्या होनी चाहिए थीं?
हिन्दूकी दूसरी प्रयुक्ति, जिसमें यह निकट अंतस्संबंध वाली विविध आस्थाओं के लिए दिया गया एक धार्मिक अभिधान था, दिल्ली सल्तनत के एकदम शुरुआती ऐतिहासिक वृत्तांतों के समय से व्यवहार में थी। इसका प्रयोग ग़ैर-इस्लामी धर्मों के सभी अनुयायियों को एक साथ निर्दिष्ट करने के लिए होता थी। जैसा कि रोमिला थापर ने बताया है, हिन्दू  समुदाय के प्रत्यय की जड़ों को ग़ैर-इस्लामी स्रोतों में पंद्रहवीं सदी से पहले नहीं ढूंढ़ा जा सकता। यही वह समय था जब लोग अपना उल्लेख हिन्दू के तौर पर करने लगे (1989; 224)। हालांकि यह तुर्कके बरखि़लाफ़ प्रचलन में आया, जो कि उस समय मुसलमानों के लिए सामान्यतः इस्तेमाल होने वाला शब्द था, पर उस समय किसी उपमहाद्वीपीय हिन्दू समुदाय की कोई धारणा नहीं थी, और इतना ही नहीं, किसी स्पष्टतया धर्मशास्त्रीय आयाम के बनिस्पत इस पद का दायरा सामाजिक-राजनीतिक अधिक था।[xii] इसी धर्मशास्त्रीय आयाम को उपमहाद्वीप के धर्म की पश्चिमी समझ के नतीजे के तौर पर स्थापित होना था।[xiii]ईसाई मिशनरियों ने, और ब्रिटिश इतिहास लेखन ने भी, हिन्दुओं और मुसलमानों को बिल्कुल अलहदा मानते हुए उनमें फ़र्क़ किया। उनकी निग़ाह में ये दो ऐसे जुदा लोग थे, जिनके पास न सिर्फ़ अपना-अपना विशिष्ट धर्म था (जिन्हें मिशनरियों और ब्रिटिश इतिहासकारों ने एकाश्मक ही माना), बल्कि पृथक इतिहास भी थे। अगर ब्रिटिश राज के शुरुआती दौर में मुग़ल इतिहास को ही इस देश का इतिहास समझा जाता था, तो एक भारोपीय भाषा के रूप में संस्कृत की प्राच्यवादी खोज और नतीजतन प्राचीन हिन्दू अतीत के गौरव के प्रति पैदा हुए उत्साह के परिणामस्वरूप[xiv] न सिर्फ़ अंग्रेज़ों की ऐतिहासिक दिलचस्पी मुस्लिम भारत से हिन्दू भारत की ओर स्थानांतरित हुई, बल्कि इसके बाद से भारत की पहचान हिन्दू भारत के रूप में ही होने लगी।[xv] हिन्दू सभ्यता के पतन का मुख्य कारण भारत पर मुसलमानों के क़ब्ज़े को माना गया। जेम्स मिल की ‘हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया’ (1817) ने भारतीय इतिहास के हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश युगों के रूप में किये गये विभाजन पर अंतिम मुहर लगा दी और इसके बाद से भारतीय इतिहास को इसी विभाजन में देखा जाने लगा। हालांकि भारतीय इतिहास का यह विराट युग-विभाजन मुख्यतः राजनीतिक आधार पर किया गया था, पर भारत के आरंभिक ब्रिटिश इतिहास लेखन ने यह मान लिया कि भारत में अरबों और तुर्कों के आने के साथ शासकों और शासितों, यानी बिल्कुल पृथक और सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से अपने-आप में सजातीय समूहों के रूप में देखे जाने वाले मुसलमानों और हिन्दुओं, के बीच एक अंतर किया जा सकता है। यह मान्यता आने वाली शताब्दियों में वैध बनी रही और इसे एक असंदिग्ध तथ्य की तरह ग्रहण किया गया कि पूरे मुस्लिमदौर में दो पृथक सामाजिक वजूदों की मौजूदगी बनी हुई थी। लेकिन यह मान लेना एक सरलीकरण होगा कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन पूरी तरह से ब्रिटिश इतिहास लेखन का ही सृजन था। हालांकि ब्रिटिश संकल्पना ने विकास के एक ख़ास पैटर्न को बढ़ावा दिया, जिसकी मिसाल हिन्दी-उर्दू भाषाई बंटवारे में देख सकते हैं, पर दरअसल इससे संबद्ध, मुसलमान से मराठा और मराठा से अंग्रेज़ तक के, राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण और सहूलियतों के बंटवारे को भी शासित आबादी ने स्वाभाविक रूप से अपने जे़हन में दर्ज किया। अगर औपनिवेशिक शासन के अधीन मुसलमान नेता पिछली राजनीतिक सत्ता की स्मृतियों की ओर मुड़े, तो हिन्दू नेता भी एक व्यापक हिन्दू एकता के निर्माण के लिए मुस्लिम उत्पीड़न की स्मृतियों का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहे। वे सभी हिन्दुओं  को इस उत्पीड़न का समान रूप से शिकार मानते हुए उन स्मृतियों का आह्वान कर रहे थे। जैसा कि अर्नस्ट रेनान ने पिछली सदी में बताया थाः
साथ-साथ दुःख भोगना’ – और, निस्संदेह, साझा दुःख भोगना साझा आनंद के मुक़ाबले अधिक एकताबद्ध करता है। जहाँ राष्ट्रीय स्मृतियों का सवाल हो, वहाँ व्यथा जीतों से अधिक मूल्यवान होती है, क्योंकि वह दायित्वों का निर्धारण करती है, और एक साझा प्रयास की मांग करती है (1982, 1990; 19)।
सभी हिन्दुओं के द्वारा साझा रूप से भोगी गयी यातना का उल्लेख उन्नीसवीं सदी के दौरान खुद हिन्दुओं ने तो लगातार किया ही, भांति-भांति के प्राच्यवादियों ने भी कियाः इस तरह अपने-अपने धर्म और इतिहास वाले दो बिल्कुल जुदा लोगों की, हिन्दुओं और मुसलमानों की धारणा निर्मित और स्थापित हुई।[xvi] 
हिन्दूकी तीसरी प्रयुक्ति राष्ट्रवादी थी और यह एकदम नयी थी। उस समय एक व्यापकतर एकता की ज़रूरत महसूस की जा रही थी और यह अकारण नहीं था। अगर भारतेन्दु ने मौजूदा आर्थिक शोषण के रू-ब-रू सभी हिन्दुओं के एकजुट होने का आह्वान किया, तो वह इसलिए भी कि यह पूरी तरह स्पष्ट था कि यूरोपीय उत्पादकों ने देसी उद्योग को विस्थापित कर दिया था। कराधान और भारी आबकारी शुल्क, अंग्रेज़ों के सैन्य अभियानों का वित्तपोषण, ये ऐसे आर्थिक बोझ थे जिनसे देशी अख़बारों के पाठक भली-भांति परिचित हो चले थे। दादा भाई नौरोजी के काम से बड़े पैमाने पर लोग अवगत थे। उनके विचार अख़बारों में प्रकाशित हुए और आगे चल कर ‘पोवर्टी एंड द अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1901) जैसे ग्रन्थों में संकलित हुए। ये विचार हिन्दी में अनुदित होकर अस्सी के दशक के मध्य में ‘कविवचनसुधा’ में धारावाहिक रूप से छपे। लिहाज़ा, आर्थिक राष्ट्रवाद ने और ब्रिटिश प्रशासन तथा गोरों के हाथों साझा तौर पर झेली जाने वाली यातना ने इस महामंत्र में प्राण फूंकने का काम किया कि जो हिन्दुस्तान में रहे, वह हिन्दू[xvii] यह हिन्दूका एक तीसरा अर्थ था, नये राष्ट्रवादी निहितार्थ के साथ एक प्राक्-औपनिवेशिक प्रयुक्ति, जिसने शासित आबादी की साझा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का आह्वान किया। इसके बावजूद, दूसरा अनुप्रयोग, जिसमें हिन्दूएक धार्मिक अभिधान था, इतने बड़े पैमाने पर हावी था कि इस शब्द की किसी लौकिक (सेक्यूलर) प्रयुक्ति से उसे पूरी तरह निकाल बाहर करना नामुमकिन हो जा रहा था।
पर साथ-के-साथ, ‘हिन्दूके प्रथम या प्राक्-औपनिवेशिक अर्थ ने – जिसमें हिन्दुस्तान का हर बाशिंदा शामिल था – हिन्दूके उस दूसरे अर्थ को अपने रंग में रंगा और उसमें मिलावट की, जो इसे महज़ धार्मिक अभिधान के तौर पर इस्तेमाल होने तक महदूद कर देता। दोनों पदों का संपात या मेल हो जाने से दूसरे अर्थ को यह दावा करने की छूट मिल गयी कि वस्तुतः हिन्दू  धर्म का पालन करने वाले लोग हिन्दुस्तान के प्रत्येक और समस्त निवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि वे इस देश के मूल निवासी हैं और इसीलिए देश के साथ सांस्कृतिक रूप से अधिक अंतरंगता के साथ संबद्ध भी हैं। इस दावे में यह निहित था कि राष्ट्र महज़ समुदायों के कुल योग से नहीं बना है, कुछ समुदाय उन दूसरे समुदायों के बनिस्पत अधिक मुकम्मल तरीके से इसका प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकते हैं जो या तो बाद में आये हैं, जैसे मुसलमान, या जो यथेष्ट विकसित नहीं (समझे जाते) हैं, जैसे और भी पहले के बाशिंदे, जिसमें द्रविड़ या नाना प्रकार के आदिवासी समुदाय शामिल हैं। तीसरा अर्थ, या राष्ट्रवादी अर्थ, कभी भी अपने धार्मिक संकेतार्थों से पूरी तरह छुटकारा न पा सका। इस पद की प्रयुक्ति उन्नीसवीं सदी में अस्थिर बनी रही और इसके मुख़्तलिफ़ मायनों में आपसी जुड़ाव क़ायम रहा। बावजूद इसके, किसी प्रदत्त संदर्भ में हिन्दूके प्राथमिक अर्थ को निर्धारित करना संभव है, यदि एक बार यह तय हो जाये कि इलाक़ाई, धार्मिक, राष्ट्रीय में से किस आधार पर यह पद प्रयोग में आ रहा है, और अन्यकी भूमिका में किसे रखा जा रहा है; चाहे वह अन्य, जैसा कि पुरानी इलाक़ाई प्रयुक्ति में दिखता है, फ़ारसी या तुर्क हो, या मुसलमान (जिसे उस समय कई बार समूह के हवाले में तुर्क ही कहा जाता है), या फिर अंततः औपनिवेशिक स्वामी। लेकिन यह बात दिमाग़ में रखना ज़रूरी है कि धार्मिक समुदाय को निर्दिष्ट करने वाली दूसरी प्रयुक्ति अत्यंत प्रभावी संदर्भ-बिंदु बनी रहती है।
यहाँ दो और महत्वपूर्ण गुत्थियों पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। भारतेन्दु ने अपने छपे हुए भाषण के शीर्षक में भारतवर्ष शब्द का प्रयोग किया है, हिन्दुस्तान का नहीं। परंतु खुद भाषण में यह शब्द सिर्फ़ एक बार इस्तेमाल किया गया है, एक उद्बोधनपरक अंश में। इस अंश में, भले ही मात्र अतीत के संदर्भ में, बाहरी हमलों से देश की हिफ़ाज़त करने के लिए लोगों से आगे आने का आह्वान किया गया है और देश का मतलब वहाँ निहित रूप में आर्य-हिन्दू प्रदेश है। एक इलाक़ाई और सांस्कृतिक इकाई के तौर पर भारतवर्ष तथा अस्मिता को स्थापित एवं चिह्नित करने वाले के तौर पर आर्य, दोनों ही उस देसी परम्परा के हिस्से थे जिसे सदियों से जीवित रखा गया था और पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में जिसका बारंबार स्मरण किया गया था। हिन्दुस्तान  महज़ आंशिक रूप से ही उस भारतवर्ष की धारणा के साथ मेल खाता था, जिसका अपना सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास था। वैसे ही जैसे हिन्दू यद्यपि आर्य के साथ घुल-मिल गया था, पर वह आर्य की तरह की उद्बोधनकारी शक्ति कभी हासिल नहीं कर पाया। आर्य का प्रयोग आर्य और मलेच्छ के युगों पुराने भेदभाव की यादें ताज़ा कर देता था।
भारतवर्ष किस तरह की एकता की ओर इशारा करता था?[xviii]  ऐसा नहीं कि यह पूरी सहस्राब्दी के दौरान अपरिवर्तनशील बना रहा। इस मुद्दे पर विस्तृत अध्ययन होना अभी बाक़ी है, पर अठारह महापुराणों में से मार्कण्डेय और भागवत पुराण, जिनके बारे में हम जानते हैं कि उनसे भारतेन्दु भली-भांति परिचित थे और लगातार उन्हें उद्धृत करते थे, के बीच सरसरी तौर पर की गयी तुलना भी इस अवधारणा के विचारधारात्मक संविधान में आये हुए विराट बदलावों को चिह्नित करने के लिए काफ़ी है। भारतवर्ष के राजनीतिक इकाई होने का कोई दावा पेश न करते हुए भी मार्कण्डेय पुराण इसकी सरहदों को बहुत स्पष्ट रूप से चिह्नित करता है; इसकी चौहद्दियों का जो बिंब रचा गया है, वह काव्यात्मक और रक्षात्मक, दोनों है। बिंब इस प्रकार है कि पूर्व, दक्षिण और पश्चिम से इसे घेरने वाला समुद्र एक धुनष के आकार में है, इस धुनष की प्रत्यंचा को पर्वत श्रृंखला ने खींच रखा है जो उत्तर में दुर्ग की दीवार की तरह स्थित है।[xix]फिर इस देश से हो कर बहने वाली नदियों और इसके आर-पार फैली पर्वत श्रृंखलाओं की गणना करने के बाद यहाँ  बसी हुई जनजातियों की सूची आती है – इस जगह आर्य और मलेच्छ, दोनों गुंथे हुए मौजूद हैं; देश किसी भांति आर्यों का विशिष्ट अधिकार-क्षेत्र नहीं है। लेकिन वे इसके केन्द्रीय  भाग, मध्यदेश, में विशेषाधिकार-प्राप्त स्थिति में हैं। सिर्फ़ यही जगह है जहाँ चारों वर्ण शास्त्रोक्त कर्तव्यों का पालन करते हैं। कारण, भारतवर्ष भूलोक के अन्य वर्षों, यानी धरती के दूसरे भागों, से इसी रूप में अपने को अलग करता है कि कर्मभूमि एकमात्र यही है, जहाँ प्रत्येक कार्य, प्रत्येक यज्ञ का उचित प्रतिफल मिलता है, और स्वर्ग में अपना समय पूरा कर लेने के बाद जहाँ देवता भी जन्म लेना चाहते हैं। सिर्फ़ इसी जगह पर वैदिक यज्ञ-याग किये जाते हैं और यही जगह है जहाँ अनेक पारलौकिक अवस्थाओं को भी हासिल करना संभव है। इस प्रकार वर्णव्यवस्था तथा उससे जुड़े सभी विधि-निषेधों का प्रचलन ही इस इकाई में एक सुसंगति लाता है।
भागवत पुराण में भारतवर्ष की प्रशस्ति में एक स्तुति है, जो हरि को संबोधित है और जिसका गायन देश के जनसाधारण के साथ नारद करते हैं।[xx] इस जनसाधारण का अंकन वर्ण व्यवस्था का अनुपालन करने वाले के तौर पर किया गया है। लेकिन स्तुति में ज़ोर वर्णव्यवस्था से हट कर है। कहा गया है, इस देश में सभी लोग – जनजातियों का, आर्य या मलेच्छ का कोई ज़िक्र नहीं किया गया है – विविध योनियों, जन्म और मोक्ष से गुज़रते हैं। मोक्ष जन्मों के चक्र से छुटकारा पाना है, यद्यपि यहाँ आ कर इसे भक्ति की स्थिति से अभिन्न रूप में देखा जाने लगा है। कर्मभूमि की धारणा के साथ-साथ स्वयं वैदिक यज्ञ का भी महत्व घटा है; इसे मात्र सांसारिक सुखों की प्राप्ति के साधन के तौर पर देखा गया है। इंद्र आदि विविध नामों के साथ हरि यज्ञ के दान यानी हवि को स्वीकार करने वाले के तौर पर क़ायम हैं, लेकिन भारतवर्ष यहाँ भूलोक के अन्य भागों से इस मायने में विशिष्ट है कि सिर्फ़ यहीं भक्ति को प्राप्त करना संभव है, और यही वह स्थिति है जिसे देवता भी प्राप्त करना चाहते हैं जब वे यहाँ जन्म लेने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
इस तरह भारतवर्ष सदियों तक सांस्कृतिक रूप से अत्यंत आविष्ट धारणा बना रहा है, जिसने, राजनीतिक हक़ीक़त से मरहूम होने बावजूद, एक कर्मकांडी, सामाजिक, धार्मिक, समर्पणमूलक, विषमरूपता में समरूपता की खोज करती व्यवस्था – ब्राह्मणवादी व्यवस्था – के विज़न के तौर पर अपना सामर्थ्य बनाये रखा है;  हालांकि जिन शक्तियों को इस समरूपता के साधन के तौर पर देखा गया था, वे स्वयं समय के साथ बदल गयीं। लेकिन पवित्र नदियों और पर्वतों से आच्छादित भूभाग के साथ जुड़ी यह व्यवस्था ही थी जो उपमहाद्वीपीय स्तर की वैधता को हासिल करने के सबसे पास तक पहुंच पायी।[xxi] इस अवधारणा के उन्नीसवीं सदी के पुनरुज्जीवन एवं राजनैतिकीकरण को इसी नैरंतर्य के संदर्भ में रख कर देखना होगा। भारतेन्दु पुराणों से सुपरिचित थे, जैसा कि ‘हरिश्चंद्रचंद्रिका’ के कई अंकों में अठारह मुख्य पुराणों के उनके द्वारा प्रस्तुत सार-संक्षेप से भली-भांति स्पष्ट है।[xxii]हालांकि वे भारतवर्ष और हिन्दुस्तान के बीच कोई सोचा-समझा अंतर नहीं करते हैं, लेकिन असलियत यही है कि उनके द्वारा भारतवर्ष का इस्तेमाल स्पष्टतः हिन्दू धार्मिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ तक महदूद है। यहाँ  जिस भाषण का विश्लेषण किया गया है, वह चूंकि एक जनसभा में दिया गया भाषण था, जहाँ श्रोताओं में हिन्दू, मुसलमान और यहाँ तक कि अंग्रेज़ भी मौजूद थे, इसलिए उन्होंने जिस पद का उपयोग किया, वह था हिन्दुस्तानहिन्दुस्तानहिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों का निवास-स्थान हो सकता था, क्योंकि एक समय में इस देश के सभी बाशिंदे हिन्दू कहे जाते थे, हालांकि आधुनिक युग का हिन्दू (एक धार्मिक अभिधान वाले अर्थ में) देश के मूल निवासी होने की अपनी दावेदारी के बल पर इसके भीतर एक विशेषाधिकारयुक्त ओहदे पर क़ाबिज़ था। भारतवर्ष का इस्तेमाल भारतेन्दु ने सिर्फ़ एक बार, और वह भी लगभग अनजाने में, पृथ्वीराज-मोहम्मद गोरी की लड़ाई के उल्लेख के बाद किया, जो इस बीच सर्वोत्कृष्ट हिन्दू -मुस्लिम टकराव का प्रतीक बन चुका था। इसके विपरीत, ‘वैष्णवता और भारतवर्ष[xxiii]  जैसे लेख में, जहाँ  संदर्भ स्पष्ट रूप से हिन्दू और धार्मिक था, भारतेन्दु ने एक बार भी हिन्दुस्तानकी चर्चा नहीं की। यहाँ उन्होंने खुद को सीधे-सीधे भागवत पुराण वाले आदर्शीकरण की परम्परा  में रखा और वैष्णव भक्ति को हिन्दू  धर्म की एकता और निरंतरता के निमित्त के रूप में देखा, लेकिन उनकी दृष्टि ज़ाहिरा तौर पर राष्ट्र एवं राष्ट्रीय धर्म की उन्नीसवीं सदी की समझ से भी प्रभावित थी। उस समय का राजनीतिक यथार्थ, विडंबनापूर्ण तरीके से, मात्र ब्रिटिश इंडिया था। अलबत्ता, इसकी भौगोलिक और प्रशासनिक चौहद्दियां भारतवर्षऔर हिन्दुस्तान की धारणा से ढंकी जा रही थीं। इस तरह भारतवर्ष, हिन्दुस्तान और ब्रिटिश इंडिया की मानचित्र-रेखाएं एक-दूसरे को फलांगती, काटती और अतिछादित (ओवरलैप) करती थीं, लेकिन धारणाओं के रूप में इन्होंने अपने विशिष्ट संकेतार्थों को बरक़रार रखा और भारतवर्ष का राजनैतिकीकरण इस भूभाग के सच्चे हक़दार और कमतर हक़दार के बीच अंतर की अपनी समझ को अपने साथ ले कर आया।
इसी पृष्ठभूमि में आर्य-मलेच्छ द्विभाजन को भी समझने की ज़रूरत है।[xxiv] हालांकि बहिरागत आर्य स्थानीय लोगों की अशुद्ध भाषा, साथ ही, आनुष्ठानिक अशुद्धता की ओर संकेत करने के लिए उन्हें मलेच्छ कहते थे, मूलतः यह पद आर्यों और उन जनजातियों के बीच की आंतरिक भिन्नताओं को स्थापित करने के लिए इस्तेमाल होता था जो कि आर्यदेश कहे जाने वाले इलाक़े पर एक समय क़ाबिज़ थे। जिन इलाक़ों में मलेच्छ निवास करते थे, यानी वे पहाड़ और जंगल जिनकी ओर वे खदेड़ दिये गये थे, उन्हें उस आर्यदेश की परिधि के बाहर माना जाता था, जिसकी पहचान थी, वर्ण-नियमों का पालन एवं वैदिक अनुष्ठानों का निष्पादन। वर्ण-व्यवस्था में नीच से नीच को भी, मिसाल के लिए, शूद्र के रूप में दाखि़ला मिला था, लेकिन उन्हें मलेच्छ बताना जारी रहा।[xxv] अलबत्ता, अपने में मिलाने के बाद, अनार्यों में से अधिक शक्तिशाली लोगों को वर्ण-योजना में एक उच्चतर दर्जे से नवाज़ा गया। नौवीं सदी से मलेच्छ के रूप में देसी लोगों की बड़ी तादाद का हवाला मिलना बंद हो गया। स्वयं ब्राह्मणवादी धर्म का तब विस्तार हुआ जब भागवत जैसे संप्रदायों ने अनार्यों को अपने दायरे में स्वीकार कर लिया। तब फिर मलेच्छों के रूप में मुख्यतः अरबों का ज़िक्र होने लगा। यहाँ जिस तरह के बहिष्करण की शुरुआत हुई, वह पारस्परिक था, यद्यपि उसका निर्धारण अलग तरीके से हुआ था, क्योंकि बहिरागत मुसलमानों के लिए, जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था का हिस्सा बनने की कोशिश नहीं की, आनुष्ठानिक शुद्धता कोई विचारणीय पहलू नहीं था। आने वाली शताब्दियों में मुख्यतः निचले दर्जे की जो जातियां इस्लाम में धर्मांतरित हुईं, उन्होंने अपनी वंशानुगत जाति, पेशे और आनुष्ठानिक तौर-तरीकों को बरक़रार रखा और इस तरह, एक मायने में, मलेच्छ वाली अपनी पिछली हैसियत को और पक्का किया। इसके अलावा, इस्लामी इतिहासलेखन अपना अत्यंत विकसित अतीत-बोध अपने साथ लेकर आया, जिसने, स्वयं भारतीय परम्परा का एक हिस्सा बन जाने के बावजूद, ब्राह्मण परम्परा  के बरक्स अपनी विशिष्टता क़ायम रखी।
उन्नीसवीं सदी के मध्य से आर्य वाले पक्ष को विचारधारात्मक स्तर पर और सृदृढ़ किया गया। इसने प्राचीनता की, मुस्लिमपूर्व भारतीय अतीत के साथ प्रत्यक्ष जुड़ाव की, और लिहाज़ा वर्तमान में जायज़ सांस्कृतिक प्रभुत्व की हिन्दू’ (दूसरी प्रयुक्ति के संकरे, धार्मिक अर्थ में) दावेदारी को और मज़बूती प्रदान की। 1850 से 1870 के बीच यूरोप के तुलनात्मक भाषाशास्त्र के विद्वान इस बात पर एकमत थे कि मानवजाति की विभिन्न नस्लों के वर्गीकरण को नियत करने के लिए भाषाई आधार सबसे भरोसेमंद आधार है। सामान्य भाषा का मतलब सामान्य मानसिकता भी है, जिसके संबंध-सूत्र भाषा के माध्यम के बज़रिये अतीत में ढूंढ़े जा सकते हैं।[xxvi] अगर वैदिक संस्कृत भारोपीय भाषा-परिवार के पुरखों में से एक है तो – जैसा कि इस सिद्धांत के सबसे मुखर प्रवक्ताओं का दृढ़ विश्वास था – ई.पू. 2000 से लेकर वर्तमान काल तक भारोपीय भाषाओं और संस्कृति की निरंतरता मानी जा सकती है, और इस भाषा के आधुनिक भाषियों को प्राचीन आर्यों के प्रत्यक्ष वंशज के तौर पर देखा जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य के इंग्लैंड में आर्य-मिथ की कुलीनता के प्रचारकों में सबसे मुखर और वाग्मी, साथ ही, सर्वाधिक विश्वासोत्पादक एवं प्रभावशाली नाम थे – सी. जे. बुनसेन (1791-1860) और फ्रेडरिख़ मैक्स मुलर (1823-1900)।[xxvii]  भारत में जो अंग्रेज़ थे, उन्होंने आर्य वाले इस विचार के प्रति और आर्य अतीत के गौरव में तथाकथित भारतीय योगदान तथा भागीदारी के प्रति इंग्लैंड में बैठे अपने कुछ समकालीनों के मुक़ाबले कम उत्साह प्रदर्शित किया, लेकिन भारतीयों के खि़लाफ़ ब्रिटिश और ऐंग्लो-इंडियन नस्ली पूर्वग्रह का मुक़ाबला करने के लिए अलग-अलग मिशनरियों तथा नागरिकों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया। ऐसा नहीं था कि वे कमोबेश, और 1857 के उपद्रव के तुरंत बाद, ख़ास तौर से हिन्दुओं के पक्षपाती थे, लेकिन उन्होंने नस्ली भेदभाव की बहुत ज़ाहिरा ज़्यादतियों का मुक़ाबला करने के कुछ प्रयास अवश्य किये। अलबत्ता, भारतीय इतिहास से और भारतीय जलवायु के प्रभावों से संबंधित पूर्वगृहीत फ़ैसले आर्य सिद्धांत के चलते पूरी तरह से ख़त्म नहीं होने थे। बाद के इंडो-आर्यों की नस्ली और, एवंप्रकारेण, सांस्कृतिक अशुद्धता को इंगित करना संभव था, क्योंकि वे देश के आर्यपूर्व निवासियों के साथ मिश्रित हो गये थे। इस तरह हिन्दुस्तान  के लोग ऐतिहासिक रूप से कमतर बने रहे और उनकी उपलब्धियां, अंतिम निष्कर्ष में, यूरोपीय आर्यों के साथ तुलनीय नहीं समझी गयीं, ख़ास तौर से ग्रेट ब्रिटेन के आर्यों के साथ, जो सबसे तरक़्क़ीपसंद और सबसे गौरवशाली साम्राज्यवादी होने के नाते विश्व इतिहास के शिखर पर स्थित माने जाते थे।[xxviii]
साठ के दशक से अपनी आवाज़ को सुनवाने में कामयाब होने वाली हिन्दू /हिन्दुस्तानी  प्रतिक्रिया अपने अभिप्राय में बिल्कुल अलहदा थी। यहाँ  यूरोपीय परिवार के साथ आर्य-एकता पर बहुत बल नहीं दिया गया था। बल्कि ये लोग जिस चीज़ को लपके थे, वह थी आर्य परम्परा  द्वारा सुझायी गयी राष्ट्रीय एकजुटता की संभावना। हालांकि आर्यों की शारीरिक शक्ति, शरीर-रचना और सैन्य पराक्रम पर पश्चिम का जो बल था, उसे हिन्दुस्तानी राष्ट्रवादियों ने भी अपनाया, लेकिन उन्होंने मुख्यतः आर्यों के आध्यात्मिक बल और अंतर्दृष्टि पर ज़ोर दिया।[xxix] और भारतेन्दु ने हर उस मौक़े पर आर्य वाले विचार को तलब किया जब हिन्दू राष्ट्रीय अतीत के गौरव को प्रदर्शित करने की ज़रूरत आन पड़ी। इस अतीत से मलेच्छ-मुसलमान बहिष्कृत तो नहीं किये जा सके थे, लेकिन निहित तौर पर यह भी संभव था।
भारतेन्दु के विचारों का आकलनः द्विभाजन, दुचित्तापन और तीसरा मुहावरा
ऊपर जिस राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे का ख़ाका खींचा गया है, उसी के भीतर भारतेन्दु और उनके समकालीनों ने अपने ब्रांड के राष्ट्रवादी विचार और लेखन को सिरजा और विकसित किया। भारतेन्दु कितने तरक़्क़ीपसंद थे? परम्परा के साथ उनका क्या रिश्ता था? उस आधुनिकीकरण के हक़ में, जो एक राजनीतिक ज़रूरत भी बन गया था, वे किस हद तक और किस तरह के बदलाव के लिए तैयार थे? क्या एक उभरते हुए मध्यवर्ग के महत्वपूर्ण प्रवक्ता के तौर पर अंग्रेज़ों और देसी नरेशों के प्रति उनके रवैये में दुचित्तापन था? और हिन्दूशब्द के उनके द्वारा किये गये इस्तेमाल के बदलते संकेतार्थों का क्या मतलब है? मुसलमानों के प्रति उनके रवैये की परिवर्तनशीलता के क्या माने हैं?
भारतेन्दु के कामों को जिस रूप में  लिया गया, आगे मैं उसी की समीक्षा और आलोचनात्मक आकलन करूंगी। मेरा विशेष फ़ोकस बलिया वाले व्याख्यान से प्रेरित टिप्पणियों पर रहेगा। इस व्याख्यान ने केवल भारतेन्दु के समकालीनों की टिप्पणियों को ही न्यौता नहीं दिया, बल्कि बीसवीं सदी में भी यह प्रक्रिया जारी रही, क्योंकि ज़ाहिरन इसे एक केन्द्रीय वक्तव्य माना गया। हालांकि भारतेन्दु एक सुपरिभाषित सांस्कृतिक परिवेश के भीतर से बोल रहे थे – वे निश्चित रूप से काशी के एक रईस या व्यापारिक अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि भी थे – फिर भी उनके यहाँ  नयी स्थापनाओं का प्रस्ताव और पक्षपोषण हो रहा था। जो विवेचनाएं और व्याख्याएं सामने आयीं, वे संभावित आकलन के एक स्पेक्ट्रम को उद्घाटित करती हैं, जो एक ऐसी शख़्सियत से प्रेरित है जिसे आसानी से पारंपरिक या आधुनिक, सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी, राजभक्त या अंग्रेज़विरोधी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, यद्यपि आलोचकों ने प्रायः ऐसा ही किया। लेकिन, चूंकि वे आधुनिक और प्राक्-आधुनिक के मिलन-बिंदु पर टिके थे, उनके कामों में साथ-साथ मौजूद पूर्णतः द्विभाजित रवैयों को पहचान लेना संभव था; इस तरह वे महज़ दुचित्ते के रूप में भी देखे जा सकते थे। उनके व्याख्यान को ले कर आम आकलन और प्रतिक्रियाओं का सरसरी तौर पर किया गया सर्वेक्षण हमें मौजूदा अध्ययन के सरोकारों और उपागमों में दाखि़ल होने का एक बिंदु मुहैया कराता है।
व्याख्यान की भाषा भारतेन्दु की परवर्ती गद्य-शैली का प्रतिनिधि नमूना हैः सुमधुर, जीवंत, लतीफ़ों और हल्के-फुल्के मज़ाकों से बिंधी हुई, नाना प्रकार के स्रोतों से आये हुए उद्धरणों से भरपूर, जिनमें परम्परागत कहावतें, संस्कृत के पाठ और ब्रजभाषा काव्य तो हैं ही, उसी धड़ल्ले से उर्दू शायरी भी शामिल है। इनमें से ज़्यादातर उद्धरण किसी स्थापना के समर्थक साक्ष्य के तौर पर आने की बजाय सहचर के तौर पर आते हैं। निबंध के कई साहित्यिक संकेतों और उनकी अहमियत को आर. एस. मैक्ग्रेगर ने, उस दौर के साहित्य के अपने पिछले प्रांजल विश्लेषण (1974) को आगे बढ़ाते हुए, सुलझाया है और संवेदनशीलता के साथ विश्लेषित किया है (1991)।[xxx] व्याख्यान में छवियों और विचारों की जिस संपदा का जादुई तरीके से आह्वान किया गया है, उसे अगर सावधानीपूर्वक संसाधित करें, तो वह समकालीन मत-निर्माण के संबंध में पर्याप्त अंतर्दृष्टि देता है, अगर हम लापरवाही से उद्धृत छंद को सीधे-सीधे अभिधा में पढ़ने की बजाय ऐहतियात के साथ संदर्भ में रख कर देखें।
भारतेन्दु के समकालीनों और उत्तराधिकारियों – सहाय (1905), राधाकृष्ण दास (1905), और कुछ समय बाद, ब्रजरत्न दास (1935)[xxxi] – ने उनकी देशभक्ति की तारीफ़ की, लेकिन अपने मित्र और पथप्रदर्शक की राजभक्ति का बचाव करते हुए अंग्रेज़ों के प्रति उनकी अंतःस्थ निष्ठा पर बल दिया। भारतेन्दु की गुस्ताख़ क़लम उनके ऊपर ग़ैरनिष्ठावान होने के जो आरोप लगवा रही थी, उससे मजबूर होकर उन्होंने ऐसा किया। ये लोग खुद ब्रिटिश राज की प्रजा थे और इन्हें शासकों के प्रति निष्ठा या राजभक्ति तथा प्रबल देशभक्ति, दोनों के सहअस्तित्व में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखता था। भारतेन्दु के करिश्माई व्यक्तित्व के सम्मोहन में बंधे, लेकिन आवश्यक आलोचनात्मक दूरी के बग़ैर, उन्होंने भारतेन्दु के जीवन और कार्यों के ब्यौरे पेश किये। ये पांडित्यपूर्ण, किंतु प्रशस्तिमूलक कृतियां थीं। यद्यपि इन जीवनियों और आरंभिक आकलनों के मूल्य को कम करके नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इनमें सूचनाओं की वह संपदा है जो अन्यथा गुम हो जाती। लेकिन, जहाँ तक भारतेन्दु की कृतियों के साहित्यिक मूल्यांकन का सवाल है, जिन सौंदर्यशास्त्रीय श्रेणियों का इस्तेमाल किया गया, वे मुख्यतः संस्कृत के शास्त्रीय रंगपटल से ली गयी थीं। इसका सीधा मतलब ये था कि कृतियों का मूल्यांकन पारंपरिकके साथ बंधा रहा। भारतेन्दु के राजनीतिक विचार, प्रदत्त स्थितियों में, ‘राजभक्तके अलावा किसी और श्रेणी में अंतर्भुक्त नहीं हो सकते थे।
यूरोपीय आलोचकों में जॉर्ज ग्रियर्सन उन शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने भारतेन्दु की तारीफ़ की। अपनी किताब ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ (1989) में उन्होंने हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक कवियों और नाटककारों में भारतेन्दु का ज़िक्र किया है। अलबत्ता, वैष्णव प्रभुत्व वाले हिन्दू धर्म की अपनी विशिष्ट व्याख्या का निर्वाह करते हुए ग्रियर्सन का मुख्य सरोकार एक परम्परा वादी वैष्णव कवि और भक्त के रूप में भारतेन्दु की छवि को सामने लाना था।
लगभग एक शताब्दी बाद जुर्गन ल्युट ने, उत्तर प्रदेश के हिन्दू  राष्ट्रवादियों के अपने अध्ययन (1970) में, हिन्दू राष्ट्रवाद की रचना में भारतेन्दु की भूमिका का विस्तृत चित्रण करने का पहला प्रयास किया। उन्होंने राम विलास शर्मा के काम से, जिसकी आगे चर्चा होगी, काफ़ी मदद ली, पर इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी, लंदन की अभिलेखीय सामग्री का मूल्यांकन पेश करते हुए अपने अध्ययन को ख़ासा समृद्ध किया। लेकिन अपने विश्लेषण में ल्युट ब्रिटिश इतिहास लेखन की परम्परा में ही आगे बढ़े, यानी इस मूल धारणा के साथ अग्रसर हुए कि हिन्दू  धर्म और इस्लाम दरअसल दो एकाश्मक धर्म हैं, जिनकी इस उपमहाद्वीप में हमेशा से अलग-अलग संस्कृतियां रही हैं और जुदा इतिहास रहे हैं, और इस तरह उन्होंने इस तथ्य की अनदेखी की कि इस चरण में हिन्दू धर्म का एकत्व खुद गढ़े जाने की प्रक्रिया में था। ल्युट ने भारतेन्दु को सुधारवादी परम्परा  में रख कर देखा, यानी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने अपनी ही भक्ति परम्परा और भक्ति समुदाय से अच्छी-ख़ासी दूरी बना ली थी (1970; 84)। इसके अलावा, उस समय चल रहे प्यूरिटनवादी सफ़ाई अभियान की शक़्ल में जो मिशनरी प्रभाव दिख रहा था, उसके प्रति सजगता दिखाते हुए ल्युट ने उस प्रभाव का मूल्य बढ़ा-चढ़ा कर आंका (157)। इसीलिए न तो धर्म की नयी परिकल्पना में मौजूद निरंतरताओं को ठीक से समझा गया, न ही भारतेन्दु के परवर्ती गद्य की साहचर्यमूलक, उद्बोधनपरक साहित्यिक शैली को। इस तरह, हम पाते हैं कि अगर ग्रियर्सन ने एक परम्परावादी के रूप में भारतेन्दु का आकलन किया, तो ल्युट उसके बरखि़लाफ़ एक सुधारवादी चिंतक के रूप में।
बीसवीं सदी के चालीस और पचास के दशक में ही भारतेन्दु का विस्तृत साहित्यिक और राजनीतिक पुनर्मूल्यांकन सामने आ पाया। इस समय से उनके तरक़्क़ीपसंद रुझानों पर बल दिया जाने लगा और ऐसा अक्सर उनके उस पहलू की क़ीमत पर हुआ जो परम्परा से बहुत निकट जुड़ाव रखता हुआ नज़र आता था। लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का अध्ययन (1948, 1974) भारतेन्दु के कामों का एक शुरुआती व्यवस्थित और संतुलित मूल्यांकन था। उस दौर के साहित्य के अपने व्यापक अध्ययन और ज्ञान के साथ वार्ष्णेय न सिर्फ़ भारतेन्दु के योगदान का, उनके समकालीनों और निकट उत्तरवर्तियों की अतिशयोक्तियों से रहित, आलोचनात्मक मूल्यांकन कर पाये, बल्कि एक साहित्यिक भाषा के रूप में आधुनिक हिन्दी के निर्माण में और आधुनिक साहित्यिक विधाओं के प्रयोग में उनके योगदान की अहमियत को चिह्नित और व्याख्यायित भी कर पाये। अलबत्ता, बलिया व्याख्यान का उनका आकलन उनके अपने उपागम की शक्तियों और पक्षपातों को भी उजागर करता है। भारतेन्दु पर परम्परा का जो ऋण था, उसकी अनदेखी करते हुए वे उन्हें मुख्यतः आधुनिकता का अग्रदूत (148) मानते हैं, और उनके व्याख्यान के बुनियादी संदेश को वयस्क शिक्षा, परिशोधित धर्म और परिष्कृत अनुष्ठान जैसे आमूल सुधारों की सिफ़ारिश के तौर पर देखते हैं, जो मुल्क में अधिक एकता और एकरूपता की राह हमवार करता। इसके अलावा, अंग्रेज़ों की मध्यस्थता द्वारा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति जिस रूप में यहाँ  आई, उसके गुणों के प्रशंसक के रूप में भी वे भारतेन्दु को देखते हैं (191)। लेकिन भारतेन्दु के यहाँ  मिलने वाली औपनिवेशिक शासन की तीखी आलोचना और उसके प्रति मूलगामी प्रतिरोध के महत्व को वार्ष्णेय कम करके आंकते हैं, क्योंकि अंग्रेज़ों की उपलब्धियों की प्रशंसा भारत में अंग्रेज़ी राज की आलोचना के साथ असंगत जान पड़ती है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र
राम विलास शर्मा के अध्ययनों (1942,1975, 1953,1984) में कवि के परम्परावादी आकलनों से और अधिक आमूल क़िस्म का प्रस्थान दिखलाई पड़ा। शर्मा पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतेन्दु और उनके समकालीनों की सरल, बोलचाल वाली और जीवंत गद्य शैली की सराहना की, जिसे रामविलास शर्मा स्वयं अपने समकालीनों द्वारा प्रयुक्त होता हुआ देखना चाहते थे; ऐसे समकालीन, जो बाद के भारी-भरकम, अधिक संस्कृतनिष्ठ, और बोलचाल के मुहावरे से अपना संपर्क गंवा चुके गद्य के शिकार हो गये थे। उन्होंने इस भाषा को भारतेन्दु के पत्रकारीय कार्य के जनवादी पक्ष के बतौर देखा। उन्होंने पत्रिकाओं को विस्मृति के गर्त से निकालने की ज़रूरत पर बल दिया और अपनी पहली क़िताब के निबंधों में उन लेखों, संपादकीयों तथा टिप्पणियों से बहुतेरे उद्धरण दिये जिन्हें भारतेन्दु की ग्रन्थावलियों में जगह नहीं मिल पायी थी। विवेचित सामग्री के अधिक विस्तृत दायरे ने लेखक और उसके समय के बारे में एक अलग दृष्टि को उभरने का मौक़ा दिया। शर्मा इस तथ्य को भी रेखांकित करने वाले पहले व्यक्ति थे कि भारतेन्दु के संबोध्य पुराने दौर के अभिजन नहीं रह गये थे, क्योंकि पत्रिकाओं में जिन मुद्दों पर चर्चा की गयी थी वे व्यापक जनता के साथ सरोकार रखने वाले मुद्दे थे। भारतेन्दु के राजनीतिक रैडिकलिज़्म की सराहना करने वाले पहले व्यक्ति भी शर्मा ही थे। भारत छोड़ोआंदोलन के वर्ष 1942 में, मुल्क में ज़बर्दस्त लोकप्रिय राजनैतिकीकरण के परिणामस्वरूप, रामविलास शर्मा अपने पाठकों से उम्मीद कर सकते थे कि वे ब्रिटिश राज की स्पष्ट शब्दों में की गयी इस आरंभिक किंतु तीखी आलोचना की उनकी खोज को तवज्ज़ह दें और उसकी सराहना करें। शर्मा ने भारतेन्दु की राष्ट्रीय आकांक्षाओं – एक सम्मिलित राष्ट्र की कल्पना’ – पर बल दिया (1942, 1975; 43)। संक्षेप में, उन्होंने भारतेन्दु में एक मुकम्मल राष्ट्रवाद के सुराग़ पाये और इसे, दरअसल, संपूर्ण आज़ादी की मांग के बतौर समझना चाहा।
बलिया व्याख्यान का रामविलास जी द्वारा किया गया विश्लेषण उनके अपने विचार-लोक तक पहुंचने का साधन मुहैया कराता है। वे भारतेन्दु के राजनीतिक विचारों की परिपक्वता पर बल देते हैं और उन्हें अपने समय से काफ़ी आगे का मानते हैं। परंतु इस रूप में उनके राष्ट्रवाद की पेशबंदी करते हुए शर्मा इस तथ्य की अहमियत को दरकिनार कर देते हैं कि वह राष्ट्रवाद अभी भी बिल्कुल बनती हुई स्थिति में था, कि कई मुद्दे सुलझाये जाने की प्रक्रिया में ही थे। इसके अलावा, अपने पठन के प्रबल राष्ट्रवादी अभिप्रायों का निर्वाह करते हुए, वे व्याख्यान में हिन्दू -मुस्लिम एकता की अपील और हिन्दू को अधिक समावेशी तरीके से इस्तेमाल करने के निवेदन पर ही ग़ौर फ़रमाते हैं। इस तरह वे तेज़ी से अलग होते दो समुदायों के बीच के उन तनावों और वैर-भाव की अनदेखी करते हैं जो उस व्याख्यान में भी दर्ज हैं। उस दौर को हिन्दू  पुनरुत्थानवाद का दौर बताये जाने की कोशिशों को अगर रामविलास शर्मा असंगत बता कर ख़ारिज करते हैं,[xxxii] तो साथ में धार्मिक मुद्दों को भी दरकिनार कर देते हैं और इस तरह भारतेन्दु के काम का यह ख़ासा विचारणीय पहलू हाशिये पर चला जाता है।
लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय और रामविलास शर्मा ने क्रमशः भारतेन्दु की साहित्यिक शैली की आधुनिकता और उनके काम के रैडिकल राजनीतिक आयाम पर बल देना पसंद किया। तरक़्क़ी पसंद रवैयों के साथ पारंपरिक रवैयों के सहअस्तित्व में जो अंतर्विरोध निहित था, उसे उजागर होने के लिए परवर्ती आलोचकों का इंतज़ार करना पड़ा।
इस पुनर्मूल्यांकन को समाज सुधार और संप्रदायवाद के विषय-गुच्छों के आलोचनात्मक विवेचन के बीच सामने आना था। उन्नति का संदर्भ, जिसने बलिया व्याख्यान में प्रस्तुत चिंतन का ढांचा तैयार किया, सुधार या सामाजिक बदलाव के मुद्दे से अच्छा-ख़ासा ताल्लुक़ रखता था। शर्मा के अनुसार, भारतेन्दु बहुत स्पष्ट रूप से सामाजिक बदलाव का समर्थन कर रहे थे। निस्संदेह, भारतेन्दु ने अपने व्याख्यान में साफ़ तौर पर यह रेखांकित किया था कि वर्तमान संदर्भ में धर्मनीति को समाजनीति से अलहदा रूप में समझना होगा। इसके बावजूद, अगर एक ओर भारतेन्दु और उनके समकालीन सामाजिक बदलाव के मुखर समर्थक थे, जैसा कि उनके द्वारा रचित साहित्य से बार-बार साबित होता है, तो दूसरी ओर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनका रवैया अक्सर उनके घोषित विश्वासों के खि़लाफ़ जाता था और यह भी उसी साहित्य से पता चलता है। सामाजिक वास्तविकता के ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के लिए इस शुरुआती हिन्दी साहित्य के मूल्य को पहचानने वाले पहले विचारक सुधीर चंद्र थे। उन्होंने समकालीन साहित्य के विश्लेषण के ज़रिये औपनिवेशिक चेतना की छानबीनकी (1984; 145)। अपने निबंधों में, जो सत्तर के दशक के मध्य से छपने शुरू हुए, उन्होंने गहन विश्लेषण के लिए तीन सूचकों का चुनाव कियाः समाज सुधार, मुस्लिम प्रश्न और औपनिवेशिक जुड़ाव। इन मुद्दों को जिन अंतर्विरोधपूर्ण तरीकों से हल करने की कोशिश की गयी थी, उनके सुधीर चंद्र द्वारा किये गये संवेदनशील अध्ययन ने उस पद्धति की बुनियाद रखी जिससे सामाजिक इतिहास लेखन के लिए शुरुआती हिन्दी साहित्य का मूल्यांकनपरक उपयोग किया जा सकता है। इसके बाद से संबंधित लेखक के कामों को किसी एक या दूसरे रवैये में न्यूनीकृत करके देखना आसान नहीं रह गया। यानी अब आराम से उस पर सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी, परम्परावादी या आधुनिक, औपनिवेशिक सत्ता का चापलूस या मुख़ालिफ़ की चिप्पी चस्पां नहीं की जा सकती। इसी बिंदु से आगे बढ़ना और इन दुचित्तेपनों, प्रधानतः हिन्दू-मुस्लिम अलगाव तथा औपनिवेशिक प्रश्न के दायरे में मौजूद दुचित्तेपनों से सरोकार रखना वर्तमान अध्ययन का लक्ष्य है। यह देखना भी इसका लक्ष्य है कि क्या यह बता पाना मुमकिन है कि कब अर्थ के स्तर बदलते हैं या एक दूसरे को काटते हुए प्रकटतः प्रतीत होते हैं।
इस तरह, मिसाल के लिए, निम्नोक्त क़िस्म के एक विश्लेषण को, जो इस मायने में अनमोल है कि वह अर्थ के फ़र्क़ों की चीड़-फाड़ करता है, दो अवधारणाओं की ओर संकेत करने वाले समान पद के सहअस्तित्व की और अधिक पड़ताल के लिए दुबारा लिया जा सकता है। तनाव हिन्दूअवधारणा में निहित अंतर्विरोध के इर्द-गिर्द घूमता है। बलिया व्याख्यान के इस विश्लेषण में सुधीर चंद्र हिन्दू पद को अपनी उत्पत्ति में सांप्रदायिक मानते हैं। इसके अर्थ का जो विस्तार इसे राष्ट्रीय क्षेत्र को दख़ल और हस्तगत करने की ओर ले गया, उसे वे एक बाद की चीज़ के तौर पर देखते हैं (1984b11-12)।
भारतेन्दु की पीढ़ी के लिए, शायद उचित ही, उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना और जारी रहने वाली सांप्रदायिक पहचानों के बीच कोई बुनियादी अंतर्विरोध न था। वे राष्ट्रवाद की परिकल्पना एक उच्चतम बिंदु और निष्ठाओं के एक पुंज के रूप में करते थे (15)।
यहाँ यह मान लिया गया है कि जारी रहने वाली सांप्रदायिक पहचानें पारंपरिक थीं। पर इस पद की कम-से-कम तीन प्रयुक्तियां मिलती हैं और, जैसा कि मैं पीछे दिखला पायी हूँ, पहली, प्राक्-औपनिवेशिक, इलाक़ाई प्रयुक्ति तीसरी या राष्ट्रवादी प्रयुक्ति के साथ सबसे नज़दीकी समानता रखती है। लेकिन, राष्ट्रवादी अनुप्रयोग में इस पद का राजनैतिकीकरण हुआ है, साथ ही, उसमें सांस्कृतिक और ऐतिहासिक एकता निर्मित करने की एक सचेत कोशिश भी है। यह साफ़ है कि इस राजनैतिक पहलू और सचेत कोशिश को पहली प्रयुक्ति में अंतर्निहित मानना असंगत होगा। हालांकि उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में देश के लिए, समस्त उपमहाद्वीप के लिए, और अनुमानतः अंग्रेज़ी अधीनता वाले पूरे हिन्दुस्तान के लिए, एक अभिधान के रूप में भारतवर्षप्रयुक्त होता दिखता है, पर हिन्दुस्तान के लोगों के लिए भारतीयशब्द इस समय तक प्रचलन में नहीं आया है। हिन्दूसे ही हिन्दुस्तान के लागों का भी बोध कराया जाता है। आगे मुस्लिम भाइयों के साथ जिस गठबंधन की कोशिशें हुईं, उसे बहुरंगी प्रकृति इसी चीज़ ने सौंपी। इससे समझा जा सकता है कि आज की तारीख़ में वह क्यों संभ्रमित करने की स्थिति में है। इन तीन प्रयुक्तियों को हम तब अलगा सकते हैं जब यह स्पष्ट हो जाये कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में हो रहा है। मुसलमानों के साथ अपनी-अपनी नज़दीकी या दूरी संबोध्यों पर निर्भर रहती है। जब हिन्दुओं को आंतरिक एकजुटता बनाने के लिए कहा जाता है, तब प्रायः मुसलमानों को अन्य की भूमिका सौंप दी जाती है। यानी, दूसरी प्रयुक्ति, धार्मिक अभिधान वाली, सबसे अधिक हावी है। अपने समकालीन पुनर्प्रचलन में, जहाँ  उपमहाद्वीप के हिन्दुओं  को एक एकाश्मक धड़े के तौर पर देखा जाता है, तो यह कोई पारंपरिक प्रयुक्ति नहीं है, बल्कि आधुनिक है। जब मुद्दा आर्थिक राष्ट्रवाद का हो और औपनिवेशिक स्वामियों को संबोधित किया जा रहा हो, तब हिन्दू तीसरे या राष्ट्रवादी अर्थ में प्रयुक्त होता है, और इसमें मुसलमान भी शामिल होते हैं। अगर उस दौर का राष्ट्रवाद शुरुआती है, तो सांप्रदायिकता भी शुरुआती है, क्योंकि सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद के विकास के साथ असंदिग्ध रूप से नत्थी है। क्रमशः हिन्दुओं का और मुसलमानों का देशव्यापी समुदाय, जो सांप्रदायिक सोच का आधार तैयार करता है, राष्ट्र की अवधारणा के वजूद में आने के बाद ही मुमकिन और मानीखे़ज़ हो सकता था। इस तरह हिन्दू  की दूसरी और तीसरी, दोनों प्रयुक्तियां, जो आपस में घुल-मिलने और ओवरलैप करने को तत्पर रहती हैं, तीसरे या आधुनिकतावादी मुहावरे का एक हिस्सा हैं।
अंग्रेज़ों के साथ रिश्ते में दुचित्तापन भी इसी वजह से है। बलिया व्याख्यान में तकनीकी उपलब्धियों तथा पश्चिमी शिक्षा द्वारा लाये गये लोकतांत्रिक विचारों के लिए अंग्रेज़ों की तारीफ़ तो की गयी थी, पर साथ-साथ उपनिवेश क़ायम करने वालों के रूप में उनकी भूमिका को ले कर तनाव भी वहाँ  बहुत स्पष्ट और मुखर थे। एक ओर, आर्थिक शोषण की लगातार चर्चा है, जो उस समय तक काफ़ी स्पष्ट हो चला था, और दूसरी ओर, अंग्रेज़ों के नस्ली नकचढ़ेपन से पैदा हुआ विद्वेष है – जिसके चलते हम ग़रीब गंदे काले आदमीजैसी अभिव्यक्तियां दिखलाई पड़ती हैं। उनकी उपलब्धियों के लिए की गयी तारीफ़ को, औपनिवेशिक शक्ति के खि़लाफ़ जो राष्ट्रवादी नाराज़गी है, उससे अलग रखने की ज़रूरत है। ज्ञान पांडे ने, अंग्रेज़ों पर असाधारण प्रशस्तियोंऔर प्रशंसा के स्तोत्रोंकी बारिश के आधार पर, अंग्रेज़ों के साथ भारतेन्दु के रिश्ते का उनकी असंदिग्ध राजभक्तिके रूप में जो आकलन किया है, वह वृत्त को पूरा करने जैसा है (1990; 217)। शुरुआती जीवनीकारों ने अंग्रेज़ों के प्रति भारतेन्दु की राजभक्ति पर ज़ोर दिया था, और उनके मूल्यांकन के हिसाब से यह राजभक्ति उपयुक्त और दुरुस्त थी। रामविलास शर्मा का अनुगमन करते हुए ऐसे आलोचनात्मक अध्ययनों की एक बाढ़-सी आई जिन्होंने भारतेन्दु में ब्रिटिश राज की सिर्फ़ आमूलचूल आलोचना देखी। पांडे एक बार फिर उन्हें राजभक्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं, हालांकि उनका आकलन स्पष्टतः नकारात्मक स्वर में है और इस रूप में शुरुआती जीवनीकारों के मूल्यांकन से मतभेद रखता है। भारतेन्दु को अधिक-से-अधिक एक ढुलमुल राष्ट्रवादी…’ (218) की श्रेणी में रखना उतना ही जल्दबाज़ी भरा लगता है। यह एक तथ्य है कि उस चरण में स्वराज का कोई विज़न नहीं था, इसलिए उस पूरे दौर का ही राष्ट्रवाद ढुलमुल था।[xxxiii] 
भारतेन्दु और उनके कामों का आलोचनात्मक मूल्यांकन एक छोर से दूसरे छोर की ओर जाता रहा है; उन पर पुनरुत्थानवादी होने का आरोप लगाने से लेकर उन्हें आधुनिकता के पुरोधा के रूप में सराहने तक, राजभक्त बताने से लेकर आमूल-परिवर्तनवादी बताने तक, हालांकि रामविलास शर्मा के बाद से आधुनिकता के अग्रदूत की भूमिका में उन्हें स्थिर करने की ओर एक निश्चित झुकाव रहा है। यह भूमिका साहित्यिक उत्पादन में भी देखी गयी है और उस राजनीतिक हैसियत में भी जो उन्हें प्राप्त थी।[xxxiv] उनके काम के पारंपरिक पहलुओं पर विचार करने का कोई ढांचा प्रकटतः उपलब्ध नहीं है, सिवाय उस ढांचे के जो पुनरुत्थानवादी के नकारात्मक अभिप्राय वाले टैगने मुहैया कराया है।
यहाँ  एक बार फिर गुहा द्वारा प्रस्तावित वह राजनीतिक ढांचा एक विभेदमूलक विश्लेषण की संभावना उपलब्ध कराता प्रतीत होता है, जो अंग्रेज़ों की मौजूदगी और उनके मुहावरे के प्रति सहमति तथा सहकार के साथ-साथ प्रतिरोध और उच्छेदन (सबवर्श़न) को भी देखने का अवसर देता है। अलबत्ता, आगे के विश्लेषण में मैं तीन मुहावरों से आच्छादित इस क्षेत्र को राजनीतिक/राष्ट्रवादी तक सीमित नहीं रखूंगी, जैसा कि मूल रूप में गुहा का विचार है। इसकी बजाय, मेरी प्रयुक्तियां सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक को शामिल करेंगी, क्योंकि, जैसा कि मैं आगे दिखला पाने की उम्मीद करती हूँ, कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जो अंग्रेज़ों के साथ की लेन-देन से अछूता रहा हो। इस मुठभेड़ से निकलने वाले तीसरे मुहावरे की सबसे अधिक समानता आधुनिकतावादी के साथ दिखती है, जिसका एक प्रभावी पक्ष राष्ट्रवादी ने निर्मित किया, लेकिन उसे पूरी तरह परिव्याप्त न करते हुए। इसके अलावा, यहाँ  दूसरे मुहावरे, इस दौर में ठोस आकार लेने वाले क्लासिकी भारतीय मुहावरे, को किसी प्रदत्त के रूप में नहीं देखा जायेगा, बल्कि इस अध्ययन का एक लक्ष्य यह भी होगा, जहाँ  मुमकिन हो, वहाँ  इस बात का विश्लेषण करना और इस पर ज़ोर देना कि कैसे यह मुहावरा खुद उन परम्परा ओं और पाठों से गृहीत था जो भारतेन्दु और उनके साथियों को विरासत में मिले थे।
हिन्दी और हिन्दू  जिस रूप में उन्नीसवीं सदी में संघटित हुए, उसकी पूर्व-परम्परा को, प्राक्-औपनिवेशिक परम्परा ओं के साथ उनकी निरंतरता की प्रकृति को, साथ ही नव्यतर अवधारणाओं के साथ उनके संबंध-सूत्र को तलाशने से पहले मैं उस प्राधिकार – सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक – के मुद्दे पर विचार करूंगी जिसने इस तीसरे मुहावरे के सृजन और वैधीकरण को मुमकिन किया। आने वाले अध्यायों में मैं प्रभुत्व की नयी संरचनाओं के साथ पुरानी संरचनाओं के उस सघन अंतर्गुम्फन और कार्यप्रणाली की समीक्षा करूंगी, जो काशी की प्राचीन नगरी, उसके महाराजाओं, पुरोहितों और व्यापारियों की महिमा और सांस्कृतिक प्रभाव को नए ढंग से उभारने में संलग्न थी। 
सन्दर्भ      


[i]. नवोदित हरिश्चंद्रचंद्रिका (11. 3 दिसम्बर 1884) में यह हिंदी का पाठ इस अंग्रेज़ी शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ थाः हाउ कैन इंडिया बी रिफ़ॉर्म्ड। यह भारतेंदु की पत्रिका थी, जिसे सात वर्षों के अंतराल के बाद उन्होंने हाल ही में अपने प्रबंधन में वापस लेते हुए दुबारा खड़ा किया था। इस भाषण का पाठ कई बार छपा है, लेकिन सबसे सहूलियत के साथ इसे ग्रंथावली के खंड 3 में (889-903) में पाया जा सकता है।
भारतेंदु की कृतियां सबसे पहले रामदीन सिंह द्वारा संकलित और प्रकाशित की गयी थीं, हरिश्चंद्रकला, 6 खंड, बांकीपुर, 1888। यह लंबे समय तक छापे में उपलब्ध नहीं रही। मानक संस्करण ब्रजरत्नदास और शिवप्रसाद मिश्र के संपादन में निकलाः भारतेंदु ग्रंथावली, 3 खंड, बनारस। बाद में, उन तीन खंडों की सामग्री के साथ-साथ कुछ अतिरिक्त सामग्री को मिला कर एक ज़िल्द में निकाला गयाः भारतेंदु समग्र, संपादक – हेमंत शर्मा, बनारस, 1987। तीनों रचनावलियां कमोबेश चुनी हुई रचनाओं की तरह हैं: पत्रिकाओं में प्रकाशित चीज़ों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अनुपलब्ध है।
इस अध्ययन में मैंने ग्रंथावली से ही उद्धरण दिये हैं। समग्र की मदद सिर्फ़ वहीं ली है जहां संबद्ध सामग्री ग्रन्थावली में नहीं है।
[ii]. मत शब्द का इस्तेमाल भारतेंदु ने थोड़े ढीले-ढाले अर्थों में किया है। वे इसे सम्प्रदाय के अर्थ में भी इस्तेमाल करते हैं, जिसमें छिटके हुए समूह वाला आशय निहित है, और वे हिंदूमत की भी बात करते हैं (जैसे ग्रंथावली 3 में वैष्णवता और भारतवर्षमें; पृ. 801) जिसमें हिंदू धर्म को एकरूप समष्टि मानने वाला आशय निहित है। मत, वाद, दर्शन, मार्ग, धर्म आदि पद उपमहाद्वीप की प्राक्-आधुनिक परंपराओं में जिन रूपों में इस्तेमाल किये गये, उनके लिए देखें, स्टीएटेनक्रॉन (1993: 125.F)।
[iii]. स्टोक्स द्वारा उद्धृत (1959, 1982: 269)। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ों के राजनीतिक रवैये और प्रशासनिक तौर-तरीकों पर स्टोक्स आज भी अधिकारी विद्वान हैं। आगे के विवरणों में उनकी कृति से मदद ली गयी है।
[iv]. इंडिया (1888; 359-60), स्टोक्स द्वारा उद्धृत (284-5)
[v]. हिंदी की उन्नति पर व्याख्यान (1877) में। यह समग्र (228-30) में उपलब्ध है। अध्याय चार में इस पर विस्तार से विचार हुआ है।
[vi] देखें, शुरुआती राष्ट्रवादी लेखन पर सुदीप्त कविराज की यह दुरुस्त टिप्पणीः
ये लेखक इन सीमाओं के भीतर इसलिए नहीं बने रहते कि वे अंग्रेज़ी राज को पसंद करते हैं। कुछ मायनों में, उपनिवेश क़ायम करने वाली एक पश्चिमी बुद्धिवादी सभ्यता को लेकर उनकी नामंजूरी बाद के राष्ट्रवादियों के मुक़ाबले प्रायः ज़्यादा गहरी और बुनियादी है; लेकिन वे औपनिवेशिक पराधीनता के ख़ात्मे को ऐतिहासिक रूप से एक संभव परियोजना के रूप में देखते ही नहीं। उनके लिए अपने युग का ऐतिहासिक प्रश्न, जिसके गिर्द समस्त सामाजिक चिंतन चक्कर काटता था, यह था कि किस तरह इतने वैविध्यपूर्ण संसाधनों से संपन्न एक सभ्यता उपनिवेशवाद के अधीन हो गयी? लेकिन यह प्रश्न इस प्रश्न से अलग था कि किस तरह इस अधीनता को राजनीतिक तौर पर ख़त्म किया जा सकता है। पद्धतिगत रूप से, यह याद रखना ज़रूरी है कि वे इस दूसरे सवाल का नकारात्मक उत्तर नहीं दे रहे; यह सवाल उनके विमर्श के भीतर पूछा ही नहीं गया है (1992कः 6)
दरअसल, इस मुक़ाम पर शुरुआती राष्ट्रवादी और अंग्रेज़ साम्राज्यवादी, दोनों अंग्रेज़ी राज के स्थायित्व में यक़ीन करते थे। ब्रिटिश रवैये के एक संवेदनशील अध्ययन के लिए, जिसमें उस दौर के पत्रों, डायरियों और उपन्यासों का विस्तृत विश्लेषण है, देखें, हचिन्सन्स, द इल्यूज़न्स ऑफ़ परमनेंसः ब्रिटिश इम्पीरियलिज़्म इन इंडिया (1967)
[vii].  कोह्न (1983, 1990: 166) द्वारा उद्धृत।
[viii]. उद्धृत, कोह्न (1983, 1990: 192)
[ix]. देशी प्रेस द्वारा तैयार किया गया सार्वजनिक वृत्त और भारतेंदु की दो पत्रिकाओं की भूमिका पर आगे विस्तार से विचार किया जायेगा।
[x]. इस पद के भूराजनीतिक अर्थ के बारे में आगे की सूचनाएं मुखर्जी (1976) के लेख पर आधारित हैं। अल-बरूनी का हवाला ई. सचाऊ के अलबरूनीज़ इंडिया (1: 198) में पाया जा सकता है; अकबर के शासन-काल पर सूचनाएं एच. एम. इलियट और जे. डाउसन के द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया ऐज़ टोल्ड बाइ इट्स ओन हिस्टोरियंस (5: 186) में, निज़ामुद्दीन अहमद बख़्शी के तबाक़त-ई-अकबरी में मिलती हैं। मुखर्जी (1976: 186, 190) में उद्धृत।
[xi]. मुखर्जी (1976: 195) में उद्धृत।
[xii]. मिसाल के लिए, मराठी कवि एकनाथ (1533-99) द्वारा लिखित भारुद (छंदों में संवाद वाली एक विधा), हिंदू तुर्क संवाद में इस पद का इस्तेमाल; देखें, ज़ेलिओट (1982)। या प्रायः एक सदी बाद हिंदू राजा के रूप में अपना राज्याभिषेक कराने का शिवाजी का फ़ैसला। गॉर्डन (1993: 87) के अुनसार, इस काम का कोई परा-प्रादेशिक महत्व उतना नहीं था जितना कि आंतरिक राजनीतिक महत्व। यह स्थानीय जागीदारों के ऊपर अपनी सत्ता स्थापित करने का उपक्रम था। शिवाजी के राजकवि भूषण के काव्य में, विशेष कर उनके संकलन शिवराज भूषण में (जो कि 1667-73 के बीच लिखा गया था और भूषण ग्रंथावली में उपलब्ध है), इस बात के पर्याप्त संकेत मौजूद हैं कि हिंदू-तुर्क के विरोध को राजनीतिक रूप में भी देखा जाता था, क्योंकि शिवाजी इनमें स्पष्टतः हिंदुओं के रक्षक के रूप में चित्रित किये गये हैं।
कॉनेल ने पुरातन बंगाली गौड़ीय पाठों का जो सर्वेक्षण किया है, उसके अनुसार, ‘हिंदूपद वहीं इस्तेमाल होता था जहां यह आवश्यक जान पड़ता था कि जो इस समूह के अंदर माने जाते हैं और जो साफ़-साफ़ बाहरी हैं (मुसलमान), उनके बीच एक सीमा-रेखा खींची जाये। आम तौर पर ऐसा करने का अवसर अनुष्ठानों के प्रसंग में ही उपस्थित होता था। ओकॉनेल के अनुसार, हिंदू धर्म रस्मी या आनुष्ठानिक क़िस्म की कुछ क्रियाओं की ओर संकेत करता प्रतीत होता है जिन्हें करने का अधिकार हिंदुओं और सिर्फ़ हिंदुओं को है। लेकिन सर्वेक्षण में आए हुए किसी भी पाठ में इस बात पर कोई स्पष्ट विचार-विमर्श नहीं मिलता कि ‘‘हिंदू’’ या ‘‘हिंदू धर्म’’ के मायने क्या हैं’ (1973: 340)।
लेकिन इस तथ्य के बावजूद, कि हिंदूएक धार्मिक नाम के रूप में इस्तेमाल होता था, उपलब्ध साक्ष्यों से ऐसा साफ़ प्रतीत होता है कि यह सामूहिक आत्म-प्रेक्षण या किसी उपमहाद्वीपीय स्तर के निरूपण के लिए इस्तेमाल होने वाला पद नहीं था।
[xiii]. हिंदूपद के संबंध में यूरोपीय ग़लतफ़हमियों पर देखें, स्टीटेनक्रॉन (1989), उसके पहले के निबंधों (1988: 130ff) को भी देखें।
[xiv]. कॉप्फ़ (1969) की किताब भारत के आधुनिकीकरण में ब्रिटिश प्राच्यवादियों की भूमिका पर सबसे शुरुआती विनिबंध है, हालांकि अपने आकलन में यह ग़ैर-आलोचनात्मक रूप से उत्साही है। केजरीवाल (1988) की किताब भारतीय अतीत की खोज में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के योगदान का अधिक संतुलित, यद्यपि उतना ही ग़ैर-आलोचनात्मक, लेखा-जोखा है।
इस तरह के प्रशंसात्मक मूल्यांकन की विपरीत धुरी सईद के ओरिएंटलिज़्म (1978, 1985) के प्रकाशन के द्वारा निर्मित होनी थी। उसने मध्यपूर्वी/अरबी प्रसंग में प्राच्यवादी उद्यम की थोक भाव से जो भर्त्सना की, उसका ही अनुपालन इंडेन (1986, 1990) ने किया है। उसने हिंदुस्तान में इंडोलोजी और ऐंथ्रोपॉलोजी के अकादमिक अनुशासनों के लिए वही कार्यभार अपने हाथ में लिया, यानी ज्ञानमीमांसात्मक बुनियादों के गोपन का कार्यभार। सईद के अनैतिहासिक और अभेदपरक उपागम के लिए देखें डालमिया-लुडरिट्ज़ (1993) जिसमें सईद के अभिग्रहण पर और सामग्री है, सईद और इंडेन, जो कि अपने प्राविधिक उपकरणों के चुनाव में अधिक सर्वसंचयवादी है, की संयुक्त आलोचना के लिए देखें, अहमद (1991b)।
प्राच्यवादी प्रयास का एक संतुलित आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन होना अभी भी बाकी है। उसे आगामी विद्वज्जनों के उद्यम का इंतज़ार है।
[xv]. भारत में मुस्लिम शासन संबंधी ब्रिटिश इतिहास  लेखन के विषय का अब तक का जो सबसे विस्तृत और प्रांजल अध्ययन है, उसके लिए देखें, ग्रेवाल (1970)
[xvi]. अलबत्ता, ‘हिंदूपद को उन्नीसवीं सदी में बिला शर्त स्वीकृति नहीं मिली। सनातनता के बिल्कुल आरंभिक पक्षधरों में से एक, विष्णुबावा ब्रह्मचारी (1825-71) ने अपने मराठी लेखन में मलेच्छ स्रोतों से आने की बिना पर इस पद के इस्तेमाल से इंकार किया। अपने वेदोक्तधर्मप्रकाश (1859) में उन्होंने हिंदू धर्म के बजाय वेदोक्त धर्म की बात की। इसी तरह दयानंद सरस्वती ने भी हिंदू धर्म की जगह आर्यधर्म को तवज्जह दी। सदी का अंत आते-आते इन रूपभेदों को ख़त्म हो जाना था, साथ ही उन समुदायों के बीच की तकरारों और मुख़ालफ़तों को भी, जो एक हिंदू समुदाय का संघटन करने के लिए आगे आ रहे थे। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में मराठा लुटेरों के हाथों जो यातनाएं मिली थीं, उन्हें सफलतापूर्वक दमित किया जाना था, ताकि सिर्फ़ हिंदू-मुसलमान के विरोध-भाव की पेशबंदी हो सके। इस प्रक्रिया की ओर मेरा ध्यान खींचने के लिए मैं सुधीर चंद्र की आभारी हूं।
[xvii]. देखें, बिपन चंद्रा (1966, 1969)
[xviii]. पुराणों में भारतवर्ष के भूगोल और विश्वरचना के सारगर्भित संक्षिप्त विवरण के लिए देखें, रोसर (1986: 130-1)। जिस तरह यह विवाद का विषय है कि इसकी स्थलाकृति ठीक-ठीक क्या थी, उसी तरह यह भी कि इसके नाम की उत्पत्ति कैसे हुई, क्योंकि क्रमशः वेदों, ब्राह्मणों, महाकाव्यों और पुराणों में अलग-अलग जनों को भरत बताया गया है। इसके लिए देखें, मोहनचंद (1990: 195-205)। इस पर ज़ोर देना ज़रूरी है, क्योंकि भारतवर्ष की धारणा के ताक़तवर बने रहने के बावजूद उसके सुनिश्चित संदर्भ-बिंदु शताब्दियों के दौरान ख़ासे बदलते रहे हैं।
[xix]. पुराण के खेमराज श्रीकृष्णदास वाले संस्करण का अध्याय 54 इसी विषय को समर्पित है।
[xx]. गीता प्रेस के संस्करण में भाग 5, 9 में संकलित।
[xxi]. देखें, थापर, जो उपमहाद्वीपीय अस्मिताकी बात करती हैं (1989: 212)
[xxii]. हरिश्चंद्रचंद्रिका (2/8, 1875) में लंबी किस्तों में प्रकाशित अष्टादश पुराण की उपक्रमणिका। ग्रन्थावली 3 में भी उपलब्ध (713-51)
[xxiii]. संभवतः 1884 में लिखा गया यह निबंध ग्रन्थावली 3 में उपलब्ध है (789-802)।
[xxiv]. मलेच्छों के बारे में आगे की टिप्पणी थापर (1978: 152-92) पर आधारित है।
[xxv]. जैसा कि थापर ने दर्ज किया है (1978: 157), इसके परिणामस्वरूप जो मिश्रण सामने आया, उसमें सामान्यतः संकर जाति के तौर पर जाने गये सभी सामाजिक समूहों को निश्चित वर्ण का दर्जा नहीं दिया जा सका। हालांकि उन्हें शूद्र के पद पर रखा गया, पर उनमें से कई, जैसे अम्बष्ठ, उग्र और निषाद, मलेच्छ के रूप में बाद में भी वर्णित होते रहे।
[xxvi]. देखें, केमिलायनेन (1964)।
[xxvii]. जर्मनी में इस विचार के विकास के ब्यौरों और भाषाई मानवशास्त्र के इस क्षेत्र में मैक्समुलर के विशेष योगदान के लिए देखें, डालमिया-लुड्रिट्ज़ (1987)।
[xxviii]. इसीलिए हेनरी मेन, मैक्समुलर को प्रतिध्वनित करते हुए, कलकत्ता विश्वविद्यालय में 1866 में दिये गये अपने भाषण में हिंदुस्तानियों को यह सलाह दे सकते थे कि वे उस शानदार नियति को उसके सभी नतीजों के साथ स्वीकार करें, जिसने धरती के दूसरे छोर से मानवजाति के महानतम परिवार की युवतम शाखाओं में से एक को इस काम के लिए यहां ला पहुंचाया है कि वह वृद्धतम का पुनरुद्धार करे और उसे शिक्षित करे। लियोपोल्ड (1974: 600) से उद्धृत।
[xxix]. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी की शुरुआत में आर्य-विचार को लेकर राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया क्या थी, इसके विस्तृत विश्लेषण के लिए देखें, लियोपोल्ड (1970)।
[xxx]. अलबत्ता, व्याख्यान में आये हुए कुछ रूखे वक्तव्य पाठक को इस दिशा में बहका सकते हैं कि वह उन्हें भारतेंदु के रवैये का कुल जमा मान ले। अगर हिंदुस्तानियों को अपने देश में तरक़्क़ी लाने के लिए काम करना चाहिए तो, जैसा कि भारतेंदु कहते हैं, उन्हें उसी तर्क से अपनी भाषा में तरक़्क़ी लाने के लिए भी काम करना चाहिए। आश्चर्यजनक तरीके से इस शब्द – भाषा’ – पर ज़ोर नहीं दिया गया है; शायद वे ऐसा महसूस करते हैं कि उनके अपने उत्तर भारतीय लोग अभी तक भाषाविषयक उनके संदेश को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं’ (मैक्ग्रेगर, 1991: 100)। परंतु, निज भाषा का समर्थन करने का परामर्श कोई अचानक आया हुआ विचार नहीं है, बल्कि यह हिंदी के लिए ताज़िंदगी चलाये गये अभियान का चरम बिंदु उपस्थित करता वक्तव्य है।
[xxxi]. मदन गोपाल द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी गयी जीवनी (1985), जिसमें पहले के एक काम (1972) की सामग्री को भी ले लिया गया है, मुख्यतः इन तीन जीवनियों पर आधारित है, हालांकि उसमें स्रोतों का हवाल नहीं दिया गया है।
[xxxii]. राम विलास शर्मा के कामों के नये संस्करण संशोधित और अद्यतन हैं। हिंदू पुनरुत्थानवाद की बहस एक स्वातंत्र्योत्तर परिघटना है, और यह स्पष्टतः पहले के आकलन के साथ बाद में जोड़ी गयी चीज़ है। लेकिन, रामविलास शर्मा के उपागम को स्वतं़त्रता-पूर्व और -उत्तर में बांट कर देखने की बजाय संपूर्णता में ही उस पर विचार करना व्यावहारिक है, क्योंकि उसमें एक दृष्टिगत निरंतरता बनी रही है।
[xxxiii]. हम सिर्फ़ बलिया व्याख्यान से भारतेंदु के काम की संपूर्णतानिकाल नहीं सकते; हरिश्चंद्र के विचारों, और उनके सहकर्मियों तथा समकालीनों के विचारों में हुए विकासों को उस दौर की पत्रिकाओं और पुस्तिकाओं में संरक्षित साक्ष्यों की नये सिरे से छानबीन करते हुए मूल्यांकित करना होगा।
[xxxiv]. मिसाल के लिए, शंभुनाथ और अशोक जोशी (1986) द्वारा संपादित पुस्तक के ज़्यादातर लेखों का आशय ऐसा ही है।
सम्पर्क –
मोबाईल – 09818577833

संजीव कुमार का आलेख ‘निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?’


मुक्तिबोध 

मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू होने वाला है। उनके कृतिकार रूप को विश्लेषित करने के प्रयास आरम्भ हो चुके हैं। मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में हमेशा उन वंचितों की बात करने की कोशिश की है जिनकी बातें प्रायः अनसुनी रह जाती हैं। ऐसे वंचित जिनकी कथाएं प्रायः अस्त-व्यस्त या अधूरी ही दिखाई पड़ती हैं। बावजूद इसके इनकी अस्त-व्यस्तता ही इनका सौन्दर्य होती हैं। मुक्तिबोध की ऐसी कुछ कहानियाँ हैं जो अधूरी लगती हैं, लेकिन सवाल यह है कि मुक्तिबोध ने ऐसा सायास किया या फिर उन्हें समय ही नहीं मिल पाया इन्हें पूरी कर पाने का। इसकी तहकीकात करने की कोशिश की है युवा आलोचक संजीव कुमार ने इस आलेख में। तो आइए पढ़ते हैं संजीव कुमार का यह आलेख ‘निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?
        
निबंधात्मक कहानियां या कथात्मक निबंध?
संजीव कुमार
गजानन माधव मुक्तिबोध का पूरा कथा-साहित्य मुक्तिबोध रचनावली खंड-3 के 360 पृष्ठों में संकलित है। लगभग 120 पृष्ठों यानी एक तिहाई हिस्से में उनकी अपूर्ण रचनाएं हैं — छोटी-बड़ी कुल 21 अधूरी कहानियां और एक अधूरे उपन्यास के कुछ असंबद्ध टुकड़े! शेष दो तिहाई हिस्से में भी एकाधिक स्थलों पर पूर्णता का मामला संदिग्ध है। चाबुक शीर्षक कहानी तो बिलाशक अधूरी है; इस कहानी के एक बड़े हिस्से का कहानी की शुरुआत के साथ कोई तालमेल न देख उसे उपसंहार शीर्षक के साथ अलग से छापा गया है। खुद उपसंहारकहानी के अन्त  में संपादक ने लिखा है, ‘संभवतः अपूर्ण कहानी का अंशविद्रूपके अन्त  में लिखा है, ‘संभवतः किसी लंबी कहानी का अंश। इसी तरह एक दाखि़ल-दफ़्तर सांझजहाँ ख़त्म होती है, उसके आगे का भी एक अधूरा टुकड़ा पांडुलिपियों में मिला है जो रचनावली में संकलित है। विपात्र ज्ञानोदय में कहानी के रूप में प्रकाशित हुई थी और फिर यथावत ‘काठ का सपना’ में संकलित हुई। उपन्यास की शक्ल में शाया होने पर उसमें एक बड़ा हिस्सा और जुड़ा जो कि उन्हीं पात्रों और परिवेश को ले कर एक अलग तरह के बरताव और मिज़ाज के साथ आगे चलता है। रचनावली के संपादक श्री नेमिचंद जैन के मत में, ऐसा जान पड़ता है कि यह इसी लंबी कथा का एक अलग प्रारूप है।… इसे मिला कर विपात्रको एक लघु उपन्यास मानने की बजाय उसी कथा का एक अन्य रूप मानना अधिक समीचीन होगा।
मुक्तिबोध के यहाँ अधूरी कहानियों की इस बड़ी तादाद का कारण क्या है? एक तो यह कि उन्हें लेखक की मृत्यु के बाद उसकी पांडुलिपियों में से किसी तरह उपराया गया है। जिन लेखकों की रचनाओं को उनके जीवित रहते उनकी देख-रेख में ही प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त होता है, उनका आधा-अधूरापन इस तरह सामने नहीं आ पाता। मुक्तिबोध का सृजन-संसार इस सौभाग्य से वंचित रहा। इसीलिए उसकी स्थिति ऐसी है जैसे किसी कारीगर का शो-रूम ही नहीं, उसके हुनर का इंतज़ार करती आड़ी-टेढ़ी चीज़ों से अंटा पड़ा वर्कशाप भी हमारे सामने आ गया हो।… पर अधूरी कहानियों की बड़ी संख्या सिर्फ़ इस वजह से नहीं है। ज़्यादा बड़ी वजह, संभवतः, मुक्तिबोध के रचनात्मक मिज़ाज में निहित है। यह बात तब समझ में आती है जब आप पाते हैं कि उनकी साबुत और संपूर्ण कहानियों में से भी अनेक अधूरी ही जान पड़ती हैं। उनका अन्त समापन का वह बोध नहीं दे पाता जिसकी हम एक कहानी से उम्मीद करते हैं। वे जहाँ ख़त्म होती हैं, वहाँ कथा-प्रसंगों के कई लावारिस धागे हमारी उंगलियों में उलझे रह जाते हैं। उंगलियां हिलाएं भी तो कहीं कोई हरक़त नहीं होती, क्योंकि इन धागों के दूसरे छोर हवा में लटके होते हैं। इससे लगता है कि मुक्तिबोध स्वभावतःकहानीकार नहीं हैं। कहानीकार से जुदा क़िस्म के सृजन-स्वभाव के चलते वे अक्सर अटकाव या भटकाव के शिकार होते हैं। पहली स्थिति में कहानी अधूरी छूट जाती है, दूसरी स्थिति में वह पूरी होकर भी कोई आश्वस्तिकर समापन अर्जित नहीं कर पाती।… अलबत्ता, कुछ प्रीतिकर अपवाद भी हैं, जिनसे गुज़रते हुए यह अहसास होता है कि स्वभाव जैसा कोई सत्य अगर है तो बहुलांश के अर्थ में ही। बचा हुआ अल्पांश  भी कभी-कभी निर्णायक हो जाता है।
मुक्तिबोध के स्वभावतःकहानीकार न होने के इस नुक़्ते पर हम वापस लौटेंगे, उससे पहले यह देखें कि मुक्तिबोध खुद अपनी कहानियों के अधूरे छूट जाने की इस समस्या पर क्या सोचते हैं। उनकी एक कहानी है, भूत का उपचार। इसमें वाचक बताता है कि उसने एक कहानी लिखी, जिसके चार पन्ने लिखने के बाद उसे मालूम हो गया कि कहानी इस तरह आगे बढ़ायी नहीं जा सकती।
मुख्य पात्र की ज़िंदगी थी, मैं भाष्यकर्ता दर्शक की हैसियत से एक पात्र बना हुआ था। कहानी बढ़ सकती थी बशर्ते कि मैं मूर्खता को ही कला मान लेता।
मूर्खता को ही कला मान लेने का यह तंज कहानी की उन चिराचरित रूढ़ियों को लेकर है जिन्हें अपनाने की छूट मुख्य पात्र ने उसे नहीं दी। वह लेखक बने हुए इस वाचक से बहस कर बैठा। लेखक ने सोचा था कि कहानी दुनियादार न हो पाने के कारण असफल रहनेवाले इस गणितप्रेमी, कलाभिरुचिसंपन्न, निम्नमध्यवर्गीय पात्र की जिंदगी के बारे में होगी। उस ज़िंदगी में अवसन्नता और पीड़ा होगी और दुनियादारी के मोर्चे पर अपनी परम-श्लाघ्यपराजय का पछतावा होगा। पात्र ने बहस छेड़ कर उसकी सारी कल्पना को ध्वस्त कर दिया। गणित की पहेलियों में उलझा कर उसने उसे यह अहसास कराया कि वह गणित की बहुत स्थूल समझ रखता है और उसी तरह मुनष्य-स्वभाव के भी स्थूल गणित को ही जानता है। स्थूल गणित का सत्य सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं होता, उसी तरह मनुष्य-स्वभाव के बारे में स्थूल प्रेक्षणों के सत्य सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं होते। अवसन्नता’, ‘पीड़ाऔर पराजय-बोधजैसी चीज़ को वह एक निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के बारे में इसी तरह के फ़ॉर्मूलाबद्ध सत्य का दर्जा देता है। वह शुद्ध तार्किक भावोंकी दुनिया में नयी-नयी संगतियों की खोजसे प्राप्त होने वाले आनन्द की बात करता है और उसे ही अपने भीतर के जीवनके रूप में पहचानने पर ज़ोर देता है। 
मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो! जो भीतर का है, वह धुआं या कुहरा है, यह ग़लत है। आप मुझे ऐसे पेंट करना चाहते हो जैसे मैं दुख के, असंगति के, कष्ट के, एक गटर का एक कीड़ा यानी निम्न मध्यवर्गीय हूँ।… ईश्वर के लिए, आप मुझे ग़लत चित्रित न कीजिए। ठीक है कि मैं तंग गलियों में रहता हूँ, और बच्चे को कपड़े नहीं हैं, या कि मैं फटेहाल हूँ। किन्तु मुझ पर दया करने की कुचेष्टा न कीजिए।… क्षमा कीजिए, लेकिन यह सच है कि आप लोग मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यन्त महत्वपूर्ण मान कर चलते हैं–विशेषकर उन अवस्थाओं को जहाँ वह अवसन्न है, और बाहरी पीड़ाओं से दुखी है। मैं इस अवसन्नता और पीड़ा का समर्थक नहीं, भयानक विरोधी हूँ। ये पीड़ाएं दूर होनी चाहिए। लेकिन उन्हें अलग हटाने के लिए मन में एक भव्यता लगती है– चाहे वह भव्यता पीड़ा दूर करने संबंधी हो, या गणितशास्त्रीय कल्पना की एक नयी अभिव्यक्ति। उस भव्य भावना को यदि उतारा जाए तो क्या कहना!… इसलिए जनाबेआली, मैं इस बात का विरोध करता हूँ कि आप निम्न मध्यवर्गीय कह कर मुझे ज़लील करें, मेरे फटेहाल कपड़ों की तरफ़ जान-बूझकर लोगों का ध्यान इस उद्देश्य से खिंचवायें कि वे मुझ पर दया करें। उन सालों की ऐसी-तैसी!
इस चुनौती का सामना होने पर वाचक परेशान हो उठता है। उसे लगता है कि यह ऐसा भूत है जो उसका पिंड नहीं छोड़ेगा। मार भगानायानी कहानी को अधूरा छोड़ देना ही इस भूत का उपचार है।
गणित और विज्ञान के उलझे सवालों में एक अजीब विश्वात्मक रोमांसदेखने वाला यह पात्र अपने लेखक के सामने जो चुनौती पेश कर रहा है, वह क्या है? वह किसी पात्र को चली आती रूढ़ियों की मदद से चित्रित न करने की चुनौती है। इन रूढ़ियों में फंसा लेखक मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यन्त महत्वपूर्ण मान करउनके चित्रण पर अपने रचनात्मक दायित्व की इतिश्री समझ लेता है। ऐसा नहीं कि वे विशेष अवस्थाएं असत्य हैं। वे भी सत्य हैं, पर उनकी सत्यता स्थूल और सुविदित है। उनका बार-बार वर्णन हुआ है, इसलिए वे बहुत जानी-पहचानी अवस्थाएं हैं, पर किसी पात्र विशेष की दुनिया उन्हीं पर ख़त्म नहीं हो जाती। यह पात्र लेखक को सुपरिचित और सुविदित से आगे जाने की, उन सत्यों को पहचानने की चुनौती देता है जिन तक पहुँचने का रास्ता फॉर्मूलों से हो कर नहीं जाता। वह एक तरह से आसान मार्ग अपना कर संतुष्ट हो जाने के लिए उसे बरजता है।
यह बहसतलब हो सकता है कि एक कहानी के अधूरे छूट जाने का जो विशिष्ट सन्दर्भ इस कहानी में आया है, उसे विशिष्ट ही रहने दिया जाए या सृजनशीलता के व्यापक सन्दर्भ में उससे कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले जाएं। विशिष्ट ही रहने देने का मतलब होगा, सिर्फ़ एक नयी हिकमत के रूप में इस कहानी की व्याख्या करना, जो कि ग़लत भी नहीं है। एक कहानी क्योंकर अधूरी रह गयी, यह बताते हुए लेखक, दरअसल, कहानी पूरी ही कर रहा है। एक पात्र का चित्रण करने में वह अपने को असमर्थ बता रहा है, पर इसी बहाने वह उसका चित्रण भी कर रहा है। यह युक्ति कुछ-कुछ वैसी ही है जैसे सारी बात बता कर यह कहना कि ये बातें मैं आपको नहीं बताऊंगा।
विशिष्ट ही रहने देने का एक और मतलब होगा, एक ख़ास तरह के निम्न मध्यवर्गीय पात्र की कहानी के रूप में इसकी व्याख्या करना–एक ऐसे पात्र की कहानी जो ग़रीब और तंगहाल तो है, पर उसका ज्ञान-व्यसन उसे इस तंगहाली की पीड़ा में गर्क़ नहीं होने देता।
पर यह कहानी सृजनशीलता के व्यापक सन्दर्भ में कुछ सामान्य निष्कर्ष निकालने के सुराग भी सौंपती है, बल्कि कहना चाहिए, उसके लिए उकसाती है। जब वाचक कहता है कि कहानी पूरी हो जाती बशर्ते कि मैं मूर्खता को ही कला मान लेता’, या कहानी का पात्र उससे कहता है कि स्थूल गणित मानव-स्वभाव का भी होता है, सो आपने जान लिया, लेकिन आपमें ऑब्जेक्टिव इमैजिनेशन नहीं है’, या मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो’, तो ये बातें अपने विशिष्ट सन्दर्भ से परे औसत रचनाशीलता पर खड़ा किया गया सामान्य सवाल बन जाती हैं। यहाँ सहज उपलब्ध समीकरणों से काम न चला कर कहीं गहरे पैठने की एक चुनौती हर लेखक के सामने पेश की जा रही है। खुद भूत का उपचारकहानी का वाचक इसी चुनौती से घबरा कर अपनी कहानी अधूरी छोड़ देने की बात कह रहा है (भले ही हम यह जानते हों कि उसके लिए कहानी अधूरी छोड़ने की यह कहानी, दरअसल, अपनी कहानी को पूरा करने की ही युक्ति है)। इस तरह पूर्वोक्त विशिष्ट सन्दर्भ  से परे यहाँ मुक्तिबोध अपनी अन्य अधूरी छूट गयी कहानियों के बारे में भी एक वक्तव्य दे रहे हैं। वह यह कि उपलब्ध समीकरणों से काम चला लेने की फ़ितरत होती तो वे भी पूरी हो जातीं। अधूरेपन का कारण, वस्तुतः, मानव-स्वभाव के स्थूल गणित से आगे जाने और नयी-नयी संगतियों की खोजकरने का आग्रह है जो हर बार सध नहीं पाता।
निस्संदेह, ‘स्वभावतःकहानीकार न होने के जिस नुक्ते को पीछे उठाया गया था और जिस पर बात होना अभी बाक़ी है, उसके अलावा उक्त आग्रह भी मुक्तिबोध के यहाँ अधूरी कहानियों की बड़ी संख्या का एक कारण रहा होगा। चरित्रों और कथा-स्थितियों की कल्पना के मामले में वे आसान रास्ते का चुनाव करने वाले कहानीकार नहीं हैं। वे हर जगह उस जटिलता में उतरते दिखाई पड़ते हैं जहाँ व्यक्ति और टाइप, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जैसे लोकप्रिय/प्रचलित वर्गीकरण विश्लेषण की दृष्टि से कारगर नहीं रह जाते। कैसे? एक ओर आप पाते हैं कि वे वर्गीय प्रश्न के प्रति बेहद सजग कथाकार हैं और उनकी बहुत कम कहानियां ऐसी हैं जहाँ मौजूदा समाज-व्यवस्था के भीतर पात्र की वर्गीय अवस्थिति के मसले को अनछुआ छोड़ दिया गया हो, पर दूसरी ओर, पारंपरिक अर्थ में प्रतिनिधि कहे जाने वाले पात्र उनके यहाँ  नहीं मिलेंगे जिसकी कि वर्गीय प्रश्न के प्रति सजग कथाकार से सामान्यतः उम्मीद की जाती है। एक ओर, वे जिन समस्याओं से लगातार टकराते हैं, वे पूँजी के तंत्र में उगी ठेठ सामाजिक-ऐतिहासिक समस्याएं हैं और इसी रूप में इनकी पहचान वे बतौर कथाकार करते भी हैं, पर दूसरी ओर, उनकी कथा बाहर के घटनासंकुल संसार में उतनी नहीं चलती जितनी अन्दर के भाव-विचारमय संसार में, यानी वे मैन इन एक्शनके नहीं, ‘मैन इन कंटेम्प्लेशनके कथाकार लगते हैं जो कि मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का गुण बताया जाता है। ग़रज़ कि मुक्तिबोध के लिए मार्क्सवादी होने का मतलब व्यक्ति-मनोविज्ञान की बारीकियों में उतरने और उसकी अशेष संभावनाओं के प्रति अपने को खुला रखने की दुश्वारियों से पीछा छुड़ा लेना नहीं है और पात्र के मनोविज्ञान में, उसके भाव और विचार की दुनिया में गोता लगाने का मतलब उसे पूँजी और सत्ता के गठजोड़ पर टिके ठोस सामाजिक परिप्रेक्ष्य से काट देना नहीं है। 
मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियां, ‘भूत का उपचारकी तरह ही, इस बात का उदाहरण हैं। उनकी कहानियों में निम्नमध्यवर्गीय अभावग्रस्त जीवन के दारुण चित्र बहुतायत से हैं, इन चित्रों को व्यवस्था में निहित अन्याय और छल के परिणाम के रूप में प्रस्तुत करने का सचेत प्रयास भी है, लेकिन इसके लिए कहानी घटनाओं की श्रृंखला का सहारा उतना नहीं लेती जितना मानसिक प्रतिक्रियाओं का। व्यवस्था की आलोचना किसी पात्र के आत्मनिष्ठ अवलोकन-बिंदु से प्रस्तुत की जाती है जहाँ उसके विद्रूप को झेलते व्यक्ति का मन केन्द्र  में होता है और आलोचनात्मक यथार्थवाद एक तरह का मनोवैज्ञानिक रचना-विधान हासिल कर लेता है। पता नहीं, इसके लिए अन्तर्मुखी यथार्थवाद जैसा कोई पद गढ़ा जा सकता है या नहीं, पर यह सच है कि मुक्तिबोध के यहाँ अन्यायपूर्ण समाजार्थिक व्यवस्था की आलोचना और जटिल मनोवैज्ञानिक चित्रण के बीच कोई फांक नहीं मिलती। ये परस्पर विरोधी विशेषज्ञताएं न रह कर पूरक बन जाती हैं। उपसंहारकहानी को इसके नमूने के तौर पर पढ़ सकते हैं।
उपसंहाररामलाल नामक एक ग़रीब निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानी है। उसका पेशा क्या है, यह ठीक-ठीक पता नहीं चलता, पर अनुमान लगाने की गुंजाइश है कि वह बहुत कम वेतन पर किसी अख़बार में नौकरी करता है। उसकी ग़रीबी के बारे में उसके एक ख़ैरख़्वाह की राय है कि जो आदमी ग़रीब बना रहना चाहता है, उसका कोई इलाज है? कितनी ही नौकरियां छोड़ीं उसने। मात्र भावुकतावश।… दिमाग़ी फितूर उस पर आज भी सवार है।… भाई, अगर रोटी कमाना हो तो उसका तरीक़ा सीखो। दुनिया की फ़िक्र छोड़ कर अपनी बढ़ती की चिन्ता करो।कहानी के किसी और हिस्से से नहीं, सिर्फ़ अन्त में आई हुई एक पात्र की इस टिप्पणी से पता चलता है कि रामलाल उसूलों वाला आदमी है (भावुकता’, ‘दिमाग़ी फितूर’, ‘दुनिया की फ़िक्र’–ये सब उसी ओर इशारा करते हैं) और समझौता न करना उसकी दुर्दशा का कारण है। इसीलिए इस दुनियादार पात्र की निगाह में, ‘वह एक निकम्मा और दयनीय व्यक्ति है।उसका पारिवारिक जीवन भयावह अभावों से घिरा है। उसकी अपनी हालत यह है कि कठिनाइयों ने… शरीर को भी झुलसा दिया। उसे कमज़ोरी और रोग का घर बना दिया। तनख़्वाह की बड़ी रक़म डॉक्टरों के पास जाने लगी और कर्ज़ का पहाड़ ऊंचा होता चला गया। चिन्ता का धुआं दिलोदिमाग़ में हमेशा के लिए भर उठा और आत्मा की लौ धुआंने लगी। जीवन में जीवन की अभिरुचि जाती रही।पत्नी की दशा : ‘…जब विवाहित हो कर आयी थी तो उसका रूप ही कुछ और था।… स्वास्थ्य ऐसा कि जो किसी वृक्ष का स्वास्थ्य होता है, जिसमें बड़ी शक्ति और बहुत आत्म-सामर्थ्य स्वाभाविक रहता है, शाखा के या धड़ के कट जाने के बावजूद जो विकसित और सवंर्द्धित होता रहता है।… किन्तु आज आठ साल बाद, वह एक ऐसा खोखला घर हो गयी जिसे ज़रा-सी आंधी का हल्का-सा थप्पड़ ढहा सकता है।उसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं जो बाबूजी के अफ़सर बन जाने की झूठी उम्मीद जगाये जाने पर खुशी में नाचनेलगते हैं और आपस में होड़ लगाने लगते हैं कि बाबूजी उसके जूते ला देंगे, उसकी कमीज़ ला देंगे।
अभावग्रस्त गृहस्थी के ऐसे चित्र कहानी में कई तरह से और कई बार आये हैं। इन अभावों से पैदा होनेवाले अवसाद और इन दोनों–यानी अभाव और अवसाद–से लड़ने की कोशिशों पर कहानी केंद्रित है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से स्थूल घटनाएं नगण्य हैं। कहानी का बड़ा हिस्सा मनोभावों के धरातल पर चलता है। रामलाल किसी से कर्ज़ मांगने के लिए घर से निकला है, पर मन की अव्याख्येय गति कुछ ऐसी है कि जिस दिशा में जाना था, उससे ठीक उल्टी दिशा में काफ़ी दूर तक निकल जाता है। फिर उसके मन में एकाएक चुभती हुई आँखों  का एक बिंब उभरता है और उसे अपने कर्तव्य की याद दिला देता है। ये आंखें उसकी पत्नी की हैं, जैसा कि हमें थोड़ी देर बाद बताया जाता है।
किसी तेज़ रोशनी सी चमकती हुईं वे आंखें– मानो किसी पागल की हों। फिर भी वे सचेत थीं, अपनी हताशा में सम्मिलित प्रतिरोध से भरी हुईं, संपूर्ण निरपेक्ष, किन्तु किसी को उसके कर्तव्य का भान कराती हुईं, निराश, और किसी अमूर्त (यानी तुरंत समझ में न आ सकने वाले कि क्यों ऐसा है)… क्रोध और क्षोभ में जलती हुईं।
 
पीले, कृश, सुघड़ चेहरे की वे आंखें रामलाल के अंतःकरण में गड़ी जा रही थीं। मानो किन्हीं तेज़ किरणों की वे लंबी चमकती हुई आलपिनें हों। उनकी वह दृढ़ एकाग्र निरंतर दृष्टि हृदय को आह्लाद देने वाली न थी। चेतना की गहरी तहों को ज़बरदस्ती झकझोर, विचारों और वेदनाओं की अराजक स्थिति उत्पन्न कर, वे उस तमोलीन गहराई में से एक केंद्रीय सत्य का उद्घाटन करती थीं, जो रामलाल के लाख प्रयत्नों के बावजूद छिप न सका। उन आँखों की तेज़ रोशनी  के एक पल के भीतर ही रामलाल कई बार जन्मा और कई बार मर गया–उसके कई पुनर्जन्म हुए।
चुभती हुई आँखों  का यह वर्णन आगे भी चलता है। ये आंखें रामलाल के अन्दर   कहीं बहुत गहरा घाव कर देती हैं। उसके बाद रामलाल किसी आंतरिक प्रवृत्ति सेसाइकिल से उतर पड़ता है, और बहुत बेचैनी से अपनी जेबें टटोलने लगता है, जैसे उसके पास दस रुपये का कोई नोट रहा हो जिसे किसी ने उड़ा लिया। ‘…यह सब करते हुए भी उसका सचेत मन कह रहा था कि क्या तमाशा कर रहे हो! तुम्हारा कुछ खोया नहीं।
रामलाल के घर से निकलने के बाद का यह पूरा प्रकरण पात्र के जटिल मनोविज्ञान में मुक्तिबोध की दिलचस्पी का एक नमूना है। सचेत मनकुछ और कह रहा हो, आंतरिक प्रवृत्ति कुछ और करवा रही हो–यह स्थिति सामान्यतः व्यवस्थागत अन्याय और छल के प्रश्नों से टकराने वाले लेखकों के यहाँ  नहीं मिलती। उनके यहाँ  ऐसे जटिल मनोवैज्ञानिक प्रसंग नहीं मिलते कि पात्र घर से निकलें कहीं और के लिए और चल पड़ें ठीक उल्टी दिशा में, फिर एक निरावलंब प्रत्यक्ष के रूप में एक शुद्ध मानसिक परिघटना से जूझते हुए गहरी ग्लानि का अनुभव करें, फिर कोई ऐसी हरकत करने लगें जिसका खुद उनकी सजग बुद्धि के लिए कोई अर्थ न हो। मुक्तिबोध यहाँ विशुद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार नज़र आते हैं। फ़र्क़ यही है कि मनोवैज्ञानिक पेचीदगियों का चित्रण उनके लिए अन्यायपूर्ण असमानता की बुनियाद पर क़ायम समाज की विद्रूपता को उजागर करने का साधन है। जब रामलाल बेचैनी से अपनी जेबें टटोलता है, जैसे उसका दस रुपये का नोट किसी ने उड़ा लिया हो, तब हमारा ध्यान असामान्य मनोविज्ञान की पोथियों की ओर नहीं बल्कि उस व्यवस्था की ओर जाता है जिसने मेहनतकशों को उनके प्राप्य से, उनके वाजिब हक़ से वंचित कर रखा है और इस तरह चुपके से जेब ख़ाली कर जाने वाले गिरहकट का किरदार निभा रही है। 
कहानी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, रामलाल जैसों को अपना निरीह शिकार  बनाने वाली व्यवस्था के कई ठोस सन्दर्भ  कहानी में आते जाते हैं। कॉफ़ी हाउस में बैठे-बैठे रामलाल ब्लिट्ज़अख़बार देखता है जिसमें किसी क़स्बे के एक ग्रामीण शिक्षक की आत्महत्या की ख़बर छपी है। उस शिक्षक की जेब में मिले पुरजे पर लिखा था कि चालीस रुपये माहवार की तनख़्वाह पर वह अपने प्यारे परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, इसलिए खुदकुशी कर रहा है। उसी के साथ यह ख़बर भी छपी थी कि इस खुदकुशी के बाद जगह-जगह आंदोलन भड़क उठे हैं।
उसको पढ़ते-पढ़ते उसे भी जोश आ गया। उसके दिल की सारी नाउम्मीदी एक विश्वव्यापी अंगार के रूप में रूपांतरित हो कर उसके दिल को गरमी और आत्मा को किरण प्रदान करने लगी। बीमार को जैसे सेहत प्राप्त होती है, भूखे को जैसे अन्न मिल जाता है, निस्सहाय को जैसे कोई उद्धारक अभिन्न-हृदय मित्र के दर्शन  होते हैं– बिल्कुल उसी तरह रामलाल को एक सत्य के दर्शन प्राप्त हुए, वह सत्य जिसका वह स्वयं एक अंग है। रामलाल ने अपने-आपको प्राप्त कर लिया, अपने-आपको खोज लिया।
क्या रामलाल स्वयं टीचर देशपांडे नहीं है, जो रेल के नीचे कट कर मर गया? क्या उसने कभी नहीं सोचा था कि अपनी उलझनों की दुनिया से फ़रार होने का निश्चय कर डाले?… रामलाल स्वयं देशपांडे है, और बिलखता परिवार भी है जो आज किसी गाँव   में– दूर किसी गाँव में, जिंदगी की सियाह चट्टानों पर बीज बोने की पागल कोशिश कर रहा है। रामलाल वह बेचैन नौजवान भी है जिसने देशपांडे की खुदकुशी की ख़बर सुन, इंकलाब की आग लगाने की हिम्मत और जुर्रत की और गिरफ़्तार हुआ।…
खुदकुशी की ख़बर पर रामलाल की इस मानसिक उथल-पुथल का वर्णन कहानी में ख़ासा लंबा है, जिसमें वह पूरी व्यवस्था में मूलबद्ध अन्याय और अपराध की पहचान करता है, और साथ-ही-साथ उसका अन्त  कर देने वाली सामूहिक लहर का हिस्सा बनने की ज़रूरत महसूस करता है।
रामलाल ने बौद्धिक रूप से भी कुछ निष्कर्ष निकाले। एक तो यह कि वह स्वयं विशाल भव्य उपन्यास हो सकता है और उसका अंगभूत एक पात्र भी। पर अभी वह कुछ नहीं। पर उसे होना चाहिए। नवीन शक्तियों की ऊष्मा उसमें ज़रूरत से ज़्यादा हो सकती है, और यकायक भड़क सकती है, पर अभी तक वह अपने को उससे बचाता आ रहा है… पर कब तलक? उसे उलझ ही जाना चाहिए। यही धर्म है।
इस तरह मेहनतकशों की दुर्दशा और व्यवस्थाविरोधी संघर्ष की ज़रूरत को रेखांकित करने वाला आलोचनात्मक यथार्थवादी कथ्य यहाँ ऐसी कथा-स्थितियों पर निर्भर है जिन्हें मुख्यतः एक विचारशील पात्र की आत्मनिष्ठ प्रतिक्रियाओं से बुना गया है। हां, इसके बाद जब रामलाल की मेज पर और लोग आ जाते हैं, तब निश्चित रूप से कथा की प्रकृति बदल जाती है। अब एकाधिक आत्मनिष्ठ प्रतिक्रियाएं वार्तालाप के रूप में सामने आने लगती हैं। कांग्रेसी हुकूमत के जुल्मों पर, इंदौर में मज़दूरों और ग्वालियर में विद्यार्थियों पर गोली चलने की घटनाओं पर बातचीत होती है, जिसमें परस्पर विरुद्ध मत व्यक्त किये जाते हैं। इन सभी मसलों पर सरकार और व्यवस्था के पक्ष में दलील देने वाला व्यक्ति वही है जो कहानी के अन्त  में रामलाल के बारे में यह राय व्यक्त करता है कि वह एक निकम्मा और दयनीय व्यक्ति है क्योंकि दुनियादार नहीं है। वार्तालाप वाले इस हिस्से के बारे में हम कह सकते हैं कि यहाँ भी कहानी प्रतिक्रियाओं से ही बुनी जा रही है, पर अब कम-से-कम वह बाहर चल रही है, भीतर नहीं। बाहर चलने के कारण यहाँ मुख़्तलिफ़ क़िस्म की प्रतिक्रियाओं का टकराव, उन्हें व्यक्त करने के क्रम में सामने आने वाली भाव-भंगिमाएं, बहस के समानांतर चल रहे कुछ और क्रिया-व्यापार– ये सब कहानी का हिस्सा बनते हैं। रामलाल की भयावह ग़रीबी और उससे जूझते हुए रामलाल के अन्तर्जगत को सामने रख कर कहानीकार जिस यथार्थ के प्रति अपने पाठक को संवेदनशील बनाना चाहता है, उसका अब एक नयी परिधि में विस्तार होता है।
इस पूरे विवेचन का उद्देश्य उपसंहारकहानी की समीक्षा करना नहीं है। वैसे भी यह कोई मुकम्मल कहानी नहीं, ‘संभवतः अपूर्ण कहानी का अंश है, लिहाज़ा कहानी की कसौटी पर इसे परखने का कोई मतलब नहीं। यहाँ उद्देश्य सिर्फ़ यह दिखाना है कि मुक्तिबोध के यहाँ  गहरी सामाजिक चेतना वाला कथ्य पात्र के मनोजगत की सूक्ष्म गतिकी के चित्रण में बाधक नहीं बनता, और इसका उलट भी सच है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि ये उनके लिए दो अलग-अलग चीज़ें हैं ही नहीं, जिनमें तालमेल बिठाने के लिए उन्हें सचेत रूप से प्रयास करना पड़ रहा हो। उनकी कहानी-कला में यह द्वैत मिट जाता है। द्वैत का मिटना आलोचना के लिए इस लिहाज से एक बुरी ख़बर या चुनौती है कि इसकी वजह से तयशुदा वर्गीकरण की सहूलियत छिन जाती है। मुक्तिबोध प्रेमचंद परंपरा के कहानीकार हैं या नहीं, इस पर विचार करके देखिए, सहूलियत छिनने का मतलब समझ में आ जाएगा।
मुक्तिबोध के यहाँ सामाजिक स्थितियों के चित्रण का सहचर और साधन बनने वाला यह अन्तर्जगत बहुत वैविध्यपूर्ण नहीं है। हम बार-बार दुहराये जानेवाले कुछ मनोभावों की पहचान कर सकते हैं। अवसाद, ग्लानि और अपराध-बोध, निरुपायता की तड़प, आत्मसम्मान को बचाने की जद्दोजहद– इन्हीं के क्रमचय-संचय से उनके पात्रों का अन्तर्जगत बनता है। वे इन्हीं मनोभावों के कथाकार हैं, और चूंकि इन मनोभावों का सन्दर्भ उनके यहाँ अन्यायपूर्ण व्यवस्था है, इसलिए वे अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कथाकार हैं। पक्षी और दीमक’, ‘विपात्र’, ‘समझौता’, ‘विद्रूप’, ‘एक दाखि़ल-दफ़्तर सांझ’, ‘जलना’, ‘काठ का सपना’, ‘जंक्शन’, ‘अंधेरे में’, ‘नयी जिंदगी’, ‘जिंदगी की क़तरन’, ‘क्लाड ईथरली’–इन सारी कहानियों को देखें तो कहीं गहरे अवसाद के धूसर चित्र मिलेंगे, कहीं अपनी पारिवारिक-सामाजिक ज़िम्मेदारियों को न निभा पाने या प्रकारांतर से व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध मिलेगा, कहीं अपनी स्वतंत्रता को बेच खाने की ग्लानि और निरुपायता का अहसास, तो कहीं स्वतंत्रता को बचाने की पीड़ा भरी जद्दोजहद।[i]ऐसी ही मिलती-जुलती स्थितियां मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियों में हैं, भले ही इन स्थितियों की परिस्थितियां और तीव्रता, और कई बार प्रकृति भी, भिन्न हो। परिस्थितियों और तीव्रता पर तो शायद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, अलबत्ता प्रकृति की भिन्नता को एक उदाहरण से स्पष्ट कर देना उचित होगा। व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध पक्षी और दीमकमें भी है और क्लाड ईथरली में भी, पर दोनों जगह इस बोध की प्रकृति के अन्त र को चिह्नित किया जा सकता है। पक्षी और दीमकमें मुख्य पात्र (स्वयं वाचक) का अपराध-बोध शुरू से ही बहुत साफ़ है। उसे पता है कि श्यामला के सामने वह जिन बातों को छुपा जाता है, वे अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करनेमें बाधक हैं। अपनी सुविधाओं के लिए किए गए समझौते को ले कर उसके दिल के किसी कोने में कोई अंधियारा गटर एकदम फूट निकलता है। वह गटर है आत्मालोचन, दुःख और ग्लानि का।अपने व्यक्तित्व– क़ीमती फ़ाउंटेनपेन जैसे नीरव-शब्दांकनवादी व्यक्तित्व’–के विलोम के रूप में वह श्यामला को देखता है, जिसमें बारीक बेइमानियों का सूफ़ियाना अंदाज़बिल्कुल नहीं है। विलोम व्यक्तित्व वाली इस स्त्री की चाहत और खुद को उसके लिए काम्य बनाने की फ़िक्र में ही वह अपने-आपको बदलने का संकल्प लेता है। क्लाड ईथरलीमें भी वाचक के अन्दर   व्यवस्थागत अन्याय का साधन बनने का अपराध-बोध है, पर वह अवचेतन की परतों में दबा हुआ है जिसे कहानी के अन्त  में एक रूपक के साधर्म्य के सहारे सामने आना है। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने वाले विमान-चालक क्लाड ईथरली की कहानी और उस कहानी को बताने वाले सी.आई.डी. के अधिकारी की विस्तृत व्याख्या उस अहसास को चेतना की सतह पर ले आती है। यह किसी अपराध में सीधे-सीधे शामिल होने की ग्लानि नहीं, समाज में व्याप्त अन्याय का अनुभव करनेवाले किन्तु उसका विरोध न करने वाले लोगों के अंतःकरण में ख्बसी, व्यक्तिगत पाप-भावनाहै। इस तरह सामाजिक दायित्व के स्तर पर अपनी नकारात्मक भूमिका का अपराध-बोध दोनों कहानियों के केन्द्र में है, पर एक जगह वह स्पष्ट और प्रत्यक्ष है, दूसरी जगह धुंधला और परोक्ष। स्पष्ट और प्रत्यक्ष वहाँ  है जहाँ नकारात्मक भूमिका सुपरिभाषित और ठोस है; कहानी को इसी भूमिका से बाहर आने के संकल्प पर ख़त्म होना है। धुंधला और परोक्ष वहाँ  है जहाँ नकारात्मक भूमिका अपेक्षाकृत अमूर्त है। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने वाले विमान-चालक क्लॉड ईथरली का अपराध-बोध निस्संदेह किसी धुंधलके में नहीं है, पर वह कहानी के भीतर की कहानी है। उस विमान-चालक के बहाने वाचक के अपराध-बोध का उभरना और आधुनिक समाज के सचेत-जागरूक-संवेदनशील जन के अपराध-बोध के रूप में स्थापित होना ही कहानी की पूरी प्रक्रिया है– ‘‘इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत, जागरूक, संवेदनशील जन क्लॉड ईथरली हैं’’। यहाँ सामाजिक दायित्व के स्तर पर अपनी नकारात्मक भूमिका का ज्ञान हस्तामलकवत नहीं, व्याख्यासापेक्ष है। इसीलिए पक्षी और दीमकजहाँ अपनी भूमिका और तत्संबंधी अपराध-भावना से मुक्त होने के संकल्प पर ख़त्म होती है, वहीं क्लॉड ईथरलीउस भूमिका और तत्संबंधी अपराध-भावना की पहचान पर–‘‘उसने मेरे दिल में ख़ंजर मार दिया। हां, यह सच था! बिल्कुल सच! अवचेतन के अंधेरे तहख़ाने में पड़ी हुई आत्मा विद्रोह करती है। समस्त पापाचारों के लिए अपने-आपको ज़िम्मेदार समझती है।’’  
बहरहाल, इस तरह के अन्तरों के साथ ग्लानि, अपराध-बोध, अवसाद, निरुपायता और घुटन की स्थितियां-मनःस्थितियां बार-बार मुक्तिबोध की कहानियों का विषय बनती हैं। इन्हीं की अनुकूलता में उनका पूरा कहानी-संसार ख़ासा धूसर और मटमैला-सा है। वहाँ  खिले और खुले दिन का प्रसन्न प्रकाश बमुश्किल मिलता है। एक ख़ास तरह की प्रकाश-व्यवस्था, जिसमें वस्तुगत परिवेश से लेकर आत्मगत मनःस्थिति तक, सब कुछ बुझा-बुझा-सा जान पड़ता है, इस कहानी-संसार की पहचान है। जहाँ मनःस्थिति में यह बुझा-बुझापन न हो, वहाँ  भी प्रकाश-व्यवस्था में सियाह छायाएं बहुतायत से हैं। वातावरण को ले कर यह मुक्तिबोध की ख़ास पसंद है। 
रात में तालाब के रुंधे, बुरे बासते पानी के विस्तार की गहराई सियाह हो उठती है, जिसकी ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी  के बल्बों के रेखाबद्ध निष्कंप प्रतिबिंब वर्तमान मानवी सभ्यता के सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते से प्रतीत होते हैं।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
‘…मैंने तालाब के पूरे सियाह फैलाव को देखा, उसकी अथाह काली गहराई पर एक पल नज़र गड़ायी। सूनी सड़कों और गुमसुम बंगलों की ओर दृष्टि फेरी और फिर अंधेरे में अर्ध-लुप्त किन्तु समीपस्थ मित्र की ओर निहारा।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
मध्यवर्गीय समाज की सांवली गहराइयों की रुंधी हवा की गंध से मैं इस तरह वाक़िफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुंदर की नमकीन हवा से।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
इतने में परछाईं-सा एक व्यक्ति न दिख सकने वाली गैलरी में से आता हुआ दिखायी दिया।’ (‘ज़िंदगी की कतरन’)
स्टेशन पर बिजली की रोशनी  थी, परंतु वह रात के अंधियाले को चीर न सकती थी, और इसीलिए मानो रात अपने सघन रेशमी अंधियाले से तंबूनुमा घर हो गयी थी जिसमें बिजली के दीये जलते हों।’ (‘अंधेरे में’)
सड़क के आधे भाग पर चांदनी बिछी थी और आधा भाग चंद्र के तिरछे होने के कारण छायाच्छन्न होकर काला हो गया था। उसका कालापन चांदनी से अधिक उठा हुआ मालूम होता था।’ (‘अंधेरे में’)
हल्का, धुंधला प्रकाश , जो बादलों से उतर न पाता था, बहुत ही निर्जीव-सा था। रात भर जलते रहने का दम भरने वाले म्यूनिसिपैलिटी के कंदील की सूरत मरी हुई, बुझी हुई थी।’ (‘उपसंहार’)
रात भर की बरसात के कारण सुबह भी गीली, धुंधली और मैली थी। निर्जीव था उसका प्रकाश ।… वह अन्दर   के कोठे में चला गया। वह एक अंधेरा कमरा था – मानो एक बड़ा-सा संदूक हो।’ (‘उपसंहार’)
अंधेरी रात में सड़क पर बिजली के बल्ब के नीचे दो छायाएं दीख रही थीं।’ (‘नयी जिंदगी’)
अंधेरे से भरा, धुंधला, संकरा प्रदीर्घ कॉरिडोर और पत्थर की दीवारें।’ (‘समझौता’)
दूर, सिर्फ़ एक कमरा खुला है। भीतर से कॉरिडोर में रोशनी  का एक ख़याल फैला हुआ है। रोशनी नहीं, क्योंकि कमरे पर एक हरा परदा है। पहुँचने पर बाहर, धुंधले अंधेरे में एक आदमी बैठा हुआ दिखायी देता है।’ (‘समझौता’)
बिल्ली जैसे दूध की आलमारी की तरफ़ नज़र दौड़ाती है, उसी तरह मैंने बिजली के बटन के लिए अंधेरे-भरी पत्थर की दीवार पर नज़र दौड़ायी। हां, वो वहीं है। बटन दबाया। रोशनी ने आंख खोली। लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़-सा, उकताया-उकताया-सा फैला।’ (‘समझौता’)
‘…ज्यों ही उसे ख़याल आया कि उसका पति चाय बना रहा है, उसके मन में तेजाबी काला गटर बहने लगा।… काले सल्फ्यूरिक एसिड की भयानक बू-बास वाला वह गटर उसके भीतर-भीतर बहता ही गया…।’ (‘जलना’)
पिता बच्ची को लिये घर में प्रवेश करते हैं, तो एक ठंडा, सूना, मटियाली बास-भरा अंधेरा प्रस्तुत होता है, जिसके पिछवाड़े के अंतिम छोर में आसमान की नीलाई का एक छोटा चौकोर टुकड़ा खड़ा हुआ है। वह दरवाज़ा है।’ (‘काठ का सपना’)
अंधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया।’ (‘काठ का सपना’)
मैंने किवाड़ खोलते ही पाया कि वहाँ सचमुच कोई नहीं था, केवल काला अंधेरा जो अन्दर के प्रकाश से फट गया था।’ (‘विद्रूप’)
सामने अंधेरे में एक सिंधी की चाय की दूकान पड़ती थी। उसके भीतर के कमरे में एकान्त था। उस एकान्त के लिए मैं तड़प उठा। एकान्त मेरा रक्षक है। वह मुझे त्राण देता है और बहते हुए खून को अपने फावे से पोंछ देता है। जगत मेरी इच्छा समझ गया। अंधेरे भरे एकान्त कमरे में जिसके ऊपर एक रोशनदान से धुंधला  प्रकाश आ रहा था। हम दोनों जाकर धप्-से बैठ गये।’ (‘विपात्र’)
लगता था, हम किसी अंधेरी सुरंग में भटकते-भटकते अब यहाँ पहुंच कर एक दीवार का सामना कर रहे थे, जिसके आगे रास्ता नहीं था।’ (‘विपात्र’)
धरड़-खरड़, खरड़-धरड़ मशीन चलती है, चलती है, उसमें स्याही लगी है, लेकिन काग़ज़ नहीं है, इसलिए कुछ नहीं छपता। पुस्तक नहीं, पर्चा नहीं, अख़बार नहीं। पर, पूरी मशीन रफ़्तार के साथ धरड़-धरड़, खरड़-खरड़ चलती रहती है, सूने, अंधेरे-अकेले में।… एक अजीब भयानक काला-काला सांड़ पल-क्षण की हरी-हरी घास चरता जा रहा है। ख़याली धुंध में जीते रहने की आदत बन गयी है।’ (‘विपात्र’)
काली-मटमैली छायाओं वाली इस प्रकाश -व्यवस्था को अगर वातावरण के संबंध में मुक्तिबोध की ख़ास पसंद न कहना चाहें– पसंदशब्द के प्रियतावाले आशय को देखते हुए–तो एक तरह की मनोग्रस्ति कह सकते हैं। यह मनोग्रस्ति उनके पूरे कहानी-संसार को अवसाद और घुटन का एक विराट बिंब बना देती है। 
यह बिंब शायद बहुत विकर्षक होता और उसमें कोई सकारात्मक ऊर्जा नज़र न आती अगर उसकी पृष्ठभूमि में मौजूदा व्यवस्था की आलोचना और अपना जमीर, अपनी स्वतंत्रता, अपना आत्मसम्मान बचाये रखने का संघर्ष न होता। मुक्तिबोध की कोई कहानी इस आलोचना से वंचित नहीं है। जहाँ ऐसा लगता है कि वे सिर्फ़ अभावग्रस्त निम्नमध्यवर्गीय जीवन के अवसाद को अपना विषय बना रहे हैं, वहाँ भी व्यवस्था की आलोचना का यह पक्ष एक लगभग निराकार उपस्थिति की तरह कहानी में मौजूद रहता है। काठ का सपनाअभावग्रस्त जीवन के अवसाद में डूबी हुई एक छोटी-सी कहानी है जिसमें मुक्तिबोध की दूसरी कहानियों की तरह मौक़ा मिलते ही विश्लेषण की दिशा में निकल भागने का लोभ बिल्कुल नहीं है; इसके बावजूद कहानी में यह व्यंजना व्याप्त है कि अभावों की पृष्ठभूमि वह अन्यायपूर्ण व्यवस्था है जिससे व्यक्तिगत स्तर पर पार नहीं पाया जा सकता और जहाँ सफल-संपन्न जीवन ऐसी शर्तों पर ही संभव है जो एक अच्छे-सच्चे इंसान के लिए अस्वीकार्य हैं। बच्ची को सुलाने के बाद पुरुष और स्त्री जब अपने तथाकथित बिस्तरों परलेट जाते हैं, उस समय का यह हिस्सा देखें:
अंधेरा जड़ हो गया और छाती पर बैठ गया। नहीं, उसे हटाना पड़ेगा ही– सरोज के पिता सोच रहे हैं। और उनकी आंखें बग़ल में पड़े हुए बिस्तर की ओर गयीं।
वहाँ  भी एक हलचल है। वहाँ  भी बेचैनी है। लेकिन कैसी?
…लेकिन उन दोनों में न स्वीकार है, न अस्वीकार! सिर्फ़ एक संदेह है, ये संदेह साधार है कि इस निष्क्रियता में एक अलगाव है–एक भीतरी अलगाव है। अलगाव में विरोध है, विरोध में आलोचना है, आलोचना में करुणा है। आलोचना पूर्णतः स्वीकारणीय है, क्योंकि उसका संकेत कर्तव्य-कर्म की ओर है, जिसे इस पुरुष ने कभी पूरा नहीं किया। वह पूरा नहीं कर सकता।
कर्तव्य-कर्म को पूरा करना केवल उसके संकल्प द्वारा ही नहीं हो सकता। उसके लिए और भी कुछ चाहिए। फिर भी, वह पुरुष मन-ही-मन यह वचन देता है, यह प्रतिज्ञा करता है कि कल ज़रूर वह कुछ-न-कुछ करेगा, विजयी हो कर लौटेगा।
इसी तरह शुरुआत का वह हिस्सा जहाँ पुरुष बाहर से आता है और अपनी बेटी को इंतज़ार करता हुआ पाता है:
नन्हीं बालिका सरोज का पीला चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ़ एक फ्राक और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं; ऐसे कर्तव्य की जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेंगे, नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोध से वे चिढ़ जाते हैं।
 ‘काठ का सपनाव्यवस्था में मूलबद्ध अन्याय को सीधे-सीधे अभिधा में नहीं कहती, पर उसकी ध्वनि पूरी कहानी में गूंजती है। यह अपने प्रिय विषय के साथ मुक्तिबोध के बरताव का एक छोर है। इससे ठीक उलट छोर पर है विपात्र’, और मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियां इन दो छोरों के बीच है। विपात्रमें उनके इस प्रिय विषय की सबसे मुखर, यहाँ  तक कि लगभग वाचाल, उपस्थिति देखने को मिलती है। प्रथम पुरुष वाचक और उसका पढ़ाकू मित्र जगत एक अकादमिक संस्थान में काम करते हैं जहाँ विज्ञान वालों को यह मालूम नहीं था कि हाल ही में कौन-कौन महत्वपूर्ण आविष्कार हो रहे हैं, और हिंदी वालों को यह ज्ञात नहीं था कि आजकल इस क्षेत्र में क्या चल रहा है।इस संस्थान में सबसे बड़ी योग्यता है, संस्थान के निदेशक का दरबारी होना। वाचक और उसका मित्र इस माहौल से घृणा करते हैं, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। जगत तो फिर भी अपना कोई उपाय निकाल सकता है, पर अपेक्षाकृत बड़ी उम्र में नौकरी पाने वाला, लंबे-चौड़े परिवार का भरण-पोषण करने वाला वाचक बिल्कुल निरुपाय है और चापलूसी, अयोग्यता, मध्यवर्गीय स्वार्थपरता के इस दमघोंटू माहौल में किसी तरह अपने दिन काट रहा है। चूंकि लंबी कहानी/उपन्यासिका का अधिकांश, वाचक, जगत और कुछ दूसरे सहकर्मियों के वार्तालाप के रूप में ही बुना गया है, इसलिए उक्त स्थितियों को लेकर सीधी टिप्पणियां बहुतायत से हैं, जिनमें पूँजीवादी तंत्र के भीतर व्यक्ति-स्वातंत्र्य के छद्म पर, वर्गीय तनावों और वर्ग-च्युत होने के मध्यवर्गीय भय पर, आदमी-आदमी के बीच फ़ासलों और भेदों के दलदलपर खुल कर विचार किया गया है। मुक्तिबोध इस लंबी कहानी/उपन्यासिका में मानो अपने कहानी-संसार की मार्गदर्शिका तैयार कर रहे हैं। यहाँ बहसों में पिरोये गये लंबे चिन्तनपरक अंश    वह पूरा वैचारिक आधार मुहैया करा देते हैं जिन पर मुक्तिबोध के कहानी-संसार का बड़ा हिस्सा टिका है। इस वैचारिक आधार को संवादात्मक विचारके रूप में ही यथासंभव मुकम्मल ढंग से रख दिया जाए, संभवतः इसी चिन्ता के तहत मुक्तिबोध ने एक अलग ड्राफ़्ट भी तैयार किया जिसमें कार्य-व्यापार और भी कम हो गये हैं तथा वैचारिक आदान-प्रदान ने और लंबी जगह घेर ली है। मुक्तिबोध को मानो यह लोभ था कि व्यवस्था के भीतर मिसफ़िटठहरनेवाले इन लोगों के संवादों को व्यवस्था की सबसे सारगर्भित और संपूर्ण आलोचना का माध्यम बनाया जा सकता है। विपात्रके दोनों हिस्सों– या नेमि जी के शब्दों में, इस लंबी कथा के दोनों अलग प्रारूपों–को पढ़ते हुए लगता है कि मुक्तिबोध इस मौक़े को हाथ से जाने नहीं देना चाहते, इसीलिए वैचारिक आदान-प्रदान वाला कथात्मक ढांचा अगले प्रारूप में और भी इकहरा हो जाता है।
यही उपयुक्त अवसर है कि हम मुक्तिबोध की कहानी-कला की दुर्लंघ्य सीमाओं पर बात शुरू करें। पीछे कहा गया था कि मुक्तिबोध स्वभावतःकहानीकार नहीं हैं। असल में, वे बुनियादी तौर पर विचारक हैं, और हालांकि विचारक होने का अर्थ अनिवार्यतः कथाकार न होना नहीं है, पर मुक्तिबोध के यहाँ  उनका विचारक उनके कथाकार के साथ रचनात्मक सहअस्तित्व बना पाने में प्रायः विफल रहा है।[ii]  उनकी बहुत कम कहानियां ऐसी हैं जिन्हें पढ़ कर लगता है कि इन्हें कहानी ही होना था। उन बहुत कम कहानियों में पक्षी और दीमकया काठ का सपनाको शामिल किया जा सकता है। बहुतेरी कहानियां ऐसी हैं जो अपने कहानी होने की अनिवार्यता का बोध नहीं करा पातीं। मसलन, ‘क्लॉड ईथरलीजैसी चर्चित कहानी में सारा कार्य-व्यापार एक ग़ैर-ज़रूरी इंतज़ाम की तरह जान पड़ता है। कहानी में जिस तरह से आज की यानी आधुनिक सभ्यता की निगाह में पागलपन का मतलब समझाया गया है, अमरीकी संस्कृति और आत्मा के संकट का हमारी संस्कृति और आत्मा का संकट बन जाने के रुझान की व्याख्या की गयी है, हिरोशिमा पर ऐटम बम गिरानेवाले विमान-चालक के अपराध-बोध को आधुनिक समाज के सचेत-संवेदनशील  जनों के व्यापक अपराध-बोध का रूपक बनाने की कोशिश की गई है–वह सब अपनी पद्धति में पूरी तरह निबंधात्मक है। जिन संवादों का सहारा लेकर ये व्याख्याएं सामने आई हैं या रूपक निर्मित किये गये हैं, उन्हें अलग निकाल कर निबंध की शक्ल दे दें, लेखक के अभिप्रेत का कुछ नहीं बिगड़ेगा। कहानी की पूरी जान उसके भीतर आसन जमा कर बैठे निबंध में है, उन कथा-स्थितियों में नहीं जिनके बहाने यह निबंध लिखा जा रहा है। यह निबंध कमाल का है, इसमें क्या शक, पर वह जिन पात्रों और परिस्थितियों के बीच संवाद के रूप में अपनी जगह बनाता है, वे अपने होने की कोई अनिवार्यता, यहाँ तक कि ढीला-ढाला औचित्य भी, सिद्ध नहीं कर पाते। आप सोचिए कि क्या कफ़नको बुधिया की मौत और चंदे की रक़म से की गई घीसू-माधो की मौज-मस्ती से अलग करके सोच सकते हैं, भले ही बाप-बेटों का मधुशाला-संवाद हम याद रखें चाहे न रखें? ऐसा ही सभी महत्वपूर्ण कहानियों के साथ होता है, यहाँ तक कि महत्वहीन कहानियों के साथ भी, अगर वे सचमुच कहानी हैं। उनका भू्रण ही ऐसे कार्यव्यापार के रूप में निर्मित होता है जिसका विमर्श आयातित या आरोपित नहीं होता, स्वयं उसका अन्तरंग होता है। पर क्लॉड ईथरलीजैसी कहानी एक जटिल चिन्तन -सूत्र के लिए जुगाड़े गए कार्यव्यापार का उदाहरण है। जुगाड़ यह न होता, कुछ और होता, तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था। ऐसे में कहानी कहने की ज़रूरत क्या है? सीधे विचार करने वाली विधा–मसलन, डायरी या निबंध–क्या उसका सबसे स्वाभाविक आश्रय न होती?
यही स्थिति कमोबेश विपात्रकी है। यहाँ पात्र और परिस्थितियां ग़ैर-ज़रूरी नहीं हैं, पर इतनी क्षीण हैं कि संवादों के स्तर पर चलने वाला अनवरत विमर्श एक तरह की स्वतंत्र सत्ता अर्जित कर लेता है, ख़ास तौर से दूसरे प्रारूप में। अपने समय और उसके भीतर के सामाजिक संबंधों, वर्गीय तनावों और ताक़त की संरचनाओं पर इन विचारों की गहराई से कोई इंकार नहीं। वाचक के आत्मालाप या उसकी और जगत की बातचीत से असंख्य उद्धरणीय अंश इस गहराई को दिखाने के लिए प्रस्तुत किये जा सकते हैं।[iii]पर बात फिर वही है, कि इसकी रचना के पीछे कथाकार वाली कल्पनाशीलता अनुपस्थित है। एक सधा हुआ विचारक मानो भटक कर इधर आ गया हो, किसी रचनात्मक दबाव के कारण उतना नहीं जितना कि विचारों के निबंधन के लिए एक अलग फ़ॉर्म आज़माने के लोभ में।
कथाकार वाली कल्पनाशीलता का यह अभाव मुक्तिबोध के कहानी-संसार में अपूर्ण रचनाओं की बड़ी संख्या, और पूर्ण कही जाने वाली कहानियों में भी अधूरेपन की प्रतीति, का कारण है। ऐसा जान पड़ता है कि उनकी ज़्यादातर कहानियों का भू्रण चिन्तन सूत्रों से निर्मित हुआ है, कथा-स्थितियों की कौंध से नहीं। कथा-स्थितियों की कौंध में जिस तरह आदि-अन्त, धुंधली शक्ल में ही सही, मौजूद रहते हैं और लिखे जाने के क्रम में एक व्यवस्था अर्जित करते हैं, वैसा मुक्तिबोध के यहाँ नहीं होता। इसीलिए कहानियां शुरू होने के बाद या तो पूरी नहीं होतीं, या फिर कहानीकार की ओर से पूरेपन का प्रमाण पत्र पाकर भी–कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो– समापन का संतोष नहीं दे पातीं, जैसा कि बिल्कुल अलग-अलग मिज़ाज वाले कहानीकारों के यहाँ मिल जाता है, चाहे वे बाक़ायदा घटना को केन्द्र में रखने वाले प्रेमचंद हों या घटनाविहीनता के उस्ताद, निर्मल वर्मा।
टिप्पणियां 


[i] .  पक्षी और दीमकका प्रथम पुरुष वाचक एक नेता का विश्वासपात्र बन कर साधन-संपन्न जीवन जी रहा है और अपने को उस जी-चटोर पक्षी के समान महसूस करता है जिसने दीमकों को हासिल करने के बदले दीमक बेचने वाले को अपने पंख दे दिये। विपात्रका प्रथम पुरुष वाचक और उसका पढ़ाकू मित्र, दोनों जिस संस्थान में काम करते हैं, उसके सर्वेसर्वा के दरबार में बैठने की मजबूरी से त्रस्त हैं, लेकिन वहाँ से छुटकारा पाने की कोई सूरत उन्हें नज़र नहीं आती। वाचक को लगता है, ‘सच है कि हम श्रम बेच कर पैसा कमाते हैं। लेकिन श्रम के साथ-ही-साथ हम न केवल श्रम के घंटों में, बल्कि उसके बाहर भी अपना-अपना संघर्ष-स्वातंत्र्य, विचार-स्वातंत्र्य और लिखित अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य भी बेच देते हैं। और यदि हम इस स्वतंत्रता का प्रयोग करने लगते हैं तो पेट पर लात मार दी जाती है। यह यथार्थ है। इस यथार्थ के नियमों को ध्यान में रखकर ही पेट पाला जा सकता है, अपना और बाल-बच्चों का।वह अपने एक सहकर्मी की टिप्पणी से खुद को एबी लॉर्ड जैसा महसूस करता है जिसने संत बने रहने के लिए अपनी जननेन्द्रिय को चाकू से काट दिया था। काठ का सपनामें अभावग्रस्त परिवार का भयंकर अवसाद है। विद्रूपका सर्वटे बड़ी मुश्किल से जीवन जीने लायक चीज़ें जुटा पाता है, पर खुद को दयनीय नहीं बनने देना चाहता, अपना आत्मगौरव बचाये रखने का हर जतन करता है, लेकिन वाचक की राय में, ‘वह जिसे आत्मगौरव समझता है, यदि उसकी रक्षा करता तो अपने परिवार का पालन-पोषण उसके लिए असंभव हो जाता। वह कई बार अपने को वेश्या कह चुका है।’ ‘जलनाके चुन्नीलाल के लिए अपनी मास्टरी की तनख़्वाह से परिवार की सभी ज़रूरतें पूरी कर पाना मुमकिन नहीं होता, वह भयंकर ग्लानि के बोध से ग्रस्त है, पर अपने बच्चों को दुनियादार बनाने के बजाय पढ़ा-लिखा क्रांतिकारी बनाने की बात सोचता है। ऐेसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
[ii] . विचारक और कथाकार कोई आत्यंतिक रूप से भिन्न श्रेणियां नहीं हैं, पर इतना अंतर तो है ही कि जहां सामान्यीकरण और अमूर्तन विचारक की विशेषता होती है, वहीं विशिष्ट और मूर्त को बरतना कथाकार की। सामान्यीकरण और अमूर्तन शुद्ध रूप से भाषा के भीतर होता है। चूंकि अवधारणाओं और तर्कों का अस्तित्व भाषा में ही संभव है, इसलिए भाषा के द्वारा हम विचार को व्यक्त नहीं करते, विचार करते हैं। दूसरी ओर, कथाकार चरित्रों और कथास्थितियों को भाषा के द्वारा व्यक्त करता है जिसका मतलब यह है कि, जिस भी हद तक और जिस भी रूप में सही, वे चरित्र और स्थितियां भाषा में घटित होने के पहले से मौजूद रही हैं। इसीलिए चरित्रों और कथा-स्थितियों को दिखाया जा सकता है। विचार को दिखाया नहीं जा सकता। ज्यों ही हम उसे दिखाने की कोई सूरत निकालते हैं, वह विचार नहीं रह जाता।
कथाकार और विचारक के इस अंतर को चिह्नित करने का मतलब यह नहीं कि ये इतनी ही विशुद्ध श्रेणियों के रूप में व्यवहार में भी पाये जाते हैं। असल में तो विशुद्ध श्रेणियां स्वयं में विचारमात्र हैं, व्यवहार में हमारा सामना सिर्फ़ मिलावट से हो सकता है। पर मिलावट में किसका रंग ज़्यादा गहरा है, इससे रचनाकार के विधागत चयन का औचित्य प्रमाणित होता है। और इस पैमाने पर हम कह सकते हैं कि कथात्मक विधाओं में विशिष्ट और मूर्त के साथ अधिक गहरा विनियोजन/एनगेजमेंट होना चाहिए। मामला ये नहीं है कि आपने कथा का वायदा किया है, इसलिए अब वायदा निभाने के वास्ते आपको सामान्य और अमूर्त का रंग हल्का रखना ही होगा। मामला ये है कि विशिष्ट और मूर्त के साथ यह विनियोजन सत्य या यथार्थ को आयत्त करने की कथा की अपनी पद्धति है जिसका अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए। यह पद्धति एक स्तर पर अधिक संष्लिष्ट है, इतनी कि विचार-सूत्र के रूप में हम जब भी उसका निचोड़ निकालने की कोशिश करते हैं, किसी डिग्री तक घटाववाद के शिकार होने से बच नहीं पाते। महान रचनाओं के पाठ और पुनर्पाठ का सिलसिला, इसीलिए, कभी थमता नहीं। वे अधिक संष्लिष्ट होने के कारण मुक्तमुखी होती हैं। उनमें हमेशा कई तरीक़ों से पढ़े और समझे जाने की संभावना निहित होती है।
[iii] . विपात्रके कई हिस्से बहुत गहन वैचारिक निबंधों के रूप में अलग किये जा सकते हैं, पाठ्यक्रमों में पढ़ने-पढ़ाने के ख़याल से भी। वैचारिक वैभव से संपन्न ऐसे गद्य के नमूने हिंदी में विरल हैं। कुछ उद्धरण मिसाल के तौर पर देख सकते हैं-
यह एक मानी हुई बात है कि कोई भी व्यक्ति चाहे जितना भी आत्मालोचन कर सकने का सामर्थ्य रखता हो, वह अपने स्वद्वारा निजका परिष्कार और विकास नहीं कर सकता। मुक्ति कभी अकेले की नहीं हो सकती। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती।
दरमियानी फ़ासले ग़लत हैं–चाहे वे अक्षांश वाले हों, चाहे देशान्तर वाले। लेकिन अक्षांश वाले फ़ासले सबसे ख़तरनाक हैं, क्योंकि इस प्रकार की दूरी ऊंच-नीच की भावना से बनती है। ऊंची नसैनी की सर्वोच्च सीढ़ी पर चढ़ा हुआ व्यक्ति जब उसी निसैनी की निचली सीढ़ी पर खड़े हुए व्यक्ति को अपने से नीचा और हीन समझने लगता है, तब निसैनी पर ही हाथापाई की नौबत आ जाती है। यदि ऐसी हाथापाई हुई तो दोनों को चोट लगती है। इससे तो अच्छा है कि ऊंच-नीच पैदा करने वाली ख़तरनाक निसैनी टूट जाए!
व्यक्तिबद्ध वेदना और व्यक्तिबद्ध वासना–साहित्य के अनेक उद्गम स्रोतों में से स्वयं दो हैं। मज़ेदार बात यह है कि इन दो स्रोतों ने साहित्य में जो उपमाएं और प्रतीक प्रदान किए हैं, उनमें भावों का औदार्य न सही तो भावों की तीव्रता बहुत अधिक होती है। काव्यकला द्वारा ऐसे कलाकार अपनी व्यक्तिबद्ध वेदना या व्यक्तिबद्ध वासना का उदात्तीकरण और आदर्शीकरण भले ही कर लें, उनके व्यक्ति-चरित्र की मूल-ग्रंथि तो बनी ही रहती है। दूसरे शब्दों में, कला तथा साहित्य में प्रकट जो सौंदर्य है वह इस बात का विश्वसनीय प्रमाण नहीं हो सकता कि उस सौंदर्य के सृजनकर्ता का वास्तविक निज चरित्र उदार, उदात्त और उच्च है। असल में हमारे वाक्-सिद्ध साहित्यिक अपने-आपको बहुत प्रकटकरते हैं, इस तरह अपने-आपको खूब छिपाते हैं। हमारा आत्मप्रकटीकरण बहुत कुछ अंशों में वस्त्र-परिधान है, वास्तविक आत्मोद्घाटन नहीं। हमारी उच्चानुभूति के तथाकथित क्षण सुंदर क्षौम वस्त्रों द्वारा आत्म-प्रच्छादन हैं।
जिस समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता ख़रीदी और बेची जा सकती है, उस समाज में ख़रीदने और बेचने की स्वतंत्रता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं। इसलिए पश्चिमी देश उन देशों को भी स्वतंत्र (फ्ऱी) कहते हैं जहां पूरी तरह सैनिक तानाशाही है। वे ऐसा क्यों कहते हैं? वे ऐसा इसलिए कहते हैं कि उन देशों में ख़रीदने और ख़रीदे जाने, बेचने और बेचे जाने की, यानी कि मुनाफ़ा कमाने की, व्यापार की, निजी पूंजी से आदमी को गुलाम बनाने की, स्वतंत्रता है।’’
संजीव कुमार
सम्पर्क- 

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मो. 9818577833

(आलोचना से साभार)
(मुक्तिबोध के सभी चित्र गूगल के सौजन्य से)

जलेस की बांदा कार्यशाला


विगत 2 क्टूबर से 4 अक्टूबर 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के बाँदा के एक गाँव बडोखर खुर्द में ‘अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की साझा जमीन पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की गयी. तीन दिनों की इस कार्यशाला में विशेषज्ञों ने अपने महत्वपूर्ण विचार रखे और प्रतिभागियों ने उन विचारों पर गर्मागर्म बहसें कीं. इस कार्यशाला की एक रपट पहली बार के पाठकों के लिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं. इस रपट को तैयार किया है संजीव कुमार ने.   

  
अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की साझा ज़मीन पर एक बहस : जलेस की बांदा कार्यशाला

2 से 4 अक्तूबर 2015 को जनवादी लेखक संघ केंद्र की ओर से बांदा में ‘आम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद: पारस्परिकता के धरातल’ विषय पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन हुआ. आयोजन-स्थल था, बांदा के निकट बड़ोखर खुर्द के प्रगतिशील और जागरूक किसान प्रेम सिंह द्वारा बहुत कल्पनाशील तरीके से अपने खेत में बनाया गया ‘ह्यूमन रिसर्च सेन्टर’. लगभग 30 प्रतिभागियों और 12 विषय-विशेषज्ञों के बीच तीन दिनों तक मुख्य विषय के इर्द-गिर्द अनेक मुद्दों पर सघन चर्चा और बहस हुई. दर्शन, विचारधारा, राजनीति और साहित्य को घेरती हुई इस चर्चा में अलग-अलग बलाघात के साथ मुख्य स्वर यही उभरा कि इस देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन को जाति के प्रश्न पर जो सजगता दिखानी चाहिए थी, वह उसने नहीं दिखाई और भारत के ज़मीनी यथार्थ के बीच एक आमूल परिवर्तनवादी राजनीति इस प्रश्न की उपेक्षा करके खड़ी नहीं की जा सकती. बाबा साहेब आम्बेडकर के विचारों को एक सुव्यवस्थित ‘वाद’ मानने से ज़्यादातर वक्ताओं ने इनकार किया, लेकिन मार्क्सवादियों के लिए भारतीय वास्तविकता को समझने और तदनुरूप कार्यक्रम बनाने की दृष्टि से उन विचारों की उपादेयता को रेखांकित भी किया.
2 अक्तूबर को 12 बजे आरम्भ हुए परिचय-सत्र में कार्यशाला के संयोजक श्री बजरंग बिहारी ने कार्यशाला की पृष्ठभूमि बताते हुए इस विषय पर चर्चा की ज़रुरत लगातार महसूस की जा रही थी. यह कार्यशाला न तो किसी को छोटा और किसी को बड़ा बताने के लिए की जा रही है, न ही किसी का किसी में विलय करा देने की प्रयोजन से संचालित है. यहाँ खुल कर बातें और आलोचना-प्रत्यालोचनाएँ हों, यही इस कार्यशाला का मकसद है. 
उद्घाटन सत्र में बोलते हुए कॉमरेड प्रकाश करात
भोजनोपरांत 2 बजे ‘जाति-उन्मूलन और मार्क्सवाद’ विषय पर कामरेड प्रकाश करात का सत्र आरम्भ हुआ. इसे उदघाटन-सत्र का नाम भी दिया गया था, लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए कि उदघाटन के नाम पर बहस-मुबाहिसा न टल जाए. कामरेड प्रकाश करात ने लगभग एक घंटे के अपने सुचिंतित व्याख्यान में विषय के अनेक पहलुओं पर विस्तार से बात की. शुरुआत में ही उन्होंने इतिहासकार डी. डी. कोसंबी को उद्दृत किया जिन्होंने कहा था कि जातियां वस्तुतः श्रम से पैदा हुए अधिशेष को हड़पने की एक श्रेणी-क्रमयुक्त व्यवस्था निर्मित करती हैं. कामरेड करात ने कहा कि इससे यह समझ में आता है कि जाति-व्यवस्था उत्पादन-सम्बन्ध का हिस्सा है और इसे सरल तरीके से अधिरचना का अंग मान कर यह यांत्रिक निष्कर्ष निकाल लेना कि आधार बदलते ही वह बदल जाएगा, गलत था. यह पूर्व-पूंजीवादी रिश्ता रहा है, लेकिन अब जब हमारा आर्थिक आधार पूंजीवाद है, तब भी जाति-व्यवस्था मौजूद है. इसलिए बेहतर है कि हम आधार और अधिरचना की शब्दावली में इस पर बात न करें और यह समझें कि हमारी विशिष्ट परिस्थितियों में जाति की अनदेखी करके वर्गीय शोषण और वर्ग-संघर्ष की बात अधूरी रहेगी. चूँकि यह अधिशेष को हड़पने की व्यवस्था है, इसीलिए मुग़लों ने जाति के रिश्तों को बदलने का कोई प्रयास नहीं किया और अंग्रेजों ने भी नहीं किया. स्वतंत्र भारत की सत्ता में भी जातिवादी पैठ लगातार बनी हुई है और वह सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि ऊंची जातियों का ज़्यादातर जगहों पर कब्ज़ा है, बल्कि सत्ता-तंत्र संरचनात्मक रूप से जातिवादी है. उन्होंने कहा कि हमारे समाज में जाति-व्यवस्था के भीतर से ही वर्ग बन रहे हैं. दस सबसे बड़े पूंजीपतियों में कम से कम सात वैश्य जातियों से आते हैं. यह अकारण तो नहीं है! सर्वे बताते हैं कि सबसे अधिक अधिशेष जिनसे छीना जाता है, वे दलित हैं. पूँजीवाद के विकास की यह ख़ास हिन्दुस्तानी विशेषता है कि उसने जाति और जाति-व्यवस्था को अपने लिए इस्तेमाल किया है. लिहाजा, इस देश में वर्गीय शोषण को ख़त्म करना हो तो जाति को ख़त्म करने का बीड़ा उठाना होगा. अम्बेडकर ने कम्युनिस्टों को कहा था कि जाति की बात नहीं करोगे तो संघर्ष में कभी कामयाबी नहीं मिलेगी. बीटीआर ने कहा था कि जाति की बात करने वाले वर्ग के रूप में संघर्ष के लिए इकट्ठा नहीं होंगे तो उन्हें कोई सफलता नहीं मिलेगी. आज अम्बेडकर और बी.टी.आर., दोनों की बातें प्रासंगिक हैं.
अपने विचार व्यक्त करते हुए आनन्द तेलतुम्बडे
4:30 बजे आरम्भ हुए दूसरे सत्र के वक्ता आनंद तेलतुम्बड़े ने ‘अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद : संकल्पना और सरोकार’ विषय पर बोलने की शुरुआत करते हुए कहा कि यह एक स्वागतयोग्य क़दम है कि कम्युनिस्ट पार्टियां, खास तौर से सीपीआई (एम) दलित मुद्दों पर बहुत सक्रिय हुई है. उन्होंने कहा कि अम्बेडकरवाद जैसी कोई चीज़ है, ऐसा मैं नहीं मानता. मार्क्सवाद जिस तरह हर चीज़ की एक व्याख्या करता है, उस तरह अम्बेडकर के यहाँ नहीं है. मार्क्सवाद एक मुकम्मल विचारधारा है और हालांकि कुछ मार्क्सवादियों ने उसे जड़ीभूत सिद्धांत में ढालकर ‘धर्म’ की तरह बना दिया है, पर वह सचमुच ‘क्रांति का विज्ञान’ है. इसके बाद श्री तेलतुम्बड़े ने द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का विस्तार से परिचय देते हुए पूंजीवाद के अंतर्गत मनुष्य के ‘अलगाव’ की भी चर्चा की. अम्बेडकर के विचारों पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत सारे लोगों से बहुत कुछ लिया, पर किसी से भी पूरा-पूरा नहीं लिया. वे घोषित रूप से ‘प्रैगमैटिस्म’ में भरोसा करने वाले विचारक थे. वे मार्क्सवादी नहीं थे, पर मार्क्सवाद विरोधी भी नहीं थे और कई चीज़ों में उनका दाय स्वीकार करते थे. इस बात को आज बार-बार बताने की ज़रुरत है. उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ बनायी थी जिसे ख़त्म कर अनुसूचित जातियों का संगठन उन्होंने सिर्फ इस मजबूरी में बनाया कि क्रिप्स मिशन के सामने मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने की कोई मान्यता नहीं थी. जाति या धर्म का प्रतिनिधित्व करने के दावे पर ही उस मिशन के सामने पेश हो सकते थे. आम्बेडकर के इन पक्षों पर बात करना इसलिए ज़रूरी है कि आज उनका नाम लेकर चलने वाले संगठन उनके विचारों से बहुत दूर हैं. मार्क्सवादियों को अम्बेडकर को समझना होगा, क्योंकि आधार और अधिरचना के सरल से रूपक में फंस कर उन्होंने अपना बहुत नुकसान कर लिया है. वेद-वाक्य की तरह इस सूत्रों को रटते हुए वे भारत की ज़मीनी हकीकत को समझ ही नहीं पाए.
कार्यशाला के दूसरे दिन पहले सत्र में सभी लोगों के आग्रह पर मुख्य आतिथेय श्री प्रेम सिंह का व्याख्यान रखा गया. उन्होंने कार्यशाला के विषय पर नहीं, खेती को ले कर अपने प्रयोगों और उसके पीछे की सोच पर प्रकाश डाला, जिसमें खास जोर इस बात पर था कि परिवार को समाज की बुनियादी इकाई और गाँव को राजनीति के उद्देश्य से बुनियादी इकाई मानें, तभी एक ऐसी जीवन-शैली का विकास हो सकता है जो आज की समस्याओं से निजात दिलाये. उन्होंने वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था को अलग-अलग देखने की सिफारिश की. अगला व्याख्यान श्री जयप्रकाश कर्दम का था. ‘जाति-उन्मूलन में दलित साहित्य की भूमिका’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि जाति वर्ग के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है. जब तक जाति नहीं टूटेगी, तब तक वर्ग नहीं बनेंगे. प्रेम सिंह के स्थापना का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि जाति की संकल्पना पर बात करते हुए वर्ण-व्यवस्था पर बात करनी होगी. हम जब तक ईश्वर की अवधारणा को मानते रहेंगे, तब तक जाति वर्ण को मानते रहेंगे; जब तक वर्ण को मानते रहेंगे, तब तक जाति को मानते रहेंगे; जब तक जाति को मानते रहेंगे, वर्ग की बात नहीं कर पायेंगे और नया समाज नहीं बना पायेंगे. पुरुष-सत्ता को भी उन्होंने जाति-व्यवस्था की देन माना और इसके रहते स्त्री-पुरुष की बराबरी को असंभव बताया. उन्होंने बताया कि दलित साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है, उसका वर्ण-जाति के खिलाफ होना. दलित साहित्य में गाँव शेष साहित्य के गाँव से अलग है. बाबा साहेब गाँव को दलितों के शोषण के कारखाने मानते थे. उसे रूप में यहाँ गाँव आया है. उन्होंने सूरजपाल चौहान और ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का हवाला दिया और कहा कि बड़े-बड़े सिद्धांतकार-चिन्तक मानवतावाद की बात करते हैं, पर वर्ण-जाति पर नहीं बोलते, यह हैरतनाक है. जाति रहेगी तो लोकतंत्र नहीं होगा. इसलिए आज जाति के मूल में, इतिहास में जाने से बात नहीं बनेगी. आज वह क्या है, इस पर बात करें और हल ढूंढें. दलित साहित्य यही कर रहा है. दलित राजनीति में जो कमियाँ हैं, उनका दलित साहित्य ने कभी समर्थन नहीं किया.
दूसरे दिन का दूसरा सत्र ‘दलित स्त्रीवाद’ पर केन्द्रित था. इसमें बोलते हुए अनिता भारती ने अपने विद्यार्थी जीवन के संस्मरणों से शुरुआत की और बताया कि जिन वामपंथी संगठनों के साथ उन्होंने काम किया, वे दलितों के सवाल को संबोधित नहीं कर रहे थे. इसीलिए उन्हें ‘मुक्ति’ नामक संगठन बनाना पड़ा. एनजीओज़ की हालत ये है कि उन्हें जिस मुद्दे के लिए फण्ड मिलता है, उस पर बात करने लगते हैं. इस तरह वित्तपोषण से उनका एजेंडा तय होता है. दलित स्त्री के प्रश्न पर आते हुए उन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सामने रखते हुए बताया कि किस तरह जाति के प्रश्न को तीखेपन से संबोधित करने वाले स्त्री-लेखन को साहित्य की मुख्य धारा में गिना ही नहीं गया. दलित महिला के सामने दो तरह की चुनौतियां हैं—दलित आन्दोलन उनके स्त्री-प्रश्न संबंधी सरोकारों को तवज्जो नहीं देता और महिला आन्दोलन उनके दलित पक्ष को नहीं देखता. महिला आन्दोलन को डी-क्लास और डी-कास्ट होना होगा और इसके लिए पहले कास्ट को पहचानना होगा. अनिता भारती ने यह भी कहा कि दलितों का एक छोटा हिस्सा पूंजीवाद नव-उदारवाद का समर्थक है, पर मुश्किल ये है कि संचार-माध्यम बार-बार उन्हें ही पकड़ लाते हैं और गलतफहमी फैलाते हैं. 
सत्र में विचार व्यक्त करते हुए दिलीप चव्हाण
इसी सत्र में बोलते हुए दिलीप चव्हाण ने सबसे पहले मुख्य समस्या को इस रूप में रखा कि स्त्री-मुक्ति के सवाल को जाति और वर्ग के सम्बन्ध में कैसे देखें और फुले, अम्बेडकर और मार्क्स से क्या-क्या ले सकते हैं? उन्होंने कहा कि बहुत समय तक पारंपरिक मार्क्सवाद में यह धारणा थी कि वर्ग के अलावा शोषण की और संस्थाएं समाज में नहीं हैं. अब भी कितना फर्क पड़ा है, पता नहीं, पर समझ बनाने की दिशा में काम हो रहा है, यह स्वागतयोग्य है. उन्होंने कहा कि यह समझ बनाने के लिए फुले बहुत ज़रूरी विचारक हैं. उन्होंने ही बताया कि धर्म के साथ स्त्री-शोषण का गहरा सम्बन्ध है. सभी धर्मों के संस्थापक पुरुष हैं और सभी धर्म स्त्रियों के खिलाफ हैं. इसी तरह परिवार का चरित्र पितृसत्तात्मक है और कुछ भी बुनियादी स्तर पर करने के लिए परिवार की संस्था की पुनर्संरचना करनी पड़ेगी. फुले ने ही समाज के शोषित तबके के लिए नाम तय करते हुए ‘स्त्रीशूद्रातिशूद्र’ जैसा सूत्रीकरण किया. अम्बेडकर ने अपने लेख ‘कास्ट इन इंडिया’ में जाति और पितृसत्ता के आर्गेनिक सम्बन्ध को रेखांकित किया. जहाँ तक मार्क्सवाद का सम्बन्ध है, स्त्रीवादी आन्दोलन का जन्म उसी से हुई और उसकी दो शाखाएं वहीं से पनपीं.
रेखा अवस्थी ने इसी सत्र में बोलते हुए कहा कि जब कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो श्रम के मूल्य और सम्मान के लिए लिखा गया तो उसमें सभी वर्ण, लिंग और वर्ग शामिल थे. स्त्री मात्र दलित है. उच्च जाति के घरों की स्त्रियाँ भी दलित ही हैं, उन्हें देवी बना दें या कुछ और. ‘रतिनाथ की चाची’ और ‘बेटों वाली विधवा’ जैसी कृतियाँ इसका उदाहरण हैं. आज भी स्त्री आन्दोलन के लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल शिक्षा, रोज़गार और स्वावलंबन के सवाल हैं. माओ ने चार पहाड़ बताये थे. और पांचवां पहाड़ पितृसत्ता को बताया था. हम उसमें छठा पहाड़ भी जोड़ लें, जाति का. ये सब पार करने हैं.
इस दिन के तीसरे सत्र में विश्वजीत मोहंती ने ‘उत्तर आधुनिकता और अस्मिता निर्माण’ विषय पर बोलते हुए इहाब हसन के हवाले से उत्तर आधुनिकता के मुख्य लक्षण-बिन्दुओं पर प्रकाश डाला और यह स्थापना दी कि अनिश्चितता, फ्रेगमेंटेशन, डी-कैननाइज़शन आदि के सन्दर्भ में देखें तो अस्मिताएं एक मुक्तिकारी शक्ति के रूप में नज़र आती हैं. अगले वक्ता देबा प्रसाद नन्द ने ‘उत्तर-औपनिवेशिकता और अस्मिताएं’ विषय पर व्याख्यान दिया. उन्होंने मार्क्सवाद और उत्तर-औपनिवेशिक विचार, दोनों की ज़रुरत बताते हुए कहा कि जब हम संसाधनों के पुनर्वितरण की बात करते हैं तो मार्क्सवाद की बात करनी पड़ती है, जब चेतना और उसके सांस्कृतिक निर्माण की बात करते हैं तो उत्तर-औपनिवेशिकता की ओर ध्यान जाता है.
सत्र में बोलते हुए दूध नाथ सिंह
चौथा सत्र ‘प्रगतिशील साहित्य और जाति के प्रश्न’ पर केन्द्रित था, जिसमे रघुवंश मणि, शकील सिद्दीक़ी और दूधनाथ सिंह के व्याख्यान हुए. रघुवंश मणि ने इस बात पर बल दिया पारस्परिकता की बात कर रहे हैं तो एक दूसरे के योगदान को भी समझना होगा. उन्होंने विस्तार से दलित लेखन के आने के साथ शुरू हुई बहसों का भी परिचय दिया. शकील सिद्दीक़ी ने कई उपन्यासों-कहानियों की हवाले से बताया कि प्रगतिशील आन्दोलन ने कितने स्रोतों से अपने को समृद्ध किया. प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह ने विषय पर ही सवाल उठाते हुए कहा कि जो चीज़ कभी रही ही नहीं, उसे विषय क्यों बनाया? उन्होंने कहा कि प्रगतिवाद की बुनियादी सोच में ही जाति का सवाल नहीं है, वह मनुष्यों और वर्गों के आधार पर सोचता है. हिन्दी के दलित आन्दोलन को उन्होंने मराठी से प्रेरित ‘सेकेंडरी इमेजिनेशन’ बताया.
सत्र में बोलते हुए राहुल कोसंबी
इस दिन के आख़िरी सत्र में बोलते हुए राहुल कोसंबी ने अम्बेडकरवाद जैसी किसी चीज़ से इनकार किया लेकिन यह कहा कि जाति के प्रश्न की अनदेखी करके आप कुछ नहीं कर पायेंगे, यह निश्चित है और यह कार्यशाला इसका प्रमाण है. उन्होंने कहा कि बाबा साहेब की बात को आइडेंटिटी पॉलिटिक्स नहीं कह सकते. उनका पूरा विमर्श यह बताता है कि कास्ट को ध्यान में रखते हुए भी क्लास की लगातार चर्चा की जा सकती है. कम्युनिस्ट आन्दोलन ने उसका ध्यान न रख कर पिछले 80-90 साल व्यर्थ में गंवा दिए. आज की दलित राजनीति को राहुल कोसंबी ने दलालों की राजनीति बताया. 
अपनी बात रखते हुए विलास सोनवने
अगले दिन, 4 अक्टूबर को पहले सत्र में ‘जाति उन्मूलन और जाति-आधारित राजनीति’ विषय पर  विलास सोनवने का व्याख्यान हुआ. अपने लम्बे व्याख्यान में उन्होंने विस्तार से इस बात पर बल दिया कि इस देश में बैलेट वाले कम्युनिस्टों से ले कर बुलेट वाले कम्युनिस्टों तक, सभी ने जाति को सुपर-स्ट्रक्चर का हिस्सा मानने की गलती की. इसका कारण यूरो-केन्द्रित समझ है. जाति-व्यवस्था के भौतिक आधार की समझ उसका उन्मूलन करने के लिए ज़रूरी है. और यह तब तक संभव नहीं है जब तक डांगे और रजनी पाम दत्त की किताबें आपका आधार बनी रहेंगी. अम्बेडकरवाद के सवाल पर उनका कहना था कि वह वेलफेयर स्टेट के दायरे में बात करता है. मार्क्सवाद क्रांति की बात करता है. फिर पारस्परिकता के धरातल तलाशने का क्या मतलब? ऐसा कोई धरातल हो ही नहीं सकता. 

 

समापन सत्र में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने ‘अम्बेडकर मार्क्स और हमारा वर्तमान’ विषय पर बोलते हुए हमारे समय के मुख्य अंतर्विरोध को पहचानने पर बल दिया. उन्होंने कहा कि आज जो केंद्र में बैठा है, उसे वहाँ बैठाने वाली शक्तियां कौन-कौन-सी हैं? वह बड़ा पूंजीपति वर्ग है, मीडिया घराने हैं और सबसे ऊपर अमरीका है. इस केन्द्रीय सत्ता द्वारा जिसका शोषण हो रहा है, वे कौन हैं? इन्हें पहचानिए, तभी मुख्य अंतर्विरोध की पहचान होगी. जब तक जनता अत्याचार, शोषण, मुनाफाखोरी सी पीड़ित है, तब तक हम संघर्षों की धाराओं में पारस्परिकता के धरातल खोजना जारी रखेंगे. मुक्ति अकेले-अकेले नहीं मिल सकती. वह एक साथ ही संभव है. इसलिए साझा लड़ाई की ज़मीन मौजूद है और उसे चिन्हित करना ज़रूरी है. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने उन दार्शनिक आधारों की भी चर्चा की जिनकी उपेक्षा करके अपने समय के यथार्थ को समझना मुश्किल है. 
कार्याशला में शामिल प्रतिभागी
इस समापन भाषण के बाद प्रतिभागियों ने कार्यशाला को लेकर अपने मंतव्य सामने रखे, जिसमें कवितेंद्र इंदु, प्रियंका सोनकर, मनोज कुलकर्णी, शम्भू यादव, अतुल कुमार जैसे प्रबुद्ध लोग शामिल थे. सबने कार्यशाला की परिकल्पना और उसके इंतजामात के लिए संयोजक बजरंग बिहारी, स्थानीय संयोजक सुधीर सिंह और आयोजन-स्थल मुहैया कराने वाले प्रेम सिंह का साधुवाद किया. सुधीर सिंह के धन्यवाद-ज्ञापन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ.   
संजीव कुमार

प्रस्तुति –

संजीव कुमार 
मोबाईल – 09818577833

मालचंद तिवाड़ी की ‘बोरून्दा डायरी’ पर संजीव कुमार की समीक्षा


विजयदान देथा
 कानपुर से निकलने वाली पत्रिका ‘अकार’ का अभी-अभी एक महत्वपूर्ण अंक आया है. यह अंक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें वर्ष की उम्दा पुस्तकों की समीक्षा महत्वपूर्ण रचनाकारों द्वारा की गयी है. इस अंक के अतिथि सम्पादक युवा कहानीकार एवं आलोचक राकेश बिहारी हैं. इस अंक में मालचंद तिवाड़ी की ‘बोरुन्दा डायरी’ की समीक्षा की है युवा आलोचक संजीव कुमार ने. महान भारतीय कथाकार विजयदान देथा ने अपने 14 खण्डों में प्रकाशित कथा-संसार ‘बातां री फुलवाड़ी’ के हिन्दी अनुवाद का काम मालचंद तिवाड़ी को सौंपा था. तय हुआ था कि ‘बातों की बगिया’ के नाम से मालचंद जी इन खण्डों का अनुवाद बिज्जी के पास उनके गाँव बोरून्दा में ही रहकर करेंगे. सितम्बर 2012 से बोरून्दा में अपना ठिकाना बना कर उन्होंने यह काम शुरू किया. यह डायरी उसी बोरून्दा प्रवास का तिथिवार ललित संस्मरण है. तो आइए पढ़ते हैं संजीव कुमार की यह समीक्षा.    
पोतड़ों में ही बिगड़ चुके मालचंद की डायरी
संजीव कुमार
साहित्यिक विधा के रूप में डायरी एक जीती-जागती दुविधा है. अपने इस अवतार में वह सार्वजनिक होने के लिए, यानी दूसरों के पढ़ने के लिए लिखी जाती है, जबकि असल में डायरी का डायरीपन उस निश्चिंत-निस्संकोच लेखकीय मिज़ाज और व्यवहार में है जो लेखन के सार्वजनिक न होने के ख़याल से पैदा होता है. यह ख़याल, कि वह स्मृतियों के संरक्षण और निजी उपभोग के लिए है या फिर किसी और काल में दूसरों के हाथ लगनेवाले कालपात्र का दर्जा हासिल करने के लिए, डायरी में कई ऐसी बातों को दर्ज करा देता है जो अन्यथा/अन्यत्र नहीं कही जा सकतीं. निश्चित रूप से, साहित्यिक विधा के रूप में डायरी को बरतने वाला लेखक भी इस अन्तरंग गुण को बचाए रखने की भरसक फ़िक्र करता है, क्योंकि वह जानता है कि डायरीपन दरअसल यही है, पर यह भी सच है कि साहित्यिक विधा के रूप में किया गया लेखन निजी ‘रिकॉर्ड’ के लिए किये जानेवाले लेखन के चरित्र को हू-ब-हू नहीं अपना सकता. यह ऐसा हम्माम है जिसकी दीवारें शीशे की हैं. आप सिर्फ इस सैद्धांतिक समझ के आधार पर नंगे नहीं हो सकते कि आप हम्माम में हैं. 
और अगर पारदर्शी दीवारों के बावजूद नंगे होने का दुस्साहस किसी में हो तो सिर्फ़ हम्माम ही क्यों
मालचंद तिवाड़ी की ‘बोरून्दा डायरी’ भी एक साहित्यिक डायरी है. कोई हैरत नहीं कि यहाँ डायरी के उक्त अन्तरंग गुण की कुछ झलकें तो हैं, लेकिन मुकम्मल तौर पर उसे ढूँढने चलें तो निराशा हाथ लगेगी. कहना चाहिए कि यह डायरी के ‘फॉर्म’ में लिखा गया संस्मरण है. इसे तिथिवार संस्मरण मानकर ही पढ़ा जाए तो पूरा संतोष होगा. फिर आप मालचंद तिवाड़ी के ललित गद्य तथा मार्मिक अवलोकनों की सराहना भी कर पायेंगे. शायद यही एक साहित्यिक डायरी, या प्रकाशन के लिए लिखी गयी किसी भी डायरी, को पढ़ने का सही तरीक़ा भी है.
‘बोरून्दा डायरी’ का उपशीर्षक है, ‘अप्रतिम बिज्जी का विदा-गीत’. बिज्जी के नाम से विख्यात महान भारतीय कथाकार विजयदान देथा का निधन 10 नवम्बर 2013 को हुआ. उससे तकरीबन सवा साल पहले बिज्जी ने मालचंद तिवाड़ी को बुलाकर 14 खण्डों में प्रकाशित अपने कथा-संसार ‘बातां री फुलवाड़ी’ के हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा था. इस समय तक बिज्जी की शारीरिक सक्रियता बहुत कम हो चुकी थी और एक कमरे में ही उनका जीवन सिमट चुका था, जैसा कि किताब की भूमिका से पता चलता है: “वर्ष 2012 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित होकर विश्व नागरिक बन चुके इस भारतीय कथाकार को एक कमरे में परिमित जीवन बिताते देखना उनके अनेक चाहने वालों की तरह हमारे लिए भी दुखद था.” बहरहाल, उस मुलाक़ात में तय हुआ था कि ‘बातों की बगिया’ के नाम से मालचंद जी इन खण्डों का अनुवाद बिज्जी के पास उनके गाँव बोरून्दा में ही रहकर करेंगे. सितम्बर 2012 से बोरून्दा में अपना ठिकाना बना कर उन्होंने काम शुरू किया. यह डायरी उसी बोरून्दा प्रवास का तिथिवार ललित संस्मरण है. लेकिन लेखन की शुरुआत सितम्बर 2012 में नहीं हुई. शुरुआत हुई जनवरी 2013 में, जब दोस्तों ने किसी अवसर पर लेखक को ‘एक बड़े आकार की खूबसूरत डायरी… भेंट की’. 11 जनवरी की रात बिना किसी दूरगामी योजना के डायरी का पहला इन्दराज़ लिखा गया. तब से लेकर 10 नवम्बर तक, बोरून्दा से बाहर रहने वाले दिनों को छोड़ कर, इन्दराज़ का सिलसिला जारी रहा. 10 नबम्बर ही वह दिन था जब बिज्जी का अंतिम संस्कार हुआ. डायरी के आख़िरी शब्द हैं, ‘अलविदा बिज्जी!’
पता नहीं, किसी और भाषा में ऐसी कोई किताब है या नहीं जो एक बहुत बड़े साहित्यिक व्यक्तित्व के आख़िरी दिनों का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करती हो, कम-से-कम हिन्दी में तो, इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) की जानकारी में, ऐसी कोई किताब नहीं है. इस लिहाज से ‘बोरून्दा डायरी’ अपनी परिकल्पना में ही एक अनोखी पुस्तक है. पर अनोखापन इस परिकल्पना तक ही  नहीं, इसमें भी है कि यह इतने आत्मीय और संवेदनशील स्तर पर आपको बिज्जी के आख़िरी दिनों का सहयात्री बनाती है कि पढ़कर ख़त्म करने के बाद आप स्वयं को आश्चर्यजनक रूप से अनुभव-समृद्ध पाते हैं. अगर यह सहयात्रा सिर्फ़ रोज़मर्रा की स्वास्थ्य-सूचनाओं और रोचक-अरोचक घटनाओं की रिपोर्टिंग तक सीमित होती तो यह समृद्धि संभव न थी. उसे संभव किया है एक ऐसे समर्थ लेखक के ‘वेंटेज पॉइंट’ ने जो बिज्जी के साथ अपने गहरे सम्बन्ध और अनुवाद की अपनी तात्कालिक व्यस्तता/तल्लीनता के कारण इस पूरे दौर में बिज्जीमय है. वह न सिर्फ़ बिज्जी के व्यक्तित्व को बाहर-भीतर जानता है और उनकी छोटी-से-छोटी हरकत को भी अनायास सन्दर्भ देने की क्षमता रखता है, बल्कि रात-दिन 14 खण्डों में फैले उनके कथा-संसार का अनुवाद करते हुए वह बिज्जी की इस दुनिया को नयी गहराइयों तक जाकर पहचान भी रहा है. गोया यह डायरी भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह की निकटता के बीच लिखी गयी है. इसीलिए यह बिज्जी के अंतिम दिनों को देखने की वह जगह मुहैया करा पाती है जो अपने-आप में दुर्लभ है; जिसे मुहैया कराना ऐसे किसी व्यक्ति के लिए संभव ही नहीं था जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को इस गहराई तक न जानता रहा हो और उससे भी आगे, अनुवाद रूपी पुनस्सृजन-कर्म में डूब कर लेखक की आत्मा के साथ निरंतर संवादरत न हो – वह आत्मा जो कृतित्व में ही मुखर होती है. 25 फरवरी के इन्दराज़ में तीसरे राजकुमार की कहानी के अनुवाद का ज़िक्र करते हुए मालचंद जी ने बड़ी बात कही है:
“अब यह कौन समझे कि बिज्जी ही मछुआरे हैं और बिज्जी ही राजकुमार! अपनी कहानियों के नायक-खलनायक ही नहीं, स्त्री, पुरुष, शेर, सियार, लोमड़ी, गीदड़, हंस, राजव्यास, कुटनियाँ, दूतियाँ, खरगोश, गिलहरी, राजा, द्वारपाल, ज्योतिष और विदूषक – सब के सब बिज्जी ही तो हैं – सर्वव्यापक, सर्वात्मा, सृजनहार उनके. गीता का श्लोक है न:
            अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोअनन्तरूपम.
            नान्तं न मध्यम न पुनास्त्वादिम पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप.
हे विश्वरूप! आपको मैं अनेक हाथों, पैरों, मुखों, नेत्रों वाला सब ओर से अनंत रूपों वाला देख रहा हूँ. मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अंत को देख रहा हूँ. बिज्जी नामक सर्जनास्वरूप शक्तिमत्ता को नमन!” 
रचनाकार अपनी बनाई दुनिया के कण-कण में व्यापता है और जो व्यक्ति अनुवाद-तन्मयता में उस दुनिया के हर कण की महत्ता को निरख-परख रहा हो, उससे बेहतर उस रचनाकार को कौन जान सकता है! गरज़ कि इस ‘विदा-गीत’ की गुणवत्ता के पीछे एक दुर्लभ संयोग का बल है. संयोग यह नहीं कि अनुवाद के बहाने बिज्जी के जीवन के अंतिम वर्ष में भौतिक रूप से उनके निकट रहने का अवसर मिला, संयोग यह कि इस अंतिम वर्ष में प्रतिदिन घंटे-दो घंटे उनके साथ गुज़ारने के अलावा उनके कथा-संसार के कण-कण को खंगालते हुए हर घड़ी उनकी सूक्ष्म काया का भी संग-साथ रहा. भूमिका में मालचंद जी ने जिस वरदान का उल्लेख किया है, उसे इसी अर्थ में समझा जाना चाहिए, भले ही स्वयं मालचंद जी का बलाघात, संभवतः, इससे भिन्न हो. लिखते हैं: “फुलवाडियों’ के अनुवाद की यह निर्विकल्प समाधि अंगीकार करने के सिवाय मेरे पास चारा ही क्या था! लेकिन यह बेचारगी अपनी परिणति में मेरे लिए कैसा वरदान साबित हुई, इसे केवल ‘बोरून्दा डायरी’ पढ़ कर ही जाना-समझा जा सकता है.’
व्यक्ति और रचनाकार, दोनों रूपों में बिज्जी पर लेखक की गहरी पकड़ ने डायरी में उन्हें जीवंत कर दिया है. एक चरम व्यस्त और सघन रचनात्मक जीवन जीने के बाद अपने कमरे में सिमटे बिज्जी का बुढापा अपने हर उतार-चढ़ाव के साथ यहाँ दिखता है. आप धीरे-धीरे मौन होते जाते बिज्जी को देखकर उदास भी होते हैं और अचानक उस मौन के बीच से उनका स्वाभाविक परिहास फूटता देख खिल भी पड़ते हैं. कहीं उम्र की लाचारी और थकान के बीच उनकी छलछलाई आँखें दिखती हैं तो कहीं चेहरे पर और शब्दों में उमगती बालसुलभ शरारत. पूरी किताब गोया आपको लहरों पर उछलती चलती है. ऊपर, नीचे, फिर ऊपर, फिर नीचे…. और इसके साथ-साथ बिज्जी के कथा-संसार का ऐसा परिचय जो आलोचना की औपचारिकताओं से अछूता रहकर भी किसी अच्छी आलोचना से कमतर नहीं है. 4 अगस्त की प्रविष्टि की शुरुआत इस बारीक अवलोकन के साथ होती है: “किसी आधुनिक लेखक और विजयदान देथा के बीच बुनियादी और शायद इसीलिए एकमात्र अंतर यही है कि मेरे मित्र, जाति से राईका और पेशे से महेंद्र बाबू के भृत्य, श्री निम्बोराम्जी जो प्रवाहमान वाणी मुख से उच्चारित कर सकते हैं, उसे उसके आभिप्रायिक आलोक के साथ कागज़ पर उतारने के सामर्थ्य वाले मौजूदा दौर के वे कदाचित एकमात्र भारतीय लेखक हैं. मैं उनके सर्वहारा किस्म के चरित्रों की भाषा और संवाद पढता हूँ तो एकमात्र लेखक जो मुझे बारम्बार याद आता है, वे हैं – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’. वे अपने नाम तक को अपने ही चरित्रों के मुंह से ‘रिणुवा’ कहलवाकर जो मज़ा लेते हैं, वह अब हिंदी में और ख़ासकर, राजस्स्थानी में भी केवल बिज्जी के पाठों में ही शेष बचा है.” विजयदान देथा के साहित्यिक वैशिष्ट्य को बातों-बातों में रेखांकित कर देनेवाले ऐसे अंश किताब में बिखरे पड़े हैं. ‘ऊँध-करमी’ कहानी का ‘उलटपंथी’ शीर्षक से अनुवाद करने की चर्चा करते हुए मालचंद लिखते हैं: “इसमें एक पति नितांत अचेतन स्तर पर अपनी पत्नी की हत्या करता है और इस कहानी का अंतिम वाक्य है – ‘सब धोखा देते हैं, पर आंसू सपने में भी धोखा नहीं देते; दो आंसू टपककर तालाब के पानी में घुल गए.’ मनुष्य के व्यक्तित्व के विभाजन, आत्म-प्रवंचना, सूक्ष्म स्वार्थवृत्ति, उसके औदात्य, प्रेम, वंचित होने की पीड़ा आदि के चेतनागत विविध पक्षों का ऐसा सूक्ष्म अंकन इस छोटी सी कहानी में है कि मुझे फ्रांज काफ्का याद आये.” एक जगह वे ‘आठ राजकंवर’ के अंत में आये एक सांकेतिक बिम्ब को उद्धृत करते हैं और उस पर टिप्पणी: “ज़रा गौर कीजिये, साठ के आस-पास लिखी इस कहानी पर, जब ग्रीन-हाउस इफेक्ट नामक मानवीय चिंता से कोई परिचित तक नहीं था, देखते-ही-देखते आंधी के आसन पर बैठ कर बादल पृथ्वी से दूर चले गए और हमारी सभ्यता हाथ मालती रह गयी. ये हैं बिज्जी!” 1 अक्टूबर की प्रविष्टि में ‘अबोलौ ग्यान’ कहानी के बारे में लेखक की टिप्पणी है: “कहानी भारतीय जाति-व्यवस्था और जातिवाद पर भगवान् की बेआवाज़ लाठी की तरह इतना मूक प्रहार करती है कि देखते ही बनता है.” इसी तरह एक जगह बिज्जी की ‘परिहास-परिसमृद्ध’ कहानियों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि “दो-एक संग्रह तैयार हो सकते हैं बिज्जी के इस हास्यमेव जयते के.” 
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बिज्जी की दीवानगी में गलत-सही तारीफों के ही पुल बांधे गए हों. कई जगह दुहराव और उबाऊपन की भी पुरजोर शिकायतें हैं. ‘आस्था’, ‘पागी’ आदि कहानियों की बात करते हुए वे कहते हैं: “ये कहानियां अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं, अत्यधिक सरलीकृत. मात्र संख्यावर्धक.” ‘आठ राजकंवर’ के बारे में, “शुरुआत में इसमें काफी दोहराव और असहनीय इतिवृत्तात्मकता है. पात्रों का मनोवैज्ञानिक आधार भी काफी कमज़ोर है. बिज्जी के लिखे किसी टेक्स्ट का हिंदी अनुवाद करते हुए इतनी उकताहट और बोरियत नहीं हुई…”. ‘गृहस्थी का आश्रम’ के बारे में, “इतना उबाऊ और आवृत्तिमूलक पाठ कि यकीन नहीं होता कि इसी पाठ की ज़मीन पर बिज्जी का परवर्ती लेखक खड़ा हो सका.”
यह सहृदयता और ईमानदारी ‘बोरून्दा डायरी’ में आद्यंत है. कोई चिन्हित किया जाने योग्य साहस न भी दिखे तो कम-से-कम इस ईमानदारी में उस अपेक्षित डायरीपन की झलक पायी जा सकती है जिसका लेख की शुरुआत में ज़िक्र किया गया था.
यह ईमानदारी डायरीकार ने अपने निजी प्रसंगों में भी बनाए रखी है. ध्यान रखें कि यह बोरून्दा प्रवास की डायरी है, सिर्फ बिज्जी के संग-साथ का रोजनामचा नहीं. स्वाभाविक रूप से यहाँ जिस अनुपात में बिज्जी मिलते हैं, उसी या उससे थोड़े अधिक अनुपात में स्वयं मालचंद जी की निजी ज़िंदगी भी दर्ज है. इस ज़िंदगी को लेकर लेखक में कुछ हद तक अपराध-बोध से भरी एक सराहनीय ईमानदारी है. वह अपनी आदतों, लापरवाहियों, अपने असफल अभिभावकत्व, पारिवारिक मोर्चे की नाकामियों इत्यादि से जुड़ी बातें डायरी में दर्ज करते हुए कहीं भी अपना बचाव करता नहीं लगता. अपनी चरम धार्मिकता और भाग्यफल-विश्वासी स्वभाव का भी वह निस्संकोच प्रदर्शन करता है, जो आज के किसी बौद्धिक के लिए सामान्यतः सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य तथ्य नहीं है. आज का कौन लेखक स्वीकार करेगा कि वह अखबार में सुबह-सुबह अपना साप्ताहिक भाग्य-फल देखता है! कौन यह स्वीकार करेगा कि “अपने कमरे में मैं रोज़ शाम दीया-बाती करता हूँ. ‘रामचरितमानस’ और ‘गीता’ की एक-एक प्रति रख छोडी है, उन्हीं के इर्द-गिर्द धूप-बत्ती रख देता हूँ. थोड़ा-सा बुदबुदाकर माँ श्यामा से प्रार्थना कर लेता हूँ.” वह अपनी हर छोटी-बड़ी उपलब्धि को पूरी गंभीरता और पर्याप्त ब्योरों के साथ करनी माता आदि का आशीर्वाद बताता है और जगह-जगह भाग्यफलादि पर भरोसा तथा ‘माँ-माँ का अहर्निश जाप’ करते रहने की उत्कंठा व्यक्त करता है. उसकी यह आस्तिकता कहीं-कहीं अखरती भी है; लगता है कि वह दकियानूस और वर्चस्वशाली विचारधारा से पोषण पाते शक्ति-संबंधों को अपने पाठक के लिए प्रश्नातीत बनाए दे रहा है! निश्चित रूप से चली आती व्यवस्था के पक्ष में समाज को अनुकूलित करने/किये रखने और दमनकारी संरचना को ‘प्राकृतिक’ का दर्जा देने में ऐसे मासूम पाठों की भी भूमिका होती है…. पर – और यह बात इपंले खुद को समझाने के लिए लिख रहा है – अव्वल तो पाठों की ऐसी भूमिका मुखर धार्मिकता जैसे स्थूल उपादानों पर ही निर्भर नहीं होती, उस भूमिका की बात करें तो दूर तलक जाना होगा, फिर बेचारी धार्मिकता को ही बलि का बकरा बनाकर काम पूरा कर लेने की खुशफ़हमी क्यों पाली जाए; दोयम, आस्तिकता के ये प्रसंग डायरी लेखन में अपेक्षित ईमानदारी को दर्शाते हैं और डायरी की विधा को देखते हुए इस ईमानदारी का अवमूल्यन तो कम-से-कम नहीं ही किया जा सकता. मालचंद जी जहां भी अपनी सघन आस्तिकता का परिचय देते हैं, बात एकदम मन की भीतरी तहों से निकलती लगती है, जैसे कलम ने यह चिंता ताक़ पर रख दी हो कि लोग इसे पढेंगे भी. उनका धर्म सचमुच ‘ग़रीब की आह’ और ‘हृदयहीन संसार का हृदय’ जान पड़ता है (सन्दर्भ: मार्क्स की प्रसिद्ध ‘जनता का अफ़ीम’ वाली उक्ति).
यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ‘बोरून्दा डायरी’ में व्यक्त यह मुखर धार्मिकता कहीं से भी साम्प्रदायिक और संकीर्ण नहीं है. वह आद्यंत उदार मानवीयता के अंगी भाव में समाहित है. इसीलिए गीता और रामचरितमानस के प्रति जैसी श्रद्धा व्यक्त हुई है, वैसी ही क़ुरान के प्रति भी. एक पूरी प्रविष्टि (ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत) याकूब भाई की क्लिनिक में जाकर उनकी तीन ख़ास चीज़ों के दर्शन करने पर है जिनमें से पहली चीज़ है, औरंगजेब के हाथ की लिखी क़ुरान. इस क़ुरान के दर्शन का वर्णन खुद लेखक के मुंह से सुनिए:
“बकौल याकूब भाई, यह प्रति बादशाह औरंगज़ेब के हाथ की लिखी हुई है. हिन्दुस्तान के इतिहास से वाकिफ़ हर शख्स यह बात जानता है कि हिन्दुस्तान में एक बादशाह ऐसा भी हुआ है जो अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए हाथ से लिखकर क़ुरान की प्रतियां तैयार किया करता था. बड़े आकार की इस अरबी हस्तलिखित किताब को छूते ही मैं पवित्रता की भावना से अभिभूत-सा हुआ और मैंने इसे सिर से लगाकर खोला.”
लेखक याकूब भाई के बेटे सुहैल से उसके कुछ अंश पढ़वा कर सुनता भी है. फिर उठते समय सुहैल से कहता है, “तुम अरबी पढ़ तो लेते हो, लेकिन लगता है, क़ुरान की तिलावत बराबर नहीं करते…. अटक-अटक कर नहीं, प्रैक्टिस के बाद इसको अपने लैंग्वेज की रिद्म में सही तलफ्फुज़ के साथ पढोगे, तभी इसकी रूह की रोशनी तुम पर खुलने लगेगी.”
मालचंद जी अगर ‘गीता’ को धूप-बत्ती दिखाते हैं तो साथ ही, ग़ालिब के ‘दीवान’ के साथ उसकी तुलना करने का विवेक भी रखते हैं. ऐसी तुलना पर, ‘गीता’ को राष्ट्रीय ग्रन्थ का दर्जा दिलाने की बात करनेवाले धर्म के ठेकेदारों की निगाह पड़ जाए तो त्रिशूल निकल पड़ेंगे:
“कितनी बुरी बात है कि यहाँ, बोरून्दा में मेरे पास ‘गीता’ तो है, पर ग़ालिब का ‘दीवान’ नहीं. दोनों किताबें एक ही काम करती हैं, मनुष्य को निस्संग, केवल अपने स्व के साथ रहना सिखाती हैं. एक अपनी गुरु-गंभीर और बौद्धिक शैली में, तो दूसरी अपने बेहतरीन पुरलुत्फ खिलंदड़ी अंदाज़ में. पर कॉमन चीज़ एक – दोनों को पढ़-पढ़कर मेरा स्व पिघलता है – बहने को… बह पड़ने को आतुर हो आता है.”
कहना चाहिए कि मालचंद जी में जितना भक्ति-भाव है, उतना ही विवेक और सहृदयता भी. सामान्यतः धूप-बत्ती दिखानेवाले भक्ति-भाव के साथ इन चीज़ों का ताल-मेल नहीं बैठता. पर मालचंद तो, बिज्जी के शब्दों में, ‘पोतड़ों में ही बिगड़ चुके थे’! और चिराचरित से भिन्न सामंजस्य की तलाश करना बिगड़े होने का सबसे बड़ा लक्षण ठहरा! 
बिगड़े होने के लक्षण मालचंद तिवाड़ी के गद्य में भी पूरी ठसक के साथ मौजूद हैं. हिंदी-उर्दू की विराट शब्द-संपदा का मनमाफ़िक इस्तेमाल करने की उनकी सहजता देखते बनती है. वे खेल कर सकते हैं, करते हैं. इसीलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी और मनोहर श्याम जोशी जैसे बड़े गद्यकारों की झलक उनके यहाँ पर्याप्त मुखर है. खूब रम कर-जम कर की हुई अच्छी पढाई और बेहतरीन याददाश्त ने उनके गद्य को निखार दिया है. ग़ालिब, फैज़, अकबर इलाहाबादी, गीता, मानस – ये सब उनके यहाँ बड़ी सहजता से आते-जाते हैं, और इसके लिए लेखक को किताबें खोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती, जो कि वैसे भी बोरून्दा प्रवास में उसे उपलब्ध नहीं थीं. खुद लेखक के ऐसा कहने पर भरोसा न भी हो तो उद्धरणों में कहीं-कहीं छोटी-मोटी गलतियों की पहचान कर यह भरोसा हो जाता है. यह बात गलतियों की ओर ध्यान खींचने के लिए नहीं कही जा रही, क्योंकि वे वैसे भी बड़ी नहीं हैं. अलबत्ता, इपंले को इससे थोड़ी शिकायत ज़रूर हुई कि जोशी जी के प्रशंसक होकर मालचंद ये कैसे भूल गए कि पहुंचेली ‘कसप’ की नहीं, ‘कुरु कुरु स्वाहा’ की नायिका है!  
‘बोरून्दा डायरी : अप्रतिम बिज्जी का विदा-गीत’ / लेखक : मालचंद तिवाड़ी / प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली /  वर्ष : 2014 / पृष्ठ : १६० / कीमत : 150 रु. (पतली ज़िल्द)
संजीव कुमार
             
सम्पर्क- 
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संजीव कुमार का आलेख ‘स्वामी ने क्या ग़लत कहा’

हिटलर का अत्यन्त विश्वस्त गोयबल्स यह कहा करता था कि अगर एक झूठ को सौ बार बोला जाय तो वह सच लगने लगता है। आज इतिहास एक बार फिर अपने को दुहरा रहा है। हमारे समय के गोयबल्स हैं श्री दीना नाथ बत्रा। तमाम किताबें लिख मारने वाले बत्रा जी की किताब के हकीकत और फ़साना पर एक नजर डाला  है हमारे साथी संजीव ने। आइए पढ़ते हैं संजीव का यह जरुरी आलेख जो तीन दिसंबर के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था     
स्वामी ने क्या ग़लत कहा
संजीव कुमार
ज़्यादा समय नहीं हुआ, भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी का बयान आया था कि रोमिला थापर और बिपन चंद्रा जैसे नेहरूवादी इतिहासकारों की किताबों को जला देना चाहिए। इस बयान की बड़ी चर्चा और निंदा हुई थी। पर थोड़ा ठहर कर सोचें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के पास ऐसी किताबों को जला देने, लुगदी बनवा देने, या बल-प्रयोग करके इनकी बिक्री रुकवा देने के अलावा उपाय क्या है? क्या आप उनसे उम्मीद करते हैं कि वे उदार और तरक्की-पसंद सोच के बौद्धिक दिग्गजों की स्थापनाओं का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दें
अभी-अभी संघ खेमे की इंडियाफ़ैक्ट्सनामक वेबसाइट पर अंग्रेज़ी में एक पोस्ट आई जिसमें रोमिला थापर, अंगना चटर्जी, विजय प्रसाद जैसे आठ भारत विरोधी बुद्धिजीवियोंका पूरा परिचय डाला गया है। उसके नीचे जो टिप्पणियां आई हैं, उनमें एक संघ हमदर्द की टिप्पणी दिलचस्प है। लिखते हैं, हमारी मुश्किल यह है कि हम इन बुद्धिजीवियों के बनाये हुए पारिस्थितिक तंत्र (ईको-सिस्टम) के बरक्स कोई प्रति-तंत्र विकसित नहीं कर पाए जैसा कि अमेरिका में दक्षिणपंथ के पास है।… मैं नहीं समझता कि मोदी सरकार और संघ परिवार के पास वह दृष्टि और बौद्धिक माद्दा है कि वे ऐसा प्रति-तंत्र निर्मित कर पाएं। यही हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है। यह अहसास संघ से जुड़े लोगों को है। वे जानते हैं कि वे बराबरी के स्तर पर जवाब देने की हालत में नहीं हैं। तो फिर किताबों को जला देने का आह्वान क्यों न किया जाए! 
लिहाज़ा, स्वामी के बयान को आप इस बौद्धिक क्षमता की कमी के आत्मस्वीकार के रूप में भी पढ़ सकते हैं। वह जितना फ़ासीवादी मिज़ाज का बयान है उतना ही यथार्थवादी भी।
कोई चाहे तो कह सकता है कि बौद्धिक क्षमताअपने-आप में एक गढ़ंत है जो आधुनिकता की पश्चिमी परियोजना द्वारा हमारे ऊपर थोप दी गयी है। यह बौद्धिक कर्म के आधुनिकता-निर्मित ढांचे का असर है जिसके चलते एक ख़ास प्रविधि का पालन करनेवाला, तार्किक-वैज्ञानिक चिंतन के मुहावरों में बंधा लेखन ही हमारे लिए उत्तम बौद्धिकता की निशानी होता है। जिन विचारकों में ग़ैरमिलावटी भारतीयता बची हुई है, उनके यहां यह निशानी न मिले, यह स्वाभाविक है। वस्तुतः उनके यहां ठेठ भारतीय क़िस्म की बौद्धिकता है जिसे पश्चिमी आधुनिकता ने, और इसीलिए हम जैसे जड़ों से कटे लोगों ने, बौद्धिकता मानने से इंकार कर दिया है।
यह उत्तर आधुनिक दलील प्रथम दृष्ट्या बहुत ग़लत नहीं लगती। पर शिक्षा-संस्कृति के मोर्चे पर संघ की अगुवाई करने वालों को पढ़ें तो भेद खुल जाता है। वहां बौद्धिक कर्म के उन सदियों पुराने उसूलों का भी कोई पालन नहीं मिलता जिनका स्वयं भारतीय पांडित्य-परंपरा में सख़्ती से पालन किया गया है। ऐसा एक नमूना अभी मेरी मेज़ पर खुला पड़ा है। यह अक्तूबर महीने की 29तारीख़ को वेंकैया नायडू के हाथों लोकार्पित एक पुस्तक है। लेखक हैं, दीना नाथ बत्रा और पुस्तक का नाम है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप
आदरणीय बत्रा जी को जिसने नहीं पढ़ा, वो समझो जन्म्याईं नईं। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से शिक्षा-संस्कृति के मोर्चे पर काम करने वाले एक ऐसे समर्पित प्रचारक हैं जिनकी स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत इज़्ज़त करते हैं। शिक्षा बचाओ आंदोलन की अगुवाई करते हुए इसी साल वेंडी डॉनीगर की किताब द हिंदूज़: ऐन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्रीको लुगदी करवाने में कामयाबी हासिल कर वे चर्चा में आये थे। वैसे वे काफ़ी समय से संघ के शिक्षा-नीति-निर्धारकों में रहे हैं और राजग-1 के दौरान 2001 में एन.सी.ई.आर.टी. के सलाहकार के तौर पर उन्होंने उस समिति का नेतृत्व किया था जिसने इतिहास की किताबों में से हिंदू राष्ट्रवादियों को ठेस पहुंचाने वाले हिस्सों को निकाल बाहर करने के काम को अंजाम दिया। शिक्षा के भारतीयकरण और उसमें मूल्य-शिक्षा के समावेश के उद्देश्य से बत्रा जी ने नौ पाठ्यपुस्तकें भी लिखीं, जिनका गुजराती में अनुवाद कर गुजरात सरकार ने अपने 42000विद्यालयों में उन्हें पढ़ाना अनिवार्य किया है। इनमें तेजोमय भारतऔर प्रेरणादीप 1’ ‘प्रेरणादीप 2’ जैसी किताबें हैं जिनमें विद्यार्थियों के लिए परोसी गयी सामग्री काफ़ी चर्चा में रही है। मसलन, ‘तेजोमय भारतमें महाभारत की कथा के आधार पर प्राचीन भारत में स्टेम सेल रिसर्च होने, टेलीविज़न होने आदि की जानकारी दी गयी है। प्रेरणादीपके अलग-अलग भागों में स्पष्ट नस्लवादी मिज़ाज वाली शिक्षाप्रदकहानियां हैं। मोदी जी ने स्वयं इन किताबों के महत्व पर प्रकाश डाला है और भारतीय शिक्षा के उद्धार की मुहिम में बत्रा जी के महती योगदान को स्वीकार किया है।
दीना नाथ बत्रा
इन बातों से समझा जा सकता है कि राजग-2में शिक्षा के स्तर पर जो कुछ होने जा रहा है – और ज़ाहिर है कि बहुत कुछ होने जा रहा है – उसमें दीनानाथ बत्रा नेतृत्वकारी भूमिका में रहेंगे। ऐसे व्यक्ति के विचारों को सीधे उसकी पुस्तक से हासिल करने में किसकी दिलचस्पी नहीं होगी! मेरी मेज़ पर उनकी किताब के खुले होने का कारण यह है।
तो अब आइये इस खुली हुई किताब पर। अगर आप आज कल के बाबाओं को प्रामाणिक भारतीयता का सबसे ठोस उदाहरण मानते हों, तो यह किताब भारतीयता से ओतप्रोत है। इसकी अंतर्वस्तु और शैली, दोनों बाबाओं के प्रवचन जैसी है। इसमें न किसी उद्धरण का स्रोत बताने की ज़हमत उठाई गयी है, न किसी तथ्य को प्रमाण-पुष्ट करने की। (वह सब बत्रा जी कह रहे हैं, यही क्या काफ़ी नहीं है!) उद्धृत किये गये लोगों का पूरा परिदृश्य इतना वैविध्यपूर्ण है कि आप दंग रह जाएंगे। यहां श्री मां, साईं बाबा, एकनाथ जी, स्वामी रंगनाथन, मां शारदा इत्यादि से लेकर विक्टर ह्यूगो, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, बिनोवा भावे, गिजुभाई, दीनदयाल उपाध्याय, श्री गोलवलकर, डॉ. कोठारी, डॉ. राधाकृष्णन और पता नहीं कौन-कौन से विचारक मौजूद हैं और ऐसा लगता है कि इन सब ने मिल कर कुछ एक जैसी ही बातें कही हैं। उद्धरणों के साथ कहीं भी संदर्भ नहीं बताया गया है, पर वह उतनी चिंताजनक बात नहीं। चिंताजनक यह है कि पढ़ कर कई बार संदेह होता है कि लेखक अपने ही शब्दों पर उद्धरण चिह्न ठोंक कर उन्हें किसी नामी-गिरामी के हवाले किये दे रहा है। पृष्ठ 177 पर स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण हैः ‘‘समझ के बिना कोरा ज्ञान मस्तिष्क में पड़ा सड़ांध पैदा करता है। प्रेम के ढाई अक्षर आत्मसात करने से जीवन सफल तथा धन्य हो जाता है।’’ फिर 186 पर विवेकानंद का उद्धरण हैः ‘‘शिक्षा जानकारियों का ढेर नहीं, जो मस्तिष्क में पड़ा रह कर सड़ांध पैदा करता है। ज्ञान के चार अक्षर भी यदि हम जीवन में आत्मसात कर लें तो हमारा जीवन सफल हो जाए।’’ चूंकि दोनों उद्धरणों का स्रोत नहीं बताया गया है, इसलिए प्रामाणिकता जांची नहीं जा सकती, पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मस्तिष्क’, ‘सड़ांध’, ‘अक्षर’, ‘जीवन’, ‘आत्मसातऔर सफलजैसे शब्दों को दुहराते हुए, और प्रेम के ढाई अक्षरतथा ज्ञान के चार अक्षरका अंतर बरत कर, दो जगह दो बातें स्वामी विवेकानंद ने नहीं कही होंगी। यह बत्रा जी की अपनी मेधा से निकले हुए सूत्र ही हो सकते हैं जिन्हें अधिक वज़न देने के लिए उन्होंने विवेकानंद के नाम कर दिया है। यह बात तब और पुष्ट होती है जब आप पाते हैं कि पृष्ठ 17 पर लेखक बिना किसी को उद्धृत किये यह बात कह रहा हैः ‘‘शिक्षा जानकारियों का ढेर नहीं है, जो मस्तिष्क में पड़ी रहकर सड़ांध पैदा करती है।’’ फिर पृ. 205 पर उसके अपने शब्दः ‘‘शिक्षा कोरा अक्षर-ज्ञान नहीं है, जो मस्तिष्क में पड़ा सड़ांध पैदा करता है।’’ और तो और, इसी पुस्तक में बत्रा जी की जो कविताएं संकलित हैं, उनमें भी यह रचनात्मक सूत्रीकरण मिलता है, जिससे यह अंतिम रूप से सिद्ध हो जाता है कि विवेकानंद को इसका श्रेय उन्होंने महज़ उदारतावश दे दिया था। कविता पंक्ति हैः यदा-कदा मास्टर जी आते हैं, मस्तिष्क में ढूंसते हैं अक्षरज्ञान / वह वहां सदा सड़ांध पैदा करता है, नहीं है यह अनुभूत ज्ञान।’ 
ग़रज़ कि सड़ांध ने बत्रा जी के शिक्षा-चिंतन पर लगभग क़ब्ज़ा जमा लिया है। यह स्वामी विवेकानंद के चिंतन से आया हुआ शब्द है, ऐसा मानने को जी नहीं करता, पर जांच कैसे हो! 
किताब में आये सभी उद्धरणों का हाल बेहाल है। कामायनीका एक छंद एकाधिक बार उद्धृत है और मात्रा तथा आशय, दोनों दृष्टियों से उसे अधमरा करके प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह एक छोटी-सी कहानी रचते हुए लेखक ने लक्ष्मण और उनकी पत्नी उर्मिला के बारे में लिखा है, ‘‘लक्ष्मण जब वनवास जाने लगे थे तो उन्होंने कहा था कि मैं श्रीराम के साथ जा रहा हूं, यह नहीं कहा कि मैं कब लौटूंगा। उर्मिला ने अपनी एक सखी से यह शिकायत की थी कि सखि, वे मुझसे कहके जाते।’’ (पृ. 269) याद कीजिए कि सखि, वे मुझसे कह कर जाते मैथिली शरण गुप्त की पंक्ति है जो उनकी कविता में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा का कथन है।
पृष्ठ 186 पर डॉ. राधाकृष्णन को लेखक ने अंग्रेज़ी में उद्धृत किया हैः स्टैगनेशन इज़ डेथ ऐंड मोशन इज़ लाइफ़। यही वाक्य इसी तरह अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि में पृष्ठ 177 पर लेखक की अपनी बात के रूप में है। अब चूंकि राधाकृष्णन स्वयं बत्रा जी के जीवन काल में रहे हैं, इस लिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि बत्रा जी के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ है और दोनों एक ही व्यक्ति हैं!
पश्चिमी विद्वत्ता की बराबरी में दिखने की ग़रज़ से बत्रा जी लगातार अंग्रेज़ी में कुछ-कुछ कहते चलते हैं। वी आर द ट्रस्टीज़ ऑफ़ द वेल्थ’ (122), ‘रीड, च्यू ऐंड डाइजेस्ट’ (176), ‘ऑल फ़ॉर वन ऐंड वन फ़ॉर ऑल इज़ आवर सॉन्ग (188)- ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। ग़लत-सही उद्धरणों और अंग्रेज़ी वाक्यों वाली यह बाबासुलभ शैली भी क्षम्य होती, अगर कम-से-कम सुसंबद्ध तरीके से अपनी बात कहने का गुर ही बाबाओं से ले लिया गया होता। बत्रा जी की मुश्किल यह है कि प्रवचन और लेखन का यह बुनियादी सिद्धांत भी उनके यहां मात खा जाता है। वे अपनी जैसी-तैसी स्थापनाओं को बस जैसे-तैसे स्थापित करते चले जाते हैं। किताब के पहले ही अध्याय को देखें तो उसका शीर्षक है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप’, पर पूरे अध्याय में इस स्वरूप को लेकर शायद ही कोई बात कही गयी है। असंबद्ध अनुच्छेदों में तरह-तरह की बातें कहता हुआ लेखक शिक्षा संबंधी सरकारी तंत्र के ढांचे पर विचार व्यक्त करने लगता है और फिर अचानक, बिना किसी बुद्धिगम्य कारण के, ‘गांधी के शिक्षा संबंधी विचारउप-शीर्षक के अंतर्गत अपनी समझ के अनुसार उनके विचारों को बिंदुवार रखने लगता है। ऐसी असंबद्धता किताब में आद्योपांत व्याप्त है। उसे पुस्तक का एक गुण नहीं, बल्कि अंगी गुण कहना चाहिए।
याद रखें कि दीना नाथ बत्रा जी इस समय संघ परिवार के सबसे कद्दावर शिक्षा-चिंतक हैं। स्थानाभाव के कारण उनके बौद्धिक स्तर के और नमूने यहां पेश नहीं किए जा सकते, किताब की स्थापनाओं पर तो ख़ैर बात ही नहीं की गयी, पर जो काम की बात है, वह इतने को आधार बना कर कही जा सकती है। वह यह कि क्या इस तरह की बौद्धिकता के बल पर रोमिला थापर, बिपन चंद्रा जैसे विद्वानों का उत्तर दिया जा सकता है
तो फिर बताइये, सुब्रह्मण्यम स्वामी ने क्या ग़लत कहा?
 

संजीव कुमार

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ई-मेल – sanjusanjeev67@gmail.com

संजीव कुमार

वरिष्‍ठ कथाकार शेखर जोशी के जन्‍मदिन (10 सितम्‍बर) पर उनके रचनाकर्म पर युवा आलोचक संजीव कुमार का आलेख-

संजीव कुमार
शेखर जोशी : दबे पाँव चलती कहानियाँ

बीती सदी का छठा दशक हिन्‍दी कहानी के अत्यंत ऊर्वर दौर के रूप में आज भी याद किया जाता है। अगर हिन्‍दी के दो दर्जन प्रतिनिधि कहानीकारों की फ़ेहरिस्त बनाई जाए तो उसमें एक तिहाई से ज़्यादा नाम वही होंगे जिनकी ताज़गी-भरी रचना-दृष्टि ने पचास के दशक में कहानी की विधा को साहित्य की परिधि से उठा कर केन्‍द्र में प्रतिष्ठित कर दिया। उस उभार को अविलम्ब ‘नई कहानी’ की संज्ञा के साथ एक आंदोलन का दरजा हासिल हो गया था।

शेखर जोशी उसी उभार के एक सशक्त प्रतिनिधि हैं। उनका शुमार ‘नई कहानी’ में सामाजिक सरोकारों का प्रतिबद्ध स्वर जोड़नेवाले कहानीकारों में होता है। ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’, ‘बदबू’, ‘मेंटल’ जैसी उनकी कहानियों ने न सिर्फ़ उनके मुरीदों और प्रशंसकों की एक बड़ी जमात तैयार की है, बल्कि ‘नई कहानी’ की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है। पहाड़ी इलाक़ों की ग़रीबी और कठिन जीवन-संघर्ष; उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मज़दूर वर्ग के हालात; शहरी-क़स्बाई निम्न और मध्यम मध्यवर्ग के आर्थिक-सामाजिक-नैतिक संकट; धर्म और जाति से जुड़ी घातक रूढि़याँ; दैनन्दिन स्थितियों का वर्गीय चरित्र- ये सभी उनकी कहानियों का विषय बनते रहे हैं। ‘मूड’ को आधार बनाने की बजाय घटनाओं और ठोस ब्यौरों में किस्सा कहनेवाले शेखर जोशी ने इन सभी विषयों को लेकर ऐसी कहानियां लिखी हैं, जो एक ओर विचार-केंद्रित कृत्रिम गढ़ंत से मुक्त हैं, तो दूसरी ओर ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ के संकरे आशय से भी। इस लिहाज़ से वह अमरकान्‍त और भीष्‍म साहनी की तरह घातक अतियों से कहानी का बचाव करनेवाले रचनाकार हैं।

शेखर हिंदी के सबसे मितभाषी कथाकारों में से हैं। मितभाषी सिर्फ़ इस अर्थ में नहीं कि उन्होंने कम लिखा है, बल्कि इस अर्थ में भी, और यहाँ तो ज़्यादा इसी अर्थ में, कि वह वाचक के रूप में अपनी कहानियों के भीतर और कहानीकार के रूप में कहानियों के बाहर भी अधिक नहीं बोलते। यह संकोच उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की पहचान का बहुत महत्वपूर्ण घटक है… और एक अलग बिन्‍दु से देखें तो उनकी विशिष्‍ट पहचान बनने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा भी। अगर मधुरेश जैसे वरिष्‍ठ कथा-आलोचक को ‘उनके कृतित्व में किसी किस्म की रचनात्मक छलांग का अभाव’ दिखलाई पड़ता है और ऐसा लगता है कि ‘उनके आगे न तो रचनात्मक स्तर पर ही कभी कोई बड़ी चुनौतियां रहीं और न ही अपने सारे वैचारिक आग्रहों के बावजूद संघर्ष और विचार के ऐसे सतेज और प्रखर मुद्दे रहे जो रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा करते हैं’(नयी कहानी: पुनर्विचार, प्रथम संस्करण: 1999, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, पृष्‍ठ 178), तो इसका एक बड़ा कारण शेखर जोशी का कम बोलनेवाला और दावेदारी के स्तर पर एक तरह का दब्बूपन बरतनेवाला कथाकार व्यक्तित्व है- ऐसा कथाकार व्यक्तित्व, जो अपने अदृष्य रहने को ही सबसे बड़ा मूल्य मानता है और इसके लिए जो कुछ ज़रूरी जान पड़े, करता है। मसलन- जिन स्थलों पर सामान्यतः दूसरे लेखकों को ज़्यादा शब्दों और/या ब्यौरों और/या इशारों और/या बलाघात की ज़रूरत महसूस होती है, वहाँ से बगैर किसी विशेष ताम-झाम के गुज़र जाना; कथा-स्थितियों के अर्थगर्भत्व और समृद्धि को समझने/सराहने के लिए पाठक को कोई ‘सर्फेस टेंशन’, ‘धक्का’ या ‘सुराग’ न देना; वाचक की मुद्रा में एक सादगी और साधारणता को बजि़द बनाए रखना इत्यादि। ऐसे में ‘बदबू’, ‘मेंटल’, ‘बच्चे का सपना’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘समर्पण’, ‘निर्णायक’, ‘गलता लोहा’, ‘हलवाहा’ जैसी कहानियों के होते हुए भी किसी को ‘रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा’ करनेवाले ‘संघर्ष और विचार के सतेज और प्रखर मुद्दों’ का अभाव उनमें दिखलाई दे तो क्या हैरत! मधुरेश लिखते हैं, ‘. . . ‘कोसी का घटवार’ जैसी कहानियाँ शेखर जोशी के यहाँ अपवाद जैसी हैं। अपनी रचना-वस्तु के चुनाव की दृष्टि से भी और उससे भी अधिक उसके कलात्मक निर्वाह की दृष्टि से।’ (वही, पृष्‍ठ 178) बात बिल्कुल सही है, पर वह सही होने के साथ-साथ मुकम्मल तब होगी, जब उसमें यह जोड़ दिया जाए कि इसी कलात्मक निर्वाह के चलते किसी गहरी अंतर्दृष्टि के बगैर भी ‘कोसी का घटवार’ कालजयी रचना बन गई, जबकि शेखर जी की अनेक अंतर्दृष्‍टि‍संपन्न कहानियाँ शायद इसीलिए ज़्यादा समय चर्चा में नहीं रह पाईं कि उनका निर्वाह प्रकटतः कलात्मक नहीं था और न ही उनकी प्रस्तुति की मुद्रा में कोई गहरी बात कहने की दावेदारी थी। ये कम बोलने और आहिस्ता बोलनेवाली कहानियाँ हैं- ऐसी कहानियाँ जो अपने पाठक का सम्मान करती हैं, ज़्यादा समझा कर उसकी समझ एवं संवेदनशीलता के प्रति अविश्‍वास प्रकट नहीं करतीं, साथ ही, ‘दिखनेवाली’ कलात्मकता से अछूती हैं, जो कि अंतर्वस्तु की गुणवत्ता के प्रति लेखक के पुख़्ता आत्मविश्‍वास का सूचक है।

शेखर जोशी की कई कहानियों को पीछे कही गई बातों के उदाहरण की तरह पढ़ा जा सकता है। फिलहाल, ‘समर्पण’ को लें। यहाँ लेखक ने प्रतीक-केंद्रित सामाजिक संघर्ष की गतिकी को जिस तरह से चिन्हित किया है, वह असाधारण है। यज्ञोपवीत-धारण के लिए चलनेवाले अभियान की पूरी प्रक्रिया, उसकी शक्तियाँ और सीमाएँ तथा विचारधारात्मक वर्चस्व की टिकाऊ बनावट- इन सबको एक कहानी में समेटना कोई साधारण बात नहीं ! पर शेखर जोशी का यह ‘समेटना’ इतना आयासहीन है कि कहानी की असाधारणता उसमें छुप-सी जाती है और उसे इकहरे तरीके से पढ़ना सिर्फ़ इसलिए मुमकिन हो जाता है कि लेखक की कथन-भंगी उस इकहरे पठन को कहीं से हतोत्साहित नहीं करती। इसीलिए मधुरेश को यह कहानी ‘शि‍ल्पकारों की जागृत चेतना’ की ऐसी कहानी प्रतीत होती है, जिसमें ‘दीवान वंश के वर्तमान उत्तराधिकारियों के आतंक और पेट की ज्वाला’ से भी नष्‍ट न हो पाने वाली उस चेतना को ‘‘वैद्य जी की बुद्धि का चमत्कार डाइनामाइट की तरह तहस-नहस कर देता है।’ कहानी का यह पठन इतना अधूरा है कि ग़लत है, बावजूद इसके कि वैद्य जी की बुद्धि के चमत्कार को आलोचक यह कह कर एक व्यापक संदर्भ देता है कि ‘वह सिर्फ़ वही करते हैं, जो इस धर्म प्रधान देश में सदियों से होता आया है।’ दरअसल, पूरी कहानी प्रतीक पर केंद्रित संघर्ष (नीची जातियों द्वारा जनेऊ-धारण) के उभार और उतार का बयान है और इस सिलसिले में वह प्रतीक-केंद्रित संघर्ष की शक्तियों को विलक्षण तरीके से रेखांकित करने के साथ-साथ उसकी भयावह सीमाओं को भी सामने लाती है। एक आदर्श संतुलन के साथ वह इस बात को चिन्हित करती है कि अगर सामाजिक प्रतीकों की लड़ाई ठोस उत्पादन-संबंधों से जुड़ी लड़ाई का हमक़दम या हिस्सा बन कर नहीं आती, तो अपनी पूरी नैतिक शक्ति के बावजूद वह कमोबेश ऐसे ही ट्रैजिक-कामिक अंत को प्राप्त होने के लिए अभिशप्त है। ‘सेवक जी की अमृतवाणी मन को संतोष दे गई थी, पर तन को संतोष नहीं दे पाई।’ और इसी चीज़ ने उस व्यापक जागृति की रीढ़ तोड़ कर रख दी, जिसे देख ‘पर-पौरुष पर निर्भर दीवान वंश के कीर्तिस्तंभ की नींव’ मालिक लोगों को हिलती प्रतीत होने लगी थी। कितनी बड़ी विडंबना है कि मालिक लोगों के बगैर कुछ किए उनकी यह ‘शंका धीरे-धीरे स्वतः ही निर्मूल सिद्ध होने लगी’; अंततः भेदभाव के जिस प्रतीक को अपने शरीर पर धारण कर शि‍ल्पकारों-हलवाहों ने उसका भेदभावमूलक प्रतीकार्थ नष्‍ट करना चाहा था, उसे अपने ही हाथों उतार फेंका।

निश्चित रूप से, अगर ‘समर्पण’ के लेखक की कथन-भंगी कहानी के इकहरे पठन को हतोत्साहित नहीं करती, तो यह उसकी कि़स्सागोई का एक दोष है, लेकिन साथ-ही-साथ यह आलोचकों के सराहना-सामर्थ्‍य पर भी एक सवालिया निशान है। क्या अंदाज़े-बयाँ की जटिलता ही कहानी के घटना-कार्य-व्यापार में निहित अर्थगत एवं यथार्थगत जटिलता के प्रति हमें सजग बना पाती है ? और क्या इसीलिए हम सरल व संकोची तरीके से कही गई गहरी बात की गहराई को अनदेखा कर जाते हैं ? क्या घटना-कार्य-व्यापार की योजना अपने-आप में अर्थ-निर्माण की यथेष्‍ट प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लेखक की कथन-भंगी और उसके द्वारा उछाले गए सुराग (क्लूज़) ही उस योजना पर अर्थ का आरोपन कर पाते हैं ? क्या हमारी आलोचना यह मानती है कि सुराग-प्रेम नहीं दिखलाते हुए रचे गए अपेक्षाकृत मुक्तमुखी पाठ वस्तुतः अर्थ की दृष्‍टि‍ से विपन्न पाठ हैं ? अगर हिंदी आलोचना को सचमुच शेखर जोषी के यहाँ रचनात्मकता में अनोखी चमक पैदा करनेवाले संघर्ष और विचार के प्रखर मुद्दों का अभाव दिखलाई देता है, तो उसे इन सवालों से रू-ब-रू होना पड़ेगा।

. . . पर, निस्संदेह, यह हिंदी आलोचना की आम राय नहीं है और इसीलिए पूरी आलोचना को इन सवालों के कठघरे में खड़ा करने की ज़रूरत नहीं। विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने अपने लेख ‘बदलते समय के रूप’ (कुछ कहानियाँ, कुछ विचार, प्रथम संस्करण: 1998, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) में ‘हलवाहा’ कहानी पर विचार करते हुए सहज तरीके से बड़ी बात कहनेवाली शेखर जोशी की इस कला को बिल्कुल सही पहचाना है।* कई और कहानियों के संदर्भ में शेखर जोशी की इस कला की पहचान होना अभी बाकी है। ‘समर्पण’ की चर्चा हो ही चुकी है; ‘गलता लोहा’, ‘बच्चे का सपना’, ‘निर्णायक’ आदि कहानियाँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। गल कर एक नया आकार लेनेवाले धातु की तरह जातिगत पहचान का स्थान वर्गीय पहचान ले रही है, इस कथ्य को बहुत महीन तरीके से सामने लाती है ‘गलता लोहा’ कहानी। जातिवादी एकजुटता के छद्म का

शि‍कार बना मेधावी ब्राह्मण कुमार अपने लोहार सहपाठी के साथ जो वर्गीय एकजुटता महसूस करता है, और उसका व्यक्तित्व-विकास जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के जिस सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता है, वह कहानी के केंद्र में होने के बावजूद ज़रा भी मुखर नहीं है। उसे अमुखर बनाए रखने का सूक्ष्म कला-विवेक यदि शेखर जोशी में न होता, तो शायद कहानी का कथ्य ज़्यादा व्यापक स्तर पर ‘सुना’ जाता। इसलिए यह कहना ग़लत न होगा कि ‘गलता लोहा’ अपने कला-विवेक की ही बलि चढ़ गई। वैसे शेखर जोशी की कई दूसरी कहानियों की तरह ही यह कहानी भी किसी ‘दिखनेवाली’ कला से प्रायः अछूती है- प्रकट रूप में लगभग कलाविहीन। पूर्वदीप्ति की एक बहुप्रयुक्त तकनीक को छोड़ दें तो कलायुक्तियों का सचेत उपयोग बिल्कुल दिखलाई नहीं पड़ता। नाटकीय शैली यानी दृष्यात्मक प्रविधि बहुत कम अंशों में है; पूरी कहानी पर घटनाओं की पिछली श्रृंखला बताते जाने की शैली यानी परिदृष्यात्मक प्रविधि हावी है। मतलब यह कि कलात्मक निर्वाह के अभाव की शि‍कायत बड़ी आसानी से की जा सकती है, अगर आप कला को उसके दृष्यमान उपादानों से ही पहचानते हों, तो। पर यदि आप कथात्मक विधाओं के अंदर ऊँची आवाज़ में न बोलने को एक महत्वपूर्ण कला मानते हैं, तो वह ‘गलता लोहा’ में है। यहाँ स्थितियों के मध्य सम्‍बन्‍ध को रेखांकित करते हुए लेखक बहुत बारीक रेखाओं का उपयोग करता है और कहीं कमज़ोर निगाहों से ये रेखाएं ओझल न रह जाएँ, इस डर से उनकी बारीकी के साथ कोई समझौता नहीं करता। यहाँ तक कि शीर्षक जिस प्रतीकार्थ को अपने में समेटे हुए है, उसकी ओर भी कोई इशारा ज़ाहिरा तौर पर कहानी के भीतर मौजूद नहीं है। उसे कहानी के मर्म के साथ जोड़ कर पढ़ने, या उसी की रोशनी में कहानी का मर्म निर्धारित करने का पूरा दारोमदार पाठक पर है। पाठक से मर्मज्ञता की मांग करनेवाले इस निर्वाह को अगर हम कलात्मक न मानें, तो निश्‍चि‍त रूप से पच्चिकारियों को ही कला का एकमात्र नमूना मानना पड़ेगा !

वस्तुतः शेखर जोशी की कहानियाँ बड़ी मज़बूती से कला और सौंदर्य की गैररूपवादी धारणा पर टिकी हुई हैं। उनके यहाँ कलात्मक सौंदर्य की सत्ता अंतर्वस्तु के ऐतिहासिक, सामाजिक और नैतिक संदर्भ से परे नहीं है। इस बात के क्या मायने हैं, इसे खुद जोशी जी कहानी ‘सिनारियो’ किसी भी दार्शनिक-सैद्धांतिक लेख के मुक़ाबले अधिक समर्थ ढंग से बता पाती है। ‘सिनारियो’ वृत्तचित्र बनानेवाले एक युवक, रवि की कहानी है। वह अपना कैमरा लेकर एक पहाड़ी गाँव में पहुँचा है। सूर्यास्त के समय सिंदूरी आभा से नहाया हुआ हिमालय का हिम-विस्तार देख वह मंत्र-मुग्ध हो जाता है। हिमालय की इसी शोभा को पर्दे पर जीवंत करने के लिए वह पहाड़ों में आया है। कमेंट्री, पार्श्‍व-संगीत, कालिदास से लेकर पंत तक की काव्य-संपदा का उपयोग- इन सब पर उसने ख़ासा अनुसंधान और चिंतन कर रखा है। जिस घर में वह ठहरा है, वहाँ प्रारूपिक पहाड़ी दरिद्रता के बीच एक बूढ़ी आमां और उसकी बारह-तेरह साल की पोती रहती है। रात को सोने के बाद सुबह-सुबह पता चलता है कि चीड़ के कोयले में दबी आग चूल्हे में बची नहीं रह पाई है और माचिस रखना महंगा पड़ता है, इसलिए चाय बनाने के लिए आग का इंतज़ाम करने की समस्या है। थोड़ी देर बाद रवि देखता है कि आमां की पोती, सरुली एक पीतल का कलछुल लिए पगडंडी के रास्ते कहीं जा रही है। फिर उसी रास्ते वह कलछुल में आग लिए लौटती दिखलाई पड़ती है। घर के पास पहुँचते-पहुँचते अचानक किसी वजह से वह अपना संतुलन खो बैठती है और दूर के बड़े मकान से मांग कर लाए गए अंगारे तुषार भीगी धरती पर बिखर जाते हैं। लगभग बुझ चले अंगारों को जल्दी-जल्दी उठाकर वह कलछुल में रखती है और उन्हें फूंकती हुई घर की ओर भागती है। इस दृष्य को देख अपनी असमर्थता की ग्लानि से भरा हुआ रवि छत से नीचे उतरता है और गोठ के दरवाज़े पर पहुँच कर एक अद्भुत दृष्य देखता है। बच्ची और बुढि़या अंगार के कोने में बची हुई हल्की आंच को फूंक-फूंककर जीवित करने की कोशि‍श में जुटी हुई हैं। धीरे-धीरे आंच का वृत्त फैलने लगता है। फिर उस कलछुल को सूखी फूस और लकडि़यों के बीच रख कर आमां एक फूंक मारती है और लकडि़यां भभककर जल उठती हैं। ‘पूरा गोठ एकबारगी आलोकित हो उठा। चूल्हे के पास बैठी आमां के चेहरे की झुर्रियां जैसे उस सुनहरे आलोक में खिल उठीं।’ इसके बाद कहानी का आखि़री वाक्य है, शेखर जोशी की चिरपरिचित शब्दकृपण शैली में, ‘रवि को सहसा आभास हुआ कि काश ! इस रंगत को वह अपने कैमरे से पकड़ पाता।’

‘सिनारियो’ का सार-संक्षेप देने के बाद इसकी व्याख्या में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत तो नहीं, फिर भी कुछ बातें उल्लेखनीय हैं। कहानी शुरू होती है, हिमालय की सांध्यकालीन रंगत के प्रति कलाकार की ललक के साथ, और एक जिजीविषापूर्ण संघर्ष के बाद हासिल हुए अग्नि-आलोक के प्रति उसके सम्मोहन-भाव पर जाकर ख़त्म होती है। कहानी में हिमालय के सौंदर्य पर कोई सवाल नहीं उठाया गया है, लेकिन अंतिम प्रसंग में वाचक के कुछ कहे बगैर ही दो सौंदर्य-दृष्‍टि‍यां आमने-सामने खड़ी हो जाती हैं। इनमें से एक वह है, जो रूप से परे नहीं जाती- हिमशि‍खरों पर रंगों का खेल बिलाशर्त सुंदर है; उसकी सुंदरता का स्रोत दर्शक के किसी ऐतिहासिक-सामाजिक-नैतिक बोध में निहित नहीं है। दूसरी सौंदर्य-दृष्‍टि‍ रूप को विभिन्न सरोकारों और संदर्भों के बीच रख कर देखती है और उनसे जुड़ा ऐतिहासिक-सामाजिक-नैतिक बोध ही रूप को सुरूप या कुरूप बनाता है। कहानी का विकास-क्रम बाद वाले को एक अधिक विकसित सौंदर्य-दृष्‍टि‍ के रूप में प्रस्तावित करता है। लेखक सौंदर्य-दृष्‍टि‍ के मामले में सही-ग़लत, उचित-अनुचित की बहस में नहीं पड़ता और उसकी शैली में ही यह निहित है कि इस तरह की बहस बेमानी है। पर वह बाद वाली दृष्‍टि‍ को अधिक विकसित मानता है, क्योंकि उसमें ‘देखना’ परिस्थितियों की समझ और मानवीय बोध से संपन्न क्रिया है। गोठ में फैले हुए सुनहरे आलोक और उसमें खिली हुई आमां की झुर्रियों के सौंदर्य का पारखी वही हो सकता है, जो इस दृष्य को साकार करनेवाली संघर्ष-यात्रा का साक्षी रहा है और जिसमें संघर्ष तथा जिजीविषा के प्रति एक गहरा नैतिक रुझान है।

यहाँ हठात् याद आता है, शेखर जोशी की एक कहानी ‘आशीर्वचन’ का आखि़री वाक्य, ‘. . . हॉल में बैठे हुए होनहार नई पीढ़ी के कारीगरों की मोहनी सूरत उसकी आँखों के आगे तैर गई।’ वह कौन है, जिसे कारीगरों की नई पीढ़ी ‘होनहार’ लगती है और उनकी सूरत ‘मोहनी’? निश्‍चि‍त रूप से यह कोई प्रबंधक या पूंजीपति नहीं है। यह व्यक्ति है, कारखाने से सेवानिवृत्त होने वाला फोरमैन श्‍यामलाल, जिसने वह ज़माना देखा है, जब ‘कारखाने की एक-एक ईंट रखी गई थी’, जब कारखाने के अंदर ‘सिर उठाने का मतलब सिर कटाना होता था’, जब यहाँ ‘पीने का पानी नहीं मिलता था, कैंटीन नहीं थी, बात-बात पर डिस्चार्ज मिल जाता था’, जिसने ‘ऐसी जीतें’ देखी हैं ‘जिन्हें जीतना आसान नहीं था’, ‘ऐसी हारें’ देखी हैं ‘जिन्हें भूलना आसान नहीं है’। ऐसे व्यक्ति के पास नई पीढ़ी के कारीगरों को देखने की जो नज़र होगी, वह किसी प्रबंधक या पूंजीपति या वर्ग-चेतनाविहीन मज़दूर के पास नहीं हो सकती। इसलिए इन सभी को विज्ञापनों के ‘मॉडलों’ के चेहरे भले ही मोहक लगें, युवा कारीगरों की सूरत मोहक नहीं लग सकती। वहीं श्‍यामलाल को- उसकी विदाई-सभा में से अधीर होकर, बिना उसका भाषण सुने, उन युवा कारीगरों के भागने के बावजूद- यह नई पीढ़ी ‘होनहार’ लगती है और इन कारीगरों की सूरत ‘मोहनी’, क्योंकि उसके पास अपने सपनों और उनके लिए लड़ी गई लड़ाइयों से हासिल हुई एक अलग-सी निग़ाह है।

शेखर जोशी का गैररूपवादी सौंदर्य-बोध हमें वह निग़ाह देता है, जो ऐतिहासिक-सामाजिक-नैतिक बोध की पृष्‍ठभूमि में ‘साधारण’ की सम्मोहकता को देख सकती है। इसी निग़ाह से खुद शेखर जोशी की कहानियों के सौंदर्य को भी पहचान पाना मुमकिन है। उनमें मिलनेवाली गहरी अंतर्दृष्‍टि‍ कहानीकार के सीधा-सादा, नपा-तुला और आहिस्ता बोलने को कलात्मक कथन बना देती है। इसी तर्क से यह समझा जा सकता है कि किसी भी काव्यात्मक युक्ति का उपयोग किए बगैर ‘बच्चे का सपना’ क्यों इतनी काव्यात्मक प्रतीत होती है, ‘निर्णायक’ और ‘मेंटल’ के नायकों के पक्ष में प्रथमदृष्‍टया कोई दलील न देते हुए भी हमें उनका पक्षधर बना देनेवाली किस्सागोई का रहस्य क्या है, ‘हलवाहा’ के आखि़री वाक्य में दिखनेवाली ‘कुलघातक जिबुआ’ के ‘नौसिखिएपन की गवाही’ देती ‘हल के फाल की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें’ कहानी-कला की परिपक्वता की गवाही क्योंकर देती है, ‘बदबू’ का अनमना-सा शि‍ल्प कैसे सर्वनाम-सूचित नायक (वह) के साथ हमारा तादात्म्य कराने वाली अचूक कला बन जाता है और हम उसी नायक के समान एक भयावह अभ्यस्तता का शि‍कार होने से बच जाने की खुशी महसूस कर पाते हैं, नौरंगी के मन को लेकर हमारी कोई भी जिज्ञासा शांत किए बगैर उसके काम पर लौटने की जानकारी के साथ एक झटके में कहानी ख़त्म कर देना कैसे हमारे मन में अनंत अनुगूंजें पैदा करनेवाली युक्ति साबित होता है, इत्यादि।

ऐसा नहीं कि इस तरह की कहानी-कला का पेटेंट हिंदी में शेखर जोशी के पास ही हो, पर वे निश्‍चि‍त रूप से इस कहानी-कला को समझने-समझाने के लिए एक मुकम्मल पाठ हैं।

*विश्‍वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, यह ‘इतिहासविरुद्ध यातना’ और उस ‘यातना के संघर्ष’ से निकलनेवाली इतिहासम्मत प्रगति की कहानी है। कहानी के मुख्य पात्र जीवानंद के सामने दुविधा ये है कि वह या तो ज़मीन बेच दे या स्वयं हलवाहा बन जाए। उसके हलवाहे को आजीविका का बेहतर साधन मिल गया है। इधर जीवानंद की ज़मीन पर बद्री प्रधान की नज़रें गड़ी हुई हैं। वह चाहता है कि खेती की मुश्किलें देख कर जीवानंद ज़मीन बेचने का मन बना ले। लेकिन जीवानंद अंततः खुद हल चलाना तय करता है। इसका विश्‍लेषण करते हुए विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने खैरा बैल के प्रति जीवानंद की नवोदित आत्मीयता पर तथा कहानी के अंत पर जो टिप्पणी की है, वह शेखर जोशी की मितकथन-शैली पर भी एक उम्दा टिप्पणी है:

हम यातना सहने की प्रक्रिया में उससे मुक्ति के लिए छटपटाते भी हैं- मुक्ति का रास्ता भी ढूंढ़ते हैं- यही यातना का संघर्ष है। जीवानंद पदम के न आने, ज़मीन के बंजर हो जाने, उसके बिक जाने और अपमानित होने की जो यातना भोग रहे थे उससे मुक्ति का मार्ग बैल के प्रति आत्मीयता से होकर गुजरता था।

विपत्ति में आत्मीय का स्मरण होता है। शेखर जोशी की इस कहानी में खैरा बैल का जो प्रकरण है वह संक्षिप्त होने पर भी इतना उपयुक्त है कि प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ और रेणु की ‘तीसरी कसम’ की याद आती है। प्रतीकतः खैरा बैल जीवानंद के उस हार न माननेवाले मन का रूप है जो सोच-विचारकर विपत्ति से पराजित नहीं होता बल्कि आगे बढ़ने का रास्ता खोजता है।

कोई एकालाप नहीं, अंतर्द्वंद्व का कोई चित्रण नहीं। सिर्फ़ संकल्प का मौन- ‘‘सिर झुकाकर वह घर के अंदर घुस गया और हाथ-पैर धोकर संध्या करने लगा।’’

जीवानंद की ज़मीन खरीदने का सपना देखनेवाले बद्री प्रधान ने दूसरे दिन सुबह देखा- ‘‘कुलघातक जिबुआ स्वयं हल चला रहा था। फाल की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें उसके नौसिखिएपन की गवाही दे रही थीं।’’

नौसिखियापन नए जीवन का उदय है। यातना की उपलब्धि। – पृ0 115-116

(लेखक मंच ब्लॉग से साभार)