अल्पना मिश्र युवा आलोचक कल्पना पन्त के साथ |
Category: बातचीत
विजय मोहन सिंह से अमरेन्द्र कुमार शर्मा की एक ख़ास बातचीत
विजय मोहन सिंह |
विजय मोहन सिंह |
भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत
भरत प्रसाद |
युवा कवि केशव तिवारी से महेश चन्द्र पुनेठा की बातचीत
लोक और जनपदीय कविता के प्रमुख हस्ताक्षर केशव तिवारी से अभी हाल ही के दिनों में एक बातचीत की युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने। इस बातचीत के प्रसंग में कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आयीं हैं। इन्हें जानने के लिए आइये पढ़ते हैं यह बातचीत।
युवा कवि केशव तिवारी मेरे उन गिने-चुने मित्रों में से हैं जिनसे लगभग हर रोज ही दूरभाष से बात हो जाती है। यह सिलसिला लगभग पिछले छः-सात सालों से जारी है। अब तो यह स्थिति है कि जिस दिन उनका फोन नहीं आता है, मन आशंकाग्रस्त होने लगता है। इस दौरान मुझे उनकी कविता की रचना-प्रक्रिया को जानने-समझने का मौका तो मिला ही साथ ही उनके कवि और कवि मन को बारीकी से पढ़ने का अवसर भी मिला। मैंने उनको दूसरों की छोटी-छोटी खुशियों में खुश होते हुए और दुःखों में गहरे अवसाद में जाते हुए तथा एक अच्छी कविता पढ़ने पर भावविभोर और खराब कविता पर खिन्न होते हुए देखा है। यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि वे कविता लिखते ही नहीं जीते भी हैं। मुझे उनका जीवन के हर पक्ष और अपने से जुड़े लोगों के बारे में स्पष्ट और बेवाक राय रखना बहुत पसंद है।
केशव तिवारी युवा कवियों में मेरे सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। उनके यहाँ मुझे वह सब कुछ मिलता है जो मेरे दृष्टि से एक अच्छी कविता के लिए जरूरी है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कविता की तमाम शर्तों को पूरा करते हुए भी कैसे कविता सहज संप्रेषणीय हो सकती है। कैसे नारा हुए बिना कविता विचार की वाहक बन सकती है । कैसे स्थानीय हो कर भी कविता वैश्विक अपील करती है। लोकधर्मी होते हुए भी कविता को कैसे भावुकता से बचाया जा सकता है और कैसे अपने जन-जनपद और प्रकृति से जुड़े रहकर पूरे धरती से प्यार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तमाम भय और प्रलोभनों के बीच खुद को एक प्रतिबद्ध कवि के रूप में कैसे खड़ा रखा जा सकता है। यह कहते हुए मुझे कोई झिझक नहीं है कि कविता के नाम पर अबूझ कविता लिखने वाले हमारे समय के ’कठिन कविता के प्रेतों’ और लोक के नाम पर कोरी-लिजलिजी भावुकता की कविता लिखने वालों को उनसे सीखना चाहिए। केशव तिवारी में मुझे त्रिलोचन जैसी सरलता केदार बाबू जैसी कलात्मकता और नागार्जुन जैसी प्रखरता दिखाई देती है। उनकी कविता का सहज,भावपूर्ण एवं विविध आयामी स्वरूप मध्यवर्गीय रचना भूमि का अतिक्रमण करता है। वे अपनी देशज जमीन पर खड़े मनुष्यता की खोज में संलग्न रहते हैं। उनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण ही नहीं करती बल्कि उसको बदलने के लिए रास्ता भी सुझाती हैं। लोकधर्मी कविता की अपील कितनी व्यापक होती है इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।
हाशिए में पड़े लोगों के दुःख-दर्दों के प्रति केशव तिवारी के भीतर जो बेचैनी और तड़फ दिखाई देती है वह आज विरल है। बद-से-बदतर हालातों में भी काठ-पाथर न होना ही उनकी ताकत है। एक इंसान के रूप में उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि जिसके साथ खड़े हुए फिर उसके लिए जमाने से लड़े इसी के चलते वे बहुत सारे लोगों के आँखों में खटकते और सीने में गड़ते रहे हैं। पर उनको इसकी परवाह नहीं। वे ’दिल्ली’ के दर्प को कभी नहीं कबूलते है। वे प्रेम करना जानते हैं तो घृणा करना भी। वे उन तमाम ताकतों से घृणा करते हैं जो मानवता के खिलाफ हैं। वे इस धरती पर सिर्फ प्रेम करने के लिए आए हैं। उनकी प्रेम की उदात्तता ही कही जाएगी कि प्रेम करने के लिए आने के बावजूद भी घृणा करने को मजबूर हैं उन लोगों से जो प्रेम के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं। ऐसा वही कर सकता है जो मानवता से सच्चा प्रेम करता हो। केशव की कविताओं में आम आदमी का दुःख रह-रहकर फूट पड़ता हैं। वे आम आदमी से इतने एकात्म हैं कि उनकी फटी हथेलियों और सख्त चेहरों से झरते हुए नमक तक को भी देख लेते हैं। खुरदुरी हथेलियों में उन्हें जीवन का सच्चा सौंदर्य दिखाई देता है। वे खुरदुरी हथेलियों वालों को भी उसके सौंदर्य का अहसास कराते हैं।
उनके लिए ’नामालूम और छोटे’ की अहमियत किसी ज्ञात और बड़े से कम नहीं। इनके हिस्से में किसी तरह की कोई कटौती उन्हें स्वीकार नहीं है। ’अपने कोने के एक हिस्से में बहुत उजला और बाकी के हिस्सों में बहुत धुँधला’ उन्हें मान्य नहीं। ’कुछ हो ना हो’ सभी के लिए ’एक घर तो होना ही चाहिए’। उन्हें एक अफगानी, एक कश्मीरी,एक पहाड़ी या राजस्थानी का दुःख भी उतना ही सालता है जितना किसी बाँदावासी का। वह इस धरती की सुंदरता अपने समय को ललकारते लोगों में देखते हैं। उनका अपनी जमीन से ’आशिक और मासूक का रिश्ता’ है। इसी के चलते तो उनके लिए ’आसान नहीं विदा कहना’। इससे पता चलता है कि वे अपनी जमीन से कितना प्रेम करते हैं। लोगों की खुशी में ही कवि की खुशी और उनकी बेचैनी में कवि की बेचैनी है।
यह कवि ’दलिद्र ’ को भी जानता है और दलिद्र के कारणों को भी। और यह भी जानता है कि जिस दिन श्रम करने वाले लोग भी उन कारणों को जान जाएंगे उस दिन उलके ’जीने की सूरत भी बदल जाएगी’। वे भली-भाँति जानते हैं कि ’ दुःखों की नदी स्मृतियों की नाव के सहारे पार ’ नहीं की जा सकती है। एक कवि का यह जानना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि का द्योतक है। यही है जो उसे कोरी भावुकता से बचा ले जाता है।
कवि ऐसी कविता लिखना चाहता है जो कठिन दिनों में भरोसेमंद मित्र की तरह साथ बनी रहे। वे उस आदमी की तलाश करते हैं जिससे मिल धीरज धरे मन, जो रोशनी का अहसास लिए हो जिस पर भरोसा किया जा सके तथा खुद जिसका विश्वास बना जाय। उनकी कविता में यह बात हमें मिलती भी है। उनकी कविता हारे-गाढ़े हमारे साथ बनी रहती है। वे कोलाहल भरी भीड़ में खुद को भी खोजते हैं- अपनी खनकदार आवाज और मन-पसंद रंग को तथा सूखती संवेदना में खोई हुई सौंदर्य दृष्टि को। उनकी दृष्टि में यह खोज किसी संघर्ष से कम नहीं है। यह वास्तविकता भी है।
केशव अतीत के अजायबघर को वर्तमान की छत पर खड़े होकर देखने वाले कवि हैं। अतीत के मोह में खो जाने वाले नहीं। उन पर ’नास्टेल्जिक’ होने का आरोप मुझे हास्यास्पद प्रतीत होता है। नई सुबह के आगमन के प्रति वे आश्वस्त हैं। उनको गहरा अहसास है कि -आज नहीं तो कल-कटेगी ही दुःख भरी रातें, हटाए ही जाएंगे पहाड़।
हमारे समय में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को लेकर केशव परेशान रहते हैं। जो उनकी कविताओं में अनेक स्थानों पर व्यक्त हुआ है। बाजार का दबाब वे अपने गर्दन और जेब दोनों में महसूस करते हैं। प्रेम का वस्तु में तब्दील होते जाना उनको बहुत कचोटता है। इस बाजारवादी समय में प्रेम दिल के नहीं जेब के हवाले हो गया है। जो खरीदा-बेचा जा रहा है। केशव प्रेम को व्यापार बनाए जाने के विरोध में हैं। वे बाजार का नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं। वे कहते हैं ’तब भी था बाजार’ पर ऐसा नहीं,जो मनुष्य को लूटने के लिए हो। जिसमें बाजार में खड़ा हर आदमी हानि-लाभ का हिसाब लगाने में ही जुटा रहता हो । मनुष्य अपनी जरूरत के लिए बाजार में जाता था न कि बाजार जरूरत पैदा कर आदमी के घर में घुसता था। दूसरे शब्दों में, बाजार आदमी के लिए था न कि आदमी बाजार के लिए। जरूरतें कृत्रिम नहीं थी। वस्तु बेची जाती थी मूल्य नहीं। चकाचौंध पैदा कर ग्राहक को भरमाया नहीं जाता था। उसकी आँखों में झूठे सपने नहीं बोये जाते थे। केशव बाजार के इस चरित्र को पूरी काव्यात्मकता के साथ अपनी कविता में उद्घाटित करते हैं। उनके कहन का अपना निराला अंदाज है । जैसे उन्हें यदि बाजारवाद के खिलाफ कुछ कहना है तो भारी-भरकम शब्दों की बमबारी नहीं करते बल्कि ’गहरू गड़रिया’ जैसे पात्रों को उसके बरक्स खड़ा कर देते हैं। अतंर्विरोध खुद-ब-खुद सामने आ जाते हैं।
बाजारवादी समय में लोक के व्यवहार में आ रहे बदलाव पर भी उनकी पैनी नजर रहती है। लोक को झूठ-मूठ का महिमामंडित करना उन्हें नहीं भाता है। जहाँ भी लोक के भीतर कोई छल-छद्म-धूर्ततता या ईष्र्या-घृणा-बैर या फिर अंधविश्वास-रूढि़वादिता जैसी कमजोरियाँ नजर आती है उन्हें भी रेखांकित करने से नहीं चूकते हैं। ये सब रेखांकित करने के पीछे उनका उद्देश्य लोक को उसकी कमजोरी का अहसास करा उससे बाहर निकलने के लिए प्रेरित करना रहता है। ताकि वह अपने मुक्ति-संघर्ष को मजबूती से आगे बढ़ा सके। यह लोक को देखने की उनकी द्वंद्वात्मक दृष्टि है।
केशव की कविताओं में अपने नीड़ से बहुत दूर चले आने की पीड़ा भी व्यक्त हुई है। इस बात की कसक भी है कि जिस नृशंस दुनिया के खिलाफ कभी खड़े हुए थे वह दुनिया आज भी उतनी ही नृशंस है। बहुत अधिक बदलाव नहीं आया उसमें।
कवि केशव तिवारी की विशिष्टता है कि वे अपनी कायरता तक को नहीं छुपाना चाहते हैं। उनके भीतर सच सुनने का साहस है। कवि को कैरियर की खोह में फँसकर तरह-तरह के समझौते करने और घिसट-घिसट कर निभाने का अफसोस है। कवि अपने पुरखों, अपनी जमीन, अपने जन के प्रति कृतज्ञता से भरा है। इसलिए कहा जा सकता है इस कवि की काव्ययात्रा बहुत लंबी और कालजयी होगी।
वैसे तो केशव जी से जीवन-समाज और साहित्य पर रोज कुछ न कुछ बातें होती रहती है पर यहाँ ’जनपथ ’ के बहाने कुछ विधिवत और विस्तार से बातचीत हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत –
प्र01. केशव जी, सर्वप्रथम अपने जीवन और लेखन के बारे में कुछ बताइये आपके लेखन की शुरूआत किस विधा से हुई?
उ0. महेश जी मेरा जन्म प्रतापगढ (अवध) के एक गांव जोखू के पुरवा मातुल में हुआ। और उसके निकट ही 15 किमी0 पर मेरे पिता का गांव है मेरा बचपन दोनो ही जगहो पर बीता मेरा अपनी नानी से अदभुत लगाव था। वो एक ऐसी महिला थी कोई गरीब गुरबा सीधा उनके पास मदद को आ सकता था। और वो उसकी हर संभव मदद करती। मै ज्यादातर घर में कार्यरत मजदूरो के साथ ही घूमता उनके कंधे पर सवार खेत खलिहान जाता और मेढ पर बैठ उनको काम करते देखता। चैता, कजरी, विरहा, फगुवा, आल्हा, का संस्कार मुझे इन्ही से मिला। लिखना पढना बहुत बार हिंदी की शौकिया गजल से हुआ। मै हिंदी का आदमी तो था नही वाणिज्य से स्नातक और व्यसायिक प्रबंधन की पढाई की थी। प्रशासनिक सेवाओं में इम्तिहान मे हिंदी साहित्य लिया फिर इधर ही आ गया शुरूआती दौर में बांदा के श्री कृष्ण मुरारी पहारिया जिनसे मेरी कुछ मुद्दो को लेकर गहरी असहमति थी। पर वे एक बहुत समर्थ माक्र्सवादी आलोचक और गीतकार रहे पहल पत्रिका में भी उनके लेख मैने पढे थे। उन्होने मुझे वास्तव मे मांजा बाद में केदार नाथ अग्रवाल के संपर्क में आया। निरंतर उनके संपर्क में 20 वर्ष रहा । डा0 जीवन सिंह का मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा उनकी पुस्तक ’कविता और कवि कर्म’ मेरी सबसे प्रिय किताबों में एक है। बचपन में अवधी के कवि जुमई खां आजाद उनकी प्रसिद्ध कविता ’कथरी तो गुहाई गुन ऊ जाने जे करै गुजारा कथरी मां’ अभी तक याद है। अवधी के ही अद्या प्रसाद उन्मत्त और बुंदेली के महाकवि ईश्वरी का मुझ पर गहरा प्रभाव रहा। बाद में डा0 राम विलास शर्मा, डा0 शिव कुमार मिश्र, डा0 विष्णु चन्द्र शर्मा, विजेन्द्र और सुधीर विद्यार्थी जी के लेखन कर्म से बहुत प्रभावित हुआ। त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध, मानबहादुर सिंह,विजेन्द्र, कुमार विकल, ज्ञानेन्द्रपति, अरूण कमल, राजेश जोशी की कविता से भी गहरा जुडा़व रहा है। अजय तिवारी की किताब ’समकालीन कविता और कुलीनतावाद’ ने भी मुझे चीजों को समझने की एक दृष्टि दी। विदेशी कवियों में सेन्डोर पिटोफी (हंगरी) मेरा दागिस्तान (रसूलहमजातो) मारीना स्वेतायोवा और चेयनेसिविकसी का ’व्हाट इस टू बी डन’, क्रिस्टोफर काडवेल की ’विभ्रम और यर्थाथ’ और मारिस कार्नफोर्थ की किताब जो मुझे केदार नाथ अग्रवाल से मिली ने मेरे कवि को एक मजबूत आधार दिया। हाल में विजय कुमार की किताब ’खिड़की के पास कवि’ में यहूदा यामीखाई, महमूद दरवेस, यानिद रिदकोष की कविताओं से भी गंभीरता से जुड़ने का अवसर मिला। शैली मेरा सर्वकालिक प्रिय विदेशी कवि है।
प्र02- युवा कविता में आपको लोकधर्मी काव्य परंपरा का एक सशक्त वाहक माना जाता है। आपकी कविताओें में लोक ही टकहराहटे पूरे टंकार के साथ आती है। उसका गहरा प्रतिरोध दिखायी देता है पर इधर लोक को लेकर तमाम भ्रम फैलाये जा रहे हैं। लोकधर्मी कविता को जीवन के संघर्षो से भागे लोगो की शरण स्थली कहा जा रहा है। कुछ कवि आलोचक लोक को बडे संकुचित अर्थ मरण में लेते है। उनके लिये लोक का मतलब दूरस्थ गांवो में रहने वालो के मेले खेले नाच गान तीज त्योहार वनस्पति बोली बानी मात्र रह गया है। इन सब को रचना में ले आना उन्हे लोकधर्मी होना है। लोक के नाम पर वे उसकी कमजोरियां अंधविश्वासों को भी महामंडित करने लग जाते है। इस प्रवृत्ति पर आपका क्या कहना है?
उ0- देखिये इस पर काफी बात हो चुकी है । मैं भी अपना मत कई बार रख चुका हूं। प्रथम तो इस शरणस्थली शब्द से ही मैं कोई सहमति नही रखता। मेरा कहना है जब हम किसानी संस्कार से आयेगे तो वहां का मेला ठेला भी आयेगा, लोक गीत भी आयेंगे, उल्लास और शोक सब आयेगे। बिना पूरे जीवन की कविता कैसे होगी। और एक सच्चा लोकधर्मी कवि लोक में फैली तमाम गलत बातों का पहला विरोधी होगा। ये आम आदमी का जीवन संघर्ष, उसके दुख, उसकी पीड़ा, ये सब लोक के साथ नत्थी है। इसके बिना लोक की कविता पर बात नहीं हो सकती। जो लोक के 1857 से 1942 तक के संघर्ष के इतिहास से आंख मूंद लेते हैं, वही ये सब कहते है। लोक संघर्ष की जमीन है। शरणस्थली नहीं।
प्र03- क्या आपको नहीं लगता है कि आज की आलोचना कुछ शहरों और महानगरों के मध्य वर्गीय मानसिकता वाले कवि लेखकों तक केन्द्रित हो कर रह गयी है। लोक और जनपदों की घोर उपेक्षा हो रही है। जब कि साहित्य की पूरी परंपरा में केन्द्र में हमेशा लोक ही रहा है। उसके पीछे आप क्या कारण मानते है?
उ0 – यह सब एक सधा और खास मानसिकता के तहत किया जा रहा प्रयास है। इसका एक ही जवाब है जब तक लोक अपने भीतर से आलोचक नहीं पैदा करेगा, ये सब होता रहेगा। इन आलोचकों के सहारे लोक की सही व्याख्या नहीं हो सकती है। अच्छा ये है कि नये आलोचकों की एक पीढ़ी आ चुकी है और यह काम आगे बढ़ा है।
प्र04- ऐसी स्थिति में आप को कविता के लोकधर्मी प्रतिमानों को स्थापित करने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है।
उ0- देखिये ये काम तो आलोचना को करना है प्रतिमान तो आलोचक ही तय करेगा फिर बात वहीं उसकी नियत और ईमानदारी पर आकर टिक गयी। देखने में ये भी आया है कि इन्ही प्रतिमानों को गढने में वरिष्ठ आलोचकों ने क्या खेल खेला है।
प्र05- हिंदी साहित्य में आज वरिष्ठ पीढ़ी के बहुत कम रचनाकार ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से संतुष्ट हों, जिससे भी पूछो वह आलोचना कर्म पर पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिये आलोचकों को जिम्मेदार मानते है। या यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा आंकना है। या फिर वास्तव में हिंदी आलोचना गुटबंदी, चकबंदी, हदबंदी और व्यक्तिगत आग्रहो, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है?
उ0- मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना ने केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन के बाद एक बंदरकूद लगाते हुये बीच के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों को छूते सीधे 80 की कविता में आकर दम साधा। जिससे बहुत से महत्वपूर्ण कवि बिना पर्याप्त चर्चा के ही रह गये आज का रचनाकार तुरंत प्रसिद्धि चाहता है। उपेक्षा जो पहली शर्त है उसको एक क्षण भी झेलने को बर्दाश्त नहीं। वह केवल श्रीमुखों से अपना नाम सुनकर संतुष्ट है। और वो भी नाम गिनाकर जिम्मेदारी निभा रहे है। दोनो प्रसन्न है रचनाकार का आलोचना का मुखापेक्षी होना ही सब गुण गोबर किये हुये है। और एक खराब कविता एक खराब आलोचना को ही जन्म देगी। धैर्य रखिये सब छट रहा है और छट जायेगा। ऐसे लोग पहचान भी लिये गये है।
प्र0 6- कुछ रचनाकार ’अनुभूतियों के प्रति ईमानदारी’ के नाम पर साहित्य में मध्यवर्गीय व्यक्ति मानस के अकेलेपन, छटपटाहट, ऊब, उदासी, विक्षोभ तथा अनास्था को ही आर्कषक शैली में प्रस्तुत करते है। यह बात सही है लेकिन ऐसा करने वाले रचनाकारों का कहना रहता है कि जब आज के दौर का सामाजिक यर्थाथ यही है समाज मे चारो ओर यही व्याप्त है तो फिर इससे परहेज क्यों। साहित्यकार तो वही दिखाता है जो समाज मे घटित हो रहा है। इसमें गलत ही क्या है फिर सच्चे आधुनिक बोध और श्रेष्ठ कला के नाम पर बडे-बडे आलोचक भी ऐसी कृतियों और रचनाकरों को श्रेष्ठ घोषित कर रहे है इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?
उ0 – संवेदना हर तरफ से आयेगी, लोक से भी मध्य वर्ग से भी। बस प्रश्न यह है कुछ संवेदना का जनता के एक बडे़ हिस्से से क्या सरोकार है। आप उदासी ऊब को गाते बजाते है या उसके प्रतिरोध में खडे होते है ये आपका निर्णय है। क्या जिंदगी के तजुर्बे असली है या ओढे हुये अगर कविता में प्रतिरोध का स्वर नहीं है तो आप जो चाहे लिखे स्वतन्त्र हैं। उसे कविता माने या और कुछ, जन के किसी काम की नहीं।
प्र07- केशव जी क्या आपको नही लगता कि साहित्य के नाम पर मध्य वर्गीय संत्रास, कुंठा, निराशा, एकाकीपन और ऊब को प्रस्तुत करने के लिये रचनाकारों की अपेक्षा महानगरीय और सेठाश्रयी पत्र पत्रिकाओं के संपादक तथा आधुनिकतावादी आलोचक अधिक जिम्मेदार है। जो ऐसी रचनाओं को प्रकाशित एवं प्रोत्साहित करते है।
उ0- महेश जी आपने जो कहा वह भी जीवन सच है। पर बात यह है कि आप उसमें ही फंसकर अगर रस लेने लगते है तो फिर बात बिगडती है उसके लिये आप मुक्तबोधीय रास्ता नहीं अपनाते तब प्रश्न खडा होगा और सेठाश्रयी पत्रिकाओं और उसके हजार पन्द्रह सौ शब्दों वाले आलोचकों का एक अच्छा खासा वर्ग है। उनकी महिमा अनंत है।
प्र0 8- प्रगतिशील आलोचना पर आरोप है कि श्रेष्ठ सृजनात्मक प्रतिभा तथा महत्तर कृंतित्व के वावजूद नागार्जुन ,त्रिलोचन, तथा केदार और मुक्तिबोध अपनी पूरी अहमियत के साथ नहीं पहचाने गये जब कि उनकी तुलना मे कमजोर और हल्की प्रतिभा के प्रतिगामी दृष्टि वाले रचनाकार एक संगठित आलोचनात्मक प्रयास के तहत श्रेष्ठ और प्रथम श्रेणी के सृजकों के रूप में प्रकाशित विज्ञापित प्रतिष्ठित हुये और आज भी उसी प्रचार के तहत कमोवेश अपनी पताका फहराते हुये देखे जा सकते है उसके पीछे आप क्या कारण देखते हैं?
उ0 – इस तरह की आलोचना की पोल खुल चुकी है। केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन लौट-लौट इनके सर पर सवार हो जाते हैं। ये कवि जन स्वीकृति पा चुके है। इन्हे ये क्या डिगा पायेंगे। देखिये इसको बांदा या पिथौरागढ से नही समझा जा सकता है साहित्य के केन्द्रो में कितने वीभत्स ढंग से ये हो रहा है। आप अंदाजा नहीं लगा सकते । नकली कविता चेलों की पाठ्यक्रमों तक पहुंचायी जा रही है। पुरस्कार दिलाया जा रहा है। मै कहता हूं जनपदों से आ रही रचनाशीलता को इनको ललकारना होगा। इन मठों को जबानी नहीं चढ के ढहाना होगा। तब ही कुछ हो पायेगा वरना ये आपको भी जूठन दिखाकर शांत कर देंगे। इन केन्द्रों में इनकी परिधि के बाहर पनप रही सच्ची कविता को भी इन्होंने दरकिनार कर रखा है।
प्र. 9- कुछ रचनाकारो का मानना है कि साहित्य सृजन जैसे एकांत कर्म के लिये किसी मंच किसी समूह किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की कोई जरूरत नहीं है इससे रचनाकार की मौलिकता प्रभावित होती है?
उ0 – गलत अवधारणा असली कविता जीवन रण से निकल कर ही आती है और आयेगी विचार उसकी पृष्ठभूमि में रहेगा ही इस दुनिया के बदलने का कोई तो वैचारिक आधार होगा।
प्र.10- हमारे समय के महत्वपूर्ण लोकोन्मुखी कवि विजेन्द्र अक्सर कहा करते हैं कि आचरण और सृजन में द्वैत्य लेखक और सृजन दोनों को अविश्वसनीय और कमजोर बनाता है जब कि कुछ लोगों का कहना है कि आचरण और लेखन दो अलग अलग चीजें हैं। लेखक का आचरण नहीं उसका लेखन देखना चाहिये। वे ऐसे बहुत से नाम गिनाते हैं जिनका आचरण खराब हो जाने के बावजूद उनका लेखन उम्दा दर्जे का रहा। आप आचरण और साहित्य के बीच क्या कोई सीधा सम्बंध देखते है?
उ0 – देखिये मेरा मानना है कि क्रियेटिव राइटिंग और इंटेलीजेंस से की गयी राइटिंग का फर्क है। आचरणहीन इंटेलीजेंस से लिख सकता है पर क्रियेट नहीं कर सकता। मै विजेन्द्र जी से शत प्रतिशत सहमत हूं। छोटा मनुष्य कभी भी बड़ा कार्य नही कर सकता है। हां वह केवल उसका भ्रम फैला सकता है। जन में आज भी एक मापदंड है वो पहले आपको एक अच्छा मनुष्य मानेगा फिर वह आपका झंडा-डंडा साहित्य देखेगा। लोग गलत व्याख्या कर सार्टकट ढूंढ ही लेते है।
प्र011- एक रचनाकार को परंपरा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिये ? एक रचनाकार के लिये अपनी परंपरा या क्लैसिक्स की जानकारी क्यों आवश्यक है? क्या आपको नहीं लगता कि परंपरा या क्लैसिक्स हमारी मौलिकता या नवीनता को प्रभावित करते हैं?
उ0- परंपरा कोई जड़ वस्तु नहीं है। किसी देश का क्लासिक उसकी संभ्यता के विकास का इतिहास होता है। जिसको समझे बगैर उसकी आत्मा को नहीं पहचाना जा सकता है। न ही महत्वपूर्ण कविता हो सकती है। अपनी जमीन और परंपरा से कट कर कोई बताये कोई महान रचना हुयी हो। परंपरा की अपनी जकड़नें भी है उसको त्यागना होगा। परंपरा को लेकर भावुक नहीं द्वंदात्मक होना पडेगा।
प्र012- आज कवितायें खूब लिखी जा रही है, हर दूसरा लिखने वाला कवि है लेकिन अधिकांश कविताएं भावगत, शिल्पगत, एकरसता की शिकार हैं। यदि कविता से उसके रचनाकार का नाम हटा दिया जाये तो यह बता पाना मुश्किल होगा कि ये कवितायें एक ही व्यक्ति के द्वारा लिखी गयी है या अलग अलग के द्वारा। इसके पीछे क्या कारण देखते है?
उ0- इसके पीछे मूल कारण जीवनानुभवों की कमी है। इस वजह से कविता ’काकवाद’ का शिकार हुयी है। यह सब बडे-बडे कवि भी कर रहे है। 80 के बाद लोक के नाम पर तमाम कमजोर कवितायें भी खूब लिखी गयी, उन्हे खूब प्रचारित भी किया गया पर इसके वरक्स केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन की परंपरा भी लगातार सक्रिय रही। वह आवाज भले ही इस घटाटोप में कुछ दब गयी हो पर रूकी नहीं। यही हमारी सबसे बडी ताकत है।
प्र013- लोगों का मानना है कि छंदहीनता के चलते कविता खराब गद्य लगने लगी है। आज गद्य और कविता में कोई अंतर ही नहीं रह गया है। छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद से कविता गद्य के एक दम नजदीक चली गयी है। कभी-कभी कविता के वाह्य स्वरूप को देखकर कहना कठिन हो जाता है कि यह कविता है या कोई गद्यांश उसमें गद्यात्यमकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ा है। सम्प्रेक्षण क्षमता का ह्रास हुआ है। फलस्वरूप उसकी पाठक संख्या घटी है यह कहा जाता है कि छंद के बंधन से मुक्त होना इसका प्रमुख कारण है। क्या आपको भी लगता है कि आज कविता को छंद की ओर लौटना चाहिये?
उ0- मै कविता की लय को ही सबसे बडी ताकत मानता हूं। छंद के संस्कार ही लय को बचायंेगे। छंद न जानना मै अपनी कमी के रूप में स्वीकारता हूं।इसके प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। रस का भी नकार नयी कविता में हुआ है। रस अगर उस तरह नहीं आ सकता तो उसकी पूर्ति भाव पक्ष से करना पडे़गा।
प्र014- हिंदी के अनेक कवि और पाठक अपनी बातचीत के दौरान बताते हैं कि अक्सर हिंदी कविताओं को पढते हुये उनका मन उदास हो आता है। एक हीनता बोध उन्हें घेर लेता है। ऐसे क्षण कभी-कभी ही आते हैं जबकि कविताओं को पढ़ते हुये गहरा पाठकीय संतोष होता है। क्या कभी आपके साथ भी ऐसा होता है या हुआ?
उ0 – दूसरो की कमी से मैं क्यों हीनताबोध में आऊँ, मैं ऐसों को पढ़ता ही नहीं। जो मूल्यवान है उसे सिरहाने रखता हूं। नये, पुराने, क्लैसिक्स, देशी, विदेशी का कोई भेद कविता में नही रखता।
प्र015- आज एक ओर कविता इतनी सरल-सपाट हो गयी उसे किस कोण से कविता कहा जाये समझ में नही आता दूसरी ओर सांकेतिक व्यंजना और अर्थ की ध्वनियात्मकता के नाम पर कविता इतनी दुर्बोध और अगम हो गयी है कि सामान्य पाठक तो छोडिये दूसरे कवि आलोचक और प्रबुद्ध पाठकों की भी समझ में नही आ रही है। इस स्थिति के लिये कवि जिम्मेदार नही है क्या? आपके विचार से अच्छी कविता कैसी होनी चाहिये ?
उ0 – अच्छा प्रश्न है देखिये कविता तो कविताई के शर्त पर ही होगी लेकिन कवि से हर वक्त यह मांग कि वह इतना सरल लिखे की पाठक को समझ आये शायद उसके लिये ज्यादती होगी। पाठक जो कविता को सुनना-समझना चाहता है उसे उसके लिये अपने को भी कुछ तैयार करना पडे़गा। जैसा कि ज्ञान की दूसरी श्रेणियों के लिये करता है। हां, जानबूझकर जटिल ज्ञान झाड़ने वालों को यह पता होना चाहिये कि उन्हें उनके खास लोग भी नहीं पढ़ते हैं। अगर पाठक को यह पता लग जाये कि जटिलता के पीछे खोजने पर कुछ मिलेगा तो वह यह भी करता है। इसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविता है।
प्र016- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते है कविता में अर्थग्रहण नहीं बिम्ब ग्रहण होता है।इस दृष्टि से आज की कविता के बारे में क्या कहेंगे जिसमें कि बिम्ब लगभग गायब होते जा रहे है?
उ0 – शुक्ल जी से सहमत हूं जो कवि कविता में बड़ा बिम्ब नहीं रच सकता वह बडी कविता नहीं कर सकता और हां चमत्कार के लिये बिम्बों के पक्ष में मै नही हूं।
प्र017- आज की अधिकांश रचनायें जनता के दुख-दर्द जीवन के उतार चढाव, शोषण उत्पीड़न का तो गहराई से चित्रण कर रही है किंतु उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बता रही है । क्या आपको नहीं लगता कि एक जनवादी रचनाकार के लिये केवल जनता के जीवन और संघर्षो का चित्रण करना ही पर्याप्त है या जीवन संघर्ष से मुक्ति का रास्ता भी सुझाना जरूरी है?
उ0 – देखिये महेश जी कविता की एक अपनी सीमा है और जो प्रश्न ही खड़ा कर सकती है। रास्ता तो पाठक को ही बनाना होगा अपने विवेक से, हां अगर कवि के दिमाग में मुक्ति का कोई रास्ता है तो वह किसी खंड काव्य या महाकाव्य में ही संभव है। और कविता से वही बदलेगा जो बदल सकता है और जो बदलना चाहता है। पत्थर तो नहीं ही बदल सकता है। एक कविता आपको थोडा और आदमी और अपने आसपास के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाती है। इसके बाद फिर राजनीति पक्षधरता ही आपके चरित्र का निर्धारण करती है कि आपकी रूचि जनता की राजनीति में है या पार्टियों की राजनीति में। मुझे लगता है कि एक कवि की वही राजनीति होनी चाहिये जो जनता की राजनीति।
प्र018- पिछले दिनों ’तद्भव’ में प्रकाशित दो बूढ़े साहित्यकारों नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने आपसी बातचीत में स्वीकारा कि अब भविष्य का सपना या विकल्प जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है। दूसरे शब्दों में कहे तो दुनिया विकल्पहीन हो गयी है। क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?
उ0 -इन दोनो महानुभावों जिनका आपने नाम लिया है ये अपना काम कर चुके है। मै यह भी जानता हूं कि ये इसे स्वीकारेंगे भी नहीं। चर्चा में रहने के लिये कुछ न कुछ कहते रहेंगे। ये सब चलता है। गंभीरता से लेने वाली बात नहीं नये लोग जो इनके नाम से आतंकित हैं जरूर भ्रमित होते है।
प्र. 19- हिंदी कविता के परिदृश्य को आप किस रूप में देखते है? इससे अपनी पूर्ववर्ती कविता से कथ्य और शिल्प के स्तर पर किसी तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है?
उ0 – समकालीन कविता ने विकास किया अपनी नई जमीन तोड़ी कथ्य और शिल्प के स्तर पर साहसिक प्रयोग किया है। आज का कवि उतनी बंदिशें नहीं स्वीकार करता है जो जरूरी भी है। नई बात कहने के लिये हिंदी की युवा कविता विश्व की किसी भी भाषा की युवा कविता के सामने रखी जा सकती है। संवेदना, शिल्प, विचार किसी स्तर पर, मेरा पक्का मानना है।
प्र020- कुछ कवि कविता में जरूरत से ज्यादा कला लाने का प्रयास कर रहे है उनका जोर कथ्य की अपेक्षा शिल्प पर है जिससे कविता अमूर्त का ठसपन और दुर्बोधता की शिकार होती जा रही है। अपने समय के समाज और उसमें संघर्षशील मनुष्य के यर्थाथ की कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाली कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है पर क्या कलात्मक कविता का मतलब ऐसी कविता लिखना है जो समझ में न आये जैसा आज की कलात्मकता के नाम पर यही देखने में आ रहा है इसको आप कविता के भविष्य की दृष्टि से किस प्रकार देखते है।
उ0- कला पक्ष कविता का अनिवार्य अंग है। कला को विचार का संवाहक होना पडे़गा कला में चमत्कार पैदा करने वाले मध्यकाल के बिहारी से सीख ले सकते हैं। बिहारी के यहां तो कुछ मिल भी सकता है पर इनके यहां तो कुछ भी नहीं।
प्र021- आर्थिक उदारीकरण के साथ साथ किस तरह मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है। उपभोक्तावाद हावी होता जा रहा है। मनुष्य पर वस्तु का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। धन की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य बन गया है। जीवन का कोई क्षेत्र भी बाजारवाद से अछूता नहीं रहा है। ऐसे मे साहित्य की क्या भूमिका देखते है ,क्या लेखन द्वारा समाज का बदलाव संभव है?
उ0 – नहीं, लेखन द्वारा समाज नहीं बदला जा सकता है। यह काम राजनीति का है लेखक तमाम राजनैतिक आंदोलनों को आगे बढ़ा सकता है। उनके आधार को पुख्ता कर सकता है। बस इतना ही उसका रोल है। समाज तो राजनीति से ही बदलेगा। मनुष्य पर हर समय इस तरह के दबाव रहे है। अब दबाव का स्वरूप बदल गया है। दुश्मन एक दोस्त की तरह उसके कंधे पर हाथ रख उसे अपने घेरे में ले रहा है। और उसे ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि यह दोस्त है या दुश्मन यही पर साहित्य की भूमिका सबसे बड़ी होती है कि वह असली शत्रुओं की पहचान कराये और अपने पाठकों को सतर्क करे। हां यह काम समकालीन कविता और कहानी में लगातार हो भी रहा है।
प्र023- आप को केदार बाबू के नजदीक रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने आपको किस तरह से प्रभावित किया?
उ0 -केदार जी से मैंने मार्क्सवाद की दीक्षा ग्रहण की और विचार और कविता के अन्र्तसम्बंधो को जाना बाकी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में संस्मरण में काफी विस्तार से कहा है जो हेतु भरद्वाज की पत्रिका अक्सर में छपा है और रामजी ने अपने ब्लाग ’सिताबदियारा’ में भी दिया था।
प्र0 24 -केशव जी अंत में कुछ ऐसी रचनाओं के नाम जानना चाहूंगा जिन्होने आपको बहुत विचलित एवं उद्वेलित किया हो और लम्बे समय तक आपके मन मस्तिष्क में गूंजती रही है।
उ0- हां, सरोज स्मृति और मायी का गाया जाने वाला एक लोकगीत जो सीता वनवास के बाद लक्ष्मण से स्त्रियां प्रश्न करती है ‘पग पग घुंईया भारी लखन कहां छोड आयो जनक दुलारी’ ये कविता और ये लोकगीत मुझे जब भी याद आते है मै असहज हो उठता हूं।
संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
रा0इ0का0 देवलथल, पिथौरागढ़
उत्तराखंड।
मोबाईल – 9411707470
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
चन्द्रकान्त देवताले से मनोज पाण्डेय की बातचीत
चन्द्रकान्त देवताले ऐसे कवि हैं जिनका व्यक्तित्व निर्विवाद है। वे ठेठ कवि ही हैं। खुद भी वे अपने को पूरावक्ती कवि मानते हैं। एक ऐसा कवि जो पूरी निर्भीकता से उनके साथ खड़ा है जिनके साथ कोई खड़ा नहीं। आज जब स्त्रियों के प्रति हमारा समाज असहिष्णु और हिंसक दिखाई पड़ रहा है वैसे में यह अनायास नहीं कि देवताले जी की कविताओं में स्त्रियाँ भरी पड़ी हैं। और भरा पड़ा है देवताले जी की कविताओं में स्त्रियों के प्रति अपार आदर, प्यार एवं स्नेह। ऐसे ही निर्भीक व्यक्तित्व कवि के साथ बात की है युवा कवि और आलोचक मनोज पाण्डेय ने। तो आईए पढ़ते हैं यह बातचीत।
मनोज पाण्डेय – एक कवि के रूप में कविता पर बात शुरू करने के लिए आप किन सन्दर्भों को जरूरी मानते हैं?
चंद्रकांत देवताले – मनुष्य, धरती, पर्यावरण और हमारा समय। जिसमे हम जीवित हैं, कैसे जीवित है, हमारे संकट, हमारा संघर्ष, और हमारे सपने। ‘हमारे’ से यहाँ मेरा आशय साधारण, सामान्य आदमी से है। मेरे लिए यही जरूरी सन्दर्भ हैं।
मनोज पाण्डेय – 1973 में आपका पहला संग्रह आया और 2012 में नया संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’आया है। इस अनथक रचना यात्रा में आये विभिन्न पड़ावों की पहचान आपने कैसे किया है?
चंद्रकांत देवताले –
“एक गाँव ने मुझे जन्म दिया
एक धक्के ने ने शहर में फेंक दिया
शहर ने कविता में उछाल कर मुझे कहीं का नही रक्खा।”
मैं कोई खास नहीं हूँ। साधारण लोगों के बीच हूँ और साधारण लोगों जैसा ही हूँ।| मेरा गाँव सतपुड़ा के घने जंगल जो आदिवासी गोंडवाना के इलाके में है, वहाँ मेरा जन्म हुआ। मैं आज भी उन्हीं जड़ों के साथ हूँ। इस तरह से कहना-बताना शायद शोभा नही देता होगा किन्तु मैंने दूसरे विश्व युद्ध आर्थिक मंदी को बचपन में देखा-झेला है। माँ मुंह अँधेरे जगा देती थी और हमे गेंहू के लिए एक दूकान पर जाना पड़ता था। जहाँ हरेक व्यक्ति को थोडा-बहुत गेहूं मिलता था। फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन, सन बयालीस का आन्दोलन और उसकी गतिविधिया इंदौर में मौजूद थी। मेरे घर में मेरे बड़े भाई, जो बी. काम. के छात्र थे, के कुछ युवा दोस्त आते थे। आन्दोलन को ले कर इनके बीच जम कर बातचीत होती थी। ये कैसे संभव था कि मैं उससे अंजान रहता। मेरे दूसरे भाई साहित्य के विद्यार्थी थे और हमारे घर में कविता संग्रह थे। सियारामशरण गुप्त, नवीन जी और इंदौर के कुछ कतिपय स्थानीय कवियों की कविताएँ आज भी मेरे मन में गूंजती हैं। मेरे पिता कबीर के दोहे जब-तब हमारे ऊपर जड दिया करते थे,किसी भी प्रसंग में।
कबीर जैसे कवि की आवाज को हमने राख में तब्दील कर दिया है। ऐसे पच्चीसों नाम है; संत तुकाराम, नानक, चंडीदास; इन सब आवाजों के एक-एक हिस्से को अपने मन में समेटा होता तो हम दासता के शिकंजे में कभी नही फंसते। दासता से मेरा आशय उस दासता से है, जो आजादी प्राप्त हो जाने के बाद भी हमें जकड़े हुए है, भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कई ऐसी बातें कहीं थी जो आज हमारे वास्ते चुनौती है। भारत-दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, अंधेर-नगरी में उन्नीसवी सदी की चुनौतिया-संकट उपस्थित थे। उनसे जुड़े दिशा निर्देश थे। भारतेंदु ने कहा था कि अंग्रेजी राज सुख-साज व्यवस्था दे रही है, ये अच्छी है किन्तु ‘सब सम्पत्ति विदेश चलि जात’ ये सबसे बड़ा दुःख है। आज हमारे जनप्रतिनिधि हवाई जहाजों में कुनबे सहित विदेश जाते है और वहाँ के धन-कुबेरों को देश में आमंत्रित करते है कि हमारी जमीन,जंगल,पहाड़,नदियों सबको तहस-नहस करो। पूंजीनिवेश करो। वो पूंजीनिवेश करे तो मुनाफा कहाँ जायेगा। ये महावणिक, महाठग हैं, और हम मुग्ध भाव से देख रहे हैं। यह मेरी रचना-यात्रा के दो महत्त्वपूर्ण छोर है जिनके बीच तमाम पड़ाव आये जो मेरी कविताओं में उभरते हुए आसानी से देखा जा सकता है।
मनोज पाण्डेय– आप अपनी रचना यात्रा में देश-दुनिया, समाज, समय, दृष्टि, विचार आदि तमाम स्थितियों में होने वाले कौन-कौन से बदलावों के प्रति आपने आप को सचेत पाया है?
चंद्रकांत देवताले – पहले तो हमे ‘आधुनिकता’ने जकड़ा, उसके बाद गये बीस साल से ‘भूमण्डलीकरण’की चपेट में है। परिणामस्वरुप कार्पोरेट पूंजी ने हमको अपनी देशीयता से, जातीयता से, अस्मिता से और पहचान से वंचित कर दिया है। अभी हिंदी दिवस गया है; भारतेंदु ने कहा “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।“ ‘आज हम अंग्रेजी के दीवाने हो चुके हैं। गाँव में मिटटी-ईट-गोबर से लिपे-पुते-बने मकान के आगे लिखा होता है कि ‘यहाँ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है’। कहने का आशय है कि आजादी के बाद से ही जिस स्वतन्त्रता, न्याय, समानता के वास्ते हमने संघर्ष किया था; उस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सबसे बड़े आदमी और जमादार का बच्चा एक ही स्कूल में पढ़े। आज हमारी शिक्षा प्रणाली दोहरी नहीं कई स्तरों में बंट गयी है। आज भी टाट-पट्टी वाले स्कूल हैं तो अकल्पनीय सुख-सुविधा वाले स्कूल भी।
इन सबको केवल कवि की चिंता का प्रश्न नही होना चाहिए बल्कि सजग, सचेत मनुष्य की चिंता भी होनी चहिये कि वो इन चीजों पर प्रहार करें। मैं कवि और मनुष्य होने में फर्क नहीं करता। मनुष्य होना क्या हमारा पेशा है। जैसे मनुष्य होना पेशा नही है; वैसे कवि होना पेशा नही है। कवि तो हमेशा पक्ष लेता है। मेरे कवि कहते थे ‘पार्टनर,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ आज हमे फर्क करने की तमीज होनी चाहिए। हम किसके साथ है, किस के साथ चल रहें हैं, किसके याथ उठ-बैठ रहे हैं, और जो नही करना, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मैंने कभी परिनिष्ठित शुद्ध भाषा की चिंता नही की। जो आवाज भीतर से आ कर कविता बन पायी है ; वो कितनी टिकाऊ होगी या नहीं होगी। इसकी मैंने कभी चिंता नही की।
मनोज पाण्डेय- आपकी एक कविता है ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’; इसी शब्दावली के साथ क्या आप मानते है कि ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब कविताएँ’?
चंद्रकांत देवताले – ये कविता ‘‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’ इंदौर के एक अख़बार के पाक्षिक स्तंभ में छपा था। यह एक टिप्पणी थी, इंदौर में लगे एक पुस्तक मेले के बारे में, उसी के संदर्भ में यह लिखा गया था। लोगों ने कहा कविता है और कविता बन गयी। किन्तु कविता बहुत असर कर सकती है। उसके लिए जो सामाजिक जागरूकता चाहिए वह दिन पर दिन कम होती जा रही है। सूचनाओं के प्रवाह में, अंधड़ में विचार गायब होते जा रहे हैं। बाजार की आवाजों को कान ध्यान से सुन रहे हैं। आँखे, आकर्षक वस्तुओं, विज्ञापनों की मुग्ध भाव से देखती है। किन्तु सार्थक शब्दों, आवाजों के संदर्भ में भयावह उदासीनता है। पचहत्तर प्रतिशत लोग तो शिक्षित नहीं है, जो किताब पढ़े या कविता की ओर ध्यान दें। दूसरी ओर उच्च मध्य वर्ग जो शिक्षित हैं, वह अंग्रेजी, विदेश, और धन बटोरने के मोह में फंसा हुआ है। हमारे देश में एक नही अनेक देश है; इन लोगों का देश तो उन किसानों का देश जो आत्महत्या कर चुके है करने वाले हैं। उन आदिवासियों का देश जो विस्थापित हो अपनी ही जगहों पर मर रहे हैं। होटलों में काम कर रहे बच्चे, स्त्रियों, वेश्यावृति, गुंडे, निरंतर बढ़ते अपराध जितने जख्म दे रहे है उनकी गिनती करना मुश्किल है। चपरासी से ले कर बड़े अधिकारी तक भ्रष्टाचार में निष्णात हो चुके हैं। जनता में फैले दिग्भ्रम के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। क्योकि गुमराह करने वाली ताकतें, गुमराह करने वाला मीडिया और गुमराह होने वाली भीड़ ;ऐसे में गुमराह करने वाला आशावाद भी किस काम का?
यह सब कहने की जरूरत नही है। सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है। सिर्फ एक दिन का अखबार उठाइए, उसमें गाँव में, कस्बे में, शहर में स्त्रियों के साथ हुए दुष्कर्म की घटनाएँ, शहरों में औरतों के साथ चेन-पर्स छीनने की घटनाएँ, चंदा न देने चंदा उगाहने आये असामाजिक समाज-सेवियों द्वारा की गयी गुंडागर्दी; फिर नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणायें और उसी के नीचे विपत्तियों और त्रासदी की घटनाएँ, हत्या, आत्महत्या। कस्बे में अपनी तीन बेटियों के साथ माँ ने आत्महत्या की, इस तरह की खबरें हर रोज केवल केवल अपनी होने की जगहें बदल रही हैं। ये हमारे समय को प्रतीकात्मक लक्षण के तौर पर सामने ला रही हैं। ऐसे में कोई भी अपनी आत्मशांति को भंग कर ही जिन्दा है। ये चिकने-चुपड़े, खाए-पिए-अघाए, मनमुदित, आत्ममुग्ध, चुटकी भर अमरता के वास्ते कविता सच्चे मनुष्य और कवि के लिए नामुमकिन ही नहीं पाप है। कविता करिश्मा कर सकती है, उसको सुना नहीं जा रहा है, उसको तवज्जो नहीं दी जा रही है। मैं तो समझता हूँ कि मेरे जीवन में यही अच्छा रहा कि “आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा। मेरी यही कोशिश रही कि पत्थरों की तरह टकराएँ हवा में मेरे शब्द। और बीमार की डूबती नब्ज को जान ताजा पत्तियों की साँस बन जाए। ऐसे जिन्दा रहने से नफरत है मुझे; जिसमे हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे। मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूँ, मेरे दुश्मन न हो और उसे अपने हक़ में बड़ी बात मानू।”
मनोज पाण्डेय– आपको ‘अकविता’ का कवि कहा जाता है। इस मान्यता के बारे में आपका क्या मानना है?
चंद्रकांत देवताले – यह भ्रम सजग रूप से फैलाया है, कई साथियों ने। शायद वो भ्रमित रहे होंगे। मैं कहता हूँ कि 1952, 1954, 1957, 1958 से जिसकी कविताएँ धर्मयुग, ज्ञानोदय में छपने लगी हो, जो धरती की कोख से जाया हो, जिसकी जड़े आज भी आदिवासी सतपुड़ा के क्षेत्र में हो, वह अकविता से आया हुआ कैसे हो सकता है? किसी ‘अकविता’ पत्रिका में छपने से कोई अकवि नही हो जाता। अकवि हो कर भी जो अपने समय, अपने आस-पास का, अपने जीवन का कवि हो क्या उसे अछूत घोषित करेंगे?
मनोज पाण्डेय- ‘वैकल्पिक व्यवस्था को ले कर साफ़ दृष्टि का न होने’ की बात आपकी कविताओं के बारे में की जाती है। एक वामपंथी मनो-धरातल वाले कवि के रूप में अपनी कविता के लिए आप इसे विरोधाभास मानते है?
चंद्रकांत देवताले – मैं प्रतिबद्ध पक्षधरता का कवि हूँ। मेरी पक्षधरता के प्रमाण मेरी कविता में मिलेंगे। उन्हें अलग से कहना अनावश्यक है। ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ जिन लोगों के पास कविता दृष्टि में थी, उस का साकार रूप या मूर्त रूप कहाँ साकार हुआ है? वही बता सकते है। यथार्थ को अपने नजरिये से ढकना और उसमें उम्मीद की सुरंगें दिखाना कठिन काम नही है। कविता को मैं जादूगरी नही समझता और जितना मैं जानता हूँ, जितना समझता हूँ, उतना मैं कहता हूँ। मेरा कोई दावा नही है, कविता में मैं मुंगेरी लाल के सपने नही देखता।
मनोज पाण्डेय – लीलाधर मंडलोई कहते हैं कि कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियां किसी के पास नही हैं। राजनीतिक कविताओं का धारदार सर्जक कवि इन मार्मिक छवियों को अपनी कविताओं ने रचने का स्रोत कहाँ पाता है? क्या इन कविताओं को सिरजते समय आपकी ‘राजनीतिक दृष्टि भी काम आती है?
चंद्रकांत देवताले – कविता विचार और दृष्टि भिन्न-भिन्न तत्वों का पाउडर नहीं है। दृष्टि अंश-अंश में नही होती है। धरती और जीवनानुभव से एक समग्र सोच प्राप्त होती है। एक प्रेम कविता में भी विचारधारा हो सकती है और राजनीतिक चेतना वाली कविता में प्रेम और सौन्दर्य हो सकता है। बच्चे और स्त्रियाँ हमारी धरती पर चलते, सोते, रहते कहाँ नहीं दीखते? उनका दुःख, स्वप्न, संघर्ष और इनकी विपन्नता देखने और आत्मसात करने के लिए किसी म्यूजियम में जाने की जरूरत नहीं पडती। मैं जितना अपने अध्यापकीय जीवन में तमाम जगहों पर घूमा, भटका; सब कुछ उन्हीं अनुभवों से प्राप्त है। उन्ही अनुभवों से मेरी जीवन दृष्टि बनती है और मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि बनती है। मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि में फांक नही है। कोई माने या न माने ; मैं अपने आप को पूर्णकालिक कवि मानता हूँ। जब मैं पढाता था, तब भी कवि-अध्यापक होता था। घर में, अपने आस-पास, अपने दोस्तों में मैं कवि-पति, कवि-पिता, कवि-पड़ोसी, कवि-मित्र की ही तरह रहा। अपने सच को कहने से कभी सकुचाया नहीं। यही मेरी कविता का स्रोत है।
मनोज पाण्डेय- आप को ‘भाषा का जोखिम’ उठाने वाला कवि कहा-माना जाता है। वह कवि जो अपनी ही भाषा के ढांचे को तोड़ता है। आप अपनी कविताओं के सन्दर्भ में इस मान्यता को किस रूप में लेते हैं?
चंद्रकांत देवताले – सच बात तो यह है कि काव्यभाषा, शिल्प, तकनीक इन सबके प्रति मैं कभी सतर्क नही रहा। नाप-तौल कर कविताई मेरे स्वभाव में नहीं। सहज स्फूर्त जो उमड़ता है, वही मेरी कविता बनती है, वही मेरी आवाज बनती है। दर्जी की तरह नापजोख कर काव्य का डिजाइन करना कवि का आम नही है। जो ऐसा करते है उन्हें मैं चकित भाव से देख कर खुश होता हूँ। कितना हुनर है उनमे? उनके हुनर की दाद देता हूँ पर मुझे दाद नहीं चाहिए। दाद नाम से त्वचा की एक बीमारी भी होती है।
मनोज पाण्डेय- जिस रचना संसार में नागार्जुन, शमशेर, केदार नाथ, मुक्तिबोध, धूमिल और देवताले जैसे कवियों के होने बाद भी गाहे-बगाहे ‘कविता के संकट’ में होने की बात की जाती है। उस रचना संसार के इस ‘संकट’ के बारे में आपका क्या मानना है?
चंद्रकांत देवताले – जिन बड़े कवियों का जिक्र किया है। उनकी आवाज आज भी प्रेरणा देती रहती है। वे आज होते तो वे भी संकट के इस ताप को तीव्रता से महसूस करते। यह संकट कविता का या कविता के समक्ष नही है। संकट मनुष्यता, हमारी धरती, हमारे पर्यावरण, भाषा, पहचान के समक्ष है। भूमंडलीकरण की दानवी चपेट में हमारी जगह से हम विस्थापित हो रहे हैं। भीषण चुनौतियाँ है, कवि जन और कविता भी हतप्रभ है। फिर भी हांफते हुए विस्मृत नही होती मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ ‘कोशिश करो /कोशिश करो /जीने की /जमीन में गड़ कर भी। किसानों ने अपना कितना कुछ खो दिया है। कितने ही किसानों ने आत्महत्या कर ली है। इस समय में भी कवि धरती पर खड़ा है; यही एक उम्मीद है।
मनोज पाण्डेय- आज की कविता ख़ास कर युवा और नये कवियों की कविताओं को पढ़-सुन कर आप हिंदी कविता के प्रति आश्वस्त हो पाते है ?
चंद्रकांत देवताले –अर्थव्यवस्था और उससे उत्पन्न संकट के बीच अगर हम कविताओं की आवाज को सुन पाये तो वे आश्वस्त करेंगी ही। कविता शिकस्त नही जानती है। चाहे कवि अनुत्तीर्ण माना जाये। आज कवि होना एक नैतिक सजा है और इस सजा को काटने-भुगतने का बेहतर तरीका साहस के साथ अपनी बात कहते रहना है। युवा रचनाकारों में इसी बेचैनी के साथ सृजनशीलता बड़ी है। केंद्र के कवियों को तो हम जानते ही है किन्तु जनपदों, कस्बों, आदिवासी और अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में भी पक्षधर युवा कवि-कविता हो रही है। जिसकी आवाज हमे आश्वस्त करती है। मौजूदा वक्त के उत्पीडन, संघर्ष, भ्रष्टाचार, राजनैतिक दांवपेंच को वे प्रखरता से पहचान रहे हैं।
ऐसे कवियों की भी भरमार है जो तुरत-फुरत लिखना, छपना और पुरस्कृत होने को आतुर, बाजारवाद के प्रवाह में आत्ममुग्ध हैं। इनका कोई इलाज नहीं है। यह भी रफ्तार में मथाते हमारे समय की दुर्घटना है। इस प्रश्न से भी हम टकरा रहें जिसका जवाब देना आसान नहीं है। आने वाले समय से हमे निबटना ही होगा। “यह वक्त, वक्त नही मुकदमा है /या तो गवाही दे दो /या गूंगे हो जायो हमेशा के वास्ते”। अपनी बित्ता भर जगह को बचाते हमे यही कोशिश करते रहना है। यही बात आज की कविता के साथ भी मौजू है।
चंद्रकांत देवताले
जन्म : 7 नवंबर 1936, जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश)
मुख्य कृतियाँ-
कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ।
आलोचना : ‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक’
संपादन : ‘दूसरे-दूसरे आकाश,’ ‘डबरे पर सूरज का बिम्ब’
अनुवाद : ‘पिसाटी का बुर्ज’ (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
सम्मान
मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार,साहित्य अकादमी पुरस्कार
फोन-09826619360
मनोज पाण्डेय
जन्म 03/09/1976 (दस्तावेजी ) कुशीनगर, उ० प्र० के एक गाँव में
शिक्षा-दीक्षा- बस्ती-गोरखपुर में
‘पहल’ पत्रिका पर शोध-कार्य पूरा कर उपाधि की प्रतीक्षा।
‘इतिहास-बोध’, ‘परिकथा’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘युवा-संवाद’, ‘सचेतक’, ‘चिंतन-दिशा’, ‘सृजन’, ‘शैक्षिक दखल’ आदि पत्र-पत्रिकाओं सहित ‘जनज्वार’, ‘सिताब दियारा’ ,जनपक्ष’, ‘पहली बार’ आदि ब्लॉगों में कविताएँ, समीक्षा, लेख प्रकाशित।
सम्प्रति- दिल्ली सरकार के अधीन एक विद्यालय में अध्यापन
ई-मेल mp0402@gmail.com
फोन- 09868000221
(यह पूरी बातचीत परिंदे के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित हुई है।)
वरिष्ठ कवि–आलोचक शैलेन्द्र चौहान से युवा कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत
वरिष्ठ कवि और आलोचक शैलेन्द्र चौहान सितम्बर 2012 में हैदराबाद पधारे हुए थे। हमारे युवा मित्र कवि नित्यानंद गायेन ने इस मौके पर उनसे एक लंबी बातचीत की जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस बातचीत को हमने अलाव के नवम्बर-दिसम्बर 2012 अंक से साभार लिया है।
नित्यानंद गायेन – शैलेन्द्र जी नमस्कार. अच्छा लगा आप हैदराबाद आये, आपका स्वागत है.
शैलेन्द्र चौहान – मुझे भी अच्छा लगा गायेन जी, कि आप में इतनी उत्सुकता है, मुझे उम्मीद है कि आप साहित्य को अपनी कविताओं से आगे बढा पाएंगे .
नित्यानंद गायेन:- आज के युवा कवियों पर आप क्या सोचते हैं ?
शैलेन्द्र जी – देखिये आज जो कविता लिखी जा रही है निश्चित रूप से उसमें कुछ युवा बहुत अच्छी कवितायेँ लिख रहे हैं. उनकी जो आब्जर्वेशन है, उनकी जो सेंसटीविटी है और उनकी जो चीजों को पकड़ने की डिटेल्स है, वो आब्जर्वेशन में ही आ जाते हैं, बहुत अच्छे हैं पर परेशानी ये है कि उनके पास में कोई विशेष चिंतन-दिशा नहीं है. हमेशा जो अच्छी कविता लिखी गयी है, उसके पीछे कोई-न-कोई चिंतन-दर्शन अवश्य रहा है. चाहे भक्ति का दर्शन हो, आप भक्तिकाल से शुरू कर सकते हैं, वो भक्तिकाल, रीतिकाल हो, छायावाद का युग हो, १८५७ के बाद का युग हो, वो भारतेंदु का युग हो, द्विवेदी युग हो, आधुनिक काल हो, समकालीन जनवादी प्रगतिशील कविता हो, या समकालीन कविता हो, उनके पीछे कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई एक चिंतन दिशा रही है जिसे हम दर्शन कहते हैं, तो बिना दर्शन के और बिना लोक के अगर कोई कविता लिखी जायेगी, तो उनके पास में जो अनुभव होने, वो उतने समृद्ध नहीं होंगे इसलिए कुछ दिनों में चुक जायेंगें. पर मुझे अच्छा लग रहा है कि इन दिनों कई युवा कवि हैं जो बहुत अच्छी कवितायें लिख रहे हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि वो आगे अपने आपको और समृद्ध करेंगें और बहुत अच्छी कविताएँ लिख पायेंगें.
नित्यानंद गायेन :- आपकी इस बात से कहीं-न-कहीं कि अभी जो बहस चली थी चिंतन दिशा में ही विजय बहादुर सिंह वरिष्ठ कवि-आलोचक ने जो बात छेड़ी थी कि युवा भटके हुए हैं, उनके पास कोई चिंतन दिशा नहीं है, तो आप उस बात का समर्थन कर रहे हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- नहीं मैं उस बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ. दरअसल जो बहस चल रही थी ‘चिंतन दिशा’ में उसके बारे में भी मैं ये सोचता हूँ कि जो लोग बहस में शामिल थे, उनकी भी खुद की कोई चिंतन दिशा नहीं है, जो वरिष्ठ आलोचक हैं उनके पास में एक स्टैगनेशन आ गया है,एक स्च्यूरेशन आ गया है और उनकी अपनी रचनात्मकता,उनकी अपनी सृजनात्मकता, उनकी समझने की शक्ति,उनकी रिसेप्शन, उनकी संवेदनशीलता कहीं-न-कहीं चुक गयी है, इसलिए वो उस चीज़ को नहीं समझ सकते, दरअसल आज युवा जो अपनी कविताओं में दे रहे हैं. मेरे कहने का तात्पर्य नहीं है कि कहीं भटके हुए हैं पर जो आज का समय है उसमे भटकने की प्रबल संभावनाएँ हैं इसलिए उन्हें सचेत रहने की आवश्यकता है.
नित्यानंद गायेन:– अभी हाल ही में इसी पर केशव तिवारी की कविता को लेकर जिसमें उनकी कविता के लोक को लेकर काफी लंबी बहस हुई थी. कुछ लोगों ने उनके पक्ष में बात की, कुछ बड़े लोगों ने उनके विपक्ष में बात की.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये लोक, मैं समझता हूँ कोई ऐसी चीज़ नहीं कि जिसे बौंड बना सके, भुना सके. यह एक ठीक वैसा ही अप्रोच है जैसा कि हमारे यहाँ कुछ एन.जी.ओ. कर रहे हैं. बीच में कुछ विदेशी संस्थाओं ने क्षेत्रीयता, क्षेत्रीय संस्कृति, फोक आदि पर काफी बड़े काम किए और उन्हें कॉमर्सलायिज़ कर दिया, तो फोक अपने आप को स्थापित करने के लिए, मैं उसको कोई ऐसी चीज़ लोक को नहीं मानता. लोक हमारे जनजीवन में शिद्दत से व्याप्त है.खासतौर से हमारे जो पिछड़े ग्रामीण इलाके हैं, शहरों का जो पिछड़ा वर्ग है,जो दलित वर्ग है,दमित वर्ग है और मजदूर वर्ग है उसमें भी वही चेतना पायी जाए जाती है और जो निम्नमध्यवर्गीय या मध्यवर्गी गाँव से निकलकर शहरों की तरफ आये हैं या शहरों में ही रह रहे हैं ३-४ पीढ़ियों से उनमें भी वही चेतना पायी जाती है. लोक शब्द को छोटा करके देखना या उसे विघटित करना मुझे लगता है कि ये एक अच्छी चीज़ नहीं है, लोक अपने आप में सम्पूर्ण है. अब देखिये स्थानीयता का उसमें जरुर पुट होता है, कि जो बड़े रचनाकार हुए हैं, या जो बड़े एक्टिविस्ट हुए हैं, या बड़े क्रांतिकारी ही हुए हैं वो अपने ज़मीन से ही शुरू होते हैं. अगर आप अपने घर में, अपने मोहल्ले में, अपने नगर में उस चीज़ को नहीं समझते हैं, उस लोक को नहीं समझते हैं,उस वातावरण को नहीं समझते हैं, उन संवेदनाओं को नहीं समझते हैं,तो आप निश्चित रूप से सुपरफिशियल बातें करेंगें, तो ‘मेरा दागिस्तान’ के जो लेखक हैं, देखिये उनकी अपनी भाषा थी, वो बहुत अच्छे कवि थे रसूल हम्ज़ातोव और उन्होंने इतना अच्छा प्रेज़ेन्टेशन किया कि पूरे रूस ही में वो महान माने गाये और विदेशों में उनकी रचना ‘मेरे दागिस्तान’ बहुत प्रचलित हुई इसलिए ये लोक को विघटित करना बहुत अच्छी बात नहीं है, हाँ,लोक तो पूरी जनता है, उस जनमानस की भावनाओं को समझना और उनकी दशा को बदलने के लिए अगर कोई कार्यरत है,तो वो निश्चित रूप से स्वागत योग्य है.
नित्यानंद गायेन :- मैं घूमकर दोबारा आता हूँ विजय बहादुर सिंह की बात पर कि उन्होंने कहा कि आज की युवाओं के पास ना वो भाषा है, ना कोई ऐसी कविता है जैसी नागार्जुन की कविता लोगों को याद हो जाते थी नागार्जुन के बाद, उसके बाद मुक्तिबोध या दूसरे जो बड़े कवि हुए हैं, किसी की ऐसी कविता नहीं आई कि वो याद हो जाए.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये विजय बहादुर सिंहजी बहुत वरिष्ठ हैं लेकिन मैं ये मानता हूँ कि विजय बहादुर सिंहजी की समझ बहुत सीमित किस्म की समझ है. उनके पास ना तो कोई दर्शन है, ना कोई विचारधारा है. उनके पास जो भी कवि आ जाता है या वो जिस कवि के माध्यम से अपने आप को प्रचारित कर सकते हैं, उनकी प्रशंसा में लाग जाते हैं. भवानीप्रसाद मिश्र के लिए उन्होंने बड़ा काम किया. भवानीप्रसाद मिश्र जैसे पॉपलिस्ट और जनमानस के करीब के कवि अवश्य थे उनकी अपनी गाँधीवादी दिशा थी, तो उन्होंने उनके लिए काम किया. नागार्जुन विदिशा जब आते, तो उनके यहाँ ठहर जाते थे, उन्होंने सोचा नागार्जुन पर बात करके, उस ज़माने में जनवादी चेतना का बड़ा भारी दौर चल रहा था, तो उससे फायदा उठाने के लिए उन्होंने नागार्जुन पे बात करनी शुरू कर दी. इस तरह से शलभ जी वहाँ आये, तो उन्होंने शलभ श्रीराम सिंह के ऊपर बात करनी शुरू कर दी, मैं भी विदिशा में रहा हूँ और विजय बहादुर सिंहजी से मेरा बड़ा करीब सम्पर्क है विजय बहादुर सिंहजी के बारे मैं तो जितना जानता वह यह है कि वो किसी भी बात पर कभी स्थिर नहीं रहते हैं, अवसरानुकूल अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए, दूसरों पर थोपने के लिए, अपनी बातें तंज सहित कहते हैं कि जिससे ये पता चलता रहे कि डॉ विजय बहादुर सिंहजी साहित्य में कहीं हैं यद्यपि ना तो उन्होंने आज तक कोई ऐसी महत्वपूर्ण प्रति दी है, ना तो आलोचना के क्षेत्र में कोई ऐसा बहुत बड़ा काम किया है और ना हिंदी क्षेत्र में विजय बहादुर सिंहजी एक सामान्य, एक औसत आलोचक के रूप में भी नहीं जाने जाते इसलिए उनकी बातों को मैं बहुत महत्व नहीं मानता.
नित्यानंद गायेन :- चलिए ठीक है! मैं घूमके आऊँगा आजकल जो दौर चल रहा है एक बात बार-बार आती है ‘दिल्ली में साहित्य का गढ़’ अभी इस पर किसी ने लिखा भी था और मैं एक पुराना अंक भी पढ़ रहा था, उसमें भी ये था कि जो दिल्ली करेगा और नामवर और अनामवर के ऊपर बहुत सारी बातें हुईं. उस पर आपकी टिपण्णी चाहता हूँ.
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल ये हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि हम गढों और मठों के चक्कर में पड़े रहते हैं. हिंदी कविता का क्षेत्र बहुत विस्तृत है. आप देखें ध्रुव कश्मीर से लेकर ध्रुव केरल तक या जहाँ हिंदी का विरोध हुआ था ऐसे तमिलनाडु तक हिंदी के कवि पाए जाते हैं. आपके हैदराबाद में भी हिंदी के बहुत सारे कवि थे. आंध्र में वेणुगोपाल यहाँ के प्रमुख कवियों में से थे और भी बहुत सारे कवि आकर रहे. बंगाल में अच्छे हिंदी कवि पाए गाये, गुजरात में अच्छे हिंदी कवि हैं, महराष्ट्र में अच्छे कवि हैं, तो उन अच्छे कवियों की बातें न करने,उनकी अच्छी कविताओं की बातें ना करके, सत्ताकेंद्र की बातें हिंदी साहित्य जगत में अक्सर होतीं हैं. पहले कभी इलाहाबाद और बनारस सत्ता के केंद्र में हुआ करते थे,कवि-लेखक वहाँ जाकर रहते थे. दूर से जिसको प्रतिष्ठा पानी होती थी,जो तमाम तरह के आन्दोलनों में शामिल होना चाहता था वो इलाहबाद चला जाता था, परिमल ग्रुप था वहाँ,नयी कविता वहाँ पैदा हुई, प्रगतिशीलता की चेतना वहाँ पैदा हुई, नयी कहानी वहाँ पैदा हुई और बड़े-बड़े लेखक वहाँ पर थे, तो लोग वहाँ चले जाते थे.फिर धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि भोपाल,मध्य प्रदेश की राजधानी, वहाँ गढ़ बन गया. वहाँ गढ़ बनाने में कुछ सरकारी अफसर बहुत सक्रिय थे,उन्होंने अपना एक गढ़ बना दिया साथ में प्रगतिशील लेखक संघ के लोग भी वहाँ सक्रिय थे उन्होंने भी साथ-साथ अपना गढ़ बनाया और दोनों हाथ-में-हाथ देकर चलने लगे. हुआ यही कि जीत उसी की हुई जो सत्ता में था.सत्ताधारियों ने सारे प्रगतिशीलों को वहाँ बुलाया,जनवादियों को वहाँ बुलाया और उनका स्वागत-सत्कार सब तरह से किया, जितना भी कर सकते थे और उन्हें नष्ट करने में अपनी कोई कसर नहीं बाकी रखी, अंततः आप देख रहे हैं क्या स्थिति है प्रगतिशील लेखक संघ की.
नित्यानंद गायेन :- मैं घूमके इसी पर आ रहा हूँ कि आजकल पुरस्कारों पे बड़ा विवाद होता है और पुरस्कार उसी को मिलता है जिसकी पैठ होती है या जिसकी सिफारिश हो जाती है. ये बातें सामने आयीं हैं,हर जगह कहीं-न-कहीं पढ़ने को मिलती है. जब पुरस्कार से पहले कोई बात नहीं होती, देने के बाद विवाद खड़ा हो जाता है.
शैलेन्द्र चौहान :- गायेनजी इसमें आप देखेंगें तो पायेंगें कि हमारे देश में पुरस्कार हमेशा मठाधीशों, सत्ता के राजाओं द्वारा दिए जाते रहे हैं, सामंतों द्वारा दिए जाते रहे हैं या बड़े सेठों द्वारा दिए जाते रहे हैं, तो ये जो पुरस्कार की लालसा है, यह अपने आप में व्यक्ति की, साहित्यकार की कमजोरी को दर्शाता है. कोई भी सत्ता में रहनेवाला व्यक्ति आपको पुरस्कृत क्यों करेगा? वो इसलिए पुरस्कृत करेगा कि आप सत्ता के साथ रहें, आप उनका जो वर्ग है के साथ सहयोग करें.
नित्यानंद गायेन :- राजा के दरबार में नवरत्न रखते थे!
शैलेन्द्र चौहान :- बिलकुल, राजाओं के दरबार में ये सब हुआ करता था. राजा उन्हें हार दे दिया करते थे, मोती दे दिया करते थे, माणिक दे दिया करते थे और जो भी उनके पास में होता थे दे दिया करते थे, अँगुठियाँ दे दिया करते थे. उसी तरह से आज पुरस्कार है, तो आज के पुरस्कारों में सरकार से सम्बंधित जितने पुरस्कार हैं उन सारे पुरस्कार में सरकार के साथ सहयोग करनेवाले और प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले, आधुनिकता का मुखौटा लगानेवाले या अपने आप को महानता या प्रतिष्ठित होने का जो मुखौटा है उसके साथ जो लोग हैं वो सब शामिल होते हैं उसकी ज्यूरी में. अब नामवर जी उसमें शामिल है और इसमें नामवरजी का कसूर इतना है कि उनकी जो वर्गचेतना है, उन्होंने अपनी वर्गचेतना को वर्गसह्योग में बदल दिया. बहुत लंबे समय तक, नामवरजी प्रतिभावान है, उन्होंने बहुत अच्छा काम किया लेकिन धीरे-धीरे साथ भी वही हुआ कि उनमें एक रेजिमेंटशन आ गया और वो लिखने से सदैव कतराने लगे और सिर्फ बोलते थे, उनके शिष्यगण उनके बोलने को नोट कर लेते थे. धीरे-धीरे उन्होंने प्रैग्मेटिज्म को अपनाने के बाद में सीधा-सीधा अवसरवाद को अपना लिया, जहाँ जैसा अवसर मिले, वहाँ वैसा लाभ उठाइये, इसलिए आप नामवरजी को देखते हैं कि उन्होंने जो पहली पुस्तक ‘कविता के प्रतिमान’ लिखी थी, वह भी, उनकी अपनी मौलिक अवधारणाएँ नहीं थी उसमें. उस पुस्तक में विजयदेव नारायण साही की प्रेरणा से उन्होंने वो सब चीज़ें लिखीं जो विजयदेव नारायण साही का अपना दर्शन था और साहीजी समाजवादी लोहिया के दर्शन से प्रभावित थे. साही जी अंग्रेजी के आदमी थे,तो जो आधुनिकता वाला कॉन्सेप्ट था वो उन्होंने प्रगतिशीलता-मार्क्ससिज्म के साथ नामवर जी ने वहाँ पर जोड़ दिया. उसमें उन्हीं लोगों की चर्चा की जो नयी कविता के प्रतिमानों पर फिट होते थे, उसमें उन्होंने उन कवियों की चर्चा नहीं कि जो बहुत जनवादी किस्म के, प्रगतिशील किस्म के, मार्क्ससिस्ट किस्म के लोग हुआ करते थे, तो नामवरजी शनैः-शनैः बिलकुल सत्ता के पालने में बैठ गए. अब ज़ाहिर है कि वो ज्युरियों में होंगे, ज़ाहिर है कि नामवरजी ना होंगे तो अशोक वाजपेयी होंगे, अशोक वाजपेयी ना होंगे तो राजेंद्र यादव होंगे और जो हमारे क्षेत्रीय साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने-अपने प्रदेशों में इस तरह की प्रतिष्ठा प्राप्त की है, सरकार-सहयोग से प्रतिष्ठा प्राप्त की है, तो वो ज्यूरी में होंगे तो पुरस्कार किन्हें मिलेगा.
नित्यानंद गायेन :- ठीक है, पुरस्कारों पर आपने बहुत अच्छा जबाव दिया. आपने दो लोगों का नाम प्रमुखता से लिया, एक राजेन्द्र जी का जिनकी उम्र भी काफ़ी हो गई है और हमारे लिए बहुत आदरणीय भी है क्यों कि हम युवा हैं, उनके ऊपर जिस तरह के आरोप लगते रहे विशेषकर स्त्री-विमर्श को लेकर और अभद्र साहित्य या दूसरे शब्दों में कहे तो नग्न साहित्य को लेकर जो आरोप इन पर लगते रहे, उस पर आप क्या कहना चाहते हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- देखिये जहाँ तक आपने सम्मान की बात कही, ये निश्चित रूप से सभी सम्मानीय हैं और उनके सम्मान में मैं कोई कमी नही महसूस करता, मैं खुद उनका बहुत सम्मान करता हूँ. नामवरजी का, राजेन्द्र जी का, वाजपेयी जी का और निश्चित रूप से इन सभी में प्रतिभा है और उस प्रतिभा का इन सभी ने किस तरह का उपयोग किया है यह अलग बात है. तो हर व्यक्ति कुछ अलग करके दिखाना चाहता है ताकि उसकी पहचान बन सके .अंग्रेजी में इसके लिए जैसे पहचान की संकट आ गई identity crisis एक शब्द है, तो कहीं न कहीं ये लोग अपनी रचनात्मकता में चुके और इन्हें आगे बढ़ने के अवसर नही मिल पाये क्यों कि एक स्तर तक पहुँचने के बाद उस स्तर को बनाये रखना उसको मेन्टेन करना बहुत ही मुश्किल होता है. तो जब वहाँ पर ये चुक गये और उस चीज को बनाये न रख सके तब इन्होने इस तरीके के, इसको बोलेंगे कि तमाशे टाइप की चीज खड़ी की .और राजेन्द्र जी ने ये शुरू कर दी, उन्हें यह चीज समझ में आ गई कि दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जो है ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें बड़े अच्छी तरह भुनाए जा सकते हैं. इसलिए उन्होंने ये सब कारोबार शुरू किया. यह एक तरह का कारोबार ही था जो उन्होंने पत्रिका निकली ‘हंस’ उसके लिए पैसे जुटाना. आप जानते हैं कि कोई भी पत्रिका निकलना बड़ा कठिन कार्य है, तो उसके लिए पैसा कैसे जुटे,लोग कैसे जुड़े उससे ? तो उन्होंने उस चीज को समझा, हमारी कमजोरी को समझा, समझ के अंतर्विरोध को समझा और दलित और स्त्री पर अपना पूरा का पूरा फोकस कर दिया. अब उसमें दिक्कत यह है कि राजेन्द्र जी ने जो कुछ किया, वह एक तरह से बहुत बुरा नही किया, लेकिन उसके पीछे भी कोई दर्शन नही था. आज भी आप राजेन्द्र जी से पूछे कि वे किस दर्शन के फालोयर हैं तो शायद स्पस्ट रूप से ऐसी कोई चीज़ उनके मुह से नही निकलेगी जिससे वे कह सके कि वे फलां दर्शन के फालोयर हैं. वो बौद्धधर्म, आंबेडकर, महात्माफुले या मार्क्सवाद इन तीनों में किसी के बहुत अच्छे तरीके से उसके न तो प्रशंसक हैं न ही उसके दिशा पर चलने वाले व्यक्ति हैं. तो उन्होंने जो कुछ दिया वह एक सुपरफिसियल चिंतन को उन्होंने दिशा दी साथ में उन्होंने उसमें सनसनी फैलाई, जैसे नग्नता है या देह है स्त्री की देह पर उन्होंने अपने आपको बहुत केंद्रित किया, अपने आप को चार्वाक पर बहुत केंद्रित किया अपने आप को पश्चिमी या अधुनातम समझ कर ये सारी चीजे उन्होंने की ताकि बहुत सारे लोग उनकी ओर आकर्षित हो सके, तो it is a kind of gimmick. यह एक तरीके का तमाशा है और उस तमाशे से बहुत कुछ हासिल नही हुआ. उन्होंने जो साहित्य समाज में प्रचलित था उसकी व्याप्ति को कहीं न कहीं संकीर्ण बना दिया. कुछ कम कर दिया. अब देखिये ‘हंस’ बहुत बिकती है पत्रिका काफ़ी चलती है लेकिन उसमें जो कुछ कंटेंट होता है वह क्या होता है? वह कंटेंट बहुत समय तक किसी व्यक्ति को प्रभावित नही कर सकता. जैसे हम लोग नही देखते एक फौरी तौर पर एक तरफ जो एंटरटेनिंग हैं, एक्साइटिंग है, stimulating है. अब जैसे सड़क छाप पत्रिकाएं होती थी पोर्नो की पत्रिकाएं उस जमाने में होती थीं या मनोरंजन के लिए जो फिल्में होती हैं सीरियल होते हैं उस तरीके के चीज में वो शामिल हो गया तो उसकी गंभीरता कहीं नही रही|
नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते है कि ‘हंस’ उस तरह की पत्रिका हो गई है जो सड़कों पर या रेलवे स्टेशनों पर जो साहित्य /पत्रिकाएं बिकता है उस तरह का है ?
शैलेन्द्र चौहान – नही, नही, उस तरह का नही उसका उन्नत रूप है यह ….उसका थोड़ा सा ये उन्नत रूप है चूँकि राजेन्द्र यादव समझदार व्यक्ति हैं इसलिए उन्होंने इसमें साहित्य और विचार को भी स्थान दे रखा है.
नित्यानंद गायेन :- चलिए जब राजेन्द्र जी इस बातचीत को सुनेंगे /पढ़ेंगे देखते हैं राजेन्द्र जी अगली सम्पादकीय में क्या लिखते हैं .
शैलेन्द्र चौहान :- राजेन्द्र जी बहुत सीजन्ड व्यक्ति हैं ओर वो चाहते है कि लोग उनकी जो है बुराई करे उनसे असहमत हों ताकि विवाद में ही उनका नाम होता है तो नामवरजी, अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र जी विवाद के ही लेखक/रचनाकार हैं. उनके लिए विवाद ही सृजन है. क्योंकि वो चुक गये.
नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि कुछ लोग मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ ऐसा करते हैं ताकि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हों ?
शैलेन्द्र चौहान :- जी हाँ ,जी हाँ जैसे मीडिया में होता है जैसे सनसनी , इंडिया टीवी आदि …लेकिन क्योंकि इनका क्यों कि बैकग्राउंड अच्छा है इसलिए इनका स्तर ठीक है.
नित्यानंद गायेन :- मैं आपसे कुछ निजी प्रश्न पूछुंगा उससे पहले केदारनाथ सिंह जी जो कि मेरे बहुत आदरणीय कवि भी हैं मैं जानना चाहता हूँ कि दो या तीन साल पहले मुझे ठीक से याद नही ‘आउटलुक हिंदी’ का एक अंक आया था मुझे वर्ष ठीक से याद नही अभी उस अंक में एक सर्वे हुआ था जिसमें यह कहा गया था कि केदार जी हिंदी में नम्बर एक कवि हैं जिसमें सर्वे का कोई आधार नही दिया गया था जैसे कि पाठकों का क्या स्तर था या किन पाठकों से उन्होंने पूछा था केवल यह संख्या दे दी थी कि इतने पाठकों से हमने पूछा. पाठकों की कविता /या साहित्यिक समझ पर कोई विश्लेषण नही दिया था पत्रिका ने. और उसके बाद इसी पत्रिका ने ठीक इसी तरह कवयित्रियों पर भी इसी तरह का सर्वे हुआ और उसमें अनामिका जी को सर्वाधिक पढ़े जाने वाली कवयित्री घोषित किया गया था. क्या कवि नम्बर एक और नम्बर दो भी होता है क्या इनकी कोई रैंकिंग भी होती है कवियों की? इस पर आपके विचार ..
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल केदारजी शुरूआती दौर में बहुत ही अच्छे कवि थे इससे हम इंकार नही कर सकते. बहुत सम्मानित व्यक्ति भी हैं. अब परेशानी यह होती है कि जब हम कविता को और साहित्य को किसी फ्रेमवर्क में कस लेते हैं और उसे खास तौर पर एक ऐसी कला मानने लगते हैं जो शब्दों के खिलवाड़ की कला हो. लोगों ने जब आज से आठ –दस साल पहले (post modernism) उत्तर आधुनिकता का दौर चला तो लोगों ने कहा कविता क्या है ? कविता शब्द है और शब्दों के साथ खिलवाड़ करना ही कविता है . क्योंकि उत्तर आधुनिकता के कन्सेप्ट में विघटनवाद कन्सेप्ट में यह था कि विचार तो मर चूका है. भाषा का अंत हो गया है .इतिहास शांत हो गया है. तो ये लोग प्रगतिशील चेतना के कवि थे प्रारंभ में, धीरे –धीरे इन्होने देखा पश्चिम से प्रभावित होकर कि ये सारी चीजें आज हिंदी साहित्य में मठाधीश बनाए रखने के लिए उतनी कारगर नही है जितना यह है कि कविता को एक कलात्मकता प्रदान की जाये तो उन्होंने कविता को कला मान लिया. उनकी कवितायों में आप देखेंगे कि उनकी कवितायों में भी कोई दर्शन नही है आज इधर की कवितायों में. वे किस चीज के समर्थक है हम नही जानते. छोटी –छोटी चीजों पर, अनुभूतियों पर एक सहज सी, सपाट सी लेकिन थोड़ी सी संवेदना प्रकट करने वाली कविता अगर लिख दी जाए और हम कहें कि अमुक व्यक्ति बहुत महान हो गया है नम्बर एक कवि हैं, हाँ तो ठीक है न सुरेन्द्र शर्मा नम्बर एक थे एक जमाने में, काका हाथरसी उससे पहले नम्बर एक कवि थे. छोटी –छोटी चीजों पर छोटी –छोटी कविता करने वाले छोटे –छोटे तुक्कड़ कवि अरुन जैमिनी भी बड़े महान हैं. तो हमारे बौद्धिक जगत में केदार जी बड़े महान हैं. नम्बर एक पर हो सकते होंगे और आउटलुक ने ऐसा सर्वे किया है तो निश्चित रूप से आपने खुद ही कहा कि किन लोगों से किया है यह तो पता नही क्योंकि हमसे तो किसी ने पूछा भी नही या हमारे जानकार लोगों से भी नही पूछा गया. अब भाई बात ये है कि बहुत सारी चीजें प्रायोजित भी होती है, प्रभावित होकर भी करते हैं और इसी तरह कवयित्रियों पर भी हुआ होगा. सम्पादक भी हमेशा से यही चाहते हैं कि उनका कुछ सेल बड़े, कुछ नयापन हो कुछ आकर्षक हो, कुछ सनसनी हो कुछ विवाद हो तो इसीतरह से उनके सलाहकार भी यही बड़े लोग होते हैं और वो इसी तरीके की प्रयोग करते हैं. जैसा कि आप देखेंगे ‘नया ज्ञानोदय’ के बहुत सारे अंक बहुत सारी चीजों पर निकले, बहुत सारे प्रयोग युवाओं पर केन्द्रित किए गये. जानबूझकर कि मैंने युवाओं को प्रोमोट किया है. आपने क्या प्रोमोट किया है ये बताएं आप ? आप शुरू से क्या करते रहे ? तो इस तरीके के जो सनसनीखेज वक्तव्य है और विवाद है और जो को कुछ लोगों को आकर्षित करने वाली चीजें हैं जिस तरीके से मदारी डमरू बजा के आकर्षित करता है उसी तरह से ये लोग साहित्य से जुड़े लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ये सब कुछ कर रहे हैं.
नित्यानंद गायेन :- मतलब कहीं न कहीं आप यह कहना चाहते हैं कि इस सभी पर भी कहीं न कहीं बाजारवाद /पूंजीवाद का असर दिख रहा है ?
शैलेन्द्र चौहान :- निश्चित रूप से, न सिर्फ बाजारवाद और पूंजीवाद का असर बल्कि इन सब लोगों के मनोमस्तिक में एक पुराना भाववादी सामंतवाद भी है. ये ठीक उसी तरह अपने लोगों को प्रोमोट करते हैं, अपने ग्रुप को प्रोमोट करते हैं जिस तरह सामंती जमाने में, राजाओं के जमाने में लोग किया करते थे. तो वो असर भी इनके दिमाग में हैं, पूंजीवादी प्रभाव भी इनके दिमाग में हैं. वर्ना नामवर जी ‘राष्ट्रीय सहारा’ में क्यों नौकरी करते? वर्ना रवीन्द्र कालिया जो है ज्ञानपीठ और वागर्थ इन सारी पत्रिकाओं में क्यों नौकरी करते ? क्योंकि इन लोगों कि ये मज़बूरी तो खास तौर पर नही थी. एक जमाने में जब रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय हुआ करते थे तब मज़बूरी हो सकती थी लेकिन आज की तारीख में मैं नही मानता कि ऐसी कोई मज़बूरी इन लोगों के सामने थीं. तो इनके ऊपर पूरी तरह बाजारवाद और पूंजीवाद का असर परिलक्षित होता है.
नित्यानंद गायेन :- खैर यह तो एक ऐसा विवाद है इसका तो अंत अभी नही दिखता और न ही होने वाला है, बहरहाल हम आते हैं अगले प्रश्न की ओर. कल मैंने आपको पढ़ा ओर इससे पहले मैं आपको नही पढ़ पाया, यह मेरा दुर्भाग्य है. दूसरी बात यह कि मैं जहाँ हूँ यहाँ पत्रिकाएं पहुँचती नही, मंगवानी पड़ती है. आपने इतना काम किया यह कल पढ़ने के बाद मालूम हुआ, उसके बावजूद मैंने यह देखा कि ये एक बात अपने कही कि गुटबाजी वाली बात मुझे लगता है आप जैसे जो और भी प्रतिभावान एवं ईमानदारी से काम करनेवाले लोग होंगे, उनका नाम ये जो बड़े लोग हैं ये अपनी आलोचना में या लेख में ऐसे लोगों का नाम लेना क्यों भूल जाते हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- मैं, गायेनजी इसको इस तरह से लूँगा कि यह हमारे लिए बड़ी अच्छी बात है. होता यह है कि अगर ये लोग, बड़े तमाम महान लोग किसी को हाथों-हाथ उठा लेते हैं तो, उसकी उसी दिन मृत्यु हो जाती है. नए कवियों को बर्वाद करने में, उन्हें बहुत आगे न आने देने में इन लोगों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जो चिंतन की दिशा में आगे बढ़ते हुए रचनाकार थे उनको सम्मान दिलाने में, उनको छपने में, उनके संग्रह बड़े –बड़े प्रकाशकों से छपवाने में, और उनके नाम उछालने में जो इन लोगों की भूमिका रही वो लोग आज कहाँ मौजूद हैं? अब देखिये काफ़ी दिनों तक उन लोगों ने संघर्ष भी किया कि हम एक स्तर बनाये रखेंगे. लेकिन शुरूआती दौर में एक दो संग्रह में उनकी अच्छी कवितायेँ आती है उसके बाद वे चुभ जाते हैं. तो मैं यह मानता हूँ कि जरुरत से ज्यादा, देखिये दो चीजें होती सृजनात्मकता में कि हमें कोई प्रोत्साहित करें, लेकिन जरूरत से ज्यादा अगर प्रोत्साहन हमें दे दिया जाये तो हम उसी दिन रिटायर्ड हो जाते हैं उस स्थान से. और हम उसी चक्कर में फंस जाते हैं पूरा का पूरा जो चक्रव्यूह है कि अगली चीज कब मिलेगी हमको . हमको एक पुरस्कार मिल गया, मेरे एक जनवादी मित्र हैं भोपाल में उनके पास ऐसा कोई पुरस्कार नही देश का सिर्फ एक बड़ा वाला ज्ञानपीठ पुरस्कार को छोड़कर कि उन्होंने पुरस्कार न ले लिया हो. तो उनके पास में जैसे बहुत सारे लोगों को पैसा कमाने कि हबस होती नाम कमाने की हबस होती है उसी तरह सम्मान कमाने की, छपने की पुरस्कार कमाने की भी हबस होती है अपने लोगों में जाने जानेकी भी एक लस्ट होती है. दरअसल मैं इन सारी चीजों को बहुत पहले समझ चूका था. इसीलिए इन सारी चीजों का मेरे ऊपर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता. मेरा यह मानना है कि मैं काम करता रहूँ, धीरे–धीरे. आपके न पढ़ पाने का भी यही कारण है कि दरअसल पब्लिसिटी भी बड़ा बड़ा काउंट करती है, सेल्फ प्रोमोशन भी बड़ा काउंट करता है. अपने–आप को स्पोंसर करिये पैसे दे देकर और अपने प्रभाव से तो लोगों तक पहुँचने का एक जरिया बनता है. मैं यह बात मानता हूँ, लेकिन मैं इस चीज को ज्यादा महत्व देता हूँ कि आप इन चक्करों में न पड़ कर अच्छा सृजन करें. लोग आज नही पढ़ेंगे तो कल पढ़ेंगे. सृजन करना प्रसिद्धि की मौलिक शर्त नही है. सृजन करना जनता के साथ जुड़ने की, जनभावना को समझने की, अपने–आप को निरंतर समृद्ध करने की एक कसौटी है. इसलिए मैं सृजन करता हूँ. मेरे लिए ये चीजें महत्वपूर्ण नही.
नित्यानंद गायेन :- अभी कुछ दिन पहले कान्हा में एक प्रकाशक शिल्पायन ने एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें आयोजन के खर्चे को लेकर विवाद हुआ और यह भी मालूम हुआ कि उसमें कुछ ऐसे भी लोग आये थे जिनका संबंध ‘संघ’ से था . यहाँ कुछ ऐसे भी कवि पहुँच गये थे जो खुद को खुद को मार्क्सवादी विचारधारा के मानते हैं. इस मुद्दे पर भी बड़ा हल्ला हुआ. क्या आप यह मानते है कि इस तरह के आयोजन में आयोजक को या जो कवि वहाँ जा रहे हैं उन्हें पहले से यह नही मालूम होता है कि कौन –कौन आ रहे हैं ?
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल अब यह प्रश्न तो कुछ बड़ा असमंजस वाला हो गया है कि कौन वामपंथी है और दक्षिणपंथी हैं क्योंकि जो दौर चल रहा है …..उस आयोजन के बारे में मुझे याद है शिल्पायन ने जो किया था उसमें दक्षिणपंथी भी थे, वामपंथी भी थे और मध्यपंथी भी थे . उसमें गिरिराज किराडू थे जो अशोक वाजपेयी के बाकायदा दांये हाथ हैं बाँए हाथ है ..पता नही, कौन सा हाथ है ..जो उनकी सारी चीजों को आगे बढाते हैं . उसमें वो लोग भी थे जो बाकायदा भाजपा से और आर. एस. एस. से पैसे लेकर और चीजों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें सरकार समर्थित लोग भी थे और शिल्पायन के जो सज्जन हैं कहा जाता है वह खुद अशोक वाजपेयी के बड़े निकट हैं. उन तमाम प्रगतिशीलों के निकट हैं. जनवाद तो पता नही लेकिन हाँ प्रगतिशीलों के बहुत निकट हैं, तथाकथित प्रगतिशीलों के …उन्हें पुरस्कृत भी करते रहते हैं वो . तो ये सारा जो मामला है ये सब पैसे से जुड़ा हुआ मामला है पैसे कमाने का मामला है …क्योंकि प्रकाशक को पैसे चाहिए और पैसे कवि को सम्मान चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए, उसे भी पैसे चाहिए. तो जो अपने आप को कहते हैं प्रगतिशील जनवादी कवि वो सिर्फ उसको भुनाना चाहते हैं. दरअसल मन से और चेतना से वो प्रगतिशील नही हैं, पूरी तरह अवसरवादी हैं. और कहीं न कहीं मैं यह नही कहना चाहुंगा कि वे दक्षिणपंथी हैं लेकिन जब भी जरूरत पड़ेगी वो उनके पाले में भी बैठ जायेंगे .उन्हें कोई परेशानी नही होगी. तो उनकी चेतना कुंद हो चुकी है इसलिए ये सारी महत्वहीन हो गई हैं. दरअसल जो कहता है वो होता नही है तो हमें बड़ा खराब लगता है .और ये भ्रम जबरदस्ती फैलाया जा रहा है ये पूंजीवाद और बाज़ारवाद और सत्ता के द्वारा निरंतर फैलाया जा रहा है पिछले कई दशकों से. इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है .और इसे समझने की भी आवश्यकता भी है और यह समझ बहुत आसानी से नही आती . पिछले दिनों ज्ञानरंजन दिल्ली में आये हुए थे तो उन्होंने कहा कि साहित्य की ‘पालिमिक्स’ हर कोई नही समझ सकता. उसके समझने के लिए भी उसे बहुत ही ध्यान देकर उसके अध्यन की आवश्यकता है .तब जाकर वो साहित्य की पालिमिक्स समझ सकता है. वर्ना हम कहते ही रह जायेंगे कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ वो कहेंगे हमारी पालिटिक्स कुछ नही है, हम तो कवि हैं. अवसरवाद ही हमारी पालिटिक्स है, इस दुनिया में आये हैं तो कीड़े –मौकोड़े की तरह जी लेंगे ..तो हम ..हमारी वही पालिटिक्स है.
नित्यानंद गायेन :- तो, इस युग के हर पल में हमें मुक्तिबोध की ये बात आएगी …..?
शैलेन्द्र चौहान :- रखनी चाहिए , अन्यथा हम कहीं के नही रहेंगे तो ..जैसा कि आपने कहा कि मेरे जैसे बहुत से लोग होंगे ..मैं इस चीज से निराश नही हूँ ..न इस चीज का कोई अफ़सोस है कि मेरे जैसे बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं ..और अन्ततः उन्ही के काम जो हैं वो फलदायी होते हैं . और वो लम्बे समय तक जीवित रहते हैं . ये ये क्षणभंगु किस्म के काम से मुझे आनंद नही मिलता .
नित्यानंद गायेन :- अंत में मैं चाहता हूँ की आप अपनी मनपसंद कविता की कुछ लाइनें हमें सुनाएं …आपकी कविता से नही ..
शैलेन्द्र चौहान :- देखिये ये बहुत अच्छी बात आपने कही कि मनपसंद कविता …अब मैं आपसे कहूँगा एक चीज जो थोड़ी से आश्चर्यजनक और अटपटी भी होगी कि मुझे शील जी की कवितायेँ बड़ी अच्छी लगती थीं ..और उनकी कविता की दो पंक्तियाँ है कि ..
‘क्षेत्र क्षीण हो जाये न साथी
हल की मूंठ गहो’
तो अपने –आप को उर्वर बनाये रखने के लिए हमें हमेशा हल चलाना होगा, तभी आप आगे बढ़ सकेंगे ..इसी तरह मुझे ..यह आपको जानकार अटपटा लगेगा कि मुझे दुष्यंत कुमार बहुत प्रिय रहे हैं और उनकी जो कवितायेँ और गज़ल हैं मुझे बहुत अच्छी लगती है. और उनकी गज़लों में राजनैतिक चेतना से मैं बहुत प्रभावित था …जब वो कहते थे कि ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ..’ तो अगर हम प्रवत्तियों पर भी बात करते हैं तो लोग कहते हैं कि ये तो हमसे नाराज़ हैं और हमने इनकी कविताएँ नही छापी , इनका नाम नही लिया इसलिए हमारी आलोचना कर रहे हैं. और हमारे आदरणीय नागार्जुन जी, जिन्होंने सैदेव जानता के साथ में रहकर जनता की कविताएँ लिखीं उनकी एक कविता थी ‘शासन की बंदूक’ इस तरह की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ. मुक्तिबोध की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ ..उन कविताओं से मुझे सदेव प्रेरणा मिलती है.
नित्यानंद गायेन :- शैलेन्द्र जी , बहुत अच्छा लगा …आपने इतना समय दिया और हैदराबाद में आकर मुझे सूचना दी, मेरा हौसला बढ़ाया. मुझे विश्वास है कि आगे भी हम इसी तरह से मिलेंगे ..नमस्कार .
शैलेन्द्र चौहान :- मुझे भी आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. नमस्कार!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की हैं जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)
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