अल्पना मिश्र से कल्पना पन्त की एक बातचीत


अल्पना मिश्र युवा आलोचक कल्पना पन्त के साथ

अल्पना मिश्र से कल्पना पन्त की एक बातचीत
अल्पना मिश्र का उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’  इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास पर अल्पना को वर्ष 2014का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान भी प्रदान किया गया है। इस उपन्यास को भाषा के अलग अनूठे अंदाज और नये शिल्पगत प्रयोग के साथ साथ बदलते समय के प्रभावों के बीच निम्न मध्यवर्गीय जीवन की बहुत गहरी अन्तरकथा के लिए सराहा जा रहा है। इस उपन्यास के शिल्प और कला के साथ-साथ पात्रों के बहाने स्त्री जीवन के महत्वपूर्ण पक्षों पर अल्पना मिश्र से एक बातचीत किया है कल्पना पंत ने। तो आइए रु-ब-रु होते हैं इस बातचीत से।
   
कल्पना पंत – ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ उपन्यास का शिल्प अपने में नवीनता लिए हुए है। उपन्यास को कई उपशीर्षकों में बांटने की जरुरत आपको क्यों महसूस हुई?
अल्पना मिश्र – बस, मेरी कोशिश इतनी थी कि जो बात कहना चाहती हॅू, उसे खूब अच्छी तरह कह पाऊँ। टेकनीक नई थी तो शायद इसी से शिल्प भी बदलता चला गया। कहानी कहने के लिए आत्मकथा की टेकनीक को भी इसमें मिला दिया। तमाम प्रविधियॉ घुल-मिल कर इसे एक नई प्रविधि की तरफ लेती गईं। यह भी अनायास ही हुआ। बस, कहने के तरीके की खोज में यह तरीका बनता गया। दूसरे उपशीर्षक भी इसी तरह बने।
कल्पना पंत – उपन्यास में बिट्टो, सुमन, ननकी, बिट्टो की माँ और मौसी जैसी स्त्री पात्रों के चरित्र की सूक्ष्म पड़ताल दिखाई पड़ती है। वास्तव में क्या ये स्त्री पात्र आपके जीवनानुभवों का हिस्सा रहे हैं?
अल्पना मिश्र – कोई रचना लेखक के अनुभव, विचार और कल्पना से मिल कर ही बनती है। कई बार देखी सुनी जानी बात भी बहुत गहराई से व्यंजित होती है। ये पात्र तो हमारी इसी दुनिया के पात्र हैं। मैंने बहुत निकट से गॉवों, कस्बों और नए बनते शहरों को जाना है। इसलिए कह सकती हॅू कि इन पात्रों को मैंने बहुत निकट से समझा है। ननकी जैसे ही एक पात्र की मृत्यु मैंने अपने बचपन में देखा था, तब से अब तक न जाने कितनी ननकी की हत्याएं सुनी, जानी तो हर बार उस बचपन में देखे दृश्य की याद आई। वही प्रश्न बार बार उठे, जो बचपन में उठे थे। अब जाकर उसे थोड़ा सा लिख पाई हूँ। इन हत्याओं का सही रहस्य कोई नहीं कहता। इसीलिए यह उपन्यास में भी बहुत धीरे से कहा गया है। मुझे इस बात का बहुत सुकून है कि ये पात्र पाठकों को परिचित लग रहे हैं।
कल्पना पंत – बिट्टो का पति शचीन्द्र अपनी यौन अक्षमता को स्वीकार नहीं करता है और अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिए लगातार बिट्टो को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। बिट्टो शचीन्द्र से अलग होने का निर्णय लेती तो है लेकिन काफी देर से। आज के आधुनिक समय में भी पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर स्त्री द्वारा निर्णय लेने में आने वाली कठिनाइयों के पीछे आखिर कौन से मानदण्ड काम करते हैं?
अल्पना मिश्र – बिट्टो का थोड़ी देर से निर्णय ले पाना यह बताता है कि खाली नारेबाजी जीवन नहीं है। नारेबाजी को तो स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्तियों के खिलाफ जानबूझ कर स्थापित किया गया और उसे ही स्त्री लेखन का पैमाना बना दिया गया। जो देह विमर्श की पूरी राजनीति, पितृसत्तात्मक रणनीति के साथ की गई थी, उसने बहुत सी लेखिकाओं को भ्रमित किया। बहुत से लोग, जो गंभीर काम कर सकते थे, इसी की भेंट चढ़ गए। अपनी देह पर निर्णय का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है, इसे इतना हल्का नहीं बनाया जा सकता। देह पर निर्णय का अधिकार आसानी से नहीं मिलता। बिना शिक्षा, बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के यह कितना संभव हो सकेगा! निर्णय की स्थिति तक आने में आत्मसंघर्ष से भी गुजरना होता है। प्रेम में जिम्मेदारी भी होती है और मनुष्य अपने प्रियजनों को इतनी जल्दी नहीं छोड़ना चाहता है। जल्दी हारना भी नहीं चाहता। सबसे पहले मनुष्य अपनी परिस्थिति को ठीक करना चाहता है। जब लगता है कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता तभी दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ता है। स्त्री भी इन्हीं स्थितियों से गुजरती है। मुख्य बात यह है कि इन स्थितियों से उसे कितनी देर जूझना चाहिए, तो जाहिर है कि अधिक देर नहीं करनी चाहिए। बिट्टो भी अधिक देर नहीं करती है। दूसरा रास्ता लेने की तरफ बढ़ती है। पढ़ी लिखी स्त्री का विवेक है यह। पिछली पीढ़ियों की तरह पूरा जीवन इसकी भेंट नहीं चढ़ाया जा सकता है। बिट्टो की मॉ को देखिए, जीवन के आखिरी दौर में जा कर कहीं वह अपनी बेटी के साथ खड़े होने की हिम्मत जुटा पाती है। इसलिए मैंने इस विषय को गंभीरता से लिया है।
कल्पना पंत – वर्तमान समय में भी जीवन-साथी के चुनाव के सन्दर्भ में स्त्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है। इन्ही प्रेम संबंध की दुखांत परिणति को ही दर्शाती है ‘ननकी की कहानी’। अधिकांशतः विद्रोह न कर पाने वाली स्त्रियाँ ननकी की तरह ही आत्महत्या का मार्ग चुन लेती हैं। आखिर समाज की इस प्रेम-विरोधी मानसिकता को किस प्रकार बदला जा सकता है?
अल्पना मिश्र – आज भी हालात बहुत नहीं बदले हैं। बहुत कम लड़कियॉ अपने जीवन साथी के चुनाव का फैसला कर पाने की स्थिति में पहुंची हैं। लेकिन लड़कियॉ लगातार प्रतिरोध की तरफ बढ़ती हुई दिख रही हैं। पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर होना और उसके साथ चेतना-सम्पन्न भी होना होगा, तभी निर्णय लेने का पूरा अधिकार मिल सकेगा। ननकी की स्थिति अलग है। वह एक आम लड़की है। उसका चुनाव भले ही गलत साबित होता है पर उसने निर्णय तो लिया ही है और जब चेतना का पक्ष और मजबूत होता है तब वह फिर अपना अलग फैसला लेने की तरफ आती है। उसका फैसला हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था को मंजूर नहीं हो सकता। वह आत्महत्या नहीं करती है बल्कि उसकी सुनियोजित हत्या का संकेत उपन्यास में आया है, जिसमें पितृसत्ता के मानसिक अनुकूलन का शिकार उसकी मॉ का मौन भी शामिल है। असल में प्रेम का स्वरूप ही व्यवस्था-विरोधी है। व्यवस्था उसे अनुकूलित कर के ही अपने साथ आने देती है। प्रेम व्यवस्था में कहीं भी फिट नहीं बैठता। आप खुद ही देखिए हमारी व्यवस्था में प्रेम करने की आजादी स्त्री को कितनी है? प्रेम के जितने भी पूज्य रूप मिलते हैं, पुरूष सत्ता द्वारा अपनी कल्पना से बनाये गए हैं और जितने उदाहरण मिलते हैं, सब में दंड दिया गया है – सोहनी-महिवाल, लैला-मजनू आदि को याद करिए। अभी हाल फिलहाल दिल्ली के वेंकटेश्वर कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की के अन्तरजातीय विवाह करने पर घर वालों द्वारा की गई हत्या को देखिए। यह पढ़े लिखे समाज में भी हो रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में हो रहा है। स्त्री पर हिंसा लगातार बढ़ रही है। उस पर नियन्त्रण के तरीके बारीक और क्रूर हुए हैं। यह सब हमारे चारों तरफ चल रहा है। इस तरह की हत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। यह दंड बताता है कि प्रेम व्यवस्था का प्रतिपक्ष है। इसे कहना तो पड़ेगा।
कल्पना पंत – सुमन और बिट्टो दोनों ही अंततः पितृसत्ता द्वारा स्त्री के लिए निर्धारित रूढ़ नैतिक मानदंडों को ठेंगा दिखाती हुई घर से निकल पड़ती हैं। इन दोनों द्वारा अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने का निर्णय लेना क्या सम्पूर्ण स्त्री जाति के प्रति सकारात्मक ऊर्जा और संकेत का पर्याय है? इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी?
अल्पना मिश्र – निश्चित ही सुमन और बिट्टो दोनों अपनी अलग राह बनाने निकल पड़ी हैं। इनकी तरह तमाम लड़कियॉ आज अपनी अपनी राह खोज रही हैं। दोनों ने ही पितृसत्ता के नैतिक मानदंडों को नकार दिया है। तुम देखोगी कि दोनों ही प्रेम करती हैं और प्रेम के नाम पर सामंती रूपों की जकड़बंदी को दोनों ही ठुकरा देती हैं। प्रेम दरअसल व्यवस्था का बड़ा प्रतिरोध भी है। हमारी पूरी व्यवस्था में प्रेम के लिए कोई जगह ही नहीं है। वह प्रतिपक्ष है। ये दोनों पात्र प्रेम की तरफ जाते हैं, इसका मतलब ही है कि प्रतिरोध की तरफ जाते हैं।
कल्पना पंत – वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के पतनोन्मुख स्वरुप को भी उपन्यास में बखूबी उजागर किया गया है। आखिर शिक्षा व्यवस्था में आई इस गिरावट का मूल कारण आप क्या मानती हैं?
अल्पना मिश्र – हॉ, यह दिखाना जरूरी लगा। अगर सही शिक्षा नहीं मिलती है तो चेतना का विकास विस्तार संभव नहीं बन पाता है। आम आदमी के लिए जैसी शिक्षा उपलब्ध है, उसकी व्यवस्था कैसी है? कई तरह की शिक्षा हमारे देश में है। गरीबों के लिए अलग है, अमीरों के लिए अलग है, सरकारी अलग, प्राइवेट कांवेंट अलग। हर राज्य का अपना अलग अलग पाठ्यक्रम है। तो इन सब में देखने की बात है कि आम लोगों के हिस्से क्या आ रहा है? नकल है, भ्रष्टाचार है, पैसा ले कर कॉपी लिखी जा रही है, ऐसी शिक्षा प्राप्त लोगों से आप किस तरह की चेतना, किस तरह के व्यवहार की उम्मीद करेंगे? इसमें बुद्धिमान और प्रतिभासम्पन्न युवक क्या मुन्ना जी और कान्हा तिवारी वाला रास्ता पकड़ लेने की तरफ नहीं चले जाते? क्या यह त्रासद नहीं है? नए बनते समय में भी शिक्षा की ऐसी दशा, बेरोजगारी, दिशाहीनता…… फिर अपराध के रास्ते…. मैं यही सब दिखाना चाहती थी।
कल्पना पंत – नवजागरण के दौर से ही स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत की जाती रही है किन्तु व्यवहारिक स्तर आज भी पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ घर के भीतर चूल्हे-चौके तक ही सीमित रह जाती हैं। यदि आत्मनिर्भर होती भी हैं तो उनकी कमाई पर पहला हक़ उनके परिवार या पुरुष का होता है। जैसे बिट्टो की माँ। शिक्षित होने के बावजूद परनिर्भरता और आर्थिक परतंत्रता की बेड़ियों में लिपटी ये स्त्रियाँ, बिट्टो की माँ अपनी बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहती है। इसके पीछे पितृसत्ता किस रूप में काम करती है?
अल्पना मिश्र – नवजागरण का समय स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित था। क्योंकि यह स्त्री ही थी जो भव्य भारतीय संस्कृति के धवल माथे पर काले धब्बे की तरह थी, इसी जगह, ब्रिटिश सभ्यता के आगे करारी शिकस्त थी। इसीलिए अपनी अनपढ़, गंवार, असभ्य, स्त्रियों और इनके साथ जुड़ी भयानक क्रूरताओं पर बात करना जरूरी हो गया। सती-प्रथा, विधवा-जीवन, बाल-विवाह आदि के कारण अंग्रेजों के सामने सिर उठाना मुश्किल हो गया था। आप किस भारतीय संस्कृति पर गर्व की बात करेंगे, जहॉ स्त्रियों के लिए ऐसी यंत्रणादायक नारकीय जीवन की व्यवस्था थी! इसलिए इन अनपढ़ स्त्रियों को शिक्षित करना जरूरी हुआ। लेकिन पितृसत्ता अपने नियन्त्रण को जरा भी ठीला करने को तैयार न थी। समस्या यहीं थी, इसलिए स्त्री-शिक्षा को ले कर बड़ी भारी चिंताएं भी थीं। शुरू में पाठ्यक्रम भी ऐसा बनाया गया था, जिसमें होम साइंस अनिवार्य था। नैतिक शिक्षा, आदर्श स्त्री-धर्म आदि अनिवार्य थे। धीरे-धीरे सेवा क्षेत्र उनके लिए खोले गए। तकनीकी क्षेत्र, ज्ञान विज्ञान के अन्य क्षेत्र तो बहुत बाद में स्त्रियों के लिए खुले। लेकिन शिक्षा ऐसा हथियार है जिसे पकड़ाने के बाद आप उनके दिमाग को कब तक अनुकूलित किए रह सकते हैं, नतीजा प्रश्न उठने शुरू हुए। जीवन और समाज की समालोचना शुरू हुई। महादेवी वर्मा ने बहुत पहले ही इसे पहचाना था। जहॉ तक बिट्टो की मॉ जैसी स्त्रियों का प्रश्न है तो वे पितृसत्तात्मक जकड़बंदी में अपने सारे प्रयासों को व्यर्थ पाती हैं और अपने सारे विरोध को भी। यह व्यर्थता बोध ही उन्हें इस तरह सोचने की तरफ ले जाता है। लेकिन आशा की एक चिंगारी भी उन्हें सोये से जगा सा देती है। और यही मुख्य बात है। बिट्टो पर मॉ का बढ़ा हुआ भरोसा न केवल बिट्टो के लिए बल्कि मॉ के लिए भी नया पथ बनाता है। मुक्तिकामी पथ की दिशा । अपने लिए सही जीवन की तलाश आखिर दोनों की ही है। संगठित हो कर कहीं अधिक मजबूत हो सकते हैं। 
कल्पना पंत – उपन्यास में एक मुकम्मल शब्द ‘विकल्प’ प्रयुक्त हुआ है। सुमन सोचती है कि ‘नरक’ में चुपचाप सड़ते चले जाना कौन सी बहादुरी है? ‘विकल्प’ अच्छा शब्द है, ढूँढना होगा हमें भी? इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी?
अल्पना मिश्र – विकल्प’ बड़ा शब्द है और जरूरी भी। सुमन, बिट्टो, ननकी जैसी तमाम लड़कियों को अपने जीवन के लिए विकल्प की तलाश है। यहॉ तक कि बिट्टो की मॉ और मौसी जैसी स्त्रियों को भी विकल्प की तलाश है। नरक में चुपचाप सड़ते चले जाने की बजाय विकल्प की पहचान करनी चाहिए, अपना रास्ता तभी ढ़ूढ सकेंगे और तभी उस नए रास्ते पर चलने की कोशिश की जा सकेगी। कभी-कभी जिसे व्यक्ति अपने लिए सही चुनाव मान कर चलता है, कुछ ही दूरी पर वह गलत चुनाव साबित हो जाता है, जैसा कि ननकी के साथ हुआ या जैसा कि बिट्टो के साथ हुआ। तब मैं कहूंगी कि फिर से विकल्प खोजो, जीवन कभी नहीं रूकता। कभी उसे खत्म नहीं मानना चाहिए। इसीलिए बिट्टो भी फिर से नई राह चुनने की दिशा लेती है और सुमन, जिसने कि प्रेम विवाह किया था, वह भी फिर से जीवन के लिए नए रास्ते की तलाश में निकलती है। स्त्रियों ने तो कदम बढ़ाएं हैं पर अच्छा होता कि पुरूष उनके इतने ही हमसफर बनते। कुछ पुरूषों ने अपने पितृसत्तात्मक अनुकूलन को पहचान कर उनसे मुक्त होने की कोशिश की है, उनके ऐसे प्रयास और अधिक हों, ऐसी कामना है।
कल्पना पंत – प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। पिछली बार पूछा था तब आप इस उपन्यास को पूरा कर रही थीं, आजकल आप क्या लिख रही हैं?
अल्पना मिश्र – धन्यवाद कल्पना। जिस तरह पाठकों ने अन्हियारे तलछट में चमका’ का स्वागत किया है, उससे मेरा उत्साह बढ़ा है। अब मैं अधिक व्यवस्थित तौर पर एक नए उपन्यास पर काम कर रही हॅू। इसकी टेकनीक पहले से अलग होगी। जैसे इस पहले उपन्यास में, मैंने नई टेकनीक का प्रयोग किया, वैसे ही कुछ एकदम अलग। बिलकुल नई होगी। मीरा पर जो लिख रही थी, वह भी पूरा होने की तरफ है। एक ब्लॉग शुरू कर रही हूँ और फील्ड वर्क को भी अधिक बढ़ाना है।
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सम्पर्क-
अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो.- 09911378341
ई मेल- alpana.mishra@yahoo.co.in  
कल्पना पन्त
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
आन्ध्र प्रदेश

विजय मोहन सिंह से अमरेन्द्र कुमार शर्मा की एक ख़ास बातचीत

विजय मोहन सिंह
बहुमुखी प्रतिभा वाले विजय मोहन सिंह का अभी हाल ही में गुजरात में निधन हो गया। वे एक कहानीकार के साथ-साथ उपन्यासकार, बेहतर आलोचक, उम्दा सम्पादक और फिल्म संगीत के अच्छे जानकार थे। वे अपनी तरह के अनूठे आलोचक थे जिन्होंने बनी बनायी लीक से इतर अपनी अवधारणाएँ विकसित की और उसे दो-टूक व्यक्त करने में कभी नहीं हिचके। ‘गोदान’ हो, ‘राग-दरबारी’ हो या ‘हमजाद’ जैसी नामचीन कृतियाँ, विजय मोहन जी ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त कीं। कहानी में विजय मोहन जी उस ‘हिडेन फैक्ट’ के सशक्त पक्षधर थे, जिसमें कहानीकार को अपनी कहानी में पाठकों के लिए बहुत कुछ छोड़ना होता है। जिन दिनों विजय मोहन सिंह वर्धा विश्वविद्यालय में ‘राईटर्स इन रेजिडेंस’ नियुक्त हुए थे, डॉ. अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने उनसे एक ख़ास बातचीत की थी जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।        
     
विजय मोहन सिंह से अमरेन्द्र कुमार शर्मा की एक ख़ास बातचीत
आप वही ‘एक बँगला बने न्यारा’ वाले
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आपका जीवन और आपकी रचना-प्रकिया?
विजय मोहन सिंह –  मैं ठीक- ठीक कहाँ का रहने वाला हूँ, बताना मुश्किल है। मेरा जन्म कहीं और हुआ, परवरिश कहीं और हुई। पिता कहीं और के थे। पिता को नवासे पर नानी ने अपने यहाँ बुला लिया था। पिता दो भाई थे, वे बांसगांव तहसील के बेलघाट गाँव के थे। पिता जी रायबरेली जिले के शिवगढ़ स्टेट में मैनेजर के पद पर काम करते थे, मेरा जन्म वहीं हुआ था। मैं अपनी नानी के यहाँ तीन साल की उम्र में शाहाबाद, डुमरांव (बिहार) पहुँचा। वहीं से आठ साल की उम्र में बनारस पढ़ने के लिए गया था। मेरे साथ शुरू से ऐसा रहा है कि किसी एक जगह टिक कर मैं कभी नहीं रह सका। बनारस में राजघाट के पास थियोसोफिकल सोसाइटी का स्कूल था,  उसी में दाखिला हुआ। स्कूल के बाद बनारस में ही उदयप्रताप सिंह कालेज जो राजपूतों का था, में आगे की पढाई की। इसी कॉलेज में नामवर सिंह. केदारनाथ सिंह, शिवप्रसाद सिंह आदि साहित्यकारों ने पढाई की। इसी कॉलेज में विश्वनाथप्रताप सिंह, अर्जुन सिंह भी पढ़े हुए थे।  मेरी इंटरमीडिएट की पढाई इलाहबाद के इविंग क्रिश्चियन कॉलेज में हुई। बी.ए., एम.ए. और पी-एच.डी. की पढाई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हुई। यहीं अध्यापक के रूप में नामवर सिंह मिले। सहपाठी के रूप में विश्वनाथ त्रिपाठी, शिवप्रसाद सिंह मेरे साथ थे। साहित्यक माहौल से मेरा परिचय बनारस में ही हुआ।  
मेरे लेखन की शुरुआत बनारस में ही 1956 में हुई। मेरी पहली कविता और कहानी ज्ञानोदय’ पत्रिका जो उस समय कलकत्ता से निकलती थी में प्रकाशित हुई। एक पत्रिका थी युग प्रभात’ जो केरल के कोजीकोड से निकलती थी, इस पत्रिका में 1960 तक कई लेख और मेरी कहानियाँ छपी। 1960 में ही मेरी एम. ए. की पढाई पूरी हुई और उसी वर्ष 4 नवम्बर को मैं महाराजा कॉलेज, आरा में पढ़ाने के लिए चला गया। उसके बाद कल्पना’ जो हैदराबाद से निकलती थी और कहानी’ जो इलाहाबाद से निकलती थी, में कई कहानियाँ छपीं। बाद में दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका नई कहानी’ में भी कई कहानियाँ छपीं।    
1960 में ही मेरी पहली किताब छपी छायावादी कवियों की आलोचनात्मक दृष्टि’।  1970 में मेरा पहला कहानी संग्रह ‘टट्टूसवार’ छपा। सन 1965-66 के दौरान मेरे पटना के एक मित्र थे शंकर दयाल सिंह, उनका एक प्रकाशन था पारिजात प्रकाशन, उनके लिए मैंने एक किताब लिखी अज्ञेय : कथाकार और विचारक’।
 
‘कृति’ नाम से एक पत्रिका श्रीकांत वर्मा निकालते थे। उस दौरान उन्होंने नए कवियों के नाम पर एक सीरीज शुरू की। हर अंक में किसी एक नए कवि की चार-पांच कविताएँ और उस कवि का परिचय वे छापते थे। इसी सीरीज में प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, ज्ञानेंद्रपति, जितेन्द्र कुमार आदि छपे। मैं भी इसी सीरीज में छपा था। 1960 के बाद मैंने कविताएँ कम लिखीं हैं।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा –  साठ के दशक के कहानी आंदोलनों में आपकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है, उन भूमिकाओं और अपनी रचनाओं के बारे में विस्तार से बताएँ? 
  
विजयमोहन सिंह – 1960 का दशक कहानियों का एक ऐतिहासिक दौर था। कहानियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे जाने और छापे जाने का दौर भी विकसित होता जा रहा था। नई कहानी आंदोलन के वृहत्रयी मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव नए तेवर के साथ मौजूद थे। उन्हीं दिनों नामवर सिंह का कहानियों पर चर्चित कॉलम हाशिए पर’ बेहद पसंद किया जा रहा था।
 
1966 के आसपास लगा कि कहानी में महत्वपूर्ण बदलाव आने लगा है। भाववोध, शैली, भाषा, विषय, जिंदगी को देखने का नजरिया सभी स्तरों पर यह बदलाव परिलक्षित हो रहा था। लगभग पन्द्रह-बीस कहानीकार की एक जमात थी जो कहानी को नए तरह से लेकर आ रहे थे। इन कहानियों और कहानीकारों के तेवर को देखते हुए मुझे यह सूझ आई कि इन कहानीकारों को लेकर एक संग्रह तैयार किया जाए, मैंने इसकी तैयारी करनी शुरू कर दी। मेरे सहित कुल चौदह कहानीकार और सभी की दो- दो कहानियाँ यानि कुल अट्ठाईस कहानियों को संग्रह के लिए चुना, इसमें मैंने एक लम्बी भूमिका लिखी है। यह भूमिका मेरी किताब आज की कहानी’ में भी संकलित है। इनमें मैं, ज्ञानरंजन, रविन्द्र कालिया, महेंद्र भल्ला, प्रमोद कुमार, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, अक्षोभेश्वरी प्रताप, गुणेन्द्र सिंह कपानी, श्रीकांत वर्मा, रामनारायण शुक्ल (प्रयाग शुक्ल के बड़े भाई), मधुकर सिंह, गंगाप्रसाद विमल, विजय चौहान शामिल थे |  संग्रह का नाम दिया साठ के बाद की कहानियाँ’। सबसे बड़ी दिक्कत इसके प्रकाशन की और उससे ज्यादा दिक्कत इसके वितरण की आई। विष्णुचन्द शर्मा जो मेरे मित्र थे उन दिनों नागरी प्रचारणी सभा के प्रकाशन से जुड़े हुए थे, उन्होंने कहा कि मैं इसे छाप दूँगा। प्रकाशन का पैसा धीरे-धीरे दीजियेगा। किताब एक हजार रूपये में छप गई जिसका भुगतान मैंने धीरे-धीरे कर दिया। अब दिक्कत थी इसके वितरण की। उन दिनों नामवर सिंह राजकमल प्रकाशन के सलाहकार हुआ करते थे, सो उनके कहने पर वितरण के लिए मैंने यह संग्रह राजकमल प्रकाशन के पास भेज दिया, लेकिन बाद में राजकमल प्रकाशन ने इसे वापस भेज दिया। कायदे से इसका वितरण तो नहीं हो सका लेकिन साठोत्तरी कहानी’ नाम से एक आंदोलन चल निकला। इसकी समीक्षाएं दिनमान’, ‘धर्मयुग’ में आयीं। लेकिन इस संग्रह की चर्चा उतनी नहीं हो सकी जितनी होनी चाहिए और आज भी नहीं होती वह भी तब जबकि उसके नाम से कहानी में एक आंदोलन खड़ा हुआ, एक प्रवृति की पहचान हुई।
साठ के बाद की कहानियाँ’ संग्रह आने के बाद यह जरूर हुआ कि इन सभी कहानीकारों का एक रिश्ता बनता गया, दोस्ती होती गई, बैठकें होने लगी। 1970  में जब मेरा पहला कहानी संग्रह टट्टूसवार’ छप कर आया उसी समय अन्य कहानीकारों का भी पहला कहानी संग्रह छप कर आने लगा था।
1970 तक आते-आते जबकि मैं उस समय, हिंदी उपन्यासों में प्रेम की कल्पना’ विषय पर बच्चन सिंह के निर्देशन में पी-एच.डी. कर रहा था समीक्षाएँ लिखने लगा। उन दिनों नामवर सिंह आलोचना’ पत्रिका में थे, उन्होंने 1968-69 के दौरान मुझसे ढेर सारी समीक्षाएँ लिखवाईं। 1975 तक आते-आते मैंने कहानी कम और आलोचना ज्यादा लिखीं। आरा से त्यागपत्र दे कर मैं 1972 में दिल्ली आ गया था। मैं बीच- बीच में दिल्ली आया करता था। इसलिए दिल्ली के लिए मैं नया नहीं था।  दिल्ली  में आने के बाद मैं मनोहरश्याम जोशी के साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में कॉलम लिखने लगा था। ‘दिनमान’,नवभारत टाइम्स’ में भी लिखता रहता था। मैंने 1980-85 के दौरान फिल्मों पर खूब लिखा, अभी हाल तक जनसत्ता’,नवभारत टाइम्स’ में लिखता रहा हूँ।  
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आपके साथ ऐसा रहा है कि आप एक जगह पर बहुत दिनों तक टिक कर रह नहीं सके, अपनी रचनाधर्मिता और अपने जीवन  के लिए आप इसे किस तरह से याद करना चाहेंगे?
    
विजयमोहन सिंह – आरा से दिल्ली आने के कुछ ही दिनों बाद मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में नौकरी मिल गई। उस समय विजेन्द्र स्नातक अध्यक्ष थे, उन्होंने नियुक्ति की थी। इसी दौरान मेरे पी-एच. डी. के गाईड आदरणीय बच्चन सिंह हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यक्ष बनाये गए। हिंदी का विभाग नया था, इसलिए वहाँ उन्होंने मुझे बुलाया, मैं उनका आदेश टाल नहीं सकता था सो वहाँ पहुँचा। जब वहाँ साक्षात्कार के लिए पहुँचा तो देखा कि साक्षात्कार बोर्ड में विजेन्द्र स्नातक हैं, उन्होंने मुझे खूब डांट लगाई। मैं क्या करता? बहरहाल, मैं 1975 में दिल्ली विश्वविद्यालय से हिमाचल प्रदेश पहुँच गया। 1978 में बच्चन सिंह सेवानिवृत्त हुए। 1980 तक मैं शिमला में रहा। शिमला में रहते हुए मैं लिखने का काम सबसे कम कर सका। कोर्स पढ़ाने के कारण भी कम लिखना हुआ और वहाँ कई तरह की शारीरिक दिक्कत भी आने लगी थी। शिमला में रहते हुए गंभीर रूप से बीमार पड़ा। शिमला में रोजाना बहुत चढ़ाई करनी होती थी जिसका हृदय पर असर हुआ। दिल्ली में अपने घरेलू डॉक्टर से जाँच करवाई। डॉक्टर ने कहा कि आपको जिंदगी या शिमला में से एक को चुनना होगा। 1980 में शिमला से लम्बी छुट्टी लेकर दिल्ली आ गया। 1980 में ही मेरा दूसरा कहानी संग्रह ‘एक बांग्ला बने न्यारा’  राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। बहुत दिनों तक मेरी पहचान ‘एक बंगला बने न्यारा’ वाले लेखक के रूप में होती रही, उन दिनों जहां भी जाता लोग बोलते देखो यहीं है ‘एक बंगला बने न्यारा’ के लेखक। इसी के आस-पास कहानियों पर मेरी एक और किताब आई- ‘आज की कहानी’।  उसके बाद कथा- समय’ नाम से एक और किताब आई।
 
1992-93 में मेरा एक और कहानी संग्रह ‘शेरपुर पन्द्रह मील’ प्रकाशित हुई। इस संग्रह के साथ भी मेरी वही पहचान दुहराई गई जो मेरे दूसरे कहानी संग्रह के समय थी। दिल्ली में लोग कहने लगे थे,अच्छा-अच्छा आप वही हैं शेरपुर पन्द्रह मील वाले’। इसके बाद एक और कहानी संग्रह गमे-हस्ती कहूँ किससे’ आई। इसके बाद क्रमश कुछ आलोचना की किताब आई। मसलन ‘हिंदी उपन्यास’, भेद खोलेगी बात ही’।

विजय मोहन सिंह
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आप स्वयं की लिखी किस रचना को महत्त्वपूर्ण और अपने से नजदीक मानते है?
विजयमोहन सिंह – यह कहना तो मुश्किल है लेकिन शेरपुर पन्द्रह मील’ और  एक बंगला बने न्यारा’ को पसंद करता हूँ। वैसे अच्छी कहानी मेरे द्वारा अब तक नहीं लिखी गई।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आपका ‘भारत भवन’ भोपाल और फिर उसके बाद दिल्ली के ‘हिंदी आकदमी’ में आना कैसे संभव हुआ?
विजयमोहन सिंह –  भारत भवन तो मुझे अर्जुन सिंह ले आये थे। भारत भवन में मुझे साहित्यक गतिविधियों को संचालित करने वाली इकाई वागर्थ’ का संचालक बनाया गया था। वहाँ से ‘पूर्वग्रह’ और ‘साक्षात्कार’ पत्रिका निकलती थी। साक्षात्कार’ के संपादक थे सोमदत्त। ‘साक्षात्कार’ में मेरी आलोचनाएं छपती थीं और ‘पूर्वग्रह’ में मेरी कहानियों छपती थीं।  1990 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बदल गए। वहाँ सुन्दरलाल पटवा आ गए थे।  अशोक वाजपेयी का भी तबादला कर दिया गया था, इसलिए मैं भी भारत भवन छोड़ कर फिर से दिल्ली आ गया।
 
1990  में जब दुबारा दिल्ली आया तो रहने के लिए एक कमरे का जनता फ़्लैट शाहपुरजाट में लिया। एक पुराने मित्र ने यह फ़्लैट दिलवाया था। जब हम वहाँ शिफ्ट हुए तो ठीक से वहाँ बिजली भी नहीं आई थी। धीरे-धीरे शाहपुरजाट में मिलने वाले लोग आने लगे। यहाँ अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, भीष्म साहनी आदि आने लगे थे। खाने-पीने का दौर चलने लगा था। कल की चिंता हम नहीं करते थे। मेरे लिए इन लोगों ने ही चिंता की। इसी दौरान भारत के प्रधानमन्त्री चंद्रशेखर बने। इसी समय दिल्ली के लेफ्टीनेंट गवर्नर मार्कण्डेय सिंह बनाये गए।  मार्कण्डेय सिंह नामवर सिंह के साथ पढ़े थे। नामवर सिंह के कहने पर  ही मार्कण्डेय सिंह ने मुझे हिंदी अकादमी, दिल्ली का सचिव बनाया। इसी समय दिल्ली को राज्य का दर्जा मिला और वहाँ के मुख्यमत्री बी.जे.पी. के मदनलाल खुराना बनाये गए। एक तरह की दिक्कत हिंदी अकादमी में यहीं से शुरू हुई। इसी समय का एक वाकया मुझे याद है, एक दिन हिंदी अकादमी के मेरे दफ्तर में एक सज्जन मदनलाल खुराना की चिट्ठी लेकर आये जिसमें ‘कैलास मानसरोवर यात्रा : शिवजी से साक्षात्कार-वार्ता’ नाम की किताब की पांच सौ प्रतियाँ हिंदी अकादमी को खरीदने के लिए कहा गया था। मैंने मुख्यमंत्री को चिट्टी लिखी किताब नहीं खरीदी जा सकती है। इसे लेकर बहुत हंगामा हुआ। मुख्यमंत्री का कार्यालय धीरे-धीरे असहयोग करने लगा। उन्हीं दिनों मेरे द्वारा लेखकों को पुरस्कार देने की फाईल पास किये जाने के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय  भेजा गया। यह फाईल बहुत दिनों तक मुख्यमंत्री ने अपने टेबल पर रोके रखी। बाद में गवर्नर के हस्तक्षेप से यह फाईल पास होकर आई। इन दिक्कतों के बीच हिंदी अकादमी में काम करना मुश्किल होता जा रहा था सो मैंने 1995 में हिंदी अकादमी के सचिव पद से इस्तीफा दे दिया। फिर उसके बाद मैंने नौकरी कभी नहीं की। सोच लिया ‘अब न नसानी अब न नसौहों’।  7 अप्रैल 2013 को यहाँ (वर्धा) से फिर दिल्ली चला जाऊँगा।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – अपने जीवन की ऐसी कौन सी स्मृति है जिसे आप बार बार याद करते हैं या याद करना चाहते हैं?
विजयमोहन सिंह – ऐसी कोई स्मृति नहीं है। मेरा जीवन सादा और सपाट रहा है।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – बीसवीं शताब्दी का ऐसा कौन सा आंदोलन या ऐसी कौन सी घटना को आप याद करना चाहेगें, जिसने आपके लेखन और जीवन को प्रभावित किया?
विजयमोहन सिंह – जाहिर है दूसरा विश्व युद्ध जिसने पूरी मानव जाति को प्रभावित किया और आज के दौर में भूमंडलीकरण जिसने एक देश को दूसरे देश से जुड़ने में मदद की।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आप अपने  प्रिय लेखक और प्रिय पुस्तकों के बारे में बताएँ?  
विजयमोहन सिंह – विदेशी लेखकों के रूप में कहूँ तो कहानीकार के रूप में टालोस्तोय, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, चेखव और काफ्का प्रभावित करते रहे हैं। कवि के रूप में टी.एस. एलियट, रिल्के, नेरुदा और ब्रेख्त को पसंद करता हूँ।आलोचक के रूप में टी. एस. एलियट और चिंतक तथा दार्शनिक के रूप में निश्चित रूप से सार्त्र मुझे बेहद प्रभावित करते हैं।  भारतीय लेखकों में कथाकार के तौर पर पहले शरतचंद को फिर टैगोर को पसंद करता हूँ।
हिंदी लेखकों में कथाकार के रूप में प्रेमचन्द और अज्ञेय को जिनका मेरे लेखन पर प्रभाव रहा है पसंद करता हूँ, कवि के रूप में जयशंकर प्रसाद और आलोचक के रूप में रामचन्द्र शुक्ल को पढ़ता रहा हूँ।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – कवि के रूप में मुक्तिबोध को क्यों नहीं?
विजयमोहन सिंह – मुक्तिबोध को एक बुद्धिजीवी, चिंतक के रूप में पसंद करता हूँ। मेरी हिंदी में पसंदीदा किताब गोदान’, ‘शेखर : एक जीवनी’, वाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मैला आंचल’ है | भारतीय उपन्यासों में गृहदाह’ (शरतचंद), गोरा’ (टैगोर),छह बीघा जमीन’ (फकीर मोहन सेनापति) को पसंद करता हूँ। विदेशी उपन्यासों में अन्ना कारेनिना’ मुझे बेहद पसंद है।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आप अपने जीवन में प्रेरणा पुरुष (रोल मॉडल) किसे मानते हैं?
विजयमोहन सिंह – दरअसल इस कांसेप्ट के ही खिलाफ हूँ। मैं ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ या किसी अदृश्य शक्ति के भी खिलाफ हूँ।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आप अपने जीवन के पसंदीदा रंग के बारे में क्या कहेंगे? 
विजयमोहन सिंह – सफेद।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा –  आपका पसंदीदा फूल और पेड़ कौन सा है?
विजयमोहन सिंह – फूलों में खुशबूदार फूल सभी पसंद हैं। आम का पेड़ मुझे पसंद है।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – अपने पसंदीदा व्यंजन के बारे में क्या कहेंगे?
विजयमोहन सिंह – इडली को पसंद करता हूँ।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आपके जीवन का पसंदीदा उत्सव कौन सा है?
विजयमोहन सिंह – कोई नहीं, उत्सवहीन है मेरा जीवन।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – भारतीय संगीत में अपनी रुचियों के बारे में बताएं?
विजयमोहन सिंह – शास्त्रीय संगीत वाद्ययंत्र (इंस्ट्रूमेंटल) के रूप में निखिल बनर्जी के सितारवादन को पसंद करता हूँ। गायन में आमिर खां और कुमार गंधर्व को सुनना पसंद है। फिल्म संगीत में पुरुष गायक के तौर पर तलत महमूद, महिला गायिका के तौर पर लता मंगेश्कर और संगीतकार के तौर पर नौशाद, मदन मोहन को सुनना पसंद है।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – आपके जीवन में मित्रों का क्या महत्व रहा है। आप किन मित्रों को याद करना चाहेंगे?
विजयमोहन सिंह – मित्रों का मेरे जीवन में बड़ा महत्व रहा है। मित्रों में मैं केदारनाथ सिंह जो स्कूल के दिनों से आज तक हैं। काशीनाथ सिंह, रविन्द्र कालिया जैसे मित्रों को याद करता हूँ।
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अतिथि लेखक के तौर पर आप एक वर्ष रहे। आप अपने लेखकीय जीवन में इसे किस तरह से याद रखेंगे?
विजयमोहन सिंह – मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में वर्धा आया। वर्धा मेरे जीवन में अनेक दृष्टियों से अविस्मरणीय रहेगा। यह मैं मुहावरे में नहीं कह रहा हूँ बल्कि सीधे – सीधे कह रहा हूँ। यहाँ का माहौल, वातावरण यहाँ की टोपोग्राफी जो दिल्ली के विपरीत है काफी आकर्षित करती हैं।
 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा – वर्तमान समय में कहानी और नए कहानीकारों पर कई तरह की बहस हो रही है। ऐसे में कहानी और कहानीकारों की नई सम्भावनाओं  पर आप क्या कहना चाहेंगे?
विजयमोहन सिंह – कविता से अधिक कहानी का भविष्य देखता हूँ। कविता में सबसे कम संभावना है और कथा-साहित्य में अधिक संभावना है। कथाकारों में कोई एक नाम नहीं लेना चाहूँगा। इनमें कई संभावनाशील हैं। वर्तमान समय में कहानीकारों की एक जमात, एक जत्था है।  इसमें कौन सबसे आगे आएगा कहना मुश्किल है। आज जो आगे है वो पीछे हो सकता है जो आज तीसरे नंबर पर वह पहले पर हो सकता है। सैद्धान्तिक तौर पर किसी एक नाम लेना उचित नहीं है।  

अमरेन्द्र कुमार शर्मा

कवि, आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा का जन्म 1 जनवरी 1975 को हुआ

‘आपातकाल : हिंदी साहित्य और पत्रकारिताऔर आलोचना का स्वराज आलोचना की दो पुस्तकें प्रकाशित; काव्य-संग्रह प्रकाशनाधीन, दर्जनों पत्रिकाओं और अख़बारों में कविता और आलोचना लेख प्रकाशित। साहित्य के साथ कला माध्यमों और सामाजिक विज्ञान के रिश्ते पर लगातार चिंतन और लेखन /आजकल ज्ञान के विकास में नदी, यात्रा और स्वप्न के रिश्ते की पड़ताल।
सम्प्रति – महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय, वर्धा में अध्यापन।

सम्पर्क-
सहायक प्रोफेसर
क्षेत्रीय केंद्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
24/28 सरोजनी नायडू मार्ग, सिविल लाइंस, इलाहाबाद – 211001 (उ.प्र.)
फोन- 0532- 2424442

(पोस्ट में प्रयुक्त स्वर्गीय विजय मोहन सिंह के चित्र हमें सुधीर सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं.)

भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत

सुरेश सेन निशान्त

कविता के क्षेत्र में आज अनेक महत्वपूर्ण कवि सक्रिय हैं। सुरेश सेन निशांत ऐसे ही कवि हैं जो सुदूर हिमाचल के पर्वतीय अंचल में रहते हुए भी लगातार सृजनरत हैं। उनकी कविताएँ चोंचलेबाजी से दूर उस सामान्य जन की कविताएँ हैं जो लगातार हाशिये पर रहा है। निशान्त में उस हाशिये को जानने की एक ललक दिखाई पड़ती है। जो उनकी कविताओं में स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती है। ‘वे जो लकडहारे नहीं हैं’ नामक उनका कविता संग्रह काफी चर्चित रहा है। ऐसी ही जमीन के कवि सुरेश सेन निशान्त से एक बातचीत की है युवा कवि-आलोचक भरत प्रसाद ने। आइए रु-ब-रु होते हैं हम इस बातचीत से।   
भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत
भरत प्रसाद :- हिन्दी कविता की मौजूदा गति, प्रगति और संभावना को आप किस रूप में देखते हैं? हताशाजनक, उत्साहवर्धक या आश्चर्यपूर्ण उम्मीद से भरी हुई।
सुरेश सेन निशान्त :- जहां तक कविता की वर्तमान अवस्था की बात है मैं उससे पूरी तरह आशान्वित हूँ। यह ठीक है कि कविता को एक वर्ग द्वारा दुरूह यानि गद्यनुमा बनाने के प्रयत्न हो रहे हैं और उसे ही कविता मानने व मनवाने की कवायद भी चल रही है। कुछ आलोचकों द्वारा उसे प्रशंसित व पुरस्कृत भी किया जा रहा है, पर इसके बीच भी कुछ लोगों द्वारा अच्छी कविता लिखी जा रही है …. पढ़ी जा रही है और सुनी जा रही है …. ऐसे कवि अभी भी हैं जो अपने श्रम और रियाज से ऐसी कविता रच रहे हैं जिसमें वे कविता की आंतरिक लय का क्षरण नहीं होने दे रहे हैं …. इसे चाहें तो त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल जी की कविताओं में देख सकते हैं। उसके बाद अगली पीढ़ी के कवियों में विजेन्द्र, भगवत रावत और केदारनाथ सिंह में यह लय देखी जा सकती है। थोड़ा आगे चलने पर राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा हैं। कुछ और आगे बढ़ें तो एकान्त श्रीवास्तव, मदन कश्यप, कुमार अम्बुज, अरूण कमल हैं जो हमारे लिए आदरणीय और अनुकरणीय हैं, जिन्होंने कविता को अपनी शर्तों पर जिया और जन तक पहुंचाया है। इनकी कविताओं का पाठ लोगों को कविता की दुनिया में रूकने के लिए मजबूर करता है … मैंने अनेक बार इन कवियों की कविताओं का पाठ लोगों के बीच किया है, खासकर ग्रामीण जनों के बीच। उन लोगों ने इनकी कविताओं को समझा और सराहा है। अच्छी कविता के प्रति उनकी ललक देखते ही बनती है। मैंने अपनी कविता की किताब वे जो लकड़हारे नहीं हैं”  की लगभग 200 प्रतियां खुद जन के बीच जा कर बेची हैं …. अगर वे कविता के पाठक न होते तो वे मेरी किताब क्यों कर खरीदते? एक और बात हम कवियों को भी ये सोचना होगा कि हमें अपनी रचना को लोगों तक कैसे पहुंचाना है और इसके बारे में गम्भीरता से सोचना होगा ….. अगर पाठक कविता के पास नहीं पहुंच पा रहे हैं तो कविता को जन के पास पहुंचने की तरकीबें और रास्ते ढूंढने होंगे। ये रास्ते किसी दिल्ली, भोपाल या पटना जैसे बड़े शहरों से नहीं निकलेंगे बल्कि हमें अपने जनपद में ही ढूंढने होंगे।
                   मैं अपने जनपद में पहल, वसुधा, कथादेश, बया, कृतिओर, जनपथ, नया पथ, आकण्ठ, पक्षधर, समयान्तर, वर्तमान साहित्य जैसी अनेकी पत्रिकाओं का वितरण करता हूँ, जागरूक पाठकों के पास बार-बार जाता हूँ, उन्हें पढ़ने के लिए उकसाता हूँ। मैंने देखा है कि लोग अच्छी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, अच्छी पत्रिका खरीद कर पढ़ते हैं। शिमला में यही काम एस.आर. हरनोट जी कर रहे हैं। ये मैंने उन्हीं से सीखा है कि हमें अपने जनपद में पाठकों को ढूंढना होगा, पढ़ने-पढ़ाने का एक नया माहौल बनाना होगा, तभी हमारे लिखने का कुछ फायदा है।
 भरत प्रसाद :- अपनी रचना-यात्रा में वे कौन से मूल कारण रहे, जिसने आपको कविता के लिए उकसाया, प्रेरित किया या मजबूर किया। सृजन का निर्णय आपके स्वभाव के कारण है या योजना के तहत लिया गया फैसला?
 
सुरेश सेन निशान्त :- जब मैं आठवीं में पढ़ता था तब पहली कविता लिखी …. अपना एक दोस्त था शंकर उसे शर्माते हुए दिखाई …. उसने कहा यार इसे छपने के लिए भेजो और उसी ने जनप्रदीप” नामक दैनिक अखबार में छपने के लिए भेज दी और वह छप गई …. कक्षा के विद्यार्थियों ने वह कविता हिन्दी की प्राध्यापिका को दिखाई, भले ही वह कविता अच्छी नहीं रही हो पर उन्होंने मेरे कवि होने पर बहुत खुशी जताई। दसवीं के बाद डिप्लोमा करते हुए गजलें लिखने लगा …. गजलें इधर-उधर छपने भी लगीं। मुझे स्थानीय कवि सम्मेलनों में बुलाने भी लगे। मैं सोचता था बस इतनी भर ही है यह साहित्य की दुनिया …. उन्हीं दिनों 1990-1991 की बात है मुझे एक कवि सम्मेलन में किसी ने पहल”  पढ़ने के लिए दी। पहल”  को पढ़ना, उसके बीच से गुजरना एक अद्वितीय अनुभव था …. मैं आज की कविता की बनक और उसका असर देखकर हैरान रह गया। मैं पहल”  के माध्यम से ही केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन जी के पास पहुंचा। उन्हीं दिनों मुझे केदार नाथ अग्रवाल जी का कविता संग्रह फूल नहीं रंग बोलते हैं”  हाथ लगा ….. उसकी भूमिका पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। मेरी बहुत सी शंकाओं का समाधान उस किताब की भूमिका ने कर दिया। मैंने लगभग पचास बार उस भूमिका को पढ़ा होगा …. जैसे उस भूमिका ने मुझे निराशा के गहन अन्धेरे से निकाल कर नईं रोशनी में बिठा दिया हो। भूमिका कुछ इस प्रकार थी बहुत पहले जो मैं लिखना चाहता था वह नहीं लिख पाता था, कठिनाई होती थी। कविता नहीं बन पाती थी। कभी एक पंक्ति ही बन पाती थी। कभी अधूरी ही पड़ी रह जाती थी। तब मैं अपने में कवित्व की कमी समझता था। खीझ कर रह जाता था। औरों को धड़ल्ले से लिखते देख कर अपने उपर क्षुब्ध होता था। मौलिकता की कमी महसूसता था। तब मैं यह नहीं जानता था कि कविता भीतर बनी-बनाई नहीं रहती। मैं समझता था कि वह कवि के हृदय में-मस्तिष्क में सहज-संवरे रूप में पहले से रखी रहती है। प्रतिभावान कवि उसे भीतर से बाहर ले आता है। कितना गलत था मेरा विचार, कितनी गलत थी मेरी मौलिकता की धारणा। “ कई सालों तक उनकी भूमिका की ये पंक्तियां मैंने अपनी पढ़ने की मेज के शीशे के नीचे रखे रखी। इन पंक्तियों के पीछे छुपी सृजन की तपिश मुझे आज भी हौंसला देती रहती है।
पहल” में छपी  समीक्षाओं के माध्यम से मैंने जाना कि मुझे कौन सी किताबें पढ़नी चाहिए। मैंने राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, विजेन्द्र, आलोक धन्वा, कुमार अम्बुज और एकान्त श्रीवास्तव को पढ़ा। कविता की तमीज सीखने की कोशिश की ….. इन्हीं लोगों की कविताओं ने कविता की दहलीज पर जैसे मेरा स्वागत किया ….. मेरे अन्दर बैठे कवि को पोसा उसका हौंसला बढ़ाया। पहल”, कृति ओर”, आकण्ठ”,  साक्षात्कार”  (सोमदत्त जी के सम्पादन में निकलने वाली),  दस्तावेज”,  वसुधा, कथादेश”,  वागर्थ”  जैसी पत्रिकाओं ने मेरे कवि संस्कारों को ठीक ढंग से पोषित किया और एक माँ की तरह मार्गदर्शन भी किया …. जहां तक कविता में उतरने की बात है वह हर कवि के स्वभाव, उसके व्यक्तित्व की कैमिस्ट्री में घुला हुआ होता है। कवि चाहे छोटा हो या बड़ा …. अच्छा हो या बुरा मेरे ख्याल में किसी योजना के तहत वह इस रास्ते पर नहीं आता .. कविता के प्रति एक अन्जान आकर्षण उसे इस दुनिया में ले आता है। यह परिस्थितियों पर और उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह अपने आस-पास की दुनिया से किस तरह प्रभावित होता है वह कैसे लोगों से मिलकर अड्डेबाजी करता है, किन कवियों को पढ़ते हुए अपने संस्कार विकसित करता है … वह लम्बे रियाज के लिए अपने को तैयार करता है या कोई शॉर्टकट अपनाते हुए एक ही सांस में इंग्लिश चैनल पार कर जाना चाहता है। 
भरत प्रसाद :- अपने समकालीन कई महत्वपूर्ण बहुचर्चित और तथाकथित अनेक बड़े नाम हैं। जैसे केदारनाथ सिंह, विजेन्द्र, विष्णु खरे, भगवत रावत, उदय प्रकाश, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति इत्यादि। अपने प्रखर पाठक और जिम्मेदार कवि को कसौटी पर ही नहीं, अपने निरपेक्ष इन्सान की कसौटी पर इन वरिष्ठ कवियों के योगदान, महत्व और सच्चाई का मूल्यांकन कैसे करेंगे
 
सुरेश सेन निशान्त :- ये तीन-चार नहीं और भी कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने इस काव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है और अपनी तरह से एक नए व अनूठे ढंग से समृद्ध भी किया है। जहाँ तक विष्णु खरे जी की बात है, वे बड़े और अच्छे आलोचक हैं, पर वे कवि के रूप में मुझे उतना प्रभावित नहीं करते हैं। पर जहां तक केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र जी व भगवत रावत जी की बात है ये तीनों अलग-अलग तरह से मुझे प्रभावित करते हैं। भले ही केदार नाथ सिंह जी आकर्षित बिम्बों के साथ ग्राम्य जीवन का पॉजिटीव पक्ष ही दिखाते हों। भले ही उसमें कलाकारिता ज्यादा हो, पर इसके बावजूद वे जीवन के कवि हैं, उसकी जीत के कवि हैं। उनकी कविता में छुपी गेयता पाठकों को दूर और देर तक छूती है।
विजेन्द्र जी हमें त्रिलोचन जी की परम्परा के कवि लगते हैं, उनके व्यवहार की सादगी नए कवियों के प्रति उनका प्रेम उनकी रचनाशीलता पर उनकी पैनी नजर उन्हें नए कवियों के बीच लोकप्रिय बनाती है। विजेन्द्र जी जितने अच्छे कवि हैं उतने ही अच्छे और बड़े सम्पादक भी। कविता के सम्बन्धित उनके सुलझे सम्पादकीय लोक कविता के प्रति हमारी सोच को परिष्कृत करते हैं और लोक के नए सौंदर्य शास्त्र को हमारे सामने खोलते हैं। 
जहां तक भगत रावत जी की बात है …. वे मुझे बच्चों जैसी इनोसैंस से भरे हुए कवि लगते है …. अपने जीवन और समझ के बहुत पास, सरलता को साधते हुए …. जीवन को सजाने की उष्मा से भरे हुए …. हर नया कवि जो कविता में सरलता को साधना चाहता है, उसके लिए भगवत रावत जी को पढ़ना बहुत जरूरी है। भगवत जी हमारे समय के बहुत ही महत्वपूर्ण कवि हैं और हम नए कवियों के लिए तो बहुत जरूरी कवि भी।
उदय प्रकाश जी के मैंने लगभग सभी संग्रह पढ़े हैं। वे कवि के रूप में प्रभावित भी करते हैं। पर इधर उनकी जीवन शैली और फेसबुक पर झलकता उनका अहंकार (समयान्तर जनवरी में छपी कविता कृष्ण पल्लवी से उनकी बातचीत) तथा एक हिन्दुत्ववादी मंच पर पुरस्कार लेने के लिए उनका पहुंचना ….. हमारे मन में बनी उनकी गरिमामय छवि को तोड़ता है। जहां तक आलोक धन्वा जी की बात है उनकी कविताएं हमारे लिए जन गीतों की तरह हैं। जो अकेले में लोक गीतों की तरह गुनगुनाई जा सकती हैं। ज्ञानेन्द्र पति जी कविता में डूबी हुई शख्सियत हैं, उनके गद्य और पद्य में एक लय है, शिल्प की एक साधना है, किसानी मिट्टी की गंध है, उनसे हमें यह बात सीखनी होगी कि आज भी कविता के लिए अपने को कोई इतना डिवोट कर सकता है।
भरत प्रसाद :- हिमाचल प्रदेश आपका गृह-प्रदेश है। जिसने आपको बनाया, गढ़ा और विकसित किया है। अपने निर्माण में इस प्रदेश के योदान को आप किस तरह (सकारात्मक और नकारात्मक) देखते हैं?
सुरेश सेन निशांत :- हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी प्रदेश है। यहां जीना एक कठिन दुर्गम साधना की तरह है …. भले ही बाहर से आए पर्यटकों को यहां के पहाड़ और पेड़ थोड़ा-बहुत लुभाते होंगे। पर यह उन लोगों के लिए मुफीद जगह नहीं है जो शांति से जीना चाहते हैं। यहां वन हैं जिनका वन माफिया ने जी भर कर दोहन किया है ….. यहां पहाड़ हैं, जिन्हें यहां के नेताओं के स्टोन क्रशर व पूंजीपतियों की सीमेन्ट फैक्ट्रियाँ जी भर कर उनकी देह को खाए जा रही हैं, मगर उनकी भूख है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। हम हिमाचल को तीन भागों में बांट सकते हैं। अपर हिमाचल है जो ठण्डा है, जहां सेब है, टूरिस्ट हैं और सेब से होने वाली अच्छी आय है। यहां प्रदेश की बहुत ही कम जनसंख्या रहती है, जिसके कई कारण हैं जिनकी डिटेल्ज में मैं यहां नहीं जाना चाहता। यहां मध्य हिमाचल है ….. जहां कोई कैश क्रॉप नहीं, जहां जमीन बंजर है, पहाड़ तपे हुए रेगिस्तानों की तरह हो गए हैं ….. साल में एक फसल ही ढंग की होती है और रोजगार के नाम पर अधिकतर लोग यहां से बाहर जा कर मजदूरी, कुलीगिरी या सीमेंट फैक्ट्रिरियों में काम करते हैं। पानी के स्रोत आए दिन होने वाले विस्फोटों के कारण सूखते जा रहे हैं। यहां औरतों का जीवन बहुत ही कठिन है। वह घास और पानी के सफर के बीच ही बीत जाता है। लोअर हिमाचल है, यह पंजाब के निकट है … कह सकते हैं कि बाऊंड्री लाईन है पंजाब की …. बस थोड़ी सी खुशहाली दिखती है तो बस यहीं। हिमाचल की अपनी कोई भाषा नहीं। अपर हिमाचली में भोटी या तिब्बती का प्रभाव है, मध्य हिमाचल में डोगरी का, लोअर हिमाचल में पंजाबी का। यहां के साहित्य संस्कारों में इन सभी का थोड़ा-बहुत समावेश है …. ज्यादातर प्रभाव हिन्दी की पत्रिकाओं का है जिन्होंने यहां के साहित्य के संस्कारों को पोषित किया है।
                   मैं यहां मध्य हिमाचल में पैदा हुआ हूँ। यहां हिमाचल की अधिकतर जनसंख्या बसी है। यहां वनों का विनाश और पहाड़ों का क्षरण हर कहीं देखा जा सकता है। मैंने साहित्य का ककहरा यहीं विनाश के कारण क्षरण हुई इस मिट्टी में सीखा है। यहां केशव, श्रीनिवास श्रीकांत, सुन्दर लोहिया, एस.आर. हरनोट, मधुकर भारती ये सभी ऐसे शख्स हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और स्नेह से यहां के साहित्यिक वातावरण को पोसा है। यहां युवाओं में आत्मारंजन, मुरारी शर्मा, कृ.च. महादेविया, गणेश गनी जैसे सहृदयता से भरे मित्र हैं। आत्मारंजन जितना अच्छा कवि है उतना ही अच्छा इन्सान है। अपनी निराशा के क्षणों में मैंने उसे हमेशा एक सम्बल की तरह पाया है। अगर वह यहां नहीं होता तो शायद यहां का वातावरण कभी का मेरे अन्दर बैठे कवि को खत्म कर चुका होता। यहां जहां जीवन के साकारात्मक और अच्छे पक्ष हैं, वहीं नकारात्मक और निराशा भरे पक्ष भी हैं, जो गहन दुख की ओर धकेल देते हैं। सरकारी स्तर पर एक वर्ग विशेष की ओर से घोर उपेक्षा ही मिली है, इसका कोई कारण तो जरूर ही रहा होगा, शायद मेरा कम पढ़ा होना, मेरी पारिवारिक गवईं पृष्ठभूमि, शायद मेरी कविताओं में दुखों के दाग कुछ ज्यादा ही दिखते हों, अनुभवों की उतनी कलात्मक बारीकियां न हों। सरकारी पत्रिका के एक पूर्व सम्पादक महोदय ने तो अपने कार्यकाल में यहां की कविता में समाई प्रगतिशील विचारों की खुशबू को खत्म कर देने का एक अभियान सा चलाए रखा। जरा से लालच के कारण यहां के कुछ घोषित मठाधीश उन्हें सहयोग भी देते रहे, प्रगतिशील कविता के विरूद्ध उनका यह सहयोग बहुत पीड़ा देता रहा है। ये मठाधीश यहां भी उतना ही कुरूप चेहरा लिए हुए हैं …. हत्यारे यहां भी उतनी ही कुशलता से वार करते हैं …. ऐसे दोस्त यहां भी हैं जो मुस्कुराते हुए पीठ पर छुरा घोंपते हैं और पूछते हैं कि कहीं दर्द तो नहीं हो रहा दोस्त। 
                   मेरी कविता की किताब वे जो लकड़कारे नहीं हैं”  के विमोचन के अवसर पर मेरे सभी दोस्त आए थे सिवाय अजेय के। मैंने जब इस बाबत अजेय से पूछा तो उसने कहा कि अगर मैं इसमें शामिल होता हूँ तो वामपंथी इसका फायदा उठा लेंगे (मेरी किताब के इस विमोचन को हिमाचल प्रदेश की जनवादी इकाई ने आयोजित किया था और जहां चंचल चौहान जी मुख्य अतिथि थे)। मैं अजेय की बात सुनकर कुछ आहत हुआ, पर सोचते हुए कुछ संतोष भी हुआ था कि चलो जो वामपंथ विरोध अजेय की बातों में झलकता है, वह उसे जीवन में भी बहुत गम्भीरता से उतार रहा है। पर जब दिल्ली में उसकी किताब का विमोचन हुआ तो पता चला कि वहां मंगलेश डबराल जी के साथ चंचल चौहान भी मुख्य अतिथि थे तो मैं काफी हैरान हुआ। 
 
भरत प्रसाद :- समकालीन रचनाशीलता को मायावी बाजारवाद ने कितने भीतर तक दुष्प्रभावित किया है – यह किसी से छिपा रहस्य नहीं है। मौलिक रचना की संभावना मानो समाप्त प्रायः हो चली है। इस बाजारवाद के दुष्प्रभाव और उससे न सिर्फ बचने, बल्कि उसके सामने साहसपूर्वक खड़े हो कर साहित्य का गौरव लौटाने का कोई रास्ता है आपकी नजर में।
सुरेश सेन निशांत :- बाजारवाद का असर ग्लोबल हैं इसे दिल्ली, कलकत्ता और बम्बई में ही नहीं हमारे कस्बे में भी देखा जा सकता है, कस्बे क्या हमारे छोटे से गांव में भी देखा जा सकता है। जिस तेजी और कुशलता के साथ दबे पांव यह हमारे साहित्य में घुस रहा है, इससे बचने के उपाय भी हमें ही खोजने होंगे। इसकी धूल बहुत ही खतरनाक है ये जहां जिस चीज पर गिरती है उसे लोहे पर लगी जंग की तरह खा जाती है।
                   इतना भर तो हम सभी जानते हैं कि बाजारवाद के संस्कार कला को कमोडिटी में बदल देते हैं। इस संस्कार से भरे हुए लोग जब कविता में उतरते हैं तो वे कविता से भी वह सब कुछ चाहते हैं, जो कविता के पास है ही नहीं ….. वे कविता की दुनिया में भी हिमेश रेशमियां की तरह दो-चार अधकचरे गीतों के बाद मशहूर हो जाना चाहते हैं। वे कविता लिखते ही इसलिए हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ ऐसा हासिल हो जो उन्हें एक सैलिब्रिटी में बदल दे। उनकी महफिलों में दुखों के विरूद्ध संघर्ष नहीं ….. कविता नहीं, महज कविता का शोर होता है …… उस शोर में कविता से मिलने वाले यश की बातें होती हैं। अपने उपर लिखी हुई प्रशंसा से भरी हुई आलोचना की बातें होती हैं, पुरस्कार होते हैं, यात्राएं होती हैं, सम्मेलन होते हैं, बस एक चीज नहीं होती वह है जन तक पहुंचने की सोच और लगन, पर इसके बीच भी कुछ हैं जो गांव और कस्बों में काम कर रहे हैं। हमारे यहां कृष्ण चन्द्र महादेविया है, वह जहां भी जाता है …. वह अपने ही दम पर दूर-दराज के गांवों में लोक नाटकों के मंचन और कवि सम्मेलनों का आयोजन शुरू कर देता है …. साहित्य के प्रति गांव के लोगों को जोड़ना उस जैसा समर्पित कार्यकर्ता भाव ही हमें इस बाजारवादी मानसिकता के समक्ष खड़ा कर सकता है। 
                   मैंने कृ.च. महादेविया की संगत में जाना है कि लोगों में अभी भी अच्छी कविताओं के प्रति बहुत ललक है। वे अभी-भी अरूण कमल की अपनी केवल धार”  कविता बार-बार सुनना चाहते हैं। वे अभी भी आलोक धन्वा की गोली दागो पोस्टर”  और मदन कश्यप की छोटे-छोटे ईश्वर” जैसी कविताएं सुनकर जोश से भर जाते हैं …. उन्हें अभी भी राजेश जोशी, एकान्त श्रीवास्तव की कविताएं बहुत ही आत्मीय लगती हैं ….. बस जरूरत है उनके पास पहुंचने के लिए बाजारवादी अवरोधों को लांघने की।
भरत प्रसाद :- मौजूदा युवा पीढ़ी में कई दर्जन युवा कवि अतिशय सक्रिय हैं। प्रकाशित होने, छपने और चर्चा कमाने के रूप में भी। बावजूद इसके पाठकों की रूचि, पसंद और सजग विवेक की कसौटी पर कुछ ही युवा कवि खरे उतरेंगे। ऐसे वे कौन हैं जो न सिर्फ आपको बांधते, छूते और लम्बे समय तक सोचने को विवश करते हैं। क्या इन्हें भविष्य की ऊँची, स्थायी और श्रेष्ठ उम्मीद के रूप में देखा जा सकता है?  
सुरेश सेन निशान्त :- मायकोवस्की ने ज्यादा कवि होने की हिमायत की है। ये कवि ही कविता के प्रति माहौल बनाते हैं ….. सभी अपने-अपने ढंग से सक्रिय भी रहते हैं। जिसमें सच्चे कलाकर की तरह रियाज करने की क्षमता होगी वह लम्बे समय तक टीका रहेगा …. वरना बहुत से लोग तेजी से दौड़ कर थक हाफ कर किनारे बैठ जाते हैं। हर दौर में ऐसा ही होता रहा है, इतनी ही भीड़ रही है और रहेगी भी। वही टिकेगा जो समय की छननी से छनकर आगे आएगा, वही बचेगा भी।
                   बहुत पहले मुझे एक पंजाबी लेखिका दिलीप कौर टिबाणा का साक्षात्कार पढ़ने को मिला। उसमें उन्होंने बहुत सुन्दर बात कही है कि किसी भी लेखक के मरने के सौ साल बाद उसकी किताब बात करती है …. तब न तो लेखक की चर्चित होने के लिए उसकी तिकड़में होती हैं, न दोस्तों की सिफारिशें, न टांग घसीटने वाले दुश्मनों के षड़यन्त्र, बस होती है तो उसकी किताब, उसका सृजन।
                   जहां तक पसंद-नापसंद की बात है, हरेक की अपनी कैमिस्ट्री है जो उसकी पसंद को निर्धारित करती है। मुझे आत्मारंजन की कंकड़ बिनती औरतें”,नहाते बच्चे”, आपकी रैड लाईट एरिया”, केशव तिवारी की काहे का मैं”, अनिल कारमेले की लोहे की धमक”,  हरिओम राजौरिया की भाभी”, कमलेश्वर साहु की फलों का स्वाद”  जैसी कविताएं बहुत पसंद हैं जिनमें शब्दों की कलाकारिता भर नहीं है अपितु जीवन का ताप है। यह ताप इन कविताओं को बार-बार पढ़ने पर मजबूर करता है और इन्हें देर तक लोगों के मनों में जिन्दा भी रखेगा। युवाओं में और भी मेरे मनपसंद कवि हैं जिनकी कविताएं मैं ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता हूँ। जैसे नीलकमल, संतोष चतुर्वेदी, प्रदीप जिलवाने, अरूण शीतांस, शंकरानन्द, संतोष तिवारी, उमाशंकर चौधरी, संजीव बक्शी, विजय सिंह, राज्यवर्धन, बसन्त शकरगाये, अरूणाभ सौरभ, शिरोमणि महतो, निशान्त, बृजराज कुमार सिंह, देवान्शु पाल, निर्मला तोदी, रंजना जायसवाल इन सभी नए कवियों के सृजन में जीवन के पास पहुंचने की, उसे सजाने की एक सच्ची ललक मिलती है …. जो कविता के प्रति एक नईं उम्मीद बंधाती है। कभी निर्मला पुतुल और शिरीष मौर्य की कविताएं भी ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता था, उनकी शुरूआती कविताओं ने काफी प्रभावित किया था। खासकर शिरीष की हल”  और हाट”  कविताएं भूलती ही नहीं।

भरत प्रसाद :- प्रत्येक कवि अपनी कमियों का सटीक पारखी होता है और होना भी चाहिए। निःसंदेह आप स्वयं अपनी कमजोरियाँ बखूबी समझते और उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते होंगे। आपकी वे कमजोरियाँ क्या हैं?
सुरेश सेन निशान्त :- मैं दसवीं तक पढ़ा हूँ ….. अध्ययन की कमी तो है ही। यह कमी शायद मेरे सृजन में भी झलकती है और आत्मविश्वास में भी। मैं नामचीन लोगों से मिलते हुए सकुचाता हूँ, फोन पर भी बात नहीं कर पाता, फेसबुक और ब्लॉग पर लोगों की आत्मश्लाघा और दम्भ देख उससे दूर चला आया। अपने बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं है ….. न ही कोई ऐसी परफेक्ट होने की ग्रन्थि मैंने पाल रखी है। इधर एक सम्पादक महोदय का फोन आया था कि मेरी कविताओं में मात्राओं की गलतियां बहुत होती हैं …. एक दोस्त ने सुझाया कि न ज्यादा लिखूं न ज्यादा छपूं और छपूं भी तो बड़ी पत्रिकाओं में। पर विजेन्द्र जी से जब मैंने इस बाबत डिस्कशन की तो उन्होंने कहा कि अब नहीं लिखोगे-छपोगे तो कब लिखोगे-छपोगे? उन पत्रिकाओं को चुनो और उनमें छपो जिनमें छपी रचनाएं तुम्हें संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। कोई भी पत्रिका छोटी या बड़ी नहीं होती हाँ अच्छी और बुरी जरूर होती है ….. हाँ एक कवि के लिए कुछ अर्से बाद अपने ही फॉरमेट को तोड़ना जरूरी होता है, नहीं तो वह दोहराव का शिकार हो जाता है ….. फॉरमेट तोड़ने के लिए अध्ययन और रियाज के साथ-साथ जन संघर्षों और आंदोलनों पर पैनी नजर रखते हुए उनसे गहरा जुड़ाव बहुत जरूरी है। मेरी कई कविताओं में अनावश्यक विस्तार मिलेगा, उन्हें ऐडिट करना जरूरी था ….. अपनी कमजोरियों पर विजय पाने के लिए मैं खूब संघर्ष कर रहा हूँ, देखें कितना और कहां तक सफल हो पाता हूँ? मैंने कहीं पढ़ा था कि बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई पर उन्नीस-उन्नीस घण्टे रियाज करते थे। काश उस तरह का डिवोशन मुझे में भी आ पाता। 

भरत प्रसाद :- सृजन की श्रेष्ठता का भ्रम फैलाने में पुरस्कारों ने और कुछ इलीट क्लास टाईप”  पत्रिकाओं ने निर्णायक भूमिका अदा की है। अपने शब्दों में कहूँ तो आज बंडल है पुरस्कारों का निर्णायक मंडल। जेनुइन का पुरस्कृत होना एक आश्चर्य बनता जा रहा है। पुरस्कारों के इस तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र-साम्राज्य पर आप क्या सोचते हैं
सुरेश सेन निशान्त :- समाज में जब चारों ओर मूल्यों का क्षरण दिख रहा हो तो साहित्य भी कहां बचेगा? साहित्य में भी तो आदमी उसी समाज से आएगा। अपनी-अपनी मानसिकता और अपने ऐजेण्डे को लेकर। सवाल यह है कि मूल्यों के क्षरण उससे मिलने वाली सुविधाओं की जो चमक है वह उस चमक से अपने आपको किस तरह बचाता है? एलीट वर्ग बहुत ही चालाक है, उसका ऐजेण्डा हिडन होता है। वह क्रान्ति की बात करते हुए क्रान्ति को तोड़ने का प्रयास करता है। वह त्याग की बात करते हुए आपसे आपकी कीमत पूछता है और कहता है कि वह आपकी कीमत नहीं लगा रहा है, न आपको खरीद रहा है, अपितु वह आपको अपनी तरफ से पुरस्कार दे रहा है। भाई कुछ पुरस्कार जैन्युन भी हैं। देने वाले की मन्शा ठीक भी है। पर अधिकतर आपका मोल लगाते हैं, आपको खरीदते हैं …. गुलाम बनाकर रखने के लिए आपको साधते हैं।
भरत प्रसाद :- समय के सच के आगे रचना की ताकत हमेशा कमजोर पड़ती है। आज की तारीख में तो और भी ज्यादा आपके पास ऐसी कोई युक्ति, विचार या उपाय हैं जो रचना की ताकत को समय के यथार्थ से इक्कीस साबित कर सकें
सुरेश सेन निशान्त :- कभी-कभी समय के सच के आगे रचना की ताकत ज्यादा जान पड़ती है। यह तब घटित होता है जब लेखक के भीतर और बाहर का संघर्ष एक हो जाता है। रचना में जीवन और जीवन में रचना को डूबा देता है तभी जाकर गोदान, अंधेरे में, उसने कहा था, राम की शक्ति पूजा, परती परिकथा जैसी रचनाएं हमारे पास होती हैं। प्रफुल्ल कोलाख्यान ने अपने आलेख में कहीं कहा है कि तिहासिक क्रिया में समय लगता है, यह चटपट नहीं होता। यह सत्य है कि चटपटिया समय में एतिहासिक प्रक्रिया को सम्पन्न होते देखने का धैर्य नहीं होता। जिस लेखक या कवि के पास असीम धैर्य होगा वही कालजयी रचना रच सकेगा।
भरत प्रसाद :- कबीर, निराला, प्रेमचन्द, टैगोर, शरत, नागार्जुन यहाँ तक कि रेणु बाबू नजीर बन गए हैं। प्रेमचन्द के बाद, नये प्रेमचन्द को कौन कहे किसी आधे-अधूरे प्रेमचन्द या शेष रामविलास शर्मा की संभावना नहीं दिखाई देती। इस दुर्दशा के कारणों की पड़ताल। 
सुरेश सेन निशान्त :- इस चीज की पड़ताल हमें अपने समय के भीतर ही करनी होगी। जितनी फैसिलिटी … जितना आराम … जितनी सुविधाएं हमारे समय में हैं उसके पासंग भर सुविधाएं भी निराला और मुक्तिबोध के हिस्से में नहीं आई। हमें इस प्रश्न के उत्तर का सिरा यहीं से ढूंढना होगा ….. एक कवि हुए हैं मिक्लोश रादोनित जिनकी मृत्यु नाजियों के यातना शिविर में युवा अवस्था में ही हो गई थी। यातना शिविर में उनकी व उनके साथियों की हत्या कर दी गई थी। बाद में जब एक सामुहिक कब्र को खोला गया तो उनकी पत्नी ने उनके शव की पहचान की। उनकी जेब से कीचड़ से सनी एक छोटी सी डायरी मिली जिनमें उनके अंतिम दिनों की कविताएं थी। ये कविताएं कविता के प्रति उनके गहरे विश्वास को दर्शाती हैं। उन दारूण परिस्थितियों के विरूद्ध लड़ाई का एक जज्बा, कविता पर उनका अथक विश्वास बताता है …. जो उनमें मृत्यु की भयंकर पीड़ा के समक्ष भी एक उम्मीद की लौ उनमें जला रहा था। कबीर, निराला, प्रेमचन्द ये सभी इस जीवन में दमन चक्र के विरूद्ध तन कर खड़ा होने वाले रचनाकार हैं। ये बड़े रचनाकार महज इसलिए बड़े रचनाकार नहीं हैं कि उन्होंने उस दुख को भोगा है। ये बड़े इसलिए हैं कि उन्होंने उन दुखों पर लड़ते हुए विजय पाई और आने वाली पीढ़ी को लड़ने का नया रास्ता सुझाया। इनके जीवन में इनकी रचनाओं ने हमें और ज्यादा मानवीय बनाया है। झूठी सुविधाओं, झूठे यश, झूठी प्रशंसा के पीछे भागने वालों की भीड़ से कभी कबीर, निराला या नागार्जुन नहीं निकलेंगे, न निकल सकते हैं।
भरत प्रसाद :- नामवर सिंह श्रेष्ठ आलोचक सिद्ध हुए। मगर अब वे अपर्याप्त हो चले हैं – नयी सदी की पीढ़ी के लिए। वैसे भी युवा रचनाशीलता से न्याय करने के बजाय उन्होंने जिस-तिस की निर्ब्याज-भावेण प्रशंसा करके हकीकतों को उलझाया ही है। उनकी भूमिका को आप किस रूप में साहसपूर्वक देख पाते हैं। 
सुरेश सेन निशान्त :- भरत भाई मैं आपको इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहना चाहता, बस पाश”  की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहता हूँ –
                   बेईज्जती वक्त की हमारे ही वक्तों में होनी थी
                   हिटलर की बेटी ने जिन्दगी के खेतों की माँ बन कर
                   खुद हिटलर का डरना
                   हमारे ही माथों में गाड़ना था।
                   यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
                   कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
                   बन जाता था सिंहासन के पायदान।
                   मार्क्स का शेर जैसा सिर
                   दिल्ली की भूल-भुलैया में मिमियाता फिरता
                   हमीं ने देखना था
                   मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे ही वक्तों में होना था।
                   मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे ही वक्तों में होना था।
भरत प्रसाद- अपनी रचनाशीलता के लिये आपने क्या मानक बनाया है? क्या साहित्य को चिरस्थाई सृजन देने का संकल्प है या फिर निरन्तर सक्रिय ही रहना चाहते हैं। दीर्घजीवी रचना देने हेतु कितने प्रकार की तैयारियां होनी चाहिये। ये तैयरियां क्या लगती है कि आप कर ले जायेंगे। यदि आप को आपका ही साहसिक आलोचक बना दिया जाये तो अपनी दो टूक, तटस्थ और निर्मम आलोचना किस तरह करेंगे?
सुरेश सेन निशान्त.:- मैंने जितना भर भी सीखा है…..अपनी परंपरा से सीखा है और लगातार सीखने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने पहले भी कहा है कि मेरा एैकेडमिक अध्ययन बहुत ही कम है जो भी सीखा है वह दोस्तों की संगत में सीखा है अपने और उनके अनुभवों से सीखा है। मेरी माँ एक कहावत अक्सर सुनाया करती थी…. कि पत्थरा तू किहां गोल हुआ? अर्थात ओ पत्थर तू किस तरह इतना सुन्दर गोल हुआ?  तो पत्थर कहता है बजी…बजी.. यानी टकरा टकरा कर….ठोकरें खा खा कर। पहाड़ों में नदियों के पत्थर आप को गोल मिलेंगे…उनकी गोलाई तराशी हुई बहुत ही कलात्मकता से भरी हुई होती है।उस गोलाई में उस तराशपन में उनका टकरा-टकरा कर गोल होने का अनुभव है….मैं अपने को उस तरह से नदियों का पत्थर ही मानता हूं…नदियों के पत्थर की तरह जो भी सीखा है टकरा टकरा कर ठोकरे खा कर। यहां कस्बे में साहित्य का कोई माहौल नहीं रहा कभी जो भी सीखा है दूर दराज के दोस्तों की संगत व पत्रिकाओं से।
जहां तक चिरस्थाई रचने की बात है… …औरों से अलग दिखने की बात है….एैसी मन्शा रही नहीं मेरी कभी…मुझे लगता है यह एक ग्रन्थी है…यह एक एलीट किस्म का संस्कार है। मैं साधारण के बीच साधारण सी बात कहना चाहता हूं। सरलता को जीते हुये सरल से ढंग से। हां जो मुझे करना है…उसके बारे में सोचना होगा कि किस ढंग से करना है…इसके लिये कौन से रास्ते अपनाने होंगे…किन कवियों की संगत करते हुये मुझे अपना विकास करना होगा…यह एक लम्बा सिलसिला है  लिखने के रास्ते कठिन तो हैं ये उस वक्त और भी कठिन हो जाते हैं जब आपको अपने आसपास का माहौल नैगेटिव मिलता है।
जहां तक दीर्घजीवी रचना की बात है……इसके लिये रियाज के साथ साथ वह जीने के तरीके पर भी निर्भर करती है…हम नकारात्मक शक्तियों के साथ किस तरह संघर्ष करते हुये आगे बढ़ते हैं। आपने ही कहीं कहा है जो मुझे भूलता ही नहीं……हताशा, निराशा, नाउम्मीदी की धुन्ध छंटे ना छंटे आज के कवियों को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी उसने अमरता का स्वाद चख लिया है, अपनी जय जयकारा का अमृत कानों से पी लिया है फिर किस बात की चिन्ता? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है और गजब कवि बेफिक्र की खुमारी में झुमते हुये गाते चले जा रहा है….बड़ी रचना के लिये मित्र आपके ही आलेख की पक्तियां दुहराना चाहता हूं…..बड़ी रचना चाहत, महत्वाकांक्षा या अभ्यास से नहीं बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से संभव होती है। देखते हैं उसके लिये कितनी भर तैयारी कर पाते हैं हम सब?
  
भरत प्रसाद- क्या मौजूदा हिन्दी कविता समकालीन विश्व कविता का महत्वपूर्ण अध्याय नजर आती हैं? विश्व साहित्य के वे कवि जो आप के गुरू, शिक्षक या मशाल की भूमिका निभायें हो? समकालीन कविता का ऐसा कोई स्तम्भ जिसे समकालीन विश्व कविता के समक्ष दृड़तापूर्वक रखा जा सके?
सुरेश सेन निशान्त – विश्व कविता भी विभिन्न देशों से उपजी कविता का ही समुच्य है। हमारे यहां भी कविता का माहौल विभिन्न प्रदेशों की अनेक क्षेत्रीय भाषाओं मे रची जा रही कविता से ही बनता है पंजाबी, मैथिली, बांग्ला, मराठी तेलगु आदि भाषाओं से। यहां हर भाषा में महान कवि हुये हैं और वर्तमान में भी बहुत से अच्छे कवि कार्य कर रहे हैं।हिन्दी की जड़ें इन सभी प्रदेशों में बहुत गहरे तक धंसी हैं…और हर जगह से खाद पानी ले कर अपना महान विकास कर रही है। मैं जितना प्रभावित नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा से हूं …. जितनी ताकत मुझे महमूद दरवेश की कवितायें देती है उतनी ही ताकत मुझे पाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप और एकान्त श्रीवास्तव की कवितायें भी देती हैं …. इसमें मै निराला, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी का भी नाम जोड़ देना चाहता हूं …कबीर और तुलसी तो हमारे मानक हैं ही।
(जनपथ से साभार)
भरत प्रसाद
सम्पर्क
भरत प्रसाद-
सुरेश सेन निशान्त-  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

युवा कवि केशव तिवारी से महेश चन्द्र पुनेठा की बातचीत

लोक और जनपदीय कविता के प्रमुख हस्ताक्षर केशव तिवारी से अभी हाल ही के दिनों में एक बातचीत की युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने। इस बातचीत के प्रसंग में कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आयीं हैं। इन्हें जानने के लिए आइये पढ़ते हैं यह बातचीत।

युवा कवि केशव तिवारी मेरे उन गिने-चुने मित्रों में से हैं जिनसे लगभग हर रोज ही दूरभाष से बात हो जाती है। यह सिलसिला लगभग पिछले छः-सात सालों से जारी है। अब तो यह स्थिति है कि जिस दिन उनका फोन नहीं आता है, मन आशंकाग्रस्त होने लगता है। इस दौरान मुझे उनकी कविता की रचना-प्रक्रिया को जानने-समझने का मौका तो मिला ही साथ ही उनके कवि और कवि मन को बारीकी से पढ़ने का अवसर भी मिला। मैंने उनको दूसरों की छोटी-छोटी खुशियों में खुश होते हुए और दुःखों में गहरे अवसाद में जाते हुए तथा एक अच्छी कविता पढ़ने पर भावविभोर और खराब कविता पर खिन्न होते हुए देखा है। यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि वे कविता लिखते ही नहीं जीते भी हैं। मुझे उनका जीवन के हर पक्ष और अपने से जुड़े लोगों के बारे में स्पष्ट और बेवाक राय रखना बहुत पसंद है।

केशव तिवारी युवा कवियों में मेरे सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। उनके यहाँ मुझे वह सब कुछ मिलता है जो मेरे दृष्टि से एक अच्छी कविता के लिए जरूरी है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कविता की तमाम शर्तों को पूरा करते हुए भी कैसे कविता सहज संप्रेषणीय हो सकती है। कैसे नारा हुए बिना कविता विचार की वाहक बन सकती है । कैसे स्थानीय हो कर भी कविता वैश्विक अपील करती है। लोकधर्मी होते हुए भी कविता को कैसे भावुकता से बचाया जा सकता है और कैसे अपने जन-जनपद और प्रकृति से जुड़े रहकर पूरे धरती से प्यार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तमाम भय और प्रलोभनों के बीच खुद को एक प्रतिबद्ध कवि के रूप में कैसे खड़ा रखा जा सकता है। यह कहते हुए मुझे कोई झिझक नहीं है कि कविता के नाम पर अबूझ कविता लिखने वाले हमारे समय के ’कठिन कविता के प्रेतों’ और लोक के नाम पर कोरी-लिजलिजी भावुकता की कविता लिखने वालों को उनसे सीखना चाहिए। केशव तिवारी में मुझे त्रिलोचन जैसी सरलता केदार बाबू  जैसी कलात्मकता और नागार्जुन जैसी प्रखरता दिखाई देती है। उनकी कविता का सहज,भावपूर्ण एवं विविध आयामी स्वरूप मध्यवर्गीय रचना भूमि का अतिक्रमण करता है। वे अपनी देशज जमीन पर खड़े मनुष्यता की खोज में संलग्न रहते हैं। उनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण ही  नहीं करती बल्कि उसको बदलने के लिए रास्ता भी सुझाती हैं। लोकधर्मी कविता  की अपील कितनी व्यापक होती है  इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

  हाशिए में पड़े लोगों के दुःख-दर्दों के प्रति केशव तिवारी के भीतर जो बेचैनी और तड़फ दिखाई देती है वह आज विरल है। बद-से-बदतर हालातों में भी काठ-पाथर न होना ही उनकी ताकत है। एक इंसान के रूप में उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि जिसके साथ खड़े हुए फिर उसके लिए जमाने से लड़े इसी के चलते वे बहुत सारे लोगों के आँखों में खटकते और सीने में गड़ते रहे हैं। पर उनको इसकी परवाह नहीं। वे ’दिल्ली’ के दर्प को कभी नहीं कबूलते है। वे प्रेम करना जानते हैं तो घृणा करना भी। वे उन तमाम ताकतों से घृणा करते हैं जो मानवता के खिलाफ हैं। वे इस धरती पर सिर्फ प्रेम करने के लिए आए हैं। उनकी प्रेम की उदात्तता ही कही जाएगी कि प्रेम करने के लिए आने के बावजूद भी घृणा करने को मजबूर हैं उन लोगों से जो प्रेम के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं। ऐसा वही कर सकता है जो मानवता से सच्चा प्रेम करता हो। केशव की कविताओं में आम आदमी का दुःख रह-रहकर फूट पड़ता हैं। वे आम आदमी से इतने एकात्म हैं कि उनकी फटी हथेलियों और सख्त चेहरों से झरते हुए नमक तक को भी देख लेते हैं। खुरदुरी हथेलियों में उन्हें जीवन का सच्चा सौंदर्य दिखाई देता है। वे खुरदुरी हथेलियों वालों को भी उसके सौंदर्य का अहसास कराते हैं।

   उनके लिए ’नामालूम और छोटे’ की अहमियत किसी ज्ञात और बड़े से कम नहीं। इनके हिस्से में किसी तरह की कोई कटौती उन्हें स्वीकार नहीं है। ’अपने कोने के एक हिस्से में बहुत उजला और बाकी के हिस्सों में बहुत धुँधला’ उन्हें मान्य नहीं। ’कुछ हो ना हो’ सभी के लिए ’एक घर तो होना ही चाहिए’। उन्हें एक अफगानी, एक कश्मीरी,एक पहाड़ी या राजस्थानी का दुःख भी उतना ही सालता है जितना किसी बाँदावासी का। वह इस धरती की सुंदरता अपने समय को ललकारते लोगों में देखते हैं। उनका अपनी जमीन से ’आशिक और मासूक का रिश्ता’ है। इसी के चलते तो उनके लिए ’आसान नहीं विदा कहना’।  इससे पता चलता है कि वे अपनी जमीन से कितना प्रेम करते हैं। लोगों की खुशी में ही कवि की खुशी और उनकी बेचैनी में कवि की बेचैनी है।

  यह कवि ’दलिद्र ’ को भी जानता है और दलिद्र के कारणों को भी। और यह भी जानता है कि जिस दिन श्रम करने वाले लोग भी उन कारणों को जान जाएंगे उस दिन उलके ’जीने की सूरत भी बदल जाएगी’। वे भली-भाँति जानते हैं कि ’ दुःखों की नदी स्मृतियों की नाव के सहारे पार ’ नहीं की जा सकती है। एक कवि का यह जानना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि का द्योतक है। यही है जो उसे कोरी भावुकता से बचा ले जाता है। 

  कवि ऐसी कविता लिखना चाहता है जो कठिन दिनों में भरोसेमंद मित्र की तरह साथ बनी रहे। वे उस आदमी की तलाश करते हैं जिससे मिल धीरज धरे मन, जो रोशनी का अहसास लिए हो  जिस पर भरोसा किया जा सके तथा खुद जिसका विश्वास बना जाय। उनकी कविता में यह बात हमें मिलती भी है। उनकी कविता हारे-गाढ़े हमारे साथ बनी रहती है। वे कोलाहल भरी भीड़ में खुद को भी खोजते हैं- अपनी खनकदार आवाज और मन-पसंद रंग को तथा सूखती संवेदना में खोई हुई सौंदर्य दृष्टि को। उनकी दृष्टि में यह खोज किसी संघर्ष से कम नहीं है। यह वास्तविकता भी है।

  केशव अतीत के अजायबघर को वर्तमान की छत पर खड़े होकर देखने वाले कवि हैं। अतीत के मोह में खो जाने वाले नहीं। उन पर ’नास्टेल्जिक’ होने का आरोप मुझे हास्यास्पद प्रतीत होता है। नई सुबह के आगमन के  प्रति वे आश्वस्त हैं। उनको गहरा अहसास है कि -आज नहीं तो कल-कटेगी ही दुःख भरी रातें, हटाए ही जाएंगे पहाड़।

   हमारे समय में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को लेकर केशव परेशान रहते हैं। जो उनकी कविताओं में अनेक स्थानों पर व्यक्त हुआ है। बाजार का दबाब वे अपने गर्दन और जेब दोनों में महसूस करते हैं।  प्रेम का वस्तु में तब्दील होते जाना उनको बहुत कचोटता है। इस बाजारवादी समय में प्रेम दिल के नहीं जेब के हवाले हो गया है। जो खरीदा-बेचा जा रहा है। केशव प्रेम को व्यापार बनाए जाने के विरोध में हैं। वे बाजार का नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं। वे कहते हैं ’तब भी था बाजार’ पर ऐसा नहीं,जो मनुष्य को लूटने के लिए हो। जिसमें बाजार में खड़ा हर आदमी हानि-लाभ का हिसाब लगाने में ही जुटा रहता हो । मनुष्य अपनी जरूरत के लिए बाजार में जाता था न कि बाजार जरूरत पैदा कर आदमी के घर में घुसता था। दूसरे शब्दों में, बाजार आदमी के लिए था न कि आदमी बाजार के लिए। जरूरतें कृत्रिम नहीं थी। वस्तु बेची जाती थी मूल्य नहीं। चकाचौंध पैदा कर ग्राहक को भरमाया नहीं जाता था। उसकी आँखों में झूठे सपने नहीं बोये जाते थे। केशव बाजार के इस चरित्र को पूरी काव्यात्मकता के साथ अपनी कविता में उद्घाटित करते हैं। उनके कहन का अपना निराला अंदाज है । जैसे उन्हें यदि बाजारवाद के खिलाफ कुछ कहना है तो भारी-भरकम शब्दों की बमबारी नहीं करते बल्कि ’गहरू गड़रिया’ जैसे पात्रों को उसके बरक्स खड़ा कर देते हैं। अतंर्विरोध खुद-ब-खुद सामने आ जाते हैं।

  बाजारवादी समय में लोक के व्यवहार में आ रहे बदलाव पर भी उनकी पैनी नजर रहती है। लोक को झूठ-मूठ का महिमामंडित करना उन्हें नहीं भाता है। जहाँ भी लोक के भीतर कोई छल-छद्म-धूर्ततता या ईष्र्या-घृणा-बैर या फिर अंधविश्वास-रूढि़वादिता  जैसी कमजोरियाँ नजर आती है उन्हें भी रेखांकित करने से नहीं चूकते हैं। ये सब रेखांकित करने के पीछे उनका उद्देश्य लोक को उसकी कमजोरी का अहसास करा उससे बाहर निकलने के लिए प्रेरित करना रहता है। ताकि वह अपने मुक्ति-संघर्ष को मजबूती से आगे बढ़ा सके। यह लोक को देखने की उनकी द्वंद्वात्मक दृष्टि है।

  केशव की कविताओं में अपने नीड़ से बहुत दूर चले आने की पीड़ा भी व्यक्त हुई है। इस बात की कसक भी है कि जिस नृशंस दुनिया के खिलाफ कभी खड़े हुए थे वह दुनिया आज भी उतनी ही नृशंस है। बहुत अधिक बदलाव नहीं आया उसमें।

कवि केशव तिवारी की विशिष्टता है कि वे अपनी कायरता तक को नहीं छुपाना चाहते हैं। उनके भीतर सच सुनने का साहस  है। कवि को कैरियर की खोह में फँसकर तरह-तरह के समझौते करने और घिसट-घिसट कर निभाने का अफसोस है। कवि अपने पुरखों, अपनी जमीन, अपने जन  के प्रति कृतज्ञता से भरा है। इसलिए कहा जा सकता है इस कवि की काव्ययात्रा बहुत लंबी और कालजयी होगी।

वैसे तो केशव जी से जीवन-समाज और साहित्य पर रोज कुछ न कुछ बातें होती रहती है पर यहाँ ’जनपथ ’ के बहाने कुछ विधिवत और विस्तार से बातचीत हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत –

प्र01. केशव जी, सर्वप्रथम अपने जीवन और लेखन के बारे में कुछ बताइये आपके लेखन की शुरूआत किस विधा से हुई?

उ0.  महेश जी मेरा जन्म प्रतापगढ (अवध) के एक गांव जोखू के पुरवा मातुल में हुआ। और उसके निकट ही 15 किमी0 पर मेरे पिता का गांव है मेरा बचपन दोनो ही जगहो पर बीता मेरा अपनी नानी से अदभुत  लगाव था। वो एक ऐसी महिला थी कोई गरीब गुरबा सीधा उनके पास मदद को आ सकता था। और वो उसकी हर संभव मदद करती। मै ज्यादातर घर में कार्यरत मजदूरो के साथ ही घूमता उनके कंधे पर सवार खेत खलिहान जाता और मेढ पर बैठ उनको काम करते देखता। चैता, कजरी, विरहा, फगुवा, आल्हा, का संस्कार मुझे इन्ही से मिला। लिखना पढना बहुत बार हिंदी की शौकिया गजल से हुआ। मै हिंदी का आदमी तो था नही वाणिज्य से स्नातक और व्यसायिक प्रबंधन की पढाई की थी। प्रशासनिक सेवाओं में इम्तिहान मे हिंदी साहित्य लिया फिर इधर ही आ गया शुरूआती दौर में बांदा के श्री कृष्ण मुरारी पहारिया जिनसे मेरी कुछ मुद्दो को लेकर गहरी असहमति थी। पर वे एक बहुत समर्थ माक्र्सवादी आलोचक और गीतकार रहे पहल पत्रिका में भी उनके लेख मैने पढे थे। उन्होने मुझे वास्तव मे मांजा बाद में केदार नाथ अग्रवाल के संपर्क में आया। निरंतर उनके संपर्क में 20 वर्ष रहा । डा0 जीवन सिंह का मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा उनकी पुस्तक ’कविता और कवि कर्म’ मेरी सबसे प्रिय किताबों में एक है। बचपन में अवधी के कवि जुमई खां आजाद उनकी प्रसिद्ध कविता ’कथरी तो गुहाई गुन ऊ जाने जे करै गुजारा कथरी मां’ अभी तक याद है। अवधी के ही अद्या प्रसाद उन्मत्त और बुंदेली के महाकवि ईश्वरी का मुझ पर गहरा प्रभाव रहा। बाद में डा0 राम विलास शर्मा, डा0 शिव कुमार मिश्र, डा0 विष्णु चन्द्र शर्मा, विजेन्द्र और सुधीर विद्यार्थी जी के लेखन कर्म से बहुत प्रभावित हुआ। त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध, मानबहादुर सिंह,विजेन्द्र, कुमार विकल, ज्ञानेन्द्रपति, अरूण कमल, राजेश जोशी की कविता से भी गहरा जुडा़व रहा है। अजय तिवारी की किताब ’समकालीन कविता और कुलीनतावाद’ ने भी मुझे चीजों को समझने की एक दृष्टि दी। विदेशी कवियों में सेन्डोर पिटोफी (हंगरी) मेरा दागिस्तान (रसूलहमजातो) मारीना स्वेतायोवा और चेयनेसिविकसी का ’व्हाट इस टू बी डन’, क्रिस्टोफर काडवेल की ’विभ्रम और यर्थाथ’ और मारिस कार्नफोर्थ की किताब जो मुझे केदार नाथ अग्रवाल से मिली ने मेरे कवि को एक मजबूत आधार दिया। हाल में विजय कुमार की किताब ’खिड़की के पास कवि’ में यहूदा यामीखाई, महमूद दरवेस, यानिद रिदकोष की कविताओं से भी गंभीरता से जुड़ने का अवसर मिला। शैली मेरा सर्वकालिक प्रिय विदेशी कवि है।

प्र02- युवा कविता में आपको लोकधर्मी काव्य परंपरा का एक सशक्त वाहक माना जाता है। आपकी कविताओें में लोक ही टकहराहटे पूरे टंकार के साथ आती है। उसका गहरा प्रतिरोध दिखायी देता है पर इधर लोक को लेकर तमाम भ्रम फैलाये जा रहे हैं। लोकधर्मी कविता को जीवन के  संघर्षो से भागे लोगो की शरण स्थली कहा जा रहा है। कुछ कवि आलोचक लोक को बडे संकुचित अर्थ मरण में लेते है। उनके लिये लोक का मतलब दूरस्थ गांवो में रहने वालो के मेले खेले नाच गान तीज त्योहार वनस्पति बोली बानी मात्र रह गया है। इन सब को रचना में ले आना उन्हे लोकधर्मी होना है। लोक के नाम पर वे उसकी कमजोरियां अंधविश्वासों को भी महामंडित करने लग जाते है। इस प्रवृत्ति पर आपका क्या कहना है?

उ0-  देखिये इस पर काफी बात हो चुकी है । मैं भी अपना मत कई बार रख चुका हूं। प्रथम तो इस शरणस्थली शब्द से ही मैं कोई सहमति नही रखता। मेरा कहना है जब हम किसानी संस्कार से आयेगे तो वहां का मेला ठेला भी आयेगा, लोक गीत भी आयेंगे, उल्लास और शोक सब आयेगे। बिना पूरे जीवन की कविता कैसे होगी। और एक सच्चा लोकधर्मी कवि लोक में फैली तमाम गलत बातों का पहला विरोधी होगा। ये आम आदमी का जीवन संघर्ष, उसके दुख, उसकी पीड़ा, ये सब लोक के साथ नत्थी है। इसके बिना लोक की कविता पर बात नहीं हो सकती। जो लोक के 1857 से 1942 तक के संघर्ष के इतिहास से आंख मूंद लेते हैं, वही ये सब कहते है। लोक संघर्ष की जमीन है। शरणस्थली नहीं।

प्र03-  क्या आपको नहीं लगता है कि आज की आलोचना कुछ शहरों और महानगरों के मध्य वर्गीय मानसिकता वाले कवि लेखकों तक केन्द्रित हो कर रह गयी है। लोक और जनपदों की घोर उपेक्षा हो रही है। जब कि साहित्य की पूरी परंपरा में केन्द्र में हमेशा लोक ही रहा है। उसके पीछे आप क्या कारण मानते है?

उ0 – यह सब एक सधा और खास मानसिकता के तहत किया जा रहा प्रयास है। इसका एक ही जवाब है जब तक लोक अपने भीतर से आलोचक नहीं पैदा करेगा, ये सब होता रहेगा। इन आलोचकों के सहारे लोक की सही व्याख्या नहीं हो सकती है। अच्छा ये है कि नये आलोचकों की एक पीढ़ी आ चुकी है और यह काम आगे बढ़ा है।

प्र04-  ऐसी स्थिति में आप को कविता के लोकधर्मी प्रतिमानों को स्थापित करने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है।

उ0-  देखिये ये काम तो आलोचना को करना है प्रतिमान तो आलोचक ही तय करेगा फिर बात वहीं उसकी नियत और ईमानदारी पर आकर टिक गयी। देखने में ये भी आया है कि इन्ही प्रतिमानों को गढने में वरिष्ठ आलोचकों ने क्या खेल खेला है।

प्र05-  हिंदी साहित्य में आज वरिष्ठ पीढ़ी के बहुत कम रचनाकार ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से संतुष्ट हों, जिससे भी पूछो वह आलोचना कर्म पर पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिये आलोचकों को जिम्मेदार मानते है। या यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा आंकना है। या फिर वास्तव में हिंदी आलोचना गुटबंदी, चकबंदी, हदबंदी और व्यक्तिगत आग्रहो, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है?
 
उ0-  मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना ने केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन के बाद एक बंदरकूद लगाते हुये बीच के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों को छूते सीधे 80 की कविता में आकर दम साधा।  जिससे बहुत से महत्वपूर्ण कवि बिना पर्याप्त चर्चा के ही रह गये आज का रचनाकार तुरंत प्रसिद्धि चाहता है। उपेक्षा जो पहली शर्त है उसको एक क्षण भी झेलने को बर्दाश्त नहीं। वह केवल श्रीमुखों से अपना नाम सुनकर संतुष्ट है। और वो भी नाम गिनाकर जिम्मेदारी निभा रहे है। दोनो प्रसन्न है रचनाकार का आलोचना का मुखापेक्षी होना ही सब गुण गोबर किये हुये है। और एक खराब कविता एक खराब आलोचना को ही जन्म देगी। धैर्य रखिये सब छट रहा है और छट जायेगा। ऐसे लोग पहचान भी लिये गये है।

प्र0 6-  कुछ रचनाकार ’अनुभूतियों के प्रति ईमानदारी’ के नाम पर साहित्य में मध्यवर्गीय व्यक्ति मानस के अकेलेपन, छटपटाहट, ऊब, उदासी, विक्षोभ तथा अनास्था को ही आर्कषक शैली में प्रस्तुत करते है। यह बात सही है लेकिन ऐसा करने वाले रचनाकारों का कहना रहता है कि जब आज के दौर का सामाजिक यर्थाथ यही है समाज मे चारो ओर यही व्याप्त है तो फिर इससे परहेज क्यों। साहित्यकार तो वही दिखाता है जो समाज मे घटित हो रहा है। इसमें गलत ही क्या है फिर सच्चे आधुनिक बोध और श्रेष्ठ कला के नाम पर बडे-बडे आलोचक भी ऐसी कृतियों और रचनाकरों को श्रेष्ठ घोषित कर रहे है इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?

उ0 – संवेदना हर तरफ से आयेगी, लोक से भी मध्य वर्ग से भी। बस प्रश्न यह है कुछ संवेदना का जनता के एक बडे़ हिस्से से क्या सरोकार है। आप उदासी ऊब को गाते बजाते है या उसके प्रतिरोध में खडे होते है ये आपका निर्णय है। क्या जिंदगी के तजुर्बे असली है या ओढे हुये अगर कविता में प्रतिरोध का स्वर नहीं है तो आप जो चाहे लिखे स्वतन्त्र हैं। उसे कविता माने या और कुछ, जन के किसी काम की नहीं।

प्र07-    केशव जी क्या आपको नही लगता कि साहित्य के नाम पर मध्य वर्गीय संत्रास, कुंठा, निराशा, एकाकीपन और ऊब को प्रस्तुत करने के लिये रचनाकारों की अपेक्षा महानगरीय और सेठाश्रयी पत्र पत्रिकाओं के संपादक तथा आधुनिकतावादी आलोचक अधिक जिम्मेदार है। जो ऐसी रचनाओं को प्रकाशित एवं प्रोत्साहित करते है।

उ0-  महेश जी आपने जो कहा वह भी जीवन सच है। पर बात यह है कि आप उसमें ही फंसकर अगर रस लेने लगते है तो फिर बात बिगडती है उसके लिये आप मुक्तबोधीय रास्ता नहीं अपनाते तब प्रश्न खडा होगा और सेठाश्रयी पत्रिकाओं और उसके हजार पन्द्रह सौ शब्दों वाले आलोचकों का एक अच्छा खासा वर्ग है। उनकी महिमा अनंत है।

प्र0 8-  प्रगतिशील आलोचना पर आरोप है कि श्रेष्ठ सृजनात्मक प्रतिभा तथा महत्तर कृंतित्व के वावजूद नागार्जुन ,त्रिलोचन, तथा केदार और मुक्तिबोध अपनी पूरी अहमियत के साथ नहीं पहचाने गये जब कि उनकी तुलना मे कमजोर और हल्की प्रतिभा के प्रतिगामी दृष्टि वाले रचनाकार एक संगठित आलोचनात्मक प्रयास के तहत श्रेष्ठ और प्रथम श्रेणी के सृजकों के रूप में प्रकाशित विज्ञापित प्रतिष्ठित हुये और आज भी उसी प्रचार के तहत कमोवेश अपनी पताका फहराते हुये देखे जा सकते है उसके पीछे आप क्या कारण  देखते हैं?

उ0 – इस तरह की आलोचना की पोल खुल चुकी है। केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन लौट-लौट इनके सर पर सवार हो जाते हैं। ये कवि जन स्वीकृति पा चुके है। इन्हे ये क्या डिगा पायेंगे। देखिये इसको बांदा या पिथौरागढ से नही समझा जा सकता है साहित्य के केन्द्रो में कितने वीभत्स ढंग से ये हो रहा है। आप अंदाजा नहीं लगा सकते । नकली कविता चेलों की पाठ्यक्रमों तक पहुंचायी जा रही  है। पुरस्कार दिलाया जा रहा है। मै कहता हूं जनपदों से आ रही रचनाशीलता को इनको ललकारना होगा। इन मठों को जबानी नहीं चढ के ढहाना होगा। तब ही कुछ हो पायेगा वरना ये आपको भी जूठन दिखाकर शांत कर देंगे। इन केन्द्रों में इनकी परिधि के बाहर पनप रही सच्ची कविता को भी इन्होंने दरकिनार कर रखा है।

प्र. 9- कुछ रचनाकारो का मानना है कि साहित्य सृजन जैसे एकांत कर्म के लिये किसी मंच किसी समूह किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की कोई जरूरत नहीं है इससे रचनाकार की मौलिकता प्रभावित होती है?

उ0  – गलत अवधारणा असली कविता जीवन रण से निकल कर ही आती है और आयेगी विचार उसकी पृष्ठभूमि में रहेगा ही इस दुनिया के बदलने का कोई तो वैचारिक आधार होगा।

प्र.10- हमारे समय के महत्वपूर्ण लोकोन्मुखी कवि विजेन्द्र अक्सर कहा करते हैं कि आचरण और सृजन में द्वैत्य लेखक और सृजन दोनों को अविश्वसनीय और कमजोर बनाता है जब कि कुछ लोगों का कहना है कि आचरण और लेखन दो अलग अलग चीजें हैं। लेखक का आचरण नहीं उसका लेखन देखना चाहिये। वे ऐसे बहुत से नाम गिनाते हैं जिनका आचरण खराब हो जाने के बावजूद उनका लेखन उम्दा दर्जे का रहा। आप आचरण और साहित्य के बीच क्या कोई सीधा सम्बंध देखते है?

उ0  – देखिये मेरा मानना है कि क्रियेटिव राइटिंग और इंटेलीजेंस से की गयी राइटिंग का फर्क है। आचरणहीन इंटेलीजेंस से लिख सकता है पर क्रियेट नहीं कर सकता। मै विजेन्द्र जी से शत प्रतिशत सहमत हूं। छोटा मनुष्य कभी भी बड़ा कार्य नही कर सकता है। हां वह केवल उसका भ्रम फैला सकता है। जन में आज भी एक मापदंड है वो पहले आपको एक अच्छा मनुष्य मानेगा फिर वह आपका झंडा-डंडा साहित्य देखेगा। लोग गलत व्याख्या कर सार्टकट ढूंढ ही लेते है।

प्र011- एक रचनाकार को परंपरा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिये ? एक रचनाकार के लिये अपनी परंपरा या क्लैसिक्स की जानकारी क्यों आवश्यक है? क्या आपको नहीं लगता कि परंपरा या क्लैसिक्स हमारी मौलिकता या नवीनता को प्रभावित करते हैं?

उ0-  परंपरा कोई जड़ वस्तु नहीं है। किसी देश का क्लासिक उसकी संभ्यता के विकास का इतिहास होता है। जिसको समझे बगैर उसकी आत्मा को नहीं पहचाना जा सकता है। न ही महत्वपूर्ण कविता हो सकती है। अपनी जमीन और परंपरा से कट कर कोई बताये कोई महान रचना हुयी हो। परंपरा की अपनी जकड़नें भी है उसको त्यागना होगा। परंपरा को लेकर भावुक नहीं द्वंदात्मक होना पडेगा।

प्र012-    आज कवितायें खूब लिखी जा रही है, हर दूसरा लिखने वाला कवि है लेकिन अधिकांश कविताएं भावगत, शिल्पगत, एकरसता की शिकार हैं। यदि कविता से उसके रचनाकार का नाम हटा दिया जाये तो यह बता पाना मुश्किल होगा कि ये कवितायें एक ही व्यक्ति के द्वारा लिखी गयी है या अलग अलग के द्वारा। इसके पीछे क्या कारण देखते है?

उ0-  इसके पीछे मूल कारण जीवनानुभवों की कमी है। इस वजह से कविता ’काकवाद’ का शिकार हुयी है। यह सब बडे-बडे कवि भी कर रहे है। 80 के बाद लोक के नाम पर तमाम कमजोर कवितायें भी खूब लिखी गयी, उन्हे खूब प्रचारित भी किया गया पर इसके वरक्स केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन की परंपरा भी लगातार सक्रिय रही। वह आवाज भले ही इस घटाटोप में कुछ दब गयी हो पर रूकी नहीं। यही हमारी सबसे बडी ताकत है।

प्र013-  लोगों का मानना है कि छंदहीनता के चलते कविता खराब गद्य लगने लगी है। आज गद्य और कविता में कोई अंतर ही नहीं रह गया है। छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद से कविता गद्य के एक दम नजदीक चली गयी है। कभी-कभी कविता के वाह्य स्वरूप को देखकर कहना कठिन हो जाता है कि यह कविता है या कोई गद्यांश उसमें गद्यात्यमकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ा है। सम्प्रेक्षण क्षमता का ह्रास हुआ है। फलस्वरूप उसकी पाठक संख्या घटी है यह कहा जाता है कि छंद के बंधन से मुक्त होना इसका प्रमुख कारण है। क्या आपको भी लगता है कि आज कविता को छंद की ओर लौटना चाहिये?

उ0-  मै कविता की लय को ही सबसे बडी ताकत मानता हूं। छंद के संस्कार ही लय को बचायंेगे। छंद न जानना मै अपनी कमी के रूप में स्वीकारता हूं।इसके प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। रस का भी नकार नयी कविता में हुआ है। रस अगर उस तरह नहीं आ सकता तो उसकी पूर्ति भाव पक्ष से करना पडे़गा।

प्र014- हिंदी के अनेक कवि और पाठक अपनी बातचीत के दौरान बताते हैं कि अक्सर हिंदी कविताओं को पढते हुये उनका मन उदास हो आता है। एक हीनता बोध उन्हें घेर लेता है। ऐसे क्षण कभी-कभी ही आते हैं जबकि कविताओं को पढ़ते हुये गहरा पाठकीय संतोष होता है। क्या कभी आपके साथ भी ऐसा होता है या हुआ?

उ0 – दूसरो की कमी से मैं क्यों हीनताबोध में आऊँ, मैं ऐसों को पढ़ता ही नहीं। जो मूल्यवान है उसे सिरहाने रखता हूं। नये, पुराने, क्लैसिक्स, देशी, विदेशी का कोई भेद कविता में नही रखता।

प्र015- आज एक ओर कविता इतनी सरल-सपाट हो गयी उसे किस कोण से कविता कहा जाये समझ में नही आता दूसरी ओर सांकेतिक व्यंजना और अर्थ की ध्वनियात्मकता के नाम पर कविता इतनी दुर्बोध और अगम हो गयी है कि सामान्य पाठक तो छोडिये दूसरे कवि आलोचक और प्रबुद्ध पाठकों की भी समझ में नही आ रही है। इस स्थिति के लिये कवि जिम्मेदार नही है क्या? आपके विचार से अच्छी कविता कैसी होनी चाहिये ?

उ0 – अच्छा प्रश्न है देखिये कविता तो कविताई के शर्त पर ही होगी लेकिन कवि से हर वक्त यह मांग कि वह इतना सरल लिखे की पाठक को समझ आये शायद उसके लिये ज्यादती होगी। पाठक जो कविता को  सुनना-समझना चाहता है उसे उसके लिये अपने को भी कुछ तैयार करना पडे़गा। जैसा कि ज्ञान की दूसरी श्रेणियों के लिये करता है। हां, जानबूझकर जटिल ज्ञान झाड़ने वालों को यह पता होना चाहिये कि उन्हें उनके खास लोग भी नहीं पढ़ते हैं। अगर पाठक को यह पता लग जाये कि जटिलता के पीछे खोजने पर कुछ मिलेगा तो वह यह भी करता है। इसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविता है।

प्र016- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते है कविता में अर्थग्रहण नहीं बिम्ब ग्रहण  होता है।इस दृष्टि से आज की कविता के बारे में क्या कहेंगे जिसमें कि बिम्ब लगभग गायब होते जा रहे है?

उ0 –  शुक्ल जी से सहमत हूं जो कवि कविता में बड़ा बिम्ब नहीं रच सकता वह बडी कविता नहीं कर सकता और हां चमत्कार के लिये बिम्बों के पक्ष में मै नही हूं।

प्र017- आज की अधिकांश रचनायें जनता के दुख-दर्द जीवन के उतार चढाव, शोषण उत्पीड़न का तो गहराई से चित्रण कर रही है किंतु उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बता रही है । क्या आपको नहीं लगता कि एक जनवादी रचनाकार के लिये केवल जनता के जीवन और संघर्षो का चित्रण करना ही पर्याप्त है या जीवन संघर्ष से मुक्ति का रास्ता भी सुझाना जरूरी है?

उ0 – देखिये महेश जी कविता की एक अपनी सीमा है और जो प्रश्न ही खड़ा कर सकती है। रास्ता तो पाठक को ही बनाना होगा अपने विवेक से, हां अगर कवि के दिमाग में मुक्ति का कोई रास्ता है तो वह किसी खंड काव्य या महाकाव्य में ही संभव है। और कविता से वही बदलेगा जो बदल सकता है और जो बदलना चाहता है। पत्थर तो नहीं ही बदल सकता है। एक कविता आपको थोडा और आदमी और अपने आसपास के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाती है। इसके बाद फिर राजनीति पक्षधरता ही आपके चरित्र का निर्धारण करती है कि आपकी रूचि जनता की राजनीति में है या पार्टियों की राजनीति में। मुझे लगता है कि एक कवि की वही राजनीति होनी चाहिये जो जनता की राजनीति।

प्र018- पिछले दिनों ’तद्भव’ में प्रकाशित दो बूढ़े साहित्यकारों नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने आपसी बातचीत में स्वीकारा कि अब भविष्य का सपना या विकल्प जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है। दूसरे शब्दों में कहे तो दुनिया विकल्पहीन हो गयी है। क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?

उ0  -इन दोनो महानुभावों  जिनका आपने नाम लिया है ये अपना काम कर चुके है। मै यह भी जानता हूं कि ये इसे स्वीकारेंगे भी नहीं। चर्चा में रहने के लिये कुछ न कुछ  कहते रहेंगे। ये सब चलता है। गंभीरता से लेने वाली बात नहीं नये लोग जो इनके नाम से आतंकित हैं जरूर भ्रमित होते है।

प्र. 19- हिंदी कविता के परिदृश्य को आप किस रूप में देखते है? इससे अपनी पूर्ववर्ती कविता से कथ्य और शिल्प के स्तर पर किसी तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है?

उ0 – समकालीन कविता ने विकास किया अपनी नई जमीन तोड़ी कथ्य और शिल्प के स्तर पर साहसिक प्रयोग किया है। आज का कवि उतनी बंदिशें नहीं स्वीकार करता है जो जरूरी भी है। नई बात कहने के लिये हिंदी की युवा कविता विश्व की किसी भी भाषा की युवा कविता के सामने रखी जा सकती है। संवेदना, शिल्प, विचार किसी स्तर पर, मेरा पक्का मानना है।

प्र020- कुछ कवि कविता में जरूरत से ज्यादा कला लाने का प्रयास कर रहे है उनका जोर कथ्य की अपेक्षा शिल्प पर है जिससे कविता अमूर्त का ठसपन और दुर्बोधता की शिकार होती जा रही है। अपने समय के समाज और उसमें संघर्षशील मनुष्य के यर्थाथ की कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाली कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है पर क्या कलात्मक कविता का मतलब ऐसी कविता लिखना है जो समझ में न आये जैसा आज की कलात्मकता के नाम पर यही देखने में आ रहा है इसको आप कविता के भविष्य की दृष्टि से किस प्रकार देखते है।

उ0- कला पक्ष कविता का अनिवार्य अंग है। कला को विचार का संवाहक होना पडे़गा कला में चमत्कार पैदा करने वाले मध्यकाल के बिहारी से सीख ले सकते हैं।  बिहारी के यहां तो कुछ मिल भी सकता है पर इनके यहां तो कुछ भी नहीं।

प्र021-  आर्थिक उदारीकरण के साथ साथ किस तरह मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है।  उपभोक्तावाद  हावी होता जा रहा  है। मनुष्य पर वस्तु का वर्चस्व स्थापित हो  चुका है। धन की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य बन गया है।  जीवन का कोई क्षेत्र भी बाजारवाद से अछूता नहीं रहा है। ऐसे मे साहित्य की क्या भूमिका देखते है ,क्या लेखन द्वारा समाज का बदलाव संभव  है?

उ0 – नहीं, लेखन द्वारा समाज नहीं बदला जा सकता है। यह काम राजनीति का है लेखक तमाम राजनैतिक आंदोलनों को आगे बढ़ा सकता है। उनके आधार को पुख्ता कर सकता है। बस  इतना ही  उसका रोल है। समाज तो राजनीति से ही  बदलेगा।  मनुष्य पर हर समय इस तरह के  दबाव रहे है। अब दबाव का स्वरूप बदल गया है। दुश्मन एक दोस्त की तरह उसके कंधे पर हाथ रख उसे अपने घेरे में ले रहा है। और उसे ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि यह दोस्त है या दुश्मन यही पर साहित्य की भूमिका सबसे बड़ी होती है कि वह असली शत्रुओं की पहचान कराये और अपने पाठकों को सतर्क करे। हां यह काम समकालीन कविता और कहानी में लगातार हो भी रहा है।

प्र023- आप को केदार बाबू के नजदीक रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने आपको  किस तरह से प्रभावित किया?

उ0  -केदार जी से मैंने मार्क्सवाद की दीक्षा ग्रहण  की और विचार और कविता के अन्र्तसम्बंधो को जाना बाकी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में संस्मरण में काफी विस्तार से कहा है जो हेतु भरद्वाज  की पत्रिका अक्सर में छपा है और रामजी ने अपने ब्लाग ’सिताबदियारा’ में भी दिया था।

प्र0 24 -केशव जी अंत में कुछ  ऐसी रचनाओं के नाम जानना चाहूंगा जिन्होने आपको बहुत विचलित एवं उद्वेलित किया हो और लम्बे  समय तक आपके मन मस्तिष्क में गूंजती रही है।

उ0-    हां, सरोज स्मृति और मायी का गाया जाने वाला एक लोकगीत जो सीता वनवास के बाद लक्ष्मण से स्त्रियां प्रश्न करती है ‘पग पग घुंईया भारी लखन कहां छोड आयो जनक दुलारी’ ये कविता और ये लोकगीत मुझे जब भी याद आते है मै असहज हो  उठता हूं।

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
रा0इ0का0 देवलथल, पिथौरागढ़
उत्तराखंड।
मोबाईल – 9411707470
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।) 

चन्द्रकान्त देवताले से मनोज पाण्डेय की बातचीत

चन्द्रकान्त देवताले ऐसे कवि हैं जिनका व्यक्तित्व निर्विवाद है। वे ठेठ कवि ही हैं। खुद भी वे अपने को पूरावक्ती कवि मानते हैंएक ऐसा कवि जो पूरी निर्भीकता से उनके साथ खड़ा है जिनके साथ कोई खड़ा नहीं आज जब स्त्रियों के प्रति हमारा समाज असहिष्णु और हिंसक दिखाई पड़ रहा है वैसे में यह अनायास नहीं कि देवताले जी की कविताओं में स्त्रियाँ भरी पड़ी हैं। और भरा पड़ा है देवताले जी की कविताओं में स्त्रियों के प्रति अपार आदर, प्यार एवं स्नेह। ऐसे ही निर्भीक व्यक्तित्व कवि के साथ बात की है युवा कवि और आलोचक मनोज पाण्डेय ने। तो आईए पढ़ते हैं यह बातचीत।           

मनोज पाण्डेय एक कवि के रूप में कविता पर बात शुरू करने के लिए आप किन सन्दर्भों को जरूरी मानते हैं?

चंद्रकांत देवताले मनुष्य, धरती, पर्यावरण और हमारा समय। जिसमे हम जीवित हैं, कैसे जीवित है, हमारे संकट, हमारा संघर्ष, और हमारे सपने। ‘हमारे’ से यहाँ मेरा आशय साधारण, सामान्य आदमी से है। मेरे लिए यही जरूरी सन्दर्भ हैं।

 
मनोज पाण्डेय – 1973 में आपका पहला संग्रह आया और 2012  में नया संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’आया है। इस  अनथक रचना यात्रा में आये विभिन्न पड़ावों की पहचान आपने कैसे किया है?

चंद्रकांत देवताले –  
“एक गाँव ने मुझे जन्म दिया 
एक धक्के ने ने शहर में फेंक दिया 
शहर ने कविता में उछाल कर मुझे कहीं का नही रक्खा।”  

मैं कोई खास नहीं हूँ। साधारण लोगों के बीच हूँ और साधारण लोगों जैसा ही हूँ।| मेरा गाँव सतपुड़ा के घने जंगल जो आदिवासी गोंडवाना के इलाके में है,  वहाँ मेरा जन्म हुआ। मैं आज भी उन्हीं जड़ों के साथ हूँ। इस तरह से कहना-बताना शायद शोभा नही देता होगा किन्तु मैंने दूसरे विश्व युद्ध आर्थिक मंदी को बचपन में देखा-झेला है। माँ मुंह अँधेरे जगा देती थी और हमे गेंहू के लिए एक दूकान पर जाना पड़ता था। जहाँ हरेक व्यक्ति को थोडा-बहुत गेहूं मिलता था। फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन, सन बयालीस का आन्दोलन और उसकी गतिविधिया इंदौर में मौजूद थी। मेरे घर में मेरे बड़े भाई, जो बी. काम. के छात्र थे, के कुछ युवा दोस्त आते थे। आन्दोलन को ले कर इनके बीच जम कर बातचीत होती थी। ये कैसे संभव था कि मैं उससे अंजान रहता। मेरे दूसरे भाई साहित्य के विद्यार्थी थे और हमारे घर में कविता संग्रह थे। सियारामशरण गुप्त, नवीन जी और इंदौर के कुछ कतिपय स्थानीय कवियों की कविताएँ आज भी मेरे मन में गूंजती हैं। मेरे पिता कबीर के दोहे जब-तब हमारे ऊपर जड दिया करते थे,किसी भी प्रसंग में।

कबीर जैसे कवि की आवाज को हमने राख में तब्दील कर दिया है। ऐसे पच्चीसों नाम है; संत तुकाराम, नानक, चंडीदास; इन सब आवाजों के  एक-एक हिस्से को अपने मन में समेटा होता तो हम दासता के शिकंजे में कभी नही फंसते। दासता से मेरा आशय उस दासता से है, जो आजादी प्राप्त हो जाने के बाद भी हमें जकड़े हुए है, भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कई ऐसी बातें कहीं थी जो आज हमारे वास्ते चुनौती है। भारत-दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, अंधेर-नगरी में उन्नीसवी सदी की चुनौतिया-संकट उपस्थित थे। उनसे जुड़े दिशा निर्देश थे। भारतेंदु ने कहा था कि अंग्रेजी राज सुख-साज व्यवस्था दे रही है, ये अच्छी है किन्तु ‘सब सम्पत्ति विदेश चलि जात’ ये सबसे बड़ा दुःख है। आज हमारे जनप्रतिनिधि हवाई जहाजों में कुनबे सहित विदेश जाते है और  वहाँ के धन-कुबेरों को देश में आमंत्रित करते है कि हमारी जमीन,जंगल,पहाड़,नदियों सबको तहस-नहस करो। पूंजीनिवेश करो। वो पूंजीनिवेश करे तो मुनाफा कहाँ जायेगा। ये महावणिक, महाठग हैं, और हम मुग्ध भाव से देख रहे हैं। यह मेरी रचना-यात्रा के दो महत्त्वपूर्ण छोर है जिनके बीच तमाम पड़ाव आये जो मेरी कविताओं में उभरते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

मनोज पाण्डेयआप अपनी रचना यात्रा में देश-दुनिया, समाज, समय, दृष्टि, विचार आदि तमाम स्थितियों में होने वाले कौन-कौन से बदलावों के प्रति  आपने आप को सचेत पाया है?

चंद्रकांत देवतालेपहले तो हमे ‘आधुनिकता’ने जकड़ा, उसके बाद गये बीस साल से ‘भूमण्डलीकरण’की चपेट में है। परिणामस्वरुप कार्पोरेट पूंजी ने हमको अपनी देशीयता से, जातीयता से, अस्मिता से और पहचान से वंचित कर दिया है। अभी हिंदी दिवस गया है; भारतेंदु ने कहा “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।“ ‘आज हम अंग्रेजी के दीवाने हो चुके हैं। गाँव में मिटटी-ईट-गोबर से लिपे-पुते-बने मकान के आगे लिखा होता है कि ‘यहाँ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है’। कहने का आशय है कि आजादी के बाद से ही जिस स्वतन्त्रता, न्याय, समानता के वास्ते हमने संघर्ष किया था; उस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सबसे बड़े आदमी और जमादार का बच्चा एक ही स्कूल में पढ़े। आज हमारी शिक्षा प्रणाली दोहरी नहीं कई स्तरों में बंट गयी है। आज भी टाट-पट्टी वाले स्कूल हैं तो अकल्पनीय सुख-सुविधा वाले स्कूल भी।

      इन सबको केवल कवि की चिंता का प्रश्न नही होना चाहिए बल्कि सजग, सचेत मनुष्य की चिंता भी होनी चहिये कि वो इन चीजों पर प्रहार करें। मैं कवि और मनुष्य होने में फर्क नहीं करता। मनुष्य होना क्या हमारा पेशा है। जैसे मनुष्य होना पेशा नही है; वैसे कवि होना पेशा नही है। कवि तो हमेशा पक्ष लेता है। मेरे कवि कहते थे ‘पार्टनर,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ आज हमे फर्क करने की तमीज होनी चाहिए। हम किसके साथ है, किस के साथ चल रहें हैं, किसके याथ उठ-बैठ रहे हैं, और जो नही करना, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मैंने कभी परिनिष्ठित शुद्ध भाषा की चिंता नही की। जो आवाज भीतर से आ कर कविता बन पायी है ; वो कितनी टिकाऊ होगी या नहीं होगी। इसकी मैंने कभी चिंता नही की।

मनोज पाण्डेय- आपकी एक कविता है ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’; इसी शब्दावली के साथ क्या आप मानते है कि ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब कविताएँ’?

चंद्रकांत देवतालेये कविता ‘‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’ इंदौर के एक अख़बार के पाक्षिक स्तंभ में छपा था। यह एक टिप्पणी थी, इंदौर में लगे एक पुस्तक मेले के बारे में, उसी के संदर्भ में यह लिखा गया था। लोगों ने कहा कविता है और कविता बन गयी। किन्तु कविता बहुत असर कर सकती है। उसके लिए जो सामाजिक जागरूकता चाहिए वह दिन पर दिन कम होती जा रही है। सूचनाओं के प्रवाह में, अंधड़ में विचार गायब होते जा रहे हैं। बाजार की आवाजों को कान ध्यान से सुन रहे हैं। आँखे, आकर्षक वस्तुओं, विज्ञापनों की मुग्ध भाव से देखती है। किन्तु सार्थक शब्दों, आवाजों के संदर्भ में भयावह उदासीनता है। पचहत्तर प्रतिशत लोग तो शिक्षित नहीं है, जो किताब पढ़े या कविता की ओर ध्यान दें। दूसरी ओर उच्च मध्य वर्ग जो शिक्षित हैं, वह अंग्रेजी, विदेश, और धन बटोरने के मोह में फंसा हुआ है। हमारे देश में एक नही अनेक देश है; इन लोगों का देश तो उन किसानों का देश जो आत्महत्या कर चुके है करने वाले हैं। उन आदिवासियों का देश जो विस्थापित हो अपनी ही जगहों पर मर रहे हैं। होटलों में काम कर रहे बच्चे, स्त्रियों, वेश्यावृति, गुंडे, निरंतर बढ़ते अपराध जितने जख्म दे रहे है उनकी गिनती करना मुश्किल है। चपरासी से ले कर बड़े अधिकारी तक भ्रष्टाचार में निष्णात हो चुके हैं। जनता में फैले दिग्भ्रम के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। क्योकि गुमराह करने वाली ताकतें, गुमराह करने वाला मीडिया और गुमराह होने वाली भीड़ ;ऐसे में गुमराह करने वाला आशावाद भी किस काम का?
  
     यह सब कहने की जरूरत नही है। सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है। सिर्फ एक दिन का अखबार उठाइए, उसमें गाँव में, कस्बे में, शहर में स्त्रियों के साथ हुए दुष्कर्म की घटनाएँ, शहरों में औरतों के साथ चेन-पर्स छीनने की घटनाएँ, चंदा न देने चंदा उगाहने आये असामाजिक समाज-सेवियों द्वारा की गयी गुंडागर्दी; फिर नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणायें और उसी के नीचे विपत्तियों और त्रासदी की घटनाएँ, हत्या, आत्महत्या। कस्बे में अपनी तीन बेटियों के साथ माँ ने आत्महत्या की, इस तरह की खबरें हर रोज केवल केवल अपनी होने की जगहें बदल रही हैं। ये हमारे समय को प्रतीकात्मक लक्षण के तौर पर सामने ला रही हैं। ऐसे में कोई भी अपनी आत्मशांति को भंग कर ही जिन्दा है। ये चिकने-चुपड़े, खाए-पिए-अघाए, मनमुदित, आत्ममुग्ध, चुटकी भर अमरता के वास्ते कविता सच्चे मनुष्य और कवि के लिए नामुमकिन ही नहीं पाप है। कविता करिश्मा कर सकती है, उसको सुना नहीं जा रहा है, उसको तवज्जो नहीं दी जा रही है। मैं तो समझता हूँ कि मेरे जीवन में यही अच्छा रहा कि  “आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा। मेरी यही कोशिश रही कि पत्थरों की तरह टकराएँ हवा में मेरे शब्द। और बीमार की डूबती नब्ज को जान ताजा पत्तियों की साँस बन जाए। ऐसे जिन्दा रहने से नफरत है मुझे; जिसमे हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे। मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूँ, मेरे दुश्मन न हो और उसे अपने हक़ में बड़ी बात मानू।”

मनोज पाण्डेयआपको ‘अकविता’ का कवि कहा जाता है। इस मान्यता के बारे में आपका क्या मानना है?

चंद्रकांत देवताले – यह भ्रम सजग रूप से फैलाया है, कई साथियों ने। शायद वो भ्रमित रहे होंगे। मैं कहता हूँ कि 1952, 1954, 1957, 1958 से जिसकी कविताएँ धर्मयुग, ज्ञानोदय में छपने लगी हो, जो धरती की कोख से जाया हो, जिसकी जड़े आज भी आदिवासी सतपुड़ा के क्षेत्र में हो, वह अकविता से आया हुआ कैसे हो सकता है? किसी ‘अकविता’ पत्रिका में छपने से कोई अकवि नही हो जाता। अकवि हो कर भी जो अपने समय, अपने आस-पास का, अपने जीवन का कवि हो क्या उसे अछूत घोषित करेंगे?

मनोज पाण्डेय- ‘वैकल्पिक व्यवस्था को ले कर साफ़ दृष्टि का न होने’ की बात आपकी कविताओं के बारे में की जाती है। एक वामपंथी मनो-धरातल वाले कवि के रूप में अपनी कविता के लिए आप इसे विरोधाभास मानते है?

चंद्रकांत देवताले – मैं प्रतिबद्ध पक्षधरता का कवि हूँ। मेरी पक्षधरता के प्रमाण मेरी कविता में मिलेंगे। उन्हें अलग से कहना अनावश्यक है। ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ जिन लोगों के पास कविता दृष्टि में थी, उस का साकार रूप या मूर्त रूप कहाँ साकार हुआ है? वही बता सकते है। यथार्थ को अपने नजरिये से ढकना और उसमें उम्मीद की सुरंगें दिखाना कठिन काम नही है। कविता को मैं जादूगरी नही समझता और जितना मैं जानता हूँ, जितना समझता हूँ, उतना मैं कहता हूँ। मेरा कोई दावा नही है, कविता में मैं मुंगेरी लाल के सपने नही देखता।

मनोज पाण्डेय – लीलाधर मंडलोई कहते हैं कि कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियां किसी के पास नही हैं। राजनीतिक कविताओं का धारदार सर्जक कवि इन मार्मिक छवियों को अपनी कविताओं ने रचने का स्रोत कहाँ पाता है? क्या इन कविताओं को सिरजते समय आपकी ‘राजनीतिक दृष्टि भी काम आती है?

चंद्रकांत देवताले –  कविता विचार और दृष्टि भिन्न-भिन्न तत्वों का पाउडर नहीं है। दृष्टि अंश-अंश में नही होती है। धरती और जीवनानुभव से एक समग्र सोच प्राप्त होती है। एक प्रेम कविता में भी विचारधारा हो सकती है और राजनीतिक चेतना वाली कविता में प्रेम और सौन्दर्य हो सकता है। बच्चे और स्त्रियाँ हमारी धरती पर चलते, सोते, रहते कहाँ नहीं दीखते? उनका दुःख, स्वप्न, संघर्ष और इनकी विपन्नता देखने और आत्मसात करने के लिए किसी म्यूजियम में जाने की जरूरत नहीं पडती। मैं जितना अपने अध्यापकीय जीवन में तमाम जगहों पर घूमा, भटका; सब कुछ उन्हीं अनुभवों से प्राप्त है। उन्ही अनुभवों से मेरी जीवन दृष्टि बनती है और मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि बनती है। मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि में फांक नही है। कोई माने या न माने ; मैं अपने आप को पूर्णकालिक कवि मानता हूँ। जब मैं पढाता था, तब भी कवि-अध्यापक होता था। घर में, अपने आस-पास, अपने दोस्तों में मैं कवि-पति, कवि-पिता, कवि-पड़ोसी, कवि-मित्र की ही तरह रहा। अपने सच को कहने से कभी सकुचाया नहीं। यही मेरी कविता का स्रोत है।

मनोज पाण्डेय- आप को ‘भाषा का जोखिम’ उठाने वाला कवि कहा-माना जाता है। वह कवि जो अपनी ही भाषा के ढांचे को तोड़ता है। आप अपनी कविताओं के सन्दर्भ में इस मान्यता को किस रूप में लेते हैं?

चंद्रकांत देवताले – सच बात तो यह है कि काव्यभाषा, शिल्प, तकनीक इन सबके प्रति मैं कभी सतर्क नही रहा। नाप-तौल कर कविताई मेरे स्वभाव में नहीं। सहज स्फूर्त जो उमड़ता है, वही मेरी कविता बनती है, वही मेरी आवाज बनती है। दर्जी की तरह नापजोख कर काव्य का डिजाइन  करना कवि का आम नही है। जो ऐसा करते है उन्हें मैं चकित भाव से देख कर खुश होता हूँ। कितना हुनर है उनमे? उनके हुनर की दाद देता हूँ पर मुझे दाद नहीं चाहिए। दाद नाम से त्वचा की एक बीमारी भी होती है।

मनोज पाण्डेय- जिस रचना संसार में नागार्जुन, शमशेर, केदार नाथ, मुक्तिबोध, धूमिल और देवताले जैसे कवियों के होने बाद भी गाहे-बगाहे ‘कविता के संकट’ में होने की बात की जाती है। उस रचना संसार के इस ‘संकट’ के बारे में आपका क्या मानना है?

चंद्रकांत देवताले – जिन बड़े कवियों का जिक्र किया है। उनकी आवाज आज भी प्रेरणा देती रहती है। वे आज होते तो वे भी संकट के इस ताप को तीव्रता से महसूस करते। यह संकट कविता का या कविता के समक्ष नही है। संकट मनुष्यता, हमारी धरती, हमारे पर्यावरण, भाषा, पहचान के समक्ष है। भूमंडलीकरण की दानवी चपेट में हमारी जगह से हम विस्थापित हो रहे हैं। भीषण चुनौतियाँ है, कवि जन और कविता भी हतप्रभ है। फिर भी हांफते हुए विस्मृत नही होती मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ ‘कोशिश करो /कोशिश करो /जीने की /जमीन में गड़ कर भी। किसानों ने अपना कितना कुछ खो दिया है। कितने ही किसानों ने आत्महत्या कर ली है। इस समय में भी कवि धरती पर खड़ा है; यही एक उम्मीद है।

मनोज पाण्डेय- आज की कविता ख़ास कर युवा और नये कवियों की कविताओं को पढ़-सुन कर आप हिंदी कविता के प्रति आश्वस्त हो पाते है ?

चंद्रकांत देवताले अर्थव्यवस्था और उससे उत्पन्न संकट के बीच अगर हम कविताओं की आवाज को सुन पाये तो वे आश्वस्त करेंगी ही। कविता शिकस्त नही जानती है। चाहे कवि अनुत्तीर्ण माना जाये। आज कवि होना एक नैतिक सजा है और इस सजा को काटने-भुगतने का बेहतर तरीका साहस के साथ अपनी बात कहते रहना है। युवा रचनाकारों में इसी बेचैनी के साथ सृजनशीलता बड़ी है। केंद्र के कवियों को तो हम जानते ही है किन्तु जनपदों, कस्बों, आदिवासी और अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में भी पक्षधर युवा कवि-कविता हो रही है। जिसकी आवाज हमे आश्वस्त करती है। मौजूदा वक्त के उत्पीडन, संघर्ष, भ्रष्टाचार, राजनैतिक दांवपेंच को वे प्रखरता से पहचान रहे हैं।

     ऐसे कवियों की भी भरमार है जो तुरत-फुरत लिखना, छपना और पुरस्कृत होने को आतुर, बाजारवाद के प्रवाह में आत्ममुग्ध हैं। इनका कोई इलाज नहीं है। यह भी रफ्तार में मथाते हमारे समय की दुर्घटना है। इस प्रश्न से भी हम टकरा रहें जिसका जवाब देना आसान नहीं है। आने वाले समय से हमे निबटना ही होगा। “यह वक्त, वक्त नही मुकदमा है /या तो गवाही दे दो /या गूंगे हो जायो हमेशा के वास्ते”। अपनी बित्ता भर जगह को बचाते हमे यही कोशिश करते रहना है। यही बात आज की कविता के साथ भी मौजू है। 

चंद्रकांत देवताले
जन्म : 7 नवंबर 1936, जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश)
 

मुख्य कृतियाँ-
कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर,  दीवारों पर खून से,  लकड़बग्घा हँस रहा है,  रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच,  इतनी पत्थर रोशनी,  उसके सपने,  बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ।

आलोचना : ‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक’


संपादन : ‘दूसरे-दूसरे आकाश,’  ‘डबरे पर सूरज का बिम्ब’


अनुवाद : ‘पिसाटी का बुर्ज’ (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)


सम्मान
मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार,साहित्य अकादमी पुरस्कार
फोन-09826619360

मनोज पाण्डेय 
जन्म 03/09/1976 (दस्तावेजी ) कुशीनगर, उ० प्र० के एक गाँव में
शिक्षा-दीक्षा-   बस्ती-गोरखपुर में
‘पहल’ पत्रिका पर शोध-कार्य पूरा कर उपाधि की प्रतीक्षा।


‘इतिहास-बोध’, ‘परिकथा’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘युवा-संवाद’, ‘सचेतक’, ‘चिंतन-दिशा’, ‘सृजन’, ‘शैक्षिक दखल’ आदि पत्र-पत्रिकाओं सहित ‘जनज्वार’, ‘सिताब दियारा’ ,जनपक्ष’, ‘पहली बार’ आदि ब्लॉगों में कविताएँ, समीक्षा, लेख प्रकाशित।


सम्प्रति- दिल्ली सरकार के अधीन एक विद्यालय में अध्यापन
ई-मेल mp0402@gmail.com
फोन- 09868000221

(यह पूरी बातचीत परिंदे के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित हुई है) 

वरिष्ठ कवि–आलोचक शैलेन्द्र चौहान से युवा कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत


वरिष्ठ कवि और आलोचक शैलेन्द्र चौहान सितम्बर 2012 में हैदराबाद पधारे हुए थे। हमारे युवा मित्र कवि नित्यानंद गायेन ने इस मौके पर उनसे एक लंबी बातचीत की जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

इस बातचीत को हमने अलाव के नवम्बर-दिसम्बर 2012 अंक से साभार लिया है।

वरिष्ठ कवि–आलोचक शैलेन्द्र चौहान से युवा कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत

नित्यानंद गायेन – शैलेन्द्र जी नमस्कार. अच्छा लगा आप हैदराबाद आये, आपका स्वागत है.
शैलेन्द्र चौहान – मुझे भी अच्छा लगा गायेन  जी, कि आप में इतनी उत्सुकता है, मुझे उम्मीद है कि आप साहित्य को अपनी कविताओं से आगे बढा पाएंगे .

नित्यानंद गायेन:- आज के युवा कवियों पर आप क्या सोचते हैं ?
शैलेन्द्र जी – देखिये आज जो कविता लिखी जा रही है निश्चित रूप से उसमें कुछ युवा बहुत अच्छी कवितायेँ लिख रहे हैं. उनकी जो आब्जर्वेशन है, उनकी जो सेंसटीविटी है और उनकी जो चीजों को पकड़ने की डिटेल्स है, वो आब्जर्वेशन में ही आ जाते हैं, बहुत अच्छे हैं पर परेशानी ये है कि उनके पास में कोई विशेष चिंतन-दिशा नहीं है. हमेशा जो अच्छी कविता लिखी गयी है, उसके पीछे कोई-न-कोई चिंतन-दर्शन अवश्य रहा है. चाहे भक्ति का दर्शन हो, आप भक्तिकाल से शुरू कर सकते हैं, वो भक्तिकाल, रीतिकाल हो, छायावाद का युग हो, १८५७ के बाद का युग हो, वो भारतेंदु का युग हो, द्विवेदी युग हो, आधुनिक काल हो, समकालीन जनवादी प्रगतिशील कविता हो, या समकालीन कविता हो, उनके पीछे कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई एक चिंतन दिशा रही है जिसे हम दर्शन कहते हैं, तो बिना दर्शन के और बिना लोक के अगर कोई कविता लिखी जायेगी, तो उनके पास में जो अनुभव होने, वो उतने समृद्ध नहीं होंगे इसलिए कुछ दिनों में चुक जायेंगें. पर मुझे अच्छा लग रहा है कि इन दिनों कई युवा कवि हैं जो बहुत अच्छी कवितायें लिख रहे हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि वो आगे अपने आपको और समृद्ध करेंगें और बहुत अच्छी कविताएँ लिख पायेंगें.

नित्यानंद गायेन :- आपकी इस बात से कहीं-न-कहीं कि अभी जो बहस चली थी चिंतन दिशा में ही विजय बहादुर सिंह वरिष्ठ कवि-आलोचक ने जो बात छेड़ी थी कि युवा भटके हुए हैं, उनके पास कोई चिंतन दिशा नहीं है, तो आप उस बात का समर्थन कर रहे हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- नहीं मैं उस बात का समर्थन नहीं कर रहा हूँ. दरअसल जो बहस चल रही थी ‘चिंतन दिशा’ में उसके बारे में भी मैं ये सोचता हूँ कि जो लोग बहस में शामिल थे, उनकी भी खुद की कोई चिंतन दिशा नहीं है, जो वरिष्ठ आलोचक हैं उनके पास में एक स्टैगनेशन आ गया है,एक स्च्यूरेशन आ गया है और उनकी अपनी रचनात्मकता,उनकी अपनी सृजनात्मकता, उनकी समझने की शक्ति,उनकी रिसेप्शन, उनकी संवेदनशीलता कहीं-न-कहीं चुक गयी है, इसलिए वो उस चीज़ को नहीं समझ सकते, दरअसल आज युवा जो अपनी कविताओं में दे रहे हैं. मेरे कहने का तात्पर्य नहीं है कि कहीं भटके हुए हैं पर जो आज का समय है उसमे भटकने की प्रबल संभावनाएँ हैं इसलिए उन्हें सचेत रहने की आवश्यकता है.

नित्यानंद गायेन:– अभी हाल ही में इसी पर केशव तिवारी की कविता को लेकर जिसमें उनकी कविता के लोक को लेकर काफी लंबी बहस हुई थी. कुछ लोगों ने उनके पक्ष में बात की, कुछ बड़े लोगों ने उनके विपक्ष में बात की.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये लोक, मैं समझता हूँ कोई ऐसी चीज़ नहीं कि जिसे बौंड बना सके, भुना सके. यह एक ठीक वैसा ही अप्रोच है जैसा कि हमारे यहाँ कुछ एन.जी.ओ. कर रहे हैं. बीच में कुछ विदेशी संस्थाओं ने क्षेत्रीयता, क्षेत्रीय संस्कृति, फोक आदि पर काफी बड़े काम किए और उन्हें कॉमर्सलायिज़ कर दिया, तो फोक अपने आप को स्थापित करने के लिए, मैं उसको कोई ऐसी चीज़ लोक को नहीं मानता. लोक हमारे जनजीवन में शिद्दत से व्याप्त है.खासतौर से हमारे जो पिछड़े ग्रामीण इलाके हैं, शहरों का जो पिछड़ा वर्ग है,जो दलित वर्ग है,दमित वर्ग है और मजदूर वर्ग है उसमें भी वही चेतना पायी जाए जाती है और जो निम्नमध्यवर्गीय या मध्यवर्गी गाँव से निकलकर शहरों की तरफ आये हैं या शहरों में ही रह रहे हैं ३-४ पीढ़ियों से उनमें भी वही चेतना पायी जाती है. लोक शब्द को छोटा करके देखना या उसे विघटित करना मुझे लगता है कि ये एक अच्छी चीज़ नहीं है, लोक अपने आप में सम्पूर्ण है. अब देखिये स्थानीयता का उसमें जरुर पुट होता है, कि जो बड़े रचनाकार हुए हैं, या जो बड़े एक्टिविस्ट हुए हैं, या बड़े क्रांतिकारी ही हुए हैं वो अपने ज़मीन से ही शुरू होते हैं. अगर आप अपने घर में, अपने मोहल्ले में, अपने नगर में उस चीज़ को नहीं समझते हैं, उस लोक को नहीं समझते हैं,उस वातावरण को नहीं समझते हैं, उन संवेदनाओं को नहीं समझते हैं,तो आप निश्चित रूप से सुपरफिशियल बातें करेंगें, तो ‘मेरा दागिस्तान’ के जो लेखक हैं, देखिये उनकी अपनी भाषा थी, वो बहुत अच्छे कवि थे रसूल हम्ज़ातोव और उन्होंने इतना अच्छा प्रेज़ेन्टेशन किया कि पूरे रूस ही में वो महान माने गाये और विदेशों में उनकी रचना ‘मेरे दागिस्तान’ बहुत प्रचलित हुई इसलिए ये लोक को विघटित करना बहुत अच्छी बात नहीं है, हाँ,लोक तो पूरी जनता है, उस जनमानस की भावनाओं को समझना और उनकी दशा को बदलने के लिए अगर कोई कार्यरत है,तो वो निश्चित रूप से स्वागत योग्य है.

नित्यानंद गायेन :- मैं घूमकर दोबारा आता हूँ विजय बहादुर सिंह की बात पर कि उन्होंने कहा कि आज की युवाओं के पास ना वो भाषा है, ना कोई ऐसी कविता है जैसी नागार्जुन की कविता लोगों को याद हो जाते थी नागार्जुन के बाद, उसके बाद मुक्तिबोध या दूसरे जो बड़े कवि हुए हैं, किसी की ऐसी कविता नहीं आई कि वो याद हो जाए.
शैलेन्द्र चौहान:- देखिये विजय बहादुर सिंहजी बहुत वरिष्ठ हैं लेकिन मैं ये मानता हूँ कि विजय बहादुर सिंहजी की समझ बहुत सीमित किस्म की समझ है. उनके पास ना तो कोई दर्शन है, ना कोई विचारधारा है. उनके पास जो भी कवि आ जाता है या वो जिस कवि के माध्यम से अपने आप को प्रचारित कर सकते हैं, उनकी प्रशंसा में लाग जाते हैं. भवानीप्रसाद मिश्र के लिए उन्होंने बड़ा काम किया. भवानीप्रसाद मिश्र जैसे पॉपलिस्ट और जनमानस के करीब के कवि अवश्य थे उनकी अपनी गाँधीवादी दिशा थी, तो उन्होंने उनके लिए काम किया. नागार्जुन विदिशा जब आते, तो उनके यहाँ ठहर जाते थे, उन्होंने सोचा नागार्जुन पर बात करके, उस ज़माने में जनवादी चेतना का बड़ा भारी दौर चल रहा था, तो उससे फायदा उठाने के लिए उन्होंने नागार्जुन पे बात करनी शुरू कर दी. इस तरह से शलभ जी वहाँ आये, तो उन्होंने शलभ श्रीराम सिंह के ऊपर बात करनी शुरू कर दी, मैं भी विदिशा में रहा हूँ और विजय बहादुर सिंहजी से मेरा बड़ा करीब सम्पर्क है विजय बहादुर सिंहजी के बारे मैं तो जितना जानता वह यह है कि वो किसी भी बात पर कभी स्थिर नहीं रहते हैं, अवसरानुकूल अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए, दूसरों पर थोपने के लिए, अपनी बातें तंज सहित कहते हैं कि जिससे ये पता चलता रहे कि डॉ विजय बहादुर सिंहजी साहित्य में कहीं हैं यद्यपि ना तो उन्होंने आज तक कोई ऐसी महत्वपूर्ण प्रति दी है, ना तो आलोचना के क्षेत्र में कोई ऐसा बहुत बड़ा काम किया है और ना हिंदी क्षेत्र में विजय बहादुर सिंहजी एक सामान्य, एक औसत आलोचक के रूप में भी नहीं जाने जाते इसलिए उनकी बातों को मैं बहुत महत्व नहीं मानता.
 
नित्यानंद गायेन :- चलिए ठीक है! मैं घूमके आऊँगा आजकल जो दौर चल रहा है एक बात बार-बार आती है ‘दिल्ली में साहित्य का गढ़’ अभी इस पर किसी ने लिखा भी था और मैं एक पुराना अंक भी पढ़ रहा था, उसमें भी ये था कि जो दिल्ली करेगा और नामवर और अनामवर के ऊपर बहुत सारी बातें हुईं. उस पर आपकी टिपण्णी चाहता हूँ.
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल ये हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि हम गढों और मठों के चक्कर में पड़े रहते हैं. हिंदी कविता का क्षेत्र बहुत विस्तृत है. आप देखें ध्रुव कश्मीर से लेकर ध्रुव केरल तक या जहाँ हिंदी का विरोध हुआ था ऐसे तमिलनाडु तक हिंदी के कवि पाए जाते हैं. आपके हैदराबाद में भी हिंदी के बहुत सारे कवि थे. आंध्र में वेणुगोपाल यहाँ के प्रमुख कवियों में से थे और भी बहुत सारे कवि आकर रहे. बंगाल में अच्छे हिंदी कवि पाए गाये, गुजरात में अच्छे हिंदी कवि हैं, महराष्ट्र में अच्छे कवि हैं, तो उन अच्छे कवियों की बातें न करने,उनकी अच्छी कविताओं की बातें ना करके, सत्ताकेंद्र की बातें हिंदी साहित्य जगत में अक्सर होतीं हैं. पहले कभी इलाहाबाद और बनारस सत्ता के केंद्र में हुआ करते थे,कवि-लेखक वहाँ जाकर रहते थे. दूर से जिसको प्रतिष्ठा पानी होती थी,जो तमाम तरह के आन्दोलनों में शामिल होना चाहता था वो इलाहबाद चला जाता था, परिमल ग्रुप था वहाँ,नयी कविता वहाँ पैदा हुई, प्रगतिशीलता की चेतना वहाँ पैदा हुई, नयी कहानी वहाँ पैदा हुई और बड़े-बड़े लेखक वहाँ पर थे, तो लोग वहाँ चले जाते थे.फिर धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि भोपाल,मध्य प्रदेश की राजधानी, वहाँ गढ़ बन गया. वहाँ गढ़ बनाने में कुछ सरकारी अफसर बहुत सक्रिय थे,उन्होंने अपना एक गढ़ बना दिया साथ में प्रगतिशील लेखक संघ के लोग भी वहाँ सक्रिय थे उन्होंने भी साथ-साथ अपना गढ़ बनाया और दोनों हाथ-में-हाथ देकर चलने लगे. हुआ यही कि जीत उसी की हुई जो सत्ता में था.सत्ताधारियों ने सारे प्रगतिशीलों को वहाँ बुलाया,जनवादियों को वहाँ बुलाया और उनका स्वागत-सत्कार सब तरह से किया, जितना भी कर सकते थे और उन्हें नष्ट करने में अपनी कोई कसर नहीं बाकी रखी, अंततः आप देख रहे हैं क्या स्थिति है प्रगतिशील लेखक संघ की.

 
नित्यानंद गायेन :- मैं घूमके इसी पर आ रहा हूँ कि आजकल पुरस्कारों पे बड़ा विवाद होता है और पुरस्कार उसी को मिलता है जिसकी पैठ होती है या जिसकी सिफारिश हो जाती है. ये बातें सामने आयीं हैं,हर जगह कहीं-न-कहीं पढ़ने को मिलती है. जब पुरस्कार से पहले कोई बात नहीं होती, देने के बाद विवाद खड़ा हो जाता है.
शैलेन्द्र चौहान :- गायेनजी इसमें आप देखेंगें तो पायेंगें कि हमारे देश में पुरस्कार हमेशा मठाधीशों, सत्ता के राजाओं द्वारा दिए जाते रहे हैं, सामंतों द्वारा दिए जाते रहे हैं या बड़े सेठों द्वारा दिए जाते रहे हैं, तो ये जो पुरस्कार की लालसा है, यह अपने आप में व्यक्ति की, साहित्यकार की कमजोरी को दर्शाता है. कोई भी सत्ता में रहनेवाला व्यक्ति आपको पुरस्कृत क्यों करेगा? वो इसलिए पुस्कृत करेगा कि आप सत्ता के साथ रहें, आप उनका जो वर्ग है के साथ सहयोग करें.

नित्यानंद गायेन :- राजा के दरबार में नवरत्न रखते थे!
शैलेन्द्र चौहान :- बिलकुल, राजाओं के दरबार में ये सब हुआ करता था. राजा उन्हें हार दे दिया करते थे, मोती दे दिया करते थे, माणिक दे दिया करते थे और जो भी उनके पास में होता थे दे दिया करते थे, अँगुठियाँ दे दिया करते थे. उसी तरह से आज पुरस्कार है, तो आज के पुरस्कारों में सरकार से सम्बंधित जितने पुरस्कार हैं उन सारे पुरस्कार में सरकार के साथ सहयोग करनेवाले और प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले, आधुनिकता का मुखौटा लगानेवाले या अपने आप को महानता या प्रतिष्ठित होने का जो मुखौटा है उसके साथ जो लोग हैं वो सब शामिल होते हैं उसकी ज्यूरी में. अब नामवर जी उसमें शामिल है और इसमें नामवरजी का कसूर इतना है कि उनकी जो वर्गचेतना है, उन्होंने अपनी वर्गचेतना को वर्गसह्योग में बदल दिया. बहुत लंबे समय तक, नामवरजी प्रतिभावान है, उन्होंने बहुत अच्छा काम किया लेकिन धीरे-धीरे साथ भी वही हुआ कि उनमें एक रेजिमेंटशन आ गया और वो लिखने से सदैव कतराने लगे और सिर्फ बोलते थे, उनके शिष्यगण उनके बोलने को  नोट कर लेते थे. धीरे-धीरे उन्होंने प्रैग्मेटिज्म को अपनाने के बाद में सीधा-सीधा अवसरवाद को अपना लिया, जहाँ जैसा अवसर मिले, वहाँ वैसा लाभ उठाइये, इसलिए आप नामवरजी को देखते हैं कि उन्होंने जो पहली पुस्तक ‘कविता के प्रतिमान’ लिखी थी, वह भी, उनकी अपनी मौलिक अवधारणाएँ नहीं थी उसमें. उस पुस्तक में विजयदेव नारायण साही की प्रेरणा से उन्होंने वो सब चीज़ें लिखीं जो विजयदेव नारायण साही का अपना दर्शन था और साहीजी समाजवादी लोहिया के दर्शन से प्रभावित थे. साही जी अंग्रेजी के आदमी थे,तो जो आधुनिकता वाला कॉन्सेप्ट था वो उन्होंने प्रगतिशीलता-मार्क्ससिज्म के साथ नामवर जी ने वहाँ पर जोड़ दिया. उसमें उन्हीं लोगों की चर्चा की जो नयी कविता के प्रतिमानों पर फिट होते थे, उसमें उन्होंने उन कवियों की चर्चा नहीं कि जो बहुत जनवादी किस्म के, प्रगतिशील किस्म के, मार्क्ससिस्ट किस्म के लोग हुआ करते थे, तो नामवरजी शनैः-शनैः बिलकुल सत्ता के पालने में बैठ गए. अब ज़ाहिर है कि वो ज्युरियों में होंगे, ज़ाहिर है कि नामवरजी ना होंगे तो अशोक वाजपेयी होंगे, अशोक वाजपेयी ना होंगे तो राजेंद्र यादव होंगे और जो हमारे क्षेत्रीय साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने-अपने प्रदेशों में इस तरह की प्रतिष्ठा प्राप्त की है, सरकार-सहयोग से प्रतिष्ठा प्राप्त की है, तो वो ज्यूरी में होंगे तो पुरस्कार किन्हें मिलेगा.

नित्यानंद गायेन :- ठीक है, पुरस्कारों पर आपने बहुत अच्छा जबाव दिया. आपने दो लोगों का नाम प्रमुखता से लिया, एक राजेन्द्र जी का जिनकी उम्र भी काफ़ी हो गई है और हमारे लिए बहुत आदरणीय भी है क्यों कि हम युवा हैं, उनके ऊपर जिस तरह के आरोप लगते रहे विशेषकर स्त्री-विमर्श को लेकर और अभद्र साहित्य या दूसरे शब्दों में कहे तो नग्न साहित्य को लेकर जो आरोप इन पर लगते रहे, उस पर आप क्या कहना चाहते हैं?

शैलेन्द्र चौहान :- देखिये जहाँ तक आपने सम्मान की बात कही, ये निश्चित रूप से सभी सम्मानीय हैं और उनके सम्मान में मैं कोई कमी नही महसूस करता, मैं खुद उनका बहुत सम्मान करता हूँ. नामवरजी का, राजेन्द्र जी का, वाजपेयी जी का और निश्चित रूप से इन सभी में प्रतिभा है और उस प्रतिभा का इन सभी ने किस तरह का उपयोग किया है यह अलग बात है. तो हर व्यक्ति कुछ अलग करके दिखाना चाहता है ताकि उसकी पहचान बन सके .अंग्रेजी में इसके लिए जैसे पहचान की संकट आ गई identity crisis एक शब्द है, तो कहीं न कहीं ये लोग अपनी रचनात्मकता में चुके और इन्हें आगे बढ़ने के अवसर नही मिल पाये क्यों कि एक स्तर तक पहुँचने के बाद उस स्तर को बनाये रखना उसको मेन्टेन करना बहुत ही मुश्किल होता है. तो जब वहाँ पर ये चुक गये और उस चीज को बनाये न रख सके तब इन्होने इस तरीके के, इसको बोलेंगे कि तमाशे टाइप की चीज खड़ी की .और राजेन्द्र जी ने ये शुरू कर दी, उन्हें यह चीज समझ में आ गई कि दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जो है ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें बड़े अच्छी तरह भुनाए जा सकते हैं. इसलिए उन्होंने ये सब कारोबार शुरू किया. यह एक तरह का कारोबार ही था जो उन्होंने पत्रिका निकली ‘हंस’ उसके लिए पैसे जुटाना. आप जानते हैं कि कोई भी पत्रिका निकलना बड़ा कठिन कार्य है, तो उसके लिए पैसा कैसे जुटे,लोग कैसे जुड़े उससे ? तो उन्होंने उस चीज को समझा, हमारी कमजोरी को समझा, समझ के अंतर्विरोध को समझा और दलित और स्त्री पर अपना पूरा का पूरा फोकस कर दिया. अब उसमें दिक्कत यह है कि राजेन्द्र जी ने जो कुछ किया, वह एक तरह से बहुत बुरा नही किया, लेकिन उसके पीछे भी कोई दर्शन नही था. आज भी आप राजेन्द्र जी से पूछे कि वे किस दर्शन के फालोयर हैं तो शायद स्पस्ट रूप से ऐसी कोई चीज़ उनके मुह से नही निकलेगी जिससे वे कह सके कि वे फलां दर्शन के फालोयर हैं. वो बौद्धधर्म, आंबेडकर, महात्माफुले या मार्क्सवाद इन तीनों में किसी के बहुत अच्छे तरीके से उसके न तो प्रशंसक हैं न ही उसके दिशा पर चलने वाले व्यक्ति हैं. तो उन्होंने जो कुछ दिया वह एक सुपरफिसियल चिंतन को उन्होंने दिशा दी साथ में उन्होंने उसमें सनसनी फैलाई, जैसे नग्नता है या देह है स्त्री की देह पर उन्होंने अपने आपको बहुत केंद्रित किया, अपने आप को चार्वाक  पर बहुत केंद्रित किया अपने आप को पश्चिमी या अधुनातम समझ कर ये सारी चीजे उन्होंने की ताकि बहुत सारे लोग उनकी ओर आकर्षित हो सके, तो it is a kind of gimmick.  यह एक तरीके का तमाशा है और उस तमाशे से बहुत कुछ हासिल नही हुआ. उन्होंने जो साहित्य समाज में प्रचलित था उसकी व्याप्ति को कहीं न कहीं संकीर्ण बना दिया. कुछ कम कर दिया. अब देखिये ‘हंस’ बहुत बिकती है पत्रिका काफ़ी चलती है लेकिन उसमें जो कुछ कंटेंट होता है वह क्या होता है? वह कंटेंट बहुत समय तक किसी व्यक्ति को प्रभावित नही कर सकता. जैसे हम लोग नही देखते एक फौरी तौर पर एक तरफ जो एंटरटेनिंग हैं, एक्साइटिंग है, stimulating है. अब जैसे सड़क छाप पत्रिकाएं होती थी पोर्नो की पत्रिकाएं उस जमाने में होती थीं या मनोरंजन के लिए जो फिल्में होती हैं सीरियल होते हैं उस तरीके के चीज में वो शामिल हो गया तो उसकी गंभीरता कहीं नही रही|

नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते है कि ‘हंस’ उस तरह की पत्रिका हो गई है जो सड़कों पर या रेलवे स्टेशनों पर जो साहित्य /पत्रिकाएं बिकता है उस तरह का है ?
शैलेन्द्र चौहान – नही, नही, उस तरह का नही उसका उन्नत रूप है यह ….उसका थोड़ा सा ये उन्नत रूप है चूँकि राजेन्द्र यादव समझदार व्यक्ति हैं इसलिए उन्होंने इसमें साहित्य और विचार को भी स्थान दे रखा है.

नित्यानंद गायेन :- चलिए जब राजेन्द्र जी इस बातचीत को सुनेंगे /पढ़ेंगे देखते हैं राजेन्द्र जी अगली सम्पादकीय में क्या लिखते हैं .
शैलेन्द्र चौहान :- राजेन्द्र जी बहुत सीजन्ड व्यक्ति हैं ओर वो चाहते है कि लोग उनकी जो है बुराई करे उनसे असहमत हों ताकि विवाद में ही उनका नाम होता है तो नामवरजी, अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र जी विवाद के ही लेखक/रचनाकार हैं. उनके लिए विवाद ही सृजन है. क्योंकि वो चुक गये.

नित्यानंद गायेन :- मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि कुछ लोग मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ ऐसा करते हैं ताकि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हों ?
शैलेन्द्र चौहान :- जी हाँ ,जी हाँ जैसे मीडिया में होता है जैसे सनसनी , इंडिया टीवी आदि …लेकिन क्योंकि इनका क्यों कि बैकग्राउंड अच्छा है इसलिए इनका स्तर ठीक है.

नित्यानंद गायेन :- मैं आपसे कुछ निजी प्रश्न पूछुंगा उससे पहले केदारनाथ सिंह जी जो कि मेरे बहुत आदरणीय कवि भी हैं मैं जानना चाहता हूँ कि दो या तीन साल पहले मुझे ठीक से याद नही ‘आउटलुक हिंदी’ का एक अंक आया था मुझे वर्ष ठीक से याद नही अभी उस अंक में एक सर्वे हुआ था जिसमें यह कहा गया था कि केदार जी हिंदी में नम्बर एक कवि हैं जिसमें सर्वे का कोई आधार नही दिया गया था जैसे कि पाठकों का क्या स्तर था या किन पाठकों से उन्होंने पूछा था केवल यह संख्या दे दी थी कि इतने पाठकों से हमने पूछा. पाठकों की कविता /या साहित्यिक समझ पर कोई विश्लेषण नही दिया था पत्रिका ने. और उसके बाद इसी पत्रिका ने ठीक इसी तरह कवयित्रियों पर भी इसी तरह का सर्वे हुआ और उसमें अनामिका जी को सर्वाधिक पढ़े जाने वाली कवयित्री घोषित किया गया था. क्या कवि नम्बर एक और नम्बर दो भी होता है क्या इनकी कोई रैंकिंग भी होती है कवियों की? इस पर आपके विचार ..

शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल केदारजी शुरूआती दौर में बहुत ही अच्छे कवि थे इससे हम इंकार नही कर सकते. बहुत सम्मानित व्यक्ति भी हैं. अब परेशानी यह होती है कि जब हम कविता को और साहित्य को किसी फ्रेमवर्क में कस लेते हैं और उसे खास तौर पर एक ऐसी कला मानने लगते हैं जो शब्दों के खिलवाड़ की कला हो. लोगों ने जब आज से आठ –दस साल पहले (post modernism) उत्तर आधुनिकता का दौर चला तो लोगों ने कहा कविता क्या है ? कविता शब्द है और शब्दों के साथ खिलवाड़ करना ही कविता है . क्योंकि उत्तर आधुनिकता के कन्सेप्ट में विघटनवाद कन्सेप्ट में यह था कि विचार तो मर चूका है. भाषा का अंत हो गया है .इतिहास शांत हो गया है. तो ये लोग प्रगतिशील चेतना के कवि थे प्रारंभ में, धीरे –धीरे इन्होने देखा पश्चिम से प्रभावित होकर कि ये सारी चीजें  आज हिंदी साहित्य में मठाधीश बनाए रखने के लिए उतनी कारगर नही है जितना यह है कि कविता को एक कलात्मकता प्रदान की जाये तो उन्होंने कविता को कला मान लिया. उनकी कवितायों में आप देखेंगे कि उनकी कवितायों में भी कोई दर्शन नही है आज इधर की कवितायों में. वे किस चीज के समर्थक है हम नही जानते. छोटी –छोटी चीजों पर, अनुभूतियों पर एक सहज सी, सपाट सी लेकिन थोड़ी सी संवेदना प्रकट करने वाली कविता अगर लिख दी जाए और हम कहें कि अमुक व्यक्ति बहुत महान हो गया है नम्बर एक कवि हैं, हाँ तो ठीक है न सुरेन्द्र शर्मा नम्बर एक थे एक जमाने में, काका हाथरसी उससे पहले नम्बर एक कवि थे. छोटी –छोटी चीजों पर छोटी –छोटी कविता करने वाले छोटे –छोटे तुक्कड़ कवि अरुन जैमिनी भी बड़े महान हैं. तो हमारे बौद्धिक जगत में केदार जी बड़े महान हैं. नम्बर एक पर हो सकते होंगे  और आउटलुक ने ऐसा सर्वे किया है तो निश्चित रूप से आपने खुद ही कहा कि किन लोगों से किया है यह तो पता नही क्योंकि हमसे तो किसी ने पूछा भी नही  या हमारे जानकार लोगों से भी नही पूछा गया. अब भाई बात ये है कि बहुत सारी चीजें प्रायोजित भी होती है, प्रभावित होकर भी करते हैं  और इसी तरह कवयित्रियों पर भी हुआ होगा. सम्पादक भी हमेशा से यही चाहते हैं कि उनका कुछ सेल बड़े, कुछ नयापन हो कुछ आकर्षक हो, कुछ सनसनी हो कुछ विवाद हो तो इसीतरह से उनके सलाहकार भी यही बड़े लोग होते हैं और वो इसी तरीके की प्रयोग करते हैं. जैसा कि आप देखेंगे ‘नया ज्ञानोदय’ के बहुत सारे अंक बहुत सारी चीजों पर निकले, बहुत सारे प्रयोग युवाओं पर केन्द्रित किए गये. जानबूझकर कि मैंने युवाओं को प्रोमोट किया है. आपने क्या प्रोमोट किया है ये बताएं आप ? आप शुरू से क्या करते रहे ? तो इस तरीके के जो सनसनीखेज वक्तव्य है और विवाद है और जो को कुछ लोगों को आकर्षित करने वाली चीजें हैं जिस तरीके से मदारी डमरू बजा के आकर्षित करता है उसी तरह से ये लोग साहित्य से जुड़े लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ये सब कुछ कर रहे हैं.
 
नित्यानंद गायेन :- मतलब कहीं न कहीं आप यह कहना चाहते हैं कि इस सभी पर भी कहीं न कहीं बाजारवाद /पूंजीवाद का असर दिख रहा है ?
शैलेन्द्र चौहान :- निश्चित रूप से, न सिर्फ बाजारवाद और पूंजीवाद का असर बल्कि इन सब लोगों के मनोमस्तिक में एक पुराना भाववादी सामंतवाद भी है. ये ठीक उसी तरह अपने लोगों को प्रोमोट करते हैं, अपने ग्रुप को प्रोमोट करते हैं जिस तरह सामंती जमाने में, राजाओं के जमाने में लोग किया करते थे. तो वो असर भी इनके दिमाग में हैं, पूंजीवादी प्रभाव भी इनके दिमाग में हैं. वर्ना नामवर जी ‘राष्ट्रीय सहारा’ में क्यों नौकरी करते? वर्ना रवीन्द्र कालिया जो है ज्ञानपीठ और वागर्थ इन सारी पत्रिकाओं में क्यों नौकरी करते ? क्योंकि इन लोगों कि ये मज़बूरी तो खास तौर पर नही थी. एक जमाने में जब रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय हुआ करते थे तब मज़बूरी हो सकती थी लेकिन आज की तारीख में मैं नही मानता कि ऐसी कोई मज़बूरी इन लोगों के सामने थीं. तो इनके ऊपर पूरी तरह बाजारवाद और पूंजीवाद का असर परिलक्षित होता है.

नित्यानंद गायेन :- खैर यह तो एक ऐसा विवाद है इसका तो अंत अभी नही दिखता और न ही होने वाला है, बहरहाल हम आते हैं अगले प्रश्न की ओर. कल मैंने आपको पढ़ा ओर इससे पहले मैं आपको नही पढ़ पाया, यह  मेरा दुर्भाग्य है. दूसरी बात यह कि मैं जहाँ हूँ यहाँ पत्रिकाएं पहुँचती नही, मंगवानी पड़ती है. आपने इतना काम किया यह कल पढ़ने के बाद मालूम हुआ, उसके बावजूद मैंने यह देखा कि ये एक बात अपने कही कि गुटबाजी वाली बात मुझे लगता है आप जैसे जो और भी प्रतिभावान एवं ईमानदारी से काम करनेवाले लोग होंगे, उनका नाम ये जो बड़े लोग हैं ये अपनी आलोचना में या लेख में ऐसे लोगों का नाम लेना क्यों भूल जाते हैं?
शैलेन्द्र चौहान :- मैं, गायेनजी इसको इस तरह से लूँगा कि यह हमारे लिए बड़ी अच्छी बात है. होता यह है कि अगर ये लोग, बड़े तमाम महान लोग किसी को हाथों-हाथ उठा लेते हैं तो, उसकी उसी दिन मृत्यु हो जाती है. नए कवियों को बर्वाद करने में, उन्हें बहुत आगे न आने देने में इन लोगों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जो चिंतन की दिशा में आगे बढ़ते हुए रचनाकार थे उनको सम्मान दिलाने में, उनको छपने में, उनके संग्रह बड़े –बड़े प्रकाशकों से छपवाने में, और उनके नाम उछालने में जो इन लोगों की भूमिका रही वो लोग आज कहाँ मौजूद हैं? अब देखिये काफ़ी दिनों तक उन लोगों ने संघर्ष भी किया कि हम एक स्तर बनाये रखेंगे. लेकिन शुरूआती दौर में एक दो संग्रह में उनकी अच्छी कवितायेँ आती है उसके बाद वे चुभ जाते हैं. तो मैं यह मानता हूँ कि जरुरत से ज्यादा, देखिये दो चीजें होती सृजनात्मकता में कि हमें कोई प्रोत्साहित करें, लेकिन जरूरत से ज्यादा अगर प्रोत्साहन हमें दे दिया जाये तो हम उसी दिन रिटायर्ड हो जाते हैं उस स्थान से. और हम उसी चक्कर में फंस जाते हैं पूरा का पूरा जो चक्रव्यूह है कि अगली चीज कब मिलेगी हमको . हमको एक पुरस्कार मिल गया, मेरे एक जनवादी मित्र हैं भोपाल में उनके पास ऐसा कोई पुरस्कार नही देश का सिर्फ एक बड़ा वाला ज्ञानपीठ पुरस्कार को छोड़कर कि उन्होंने पुरस्कार न ले लिया हो. तो उनके पास में जैसे बहुत सारे लोगों को पैसा कमाने कि हबस होती नाम कमाने की हबस होती है उसी तरह सम्मान कमाने की, छपने की पुरस्कार कमाने की भी हबस होती है अपने लोगों में जाने जानेकी भी एक लस्ट होती है. दरअसल मैं इन सारी चीजों को बहुत पहले समझ चूका था. इसीलिए इन सारी चीजों का मेरे ऊपर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता. मेरा यह मानना है कि मैं काम करता रहूँ, धीरे–धीरे. आपके न पढ़ पाने का भी यही कारण है कि दरअसल पब्लिसिटी भी बड़ा बड़ा काउंट करती है, सेल्फ प्रोमोशन भी बड़ा काउंट करता है. अपने–आप को स्पोंसर करिये पैसे दे देकर और अपने प्रभाव से तो लोगों तक पहुँचने का एक जरिया बनता है. मैं यह बात मानता हूँ, लेकिन मैं इस चीज को ज्यादा महत्व देता हूँ कि आप इन चक्करों में न पड़ कर अच्छा सृजन करें. लोग आज नही पढ़ेंगे तो कल पढ़ेंगे. सृजन करना प्रसिद्धि की मौलिक शर्त नही है. सृजन करना जनता के साथ जुड़ने की, जनभावना को समझने की, अपने–आप को निरंतर समृद्ध करने की एक कसौटी है. इसलिए मैं सृजन करता हूँ. मेरे लिए ये चीजें महत्वपूर्ण नही.

नित्यानंद गायेन :- अभी कुछ दिन पहले कान्हा में एक प्रकाशक शिल्पायन ने एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें आयोजन के खर्चे को लेकर विवाद हुआ और यह भी मालूम हुआ कि उसमें कुछ ऐसे भी लोग आये थे जिनका संबंध ‘संघ’ से था . यहाँ कुछ ऐसे भी कवि पहुँच गये थे जो खुद को खुद को मार्क्सवादी विचारधारा के मानते हैं. इस मुद्दे पर भी बड़ा हल्ला हुआ. क्या आप यह मानते है कि इस तरह के आयोजन में आयोजक को या जो कवि वहाँ जा रहे हैं उन्हें पहले से यह नही मालूम होता है कि कौन –कौन आ रहे हैं ?
शैलेन्द्र चौहान :- दरअसल अब यह प्रश्न तो कुछ बड़ा असमंजस वाला हो गया है कि कौन वामपंथी है और दक्षिणपंथी हैं  क्योंकि जो दौर चल रहा है  …..उस आयोजन के बारे में मुझे याद है शिल्पायन ने जो किया था उसमें दक्षिणपंथी भी थे, वामपंथी भी थे और मध्यपंथी भी थे . उसमें गिरिराज किराडू थे जो अशोक वाजपेयी के बाकायदा दांये हाथ हैं बाँए हाथ है ..पता नही, कौन सा हाथ है ..जो उनकी सारी चीजों को आगे बढाते हैं . उसमें वो लोग भी थे जो बाकायदा भाजपा से और आर. एस. एस. से पैसे लेकर और चीजों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें सरकार समर्थित लोग भी थे और शिल्पायन के जो सज्जन हैं कहा जाता है वह खुद अशोक वाजपेयी के बड़े निकट हैं. उन तमाम प्रगतिशीलों के निकट हैं. जनवाद तो पता नही लेकिन हाँ प्रगतिशीलों के बहुत निकट हैं, तथाकथित प्रगतिशीलों के …उन्हें पुरस्कृत भी करते रहते हैं वो . तो ये सारा जो मामला है ये सब पैसे से जुड़ा हुआ मामला है पैसे कमाने का मामला है …क्योंकि प्रकाशक को पैसे चाहिए और पैसे कवि को सम्मान चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए, उसे  भी पैसे चाहिए. तो जो अपने आप को कहते हैं प्रगतिशील जनवादी कवि वो सिर्फ उसको भुनाना चाहते हैं. दरअसल मन से और चेतना से वो प्रगतिशील नही हैं, पूरी तरह अवसरवादी हैं. और कहीं न कहीं मैं यह नही कहना चाहुंगा कि वे दक्षिणपंथी हैं लेकिन जब भी जरूरत पड़ेगी वो उनके पाले में भी बैठ जायेंगे .उन्हें कोई परेशानी नही होगी. तो उनकी चेतना कुंद हो चुकी है इसलिए ये सारी महत्वहीन हो गई हैं. दरअसल जो कहता है वो होता नही है तो हमें बड़ा खराब लगता है .और ये भ्रम जबरदस्ती फैलाया जा रहा है ये पूंजीवाद और बाज़ारवाद और सत्ता के द्वारा निरंतर फैलाया जा रहा है पिछले कई दशकों से. इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है .और इसे समझने की भी आवश्यकता भी है और यह समझ बहुत आसानी से नही आती . पिछले दिनों ज्ञानरंजन दिल्ली में आये हुए थे तो उन्होंने कहा कि साहित्य की ‘पालिमिक्स’ हर कोई नही समझ सकता. उसके समझने के लिए भी उसे बहुत ही ध्यान देकर उसके अध्यन की आवश्यकता है .तब जाकर वो साहित्य की पालिमिक्स समझ सकता है. वर्ना हम कहते ही रह जायेंगे कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ वो कहेंगे हमारी पालिटिक्स कुछ नही है, हम तो कवि हैं. अवसरवाद ही हमारी पालिटिक्स है, इस दुनिया में आये हैं तो कीड़े –मौकोड़े की तरह जी लेंगे ..तो हम ..हमारी वही पालिटिक्स है.

नित्यानंद गायेन :- तो, इस युग के हर पल में हमें मुक्तिबोध की ये बात आएगी …..?
शैलेन्द्र चौहान :- रखनी चाहिए , अन्यथा हम कहीं के नही रहेंगे तो ..जैसा कि आपने कहा कि मेरे जैसे बहुत से लोग होंगे ..मैं इस चीज से निराश नही हूँ ..न इस चीज का कोई अफ़सोस है कि मेरे जैसे बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं ..और अन्ततः उन्ही के काम जो हैं वो फलदायी होते हैं . और वो लम्बे समय तक जीवित रहते हैं . ये ये क्षणभंगु किस्म के काम से मुझे आनंद नही मिलता .

नित्यानंद गायेन :- अंत में मैं चाहता हूँ की आप अपनी मनपसंद कविता की कुछ लाइनें हमें सुनाएं …आपकी कविता से  नही ..
शैलेन्द्र चौहान :- देखिये ये बहुत अच्छी बात आपने कही कि मनपसंद कविता …अब मैं आपसे कहूँगा एक चीज जो थोड़ी से आश्चर्यजनक और अटपटी भी होगी कि मुझे शील जी की कवितायेँ बड़ी अच्छी लगती थीं ..और उनकी कविता की दो पंक्तियाँ है कि ..

‘क्षेत्र क्षीण हो जाये न साथी
हल की मूंठ गहो’ 

तो अपने –आप को उर्वर बनाये रखने के लिए हमें हमेशा हल चलाना होगा, तभी आप आगे बढ़ सकेंगे ..इसी तरह मुझे ..यह आपको जानकार अटपटा लगेगा कि मुझे दुष्यंत कुमार बहुत प्रिय रहे हैं और उनकी जो कवितायेँ और गज़ल हैं मुझे बहुत अच्छी लगती है. और उनकी गज़लों में राजनैतिक चेतना से मैं बहुत प्रभावित था …जब वो कहते थे कि ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ..’ तो अगर हम प्रवत्तियों पर भी बात करते हैं तो लोग कहते हैं कि ये तो हमसे नाराज़ हैं और हमने इनकी कविताएँ नही छापी , इनका नाम नही लिया इसलिए हमारी आलोचना कर रहे हैं. और हमारे आदरणीय नागार्जुन जी, जिन्होंने सैदेव जानता के साथ में रहकर जनता की कविताएँ लिखीं  उनकी एक कविता थी ‘शासन की बंदूक’ इस तरह की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ. मुक्तिबोध की कवितायेँ मैं हमेशा याद रखता हूँ ..उन कविताओं से मुझे सदेव प्रेरणा मिलती है.


नित्यानंद गायेन :- शैलेन्द्र जी , बहुत अच्छा लगा …आपने इतना समय दिया और हैदराबाद में आकर मुझे सूचना दी, मेरा हौसला बढ़ाया. मुझे विश्वास है कि आगे भी हम इसी तरह से मिलेंगे ..नमस्कार .
शैलेन्द्र चौहान :- मुझे भी आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. नमस्कार!

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की हैं जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)
 

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