टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड 249121
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
सृजन- विधा–गीत, कविताएं,लेख एवं समीक्षा आदि
प्रकाशन– नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, अभिनव कदम, इतिहास बोध, कृतिओर, जनपथ, कौशिकी, गुफ्तगू, तख्तोताज, अन्वेषी, हिन्दुस्तान, आज, दैनिक जागरण, अमृत प्रभात, यूनाईटेड भारत, गांडीव, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, एवं विभिन्न पत्र–पत्रिकाएं तथा बेब पत्रिकाओं में
आरसी चौहान ऐसे नवोदित कवियों में से हैं जो समाज में लुप्त होती जा रही सुदृढ़ परम्पराओं के जरिये आज के आलोक में अपनी बात करते हैं। ‘कठघोडवा नाच’ और ‘नचनिये’ ऐसे ही लुप्तप्राय होते जा रहे पात्र हैं जिन्होंने अपने विपरीत हालातों के बावजूद एक लम्बे समय तक संस्कृति और मानवता को बचाने में अहम् भूमिका निभाई। नयी तकनीक ने इन्हें विस्थापित तो कर दिया लेकिन इनके न होने से हुए रिक्त स्थान की भरपाई नहीं कर सकी। कुछ इसी तरह की चिंताओं से हम रू-ब-रू होते हैं आरसी की कविताओं के संग-संग।
किसी–किसी ने तो
घोड़े की पूंछ ही पकड़ कर खींच दी थी
वह बचा था लड़खड़ाते–लड़खड़ाते गिरने से
इसके अतिरिक्त इन्होने उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य साथ ही ड्राप आउट बच्चों के लिए ब्रिज कोर्स का लेखन व संपादन भी किया है.
‘पुरवाई’ पत्रिका का संपादन
‘आधुनिकता’ आज का सबसे विवादास्पद ‘टर्म’ है. प्रगतिशील मूल्यों को प्रायः पुरातनता का विरोधी समझ लिया जाता है. एक कवि यहीं पर विशिष्ट दिखाई पड़ने लगता है जब वह अपने अतीत में पैठ कर मानवीय मूल्यों को आधुनिक संवेदनाओं से जोड़ देता है. लेकिन यह जोड़ने का काम वही कवि बखूबी कर पाते हैं जिनका उस अतीत से सीधा जुडाव होता है. आरसी चौहान एक युवतम कवि हैं. भोजपुरी मिट्टी के कवि, जो अपनी परम्पराओं से घनिष्ट रूप से घुले-मिले है. ‘घुमरी परैया’ इस क्षेत्र का एक ऐसा ही खेल है जिसे बड़े लोग बच्चों को पकड़ कर खेलाते हैं. कवि इस घुमरी परैया को कुम्हार के चाक और पृथ्वी से जोड़ कर इसे आधुनिक सन्दर्भ देने की कोशिश करता है. आज के दौर में यह खेल भी लुप्त प्राय होता जा रहा है. साथ ही खत्म होती जा रही है वे अनुभूतियाँ जो बालसुलभ मन में तमाम सवाल जगाती थी.
‘नथुनिया फुआ’ भी नास्टेल्जिया वाली कविता ही है जिसमे लरझू के ‘नथुनिया फुआ’ बन कर गोंडउ नाच में नाचने का वर्णन है. ‘गोंडउ नाच’ पूर्वी उत्तर प्रदेश की गोंड जनजाति का सामूहिक नृत्य है जिसमे पुरुष नर्तक स्त्री वेश में गाते हुए नाचता है. अपने नृत्य और गायन से वह सामाजिक विडंबनाओं पर करारा प्रहार करता है. जो सामान्य परिस्थितियों में वह करने को सोच भी नहीं सकता. यहाँ पर आरसी निर्धनता के इस बेबाकपन और निश्छलता को बारीकी से उभारते हैं जो गंवार होने के बावजूद हुक्मरानों के आगे नहीं झुकता.
सम्प्रति: प्रवक्ता-भूगोल, राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढवाल, उत्तराखण्ड 249121
स्थाई संपर्क- चरौवॉं, बलिया, (उ0 प्र0) 221718
मोबाइल- 09452228335
घुमरीपरैया
(पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक लोकप्रिय खेल जो अब लुप्त हो चला है)
एक खेल जिसके नाम से
फैलती थी सनसनी शरीर में
और खेलने से होता
गुदगुदी सा चक्कर
जी हां
यही न खेल था घुमरी परैया
कहां गये वे खेलाने वाले घुमरी परैया
और वे खेलने वाले बच्चे
जो
अघाते नहीं थे घंटों दोनों
यूं ही दो दिलों को जोड़ने की
नयी तरकीब तो नहीं थी घुमरी परैया
या कोई स्वप्न
जिसमें उतरते थे घुमरी परैया के खिलाड़ी
और शुरू होता था घुमरी परैया का खेल
जिसमें बाहें पकड़कर
खेलाते थे बड़े-बुजुर्ग
और बच्चे कि ऐसे
चहचहाते चिड़ियों के माफिक
फरफराते उनके कपड़े
पंखों से बेजोड़
कभी.कभी
चीखते थे जोर.जोर
उई—– माँ—-
कैसे घूम रही है धरती
कुम्हार के
चाक.सी
और सम्भवतः
शुरू हुई होगी
यहीं से
पृथ्वी घूमने की कहानी
लेकिन
अब कहां ओझल हो गया घुमरी परैया
जैसे ओझल हो गया है
रेडियो से झुमरी तलैया
और अब ये कि
हमारे खेलों को नहीं चाहिए विज्ञापन
न होर्डिगों की चकाचौंध
अब नहीं खेलाता कोई किसी को
घुमरी परैया
न आता है किसी को चक्कर ।
पूरे पृथ्वी को मंच बना
हुडके के थाप और