रणीराम गढ़वाली

जन्म-  6 जून सन 1957 को ग्राम मटेला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखण्ड।
सम्प्रति- दिल्ली एम. ई. एस. गैरीजन इन्जीनिया प्रोजेक्ट ईस्ट में सेवारत।
प्रकाशित कृतिया-  कहानी संग्रह, खण्डहर, बुरांस
के फूल, देवदासी,व शिखरों के बीच, प्रकाशित। लघु कथा संग्रह आधा हिस्सा तथा एक बाल कहानी संग्रह प्रकाशित। एक उपन्यास व एक बाल कहानी संग्रह प्रकाशन पथ पर।
अनुबाद- कन्नड़, तेलगू , व असमिया भाषाओं में रचनाओं का अनुबाद।
सम्प्राप्ति-  उत्तरांचल जनमंच पुरस्कार व साहित्यालंकार की उपाधि से सम्मानित।

सम्पादन-   काव्य संग्रह हस्ताक्षर का सम्पादन।

कहानी की दुनिया में रणी राम गढ़वाली ने इधर अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है। गढवाली की ‘चैफला’ कहानी  काफी चर्चा में रही है। गढवाली की कहानियों में जीवन की विडंबनाओं का वर्णन जिस रूप में आता है वह हमें चकित नहीं करता बल्कि हम उस घटना या दृश्य के सहभागी बन जाते हैं। और यही इस कहानीकार की ताकत है जिसमें दृश्य नाटकीय न होकर जीवंत बन जाते हैं। ‘चैफला’ ऐसी ही एक कहानी है जिसमें महानन्द अपनी पत्नी सरूली के लिए एक साडी तक का इंतजाम नहीं कर पाता। तो आईये पढ़ते हैं रणी राम गढ़वाली की चर्चित कहानी ‘चौंफला’.   

चौंफला       

रोज शाम को पत्थर ढोने के बाद जब वह घर लौटता है तो रास्ते में पड़ने वाली दुकान के दरवाजे के साथ रस्सी में बंधी हुई खूबसूरत साडि़यों को देख कर उसके कदम अनायास ही रुक जाते हैं। उन साडि़यों को देखते ही सरूली के शब्द उसे याद आने लगते हैं। वह रोज सुबह जब काम पर जाने के लिए घर से निकलता है तो सरूली उससे कहती है कि, ‘उत्तरायणी का मेला आने वाला है और उसके पास साड़ी नहीं है। गाँव में तो वह फटी पुरानी साड़ी पहन कर रह लेगी लेकिन मेले मे वह कैसे जाएगी। जब कि इस बार के मेले मे उनका चैंफला का मुकाबला पंडारा गाँव की औरतों से है। गाँव की औरतें उसके बिना मेले में नहीं जाएँगी तो फिर चौंफला नहीं होगा। और तब पंडारा गाँव को उस वक्त बिजयी घोषित कर दिया जाएगा।’ सरूली रोज उसे साड़ी लेने के लिए कहती है। लेकिन जब वह शाम को घर लौटता है तो सरूली उसका खाली थैला देख कर निराश हो जाती है।

       सरूली ठीक ही कहती है लेकिन वह उसके लिए एक साड़ी नही ला सका है। लेकिन अब की बार जब मकान मालिक उसे उसकी मजदूरी देगा तो वह सरूली के लिए एक साड़ी लेकर जरूर जाएगा। जिसे पहन कर सरूली बहुत खुश होगी।

       आज उसने दुकानदार के पास जा कर कहा, ‘‘वो सातवें नंबर की नीली साड़ी कितने की है?’’

       ‘‘डेढ़ सौ रुपये की….?’’

       ‘‘मेरे पास इस समय रुपये नही हैं। मजदूरी मिलते ही मैं आपके रुपये लौटा दूँगा। मुझे एक साड़ी उधार दे दो भाई।’’

       ‘‘मैं उधार नहीं देता। दरवाजे पर लगा हुआ बोर्ड नहीं देखा? आज नकद, कल उधार।’’

       वह चुपचाप दुकान के बाहर निकल आया था। आज नहीं तो कल मजदूरी मिलते ही वह सबसे पहले सरूली के लिए साड़ी लेकर ही जाएगा।

       लेकिन मकान मालिक उसे मजदूरी कब देगा? वह दुकान के बाहर खड़े-खड़े रस्सी पर टंगी हुई साडि़यों को मन ही मन में गिनते हुए सोचता है, एक…दो…तीन…। हाँ…सातवें नंबर की साड़ी ठीक रहेगी। लेकिन गौरी की शादी में लोगों से लिया गया कर्जा वह अभी तक नहीं लौटा सका है। गौरी की शादी में ही गाँव के जस्सा ने उसे ब्लाँक से पच्चीस हजार रुपये दिलाए थे। पाँच हजार रुपये जस्सा ने और पाँच हजार रुपये ब्लाक के कर्मचारियों ने ले लिए थे। और वह उन पच्चीस हजार रुपयों को अभी तक भर रहा है।

       जब वह कुछ महीनों तक रुपये नहीं भर सका तो उसके घर की कुर्की के आदेश आ गए थे। उस वक्त पटरिया गाँव के बूथा सिंह ने जब उसके  घर की कुर्की के बारे में सुना तो उसने उसे जमा करने के लिए तीन हजार रुपये दे दिए थे और उसका घर नीलाम होने से बच गया था।

       गौरी की शादी के समय उसने सरपंच के पास अपने तीन खेत गिरवी रखे थे। जिनमें सरपंच ने अपना मकान बना कर कब्जा कर लिया था। फिर भी सरपंच का कर्जा बढ़ता ही जा रहा है। कान्ता के भी चार सौ रुपये देने हैं। तीन महीने से वह दुकानदार को भी कुछ नहीं दे पाया है। चार-पाँच दिन पहले ही दुकानदार ने उसे अपने पास बुला कर कहा कि, ‘अगर उसने एक महीने के अंदर रुपये नहीं दिये तो वह उसे सामान देना बंद कर देगा और फिर सरेआम उसके कपड़े उतरवाते हुए उसके बदन पर कच्छा तक नहीं  रखेगा।

       दुकानदार की बातें सुनकर उस वक्त उसकी दुकान में बैठे हुए सभी लोग हँसने लगे थे। लोगों को हँसते देखकर उसे गुस्सा तो बहुत आया था। लेकिन वह चुपचाप अपना सिर झुकाए घर के लिए चल पड़ा था। मनसा पटवारी से उसने दस हजार रुपये लिए थे। वह उसका ब्याज देते-देते थक गया है। पूँजी के तो वह पाँच सौ रुपये भी नहीं लौटा सका है। जब कभी उसे पत्थर ढोने का काम मिल जाता है तो उससे मिलने वाली मजदूरी लोगों का कर्जा देने के लिए भी पूरी नहीं होती। जगता लोहार से उसने गौरी की शादी में लोहे की दथड़ी दरान्ती दीया व अन्य सामान बनवाया था। उसके दो सौ रुपये अभी तक सिर चढ़े हुए हैं।

       एक दिन जब धरमू बीमार हुआ तो उस वक्त उसकी जेब में एक भी रुपया नहीं था। धरमू के बारे में मिस्त्री को बताते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उस वक्त मिस्त्री ने उसे पाँच सौ रुपये देते हुए कहा था कि जब तू ये पाँच सौ रुपये लौटाएगा तो उनके साथ पिछले रुपये भी लौटा देना।

       तभी बादलों की गर्जना सुनकर उसकी तंद्रा भंग हो गई थी। बाहर तेज बारिश शुरू हो गई थी। कमरे में चिमनी की दूधिया रोशनी में सरूली का गोरा चेहरा बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रहा था। वह  बड़ी देर तक टकटकी लगाए सरूली के चेहरे को देखता रहा। तभी छत से बारिश की बूदों की टप-टप सुन कर सरूली जाग गई थी।

       कमरे में छत से टपकती हुई बूदों के नीचे बर्तन लगाते हुए वह बोली, ‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई थी। आज बूथा सिंह रुपयों के लिए कह रहा था।’’

       सरूली के शब्दों को सुनकर उसके माथे पर पसीने की बूदें चुहचुहा आई थी।

       ‘‘मेरी बात मानो तो तुम मकान मालिक से रुपये लेकर बूथा सिंह को दे दो।’’

       ‘‘और तुम्हारी साड़ी…?’’

       ‘‘गोली मारो साड़ी को…। जैसे आज तक काम चला है, आगे भी चल जाएगा।’’

       ‘‘अगर तू मेरे साथ न होती सरूली तो शायद मैं इस गाँव में नहीं रह पाता। सच कहूँ तो तू बहुत सुंदर है। रमतू की सफेद गाय की तरह।’’

       उसके शब्दों को सुन कर सरूली ने उसे कनखियों से देखते हुए चिमनी को बुझा दिया था। जिसके कारण कमरे में घुप्प अंघेरा पसर गया था।

       सुबह होते ही महानन्द काम पर चला गया था। लेकिन बूथा सिंह का ध्यान आते ही वह वहाँ पत्थरों के ढेर पर बैठ गया था। तीन हजार रुपयों के बारे में सोचते हुए उसके होंठ सूख गए थे। चेहरे पर उदासी की पर्ते चढ़े होने से उसका चेहरा स्याह पड़ गया था।

       उसे घबराया हुआ देख कर जब मिस्त्री ने उसकी उदासी  का कारण पूछा तो उसने मिस्त्री को सारी बातें बता दी थी।

       ‘‘बूथा सिंह बहुत अच्छा आदमी है महानन्द। मैं यह भी जानता हूँ कि वह जरूरतमंद लोगों को बिना ब्याज के रुपये भी देता है। लेकिन जब समय पर कोई उसके रुपये नहीं लौटाता है तो फिर वह रोज उसके घर जाता रहेगा। मैं मकान मालिक से बात करके तुम्हें तीन हजार रुपये दिला देता हूँ। लेकिन एक बात का ध्यान रखना महानन्द कि जब तक तुम्हारे तीन हजार रुपये पूरे नहीं होंगे तब तक तुम्हें तुम्हारी दिहाड़ी नहीं मिलेगी।’’

       ‘‘मुझे मंजूर है।’’

       शाम को काम समाप्त होने के बाद मिस्त्री ने मकान मालिक से कहकर जब उसे तीन हजार रुपये दिलाए तो वह खुशी-खुशी घर के लिए चल पड़ा था। लेकिन दुकान के सामने आते ही उसके कदम ठिठक गए थे। वह बाहर टंगी हुई साडियों को गिनने लगा था। पाँचवें नंबर की साड़ी को देखते ही उसका हाथ अपनी जेब पर चला गया था। आज सरूली के लिए वह साड़ी जरूर ले जाएगा।

       सोचते हुए उसने जैसे ही दुकान के अंदर कदम रखा तो बूथा सिंह को देखकर वह चौंक पड़ा था। उसने बूथा सिंह को बाहर बुला कर चुपचाप तीन हजार रुपये उसे पकड़ा दिए थे।

       ‘‘तेरा काम चल गया है और मेरे रुपये मुझे मिल गए हैं। इसे ही लेन-देन कहते हैं महानन्द।’’

       कहते हुए बूथा सिंह चला गया था। लेकिन सरूली के लिए साड़ी लेने की तमन्ना उसके मन में ही दब कर रह गई थी।

       घर पहुँचते ही जब महानन्द ने सरूली को बताया कि वह बूथा सिंह के तीन हजार रुपये दे आया है तो उसने कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे हो। लेकिन बिना साड़ी के मैं मेले में कैसे जाऊँगी?’’

       ‘‘तू चिन्ता मत कर। उत्तरायणी के मेले तक तो मैं तेरे लिए साड़ी जरूर ले आऊँगा।’’

       सरूली चुप हो गई थी। लेकिन जैसे-जैसे उत्तरायणी का मेला नजदीक आता गया वैसे-वैसे महानन्द की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। उसने कई लोगों से कर्ज के लिए कहा लेकिन जब वह गोपी के पास गया तो गोपी ने उससे कहा,‘‘लेना ही लेना मत सीखो महानन्द, देना भी सीखो। अगर इसी तरह से तू कर्जा मांगता रहा तो गाँव वाले तुझे भिखारी कहना शुरू कर देगें।’’

       महानन्द का चेहरा झुक गया था। और फिर एक दिन उत्तरायणी का मेला भी आ गया था।

       काम समाप्त होने के बाद जब वह घर जाने लगा तो मकान मालिक ने उसे सौ रुपये देते हुए कहा, ‘‘ये सौ रुपये मेरी तरफ से हैं महानन्द। कल उत्तरायणी का मेला है। इसलिए कल काम बंद रहेगा। कल तुम भी अपनी बीवी बच्चो के साथ मेले में घूम आना।

       सौ रुपये मिल जाने के कारण महानन्द बहुत खुश था। आज वह सरूली के लिए साड़ी जरूर ले जाएगा। सौ रुपये देने के बाद दुकानदार पचास रुपये का उधार तो कर ही लेगा। नीली साड़ी बहुत अच्छी है। सरूली का गोरा चेहरा उसमें चाँद की तरह दिखेगा।

       सोचते हुए वह दुकान के अंदर जाकर साडि़यां देखने लगा था। लेकिन नीली साड़ी उसे कहीं नजर नहीं आई। शायद वह बिक गई थी। वह अभी साडि़यां देख ही रहा था कि तभी चैतू ने उसके पास आ कर कहा, ‘‘काका, आपके घर में मेहमान आए हुए हैं। काकी ने कहा है कि साग-सब्जी लेते आना।’’

       ‘‘कौन आया है?’’

       ‘‘किमी का ससुर अपने दामाद के साथ आया है।’’

       महानन्द अपने हाथ में पकड़ी हुई साडि़यों को एक ओर रखते हुए चुपचाप बाहर चला आया। उसे साड़ी न खरीदने का इतना दुख नहीं था। जितनी खुशी उसे इस बात की थी कि आज किमी का ससुर उसके घर आया है। इसलिए उसकी सेवा में उसे कोई कमी नहीं रखनी है। उसने आधा किलो मीट खरीदा और फिर वह बचे हुए बीस रुपयों को लेकर दुकानदार के पास जा कर बोला,‘‘लाला जी, आप ये बीस रुपये रख लो और मुझे साड़ी दे दो। जिस दिन मुझे मकान मालिक मेरी मजदूरी देगा, उस दिन मैं आपके बाकी रुपये वापस लौटा दूँगा।’’

       ‘‘तू ये बीस रुपये मेरे पास जमा कर दे और जब तेरे पास साड़ी खरीदने लायक रुपये हो जाएँगे तो तू मेरे से साड़ी ले जाना।’’

       दुकानदार की बातें सुन कर वह बीस रुपये अपनी जेब में डालते हुए चुपचाप घर के लिए चल पड़ा था। घर पर आते ही उसने ओबरे ;रसोई में जाकर थैला सरूली को पकड़ाया तो थैले में साड़ी को न देख कर उसके चेहरे की रंगत उड़ गई थी। फिर भी उसने कहा, ‘‘क्या लाए हो?’’

       ‘‘मीट लाया हूँ, लेकिन तेरे लिए साड़ी नहीं ला सका।’’

       ‘‘गोली मारो साड़ी को।’’ अपने होंठो पर हँसी बिखेरते हुए सरूली ने कहा, ‘‘अगर मैं कल मेले में नहीं जाऊँगी तो मेला बंद नहीं हो जाएगा। लेकिन मीट के लिए रुपये कहाँ से आए?’’

       ‘‘मकान मालिक ने दिए थे।’’

       ‘‘तुमने मांगे थे क्या…?’’

       ‘‘नहीं…उसी ने दिए थे। अपनी तरफ से…।’’

       ‘‘भला आदमी है। कुछ और मांग लेते। एक साड़ी के लायक।’’

       ‘‘नहीं मांग सका। जो अपनी तरफ से खुश होकर दे रहा हो, उससे मांगना भीख मांगने जैसा होता है। मेहमान कहाँ हैं?’’

       ‘‘ऊपर कमरे में…।’’

       सरूली के शब्दों को सुनकर वह ऊपर कमरे में जा कर उनके साथ बातों में मशगूल हो गया था। बातों के दौरान उसकी हँसी सरूली को ओबरे में भी सुनाई दे रही थी।


       सुबह होते ही मेहमान चले गए थे। महानन्द अपने गाय-बैलों को लेकर जंगल में चला गया था। अपने खेतों में सरपंच द्वारा बनाए गए मकान को देख कर वह तिलमिला उठा था। ये वही खेत थे, जिन्हें उसने गौरी की शादी के समय सरपंच के पास गिरवी रखा था। और सरपंच ने उन पर अपना कब्जा जमाते हुए मकान भी बना लिया था। लेकिन कर्जा अभी भी चल ही रहा था।

       वह दाँत भींचते हुए बड़बड़ाया था। अगर वह गरीब नहीं होता तो सरपंच की इतनी हिम्मत भी नहीं होती कि वह उसके खेतों में मकान बनवाता।

       जबकि गाँव वालों को मेले में जाते हुए देखकर सरूली तड़प उठी थी। उसका चेहरा मुरझा गया था। हमेशा लोगों के साथ हँस-हँस कर बातें करने वाली सरूली आज उदास व गुमसुम होकर अपने पुराने कपड़ों को देख रही थी।

       तभी कमला ने उसके पास आ कर कहा,‘‘सरूली चल जल्दी से तैयार हो जा।’’

       ‘‘मैं मेले में नहीं आ सकूँगी शालू की माँ।’’

       ‘‘क्यों…?’’

       ‘‘क्योंकि मेरे पास मेले में जाने लायक साड़ी नहीं है।’’

       ‘‘तू किमी को मेरे घर भेज दे। मैं अपनी साड़ी दे दूँगी। चल…जल्दी से तैयार हो जा।’’ कह कर कमला चली गई थी। लेकिन सरूली सोच में पड़ गई थी कि अगर वह मेले में नहीं गई और उनका गाँव चैंफला हार गया तो हारने का सारा दोष उसी के सिर मढ़ दिया जाएगा। और अगर उनका गाँव उसके बिना जीत गया तो अगली बार से गाँव की औरते उसे पूछेंगीं भी नहीं।

       काफी देर तक सोचने के बाद उसने किमी को कमला के घर से साड़ी लाने को कहा तो किमी ने कहा, ‘‘कमला से साड़ी लाना ठीक नहीं है माँ, क्योंकि वह बहुत ही झगड़ालू है।’’

       ‘‘आज मेले में चैंफला है बेटी। इसलिए मेरा मेले में जाना बहुत जरूरी है।’’

       ‘‘माँ तुझे हरीश की माँ व कमला का झगड़ा अच्छी तरह से याद है न?’’

       ‘‘गलती भी तो भागवन्ती की ही थी। मैं मेले में से वापस आते ही उसकी साड़ी वापस लौटा दूँगी।’’

       ‘‘पिता से भी तो पूछ ले माँ?’’

       ‘‘उन्हें मैं समझा दूँगी। तू कमला के घर जा कर साड़ी लेकर आ।’’

       किमी न चाहते हुए भी कमला के घर से साड़ी ले आई थी। साड़ी पहनते ही कमली के शरीर में कंपकंपी सी दौड़ गई थी। शरीर का एक-एक रोआँ अपनी जगह पर नागफनी के काँटो की तरह खड़ा हो गया था। उसका मन मिचलाने लगा था। जिसके कारण वह बार-बार थूकने लगी थी। उसे लगने लगा था कि अब उसे किसी भी वक्त उल्टियाँ हो सकती हैं।

       मेले में पहुँचते ही दोनों गाँवों की पच्चीस-पच्चीस औरतों के दो दल बन गए थे। वे एक-दूसरे को मात देने के लिए कदम से कदम मिलाती हुई गोलाई में घूमती हुई चैंफला गाने लगी थी। (चौंफला गीत प्रतियागिता जिसे औरतों द्वारा गोलाई में गाया जाता है। गाते हुए उन्हें कई बार दो कदम आगे और दो कदम पीछे हटते हुए एक ही साथ उठना व एक ही साथ बैठना पड़ता है।)

       चैंफला गाते हुए गोलाई में नीचे बैठते हुए अचानक ही ‘चर्र…’ की आवाज सुनते ही सरूली का चेहरा स्याह पड़ गया था। मुँह से गीत के बोल लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन अपने आपको संयत करते हुए उसने दुबारा गीत के बोल पकड़ लिए थे। विपक्षी दल को बिल्कुल भी यह पता नहीं चल सका कि सरूली ने गीत के बोल छोड़ दिये हैं। अन्यथा पकड़े जाने पर उन्हें हार माननी पड़ती।

       लगभग दो घंटे तक चली चौंफला प्रतियोगिता में सरूली का दल जीत गया था। सरपंच तथा मनसुख चमचमाते हुए सफेद कपड़ों में तालियाँ बजा रहे थे।

       गाँव वाले सभी खुश थे। लेकिन सरूली का चेहरा उदास व खोया-खोया सा लग रहा था। वह अंदर ही अंदर भयभीत हो चुकी थी। लेकिन चौंफला गाते हुए उसे इस बात का अंदाजा हो गया था कि पूरे दो घंटे तक चली चैंफला प्रतियोगिता में सरपंच की नजरें उसी के चेहरे पर टिकी हुई थी।

       मेले से लौटने के बाद उसके सर्द चेहरे को देखकर महानन्द ने जब उससे उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने लड़खड़ाती व भयभीत आवाज में महानन्द को साड़ी के बारे में सबकुछ बता दिया था।

       ‘‘अरे…तो तू घबराती क्यों है सरूली? मैं हूँ न। तू जीत कर आई है तो खुशी मना।’’

       ‘‘खुशी…कैसी खुशी…? पता नहीं अब क्या होगा? हम बहुत बड़ी मुसीबत में फँस गए हैं। अच्छा ही हुआ जो कि साड़ी अंदर से ही फटी। अगर बाहर से फटती तो मेले में बेईज्जती हो जाती।’’

       ‘‘तू ठीक कह रही है सरूली। कमला तो बहुत झगड़ालू है। अगर किमी के ससुराल वालों को पता चलेगा तो पता नहीं क्या होगा?’’

       महानन्द के शब्दों को सुन कर सरूली का चेहरा उतर गया था। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थी। और फिर उसकी आँखों के आगे हरीश की माँ का चेहरा तैरने लगा था।

       अभी कुछ ही महीने पहले की बात थी कि हरीश के घर में उसकी बहिन को देखने के लिए लड़के वाले आए थे। उस समय हरीश की माँ भागवन्ती कमला से काँच के गिलास और कटोरियाँ माँग कर ले गई थी। लेकिन मेहमानों के चले जाने के बाद उन्हें साफ करते हुए दो-तीन बर्तन टूट गए थे।


      
भागवन्ती ने कमला को बर्तन वापस लौटाते हुए जब यह बताया कि उसके दो-तीन गिलास टूट गए हैं तो उसने गुस्से में उस वक्त भगवन्ती को बहुत मारा था। जब गाँव की औरतें बीच-बचाव करने लगी तो कमला ने काँच का गिलास उसके सिर पर दे मारा था। जिसके कारण भागवन्ती के सिर से खून बहने लगा था।

       ‘‘क्या सोच रही है तू…?’’

       ‘‘अगर भागवन्ती की ही तरह उसने मेरे साथ भी झगड़ा किया तो..?’’

       ‘‘तू कमला से दूर ही रहना, और साड़ी के बारे में कोई भी बात मत करना।’’

       ‘‘अगर वह साड़ी मांगने आ गई तो…?’’

       ‘‘कोई बहाना बना देना।’’

       सरूली चुप हो गई थी। उस रात दोनों की आँखों में नींद नहीं थी। सुबह होते ही महानन्द यह सोच कर काम पर चला गया था कि आज वह मकान मालिक से कुछ रुपये मांगेगा, ताकि वह कमला की साड़ी के बदले साड़ी ला सके।

       लेकिन जब उसे मिस्त्री ने बताया कि मकान मालिक रुपये लेने के लिए अपने बेटे के पास चंडीगढ़ चला गया है तो उसे जैसे बिजली का तेज झटका लगा था। थरथराती व कंपकंपाती आवाज में उसने मिस्त्री से भी रुपयों के लिए कहा तो मिस्त्री ने दीवार पर मिट्टी का लेप करते हुए कहा, ‘‘आज सुबह ही उसने अपनी लड़की को उसके ससुराल भेजा है, इसलिए इस समय उसकी जेब खाली है।’’

       उसका चेहरा उतर गया था। वह सारे दिन चुपचाप मिस्त्री को पत्थर पकड़ाता रहा और फिर शाम को जब वह थके कदमों से  घर पहुँचा तो सरूली ने पूछा।

       ‘‘रुपये मिले…?’’

       ‘‘नहीं…।’’

       ‘‘अब क्या होगा…?’’

       ‘‘क्या बात है सरूली? तू इतनी घबराई हुई क्यों है?’’

       महानन्द ने उसके उदास चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा।

       ‘‘सुबह आपके जाते ही शालू साड़ी मांगने आ गई थी।’’

       ‘‘फिर तुमने क्या कहा?’’

       ‘‘मैंने कह दिया था कि साड़ी धोने के बाद वापस लौटा दूँगी।’’

       उस रात दोनों ने खाना नहीं खाया। लेकिन रात को सोए में सरूली के मुहँ से गूँ-गूँ  की आवाज सुन कर महानन्द हड़बड़ाते हुए उठ बैठा था। उसने सरूली को झकझोरते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ सरूली?’’ और फिर उसने कमरे में चिमनी जला दी थी।

       सरूली हड़बड़ाते हुए चारपाई में बैठ गई थी। उसकी साँसें तेज-तेज चल रही थी। डर के मारे उसका सारा शरीर पसीने से तर-ब-तर हो चुका था।

       ‘‘क्या हुआ सरूली?’’

       ‘‘वो…वो…कमला…!’’

       ‘‘क्या हुआ कमला को?’’

       ‘‘मैने देखा, कमला अपनी साड़ी को फटी हुई हालत में देख कर मेरे बाल खींचते हुए मेरा गला दबा रही है। गाँव वाले तमाशा देख रहे हैं। कोई भी मेरी मदद नहीं कर रहा है।’’

       ‘‘तू बहुत जल्दी घबरा जाती है सरूली।’’

       ‘‘मैं सच कह रही हूँ। वह मुझे मार डालेगी। उसने मेरे बाल इतनी जोर से खींचे कि मेरे सिर में दर्द होने लगा है।’’

       ‘‘सरूली…अगर तू इसी तरह से कमला से डरती रहेगी तो तू कुछ ही दिनों मे पागल हो जाएगी।’’

       सरूली ने अपनी नजरें झुका ली थी। उसकी आँखों में गीलापन तैरने लगा था। लेकिन अब नींद उसकी आँखों से कोसों दूर भाग गई थी। सारी रात कमरे में चिमनी जलती रही और वे दोनों अपनी-अपनी चारपाई में आँखें फाड़े एक-दूसरे को देखते हुए गुमसुम बैठे रहे।                                                                                                               
       दूसरे दिन महानन्द के काम पर चले जाने के बाद कमला ने सरूली के पास आ कर पूछ ही लिया, ‘‘ये सरूली साड़ी नहीं लौटाएगी क्या?’’

       ‘‘शालू की माँ मुझे बुला लिया होता।’’

       ‘‘मैं साड़ी लेने आई हूँ।’’

       ‘‘जेठानी जी, मैंने तो साड़ी धोने डाल दी है। सूखने के बाद मैं साड़ी लौटा दूँगी। मैं साड़ी आपको उसी दिन मेले मे से ला कर ही लौटा देती लेकिन मेरा मन बिना साड़ी धोए आपको लौटाने का नहीं हुआ।

       ‘‘जल्दी लौटा देना।’’ कहते हुए कमला चली गई तो सरूली दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ कर वहीं पर बैठ गई थी।

       शाम को जब महानन्द घर लौटा तो सरूली ने उसे दिन की सारी बातें बताई। लेकिन महानन्द खामोश रहा। कुछ देर तक सुस्ताने के बाद उसने परकटा के पास जाकर अपना एक खेत बेचने की बात कही तो परकटा ने कहा, ‘‘इस समय तो मुझे ही रुपयों की सख्त जरूरत है। आज ही मैं कोरट से आया हूँ। वकील की फीस भी पूरी नहीं दे सका।’’

       ‘‘मुझे तो केवल पाँच सौ रुपयों की जरूरत थी।’’

       ‘‘तू तो पाँच सौ रुपयों की बातें कर रहा है महानन्द। लेकिन मेरे पास तो इस समय पचास रुपये भी नहीं हैं। वैसे भी तेरी आदत बहुत गंदी हो गई है। जब देखो तब तू कर्जे के लिए सारे गाँव में किसी कोल्हू के बैल की तरह घूमता ही रहता है। किमी की शादी कैसे करेगा तू?’’

       परकटा के शब्दों को सुनकर न चाहते हुए भी महानन्द निराश मन से सरपंच के घर की ओर चल पड़ा था। जिस दिन से सरपंच ने एम. एल. ए का टिकट लिया है। उस दिन से उसके पास पार्टी के नेताओं का आना-जाना लगा हुआ है। दिल्ली तक उसकी पहुँच हो गई है। वह गाँव वालों के सामने कहता है कि उसे दिल्ली का कनाट प्लेस व द्वारिका बहुत पसंद है। वैसे भी अगर सरपंच जीत गया तो रामपतिया की तरह पता नहीं किस-किस को नोचेगा? स्साला…है भी तो स्याल ;गीदड़ ही।

       सरपंच जीते या न जीते। लेकिन उसके साथ मनसुख की जिंदगी बदल गई है। नेताओं की तरह वह भी सफेद चमचमाते हुए कपड़े पहनने लगा है। सुबह से शाम तक उसके हाथों में अखबार रहता है। सरपंच के घर में बैठकर वह खबरें सुनाते हुए कहता है कि दिन-प्रतिदिन अल-कायदा व तालिबान पाकिस्तान के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। दिल्ली में नौकर मकान मालिक की हत्या कर फरार हो गया है। दिन-दहाड़े बैंक के खजांची को लुटेरों ने गोली मार दी है। लड़कियों व औरतों का दिल्ली में अकेले में इधर-उधर जाना खतरे से खाली नहीं हैं। कब उनके साथ क्या घटना घट जाए कोई नहीं जानता। पार्क में बैठे प्रेमी जोड़ों पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया है।

       खबरें पढ़ते हुए मनसुख कहता है कि, ‘देश के अंदर इतना सब कुछ हो रहा है, मगर ये नेता और ये पुलिस वाले क्या कर रहे हैं? कुछ पता ही नहीं चलता। महिला आरक्षण बिल अभी तक लटका हुआ है। इन पहाड़ों में विकास के नाम पर खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली कहावत लागू हो रही है। लेकिन अब अपने सरपंच जी जीत कर सदन में जाएँगे तो चुटकी बजाते ही सारे काम हल हो जाएँगे।’

       मनसुख गाँव वालों को खबरें सुनाते हुए सरपंच की तारीफों के पुल बांधने लगता है। एक बार जब मनसुख व सरपंच कुछ दिनों के लिए गाँव में नहीं थे। लेकिन एक दिन जब वे वापस गाँव आए, और गाँव वालों ने मनसुख से उनके गाँव में न होने का कारण पूछा तो मनसुख ने मुस्कराते हुए कहा,


       ‘‘अब हम आपको का बताएँ? इस राजनीति में आ कर हम पजल हो गया हूँ। वो क्या है कि दिल्ली में मनीस्टर साहब के साथ एक मीटिंग के सिलसिले में गए थे। सरपंच जी तो अपने किसी रिश्तेदार के घर द्वारिका में चले गए थे। वो क्या है कि उन्हें द्वारिका बहुत पसंद है न। हमसे कहा कि वे आराम करना चाहते हैं। वो क्या है कि चुनाव प्रचार के दौरान थकान तो लग ही जाती है न, तो हमने मीटिंग अटेंड किया। वैसे ये राजनीति अच्छी चीज नहीं है। ईमान, धरम, सच सबका चीर हरण हो जाता है। द्रोपदी का चीर हरण हुआ था न? बिल्कुल वैसा ही…! तो भैया मनीस्टर साहब ने हमसे पूछा कि अल-कायदा व तालिबान को रोकने का आपके पास कछू उपाय है का? तो हम साफ-साफ कह दिया हूँ कि  गुटखे का पाउच जेब में से निकाल कर उसे फाड़ते हुए उसने गुटखा मुँह में डाल लिया था, इसमे डरने का कोई बात ही नहीं है। हम हूँ न मनसुख…। हमारी बहादुर फौज है न। हमारे देश की जनता है न! डरो नहीं…किसमे इतनी हिम्मत है कि जो हमारी सरजमी पर पैर रख सके? पैर ना कटवा दें हम उन्हूँ का। राजपाल साब से भी हम मिला हूँ। सरपंच जी तो द्वारिका-वारिका में प्लाट-वलाट देख रहे थे। पारपटी डीलर के साथ में। पारपटी डीलर…अरे वही…जिसे इगंलस में बिजनस कहते हैं। राजपाल साब तो कह रहे थे कि झंडा फहराते वक्त तुम्हे हमारे साथ ही रहना है, लेकिन हम साफ-साफ कह दिया हूँ कि मुँह में जमा थूक मनसुख ने अपनी बायीं ओर थूकते हुए गुटखे का दूसरा पाउच फाड़ कर मुँह में डाल लिया था. हम तो अपने ही गाँव में, अपने ही गाँव वालों के साथ झंडा फहराऊँगा।’’

       कहते हुए उसने मुँह का सारा गुटखा थू-थू करके थूक दिया था। और फिर उसने जेब में से गुटखे का तीसरा पाउच निकाल लिया था।

       महानन्द सरपंच के घर की ओर बढ़ते हुए सोच रहा था कि यह वही मनसुख है जो उसके खेत में से एक दिन ककडि़याँ  चुरा रहा था। और आज वही मनसुख बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है।

       तभी उसके कदम ठिठक गए थे। अचानक ही उसे मनसुख के वे शब्द याद हो आए थे। जब एक दिन वह बाजार से लौट रहा था तो मनसुख ने कहा, ‘‘किमी जवान हो गई है महानन्द। उसके बारे में सोचा है या नहीं?’’

       मनसुख के शब्दों को सुनकर महानन्द चौंक पड़ा था। उसके कदम जहाँ पर थे वहीं पर ठिठक गए थे। कुछ पल तक  मनसुख के चेहरे पर अपनी नजरें गड़ाते हुए वह बोला,‘‘तू कहना क्या चाहता है मनसुख?’’

       ‘‘बेटी जब जवान हो तो माँ-बाप को उसकी चिंता करनी चाहिए। नजर लग जाती है न। सम्भल कर रहना महानन्द। वह किमी पर सारा गाँव निछावर करने को तैयार है।’’

       ‘‘कौन…?’’ कहते हुए महानन्द का गला सूख गया था। होंठ सूख गए थे। जीभ का थूक जीभ में ही जम गया था। हृदय की धड़कने तेज हो गई थी। खड़े-खड़े वह सिर से लेकर पाँवों तक काँपने लगा था।’’

       ‘‘सरपंच…।’’ मनसुख ने उसके कान के पास अपना मुँह ले जा कर कहा, ‘‘रामपतिया पर भी उसकी नजरें अटकी हुई थी। ध्यान रखना महानन्द।’’

       कह कर मनसुख चला गया था और वह अपनी जगह खड़ा का खड़ा ही रह गया था। चाह कर भी वह अपने पैरों को नहीं हटा पा रहा था। उसे लगा जैसे किसी ने जमीन के अंदर से उसके पैरों को कस कर पकड़ लिया हो।

       सरपंच के घर जाते हुए महानन्द के कदम रुक गये थे। वह वापस लौट आया था। लेकिन कुछ कदम वापस आने के बाद वह यह सोचते हुए सरपंच के घर की ओर चल पड़ा था कि सरपंच को इस समय वोटों की जरूरत है और उसके पास तीन वोट हैं। अगर उसने कमला की साड़ी नहीं लौटाई तो सारे गाँव में उसकी बेइज्जती तो होगी ही, साथ ही किमी का रिश्ता भी टूट सकता है। अगर सरपंच उसकी मदद कर दे या फिर उसका खेत ही ले ले तो वह चैन की नींद सो सकता है।

       सोचते हुए जैसे ही महानन्द सरपंच के पास पहुँचा तो सरपंच ने कहा,‘‘कैसे आना हुआ महानन्द?’’

       ‘‘एक जरूरी काम आ गया है सरपंच जी।’’

       ‘‘बता न क्या काम है?’’

       ‘‘मैं अपना एक खेत बेचने आपके पास आया हूँ।’’

       महानन्द के शब्दों को सुनकर सरपंच के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई थी। उसकी लम्बी-लम्बी मूँछें किसी शिकारी शेर की तरह बिलबिलाने लगी थी। अब बचकर जाएगा कहाँ? गौरी की शादी हो जाने के बाद भी सरूली पहले की ही तरह जवान लग रही है।

       ‘‘कहाँ खो गए सरपंच जी?’’

       सरपंच ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कुर्सी पर बिठाते हुए कहा,‘‘कितने रुपये चाहिये तुझे…?’’

       ‘‘यही कोई पाँच सौ रुपये…।’’

       ‘‘पाँच सौ…बाप रे…पाँच सौ…! कौन सा खेत बेचना चाहता है तू?’’

       ‘‘जी…वो…वो जो ऊपर पहाड़ी पर है!’’

       ‘‘तेरा वह पथरीला खेत ले कर मैं क्या करूँगा महानन्द? दीवारों के भी कान होते हैं महानन्द। कुछ दिनों से सरपंचाइन की तबियत खराब चल रही है। तू कुछ दिनों के लिए किमी को उसकी सेवा में भेज दे। किमी के ससुराल वालों को क्या पता कि किमी सरपंच के  घर रही थी। दीवारों के भी कान होते हैं महानन्द। वैसे अगर किमी रह भी लेगी तो सरपंचाइन बन कर सारे गाँव में राज करेगी। दीवारों के भी कान होते हैं महानन्द। तुझे कुर्सी पर बिठा कर बराबर का दर्जा दिया है। किमी नहीं आती है तो न सही। सरूली को ही भेज दे। तू मेरे पास आया है तो मुझे भी तो रुपयों के बदले कुछ चाहिए न।’’

       सरपंच के शब्दों को सुनकर महानन्द का खून खौलने लगा था। लेकिन अपने आपका सयंत करते हुए वह चुपचाप वापस लौट आया था।

       ‘‘कहाँ गए थे…?’’ उसके चेहरे पर छाई उदासी को देख कर सरूली ने पूछा।

       ‘‘सरपंच के घर गया था।’’ कहते हुए उसने सरूली को सारी बातें बता दी थी।

       ‘‘कैसे आदमी हो तुम, जो कि तुम चुपचाप उसकी बातें सुनकर वापस चले आए हो। अरे…उसकी नेतागिरी वहीं क्यों नहीं निकाल दी? बराबरी का मतलब समझते हो तुम…?’’

       कहते हुए सरूली ने दथड़ी उठाई तो महानन्द ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा, ‘‘कहाँ जा रही हो तुम…?’’

       ‘‘उस हरामी के घर!’’

       ‘‘हम उससे लड़ नहीं सकते सरूली। पटवारी से लेकर डी. एम. तक  उसकी पहुँच है। नेता लोगों का उसके घर में आना-जाना लगा रहता है। तालाब में रहकर मगरमछ से बैर नहीं रखना चाहिए।’’

       ‘‘तो क्या हम अपने जमीर का गला घोंट दे?’’

       कहते हुए जैसे ही सरूली ने बाहर निकलना चाहा वैसे ही महानन्द ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा,  ‘‘अगर रात के अंधेरे में किसी ने तुझे सरपंच के घर आते-जाते देख लिया तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।’’

       महानन्द के कहने पर सरूली ने अपने कदम रोक लिए थे। लेकिन सुबह होते ही महानन्द बुझे हुए मन से काम पर चला गया था। मिस्त्री के साथ में काम करते हुए वह लगातार बेचैन रहा। सरपंच की बातें व सरूली का गुस्सा लगातार उसकी आँखों में तैर रहा था। जिसके कारण मिस्त्री को पत्थर पकड़ाते हुए वह गिर पड़ा था। अगर मिस्त्री ने अपने मजबूत हाथों से पत्थर को न पकड़ा होता तो पत्थर उसके सिर को फोड़ डालता।

       शाम को थका-मांदा व उदास मन से जब वह घर लौटा तो सरूली ने उसके हाथों को धुलाते हुए कहा, ‘‘तबियत तो ठीक है न?’’

       ‘‘हाँ…।’’ सुबह तुम भूखे ही चले गए थे। मकान मालिक के यहाँ कुछ खाया?’’

       ‘‘नहीं…।’’

       ‘‘आप थोड़ी देर सुस्ता लो। मैं आपके लिए चाय बना देती हूँ।’’

       वह चुप रहते हुए टकटकी लगाए सरूली के चेहरे को देखता रहा।

       उस रात खाना खाने के बाद जब वे सोने लगे तो सरूली ने कहा, ‘‘आज भी कमला ने साड़ी लेने के लिए शालू को भेजा था। कमला अपने भाई की शादी के लिए अपने मायके जा रही है।’’

       ‘‘फिर तुमने क्या कहा…?’’

       ‘‘मैंने चुपचाप साड़ी को पानी में डाल दिया था, और फिर उसे यह कह दिया था कि जब किमी तुम्हारे घर साड़ी देने आ रही थी तो गोरिया के घर के सामने गिरने के कारण साड़ी गंदी हो गई थी। इसलिए साड़ी को फिर धोने डाल दिया है।’’

       ‘‘फिर…?’’

       ‘‘फिर क्या…वह चली गई’’

       ‘‘अरे वाह! तू तो बहुत चालाक है।’’ कहते हुए महानन्द ने उसके होंठों को चूम लिया था।

       ‘‘मुझे मत चूमो, साड़ी के बारे में सोचो। कहीं कमला हम दोनों को ही न चूम ले।’’

       ‘‘फिर क्या करें? कमली को बेच दें?’’

       ‘‘क्या कहा तुमने…?’’ सरूली ने चौंकते हुए कहा।

       ‘‘मैंने कहा कि कमली को बेच दें?’’

       ‘‘फिर मैं धरमू के गिलास में सुबह-सुबह दूध कहाँ से डालूँगी?’’

       ‘‘गाय को बेचने के अलावा हमारे पास ओैर कोई उपाय भी तो नहीं है सरूली। अपने कलेजे पर पत्थर रखते हुए धरमू के गिलास में पानी डाल देना। वह एक दिन रोएगा, दो दिन रोएगा, और फिर वह तीसरे दिन से पानी में रोटी भिगो कर खाने लगेगा।’’

      

महानन्द के शब्दों को सुनकर सरूली खामोश हो गई थी। लेकिन उसकी आँखों में गीलापन तैरने लगा था। जबकि सुबह होते ही महानन्द गलादार ;सौदागर दिकुली को बुला कर गाय का सौदा करने लगा था। काफी देर तक गाय की कीमत में उतार-चढ़ाव आता रहा। अंत में दिकुली ने गाय का दूध देखने के बाद कहा कि वह गाय के दो हजार से ज्यादा रुपये नहीं देगा। क्योंकि गाय आधा किलो से भी कम दूध दे रही है। इससे ज्यादा रूपये चाहिए तो दूसरे गलादार को बुला लेना।

       महानन्द कुछ देर तक सोचता रहा। फिर उसने दो हजार रुपयों में गाय का सौदा तय करते हुए गाय के सींगों पर, गाय के खूँटे पर व गाय के गले में बंधी रस्सी पर सरसों का तेल लगा कर रस्सी दिकुली को पकड़ाई तो दिकुली ने पंद्रह सौ रुपये महानन्द को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बाकी रुपये मैं दो या तीन दिनों में दे जाऊँगा।’’

       कहते हुए दिकुली गाय को ले जाने लगा था। लेकिन धरमू की आवाज सुनते ही गाय रम्भाते हुए जैसे ही अपने आपको छुड़ाने की कोशिश करती, वैसे ही दिकुली गुस्से में आ कर गाय की पीठ पर डंडे जड़ देता।

       महानन्द के उतरे हुए चेहरे को देखकर सरूली ने कहा, ‘‘हम हमेशा लोगों से कर्जा लेते रहे और वह हम से ही कर्जा ले गया है। आपने उससे पूरे रुपये क्यों नहीं लिए?’’

       ‘‘अगर मैं उससे पूरे रूपये मांगता और वह गाय खरीदने से मना कर देता तो फिर कमला के लिए साड़ी कैसे खरीदते? दुकानदार को रुपये कहाँ से लेकर देते? कमला गाँव में हमारी बेइज्जती करती और दुकानदार बाजार में मेरे कपड़े उतरवा देता। जो मिला है उससे कमला व दुकानदार दोनों के ही मुँह बंद हो जाएँगे।’’

       महानन्द के शब्दों को सुनकर सरूली चुप हो गई थी। जबकि रुपये हाथ में आ जाने के बाद महानन्द तीन दिनों तक कोशिश करने के बाद कमला के लिए उसी की साड़ी की ही तरह नई साड़ी ले आया था।

       ‘‘साड़ी तो अच्छी है।’’ सरूली ने साड़ी को अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मैं इसे एक बार पहन कर देख लूँ कि मैं इस साड़ी में कैसी दिखती हूँ?’’

       ‘‘अभी तो हम गाय बेच कर साड़ी लाए हैं सरूली। इसके बाद हमारे पास बेचने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं तेरे लिए भी नई साड़ी ला देता। लेकिन दुकानदार के रुपये भी तो देने हैं। अन्यथा वह मेरे कपड़े उतरवा देगा।’’

       सरूली ने चुपचाप वह साड़ी बक्से में रख ली थी। लेकिन साड़ी देखते ही उसकी नींद गायब हो गई थी। कई बार रात को उसके मन में आया कि वह एक बार उस साड़ी को पहन कर देख ले कि वह उसे पहन कर कैसी लगती है? वह कई बार उठकर बक्से के पास आई थी लेकिन साड़ी को उलट-पुलट कर देखने के बाद वह चुपचाप चारपाई में लेट गई थी।

       लेकिन दूसरे दिन महानन्द के काम पर चले जाने के बाद जब सरूली से नहीं रहा गया तो बक्से में से साड़ी निकालते हुए वह उसे टकटकी लगाए देखती रही। साड़ी पर बने हुए लाल-लाल फूलों ने उसका मन मोह लिया था।

       उसने एक बार दरवाजे के पास आकर इधर-उधर देखा, और फिर वह साड़ी पहन कर शीशे में अपने आप को निहारते हुए अपने ही खयालों में खो गई थी।

       ‘‘इस साड़ी को सम्भाल कर रखना सरूली।’’ महानन्द के शब्द उसके कानों से टकराए थे।

       ‘‘क्यों…?’’

       ‘‘क्योंकि तू इस साड़ी में बुराँस के फूल की तरह बहुत ही खूबसूरत लग रही है। तेरा चेहरा प्यूँली के फूल की तरह बहुत ही कोमल दिखाई दे रहा है।’’

       ‘‘सब झूठ…।’’

       ‘‘नहीं सरूली मैं सच कह रहा हूँ। अगले साल चैंफला में तू इसी साड़ी को पहनना। जब इस साड़ी को पहन कर तू मेले में चैंफला गाएगी तो उस वक्त सारे गाँव की औरतों के बीच में तू सबसे सुंदर दिखाई देगी। इस साड़ी को पहन कर तू घार ;इंद्रधनुष की तरह खूबसूरत लग रही है। अगर इस वक्त कोई इंद्र की परी भी तेरे सामने आ जाए न, तो उसका चेहरा भी तेरे चेहरे के सामने फीका पड़ जाएगा। किसी टूटे हुए बुराँस के फूल की तरह।’’

       ‘‘सचमुच में मैं इस साड़ी में इतनी सुंदर लग रही हूँ क्या?’’ वह बड़बड़ाई थी।

       ‘‘माँ…माँ तू बहुत सुंदर लग रही है।’’ किमी ने अपनी माँ को झकझोरते हुए कहा, ‘‘कहाँ खो गई है माँ?’’

       ‘‘अं…अं…पता नहीं कहाँ  खो गई थी।’’

       ‘‘माँ अगर यह साड़ी फट गई तो हम आगे क्या बेच कर साड़ी खरीदेंगे। इसे उतार दे माँ।’’

       ‘‘तू ठीक कह रही है बेटी।’’ अपने हाथों में पकड़े हुए शीशे में एक बार अपना चेहरा देखते हुए उसने कहा, ‘‘यह साड़ी बहुत सुदंर है किमी। इस पर बने लाल फूल मुझे बहुत अच्छे लग रहे हैं।’’

       ‘‘पिता तेरे लिए दूसरी साड़ी ले आएँगे माँ।’’

       ‘‘तू अपने पिता से मत कहना कि माँ ने यह साड़ी पहनी थी।’’

       ‘‘नहीं बताऊँगी’’ कह कर किमी ने अपनी माँ के गले में अपनी बाहें डालते हुए कहा, ‘‘तू इस साड़ी में बहुत सुंदर लग रही थी माँ।’’

       सरूली ने एक बार किमी के माथे को चूमा और फिर चुपचाप साड़ी उतार कर उसकी तह लगाते हुए उसे वापस बक्से में ही रख दिया था।

       लेकिन जब कमला अपने मायके से लौट कर आई तो उसने शालू को सरूली के पास साड़ी लिवाने के लिए भेज दिया था।

       ‘‘काकी…माँ साड़ी मांग रही है।’’

       ‘‘तू चल, मैं आ रही हूँ। जरा ये कपड़े सुखा लूँ। बस…अभी आई।’’

       शालू चुपचाप चली गई थी। लेकिन कुछ ही देर बाद जब सरूली कमला के पास पहुँची तो कमला ने गुस्से में कहा, ‘‘ये सरूली, तू मेरी साडी़ क्यों नही लौटा रही है?’’

       ‘‘वही तो लौटाने आई हूँ  शालू की माँ। बहुत अच्छी साड़ी है।’’

       कहते हुए सरूली ने थैले में से साड़ी निकाल कर कमला के हाथों में रखी तो साड़ी देख कर कमला चौंक
  पड़ी थी। नई साड़ी देखकर उसकी आँखें फटी की फटी ही रह गई थी। कभी वह उस साड़ी को देखती तो कभी सरूली के चेहरे को देखती।

       ‘‘अरे…यह तो सचमुच नई साड़ी है। मेरी साड़ी कहाँ गई?’’

       ‘‘शालू की माँ, तुम्हारी साड़ी तो चैंफला गाते वक्त ही फट गई थी।’’

       ‘‘लेकिन तेरे पास इस साड़ी को खरीदने के लिए रुपये कहाँ से आए?’’

       ‘‘तुम्हारी साड़ी के लिए मैंने अपनी गाय बेच दी है जेठानी जी।’’

       सरूली के शब्दों को सुन कर कमला चौंक पड़ी थी। एक बार तो उसके मन में आया कि वह उस साड़ी को सरूली को वापस कर दे। क्योंकि उसकी साड़ी तो पुरानी साड़ी थी। जो कि उसके किसी काम की नहीं थी। सरूली ने गाय बेच कर अच्छा नहीं किया है। उसके पास तो कई साडि़याँ हैं लेकिन सरूली के पास तो एक भी नई साड़ी नहीं है। बेचारी शादी-ब्याह में जाने के लिए गाँव की औरतों से साड़ी मांग कर ले जाती है।

       ‘‘क्या सोच रही हो शालू की माँ?’’

       ‘‘तू बहुत अच्छी है सरूली। तूने अपनी गाय बेच कर मुझे नई साड़ी ला कर दी है। मैं इस साड़ी को अगले साल मेले में होने वाले चैंफला में पहनूँगी। यह सब किस्मत का खेल ही तो है सरूली कि मैंने तुझे पुरानी साड़ी दी। और तूने उसके बदले में अपनी गाय बेच कर मुझे नई साड़ी दी। भगवान तुझे हमेशा खुश रखे।’’

       कमला ने एक बार साड़ी को अपने बदन पर लपेटा और फिर उसकी तह लगाते हुए उसे बक्से में रख लिया था।

       जबकि सरूली बुझे मन से व काँपते कदमों से अपने घर के लिए वापस लौट गई थी। उसे लग रहा था कि अगर वह कुछ पल के लिए भी यहाँ पर रुकेगी तो वह लड़खड़ा कर गिर जाएगी।

(आलेख में प्रयुक्त सारी पेंटिंग इलाहाबाद में रहने वाले वरिष्ठ कवि अजामिल की हैं।)

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रणीराम गढ़वाली

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